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बलात्कृत रंगकर्मियों को पुलिस ने कैद कर रखा है: फैक्ट फाइंडिंग टीम

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'यौन हिंसा एवं दमन के खिलाफ महिलायें (WSS)'की अगुआई में झारखंड गयी फैक्ट फाइंडिंग टीम ने अपने अंतरिम रिपोर्ट में कोचांग में गत 19 जून को रंगकर्मियों से हुए सामूहिक बलात्कार के मामले में कई सवाल उठाये हैं. सबसे बड़ा सवाल है कि पीड़िताओं को न तो उनके परिवार से मिलने दिया जा रहा है और न महिला एक्टिविस्ट से. पुलिस को भी इस पर कुछ भी बोलने से मनाही है. सारे मामले को एसपी ने अपने तक केन्द्रित रखा है. टीम ने उठाये कई सवाल और की कई मांगें: 

खूंटी फैक्ट फांइडिंग टीम की अंतरिम रिपोर्ट

फैक्ट फांइडिंग की तारीख: 28/06/2018 से 30/06/2018

स्थानः खूंटी

जैसा कि ज्ञात है कि, 19/06/2018 को कोचांग गांव (ब्लाक-अड़की, जिला-खूंटी) में मानव तस्करी पर नुक्कड़ नाटक करने गईं पांच महिलाओं के साथ कथित तौर पर घटे गैंग रेप की घटना की खबर मालूम हुई। इस घटना के बाद भारत के विभिन्न राज्यों में महिला अधिकारों पर काम करने वाले संगठनों और झारखण्ड़ के स्थानीय सामाजिक कार्यकत्ताओं ने डब्लू.एस.एस.की अगुवाई में एक जांच टीम का गठन किया। जांच टीम दिनांक 28/06/2018 को रांची पहुंची ताकी मामले से संबंधित तथ्यों की सही जानकारी इकट्ठी की जा सके। इस क्रम में फैक्ट फांइडिंग के मेमर्ब्स ने घटना से प्रभावित लोगों और घटना की जानकारी रखने वाले लोगों से बातचीत की। फैक्ट फांडिंग के मेमबर्स तथ्यों की पुख्ता  जानकारी के लिए पीड़ित महिलाओं से भी बात करने के लिए पीड़िताओं से मिलने गए, पर फैक्ट फांइडिंग टीम को उनसे मिलने नहीं दिया गया। साथ ही, खूंटी के डी. सी. और एस. पी. से फैक्ट फांइडिंग टीम ने मिलने के लिए समय मांगा, पर वे फैक्ट फांइडिंग टीम से नहीं मिले। फैक्ट फांइडिंग टीम की जांच -पड़ताल के बाद कुछ खास बाते सामने निकलकर आती हैं। जैसे कि, आम जनता तक घटना की जानकारी का स्रोत केवल पुलिस द्वारा गढ़ी गई कहानी है, जो अखबारों के माध्यम से उन तक पहुंच रहा है। साथ ही, फैक्ट फांइडिंग टीम की जांच के बाद जो तथ्य निकल कर सामने आए हैं, वे पुलिस द्वारा बनाई गई कहानी की प्रमाणिकता पर सवाल उठाते हैं।



फैक्ट फांडिंग टीम की जांच में पाए गए तथ्य:

1.19/06/2018 को एफ. आई.आर. के मुताबिक कथित तौर पर गैंग रेप की घटना घटी। इस घटना में स्थानीय संस्था की देख-रेख में रहने वाली दो बालिग महिलाओं और नुक्कड़ नाटक करने वाले संस्था के संचालक की टोली से तीन बालिग महिलाओं के साथ कथित गैंग रेप की घटना को कोचांग नामक गांव में अंजाम दिया गया। फैक्ट फांइडिंग की टीम को जांच के दौरान यह पता चला कि खूंटी के एक स्थानीय संस्थान के कर्मी और नुक्कड़ नाटक करने वाले संस्था के संचालक की मंडली साथ में मानव तस्करी के खिलाफ खूंटी में नुक्कड़ नाटक किया करते थे। इस पूरे मामले में गौर करने लायक बात यह है कि, एफ. आई. आर. में नुक्कड़ नाटक करने वाले संस्था के संचालक द्वारा खूंटी के एक स्थानीय संस्थान की सिस्टर पर यह आरोप लगाया गया है कि उन्होंने नुक्कड़ नाटक की मंडली को जोर देकर कोचांग मिशन स्कूल में नुक्कड़ नाटक करने को कहा। जबकि, उनका प्रोग्राम कोचांग स्थित बाजार में चल रहा था। लेकिन, अन्य सूत्रों से बात करने पर यह पता चला कि, सिस्टर पर नुक्कड़ नाटक करने वाले संस्था के संचालक द्वारा 19 जून का कार्यक्रम करने को लेकर दबाव डाला गया था। जबकि, सिस्टर द्वारा नुक्कड़ नाटक का टारगेट पूरा कर लिया गया था। साथ ही, नुक्कड़ नाटक मंडली का कोचांग में यह पहला कार्यक्रम था और नुक्कड़ टोली के लोग और दोनों सिस्टर इस इलाके से परिचित नहीं थे।

2. फादर के बारे में एफ. आई. आर. में यह आरोप लगाया गया है कि, उन्होंने ननों को रोक लिया जबकि शेष महिलाओं को जानबूझ कर मोटर साइकिल पर सवार चार अज्ञात लोगों के साथ जंगल में जाने दिया। उनपर एफ. आई. आर. में षडयंत्र करना, जबदस्ती रोककर रखना और गैंग रेप और भारतीय दंड संहिता के अन्य प्रावधान लगाए गए हैं। पर, फैक्ट फांइडिंग टीम को अन्य सूत्रों से यह पता चला है कि फादर खुद उस परिस्थिति में डरे हुए थे और उन अज्ञात अपराधियों के दबाव में थे।

3. एफ. आई. आर. के मुताबिक, गैंग रेप की घटना के बाद जब पीड़ित महिलाएं वापस आई और उन्होंने स्थानीय संस्था की दोनों सिस्टर (जो उनके साथ थीं) को घटना के बारे में बताया, तो उन्होंने घटना की जानकारी देने से मना किया।
जबकि, फैक्ट फांडिंग टीम ने जब इसके बारे में पूछ-ताछ की तो पता चला कि जब पीड़ित महिलाएं घटना के बाद गाड़ी में सिस्टर के साथ बैठीं, तब कोचांग से खूंटी के रास्ते में उन्होंने सिस्टर के पूछने पर बलात्कार की घटना के बारे में बताया। सिस्टर ने उसी वक्त डी. सी. के पास खबर देने को कहा। पर, पीड़ित महिलाओं ने उन्हें ऐसा करने से यह कहकर मना कर दिया कि, उन्हें खतरा होगा क्योंकि कथित गैंग रेप को अंजाम देने वाले अज्ञात लोगों ने उनका नाम, पता और पूरे परिवार का ब्योरा ले लिया है।

एफआईआर का एक हिस्सा 

4. 20 जून को पुलिस को घटना की जानकारी मिली, लेकिन एफ. आई. आर. या मीडिया में चल रहे खबरों के मुताबिक यह स्पष्ट नहीं है कि, उन्हें घटना की जानकारी कहां से मिली। फैक्ट फांइडिंग की टीम द्वारा सूत्रों से पूछ-ताछ करने पर यह पता चला कि एस0 पी0 ऑफिस से ही थानों को कथित गैंग रेप की घटना की सूचना मिली थी। पुलिस के अनुसार, 20 जून की रात से ही पुलिस ने पीड़ित महिलाओं से संर्पक साधने की कोशिश की। पर, वे 21 जून को पीड़ित महिलाओं तक पहुंच पाए। उसके बाद 21 जून को पांचों पीड़ित महिलाओं का मेडिकल करवाया गया। पर, यहां गौर करने लायक बात यह है कि, पीड़ित महिलाओं के मेडिकल जांच के बारे में जब हमने सदर अस्पताल, खूंटी में पूछ-ताछ की तो हमें पता चला कि दो पीड़ित महिलाओं को मेडिकल जांच के लिए 20 जून को ही लाया गया था। फिर, 21 जून को मेडिकल जांच के लिए सभी पांच पीड़ित महिलाओं को लाया गया, जिसकी जांच के लिए मेडिकल बोर्ड की टीम बनाई गई थी।

5. एफ. आई. आर. में फादर के अलावा अज्ञात अपराधियोंऔर पत्थलगढ़ी समर्थकों को अपराधी के रुप में डाला गया था। फैक्ट फांडिंग टीम के पूछ-ताछ के मुताबिक फादर के अलावा दो अन्य लोगों को गिरफ्तार किया गया है। पुलिस द्वारा उपलब्ध कराई गई जानकारी के अनुसार, दोनों संदिध लोगों ने तीन अन्य लोगों का नाम लिया। इनमें दो को पत्थलगढ़ी का नेता बताया गया है और एक बाजी सामंत नामक व्यक्ति का नाम लिया गया है, जो पीएलएफआई. का एरिया कमांडर है।

पुलिस से जब यह पूछा गया कि दोनों गिरफ्तार आरोपियों और सभी आरोपियों की शिनाख्त पीड़ित महिलाओं द्वारा की गई है या नहीं, तो कहा गया कि कानूनी प्रक्रिया की सारी जानकारी एस. पी. से ही मिलेगी और उन्हें इस मामले में किसी से कुछ भी न कहने को कहा गया है। यह बात साफ है कि, आरोपियों की शिनाख्त पीड़ित महिलाओं द्वारा नहीं की गयी है। इसके अलावा, आस-पास के गांवों के लोगों और अन्य स्त्रोत के अनुसार जो चार अज्ञात लोग मोटरसाइकिल पर सवार होकर पांचों महिलाओं को ले गए थे, वे उस इलाके के नहीं थे और पत्थलगढ़ी के नेता और उससे जुड़े व्यक्ति तो बिलकुल नहीं थे।

6. 26 जून को घाघरा में पुलिस के जवानों नेयह कहकर अंदर घुसने की कोशिश कि, की वहां कथित गैंग रेप के मामले में शामिल आरोपी पत्थलगढ़ी में शामिल होने वाले हैं। जबकि घाघरा गांव में पत्थलगढ़ी को लेकर ग्राम सभा हो रही थी, जहां आस-पास के गांव के लोग आए थे। वहां पुलिस और गांव वालों के बीच झड़प हुई। इस क्रम में महिलाओं ने पुलिस को करिया मुंडा के घर तक खदेड़कर भगा दिया। इस बीच करिया मुंडा के घर से चार जवानों को महिलाएं अपने साथ ले आए।

7. 27 जून को सी. आर. पी. एफ., रेफ, जे. ए. एफ.और होम गार्ड के 1000 जवान घाघरा (300 लोगों का गांव) और उससे सटे गांवों में घुस गए। फैक्ट फांडिंग टीम द्वारा घाघरा से सटे गावों का 30 जून को दौरा करने पर यह पता चला कि, घाघरा से सटे 7 गांव है जहां पुलिस गई थी, पर उनमें से केवल 3 से 4 गांवों में पत्थलगड़ी हुई थी। पुलिस जब उन गावों में घुसी जहां पत्थलगढ़ी हुई थी, तब अर्धसैनिक बलों द्वारा इन गांवों में लोगों को मारा-पीटा गया, जिसमें एक व्यक्ति मारा गया, कुछ लोगों को चोट पहुंची और एक बच्ची का हाथ भी टूट गया। कुल 150 से 300 लोगों को हिरासत में लिया गया जिसमें महिलाऐं भी काफी संख्या में थी। बाकी के लोग पुलिस के आने की सूचना पाकर अपने घरों को छोड़कर चले गए थे। जबकि, अन्य गांवों में जहां पत्थलगढ़ी नहीं हुई थी, वहां पुलिस ने लोगों के घर में घुसकर तलाशी ली। फैक्ट फांडिंग टीम ने घाघरा में भी घुसने की कोशिश की पर वहां पर भारी संख्या में जवान तैनात थे। उन्होंने यह कहकर फैक्ट फांडिंग टीम को रोक दिया कि एस0 पी0 की अनुमति के बिना हम वहां नहीं जा सकते।

हमने एस. पी. से संर्पक करने की कोशिश की पर वे हमें नहीं मिले।

8. 29 जून को गार्ड को रिहा कर दिया गया, इसके बावजूद 30 जून तक घाघरा में भारी मात्रा में पुलिस तैनात थी। पुलिस ने प्रेस कान्फरेंस में कथित गैंग रेप के आरोपियों का वीडियो जारी किया और जिस व्यक्ति बाजी सामंत का फोटो दिखाया वह पत्थलगढ़ी से जुड़ा व्यक्ति नहीं बल्कि पी. एल. एफ. आई. का मेंमबर है।

फैक्ट फांडिंग टीम की जांच से उठते कुछ सवाल

• पुलिस को कथित तौर पर गैंग रेप की घटना की जानकारी सबसे पहले कब और किसके द्वारा मिली?

• पुलिस के अनुसार, वह पीड़ित महिलाओं से पहली बार 21 जून को मिली और वह पीड़ित महिलाओं को मेडिकल जांच के लिए 21 जून को ले गई। जबकि सदर अस्पताल, खूंटी के मुताबिक 20 जून को दो पीड़ित महिलाओं की मेडिकल जांच की गई, वहीं 21 जून को पांचों पीड़ित महिलाओं की मेडिकल जांच फिर से की गई। पुलिस और सदर अस्पताल, खूंटी के द्वारा बताए गए तत्थों में अनियमितता क्यों है?
• जब पुलिस के पास कथित तौर पर घटे गैंग रेप आरोपियों का वीडियो था, तो उन्होंने अज्ञात लोगों, पत्थलगडी समर्थकों के खिलाफ केस क्यों दर्ज किया?
• पुलिस घाघरा में जहां पत्थलगढ़ी को लेकर ग्राम सभा हो रही थी वहां घुसने की कोशिश यह कहकर क्यों की, कि वहां कथित तौर पर घटे गैंग रेप के आरोपी आ रहे हैं? जबकि उन्हें पता है कि रेप का एक आरोपी बाजी सामंत दूसरे इलाके (खरसावां, सराईकेला) का रहने वाला है।
• पुलिस ने पीड़ित महिलाओं के द्वारा पकडे़ गए कथित तौर पर गैंग रेप के आरोपियों की शिनाख्त क्यों नहीं करवायी? और जिन तीन आरोपियों के लिए वह छापेमारी कर रही है, उसकी शिनाख्त पीड़ित महिलाओं द्वारा ना करवाकर पुलिस की हिरासत में लिए गए दो आरोपियों द्वारा क्यों करवा रही है?
• पीड़ित महिलाओं को प्रशासन की हिरासत में अब तक क्यों रखा गया है और उन्हें किसी से मिलने क्यों नहीं दिया जाता है?
• नुक्कड़ नाटक करवाने वाली संस्था का संचालक जिसने एक एफ0 आई0 आर0 दर्ज किया है, वह कौन है और एफ0 आई0 आर0 दर्ज कराने के बाद वह कहां गायब हो गया है? क्या वह प्रशासन की हिरासत में है?
एफआईआर का एक हिस्सा 


फैक्ट फांडिंग टीम की जांच के कुछ निर्ष्कष:

• इस पूरे मामले में पीड़ित महिलाओं (जिनमें कुछ शादीशुदा हैं और उनके बच्चे भी हैं) का पक्ष पूरी तरह से गौन है। उनके परिवारों द्वारा मामले में कोई भी बयान नहीं आया है। हमने यह भी पाया कि, पीड़ित महिलाओं के परिवारों को पुलिस द्वारा घटना की जानकारी नहीं दी गई है।

• सरकार एवं स्थानीय पुलिस प्रशासन द्वारा पूरे मामले में गोपनीय तरीके से कार्यवाई की जा रही है। पीड़ित महिलाओं को सरकार की हिरासत में रखने के नाम पर किसी से मिलने नहीं दिया जा रहा है। अज्ञात आरोपियों के नाम पर पत्थलगड़ी के नेताओं को टारगेट किया जा रहा है और उनके खिलाफ छापेमारी की जा रही है। ये सभी चीजें पूरे मामले में अपनाई गई कानूनी और जांच की प्रक्रिया पर सवाल खड़ा करती हैं, क्योंकि सभी जानकारियों का पुलिस प्रशासन ही एकमात्र स्रोत है। इससे केवल प्रशासन द्वारा दिखाया जाने वाला पहलू ही देखने को मिल रहा है। बांकि जानकारी के माध्यमों को बंद कर दिया गया है।

• इस पूरे मामले में मीडिया की भूमिका संदिग्ध रही है। मीडिया ने पूरे मामले में तत्थों को तोड़-मरोड़कर पेश किया है। मामले में मीडिया ने पत्थलगढ़ी, आदीवासी समुदाय और चर्च एवं मिशन की संस्थाओं की नाकारात्मक छवि पेश की है।

• मीडिया और सरकार द्वारा चर्च एवं मिशन की संस्थाओं को फंसाने और बदनाम करने की कोशिश की गई है, इससे साफ पता चलता है कि तत्थों के साथ खिलवाड़ करके ऐसा किया गया है। इससे मामले से संबंधित सभी संस्थाओं के लोगों में भी भय का माहौल है।

• ये पीड़ित महिलाएंे जिन संस्थाओं से संबंध रखतीं हैं, उन संस्थाओं को प्रेस या किसी से भी बात करने की स्वतंत्रता नहीं है। इन संस्थाओं में काम करने वाले लोगों को जिनका संबंध मामले से है, उन्हें संस्था के चाहरदीवारी से न निकलने को कहा गया है। इन संस्थाओं के कर्मीयों को किसी भी बाहरी व्यक्ति से बात करने से मना किया गया है और संस्थाओं के अंदर किसी को भी घुसने की अनुमति नहीं दी गई है।

फैक्ट फांडिंग टीम की मांगें 

• फैक्ट फांडिंग की टीम कथित तौर पर घटे गैंग रेप की घटना की एक स्वतंत्र जांच एक उच्च स्तरीय जांच कमिटी द्वारा करवाने की मांग करती है। इस जांच को खूंटी प्रशासन से बिलकुल स्वतंत्र हो कर कराने की जरुरत है। इस जांच कमिटी में रिटायर्ड जज, वकील और महिला अधिकारों पर काम करने वाले सामाजिक कार्यकत्ता होने चाहिए।

• मामले की तहकीकात खूंटी पुलिस द्वारा ना करवा कर एक स्वतंत्र जांच द्वारा करवानी चाहिए।

• इस पूरे घटनाक्रम में, ऐसा मालूम पड़ता है कि प्रशासन द्वारा पीड़ित महिलाओं के पक्ष और उनकी इच्छा को पूरी तरह से नज़रअंदाज़ और गौन कर दिया गया है। यह साफ नहीं है कि पांचों पीड़ित महिलाओं को उनकी मर्जी से पुलिस की हिरासत में रखा गया है या नहीं। इनमें से कुछ शादीशुदा हैं और उनके बच्चे भी हैं। इस मामले में खूंटी पुलिस और प्रशासन की संदिग्ध भूमिका को देखते हुए, यह तय है कि खूंटी पुलिस प्रशासन की देख-रेख में मामले की स्वतंत्र और निष्प्क्ष जांच संभव नहीं है। ऐसे में पीड़ित महिलाओं का खूंटी पुलिस और प्रशासन की हिरासत में रखना उनके लिए सुरक्षा की दृष्टि से सही नहीं होगा। महिलाओं की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए फैक्ट फांडिंग टीम की यह मांग है, कि पांचों पीड़ित महिलाओं को खूंटी पुलिस और प्रशासन की हिरासत से निकाल कर राज्य द्वारा अपने संरक्षण में रखे या उन्हें अपने घर वापस जाने दिया जाए।

• इसके अलावा, कथित तौर पर घटे गैंग रेप की घटना के बाद घाघरा और आस-पास के गांवों में पुलिस और अर्धसैनिक बलों द्वारा किए गए दमन की भी स्वतंत्र जांच होनी की सख्त जरुरत है। पुलिस और अर्धसैनिक बलों द्वारा किए गए दमन के दौरान एक व्यक्ति की मौत हो गई और कई अन्य घायल हो गए। इसमें यह जांच होनी चाहिए कि प्रशासन द्वारा बल प्रयोग करने की जरुरत थी भी या नहीं। और अगर थी तो जिस प्रकार से बल प्रयोग किया गया वह उचित था या नहीं।

• साथ ही, घाघरा और आस-पास के गांवों में जहां पत्थलगढ़ी हुई है, वहां से पुलिस और अर्धसैनिक बलों को हटाया जाना चाहिए। ताकि, इन गांवों में रहने वाले लोग अपने घरों को लौट पाएं। वे आज भी अपने घरों को लौटने में संकोच कर रहे हैं, क्योंकि उन्हें डर है कि पुलिस और अर्धसैनिक बलों द्वारा वहां दोबारा हिंसा होगी। ऐसे में, इस पूरे घटनाक्रम में आम जिंदगी इन गांवों में ठहर सी गई है। बच्चे स्कूल नहीं जा पा रहे हैं और लोग जीविका चलाने के लिए रोजमर्रा के कामकाज नहीं कर पा रहे हैं।

-रिनचिन, राधिका, पूजा

डब्लू. एस. एस. की फैक्ट फांइडिंग टीम

यौन हिंसा व दमन के खिलाफ महिलाएं (WSS)

नवंम्बर 2009 में गठित एक गैर-अनुदान प्राप्त ज़मीनी प्रयास है। इस अभियान का मकसद है – हमारे शरीर व हमारे समाज पर हो रही हिंसा को खत्म करना। हमारा नेटवर्क पूरे देश में फैला हुआ है और इसमें औरतें अनेक राजनीतिक परिपाटियों, जन संगठनों, नारी संगठनों, छात्र व युवा संगठनों, नागरीक अधिकार संगठनों एवं व्यक्तिगत स्तर पर हिंसा व दमन के खिलाफ सक्रिय हैं। हम औरतों व लड़कियों के विरुद्ध किसी भी अपराधी/अपराधियों द्वारा की जा रही यौन हिंसा व दमन के खिलाफ हैं।

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पत्थलगड़ी और कोचांग बलात्कार मामला: रांची से प्रकाशित अखबारों की विश्वसनीयता पर प्रश्न

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श्रीप्रकाश 
झारखंड का खूंटी जिला इन दिनों उबल रहा है-एक ओर आदिवासी पत्थलगड़ी कर स्वायत्तता का घोष कर रहे हैं, वहीं कोचांग में 5 रंगकर्मियों का 'कथित बलात्कार,'तीन पुलिसकर्मियों का कथित अपहरण, जो बाद में चार निकले, पुलिस का दमन इन दिनों सुर्खियों में है. लेकिन रांची से प्रकाशित होने वाले अखबारों ने किस तरह सरकार और आदिवासियों के खिलाफ मोर्चा खोल रखा है यह बता रहे हैं श्रीप्रकाश. इस आलेख  के अनुसार अखबार न सिर्फ अपनी विश्वसनीयता खो रहे हैं, बल्कि पत्रकारिता के सामान्य मापदंड पर भी खरे नहीं उतर रहे. उधर बलात्कार की पीड़िताओं को लगभग नजरबंद रखा गया है-वे न परिवार से मिल पा रही हैं और न ही सोशल एक्टिविस्ट से उन्हें मिलने दिया जा रहा है. यह  आलेख कई कारणों से पढ़े जाने की मांग करता  है, यह पत्थलगड़ी आन्दोलन और उसके दमन की न सिर्फ तस्वीर पेश करता है, बल्कि उसके विस्तृत इतिहास में ले जाता है. साथ ही दो वृत्तचित्रों के माध्यम से इस संघर्ष को बखूबी समझा जा सकता है. 



मध्य व पूर्वी भारत में अभी पत्थलगडीशब्द चर्चा का विषय बना हुआ है। पत्थलगडी मूलतः कोलारीयन समूह के मुण्डा व हो आदीवासी समुदायों की परम्पराओं मे से एक सबसे महत्वपूर्ण  हिस्सा है। मूल मर्म ये है कि जब इस समुदाय के किसी समुह ने जंगल मे अपने बसने के लिये जगह बनाई और उस गोत्र या किली के लोग वहां बस गये तो वे अपने मृतको के हड्डी जिसे 'जन्धहलंग'कहा जाता है को एक खास पत्थर के नीचे पूरे  विधि विधान से रखते हैं। ये बड़े पत्थर, ससनदिरी कहलाते है। यदि किसी मुण्डा समुदाय के व्यक्ति की मृत्यु हो जाय तो उसकी अन्तिम क्रिया तब तक पुर्ण नही मानी जाती जब तक की उसकी हड्डिया उनके किली के संसनदिरी में  न रखी जाय।

यह भी पढ़ें: आदिवासियों का पत्थलगड़ी आंदोलन: संघ हुआ बेचैन, डैमेज कंट्रोल को आगे आये भागवत

इसी परम्परा मे अन्य कई तरह के पत्थरों को गाँव व इलाके मे रखा व गाडा जाता है, जिसमें विर्रदिरी- वंशावली निरूपित करता है और सीमानदिरी -गाव की बाउंडरी/सिमाना को दिखाता है, इसके अलावा भोदिरी, होरादिरी, गाडूदीरी आदि कई और भी तरह के पत्थरों की परम्परा है। यहाँ ये बताना महत्वपुर्ण होगा कि वतर्मान मे कई कारणों से इन परम्पराओ मे क्षरण हुआ है जिसमे आर्थिक-संस्कृतिक के अलावा धार्मिक कारण महत्वपुर्ण हैं। खासकर संगठित या सांस्थानिक धर्मो के बढते प्रभावों ने इन परम्पराओं को कमजोर किया है । कारण ये है कि जन्म मृत्यू की अवधारणा विभिन्न धर्मो मे भिन्न-भिन्न होती है।

ये पत्थर सिर्फ धार्मिक या संस्कृतिक महत्व भर नहीं  रखतेपरन्तु इसके अन्य महत्वपुर्ण आयाम हैं, जैसे मौखिक परम्परा वालो मुण्डा इन पत्थरो को अपने जमीन की मिल्कियत का अकाट्य प्रमाण मानते है। भूमि व पारिवारिक विवाद मे ससनदिरी ही अन्तिम निर्णय के लिये महत्वपुर्ण साक्ष्य होता है, क्योंकि एक ही खानदान के मृत्यु पाये लोगों की हड्डियां एक ही ससनदिरी मे रखी जाती हैं। दुसरे शब्दो में कहें तो ये एक तरह से कुर्सीनामा है जहाँ परिवार अपनी वंशावली को देख सकता है। ये पत्थर लिटाये हुए रहते है। विर्रदिरी इसी क्रम मे अगला है जो एक बडा पत्थर है- मृत व्यक्ति के लिये बडे पत्थर को खडा किया जाता है, जिससे उसकी वन्शावली का पता चलता है।

जब पहली बार  अंगरेजी हुकुमत ने भूमि और जंगल को निजी मिल्कियत मे लाने के लिये कानून बनाये तो आदिवासी क्षेत्रो में विद्रोहों की झड़ी लग गयी और मुण्डा इलाके मे बिरसा उलगुलान के बाद ब्रीटिश  हुकूमत को मुण्डारी खुटकट्टी परम्परा को ध्यान मे रखते हुए छोटानागपूर कास्तकारी अधिनियम बनाने पड़े जो सीएनटी ऐक्ट के नाम से प्रसिद्द है।

आदिवासी अधिकार, कॉरपरेट लूट पर अनेक वृत्तचित्रों के निर्माता 

दूसरी तरफ 2014 में वर्तमान भाजपा की सरकार विकास और रोजगार के नारे के साथ प्रचन्ड बहुमत के साथ केन्द्र और राज्य मे आई । पहली बार झारखण्ड मे गैर आदिवासी मुख्यमंत्री  बनाये गये। अब जब अगले चुनाव में एक वर्ष बाकी है, सरकार के पास जनता के सामने अपनी उपलब्धियां दिखने को ज्यादा कुछ है नहीं। सरकार लगातार कॉरपरेट घरानों से राज्य में पूंजी निवेश कराने के लिए हर साल आयेाजन व सैकड़ों एमओयू करा रही है. पर ये सारे धरातल पर उतर नहीं रहे हैं। इसका एक प्रमुख कारण भूमि की अनुपलब्धता  है और यहाँ के लोग अपनी भूमि किसी भी कीमत पर देना नहीं चाहते हैं।



                                                               पत्थलगड़ी की कहानी ( श्रीप्रकाश की एक डॉक्यूमेंट्री)



ऐसा नहीं है कि आदिवासी समुदाय विकास नहीं चाहता, पर विगत में विकास योजनाओं के तल्ख अनुभव ने इस आदिवासी अन्चल के मुल निवासियों  की एक बडे आबादी में  धारणा घर कर दी है कि विकास योजनाओ से उनका का भला तो नही बल्की उनका आर्थिक-सांस्कृतिक विनाश  ही हुआ है। दूसरी तरफ सरकार के सारे एमओयू भूमि की अनुपलब्धता के कारण ठप्प पड़े हैं,  चुनाव सर पर है राज्य का मध्यम वर्ग को लुभाने के लिये सरकार के पास ज्यादा नहीं है। पर वर्तमान सराकर के पास धर्म के रूप मे आखिरी अस्त्र ही बचता है जिससे इसेके वोटर भी फोल्ड से बाहर नही जायेंगे और समाज मे ध्रुवीकरण मजबुत होगा। साथ ही आदिवासी समाज को धर्म के नाम पर विभाजित करने से भूमि अध्रिग्रहण में भी सफलता मिलेगी।

यह भी पढ़ें :  पत्थलगड़ी के खिलाफ बलात्कार की सरकारी-संघी रणनीति (!)

इस पृष्ठभूमि में हम रांची से प्रकाशित अखबारों को देखें कि वे क्या कह रहे हैं: 
18.02.2017  को एक बैनर हेडलाईन हैं, लगभग सभी अखबारों में:

'3.10 लाख करोड के निवेश के लिए 210 कंपनियो ने किया एमओयू, छह लाख लोगों को मिलेगा रोजगार
निवेशको के लिये सरकार के दरवाजे 24 घंटे खुले'

HIndust an Times 19-02-2017 
Momentum Jharkhand takes social media by storm 
(Nearly 150 million impressions and a reach of 28.2 million on Twitter recorded during GIS)
Times of india – 21.may 2018- Momentum Jharkhand: 21 projects launched
21 project will bring  Rs 700 crore  to the state. 
पर वास्तविकता में एक भी एमओयू धरातल पर नहीं उतरे.



दैनिक भास्कर  में 05.03.2018  को पहले पेज पर पांच कालम का हेडलाईन है :
बोले मुख्यमंत्री रघुवर दास राजनीतिक अस्थिरता की वजह से गांवों मे कई काम पूरे नही हुए
पत्थरगडी की आड़ में अअफीम का अवैध धंधा, राष्ट्रविरोधी ताकतो का इन्हे संरक्षण
हिन्दुस्तान के 05.03.2018 के मुख्य पृष्ठ पर हेडलाईन हैं: 
मुख्यमत्री की चेतावनी ऐसा करनेवालों  को बर्दाश्त नहीं करेंगे
अफीम के लिये हो रही है पत्थलगड़ी

वहीं इसी समाचार को विस्तार से लिखते हुएमुख्यमंत्री के हवाले से अखबार लिखता है कि उन्हे पता है कि 100 एकड़ में अफीम की खेती हो रही है और इसमें उग्रवादी संगठन साथ दे रहे हैं।
वहीं अखबार में खूंटी संवाददाता के डेटलाईन से अलग हेडलाईन लगाई है - अलगावादी नारो के साथ पत्थलगडी, विरोध मे बैठक
 दैनिक भाष्कर ने 6मार्च 2018 को बैनर हेडलाईन लगायी है: 
अफीम के कारण पत्थलगडी की पुष्टि नहीं, लेकिन जहां पत्थलगडी वहीं अफीम का गढ
सिर्फ खुंटी के 1500एकड मे अफीम की खेती
डर या कमाई... पुलिस यहां कभी जाती ही नही
दोनों अखबार अफीम की खेती से जुड़े आंकड़े अलग-अलग बताते हैं पर भाष्कर ने एक बॉक्स मे 9 अन्य जिलों में होने वाले अफीम की खेती का आंकडा दिया है, जिसमें लातेहार मे 300 चतरा मे 525 व पलामू में 170एकड में अफिम की खेती की बात कही गयी है।

13.08.2017 को प्रभात खबर के फ्र्रन्टपेज का हेड लाईन है:
भूअर्जन मे सोशल इंपैक्ट स्टडी नही होगी, विधेयक पारित
धर्म स्वतंत्र बिल सदन से पास, जबरन धर्मातरण कराने पर चार साल की सजा
वहीं हेड लाईन के बगल में दो कालम की खबर है कि एमओयू 3.51 लाख करोड का, काम 3.8 प्रतिशत जमीन पर ही 
इसी खबर में एक फोटो है, जिसका कैप्शन है धर्मातरण बिल पास होन के बाद रांची के अल्बर्ट एक्का चौक पर जश्न मनाते लोग और ठीक नीचे बॉक्स में हेडिंग है भूमि अर्जन पुनर्वसन एव पुनर्स्थापन में उचित प्रतिकार और पारदर्शिता का अधिकार झारखण्ड संशोधन विधेयक 2017 वहीं  4.4.2018 के प्रभात खबर के मुख्य पृष्ठ पर चार कालम के न्यूज में हेड लाईन है - पत्थलगडी केा लेकर राज्यपाल ने की बैठक कहा:
बहकाने वालों के बच्चे कर रहे विदेश में  पढ़ाई: 


पर अगर आप समाचार को पढ़ें तो पता चलता है कि यह एक भ्रामक व गुमराह करने वाली खबर है जिसे गलत तरीके से हेडलाईन बनाया गया है। आगे समाचार खुद ही ये बताता है कि राज्यपाल ने कहा है कि बहकाने वाले लागो के परीवार को भी देखें उनके बच्चे निश्चित रूप से विदेश या अच्छे शिक्षण संस्थानो मे पढ रहे होंगे।


टेलीग्राफ रांची ने 18 फरवरी 2018 को 
'Rock protests anti-national'
CM in Khunti, speaks out against Pathalgadi
के शीर्षक से खबर प्रकाशित की है और मुख्यमंत्री के हवाले से कहा गया कि राज्य में  देशविरोधी ताकतों को सर उठाने नहीं दिया जायेगा।
टेलीग्राफ के 3 जूलाई 2018 के अंक में 
Bid to quell Khunti stir
के शीर्षक से खबर लगाई है कि खूंटी प्रशासन ने नक्सल प्रभावित जिले के दारीगुटू में संगठनों के आउटफिट आदिवासी महासभा जैसों के प्रभाव वाले गाव में आमसभा की, जहां महासभा ने बाहरी लोगो के आने पर प्रतिबन्ध लगा रखा है।

इस इलाके मे माओवादी संगठन के अलावापीएलफआई नामक उग्रवादी संगठन के बीच वर्चस्व की लडाई है। कई जानकार ये कहते हैं कि पीएलफआई को माओवादियों के खिलाफ प्रशासन का परेाक्ष सर्मथन प्राप्त है।
अगर हम गौर से देखें तो यह इलाका व पत्थलगडी प्रकरण राजनीतिक नाटक का एक परफेक्ट प्लाट है और एक राजनीतिक प्रयोगशाला भी है। सरकार अपनी विकास योजनाओं का क्रियान्वयन नही करा पा रही है और उसका टाईम टेस्टेड रिलीजन का कार्ड एक हद तक आदिवासी समाज को विभाजित करता दिख रहा है, वहीं अखबारों की भूमिका सरकार के पक्ष को रखने वाला ही दिख रहा है.  जानकार तो यहाँ तक कह रहे हैं कि अंग्रेजी के एक-आध अखबारों को छोड दिया जाय तो बाकी अखबार सरकार के प्रवक्ता के रूप मे कार्य करते दिखते हैं। क्योकि दुसरे पक्ष की बातें लगभग गौण हैं और अगरहैं तो वह सरकारी वर्जन से ही मिलता जूलता है। वही वे अपनी विश्वसनीयता बनाये रखने के लिए निश्चित अन्तराल में एक-आध बार सरकार को प्रश्न करते दिखते हैं। कायदे से मीडिया में सारे स्टेक होल्डरो के पक्ष आने चाहिए थे और सारे पक्षों से सटीक सवाल पुछे जाने थे, पर उनका नितांतअभाव दिखता है। इसका परिणाम यह हो रहा है कि प्रिन्ट मीडिया की विश्वसनियता पर सवाल खडे हो रहे हैं।
इसे भी पढ़ें : रंगकर्मियों से बलात्कार : क्या बलात्कारी पीड़िता को खुद सही-सलामत वापस छोड़ते हैं? आदिवासी अधिकार की प्रवक्ता दयामनी बारला ने उठाये ऐसे कई सवाल

पत्थलगडी प्रक्ररण मे उबाल तब आया जब अख़बारों में खबर छपी किएक एनजीओ के नुक्कड नाटक से मानव तस्करी के खिलाफ जागृति  फैलाने वाली मंडली की महिला सदस्यों का पत्थलगडी के इलाके में एक इसाई मिशन स्कूल  से अपहरण कर उनके साथ बलात्कार किया गया । बाद के धटनाक्रम में तीन पुलिसकर्मियों का ,जो खूंटी के लोकसभा सदस्य के घर मे तैनात थे, हथियार समेत अपहरण कर लिया गया और बाद में वे तीनो पुलिस कर्मी सकुशल वापस आ गये पर आश्चर्य यह है कि तीन के बदले चार पुलिसवाले आये, यानी पुलिस को ये भी पता नहीं था कि उनके कितने सिपाहियों का अपहरण हुआ था।
इस धटना की रिपोर्टिंग में लगभग पुलिस का वर्जन ही अखबारों  के हेडलाईन बने। जैसे:
24.05.2018 
पेज-1  प्रभात खबर  ‘फादर समेत तीन गिरफ्तार, पत्थरगडी समर्थक जॉन तिडू मास्टरमाईड, पिएलफआई भी शामिल
यह रिर्पोट कोचांग नामक गाँव,जो पत्थलगडी के इलाके में है, में एक कथित एनजीओ के पांच महिला सदस्यों का, जो उस इलाके मे जागरूकता फैलाने के उदेश्य से नुक्कड नाटक करने गयी थीं, अपहरण और बलत्कार की घटना के बाद की है।
दैनिक भास्कर  के पेज 3 पर ,26.05.2018 को चार कालम के बॉक्स का हेड लाईन है:
अब चेत जाईये संविधान के नाम पर ही बरगला रहे हैं पत्थरगडी के नेता
खूंटी  मे सुनाई दे रहे है कश्मीर जैसे नारे
ग्राम सभा में उठ रही है आजादी की आवाज
एक व्यक्ति की पीठ की तरफ से ली गयी तस्वीर ,है जिसमे एक बच्चा उसके कन्धे पर सर रख कर सो रहा है’ 
कैपसन है: ‘देखिये... कैसे बचपन के कानो मे धुल रहा है अलगाववाद का जहर’
27.06. 2018 दैनिक भास्कर  के  पेज 1 का बैनर
‘ खूंटी  गैंग रेप ! पहली बार पुलिस ने आरोपियों को  पकड़ने  के  लिए पत्थलगडी क्षेत्र में चलाया सर्च आपरेशन
गैग रेप के आरोपियो पर कार्रवाई के जबाव मे सांसद कडि.या मुण्डा के घर पर हमला, 3 गार्ड्स का अपहरण’
22. 06. 2018 के पेज 1 पर दो कालम का शीर्षक है :
‘पत्थलगडी के नाम पर हर कृत्य का समर्थन करने वाले क्या इस कुकृत्य की जिम्मेवारी लेगे?’
पेज 8 पर दो कालम के न्यूज का शीर्षक है:
स्कूल में  स्वागत बैड बन्द होते ही आ धमके वे अपराधी... जैसे हर किसी से परिचित हों
जिस स्कूल में धटना, उसके आस-पास के सारे गांवों में हुई है पत्थलगडी’


23 .06.2018 को भाष्कर में भाजपा के राज्यसभा के सदस्य समीर उराव का वक्तव्य है, जिसमें वे कह रहे हैं कि
‘धर्म बदलने वाले को क्यों  मिले आरक्षण, हम संसद में विधेयक लाएंगे।
वहीं टाईम्स ऑफ  इंडिया के 23 जून 2018 के अंक में   Kochang villagers vow to fight ‘biased probe शीर्षक से छपे न्यूज में ग्रामीणों का पक्ष छपा है, जो कि बाकि अखबारों मे कम ही देखने को मिला है
और 1 जुलाई के भाष्कर मे छपे न्यूज मे कहा गया है कि पत्थरगडी के मास्टर माईड, गैगरेप के अपराधी और पुलिसकर्मियों के अपहरणकर्ता 12 दिनो के बाद भी पकड़  से बाहर हैं।

                                                            एक और उलगुलान: ( श्रीप्रकाश की एक डॉक्यूमेंट्री)

                                                     

   

अगर पूरे  प्रक्ररण व अखबारो मे छपी खबरों  काविश्लेषण करें तो लगता है कि सरकार व प्रशासन अपने वर्जन को अखबारों में प्रमुखता  से छपवाने में सफल है। पर इसका खामियाजा अखबारों की विश्वसनीयता पर है क्योंकि इस पूरे  पत्थलगड़ी प्रकरण में  सोशल मीडिया ने बढ-चढ कर विभिन्न आयामों को लोगो के सामने लाया और एक तरह से सोशल मीडिया ने जो जगह अखबारो ने छोडी थी उसको भरने की कोशिश की है जिसके कारण  नुक्कड नाटक मे धृणित बलात्कार व पुलिसकर्मी अपहरण काण्ड पर एक धारणा बन गयी है कि ये प्लान्टेड थे। जैसे हथियारों का मिलना,  तीन की जगह चार पुलीसकर्मी की वापसी होना, पीड़ित नुक्कडनाटक कर्मी महिलाओं को छिपा कर रखना, दो एफआईआर एक ही समय पर दो अलग-अलग थानो मे दर्ज होना इत्यादि सोशल मीडिया में अच्छी-खासी जगह पा रहे हैं. ग्रामीणों व पत्थलगडी समर्थको के विडीयो, इंटरव्यू व उनका पक्ष सेाशल मीडिया पर उपलब्ध है ।



दूसरी तरफ देश के प्रमुख महिला संगठनो की सदस्य, जो दो दिनों तक खूंटी मे डेरा डाले रहीं, खूंटी के वरिष्ठ अधिकारियों से मिल पाने में सफल नहीं हो सकीं, और न ही पीड़ित महिला नाटककर्मियों से ही मुलाकात हो पाई है । एक तरफ प्रशासन की भूमिका के बारे में कोई सवाल नही खड़े  कर रहा है वहीं ग्रामसभा के नेतृत्व को ये भी सवाल नहीं पूछा  है कि अगर  स्वशासन व स्वायतता की बाते करते हैं तो पहले अपने इलाके पर तो नियत्रण रखेंगे? आप के इलाके से महिलाओं का अपहरण होता है उनके साथ बलात्कार होता है, इस पर आप की व्यवस्था कुछ नही कहती और न ही कोई ऐक्शन लेती है। जब पत्थलगडी इलाके में बाहरी लोगो का अगमन मना था तो ये नाटक  मंडली कैसे पहुँच गयी?

पुनश्च:

मैंने काफी पहले उन ब्रीटिश  पुलिस अधिकारियों कीरिपोर्टें पढी थी जो पुलिस के साथ संथाल हुल और बिरसा मुण्डा आदि की मुटभेड पर थी। रिपोर्ट में बिरसा उलगुलान, जो खूंटी के इलाके में हुआ था, आदिवासीयो के साथ पुलिस के युद्धों का विवरण विस्तार से लिखा था। अधिकारी ने जो लिखा था वह आर्श्चय और विस्मय से भरा था कि 'मैंने अनेक मुटभेड व युद्ध में हिस्सा लिया है पर यह युद्य एक तरफा था। आदिवासी लडाके नगाडा बजने के साथ ओट से निकल तीरों की बौछार करते। पर उनके तीर हम तक नही पहुँच पा रहे थे जबकि वे हमारे बन्दुक की गोलियों की सीमा पर थे। वे लोग लगातार हमारे गोलियों, के शिकार हो रहे थे पर उन्होंने लडना नहींछोडा। जैसे ही नगाडा बजना शुरू होता बचे हुए आदिवासी फिर बाहर निकल तीर चलाते -ये क्रम तब तक चला जब तक कि सारे गोलियों का शिकार न हो गये।'

इसी तरह की एक और घटना हैं: खूंटी  के तोरपा इलाके में फरवरी 2001 मे 'कोयलकारो'जन सगठन के कार्यकर्ताओं पर पुलिस ने गोली चलाई जिसमें 8 लोगों की जान गयी थी। इसका कारण बना था कि जनसंगठन ने डेराग से लोहाजिमी जाने वाली सडक, जो मुडारी खुटकट्टी जमीन पर बनी थी, एक अस्थाई चेक नाका/बेरीकेटीग लगाया था कि कोई भी बाहरी व्यक्ति अगर आये तो यहाँ अपनी गति धीमी करे, जिससे स्थानीय लोगों  को पता चले कि कौन आया है। पुलिस उस नाका को तोड कर हटा रही थी जिसका उस समय उपस्थित एक स्थानीय भुतपुर्व सैनिक ने विरोध किया जिसे पुलिस ने बन्दुक के कुदें से मार कर घायल कर दिया था जिसके विरोध में जनसंगठन तपकारा पुलिस पोस्ट के सामने धरना दे रहा था।

एक और घटना जो 25 अगस्त 2017 मे कांकी, खूंटी मेंहुई थी जिसमें 200 की संख्या में पुलिस बल और एसपी, मजिस्ट्रेट, खूंटी व मुरहु थाना के थानेदार समेत कई प्रशासनिक अधिकारियों को ग्रामीणों ने 13 घंटे तक गाँव में रोक के रखा था. जो डीसी और जिले के बड़े पुलिस पदाधिकारियों के साथ बातचीत के बाद ही ये अवरोध टुटा था, ये मामला तत्कालीन डीसी मनीस रंजन की सूझ-बूझ से शान्त हो पाया था.

