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मेडिकल की छात्रा का सुसाइड नोट शिक्षा और व्यवस्था पर तीखा सवाल

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12 जून को इंदौर के इंडेक्स मेडिकल कॉलेज में एक छात्रा ने आत्महत्या कर ली. उसने यह निर्णय लेने के पहले जो आख़िरी नोट लिखा है वह इस देश की शिक्षा-व्यवस्था की अमानवीयता को उजागर करता है. पढ़ें डॉ स्मृति लहरपुरे का मार्मिक पत्र: 


'मुझे माफ कर देना मम्मी, स्वामी और सूर्या, मै डॉ स्मृति लहरपुरे पूरे होश हवास में लिख रही हूं न ही कभी मैने कोई नशे या दवाई का सेवन ही किया है। सबसे पहले मै अपनी माँ और भाईयों से माफी चाहती हूं कि मैं ऐसा कदम उठा रही हूं क्योंकि तुम तीनों ने हर विपरीत परिस्थितियों में मेरा साथ दिया, मै इन लोगों ने और नहीं लड़ सकती इसलिए मुझे माफ कर देना।

मेरी मौत के लिए सीधे तौर पर इंडेक्स कॉलेज के चैयरमैन सुरेश भदौरिया और उनके कॉलेज का मैनेजमेंट है, इनमें मुख्यरूप से डॉ के के खान हैं क्योंकि इन दोनों के द्वारा मुझे लगातार प्रताडित किया जा रहा था। मैने जून 2017 में नीट परीक्षा के माध्यम से ज्वाइन किया था। काउंस्लिंग के दौरान मुझे जो फीस बताई गई थी उसके अनुसार टयूशन फीस 8 लाख 55 हजार और होस्टल फीस 2 लाख थी। इसके बाद जब मैं कॉलेज में ज्वाइन करने आई तो इंडेक्स कॉलेज प्रबंधन ने मुझसे कॉशन मनी और एक्सट्रा करिकुलर एक्टीविटी के नाम पर फिर 2 लाख मांगे। चूंकि मैं मध्यमवर्गीय परिवार से हूं इसलिए अतिरिक्त फीस नहीं चुका सकती थी लेकिन नीट परीक्षा के बाद बामुश्किल मिला पीजी करने का यह अवसर हाथ से न निकल जाए इसलिए मैने 2 लाख का फिर लोन लिया, इसके बाद जैसे ही मैं ज्वाइन करने पहुंची कॉलेज प्रबंधन ने फिर दो लाख मांग लिए इसके बाद रातभर के प्रयास के बाद मैने अपनी सीट खोने के डर से मैंने यह व्यवस्था भी की लेकिन कॉलेज ने टयूशन फीस 8 लाख 55 हजार से 9 लाख 90 हजार कर दी और सभी छात्रों से यह फीस जमा करने को बोला जाहिर से अचानक एक लाख 35 हजार की फीसवृद्धि सहन करना हर किसी के लिए मुश्किल था इसलिए हम सभी लोग इसके खिलाफ जबलपुर हाईकोर्ट गए। इसके बाद कॉलेज प्रबंधन ने मुझे व्यक्तिगत तौर पर प्रताड़ित करना शुरु कर दिया इसके अलावा फोन पर भी मुझे यह केस वापस लेने के लिए धमकाया जाने लगा। इसके बाद कोर्ट ने इंडेंक्स कॉलेज को निर्धारित फीस लेने का आदेश दिया लेकिन इसके बाद फिर अगले साल 2017 में फिर 9 लाख 90 हजार मांगने लगे जो मैने जमा नहीं कर कोर्ट के अादेशानुसार 8 लाख 55 हजार ही जमा किए, इस मामले में कोर्ट जाने पर कॉलेज प्रबंधन हमे लगातार प्रताडि़त करने लगा खासकर एचओडी डॉ खान, इसके बाद इसी मामले में केस वापस लेने की शर्त पर एचओडी डॉ खान ने अमानवीय व्यवहार करते हुए सार्वजनिक तौर पर हमे 2 से 3 महिने तक ओटी और डिपार्टमेंट से बाहर निकाले रखा। इसके बाद हमारा स्टायपेंड भी काट लिया गया और बिना कारण हमपर हजारों रुपए का फाइन लगाया जाने लगा। कॉलेज प्रबंधन हमे इस समय का स्टायपेंड कभी नहीं देना यदि कॉलेज में उस दौरान मेडीकल काउंसिल का दौरा और इनकम टैक्स का छापा नहीं पड़ता।

मेरी एचओडी के के खान मुझे व्यक्तिगत तौर पर प्रताडि़त करती थीवह यह सोचती थी कोर्ट केस करने में मेरी सक्रिय भूमिका है दरअसल वह मानसिक रूप से बीमार है इसलिए वह सायकिक रोग का इलाज भी करवा रही है वह मेडीकल कॉलेज के इस प्रोफेशन के लिए फिट नहीं है खासकर एनेस्थेटिक ब्रांच के लिए। वह हर किसी को प्रताड़ित करती है पर मैं नहीं जानती कि उसे मुझसे क्या प्रॉब्लम रहती थी वह मेरे लीव एप्लीकेशन पर साइन नहीं करती थी और मेरे लीव पर होने पर एचआर विभाग से मुझपर हजारों रुपए का फाइन लगवाती थी। हम पीसी स्टूडेंट होने के बावजूद भी यहां प्रताड़ित हो रहे हैं हमारा ड्यूटी टाइम सुबह 8 बजे से रात 8 बजे तक है इसके बावजूद दिन में चार बार एटेंडेंस के लिए पंच करना पड़ता है, हद तो यह है कि एक दिन की लीव पर एचओडी डॉ खान ने मुझपर 4500 से 6000 रुपए का फाइन लगाया, जिसपर पहले से ही भारी लोन हो उसके लिए यह राशि भर पाना संभव नही था। कुछ दिनों पहले मैने थर्ड ईयर की फीस जमा करने को बोला तो फिर फीस 9 लाख 90 हजार कर दी गई जिसे जमा करने से मैने मना कर दिया इस बारे में मैने डॉ अमोलकर को भी बताया था, इसके बाद चैयरमैन सुरेश भदौरिया ने मैनेजमेंट को उन सभी छात्रों से बकाया फीस वसूलने का आदेश दिया जिन्होंने कोर्ट के निर्देशानुसार फीस जमा की थी यह राशि तीन साल की प्रति छात्र चार लाख 5 हजार थी और किसी भी हालत में मैं बढ़ी हुई फीस जमा नहीं कर सकती थी। मेरे माता पिता पहले से ही बढ़ी हुई फीस के लिए रिश्तेदारों और दोस्तों से रुपए उधार ले चुके थे जिनके बस में यह राशि जमा करना संभव नहीं था। मेरी उम्र में अन्य इंजीनियरिंग लॉ और आर्ट सब्जेक्ट इतना कमा लेते हैं कि अपना खर्चा उठा सकें जबकि मैं सिर्फ अपने घरवालों पर ही निर्भर हूं, वह भी इसलिए कि मैं एक डॉक्टर हूं।

 मैने स्कॉलर और स्कूलिंग रेपुटेड कॉलेज गांधी मेडिकल  कॉलेज और सेंट्रल स्कूल से की है मैने इंडेक्स कॉलेज जैसा फर्जी संस्थान पहले कभी नहीं देखा था। यहां कोई इंफ्रास्ट्रक्चर और व्यवस्था डॉक्टरों और मरीजों के परिजनों के लिए नहीं है। इन्होंने अभी भी रिश्वत और धमकी देकर एमसीआई की मान्यता हासिल की है। मान्यता के दौरान मैने खुद इनके कंसलटेंट के फर्जी दस्तावेज और फर्जी साइन देखे हैं। ये लोग सिर्फ पीजी स्टूडेंट को प्रताडि़त करने में लगे हैं और खुद की नाकामी का आरोप हमपर लगाकर फीस बढ़ाते हैं और आए दिन हमारा स्टायफंड काटते रहते हैं। आधी रात को इनके इशारे पर शराब पीकर कुछ लोग स्टूडेंट के पास भेजे जाते हैं और लोग हमसे कोरे कागज पर साइन मांगते हैं। जो पीजी स्टूडेंट साइन करने से मना कर देता है उसपर अगले दिन मेडीकल सुप्रीटेंडेंट बिना कारण के हजारों रुपए का फाइन लगा देता है। यह असहनीय है मैं इतने इतनी प्रताड़ना और लूट सहते हुए इतने दबाव में काम और पढ़ाई नहीं कर सकती। इसलिए मैने इससे मुक्त होने का निर्णय लिया है मैं हमेशा इन लोगों से नहीं लड़ सकती।

मैं जानती हूं मैं सुरेश भदौरिया के सामने बहुत छोटी हूं पर मैं अपने माता पिता और परिवार को कर्ज और लोन के बोझ तले नहीं देखना चाहती। मेरी एक ही अंतिम इच्छा है कि सुरेश भदौरिया को इसके बदले में सजा मिलनी चाहिए और मेरे परिवार को मेरी पूरी फीस लौटाई जाना चाहिए। और मेरे साथ पढ़ने वाले पीजी स्टूडेंट से विनती है कि आखिर तक इकट्‌ठे रहकर एक दूसरे की मदद करते रहें। प्लीज इस कॉलेज को बंद करो जहां मरीजों की जिंदगी और कॉलेज स्टूडेंट के करियर का विनाश किया जाता हो।

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मुकेश मानस अपनी कविताओं में वामपंथी प्रवक्ता की तरह उपस्थित होते हैं

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अनुराधा कनौजिया

दलित लेखक संघ के तत्वावधान में मुकेश मानसके कविता संग्रह 'कागज़ एक पेड़ है'पर दिनांक 17 जून 2018 को एफ -19 मिडिल सर्कल, कनॉट  प्लेस दिल्ली में चर्चा-विमर्श का आयोजन किया गया।  इस अवसर पर साहित्यकार जगदीश पंकज ने  कहा कि  कवि मुकेश मानस वामपंथी प्रवक्ता के रूप में दिखाई पड़ते हैं। इनकी कविताओं में अम्बेडकरवाद और दलित वैचारिकी कहीं दिखाई नहीं देती। लेकिन कविताएं अपने विषय के उद्देश्यों को ज़रूर पूरा करती हैं। रजनी अनुरागी ने कहा कि कवि अपने आपसे जूझता हुआ दुनिया को देखता है। डॉ. गुलाब ने अपने वक्तव्य में कहा कि मुकेश की कविताओं में दलित आंदोलन की गूंज कम सुनाई पड़ती है। कविताएं डायरी लिखने जैसी प्रतीत होती है तथा कवि अंतर्मन की बातें करते हैं। संजीव कौशल ने अपने वक्तव्य में कहा कि कवि में खास तरह की चेतना दिखाई पड़ती है। उनकी कविताओं में चिंतन है तथा सरलता से विस्तार हासिल करती है। इसके अतिरिक्त इनकी कविताएं अतिवाद का दायरा तोड़ती हैं। मुकेश मानस ने अपने कविता संग्रह कागज़ एक पेड़ है से 14 कविताओं का पाठ किया। आलेखपाठ शीतल ने किया।



कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे हीरालाल राजस्थानी ने कहा कि मुकेश मानस अपनी कवियों में अतिवाद से अलग सामान्य जीवन को परिभाषित करते हैं। कवि की संवेदनशीलता जन-जीवन से लेकर प्रकृति के आंगन तक पहुंचती है। उन्होंने किसी विचार धारा का लेप अपनी कविताओं में नहीं लगने दिया। कवि सामान्य इंसान की आंख से दुनिया को देखता है। विशिष्ठ अतिथि के तौर पर डॉ. संतराम आर्य ने कहा कि कोरी कल्पनाओं के सहारे साहित्य को रचना अनुभवों की कमी को दर्शाता है। केवल कल्पना के सहारे दलित साहित्य नहीं रचा जा सकता।


विशेष उपस्थिति बजरंग बिहारी तिवारी, दिलीप कठेरिया, अजय नावरिया, अनुराधा कनौजिया, संजीव चंदन, कैलाश चंद चौहान और पुष्पा विवेक की रही। मंचसंचालन कर्मशील भारती ने किया। धन्यवाद ज्ञापन धनञ्जय पासवान ने किया।

अनुराधा दलित लेखक संघ से जुड़ी हैं 

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स्त्रीत्व और बाजार

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पूनम प्रसाद/सविता/पूनम कुमारी

उपभोगतावादी दौर में मनुष्य जिस मोड़ पर खड़ा है वहां बाजार ही बाजार हैं| कहने को तो बाजार का व्यापक विस्तार हो चुका हैं लेकिन वह व्यक्ति की जरूरतों को पूरा नहीं करता, वरन उसकी इच्छाओ को बढाने का काम करता हैं|



अपनी पारम्परिक परिभाषा के अनुसार – बाजारवादप्रबंधन की एक प्रक्रिया है, जिसका उद्देश बाजार की पहचान कराना और उपभोक्ताकी जरूरतों को पूरा कर, उसे संतुष्टि प्रदान करता है| लेकिन समकालीन दौर में बाजार ने अपनी यह  परिभाषा बदल ली है| अब वह अवसर पहचानने की जगह अवसर बनाता है, सही बाजार की पहचान करने की जगह, नए बाजार बनाता है| अतः यह कहा जा सकता हैं कि वह लोगों की मनोवृति बनाता है|

उदारवाद में व्यक्ति को उच्चत्तम स्थान दिया गया हैं| नव-उदारवाद की शुरुआत 1960 के दशक से मानी जाती हैं| नव-उदारवाद ने मुक्त-व्यापार,खुला बाज़ार और पश्चिमी लोकतान्त्रिक मूल्य और संस्थाओं को प्रोत्साहित किया|  नव-उदारवाद ने अंतरराष्ट्रीय सीमाओं को बौना  साबित कर बाजारवाद को एक विस्तृत रूप दिया| वैश्वीकरण एक तरह का समुंद्र मंथन है| और इसने वसुधैव कुटुम्बकम को चरितार्थ किया|

तकनीकी,आर्थिक और सांस्कृतिक परिस्थितियों ने वैश्वीकरण को उच्चतम स्तर पर पहुँचाया और यह माना जाता है कि वैश्वीकरण मनुष्यों के उद्देश्यों और अवसरों को निर्धारित कर रहा है साथ ही प्रभावित भी| कोई भी अवसर एक  स्थान पर न होकर वैश्विक स्तर पर है| भौतिकवाद ने वैश्वीकरण को शक्ति प्रदान की है| काम्प्लेक्स परस्पर निर्भरता को 1970 में रॉबर्ट कोहेन  और जोसेफ नाई ने एक नई परिभाषा दी जिसने आधुनिकतावाद को उच्च स्तर पर बढाया  और परस्पर निर्भरता के क्षेत्र में तब्दील किया |



कबीर ने इस दुनिया को एक हाट कहा था –‘पूरा किया बिसाहुणा, बहुरि न आवौं हट्ट’, आज कबीर की वाणी सौ प्रतिशत सच लग रही है, जब हम समाज और संबंधो को बाजार में तब्दील होते देख रहे है|

 पहले बाजारवाद को लेकर जो धारणा विद्यमान थीवह प्रायः मूक खरीदार के रूप में थी, परन्तु अब स्थिति बदल गई है| अब उपभोक्ता मात्र मूक खरीदार न हो कर एक सक्रिय व जागरूक उपभोक्ता के रूप में अपनी भूमिका निभा रहा है|शीतयुद्ध के समय में यह वह अवधि थी जब उपभोक्तावाद विश्वभर में उभर रहा था| पश्चिम में यह आन्दोलन 1950-60 में उभरा| किन्तु भारत में उदारीकरण का दौर 1990 के बाद शुरू होता है| इन्टरनेट ने उपभोक्तावाद और बाजारवाद को एक नया मंच प्रदान किया| साथ ही सोशल मीडिया साइटों ने इसे एक नए दौर में पहुंचा दिया | आम उपभोक्ता को जब उपभोक्तवाद ने ललचाना व लुभाना शुरू किया तब आम लोगों की जेब पर इसका भारी असर हुआ |

1950 के पश्चात् पैसों की तंगी के काल में महिलाओं के सामने जब घर चलाने की ज़िम्मेदारी आई कि वह  इस संकट का सामना कैसे करें| तब पैसों की तंगी ने इस वर्ग को नज़दीक लाने का काम किया| वे बाजारों में शोपिंग सेण्टर और मॉल में खरीदारी के लिए जाती थी| इस निकटता के कारण घरेलू महिलाओं को समाजीकरण का अवकाश  मिला साथ ही सोचने समझने का अवकाश भी| इस मौके का परिणाम यह हुआ कि ये महिलाएं मात्र गृहणियां न हो कर एक सक्रिय उपभोक्ता स्त्री के रूप में सामने आयी | तथा डू  इट योर सेल्फ (D.I.Y.) आन्दोलन खड़ा  किया| दरअसल D.I.Y. मूलतः ऐसा आन्दोलन था जिसने घरेलू  महिलाओं को होम इम्प्रूवमेंट के लिए अपने हाथ से काम करने को उकसाया ताकि कम पैसों में काम चलाया जा सके|

धीरे-धीरे बाजार के दौर ने स्त्री को पूरी तरह से अपने शिकंजे में कस लिया है| आज नारियाँ नारीत्व बोध को भुलाकर  अपनी स्वतंत्र अस्मिता  व पहचान को दांवपर लगा रही है| नारी सौंदर्य आज एक बिकाऊ माल बन चुका है|  मुनाफा कमाने वाली कम्पनियाँ नारी सौंदर्य को बेचने के लिए नए-नए तरीके इजाद कर रही है| बाजार स्त्री को सुंदर और आकर्षक बनाने की जरुरत समझकर अपने माल को खपाने का रास्ता तलाश रहा है| ब्यूटी मिथ सबसे पहले स्त्री  को एक वस्तु में परिवर्तित कर उसे चेतनाशून्य बना रहा है| स्त्री को हीन बनाकर, उसे उसी रूप में देखना चाहता है, जो उसके मन को भाता है| बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ अपना बाजार स्थापित करने के लिए स्त्री का शोषण कर रही हैं| रेखा कस्तवार के अनुसार “बाजार स्त्री की प्रतिभा पर सौंदर्य को वरीयता प्रदान करता है| उसे मानवीय अधिकार और सम्मान से युक्त व्यक्ति के स्थान पर आकर्षक वस्तु मान लिया जाता है”(स्त्री चिंतन की चुनौतियाँ,:132 )|



आज भले ही स्त्री अपने अधिकार के प्रति जागरूक है परन्तु बाजार उसे वस्तु से अधिक कुछ नहीं समझता है| समकालीन दौर में बाजार उसे आर्थिक समृद्धि का सुंदर सपना दिखाकर देह के रूप में ही प्रस्तुत कर रहा है|
बाजार ने स्त्री को सुन्दरता का प्रलोभन दे कर उसे वस्तु में तब्दील कर दिया है| बाजार के प्रसार के साथ स्त्री की स्थिति में  गिरावट आई है वह दिन प्रतिदिन देह में रिडुय्स होती जा रही है|

दूसरी ओर जिस कुंठित मानसिकता को लेकर केपहले समाज ने स्त्री की भूमिका को सीमित कर रखा था| यही मानसिकता उदारवाद, निजीकरण, वैश्वीकरण (एलपीजी) के साथ धीरे –धीरे बदलती चली  गयी कि स्त्रियाँ बाजार में अपनी भूमिका को स्थापित कर रही हैं| अब वे मात्र कठपुतली न रह कर एक सक्रिय नागरिक के रूप में उभर रही हैं और अपना वर्चस्व कायम कर रही हैं|

हालांकि बाजार में जगह बनाने के लिए,स्त्री के लिए यह जानना बहुत जरुरी है कि देह पर अधिकार और मस्तिष्क पर अपने नियंत्रण के बिना वह बाजार के नियमों को अपने अनुकूल नहीं ढाल सकती |

सन्दर्भ सूची:
1.किरण मिश्रा, नारी और सौन्दयबोध, नव भारत टाइम्स, मार्च 4, 2015|
2.भरतचन्द्र नायक, आर्थिक उदारीकरण और बाजारवाद की आंधी में उपभोक्ता  हशिये पर , समाचार समीक्षा, 2016
3.मनोज कुमार, नए रास्ते की तलाश में, उगता भारत, 2016|
4.साधना शर्मा , वैश्वीकरण, बाजारवाद और हिंदी भाषा, सहचर, 2017|
5.सुभाष चन्द्र, देख कबीरा , बाजारवाद कि आंधी में नारी की टूटती वर्जनाये, 2009|

लेखक परिचय: 
पूनम प्रसाद : पीएचडी, हिंदी विभाग, जवाहरलाल नेहरु विश्वविधालय, नई दिल्ली
सविता: पीएचडी, अफ्रीकन स्टडीज, स्कूल ऑफ़ इंटरनेशनल स्टडीज, जवाहरलाल नेहरु विश्वविधालय, नई दिल्ली
पूनम कुमारी, पीएचडी, हिंदी विभाग, जवाहरलाल नेहरु विश्वविधालय, नई दिल्ली

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आदिवासियों का पत्थलगड़ी आंदोलन: संघ हुआ बेचैन, डैमेज कंट्रोल को आगे आये भागवत

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झारखंड, छत्तीसगढ़ के आदिवासी पत्थलगड़ी की अपनी पुरानी परम्परा का नये रूप में अपने अधिकारों को स्थापित करने के लिए राजनीतिक रूप से इस्तेमाल कर रहे हैं. बिरसा मुंडा की धरती खूंटी से प्रारम्भ हुआ यह आन्दोलन आदिवासी समाज में व्यापक होता जा रहा है. इसका असर झारखंड, छत्तीसगढ़ की भाजपा सरकारों को बेचैन कर रहा है. पत्थलगड़ी का असर इस कदर है कि डैमेज कण्ट्रोल के लिए संघ और संघ प्रमुख को सामने आना पड़ा है. सुमेधा चौधरी की खूंटी से ग्राउंड रिपोर्ट: 

मुर्हू ब्लाक में पत्थलगड़ी

संघ प्रमुख मोहन भागवत ने रायपुर में मंगलवार को संघ के वनवासी कल्याण आश्रम के चिंतन शिविर में कहा कि 'आदिवासियों के बीच पैदा हुए दुराव को पेसा, वनअधिकार कानून और आरक्षण से कम किया जा सकता है.'संघ प्रमुख का यह कथन आकारण नहीं आया है, वे पिछले कुछ महीनों से आदिवासियों के पत्थलगड़ी आन्दोलन के असर से पैदा बेचैनी के कारण बोल रहे थे. आदिवासी मामलों से जुड़े तीन केंद्रीय मंत्रियों जुएल उरांव, अनंत हेगड़े, सुदर्शन भगत और एसटी आयोग के अध्यक्ष नंदकुमार साय की मौजूदगी में आश्रम के चिंतन शिविर में वे बोल रहे थे. उनके पूर्व  के कई वक्ताओं ने, केन्द्रीय मंत्रियों ने भी आदिवासियों के पत्थलगाड़ी आन्दोलन पर चिंता जतायी और कहा कि ऐसे आन्दोलनों के जरिये लोकतांत्रिक संस्थाओं का विरोध लोकतंत्र के लिए खतरनाक है.

क्या है पत्थलगड़ी आन्दोलन 
झारखंड में खूंटी और आसपास के कुछ खास आदिवासीइलाके के कई गांवों में आदिवासी, पत्थलगड़ी कर ‘अपना शासन, अपनी हुकूमत’ की मुनादी की शुरुआत साल के शुरुआती महीने में हुई. यह मुनादी इलाकों के ग्राम सभाओं ने शुरू की, जो धीरे-धीरे प्रशासन से टकराव की घटनाओं में भी बदलने लगा. कई गांवों में पुलिस वालों को घंटों बंधक बनाये जाने की घटनाएं भी सामने आई. गौरतलब है कि खूंटी इलाका आदिवासियों के बीच 'भगवान;'का दर्जा प्राप्त बिरसा मुंडा का भी इलाका है. 19वीं सदी के आख़िरी वर्षों में आदिवासियों के अधिकारों के लिए बिरसा मुंडा ने अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष किया था और शहादत दी थी. इस लिहाजा से  खूंटी से शुरू हुआ आन्दोलन एक ऐतिहासिक संदर्भ  भी रखता है. 25 फरवरी को खूंटी के कोचांग समेत छह गांवों में पत्थलगड़ी कर आदिवासियों ने अपनी 'हुकूमत'का ऐलान किया.

प्रशासन ने अपने प्रारम्भिक कार्रवाइयों में कई ग्राम प्रधानों, आदिवासी महासभा के नेताओं और उनके सहयोगियों को गिरफ्तार कर जेल भेजा, लेकिन आन्दोलन की गति बढ़ती ही गयी, जिसे लेकर संघ और भाजपा खेमे में बेचैनी है. मुख्यमंत्री रघुबर दास ने अपनी प्रतिक्रिया में इस आन्दोलन को देशद्रोहियों का आन्दोलन भी बता डाला. और अब छत्तीसगढ़ के रायपुर में संघ और भाजपा के नेताओं की प्रत्यक्ष बेचैनी देखने को मिली.
पुरानी परम्परा के अनुसार 

पुरानी परम्परा की नई शुरुआत. 

झारखंड के कई बुद्धिजीवियों ने बताया किपत्थलगड़ी की परम्परा पुरानी है, सिमडेगा, लातेहार जैसी जगहों पर इस परम्परा का राजनीतिक इस्तेमाल नहीं हुआ है, लेकिन खूंटी इलाके में चूकी खनन क्षेत्र पर सरकार और कंपनियों की नजर है इसलिए वह इस रूप में प्रकट हुआ है. उन्होंने बताया कि बुजुर्गों की याद में, वंशावली की जानकारी के लिए अथवा किसी एनी निर्देश जैसे ग्राम सभा की जानकारियों या इलाके की सीमा आदि की जानकारी के लिए पत्थलगड़ी की जाती है, जिसे शिलालेख भी कहा जा सकता है. शहीदों की याद में भी कुछ जगहों पर पत्थलगड़ी की गयी है.  अब नए स्वरूप में ग्राम सभाओं द्वारा की जा रही पत्थलगड़ी के मुद्दे राजनीतिक हैं. जगह-जगह पत्थलों पर लिखा है:
--पांचवी अनुसूची क्षेत्रों में संसद या विधानमंडल का कोई भी सामान्य कानून लागूनहीं है. भारत का संविधान के अनुच्छेद 13 (3) क के तहत की शक्ति है.
-- अनुच्छेद 19 (5) के तहत अनुसूचित जिला या क्षेत्रों में कोई भी बाहरी गैर रूढी प्रथा व्यक्तियों का स्वतंत्र रूप से आना-जाना, घूमना-फिरना, निवास करना वर्जित है.
--अनुच्छेद 19(6) के अनुसार आदिवासियों के स्वशासन व नियंत्रण क्षेत्र में गैररूढ़ि प्रथा के व्यक्तियों का रोजगार-कारोबार करना या बस जाना, पूर्णतः प्रतिबंध है.
--पांचवी अनुसूचित जिला या क्षेत्रों में भारत का संविधान के अनुच्छेद 244 (1) भाग (ख) धारा 5 (1) के तहत संसद या विधान मंडल का कोई भी सामान्य क़ानून लागू नहीं है. 
--वोटर कार्ड और आधार कार्ड आदिवासी विरोधी दस्तावेज हैं तथा आदिवासी लोग भारत देश के मालिक हैं, आम आदमी या नागरिक नहीं.

पारम्परिक तीर-धनुष के साथ आदिवासी 


पत्थलगड़ी पर एकमत नहीं हैं आदिवासी बुद्धिजीवी

झारखंड विश्विद्यालय के आदिवासी एवं जनजाति विभाग के पूर्व विभागाध्यक्ष राम गंजू आदिवासियों की पुरानी परम्परा के राजनीतिकरण के पक्ष में नहीं हैं वहीं दूरदर्शन के पूर्व अधिकारी एवं लेखक वाल्टर वेंगरा के अनुसार कानूनों की की जा रही व्याख्या आदिवासियों के हित में नहीं है.

क्या कहते हैं खूंटी के लोग 

मुर्हू और अरकी  ब्लाक के आदिवासियों से जब इस रिपोर्ट के लिए बात करने की कोशिश की गयी तो वे इससे बचते नजर आये. मुर्हू की दोह रेजा ने कहा कि ‘ मुझे इस बारे में सिर्फ इतना पता है कि यह पुरखों की परम्परा है और सदियों से गांवों में यह होता रहा है.’ वहीं खूंटी में ही बिरसा मुंडा के जन्मस्थल उलीहातु के एक दुकानदार सलोनी पूर्ती ने बताया कि ग्रामसभा में इसपर बात होती है. हालांकि ग्रामसभा की कई महिलाओं ने इसपर बात करने से मना कर दिया. खूंटी के जनसम्पर्क पदाधिकारी इस विषय के अलावा किसी भी विषय पर बात करने को तैयार थे, इस विषय पर नहीं.

