आदित्य कुमार गिरि
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शोधार्थी,कलकत्ता विश्वविद्यालय,. सम्पर्क : adityakumargiri@gmail.com
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“आज का साहित्य विमर्श स्त्री विमर्श के बिना पूरा नहीं होता,लेकिन ज्यादातर इसका रूप फैशन वाला ही है.बौद्धिक लफ्फाजी की शक्ल में लिखे गए लेख और संपादकीय प्रायः पत्र पत्रिकाओ में दिखाई पड़ते हैं लेकिन स्त्रियों की सामाजिक राजनैतिक सांस्कृतिक साहित्यिक स्थिति के संबंध में गंभीर विवेचनात्मक और तर्कपूर्ण लेखन का अभाव बना हुआ है.“1
असल में स्त्री को केन्द्र में रखकर लिखना महत्वपूर्ण होते हुए भी केवल यही मुख्य नहीं होना चाहिए.जबतक उसे किसी ‘दृष्टि’ से न लिखा जाए.बिना विजन के किए लेखन को फैशन का लेखन कहा जाता है.“स्त्री विमर्श को लेकर किए गए गंभीर कार्य इक्सवी सदी के खाते में नहीं बल्कि उससे पहले की सदियों के नाम दर्ज हैं.उभरते पूँजीवाद ने चिंतन के क्षेत्र में नए मुद्दे खड़े किए,जिनकी पहले अनदेखी होती आई थी.स्त्री का मुद्दा भी उनमें से एक था.स्त्री को लेकर इस उदार पूँजीवादी,बुर्जुआ चिंतन की सीमा है पर इसी ने सबसे पहले आगे बढ़कर स्त्री को ‘मनुष्यता’ के धरातल पर देखने की गुहार लगाई.“2
“समाज के नजरिए को बदलने औरस्त्रियों के सवालों को उठाने,स्त्री के संदर्भ में स्त्रियों के साथ साथ पुरुषों की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है,बल्कि स्त्री के सवालों को सहानुभूतिपूर्ण ढंग से सक्षम और समर्थ पुरुष विचारकों द्वारा उठाए जाने के बाद ही पुंसवादी वर्चस्व वाली सामाजिक चेतना के दुर्ग में सेंध लगी.स्त्री विमर्श के लिए एक सकारात्मक वातावरण बना.”3
इसी अर्थ में जैनेन्द्र के साहित्यको भी स्त्री विमर्श की बहस को पुरुष लेखक की ओर से आगे बढ़ाने वाला समझना चाहिए.जैनेन्द्र कुमार प्रेमचंद की परंपरा में आनेवाले कथाकार नहीं हैं.उन्होंने कथा-लेखन की अपनी अलग राह चुनी है.इस राह में वे कई कथा युक्तियों का प्रयोग करते हैं,जो उनसे पहले प्रयोग में नहीं लाई गई थी.जैनेन्द्र ने अपने कथा साहित्य में स्त्री के सवालों को एक नए दृष्टिकोण से उठाया है.
स्त्री के सवालों को उठाने के दौरान उसकी स्थिति और ‘परिवेश’ का बेहद महत्त्व होता है.जैनेन्द्र के कथा साहित्य को पढ़ते वक्त यह चीज़ ज्यादा स्पष्ट होती है.जैनेन्द्र जिस सत्य को प्रकट करना चाहते हैं उसके लिए ‘परिवेश’ बेहद महत्त्वपूर्ण है.उनकी कहानियों के पाठ से यह चीज़ और ज्यादा साफ होती है.वे परिवेश को एक “टूल” की तरह प्रयोग में लाते हैं.पूरी कहानी बेहद कम शब्दों में आगे बढ़ रही होती है लेकिन परिवेश के कारण कथा का यथार्थ बेहद तीव्रता से प्रकट होता है.
सुनंदा के माध्यम से स्त्री जीवन की एकगंभीर समस्या की ओर ध्यान दिलाने की कोशिश की गई है और साथ ही इसकी मूल जड़ की भी पड़ताल की गई है.यह अचानक नहीं है कि कथाकार ने कहानी का नाम ‘पत्नी’ रखा है.यह सुनंदा के बहाने असल में ‘पत्नी’ और परिवार के ‘ढ़ाँचे’ पर प्रश्न चिन्ह है.यह कैसी व्यवस्था है जहाँ एक तरफा नियम चलता है.जहाँ पुरुषों को असीमित अधिकार हैं लेकिन वहीं उसकी सहधर्मिणी(?) की भूमिकाएँ तय हैं.सीमीत हैं.उसकी व्य़क्तिगत जिन्दगी दायरे में बँधी है.
जैनेन्द्र को मनोवैज्ञानिक कथाकार कहकर हम छुटकारा नहीं पा सकते.असल में वे गहरे सरोकारों को व्यक्त करने वाले कथाकार हैं.इस कहानी में सुनंदा और उसके पति के माध्यम से परिवार के अस्तित्त्व पर प्रश्न चिन्ह लगाया गया है.
इस कहानी में पति के माध्यम से यहदिखाने की कोशिश की गई है कि पुरुष का दृष्टिकोण क्या है.आज स्त्री की मूल समस्या यही ‘दृष्टिकोण’ है.जिसकी ज़द में स्त्रियाँ भी हैं.स्त्रियाँ भी पुरुषवादी दृष्टिकोण के कारण स्त्रीवादी मूल्यों के आलोक में चीजों को नहीं देख पातीं.स्त्री को जिन मूल्यों के परिप्रेक्ष्य में देखा जाता है,वह पूरा का पूरा पितृसत्तात्मक दृष्टिकोण है.इस दृष्टिकोण ने समाज में अपनी इतनी पैठ कर ली है कि इस सोच से स्त्री भी मुक्त नहीं है.स्त्री भी खुद को पुरुषवादी दृष्टिकोण से देखने को अभिशप्त है.सुनंदा की तमाम चिंताएं अपने पति को लेकर है.उसका खान-पान,उसकी रक्षा,उसके दोस्त उसकी आवश्यकताएँ बस इन्हीं के ईर्द-गिर्द वह जीती है.जैनेन्द्र जानते हैं कि स्त्री का ‘समाज’ असल में पुरुष का समाज है.इस समाज में उसकी अपनी कोई ‘अस्मिता’ नहीं है.इसकी अपनी कोई इच्छा,कोई आवश्यकता,आशा-आकांक्षा नहीं है.
