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लेखकीय नैतिकता और पाठकों से विश्वासघात!

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सुधांशु गुप्त 

 'मेरे विश्वासघात' (हंस 2004) के लेखक रामशरण जोशी की अनैतिक, एक और विश्वासघात से भरी आत्मकथा 'मैं बोनसाई अपने समय का बोनसाई'राजकमल से प्रकाशित हुई है. लेखक ने हंस में छपे अपने लेख की आलोचना करने वाले साहित्यकारों, आलोचकों को इस किताब में लानतें तो जरूर भेजी है, अपने कद के आगे उन्हें बौना और घुटनाटेक साबित करने की कोशिश की है, लेकिन जिस लेख के लिए वे लानतें भेज रहे उसके ख़ास हिस्सों को ही अपनी आत्मकथा में जगह नहीं दी है. बता रहे हैं सुधांशु गुप्त. स्त्रीकाल में इस किताब और उक्त लेख के संदर्भ में सिलसिलेवार लेख प्रकाशित होंगे. 

रामशरण जोशी एक पत्रकार, संपादक, एक्टिविस्ट, शोधकर्ता, राजनीतिक विश्लेषक, अध्यापक और एक कम्युनिस्ट हैं। पिछले पांच दशकों से वह लगातार सक्रिय रहे हैं। अपनी छवि-खासतौर पर कम्युनिस्ट छवि- को लेकर वह बेहद सजग और सतर्क रहे हैं। हाल ही में उनकी आत्मकथा प्रकाशित हुई है-मैं बोनसाई अपने समय का, एक कथा आत्मभंजन की (राजकमल प्रकाशन)। इसमें उनके जन्म से लेकर पत्रकार बनने की कथा है। इस पूरी कथा पर फिर कभी। लेकिन इसमें एक जगह उन्होंने लिखा है, मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि हम हिंदी के लोग दोगले, पाखंडी क्यों होते हैं? हम पारदर्शी जीवन जीना क्यों नहीं जानते? हम लोग नैतिकता के मामले में “सलेक्टिव” क्यों हो जाते हैं? क्यों अपने स्खलनों की सड़ांध को प्रखुर वत्कृता और जादुई कथा शैली से ढांपे रखना चाहते हैं? कभी तो यह मैनहोल खुलेगा और दोगली जिदंगी का गटर खुद-ब-खुद बाहर बहेगा, तब क्या वे नंगे नहीं हो जाएंगे? ऐसी विकृत नैतिकता को ओढ़े रखने का क्या लाभ? (पृष्ठ299)।

प्रोफेसर मैनेजर पाण्डेय से पुस्तक विमोचन कराते रामशरण जोशी साथ में हैं वीरेन्द्र यादव  


दरअसल रामशरण जोशी ने कथा पत्रिका हंस में आत्मस्वीकृतियां के अंतर्गत “मेरे विश्वासघात” नाम से दो किश्तें लिखी थीं। ये हंस में अक्तूबर 2004 और नवंबर 2004 में प्रकाशित हुई थीं। इन किश्तों के छपने के बाद रामशरण जोशी की छवि पर अचानक चारों तरफ से वार होने लगे थे। इन वार करने वालों को ही उन्होंने दोगला, पाखंडी और नैतिकता के मामले में “सलेक्टिव” होने का आरोप लगाया था। जोशी जी ने इतनी ईमानदारी बनाए रखी कि अपनी आत्मकथा में, हंस में छपी उन किश्तों को भी (पृष्ठ 391से 436)शामिल किया। लेकिन आत्मकथा में उन्होंने इन किश्तों का संपादित अँश ही दिया। ईमानदारी से उन्होंने यह भी लिखा है कि मूल पाठ हंस, अक्तूबर एवं नवंबर 2004 में देख सकते हैं। जाहिर है ऐसा कर पाना हर पाठक के लिए संभव नहीं होगा।
तो जोशी जी ने “मेरे विश्वासघात” के किन हिस्सों को संपादित किया है, यानी आत्मकथा से डिलीट कर दिया है? क्या ये हिस्से जोशी जी की नैतिकता पर सवाल खड़े नहीं करते? फैसला आपको करना है। मैं यहां डिलीट किये गये कुछ हिस्सों को दे रहा हूं।

जोशी जी अपने एक नृतत्वशास्त्री मित्र के साथ रेस्ट हाउस में हैं।दोनों शराब पीते हैं। मित्र के निमंत्रण पर दो लड़कियां रेस्ट हाउस में आती है। नृतत्वशास्त्री मित्र उनमें से एक को चुन लेता है। जोशी जी लिखते हैः इस बीच वह औरत बिल्कुल निर्वस्त्र बाथरूम से कमरे में दाखिल होती है। उसने अपने स्तन छिपा रखे हैं। अपने हाथों से। लाइट गुल हो जाती है। नृतत्वशास्त्री मित्र भूखे सांड की तरह उस पर टूट पड़ता है। अंधेरे में ही एक दो पैग जमाता है। उसे भी पिलाता है। दोनों “नीट” पर सवार हैं। बीच बीच में मित्र के हांफने की आवाज मुझे सुनाई देती है। कभी-कभी औरत भी चीखती है। आगे वह लिखते हैं, कुछ कुछ मुझमें भी गुदगुदी होने लगी थी। भीतर संघर्ष शुरू हो गया था। मैं क्यों न गंगा में नहां लूं? मैं भी मर्द हूं? मुझे इस मौके से भागना नहीं चाहिए। यह औरत क्या सोचेगी? मित्र सांड भी मेरी बदनामी कर देगा। मुझे नामर्द घोषित कर देगा। मैं महसूस कर रहा था मेरा मर्दपन मेरे मनुष्यत्व पर भारी पड़ने लगा है। अब जंग मर्दानगी और मनुष्यता के बीच शुरू होती जा रही है। मेरा मर्दपन मुझे धिक्कार रहा है, मुझे चुनौती दे रहा है। इस वैचारिक दुविधा पर जोशी जी के भीतर बैठा मर्द विजयी होता है। वह औरत जोशी जी के पास आकर लेट जाती है। (और जोशी जी किसी तरह का कोई विरोध नहीं करते, नहीं करना चाहते)।

हंस का वह पन्ना जहां से जोशी का अश्लील और जातिविरोधी विमर्श शुरू होता है. 


एक अन्य प्रसंग में जोशी जी ने लिखा, एक दिन दोनों ने तय किया कि क्यों न ट्राई मारा जाए? उन दिनों जगदालपुर में एक मेला लगा था। सर्कस भी था। बाहर से काफी औरतें वहां पहुंची थीं। दोनों ने सोचा मेले में “हंट” किया जाए। फिर एक समस्या खड़ी हुई। स्थानीय लोग हम दोनों को पहचान सकते थे। इसलिए जरूरी है कि हम भेस बदल कर मेले में “शिकार” पर निकलें। दोनों ने मैले कुचैले कुर्ता पाजामा पहने। सिर पर अंगोछा बांधा। साथ में एक एक लाठी रखी। यह सिलसिला तीन-चार रोज चलता रहा। शिकार की तलाश में लड़कियों, औरतों के झुंड में पहुंच जाते। झिझकते हुए पटाने की कोशिश करते। इससे पहले उसके “विजिबल भूगोल” पर नजर डालते। सिर से नीचे तक उसे घूरते, पारखी की तरह। लेकिन किसी का भूगोल मुकम्मल नहीं मिलता। होता यह कि किसी को पसंद करने के बाद हम कुछ देर के लिए मंत्रणा करते। कभी हम कहते, यार, इसके कपड़ों से बास आ रही है। इसके बाल चीखट हैं। इसकी त्वचा बहुत सख्त है। मजा नहीं आएगा। भई इसमें मांसलता है ही नहीं। बगैर इसके क्या इसका अचार डालेंगे? इसकी छातियां तो सपाट पिच हैं। छोड़ो यार इसकी ब्रेस्ट तो पहाड़ियां बनी हुई हैं। हाथ में ही नहीं आएंगी। अरे यार! इसकी टांगें, इसकी बांहें सूखे झाड़ जटाएं दिखाई दे रही हैं। चलो कल शिकार करेंगे।

एक अन्य प्रसंग में वह अपने मित्र के साथ लखनपाल की तलाश में जाते हैं। लखनपाल लड़कियों का गुप्त नाम है। इन सारे प्रसंगों में वह कहीं अपराधबोध से पीड़ित होते दिखाई नहीं पड़ते।  लेकिन रामशरण जोशी इन सारे प्रसंगों को हंस में लिख चुके हैं और इन पर भरपूर विवाद भी हो चुका है। लेकिन लेखकीय नैतिकताओं और पारदर्शिता के पैरोकार रामशरण जोशी को अपनी आत्मकथा से इन प्रसंगों को डिलीट करना क्या नैतिकता कहा जाएगा? क्या इसी पारदर्शिता की वह वकालत करते हैं, क्या यह दोगलापन नहीं है? यह भी सच है कि जिन लोगों ने हंस में छपी वे किश्ते नहीं पढ़ी हैं वे जोशी के जीवन के इन पहलुओं से अनजान ही रह जाएंगे। अपनी आत्मकथा में यदि जोशी जी चाहते तो इस पूरे प्रसंग को ही डिलीट कर सकते थे। लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। उन्होंने “मेरे विश्वासघात” को इस आत्मकथा में शामिल किया। लेकिन वह यहां “सलेक्टिव” क्यों हो गये? क्यों उन्होंने इस किश्त के कुछ हिस्से उड़ा दिये? क्यों अर्द्धसत्य ही पाठकों के सामने रखा? “मेरे विश्वासघात” में बस्तर की रहने वाली सुखदा से उनके प्रेम संबंधों का खुलासा भी है। दिलचस्प बात है कि वह सुखदा से प्रेम करते-करते लूसी से भी प्रेम करने लगते हैं(आत्मकथा में लूसी का नाम ऐन हो गया है) और इसी बीच विवाह भी कर लेते हैं। तब आपको नैतिकता का ख्याल नहीं आया। आपने सुखदा- लूसी के साथ तो विश्वासघात किया ही, इन अंशों को डिलीट करके आपने अपने पाठकों के साथ भी छल किया है।

समीक्षक, लेखक सुधांशु गुप्त अपनी बेवाक टिप्पणियों के लिए जाने जाते हैं. लेख नव दुनिया से साभार


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द ब्यूटी ऑफ़ नाईट इज नॉट फॉर अस (प्रियंका कुमारी नारायण की कहानी

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प्रियंका कुमारी (नारायण)
शोधार्थी, काशी हिन्दू विद्यापीठ, बनारस संपर्क: kumaripriyankabhu@gmail.com

अरे यार !बंटा पीने का दिल कर रहा है ...चल न पीकर आते हैं |कितने दिन हो गये हैं,हॉस्टल की सड़ी हुई चाय पी – पी कर मेरा मन उब गया है |आज कुछ चेंज करते हैं ...
अरे यार ! चाय है तो जान है और जान है तो जहान...मेरे लिए तो बस चाय होनी चाहिए |चाहे उसमें दूध हो या न ...कड़क चाय की पत्ती और चीनी आहाहा ...और वो तो मेस वालों के पास पूरा होता है हा हा हा हा ...विशाखा की चाय चालीसा शुरू  हो गयी थी और अड्डाखोरी कर रही चारों लड़कियां ठहाके लगाने लगी |इतने में एक जोर की धौल विशाखा की पीठ पर पड़ी ...चल बहुत हो गयी तेरी चाय चालीसा ...जहाँ देख अलापने बैठ जाती है ...चल रिंग रोड चलते हैं ...तुमलोगों को चलना है ? ज्योति ने जोर से पूछा |

विशाखा,काजल ज्योति और अमृता ये चारोंहर शाम यूनिवर्सिटी का कोई न कोई ऐसा कोना तलाश लेती ,जहाँ उस वक्त इक्के –दुक्के लोग आ जा रहे हों और इनके ठहाके कोई और लगभग – लगभग न सुन पाए |उस शाम वहीं उनका अड्डा होता |जब कभी उन्हें ऐसी जगह नहीं मिल पाती,उस शाम या तो वे रिंग रोड पे  चक्कर मारा करती या विशाखा के कमरे में मजलिस लगा लेती आज विशाखा के यहाँ ही जमघट लगा हुआ था |

 अबे बोलो !चलना है कि नहीं तुमलोगों को या उस बनर्जी के नये बॉयफ्रेंड की जब तक चिंदी न उड़ा दोगी यहीं जमी रहोगी ,कभी तो मुद्दे की बात कर लिया करो तुमलोग नहीं तो यहाँ से जाने के बाद तुम्हारी चिंदी तुम्हारे शहरों में लोग उड़ायेंगे ...| बी सीरियस ...विशाखा मुंह पर ऊँगली रखती हुई बोली ...यार ! ज्योति की बातों को तुमलोग सीरियसली लिया करो | कुछ सेकेण्ड के लिए शांति छा गयी ...दबे हुए कहकहे ठहाके बन कर फूट पड़े ...हा हा हा | ज्योति तमतमाती हुई ...मरो तुमलोग ! मैं जा रही हूँ !विशाखा कुर्सी से उठकर हाथ पकड़ लेती है ....अरेरेरेरेरेरेरे ... कहाँ ???काजल बिस्तर पर खड़ी होकर पूरी अदा के साथ हाथों को आँख के ऊपर लती हुई बाल बिखेरकर ...न जाओ सैयां छुड़ा के बईयाँ कसम तुम्हारी (मुंह आगे करते हुए मैं रो पडूँगी ...रो पडूँगी हा हा हा ...अभी अभी तो आये हो अभी न जाओ छोड़कर ...हा हा हा देर तक कहकहे लगते रहें | गाते-गाते ही अपनी –अपनी चप्पल पहन कर कमर कस कर तैयार हो गयी सारी पलटन | ज्योति खीसियाती हुई ...रबिश ...आई एम नॉट गोइंग विद यू गाईज ...बाय |विशाखा तुझे चलना है तो चल नहीं तो गो टू हेल ...नरक हो तुम लोग ...|अरे मेरी जान गुस्साती क्यों है??यार ! तू लोग जा बंटा पी ...ज्योति और मैं निकल रहे हैं ...कोई ड्रामा नहीं आगे ...बाय |



हॉस्टल से निकलते-निकलते शाम पूरी तरह से घिर आई थी या लगभग रात दरवाजे पर खड़ी थी |ज्योति और विशाखा एक दूसरे का हाथ थामे चुप-चाप चली जा रही थी |पीली लाइट्स के बीच  पसरे हुए सन्नाटे  में वे शायद शाम को  सुनने की कोशिश कर रही थी | पानी टंकी के पास वाली सड़क पर दो लड़के खड़े होकर बहस कर रहे थे ...नहीं उनमें एक लड़की थी शायद |थोड़ा और पास जाने पर बहस के टुकड़े कान में पड़ने लगे |लड़की तेज आवाज में बोले जा रही थी ...आर यू मैड ??हाऊ कैन यू टॉक लाइक दिस ??इट्स यू हू क्रिएट डिस्क्रिमिनेशन ऑन द बेसिस ऑफ़ जेंडर |...यू थिंक ओनली यू हैव आल द ब्रेन इन द वर्ल्ड एंड आल वीमेंस आर स्टुपिड ! दे हैव नो ब्रेन,दे कांट थिंक,...अगर कोई गलती से ऐसी मिल गयी देन ऑल इंडिया ‘रोमियो थिंक’...हाऊ कैन  शी थिंक यार ! हाऊ कैन शी गिव अ ओपिनियन???हाऊ कैन शी कन्फ्रन्ट विद द गवर्मेंट ????यू नो ये जो थर्ड जेंडर है न, उनमें और औरतों के दर्द में बहुत फ़र्क नहीं होता...

लड़की का चेहरा रौशनी से पीठ किए था | लडके के चेहरे पर भेपर की पीली लाइट पड़ रही थी | हालाकि लड़की के सामने खड़े रहने से पूरा चेहरा नहीं दिख रहा था |विशाखा ने एक बार पलट कर देखा |ठंढ़ी साँस छोड़ती हुई आगे बढ़ गयी | एकाध बच्चे लाइब्रेरी से लौटते हुए दिख जाते और एकाध उधर की ओर जाते हुए भी | थोड़ी देर चलने के बाद वे रिंग रोड पर थीं | ज्योति ने धीरे से  कहा यार ,कभी इन अंतहीन बहसों का अंत होगा ....इतिहास,समाज राजनीति,जेंडर,स्त्री –पुरुष और अब ये थर्ड जेंडर !लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी की लड़ाई ने तो थर्ड जेंडर का नाम दिला दिया लेकिन क्या सोसायटी उन्हें अपना पायेगी या ख़ुद उनके कस्टम उन्हें उन्हें हमसे जुड़ने देंगे ???

ज्योति अपनी रौ में बोलती चली जा रही थी-पिछले दिनों ‘जेंडर आइडेंटिटी’,’जेंडर बिहेवियर’,’सेक्सुअल ओरिएंटेशन’,जैसे तकनीकी शब्दों के बारे में अमेरिकन सायकोलोजिकल एसोसिएशन की एक रिपोर्ट आई थी ...बेहद उम्दा रिपोर्ट थी | फॉरेन में तो इस पर बहुत काम हो रहा है...इंडिया कितना पीछे है न एक्सेप्टेंस के मामले में ...और करता है भी तो अधकचरा ...वो कहते हैं न नकल के लिए भी अकल चाहिए ...देख न मॉडर्निटी को भी अपनाया तो कैसे ...आजादी के तो मायने ही बदले –बदले से हैं और डेमोक्रेसी !    डेमोक्रेसी  का तो चक्का ही पंक्चर है ,घिसट –घिसट कर चल रही है और और विशाखा ‘कम्युनिज्म़’! कम्युनिज्म की थ्योरी की तो हमने हवा ही निकाल दी है....फिस्स्स्सस्स्स्स ....थ्योरी का पता नहीं पर कम्युनिस्ट हैं हम ....हा हा हा ...सारी खूबसूरत चीजों को बर्बाद करने का ठेका ले रखा है हमने |राजनीतिक एजेंडा बनाकर सारे मायने ही बदल दिए जाते हैं ...सच में इंडिया से बेहतर कोई नहीं सीखा सकता |विश्व गुरु हैं हम गुरुत्व दिखना चाहिए ....हा हा हा | अरे बोल न विशाखा चुप क्यों है  ???



धीरे से सिर उठाकर , सुन रही हूँ | बोलने से पहलेसुनना ज़रूरी होता है | क्या तू भी कोई एजेंडा तय करती है ? ताकि हर हालत में गेंद अपने ही पाले  में रहे | सटअप ! ! ! मैं न तो पॉलिटीशियन हूँ और न इनटेलैक्चुअल | आर यू फिलोसफर ???? हा हा हा ...सटअप...आइ एम ओनली अ स्टूइडेंट |

 तू ! तू ट्रांसजेंडर की बात कर रही है ! ! ! दिमाग ख़राब है तेरा | दिल्ली दूर है उनके लिए | कभी शबनम मौसी , कभी मधु किन्नर , और वो पटना की कौन है वो ...हा , मोनिका दास बैंकर या इंजिनीअर पृथिका याशिनी या वो साउथ इंडियन एंकर रोज़ या वो इंस्पेक्टर जिसे यह जानने के बाद कि वो हिजड़ा है निकाल दिया गया... छूट रहा हो तो बीस नाम और जोड़ ले ....पूरी लिस्ट बना ले | जानती है तू बात भी इसलिए कर पा रही है ...ये जो दिमाग चल रहा है तेरा ...घुमड़ – घुमड़ कर विचार आ रहे हैं , क्योंकि तू जे.न.यू के हाइली सोफिस्टीकेटेड कल्चर में है | कहीं और होती तो पता चलता | पता है तूझे जेंडर का मतलब क्या होता है ??????? लड़ते – लड़ते अपना जेंडर भूल जाती | पता हीं नही चलता कि तू लड़की भी है | मतलब समझती है न तू लड़की होने का ?? नहीं न... कभी इस कैंपस से बाहर झाँक लेना...समझ जायेगी! पता है ट्रांसजेंडर के लिए क्या कहते हैं ??हिन्दी में किन्नर भी नहीं कहते हैं ....अरे मेरा कहना है ‘हिजड़ा’ कहते हैं ‘हिजड़ा’| समझ सकेगी इस शब्द के पीछे के दर्द को ?? जहाँ नाम तक लेने में हेजिस्टेशन है वो इन्टेलैक्चुअलस बात करेंगे , बहस करेंगे , देश को दिशा देंगे ,क्यों ? इससे बढ़िया तो मोरैलिटी और कल्चर का ढ़कोसला ही पालना है ... कम से कम ‘मेड इन इंडिया’ तो है | ढ़कोसला भी हो तो हाईट का | आज तक दलित और स्त्री को स्वीकार न सकें | अरे औरतें कम से कम बिस्तर से लेकर ऑफिस तक मनोरंजन तो कर देती हैं ...अकार्डिंग टू इंडियन फिलोसफी घर की शोभा है , लक्ष्मी हैं ...तब ये हाल है | ये हिजड़े कहाँ की शोभा बनेंगे ?? न बिस्तर की न घर की न ऑफिस की .... कानून बना है लोगों ने स्वीकार नहीं है ....

हूऊऊऊऊऊऊऊऊऊऊऊऊधप्प ! दोनों की पीठ पर धौल पड़ती है हा हा हा हा ... क्या जब देखो तुम दोनों खिट – पीट,खिट –पीट करती रहती हो ...बहसें... मुद्दे... अरे मेरी जान ! कभी मोहब्बत से हमें भी देख लिया करो ! तुम्हारी खूबसूरत आँखों में डूब जाने का दिल करता है हाय्यययययय ...| चल हट ! लेस्बियन नहीं हूँ | अरे बन जा न एक रात के लिए ...वर्जिनिटी नहीं जाएगी तेरी ! हा हा हा ...बंद करो बकवास काजल ! ज्योति गुस्से में तमतमाती हुई बोली | उनकी भी अपनी दुनिया है | जब देखो मजाक सूझता रहता है | इससे बाहर भी दुनिया है तुम्हारी ??

है न ! कल मूवी देखने का प्लान है ...हा हा हा ,चलेगी न ज्योति ? देख ना मत कहना... चारों के लिए टिकट ली है ..फंटास फाड़ू मूवी है | डिनर भी बाहर ही कर लेंगे | दस तक तो लौट ही आयेंगे | बोल! क्या बोल रही है ? गर्दन कुछ यूँ अदा के साथ मटकाती हुई काजल बोली कि ज्योति हँस पड़ी | काजल की पीठ पर धौल देती हुई बोली , तू नहीं सुधरेगी | चारों रिंग रोड पर सेल्फी लेती हुई गाना गाते हुए .... ज़िन्दगी यूँ गले आ लगी है ...एक तरह के आवारा थे ...एक तरह की आवारगी ...
     “रात कितनी खूबसूरत लगती है न ?” धीरे से अमृता अपने आप से पूछ उठी |



अगली रात दस बजे ...यूनिवर्सिटी के पीछे वाली सड़क पर एक लाश पड़ी हुई थी | देह पर एक भी कपड़ा नहीं | चिथड़े भी नहीं थे वहाँ पर ...छिले हुए गाल , कटी और सूजी हुई होठ , गर्दन पर दाँतों के कटे हुए निशान ...छाती और देह को कहाँ कहाँ भमोरा गया था कह नहीं सकते ...दोनों पैर फैले और अकड़े हुए ...लगातार खून रिस रहा था ...जांघों के बीच से... छाती और योनी के आस – पास दागे जाने का निशान थे , शायद सिगरेट के थे | रूक – रूक कर साँस चल रही थी या फिर मौत अभी और घसीटना चाह रही थी | एक बार आँख खुली और बंद ... दर्द से देह बेहोशी में भी कांप जाती ...कुछ गाडिओं की रफ़्तार घटती , शीशा उतरता , फिर आगे निकल जाती ,कुछ की सामान्य बनी रहती |

उधर मुनिरका में डिनर टेबल पर ...अमृता कहाँ चली गयी यार बीच में ही ? काजल कहकहे लगाते हुए टेबल पर थाप देती है ...उसके घर से बार – बार फ़ोन आ रहा था ...बड़े मौरल लोग हैं ...रात के आठ बजे दूर दिल्ली मल्टीप्लेक्स में मूवी देख रही रही थी , बनारसी पंडित डूब न मरेंगे ...हा हा हा | व्हाट रबिश ? जब देख मजाक करती रहती है , पता नहीं  क्यों मुझे अच्छा नहीं लग रहा है ,सिरियसली अजीब –सी फीलिंग्स आ रही है , विशाखा ने कहा |

अब बैठ भी जा मेरी  फिलौसफर ! तू और तेरे इन्टयूशन्स ! ! ! ज्योति ने विशाखा का हाथ पकड़ कर बैठा दिया |
पता है उसे रात से बहुत लगाव है ...वह हमेशा रात को घूमना चाहती है |वह जरूर झूठ बोलकर निकल गयी होगी सड़क पर घूमने ...वह बराबर कहती है मुझे रात की आवारगी से मोहब्बत है | यहाँ रात में तारों भरा आकाश तो नहीं दिखता लेकिन स्ट्रीट लाइट्स में दुनिया कितनी रंगीन नज़र आती है न ! दूधिया रौशनी में दूधिया रंग और पीली रौशनी में पीला... बीच बीच में ग्रीन और रेड लाइट्स पर भी आ जाती है ‘रेड लाइट’ पर थोड़ा गंभीर हो जाती है ...रात हर रंग को गाढ़ापन देता है और रेड लाइट्स तो गाढे से भी गाढ़ा... लगभग कालेपन की लेई – सा ...लेकिन पता है ज्योति ! मैं हमेशा उसे समझाती हूँ ...’The beauty of night is not for us’रात का सौंदर्य हमारे लिए नहीं है ...     

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आप मिट्टी की तरह बने थे...

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लेखक-आलोचक-प्रत्रकार आज 4 जून को निधन हो गया. उन्हें निगम बोध घाट में आख़िरी विदाई दी गयी. उनके परिनिर्वाण के बाद उनकी स्मृति में यह त्वरित टिप्पणी स्त्रीकाल के संपादन मंडल के सदस्य धर्मवीर ने की है. 