इस घटना का कारण एक बेरीकेटिंग, जो ग्रामसभा नेगावमें जाने वाली सडक में लगाया था, उसे पुलिस तोड़-तोड़ देती है। और यह वही इलाका है जो आज मघ्य और पूर्वी भारत के आदिवासी अंचलों में पत्थलगड़ी नामक आयोजनों के कारण पुरे देश में चर्चा का विषय बना हुआ है। भारत के अन्य कथित सभ्य समुदायों से अलग आदिवासी समुदाय ने बिना किसी मुकूटधारी राजा, बिना किसी स्टैंडिंग आर्मी के उन सभी राज्यसत्ता को हिला कर रख दिया, जिस किसी ने भी इनकी स्वयत्ता को चुनौती देने की कोशिश की। उन्नत सैन्य क्षमता के आगे आदिवासी युद्धों में पराजित भी हुए पर इन्होने गुलामी को स्वीकार नही किया और वे घने जंगलों मे घुसते चले गये।

ससनदीरी, पत्थलगडी जो खुटकट्टी मुण्डा परम्परा काआधारभूत हिस्सा है, जिसमें पत्थरो की अहम भुमिका है-ससनदीरी पत्थरों को मुण्डा समुदाय के लोग भूमि के स्वमित्व में पट्टे के रूप मे इस्तेमाल करते रहे हैं- और एक उदाहण भी है.  कलकते के ब्रीटिश कोर्ट में ससनदीरी पत्थरों को अपनी जमीन के पट्टे के रूप में पेश किया गया था। इन परम्पराओं को विभिन्न सरकारों ने अधिकांशतः आदिवासी बलिदानों के बाद सम्मान करते हुए कानुनी जामा पहनाया, जो झारखण्ड में ब्रीटिशकाल में बने छोटानागपुरटेनेंसी ऐक्ट, संथाल परगना ऐक्ट, आजादी के बाद पेसा और फोरेस्ट राईट एक्ट के रूप में हमलोगों के सामने है। यहाँ यह बताना महत्वपुर्ण होगा कि फ़ॉरेस्ट राईट एैक्ट 2006 की प्रस्तावना में यह लिखित रूप से स्वीकार किया गया है कि विभिन्न सरकारों द्वारा इन समुदायों पर ऐतिहासिक अन्याय हुआ है।

आजादी के बाद भूरिया कमिटी की सिफारिशों के बाद जो पेसा कानून  1996 बना, उसके प्रचार-प्रसार में भारत सरकार के वरिष्ठ ब्यूरोक्रेट स्व. बीडी शर्मा ने पद त्यागकर एक संगठन भारत जनआदोलन गठित किया और गाँव-गाँव में बड़े पत्थरों पर संविधान की धाराओं को लिख र पत्थलगडी का कार्यक्रम चलाया था।

लोकतंत्र का अंतिम उद्देश्य शासन में जनता कीअधिकतम भागीदरी है, विकास के निर्णयों पर आख़िरी व्यक्ति की सहमति से लोकतन्त्र अपने शिखर पर पहुँच सकता है। पुरी दुनिया में देखा गया है कि आदिवासी स्वशासन व परम्परागत शासन व्यवस्था अपने आप में अनुठे लोकतांत्रिक मूल्यों का वाहक है। युरोपियनो के अमेरिका में आगमन के साथ ही वहां के आदिवासियों के साथ चले अन्तहीन युद्ध का सम्मानजनक हल अमेरिकी कानूनों के अंतर्गत आदिवासी स्वायत्त प्रदेशों की स्थापना के साथ हुई। लेखक ने स्वयम अमेरिका  के सबसे बडे आदिवासी समुदाय नवाहो इन्डियन लोगों के स्वायत शासीप्रदेश नवाहोनेशन में उनके कार्य और अधिकारो को नजदीक से देखा है। नवाहोनेशन का अपना राष्ट्रपति, अपनी पुलिस और अपने प्रशासनिक-व्यवस्था व अधिकार क्षेत्र हैं। इन इलाकों में स्टेट की पुलिस नही आ सकती है।

(Navajo Nation) is the biggest autonomous territory within USA lies in fore state- Arizona, Colorado,new Mexico and Utah. similarly all other indigenous  communities have their own sovern nation with in the USA constiutution. 

श्रीप्रकाश स्वतंत्र वृत्तचित्र निर्माता हैं. कॉरपरेट लूट और आदिवासी अधिकार, मानवाधिकार को संबोधित अनेक फ़िल्में बनायी हैं. सम्पर्क: prakash.shri@gmail.com

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वीरबालकवाद: हिन्दी साहित्य के भीतर क्रांतिधर्मिता को समझने के लिए जरूर पढ़ें यह व्यंग्यलेख

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मनोहर श्याम जोशी 

मनोहर श्याम जोशी के इस व्यंग्य लेख के मुख्य आधार रहे हैं अब बुजुर्ग वीरबालक रामशरणजोशी. माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय के कुलपति बनाये जाने के बाद आत्मकथा 'मैं बोनसाई अपने समय का के लेखक'रामशरण जोशी को केन्द्रित यह लेख साहित्य में क्रांतिकारी 'वीरबालकत्व'को समझने के लिए बहुत महत्वपूर्ण है. लेख का शुरुआत सायकिल का पंक्चर बनाते मुम्बई में मिल गये 'रामशरण जोशी'से होती है, यह शब्द तभी क्वाइन हुआ-हालांकि यह वीरबालक लेख के अनुरूप ही जनवादिता की शपथ खाता हुआ, जनसंघ की गलियों से भटककर प्रगतिशील होता गया. इस लेख को कुंजी के रूप में पढ़ना चाहिए जोशी जी की राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित आत्मकथा पढने के पूर्व. खासकर उन्हें, जिन्होंने इसे पहले नहीं पढ़ा हो. 

वीरबालकवाद क्या होता है? यह प्रश्न आपकेउर में विह्वलता भरने लगे उससे पहले यह समझ लें कि वीरबालकवाद वह होता है जो समझदार वीरबालकों द्वारा किया जाता है और समझदार वीरबालक वे होते हैं जो अपने को वीरगति को प्राप्त नहीं होने देते। अब पूछिए कि समझदार वीरबालकों द्वारा क्या किया जाता है? और समझ लीजिए अपने को जमाया और और दूसरों को उखाड़ा जाता है। और हाँ, हर बात का श्रेय स्वयं ले लिया जाता है। तो इस लेख के आरंभ में ही स्वयं वीरबालकवाद का अच्छा नमूना पेश करते हुए मैं 'वीरबालक'और 'वीरबालकवाद'दोनों फिकरे चलाने का श्रेय लेते हुए विषय-निरूपण के नाम पर संस्मरण सुनाऊँगा और आपका ध्यान इस ओर दिलाना चाहूँगा कि सभी वीरबालक विषय-निरूपण के नाम पर संस्मरण अवश्य सुनाते हैं क्योंकि आखिर ऐसा हो क्या हो सकता है जिससे वह व्यक्तिगत रूप से जुड़े हुए न रह हों?

तो साहब हुआ यह कि मैं जब साठ के दशक में मुंबई आया तब शुरू में अपने मित्र उमेश माथुर के यहाँ रहा। बंबइया इंडस्ट्री में किस्मत आजमाते हुए संघर्षरत लड़कों के लिए मैंने वीरबालक संबोधन प्रस्तावित किया और उमेश जी ने उसे अनुमोदित कर दिया। उन्हीं दिनों देवानंद के एक सहायक अमरजीत को जुहू में में टायर पंचर लगाते हुआ एक किशोर मिला जो बहैसियत लेखक बंबइया फिल्मों में किस्मत आजमाने अपने घर से भागकर आया था। उस वीरबालक को उमेश जी ने समझाया कि अभी तुम्हारी पढ़ने-लिखने की उम्र है इसलिए पहले पढ़ाई पूरी करो फिर बंबई आओ। उस वीरबालक की वापसी के लिए चंदा इकट्ठा करके हमने उसे बंबई से विदा किया। लगभग सात वर्ष बाद साप्ताहिक हिंदुस्तान में एक नौजवान पत्रकार मुझसे मिलने आया और उसे देखते ही मेरे मुँह से निकला, 'कहो वीरबालक तुम यहाँ कैसे?'
रामशरण जोशी 


रामशरण जोशी जयपुर में अपनी पढ़ाई पूरी करके बहैसियत फिल्म-लेखक बंबई में किस्मत आजमाने आ गए थे। मैंने उस वीरबालक का स्वागत किया और उसकी सारगर्भित पत्रकारिता के कई नमूने छापे। शुरू में रामशरण जनसंघियों की न्यूज एजेंसी 'हिन्दुस्थान समाचार'से जुड़े हुए थे। फिर वह एक नक्सलवादी के रूप में प्रकट हुए। उनकी बातचीत और पत्रकारिता से यह संकेत मिलने लगा कि संघर्ष है जहाँ, वीरबालक है वहाँ। इसके साथ ही नेताओं के बारे में उनकी व्यक्तिगत जानकारी में बड़ी तेजी से इजाफा होता चला गया। सत्ता-प्रतिष्ठान के पत्रों के लिए लिख तो पहले से ही रहे थे फिर वह उनमें से एक में अच्छे पद पर नियुक्ति भी पा गए। और इसके साथ ही उनका संघर्षरत क्रांतिकारी वाला स्वरूप ज्यादा जोर पकड़ने लगा।

तो फिर मैंने एक फिकरा गढ़ा - वीरबालकवाद। वीरबालकवादी का जीवन बगैर क्रांति की क्रांतिकारिता को, बगैर संघर्ष के संघर्ष को और बगैर जोखिम के जोखिम को समर्पित रहता है। कलम का सिपाही होने के नाते वह सारी लड़ाई शब्दों में लड़ता है अर्थात उसकी वीरता वाचा के आयाम तक सीमित रहती है। मनसा और कर्मणा वह सयाना बनता चला जाता है और जितना सयाना होता जाता है उतना ही बोलने और दिखने में वीरता को प्राप्त होता है। इसी के चलते आज हिंदी में सारी सत्ता वयोवृद्ध वीरबालकों के हाथ में है और उनकी छत्रछाया में तरुण वीरबालक तेजी से पनप रहे हैं। वह समझ गए हैं कि वाचा ही वीरबालक बनना चाहिए। और अपना कद बढ़ाने के लिए दूसरे वीरबालकों का कद घटाना चाहिए। दस रीत को अपनाकर 'करियरिस्ट'और 'क्रांतिकारी'दोनों एक साथ हुआ जा सकता है।

पढ़ें : घृणित विचारों और कृत्यों वाले पत्रकार की आत्मप्रशस्ति है यह, आत्मभंजन नहीं मिस्टर जोशी

अगर आप मनसा और कर्मणा भी वीरबालक बने रहें तो आप झगड़ालू, सिरफिरे औ सिनिकल समझ लिए जाएँगे। शैलेश मटियानी की तरह किसी भी गुट में फिट नहीं हो पाएँगे और सभी के हाथों पीटे जाएँगे। आपको अपने जीते जी किसी तरह की कोई मान्यता, पद-प्रतिष्ठा, पुरस्कार-पुरस्कार राशि और सुख सुविधा कभी नहीं मिल सकेगी। मरने के बाद मिलेगी इस भरोसे भी आप तभी मर सकेंगे जब आपको यह विश्वास हो कि दो-चार वीरबालकवादी आपकी आत्मा की शांति के लिए अनुष्ठान कर-करके अतिरिक्त प्रतिष्ठा अर्जित करने को लालयित होंगे। मनसा और कर्मणा वीरता को आप जितना ही छोड़ते जाएँ उतनी ही 'वाचा'के स्तर पर अपनी वीरता को उद्घोष शुरू कर दें। ऐसा न करने पर आप अपनी नजरों में भी गिर जाएँगे, दूसरों की नजरों में तो खैर आप गिरे हुए होंगे ही।

कारण सच्चा वीरबालक उसे ही माना जाता हैजो भौतिक सुखों को जूते की नोक पर रखने वाला ऋषि और लेनिन के पद-चिह्नों पर चलने वाला रिवोल्युशनरी दोनों हो। इस कसौटी पर खरा उतर सकने वाला साहित्यकार मिल सकना कहीं भी कठिन है और हमारे अर्द्धसामंती समाज में तो असंभवप्राय है। अपने इस इतने लंबे साहित्यिक जीवन में मैंने अब तक कुल एक ऐसा लेखक देखा है जो अच्छी खासी नौकरी छोड़कर नक्सलवादी बनने चला गया। वह था दिनमान में मेरे साथ काम कर चुका रामधनी। लेकिन अभी पिछले दिनों में कोई बात रहा था कि वह भी अब मुख्यधारा में शामिल हो गया है। अपने मित्र मुद्राराक्षस को छोड़ मैंने किसी और लेखक को नहीं देखा जिसने किसान या मजदूर मोर्चे पर काम किया हो। और तो और स्वतंत्र लेखन कर सकने और अपनी बात बेरोक-टोक कहने की खातिर नौकरी छोड़ने वाले पंकज बिष्ट जैसे लोग भी गिने-चुने ही मिल पाएँगे। लुत्फ ये है कि सभी वीरबालक अपने बायोडाटा में एक इंदराज संप्रति अवश्य रखते हैं। यथा - संप्रति - गुरु घासीदास विश्वविद्यालय में अध्यापनरत। मानो इससे पूर्व एवरेस्ट अभियान में रत थे और इसके बाद पेरू के जंगलों में छापामारों के कंधे से कंधा मिलाकर युद्धरत हो जाएँगे।

तो जहाँ सभी अपनी ही मान्यताओं के अनुसार छोंगी,कायर और पतित तीनों ही हों, वहाँ सारा खेल इस बात तक सीमित रह जाता है कि साहित्यिक राजनीति की आवश्यकता और अपने स्वार्थ को ध्यान में रखते हुए कब किसको कितना ज्यादा गिरा हुआ बताना है अथवा मन की बात मन में ही रखते हुए कब कितना उठा देना है? हर समझदार वीरबालक इस बात को समझता है कि अगर मैं कुछ दूसरों को गिरा कुछ दूसरों को उठा हुआ बताऊँगा तो कुछ नासमझ तीसरे मुझे इसलिए उठा हुआ मान लेंगे कि ऊँचाई पर बैठा हुआ इनसान ही इस तरह के प्रमाण पत्र बाँट सकता है, यही नहीं, जिन वीरबालकों को मैंने उठा हुआ बताया है वे सब मुझे हाथोंहाथ उठा लेंगे। कुछ नादान पाठक शंका कर सकते हैं कि क्या दूसरों को पतित बताने वाला वीरबालक यह जोखिम उठा रहा होता है कि वे पलटकर उस पर वार कर देंगे?

इन शंकालुओं को यह समझना चाहिए कि हर वीरबालक जहाँ तक हो सके हेड आफ डिपाट कटगरी के किसी ऐसे व्यक्ति पर प्रहार नहीं करता जो पलटकर उसका कोई नुकसान कर सकता हो। अगर वह ऐसे व्यक्ति पर प्रहार करता भी है तो किसी अन्य हेड आफ डिपाट के आशीर्वाद और कृपादृष्टि आश्वासन ले लेने के बाद ही। रीडर और लेक्चरर कटगरी के वीरबालकों पर प्रहार करना निरापद ही नहीं, आवश्यक भी समझा गया है। नई पीढ़ी के वीरबालक पुरानी पीढ़ी के अब वयोवृद्ध हो चले ऐसे नामवर वीरबालकों पर निर्भय होकर प्रहार करने लगे हैं जिनके पास अब कोई खास सत्ता रह न गई हो। लेकिन पुरानी पीढ़ी के वीरबालक इतने सयाने हैं कि टाप पोजिशन पर रह चुके किसी अन्य वृद्ध वीरबालक पर तब तक वार नहीं करते जब तक उसकी तेरहवीं क्या, बरसी न हो गई हो।

कुछ पाठकों को शंका हो सकती है कि जब वो वाले'सर'सत्तावान अथवा प्राणवान अथवा दोनों ही थे तब वीरबालकों ने जाकर उनसे यह नम्र निवदेन क्यों नहीं किया कि 'सर'अन्यथा न लें लेकिन हमारी समझ से आप रिएक्शनरी और डिकाडेंट दूनों हैं। वीरबालक रिवोल्युशनरी के साथ-साथ ऋषि भी होता है और ऋषियों को बड़ों का निरादर करना शोभा नहीं देता। अब शंकालु यह पूछ सकता है कि क्या ऋषियों को गाली-गलौज करना शोभा देता है? अरे ऋषियों को न देता हो रिवोल्युशनरियों को तो देता है ना। इस तरह की क्रांतिकारी कार्रवाई ही तो वीरबालक-बिरादरी के जाग्रतावस्था में पहुँची है वर्ना उसमें तो ऊँघते रहने की महामारी व्याप्त है। वीरबालकों की आँखें तभी खुलती हैं जब कान में गालियों की आवाज पड़े या काकटेल्स के लिए पुकार।

रीडर कटगरी के वीरबालकों के लिए यह भी निरापदसमझा जाता है कि वह परोक्ष प्रहार करें अर्थात कोई ऐसी कहानी या कविता लिख दें जिसमें कुछ वीरबालक विशेष या एक वीरबालक विशेष नितांत घृणित किस्म का पात्र बना दिया गया/दिए गए हों। ऐसी हर रचना की बहुत चर्चा होती है और सभी वीरबालक उसके विषय में एक-दूसरे को फुनियाते हैं। इस तरह का प्रच्छन्न प्रहार इसलिए निरापद माना गया है कि जिस किसी पर प्रहार किया गया हो वह तो मानेगा ही नहीं कि इस रचना का निशाना मैं हूँ। स्वयं रचनाकार को भी यह सुविधा मिल जाती है कि आवश्यकता पड़ने पर अपने निशाने से कह दें कि सर आपके शत्रु इतने घृणित हैं कि मेरे और आपके संबंध बिगाड़ने के लिए कहते डोल रहे हैं कि अपनी रचना में मैंने उनका नहीं, आपका पर्दाफाश किया है।

समझदार वीरबालक एक समय में एक से ज्यादा हेडआफ डिपाट को नहीं जुतियाता। और उसे जुतियाने से पहले भी किसी अन्य हेड आफ डिपाट से वचन ले लेता है कि आप हमको एक जोड़ा नया जूता तो दिलवा दीजिएगा ना? सभी सरों के सिर पर ताबड़तोड़ जूते बरसाने में दो खतरे पेश आते हैं। पहला यह कि आप पागल समझ लिए जाएँगे। दूसरा यह कि आपका जूता टूट जाएगा और आप जानिए नंगे पाँव चलने वाले का वीरबालकों के साहित्य में भले ही अनन्य स्थान हो, वीरबालकों की बिरादरी में वे नगण्य समझे जाते हैं। उनके बारे में यह तक नहीं माना जाता कि वे वे मकबूल फिदा हुसैन मार्का बेहतरीन स्टंटबाज हैं। सीरियस वीरबालक बिरादरी में स्टंटबाजी नहीं चलती तो सुजान वीरबालक किसी सर के सिर पर जूता तभी बरसाता है जब किन्हीं अन्य सर की वरद हथेली उसके अपने सिर पर टिकी हुई हो। ज्ञातव्य है कि हिंदी में जूनियर वीरबालक डाक्साब और सीनियर वीरबालक सर कहकर संबोधित किए जाते हैं। जौत्यकर्म के विषय में विधान यह है कि इसे दो अवस्थाओं में ही अधिक करना उचित है। या तो तब जब आप करियर बनाने के लिए हाथ-पाँव मार रहे हों या फिर जब आप हेड आफ डिपाट बन चुके हों। करियर की तलाश में लगभग घिस चुका फटा-पुराना जूता धड़ाधड़ प्रतिष्ठितों के सिर पर बरसाएँगे तभी वयोवृद्ध वीरबालकों की नोटिस में आएँगे। उनमें से हर हेड आफ डिपाट ललचाएगा कि क्यों नहीं इस बलिष्ठ-बाहु को फैलोशिप दिलवाकर पटा लूँ कि यह मेरे दिए जूते से मेरे प्रतिद्वंद्वियों को तसल्लीबख्श ढंग से गंजा करता रहे। फैलोशिप मिल जाने के कुछ ही समय बाद गुरुजनों की संगत में तरुण वीरबालक को यह बात समझ में आती है कि राजनीति की तरह साहित्य में भी स्थायी दोस्त दुश्मन-जैसी कोई चीज नहीं होती। शत्रुता का एक बहुत ही मैत्रीपूर्ण मैच चलता रहता है। सौदेबाजी चलती रहती है और समीकरण बदलते रहते हैं। इसलिए आपसी गाली-गलौज को बहुत सिर-यसली में नहीं टेक किया जाता।

सच तो यह है कि जौत्यकर्म को मनोरंजक रूप से उत्तेजकऔर उत्तेजक रूप से मनोरंजक विधा का दर्जा दिया जाता है। 70 के दशक से उस मुक्तमंडी का वर्चस्व बढ़ना शुरू हुआ जिसकी संस्कृति ओर राजनीति दोनों में ही इस तरह के उत्तेजक-मनोरंजक जौत्यकर्म का अच्छा भाव लगता है। मुझे याद है कि ज्ञानपीठ पुरस्कार की स्थापना के अवसर पर साहू जैनों द्वारा आयोजित महासम्मेलन में बहैसियत तरुण वीरबालक मैं थोड़ा गरजा-बरसा और मेरे बाद श्रीकांत ने तो उसी हैसियत से सत्ता-प्रतिष्ठान और उससे जुड़े साहित्यकारों पर इतना जोरदार प्रहार किया कि बोलते हुए उसकी कमजोर काया अपने दुस्साहस पर स्वयं ही काँपती रही। वह तब हैरान हो गया जब बाद में श्रीमती रमा जैन ने उसे बुलवाया और बहुत प्यार से समझाया कि जोश बहुत अच्छी चीज है लेकिन थोड़ा संयम भी जरूरी होता है। कुछ ही समय बाद श्रीकांत भी मेरे साथ साहू जैनों के दिनमान में काम करता नजर आया।

अगर मैं भूला नहीं होऊँ तो लगभग उन्हीं दिनों पेरिस में पी.ई.एन. के अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में अध्यक्ष पद से बोलते हुए अमरीकी नाटककार आर्थर मिलर ने ने इस विडंबना की ओर ध्यान दिलाया था कि लोकतंत्र वाले देशों में सत्ता प्रतिष्ठान को मुँह बिराते संस्कृतकर्मी अब जेलों में नहीं, भव्य दफ्तरों में कैद किए जा रहे हैं। उनकी हैसियत खतरनाक क्रांतिकारियों की नहीं, मनोरंजक उछल-कूद करने वाले बंदरों की रह गई है इसलिए वे जितना ही ज्यादा गाली-गलौच करते हैं उन्हें उतना ही ज्यादा प्यार से गले लगाया जाता है। उन्हें अपनाकर सत्ता प्रतिष्ठान अपनी छवि सुधार लेता है और साथ ही स्वयं उन्हें सत्ता प्रतिष्ठान का ही एक हिस्सा बना देता है। कृपया ध्यान दें कि मिलर ने यह बात विचारधारा की समाप्ति और मुक्तमंडी की विश्वविजय के मौजूदा दौर से कई दशक पहले कही थी।

आज तो पूँजीवादी मीडिया हर कहीं वामपंथी वीरबालकों को वातानुकूलित दफ्तरों में बैठकर सर्वहारा की पैरवी और मुक्तमंडी की भर्त्सना करने के लिए तगड़ा वेतन और हर तरह की सुख-सुविधा दे रहा है। लोकतंत्र और मुक्तमंडी के अंतर्गत स्वयं राजनीति भी कुल मिलाकर वीरबालकवादी हो चली है इसलिए आज भारत जैसे असामंती देश तक यह संभव है कि आप किसी सेठ की या सरकार की नौकरी करते हुए भी अपने को सत्ता-प्रतिष्ठान-विरोधी क्रांतिकारी मान और मनवा सकें। कभी कम्युनिस्ट होने पर सरकारी नौकरी नहीं मिलती थी, आज विचारधारा की समाप्ति के बाद यह आलम है कि पूँजीपति मीडिया में काम करने वाले पत्रकार और आई.ए.एस., आई.पी.एस. अधिकारी भी अपने को कम्युनिस्ट बता रहे हैं। बहरहाल वीरबालक बिरादरी सेठाश्रय और राजाश्रय का मुक्तकंठ से विरोध करती पाई जाती है उसमें एक-दूसरे पर सेठाश्रय या राजाश्रय लेने का आरोप लगाने का रिवाज है।

हर समझदार वीरबालक यह जानता है कि प्रतिरक्षा का श्रेष्ठ उपाय प्रहार है। इसीलिए वह 'जो पहले मारे सो मीर'के सिद्धांत पर पूरी आस्था रखता है। पहले हमला करने वाला अपने पर जवाबी हमला करने वाले को लचर सफाई देने वाला ठहराते हुए पूछ सकता है कि अगर आपको मैं पतित और प्रतिक्रियावादी लग रहा था तो आप अब तक चुप्पी काहे साधे थे? इस पर सफाई देने वाला यदि अतिरिक्त सफाई देते हुए यह कहे कि मैं तो शालीनतावश चुप था तो कोई बात बनती नहीं। कारण, वीरबालक बिरादरी में 'शालीनता'की तो होती है लेकिन शालीनता की नहीं। शालीनता अर्थात अपनी समस्त प्रगतिशीलता के बावजूद सरस्वती-वंदना सुनने और शंख-ध्वनि के बीच शाल, श्रीफल, प्रतिमा और चेक लेने की स्वीकृति। मैं बराबर इस प्रतीक्षा में रहा हूँ कि कोई वीरबालक 'शालीनता'पर सैद्धांतिक और व्यावहारिक आपत्ति उठाएगा। व्यावहारिक यह कि जब हम न शाल ओढ़ते हैं और न हमें नारियल गिरी की बर्फी पसंद है तब आप शाल-श्रीफल ही क्यों दिए चले जाते हैं? सूट लेंथ और स्काच नहीं दे सकते क्या? सैद्धांतिक यह कि हम क्रांतिकारियों को इस तरह की भारतीयता अर्थात प्रतिक्रियावाद से जुड़ी चीजें क्यों दी और सुनाई जा रही हैं।

यहाँ उल्लेखनीय है कि वीरबालक बिरादरी के लिए'भारतीयता'खासी गड़बड़ सी चीज रही है। किसी के पतित ठहरा देने का अचूक तरीका वीरबालकों में यही माना जाता रहा है कि उसे पुरातनपंथियों या हिंदुत्ववादियों से जोड़ दिया जाए। जब से भाजपा भी सत्ता की भागीदारी होने लगी है तब से वीरबालकों के लिए उससे जुड़ने का लालच और उससे जोड़ दिए जाने का खतरा दोनों ही बहुत बढ़ गए हैं। एक संस्मरण ठोकने की अनुमति चाहता हूँ। मुझे व्यंग्य लेखन के लिए पुरस्कार दिया जाना था। आयोजकों ने कहा कि अपनी पसंद का कोई वक्ता बता दीजिए। मैंने ऐसे अधेड़ वीरबालक का नाम सुझाया जिसकी रचनाएँ मैं बहुत पसंद करता हूँ। आयोजन से हफ्ता भर पहले उसका मेरे पास फोन आया कि जोशी जी मैं दो रात से सो नहीं सका हूँ। आप ही बताइए मैं क्या करूँ?

मैं बड़े चक्कर में पड़ गया, पूछा, 'क्या हुआ भाई?'पता चला कि पुरस्कार देने अटल जी आ रहे हैं। और उनके वयोवृद्ध बालकों ने कहा है कि संघ परिवार से जुड़े पी.एम. के साथ मंच शेयर करना ठीक नहीं रहेगा। मैंने उनसे न यह पूछा कि सी.पी.एम. के नेता संघियों के साथ क्यों पर्लियामेंट शेयर कर रहे हैं और न यह कि वयोवृद्ध वीरबालक संघीय पी.एम. की सरकार द्यारा गठित समितियों और आयोजित गोष्ठियों में क्यों चले जा रहे हैं? मैंने उससे सिर्फ इतना कहा कि परेशान क्यों होते हो मना कर दो। इस पर उसने राहत और हैरानी दोनों एक साथ व्यक्त की। वीरबालकवादियों के लिए सही मंत्रों का जाप करना और राजनीतिक छुआछूत बरतना बहुत आवश्यक माना गया है। इसके अभाव में आपकी वीरता संदिग्ध हो जाएगी क्योंकि वीरता दिखाने के लिए कोई और अवसर न प्रस्तुत हुआ है और मुक्तमंडी ने चाहा तो आगे भी प्रस्तुत नहीं होगा। परम प्रसन्नता का विषय है कि स्वाधीनता के बाद से अब तक हिंदी भाषी प्रदेश में कुल एक बार ऐसा अवसर आया जब वीरता के प्रदर्शन से कष्ट में पड़ने का कोई खतरा पैदा हो सकता था।
रामशरण जोशी 


वह था आपातकाल। लेकिन उसके दौरान वीरबालकों नेकोई खास वीरता प्रदर्शित की नहीं। शायद इसलिए कि वे जेल नहीं जाना चाहते थे या शायद इसलिए कि वे इंदिरा गांधी को वामपंथी समझते थे। खैर जो हो, उसके वर्षों बाद कुछ वीरबालक आपातकाल के संदर्भ में भी वीरता और कायरता के प्रमाण पत्र बाँटते रहे। मेरी कायरता असंदिग्ध है क्योंकि मैंने कुर्सी नहीं छोड़ी। लेकिन यह भी असंदिग्ध है कि उस दौर में वीरबालक बिरादरी में कुर्सी छोड़ देने की कोई प्रतियोगिता नहीं चली हुई थी। मेरे मित्र साहित्यकारों में केवल कमलेश ही ऐसे थे जो इंदिरा गांधी के विरोध में कुछ कर दिखाने के लिए निकले थे। प्रसंगवश बाद में कमलेश वीरबालक बिरादरी के लिए समर्थ कवि और प्रकांड विद्वान से ज्यादा इस रूप में सांय स्मरणीय हुए कि समर्थ मेजबान हैं। मेरे दोस्तों में कुल निर्मल वर्मा ने ही 'जोशी हाउ कैन यू...'वाली शैली में लताड़ते हुए तब कायर संपादक कहा था। औरों को तो यह इलहाम इंदिरा गांधी के हार बल्कि मर जाने के बाद हुआ।

वीरबालक कुर्सी छोड़ना नहीं, कुर्सी पाना चाहते हैं।औसत वीरबालक ने ज्यादा नहीं तो इतना समझने लायक मार्क्सवाद तो पढ़ ही रखा होता है कि हम एक अर्द्धसामंती समाज में जी रहे हैं जिसमें कलम से कहीं ज्यादा महिमा कुर्सी की है। रुतबा, रौब, रुपया, कुर्सी पर बैठने के बाद ही मिलता है। कुर्सी ही जमाने और उखाड़ने के लिए अधिकार दिलाती है, जो भक्तों को आकर्षित शत्रुओं को आतंकित करती है। वीरबालक भयंकर रूप से सत्ता-ग्रंथि का मारा हुआ होता है क्योंकि हिंदीभाषी क्षेत्र में साहित्य और साहित्यकार की अपनी अलग से कोई सत्ता बची ही नहीं है। मुझे अपने दोस्त श्रीकांत का एक सवाल याद आता है जो उसने मुझसे एक दिन दिनमान कार्यालय में पूछा था, यह बताओ जोशी कि ज्यादा पावर किस में होती है - पोस्ट में कि पालिटिशियन में? अगर मैं अपने कसबे बिलासपुर में पावरफुल पोस्ट होकर लौटूँ तो मुझे ज्यादा सम्मान मिलेगा कि पावरफुल मिनिस्टर बनकर लौटने में?

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श्रीकांत मिनिस्टर तो नहीं बाद में एम.पी. जरूर बन गयाऔर खुद यह देख सका कि जहाँ तक वीरबालकों का सवाल है उनके लिए संसद की सत्ता साहित्यकार की सत्ता से कहीं ज्यादा बड़ी है। श्रीकांत एक बढ़िया कवि के रूप में हमेशा याद किया जाएगा लेकिन उस दौर में वह पी एम के निकट होने और बड़ी दरियादिली से स्काच पिलाने के लिए याद किया जाता था। उसे भाव-विह्वल श्रद्धांजलि देते हुए एक वीरबालक ने कहा था, 'अब श्रीकांत जैसा स्काच पिलाने वाला कहाँ मिलेगा।'खैर तो वीरबालक एक-दूसरे पर प्रहार करते हुए यह मानकर चलते हैं कि राजनेता सर्वशक्तिशाली हैं और कुर्सियाँ उनकी कृपा से ही मिलती हैं और जब हमसे छिनती हैं तो राजनेताओं के कोप के कारण ही। बिरादरी में किसी को घटिया साबित करने का सबसे बढ़िया उपाय यह समझा जाता है कि उसे राजनेता की चापलूसी करके कुर्सी पाने और बचाने वाला सिद्ध कर दिया जाए।

अब जैसा रामशरण जोशी ने मुझे आपातकाल में कायरता दिखाने का प्रमाण पत्र देने के साथ-साथ यह भी बताया है कि इंदिरा गांधी के हार जाने के बाद अपनी कुर्सी बचाए रखने के लिए मैंने अटल जी की कुंडलियाँ छापनी शुरू कर दीं। सफाई देना इसलिए व्यर्थ नहीं है कि किस्सा खासा दिलचस्प है। हुआ यह कि जेल से अटल जी ने एक कुंडली संपादक के नाम पत्र के रूप में भेजी जिसमें मारीशस में हुए विश्व हिंदी सम्मेलन पर कटाक्ष किया गया था। पत्र जेल-सेंसर से पास हो कर आया था इसलिए मैंने छाप दिया लेकिन इसके छापे जाने पर सूचना मंत्रालय के सेंसर ने मुझे फटकार सुनाई। फिर विदेशमंत्री बन जाने के बाद अटल जी ने अपने कुछ गीत प्रकाशनार्थ भेजे जिन्हें मैंने तुरंत नहीं छापा। इस पर उन्होंने संपादक पर व्यंग्य करते हुए एक कुंडली भेजी। फिर मैंने उनके गीत छापे और उनकी भेजी कुंडली और जवाबी संपादकीय कुंडली भी साथ ही साथ छाप दिए। संपादकीय कुंडली में कहा गया था कि मंत्री पद पा जाने पर कवि हो जाना सहज संभाव्य है।

मुझे सचमुच बहुत अफसोस है कि मुझेअपनी कुर्सी बचाने के लिए ऐसे घटिया काम करने पड़े। जहाँ तक रामशरण जोशी का सवाल है मेरे लिए यह अपार संतोष का विषय है कि उन्हें अपने नक्सलवादी विचारों के कारण माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय के कार्यकारी निर्देशक का पद मिल गया है और इसे पाने या बचाने के लिए उन्हें कभी किसी कांग्रेसी सी.एम.,पी.एम. की चाटुकारिता करने की कोई आवश्यकता नहीं पड़ी। खैर शत्रुतापूर्ण मैत्री और मैत्रीपूर्ण शत्रुता में विश्वास करने वाले वीरबालकों में एक-दूसरे के बारे में झूठ बोल देने से परहेज उतना ही कम किया जाता है जितना कि अपने बारे में सच्चाई स्वीकार करने से। दूसरों के बारे में कहीं से कोई गड़ा मुर्दा उखाड़कर ले आया जाता है तो अपने बारे में यह तक भुला दिया जाता है कि अभी कल ही हम कहीं और क्या कह अथवा कर चुके हैं। अरे परिपक्वता आने के साथ-साथ आदमी का विचार बदलता है कि नहीं? कुछ वयोवृद्ध वीरबालक तो इस मामले में इतने भुलक्कड़ हैं कि एक ही गोष्ठी में बोलते-बोलते परिपक्व हुए चले जाते हैं। वीरबालक बिरादरी में कुर्सी इसलिए भी बहुत जरूरी समझी जाती है कि यद्यपि हर वीरबालक अपने को कलम का मजदूर कहता है तथापि वह लिखकर पैसा कमाने को कलम बेच देने का पर्याय मानता है। इसलिए कभी वीरबालकों को पत्रकारिता से भी परहेज था। अब उससे तो नहीं लेकिन फिल्म और टीवी के लिए लिखने से है। खैर पत्रकार या लेखक के रूप में मीडिया से जुड़ने वाला हर वीरबालक यह कहते रहने जरूरी समझता है कि मैंने अपनी कलम बेची नहीं है और सरकार या सेठ से किसी तरह का समझौता नहीं किया है। पूँजीपतियों से जोड़े जाने के कलंक से बचने के लिए कुछ सयाने वीरबालकों ने किसी ऐसे छोटे-मोटे सेठ को पकड़ लेने की युक्ति अपनाई है जो साहित्य का मारा हुआ हो और बुद्धिजीवियों की सोहबत करा देने की एवज में सारे खर्चे-पानी का जुगाड़ खुशी-खुशी कर देता हो।

जो वीरबालक बड़े सेठों के लिए काम करते हैं वेइस बात को छिपा जाते हैं कि मालिक को नौकर की वैचारिक क्रांतिकारिता से कोई फर्क नहीं पड़ता। वह तो केवल जी-हजूरी और हितरक्षा चाहता है। जब तक आप विज्ञापन से आय बढ़वाते और सत्तावान लोगों से संबंध सुधरवाते रहेंगे तब तक सेठ आपको सांस्कृतिक पृष्ठों पर कुछ भी लिखने-छापने की पूरी छूट देता रहेगा। दूसरे वीरबालक आपकी शिकायत करें तो वह अनसुनी कर देगा। जी हाँ, सेठ से यह शिकायत की जाती थी कि आपका संपादक कम्युनिस्ट है और पश्चिमी रंग में रंगा हुआ है। अब यह शिकायत की जाती है कि आपका संपादक पोंगापंथी हिंदी वाला है जो भूमंडलीकरण के तकाजों से अनजान है।

कभी मेरे द्वारा साप्ताहिक हिंदुस्तान किआवरण पर कांगड़ा-शैली के श्री राधा जी के चित्र के बारे में कृष्ण कुमार जी से यह शिकायत की गई कि पश्चिमी रंग में रंगे कम्युनिस्ट संपादक ने राधा का नग्न चित्र छापकर धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचाई है। कृष्ण कुमार जी ने मुझे बुलाकर कहा था, कांगड़ा शैली का है वह तो मैं समझ गया लेकिन भई देखो अपन ऐसे फोटो निकालें ही क्यों की लोग नाराज होवें और सर्कुलेशन घटे। मैं समझता हूँ कि अब नई पीढ़ी के सेठ भी नई पीढ़ी के संपादक जी को बुलाकर कुछ यों कहते होंगे, पोर्नोग्राफी के लिए कौन कह रहा है भई लेकिन अपने प्रोडक्ट की अपमार्केट इमेज तो बनानी ही चाहिए। हिंग्लिश यूज करके और लुगाइयों के सेमीन्यूड फोटो निकालकर। नहीं तो अपनी तो एड-रेवेन्यु निल रह जाएगी। जिसे पुराना सेठ अपसंस्कृति की जननी समझता था उसे नया सेठ अपमार्केट की मदर बताता है।

किसी छोटे या बड़े नेता, किसी छोटे या बड़े सेठ की कृपा से किसी गद्दी पर आसीन साहित्यिक सामंत वीरबालक का जलवा देखना हो तो उसके साथ कभी दौरे पर निकलिए। जहाँ जाइएगा स्टेशन या हवाईअड्डे पर स्थानिक वीरबालकों की सलामी गारद अटेंशन में पाइएगा। उसका स्थानिक मन-सबदार उसे हार पहनाएगा और वेरी इंपोर्टेंट वयोवृद्ध वीरबालक वी.आई.वी.वी. की चरण रज अपने माथे लगाएगा। फिर अपने यहाँ के सबसे बड़े नेता, सेठ या अधिकारी की कार में वी.आई.वी.वी. को अपने यहाँ के सबसे बढ़िया होटल या सरकारी विश्राम गृह में ले जाइएगा जहाँ कार-दाता एक और सलामी-गारद, एक और हार के साथ प्रस्तुत होगा। सलामी की रस्म पूरी हो जाने के बाद कारदात अपना स्काचदाता रूप दिखाते हुए एक बोतल सेवा में प्रस्तुत करेगा। जो सभा होगी उसमें वी.आई.वी.वी. अपनी वीरता और शत्रुओं की कायरता का बखान करके स्थानीय वीरबालकों की दाद पाएगा और स्थानीक साहित्यकारों के वीरबालकवादी तेवरों पर स्वयं दाद देगा। साहित्य चर्चा अंतर्गत इतना ही होगा कि स्थानिक वीरबालक वी.आई.वी.वी. को अपनी कोई पुस्तक थमाते जाएँगे कि सर पढ़कर दो शब्द लिखने की कृपा करें। सर प्रोत्साहन के दो शब्द वहीं बगैर पढ़े कह डालेंगे और दिनभर में मिली कई किलो रद्दी स्थानिक मनसबदार के लिए छोड़ आएँगे।

वी.आई.वी.वी. तरुण वीरबालकों को यह नेकसीख दे जाता है कि अच्छा साहित्यकार होने के लिए अच्छा वीरबालक होना जरूरी है, कुछ अच्छा पढ़ना या लिखना नहीं। जहाँ तक हो सके लिखो ही मत। लिखो तो अच्छा मत लिखो क्योंकि रूपवादी समझ लिए जाओगे। और देखो तुम्हें लिखने के जिद ही हो तो ऐसी छोटी-मोटी कविताएँ लिखो जिनकी तारीफ में मित्र आलोचक जितना भी कहें वो कम हो लेकिन जिनके बारे में इतना कहना ही काफी हो कि याद न रखी जा सकने के मामले में ये सर्वथा यादगार है। ऐसी कविताएँ लिखने में समय कम लगता है और संग्रह जल्दी तैयार हो जाता है। संग्रह पढ़ने में भी ज्यादा समय नहीं लगता। उपन्यास लिखोगे तो सभी वीरबालक लोकार्पण गोष्ठी में बिना पढ़े ही पहुँच जाएँगे। लेकिन दि बेस्ट तो यह है कि कुछ भी मत लिखो। बस विवादस्पद वक्तव्य, साक्षात्कार देते रहो। इस बात को समझो कि वीरबालकों के साहित्य-दरबार में राजा इंद्र का रोल ऐसे रिवोल्युशनरी ऋषि को ही नसीब हो पाता है जो आसार-संसार में आकंठ लिप्त होते हुए भी साहित्य संसार में संन्यास ले चुका हो। अब लगे हाथों कुछ बातें वीरबालकवाद के ऋषि पक्ष के संदर्भ में भी कर ली जाए। साहित्यिक हाजमा ठीक रखने के लिए सत्यम, शिवम, सुंदरम की डोज नियमित रूप से पीने और पिलाने वाले हमारे वीरबालकों का ऐसा विश्वास है कि ऋषिगण सुरा-सुंदरी और राजदरबार में मिलने वाले मान-सम्मान तीनों से सख्त दूरी बरतते आए हैं। सांसारिक भोग-विलास से यह परहेज ही उन्हें समाज की आँखों में राजा से ऊँचा स्थान दिलाता आया था। अब सुरा का ऐसा है कि उसका आविष्कार हुआ ही इस लिए की कतिपय कविमन किस्म के प्राणियों ने पाया कि नशे के अभाव में सही सुर लग नहीं पाता है। और सुंदरी का ऐसा है कि मानव जाति ने लँगोट का ईजाद किया ही तब जब आमराय यह बनी कि जो मर्द बच्चा सो लँगोट कच्चा।

प्राचीन ऋषियों के बारे में मेरी जानकारी नहीं के बराबर है इसलिए मैं पंडित वागीश शुक्ल से पूछकर ही आपको बता सकूँगा कि वे सुरा और सुंदरी से कितना परहेज बरतते थे। संभव है तब भी न बता पाऊँ क्योंकि प्राचीन भारत के बारे में किसी तरह की गड़बड़ बात बोलना निरापद नहीं है। दो नवीन ऋषियों उर्फ वीरबालकों में से ज्यादातर सुरा-सुंदरी त्याग नहीं पा रहे हैं बेचारे। तो इस संदर्भ में सारा वीरबालकत्व यह सिद्ध करने में है कि मैं पीता भी हूँ तो अपने पैसे की जबकि दूसरे मुफ्त की पीते हैं? जी हाँ, और अगर कौनो जन बहुत पीछे पड़ जाए तो हमहु पी लेते हैं। इस संदर्भ में वयोवृद्ध वीरबालकों के बारे में तरुण वीरबालक दिलचस्प जानकारियाँ देते रहे हैं मुझे। जैसे यह कि उनमें से एक सुरा-प्रेमियों को दर्शन देने बहुधा आ जाते हैं लेकिन मधुशाला को उनसे एक कानी कौड़ी भी लेने का आज तक कष्ट नहीं उठाना पड़ा है। कलम का कोई भी मजदूर शराब पीने में अपनी मेहनत की गाढ़ी कमाई बरबाद नहीं कर सकता, अपना जिगर भले कर दे।

जहाँ तक सुंदरियों का संबंध है कदाचित इतना ही कह देना पर्याप्त हो कि साहित्यकार होने के नाते वीरबालक में आरंभ से ही उत्कट सौंदर्यबोध रहता है और आयु के साथ-साथ उक्त सौंदर्यबोध तीव्रतर होता चला जाता है। स्वाभाविक है कि जो सुंदरियाँ युवा वीरबालक को माताएँ-बहनें लगती रहीं थीं वे वृद्धावस्था में बेटियाँ प्रतीत होने लगती हैं। पूर्णाहुत से ठीक पहले या ठीक बाद के क्षण में। नितांत प्रीतिकर रूप से पारिवारिक यह सौंदर्यप्रियता वीरबालकों के ऋषिपद की सुरक्षा करती रहती हैं। अब ऐसा है कि वीरबालक ऋषि के साथ-साथ क्रांतिकारी भी होते हैं और क्रांतिकारी आप जानिए आधुनिक भी होता है और आधुनिकता के मारे आप जानिए कि जैनेंद्र जी जैसे गांधीवादी लेखक तक को पत्नी के साथ-साथ प्रेमिका भी आवश्यक प्रतीत होने लगी थी। तो वीरबालक को क्रांतिकारी रूप में एक ठो प्रेमिका भी अपेक्षित रहती है। बल्कि दो ठो क्योंकि अज्ञेय नदी के द्वीप में अपने साथ रेखा और गौरा दूनों को ले गए थे और सौंदर्यबोध के क्षेत्र में अज्ञेय ही क्रांतिकारियों के आदर्श हैं। वीरबालकवादी साहित्यकार अपने आसपास से जुड़ा रहता है इसलिए जोड़ीदार प्रेमिका को भी आस-पास से ही प्राप्त करना चाहता है। इसके चलते साहित्य-साधिका को ही प्रेमिका बनाने की परिपाटी चली आ रही है। आज वीरबालकवादी डींगें वीरबालकवादी ढोंग के अनुपात में ही इतनी बढ़ चली हैं कि अब हर साहित्य-साधिका किसी न किसी वीरबालक को प्रेमिका ठहराई जा रही है। प्रतिपक्ष के वीरबालक हर सफल साहित्य-साधिका के विषय में यहाँ तक कहते सुने जाते हैं कि वह स्वयं नहीं लिखती, भले घर की औरतों को बिगाड़ने वाला अमुक लंपट वीरबालक उसके लिए लिख दिया करता है। यह शंका करना अपनी मूर्खता का परिचय देना होगा कि अगर वह लंपट-लँगोट-लुच्चा इतना अच्छा लिख सकता है तो अपने नाम से ही क्यों नहीं लिख लेता?