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पत्नी’(यों) की चर्चा करते समय अब तक जिन मुद्दों पर बहस की गई है.असल में वे सब नाकाफी हैं.कहानी को पढ़ते हुए एकबारगी लगेगा जैसे सुनंदा(पत्नी) खुद अपने लिए कोई आजादी नहीं चाहती.उसकी आंखों में कोई सपना नहीं है,लेकिन सत्य इससे अलग है.भारत देश की पत्नियाँ अपने लिए जिस दृष्टिकोण को धारण किये हुए हैं और उनमें जो परिवर्तन परिलक्षित हैं,जैनेन्द्र ने असल में कहानी का मूल विषय उसे बनाया है.हम जिस समाज में रह रहे हैं,वहां स्त्रियां कोई सपना नहीं देखतीं.इनकी पूरी जिंदगी पति,पिता,पुत्र के लिए खुशियाँ इकट्ठी करने में लगी हुई हैं.
सुनंदा जिस घर में रहती है,जिन सरोकारों को जीती है उसे हम घर की चाहरदीवारी की जगह पर अगर समाज के रुप में देखें,तब बात और ज्यादा स्पष्ट होगी.सुनंदा भारतीय समाज की किसी भी एक आम स्त्री का प्रतिनिधित्व कर रही है.जिसकी पूरी जिंदगी और उसके सरोकार अपने पति(पुरुष) के ईर्द-गिर्द घूमते हैं.
जैनेन्द्र के अलावे अज्ञेय भी एक अलग तरीके से इसी सवाल को अपनी कहानी ‘रोज़’4 में उठाते हैं.वहां भी स्त्री की तमाम चिंताएँ अपने पति और मर चुके बच्चे की यादों को लेकर है.पतियों की एक अलग दुनिया जरुर है.जहां लोगबाग हैं,दोस्त-यार हैं.देश है,दुनिया है,दुनिया की चिताएं हैं.नहीं है तो सिर्फ स्त्री और स्त्री की चिंता.
देश की स्वतंत्रता,हिंसा,शोषण,समाज सभी विषयों पर पुरुषपात्र सोचता है,परंतु नहीं सोचता तो सिर्फ अपनी घर की स्त्री पात्र के संबंध में.जैनेन्द्र इसकी ओर भी इशारा करते हैं.‘पत्नी’ इस मुद्दे से भी टकराती है. कहानी की शुरुआत ही सुनंदा(पत्नियों)की स्थिति को प्रकट करने के लिए काफी है.यह शुरुआत पारंपरिक पत्नी के रूप को प्रस्तुत करती है लेकिन उसी वर्णन में सुनंदा का एक और रूप निकल कर सामने आता है.संभवतः जैनेन्द्र का उद्देश्य भी उसी रूप को विकसित करना रहा हो.वे परिवार की इस महत्त्वपूर्ण ईकाई के ‘शोषण’ पर ही चोट करना चाहते हैं.जैनेन्द्र की पत्नी कहानी असल में पत्नी के माध्यम से परिवार संस्था के शोषक रूप पर चोट है.यह इतना बारीक है कि एकबारगी पूरी कहानी पारंपरिक स्त्री के,पारंपरिक पत्नी जिसे संस्कारी(तथाकथित) कहा जाता है,की कहानी लगती है लेकिन यह पूरी कहानी बेहद बारीकि से ‘व्यंजनात्मक’ रूप से इस छवि का विलोम बनाती है.इसमें दिख रही पत्नी असल में अपनी स्थिति से असन्तुष्ट है.वह पुरुष द्वारा प्रदत्त अपनी भूमिका से विद्रोह की सीमा तक रुष्ठ है.
जैनेन्द्र के ‘नैरेशन’ में इस चीज़ को समझा जा सकता है “शहर के बाहर एक तिरष्कृत मकान......वहाँ चौके में एक स्त्री अंगीठी सामने लिए बैठी है.अंगीठी की आग राख हुई जा रही है.वह जाने क्या सोच रही थी.उसकी अवस्था बीस बाइस के लगभग होगी.देह से कुछ दुबली है और संभ्रान्त कुल की मालूम होती है.
