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छः दलित महिलाओं की पहल: सामुदायिक पत्रिका नावोदयम

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नूतन यादव 

छः दलित महिलाओं द्वारा की जा रही सामुदायिक पत्रकारिता के बारे में बता रही हैं नूतन यादव: 

हाशिये के समाज से जुड़े गंभीर मुद्दे  अक्सर  मीडिया में स्थान नहीं बना पाते जिसमें महिलाएं और वे भी दलित महिलाओं की आवाज तो बिलकुल अनसुनी कर दी जाती है | ऐसे में छः दलित महिलाओं के एक स्वयं सहायता समूह ने एक सामुदायिक पत्रिका ‘नवोदयम’  के रूप में न केवल मुख्य धारा की मीडिया के समक्ष अपनी पत्रिका शुरू कर  उसमें दलित, गरीब और ग्रामीणों  की समस्याओं को उठाया बल्कि दलित और ग्रामीण महिलाओं को सशक्त करने के नए रास्तों को भी सामने लाने का नया माध्यम बनी |

काम करते रिपोर्टर 

आंध्र प्रदेश के चित्तूर जिले में जमीनी पत्रकारिताएक नए और बेहतर रूप में दिखाई दे रही है | 15 अगस्त  2001 में चित्तूर जिले में  गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम के तहत विकास के मुदों पर जागरूकता पैदा करने के लिए  सरकारी पहल के रूप में नवोदयम शुरू हुआ जिसने  आगे चलकर एक प्रकाशन की शक्ल ली | चित्तूर जिले में कुछ महीनों के लिए  डीपीआईपी परियोजना DPIP को लागू करने के बाद इसकी समीक्षा के लिए की गई बैठकों में से एक में यह महसूस किया गया की इस  परियोजना से जुडी गतिविधियों के सार  को प्रेरणा स्त्रोत के रूप में समुदायों तक नियमित रूप से पहुंचाया जाना चाहिए| इसी समय  नवोदयम  पत्र ने जन्म लिया जिसका उद्देश्य सशक्तिकरण के लिए सूचना’ की प्राप्ति था| 

इसकी सबसे महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि यह पूरी तरह से  ग्रामीण महिलाओं द्वारा चलाया जाता है | नवोदयम की स्थापना इन प्रमुख  चार उद्देश्यों की पूर्ति के लिए हुई : (1) ग्रामीण गरीबों की आवाज को आगे बढ़कर रखना (2) ग्रामीण महिलाओं को विशेष कवरेज देना  (3) सूचनाओं को ग्रामीणों की पहुँच में लाना  (4) पत्रकारिता को महिलाओं के सशक्तिकरण के साधन के रूप में अपनाना | यह प्रोजेक्ट पूरी तरह से सरकार द्वारा प्रायोजित था लेकिन इसे चलाने वाली महिलाओं ने अपनी स्वतंत्रता को बनाये रखा और सरकार के  सम्पादकीय हस्तक्षेप को नहीं माना | एक  बात जो नवोदयम को दूसरे पत्रों से  अलग बनाती है वह यही है कि इसका संचालन  पूरी तरह से कम पढ़ी लिखी गरीब महिलाएं कर रही हैं | शुरू में नवोदयम का प्रकाशन  त्रैमासिक के रूप में किया गया था जिसमें केवल आठ पृष्ठ थे  जो बाद में बढती लोकप्रियता के कारण 24 पृष्ठों के मासिक पत्र में बदल गया | ग्रामीण महिलाएं जिनमें अधिकतर दलित है पत्रिका से जुड़े सभी कार्य जैसे रिपोर्टिंग, लेखन, संपादन, ले-आउट, यहाँ तक कि सर्कुलेशन का काम भी संभालती हैं|  वित्तीय प्रबन्धन सहित नवोदयम प्रकाशित करने के तकनिकी पहलुओं को देखने के लिए संवाददाताओं में से एक कोर कमिटी का गठन किया गया जो पत्रिका के कुल बजट का प्रबन्धन करती है|



संस्थापक सदस्यों में से एक सदस्य मंजुला के अनुसारउनकी सबसे बड़ी समस्या भाषा की रही | प्रमुख व्यावसायिक  अखबार उनकी समस्याओं को स्थान नहीं देते थे इसकी वजह उन अखबारों के पत्रकारों की भाषा भी रही | वे अंग्रेजी और  मानक तेलुगू  बोलते समझते थे जिसके कारण वे ग्रामों के भीतर तक नहीं जाते थे और मंडल स्तर की  ख़बरों को ही महत्त्व दिया करते थे | संस्थापक सदस्य और सम्पादक मंजुला ‘नवोदयम’ के बारे में बताती हैं कि शुरू में हम छः महिलाएं ही गाँवों और मंडलों में घूमघूम कर खबरें एकत्र किया करती थी और फिर स्वयं उसका पेज आदि डिजाईन  करती थी और प्रिंट करती थी | अपनी शुरुआत के चार सालों तक इनके पास कोई कैमरा नहीं था तो ये आपस में ही खबर के अनुसार चित्रादि बना लिया करती थी | वे कहती हैं कि आरम्भ में उनसे गाँव वाले अक्सर पूछा करते थे कि पिता या पति होने के बावजूद वे काम क्यों करती हैं?  रात में देर से लौटना या कहीं ठहर जाना भी आपत्तिजनक माना जाता था | मंजुला बताती हैं कि चीजें तब  गंभीर हो गईं जब  कुछ विशेष  स्टोरीज लिखने पर उन्हें मौत की धमकियाँ तक मिली | इसका कारण अचानक आये बदलावों के कारण गाँव में पुरुषों को आ रही परेशानियां थीं|

आज  अन्य अंशदाताओं के अतिरिक्त नवोद्यम के 12 स्थायी सदस्य  हैं| प्रत्येक रिपोर्टर अपनी बीट की खबरें कवर करने के लिए लगभग 5 से  6 मंडल घूमती  हैं | इस पत्रिका में व्यापक रूप से उन्हीं मुद्दों पर लिखा जाता है जिनसे पाठक सीधे तौर पर जुड़े  होते हैं |इस पत्रिका के रिपोर्टर मुख्यतः अपने  गाँवों और उसके  आस पास के परिवेश मे घटने वाली घटनाओं पर ही  चाहे वे स्त्री सशक्तिकरण , घरेलू हिंसा और बाल विवाह जैसे बड़े मुद्दे हों | अथवा  ऐसे छोटे विषय जैसे किस तरह अपना बैंक लोन चुकाएँ इससे पहले कि उसका  ब्याज आपको ख़त्म कर दे |

पत्रिका में काम करने वाले  पत्रकारों के पहले  बैच ने  भी आरम्भ में कई बड़े जनसमूहों को संबोधित किया और अपनी यात्रा की  कहानी साझा की |आज जब इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ग्रामीण जनता के पास पहुँचने लगा है नवोदयम ने 7 महिलाओं को 10 महीने में वीडियो पत्रकारिता की ट्रेनिंग दी | अब वह 100 से अधिक डॉक्यूमेंटरी फिल्म बना चुकी हैं और अपनी वीडियो क्लिप्स प्रमुख टेलीविज़न नेटवर्कों को उपलब्ध करा रही हैं |
आज जब हम मेन स्ट्रीम मीडिया द्वारा महिलाओं के मुद्दों को कवरेज न दिए जाने का रोना रो रहे हैं ऐसे में नवोदयम महिला शक्ति का  एक प्रेरणादायी उदाहरण प्रस्तुत करता है |

लाड़ली सम्मान से सम्मानित नवोदयम टीम 


चूँकि इलेक्ट्रोनिक मीडिया ग्रामीणों तक पहुँचने में समय लेता है इसलिए नवोदयम ने दस महीने की अवधि में सात महिलाओं को वीडियो पत्रकारिता में प्रशिक्षण दिया है|इन महिलाओं ने सौ से भी अधिक डॉक्यूमेन्ट्री फिल्में बनाई हैं| दहेज़ पर बनाई फिल्मों ने ग्रामीणों पर गहरा प्रभाव छोड़ा|  जिन ग्रामीणों के बच्चे स्कूल छोड़कर बाल-श्रम करने लगे थे उन्होंने भी इन नवोद्यम की कर्मियों के समझाने पर अपने बच्चों को वापस स्कूल भेजने पर आजी हो गए|इस पत्रिका प्रभाव वास्त्वविक है और सहज ही दिखता है|

आज  मुख्यतः महिलाओं के बीच पढ़ी जा रही इस  पत्रिका की हर पाठिका यह सुनिश्चित करती है कि उनके पति और परिवार के एनी सदस्य भी इसे अवश्य पढ़ें|नवोदयं के संवाददाताओं को जब भी किसी सामाजिक बुराई से जुडी खबर मिलती है  वे तुरंत हरकत में आते हैं और सचमुच में उस पर कोई कार्यवाही करते हैं|नवोदयम कम्युनिटी मैगज़ीन ( तेलुगू ) ने वर्ष 2009 यूएनएफपीए UNFPA लाडली मिडिया स्पेशल जूरी अवार्ड जीता | नवोदयम  जैसी सफल सामुदायिक पत्रिका से प्रेरणा लेते हुए  रेडिओ और फिल्मों का उपयोग कर कई  अन्य पहल भी की जा रही हैं जिससे वंचितों की आवाज समाज और सत्ता तक पहुंचाई जा सके|  यह पत्रिका अपने आप में संघर्ष की एक सफल और अनुपम गाथा है |

नूतन यादव सोशल एक्टिविस्ट और हिन्दी की प्राध्यापिका हैं. सम्पर्क: 9810962991

तस्वीरें गूगल से साभार 
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मानवाधिकार-प्रहरी सोनी सोरी को मिला अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार सम्मान

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कमल शुक्ल 
वर्ष 2018 का विश्व प्रतिष्ठित मानव अधिकार सम्मान ‘फ्रंट लाइन डिफेंडर्स अवार्ड फॉर ह्यूमन राइट्स डिफेंडर्स ऐट रिस्क’ पाने वालों में भारत की ओर से सोनी सोरी शामिल हैं। वहीं सोनी सोरी, जिनके गुप्तांग में पत्थर भरे गए, जिन्हें निर्ममता से यातनाएं दी गयी। दो साल के लिए जेल में ठूंस दिया गया। उन्हें बदसूरत बनाने की नीयत से चेहरे पर खतरनाक रसायन पोत दी गई। निस्संदेह जिनके क्रुर हाथों ने यह सब किया, अब यह सुनकर उनके हाथ  जरूर कापेंगे कि उन्होंने ऐसा करके उस महिला को दुनिया की सबसे सुंदर स्त्री बना दिया है। खनिज के लिए जल-जंगल और जमीन हथियाने की नीयत से बस्तर में लंबे समय से अपनी ही जनता के खिलाफ युद्ध लड़ रहे कॉर्पोरेट परस्त छत्तीसगढ़ सरकार पर पीड़ित-शोषित सोनी सोरी भारी पड़ी है।

सोनी सोरी


इस वर्ष ‘फ्रंट लाइन डिफेंडर्स अवार्ड फॉर ह्यूमन राइट्सडिफेंडर्स ऐट रिस्क’ का पुरस्कार प्राप्त करने वाले पाँच अंतरराष्ट्रीय प्राप्तकर्ताओं  की सूची में भारतीय सामाजिक कार्यकर्ता सोनी सोरी का नाम शामिल किया गया है। छत्तीसगढ़ में आदिवासी समुदाय को न्याय दिलाने के लिए जोखिम भरे संघर्ष के लिए उन्हें यह सम्मान दिया जा रहा है। उनके अलावा इस वर्ष यह पुरस्कार पाने वालों में नुर्केंन बेसल (टर्की), लूचा आन्दोलन (कोंगो का लोकत‌ंत्रात्मक गणराज्य), ला रेसिस्तेंचिया पसिफिचा दे ला मिक्रोरेगिओं दे इक्ष्क़ुइसिस (ग्वाटेमाला), और हस्सन बौरास (अल्जीरिया) शामिल हैं।

विजेताओं के नामों की घोषणा करते हुए, फ्रंट लाइन डिफेंडर्सके कार्यकारी निर्देशक एंड्रू एंडरसन ने कहा, “आज जिन मानवाधिकार रक्षकों का सम्मान हम कर रहे है, ये वे लोग हैं जो विश्व के सबसे खतरनाक जगहों पर कार्य करते हैं। अपने-अपने समुदायों के लिए शांतिपूर्ण ढंग से न्याय और मानवाधिकार की मांग करने हेतु स्वयं की परवाह किये बिना इन्होंने कई बलिदान दिये हैं।”

सन 2005 से ‘फ्रंट लाइन डिफेंडर्स अवार्ड फॉर ह्यूमन राइट्स डिफेंडर्स ऐट रिस्क’ पुरस्कार हर साल उन मानवाधिकार रक्षकों को दिया जाता रहा है, जिन्होंने खुद को जोखिम में डाल कर भी अपने समुदाय के लोगों के अधिकारों की सुरक्षा और बढ़ावा देने में अदम्य साहस का प्रदर्शन करते हुए योगदान दिया है। पहले यह सिर्फ एक रक्षक या किसी एक आन्दोलन को दिया जाता था। लेकिन इस वर्ष यह पहली बार पांच अलग-अलग देशो के पांच मानवाधिकार रक्षकों को दिया जा रहा है। 2018 के इन पांच पुरस्कार विजेताओं व उनके परिवारों को विभिन्न तरीके के हमलों का, मानहानि, कानूनन उत्पीड़न, मृत्यु की धमकी, कारावास और अभित्रास आदि का सामना करना पड़ा है।

सोनी सोरी आदिवासियों के बीच 


कौन है सोनी सोरी?

सोनी सोरी एक आदिवासी कार्यकर्ता हैं।साथ ही वह नारी अधिकारों की रक्षक हैं, जो छत्तीसगढ़ राज्य के बस्तर इलाके में काम करती हैं। वह और उनके सहकर्मी, अर्द्धसैनिक बल और पुलिस द्वारा हिंसा को बढ़ावा देने वाली गतिविधियों के खिलाफ वकालत करते हैं। उन्होंने भारत के सुदूर और दुर्गम क्षेत्रो में राज्य-प्रायोजित दुर्व्यवहार जैसे- घर जलाना, बलात्कार और बिना वजह आदिवासियों को यातनाएं देना व उनका यौन-शोषण करना आदि के विरोध में संलेख पत्र तैयार किये और इन गतिविधियों के खिलाफ संघर्ष किया है। उन्होंने कई शैक्षणिक संस्थाओं को माओवादी संगठनों से होने वाली हानि से भी बचाया है।  सुरक्षा बलों ने उनके इन कार्यों के प्रतिशोध में, उन्हें हिरासत में बंद कर कई तरह की अमानवीय यातनायें दी और उनके शरीर में पत्थर डाल कर घंटों यातनाएं दी। सोनी सोरी ने दो वर्षों से अधिक कारावास सहा है। कुछ वर्षों बाद कुछ लोगो ने उनके चेहरे पर रसायन डाला जिससे उनके चेहरे की चमड़ी जल गई। इतना ही नहीं, उन्हें धमकी दी गई कि अगर उन्होंने सुरक्षा बलों द्वारा किये गए बलात्कारों के खिलाफ वकालत करनी नहीं छोडी, तो उनकी बेटियों का भी ऐसा ही हश्र होगा। किन्तु बिना डरे उन्होंने अपने कार्य के प्रति अडिगता दिखाते हुए काम बंद करने से इंकार किया और आज भी वह धमकी, अभित्रास और बदनामी के बावजूद उन खतरनाक संघर्ष क्षेत्र में सक्रिय हैं।

हालांकि सोनी, अन्य सामाजिक कार्यकर्ताओंऔर पत्रकारों को बदनाम करने के उद्देश्य से राज्य सरकार व पुलिस द्वारा बनाये गए ‘अग्नि’ व ‘सामाजिक एकता मंच’ आदि संगठनों के माध्यम से सोनी सोरी को राष्ट्रद्रोही और माओवादी होने का तक आरोप लगा दिया गया।

फ्रंट लाइन डिफेंडर्स के कार्यकारी निर्देशकएंड्रू एंडरसन कहते हैं, “विभिन्न देशों की सरकारें और शोषकवर्ग मानवाधिकार रक्षकों को बदनाम कर उनके हौसले को कुंद करने का प्रयास करते हैं और उनके मानव कल्याण की दिशा में किये गये कार्यों को गैरकानूनी घोषित करते हैं। इसके खिलाफ विश्व भर से सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा एकमत से स्वीकार किया गया कि अंतर्राष्ट्रीय पहचान और सम्मान मानवाधिकारों को लेकर सर्वस्व दांव पर लगा देने वाले बहादुरों के साथ खड़ा होना जरूरी है। यह पुरस्कार इसी भावना पर आधारित है।” वे आगे कहते हैं, “यह पुरस्कार इस बात का साक्षी है कि इन रक्षकों को अन्तराष्ट्रीय समुदायों का पूर्ण समर्थन है और उनका बलिदान नज़रंदाज़ नहीं हुआ है। हम उनके अदम्य साहस की सराहना करते हुए उनके साथ अटल विश्वास के साथ खड़े है।”
सोनी सोरी जेएनयू में 


साथियों के संघर्ष को समर्पित यह पुरस्कार – सोनी

सोनी सोरी ने फॉरवर्ड प्रेस से बातचीत में स्वयं को मिलेइस विश्व स्तरीय पुरस्कार को बस्तर के आदिवासियों के हक और अधिकार के लिए संघर्ष कर रहे तमाम जमीनी सामाजिक कार्यकर्ताओं को समर्पित किया। उन्होंने बताया कि इस सम्मान से उनके साथ काम कर रहे साथियों का मनोबल बढ़ेगा। सोनी ने बताया कि  मेरे साथ जो भी हुआ, वह बस्तर में रोज घटने वाली घटनाओं में से एक है। वह बस्तर के उन सभी गाँवो में नही पहुँच सकती हैं जहां रोज किसी न किसी आदिवासी की हत्या या बलात्कार हो रही है। सैकड़ों गाँव अपनी ही जनता से युद्ध के नाम जला दिए गए हैं। हजारों आदिवासी मुठभेड़ के नाम पर मार डाले गए। हजारों निर्दोषों को जेल में ठूंसा गया है। सोनी ने बताया कि उसने माओवादियों का भी कहर झेला है, जिन्होंने उनके पिता को मारा। मगर अब अपने जीते जी वह यह लड़ाई बन्द नहीं करेंगी।

‘फ्रंट लाइन डिफेंडर्स अवार्ड फॉर ह्यूमन राइट्स डिफेंडर्स ऐट रिस्क’ का प्रतीक चिन्ह

पीड़िता बने रहना सोनी सोरी को मंजूर नहीं

हिमांशु कुमार, सामाजिक कार्यकर्ता

जाने-माने सामाजिक कार्यकर्ता हिमांशु कुमार कहते हैं कि सोनी सोरी को छत्तीसगढ़ सरकार ने थाने में ऐसी प्रताड़ना दी जो आजादी के बाद किसी भी महिला के साथ हिरासत में किया जाने वाला सबसे भयानक दुर्व्यवहार था। नागरिक अधिकारों के लिए आवाज उठाने वाली एक आदिवासी सामाजिक कार्यकर्ता के ऊपर यह जुल्म सरकार के द्वारा किया गया था। लेकिन सोनी सोरी ने एक पीड़िता बने रहना स्वीकार नहीं किया। जेल से बाहर आते ही उसने अपने जैसी हजारों आदिवासी महिलाओं और लाखों आदिवासी लोगों के लिए नागरिक अधिकार, समानता और मानवाधिकारों की लड़ाई शुरू की और वह सारी दुनिया में एक महत्वपूर्ण आवाज बन कर उभरीं। आज सारी दुनिया में वह एक महत्वपूर्ण मानवाधिकार कार्यकर्ता के रूप में जानी जाती हैं। फ्रंटलाइन डिफेंडर्स ने उन्हें जो सम्मान दिया है, वह सोनी सोरी के काम के अनुरूप ही है। मैं उसका स्वागत करता हूं और सोनी सोरी को बधाई देता हूं।

(कॉपी एडिटिंग – नवल)

छत्तीसगढ से प्रकाशित साप्ताहिक 'भूमकाल समाचार'के संपादक कमल शुक्ल फर्जी पुलिस-मुठभेडों के खिलाफ आवाज उठाने के लिए जाने जाते हैं। वे बस्तर में पत्रकारों की सुरक्षा के कानून की मांग कर रही संस्था ‘पत्रकार सुरक्षा कानून संयुक्त संघर्ष समिति’ के मुखिया भी हैं ​

फॉरवर्ड प्रेससे साभार

तस्वीरें गूगल से साभार 
 स्त्रीकाल का संचालन 'द मार्जिनलाइज्ड' , ऐन इंस्टिट्यूट  फॉर  अल्टरनेटिव  रिसर्च  एंड  मीडिया  स्टडीज  के द्वारा होता  है .  इसके प्रकशन विभाग  द्वारा  प्रकाशित  किताबें  ऑनलाइन  खरीदें : 
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स्त्री देह में कैद एक पुरुष हूँ मैं...

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डिसेंट कुमार साहू 

आखिर वह भी तो इससे परेशान ही थी किस्त्री देह में जन्म लेने के बाद अपने शरीर से एकाकार नहीं कर पा रही थी। बचपन से सब कुछ तो सही ही चल रहा था किन्तु उम्र के बढ़ने के साथ ही धीरे-धीरे वेदिका को अपना ही शरीर आखिर बंधक क्यों लगने लगा? वेदिका 9 वर्ष की उम्र में ऐसा क्या महसूस करने लगी थी जो अपने ही शरीर को बंधक मानने लगी थी? इस बारे में वेदांश (अब वेदिका को वेदांश कहलाना पसंद है) कहते हैं-“8-9 साल की उम्र तक मैं बिलकुल लड़कियों की तरह रहा। मुझे लंबे बाल रखना, चूड़ी पहनना, लड़कियों वाले कपड़े पहनना अच्छा लगता था, पर दसवें साल तक आते-आते अचानक इन सब चीजों से जैसे कोई लगाव ही नहीं रह गया। अब यह सब करना काफ़ी तकलीफदेह लगने लगा। तब मैंने 13 साल की उम्र में लड़कों जैसे कपड़े पहनना व रहना शुरू कर दिया। हालांकि यह सब करने के लिए खुद पर कभी दबाव नहीं डालना पड़ा, यह सब कुछ सहज व स्वाभाविक प्रक्रिया के तहत ही होते जा रहा था। हाँ, बाल जरूर लंबे ही थे जिसे घर वालों के कारण काटने की हिम्मत नहीं हुई।”

आगे वह बताते चले गये कि मैंने कई बारअपने घर वालों को बताने की कोशिश की लेकिन वे सुनने को तैयार ही नहीं थे कि उनकी बेटी या कहूँ उनका ‘बेटा’ क्या महसूस करता है। यह उस दिन की बात है जब मैंने पहली बार माँ के सामने ही कहा था कि “अब मैं ऐसे नहीं रह सकता, मुझे यह शरीर किसी कारागाह की तरह लगता है जिसने मुझे कैद कर रखा है। मैं लड़कों की तरह महसूस करती हूँ।” लेकिन माँ को मेरी बात कुछ भी समझ नहीं आई थी, माँ ने उस वक्त बस इतना भर ही कहा कि “21-22 साल तक ठीक हो जाओगी, बहुत सारी लड़कियां ऐसी होती है जिन्हें लड़कों की तरह रहना अच्छा लगता है।” “माँ के सामने मैंने जो बात कही थी वह न तो कोई मज़ाक था और न ही कोई मामूली बात ही थी, जो मैंने यूं ही कह दी हो, यह बात समझने में मुझे 19 साल लग गए कि मैं स्त्री देह में कैद एक पुरुष हूँ। हाँ, कोई दो साल पूर्व की ही तो बात है जब एक ट्रान्सजेंडर (FTM) से मेरी मुलाक़ात हुई थी और उससे मैंने अपने अनुभव साझा किया था, तो उसने मुझे अपने आप से मिलवाया था, लेकिन यह मुलाक़ात भी तो खुद को ढूंढते हुए ही हुई थी। उसके कहने पर ही तो ढेर सारी किताबें तथा वीडियो देखा था जिससे अपनी पहचान को लेकर दृढ़ हुआ, शायद इसी से तो हिम्मत मिली थी कि अपनी बात घर वालों से कह सकूँ।”