झारखंड विकास मोर्चा (प्रजातांत्रिक) के प्रवक्तातौहीद आलाम ने कहा कि ‘ सरकार इस बारे में भ्रम फैला रही है.’ वही भाजपा के प्रवक्ता प्रतुल ने कहा कि ‘गैर आदिवासी भी किसी के मरने पर पत्थलगड़ी करते हैं लेकिन विपक्षी राजनीतिक ताकतें इसे दूसरी दिशा में मोड़ दे रहे हैं.. प्रतुल कहते हैं ‘ इस आन्दोलन में शामिल लोग अपने को भारत गणराज्य का हिस्सा नहीं मानते वे अपना बैंक खोल रहे हैं, और दूसरे बैंकों में पैसा जमा करने से मना कर रहे हैं, यह खतरे की घंटी है.’
संघ प्रमुख मोहन  भागवत 


 'पूर्व आइपीएस अधिकारी और कांग्रेस के राष्ट्रीय सचिव अरुण उरांव कहते हैं कि राज्य के कई जिलों में हो रही पत्थलगड़ी के पीछे लोगों की भावना समझनी होगी. इसके लिए सरकार को आगे आना होगा. विरोध की जो तस्वीरें सामने है उसके संकेत यही हैं कि गांवों में बुनियादी सुविधाओं का अभाव है और इससे नाराज लोग गोलबंद होने लगे हैं. उनका कहना है कि 1996 में खूंटी के कर्रा में बीडी शर्मा और बंदी उरांव समेत स्थानीय नेताओं ने पत्थलगड़ी की थी और इसके माध्यम से पेसा कानून के बारे में लिखा गया था.'

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महिला की मुहीम का असर: पासपोर्ट अधिकारी 'मिश्रा'का तबादला, अंतर्धार्मिक विवाह को आधार बना महिला का पासपोर्ट बनाने से किया था इनकार

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आवाज उठाने पर कट्टरपंथ के खिलाफ भी जीता जा सकता है. इसका ताजा उदाहरण है लखनऊ के पासपोर्ट अधिकारी 'विकास मिश्रा'पर कार्रवाई. उसने एक हिन्दू महिला का मुस्लिम पुरुष के साथ शादी का आधार बना उसका पासपोर्ट बनाने से मना कर दिया था. ऐसे कई मामले इन दिनों आ रहे हैं. एक लडकी ने धर्म के आधार पर एयरटेल के मुस्लिम अधिकारी का किया अपमान तो कम्पनी ने अधिकारी का साथ देने की जगह लड़की का साथ दिया, वहीं 'ओला'टैक्सी सर्विस ने इसी पैटर्न पर अपने मुस्लिम ड्रायवर का अपमान होने पर ड्रायवर का साथ दिया और हिन्दू कस्टमर के खिलाफ सार्वजनिक बयान भी दिया था. क्या है ताजा मामला:  


तन्वी सेठ और अनस सिद्दकी

एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में लखनऊ के रीजनल पासपोर्ट अधिकारीने बताया कि तनवी को पासपोर्ट जारी कर दिया गया है, वहीं अनस का पासपोर्ट रिन्यू हो गया है. पत्नी तन्वी और पति अनस को गुरुवार को पासपोर्ट ऑफिस बुलाया गया था, जहां उन्हें उनके नए पासपोर्ट सौंप दिए गए हैं.  अधिकारी ने कहा, 'पासपोर्ट जारी कर दिए गए हैं. आरोपी अफसर विकास मिश्रा के खिलाफ कारण बताओ नोटिस जारी किया गया है और उनके खिलाफ जल्द कार्रवाई की जाएगी. हमें इस घटना पर खेद है और ये सुनिश्चित करते हैं कि ऐसी घटना दोबारा नहीं होगी।'इस बीच विकास मिश्रा का तबादला भी कर दिया गया है.

तन्वी सेठ का ट्वीट


हुआ क्या था:
तन्वी ने धर्म के आधार पर अपमानित करने काआरोप पासपोर्ट अधीक्षक 'विकास मिश्रा'पर लगाया था. इस आशय का ट्वीट करते हुए विदेश मंत्री सुषमा स्वराज का ध्यान उसने इस ओर खींचा. गौरतलब है कि लखनऊ की तन्वी सेठ ने 2007 में अनस सिद्दकी से शादी की थी. तन्वी का आरोप है कि 20 जून को वे अपनी 6 साल की बच्ची के साथ पासपोर्ट बनाने लखनउ स्थित पासपोर्ट ऑफिस गये थे. दो काउन्टर पर प्रक्रिया पूरी कर जब वह तीसरे काउंटर पर पासपोर्ट अधीक्षक विकास मिश्रा के पास गयी तो उसने कागजों का निरीक्षण करने के बाद कहा कि 'अपना नाम बदल लो. तुमने मुस्लिम से शादी की और अभी तक अपना नाम नहीं बदला?'वह उसके पति के धर्म को लेकर उसे अपमानित करने लगा. जब वह इसकी शिकायत लेकर ऊपर के अधिकारी के पास गयी तो इसी बीच विकास मिश्रा ने उसके पति को धर्म बदलने को कहा. मिश्रा और अन्य कर्मचारी उन्हें अपमानित करते रहे और अंतर्धार्मिक शादी पर टिप्पणियाँ करते रहे. इस घटना से आहत तन्वी ने विदेशमंत्री सुषमा स्वराज को ट्वीट किया तो महकमे में हडकंप मच गया. तन्वी और अनस नोएडा की एक कम्पनी में कार्यरत हैं.

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नीरजा हेमेन्द्र की कविताएं ( स्त्री होना और अन्य)

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नीरजा हेमेन्द्र


विभिन्न पत्र -पत्रिकाओं में प्रकाशित.उत्तरप्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा सम्मानित. संपर्क: neerjahemendra@gmail.com 

स्त्री होना
अभिशाप नही है स्त्री होना
स्त्रियों की उड़ान होती है
दृढ़, ऊँची, सपनों-सी सतरंगी
वह उड़ सकती है बचपन में
छोटे भाई को गोद में लेकर
सपने दिखाती सुखद लोक की ओर
वह पूर्वजों की अनमोल धरोहर से
सृजित कर सकती है स्वर्णिम इतिहास
स्त्री होना अभिशाप नही है
उसके पंख उसे ले जाते हैं ग्रहों और नक्षत्रों तक
दृष्टि भेदती है धरती का अन्तःस्थल
निकाल लाती है खनिज-रत्न उसके गर्भ से
सजाती है भविष्य
अलंकृत करती है नवीन पीढियाँ
गढ़ती है इतिहास
स्त्री के बिना घर
दीवारों से घिरा भूखण्ड है
संवेदनहीन...सारहीन
स्त्री होना अभिशाप नही है
इच्छाओं के पंखों पर उड़ कर
बाँध सकती है वह
अश्वमेध का अश्व सूर्य तक
स्त्री सम्पूर्ण है

प्रतिद्वन्दी नही तुम मेरे 

मैंने कभी नही चाहा कि
तुम मेरे प्रतिद्वन्दी बनों
या करूँ मैं तुम्हारा विरोध
तुम्हारे बिना अपने अस्तित्व की कल्पना
मैंने कभी नही की
आखिर तुम्हीं ने तो भरी थी
बाल्यावस्था में
मेरे पंखों में उड़ान
दी थी इच्छाओं को हवा
मैं उड़ती रही सपनों के साथ
तुमने क्यों नही अवगत् कराया कि,
पुत्री! सपनों के साथ उड़ना
तुम्हें कर सकता है आहत
किशोरवय छोड कर
जब मैंने पाया तुम्हें
परिवर्तित हो चुका था स्वरूप तुम्हारा
मेरी कल्पनाओं में बसा था
पिता-सा स्वरूप तुम्हारा
तुम्हारी दुनिया में मैं भरूँगी
नभ से लाकर इन्द्रधनुष के सात रंग
मेरे पैरों को बेड़ियों में मत जकड़ों
मैं तुम्हारे साथ चलूँगी
धूप में भी, छाँव में भी
मेरे सह-पथगामी
पथ के अन्तिम पड़ाव पर
मुझे तुम्हारा थोड़ा-सा सम्बल चाहिए
ओ पुत्र मेरे!
मेरी वो मजबूत बाँहें अब थरथराने लगी हैं
जिन्होंने तुम्हे गोद में उठाया था
काँपने लगी हैं मेरी वो बूढ़ी उंगलियाँ
जो तुम्हे खिलाती थीं रोटियाँ
जब तुम हठ कर बैठते थे बचपन में
भोजन न करने की
मुझे वृद्धाश्रम में नही
तुम्हारे घर में, तुम्हारे हृदय में
थोडा़-सा स्थान चाहिए
अन्तिम पड़ाव समीप है मेरे पुत्र!
मैं न होती तो क्या तुम्हारा अस्तित्व होता?
तुम्ही बताओं मेरे पिता, मेरे पति, मेरे पुत्र
तुम न बनों मेरे प्रतिद्वन्दी, मेरे विरोधी
मेरी सम्पूर्णता को तुम
चुनौती नही दे सकते
मैं स्त्री हूँ
मैं अविजित थी, हूँ, और रहूँगी
तुम मेरे प्रतिद्वन्दी नही
नही करना मुझे तुम्हारा विरोध.

औरत होने का अर्थ 
अब जब कि.......
खोल लिये हैं मैंने अपने नेत्र
बाँध ली हैं मुट्ठियाँ
विस्मृत कर चुकी हूँ
अतीत के पीड़ादायक दिन
जब सपनों की उन्मुक्त उड़ान को
बन्द कर अपनी नन्हीं हथेलियों में
दौड़ती-फिरती थी तुम्हारी ही दुनिया के इर्द-गिर्द
औरत होने का दर्द
औरत होने से पूर्व
समझने की पीड़ा लिए मैंने
अनेक सर्द चाँद टाँक लिए थे
अपने आसमान पर
देख कर तुम्हारा छद्म शक्तिशाली रूप
अपनी नन्हीं मुट्ठियों में भर ली है ऊष्मा
सर्द चाँद परिवर्तित होने लगे हैं
लगने लगे हैं कुछ-कुछ सूर्य जैसे
अपनी शक्ति का आकलन किया है मैंने
और पाया है मेरे बिना तुम कुछ भी नही
अनेक रिश्तों की गाँठे खोलती
बाँध ली हैं मुट्ठियों में
अपनी पहचान, अपनी अस्मिता
अबला नही हूँ मैं
औरत होने का अर्थ है
बँधीं मुट्ठियाँ, स्वप्निल नेत्र
बहती नदी, और आग
मेरी यात्रा 
कितनी कठिन थी
बच्ची से युवा होने तक की मेरी यात्रा
मेरे जन्म लेना भी तो उतना ही कठिन था
मैंने तय की वो यात्रा
अनेक रिश्ते बिखरे थे मेरे चारों ओर
अपने थे....उनके नाम भी थे
मैं अनभिज्ञ थी इस सत्य से
कि मैं एक स्त्री हूँ
कि मेरी देह ही मेरी पहचान है
मैं खिलती रही निर्जन में खड़े अमलतास के पुष्पों-सी.....
टूट-टूट कर बिखरती रही भिम पर
कभी तुम्हारी दृष्टि.....
तो कभी तुम्हारी उंगुलियों के
घृणित स्पर्श से सिसकता
व्यतीत होता मेरा लहूलुहान बचपन
मुझे स्त्री होने का अपराधबोध कराता रहा
मेरा स्त्री होना अपराध है...?
तुम्हारा पुरूष होना तुम्हारी सार्वभौमिकता....?
तपिश से दृढ़ हो चुके अमलतास के वृक्षों ने
सूने पथ पर अंकित कर दी है अपनी उपस्थिति
तुम्हारी उगुलियों का घृणित स्पर्श अब नही सहेंगी
मेरी देह की गोलाईयाँ
मुझे जीना सिखा दिया है
धूप ने....शीत ने....आँधियों ने
तार-तार होते रिश्तों से
मैंने बना लिया है एक फौलादी पुल
जिससे हो कर गुजरेंगी आने वाली पीढ़ियाँ
बच्चियाँ देंगी तुम्हारी सत्ता को चुनौती
ललकारेंगी तुम्हारे उस पुरूषत्व को
जिसे बेटियां दिखती हैं मात्र देह की शक्ल में.

तस्वीर गूगल से साभार 

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प्रधानमंत्री का मां बनना: मातृत्व और राजनीति में महिलाओं की चुनौतियाँ

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जया निगम 

न्यूजीलैंड की प्रधानमंत्री जैसिंडा का उनके कार्यकाल के दौरान मां बनना आजकल सुर्खियों में है. बीबीसी हिंदी की स्टोरी के मुताबिक वह प्रधानमंत्री के कार्यकाल के दौरान मां बनने वाली दूसरी महिला हैं. यह खबर वाकई एक सुखद आश्चर्य पैदा करती है. किसी महिला का मां बनना समाज में एक सुखद खबर माना जाता है लेकिन बहुतों के लिये इसका खबर बनना एक आश्चर्य है. महिला के लिये मां बनना प्राकृतिक और सहज कर्म है फिर अगर वह प्रधानमंत्री है तो उसका मां बनना एक खबर क्यों है?

जैसिंडा अपने नवजात और पति के साथ एवं उनका ट्वीट


सच तो ये है कि कामकाजी महिलाओं के लिये मातृत्वएक बड़ी चुनौती है. पुरुषसत्ता खासकर किसी कैपिटलिस्ट व्यवस्था में स्त्री का मां बनना हमेशा उसकी काम से बेदखली का वैध कारण माना जाता रहा है क्योंकि व्यवस्था इस दौरान उसके शरीर और श्रम को 'अनुत्पादक'मानती है. यही वजह है कि भले ही सरकारी नौकरियों में कामकाजी महिलाओं के लिये वेतन सहित मातृत्व अवकाश मिलता हो लेकिन ज्यादातर प्राइवेट कंपनियां अब भी स्त्रियों को यह मिनिमम सुविधा देने में अब भी परहेज़ करती हैं.

निजी क्षेत्र, कैपिटलिस्ट व्यवस्था को समझने का सच्चा पैमाना है. ग्लोबल दुनिया में कामकाजी महिलाओं की निजी क्षेत्र में स्थिति किसी समाज में उनकी वास्तविक हैसियत तय करने का काम कर रही है. इसके बरक्स किसी धार्मिक समाज में मातृत्व महिलाओं के लिये ज्यादा सहज है. जबकि कैपिटलिस्ट यानी लोकतांत्रिक समाजों में महिलाओं के लिये ये ज्यादा बड़ी चुनौती है क्योंकि वहां मातृत्व का महिमामंडन न करने की परंपरा होती है उसे स्त्री के सहज कर्म की तरह देखा जाता है. इसके बावजूद महिलाओं के लिये यह चुनौती ज्यादा मुश्किल इसलिये हो जाती है क्योंकि लोकतंत्र की अर्थव्यवस्था पूंजीवादी नियम-कानूनों से चलती है जहां ज्यादा काम के घंटे ही, व्यवस्था के लिये उपयोगी होने का सबसे ऊंचा पैमाना माना जाता है. कैपिटलिस्ट देशों में राजनेताओं के काम को भी अमूमन इसी वर्क कल्चर से आंका जाता है. मीडिया इसे 'पॉपुलर कल्चर'बनाने में सक्रिय भूमिका निभाता है.

राजनीति महिलाओं के लिये पितृसत्तात्मक व्यवस्थाकी सबसे टेढ़ी खीर है. किसी देश की राजनीति यानी वहां के नीति नियंताओं की फेरहिस्त में शुमार होना बड़ी व्यक्तिगत उपलब्धि होती है. बतौर महिला राजनेता, यह संघर्ष पुरुष राजनेताओं से हर मामले में बिल्कुल अलग होता है. जैसे बतौर पुरुष राजनेता किसी का उसके कार्यकाल के दौरान पिता बनना उसे उसके सार्वजनिक जीवन से अलग-थलग नहीं करता है. लेकिन महिला का मां बनना उसके सार्ऴजनिक जीवन से बिल्कुल कटाव का समय माना जाता है जबकि आज के तकनीकी युग में यह कटाव बिल्कुल भी संभव नहीं है.
कनाडा की सांसद संसद में स्तनपान कराती हुई 

ऐसे में यदि ईरान की संसद में महिला प्रतिनिधियों काचुना जाना एक उपलब्धि है तो विकसित देश यानी कनाडा की संसदीय गतिविधियों के दौरान महिला सांसद का अपने बच्चे को स्तनपान कराना भी एक खबर है और न्यूजीलैंड की महिला प्रधानमंत्री का कार्यकाल के दौरान मां बनना भी सकारात्मक खबर है हालांकि इन व्यक्तिगत उपलब्धियों का महत्व नगण्य हो जाता है यदि नीतियों के स्तर पर कोई महिला राजनेता या प्रतिनिधि आधी आबादी के लिये पुरुषसत्ता के कायदों में बड़ा बदलाव लाने और आम महिलाओं की दिक्कतों को नीतिगत स्तर पर सुलझाने की कोशिश नहीं करती. विकसित देशों में इन दिनों महिला अधिकारों के लिये आंदोलनों की मुहिम चल रही है, बराबर वेतन, यौन उत्पीड़न के खिलाफ खुली अभिव्यक्ति, पीरियड्स के दौरान एक दिन के अवकाश की सुविधा इस तरह के बहुत से आंदोलन अक्सर सोशल मीडिया के जरिये विकासशील देशों की महिलाओं में विचार के स्तर पर लोकप्रियता पाते हैं. हालांकि जैसे ही विकासशील देशों की महिलायें अपने देश की परिस्थितियों और संस्कृति से इसे जोड़ कर देखने और लोकप्रिय बनाने की कोशिश करती हैं वहां के बुद्धिजीवी पर हावी पितृसत्ता  बहुधा ऐसे विचारों को मध्यमवर्गीय नौकरीपेशा महिलाओं या उच्चवर्गीय विकसित देशों की महिलाओं की मुहिम आदि लेबल देकर खारिज कर देते हैं. जैसा कि स्लट वॉक से लेकर #MeToo  कैंपेन तक में भारत में देखा जा रहा है. हालांकि ऐसे विचार जो शुरुआत में बहुत छोटे और नगण्य दिखते हैं वो थोड़े-थोड़े समय बाद पुनर्जीवित होते रहते हैं और कई बार किसी देश में सालों बाद किसी आंदोलन के रूप में सामने आते हैं. बांग्लादेश में'मुक्ति युद्ध'के दौरान होने वाले बलात्कारों में सालों बाद मिली सजायें इसी प्रवृत्ति की ओर इशारा करती हैं.

भारत, पाकिस्तान और तीसरी दुनिया के तमाम देशों मेंमौजूद महिला शासकों की व्यक्तिगत उपलब्धियों को इस नज़रिये से देखे जाने की जरूरत है कि क्या व्यापक स्तर पर उनकी राजनीति देश की आधी आबादी की जरूरतों और महत्वकांक्षाओं को प्रतिबिंबित करती है या महज़ किसी राजनेता का महिला होना ही तीसरी दुनिया की देशों की आधी आबादी के प्रतिनिधित्व के लिये सर्वोच्च पैमाना मान लिया गया है ठीक उसी तरह जैसे ज्यादा काम के घंटे किसी इंसान की उत्पादकता का प्रतीक माना जाता है भले ही उसके परिणाम समाज के लिये विध्वंसक ही क्यों ना साबित हो रहे हों.

जया निगम सामाजिक कार्यकर्ता हैं. संपर्क:jasminenigam@gmail.com

तस्वीरें गूगल से साभार 

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पानी लाने के लिए कई शादियाँ करते हैं मर्द: औरतों को पानी वाली सौतन मंजूर

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कहते हैं कि तीसरा विश्व युद्ध पानी के लिए होगा। तीसरे विश्व युद्ध का इंतजार किए बिना देश की अधिसंख्य महिलाएं रोज ही पानी के लिए युद्धस्तर का प्रयास करती हैं। यह प्रयास त्रासदी में तब बदल जाता है, जब उनका पति पानी के लिए दूसरी नहीं, तीसरी शादी तक कर लेता है। एक पत्नी के रहते दूसरी शादी करना कानूनी और सामाजिक दोनों रूप से प्रतिबंधित है, पर इसे समस्या का विकराल रूप कहा जाए कि यहां पानी के लिए महिलाएं अपनी सौतन तक बर्दाश्त कर रही हैं।

मुंबई से कुछ किलोमीटर दूर महाराष्ट्र के देंगनमाल गांव है, जहां सूखा की वजह से पानी एक बड़ी समस्या है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार महाराष्ट्र के 19,000 गांवों में पानी की काफी बड़ी समस्या है। इस गांव पर कई वृत्तचित्र और स्टोरी मिल जाती हैं, जहां पुरुषों ने एक पत्नी के गर्भवती हो जाने के बाद दूसरी शादी इसलिए कर ली, क्योंकि घर में पानी लाने की समस्या उत्पन्न हो रही थी। इस गांव में पानी के लिए दूसरी शादी बहुत ही सामान्य बात है। यहां की महिलाएं इस बात को काफी सहज तरीके से लेती हैं।

इसी तरह राजस्थान में बाड़मेर के देरासर गांव की भी यही कहानी है।पत्नी के गर्भवती होते ही यहां पति दूसरी शादी कर लेता है। यह दूसरी पत्नी घर के सारे काम करने के साथ-साथ घर की प्रमुख जरूरत पानी लाने का काम भी करती है। यहां पानी लाने के लिए पांच से दस घंटे का समय लगता है और कई-कई किलोमीटर पैदल चलकर सिर पर कई बर्तन रखकर चलना पड़ता है। यह काम गर्भवती स्त्री के लिए खतरनाक हो सकता है। इसलिए यहां के पुरुष दूसरी शादी करके इस समस्या का ‘सस्ता’ हल निकाल लेते हैं। इन गांवों में ऐसी पत्नियां  ‘वाटर वाइब्स’ यानी ‘पानी की पत्नियां’ या ‘पानी की बाई’ कहलाती हैं। अमूमन इन तथाकथित पत्नियों को पहली पत्नी की तरह अधिकार नहीं मिलते हैं। ऐसी पत्नियां या तो गरीबी की मारी होती हैं या फिर विधवा या पतियों द्वारा छोड़ी हुईं होती हैं। ये महिलाएं एक आसरे की आस में यह अमानवीय जीवन स्वीकार लेती हैं। यहां का सरकारी महकमा भी सामाजिक स्वीकृति के कारण कुछ भी करने में असमर्थ रहता है।

हमेशा से घरेलू काम महिलाओं के जिम्मे रहा है। खाना बनाने, घर सम्हालने जैसे काम के साथ जुड़ा पानी भरने, चूल्हा जलाने के लिए लकड़ी का जुगाड़, जानवर के लिए चारा लाना जैसे सभी काम महिलाओं के सिर ही आते हैं। खेती-बाड़ी और जानवर पालने के काम भी घर की महिलाएं ही संभालती हैं। सुबह होते ही पानी के लिए महिलाओं का संघर्ष शुरू हो जाता है। खासतौर पर गर्मियों के समय, जब पानी की काफी किल्लत हो जाती है। महिलाओं का पानी के लिए यह संघर्ष कहीं कहीं पूरे साल बना रहता है। सूखाग्रस्त जगहों में जहां पानी की कमी होती है, वहां पानी के लिए बच्चों की पढ़ाई और बचपन तक दांव पर लगा रहता है। उनकी सुबह पानी के बर्तनों के साथ ही शुरू होती है। उन्हें पानी के लिए कई-कई किलोमीटर चलना पड़ता है और कई-कई घंटें बूंद-बूंद रिसते पानी को भरने का इंतजार भी करना पड़ता है। तब कहीं जाकर कुछ लीटर पानी का जुगाड़ हो पाता है। ऐसी परिस्थिति में एक स्त्री की हैसियत पानी से भी कम हो रह जाती है, तो कोई आश्चर्य की बात नहीं कही जा सकती।

समस्या पानी की है, तो क्या इसका कोईदूसरा हल नहीं निकाला जा सकता था? यह प्रश्न सहज ही उठता है। पर इसे क्या कहा जाए कि यहां इस ओर सोचा भी नहीं गया। इसका कारण क्या हो सकता है? हमारे समाज में महिलाओं का श्रम इतनी सहजता और मुफ्त में उपलब्ध है कि दो जून की रोटी के लिए वे किसी की ‘वाटर वाइफ’ बन जाती है। यह विडंबना है कि दिन भर मेहनत करने के बदले वे एक सम्मान की जिन्दगी की हकदार भी नहीं बन पाती हैं। जबकि दूसरी तरफ उनके पति जो दूसरी जगहों पर काम पर निकल जाते हैं, पूरी मजदूरी कमाने के बाद एक सम्मान के साथ घर लौटते हैं। हमारे समाज का यह अंतर (महिलाओं के श्रम को श्रम न समझना) समझने के लिए किसी आइंस्टीन का दिमाग नहीं चाहिए। समाज में महिलाओं की दोयम स्थिति ही इस तरह की समस्याओं की जड़ है। स्त्रियों की दोयम स्थिति तब और दोयम हो जाती है, जब सरकारें ऐसी समस्याओं के प्रति ध्यान नहीं देती हैं।

 हमारे समाज में महिलाओं के श्रम की गिनती कहीं नहीं है। इसलिए खुद महिलाएं भी अपने श्रम को लेकर जागरुक नहीं होती हैं। उन्हें अपने श्रम के बदले जो कुछ मिल जाता है उसे ही सौभाग्य समझती हैं। इसके लिए अशिक्षा, लिंगात्मक भेदभाव, सरकारों का रवैया जैसे अनगिनत कारण गिनाये जा सकते हैं। इसलिए इस बात का बहुत अधिक आश्चर्य नहीं किया जाना चाहिए, कि कैसे एक महिला ‘वाटर वाइफ’ बन जाती है, और हमारा समाज पानी के लिए दूसरी, तीसरी शादी को मान्यता दे देती है।

प्रतिभा कुशवाहा समाचार एजेंसी 'हिन्दुस्थान समाचार से सम्बद्ध हैं. 

तस्वीरें गूगल से साभार 

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पत्थलगड़ी के खिलाफ बलात्कार की सरकारी-संघी रणनीति (!)

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अश्विनी कुमार पंकज 

क्या बिरसा मुंडा की धरती खूंटी से शुरू हुए पत्थलगडी आंदोलन को वहां  21 जून को 5 नुक्कड़ नाट्यकर्मियों  से हुए सामूहिक बलात्कार से जोड़कर आदिवासियों के आन्दोलन और आवाज को दबाने की साजिश कर रही है सरकार? अभी एक कार्यक्रम में 20 जून को संघ प्रमुख मोहन भागवत ने जतायी थी इस आन्दोलन पर चिंता. आदिवासी अधिकार के प्रखर प्रवक्ता साहित्यकार अश्विनी कुमार पंकज इस प्रयास को  सरकार और संघ की रणनीति बता रहे हैं. 