प्रसिद्ध समाजवादी  चिन्तक और लेखक-पत्रकार राजकिशोर नहीं रहे . 71 वर्ष की आयु में फेफड़े के संक्रमण से लड़ते हुए आज उन्होंने दिल्ली के एम्स में अंतिम साँस ली . लगभग सवा महीने पहले उनके बेटे की भी ब्रेन हेम्रेज से अकाल मृत्यु हो गई थी . राजकिशोर जी के लिए यह गहरा सदमा था जिसे वे सहन नहीं कर सके . जिसका परिणाम उनकी मृत्यु की भयावह खबर के रूप में सामने आया . मैं राजस्थान पत्रिका के साप्ताहिक”इतवारी पत्रिका”में उनके नियमित कॉलम “परत दर परत”को पढ़ते हुए बड़ा हुआ हूँ . बाद में उनके उपन्यास “तुम्हारा सुख”और “सुनंदा की डायरी” तथा कविता संग्रह”पाप के दिन”पढ़ा .”आज के प्रश्न”श्रृंखला के अंतर्गत उनकी सम्पादित पुस्तक”अयोध्या और उससे आगे”पढ़ी . कई अख़बारों और पत्रिकाओं में उनका लिखा पढ़ा . विचारपरक गध्य के लिए जिस प्रांजल भाषा की आवश्यकता होती है वह राजकिशोर जी के गध्य में अपनी पूरी कूवत के साथ मौजूद है . उनको पढने वाले जानते है कि हमने आज कितना बड़ा विचारक और अद्दभुत गद्यकार तथा उससे से भी बड़े एक मनुष्यता के साधक को खो दिया .



दिल्ली में मेरी उनसे एक-दो मुलाकाते हैं,जब विचारक के साथ ही उनकी मनुष्यता वाले पक्ष से भी परीचित हुआ . बड़े बनने और बड़ा दिखने की उनकी अभिलाषा बिलकुल नहीं थी,लेकिन स्वाभिमान के साथ खड़ा रहने की उनकी जिद्द अवश्य थी . उनका ही एक निबंध है-“दीप की अभिलाषा”जिसके अंत में कहते हैं –“दीपक या कहिए प्रकाश का संवाहक होने के नाते मेरी अभिलाषा यही है कि रोशनी चाहे जैसे पैदा करें, वह टिकाऊ होना चाहिए . मैं हजारों वर्षों से जलता आया हूँ और अगले हज़ार वर्षों तक जलते रहने का माद्दा रखता हूँ क्योंकि मैं  मिट्टी से बना हूँ . बार-बार इस मिट्टी में समा जाता हूँ और बार –बार इससे पैदा होता हूँ . बिजली से जलने वाले बल्बों में तभी तक जान है जब तक बिजली के सप्लाई बनी रहती है. कौन जाने बिजली के उम्र क्या है?कौन जाने उस सामग्री की उम्र क्या है जिससे लट्टू और ट्यूब बनाये जाते हैं . इनकी तुलना में मिट्टी अजर-अमर है . आदमी को अमर होना है,तो उसे मिट्टी की तरह बनना होगा . बाकि सभी रास्ते महाविनाश की और ले जाने वाले हैं .”

द मार्जिनलाइज्ड पब्लिकेशन से शीघ्र प्रकाश्य उनकी किताब


सच में आप मिट्टी के बने थे इसलिए आप अमर रहेंगे . नश्वर पार्थिव देह का चला जाना आप का जाना नहीं हो सकता . हालाँकि उम्र तो उसके भी जाने की नहीं थी . मिलने पर सदैव कुछ सीख आप से मिली . साम्प्रदायिक के मसले पर एक बार बात करते हुए आपने कहा था-“साम्प्रदायिकता से लड़ना एक रचनात्मक संघर्ष है . चूँकि रचना का कोई बना-बनाया फार्मूला नहीं होता इसलिए साम्प्रदायिकता के विरुद्ध संघर्ष भी हर समय मौलिक तौर-तरिकों की मांग करता है .”जब सेकुलरिज्म पर बात चली तो आपका कहना था कि-“असाम्प्रदायिक होना कोई अतिरिक्त गुण नहीं है . यह हर नागरिक की सामान्य आदत का हिस्सा होना चाहिए . असाम्प्रदायिक होना कोई अतिरिक्त गुण नहीं है तथा इसे ना ही अतिरिक्त योग्यता के रूप में विज्ञापित करना चाहिए . बेशक कभी-कभी वक़्त आता है जब असाम्प्रदायिक होना ही सबसे बड़ी विशेषता जान पड़े . आज शायद ऐसा ही वक़्त है .”

अलविदा राजकिशोर जी !

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जब पक्ष-विपक्ष के लोगों ने महिला विधायक पर की द्विअर्थी टिप्पणियाँ ( बिहार विधानसभा में अश्लील टिप्पणियों का वह माजरा)

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दिव्या 

श्री इंदर सिंह नामधारी : माननीय अध्यक्ष महोदय, विरोधी दल में एक ही महिला सदस्य हैं उनको भी यह सरकार संतुष्ट नहीं कर पा रही है. 
श्री वृषिण पटेल : अध्यक्ष महोदय, माननीय मंत्री ने कहा कि लम्बा-चौड़ा  है, माननीय सदस्या भी लेने को तैयार हैं तो क्यों नहीं माननीय सदस्या एकांत में जाकर ले लेते हैं। 

महिलाओं के लिए राजनीति का डगर कठिन रहा है.विधायिका में रही महिलाओं के अनुभव से इसे समझा जा सकता है. हालांकि माहौल में एक सकारात्मक बदलाव है.

महिला प्रतिनिधित्व को कुंद करने वाली एक घटना तब बिहार विधानसभा में 1983 में घटी थी, 22 जुलाई, 1983 को,  तब खबरिया चैनल नहीं थे, दूरदर्शन तक भी लोगों की पहुँच नहीं थी. अध्यक्ष के आसन पर बैठे थे राधानंद झा. उस विधानसभा के सदस्य बाद में बिहार की राजनीति का पर्याय बन गये लालू प्रसाद भी थे. 324 सदस्यों वाले सदन में महिलाओं की कुल संख्या 11 थी, यानी लगभग 3%.

तब सत्ता और विपक्ष के नेताओं ने महिला विधायक पर अश्लील टिप्पणी की थी. विडंबना है कि एक विधायक तो अपमानित सदस्या की पार्टी से थे. सदस्या ने तब पुरजोर आपत्ति की तो टिप्पणियाँ हटाई गयीं. पूरा मामला तब के दिनमान में छपा था. सदस्या के अनुसार सदन में उपस्थित पत्रकारों ने भी मामले को हंस कर टाल दिया था.



अश्लील टिपण्णी करने वाले सदस्य थे इंदरसिंहनामधारी और वृषिण पटेल, जिस पर टिप्पणी की गयी थी, वह थीं रमणिका गुप्ता. इंदर सिंह नामधारी बाद में झारखंड विधान सभा के अध्यक्ष हुए और वृषिण पटेल कई सरकारों में मंत्री बने. वृषिण पटेल उसी पार्टी लोकदल (नेता कर्पूरी ठाकुर) के सदस्य थे जिसकी सदस्य थीं अपमानित हुईं रमणिका गुप्ता. रमणिका गुप्ता कहती हैं कि ‘जेंडर के आधार पर मुझे गालियां कई बार खानी पडीं. एकबार मैं कोई मुद्दा उठाते हुए टेबल पर चढ़ गयी तो एक नेता चिल्लाये, ‘नाच नचनिया नाच.’ऐसे कई अनुभव रमणिका अपने राजनीतिक जीवन के दौरान का बताती हैं.

देखें क्या थी सदन की पूरी कार्यवाही :

अल्पसूचित  प्रश्न संख्या 159

श्री लहटन चौधरी (मंत्री) : 1.  उत्तर स्वीकारात्मक है।
2. विस्तृत पड़ताल के उपरान्त पुनर्वास योजना तैयार कर ली गयी है और इसे माननीय सर्वोच्च न्यायालय को भेज दिया गया है। सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा योजना का अंतिम रूप दिए जाने के पश्चात ही इसका कार्यान्वयन हो सकेगा।
रमणिका गुप्ता : यह योजना कब भेजी गयी है?
श्री लहटन चौधरी (मंत्री): कल भजेा गया है।
श्रीमती रमणिका गुप्ता: अध्यक्ष महोदय...
अध्यक्ष : अब इसमें क्या पूछियेगा? यह कोर्ट में लम्बित है।
श्रीमती रमणिका गुप्ता : अध्यक्ष महोदय, मैं जानना चाहती हूं...
अध्यक्ष : माननीय मंत्री इससे संबंधित जितने कागजात हैं सब इनको दे दीजियेगा।
श्रीमती रमणिका गुप्ता : मैं जानना चाहती हूं कि योजना क्या है?
लहटन चौधरी (मंत्री) : योजना बहुत थोड़ी है।

पूर्व विधायक रमणिका गुप्ता अब दिल्ली में रहती हैं 

श्रीमती रमणिका गुप्ता : जमीन के बदले जमीन देने के लिए सुप्रीम कोर्ट का आदेश था।
अध्यक्ष : आपने प्रश्न किया कि ‘विस्थापितों के पुनर्वास की योजना बनाने का आदेश 1982 में दिया’ तो इन्होने  कहा, ‘हां’। फिर आपने पूरक पूछा कि ‘योजना कब भेजी गयी’ तो इन्होंने कहा ‘कल’, तब और इसमें क्या चाहिए?
श्रीमती रमणिका गुप्ता : सुप्रीम कोर्ट का यह आदेश था कि जमीन के बदले जमीन देंगे वह आपने भेजा है कि नहीं?
अध्यक्ष : माननीय सदस्या, जो कागज माननीय मंत्री ने भेजा है उसको आप देख लेंगे।
श्री इंदर सिंह नामधारी : माननीय अध्यक्ष महोदय, विरोधी दल में एक ही महिला सदस्य हैं उनको भी यह सरकार संतुष्ट नहीं कर पा रही है. 
श्री वृषिण पटेल : अध्यक्ष महोदय, माननीय मंत्री ने कहा कि लम्बा-चौड़ा  है, माननीय सदस्या भी लेने को तैयार हैं तो क्यों नहीं माननीय सदस्या एकांत में जाकर ले लेते हैं। 
अध्यक्ष : माननीय मंत्री सारी सूचना आप माननीय सदस्या को भेज देंगे।
श्री लहटन चौधरी (मंत्री) : मैं पूरी योजना माननीय सदस्या को भेज दूंगा और सूचना की एक प्रति भी भेज दूंगा।
अध्यक्ष : माननीय सदस्या रमणिका गुप्ता की भावनाओं को देखते हुए वृषिण पटेल जी ने जो कहा है उसको एक्सपंज किया जाये।
श्रीमती रमणिका गुप्ता : अध्यक्ष महादेय, मुझे आपका प्रोटेक्शन चाहिए। ये लागे गन्दी-गन्दी अश्लील बातें करते हैं।
जो इंदरसिंह नामधारी जी ने कहा है उसको भी हटाया जाय और जो वृषिण पटेल का रिमार्क भी हटाया जाए यह विधानसभा है कुजरा सभा नहीं है। आइन्दा दो अर्थी बातें कहने से रोका जाए।
अध्यक्ष : दोनों के रिमार्क को एक्सपंज करता हूं।

वृषिण पटेल 


अल्पसूचित प्रश्न संख्या 160
डॉ. उमेश्वर प्रस्रसाद वर्मा : 1. उत्तर स्वीकारात्मक है।
2. उत्तर स्वीकारात्मक है।
3. श्री विनोद कुमार यादव के साथ-साथ शेष छह लोगों के मामले पर पुनः समीक्षा की जा रही है।
श्री लालू यादव : अध्यक्ष महोदय, मैं मूल प्रश्न पूछता हूं कि जब आपने एक छंटनीग्रस्त को रखा है तो सभी छंटनीग्रस्त को रखने में क्या आपत्ति है? मुख्य अभियन्ता ने यह कहकर छंटनी की है कि राज्य मंत्री का मौखिक आदेश है लेकिन जब कोंसिल में प्रश्न हुआ तो राज्यमंत्री ने इस बात से इनकार किया। इसलिए मैं जानना चाहता हूं कि मुख्य अभियन्ता ने इस तरह सदन को जो गुमराह किया है और गरीबों को छंटनीग्रस्त कर दिया है उन पर आप कार्रवाई करेंगे?
अध्यक्ष : माननीय मंत्री, आप सबको रख लें।

विधान सभा कार्यवाही का वह हिस्सा 



इस घटना के आलोक में रमणिका जी ने दिनमान के सम्पादक को लिखा. 

सदस्य
बिहार विधानसभा
3884 अफसर्स कॉलोनी,
न्यू पुनाई चक, पटना-23
दिनांक : 1983
प्रिय महोदय,
दिनांक 22-7-83 को बिहार विधानसभा में अश्लील मजाक की एक घटना घटी थी जिसे उपस्थित पत्रकारों के द्वारा भी हंस कर भुला दिया गया। लेकिन वह मजाक और उस पर सदन की प्रतिक्रिया भारतीय समाज में नारी की स्थिति की द्योतक है। उस मजाक के मनोविज्ञान और सदन की मानसिकता का विश्लेषण करते हुए मैंने अध्यक्ष को एक पत्रा लिखा ताकि इस पर एक बहस शुरू की जा सके। लेकिन उन्होंने न तब उस मजाक को और न बाद में उसकी समीक्षा को अपेक्षित गंभीरता से लिया। मुझे लगता है कि इस बहस को जनता के बीच ले जाने की
जरूरत है। अध्यक्ष को सम्बोधित वह पत्र संलग्न है। आपका पत्र राजनीतिक सामाजिक दुर्व्यवस्था का मुखर आलोचक रहा है। इसलिए ही इस पत्र को प्रकाशनार्थ आपके यहां भेज रही हूं। इसमें मेरा उद्देश्य यही है कि जुडे हुए मुद्दों पर एक सार्थक बहस शुरू की जा सके।
प्रतिः
संपादक, दिनमान,
दिल्ली।
(रमणिका गुप्ता)
स. वि. स

अध्यक्ष को लिखा पत्र उपलब्ध तो नहीं हो पाया लेकिन रमणिका बताती हैं कि इसपर कोई बहस उन्होंने नहीं करवायी.

दिव्या फ्रीलांस पत्रकार हैं,  चाँदचौरा, गया, बिहार  में रहती हैं.

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एचएमटी-सोना धान की खोज करने वाले दलित किसान का परिनिर्वाण

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स्त्रीकाल डेस्क 


एक छोटे से प्लाट पर एचएमटी-सोना सहित धान की विविध किस्मों के आविष्कार कर्ता दलित किसान दादाजी रामजी खोबरागड़े ने महाराष्ट्र के शोधग्राम के अस्पताल में रविवार को आखिरी सांस ली। खोबरागड़े पैरालिसिस से जूझ रहे थे। आज देश भर में उगाया जाने वाला एचएमटी-सोना का आविष्कार उन्होंने ही किया था। लेकिन दुनिया की तिकडमों से वे लड़ते रहे और मुफलिसी में जिये एवं मरे पेटेंट नियमों की विशेष जानकारी न होने और उसकी दावेदारी के लिए सरकारी सहूलियत न होने की स्थिति में वे अपने अविष्कारों से ख़ास आर्थिक हासिल नहीं कर सके



पंजाबराव कृषि विद्यापीठ ने किया था उन्हें सम्मानित 

79 साल के अम्बेडकरवादी खोबरागड़े चंद्रपुर के नांदेड़ गांव के रहने वाले थे। पंजाबराव कृषि विद्यापीठ ने उन्हें सम्मानित किया था लेकिन इसी ने उनके आविष्कार को एचएमटी  के नाम से अपना बना लिया और उन्हें कोई क्रेडिट नहीं दिया था।  वे इसके लिए सिस्टम से एक असफल लड़ाई जीवन के अंतिम दिनों तक लड़ते रहे।

विद्यापीठ का दावा रहा है कि उसने खोबरागड़े से बीज लिए और उन्हें विकसित किया जबकि इन्डियन एक्सप्रेस, लोकसत्ता आदि के अनुसार खोबरागड़े ने सात अन्य धान की प्रजातियां विकसित कीं। उन्हें 2005 में नेशनल इनोवेशन फाउंडेशन अवॉर्ड भी मिला।

HMT घड़ी के नाम पर रखा धान की प्रजाति का नाम

खोबरागड़े के पास डेढ़ एकड़ जमीन थी। रिसर्च की प्रेरणा  उन्हें पिता से विरासत में मिली। उनके पिता कुछ खास तरह के अनाज को बचाकर रखते थे। 1983 के आस-पास खोबरागड़े को कुछ ऐसे चावल दिखे जो ग्रे और पीले रंग के थे और साइज में छोटे थे। उन्होंने इसे संरक्षित कर दिया और अगले सीजन में उनकी बुआई की। उनकी पैदावार बढ़ती गई और 1988 तक क्षेत्र के कई किसानों ने इसकी बुआई की। पास की मार्केट के एक व्यापारी ने बीज के कुछ बैग खरीदे। खोबरागड़े ने तब एक एचएमटी घड़ी खरीदी थी। इसी के नाम पर उन्होंने चावल को एचएमटी नाम दिया। इसके बाद अपने अलग टेस्ट और खुशबू की वजह से यह एचएमटी के नाम से प्रसिद्ध हो गया। पूरे जिले के लोग इसे उगाने लगे।

'गोल्ड मेडल'की जगह सरकार ने दे दिया तांबा

 2006 में महाराष्ट्र सरकार ने खोबरागड़े के कृषि भूषण पुरस्कार दिया। यह अवॉर्ड विवादित हो गया क्योंकि इसमें जो ‘गोल्ड मेडल’ दिया गया था वह तांबे का निकला। बाद में सरकार ने जांच बिठाई और इसे असली सोने से बदला गया।

आखिरी दिन मुफलिसी में बीते

जीवन के आखिरी साल खोबरागड़े ने गरीबी और बीमारी में बिताए। फेसबुक क्राउड फंडिंग की मदद से सुखदा चौधरी ने उनकी सहायता की। 15 दिनों में 7 लाख रुपए जमा किए गए लेकिन दादाजी खोबरागड़े की बीमारी ठीक न हो सकी। उनके पोते दीपक कहते हैं, 'उन्होंने मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस को पत्र लिखकर 20 एकड़ जमीन और एक घर की मांग की थी। लेकिन अब सरकार की तरफ से सिर्फ इलाज के लिए 2 लाख रुपए ही दिए गए थे।'सोमवार को उत्तरी नागपुर में दादाजी खोबरागड़े का अंतिम संस्कार किया गया।


इनपुट: आउटलुक, वेलीवाड़ा.कॉम 

कान फिल्म महोत्सव में मेरी बेटी (बेटी की शिखर-यात्रा माँ की नजर में)

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कान फिल्म फेस्टिवल, 2018 में फ़कीर, मंटो, शॉर्ट फिल्म सर और अस्थि भारत से गयी फ़िल्में थीं. अस्थि माँ-बेटी के परस्पर लगाव को अभिव्यक्त करती फिल्म है. इस फिल्म की नायिका, दिल्ली विश्वविद्यालय में स्नातक की छात्रा अंतरा राव की माँ और कवयित्री लीना मल्होत्रा राव की नजर में बेटी की उपलब्धि और उसका व्यक्तिव: 

लीना मल्होत्रा राव

हर माता पिता का सपना होता है कि उनकी सन्तान उनसे  भी आगे बढ़े और सफलता के शिखर छुए।अस्थि फिल्म मेरे लिए बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि मेरी दोनों बेटियों का इसमें योगदान है लावण्या ने इसकी कहानी लिखी और पूरा प्रोडक्शन कण्ट्रोल किया और अंतरा ने इसमें अभिनय किया। अस्थि फ़िल्म को जब कान फिल्म फेस्टिवल 2018  के शार्ट फ़िल्म कार्नर में शामिल किये जाने का समाचार मिला तो यह पूरे परिवार के लिए हर्ष और उल्लास का क्षण था।क्योंकि यह बहुत प्रतिष्ठित महोत्स्व है जिसमे जाने के लिए कोई अभिनेता या निर्देशक कई बार बहुत लम्बा इंतज़ार करता है। विशेष रूप से अंतरा के लिए हम खुश थे क्योंकि यह उसकी अभिनेत्री के रूप में पहली फ़िल्म थी।



यह एक जटिल रोल था क्योंकि फिल्म में बहुत अधिक संवाद नहीं हैं और बिना बोले बात कहनी है।भावातिरेक में जड़ हो जाने की स्थिति, जो किसी प्रिय के गुज़र जाने पर हम महसूस करते हैं-एक टीनएज लड़की  जो अचानक दुनियां में अकेली रह गई है के लिए यह भावनात्मक रूप से अधिक मारक स्थिति है, भीतर के अंधेरे को और उसकी गूंज को अकेलेपन की तल्लीनता को मन  में चलती उधेड़बुन और चित्त की दशा पूरी तरह से एक्सप्रेशंस या बॉडी लैंग्वेज से दिखाना है। वह फिल्म में माँ की अस्थियां लेकर घूम रही है रिक्शा पर, सड़क पर, गंगा के तट पर लेकिन कहीं जा नहीं रही है उसके लिए वक्त थमा हुआ है, वह शून्य  को ओढ़कर चल रही है। उसे लगता है कि माँ अंतिम रूप में उसके साथ है और यह आखिरी क्षण हैं जिसे वह हज़ारों लोगों की भीड़ में अकेली अपनी माँ के साथ जी रही है। शब्दों मे इस बात को कहने के लिए आप कई पृष्ठ भर सकते हैं।  किन्तु दृश्य में जब यह बात कही जानी है तो कोलाहल के बीच सन्नाटा रचने जैसा है। और उस सन्नाटे, उदासी, अंधेरे के मर्म को एक लुक से सम्प्रेषित करना है। अस्थियों को ऐसे देखना है जैसे माँ को देख रही हो, गंगा के तट की निस्तब्ध सीढ़ियों में लहरों की गतिशीलता के संगीत  में जीवन और मृत्यु के अविच्छिन्न सम्बन्ध का सन्धान करना सिर्फ मौन रहकर इसे कहना। और आखिर में सब सर्द जमे हुए लम्हों को एक ही रुदन में पिघलाकर बहा देना बहुत चुनौतीपूर्ण था, उसने इस रोल को इतने रिअलिस्टिकली और इंटेंसिटी से  निभाया है कि एक तरह से मैं यह कह सकती हूँ कि यह फिल्म उसके कंधों पर ही थी। 

कान में अंतरा


फिल्म में उसने कई सीन्स इम्प्रोवाइज किये और जब तक खुद अपने अभिनय से संतुष्ट नहीं हुई उसने और टेक्स लेने का आग्रह किया। इससे उसकी डेडिकेशन और कमिटमेंट का पता लगता है। और उसने बहुत हार्ड वर्क किया, न केवल शूटिंग के दौरान बल्कि एडिटिंग के समय भी। वह सेल्फ ट्रेंड एडिटर है और एडिटिंग में भी अपने बेस्ट एक्सप्रेशंस के शॉट्स चुने। मैं यह कहूँगी कि उसने बहुत परिश्रम किया न केवल शूटिंग के दौरान जबकि उसे 4 या पांच डिग्री पर गंगा में खड़े होकर शॉट्स देने पड़े या ठिठुरती रात में और पोस्ट प्रोडक्शन में बल्कि फेस्टिवल में भी। वह तमाम प्रसिद्ध भारतीय और इंटरनेशनल डायरेक्टर्स से मिली और उनके साथ उसने अपने अनुभव शेयर किये। इतनी उम्र में काम के प्रति इतनी गंभीरता उसकी परिपक्वता को दर्शाता है। वह फिल्म में कितनी इन्वॉल्व थी इसका पता मुझे तब लगा जब वह शूटिंग के बाद जब घर लौटी तो मुझसे गले मिलकर रोने लगी और उसने कहा कि यह काफी 'ट्रॉमेटिक एक्सपीरियंस'था । क्योंकि सब्जेक्ट ऐसा था तो माँ का अभाव उसने आत्मा से महसूस किया।
 
फिल्म 'शॉपलिफ्टर्स'और 'सोलो द स्टार वार्स'के प्रीमियर के समय रेड कारपेट पर दो बार उसे चलने का मौका मिला इतने बड़े स्टार्स के साथ रेड कारपेट पर चलना शायद उसके लिए आल्हादित करने वाला अनुभव था। किन्तु उसकी विनम्रता का आभास मुझे इस बात से हुआ कि उसने अपनी फेसबुक वाल पर एक बार भी कान फेस्टिवल की कोई खबर या मीडिया में हुई पब्लिसिटी को शेयर नहीं किया। मेरे ख्याल से यह एक बड़ी बात है कि वह अपना प्रयास के स्तर पर अपना 100 प्रतिशत देकर भी क्रेडिट लेने में अकुलाहट नहीं दिखाई,  वह इसे पूरी टीम की सफलता मानती है। 

बेटी अंतरा के साथ लीना मल्होत्रा 


अंतरा की रुचि  डिबेट्स में रही है, उसने लगभग 200 डिबेट्स अन्तरमहाविद्यालय स्तर पर किये हैं वह कविताएं लिखती है और रंगमंच से भी जुडी हुई हैं , उसके मन में दूसरों की मदद करने का जज़्बा है वह गरीब बच्चों को पढाने के लिए एनजीओ में भी जाती रहीं हैं। उसकी यह संवेदनशीलता ही उसकी सबसे बड़ी उपलब्धि है। वह एक छात्र के तौर पर भी ऐसी लड़की है जो खुद को एजुकेट करती है इसलिए उसके बौद्धिक विकास को लेकर मैं निश्चिंत रही और कभी पढ़ाई में  उसके कम नम्बर आने पर भी विचलित नहीं है। मुझे लगता है कि हर व्यक्ति को जीवन में कई तरह के अनुभव लेने चाहियें। मैं उसकी फिल्म में अभिनय को, उसकी डिबेट्स, रंगमंच और उसके लेखन को इसी रूप में लेती हूँ। घर में हम सबका व्यवहार मित्रवत ही है और हम एक दूसरे से अपनी क्रिएटिविटी शेयर करते हैं। कई बार जब मैं उसे अपनी कविता सुनाती हूँ तो वह तुरंत उस पर अपनी कोई प्रतिक्रिया नहीं देती लेकिन कई दिन बाद कोई संदर्भ जब उसे मिलता है तो वह उसका उल्लेख करती है और उस पर बात करती है। हम पारिवारिक रूप में एक दूसरे को वयस्क की तरह आदर देते हैं मिलकर साथ में काम करते हैं अपनी समस्याएं और उपलब्धियां बांटते हैं कुछ अच्छा पढ़ा हो या अच्छी फिल्म देखी हो तो उस पर बातचीत करते हैं। और खूब झगड़ते भी हैं किन्तु एक बांड है जो अटूट है, जिसमे हम सब बंधे हुए हैं। 

लीना मल्होत्रा राव कवयित्री हैं, हिन्दी साहित्य में एक पहचाना नाम हैं. 

