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आरती रानी प्रजापति की कवितायें

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आरती रानी प्रजापति
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में हिन्दी की शोधार्थी. संपर्क : ई मेल-aar.prajapati@gmail.com

1

हाँ मैंने महसूस किया है
तुम्हारी देह को हर बार
तुम करना चाहते हो
अनाधिकार प्रवेश उसमें
कर देना चाहते हो
छलनी मेरे हर अरमान
छीन लेना चाहते हो
मेरे होंठों से मुस्कराहट
करना चाहते हो
घाव मेरे दिल-दिमाग शरीर पर
क्यों?
क्या तुम नहीं समझते मुझे एक इंसान
क्या ये सब नहीं हो सकता बिना हिंसा के?
क्या शरीर का मिलन तुम्हारे लिए मात्र क्रिया है?
जिसे पूरा करना चाहते हो तुम चाहे जब
जैसे भी....

2

राशन की दुकान में
लम्बी लाइन में खड़ी
तुम
सोचती हो कल रात की घटना
काँप जाती है तुम्हारी आत्मा
रोने को होता है
मन
कल तुमने अपनी आँखों से देखा
कालू की बेटी
भूख से मर गई
राशन की दुकान पर
तुम्हारी तरह खड़ी थी
उसकी भी माँ
कई दिन से
बंद कर दी गई दुकान
वक्त से पहले
एलान कर दिया गया
राशन के खत्म होने का
कई दिनों से खडे होने पर
कल पहुँच ही गई थी
दरवाजे तक
तभी राशनवाले ने
सुना दिया फरमान
कई दिनों से पानी पर
टिकी उस मासूम की आस
का बाँध टूट गया
हालांकि देश में
चल रहा था
विदेशी अर्थव्यवस्था को अपनाने का
ख्याल
फिर भी देश की इस व्यवस्था
की ओर
न था ध्यान किसी का
एक बार फिर
काँप जाती है तुम्हारी देह
सोच कर
मुन्ना भी कई दिनों से भूखा है....

3

दबा दो आवाज
तोड दो अंगुली
खत्म करो गुस्सा
बंद करो चीख
ये प्रजातंत्र है.

4

चादर के सभी कोने से
खुद को
सावधानी से ढक
फटे हिस्सों से बचती
मेट्रो की छत बनाने
गाँव से आई वह
युवती
छत के आभाव में
सड़क के डिवाडर
पर बैठ
जल्दी जल्दी
नहाने लगी

5

प्रेम के गंभीर
पलों में
उसने महसूस की
गंध
उसके जाति
अहम्
पुरुषत्व की
तुरंत
वह छोड़ भाग गई
प्रगतिशील विचारों की
उस फटी चादर को....

6

सिन्दूर
मंगलसूत्र
कंगन
बिछुआ
पायल
बिंदी
बोरला
न सही पर कुछ तो हो
जो तुम्हें मेरा घोषित करें...


7

हमारी ही तरह
तुम भी
बने हो
माहवारी से
खोली थी आंखें तुमने भी
योनि से
निकल कर,
जन्म देने वाली
स्त्री ही थी
जब स्त्री की कोई
जाति नहीं होती
फिर कैसे तुम
सवर्ण
हम
अवर्ण
घोषित हुए


8

गोरापन
कोमलता
अदा
नाज-नखरे
इठलाना
फैशन
भरी-देह
तुम्हारे पैमानों का
आदि-अंत
हो
किन्तु स्त्री इससे
इतर भी बहुत कुछ है...

9

मुझे नहीं पसंद
चूल्हे की रोटी
उसे बनाने से
न जाने कितनी माँ
खासती रहती हैं
सारा दिन
कितनी ही बहनें
होती हैं बलात्कृत
खोज में लकड़ियों के
सुनती हैं तानें
झगड़ती हैं
अपने ही लोगों से
ये बहने ढोती हैं
लकड़ियों का बोझ
किताबों की जगह
बच्चों की प्रतीक्षा
हो जाती है लम्बी
चूल्हा याद करते ही
मुझे याद  आने  लगते हैं
सिर्फ आंसू
माँ, बहन, बच्चों के.....



सभी सरकारें दोषी हैं महिला आरक्षण बिल के मसले पर: महिला आयोग अध्यक्ष

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राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्ष ललिता कुमार मंगलम महिला आरक्षण बिल न पास होने का कारण बता रही हैं सभी राजनीतिक पार्टियों की अनिच्छा को. पितृसत्ता की गहरी पैठ को जो महिलाओं को समान अधिकार नहीं देना चाहती. इस संदर्भ में वर्तमान सरकार से लेकर सभी सरकारों को दोषी बता रही हैं, जिसने गंभीरता पूर्वक महिला आरक्षण बिल को पास कराने में रुचि नहीं ली है. वे बता रही हैं कि 'ऐसा बहुत कम होता है , जब बीजेपी और कांग्रेस एक साथ एक प्लेटफॉर्म  पर आये और जब आई तो राज्यसभा में बिल पास हो गया. ये बातें  उन्होंने 12 सितंबर 2016 को एनएफआईडवल्यू के द्वारा आयोजित सेमिनार में कही. सेमिनार महिला आरक्षण बिल के पेश किये  जाने के 20 साल पूरे होने के अवसर पर आयोजित था:



दलित महिलाएं और पत्रकारिता

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सुशीला टाकभौरे  
चर्चित लेखिका. दो उपन्यास. तीन कहानी संग्रह , तीन कविता संग्रह सहित व्यंग्य,नाटक, आलोचना की किताबें प्रकाशित. संपर्क :9422548822

दलित साहित्य के विषय में सभी जानतेहैं, दलितों का, दलितों के लिए दलितों द्वारा लिखा साहित्य. अब यह स्थापित साहित्य के समानान्तर माना जाने वाला सर्वमान्य साहित्य है. दलित साहित्य की आधार भूमि डॉ. भीमराव अम्बेडकर की विचारधारा है. पिछड़े दबे कुचलों की स्थिति को बताकर, उनकी समस्याओं का निदान और उनकी प्रगति परिवर्तन की दिशा में अग्रसर होने का संदेश ही दलित साहित्य का उद्देश्य है.

लेखन और प्रकाशन के क्षेत्र में दलितसाहित्य अपनी विशेष स्थिति पा रहा है. देश की सभी भाषाओं में दलित साहित्य लिखा जा रहा है. अनुवाद-रूपान्तर के द्वारा अलग अलग भाषा के लोग एक दूसरे के साहित्य को पढ़कर समझ रहे हैं. पूरे देश में दलित साहित्यकारों की व्यथा, सम्पूर्ण दलित वर्ग की व्यथा के रूप में प्रचारित - प्रसारित हुई है और लगातार हो रही है.

साहित्य के विचार प्रचार का सबसे बड़ा माध्यम मीडिया है. मीडिया का अपना महत्त्व है. अभी तक मीडिया सवर्णों के हाथों में ही था. और अभी भी है. सवर्ण अपनी विचारधारा अपने ढंग से सशक्त रूप में, त्वरित रूप में फैलाते रहे हैं. यही कारण है कि देश और विदेशों में अभी भी दलितों की व्यथा को सही मूल्यांकन नहीं मिल पाया है. ‘सोने की चिड़िया’ कहलाने वाले अपने ही देश में, दलित सदियों से कितने कष्ट और अभाव का जीवन जी रहे हैं, यह सर्वविदित है. समाज में अभी तक उन्हें न तो समता सम्मान मिला, न ही भाईचारा मिल सका है. देश को स्वतंत्रता मिलने के बाद भी, देश का लिखित संविधान लागू होने के बाद भी देश के दलितों की स्थिति में परिवर्तन नहीं हो सका. इसका मुख्य कारण है मीडिया पर सवर्णो का एकाधिकार होना. सवर्ण मीडिया हमेशा यही बताता रहा - ‘देश में कहीं कोई भेदभाव नहीं है, सब बराबर हैं और सब मिलजुल कर रहते हैं.’

गांधीजी ने अपने ‘हरिजन’ पत्र केमाध्यम से, शुरू से यही बताया था कि देश के अछूत हिन्दुओं से अलग नहीं हैं. वे सब प्रेम के साथ मिल जुलकर रहते हैं. जबकि स्थिति इसके विपरीत थी जिसे डॉ. भीमराव अम्बेडकर अच्छी तरह समझ सके थे. गांधीजी को मानने वाले गांधीवादी, ब्राम्हणवाद को मानने वाले मनुवादी और आर्यसमाजी छद्म बातों का प्रचार प्रसार करते रहे हैं और अभी भी कर रहे हैं.

डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने पत्रकारिता के माध्यम से ‘हरिजन’ पत्र के समानान्तर अपने समाचार पत्रों का प्रकाशन किया और अपनी बात सही रूप में देशवासियों तक पहुंचाई. उन्होंने मूकनायक, प्रबुद्ध भारत  जनता जैसे पत्रों को प्रकाशित किया था. अब बाबासाहेब को मानने वाले अम्बेडकरवादी विचारधारा का प्रचार प्रसार करके, उनके विचार और दलित शोषितों की स्थिति के सत्य रूप को समाज तक पहुंचा रहे हैं. दलित स्वयं अपनी व्यथा को कविता कहानी लेख नाटक उपन्यास और आत्मकथाओं के रूप में लिख रहे हैं और प्रकाशित कर रहे हैं, दलित पत्रिकाओं के माध्यम से उसे पूरे देशवासियों तक सभी भाषा-भाषियों तक पहुंचाया जा रहा है.

जो दलित मानव सदियों तक गूंगे बहरों की तरह चुपचाप शोषण अत्याचार सहते रहे, वे अब डॉ. भीमराव अम्बेडकर के संघर्षपूर्ण प्रयत्नों से अधिकार पाकर अपनी व्यथा कह रहे हैं. वे पत्रकारिता के क्षेत्र में भी अपनी दखल दे रहे हैं, मीडिया के माध्यम से अपनी आवाज समाज तक पहुंचा रहे हैं. पत्रकारिता में दलितों का प्रवेश विशेष सफलता पा रहा है. हिन्दी दलित पत्रकारिता के क्षेत्र में अनेक छोटी और बड़ी पत्रिकाएं लगातार छप रही हैं. अब स्थिति यह बन गई है कि सवर्ण पत्रकारिता द्वारा भी उनका स्वागत किया जा रहा है. केवल इतना ही नहीं बल्कि सवर्ण पत्रिकाओं के विशेषांक ‘दलित विशेषांक’ के रूप में प्रकाशित किये जा रहे हैं, जिनमें पूर्ण रूप में दलितों की रचनाओं को छापा जा रहा है. इन दलित विशेषांकों का अपना महत्त्व है. दलितों द्वारा प्रकाशित की जाने वाली छोटी बड़ी दलित पत्रिकाओं का भी अधिक महत्त्व है.


सवर्णो द्वारा प्रकाशित की जाने वाली महत्त्वपूर्ण नारीवादी पत्रिकाओं में - ‘नारी संवाद’, सं. रेनू दीवान बिहार, युद्धरत आम आदमी, सम्पादक रमणिका गुप्ता, दिल्ली है. इन पत्रिकाओं ने विशेष रूप से महिलाओं और दलितों के प्रश्नों को आवाज दी है, उनकी समस्याओं को विश्लेषण के लिए समाज के समक्ष रखा है. ऐसी अनेक पत्रिकाएँ हैं, जो विशेष रूप से महिलाओं दलितों और आदिवासियों के साहित्य को छाप रही हैं, उन्हें जोड़ रही है और उनका समाज के साथ सीधा संवाद बना रही हैं.

दलित पत्रिकाओं में विशेष रूप से ‘अस्मितादर्श’ पत्रिका महत्त्वपूर्ण है. मराठी भाषा में छपने वाली महाराष्ट्र की इस पत्रिका ने अपना इतिहास रचा है. यह दलित पत्रिकाओं की प्रमुख और मार्गदर्शक पत्रिका है. ‘अस्मितादर्श’ पत्रिका के सम्पादक गंगाधर पानतावने हैं. पत्रिका औरंगाबाद से प्रकाशित होती है. इस पत्रिका के अनेक विशेषांक भी छपे हैं.

हिन्दी दलित पत्रिकाओं में ‘बयान’ ने अपनी एक विशेष जगह बनाई है. ‘बयान’ के सम्पादक मोहनदास नैमिशराय हैं. दिल्ली से प्रकाशित इस पत्रिका में, दलितों की समस्याओं के साथ समसामयिक प्रश्नों को अच्छे तरीके से उठाया जा रहा है. ऐसी ही विशेष पत्रिकाएँ हैं - ‘अम्बेडकर मिशन पत्रिका’, सम्पादक बुद्धशरण हंस, पटना. ‘अरावली उदघोष’ सम्पादक बी. पी. वर्मा, जयपुर राजस्थान. ‘मूकवक्ता’, सम्पादक सी. बी. राहुल दिल्ली, ‘आश्वस्त’, सं. तारा परमार उज्जैन मध्यप्रदेश, ‘आजीवक विजन’, सम्पादक शील बोधि, दिल्ली.

मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, बिहार, दिल्लीसे प्रकाशित होने वाली अनेक दलित पत्रिकाएँ हैं. कुछ पत्रिकाओं ने अपनी विशेष पहचान बनाई है. किसी भी पत्रिका को अच्छे वैचारिक मुद्दों की जरूरत होती है. समसामयिक और ज्वलन्त प्रश्नों को उठाना समय की मांग है. आवश्यक मुद्दों और ज्वलन्त प्रश्नों पर लिखी रचनाओं को महत्त्व देकर प्रकाशित करना प्रगतिवादी विचारधारा का प्रतीक है. इसके साथ उन पत्रिकाओं को महत्त्वपूर्ण माना जाता है, जिनमें स्त्रियों और अल्पसंख्यकों को स्थान प्राप्त हो.


‘दलित विमर्श’ और ‘स्त्री विमर्श’ अबसीमित क्षेत्र का विषय नहीं है. अब इन विषयों पर विश्वस्तर पर चर्चा हो रही है. दलित पत्रिका इसमें बराबर की हिस्सेदारी निभा रही हैं. इस दृष्टि से ‘अपेक्षा’ पत्रिका ने विशेष मुकाम हासिल किया है. इस पत्रिका ने दलित लेखिकाओं को भी जोड़ा है. लेकिन यह भी सत्य है कि दलित लेखिकाएँ अधिक संख्या में आगे नहीं आ सकीं. अभी भी उनकी संख्या कम है. ‘लेखन में दलित महिलाएँ’ किस मुकाम तक पहुंची है, इसे पत्रिकाओं में प्रकाशित उनके लेखन से समझा जा सकता है.

दलित साहित्य की संवाहक ‘अपेक्षा’ पत्रिका का सन 2003 में ‘दलित आत्मवृत विशेषांक’ प्रकाशित हुआ था. इस विशेषांक के ‘दलित स्त्री चिन्तन’ खण्ड में डॉ. विमल थोरात’, माधुरी छेड़ा और तारा परमार ने दलित महिलाओं की आत्मकथाओं पर समीक्षात्मक विचार लिखे. इन्होंने महिलाओं की मराठी दलित आत्मकथाओं पर ही चर्चा की थी. डॉ. नगमा मलिक ने बेबी कामड़े की मराठी आत्मकथा ‘जीना आमुचा’ अर्थात् ‘जीवन हमारा’ की समीक्षा लिखी. डॉ. प्रेमलता चुटेेल ने कौशल्या बेसन्त्री की आत्मकथा ‘दोहरा अभिशाप’ की समीक्षा लिखी. प्रज्ञा शुक्ल, रजनी बजारिया, सुमित्रा अग्रवाल और मुन्नी चैधरी ने दलित जीवन का मूल्यांकन करते हुए, अपने विचार रखे थे. इस अंक में हिन्दी दलित लेखिकाओं की संख्या कम है.

सवाल यह है कि हिन्दी दलित लेखिकाओंकी संख्या कम क्यों है ? इसका पहला और मुख्य कारण यह है कि हमारी महिलाएं लेखन के क्षेत्र में पीछे हैं. दूसरा कारण यह है कि उन्हें प्रेरणा और प्रोत्साहन नहीं मिल पाता है. तीसरा कारण है सहयोग की कमी. यदि उन्हें सहयोग के साथ प्रेरणा और प्रोत्साहन दिया जाये, तो हमारी लेखिकाएँ अधिक संख्या में आगे आयेगीं. यदि घर परिवार से उन्हें सहयोग और प्रेरणा प्रोत्साहन नहीं मिल पाता है, तो ऐसी साहित्यिक सामाजिक संस्थाएँ बनाई जायें, जो दलित स्त्रियों को लेखन और प्रकाशन के क्षेत्र में आने आगे के लिए प्रोत्साहित करें. ऐसा होने पर, यह विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि दलित महिलाएँ पुरूषों की अपेक्षा अधिक संख्या में आगे आयेंगी और लेखन प्रकाशन के क्षेत्र में अपना कीर्तिमान स्थापित करेंगी.