वीरबालक अपनी प्रेमिका का इस अर्थ में भी संरक्षकहोता है कि वह उस पर दूसरों की बुरी नजर नहीं पड़ने देता। एक साहित्य-सभा के बाद चाय-पान के दौरान मैं अपना परिपक्व सौंदर्याबोध एक नवोदिता पर आजमाने लगा तो एक वयोवृद्ध वीरबालक विशेष मुझे बाँह पकड़कर एकांत में ले गए और उन्होंने फुसफुसाकर मुझसे कहा कि अइसा है ये बहुत ही संभ्रांत घर की महिला हैं और इनसे हमारा पारिवारिक सा संबंध रहा है। आप इनसे कुछ इस टाइप... आप समझ रहे हैं ना? अब इतना नासमझ तो बंधुवर मैं भी नहीं हूँ। इधर कुछ अन्य वीरबालक जो कोई ओर क्रांतिकारी चीज लिखने में अपने को असमर्थ पा रहे हैं, अपनी प्रेम-लीलाओं का सार्वजनिक स्वीकार करके अपनी वीरता का प्रमाण दे रहे हैं। सिद्ध कर रहे हैं कि भले ही वे अपने आराध्य पश्चिमी लेखकों जैसा कुछ रच न सके हों प्रेमिकाएँ अपनाने-छोड़ने के मामले में उनसे कभी पीछे नहीं रहे हैं।

आदिवासी गरीब स्त्रियों का 'शिकार'करके भी जनवादी कहलाने वाले कलाकार की आत्मकथा (!)

ऋषि-ग्रंथि के अंतर्गत वीरबालक बिरादरी में राजाश्रय और सेठाश्रय दोनों बड़ी घटिया किस्म की चीजें मानी जाती है। इसीलिए वीरबालक अपने लिए एक ठो स्टैंडर्ड बायोग्राफी गढ़ चुका होता है। मामूली हैसियकत वाले परिवार में जन्म, संघर्षरत माता अथवा पिता अथवा दोनों से प्रेरणा प्राप्त, निर्दय समाज से निर्भीक टक्कर, प्रलोभन ठुकरा क्रांति पथ पर अग्रसर, सीकरी को ठेंगा दिखाने के दंड-स्वरूप मान-सम्मान से वंचित, तिकड़मबाजों द्वारा उपेक्षित किंतु आश्वस्त कि हिस्ट्री बोलेगी ही वाज सिंपली ग्रेट बट हिस्ट्री की डिफिकल्टी यह है कि वह ससुरी मरणोपरांत शुरू होगी। तो वीरबालक दारू से महकती एक आह भरकर कहता है अपने से और अपनों से कि 'अइसे तो हम निराला, मुक्तिबोध की तरह अनचीन्हे मर जावेंगे'इसलिए नौकरी-वौकरी करनी पड़ जाती है और अपना स्थान बानने के लिए भी संघर्षरत रहना पड़ता है।

बता ही चुका हूँ कि वीरबालक-बिरादरी में यह माना जाता है कि दूसरों को नौकरी भ्रष्ट विचारधारा और उत्कृष्ट चमचागीरी के कारण मिली है। इसमें इतना और जोड़ना आवश्यक है कि इस बिरादरी में अगर किसी की कुर्सी जाती है तो वह यही कहता है कि मुझे अपनी क्रांतिकारी विचारधारा के कारण प्रतिक्रियावादी प्रतिष्ठान ने पद से हटाया। खैर इतना निर्विवाद है कि वीरबालक नौकरी सरकार की कर रहे हों या सेठ की वे सच्चे सेवक क्रांति के ही होते हैं। जैसा कि सरकारी नौकरी वाले एक नवोदित वीरबालक ने भरी सभा में मुझे 'सिनिसिज्म'के लिए लताड़ते हुए घोषणा की थी, जैसे तुलसी ने राम की चपरास गले में डाल ली थी वैसे हमने क्रांति की चपरास गले में डाल ली है। गोया वीरबालक राज हो या सेठ के दिए कपड़े भले ही पहन ले नीचे क्रांति की कोई जनेऊनुमा चपरास बराबर डाले रहते हैं कि नौकरी जाते ही कपड़े उतार के उसे दिखा दें।

राजाश्रय या सेठाश्रय की अनिवार्यता से तिलमिलातेवीरबालक फिर एक क्रांतिकारी स्थापना यह करते हैं कि हमें साहित्य में सेठों और नेताओं की घुसपैठ स्वीकार नहीं करनी चाहिए। अस्तु, न सरकारों और सेठों के दिए पुरस्कार ग्रहण किए जाएँ और न ऐसे किसी साहित्यिक आयोजन में सम्मिलित हुआ जाए जिसमें किसी मंत्री या सेठ को बुलाया जा रहा हो। लेकिन इसमें भी कुछ व्यावहारिक दिक्कतें आ जाती हैं। जैसे यह कि नेता न आए तो टी.वी. कवरेज नहीं होता, और तमाम जिस चीज का टी.वी. में कवरेज न हुआ हो वह न हुई मान ली जाती है। पुरस्कारों का ऐसा है कि सरकारों या सेठों द्वारा ही दिए जाते हैं। उन्हें ग्रहण न किया जाए तो बेटी की शादी से लेकर फ्लैट की खरीद तक कई काम अटके रह जाते हैं और कायदे का बायोडाटा भी नहीं बन पाता। 'अस्तु, लेने ही पड़ जाते हैं बंधु।'और फिर आप यह भी तो समझिए ना कि अगर कौनो बड़का मंत्री या कैपिटलिस्टुआ हमको सम्मानित करे के बदे आता है तब हमारा अस्टेटस उससे हाई ही न कहा जाएगा?

इसके बाद ले-देकर यह बचता है कि साधारण साहित्यिकआयोजन में नेता या सेठ न बुलाए जाएँ। महमूर्ख किस्म के लोग ही यह शंका कर सकते हैं कि जब वीरबालकों को नेताओं के दरबार में स्वयं हाजिरी लगाते कोई आपत्ति नहीं होती तब साहित्य के दरबार में उनकी उपस्थित से इतना कष्ट क्यों होता है। हमारे वीरबालक सिद्धांतवादी है। इसलिए उनके तमाम विरोध सैद्धांतिक स्तर पर ही होते आए हैं, व्यावहारिक स्तर पर नहीं। सुनता हूँ कि एक वीरबालक ने अपने घनिष्ठ मित्र और संरक्षक छोटा सेठ से कहा, 'भाई मेरे बुरा मत मानियो सिद्धांत का मामला है आज मैं भरी सभा में तेरा जौत्य-कर्म करूँगा।'इस पर छोटा सेठ ने कहा, 'कर लियो भई लेकिन मीटिंग के बाद मंत्री जी से मेरा सौदा जरूर करवा दीयो।'इस तरह के तमाम दिलचस्प किस्से मुझे नवोदित वीरबालकों के मुँह से सुनने को मिलते रहते हैं क्योंकि अब मैं वीरबालक बिरादरी में स्वयं ज्यादा चलायमान नहीं रह गया हूँ।

तरुण वीरबालकों के कई किस्से सुनकर अपने कानों पर विश्वास नहीं होता और यही प्रमाणित होता है कि हमारे नेताओं की तरह साहित्यिक मठाधीशों ने भी ऐसा माहौल बना दिया है जिसमें सब एक-दूसरे को और जाहिर है कि अपने को भी चोर मान रहे हैं। तरुण वीरबालक अधेड़ और वयोवृद्ध वीरबालकों की अनैतिकता, चाटुकारिता, भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद के किस्से सुनाते जाते हैं और बेसब्री से मुझ वयोवृद्ध वीरबालक की किसी टिप्पणी की प्रतिक्षा करते हैं कि जाके संबद्ध व्यक्ति को सुना आएँ। मैं अपनी जबान को भरसक लगाम देता हूँ लेकिन मैं जानता हूँ कि चुप रहने से भी वीरबालक बिरादरी में कोई बात बनती नहीं है क्योंकि आपके मुँह से निकला कोई-न-कोई उद्गार सुविधानुसार गढ़ लिया जा सकता है। मुझे आश्चर्य होता है कि तरुण वीरबालक आकर कभी कोई साहित्यिक चर्चा नहीं करते। उनकी सारी बातचीत साहित्यिकार चर्चा को समर्पित रहती है। वह यही बताना चाहते हैं कि किसको जमाने-उखाड़ने के सिलसिले में वयोवृद्ध वीरबालकों में क्या सौदेबाजी हुई है।

उनके अनुसार कभी-कभी ये सौदे साहित्य के दायरे तक सीमित होते हैं जैसे यह कि वीरबालक 'ए'ने वीरबालक 'बी''के लेखन की पहली बार निंदा की जगह प्रशंसा इसलिए की है कि वीरबालक बी ने वीरबालक 'ए'के विवादास्पद वक्तव्य के समर्थन में कुछ लिख दिया है। लेकिन अकसर ये सौदे अहो रूपम अहो ध्वनि के दायरे से बाहर होते हैं। प्रशंसा की कीमत कैश या कांइड में वसूल की जाती है। तरुण वीरबालक आते हैं और आश्चर्य करते हैं कि सर क्या आपको इतना भी नहीं पता कि अलाँ ने फलाँ को अपने खर्चे से विदेश यात्रा कराई है। अलाँ को तो फलाँ ने अपनी मिस्ट्रेस बना लिया है। अलाँ ने फलाँ के लिए उसकी कृति के विदेश अनुवाद किए जाने का या उसे विदेश में कोई फेलोशिप मिल जाने का जुगाड़ करवा दिया है। यह विदेश वाली बात तरुण वीरबालकों की चर्चा में अक्सर आ जाती है।

वीरबालकवाद के विदेश पक्ष का ऐसा है कि जहाँऋषि होने के नाते वीरबालक पश्चिम विरोधी होता है वहाँ क्रांतिकारी होने के होने के नाते वह आधुनिकता और मार्क्सवाद दानों का पक्षधर भी होता है और ये दोनों ही चीजें आप जानिए पश्चिमी ही हैं। इसलिए उसका आग्रह रहता है कि जिस हद तक मैं जीवन और लेखन में आधुनिक हुआ हूँ उस हद तक ठीक है लेकिन उसमें ज्यादातर पश्चिम के रंग में रंग जाना बहुत बुरा है। मेरे पाँव देश की माटी में मजबूती से जमे हुए हैं और मेरी जड़ें गाँव में गहरी गई हुई हैं। इसलिए मैं पश्चिमी-प्रदूषण की चपेट में आ ही नहीं सकता। लेकिन साथ ही वीरबालक को यह बोध भी रहता है कि मुझे गरीब, गँवई और आउट आफ डेट समझ लिए जाने का खतरा है इसीलिए वह सीकरी से कोई काम न रखते हुए भी सीकरी में अपने लिए एक ठो फ्लैट बनवा लेता है क्योंकि गाँव वाला घर तो वह फूँककर निकला होता है। सीकरी में प्रतीकात्मक माटी से सने हाथ वह ओडि क्लोन से धुलाने और प्रतीकात्मक पत्थर तोड़ते हुए सूखे कंठ को स्काच से तर करने की तथा बीच-बीच में फारेन कंट्रीज में हिंदी का झंडा गाड़ आने की व्यवस्था करता है।

वीरबालकों की इस विदेश ग्रंथि का जनक अज्ञेय जी को माना जा सकता है जिनके अभिजात्य से लोग-बाग उतने ही आक्रांत थे जितने कि उनके विदेश में प्रवास करते रहने से। मुझे लगता है कि जो लोग यह कहते सुने जाते थे कि अज्ञेय सी.आई.ए. के पैसे से विदेश जाकर नोबेल पुरस्कार के जुगाड़ में लगे रहते हैं, वे साथ ही इस बात के लिए भी ललक रहे थे कि हमारा भी कोई अंतरराष्ट्रीय चक्कर चले और हमारा भी दूसरों पर उतना ही रौब गालिब हो जितना कि अज्ञेय का हम पर हो रहा है। यही वजह है कि वीरबालक अपने साहित्यिक व्यायाम के लिए अंतरराष्ट्रीय आयाम तलाशते रहते हैं और अपनी हर उपलब्धि की सूचना अन्य वीरबालकों तक किसी न किसी तरह पहुँचाते रहते हैं ताकि जलने वाले जला करें।

तो हिंदी साहित्य में स्त्री-विमर्श पर बोलते हुएआप किसी वी.आई.वी.वी. को यह बोलते हुए सुन सकते हैं, 'अभी मेरे पूर्व वक्ता आयोवा की अंतरराष्ट्रीय कार्यशाला का जिक्र कर रहे थे, अमरीका के ही एक अन्य राज्य वरमोंट में उससे भी बड़ा आयोजन होता है जिसमें साहित्यकारों समेत चंद चुने हुए रचना-धर्मी व्यक्ति शांत, सुनम्य वन-प्रदेश में बनी कोटेजेज में साल-छह महीने रहने और विचार-विमर्श करने के लिए आमंत्रित किए जाते हैं। पिछले साल मुझे भी वहाँ बुलाया गया था जहाँ मेरी भेंट एस्ट्रोनिया की प्रसिद्ध कवयित्री जालीमा योन्यारी से हुई जो आजकल मेरी कविताओं का अपनी भाषा में अनुवाद कर रही हैं। तो जालिमा की छोटी सी कविता की ओर मैं आपका ध्यान दिलाना चाहता हूँ जिसमें सारा स्त्री-विमर्श समा गया है - स्त्री अहा, आ स्त्री आ स्त्री बला, जा स्त्री जा, स्त्री हाय-हाय, हाय स्त्री।'इस पर तालियाँ बजती हैं क्योंकि वीरबालक की कविता में अब इतना भी उक्ति चमत्कार दुर्लभ हो चला है।

तो सभी वीरबालक विदेशों में कहीं-न-कहीं बुलाएजा रहे हैं और वहाँ कोई न कोई उनकी रचनाओं का अपनी भाषा में अनुवाद भी कर रहा है। थोड़ी सी दिक्कत है तो यही कि विदेशों में हिंदी लेखकों की साहित्यिक उपस्थिति कहीं दर्ज हो नहीं रही है जबकि अंग्रेजी में लिखने वाले भारतीय लेखकों को वहाँ तगड़ी रायल्टी और कलमतोड़ दाद मिल रही है। इसे चलते सहसा वीरबालकों का पश्चिम विरोध और अंग्रेजी विरोध भड़क उठता है। एक गोष्ठी में मैंने एक वी.आई.वी.वी. को यह सिद्ध करते हुए सुना कि अंग्रेजी में लिखने वाल सारे भारतीय लेखक चालू किस्म का लेखन करने वाली शोभा डे के भाई-बंद ही हैं। उन्होंने सारे उदाहरण शोभा डे के लेखन से ही दिए। वीरबालकवादियों के पश्चिम-विरोध का एक पक्ष यह भी है कि वे एक-दूसरे को पश्चिम की नकल करने वाला ठहराते रहते हैं। तो वीरबालक आधुनिक तो होता है लेकिन पश्चिम का पिछलग्गू नहीं। कृपया उसके पश्चिम के पिछलग्गू न होने का यह अर्थ भी न लगाया जाए कि वह पोंगापंथी होता है और साहित्य के संदर्भ में भारतीयता की बात करता है।

तो वयोवृद्ध वीरबालकों की कृपा से तरुण वीरबालकों कीएक ऐसी पीढ़ी पनप रही है जो अंग्रेजी और संस्कृत दोनों से समान रूप से कटी हुई है और जो पांडित्य और इंटेलेक्टचुअलता दोनों की विरोधी है। वह हिंदी की साहित्यिक पत्रिकाएँ पढ़ लेना ही पर्याप्त समझती है और इन पत्रिकाओं में भी सबसे ज्यादा ध्यान से वी.आई.वी.वी. के वक्तव्य और गोष्ठी-समाचार पढ़ती है। अधिकतर वीरबालक अब अपने को जनवादी कहते हैं लेकिन उमें से अधिकतर के शास्त्रार्थ से कहीं यह संकेत नहीं मिलता कि उन्होंने मार्क्सवादी-लेनिनवादी शास्त्रों का बाकायदा कभी अध्ययन किया है। बल्कि स्थिति यह है कि मार्क्सवादी-लेनिनवादी पोथे बाँचे हुए लोग अब वी.आई.वी.वी. को थोड़े हास्यास्पद प्रतीत होने लगते हैं। मैं समझता हूँ कि कात्यायनी बहुत अच्छी कवयित्री होने के साथ-साथ मार्क्सवाद-लेनिनवाद की गहन समझ रखने वाली विदुषी भी हैं। इसलिए मेरे आश्चर्य का तब कोई ठिकाना नहीं रहा जब मैंने एक वी.आई.वी.वी. बहुल निर्णायक समिति में उनका नाम किसी पुरस्कार के लिए प्रस्तावित किया और पाया कि अनुमोदन करने के लिए कोई तैयार नहीं है।

वीरबालकवाद पर अपने इस वीरबालकवादी लेख की समाप्ति में एक काल्पनिक वीरबालक के बारे में एक ऐसे काल्पनिक संस्मरण से करना चाहता हूँ जो वास्तविकता के काफी निकट है और जो इस ओर इशारा करता है कि वीरबालकवादी तेवर हमें किन ऊँचाइयों की आरे ले जा रहे हैं। किसी कस्बे के हिंदी विभागाध्यक्ष ने 'अस्तित्ववाद'पर संगोष्ठी की अध्यक्षता के लिए ऐसे संपादक वीरबालक को आमंत्रित किया जिसने स्वर्गीय सार्त्र और लगभग स्वर्गीय अस्तित्ववाद का नाम नहीं सुना था लेकिन जो अपनी पत्रिका में हर उस गोष्ठी का वृतांत सचित्र छापता था जिसकी उससे अध्यक्षता कराई गई हो। अब पूछिए कि अस्तित्ववाद से अनजान वह वीरबालक अध्यक्ष पद पर विराजमान होकर क्या करता है?

वह ऊँघता है। सभी वीरबालक व्यस्तातिव्यस्त किस्म के व्यक्तिहोते हैं और अध्यक्षताओं के सिलसिले में बादल आवारा को मात करते हैं। उन्हें सोने और साँस लेने की फर्सत तक अध्यक्ष पर विराजमान होने के बाद ही मिलती है। ऊँघने को वीरबालकों के संसार में ध्यान से सुनने का पर्याय ठहराया जाता है। और हर वीरबालक ऊँघते-ऊँघते भी बीच-बीच में दो-चार फिकरे सुन ही लेता है ताकि अगर विरोधी खेमे का कोई वीरबालक उसके सो जाने पर चुटकी ले तो फौरन डेढ़ आँख खोले और कहे, 'अरे आप कहते न रहिए महाराज, हम ध्यान से सुन रहे हैं और जल्दी से मेन पांइट पर आइए नहीं तो हम सचमुच सो जावेंगे। खैर तो जब हमारे वीरबालक अध्यक्ष की बोलने की बारी आती है तब वह ऊँघते-ऊँघते सुनी हुई बातों के आधार पर अपने को वीरबालक सिद्ध करने वाली कुछ बातें कहकर तालियाँ बजवा ही लेता है।'

यथा, हमें यह बहुत गड़बड़ लगता है कि हिंदी केआधुनिक लेखक पश्चिम के बड़े लेखकों की नकल मारकर अपने को बड़ा कहलवाना चाहते हैं। उससे भी ज्यादा गड़बड़ बात यह है कि नामवर सिंह और अशोक वाजपेयी टाइप हमारे मार्डन मठाधीश इन नकली लोगों की पीठ ठोंकते रहते हैं। देखिए हमें भी बहुत लालच दिया गया कि मार्डन बनने के लिए एक्जस्टेन्सवाद अपनाओ। बट हमने कह दिया नो। आप पूछेंगे नो क्यों कहा? हमने तो इसलिए किया कि हम जानते हैं कि जो भी एक्जिस्टेन्सवाद है, वह भारतीयों के मार्डन नहीं एन्सिएंट है। भगवान बुद्ध हमारे यहाँ बहुत पहले कह चुके थे। फ्रांस के सारतरे ने उनके आइडिया की नकल मारकर अपने को बड़ा भारी राइटर और फिलासफर साबित करने की कोशिश की है। इस मरे सारतरे का रौब भारत भवन वाले खाते हों, हम जेनुइन भारतीय नहीं खाते क्योंकि हम प्रेमचंद की परंपरा के लेखक हैं।

इस पर देशभक्ति और हिंदीभक्ति में लीन रहने वाले लोग इतनी तालियाँ बजाते हैं कि गदगदायमान वीरबालक को सहसा याद आता है कि संपादक की हैसियत से पिछली गर्मियों में मुझे पेरिस-प्रवास करने का सुख भी मिला था। अस्तु वह अब दूसरी ताली-तलब बात भी कह डालता है, पिछली गर्मियों में पेरिस विश्वविद्यालय ने हमें एक सेमिनार पर प्रिसाइड करने के लिए बुलाया था। वहाँ अंग्रेजी में लिखने वाले कुछ इंडियन राइटर्स भी थे। लंच ब्रेक में हमने देखा कि वे सब के सब हमें अकेला छोड़कर किसी अभी-अभी पहुँचे आदमी से बात करने के लिए चले गए हैं। तो हमने अपनी फ्रांसिसी मेजबान को बुलाया और उनसे फ्रेंच में कहा, 'हलो एक्सक्यूज मी', हू दैट मैन देयर?'मेजबान फ्रेंच में बोली, 'अरे दै! ही इज तो अपना सारतरे। सुनते ही हमने फैसला किया कि इसको यहीं सबके सामने खरी-खरी सुनाएँगे ताकि इसे पता चल जाए कि हिंदी राइटर इंडियन इंग्लिश राइटर्स की तरह पश्चिम का थूका हुआ चाटने वाला चाटुकार नहीं है।

इस पर तालियाँ बजती हैं वीरबालक अपनी विनम्रता और दुस्साहस दोनों का परिचय देते हुए बताता है, तो हम अपनी प्लेट लेकर सरतरे के पास पहुँचे। पहले सोच रहे थे कि उससे फ्रेंच बोलें लेकिन एक तो हमारी फ्रेंच इतनी अच्छी नहीं है कि उसमें गूढ़ साहित्यिक चर्चा कर सकें। दूसरे हम चाहते थो कि अदर इंडियन राइटर्स भी हमारी बात समझ सकें। तो हमने सारतरे से कहा, 'हलो एक्स्क्यूज मी, आई आल्सो इंडियन राइटर बट मैं आपका रौब नहीं खाता। बल्कि पोजीशन यह है कि अब आप यहाँ आ गए हैं तो मैं खाना भी नहीं खाऊँगा। इसका रीजन यह है कि आपने सारा सहित्य उल्टी करने की इच्छा पर लिखा है। इसलिए आपको देखते ही मुझे उल्टियाँ आने लगी हैं। हम इंडियन्स हैं और हमें बड़ों की इज्जत करना सिखाया जाता है इसलिए मैं आपसे बहुत आदरपूर्वक यह कहना चाहता हूँ कि आपको बुद्ध से चुरायी हुई एक्जिस्टेन्सवाद की फिलासफी सैकेंड हैंड है और आपका लिटरेचर थर्ड रेट। थैंक्यु एंड गुड बाई। इतना कहकर हम वाकआउट कर गए।'

हमारा वीरबालक तालियों की गड़गड़ाहट के बीचमंच से उतरता है और जिस स्थानिक कवियित्री के वह दो मुक्तक छाप चुका होता है वह भाव-विभोर होकर उसकी ओर बढ़ती है। एक मुसरचंद-मार्का मूर्खबालक हमारे वीरबालक के आगे वह शंका रखने की धृष्टता करता है, लेकिन सर सार्त्र तो बहुत पहले ही मर चुके थे। वीरबालक बहुत आश्वासन के साथ कहता है, हाँ, मारे शर्म के।

मनोहर श्याम जोशी 1935- (देहांत: मार्च ३०, २००६) आधुनिक हिन्दी साहित्य के श्रेष्ट गद्यकार, उपन्यासकार, व्यंग्यकार, पत्रकार, दूरदर्शन धारावाहिक लेखक, जनवादी-विचारक, फिल्म पट-कथा लेखक, उच्च कोटि के संपादक, कुशल प्रवक्ता तथा स्तंभ-लेखक थे। दूरदर्शन के प्रसिद्ध और लोकप्रिय धारावाहिकों- 'बुनियाद''नेताजी कहिन', 'मुंगेरी लाल के हसीं सपने', 'हम लोग'आदि के कारण वे भारत के घर-घर में प्रसिद्ध हो गए थे। वे रंग-कर्म के भी अच्छे जानकार थे। उन्होंने धारावाहिक और फिल्म लेखन से संबंधित 'पटकथा-लेखन'नामक पुस्तक की रचना की है। दिनमान'और 'साप्ताहिक हिन्दुस्तान'के संपादक भी रहे। (वीकीपीडीया से)

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यशोधरा को वैष्णव हथियार बनाया गया: प्रतिक्रयावाद का काव्य 'यशोधरा'

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अनिता भारती
अनिता भारती साहित्य की विविध विधाओं में जितना लिखती हैं , उतना ही या उससे अधिक सामाजिक मोर्चों पर डंटी रहती हैं  खासकर दलित और स्त्री मुद्दों पर. सम्पर्क : मोबाईल 09899700767.

अनिता भारती का यह लेख साहित्य और साहित्यिक आलोचना में वैष्णव-ब्राह्मणवादी प्रभाव को स्पष्ट करते हुए मैथिलीशरण गुप्त की रचना 'यशोधरा'को बुद्ध-विरोधी एजेंडा का काव्य बता रहा है: 

बुद्धकाल में स्त्रियों की स्थिति पर टिप्पणी करते हुए'नारी तेरे रूप अनेक'के संपादक क्षेमचंद्र सुमन पेज न. 41 पर लिखते हैं- “तथागत बुद्ध ने अनेक पीड़ित और दु:खी नारियों को अपमे संघ में दीक्षित कर लिया था। उनके भिक्षुणी संघ में जहाँ अम्बपाली, अड्डाकाशी और विमला जैसी दूषित जीवन बिताने वाली नारियों का प्रवेश था वहाँ उसमें अनेक राजकुमारियों, रानियों और श्रेष्ठिगणों की दुहिताएँ भी थी। ऐसी प्रवज्जित स्त्रियों को बुद्ध पुत्री कहा जाता था। इन भिक्षुणियों द्वारा कही गई उल्लास पूर्ण वाणियाँ '’थेरी-गाथा” नामक ग्रंथ संकलित है। गृहस्थ जीवन बिताने वाली नारियों में विशाखा, मल्लिका, सोमा, चन्द्रा, वशिष्ठी आदि के उज्ज्वल चरित्र उस काल के गौरव के प्रतीक है। इन महिलाओं के वचन संयुक्त निकाय और मज्झिम निकाय में समाविष्ट है '।

संस्कृति के चार अध्याय के पेज नं.155पर बुद्धकाल की स्त्रियों की स्थिति के बारे में डॉ. रामधारी सिंह दिनकर का कथन है- बौद्ध धर्म का आविर्भाव ऐसे समय हुआ जब नारी पुरूष के अत्याचारों के बोझ से दबी जा रही थी, शास्त्रकारों ने जिसे कोई व्यक्तिगत स्वतन्त्रता नहीं दी थी,  इसके लिए बौद्धकाल में अमर संवेदना का संदेश मिला।

प्रोफेसर इंद्र अपनी पुस्तक 'दी स्टेट्स आफ वुमेनइन एशियन इंडिया (पेज-233) में कहते है- “बुद्ध ने अध्यात्मिकता के द्वार विधवाओं और सधवा दोनों के लिए समान रूप से खोल दिए। यहाँ तक की वेश्याओं के लिए भी संघ के द्वार समान रूप से खुले रहते थे। तथागत ने आम्रपाली का निमन्त्रण सहर्ष स्वीकार किया। कन्या का विवाह प्राय: वयस्क हो जाने पर ही होता था। प्रेम विवाह के कतिपय उदाहरण बुद्ध साहित्य में मिलते है।

उपर्युक्त वक्तव्यों और दृष्टान्तों के आलोक मेंयदि हम बुद्धकाल में स्त्रियों की दशा पर विचार करें तो पाते है कि उस काल में स्त्रियाँ अपने निर्णय लेने में स्वतन्त्र थी, वैदिक काल की अपेक्षा उनकी स्थिति ज्यादा मजबूत थी। बुद्ध के संघ में जितनी स्त्रियाँ है या फिर बुद्ध के सम्पर्क में जितनी स्त्रियाँ आई वे स्त्री चेतना व अपने अस्तित्व के प्रति खूब जागरूक थी।

अब हम जरा एक नज़र 'यशोधरा'  खंडकाव्य के रचयिता  मैथिलीशरण गुप्त जी के प्रेरणा स्त्रोत या फिर यशोधरा में उनकी वैचारिकता के कुछ आधार सूत्र पर भी डाल लेते है। यशोधरा में जिस वैचारिकता के चलते उन्होने यशोधरा का पूरा चरित्र गढ़ा,  वह हिन्दू वैदिक और वैष्णव संस्कृति है। इस संस्कृति में स्त्रियों की स्थिति पर वेदों से कुछ संदर्भ दृष्टव्य है-

”कन्या जब पति गृह में वधु बनकर प्रवेश करती थी, तब उसका कार्य सास-ससुर की सेवा एवं गृहकार्यों का निरीक्षण था। (अर्थवेद 14/2/27) वैदिक साहित्य में नारी के व्यक्तित्व का चरम विकास उसके मातृत्व में माना गया है। दम्पति की यही कामना थी कि वह पुत्र-पुत्रियों से युक्त होकर जीवन पर्यन्त गृहस्थ सुख का उपभोग करे।  (ऋग्वेद 8/21/8, 1/124/4, अर्थवेद 14/2/31) एक अन्य जगह वीर पुत्रों को उत्पन्न करना पत्नी का प्रमुख कर्तव्य था। उसके लिए दस पुत्रों तक की प्रार्थना की गई है- इमां त्वमित्र मीढ्व: सुपुत्रा सुमगां कृग।दशास्या पुत्राणा चेहि पति मेकादश कृति (ऋग्वेद 10/85/45)

इन सब संदर्भों से बुद्धकाल की स्त्री और वैदिक काल की स्त्री की सामाजिक व वैयक्तिक स्थिति एकदम स्पष्ट हो जाती है। कविवर मैथिलीशरण गुप्त वेदों, पुराणों, भाष्यों, रामायण, महाभारत आदि के साथ-साथ गांधीवादी चिन्तन से भी बहुत प्रभावित रहे हैं। इस चिन्तन के फलीभूत करने उसे लोक जीवन व्यावहारिकता के साथ आदर्श रूप में लोगों के सामने रखने के लिए उन्होंने यशोधरा को अपने खण्ड काव्य का आधार बनाया। यशोधरा 1932 में आई थी, इससे पहले 'साकेत' 1931 में आ चुकी थी। लगभग इसी समय कवि मैथिलीशरण गुप्त गाँधी जी के सम्पर्क मे आए थे। यह एक रोचक तथ्य है कि 'यशोधरा'खंडकाव्य के आने के बाद ही महात्मा गाँधी ने ही उनको राष्ट्र कवि की पदनाम से सुशोभित किया था।

अब सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह है कि इतिहास में अनेकपात्र ऐसे हैं या हो सकते थे जिन पर लिखा जा सकता था,  जो वेद पुराण, व अन्य भाष्यो में हिन्दू स्त्री के चरित्र के तौर पर आदर्श है। परन्तु ध्यान देने वाली बात है कि मैथिलीशरण गुप्त इतिहास के पन्नों से उन आदर्श चरित्रों को न चुनकर बुद्धवादी स्त्री यशोधरा को ही क्यों चुनते है?  इसका जवाब हलांकि कई विद्वान आलोचकों ने अध्ययनानुसार दिया है परन्तु मैं यहाँ दो आलोचको के कथन इस संदर्भ में प्रस्तुत करूँगी।



राम रतन भटनागर एम. ए अपनी पुस्तक 'मैथिलीशरण गुप्त एक अध्ययन'में लिखते है -  'हिन्दू धर्म और हिन्दू पौराणिक गाथाओं की नयी व्याख्या करके उन्होंने हिन्दुत्व की महत्ता स्थापित की और देश के सामने प्राचीन गौरव का आदर्श रखा। परन्तु गुप्त जी मूलत: प्रचारक नही हैं, वे कवि ह- और कवि से अधिक युगदृष्टा। उन्होंने हिन्दू मात्र में प्राचीन गौरव को पुनर्जीवित किया। युग की सबसे बड़ी माँग यही थी इसने राष्ट्रीयता को भी बल दिया। हिन्दू भावना और राष्ट्र भावना में कोई ऐसा विरोध नही है कि दोनों को एक साथ नही साधा जा सके। गुप्त जी ने दोनों की साधना की है और वे इस साधना में सफल रहे है।'

यहाँ ध्यान देने वाली बात है कि जिस हिन्दू प्राचीन गौरव और जिस हिन्दू बनाम राष्ट्रीयता और हिन्दुत्व बनाम हिन्दू की बात राम रतन भटनागर जी ने गुप्त जी की वैचारिकता के संदर्भ में की है और आज जिस हम उग्र हिन्दुत्व व उग्र राष्ट्रीयता का उदय देख रहे हैं उसके बीजारोपण  इस काल के कवियों की कविताओँ में दिखाई पड़ते है।

डॉ. उमाकान्त गोयकृत अपनी पुस्तक 'मैथिलीशरणगुप्त'के पेज न. 36 पर लिखते हैं -  'य़शोधरा का उद्देश्य यशोधरा के चरित्र सर्जना के साथ-साथ बौद्ध सिद्धान्तों का खण्डन करके वैष्णव विश्वासों का संस्थापन अथवा मंडन निश्चित कवि का उद्देश्य रहा जैसे कि 'साकेत'के निर्माण में 'उर्मिला'की परिकल्पना के साथ-साथ रामकाव्य का प्रणयन भी उनका ध्येय रहा। यशोधरा के माध्यम से कवि ने बुद्ध वैचारिकी पर हिन्दू वैचारिकी की विजय, बुद्ध की जगह राम की महत्ता, वैदिक व वैष्णवी संस्कृति की स्थापना, स्त्री के हिन्दू स्त्री आदर्श रूप की कल्पना की है। स्वयं कवि ने 'यशोधरा'में स्वीकार किया है- अथवा तुम्हारे शब्दों में ही मेरी वैष्णव भावना ने तुलसी दल लेकर या नैवेध बुद्धदेव के सम्मुख रखा है। कविराजों के राजभोग व्यंजन में मैं वहाँ जगह पाऊँगा ? अकिंचन की यह खिचड़ी स्वीकार करते है या नही?

उमाकांत गोयकृत आगे कहते है कि -'जिस खिचड़ी की बात मैथिलीशरण गुप्त जी कर रहे हैं दरअसल वह खिचड़ी भी नही है। यदि यशोधरा काव्य मे कुछ बुद्ध वैचारिकती और कुछ हिन्दू वैचारिकी को मिलाजुला कर लिखते तो शायद यह खिचड़ी कहलाने लायक होती। परन्तु यशोधरा तो पूर्ण रुप से बुद्धवाद पर हिन्दूवाद की विजयगाथा है। जहाँ बुद्ध ईश्वर का विरोध करते हैं,  वही मैथिलीशरण गुप्त बुद्ध की पत्नी यशोधरा के माध्यम से ईश्वरवाद का समर्थन करते है। वह बुद्ध को विष्णु का अवतार मानने को इच्छुक हैं। वह सनातनी मूल्यों  के पोषक बन यशोधरा से उनका पालन करवाते हैं, सबसे बड़ी बात तो यह कि वह यह सब काम अर्थात बुद्ध का वैचारिक व आध्यात्मिक विरोध खुद उनकी पत्नी यशोधरा को माध्यम बनाकर करते है। वह बुद्ध से राम का आदर करवाते हैं । उनको बुद्ध और राम में कोई मतभेद नज़र नही आता। बुद्ध का मार्ग मध्यम मार्गीय है, जनकल्याण वाला है, बुद्ध अपने चरित्र में ऐसे अकेले व्यक्तित्व हैं जो सिर्फ वर्षावास में ही एक जगह ठहरते हैं । वर्षावास यानि सिर्फ वर्षा के समय तीन महीने एक जगह ठहरते हैं। बाकी समय गतिमान रहते हैं।


बुद्ध पूरा जीवन घूमकर जन कल्याण में लगाते हैं। बुद्ध की लोक प्रचलित कहानी जिसमें बुद्ध ने एक बीमार, एक मृतक , एक संसार त्यागी मनुष्य देखा और वह संसार से विरक्त हो गए। इसी कारण वे अपनी सोती हुई पत्नी यशोधरा और नवजात पुत्र राहुल को छोड़ कर चले गए। यह कहानी लोकप्रचलित ही सही, परंतु सही नहीं  है। बुद्ध के घर छोड़ने की यह कहानी भ्रमात्मक है और बुद्ध के कारण घर छोड़ने का यह कारण कदापि नहीं हो सकता। डॉ. अम्बेडकर ने 'बुद्धा एंड हिज धम्म'में ब्राह्मणवादियों द्वारा प्रचलित इस कहानी को तथ्यहीन बताते हुए अपनी पुस्तक में बताया है - शाक्य और कोलिय राज्य में रोहिणी नहीं के जल बंटवारे को लेकर विवाद था। यह विवाद इतना बढ़ गया कि दोनों राज्यों के लोगों द्वारा आपस में खून -खराबे और युद्ध की नौबत तक आ पहुँची। उन्होंने जल बंटवारे को लेकर अपने ही मत्रिमंडल से  सुलह की अपील की जिसके परिणाम स्वरूप राज्य से विद्रोह अथवा गद्दारी के आरोप में उनके सामने तीन शर्ते रखी गई, जिसमें पहली शर्त बुद्ध को मृत्युदण्ड दूसरी शर्त बुद्ध के घर की सम्पति जब्त करना तथा तीसरी शर्त देश निकाला थी । बुद्ध ने अपनी पत्नी यशोधरा से, जो कि उस समय प्रसूता थी और अपने माता-पिता से विमर्श करने के बाद ही अपने राज्य को छोड़कर जाने का निर्णय लिया। पहले दो निर्णय न लेने का कारण था, यदि वे मृत्युदण्ड स्वीकार करते तो उनके माता-पिता, पत्नी व बच्चे के लिए बहुत दुखद होता। दूसरा निर्णय जिसमें उनके घर की कुर्की हो जाने देने पर परिवार को बहुत कष्ट और तंगहाली में जीना पड़ता। इस वजह से वह दो राज्यों के बीच पानी की लड़ाई से उत्पन्न युद्ध की स्थिति को टालने के लिए उन्होंने अपने परिवार सम्मत तीसरे निर्णय को चुनकर गृहत्याग का रास्ता अपनाया । पूरे बुद्ध साहित्य में ऐसा कहीं ऐसा वर्णन नहीं मिलता जहाँ कि वह यशोधरा को अर्धरात्रि में गहरी निद्रा में सोते हुए चोरी छुपे, रात के अंधेरे में चोरों की तरह घर छोड़कर चले गए हो।

कवि मैथिलीशरण गुप्त जी की पूरी काव्य रचनायशोधरा इसी तथ्य पर आधारित है कि यशोधरा  सिद्धार्थ से कहती है कि वह उससे बिना बताऐँ कैसे मुक्ति के लिए चले गए। मुक्ति तो पाना ठीक है, जनकल्याण भी ठीक है, समाज को उनकी मुक्ति प्राप्ति से बहुत लाभ होगा परंतु फिर वह कहकर जरुर जाते। इन्हीं  सब भावों को व्यक्त करते हुए कवि बार-बार यशोधरा से कहलवाते हैं  कि -   'सखि वे मुझसे कहकर जाते।'

कवि मैथिलीशरण गुप्त जी ने यशोधरा के माध्यमसे दलित श्रमण बुद्ध संस्कृति के मुकाबले  वैदिक वैष्णवी संस्कृति को ऊपर रखा वे यशोधरा को आदर्श हिन्दू नारी बनाने के चक्कर में एक ऐसी नारी की रचना कर बैठे जो बुद्ध संस्कृति के खिलाफ है। यशोधरा  में मैथिलीशरण गुप्त जी ने अपनी कल्पनानुसार जो तथ्य रख यशोधरा का जो चरित्र गढ़ा है, वह आज के संदर्भ में अविश्वासनीय लगता है। गुप्त जी की यशोधरा पुनर्जन्म,  व्रत, पूजा-पाठ में विश्वास रखती है, जबकि बुद्ध संस्कृति किसी भी तरह के ईश्वरवाद, पूजा-पाठ और अंधविश्वास के खिलाफ है। बुद्ध के प्रस्थान से पूर्व उसकी दायां अंग फड़कता है, जो कि हिन्दू धर्म के अनुसार किसी अनिष्ठ या अमंगल की अशंका व्यक्त करता है।

कवि मैथिलीशरण गुप्त यशोधरा में यशोधरा का न केवल आदर्श हिन्दू पत्तिव्रता स्त्री के रूप में स्थापित करते हैं, जो कि न केवल पति के त्यागने के बाद रात-दिन उसके ध्यान में मगन रहती है, अपितु गौतम बुद्ध को स्त्री जाति विरोधी भी मानती है। कवि मैथिलीशरण गु्प्त बहुत ही गुप्त तरीके से बुद्ध की लोक प्रसिद्ध कारुणिक बुद्ध, समतावादी बुद्ध, दार्शनिक बुद्ध, मानवतावादी बुद्द वाली छवि को यशोधरा के माध्यम से धूमिल कर देते हैं। सोचने वाली बात है कि जब बुद्ध के संघ में हजारों स्त्रियों प्रवज्जित हुई, फिर वह स्त्री विरोधी कैसे हुए?