किसी भी सत्ता का चाल, चरित्र और चेहरा उसकीवैचारिक भावभूमि से बनती है जिसका प्राण तत्व उसका धार्मिक आचार संहिता होती है। यह सत्ता राजनीतिक तौर पर जितनी संगठित होती है उससे कहीं ज्यादा सामाजिक और व्यक्तिगत स्तर पर जीवन के सभी संस्थानों में पैवस्त होती है। झारखंड के खूंटी जिले के कोचांग इलाके में हुई पांच लड़कियों के साथ हुए बलात्कार की खबरें सत्ता संस्थानों के हवाले से जिस तरह से मीडिया में प्रायोजित रूप में आती हुई दिख रही हैं, वह इसी नस्लीय विद्वेष और सांप्रदायिक वैमनष्य को दर्शाता है। बलात्कारी जो भी है, वह निःसंदेह जघनतम अपराध का दोषी है। लेकिन इसको जिस सुनियोजित ढंग से आदिवासी हक-हकूक के लिए चल रहे ‘पत्थलगड़ी’ आंदोलन के साथ जोड़ा जा रहा है और यह साबित करने की राजकीय कोशिश हो रही है कि ‘अपने गांव में अपना राज’ का असली उद्देश्य यही है, यह बताता है कि सत्ता के सारे सरकारी और निजी संस्थान किस कदर आदिवासी एवं जनांदोलनों के विरोधी हैं।



देश के स्त्री, आदिवासी, दलित, पिछड़े और वंचिततबकों के साथ होनेवाला यह ‘सरकारी’ और ‘मीडिया ट्रायल’ कोई नई बात नहीं है। तकनीकी और शैक्षणिक तमाम छोट-बड़े बदलावों के बावजूद मनु युग से लेकर आज के परमाणु और नैनो युग तक सत्ता का यह धार्मिक अनुष्ठान बदस्तूर जारी है। पर चूंकि इस समय में, जब पत्थलगड़ी आंदोलन ने संविधान की जन-व्याख्या को देशव्यापी बहस में बदल दिया है और आदिवासी लोग संविधान की पांचवीं अनुसूची के प्रावधानों को गांव-गांव में लागू कर बहुराष्ट्रीय कंपनियों और उनकी दलाल सरकारों को वास्तविक ‘गणराज्य’ से चुनौती दे रहे हैं, इस तरह के सत्ता षड्यंत्रों की पड़ताल और उनका विवेकी प्रतिरोध जरूरी है।

खबरों में कहा गया है कि खूंटी के कोचांग में मानवतस्करी के खिलाफ जागरूकता फैलाने और शिक्षा से बच्चों को जोड़ने के लिए नुक्कड़ नाटक करने पहुंची मंडली की पांच लड़कियों के साथ गांव के अपराधियों ने गैंगरेप किया। पुलिस के मुताबिक, घटना को अंजाम देने वाले ‘अपराधी’ पत्थलगड़ी से जुड़े लोग हैं। अपराधियों ने बलात्कार का वीडियो बनाकर पीड़ितों को चुप रहने की धमकी दी थी कि यदि उन्होंने मुंह खोला तो वीडियो को वायरल कर दिया जाएगा। अपराधियों ने पीड़ितों से यह भी कहा था कि वे प्रशासन-सरकार के इशारे पर काम करती हैं, इसीलिए उन्हें यह ‘सजा’ दी जा रही है।

खूंटी के अड़की थाना के कोचांग स्थित एक मिशनरी स्कूल नेजागरूकता कार्यक्रम के लिए नुक्कड़ नाटक मंडली को आमंत्रित किया था। नाटक का विषय मानव तस्करी के खिलाफ जागृति फैलाना था। मंगलवार 19 जून की दोपहर लगभग ढाई बजे जब स्कूल में नाटक हो रहा था तब छह अपराधी दो मोटरसाइकिल पर आए और बंदूक दिखाकर, मंडली की ही गाड़ी पर लड़कियों को बिठाकर किसी अज्ञात जगह पर ले जाकर उनके साथ सामूहिक दुष्कर्म किया।



पुलिस को इसकी जानकारी दूसरे दिन करीब 30 घंटेबाद बुधवार की रात को मिली। जब एक पीड़िता ने इस दुष्कर्म की जानकारी अपने कुछ जानने वालों को दी। पहले तो पुलिस मामले को दबाने में लगी रही लेकिन गुरुवार को ‘मीडिया’ में आने बाद एफआईआर दर्ज हुई। खबरों के ही अनुसार पीड़ितों और उन्हें बुलाने वाली संस्था के लोगों को पुलिस ने रात में थाने में बिठाए रखा। खूंटी एसपी ने पीड़िताओं से तो यहां तक कहा कि वे गांव में गई ही क्यों थीं। वहीं मुख्यमंत्री रघुवर दास का बयान है कि ‘पहले नक्सली ऐसी घटनाओं को अंजाम देते थे, अब पत्थलगड़ी के नाम पर समाज विरोधी काम करने वाले ऐसी हरकत कर रहे हैं।’

जिस दिन झारखंड के कोचांग में नाटक हो रहा था, जिसके बाद यह घटना घटी थी, ठीक उसी दिन यानी 19 जून को ही, छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में संघ प्रमुख मोहन भागवत आदिवासी क्षेत्रों में पत्थलगड़ी के संकट से घिरी भाजपा सरकार को निकालने के लिए आयोजित दो दिवसीय चिंतन शिविर में भाग ले रहे थे। ‘भारत की जनजातियों की अस्मिता एवं अस्तित्व’ विषय पर इस चिंतन शिविर का आयोजन अखिल भारतीय वनवासी कल्याण आश्रम ने किया था। संघ प्रमुख मोहन भागवत ने जब शिविर में पूछा कि आदिवासी हितों के लिए केंद्र व राज्य सरकार की ढेरों योजनाएं है तो फिर पत्थलगड़ी जैसी घटनाएं क्यों हो रही हैं। तब उन्हें बताया गया कि ईसाई मिशनरी सरकार के खिलाफ काम कर रही हैं और आदिवासियों को भड़काने में जुटी हैं। चुनावी लाभ के लिए विरोधी दल पत्थलगड़ी करवा रहे हैं। इस सवाल-जवाब के आलोक में यह तय हुआ कि इस भ्रम को तोड़ने के लिए संघ के लोग बुधवार को ठोस रणनीति बनाएंगे।

और बुधवार 20 जून की रात 8 बजे पत्थलगड़ी आंदोलन के सबसे सघन आदिवासी केंद्र में ‘कुछ लोगों की सूचना’ पर पहले मीडिया में खबर प्लांट  की गई, फिर के एक थाने में ‘मामले को दबाने’ की कोशिश की गई। लेकिन अंततः तीन आरोपियों की पहचान पत्थलगड़ी समर्थक के रूप में करते हुए प्राथमिकी दर्ज की गई और कोचांग इलाके में भयानक छापेमारी श्रुरू हुई। जाहिर है कि अब आंदोलनकारियों के दमन का, जो सरकार और मीडिया के मुताबिक ‘बलात्कारी’ हैं, संविधान विरोधी हैं, विदेशी विचारों से संचालित ईसाई मिशनरी हैं, रास्ता गढ़ लिया गया है।
यह भी पढ़ें: आदिवासियों का पत्थलगड़ी आंदोलन: संघ हुआ बेचैन, डैमेज कंट्रोल को आगे आये भागवत

जहाँ नुक्कड़ नाटक के लिए गयी थी लडकियां 


बहुत सोची-समझी रणनीति के तहत संघ और सरकार नेइस बार ‘बलात्कार’ की आड़ ली है। चूंकि यह बहुत संवेदनशील मुद्दा है समाज के लिए इसलिए उनको पूरा विश्वास है कि इससे उनके ‘दमन’ को व्यापक सामाजिक समर्थन मिलने में आसानी होगी। क्योंकि अब तक दिखावटी मेल-मिलाप, सरकार गवर्नर-जनता संवाद, कंबल-राशन वितरण का लोभ-लालच, फर्जी देशद्रोह के मुकदमे लगाकर गिरफ्तारी आदि अनेक तरीके अपनाकर उन्होंने देख लिया था। पत्थलगड़ी रुक ही नहीं रही थी। लिहाजा अब ‘बलात्कार’ के संवेदनशील मुद्दे को दमन का नया हथियार बनाया है।

आदिवासी परम्परा और इतिहास के जानकार साहित्यकार अश्विनी कुमार पंकज आदिवासी अधिकार के प्रखर प्रवक्ता के रूप में जाने जाते हैं. संपर्क: akpankaj@gmail.com

तस्वीरें गूगल से साभार 

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राजस्थान पत्रिका की पत्रकार ने की आत्महत्या लेकिन पत्रिका ने ही ओढ़ी चुप्पी

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उत्तम कुमार

छत्तीसगढ़ में पत्रकारों की आत्महत्या (हत्या) के बाद स्तब्धता ने श्मशान सी चुप्पी ओड़ रखी है

दिन ब दिन आदिवासी क्षेत्रों में पत्रकारों को काम करना मुश्किल होता जा रहा है। छत्तीसगढ़ में 16 जून को एक के बाद दो प्रतिभावान पत्रकारों रेणु अवस्थी और शैलेन्द्र विश्वकर्मा द्वारा आत्महत्या की खबर दिल को दहला देने वाली है। जगदलपुर में राजस्थान पत्रिका से जुड़ी रेणु अवस्थी ऑनलाईन पत्रकारिता करती थी। वह  जगदलपुर के प्रतापगंज में एक किराए के मकान में रहती थी, जहां उसने फांसी लगाकर आत्महत्या की है। बताया जा रहा है कि रेणु अवस्थी ने करीब दोपहर एक बजे अपने कमरे में फांसी लगाकर आत्महत्या की । पुलिस को इस घटना की सूचना दी गई। जिसके बाद पुलिस ने मौके पर पहुंचकर शव को कब्जे में लेकर पोस्टमार्टम के लिए भेज दिया। पुलिस का कहना है कि आत्महत्या की वजह का पता नहीं चल सका है। मामले की जांच की जाएगी जिसके बाद आत्महत्या करने की वजह साफ हो सकेगी। फिलहाल इन पंक्तियों के लिखे जाने तक पुलिस मामले की जांच कर रही है तथा पोस्टमार्टम  रिपोर्ट अबतक नहीं आया है। रेणु पिछले साल ही छत्तीसगढ़ के प्रसिद्ध कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता विश्वविद्यालय से पास आऊट हुई थी। जिसके बाद वह जगदलपुर में रहकर अखबार में कार्य कर रही थी।

इन दोनों पत्रकारों ने की आत्महत्या 

इसी तरह ठीक इसी दिन तडक़े ही अंबिकापुर के आइएनएचन्यूज चैनल के पत्रकार शैलेंद्र विश्वकर्मा ने भी फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली थी। आत्महत्या का कारण अज्ञात बताया जा रहा है। शैलेंद्र अंबिकापुर स्थित केदारपुर गांव में रहने वाले थे। पीएम रिपोर्ट के बाद शव को परिजनों को सौंप दिया गया था। इस मामले में भी पुलिस जांच जारी है। इन दोनों घटनाओं के बाद प्रदेश की पत्रकारिता स्तब्धता के बहाने चुप्पी ओड़े बैठी है ना कहीं जांच और ना ही पोस्टमार्डम रिपोर्ट के बाद पुलिस की पहलकदमी? दबी  जबान यह खबर आ रही है कि पुलिस मामले को लेकर गंभीर है और जांच में जुट गई है। प्रदेश के मुखिया डॉ. रमन सिंह ने भी दोनों पत्रकारों को श्रद्धांजलि देते हुए कार्रवाई के संकेत दिए हैं।

इस कड़ी में 20 जून को तेलंगाना के सिद्दीपेट का मामला आपको अंदर तक हिला देगी जहां कर्ज के दबाब से एक पत्रकार इस कदर टूट गया कि उसे खुदखुशी करने पर मजबूर होना पड़ा। पेशे से पत्रकार शख्स ने पहले अपने दो मासूम बच्चियों की गला दबाकर हत्या कर दी और फिर खुद फंदे पर झूल गया। इस दौरान उसकी पत्नी ने भी जहर खा लिया। हालांकि पड़ोसियों को शक हुआ तो वे महिला के घर पहुंच गए और महिला के विरोध के बावजूद उसे अस्पताल में भर्ती करवाया, जहां उसकी हालत नाजुक बनी हुई है। जानकारी के मुताबिक, तेलंगाना के सिद्दीपेट जिले के रहने वाले पत्रकार हनुमंत राव तेलुगु अखबार ‘आंध्रा भूमि’ में रिपोर्टर के तौर पर काम करते थे। पुलिस ने बताया कि हनुमंत राव इन दिनों गंभीर वित्तीय संकट से जूझ रहे थे। उनके सिर पर 10 लाख से ज्यादा का कर्ज था। कर्ज के चलते काफी समय से लोग उन्हें वसूली के लिए दबाव भी बनाते थे, यही वजह है कि अपने साख और बड़े कर्ज ने हनुमंत को काफी परेशान कर रखा था। बुधवार को उन्होंने अपनी पत्नी मीना के साथ पहले अपने 5 और 3 साल के बच्चों को गला दबाकर मार डाला और उसके बाद खुद फांसी लगा ली। हनुमंत की पत्नी ने भी जहर खा लिया। गुरुवार सुबह जब पड़ोसियों ने घर के भीतर से मीना के रोने की आवाज सुनी, तो उन्होंने दरवाजा खटखटाया लेकिन उन्हें कोई जवाब नहीं मिला, जिस पर उन्होंने घर का दरवाजा तोड़ दिया। कमरे के अंदर का मंजर देखकर पड़ोसी हैरान रह गए। वहां हनुमंत राव और दोनों बच्चों की लाश पड़ी थी, जबकि हनुमंत की पत्नी मीना जिंदगी और मौत के बीच जूझ रही थी। फौरन पुलिस को घटना की सूचना दी गई और मीना को अस्पताल में भर्ती कराया गया। पुलिस ने इस संबंध में मामला दर्ज कर लिया है। जबकि तीनों शवों को पोस्टमार्टम के लिए भेज दिया गया है। पुलिस अब मामले की छानबीन में जुटी हुई है।

पत्रकारिता चापलूसी मात्र रह गई है, नेता,अधिकारी से लेकर अपने सीनियर की मस्काबाजी कीजिये-फल जरूर मिलेगा।! ‘नहीं किया इसलिए वहीं रह गया’

शैलेन्द्र विश्वकर्मा ने फेसबुक में यह अंतिम लाईन लिखी यह लाईन बहुत कुछ कह जाती है। इन दोनों ने खुदकुशी क्यों की, इसका पता नहीं चला है। शैलेंद्र सुसाइड के ठीक पहले तक सोशल मीडिया पर सक्रिय थे। उन्होंने जो कुछ पोस्ट किया, वो कुछ बैचेनी की तरफ इशारा कर रहे हैं। रेणु अवस्थी की सुसाइड का राज अबतक सामने नहीं आ सका है। खबरों की माने तो रेणु ने सुसाइड से पहले रायपुर स्थित पत्रिका समूह के स्टेट हेडक्वार्टर में फोन किया था। उसी फोन के आधार पर रायपुर मुख्यालय से जगदलपुर कॉल किया गया। जब तक जगदलपुर आफिस से रेणु के घर तक दफ्तर के लोग पहुंच पाते, तब तक रेणु ने खुदकुशी कर ली थी। रेणु ने अपनी चुनरी से पंखे से लटककर खुदकुशी कर ली। रेणु अपनी एक दोस्त के साथ बस्तर में किराये के मकान में रहती थी। इन सभी बातों से स्पष्ट होता है कि दोनों ही पत्रकार परेशान तो थे और हम उन्हें नसीहत भी दे सकते हैं कि उन्हें ऐसा नहीं करना था। आश्चर्य का विषय यह कि किसी भी अखबार ने इन होनहार पत्रकारों पर सम्पादकीय लिखने की जहमत नहीं उठाई है ना ही श्रद्धांजलि प्रकाशित की । राज्य का प्रेस क्लब और कुशभाऊ पत्रकारिता विश्वविद्यालय ने आज  तक श्रद्धांजलि आयोजित नहीं की। मेरा साफ मानना है कि तमाम आत्महत्याएं किसी न किसी रूप में हत्या ही होती है। कश्मीर में राइजिंग कश्मीर के सम्पादक शुजात बुखारी की हत्या के बाद अंदर तक आहत करने वाली छत्तीसगढ़ व तेलंगाना के पत्रकारों की आत्महत्या (हत्या) से किसी साजिश की बू आती है। कश्मीर से लेकर छत्तीसगढ़ तक की ये तमाम घटनाएं लोकतंत्र में चौथे पाए की हत्या है। यह घटना पूरे भारतीय परिवेश में चिंताजनक तो है। मैंने अपनी पत्रिका दक्षिण कोसल से सरकार से मांग की  है कि शुजात के साथ छत्तीसगढ़ तथा तेलंगाना के इन पत्रकारों की हत्या और असामयिक मौत की स्वतंत्र जांच एजेंसी से जांच करवाई जाएं। छत्तीसगढ़ में पत्रकारों पर बढ़ते जुल्म और अत्याचार किसी से छुपी नहीं हैं ऐसे हालातों में यह घटना नि:संदेह हमें पत्रकारों के खिलाफ रचे जा रहे साजिश की ओर हमारा ध्यान खींच ले जाता है। आप सभी को मालू म हो कि हमारा देश पत्रकारों पर जुल्म और ज्यादती के मामले में पिछले वर्ष की तुलना में दो पायदान नीचे उतरते हुए पूरे विश्व में 138वें स्थान पर शुमार है। ऐसी स्थिति में इन पत्रकारों का ना रहना लोकतंत्र के लिए खतरे की घंटी तो है।
राजस्थान पत्रिका लोगो 

करूणाकांत ने अपने फेसबुक वाल में लिखा हैकि हमे गौरी लंकेश भी याद हैं और शुजात बुखारी भी लेकिन इन दोनों की हत्या के दरमियान और उसके बाद भी कितने और पत्रकारों की हत्या हुई क्या ये हमें याद हैं? एक  नेटवर्क प्रोवाइडर, कैब सर्विस और हिन्दू मुस्लिम के नाम  पूरा देश हिला देने वाले मीडिया के पास ऐसे पत्रकारों के लिए वक्त क्यों नहीं है ? क्या सिर्फ राष्ट्रीय पत्रकारों की हत्या ही पत्रकारिता के लिए क्षति है? इन दोनों के मरने के इतने दिन बाद भी पुलिस ने अबतक कोई ठोस कार्यवाही नहीं की है ।

अचरज की बात ये है कि इन दोनों  की  आत्महत्या की खबर को मीडिया भी  भुला  चुकी है किसी भी संस्थान ने इस मामले में पुलिस या प्रशासन से सवाल करने की जहमत नहीं उठाई। यहां तक कि रेणु् जिस संस्थान  के लिए काम करती थी उसकी चुप्पी भी निराश करती है। 

करूणांकात आगे लिखते हैं कि रेणु बस्तर जैसे पिछड़े और आदिवासी इलाके से आती थी आपको उसके संघर्ष को समझना होगा कि ऐसे इलाके की किसी लडक़ी के लिए पत्रकारिता जैसे क्षेत्र में कैरियर बनाने के बारे में सोचना भी बहुत हिम्मत का काम है। रेणु उन तमाम लड़कियों के लिए नजीर बन सकती थी जो कुछ कर गुजरना चाहती थी लेकिन उसकी मौत के साथ ही उन लड़कियों के सपनो की भी एक हद तक मौत हो गयी। जिसका नजीर देकर वहां की लड़कियां समाज से लड़ सकती थी अब उसी को नजीर बना कर समाज उन्हें रोक देगा ।इन दो पत्रकारों की मौत बाकी पत्रकारों के लिए एक उदाहरण है कि आप खून पसीना देते रहिये अपने संस्थान को,लड़ते रहिये समाज के लिए लेकिन आपकी मौत पर ना आपका संस्थान सामने आएगा और ना ही ये समाज ।
शुभम सिंह ने लिखा है बात यहां खत्म नहीं होती है। कुशाभाऊ ठाकरे यूनिवर्सिटी के तमाम बुद्धिजीवी भी थोड़ा सुन लें...राज्य में पत्रकारिता को नई दिशा देने का जिम्मा है आपके कंधों पर। एक पत्रकार ने आत्महत्या की है.
 क्या आपको ये छोटी घटना लगती है? क्यों आपकी बोलती बंद है।  चुप्पी देखकर लगता नहीं है कि रेणु अवस्थी आपके यूनिवर्सिटी की छात्रा थी।मीडिया एथिक्स की बात करने वाले तमाम शिक्षकों से मेरी अपील है। अगर थोड़ी भी एथिक्स आपके अंदर बाकी है तो आगे आइये। नहीं तो अगली बार क्लास में मीडिया एथिक्स पर ज्ञान देने से पहले एक बार सोच लीजियेगा।

करमजीत कौर फेसबुक पर रेणु के लिए लिखती हैं, ‘मुझे यकीन नहीं हो रहा है रेणु कि तुम जैसी बहादुर और हौसलों से लबरेज पत्रकार आत्महत्या जैसा घातक कदम उठाएगी। अभी तो तुम्हें आसमां की बुलंदियों को छूना था। अपना दर्द बयां करने के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं। आज मैंने एक प्यारी बेटी को खो दिया है।’
कुछ साल पहले मुंगेली जिले में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के पत्रकार वैभव केशरवानी ने फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली थी। वैभव के जाने से पत्रकारिता जगत शोक में डूब गया था।

सुदर्शन न्यूज चैनल के छत्तीसगढ़ ब्यूरो प्रमुखयोगेश मिश्रा लिखते हैं- ‘छत्तीसगढ़ के बस्तर संभाग में पत्रकारों पर नक्सलियों और पुलिस दोनों तरफ से दबाव बनाया जाता है जिससे पत्रकारिता करने की चुनौतियां कई सालों से तीखी हुई है। छत्तीसगढ़ में इन्हीं तनावों के कारण पत्रकार आत्महत्या तक करते रहे हैं। वैभव के बाद अब अंबिकापुर जिले में शैलेंद्र विश्वकर्मा की फांसी से झूलती लाश मिली। छत्तीसगढ़ की पत्रकारिता जगत ने एक के बाद एक कई प्रतिभाशाली पत्रकार खो दिया है। अंबिकापुर में जिला संवाददाता के तौर पर कार्य कर रहे शैलेंद्र विश्वकर्मा की मौत की खबर पत्रकारिता जगत में जिस किसी भी को मिली हर कोई स्तब्ध रह गया। शैलेंद्र विश्वकर्मा एक सक्रिय पत्रकार के तौर जाने जाते थे। शैलेन्द्र प्रिंट मीडिया समेत कई इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में सक्रिय तौर पर काम करने के बाद इस चैनल में जिला संवाददाता के रूप मेंकाम कर रहे थे। हाल ही में हुए विकास यात्रा में भी शैलेंद्र ने बेहतरीन रिपोर्टिंग की थी। वह समय समय पर देश के राजनीतिक परिदृश्य पर भी अपने विचार सोशल मीडिया में लिखा करते थे। आखिरी रात भी शैलेंद्र ने सोशल मीडिया पर करीब 12:14 बजे रात को एक पोस्ट लिखा था। ऐसे में अलसुबह उनकी लाश फांसी पर झूलते मिलने से उनके जान-पहचान वाले लोग और पत्रकारिता जगत से जुड़े लोग गम में डूब गए।

दो पत्रकारों ने आत्महत्या ( हत्या) कर ली और राज्यमें तूफान के आने के पहले की शांति पसरा हुआ है कोई लिखना नहीं चाहता और न ही अब किसी की कलम स्टोरी के लिए उठ रही  है लिहाजा संपादकों ने इसे संपादकीय के लायक तक नहीं समझा और ना ही श्रद्धांजलि सभा। वाह रे लोकतंत्र तेरा चौथा पाया। पत्रकारों के आत्महत्या (हत्या) के बाद कैसे आप बहाना करते हुए बच जाएंगे कि व्यक्तिगत जिंदगी और सार्वजनिक जिंदगी दो अलग-अलग चेहरे हैं। मातम तो दूर जांच के लिए भी किसी की कलम नहीं उठ रही है। प्रदेश में एक अजीब ट्रेंड चल पड़ा है हत्या को आत्महत्या कहने का। बहुत खतरनाक है यूं ही चुप रह कर अपने अंत पर लिखना!

(लेखक दक्षिण कोसल के सम्पादक हैं. विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में नियमित लेखन. सम्पर्क: 7828046252)

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नये पेशवाओ की नई थ्योरी ‘अर्बन माओइस्ट’

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सीमा आज़ाद 


 सीमा आज़ाद  सामाजिक कार्यकर्ता एवं साहित्यकार हैं. संपर्क :seemaaazad@gmail.com

6 जून 2018 को सुबह ही यह खबर देश भर में फैल गयीकि देश के दो राज्यों से कुल पांच लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया है। इन गिरफ्तार लोगों में एक वकील, एक प्रोफेसर, एक सम्पादक व संस्कृतिकर्मी, एक जेएनयू स्कॉलर राजनीतिक कार्यकर्ता, और एक ज्प्ैै स्कॉलर विस्थापन विरोधी मोर्चे से जुड़े सामाजिक कार्यकर्ता हैं। इन पांचों की गिरफ्तारी के लिए कारण बताया गया कि ये लोग 1 जनवरी को पुणे के भीमा कोरेगांव की जुटान के आयोजक थे। हर किसी को यह बात आश्चर्य भरी लगी, लेकिन इस ‘कारण’ ने भीमा कोरेगांव के आयोजकों द्वारा सरकार को दिया गया नाम ‘नवी पेशवायी’ यानि नया ब्राह्मणवाद को सही साबित कर दिया। बदले में इस नयी  पेशवाई ने दलित स्वाभिमान के लिए सक्रिय इन पांचों को नाम दिया- ‘अर्बन माओइस्ट’ यानि शहरी माओवादी। यह नाम देकर उसने फिर से जाहिर कर दिया कि यह नयी पेशवा सरकार इस बार वर्णव्यवस्था और अर्थव्यवस्था के पायदान पर नीचे ढकेले गये लोगों पर वर्चस्व बनाये रखने के लिए इसी नामकरण के सिद्धांत पर चलेगी-‘अर्बन माओवादी’ या ‘रूरल माओवादी, ‘कस्बाई माओवादी’ और ‘भूमिगत माओवादी।’

पृष्ठभूमि 
लेकिन सबसे पहले चर्चा इस पर कि आखिर जनवरी में हुएभीमा कोरेगांव के आयोजन से सरकार इतना क्यों डर गयी, कि उसने पहले ताबड़तोड़ गिरफ्तारियां कीं, फिर ‘अर्बन माओइस्ट’ का शब्दजाल फेंका और फिर उनसे प्रधानमंत्री की हत्या की योजना भी बनवा डाली? इसके लिए हमें इसकी पृष्ठभूमि में जाना होगा।
31 दिसम्बर और 1 जनवरी जब नये साल का आगमन हर साल की तरह ही होना था, उसी समय महाराष्ट्र के पुणे जिले से 40 किमी दूर कोरेगांव में एक इतिहास को याद करने के लिए एक और इतिहास दोहराया जा रहा था। जिस इतिहास को याद किया जा रहा था, वह था 200 साल पहले भीमा कोरेगांव में हुआ वह युद्ध, जिसमें मुख्यतः महार सैनिकों की सेना ने  पेशवाओं की सेना को जबर्दस्त हार का मजा चखाया था। उस पेशवा राज की  सेना को, जिसमें महारों को मनुवादी वर्णव्यवस्था के नियमानुसार ‘अछूत’ माना जाता था। पेशवाओं के लिए ये इतने अछूत थे कि इन्हें सवर्णों द्वारा सिर्फ छूना ही मना नहीं था, बल्कि सड़क पर चलते समय इन्हें अपने पीछे एक झाड़ू और गले में एक हांडी लटकानी पड़ती थी, ताकि जिस रास्ते से ये चलें, पीछे बंधी झाड़ू उस स्थान को ‘स्वच्छ’ बनाती जाये, और चलते समय यदि महारों के मुंह में लार या थूक आ जाय, तो उसे ये सड़क पर न थूक, हांडी में थूकें ताकि रास्ता ‘पवित्र’ बना रहे। यह सब उस समय के पेशवाओं का ‘स्वच्छ भारत अभियान’ था, (जो आज के पेशवाओं द्वारा दलितों को बस्तियों से भगाने में बदल गया है)। पेशवाओं के खिलाफ या उनके द्वारा वर्जित किये गये शब्दों या वाक्यों को बोलने वाले महारों का सिर कलम कर उसे पेशवा फुटबाल की तरह खेलते थे, ताकि बाकी महारों में ऐसा करने का खौफ भरा जा सके। और यह सब मात्र सामाजिक धर्म का हिस्सा नहीं था, बल्कि यह बाकायदा राजकीय धर्म और कानून था (उस समय की पेशवाई और नयी पेशवाई की सत्ता में बस इतना ही फर्क है)

गिरफ्तार सामाजिक कार्यकर्ताओं के लिए एक पोस्टर 


पेशवाओं का क्रूर समय का प्रतीक विजय 
स क्रूर समय को समझे बगैर भीमा कोरेगांव के इस युद्ध और इसमें महारों की उपलब्धि को नहीं समझा जा सकता। दरअसल महारों ने यह युद्ध अंग्रेजों के नेतृत्व में लड़ा था, इसलिए पेशवा मानसिकता के लोग इस तथ्य की आड़ में इसके महत्व को कम करने का प्रयास करते हैं। वास्तव में इस युद्ध का यह महत्व है कि इसने वर्णव्यवस्था के समर्थकों और संरक्षकों के इस दंभ को तोड़ दिया था कि युद्ध लड़ना और उसमें विजय हासिल करना सिर्फ क्षत्रियों का कर्म है, पेशवाओं का राज करना और शूद्रों का कर्म सिर्फ सेवा करना है। इस युद्ध के परिणाम ने मनुवादी वर्णव्यवस्था के पोषक पेशवा राज का दंभ तोड़ दिया था साथ ही शूद्रों को आत्म सम्मान से भर दिया था। इस युद्ध में शहीद हुए महार और अन्य सैनिकों (जिसमें मुसलमान भी थे) की याद में अंग्रेजों ने एक ‘विजय स्तंभ’ का निर्माण कराया और उस पर उनका नाम भी खुदवाया, जिसे आज भी पढ़ा जा सकता है । बाद में इस स्तंभ को डा भीमराव अंबेडकर ने ‘शूद्रों का प्रेरणा स्तंभ’ कहा, उन्हें उनकी शक्ति का एहसास कराने वाला ‘शौर्य स्तंभ’। जो लोग भी इसे अंग्रेजों के पक्ष में किया गया युद्ध कहकर इसकी आलोचना करते हैं, उनके लिए यहां बस एक बात- अंबेडकर लगातार कहते और लिखते रहे कि यदि भारत से मनुवादी वर्णव्यवस्था का खात्मा नही हुआ, तो अंग्रेजों के जाने से भी शूद्रों की गुलामी की अवस्था पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। और हम यह देख रहे है कि अंग्रेज चले गये, लेकिन शूद्र जातियों की स्थिति में मामूली बदलाव ही हुये हैं, क्योंकि मनुवादी वर्णव्यवस्था अंग्रेजों के जाने के बाद भी बनी हुई है। सवर्णों के लिए आजादी की लड़ाई का आयाम इकहरा था, लेकिन अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए इस लड़ाई का आयाम दोहरा था। इस सन्दर्भ में भीमा कोरेगांव का 200 साल पुराना यह युद्ध वास्तव में मनुवादी वर्णव्यवस्था को टक्कर देने वाली एक छोटी सी लेकिन महत्वपूर्ण घटना थी।