जिस उम्र में हम विपरीत लिंगी लोगों के प्रति आकर्षितहोने लगते हैं, वेदिका ने पाया कि वह तो लड़कियों के प्रति ही आकर्षित हो रही है। इस एहसास ने उसे सबसे ज्यादा खुद को समझने के लिए बाध्य कर दिया। एक दसवीं की लड़की को ग्यारहवीं कक्षा की मानवी पसंद आने लगी, वह दिल ही दिल मानवी को पसंद करने लगी। मानवी न उसके स्कूल की थी और न ही उसके मोहल्ले की, लेकिन एक जगह थी जहां दोनों की मुलाक़ात हो जाती, वह जगह थी ट्यूशन क्लास। मानवी महसूस कर रही थी कि वेदिका उसके आस-पास वैसे ही चक्कर लगाने लगी थी जैसे कोई प्रेमी अपनी प्रेमिका के। चूंकि वेदिका, मानवी के लिए लड़की ही थी इसलिए वेदिका का उसका ख्याल रखना, उसके लिए दूसरों से लड़ जाना, ज़्यादातर समय साथ रहना सब सामान्य बात ही थी। वेदिका खुद शारीरिक रूप से लड़की होने के कारण एक तरफ तो अपने दिल की बात कहने से डरती, तो दूसरी तरफ मानवी के प्रति अपने आकर्षण के बावजूद वह इस आकर्षण को तब तक गलत ही मान रही थी क्योंकि उसने अब तक लड़का-लड़की को ही प्रेमी-प्रेमिका के रूप में अपने आस पास देखा था। इन तमाम सवालों और उलझनों के बावजूद उसके साथ रहने व प्यार जताने का वह कोई भी मौका नहीं छोड़ती थी, इससे मानवी को भी एहसास होने लगा था कि वेदिका उसकी बेहद परवाह करती है। उन दिनों को याद करते हुए मानवी कहती है “मैं यह महसूस करती कि वो मेरा ख्याल रखता है, मेरा सपोर्ट करता है, मेरे लिए उसका झुकाव था, इन सबके बावजूद वह मेरे लिए थी तो लड़की ही। मैं सोचती थी कि हमारे बीच इससे ज्यादा रिश्ता तो नहीं हो सकता था। इस कारण मैं वेदिका से भागने लगी थी।” वेदिका पहले तो खुद को लेस्बियन समझने लगी थी, किंतु गहन अध्ययन और खुद के अनुभवों से उसने जाना कि उसका सिर्फ यौन आकर्षण ही लड़कियों की तरफ नहीं थी बल्कि वह खुद को पुरुष के रूप में देखना ज्यादा पसंद करती है। अब वह निश्चित होती जा रही थी कि वह लेस्बियन नहीं है।



उसने कई बार घर वालों को प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से बताने कीकोशिश की लेकिन वह नाकाम रही। इस बीच उसकी समस्या और बढ़ गई जब 19 साल की उम्र में उसके शरीर में किशोरावस्था के कारण बदलाव आने लगे थे, शरीर में आया अनचाहा बदलाव उसके लिए असहनीय था। बढ़ती उम्र के साथ शरीर में आ रहा बदलाव उसे तनाव में डालने लगा। अचानक बढ़ता हुआ स्तन उसके लिए अभिशाप बन चुका था, मासिक धर्म अब भी ऐसी अनचाही पीड़ा है जो शारीरिक से ज्यादा मानसिक रूप से तोड़ देती है, हालांकि इसकी शुरुआत 12-13 वर्ष की उम्र में हो चुकी थी जो अन्य लड़कियों के साथ भी होता है। यह जैसे एक अलार्म हो जो बीच-बीच में उसे उसकी स्त्री शरीर में कैद होने का अहसास कराती हो। ऐसे में यह स्वाभाविक ही था कि उसे अपने ही शरीर से घृणा हो जाए। इस बारे में वेदांश कहते हैं कि, “अगर मासिक धर्म को छोड़ दें तो 18 वर्ष की उम्र तक मेरा शरीर लड़कों जैसा ही था, आप समझ सकते हैं जब 18 के बाद शरीर में अचानक बदलाव आया होगा तो उसका क्या असर हुआ होगा मेरे ऊपर। मैंने सभी जगहों पर जाना बंद कर दिया, लोगों से मिलना-जुलना छोड़ दिया। ऐसा नहीं है कि यह सब मैंने जानबूझकर किया हो, पर जब आप ऐसी जटिल स्थिति में हों तो कुछ सोच-समझ पाना और निर्णय लेना मुश्किल हो जाता है।” अब वह घर की चाहरदीवारी के भीतर खुद में सिमट कर रह गया था। शायद वह दुनिया के सामने बोझ बन चुके अपने उस दैहिक पहचान के साथ आना नहीं चाहता था, वह ऐसी लिंग भूमिका (जेंडर रोल) अदा नहीं करना चाहता था जिस भूमिका के लिए वह मानसिक रूप से तैयार न हो।
मन और शरीर के बीच चल रहे अंतर्द्वंद्व का असर यह हो रहा था कि वह अपने पढ़ाई में भी ध्यान नहीं दे पा रहा था। उसने कई बार प्रयास किया कि वह अपने पढ़ाई पर ध्यान दे लेकिन ऐसा संभव नहीं हो पा रहा था, परिस्थितियाँ वेदांश के लिए जटिल होती जा रही थी। एक तरफ ज़िंदगी दो पहचानों के बीच झूल रही थी तो दूसरी तरफ अपने कैरियर को भी नष्ट होते हुए वह देख रहा था। ऐसे में उसने फिर एक बार निश्चय करके घर वालों को सब कुछ बता देने की ठानी। उसे अपनों से उम्मीद थी कि वे उसे समझेंगे तथा इस कठिन घड़ी में उसका साथ देंगे लेकिन उसने जब घर वालों को हिम्मत जुटाकर यह बात बताई तो घर वाले उसे डाक्टर के पास ले गए। वहां उसके शरीर की जांच हुई। जांच के बाद डाक्टर ने कहा- “सब कुछ ठीक है बस तुम्हें एक छोटा सा काम करना होगा। तुम्हें अपना दिमाग बदलना होगा। क्योंकि सेक्स बदलना न आसान है और न ही बहुत ज्यादा सफल।” “उस दिन मैं बहुत रोया, मुझे समझ नहीं आ रहा था कि मेरे साथ क्या हो रहा है!” क्या सही और क्या गलत! खुद की पहचान को अपनों द्वारा स्वीकार न किए जाने की त्रासदपूर्ण स्थिति थी। इन तमाम परेशानियों के कारण अपनी पढ़ाई पर ध्यान ना दे पाना वेदांश को अंदर ही अंदर तोड़ता जा रहा था, वह निराशा के गर्त में धंसता जा रहा था। इस परिस्थिति से हमेशा-हमेशा के लिए छुटकारा पाने के लिए उसने आत्महत्या करने की कोशिश भी की। वेदांश कहते हैं “आप परिवार से लड़ सकते हैं, दूसरे लोगों से भी लड़ सकते हैं लेकिन जिंदगी के हर एक पल खुद से नहीं लड़ सकते। हमारी लड़ाई हर एक पल अपने आप से होती है। यही कारण है कि ट्रान्सजेंडर में आत्महत्या की दर सबसे ज्यादा है।”



बहरहाल सुखद पहलू तो यह है कि जिस लड़की को वह चाहने लगा था अब वह भी उसे चाहने लगी है, दोनों ने हर कदम साथ चलने का वादा किया है। आज जब परिवार, समाज उसके खिलाफ खड़ा है तो वह लड़की ही एक मात्र है जो उसे उसकी पहचान के साथ स्वीकार कर रही है। मानवी, वेदांश को लड़के के रूप में स्वीकार करने के सवाल पर कहती है “मैंने यह देखकर प्यार नहीं किया कि वो क्या है, मैं बस उसे एक अच्छे इंसान के रूप में देखती हूँ। वह जैसा रहना चाहता है, उससे मुझे कभी कोई समस्या नहीं हुई।” मानवी बातचीत के बीच में ही मजाकिया लहजे में कहती है “हमारे बीच सबसे ज्यादा समस्या आपसी संबोधन को लेकर हुई, जो अब तक मेरे लिए लड़की थी उसके लिए अब मुझे लड़कों वाला सम्बोधन करना था।” इस रिश्ते में एक समय ऐसा भी आया था जब वेदांश ने मानवी को बता दिया था कि वो शायद उसका साथ न निभा पाए, अतः दोनों इस रिश्ते को तोड़ दे। जब खुद की पहचान ही अनिश्चित हो और परिवार, समाज उसे समझने के लिए तैयार न हो तो ऐसे में वह नहीं चाहता था कि उसकी वजह से किसी और की ज़िंदगी तबाह हो। इसके बावजूद मानवी ने वेदांश का साथ नहीं छोड़ा, उसने वेदांश को विश्वास दिलाया कि वह उसके साथ हमेशा रहने वाली है। मानवी कहती है “आज भी ऐसा नहीं है कि उसने मुझे प्रपोज किया हो या मैंने प्रपोज किया हो, लेकिन कुछ ऐसा था जिसे हम दोनों ने ही महसूस किया और आज हम एक दूजे के साथ हैं। यह मानवी का ही प्यार है कि वेदांश परिवार और समाज से दो-दो हाथ करने को तैयार है। वेदांश इस बारे में कहते हैं “मैंने उससे कहा कि मैं यह रिलेशनशिप कायम नहीं रख सकता, उस समय तो वह मान गई लेकिन यह उसी की कोशिश थी कि आज हम साथ-साथ हैं। उसके प्यार ने ही मुझे अहसास दिलाया है कि अगर मैं इस रिश्ते के लिए नहीं लड़ा तो मेरे जीवन में रह ही क्या जाएगा?”

यह कहानी वेदांश और मानवी के साथ बातचीत पर आधारित है। यहाँ दोनों के नाम बदले गये हैं। 

(लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा, महाराष्ट्र के समाजकार्य विभाग में पी-एच.डी. शोधार्थी हैं.  संपर्क: dksahu171@gmail.com, मोबाइल: 9604272869 )

तस्वीरें गूगल से साभार 
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संपर्क: राजीव सुमन: 9650164016,themarginalisedpublication@gmail.com


श्रम साध्य था किन्नरों से बातचीत कर उपन्यास लिखना: नीरजा माधव

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थर्ड जेंडर  पर केन्द्रित प्रथम हिंदी उपन्यास यमदीप की लेखिका नीरजा माधव से एम. फ़ीरोज़ खान की बातचीत

क्या कारण है कि आज के लेखक हाशिये के लोगों पर लिखना नहीं चाहते?
देखिये, लेखन एक तपस्या है। आप ए.सी. में बैठकर उमड़ते बादलों को नहीं देख सकते। इसके लिए तो शहर निकलना पड़ेगा। सार्थक लेखन भी वैसी ही मांग करता है। जिस भी विषय पर लिखना हो तो आपका ज्ञान, आपका यथार्थ अनुभव उसमें से झलकना चाहिए। बन्द कमरे में आराम से लेटकर कोई भी एक थीम किसी से उधार लेकर एक कहानी का ताना-बाना बुन लेना मुश्किल नहीं है। इस प्रकार के लेखन से आप रेखाचित्रा तो बना सकते हैं, पर उसमें रंग नहीं भर सकते। रंग तो तभी भर पायेंगे जब उन रंगों को नजदीक से देखें, महसूस करें। हाशिये के इस समाज के बारे में लिखना श्रम-साध्य था। जैसे ‘यमदीप’ में किन्नरों  का एक सांकेतिक शब्द ‘गिरिया’ मैंने लिया। जरूरी नहीं कि दिल्ली के किन्नर भी ‘गिरिया’ ही बोलें, क्योंकि उनका कोई भाषायी व्याकरण शास्त्र नहीं है। क्षेत्र विशेष में उसका अध्ययन करने से ही पता चलेगा।



किन्नरों पर लिखने की प्रेरणा कहाँ से मिली? 
किन्नरों पर लिखने की प्रेरणा मेरे मन में सन् 1991 में ही आ गई थी जब मेरी बेटी कुहू का जन्म हुआ और उस अवसर पर तृतीय प्रकृति (थर्ड जेण्डर) के लोग मेरे घर मंगलगान करने और नेग लेने आये थे। उस समय आकाशवाणी में नौकरी कर रही थी मैं। मैंने सर्वप्रथम उन पर रेडियो के लिए फीचर बनाने का संकल्प लिया और अपनी रिकार्डिंग मशीन लेकर उनकी बस्तियों के कई चक्कर लगाए। कभी वे इण्टरव्यू देते और कभी फिर किसी दिन आने का वादा करके टाल देते। उस समय तक तथाकथित सभ्य समाज के लोग उनकी बस्तियों में जाना अपमान और व्यंग्य का विषय मानते थे। मेरे भी कार्यालय में मेरा संकल्प सुन सहकर्मी मज़ाक में मुस्कुराये थे पर मैंने अपना मिशन जारी रखा। बहुत मुश्किल से उन लोगों के गुरु से मिल सकी और तभी जाकर कुछ तृतीय प्रकृति के लोग अपना इण्टरव्यू देने के लिए तैयार हुए थे। पर पूरी बातें बताने को तैयार तब भी नहीं। बार-बार मेरे माइक को हटाकर कहते तुम बेटी सरकारी आदमी हो। हम लोगों को फंसा दोगी। अन्त में माइक, रिकार्डिंग मशीन के बिना ही कई-कई चक्कर इनकी बस्तियों के मैंने लगाए। आत्मीयता के साथ उनकी कोठरी में बैठकर उनकी आन्तरिक भावनाओं को कुरेदा तो बहुत ही मर्मान्तिक बातें मेरे सामने आईं। बहुत से रहस्यों से परदा उठा। अनेक सांकेतिक शब्द, जो वे लोग किसी अपने यजमान या ग्राहक के सामने प्रयोग करते थे, का अर्थ मैंने जाना। तो, प्रेरणा तो मेरी बेटी का जन्म ही था।

उपन्यास का शीर्षक ‘यमदीप’ ही क्यों रखा?
 ‘यमदीप’ शीर्षक रखने के पीछे भी उनके जीवन की विडम्बना ही थी। अच्छे घरों में पैदा हुए ये थर्ड जेण्डर के लोग उस दीपक की ही तरह तो हैं जो दीपावली से एक दिन पूर्व यमराज के नाम निकालकर कूड़े-करकट या घूरे पर रख देते हैं लोग और पीछे पलटकर देखना मना होता है उस दीप को। इनका भी जीवन लगभग यम के उसी दीप की तरह होता है जिसे समाज में जगह नहीं मिलती और बदहाल बस्ती में भागकर जाना और वहीं समाप्त हो जाना इनकी नियति बन जाती है। एक सनातन परम्परा यम का दीया से इस प्रतीक को लिया है मैंने। भारत का हर व्यक्ति दीपावली पर्व और उससे पूर्व मनाई जाने वाली छोटी दीपावली आदि से अच्छी तरह परिचित है।

‘यमदीप’ लिखते समय किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ा?
 ‘यमदीप’ लिखने में कठिनाइयाँ आईं तो बस इसी बात में कि वे जल्दी कुछ बताने को तैयार नहीं होते थे। अपना परिचय भी नहीं देना चाहते थे। मेरे सामने ही अपने सांकेतिक शब्दों में कुछ बोलकर निकल जाते थे। कई बार उनसे मिलने पहुँची तो काम का बहाना बना निकल लिये। कई बार उनके गुरुजी ने भी भीतर से कहलवा दिया कि बाहर गये हैं। दरअसल वे किसी सामान्य मनुष्य को अपने बहुत नजदीक नहीं आने देना चाहते। उनसे कोई भी रहस्य जानने के लिए मुझे कई-कई बार उनकी बस्ती में जाना पड़ता था। यह एक कठिन काम था। इस कठिन काम में मेरी मदद करते थे मेरे पति डाॅ. बेनी माधव। उनकी बस्तियों में ले जाना और उनके घर के बाहर खड़े रहना, उफ् बहुत कठिन कार्य था। वे पुरुषों को अपने घर में प्रवेश नहीं करने देते थे। मेरे पति के लिए साफ शब्दों में कहते थे- बेटी तुम आ जाओ अन्दर। हमें इन्सानों से क्या काम? तो पुरुषों को वे इन्सान मानते थे। आप तो धीरे-धीरे बहुत परिवर्तन आ रहा है उन लोगों के भीतर।



यमदीप लिखने का अनुभव कैसा रहा?
 बहुत अच्छा। 1999 में मैंने इसे लिख लिया था और 2002 में सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली से थर्ड जेण्डर पर प्रथम उपन्यास के रूप में यह प्रकाशित हुआ। लगभग तीन सौ पृष्ठों का उपन्यास। अनुभव तब और अच्छा लगा जब बिना किसी धरना, प्रदर्शन या जुलूस और नारेबाजी के सुप्रीम कोर्ट ने थर्ड जेण्डर को आरक्षण दे दिया। इस उपन्यास में मैंने थर्ड जेण्डर समुदाय के लिए शिक्षा, सुरक्षा और नौकरियों में आरक्षण दिये जाने और मुख्यधारा में समाविष्ट किये जाने की सर्वप्रथम मांग की थी। सुप्रीम कोर्ट के उस निर्णय को मैं साहित्य की विजय मानती हूँ। अन्यथा न जाने कब तक यह तृतीया प्रकृति समुदाय गरीबी, बदहाली के अंधेरे में पड़ा रहता। अब कम से कम लोग उन्हें मनुष्य की तरह समझने तो लगे हैं। ‘यमदीप’ प्रकाशित होने के दस-बारह वर्षों बाद ही सही, कुछ लेखकों ने भी प्रयास किया कि वे इनके बारे में लिखें। स्वयं थर्ड जेण्डर के लोग भी अब आगे आने लगे हैं। यह मेरे लिए अत्यन्त सुखद है कि एक कार्य मैंने शुरू किया, उस पर लोगों का ध्यान गया।

नाजबीबी और मानवी का किरदार आपके मन में कैसे आया?
 उनकी बस्तियों में भटकते हुए मैंने स्वयं में मानवी को तलाश किया। यह बात अलग है कि मानवी हमारे तथाकथित सभ्य समाज की स्त्राी के संघर्षों का प्रतीक भी है। उसी प्रकार बस्तियों में आते-जाते कई पात्रों के जीवन से साक्षात्कार के बहाने नाजबीबी भी मेरी कल्पना में यथार्थ रूप धारण करने लगी। मेरी कल्पना और समाज के यथार्थ का प्रतिबिम्ब हैं नाजबीबी और मानवी।

‘यमदीप’ लिखने से पहले और लिखने के बाद आप अपनी सोच में क्या अन्तर पाती हैं?
 लिखने से पूर्व कहीं-न-कहीं एक दुविधा थी मन में कि पता नहीं इस नये और उपेक्षित विषय को साहित्य समाज किस रूप में लेगा? पर जब इसका कई भाषाओं में अनुवाद और थर्ड संस्थाओं द्वारा नाट्य मंचन हुआ तो मुझे सन्तोष हुआ कि चलो, लिखना व्यर्थ नहीं गया। जे.एन.यू. सहित अनेक विश्वविद्यालयों में इस पर शोध-कार्य हो चुके हैं। कई विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों हेतु भी प्रस्तावित है यह उपन्यास। (हँसते हुए) कई पुरस्कारों से वंचित भी किया गया इस उपन्यास को। कथा यू.के. सम्मान के लिए तो लन्दन के हिन्दी लेखक श्री तेजेन्द्र शर्मा ने ही फेसबुक पर लिखा था जब ‘यमदीप’ को लेकर ‘पहले हम पहले हम’ का वाक् युद्ध छिड़ा था। तो ‘यमदीप’ के साथ यह सब बहुत हो चुका है। लेकिन सत्य तो सत्य ही रहेगा। मेरी आदत कभी नहीं रही कि एक उपन्यास लिखने के बाद साल दो साल उसकी समीक्षा या प्रमोशन के लिए कोई प्रयास करूँ। एक कृति लिख लेने के बाद प्रायः उसे भूलकर मैं अगले में खो जाती हूँ पाठकों का दुलार उसे चाहे जहाँ तक पहुँचा दे।

‘यमदीप’ पढ़ने के बाद आपके परिवार और मित्रों की क्या प्रतिक्रिया थी?
 सभी को चैंकाने वाला कथानक लगा था। एक अछूत विषय। इसके पूर्व भी कुछ लिखा गया होगा पर इतना विश्वास से कहा जा सकता है कि उनके इतना करीब जाकर आन्तरिक जीवन की मार्मिक कहानी शायद पहली बार जो सभी के हृदय को द्रवित कर गई थी। परिवार और मित्रों में मेरे सभी पाठक भी आ जाते हैं। उनके प्रति दृष्टिकोण में परिवर्तन आया सभी के। कुछ ने यह भी कहा कि ये थर्ड जेण्डर के लोग इतने भी निश्छल और ईमानदार नहीं होते जैसा यमदीप में चित्रित किया गया है। पर मैं जानती हूँ ये सब सतही जानकारियाँ हैं। कुछ लोग कहते हैं कि 'किन्नर बनाए भी जाते हैं इनके द्वारा।'मैंने उनके गुरु से पूछा भी था यह सवाल। दुखी स्वर में बोले थे- ‘‘देख लो बेटी मेरी कोठरिया। किसको पकड़ कर, कहाँ लेटाकर, किस औजार से आपरेशन कर देंगे हम? अस्पताल में एक फोड़ा का आपरेशन करने में भी डाॅक्टर लोग इतनी दवाइयाँ, सुइयाँ लगाते हैं तब ठीक होता है। हम कितना पढ़े-लिखे हैं कि अपने से दवा देकर सब ठीक कर लेंगे।’’ उनके गुरु का यह उत्तर मुझे भी बिल्कुल सत्य लगा था। अंग-भंग कर देने मात्रा से भीतर जो हारमोन्स का प्राकृतिक स्राव होता है, वह भी स्त्री-पुरुष में अलग-अलग, उसे तो किसी आपरेशन से बन्द नहीं किया जा सकता।
तो ‘यमदीप’ लिखने में लोगों की तरह-तरह की प्रतिक्रियाएँ भी खूब मिली और अनुभव भी कई तरह के हुए। आज लिखने के बाद असीम सन्तोष है कि एक वंचित और उपेक्षित समाज के बारे में मैंने लिखा जो ईमानदार है, शारीरिक रूप से बलवान है पर भीतर से भावनात्मक रूप से टूटा हुआ है, प्रकृति के एक क्रूर मज़ाक से उसका धरती पर जीना दूभर बना हुआ है। उसे हमारे स्नेह और संवेदना की आवश्यकता है। उसके बारे में अफवाहें फैलाने की जरूरत नहीं।



किन्नरों के लिए समाज का नज़रिया कैसा होना चाहिए?
मेरी पूर्व की इतनी बातों का अर्थ साफ है कि सहानुभूतिपूर्ण और संवेदनापूर्ण होना चाहिए। वे भी हमारे, आपकी तरह मनुष्य हैं। हमारे घरों में ही वे पैदा हुए हैं। उनकी अलग से कोई जाति या धर्म नहीं है। प्रकृति के एक क्रूर मजाक को पूरे समाज को उसी प्रकार स्वीकार करना चाहिए जैसे परिवार में किसी दिव्यांग बच्चे को हम संभालकर रखते हैं।

‘यमदीप’ लिखने के अलावा आप किन्नरों के लिए और क्या करना चाहती हैं?
साहित्य का काम ‘टार्च बियरर’ का होता है। वह समाज को दिशा देता है। अंधेरे कोनों को सामने लाता है। साहित्य को कहा जाता है कि समाज का दर्पण होता है, तो दर्पण कई प्रकार का होता है। कुछ दर्पण ऐसे होते हैं जिनमें आपना ही चेहरा इतना विदू्रप दिखाई देता है तो किसी में हास्यास्पद। किसी-किसी दर्पण पर गन्दगी जमी हो तो भी चेहरा साफ नहीं दिखाई देता। अब तय तो पाठक को करना है कि वह किस प्रकार के साहित्य में समाज का चेहरा देखना चाहता है। आज साहित्य के नाम पर बहुत कुछ विद्रूप और हास्यास्पद भी लिखा जा रहा है। तो साहित्य के लिए यह संकट का भी समय है। इन्हीं संकटों में भी नई राह बनाने का भी समय है। जो मूल्यवान साहित्य होगा, वही बचा रह जायेगा।
रही मेरे और भी कुछ करने की तो बता दूँ कि मैं कोई समाज सेविका या राजनीतिज्ञ तो नहीं हूँ कि उनके लिए अलग से कुछ और कर सकूँ। हाँ, कलम हमारा हथियार है, उसके माध्यम से एक बहस हमने छेड़ दी है। आगे समाज और राष्ट्र की जिम्मेदारी है

आप अपने जन्म, स्थान, शिक्षा, घर-परिवार और साहित्यिक पृष्ठभूमि के बारे में विस्तार से बताइये?
मेरा जन्म 15 मार्च 1962 को जौनपुर जिले के एक गाँव में हुआ था। पिता शिक्षक थे और माँ धर्मनिष्ठ एवं सम्पूर्ण एक आदर्श भारतीय स्त्राी। प्रारम्भिक शिक्षा गाँव की प्राथमिक पाठशाला से लेकर उच्च शिक्षा काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी से। अंग्रेजी विषय में एम.ए. और पी-एच.डी. बी.एच.यू. से ही सम्पन्न। लोक सेवा आयेग, उ.प्र. द्वारा शैक्षिक सेवा से चयनित हुई परन्तु उसी समय कुछ महीनों के अंतराल पर संघ लेख सेवा आयेग द्वारा आकाशवाणी/दूरदर्शन के लिए राजपत्रित अधिकारी के रूप में चयनित और उसी सेवा में रहने का निर्णय लिया। भारत के विभिन्न केन्द्रों पर सेवाएँ दीं। साहित्य लेखन साथ-साथ चलता रहा।
परिवार में मेरे पति डा. बेनी माधव (प्राचार्य) और दो बच्चे कुहू और केतन हैं। भारत सरकार ने सन् 2016 में राष्ट्रीय पुस्तक ‘न्यास’ भारत का ट्रस्टी सदस्य नामित किया।
साहित्य के साथ-साथ शास्त्रीय और उप-शास्त्रीय संगीत में विशेष रुचि। इस समय सारनाथ वाराणसी में स्थायी निवास है। पिताजी से प्रेरणा मिली लिखने की। छात्रा जीवन से लेखन शुरू कर दिया था। पत्र-पत्रिकाओं में लेख और कविताएँ प्रकाशित होती रहती थीं।

आपकी प्रिय विधा कौन सी है और क्यों?
 मेरी प्रिय विधा तो कथा ही है पर कविताएँ और ललित-निबंध भी लिखती हूँ। क्यों लिखती हूँ, इसका जवाब स्थूल रूप में नहीं दिया जा सकता। बस कोई अदृश्य शक्ति ये सब लिखने को प्रेरित करती है।

एम. फ़ीरोज़ खान वांग्मय पत्रिका के सम्पादक हैं. सम्पर्क: vangmaya@gmail.com

तस्वीरें गूगल से साभार 
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ब्रा पहनने के नहीं पुरुषों के आचरण की संहिता बने

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स्वरांगी साने
 साहित्यकार, पत्रकार और अनुवादक स्वरांगी की रचनाएं  विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित. संपर्क : swaraangisane@gmail.com

महिलाओं के मामले में दुनिया एक सी है. 10 मई को भारत के एक स्कूल ने छात्राओं को सकीं कलर का ब्रा पहनने का हुक्मनामा जारी किया तो 19 मई को टेक्सास के एक स्कूल में ब्रा न पहनने पर एक छात्रा को स्कूल से लौटा दिया गया. पहली सदी में प्राचीन ग्रीस में जब महिलाओं ने पहली बार कंचुकी पहनी थी..उससे पहले क्या लगातार बलात्कार होते थे? इस सवाल के साथ स्वरांगी साने का लेख: पुरुषों के आचरण की संहिता बने: यदि घर की बड़ी-बूढ़ी औरतें हो, युवतियाँ या बच्चियाँ हों तो उनमें घुस-घुसकर न बैठें..उनसे दो हाथ दूर रहकर बात करें सहित कई संहितायें...