एकाएक अंगीठी में राख होती हुई आग की राख पर स्त्री का ध्यान गया.घुटनों पर हाथ देकर वह उठी.उठकर कुछ कोयले लाई.कोयले अंगीठी में डालकर फिर किनारे ऐसे बैठ गई मानो दाय करना चाहती है कि अब क्या करुँ ? घर में और कोई नहीं है और समय बारह से ऊपर हो गया है.”5
यह पति की प्रतिक्षा करती पारंपरिक पत्नीका वर्णन है लेकिन इसी पत्नी की मनःस्थिति के बदलते बिन्दुओं को व्यक्त करती अगली पंक्तियाँ “वह जाने कब आएँगे.एक बज गया है.कुछ हो,आदमी को अपनी देह की फिक्र तो करनी चाहिए....और सुनंदा बैठी है.वह कुछ कर नहीं रही है.जब वह आएँगे तब रोटी बना देगी.वह जाने कहां कहां देर लगा देते हैं और कब तक बैठूँ.मुझसे नहीं बैठा जाता.कोयले भी लहक आए हैं और उसने झल्लाकर तवा अंगीठी पर रख दिया.नहीं,अब वह रोटी बना ही देगी.उने खीझकर जोड़ से आटे की थाली सामने खींच ली और रोटी बेलने लगी.”6
यह “झल्लाहट”,यह खीझ ही इस ,कहानी की ‘उपलब्धि’ है.एकबारगी लगता है यह पति की चिंता से उपजी खीझ है लेकिन असल में यह अपनी उपेक्षा और ‘बेकारी’ की चिढ़ है.यह एक ऐसी स्त्री की तलाश है जिसे अपनी उपेक्षा बर्दाश्त नहीं हो रही.भारतीय समाज में प्रेमचंद युग तक यह दुर्लभ था.यह जैनेन्द्र युग की ‘खोज’ है.जैनेन्द्र का कथा साहित्य इसी मामले में अलग है.जैनेन्द्र के सामने जो समस्या है वह यह है कि स्त्री सक्षम हो,सशक्त हो,लेकिन वे जानते हैं कि सबसे पहले उसे “स्व” का बोध हो,यह ज्यादा जरुरी है.असल में पुरुषवादी नजरिया स्त्री के लिए वह स्पेस नहीं देता,जो स्त्री के ‘स्व’ के लिए सबसे ज्यादा आवश्यक है.ऐसा नहीं है कि स्त्री ,जो परिवार की चिंता,उसकी देखभाल कर पा रही है,वह समाज के मुद्दे पर असफल हो जाएगी.परन्तु उसे वह सामाजिक स्पेस देना पड़ेगा.स्त्री सशक्तिकरण के बड़े-बड़े दावों के बीच उसकी बुनियादी समस्याएं कहीं-न-कहीं दब सी गई हैं.यह इसलिए क्योंकि स्त्री सशक्तिकरण के लिए पहले स्त्री की समस्याओं की पहचान जरूरी है,क्योंकि समस्याओं को समझे बिना सशक्तिकरण केवल कोरा नारा है.
जैनेन्द्र के साहित्य के केन्द्र में पुरुषवादी समाज का ‘दृष्टिकोण’ है.जिसने सदियों से स्त्रियों को गुलाम तो बनाए ही रखा है साथ ही स्त्रियों के अन्दर ‘हीन-भावना’ को भी जन्म दिया है.यह ‘दृष्टिकोण’ एक ऐसी व्यवस्था का जन्मदाता है जिसने पुरुष को श्रेष्ठ और स्त्री को ‘हीन’ बनाया(बताया) है.चूँकि स्त्री हीन है,कमजोर है,कम श्रेष्ठ(?) है अतः वह पुरुष की मातहत है,उसके अधीन है.उसके पास जो भी अधिकार(?) होंगे वे पुरुष समाज द्वारा प्रदत्त होंगे.जो ईकाई अधीन है,कमजोर है, जाहिर सी बात है उसकी समझ भी कम होगी,दुनियावी झमेलों की उसे समझ होगी नहीं.अतः वह दुनियायवी(सार्वजनिक) जगत से दूर रहे.यह स्त्री की सामाजिक जिन्दगी की मौत की अवधारणा और दृष्टि है.स्त्री चाहरदिवारी तक सीमित रहे,उसकी सामाजिक सांस्कृतिक,राजनीतिक भूमिका तय कर दी गई.
यह एक ऐसी व्यवस्था है जिसके द्वारा स्त्रियों की सार्वजनिक जीवन में भागीदारी रोकी जाती है और यह ऐसा मानती है कि स्त्री का जन्म ही पुरुष की अनुगामिनी बनकर रहने के लिए हुआ है.
‘पुंसवादी समाज की यह जनप्रिय व्यवस्था यह मानकर चलती है कि इसमें स्त्री-पुरुष और समाज,सबका कल्याण,सबका हित है.’7
जॉन स्टुअर्ट मिल स्त्री की पुरुषवादी समाज और पुरुषवादी व्यवस्था में स्त्री के प्रति मौजूद दृष्टि के विरोध में हैं.वे स्त्री के लिए स्पेस की बातें करते हैं.वे पुरुषवादी व्यवस्था के इतर स्त्री को अबतक न परखने का तर्क देते हैं और मानते हैं कि यही व्यवस्था एकमात्र आदर्श या विकल्प हो ही नहीं सकती.स्त्री और पुरुष के इस संबंध जिसमें स्त्री मातहत और पुरुष ‘रक्षक’(?) है,के लिए कोई वैज्ञानिक आधार या तर्क नहीं है बल्कि यह शुद्ध रूप से ‘शक्ति’ और सत्ता का खेल है.स्त्रियों की पारिवारिक नाकेबंदी को निर्दोष और गैरराजनीतिक दृष्टि से व्याख्यायित करना स्त्री के साथ अन्याय है.स्त्री के शोषण की इस अवधारणा को सत्ता,शक्ति और सम्पत्ति से जोड़कर देखना चाहिए.जॉन स्टुअर्ट मिल ने अपनी पुस्तक
‘दि सबजुगेशन ऑफ वुमेन’(स्त्रियों की पराधीनता-प्रगति सक्सेना,अनुवाद,राजकमल प्रकाशन,2002) में कहा है ‘स्त्रियों की निर्भरता दासता की आदिम अवस्था का ही एक रूप है.इसमें मौलिक पाशविकता का ऐब आज भी है.’8