कई बार ऐसा होता है, दलित लेखिकाओंसे रचनाएँ आमंत्रित की जाती हैं, मगर वे समय पर अपनी रचनाएँ भेज नहीं पाती हैं. जब रचनाएँ भेजी ही नहीं, तो छपेंगी कैसे ? भले ही लेखिका ने बहुत लिखा है मगर प्रकाशित नहीं किया, तब लोग कैसे जानेंगे कि लेखिका ने क्या कैसा और कितना लिखा है ? हमारी दलित लेखिकाएँ घर परिवार के काम और जिम्मेदारियों के बोझ से लदी होने के कारण, अपने लेखन और प्रकाशन को समझ नहीं पाती हैं. उसका महत्त्व समझने के लिए उनके पास समय ही नहीं होता है. वे यह भी नहीं जानती हैं कि लेखन के साथ प्रकाशन को ज्यादा महत्त्व होता है. इस अज्ञानता के कारण वे अपनी रचनाएं ठीक करके पत्रिकाओं में प्रकाशन हेतु नहीं भेजती हैं. मैं इन बातों को अच्छी तरह जानती हूँ, क्योंकि मैं स्वयं इसकी शिकार रही हूँ.

अप्रैल - जून 2007 में ‘अपेक्षा’ का अम्बेडकरवादी कहानी विशेषांक प्रकाशित हुआ था. इस विशेषांक में अनेक पुरूष दलित साहित्यकारों की कहानियाँ छपी थीं. दलित लेखिकाओं में रजनी दिसोदिया की कहानी - ‘‘एक गैर साहित्यिक डायरी’, अनीता भारती की ‘एक थी कोटेवाली’, रजतरानी मीनू की ‘वे दिन’ और सुशीला टाकभौरे की ‘रामकली’ कहानी छपी थी. इस अंक में बाबीस कहानीकारों में सिर्फ चार दलित लेखिकाओं की कहानी छपी. कारण स्पष्ट है, दलित साहित्यकारों में लेखिकाओं की संख्या कम है, साथ ही उनका लेखन भी कम है. ‘अपेक्षा’ पत्रिका नियमित रूप से त्रैमासिक रूप में छप रही है. सामान्य अंकों में इक्का दुक्का दलित लेखिकाएँ छप रही हैं. विशेषांकों में छपे दलित लेखन में दलित स्त्रियों की स्थिति को समग्र रूप में देखा और समझा जा सकता है.

जनवरी - मार्च 2008 में अपेक्षा पत्रिकाका विशेषांक ‘दलित स्त्री चिन्तन’ पर केन्द्रित था. इस अंक के लिए दिल्ली की अनीता भारती ने विशेष सहयोग दिया. उन्होंने विशेष रूप से दलित लेखिकाओं से सम्पर्क करके, उन्हें प्रोत्साहित करते हुए उनसे आत्मकथांश लिखवाये थे. जिसका परिणाम यह हुआ कि अपेक्षा के इस अंक में इक्कीस दलित लेखिकाओं के आत्मकथांश छपे. उनके नाम-बेबीताई कामले, रमा पांचाल, सुशीला टाकभौरे, रजनी तिलक, उर्मिला पवार, पी. शिवकामी, रजनी दिशोदिया, अनीता भारती, रजतरानी मीनू, हेमलता महिश्वर, पुष्पा विवेक, रानी नाथ, उपासना गौतम, तबस्सुम, थेसोक्रोपी, सम्पत देवी पाल, ज्योत्सना, निर्मला रानी गीता सिंह, और स्मिता पाटिल हैं. इसके साथ विशेषांक के ‘साहित्य दृष्टि खण्ड’ में कुसुम मेघवाल, उत्तिमा केशरी और आभालता चैधरी के लेख छपे.

‘अपेक्षा’ के इस विशेषांक को दलित लेखिकाओं के लेखन के परिचय का अंक माना गया. तब दलित लेखन के क्षेत्र में यह जोरदार चर्चा चली थी - ‘क्या इतनी बड़ी संख्या में दलित लेखिकाएँ दलित साहित्य लिख रही हैं ?’ लेखिकाओं के लिए यह गौरव की बात है. यह गौरव उन्हें ‘अपेक्षा’ पत्रिका के सम्पादक डॉ. तेजसिंह ने दिया. इससे यह भी स्पष्ट है कि दलित लेखिकाओं को यदि सहयोग और प्रेरणा प्रोत्साहन दिया जाये, तो वे जरूर लेखन प्रकाशन में अपना कीर्तिमान स्थापित कर सकती हैं. जनवरी मार्च 2008 ‘अपेक्षा’ के विशेषांक में इतनी बड़ी संख्या में दलित लेखिकाओं के परिचय और लेखन प्रकाशन के बाद भी, कम लेखिकाएं ही चर्चा में हैं. लेखन - प्रकाशन लगातार होने पर ही वे सभी चर्चा में आ सकेंगीं.


पत्रकारिता के क्षेत्र में ‘हंस’ जन चेतना की मासिक पत्रिका का अपना महत्त्व है. यह प्रतिष्ठित पत्रिका इन्टरनेट पर भी पढी जाती है. हिन्दी साहित्यकार प्रेमचन्द द्वारा स्थापित और वर्तमान में राजेन्द्र यादव द्वारा संपादित यह पत्रिका सवर्णो के साथ, बहुजनों और दलितों के सरोकार से जुड़ी पत्रिका  बन गई है. दिल्ली से प्रकाशित यह पत्रिका बौद्धिकता और वैचारिकता के साथ कहानी आन्दोलन के कई आयामों को रेखांकित करती हुई आगे बढ़ रही है. समीक्षा और आलोचना में भी यह दखल रखती है.

‘हंस’ का दलित विशेषांक अगस्त 2004 में‘सत्ता विमर्श और दलित’ प्रकाशित हुआ. इस विशेषांक में ‘स्वानुभूति खण्ड’ में बारह दलित साहित्यकारों ने आत्मकथांश दिये थे, जिनमें सिर्फ दलित लेखिका किरणदेवी भारती का नाम है. ‘वैचारिकी खण्ड’ में भी सभी दलित पुरूष साहित्यकार हैं. ‘कहानी खण्ड’ में इक्कीस कहानीकारों में दलित लेखिकाएँ कंचन लता, अनीता रश्मि, रजत रानी मीनू, ऊषा चन्द्रा, सरिता भारत - सिर्फ पांच के नाम हैं. ‘कविता खण्ड’ में भी दलित कवयित्रियों की कविताएँ नहीं है.

‘हंस’ के इस दलित विशेषांक का अतिथि सम्पादन डॉ. श्योराज सिंह बेचैन ने किया था. इस अंक में दलित लेखिकाओं को प्रोत्साहन के साथ अधिक संख्या में छापना, उनकी जिम्मेदारी माना जा सकता है. यद्यपि यह भी जरूरी है कि दलित लेखिकाएं स्वयं आगे आकर लेखन और प्रकाशन में अपना नाम दर्ज करायें.

सवर्ण बहुजन द्वारा चलाई जाने वाली पत्रिकाओं में दलितों की भी हिस्सेदारी हो. यह पत्रिका में आरक्षण मांगने की बात नहीं है, बल्कि उत्तम रचना के साथ दलित साहित्यकारों को पत्रिका में उचित स्थान मिले, इसके लिए सम्पादकों और साहित्यकारों दोनों ने ही जिम्मेदारी उठाना चाहिए.

पत्रिका प्रकाशन के क्षेत्र में ‘अन्यथा’ त्रैमासिक पत्रिका लुधियाना से छपने वाली बहुत ही सुन्दर और गरिमापूर्ण पत्रिका है. इसके सम्पादक कृष्ण किशोर जी हैं. ‘अन्यथा’ पत्रिका ने भी दलित बहुजन पिछड़े वर्ग के लिए अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है. जुलाई-सितम्बर 2007 का अंक क्रमांक 10 में, विशेष रूप से ‘बनती मिटती जलती बुझती झोपड़पट्टियां’ पर विशेषांक केन्द्रित किया गया था. इस अंक में शोषित दलित जीवन से जुड़े प्रश्नो और समस्याओं पर जनवादी दृष्टिकोण से विस्तारपूर्वक चर्चा की गई है.