पहली सदी में इतिहास मिलता है कि प्राचीन ग्रीस में जब महिलाओं ने पहली बार कंचुकी पहनी थी..उससे पहले क्या लगातार बलात्कार होते थे?
यह सवाल इसलिए ‘क्योंकि’ इतनी सदियाँ बीत जाने के बाद अब ऐसा लगता है,‘क्योंकि’ 19 मई 2018 की खबर है कि जब ब्रिटनी कोहेलो अपने टैक्सास के हार्कर हाइट्स हाई स्कूल पहुँची तो सहप्राचार्य ने उसकी ‘क्लास’ ले ली,‘क्योंकि’ वह ‘ब्रा’ पहनकर नहीं आई थी। ब्रिटनी कहती है कि उसके स्कूल के ड्रेस कोड में नहीं लिखा कि ब्रा पहनना ज़रूरी है। बिल्कुल आप किसी भी स्कूल के नियम देख लीजिए ऐसा कोई दुराग्रह ‘लिखित’ में नहीं होता पर लिखित में न होने का यह मतलब नहीं कि वैसा दुराग्रह होता ही नहीं है। उससे आठ दिन पहले 10 मई 2018 को दिल्ली के डीपीएस स्कूल में फरमान जारी हुआ कि लड़कियाँ ब्रा के साथ स्लिप भी पहनें। उन्हें यह भी हिदायत दी गई कि वे स्किन कलर की ब्रा पहनें। ताकि लड़कों का ध्यान भंग न हो! सही बात है…प्राचीन काल में भी पहुँचे हुए ऋषी-मुनियों का ध्यान टूटा है, उनकी ही तपस्या भंग हुई है। स्वयं पर नियंत्रण न रख पाने की उनकी ‘पौरूषीय कमज़ोरी’ की खबरदारी भी स्त्रियों / अप्सराओं को ही रखनी है।



…और हर दिन नए फ़रमान! भारत से लेकर दूर-सुदूर…तथाकथित उन्नत विकसित समाज में भी यही शोर…इतनी ही हिदायतें, इतनी ही पाबंदियाँ.. लड़की ब्रा पहनें ताकि लड़के ताकें न…लड़के न हुए लालच की टोकरी हो गए..जहाँ जगह मिली, लगे लार टपकाने..और उनकी लार न टपके…उन पर कोई तोहमत न आए..कोई आँच न आए…इसलिए टोकरी को ढाककर रखो, सात दीवारों के भीतर छिपाकर रखो।

हमें तो शुक्रगुज़ार होना चाहिए उन लोगों का जोनवजात कन्या से यह नहीं कह रहे कि अरे माँ के गर्भ से ही पूरे तन को ढककर इस दुनिया में आना था…पूरे कपड़े, बदनभर कपड़े…ऐसे कपड़े, वैसे कपड़े…और लंबा घूँघट-बुरका…उसके बाद भी वह डरी-सहमी कि अब कुछ हुआ, तब कुछ हुआ...

राकेश कुमार की शॉर्ट फ़िल्म है-‘नेकेड’, कल्कि कोचीन और रीताबरी की..जिसमें बलात्कार के कारणों पर कल्कि का संवाद है कि ‘सेक्चुयलिटी और न्यूडिटी की बात नहीं है, कंट्रोल, पावर की बात है… पुरुष इनसेक्योर होते हैं रिजेक्ट हो जाने से डरते हैं…बचपन से लड़कियों को सिखाया जाता है ये मत करो, वो मत करो, यहाँ मत जाओ वहाँ मत जाओ और मर्दों को नहीं। तो वे बड़े ही होते है कि ये उनका बर्थ राइट है और हम (लड़कियाँ) बड़ीहोती हैं कि हमारा कोई राइट नहीं’।
आगे उसका रीताबरी से संवाद है- ‘तुमने बहुत सेक्सी ब्रा पहनी है, लेकिन जब तुम आई तो यू कवर योरसेल्फ क्यों?’
रीताबरी का जवाब-‘मैं ऑटोरिक्शा में आई थी, लोग घूरते हैं’।

14 वीं सदी में खिलाड़ियों की पेंटिंग 


लौटते हैं अपनी बात पर..यही, बिल्कुल यही बात है। कोई आधा बदन उघाड़े पुरुष खड़ा हो तो हम अपनी बेटियों-लड़कियों से क्या कहते हैं..उधर मत देखो..पर यदि किसी महिला की ब्रेसियर झलके तो क्या हम अपने बेटों-लड़कों से कहते हैं कि मत देखो!

 क्या हमने लड़कों को इस बात के लिए तैयार किया हैजिसमें वे ‘न’ का अर्थ समझ सकें…कभी लड़के से कहा है ढंग से बैठें, ढंग के ढके कपड़े पहने, बनियान में न घूमे…जो गर्मी उसे सता रही है, हाँड़-माँस की उसकी माँ, बहन, बेटी, बीवी को भी सता रही होगी पर तब भी वह पूरे बदन कपड़े ओढ़े है।


दिल्ली के रोहिणी इलाके का डीपीएस स्कूल हो या टैक्सास का हाईस्कूल..क्या फर्क पड़ता है कि उसका नाम ब्रिटनी है या कुछ और…नियम तो नियम है..और उसके लड़की होने के साथ ही वह तैयार है कि आइए मुझ पर नियम लादिए..कल एक नियम था…आज चार लादिए…अब सौ और फिर दो सौ…

इतना बवाल, इतना हो-हल्ला, शब्दकोष में ब्रा का अर्थ ढूँढते हैं तो ब्रा, मतलब ब्रेसियर का अर्थ है छाती को ढकने और सपोर्ट देने वाला महिला का अंतर्वस्त्र।उसमें ऐसा कहीं नहीं लिखा कि इसे पहनने से उनका शील भंग होने से बच जाएगा या यदि वे इसे पहनती हैं तो पुरुष कामुक नहीं होंगे। हम इसे अधो अंतर्वस्त्र कह सकते हैं, तो जब इस आधी दुनिया के आधे बंदों को यह छूट है कि वे अपने अधोवस्त्र मतलब बनियान,चाहे तो पहनें, चाहे तो न पहनें तो महिलाओं को यह छूट क्यों नहीं? नहीं, नहीं मैं सवाल ही बदल देती हूँ जब आधी दुनिया के आधे लोग बिना हमसे पूछे आधे बदन उघाड़े घूमते हैं तो उनका क्या हक बनता है वे सलाह दें कि हम क्या पहनें क्या नहीं…और हम उनकी नसीहत को मानें ही क्यों? एक नसीहत मान लेने पर चार नसीहतें और दी जाएँगी…यदि उनसे अपना चरित्र नहीं सँभलता तो उसकी तोहमत महिलाओं, लड़कियों, बच्चियों पर क्यों?नहीं छोड़ रहे न वे किसी को…छह महीने की बालिका का भी बलात्कार कर डालते हैं…नराधम, नारकीय कौन है? ऐसा लगता है पुरुष एक शिकारी जमात है जो शिकार पर निकलता है और कहीं भी, कहीं भी, किसी भी अकेली स्त्री को देखेगा तो अपने शिकार पर टूट पड़ेगा। क्या उस छह महीने की बच्ची को भी ब्रा पहननी चाहिए? या कि माँ के पेट में ही क्यों न यदि वो कन्या शिशु है तो कपड़े पहन ले…ऐसी तकनीक ईज़ाद कर लीजिए न और फिर मजे लीजिए कि देखा हमने कैसे बाँध कर रखा है स्त्री जात को!
ब्रा बर्निंग आंदोलन


ब्रिटनी को दोपहर घर जाना पड़ा और ब्रापहनकर स्कूल आना पड़ा, उसने ट्वीट किया कि ‘मुझे शर्मिंदगी महसूस हुई…’

हाँ यही नब्ज़ है जो दुष्ट प्रवृत्तियों ने पकड़ ली है,वे शर्म महसूस कराते हैं और उन्हें खुद किसी बात की शर्म, लिहाज़ नहीं होता…उससे कहा जाता है कि लड़के उसे उन नज़रों से न देखें इसलिए उसे ब्रा पहननी चाहिए। वह ट्वीट करती है ‘लड़कियों के कपड़े पहनने पर दोष देना बंद कीजिए क्योंकि हमने लड़कों को इस तरह बड़ा ही नहीं किया कि महिलाओं की इज़्ज़त करना उनका अधिकार है’।

दिल्ली के रोहिणी इलाके के डीपीएस स्कूल में जो हुआ वहाँ भी असेम्बली (प्रार्थना सभा) के बाद लड़कों से जाने के लिए कहा गया और कक्षा 9 से कक्षा 12वीं तक की छात्राओं को रुकने की हिदायत दी गई। उसके बाद उन्हें समझाइश दी गई कि अपनी ब्रा को छिपाएँ, केवल स्किन कलर की ब्रा पहनें ताकि वो दिखे न, शर्ट के बटनों के अलावा अतिरिक्त बटन सील लें ताकि दो बटनों के बीच से उनका शरीर न दिखे।

अमा छोड़िए ये सब..मैं तो कहती हूँ ऑनली बॉयज़स्कूल बना दिए जाए, जहाँ केवल लड़कों को पढ़ने भेजा जाए ताकि लड़कियाँ अपने स्कूलों में सुरक्षित रहें, ख़ुश रहें और खुलकर साँस ले पाएँ..खुलकर जी पाएँ।


नियम पुरुषों के लिए:
1-सड़क पर कहीं भी हल्के होने की जल्दबाजी को नियंत्रित करें।
2-निश्चित करें कि पेंट की जिप लगी है।
3-घर-बाहर, पोर्च में, गलियारे में खुले बदन, बनियान पहनकर न घूमें।
4-शॉर्ट्स पहनना वर्जित है, हमेशा बचपन से फ़ुल पैंट पहनें।
5-देर रात तक सड़कों, बाज़ारों में न घूमें, बहुत घूम लिए..अब वह समय और क्षेत्र महिलाओं के लिए छोड़ दें।
6-माचो बनने की कोशिश न करें।
7-जिम करें अच्छी बात है, लेकिन शरीर सौष्ठव का प्रदर्शन करना ज़रूरी नहीं।
8-यदि घर की बड़ी-बूढ़ी औरतें हो, युवतियाँ या बच्चियाँ हों तो उनमें घुस-घुसकर न बैठें..उनसे दो हाथ दूर रहकर बात करें।

तस्वीरें गूगल से साभार 

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9-किसी भी सार्वजनिक स्थान पर लड़कियों को बेवजह छूने से बाज आएँ।
10-याद रखें…महिलाएँ जितना सहन करती हैं, समय आने पर वे उतना ही पलटकर जवाब भी दे सकती है। उनके धैर्य की परीक्षा न लें।
11-ईव टीजिंग का जवाब यदि ईंट का जवाब पत्थर से की तरह मिलने लगा तो मुश्किल हो जाएगी..बेहतर है कि आइंदा ऐसा न करें।
12-सड़क-छाप रोमियो से लड़कियों को नफ़रत है, ऐसा व्यवहार न करें।
13-

(नियम जोड़ते चलिए…खाना बनाने के नियम, घर में रहने के नियम, ऑफ़िस के नियम…)  चलिए पुरुषों के लिए संहिता बनाएँ और उनसे उसका पालन करवाएँ।

जहानाबाद (बिहार) में बलात्कारियों को बचाने में लगी पुलिस:सामाजिक कार्यकर्ताओं पर दर्ज किया मुकदमा

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निवेदिता 

बिहार के जहनाबाद जिले में नाबालिगों से लगातार हुए सामूहिक बलात्कार के मामले में पुलिस आरोपियों को बचा रही है और न्याय की मांग कर रहे पद्मश्री सुधा वर्गीज सहित महिला सामाजिक कार्यकर्ताओं पर उसने उल्टा मुकदमा भी दर्ज कर डाला. निवेदिता की रिपोर्ट: 

बिहार के जहानाबाद में नाबालिग लड़की के साथ हुए बलात्कार के मामले में सत्ता और पुलिस की भूमिका पर सवाल उठ रहे हैं. सामूहिक बलात्कार को छेड़खानी में बदल दिया गया है .पुलिस ने अपने  एफआईआर (342/18) में छेड़खानी का मामला दर्ज किया है. जबकि महिला संगठनों की तरफ से गये  जाँच दल के सामने नाबालिग लड़की ने कहा कि उसके साथ सामूहिक बलात्कार हुआ.

छात्राओं के साथ सुधा वर्गीज़ 


गौरतलब है कि पिछले दिनों जहनाबाद केरामदानी गाँव (भरथुआ) में एक नाबालिग लड़की के साथ छेड़-छाड़, उसके कपडे उतारने की कोशिश करते हुए 13लड़कों के एक समूह ने वीडियो बनाया था, जो पिछले 29 अप्रैल को वायरल हो गया था. इसके बाद पुलिस हरकत में आयी और कुछ गिरफ्तारियाँ हुईं थीं, हालांकि 4 मई तक सारे आरोपी गिरफ्तार हो गये थे. अप्रैल  के आख़िरी सप्ताह में यह  मामला प्रकाश में आया. इसके दो सप्ताह बाद जहनाबाद में ही एक और नाबालिग के साथ गैंग रेप का वीडियो बनाया और वायरल किया गया.

ताजा घटनाक्रम में नाबालिग लड़की के साथ बलात्कार के मामले में न्याय की मांग करने गयी महिला सामाजिक कार्यकर्ताओं पर प्रशासन ने प्राथमिकी दर्ज कर दी है. सामाजिक कार्यकर्ता सुधा वर्गीज , कंचन बाला और मीरा यादव पर सरकारी कामकाज में बाधा और नाजायज मजमा लगाने के आरोप में प्राथमिकी दर्ज की गयी है . उनपर धारा 147,149, 353, 504 के तहत जहानाबाद नगर थाना में प्राथमिकी दर्ज की गयी है. इस मामले को लेकर एक प्रतिनिधि मंडल  बिहार विधान सभा के अध्यक्ष से भी मिला और जांच दल पर पर किये गए झूठे मुकदमे वापस लेने की मांग भी की.

सुधा वर्गीज ने कहा कि ‘जिस देश में महिलाओं के लिएन्याय की मांग करने के लिए आवाज उठाने वाली महिलाओं पर सत्ता का प्रहार हो तो समझ लीजिये की अब कोई सुरक्षित नहीं है . हम सभी महिला संगठनों की और से जहानाबाद में बलात्कार की शिकार नाबालिग लड़की के साथ हुई घटना की जाँच फिर से कराये जाने की मांग को लेकर प्रदर्शन कर रहे थे. जहानाबाद के मामले में पुलिस की भूमिका संदेहास्पद है. जो प्राथमिकी दर्ज की गयी है उसमें बलात्कार का उल्लेख नहीं किया गया है. इतनी जघन्य और हिंसक मामले को पुलिस प्रसासन ने कमजोर कर दिया है.’

वायरल वीडियो से 

वर्गीज ने बताया कि 'हमलोग 6 मई को पीडिता से मिले उसने बताया किउसे  चार घंटे तक बंधक रखा गया था.और उसका सामूहिक बलात्कार किया गया. नाबालिग पीडिता की हालत ख़राब है.उसे उसके ही घर में नजर बंद कर दिया गया है . 24 घंटे वह पुलिस की निगरानी में रहती है . एक छोटे से अंधरे कमरे में एक चौकी पर पूरी रात और दिन उसे महिला पुलिस के साथ रहना पड़ता है . उसे किसी से बात करने या बाहर जाने की इजाज़त नहीं है.'  जांच दल के सदस्य पूछती हैं, ‘क्या यह आप कल्पना कर सकते हैं की जिस बच्ची के साथ सामूहिक बलात्कार हुआ हो वह किस मानसिक स्थिति में होगी ? उसे उस जगह से निकलना तो दूर उसे कड़े निगरानी में रखा जा रहा रहा है जैसे वो कोई अपराधी हो. शर्मनाक है ये . हम एक ऐसे राज में हैं जहाँ की पुलिस और सत्ता बलात्कारियों को संगरक्षण देती है.’  हालांकि पटना रेंज के आई जी नैय्यर हसनैन खान ने पीड़िता के साथ सामूहिक बलात्कार से इनकार किया. जांच दल के एक सदस्य ने सवाल किया  कि क्या बलात्कार के नये क़ानून के अनुसार सिर्फ इंटरकोर्स को ही बालात्कार माना जाता है?'

15 मई को कई  महिला संगठन जहानाबाद में प्रदर्शन कर रहे थे और महिलाओं का एक प्रतिनिधि मंडल डीएम से मिलना चाह रहा था कि उलटा उनपर ही मुकदमा दर्ज कर दिया गया. प्रदर्शन ख़त्म होने के बाद पुलिस ने प्रदर्शनकारियों की जबरदस्ती तस्वीरें निकालीं. मुंह पर कला कपडा बांधे कुछ पुलिसकर्मी प्रदर्शन ख़त्म होने के बाद जबरदस्ती महिला साथियों की तस्वीर लेने लगे तो उसका विरोध हुआ.

निवेदिता वरिष्ठ पत्रकार हैं और स्त्रीकाल के सम्पादन मंडल की सदस्य हैं. सम्पर्क: 9835029152

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9-किसी भी सार्वजनिक स्थान पर लड़कियों को बेवजह छूने से बाज आएँ।
10- याद रखें…महिलाएँ जितना सहन करती हैं, समय आने पर वे उतना ही पलटकर जवाब भी दे सकती है। उनके धैर्य की परीक्षा न लें।
11-ईव टीजिंग का जवाब यदि ईंट का जवाब पत्थर से की तरह मिलने लगा तो मुश्किल हो जाएगी..बेहतर है कि आइंदा ऐसा न करें।
12-सड़क-छाप रोमियो से लड़कियों को नफ़रत है, ऐसा व्यवहार न करें।
13-



(नियम जोड़ते चलिए…खाना बनाने के नियम, घर में रहने के नियम, ऑफ़िस के नियम…)  चलिए पुरुषों के लिए संहिता बनाएँ और उनसे उसका पालन करवाएँ।

इकाई नही मैं करोड़ो पदचाप हूँ मैं: रजनी तिलक की काव्य-चेतना

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अनिता भारती 

रजनी तिलक  होतीं तो आगामी 27 मई को 61वां सालगिरह मना रही होतीं. पिछले 30 मार्च 2018 को उनका परिनिर्वाण हो गया. प्रथमतः सामाजिक कार्यकर्ता की छवि वाली राजनीतिलक को हिन्दी दलित साहित्य की प्रथम कवयित्री बताते हुए अनिता भारती ने उनकी काव्य-चेतना पर यह लेख लिखा है. 27 मई को उनके जन्मदिवस के पूर्व पठनीय यह लेख. रजनी तिलक  की छोटी बहन अनिता भारती स्वयं लेखिका, विदुषी और सामाजिक कार्यकर्ता हैं: 

रजनी तिलक संभवत हिन्दी दलित साहित्य की पहली कवयित्री हैं,  जिनकी कविताएं 80 के दशक में विभिन्न दलित पत्र- पत्रिकाओंं में छपने लगी थीं और लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने लगी थी। हालांकि उनका पहला काव्य संग्रह पदचाप'बहुत बाद में छपकर आया। काव्य संग्रह देरी से आने का कारण शायद रजनी तिलक का स्वयं अपने आप को साहित्यकार से अधिक सामाजिक राजनैतिक कार्यकर्ता मानना रहा होगा । चूकि रजनी तिलक अपने जीवन के अधिकतम सालों में  सामाजिक जीवन व दलित व स्त्री आंदोलन में सक्रिय रहीं, इसी कारण शायद किताब छपना न छपना उनके लिए कोई मायने  नही रखता था ।



दलित स्त्रीवाद के विभिन्न स्वर समेटे हुए उनका काव्य संग्रहपदचाप कई मायने में महत्वपूर्ण है। सबसे पहली बात तो यही है कि रजनी तिलक कई मोर्चों पर पूरी एक जमात के हक के लिए एक साथ डटी हुई थीं। वह जिनकी हिमायत में खडी थी उनमें  प्रमुख रुप से, दलित,स्त्री , दलित स्त्री, सर्वहारा वर्ग शामिल था. रजनी तिलक लगातार इन शोषित दमित उत्पीडित अस्मिताओं के संघर्ष और अधिकार की लड़ाई के पक्ष में और उनका दमन करने वाली ब्राहम्णवादी पितृसत्तात्मक व्यवस्था के खिलाफ अपनी कविताएं लिख रही  थीं। स्त्री आंदोलन के अन्तर्गत उठने वाले सवाल, उनके अपने अंतर्द्वन्द्व, उनकी सीमाओं को पहचानते हुए उनके अनुभव उनकी कविताओं के मूल विषय रहे हैं। इसी तरह दलित आंदोलन की वैचारिकी के सवाल, उसमें दलित स्त्री की हैसियत, उसकी पीड़ा , उसकी आकांक्षा की बानगी उनकी कविताओं में देखी जा सकती है। सर्वहारा के सवाल वे एक जमात या वर्ग के रुप मे उठाती हैं। उनकी कविताओं मे वर्गीय चेतना, जातीय चेतना, और वैयक्तिक चेतना के स्वर प्रमुख रुप से दिखते हैं।

पदचाप कुल चौसठ पृष्ठों का काव्य संग्रह है।इसमें  कुल 59 कविताएं है . पदचाप का एक संस्करण के बाद दूसरा संस्करण 2008 में निधि बुक्स से आया है। वह अपनी भूमिका में लिखती है - मैं खुश हूँ कि स्पर्धा और छपने-छपाने की होड़ में जहाँ लेखक या प्रकाशक को अपनी पुस्तकों की मार्केटिंग के लिए मशक्कत करनी पडती , मुझे ऐसा नही करना पड़ा। न ही नामचीन व्यक्तियों को सिफारिश करनी पड़ी। पदचाप ने अपने पैरो चलकर अपनी पहचान बनाई है।- पृ-9

पदचाप में लिखे अपने आत्मकथ्य में दलित महिलाओं कीस्थिति पर वह कहती है - आजादी की स्वर्ण जयंती और मानव अधिकार की घोषणा के पचास वर्ष बीतने जाने पर भी दलित स्त्रियों की हालत में विशेष परिवर्तन नही आया है।शिक्षा, राजनीति, प्रशासनिक सेवा, वाणिज्यिक क्षेत्र में उसकी पहुँच नगण्य है। अगर वो कहीं  है तो शहर की स्लम, धुूल व बदबूदार दूर-दराज गाँव देहातों के बाहर बनी बस्तियों में। -पृ -11

रजनी तिलक अपनी कविताओं में  प्रगतिशील तबके के छद्म मुखौटाधारियों से सतत टकराती है। अपने आत्मकथ्य में एक अन्य जगह वह लिखती है -  मेरा परिचय 1978 में प्रगतिशील साथियों से हुआ, जिनका विश्लेषण था कि दलितों की विवशता का मुख्य कारण आर्थिक शोषण है जिससे उनकी सामाजिक हैसियत तय होती है।पृ-9  क्या यह सही नही है कि रजनी तिलक ने अपने प्रगतिशील साथियों पर जो सवाल 1978 में खडे किए ,वह सवाल आज भी ज्यों के त्यों ही खडे हुए है उत्तर की आशा में।

एक ऐसा ही दूसरा सवाल दलित सामाजिकराजनैतिक कार्यकर्ताओं के सामने भी वह खड़ा करती हैं - मुम्बई  में नौकरी मिलने के कारण दलित साहित्य, दलित पैंथर, आंदोलन में स्त्रियों की भागीदारी की अनुपस्थिति और पितृसत्तात्मक रवैया भी देखने को मिला-(पृ12)

पदचाप में संकलित रजनी तिलक की कविताओं को मुख्य स्वर के आधार पर  चार भागों में बाँटा जा सकता है. उनकी कविताओं का प्रमुख स्वर आशावादी है। चाहे वह दलित स्त्री की स्थिति की बात हो या दलित समाज की या फिर सर्वहारा समाज की , वह उनकी स्थिति में बदलाव के लिए हमेशा आशावान रहती हैं. रजनी तिलक स्थितियां  पलटने और बदलने में विश्वास रखती है.उनकी कविताओं  का दूसरा मुख्य स्वर विपरित दमनकारी स्थिति से हारकर बैठने की बजाय उनके खिलाफ संघर्ष करना है। कवयित्री को हमेशा लगता है कि रात सुबह का आगाज है। इसलिए संघर्ष ही मुक्ति का एक मात्र रास्ता है।  उनकी कविताओं का तीसरा स्वर समानता में विश्वास होना है। वह लगातार अपने अंदर इस विश्वास को जगाएं रखती है कि एक दिन समाज में समानता का  बिगुल जरुर बजेगा। मुक्ति की कामना और मुक्ति का स्वप्न उनकी कविताओं का चौथा मुख्य स्वर है। जिसमें वह कामना करती है कि एक दिन मनुष्य को भेदभाव पूर्ण अन्याय से,शोषण से,भूख से, दुःख  से, उत्पीड़न से, गुलामी से, युद्ध से, जरुर मुक्ति मिलेगी और वह मानव होने की पूर्ण गरिमा को जरुर प्राप्त करेगा।

पदचाप में संकलित पहली कविता सावित्रीबाई फुले पर है.। कवयित्री लोगों से आहवान करती हैं कि आज सावित्रीबाई को पूजने की जगह अनुकरण करने की जरुरत है. क्योंकि सावित्रीबाई फुले ने ही दलित शोषित स्त्रियों को उनकी मुक्ति की राह दिखाई है:
दलित और पद-दलित स्त्रियों को
तुमने ककहरा ही नही सिखाया
भर दिया उनमें विद्रोह
धैठा था  एक द्वंद्व, एक जेहाद
पोंगा-पुरोहित व वेद शास्त्रों के खिलाफ


स्तंभ कविता में वह सावित्रीबाई फुले को अपने आदर्श के रुप में स्थापित करते हुए उन्हें नारीवादी दार्शनिक कहते हुए  कहती हैं:
तुम्हीं हो हमारी आदर्श
हमारे बंदी संस्कारों की,
वर्गीय-दर्प और उत्पीड़न की
पथ प्रदर्शक सावित्री
तुम्ही हो दर्शन हमारे नारीवाद की

अपनी एक अन्य कविता में युद्ध के स्थान पर बुद्ध की स्थापना जो कि शान्ति ,समता, बंधुत्व और विश्व शान्ति के प्रतीक हैं  को अपनाने की बात करती है। वह युद्ध की राजनीति पर प्रहार करती हैं. युद्ध में मारे गए व घायल हुए हिरोशिमा के बच्चों की माँ के दुख को महसूस करती है। हिरोशिमा की माओं के दुखों का वर्णन करते हुए वह कहती हैं-
हिरोशिमा की माँओं की सिसक
अभी बाकी है
ये जंग की तलवार
हमारे सिर से हटा दो
बारुद के ढेर पर
क्यों खड़ी है हमारी दुनिया ?