यशोधरा का रचना काल 1933 है। देखने वाली बात यह हैकि यह वह काल है जब अम्बेडकर और गांधी के रास्ते दलित समाज के हितों के लिए आपस में टकरा रहे थे। पहला गोलमेज सम्मेलन 1930 में हुआ था जिसमें डॉ. अम्बेडकर ने भारत के अछूतों का प्रतिनिधित्व किया है। डॉ. अम्बेडकर अछूतों की मुखर आवाज़ और नेता के रूप में उभर रहे थे। दूसरे शब्दों में कहे तो सम्पूर्ण दलित समाज डॉ. अम्बेडकर का नेतृत्व स्वीकार कर चुका था और उनको अपने दिल में बैठा चुका था।  जबकि गांधी अपने आप को अछूतों का नेता कहते थे। उस समय का सरकारी तंत्र और उसके लंबरदार व मीडिया भी यही सिद्ध करने में लगा हुआ था। चूंकि कवि मैथिलीशरण गुप्त गांधी जी से और उनके वैष्णववाद से बहुत अधिक प्रभावित थे। इसलिए यही वैष्णववादी मूल्य 'यशोधरा'के माध्यम से उन्होंने सबके सामने रखे।



1927 में महाड़ आन्दोलन के समय 25 दिसम्बर को बाबा साहेब ने विशाल दलित समाज के साथ हिन्दू स्त्रियों की गुलामी की पुस्तक 'मनुस्मृति दहन'की थी। भारतीय इतिहास का यह एक अनोखा ऐतिहासिक अवसर था। इससे पहले समाज सुधारकों ने भारतीय स्त्री की दुर्दशा के कारणों जिनमें मुख्य रूप से सतीप्रथा, बहुविवाह प्रथा, अनमेल विवाह, कन्या भ्रूण हत्या, बालविवाह, सतीप्रथा आदि के खिलाफ अलख जगाई थी। ज्योतिबा फुले सावित्रीबाई फूले स्त्री की शिक्षा के परम हिमायती था। राजाराम मोहन राय ने सतीप्रथा के खिलाफ अलख जगाई । पंडिता रमाबाई ने नवजात बच्चियों की हत्या पर गम्भीरता से काम करते हुए कटट्टर हिन्दूवादी समाज को चेताया। ताराबाई शिंदे ने अपनी पुस्तक 'स्त्री -पुरूष तुलना'के माध्यम से धर्म, पितृसत्ता आदि की खूब अच्छी तरह खबर ली थी । कहने का तात्पर्य यह कि बाबा साहेब से लेकर ज्योतिबाफुले व सावित्रीबाई फुले आदि समाज बदलाव का सपना देखने वाले तमाम समाज सुधारक स्त्रियों की सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक दशा सुधारने और उसमें आमूल चूल परिवर्तन लाने के लिए क्रान्तिकारी का कार्य कर रहे थे और उनके इन सब कार्यों से भारतीय स्त्री की दशा में परिवर्तन आया भी।

अंग्रेजी पढ़ने लिखने या फिर शिक्षित होकर अपने अधिकार, अपनी अस्मिता और अपने खोए आत्मविश्वास की पुन: प्राप्ति के लिए सचेत स्त्री या दूसरे शब्दों में कहे तो एक स्वतंत्र स्त्री की कल्पना से भयभीत हमारा भारतीय पुरूष और ब्राह्मणवादी पितृसत्ता के शिकंजे में स्त्री को जकड़ने वाला,  समाज स्त्री को ऐसे ही आदर्श भारतीय स्त्री में तब्दील नही करना चाहता। आदर्श स्त्री घड़ने में उसके अपने निहितार्थ है। स्वतंत्र स्त्री से सत्ता कांपती है। ब्राह्मणवादी मूल्य ध्वस्त होते है। इसीलिए पितृसत्ता और धर्म की दुशाला ओढ़े पुरुष कल्पना करके य़थार्थ में अच्छी स्त्री , बुरी स्त्री की छवि घढ़ने लगता है। अ्च्छी स्त्री कौन ? जो समाज के तयशुदा पैमाने पर चले। बुरी स्त्री कौन ? जो समाज के तयशुदा पैमाने को जड़ से ठोकर मारकर उड़ा देने की ताकत रखे। अच्छी और बुरी स्त्री के चक्रव्यूह में फँसाकर पुरुष स्त्री को अच्छी स्त्री के ढ़ांचे में फिट कर पूरे स्त्री समाज को सबक सिखाता है।

कवि मैथिलीशरण गुप्त की यशोधरा सिद्धार्थ कीयशोधरा से एकदम भिन्न है। वियतनाम के बुद्ध  विचारक व दार्शनिक भंते तिक न्यात हन्ह की एक पुस्तक है 'जहाँ जहाँ चरन गौतम के'हिन्दी अनुवादित पुस्तक में यशोधरा के एक अलग ही रूप के दर्शन होते है। यशोधरा सिद्धार्थ की दोस्त है । दोनों मिलकर समाज कार्य करते है।  समाज कार्य में लोगों से मिलना- जुलना, बीमार लोगों को दवाईयाँ बांटना, दु:खी परेशान,  गरीब,  मजबूर,  किसान लोगों से मिलकर उनके दुख-सुख जानना आदि। ऐसे में यशोधरा-सिद्धार्थ की दाम्पत्य जोड़ी ठीक ज्योतिबा और सावित्री बाई फुले की है। सिद्धार्थ और यशोधरा का यही रूप विश्वसनीय लगता है न कि यशोधरा का रोने धोने वाला रुप।

कवि मैथिलीशरण गुप्त यशोधरा के रूप में पति के लिएसजने-संवरने वाली, सामाजिक कार्य से दूर नितांत अनभिज्ञ की स्थिति में रहने वाली,  आहत,  परेशान, पीड़ित, प्रताड़ित, दुखी, विचलित स्त्री है। वह बुद्ध से बार-बार अपने त्याग की कीमत पर सिद्धी (जिसे बुद्धिज्म में बुद्धत्व) प्राप्त करने की बात करती है। मैथलीशरण गुप्त ने जाने - अनजाने यशोधरा खंड काव्य में, बार बार प्रयुक्त की गई पंक्ति 'सखि वे मुझसे कहकर जाते’ के माध्यम से बुद्ध का कायर,  पलायनवादी,  स्वार्थी और डरपोक व्यक्तित्व उभार कर प्रस्तुत किया है।
कवि मैथिलीशरण गुप्त से मेरी असहमति दो बातों में बनती है पहली तो यह कि बुद्ध को समझने के लिए अपने पूर्वाग्रहों से ऊपर उठकर ही बुद्ध को समझा जा सकता है। यदि हम अपने पूर्वाग्रह से मुक्त होंगे तभी बुद्ध और उनके चरित्र को कि आज भी बुद्ध कितने बड़े दार्शनिक , मानवतावादी , समतावादी,  न्यायप्रिय , वर्णव्यवस्था के खिलाफ और सामाजिक क्रान्तिकारी व्यक्तित्व से पूर्ण है। दूसरे बुद्ध साहित्य में यशोधरा एक स्वतंत्र स्त्री चिंतक,  बुद्ध के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने वाली मजबूत महिला है जो बुद्ध द्वारा स्थापित मार्ग की सहयोगी है  ना कि अनुगमिनी।

अंत में बस यही कि किसी संस्कृति का इतिहास मिटाना हो,  बदलना हो,  अपने संस्कारों के अनुसार बदलना हो तो उसके पात्रों को बदलकर अपने पात्र रख दो या उनके पात्र के मुहँ में अपनी जुबान रख दो। यही 'यशोधरा'के माध्यम से कविवर गुप्त जी ने अपना मंतव्य साधा है।

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आदिवासियों के मानवाधिकार की लड़ाकू पर रिपब्लिक टीवी का निशाना: यह सत्ता का चारण काल है

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उत्तम कुमार (फेसबुक पोस्ट से) 

पीयूसीएल द्वारा 2016 का निर्भीक पत्रकारिता सम्मान लेतेसमय उन्होंने पुरस्कार स्वरूप प्रशस्ति पत्र और धान के कटोरा पुरस्कार में दते हुए कहा था कि ‘उत्तम जी इसकी रक्षा कर पत्रकारिता करनी है और जवाब में मैंने कहा था कि ‘इस सम्मान को मैं असंख्य पीडि़त मानवता को समर्पित करता हूं उन लोगों को भी जो प्राकृतिक संसाधनों की लड़ाई में जेलों में कैद हैं।’ पीडि़त मानवता की  सेवा में अपना सर्वस्व न्योछावर कर देने वाली सुधा भारद्वाज का दोष यह है कि वह एक मानवाधिकार अधिवक्ता होने के नाते लगातार छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय में आदिवासियों की मुठभेड़ों में बंदी प्रत्यक्षीकरण के प्रकरणों में पेश हुई और निडरता के साथ लगातार मानवाधिकार रक्षकों की पैरवी करती रही हैं।



जब हाल ही में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग नेछत्तीसगढ़ के सुकमा के कोडासवाली गांव में एक जांच में उनका सहयोग मांगा था तब भी वह अपनी व्यवसायिक ईमानदारी और साहस के साथ पेश आई। यदि यही उनका दोष है तो वे तमाम लोग भी उतने ही दोषी हैं जो अधिनायकवाद, फासीवाद और भूमंडलीकरण की ताकतों द्वारा पैदा खतरों और चुनौतियों का सामना रचनात्मक और आलोचनात्मक तौर-तरीकों से करते आ रहे हैं।

सभी को मालूम हो कि नेशनल लॉ युनिवर्सिटी, दिल्ली की अतिथि प्रोफेसर और पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज की राष्ट्रीय सचिव अधिवक्ता सुधा भारद्वाज ने रिपब्लिक टीवी चैनल पर 4 जुलाई 2018 को अर्नब गोस्वामी द्वारा प्रसारित उस सुपर एक्सक्लूसिव ब्रेकिंग न्यूज पर आपत्ति जताई है जिसमें उनके खिलाफ बेबुनियाद आरोप लगाए गए हैं। रिपब्लिक टीवी पर ऐंकर गोस्वामी ने ‘शहरी माओवादी’ पर एक बुलेटिन चलाते हुए अधिवक्ता सुधा के नाम से एक पत्र का उल्लेख किया था।

सुधा ने एक सार्वजनिक बयान जारी करते हुए कहा हैकि मेरे खिलाफ आरोपों की एक लंबी सूची पेश की जा रही है जो हास्यास्पद, अपमानजनक, झूठी और एकदम निराधार है। इस टीवी कार्यक्रम में गोस्वामी ने दावा किया था कि सुधा द्वारा किसी कामरेड प्रकाश को एक पत्र लिखा गया था जिसमें कश्मीर जैसी परिस्थिति निर्मित करने की बात की गई थी। गोस्वामी ने इस कथित पत्र का हवाला देते हुए माओवादियों और अलगाववादियों के बीच एक संपर्क स्थापित करने की कोशिश की है।

सुधा ने बयान में कहा है, ‘ऐसे किसी भी पत्र से किसी भीतरह का संबंध होने से मैं दृढ़ता और निस्संदेह इनकार करती हूं... अगर ऐसा कोई दस्तावेज अस्तित्व में है तो भी मैंने उसे नहीं लिखा है।’ अपने बयान में अधविक्ता सुधा ने मानवाधिकारों से जुड़े अपने कार्यों का उल्लेख करते हुए पैदा किए जा रहे झूठ, भय और आतंक का मुंहतोड़ जवाब देते हुए कहा है कि ‘मैंने अपने अधिवक्ता से अर्नब गोस्वामी और रिपब्लिक टीवी को मेरे खिलाफ झूठे, दुर्भावनापूर्ण और बदनाम करने वाले आरोपों के लिए कानूनी नोटिस भेजने का अनुरोध किया है।’

आपको जानना चाहिए कि अर्थशास्त्री रंगनाथ भारद्वाज और कृष्णा भारद्वाज की बेटी सुधा का जन्म अमरीका में 1961 में हुआ था। 1971 में सुधा अपनी मां के साथ भारत लौट आईं। जेएनयू में अर्थशास्त्र विभाग की संस्थापक कृष्णा भारद्वाज की सोच के विपरित सुधा ने अपनी अमरीकन नागरिकता छोड़ दी। सुधा 1978 की आईआईटी कानपुर की टॉपर है। आईआईटी से पढ़ाई के साथ वह दिल्ली में अपने साथियों के साथ झुग्गी और मजदूर बस्तियों में बच्चों को पढ़ाना और छात्र राजनीति में मजदूरों के बीच काम करना शुरू कर दिया था। लगभग साल 1984-85 में वे छत्तीसगढ़ में शंकर गुहा नियोगी के मजदूर आंदोलन से जुड़ गईं। उन्होंने 40 की उम्र में अपने मजदूर साथियों के संघर्षों में संवैधानिक लड़ाई के लिए वकालत की पढ़ाई पूरी कर आदिवासियों, मजदूरों के न्याय के लिए उठ खड़ी हुई। जनहित के नाम से वकीलों का एक ट्रस्ट बनाया और समाज के पीडि़त वर्ग के लिए केस लडऩा शुरू किया। उन्होंने बस्तर के फर्जी मुठभेड़ों से लेकर अवैध कोल ब्लॉक, पंचायत कानून का उल्लंघन, वनाधिकार कानून, औद्योगिकरण के मसले पर ढेरों लड़ाईयां लड़ी।

उज्जवल भट्टाचार्या हस्तक्षेप ब्लाग में लिखते हैंकि सुधा की मां कृष्णा भारद्वाज जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में इकोनामिक्स डिपार्टमेंट की डीन हुआ करती थीं। सुधा की मां बेहतरीन क्लासिकल सिंगर थी और अमर्त्य सेन की समकालीन भी थीं। आज भी सुधा की मां की याद में हर साल जेएनयू में कृष्णा मेमोरियल लेक्चर होता है, जिसमें देश के नामचीन स्कॉलर शरीक होते हैं। आईआईटी से टॉपर हो कर निकलने के बाद भी सुधा को कैरियर खींच न सका। उनकी मां ने दिल्ली में एक मकान खरीद रखा था, जो आजकल उनके नाम पर है, मगर बस नाम पर ही है। मकान किराए पर चढ़ाया हुआ है, जिसका किराया मजदूर यूनियन के खाते में जमा करने का फरमान उन्होंने किरायेदार को दिया हुआ है। गुमनामी में गुमनामों की लड़ाई लड़ते अपना जीवन होम कर चुकी हैं। उन पर लगाए जा रहे आरोप साजिशाना है जो लोग पीडि़त मानवता के लिए उठ खड़े हो रहे हैं उन्हें साम, दाम, दंड और भेद के साथ निरंकुश शासन व्यवस्था उनके सामने कठिन चुनौतियां पेश कर रही है। प्रतिवाद में जनसंघर्ष तेज होंगे और नए रास्ते निकाले जाएंगे।

सुधा भारद्वाज जेएनयू में 

उन्होंने रिपब्लिक टीवी चैनल और एमडी सह ऐंकर अर्नक गोस्वामी के अटेंशन का जवाब कुछ इस तरह दिया है-

मुझे सूचित किया गया है कि रिपब्लिक टीवी दिनांक 4 जुलाई 2018 को एक कार्यक्रम प्रसारित किया है, उसमें उसके एंकर और एमडी अर्नव गोस्वामी सुपर एक्सक्लूसिव ब्रेकिंग न्यूज के रूप में पेश कर रहे हैं। इस कार्यक्रम में, जो बार-बार पेश किया जा रहा है, मेरे खिलाफ आरोपों की एक लंबी सूची पेश की जा रही है जो हास्यास्पद अपमानजनक, झूठी और एवं निराधार हैं। गोस्वामी का दावा हैं कि मैंने किसी माओवादी को कोई कामरेड प्रकाश को-एक पत्र लिखा है (इसमें मुझे ‘कामरेड अधिवक्ता सुधा भारद्वाज’ के रूप में पेश किया गया है), जिसमें मैंने कहा है कि ‘कश्मीर जैसी परिस्थितियां’ निर्मित करनी होगी। मुझ पर माओवादियों से राशी प्राप्त करने का भी इलजाम मढ़ा गया है। और यह कि मैंने इस बात की पुष्टि की है कि मैं तमाम वकीलों को जानती हूं जिनके माओवादियों से संपर्क है। इनमें से कई को में जानती हूं वे बड़े उत्कृष्ट मानवाधिकार के वकील हैं, और अन्य जिन्हें मैं नहीं जानती हूं।

ऐसे किसी भी पत्र से किसी भी तरह से संबंधित होने से में दृढ़ताऔर निस्संदेह इंकार करती हूं। मैंने ऐसा कोई भी पत्र नहीं लिखा है। जिसका जिक्र गोस्वामी ने किया है-अगर ऐसा कोई दस्तावेज अस्तित्व में है जो मैंने नहीं लिखा है,रिपब्लिक टीवी द्वारा प्रसारित आरोपों का मैं खंडन करती हूं जो उसमें मेरे खिलाफ मढ़े हैं, मुझे बदनाम करने के लिये लगाये गये हैं जिससे मुझे व्यवसायिक और व्यक्तिगत हानि पहुंची हैं। अपने इस कार्यक्रम में रिपब्लिक टीवी ने इस पत्र के  स्रोत का जिक्र नहीं किया है, मुझे यह बहुत ही अजीबोगरीब मामला लगता है कि वह दस्तावेज जिसमें गंभीर आरोप लिखे गए हैं वह गोस्वामी के स्टूडियो में सबसे पहले प्रगट हो। मैं पिछले 30 वर्षों से ट्रेड यूनियन आंदौलन से जुड़ी हुई हूं और छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा में सक्रिय रही हूं। जिसकी स्थापना शंकरगुहा नियोगी ने की और दिल्ली राजहरा और भिलाई की मजदूर बस्तियों के सैकड़ो मजदूरों के बीच जीवन जिया हैं,जो इस सत्य के गवाह हैं। ट्रेड यूनियन कार्यवाहियों मैं सन 2000 से एक वकील बनी और तब से लेकर आज तक मजदूरों, किसानों, आदिवासियों, दलितों और गरीबों के मुकदमों में पैरवी की है, जो भूमि अधिग्रहण, वन अधिकारों और पर्यावरण अधिकारों के दायरे में आते हैं।

साल 2007 से मैं छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय, बिलासपुर में बतौर वकील कार्यरत हूं और उच्च न्यायालय ने मुझे छत्तीसगढ़ राज्य स्तरीय सेवा प्राधिकरण के सदस्य के रूप में भी नियुक्त किया पिछले एक वर्ष से मैं नेशनल ला यूनिवर्सिटी दिल्ली में एक अतिथि प्रोफेसर के रूप में शिक्षा दे रही हूं ,जहां आदिवासी अधिकारों और भूमि अधिग्रहण पर मैंने एक संगोष्ठी आयोजित किया और पाठ्यक्रम भी तैयार किया। इसके अलावा गरीबी पर एक नियमित पाठ्यक्रम भी पेश किया हैं। दिल्ली की जूडिशल अकादमी  के कार्यक्रम से मैं अभिन्न अंग के रूप में जुड़ी हूं। श्री लंका के श्रम न्यायालयों के अध्यक्षों को भी संबोधित किया है इस तरह मेरे जनपक्षीय और मानवाधिकार अधिवक्ता के रूप में काम जगजाहिर हैं। मैं पूरी जागरूकता से जानती हूं कि मेरा यह काम अर्नव गोस्वामी और रिपब्लिक टीवी द्वारा जोर-शोर से अकसर व्यक्त किये गए विचारों से प्रत्यक्ष रूप से विरोध में पाये जाते हैं।

मेरे विचार से फिलहाल दुर्भावनापूर्वक प्रेरित और मनगढंतहमला मेरे ऊपर इसलिये किया जा रहा है कि अभी हाल ही में 6 जून को दिल्ली में एक प्रेसवार्ता में अधिवक्ता सुरेंद्र गडलिंग की गिरफ्तारी की मैंने निंदा की। इंडिया एसोसिएशन ऑफ पीपल्स लॉयर्स जो वकीलों का एक संगठन है, उसने भी अन्य वकीलों के मुद्दों को जोर-शोर से उठाया है, जिसने भीम आर्मी के अधिवक्ता चन्द्रशेखर और स्टर्लिंग पुलिस गोली कांड के बिना पर गिरफ्तार किये गये अधिवक्ता सुचिनाथन का मामला भी है। यह स्पष्ट है कि ऐसे वकीलों को निशाना बना कर उन सभी को डराने की कोशिश है जो नागरिकों के जनतांत्रिक अधिकारों के लिये वकालत कर रहे हैं। रणनीति यह हैं कि एक भय का माहौल पैदा किया जाए, और उन सब को चुप कराने की कोशिश हैं। जिससें कि आम जन न्याय से वंचित हो जाये। इसके सातंग ही गौरतलब हैं कि अभी हाल ही में आईएपीएल कश्मीर में वकीलों द्वारा कठिनाइयों का सामना किया जा रहा है उनकी सच्चाई जानने के लिये एक टीम गठित की गई थी।

एक मानवाधिकार अधिवक्ता होने के नाते मैं छत्तीसगढ़उच्च न्यायालय में आदिवासियों की की मुठभेड़ों में बंदी प्रत्यक्षीकरण के प्रकरणों में भी पेश हुई थी और इसके अलावा मैं मानवाधिकार रक्षकों की पैरवी करती रही हूं। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एचआरसी)के समक्ष भी पेश हुई हूं। अभी हाल ही में एचआरसी ने छत्तीसगढ़ के सुकमा के कोडासवाली गांव में एक जांच में मेरा सहयोग मांगा था इस प्रकरण में मैं उसी व्यवसायिक ईमानदारी और साहस के साथ पेश आई जो एक मानवाधिकार अधिवक्ता के रूप में मेरी उपलब्धि है। ऐसा लगा कि यही मेरी अपराध हैं। मैं अर्नव गोस्वामी के सुपर एक्सक्लूसिव अटेंशन की शिकार हूं। मैंने अपने अधिवक्ता से अर्बन गोस्वामी और रिपब्लिक टीवी को मेरे खिलाफ झूठे, दुर्भावनापूर्ण और निराधार बदनाम करने के आरोपों के लिये कानूनी नोटिस भेजने का अनुरोध किया है।

(लेखक दक्षिण कोसल में सम्पादक है )


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जातिरूढ़ सास 'अनारो'की भूमिका में मैं अपनी सास को कॉपी कर रही हूँ

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स्टार भारत का लोकप्रिय धारवाहिक 'निमकी मुखिया'अपनी ड्रैमेटिक सीमाओं के बावजूद ग्रामीण समाज की जाति व्यवस्था और महिला मुखिया के संघर्ष पर बना तुलनात्मक रूप से एक बेहतरीन धारवाहिक है. 'निमकी मुखिया में 'अनारो', दलित नायिका की उच्च जाति की सास, की भूमिका कर रही गरिमा सिंह ने 'स्त्रीकाल'से बातचीत करते हुए अपनी इंडस्ट्री, समाज की जाति व्यवस्था, स्त्रियों की स्थिति, खुद सहित अन्य अंतरजातीय विवाहों की मुश्किलों, वर्तमान समय के संकीर्ण हालात तथा खुद के बारे में बेवाक राय रखी. धारवाहिक की अक्खड़, जातिग्रस्त, सामंती मूल्यों में जकड़ी और अनपढ़ 'अनारो'की भूमिका कर रही गरिमा की बौद्धिकता और आधुनिक चेतना काबिले तारीफ़ है: स्त्रीकाल के लिए बातचीत संजीव चन्दन ने की है. 


गरिमा सिंह 

गरिमा आप एक लोकप्रिय धारवाहिक में महत्वपूर्ण भूमिका कर रही हैं, जिसकी पृष्ठभूमि बिहार के मधुबनी जिले की ग्रामीण व्यस्था है, वहां फैला जातिवाद और स्त्रीविरोधी चेतना, बधाई! इस इंडस्ट्री का अपना अनुभव शेयर करें और इस धारवाहिक से जुड़ने की कहानी भी...
मैं 2005 से इस इंडस्ट्री में हूँ. मैंने शुरुआती दौर में कुछ कॉमेडी किये, कुछ दूसरे किस्म के एपिसोडिक किरदार किये. मेरी बेटी हुई और जब मैं दुबारा काम में वापस लौटी तो मुझे माँ का किरदार ऑफर हुआ-2011 में. तब मैं 30 साल की थी. 'छोटी बहू'के दूसरा भाग से शुरुआत हुई, उसके बाद 'फिर सुबह होगी'. 'फिर सुबह होगी'बेड़ियों पर आधारित कहानी थी, जिसमें मैंने एक 'मामी'का किरदार किया. लाइफ ओके पर एक और सीरियल में माँ का किरदार किया. अब तक मैं निगेटिव भूमिकाएं करती थी, यहाँ मेरी भूमिका पॉजिटिव थी. उस किरदार को लोगों ने काफी पसंद किया. और अब जमा हबीब साहब द्वारा लिखित 'निमिकी मुखिया'में निमकी की सास की भूमिका कर रही हूँ. जमा हबीब साहब से मैं सोशल मीडिया-फेसबुक पर जुडी थी, उनकी सोच से प्रभावित थी और वह मुझसे मिलती भी थी. हबीब साहब कमाल के लेखक हैं, उनके साथ काम करना काफी महत्वपूर्ण है. इमोशनल लेबल पर वे बहुत अच्छा काम करते हैं, हालांकि निमकी मुखिया में इमोशन से ज्यादा ड्रामा है. लेकिन इस धारवाहिक में न्यूआन्सेज को पकड़ने और पेश करने की लेखक की काबिलियत से आप जरूर प्रभावित होंगे. इस प्रोजेक्ट से जुड़ने के पहले मैं बनारस की विधवाओं पर केन्द्रित एक कहानी में माँ का किरदार कर रही थी.

अनारो 

हाँ, इस सीरियल की कुछ सीमाओं के बावजूद मैं कहूंगा कि यह अन्य धारवाहिकों से एकदम अलग है, और इसीलिए मेरे जैसा दर्शक भी इसे देखता है. 
अधिकाँश टीवी सीरियल्स के साथ दिक्कत है कि वे बड़े ही फेक पृष्ठभूमि पर होते हैं. वे कहीं भी आपके जीवन से जुड़ते हुए नहीं दिखते हैं. अजीब तरह की कहानी होती है, जिनका निजी जीवन से कोई तालमेल नहीं होता है. मुख्य किरदारों की दो से तीन शादियाँ कर दी जाती हैं. मैं इंडस्ट्री से बाहरी व्यक्ति के तौर पर कहूं तो मैं ऐसे किसी भी सीरियल को देखना पसंद न करूं.

दिक्कत यही है, आप सीरियल्स देखें, काफी लाउड, अतार्किक और महिला-विरोधी होते हैं. हर महिला के कई चेहरे, कई चरित्र...
समस्या ही यह है कि चैनल बैठा हुआ है प्रोड्यूसर के ऊपर. पहले एक दूरदर्शन हुआ करता था. कमलेश्वर जैसे लोग निर्णय की भूमिका में थे. कमलेश्वर की सेंसिवलिटी अलग थी. तब साहित्य ही सोचा जाता था, कहानियाँ जीवन से जुडी होती थीं. गाँव-परिवेश से उनका जुडाव होता था. अब ऐसा नहीं है. लेकिन यहाँ मैं अपने किरदार से खुश हूँ. मेरे किरदार को लेकर बहुत से लोगों के मेसेज आते हैं. वे लोग रिलेट करते हैं खुद को. निमकी मुखिया स्टार भारत का नम्बर वन सीरियल है. हालांकि यह चैनल अपेक्षाकृत नया है. चैनलों की टीआरपी के हिसाब से कलर नम्बर वन पर है, स्टार भारत नम्बर 4 का चैनल है, लेकिन इस सीरियल को देखने वाले लोग अच्छा रिस्पांस दे रहे हैं. 'निमकी मुखिया'लोगों को बहुत फेक नहीं दिखता है. हालांकि शुरुआती दिनों में ऐसे कमेन्ट जरूर आते थे कि 'निमकी मूर्ख क्यों है? वह चीजों को समझ नहीं क्यों सकती है, क्यों वह उसी घर में जाना चाहती है, जहाँ लोग उसे पसंद नहीं करते हैं. हालांकि चीजें अब स्पष्ट भी हो रही हैं, आगे जाकर और स्पष्ट होंगी.



दिक्कत यह है कि इन्डियन सोप ऑपेरा 70 के दशक की फिल्मों से आगे नहीं जा रहा है. फिल्मों में उम्र बरिअर टूट गया है. आज 40 साल की अभिनेत्रियाँ भी लीड भूमिका के साथ फ़िल्में कर रही हैं, जबकि सीरियल्स में 30 की उम्र तक अभिनेत्रियों को माँ की भूमिका के लिए मजबूर किया जाता है. 
दरअसल सीरियल आगे कैसे बढेगा, यहाँ चैनल में बैठे लोग पूछते हैं कि 'प्रेमचन्द कौन हैं?''उनका सीवी लेकर आओ'. इससे बड़ा मजाक क्या हो सकता है. अच्छी कहानी करने का माद्दा नहीं है. मैं चैलेन्ज के साथ कह सकती हूँ कि हर सीरियल शुरुआती 10 एपीसोड के बाद एक जैसा मिलेगा-सेट पैटर्न पर. उससे बाहर रिस्क फैक्टर है. प्रोड्यूसर को लेकर चिंता शुरू हो जाती है, उसका दवाब शुरू हो जाता है.  उसके पैसे लगे हैं. हालांकि कम उम्र में माँ की भूमिका में होना काफी चैलेंजिंग भी है एक अभिनेता के तौर पर. मुझे तो दादी भी बना दो तो मुझे अच्छा लगेगा. हालांकि कुछ लड़कियां हैं इंडस्ट्री में जो उम्र के लिहाज से माँ बनना नहीं चाहती हैं.

हाँ लेकिन 30-35 तक लीड भूमिकाओं से हटा दिया जाता है, जबकि अब फिल्मों में 30-35 और उससे ऊपर की लडकियां लीड भूमिका में हैं. खैर, जाति को लेकर आपकी इंडस्ट्री को आप कैसे देखती हैं? 

इंडस्ट्री जाति और रिलीजन से ऊपर है. ये चीजें यहाँ मायने नहीं रखती हैं. रामायण हो, महाभारत हो या महाकाली जैसे सीरियल, उसके ज्यादा से ज्यादा किरदार मुसलमान हैं. कलाकारों की कोई जाति नहीं होती, उन्हें हर किरदार निभाना होता है. मुझे लगता है कि यह कौम ही ऐसा है. हो सकता है पहले ऐसा कभी रहा हो, लेकिन अब तो काफी बदलाव है. हालांकि अभी पिछले पांच साल से विचित्र स्थिति है, अलग माहौल है, फिर भी इसका असर हमारी इंडस्ट्री पर नहीं पड़ा.

शूटिंग के बाद 

'निमकी मुखिया'की कहानी पर राय तो आपसब की राय बनती होगी?
शुरुआती दौर में इस पर बात होती थी. जैसे वैसे कलाकार जो बिलकुल शहरों में रहे हैं, मसलन निमकी की भूमिका कर रही भूमिका हो या बब्बू की भूमिका में अभिषेक आश्चर्य करते थे कि 'ऐसा होता है क्या?'जिन्होंने गाँव नहीं देखा है, शहरों में रहे हैं उनके लिए यह सब नया है, क्योंकि शहरों में जातिभेद तुलना में कम है. मैं चुकी गाँव से रही हूँ, मैं यह सब समझती हूँ. मैं कायस्थ परिवार की लडकी रही हूँ. मेरे नाना की हवेली थी. मैं देखती थी कि मेरे नाना, नानी वहां बैठे होते तो जो दलित परिवार के लोग उस ओर से गुजरते थे वे चप्पल उठाकर हवेली के एरिया में आते-जाते थे और नाना-नानी को नमस्कार करते. वे अंदर नहीं आ सकते थे. उन्हें बाहर बैठना होता था. इसलिए मैं जानती हूँ कि यह कितना विकट अनुभव हो सकता है. कितना पहाड़ सा अनुभव. यह शहरों के बच्चों को नहीं पता चल सकता है. ऐसी गंदगी उन्हें नहीं पता. मैं उन्हें बताती हूँ कि यह तो कुछ ही नहीं है जो इस सीरियल में दिखा रहे हैं. हो तो बहुत कुछ सकता है, यदि कपड़ा छू जाये, बर्तन छू जाये या शरीर छू जाये तो  कोड़े भी पड़ सकते थे. जमा साहब ने लोगों को बताया अपना अनुभव. हालांकि मैंने ये चीजें तब देखी जब ये ख़त्म हो रही थीं. जब मैंने ऐसा देखा है तो बताइये पहले चीजें कितनी भयावह होंगी. अब ये चीजें फिर से बढ़ रही हैं. हर दिन न्यूज में रहता है कि दलितों को मार दिया गया.

यह सवाल जमा साहब से ज्यादा बनता है कि एक राजनीतिक पृष्ठभूमि पर बनी फिल्म में दलित नायिका को एकदम से अभिज्ञ किरदार में ढाला गया है, हालांकि हो सकता है वह आगे जाकर ऐसी न रहे
दरअसल यह लिमिटेड एपिसोड्स का सीरियल नहीं है. कई एपिसोड्स में फैला है, इसलिए टीआरपी भी बहुत हद तक कहानी और करेक्टर की गति को प्रभावित करती है. यदि एपिसोड्स लिमिटेड होते तो कहानी और ज्यादा इंटेंस होती.

हालांकि यह भी दिख रहा है कि एक फ्यूडल घर खंड-खंड हो रहा है. 
हाँ, फ्यूडल वर्चस्व को खंड-खंड किया जा रहा है. जमा साहब अपने क्राफ्ट में भी बेहतरीन हैं. उनका हर किरदार दिखता है. इस सीरियल में भी यह है.
बेटी और पति के साथ गरिमा सिंह 

अपने बारे में बतायें
मैंने मास्टर्स तक की पढाई इलहाबाद से की है. रिसर्च भी कर रही थी म्यूजिक से, जिसे पूरा नहीं कर पाई. मेरे माँ-पिताजी देवरिया से हैं. पिताजी इलहाबाद में पोस्टेड थे, माँ हाउस मेकर हैं. उन्होंने एमए-एमएड कर रखा है. मेरी माँ की बदौलत ही मैं आगे कुछ कर पायी. वे पढी-लिखी और सुलझे विचारों वाली हैं. पढाई के अलावा मैं जो कुछ भी कर पायी वह माँ की मदद से ही. मेरा समय इलाहबाद में ही गुजरा है, छुट्टियों में गाँव आया-जाया करती थी. हमलोग एक भाई और एक बहन हैं. बड़ा भाई आईएएस है, जम्मू में पोस्टेड है. मैंने पढाई के दौरान ही थिएटर करना शुरू किया. मेरी मुलाकात उन्हीं दिनों विक्रांत- से हुई, जिनकी पत्नी हूँ मैं. वे लोग थिएटर करते थे. वे और उनके भाई. एक म्यूजिकल नाटक के सिलसिले में उनसे मुलाक़ात हुई. मेरे गुरू जी ने उसके लिए म्यूजिक किया था. पहली बार वहीं से मैं थिएटर के बारे में जान सकी. मैं बीच-बीच में प्रोक्सी करने लगी, यानी कोई किरदार निभाने वाला नहीं हो तो मैंने उसकी जगह पर वह कर लिया. वहीं से हमारी दोस्ती डेवलेप हुई. विक्रांत के बड़े भाई शांतिभूषण जी ने मुझे लीड भूमिका में लेकर एक नाटक किया. विक्रांत का परिवार गाजीपुर का है. हालांकि मेरे पिताजी मेरे थिएटर करने के पक्ष में नहीं थे. लेकिन यह संभव हो पाया. दो-तीन साल थिएटर करते हुए विक्रांत के साथ हमारी अंडरस्टैंडिंग अच्छी बनी और फिर हमने शादी कर ली.

अंतरजातीय विवाह?
शादी में जाति एक मुद्दा बना. मैं कायस्थ थी और विक्रांत राजपूत. कायस्थों के लिए कमाई वाली पढाई मायने रखती है लेकिन विक्रांत पढ़े-लिखे तो बहुत थे लेकिन कमाई वाली पढाई नहीं मानी जाती थी वह. माँ चाहती थी कि मेरी शादी डाक्टर इंजीनियर से हो. लेकिन हम जिद्द पर थे, और आखिरकार यह संभव हो पाया. यह 17 साल पहले की बात थी. जाति इलहाबाद जैसे शहर में बहुत मायने रखती थी. लेकिन मेरे ससुर इस मामले में आगे आये. उन्होंने पिताजी को मनाया. हालांकि यह एक बड़ा संकट भी था कि हम दोनो कुछ नहीं कर रहे थे. उसी दौरान हमने आकाशवाणी का फॉर्म भरा और हम आकाशवाणी में चुन लिये गये.

जाति-भेद को तब खुद भी महसूस किया आपने, है न? 
शादी के बाद जाति का दंश हमने लम्बे अरसे तक झेला. विक्रांत के गाँव ने कहा कि हम जाति-बाहर करेंगे. गाजीपुर के उस गाँव में मैंने बहुत कुछ सहा. औरतें आती थीं और मेरा हाथ-पाँव छू-छू कर देखती थीं, मानो यह कोई दूसरे ग्रह से आयी हुई लडकी तो नहीं है न. ससुर मेरे बहुत प्रोग्रेसिव हैं, बहुत ओपन माइंडेड. उनकी वजह से चीजें आसान हो पायीं. घर की महिलाओं की भूमिका मैं कैसे बताऊँ. मेरी सास जो अब मुझे बहुत मानती हैं, तब बहुत स्ट्रिक्ट थीं.

वे पढी-लिखी हैं? 
नहीं बिलकुल नहीं. उनके लिए बड़ी समस्या थी कि वे अपनी जाति से एक लड़की लाना चाहती थीं और उनके घर में एक ऐसी लडकी आकर बैठ गयी थी जिससे वह बिलकुल सहमत नहीं थीं. वे मेरी तरफ देखती भी नहीं थीं.
माँ-पिता के साथ गरिमा सिंह 

महिलाएं कास्ट की विक्टिम भी हैं और कास्ट से लोडेड भी. 
बिलकुल, बिलकुल. और मैं बताऊँ मैं कहीं न कहीं अपने सास की कॉपी करती हूँ. वह सब हमने देखा हुआ है, जो निमकी की सास कर रही है. हालांकि समय के साथ उनमें बड़ा बदलाव आया. आज वे मुझे बहुत प्यार करती हैं और यह अहसास भी करती हैं कि उनकी गलती थी. हालांकि मैं उनकी गलती नहीं मानती हूँ. औरतों का दायरा बहुत छोटा है. मेरी सास ने घूँघट से बाहर अपना चेहरा कभी नहीं निकाला. सडक पर चलते हुए कभी उन्होंने घूँघट नहीं उठायी थी. यानी कभी उन्होंने सूरज नहीं देखा होगा. वह रौशनी नहीं देखी होगी, जो दिन के उजाले में होती है. दरअसल महिलाओं की परवरिश ही ऐसी है.

यानी जाति का दंश आपने झेला जबकि आप दलित नहीं थीं. 
हाँ बिलकुल. हमारा समाज अजब है. कहता है कि लडकियों की कोई जाति नहीं होती फिर भी आप भेद भाव करते हैं. औरतों की कोई जाति नहीं होती, घर नहीं होता है.

जाति होती भी नहीं है और जाति उनसे ही सुरक्षित होती है. 
हाँ, कई लड़ाइयाँ लम्बी होती हैं. मैंने इसके लिए बहुत संघर्ष किया है घर के भीतर भी. यहाँ तक कि घूँघट हटाने के लिए. मैंने खूब सवाल किये. सास के पास कोई जवाब नहीं थे. हालांकि विक्रांत और मेरे ससुर ने मेरा बहुत साथ दिया-वह अकेली लडाई मेरे और मेरे सास के बीच थी. आज बदलाव हुआ है.

इंडस्ट्री में सेक्सुअल एक्सप्लॉयटेशन की क्या स्थिति होती है. 
एक्सप्लॉयटेशन होंगे, लेकिन वह दूसरों के अनुभव हो सकते हैं. हालांकि कई मामलों में पीड़ित की इच्छाएं भी काम कर रही होती हैं, अतिरिक्त हासिल की आकांक्षा से प्रेरित. एक्सप्लॉयटेशन जैसी यहाँ है वैसी ही कई संस्थानों में होती है .

संजीव चंदन स्त्रीकाल के सम्पादक हैं 

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काली मॉडल रेनी कुजूर का प्रसिद्धि-पूर्व संघर्ष : रंगभेद का भारतीय प्रसंग

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ज्योति प्रसाद
 शोधरत , जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय. सम्पर्क: jyotijprasad@gmail.com  

झारखण्ड के एक गाँव की लड़की रातोरातइन्टरनेट पर छा गई है. इसकी वजह बहुत बड़ी और खास है. रेनी कुजूर नामक इस खालिस भारतीय मॉडल को देखकर लोग दंग हैं. लोग उनकी तुलना बारबेडियन अंग्रेज़ी पॉप गायिका रिहाना से कर रहे हैं. उनकी शक्ल काफी हद तक एक  दूसरे से मिलती भी है. रेनी कुजूर ने अपनी इन्स्टाग्राम प्रोफाइल पर अपना नाम रिहाना से मिलता जुलता रखा है. दोनों में नैन नक्श की समानता के अलावा एक और समानता भी है. दोनों के रंग एक जैसे हैं. अंग्रेज़ी गायिका रिहाना की लोकप्रियता का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि उनको इन्स्टाग्राम पर 64 मिलियन लोग फॉलो करते हैं. यह संख्या हैरान कर देती है. उनका एक गीत जो ‘अम्ब्रेला’ नाम से मशहूर है, को यूट्यूब पर 40 करोड़ से भी अधिक लोग देख चुके हैं. यह आंकड़ा जादुई नहीं बल्कि हकीक़त है. ठीक इसी तरह एक अन्य गायिका बियोंस नोवेल्स को इन्स्टाग्राम पर ही 116 मिलियन लोग फॉलो करते हैं. बात माइकेल जैक्सन की हो, रिहाना की हो, बियोंस की हो या फिर बॉब मार्ले की सभी का एक ही रंग है- काला! रेनी कुजूर का भी यही रंग है. और यह भी एक अच्छी वजह है कि वे आज भारतीय मिडिया में चर्चा का विषय बन चुकी हैं.

अपने नैन नक्श के रिहाना से मिलने जुलने केकारण इन्टरनेट पर छा जाने वाली रेनी कुजूर का रंग अचानक से कई अख़बारों और ऑनलाइन मीडिया वेबसाइट पर प्रमुखता से चमक रहा है. उनका इस तरह से रातों रात चर्चा में आ जाना खास भी है. भारत जैसे देश में जहाँ बात-बात में रंग को लेकर भेदभाव होता है वहीं उसी देश में रेनी अपने इसी रंग के साथ धूम मचा रही हैं. अख़बारों में उनके ऊपर खास रिपोर्ट लिखी जा रही हैं. उनकी तरह-तरह की तस्वीरें छप रही हैं. लोग उनको गूगल पर सर्च कर रहे हैं. लोग उनके बारे में हर तरह की जानकारी जानना चाह रहे हैं. एक ओर उनकी तस्वीर है तो बगल में रिहाना की. ऊपर मोटे मोटे अक्षरों में लिखा गया है- (Meet Indian Rihanna!) मिलिए भारतीय रिहाना से!

रेनी कुजूर 


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हालाँकि अभी यह शुरुआत है. रेनी के लिए मॉडलबनने का यह सफ़र आसान नहीं रहा. यह देश इंग्लैंड नहीं है जहाँ नओमी कैम्पबेल जैसी मॉडल का अपना एक रूतबा है. जब वह रैंप वॉक करती हैं तो लोगों की तालियाँ उनका स्वागत करती हैं. पर भारत में ऐसा नहीं होता. नओमी आज 48 साल की हो चुकी हैं पर अभी भी उनका जलवा कायम है. रेनी कुजूर में नओमी का भी अक्स देखा जा सकता है. हमारे देश में जाति, धर्म, अमीरी-गरीबी का भेदभाव तो है ही साथ ही रंग से जुड़ा भेदभाव भी जड़ों तक फैला हुआ है. ऊपर से रेनी का झारखंड जैसे प्रदेश से होना जो अधिकतर मामलों में पिछड़ा हुआ प्रदेश बताया जाता है, साथ ही उनका आदिवासी होना भी. अख़बारों में उनके दिए गए इंटरव्यूज़ में उन्होंने बताया भी है कि बचपन से लेकर आज तक के संघर्ष में लोगों ने उनके काले रंग को लेकर मजाक बनाया है. अंग्रेज़ी भाषा पर बेहतर पकड़ न होने के चलते और गहरे रंग को देखकर उनको काम का मौका ही नहीं मिलता था. कई जगह काम देने से मना कर दिया जाता था. कई बार मेकअप करने वाले लोग उनके रंग को लेकर तंज कस दिया करते थे. उनके पास ऐसे ढेरों उदाहरण हैं जहाँ वह बतलाती हैं कि रंग को भारत में किस तरह से देखा जाता है.

पर उनके अनुभवों से यह साफ़ हो जाता है कि हमारे यहाँ के लोग गोरेरंग को लेकर किस हदतक पागल हैं. हमारी नस्ल काकेसियन नहीं है. हम काले वर्ण की कतार में आते हैं. भारत एक गरम देश है. हमारे यहाँ के लोगों में यूरोपियन लोगों की तरह सफ़ेद रंग में तब्दील हो जाने की गज़ब की चाहत है. यहाँ के फ़िल्मी सितारे खुद गोरा बनाने वाली क्रीम का जोरशोर से प्रचार करते हैं. यहाँ तक कि शाहरुख़ खान खुद मर्दों वाली क्रीम बेचते हैं. उनके विज्ञापन के मुताबिक यह क्रीम लड़कों ‘मर्दों’ को इस्तेमाल करनी चाहिए क्योंकि यह लड़कियों पर इम्प्रेसन डालने के लिए अच्छा उत्पाद है. लेकिन उन्हें यह भी सोचना चाहिए कि जब वे अपनी रा-वन फिल्म बना रहे थे तब ‘छमक-छल्लो’ गीत एक काले विदेशी गीतकार एकॉन से क्यों गवाया? ये फ़िल्मी सितारे तो ज्यादा नहीं सोच पाते. यह लोगों को सोचना चाहिए कि वे क्यों अन्धे होकर इन्हें फॉलो करते हैं. हाल फिलहाल में आलिया भट्ट, यमी गौतम, हृतिक रोशन, शाहरुख़ खान, दीपिका पादुकोण, जॉन अब्राहम आदि फ़िल्मी कलाकार गोरापन बेच रहे हैं. इस हद तक रंग से जुदा भेदभाव खुलेआम दिखता है. भारत में गोरा बनाने वाली क्रीम का कारोबार करोड़ों में है. टीवी पर हर दूसरा तीसरा विज्ञापन इन्हीं कंपनियों का है.

टीवी पर हर दस मिनट में फेयर एंड लवली क्रीम काप्रचार करने वाली अभिनेत्री यमी गौतम बार-बार भारतीय दर्शकों और आम लोगों को रंग साफ़ करने का लगभग आदेश देती हैं, पर खुद अपने सोशल साईट इन्स्टाग्राम पर बियोंस नोवेल्स, जेनिफ़र लोपेज़ और प्रियंका चोपड़ा जैसी शख्सियतों को फॉलो करती हैं. यह उनके व्यक्तित्व का दोहरापन है. एक तरफ उनको भारतीय काले रंग के लोगों मरीज लगते हैं दूसरी तरफ वे बियोंस जैसी गायिका को फॉलो करती हैं. युवा होती लड़कियों को यमी गौतम की बजाय रेनी कुजूर को फॉलो करना चाहिए जिसने अपने इस रंग और तमाम रुकावटों के बाद भी अपना हौंसला नहीं छोड़ा. आज दुनिया उन पर चर्चा कर रही है. उनकी खूबसूरती पर कसीदे कहे जा रहे हैं.

रिहाना 

भारतीय जनता पार्टी के एक नेता हैं तरुण विजय. पिछले साल अफ़्रीकी मूल के लोगों पर लगातार भारत में होते हमले पर उन्हें अल जजीरा चैनल ने चर्चा के लिए बुलाया था. तभी वे एक ऐसी बात बोल गए जिससे बखेड़ा खड़ा हो गया था. उन्हों ने कहा- “अगर हम नस्लीय होते तो दक्षिण भारत के लोगों के साथ क्यों रहते? आप जानते हैं न उनके बारे में...तमिल, केरल, कर्णाटक और आन्ध्र प्रदेश. हम उनके साथ क्यों रहते फिर. हमारे यहाँ चारों तरफ काले लोग हैं.” (बीबीसी की रिपोर्ट) इस बयान के बाद लोगों ने सोशल मिडिया पर जमकर आलोचना की और यहाँ तक कहा गया कि उन्हें दक्षिण भारत में घुसने न दिया जाये. यह बयान एक राजनितिक सत्तारूढ़ दल के प्रतिनिधि की तरफ से आया. लेकिन कहीं न कहीं इसमें व्यक्तिगत सड़ी हुई मानसिकता की बू भी आती है. इसलिए जब रेनी कुजूर जैसे संघर्ष करने वाले लोग इस माहौल और मानसिकता में अपनी एक जगह बनाते हैं तब उनकी उपलब्धियों  को कम कर के नहीं आंका जा सकता. 

स्कूल की शिक्षा में बताया गया कि आर्य का एक मतलबगोरा रंग होता है. फिल्मों की नायिका को काला होने का हक नहीं. वह तो गुंडे अथवा खल पात्रों की संपत्ति है. काले रंग को कुछ इस तरह से साहित्य से लेकर घर तक के माहौल में परिभाषित कर दिया गया है कि हम इसके आदि बन चुके हैं. इस रंग के इर्द गिर्द सलीके से एक घटिया सोच विकसित कर दी गई है. जब 2016 में नवम्बर महीने में नोटबंदी हुई तब एक शब्दावली ‘काला धन या ब्लैक मनी’ का खूब इस्तेमाल किया गया. गौर से शब्दों की बिसात जो भाषा में बिछी है, उसे समझें तो एक पल को अपनी भाषा के ऊपर सोचने का मन हो आएगा. कैसी भाषा है!

जिसे हम काली कमाई पुकारकर गला खराब कर रहे थेवास्तव में वह कमाई तो है पर काली नहीं बल्कि अवैध या गैर कानूनी आय है। कई दफा एक शब्दावली सुनी होगी- 'आय से अधिक संपत्ति.'वास्तव में यही सही शब्दावली है. लेकिन हमने काले शब्द को जबरन इस्तेमाल करना शुरू कर दिया क्योंकि हमारे देश के पॉपुलर मंत्री इस शब्द का बिना सोचे समझे इस्तेमाल करते हैं. असल में इस गलत ढंग से कमाई गई आय को अवैधानिक आय कहकर पुकारा जाना चाहिए.