इसके बाद ‘अन्यथा’ के अक्टूबर-नवम्बर 2007 के अंक 13 को ‘हमारी कहानी संदर्भ और संभावना’ पर विशेष केन्द्रित किया है. यह अंक बहुत ही व्यवस्थित रूप में प्रकाशित हुआ है. कहानी विधा पर सवर्ण साहित्यकारों के साथ दलित साहित्यकारों के विचारों को प्रकाशित किया है. इस अंक में अनीता भारती द्वारा आयोजित दलित कहानी पर चर्चा में ओमप्रकाश वाल्मीकि, अजय नावरिया, रूपनारायण सोनकर, राज वाल्मीकि, पूरन सिंह, सुशीला टाकभौरे, टेकचन्द, उमरावसिंह जाटव, रजतरानी मीनू और सुमित्रा महरोल सहभागी हुए हैं.

इस अंक में हिन्दी दलित लेखिकाओं में कौशल्या बेसन्त्री, सुशीला टाकभौरे, और सुमित्रा महरोल के आत्मकथांश हैं. रजतरानी ‘मीनू’ का साक्षात्कार छपा है. रजनी तिलक, कुसुम मेघवाल, अनीता भारती और सुमित्रा महरोल की कहानी छपी है. विनोदिनी की तेलगू कहानी का अनुवाद है. हेमलता महिश्वर का लेख छपा है. इसके साथ मराठी दलित कविता में प्रज्ञा दया पवार, मल्लिका अमर शेख, ज्योति लांजेवार, प्रतिभा अहिरे, और हीरा बनसोड़े की कविताएं हैं. ये कवयित्रियाँ मराठी भाषी हैं.

‘अन्यथा’ के इस अंक में - ‘अश्वेत गुलाम महिलाओं की संघर्ष कथा’ खण्ड में हृदय को हिला देने वाले आत्मकथांश और उपन्यास अंश छापे गये हैं. आत्मकथांश - हैरियट जेक्बस, मैरी जैकसन के हैं. उपन्यास अंश - हैरियट बाचर, स्टोव, जोरानील हस्र्टन ओईडा सैबेस्बियन के हैं.

सोजोर्नर टूथ के प्रसिद्ध भाषण का अंश - ‘‘मैं पूछती हूँ क्या मैं औरत नही हूँ’’ - का अनुवाद कृष्ण किशोर जी ने किया है. इजाबैला बोमफ्री का सोजोर्नर टूथ छपा है. अनुवाद भवजोत ने किया है. अनेक कविताएँ भी अनुवाद करके छपी हैं.

इस अंक का महत्त्व इसलिए अधिक है कि इसमें हिन्दी, मराठी, तामिल और अश्वेत महिलाओं के मार्मिक आत्मकथांश हैं. दलित लेखन में शुरू से ही, मराठी दलित साहित्य में दलित लेखिकाओं की संख्या बहुत ज्यादा है. इसका कारण है, सर्वप्रथम महारष्ट्र में अम्बेडकरवादी दलित आन्दोलन का प्रारम्भ हुआ. यहाँ की दलित महिलाएँ भी दलित आन्दोलन से जुड़ी. महिला जागृति के साथ वे लेखन से भी जुड़ गई. साथ ही, मराठी दलित साहित्य बीसवीं शताब्दी के छठवें दशक में मराठी भाषा में प्रकाशित होने लगा था, जबकि यह हिन्दी में आठवे दसक में आया. परिणाम स्वरूप मराठी दलित साहित्य में मराठी दलित लेखिकाएँ अधिक संख्या में जुड़ गईं. मराठी पत्रिकाओं के माध्यम से मराठी दलित साहित्य का प्रचार प्रसार अधिक हुआ.

‘बायजा’ पूना से प्रकाशित होने वाली, महिलाओं के प्रश्नों और समस्याओं पर केन्द्रित पत्रिका है. इससे सवर्ण महिलाओं के ‘महिला मुक्ति आन्दोलन’ और महर्षि कर्वे की नारी मुक्ति की विचारधारा का प्रचार प्रसार अधिक होता रहा है. दलित महिलाओं के ‘सेमिनार’ या ‘विचार गोष्ठी’ पर केन्द्रित अंकों में, दलित महिलाओं की समस्याओं की बात पत्रिका में छपती रही है.

‘सुगावा’ मराठी पत्रिका है. 1998 में‘सुगावा’ का ‘डॉ. बाबासाहेब अम्बेडकर प्रेरणा विशेषांक’ प्रकाशित हुआ था. इसका अतिथि सम्पादन विलास वाघ ने किया था. इस विशेषांक में अनेक प्रसिद्ध मराठी दलित लेखिकाओं के विचारात्मक लेख छपे थे. उनके नाम हैं - कुमुद पावड़े, डॉ. आशा थोरात, उर्मिला पवार, डॉ. तारा भावाळकर, ज्योति लांजेवार, मंगला कुलकर्णी, रजनी ठाकुर, कल्पना ढावरे, माया बोरसे, प्राध्यापक डॉ. माधवी खरात, डॉ. पदमा वेलासकर, सौ निर्मला विलास, प्राध्यापक अर्चना हातेकर, अनुपमा, मंगला वराळे, एड. शीला हिरेकर, प्रा. सुलभा पाटोळे, डॉ. सरिता जांभुळे, मीनाक्षी मून, अलका कोकणे, कुसुमताई गागुर्डे, स्नेहलता कसबे, डॉ. प्रमिला लीला सम्पत, नलनी लढ़के - इन सभी लेखिकाओं ने अपने वैचारिक लेख 1998 में लिखे थे. उनका लेखन प्रगतिशील और परिवर्तनवादी था. डॉ. भीमराव अम्बेडकर के सामाजिक आन्दोलन से जुड़कर, ‘दलित और महिला आन्दोलन’ में सक्रिय रूप में भाग लेकर, मराठी दलित लेखिकाओं ने वैचारिक परिपक्वता पाई है. दलित साहित्य लेखन में उनके अग्रसर होने का कारण महाराष्ट्र में डॉ. अम्बेडकर के आन्दोलन का विशेष प्रभाव है.


उत्तर भारत में, लेखन में यह प्रभाव 1980 के समय आया. मराठी दलित साहित्य से प्रभावित होकर अनेक हिन्दी दलित लेखकों ने अपनी रचनाएँ और पुस्तकें प्रकाशित कीं. मगर इनमें लेखिकाओं की संख्या कम ही रही. इसके कारणों को खोजकर, उनके निदान की आवश्यकता है. तभी दलित लेखिकाओं के लेखन और प्रकाशन को बढ़ाया जा सकेगा.

दलित लेखिकाओं की संख्या आज भले ही कम है, लेकिन उनके लेखन का आधार विरोध, आक्रोश और विद्रोह है. वे सदियों से चली आ रही हिन्दूवादी नारी शोषण की परम्पराओं को तोड़ने की बाते कह रही हैं. दलित लेखिकाएँ अपनी अस्मिता, और अस्तित्व की बात अपने लेखन के माध्यम से कर रही हैं. वे जातिभेद के कारण होने वाले अन्याय अत्याचार के विरोध की बात भी कह रही हैं. वे नारी शोषण, दलित शोषण के विरूद्ध अपने विचार रखते हुए, दलित मानस में मनोबल का निर्माण करने का काम कर रही हैं.

दलित लेखन मात्र लेखन नहीं, बल्कि दलितआन्दोलन का साधन है. इस साधन का उपयोग दलित लेखिकाएँ भी समाज व्यवस्था में परिवर्तन के लिए कर रही हैं. दलित महिलाओं के अपने संगठन हैं. समय समय पर महिलाओं के सम्मेलन सेमिनार शिविर और विचार गोष्ठियाँ होते हैं, जिनमें दलित महिलाओं की वर्तमान स्थिति और भविष्य की प्रगति पर चर्चा करके सुझाव और प्रस्ताव रखे जाते हैं. महिला संगठनों के ऐसे कार्यक्रमों से जुड़कर, दलित लेखिकाएं दलित आन्दोलन का उद्देश्य और अपने लेखन का लक्ष्य समझ रही हैं. इस तरह उनका लेखन उद्देश्यनिष्ठ बन गया है.