कवयित्री काफीहाउस में बैठकर देश दुनिया के मजदूरो किसानों दलितों के प्रति चिंता जताने वाले, उन पर साहित्य रचने वालों पर व्यंग्य करती हैं। उन्हें हैरानी है कि वे यह काम कैसे कर पाते हैं। 
कौन है वो ?
कॉफी होम में बैठ, खूब बतियाते है,
खेत- खलिहान, पर्यावरण पर
खूब लिखते हैं
खेतों में पैदा नही हुए
परंतु उनकी गंध सूँघते है,
दलित उत्पीड़न सहा नही
महसूस करते है
हो भाव विभोर
मार्मिक कविता लिखते है
मैं हैरान हूँ -
उन्होने हमारे दर्द
गीतों में पिरोए कैसे ?

इसी कड़ी में अपने संघर्ष के साथी कामरेड, जिन्हें  वह दादा यानि बड़ा  भाई कहती थी, मानती थी, जो एक बहुत बडे मानवअधिकारवादी कहलाते थे, उनके द्रारा किए गए विश्वास घात की पोल खोलते हुए कहती है कि क्या परिवार में पति के अलावा पत्नी और बच्चों के कोई  मानव अधिकार नही होते?  समाज बदलाव की लड़ाई में हम उस पक्ष को ही क्यों चुनते है जो सक्षम होता है, जिससे हमें फायदा होता है। पति और पत्नी यदि दोनों कामरेड हो तो क्या पति पुरुष का कामरेड साथी इसलिए उसके साथ खडे हो जायेंगे कि वह भी पुरुष है? यह कविता नितांत उनके व्यक्तिगत दुःख की है: 
दादा
तुमने मुझे स्नेह दिया
अपनी छोटी बहन समझ
सिखाया
तुम थे जिसने
उसे वकील का रास्ता दिखाया
विश्वास नही होता

जन-संघर्ष के अभियान में
मैं कब पीछे रही
पुलिस अत्याचार
राजनैतिक बंदियों के मुठभेड़
अत्याचारों की जाँच- पड़ताल
और रिपोर्ट,
इन सबकी अंतिम कड़ी में
तुम्हारे साथ सदा जुडी थी।

जानना चाहती हूँ आज मैं
बच्चों और स्त्रियों के सवाल
क्या मानव अधिकार नही ?
बच्चों की मुस्कान
औरत का स्वाभिमान
क्या उनका मानव अधिकार नही?

अपने कविता संग्रह पदचाप  में कवयित्री रजनी तिलक दलित आंदोलन में व्याप्त पितृसत्ता के खिलाफ, अपने पथ के साथ आंदोलन कारी दलित सामाजिक कार्यकर्ता को सचेत करती हैं कि मानव मुक्ति की लड़ाई सिर्फ पुरुषों की लड़ाई नही है उस लड़ाई में स्त्रियाँ भी बराबर की भागीदार है। सिर्फ पुरुषों के चाहने से ही क्रांति संभव नही है उसमें आधी आबादी के मुक्ति के सपने को भी जोड़ना पडेगा। 
मेरे दोस्त
मानव मात्र की मुक्ति के पक्षधर
अपने लिए मुक्ति चाहते हो
मेरा भी हक है

कवयित्री पुरुष से नही पितृसत्तात्मक मूल्यों से छुटकारा पाना चाहती है:
तुम्हारे साथ थी
कैदी थी तुम्हारी
अब अपने साथ हूँ
कैदी हूँ संस्कारों की

कवयित्री इन्ही संस्कारो का, इन्ही ब्राहमणवादी मूल्यों का पिंजरा तोड़कर मुक्ति की कामना करती है। इस मुक्ति की राह को राह को पार करने के लिए वह बडे से बड़ा जोखिम उठाने को तैयार है. वह किसी लोभ लालच और उपलब्धी की मोहताज नही है. वह हर तरह के कंटक हटाकर आगे अपने आगे बढ़ने की जुगत निकालती है:
परिंदा हूँ
मुझे खुला आसमान चाहिए
न बरगला
मैं पिंजरा तोड़ के आई हूँ
मुझे मेरी मंजिल है प्यारी
न डिगा
मैं काँटे रौद के आई हूँ।

सवाल यह है कि कवयित्री रजनी तिलक की राह के वह कौन से काँटे हैं जिन्हे वह रौंद के आईं है। क्या यह काँटे समाज में दलित स्त्री की दयनीय स्थिति के है या उसको दोयम समझे जाने की पीड़ा के हैं। क्या इन काँटोें में सवर्ण स्त्रीवाद और दलित पुरुषवाद का हाथ है अथवा समाज की क्रूर जातीय व्यवस्था इसकी जिम्मेदार है। कुल मिलाकर यही दर्द उनकी कविताओं का मुख्य स्वर है। जहाँ वह व्यवस्था से लेकर अपने संगी साथियों से भी चुनौती झेलती है। कवयित्री बेहद चिंतित है कि दलित स्त्री किस तरह पशुवत जीवन जीती है:
ये
कंजरो की बस्ती
झुंड औरतें
निरीह बकरियों सी.
नीले पीले काले घाघरे,
बेमेल ढेर कंठियाँ,
कानों पर ढोती
आठ आने वाली झुमकियाँ.

स्कूलों से वंचित बच्चियाँ
ये भी है अपनी
माँ की आँखों की पुतलियाँ
सीलन भरी
सूअर बाड़े सी आवास पट्टियाँ
जिन्हे विकास और योजनाओं ने
चिन्हित नही किया

भेड़िए कविता के माध्यम से कवयित्री रजनी तिलक ने दलित औरतों के प्रति समाज की विकृत मानसिकता को उजागर किया है। यह समाज उस भेडिए की तरह है जो मासूम भेडो को अपना शिकार बनाता रहता है.
एक अकेली औरत
जिसे परिवार ने निकाल दिया
वह सड़क पर नितांत अकेली है,
भेड़ियों से दर्जने आँखे
लपलपाती जुबानें
उसे सूँघने का काम करती है

सवर्ण स्त्रीवाद जो कि यह कहता है कि सभी स्त्री एक है। सभी स्त्रियों की पहचान एक ही और वह एक मात्र पहचान है उसका स्त्री होना. पर रजनी तिलक उनकी सवर्ण मानसिकता पर सवाल खडे करती हैं, वे कहती हैं:
औरत औरत होने में
जुदा-जुदा फर्क नही क्या
एक भंगी तो दूसरी बामणी
एक डोम तो दूसरी ठकुरानी
दोनों सुबह से शाम खटती है
बेशक, एक दिन भर खेत में
दूसरी घर की चारदिवारी में
शाम को एक सोती है बिस्तर पर
तो दूसरी काँटो पर।

एक सताई जाती है स्त्री होने के कारण
दूसरी सताई जाती है स्त्री और दलित होने पर
एक तड़पती है सम्मान के लिए
दूसरी तिरस्कृत है भूख और अपमान से।

एक सत्तासीन है तो दूसरी निर्वस्त्र घुमाई जाती है
औरत नही मात्र एक जज्बात
हर समाज का हिस्सा,
बँटी वह भी जातियों में
धर्म की अनुयायी है
औरत औरत में भी अंतर है।

रजनी तिलक चूंकि गहरे तक दलित आंदोलन में जुडी रही इसलिए दलित आंदोलन के सामने जो खतरे है जिनके कारण उसके टूटने बिखरने का जो खतरा है , जो उसकी कमियां है, जो उसकी खासियत है या फिर जो उसकी ताकत है वह इस इन सबसे अच्छी तरह से वाकिफ थी. दलित आंदोलन के सामने आज जो सबसे बड़ी चुनौती है वह उसका उपजातीय समूह में बँटा होना और आपस में रोटी बेटी का संबंध न होना। दलित समााज का इस तरह उपजातीय में बँटने का कारण हिन्दू धर्म की जातीय व्यवस्था है। जो इंसान से इंसान को जाति के आघार पर अलग करती है। उनको रोटी बेटी के संबंध करने और एक साथ मिलकर रहने खाने पर पाबंदी लगाती है। ऐसा नही कि पूरे दलित समुदायों में आपस में रोटी बेटी का संबंध नही है। रोटी बेटी का संबंध अम्बेडकरवादी विचारधारा के साथी तो कर रहे है परंतु जो अभी अम्बेडकरवाद के प्रभाव से दूर है उन्ही के लिए कवयित्री कहती है:
हम दलित
अनेक उपजातियों में बँटे
अनेक भिन्नताओं में पले
भूख प्यास , घृणा, हीनता को भोगते
जिंदा है आज भी,
लिए लडाई अस्तित्व और समानता की

उनकी बात में न आना
मकसद है उनका हमें लडाना
असमानता ना फले फूले चारो ओर
लड़ना है हमें असमानता से
गढ़नी है भाषा, बढाना है विज्ञान,
तभी बनेगा जातिविहीन समाज


कवयित्री रजनी तिलक जानती है बल्कि यूं कहे यह उनके अनुभव का विशाल दायरा है कि वे जिसे हमारे प्रगतिशील साथी सर्वहारा जमात कहते है दरअसल वह हमारे दलित मजदूरों का पूरा एक वर्ग है जो फैक्ट्री, खेत खलिहान, असंगठित में रात दिन खटता और पिसता है। मजदूर है इस देश का दलित कविता में रजनी तिलक यही बता रही है कि:
हर कष्ट में मुस्कुराता तेरा चेहरा,
जैसे भट्ठी में तपता सूर्ख लोहा
दलित ! तुम हो इस देश के मजदूर

गर्मियों में लहू टपकता, बन पसीना तुम्हारा
सर्दियों में अर्ध वस्त्र , ठंड से बेहाल बेचारा
दलित !तुम हो इस देश के सर्वहारा.
रजनी तिलक एक प्रदर्शन में 


कवयित्री सिर्फ दलित सर्वहारा वर्ग की पहचान ही नही करती अपितु उसको दलित दरिद्र में ढ़केलने वाले पूँजीपतियों पर भी प्रहार करती है और कहती है कि दलित मजदूरों की दूर्दशा का सामाजिक शोषण के साथ-साथ उनका आर्थिक रुप से शोषण भी है:
शोषण के अधिकारी, ये पूँजीवादी
इंसानियत के गद्दार, हैवान के साथी,
तुम्हें  न देते दो जून भरपेट रोटी
दलित ! तुम ही हो
इस देश के भूमिहीन कृषक सर्वहारा


यदि किसी को कवयित्री और सामाजिक नेत्री रजनी तिलक के स्त्रीवादी, समाजिक राजनैतिक आंदोलनधर्मी, सामाजिक राजनैतिक और वैयक्तिक जीवन को आंकना हो, उनके सामाजिक सरोकार जानने हो, उनकी इच्छाएं आकांक्षाएं समझनी हो, उनका समाज बदलाव का स्वप्न देखना हो तो उनकी पदचाप शीर्षक वाली कविता जरुर एक बार पढ़ लेनी चाहिए। पदचाप कविता एक बेहद सशक्त कविता है। 'करोड़ो पदचाप हूँ'में वह बयान करती हैं:
मैं दलित अबला नहीं
नये युग की सूत्रपात हूँ
सृष्टि की जननी,
नये युग की आवाज हूँ
मेरा अतीत
बंधनों का
गुलामी के इतिहास का
युगों युगों के  दमन का वहन है।

अब-
मैं छोड़ दूंगी गुलामगिरी,
तोड़ दूंगी बेड़िया
सृजन में बाधक प्रेम की।

मेरा दुःख
 दुःख नहीं
आशाओं का तूफान है
मेरे आँसू आँसू नहीं है
जंग का पैगाम है
इकाई नही मैं
करोड़ो पदचाप हूँ
मूक नही मैं
आधी दुनिया की आवाज हूँ
नए यूग की सूत्रधार हूँ.

अनिता भारती साहित्य की विविध विधाओं में जितना लिखती हैं , उतना ही या उससे अधिक सामाजिक मोर्चों पर डंटी रहती हैं  खासकर दलित और स्त्री मुद्दों पर. सम्पर्क : मोबाईल 09899700767.

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भाजपा का चार साल: प्रधानमंत्री से नाराज आधी आबादी

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डेस्क 

भाजपा की अगुआई में एनडीए सरकारअपने चार साल पूरे होने का जश्न मना रही है. हालांकि विरोधी पार्टियां इस अवसर पर मंहगाई और अन्य मुद्दों पर सरकार को घेरने की तैयारी भी कर रही हैं. इस बीच सरकार पर सवाल आधी आबादी की ओर से भी उठने लगे हैं.



महिलाओं के संगठनों ने पिछले कुछ महीनों मेंदर्जनो पत्र प्रधानमंत्री नरेंद मोदी को भेजकर उनसे समय माँगा है, लेकिन प्रधानमंत्री उन्हें मिलने का समय नहीं दे रहे. कारण है भाजपा के घोषणा पत्र में महिला आरक्षण के लिए किया गये वादे पर मोदी सरकार की बेरुखी.

भाजपा ने 2014 में अपने घोषणापत्र में लिखा था कि"भाजपा संविधान संशोधन के जरिये संसद एवं राज्य विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33% आरक्षण प्रदान करने को प्रतिबद्ध है.'हालांकि पार्टी ने पिछले चार सालों में इस मुद्दे पर कभी कोई पहल नहीं की. सूत्रों के अनुसार महिलाओं के एक प्रतिनिधि मंडल से इस मसले पर बातचीत के लिए सरकार के ताकतवर मंत्री अरुण जेटली ने महज दो-तीन मिनट का समय दिया था. उनके व्यवहार से आहत महिला समाजकर्मी स्पष्ट हो चुके थे कि सरकार इस विषय को ठंढे बस्ते में डाल चुकी है. इस बीच पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी, कांग्रेस की पूर्व अध्यक्ष सोनिया गांधी, उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू ने  आदि ने महिला आरक्षण पास करने को समय की जरूरत बताया. सोनिया गांधी ने सितंबर 2017 में ही इस मसले पर प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखी थी. लेकिन प्रधान मंत्री मोदी की इस विषय पर चुप्पी और सरकार द्वारा चार सालों में कोई पहल न किया जाना सरकार की उदासीनता का संकेत है.
बीजेपी के घोषणापत्र का एक हिस्सा 


महिला अधिकार कार्यकर्ता पद्मिनी कुमार कहती हैंकि 'भाजपा ऐसी स्थिति में थी कि वह अपने बूते पर इस बिल को पास करा ले जाती. राज्यसभा से यह बिल पहले ही पारित हो चुका है. लोकसभा में भाजपा को पूर्ण बहुमत है और एनडीए तथा कांग्रेस को मिलाकर संविधान संशोधन के लिए इनके पास पर्याप्त संख्या बल है.'गौरतलब है कि लोकसभा में भाजपा के अकेले 281 सदस्य थे, जबकिउपचुनावों में हार और कर्नाटक से येदुरप्पा और एक अन्य सांसद के इस्तीफे के बाद यह संख्या 271 (बहुमत से एक कम) हो गयी है.

भाजपा के महिला नेता और उसके महिला मोर्चे की अध्यक्ष विजया रहटकर पार्टी के स्तर पर महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित कराने के लिए अपने बड़े नेताओं को श्रेय देती हैं लेकिन पार्टी के महिला मोर्चे के पास महिला आरक्षण बिल पारित कराने के लिए कोई कार्यक्रम नहीं है. ऑफ़ द रिकार्ड बातचीत में भाजपा की कई महिला नेता संकेत देती हैं कि जबतक प्रधानमंत्री इस मसले पर अपनी चुप्पी नहीं तोड़ते हैं तबतक पार्टी का कोई नेता-महिला या पुरुष इसपर पहल नहीं ले सकता. महिला क़ानून के जानकार सुप्रीम कोर्ट के अधिवक्ता अरविंद जैन कहते है 'इरादे के अभाव में महिला आरक्षण अगले 100 साल तक पास नहीं होने वाला.

सोनिया गांधी द्वारा प्रधानमंत्री को लिखी गयी चिट्ठी 


संसद के आगामी सत्र के पूर्व इस मुद्दे पर प्रधनामंत्री कोघेरने का मन महिला संगठन बना रहे हैं, लेकिन एक कार्यकर्ता के अनुसार 'दिल्ली में प्रदर्शन या चिट्ठी-पत्री से सरकार पर कोई असर नहीं होने वाला इसके लिए हर संसदीय क्षेत्र में घोषणापत्र से वादाखिलाफी के मुद्दे पर महिलाओं को आन्दोलन करना चाहिए.'उन्होंने यह भी जोड़ा कि 'जब तक इस मसाले पर 'महिला आरक्षण के भीतर वंचित समाज की महिलाओं का आरक्षण की मांग करते हुए ग्रामीण स्तर से बड़ा आन्दोलन नहीं शुरू होता, डगर बहुत कठिन रहने वाली है. तय है कि 2019 के घोषणापत्र में भी भाजपा इस वादे को दुहरायेगी जरूर.

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राष्ट्रपति के पूर्व ओसडी और उसके भाई पर शोधार्थी ने लगाया शोषण का आरोप

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स्त्रीकाल डेस्क 
आगरा में पीएचडी की छात्रा उपमा शर्मा  ने राष्ट्रपति के पूर्व ओएसडी और संपादक कन्हैया त्रिपाठी पर गंभीर आरोप लगाये हैं. छात्रा ने कन्हैया त्रिपाठी के भाई प्रदीप त्रिपाठी पर शादी का झांसा देकर शारीरिक, मानसिक शोषण का आरोप लगाया है वहीं कन्हैया त्रिपाठी पर धमकाने का आरोप लगाया है. इस आशय का एक पोस्ट उसने अपने फेसबुक पेज पर लिखा है. पीडिता का नाम इस खबर में इसलिए सार्वजनिक है क्योंकि उसने पोस्ट लिखकर यह मामला सार्वजनिक किया है और वह खुद को छिपाना नहीं चाहती है.

भूतपूर्व राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल के साथ कन्हैया त्रिपाठी

आगारा की एक डीम्ड यूनिवर्सिटी से पीएचडी कर रही है उपमा ने 'स्त्रीकाल'से बातचीत करते हुए बताया कि 'प्रदीप ने उससे सोशल मीडिया पर संपर्क साधा और दो सालों से उसके साथ प्यार का नाटक करता रहा. शादी का झांसा देकर शारीरिक शोषण भी किया, लेकिन जब बात शादी की आयी तो मुकर गया.'उपमा के अनुसार इस सारी घटना की जानकारी दोनो पक्ष के परिवारवालों को थी. लेकिन जैसे ही शादी का प्रसंग आया तो कन्हैया त्रिपाठी ने उसे छोटी जाति का बताते हुए उसे प्रदीप से दूर रहने की धमकी दी. गौरतलब है कि पीडिता भी सवर्ण जाति (भूमिहार) है और त्रिपाठी भी (ब्राह्मण). पीडिता के अनुसार कन्हैया त्रिपाठी ने उसे और उसके पिता को देख लेने, नौकरी से निकलवा देने की धमकी दी, अपनी ऊंची पहुँच का हवाला दिया और यह भी कहा कि 'प्रदीप को जाति की लडकी से शादी कर लेने दो फिर तुम चाहो तो उसके साथ रह सकती हो.'  नीचे की तस्वीर कन्हैया त्रिपाठी का उपमा शर्मा के पिता से बातचीत का स्क्रीन शॉट है. नीला कलर का टेक्स्ट कन्हैया त्रिपाठी द्वारा भेजा गया टेक्स्ट है.



उपमा ने पोस्ट में लिखा कि कन्हैया त्रिपाठी ने कहा कि 'डॉ. कन्हैया त्रिपाठी जी ने मेरे बारे में यह पूछा कि क्या उपमा वर्जिन है ? जो लड़की तुम्हारे साथ रह रही हैं वो चार लोगों के साथ भी सो कर आई होगी.'

फेसबुक पर उपमा का पोस्ट: 

कृपया इस पोस्ट को ध्यान से एक बार जरूर पढ़ें "

मैं उपमा शर्मा, यह पोस्ट इसलिए लिख रही हूं कि मेरा अपराध बस इतना ही है कि मैं किसी से प्रेम करती हूं. भारत, हम सबका भारत, जहां आज पर सब विकास कर रहे हैं और सबको अपनी बात कहने, अपने तरीके से रहने की आजादी है. लेकिन मैं इनमें से किसी भी बात का हिस्सा नहीं बन पाई।

राष्ट्पति भवन के पूर्व सम्पादक, विशेष कर्तव्य अधिकारी, वर्धा से पी-एच.डी. किये हुये "डॉ. कन्हैया त्रिपाठी "जी के भाई "प्रदीप त्रिपाठी"और मेरे और प्रदीप त्रिपाठी जी के सहमति से 17-10-2017 को शादी करने के लिए हमारे द्वारा मैरिज पेपर बनवाया गया था और प्रदीप जी ने मुझे एक GD बनवाकर दी , जिसमें यह साफ साफ लिखा गया था कि मैं प्रदीप जी की कानूनी तौर पर पत्नी हूँ । उसके बाद मेरे साथ 10-12 दिन एक ही छत के नीच एक ही कमरे में मेरे पति बनकर रहे लेकिन डॉ. कन्हैया त्रिपाठी जी लगातार मुझे और प्रदीप जी को धमकी दे रहे थे कि हम दोनों यह शादी तोड़ दे क्योंकि हम दोनों समान जाति से नहीं हैं. मैं भुमिहार हूँ और ये लोग ब्राह्मण हैं. इसे समाज में स्वीकार नहीं किया जा सकता है. कन्हैया जी के अनुसार यह एक बचकानी रिश्ता है.

पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी के साथ कन्हैया त्रिपाठी 


मुझ पर बार बार डॉ. कन्हैया त्रिपाठी जी ने यह कह कर धमकाया कि अगर इस शादी को नहीं तोड़ोगी तो मैं प्रदीप का नौकरी ले लूँगा । जब मैंने शादी तोड़ने से माना किया तो डॉ. कन्हैया त्रिपाठी जी ने मेरे बारे में यह पूछा कि क्या उपमा वर्जिन है ? जो लड़की तुम्हारे साथ रह रही हैं वो चार लोगों के साथ भी सो कर आई होगी. मैं एक लड़की हूं, और इस वजह से मुझे सिखाया जा रहा कि मुझे कैसा होना चाहिए और अपनी शुद्धता को कैसे बचाए रखना है. मैं इस बात का सबको प्रमाण दूं कि मैं वर्जिन हूं या नहीं और मैं इस महान पुरुष (कन्हैया त्रिपाठी) के भाई (प्रदीप त्रिपाठी) के साथ संबंध रखती हूं तो इनके द्वारा यह प्रमाणित किया जाता है कि मैं यदि इनके भाई के साथ संबंध रख सकती हूं तो इस दुनिया के किसी भी इंसान के साथ ऐसा कर सकती हूं. उनके ही शब्दों में जो उन्होंने अपने भाई से कहा है “जो लड़की तुम्हारे साथ रह सकती है वो और भी चार लड़को के साथ सोई होगी. वह वर्जिन है कि नहीं तुमने यह भी पता था या नहीं?” इसके अलावे मुझे फोन पर धमकी दी गई कि वो मेरे घर वालो को तबाह कर देंगे। मुझे कैसे भी इस शादी को तोड़ना पड़ेगा। यह शादी कभी नहीं हो सकती है। साथ ही साथ प्रदीप जी को भी लगातार यह धमकी दे रहे थे कि वो उनकी नौकरी छीन लेंगे। डॉ कन्हैया त्रिपाठी जी मुझे लगातार गन्दी-गन्दी गालियों से नवाज़ रहें थे ।

मेरा सवाल यह है कि क्या कोई व्यक्ति राष्ट्रपति भवन में कार्यरत हो जाये तो वह किसी के साथ कुछ भी करवा सकता है? आज मैं बहुत लाचार महसूस कर रहीं हूँ. मैंने एक ऐसे लड़के से प्रेम किया जो मेरी जाति का नहीं है और इस वजह से मुझे आज किसी उच्च मंचासीन व्यक्ति द्वारा मेरा चरित्र निर्धारित किया जा रहा है.