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भीमा कोरेगाँव को अलग रंग देने की कोशिश: प्रोफेसर सोमा सेन, वकील गडलिंग, सहित 5 गिरफ्तार

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स्त्रीकाल स्टाफ रिपोर्टिंग 

महाराष्ट्र पुलिस ने आज सुबह, बुधवार 6 जून को,  देशव्यापी सक्रियता केसाथ भीमा-कोरेगांव मामले में 5 लोगों की गिरफ्तारी की. नागपुर से नागपुर विश्वविद्यालय की अंग्रेजी की प्रोफेसर सोमा सेन, एडवोकेट गडलिंग, महेश राउत, मुम्बई से विद्रोही पत्रिका के सम्पादक सुधीर ढवले और दिल्ली से रोना विल्सन को गिरफ्तार किया गया. सूत्रों के अनुसार इन्हें अनलाफुल एक्टिविटीज प्रिवेंशन एक्ट के तहत गिरफ्तार किया गया है. पुलिस ने ये गिरफ्तारियां 31 दिसम्बर 2017 को भीमा-कोरेगांव में हुई 'यलगार परिषद'को नक्सल समर्थको द्वारा आयोजित बताते हुए की हैं.  गौरतलब है कि इस आयोजन के एक दिन बाद 1 जनवरी 2018 को भीमा-कोरेगाँव में शौर्य दिवस आयोजन के दौरान और उसके बाद हिंसा हुई थी. भीमा-कोरेगाँव में दलित आन्दोलन और चेतना से जुड़े लोग 1 जनवरी को पेशवाओं पर अंग्रेजों की जीत में दलित सैनिकों के शौर्य की भूमिका का उत्सव मनाते हैं. पुलिस शुरू से ही 31 दिसम्बर को हुई परिषद में दिये गए भाषणों को भीमा-कोरेगाँव की हिंसा भड़काने का जिम्मेवार होने की थेयरी के साथ काम कर रही थी. 'याल्गार परिषद'का आयोजन दलित चिंतकों और कार्यकर्ताओं ने किया था.
यालगार परिषद पुणे 


पिछले 17 अप्रैल को पुणे की पुलिस ने एडवोकेट सुरेन्द्र गडलिंगके घर और ऑफिस में छापा मारा था, और पेनड्राइव, हार्डडिस्क आदि जब्त कर ले गयी थी, जिसकी नागपुर के वकीलों ने जमकर निंदा की थी और उसके विरोध में मार्च किया था. गडलिंग नक्सली-कनेक्शन के नाम पर गिरफ्तार दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर साईं बाबा के वकील हैं. महाराष्ट्र के वर्धा जिले से सुधीर ढवले की पहले भी 2011 में नक्सली-कनेक्शन के नाम पर गिरफ्तारी हुई थी, जिसके बाद 2014 में कोर्ट ने उन्हें दोषमुक्त कर दिया था.

सामाजिक कार्यकर्ता और संत तुकडोजी महाराज नागपुरविश्वविद्यालय की अंग्रेजी प्रोफेसर सोमा सेन पुलिस की निरंतर निगरानी झेलती रही हैं. उनके पति तुषारकांत भट्टाचार्य की कई बार नकसली-कनेक्शन के नाम पर गिरफ्तारियां होती रही हैं.

इन गिरफ्तारियों को दलित एक्टिविस्ट भीमा-कोरेगांव से जुड़े दलित आन्दोलन को एक रंग देने की कवायद मानते हैं. 


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दलितों आंदोलनों को माओवादी बताने का पैटर्न पुराना है: सिविल सोशायटी में आक्रोश

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स्त्रीकाल डेस्क 
6 जून की सुबह नागपुर-मुम्बई-दिल्ली से दलित कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीवियों की गिरफ्तारी कर महाराष्ट्र पुलिस  1 जनवरी, 2018 को भीमा-कोरेगाँव में हुई हिंसा को माओवादियों द्वारा भड़कायी गयी हिंसा बताने में लगी है. दलित कार्यकर्ताओं-चिंतकों को माओवादी बताने का सराकारी पैटर्न पुराना है. उधर देश भर से बुद्धिजीवी सरकार के इस कदम की निंदा कर रहे हैं और आने वाले समय में सरकारी दमन को लेकर चिंतित हैं.  नागपुर से लेकर दिल्ली तक गिरफ्तारी के खिलाफ लोगों ने मोर्चा निकला. गिरफ्तारी पर आयी प्रतिक्रियायें:
एक्टिविस्ट संगठनों द्वारा जारी पोस्टर 


पढ़ें गिरफ्तारी की खबर : प्रोफेसर शोमा सेन, वकील गडलिंग, सहित 5 गिरफ्तार

सीमा आज़ाद, सामाजिक कार्यकर्ता, साहित्यकार (इलाहाबाद)
महाराष्ट्र के क्रूर पेशवा राज को दलितों की सेना द्वारा भीमा कोरेगांव में पछाड़ने के 200 साल पूरे होने पर इस साल 1जनवरी को इस जगह पर लगभग 1लाख लोगों का जमावड़ा हुआ, जिसका नारा था- "नई पेशवाई को ध्वस्त करो।"पेशवाई का मतलब है- ब्राह्मणवाद, जो लोगों को जातियों में बांट कर कथित तौर पर "नीची जातियों"का शोषण करता है।  भीमा कोरेगांव में दलितों और पिछड़ी जातियों के इस जमावड़े से "पेशवाई की पोषक मौजूदा सरकार इतना बौखला गयी कि पहले वहां साजिशन हिंसा भड़काई, फिर दलितों को ही मारा पीटा, उन पर मुकदमा दर्ज किया, इस आयोजन की अगुवाई करने वाले विद्राेही पत्रिका के सम्पादक सुधीर ढावले के घर पर तलाशी अभियान चलाया उनका फोन और कम्प्यूटर जप्त कर लिया और आज तड़के उन्हें इसी आरोप में गिरफ्तार कर लिया। उनके अलावा नागपुर के प्रसिद्ध वकील सुरेन्द्र गाडलिंग और दिल्ली के एक्टिविस्ट रोना विल्सन को  TISS मुम्बई के एक्टिविस्ट महेश को भी इसी आरोप में गिरफ्तार कर लिया है। इसके अलावा महिला आन्दोलनों में सक्रिय नागपुर विवि की अध्यापक सोमा सेन के घर सुबह से तलाशी के नाम पर उन्हें प्रताड़ित किया जा रहा है। सरकार के इस फासीवादी दमन की निंदा होनी चाहिए और इसका पुरजोर विरोध किया जाना चाहिए।अभी पता चला कि प्रो सोमा सेन, जो कि नागपुर विवि के अंग्रेजी विभाग में विभागाध्यक्ष हैं, को भी गिरफ्तार कर लिया गया।

वीरेंद्र यादव, आलोचक हिन्दी साहित्य (लखनऊ)
वाम दलित बौद्धिकों के घर बिना FIR के छापे मारे जा रहे हैं और जनपक्षधर साहित्य बरामद कर उन्हें गिरफ्तार किया जा रहा है।क्या कोई ऐसा भी बुद्धिजीवी हो सकता है जिसके घर मार्क्स, लेनिन, चे ग्वेरा से लेकर भगत सिंह आदि का कुछ न कुछ साहित्य मौजूद न हो ?

कितना आसान है किसी बौद्धिक को हिंसक विचारधारा का समर्थक घोषित कर राष्ट्रद्रोह का अपराधी करार देना। दरअसल यह सब प्रतिरोध की आवाजों को दबाने और डराने के हताश कारनामें हैं। कहने की जरूरत नहीं कि दमन जितना तेज होगा प्रतिरोध की जमीन भी उतनी ही पकेगी।



मनीषा बांगर, राष्ट्रीय उपाध्यक्ष, पीपल्स पार्टी ऑफ़ इण्डिया (हैदराबाद)

महाराष्ट्र मे Left ब्रहामणो ने कन्हैया,RSS ब्रहामणो ने भिडे को घुमाया भड़किले भाषण दिलवाये. दोनो बाहर और जेल मे है बहुजन #कोरेगांव

छाया खोब्रागडे, सामाजिक कार्यकर्ता (नागपुर)
महाराष्ट्र में सरकार चाहे जिसकी हो कांग्रेस की या भाजपा की दलित आन्दोलन और आक्रोश को वे नक्सल रंग देने की कोशिश करते ही हैं. खैरलांजी काण्ड के बाद जब 2006 में पूरे महाराष्ट्र में दलित आंदोलन तेज हुआ तो भी उस आन्दोलन को कांग्रेस के राज्य में गृहमंत्री आर आर पाटिल ने नक्सलियों का आन्दोलन बताया था. तब भी राज्य भर में इस बयान की तीखी प्रतिक्रिया हुई थी. इस बार भी भीमा-कोरेगाँव में हुई हिंसा का मुख्य आरोपी संभाजी भिड़े को सरकार बचा रही है, वह राज्य भर में रैलियाँ कर रहा है और उसकेएक  दिन पूर्व हुए 'यलगार परिषद'के आयोजकों को माओवादी बताकर गिरफ्तार कर रही है ताकि दलित-आक्रोश की बात को मनचाही दिशा दी जाये.


अभिषेक श्रीवास्तव, पत्रकार (नई दिल्ली) 

(आज की गिरफ्तारियों के बहाने ''Urban Naxals''पर कुछ बातें)

पिछले चार साल में एक ट्रेंड पर ध्‍यान दें। अगले एक साल की तस्‍वीर साफ़ होती दिखेगी। केंद्र की सत्‍ता में आने के बाद भाजपा सरकार ने पहले एक साल में छिटपुट मूर्खतापूर्ण बयानों और दुष्‍प्रचार की राजनीति जम कर की। याद करें, 2014-15 में गिरिजाघरों पर हमले की कई खबरें आईं जो ज्‍यादातर भ्रामक साबित हुईं। इस बीच हिंदू राष्‍ट्र, दलित, कश्‍मीर, राम मंदिर, 370 और मुसलमानों को लेकर अंडबंड बयानबाज़ी हुई। यह पानी नापने का चरण था। अंतरराष्‍ट्रीय प्रतिक्रियाओं से जब अंदाज़ा लगा कि ईसाइयों के यहां पानी कम है और कश्‍ती डगमगा सकती है, तो तोप को शैक्षणिक परिसरों, मुसलमानों और दलितों की ओर घुमा दिया गया। दूसरा और तीसरा साल इन पर हमले का रहा।

दो साल में छात्रों, दलितों और मुसलमानों पर हमले का नतीजा यह हुआ कि इनके बीच एक एकता सी बनती दिखी। प्रतिक्रिया में दलित-मुस्लिम एकता, वाम-दलित एकता, बहुजन एकता जैसे नारे उछलने लगे। समाज तेज़ी से बंटा लेकिन बंटे हुए तबकों को तीन साल बीतते-बीतते समान दुश्‍मन की पहचान हो गई। गुजरात से कैराना के बीच छह माह में इसका चुनावी असर दिखा। तब जाकर पार्टी ने कोर्स करेक्‍शन किया। प्रधानजी ने हरी चादर ओढ़ ली और कश्‍मीर में इफ्तार करने चल दिए। इधर अध्‍यक्षजी ने 4000 लोगों को निजी संपर्क के लिए चुन लिया। इस बीच ईसाई भांप चुके थे कि संकट के इस क्षण में तोप उनकी तरफ वाकई घूम सकती है, लिहाजा असमय व बिना संदर्भ के आर्कबिशप का एक निंदा-बयान आया और खूब फला-फूला।

ज़ाहिर है, चौथे साल की शुरुआत में दलित, मुसलमान या ईसाई को छूना हाथ जलाने जैसा होता। नए दुश्‍मन की स़ख्‍त ज़रूरत आन पड़ी। एक ऐसा दुश्‍मन जो सर्वस्‍वीकार्य हो। जिससे वोट न बंटे, चुनाव न प्रभावित हो। जो लोकप्रिय विमर्श का हिस्‍सा भी बन सके। ध्‍यान दीजिए कि 2014 से लेकर इस साल की शुरुआत तक माओवाद के मोर्चे पर गहन शांति बनी रही। अचानक मार्च-अप्रैल के महीने से माओवादियों के हमलों और उन पर सैन्‍यबलों के हमलों की ख़बरें नियमित हो गईं। फिर एक बड़ा एनकाउंटर हुआ। कोई चालीस कथित माओवादी मारे गए। उसका छिटपुट प्रतिशोध भी हुआ। समस्‍या केवल यह थी कि सुदूर सुकमा या गढ़चिरौली में हो रही घटनाओं से लोकप्रिय जनधारणा को गढ़ना संभव नहीं था। इसे शहर केंद्रित होना था ताकि समाचार माध्‍यम उसे उठाएं और लोगों तक पहुंचाएं।

नए दुश्‍मन पर वैसे तो काम बहुत दिनों से चल रहा था लेकिन फिल्‍मकार विवेक अग्निहोत्री ने बिलकुल सही समय पर इसकी एक थीसिस लिख दी- ''अरबन नक्‍सल्‍स''। किताब का लोकार्पण हफ्ते भर पहले हुआ, जमकर प्रचार किया गया और कल ही यह किताब दूसरे संस्‍करण के लिए प्रेस में चली गई। कल शाम ट्विटर पर किसी ने विवेक को लिखा- ''विवेक जी महाराष्ट्र में आज ही अर्बन नक्सली अरेस्ट हुये, आपकी किताब का यह शुभसंकेत है...''जिसके जवाब में लेखक ने लिखा- ''आगे आगे देखिए होता है क्या। श्री @rajnathsingh @HMOIndia ने बड़ी शांति से काफ़ी अच्छा काम किया है।''आज सुबह तक महाराष्‍ट्र और दिल्‍ली को मिलाकर कुल पांच गिरफ्तारियां हो गईं। विवेक अग्निहोत्री परसों हैदराबाद जा रहे हैं अपनी किताब लेकर। देश भर में घूमेंगे और ''अरबन नक्‍सल''का प्रचार करेंगे। टीवी चैनल देखिए, ''अरबन नक्‍सल''खूब चल पड़ा है।

विवेक ने 2014 में इस विषय पर ''बुद्धा इन ए ट्रैफिक जाम''फिल्‍म बनाई थी। ज़मीन पर फिल्‍म की स्क्रिप्‍ट अब रची जा रही है। यही उपयुक्‍त समय है। अब दलितों, मुसलमानों को नहीं मारा जाएगा। उससे चुनाव प्रभावित होगा। अब उन्‍हें सताया जाएगा जो वोट नहीं देते। जिनके वोट न देने से किसी को फ़र्क नहीं पड़ता। हां, इनकी पकड़-धकड़ से लोकप्रिय धारणा को ज़रूर भाजपा की ओर वापस मोड़ा जा सकेगा। और दिलचस्‍प तब होगा जब इन ''अरबन नक्‍सल''की गिरफ्तारियों के खिलाफ सामूहिक रूप से न मुसलमान बोलेगा, न दलित और न ही ओबीसी। किसी को नक्‍सल का सिम्‍पेथाइज़र होने का शौक नहीं चढ़ा है।



विवेक अग्निहोत्री ने ठीक लिखा है- ''आगे-आगे देखिए होता है क्‍या।''चुनाव तक भाजपा का अगला एक साल बुद्धिजीवियों, लेखकों, पत्रकारों, एक्टिविस्‍टों को समर्पित होगा। दो साल पहले जो ''अवार्ड वापसी गैंग''या ''टुकड़े-टुकड़े गैंग''वाला नैरेटिव रचा गया था, उसके जमीन पर उतरने का वक्‍त अब आया है। मानकर चलिए कि जनता इन गिरफ्तारियों के पक्ष में ही होगी। जो विरोध में होंगे, धीरे-धीरे एक-एक कर चुपाते जाएंगे। इस तरह मार्च 2019 तक दो अहम काम होंगे- पहला, शहरी नक्‍सल की धरपकड़ की आड़ में असली नक्‍सल को भविष्‍य के लिए बचाकर रखा जाएगा। दूसरा, मतदाता बनाम अमतदाता का एक फ़र्क परसेप्‍शन में पैदा कर दिया जाएगा। जो देश को प्‍यार करेगा, वो मतदान करेगा। मतदान नहीं करने वाला देशद्रोही होगा, भीतर होगा। और देश मने? ज़ाहिर है...!

दिये गये बयान संबंधितों के फेसबुक पेज से या फिर उनसे बातचीत के आधार पर 

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घृणित विचारों और कृत्यों वाले पत्रकार की आत्मप्रशस्ति है यह, आत्मभंजन नहीं मिस्टर जोशी

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श्वेता यादव
सामाजिक कार्यकर्ता, समसामयिक विषयों पर लिखती हैं. संपर्क :yasweta@gmail.com

पिछले दिनों एक किताब हाथ आई, नाम है “मैं बोनसाई अपने समय का” लेखक हैं रामशरण जोशी. अब इस नाम से तो सब अच्छे से परिचित हैं इसलिए बात उसके आगे की. हुआ यह कि जैसे ही यह किताब हाथ आई मुझे नवम्बर 2004 के हंस का वह अंक याद आया जिसमें लेखक साहब का लिखा “मेरे विश्वासघात” दो भागों में प्रकाशित हुआ था. अब चूँकि लेखकों से हम जैसे पाठक ईमानदारी की उम्मीद रखते हैं खासकर तब जब लेखक खुद ही कह रहा हो “एक कथा आत्मभंजन की” तब तो और भी ज्यादा लिहाजा हमने किताब पलटनी शुरू की इस उम्मीद से कि आदिवासी लड़कियों की जो खरीद-फरोख्त अपने समय में लेखक साहब ने की थी और जिसे हंस के अंक में खुद स्वीकारा भी है उसका जिक्र भी लेखक ने किया ही होगा. लेकिन मुझे हैरानी इस बात पर हुई कि रामशरण जोशी जी ने बड़ी खूबसूरती से अपने करम किताब में छिपा लिए लेकिन उन लोगों पर पन्ने काले करना नहीं भूले जिन्होंने उस वक्त इनका इस महान काम के चलते विरोध किया था. हालांकि पहली आपत्ति तो मुझे इस किताब के नाम से ही है लेकिन इस पर चर्चा अगले लेख में करुँगी.

यूँ तो उस समय हंस में छपे दो भागों के लेख में इतना कुछ है, कि लिखा जाए तो एक-एक मुद्दे पर अलग से लेख लिखना पड़ जाए लेकिन मैं कोशिश करुँगी की इस लेख को अहम् मुद्दे पर ही केन्द्रित रख सकूँ. अहम् मुद्दा जिसने मुझे सबसे ज्यादा परेशान किया वह है आदिवासी लड़कियों के साथ रामशरण जोशी और उनके साथ जुड़े तमाम लोगों का व्यवहार. कोई भी सभ्य समाज औरतों के प्रति हो रही किसी भी तरह की हिंसा का विरोध करता है लेकिन व्यवहार में कितना अपना पाता है यह देखने और स्टडी का विषय हो सकता है. रामशरण जोशी जी मैं आपके कामों और हाल फिलहाल आये एक भाजपा नेत्री के बयानों को मिला कर देखती हूँ तो मुझे लगता है कि आप में और उसमें ज्यादा अंतर नहीं हैं. जहाँ वह एक व्यक्तव्य देती है कि ‘आदिवासी लड़कियां वेश्यावृति में शामिल हैं. बल्कि मुझे वह आपसे ज्यादा सभ्य नज़र आती है क्योंकि किसी को वेश्या कह देना और किसी को वेश्यावृति के लिए खरीद लेना दोनों बहुत ही अलहदा चीजें हैं. जो बयान आया वह कम दुखद नहीं है लेकिन जो आपने किया वह अपराध है. देखा जाए तो आपको सज़ा होनी चाहिए जेल में होना चाहिए आप जैसे सो काल्ड प्रोग्रेसिव को. हालांकि अगर मुझसे पूछा जाये तो मैं कहूँगी आप निरे  जाहिल और गवांर हैं जी हाँ एकदम होश में कह रही हूँ कि आप जाहिल हैं आपने जाहिलियत  की हर सीमा पार कर दी है. अपने आपको आदिवासियों का हितैषी कहने वाले को आखिर क्यों शर्म नहीं आई आदिवासी औरतों को खरीदते वक्त. माँ की छातियों से टपकते दूध ने आपको इतने अपराधबोध से क्यों नहीं भर दिया कि आप डूब मरते. ऐसा कृत्य करने के बाद भी आप लिखते हैं कि आपको नींद आ गई ... कैसे रामशरण जोशी कैसे??

साहित्यकारों के साथ रामशरण जोशी तस्वीर में नंदकिशोर आचार्य, कमला प्रसाद, नन्द भारद्वाज भी दिख रहे हैं


आप सुखदा से मिलने वेटिंग रूम में बैठते हैंतब भी आप उसकी देह में मांसलता निहार रहे होते हैं क्यों?? कभी जो प्रेम रहा वह क्यों खोज नहीं पाते आप? क्योंकि आपके लिए स्त्री मन है ही नहीं वह सिर्फ देह है कभी लखनपाल तो कभी शिकार तो कभी झुंड. आपने उसे सिर्फ अपनी गन्दी नज़रों से तौला जम कर तौला. घिन मच रही थी आपको तब भी पढ़ कर और आज भी.

एक जगह आप लिखते हैं, आपके ही शब्दों को कोट कर रही हूँ

‘तू चुप रह. देखता जा. रात भर के बीस रुपए लगेंगे. शेयर कर लेंगे.’’ मित्र इस अधिकार के साथ बोला मानो मेरी सहमति उसने मुझसे पहले से ही ले रखी हो! सच्चाई यह थी कि इस संबंध में कोई चर्चा नहीं हुई थी. तय यह हुआ था कि दोनों साथ-साथ बैठेंगे. पीएंगे, पिलाएंगे. एक-दूसरे के दुख-दर्द शेयर करेंगे. क्योंकि वह प्रेम में चोट खाया हुआ था. सभी से, और चारों ओर से. ‘रिजेक्टेड’ माल की तरह वह दिल्ली-रायपुर-जगदलपुर के बीच भटकता फिर रहा था. कहीं भी उसे न कूचा मिला, न चैन. बस! गलियां मिलीं, पीड़ाओं से भरी हुईं. देवदास बन गया था, मेरा यार. शराब और शबाब में शरण लेने लगा. रिसर्च के प्रोजेक्ट कबाड़ लेता. आदिवासी क्षेत्रों में घुस जाता. रिसर्च भी करता और अपना फर्सट्रेशन भी कम करता. आज मैं उसके हत्थे थारात आधी बीत चुकी थी. चूंकि वीआईपी एरिया था इसलिए पुलिस की गश्त बढ़ गई थी. मैं भाग भी नहीं सकता था. अंततः तय किया कि मुझे इसी कमरे में रात बितानी चाहिए, और होनी या अनहोनी सभी का गवाह बनना चाहिए. मैं अपने पलंग में धंस गया अब वह औरत मेरे पास आकर लेट गई है. वह बीच में बाथरूम गई थी. उसने धोती बांध ली थी. हम दोनों चुपचाप पड़े हैं. कोई हरकत नहीं है. ऐसा चल रहा है पर मैं पसीने से तरबतर हूं. मेरे लिए यह अनुभव बिल्कुल नया है, ऐसा मैं नहीं कहता. लेकिन जगदलपुर में मेरे लिए यह दृश्य नितांत नया था. विशेष रूप से सुखदा के साथ रागात्मक व भावात्मक संबंध बनने के पश्चात्
इस स्थिति से गुज़रना निश्चित ही अजीबो-गरीब एहसास था. मुझे एक बारगी लगा मुझे चांद की सतह से सीधे रसातल में फेंका जा रहा है. मैं खामोशी के साथ बग़ैर किसी प्रतिवाद के इस नियति को स्वीकार करता जा रहा हूं. मैं बेहद कमज़ोर हो चला था. अब निजात का कोई रास्ता बचा नहीं था. मैंने तयशुदा राशि से पांच रुपए अधिक दिए. वह पलंग पर मेरे साथ क़रीब एक-डेढ़ घंटा बिताकर भोर में कमरे से खिसक गई. मित्र-सांड के खर्राटों और मेरे पाप-बोध के आघातों से कमरा भरा हुआ था. इसमें खर्राटे जेनुइन थे या आघात, यह कहना मुश्किल था. बस! मैं पलंग पर लस्त पड़ा दिन चढ़े तक सोता रहा.

इस पूरे कृत्य के दौरान लेखक लिखते हैं किवह अपराधबोध से गुजर रहे थे .. उनको फलाना हो रहा था ढिमकाना हो रहा था.. लेकिन मजेदार बात यह है कि मित्र और आदिवासी महिला के साँसों की टकराहट तक महोदय को याद रह जाती है. लेखक महोदय बड़े दुःख के साथ आपको बताना चाहती हूँ कि आपके शब्द आपसे दगा कर गए हैं आपके शब्दों ने ही आपकी मक्कारी को बयान कर दिया है. आपका मित्र जब आदिवासी महिला को इतना बेइज्जत कर रहा था तब आपने विरोध क्यों नहीं किया आप ऊँची आवाज़ में चुप करा सकते थे. उससे भी बढ़ कर आप इस पाप के भागी न बनते बिना साथ सोए ही आप उस महिला की आर्थिक मदद कर देते लेकिन नहीं जैसा कि आपने खुद स्वीकार किया है कि आपकी मर्दानगी ने मुहं उठा लिया था, इसलिए मुहं मारने से आप अपने आप को रोक नहीं सके. जब से पढ़ा है तब से सोच रही हूँ कि अगर किस को अपराधबोध हो जाए कोई बात चुभ जाए तो वह दिन चढ़े तक सो कैसे सकता है लेखक साहब की माने तो उनका अपराधबोध आदिवासी महिला को रौंदने के बाद इतना बढ़ गया था कि वह दिन चढ़े तक सोते रहे. मेरे लिए यह समझना बड़ा ही मुश्किल है कि अपराध के आघात बोध में डूबा हुआ इंसान दिन चढ़े तक सो कैसे सकता है.. मुझ कम अक्ल को यह बात समझ में नहीं आई यह वही इंसान कर सकता है जो बेहद ढीट हो और जिसके लिए जिस्म सिर्फ मांस का लोथड़ा हो और कुछ नहीं ... तो जोशी जी यह आघात वाली बात आप दफा ही कर दिए होते तो अच्छा रहा होता वो क्या है न कि आप के कृत्यों को आपके शब्द जस्टिफाई नहीं कर पा रहे हैं. इससे आप और ज्यादा नंगे हो गए हैं.