दलित लेखिकाएँ और कार्यकर्ता महिलाएँ संगठित होकर अपने उद्देश्य की ओर लगातार बढ़ रही हैं. वे अपने साथ अधिक से अधिक महिलाओं को जोड़ रही हैं. इस क्षेत्र में ‘कदम’ और ‘नेक्डोर’ जैसी एन. जी. ओ. के माध्यम से यह काम प्रयत्नपूर्वक किया जा रहा है. दलित महिलाओं के लेखन और प्रकाशन में वृद्धि हो रही है. भाषान्तर के द्वारा भी अलग भाषा भाषी लेखिकाओं का परिचय बढ़ रहा है.

लेखन प्रकाशन के साथ प्रचार माध्यमों सेजुड़ना दलित लेखिकाओं के लिए आवश्यक है. इसलिए यह जरूरी है कि दलित लेखिकाएँ पत्रिकाओं से जुड़कर, लेखन प्रकाशन का प्रचार प्रसार करें. महिलाओं की अपनी पत्रिकाएँ हों, जिनके माध्यम से वे अपनी समस्याओं और सवालों को राष्ट्रीय स्तर पर और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर उठायें. तभी उनका लेखन और ‘महिला जागृति आन्दोलन’ पूर्णता के साथ सफलता पा सकेगा.

आधी आबादी का डर

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मुजतबा मन्नान

हाल ही में महिलाओं के साथ हुई कुछबेहद दुखद हिंसात्मक घटनाएँ टीवी चैनलों व अखबारों की सुर्खियां बनी.पहली घटना में राजधानी दिल्ली के बुराड़ी इलाके में एक 34 वर्षीय युवक ने एकतरफा प्यार के चलते एक 21 वर्षीय लड़की की हत्या कर दी.लड़की स्कूल टीचर थी, जब वह अपने स्कूल से घर जा रही थी तो युवक ने टूटी केंची से छब्बीस बार वार कर उसकी हत्या कर दी.दूसरी घटना गुडगाँव के मेट्रो स्टेशन पर घटी, जिसमें एकतरफा प्यार में पागल एक युवक ने महिला के इंकार करने पर सरेआम तीस बार चाकू से वार कर उसकी हत्या कर दी.तीसरी घटना में राजस्थान के अलवर जिले में एक बेहद क्रूर तरीके से महिला की हत्या का मामला सामने आया.युवक ने अपनी पत्नी के चरित्र पर शक के कारण मिट्टी का तेल डालकर जिंदा जला दिया और फिर चाकू से उसके अंगो के टुकड़े कर शहर के अलग-अलग हिस्सों में फेंक दिए.एक अन्य घटना में बिहार के मुजफ्फपुर जिले में एक महिला इंजीनियर को जिंदा जलाने का सनसनीखेज मामला सामने आया.


महिलाओं पर इस तरह बेहद क्रूरताके साथ हमले होने की यह कोई पहली घटना नहीं है.रोज़ाना टीवी चैनलों व अखबारों में महिलाओं पर हमले होने की खबरें सुर्खियाँ बनती रहती हैं.जैसे‘युवक ने बदला लेने के लिए महिला पर तेज़ाब डाला,लड़के ने बीच सड़क पर लड़की को चाकू मारा,दहेज़ के लालच में दुल्हन को ज़िंदा जलाया,घर में घुसकर महिला से सामूहिक दुष्कर्म'इत्यादि. हर रोज़ महिलाओं को छेड़छाड़,पिटाई, अपमान, बलात्कार,यौन शोषण जैसी हिंसात्मक घटनाओं का सामना करना पड़ता है.हालात यह हैं कि महिलाएं सिर्फ सड़कों व सार्वजनिक स्थानों पर ही असुरक्षित नहीं हैं बल्कि घर में भी उनके जीवनसाथी या उसके परिवार के सदस्य ही उनकी हत्या कर देते हैं. ज्यादातर घटनाओं के बारें में तो पता ही नहीं चलता है क्योंकि शोषित व प्रताड़ित महिलाएं किसी को इसके बारें में बताने से घबरातीहैं. उन्हें डर लगता है कि कहीं ये पितृसत्तात्मक समाज उनको ही दोषी न ठहरा दे.

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महिलाओं के प्रति इस प्रकार की हिंसात्मक घटनाओं को देख कर प्रश्न उठता है कि आखिर कोई पुरुष महिला को चोट क्यों पहुँचाना चाहता है?,एक पुरुष सरेआम महिला केप्रति इतना हिंसात्मक क्यों हो जाता है?और केवल महिला के इंकार करने पर पुरुष हमलावर क्यों हो जाता है? आदि.आमतौर पर कोई भी पुरुष महिला को चोट पहुंचाने के लिए अनेक बहाने बना सकता है. जैसे ‘वह शराब के नशे में था, वह गुस्से में अपना आपा खो बैठा या फिर वह महिला इसी लायक है’इत्यादि.परंतु वास्तविकता यह है कि पुरुष हिंसा का रास्ता केवल इसलिए अपनाता है क्योंकि वह केवल इस माध्यम से वह सब प्राप्त कर सकता है जिन्हें वह एक पुरुष होने के कारण अपना हक़ समझता हैं. इस घातक मानसिकता का ही परिणाम हैं कि महिलाओं के साथ छेड़छाड़, बलात्कार, दहेज़मृत्यु, हत्या तथा यौन उत्पीडन जैसे हिंसात्मकअपराधों की संख्या में निरंतर वृद्धि हो रही है.


ध्यान देने योग्य बात यह है कि भारत मेंमहिलाओं को अपराधों व हिंसा के विरुद्ध सुरक्षा प्रदान करने तथा आर्थिक, सामाजिक दशाओं में सुधार हेतु ढेर सारे कानूनों का संरक्षण हासिल है. जिनमें अनैतिक व्यापार (निवारण) अधिनियम 1956, दहेज प्रतिषेध अधिनियम 1961, कुटुंब न्यायालय अधिनियम 1984, महिलाओं का अशिष्ट-रूपण प्रतिषेध अधिनियम 1986, सती निषेध अधिनियम 1987,गर्भाधारण पूर्व लिंग-चयन प्रतिषेध अधिनियम 1994,कार्यस्थल पर महिलाओं का संरक्षण अधिनियम 2005,राष्ट्रीय महिला आयोग अधिनियम 2006, बाल विवाह प्रतिषेध अधिनियम 2006, कार्यस्थल पर महिलाओं का लैंगिक उत्पीड़िन (निवारण, प्रतिषेध) अधिनियम 2013 प्रमुख हैं. लेकिन त्रासदी है कि इन क़ानूनों के बावजूद भी महिलाओं पर हिंसा और अत्याचार थमने का नाम नहीं ले रहा है. देश में घरेलू हिंसा, बलात्कार, दहेज मृत्यु, अपहरण,औनर किलिंग जैसी घटनाएँ लगातार बढ़ रही हैं.

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दरअसल विडंबना यह है कि समाज में स्वतंत्रता और आधुनिकता के विस्तार के साथ-साथ महिलाओं के प्रति संकीर्णता का भाव भी बढ़ा है.प्राचीन सामाज में ही नहीं बल्कि आधुनिक समाज की दृष्टि में भी महिलाएं केवल औरत है जिसको थोपी व गढ़ी-बुनी गई तथाकथित नैतिकता की परिधि से बाहर नहीं आना चाहिए.दी यूएन डिक्लेरेशन ऑन दी एलिमिनेशन ऑफ वोइलेंस अगेन्स्ट वुमेन के अनुसार ‘महिलाओं के प्रति हिंसा पुरुषों और महिलाओं के बीच ऐतिहासिक शक्ति की असमानता का प्रकटीकरण है.’ और यह भी कि “महिलाओं के प्रति हिंसा एक महत्वपूर्ण सामाजिक प्रक्रिया है जिसके द्वारा महिलाएं पुरुषों की अपेक्षा कमतर स्थिति में धकेल दी जाती हैं.’