भारत जहां आज भी जाति अपने पूरे रौब के साथ जी रही और जिसे लोग अपना सीना चौड़ा करके स्वीकार कर रहे. आज अपने सवालों के साथ अपने लिए जगह मांग रही और साथ में ही अपनी सुरक्षा और अपने परिवार की सुरक्षा को लेकर चिंतित भी हूं. समझ में नहीं आ रहा कि कौन सा कदम उठाऊं जिससे मैं शुद्ध, पवित्र हो जाऊं और उच्च जाती की हो जाऊं।

उसके बाद प्रदीप जी ने भी मुझे यही कहा कि जब मेरे घर वाले ही इस शादी से खुश नहीं है तो मैं तुम्हें अपने घर में रखकर क्या करूँगा । इतना कह कर मुझे एक मैसेंजर पर मैसेज किया गया जो नीचे अटेच है आप लोग देख सकते हैं और हर जगह से ब्लॉक किया गया ।

फिर मैंने मजबूर होकर जिला सत्र न्यायालय सिक्किम गांतोक में 8 दिसम्बर 2017 को केस दर्ज करवाया । केस संख्या " 37"है । हर केस के डेट पर नियमित रूप से प्रदीप त्रिपाठी जी कोर्ट में दस्तक भी देते हैं। अब भी यह मेटर कोर्ट के विचाराधीन है । 26 मई 2018 को फिर से कोर्ट में प्रदीप त्रिपाठी जी हाज़िर भी हुए थे।

कौन है कन्हैया त्रिपाठी 

राष्ट्रपतियों की जीवनियाँ लिखने और बड़े लोगों से उनका विमोचन करने का सिलसिला कन्हैया त्रिपाठी ने छात्र जीवन से जो शुरू किया और यही  उसे अंततः राष्ट्रपति भवन में सम्पादक और फिर ओएसडी के पद तक ले गया. सूत्रों के अनुसार प्रतिभा पाटिल के राष्ट्रपति बनने के बाद वह उनके गृह जिले अमरावती में सक्रिय हुआ और उनके पति से सम्पर्क बनाते हुए प्रतिभा पाटिल तक पहुंचा, तब वह अमरावती के पड़ोसी जिला वर्धा से पढाई कर रहा था. प्रतिभा पाटिल ने उसे राष्ट्रपति भवन में बतौर सम्पादक बुलाया तो उसी दौर में उसने सागर विश्वविद्यालय में व्याख्याता पद पर अपनी नियुक्ति करा ली. वहाँ से भी पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी के कार्यकाल में राष्ट्रपति भवन में बतौर ओएसडी अपनी नियुक्ति करा ली. इसके पहले भी कन्हैया के ऊपर सोशल मीडिया पर प्रणव मुखर्जी के साथ फोटोशॉप कर तस्वीर जारी करने का आरोप लग जा चुका है.

प्रदीप त्रिपाठी 


आरोपों पर कन्हैया त्रिपाठी और प्रदीप त्रिपाठी का पक्ष 

सम्पर्क करने पर प्रदीप त्रिपाठी ने कहा कि 'यह निजी मामला है,'और उसने कुछ कहने से मना कर दिया. प्रदीप सिक्किम केन्द्रीय  विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर है.  जबकि कन्हैया त्रिपाठी ने भेजे गये सवाल का कोई जवाब नहीं दिया है. कन्हैया त्रिपाठी का जवाब मिलते ही इस खबर में शामिल कर लिया जायेगा.

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युवा कवयित्री ने की आत्महत्या

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स्त्रीकाल डेस्क 

युवा कवयित्री और पर्यावरण एवं धारणीय विकास संस्थान, बीएचयू की शोधछात्रा ख्याति आकांक्षा सिंह ने मंगलवार की सुबह साढ़े चार बजे अपने किराये के कमरे में छत के पंखे से फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली.

ख्याति 

वह लंका थाना क्षेत्र के नगवां के रहने वाले नागेश्वर सिंहके मकान में एक महीने से बतौर पीजी रह रही थी। बताया जा रहा है कि आत्महत्या के पहले व हअपने मंगेतर के साथ वीडियो चैटिंग कर रही थी, किसी बात पर अनबन हुई और तभी दुप्पटे को फंदा बनाकर फांसी पर झूल गई। उसका मंगेतर रामनगर से तत्काल पीजी हास्टल पहुंच गया और इसकी जानकारी मकान मालिक को दी। मकान मालिक के सहयोग से दरवाजा खोलकर तत्काल उसे फंदे से उतारा गया। प्राक्टोरियल बोर्ड के अधिकारी एवं पुलिस भी मौके पर पहुंच गये।

मौके से बरामद सुसाइड नोट में लिखा है कि ‘वह अपनी मौत की खुदजिम्मेदार है और इसके लिए किसी को परेशान न किया जाए. मंगेतर को संबोधित करते हुए लिखा है कि श्वेतांक मैं माफी मांगती हूं और मेरा अंतिम संस्कार बनारस में ही किया जाए.’



ख्याति सिंह ने भोपाल से एमए किया था और हाल ही में 20अप्रैल को बीएचयू में प्रवेश लिया था। इस बीच परिवार वालों ने राम नगर निवासी नेवी में इंजीनियर श्वेतांक कुमार के साथ 30 अप्रैल को बनारस में सगाई कराई। पुलिस के अनुसार ख्याति की मां ने बताया है कि उनकी बेटी माइग्रेन से पीडि़त थी।

ख्याति सिंह का एक काव्य संग्रह 'कहीं तो होगा'प्रकाशित हो चुका है. भोपाल के एक साहित्यकार के अनुसार उसकी एक कविता पुस्तक (पांडुलिपि) साहित्य अकादमी के पास स्वीकृति के लिए पेंडिंग है.

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पत्रकारिता के निम्नतम स्तर पर पहुंचा टाइम्स नाउ : महिला पत्रकार और कानूनविद

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अविका 

गोवा में यौन-शोषण का वीडियो फुटेज दिखाकर टाइम्स नाउ ने किया महिला का अपमान और क़ानून का उल्लंघन.



 तहलका में काम करने वाली पत्रकार का उसके पूर्व सम्पादक तरुण तेजपाल द्वारा यौन-शोषण के संबंध  में 28 मई 2018 को वीडियो फुटेज दिखाने के बाद टाइम्स नाउ विवादों के घेरे में है. महिला पत्रकारों के समूह ने इस पर रोष व्यक्त किया है वहीं कई कानूनविद इसे पीडिता की छवि खराब करने की कोशिश बता रहे हैं. 'द नेटवर्क ऑफ़ वीमेन इन मीडिया'ने इस संबंध में टाइम्स के प्रबंधक समूह को पत्र लिखकर 28 मई को क्रमशः 8 और 9 बजे शाम की शो को अनैतिक और गैरकानूनी बताया है. महिला पत्रकारों के अनुसार वे शो धारा 327(2) और (3) का उल्लंघन है.  'द नेटवर्क ऑफ़ वीमेन इन मीडिया'इसे  रेप सर्वायावर महिला का अपमान और उसकी छवि खराब करने का प्रयास मानता है.

पढ़ें  'द नेटवर्क ऑफ़ वीमेन इन मीडिया'  का पूरा  पत्र 

सुप्रीम कोर्ट के अधिवक्ता और महिला कानूनों के विशेषज्ञ अरविंद जैन भी कहते हैं "मामला न्यायालय के अधीन है. सत्र न्यायालय ने आरोप तय कर दिया है. अभियुक्त आरोप के खिलाफ हाई कोर्ट गया, जहां अपील निरस्त हो गयी है तो अब सुप्रीम कोर्ट पहुंचा है. चार्ज के लिए प्रथम दृष्टया देखा जाता है कि कोई ऑफेंस बनता है कि नहीं. सुप्रीम कोर्ट में लिफ्ट के सीसीटीवी फुटेज के आधार पर अपील की गयी है. टाइम्स नाउ को वह फुटेज मिला है तो जाहिर है कहाँ से मिला होगा.

टाइम्स नाऊ उसी फुटेज को बार-बार दिखा रहा है.हालांकि उसमें बार-बार यह कहा जा रहा है, ऐंकर द्वारा कहा जा रहा है कि फुटेज से यह सिद्ध तो होता है कि कुछ हुआ है और यह भी सिद्ध नहीं होता कि कंसेंट था. लेकिन उसने जो पैनल बैठा रखा है, वह अभियुक्त का वकील है. वह कह रहा है कि लडकी ने सौ करोड़ रूपये की मांग की थी.कुल मिलकर जब मामला चार्ज के स्तर पर है, निर्णय बाकी है तब फुटेज दिखाकर बार-बार विवरण दिया जा रहा है, लड़की की छवि भी खराब करने की कोशिश हो रही है. दिखता हुआ यह कार्यक्रम तेजपाल के खिलाफ है लेकिन वास्तव में यह पीडिता को ही कठघरे में खडा करने की मंशा से दिखाया जा रहा है.

यह सारा प्रकरण कंटेम्प्ट ऑफ़ कोर्ट है. आप चार्जशीट फ़ाइल होने के बाद और ट्रायल शुरू होने के बाद ऐसा नहीं कर सकते. साथ ही वह जो वकील सौ करोड़ मांगने की बात बिना प्रूफ के कह रहा है वह भी प्रोफेशनल एथिक्स के खिलाफ है, मानहानि इसमें बनता है.

क्या था तरुण तेजपाल के खिलाफ आरोप 
तहलका के पूर्व संपादक तरुण तेजपाल के खिलाफपश्चिमी गोवा के मापुसा की एक निचली अदालत ने सितंबर 2017 में ही आरोप तय कर दिये थे. इस मामले की पीड़िता ने यह आरोप लगाया था कि नवंबर, 2013 में तहलका मैगज़ीन की तरफ़ से आयोजित एक इवेंट में उनके साथ बदसलूकी की थी. लिफ्ट में उनके साथ जबरदस्ती ओरल की कोशिश की. तरुण तेजपाल को इस केस में 30 नवंबर 2013 को गिरफ़्तार किया गया था. उन पर आईपीसी की धारा 341 (ग़लत तरीक़े से नियंत्रण), धारा 342 (ग़लत तरीक़े से बंधक बनाना), धारा 354-ए (किसी महिला के साथ यौन दुर्व्यवहार और शीलभंग की कोशिश), धारा 376 (बलात्कार) लगाई गई है. बाद में आपराधिक कानून (संशोधन) अधिनियम, 2013 की धारा 376 (2)(के) के तहत भी आरोप लगाया गया है, जिसका मतलब है कि एक ऐसे व्यक्ति के द्वारा बलात्कार की कोशिश जो महिला का संरक्षक हो.

तरुण तेजपाल भारत में स्टिंग पत्रकारिता के शिखर लोगों में से एक रहे हैं. तेजपाल के तहलका मैगज़ीन के एक स्टिंग ने अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार को काफ़ी परेशान किया था. तत्कालीन रक्षा मंत्री जॉर्ज फ़र्नांडिस को अपने पद से इस्तीफ़ा देना पड़ा था.

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कथित उदार नजरिया भी ब्राह्मणवादी नजरिया है

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स्त्रीकाल डेस्क 

पीपल्स पार्टी ऑफ इंडिया की राष्ट्रीय उपाध्यक्षऔर बहुजन समाज की जानी मानी नेत्री डॉ मनीषा बांगर पिछले दिनों कनाडा के ब्राह्मप्टन शहर में 6 मई को गुरु गोविंद सिंह महाराज की 319वीं जयंती के कार्यक्रम में शिरकत करने भारत से गयी थीं.  उन्होंने  अपने इस दौरे में  भारत की  मूल समस्याओं को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उठाया। डॉ मनीषा बांगर को मुख्य प्रवक्ता के तौर पर आमंत्रित किया गया था।



डॉ मनीषा बांगर ने भारत में ब्राह्मणवादी व्यवस्था केखिलाफ जमकर प्रहार किया, साथ ही जातीय भेदभाव और संप्रदायिक घटनाओं को लेकर भी बेबाकी से अपनी बात रखी। उन्होंने कहा कि दुनिया भर के शोषित पीड़ित समाज के लिए विरोधी ताकतों के खिलाफ एक मंच पर आकर उनको मुंह तोड़ जवाब देने की जरुरत है।

कार्यक्रम के दौरान डा मनीषा बांगर ने श्रोताओं की एक बड़ी जमात को  संबोधित करते हुये कहा कि 'खालसा'का मकसद ब्राह्मणवादी व्यवस्था को खत्म करना और बहुजन मूलनिवासियों का उत्थान करना था। दुनिया भर से हजारो सिखों की मौजूदगी में मनीषा बांगर ने कहा कि खालसा राज  तभी स्थापित हो सकेगा जब सिख समाज खुद को मजबूत करेगा और बहुजन, मूलनिवासी, शोषित वर्ग के साथ गठजोड़ बना सकेगा।

इस दौरे में डॉ मनीषा बांगर कनाडा के कई मीडिया हाउस (आवाज रेडियो, ओएमनीआई फोकस, पंजाबी और डेटलाइन टूरंटो पंजाबी चैनल, महफ़िल टी वी , Prime Asia TV)  के कार्यक्रमों में शामिल हुई। चर्चा के दौरान उन्होंने भारत की ब्राह्मणवादी मीडिया पर जमकर हमला बोला। उन्होंने कहा कि भारत की मेनस्ट्रीम मीडिया सिर्फ ब्राह्मणों की आवाज है और कुछ नहीं। उन्होंने कहा कि सोशल मीडिया का माध्यम आ जाने की वजह से लोगों को कुछ हद तक सूचनाओं की जानकारी मिल जाती है। कुछ यूट्यूब चैनल और वेबसाइट के जरिए लोगों तक जमीनी हकीकत से रुबरु कराने की कोशिश की जा रही है। उन्होंने इस बात को भी उजागर किया कि अन्य देशों की तरह भारत में उदार प्रगतिशील मीडिया नाम की कोई चीज नहीं है क्योंकि भारत में तथाकथित उदारवादी नजरिया  भी ब्रहामणवादी नजरीया ही है. वह महज एक ढकोसला है,  क्योंकि वे न वंचितो को मीडिया में अपनी बात कहने का अवसर देते हैं,  न नौकरियाँ देते हैं, न ही वंचितो के मुद्दे सही तरह से उठाते हैं.



इसके बाद 10 मई को डॉ मनीषा बांगर ने ब्रॉम्पटनशहर की पूर्व पार्षद और अभी की मेयर लिंडा जैफरी से मुलाकात की। इस दौरान उन्होंने प्रोफेसर नरेंद्र कुमार और  क्रिस्टोफर जेफ्रले द्वारा लिखित 'डॉ अंबेडकर एंड डेमोक्रेसी'  लिंडा जैफरी को सम्मान के तौर पर भेट की. उन्होंने बताया कि उनकी लिंडा के साथ देश की स्वास्थ्य नीति से लेकर EVM तथा राजनिति के क्षेत्र में महिला- प्रतिनिधित्व जैसे  अनेक विषयों पर चर्चा हुई.

11 मई को  डॉ मनीषा बांगर ने लेखक  पीटर फ्रेडरिक औरवहाँ के प्रोफ़ेसर मा. चिन्नैया ज़ंगम और अनेक अंतरराष्ट्रीय शोधार्थियों  से ओटावा  के Carleton University में मुलाकात की।

पीटर फ्रेडरिक ने गांधी पर गहन अध्ययन किया है . उन्होंने अपने वक्तव्य मे बताया कि गांधी ने रंग भेदभाव का समर्थन किया जबकि डॉ अंबेडकर ने भारत में जातीय भेदभाव के खिलाफ लंबा संघर्ष किया। वहीं डॉ मनीषा बांगर ने भी डॉ अंबेडकर के वैश्विक नजरिए पर बात की।

डॉ मनीषा बांगर ने आगे ओबीसी वर्ग की बात रखते हुएकहा कि यह समाज भी छुआछूत का नहीं लेकिन जाति-भेदभाव का बड़ा शिकार हुआ है। मीडिया एक साजिश के तहत इस बात को हवा दे रही है कि ओबीसी वर्ग के लोग एससी समाज पर जुल्म कर रहा है। उन्होंने कहा कि सिख और मुस्लिम की जो सामाजिक तौर पर सोच है उसको हिंदूवादी संगठन टारगेट कर रहे हैं। हिंदुत्वादी सोच सिख, मुस्लिम, ईसाई और बहुजन समाज को दुश्मन मानते हुए उन पर हमलावर बने रहना चाहती है।

“भारत में अहम मुद्दों पर बात नहीं की जाती है यदि वहां के लोग अपनी मूलभूत समस्याएं जैसे शिक्षा पर बात करें तो रोहित वेमुला जैसा हाल कर देते हैं। और अगर जेएनयू के छात्र अपने अधिकारों को लेकर आवाज बुलंद करते हैं तो उनको एंटीनेशनल घोषित कर दिया जाता है।”

उन्होंने अंबेडकरवाद पर बात रखते हुए कहाकि समाज में समानता लोकतंत्र के लिए बेहद जरुरी है। डॉ मनीषा बांगर ने कहा कि अगर बहुजन समाज सत्ता में आता है तो ब्राह्मणवादी और जाति- व्यवस्था को खत्म करेंगे।

12 मई को डॉ मनीषा बांगरपीटर फ्रेडरिक और भजनसिंह ने Captivating the Simple-Hearted: A Struggle for Human Dignity in the Indian Subcontinent किताब का विमोचन किया। जिसमें डॉ बांगर ने कहा कि भारत का इतिहास 500AD से लेकर 1800 तक डार्क रहा है। उस काले समय में गुरुनानक देव जी ने रौशनी दिखाने का काम किया। साथ उन्होंने कहा कि मैनस्ट्रीम मीडिया भारत के लोकतंत्र के लिए खतरा है, यह आजाद मीडिया नहीं है क्योंकि यह ब्राह्मणवादी मीडिया है।

डॉ मनीषा बांगर ने कहा कि इस समय में बहुत जरुरी है कि हम बहुजन अल्टरनेटिव मीडिया तैयार करें और दुनिया भर में लोकतंत्र को जिंदा रखे। वहीं ओएफएम आई के फोंडिग डायरेक्टर भजन सिंह ने नेशनल इंडिया न्यूज की प्रशंसा करते हुए कहा कि हम आगे चलें जैसा कि डॉ अंबेडकर ने कहा है कि कारवां को आगे ले चलें। इसके अलावा उसी दिन शाम को डॉ मनीषा बांगर यार्क युनिवर्सिटी लाइब्रेरी  में लगी डॉ अंबेडकर की प्रतिमा पर माल्यार्पण  किया।



डॉ मनीषा बांगर के कनाडा दौरे  पर पीटर फ्रेडरिक और भजनसिंह ने प्रिजंटेशन दिया, बौद्ध जंयती मनाई गई जो कि अंबेडकर मिशन टूरंटो ने होस्ट किया।

बौद्धों को संबोधित करते हुये डा मनीषा बाँगर ने कहा कि 'धम्म को ब्रहामण संगठन आरएसएस एवं तथाकथित प्रगतिशील ब्रहामणो की धुसपैठ से सबसे ज़्यादा ख़तरा है. इतिहास गवाह है कि बौद्ध धम्म को सबसे गहरी क्षति इन्होंने पहुँचाई है. बौद्ध धम्म को अदंर से तहस-नहस करना इस षड्यंत्र के तहत ये ताकतें आज भी दिन रात काम कर रही हैं,  क्योंकि बौद्ध धम्म मे ही वह ताक़त है किह ब्रहामण वाद को चुनौती दे सके. बौद्धों के बहुत  सचेत रहने का समय है. डा मनीषा ने सबसे यह अनुरोध करते हुये अपना वक्तव्य समाप्त किया कि बौद्ध अपनी अनुकंपा अपने सांस्कृतिक तथा ऐतिहासिक दुश्मनों पर विश्वास  करने के बजाय अपने धम्म पर करें  और धम्म के नीति ,मूल्यों एवं इतिहास का संरक्षण करें.

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माँ-बहन की गालियाँ देने वाले लोगों के तार सत्ताधीश से क्यों जुड़े होते हैं?

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स्त्रीकाल डेस्क 

फॉरवर्ड प्रेस के हिन्दी संपादक नवल किशोर कुमार को मिल रही हैं धमकियां, दी जा रही हैं गालियाँ. नवल  ने 27 मई को एक फेसबुक पोस्ट के जरिये बिहार में कई नरसंहारों के सरगना बरमेसर मुखिया की प्रतिमा स्थापित करने का विरोध किया था. 1 जून को स्थापित की जाने वाली प्रतिमा के अवसर पर आयोजित कार्यक्रम में खबर है कि भाजपा-जदयू के कई नेता शामिल होने वाले हैं. शर्मा, उपाध्याय, सिंह, भूमिहार आदि टाईटल धारी यूजर दे रहे गालियाँ. 

शर्मा, उपाध्याय, सिंह, भूमिहार आदि टाईटल धारी यूजर दे रहे गालियाँ 


सोशल मीडिया पर एक ख़ास समूह है जो गालियोंऔर धमकियों के माध्यम से लोगों को, पत्रकारों को, सामाजिक कार्यकर्ताओं को चुप्प कराना चाहता है. प्रायः ऐसे लोगों के तार राजनीतिक और सामाजिक सत्तावानों से जुड़े होते हैं. ऐसे कई लोगों को प्रधानमंत्री द्वारा भी फॉलो किये जाने की खबरें आती रहती हैं. ताजा मामला फॉरवर्ड प्रेस के हिन्दी संपादक नवल कुमार को मिल रही धमकियों का है. नवल कुमार को गालियाँ देने वाले लोग रणवीर सेना के समर्थक बताये जाते हैं.
बरमेसर मुखिया की स्थापित की जाने वाली प्रतिमा


नवल कुमार को मिल रही धमकियों और गालियों कीजानकारी फॉरवर्ड प्रेस के समूह संपादक प्रमोद रंजन ने एक फेसबुक पोस्ट के माध्यम से दी. प्रमोद रंजन ने लिखा:

फारवर्ड प्रेस के हिंदी-संपादक नवल किशोर कुमार (Naval Kumar) को ब्रह्मेश्वर मुखिया के समर्थकों से जान से मार डालने की धमकियां मिल रही हैं। पिछले 24 घंटे से उन्हें लगातार गालियों से भरे फोन आ रहे हैं। इन धमकियों में कहा जा रहा है कि बिहार में रह रहे उनके परिवार की महिलाओं के साथ बलात्कार किया जाएगा तथा उन्हें दिल्ली आकर मार डाला जाएगा। धमकियां उनके फेसबुक पेज पर कमेंट में भी दी जा रही हैं।

नवल किशोर रणवीर सेना पर काम करने वाले देश के प्रमुख पत्रकारों में से एक हैं। उन्होंने न सिर्फ सेना की कारगुजारियों का विस्तृत अध्ययन किया है, बल्कि ब्रह्मेश्वर मुखिया का एकमात्र उपलब्ध मुकम्मल वीडियो इंटरव्यू भी उन्होंने किया था, जो फारवर्ड प्रेस में प्रकाशित हुआ था तथा हमारे यूट्यूब चैनल पर उपलब्ध है।

दरअसल, 1 जून, 2018 को भोजपुर जिला के खोपिरा में रणवीर सेना ब्रह्मेश्वर मुखिया की प्रतिमा की स्थापना करने जा रही है। वर्ष 2012 में इसी दिन उसे अज्ञात हमलावरों ने गोलियों से भून दिया था। मुखिया के हत्यारों का आज तक पता नहीं चल सका। मामले की जांच सीबीआई कर रही है। रणवीर सेना के लोग अपने नायक की हत्या की बरसी मनाने के लिए एक जून को खोपिरा में जुटेंगे। कुछ सरकारी अधिकारियों के संरक्षण में इसकी तैयारियां जोर-शोर से चल रही हैं।

नवल किशोर कुमार ने तीन दिन पहले -27 मई, 2018 को - अपनी फेसबुक पोस्ट में इस अयोजन का विरोध किया था। उन्होंने 300 से अधिक दलित-पिछडों की नृशंस हत्या के आरोपी ब्रह्मेश्वर मुखिया की मौत को 'कुत्ते की मौत'कहा था तथा बिहार में सामंती ताकतों के बढते मनोबल के लिए जदयू-भाजपा की सरकार को आडे हाथों लिया था।

याद दिलाने की आवश्यकता शायद नहीं है कि यह वही ब्रह्ममेश्वर मुखिया है, जिसके बारे में कहा जाता है कि उसने अपने लोगों को कहा था कि जहां नरसंहार करने जाओ वहां दलित-पिछडों के बच्चों को भी मत छोडो। वे संपोले हैं, बडे होकर नक्सलवादी बनेंगे। रणवीर सेना से विभिन्न नरसंहारों में दर्जनों बच्चों को गाजर-मूली की तरह काट डाला। गर्भवती महिलाओं के गर्भ चीर डाले। युवतियों के स्तन काट डाले।

ब्रह्मेश्वर मुखिया जैसे लोगों के लिए हमारा स्टैंड पूरी तरह साफ रहा है। उसकी हत्या के बाद हमने फारवर्ड प्रेस (जुलाई,2012) की कवर स्टोरी का शीर्षक दिया था - 'किसकी जादूई गोलियों ने ली बिहार के कसाई की जान'। यह कवर स्टोरी नवल किशोर ने ही लिखी थी। उसी अंक में प्रसिद्ध दलित चिंतक कंवल भारती का भी एक लेख था, जिसका शीर्षक : 'हत्यारे की हत्या पर दु:ख कैसा?'हमारे लिए वह हमेशा एक नरपिशाच, एक हत्यारा रहा है। उसके लिए किसी भी प्रकार के किसी सम्मानजक शब्द के प्रयोग का सवाल ही नहीं उठता।

नवल कुमार का वह पोस्ट जिसके लिए धमकी दी जा रही है

बहरहाल, घमकियों की लिखित शिकायत बिहार के डीजीपी व घमकी देने वाले जिन लोगों के नाम मिल सके हैं, उनके जिलों के एसपी से की जा रही है। फेसबुक कमेंटों में कई जगह दलित समुदाय के लिए भी गालियां दी गई हैं। उनके लिए उपयुक्त पात्रों द्वारा अलग से संबंधित जगहों पर शिकायत भेजी जा रही है।


रणवीर सेना के लोग कान खोल कर सुन लें। हमने सैकडों लोगों की शहादत दी है। हम डरने वाले नहीं हैं।

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जानें उस महिला राजनेता को जिसने मोदी-रथ की रफ्तार रोक दी

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स्त्रीकाल डेस्क 

बीजेपी की सांप्रदायिक ध्रुवीकरण काप्रयोगशाला बने इलाके और खासकर लोकसभा क्षेत्र में बेगम तबस्सुम हसन ने अपनी जीत दर्ज कर साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण को मात दे दिया. बेगम तबस्सुम हसन की जीत को जाट-मुस्लिम के बीच नये सिरे से सामाजिक ताने-बाने के तौर पर देखा जा रहा है. बेगम तबस्सुम हसन गुर्जर समुदाय (मुस्लिम) से आती हैं, जिनका हिन्दू गुर्जर समुदाय के साथ एक सामाजिक आधार भी है. हाई स्कूल तक शिक्षित तबस्सुम हसन  2009 में कैराना सीट से समाजवादी पार्टी की सांसद रह चुकी हैं. उनके पति मुनव्वर हसन 1996 में यहां से सांसद थे और बाद में 2004 में वे बहुजन समाज पार्टी से मुजफ्फरनगर के सांसद बने.