अंबेडकर द्वारा इस स्थान का महत्व याद दिलाये जाने के बाद यहां हर वर्ष इन तारीखों पर सैकड़ों का जमावड़ा होता है, जो इसे ‘शौर्य दिन’ के रूप में याद करते और मनाते हैं। इस साल क्योंकि इसके 200 साल पूरे हो रहे थे, इसलिए एक बड़े जमावड़े की योजना बनी। योजनाकर्ता संगठनों की तादाद भी 200 के आसपास ही थी, जिसमें अधिकतर दलित संगठनों के अलावा पिछड़ी जातियों के संगठन, सांस्कृतिक संगठन, महिला संगठन, आदिवासी संगठन और विभिन्न मुद्दों पर काम करने वाले कई जनवादी संगठन शामिल थे। ये सभी ‘एल्गार परिषद’ के नाम से एकजुट हुए। इसके कई प्रमुख आयोजकों में एक थे सुधीर ढावले, (जिन्हें 6 जून को गिरफ्तार किया गया) और हर्षाली पोतदार (जिसके घर पर 17 अप्रैल को तलाशी अभियान किया गया)। आयोजन के वक्ताओं में कई प्रतिष्ठित लोगों के साथ शोमा सेन भी थी।(जिनका नाम 17 अप्रैल की एफआईआर में नहीं होने पर भी 6 जून को घर पर घण्टों तलाशी ली गयी और फिर गिरफ्तार कर लिया गया)।

जैसाकि पहले कहा गया है इस बार के भीमा कोरेगांवजुटान का नारा था ‘नयी पेशवाई को ध्वस्त करो’। इस आयोजन और जुटान दोनों में गड़बड़ी पैदा करने के लिए सरकार ने और उसकी पेशवा राज के संगठनों ने एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया। पहले तो लोगों को यहां इकट्ठा होने से रोकना शुरू किया लोगों की बसों को भीमाकोरेगांव के स्तंभ तक पहुंचने के कई किलोमीटर पहले ही उनकी बसों को रोक दिया गया। फिर भी भीड़ की संख्या लाख तक जा पहुंची। इसके बाद सरकार के समकक्षी साम्प्रदायिक मनुवादी संगठनों ने आने वालों को रोकने के लिए बलवाई गतिविधियों का सहारा लेना शुरू कर दिया। लोगों को मारना, उन पर हमले करना, बसों या उनकी सवारियों में आग लगाना, जिससे अफरा-तफरी का माहौल का माहौल बन गया। यह बलवा कराने में हिन्दूवादी संगठनों के दो नेता मिलिंद एकबोटे और संभाजी भिंडे की अहम भूमिका है, इन्होंने अपने भाषणों में खुलेआम मनुवादी सवर्णों से शूद्रों के खिलाफ हिंसात्मक कार्यवाही की अपील की, उनके भाषण के वीडियों अभी भी यूट्यूब पर सुने जा सकते हैं। बलवा कराने के लिए इन दोनों पर एफआईआर भी दर्ज करायी गयी, लेकिन इनमें केवल मिलिंद एकबोटे की गिरफ्तारी ही हुई वो भी काफी धरना-प्रदर्शनों के बाद, लेकिन जल्द ही वो जमानत पर रिहा भी हो गया। भिंडे पर तो आंच भी नहीं आयी क्योंकि वो प्रधानमंत्री नरेन्द्रभाई मोदी का प्रेरणास्रोत है, इसका ऐलान मोदी जी ने खुद खुलेआम किया है।(इसके बाद भी किसी को इस सत्ता के ‘नयी पेशवाई’ होने में शक नहीं होना चाहिए)। आयोजन में आने से रोकने के लिए हिन्दूवादी संगठनों ने हिंसा का सहारा लिया, दूसरी ओर भीमा कोरेगांव में आयोजन सफलता पूर्वक सम्पन्न हो गया, फिर भी सरकार ने आयोजन के जुटान में हुए बलवे का ठीकरा ‘एल्गार परिषद’ पर ही फोड़ना चाहा।  लेकिन भिंडे और एकबोटे की ‘हेट स्पीच’ वायरल होने और पुणे के बलवे का स्रोत सभी के सामने आ जाने और इन दोनों के साथ अन्य कई दोषियों के खिलाफ एफआईआर दर्ज हो जाने के कारण नये पेशवाओं को मामला हाथ से निकलता दिखने लगा। मार्च तक एकभोटे की जमानत होने और उसके जेल से निकलने तक उनकी ओर से चुप्पी रही, और उसके बाद फिर सभी चीजें नयी पेशवाई के पक्ष में पलटनी शुरू हो गयीं।

अप्रैल की एक घटना, जिसके बाद पुलिस दूसरी दिशा में सक्रिय हुई 
अप्रैल में अचानक खबर आयी किहिन्दूवादी संगठनों द्वारा बलवा करने वालों की हरकतों की मुख्य चश्मदीद गवाह 19 वर्षीय किशोरी जो कि बलवे के बाद से पुणे के पुनर्वास केन्द्र में रह रही थी, पास के कुएं में मरी हुई पायी गयी। घर वालों द्वारा इसे हत्या का मामला बताने के बाद भी पुलिस इसे आत्महत्या का मामला बताती रही। 17 अप्रैल को भोर में ही सुधीर ढावले के मुम्बई स्थित ऑफिस/घर पर, हर्षाली पोतदार के घर पर, भीमा कोरेगांव के आयोजक संगठनों में एक कबीर कला मंच के जिम्मेदार लोगों के घर पर, नागपुर में वकील सुरेन्द्र गाडलिंग के घर पर और दिल्ली में रोना विल्सन के घर पर घण्टों तलाशी अभियान चलाया गया (वास्तव में पुलिसिया तलाशी अभियान को ‘डाका अभियान’ कहना अधिक उचित है, क्योंकि पुलिस हमेशा ऐसे अभियानों में घर में रखे कम्प्यूटर, लैपटॉप, मोबाइल फोन, इलेक्ट्रानिक संचार माध्यम, महत्वपूर्ण किताबें, आवश्यक दस्तावेज और सारे रूपये-पैसे लेकर चली जाती है, अब के सभी तलाशी अभियानों में उसने यही किया है)। इस ‘डाका अभियान’ के बाद भिंडे और एकबोटे और उसके साथियों पर बलवा करने के लिए मुकदमा चलाने की बजाय सरकार ने इन सभी पर भीमाकोरेगांव के ‘आयोजन के लिए’ एफआईआर दर्ज कर लिया। इसके बाद डेढ़ महीने खामोश रहने के बाद उसने 6 जून को एक नये खुलासे के साथ इन सभी को, साथ ही एफआईआर के बाहर के दो अन्य लोगों शोमा सेन और महेश राउत को गिरफ्तार कर लिया। पहले कहा गया कि भीमाकोरेगांव के आयोजन के  ये दोषी हैं। इस बात से जब देश के दलित और पिछड़ी जातियों के संगठन में रोष फैलने लगा, तो कहा गया कि ये लोग ‘अर्बन माओवादी हैं, जिन्हें कोरेगांव के आयोजन के लिए माओवादियों ने पैसा सप्लाई किया, जब यह बात भी लोगों को नहीं पची और विरोध-प्रदर्शनों की लहर तेज होने लगी, तो कहा गया कि ये लोग ऐसे माओवादी हैं, जो प्रधानमंत्री को राजीव गांधी की तरह (आत्मघाती बम से) मारने की योजना बना रहे थे, और माओवादियों के लिए 80 हजार के हथियार भी खरीदने वाले थे। यह कहने के साथ पुलिस ने एक चिट्ठी भी जारी कर दी, जिसे कि दिल्ली के रोना विल्सन के कम्प्यूटर पर पाया जाना बताया गया। इसमें वहीं बातें लिखी हुई हैं, जो पुलिस ने पहले बतायी थी (इसकी उलट बात कि पत्र में जो लिखा था, वही पुलिस ने बताया सही नहीं है, बहुत से तथ्यों से पत्र के झूठा होने का खुलासा हो जाता है)। इस पत्र, जो कि ‘केस प्रापर्टी’ है का पुलिस द्वारा यूं मीडिया में जारी करना गैरकानूनी तो था, लेकिन सोशल मीडिया पर इसे पढ़कर इसकी विश्वसनीयता पर गम्भीर सवाल उठने लगे।

एल्गार परिषद में उपस्थित सामाजिक कार्यकर्ता बायें से जिग्नेश मेवानी, विनय, राधिका वेमुला, सोनी सोरी, उमर ख़ालिद


पत्र पर सवाल 
पहली बात तो यह कि माओवादी ऐसी योजनायें यूं पत्र लिखकर कबसे बनाने लगे? दूसरा ये कि माओवादी कभी आत्मघाती हमले नहीं करते, वे इसकी राजनीति में यकीन ही नहीं करते और आज तक उनका ऐसा कोई रिकॉर्ड भी नही है, इसी से इस पत्र के फर्जी होने की बात उजागर हो जाती है।  लगता है राजीव गांधी टाइप हत्या की बात जोड़ने वाले ने सोचा होगा कि यह लिखने से कांग्रेसियों और विपक्षी दलों का मुंह भी इनके समर्थन में बन्द किया जा सकेगा। जाहिर है यह पत्र छोटे पद पर बैठे किसी व्यक्ति की नहीं, बल्कि राजदरबार में बैठे शातिर दिमाग आदमी की शातिर योजना है।

‘अर्बन माओवादी थ्योरी’ दमन के हथियार के तौर पर
 सरकार द्वारा प्रचारित ‘अर्बन माओवादी’ शब्द इस सन्दर्भ में भ्रमित करने वाला है कि इस सरकारी जुमले में यह निहित है कि ‘अब तक माओवाद केवल रूरल यानि ग्रामीण क्षेत्र तक ही सिमटा था, अब यह शहरी भी हो गया।’ जबकि सच्चाई यह है कि भारत में माओवाद अपने जन्म नक्सलबाड़ी आन्दोलन के समय से ही ऐसे किसी बंटवारे में नहीं बंटा है। उस समय भी शहरों में पढ़ने वाले छात्र-छात्रायें इस आन्दोलन से प्रभावित हुए और इसका हिस्सा बने, इस पर ढेरों उपन्यास, कहानियां भी लिखे गये और फिल्में भी बनी हैं। कोलकाता का प्रेसीडेंसी कॉलेज इस आन्दोलन से इतना प्रभावित था कि आन्दोलन के उफान के दौरान तीन साल तक कॉलेज बन्द रहा। वर्तमान माओवादी पार्टी के नेतृत्व में भी शहरों में अपना छात्र जीवन बिताने वाले तमाम लोग हैं, जिनकी जानकारी खुद सरकारी खुफिया विभाग ही समय-समय पर देता रहता है। लेकिन सरकार इस मामले को इस तरीके से प्रचारित कर रही है, जैसे माओवादी आन्दोलन पहले जंगल और गांवों तक सिमटा था और अब वहां से निकल कर शहरों में आ गया है, इसलिये यह बहुत ही खतरे की बात हो गयी है। जबकि सच्चाई यह है कि माओवाद शहरों से लोगों को प्रभावित कर जंगलों और गांवों की ओर भी ले जाता रहा है। वास्तव में इस नामकरण द्वारा सरकार शहर में होने वाले आन्दोलनों को सनसनीखेज बनाकर प्रस्तुत करने के प्रयास में है। और यह प्रयास चिदम्बरम के गृहमंत्रित्वकाल से ही शुरू हो गया है।

भीमा कोरेगांव पहला मामला नहीं है, जिसका सरकार ने शहरीमाओवादियों द्वारा आयोजित करने के नाम पर दमन किया गया। जैसे-जैसे जनता का आक्रोश बढ़ता जा रहा है और इसे संभालना सरकार के हाथ से बाहर होता जा रहा है, वह उसके दमन के लिए ऐसे ही नाम से सम्बोधित करती है। इसके बाद बहस इसके इर्द-गिर्द केन्द्रित होने लगती है कि ‘मामला माओवादियों से जुड़ा है या नहीं’। खासतौर से ‘गोदी मीडिया’ के माध्यम से इस बहस को हवा भी दे दी जाती है। इस ‘गोदी मीडियाई’ हवा में  यह बहस ही गायब हो जाती है कि जिस व्यक्ति या आन्दोलन पर दमन हुआ, वह क्या था और कैसा आन्दोलन था।
येल्गार परिषद के आयोजकों में से एक डा  बाबासाहेब अम्बेडकर के प्रपौत्र प्रकाश अम्बेडकर


दलितों-पिछड़ों के हर संघर्ष को नक्सलवादी कह देने का रिवाज 

पिछले कई सालों से खासतौर पर 2014 से,मनुवादियों-ब्राह्मणवादियों के सर्वश्रेष्ठ प्रतिनिधियों के सत्ता में आ जाने के बाद से दलितों-पिछड़ों पर हमले बढ़े हैं। लेकिन दमन हमेशा डराता नहीं है, यह क्रोधित भी करता है इस कारण प्रतिरोध भी उतना तीखा होता जा रहा है, जिससे नये पेशवाओं की बौखलाहट बढ़ती जा रही है, लेकिन आज के समय के इन पेशवाओं की समस्या यह है कि ये शूद्रों या पिछड़ी जातियों को ‘शूद्र‘ ‘नीच’ या  ‘अछूत’ कहकर या इस नाम पर उनका उत्पीड़न नहीं कर सकती। इसलिए वे पहले उन्हें नया नाम देते हैं-‘माओवादी’ या ‘नक्सलवादी’। इस नामकरण के बाद इन पर दमन करना लोगों की नजर में भी ‘लोकतान्त्रिक’ हो जाता है।
सहारनपुर में हिन्दुवादी संगठनों ने मिल कर दलितों की बस्ती में बलवा किया, जब भीम आर्मी ने इसके खिलाफ प्रदर्शन किया, तो योगी सरकार प्रचारित करने लगी कि ‘भीम आर्मी का सम्बन्ध नक्सलियों से है।’  इस घोषणा के बाद इनके चन्द्रशेखर आजाद ‘रावण’ सहित कई नेताओं को गिरफ्तार कर उन पर ढेरों मुकदमें जड़ दिये गये, जिसके कारण एक साल बाद भी इनकी रिहाई सम्भव नहीं हो सकी है। इतना ही नहीं इस घटना के एक साल पूरे होने पर 5 मई को भीम आर्मी के जिला संयोजक के भाई की हत्या राजपूतों की अघोषित आर्मी ने कर दी, लेकिन उसका नाम ‘अज्ञात’ रखकर किसी की भी गिरफ्तारी नहीं की गयी।

उना में गाय मारने के नाम पर पांच दलितों की सरेआम पिटाई की घटना के विरोध में जब वहां जिग्नेश मेवानी के नेतृत्व में देश भर के दलित और मुस्लिम संगठनों ने एकजुट प्रदर्शन किया, तो उस जुटान को भी नक्सलियों द्वारा प्रायोजित बताया गया। जबकि वहां भी हिन्दुवादी संगठनों ने बलवा  किया और प्रदर्शन से लौट रहे लोगों पर हमले किये, लेकिन न तो इन्हंे रोका गया, न ही किसी के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज की गयी। यहां तक कि तूतीकोरिन में प्रदर्शनकारियों पर गोली चलाने और 13 लोगों की सरकारी हत्या के बाद यह सफाई दी गयी कि इस प्रदर्शन को नक्सलियों ने आयोजित किया था।  इसके अलावा सिंगूर, नन्दीग्राम, कलिंगनगर, जगतसिंगपुर, रायगढ़, नर्मदा जैसे तमाम विस्थापन विरोधी आन्दोलनों पर भी माओवादी नक्सलवादी का ठप्पा लगाकर उनका दमन किया जा रहा है और आगे भी किया जायेगा, ऐसा लगता है। लेख लिखे जाने तक तमिलनाडु के मदुरई में आठ लाइन सड़क निर्माण योजना में उजाड़े गये किसानों के आन्दोलन की अगुवाई कर रहे दो सामाजिक कार्यकर्ताओं और तूतीकोरिन आन्दोलनकारियों के मुकदमें देख रहे एक वकील वंचिनाथन को पुलिस गिरफ्तार कर चुकी है।

यहां यह महत्वपूर्ण सवाल है कि क्या माओवादी का ठप्पा लगा देने के बाद उस व्यक्ति या आन्दोलन पर किसी भी तरह का दमन जायज हो जाता है? सरकार की इस ‘ठप्पाकरण’ की नीति के दौर में इस पर विचार करना बेहद जरूरी हो गया है। इस ‘ठप्पाकरण’ के बाद सरकार इन आन्दोलनकारियों से सबको नहीं भी तो कुछ लोगों को अलग-थलग कर देने में कैसे सफल हो जाती है? दरअसल आन्दोलनों को माओवादी आन्दोलन कह कर दमन करने और लोगों से काट देने की मानसिकता देश की जनता की मानसिकता से जुड़ी है। कॉमन सेन्स यह कहता है कि कोई भी आन्दोलन, आयोजन और उसका मुद्दा लोकतांत्रिक है या नहीं, यह अधिक महत्वपूर्ण, न कि ये, कि इसे कौन आयोजित कर रहा है। माओवादी विचारधारा का समर्थन करने वाला भी यदि किसी लोकतान्त्रिक मुद्दे पर लोकतान्त्रिक तरीके से ही आन्दोलन या धरना प्रदर्शन कर रहा है, तो उस आन्दोलन को इस आधार पर नहीं रौंदा जा सकता कि यह आन्दोलन माओवादी कर रहे हैं। यही असली लोकतन्त्र है। लेकिन सरकार ने अपने तानाशाहीपूर्ण कृत्यों को जारी रखने के लिए यह प्रचार किया हुआ है कि किसी प्रतिबन्धित संगठन से सहानुभूति रखना या सहमति रखने से ही उस व्यक्ति या संगठन का विरोध-प्रदर्शन करने का अधिकार छिन जाता है। इस प्रचार के आड़ में वह हर तरह के आन्दोलनों को कुचलने के लिए स्वच्छंद हो जाते हैं।

दुखद यह है कि इस सरकारी प्रचार के छलावे मंेकेवल आम लोग ही नहीं है, बल्कि ढेरों बुद्धिजीवी और प्रगतिशील लोग भी है। जो खुद बहुत सारे आन्दोलनों से लोगों को यह कह कर दूर करते हैं कि ‘इसमें माओवादी शामिल हैं।’ साम्राज्यवादी देशों से फण्ड और स्कॉलरशिप प्राप्त करने वाले एनजीओ, बुद्धिजीवी और कई वामदल तो सिर्फ इसी आधार पर माओवादियों के जनवादी आन्दोलनों के खिलाफ खड़े हो जाते हैं। लोगों की आन्दोलनों की चेतना को कुंद करते हुए वे एक कदम आगे बढ़कर इस तरह का प्रचार करने लगते हैं कि ‘इनके कारण सभी जनआन्दोलनों पर दमन बढ़ रहा है।’ ऐसा प्रचारित कर वे जनवादी आन्दोलनों के साथ नहीं, बल्कि सरकारी दमन के साथ खड़े हो जाते हैं। वास्तव में यह भी ‘नयी पेशवायी सामन्ती’ सोच का ही विस्तार है कि ‘फला क्षेत्र में केवल वे ही रहें, दूसरों का प्रवेश न होने पाये ताकि उनका विदेशों-देशों से मिलने वाला फण्ड सुरक्षित बना रहे। ऐसी सोच रखने वाले बहुत से लोगों और संगठनों का नाम यहां लिखा जा सकता है, लेकिन ऐसा करने से वे इस अलोकतान्त्रिक सरकार के और भी कृपापात्र बन जायेंगे।
शोमा सेन गिरफ्तारी के पूर्व 


यहां चर्चा का विषय सिर्फ यह है कि जब तक लोगों की लोकतांत्रिक चेतना यहां तक नहीं पहुँचती, कि हर किसी को जनवादी तरीके से विरोध प्रदर्शन या सभा समारोह करने का अधिकार  है, तब तक सरकार जनवादी आंदोलनों को अपने द्वारा प्रतिबंधित किसी भी संगठन से जुड़ा बताकर उसका दमन आराम से करती रहेगी, अपने बनाये जनद्रोही कानूनों के तहत लोगों को जेलों में डालती रहेगी। आज के समय में यह उसके लिए सबसे आसान तरीका है, जो कि लोकतन्त्र बचाने नहीं, बल्कि उसकी ही हत्या करने वाला तरीका है। इसे रोकना भी आज की जनवादी ताकतों का मुख्य काम होना चाहिए। लोकतन्त्र की रक्षा के लिए किसी भी दमन में सिर्फ यह देखना ही काफी है कि वह व्यक्ति/संगठन/आयोजन/प्रदर्शन लोकतान्त्रिक था या नहीं? न कि सरकारी प्रचार में आकर यह देखना कि उसमें माओवादी/नक्सलवादी थे या नहीं। जिस तरह सरकार द्वारा प्रतिबंधित किसी भी संगठन के व्यक्तियों, माओवादियों, अलगाववादियों या किसी भी अपराधी को फर्जी मुठभेड़ में मार देना गैरकानूनी है, उसी तरह किसी को भी लोकतान्त्रिक मुद्दों पर लोकतान्त्रिक तरीके से धरना प्रदर्शन या समारोह करने से रोकना भी गैरकानूनी है। लेकिन हमारे देश का चलन तो यह है कि साम्प्रदायिकता फैलाकर लोकतन्त्र को छूरा घोंपने वाले संगठनों को कहीं भी कोई भी आयोजन करने की, यहां तक कि अस्त्र-शस्त्र प्रदर्शन और प्रशिक्षण की भी खुली छूट है, लेकिन लोकतान्त्रिक हक अधिकार की मांग करने वाले संगठनों को प्रतिबंधित किया जाता है, फिर प्रतिबन्धित होने के नाम पर उन्हें धरना प्रदर्शन से रोका जाता है, उन्हें जेलों में डाला जाता है। भीमाकोरेगांव आयोजन के सिलसिले में गिरफ्तार किये गये पांचों लोगों के परिचय और इस घटना के बारे में जानिये तो स्पष्ट होता है कि ये पांचों लोेग कोई भी ऐसा काम नहीं करते थे, या कभी किया था, जो कि लोकतन्त्र विराधी हो, बल्कि ये सभी लोग लोकतंत्र को मजबूत करने के संघर्ष के साथ खड़े हैं। फिर भी ‘अर्बन माओवादी’ के ठप्पे ने इनके सारे कामों को लोकतन्त्र विरोधी करार दे दिया। ऐसे बढ़ते मामलों में माओवादी होने या न होने के सरकारी तर्क का समर्थन करना या इस बहस में उलझना भी अन्याय के साथ खड़े होना है। भीमाकोरेगांव मामलों में हुई ये पांचों गिरफ्तारियों और भीमाकोरेगांव के आयोजन को इसी बहस में उलझाकर  नयी पेशवा सरकार ने एक अन्यायी चाल चली है, कोर्ट इस बहस से कितना प्रभावित होगा, इसके बारे में सभी को अनुमान है, लेकिन उसके बाहर इस बहस से बाहर निकलकर सरकार के इस अन्यायी कदम की निंदा करना, एकजुटता बनाना, विरोध करना ही लोकतन्त्र के बचाव के लिए जरूरी है।

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हम सब को स्त्रीवादी होना चाहिए

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चिमामंडा न्गोजी अदिची 
प्रस्तुति और अनुवाद : यादवेन्द्र 

"पर्पल हिबिस्कस"की लेखिका नाइजेरियाई मूल की अमेरिकी लेखिका चिमामंडा न्गोजी अदिची-लिखित स्त्रीवादी पक्षधरता के इस लेख का अनुवाद यादवेन्द्र ने किया है. एक पठनीय लेख:

2003 में मैंने 'पर्पल हिबिस्कस'लिखा था जिसका मुख्य किरदार बहुतेरे काम करता है - अपनी बीवी को मारता भी है - और कहानी का अंत मन को दुखी कर देता है।अपने देश नाइजीरिया में जब मैं इस किताब का प्रोमोशन कर रही थी तो एक शालीन प्रतिष्ठित पुरुष पत्रकार ने मुझे सलाह देने की पेशकश की - बिन माँगे सलाह देने में नाइजीरियाई लोग बहुत आगे हैं ।उसने कहा, लोगों को यह उपन्यास स्त्रीवादी (फेमिनिस्ट) लगता है और आपको खुद पर फेमिनिस्ट होने का आरोप कतई नहीं लगने देना चाहिए क्योंकि ऐसी स्त्रियाँ जीवन भर दुःख  भोगती हैं...उनको शादी करने के लिए लड़के नहीं मिलते। इसलिए मैंने अपने आपको फेमिनिस्ट नहीं हैप्पी फेमिनिस्ट कहना शुरू कर दिया।


इसके बाद एक महिला प्रोफ़ेसर ने कहा कि फेमिनिज्म नाइजीरियाकी संस्कृति का हिस्सा नहीं है,यह गैर अफ़्रीकी विचार है और मैं खुद को फेमिनिस्ट इसलिए कहती हूँ क्योंकि मैं पश्चिमी साहित्य पढ़ कर बड़ी हुई हूँ।मुझे यह तर्क मज़ेदार लगा क्योंकि मेरी शुरू की सारी पढ़ाई निर्विवाद तौर पर गैर स्त्रीवादी साहित्य से हुई है - सोलह वर्ष की उम्र तक पहुँचते पहुँचते मिल्स एंड बून के रोमांस सीरीज़ का कोई ऐसा उपन्यास नहीं बचा था जो मेरे पढ़ने से रह गया हो। जब जब भी मैंने कथित तौर पर क्लैसिक फ़ेमिनिस्ट साहित्य पढ़ने की कोशिश की ,बुरी तरह बोर हो गयी और जैसे- तैसे पन्ने पलट कर उनसे निज़ात पायी। अब जब फ़ेमिनिज्म को गैर अफ़्रीकी करार दे दिया गया तो मैंने खुद को हैप्पी अफ़्रीकन फ़ेमिनिस्ट कहने का निश्चय किया। फिर एकदिन मेरे एक प्रिय मित्र ने कहा कि खुद को फ़ेमिनिस्ट कहने का मतलब ही हुआ मैं पुरुषों से घृणा करती हूँ।तब मुझे खुद को ऐसा हैप्पी अफ़्रीकन फ़ेमिनिस्ट कहना पड़ा जो पुरुषों से घृणा नहीं करती। इसके बाद बाद मैंने खुद को ऐसा हैप्पी अफ़्रीकन फ़ेमिनिस्ट कहना शुरू जो पुरुषों से घृणा नहीं करती ,जिसको लिप ग्लॉस लगाने  का शौक है और जो हाई हील्स पहनती है मर्दों को खुश करने के लिए नहीं क्योंकि यह उसको अच्छा लगता है।

दुनिया में जहाँ कहीं भी जाएँ ,जेंडर बड़ीखास जगह रखता है पर अब समय आ गया है जब हमें दूसरे तरह की दुनिया के बारे में सोचना शुरू करना चाहिए,  उसका सपना देखना चाहिए। पहले से ज्यादा न्यायपूर्ण दुनिया, ज्यादा खुश पुरुषों और स्त्रियों की दुनिया जो जैसे दिखते हैं वैसे ही हों भी। लैंगिक मुद्दों पर किसी के साथ बात करना आसान नहीं है.  बात शुरू करते ही लोग असहज होने लगते हैं ,कई बार तो क्रुद्ध भी हो जाते हैं।चाहे पुरुष हो या स्त्री ,दोनों इस विषय पर बात करने से कतराते हैं, या यूँ कहें कि यह कहते हुए वहाँ से उठ जाना चाहते हैं कि बहस का यह कोई मुद्दा ही नहीं है।ऐसा इसलिए होता है कि यथास्थिति को बदलना हमेशा असुविधाजनक होता है।

कुछ लोग कहते हैं : "इस शब्द फ़ेमिनिस्ट के लिए इतना आग्रह क्यों ?यह क्यों नहीं कहतीं कि तुम मानव अधिकारों  (या इस से मिलता जुलता कोई शब्द) की समर्थक हो।"मैं ऐसा इसलिए नहीं कर पाती क्योंकि यह सरासर बेईमानी होगी। व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखें तो फ़ेमिनिज्म मानव अधिकारों के अंदर सम्मिलित है पर मानव अधिकार जैसे अस्पष्ट जुमले को चुनने का मतलब होगा कि लिंग के एकदम स्पष्ट और केन्द्रित मुद्दे से आँखें चुराना। इसका अर्थ हुआ कि सैकड़ों सालों से स्त्रियों को समाज की मुख्य धारा से काट कर वंचित रखा गया इस से इनकार - इस से इनकार कि लैंगिक समस्या सिर्फ़ स्त्रियों को निशाना बनाती है, यह स्त्रियों के मनुष्य होने के हक का छीनना था। सदियों तक मनुष्य जाति को दो हिस्सों में बाँटा जाता रहा है और धीरे-धीरे यह प्रवृत्ति एक वर्ग के अलगाव और दमन में तब्दील हो गयी। इस समस्या को जबतक स्वीकार नहीं किया जाता तब तक न्याय नहीं किया जा सकता।
फिक्शन अवार्ड के अवसर पर लेखिका 

कुछ पुरुष फ़ेमिनिज्म के विचार से डरते हैं - खतरा महसूस करते हैं। मुझे लगता है इसकी जड़ में लड़कों की परवरिश की परिपाटी है - उनको बचपन से घुट्टी में पिलाया जाता है कि पुरुष वह क्या जिसका कुनबे पर स्वाभाविक नियंत्रण न हो। कुछ दूसरे कहेंगे : "सही , यह बात दिलचस्प है पर मैं तुम्हारी तरह नहीं सोचता। मेरे लिए तो जेंडर कुछ है ही नहीं।"हो सकता है यह कोई बात न हो।  पर समस्या की जड़ यही है - कि बहुतेरे पुरुष न तो जेंडर की बात सोचते हैं न उन्हें लैंगिक विभाजन दिखाई देता है। कइयों को लगता है पहले सालों में ऐसा जरूर था पर अब सबकुछ ठीक ठाक हो गया है सो बदलाव की कोशिश अनावश्यक है। एक मिसाल देती हूँ - आप किसी रेस्तराँ में जाते हैं और वेटर सिर्फ़ आपको नमस्ते करता है तो क्या आपको नहीं लगता कि पलट कर पूछें :"तुमने मेरे जो आयी है उसको नमस्ते क्यों नहीं की ?"ऐसे तमाम आम और मामूली मौकों  पर पुरुषों को खुल कर बोलना चाहिए।

जेंडर का मामला असहज करता है, इसलिए इसपर चुप्पी साध ली जाए यह सबसे सहूलियत वाला रास्ता है। कुछ लोग क्रमिक विकास ( इवॉल्यूशन ) के सिद्धांत का हवाला दे सकते हैं कि बनमानुष  को देखो ,मादा नर के सामने सिर झुकाती है। पर मैं कहती हूँ - हम बनमानुष तो नहीं। .... वे पेड़ों पर रहते हैं ,कीड़े मकोड़े खाते हैं पर हम तो नहीं करते ऐसा। कुछ ऐसे भी होंगे जो गरीबी का हवाला देकर कहेंगे कि गरीबों को भी भारी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। सही है ,करना पड़ता है।

पर यह सारी चर्चा इस मुद्दे पर नहीं है - लिंग (जेंडर) और वर्ग (क्लास) अलग अलग मुद्दे हैं।गरीब पुरुषों को भले ही दौलत का ऐश नसीब न हो मर्दानगी का ऐश तो है ही ,रहेगा ही।अनेक  अश्वेत पुरुषों से बात करते हुए मुझे यह अच्छी तरह महसूस हो गया कि एक विषय कैसे दूसरे विषय की एकदम अनदेखी कर सकता है - दमन के इतिहास में यह अक्सर दिखाई देता है। एकबार मैं ऐसे ही बात कर रही थी कि एक ने कहा :"तुम औरतों की बात बार-बार क्यों करती हो .... इंसान की बात करो न। "ऐसी बातें कह कर आपके निजी तजुर्बों को झटके से खारिज कर दिया जाता है। मुझे इस से इनकार कहाँ है कि मैं एक इंसान हूँ पर स्त्री होने के नाते मुझे जीवन में जो कुछ झेलना पड़ता है वह झूठा कैसे हो जायेगा। यही आदमी अपने अश्वेत होने के तमाम तजुर्बों पर भाषण देता फिरता है ( मैं भी तो उसको जवाब दे सकती थी ,"तुम्हारे तजुर्बों को मर्दों या इंसान के तजुर्बों के तौर पर क्यों न देखा जाए। ... अश्वेत होने का आग्रह क्यों ?")