आगे आप की ही जुबानी आप लिखते हैं कि इस घटना के बाद की घटनाएं आपको विचलित नहीं करा सकीं अलबत्ता आप आगे की  घटनाओं को फन के रूप में लेते रहे ... फिर वही बात देखिये कैसे अपनी ही बातों में उलझते जा रहे हैं आप ... जिस व्यक्ति ने पहले कहा कि उसे ऐसे काम से आत्मग्लानि हुई पैरा बदलने के साथ ही वही व्यक्ति उसी तरह की घटनाओं को फन के रूप में लेने लगता है अब आप ही कहिये अगर मैं इसे आपका दोगलापन न कहूँ तो क्यों न कहूँ?

हमेशा यह पुरुषों के साथ ही क्यों होता आया है कि एक प्रेम में विफल होने के बाद या ठुकराए जाने के बाद दूसरी औरतों को खेल समझ लेते हैं उन्हें सिर्फ देह के रूप में इस्तेमाल पर उतर आते हैं अक्सर ऐसा उन लोगों को भी करते देखा है जो स्त्री चिंतन को लेकर काफी मुखर भी रहे हैं यह क्या है नियति या फिर द्वेष जो भी है मेरी समझ के लगभग परे है.. अगर यह नियति है तो पुरुषों के साथ-साथ स्त्रियों में भी यह गुण या अवगुण होने चाहिए अगर ऐसा नहीं है तो क्या फिर पुरुषवादी मानसिकता के तहत आने वाले विचार को सही मान लिया जाए कि प्रकृति ने स्वयं ही स्त्री पुरुष के भेद को बरकरार रखा है? प्रकृति ने स्त्री को पुरुष से कमजोर बनाया है?
दंतेवाडा की श्रमशील स्त्रियाँ 

एक बात तो स्पष्ट है पूरे लेख में एक चीज जो कई बार आईवह है 'या तो पुलिस मुझे चांप लेगी या फिर खुद की छवि के बदनाम होने का डर .. 'मानना पड़ेगा आपको पत्रकार महोदय की आप डरे भी रहे और सारे  काण्ड भी किये आपने .. माफ़ करिए भाषा की मर्यादा आपने कहीं रखी ही नहीं तो मुझसे भी उम्मीद बेमानी ही है. यह चांप लेगी, चांप देंगे तुमको, यह कितनी जहीन भाषा है भाषा के मर्म के हिसाब से हम आपको समझाए तो यह औकात से बाहर जाने वाली बात हो जायेगी... है ना! आप ठहरे बड़े नामी पत्रकार हम पिद्दी सी लड़की जो पत्रकारिता में अभी भी कह लीजिये संघर्ष ही कर रही है... हमारी आपकी तुलना अपने आपमें ही बेमानी है... आपके लेख, आपकी कथनी-करनी और आपकी भाषा को अगर लेखक तबका और यह समाज पचा सकता है ख़ुशी ख़ुशी.. तो मुझे तो यह छूट बिना शक मिलनी चाहिए..

एक सवाल जो इन सब बातों के बीच मेरे जेहन मेंलगातार कौंधता रहा वह है, क्या लेखक महोदय को यह ज्ञात नही है या था, कि बड़े ही सुनियोजित तरीके से आदिवासी लड़कियों और महिलाओं को वेश्यावृत्ति के लिए मजबूर किया जा रहा है? जिनके जीवन से जीने की मूलभूत सुविधाओं को भी ख़तम किया जा रहा हो जिन्हें अपराधी घोषित किया जा रहा हो, जिन्हें नक्सली बोल कर झूठे केस में फंसाया जा रहा हो.. उनकी महिलाओं को परिवार चलाने के लिए किस दुर्गति से गुजरना पड़ रहा होगा क्या यह समझना क्या इतना कठिन था? वह भी एक ऐसे व्यक्ति के लिए जिसके बारे में मुनादी यह हो कि उसने आदिवासियों के लिए काम किया है. सोच रही हूँ अपने आपको मार्क्सवादी कहने वाला यह आदमी आदिवासियों के दर्द की कहने लिखने गया था, राज्य के दमनचक्र को उजागर करने गया था और खुद क्या करके आया आदिवासियों की ही महिलाओं, लड़कियों का बलात्कार .... यह बलात्कार ही है शुद्ध बलात्कार .. आप चाहे जो भी कहते रहिये इसे मेरे लिए यह बलात्कार है.

बात करते करते वहां भी अपनी असहमति दर्ज करतीचलूँ जहाँ मैत्रेयी जी का जिक्र आया है.. कुछ श्रृंगार की बात है. क्या मैत्रेयी पुष्पा की आत्म स्वीकृति ही अंतिम सत्य हो सकती है दुनिया के तमाम स्त्रियों के चरित्र निर्धारण की. श्रृंगार एक बाह्य कारण हो सकता है लेकिन वह रिझाने के लिए ही किया जाता है यह कहना कहाँ तक उचित है? क्या यह ठीक वैसी ही उपमा न मानी जाए जैसे मर्दों के लिए कहा जाता है कि अमूमन आदमी कुत्ता ही होता है या फिर आदमी ठरकी ही होते हैं अगर इस बात का विरोध किया जाता है तो फिर उसी लिहाज़ से इस व्यक्तव्य की भी आलोचना होनी चाहिए... जाती रही होंगी मैत्रयी जी सज कर हंस के ऑफिस यह उनकी इच्छा और सोच... खुदा के लिए इसे सभी स्त्रियों पर लागू न करें तो बेहतर!

रामशरण जोशी जी आगे लिखते हैं- मैं लूसी को लेकर निरंतर द्वंद्वों में उलझता  जा रहा था. ‘क्या मैं इसके साथ अपना जीवन निभा सकूंगा?’ ‘क्या यह मेरी गंवई व मामूली साक्षर मां के साथ अपनी पटरी बैठा सकेगी?’, ‘घर का ख़र्च कैसे चलेगा?’, ‘यह एक तेज़ तर्रार लड़की है और संपन्न परिवार से है जबकि मैं मामूली व ग्रामीण पृष्ठभूमि से हूं?’, ‘क्या मैं इसकी उन्मुक्त जीवन शैली व मित्रों को सहन कर पाऊंगा?’‘अभी सुखदा से संबंध टूटे नहीं हैं. क्या लूसी के साथ विवाह उसके साथ विश्वासघात नहीं होगा?’ ‘यदि यह मुझे जर्मनी में बसने के लिए कहेगी तो क्या मैं अपने देश को छोड़ सकूंगा?’ निजी क़िस्म के इन तमाम सवालों से मैं स्वयं जूझता रहता. आधे-अधूरे जवाब भी तलाशता रहता. जहां मैं लूसी से भावनात्मक स्तर पर स्वयं को बेहद जुड़ा पाता था, वहीं यथार्थ के धरातल पर खुद को उससे दूर. ..बहुत दूर पाता. सवाल और जवाब के बीच गहरी खाई नज़र आती. पृष्ठभूमियों की विसंगतियों को दूर करने का रास्ता मुझे सूझ नहीं रहा था




यह एक अजीब द्वन्द भारत के तमाम मर्दों में प्रेमकरने से पहले क्यों नहीं आते.. प्रेम से पहले इनको माँ याद नहीं आती जैसे ही प्रेम हो जाता है स्त्री के मन के द्वार ये खोल चुके होते हैं तब इन्हें इनकी बूढी माएं अक्सर याद आ जाया करती हैं यह भारतीय परंपरा है जिसका निर्वहन आज के युवा भी खूब कर रहे हैं... तो इन्हें क्या समझें....जरूरत है अब लड़कियां प्रेम करने से पहले यह समझ लें कि उन्हें लड़के से सबसे पहले क्या पूछना है .. लड़कियों को सबसे पहले यही पूछना है कि बाबूजी घर में पूछ लिए हो न! कि कन्या से प्रेम करने जा रहे हो? उसे शादी के झूठे सपने दिखाने जा रहे हो.. देख लो कहीं सब होने के बाद तुम्हें तुम्हारी बूढी माँ और बीमार पिता जी की चिंता न सताने लगे... क्योंकि माँ-बाप तो सिर्फ तुम्हारे होते हैं लड़कियां तो सर्वथा अनाथ होती हैं ना.. जोशी साहब आपके मामले में तो इस द्वंद ने सारी सीमाएं पार कर दी आप सुखदा के साथ ही थे जब आपको लूसी से प्यार हो गया और आप उस वक्त लूसी और सुखदा दोनों के ही साथ थे जब आपने किसी अन्य से विवाह कर लिया. यहाँ भी आप ठीक न हुए विवाह के उपरान्त जब लूसी आपसे मिलने आती है तो आप बलात उसे चूमने की कोशिश करते हैं जिसे लूसी ठुकरा देती है. आप मानिए या न मानिए लेकिन इन दोनों ही लेखों में आपके अपने ही शब्दों में आप जो साबित हुए हैं वह है सेक्स के प्रति एक कुंठित आदमी. जिसे हर कदम पर औरत सिर्फ देह नजर आई फिर चाहे वह आदिवासी महिलाएं हों या फिर आपकी प्रेमिकाएं.

आपने ही लिखा है कि आप अपने दोस्त के साथ जगदलपुरनिकल जाते वहां आदिवासी लड़कियों के दैहिक भूगोल परखते उनकी खरीद  फरोख्त के लिए और उसके बाद तमाम तरह के कमेंट पास करते जैसे कपड़े गंदे हैं, देह मांसल नहीं है, मजा नहीं आएगा, इसकी छातियाँ सपाट हैं तो उसकी ब्रेस्ट पहाड़ियाँ हाथ में नहीं आएँगी, मजा नहीं आएगा वगैरा वगैरा..आप अपने आपको जिस्म का शिकारी बताते हैं और आदिवासी महिलाओं को शिकार .. क्या कहूँ आपको, आपके कुकर्मों को पढ़ते-पढ़ते क्षोभ से भर उठी हूँ मैं.. कोई व्यक्ति इतना नीचे गिर कैसे सकता है? आपको कहीं भी अपराधबोध नहीं हुआ है दरअसल सच्चाई यह है कि आपने यह सारे अपराध अपने पूरे होशो हवास में और मजे में किये हैं. सीधे सीधे कहूँ तो आप पर केस होना चाहिए और आपको जेल में होना चाहिए. दरअसल आप ने आदिवासी महिलाओं के साथ वही किया है जो गली के सोहदे करते हैं लड़कियों के साथ आप ने जो डिसक्रिप्शन दिया है वह ठेले पर बिकने वाले थर्डग्रेड साहित्य से भी गया गुजरा है जिसे पढ़ कर या जिसके गंदे चित्र दिखाकर मनचले अक्सर लड़कियों को राह चलते छेड़ा करते हैं.

कितना अजीब है न आपका दोस्त तो भारत सरकारका अधिकारी है रायपुर में आदिवासी औरत के साथ सोता भी है और उन्हें ऐसी औरतें कह कर भी सम्बोधित करता है ओह आप शायद भूल गए हों तो याद  दिला देती हूँ जब आप पूछते हैं कि ये लखनपाल कौन है तो आपका दोस्त आपको बताता है कि वह “ऐसी” औरतों को लखनपाल कह कर बुलाता है.. अब एक सवाल अगर अपना जिस्म बेचने को मजबूर आदिवासी महिला ऐसी औरत हो गई तो आप जैसा मर्द क्या कहलायेगा? हो सके तो खुद ही सोच कर बता दीजियेगा आप तो वैसे भी कितने मुखर हैं.

लगातार लिखने-पढ़ने वाला तबका भी जब इस तरह की चीजेंकरता है तो बंटी हुई उम्मीद टूटने लगती है. अपने पेशे की आड़ में जोशी जी आपने जो भी किया वह कोई भी स्त्री किसी भी कारण से जायज़ नहीं ठहरा सकती. स्तब्ध हूँ कोई इतना मानवता विहीन कैसे हो सकता है इसे भी बड़ी विडम्बना ये है कि आप जैसे लोग पत्रकारिता के मानक गढ़ते हैं और पत्रकारिता की नई पीढ़ी के लिए अनुकरणीय माने जाते हैं. जब तक आप जैसे लोग पत्रकारिता में रहेंगे तब तक कम से कम पत्रकारिता का तो कोई भला नहीं होने वाला. मुझे तो लगता है कि किसी संगठन को आगे आकर आपका सार्वजनिक जीवन में बहिष्कार की मुहीम चलाना चाहिए या कानूनी रूप से कार्रवाई सुनिश्चित करवानी चाहिए. आपके इस व्यवहार से स्त्रीवाद के खांचे भी स्पष्ट हुए हैं. आश्चर्य कि आपको बचाने के लिए, जैसा कि आपने लिखा है वृंदा करात के समक्ष आपका पक्ष रखने के लिए कई लेखिकाएं, प्रगतिशील लेखिकाएं सामने आयीं. यही तो स्त्रीवाद और प्रगतिशीलता का सवर्णवाद है. मैं तुलना कर रही हूँ सवर्ण स्त्रीवादियों और प्रगतिशीलों द्वारा आपके  बचाव की और डा. धर्मवीर पर दलित स्त्रीवादियों और प्रगतिशीलों द्वारा हमले की-दोनो दो लोक सा है. फिलहाल तो मैं ही इस सार्वजनिक बहिष्कार का आह्वान करती हूँ.

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डा. अम्बेडकर के पोते को नक्सली बताने और प्रधानमंत्री की जान को खतरा बताने वाले पत्रों पर उठ रहे सवाल

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संजीव चंदन

प्रधानमंत्री को  मारने की योजना वाले और बाबा साहेब के पोते और रिपब्लिकन नेता, प्रकाश अम्बेडकर को माओवादी बताने वाले  पत्रों  पर उठे रहे सवाल. नागपुर हाई कोर्ट के और ह्यूमैन राइट्स लॉ नेटवर्क से जुड़े  एक वकील ने पत्र की भाषा के आधार पर कहा कि वे पत्र प्लांट किये गये हैं. पढ़ें पूरी खबर और क्या है वकील के दावे का आधार: 

नागपुर के अम्बेडकरवादियों के अनुसार मीडियामें प्रसारित कथित नक्सलवादी पत्रों में डा. बाबा साहेब अम्बेडकर के पोते प्रकाश अम्बेडकर का भी नाम है, जो उसकी विश्वसनीयता पर सवाल खड़े करता है. पुलिस का टार्गेट होने से बचने के लिए नाम न छापने की शर्त पर कई अम्बेडकरवादियों ने बात की और कहा कि सरकार और राजनीतिक संगठन अपनी राजनीति के लिए बाबा साहेब के परिवार को भी बदनाम कर रहे हैं, जबकि सबको पता है कि बाबा साहेब के पोते प्रकाश अम्बेडकर रिपब्लिकन पार्टी के नेता हैं, नक्लवादी नहीं. इस बीच नागपुर हाई कोर्ट के एक वकील ने कई गंभीर सवाल उठाते हुए मीडिया में दिखाये जा रहे इन पत्रों को पुलिस द्वारा निर्मित बताया है. एक तबका तो इसे भाजपा के किसी समर्थक द्वारा लिखित पत्र भी बता रहा है. उसके अनुसार पत्र में 'दो राज्यों की हार और 15 राज्यों में जीत'वाले वाक्य संदेह पैदा करते हैं.



दरअसल  मीडिया में कथित माओवादियों के पत्र प्रसारितकिये जा रहे हैं, जिसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की तरह की घटना दुहराने की बात की जा रही है. राजीव गांधी की तरह की घटना से तात्पर्य उसी अंदाज में ह्त्या से लगाया जा रहा है. इसके अलावा उन पत्रों में मुख्य विपक्षी पार्टी द्वारा कथित रूप से माओवादियों को फंड उपलब्ध कराने का जिक्र भी बताया जा रहा है. जाहिर है मीडिया के एक सेक्शन द्वारा इस अतिउत्साही प्रचार अभियान पार्ट सवाल उठने थे, उठ रहे हैं. यह लोकतंत्र के लिए खतरनाक है कि प्रमुख विपक्षी पार्टी को देश में सशस्त्र क्रान्ति और अशांति फैलाने में लिप्त बताया जाये,खासकर उसे जो संसदीय लोकतंत्र में मजबूती से यकीन करता हो.

ये पत्र कथित रूप से नागपुर, मुम्बई, दिल्ली से महाराष्ट्रके भीमा-कोरेगाँव में होने वाली हिंसा को उकसाने के कथित जिम्मेवार लोगों की गिरफ्तारियों के बाद सामने आये हैं. पिछले 6 जून को दिल्ली से रोना विल्सन, नागपुर से एडवोकेट सुरेन्द्र गडलिंग, शोमा सेन, मुम्बई से विद्रोही पत्रिका के सम्पादक  सुधीर ढवले और महेश राउत को महाराष्ट्र की पुलिस ने गिरफ्तार कर पुणे ले गयी. 1 जनवरी 2018 और उसके बाद भीमा-कोरेगाँव में हुई हिंसा के पूर्व पुणे में ‘यलगार परिषद’ आयोजित कर हिंसा को उकसाने के आरोप में इन्हें गिरफ्तार किया गया है. भीमा-कोरेगाँव में दलित कार्यकार्ता 1 जनवरी को शौर्य दिवस मनाते हैं क्योंकि वे अपनी दीनता के लिए जिम्मेवार पेशवा राज्य के खिलाफ अंग्रेजों की जीत में दलित सैनिकों की भूमिका को वे हर साल इसी रूप में याद करते हैं. उधर सरकार में सामाजिक न्याय मंत्री (राज्य) और रिपब्लिकन पार्टी ऑफ़ इंडिया के राष्ट्रीय अध्यक्ष तथा महाराष्ट्र के कद्दावर दलित नेता रामदास आठवले ने अम्बेडकरवादियों को नक्सली बता कर गिरफ्तार किये जाने की निंदा  भी की है.



कहा यह भी जा रहा है कि यह सहज विश्वसनीय नहीं हो सकता है कि देश के प्रधानमंत्री की ह्त्या की योजना बन रही हो और इसकी खबर देश की खुफिया एजेंसियों की जगह एक राज्य की पुलिस को तब लग रही है जब किसी अन्य मामले में कुछ लोग गिरफ्तार किये गये हैं. विपक्ष सारी कवायद को प्रधानमंत्री मोदी द्वारा ऐसी साजिशों की कहानियाँ बनवाने का एक पैटर्न बता रहा और इसे प्रधानमंत्री की घटती लोकप्रियता से जोड़ रहा है. विपक्ष का आरोप है गुजरात में मुख्यमंत्री रहते हुए भी उन्होंने ऐसी कहानियाँ प्रचारित करवाई थी. सवाल यह भी है कि पुलिस इन पत्रों को मीडिया में किस इरादे से लीक कर रही है.

इस बीच नागपुर हाई कोर्ट के एक वकील ने कईगंभीर सवाल उठाते हुए मीडिया में दिखाये जा रहे इन पत्रों को पुलिस द्वारा निर्मित बताया है. ह्युमन राइट्स लॉ नेटवर्क से जुड़े नागपुर के एडवोकेट निहाल सिंह ने कहा कि हम सब कई मामले न्यायालयों में देखते हैं, उनके चार्जशीट पढ़ते हैं, जिसमें ऐसे पत्र भी पुलिस प्रस्तुत करती है. उनके आधार पर माओवादियों के काम के तरीके को समझते भी हैं. निहाल सिंह के अनुसार 'माओवादी अपने कैडर या सिम्पेथाइजर का सीधा नाम नहीं लेते, नहीं लिखते. उनके अलग-अलग निक नेम होते हैं. जैसे साईं बाबा की चार्जशीट में पुलिस कहती है कि उनका निक नेम प्रकाश है. प्रकाश के नाम से लिखे गये पत्रों के लिए उन्होंने दावा किया कि ये साईं बाबा के लिए लिखे गये पत्र हैं.'निहाल सिंह सवाल करते हैं कि 'जब साईं बाबा के मामले में सामान्य मुद्दों पर यदि पार्टी निकनेम से पत्र लिखती है तो क्या इतने बड़े मुद्दों पर गिरफ्तार लोगों, रोना विल्सन, शोमा सेन या सुरेन्द्र गाडगिल और सुधीर ढवले, जिग्नेश मेवानी या प्रकाश अम्बेडकर आदि का नाम सीधा लिखेगी? यहाँ तक कि वे अपने कथित टारगेट चाहे नरेंद्र मोदी हों या राहुल गांधी उनका जिक्र भी किसी निक नेम से ही करेंगे, यही उनके काम का तरीका रहता आया'वे  कहते हैं कि 'इन पत्रों की विश्वसनीयता पर न सिर्फ संदेह है बल्कि ऐसा लगता है कि इन्हें लिखने वाले पुलिस के लोग नक्सली मामलों के विशेषज्ञ भी नहीं हैं.'

निहाल सिंह एडवोकेट गड्लिंग की गिरफ्तारीपर सवाल उठाते हुए कहते हैं कि वे मानवाधिकार के वकील रहे हैं, वे अब तक गैरकानूनी हिरासत के खिलाफ लड़ते रहे हैं लेकिन दुखद यह है कि नियमतः उनकी गिरफ्तारी के 24 घंटे  के भीतर उन्हें मजिस्ट्रेट के सामने पेश किये जाने की जगह दो दिन बाद पेश किया गया और गैरकानूनी हिरासत में रखा गया. सवाल है कि अपराधियों के बचाव में लड़ने वाला वकील अपराधी नहीं हो जता, बलात्कारियों का बचाव करने वाला बलात्कारी नहीं हो जाता तो फिर माओवादियों के नाम पर गिरफ्तार लोगों का बचाव करने वाला नक्सलाईट कैसे हो जाता है? निहाल सिंह आरोप लगाते हैं कि पुलिस ने मजिस्ट्रेट के सामने पेश करते हुए गडलिंग को अपना वकील तक खडा करने नहीं दिया और एक डमी वकील लेकर गयी. नागपुर के कुछ वकील जब उनसे मिलने गये तो उन्हें मिलने भी नहीं दिया जा रहा था, तब नागपुर बार असोसिएसन ने वहां के प्रिंसिपल जज को पत्र लिखा तो उनके वकील उनसे मिल सके. गौरतलब है कि एडवोकेट गड्लिंग की गिरफ्तारी के विरोध में नागपुर बार एसोसिएसन और गोंदिया बार एसोसिएसन के वकीलों ने 8 जून को काम बंद रखा.

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मेरे साथ यौन हिंसा के अपराधी: वे मामा थे, वे चाचा थे, एक संघी एक वामपंथी

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क्वीलिन  काकोती

यौन शोषण के शिकार सभी साथियों 
मेरा यह पत्र उन सारे साथियों को संबोधित हैजो कभी मजाक में या कभी जोर-जबरदस्ती से अपने परिचितों द्वारा या किसी अजनबी द्वारा यौन शोषण के शिकार रहे हों. मैं बहुत सोचने के बाद, बहुत मानसिक पीड़ा से गुजरने के बाद और बहुत धैर्य रखने के बाद इस विषय पर लिख पाने की हिम्मत जुटा पा रही हूँ. इम्तियाज अली की फिल्म हाई वे में आलिया भट्ट का चरित्र बचपन में परिवार के किसी सदस्य द्वारा यौन शोषण की शिकार लडकी का चरित्र है, जो बाद में स्टॉकहोम सिंड्रोम, अपने अपहरणकर्ताओं के साथ सहानुभूति या प्रेम का सिंड्रोम, से ग्रस्त हो जाती है. आलिया भट्ट को अपने अपहरणकर्ता से, रणदीप हुडा से, प्यार हो जाता है. मेरे ख्याल से आलिया को एक अपराधी से प्यार नहीं होता बल्कि एक अजनबी से प्यार होता है, जिसका उसके परिवार से कोई संबंध नहीं है और जो उसे उसके परिवार में घटी स्मृतियों से दूर ले जाता है. इस फिल्म को देखे काफी साल हो गये लेकिन यह आज भी मेरे जेहन में ज़िंदा है, जैसे कि वह मेरी ही कहानी है.



शायद ही कोई ऐसी लडकी होगी, जिसे ऐसे बैडटच या बलात्कार से न गुजरना पडा हो. असमिया में एक कहावत है 'हरिनार मांगसोई बैरी', यानी हिरण का मांस ही उसका दुश्मन होता है. लड़कियों को यह कहावत अक्सर सुनाई जाती है यह सन्देश देकर कि लडकी का शरीर ही उसका दुश्मन होता है, इसलिए उसे अपने आपको बचाकर रखना चाहिए. हालांकि लड़कों को कभी यह शिक्षा नहीं दी जाती कि लडकी का शरीर तुम्हारी संपत्ति नहीं है और उसे उसकी इच्छा के बगैर नहीं छूना चाहिए. दिक्कत हमारे बीच भी है कई बार हम बोल नहीं पाते और कई बार हम औरतों को जब अपने किसी बेटी, बहन, भतीजी, के साथ ऐसी घटना का पता चलता है तो आपस में कानाफूसी के स्तर पर दबा देते है, जबकि हमें चाहिए था कि अपराधी चाचा, भाई, मामा, पिता को बुलाकर सजा दें, दिलवायें.

यह भी पढ़ें: बलात्कार और हत्या का न्यायशास्त्र-समाजशास्त्र !

आपसब के साथ भी ऐसा हुआ होगा तो कहें, मैं तोबहुत दिनों की चुप्पी के बाद कह पा रही हूँ. रिश्ते के भाई द्वारा बैड टच का पहला अनुभव मुझे 10-11 साल की उम्र में हुआ था और वह 17-18 साल का था. अब सोचती हूँ तो कई बार उसे किशोर युवा की उत्सुकता या कुंठा मान भी लेती हूँ. हालांकि यदि लड़कों को लड़कियों की इच्छा के बिना न छूने की नसीहत दी गयी होती तो वह नहीं होता. लेकिन मैं उन घटनाओं के अपराधियों को आज भी भूला नहीं पाती, जिन्होंने मेरे व्यक्तित्व, मेरी मानसिक स्थिति को भी गहरे हद तक प्रभावित किया था. एक दूर के रिश्ते के मेरे मामा और एक चाचा ने जो किया उसे क्या कहूं? मामा अब इस दुनिया में नहीं हैं, वे आसाम में आरएसएस के एक बड़े स्वयंसेवक थे. मैं 9-10 साल की थी तब उनके बैड टच की शिकार थी. वे अक्सर घर आते. मुझे गोद में बैठा लेते और मेरे यौन अंगों को छूते थे. मैं आज उस वाकये को समझ पाती हूँ, तब तो समझ पाने की हालत में भी नहीं थी. वे डींगे बहुत हांकते थे. बताते कि आजादी की लडाई में जेल भी गये. वहाँ जेल में वे एक मुस्लिम कैदी को पीटते थे. उनके ही शब्दों में 'जेल में एक गोरिया था, उससे मैं जानबूझकर लड़ लेता था और पीटता था.'असमिया में मुसलमानों को अपमानजनक तरीके से 'गोरिया'कहा जाता है.