स्त्री की तुलना स्टुअर्ट मिल ने दासोंसे की है.दास प्रथा तो समय के साथ खत्म हो गई लेकिन स्त्री का शोषण और स्थिति में आज तक कोई परिवर्तन नहीं आया बल्कि समय के साथ उसकी गंभीरता और बढ़ती ही गई है.“पूर्व स्थापित व्यवस्था में ऐसी ही शक्ति होती है,चाहे वह बिल्कुल ही सार्वभौमिक न हो,और चाहे इतिहास के लगभग हर युग में उससे विपरीत बेहतर व्यवस्था के महान व सुविख्यात उदाहरण हों,लेकिन वह लगभग हमेशा सबसे प्रतिष्ठित व समृद्ध समुदायों में पाई ही जाती है.इस स्थिति में भी,अत्यधिक सत्ता का स्वामी और प्रत्यक्षतः उसमें रुचि रखने वाला व्यक्ति सिर्फ एक होता है,जबकि जो इसका शिकार होते हैं,इसे भुगतते हैं,वे शब्दशः सभी होते हैं.पराधीनता स्वाभाविक व आवश्यक रूप से सभी लोगों के लिए अपमानजनक होती है,सिवाय उस व्यक्ति के जो शासक है या ज्यादा से ज्यादा उस व्यक्ति के लिए जिसे गद्दी का उत्तराधिकारी बनने की उम्मीद है.यह स्थिति स्त्री पर पुरुष की सत्ता से कितनी भिन्न है.”9
क्योंकि सत्ता में रहने की मानसिकता से पूरा पुरुष समाज लबरेज होता है.वह स्त्री को द्वीतीय नागरिक समझता है.वह उसे न्यूनतम सम्मान भी नहीं देता.उसकी इस दृष्टि ने स्त्री को हीन बना दिया है. जैनेन्द्र इसी दृष्टिकोण से लड़ रहे हैं
.उनकी कहानियों में पुरुष समाज द्वारा विकसित व्यवस्था के प्रति रोष है और उस रोष को दिशा देने की कोशिश भी की गई है.जैनेन्द्र स्त्री की सामाजिक,राजनैतिक,सांस्कृतिक स्थिति पर पुरुषवादी सोच का विलोम तैयार करते हैं.वे इस व्यवस्था से असन्तुष्ट हैं.उनके पात्र बेहद छटपटा रहे हैं.पत्नी की,सुनंदा की उदासी और ऊब और दिनभर पति केन्द्रित क्रियाकलाप पाठकों में उसकी तीव्रता को स्पष्ट करते हैं.सुनंदा की स्थिति देखकर पाठक अगर क्रोधित होता है तो खुद सुनंदा भी एक अलग तरह की पात्र है.जैनेन्द्र रचित सभी स्त्री पात्र अपने आप में अद्भुत हैं लेकिन सुनंदा की निर्मिती सबसे मौलिक है.सुनंदा का चरित्र दो स्तरों पर निर्मित किया गया है.पहला वह जो पुरुषवादी समाज व्यवस्था की परिचित स्त्री है.जिसे अपने पति की चिंता है.उनके खाने पीने की,उनके रहने सहने की,उनके स्वास्थ्य की,उनके सामाजिक जीवन की,उनके दोस्तों की.वह हर घड़ी इन्हीं चीजों को सोचती रहती हैं.पति ने खाया नहीं,वे खा लेते,बहस बाद में करते,ज़रा धीरे धीरे बोलते,पुलिसवाले बाहर ही बैठे हैं,उन्हें नहीं पता क्या कि पुलिस वाले सादी वर्दी में हर घड़ी बाहर ही बैठे रहते हैं,क्या उन्हें इसकी थोड़ी भी परवाह नहीं आदि आदि.दूसरी ओर पति द्वारा अपनी उपेक्षा या हक न जताने पर उसका गुस्सा सब उसी पारंपरिक स्त्री को प्रस्तुत करते हैं.ठीक इसके उलट सुनंदा का एक और रूप है जो जैनेन्द्र की मौलिकता है और वह है उसका विद्रोही रूप.यह आधुनिक मूल्यों के आलोक में तैयार हुई एक स्त्री का रवैया(एटीट्यूड) है.जैनेन्द्र ने बड़ी बारीकि से इसे चित्रित किया है.सुनंदा का एक मन हमेशा पति केन्द्रित रहता है लेकिन व्यवहार में एक पक्ष ऐसा है जो पति की उपेक्षा से विचलित,नाराज है.वह पति से ‘संवाददीनता’ में प्रकट होता है.पति के कुछ भी पूछने और कहने पर ‘मौन’ रूप.वह खाना बनाने के सवाल(अनुरोध ?) पर चुप रहती है और खुद ब खुद बनाकर दे जाती है.पति इसे अपनी बेइज्जती समझते हैं,समाज और दोस्तों के सामने इसे असहजता की वजह के रूप में देखते हैं.यहाँ भी पुरुषवादी स्वार्थ दिखता है.उन्हें पत्नी की परवाह नहीं है,उन्हें इसकी भी चिंता नहीं कि पत्नी के मन में क्या चल रहा है वे केवल अपनी सामाजिक स्थिति को लेकर चिंतित हैं.उन्हें इस बात की लज्जा है कि सुनंदा के व्यवहार से दोस्तों में उनकी यह छवि बनेगी कि उनकी पत्नी ‘उनके कहने’ में नहीं.यह पत्नी की चिंता का नहीं,अपने अहम की चिंता का उदाहरण है.सुनंदा हमेशा अपने पति को खुश देखना चाहती है,उनके अनुरूप खुद को ढालना चाहती है लेकिन जब ‘व्यवहार’ की बात आती है तब वह अपने सोचे हुए के ठीक विपरीत करती है.यह भारतीय समाज में नई स्त्री के ‘स्व’ को रेखांकित करता प्रसंग है.यह स्त्री खुद की उपेक्षा को बरदाश्त नहीं कर पाती.