छोड़िये यह सब ,यह चर्चा जेंडर को लेकर चल रही है। कुछ ऐसे भी होंगे जो कहेंगे :"जो कुछ भी हो असली ताकत तो औरतों के पास ही रहनी है - कूल्हों की ताकत ( नाइजीरियाई स्त्रियों की अपनी सेक्सुअलिटी का उपयोग कर पुरुषों से काम करा लेने की प्रवृत्ति ) पर वास्तव में कूल्हों की ताकत कोई वास्तविक ताकत नहीं है क्योंकि भड़काऊ कूल्हों वाली औरतें भी इस समाज में किसी तरह की ताकत नहीं रखतीं - उसके पास बस यह अतिरिक्त रास्ता है कि वह किसी ताकतवर मर्द तक आसानी से पहुँच बना सकती है। पर तब क्या होगा जब सारे प्रलोभन के बाद भी मर्द को लुभाना मुमकिन न हो - हो सकता है उसका मूड बिगड़ा हुआ हो  .... या बीमार हो ... या कहीं नपुंसक हुआ तो ?"

यह कहने वाले बहुतेरे पुरुष मिल जायेंगे किहमारी संस्कृति स्त्रियों को पुरुषों के मुकाबले नीचे का दर्जा देती है - अधीनता का दर्जा। पर संस्कृति कोई जड़ विषय नहीं है ,यह निरंतर परिवर्तनशील है। मेरी दो जुड़वाँ खूबसूरत भतीजियाँ हैं,पंद्रह साल की - यदि आज से सौ साल पहले वे जन्मी होतीं तो आँख खोलते ही उन्हें बाहर ले जाकर मार डाला जाता क्योंकि सौ साल पहले हमारी इग्बो संस्कृति में जुड़वाँ बहनों का जन्म लेना अपशगुन माना जाता था आज लोगों के लिए इसकी कल्पना मात्र भी असंभव है।



तो फिर संस्कृति किस लिए ?संस्कृति यहीतो सुनिश्चित करती है कि आम जन की भावनाएँ सतत प्रवाहशील और संरक्षित रहें। अपने परिवार की बात करूँ तो मुझे अपनी बिरासत और परम्पराओं को जानने की उत्सुकता सबसे ज्यादा रहती है ,मेरे भाइयों को इसमें कोई रूचि नहीं है। पर जब बड़े पारिवारिक फैसलों के लिए सब मिलकर बैठते विचार विमर्श करते हैं तो वहाँ मेरी जगह नहीं होती - इग्बो रिवाज़ में ऐसे फैसलों में लड़कियों की कोई भूमिका नहीं होनी चाहिए। भले ही सबसे ज्यादा सरोकार मेरा हो पर बड़े फैसलों में मेरी भागीदारी का निषेध है - ऐसा सिर्फ़ इसलिए कि मैं एक स्त्री हूँ।

संस्कृतियाँ इंसानों को पैदा नहीं करतींबल्कि इसका उल्टा होता है - इंसान हैं जो किसी संस्कृति का निर्माण करते हैं।यदि हमारी संस्कृति में इंसानों की बिरादरी में स्त्रियों को बराबरी का दर्जा नहीं दिया गया है तो हमें नई संस्कृति बनाने के बारे में सोचना चाहिए - इसका निर्माण करना जरुरी है।  बचपन में जो किस्से मैंने सुने हैं उनसे मालूम हुआ मेरी नानी पक्का फ़ेमिनिस्ट थीं - न चाहते हुए भी जहाँ उनको ब्याह दिया गया था उसको छोड़ कर उन्होंने  अपनी पसंद के मर्द के साथ  शादी कर ली और निभाई। स्त्री होने के नाते जब जब भी उनके साथ नाइंसाफ़ी की गयी वे चुप कभी नहीं बैठीं ,खुल कर विरोध किया। यह अलग बात है कि उनकी  फ़ेमिनिस्ट शब्द से दूर दूर तक कोई पहचान नहीं थी - पर इसका मतलब यह बिलकुल नहीं हुआ कि वे फ़ेमिनिस्ट नहीं थीं। आज हमें इस शब्द और भाव का वरण करना चाहिए - फ़ेमिनिस्ट की मेरी परिभाषा में वह पुरुष या स्त्री शामिल है मानता है :"हाँ ,आज जो हालात हैं उसमें जेंडर एक समस्या है और हमें उसका समाधान करना है ...हमें पहले की तुलना में बेहतर समाज बनाना है। "हम सब को ,स्त्रियों  और पुरुषों दोनों को बेहतर दुनिया बनानी है।
                                                       
(2012 के TEDx  टॉक का यह अंश "द गार्डियन"के 17 अक्टूबर 2014 अंक से साभार उदधृत )       

चिमामंडा न्गोजी अदिची के बारे में: 
 1977 में नाइजीरिया में जन्मी चिमामंडा न्गोजीअदिची अफ्रीका की अत्यंत लोकप्रिय और मुखर साहित्यिक आवाज़ हैं। उन्होंने अपने देश में रहते हुए शुरुआती पढ़ाई मेडिकल की की पर साहित्य में गहरी रूचि के कारण वह छोड़ कर साहित्य की ओर मुड़ गयीं। देश में गृहयुद्ध के माहौल के चलते 19 वर्ष की उम्र में वे अमेरिका चली आयीं और रचनात्मक साहित्य में आगे की डिग्री हासिल करके पूर्णकालिक लेखक बन गयीं। जल्दी ही उनकी रचनाओं को प्रमुख पत्रिकाओं में स्थान मिलने लगा और बड़े प्रकाशकों ने उनकी कृतियाँ छापीं। लगभग सभी कृतियों को भरपूर सराहना और अनेक पुरस्कार मिले। उनके पहले उपन्यास "पर्पल हिबिस्कस"को किसी लेखक की पहली किताब के लिए कॉमनवेल्थ राइटर्स प्राइज प्रदान किया गया। टाइम्स लिटरेरी सप्लीमेंट ने जहाँ उन्हें अफ़्रीकी साहित्य का सबसे महत्वपूर्ण लेखक बताया वहीँ न्यूयॉर्क टाइम्स ने उनके तीसरे उपन्यास "अमेरिकाना"को 2013 के दस सर्वश्रेष्ठ किताबों की सूची में शामिल किया। 2010 में न्यूयॉर्कर ने चिमामंडा न्गोजी अदिची को चालीस साल तक के बीस सर्वश्रेष्ठ लेखकों में शुमार किया। बियाफ्रा की मुक्ति के लिए लड़े जा रहे संग्राम पर आधारित उनके दूसरे उपन्यास"हाफ़ ऑफ़ ए यलो सन"पर 2014 में ब्लाई बंडेले ने इसी नाम से एक फ़िल्म बनाई। अफ़्रीकी मूल की अमेरिकी फ़िल्मकार अकोसुआ अदोमा ओवुसू ने हाल में उनकी कहानी "ऑन मंडे ऑफ़ लास्ट वीक"पर एक लघु फ़िल्म बनाई जिसको काफ़ी सराहना मिली। चिमामंडा ने कहानी उपन्यास के अलावा कविता और नाटक भी लिखे हैं।

पर चिमामंडा न्गोजी अदिची इतने से संतुष्ट रहनेवाली प्राणी नहीं हैं इसलिए  अपने आसपास घट  घटनाओं और समय पर बहुत स्पष्टता के साथ टिप्पणी करती हैं। पिछले साल अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव के समय न्यूयॉर्क टाइम्स में उन्होंने डोनाल्ड ट्रंप की पत्नी मेलेनिया ट्रंप के बारे में कहानी लिख कर बुद्धिजीवियों के बीच अपनी राजनैतिक दृष्टि का खुलासा करते हुए तहलका मचा दिया था। गंभीर विमर्श के वैश्विक मंच TED टॉक पर 2009 का उनका व्याख्यान "द डेंजर ऑफ़ ए सिंगल स्टोरी"बेहद लोकप्रिय हुआ और कई करोड़ लोग उसको देख चुके हैं - अबतक इस श्रृंखला में प्रसारित यह दस सबसे लोकप्रिय व्याख्यानों में शामिल है। इसके कुछ सालों बाद उन्होंने इसी मंच से दूसरा अत्यंत लोकप्रिय व्याख्यान दिया :"वी शुड ऑल बी फ़ेमिनिस्ट"जिसको किताब के तौर पर तो छापा ही गया ,अमेरिका की अत्यंत लोकप्रिय ऐक्टिविस्ट गायिका बियोंसे ने अपना प्रसिद्ध गीत "फ्लॉलेस"इस व्याख्यान को आधार बना कर प्रस्तुत किया।

अपनी  रचनाओं में स्त्रीवादी विमर्श को प्रमुखतासे जगह देने वाली  चिमामंडा न्गोजी अदिची ने अपनी सबसे  नई किताब  "डियर आइजीवेले , ऑर ए फ़ेमिनिस्ट मेनिफेस्टो इन फ़िफ़्टीन सजेशंस"अपनी एक सहेली को चिट्ठी के फॉर्म में लिखी कि अपनी बेटी को फ़ेमिनिस्ट कैसे बनायें ? वे कहती हैं कि मैं दरअसल एक स्टोरी टेलर हूँ पर यदि कोई मुझे स्त्रीवादी लेखक कहता है तो मुझे कोई आपत्ति नहींसच यह है कि मैं दुनिया को एक स्त्री की नज़र से देखती हूँ .

चिमामंडा न्गोजी अदिची अपना समय अपने देश नाइजीरिया और अमेरिका के बीच बाँटती हैं और अफ़्रीकी लेखन को बढ़ावा देना अपना दायित्व समझती हैं।

यादवेन्द्र 
पूर्व मुख्य वैज्ञानिक

सीएसआईआर - सीबीआरआई , रूड़की, सम्पर्क: yapandey@gmail.com


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आपातकाल : पुलिसकर्मियों की पत्नियां, बहनें, बेटियाँ, मायें कर रही हैं आन्दोलन: गिरफ्तार हो रहे पुलिसकर्मी

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आज़ाद भारत के पहले पुलिस विद्रोह का आगाज़:  छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह एवं उनके पुत्र अभिषेक के चुनावी क्षेत्र से जुड़े जिला मुख्यालय राजनाँदगांव में पिछले कुछ दिनों से छत्तीसगढ़ में पुलिसकर्मियों के परिवार आन्दोलन पर हैं, पुलिसकर्मियों में से कुछ को देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया है, कुछ बर्खास्त किये गये हैं. आज 25 जून को जब देश में इमरजेंसी लागू की गयी थी, उस दिन पुलिसकर्मी व्यापक आन्दोलन कर रहे हैं, वे एक दूसरे आपातकाल से गुजर रहे हैं. क्या है आन्दोलन की पृष्ठभूमि, कैसा है उनपर दमन का तरीका बता रहे हैं विवेक कुमार, वे इस आंदोलन को 2009 की एक घटना और 20 साल पहले थाने पर हुए हमले के बाद बर्खास्त पुलिसकर्मियों के संघर्ष की पृष्ठभूमि में भी देख रहे हैं: 


पुलिसकर्मियों के आन्दोलनरत परिवारवाले 

गत 18 जून को मुख्यमंत्री रमन सिंह
एवं उनके पुत्र अभिषेक के चुनावी क्षेत्र से जुड़ा जिला मुख्यालय राजनाँदगांव में पुलिस विभाग में कार्यरत कर्मचारियों-सिपाही, हवलदार, एएसआई, एसआई की पत्नियों और परिवार के सदस्यों ने एक सांकेतिक धरना प्रदर्शन किया जिसमे पुलिसकर्मियों के परिवार के सदस्यों की ओर से विभिन्न मांगों को लेकर मुख्यमंत्री के नाम   को  ज्ञापन सौंपा गया, इससे पहले 15 जून को बिना किसी संगठन के ही 25 जून को धरना प्रदर्शन की अनुमति बाबत डीएम तथा एसडीएम को पत्र के माध्यम से सूचना दी गयी। सूचना देते ही पूरे प्रशासनिक अमले में हड़कंप मच गया। प्रदर्शन की जानकारी सम्भवतः मुख्यमंत्री को तत्काल ही दे दी गयी थी। इसीलिए मुख्यमंत्री के निर्देश से सांकेतिक धरना प्रदर्शन के समय ही प्रशासन की ओर से उनके पंडाल आदि उखाड़ फेके गये। जिस वजह से पटवारी कार्यलय के सामने एकत्रित होकर एसडीएम कार्यालय तक रैली निकाल कर ज्ञापन सौंप कर अपना कार्यक्रम समाप्त कर दिया।

आंदोलन की महत्वपूर्ण कड़ी: 
परंतु अगले ही दिन उच्च पुलिस अधिकारियोंद्वारा अपने अधीनस्थ कर्मचारियों को दिशा निर्देश जारी कर दिए गए जिसमे आंदोलन में शामिल न  होने की बात कही गयी। तथा परिजनों को भी दूर रखने की शख्त हिदायत दी गयी । इसके पश्चात ही शाम तक मे आंदोलन भड़काने के आरोप में कई रिटायर्ड पुलिस कर्मियों को गिरफ्तार कर लिया गया, जिन्हें बाद में कोर्ट से जमानत मिल गयी। अगली सुबह से पहले ही कई पुलिस कर्मियों को कारण बताओ नोटिस मिल चुकी थी तथा कई कर्मियों को बर्खास्त करने का आदेश भी जारी हो चुका था। इसी बीच मुख्य आन्दोलनकर्ता के रूप में राकेश यादव (पूर्व पुलिस कर्मचारी, इसी मामले में बर्खास्त) की पहचान की जा चुकी थी।

आंदोलन की निर्धारित तिथि 25 जून के पहले आंदोलन क्यों भड़का ??: 
पुलिस विभाग के आला अधिकारियों द्वारा अपने ही कर्मचारियों पर की गई इस सख्ती एवम बर्बरता से पूरे प्रदेश में पुलिश विभाग के कर्मचारियों में व्यापक असंतोष फैल गया। जिससे व्हाट्सएप, फेसबुक आदि के माध्यम से आंदोलन की व्यापकता और बढ़ गयी। हद तो तब हुई जब विभाग द्वारा अपने ही कर्मचारियों के फोन कॉल, व्हाट्सएप कॉल, मैसेज, लोकेशन आदि पर नजर रखी जाने लगी। अनुशासनहीनता मानते हुए  5 दिन के भीतर ही 3000 से ज्यादा लोगों को जवाब पेश करने का नोटिस जारी किया जा चुका एवं 300 से ज्यादा लोगों को बर्खास्तगी का तुगलकी फरमान जारी कर दिया गया, तथा 2 दर्जन से गिरफ्तारी भी की जा चुकी है। विदित हो कि यह पूरा का पूरा आंदोलन केवल पुलिस कर्मियों के परिजनों ( पत्नी, माता-पिता, बहन ) ही चला रहे थे इस आंदोलन में पुलिस कर्मी शामिल नही हैं, पुलिस कर्मी पहले ही की  तरह ड्यूटी कर रहें हैं।
आन्दोलन को समर्थन देने आगे आयी कांग्रेस 


आखिर क्या थी मांगे और माँगों का आधार ? कितनी जायज थी मांगे :

1. बुलेटप्रूफ जैकेट्स की मांग : अन्य राज्यों की अपेक्षा छत्तीसगढ़ के सर्वाधिक जिले नक्सल प्रभावित हैं , ऐसे में आए दिन नक्सल वारदातें होती रहती हैं , पुलिस के जवानों को नक्सल मोर्चे पर जाना होता है ऐसे में जान का जोखिम सर्वाधिक है, कम संसाधनों की वजह से पुलिस मृत्यु दर छत्तीसगढ़ में सबसे ज्यादा है और यही मोर्चे में असफल होने का कारण भी। सबसे ज्यादा जरूरी है ये मांग। 

2.  8 घंटे की ड्यूटी : पुलिस के जवानों का आने का तो समय तय है किंतु जाने का कोई समय नहीं, ज्यादातर थानों एवं चौकियों में स्टाफ की कमी की वजह से 12 से 18 घंटे काम लिया जा रहा जिससे वे न तो परिवार को समय दे पा रहे हैं और न ही अपने स्वास्थ्य को संभाल पा रहे हैं । सारे सामाजिक और पारिवारिक दायित्वों को छोड़ कर 18 घंटे की कठिन ड्यूटी आखिर कोई कब तक करेगा।
3. उचित वेतन और भत्ते : छत्तीसगढ़ में पुलिस कर्मचारियों को अन्य राज्यों की अपेक्षा एक तिहाई ही वेतन मिलता है। जान की बाजी लगा कर ड्यूटी करने वाले पुलिसकर्मियों को यहीं के चपरासी भृत्य , चौकीदारों या अन्य चतुर्थ वर्ग कर्मचारी से भी कम वेतन मिलता है, जिसकी शुरुआत 15 हजार के तनख्वाह से होती है। इन्हें आज के जमाने मे साइकिल भत्ते के नाम पर 25 रुपये मासिक, वर्दी के नाम पर 60 रुपये, खानपान एवं पौष्टिक आहार के लिए 150 रुपये  मासिक मिलते हैं जो एक बेहूदा मजाक की तरह है ।
4. ड्यूटी पर मृत्यु में शहीद का दर्जा, उचित मुआवजा, एक सदस्य को अनुकंपा नियुक्ति आदि जायज एवं प्रमुख मांगे हैं। 
छत्तीसगढ़ में इन्हीं बातों से आहत हो कर कई कर्मियों ने आत्महत्या जैसा कदम भी उठाया है ।

आंदोलन की पृष्ठभूमि: 
आंदोलन की वजहों को पहचानने के बाद इसकीपृष्ठभूमि पर जाते हैं; वर्ष 2009 में नक्सल प्रभावित राजनांदगांव जिले के सुदूर अंचल  मानपुर में  पुलिस नक्सली मुठभेड़ में एसपी सहित 3 दर्जन से अधिक पुलिस कर्मी मारे गए थे जिसकी मुख्य वजह बुलेटप्रूफ जैकेट्स जैसे संसाधनों की कमी थी। जिसके बाद एसपी को तो शहीद का दर्जा दिया गया उनके बेटे को डीएसपी की नौकरी भी तत्काल दे दी गयी। एसपी ऑफिस के सामने ससम्मान मूर्ति भी लगाई गई, किंतु अन्य शहीद नौजवानों को भुला दिया गया मृत्यु उपरांत भी उन्हें किसी वीरता पुरस्कार आदि से नवाजा नही गया, न ही उन्हें उचित सम्मान दिया गया। शहीद का दर्जा भी नही दिया गया। और न ही परिजनों की सुध ली गयी। न ही उचित एवं सम्मानजनक मुआवजा आदि दिया गया। इस मसले को जाति के कोण से भी देखा जा रहा था। माना जाता है कि मारा गया एसपी ब्राह्मण जाति से था। शायद इसलिए उसे सम्मान दिया गया। इस भेदभाव ने विभाग के कर्मचारियों में असंतोष पैदा किया। नक्सल मोर्चे पर रोज ही पुलिस कर्मियों की जानें जा रही हैं किंतु विभाग के रवैये में कोई सुधार आने का नाम ही नही ले रहा था। ऐसे में अनुशासन में बंधे जवान अपने दर्द को किससे बयान करें?

इससे पहले मानपुर में ही छत्तीसगढ़ निर्माण के पूर्व भी एक घटना हुई थीजिसे जनता ने तो भले ही भुला दिया हो पर शायद ही कोई पुलिस कर्मी भूला हो,  वह घटना है आज़ादी के बाद पहली बार पुलिस थाना लूटने की घटना! हाँ ये अपने तरह की पहली घटना थी जिसमें जान की हानि तो नही हुई थी किन्तु पूरा थाने का मालघर यथा सभी हथियार आदि नक्सलियों ने योजनाबद्ध तरीके से लूट लिया था, जिसकी भी मुख्य वजह संसाधनों व स्टाफ की कमी ही थी, किन्तु इसका भी दोष सरकार ने उन जवानों पर डाल कर पूरे थाने को बर्खास्त कर दिया था। इस घटना को भले ही आज 20 वर्ष हो गए हों किन्तु मुकदमे की लड़ाई बर्खास्त पुलिस कर्मियों ने पूरे 20 वर्ष तक लड़ी और अंततः फैसला पुलिस कर्मियों के पक्ष में ही आया। परंतु जबतक पुनः बहाली का आदेश आया तब तक ज्यादातर लोगों की उम्र रिटायरमेंट से पार हो चली थी। ऐसे में ये निर्णय कितना कष्टदायी रहा होगा उनके लिए जिन्होंने ये लंबी लड़ाई लड़ी होगी, नौकरी जाने के बाद घरबार बेच कर कानूनी खर्चों का निपटारा किया होगा और वर्षो एक मजदूर का जीवन यापन किया होगा। इन्ही दो घटनायों को जेहन में लेकर ही पुलिस कर्मियों के परिजन अपने मांगों को लेकर अंदिलंकारी बने।

अब जब ऐसे ही मामलों के बाद छुट्टी एवमउचित वेतन भत्ते को लेकर एक ज्ञापन मात्र को अनुशासनहीनता मानते हुए वर्षों पहले किसी पुलिसकर्मी  को बर्खास्त कर देना और अब उसी बर्खास्त कर्मी को मुख्य आंदोलनकर्ता मानते हुए गिरफ्तार कर लेना क्या पुलिस की दमनकारी नीति को साबित नही करता है? छत्तीसगढ़ पुलिस अपने दमनकारी नीति के लिए जग चर्चित थी ही अब अपने ही कर्मचारियों पर ये नीति अपना कर शासन ने तो अघोषित आपातकाल की स्थिति पर ला खड़ा किया है।गौरतलब है इस एक हफ्ते में गिरफ्तार सभी लोगों को कोर्ट ने जमानत पर रिहा तो कर दिया है परंतु इनकी गिरफ्तारी ने असंतोष को और ज्यादा बढ़ा दिया है।



देशद्रोह का मुकदमा 
आज की खबर अनुसार पूर्व में बर्खास्त (कथित अनुशासनहीनता के लिए) 3 कर्मियों को देशद्रोही, मानते हुए बड़े ही हाईटेक तरीके से गिरफ्तार कर लिया है। छत्तीसगढ़ के 30 से अधिक अन्य कर्मचारी संगठनों ने समर्थन की घोषणा की है। आंदोलन की तिथि 25 जून निर्धारित है , परन्तु इसके पहले ही इसे दबाने के लिए शासन ने एडी चोटी का जोर लगा दिया है, मीडिया को भी मौखिक हिदायत दे दिया गया है , राजा के आदेश की तरह पुलिस कर्मियों को अपने परिजनों को आंदोलन करने से रोकने एवं खत्म करने के लिए कहने कहा गया है , आंदोलन से दूर रहने कहा गया है,  समस्त जानकर लोगों को बर्खास्त कर लिया गया है। व्हाट्सएप करने को देशद्रोह की श्रेणी में रखा गया है। बात चीत द्वारा आंदोलन की चर्चा को भी अनुशासनहीनता माना गया है । परिजनों को धमकाने का काम जारी है। कई लोगों का आनन फानन में नक्सली क्षेत्र में स्थान्तरण का आदेश भी दे  दिया गया है। महिलाओं की तलाशी ली जा रही है, पुलिस परिजन होने पर थाने में ही पेशी ली जा रही है। फोन पर धमकाने की सीमा पार हो चुकी है। कई कर्मियों को मानसिक प्रताड़ना कर पागल बनाया जा रहा है ..पुलिसिया दमनकारी नीति पुलिस व उनके परिजनों पर ही अपना ली गयी है। आज आपातकाल की सी स्थिति निर्मित हो चुकी है।  पुलिसकर्मियों के परिजनों को आन्दोलन के लिए आने से रोका जा रहा है। गाँव-देहात, कस्बों से आने वाली हर गाडी रोक दी जा रही है, चेक की जा रही है।

आगे लिखने पर एनकाउंटर का पूरा खतरा उठाना होगाजिसकी स्थिति में अब बस्तरिया और नक्सल एवं आदिवासी क्षेत्र का पत्रकार नही है। माफी चाहता हूं पर आगे लिखने में मुझे भी डर लग रहा है जो सरकार अपने ही सैनिक पर संविधान खिलाफत की धारा लगाए वो सरकार हम अदलों का क्या करेगी जिंदा रहने पर आगे की खबर आगे जरूर भेजी जाएगी।

विवेक कुमार सामाजिक कार्यकर्ता हैं. 