सबसे ज्यादा भयानक था चाचा की कुंठा का शिकार होना.उसने मेरी मानसिक स्थिति को सबसे ज्यादा प्राभावित किया. चाचा कम्युनिस्ट आन्दोलन से जुड़े रहे हैं. वे 'बैड टच'तक ही सीमित नहीं रहे. उन्होंने मेरे साथ जबरदस्ती भी की-बलात्कार किया. तब मैं स्कूल में थी. मेरे 9वीं से 11 तक की पढाई के दौरान उनका कई बार शिकार हुई. पहली बार, जब गरमी की छुट्टियों के दौरान उनके घर गयी थी. मैं किसी से कह नहीं पाती थी. कभी चाचा के पास जाने से मना किया भी तो माँ और दूसरे लोग समझते कि पढाई न करने के डर से मैं उनसे भागती हूँ. वे बड़े स्ट्रिक्ट थे और बच्चों से पढाई-लिखाई के बारे में स्ट्रिक्ट बातें करते थे. मुझे गर्मियों की छुट्टी में उनके यहाँ पढने के लिए ही भेजा गया था. यह भी सच है कि उन्होंने मुझे पढ़ाया भी. लेकिन मेरे साथ जो जबरदस्ती करते थे उसका असर ज्यादा गहरा रहा. तब वे एक हैवान की तरह होते थे. आज मैं जब उस इंसान की बातें सुनती हूँ या उसे देखती हूँ तो एक जुगुप्सा से भर जाती हूँ. हालांकि शुरू में तो मुझे उनपर काफी गुस्सा था लेकिन धीरे-धीरे मैं उन्हें माफ़ कर चुकी हूँ, वे अब मेरे जीवन में होते हुए भी नहीं है. लेकिन वे घटनाएँ मेरी जीवन की स्थायी ट्रॉमा हैं.

आज, मुझे लगता है कि मेरा सीधे माँ को न बतानामेरे जीवन पर किस तरह भारी पडा. लडकियों को अपनी बातें अपनी माँ-बहन से कहनी चाहिए और माँ-बहनों को भी चाहिए कि वे लड़कियों के साथ घटी ऐसी घटनाओं की पर्देदारी न करें. मेरे मामले में स्थिति एकदम अलग है. परिवार यद्यपि लोकतांत्रिक और वामपंथी विचारों का है, लेकिन माँ बाहर के मेरे दोस्तों (लड़कों) से मेरा घुलना-मिलना पसंद नहीं करती थीं. ओवर प्रोटेक्टिव थीं. उनकी सोच में कास्ट और जेंडर दोनो प्रभावी थे. पिता कभी सीधे नहीं कुछ कहते लेकिन माँ से कहवाते थे. यह एक डेमोक्रेटिक लेकिन जातिवादी और पितृसत्ता से रचा-बसा ब्राह्मण परिवार रहा है. हालांकि वे अपने घर के मामले में ही चूक गये और अपनी बेटी को इस स्थिति से बचा नहीं सके.



पढ़ें : स्त्री देह पर लड़े जाते हैं युद्ध

यह हम सबके लिए अच्छा होगा कि अपने ट्रामा से निकलें और अपने मन में दबी बातों को कहें, किसी से भी, जिसे अपना समझती हों/ समझते हों या सार्वजनिक तौर पर कहें. जैसे आज मैं आपसब से अपनी बात कह कर थोड़ा अलग महसूस कर रही हूँ. लेकिन मेरी गुजारिश उन सबसे से है जो उत्पीड़क हैं कि वे सोचें कि उन बच्चियों या बच्चों के साथ क्या गुजरता होगा, जब आप उन्हें गलत तरीके से छूते हैं या उनसे जबरदस्ती करते हैं.

हमसब को यह कोशिश करनी चाहिए कि अपने बच्चों को ऐसी स्थिति से न गुजरने दें. अपराधियों के खिलाफ मुंह खोलें उन्हें सजा दिलवाएं और बच्चों को ऐसी स्थितियों से आगाह करें. सोचें कि बच्चे जब ऐसी स्थितियों के शिकार होते हैं तो उनके व्यक्तित्व पर क्या असर पड़ता है! वे जीवन भर इसके ट्रॉमा से निकल नहीं पाते. वे लोगों पर विश्वास करना छोड़ देते हैं. अपनों से एक विलगाव के स्थिति में आ जाते हैं. जैसे हाईवे में आलिया भट्ट अपनों से दूर करने वाले अपने अपहरणकर्ता, एक अजनबी को ही अपना मान लेती है.

क्वीलिन काकोती स्वतंत्र पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता हैं.  संपर्क: kakoty.quiline@gmail.com 
तस्वीरें गूगल से साभार



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रमणिका फाउण्डेशन का मासिक रचना मंच: हीरालाल राजस्थानी, अनिल गंगल और रानी कुमारी का रचना-पाठ

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स्त्रीकाल डेस्क 
रमणिका फाउण्डेशन व आल इण्डिया ट्राईवल लिटररी फोरम के तत्वाधान में प्रत्येक माह के दूसरे शनिवार होने वाली साहित्यिक गोष्ठी में इस बार वरिष्ठ कवि अनिल गंगल के नये कविता संग्रह ‘कोई क्षमा नहीं’ का लोकार्पण हुआ। समकालीन हिन्दी कविता के महत्वपूर्ण कवि अनिल गंगल का यह चौथा कविता संग्रह है। उन्होंने अपनी कविताओं का पाठ किया।



दलित लेखक संघ के अध्यक्ष हीरालाल राजस्थानी अपनी कहानी ‘व्यतिरेक’ का पाठ किया। इस कहानी में अंतरजातीय विवाह तथा संवैधानिक तरीके से कोर्ट मैरिज पर कथानक बुना गया है। युवा कवयित्री रानी कुमारी ने भारतीय समाज में स्त्रियों की पर कविताओं का पाठ किया। ‘बीस साल की बूढ़ी लड़की’, ‘गैसबर्नर-सी औरतें’ तथा ‘छोटा भाई’ कविताओं का पाठ किया।

अनिल गंगल की कविताओं पर परिचर्चा करते हुए कवि एवं आलोचक संजीव कौशल ने कहा कि छन्द को तोड़कर जो कविता कही गयी वह कितना कुछ ख़ास कह पाती हैं, यह महत्वपूर्ण है। गद्य कविता की परम्परा से जोड़ते हुए कहा कि अनिल गंगल की कविता युद्ध की तरह हमारे भीतर उतर जाती है। आइडियोलॉजी कविताओं को निखारती हैं। ‘घर’ कविता में ‘गर्माहट’ के बिना घर नहीं बन सकता। गंगल जी पॉलिटिकली अवेयर कवि हैं, इतना कि विचार कविता को ग्रिप में ले लेता है। यह माँ-बेटे की सम्वेदना तथा पति-पत्नी का वैचारिक सम्बन्ध है।‘धागा’ में बारीक़ बुनाई है। इसमें बारीक़ धागा सम्भ्रान्त वर्ग का प्रतीक तथा मोटा धागा मज़दूर धागा का प्रतीक है। ‘तुमने मुझे कॉमरेड कहा’ में स्पष्ट होता है कि इन शब्दों से आज भी कोई जुड़ा हुआ है। गंगल जी चाहते हैं कि कवि मज़दूरों के बीच जाए।  ‘पिता का कोट’ में कोट के छेद तो दिख जाते हैं, परेशानियों के नहीं दिखते।



परिचर्चा में कवि एवं आलोचक जगदीश जैन्ड'पंकज'जैंड ने कहा कि अनिल गंगल की कविता समय व समाज पर तीख़ी प्रतिक्रिया हैं। वैचारिकी में प्रतिबद्ध होकर भी समय के सवालों से टकराती है अनिल की कविता। ‘गुलामी’ इसका सबसे सशक्त उदाहरण है।

हीरालाल राजस्थानी की कहानी पर टिप्पणी करते हुए बजरंग बिहारी तिवारी ने कहा कि हीरालाल राजस्थानी अपनी कहानी में संभावना तलाशते हैं। वे आकांक्षा के रचनाकार हैं जो संघर्ष से गुजरकर इस मुक़ाम पर पहुँची पीढ़ी का मुख्य स्वर है। आंबेडकर के ‘जाति का ख़ात्मा’ की संभाव्यता की कहानी है ‘व्यतिरेक’. रानी कुमारी की कविताओं पर बात करते हुए उन्होंने तीन पीढ़ियों की चर्चा की। विमर्शपरक, विचारपरक और जीवनपरक काव्य-दृष्टियों के परिदृश्य में रानी कुमारी जीवनपरक रचनाकार हैं। दलित स्त्रीवादी कविता पर अपने विचार व्यक्त करते हुए बजरंग बिहारी तिवारी ने रानी कुमारी की कविताओं को संक्षोभ से जोड़ा।

इस अवसर पर दिल्ली विवि के पूर्व विभागाध्यक्ष प्रो. हरिमोहन शर्मा भी उपस्थित रहे। कार्यक्रम पर टिप्पणी करते हुए उन्होंने कहा कि इसमें अनिल गंगल की कविता पर चर्चा की गयी जिसमें वंचित-दलित लोगों की भी कोई मानवीय गरिमा होती है-- इसके जहाँ-तहाँ संकेत इनकी कविताओं में मिलते हैं। हीरालाल राजस्थानी की कहानी समाज के शिक्षित लोगों से दृष्टि-परिवर्तन का आह्वान है। वे अन्धविश्वास-रूढ़ियों को धता बताकर आगे बढ़ने की चर्चा की गयी है। युवा कवयित्री रानी कुमारी की कविता अपने आसपास की ज़िन्दगी से बुनी गयी हैं जिसमें विचार है, विरोध है, आगे बढ़ने की सम्भावना है। इन पर की गयी टिप्पणियाँ सार्थक विचार-विमर्श को जन्म देती हैं ।



अध्यक्षीय वक्तव्य देते हुए रमणिकाफाउंडेशन की अध्यक्ष रमणिका गुप्ता ने कहा कि यह कार्यक्रम महीने के हर दूसरे शनिवार को होता है -- हमारा उद्देश्य है एक ऐसा मंच बनाना जिस पर कवि-कहानीकार, नाटककार या विचारक-- नए-पुराने दोनों ही साहित्य के माध्यम से समय के साथ मुँह-दुह होते हुए-- साहित्य को एक दिशा देते हुए विभेदपूर्ण दृष्टिकोण बदलने और नया दृष्टिकोण बनाने की भूमिका निभाएं।

उन्होंने कहा साहित्य स्वान्तःसुखाय नहीं--साहित्य एक लक्ष्य लेकर चलता है। इसे भी हम प्रस्थापित करना चाहते हैं। आज का समय बहुत ख़तरनाक है-- इसलिए ऐसी गोष्ठियां एक भूमिका अदा कर सकती हैं-- प्रेरणाजनक सृजन के माध्यम से। वंचित समाज, वर्जित समाज व नये सृजकों को हम विशेष ध्यान देते हैं, उनके साथ प्रतिष्ठित लेखकों को भी बुलाते हैं ताकि वे दिशा दे सकें--और नये लेखक मंच पा सके।

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मंच सञ्चालन टेकचन्द ने किया। 

अनुप्रिया पटेल के साथ ईव टीजिंग: क्या 'मर्दों'पर ओहदे का फर्क भी नहीं पड़ता!

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राकेश सिंह 

यूपी के मिर्जापुर में केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण राज्यमंत्री अनुप्रिया पटेल के काफिले को ओवरटेक करने की कोशिश करते हुए कार सवार तीन युवकों ने उनके साथ बदसलूकी की। आरोप है कि युवकों ने मंत्री के वाहन के करीब पहुंच कर अपनी कार से सिर और हाथ निकाल कर भद्दे इशारे किए। तीन युवक गिरफ्तार तो कर लिये गये लेकिन यह घटना महिलाओं के प्रति समाज/पुरुषों के नजरिये की बानगी है-महिला चाहे कोई भी हो ओहदेदार या बिना ओहदे के. इस घटना के जेंडर पक्ष पर राकेश सिंह की त्वरित टिपण्णी. जेंडर फ्रीडम के लिए देश भर में राकेश चार साल से सायकिल यात्रा कर रहे हैं, लोगों को संबोधित कर रहे हैं. 


मंत्रीजी के साथ बदतमीजी हुई।
कब हुई?
कल।
कहाँ हुई?
वाराणसी जनपद में।
आरोपी कौन हैं?
बीएएमएस के स्टूडेंट्स।



अमूमन ओहदेदार, ताक़तवर, सुरक्षाप्राप्त शख़्सियत के साथ बदतमीजी की ऐसी वारदात तब तक नहीं होती जब तक उनका जेंडर 'पुरुष'से इतर न हो। यानी स्त्रियों और तीसरे जेंडर के लोगों के साथ ऐसा होता है। अपनी यात्रा के दौरान पुलिस और प्रशासन समेत विभिन्न नौकरी-पेशों में उच्च पदों पर कार्यरत नागरिकों से मिलने-बात करने का अवसर मिला। एक ही पद पर कार्यरत पुरुष और स्त्री अधिकारी की सोच व जीवनचर्या में अक्सर  भिन्नता दिखी। स्त्री अधिकारियों ने कहा कि आते-जाते कभी-कभी अपने दफ़्तर के बाहर मातहत कर्मचारियों की बातें सुनकर उन्हें घिन्न आती है। वर्दी में न हों तो किसी दिन उनमें से ही कोई कुछ कह दे।

अपने ज़माने में जो जेंडर आधारित व्यवहार हम देखते हैं उसकी निर्मिति उस चिंतन की उपज हैं जहाँ 'चुतिया'और/या इसमें नाना किस्म के उपसर्ग या प्रत्यय जोड़कर तैयार हुए शब्दों और मुहावरों से भड़ास निकालना सहज मान लिया गया है। मोहब्बत के इज़हार या गुस्सा प्रकटीकरण हेतु माँ, बहन, बेटी, दादी, समधन, भाभी, मामी, बुआ, मौसी, नानी के आगे 'तेरी/तोरी/तुम्हारी'और पीछे 'की'लगाकर होने वाले उच्चारणों से कहने-सुनने वाले के ज़हन पर फ़र्क़ नहीं पड़ता? ऐसा किसी मासूम और निरपेक्ष जीवनदर्शन की वजह से नहीं बल्कि कुटिल और क्रूर  जीवनदर्शन के कारण। औरत की मूरत या मूरत सी औरत, बस! काठ या पाथर की औरत देवी रहेंगी बाक़ी जन्मे या न जन्मे, जनम लिये तो जिये अथवा न जिये, जिये तो कैसे जिये, क्या खाये, क्या पहने, बोले-बतिआए, किनसे बोले/बतिआये, किनसे न, क्या पहने, पढे, क्या पढे, कहाँ पढे, क्यों पढे, कितनी देर तक घर से बाहर रहे, आने-जाने का रुटीन, पेशा क्या चुनें, शादी कैसे, कब, किससे, शादी के बाद करियर के बारे में सोचे अथवा न ... ये वैसे मसलें हैं जिनसे रू-ब-रू अमूमन हर कन्या होती है।

इनमें से कुछ कुछ प्रश्न बालकों के हिस्से भी आते हैं, मगर वे निर्णय लेने के योग्य माने जाते हैं। बदचलनी के पाठ की शुरुआत परिवार में होती है। परवरिश की प्रक्रिया को ठहर कर महसूस करेंगे तो लगेगा कि परिवेश ने मर्दज़हन में बदचलनी फिट करने में सधी भूमिका निभाई। मगर शुरुआत से लड़कों की बदचलनी को अनदेखा किया गया, चटखारे लिये गये। बदचलनी जब बढने लगी तब उन्हें उनकी निर्णय क्षमता या दबंगई बताई गई। सहज मान लिया गया। जिन धर्मों या धर्मों के रुपों का प्रदर्शन और अनुसरण अपना ज़माना कर रहा है, वे व्यवहारतः जेंडर असमानता, मर्दसत्ता, स्त्रियों व अन्य जेंडर के साथ पुरुषों के अमानुषिक व्यवहारों को संरक्षण देते हैं। प्रोत्साहन भी। बनारस पर एक बार और नज़र मार लीजिए, तय करने में सुविधा होगी। भर ललाट त्रिपुंड छापकर गर्दन में भगवा अंगोछा अटकाये अपने ज़माने के धर्मरक्षकों की दिनचर्या पर नज़र धँसाएँ, सब साफ़-साफ़ देख-बूझ पाएँगे।



इस सरज़मीम पर उतरने वाली औरतों के हिस्से जोखिम और चुनौतियों का बड़ा जखीरा है। आँत से मिजाज तक:करवाहटें, वंचनायें, पक्षपात और हिंसा! इसी दौर में आसपड़ोस से बदलाव की सुगबुहाटें रह-रह कर, दब-छुपकर ही सही, आने लगी हैं। उम्मीदों का पँख लगाए आसमान नापने निकली औरतों को गर्म हवाओं से टकराते देख रहे हैं हम। सुकून मिलता है। अनुप्रिया पटेल वैसी ही एक शख़्सियत हैं।

अनुप्रिया पटेल के साथ बदतमीजी करने वाले बीएएमएस के छात्र हैं। मान लीजिए, ये लड़के एमबीबीएस कर रहे होते या पुलिस के दारोग होते, सेना में मेजर होते या सरकार में मंत्री या मुक्तिमार्ग बताने वाले ज्ञानी; क्या फ़र्क़ पड़ता? ऐसे लोगों या पेशेवरों के नाम आते रहते हैं। इसीलिए कि परवरिश ने अनावश्यक ताक़त व निर्णयबोध को इतना बड़ा हिस्सा बना दिया व्यक्तित्व का कि मानवीयता की पटरी से उतरते हुए मामूली फ़र्क़ तक नहीं पड़ता।

जबकि थोड़ी उदारता और थोड़ा मानुसपन 'मर्द'को गाली या अपराध बनने से रोक सकते हैं


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मैं वह नहीं थी जो मारी गयी थी, जिसकी सजा मुझे मेरे देश ने दर-बदर कर दी

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निदा सुल्तानी/ अनुवाद: प्रियदर्शन 

भारत में राष्ट्रवाद के अलग-अलग नमूने अपने स्वरूप में प्रकट होते रहते हैं. इधर प्रधानमंत्री की हत्या का इरादा जताते हुए एक संदिग्ध पत्र का पकड़ा जाना और उसके साथ दलित कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी के साथ उत्साही राष्ट्रवादी एजेंसियों की आक्रामक कार्य पद्धति को समझना हो तो इसे राष्ट्रवाद के  एक ग्लोबल फेनोमेना के तौर पर देख सकते हैं निदा सुल्तानी की इस कहानी के साथ. ईरान की राष्ट्रभक्त एजेंसियों ने उनकी जिन्दगी तबाह कर दी. अनुवाद प्रियदर्शन ने किया है: 

'मीडिया ने तबाह कर दी मेरी ज़िंदगी'

जून 2009 में, तेहरान में हुए एक प्रदर्शन केदौरान एक औरत मारी गई। निदा आग़ा सुल्तान ईरान में चल रहे विरोध प्रदर्शन का चेहरा बन गई- सिवा इसके कि ये उसका नहीं, एक विश्वविद्यालय शिक्षिका निदा सुल्तानी का चेहरा था। निदा सुल्तानी ने अब अपनी दिल तोड़ देने वाली कहानी लिखी है।

वे दो चेहरे जिन्होंने राष्ट्रवाद का छद्म उजागर किया


21 जून  2009, को सुबह-सुबह अपनेदफ्तर पहुंच कर मैंने अपना ईमेल अकाउंट खोला तो फेसबुक पर 67 मैत्री अनुरोध मिले। अगले कुछ घंटों में, मुझे 300 और अनुरोध मिल चुके थे।

मुझे नहीं मालूम था कि मेरी तस्वीरऔर नाम दुनिया भर की वेबसाइट्स और टीवी प्रसारणों पर आ चुके हैं।

जिस विश्वविद्यालय में मैं काम करती थी, वहां के छात्र परिसर में एक धरना दे रहे थे और चूंकि मैं दाखिले के बोर्ड में थी इसलिए रोज़ाना के समय पर घर नहीं जा पाई। मैं उस शाम काम में ही लगी थी जब मुझे किसी अनजान शख्स ने एक ईमेल भेजा।

ईमेल में मैंने पढ़ा कि निदा सुल्तानी– जो कि मेरा नाम है- नाम की एक लड़की एक दिन पहले तेहरान की सड़कों पर मारी गई थी। चूंकि उसके बारे में कोई जानकारी मुहैया नहीं कराई गई थी, ये शख़्स उसे फेसबुक पर छंटनी की प्रक्रिया के ज़रिए ढूढ़ने की कोशिश कर रहा था- साइट की दूसरी निदा सुल्तानाओं को एक-एक कर छांटते हुए।



घर पहुंचने के बाद मैंने पाया कि मेरे पास छात्रों, सहकर्मियों, दोस्तों और रिश्तेदारों के फोन आ रहे थे जो बता रहे थे, ‘हमने तुम्हें सीएनएन पर देखा, हमने तुम्हें बीबीसी पर देखा, हमने तुम्हें फॉक्स न्यूज पर देखा, हमने तुम्हें फारसी चैनलों पर, ईरानी चैनलों पर देखा।‘

अंतरराष्ट्रीय मीडिया मेरे फेसबुक खाते से ली गईएक तस्वीर को निदा आग़ा सुल्तान की मृत्यु के फुटेज के साथ जोड़कर इस्तेमाल कर रहा था।

जिन लोगों ने मुझे पिछले दिनों फेसबुक पर अनुरोध भेजे थे, मैंने तमाम लोगों की दोस्ती मंज़ूर कर ली- इनमें कई अंतरराष्ट्रीय पत्रकार और ब्लॉगर भी थे- और उन्हें बताया कि ये एक गलती है, मैं वह शख्स नहीं हूं जिसे एक दिन पहले गोली मारी गई है।

कुछ ब्लॉगर्स ने अपडेट लगा दिए, लेकिन पत्रकारों ने मेरा संदेश मिलने के बावजूद कोई प्रतिक्रिया नहीं जताई- मेरी तस्वीर इस्तेमाल की जाती रही।

मुझे ढेर सारे नफ़रत भरे संदेश मिले।लोगों ने मुझपर ईरान के इस्लामी गणराज्य की एजेंट होने का आरोप लगाया जिसने निदा के फेसबुक अकाउंट तक पहुंच बना ली थी और विरोध और प्रतिरोध की प्रतीक बनी, उनकी नायिका का चेहरा बिगाड़ना चाहा था।

आगा सुल्तान के परिवार ने भीउसकी प्रामाणिक तस्वीरें जारी कीं। लेकिन आप कल्पना कर सकते हैं कि वह परिवार किस त्रासद हाल में होगा और इसमें उन्हें कुछ समय लग गया- करीब 48 घंटे बाद उन्होंने पहली तस्वीरें जारी कीं।

तब तक मेरी तस्वीर पूरे विरोध आंदोलन और उस शहीद के चेहरे के तौर पर ख़ूब स्थापित और प्रचारित हो चुकी थी और मीडिया इसे असली शहीद, असली निदा की मृत्यु की तस्वीरों के साथ-साथ चला रहा था। यह देखना बिल्कुल हास्यास्पद था कि किस तरह फेसबुक की एक साधारण सी तस्वीर इतनी बड़ी भूल का सबब बन गई थी।

लेकिन यह देखना और अफ़सोसनाक थाकि मेरी तस्वीर आगा सुल्तान के वीडियो के साथ-साथ चल रही है। जब मैंने देखा कि दुनिया भर में लोग मेरी तस्वीर के साथ प्रदर्शन कर रहे हैं, दरगाह खड़ी कर रहे हैं, मोमबत्ती जला रहे हैं, तो ये बैठकर अपनी ही मय्यत देखने के बराबर था। बेशक, मै जानती थी कि यह मैं भी हो सकती थी- उस बेचारी, मासूम लड़की की नियति मेरी भी हो सकती थी। आगा सुल्तान की मौत ने जिस तरह बाहरवालों का ध्यान ईरान की तरफ खीचा था, उससे ईरानी हुक़ूमत परेशानी महसूस कर रही थी। तीन दिन के भीतर खुफिया मंत्रालय के एजेंट मेरे घर आ धमके और उन्होंने मुझे एक मुलाकात के लिए बुलाया।



 वे चाहते थे, कोई रास्ता मिले जिससे वे निदाआगा सुल्तान के ख़ून का दाग उनके हाथ से धुल जाए। मेरा नाम और चेहरा इस पहेली का इकलौता हिस्सा था जिसे वे अपने फायदे में इस्तेमाल कर सकते थे।

 वे यह जताना चाहते थे कि निदा आगा सुल्तान की मौत हुई ही नहीं है, बल्कि वह ईरान के ख़िलाफ़ प्रचार का एक हिस्सा है, और यह फोटो मेरे फेसबुक पेज से नहीं लिया गया है, इसे यूरोपीय संघ ने जारी किया है। वे यूरोपीय संघ पर, इंग्लैंड और बेशक, अमेरिका पर आरोप लगा रहे थे।

मैंने उनके साथ सहयोग करने से मना कर दिया।

जब वे समझ गए कि मैं अपनी भूमिका अदा करने को तैयार नहीं हूं तो वे मेरे ख़िलाफ़ हो गए। मुझे याद है, एक एजेंट ने मुझसे कहा, ‘एक ज़ाती शख़्स के तौर पर तुम हमारे लिए अहमियत नहीं रखती हो- फिलहाल हमारी इस्लामी पितृभूमि की राष्ट्रीय सुरक्षा पर सवाल है।‘

मेरी स्थिति बेहद जटिल होती जा रही थी।मेरे मित्रों और सहकर्मियों ने तय किया कि मेरे संपर्क रहने से उन्हें ही खतरा हो सकता है। मेरा ब्वायफ्रेंड इन लोगों में एक था- मेरा उससे संपर्क टूट गया।

दूसरे दोस्तों ने कोशिश की कि मैं उस पर ध्यान दूं जो मुझे करना चाहिए। उन्होंने कहा, ‘तुम्हें एक प्लान बी की ज़रूरत है।‘ लेकिन मैं इतनी डरी हुई और हताश थी कि मैंने उनकी बात नहीं सुनी। मैं कल्पना तक नहीं कर सकती थी कि एक फोटो से मेरा पूरा जीवन बरबाद हो सकता है.
इस तरह गलत तस्वीर के साथ हुए थे प्रदर्शन 