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पूरी कहानी में पति-पत्नी में एक तनावकी सी स्थिति है.जबकि सुनंदा और कालिन्दीचरण के स्तर पर ऐसा कुछ नहीं लेकिन ‘व्यवहार’ में उनका यह तनाव प्रकट होता है.‘पत्नी’ कहानी पत्नी की कथित श्रेणी के बाहर एक नई स्त्री की ‘खोज’ है.पत्नी सुनंदा अपनी उपेक्षा और वर्तमान दशा से असन्तुष्ट है.यही कहानी की विशेषता है.जैनेन्द्र सुनंदा के माध्यम से परिवार में बल्कि कहना चाहिए परिवार से स्त्री के मोहभंग को प्रकट करते हैं.
स्त्री को कृतार्थ करने का भाव पुरुष समाज की अन्य विशेषता है.स्त्री जानती है वह निरी वस्तु है.पुरुष अपने अनुभवों में उसे शामिल नहीं करेगा.उससे कुछ भी ‘शेयर’ नहीं करेगा,वह अंदर ही अंदर घुटती रहेगी,जलती रहेगी लेकिन पुरुष उसे अपने अनुभवों का साझेदार नहीं बनाएगा,क्योंकि उसकी नज़र में वह केवल खाना बनाने और बच्चे जनने की मशीन है.वह सौन्दर्य की वस्तु है.बिस्तर की वस्तु है.उसकी उपस्थिति घर में भी बेहद उपेक्षित सी है.वह घर में भी केवल पुरुष की जरूरतों की भरपाई के लिए है.उसका पूरा अस्तित्तव पुरुष का ध्यान रखने और जरूरतों की पूर्ति भर तक सीमित है.उसे व्यक्ति समझा ही नहीं जाता.कहने का आशय यह है कि स्त्री को सामाजिक ईकाई के रुप में देखे जाने की जरुरत है.स्त्री भी एक आम मनुष्य है.उसे भी इंसान की तरह देखा जाना चाहिए.दूसरी महत्वपूर्ण चीज यह है कि स्त्री के लिए अब तक जिस दृष्टिकोण का प्रयोग किया जाता रहा है,उसकी जड़ों पर आघात करना सबसे ज्यादा जरुरी है.स्त्री की गुलामी(चाहे वह शारीरिक हो या मानसिक)उसकी शुरुआत परिवार से ही होती है.तो क्या यही कारण नहीं है कि जैनेन्द्र अपनी कहानी में परिवार और परिवार की एक महत्वपूर्ण,बल्कि कहना चाहिए कि दो महत्वपूर्ण ईकाई स्त्री और पुरुष को अपनी कथा का आधार बनाते हैंबस इन्हीं कारणों से जैनेन्द्र हिंदी कथा परंपरा में अलग दिखते हैं.क्योंकि स्त्री को लेकर उनका जो दृष्टिकोण है,वह बाकि कहानीकारों से बिल्कुल भिन्न है.वे अपने तरह के अकेले रचनाकार हैं
आज उत्तर-आधुनिक साहित्यिक परिदृश्यने स्त्री-विमर्श को साहित्य के केन्द्र में ला खड़ा किया है.कहना होगा कि बहुतेरे रचनाकार और उनका स्त्री को लेकर एक नया दृष्टिकोण है,लेकिन इन सबके बीच जैनेन्द्र की अपनी एक अलग पहचान है.क्योंकि वे स्त्री के लिए जिस स्पेस की मांग कर रहे हैं,वह आज भी बहुतेरे लेखकों के लिए दूर की कौड़ी है.उसकी दयनीय स्थिति को समाज में उसकी नियति की तरह प्रस्तुत किया जा रहा है.जैनेन्द्र इस मामले में स्पष्ट हैं कि स्त्री की इस दशा के लिए पुरुषवादी सोच जिम्मेदार है.पत्नी कहानी इस मायने में और ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाती है क्योंकि वह परिवार को एड्रेस करती है,जहां स्त्री की विडंबनाश्(शोषण) ज्यादा खुलकर सामने आती है.
स्त्रियों की स्थिति पर स्टुअर्ट मिलकहते हैं—“सामाजिक व प्राकृतिक सभी कारण मिलकर यह असंभव कर देते हैं कि महिलाएँ संगठित तौर पर पुरुषों की सत्ता का विरोध कर सकें.वे इस अर्थ में अन्य पराधीन वर्गों से भिन्न स्थिति में हैं कि उनके मालिक उनसे वास्तविक सेवा के अतिरिक्त कुछ और भी चाहते हैं.पुरुष केवल महिलाओं की पूरी पूरी आज्ञाकारिता ही नहीं चाहते,वे उनकी भावनाएँ भी चाहते हैं.सबसे क्रूर एवं निर्दयी पुरुष को छोड़कर सभी पुरुष अपनी निकटतम संबंधी महिला में एक जबरन बनाए गए दास की नहीं,बल्कि स्वेच्छा से बने दास की इच्छा रखते हैं—सिर्फ एक दास नहीं बल्कि अपना प्रायः अपना चहेता व्यक्ति चाहते हैं.अतः उन्होंने महिलाओं के मस्तिष्क को दास बनाने के लिए हर चीज़ का इस्तेमाल किया है.अन्य दासों के मालिक आज्ञाकारिता बनाए रखने के लिए भय का प्रयोग करते हैं—उनका खुद का भय या धार्मिक भय.स्त्रियों के मालिक साधारण आज्ञाकारिता से कुछ अधिक चाहते थे और उन्होंने शिक्षा के पूरे बल का इस उद्देश्य के लिए इस्तेमाल किया.बहुत बचपन से स्त्रियों को यह सिखाया जाता है कि उनका आदर्श चरित्र पुरुष से ठीक विपरीत होना चाहिए.इच्छा शक्ति और आत्म नियंत्रण नहीं बल्कि समर्पण और दूसरे के नियंत्रण के समझ झुक जाना गुण होना चाहिए.सारी नैतिकता उन्हें बताती है कि यह महिलाओं का कर्तव्य है और सभी मौजूदा भावनाओं के अनुसार यह उनका स्वभाव है कि वे दूसरों के लिए जिएँ,पूर्ण आत्मत्याग करें और स्नेह संबंधों के अतिरिक्त उनका अपना कोई जीवन न हो.