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पुलिस अधिकारों के लिए लड़ रही महिलायें: शासन के खिलाफ प्रशासन

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उत्तम कुमार 
आज 25 जून को जब देश में इमरजेंसी लागू की गयी थी, उस दिन छत्तीसगढ़ पुलिसकर्मी परिवार की महिलायें व्यापक आन्दोलन कर रही हैं.छत्तीसगढ़ के राजनंद गाँव के चप्पे-चप्पे में कड़ी बंदोबस्ती है, फिर भी आंदोलनकारी पहुंचे धरना स्थल पर. इस बीच राज्य के मानव अधिकार संगठन तथा पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी भी पुलिसकर्मियों के समर्थन में आगे आये. ग्राउंड जीरो से उत्तम कुमार की रिपोर्ट:



सैकड़ों जवानों के पहरों के बावजूद आखिरकार 200से ज्यादा की संख्या में पुलिस परिवार 11 सूची मांगों के साथ अपने छोटे-छोटे बच्चों को हाथ में लेकर मांगे पूरी करने के लिए नारेबाजी करते हुए धरना स्थल पर पहुंच गये। रायपुर से पत्रकार प्रफुल्ल ठाकुर कहते हैं कि लाखे नगर धरना स्थल में कड़ी पुलिस व्यवस्था है। महादेव घाट पुल पर चेकिंग चल रही है। घरना स्थल लाखेनगर मैदान में एक पंडाल लगा हुआ है लेकिन यह किसका है कोई जानकारी नहीं है यहां से किसी राहगीर को भी गुजरने नहीं दिया जा रहा है। एक एक वाहन को रोका जा रहा है महिलाओं के स्कार्फ निकाल कर चेहरा पहचाना जा रहा है। इन सब से मजदूर ज्यादा परेशान हो रहे हैं। अमलेश्वर से आने वाले वाहनों की चेकिंग हो रही है। पुलिस के बड़े अधिकारी भी लगातार भ्रमण कर रहे हैं। आंदोलन को समर्थन देने वाले अजित जोगी निवास के सामने भी खाकी और सादी वर्दी में पुलिस बल तैनात हैं। शहर के एंट्री वाले हर इलाके में चेकिंग हो रही है। भिलाई-बिलासपुर की तरफ से आने वाले मार्ग पर कुम्हारी टोल नाका, नंदनवन एंट्री मार्ग, टाटीबंध चौक के तीनों मार्ग में चेकिंग है, इधर विधानसभा इलाके रिंग रोड तीन के चौक के पास भी बल तैनात। हर सवारी बस की जांच की सूचना मिल रही है। पंडरी बस स्टैण्ड और रेलवे स्टेशन में भी तलाशी ली जा रही है। खबर यहां तक आ रही है कि आंदोलन में शामिल कुछ आरक्षकों को रात में ही पुलिस उठाकर कहीं गुप्त स्थान ले गई है। स्टेशन में बल तैनात हैं।

मुझसे कोई व्यक्तिगत पूछे तो मैं कहूंगा कि पुलिसआंदोलन का समर्थन करता हूं लेकिन पुलिसिया रवैये का नहीं। आखिर पुलिस को पता तो चला होगा कि लोकतंत्र में असहमति, विरोध, आंदोलन, धरना, प्रदर्शन का काई मतलब भी है। पुलिस की मानसिकता ऐसी बन गयी है कि लोगों के हालतों, सामाजिक परिस्थितियों और उनके मानवाधिकार से उनका कोई वास्ता ही नहीं। सबसे ज्यादा संविधान, कानून व्यवस्था और मानवाधिकार का उलंघन पुलिस ही करती है। जबकि ये जानते हैं कि तनख्वाह के साथ देशभक्ति और जनसेवा नहीं बल्कि गरीब, मजदूर, किसान, एससी, एसटी, ओबीसी और अल्पसंख्यकों के खिलाफ इनका गुस्सा ड्यूटी के नाम पर उतरते रहता है। गिरफ्तारी के साथ मारना-पिटना और हत्या तक पुलिस कर देती है। इन्हें अब बाज आ जाना चाहिए। इनके अधिकार को लेकर सहानुभूति है। जबकि शिक्षाकर्मी आंदोलन के दौरान पुलिस ने महिलाओं पर बर्बरता के साथ व्यवहार किया था नारीशक्ति की जानकारी अब जाकर पुलिस को हुई है जब उनके लिए उनके परिवार की स्त्रियाँ आगे आई हैं।



पीयूसीएल ने छत्तीसगढ़ पुलिस को विरोध प्रदर्शनका हक दिलाने के पक्ष में तथा  उन पर हो रहे दमन,  मानवाधिकार आदि को लेकर गहरी चिंता व्यक्त की है। अपने ब्लॉग छत्तीसगढ़ बास्केट में पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टिस (पीयूसीएल) छत्तीसगढ़ के अध्यक्ष डा. लाखनसिंह और महासचिव अधिवक्ता सुधा भारद्धाज ने कहा है कि'छत्तीसगढ़ पुलिस को विरोध प्रदर्शन का हक है, पुलिस पर पुलिस का दमन बंद करें, यह राजद्रोह नहीं बल्कि जिने योग्य सुविधाओं के लिये किये गये आंदोलन है।'

यह आन्दोलन  इतिहास में दर्ज होगा कि इसका नेतृत्व घरेलू  महिलाओं ने किया है.क्षेत्र में सुरक्षागत कार्यों में लगे छत्तीसगढ़ सिपाहियों के आंदोलन से सरकार की नींद हराम है। छत्तीसगढ़ में तृतीय श्रेणी के पुलिस कर्मियों के परिजनों ने अपनी रोजमर्रा की जरूरतों और अन्य शासकीय सेवकों के समक्ष वेतन भत्ते और समान सुविधाओं के लिए आज का आंदोलन मायने रखता है। रायपुर में आज चप्पे-चप्पे पर पुलिस की पहरेदारी है। धरनास्थल ईदगाहभाठा से दो-ढाई सौ की संख्या में आंदोलनकारियों को गिरफ्तार कर लिया गया है। हां यह प्रदर्शन संवैधानिक और कानूनन है, परिजनों का विरोध पुलिस मैनुअल का भी उलंघन नहीं है।

पीयूसीएल ने प्रमुखता के साथ कहा है कि 'भारत का संविधान सभी को संगठन बनाने और विरोध का हक देता हैं, जिसमें यूनियन बनाने का अधिकार भी निहित है। यह आंदोलन संवैधानिक और कानून सम्मत है, पुलिस कर्मियों के परिजनों को किसी भी प्रकार से प्रताडि़त करना उनके मौलिक अधिकारों के हनन के साथ साथ गैरकानूनी भी है, शासकीय कर्मचारी के परिजनों को परिवार नामक संस्था को बचाने के लिए सामने आना पड़ा है क्योंकि पुलिस की अनियमित ड्यूटी और कम वेतन उसके परिवार के ढांचे को तोड़ रहा है जिसे बचाने की जिम्मेदारी सरकार की है अत: सरकार परिजनों को यह आश्वासन दे कि उनका पारिवारिक ढांचा सुरक्षित रहेगा।'

मानवाधिकार संघ ने कहा है कि 'छत्तीसगढ़ में पुलिस कर्मी हमेशा प्रशासन से प्रताडि़त रहते हैं, अभी भी परिजनों ने पत्र लिखकर यही मांग की हैं कि कामों में राजनीतिक हस्तक्षेप, सजा के तौर पर स्थानांतरण, समान वेतन भत्ते, रहने योग्य आवास की व्यवस्था, वर्तमान में मिलने वाला आवास भत्ता, पेट्रोल भत्ता हास्यास्पद रूपए से 13 रूपये हैं इसे बढ़ाने, पुलिस किट या उसका भत्ता, ड्यूटी के दौरान मरने पर शहीद का दर्जा और एक करोड़ का मुआवजा, अनुकंपा नियुक्ति,अन्य विभागों की तरह साप्ताहिक अवकाश और काम के लिये आठ घंटे तय किये जायें, अधिक समय काम लेने पर अतिरिक्त भुगतान, अन्य विभाग की तरह परिजनों को मुफ्त इलाज, नक्सली क्षेत्र में काम करने पर उच्च मानक के सुरक्षा उपकरण, बुलेटप्रूफ जाकेट और आधुनिकतम हथियार,10 साल में पदोन्नति, वर्दी भत्ता अभी मात्र पांच रूपये मिलता हैं इसे बाजार की कीमत के अनुसार बढ़ाया जाये,आदि आदि मांग के लिये बकायदा पत्र पुलिस डीजीपी और अन्य अधिकारियों को लिखा था।



इस आंदोलन पर दिल्ली से नजर रख रहे तथा स्वास्थ्य लाभ लेरहे अजीत जोगी ने कहा है कि 'किसी राज्य में अगर प्रशासन ही शासन से तंग आकर आंदोलन छेड़ दे तो यह समझ लेना चाहिए कि वह राज्य अपनी बर्बादी के चरम पर पहुंच चुका है और उस राज्य में कुछ भी ठीक नहीं हो रहा है। छत्तीसगढ़ के पुलिसकर्मियों द्वारा सरकार के विरूद्ध किया जा रहा यह आंदोलन इसका जीवंत उदाहरण है। छत्तीसगढ़ में उत्पन्न इस भयावह स्थिति के लिए मैं पूरी तरह से राज्य सरकार को दोषी मानता हूं। पब्लिक के साथ साथ अब पुलिस भी सरकार से त्रस्त हो चुकी है। छत्तीसगढ़ राज्य के प्रति भाजपा सरकार की नीति और नियत दोनों गंभीर नहीं है। राज्य में फैली इस अराजकता के लिए मुख्यमंत्री सीधे तौर पर दोषी हैं। मैं स्वयं एक आईपीएस अधिकारी रहा हूं। छत्तीसगढ़ के पुलिस कर्मियों की पीड़ा से भली भंति परिचित हूं। इस समय दिल्ली में स्वास्थ्य लाभ लेने के कारण पुलिसकर्मियों के आंदोलन में उपस्थित होने में असमर्थ हूं। हमने जनता के हित के लिए पुलिस की लाठियां खाई है और अब पुलिस हित के लिए सरकार की लाठी भी खाने को तैयार हैं।'

(लेखक दक्षिण कोसल में सम्पादक है )

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मुनिरका से अमेरिका तक: कल्चरल शॉक और द्विध्रुवीय समानता के दृश्य

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मुनिरका से अमेरिका तक-यह वाक्य हमेशाआप जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी (जेएनयू ) में सुन सकते हैं. मतलब, जेनयू से निकलते ही लोग दो ही जगह जाते हैं, मुनीरिका नहीं तो अमेरिका. या मुनीरिका के बाद अमेरिका.


चन्द्रसेन अमेरिका में 


ये मुनीरिका क्या है?

दरअसल मुनिरका, जेएनयू- मुख्य गेट के सामने वाली बस्ती हैं.  मतलब ये है कि जो भी जेएनयू से ताल्लुक रखता है उसका मुनिरका से नाता होना लाजिमी है. वैसे इसे 'जाटलैंड'भी कहते हैं.

खैर, मेरा भी जेएनयू से एक दशक का नाता रहा है.  पिछले वर्ष, जुलाई में पीएचडी जमा किया और मुनिरका में आकर रहने लगा. रूम रेंट की टेंसन, जाटों की छीलने वाली बोली, एडहॉक इंटरव्यू में लगातार असफल प्रयास और घर वालों  की तरफ से शादी की जल्दबाजी .ये सब एक साथ शुरू हो गया. मतलब, दिन-रात पोलिटिकल डिबेट की चाशनी में डूबने वाले जेनयू के लालों का दाल रोटी से नाता शुरू हो जाता है.

‘मुनिका या फिर अमेरिका’- ये वाक्य, हम सबका तकियाकलाम  बन गया था। क्या पता था, मेरे साथ भी ये सुखद सयोंग घटित होने वाला है .  21 मई को अमेरिका रवाना ही हो गया. मतलब न्यू स्कूल यूनिवर्सिटी, न्यूयॉर्क. 22 जून को वापस फिर मुनीरिका में आ गया.  और गंगा ढाबा पर दोस्तों के साथ जेनएयू की सदाबहार बहसों में लुप्त हो गया।

आईये पहले मैं आपको 22 मई की सुबह की तरफ ले चलता हूँ . 

'देवियों और सज्जनों, जॉन ऍफ़ केनेडी एयरपोर्ट पर आप का स्वागत है. सुबह के  नौ बजकर 18 मिनट हैं.  यहाँ का तापमान 18 डिग्री सेल्सियस है. एयर इंडिया से सफर करने के लिए आपका धन्यवाद '. अमेरिका पहुँचने का संदेश हमें इस तरह से मिला.

हवाई जहाज से निकलते ही वह पहली चीज क्या  थी जो आभास दिला गई कि अब अमेरिका पहुँच गया हूँ?  ‘अमेरिकन ऐक्सेंट’ में इनकी अंग्रेजी.  लेकिन दो कदम आगे बढ़ाते ही एक एफ्रो-अमेरिकन मिला जो हाथ में झाड़ू पकड़े खड़ा था. और आगे बढ़ा तो दूसरा मिला जो सामान ढ़ोने की ट्राली लिए चला आ  रहा था. चेहरे पर उदासी, आत्मविश्वास गिरा हुआ . काले लोगों को देखकर अचानक भारत के ऐसे ही लोंगो की याद आ गयी जो सदियों से हाथ में झाड़ू पकड़े सफाई के काम में लगे हुए हैं. पहले गाँव में जमींदारों के दुआर, चौपाल और शादी विवाह में जनवास की सफाई की देख रेख करते रहें हैं. वहीँ अब शहर में अस्पताल, स्कूल, रोड की सफाई करते हुए देखे जाते हैं.  हाँ, मैं भारत के लगभग 20 करोड़ दलितों की  बात कर रहा हूँ. अपने अमरीकी प्रवास के दौरान, मैं हर रोज दलितों को याद इन एफ्रो-अमेरिकन लोगों को देख करता था. वास्तव में मार्टिन लूथर किंग, मैलकॉम एक्स जैसे नेताओं की कुर्बानी के बाद  इनको एक सम्मान-जनक जिंदगी जीने का हक़ मिला.  लेकिन समाज आज भी रंग के आधार पर बंटा  हुआ है. सारी बड़ी पोस्ट पर गोरे और छोटी पोस्ट पर काले आप को मिल जाएंगे. लेकिन इन लोगों ने एक काला राष्ट्रपति (ओबामा) टॉलरेट कर लिया है.  क्या भारत एक दलित प्रधानमंत्री टॉलरेट करने को सक्षम है ? मुझे इस पर पूरा संदेह है.

छोड़िये, अब अमेरिका की बात करते हैं.    

दूसरी बात जो मुझे अमरीकी समाज की अच्छी लगी वह हैइनका टोलरेन्स लेवल. एक लेवल तक ये विभिन्न नस्ल, भाषा, खान-पान, प्यार, मुहब्बत, बर्दाश्त कर लेते हैं.  खुला समाज है, पार्क में या सड़क पर इश्क फरमाईये, बीफ खाइये या सुअर। इसको रोकने वाले न एंटी रोमियो स्क्वाड मिलेंगे न ही भक्तों की बेरोजगार फ़ौज.

'अच्छे बच्चों की तरह चुपचाप बैठ जाओ, क्लास है घर नहीं , गुरु जी के पैर छुओ'. ये हम सबकी भारतीय स्कूल ट्रेनिंग होती है.  लेकिन, अमेरिकी चाल-चलन तो कुछ और ही है भाई. ये पढ़ाते कम, बहस ज्यादा करते हैं, भूख लगी है तो, क्लासरूम में ही खाना शुरू कर देते हैं. बैठे-बैठे थक गए, तो खड़े होकर एक्सरसाइज करने लगते हैं. ये एकदम नया अनुभव था. हलाकि जेएनयू ने कुछ अनुभव पहले ही दे दिए थे.  सबसे ज्यादा अचरज तो मैं अपने चीनी दोस्तों से होता था.  दो लड़कियां थी, ये अचानक खड़ी होकर कमर में हाथ ऱख कर हिलने-डोलने लगती थीं. पहली बार तो समझ में ही नहीं आया कि इन चीनियों को हुआ क्या है ? बाद में मैं भी कमर में हाथ ऱख कर  हिलने डोलने का आदी हो गया.  मतलब क्लास-रूम में ही योगासन.
चन्द्रसेन अपने साथियों के साथ 


अपने बचपन के स्कूल को याद करता हूँ , तो कांप जाता हूँ.  पता है, दलितों को आगे बैठने तक की भी इजाजत नहीं होती थी.  क्लास में हम दलित सबसे पीछे बैठने को मजबूर रहते थे, न साला सुनायी देता था नहीं दिखाई.  डायनामाइट लगाओ ऐसी व्यवस्था को.

खैर, अब अमेरिका की बात करते हैं.

‘अरे लाल बत्ती होने वाली है, गाड़ी भगा. दिखाई नहीं दे रहा है क्या,अभी फाटक बंद हो जायेगा, थोड़ा स्पीड बढ़ा ले’.भारतीय मन और दिमाग में ये शब्द कूट-कूट कर भरे हुए थे .  कल्चरल शॉक होना ही था.  दूसरे देशों पर बमबारी, हाई स्पीड ट्रेन, फ़ास्ट लाइफ का माहिर अमेरिका, अपनी सड़क पर बहुत स्लो और संभल कर गाडी चलाता है.  इन लोगों ने एक सिविक सेन्स पैदा कर लिया है. लाल बत्ती होने  से पहले ही गाडी रोक देते हैं, किसी को लाल बत्ती पर कोई जल्दबाजी ही नहीं होती है. यहाँ तक कि अगर कोई रोड क्रॉस भी कर रहा होता है तो अपनी गाडी रोककर उसे जाने को कहते हैं.  मतलब पहले-आप, पहले-आप वाला सिस्टम है.

हाँ मैं कल्चरल शॉक की बात कर रहा था. कई मुझे भी मिले. जैसे, हमारी डोरमेट्री में फ्री का कंडोम होना, बाथ-रूम सभी का एक ही होना, गे-लेस्बियन का खुले आम प्रेम करना, पार्क में सनी लियोनी स्टाइल में धूप सेकना इत्यादि.  लेकिन जो बात मेरे जेएनयू प्रवास और छात्र राजनीति में नहीं समझ में आयी थी वह वहां जाकर एकदम समझ में आ गयी.  आप सैद्धांतिक और दार्शनिक रूप से कितना भी प्रोग्रेसिव हो जाईये लेकिन जब उसे इम्प्लीमेंट करना होता है तो बड़ा कठिन काम लगता है।  इसलिए बेचारे सवर्ण मार्क्सवादियों के कथनी और करनी में  फरक रहा है।   हमेशा जमीन बटवारे की बात करेंगे लेकिन जब अपना बाटने की बारी आयी तो कम्मुनिस्ट पार्टी को ही हाई-जैक कर लिया.

खैर, अब फिर से अमेरिका की बात करते हैं..

एक महीने के प्रवास के दौरान हम लोग वाशिंगटन,  न्यूयार्क , ब्रुकलिन और ब्रोंक्स गए. शिक्षण संस्थाओं, मूयूसियम और पुस्तकालयों को देखकर मुझे , ग्रीक, ब्रिटेन की अनायास याद आ गयी.  पता है क्यों? यह इसलिए की यूनानियों ने पूरी दुनिया में अपने ज्ञान का डंका बजाया और राज किया, अंग्रेजों, ने दुनिया के महानतम संस्थाएं खोली और दुनिया पर राज किया, अमेरिका भी वही कर रहा है।  चीनी अध्ययन का छात्र होने के नाते, मैं ये कह सकता हूँ की अगला नंबर चीनियों का  है.

भारत में भी कुछ ऐसा है? हैं न. जिसने शिक्षाऔर ज्ञान को कंट्रोल किया उसने रूल किया.  ब्राह्मणों  ने तो यही किया है।  पूँजीवाद का क्रूरतम रूप है मजदूरों की छटनी और मशीनों का राज.  आप अमेरिका जैसे पूंजीवादी देश में जायेंगें तो कंस्ट्रक्शन साईट पर मजदूर पाएंगे ही नहीं.  एक साथ बहुत सारी मशीनें काम करती हुई दिखाई देतीं हैं.  लेकिन इन मशीनों का ड्राइवर जरूर एक  इंसान  होता है.  एक उदाहरण से समझिये. अगर आप को अपनी गाडी में गैस भरवाना है तो पंप पर जाइए, पैसा डालिए, गैस भरिए और चलते बनिए.  इसलिए मैं अपने गाँव के लौंडों से कहता रहता हूँ कि आने वाले दिनों में तुम सब बेकार हो जाओगे क्योँगे कंपनियों को पढ़े लिखे मजदूर चाहिए न कि तुम्हारे जैसे अंगूठा छाप मजदूर. लेकिन ये लौंडे सुनते कहाँ हैं?

खैर, अब अमेरिका की बात करते हैं. बल्कि बात की इतिश्री करते हैं।

 बात मुनीरिका-जेएनयू से शुरू हुई थी.  ख़तम भी यही पर होना है. 

दोस्तों, ने पूछा कैसा रहा एक महीने का क्लास ?

वास्तव में एक महीने का वहां पर मेथडोलॉजी का क्लास था.  आसान भाषा में कहूं तो कैसे रिसर्च करना है उसकी ट्रेनिंग. जैसे ही मेथोडोलॉजी के बारे में पूछा तो जेएनयू , खासकर अंतर्राष्ट्रीय अध्ययन वाले  प्रोफेसरों पर बहुत गुस्सा आया.  वास्तव में इनको  मेथोडोलॉजी पता ही नहीं है.  मजेदार बात बताऊ, यहाँ लोग विकिपीडिया से पढ़कर मेथडोलॉजी पढ़ाते हैं.  मेथडोलॉजी  मल्टीडिसिप्लिनरी अप्प्रोच की डिमांड करता है और एक प्रोफेसर जो नेपाल या नाइजीरया का  एक्सपर्ट है वह अकेले ही पूरा मेथडोलॉजी का ज्ञान बाँट देता है.ये हुनर कहाँ से लाते हो गुरुदेव ?

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चंद्र सेन , इंडिया चाइना इंस्टिट्यूट, द न्यू स्कूल यूनिवर्सिटी, न्यू यॉर्क, अमेरिका.

रंगकर्मियों से बलात्कार : क्या बलात्कारी पीड़िता को खुद सही-सलामत वापस छोड़ते हैं? आदिवासी अधिकार की प्रवक्ता दयामनी बारला ने उठाये ऐसे कई सवाल

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विक्रम कुमार 
रांची के खूंटी जिले के कोचांग में नुक्कड़ नाटक करने गयींरंकर्मियों के साथ बलात्कार की घटना ने रंगकर्म की दुनिया और देश को हिला दिया है. एक ओर पुलिस इस घटना को उस इलाके में आदिवासियों के पत्थलगड़ी आन्दोलन के नेताओं से जोड़ रही है, उसके समर्थकों को बलात्कार के आरोप में गिरफ्तार कर रही है तो दूसरी ओर देश भर में रंगकर्मी इसके खिलाफ विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं. लेकिन आदिवासी अधिकार और मुद्दों के लिए निरंतर संघर्ष करने वाली और उसपर मुखर रही दयामनी बारला इस घटना में पीड़िताओं को वास्तविक न्याय न मिलने की आशंका जता रही हैं और बलात्कार के मामले में पुलिस की थेयरी पर सवाल उठा रही हैं. घटना स्थल से लौटकर दयामनी बारला ने स्त्रीकाल से बातचीत की और उठाये ये सवाल:


कोचांग का वह स्कूल जहाँ लडकियां नुक्कड़ नाटक करने गयी थीं


पिछले उन्नीस जून को कोचांग के एक मिशनरी स्कूल में गयी 5 रंगकर्मियों को बताया जाता है कि कुछ लोग जंगल में उठा कर ले गये और उनके साथ बलात्कार किया. पुलिस के अनुसार उस इलाके में उनके आने से नाराज पत्थलगड़ी के समर्थकों ने इस घटना को अंजाम दिया है. मामला प्रकाश में आने के दौरान दयामनी बारला हैदराबाद में एक कार्यक्रम में शिरकत के लिए गयी थीं वहां से रांची लौटकर वे कुछ और सामाजिक कार्यकर्ताओं के साथ कोचांग के घटनास्थल पर गयीं.

दयामनी बताती हैं कि वहां के लोग काफ़ी डरे हुए हैंऔर कोई मुंह नहीं खोल रहा है. लेकिन दबी जुबान से कुछ तथ्य सामने रखते हैं. मसलन कोई नुक्कड़ नाटक की संचालक संस्था के निदेशक पर सवाल क्यों खड़े नहीं कर रहा है? पुलिस के अनुसार नुक्कड़ नाटक की जानकारी पुलिस को नहीं थी और उसके आयोजन की अनुमति नहीं ली गयी थी. दयामनी सवाल करती हैं कि नाटक कराने वाली संस्था सरकारी अनुदान पर उनके साथ मिलकर नाटक कराती है, आखिर ऐसा क्यों हुआ कि कोचांग जैसे तनावग्रस्त इलाके में वह बिना पुलिस को सूचना दिये पांच लड़कियों को नाटक के लिए लेकर जाती है?

पढ़ें : आदिवासियों का पत्थलगड़ी आंदोलन: संघ हुआ बेचैन, डैमेज कंट्रोल को आगे आये भागवत

दयामनी बारला
कौन हैं असली अपराधी? 

पुलिस की थेयरी के अनुसार फादर अल्फोंस के कहने पर दो ननों को छोड़ दिया गया और पीड़िताओं को ले जाते वक्त फादर ने कहा कि ‘कुछ नहीं होगा वे तुम्हें छोड़ देंगे.’ इसपर दयामनी सवाल उठाती हैं कि ‘आखिर फ़ादर ही क्यों, लड़कियों के साथ उस संस्था का संचालक भी वहां था, उसने लड़कियों को क्यों नहीं रोका?’ वे आश्चर्य प्रकट करते हुए कहती हैं कि ‘ यह शायद पहली घटना होगी जिसमें लड़कियों को जंगल में ले जाकर गैंगरेप किया जाता है और उन्हें पुनः वापस उसी जगह छोड़ दिया जाता है, जहाँ से वे उठाकर ले जाई गयी थीं. क्या अपराधी पहले भी ऐसा करते रहे हैं.?

दयामनी कहती हैं ‘जरूरत है कि इस घटना के असली अपराधियों को सजा मिले. सजा दिलाने से ज्यादा पुलिस का यकीन इस मामले को पत्थल गड़ी आन्दोलन से जोड़ने में है.’ उनके अनुसार ‘पीड़िताओं के नाम और उनके परिवार का नाम काफी गुप्त रखा जा रहा है, जिसके कारण उनसे मिलकर घटना की वास्तविकता को समझना संभव नहीं हो रहा है. अभी तक नाटक- संचालक पर कोई कार्रवाई नहीं हुई है, वह इस मामले में एक जिम्मेवार है लेकिन वह खुद ही विक्टिम बन गया है. वह सरकारी प्रोजेक्ट पर नुक्कड़ नाटक करता है, वह फादर के बारे में बयान दे रहा है और खुद विक्टिम बना है, जबकि वह सरकारी प्रोजेक्ट करता है तो उसे उसकी जिम्मेवारियां तो पता ही होंगी. उसकी संस्था का नाम भी इस मामले में सामने नहीं आ रहा है. जबकि मामले को अलग मोड़ देते हुए स्कूल के फादर को गिरफ्तार किया गया है.. दयामनी कहती हैं ‘असली साजिशकर्ता असली अपराधी को गिरफ्तार होना चाहिए.’

वे आगे कहती हैं ‘सवाल यह भी है कि सरकार नेजगह-जगह सीआरपीऍफ़ बैठा रखा और संवेदनशील इलाके में उससे ही अनुदान प्राप्त लोग नाटक करने आ रहे हैं और उसे ही नहीं पता है कि इस इलाके में कौन, क्यों और कब आ रहा है? ऐसे सवालों को बाईपास करके चले जाने से न्याय तो होगा नहीं उथल-पुथल जरूर हो जाएगा. आपको जिन्हें गिरफ्तार करना उन्हें गिरफ्तार कर नहीं रहे.’

खूंटी और कोचांग के इलाके में सवाल और भी तैर रहे हैं. इस घटना को अंजाम देने में पीप्लस लिबरेशन फ्रंट ऑफ़ इंडिया (पीएलएफआई) का नाम आ रहा है. लोग सवाल कर रहे हैं कि इस संगठन के सरकारी कनेक्शन पर भी लोगों की राय अलग-अलग रही है. इसकी भूमिका पर भी संदेह है. वही लोग छत्तीसगढ़ में संघ की बैठक, उसमें संघ प्रमुख का आना और पत्थलगड़ी पर बयान देना तथा फिर सरकार की कार्रवाइयों में या ऐसी घटनाओं में तेजी में भी कोई सूत्र देख रहे हैं. दयामनी कहती हैं कि ‘संघ हो या भाजपा उनसे सवाल है कि यदि पत्थलगड़ी जैसे आन्दोलन इस इलाके में हो रहे हैं तो उनके लोग जनता से संवाद क्यों नहीं बनाते. उनका संगठन, सांसदों, विधायकों के प्रतिनिधि, सरकारी अमले इस इलाके में काम कर रहे हैं तो वे संवाद क्यों नहीं बनाते, दमन और बलप्रयोग की जगह. अखबारों में खबरे प्लांट हो रही है कि एसपी, डीएसपी सडक पर सो रहे हैं, तो सवाल है कि आप इतने क्रांतिकारी हैं तो आज झारखंड जल क्यों रहा है?

यह भी पढ़ें : पत्थलगड़ी के खिलाफ बलात्कार की सरकारी-संघी रणनीति (!)

राजधानी में विरोध प्रदर्शन 

उधर देश की राजधानी दिल्ली में विकल्प साझा मंच के तहत रंगकर्मियों ने इस घटना का व्यापक विरोध किया और 2 जुलाई को मंडी हाउस से झारखंड भवन तक मार्च का ऐलान किया. रंगकर्मियों ने जारी एक विज्ञप्ति में कहा कि कोचांग, झारखंड में नुक्कड़ नाटक करने गयीं पांच महिला कलाकारों के सामूहिक बलात्कार के दोषियों को तुरंत गिरफ़्तार करने और राज्य की भाजपा सरकार द्वारा यौन हिंसा का राजनीतिक इस्तेमाल बंद करने की हमारी मांग है.