आज भी बहुत-सी संस्कृतियों में महिलाओं को पुरुषों से कम दर्ज़ा दिया जाता है दरअसल महिलाओं के साथ भेदभाव करने का रवैया, समाज में कूट-कूटकर भरा है.उनके खिलाफ की जानेवाली हर किस्म की हिंसा एक ऐसी समस्या बन गई है, जो मिटने का नाम नहीं ले रही है.संयुक्त राष्ट्र के भूतपूर्व सेक्रेटरी-जनरल, कोफ़ी अन्नान ने कहा था ‘दुनिया के कोने-कोने में महिलाओं के खिलाफ हिंसा की जा रही है.हर समाज और हर संस्कृतिकी महिलाएं इस जुल्म की शिकार हो रही हैं.वे चाहे किसी भी जाति, राष्ट्र, समाज या तबके की क्यों न हों, या उनका जन्म चाहे जहाँ भी हुआ हो, वे हिंसा से अछूती नहीं हैं.’वहीं महिलाओं से जुड़े मुद्दों पर काम करने वाली संस्था एमनेस्टीइंटर्नेशनल के अनुसार ‘महिलाओं औरलड़कियोंके खिलाफ की जाने वाली हिंसा, आज मानवअधिकारों का उल्लंघन करने वाली सबसे बड़ी समस्या है.’

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समाज में पुरुषों और महिलाओं के लिए प्रयोग किए जाने वाले शब्दों पर गौर करें तो पुरुष के लिए निडर, मज़बूत, मर्द ताकतवर, तगड़ा, सत्ताधारी, कठोर ह्रदय, मूँछों वालाऔर महिलाओं के लिए कोमल, बेचारी, अबला, घर बिगाडू, कमज़ोर, बदचलन, झगडालू आदि शब्द प्रयोग किये जाते हैं. इनमें से कुछ शब्द तो महिला-पुरुष में प्राकृतिक अंतर का प्रतीक हैं लेकिन ज्यादातर शब्द प्राकृतिक कम सामाजिक ज्यादा हैं यानि पितृसत्तात्मक समाज ने इन शब्दों तथा इसके पीछे की अवधारणा को गढ़ा है जबकि असलियत में यह शब्द केवल महिलाओं को कमज़ोर दिखाने के लिएही प्रयोग किए जाते हैं क्योंकि केवल पुरुष ही नहीं बल्कि एक महिला भी ताकतवर, मजबूत और निडर होती है और एक पुरुष भी घर बिगाड़ू, बदचलन और झगड़ालू हो सकता है.

महिलाओं के प्रति इस प्रकार की हिंसात्मक घटनाएँ पुरुषों की ‘मर्दानगी’को लेकर दोहरा रवैया दिखा रही हैं. एक तरफ अगर लड़की उनका प्रस्ताव ठुकरा दे तो उनकी मर्दानगी को ठेस पहुँच जाती हैं और फिर पुरुष बदला लेने के लिए सरेआम महिला पर हमला कर देता है. दूसरी ओर कुछ पुरुष अपनी आँखों के सामने किसी महिला की बेरहमी से हत्या होते हुए देख कर आगे निकल जाते हैं. प्रश्न उठता है कि किसी लड़की द्वारा ठुकरा दिए जाने परपुरुष की मर्दानगी को तो ठेस पहुँच जाती है लेकिन हैरानी की बात यह है कि किसी की हत्या होते समय पर ‘मर्दानगी’ कम नहीं होती है?



अगर कोई व्यक्ति सामान्य तरीकों का प्रयोग करके अपने जीवन को नियंत्रित करने का प्रयत्न करता है तो इसमें कोई बुराई नहीं है लेकिन अगर कोई व्यक्ति दूसरों के जीवन पर हिंसा के प्रयोग से नियंत्रण करने की कोशिश करे तो यह ठीक नहीं है. दूसरा कोई भी पुरुष मर्द होने से पहले इंसान है और अगर किसी के साथ हिंसा होते देख कर भी अगर हम आगे बढ़ जाते हैं तो इंसानियत कहीं पीछे छूट जाती है.एक महिला के शब्दों में,‘आज हालात यह हैं कि घर, समाज में महिलाओं के लिए डर ही उनकी एक ऐसी सखी है, जो हरपल उनके साथ रहती है और हिंसा एक ऐसा खतरनाक अजनबी है जो किसी भी वक्त, किसी भी मोड़, सड़क या आम जगह पर उन्हें धर-दबोच सकता है.’

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कई देशों में नियम हैं कि यदि मुसीबत की स्थिति में आप किसी की मदद नहीं करते हैं तो आपके खिलाफ कानूनी कार्यवाही की जा सकती है. लेकिन भारत में ऐसा कोई कानून नहीं है इसलिए भी लोग जहमत नहीं उठाना चाहते हैं. लेकिन प्रश्न उठता है कि क्या समाज में इंसानियत को याद दिलाने के लिए भी कोई कानून बनाने की जरूरत है?25 नवंबर 1999 को संयुक्त राष्ट्र महासभा ने ‘महिलाओं के खिलाफ हिंसा मिटाओं’ नाम से अंतर्राष्ट्रीय दिवस मनाने की घोषणा की ताकि लोगों में महिलाओं के अधिकारों के प्रति जागरूकता पैदा हो, क्योंकि हिंसा का प्रभाव केवल एक महिला पर ही नहीं बल्कि अगर एक महिला को चोट पहुँचती है तो वह उसके बच्चों, परिवार तथा पूरे समाज को प्रभावित करती है.

संदर्भ व सहायक सामग्री

1. दिल्ली में युवक ने दिनदहाड़े चाकू से बार-बार गोदा, सीसीटीवी में कैद हुई घटना.

2. गुड़गांव मेट्रो स्टेशन पर युवक ने दिनदहाड़े महिला को चाकू से गोद डाला.

3. चरित्र के संदेह में हैवान बना पति, बकरे की तरह काट डाले पत्नी के अंग.

4. बिहार में महिला इंजीनियर को कुर्सी से बांधकर ज़िंदा जलाया.

लेखक जामिया मिलिया इस्लामिया, नई दिल्ली से स्नातकोत्तर हैं और हरियाणा के जिला मेवात में रहते । आजकल शिक्षा क्षेत्र में कार्यरत है। लेखन में रुचि रखते है और सामाजिक मुद्दों पर लिखते रहते हैं. संपर्क ; 9891022472, 7073777713 



मेरा कोना / मेरा कमरा

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डा .कौशल पंवार
  युवा रचनाकार, सामाजिक कार्यकर्ता ,  मोती लाल नेहरू कॉलेज , दिल्ली विश्वविद्यालय, में संस्कृत  की  असिस्टेंट प्रोफ़ेसर संपर्क : 9999439709

वर्जीनिया वूल्फ की किताब  ‘ A Room of One's Own’ का प्रकाशन 1929 में हुआ था, उसका केन्द्रीय स्वर है कि एक स्त्री का अपने लेखन के लिए अपना कमरा होना चाहिए, अपने निजी को सुरक्षित रखने के लिए भी अपना कमरा, इसके लिए उसकी आर्थिक स्वतंत्रता जरूरी है. वाल्मीकि समुदाय और बेहद कमजोर आर्थिक पृष्ठभूमि से से आने वाली लेखिका और संस्कृत की प्राध्यापिका कौशल पंवार ने अपना मुकाम बनाया. उनके के लिए ‘अपना कमरा’ तो बड़ी बात है , एक कमरे के घर में अपना कोना पाना भी मुश्किल था. आइये समझते  हैं एक कोने के लिए उनकी छटपटाहट से लेकर अपने कमरे को हासिल करने की उनकी यात्रा को..