स्नेह संबंधों से तात्पर्य सिर्फ उन संबंधों से है जिनकी उन्हें इजाजत है—वे पुरुष जिनसे स्त्री संबंधित हो या वे बच्चे जो पुरुष व उनमें एक अटूट व अतिरिक्त बंधन होते हैं.जब इन तीन चीजों को साथ रखते हैं—पहला,दो विपरीत लिंगों में स्वाभाविक आकर्षण,दूसरे,पत्नी की पति पर पूर्णतः निर्भरता,उसकी हर सुविधा व सुख या तो पति का इनाम होता है,या पूरी तरह से उसकी इच्छा पर निर्भर करता है,और अंतिम कि मानव इच्छा की जो मुख्य वस्तुएँ हैं,सम्मान और सामाजिक महत्वाकांक्षा की सभी चीजों सामानयतः एक स्त्री अपने पति के जरिए ही पाती है या पाने की कोशिश करती है.इन तीनों चीजों को साथ रखकर देखें तो स्पष्ट हो जाएगा कि स्त्री की शिक्षा व उसके चरित्र निर्माण की प्रक्रिया के केंद्र में पुरुष के लिए आकर्षक बनने का उद्देश्य न होना एक चमत्कार ही होता है.महिलाओं की बुद्धि पर साधनों के इस प्रभाव को हासिल कर पुरुषों के स्वार्थी स्वाभाव ने इसका पूरा पूरा महिलाओं को अधीन रखने के लिए भी किया हैउन्हें यह जतलाया गया कि विनम्रता,समर्पण और अपनी निजी इच्छा का पुरुष के हाथों पूर्ण अर्पण ही महिलाओं के शारीरिक आकर्षण का आवश्यक भाग है.क्या इस बात पर संदेह किया जा सकता है कि अन्य प्रकार की दासताएँ जिन्हें मानव जाति तोड़ने में कामयाब हुई है,वे अब तक टिकी रहतीं यदि साधन इतनी ही मेहनत से (अधीन) लोगों के दिमाग को झुकाने के लिए इस्तेमाल किए जाते हैं ?”10
“पितृसत्तात्मक समाज के पक्ष में तर्क देने वालों की भी यही दलील होती है कि पितृसत्ता सबसे पुरानी और सहज व्यवस्था है.सहज शायद इसलिए भी कि यहाँ बिना खून खराबा,युद्ध हिंसा,मार काट,संघर्ष के बिना ही एक वर्ग केवल लिंग के आधार परदूसरे से श्रेष्ठ मान लिया गया.उसे जीवनभर दूसरे वर्ग से हीन होकर उसके रहने को तैयार किया गया.इसलिए ऐसे लोगों को पितृसत्ता सबसे स्वाभाविक सत्ता लगती है.पुरुष का स्त्री पर आधिपत्य—हर प्रकार का पितृसत्तात्मकता के वकीलों को सबसे ज्यादा स्वाभाविक लगता है.”11
असल में यहाँ दिक्कत यह है कि स्त्री को शोषण हो रहा है इससे खुद स्त्री भी अनभिज्ञ है.यह एक ऐसी लड़ाई है जहाँ शोषित वर्ग को पहले यह विश्वास दिलाना होगा कि उसका शोषण हो रहा है फिर अगला कदम होगा.
आधुनिकता की बहस के साथ स्वतंत्रता और निजी का जो भाव जन्मा,स्त्री उससे बिल्कुल लाभान्वित नहीं हुई.स्त्री पूरी तरह से आधुनिकता की,नवजारगण की उपलब्धियों से दूर रही.उसके लिए नए आधुनिक समाज का कोई मतलब नहीं रहा.वह पहले ही की तरह ‘गुलाम’ रही,उपेक्षित रही.“पुंसवादी धारणा है कि स्त्रियों की स्वाभाविक योग्यता पत्नी और माँ बनने में ही है.ऐसा सोचने वाले विवाह को स्त्रियों के लिए कितना वांछनीय और आकर्षक नहीं बताते कि वे स्वेच्छया इस बंधन में बंधना चाहें.वे स्त्रियों के लिए विवाह को अनिवार्य बना देते हैं या तो यह अथवा कुछ नहीं.”12
कालिन्दीचरण की दृष्टि में सुनंदाकुछ भी बताने लायक जीव नहीं है.और सामाजिक राजनैतिक विषय तो बिल्कुल भी नहीं बताए जाने चाहिएँ.स्त्रियों को लेकर ऐसे दृष्टिकोण पर मिल लिखते हैं—“निस्संदेह यह प्रायः होता है कि एक व्यक्ति जिसने दूसरे के विचारों के एक विषय पर भलीभाँति व विस्तार से नहीं पढ़ा है,उसे स्वाभाविक विलक्षणता के परिणामस्वरूप एक आभास होता है जिसे वह सुझा तो सकता है पर सिद्ध नहीं कर सकता,लेकिन फिर जो परिपक्व होकर ज्ञान में एक महत्त्वपूर्ण कड़ी बन सकता है.....क्या यह मान लिया जा सकता है कि ऐसे अद्भुत विचार महिलाओं को नहीं सूझते ? हर बुद्धिमान महिला को ऐसे सैकड़ों विचार सूझते हैं.लेकिन अधिकतर वे विचार पति या एक ऐसे मित्र की कमी के कारण खो जाते हैं,जिसके पास यह दूसरा ज्ञान हो और उनके विचारों का ठीक ठाक अनुमान लगाकर उन्हें दुनिया के सामंने ला सकें.और जब वे दुनिया के समझ लाए भी जाते हैं तो वे उसके(पुरुष के) विचार अधिक लगते हैं,उसके मूल लेखक के नहीं.कौन बता सकता है कि पुरुष लेखकों द्वारा व्यक्त किए गए कितने सर्वाधिक मौलिक विचार दरअसल एक महिला द्वारा सुझाए गए थे और वे सिर्फ स्त्यापित करने व उन पर काम करने के बाद ही उनके अपने विचार बने ?”13
कालिन्दीचरण ‘भारतमाता को स्वतंत्र’ करने और “देशोद्धार” की बातें करते हैं.इसका ‘नैरेटिव’ इतना सुंदर है कि इससे कथा के तनाव को समझा जा सकता है.पूरी घटना का विवरण ऐसे दिया जा रहा है मानो कहानीकार ‘नैरेट’ नहीं कर रहा बल्कि सुनंदा ‘नैरेट’ कर रही है और यह ‘नैरेशन’ एक “ताना” हो.यानी जिस आदमी को अपनी पत्नी की समस्याएँ नहीं दिख रही हैं वह एक और(अन्य) औरत(भारतमाता) को आजाद करने निकला है.