26 जून को नेशनल ब्लैक डे या आपातकाल विरोधीदिवस को याद करते हुए हाल के वर्षों में देश में नफ़रत, हिंसा और फ़ासीवाद के बढ़ते ख़ूनी आतंक की रंगकर्मियों ने एक स्वर से निन्दा की और कहा कि आज देश में आपातकाल से भी बुरे हालात हैं, जहां सरकार मुट्ठी भर कारपोरेट पूंजीपतियों को असीमित फ़ायदा पहुंचाने के लिये जनता के जनतांत्रिक अधिकारों को बेशर्मी के साथ कुचल रही है। उन्होंने देश के तमाम संस्कृतिकर्मियों, कलाकारों और अमन-पसंद नागरिकों से यह अपील की कि वे अपनी चुप्पी तोड़ें और समाज-विरोधी ताक़तों का आगे बढ़ कर मुक़ाबला करें।
पत्थलगड़ी


इस अवसर पर संगवारी और अस्मिता थियेटर केकलाकारों ने प्रतिरोध के दर्जनों जनगीत प्रस्तुत किये। अस्मिता के कलाकारों ने यौन हिंसा के ख़िलाफ़ अपने बहुचर्चित नाटक 'दस्तक'की प्रस्तुति भी की। बड़ी संख्या में आयोजन में शिरक़त कर रहे कलाकारों और दर्शकों ने भी नारों और जनगीतों की प्रस्तुति में सक्रिय रूप से भाग लिया। कार्यक्रम के अंत में कलाकारों से संवाद के क्रम में अधिकतर दर्शकों ने यह स्वीकार किया कि देश सचमुच एक भयावह दौर से गुज़र रहा है, जब अपराधियों के गिरोह सड़कों पर राष्ट्रभक्ति के नारे लगाते घूम रहे हैं और वे विरोध की हर आवाज़ को कुचल देना चाहते हैं। दलितों, आदिवासियों और छात्रों के ख़िलाफ़ राज्य ने एक अघोषित युद्ध छेड़ रखा है और सत्ता में बैठे मंत्रियों-नेताओं द्वारा किसानों की आत्महत्याओं तक का मखौल उड़ाया जा रहा है। लेखकों, पत्रकारों, जजों और विचारकों को धमकाया जा रहा है और उनकी हत्या तक कर दी जाती है। हत्यारे बेख़ौफ़ हैं क्योंकि उन्हें सरकार का समर्थन प्राप्त है। ऐसे में हर अन्याय के ख़िलाफ़ बोलना और आवाज़ उठाना बेहद ज़रूरी है।

विकल्प साझा मंच की तरफ़ से कार्यक्रम का संचालनकर रहे राजेश चन्द्र ने यह भी बताया कि कोचांग में महिला कलाकारों के सामूहिक बलात्कार के दोषियों की तुरंत गिरफ़्तारी और पीड़ितों को न्याय मिलने तक यह प्रतिरोध ज़ारी रहेगा। इस क्रम में आगामी 2 जुलाई (सोमवार) को मंडी हाउस से लेकर झारखंड भवन तक कलाकारों द्वारा एक बाइक मार्च निकाला जायेगा। झारखंड भवन पर दोपहर के 2 बजे एक शान्तिपूर्ण विरोध-प्रदर्शन का आयोजन है, जिसके बाद रंगकर्मी झारखंड सरकार के नाम एक ज्ञापन भी सौंपेंगे। उन्होंने दिल्ली के रंगकर्मियों, कलाकारों और नागरिकों से अपील की कि वे 2 जुलाई के प्रदर्शन में भी अवश्य शामिल हों।

विक्रम  कुमार फ्रीलांस पत्रकार और सोशल एक्टिविस्ट हैं.

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यौन सुख पर अपना दावा ठोंकने वाली महिलाओं की कहानी है - लस्ट स्टोरीज़

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जया निगम 
लोकप्रिय नारीवादी लेखिका सिल्विया प्लाथ ने लिखा है – If they substituted the word ‘Lust’ for ‘Love’ is the popular songs it would come nearer the truth

इसका अर्थ है कि यदि लोकप्रिय गीतों में लव की जगह लस्ट यानी कामेच्छा का इस्तेमाल किया जाता तो वह सच के ज्यादा करीब होता. ज्यादातर शुद्धतावादी इस कोट पर ऐतराज़ कर सकते हैं कि प्यार और सेक्स कैसे अलग-अलग हो सकता है लेकिन हमारे देश ने वैश्वीकरण के 25 सालों में इतनी प्रगति कर ली है कि अब हम कम से कम प्रेम और वासना को अलग-अलग देख सकते हैं खासकर पॉपुलर मीडियम में ये हिमाकत कर पाना उपलब्धि ही कही जायेगी.

फिल्म का एक दृश्य 

नेटफ्लिक्स ने लस्ट स्टोरीज़ बना कर कुछ ऐसी ही हिमाकत की है. इन दिनों देश में सेक्सुअल एंगल लगभग हर स्टोरी में मिल जायेगा. हालांकि यह हम पर है कि हम उसे नोटिस भी करना चाहते हैं या नहीं. सेक्स अब केवल सावधान इंडिया या क्राइम पेट्रोल की बैकबोन नहीं है बल्कि भाभी जी घर पर हैं की यूएसपी भी एडल्ट कॉमेडी है. इसी तरह अध्यात्म और राजनीति का हार्डवेयर इन दिनों जैसे सेक्स के सॉफ्टवेयर पर ही लिखा जा रहा है. इनकी अंदरूनी गाथायें सुन कर ऐसा लगता है जैसे दशकों से देश के गिरहर में पड़ा ‘परदा’ किसी ने नोच दिया हो.

इससे पहले घर-संसार और माया मेमसाहब के सिरे ही औरतों के चुनाव के दो पड़ाव माने जाते रहे हैं. इस बीच औरतें कैसे इतनी बदल गयीं कि ‘हजारों ख्वाहिशें ऐसी’ अब ‘हेट स्टोरीज’ और ‘मस्ती’ बन चुकी है. औरतें अब अपनी जिंदगी को क्लोज इंडेड न होने देने पर अड़ रही हैं. फिर भी देश का बहुमत 90 के दशक के गानों के कैसेट की तरह औरतों को दो साइड A और B पर ही सुनना चाह रहा है. हालांकि देश की अर्थव्यवस्था 90 के समय से अब तक 360 डिग्री पर घूम चुकी है, ठीक उसी तरह वैश्वीकरण ने औरतों की जिंदगियों को भी सीडी की तरह गोल बना दिया है. जिसमें हर सिरा अब ओपेन इंडेड है.

फिल्म के अलग-अल्ड दृश्य 

लस्ट स्टोरीज़ ने चार कहानियों के जरिये हमारे समाज के 4 सच सामने रखे हैं. पहली कहानी अनुराग कश्यप की है जो डार्क फिल्मों के लिये जाने जाते हैं. उन्होने कुछ इसी अंदाज़ में अपनी बात भी रखी है. बौद्धिकता के साथ जुड़ा कपट, अविश्वास और अहंकार राधिका आप्टे के किरदार की सेक्सुअल डिज़ायर के फॉर्म में सामने आया है. जहां मक्कारी के साथ असुरक्षा और दबंगई, चरम पर है. कुछ ऐसी ही कहानी हरामखोर फिल्म की भी है, लेकिन वहां उम्मीद है और क्लास का अंतर है. हरामखोर के नवाजुद्दीन सिद्दीकी और लस्ट स्टोरी की राधिका आप्टे में अंतर करना मुश्किल है कि कौन ज्यादा मक्कार है!

दूसरी कहानी ज़ोया अख्तर की है, इस कहानी में भूमिपेडनेकर का निभाया शहरी घरेलू नौकरानी का किरदार इतने डीटेल और इतने कम संवादों के साथ आता है कि उसे देख कर निम्न मध्यमवर्गीय किसी विवाहित स्त्री की जिंदगी की झलक देर तक मिलती रहती है. ज़ोया की दूसरी फिल्मों की ही तरह ये कहानी भी बेहद आम है लेकिन विजुअल ट्रीटमेंट के लेवल पर यह कहानी खास है. यह स्टोरी शबाना आज़मी की फिल्म अंकुर की याद भी दिलाती है बस फर्क यही है कि शबाना की जिंदगी अब शहर की कोई भूमि निभा रही है और उसकी जिंदगी का पूर्वार्ध है, उत्तरार्ध में क्या होगी ये कहना बहुत मुश्किल है.

दिबाकर बैनर्जी द्वारा निर्देशित तीसरी कहानी में मुख्य किरदार मनीषा कोईराला ने निभाया है. ये इस फिल्म की सबसे लेयर्ड और कॉम्पलेक्स स्टोरी कही जा सकती है. अपने पति के दोस्त के साथ अवैध संबंधों में जिंदगी का सुकून तलाशने वाली दो बच्चों की मां का किरदार बहुत इंट्रेस्टिंग है. इस प्लॉट पर बनी और किसी कहानी का नाम मुझे याद नहीं आता लेकिन याद आती है अपने पड़ोस के घर की एक घटना जिनसे हमारी बहुत करीबी थी. वहां दीदी जो अपने पति के शराब पीने और अनाप-शनाप पैसे खर्च करने की आदत से त्रस्त थीं उनका अफेयर अपनी ही एक सहेली के पति से हो जाता है जो उसे छोड़ कर किसी दूसरे आदमी के साथ रहने चली गयी थीं. इस कहानी में सेक्स बहुत था, डर बहुत था, दीदी की दो बच्चियां थीं, उनके कॉलेज और कस्बाई जीवन में मौजूद सहकर्मियों और रिश्तेदारों से छुप्पन-छुपाई थी. इसके बावजूद दीदी अपने पति से तलाक लेने को तैयार थीं लेकिन प्रेमी जिम्मेदारी लेने के मूड में नहीं था. जल्द ही दीदी को इस रिश्ते की सच्चाई समझ आ गयी. उन्होने अपने पति को सारी बात बता दी क्योंकि रिस्क लेना उन्होने सीख लिया था और खो देने का डर खत्म हो गया था. दीदी के आत्म-विश्वास से सनाका खाये पति महोदय सुधरने के लिये तैयार हो गये और साथ ही दीदी के ऊपर से सारी पाबंदियां भी हट गयीं. ज़ाहिर है पड़ोस की वो दीदी भी अब लिबर्टिना बनी हुई हैं और वो संबंध तो तभी समाप्त हो गया था.

मनीषा कोईराला एक दृश्य में 

करन जौहर द्वारा निर्देशित चौथी कहानी पर बाहर कीएक फिल्म से मूल आइडिया लेने का आरोप है. बावजूद इसके उनकी फिल्मों ने पीढ़ी दर पीढ़ी भारतीयों तक यौनिक आधुनिकता का पैकेज ले जाने का जोखिम उठाया है भले ही वह कितना भी आधा-अधूरा क्यों ना रहा हो. ये कहानी भारतीय परिवेश में सबसे नयी कहानी कही जा सकती है. पति के साथ रात-दिन कमरा बंद करके पड़ी रहने वाली औरत को यौन सुख न मिलता हो यह अब भी अधिकांश महिलाओं के लिये सोच पाना कल्पना से परे हैं. महिलाओं का अपने चरम सुख और यौन फंतासियों को पूरा करने के लिये वाइब्रेटर का इस्तेमाल करना, संस्कारी घरों की संस्कृति के लिये कितनी विस्फोटक स्थिति पैदा कर सकता है, वही दृश्य सबसे मज़ेदार है.

तकनीक के जरिये महिलाओं का चरम सुख हासिल करना, बहुतों के लिये अनैतिक हो सकता है लेकिन समाज की हिप्पोक्रेसी को ढ़ोती महिला अपने लिये कोई कदम ना उठाये, ये कॉमन सेंस के परे तर्क है. जापान की तरह हमारे देश में भी महिलाओं को लिबरेट करने में ऐसे यंत्रों की भूमिका प्रमुख हो सकती है (यदि छद्म संस्कृति और राजनीति की जानलेवा चाशनी यूं ही पकायी जाती रही). करन जौहर की कहानी को इस फिल्म का चरम सुख कहा जा सकता है जिसने तकनीक के जरिये यौन सुख तलाशने वाले लोगों पर एक डिबेट शुरू करने की हिम्मत की है. स्त्रियों का ऑर्गैज्म यानी चरम सुख भारतीय परिप्रेक्ष्य में अमूमन नैतिकता की छद्म बहस और वर्गीय राजनीति की आलोचनाओं की फेंस के बीच कहीं अटका रहता है. लेकिन एक कोट के मुताबिक दुनिया कि आबादी कितनी कम होती यदि औरतों को उनके हिस्से का सुख दिये बगैर मर्द उनसे बच्चे पैदा नहीं कर सकते! सच ही :
'Imagine how small the world's population would be if a woman have to have an orgasm in order to get pregnant.' 

 आईआईएमसी की पूर्व छात्रा जया निगम सोशल सेक्टर से जुड़ी हैं. 

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किसी एक ब्राह्मण से अम्बेडकर, बुद्ध, रैदास की ताकत वाला दलित आन्दोलन खत्म नहीं हो सकता: रमणिका गुप्ता

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रमणिका गुप्ता 

हिन्दी और दलित साहित्य संसार में फेसबुक पर पिछले दिनों हुए आरोपों-प्रत्यारोपों पर 'युद्धरत आम आदमी'की संपादक और वरिष्ठ साहित्यकार रमणिका गुप्ता की यह टिप्पणी नये सिरे से एक बहस को जन्म देगी . यह टिप्पणी उन्होंने 'युद्धरत आम आदमी'के अपने सम्पादकीय में की है: 

पूरे देश में 2 अप्रैल को दलित प्रतिरोध ने अपनी जोरदार उपस्थिति दर्ज करा कर, सत्ता को यह अहसास तो करा दिया है कि वे अब अपने अधिकारों के साथ किसी को छेड़-छाड़ करने नहीं देंगे। ऐसे समय में दिल्ली के दलित आन्दोलन के कतिपय बुद्धिजीवी वर्ग के लेखक आपस में बन्दूकें ताने खड़े हैं। वे एक बड़ी लकीर खींच कर बड़ा बनने की बजाय, खिंची हुई लकीरों को ही छोटा करके बड़ा बनना चाह रहे हैं। दलित आंदोलन, विशेषकर दिल्ली के दलित लेखकों का आंदोलन आज कई भागों में विभक्त हो चुका है। उन्होंने अलग-अलग संगठन भी बना लिए हैं। एक-आध संगठन तो जाति के आधार पर भी बन गए हैं। अलग-अलग संगठन बनाना कोई इतनी बुरी बात नहीं, बशर्ते उनकी मंशा सिद्धांतों के प्रति प्रतिबद्ध होकर ज्यादा से ज्यादा काम करना हो, ना कि ज्यादा से ज्यादा दूसरे को नीचा दिखाना। हो यह रहा है कि वे अब एक-दूसरे को ‘आउस्ट’ (बाहर) करने के लिए, एक दूसरे पर आरोप लगाने और एक-दूसरे की भर्त्सना  करने लगे हैं। उन्हें दूसरे की हर बात में षड्यंत्र की बू आने लगी है।
रमणिका गुप्ता दलित लेखक संघ के सम्मान कार्यक्रम में 


कुछ लेखक तो खुलेआम बाबा साहेब डॉक्टर अम्बेडकरकी ब्राह्मण महिला से शादी करने के प्रश्न को लेकर भी उनसे केवल नाइत्तेफ़ाक़ी ही नहीं जताते बल्कि उन पर प्रश्न भी खड़े कर रहे हैं। उनके बारे में तुच्छ शब्दों में बतियाते भी हैं। इतना ही नहीं, कोई-कोई तो गौतम बुद्ध को भी क्षत्रिय कहकर नकार रहे हैं। कुछ दलित लेखक व उनके परिवार वाले अभी भी उनका आदर्श ब्राह्मण ही है। अपने घरों में हिन्दूवादी अनुष्ठानों को यथावत् मान रहे हैं पर मंच पर वे ‘वचनं किमं दरिद्रम’हैं। एकजुट होकर एक जमात बनने की बजाय, वे मनु संहिता के अनुसार दलित साहित्य को भी जातीय खेमों में बांट रहे हैं। आज वे धड़ल्ले से जातीय उन्नयन की बात भी करने लगे हैं। अन्तरजातीय विवाह के विरुद्ध तो वे अलग से मुहिम ही चला रहे हैं। यह बाबा साहेब की 22 प्रतिज्ञाओं के बिल्कुल विपरीत है। कभी-कभी तो वे बड़े जोर से एक-दूसरे को संघी कहकर दलित संगठनों से बाहर करने की बात भी करने लगते हैं-पता ही नहीं चलता कि वास्तव में उनमें संघी कौन है-आरोपित या आरोप लगाने वाला? ये बात भी सच है कि किसी संगठन को कमजोर करना हो तो संका और भ्रम सबसे कमजोर कारगर हथियार होता है। इस समय, दलितों को एकजुट होकर एक जमात बनना चाहिए और लोगों को छांट या हटाकर दलित आंदोलन की धार को कुन्द नहीं करना चाहिए। अगर वे एक संगठन नहीं बन सकते तो न सही-पर उन्हें आपस में जुड़ना तो चाहिए। भले ही संगठन अलग हो लेकिन मुद्दे तो एक हों-उनमें आपसी कटुता तो न हो।
अपनी बात मनवाने यानी दलित आंदोलन को और सशक्त बनाने और आज के हिंदुत्ववादी खतरे से निजात पाने के लिए, दलितों को प्रगतिशील जनों के साथ एक साझा मोर्चा बनाना भी जरूरी है। ऐसे समय में दलित बुद्धिजीवियों का आपस में ही मारामारी करना तो हिंदुत्ववादी शक्तियों को ही बल देगा। वे आपस में ही इतनी तोड़फोड़ करने में लिप्त हैं कि एक जमात बनने की सोच ही नहीं रहे। बहुत पीड़ा होती है यह सब देख कर
वे सोशल मीडिया, फेसबुक, व्हाट्सएप के माध्यम से प्रगतिशील साथियों पर भी स्वयं को चर्चा में लाने या अपनी व्यक्तिगत खुन्नसें निकालने हेतु बिना प्रमाण आरोप भी लगाने लगते-कभी-कभी। इतना बड़ा आंदोलन, जो सामाजिक न्याय के लिए लड़ा जा रहा है, उसे कतिपय दिल्ली के बुद्धिजीवी अपने व्यक्तिगत विकास की सीढ़ी बनाने के लिए, आपस में लड़कर कमज़ोर कर रहे हैं। अगर कोई शंका है, तो उन्हें मिल-बैठकर बात करके, पत्राचार करके सुलझाना चाहिए, न कि फेसबुक या व्हाट्सएप पर-जैसे अगंभीर भाषा में 2 अप्रैल, 2018 को चलाई गई बहस। गंभीर लोग प्रायः ऐसी भाषा का उपयोग नहीं करते। यह सवर्णों की भाषा है। दरअसल आजकल अपने को चर्चा में लाने का यह एक अच्छा ढंग निकला है। किसी पर कीचड़ उछाल दो फेसबुक पर या व्हाट्सएप पर-और चर्चा में आ जाओ! कुछ अच्छा लेख लिखकर, अच्छी बात कहकर चर्चा में आना ज्यादा सार्थक होता है। यदि आप किसी के मत से सहमत नहीं हैं, तो लेख के माध्यम से भी लेख के माध्यम से भी अपना विरोध दर्ज़ करवा सकते हैं। उसमें कटुता या शत्रुता तो नहीं आनी चाहिए।
हम लोग, जो संपादन करते हैं, उन्हें बड़े-से-बड़े लेखक की रचनाओं को भी संपादित करना पड़ता है। कई बार टाइप की अशुद्धियां भी होती हैं, कई बार व्याकरण की गलतियां भी होती हैं। कई बार कुछ रचनाएं तो इतनी ज्यादा बड़ी होती हैं कि उन्हें काट-छाँट कर संपादित भी करना पड़ता है। यह संपादक का काम होता है। उसमें संपादक यह देखता है कि मूल भाव नष्ट ना हो और पूरी बात भी चली जाय। अनूदित रचनाओं में तो भयंकर गलतियां होती हैं। महाराष्ट्र से रचना मराठी-हिन्दी, गुजरात से गुजराती-हिन्दी, तेलुगु से तेलुगु-हिन्दी में आती हैं, यानी हर भाषा की रचनाओं में अपने-अपने व्याकरण के उपयोग के चलते गलतियां हो जाती हैं-उन्हें भी ठीक करना पड़ता है। कई बार पुनः लेखन करना पड़ता है, जैसे प्रेमचन्द किया करते थे। इसीलिए अगर कोई साथी दलित रचनाओं को ठीक करके, उन्हें और अच्छा बना कर प्रकाशित करने लायक बना कर किसी दलित साथी की मदद कर प्रकाशित करता या करवाता है, तो उसको शाबाशी मिलनी चाहिए, ना कि उसकी भर्त्सना करनी चाहिए। ऐसा तो केवल व्यक्तिगत खुन्नस के मामले में या चर्चा में आने की अथवा अपनी जगह बनाने की योजना होने पर ही होता है। आज यह भी गंभीरता से सोचने का एक जरूरी और महत्वपूर्ण विषय है कि आखिर दलित समाज और उसका बुद्धिजीवी तबका भगवा में क्यों चला गया? इस पर भी सभी गुटों के दलितों को मिल बैठकर बात करनी चाहिए और राष्ट्रीय स्तर पर सेमिनार होने चाहिए।

दलितों को जागृत व एकजुट करने हेतु जरूरत हैकि दलित लेखक गांव से जुड़ें, केवल शहरों में बैठकर यह काम नहीं होगा। उन्हें दिवंगत रजनी तिलक की तरह एक्टिविस्ट होने के मार्ग पर चलने के बारे में तय करना होगा, अगर वे सचमुच दलित समाज को जागरूक कर सवर्ण शोषण व सवर्ण ब्राह्मणवादी मानसिकता-सवर्ण व दलित दोनों की-से मुक्त कराना चाहते हैं। आज दलित वर्ग मध्यम वर्गीय प्रवृत्ति अपनाता जा रहा है। पढ़-लिख कर वह अपने घर की औरतों के प्रति भी वही सवर्ण दृष्टि अपना रहा है। पुरुष ‘शावनिज़्म’ (मर्दवाद), जो उसमें पहले से ही था-अब और बढ़ गया है। वे अभी भी ब्राह्मण को अपना आदर्श मानते हैं, और मन से हिन्दू हैं-हिन्दू अनुष्ठानों को निभाते हैं-बौद्ध रीति से विवाह करते हैं दिखावे के लिए-फिर घर जाकर हिन्दू रीति से विवाह करते हैं।
रमणिका फाउंडेशन की एक तस्वीर 

मैंने पहले भी कई बार लिखा है कि दलितों को अपने आलोचक पैदा करने चाहिए। सवर्णों से सर्टिफिकेट लेने की चिरौरी नहीं करनी चाहिए किन्तु आज भी वे अपनी किताबों की समीक्षा उनसे लगातार करवाते आ रहे हैं और व्यक्तिगत मतभेद होने पर उन्हें ‘घुसपैठिया’ या कुछ और कहकर या दलित आन्दोलन के टूटने का भय दिखाकर, उनमें आरोप भी मढ़ने  लगते हैं-बिना प्रमाण के आरोप लगाना भी निन्दनीय हरकत होती है। हालांकि अब कुछ दलित लोग आलोचना भी करने लगे हैं, ये अच्छी बात है पर वहां भी जब खेमेबाजी नज़र आती है तो दुख होता है। एक-दूसरे को प्रोत्साहित करने की बजाय वे नये लेखकों को डराने व भगाने वाली आलोचना करने लगते हैं या अपने खेमे के लेखक की इतनी अधिक आधारहीन प्रशंसा कर देते हैं कि वह आत्ममुग्ध हो जाए और उसका विकास ही बंद हो जाए। वे नई-नई उपाधियां देने की पेशकश कर रहे हैं, जो बड़ी ही अच्छी बात है। पर आज हमें  महाकवियों की नहीं, जन-कवियों की उपाधि की दरकार है। महाकवि शास्त्रीय प्रणाली थी। वे महाकवि आम आदमी के लिए अबूझ थे। हमें सूरजपाल चैहान, मलखान सिंह जैसे जन-कवियों की दरकार है-हमें जयप्रकाश कदर्म और मोहनदास नैमिशराय, ओमप्रकाश वाल्मीकि आदि खोजी और गंभीर लेखकों की दरकार है, जो आंदोलनों को प्रेरित कर सकें और मानसिकता बदल सकें, जागृति ला सकें-हमारी कमज़ोरियों से भी हमें अवगत करवा सकें ताकि हम उन्हें दूर कर सकें और हमारा इतिहास भी तैयार करें। साथी गंगाधर पन्तावणे जी का तो कहना था कि दलित साहित्य में ‘शिव का तीसरा नेत्रा खुलेगा’ जैसे वाक्य या बिम्ब नहीं आने चाहिए। दलितों को अपनी श्रमण संस्कृति व जीवन के अनुरूप नये बिम्ब-प्रतीक लाने होंगे। इसलिये सवर्णों की शास्त्रीय भाषा का प्रयोग मत कीजिये-अपने लेखों को आम आदमी के लिये पठनीय बनाइये। इसलिए अपने कवि को कोई उपाधि देनी है, तो जनकवि की उपाधि दीजिए, महाकवि की नहीं। हमें कालिदास नहीं चाहिए, हमें कबीर-रैदास-तुकाराम की जरूरत है।

2 अप्रैल को सवर्ण घुसपैठ के नाम पर जिस भद्दे ढंग से एक व्यक्ति को टारगेट करके पोस्ट चलाई गई है, उस बहस की भाषा संघी है। यह प्रगतिशील दिमाग की उपज नहीं है। एक अभियान कँवल भारती के खिलाफ भी चला है, मैं उसकी भी भर्त्सना  करती हूं। ऐसी निरर्थक बहसें दलित लेखन व दलित आंदोलन को नुकसान पहुंचाती हैं-उनके आइकन्स को विद्रूप करती हैं।

दलित आंदोलनकारियों को इस बात के लिए मुतमइनहोना चाहिए कि किसी एक ब्राह्मण या व्यक्ति से आन्दोलन ख़त्म नहीं होता। ...घुसपैठ से अगर कोई आंदोलन खत्म हो जाए, तो वह कैसा आंदोलन है? इसका अर्थ है कि उसकी नींव ही कमज़ोर है। और दलित आन्दोलन इतना कमज़ोर नहीं है। दलित आंदोलन के पीछे अम्बेडकर हैं, बुद्ध हैं, रैदास  हैं, कबीर हैं और सामाजिक न्याय की लगन है सदियों के शोषण की पीड़ा है-उसे कैसे कोई एक व्यक्ति मिटा सकता है? संगठन जहां 2 जोड़ 2 बराबर चार-गणनात्मक’ होता है; वहीं वह मां की ममता की तरह सब को समा लेने की क्षमता रखने वाला सागर भी होता है। एक बूंद दूसरी बूंद से मिल जाने पर दो नहीं एक हो रहती है। दलित एक-एक बूंद मिल कर समुद्र बन जाएं! आओ इस ऐके को कायम करें।
यदि आन्दोलन चलाने वाले व्यक्तिवादी न होकर सामूहिकता में विश्वास रखते हों और अपने सिद्धान्त के प्रति प्रतिबद्ध हों, तो उन्हें कोई नहीं तोड़ सकता। संगठन संवादहीनता व शंका-अविश्वास से टूटते हैं। होना तो यह चाहिए कि जितने लोग दलित आंदोलन से अभी बाहर हैं, उन्हें भी सब दलित साथी संपर्क करें और अपने संगठन के प्रति अपनी प्रतिबद्धता और आन्दोलन के बल पर उनकी मानसिकता भी बदलें।

दलित साहित्य के पक्ष में रमणिका जी का एक लेख 1998 में 


हमारे गंभीर दलित साथी, जो इस पचड़े या विवाद में नहीं पड़े हैं, उनसे मेरा विशेष अनुरोध है कि वे इन सब साथियों को एक साथ बिठाकर कोई रास्ता खोजें। कृपया आपसी छीछालेदर बंद करवायें। उन्हें जो भी करना हो आपस में बातचीत करके या पत्राचार करके गलतफहमियां दूर करें बनिस्पत सोशल मीडिया पर आने के। यह जग हंसाई की बात है। वे गम्भीर लेखन के माध्यम से बात करें-अपनी कमज़ोरियों को भी ध्यान में रखें। दलित आंदोलन सोच बदलने का, दृष्टिकोण बदलने का आन्दोलन है। वह मानवता के कल्याण और सामाजिक न्याय का आन्दोलन है। करोड़ों दलितों को जागरूक करने की ज़िम्मेवारी है इस आंदोलन पर। उनकी बहस व्यक्ति-आधारित न होकर दृष्टिकोण-परक या मानसिकता आधारित होनी चाहिए।

अभी केवल एक अनुरोध है दलित साथियों से किवे आपसी विवाद खत्म करें और एकजुट होकर एक साथ बैठें। जो दलित साथी उनसे इसलिए दूर हो गए हैं कि किसी विशेष दलित जाति ने उनका अपेक्षित नोटिस नहीं लिया और उन्हें लेखन में स्थान नहीं दिया, उनसे गंभीरता से बात करनी चाहिए ताकि वे जातिगत खेमों में न बंटें। वर्णाश्रम के अंतिम डंडे पर बैठे दलित को भी यह अहसास कराएं कि वह उसके साथ पूरी दलित जमात खड़ी है। यह बहुत खतरनाक समय है-आज बहुत बड़े-बड़े दलित नेता भगवा गोद में जा बैठे हैं। जब बाहर के दुश्मनों का हमला होता है तो घर के दुश्मन-दोस्त मिलकर उसका मुकाबला करते हैं-अपनी लड़ाई स्थगित कर देते हैं। अभी देश पर जातिवादी धर्मान्ध अंधविश्वासियों, तर्कहीन अंधभक्तों, धर्मान्ध हिन्दुत्ववादियों, दंगावादियों का ख़तरा मंडरा रहा है-जिनके खि़लाफ़ एक साझा मोर्चे की जरूरत है, और ऐसे समय में ऐसी बहसें उस साझे मोर्चे को कमज़ोर करने की साज़िश है-यही आरएसएस का अभीष्ट भी है। दलित बुद्धिजीवियों को प्रगतिशील तत्वों से मिलकर इसका मुकाबला करना चाहिए ताकि हिन्दुत्ववाद-जिसने दलितों को पशुवत जिंदगी दी, उसे परास्त व ध्वस्त किया जा सके।

पुनश्च: राजकिशोर जी के जाने से बड़ा आघात लगा। वे बड़े बेबाक और तर्कशील आलोचक होने के साथ-साथ वंचित समाज व हाशिये के लोगों की भी चिंता करते थे और उन पर लिखते थे। एक अच्छे विश्लेषक का अचानक हमारे बीच से चले जाना बड़ा दुखदायी है। रमणिका फाउंडेशन, युद्धरत आम आदमी और अखिल भारतीय आदिवासी साहित्यिक मंच उनको अपनी श्रद्धा अर्पित करते हैं।


आईआईएमसी की पूर्व छात्रा जया निगम सोशल सेक्टर से जुड़ी हैं. 