मेरा भी घर मे एक कोना होता,  उसमें एक टेबल और कुर्सी होती, मै हमेशा इसके लिए तरसती थी. पर मेरे लिए वह कोना सुनिश्चित होना घर के एक हिस्से को घेरे रखने के बराबर होता. इसमें मेरे मां- बाप की कोई गलती नहीं थी, उन्होने भी तो सारी उम्र घर की इसी कोठड़ी में बिता दी थी. यह घर ही इसलिए कहलाया गया था क्योंकि इसी घर में सब मिलकर रहते थे, चाहे वह बकरी हो, मुर्गे हों  या फ़िर एक कोने में रखा चूल्हा ही क्यों न हो, उसी  के साथ सटे रहते थे एल्मुनियम के कुछ बर्तन. उसी कोठड़ी में एक कोने में पीने के पानी के लिए एक मटका रखा रहता था, और एक कोने में अनाज को रखने का एक खुटला(एक तरह से मिट्टी की बनी अनाज को संग्रहित करने की टंकी) तो ये थी हमारी कोठड़ी, जो अन्दर और बाहर से थी जिसका हर एक कोना निश्चित था, इसलिए मेरे लिए उस कोठरी में एक कोना स्थाई रूप से बनना ही बहुत मुश्किल था. उस समय का ये मेरा सबसे बड़ा सपना बन गया था कि मेरे भी मुर्गे और बकरी की तरह ही सही एक कोना बना रहे, जो हर दिन मुझे बदलना न पड़े पर नहीं बन सका था. उसी कमरे में मां, दादी और मेरे लिए भी एक कोना नहाने का बन जाता था,  जिससे नहाने के बाद साफ़ कर दिया जाता था और उसी में चुल्हे पर खाना भी बनता था. मैं अपने पढने के लिए खाट पर बैठकर घुटनों को मो \ड़कर ही उस पर किताब रख कर पढ लिया करती थी. पढने का जनून बचपन से ही मैने पाल लिया था. घर में बाहर से कोई सामान कागज में लपेट कर भी आता था तो मैं उस मुड़े-तुड़े कागज को पढने में लग जाती थी. मेरे चाचा ( मेरे पिता को मैं चाचा ही कहती थी) मेरी इस लगन से बहुत प्रभावित थे. जब भी उनके आगे मैं बैठकर घुटना  मोड़कर कभी इधर, कभी उधर करती और किताब लिए घूमना  पड़ता तो उनको देखकर अच्छा नहीं लगता था.

एक दिन चाचा ने पूछा कि मुझे क्या चाहिए, मैंने मना कर दिया कि मुझे तो किसी चीज की कोई जरुरत नहीं है. वे उठकर बाहर चले गये. कैसे उनको बताती कि मुझे एक कुर्सी और मेज चाहिए जिस पर मैं बैठकर कुछ लिख संकू और पढ संकू. घर के हालात ऐसे थे नहीं कि मैं उन्हे कह पाती. यह घर के लिए भी अनावश्यक चीज थी, जिसे रखने के लिए जगह निश्चित करना भी मुश्किल था. चाचा शाम को घर लौटे तो उनके हाथ में छोटा सा  स्टूल था और छोटी सी प्लास्टीक की कुर्सी. मुझे देखकर बहूत हंसी आयी. मैं पेट पकड़कर हंसती रही. चाचा चुपचाप मेरी ओर देखते रहे. जब मैं चुप हुई तो उन्होने कहा ये लो इस पर पढा करो. जमीन पर रखकर बाहर चले गये थे. मैं हंसने के बाद रोने लगी थी, मुझे अजीब सी ग्लानि हुई थी उस वक्त. जब घर में खाने तक के लाले पडे थे तो चाचा ये सब मेरे लिए कर रहे थे. सोचती रही थी कि कही मेरे हंसने से चाचा को बुरा न लगा हो. पर फ़िर भी मैं बहुत खुश हुई थी, अब मेरा कोना घर में निश्चित हो गया था. हांलाकि स्टूल और कुर्सी का साइज छोटा था और मैं अब बडी हो चुकी थी, पर चाचा के लिए मैं आज भी छोटी ही थी. मां ने कहा भी कि अब ये छोटी नहीं रही इस स्टूल में से पैर बाहर निकल रहे हैं  और कुर्सी पर धस कर बैठी है. चाचा हंसी का कारण समझ गये थे और खुद भी मुस्कराने लगे थे. पर मैं बहुत खुश थी, मेरे  मन की मुराद पूरी हुई थी.

इस तरह मेरा कमरा, यानी वह प्लास्टीककी कुर्सी और छोटा स्टूल , बन गया था पर ‘मल्टी परपज’ भी बना साथ मे ही. जब भी कोई मेहमान आता था मेरी किताबों को वहां से उतारकर उस पर चाय रखने के लिए दे दी जाती,  जिससे मुझे बड़ा खराब लगता था. चाय पी लेने के  बाद फ़िर वह मेरा ही बन जाता


समय गुजरता चला गया और मैं दसवींमें आ गयी थी, पर पढाई के साथ - साथ में अब जो भी आस-पास घट रहा होता, मेरे घर परिवार में जो भी हो रहा होता मैं उसे अब कागजों पर उतारने लगी थी. जब अपने गुस्से को शांत कर जाती, यूं कहे की वो पल गुजर जाते, जो मन को बहुत विचलित करते थे, तो उन्हीं कागजों को फ़ाड़ देती थी. मेरे हम उम्र सब जानते थे कि मैं कुछ न कुछ पढाई के अलावा लिखती भी रहती हूं, कभी-कभार वे पढते और मुझे कहते की अगर किसी ने पढ लिया तो बहुत मारेंगे तुझे, स्कूल से निकाल लेंगे और मैं ओर भी डर जाती और फ़ाड़ देती. अपने मन की बात कहने और घर के आये दिन झगडों से परेशान होकर अपने मन की भड़ास मैं इन कागज के टुकडों पर ही निकालती और इसके अलावा अपने भाई सुभाष, जो मुझे दूर रहता था उसे चिट्ठी लिखती रहती. उसमे सब का जिक्र होता.  उससे पिछली बार मिलने के बाद की सारी आस -पास घटी घटनाओं को बहुत विस्तार से वर्णन होता, और जब भी वह मिलता तो मैं उसे दे देती थी.  ऐसे ही वह भी करता. हमारा एक दूसरे को लिखा पत्र-व्यवहार आज भी मेरे पास सुरक्षित है. मैं  और मेरा वह स्टूल और कुर्सी, जो अब केवल किताबे रखने के काम आता था, एक जरुर और आवश्यक अंग बन गए थे  घर का. पर जिसे एक जगह से दूसरी जगह रख दिया जाता था, ठीक उसी तरह जैसे मैं भी अब उसे छोडकर कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के पीछे बनी झुग्गी में रहने के लिए आ गयी थी. पर पूरे परिवार में वह स्टूल मेरे नाम से ही जाना गया था. मैं अब गांव में नहीं थी, पर मेरा स्टूल, मेरा वह कोना, दोनों मैं अपनी विरासत के रूप में अपनी पहचान के रुप में छोडकर चली आयी थी.विश्वविधायल के छात्रावास की फ़ीस बहुत ज्यादा थी, जो मेरे और चाचा के बुते की बात नहीं हीं थी. एम.ए. करना ही था तो पहले कुछ महीने राजौंद और कुरुक्षेत्र के बीच में पडने वाले फ़रल, पुंडरी में नानकों के घर पर बिताये जहां पर नानी दूसरों के घरों में काम करके अपनी जिन्दगी बिता रही थी. मुझे भी नानी के साथ बहुत बार सफ़ाई और मैला उठाने के लिए जाना पडता था. हम दोनों के लिए रोटी और आचार या कभी कभी सब्जी भी उस गंध को अपने सिर पर ढोकर ले जाने के बदले मिल जाती थी. इस पर विस्तार से कभी फ़िर लिखूंगी. ऐसे में मेरी पढाई को नुकसान हो रहा था, तो मैने चाचा के साथ बात करके वहीं विश्वविद्यालय के छात्रावास के पीछे पड़ने वाली झुग्गी में रहकर पढने की बात की. घर से राशन पानी और छोटा स्टोव और एक थाली, चम्च्च, गिलास आदि ये सब लेकर गयी. जितने कम से कम खर्च हो पाये इसकी मेरी कोशिश रही. मां और चाचा की आर्थिक स्थिति क्या है, मैं जानती थी. सबने मना किया था आगे पढने के लिए, बहुत सारे कारणों के साथ एक कारण यह भी तो था कि विश्वविद्याल की पढाई का खर्चा पूरा नहीं होगा, यह बात मैं और चाचा दोनों ही जानते थे, पर दोनों को ही दृढ विश्वास था कि कम से कम खर्च में मैं अपनी आगे की पढाई पूरी कर सकती हूँ.  किताबों पर खर्च करने के अलावा ऐसा कोई खर्च था भी नहीं जो झेला न जा सके. ना कभी अपने आपको सुन्दर दिखाने के लिए प्रयोग होने वाले क्रीम आदि का मुझे शौक था न किसी और  चीज का ही शौक था, और न ही तन ढकने के अलावा कपडों का ही शौक था, इसलिए चाचा की सहमति से मैं आ गयी थी इस झुग्गी बस्ती  में जो चूहडो की बस्ती  के नाम से भी जानी जाती थी. पूरी बस्ती का एक ही  टायलट  था और एक ही नल, सुबह के समय बहुत परेशानी होती थी. इन सब का सामना करते हुए मैं अपने बारे में बहुत कुछ लिखती थी. कई डायरियां भर दी. जब कभी सुभाष आता तो उसे दे देती पढने के लिए, जिसमें  हर दिन गुजरने वाली पीड़ा, दुःख -तकलीफ़ अभाव भरा हुआ था. कुछ मन की कोमल भावनायें होतीं और वह अगली बार मिलता तो खूब रो लेता और अपनी असमर्थता जता जाता, हौसला देता, अपने सपने पूरे करने की कसमें दे जाता, चाचा के खून-पसीने से निकलने और मेरे लिए उंचाई पर पंहुचने के उनके अरमानों को पूरा करने की दुहाई दे जाता. बस अब यही उद्देश्य बन चुका था. अब मेरा कमरा था मेरे पास, मेरी वह चालिस रुपये में किराये पर ली झुग्गी, जिसे मैं वहीं आस-पास के विधार्थियों को ट्यूशन पढाकर दे दिया करती थी, उन छात्रों के हालत भी मेरे जैसे ही रहती थी, इसलिए कई बार मेरे इस कमरे का किराया भी नहीं दे पाती थी. जिसके कारण बहुत कुछ सुनना भी पडता था.