इस बात पर भी गौर करना जरूरी है कि हम कितनीअपनी भाषा बोलते हैं और कितनी दूसरों की नक़ल करते हैं. जो जुबान हमें दी गई है हम उसी में सोचते और बोलते हैं. हमारी खुद की कोई तर्कशील भाषा नहीं दिखती. उधार के शब्द लेकर हम अपनी रोज़मर्रा ढोते हैं. बच्चों की भाषा को गौर से सुने तो पाएंगे की स्कूल जाने के बाद वह अधिक भेदभाव वाली बन जाती है. यह एक ऐसी प्रक्रिया है जो दिखती नहीं पर असर साफ़ समझ आता है.
भाषा आज के दौर में परोसी जाती है. घर में दरवाजे के नीचे से सुबह सुबह 16 से 17 पन्नों वाला अखबार हो या फिर टीवी में चलते कार्यक्रम, दफ्तर की धूल खाती फाइले हों या फिर सब्जी तरकारी खरीदने तक की प्रक्रिया में एक ज़ुबान चुपके से बैठी होती है. कहीं फुर्सत नहीं है दिमाग को खुद की भाषा के वाक्य रचने की. जो ज़्यादा देखा-सुना वही बार बार जीभ से संचालित होने लगता है. बनाई जा रही व्यस्त दिनचर्या सोचने की प्रक्रिया को रोक रही है और हम दिन पर दिन नक़ली होते जा रहे हैं. हम कभी बैठ कर यह नहीं सोचते कि  त्वचा का रंग आखिर क्यों इतना मायने रखता है? रंग के ऐसा होने की क्या वजहें हैं? गोरे होने की जरुरत क्यों है? काले रंग को इतने बड़े पैमाने पर क्यों ख़राब बताया जा रहा है? ऐसे सवालों के बारे में हम कभी सोचते ही नहीं.
सभी रंग को सोखने के बाद ही काला रंग पनपता है.  काला रंग विपरीत या किसी रंग का विलोम नहीं है. यह सफ़ेद रंग का दुश्मन नहीं है. वास्तव में यह रंग बाकी रंगों की तरह ही एक रंग है। बाज़ार और महान संस्कृति के पोषकों ने इसे एक हद तक नकारात्मक चोला पहनाया हुआ है. इसे अंधेरे से जोड़ा जाता है. अपशगुन का तमगा पहनाया जाता है. सामाजिक धब्बा कहा जाता है. इतना ही नहीं काली शक्ति जैसे शब्द से उन नकारात्मक रूहानी ताक़तों से जोड़ा जाता है जो हमारी दुनिया से परे हैं. अमावस की रात का ज़िक्र भी लगभग कुछ ऐसा ही है. रहस्य का रंग भी यही है. कई लोगों को देखा जा सकता है कि वे पैरों में काला धागा बांधकर रखते हैं या फिर गले में काली माला पहनते हैं कि किसी की नज़र नहीं लगे. नज़र क्या है-काली और बचाव भी काले रंग के धागे से किया जा रहा है. मौजूदा दौर में हम अपनी पीढ़ी को भी ऐसे अन्धविश्वास विरासत के रूप में दे रहे हैं जबकि कोशिश यह होनी चाहिए कि उन्हें समानता और वैज्ञानिक नजर दी जाती. 

यह भी पढ़ें : अनफेयर एंड लवली : गोरेपन की सनक का जवाब

बहुत हद तक इस रंग के आसपास घूमतीयह बिल्कुल नयी विचारधारा नहीं है. लंबे समय से इसकी बुनाई होती रही है। यही वजह कि अब हमारे दिमाग में काले रंग से जुड़ी छवियाँ अलग थलग हैं. अमूमन हम इन छवियों को काले रंग में रंग देते हैं या फिर हिकारत की नज़र से देखते हैं. धर्म से लिपे-पुते इस देश में हर रंग का अपना मजहब है. हिन्दू या मुस्लिम, सभी के अपने खास रंग हैं और उनका महत्व है. लेकिन ऊपरी नज़र डालने पर काला रंग फिर से बिना कुर्सी के रह जाता है. अब कुछ परिवर्तन देखने को मिल रहे हैं. इस रंग का अपना एक मुकाम विकसित हो चुका है. अपने पहनावे में लोग इस रंग को जगह तो ही रहे हैं साथ ही साथ इस रंग से जुड़े झूठी कहानियों से बाहर आ रहे हैं. 

रेनी कुजूर 


 नोटबंदी की घटना नेइस रंग के आगे एक गतिरोधक बना दिया था. हर ज़ुबान पर काला धन या काली कमाई जैसा शब्द फेविकोल से चिपका दिया गया था. इसने अंबुजा सीमेंट सी मजबूती दिखाई दे रही थी. वास्तव में यह रंग उतना अनलकी नहीं जितना सोचा जाता है. कम से कम रेनी कुजूर को देखकर जिस खूबसूरती की समझ बनती है उसे अपनी सोच में शामिल करने की हर किसी को जरुरत है. रेनी जैसे लोगों को कल्पनीय आदर्शों से जो कलेंडर में धुप बत्ती का धुआं सूंघते हैं कि जगह रिप्लेस करने का सोचा जा सकता है.

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स्त्रीकाल शोध पत्रिका अंक (28-29)

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स्त्रीकाल शोध पत्रिका ऑनलाइन  का यह अंक  28-29 है. इस अंक में भारती शुक्ला, ज्योति कुमारी, अंजली, पूनम प्रसाद, डॉ. तूबा जमाल, डॉ. सुनीता कुमारी, डॉ. सुनीता शर्मा,डॉ. कुमारी उर्वशी, कृष्णचन्द, डॉ. सोनिया माला,संदीप तानाजी कदम,कविता रानी,सविता रानी,डॉ. शगुफ़्ता नियाज़,डा. नंदिनी सहाय,प्रियंका कुमारी नारायण,मनीष कुमार,सुनील कुमार यादव,सविता,डॉ लीना बी. एल ,शिल्पा शर्मा,डॉ. विमलेश शर्मा,सुबोध कान्त,दिवाकर एन और शिखा के शोध-आलेख प्रकाशित हैं. इस अंक को लिंक के जरिये नॉटनल पर पढ़ा जा सकता है. चित्र: सुनील लीनस डे





स्त्रीकाल शोध पत्रिका अंक 28-29 


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बहुजन भारत के शौर्य-मेधा का प्रतीक बनी हिमा दास

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स्त्रीकाल डेस्क 

फ़िनलैंड के टैम्पेयर शहर में 18 साल की हिमा दासने 12 जुलाई को इतिहास रचते हुए आईएएएफ़ विश्व अंडर-20 एथलेटिक्स चैंपियनशिप की 400 मीटर दौड़ स्पर्धा में पहला स्थान प्राप्त किया. हिमा विश्व एथलेटिक्स चैंपियनशिप की ट्रैक स्पर्धा में स्वर्ण पदक जीतने वाली पहली भारतीय हैं. किसान परिवार से आने वाली हिमा असम के नौगांव ज़िले की रहने वाली हैं. पिता-माता उनकी कोचिंग का खर्च उठाने की स्थिति में भी नहीं थे. कोच निपुण दास ने उन्हें ट्रेंड किया.

हिमा दास पीटी उषा के साथ 


हिमा दास की इस शानदार उपलब्धि कीदावेदारी को लेकर हालांकि सोशल मीडिया में बहस छिड़ गयी है. आरक्षण विरोधी और कथित मेरिट के दावेदार हिमा को अपना बता रहे हैं, ब्राह्मण परिवार से बता रहे हैं वहीं कथित मेरिट को अवसर की समानता से जोड़ने वाले आरक्षण समर्थक उसे बहुजन समाज की नायिका बताते हुए मेरिट के मिथ के खिलाफ लिख रहे हैं.

सोशल मीडिया में बहुजन विचारक के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त वरिष्ठ पत्रकार दिलीप मंडल लिखते हैं: 

क हायपोथिसिस पर विचार करें.
अमेरिका में जब रंगभेद चरम पर था, शासन-प्रशासन, शिक्षा, बिजनेस वगैरह क्षेत्रों में ब्लैक्स को आगे आने से रोका जा रहा था, तो अश्वेत लोगों ने दो क्षेत्रों में खुद को झोंक दिया.
कला-संगीत और खेल.
इन दो क्षेत्रों में अमेरिका में अश्वेत लोगों ने वह कर दिखाया, जिसकी कल्पना भी वहां के श्वेत नहीं कर सकते थे. वहां एक से एक प्रतिभाएं अश्वेतों के बीच से निकलकर आईं और सारी दुनिया पर छा गईं.
अब वहां का सिस्टम अश्वेतों के प्रति पहले से उदार है और एक ब्लैक बराक ओबामा को वहां के श्वेतों ने ह्वाइट हाउस भेजा.
दो सवाल है -
1. क्या भारत में भी यही दोहराया जा रहा है? हिमा दास, दीपा कर्मकार, उमेश यादव, कुलदीप यादव, पा. रंजीत, नागराज मंजुले....लिस्ट लंबी हो रही है.
2. क्या भारत में मुसलमान संगीत, फिल्म और खेल में बेहतर कर रहे हैं, तो इससे मेरी हायपोथिसिस की पुष्टि होती है?


हालांकि इस बीच विकी बायोग्राफी नामक साईट में हिमा दास की जाति बंगाली ब्राह्मण बतायी जा रही है. इसपर तीखी प्रतिक्रया देते हुए आलोक रंजन अपने फेसबुक पेज पर लिखते हैं 'ब्राह्मणो से नीच और घटिया मानसिकता का इंसान पूरी दुनिया में कोई नही हो सकता, ये देखिये कैसे ब्राह्मण चाल चलते हैं.'

इस बीच एथलेटिक्स फेडरेशन ऑफ़ इंडिया ने हिमादास के ठीक से अंग्रेजी न बोल पाने पर एक ट्वीट कर दिया , जिसकी चौतरफा निंदा शुरू हुई. बहुजन विचारक और नेता मनीषा बांगर ने इसके खिलाफ एक के बाद एक तंज कसते हुए पोस्ट लिखे. एक पोस्ट में उन्होंने लिखा 'Mallya और Nirav इतनी रफ्तार से English बोले की 100 करोड़/ मिनिट की स्पीड से भारत को लूट के फ़रार हो गये.' 

फेडरेशन की चौतरफा निंदा के बाद उसनेअपने बयान पर क्षमा मांग ली: 13 जुलाई को ट्वीट कर फेडरेशन ने लिखा : 'सभी भारतवासियों से क्षमा अगर हमारी एक TWEET से आप आहत हुए है!असल उद्देश्य यह दर्शाना था कि हमारी धाविका किसी भी कठनाई से नहीं घबराती, मैदान के अंदर या बाहर! छोटे से गाँव से आने के बावजूद, विदेश में अंग्रेजी पत्रकार से बेझिझक बात की! एक बार फिर उनसे क्षमा जो नाराज हैं,  जय हिन्द!'

संजय बौद्ध ने लिखा,'ये तस्वीर देख के महापुरुषों का एक कथन ध्यान आ गया की - "अछूतो को अगर फटे हुए बांस उठाने का भी अधिकार होता तो शायद ये देश कभी गुलाम नहीं होता...!"



Reservation Is Our Right For Equality नामक फेसबुक पेज से लेकर कई और पेज पर यह लिखा गया: 
दलित समाज की धानुक  जाति में पैदा हुई हिमा दास ने जीता 400 मीटर दौड़ में जीता गोल्ड मैडल। किया भारत का नाम किया रौशन 
हिमा दास, असम के छोटे से गांव की 18 साल की मासूम सी लड़की जिसने आईएएएफ विश्व अंडर-20 एथलेटिक्स चैम्पियनशिप की 400 मीटर दौड़ स्पर्धा में गोल्ड मेडल जीतकर देश का गौरव बढाया है ।
इस इवेंट में देश को पहली बार गोल्ड मेडल हासिल हुआ है। हिमा ने महिला, पुरुष, जूनियर, सीनियर सभी वर्गों में पहली बार वर्ल्ड ट्रैक इवेन्ट में गोल्ड जीता है वो भी 51.46 सेकेण्ड के रिकॉर्ड समय में। 
जो काम अब तक कोई भारतीय नहीं कर पाया वो हिमा ने किया है। 
बहुजन समाज की शेरनी हिमा असम के नगाँव जिले के धींग के पास कंधूलिमरी गाँव से हैं। उसके पिता रोंजीत दास और मां जोमालि चावल की खेती करते हैं। बेहद गरीब परिवार से आने वाली हिमा 6 बहन-भाइयों में सबसे बड़ी है। तमाम मुश्किलों को हराते हुए हिमा ने ये क़ामयाबी हासिल की है।

शाबाश हिमा! तुमने हर आम लड़की के सपने को हिम्मत दी है ।
अब कुछ और लडकियां जिनके सपने आखों में ही मार दिये जाते हैं ऐसे सपने साकार करने के लिए आगे आयेंगी।
💐बधाई हिमा ढेरो बधाई💐
आरक्षण विरोधियों, ये है बहुजनों की मेरिट।तुम हमारी मेरिट से डरते हो 
जय भीम जय संविधान

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महिला आरक्षण के समर्थन में राहुल गांधी: पीएम को छोड़ सभी जिम्मेवार नेताओं ने अबतक किया समर्थन

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स्त्रीकाल डेस्क 

राहुल गांधी ने अपने ट्वीट के जरिये पीएम मोदी से कहा है कि वह संसद में महिला आरक्षण बिल लाएं, कांग्रेस उनका पूरा समर्थन करेगी. कांग्रेस इस संबंध में प्रेस कांफ्रेंस कर चिट्ठी जारी करने वाली है.


भाजपा ने स्वयं महिला आरक्षण बिल को अपने घोषणापत्र का हिस्सा बनाया था, लेकिन बहुमत के बावजूद इसे पास कराने का कोई कदम अबतक नहीं उठाया है, कारण है प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की इस पर चुप्पी. हालांकि इस बिल के समर्थन में अबतक पूर्व राष्ट्रपति, प्रणव मुखर्जी, सोनिया गांधी, वेंकैया नायडू और अब राहुल गांधी ने आवाज उठायी है. 20 सितंबर 2017 को पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने भी प्रधानमंत्री मोदी को पत्र लिखकर लोकसभा में महिला आरक्षण बिल को पास करने का निवेदन किया था. पिछले साल कांग्रेस ने शीतकालीन सत्र के दौरान देश के अलग-अलग राज्यों से संसद और विधानसभा में महिलाओं के लिए 33 फीसदी आरक्षण के समर्थन में 33 लाख हस्ताक्षर जमा किए थे. बड़ी- बड़ी कागज की पेटियां लेकर देश के अलग-अलग प्रदेशों से महिला कांग्रेस की कार्यकर्ताओं और नेता दिल्ली पहुंचीं थीं. महिला कांग्रेस के पदाधिकारियों और सदस्यों ने 33 लाख हस्ताक्षर जमा करने का दावा किया था.

यह भी पढ़ें : सोनिया गांधी का मास्टर स्ट्रोक: महिला आरक्षण के लिए लिखा पीएम मोदी को खत



राहुल ने कहा है कि संसद और विधानसभाओंमें महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण मिलना चाहिए।  बता दें कि महिला आरक्षण विधेयक पिछले काफी समय से लटका है। 1996 में तत्कालीन पीएम एच. डी. देवगौड़ा के कार्यकाल में इस बिल को संसद में पेश किया गया था। 2010 में राज्यसभा में पास होने के बाद यह बिल लोकसभा में पास नहीं हो सका। वर्ष 1993 में संविधान में 73वें और 74वें संशोधन के जरिए पंचायत और नगर निकाय में एक तिहाई सीटों को महिलाओं के लिए आरक्षित किया गया था। स्त्रीकाल में पढी जा सकती है इस बिल पर अब तक हुई पूरी बहस. हमने प्रिंट में इस पर एक अंक भी प्रकाशित किया है. लेकिन सवाल राहुल गांधी से भी है कि वे आरक्षण के भीतर आरक्षण यानी दलित-आदिवासी और पिछड़ी जाति की महिलाओं के लिए आरक्षण के साथ इस बिल पर मानस क्यों नहीं बनाते?

इन्हें पढ़ें: सारे दल साथ -साथ फिर भी महिला आरक्षण बिल औंधे मुंह : क़िस्त सात
             महिलाओं द्वारा हासिल प्रगति ही समुदाय की प्रगति: डा. आंबेडकर
              आरक्षण के भीतर आरक्षण के पक्ष में बसपा का वाक् आउट : नौवीं क़िस्त

स्त्रीकाल के महिला आरक्षण अंक को  पढ़ने के लिए क्लिक करें : महिला आरक्षण 

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दलित छात्राओं को ब्लैकमेल करते रजिस्ट्रार का ऑडियो आया सामने : हिन्दी विश्वविद्यालय मामला

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बलवंत ढगे

महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय के रजिस्ट्रार (इन चार्ज) कृष्ण कुमार सिंह मुसीबत में फंस सकते हैं. दरअसल स्त्रीकाल के पास उपलब्ध उनकी बातचीत का एक ऑडियो उनके द्वारा, विश्वविद्यालय प्रशासन और जिले की पुलिस द्वारा दलित छात्राओं के साजिशन उत्पीडन और निलम्बन को पुष्ट करता है. वे बातचीत में छात्रा पर दवाब डालते हुए शादी का झांसा देकर यौन उत्पीडन करने के आरोपी को बचाने की कोशिश कर रहे हैं. रजिस्ट्रार अपने इस कृत्य से न सिर्फ एक अपराधिक साजिश कर कई छात्राओं के करिअर के साथ खिलवाड़ की अपनी और कुलपति की कोशिश का खुलासा कर रहे हैं बल्कि अपने विरुद्ध महिला उत्पीडन और एट्रोसिटी एक्ट की धाराओं के तहत कार्रवाई भी आमंत्रित कर रहे हैं. इस मामले में जिले की पुलिस अधीक्षक निर्मला देवी ने कोई भी बात करने से मना कर दिया. (बातचीत सुनने के लिए रिपोर्ट के बीच में दिया गया वीडियो लिंक क्लिक करें ) 

हिन्दी विश्वविद्यालय का महिला छात्रावास 

क्या है पूरा मामला (राजेश सारथी द्वारा जारी प्रेस विज्ञप्ति पर आधारित और मीडिया विजिल द्वारा संपादित) 

महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा (महाराष्ट्र) प्रशासन ने एक मारपीट की कथित घटना और सम्बंधित एफ.आई.आर. के आधार पर (विभिन्न धाराओं का हवाला देते हुए, जो क्रमश: 143, 147, 149, 312 और 323 हैं ) 5 महिला विद्यार्थियों/शोधार्थियों (04 पीएच-डी., 01 बी.एड.–एम.एड. एकीकृत) को विश्वविद्यालय से निष्कासित कर दिया है। इसके लिए विश्वविद्यालय ने अपने स्तर से कोई जांच कमिटी बनाने कि ज़रूरत भी नहीं समझी। छात्राओं के अनुसार, ’’बिना किसी कमेटी के, न ही प्रोक्टर, न ही छात्र कल्याण अधिष्ठाता और न ही संबन्धित विभाग से कोई पूछताछ की ज़हमत उठायी गयी। घटना वाले दिन दो छात्राओं में से कोई भी परिसर से बाहर ही नहीं गया जिसका पुख्ता सबूत विश्वविद्यालय के सीसीटीवी और हास्टल का आवक-जावक रिकॉर्ड है।”

विश्वविद्यालय प्रशासन से छात्राएं बार-बार अपने गुनाह कासबूत मांगती रही, परन्तु प्रभारी रजिस्ट्रार ने दस दिन घुमाया और बाद में कहा कि कुलपति महोदय ने कोई भी जानकारी देने से मना किया है। जब छात्राओं ने अपनी सुरक्षा सुनिश्चित करने की बात कही तो वे बोले- ये मामला विश्वविद्यालय के बाहर का है। जब छात्राओं के अभिभावकों ने कुलपति एवं कुलसचिव से बात करनी चाही कि बिना किसी कमेटी गठन के निष्कासन कैसे किया, तो कुलपति ने कोई बात सुनने से इंकार कर दिया और पीड़ित छात्राओं को अपना पक्ष रखने का मौका तक नहीं दिया। दिलचस्प है कि न तो घटनास्थल विश्वविद्यालय की परिधि में आता है और न ही शिकायतकर्ता का संबंध इस विश्वविद्यालय से है।

मामला चेतन सिंह बनाम ललिता का है।दोनों दिल्ली के निवासी हैं और हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के छात्र हैं। ललिता बी. एड.–एम. एड. एकीकृत की छात्रा है जबकि चेतन सिंह हिंदी एवं तुलनात्मक साहित्य विभाग का पीएच-डी. शोधार्थी है। दिनांक 29/12/2017 को ललिता, पिता हेतराम ने चेतन सिंह पर यौन शोषण का आरोप लगाते हुए आईपीसी की धारा 376, 323, 506, 417 के तहत स्थानीय राम नगर पुलिस स्टेशन, वर्धा में मामला दर्ज कराया। इस केस में विश्वविद्यालय की चार लड़कियां आरती कुमारी, विजयालक्ष्मी सिंह, कीर्ति शर्मा, शिल्पा भगत पीड़िता के गवाह थीं। हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा ने चेतन सिंह को यौन शोषण के आरोप में विश्वविद्यालय के महिला सेल के सिफारिश पर निष्कासित कर दिया। कुछ दिन बाद आरोपी चेतन सिंह को कोर्ट से इस शर्त पर जमानत मिल जाती है कि जमानत के बाद पीड़िता व गवाहों को किसी प्रकार से परेशान नहीं करेंगे। इसके बाद आरोपी चेतन सिंह विश्वविद्यालय के महिला छात्रावास के निकट ही पंजाब राव कॉलोनी में अपनी पत्नी सोनिया के साथ किराए पर रहने लगा और पीड़िता के साथ-साथ गवाहों को अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करने का प्रयास करने लगा।
एक्टिंग रजिस्ट्रार के के सिंह 

इसी दौरान दिनांक 03/05/2018 की संध्या को पीड़ित छात्रा ललिता के साथ हाथापाई होती है जिसमें दोनों पक्षों को चोट आती है। घटना के तुरंत बाद चेतन सिंह रात 8:00 बजे अपनी पत्नी सोनिया सिंह के साथ रामनगर पुलिस थाना में जाकर ललिता के खिलाफ एनसीआर दर्ज कराता है जिसमें धारा 504, 506 के तहत आरोप लगाए जाते हैं। ललिता भी विश्वविद्यालय के महिला छात्रावास के कर्मचारी, गार्ड, केयरटेकर तथा 3 महिला मित्र के साथ रामनगर थाने जाकर चेतन सिंह के खिलाफ धारा 324 के तहत केस दर्ज कराती है। दिनांक 08/05/2018 को चेतन सिंह की पत्नी सोनिया सिंह द्वारा हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा को लिखित शिकायत पत्र दिया जाता है जिसमें केस की पीड़िता पक्ष की 4 मुख्य गवाहों के नाम शामिल कर आरोप लगाए गए कि 4 गवाह और पीड़िता (ललिता) ने चेतन सिंह व उसकी पत्नी के साथ मारपीट की जिससे उसका गर्भपात हो गया। इस मामले में सेवाग्राम से बनी एक मेडिकल रिपोर्ट के आधार पर 07/06/2018 को एफआईआर दर्ज की गई। एन.सी.आर. में पीड़िता के अलावा किसी का भी नाम नहीं था लेकिन बाद में एफआईआर में चार अन्य नाम जोड़ दिया गया।


इसी बीच रामनगर थाने के ए.एस.आई. सचिन यादव द्वारा पीड़िता को धमकाया भी जाता है। रामनगर थाने का पी.एस.आई. सचिन यादव पीड़िता और उसके साथ के गवाह के अभिभावक को धमकी देता है कि “5 लड़कियों की पीएच-डी. खत्म करवा दूँगा और सब को जेल कराऊँगा”। पी.एस.आई. का यह रवैया देखकर पीड़िता (ललिता) ने इसकी शिकायत नागपुर आईजी से की। आई. जी. ने मामले को तुरंत संज्ञान में लेते हुए वर्धा एस.पी. से जांच प्रक्रिया शुरू करवाई। 6 जुलाई 2018 को आरोपियों के बयान दर्ज़ कराए गए। उसी दिन 6 जुलाई 2018 को एफआईआर को आधार बनाते हुए विश्वविद्यालय द्वारा 5 लड़कियों को बिना किसी प्राथमिक जांच किए निलंबित कर दिया गया।

इस मामले की जांच सिटी एस.पी. वर्धा की देखरेख में आई.जी. नागपुर के अधीन चल रही है। आई.जी. की जांच प्रक्रिया पूरी हुए बगैर इन पाँच छात्राओं को विश्वविद्यालय द्वारा निष्कासित किया गया है जो कि असंवैधानिक है। यह मुंबई न्यायालय के आदेश क्रमांक 9889/2017 का खुला उल्लंघन है जिसमें साफ-साफ लिखा है कि किसी पर भी एफआईआर दर्ज होने के कारण विद्यार्थियों के शिक्षा लेने के संवैधानिक अधिकार का हनन करने का अधिकार किसी संस्था के पास नहीं है।

साजिश का खुलासा 

सामाजिक कार्यकर्ता और आरपीआई के विदर्भ महासचिव अशोक मेश्राम कहते हैं, 'इस पूरी बातचीत से यह स्पष्ट होता है कि विश्वविद्यालय प्रशासन यौन उत्पीड़न के आरोपी छात्र के पक्ष में मिलकर पांच छात्राओं को प्रताड़ित कर रहा है. यही नहीं पुलिस भी इस प्रसंग में मिली हुई है. क्या कारण है कि मामले की जांच करने वाला पुलिस अधिकारी और रजिस्ट्रार दोनो ही छात्रा को डरा रहे हैं, ब्लैकमेल कर रहे हैं. आम तौर पर ऐसे मामले में दलित आरोपी के साथ प्रशासन कभी खड़ा नहीं होगा लेकिन व्यवहार में महिला विरोधी प्रशासन दलित पीडिता के खिलाफ काम कर रहा है. शिकायतकर्ता और गवाहों पर दवाब बनाने की कोशिश कर रहा है.'मेश्राम आगे कहते हैं कि 'इस पूरे मामले में 5 छात्राओं का निलम्बन और उनपर मुकदमा एक सामूहिक साजिश की ओर इशारा करते हैं.'दिल्ली विश्वविद्यालय में इतिहास के प्राध्यापक और जनता दल लोकतांत्रिक के राष्ट्रीय सचिव रतन लाल कहते हैं कि छात्रा और गवाहों पर दवाब बनाना अपराधिक कृत्य है, कार्रवाई होनी चाहिए. सूत्रों के अनुसार विश्वविद्यालय के कुछ विद्यार्थी इस मामले में कानूनी कार्रवाई के लिए कुलपति और मानव संसाधन विकास मंत्रालय को लिख सकते हैं और हर संभव कानूनी कदम उठा सकते हैं. हालांकि के के सिंह से जब इस प्रसंग में सम्पर्क किया गया तो उन्होंने बिना ऑडियो सुने  कहा कि मैंने कोई बात नहीं की है, मेरी आवाज नहीं है ऑडियो में.

बलवंत ढगे टाइम्स ऑफ़ इंडिया के वर्धा संवाददाता हैं. संपर्क: 9890513257

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ग्यारहवीं 'ए'के लड़के देश का भविष्य हैं, असली खतरा ग्यारहवीं 'बी'की लड़कियां हैं

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जया निगम 

सनी लियोनी  और सपना चौधरीहमारे समय के पुरुषों के लिये सपनीली परियां हैं, क्लास और कल्चर की ऊंची-ऊंची दीवारों को लांघते हुए इन दोनों ही औरतों ने अपनी लोकप्रियता की बड़ी शानदार मीनारें खड़ी की हैं. इसी तरह भाभी जी घर पर हैं की शिल्पा शिंदे की सेक्स अपील के चर्चे हर घर में हैं. सदियों से गणिकाओं और नगरवधुओं के नाम पर पुरुषों की यौन फंतासियों को पूरा करने वाली औरतें का जो अस्तित्व बाज़ार में रहा है, उन्ही लालसाओं के ऑन स्क्रीन अवतार के रूप में ये महिलायें दिख रही हैं. सविता भाभी की शोहरत के किस्से अभी पुराने नहीं हुए हैं. 



भारत में इन महिलाओं की विराट सफलता के बरक्सकोई पुरुष अपनी सेक्स अपील के चलते बाजार में छाने में इतना कामयाब रहा हो ऐसा याद नहीं आता हालांकि इसके अपवाद स्वरूप केवल फवाद खान का नाम ही याद आता है जिनकी सेक्स अपील के फंदे में महिलायें मास लेवेल पर फंसीं लेकिन क्लास और कल्चर की सीमाओं को लांघना उनके लिये भी बहुत दूर की कौड़ी थी.

क्या इन दीवानावार आदमियों को अपने घर की महिलाओंके 'टेस्ट'के बारे में कुछ पता है? माना कि ज्यादातर ने ये जानने की जरूरत कभी महसूस ही नहीं की होगी लेकिन जिन्हे 'जरूरतों का ख्याल'आता है जो ये मानने के दावे करते हैं कि औरतें भी आदमियों की तरह इंसान होती हैं. उनकी भी इच्छायें-वासनायें, हार-जीत, संघर्ष-पराक्रम और अहम-कुंठायें होती हैं. उनके लिये भी सेक्स का चैप्टर खुलते ही केवल पुरुषों के फलसफे ही वास्तविक रह जाते हैं.

हिंदी के युवा लेखक गौरव सोलंकी की एक कहानी है, 11वीं A के लड़के. यूं तो ये कहानी बेहद विवादास्पद है और नयेपन की संभावनाओं से भरपूर भी, लेकिन मेरे लिये इस कहानी की खास बात है - एक ही क्लास में पढ़ने वाले भाई और बहन की सेक्सुअल फैंटेसीज़ का समानांतर चलना और उनका आपस में एक-दूसरे से ये सब साझा करना. कहानी में शायना, नायक की हमउम्र बहन है जिसका प्यार अमरजीत से है जो उसी की क्लास में पढ़ने वाला पढाकू किस्म का, चॉकलेटी संभावनाओं से भरपूर लड़का है जिसकी शक्ल के पीछे पूरे क्लास की लड़कियां एक साल फेल होने को तैयार हैं जबकि इस हल की दुकान चलाने वाले लड़के को केवल किताबों से मुहब्बत है. शायना और उसका भाई सर्विस क्लास मां-बाप की नौकरों के दम पर पलने वाली संतानें हैं. शायना का भाई अमरजीत की भाभी के साथ सविता भाभी की कल्पनाओं के सच होने से शुरुआत करते हुए उसकी सलवार तक धोने लगता है जबकि शायना अमरजीत की किताबों के पैसे चुकाते-चुकाते उसकी दाढ़ी बनाने लगती है.
इस किताब पर भारतीय ज्ञानपीठ की आपत्ति थी कि भाई-बहन के रिश्ते को इस तरह से कहानी में दिखाया जाना अश्लील है और हिंदी समाज भी इस तरह की कहानियों के लिये तैयार नहीं है, ये उद्गार उन्होने लेखक गौरव सोलंकी को लिखे गये अपने पत्र में व्यक्त किये जिसके लिये वो तायार नहीं हुए, उन्हे ये भी गवारा नहीं था कि वो अपनी कहानी में सगे भाई-बहन के रूप में दिखाये गये अपने पात्रों का रिश्ता बदल कर कुछ ममेरा या चचेरा कर दें. इस संग्रह का नाम पहले था - सूरज कितना कम जो बाद में एक अन्य प्रकाशन से ग्यारहवीं ए के लड़के के नाम से छप कर आया.


दरअसल ये पूरा किस्सा साल 2012 का है और हमारे समाज में यौन फंतासियों और सुखों पर लगे लैंगिक पहरों के अलग-अलग किस्सों की केवल एक नज़ीर भर है. देश के आकाओं को रानी जैसी गरीब घर की बहू-बेटियों का सविता भाभी में बदल जाना तो पुश्तैनी प्रहसन लगता है लेकिन दिक्कत उन्हे होती है शायना जैसी लड़कियों के अपने भाईयों के बरक्स अपनी प्रेम और वासनाओं के सिलसिले चलाने से, यौन सुखों और फंतासियों को अपनी तरह से जीने के उनके वादों और दावों से.

जो भाई अपनी बहनों को घर, परिवार, पड़ोस, देशऔर धर्म की चौहद्दी में बांध कर खुद अपने शिकारी अभियानों में व्यस्त रहते हैं, उनके हाथों इस देश का धर्म, संस्कृति और अर्थव्यवस्था बिल्कुल सुरक्षित रहती है लेकिन जो लड़के अपने साथ अपनी बहनों के इंसानी हकों को पहचान कर उन्हे नहीं दबाना नहीं सीखते, धमकाना और जरूरत पड़ने पर मारना नहीं सीखते वो 'गुड़गांव'जैसे शहरों के लिये किसी मतलब के नहीं बनते. क्या इत्तफाक है कि गौरव ने ये कहानी जिस शहर से भाग कर लिखी, उसी शहर के बनने की कहानी शंकर रमन ने लिखी.
देश में चलते सेक्सी बवंडर की एक से बढ़ कर एक डरावनी कहानियां सामने आ रही हैं - मगर देश को खतरा इन सच्ची कहानियों के वास्तविक अपराधियों से ज्यादा ऐसी काल्पनिक कहानियों के सच्चे किरदारों से हैं जो किस्सा, गुड़गांव, तितली, सिटीलाइट्स, अनफ्रीडम, एंग्री इंडियन गॉडसेज, एस दुर्गा और ग्यारहवीं ए के लड़के जैसी कहानियां कह रहे हैं.

इसे ऐसे भी कह सकते हैं कि 'गुनाहों का देवता'पढ़ कर मंत्रमुग्ध हो जाने वाली पीढ़ी उसी देवता की निजी जिंदगी पर आधारित 'रेत की मछली'को सुनने के लिये बिल्कुल तैयार नहीं है.
हमारी सोसायटी जिस किस्म के सेक्सी चक्रवात से गुजर रही है उसके बीचोबीच एक किस्म का 'निर्वात'है. निर्वात टूटेगा तो चक्रवात बिखर जायेगा. इस निर्वात को तोड़ने के औजार 'रानी'के पास नहीं हैं पर शायना के पास हैं, इसलिये उसका चुप रहना जरूरी है.



 आईआईएमसी की पूर्व छात्रा जया निगम सोशल सेक्टर से जुड़ी हैं. 

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आदिवासी स्त्री जिसे मीडिया प्रस्तुत नहीं करती है

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अंजली

मीडिया से अलक्षित आदिवासी स्त्री-छवि और मीडिया द्वारा स्टीरिओटाइप का विश्लेषण कर रही हैं अंजली




स्त्री को वैश्विक स्तर पर एक इकाई माना गया है जिसका समाज व्यवस्थाएं सर्वाधिक शोषण करती है। स्त्री को तथाकथित सभ्य और कम विकसित समाज दोनों जगह पर एक अलग तरह का व्यवहार भुगतना पड़ता है। समाज के स्तर पर, खानपान में और आत्मसम्मानपूर्वक जीवन जीने के लिए प्रदत्त मूल अधिकारों में भी स्त्री से भेदभाव बरता जाता है। यद्यपि भारतीय संविधान देश के नागरिक को लिंग, जाति, धर्म आदि के भेदों से परे मूलभूत सुविधाएँ प्रदत्त कराने को सुनिश्चित करता है और मूल अधिकार प्रदान करता है। किन्तु इन प्रावधानों के होने के बावजूद भी स्त्री समुदाय पीड़ित अवस्था में है। अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के उत्थान के लिए संविधान में किए गए प्रावधानों के बावजूद भी इन वर्गों से सम्बन्ध रखने वाली स्त्रियों को अपने दिन-प्रतिदिन के जीवन में तरह-तरह की यातनाओं का सामना करना पड़ता हैं। ऐसा माना जाता है कि मीडिया के उदय से लोकतंत्र को लागू करने में सहायता मिलती है और जनतंत्र मजबूत होता है। आदिवासी समुदाय भारतीय सन्दर्भ में जातीय आधार पर बटे समुदाय से अलग है। आदिवासी समुदाय का अपना जीवन दर्शन है, जिसमें प्रकृति को सबका मूल माना गया है। इसलिए आदिवासी समुदाय में लिंग आधारित भेद उतने जड़ रूप में विद्यमान नहीं है जितने अन्य समुदायों में व्याप्त है। किन्तु जब से आदिवासी क्षेत्रों में बाहरी समुदाय का हस्तक्षेप बढ़ा है, तब से आदिवासी जन-जीवन अस्त-व्यस्त हो रहा है। इसके परिणाम के रूप में हम देखते है कि आदिवासी स्त्री और पुरुष किस प्रकार उत्पीडित हो रहे है और इस उत्पीड़न के विरोध में लड़ रहे हैं। बात यदि आदिवासी स्त्री की करें तो हम पाते हैं कि आदिवासी स्त्री की छवि हमें आज विभिन्न रूपों में दिखाई दे रही है।
आदिवासी समुदाय में बाहरी संपर्कों के दबाव के कारण अलग-अलग तरह की समस्याएँ झेलती स्त्री, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खेल-कूद में भागीदारी करती आदिवासी युवती को मीडिया अपनी रिपोर्ट में कितना स्थान देती है। आदिवासी स्त्री को किस रूप में प्रस्तुत करती है, विभिन्न क्षेत्रों में उसके योगदान को किस प्रकार रेखांकित करती है। आदिवासी स्त्री की देह को किस प्रकार प्रस्तुत करती है और उसके प्रति क्या नजरिया रखती है। मीडिया के बारे में आदिवासी स्त्री की छवि या तो एक रोमांटिसिज्म की है या वस्तुतः निकृष्ट जबकि जरुरत यह है कि आदिवासी की वास्तविक मानवीय छवि को मीडिया में दिखाया जाए, उसकी समस्याओं और संघर्षों पर बात की जाए और उसका हल निकालने का रास्ता सुझाया जाए। मीडिया में आदिवासी स्त्री की प्रस्तुति- मांसल देह के रूप में, राज्यद्वारा या अन्य वर्चस्वशाली समुदायों द्वारा आदिवासी स्त्री का शोषण होने पर उसकी खबर को किस रूप में प्रस्तुत करती है। उससे भी आदिवासी स्त्री की मीडियाकरण की छवि निर्मित होती है। मानव तस्करी की शिकार स्त्री के रूप में, आदिवासी स्त्री की खेल में परफोर्मेंस के आधार पर उसकी छवि, अपने और राष्ट्र के हित में जो छवि आदिवासी स्त्री की है उसको मीडिया दिखाता है जैसे खेल प्रतिस्पर्धाओं में जीतने पर कितना ध्यान उन पर देता है।



इन सब मुद्दों पर मीडिया का क्या स्टैंड है इसकेमाध्यम से हम देखने की कोशिश करेंगे कि आदिवासी स्त्री का मीडियाकरण कैसे किया गया है। आदिवासी समुदाय वस्तुतः जल, जंगल और जमीन पर पोषण करने वाले समुदाय है। जिनका अपना प्रकृति धर्म और अखड़ा समुदाय है। किन्तु वर्णव्यवस्था आधारित ग्रंथों में आदिवासी स्त्री और पुरुष दोनों को गैर-मानवीय और आर्य सौन्दर्य प्रतिमानों से इतर दिखाया जाता है। आज मीडिया जो मनोरंजन का दायित्व भी फिल्मों और नाटकों के माध्यम से वहन किए हुए है, वह इन धर्मशास्त्रों आधारित जड़ताओं को तोड़ने की बजाय मजबूत कर रहा है। मात्र भव्यता दिखाने के लोभ में आदिवासी स्त्री को अधिक मिथकीय और अपनी कल्पनाके रूप में प्रचारित कर रहा है। जिसके नख-केश-त्वचा इत्यादि मानवीय न होकर बेड़ोल रूप में दिखाए जाते है। ये सब बाहरी रूप-रंग के पैमाने आदिवासी स्त्री को गैर-आदिवासी समाज की नजरों में आभासी और गैर-यथार्थमयी बनाता है। मीडिया और आदिवासी विषय पर चर्चा करते समय हरिराम मीणा अपनी किताब आदिवासी दुनिया में कुछ सवाल मीडिया की भूमिका पर उठाते है जैसे उनके सवाल हैं “मुख्यधारा के जन संचार माध्यम अर्थात मास मीडिया में आदिवासियों को कितना स्पेस दिया जाता रहा है? इस सवाल का जवाब तलाश करते वक्त यह मुद्दा भी सामने आता है कि उस दिए गए स्पेस में आदिवासियों के प्रति कहाँ तक यथार्थ के निकट है? दूसरा सवाल यह उठा है कि आदिवासियों का अपना मीडिया कहाँ तक विकसित हुआ है चाहे उस मीडिया में योगदान देने वाले व्यक्ति आदिवासी समुदाय के सदस्य हों या आदिवासी जीवन में रूचि रखने वाले गैर-आदिवासी लोग?”  मीडिया के सन्दर्भ में बात करते समय हमें यह भी ख्याल रखना होगा कि यहाँ जन संचार के सभी माध्यमों को सम्मिलित किया जा रहा है जैसे प्रिंट मीडिया, अखबार और पत्रिकाएं, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया जिसमें दूरदर्शन और सिनेमा और साथ ही साथ खबरी चैनल भी सम्मिलित है। इन्टरनेट जैसी सुविधा होने के कारण बहुत सारे अन्य सोशल नेटवर्किंग संचार माध्यमों को भी शामिल किया जाता है जैसे ऑनलाइन पत्रिका, न्यूज़ पोर्टल, ब्लॉग, फेसबुक-ट्विटर और अन्य डिजिटल सामग्री भी शामिल है।



इन सब संचार माध्यमों में आदिवासी स्त्री की छवि देखने के लिए यह आधारभूत जानकारी होना भी जरुरी है कि इन संचार माध्यमों में कितने बुद्धिजीवी शामिल है, उनकी मान्यताएं और विश्वास क्या है यानी वे किस समुदाय से आ रहे है। जिन समुदायों से वे आ रहे है क्या मीडिया में आकर वे अपनी पूर्व प्रदत्त विचार शैली से इतर मीडिया सिद्धांत और नैतिकता के अनुसार पत्रकारिता करते है या नहीं। भारत में खासकर हिन्दी मीडिया में एथिक्स और मोरलिटी का बहुत अभाव है। जिसके कारण आदिवासी स्त्री की मीडिया में गलत छवि पेश की जाती है। अख़बार और पत्रिकाओं में निरंतर ऐसी खबरे छपती रहती है जिसमें मानव तस्करी के मामलें होते हैं किन्तु इन मामलों की पृष्ठभूमि क्या है इसको मीडिया नहीं खंगालता। लड़की और स्त्री इन मानव तस्करी की शिकार होती है जिन्हें आदिवासी क्षेत्रों जीविकोपार्जन का लोभ देकर ऐसे क्षेत्रों में लाया जाता है जहाँ स्त्री का लिंगानुपात कम होता है। ऐसी जगहों पर लड़कियों को गलत तरीके से पुरुषों को बेच दिया जाता है। ऐसे मामलों में मीडिया अपनी सिर्फ इतनी ही भूमिका का निर्वहन करके छोड़ देता है कि अमुक जगह इतनी आदिवासी जगहों की स्त्रियों को तस्करों से छुड़ाया गया आदि। इस तस्करी के पीछे की जमीन क्या है इस पर बात नहीं की जाती कि किस प्रकार आदिवासी क्षेत्रों की जमीन को विभिन्न भारी उद्योग-धंधों के लिए आदिवासियों से बलपूर्वक राज्य या माफिया सरगना ले लेते हैं। जिसका परिणाम होता है विस्थापन और जीविकोपार्जन के लिए एवं बसने के लिए नई जमीन की तलाश करना। इससे आदिवासी परिवार के विभिन्न लोग एक-दूसरी जगह पर जाने के लिए बाधित होते है। जिसमें से कई बार आदिवासी स्त्रियों को काम दिलाने के बहाने से गैर-आदिवासी क्षेत्रों से गए पुरुष ही आदिवासी स्त्रियों का घरेलू शोषण और तस्करी करते है। इन मुद्दों पर तथाकथित मीडिया में चुप्पी साध ली जाती है। गैर-सरकारी संगठनों के प्रयासों को भी अधिकतर दरकिनार कर दिया जाता है। जिससे यह होता है कि गैर-आदिवासी समाज में आदिवासी स्त्री की छवि इस प्रकार पीड़ित और शोषित के रूप में बनती तो है लेकिन स्त्री के प्रति मानवीय छवि मीडिया बनाने में असफल रहता है। यदि हालिया समय में आदिवासी स्त्री से जुड़े कुछ मुद्दों की मीडिया में प्रस्तुति पर बात की जाए तो देखा जा सकता है कि मीडिया जनतंत्र की ओर है या राज्य की ओर। आदिवासी क्षेत्रों में जब भी सैन्य बल या अर्ध सैन्य बल जाते है, तब वे वहाँ के गाँव तहस-नहस करते है, किसी आदिवासी स्त्री-पुरुष को नक्सली के नाम पर नृशंस हत्या करके उसे नक्सली कहकर प्रचारित करते है और आदिवासी लड़कियों और स्त्रियों के साथ जबरदस्ती यौन अपराध करते है। आदिवासी समुदाय द्वारा प्रतिकार करने पर उन्हें फंसाकर क़ानूनी शिकंजों में बाँध देते है। आदिवासी क्षेत्रों में हिंसा के बहुत सारे मुद्दे इसी तरह घटते है। यहाँ मीडिया इस तरह की रिपोर्टिंग करता है जिसमें राज्य और उसकी छवि को साफ तौर पर बचाने की कोशिश की जाती है और उल्ट आदिवासी स्त्री को ही नक्सली स्त्री बनाकर उसके साथ हुए हर वीभत्स तरीके से किए गए यौनाचार को देश हित एवं सुरक्षा के नाम पर ढँकने की कोशिश की जाती है। आदिवासी क्षेत्र में अध्यापन का कार्य करने वाली सोनी सोरी और सन् 2016 में सुकमा जिले के गोमपाड़ गाँव की आदिवासी युवती मडकम हिडमे के साथ सैन्यबलों द्वारा किया गया व्यवहार और उसकी मीडिया द्वारा की गई पक्षपातपूर्ण रिपोर्टिंग आदिवासी स्त्री के मीडियाकरण का स्पष्ट उदाहरण है।

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में प्रोफेसर सोना झरिया मिंज 