स्त्रीकाल का प्रिंट और ऑनलाइन प्रकाशन एक नॉन प्रॉफिट प्रक्रम है. यह 'द मार्जिनलाइज्ड'नामक सामाजिक संस्था (सोशायटी रजिस्ट्रेशन एक्ट 1860 के तहत रजिस्टर्ड) द्वारा संचालित है. 'द मार्जिनलाइज्ड'मूलतः समाज के हाशिये के लिए समर्पित शोध और ट्रेनिंग का कार्य करती है.
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महिलाओं के गाड़ी चलाने से सऊदी अरब का कस्टोडियन लॉ संकट में

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तारा शंकर
 कमला नेहरु कॉलेज (दिल्ली विश्वविद्यालय) में बतौर असिस्टेंट प्रोफेसर अध्यापन . संपर्क :tarashanker11@gmail.com

पिछले दिनों सऊदी अरब में महिलाओं के गाड़ी चलाने पर लगी रोक हटायी गयी तो पूरी दुनिया में ख़बर फ़ैल गयी! महिलाओं की व्यक्तिगत, आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक आज़ादी के बारे में सऊदी अरब की आलोचना दुनियाभर में होती रहती है! ताराशंकर का यह लेख पाबंदी की वजहों, उससे मुक्त होने के उदारवादियों के संघर्ष, इस संघर्ष का  कट्टरपंथियों और महिला विरोधियों द्वारा विरोध, जिनमें खुद महिलायें भी शामिल थीं, आदि कई मसलों को समेटता है.

अब तक सऊदी अरब पूरी दुनिया का एकमात्र देश थाजहाँ औरतों को ड्राइविंग करने से मनाही थी! वहाँ वर्ष 1957 से ही क़ानूनी तौर औरतों के गाड़ी चलाने पर पाबंदी थी! ड्राइविंग लाइसेंस सिर्फ़ मर्दों को जारी किये जाते थे! इसलिए कई लड़कियाँ विदेशों से लाइसेंस बनवाती थीं! हालांकि शरिया अथवा किसी भी इस्लामिक क़ानून पाबंदी के बाबत कोई बात नहीं लिखी गयी है! लेकिन सरकारी तौर पर मनाही थी! तो सवाल उठता है कि फिर क्यों थी ऐसी पाबंदी? असल में सऊदी वहाबी इस्लाम (सुन्नी परंपरा) औरत-मर्द में कई विभेद करता है (Male Gaurdianship Law) और चूंकि औरतों द्वारा ड्राइविंग इस विभेद से कई जगह टकराता है इसलिए अब तक ड्राइविंग पर बैन था!

क़रीब 30 सालों से वहाँ महिलायें इस पाबंदी के ख़िलाफ़ बोल रही थीं!और धीरे-धीरे आज सऊदी में बहुसंख्यक जनता भी इस पाबंदी को हटाने के पक्ष में आ चुकी थी! हाल-फ़िलहाल में वहाँ हुए लगभग सभी सर्वेक्षणों में अधिकतर लोगों ने औरतों को ड्राइविंग की आज़ादी के पक्ष में बोला! पिछले साल सऊदी के सर्वाधिक प्रभावशाली व्यक्तियों में से एक प्रिंस अल वलीद बिन तलाल  ने सीधे ट्वीट किया कि “बहस बंद करो. अब औरतों के ड्राइव करने का वक़्त आ गया है” और पिछले साल शूरा काउंसिल (शूरा काउंसिल सऊदी सरकार की मजहबी मसलों पर सलाहकारी परिषद् है) के हेड अब्दुल रहमान अल रशीद ने भी औरतों के गाड़ी चलाने की तरफ़दारी करते हुए कहा सऊदी के यातायात विभाग के पास भी ऐसा कोई नियम नहीं जो औरतों को गाड़ी चलाने से रोकता हो!
साल 1990 में सऊदी महिलाओं ने तमाम समाज सुधारों की माँग शुरू की जिसमें राइट टू ड्राइव भी एक था! काउंसिल ऑफ़ सीनियर इस्लामिक स्कॉलर्स के साल 2010 में आये एक फ़तवे के ख़िलाफ़ कैंपेन ने फिर ज़ोर पकड़ा जिसमें कहा गया था कि “औरतों के गाड़ी चलाने से ग़ैरक़ानूनी खुल्वाह (किसी ग़ैरमर्द के साथ अकेले होना) के मौके देगा, चेहरा ढँका नहीं रहेगा, औरत और मर्दों में बेपरवाह और बेख़ौफ़ इंटरमिक्सिंग होगा, और व्यभिचार को भी बढ़ावा मिलेगा! और इस तरह सामाजिक बढ़ेगा!”



साल 2013 में क़रीब 60 औरतों ने सऊदी की सड़कों पर पाबंदी के बावजूद कार चलाकर इसका विरोध किया! कुछ औरतें जेल भी गयीं! कैम्पेनर मनाल अल-शरीफ़ कहती हैं कि औरतों को गाड़ी चलाने से इसलिए रोका गया है क्योंकि इससे मर्दों का गार्जियन सिस्टम को ख़तरा होगा! साल 2016-17 में #StopEnslavingSaudiWomen और #Women2Drive जैसे बड़े कैम्पेन चल रहे हैं! साल 2017 में राइट टू ड्राइव कैंपेन की वेबसाइट को सऊदी सरकार ने बंद कर दिया!
हालांकि कुछ एक महिलाओं ने ही इस तरह के कैंपेन के ख़िलाफ़ “My Guardian Knows What’s Best for Me” कैम्पेन चलाया! इसी तरह शेख़ सालेह बिन साद अल-लोहायदन जो कि गल्फ़ साइकोलोजिस्ट असोसिएशन के न्यायिक सलाहकार हैं, ने एकदम वाहियात तर्क दिया कि "अगर औरत कार चलाती है तो उसका पेल्विस ऊपर ख़िसक सकता है और पैदा होने वाले बच्चे में क्लिनिकल प्रॉब्लम हो सकती है..” कुछ इसी तरह  डिप्टी क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान ने कहा कि औरतें को गाड़ी चलाने की इज़ाजत मिले और कब मिले, इस बात का निर्णय सरकार नहीं, सऊदी समाज करेगा और समाज अभी इसके लिए तैयार नहीं है!
महिला अधिकारों के संगठनों ने कई छोटे छोटे प्रदर्शन किये हाल के सालों में. कुल मिलाकर इस पूरे मसले को दो हिस्सों में बाँटकर देखा जा सकता है:

पहला, वो कारण जिनकी वजह से अब तक औरतों पर ड्राइविंग की पाबंदी थी और दूसरा, वो जिनके कारण ये पाबंदी हटाई गयी! कुरान अथवा शरिया में ऐसा कोई क़ानून नहीं जो औरतों को गाड़ी चलाने पर सीधा पाबंदी लगाता हो! लेकिन वहाबियत (सुन्नी इस्लाम) के हिसाब से चलने वाले सऊदी में औरतों का गाड़ी चलाना कई तरह से उनकी मर्द-औरत में फ़र्क करने वाली परंपराओं के ख़िलाफ़ जाता था! इन परंपराओं में सबसे उल्लेखनीय है कस्टोडियन लॉ. जिसके अनुसार एक औरत को पति अथवा किसी मेहराम के गार्जियनशिप (अथवा इजाज़त से) में ही कहीं आने-जाने, नौकरी करने, पढ़ने, शादी करने, यात्रा करने, वीसा-पासपोर्ट बनवाने, खाता खोलने इत्यादि की छूट है! मेहराम का मतलब होता है जिससे पर्दा करने की ज़रुरत नहीं, जिनसे शादी अथवा सेक्स करना हराम हो, एक क़ानूनी सहायक जो औरतों को 24 घंटे से अधिक की यात्रा में मदद करे जैसे: माँ-बाप, भाई, बेटा और खून के रिश्ते वाले लोग!



अब ज़ाहिर है कि अगर औरत ड्राइव करेगी तो सड़क पे उसकी ग़ैर-मर्दों से बात होगी, एक्सीडेंट की स्थिति में किसी ग़ैर-मर्द से मदद भी लेनी पड़ सकती है, गाड़ी चलते समय ज़ाहिर है चेहरा ढँका नहीं रहेगा, अगर महिला टैक्सी ड्राइवर है तो वो किसी ग़ैर-मर्द से साथ अकेली होगी वो भी किसी मेहराम के बगैर. अर्थात पूरे कस्टोडियन लॉ की धज्जी उड़ जायेगी! यही वजह थी सरकार की तरफ इस पाबंदी की! लेकिन और गहराई में जायें तो असल में ये बेकार का कस्टोडियन लॉ कट्टरपंथियों के मर्दवाद, मैस्क्युलिनिटी, औरतों पर उनकी बादशाहत को कायम करता था! सिर्फ़ ड्राइविंग की आज़ादी देना मसला ही नहीं था और न ही मसला कुरान या शरिया से जुड़ा था, बल्कि ड्राइविंग की आज़ादी इन कट्टरपंथियों की उस सोच को तमाचा मारती है जिसमें वो बीवी, बहन, माँ, बेटी को अपनी निजी संपत्ति मानते हैं. और इसीलिए इस पाबंदी से उन्हें औरतों की सुरक्षा की ठेकेदारी स्वाभाविक रूप से मिल जाती थी. और औरतों को घरों की चहारदीवारी तक सीमित करके उनपर वर्चस्व जताना भी आसान रहता था! और अंदरूनी बात कि वो इससे औरतों की ‘सेक्सुअलिटी’ पर ज़बरन कण्ट्रोल कर सकते थे! ऐसी न औरतों पर भरोसा रखती है और न ही मर्दों पर! ड्राइविंग पर पाबंदी इसी औरत-मर्द विभेद का मजहबी विस्तार था! ये उस सोच का भी विस्तार था जिसमें मर्दों को औरतों की सुरक्षा का ठेका मिला हुआ होता था! अब औरत ड्राइव करेगी तो घर में न रहकर पब्लिक में रहेगी तो इस ठेके और स्वामित्व को धक्का तो लगेगा ही! इसी कस्टोडियन लॉ की वजह से वजह से सऊदी में औरतों के लिए सार्वजनिक जीवन बहुत सीमित रहा है!

लेकिन हाल के वर्षों आये तमाम सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक बदलावों ने इस पाबंदी के ख़िलाफ़ माहौल तैयार कर दिया! सऊदी की महिला अधिकार एक्टिविस्ट हाला-अल-दोसारी कहती हैं कि औरतों की ड्राइविंग पे पाबंदी का मतलब है कि सरकार औरतों को  पूरी तरह वैध एडल्ट नहीं मानता! पूर्व शूरा काउंसिल मेम्बर मोहम्मद अल-ज़ुल्फा ड्राइविंग को मजहबी नहीं, सामाजिक और सांस्कृतिक मसला मानते हैं और कहते हैं कि तमाम विधवा और तलाक़शुदा औरतें बहुत अच्छी तरह घर संभालती हैं! हमें उनपर भरोसा करना चाहिए! इसी तरह सोशल सर्विस के प्रोफेसर नासेर अल-औद का मानना है कि महिलाओं के गाड़ी चलाने से मर्दों की सत्ता को क्या ख़तरा भला? वैसे भी आज बहुतेरे घर ग़ैरमर्द टैक्सी ड्राइवर की वजह से चल रहा है!


सऊदी में औरतें आर्थिक तौर से मजबूत हो रही हैं, उच्च शिक्षा हासिल कर रही हैं! औरतों में पढ़ी-लिखी बेरोज़गारी बढ़ी है, नौकरी की माँग तेज़ी से बढ़ी है! और ये पाबंदी उससे मेल नहीं खा रही थी! तमाम विधवा, तलाक़शुदा महिलायें जिनके कोई मर्द गार्जियन नहीं, उनका हिसाब कौन करेगा! टैक्सी से आना-जाना तमाम ग़रीब घरों के लिए ख़र्चे का मसला बनता जा रहा था! जैसे विदेशी टैक्सी ड्राइवर रखने का महीने का औसत ख़र्च क़रीब 3800 रियाल है और इस हिसाब से अगर महिलाओं को ख़ुद की कार चलाने की इज़ाजत मिल जाये तो देश का 30 अरब रियाल बच जायेगा (सरकार द्वारा सौंपी गयी रिपोर्ट से)! ऊबर जैसे विदेशी कंपनी का सरकार द्वारा प्रमोशन जिसमें ड्राइवर अक्सर विदेशी होता है, देश का काफ़ी पैसा बाहर जा रहा है! इसलिए पाबंदी हटाने से न सिर्फ़ घरेलू पैसा बचेगा बल्कि महिलाओं को रोज़गार भी मिलेगा!

लेकिन ये पाबंदी भी अभी तमाम शर्तों के साथ हटाई गयी है!फिर भी इस छोटे से सकारात्मक बदलाव का स्वागत करना चाहिए और इसके लिए सऊदी महिलाओं, सोशल एक्टिविस्ट और मौजूदा सुल्तान जो ऐसे बदलावों के हिमायती हैं, को बधाई! हालांकि असली जीत तब होगी जब कस्टोडियन लॉ (जो वहाँ औरतों की आज़ादी में सबसे बड़ा रोड़ा है) में आमूलचूल बदलाव आयेगा!

कुछ संदर्भ:
http://www.alwaleed.com.sa/news-and-media/news/driving/
https://www.theguardian.com/commentisfree/2016/oct/07/saudi-arabia-women-rights-activists-petition-king
https://www.independent.co.uk/news/world/middle-east/saudi-arabia-is-not-ready-for-women-drivers-says-deputy-crown-prince-mohammed-bin-salman-a7004611.html
http://www.loc.gov/law/foreign-news/article/saudi-arabia-shura-council-denies-social-media-reports-on-resolution-to-allow-women-to-drive/

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आदिवासी गरीब स्त्रियों का 'शिकार'करके भी जनवादी कहलाने वाले कलाकार की आत्मकथा (!)

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 मंजू शर्मा

हिन्दी की शिक्षिका,  सोशल मीडिया में सक्रिय. सम्पर्क:  manjubksc@gmail.com


रामशरण जोशी जी आप साहित्य की दुनिया में किसी परिचय के मोहताज नहीं।यूँ भी अपनी आत्मकथा लिखने के लिए एक साहित्यकार तभी सोचता है जब उसे जान पड़ता है कि उसे अब वे सारे मुकाम मिल गए हैं जिसकी उसे चाह रही थी। खैर यूँ भी यहाँ मैं आपका कोई परिचय देने के लिहाज से कुछ भी लिख नहीं रही हूँ। बस कुछ बातें जो निरन्तर कचोटती रही आपकी आत्मकथा पढ़ते हुए कि आपने कोशिश तो बहुत की है कि सेलेक्टिव होकर आप बस वही लिखे जो आपको ‘समय के बोन्साई’ के रूप में स्थापित करे ।

आप बोन्साई नहीं हो सकते हैं।एक बोन्साई के पौधे कोतो पूरी तरह-से बढ़ने और फैलने का अवसर तक नहीं दिया जाता है।समय से पहले ही साजो-सज्जा के नाम पर उसे काट-छाँटकर ऐसा बना दिया जाता है जो उतनी ही भूमि और मिट्टी में पनपना सीख जाए जो उसे उसका मालिक दे और वह पौधा फलने-फूलने तक से वन्चित रह जाता है।बेचारे बोन्साई के पौधे से आपने अपनी तुलना कर दी है, आप अपनी आत्मकथा के शीर्षक(मैं बोन्साई अपने समय का:कथा एक आत्मभन्जक की) के साथ आरंभ से ही खुद को जस्टीफाई करने की जुगत में लग जाते हैं और फिर तो आप अपनी छवि को उदात्त कर ले जाने को अधीर हो जाते हैं। अपनी ही आत्मस्वीकृतियों को आप बड़े ही घाघ तरीके-से एडिट कर देते हैं जिसपर पहले आपकी आलोचना हुई थी और आप आलोचकों को आत्मकथा में बड़ी लानत-मलानत करते हैं, आपको लगा कि आत्मकथा लिखते हुए उन अंशों को एडिट कर देना पुन: छवि को बोन्साई व्यक्तित्व प्रदान करने में कारगर सिद्ध होगा। आपने भी सोच लिया होगा कि कम-से-कम वर्तमान नई पीढ़ी के पाठकों को तो आपकी करतूतों को जानने से वंचित करके अपने लिए ही आत्मभंजक विशेषण की उपाधि देकर भरपूर सहानुभूति तो बटोरी ही जा सकती है।
आपने अपने आलोचकों को खूब लानत भेजी है इस आत्मकथा में पर चूक आपसे यह हो गई अपने आपको बोन्साई कहते हुए कि छ्पी हुई सामग्री कितनी भी पुरानी हो कहीं-न-कहीं से लोगों को पढ़ने को मिल ही जाती है(विशेषकर उनलोगों को जो इस आत्मकथा को पढ़ते हुए और अधिक आपको जानने और समझने हेतु इच्छुक हैं)।
रामशरण जोशी 


दरअसल आप तो उन अतितुष्ट व्यक्तियों में से हैं, जिन्होंने खुद ही स्वीकारा भी है कि मेरे भीतर अनेक ‘मैं’ है।आप सच्चे न तब थे न हीं आज और अब हैं मान्यवर!

पढ़ें : घृणित विचारों और कृत्यों वाले पत्रकार की आत्मप्रशस्ति है यह, आत्मभंजन नहीं मिस्टर जोशी

इस बात से भी इन्कार नहीं किया जा सकता है किआप स्त्री-मनोविज्ञान के ज्ञाता न होकर भी स्वयं को बार-बार स्त्री को जानने-समझने का ढोंग करते हैं।हकीकत तो यह है कि आपको लेशमात्र भी स्त्री के मनोविज्ञान का भान नहीं है।तीन स्त्रियों के जीवन में आने के बाद भी आपने स्त्री को महज सामान से ज्यादा कुछ समझा ही नहीं। शायद तभी यह बताने तक में भी आपने परहेज नहीं किया कि मैत्रेयी पुष्पा जी ने स्वीकार किया था कि औरत पुरुष को रिझाने के लिए ‘श्रृंगार’ के हथियार का इस्तेमाल करती है।मुझे भान होता है कि आप सम्पूर्ण स्त्री जाति की इसी प्रवृ्त्ति को उभारना चाहते हैं ।यह भी हो सकता था कि इसे केवल एक वाकये या एक सामान्य-से वक्तव्य के रूप में आपने इसे देखा होता तो इसे अपनी आत्मस्वीकृतियाँ में न लिखते और यह स्त्रियों के लिए एक आम राय तो कम-से-कम आप निर्धारित करने की गलती कत्तई नहीं करते।यह मानकर चलते तो आपकी इज़्ज़त कई गुना बढ़ जाती हम स्त्रियों की निगाहों में कि यह केवल एक स्त्री-विशेष की अपनी आत्माभियक्ति या स्वीकारोक्ति हो सकती है सभी स्त्रियों को उसी साँचे में नहीं रखा जा सकता है।सबके अपने जुदा-जुदा व्यक्तित्व और राग-बिराग भी हो सकते हैं,पर नहीं जोशी जी यह आपने नहीं किया यही वज़ह है कि आपके परसेप्शन स्त्रियोँ को लेकर हरेक जगह पर लगभग बायस्ड ही होते चले गए।

वह हिस्सा जो आत्मकथा से हटा दिया गया है: 



बात केवल इतनी भी होती तो शायद मन कोकुछ कम कचोटता!ज़ाहिर-सी बात है कि बात निकली है तो दूर तलक जाने से भी इसे न रोका जा सकेगा।हंस के दोनों अंकों की स्वीकारोक्ति में आपने अपने किसी नृतत्वशास्त्री मित्र का उल्लेख किया है जो बस्तर किसी शोध के सिलसिले में पहुँचा हुआ है नृतत्वशास्त्री(Antrhropology) मित्र का नाम लेने से आप बचते रहें ,जानें क्यों आप बचते रहे यह भी समझ से परे ही है कि आखिर क्यों आपने ऐसे महान मित्र को बचाने की कोशिश करते हैं जिसकी वज़ह से आप उस गर्त में धकेल दिए जाते हैं जिसमें आपकी चाह गिरने की नहीं थी। सुधि पाठकों को मिथ्या भ्रमित करने की चाह आपकी तब अधूरी रह जाती है जब आप सांड-मित्र (या कि मित्र-सांड कहने से क्या फर्क पड़ता है) के बनाए हुए सोकॉल्ड हवन-कुंड में अपनी दैहिक क्षुधा को भी शांत कर ही ली। जोशीजी,मेरा मानना है कि मित्र लगभग समान स्वभाव वाले दो लोग ही बनते हैं,आर्थिक समानता बेशक न हो पर वैचारिक धरातल पर बहुत हद तक समानता तो होनी ही चाहिए।खैर, बहती गंगा में हाथ धोने के बाद उसका मुआवज़ा आपने तयशुदा राशि से पाँच रुपये अधिक दिये।कितनी मेहरबानी की आपने और आपके मित्र-सांड ने उस आदिवासी औरत पर और स्त्री को भोग्या वस्तु और कमोडिटी बनाने में तनिक भी परहेज़ नहीं किया। अच्छा किया कि आपने अपनी आत्मकथा मैं अपने समय का बोन्साई लिखी है जिससे हम जैसे लोग जो हंस के उस अंक में आपकी आत्मस्वीकृतियों को तब न पढ़ पाए थे कम-से-कम अब पढ़ लिया। आजकल बहुत सारे अलग-अलग टैलेंट हंट अलग-अलग चैनलों द्वारा प्रायोजित किए जाते हैं जिसमें सबकुछ पूर्व-प्रायोजित ही होता है। अब देखिए आपकी तरह ही एक विषय को छोडकर दूसरे विषय पर फुदकना(आपकी विक्षनरी से लिया हुआ एक विशेष शब्द) एब्सर्ड लग सकता है सो यहाँ टैलेंट हंट की बात करनी पड़ी है क्योंकि एक और हंट तब आप और आपके मित्र अयोजित करते थे और यह हंट था बस्तर क्षेत्र की आदिवासी, मासूम और गरीब स्त्रियों का । उफ़ क्या लिखूँ और क्या न लिखूँ कुछ दु:खी हो जाती हूँ!उस वाकये को पढ़ते हुए तो लगा कि आप भी अपने उसी मित्र-सांड की तरह स्त्रियों के शिकार में एकदम उस्ताद थे तभी तो आपकी भाषा भी स्त्री के लिए एक सामान की तरह प्रतीत होती है।मान्यवर,यह ‘विजिबल भूगोल’ शब्द स्त्री के लिए आपने जब लिख ही दिया था तो बाकी के आख्यानों की कहाँ ज़रूरत थी?औरत को देखने का नज़रिया तो आपका इतना वाहियात है कि उचित शब्द तक नहीं मिले आपको,कभी क्रिकेट की मैदान के पिच तो कभी भौगौलिक ढाँचे से तुलना करके स्त्री-अस्मिता की जो धज्जियाँ आपने उड़ाई है न आपकी वो भाषा वाकई में हम स्त्रियों को बताती है कि पितृ-सत्तात्मक व्यवस्था के आप सबसे चिर-परिचित प्रतिनिधि और वाहक हैं जो इस व्यवस्था को कभी तोड़ना नहीं चाहेंगे।

वह हिस्सा जो आत्मकथा से हटा दिया गया है: 
सच कहूँ तो आपके साहित्यकार होने तक-से मुझे शर्मिंदगीऔर कोफ़्त होती है आज क्योंकि अगर साहित्यकारों की भाषा ऐसी होती है जिससे एक जुगुप्सा की भावना उत्पन्न होने लगे और वह भी स्त्रियों के लिए प्रयुक्त भाषा आपकी इतनी महान है कि साहित्य में भी सर्टिफिकेट जारी होने ही चाहिए थे-मसलन ‘सी’ ग्रेड(इससे अधिक के हकदार नहीं हैं माननीय)! मान्यवर,आपकी तमाम भाषा जो आपने अपनी दोनों अंकों की आत्मस्वीकृतियों में स्त्रियों के लिए अपनी ही बनाई विक्षनरी से लिया है उससे मुझे स्त्री होने के नाते गुरेज़ है-लखनपाल,स्त्रियों के शिकार,लपको-माल ताज़ा है,उरोज सम्हाले नहीं सम्हल रहे हैं,उछल.……उछल,फुदक फुदक,रसीले पयोधर!रसीले गोल-मटोल आम्र से पयोधर…………………………कई और हैं और साहित्यिक मर्यादित भाषाई सीमाओं का उल्लंघन होते और पढ़ते हुए किस दु:ख से दो-चार हुई हूँ वह भी अपनी ही प्रजाति के लिए नहीं लिख सकती हूँ।

देखिए तो,आज के सम्मानित समाज के लेखक और लेखिकाओंके कितने ही लेख पढ़ चुकी हूँ फेसबुक पर और दूसरे सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर कि ‘वीरे द वेडिंग’ बड़ी ही वाहियात फिल्म है स्वरा भास्कर और उसके दोस्तों की फिल्म में दी गई गालियों को लेकर भी कितनी ही आपत्तियों से भरे हुए लेख भी पढ़ने को मिले कि इससे वाहियात फिल्म नहीं हो सकती है।खैर मुझे सोकॉल्ड वाहियात फिल्म की चर्चा यहाँ इसलिए करनी पड़ी क्योंकि मुझे लगा कि क्या सचमुच सभी लोग हंस के दोनों अंकों में आपकी भाषा को भूल गए हैं या भूलना चाहते हैं ज्ञात नहीं होता। यह भी हो सकता है कि आज का साहित्य ही मिथ्याजगत है जहाँ सच को सच कहने का साहस बहुत ही कम लोगों में रह गया है।जोशीजी,आपसे इस फिल्म की गालियों की तुलना करूँ तो मर्यादित भाषा का जिम्मा तो केवल स्त्रियों का ही होना चाहिए,ढँके-छिपे हुए शरीर की तरह उसके दोनों होंठ भी बस चिपके होने चाहिए,उसे कभी भी नहीं खुलने का अधिकार है,गालियों के लिए तो कत्तई नहीं,तभी तो इस फिल्म में नायिकाओं का गाली देना तनिक भी न सुहाया। चाहे कितनी भी कुंठा भीतर दबी हुई हो,बेचैनी हो और उनकी भी इच्छाएँ होती होगी चीख-चीख कर सबकुछ सबको बताने की या मर्दजात को गालियाँ देने की, पर हमारा यह सुशिक्षित समाज आपकी तरह ही शायद सोचता है जहाँ उसके गुस्से में भी उसके मुँह से फूल झरने चाहिए पर आपकी भाषा जब-से मैं पढ़ी हूँ तब-से मर्यादित भाषाओं को लेकर नासमझ हो गई हूँ और सभी साहित्यकार मित्रों से अब जानना चाहती हूँ कि अनुचित भाषा किसे कहते हैं?

हाँ एक विरोधाभास और जो मुझे कचोटती है कि आप जबकि स्वयं ही स्वीकारते रहे हैं कि विनाश के बचाव के लिए मेरे जीवन में ‘इस्केप रूट्स’ हमेशा रहे हैं(पृष्ठ संख्या-26 नवंबर,2004) तो क्या उसी स्वभाव के वशीभूत होकर आपने हंस के कुछ खास अंशों को एडिट करवाया होगा! जब इस्केप करने का हुनर आप जानते हैं तब आप बोन्साई कैसे हो सकते हैं क्योंकि उसको कतरने-छाँटने का काम तो कोई दूसरा ही करता है।
भला कौन वह बेचारा होगा जो चाहेगा इस ज़माने में बोन्साई बनकर ताउम्र जीना
जिसके लिए मुकर्रर किया जाता है बस कहीं सजावट के लिए एक छोटा-सा कोना।

पढ़ें : लेखकीय नैतिकता और पाठकों से विश्वासघात!

सारे सुखों को जीने,भोगने,आदिवासी गरीब स्त्रियोंका शिकार करके भी अपने को जनवादी  कहने वाले (और-तो-और आप साहित्य की दुनिया में संवेदनशील भी जाने जाते हैं), आप इस विद्रूप समय के बोन्साई नहीं हो सकते हैं,कत्तई नहीं। यूँ भी आपका परिचय तो एक व्यक्ति के रूप में नहीं एक संस्था के रूप में दिया जाता है तब आप बोन्साई कैसे हुए नहीं समझ में आता है।

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