आखिरी बार एजेंट्स मेरे घर आए और मुझेअपने साथ ले गए। उन्होंने मुझे किसी और को या कोई और चीज साथ लेने से मना कर दिया।

उन्होंने मुझ पर अपने मुल्क की राष्ट्रीय सुरक्षा केसाथ दगा करने का आरोप लगाया। मुझपर सीआईए का जासूस होने का इल्ज़ाम लगाया गया और कहा गया कि मैं एक इक़बालनामे पर दस्तखत कर दूं। मुझे अच्छी तरह मालूम था कि ऐसे इल्ज़ाम का मतलब ईरान में मेरे लिए सज़ाए मौत भी हो सकता है।

यह एक सुर्रियल, काफ़्काई अनुभव था।

यह सबकुछ बस 12 दिन के अंदर हो गया।दो हफ्ते के अंदर, एक बहुत ही सामान्य जीवन जी रही अंग्रेजी साहित्य की प्राध्यापिका होने वाली महिला से मैं ऐसी शख्स हो गई है जिसे अपनी मातृभूमि छोड़कर भागना पड़ा।

मेरे  दोस्तों ने इसका इंतज़ाम किया।उनकी मदद से मैंने एयरपोर्ट के एक सुरक्षा अघिकारी को घूस दी और ईरान से निकल गई। मुझे 11,000 यूरो देने पड़े।

पहले मैं तुर्की गई, और वहीं पहली बार मेरे सामने राजनीतिक शरण लेने का खयाल रखा गया। इसके बाद मैं यूनान गई और अंत में जर्मनी। जर्मन सरकार ने मुझे एक शरणार्थी शिविर में भेज दिया जहां मुझे खाना और रहने की जगह मिले और शरण की मेरी अर्ज़ी मंज़ूर कर ली।

एक शरणार्थी की ज़िंदगी बिताना हवा में उडते पत्ते जैसा होता है। आप बस हवा में टंगे रहते हैं, किसी जुड़ाव का एहसास नहीं बचता। आप उखड़ चुके हैं और आपको वहां जाने की इजाज़त नहीं है जहां से आप आते हैं।

मुड़कर देखती हूं तो जिन लोगों से मुझेसबसे ज़्यादा नाराज़गी है, वह पश्चिमी मीडिया है। वे मेरी तस्वीर इस्तेमाल करते रहे, ये जानते हुए भी कि यह उस ट्रैजिक वीडियो में दिखने वाली असली पीड़ित की तस्वीर नहीं है। उन्होंने जान बूझ कर मुझे बेइंतिहा खतरे में डाला।

अब मैं वह शख्स कभी नहीं होसकती जो इन चीज़ों के घटने से पहले थी। मैं अब भी अवसाद से गुज़र रही हूं। मैं अब भी दुःस्वप्नों से गुज़र रही हूं।

बहरहाल, मैंने एक नई, अच्छी ज़िंदगी की लड़ाई लड़ने का फ़ैसला किया है- ऐसी ज़िंदगी जो मैं मानती हूं कि किसी इंसान को जीने का हक़ है। मुझे उम्मीद है कि वक़्त गुज़रने के साथ मेरे हालात बेहतर होंगे।

(नेदा सुल्तान अब 35 साल की हैं, फिलहाल एक अमेरिकी विश्वविद्यालय की फेलोशिप पर हैं। ईरान छोड़ने के बाद उन्होंने अपने परिवार से मुलाक़ात नहीं की है। कुछ ईरानी अधिकारी अब भी आरोप लगाते हैं कि वे निदा आगा सुल्तान हैं और उन्होंने ही अपनी मृत्यु प्रचारित करवाई। उन्होंने अपनी मुश्किलों पर एक किताब लिखी है- माई स्टोलेन फेस)

दूसरी निदा:  निदा आगा सुल्तान

वह 26 साल की थी, जब उसे तेहरान की एक सड़क पर प्रदर्शन के दौरान दिल में गोली लगी। हालांकि वह राजनीतिक सक्रियता के लिए नहीं जानी जाती थी। उसकी मृत्यु की तस्वीरें इंटरनेट के ज़रिए सारी दुनिया में फैल गईं- ‘द टाइम’ ने  इसे ‘इतिहास की शायद सबसे ज़्यादा देखी गई मौत’ बताया। उसके परिवार को सार्वजनिक शोकसभा करने से रोक दिया गया। उसकी कब्र को नापाक किया गया।
(साभार: बीबीसी)

प्रियदर्शन साहित्य और पत्रकारिता में बहुधा समादृत शख्सियत हैं. संपर्क: priyadarshan.parag@gmail.com

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शनि मंदिर के प्रभावशाली महंत दाती महाराज पर बलात्कार का आरोप, जल्द हो सकती है गिरफ्तारी

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डेस्क 
आसान नहीं होगा हर बार की तरह इस बार भी पीडिता के लिए न्याय पाना लेकिन हर उन पीड़िताओं की तरह इसने भी ठान लिया है एक स्वयंभू धर्म-ठेकेदार को सजा दिलाने का. यह मामला दिल्ली के सबसे भव्य शनि मंदिर का है जो इन्हीं कुछ वर्षों में लोकप्रिय होता गया था, जैसे-जैसे लोगों में असुरक्षा, भयबोध बढ़ा शनि एक देवता के रूप में कई सारे देवताओं को पीछे छोडने लगे और दिल्ली के फतेहपुरी के असोला का शनि धाम मंदिर का पुजारी मदन दाती महाराज बनता गया. उसी पर उसकी शिष्या ने बलात्कार का आरोप लगाया है.

आरोपी दाती महाराज 

आरोपी की ताकत 

कहा जाता है कि केंद्र के दो मंत्री सहित दिल्ली पुलिस के 1आईपीएस सहित केंद्र सरकार में कई आईएएस इसके भक्त हैं और उसी के चलते इस समय वो लोग अच्छी पोस्ट पर भी बैठे हैं। हाल में ही इसने राजस्थान में एक वरिष्ठ आईपीएस की तैनाती करवाई थी जिसको लेकर ये चर्चा में भी आए थे,जिसमें स्वयं राजस्थान की सीएम ने हस्तक्षेप किया था।  इसके अलावा मध्य प्रदेश सरकार में भी इसकी अच्छी पैठ है और वहां से अधिकांश नेता दिल्ली में इनके आश्रम में आते हैं। संघ के नेताओं के साथ भी इसके अच्छे संबंध हैं, ऐसे में पीडिता की लड़ाई आसान नहीं होगी. उसके साहस की तारीफ़ होनी चाहिए.

आरएसएस  का प्रभावशाली नेता रामलाल दाती महाराज उर्फ़ मदन को मोदी सरकार की उपलब्धियों की किताबा भेंट करते हुए 


असोला के शनी मंदिर के बारे में दावा है किदुनिया में शनि की यह सबसे ऊंची मूर्ति है। 31 मई, 2003 को शंकरचार्य स्वामी माधवराशराम महाराज ने मूर्ति का अनावरण किया था। लंबे समय से स्थापित कई अन्य मानव निर्मित मूर्तियां हैं, फिर भी यह दुनिया भर से भगवान शनि के भक्तों के लिए आकर्षण का केंद्र बन गया है। इस मूर्ति की स्थापना के बाद मदन उर्फ़ दाती महाराज ने पीछे मुड़कर नहीं देखा. वह मीडिया में भी एक चेहरा बनता गया. इसका भक्तों के लिए मन्त्र है 'शनि शत्रु नहीं मित्र है.'  इसके साथ ही इसने अकूत सम्पत्ति भी बनाई है .दिल्ली के फतेहपुर बेरी और राजस्थान के पाली में उसका फार्महाउस है, जिसमें वह आश्रम चलाता हैं। दाती की खुद की वेबसाइट भी है, तो वहीं दावा किया जाता है कि दाती समाज सेवा व बच्चियों की पढ़ाई-लिखाई करवाने के क्षेत्र में भी सक्रिय हैं।

गिरफ्तारी से पहले होगी जांच 

पुलिस के वरिष्ठ अधिकारियों के मुताबिक दाती मदन के खिलाफ उनकी शिष्या की शिकायत पर रेप जैसे संगीन अपराध का मामला दर्ज किया गया है, लेकिन ये मामला दो वर्ष पुराना है जिसके कारण मामले में गिरफ्तारी करना जल्दबाजी होगी। वरिष्ठ अधिकारियों के मुताबिक इस मामले में दाती मदन के आश्रम के लोगों से संपर्क साधा गया है ताकि जांच की जा सके। लेकिन बताया जाता है कि एफआईआर दर्ज की बात से ही वह फरार है, जिसके कारण अब उनकी गिरफ्तारी तय मानी जा रही है।

असोला का शनि मन्दिर 


पुलिस को दी अपनी शिकायत में पीड़िता ने अपना व अपने परिवार की जान का खतरा जताया है। उसका कहना है कि दुष्कर्म करने के बाद बाबा व उसके चेले उसे जान से मारने की धमकी देते थे। किसी को कुछ भी बताने पर उसे गायब करने की धमकी दी जाती थी। बुधवार को जब उसने मामले की शिकायत दर्ज करा दी तो अब उसकी जान को खतरा और बढ़ गया है। पीड़िता का कहना है कि राजस्थान से दिल्ली आते-जाते समय उसके साथ कुछ भी हो सकता है। पीड़िता ने पुलिस से सुरक्षा देने की मांग की है।

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महिला शोधार्थियों की प्रताड़ना: विश्वविद्यालय नहीं कलह का केंद्र, पुलिस पर भी सवाल

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स्टाफ रिपोर्टर 

हिन्दी विश्वविद्यालय में प्रशासनिक भ्रष्टाचार की खबरें आती रहती हैं, विद्यार्थियों के खिलाफ उनके मनमाने निर्णय की भी. इधर विश्वविद्यालय के शोधार्थी एक छात्रा के साथ शादी का वादा कर यौन-शोषण के एक मामले में एक-दूसरे के आमने-सामने हैं.  पुलिस पीड़ित पक्ष के खिलाफ सक्रिय भूमिका में है. पीड़िता का साथ दे रही शोधार्थियों पर भी अपराधिक वारदात का मामला दर्ज किया गया है.  इस मामले में सवाल दलित संगठनों पर भी उठ रहे हैं. क्या है पूरा मामला: 


घटना1 : महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय की एक शोधार्थी, वर्तमान में बीएड-एमएड की छात्रा,  ने 29.12.2017 को एक अन्य शोधार्थी चेतन सिंह के खिलाफ शादी का झांसा देकर यौन शोषण करने के आरोप में रामनगर थाने में रिपोर्ट दर्ज कराई। 7 फरवरी 2018, को  आरोपी विद्यार्थी ने किसी अन्य लडकी के साथ शादी भी कर ली। यह प्रकरण दलित समाज के भीतर ब्राह्मणवादी प्रवृत्ति का भी बताया जाता है। जाति सोपान में लडकी की जाति कुछ पैदान नीचे है और लड़के की ऊपर, जबकि दोनो ही दलित समुदाय से हैं। बहरहाल, पीड़िता द्वारा पुलिस से बार-बार चेतन सिंह के खिलाफ की गयी कारवाई के बारे में पूछने पर कोई सकारात्मक जवाब नहीं मिलता था। 18 मार्च 2018 को पीड़िता ने बहुत जोर दे करकर रामनगर थाना से कारवाई करने के बावत पूछा तब उसे जांच अधिकारी आरपी यादव ने झिडकी दे दी और यह भी कहा कि दिल्ली चलकर आरोपी की गिरफ्तारी में मदद करो।  ठीक 2 घंटे बाद आईओ ने फोन करके बताया कि आरोपी को पकड़ लिया गया है। बहुत कुछ बातें पीड़िता की समझ में आज तक नहीं आई कि क्या चल रहा था।? आखिर पुलिस इतनी जल्दी चेतन सिंह को दिल्ली से कैसे पकड़कर वर्धा (महाराष्ट्र) लायी? जबकि खबर है  कि आरोपी  ने 19 मार्च को अपने आप को रामनगर थाना में सरेंडर किया था। 25 दिन बाद उसकी जमानत भी होने दी गयी। इस दौरान वह विश्वद्यालय के पास पंजाब कॉलोनी में ही रूम लेकर अपनी पत्नी के साथ रहने लगा। गौरतलब है यह कि छात्रावास से शहर जाने का रास्ता इसी कॉलोनी से होकर गुजरता है।



घटना 2.  पहली घटना से ही सम्बद्ध दूसरी घटना 3 मई 2018 को घटती है।  पीड़िता के अनुसार ‘जब वह अपने रूममेट के साथ रोजमर्रा का सामान के लिए शाम लगभग साढ़े सात बजे मार्केट की तरफ जा रही होती है तभी अचानक से चेतन सिंह और उसकी पत्नी का सामना होता है, वह पीड़िता पर अभद्र टिप्पणी करता है। दोनों की बीच फिर कहासुनी होती है आरोपी शोधार्थी पीडिता को ज़ोर का चाटा मारता है और हाथ पर चोट करता है।'पीडिता के अनुसार उसपर तेजाब फेकने और जान से मारने की धमकी दी जाती है। पीड़िता उसी समय वि वि प्रशासन से अनुमति लेकर 4 गार्ड और एक केयर टेकर के साथ रामनगर थाने जाकर रिपोर्ट लिखाती है थाना उसका मेडिकल कराता है, और उसके आधार पर 323/324/504/34/506 धारा  के तहत एफआईआर दर्ज ली जाती है। पीड़िता व उसके साथ गयी चार लड़कियों को 3 बजे तक रामनगर थाने में बिठाकर रखा जाता है। उक्त समय पर चार्ज में रहे आरपी यादव द्वारा यह कहकर धमकाया भी जाता है कि विश्वविद्यालय में मेरी गाड़ी रोकी गयी थी। ‘मी छोड़नार नाही तुम यूपी, बिहार चे पोरगी चांगली नाही आहे। तुमचा यूनिवर्सिटी मधे नक्सलवादी रहेत होत, मी छोड्नार नाही।’ चेतन सिंह द्वारा पीड़िता से पहले ही उसी दिन के घटना की एनसीआर (नॉन काग्निजेबल रिपोर्ट) कराई जाती है। जिसमें 506/504 की धारा लगती है। इस बीच चेतन सिंह सोनिया सिंह द्वारा विश्वविद्यालय में 11 मई 2018  को एक शिकायत पत्र दिया जाता है जिसके बाद पुनः 17 मई को दूसरी शिकायत की जाती है और उसमें अचानक से 4 शोधार्थियों के नाम जोड़े जाते हैं, पीडिता की उन साथियों के, जो उसका साथ दे रही थीं। हालांकि चेतन सिंह और उसकी पत्नी का आरोप है कि उन छात्राओं ने उनके साथ मारपीट की, जिसके कारण उसका गर्भपात हो गया।

आरोप-प्रत्यारोप का दौर: सोशल मीडिया में, फेसबुक पर और अलग-अलग वेबसाइट्स पर आरोपी छात्र के दोस्तों ने इसके बाद पीडिता और उसके साथ खडी शोधार्थियों के खिलाफ दोषारोपण शुरू कर दिया.  वेबसाइट्स पर जो कहानी चालाई गयी उसमें रिपोर्टर दावे के साथ कहती है कि पीड़िता से बात करने कि कोशिश की गयी लेकिन पीड़िता ने बात नही की। जबकि पीड़िता के अनुसार 'उसने यह बनावटी कहानी पढ़कर खुद ही शीत मिश्रा से बात करने की कोशिश की लेकिन प्रकरण लिखे जाने तक भी उसे कोई जबाब नही मिला है।'वह कहती है, 'इस घटना के आलोक में सच्चाई इस प्रकार है:
आरोपी के पक्षकारों द्वारा पीड़िता के यौन शोषण को सोशल मीडिया में उछाला जाता है। फेसबुक, व्हाट्सप पर 5 लड़कियों का सामाजिक आपराधीकरण किया जाता है।  यह लिख कर अफवाह फैलाई जाती है कि चेतन सिंह की पत्नी सोनिया को इन 5 लड़कियों ने इतनी बेरहमी से पीटा है कि उसका गर्भपात हो गया है।'  इस दूसरी घटना के लिए आरोपित की गयी लड़कियों का कहना है कि उस घटना से उनका दूर-दूर तक कोई सरोकार नही है।'सोशल मीडिया की इन धमकियों को लेकर अपनी सुरक्षा के संबंध में विश्वविद्यालय प्रशासन को वे अवगत भी कराती हैं और उक्त घटना से कोई संबंध न होने की पुष्टि लिखित रूप में करती हैं। इस बीच लड़कियों को पता चलता है कि 3 मई को चेतन द्वारा की गयी एनसीआर को फर्जी तरीके से 7 जून 2018  को  एफआईआर में तब्दील किया जाता है। और इन 4 लड़कियों के नाम बाद में फर्जी तरीके से जोड़े जाते है और उन्हे फंसाकर पुलिस प्रशासन द्वारा उनका अपराधीकरण इसलिए किया जाता है क्योकि वे पीड़िता द्वारा चेतन सिंह के खिलाफ किए गए केस में मुख्य गवाह हैं। लड़कियों का दावा है कि ‘वे विश्वविद्यालय परिसर के अंतर्गत हमेशा से ही स्त्री मुद्दों के प्रति जागरूक व उसकी पक्षधर रही हैं। यह कैसे संभव है कि महिला अधिकारों की पक्षधर होकर वे दूसरी महिला के साथ दुर्व्यवहार करेंगी और उसे क्षति पहुंचाएंगी?  यह सवाल भारत के उन तमाम विश्वविद्यायालयों में अध्ययन करने वाले शोधार्थियों/ विद्यार्थियों, उच्च बौद्धिक वर्गों और प्रगतिशील संगठनों से भी है?’ हालांकि सोशल मीडिया में सक्रिय कुछ शोधार्थियों का कहना है कि 'ये लडकियां कोई दूसरा पक्ष सुनना ही नहीं चाहती हैं।'
कुलपति विद्यार्थियों के बीच 

इन घटनाओं से बनते सवाल : विश्वविद्यालय में लगातार घट रही इन घटनाओं से न सिर्फ विद्यार्थियों की गुटवाजी का संकेत मिलता है बल्कि कई सवाल भी खड़े होते हैं. मसलन जाति के सोपानीकरण का, जिसके चलित ऊंचे पैदान का एक दलित युवा प्रेम और शादी के वादे के बावजूद लडकी से शादी जाति के कारण नहीं करता है. इस घटना पर विश्वविद्यालय में दलित संगठनों की चुप्पी भी एक सवाल है क्योंकि आरोपी और पीडिता दोनो दलित समुदाय के जागरूक लोग हैं. इनके बीच मुकदमों के आगे की बातचीत और एक स्टैंड इन संगठनों ने क्यों नहीं लिया? पीड़ित शोधार्थियों का कहना है कि 'दलित संगठनों यह कहकर पल्ला झाड़ लिए हैं कि 'यह दलित दलित का मामला है, यह तो पर्सनल है। चेतन दलित भाई है। यह वही दलित संगठन के लोग है जो स्त्री विरोधी बात करते है और यह दावा करता है कि हम लोग अंबेडकरवादी हैं। बल्कि पीड़िता पर दबाव भी बनाते हैं कि केस वापस ले लो दलित-दलित आपस में नही लड़ना चाहिए।'एक सवाल यह भी है कि जब पीडिता ने मुकदमा दर्ज करा दिया और आरोपी की गिरफ्तारी हो गयी, वह जमानत पर है तो फिर मामला कानूनन न निपटाकर सडक पर क्यों लड़ा जा रहा है, आरोप होना ही दोष सिद्ध होना नहीं होता, उसे क़ानून के रास्ते लड़ा जाना चाहिए. सवाल पुलिस से भी है कि वह पीडिता की जगह आरोपी के पक्ष में क्यों और कैसे दिख रहा है? विश्वविद्यालय प्राशासन, जहां विद्यार्थियों से ज्यादा कर्मचारियों की संख्या है इस गुटवाजी को क्यों पनपने दे रहा है या हवा दे रहा है?  और आख़िरी सवाल यह भी कि दो युवा पढाई करते हुए जब प्रेम  करते हैं और किसी कारण से सम्बन्ध टूटता है तो उसे किस रूप में सामाजिक संदर्भ दिया जाये?

सबसे महत्वपूर्ण है इन घटनाओं के पीड़ितों को मिलने वाला न्याय, जिसे सुनिश्चित कराया जाना चाहिए और वह कानून के रास्ते से ही हो सकता है.एक महत्वपूर्ण सवाल पितृसत्तात्मक ढाँचे का भी है, जिसमें शादी का वादा कर एक लडकी के शोषण के लिए एक युवा मुकदमे लड़ रहा है और इस बीच उससे शादी कर आयी एक दूसरी लडकी, जो प्रकारांतर से खुद भी पीडिता है, क्या करे, वह प्रिगनेंट है, स्त्रीवाद का रास्ता उसे पीडिता के साथ खडा करता है और उसका खुद का अस्तित्व खुद के साथ और आरोपी पति के साथ, जिसके लिए वह किसी भी स्तर तक लड़ सकती है.

गांधी हिल्स पर विदेशी विद्यार्थी 

पीड़ित पक्ष के सवाल:  वह पितृसत्ता की कौन सी कुंजी है? जो पुरुष को यह अधिकार दे देती है कि वह बिना विवाह के जब तक चाहे किसी भी महिला का शारीरिक शोषण (प्रेम या सहमति का नाम देकर) करता रहता है। 2- सवाल यह भी है कि शादी करने की बात आने पर अपने अभिभावककों के कहे अनुसार दहेज लेकर के पारंपरिक विवाह करने का हठ करता है? 3- सवाल यह भी बनाता है कि समाज में प्रेम एक प्रतिरोध का प्रतीक माना जाता है। फिर पारंपरिक विवाह और दहेज पर इतना ज़ोर क्यो? 4- क्या आरोपी के पारंपरिक विवाह कर लेने भर से समाज उस पर कोई सवाल नही खड़ा करेगा? क्या पढ़ा-लिखा जागरूक कहलाने वाला वर्ग भी प्रेमिका को वेश्या, रखैल, चुड़ैल, व्यभिचारिणी जैसे अपमानजनक शब्द प्रत्यरोपित करेगा?

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महाराष्ट्र में बौद्ध विवाह क़ानून: नवबौद्ध कर रहे स्वागत और विरोध

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संजीव चंदन

महाराष्ट्र की भाजपा सरकार द्वारा हिन्दू विवाह क़ानून से अलग बौद्ध विवाह कानून बनाने की पहल 2015 से ही शुरू हो गयी थी, जिसका ड्राफ्ट सरकार ने बुद्धिस्ट मैरेज एक्ट, 2017 के नाम से जारी किया है और लोगों के सुझाव मांगे हैं. इसके साथ ही महाराष्ट्र में इसके समर्थन के साथ-साथ विरोधी स्वर भी आने लगे हैं. बौद्ध महिलाओं ने भी इसका विरोध शुरू कर दिया है. देश भर में 80 लाख के करीब बौद्ध हैं, जो पूरी आबादी के 0.8% होते हैं. 2001 की जनगणना के अनुसार 73% बौद्ध महाराष्ट्र में रहते हैं, जिन्हें नवबौद्ध भी कहा जाता है. यह क़ानून मराठी बौद्धों पर लागू हो जायेगा. 

बौद्ध विवाह कानून के विरोध में आगे आयी  बौद्ध महिलायें


कानून बनाने की जरूरत और तर्क 
बौद्ध विवाह क़ानून के लिए मांग पिछले एक दशक से तीव्र हुआ है. हालांकि आरपीआई के पूर्व सांसद प्रोफेसर जोगेंद्र कवाडे, कांग्रेस के पूर्व विधायक नितिन राउत आदि के अनुसार इस क़ानून की मांग  1957 से ही होने लगी थी, जब बाबा साहेब ने 1956 में लाखों दलित अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया. नितिन राउत ने 2007 में ही इस मांग के साथ न सिर्फ भूख हड़ताल की थी बल्कि विधानसभा में बौद्ध विवाह और उतराधिकार क़ानून, 2007 नामक प्राइवेट मेम्बर बिल भी लाया था. कानून बनाने की मांग करने वाले लोगों का मानना रहा है कि चूकी हिन्दू मैरेज एक्ट में सप्तपदी विधि अनिवार्य है और उसके बिना विवाह अमान्य माना जाता है और बौद्ध रीति से विवाह को मान्यता नहीं मिलती इसलिए अलग विवाह क़ानून की जरूरत है. इस तर्क के साथ कानून का मुहीम चलाने वाले लोग विभिन्न न्यायालयों के निर्णयों का हवाला देते हैं. 1973 के शकुन्तला-निकनाथ मामले में बॉम्बे हाई कोर्ट का फैसला शकुन्तला के खिलाफ गया था और कोर्ट ने उनके विवाह को वैध न मानते हुए उसे मेंटेनेंस देने से मना कर दिया था. कोर्ट का मानना था  कि विवाह के वक्त वे कानूनी रूप से कन्वर्ट नहीं हुए थे इसलिए वे हिन्दू थे और उन्होंने हिन्दू रीति से शादी नहीं की थी. कोर्ट ने अपने फैसले में यह भी ऑब्जर्व किया था कि 'पिछले 10-15 सालों से ऐसे विवाह हो रहे हैं, यानी बौद्ध रीति से, यह काफी नहीं है किसी कस्टम को स्थापित करने के लिए.