समयांतर के फरवरी, 2017 के अंक में रामू द्वारा लिखे गए लेख ‘मानवाधिकारों का हनन और आदिवासी’ में हम स्पष्टतया देख सकते हैं कि किस प्रकार राज्य और मीडिया आदिवासी स्त्री के लिए निष्पक्ष न्याय के पथ में बाधा पहुँचाते है। जो पत्रकार एवं कानूनी सहायता प्रदत्त कराने वाले समूह है और इन अपराधों पर से पर्दा उठाने का प्रयास करते हैं तो उन्हें देश के हित के खिलाफ काम करने वाले लोगों के रूप में राज्य संरक्षण प्राप्त मीडिया चित्रित करती है। उन्हें देशद्रोही, माओवादी-नक्सली ठहराने की कोशिश की जाती है और जेलों में अपराधियों की तरह रखा जाता है। रामू अपने इस लेख में लिखते हैं “भारतीय सुरक्षा बलों द्वारा अंजाम दिएगये ऐसे ही जघन्य अपराधों के एक छोटे से अंश की पुष्टि राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने की है, शायद यह स्वीकृति गिनी-चुनी महिलाओं को ही सही न्याय दिलाने की दिशा में एक छोटा कदम साबित हो।”  एन. एच. आर. सी. ने 7 जनवरी 2017 की अपनी रिपोर्ट में माना कि “प्रथम दृष्टया यह पाया गया कि 16 महिलाओं के साथ बलात्कार, यौन हिंसा और शारीरिक प्रताड़ना हुई है और इसे छतीसगढ़ राज्य पुलिस बल के जवानों ने अंजाम दिया है।”  छत्तीसगढ़ में 11 जनवरी से 14 जनवरी 2016 के बीच बीजापुर जिले के बेल्लाम लेंद्रा (नेंद्रा) गाँव की 13, सुकुमा जिले के कुन्ना गाँव की छह और दांतेवाडा जिले के छोटेगडम गाँव की महिलाओं के साथ सुरक्षा बलों ने सामूहिक बलात्कार किया था।”  “11 और16 मार्च 2011 की घटना, जिसमें दंतेवाड़ा जिले के 250 आदिवासी घरों को केंद्रीय और राज्य सुरक्षा बलों द्वारा फूँक दिया गया था, इस घटना की जांच सीबी आई द्वारा कराने का आदेश सुप्रीम कोर्ट ने दिया था। इस जांच में यह पाया गया कि घरों को जलाने का काम सुरक्षा बलों ने ही किया था, वहीं जांच के दौरान इस बात की भी पुष्टि हुई थी कि तीन महिलाओं के साथ सुरक्षा बलों ने बलात्कार किया था।”  “8 जनवरी 2016 को दांतेवाडा थाने के पदम गाँव की 14 वर्ष की लड़की, जब अपनी किराने की दुकान बंद कर रही थी, उसी समय एक के रिपुब का एक जवान आया और  उसके साथ पूरी रात बलात्कार किया।”  “बलात्कार की शिकार एक पीड़िता ने इंडियन एक्सप्रेस संवाददाता को बताया कि ‘वह अदालत गई। अदालत के दरवाजे पर खड़े पुलिस वालों ने उसे अंदर ही नहीं जाने दिया, लोग आते-जाते रहे हम वापस आ गए।’”  पत्रिका में जाहिर इन सब घटनाओं को पढ़कर हम यह सवाल उठा सकते हैं कि मुख्यधारा का मीडिया क्यों इन आदिवासी स्त्रियों के शोषण पर मौन है और यही मुख्यधारा का मीडिया बेंगलुरु और दिल्ली में घटित स्त्री शोषण की घटनाओं पर सचेत रहता है लेकिन आदिवासी स्त्री पर लम्बे समय से हो रहे निरंतर शोषण पर कोई आवाज़ नहीं उठाता। यह मीडिया की यह चयनित रिपोर्टिंग बताती है कि शोषित के लिए न्याय उठाने के रास्ते कितने कठिन और संकीर्ण है। रामू अपनी रिपोर्ट में जिस एक ओर बात की तरह ध्यान दिलाते हैं वह है कि आदिवासी स्त्री के सवालों को नक्सलवादी, माओवादी बताकर किनारे कर दिया जाता है लेकिन कोई मीडिया आदिवासी स्त्री के हक में बात उठाते वक्त यह नहीं बताता कि आदिवासी इलाकों में जहाँ नक्सलवाद या माओवाद नहीं है वहाँ के आदिवासी भी अपने जल, जंगल और जमीन की लड़ाई लड़ रहे हैं। और ऐसा वे अपनी संविधान प्रदत्त पांचवीं अनुसूची और वन अधिकार अधिनियम के तहत कर रहे हैं। आदिवासी स्त्री की लड़ाई मुख्यत: अपने जीविको पार्जन के साधनों के संरक्षण की है, जल-जंगल-जमीन को बचाने की है लेकिन बाहरी लोगों के प्रवेश ने और सैन्यबलों ने उनके आत्मसम्मानपूर्वक जीने के अधिकार को बाधित किया है। जिसकी छवि मीडिया में कुछ इस तरह से प्रस्तुत की जाती है जिससे आदिवासी स्त्री को अपनी न्याय की लड़ाई में कोई मदद नहीं मिलती। रामू की मानवाधिकारों के हनन पर लिखी गई इस रिपोर्ट में यह सवाल भी उठाया गया है कि आदिवासी महिलाओं के साथ हुए यौनशोषण पर देश की मुख्यधारा की मीडिया चुप्पी की रणनीति (थ्योरी ऑसायलेंस) अपनाते हुए चुप्पी साधे रहती है क्योंकि कोर्पोरेट द्वारा संचालित और पोषित मुख्यधारा का मीडिया राज्य के साथ खड़ा हुआ है न कि अपने नागरिकों के साथ। इसलिए इन सब मीडिया के नजरियों से देश का आदिवासी और देश की आदिवासी महिलाओं की ऐसी छवि तैयार की जा रही है जिसमें उन्हें देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए खतरा बताया जा रहा है और उन्हें इस आधार पर नेस्तानाबूद किया जा रहा है। इस छवि के रूप में आदिवासी स्त्री का मीडियाकरण देश की नागरिकता के लिए खतरा है जिसमें नागरिकता का अधिकार भी चयनित और सुविधाभोगी तबकों को ही उपलब्ध है।
हॉकी के लिए ध्यानचंद खेल सम्मान से सम्मानित सुमारी टेटे

छोटे स्तर पर बहुत कम पत्रिकाएँ ऐसी है जो दलित-आदिवासीजीवन की वास्तविक सच्चाइयों से पाठक को रूबरू कराती है। ‘गोंडवाना सन्देश’ और ‘दलित आदिवासी दुनिया’ ऐसे ही प्रिंट मीडिया के लघु प्रयास हैं जिनके माध्यम से आदिवासी समाज की स्त्रियों के जन-जीवन से संघर्ष और लड़ाई की वास्तविक छवि जनसमुदाय तक पहुँच पा रही हैं। लेकिन मुख्यधारा के मीडिया में कोई भी प्रयास आदिवासी स्त्री की छवि को सकारात्मक रूप में नहीं जाहिर करता। कभी कभार कुछ घटनाओं में ही आदिवासी जीवन को सीमित कर दिया जाता है जिसका कोई नतीजा आदिवासियों के हक में नहीं निकलता। जैसे ओडिशा के कालाहांडी जिले के भवानीपटना में एक व्यक्ति अपनी पत्नी के शव को 12 किलोमीटर बांधकर और कंधे पर रखकर लाने की घटना को मुख्यधारा के मीडिया ने खूब भुनाया लेकिन उसके बावजूद कभी आदिवासी स्त्री के स्वास्थ्य की स्थिति का जायजा लेने का प्रयास नहीं किया। इसी तरह गेट्स फाउंडेशन ने सर्वाइकल कैंसर की दवाओं का आदिवासी स्त्रियों पर प्रयोग किया, जिस पर मीडिया महकमें में कोई खास हलचल नहीं हुई। इनसब घटनाओं के माध्यम से आदिवासी स्त्री की मीडिया में बन रही छवि का मोटा-मोटा अंदाजा हो जाता है कि उसकी राष्ट्र निर्माण में क्या स्थिति है।

इसी तरह की विस्तृत रिपोर्ट समयांतर के अगस्त  2016 के अंक में संजय पराते, विनीत तिवारी, अर्चना प्रसाद और नंदिनी सुंदर की भी प्रकाशित हुई है जिसका शीर्षक है ‘गैर जिम्मेदार युद्ध में पिसते छत्तीसगढ़ के आदिवासी’ इस रिपोर्ट में आदिवासी स्त्री के साथ सुरक्षा बलों द्वारा की गई यौन शोषण और हत्या का जिक्र है जिसके अनुसार चुचकुंटा गाँव की एक नवजवान औरत फुल्लो के साथ 17-18 जनवरी 2016 को, जब वह एक सिंचाई तालाब पर काम कर रही थी, सुरक्षा बलों ने बलात्कार किया। उस पर पुलिस ने नक्सली होने का इल्जाम लगाया हालाँकि ग्रामीण इस बात से इंकार कर रहे थे। इसी तरह अंतागढ़ के गाँव में बीएसएफ, एसपीओ द्वारा बलात्कार और यौन शोषण की घटना की भी रिपोर्टिंग इसमें की गई है, जिसके माध्यम से हम जान सकते है कि ऐसी घटनाएँ कितने बड़े स्तर पर घटती है और उनकी रिपोर्टिंग कहीं भी मुख्यधारा की प्रिंट और मास मीडिया में रिपोर्टिंग नहीं की जाती। और अधिक विस्तार से जानने के लिए समयांतर के इस अंक को देखा जा सकता है।
आदिवासी स्त्री की जो एक और छवि हम देखते है वह है खेलों में उनकी सक्रिय भागीदारी। आदिवासी समुदाय से राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खेल-कूद में भागीदारी करने वाली आदिवासी युवती को ही कितना स्थान देता है। मयूरभंज, उड़ीसा की 24 वर्षीय पूर्णिमा हेम्ब्रेम ने अभी तुर्कमेनिस्तान में आयोजित 5वें ‘एशियन इंडोर गेम'में पेंटाथलॉन खेल प्रतियोगिता में स्वर्ण पदक प्राप्त किया। इसी तरह हॉकी खेल में भी आदिवासी युवतियों की प्रस्तुति सराहनीय है लेकिन हॉकी को राष्ट्रीय खेल होने के बावजूद मीडिया में क्रिकेट की तुलना में हॉकी को कम कवरेज दी जाती है। चूँकि हॉकी में व्यापारिकता और ग्लैमर का अभाव है, जो कि बाजार के नियंत्रक और नियंता भी काफी हद तक है इसलिए इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में सिर्फ एक हैडलाइन तक ही आदिवासी स्त्री खिलाडियों की बुलंदियां सिमट कर रह जाती है। प्रिंट मीडिया के सहारे इक्का द-
क्का राष्ट्रीय व स्थानीय अख़बारों और पत्रिकाओं में ही क्षेत्रीय अभिमान के द्वारा आदिवासी स्त्री की खिलाडी की छवि सामने आती है।
आदिवासी वीमेन एक्टिविस्ट 

ऐसी ही कहानी है असुंता लकड़ा की,जो हॉकी खिलाडी है लेकिन बिरले ही हममें से उनका नाम जानते है। नीचे दी गई बातचीत जोहार झारखण्ड के फेसबुक पृष्ठ से ली गई है जिसे एक व्यक्ति ने अपने अनुभव के माध्यम से साझा किया है| किस तरह खेलों में भी आदिवासी स्त्री की उपेक्षा सिर्फ मीडिया ही नहीं बल्कि सरकार भी करती है| “क्या आप इन्हें पहचानते हैं? एक नजर में शायद आप भी इन्हें न पहचान पायें, लेकिन नाम और इनके काम का जिक्र आते ही आप इन्हें जरूर पहचान जायेंगे। ये हैं असुंता लकड़ा। ओलंपिक खेलों के लिए क्वालिफाइंग इंडियन टीम की कप्तान और झारखंड के सिमडेगा से आने वाली हॉकी सनसनी। दोपहर में रांची के हटिया स्थित डीआरएम ऑफिस के बाहर यूं ही पैदल चलते हुए मिल गयीं। शुरुआत में मैं भी उन्हें एक आम आदमी समझ आगे बढ़ चला था, लेकिन फिर गौर किया, तब समझा कि ये तो हमारी अपनी असुंता हैं। झिझकते हुए उनसे सवाल किया- आप असुंता हैं न? सरल तरीके से उन्होंने जवाब दिया- हां। फिर सवाल कौंधा और पूछ डाला, आप इतनी बड़ी हॉकी खिलाड़ी और आप ऐसे ही घूम रही हैं? कोई ताम-झाम नहीं, आस-पास कोई फैन भी नहीं? असुंता कहती हैं- मैं कोई क्रिकेट खिलाड़ी थोड़े ही हूं!! उनके इसी जवाब में छिपा दर्द भी सामने आ गया। फिर उन्होंने बताया कि कैसे आज भी उन्हें डिबडीह में एक किराये के मकान में रहना पड़ रहा है। आज तक सरकार की ओर से उन्हें न तो भूखंड मिला और न ही कोई क्वार्टर ही उपलब्ध कराया गया। असुंता इस देश में क्रिकेट के बाजारवाद के कारण तेजी से मरते जा रहे अन्य खेलों के भुक्तभोगी खिलाड़ियों की एक बानगी हैं। खैर, डीआरएम ऑफिस में उनका आना इसलिए होता है, क्योंकि वे रेलवे में कार्यरत हैं। वैसे उन्हें भोपाल में हॉकी कैंप में जाने के लिए टिकट कटाना था, इसलिए खुद इस दफ्तर में आना पड़ा। पहले तो रिजर्वेशन मिलना ही मुश्किल होता था, लेकिन जब से रेलवे ने उन्हें पहचान लिया है, तब से कम परेशानियां झेलनी पड़ती हैं। असुंता बताती हैं कि 2014 में दक्षिण कोरिया में होने वाले एशियाई खेल और ग्लासगो, स्कॉटलैंड में होने वाले कॉमनवेल्थ खेलों को लेकर टीम की तैयारी चल रही है। झारखंड की सरकार से उन्हें क्या अपेक्षा है? इस सवाल पर असुंता मुस्कराती हैं, फिर जवाब देती हैं- मैं आज भी किराये के मकान में रह रही हूं, और क्या कहूं। आप लोग खुद समझ सकते हैं।” वर्तमान में भारतीय हॉकी टीम में  खिलाडी नवजोत कौर दीप, ग्रेस एक्का, मोनिका मलिक, निक्की राधन, अनुराधा देवी, सविता पुनिया, पूनम रानी, वंदना कटारिया, दीपिका ठाकुर, नमिता टोप्पो, रेणुका यादव, सुनीता लाकरा, सुशीला चानू, रानी रामपाल, प्रीती दुबे और लिलिमा मिंज हैं। इनमें से कई आदिवासी समुदाय से आने वाली खिलाडी है| हाल ही में नई दिल्ली में आयोजित राष्ट्रीय नेहरू हॉकी प्रतियोगिता में 6 अक्टूबर 2017 को झारखण्ड की टीम ने पंजाब को 6-1 से पराजित किया लेकिन विस्तार से इन खबरों के बारे में हमें किसी मुख्यधारा की प्रिंट या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में देखने-पढ़ने को नहीं मिलता| यहाँ हम देख सकते हैं कि किस प्रकार आदिवासी स्त्री को खेल के क्षेत्र में भी सक्रिय होने पर मीडिया में उसकी प्रतिभा और खेल के प्रति जूनून को नजरअंदाज किया जाता है|

मॉडल रीनी कुजूर 

मीडिया में आदिवासी स्त्री की प्रस्तुति - मांसल देह के रूप में–
इस तरह यदि मीडिया की भूमिका आदिवासी स्त्री की छवि को प्रस्तुत करने में देखी जाए तो हमें मीडिया की बहुत कम दिलचस्पी आदिवासी स्त्री के जन-जीवन को जानने-समझने और उसके सवाल उठाने में नहीं दिखाई देती| इसकी बजाय मीडिया बरगलाने की राजनीति अधिक करती है क्योंकि मीडिया सरकार को देश मान बैठी है और उसकी गलत नीतियों के विरोध में खड़े होने वाले आदिवासी समुदाय जिसमें आदिवासी स्त्री और पुरुष दोनों सम्मिलित है, उन्हें अपना विरोधी मान बैठी है| जो मीडिया का आचार और नैतिकता के विरोध में है| यही कारण है कि मीडिया आदिवासी स्त्री को या तो नक्सली के रूप में चित्रित करती है या उससे जुड़े मुद्दों के बारे में चुप्पी साधे रहती है लेकिन जब मीडिया को आदिवासी स्त्री का भुनाने लायक कुछ मुद्दा मिल जाता है तो उससे फायदा उठाना भी नहीं भूलती| यही कारण है कि हमारे देश की मीडिया की रैंकिंग विश्व में 136वें स्थान पर है, इसका मतलब हुआ कि मीडिया की विश्वसनीयता, नैतिकता और निष्पक्षता बहुत ही कम है| इस रैंकिंग का अर्थ है कि मीडिया अपने देश के लोगों के लिए, लोकतंत्र की एकता और अखंडता के लिए काम नहीं करता| आदिवासी इलाकों में स्त्रियों पर किए जाने वाले अलग-अलग तरह के अपराधों के बारेमें अधिसंख्य मीडिया फर्म रिपोर्टिंग करने में दिलचस्पी नहीं लेते| इसके साथ ही साथ खेल-कूद जगत में आदिवासी इलाकों से उभरती प्रतिभाओं को किन समस्याओं का सामना करना पड़ता है, देश के लिए खेलने में आगे किस-किस तरह की चुनौतियों का सामना आदिवासी स्त्री खिलाडियों को करना पड़ता है| इस लिए यह कहा जा सकता है कि मीडिया जिसमें आज अधिकतर प्राइवेट फर्म के रूप में बाजार में है और हमारे घर में सूचना प्रसारण की जिम्मेदारी इन मीडिया फर्मों ने अधिकतर अपने जिम्मे ही ले ली है| ऐसी मीडिया ने आदिवासी स्त्री की छवि को बहुत नुक्सान पहुँचाया है| इसलिए स्थानीय मीडिया, सोशल नेटवर्किंग साइट्स, वेब न्यूज़पोर्टल आदि जैसी वैकल्पिक मीडिया ने आदिवासी स्त्री की छवि को प्रस्तुत करने की एक ईमानदार कोशिश शुरू की है| जिसमें उनकी यथास्थिति को समझने की कोशिश की जा रही है, और उसके माध्यम से उनके लिए न्याय और लोकतान्त्रिक नागरिक अधिकारों के लिए सवाल उठाए जा रहे है|

अंजली जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के  भारतीय भाषा केंद्र में शोधार्थी हैं  सम्पर्क : anjali1441992@gmail.com



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छायावादी कविता में पितृसत्तात्मक अभिव्यक्ति

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मनीष कुमार 
भक्तिकाव्य के बाद छायावादी काव्य अपनी युगीनसंवेदनशीलता में अद्वितीय है| दो विश्व-युद्धों के बीच के इस युग की यह अद्वितीयता महज़ कैशोर्य भावुकता की संरक्षिका नहीं अपितु शाश्वत मानवीय संवेगों को ऊर्ध्वतर बनाने हेतु भी प्रतिबद्ध है| राजा राममोहन और ज्योतिबा फुले के सार्थक प्रयासों के उपरान्त गांधी – आंबेडकर युग में स्त्री अस्मिता को नए आयाम मिल रहे थे| वैश्विक परिदृश्य में रूसी क्रांति की सफलता के उपरान्त स्त्री को अनेक अधिकार दिए गए| अमेरिका और यूरोप में फर्स्ट-वेव फेमिनिज्म की सफलता मताधिकार के रूप में रेखांकित की जा सकती है| अतः समग्रता में दुनियावी परिवर्तन दिखाई पड़ते हैं| छायावादी कविता में अपने पूर्ववर्ती साहित्य से प्राप्त तमाम नैतिकताओं से प्रशंसनीय प्रश्नाकुलता का तेवर मौजूद है| इसकी स्त्री – पक्षधरता की परिव्याप्ति इस क़दर रही कि विरोधियों ने सजनी-सखी संप्रदाय कहकर उपहास किया| बावजूद इसके इस युग के प्रबुद्ध कवि भी पितृसत्तात्मक मूल्यों से पूर्णतः मुक्त नहीं हो पाए| दरअसल पितृसत्ता के बीज मानवीय – अवचेतन में इतने गहरे पैठे हैं कि अनजाने ही क्यूँ न सही, वे अंकुरित होने लगते हैं| छायावाद के अंतर्गत पितृसत्ता को रेखांकित करने हेतु क्रमवार कवियों का अध्ययन किया जायेगा-
छायावाद के शिखर-कवि जयशंकर प्रसाद की कालजयी कृति ‘कामायनी’ का एक रूपकमय बिम्ब है-
“सिन्धु सेज पर धरा वधू अब तनिक संकुचित बैठी-सी

प्रलय निशा की हलचल स्मृति में मान किये-सी ऐंठी-सी” ...(‘आशा’ सर्ग)


धरा-रूपी बहू के साथ प्रलय-रूपी रात्रि में ऐसाहुआ कि उसकी स्मृति में ऐंठन का आविर्भाव हुआ? दरअसल परंपरागत भारतीय – दाम्पत्य जीवन के आरम्भ में अपरिचय की प्रक्रिया के दौरान देह से प्रेम (प्रायः पहले प्रेम फिर देह के स्थान पर) उपजाने की ऐसी विडंबना रही है, जिसने संबंधों को अपेक्षाकृत अधिक उंचाई तक नहीं ले जाने दिया| स्त्रियों की तुलना में ज्यादा मर्दों का स्वभाव भी प्रेमपूर्ण नहीं होता; समागम को वे भोग से ऊपर ले ही नहीं जा पाते| इन्हीं सब कारकों के चलते वोल्स्टनक्राफ्ट 1 ने तो बहुत पहले ही विवाह को कानूनी – वेश्यावृत्ति घोषित किया था , जिसे उनके समय ने सिरे से खारिज़ किया|
प्रसाद ने इसी पुस्तक में अन्यत्र लिखा है-
“पगली! हाँ सम्हाल ले कैसे छूट पड़ा तेरा अंचल?” ...(कामायनी)
यह घूंघट वास्तव में पितृसत्ता का कवच है| इसका ‘चित और पट’ दोनों ही पुरुष – मानसिकता के पक्ष में है. पुरुष घूंघट डलवाएगा भी और मन-मुताबिक़ उघाड़ेगा भी| इसके आविष्कार में ही षड्यंत्र के अलावा और क्या है? स्वयं की कामांधता का दोषारोपण स्त्री पर क्यूँ?
प्रसाद के नाटक की पात्रा मालविका गाती है-
“मधुप कब एक कली का है
 पाया जिसमें प्रेम रस, सौरभ और सुहाग
बेसुध हो उस कली से, मिलता भर अनुराग
बिहारी कुंजगली का है” ...(‘चन्द्रगुप्त’ नाटक)

बेशक़ मधुप कब एक कली का ही रहा है? किन्तु कली-रूपक के बहाने स्त्री अगर चयनात्मक होते हुए एकाधिक पुरुषों का वरण करना चाहे तो पौरुष घायल क्यों होने लगता है? बिहारी ही नहीं, बिहारिनी भी कुंजगली की हो सकती है| किन्तु तत्कालीन समय ने इस सोच को अवकाश ही नहीं दिया| अगर इस सन्दर्भ में ‘मैडम बावेरी’ को याद किया जाये तो तथाकथित आधुनिक यूरोपीय समाज को भी कठघरे में खड़ा किया जा सकता है| इसके प्रकाशन मात्र ने फ्रांस में भूचाल ला दिया था|
‘कंकाल’ के अंतर्गत विजय और यमुना की वार्त्ता को प्रसाद इस तरह लिखते हैं-
“मैंने और भी ऐसा कुंड देखा है, जिसमें कितने ही जल पियें वह भरा ही रहता है|”
“सचमुच! कहाँ पर विजय बाबु?”
“सुंदरी के रूप का कूप” ...(‘कंकाल’ उपन्यास)
असल में यह उस मनोवृत्ति की धारणा है जो इस तर्क का हवाला देती रहती है- एक मुर्गा, पंद्रह मुर्गियों को यौन-तृप्ति देता है किन्तु पंद्रह मर्द मिलकर भी एक स्त्री को यौन-तृप्ति नहीं दे पाते|
प्रसाद अपनी एक कविता में लिखते हैं-
“जो पथिक होता कभी इस चाह में
वह तुरत ही लुट गया इस राह में” ...(‘सौंदर्य’, प्रसाद)

स्त्री – सौंदर्य पर लुटेरे आदि के आक्षेप नए नहीं हैं| ‘माया महाठगिनी’... जबकि असल बात उलटी है| आवश्यकता पुरुष के आत्ममंथन की है| सुधीश पचौरी ने नाओमी वोल्फ़ की मशहूर किताब ‘ब्यूटी मिथ’ पर विचार करते हुए लिखा है- “ब्यूटी मिथ के बाहर जाना आसान नहीं है| क्या स्त्री की स्त्रीवादी सौंदर्य की परिभाषा हो सकती है? यह पुनर्परिभाषा दरअसल सत्ता की पुनर्परिभाषा है|”2.  वास्तव में ऐसी परिभाषा देना मुश्किल ज़रूर है किन्तु, असम्भाव नहीं| संभवतः स्त्रियों को पुरुषों की अपेक्षाओं के इतर आत्मनिष्ठ सौंदर्य को ही तवज्जो देनी होगी; उनके परिधान में पुरुषों द्वारा आरोपित दृष्टिकोण से फ़र्क नहीं पड़ना चाहिए|
प्रसाद की कविता ‘प्रियतम’ का एक अंश है-
“औरों के प्रति प्रेम तुम्हारा, इसका मुझको दुःख नहीं
 जिसके तुम हो एक सुहाग, उसको भूल न जाव कहीं|” ...(‘प्रियतम’, प्रसाद)
तत्कालीन समाज में पुरुषों का एकाधिक विवाह/सम्बन्ध रखना आम बात थी; पत्नी/प्रेमिका की एकनिष्ठता के सापेक्ष वह निम्न स्तर पर था| वैसे भी स्त्री पर एकाधिकार, पितृसत्ता का आधार रहा है|
प्रसाद की कविता ‘चित्रकूट’ की उद्धृति है-
“जनकसुता ने कहा- ‘नाथ! यह क्या कहते हैं?
 नारी के सुख सभी साथ पति के रहते हैं” ...(‘चित्रकूट’, प्रसाद)

जयशंकर प्रसाद 

पुरुष-मानसिकता ने पितृसत्ता को इस तरह जमाया है कि वे स्त्रियों के ऐच्छिक - अनुकरण के अभिलाषी है| उपर्युक्त अंश की उक्ति सीता की है| यद्यपि सीता को इसी तरह की आज्ञाकारिता से बांधकर देखा जाता रहा है| किन्तु इसकी व्याख्या भिन्न भी हो सकती है| इस इंजैक्ट की जाने वाली पितृसत्ता को लेकर जे. एस. मिल ने लिखा है- “पुरुष कोई बाध्य ग़ुलाम नहीं चाहते; बल्कि इच्छित दास चाहते हैं| इसीलिए वे स्त्रियों से दासता हेतु प्रत्येक प्रक्रम का अभ्यास कराते हैं|”3  सीता के मुख से पति का हर स्थिति में साथ देने वाली प्रेम की आधार-भूमि विश्वास है| किन्तु, अविश्वास से ‘अग्नि-परीक्षा’ लेने का कलंक राम के माथे से कैसे मिटेगा? सीता के पुनः वनवास की त्रासदी झेलने और धरती में समा जाने पर राम की मूकता कैसे क्षम्य हो सकती है?
प्रसाद की काव्योक्ति है-
“किसका यह सूखा सुहाग है,
 छिना हुआ किसका सारा रस|” ...(‘विषाद’, प्रसाद)

कथित सुहाग उजड़ जाने पर जीवन को नीरस घोषितकरने वाली शक्तियों ने स्त्री को जिंदा लाश बनाए रखा| महादेवी वर्मा ने विधवा के लिए ‘मृत पति का निर्जीव स्मारक’ 4 पद का अर्थवान प्रयोग किया है| इस सूखे सुहाग और छिने हुए रस के प्रतिकूल सीमंतनी उपदेश की लेखिका की विधवाओं को सलाह थी- “तुम्हारी बेहतरी की यही तजवीज अच्छी है कि जब दिल इस इन्द्रिय के विषय को चाहे दूसरी शादी कर लो|”5 
प्रसाद ने आंसू के अंतर्गत लिखा है-
“छलना थी, तब भी मेरा
 उसमें विश्वास घना था
 उस माया की छाया मैं
 कुछ सच्छा स्वयं बना था|” ...(‘आंसू’, प्रसाद)

इन पंक्तियों में पितृसत्ता का समर्थन और विरोधदोनों एक साथ हैं| स्त्री को जहाँ ‘छलना और माया’ का संबोधन है; बावजूद इसके कवि का उसमें विश्वास होने व सच्चा बनने की स्वीकारोक्ति उस समय की परंपरा बनाम आधुनिकता की संघर्षमय लिपि जान पड़ती है|
प्रसाद की कविता ‘प्रलय की छाया’ के दो अंश हैं-
“...सुना- जिस दिन पद्मिनी का जल मरना
 सती के पवित्र आत्म गौरव की पुण्य – गाथा
 गूँज उठी भारत के कोने - कोने जिस दिन;
 उन्नत हुआ था भाल
 महिला – महत्व का| ...
 ... मैं भी थी कमला,
 रूप – रानी गुजरात की|
 सोचती थी-
 पद्मिनी जली स्वयं किन्तु मैं जलाऊंगी –
 वह दावानल ज्वाला
 जिसमें सुलतान जले|” ...(प्रलय की छाया, प्रसाद)

महादेवी वर्मा 

इस काव्यांश का सम्बन्ध अल्लाउद्दीन खिलजी केकोहराम से है, जो उसने भारत पर मचा रखा था| वाकई स्त्रियाँ पुरुषों की निगाह से युद्धों को नहीं देख सकतीं| क्या दुनिया में ऐसा कोई युद्ध हुआ है जिसका पक्ष-प्रतिपक्ष सिर्फ और सिर्फ़ स्त्रियों का ही हो? निश्चित तौर पर नहीं| ऊपर से एक जुमला अक्सर उछाला जाता है कि- सारे युद्ध दरअसल स्त्रियों के ही कारण हुए हैं| करे कोई भरे कोई... उपर्युक्त कविता में जहाँ एक ओर रानी पद्मिनी के जौहर का महिमामंडन किया गया है; वहीँ दूसरी ओर कमलावती अपनी ‘स्त्रियोचितता’ पर खेद प्रकट कर रही है| ‘आगे कुआँ पीछे खाई’ की स्थिति में स्त्री क्या करे? आत्मसम्मान को बचाए या आत्मप्राण को? आखिर किसलिए भी? पुरुषों के आपसी वर्चस्व की लड़ाई ने स्त्रियों को असह्य पीड़ाओं के अतिरिक्त और कुछ नहीं दिया| कई बार युद्ध एक आवश्यक बुराई भी प्रतीत होते हैं; लेकिन मानव-सभ्यता को इस क्रूरता से बाहर आना ही होगा|

विषयक – वैविध्य की दृष्टि से छायावाद के सबसे बड़े कवि निराला के काव्य में पितृसत्ता की उपस्थिति को अधोलिखित उक्तियों से पुष्ट किया जा सकता है-
छंद के बंध को तोड़ने वाले कवि की कविता ‘नयनों के डोरे लाल’ में पितृसत्ता का बंध बरक़रार रहता है-
“प्रिय कर, कठिन - उरोज – परस कर कसक मसक गयी चोली
 एक – वसन रह गयी मंद हंस अधर – दशन अनबोली-
                 कली - सी कांटे की तोली|” ...(‘नयनों के डोरे लाल’, निराला)

उक्त दृश्य तब घटित होता है जब कलीरूपी नायिका कुछ अलसाई हुयी है और इस अवस्था में नायक के आने पर, उसकी सुध न लेने पर; नायक को अपना अपमान महसूस होता है| उसका अतार्किक पौरुषीय दंभ जाग उठता है| वह उसकी चोली को मसक देता है| प्रतिक्रियास्वरूप वह अपने प्रिय को ‘मंद – हंसी’ और बिन बोले स्वर की प्रेम-पूर्णता देती है| वस्तुतः इस उद्धरण में नायक की कामासक्त भावना भी स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है| वह नारी को ‘पैसिव’ मानता है और खुद को ‘एक्टिव’| यदि कोई स्त्री ‘एक्टिव’ फॉर्म में देखी जाती है तो इसे एक अपराध की भांति देखा जाता है| ‘कली सी कांटे की टोली’ इसी तरह के सम्भोग का चित्र है|
‘वन-बेला’ के अंतर्गत निराला लिखते हैं-
“वर्ष का प्रथम
 पृथ्वी के उठे उरोज मंजु पर्वत निरुपम
 किस्लायों बन्धे
 पिक भ्रमर – गूंज भर मुखर प्राण रच रहे सधे” ...(वन-बेला, निराला)

पर्वतों की उपमा हेतु उरोजों की ही आवश्यकतापड़ गयी? कवियों की चेतना में स्तनीय – रूढ़छवि का आग्रह स्त्री – समाज पर नकारात्मक असर डालता है| जर्मेन ग्रीयर ने अपनी पुस्तक ‘द फीमेल यूनक’ में ग्रेगरी (अ फादर्स लिगेसी टू हिज डाटर्स) को उद्धृत किया है- “प्रकृति का गढ़ा सुन्दरतम वक्ष भी उतना सुन्दर नहीं होता जितना कल्पना का गढ़ा वक्ष होता है|” 6  जर्मेन स्त्रियों से आग्रह करती हैं- “ऐसी चोलियाँ पहनना बंद कर दें जो गुब्बारे की जैसी छातियों की कल्पना को आगे बढ़ाये चली जाती हैं, ताकि पुरुष असली चीज़ की विविधता को स्वीकार करें|”7 सौन्दर्य के रूढ़ – प्रतिमानों ने स्त्री – क्षमताओं की कितनी हानि की है, जर्मेन ने इसका वैज्ञानिक वर्णन किया है|
‘कुकुरमुत्ता’ के अंतर्गत निराला लिखते हैं-
“हाथ जिसके तू लगा,
 पैर सर रखकर व पीछे को भगा
 औरत की जानिब मैदान यह छोड़कर,
 तबेले को टट्टू जैसे तोड़कर,
 शाहों, राजों, अमीरों का रहा प्यारा
 तभी साधारणों से तू रहा न्यारा|” ...(‘कुकुरमुत्ता’, निराला)

‘औरत की जानिब’ पर विचार करिए... साध्य कोललकारने के साथ यह स्त्री को भी गाली है| हमारा दुराग्रह नारियों को अबला और कायर मानता है| जैविक रूप से संभव है कि वे पुरुषों जितनी शक्तिशालिनी न हों किन्तु इसका सामान्यीकरण उचित नहीं है| हमारा समाज संवेदनहीन उपमाओं पर प्रायः आत्ममंथन नहीं करता- ‘औरत की तरह’, ‘हिजड़े की तरह’, ‘लंगड़े की तरह’ आदि ऐसी ही उपमाएं हैं|
‘प्रेम संगीत’ कविता का एक अंश है-
“जात की कहारिन वह,
 मेरे घर की पनहारिन वह,
 आती है होते तड़का
 उसके पीछे मैं मरता हूं|
 कोयल - सी काली, अरे,
 चाल नहीं उसकी मतवाली,
 ब्याह नहीं हुआ, तभी भड़का,
 दिल मेरा, मैं आहें भरता हूँ|” ...(प्रेम संगीत, निराला)

निराला 

कविता को पढ़कर चंद्रभान यादव की पुस्तक ‘भक्तिकाव्य में स्त्री – चिंतन’ में उद्धृत प्रो. चौथीराम यादव का कथन प्रासंगिकजान पड़ता है- “जाति - पांति और ऊंच - नीच के भेदभाव पर आधारित वर्ण – व्यवस्था से नारी की अधीनता का बड़ा गहरा सम्बन्ध है|”8 जाति – व्यवस्था की कुरीति से दबी कहारिन स्त्री के पीछे निराला कामांध – से प्रतीत होते हैं| कथित ‘कहारिन’ का ब्याह न होने पर कवि का भड़कना पुरुषों की उस मनोवृत्ति का सूचक है जो स्त्रियों से यौन – शुचिता का दुराग्रह रखता है| उसके मानस में काम – संबंधी ‘कौमार्य’ की धारणा बलवती होती है| यदि वह कहारिन निराला के स्थान पर किसी और घर की हो; तो कहना मुश्किल है कि उस पर यौन – हमला नहीं हो सकता| वैसे इस प्रकरण पर निराला सिद्धांत और व्यवहार दोनों स्तर पर घिरे नज़र आते हैं| डॉ रामविलास शर्मा ने उनके वेश्यालय जाने को इस प्रकार न्यायसंगत ठहराने की कोशिश की है- “निराला साफ़ तौर पर और खुलकर कहते थे कि मैं सेक्स की ज़रूरत पूरी करने के लिए कोठे पर जाता हूँ| यह बहुत बड़ी नैतिकता है| मनुष्य की अपने प्रति और समाज के प्रति जो ईमानदारी है, वह सबसे बड़ी ईमानदारी है|”9  अगर इसे उचित मान भी लें तो क्या समानता के तर्क से आज की तरह ‘प्लेबॉय – कल्चर’ अस्तित्व में थी? वेश्यावृत्ति किसी भी समाज की सबसे बड़ी विकृतियों में से एक है| तर्क-कुतर्क से वेश्यालय पुरुष – दृष्टि से भले ही वाज़िब जान पड़े मगर स्त्री – दृष्टि से सिवाय उसके शोषण के और कुछ नहीं हो सकता| वास्तव में वेश्यालय सामंती – सोच के शिखर हैं|
कविता ‘रानी और कानी’ का यह हिस्सा ग़ौरतलब है-
“जब पड़ोस की कोई कहती है-
 ‘औरत की जात रानी
 ब्याह भला कैसे हो
 कानी जो है वह|’
 सुनकर कानी का दिल हिल गया...” ...(रानी और कानी, निराला)

प्रथम तो ब्याह की अवश्यम्भाविता का प्रश्न?द्वितीय, लड़की कानी हो तो उससे जुड़ा विमर्श? स्त्री चिंतकों ने यूँ ही परिवार को शोषण का आधार बताते हुए विवाह संस्था पर सवाल खड़े नहीं किये थे| स्त्री की उन्मुक्त – पहचान स्थापित होने में परिवार ने काफी बाधा पहुंचाई है| यह भी सही है की इसका निदान ‘परिवार’ संस्था को ख़त्म करना नहीं है| एकाधिक विवाहों को ललचाये रहे वृद्धों     ने भी इनकी तरफ कभी नहीं देखा| ‘अपंग’ लड़कियों को अपशकुनी मानने की रूढ़ – मनःस्थिति की व्याप्ति खूब रही है|
‘खजोहरा’ नामक हास्य – कविता का प्रसंग है-
“सावन में भतीजा होने को हुआ
 पहले से बुला लायी गयीं बुआ|”...
“नैहर में घूँघट के उठने से
 बुआ जी की जान बची छुटने से|” ...(खजोहरा, निराला)

भतीजा होने पर प्रायः बुआ का ही आगमन होता है, फूफा कम ही आते हैं| खैर... जिस नैहर में बुआ कभी फुदकती रही होगीं, अब उसके लिए वे पराई – सी हो चुकी हैं| वास्तव में जिस ससुराल को भी स्त्री को ‘असली घर’ बताया जाता है, उसमें उसको कितना अपनापा मिलता है यह बताने की ज़रूरत नहीं है, अन्यथा ‘स्त्री विमर्श’ अस्तित्व में ही क्यूँ आता? ससुराल छोड़ दीजिये, अब मायके में भी ‘घूंघट के उठने से’ उनकी जान को खतरा है| इसी कविता की एक और पंक्ति है जिसमें गाँव का एक युवक बुआजी से मज़ाक करता है- “अकेली – अकेली कहाँ चलीं बुआ?” भारत के कुछ हिस्सों में भाभी - साली के अलावा मामी – बुआ आदि रिश्तों में भी ‘परिहास का रिवाज़’ है| इस परिहास को लोक – संस्कृति का जामा पहनाकर स्वीकार्यता दिलाई जाती है| क्या यह मज़ाक सदैव शुद्ध – परिहास ही रहता है? प्रथमतः मज़ाक अपनी प्रकृति में ही विशुद्ध रूप से मज़ाक – मात्र नहीं होता| द्वितीयतः स्वस्थ परिहास के पैमाने प्रायः पुरुष – मानसिकता ने ही तय कर रखे हैं| मज़ाक की इस असमानतापूर्ण – अनगढ़ता पर विचार होना चाहिये|

प्रकृति के साथ मिथकों का सर्जनात्मक वर्णनकरने वाले कवि सुमित्रानंदन ‘पन्त’ जी के विषय में प्रसिद्ध है कि आप स्त्रैण थे| प्रकृतिगत दृष्टि से यह स्वीकार्य होना चाहिए लेकिन हमारी सामाजिक मान्यताएं इसकी इजाज़त नहीं देतीं| बहरहाल पन्त के काव्य में पितृसत्ता का रेखांकन निम्न पद्यांशों के आधार पर किया जा सकता है-
‘ग्राम्या’ के अंतर्गत पन्त की कथात्मक काव्योक्ति है-
“घर में विधवा रही पतोहू,
 लछमी थी, यद्यपि पति घातिन,
 पकड़ मंगाया कोतवाल ने,
 डूब कुँए में मरी एक दिन!
 खैर, पैर की जूती, जोरू
 न सही एक, दूसरी आती,
 पर जवान लड़के की सुध कर
 साँप लोटते, फटती छाती!” ...(‘वे आँखें’, पन्त)

प्रथमतः पति – घातिन कहते हुए विधवा स्त्री को ताना दिया जा रहा है| कोतवाल के दुस्साहस पर मौन रहते हुए स्त्री के कुँए में डूब मरने पर अफ़सोस का प्रकटीकरण ही ग़ायब नहीं है, स्त्री को महत्वहीन भी बताया जा रहा है| उसको पैर की जूती के रूप में देखने वाली पुरुष – वृत्ति को जवान लड़के की मौत पर तो छाती पीटने की फुर्सत है; किन्तु स्त्रीत्व के हनन से उसे कोई सहानुभूति नहीं|
‘पूर्वस्मृति’ के अंतर्गत सीता के विषय में पन्त लिखते हैं-
“जनरव भय से राघव ने पत्नी को
 छोड़ा था क्या? कथा पुरातन रे यह,
 आई थी वह अग्नि – परीक्षा देने,
 जन – भू का दुःख भार झेलने दुःसह!” ...(पूर्वस्मृति, पन्त)

जन के ‘आरोपों’ के कारण सीता को वन– गमन हेतु भेजना और अंत में परीक्षा एने हेतु बाध्य करना, राम के चरित्र का स्याह – पक्ष है| अपनों के विश्वास से अधिक चिंता दूसरों के अप्रामाणिक आक्षेप की क्यूँ? मिथकीय नायक अपने विविध आयामों में इक क़दर गूँथा जाता है कि आदर्शमयता पर खतरा ना आये; किन्तु आवश्यकता उनका सापेक्षिक अध्ययन करने की है| तभी प्रक्षिप्त पितृसत्ता का दिग्दर्शन संभव है|
‘पूर्वस्मृति’ की ही एक अन्य पंक्ति है-
“गला शिला उर, हुई अहल्या उर्वर|”

अहल्या – प्रसंग’ गंभीर रूप से पितृसत्तात्मक है| अहल्या के साथ छल करने वाले ‘देवों के राजा’ इन्द्र, शुचितावाद के प्रकोप से पीड़ित करने वाले गौतम ऋषि और उद्धार करने वाले राम, तीनों ही पुरुष हैं| अहल्या निर्दोष है फिर भी पत्थर बनाये जाने हेतु अभिशप्त है| इंद्र और गौतम को सज़ा तो छोड़िये, इनके सम्मान में कोई कमी भी नहीं दिखाई देती| यानी हमारा समाज पुरुष के व्यभिचार और अन्याय पर मूक रहते हुए स्त्री के आत्म – सम्मान को कुचलता रहा है|
‘अशोक वन’ की एक अवलि है-
“साक्षी राम बिना क्या सीता
 नहीं दिव्य जग जननी, पुनीता?” ...(अशोक वन, पन्त)
कवि ने ‘प्रश्नवाचक – चिह्न’ का प्रयोग क्यों किया है? यह सीता के समर्थन में है या विरोध में? यदि ‘जय श्री राम’ या ‘राम – राम’ के रूप में राम का स्वतंत्र अस्तित्व है तो सीता का ऐसा अस्तित्व क्यूँ नहीं हो सकता? उपर्युक्त पद्यांश वास्तव में पुरुष में ही स्त्री की पहचान के विलय के उपक्रम की स्पष्ट अभिव्यक्ति है|
‘सत्यकाम’ की कथा में पितृसत्ता और मातृसत्ता का तनाव देखा जा सकता है| पन्त ने लिखा है-
“ ‘ब्रह्मज्ञान की दीक्षा? क्या है गोत्र तुम्हारा?’
  ‘गोत्र? गोत्र?’ रुक कर बोला जाबाल हतप्रभ,
  ‘गोत्र नहीं अब मुझे ज्ञात! माँ से पूछूँगा!’ ” ...(सत्यकाम, पन्त)
सत्यकाम, गौतम ऋषि के पास ब्रह्मज्ञान की दीक्षा लेने के लिए जाता है तो गौतम के शिष्य उससे उसका गोत्र पूछते हैं| पितृसत्तात्मक समाज में गोत्र का निर्धारण पिता – पक्ष के आधार पर होता आया है| जब वह माँ से गोत्र पूछने की बात गौतम के शिष्यों से कहता है तो इस पर उनकी प्रतिक्रिया निन्द्य है-
“ हा, हा, हा, हा – लहर हँसी की दौड़ी उच्छल
  शिष्य – वर्ग में! कहा दूसरे ने – ‘क्या यह भी
  ज्ञात नहीं तुमको कि ब्रह्मविद्या पाने का
  अधिकारी केवल ब्राह्मण होता है! ... जाओ,
  भगो यहाँ से! ब्रह्मज्ञान की दीक्षा लेने
  किस मुंह से आये हो? जब तुम गोत्रहीन हो!’
... ‘अरे, वर्णसंकर होगा यह कोई निश्चय!’
  कहा तीसरे ने, अपमानित कर किशोर को!
  ‘गुरु दुत्कार बताएँगे इस तुच्छ श्वान को!’