सुनंदा उनकी बातों को सुन रही होती है.“सुन रही है कि उसके पति कालिन्दीचरण अपने मित्रों के साथ क्यों और क्या बातें कर रहे हैं.उसे जोश का कारण नहीं समझ में आता.उत्साह उसके लिए अपरिचित है.वह उसके लिए कुछ दूर की वस्तु है,स्पृहणीय मनोरम और हरियाली.यह भारत माता की स्वतंत्रता को समझना चाहती है.उसे इन लोगों की इस जोरों की बातचीत का मतलब समझ में नहीं आता.फिर भी,सच उत्साह की उनमें बड़ी भूख है.जीवन की होंस उनमें बुझती सी जा रही है,पर वह जीना चाहती है.उसने बहुत चाहा कि पति उससे भी कुछ देश की बातें करें.उसमें बुद्धि तो जरा कम है पर धीरे धीरे क्या वह भी समझने नहीं लगेगी ? सोचती है, कम पढ़ी हूँ,तो इसमें मेरा ऐसा कसूर क्या है ? अब तो पढ़ने को मैं तैयार हूँ लेकिन पत्नी के साथ पति का धीरज खो जाता है.खैर,उसने सोचा है उसका काम तो सेवा है.बस,यह मानकर जैसे कुछ समझने की चाह ही छोड़ दी है.“14
सुनंदा के जीवन से “उत्साह” जातारहा है.और वह हर तरह से नीरस जिन्दगी जी रही होती है लेकिन फिर भी उसमें जीने की ‘चाह’ है वह अपने पति की उपेक्षा की टीस से घायल है.वह अपने पति से खुद के लिए समय चाहती है,परवाह चाहती है,उनकी बातों और अनुभवों की साझेदार बनना चाहती है.वह यह भी मानने को तैयार है कि वह कम जानती है,कम पढ़ी लिखी है लेकिन पति के सिखाने पर वह जल्द ही सीख जाएगी सबकुछ समझ जाएगी.यह पूरा नैरेशन असल में सुनंदा(ओं) की उपेक्षाओं का दस्तावेज है.सुनंदा हर सूरत में अपने अकेलेपन जो कि इस पुरुषवादी समाज की देन है क्योंकि पति अपने अनुभव पत्नी से बाँटेगा नहीं और पत्नी चाहरदीवारी में कैद है,ऐसी पत्नियों का एकांत भी असल में समाज प्रदत्त ही है.स्त्री के प्रति इस रवैये ने उसे ‘आत्महीनता’ से भर दिया है.वह अपने को पति(पुरुष) से कम कर आँकने लगी है जबकि उसे यह मालूम ही नहीं कि जिन अनुभवों को उसने जिया ही नहीं उसके आलोक में कोई आकलन कैसे संभव हो सकता है.उसका खुद को “सेवा” करने वाली समझना असल में ‘नैरेटर’ की व्यंजना है.सुनंदा(ओं) की स्थिति देखकर कोई भी कह सकता है कि वह ‘सेवक’ से अधिक कुछ है भी नहीं.“वह अनायास भाव से पति के साथ रहती है और कभी उनकी राह में आने का नहीं सोचती.वह एक बात जानती है कि उसके पति ने अगर आराम छोड़ दिया है,घर का मकान छोड़ दिया है,जानबूझकर उखड़े उखड़े और मारे मारे जो फिरते हैं,इसमें वे कुछ भला ही सोचते होंगे.....पति ने कहा भी है कि तुम मेरे साथ क्यों दुख उठाती हो,पर सुनकर वह चुप रह गई है.”15
जिस पितृसत्तात्मक समाज ने सुनंदाओंको सामाजिक आर्थिक रूप से पिछड़ा बना दिया है,जिसकी आर्थिक निर्भरता पूरी तरह से पति(पुरुष) केन्द्रित हो उससे यह कहना कि वह उनके साथ क्यों दुख उठा रही है एक क्रूर व्यंग्य ही कहा जाएगा.पूरी कहानी में ‘नैरेशन’ के दौरान सुनंदा की बातें आँखें खोलने का काम करती हैं.सुनंदा की बेचारगी का ‘नैरेशन’ असल में पितृसत्तात्मक समाज की क्रुरताओं का प्रकटीकरण है.जैनेन्द्र इसमें सफल भी होते हैं.सुनंदा अपनी स्थिति को लेकर सोचते हुए भी पति केन्द्रित सोच से निकल नहीं पाती.कहानीकार यह चाहता भी नहीं कि वह निकले.झकमारकर,झल्लाकर सोचना उसने पति को लेकर ही है क्योंकि उसके पास और विषय भी तो नहीं हैं.उसका पति को लेकर चिंता करना,खुफिया पुलिस के आदमी की तैनाती
सेअनभिज्ञ(लापरवाह) पति की चिंता और इन तमाम चिंताओं में ‘खोए’ बच्चे की यादें.“वे बड़ी प्यारी आँखें,छोटी छोटी उँगलियाँ और नन्हें नन्हें ओंठ याद आते हैं.अठखेलियाँ याद आती हैं.सबसे ज्यादा उसका मरना याद आता है.”16