बुद्धिस्ट मैरेज एक्ट, 2017 का ड्राफ्ट 
2015 में प्रदेश की नई सरकार ने एक 13 सदस्यीय समिति बनायी थी बौद्ध विवाह और उत्तराधिकार मामले पर राय के लिए. समिति में राज्य के सामाजिक न्याय मंत्री राजकुमार बडोले सहित कुछ अधिकारी, एक रिटायर्ड जज, कुछ क़ानूनविद और बौद्ध समाज के कुछ प्रतिनिधि शामिल थे. सरकार जून के पहले सप्ताह में जिस ड्राफ्ट के साथ सामने आयी है वह बौद्ध रीति से विवाह की मान्यता के लिए कानून जरूर है लेकिन तलाक, मैटेनेंस, उतराधिकार आदि की मामले उसमें शामिल नहीं हैं. यह क़ानून लागू होने पर महाराष्ट्र में रह रहे बौद्ध एवं 1956 में बाबा साहेब अम्बेडकर के साथ या आबाद में बने बौद्धों पर लागू होगा. इस कानून में दहेज के खिलाफ भी प्रावधान हैं. वर या वधु तलाक होने या किसी एक की मौत होने पर ही दूसरा विवाह कर सकते हैं. यह क़ानून उस दिशा में लागू नहीं होगा, यदि दोनों में से कोई एक बौद्ध धर्म से कन्वर्ट होकर किसी और धर्म में शामिल हो गया हो. गौतलब है कि महाराष्ट्र में पिछले पांच सालों में 20 हजार से अधिक अंतरजातीय विवाह हुए हैं.
क़ानून के विरोध में आयोजित कार्यक्रम में छाया खोब्रागड़े


विरोध के स्वर और कारण 
इस मामले पर महाराष्ट्र का बौद्ध समाज एकमत नहीं है. इसके विरोध में स्वर उठने लगे हैं, गोष्ठियां हो रही हैं. विरोधी अम्बेडकरवादी समूहों के अनुसार ''जरूरत बाबा साहेब अम्बेडकर के अनुसार 'सामान नागरिक संहिता'के लिए मुहीम चलाने की है न कि अलग एक्ट की मांग की.''रिपब्लिकन विचारक रमेश जीवने, सम्बुद्ध महिला संगठन की संयोजक छायाखोब्रागडे इसे एक विभाजनकारी और महिला विरोधी कदम बता रहे हैं.'हालांकि स्त्रीकाल से बातचीत करते हुए रिपब्लिकन नेता और भारत सरकार के सामाजिक कल्याण राज्य मंत्री रामदास आठवले कहते हैं कि 'इसकी मांग समाज के भीतर से ही हो रही है. यह मांग पुरानी है.'जबकि उनकी ही पार्टी के एक नेता अविनाश महत्कर इस पहल की अपेक्षा करते हुए भी  कहते हैं कि 'तलाक, मेंटेनेंस, निबंधन, अंतरजातीय विवाह, संपत्ति के मसले आदि के प्रावधान के बिना यह कानून अधूरा है. हालांकि कानून के समर्थक विवाह पद्धति के अलावा 'तलाक, मेंटेनेंस, निबंधन, अंतरजातीय विवाह, संपत्ति के मामले में हिन्दू कानून के अनुसार आचरण की बात कहते हैं. यह निस्संदेह एक विरोधाभासी स्टैंड है.  कुछ वकीलों के अनुसार इस कानून के बाद अदालती मामले बढ़ेंगे.

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रानी बेटी

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प्रीति प्रकाश 

तेजपुर विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में शोधरत प्रीति प्रकाश की कहीं भी प्रकाशित यह पहली कहानी है. शारीरिक और आर्थिक रुग्णता की शिकार एक लडकी की यह कहानी उम्मीद है आपको निराश नहीं करेगी- न शिल्प के स्तर पर और न कथावस्तु के स्तर पर. 

“एक ,दो ,ढाई ...|”
“चावल तो ढाई डब्बे ही है | पर रोज तो तीन डब्बे बनते है |”
 आज खाना कैसे बनेगा?
कही किसी और डब्बे में हो ?
पुष्पा ने चादर उठाकर चौकी के नीचे झाँका ?
दो तीन डब्बे भी खीचे | पर चावल किसी में नहीं था |
“अब क्या करू ?” थोड़ी देर वैसे ही बैठे रही फिर जाने क्या सोच कर उठी और चावल धोने लगी | फिर तसली में लेवा लगाकर अदहन दे दिया |



जब से माँ काम करने जाने लगी है ,खाना बनाना पुष्पा का ही काम बन गया है | पहले माँ सब काम करती थी और पुष्पा स्कूल जाती थी | स्कूल की याद आते ही पुष्पा मुस्कुराई | कितना मजा आता था न तब | वह रोज खूब तैयार होकर पढने चली जाती | पढाई क्या खाक होती थी| दिन भर दोस्तों के बीच गपास्टिंग होती और कॉपियो पर मेहंदी के डिजाईन बनाये जाते| बिना बात के हँसी आती | सर डाँटते तो सब सहेलियां हसंती और सर अगर सीधे क्लास में आकर चुपचाप बैठ जाते तो भी सबको हँसी आती | अगर हसने के लिए सजा के रूप में क्लास के बाहर  सबको खड़े कर देते तो भी एक दूसरे के पीछे छुप छुप के हसंती |

पुष्पा को सच में हँसी आ गयी | हँसते-हँसते अचानक उठकर शौचालय चली गयी | पेशाब के साथ खूब  गिरा | आज उसका बीसवा दिन है माहवारी का | शायद कोई बीमारी है | कपड़ा पूरा गीला हो गया है | डोलची में से पुष्पा ने माँ की पुरानी साड़ी निकली | फाड़ कर उसे हो मोड़ कर ले लिया | जाने कौन सी बीमारी हो गयी है | अब उसका मन बेचैन हो गया है |

किसी तरह पुष्पा ने भात डभका दिया |चन्दन ,नंदन दोनों को खिला के खुद भी खा लिया |माँ वापस आई तो पुष्पा जैसे उनके ही इन्तेजार में बैठी थी | माँ को खाना परोस के वही बैठ गयी |
“माँ , चावल ख़तम हो गया है |”
“हूँ” माँ ने कहा और दो कौर खा कर पानी उठा कर पीने लगी |
“ माँ , आज भी बहुत खून गिरा है”
माँ चुपचाप बैठे रही |
“माँ लगता है डॉक्टर के यहाँ जाना पड़ेगा”
“अरे हा,सोनी की माँ बता रही थी कि सोनी को भी ऐसे ही था तब वो अडहुल का फूल पीस के पीई थी तो ठीक हो गया”
अचानक जैसे माँ को याद आया |
“रे नंदन,जाके कहीं से उड़हुल का फूल तोड़ के ले आओ |”
पुष्पा मन मसोसकर रह गयी | जब भी वो माँ से डॉक्टर के पास जाने के लिए कहती , माँ ऐसा ही कोई देसी नुस्खा बता देती | सब समझ रही थी पुष्पा |

जाने कितनी देर बाद चन्दन पोलोथीन में चावल लेकर आया | दरवाजा बंद था | बहुत देर तक दरवाजा बजाने के बाद भी जब नहीं खुला तब खिड़की के पास जाकर झाँका |
फिर जोर से चिल्लाया|


अंतिम वाक्य चुभता है हमेशा,पुष्पा को | बाप है उसका | तो क्या अगर चार साल से घर नहीं आया | जिन्दा तो है अभी | पापा कहती थी उन्हें वह |  हमेशा से लगता है कि कभी अचानक ही आ जायेगे  | और सुबह जब पुष्पा सोकर उठेगी तो अंगनाई में बैठे दातुन करते मिलेंगे |
जब पुष्पा पाचवी में पढ़ती थी तो देखा था उन्हें  | वह सोके उठी तो वही अंगनाई में बैठे दातुन कर रहे थे |
“उठ गयी मेरी बेटी| बोल क्या खाना खाएगी आज |”
“पापा,आप कब आये |”
तब आया जब तुम सोयी थी नींद से |”
पापा ने उसका सर सहलाते हुए कहा और पुष्पा एकदम सीने से लग गयी |
आज भी बार बार वो वह सीना ढूढती है ,जिससे लगकर अचानक से वो राजकुमारी बन जाती थी |
पापा अपने साथ ढेर सारा सामान लेकर आये थे | चन्दन ,नंदन के लिए गाड़ी,पिस्तौल और उसके लिए सैंडल |
“पापा ये सैंडल तो बहुत बड़ा है”
उसने ठुनकते हुए कहा था |
“अच्छा मेरी रानी बेटी इस बार दूसरा सैंडल यही से खरीद देता हूँ | यह वाला जब तुम थोड़ी बड़ी हो जाना तब पहनना |”

दोनों बातें कभी नहीं हुई | ना पापा ने दूसरा सैंडल खरीदा और ना बड़ी होने के बाद उसने कभी उस सैंडल को हाथ लगाया | उस दिन कितनी खुश थी न वो |पापा आये थे,घर में मीट बना था | उसका नया सैंडल आने वाला था | ख़ुशी-ख़ुशी वह स्कूल गयी पर जब लौटी तो सब बदल गया था | पापा गली में शराब पीकर धुत्त चिल्ला रहे थे ,माँ दरवाजे की ओट में खड़ी रो रही थी और पूरा मोहल्ला तमाशा देख रहा था |
“साली, मैं रात दिन मेहनत करता हूँ,साहेब लोग की गलियां खाता हूँ और तू यहाँ दूसरे मर्द को घर में बुलाती है |”
“बेहया,लाज नहीं आती ,पति के पैसे किसी और पर उड़ाते |”
“टुकी,टुकी काट दूंगा तुझे |
“कुतिया कही की | रे कुत्ता भी तुझ से ठीक है |”
“पापा,” सहमते हुए पुष्पा ने कहा | पर पापा ने नहीं सुना | वो तो अपनी ही रौ में बोलते गए |
“जा , मर गयी तू मेरे लिए,मर गया मेरा परिवार, जा रहा हूँ मैं| नहीं आऊंगा कभी |”

और पापा चले गए | इस बार जो गए तो कभी नहीं लौटे |माँ कई दिन तक रोती रही | कोसती रही उसको जिसने पापा के कान भरे थे | फिर पापा को भी, जिन्होंने जाने किसकी बात पर भरोसा किया | कभी-कभी खुद को भी कोसती कि वह क्यों बूत बनी खडी रह गयी उस दिन |जाकर हाथ पकड़ कर रोक लेती | पापा को कई बार खोजने की भी कोशिश की | पर शायद पापा ने फ़ोन नंबर के साथ साथ पता भी बदल दिया | तब तो दर्जनों चिट्ठियाँ भेजने के बाद एक बार भी जवाब नहीं आया |
अचानक माँ उठने लगी तो पुष्पा को ध्यान आया |
“माँ ,तुमने आधा क्यों खाया ?”
“अरे , पेट भर गया | इतना ज्यादा तुमने परोसा था | मैं क्या भैस हूँ |”
माँ ने हसंते हुए कहा | माँ हसंते हुए भी कैसे दिखती है न| लगता है रो रही है |
“नहीं माँ,ज्यादा नहीं है|”
“बैठो”
“ हम सब ने खा लिया है | बस तुम्ही बाकी थी |”
पुष्पा ने मानो हुकुम देते हुए कहा | फिर हाथ पकड़कर जबरन बिठा दिया |
“अच्छा,ठीक है | तू मानेगी नहीं |”
“जा, जरा जाके आचार ले आ |”
“नहीं ,नहीं, तू नहीं ला |
“चन्दन , जरा तू डब्बे से अचार निकाल के तो दे|”
चन्दन आचार निकाल के देने लगा तो पुष्पा उठी | एक बार मुड कर माँ को देखा | माँ अभी भी सर झुकाए बैठी थी | वह जब माँ को देखती है तो सोचती है कि क्या ऐसा ही भावहीन चेहरा शुरू से माँ का था ?

पहले उसे माँ पर गुस्सा आता |पापा तो अच्छे भले थे , जब वो उन्हें छोड़कर स्कूल गयी थी , पता नहीं माँ ने क्या कहा कि पापा यूं रूठकर चले गए | पर अब उसे माँ पर जरा भी गुस्सा नहीं आता | पापा तो चले गए ,पर माँ ,वो तो कही नहीं गयी | चाहे लाख मुसीबत आये वो बच्चो के साथ ही रही | पापा ने गुस्से से जाने के बाद घर में एक रुपया भी नहीं भेजा | माँ ने घर चलाने के लिए घर घर बर्तन मांजने का काम पकड़ लिया | चन्दन नंदन प्राइवेट स्कूल से सरकारी में आ गए और वह सरकारी स्कूल से सीधे घर आ गयी | माँ दूसरो के घर काम करती और वह अपने घर | खेल , तमाशे,स्कूल ,सहेलियां,और बिना वजह की बातें, सब जाने कहाँ छूट गयी | अब तो उसे बातें करना बिलकुल अच्छा नहीं लगता |
चन्दन,नंदन तो दिन भर बाहर गिल्ली ,डंडा खेलते है,माँ से कुछ कहो तो हाँ,हूँ में जवाब देती है| मोहल्ले में किसी के घर जाओ तो पहला सवाल करते है –
“बेटी ,पापाजी के बारे में कुछ मालूम चला?” और फिर इतना अफ़सोस जताते है जैसे सारी मुसीबत उन्ही के घर आयी है |
“ओह”

अचानक पुष्पा को फिर से पेशाब जैसा महसूस हुआ और खून कपडे को तर करता हुआ सलवार तक पहुँच गया |
किसी तरह पुष्पा उठी | फिर से दूसरा कपड़ा लिया | हाथ पैर पोछे | माँ जा चुकी थी |सुबह शाम दोनों वक़्त लोगो के घर काम करती है माँ | पुष्पा के लिए लड़का भी देखा है | उसकी शादी के लिए ही इतना काम करती है |
रात होने तक पुष्पा को कई बार कपडे बदलने पड़े | नंदन का लाया अड हूल पीस कर पी लिया|पर  कोई फायदा नहीं हुआ | रात को पुष्पा माँ के पास सोयी तो रोने लगी |
माँ भी रोने लगी |रोते हुए कहा –
 “क्या जाने भगवान् कौन परीक्षा ले रहे है ? आज मेधा का छेका था | उसी का पूड़ी सब्जी भेजी है | क्या जाने हमारे घर में शुभ काम कैसे होगा ?”
फिर पुष्पा को और सीने से लगा लिया |
“ऐ बेटी, तुम मत रोना | तुम्हारे लिए ही तो हम जिन्दा है | खूब सुन्दर लड़का से हम शादी करेंगे तुम्हारा |”
पुष्पा को और रोना आया | रोते-रोते वह सो गयी | सुबह उठी तो माँ जा चुकी थी |
बिछावन पर दाग लग गया था | पुष्पा ने अपने कपडे बदले | फिर अपने कपडे धोये | फिर चादर धोया | अभी नहा के बैठी ही थी कि मेधा की मम्मी आ गयी छेका का पकवान लेकर |
“ तब न तुम्हारी माँ साफ बेचैन रहती है | ताड जैसा देह भाग गयी  है | “
पुष्पा को देखते ही मेधा की माँ शुरू हो गयी |
“कलप रही थी बेचारी,कह रही थी कि खाली पुष्पा का दिन रात चिंता लगा रहता है |”
“के जाने कौन जनम का पाप है कि बेचारी इस जनम में भी भोग रही है |”
“मानता है सब लड़का वाला?, पचास हजार रुपया और एगो हीरो हौंडा दिए है तब जाके शादी के लिए तैयार हुआ है सब | छेका और बियाह का खर्चा अलग से |”
मेधा की माँ चली गयी | पुष्पा सोचने लगी माँ कहा से लाएगी उतना रुपया | डॉक्टर के पास जाने भर तो रुपया नहीं है |
पीरियड्स के दौरान एकाकी जीवन को बाध्य महिलायें 


सारा कपड़ा फिर भर गया पुष्पा का | जाकर डोलची में देखा तो अब एक भी पुरानी साड़ी नहीं बची थी | साफ़ घिना गया था पुष्पा का मन इस बीमारी से | माँ का बक्सा खोला पुष्पा ने | ऊपर ही एकदम नयी साड़ी रखी थी | पापा लाये थे यह साड़ी माँ के लिए | माँ ने एक बार भी नहीं पहनी है | कहती है कि जब उसकी शादी होगी तो उसी को दे देगी |
“हूँ”
“शादी तो तब होगी न जब माँ के पास पैसे होंगे”
जाने क्या हो गया पुष्पा को , खुद से ही बतियाने लगी |
“पैसा जोड़ते जोड़ते माँ ही मर जायेगी |”
“हूँ”
बक्सा में ऊपर से नीचे तक देखा | एक भी कपड़ा ऐसा नहीं जो फाड़कर वो माहवारी में ले ले |
“हूँ”
“मर तो मैं रही हूँ इस बीमारी से”

जाने कितनी देर बाद चन्दन पोलोथीन में चावल लेकर आया | दरवाजा बंद था | बहुत देर तक दरवाजा बजाने के बाद भी जब नहीं खुला तब खिड़की के पास जाकर झाँका |
फिर जोर से चिल्लाया|
सब मोहल्ले वाले दौड़े | कुछ मजबूत शरीर वालो ने दरवाजा धक्का देकर तोड़ दिया |
अन्दर पंखे से पुष्पा झूल रही थी | सलवार पखाना,पेशाब और खून से भरा था |गले में एकदम नयी साड़ी का फंदा पड़ा था |

प्रीति प्रकाश की यह कहीं भी प्रकाशित पहली कहानी है. वे फिलहाल तेजपुर विश्वविद्यालय में शोधरत हैं. 


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पवन करण की कवितायें (तुम जैसी चाहते हो वैसी नही हूं मैं और अन्य)

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पवन करण
पवन करण हिन्दी के महत्वपूर्ण कवि हैं, स्त्री मेरे भीतर, स्त्री शतक आदि काव्य संग्रह प्रकाशित. सम्पर्क: pawankaran64@rediffmail.com 

पढ़ें पवन करण की कवितायें. पुरुष रचनाकारों की बहुत कम कवितायें हैं, जहाँ स्त्री को सुकून हो, जहाँ स्त्री को अपना स्पर्श, अपना राग महसूस हो. पवन करण की कवितायें ऐसी हैं, जहाँ स्त्री सुख से नींद लेती है, स्नेहिल माहौल में.  

1. 
तुम जैसी चाहते हो वैसी नही हूं मैं

मुझे इस बात का कोई पश्चताप नहीं है
न ही कोई अपराध बोध मेरे भीतर
हमेशा के लिए उसकी होते समय आज
जैसी वह मुझे चाहता है, वैसी नही हूँ मैं

हमेशा के लिए उसकी होने से पहले
सदा के लिए किसी और की भी थी मैं
हम दोनो की आज पहली मुलाकत जरूर है
लेकिन ऐसी मुलाकात मेरे लिए कोई पहली नही
शायद उसके लिए भी न हो

उसके दोनों हाथों में मिट्टी के घड़े जैसी
कोरी नहीं हूँ मैं, ना ही एकदम अनछुई
मुझे इससे पहले पुरूष के हाथों ने छुआ है
और ठीक-ठीक छुआ है एक रसीले पुरूष ने
बड़ी खामोशी के साथ मेरे अन्तःपुर में
कुछ बार किया है बडे गौरव से प्रवेश

दरअसल कुंआरेपन को मैंने अपने
उस पूंजी की तरह माना ही नहीं
जिसे मुझे हर हाल में रखना था सॅंभालकर
और सौंपना था सिर्फ अपने पति को ही
मैंने उसे बंधन की तरह नही अपने हक की तरह लिया
मैं तो समझ ही नहीं पाई और इसकी बरसात
एक दिन अचानक पड़कर भीतर तक भिगो गई मुझे

मैं उन लडकियों में रही हूं जो अक्सर इसी तरह
इसमें भीगकर जिन्दगी भर गीली बनी रहती है
और कभी इस बारिष में भींगे अपने बदन को
पोंछने की नही करती कोशिश
इससे पहले इस बारे में मैं जब भी सोचती
मुझे सभी पुरूष एक से लगते
सभी का स्वर एक सा देता सुनाई

कि हमें उनसे पहले किसी पुरूष के हाथों ने तो क्या
खुद हमारे हाथों ने भी न छुआ हो
लगता है ये पुरूष भी कितनी भोली उम्मीद रखते है हमसे
हमें पाकर मंत्रमुग्ध हो जाने और सुध-बुध
खो बैठने की जगह पहली मुलाकात में ही ऐसी
खटास को देना चाहते है जन्म
जो जीवन-भर दोनो के बीच बसी रहे उस स्वाद में

हमेशा के लिए आज होते समय उसकी
एक बात जो मेरे हक में जाती है
वो ये कि ऐसे कोई संकेत छूटते ही नही
अगर ऐसे कोई चिन्ह मन के अलावा कहीं और बचते
तब पता नही मुझ जैसी ऐसी कितनी लडकियॉं होती
जो अपनी देह पर घूमता हुआ पति का हाथ रोककर कहतीं
नही जैसी तुम चाहते हो वैसी नही हूं मैं'



2.
एक खूबसूरत बेटी का पिता 

एक खूबसूरत बेटी का पिता हूं मैं
हालांकि इसमें नया कुछ भी नहीं है
इस दुनिया में तमाम पिता हैं जिनकी बेटियां खूबसूरत हैं
फिर बेटी कैसी भी हो वह अपने पिता को
खूबसूरत ही आती है नजर

दरअसल उन तमाम पिताओं की तरह
मेरा भय भी यही है कि मैं एक खूबसूरत बेटी का पिता हूं
और मेरी बेटी की खूबसूरती चुभती हुई है

क्योंकि मैं उसका पिता हूं इसलिये तमाम बातें ऐसी हैं
जो मैं नहीं कर सकता उससे
लेकिन वे बातें मेरी सोच में रेंगती रहती हैं अक्सर
किसी लड़की को रिझाने उसके घर के चक्कर काटते
किसी लड़के की तरह मेरे भीतर घूमती रहती हैं निरंतर

जिंदगी के सबसे विस्फोटक पंद्रहवे साल में चलती
मैं अपनी बेटी को समझाना चाहता हूं कि उसने खुद को
परेशानी में डाल लेने वाली खूबसूरती पाई है
इसका अर्थ यह नहीं कि जो लड़कियां कम सुंदर होती हैं
उन्हें समझाइश की जरूरत नहीं होती
दरअसल उन लड़कियों पर वैसा दबाव नहीं होता,
जैसा होता है मेरी बेटी जैसी खूबसूरत लड़कियों पर
इसलिये जितना रख सके वह रखे अपने आपको संभालकर
बहुत कच्ची उम्र है यह और यही उम्र है जब
देह पर कच्चापन उसी तरह दमकता है
जैसे पेड़ पर लटकी अमियों पर गाढ़ा हरापन

हालांकि यह बहुत कठिन है फिर भी
ऐसा नहीं कि इससे बचा नहीं जा सके
मैं उससे कहना चाहता हूं वह जितनी हो सके
कोशिश करे उन नजरों से खुद को बचाने की
जो इसी उम्र को अपने तीखेपन से बेधती हैं
और नहीं छोड़तीं कहीं भी पीछा

एक बात यह भी कि दुनिया-भर की खूबसूरत बेटियों के
पिताओं से थोड़ा हटकर पिता मानता हूं मैं खुद को
मैं जानता हूं कि वह लड़की है तो किसी से
प्यार भी करेगी, चाहेगी भी किसी को कोई पसंद भी आयेगा उसे
और मैं भी नहीं चाहता मेरी बेटी किसी से प्रेम नहीं करे,

फिर दुनिया का कोई भी पिता अपनी बेटी को
प्रेम करने से रोक भी नहीं सकता
उसके भीतर पल रहे उस अहसास को
किसी भी तरह नहीं सकता खदेड़
और तमाम प्रयासों के बाद भी अपने
उसके भीतर की गुलाबी दीवार पर चिपके
किसी चित्र को नहीं फैक सकता फाड़कर
और नहीं रोक सकता उसे किसी भी उम्र में करने से प्रेम
प्रेम के लिए क्या पंद्रह और क्या पच्चीस

दरअसल मैं अपनी बेटी से कहना चाहता हूं
वह प्रेम करे तो थोड़ा रूककर
प्रेम करने की सही उम्र नहीं यह,
हालांकि यह भी सच है कि एक यही उम्र है
जिसमें सबसे तेज होती है प्रेम की गति
इसी उम्र में कुए की देह से निकलकर जल
मेड़ के चारों तरफ बगरता है
और मन की कोमल चिड़िया अपनी चोंच में
आकाश से सबसे बड़ा तारा उठा लाती है

दरअसल मैं चाहता हूं कि मेरी बेटी
कांपते और डरते हुए नहीं, इस डगर पर
संभलकर चलते हुए करे प्रेम,
अपने भीतर अद्भुत स्वाद लिए बैठे प्रेम के इस फल को
वह हड़बड़ी में नहीं धैर्य से नमक के साथ चले
इसकी खुशबू को वह इस तरह अपने भीतर रोपे
कि वह जिंदगी-भर फूटती रहे उसके भीतर

हालांकि प्रेम के बारे में इतना सोचना
इतना गणित प्रेम न करने जैसा ही है
और सभी जानते हैं कि प्रेम का हरा रंग
जब आंखों में बिखरता है आकर
मन बौरा जाता है
एक पागलपन हो जाता है इस पर सवार
और मैं चाहता हूं कि वह इस पागलपन को
अपने पर पूरी तरह से न होने दे हावी,
लेकिन प्रेम के लिए जरूरी इस पागलपन को
वह नकारे भी नहीं पूरी तरह से

प्रेम की तीव्रता एकांत चाहती है और वह
प्रेमाभिव्यक्ति से देहाभिव्यक्ति की ओर बढ़ती है
और प्रेम में यह बढ़ना हो ही जाता है
मैं नहीं कहता कि देह अपवित्र चीज है
लेकिन वह पवित्र भी नहीं उतनी
कि हर समय उसकी चिंता में घुलते रहा जाये
लेकिन मैं कहता हूं कि प्रेम अमूल्य है
उसका अहसास अवर्णनीय
बहुत गहरा संबंध है प्रेम का देह से
दरअसल प्रेम का बचना ही देह का बचना भी है
प्रेम बचा रहता है तो देह भी बची रहती है अपने विश्वास में

सिर्फ भय ही नहीं एक खूबसूरत बेटी का पिता होने का
जो उल्लास होना चाहिये मेरे भीतर
वह मेरे भीतर है और दो गुना है
फिर भी मेरी चिंता में मेरी बेटी की खूबसूरती
शामिल है और शा मिल है यह दृढ़ता
यदि इस सबके बावजूद भी उससे कोई गलती होती है
तो हो जाये उसके पीछे उसे उबारने के लिये मैं खड़ा हूं तत्पर



3. 
स्पर्श जो किसी और को सौंपना चाहती थी वह

जितनी खामोश वह उतना ही शान्त एक चेहरा
लेता जा रहा उसके भीतर आकार

सहेलियों से घिरी वह सोचती जब मैंने बचा ही लिया
किसी के जादुई स्पर्श से खुद को
तब मैं आराम से तैरूंगी किसी की मीठी झील में,
वह सोचती कैसे बच गई मैं बिना संग के
जबकि मेरी साथिनों से बांट लिए क्षण -विरल

वह सोचती कितना गजब यह किन्हीं हाथों ने
छुआ तक नहीं उसे, भला कोई मानेगा
मगर यह सच जानती वह ही, सुनकर
मन ही मन उसे झूठा कहती सहेलियां
दवा लेंती दांतों तले उंगलियां
जब वह बतलाती कि उसे दिखाकर फेंका गया
पत्थर से लिपटा ऐसा कोई खत नहीं
छोटे-से उसके जीवन में जिसे उठाने
अकेली गई हो वह घर की छत पर