सुमित्रानंदन पन्त 

जैसा कि पहले संकेत किया है कि– भारत में पितृसत्ता को स्थायित्व प्रदान करने में वर्ण – जाति ने भी बड़ी भूमिका निभाई है| सत्यकाम की माँ जबाला का परिचारिका के रूप में कार्य करने के क्रम में किसी ऐसे पुरुष से सत्यकाम का जन्म हुआ था, जिसने जबाला को अपेक्षित सम्मान ही नहीं दिया| जबाला जब सत्यकाम को उसके पिता का गोत्र बताने में अक्षम रही तो उसने अपने ही नाम के आधार पर सत्यकाम का नया नाम ‘सत्यकाम जाबाल’ रखा| एक तरह से यह माँ के गोत्र की प्रतिष्ठा थी| अन्यथा वह शिक्षा से वंचित रह जाता|

करुणा - स्त्रोतनी महादेवी वर्मा की कविताओं में भीपितृसत्ता की उपस्थिति है| असल में पितृसत्ता की पैठ इतनी गहरी है कि स्त्रियों को भी बाक़ायदा इससे संपृक्त किया गया है| बकौल सिमोन, ‘वह पैदा नहीं होती, बनाई जाती है’| इनकी कविताओं में पितृसत्ता के उदाहरण विरले हैं| वह भी सघनता नहीं, सांकेतिकता के साथ-
‘कोयल’ कविता में महादेवी लिखती हैं-
“डाल हिला कर आम बुलाता
 तब कोयल आती है|
 आम लगेंगे इसीलिए यह
 गाती मंगल गाना...” ...(कोयल, महादेवी)
प्रसंग है- एक बालिका के छोटे भाई का जन्म नजदीक है तो ‘सोहर’ गाने हेतु स्त्रियाँ पहुंची हुई हैं| उपमा हेतु बालिका यह सोच रही है कि जब आम लगने की आहट के क्रम में जिस तरह कोयलें कूजन करती हैं, उसी तरह ये स्त्रियाँ भी मंगल गान (सोहर) करेंगीं| ‘सोहर’ पितृसत्तात्मक गान है| हमारे शब्दकोष में ‘सोहरी’ नामक कोई शब्द नहीं है| लड़का पैदा होने की ‘ख़ुशी’ में उत्सव (स्त्रियों द्वारा ही) होता है; जबकि लड़कियों के पैदा होने पर अक्सर ग़म पसर जाता है|
‘नीरजा’ के अंतर्गत महादेवी का एक गीत संकलित है-
“बीन भी हूँ मैं तुम्हारी रागिनी भी हूँ!
 दूर तुमसे हूँ, अखंड सुहागिनी भी हूँ|”

दूर होकर भी सुहाग की अखंडता?प्रेम के दर्शन की महानता के आधार पर इस उक्ति को जायज़ ठहराया जा सकता है; किन्तु वह ‘प्रेम’ हो तब न! स्त्री – विरह (लौकिक या अलौकिक किसी भी सत्ता के प्रति हो) पर काव्याधिक्य और पुरुष – विरह की अत्यल्प मौजूदगी इस अर्थ में पितृसत्तात्मक है कि प्रायः प्रेम में स्त्रियाँ अधिक प्रतिबद्ध होती हैं| यही सीमातिरेक प्रतिबद्धता स्त्री को उसी के विरोध में खड़ा कर देती है| इसका नोटिस लिया जाना आवश्यक है| कुछ इसी तरह की अभिव्यक्ति उनके एक गीत की इस अवलि में पुनः देखिये-
“शलभ मैं शापमय वर हूँ! किसी का दीप निष्ठुर हूँ|”
वास्तव में परतंत्रता की अतिरंजना में ग़ुलाम को अपनी बेड़ियाँ तक प्यारी लगने लगती हैं| स्वयं को ‘शापमय वर’ कहने के माध्यम से महादेवी आखिर और क्या संकेत करती हैं?
छायावादी काव्यान्दोलन के सामानांतर राष्ट्रवादी काव्यधारा की सशक्त कवियित्री सुभद्राकुमारी चौहान के काव्य में पितृसत्ता की उपस्थिति का रूप इस प्रकार है-
अपनी सर्वाधिक प्रसिद्ध कविता ‘झांसी की रानी’ के अंतर्गत सुभद्राजी लिखती हैं-
“बुंदेले हरबोलों के मुँह
 हमने सुनी कहानी थी
 ख़ूब लड़ी ‘मर्दानी’ वह तो
 झाँसी वाली रानी थी|” ...(झाँसी की रानी, सुभद्राकुमारी)
एक स्त्री को एक स्त्री के ही विषय में इतना आत्मविश्वास क्यूँ नहीं कि वह ‘जनाना’ तरीक़े से लड़ सकेगी? जबकि रानी लक्ष्मीबाई के साथ अन्य साथियों के रूप में भी स्त्रियाँ (झलकारी, काना व मंदरा इत्यादि) थीं| असल में सुभद्राजी हेतु परंपरा पुष्ट हीन – ग्रंथि से पीछा छुडाना संभव न हो सका|
‘मुन्ना का प्यार’ कविता का अंश है-
“माँ मुन्ना को तुम हम सबसे
 क्यूँ ज्यादा करती हो प्यार? ...(मुन्ना का प्यार, सुभद्रा)
एक बच्ची द्वारा अपनी माँ से किया गया यह प्रश्न पारिवारिक संस्था के भेदभाव को सरल भाषा में इंगित करता है| बावजूद इसके आश्चर्य नहीं कि कल को जब यह बच्ची औरत बने तो भोगने के यथार्थ से गुजरने के बावजूद इस चक्र को न बदल पाए| यह स्थिति पितृसत्ता को जीवंत बनाये रखने में बड़ा रोल अदा करती है|
‘प्रियतम से’ में सुभद्रा जी का संबोधन है-
“मैं भूलों की भरी पिटारी,
 और दया के तुम आगार
 सदा दिखाई दो तुम हँसते
 चाहे मुझसे करो न प्यार|”
‘प्रियतम दया के आगार हैं’, संभव है| मगर, खुद को भूलों की पिटारी कहकर प्रेम न मिलने की भी स्थिति में सर्वोपरि का-सा स्थान दिए जाने की क्या व्याख्या की जाये? कहने की क्या ज़रूरत कि ये ‘मेल – डोमिनैंस’ का असर है|
राखी – विषयक अभिव्यक्ति ध्यान खींचती है-
“देखो भैया! भेज रही हूँ
 तुमको, तुमको राखी आज|
 साखी राजस्थान बनाकर
 रख लेना राखी की लाज” ...(राखी, सुभद्राजी)

राखी महान – पर्व है, इससे इनकार नहीं;किन्तु क्या उपर्युक्त बयाँ दाता और प्राप्तकर्ता के भाव की स्थापना नहीं करता? राखी का मनोवैज्ञानिक पहलू आरम्भ से ही लड़कियों की एक भिन्न मनःस्थिति का निर्माण करने लगता है| इसके निहितार्थ को नए अर्थ देने चाहिए|
अतः स्पष्ट तौर पर तद्युगीन परंपरा और आधुनिकता के तनाव को उपर्युक्त अभिव्यक्तियों से समझा जा सकता है| इस तनाव का अवलंब लेकर ‘मल्टी-लेयर्ड पैट्रिआर्की’ को समझा जा सकता है| तदुपरांत आज के समय के सापेक्ष सभ्य समाज को ध्यान में रखते हुए, इसके उपचार के प्रयास भी किये जा सकते हैं| कोई प्रशनांकित कर सकता है कि इतने गहरे विमर्श की क्या आवश्यकता है किन्तु, ध्यातव्य है कि ये बारीकियां भी पितृसत्ता को दृढ़ बनाये रखने में अपनी भूमिका निभाती हैं|

मनीष कुमार हैदराबाद विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में शोधार्थी हैं. संपर्क:9560883358 / 8187900928

  सन्दर्भ: 
1. वोल्स्टनक्राफ्ट, मैरी- स्त्री अधिकारों का औचित्य साधन (अनु.- मीनाक्षी), राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2014, पृ.- 20
2.पचौरी, सुधीश- पितृसत्ता के नए रूप (संपा.- राजेंद्र यादव, प्रभा खेतान, अभय कुमार दूबे), राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2010, पृ.- 40

3. Mill, J. S.- On Liberty & other Essays (Ed. by- John Gray), OUP, London, 1998, p.- 486
4. वर्मा, महादेवी- श्रृंखला की कड़ियाँ, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, 2015, पृ.- 20
5. एक अज्ञात हिन्दू औरत- सीमंतनी उपदेश (संपा.- डॉ. धर्मवीर), वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2008, पृ.- 6
6. ग्रीयर, जर्मेन- बधिया स्त्री (अनु.- मधु बी. जोशी), राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2005, पृ.- 36
7. वही
8. यादव, चौथीराम- भक्तिकाव्य में स्त्री चिंतन (ले.- चंद्रभान यादव), ओमेगा पब्लिकेशन, दिल्ली, पृ.- 151
9. शर्मा, रामविलास- स्त्री मुक्ति के प्रश्न (संपा.- अलोक सिंह), विकास पब्लिकेशन, दिल्ली, 2013, पृ.- 69

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थियेटर ऑफ रेलेवेंस – स्वराजशाला

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राजेश कासनियां 

थियेटर ऑफ रेलेवेंस के बारे में एक शोधार्थी, एक अभिनेता का अनुभव, जिसने इसकी एक कार्यशाला में भाग लिया :

मैंने 1 से 5 जुलाई , 2018 तक अम्बाला में ‘थियेटर ऑफ रेलेवेंस’ स्वराजशाला की कार्यशाला में प्रतिभागिता की । इससे 2 वर्ष पूर्व भी मैं इस कार्यशाला में भाग ले चुका था । मैंने जब शैड्यूल देखा तो पहला सत्र हर सुबह 6:30 बजे चैतन्याभास से शुरु था । इस सत्र का संचालन  ‘थियेटर ऑफ रेलेवेंस’ के संस्थापक मंजुल भारद्वाज व उनकी टीम के सदस्य –अश्विनी , सायली , कोमल , योगिनी व तुषार कर रहे थे । मैं अपने पिछले अनुभव से वाकिफ़ था कि मंजुल सर समय के बड़े पाबंद हैं । इसलिए मैं समय का ख़ास ख़याल रखता था । क्योंकि सर हमेशा एक बात कहते हैं – यदि आपने काल (समय) पर विजय पा ली तो आप हर क्षेत्र में विजय प्राप्त कर सकते हैं ।

मंजूल भारद्वाज प्रशिक्षण देते हुए 


सर का नारा है – हम.....हैं । जो हम में एकता व अपने वज़ूद का अहसास करवाता ,  वहीं हमें जोश से भर देता । सुबह की मुलाकात इसी नारे के साथ होती । वैसे बीच-बीच में ये नारा पूरे दिन सुनने को मिलता । चैतन्याभ्यास में आलाप(आवाज़ निकालाना)  करवाया जाता । इसका आशय है कि हमें अपनी अभिव्यक्ति की आज़ादी के प्रति जागरुक रहना वहीं शोषण व अन्याय के खिलाफ अपनी आवाज़ बुलंद करनी है । चैतन्याभ्यास में अनेक तरह की गतिविधियां करवाई जाती , जैसे – विभिन्न आकृतियां बनाना , क्षेत्रीय खेल व नृत्य करना , बचपन का खेल , प्रकृति से बात करना , चिंतन-मनन के माध्यम खुद को जानना आदि ।

इस कार्यशाला के माध्यम से मेरी दृष्टि दो आयामों के प्रतिआकृष्ट हुई वों हैं – सांस्कृतिक व राजनैतिक चेतना ।सांस्कृतिक चेतना :-  ‘थियेटर ऑफ रेलेवेंस’ के जनक मंजुल भारद्वाज जी का कथन है कि इतिहास साक्षी है कि व्यवस्था को सांस्कृतिक चेतना के द्वारा बनाया और टिकाया गया है तो क्यों न आज सांस्कृतिक चेतना के द्वारा ही व्यवस्था को बनाया और टिकाया जाए ।  ‘थियेटर ऑफ रेलेवेंस’ इसी विचार के साथ काम करता है । आज जो संस्कृति है वो सामंती मूल्यों को पोषित करती है जो मनुवाद द्वारा संचालित है । यह शोषण पर आधारित है जो समाज को विघटन की ओर ले जाती है ।इस संस्कृति को समता , स्वतंत्रता और बंधुता के मूल्यों से संचालित किया जाए इसी उद्देश्य को समर्पित है -   ‘थियेटर ऑफ रेलेवेंस’ ।

थियेटर ऑफ रेलेवेंस 

कार्यशाला में ‘मैं औरत हूं’ नाटक (जो मंजुल भारद्वाज द्वारा निर्देशित व अश्विनी , सायली , कोमल , योगिनी व तुषार द्वारा अभिनीत) की प्रस्तुति की गई । इसमें औरत के विविध आयामों को दिखाया गया । औरत कैसे पितृसत्ता के द्वारा गुलाम बनाई गई , किस-किस रूप में औरत का शोषण होता है । नाटक में दिखाया गया कि जिन औरतों ने अपने स्व को पहचान लिया वो सभी इस कुचक्र को भेदने में कामयाब भी हुई हैं । मंजुल भारद्वाज जी ने नारी विमर्श के चालू मुहावरों से हटकर एक अलग दृष्टि प्रदान की । उन्होंने बताया कि नारी शोषण की मूल जड़ – सम्पति , पितृसत्ता और पितृसत्ता द्वारा संचालित मूल्य और संस्कृति है । जब तक इन पर चोट नहीं की जायेगी तब नारी को शोषण से बचा पाना मुश्किल है।

राजनैतिक चेतना :- कार्यशाला का मुख्य उद्देश्यप्रतिभागियों में राजनैतिक चेतना का विकास करना था। विभिन्न विचारधाराओं के सत्र का संचालन अजीत झा जी ने किया । उन्होंने मार्क्सवाद , अंबेडकरवाद , गांधीवाद ,लोहियावाद आदि विचारधाराओं से अवगत करवाया । ‘थियेटर ऑफ रेलेवेंस’ की टीम ने राजनीति पर केन्द्रित 2 नाटकों की प्रस्तुति की – राजनीति- भाग 1 और राजनीति-भाग 2 । नाटकों का निर्देशन किया मंजुल भारद्वाज ने व अभिनय किया - अश्विनी , सायली , कोमल , योगिनी व तुषार ने ।

कला जो काम कर सकती है वो व्याख्यान नहीं कर सकता ।अजीत झा सर की बात को गहराई से समझाने का काम इन नाटकों ने किया । नाटक सामंतवाद से शुरु हो कर पूंजीवाद , समाजवादी व्यवस्था से लोकतंत्र की राह के माध्यम से स्वराज तक पहुंचा । प्रत्येक व्यवस्था के शोषण – दमन व खामियों को प्रतिभागियों के सामने जीवंत कर दिया । ये कला की ताकत - अश्विनी , सायली , कोमल , योगिनी व तुषार के कमाल के अभिनय व मंजुल भारद्वाज सर के सशक्त निर्देशन से ही संभव हो पाया ।

थियेटर ऑफ रेलेवेंस 


नाटक की प्रस्तुति के बाद मंजुल भारद्वाज जी नेमंडल , कमंडल और भूमंडल(उनका कथन) व WTO की नीतियों का खेल स्पष्ट किया । सोवियत संघ के विघटन के बाद उदारीकरण , वैश्वीकरण और निजीकरण की नीतियों ने पूरे विश्व को प्रभावित किया । भारत में खेती-किसानी पर संकट , मंडल कमीशन के बाद बाबरी मस्जिद का विध्वंश इन सब नीतियों का ही दुष्परिणाम है । सामाजिक न्याय के प्रश्न पर राजीव गोदारा और सुरेन्द्र पाल सिंह ने व्यापक सन्दर्भों के साथ सहभागियों की भ्रांतियों को दूर किया ।

मंजुल भारद्वाज जी के अनुसार वर्तमान सत्ताआत्महीनता से ग्रस्त है जिसे हर पल अपने ढहने का खतरा रहता है । आत्महीनता से ग्रस्त व्यक्ति या सत्ता हिंसा का सहारा लेती है और वह देश व समाज के लिए विध्वंशक व विनाशकारी होती है । इस सत्ता को आत्मबल से ही उखाड़ा जा सकता है । क्योंकि आत्मबल से विचार पैदा होता है और विचार सृजनशील होता है । मंजुल सर इस सत्ता का विकल्प स्वराज के विचार में देखते हैं ।


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सैनिटरी नैपकिन जीएसटी मुक्त: महिलाओं की मुहीम ने लाया रंग

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स्त्रीकाल डेस्क 

केंद्रीय वित्त मंत्री पीयूष गोयल की अध्यक्षता में जीएसटी काउंसिल की 28वीं बैठक में महत्वपूर्ण फैसले लिए गए हैं.  मनीष सिसोदिया सहित अलग-अलग राज्यों के वित्तमंत्री ने इस बैठक के बाद बताया कि  सैनिटरी नैपकिन को जीएसटी से बाहर रखने का फैसला लिया गया है.अभी इस पर 12 फीसदी टैक्स वसूल किया जा रहा था.



नैपकिन को टैक्स के दायरे में रखने के सरकार के निर्णय का व्यापक विरोध हो रहा था. संभवतः इन विरोधों को देखते हुए सैनिटरी नैपकीन को  जीएसटी के बाहर कर दिया गया है. सरकार की मंत्री मेनका गांधी, कांग्रेस की सांसद सुष्मिता देव आदि ने वित्तमंत्री से अनुरोध किया था कि सेनेटरी नैपकिन पर जीएसटी नहीं लगाया जाये, लेकिन सरकार ने इनकी तब नहीं सुनी थी. अब इस कदम का महिलाओं के बीच व्यापक स्वागत किया जा रहा है. स्त्रीकाल में हम सरकार द्वारा नैपकिन पर जीएसटी लगाने के फैसले के विरोध की खबरों को प्रमुखता से प्रकाशित करते रहे हैं.

पढ़ें और देखें वे रिपोर्ट. 

वित्तमंत्री को सेनेटरी पैड भेजने की मुहीम: एसएफआई और कई संगठनों ने देश भर में आयोजित किया कैम्पेन

जजिया कर से भी ज्यादा बड़ी तानाशाही है लहू पर लगान

गांधी के गाँव से छात्राओं ने भेजा प्रधानमंत्री और वित्तमंत्री को सेनेटरी पैड: जारी किया वीडियो




महावारी से क्यों होती है परेशानी 

उस पेड़ पर दर्जनो सैनिटरी पैड लटके होते थे

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पारदर्शी अधोवस्त्र में कास्टिंग का आमंत्रण: मर्दवादी कुंठा या स्त्री सेक्सुअलिटी का प्रतीक?

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सुशील मानव 

पिछले दिनों कलाकारों के लिए कास्टिंग कॉल के एक विज्ञापन में सिर रहित अधोवस्त्र में स्त्री की तस्वीर पर कुछ रंगकर्मियों, कलकारों, साहित्यकारों ने सवाल उठाये. फिल्म के डायरेक्टर ने अपनी सफाई भी दी. सुशील मानव ने इस विवाद का विश्लेषण किया है: 



यशपाल का एक उपन्यास है दिव्या। उपन्यास में कला को जीवन पूर्ति का साधन मानने वाला मूर्तिकार मॉरिस एक मूर्ति बनाता है। एक औरत की मूर्ति। मूर्ति में सिर्फ वक्ष और योनि है। एक मूर्तिकार की यह डेढ़ हजार साल पहले की स्त्री परिभाषा है। और एक युवा फिल्म निर्देशक हैं पवन के. श्रीवास्तव। बिहार के पवन श्रीवास्तव क्राउड फंडिंग से फिल्म बनाकर चर्चा में आये थे.  इक्कीसवीं सदी के इस युवा निर्देशक की अपनी परिभाषा में भी स्त्री वक्ष और योनि है। माने डेढ़ साल के वक्त में चाहे भले ही दुनिया बदल गई है लेकिन पुरुष की सोच में स्त्री की परिभाषा असका स्वरूप नहीं बदला है।

उन्होंने अपने फेसबुक वॉल पर नई फिल्म की कास्टिंग कॉल के लिए एक इश्तहार दिया है। इश्तहार में उसी मूर्ति की तर्ज पर एक जनान धड़ है बिकिनी पहने हुए, सिर और पाँव विहीन धड़। जिसके बगल में लिखा है 20-35 उम्र की लड़कियां (15) चाहिए। और 20-40 उम्र के आदमी (10) चाहिए। फिल्म के कास्टिंग कॉल के लिए दिए उस इश्तहार की तस्वीर पर ख्यातिलब्ध नाट्यकर्मी और गारी विधा की लोकगायिका विभारानी ने आपत्ति करते हुए अपने फेसबुक वॉल पर लिखा- ‘भाई मेरे। आप कास्टिंग कॉल कर रहे हैं या आपकी मंशा कुछ और है? 20 से 35 साल तक कि लड़कियों की आपकी फ़िल्म में ज़रूरत का मतलब यह तो नही कि लड़कियां ऐसी ही होती हैं । तनिक दिमाग से काम लीजिए।’

कवयित्री मृदुला शुक्ला विभारानी की पोस्ट में कमेंट करते हुएऔर एक तरह से फिल्म डायरेक्टर को सपोर्ट करते हुए लिखती हैं-‘यह अच्छा तरीका है इस तरह से लड़कियां खुद सोच समझ कर ऑडिशन के लिए जाएंगी यह अच्छा तरीका है इस तरह से लड़कियां खुद सोच समझ कर ऑडिशन के लिए जाएंगी’
वीणा पाठक निर्देशक के सौंदर्यबोध पर प्रश्नचिन्ह लगाते हुए कमेंट में लिखती हैं,- ‘दिमाग हो तब न ,यहां तो सिर्फ आंखें हैं ,सौन्दर्यबोध आएगा कहाँ से।’
50 के दशक में कास्टिंग 


पत्रकार निराला युवा डायरेक्टर के बहाने प्रगतशीलोंऔर वामपंथियों पर अतिरिक्त निशाना साधते हुए अपनी वॉल पर लिखते हैं,-‘मैम, इनकी इतनी कारगुजारी और हरकत से ही आप चकित हैं? फेहरिश्त लम्बी है। ढेरो किस्से हैं। और यह सब सामाजिक न्याय,जेएनयू की प्रगतिशीलता, वामपंथ, जनपक्षधारिता,सरोकार,सिनेमा आदि का मुलम्मा चढ़ाकर होता है। दिल्ली और दूसरे शहर के भी कुछ फैशनिया-रोमांटिक कामरेड साथी और कुछ सतही सामाजिक न्याय धारी इनका झंडा उठाये फिरते हैं।’

एक पोस्ट से प्रगतिशीलों पर निशाना का कार्य पूरा न होते देख निराला  दूसरा लगाकर लिखते हैं-‘स्त्री को नँगा करने और नँगा कर बेचने से पहले ब्राम्हणवाद को गरियाने और सामाजिक न्याय का छद्म चादर ओढ़ने का नया फैशन चला है। खासकर सिनेमा,साहित्य,कला की दुनिया मे। ऐसे खिलाड़ी एक और तैयारी इसके पहले करते हैं। फैशनिया प्रगतिशीलों,रोमांटिक वामियों और बिना अपनी जानकारी के भेड़चाल चलनेवाले सामाजिक न्याय के सो कॉल्ड बुद्धिजीवियों को अपने साथ करते हैं।
दिल्ली के साथियों को आगाह करनेवाली सूचना है।खासकर पत्रकार साथियों को जो जल्दबाजी में किसी को क्रांतिकारी,प्रगतिशील,सरोकारी,स्त्रीवादी,समाजिकन्यायवादी घोषित और साबित करते हैं। और हां, यह पोस्ट सामान्यीकरण कर न पढ़े। सबको इससे रिलेट न करें।’

मंदाकिनी मिश्रा विभारानी की पोस्टपर तर्क करते हुए लिखती हैं,-  ‘ लड़के की अंडरवियर में फोटो नहीं डाली लड़की ही क्यूँ, लड़के भी तो चाहिए’।

सामाजिक कार्यकर्ता कवि संपादक और रंगकर्मीराजेश चंद्र ने कमेंट में लिखा है- ‘इन्हें बस जिस्म चाहिये, प्लेट में सजा कर। शर्मनाक।’

एक्टिंग शिक्षक और स्कूल ऑफ एक्टिंग ACTENECT गुड़गाँव में डायरेक्टर महेश वशिष्ठ लड़कियों को ही दोषी ठहराते हुए लिखते हैं- ‘और तकलीफदेह ये कि पहुंच जाती हैं लड़कियां।हमारी लड़कियों को परिपक्वता से काम लेना चाहिए न कि फिल्म में रोल करने की भावनाओं में बह कर।’
विभारानी महेश वशिष्ठ के कमेंट पर मुँहतोड़ जवाब देती हैं,-‘आप फिर किसी दूसरी जगह बात को ले जा रहे हैं और चीजे लड़कियों पर थोप रहे हैं। मेरा कहना है कि लड़कियां हमेशा परोसी जाती हैं। जो परोसने वाले हैं, उन पर बात कीजिए। इस पोस्टर को बनानेवाले की बात कीजिए ना कि लड़कियों पर। क्या लड़कियां फिल्म में काम ना करें? घर में बैठकर चूल्हा-चौका करें और क्या घर में भी ये सुरक्षित रह जाती हैं? हर चीज में लड़कियों पर तोहमत देना बंद कीजिए।’

विभा रानी के कमेंट का समर्थन करते हुए प्रणीता सिंहसीधे महेश वशिष्ठ से मुखातिब होती हैं-‘महेश वशिष्ठ जी मैं आपसे आदरपूर्वक कहना चाहूंगी कि जिस तरह पुरुषों में आगे बढ़ने की इच्छा होती है, अपनी प्रतिभा दिखाने की चाह होती है उसी तरह स्त्रियों में भी आगे बढ़ने की और अपनी प्रतिभा दिखाने की चाह होती है। फिल्मों में काम करना क्या पुरुषों का ही हक है ? आप स्त्रियों की तुलना पशुओं से करना चाहते हैं या मशीन से जो भावना शून्य हो कर पुरुष व परिवार की तीमारदारी करती रहे। उसका अपना कोई वजूद ना रहे।’
तिस पर पर विडंबना ये कि महेश वशिष्ठ जैसे बुजुर्ग शिक्षक ‘वेश्याएं न हों तो समाज गंदा हो’ जैसे मर्दवादी सामंती मुहावरों के तर्ज पर पुनः प्रतिक्रिया देते हुए लिखते हैं,- ‘यानि कोई घटिया सोच वाला हमें कीचड़ के गड्ढे में डालने का निमंत्रण दे तो हम बिना सोचे समझे आंख मूंद कर चले जाना चाहिए???’

कास्टिंग डायरेक्टर शानू शर्मा 


ऑल इंडिया रेडियो-आकाशवाणी और दूरदर्शन जैसेसंस्थानों के लिए जर्नलिज्म करने वाले और नाम के साथ सोशल एक्टीविस्ट जोड़ने वाले बिनय कुमार सिंह अपने सामंती मूल्य को सँजोते हुए लिखते हैं,-‘विभा जी!लड़कियां परोसी नहीं जा रही है,बल्कि वे खुद प्रस्तुत हो रही है। उनके लिए सुख संसाधन और ऐश्वर्या सब कुछ है। यही भूमण्डलीकरण और ग्लोबलाइजेशन है। इसलिए जो जा रहीं हैं वे इस बात से चिंतित नहीं है,आप नाहक परेशान हो रही हैं। यह चलेगा हमारे आपके रोकने से रुकने वाला नहीं है। "जिस्म की बेहया नुमाईश है,गीत जैसे कि उसपे मालिश है।"
सीमा मलिक ने बिनय कुमार को जवाब देते हुए पूछा है कि,-‘क्या महत्वाकांक्षा और ऐश्वर्यपूर्ण जीवन जीना सभी का विशेषाधिकार नहीं है?’

आगे बिनय कुमार को ही उत्तर देते हुए संगीतनिर्देशक बापी तुतुल लिखते हैं,-‘प्रिय बिनय जी, मैं विभा दीदी के साथ सहमत हूं क्योंकि ये हमारीवो हिंदी फिल्म उद्योग नहीं है, जो होती थी उदाहरण के लिए हमने मीना कुमारी, नर्गिस, इतने सारे कलाकार # महिला #देखेहैं जिन्होंने समाज में इतना योगदान दिया है।जो मैं निजी रूप से नापसंद करता हूं वह है पोस्टर की सामग्री और पोस्टर तस्वीर में अपमानजनक महिलाएं हैं।हां हम बहुत खुले दिमाग के हैं लेकिन यह ऑडिशन कॉल का पिक्चर नहीं है बल्कि एक महिला अंडरगारमेंटबेंचने का विज्ञापन है।’ ‘

मनोज गोयल निर्देशक तस्वीर कोजस्टीफाई करते हुए लिखते हैं,- ‘मंशा साफ है प्रोड्यूसर की और उनके विज्ञापन में वह सही अर्थों में दिख रही है। प्रोड्यूसर एक ऐसी फ़िल्म बनाने जा रहे हैं जिसमें अंगप्रदर्शन बहुत ज्यादा होगा। अब इस विज्ञापन को देख कर सिर्फ ऐसे कलाकार ही सम्पर्क करेंगे जो ऐसी फिल्म में सहजता से काम कर सकें। प्रोड्यूसर ने शुरू में ही बता दिया फ़िल्म में यह सब होगा if you are ready to do so then only you welcome’

अंजली बाजपेयी लिखती हैं,- ‘गर इतिहाससे लेकर आज तक के आधुनिक जगत पर गौर करे तो हम यही पाएगे की औरत को हमेशा कौमोडिटि समझा गया। जब औरत की बात करते है तो उसकी सुंदरता रूप रंग शारीरिक बनावट की बात जरूर करेगे । जैसे यही पैरामीटर किसी लड़की को योग्य या अयोग्य मानने के। ये बहुत शर्मनाक बात है की आज भी यही हो रहा है। यही वजह है की जब कोई आपसे १० बार कहें की आप बहुत खूबसूरत है तो फूल के कुप्पा होने की बजाय ये जाने की आखिर अगले के मन में चल क्या रहा है।’

पवन श्रीवास्तव 


कास्टिंग कॉल के पोस्टर के विरोध में विभारानी केस्टैंड के बाद जिस तरह वर्तमान राजनीति में गुजरात दंगों या मॉब लिंचिंग के बाबत सवाल उठाने पर सत्तापक्ष केराजनेता अश्लील कुतर्क करते हुए 1984 के सिख दंगा का उदाहरण देकर मॉब लिंचिंग को जस्टीफाई करते हैं बिलुकल उसी तर्ज पर कुतर्क करते हुए फिल्म के डायरेक्टर पवन के. श्रीवास्तव तर्क देते हुए दूसरा पोस्ट लिखते हैं कि,- ‘एक फिल्म के कास्टिंग कॉल के लिए मेरे द्वारा पोस्ट की गई तस्वीर पर बहुत अधिक आपत्ति की गई है। मैं आपको बताता हूं कि मैंने कुछ सस्ता प्रचार हासिल करने की कोशिश नहीं की है या महिलाओं को वस्तुकरण नहीं किया है। पोस्टर में उपयोग की गई तस्वीर फिल्म के विषय के अनुसार बहुत उपयुक्त और कलात्मक रूप से सही है। इसका इस्तेमाल फिल्म के विषय के बारे में एक आइडिया देने के लिए किया गया है। मैं कास्टिंग के लिए आने वाले उम्मीदवारों को फिल्म की एक स्पिरिट बताना चाहता था। यह उन्हें गुमराह होने से बचाएगा। महिला का बिकनी में होना ऑब्जेक्टिफिकेशन नहीं हैं। यह सिर्फ एक पोशाक है। मेरी फिल्म महिलाओं और उनकी कामुकता के बारे में है, यह सेक्स के बारे में बात करती है और हां इसमें नग्नता भी है। तो मैं इसे पोस्टर के माध्यम से व्यक्त करना चाहता था। मुझे पता है कि मैं क्या कर रहा हूं और मुझे पता है कि जब हम इस तरह के एक संवेदनशील विषय में हाथ लगाते हैं तो राजनीतिक औचित्य क्या है। मैं आप सभी से अनुरोध करूंगा, इतना जजमेंटल मत बनो, मैं समाज को नुकसान पहुंचाने वाला कुछ भी नहीं कर रहा हूं। मैं एक कलाकार के रूप में अपनी ज़िम्मेदारी जानता हूँ। कृपया एजेंसी न बनें । मुझे मेरास्पेस दो।’

हो सकता है कि कल पवन के श्रीवास्तव स्त्री की सेक्सुअलिटी पर कोई सार्थक और संवेदनशील फिल्म बना ही लें लेकिन आज उनके द्वारा कास्टिंग कॉल के लिए जारी किये गये पोस्टर की तस्वीर उनकी स्त्री और स्त्री सेक्सुअलिटी की समझ पर सवाल खड़ी करती ही है। स्त्री अपनी सेक्सुअलिटी एक्सप्लोर करते हुए सिर्फ स्तन, नितम्ब और योनि नहीं हो जाती है-उसका सर गायब नहीं हो जाता, उसका व्यक्तिव घुट नहीं जाता। 

क्राउड फंडिंग से बनी पवन की फिल्म: नया पता 

फिल्म और सिनेमा अभिव्यक्ति और सामाजिक बदलावका सबसे सशक्त और कारगर हथियार है जिसका सबसे ज्यादा दुरुपयोग किया गया है। समाज में स्त्रियों को चुड़ैल, डायन और नागिन बनाकर स्थापित करने एवं समाज को स्त्रियों के प्रति असंवेदनशील बनाने में सिनेमा का बहुत बड़ा हाथ है। कुछेक अपवादों को छोड़ दें तो हिंदी फिल्में हमेशा से ही सामंतवादी मूल्यों की पोषक रही हैं। फिल्मों ने औरतों को अच्छी और बुरी दो कटेगरी में बाँटकर ही समाज में पेश किया है।अपनी सेक्सुअलिटीके प्रति जागरुक और पश्चिमी संस्कृति के प्रभाव में अपने हक़ के लिए आवाज़ उठाने वाली मर्दों के साथ कदमताल मिलाकर चलने वाले औरतों को हिंदी सिनेमा उद्योग वैंप बनाकर और स्त्री की यौनेच्छा को सामाजिक विकृति की तरह उभारकरपेश करता आया है। कुछेक लोगो को छोड़ दें तो हिंदी फिल्मोद्योग में स्त्री की छवि,स्थिति और उपस्थिति आज भी जस की तस है। पूँजीवादी बाजार और समाज में स्त्री के अंडरगार्मेंट्ससिर्फ एक पोशाक भर नहीं पुरुष की शिश्नोत्तेजना का साधन भी है। जिसका हिंदी फिल्में अपनी तरह से पर्दे पर इस्तेमाल करती रही हैं। मुख्यधारा के हिंदी फिल्मोद्योग में स्त्री को एक कमोडिटी से ज्यादा कुछ समझा ही नहीं गया। न कल न आज।

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भारत में दलित स्त्री के स्वास्थ्य की स्थितियां और चुनौतियाँ

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संदीप कुमार मील
समाज के किसी भी तबके की आर्थिक, सामाजिक,राजनीतिक और सांस्कृतिक परिस्थितियों के निर्माण में उसके स्वास्थ्य की स्थितियाँ बहुत निर्णायक भूमिकाएँ निभाती हैं। साथ ही, इसका दूसरा पक्ष देखा जाए तो यह भी उभरता है कि इन परिस्थितियों पर ही मनुष्य का स्वास्थ्य स्तर निर्भर करता है। पहला पक्ष पूँजीवादी व्यवस्था द्वारा दिये जाने वाले तर्क का है जो मानता है कि व्यक्ति स्वतंत्र प्रतियोगिता में अच्छी स्वास्थ्य सुविधाएँ प्राप्त कर सकता है। जबकि दूसरा पक्ष उन आधारों को रेखांकित करता है जो संसाधनों के असमान वितरण के कारण उत्पन्न हो जाते हैं।



चूंकि राष्ट्र राज्य की संकल्पना में सरकार के प्रमुखकर्तव्यों में यह भी शामिल है कि वह अपने नागरिकों को पर्याप्त स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध कराये ताकि वे उत्पादन में सक्रिय भूमिका निभा सकें। सरकार की संकल्पना के साथ जिस तरह से बाहरी आक्रमणों से सुरक्षा का विचार जुड़ा है उसी तरह से प्राकृतिक और अन्य मानवीय आपदाओं जिसमें सभी तरह की बीमारियाँ भी शामिल उनसे भी सुरक्षा का विचार भी नीहित है। यहाँ सिर्फ बीमारियों के अभाव या उनके ईलाज मात्र को ही स्वास्थ्य के मानकों में शामिल नहीं किया जा सकता बल्कि अंतर्राष्ट्रीय मानकों द्वारा निर्धारित पौषटिक भोजन और अन्य स्वास्थ्य के लिए आवश्यक वस्तुओं की उपलब्धता भी सरकार को ही सुनिश्चित करनी होती है। स्वस्थ और शिक्षित नागरिक ही उस देश की विकास की दिशा तय कर पाते हैं। इसलिए लोक कल्याणकारी राज्य में स्वास्थ्य को प्रमुख स्थान देकर उसे सार्वजनिक क्षेत्र में रखने का प्रावधान किया जाता है ताकि लोग कम से कम उस व्यवस्था में अपने जीवन के अधिकार को तो सुरक्षित रख पायें। पूंजीवादी समाजों में स्वास्थ्य एक निजी दायित्व की तरह से देखा जाता रहा है जिसमें जो अमीर वर्ग होता है उसके पास स्वास्थ्य के सभी साधन उपलब्ध होते हैं और गरीब वर्ग महामारियों की चपेट में आकर जीवन हार जाता है। विकसित देशों में स्वास्थ्य के उच्च स्तर के कारण वहाँ पर औसत आयु विकासशील देशों और अल्प विकसित देशों की तुलना में ज्यादा है।

स्वास्थ्य किसी भी देश की स्थाई पूँजी के रूप में देखा जाता है और इसे व्यापक रूप में समझा जाये तो यह वैश्विक मानवाधिकार बन जाता है जो पृथ्वी पर जन्म लेने वाले हर मनुष्य को मिलना चाहिए। विश्व स्वास्थ्य संगठन शिशुओं और माताओं के संबंध में कहता है, ‘‘लोगों का हवा में साँस लेने, भोजन प्राप्ति, पेयजल, उन्हें जिन दवाइयों और टिकों की आवश्यकता होती है उनकी उपलब्धता हम सुनिश्चित करते हैं।’’ 1

विश्व स्वास्थ्य संगठन की इस टिप्पणी सेदो तर्क स्पष्ट रूप से उभरकर सामने आते हैं, पहला तर्क तो यह है कि विश्व में स्वास्थ्य सुविधाएँ सुनिश्चित नहीं हैं, लोग उनसे वंचित हैं। इसलिए ऐसे मंचों से यह घोषणा की जाती है। बहुत से देशों द्वारा ये सुविधाएँ अपने नागरिकों को उपलब्ध नहीं कराई जा रही हैं। या तो उन देशों के पास पर्याप्त संसाधनों का अभाव है कि वे स्वास्थ्य सुविधाओं को उपलब्ध नहीं करा पा रहे हैं या यह भी देखा जाता है कि अपनी जनता के स्वास्थ्य को लेकर उन देशों की सरकारें प्रतिबद्ध नहीं हैं। उनकी प्राथमिकताओं में स्वास्थ्य उतना महत्वपूर्ण नहीं माना जाता हो लेकिन मेरे विचार से जब भी किसी देश के ‘राष्ट्रीय हित’ का प्रश्न आता है तो उसकी संप्रभुताओं, अखण्डता, स्वतंत्र विदेश नीति के बाद जनता के स्वास्थ्य का स्थान आता है। अगर किसी देश की जनता स्वस्थ्य नहीं है तो वह बहुत समय तक न तो उसकी अखण्डता स्थायी रह सकती है और न ही सम्प्रभुता।

कुछ देशों में दोनों ही कारण देखे जा सकते हैं जिनमें अधिकांश अफ्रीका के अविकसित देश हैं। दूसरा तर्क यह उभरकर सामने आता है कि हवा, भोजन और पानी जैसी प्राथमिक चीजों का समाज से स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है। इसलिए जो शक्तियाँ समाज में ताकतवर होती हैं वे इन पर आधिपत्य स्थापित कर लेती हैं या उनकी सुविधाओं के विस्तार के कारण इनकी उपलब्धता और स्वच्छता पर प्रभाव पड़ता है। जिस तरह से विश्व में जलवायु परिवर्तन हो रहा है उसके पीछे अमीर देशों और अमीर लोगों का अति-प्राकृतिक दोहन सामने आ रहा है उसके कारण भी लोगों के स्वास्थ्य पर कुप्रभाव देखा जा सकता है। इस तर्क के साथ उस देश की सरकार अपनी स्वास्थ्य सुविधाओं को पूरी तरह से राज्य नियंत्रण से मुक्त कर देते हैं।



विश्व की माध्यिका आयु का अवलोकन करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि कृषि आधारित अर्थव्यवस्थाओं के देशों में माध्यिका आयु कम है और औद्योगिक अर्थव्यवस्थाओं वाले देशों में यह ज्यादा है। सन् 2018 में विश्व में सबसे कम माध्यिका आयु अफ्रीका महाद्वीप के एक देश नाईजीरिया की है जो 15.3 वर्ष है। जापान में यह 46.9 वर्ष है और भारत में 27.6 वर्ष है।2   इन देशों में मृत्यु की अनिश्चितता तुलनात्मक रूप से विकसित देशों से ज्यादा है जिससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि वहाँ के निवासी स्वास्थ्य संबंधी उचित उपचार के अभाव में जीवन प्रत्याशा से पूर्व में भी काल कल्वित हो जाते हैं। 

अब भारतीय संदर्भ में स्वास्थ्य की स्थितियों की चर्चा से पूर्व यहाँ के ऐतिहासिक संदर्भों का विवेचन करना होगा। चूंकि भारतीय समाज विश्व की तरह पितृसत्ता का वाहक रहा है और साथ ही, यहाँ पर जाति व्यवस्था सम्पूर्ण समाज के संचालन को निर्धारित करने वाली प्रमुख संरचना रही है। इसलिए जो बाह्मणवादी पितृसत्ता में ज्ञान पर आधिपत्य रखने वाला वर्ग था उसी के पास उपचार से संबंधित विज्ञान अध्ययन-अध्यापन का दायित्व और अधिकार दोनों थे। वंचित समाज जिसमें शुद्र प्रमुख हैं उन्हें ज्ञान से दूर रखने के लिए सभी धार्मिक कानून और दण्ड विधान रचे गये थे। शुद्र के कानों में ज्ञान पहुँचने पर शीशा भरने के अमानवीय दण्ड विधान ने हमेशा से शुद्रों को स्वास्थ्य से दूर रहने के लिए अभिशप्त कर दिया। उस स्वास्थ्य से जो तात्कालिक राजसत्ता द्वारा पोषित होता था। ऐसी स्थिति में दलित स्त्रियों के स्वास्थ्य की राजसत्ता के उत्तरदायित्व के बारे में तो कल्पना भी नहीं की जा सकती।

बाह्मणवादी पितृसत्ता ने विज्ञान में होने वाली प्रगति को ही अवरुद्ध कर दिया क्योंकि ज्ञान को जब पैतृक सम्पत्ती के रूप में परिवर्तित कर दिया जाता है तो उसकी द्वंद्वात्मकता समाप्त हो जाती है और वह विकास के रास्ते पर जाने की बजाय यथास्थितिवादिता से होकर रुढ़ीवाद तक पहुँच जाता है। काँचा इल्लैया कहते हैं, ‘‘हिन्दू समाज ने निस्संदेह ने अपने आध्यात्मिक फासीवादी सार के कारण और उस सामाजिक निष्क्रियता के भी कारण, जो जाति व्यवस्था का सीधा परिणा थी, कभी भी किसी वैज्ञानिक नवाचार को होने नहीं दिया। 3  जिस समाज में नवाचारों के स्वागत के लिए लोकतांत्रिक और सम्मानजनक परिवेश नहीं उपलब्ध होता है वहाँ पर लोग नए प्रयोग करने के प्रति प्रोत्साहित ही नहीं होते हैं, वे एक परम्परागत ढ़ाँचे में सोचते रहते हैं। ऐसी स्थिति लम्बे समय तक चलने के कारण यह एक सांस्कृतिक मनोविज्ञान का रूप धारण कर लेती है जो समाजिक संचालन की शक्तियों का एक दिशा दे रही होती है। ऐसे समय में लोग इन परम्पराओं और सोच के दायरों से बाहर सोचने का साहस भी नहीं कर पाते हैं।

दलित स्त्री के स्वास्थ्य की स्थितियों पर उनकेकाम के प्रकारों का गहरा असर होता है। समाज ने जिस तरह से सबसे गंदे कामों को करने के लिए दलित स्त्री को अभिशप्त किया है वे जगहें समाज की सबसे गंदी और कचरा युक्त होती है। यहाँ पर साफ-सफाई की बात तो दूर, पीने के साफ पानी तक की व्यवस्था नहीं होती है। एक छोटी-सी चोट आने पर भी कोई स्वास्थ्य सुविधाएँ उपलब्ध नहीं हो पाती हैं। यही स्थिति न सिर्फ बड़े शहरों और मध्यम कस्बों की है बल्कि गाँवों में भी देखी जा सकती है। गाँवों की सामाजिक-भौगोलिक संरचनाएँ ब्राह्मणवादी होने के कारण पूरे भारत में दलितों को गाँव से बाहर की अनुपजाऊ, गंदी और प्राकृतिक आपदाओं से असुरक्षित जमीनों पर रहना होता है। वे अपने श्रम से इन जमीनों को रहने लायक बनाते हैं तो उच्च जातियों के लोगों द्वारा अपने बाहुबल से इन्हें यहाँ से विस्थापित कर दिया जाता है। यही स्थिति बड़े शहरों में देखी जा सकती है। चूँकि दलित पितृसत्ता के जकड़नें मजबूत होने के कारण कार्यस्थलों पर दलित स्त्रियों के स्वास्थ्य को सुरक्षित रखने के लिए राज्य की संस्थाओं का सहयोग होना तो दूर उनके अपने पुरुष जो पति, पिता, भाई और बेटे के रूप में होते हैं वे भी पूर्ण उदासीन और गैरजिम्मेदार होते हैं। उसे तीन स्तर पर स्वास्थ्य की विपरीत परिस्थियों से जूझना पड़ता है, पहली स्थिति परिवार की आंतरिक स्थिति है जहाँ पर दलित स्त्री पितृसत्ता के स्त्री के लिए निर्मित किये गए बंधनों में कैद रहती है। दूसरी स्थिति समुदाय की है जहाँ पर वह श्रम करने जाती है वहाँ की पूरी व्यवस्था जाति व्यवस्था आधारित होने के कारण वह किसी प्रकार के स्वास्थ्य अधिकार का दावा कर ही नहीं सकती और तीसरी स्थिति एक लोकतांत्रिक राज्य द्वारा उपलब्ध कराई गई स्वास्थ्य सेवाओं की हैं जहाँ पर इन दोनों स्थितियों की बुराइयाँ तो उपस्थित हैं ही, साथ ही पूँजीवादी के तमाम अमानवीयतायें और असमानतापूर्ण व्यवहार भी स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है।



संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी अपनी एक रिपोर्ट में यह मान लिया है कि स्त्रियों पर होने वाला भेदभाव केवल लैंगिक ही नहीं है, जातिय और आर्थिक स्थिति पर भी आधारित है। चूँकि भारत के समाज में आर्थिक स्थितियों के ढ़ांचों की निर्भरताएँ जाति व्यवस्था पर होती हैं और संसाधनों का बँटवारा इस प्रकार से किया जाता है कि उच्च जातियों के पास अधिकतम संसाधनों का केंद्रीकरण हो जाता है और निम्न जातियाँ सभी संसाधनों से वंचित हो जाती हैं। उनके पास केवल श्रम बचती है। वह श्रम दलित स्त्री और पुरुष के पास समान रूप से होता है लेकिन वहाँ पर भी दलित पुरुष की सोच को इस तरह से निर्मित किया जाता है कि स्त्री के श्रम का महत्व कम है और इस सोच को निर्मित होने के बाद उच्च वर्णों द्वारा दी जाने वाली यातनाओं के समय वह दलित स्त्री के स्वामी होने के गर्व भाव को महसूस करता है और जब भी अवसर मिलता वैसा ही व्यवहार वह अपनी स्त्री से करता है। एक तरह से कहा जा सकता है कि अपनी चेतना के स्तर दलित पुरुष उत्पीड़िन की व्यवस्था का एक पुर्जा बन जाता है।