तबस्सुम के ससुर अख्तर हसन 1984में कैराना से कांग्रेस के सांसद थे. तबस्सुम के बेटे नाहिद हसन पिछले विधानसभा चुनाव में बीजेपी-लहर के बावजूद कैराना विधानसभा से समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार के तौर पर विधानसभा पहुंचे. हालांकि 2014 में नाहिद हसन बीजेपी के दिवंगत सांसद हुकुम सिंह से चुनाव हार गये थे, जिनकी बेटी मृगांक सिंह को उपचुनाव में  बेगम तबस्सुम हसन ने हराया. अपनी जीत के प्रति शुरू से आश्वस्त तबस्सुम ने कहा था कि 'ईवीएम वाली समस्या के कारण मेरी जीत का अंतर कम भले ही हो, लेकिन जीतेंगे जरूर.'जीतने के बाद तबस्सुम ने कहा है, 'यह सच की जीत है. जो कुछ भी कहा है उसके साथ मैं आज भी हूं, एक साजिश रची गई थी. मैं कभी नहीं चाहूंगी कि भविष्य के चुनाव ईवीएम से न हों. संयुक्त विपक्ष का रास्ता अब बिलकुल साफ है.'



यह सीट कई कारणों से बीजेपी के लिएप्रतिष्ठा का सवाल बन गयी थी. यहाँ से कथित हिन्दू पलायन का सन्देश देने की कोशिश बीजेपी और संघ परिवार ने की थी. तबस्सुम की जीत इस कोशिश के खिलाफ एक सन्देश की तरह लिया जायेगा. बीजेपी ने राज्य के अपने कई मंत्रियों, सांसदों और केन्द्रीय नेताओं को लोकसभा क्षेत्र में पिछले कई दिनों से सक्रिय कर दिया था ताकि यह सीट वह जीत सके. खुद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने चुनाव प्रचार बंद होने के बाद वोटिंग के एक दिन पहले कैराना के पड़ोसी जिले बागपत में रोड-शो किया और गन्ना किसानों के लिए घोषणाएं की.

5 लाख मुस्लिम, तीन लाख हिन्दूऔर ढाई लाख दलित मतदाताओं वाले इस क्षेत्र में पारम्परिक मुस्लिम राजनीतिक परिवार की जीत के कई मायने हैं. राजनीति के विशेषज्ञ इसे  हाल की भारतीय राजनीति में एक शिफ्ट के तौर पर देख रहे हैं.

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प्रियंका सिंह की कविताएं (बर्फीले रिश्ते और अन्य)

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प्रियंका सिंह
गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्रोफेसर.संपर्क: prisngh87@gmail.com
तल्ख शब्दों की टीस

काश तल्खी न होती उस दिन तुम्हारी आवाज़ में
उस आवाज़ से प्रेम की मुलायमियत की चाह थी
वह शब्दों की क्रूरता अंदर तक घायल कर गयी
वे शब्द एक जोरदार थप्पड़ की तरह झनझना गए और जैसे
हाथ न उठाकर भी हाथ उठाया तुमने
 गुबार तिलमिलाया ठहरा बह चला
मन का कोना कोना भीगा
संतप्त हृदय बिलख रोया
और शायद उस दिन,हाँ शायद
हाथ न उठाकर  भी हाथ उठाया तुमने
 वह शब्दो की चुभन अब तक चुभती है
जेहन को घायल कर रिसती है
मेरी उलझन न भांप सके
तुमसे दूर आज खुश हूं
क्योकि शब्दों का वह लहजा टीस देता है
जब तुमने,हाँ शायद जब तुमने
हाथ न उठाकर  भी हाथ उठाया था.


बर्फीले रिश्ते 

बर्फ की सिल्ली से सर्द पड़े हैं पैर
रिश्तों की गर्माहट की कर रहे दरख्वास्त
वो सोये हैं मुंह फेरकर
इस बात से बेखबर


काट ली रात हमने भी करवट बदल बदल
और मन ने ये सोच सोचकर
कहाँ गयी वह नरम हथेली
जो आंखों से आंसू ज़ब्त कर लेती थी
अब तो आसूं भी कपोलों पर सख्त हो सूख गए..

वक़्त सब तब्दील कर देता है
कर दिया उसने हमारी रिश्ते की
 ऊष्मा को भी कुछ हल्का,खोखला और बेबुनियाद शायद ...

भावों को खंगाला,छिटका,झटका
और जाना बूझा
जी रहे थे अब तक ख्वाब में
और जब जागे तो हकीकत से रूबरू हो गए..
कि
रिश्ते कब फ़ीके,बेरंगे और धुंधले हो गए


यदि ससुराल मायका हो जाता

मायका माने मां का
माँ जो करुणा,प्रेम,त्याग  की त्रिवेणी
जिसकी ममता में बह बीता बचपन

मां जिसकी स्निग्धता और सादगी ने
जीवन का वह पाठ पढ़ाया जो सिखलाता
मिलजुल कर रहना और करना प्रेम का वितरण

पिता की सीखो और नसीहतों को जीवन में उतार
मैं बनी दयालु,प्रसन्नचित्त ,अनुशासित,
उदार

बचपन की दहलीज को लांघ
हुआ यौवन में प्रवेश
चिर परिचिता लगे विचार मन
और तुमसे हुआ लगन
विवाहेतर

पहली होली ,पहली दीवाली और नववर्ष
सब बीतने लगे
मन का एक कोना भटकता रहा
बचपन की उन गलियारों में
हाँ माँ, तेरी गुझिया,दही बड़े और फारा में

क्या वह घर हमेशा मेरा नही रह सकता
क्या भइया की खिंचाई , मीठी नोक झोंक,बहन से लड़ाई ,तीज -त्योहार नही रह सकते  चिर
यह ऐसा यूटोपिया है जहां हम सब
करें बात और हँसे गुनगुनाती धूप में चाय के साथ

शायद नहीं
क्योंकि मैं ऐसे देश में जन्मी हूँ
जहां नर - नारी समान का नारा अवश्य लगता है
लेकिन लड़की को ही घर छोड़ पराये घर 'एडजस्ट 'करना होता है..
ससुराल ही अब तेरा घर है -सुनना पड़ता है


जब भी आती थी ज़िन्दगी के शाम में उदासी
अपने परिवार को देख लगता था
कुछ भी हों हालात हम सब हैं तो साथ
और पुनःहोता था उमंगों का स्पंदन

एक वह संबल भी दूर हो गया
माँ तेरा आँचल और पिता के स्नेह का अभाव गमगीन कर देता है

लड़के का जीवन वही सदा रहता है
उसको न अजनबी चेहरों से
समझौता करना पड़ता है

आखिरी पहर मन चिंतन करता है
अगर सास का दुलार ,ससुर का वात्सल्य, देवर ननद में भाई बहन सा पूर्णतःअपनत्व होता

अठारह या उससे बेसी सालों के रिश्तों को बदलने में तब दर्द कम होता ..

यदि ससुराल मायका हो जाता ।
यदि ससुराल मायका हो जाता...

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स्कूलों में लगायें सैनिटरी पैड वेडिंग मशीन: राष्ट्रीय महिला आयोग ने लिखा शिक्षा मंत्री को पत्र

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प्रियंका 

राष्ट्रीय महिला आयोग ने पिछले दिनों केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री प्रकाश जावड़ेकर को पत्र लिखकर कहा कि सैनिटरी उत्पादों की अनुपलब्धतता की वजह से 23 प्रतिशत लड़कियां स्कूल नहीं आती या स्कूल छोड़ देती हैं. आयोग ने इसके मद्देनजर देशभर के स्कूलों एवं कॉलेजों में सैनिटरी नैपकिन वेंडिंग मशीन और नैपकिन निस्तारण मशीन लगाने पर विचार करने को कहा है। आयोग के एक कर्मी के अनुसार मंत्रालय को लिखे गये पत्र में यह भी कहा गया कि जब बात स्वच्छता और साफ - सफाई की आती है तो छात्रओं को खासी मुश्किल का सामना करना पड़ता है क्योंकि कई शैक्षणिक संस्थान न्यूनतम मानकों पर भी खरे नहीं उतरते।



सैनिटरी पैड के सुरक्षित निस्तारण और प्रधानमंत्री केस्वच्छ भारत मिशन को आगे बढ़ाने के प्रयासों के तहत महिला आयोग ने मंत्री से स्कूलों और विश्वविद्यालयों में पर्यावरण के अनुकूल निस्तारण मशीनें लगाने पर भी विचार करने को कहा ताकि वह पर्यावरण और लोक स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव न डालें।

स्त्रीकाल में पढ़ें इस विषय पर विविध लेख:

महावारी से क्यों होती है परेशानी 

उस पेड़ पर दर्जनो सैनिटरी पैड लटके होते थे

जजिया कर से भी ज्यादा बड़ी तानाशाही है लहू पर लगान

फिल्म तो हिट होती रहेंगी, माहवारी स्वच्छता को हिट करें

वित्तमंत्री को सेनेटरी पैड भेजने की मुहीम: एसएफआई और कई संगठनों ने देश भर में आयोजित किया कैम्पेन

गांधी के गाँव से छात्राओं ने भेजा प्रधानमंत्री और वित्तमंत्री को सेनेटरी पैड: जारी किया वीडियो

"मैना का ख़ून"और ज़ूबी मंसूर की अन्य कविताएं

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स्त्रीत्व और बाजार

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पूनम प्रसाद/सविता/पूनम कुमारी

उपभोगतावादी दौर में मनुष्य जिस मोड़ पर खड़ा है वहां बाजार ही बाजार हैं| कहने को तो बाजार का व्यापक विस्तार हो चुका हैं लेकिन वह व्यक्ति की जरूरतों को पूरा नहीं करता, वरन उसकी इच्छाओ को बढाने का काम करता हैं|



अपनी पारम्परिक परिभाषा के अनुसार – बाजारवादप्रबंधन की एक प्रक्रिया है, जिसका उद्देश बाजार की पहचान कराना और उपभोक्ताकी जरूरतों को पूरा कर, उसे संतुष्टि प्रदान करता है| लेकिन समकालीन दौर में बाजार ने अपनी यह  परिभाषा बदल ली है| अब वह अवसर पहचानने की जगह अवसर बनाता है, सही बाजार की पहचान करने की जगह, नए बाजार बनाता है| अतः यह कहा जा सकता हैं कि वह लोगों की मनोवृति बनाता है|

उदारवाद में व्यक्ति को उच्चत्तम स्थान दिया गया हैं| नव-उदारवाद की शुरुआत 1960 के दशक से मानी जाती हैं| नव-उदारवाद ने मुक्त-व्यापार,खुला बाज़ार और पश्चिमी लोकतान्त्रिक मूल्य और संस्थाओं को प्रोत्साहित किया|  नव-उदारवाद ने अंतरराष्ट्रीय सीमाओं को बौना  साबित कर बाजारवाद को एक विस्तृत रूप दिया| वैश्वीकरण एक तरह का समुंद्र मंथन है| और इसने वसुधैव कुटुम्बकम को चरितार्थ किया|

तकनीकी,आर्थिक और सांस्कृतिक परिस्थितियों ने वैश्वीकरण को उच्चतम स्तर पर पहुँचाया और यह माना जाता है कि वैश्वीकरण मनुष्यों के उद्देश्यों और अवसरों को निर्धारित कर रहा है साथ ही प्रभावित भी| कोई भी अवसर एक  स्थान पर न होकर वैश्विक स्तर पर है| भौतिकवाद ने वैश्वीकरण को शक्ति प्रदान की है| काम्प्लेक्स परस्पर निर्भरता को 1970 में रॉबर्ट कोहेन  और जोसेफ नाई ने एक नई परिभाषा दी जिसने आधुनिकतावाद को उच्च स्तर पर बढाया  और परस्पर निर्भरता के क्षेत्र में तब्दील किया |



कबीर ने इस दुनिया को एक हाट कहा था –‘पूरा किया बिसाहुणा, बहुरि न आवौं हट्ट’, आज कबीर की वाणी सौ प्रतिशत सच लग रही है, जब हम समाज और संबंधो को बाजार में तब्दील होते देख रहे है|

 पहले बाजारवाद को लेकर जो धारणा विद्यमान थीवह प्रायः मूक खरीदार के रूप में थी, परन्तु अब स्थिति बदल गई है| अब उपभोक्ता मात्र मूक खरीदार न हो कर एक सक्रिय व जागरूक उपभोक्ता के रूप में अपनी भूमिका निभा रहा है|शीतयुद्ध के समय में यह वह अवधि थी जब उपभोक्तावाद विश्वभर में उभर रहा था| पश्चिम में यह आन्दोलन 1950-60 में उभरा| किन्तु भारत में उदारीकरण का दौर 1990 के बाद शुरू होता है| इन्टरनेट ने उपभोक्तावाद और बाजारवाद को एक नया मंच प्रदान किया| साथ ही सोशल मीडिया साइटों ने इसे एक नए दौर में पहुंचा दिया | आम उपभोक्ता को जब उपभोक्तवाद ने ललचाना व लुभाना शुरू किया तब आम लोगों की जेब पर इसका भारी असर हुआ |

1950 के पश्चात् पैसों की तंगी के काल में महिलाओं के सामने जब घर चलाने की ज़िम्मेदारी आई कि वह  इस संकट का सामना कैसे करें| तब पैसों की तंगी ने इस वर्ग को नज़दीक लाने का काम किया| वे बाजारों में शोपिंग सेण्टर और मॉल में खरीदारी के लिए जाती थी| इस निकटता के कारण घरेलू महिलाओं को समाजीकरण का अवकाश  मिला साथ ही सोचने समझने का अवकाश भी| इस मौके का परिणाम यह हुआ कि ये महिलाएं मात्र गृहणियां न हो कर एक सक्रिय उपभोक्ता स्त्री के रूप में सामने आयी | तथा डू  इट योर सेल्फ (D.I.Y.) आन्दोलन खड़ा  किया| दरअसल D.I.Y. मूलतः ऐसा आन्दोलन था जिसने घरेलू  महिलाओं को होम इम्प्रूवमेंट के लिए अपने हाथ से काम करने को उकसाया ताकि कम पैसों में काम चलाया जा सके|

धीरे-धीरे बाजार के दौर ने स्त्री को पूरी तरह से अपने शिकंजे में कस लिया है| आज नारियाँ नारीत्व बोध को भुलाकर  अपनी स्वतंत्र अस्मिता  व पहचान को दांवपर लगा रही है| नारी सौंदर्य आज एक बिकाऊ माल बन चुका है|  मुनाफा कमाने वाली कम्पनियाँ नारी सौंदर्य को बेचने के लिए नए-नए तरीके इजाद कर रही है| बाजार स्त्री को सुंदर और आकर्षक बनाने की जरुरत समझकर अपने माल को खपाने का रास्ता तलाश रहा है| ब्यूटी मिथ सबसे पहले स्त्री  को एक वस्तु में परिवर्तित कर उसे चेतनाशून्य बना रहा है| स्त्री को हीन बनाकर, उसे उसी रूप में देखना चाहता है, जो उसके मन को भाता है| बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ अपना बाजार स्थापित करने के लिए स्त्री का शोषण कर रही हैं| रेखा कस्तवार के अनुसार “बाजार स्त्री की प्रतिभा पर सौंदर्य को वरीयता प्रदान करता है| उसे मानवीय अधिकार और सम्मान से युक्त व्यक्ति के स्थान पर आकर्षक वस्तु मान लिया जाता है”(स्त्री चिंतन की चुनौतियाँ,:132 )|



आज भले ही स्त्री अपने अधिकार के प्रति जागरूक है परन्तु बाजार उसे वस्तु से अधिक कुछ नहीं समझता है| समकालीन दौर में बाजार उसे आर्थिक समृद्धि का सुंदर सपना दिखाकर देह के रूप में ही प्रस्तुत कर रहा है|
बाजार ने स्त्री को सुन्दरता का प्रलोभन दे कर उसे वस्तु में तब्दील कर दिया है| बाजार के प्रसार के साथ स्त्री की स्थिति में  गिरावट आई है वह दिन प्रतिदिन देह में रिडुय्स होती जा रही है|

दूसरी ओर जिस कुंठित मानसिकता को लेकर केपहले समाज ने स्त्री की भूमिका को सीमित कर रखा था| यही मानसिकता उदारवाद, निजीकरण, वैश्वीकरण (एलपीजी) के साथ धीरे –धीरे बदलती चली  गयी कि स्त्रियाँ बाजार में अपनी भूमिका को स्थापित कर रही हैं| अब वे मात्र कठपुतली न रह कर एक सक्रिय नागरिक के रूप में उभर रही हैं और अपना वर्चस्व कायम कर रही हैं|

हालांकि बाजार में जगह बनाने के लिए,स्त्री के लिए यह जानना बहुत जरुरी है कि देह पर अधिकार और मस्तिष्क पर अपने नियंत्रण के बिना वह बाजार के नियमों को अपने अनुकूल नहीं ढाल सकती |

सन्दर्भ सूची:
1.किरण मिश्रा, नारी और सौन्दयबोध, नव भारत टाइम्स, मार्च 4, 2015|
2.भरतचन्द्र नायक, आर्थिक उदारीकरण और बाजारवाद की आंधी में उपभोक्ता  हशिये पर , समाचार समीक्षा, 2016
3.मनोज कुमार, नए रास्ते की तलाश में, उगता भारत, 2016|
4.साधना शर्मा , वैश्वीकरण, बाजारवाद और हिंदी भाषा, सहचर, 2017|
5.सुभाष चन्द्र, देख कबीरा , बाजारवाद कि आंधी में नारी की टूटती वर्जनाये, 2009|

लेखक परिचय: 
पूनम प्रसाद : पीएचडी, हिंदी विभाग, जवाहरलाल नेहरु विश्वविधालय, नई दिल्ली
सविता: पीएचडी, अफ्रीकन स्टडीज, स्कूल ऑफ़ इंटरनेशनल स्टडीज, जवाहरलाल नेहरु विश्वविधालय, नई दिल्ली
पूनम कुमारी, पीएचडी, हिंदी विभाग, जवाहरलाल नेहरु विश्वविधालय, नई दिल्ली

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फेसबुक पर की गयी टिप्पणियों का बजरंग बिहारी तिवारी ने दिया जवाब

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पिछले दिनों हिन्दी साहित्य के आलोचक बजरंग बिहारी तिवारी की मुखर आलोचना फेसबुक पर की गयी . उन पर दलित साहित्य को भटकाने और उसके संरक्षकत्व का दावा करने का आरोप भी लगा है. इस बार कथादेश के अपने कालम में उन्होंने उन आरोपों का जवाब दिया है. बजरंग जी सोशल मीडिया में नहीं हैं, आरोप उनपर सोशल मीडिया में लगा इसलिए स्त्रीकाल के माध्यम से कथादेश में छपा उनका यह जवाब. इसके प्रत्युत्तर के आलेख आमंत्रित हैं. 

बजरंग बिहारी तिवारी
प्रतिरक्षा में वि-नय
                         
सार्थक अध्ययन छोड़कर बेमतलब की बहस में उतरनापड़े तो दुःख होता है| पूर्व-निर्धारित लेखन-कार्य स्थगित कर निराधार आक्षेपों का उत्तर लिखना पड़े तो झुंझुलाहट होती है| कीचड़ उछालने वाले का मकसद विचलित करना-भर हो तो उसे सफलता की अनुभूति होती है| इस बार अपने पक्ष को प्रस्तुत करते हुए मुझे घोर व्यर्थता का अहसास हो रहा है| कुछ न बोलने से अवसाद कायम रहेगा इसलिए यह प्रत्युत्तर लिखना पड़ रहा है|

बजरंग बिहारी तिवारी


हुआ यह कि तीन-चार शुभचिंतकों ने अप्रैल (2018) के प्रथम सप्ताहांत में मुझे फोन किया और मेरे अनुरोध का मान रखते हुए मेरे वाट्सएप नंबर पर स्क्रीन-शॉट भेजा| यह शॉट एक फेसबुक पोस्ट का था| मेरा फेसबुक अकाउंट नहीं है इसलिए वहाँ चल रही गतिविधियों से वाकिफ नहीं रहता हूँ| पोस्ट सूरज बड़त्या की थी- “ब्राह्मण शंकराचार्य ने बौद्धिजम को ख़त्म करने के लिए प्रक्षिप्त बौद्ध बन जो काम किया था... ऐसे ही हमारे दलित साहित्य आंदोलन को खत्म करने के लिए एक प्रगतिशील ब्राह्मण दलित आलोचक बनकर हमारे बीच घुस आया है .. इसे ओमप्रकाश वाल्मीकि ने तब घुसपैठिया करार दिया था .. ये दक्षिण में जाके कहते हैं कि .. “दलित –आदिवासी को लिखना सिखाता हूँ .. उनका मेंटर हूँ...” क्या करें इनका...” यह पोस्ट उन्होंने दो अप्रैल को रात दस बजकर बाइस मिनट पर लिखी थी| यह समझना किसी व्यक्ति के लिए मुश्किल नहीं था कि वह ‘प्रगतिशील ब्राह्मण’ कौन है| इससे पहले वे अपने फेसबुक पर इस तरह की कई पोस्ट डाल चुके थे| उनके तीन-चार सहयोगियों ने ‘बजरंगी भाईजान’, ‘बजरंगदल’, ‘हनुमान तिवारी’ आदि लिखकर ‘टारगेट’ की पहचान भी जाहिर कर दी थी| रमणिका गुप्ता जी ने जब सूरज बड़त्या को अपनी पत्रिका का संपादक बनाया तो पत्रिका का एक वाट्सएप ग्रुप बना| इसमें मुझे भी जोड़ा गया| इसके एक एडमिन सूरज थे| उन्होंने अपनी प्राथमिकता तय करते हुए इस ग्रुप को वामपंथ विरोधी मंच बना दिया| दो-तीन प्रसंगों में उनसे बहस भी हुई| मुझे लगा कि यह ग्रुप छोड़ देना ही उचित होगा| मैं बाहर निकल आया|