आधुनिक काल में रेनेसां की तमाम बहसों और उपलब्धियों को ध्यान में रखकर सोचा जाए तो यह निष्कर्ष निकलेगा कि स्त्री को उनसे कुछ नहीं मिला.वह न आजादी ले सकी,न ‘स्व’ की भावना आई और न ‘निजी समय’ और ‘विषय.‘पति के पूछने पर “खाने वाले हम चार हैं.खाना हो गया ?”“सुनंदा चून की थाली और चकला बेलन और बटलोई वगैरह खाली बरतन उठाकर चल दी,कुछ भी बोली नहीं.”17
यह पत्नी का सत्याग्रह(अहिंसा) है.पति के ‘विनयात्मक’ वाक्य पर उसकी प्रतिक्रिया भी ‘मौन’ ही होती है लेकिन उस दौरान भी वह मन में सोचती है.सोचती है “यहा उससे क्षमा प्रार्थी से क्यों बात कर रहे हैं.हँसकर क्यों नहीं कह देते कि कुछ और खाना बना दो.जैसे मैं गैर हूँ.अच्छी बात है,तो मैं भी गुलाम नहीं हूँ कि इनके ही काम में लगी रहूँ.मैं कुछ नहीं जानती खाना वाना.”18
यहाँ दो चीजें ध्यान देने योग्य हैंपहली सुनंदा पति से “मित्रवत्” व्यवहार चाहती है,दूसरे वह बोलती कुछ नहीं.मित्रवत व्यवहार उसकी ‘इच्छा’ को व्यक्त करती है, चुप रहना उसके ‘विरोध’ को.उसके अन्दर कितनी छटपटाहट है,कितनी पीड़ा है इसे इस वर्णन से समझा जा सकता है“कालिन्दीचरण ने जोर से कहा-सुनंदा. सुनंदा के जी में ऐसा हुआ कि हाथ की बटलोई को खूब जोर से फेंक दे.”थोड़ी देर पहले के सुनंदा और और इस सुनंदा में ज़मीन आसमान का फर्क है बल्कि कहना चाहिए मन की सुनंदा और व्यवहार की सुनंदा में ज़मीन आसमान का फर्क है.कालिन्दीचरण अहिंसावादी होते हैं.वे अहिंसात्मक तरीके से देश की आजादी के प्रयासों को आगे बढ़ते देखना चाहते हैं लेकिन जब पत्नी से “झगड़ा” हो जाता है तब आकर ‘हिंसा’ का समर्थन करने लगते हैं.“कालिन्दी अपने दल में उग्र नहीं समझे जाते थे,किसी कदर उदार समझे जाते हैं.....कुछ लोग उनके धीमेपन पर रुष्ठ भी हैं.वह दल में विवेक के प्रतिनिधि हैं और उत्ताप पर अंकुश का काम करते हैं......पर जब सुनंदा के पास से लौटकर आए तब कालिन्दी अपने पक्ष पर दृढ़ नहीं हैं.वह सहमत हो सकते हैं कि हाँ आतंक जरूरी भी है.”19
जैनेन्द्र ने ऐसे कालिन्दी और सुनंदा केतनाव का रूपक तैयार किया है.पत्नी का ‘असहयोग’ पति के लिए अहिंसा से हिंसा में गमन बन जाता है.यह सुनंदा के विरोध की जीत होती है.सुनंदा(ओं) की दशा के लिए जिम्मेदार तत्त्वों से सुनंनदाएँ अब ऐसे ही विरोध करें.पत्नी केवल पति की सुख सुविधाओं के ध्यान के लिए जन्मी है.वह अपने लिए कुछ नहीं कर सकती.वह अपने लिए तो तब कुछ करे जब पति से अलग उसकी कोई जिन्दगी हो.जैनेन्द्र की सुनंदा में लेकिन यह ‘स्व’ आ चुका है.“सुनंदा ने अपने लिए कुछ बचाकर नहीं रखा था.उसे यह सूझा ही न था कि उसे भी खाना है.अब कालिन्दी के लौटने पर जैसे उसे मालूम हुआ कि उसने अपने लिए कुछ बचाकर नहीं रखा है.वह अपने से रुष्ट हुई.उसका मन कठोर हुआ.इसलिए नहीं कि क्यों उसने खाना नहीं बचाया.इसपर तो उसमें स्वाभिमान का भाव जागता था.मन कठोर यों हुआ कि वह इस तरह की बात सोचती ही क्यों है ? छिः.यह भी सोचने की बात है और उसमें कड़वाहट भी फैली.हठात् यह उसके मन को लगता ही है कि देखो उन्होंने एक बार भी नहीं पूछा कि तुम क्या खाओगी.क्या मैं यह सह सकती थी कि मैं तो खाऊं और उनके मित्र भूखे रहें.पर पूछ लेते तो क्या था.”20
दो दो सुनंदाओं का द्वंद.पहली सुनंदा पति के सुख से सुखी और दूसरी अपनी उपेक्षा से दुखी,विद्रोही.यह दूसरी सुनंदा ही जैनेन्द्र युग की देन है.
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