ऐसा नहीं कि वह भीतर से सूखी थी
या अब तक झरना नहीं फूटा था उसके भीतर
या पानी ने षुरू नहीं किया था उसे परेशान करना
या उसे स्वप्न नहीं आते थे, या पसन्द नहीं थे उसे गीत
वह भी सबकी तरह अकेले मे खुद को
देर तक निहारती थी और लजाते हुए
खुद को हाथों से ढांप लेती थी

जब कोई उसे भी कुहनियां जाता वह भी
गुस्से या हंसी को अपने भीतर दबा जाती
सबकी तरह देह को नजरों से बचा पाना
उसके लिये भी असंभव था सो वह लगातार
अपनी नजरों को बचाती, और जब तक उसकी
चालाकी समझ पाता वह फिसल जाती अपने पानी में

हालाकि खुद को प्रेम से बचाने की कोई
निश्चित योजना नहीं थी उसकी लेकिन वह बची हुई थी
सो बची हुई थी और अपने नशे में चुप थी
सब सोचते बड़ी हो रही है कोई तो होगा ?
सबके साथ वह भी सोचती कहीं कोई तो होगा
और जो होगा उसका चेहरा भी होगा एक
अभी तो वह उसके भीतर बे-चेहरा था,

वह कम बोलती लेकिन उससे करने के लिए
वह लगातार अपने भीतर ढेर सारी बातें
करती जा रही थी जमा, उसे अपने रंग में रंगने के लिए
रंगों में रंग मिला-मिलाकर बनाती जा रही थी
नए-नए रंग, उस पर झुक जाने के लिए पेड़ों पर
पत्तियों की शक्ल में उगाती जा रही थी स्वप्न

मगर बाहर खुद को महफूज मानती वह
नहीं रख सकी खुद को घर में महफूज
जिनके बारे में वह कभी सोच भी नहीं सकती थी
ऐसे दो हाथ अचानक आए
और आकर छेड़ गए उसके तारों को
किसी के लिए प्रतीक्षारत उसके भीतर की
साफ सुथरी दुनिया को कर गए अस्त-व्यस्त
अनचाहे ही उसके भीतर आकार ले रहे
एक चेहराविहीन चेहरे पर आकर चिपक गया एक चेहरा

वह स्पर्श जो किसी और को सौंपना चाहती थी वह
उस पर फेर गया अपनी खुरदुरी उंगलियां



4. 
इस जबरन लिख दिये गए को ही 

घर चाहता है इस बारे में किसी से
कुछ नहीं कहा जाये
जहां तक सम्भव हो अपने आपसे से भी
नहीं किया जाये इसका जिक्र

इस सम्बन्ध में कुछ कहने से
कुछ नहीं होने वाला इससे तो बेहतर है
स्लेट पर इस जबरन लिख दिए गए को ही
मिटाने की की जाये कोशिश

इससे अच्छा और क्या होगा
इसने इस बारे में अब तक किसी को
कुछ नहीं बताया चुपचाप चली आई
किसी ने देखा भी नहीं कुछ होते

किसी को कुछ पता ही नहीं चलेगा
तब काहे का बलात्कार ?
कैसा बलात्कार ??
कब किसके साथ बलात्कार ???
धीरे-धीरे सब ठीक हो जाएगा
देह से मिट जाएंगे खरोचों के निशान
आंखों से लगातार ओझल
होता चला जाएगा वह कामान्ध चेहरा

घर चाहता है वह अपना घाव
किसी को नहीं दिखाए
पोंछ ले अपनी आंखें अच्छी तरह धोले योनि
कुछ दिन नहीं निकले घर से
रही बलात्कारी की बात
उसे दंड देने के लिए ईश्वर है न

5. 
स्त्री-सुबोधिनी

हमें अपने इकलौते लड़के के लिए एक ऐसी बहू चाहिये
जो दुनिया की सबसे अच्छी बहू हो और उसे ये बात
कि वह दुनिया की सबसे अच्छी बहू है पता न हो

जिसे बोलना भले ही आता हो मगर हो वह गूंगी
न इस शब्द को वह पहचानती ही न हो
और हां उसकी जुबान पर दरवाजे के बाहर
हाथ बांधे खड़े नौकर की तरह रहता हो खड़ा

जिसके दोनों पैर तो साबुत हों मगर हो वह लंगड़ी
न वह चलना जानती हो न दौड़ना
नाचना तो उसे बिल्कुल न आता हो
और गुस्से में पैर पटकते तो उसने किसी को देखा ही न हो

जिसके कान भले ही हो मगर उसे सिर्फ
हमारे घर के लोगों की आवाज के
बाहर की कोई आवाज सुनाई न दे
आंखें होने पर उनसे दूर तक देखने लायक होने के बाद भी
उसकी घर से बाहर देखने की इच्छा ही न हो

जिसके पास डिग्रियां तो खूब हों
लेकिन वह पढ़ी-लिखी न हो जरा भी
दस्तखत करने के नाम पर वह आगे कर देती हो
अपने हाथ का स्याही लगा अंगूठा
और अपनी डिग्रियों को महज कागज के टुकड़े मानकर
छोड़ आए पिता के घर अपने

ऐसी कि सब उसे देखते रह जाएं और हमसे बार-बार कहें
टपने लड़के लिए क्या बहू ढूंढकर लाए हैं आप
लेकिन वह न तो अपनी खूबसूरती बार-बार
आईने में देखती हो और नहीं खुद को हमारे घर की
साधारण से चेहरेवाली लड़कियों से अधिक सुन्दर मानकर चले

जिसके पिता के घर के लोग
हमारे घर को समय से बढ़कर
और सच से अधिक मानकर चलें
और यह बात बार-बार कहतें रहें
आपके घर में अपनी लड़की देकर धन्य हो गए हम
हम तो इस लायक थे भी नहीं

जिसे रोना बिल्कुल न आता हो
चीखना तो वह जानती ही न हो
और उसकी पीठ ऐसी हो कि उस पर उभरते ही न हों नीले निशान
उसके गालों पर छपती हीं न हों उंगलियां
और वह पिटते समय बिलखती नहीं, हंसती हो

चेहरे से जिसके पीड़ा झलके नहीं
दुख दिखाई न दे जिसकी आखों में
बातों में जिसकी कष्ट बजें नहीं

जिसे हमें ढूंढने कहीं जाना नहीं पड़ें उसका पिता
नाक रगड़ता निहोरे करता हमारे घर आए
और हम उस पर करते हुए एहसान
बहू के रूप में उसकी बेटी को अपने बेटे के लिए रख लें

तस्वीरें: शीरीन निशात (2 और 3) और लीडा वेलेस्को के आर्ट वर्क (1)

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आत्मकथा नहीं चयनित छविनिर्माण कथा (!)

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संजीव चंदन

रामशरण जोशी की आत्मकथा  ‘मैं बोनसाई अपने समय का’ में बहुत से प्रसंग छोड़े और एडिट किये गये हैं. स्त्रीकाल में हमने इस किताब की दो समीक्षायें प्रकाशित की हैं. अब कुछ प्रसंग मेरे द्वारा भी जिसका गवाह मैं भी रहा हूँ. ये प्रसंग स्पष्ट करते हैं संस्थानों में प्रवेश के इनके तिकडमों को, जो शायद हिन्दी साहित्य और साहित्यकारों का अधिकांश सच हो. हालांकि इन प्रसंगों के बीच जोशी जी के दो ओरिजिनल लेख, जो हंस में 2004 में प्रकाशित हुए थे,  भी आप पढ़ सकेंगे, जो इस लेख के साथ प्रकाशित हैं, ताकि शोधार्थियों को सनद रहे. इस लेख के साथ मैं प्रस्तावित करता हूँ कि हिन्दी साहित्यकारों, पत्रकारों को आत्मकथा नहीं लिखनी चाहिए.


'समझ नहीं पा रहा हूं कि हम हिंदी के लोग दोगले, पाखंडी क्यों होते हैं? हम पारदर्शी जीवन जीना क्यों नहीं जानते? हम लोग नैतिकता के मामले में “सलेक्टिव” क्यों हो जाते हैं? क्यों अपने स्खलनों की सड़ांध को प्रखुर वत्कृता और जादुई कथा शैली से ढांपे रखना चाहते हैं? कभी तो यह मैनहोल खुलेगा और दोगली जिदंगी का गटर खुद-ब-खुद बाहर बहेगा, तब क्या वे नंगे नहीं हो जाएंगे? ऐसी विकृत नैतिकता को ओढ़े रखने का क्या लाभ?
(पृष्ठ299),  ‘मैं बोनसाई अपने समय का’  रामशरण जोशी.

यह भी पढ़ें:  लेखकीय नैतिकता और पाठकों से विश्वासघात!

इस आत्मकथा के लेखक के उनकी ही भाषा में 'दोगले, पाखंडी'होने का वह प्रसंग मैं लिखता हूँ, जो उन्होंने आत्मकथा में नहीं लिखा. उन्होंने केन्द्रीय माखनलाल चतुर्वेदी विशवविद्यालय, भोपाल, केन्द्रीय हिन्दी संस्थान, आगरा, हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा का विस्तार से प्रसंग लिखा लेकिन किस जुगाड़, धोखा और छल के साथ वे हिन्दी विश्वविद्यालय पहुंचे, उसकी कहानी नहीं लिखी, तो हो गये न 'सेलेक्टिव', 'दोगला'और 'पाखंडी'. हालांकि उनके द्वारा इस्तेमाल किये गये इस 'दोगला'शब्द के खिलाफ हूँ. डा. बाबा साहेब अम्बेडकर बास्टर्ड/दोगला शब्द को महिलाओं का अपमान मानते थे, जो वास्तव में है भी. हिन्दी विश्वविद्यालय पहुँचने के उनके तिकडम, अर्जुन सिंह के यहाँ से आख़िरी तौर पर सम्बन्ध-विच्छेद को पाठक समझ जायेंगे तो आत्मकथा पढ़ते हुए उन सारे बिटवीन द लाइन्स को भी पढ़ सकेंगे, जिन्हें जोशी जी गोल कर गये हैं.

साहित्यकारों के साथ रामशरण जोशी तस्वीर में नंदकिशोर आचार्य, कमला प्रसाद, नन्द भारद्वाज भी दिख रहे हैं 

जोशी जी से हमारी (राजीव सुमन और मेरी) मुलाक़ात 2007 केआखिर में हुई थी. हमलोग हिन्दी विश्वविद्यालय में तत्कालीन प्रशासन और कुलपति के खिलाफ सक्रिय थे. उधर विश्वविद्यालय की कार्यपरिषद्, जिसके सदस्य कमला प्रसाद, विष्णु नागर, मधुकर उपाध्याय, असगर वजाहत, गगन गिल आदि थे, भी कुलपति के खिलाफ मोर्चाबंद थी. हमें शायद कमला जी ने ही सुझाव दिया था कि हम रामशरण जोशी से मिलें, वे तब केन्द्रीय हिन्दी संस्थान के उपाध्यक्ष थे और मानव संसाधन विकास मंत्री, अर्जुन सिंह के बेहद करीबी भी (करीबी होने के कई सबूत वे इस आत्मकथा में देते हैं). इसके पहले हमलोग, (राजीव सुमन और मैं) प्रफुल्ल विदबई के साथ अर्जुन सिंह से मिल चुके थे. खैर, हम दिल्ली आय, जोशी जी को फोन किया. वे खुद ही हमसे मिलने श्रीराम सेंटर, मंडी हाउस के कैंटीन में पहुंचे. बात हुई और तय हुआ कि हमलोग न सिर्फ अर्जुन सिंह से मिलेंगे, बल्कि एक डेलिगेशन लेकर जायेंगे. हम सब एक मुहीम चालायेंगे हिन्दी साहित्य से बाहर के किसी कुलपति के लिए खासकर सोशल सायंस से. हमने एक मीटिंग बुलाई इस मसले पर जेएनयू, जामिया के कुछ प्रोफेसर आये. फिर एक डेलिगेशन गया अर्जुन सिंह से मिलने- उसमें जोशी जी, प्रोफेसर प्रमोद यादव (जेएनयू), प्रोफेसर अरुण कुमार (जेएनयू) आदि थे. राजेन्द्र यादव जी को लेकर मैं आया था और पंकज बिष्ट भी वहां जोशी जी के आमन्त्रण पर शायद पहुंचे थे. अर्जुन सिंह से मिलने से एक बात जरूर हुई 'गोपीनाथन जी को एक भी दिन का एक्स्टेंशन नहीं मिला.'इतना वादा उन्होंने प्रफुल्ल जी के साथ हमारे जाने पर भी किया था. वहां, बाहर निकलने के बाद पंकज बिष्ट तो तुरत चले गये, अन्य लोग रुके, हंसी-मजाक करते रहे-जोशी ने रमणिका जी को लेकर कुछ व्यंग्यात्मक लहजे में अनपेक्षित कहा, लोगों ने ठहाके लगाये.

आगे कुछ एक महीने में ही नये कुलपति के लिएचयन समिति के गठन की प्रक्रिया शुरू हुई. इसमें एक सदस्य, जो समिति को चेयर करता है, राष्ट्रपति द्वारा नामित होता है. उन्होंने पहली कोशिश तो यही की कि यह नाम उनका हो. मंत्रालय के सेक्रेटरी रहे सुदीप बनर्जी के पास उठना-बैठना तेज कर दिया उन्होंने. हालांकि राष्ट्रपति के यहाँ से बिपिन चन्द्रा का नाम फायनल हुआ. अब जोशी जी लग गये कि उनका नाम विश्वविद्यालय की कार्यपरिषद द्वारा नामित होने वाले सदस्यों में जाये. उन्होंने हमसे कहा कि हम कार्यपरिषद के सबसे सक्रिय सदस्य कमला प्रसाद जी को मनायें क्योंकि जोशी जी के अनुसार कमला जी कभी नहीं चाहेंगे कि वे चयन समिति के सदस्य बनें. हमारे लिए जोशी जी का आना इसलिए जरूरी था कि हिन्दी विश्वविद्यालय में सोशल सायंस के कुलपति को लाने की मुहीम में वे शामिल थे. हालांकि जोशी जी नहीं आये. कमला जी ने सुदीप बनर्जी का नाम दिया और एक और सदस्य का नाम भी.

कहानी उसके बाद विभूति नारायण राय के पक्ष में रही. बाद में उनसे नाराज हुए सीपीआई के अतुल अंजान से लेकर कई लोगों ने उनके लिए पैरवी की और वे हिन्दी विश्वविद्यालय के कुलपति हुए. इस बीच रामशरण जोशी का रिश्ता अर्जुन सिंह से खराब हुआ. खबर तो यह भी उडी कि जोशी जी किसी विश्वविद्यालय, शायद अमरकंटक, में कुलपति बनाने के लिए सक्रिय थे-धन-बन का भी मामला था (हालांकि हम नहीं मानते) इसलिए अर्जुन सिंह नाराज हुए. कारण जो भी हो अर्जुन सिंह ने उनसे मिलने तक से इनकार कर दिया था.

जोशी की आत्मकथा 


उसके बाद बहुत कुछ हुआ. हिन्दी का छिनाल प्रकरण घटा.साहित्यकारों ने विभूति राय का बहिष्कार किया, उनमें से कुछ फिर उनसे संबंध बनाने लगे.

आगे 3.12.2011 की मेरी डायरी का एक अंश

रामशरण जोशी भी ‘राय साहब ‘के खेमे में आ चुके थे. आलोक धन्वा पहले से ही ‘राय साहब ‘ की छवि निर्माण में व्यस्त थे. राजकिशोर पहले विरोध कर अब सरेंडर कर चुके थे- 50 हजार रुपये की नौकरी और सुविधाओं के आगे.

लेकिन राम शरण जोशी! हमारे लिए वह सबसदमा सा था: उन दिनों जब जोशी जी गोपीनाथन विरोधी हमारे मुहीम से जुड़े तो अर्जुन सिंह की निकटता की वजह से हमारे अगुआ भी हो गये थे, दिल्ली में हमारे साथ काफी सक्रिय थे. उन दिनों हमारे कई मित्र उन्हें अवसरवादी बताते थे , लेकिन जोश के साथ वे ‘ हिंदी विश्वविद्यालय ‘ बचाओ की मुहीम में शामिल थे, उससे हमें लगता था कि वे पूरे मन से निश्च्छलता के साथ हमारे साथ हैं .

जोशी जी जब ‘छिनाल प्रकरण’ के बाद विजिटिंग प्रोफ़ेसरहोकर वर्धा नहीं आये थे तभी कुछ दिनों के लिए वे वर्धा प्रवास पर थे. मैंने उन्हें एस.एम.एस किया -उन दिनों मेरा विश्वविद्यालय कैम्पस में प्रवेश बैन था. एस.एम.एस में मैंने लिखा कि ‘निजाम बदल गया है , हालात ज्यों के त्यों हैं. जिन कारणों से हम गोपीनाथन जी के खिलाफ थे , वे कारण आज भी बने हुए हैं. मैंने उन्हें कैम्पस के बाहर ‘बिरयानी’ खाने के लिए आमंत्रित किया. उन्होंने मेरा एस.एम.एस न सिर्फ कुलपति विभूति राय को दिखाया बल्कि टिप्पणी भी की कि ‘ वे (मैं और राजीव पिछले कुलपति से लड़ता रहा , अभी लड़ रहा हूँ, आगे भी लड़ता रहूंगा.’

जोशी जी को इनाम मिल गया.वे ‘ अनिल चमडिया ‘द्वारा खाली की गई जगह पर नियुक्त किये गये, अनिल जी नियुक्ति पर स्टे लेकर आ गये तो जोशी जी टर्म बेस पर विजिटिंग प्रोफ़ेसर होकर आ गये.

 यह भी पढ़ें:   घृणित विचारों और कृत्यों वाले पत्रकार की आत्मप्रशस्ति है यह, आत्मभंजन नहीं मिस्टर जोशी

राय उन दिनों एसएमएस दिखा रहे थे,कि कैसे ‘छिनाल प्रकरण‘ में उनके खिलाफ खड़े लोग नए साल का मुबारकबाद देकर उनसे सम्बन्ध पुनर्जीवित कर रहे हैं.

इस चरित्र और प्रसंग को और समझने के लिए 14.12.2011 की मेरी डायरी

नामवर सिंह ! हिंदी विश्वविद्यालय के कुलाध्यक्ष ! हिंदी के महान आलोचक-विद्वान् !!

क्या कुछ प्रतिमानों के व्यक्तित्व के आभामंडल को बने रहने देना चाहिए- आखिर हम अपने बाद की पीढी को क्या प्रतिमान देंगे , क्या ध्वस्त प्रतिमानों के साथ हमारी पीढी आदर्शविहीन नहीं हो जायेगी !!

सच तो सच होता है , आखिर हमें देखना होगा किऐसे प्रतिमानों को इतिहास में प्रस्तुत करते वक्त हम इनके विचलनों को कैसे प्रस्तुत करते हैं– विचलन इनके व्यक्तित्व नहीं हो सकते, लेकिन भावी पीढी को ऐसे विचलनों से भी सतर्क रहना होगा!!!

लखनऊ के प्रगतिशील लेखक संघ के कार्यक्रम में नामवर जी ने दलितों के आरक्षण पर खासे जातिवादी ढंग से तंज कसा . ईश्वर सिंह दोस्त पिछले दिनों जब हमारे घर आये थे तो गोवा विश्वविद्यालय में एक कार्यक्रम का वाकया बता रहे थे कि कैसे नामवर जी आयोजक ब्राह्मणों के प्रकार (उप जाति) से ‘राजपूतों’ के रिश्ते पर ही कुछ मिनट बोलते रहे थे .

हिंदी का शिखर आलोचक जातिवादी है– हिंदी समाज का प्रतिरूप तो नहीं. दो लड़के नामवर सिंह से मिलने जाते हैं —रजनीश और आशीष , उन दिनों नामवर जी हिंदी विश्वविद्यालय के गेस्ट हाउस में टिके थे- दोनों लड़कों ने एम.फिल परीक्षा में धांधली और आरक्षण नियमों के उल्लंघन की शिकायत नामवर जी से की. नामवर जी ने उन दोनों लड़कों से उनकी जाति पूछी – एक ब्राह्मण , एक कायस्थ —नामवर जी आश्वस्त हुए. फिर उन्होंने लड़कों से कहा कि विभूति जातिवादी है —भूमिहारवाद करता है. उसके कुछ ही दिनों बाद ‘सत्ताचक्र/ मोहल्ला पर उनकी एक चिट्ठी सामने आई , जिसमें वे विभूति को unscrupulous कह रहे हैं.
एक कार्यक्रम में रामशरण जोशी विभूतीनारायण राय (बोलते हुए)


सबलोग में विश्वविद्यालय के सम्बन्ध में  मेरा लेख पढ़कर नामवर जी ने मुझे फोन किया था. वे मेरे लेख के हवाले से कह रहे थे कि विश्वविद्यालय के विषय में इतना कुछ वे उसी आलेख से जान पाये , उन्होंने संबंधित  कागजात मुझसे मांगे — उनके अनुसार मंत्री महोदय नाराज थे और वि.वि. से संबंधित कागजात चाहते थे , कारवाई करने के लिए.

मैं उन दिनों रामशरण जोशी के ‘यू-टर्न’ से झुंझलायाहुआ था. मैंने नामवर जी को याद दिलाया कि मैं  इसके पहले भी उनसे उनके घर मिल चुका था . मैं , राजीव और सत्यम श्रीवास्तव उनके घर गये थे . -गोपीनाथन जी का कार्यकाल था . हमने उनसे  कुलाध्यक्ष के नाते हमारे कागजातों की आधार पर राष्ट्रपति (विजिटर)  को लिखने का आग्रह किया था. उन्होंने मना कर दिया प्रोटोकाल बता कर .हमने फिर उन्हें रास्ता सुझाया कि क्यों न हम उन्हें एक आवेदन दें और वे उसे अपनी टिप्पणी के साथ राष्ट्रपति को अग्रसारित कर दें – उन्होंने ऐसा करने से भी मन कर दिया .

वे बड़े प्रेम से हमसे मिले थे -अच्छा नाश्ता... अच्छी चाय पिलाई थी- गोपीनाथन जी के खिलाफ भी खूब बोले. उनके अनुसार उन्होंने गोपीनाथन जी को नियुक्तियां न करने के लिए कहा था क्योंकि बकौल उनके  ‘ एक ख़राब नियुक्ति लगभग 30 सालों तक वि.वि.को नष्ट कर देती है .’

लेकिन किसी ठोस पहल से उन्होंने इनकार कर दिया था.उन्हीं दिनों एन.डी.टी.वी के रवीश से मिले थे . उन्होंने कहा कि अगर नामवर जी कैमरे पर गोपीनाथन के खिलाफ बोल दें तो वे एक लम्बी रिपोर्ट चलवा सकते हैं- रवीश को नामवर जी का अनुभव था शायद इसीलिए उन्होंने हमें यह प्रस्ताव दिया था.

नामवर जी राजकमल के किसी प्रकाशन के लोकार्पणके अवसर पर इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में मिले. नामवर जी और अशोक वाजपयी, दोनों थे वहां . नामवर जी ने हमारी तरफ इशारा करते हुए अशोक जी से कहा कि ‘ इनसे मिलिए आपके विश्वविद्यालय का हाल ख़राब है. अशोक जी ने हंसते हुए कहा  ‘ अब आपका विश्वविद्यालय ‘ . खैर, जब हमने नामवर जी को रवीश का प्रस्ताव सुनाया तो उन्होंने फिर से इनकार कर दिया .


यानी, नामवर जी से हम वाकीफ थे और रामशरण जोशी के ‘यू -टर्न’ से झुंझलाए. हमने नामवर जी को रामशरण जोशी वाला वाकया  सुना दिया और कागजात भेजने के वायदे के साथ बात ख़त्म की.

हमें कागजात भेजना था नहीं , भेजा भी नहीं. लेकिन हमारे सामने यक्ष प्रश्न था कि नामवर जी ने यह अचानक से फोन क्यों किया! मामला इतना सीधा भी नहीं था कि सबलोग के आलेख ने उनकी आँखें खोल दी थी. किसी निष्कर्ष पर हम नहीं पहुँच पा रहे थे . वे दुबारा कुलाध्यक्ष बना दिये गये थे , फिर नाराजगी किस बात की थी उन्हें विभूति से. पता चला कि विभूति निर्मला जैन को कुलाध्यक्ष बनवाना चाह रहे थे, वे नामवर सिंह के दूसरे टर्म के पक्ष में नहीं थे – शायद नामवर जी को इसी बात का आक्रोश हो.

रामशरण जोशी की प्रतिक्रिया में , नामवर जी केपुराने व्यवहार के कारण हमने फोन वाला प्रसंग विभूति को बताया. उनसे ही जानना चाहा कि नामवर जी उनसे इतने खफा क्यों हैं- तब हम अपने माइग्रेशन के प्रसंग में विभूति से मिलने गये थे. सुनकर विभूति हँसे, उन्होंने कहा कि “पता नहीं क्यों चाह रहे होंगे वे ऐसा  मेरे ऊपर उनका बड़ा उपकार है . ‘ नया ज्ञानोदय‘ विवाद (छिनाल प्रकरण) के दौरान उनके प्रिय कमला प्रसाद लगभग धरना देकर बैठ गये थे उनके घर के वे मेरे खिलाफ बयान दें. लेकिन नामवर जी ने उन दिनों मेरा साथ दिया.’’



मुझे लगता है कि ‘सत्ता चक्र ‘ के ऐसे प्रसंगों से रामशरण जोशी या नामवर सिंह का आकलन नहीं किया जाना चाहिए- विचलन कभी भी समग्रता को बोध नहीं देते.

मेरी डायरी के इन हिस्सों में जोशी जी दर्ज हैंवही उनका व्यक्तित्व रहा होगा, आजीवन. हाँ बस्तर के विश्वासघात के दौरान भी. वे अपनी आत्मकथा में हिन्दी विश्वविद्यालय के कई प्रसंग तो लेकर आते हैं लेकिन इन प्रसंगों को नहीं लिखते, कारण व्यक्तित्व का सही अंदाज जो लग जाता पाठकों को. वे आलोक धन्वा के प्रसंग में तो लिखते हैं कि कैसे एक घटना के बाद विभूति उन्हें रातोरात विदा कर देते हैं. लेकिन अपना प्रसंग नहीं लिखते,उनके बारे में भी कैम्पस में अनेक कथायें मौजूद थीं. वे अपने ही शब्दों में ‘दोगला’ पाखंडी हैं.

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