उक्त फेसबुक पोस्ट के बाद उस पर कई टिप्पणियाँ आईं|मैंने किसी मित्र से वह सारी सामग्री प्रिंट फॉर्म में मांग ली| कुल मुद्रित पृष्ठों की संख्या 15 निकली| इन टिप्पणियों से गुजरते हुए तय किया कि व्यापक पाठक समुदाय के समक्ष अपना पक्ष रख देना चाहिए| फेसबुक सार्वजनिक मंच है| वहाँ हुई बहस में सभी हिस्सेदार अपने नाम के साथ आते हैं| इस प्रत्युत्तर में मैं इसलिए सबकी टिप्पणियाँ उनके नामों के साथ दे रहा हूँ| सूरज की पोस्ट पर पहली टिप्पणी यजवीर सिंह विद्रोही की आई| उन्होंने सिर्फ एक शब्द से अपना काम चलाया- ‘तिवारी’| इसके बाद रश्मि प्रकाशन ने लिखा- “बताइये यह तो हाल है|” सूरज ने तुरंत जवाब लिखा- “बुरा हाल हैं .. कहें तो एक किताब लिख दें इस पे .. |” रश्मि प्रकाशन ने फ़रमाया कि एक किताब से काम नहीं चलेगा, “कम से कम ग्यारह लिखनी पड़ेगी|” यह भी कहा कि देर करने से फायदा नहीं है| पोस्ट पढ़कर यह जानने की उत्सुकता हुई कि रश्मि प्रकाशन की तरफ से कौन लिख रहा है| ज्ञात हुआ कि इसके स्वत्वाधिकारी हरे प्रकाश उपाध्याय हैं| रश्मि प्रकाशन के नाम से वही लिखते हैं| किन्हीं रुद्र प्रताप ने लिखा कि टारगेट का “नाम लेना जरूरी नहीं पर पहचानना और सतर्क रहना जरूरी है|” प्रमोद कुमार को नाम बताना अनिवार्य लगा| उनकी पोस्ट लगी- “पं. बजरंग बिहारी तिवारी” | सूरज ने इस पर अपनी प्रसन्नता जाहिर करते हुए एक स्माइली लगाई| देव कुमार ने हौसला आफजाई करते हुए लिखा- “सूरज बाबू! पूछिए मत, लिख डालिए|” उमाशंकर सिंह परमार ने गदगद स्वर में सूरज के संकल्प का अनुमोदन किया- “आपके हाथ चूमने का मन कर रहा है| साथी| आइ लव यू|” कवि असंग घोष ने इसे आगे बढ़ाते हुए सलाह दी कि “दोनों महानुभाव लिख डालो एक-एक किताब|” उमाशंकर सिंह परमार ने सूरज को अपना प्रस्ताव याद दिलाया- “सूरज भाई साब से मैंने बहुत पहले कहा था, मैं तो कहूँ कि अभी समय है इन आलोचक के लिए एक लेख बना दीजिए इसी माह “लहक” के लिए”| इसके बाद राकेश शर्मा का आक्रोश फूटा- “ऐसे घुसपैठियों का बहिष्कार करें और साथ ही साथ बेनकाब भी करते चलें|” अरुन कुमार का गुस्सा सातवें आसमान पर दिखा- “अब तो हदें पार हो गई हैं, उसका सही चेहरा सबके सामने लाना पड़ेगा| सुना है कि कुरुक्षेत्र के किसी कार्यक्रम में जय श्री राम के नारे भी लगा कर आया है ये ब्राह्मणवादी|” अरुन कुमार से विगत दो-तीन वर्षों से मेरा ठीक-ठाक परिचय रहा है| आप केन्द्रीय विद्यालय में हिंदी टीजीटी हैं| मुझे एकाधिक बार अपने विद्यालय में व्याख्यान के लिए बुलाया भी है| इलाहाबाद में जलेस द्वारा ‘जाति, वर्ग और जेंडर’ पर (1-3 अक्टूबर, 2016 को) आयोजित कार्यशाला में वे प्रतिभागी भी रहे हैं| मैं इस कार्यशाला के संयोजकों में से एक था| अब उनका यह परिवर्तित तेवर चकित करने वाला था| उनके कथन में आए “सुना है” को अपेक्षित सावधानी से ग्रहण करते हुए सूरज ने लिखा- “अगर ये सच है तो दिल्ली के प्रगतिशील इसे बाहर करें ... वरना वे भी जातिवादी कहायेंगे...” फैजाबाद के अनिल कुमार सिंह ने राज़ खोला- “क्या बात करते हैं| ये जलेस का उपसचिव है| बाभन होने के प्रताप से ही|” अनिल ने यह भी बताया कि “अभी धनबाद के सम्मलेन में” इसे उपसचिव बनाया गया है| उन्होंने अरुन कुमार से उनके ‘जय श्रीराम’ वाले रहस्योद्घाटन के बावत डबल भाईचारे के साथ पूछा- “इसकी सही सूचना कैसे मिलेगी भाई अरुण भाई”| उन्हें उत्तर मिला- “सर तथ्यों के साथ मिलते ही आपको भेज दूँगा, कुछ चीजें हाथ लगी हैं”| हाथ लगने वाली वे ‘कुछ चीजें’ क्या थीं इसके बारे में न अनिल सिंह ने पूछा न किसी और ने| विकी प्रताप सिंह ने बेशक ‘कुछ चीजें’ हाथ लगने पर उल्लसित स्वर में लिखा- “सत्य ज्यादा दिन छुपता भी नहीं|” उल्लास को चेतावनी से नत्थी करते हुए उन्होंने दूसरी पोस्ट लिखी- “भेड़ की खाल में भेड़ियों की कमी नहीं है... भगाओ नहीं तो खा जाएगा|” विकी प्रताप सिंह ने अपनी दोनों पोस्ट रोमन में लिखी| सुभीते के लिए मैंने उसे नागरी में लिखा है| सूरज ने उनके उल्लास को ईंधन मुहैया कराते हुए कहा- “बिलकुल साथ मिलकर भागेंयेगे साथी|” मानना चाहिए कि ‘भागेंयेगे’ से उनका आशय ‘भगाएँगे’ ही रहा होगा| अनिल सिंह ने अपने क्रोध का दमन उचित न समझकर नई पोस्ट डाली- “अगर ये प्रगतिशील है तो सूरज पश्चिम में उगता है!!” सूरज ने इस पर विषादी टोन में कहा कि “लेकिन सब इनको प्रगतिशील तो कहते हैं ..?” अनिल सिंह ने विषाद का तोड़ निकालते हुए जोड़ा- “कहते नहीं भाई इसे जलेस के जातिवादी नेतृत्व ने उपसचिव बना दिया है संगठन का|” विषाद दरका तो सूरज ने फिर पोस्ट लिखी- “तब तो ये ठीक से धरे जायेंगे अब ... आप वो रपट भेजिये .. दक्षिण वाली रपट मेरे पास आ गई .. कुरुक्षेत्र वाली भी आयेगी जल्द..” साथी को उत्साहित पाकर अनिल सिंह ने उकसाया- “ये नए दलित लेखक साथियों की भोली महत्वकांक्षा को भुनाता है उन्हें इधर उधर छपवा कर|” अरुन ने उत्साह में भरकर लिखा कि छपना चाह रहे ये लेखक “छपास रोग से ग्रस्त” हैं| धनबाद वाले कार्यक्रम की डिटेल्स मुहैया न करवा सकने के मलाल में डूबे अनिल सिंह को तिनके का सहारा मिला| तिनके को उन्होंने तिल समझा और मुहावरे के अनुसार ताड़ मानकर उस पर चढ़ गए| कल्पित ताड़ ने कल्पवृक्ष का काम किया| इतनी ऊँचाई पर पहुँचे कुंठामूर्ति अनिल को वह सब दिखा जिसका वे तसव्वुर कर रहे थे! उत्सवमूर्ति की मुद्रा बनाए मंडली के रंजनार्थ उन्होंने यह पोस्ट लिखी- “अयोध्या में इसने दलित आंदोलन के साथियों में फूट डाल दी| प्रेस क्लब में मीटिंग में इसका व्याख्यान सुनने आए आधे लोग संघ परिवार के थे| मैं अखबार की कट्टिंग भेज दूँगा| हालाँकि संजय भारतीय, आशाराम जागरथ और सी.बी. भारती जैसे वरिष्ठ दलित लेखक साथियों ने इसको कस के लतियाया भी था अपने जवाब में| तुलसीदास से समन्वय करवा रहा था|” मनोवांछा पूरी होती देख सूरज ने पहले तो “अखबार की कट्टिंग” भिजवाने का अनुरोध किया फिर याद आने पर कि सारा अभियान तो फेसबुक पर चल रहा है, अपने को सुधारते हुए अपनी बिंदु-बहुल शैली में लिखा- “भिजवा दीजिये भाई ... वो सब चाहिये ... यहीं पोस्ट कीजिए सब देखें इनकी प्रगतिशील करतूत ..” चर्चा में डॉ. राजेश चौहान जुड़े और दिशा दी- “छल करना ब्राह्मणवादी संस्कृति की पहचान है, आप उनके मिथकों को ही देख लीजिए|” इस स्थापना की संपुष्टि की आनंद सागर ने| अपनी विचित्र रोमन वर्तनी में उन्होंने लिखा- “प्रगतिशीलता नहीं ये भेड़िये है जो मेमनों की मास्क (masque) पहने हुए है, हमें उन्हें अनमास्क करना ही होगा ...” कुंठामूर्ति की उक्त पोस्ट से संकेत ग्रहण कर अरुन कुमार ने बताया- “भाई साहब इस घुसपैठिये को संघी लोगों से भी कोई ऐतराज नहीं है तभी तो उनकी गोद में बैठकर कार्यक्रम कर रहे हैं|” चर्चा में देर से प्रवेश करने वाले नामदेव ने ‘विचार मिमांसा’ की और कहा- “ऐसे में कुछ पंगु अछूत लोग अभी भी इस पंगु दर्शन के भक्त बने हुए हैं जिनकी बिना पर ये सर्वज्ञ महामानव इतराते हैं, इठलाते हैं|” इस विमर्श को बलराज सिहमार ने धोखा-पद्धति पर मौलिक चिंतन करते हुए इस तरह आगे बढ़ाया- “धोखा देना, वो भी पीछे से, झूठ बोलना ये तो पुरानी परंपरा है इनकी.....” डॉ. के.के. कुसुम ने अपना सच अपने विन्यास में सामने रखा- “हम तो इन चोटी जनेऊ धारियों का प्रारम्भ से ही धुर विरोधी रहे हैं!’ सूरज ने तुरंत जवाब दिया- “मैं तो बहुत पहले से ही इनको समझ गया था सर” | इस बार असंग घोष ने उफनते रोष के साथ लिखा- “ये घालमेल में सिद्धहस्त है|” लखनऊ से वीरेन्द्र यादव ने जोड़ा- “विरादराना संबंध तक तो ठीक है, लेकिन घुसपैठिया बनकर जबरन प्रवेश करने के अपने खतरे है|” ‘घुसपैठियों से सावधान’ कहते हुए भी तो घुसपैठ की जाती है! नीलम जेएनयू की पोस्ट आई- “और भी लोग घुसपैठ करने का प्रयास कर रहे हैं सूरज जी|” ईश कुमार गंगानिया ने अपना नजरिया रखा- “क्या आप समाज के बिकाऊ लोगों को रोक पाएंगे जो बिकाऊ होने का टैग लगाए घूम रहे हैं और खुले आम बिक रहे हैं? जरा इस नजरिए से भी सोचें...” सूरज ने उन्हें उत्तर दिया- “ये बेनकाबी अभियान है सर ... बिना प्रमाण के बात नहीं हो रही ... इसी पोस्ट पर देखिये कितने प्रमाण आ गये ..” सम्मोहित मंडली कैसे पूछ पाती कि वे प्रमाण कहाँ हैं! अपनी पोस्ट पर मिलने वाले ‘लाइक’ और ‘कमेंट’ को सूरज शायद प्रमाण मान रहे थे! प्रफुल्ल रंजन ने ‘स्थापित दलित साहित्यकारों’ को सुझाव दिया कि वे ‘प्रगतिशील अवसरवादियों’ को समझें| नरेश बंजारा ने लोकतंत्र में सरकार द्वारा खड़े किए गए पैरासाइट के विरुद्ध सड़कों पर उतरने की सलाह दी| प्रह्लाद दास ने शिवपालगंजी फार्मूला सुझाया- “डीटीडीसी अच्छा कोरियर सर्विस देता है| एक फटा जूता भेज दीजिये|” यहूदीकरण अभियान को तार्किक परिणति तक पहुंचाते हुए सत्य प्रकाश ने लिखा- “मेरा मानना है सर कि ब्राह्मण केवल ब्राह्मण होता है| इसके अतिरिक्त यदि कुछ होता है तो उसका ढोंग|” गौतम रावत ने इस उपसंहारात्मक कथन को तत्काल अपना समर्थन दिया| अब तक अनिल सिंह ने प्रमाण जुटा लिया था| उन्होंने दो अखबारों की क्लिपिंग लगाई| पहली कतरन में जो रिपोर्ट थी उसका शीर्षक था- ‘अटपटे ही रहे हैं दलित साहित्य व राजनीति के रिश्ते’ और दूसरी रपट का शीर्षक था- ‘चिंतन का प्रणालीगत होना आवश्यक है’ | दोनों में से कोई भी रपट उनकी किसी भी बात का संकेत नहीं दे रही है| ऐसा लगता नहीं कि उन्होंने इन कतरनों को पढ़ने की जहमत उठाई हो| वैसे, पढ़ने की जहमत उठाते कोई नहीं दिखा| नहीं तो इन अखबारी कतरनों में आए तथ्यों को कुंठामूर्ति की इलहामी बातों से मिलान का काम संपन्न हो जाता!
लेखक सूरज बडत्या और उनकी एक कृति 


इसके बाद नैमिशराय जी ने अपनी उत्सुकता प्रकट की- “सूरज जी, आप उस प्रगतिशील ब्राह्मण का नाम क्यों नहीं बताते है, क्या उससे डरते है? आप में हिम्मत नहीं है तो मैं बता दूँ|” बलरामपुर के हिंदी अध्यापक चंद्रेश्वर ने ज़ोर देकर कहा- “नाम आना चाहिए|” सूरज ने पुनः अपनी शैली में राज़फाश किया- “बजरंगी उस्ताद को बिहारी ... से लेकर तिवारी तक सब जानते हैं ...” हरे प्रकाश उपाध्याय ने अट्टहासी इमोजी के साथ लिखा- “हनुमान जब नाम सुनावे भूत-पिशाच निकट नहीं आवे” इसके बाद चंद्रेश्वर ने भाईचारे की भावना को मजबूती देते हुए कहा- “बहुत सही शिनाख्त की है, भाई सूरज बड़त्या जी ने| दलित विमर्श के नाम पर पता नहीं क्या-क्या लिखते रहते हैं| सब गड्डमड्ड है|” मुहावरे के निहितार्थों से बेपरवाह आत्मश्लाघा में डूबे शब्द इस तरह प्रगट हुए- “जानते सभी थे बस घंटी बांधने में कतरा या हिचक रहे थे ....” यह सूरज की पोस्ट थी| मेरे पास जो प्रिंट आउट है उसमें यही तक की प्रविष्टि है| इसके बाद किसने क्या लिखा, नहीं मालूम| मालूम करने की इच्छा भी न रही| स्थालीपुलाक न्याय के तर्क से इतना पर्याप्त लगा|

 सूरज बड़त्या की जिस पोस्ट से यह अभियान शुरू हुआउसमें कई झोल हैं| अभियान में उनके सहयोगी बने पचीसेक लोगों में से किसी को यह नहीं सूझा कि वे पोस्ट-कर्ता से पूछ सकें कि दक्षिण में तो पाँच राज्य हैं ‘बजरंगी उस्ताद’ ने किस राज्य के किस शहर के किस भाग में दलित-आदिवासी के मेंटर होने का दंभ जाहिर किया था? यह बयान किस सन में किस तारीख को दिया गया? इसका अगर कोई प्रमाण है तो उसे प्रस्तुत क्यों नहीं किया जा रहा? प्रमाण देखने-जाँचने के बाद निंदा अभियान चलाना क्या उचित नहीं होता? ‘दलित-आदिवासी को लिखना सिखाता हूँ’ यह बयान ही बेहद हास्यास्पद और हल्का है| इस पर बहस करना अपनी अक्लमंदी को भी जग जाहिर करना है| उक्त बयान किसी के कान में मंत्रवत दिया गया था या वहाँ पर अन्य लोग भी थे| क्या पोस्ट लिखने से पहले किसी स्रोत से सूचना पुष्ट की गई? अगर किसी सभा में यह बात कही गई हो तो प्रिंट/इलेक्ट्रॉनिक/सोशल मीडिया में भी उसका संज्ञान लिया गया होगा| वे सबूत तो एक बार देख ही लेने चाहिए थे! ‘कौआ कान ले गया’ का हल्ला मचने के बाद सबसे पहले अपना कान टटोलना चाहिए| कौवे का पीछा करना समझदारी नहीं मानी जाती| शंकराचार्य को ‘प्रच्छन्न बौद्ध’ कहा गया है| यह ‘प्रक्षिप्त बौद्ध’ कहाँ से आ गया? अगर पोस्ट-कार शब्द-प्रयोग को लेकर सचेत नहीं है तो क्या उसके ‘फालोवर्स’ भी उसी मनःस्थिति के हैं? जिस व्यक्ति को निशाने पर लिया गया उसकी कुछ किताबें हैं, कुछ लेख हैं| क्या इनसे उक्त बयान का मिलान किया गया? यह सवाल भी किसी ने नहीं किया कि ओमप्रकाश वाल्मीकि ने किस अवसर पर, लिखित या मौखिक रूप में ‘घुसपैठिया’ कहा है| उनके एक कहानी संग्रह का नाम ‘घुसपैठिये’ (राधाकृष्ण प्रकाशन, 2003) है| इसमें इसी शीर्षक से एक कहानी है| कहानी मेडिकल कॉलेज में एक दलित छात्र की सांस्थानिक हत्या पर केंद्रित है|

 इसी तरह ‘जय श्रीराम’ वाला नारा लगाने का मामला है|अरुण  कुमार के अनुसार यह नारा मैंने कुरुक्षेत्र में लगाया| उन्होंने यह दावा भी किया कि उनके पास कुछ साक्ष्य हैं| अगर साक्ष्य हैं तो उसे उन्होंने अपनी पोस्ट के साथ संलग्न क्यों नहीं किया? बाद में भी क्यों नहीं लगाया? यह शुद्ध रूप से चरित्रहनन का, लांछित करने का प्रयास है| इसके लिए साक्ष्य का भ्रम ही पैदा किया जाता है, कभी सबूत मुहैया नहीं कराए जाते| वास्तविकता यह है कि मैं कुरुक्षेत्र गया था| प्रो.सुभाष चंद्र और उनकी टीम द्वारा आयोजित ‘हरियाणा सृजन-उत्सव’ (23-25 फरवरी, 2017) में ‘सत्ता, सृजन और समाज’ विषय पर अपनी बात भी रखी थी| मेरा पूरा व्याख्यान यूट्यूब पर उपलब्ध है| इस कार्यक्रम की विस्तृत रपट प्रतिष्ठित पत्रिका ‘देस हरियाणा’ में प्रकाशित भी हुई है| अरुन को यह सब पता होगा| नैतिकता की मांग थी कि वे अपने मनोनुकूल बनाकर ही सही, न्यूनतम सूचनाएं देते|
   दलित आंदोलन के मूल में उत्पीड़ित होने का बोध है| उत्पीड़न के विरुद्ध स्वाभिमान से खड़े होने, संगठित होने की प्रक्रिया ही दलित साहित्य को जन्म देती है| इस प्रक्रिया में जो अवरोध आते हैं या जो बाधाएं खड़ी की जाती हैं वे आक्रोश को पैना बनाती हैं| पूर्वजों की स्मृति को अपने अनुभव का हिस्सा बना सकने वाले दलित लेखक का संघर्ष गहरा, बहुआयामी और ऐतिहासिक हो जाता है| प्रधानतः अपने अनुभव तक सीमित रह जाने वाले लेखक की लड़ाई कम पेचीदा किंतु ज्यादा सटीक और धारदार होती है| पहली श्रेणी आयत्त अनुभव की है तथा दूसरी अर्जित अनुभव की| इस बीच एक तीसरी श्रेणी भी बनती दिख रही है| यह किसी महत् उद्देश्य से नहीं बल्कि कॅरियर बनाने, छवि चमकाने के मकसद से क्रियाशील हुई है| ‘सिंथेटिक विक्टिमहुड’ वाली यह श्रेणी ज्यादा आक्रामक है, अत्यधिक मुखर है| सामाजिक वास्तविकता से इसका कोई जैविक, आवयविक संबंध नहीं है| इसकी आक्रामकता भी इसीलिए सिंथेटिक है| सूरज इसी सिंथेटिक श्रेणी के प्रतिनिधि हैं|

 डॉ. कुसुम वियोगी को दिए गए उत्तर में वे कहते हैं-“मैं तो बहुत पहले से ही इनको समझ गया था सर” | इस ‘बहुत पहले’ पदबंध के क्या मायने हैं? कितना पहले? पहले समझने का क्या परिणाम हुआ? ‘बजरंगी उस्ताद’ का इस्तेमाल या उनके लिखे की उपेक्षा? जब सूरज बड़त्या ने मुझे अपनी किताब ‘सत्ता संस्कृति और दलित सौंदर्यशास्त्र’ (2010) भेंट की तो कहा कि इस पर जरूर लिखिएगा| लंबे समय तक किताब रखी रही लेकिन इस पर लिखने का मौका न मिला| सूरज यदा-कदा याद दिलाते रहे| मैंने काफी बिलंब से ‘पुस्तक-वार्ता’ पत्रिका के मार्च-अप्रैल 2016 अंक में इस पर लिखा| तब तक शायद सूरज मेरी ‘असलियत’ समझ नहीं पाए थे| समझ गए होते तो वे मेरे लिखे को अपनी तौहीन मानते और उस पर अपना कड़ा विरोध दर्ज कराते| विरोध दर्ज कराने के बजाय उन्होंने मुझे अपना कहानी संग्रह ‘कामरेड का बक्सा’ भेंट किया| यह बात अक्टूबर 2016 की है| इस संग्रह का ‘समर्पण’ पढ़कर आश्चर्य हुआ क्योंकि तब तक मैं उस ‘धैर्यवान’ कांग्रेस नेता को इस रूप में नहीं जानता था- “आदरणीय/ डॉ. जनार्दन द्विवेदी जी/ को/ जिन्होंने एक नये मार्ग को चुनने और/ चलने का रास्ता सुझाया/ जो एक धैर्यवान नेता से पहले/ बुद्धिजीवी हैं!” अपनी पुस्तक कौन किसको समर्पित करता है, यह उसका अपना विवेक है| इसे भरसक मुद्दा नहीं बनाया जाना चाहिए| लेकिन, इस प्रसंग में एक ‘बुद्धिजीवी’ के रूप में जनार्दन द्विवेदी के प्रति श्रद्धा की अभिव्यक्ति ही उल्लेखनीय बात लगी! किताब भेंट करते हुए सूरज ने अपनी सुंदर हस्तलिपि में मेरे लिए जो शब्द लिखे उन्हें ससम्मान जनता-जनार्दन के दरबार में प्रस्तुत करना चाहता हूँ- “दलित साहित्य के/ गंभीर अध्येता एवं गंभीर आलोचक/ डॉ. बजरंग बिहारी तिवारी को/ इस उम्मीद के साथ/ की इसे पढ़कर सलाह/ देंगे एवं इस पर कहीं/ लिखेंगे|/ आपका/ सूरज बड़त्या/ 6/10/16”. इसके बाद उनका याद दिलाने का अभियान शुरू हुआ| मुझे इस संग्रह की पाँचों कहानियाँ ठीक लगीं थीं और इन पर लिखने का मन भी था पर पहले जमा काम निपटाने में देर लग रही थी| इधर सूरज जी व्यग्र हो रहे थे| आखिरकार मैंने अपनी प्राथमिकताओं में किंचित फेर-बदलकर संग्रह की समीक्षा लिखी| यह समीक्षा लखनऊ से प्रकाशित दैनिक ‘जनसंदेश टाइम्स’ के रविवारीय संस्करण में दिनांक 11.6.2017 को छपी| समीक्षा पढ़कर सूरज ने मेरे वाट्सएप नं. पर यह संदेश भेजा| शुक्र है कि यह संदेश डिलीट होने से रह गया- “शुक्रिया बजरंग जी ... कम शब्दों में शानदार और सार्थक लिखा है कमियों और कमजोरियों पर भी कुछ शब्द लिखते तो उचित होता ...... विस्तार लेख हो तो मुझे मेल कर दीजिये शुक्रवार को आऊँगा ... पैठे की मिठायी संग ..... सादा लंच करूँगा ...” इसके साथ उन्होंने दो स्माइली लगा दी थी| मैंने सोत्साह उसी दिन यह समीक्षा दो-तीन वाट्सएप समूहों में लगा दी थी| समीक्षा पढ़कर एक शुभचिंतक का फोन आया| उन्होंने समीक्षा पर कोई टिप्पणी करने के बजाय कहा कि “अब आपके दिन बहुरेंगे|” इस वाक्य का इतना भीषण मतलब निकलेगा, अंदाजा न था!