‘टर्निंग प्रामिसेस इन टू एक्षन-जेंडर इक्वालिटी इन द 2030’ एजेंडा नाम की इस रिपोर्ट के अनुसार एक सवर्ण महिला की तुलना में एक दलित महिला करीब 14.6 साल कम जीती है। इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ दलित स्टडीज के 2013 के एक शोध का हवाला देते हुए इस रिपोर्ट में कहा गया है कि जहाँ एक ऊँची जाति की महिला की औसत उम्र 54.1 साल है, वहीं पर एक दलित महिला औसतन 39.5 साल ही जीती है।’4 इससे सिर्फ यही स्पष्ट नहीं होता कि दलित स्त्री को पोषण न मिल पाने के कारण वे सवर्ण स्त्री की तुलना में कम उम्र प्राप्त करती है बल्कि यह भी स्पष्ट हो रहा है कि सवर्ण स्त्री की स्थिति भी कोई बहुत बेहतर नहीं है। इस कम उम्र के भेद के अलग कारणों को रेखांकित करने पर कुछ साझे बिंदु प्रस्तुत हो सकते हैं जो सामाजिक पायदानों पर दोनों वर्णों की स्त्रियों को झेलने पड़ते हैं और वे कारण जो जाति के कारण सिर्फ दलित स्त्री को झेलने पड़ते हैं, स्पष्ट हो जाते हैं।

दलित स्त्री भारत की कुल स्त्री आबादी की 16.4प्रतिशत है।5  इसकी औसत आयु कम होने के लिये जिम्मेदार कारकों को देखा जाये तो प्राथमिक कारक तो एक दलित मजदूर को मिलने वाले श्रम का न्यूनतम मूल्य है और उसमें भी स्त्री के श्रम का मूल्य ओर कम होना होता है। घर में पुरुष का आधिपत्य होने के कारण उसकी कमाई को खर्च करने का अधिकार भी वह स्वयं प्राप्त नहीं कर पाती है। घर खर्च, बच्चों की पढ़ाई से लेकर तमाम तरह के कर्ज के चुकाये जाने वाले ब्याज की रकम भी इन्हीं की आमदनी से जाती है। इनका अपना स्वास्थ्य सबसे अंतिम प्राथमिकताओं में होता है जो पूर्ण होने से पहले ही बिमारियाँ बहुत विकराल रूप ले लेती हैं। यहाँ पर वे स्वयं पितृसत्ता के विभिन्न रूपों में इस तरह से सहायक बनती हैं कि अपने अस्तित्व को ही खतरे में डाल देती हैं।

अशिक्षा एक बहुत बड़ा कारक है जो दलित स्त्रियों के कमजोर स्वास्थ्य की दिशा निर्धारित कर देती है। इसी के कारण से वह बाल विवाह जैसी कुरीतियाँ की शिकार हो जाती हैं जो आगे चलकर उन्हें कम उम्र में माँ बनने जैसे खतरों तक पहुँचा देती है। कम उम्र में माँ बनने की स्थिति शहरों की तुलना में ग्रामीण परिवेश में अधिक होती है।

सार्वजनकि स्वास्थ्य सुविधाओं और जागरुकताके अभाव में बहुत-सी दलित स्त्रियाँ अंधविश्वासों का शिकार होकर अपने जीवन से हाथ धो बैठती हैं। वे अत्याचारों के प्रतिकार करने की चेतना प्राप्त करने के अवसर तक ही नहीं पहुँच पाती हैं। ग्रामीण इलाकों में वे जाति के कारण जमीन जैसी परिसंपत्तियों से वंचित होती हैं और किसी जमींदार के खेत पर खेत मजदूरी करने को अभिशप्त होती हैं। दलित बालिकों को बाल श्रम भी करना पड़ता है जिससे वे बचपन से ही कुपोषण की शिकार हो जाती हैं और कार्य स्थलों पर यौन हिंसा की शिकार भी होती हैं। सुबह जल्दी घर का काम पूर्ण करके श्रम बाजार समय पर पहुँचने और शाम को काम से लौटने के पश्चात फिर से घर का काम देर रात तक पूर्ण करने की मजूबरी दलित स्त्री को अपने स्वास्थ्य पर ध्यान देने का समय ही नहीं देती।

देखा जाये तो भारत में स्वास्थ्य सेवाओं का नवउदारवादी नितियों के बाद जिस तरह से निजीकरण हुआ है उसका प्रभाव सभी वर्गों की स्त्रियों पर पड़ा लेकिन हाशिये के समाजों की स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुँच ही चुनौतीपूर्ण हो गई है। नेशनल फैमिली हैल्थ सर्वे, इंडिया के अनुसार भारत की अधिकांश स्त्रियाँ खून की कमी का शिकार हैं और उनमें भी दलित स्त्रियों का प्रतिशत अधिक है। 25 से 49 आयु वर्ग की 55.9 प्रतिशत दलित स्त्रियाँ खून की कमी से ग्रस्त हैं। दलित स्त्रियाँ स्वास्थ्य के समक्ष दोहरे संकटों से गुजरती हैं, पहला तो यह कि उन्हें आर्थिक तंगी के कारण पौषटिक आधार उपलब्ध नहीं हो पाता है और दूसरा स्वास्थ्य सुविधाओं का अभाव भी उसे झेलना पड़ता है।

जो सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध हैं वे भी भेदभाव रहित नहीं हैं, वहाँ पर भी जाति आधारित भेदभाव अपने पूरी मजबूती के साथ उपस्थित है। अस्पतालों में दलित स्त्रियों पहुँचने के बाद किया जाने वाला व्यवहार भी इतना भेदभरा होता है कि उपचार से पहले ही उनका इस तंत्र से विश्वास उठ जाता है और उनमें से कई स्त्रियाँ पाखंडों की तरफ जाने को मजबूर हो जाती हैं। जो अपने ईलाज के लिए निजी अस्पतालों में जाती हैं वहाँ की उच्च फीस के कारण वे बीमारी भूलकर ईलाज के लिए होने वाले कर्ज की चिंताओं से ग्रसित हो जाती हैं। नेशनल फैमिली हैल्थ सर्वे, इंडिया के अनुसार दलित समुदाय की 70.4प्रतिशत स्त्रियों को स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुँच स्थापित करने में ही परेषानियों का सामना करना पड़ता है। 15 से 49 आयु वर्ग की उच्च वर्ग की स्त्रियों की तुलना में दलित वर्ग की केवल एक स्त्री को पौषटिक खान-पान उपलब्ध हो पाता है। ऐसा इसलिए होता है कि देश में रोजगार के साधनों के निजीकरण होने का सर्वाधिक प्रभाव दलित स्त्रियों पर पड़ा क्योंकि एक तरफ उनके कामों का मशीनीकरण कर दिया गया तो दूसरी तरफ नस्लीय सौन्दर्य प्रतिमानों के आधारों पर उसे सभी कामों से दूर कर दिया। ये निजी कारखाने अस्पृष्यता के नए अड्डे बनकर उभरे और श्रम के सौन्दर्य का हाशियाकरण कर दिया।

दलित स्त्रियों के स्वास्थ्य में आने वाले अवरोधों में रूढ़ीवादी धारणाएं और परम्पराएं भी प्रमुख हैं। इन परम्पराओं का विस्तार गाँव से लेकर शहरों तक में देखा जा सकता है। आज भी भारतीय समाज अंधविश्वास और घोर पाखंडों से घिरा हुआ है जहाँ पर पोषण के अभाव और अन्य बीमारियों को दैवीय प्रकोप माना जाता है। इन दैवीय प्रकोपों को दूर करने के लिए अनेक तरह के आर्थिक और शारीरिक शोषण के केंद्र पूरे देश में पाये जाते हैं। शिक्षा, चेतना और तर्क के अभाव में इन केंद्रों की मान्यताओं में किसी प्रकार की कमी नहीं दिखाई देती है। बहुत से लोग वैज्ञानिक उपचार के साथ-साथ इन परम्परागत रुढ़ीवादी तरीकों को भी अपनाते हैं और स्वास्थ्य बेहतर होने की स्थिति में हमेशा ही इन परम्परागत पाखण्डों को उसका श्रेय दिया जाता है। दरअसल, समाज अपनी मजबूरियों और डर की वजह से वैज्ञानिक विधियों का प्रयोग करता है चाहे वह चिकित्सा हो या फिर जीवन के अन्य आयाम, उसकी सामूहिक चेतना का वैज्ञानिकरण होना अभी शेष है और इसी कारण से समाज अधिकांश कार्यों के एक अंतद्वन्द की स्थिति में रहता है। यह अंतद्वन्द परम्पराओं को त्यागकर आधुनिकता की देहरी पर आने की इच्छाओं के होने की बजाय ऐसे ज्यादा होते हैं कि कैसे आधुनिकता के उपकरणों का पूरा उपभोग करते हुए चेतना को परम्परागत दृष्टिकोण से संबद्ध कर पायें।

स्वास्थ्य सुविधाओं को समाज की प्राथमिक ढ़ाँचागत विकास से अलग करके नहीं देखा जा सकता है क्योंकि देश के सुदूर गाँवों से कस्बों के स्वास्थ्य केंद्रों तक जाना अपने आप में मुश्किल काम है और अगर कोई दलित स्त्री तमाम मुश्किलों को झेलते हुए वहाँ तक पहुँच भी जाए तो उसका ईलाज सुनिश्चित नहीं है। वहाँ ना तो पर्याप्त उपकरण होते हैं और ना ही अन्य सुविधाएं।

संविधान में स्वास्थ्य राज्य अनुसूची का विषय है लेकिन केंद्र की भूमिका मार्गदर्शक के रूप में हमेशा रहती है। स्वास्थ्य सेवाओं के निजीकरण को नए रूप में सामने लाकर उसे पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप (पीपीपी) का नाम दिया जाता है। इस मॉडल के तहत जमीन और भवन से लेकर तमाम सरकारी सुविधाओं से बने स्वास्थ्य केंद्र और अस्पतालों को प्रबंधन के नाम पर निजी कम्पनियों को उपलब्ध कराया जाता है जो जनता से सेवाओं के बदले में फीस प्राप्त करते हैं। जब सारे संसाधन सरकार के पास उपलब्ध हैं तो उसका बेहतर उपयोग सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली के लिए किया जाना चाहिए। वैसे तो स्वास्थ्य के स्तर पर गुणवत्तापूर्ण सेवाओं का अभाव पूरे विश्व में है लेकिन विकसित देशों में स्वास्थ्य पर अपने बजट का बहुत बड़ा हिस्सा खर्च किया जाता है जिससे वहाँ के स्वास्थ्य सूचकांक में बढ़ोतरी हो जाती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानकों के अनुसार विश्व में एक हजार लोगों पर एक डॉक्टर होना आवश्यक है और भारत में सत्रह सौ लोग पर एक डॉक्टर उपलब्ध है और यही स्थिति सन् 2016 में प्रति व्यक्ति की लिए तय साढ़े तीन बैडों की है कि यहाँ पर केवल 1.3 प्रति व्यक्ति बिस्तर उपलब्ध हैं।

भारत के स्वास्थ्य के सांस्कृतिक ऐतिहासिकपरिपेक्ष्य को देखना भी महत्वपूर्ण है क्योंकि आधुनिकता की देहरी पर आकर भी यहाँ के लोगों की चेतना में स्वास्थ्य को लेकर किसी तरह की सजगता नहीं है क्योंकि वे जीवन के भौतिक अस्तित्व की बजाय उसके परलौकिक अस्तित्व को ज्यादा महत्वपूर्ण मानते हैं और मनुष्य के बेहतर भविष्य की परिकल्पना निर्धारण में पुनर्जन्म और नियतिवाद का महत्वपूर्ण स्थान होता है। इसलिए यहाँ के लोगों में श्रम प्रधान जीवन होने के बावजूद भी स्वास्थ्य को प्राकृतिक उपचारों से भी नहीं जोड़ा गया। इसकी संलग्नता दिखाई देती है ब्राह्मणवादी आर्थिक संरचना में जहाँ पर किसी भी प्रकार के अस्वास्थ्य के उपचार को एक निश्चित फीस जिसे ‘दक्षिणा’ कहा जाता है उसे देकर प्राप्त किया जा सकता है। जब भी समाज में स्वास्थ्य पर चर्चा होती तो उसका सांस्कृतिक पक्ष अंत में ब्राह्मणवाद के पोषक की भूमिका निभाता। इसका एक प्रभाव यह हुआ कि लोग राज्य से सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं की माँग करने और चुनावी राजनीति में स्वास्थ्य एक जन अधिकार के रूप में सामने आने से वंचित हो गया, पूरे चक्र में कुछ लोग ब्राह्मणवादी संस्कृति की पोषक और लाभकारी पक्षों की भूमिका में उपस्थित थे तो कुछ उसकी पूर्ती के पक्षधर छोटे घटकों के रूप में थे। दलित स्त्री के जीवन में इसका विपरीत प्रभाव इसलिए पड़ा क्योंकि वह ब्राह्मणवादी संस्कृति के पोषक तत्वों में होने की बजाय उसके शोषितों में से थी और वह किसी भी प्रकार से उसके छोटे पक्षधर घटकों में भी नहीं थी।



दलित स्त्री की सांस्कृतिक अवस्थिति ही ऐसी हैकि वह सभी परम्परावादी जकड़नों की अंतिम भुक्ता होती है। यही स्थिति स्वास्थ्य सेवाओं की हुई क्योंकि जब दलित पितृसत्ता के सभी अत्याचारों और अवसादों से उत्पन्न स्थिति की पीड़ायें झेलती है। विवाह संस्था जिस तरह से भारतीय समाज में जकड़नों से युक्त है वह स्त्री के स्वास्थ्य के भविष्य को निर्धारित कर देती है। बाल विवाह, बेमेल विवाह आदि सामाजिक अभिशापों के कारण देश में स्वस्थ गर्भवती प्रतिशत बहुत कम पाया जाता है। स्त्री का स्वास्थ समय के दो बिंदुओं पर आकर निर्धारित होता है और पितृसत्ता में वह हमेशा उसके मानवीय अधिकारों के विपरीत ही जाता है। इस व्यवस्था में पहला बिंदु स्त्री का पैदा होना है जहाँ पर पिता के घर में उसको प्राप्त होने वाले भोजन, खेलकूद और विकास के अन्य अवसर सामाजिक स्तरीकरण में सबसे नीचे के पायदान पर चले जाते हैं। घर में उसे सबसे बाद और बचा हुआ खाना दिया जाता है। बीमारी की स्थिति में भी लड़कों को तो अस्पताल में ले जाया जाता है और लड़कियों को झाड़-फूक के हवाले करके उनके जीवन के प्रति लापरवाही बरती जाती है।

दूसरा बिंदु आता है स्त्री की शादी का जिसमेंउसकी किसी प्रकार की सहमति लिए बिना उसे अपरीचित लोगों के बीच भेज दिया जाता है जहाँ निर्णय लेने में उसकी भागीदारी तो दूर की बात है, उसकी परेशानियों को ठीक से सुनने वाला भी कोई नहीं होता। उसे देह के उपभोग और बच्चा पैदा करने वाली मशीषीन के रूप में देखा जाता है। इसी व्यवस्था का परिणाम है, ‘‘42.2प्रतिशत भारतीय महिलाएं गर्भावस्था की शुरुआत में कम वज़न की होती हैं। इसका मतलब है कि उनका भार सूचकांक 18.5 से कम रहता है जो, जीर्ण ऊर्जा की कमी के लिए, खाद्य व कृषि संगठन द्वारा बताई गई न्यूनतम सीमा है। कम वज़न वाली गर्भवती महिलाओं में यह दर दुनिया के गरीब और कम विकसित क्षेत्रों की तुलना में भी बहुत ज्यादा है, सब-सहारा अफ्रीका के गरीब देशों में गर्भावस्था की शुरुआत में केवल 16प्रतिशत महिलाएँ ही कम वज़न की होती हैं।’’ भारत की स्त्रियाँ जब गर्भावस्था में ही कम वज़न की होती है तो गर्भ के बाद तो निश्चित रूप से उनके पोषण पर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया जाता है वे जल्दी ही कैल्षियम की कमी की षिकार हो जाती हैं जिसके कारण इन्हें हड्डियों और दाँतों के बहुत रोगों का सामना करना होता है।

चूँकी दलित स्त्रियाँ अधिकांश खेत मजूदरी जैसे असंगठित क्षेत्र के कामों में लगी होती हैं जहाँ पर किसी प्रकार की प्रसुति सुविधाओं के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता है। वे बच्चा पैदा होने के कुछ समय बाद ही काम पर जाने को मजबूर हो जाती हैं जहाँ पर भारी मेहनत और पोषण के अभाव में वे कई तरह की बीमारियों से ग्रसित हो जाती हैं। घर में मिलने वाले पोषण की स्थिति भी उसकी द्वारा पैदा किये गए बच्चे के जेंडर पर निर्भर करती है अगर लड़का होता है तो कुछ पोषण युक्त भोजन मिलने की संभावनाएँ हो जाती हैं क्योंकि दलित पितृसत्ता को अपना वंश चलाने के लिए लड़के की आवश्यकता होती है। जबकि लड़की होने पर जच्चा और बच्ची दोनों के प्रति एक रूखापन पैदा हो जाता है। इसे ‘अशुभ’ मानकर परिवार के लिए हानिकारक माना जाता है क्योंकि लड़की के विवाह में दहेज देना होता है जबकि लड़के के विवाह में दहेज प्राप्त होता है। यह स्थिति भारत में आम है जो सवर्ण परिवारों में भी पाई जाती है क्योंकि वहाँ पर भी पितृसत्ता उसी तरह से सभी कार्य-व्यवहारों को नियंत्रित करती है। लेकिन दलित स्त्रियों और सवर्ण स्त्रियों के गर्भावस्था और बच्चा पैदा होने के बाद की स्थितियों में एक महत्वपूर्ण अंतर यह है कि दलित स्त्रियों को गरीबी के कारण काम पर जाने की मजबूरी में जीना पड़ता है जहाँ पर सामान्यतः गाँवों में जमींदार और शहरों में ठेकेदार उनसे कठोर परिश्रम करवाते हैं। वहाँ किसी तरह की सुविधाओं का होना तो दूर कुछ समय के लिए छाया में सुस्ता भी लिया जाता है जो जमींदार और ठेकेदार के प्रतिनिधियों की डाँट पड़ती है और दिहाड़ी काट लेने का संकट हरपल की मानसिक परेषानी बनकर उपस्थित रहता है। अपने नवजात शिशु के प्रति लगाव से वे इतनी जुड़ी हुई होती हैं कि काम करते हुए भी हरपल उस पर ध्यान रहता है। जबकि सवर्ण स्त्रियों को एक तो घर से बाहर काम करने नहीं जाना पड़ता है जिससे वे उस कठिन मेहनत से बच जाती हैं। दूसरा उस पूरी मानसिक प्रताड़ना का शिकार भी नहीं होती हैं। फिर भी उन्हें पितृसत्ता के द्वारा पैदा किये गए सभी उत्पीड़नों को सहन करना पड़ता है। उन्हें बाहर तो मजदूरी नहीं करनी होती लेकिन एक घरेलू कामगार के रूप में अपने ही घर का सारा काम करना होता है जिससे उसके स्वास्थ्य पर भी विपरीत असर पड़ता है।

दलित स्त्री को प्रसव काल के दौरान मजदूरी औरघर का कार्य दोनों ही करने होते हैं तो उसको थकान अधिक होती है और अधिक ऊर्जा और पौषटिक आहार की आवश्यकता होती है जो उन्हें उपलब्ध नहीं हो पाती हैं। एक तो पहले से ही आर्थिक स्थिति इतनी खराब होती है और फिर शिशु के पैदा होने के बाद निभाई जाने वाली विभिन्न रस्मों और उनमें दिये जाने वाले उपहारों का इतना अधिक आर्थिक दबाव होता है जो केवल स्त्री को ही सहन करना पड़ता है। पुरुष को इसके बारे में बताने पर वह कह देगा कि इनकी कोई आवश्यकता नहीं है और फिर वह ही यह भी कह देगा कि मेरे रिश्तेदारों को उचित उपहार न देकर मेरा अपमान किया है। यह एक तरह से मानसिक उत्पीड़न का दौर भी होता है। उपहारों से किसी को भी खुष नहीं किया जा सकता क्योंकि यह उपहार अपने मन से देने वाले उपहार न होकर एक सामाजिक दबाव होते हैं जो हर परिस्थिति में दिया जाना आवश्यक है। अभी जिस तरह से आधुनिक बाजार का विस्तार हुआ है उसमें यह उपहार रूपी सामाजिक उत्पीड़न ने अधिक व्यवस्थित और एकरूपता का स्परूप धारण कर लिया है। इन्हें राजस्थान की स्थानीय भाषा में ‘लाग’ कहा जाता है यही उसी प्रकार से है जैसे राजाशाही व्यवस्था के दौरान राज परिवार हर उत्सव और विलासिता के लिए जनता से वसूल की जाती थी। इनमें अन्तर सिर्फ इतना है कि सामाजिक व्यवस्था के तौर पर स्थापित है और वह अधिकांश रूप से स्त्रियों को ही निभानी होती है। इस ‘लाग’ का एक बड़ा पक्ष पुराहितवाद को समर्पित हो जाता है, कुछ हिस्सा परिवार के मुखियाओं को मिलता है और कुछ हिस्सा स्त्रियों को मिलता है। पहले दोनों पक्षों को मिलने वाला हिस्सा अधिकांश अर्थ के स्वरूप में होता है। स्त्रियों को दिया जाने वाला भाग उन सौन्दर्यपरक आयामों को पूरा करने वाला होता है जो पितृसत्ता द्वारा निर्मित किये जाते हैं। अर्थात पूरी ‘लाग’ का स्वरूप ब्राह्मणवादी पितृसत्ता के अनुकूल होता है। यहाँ पर ‘स्त्री ही स्त्री की दुश्मन है’ जैसे मुहावरे भी कई स्त्रीवादियों द्वारा सुने जा सकते हैं लेकिन मेरा मानना है कि यहाँ पर स्त्री और पुरुष की बजाय वह मानसिकता अधिक महत्वपूर्ण हो प्रभावी होती है जिससे वे संचालित होते हैं। स्त्रियाँ भी उसी मानसिकता के तहत ऐसा व्यवहार करती हैं। देखा जाये तो पुरुष को इस पितृसत्तात्मक व्यवस्था से बहुत अवसर और लाभ मिले हैं लेकिन उसका मन और विवेक भी तो समानता और बराबरी के उन्मुक्त समाज में अपने मानवीय विकास को उच्चतम स्तर तक ले जाने को करता ही है। वह अपनी प्रकृति से तो प्रेम, शांति और बराबरी में जीना चाहता है, यह व्यवस्था ही उसे इस सुनहरे भविष्य की तरफ जाने से रोकती है।



नेशनल फैमिली हैल्थ सर्वे के अनुसार आज देश में 70.4प्रतिशत दलित स्त्रियों की स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुँच ही नहीं बन पा रही है। स्वास्थ्य सुविधाओं के अभाव के साथ उन्हें स्वास्थ्य के लिए बाहर जाने की अनुमति नहीं होना भी इसका एक कारण हैं।

इन सभी कारणों के उपस्थित होने और पूरी तरह से लोगों के जीवन को प्रभावित और नियंत्रित करने के उपरांत राज्य की भूमिका का विश्लेषणआवश्यक है। राज्य ने किन तरीकों से अंधविश्वासों को समाप्त करने की कोशिश की है, बेहतर स्वास्थ्य के लिए दलित स्त्रियों के लिए बजट में क्या प्रावधान किये गये हैं, उनका क्रियांवन कितना हुआ है आदि ऐसे प्रमुख प्रष्न हैं जो वर्तमान संकटों को स्पष्ट करने के साथ भविष्य की एक रूपरेखा भी सामने रखते हैं। यह जिम्मेदारियाँ राज्य की इसलिए हो जाती हैं कि संविधान का लक्ष्य ही एक समाजवादी पंथनिरपेक्ष लोकतांत्रिक राज्य की स्थापना करना है और संविधान के अनुच्छेद 46 में यह स्पष्ट किया गया है कि कमजोर वर्गों की शिक्षा और आर्थिक हितों का विशेष ध्यान रखकर उन्हें प्रोत्साहित करेगा। खासकर अनुसूचित जाति और जनजाति का, उन्हें सभी प्रकार के शोषण से बचायेगा और सामाजिक अन्याय से उनकी रक्षा करेगा। इस का पूरी तरफ से प्राप्त् न कर पाने के विभिन्न कारणों में एक कारण यह भी है कि भारतीय राजनीति में जाति की भूमिका समाज में जाति की भूमिका की तरह की प्रभावित रही। राजनीति समाज से आगे चलकर उसे परिवर्तन के लिए प्रेरित करने में असफल रही। जहाँ आवश्यकता हुई वहाँ पर जाति का अपने पक्ष में उपयोग कर लिया और अन्य जगहों पर स्वयं को जातिवाद से मुक्त घोषित किया। भारतीय राजनीति में यह ‘सहूलियत की समझदारी’ का जो प्रतिमान विकसित हुआ उसका इतना अधिक विकेंद्रीकरण हुआ कि हर सार्वजनिक सवालों पर जाति का अपनी सहूलियत के अनुसार उपयोग होने लगा।

सन् 2017-18 के केंद्रीय बजट में दलित आदिवासीमहिलाओं के लिए कुल रुपये 2,322 करोड़ रुपये आवंटित किये गए जो कुल बजट का यह लैंगिक बजट सिर्फ 0.11प्रतिशत है।7   दलित स्त्रियों के लिए इतनी कम मात्रा में बजट के आवंटन में सारी सुविधाएँ शामिल होती हैं जो उनके शिक्षा, स्वास्थ्य और अन्य सुविधाओं पर विशेष ध्यान देकर समाज की मुख्यधारा में लाने का प्रयास होता है। ऐसी स्थिति में उनके स्वास्थ्य के स्तर के ग्राफ को बहुत अधिक उठाये जाने की संभावनाएँ नहीं बनती हैं। बहुत से दलित कार्यकताओं की माँग है कि संख्या के आधार पर बजट का आवंटन होना चाहिए जो जितनी संख्या में है उसे उतना ही बजट दिया जाये। मेरा मानना है कि उत्पीड़ित तबकों को उनकी संख्या से दोगुना अधिक बजट का प्रावधान कम से कम होना चाहिए और स्वास्थ्य जैसे जीवन के प्रमुख सवालों पर तो इसमें कोई समझौता नहीं होना चाहिए। दोगुना इसलिए हो कि एक तो वर्तमान में उनके स्वास्थ्य तक पहुँच और विश्वास स्थापित करने में ही खर्च हो जायेगा और दूसरा भाग उन्हें उन्नत स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध कराने में लगाना होगा। समाज को अंधविश्वास से मुक्ति दिलाकर उन्हें वैज्ञानिक चेतना के प्रसार की तरफ ले जाने के प्रति राज्य के कोई विशेष प्रयास नहीं दिखाई देते हैं। ऐसे योजनाओं का भी पूर्ण अभाव है जो दलित स्त्री के कार्यस्थलों पर स्वास्थ्य के मानकों को निर्धारित और नियंत्रित करे क्योंकि वह कार्यस्थल पर शक्ति संरचना में घर से भी कमजोर हो जाती है और किसी प्रकार की सुविधाओं की माँग करने की बात तो दूर अपनी असहजता को भी व्यक्त नहीं कर पाती है। दलित स्त्रियों के कार्यस्थल उनके लिए भययुक्त और असुरक्षित होते हैं। वहाँ पर उस असंगठित क्षेत्र के बारे में श्रम कानूनों बनाकर राज्य को श्रमिकों के हितों को सुरक्षित रखना चाहिए। सामान्यतः होता ऐसा है कि असंगठित क्षेत्र में जमींदार और ठेकेदार की कोई जवाबदेहिता नहीं होती श्रमिक के प्रति और यह इसलिए नहीं होती के वे किसी कानून की परीधि में नहीं आते हैं।

यह राज्य के समक्ष बहुत बड़ी चुनौती है किभारत की जनसंख्या जिन विभिन्न भौगोलिक इलाकों के स्थिति हैं वहाँ के अपने कुछ प्राकृतिक संकट हैं। इन विविध संकटों के अनुरूप योजनाएँ बने और यह सुनिश्चित हो कि अगर मरीज स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुँच बनाने में संकट या चुनौती महसूस कर रहा है तो स्वास्थ्य सेवाएँ उनके घर तक पहुंचाई जाएँ। दलित स्त्रियों के बीच प्रचलित अंधविश्वास और अन्य परम्परागत धारणा को शिक्षा के माध्यम से तो तोड़ा जाए ही साथ ही, उन्हें एकविश्वास दिलाया जाए कि सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली किसी भी निजी स्वास्थ्य प्रणाली से कमजोर नहीं है। वहाँ पर अधिक योग्य चिकित्सक, मशीनें और दवाइयाँ उपलब्ध हैं और सरकार यह सब किसी विशेष लाभ के लिए ना करके अपने जिम्मेदारी निभाने के लिए कर रही है। उन्हें सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधा स्थलों पर सहजता अनुभव हो जो सभी असमानतापूर्ण व्यवहार को समाप्त करके भी स्थापित की जा सकती हैं। उन्हें ऐसा लगना चाहिए कि इन स्वास्थ्य केंद्रों पर उनके साथ बहुत सम्मानजनक व्यवहार होता है और यहाँ पर समाज में प्रचलित अन्यायकारी धारणाएँ उपस्थित नहीं हैं।
राज्य को आर्थिक असमानता को मिटाने के लिए संचालित होने वाली योजनाओं में दलित स्त्रियों पर विशेष ध्यान देना होगा। स्वास्थ्य स्थलों पर पहुँचने के बाद सबसे बड़ी चुनौती आती है कि जिस तरह की दवाइयाँ सुझाई जाती हैं वह सरकारी अस्पताल में उपलब्ध ही नहीं होती हैं। बाहर निजी दुकानों पर उनकी कीमतें इतनी अधिक होती हैं कि एक दवा लेने के बाद मरीज दोबारा अस्पताल की तरफ आता ही नहीं है। एक तो दलित स्त्रियाँ जब भी स्वास्थ्य सेवाओं के लिए स्वास्थ्य केंद्रों पर जाती हैं तो उन्हें काम से छुट्टी लेनी होती है जिसके कारण दिहाड़ी का आर्थिक नुकसान उठाना पड़ता है। वहीं जब दवाइयाँ भी निजी दुकानों से खरीदनी पड़ती हैं तो वे इस आर्थिक भार को सहन नहीं कर पाती हैं। इसलिए राज्य को स्वास्थ्य के निजीकरण को रोककर उसे पूरी तरह निशुल्क, पारदर्शी और सहज उपलब्धता स्थापित करनी होगी।

भारत में स्वास्थ्य के क्षेत्र में एक चुनौती चिकित्सकों का अभाव भी है और उसका कारण यह है कि सरकारी सेवाओं को चिकित्सकों को उचित वेतनमान और सुविधाएँ उपलब्ध न होने के कारण वे निजी क्षेत्र में चले जाते हैं। यह एक बहुत व्यापक प्रवृति के रूप में स्थापित हो चुका है। इस प्रक्रिया को रोकने के लिए आवश्यक है कि चिकित्सकों के वेतनमानों को बढ़ाया जाए और उन्हें ऐसी सुविधाएँ दी जाएँ कि वे सरकारी क्षेत्र में अपनी सेवाओं को अधिक प्रतिबद्धता और मन से प्रदान कर पायें। साथ ही, चिकित्सा के अध्ययन के लिए सरकारी मेडिकल कोलेजों की संख्या बढ़ाने और उनकी गुणवत्ता में सुधार की आवश्यकता है।



दलित स्त्री के स्वास्थ्य को बेहतर बनाने के लिएराज्य को अपनी संस्थाओं को मजबूत और कार्यकारी बनाना होगा और निजीकरण को रोकना होगा। साथ ही, जाति उन्मूलन के लिए प्रयासों की आवश्यकता है जहाँ पर लोगों की चेतना का विस्तार होकर वे विवेकवान बन सकें। नीति निर्माण के दौरान स्वास्थ्य की नीतियों में दलित स्त्रियों की भागीदारी और उनके कार्यस्थलों पर सुविधाओं की सुनिश्चित करना भी आवश्यक है। 

संदीप कुमार मील, शोधार्थी, राजनीति विज्ञान विभाग, राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर. सम्पर्क: 9636036561


 सन्दर्भ : 
1. http://www.who.int/about-us
 2. http://worldpopulationreview.com/countries/median-age/
 3. काँचा इल्लैया, हिन्दुत्वमुक्त भारत: दलित-बहुजन-सामाजिक-आध्यात्मिक और वैज्ञानिक क्रांति, सेज पब्लिकेशन इंडिया प्रा. लिमिटेड, नई दिल्ली,      2017, पृ.4।
 4. http://thewirehindi.com/34320/average-dalit-women-die-younger-than-       higher-caste-women-says-un-report/
 5.http://www.rightlivelihoodaward.org/fileadmin/Files/PDF/Literature_Recipients/Manorama/Background_Manorama.pdf
6. डियाने काफ़े, सामाजिक पदक्रम में हैसियत, गर्भवती महिलाओं का स्वास्थ्य और देश का विकास, सेंटर फॉर दि एडवांस स्टडी ऑफ़ इंडिया (पेनिसिलिया विश्वविद्यालय का एक चैप्टर)
7. दलित-आदिवासी बजट विश्लेषण 2017-18, राष्ट्रीय दलित मानवाधिकार अभियान-दलित आर्थिक अधिकार आंदोलन

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समाज का नजरिया बदलने वाली फोटोग्राफर संगीता महाजन

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पुष्पेन्द्र फाल्गुन 

बोलती तस्वीरों की फोटोग्राफर संगीता महाजन की फोटोग्राफी और उनके इस सफ़र की कहानी कह रहे हैं संवेदनशील साहित्यकार और पत्रकार पुष्पेन्द्र फाल्गुन. आइये समझते हैं संगीता महाजन की फोटोग्राफी यात्रा को कुछ शब्दों कुछ तस्वीरों के जरिये:  

लंबी-चौड़ी सड़कें, चकाचक सड़कें, लकदक सड़कें, विकास के नाम पर सबसे ज्यादा यही चित्र आम तौर पर आँखों के सामने रखा जाता है, लेकिन इन्हीं चित्रों के सहारे मशहूर फोटोग्राफर संगीता महाजन ने वर्तमान सरकार द्वारा किए जा रहे विकास एवं उसकी चपेट में आयी स्थानीय अर्थव्यवस्था और सामाजिकता की बदहाली को न सिर्फ सबके समक्ष रखा है, बल्कि अपने छायाचित्रों के माध्यम से आमजन के मन-मस्तिष्क में यह सवाल उत्पन्न करने में कामयाबी हासिल की है कि यह तथाकथित विकास सर्वसमावेशी विकास नहीं है.
                             

 यह विकास कुछ धन्नासेठों और सफेदपोशों का ही विकास है, समाज के शेष वर्ग इस विकास से सिर्फ और सिर्फ बुरी तरह प्रभावित होंगे. संगीता महाजन की यह तस्वीरें आमजन को यह सन्देश दे रही हैं कि यदि इस तथाकथित विकास का विरोध नहीं हुआ तो इस देश का आम नागरिक न सिर्फ बदहाल होगा बल्कि बचे रहने की लाचारी में खुद अपने ही लोगों के खिलाफ खड़े होने पर मजबूर हो जाएगा.




संगीता महाजन, इसी तरह के छायाचित्रों के लिए पूरे देश में ख्यात हैं. जन-सरोकार उनके फोटोग्राफी का केन्द्रीय विषय है. सरोकारीय फोटोग्राफी कैसे आमजन को व्यवस्था के प्रति संदेह, सवाल और प्रतिरोध के लिए प्रेरित कर सकती है, संगीता महाजन के छायाचित्र इसकी मिसाल हैं.



अपने समय के बरक्स जो सवाल खड़े होते हैं,एक फोटोग्राफर होने के नाते संगीता जी उनसे जूझती हैं और उन्हें अपने छायाचित्रों का विषय बनाती हैं. उनकी वर्तमान हॉकर सीरीज उसी सिलसिले को आगे बढ़ा रही है. इन छायाचित्रों में आम और खास का भेद इतना स्पष्ट रेखांकित है कि समाज के आम इंसान को यह तय करने में देर नहीं लगती कि उसे किस तरफ खड़ा होना चाहिए और क्यों?



फोटोग्राफी विथ विज़न
संगीता महाजन ने फोटोग्राफी को अपनीअभिव्यक्ति का माध्यम इसलिए बनाया कि उन्हें लगता है कि यह एकमात्र ऐसी विधा है जो विसंगतियों के सारे आयाम देखने वाले के समक्ष खोलकर रख देती है. छायाचित्रों को देखने वाला किसी भी छायाचित्र से तात्कालिक और दीर्घकालिक, दोनों ही अवस्थाओं में जुड़ता है, यह उसके मानवीय स्वभाव के अनुकूल है. शायद इसीलिए कला-माध्यमों में सबसे नया होने के बावजूद पूरी दुनिया में फोटोग्राफी ने अपने लिए दीगर कला माध्यमों के बनिस्बत पुख्ता जगह बना ली है. फोटोग्राफी की इसी विशेषता को संगीता महाजन फोटोग्राफरों के लिए चुनौती मानती हैं. वह कहती हैं, ‘कैमरे से खींची जाने वाली हर तस्वीर पहली ही बार खींची जाती है, चाहे फोटोग्राफर ने कितने ही फोटो खींचे हो, लेकिन हर बार जब वह फोटो खींचता है तो दरअसल पहली बार ही वह फोटो खींच रहा होता है, फोटो पहले दिमाग में क्लिक होती हैं, बाद में कैमरे में, इसलिए फोटोग्राफर की दृष्टि और उसका नजरिया साफ़ होना चाहिए, नहीं तो वह इस कला-माध्यम के साथ न्याय नहीं कर पाएगा.’

संगीता महाजन 


महिलाएं ही उम्दा फोटोग्राफर

संगीता महाजन मानती हैं कि फोटोग्राफीविधा के साथ महिलाएं ज्यादा न्याय कर पाती हैं, क्योंकि इस विधा में कला, संवेदना, संयम, कौशल, पारदर्शिता और ईमानदारी की एक ही समय पर जरुरत होती है, महिलाएं कुदरती तौर पर इन गुणों की सम्यक संवाहक हैं, इसलिए जब उनकी आँख कैमरे की आँख बन जाती है तो वह वो सब कुछ दिखा पाती हैं, जो आम तौर पर हमारे आग्रहों की वजह से हमसे देखने से छूट जाता है. संगीता महाजन का मानना है कि महिलाओं के हाथ में फोटोग्राफी का भविष्य उज्ज्वल है.



आजीविका का साधन

स्नातक होने के बाद संगीता महाजन ने फोटोग्राफी को ही अपनी आजीविका का साधन बनाया. पुणे में एक वर्कशॉप के दौरान उनका परिचय एक महिला फोटोग्राफर से हुआ तभी उनके मन में इस माध्यम को आजीविका बनाने का ख्याल आया. वह कहती हैं,’ साम्यवादी विचारों से जुड़ी होने के नाते मुझे ऐसे ही किसी माध्यम की तलाश थी, जिससे आजीविका भी चले और सरोकारों को जीने में भी आसानी हो. फोटोग्राफी ने मुझे दोनों मौके मुहैया कराए.’ अपना पहला कैमरा उधार लेकर उन्होंने नागपुर के एक सांध्य दैनिक के लिए काम शुरु किया. काम इस आधार पर मिला था कि तस्वीर छपेगी तो पारिश्रमिक मिलेगा.




13 अप्रैल 1993 को उनका पहला चित्रउस सांध्य दैनिक में छपा, फिर इसके बाद उन्होंने पीछे मुड़ के नहीं देखा. 1994 में नागपुर में अपने अधिकारों के लिए प्रदर्शन कर रहे आदिवासी-गोवारी समाज के जन-समुदाय पर पुलिस ने बेंत प्रहार किया, इससे भगदड़ मच गयी और 113 निर्दोष गोवारी स्त्री-पुरुष, बुजुर्ग-बच्चे मारे गए. मारे गए लोगों में महिलाएं और बच्चे ही ज्यादा थे. संगीता महाजन उस प्रदर्शन को कवर करने गयी थीं, सारा मंजर उनकी सामने ही घटा था, उन्होंने उन दर्दनाक दृश्यों को अपने कैमरे में कैद किया. कुछ चित्र इतने मार्मिक थे कि जिन्हें देखकर कठोर से कठोर दिल मनुष्य का हृदय पिघल जाए. गोवारी हत्याकांड के उनके चित्र लन्दन से प्रकाशित होने वाले दैनिकों लन्दन टाइम्स और लन्दन इंडिपेंडेंट में प्रकाशित हुए.



नागपुर की एक छायाचित्रकार के छायाचित्र लन्दन के अख़बारों में छपे तो पूरे देश का ध्यान उनकी फोटोग्राफी की तरफ गया. 1995 में नागपुर से एक अंग्रेजी दैनिक का प्रकाशन शुरु हुआ. संगीता महाजन को उसमें पक्की नौकरी मिल गयी. हालाँकि नौकरी देने के पहले संपादक ने वही रटे-रटाए सवाल पूछे थे कि क्या एक महिला होने के नाते देर रात तक काम कर पाएंगी? काम ईमानदारी और निष्ठा से करेंगी? आदि. 2001 में उक्त अख़बार ने नागपुर से अपना प्रकाशन स्थगित किया तो संगीता महाजन का पुणे स्थानान्तरण हुआ, लेकिन उन्होंने पुणे जाने की बजाय नागपुर को ही अपनी कर्मभूमि बनाए रखने का फैसला किया.



व्यावसायिक फोटोग्राफी

नौकरी छूटने के बाद संगीता महाजन ने व्यावसायिक फोटोग्राफीका रुख किया. व्यावसायिक फोटोग्राफी पुरुषों के वर्चस्व का क्षेत्र है. प्रेस फोटोग्राफर के तौर पर भी चुनौतियाँ थी लेकिन व्यावसायिक फोटोग्राफर के तौर पर अब सबसे बड़ी चुनौती पुरुष के आग्रही मानसिकता की थी, लेकिन संगीता महाजन ने अपनी सूझबूझ और समझ से जल्दी ही इस क्षेत्र में भी अपनी पहचान स्थापित कर ली. विजन और मानवीय गरिमा को महत्व देने से उनकी व्यावसायिक फोटोग्राफी ने जल्दी ही सभी का ध्यान आकृष्ट किया. बहुत कम समय में वह नागपुर एवं मध्य भारत के एक मुख्य व्यावसायिक फोटोग्राफर के तौर पर पहचानी जानी लगीं.




महिलाओं को इस विधा से जोड़ने के उपक्रम

संगीता महाजन कहती हैं, ‘मानवीयताछायाचित्रों का एक प्रमुख तत्व है और महिलाएं ही इस तत्व को बखूबी इस माध्यम में निखार सकती हैं. क्योंकि समाज के विसंगतियों का सबसे ज्यादा शिकार महिलाएं ही होती हैं इसलिए मानवीय दृष्टिकोण उनमें पुरुषों के मुकाबले ज्यादा होता है, अतः फोटोग्राफी के जरिए यदि महिलाएं खुद को अभिव्यक्त करती हैं तो विसंगति, शोषण एवं अत्याचार मुक्त समाज बनाने की गति तेज हो सकती है.’


महिलाओं को इस विधा से जोड़ने के लिएसंगीता महाजन फोटोग्राफी की कार्यशालाएं आयोजित करती रहती हैं. इस समय समूर्ण महाराष्ट्र भर में उनकी कार्यशालाएं आयोजित हो रही हैं. अत्यल्प शुल्क में महिलाओं के साथ नयी पीढ़ी के युवाओं को वह फोटोग्राफी सिखा रही है, ताकि नयी पीढ़ी संवेदना के इस कला-माध्यम में खुद को अभिव्यक्त करते हुए समाज की बेहतरी की दिशा में सक्रिय हो सके.




अनेक पुरस्कार और प्रदर्शनियां

संगीता महाजन को उत्कृष्ट फोटोग्राफी के लिए अनेक पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है. इसमें प्रतिष्ठित के.के. मूस फाउंडेशन पुरस्कार, स्वरवेध पुरस्कार, फूजी वर्ल्डकप क्रिकेट अवार्ड शामिल हैं. संगीता महाजन के छायाचित्रों की अनेक एकल एवं सामूहिक प्रदर्शनियां भी आयोजित हो चुकी हैं और सभी प्रदर्शनी चर्चित हुई हैं.

साहित्य और पत्रकारिता में समान रूप से गतिमान रहे पुष्पेन्द्र फाल्गुन नागपुर रहकर फ्रीलांस करते हैं. संपर्क: pushpendrafalgoun@gmail.com


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कैथलिक पादरी के खिलाफ आगे आये महिला संगठन: पादरी पर है नन के यौन शोषण का आरोप

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स्त्रीकाल डेस्क 

पिछले दिनों केरल के कई पादरियों पर ननों सेयौन शोषण के आरोपों के बीच कई महिला संगठनों ने जालन्धर के बिशॉप फ्रांको मुलाक्कल को हटाये जाने की मांग दिल्ली में आर्क बिशॉप से किया है. महिला संगठनों ने लिखा है कि यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि आरोपकर्ता नन के चरित्र पर ही सवाल उठाये जा रहे हैं. इस तरह के प्रयास को उन्होंने पीडिता के ऊपर अनावश्यक दवाब लाने का प्रयास बताया है.



सामाजिक कार्यकर्ताओं ने आर्क बिशॉप को लिखे पत्र मेंइस बात पर भी चिंता जताई कि आरोपी बिशॉप को अभी तक उनके पद से हटाया नहीं गया है, जो उनके अनुसार  प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत के खिलाफ है और न्याय मिलने को हर संभव बाधित करेगा. अपने पावर का इस्तेमाल करते हुए आरोपी बिशॉप जांच को प्रभावित कर सकता है, पीडिता को धमका सकता है या गवाहों को प्रभावित कर सकता है.

आर्क बिशॉप को पत्र लिखने वाली सामाजिककार्यकर्ताओं और ऐसे संगठनों में सईदा हमीद, मोहिनी गिरी (पूर्व सदस्य एनसीडवल्यू), गार्गी चक्रवर्ती, , एनी राजा (एनएफआईडवल्यू), शबनम हाशमी, पद्मिनी कुमार मरियम डवले (आयडवा) सहित कई संगठन और सामाजिक कार्यकर्ता शामिल हैं.

गौरतलब है कि ऐसे आरोपों का एक वीडियो भीकेरल में वायरल हुआ था, जिसमें कई पादरियों पर आरोप लगे हैं. इन दिनों धार्मिक गुरुओं के ऐसे मामले बड़ी संख्या में रिपोर्ट हो रहे हैं. यह सडांध सभी धर्मों में फैला है.

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