सूरज के व्यक्तित्व को समझने के क्रम में कई लोगों सेबात करनी पड़ी| उस बातचीत का ब्योरा देना आवश्यक नहीं समझता| लेकिन जो ब्योरा लिखित रूप में पहले से ‘पब्लिक डोमेन’ में है, उसका हवाला देना जरूरी लग रहा है| यह बेहद दुखद प्रसंग है जिसे भारी मन से याद करना पड़ रहा है| ‘हंस’ पत्रिका के अप्रैल 2003 अंक में प्रसिद्ध रचनाकार-बुद्धिजीवी कात्यायनी का लेख छपा था- ‘एक यक़ीन की मौत या एक अकेली लड़ाई की शोकांतिका?’ इसमें उन्होंने अर्चना की आत्महत्या का मुद्दा विश्लेषित किया था| सूरज से अंतरजातीय विवाह करने वाली “अर्चना, जिसने वर्ष 2003 की भोर की उजास फूटने से ठीक पहले अपने लिए मृत्यु का अंधकार चुन लिया|” आत्महत्या से पहले भयंकर आत्म-यंत्रणा से गुजरते हुए अर्चना ने अपनी डायरी में जो दर्ज किया उसके कुछ हिस्से को कात्यायनी ने अपने लेख में उद्धृत किया है| उस हिस्से का एक अंश यहाँ दे रहा हूँ- “अब जब भी कोई अच्छी-अच्छी उसूलों की बात करता है, तो अंदर से हँसी और गुस्सा दोनों आते हैं कि पता नहीं खुद ये कितनी कोशिश करते होंगे| कितना process चलाते होंगे, कितना स्त्री सम्मान जैसी अवधारणाएं मन में होती होंगी| ‘बहनचोद’ जैसी गाली आम है... ‘बहन की लौंड़ी’ इस शब्द का मतलब मुझे नहीं पता पर सुन लेती हूँ क्योंकि कर्म ऐसे होते हैं और जब क्रोध इस सीमा तक आ जाए तो प्रिय बहनों को लेकर दी गई ये गालियाँ भावों की अभिव्यक्ति बन जाती हैं| घटिया आदि तो आम बात है|”



इस ट्रैजिक परिघटना की समाजशास्त्रीय व्याख्या करते हुए कात्यायनी ने लिखा- “सूरज प्रकाश स्वयं को वामपंथी विचारों को मानने वाला एक दलित बुद्धिजीवी है| ऐसे कथित वामपंथियों-प्रगतिशीलों की कमी नहीं है जो अपने निजी जीवन में पितृसत्तात्मक समाज के सभी मूल्यों-संस्कारों को जीते हैं| ऐसे तमाम लोगों को अपने ‘महान क्रांतिकारी चिंतक’ होने का खूब मुगालता होता है| पूरा समाज न सही तो कम से कम ‘उनकी स्त्री’ उनकी ‘महानता’ को, उनकी व्यस्तताओं-परेशानियों को समझे, उनकी सनक को बर्दाश्त करे और सुघड़ गृहणी बनकर उनके लिए कुर्बानी दे|” अपने विश्लेषण को समापन तक पहुँचाने से पहले कात्यायनी ने यह भी जोड़ा- “सूरज प्रकाश ऐसे ही अराजक-अकर्मक नकली प्रगतिशीलों में से एक है| जो अपने विचारों को सामजिक प्रतिष्ठा और तरक्की की सीढ़ियाँ बनाते रहते हैं, गोष्ठी कक्षों से लेकर काफ़ी हाउस तक डोलते रहते हैं और फिर रात को ‘सामाजिक-सरोकार-जनित’ अपने तनावों को शराब के प्याले में डुबोते रहते हैं| ऐसे ‘वामपंथी’ चरित्रों ने वामपंथ के विरुद्ध पूर्वाग्रह पैदा करने में अहम् भूमिका निभाई है| दिल्ली की अनुष्ठानिक सरगर्मियों और अकर्मक विमर्शों में ऐसे लोग भी खूब बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते हैं| जहाँ कोई जोखिम नहीं सिर्फ बातों का सौदा होता हो, वहाँ भला सूरज प्रकाश जैसे लोगों के असली चेहरे की शिनाख्त भी कैसे हो सकती है?”

सूरज ने 2 अप्रैल को अपनी ‘साहसी’ पोस्ट लिखी थी|सब जानते हैं कि यह तारीख स्वतंत्र भारत के इतिहास में सबसे संगठित, सफल और अविस्मरणीय ‘भारत बंद’ की गवाह है| ‘भारत बंद’ का आवाहन क्यों किया गया? यह सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा दलित उत्पीड़न के फौजदारी मामलों में लागू क़ानून को कमजोर कर देने से उपजा आक्रोश था| दलित समुदाय पर हिंसक हमलों में इधर जितनी वृद्धि हुई है वह किसी से छिपी नहीं है| ऐसे वक्त में ‘एससी/एसटी अट्रोसिटी एक्ट’ को ‘डायल्यूट’ किया जाना अकल्पनीय खतरे की घंटी थी| प्रबुद्ध समुदाय ने इसे समझा और ‘भारत बंद’ को जान-माल की बाजी लगाकर सफल बनाया| उधर विश्वविद्यालय में नया रोस्टर लाकर नियुक्तियों में आरक्षित तबके के प्रवेश को रोकने का फरमान आ गया| यह भी पीड़ा, बेचैनी और आक्रोश का बड़ा कारण बना| ऐसे वातावरण में सूरज ने अपनी प्राथमिकता तय करते हुए जो लिखा वह उनके चरित्र को, उनके सरोकारों को एक बार फिर जाहिर कर देता है|

मामला अगर व्यक्तिगत खुन्नस की सामान्य अभिव्यक्ति काहोता तो इस अभियान के प्रति उदासीन रहा जा सकता था| इस अभियान की पृष्ठभूमि पर गौर करें तो पाएंगे कि तैयारी पहले से शुरू कर दी गई थी| ‘दलित साहित्य में बजरंग दल’, ‘तिवारी की घुसपैठ’ जैसे ‘वन लाइनर’ कमेंट पहले से आ रहे थे| इस बार की पोस्ट अभियान को निर्णायक स्थिति की तरफ ले जाने की मंशा से परिचालित लगी| सूरज की पोस्ट में आए अंतिम वाक्य को देखिए- “क्या करें इनका...” यह टोन उसी प्रकार का है जैसा धर्माधारित राष्ट्रों में ईशनिंदा अपराध के मामलों में होता है| कोई ठोस साक्ष्य प्रस्तुत किए बगैर भीड़ से ‘अपराधी’ के लिए सजा मुक़र्रर करवाने का काम इसी तरह किया जाता है| हमारे समाज में इसका ज्वलंत उदाहरण अखलाक का मामला है| कुछ इसी टोन में सोम संगीत ने भीड़ से पूछा होगा- “क्या करें इनका?” सूरज लिखते हैं- “इस बार ये प्रमाण के साथ धर लिए गए...” सोम संगीत ने इसी तरह फ़्रिज से ‘प्रमाण’ निकालकर दिखाया होगा| वह ‘प्रमाण’ इन दिनों जाने किस लैब में जाँचा जा रहा होगा! सूरज की पोस्ट फॉलो करने वालों को भी ‘प्रमाण’ की चिंता नहीं होनी थी, नहीं हुई| ‘क्या करें इनका’ वाले आह्वान पर ध्यान दिलाने के लिए एक निरापद-सा समाधान रखा गया- “कहें तो किताब लिख दें इस पे”? फॉलोअर्स ने इशारा समझा| कुछ हलके-फुलके समाधानों का संकेत भी किया| एक सलाह थी कि जैसा एक भेड़िए के साथ किया जाता है वही इसके साथ हो, दूसरी सलाह फटा जूता भेजने की थी, एक सलाह लतियाने की मिली ...| जिस वक्त देश को निजी हाथों में में सौंपने का काम तेजी से प्रारंभ हुआ- रक्षा क्षेत्र, खुदरा व्यापार और रेलवे आदि में शत-प्रतिशत प्रत्यक्ष विदेशी निवेश, किसानों की जमीन को कारपोरेट के सुपुर्द करना, शिक्षा-स्वास्थ्य-रोजगार आदि की दुर्दशा ठीक उसी समय सांप्रदायिक उन्माद में उछाल, अख़लाक़ की हत्या| लोगों का ध्यान भटकाने के मकसद में यह उन्माद निश्चय ही सहायक हुआ| जिस वक्त दलित समाज आक्रोशित है, आंदोलित है, अपेक्षाकृत संगठित है उस वक्त अस्तित्वगत, अस्मितागत राजनीतिक मुद्दे की जगह व्यक्ति-विशेष को मुद्दा बना देना संदेह पैदा करता है और एक बड़े पर्दानशीं खेल का संकेत करता है|
कथादेश से साभार 

बजरंग बिहारी तिवारी समर्थ आलोचक हैं और दलित साहित्य एवं मुद्दों पर अपने लेखन से हस्तक्षेप करते रहे हैं. 


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आमिर खान और उनकी बेटी का अपमान: सिलसिला पुराना है, ट्रॉल्स नये हैं

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ज्योति प्रसाद
 शोधरत , जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय. सम्पर्क: jyotijprasad@gmail.com  

शाहजहाँ-जहांआरा से लेकर आमिर खान और उनकी बेटी तक बाप-बेटी के सहज रिश्तों को लेकर ट्रॉल्स समाज में हमेशा रहे हैं. अभी सोशल मीडिया पर उन्हें एक स्पेस है. ऐश्वर्या राय भी अपनी बेटी को लिप किस के लिए ट्रोल हुई हैं. नेहरू को लेकर तो उनके परिवार के रिश्तेदारों के साथ सहज रिश्तों का भी मजाक उड़ाया है देश के कथित सबसे बड़ी पार्टी के आईटी सेल ने. प्रधानमंत्री खुद ऐसे लोगों को फॉलो करते हैं, ऐसे कार्टूनिस्टों के कार्टून रिट्वीट करते हैं. ज्योति प्रसाद का समसामयिक लेख: 

ऐसी बात नहीं है कि आज के समय में ही ट्रॉल्स की पैदाइश हुई है।ये लोग पुराने जमाने से ही जोंक की तरह दूसरों का खून पीकर जीवित होते रहे हैं। आज जब हमारी दुनिया इंटरनेट से गहराई से जुड़ी है तब भी इन लोगों ने चारपाई के खटमल की तरह आभासी दुनिया में जगह बनाई हुई है। किसी ने कोई फोटो या अपने विचार साझा किए नहीं कि ये लोग तुरंत गंदे शब्दों की बारिश करने पहुँच जाते हैं।

एक बार की बात है। हम काफी छोटे थे। बिजली के गुल हो जानेपर रात के समय आपस में जुड़ती हुई छतों पर अपनी-अपनी उम्र के मुताबिक़ मोहल्ले के बड़े और बच्चे अपने समूह बनाकर अंताक्षरी जैसे खेल खेलते थे या फिर देश दुनिया की खबरों पर बड़े बहस किया करते थे। एक दिलचस्प समूह ऐसा भी था जो गांधीजी के बारे में तमाम तरह के विचार रखता था। ऐसे ही किसी समूह में किसी पुराने जमाने के ट्रोलर ने गांधी जी के लिए कुछ ऐसा कहा जिससे उसी रात में झगड़े की स्थिति पैदा हो गई। उस व्यक्ति को गांधीजी का दो लड़कियों के कंधों के सहारे चलना पसंद नहीं था और उसी को निशाने पर लेकर वह जब तब इस बात को कह दिया करता था। ऐसा ही एक रोज़ उसने फिर से कहा। उसे बीच में ही डांटते हुए एक अंकल जो काफी पढे लिखे भी थे बोले- “जुबान पर लगाम रखो। बहन बेटियों के कंधों का सहारा लेकर चलने में क्या दिक्कत है? बहन और बेटियों को अगर अलग-थलग रखोगे तब ज़िंदगी में सोच के स्तर पर पीछे ही रहोगे। समझे! आगे से याद रखना जो इस तरह की बात मुंह पर कभी लाये।” उसके बाद कभी इस तरह की जुबान का इस्तेमाल करते हुए उस व्यक्ति को नहीं सुना। कम से कम वह सबके बीच अब यह बात नहीं कहता था। यह तब की बात है जब ट्वीटर, फेसबुक या अन्य तकनीक जगत नहीं थे।

ट्रॉल्स रिश्तों का क़द्र नहीं जानते. आमिर खान और नेहरू के मामले में ट्रॉल्स एक जैसे 


कॉपी कैट हैं ट्रॉल्स 
हाल ही में जब मार्क जुकरबर्ग को अमरीकी सीनेटमें डेटा लीक के मामले में तलब किया गया था तब वहाँ मौजूद लगभग बहुत से सीनेट्स ने सवाल जवाब करते हुए मार्क जुकरबर्ग को गजब की लताड़ लगाई थी। एक शब्दावली (टर्म) का बार-बार इस्तेमाल किया गया था- ‘औसत अमरीकन’ (एवरेज अमेरिकन)। सीनेट के सदस्यों का कहना था कि बहुत सी तकनीक की पेचिदगियाँ एक औसत अमरीकन को समझ नहीं आ सकतीं। और आप इस चीज का गलत इस्तेमाल कर रहे हैं। ख़ैर यहाँ औसत होना एक अलग संदर्भ है। लेकिन एक महीन धागा इन तकनीकी ट्रॉल्स से भी जुड़ा है जो औसत दर्जे में भी नहीं हैं। समझ और जुबान के मामले में कम-से -कम वे औसत भारतीय नहीं दिखते। करीना कपूर के कपड़ों के बारे में यह कहना कि अब वे माँ हैं और उन्हें ऐसे कपड़े नहीं पहनने चाहिए, जैसी बात करने वाले क्या औसत समझ के व्यक्ति हैं?

ठीक इसी तरह से ट्रॉल्स में इतनी समझ नहीं होतीकि वे तथ्यों और बातों, रिश्तों आदि को गहराई से समझे। वे अमूमन एक ही धारा में एक दूसरे को देखकर ट्वीट या फेसबुक पर कमेंट्स करते जाते हैं। वे एक तरह के कॉपी कैट हैं। इसलिए जब भी कोई उनके पसंद के और गैर-पसंद के जाने पहचाने चेहरे कोई भी फोटो साझा करते हैं या पोस्ट लिखते हैं तब पहले से तैयार बैठे ट्रॉल्स सही गलत का रुख तय कर देते हैं। आमिर खान ने जब अपनी बेटी के साथ की तस्वीर फेसबुक पर साझा की तब उस तस्वीर में मौजूद पिता बेटी के बीच की केमिस्ट्री को न देखकर उन्हें ट्रोल करने की तैयारी कर के मैदान में एक साथ बहुत से लोग मैदान में उतर गए। एक बाद एक कमेंट दिये गए। और हर टिप्पणी पहले वाली नफरत से भरी टिप्पणी की कड़ी ही नज़र आई। मतलब की एक का विचार किसी दूसरे ने बिना सोचे समझे लिया और अपनी राय किसी दूसरे व्यक्ति की राय पर बनाई। 
सस्ती सोच के मालिक हैं.

गांधी जी का सहज संबंध


अमूमन ट्रॉल्स के सोशल मीडिया अकाउंट्स पर मौजूदा काम, नाम और तस्वीर पर निगाह डाली जाये तो पता चलता है कि तस्वीर तो सुसंस्कारी चिपकाते हैं और पर लफ़्फ़ाज़ी में दो-टकिये से ज़्यादा कुछ नहीं होते। सवाल यह भी है कि इस तरह की चरसी जुबान वे पाते कहाँ से हैं? इतिहास में इनकी खोज की जाये तब भी इनके पूर्वज वहाँ मिल जाएँगे। मुग़ल साम्राज्य के बादशाह शाहजहाँ की बड़ी बेटी जहाँआरा बेगम का शासन में पर्याप्त सहयोग और दखल था। खुद उसका रूतबा भी बड़ा था और वे कई अहम फैसले भी लिया करती थी। बादशाह उसे कई मसलों पर मशविरा लेते थे। कट्टर माने जाने वाला औरंगजेब भी उसे सम्मान देता था। वह शाहजहाँ की प्रिय संतान थी और अंत तक उसने बादशाह की सेवा भी की। लेकिन यह तस्वीर का एक पहलू है। इसके उलट पीठ पीछे उसे और शाहजहाँ को लेकर फब्तियाँ भी कसी जाती थीं। हालांकि जहांआरा के बारे में पढ़कर पता चलता है कि वह काफी खुद्दार और बुद्धिमान बेटी थी जिसने लेखन के जगत में भी अपना सहयोग दिया।
पिता और बेटी के बीच के रिश्ता.

सोशल मीडिया पर ही एक तस्वीर बहुततेज़ी से वायरल हो रही है। तस्वीर में एक बच्ची सिर पर दुपट्टा ओढ़े बेलन से चपाती बेलती हुई दिख रही है और बगल में लिखा है कि नहीं रहेंगी बेटियाँ तो कैसे खाओगे उनके हाथ की रोटियाँ। हमारे आसपास इस तरह की तरस खा जाने वाली सोच है कि आप दो पल को माथा पकड़ कर बैठ जायेंगे कि क्या पागलों का शहर है! हाल ही में ‘राज़ी’ फिल्म आई है। लोगों के रुझान के मुताबिक़ फिल्म काफी अच्छी है। मैंने यह फिल्म अभी तक नहीं देखी। लेकिन फिल्म का एक गाना बड़े ज़ोरों से लोगों में लोकप्रिय हुआ है। ‘मुड़कर न देखो दिलबरों,...फसलें जो काटी जाएँ उगती नहीं हैं, बेटियाँ जो बिहाई जाएँ मुड़ती नहीं हैं...! ऐसी ही फिल्म ‘जॉनी मेरा नाम’ में जब हेमा मालिनी ‘बाबुल प्यारे गीत’ पर नाचती हैं तब कितने ही लोग रोने लगते हैं। ‘साडा चिड़िया द चंबा वे, बाबुल अस्सी उड़ जाना…! इसी तरह एक गाना और याद आ रहा है,‘लिखने वालों ने लिख डाले मिलन के साथ बिछोड़े अस्सा हुन्ण टुर जाणा ए दिन रह गए थोड़े...! ऐसे ही मेरे पड़ोस में रक्षाबंधन में एक गीत बजाया जाता है जिसमें एक लड़की महिला गीतकार गाती है- ‘कितने दिन और कितनी रैने इस आँगन में रहना है मैंने, परदेसी होती हैं बहनें...! कुल मिलाकर यही छवि है। ये सभी गीत बहुत ही सुरीले हैं। अच्छे लगते हैं। कई लोगों की प्ले लिस्ट में भी होंगे। पर दिमाग पर ज़ोर डालकर सोचिए क्या हमने कभी ऐसे गीत सुने जिसमें कोई पिता गा रहा हो- ‘मेरा नाम करेगी रोशन, जग में मेरी राज दुलारी!’ पराई अमानत है। दूसरों के घर का धन है। (इंसान भी नहीं है) कन्यादान करना पुण्य का काम है। हमारे घर की इज्जत है।
आज भी हालात इन सब से बहुत अलग तो नहीं हैं। कुछ इस तरह की सोच ही दिखती है। हमारे घरों में हज़ार बार सुनने को मिल ही जाता है- ‘तुझे तो दूसरे के घर जाना है!’ मामूली सा वाक्य है पर गौर से देखिये। कुछ मिनट निहार कर सोचिए कि हमने अपनी खुद की बेटियों को किस तरह बांध कर रखा है। एक छवि और अनुमानित व्यवहार की ही अपेक्षा में हम मरे जाते हैं। लड़की जरा सी हिली नहीं कि हाय-तौबा मच जाती है। अपनी बेटियों और बहनों के लिए हमारे मापदंड आज भी बेहद कठोर हैं। बचपन से यह तय किया जाता है कि जब बाप-भाई घर में हों तब चुन्नी की जगह क्या हो, व्यवहार क्या हो...सब कितना सलीके से इंजेक्ट किया जाता है! यही वजह है कि आमिर और उनकी बेटी की तस्वीर शूल की तरह चुभ रही है।
ऐश्वर्या राय  अपनी बेटी को किस कर ट्रॉल्स की शिकार हुईं


सेल्फी विद डॉटर वाले देश में 
पिछले साल ही‘सेल्फी विद डॉटर’ नाम का एक अभियान प्रकाश में आया था। तमाम तरह के जाने पहचाने चेहरों ने अपनी-अपनी बेटियों के साथ फोटो खींचकर सोशल मीडिया पर साझा की थीं। देश में पहले से ही चल रहे ‘बेटी बचाओ अभियान’ के एक अंग के रूप में इसे देखा गया था। तब इस अभियान की काफी तारीफ और चर्चा हुई थी। इतना ही नहीं पिछले साल ही जून के महीने में पूर्व राष्ट्रपति ने सेल्फी विद डॉटर एप का औपचारिक उद्घाटन भी किया था। इन्हीं ट्रॉल्स ने तब इसे हाथों हाथ लिया था और तारीफ में शब्दों की झड़ी ही लगा दी थी। फिर अचानक आमिर और उनकी बेटी के फन टाइम तस्वीर को लेकर इतना हल्ला क्यों है, समझ नहीं आता। आमिर खान और उनकी बेटी की फोटो तो और बेहतरीन है। फिर इस बार ट्रॉल्स को इस फोटो से क्या परेशानी है? यह दोहरा रवैया है। क्या आमिर के नाम के पीछे लगा अधिनाम इसकी वजह है? इस बात पर भी गौर किया जाना चाहिए। पूर्व अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा अपने इंस्टाग्राम के अकाउंट पर खुद का परिचय लिखते हुए सबसे पहले ‘पिता, पति, राष्ट्रपति और नागरिक’ (Dad, husband, President, citizen.) लिखते हैं।क्या इससे अच्छा परिचय कहीं और मिलेगा? क्या बेटियों के साथ वक़्त गुजारना निशाने पर आना है?

रमजान के दिन अपने आप में ही समर्पण और त्याग के दिन माने जाते हैं। व्यक्ति से सद्व्यवहार की अपेक्षा रहती है। यह तो कहीं नहीं लिखा कि अपने बच्चों के साथ सुखमय पल बिताना मना है। दूसरों के लिए गलत ज़ुबान का इस्तेमाल और उनके जीवन में दखलंदाज़ी गलत ही मानी जाती है। यह विवाद यह भी बताता है कि समाज और व्यक्ति की सोच के स्तर पर हम विकसित नहीं हो पाये हैं। हमलावर भाषा की ईजाद हो चुकी है और और की-बोर्ड के सहारे किसी दूसरे के चरित्र और उसके मापदंड को तय किए जा रहे हैं। हाल ही में कान फिल्म उत्सव के दौरान ऐश्वर्या राय और उनकी बेटी की किस करते हुए फोटो पर यह कहा गया कि यह गलत है। बेटी के होंठों पर किस नहीं किया जाता। हालांकि अपने बच्चे को प्यार करना नितांत प्राकृतिक है। माँ अपने बच्चे को जब तब चूमती ही है। यह प्यार का एक रूप है।

बेटी आलिया भट्ट के साथ महेश भट्ट

मुद्दा तो यह होना चाहिए था कि लड़कियों
की सुरक्षा, शिक्षा, हर क्षेत्र में पर्याप्त अवसर और भागीदारी, समान व्यवहार, कुपोषण आदि मुख्य विषयों पर समुचित चर्चा हो पर हम और आप एक प्यारी सी तस्वीर के बचाव में कलम चला रहे हैं। यही वे आमिर खान हैं, जिनकी पिछले साल की ‘दंगल’फिल्म पर हम सब वारे-न्यारे जा रहे थे। बार बार फिल्म की चर्चा कर रहे थे। विदेशों में भी इस फिल्म की चर्चा और कमाई बेमिसाल रही थी। अपनी बेटियों को कुश्ती सिखाते हुए यही आमिर उर्फ महावीर सिंह फोगट हमें अच्छे लग रहे थे पर यही आमिर अपनी बेटी के साथ की एक तस्वीर में बुरे लग रहे हैं। यही दोहरापन है हमारे समाज और उसकी सोच का।

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राम-अल्लाह वाले फर्जी पोस्ट की कैराना-सांसद ने की पुलिस में शिकायत,जांच के आदेश

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स्त्रीकाल डेस्क

कैराना से नवनिर्वाचित सांसद तबस्सुम हसन ने शामली के पुलिस अधीक्षक को अपने नाम पर वायरल किये जा रहे पोस्ट के खिलाफ पत्र लिखकर शिकायत की और दोषियों पर जांच और कार्रवाई की मांग की. गौरतलब है कि तबस्सुम हसन 16वीं लोकसभा में उत्तर प्रदेश से पहली मुस्लिम सांसद हैं. भाजपा के शानदार प्रदर्शन वाले इस राज्य से एक भी मुस्लिम सांसद 16वीं लोकसभा के लिए नहीं चुना गया था. तब्बसुम हसन हाल में हुए उपचुनाव में कैराना में भाजपा की उम्मीदवार मृगांका सिंह को हराकर लोकसभा पहुँची हैं.

इस तरह के पोस्ट और पोस्टर हो रहे वायरल 


 स्त्रीकाल डेस्क 
उनके जीतने के बाद सोशल मीडिया में उनके नाम सेएक पोस्ट वायरल किया गया, जिसमें वे यह कहती हुई दिखायी गयी हैं कि 'यह अल्लाह की जीत है और राम की हार है.'तब्बसुम हसन ने कहा कि 'ऐसा पोस्ट उनके नाम से व्हाट्स ऐप और अन्य स्रोतों से फैलाया जा रहा है, जिससे कि आपसी भाईचारा और क्षेत्रीय सौहार्द को क्षति पहुंचाई जाये. यह एक सोची समझी साजिश के तहत किया जा रहा है.

तब्बसुम हसन का पत्र 


शामली एसपी ने इसपर आईटी सेल को निर्देशित किया है कि जांच कर रिपोर्ट दें और एफआईआर दर्ज करवायें.

कैराना में चुनाव जीतना भारतीय जनता पार्टी के लिए इसलिए नाक का प्रश्न था कि वहां 'कथित हिन्दू पलायन'की बात कर मतों के ध्रुवीकरण की कोशिश की गयी थी. मुख्यमंत्री आदित्यनाथ ने मुजफ्फरनगर दंगों के पुराने मामले को अपने भाषणों में उठाकर एक लकीर खीच दी थी और प्रधाणमंत्री ने इस लोकसभा क्षेत्र में चुनाव के एक दिन पूर्व पड़ोसी जिले बागपत में अधूरे बने सडक का उदघाटन कर मतदाताओं के लिए कई वायदे किये थे. इसके बावजूद राष्ट्रीय लोकदल की प्रत्याशी तब्बस्सुम हसन की जीत हुई, जिसके बारे में तबस्सुम  का दावा है कि जीत का मार्जिन और बड़ा होता यदि चुनाव के दौरान मुस्लिम और दलित बाहुल इलाकों में बड़े पैमाने पर ईवीएम मशीने ख़राब नहीं होतीं.

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