एम.ए. के इस कठिन दौर में मेरे सुख-दुख का साथी, मेरा भाई, मुझे छोडकर चला गया- टूट गया था, बहुत कुछ अंदर से, कदम भी लड़खड़ा गये थे, पर उसका वह वाक्य कि ‘अपनी पढाई को बीच में नहीं छोड़ना, कुछ बनना है, सपनों को पूरा करना है चाहे कुछ भी हो जाये, थकना नहीं, हारना नहीं.’ बहुत कुछ लिखा इस दौरान, मेरे  पाठयक्रम की पढाई के अलावा मैं और भी बहुत कुछ करती, यूपीएससी की तैयारी के साथ कविता, कहानियां बल्कि यूं कहूं की अपना दर्द कागजों पर उतारने लगी थी. पर इनको सहेजने  का ख्याल न मुझे पहले आया था, और न इस दौरान, बस अगर इधर-उधर कापियों पर लिखा रह गया था थोड़ा बहुत. अभी समय को  एक और  झटका देना बाकी था. एम.ए. प्रथम वर्ष पास कर लिया था, फ़ाइनल में प्रवेश ले लिए थे. मेरे इस झुग्गी वाले कमरे के हर कोने में कुछ साहित्यक पत्र पत्रकायें जमा होने लगी थीं.नेट की तैयारी दिन रात कर रही थी. पुस्तकालय खुलते ही का द्वितीय तल के कोने की कुर्सी में लायब्रेरी  में घुसती थी और बन्द होने तक वहीं रहती थी. साथ ही साथ यूपीएससी, जो मेरे अपना -सपना था, उसकी भी तैयारी चल रही थी.  चाचा स्कूल में मैडम और सबसे बड़ी डीग्री लेने का सपना देख रहे थे, सुभाष कालेज के लेक्चर स्टैंड़ पर लेक्चर देते हुए देखना चाहते थे और नीचे पटरी रखकर उस पर चढकर भाषण देने का सपना देखते थे- मेरी हाइट छोटी थी, इसलिए पटरी  का साहरा लेकर लेक्चर देने का बिम्ब रचते.  और मैं- मेरा सपना था यूपीएससी पास करना और बड़ी अधिकारी बनना,  जिसके लिए मुफ़्त में चलने वाली कोचिंग भी मैंने चाचा को बिना बताये शुरु कर रखी थी.

और  एक दिन वह भी अपने सपने केसाथ इस सफ़र में साथ छोड़कर चले गये अनजान दुनियां में, कभी वापिस न आने के लिए. बस अब मैं और मेरा कमरा ही रह गये थे, मतलब वह किराये की झुग्गी. अब कुछ भी करने का मतलब नहीं रह गया था, न अब सुभाष का साथ था और न चाचा. बाकी जितने भी रिश्ते थे, वे खून के रिश्ते  जरुर थे पर उनसे कभी अपनेपन के दो शब्द नहीं मिल. अगर कुछ भी मिला था तो वह  शक करने वाली निगाहें  थीं, जो मेरे गांव आने पर मानो एक ही सवाल पूछती थी कि मैं .........मेरे अन्दर लड़की होने का शेष कुछ बचा भी है या....... सब. और मैं मानो तसल्ली देने के लिए उनसे अपनी सफ़ाई देती की मैं पढ रही हूं और बहुत मेहनत कर रही हूँ- हर बार की अग्नि परीक्षा, जो मेरे हौसले को तोड़ने के लिए काफ़ी होती थी.

पर अब क्या? सब कुछ खत्म..... तीनमहीने लगे मुझे इस सदमे से बाहर आने के लिए. पर सबने जैसे अब मेरा साथ देने का मन भी बना  लिया था, और सबसे ज्यादा मां मेरे साथ पूरी तरह से जुट गयी थी, मानो चाचा ने मां को अब उनकी जगह लेने की कसम दे दी हो,  दोनों भाई भी अब मेरे फ़ैसले के साथ थे. और इस सफ़र में हमसफ़र बनकर आया मेरी जिन्दगी में मुकेश, जिसने मेरे अन्दर के खालीपन को भर दिया, उन्होने चाचा और भाई का प्यार तो नहीं दिया पर कमी जरुर पूरी कर दी थी, उस मंजिल और सपने को पूरा करने में मेरा साथ दिया, फ़िर चाचा के सपने को जिन्दगी का मकसद बना लिया और फ़िर पीछे मुड़कर नहीं देखा. हारना मानों मैने बिसरा ही दिया. चाचा का एक एक शब्द अब मेरे जीने के लिए काफ़ी था.

झुग्गी अब छूट गयी थी, एम.ए. के बादअब बी.एड. करने करनाल आ गयी थी. यहां पर भी किराये का अपना कमरा ले लिया था, जब भी मकान मालिक को पता चलता की मैं ‘चूहड़े’ समाज की हूं, कमरा छोड़ना पडता. इसी दौरान हमसफ़र को ताउम्र हमसफ़र बनाने का निर्णय लिया और हमने शादी कर ली. शादी के दूसरे दिन ही वापिस उसी कमरे में लौटना हुआ. बी.एड़ करने के बाद एम फ़िल. रोहतक से किया और फ़िर जेएनयू तक का सफ़र. अपना कमरा न होते हुए भी इन्ही कमरों में लेखन कार्य चलता रहा.


अब मैं एक अध्यापिका बन गयी थी,वो भी चंडीगढ जैसे बडे शहर में. पर यहां भी अपना कमरा तो था, लेकिन किराये का. कभी रामदरबार का कमरा तो कभी डड्डूमाजरा का कमरा. इन सब को पार करते हुए पंहुच गयी थी दिल्ली विश्वविद्यालय में पर यहां भी कमरा तो मिला पर अपना नहीं, और इसी दौरान जातिव्यवस्था से जूझते हुए अपना घर, अपना कमरा लेने के लिए मजबूर होना पड़ा-पर अटल निश्चय था और सामने मंजिल. मैंने  सहूलियत न होते हुए भी अपना घर और उस घर में मेरा कमरा हो, ऐसा ठान लिया था. और आज मेरे पास अपना कमरा है, उस कमरे में अपनी पसंद की कुर्सी और टेबल है, पूरा कमरा ही मेरा पुस्तकालय है, जिसमे पूरे घर के सामान को मिलाकर सबसे ज्यादा जो बनता है, वह पुस्तकें ही है.  अब मेरे पास मेरा कमरा है, और उसके साथ चाचा की यादें हैं, जो मुझे निरन्तर आगे बढने को प्रेरित करती हैं.

तीन तलाक, समान नागरिक संहिता और मोदी सरकार: पहली किस्त

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जावेद अनीस
एक्टिविस्ट, रिसर्च स्कॉलर. प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े स्वतंत्र पत्रकार . संपर्क :javed4media@gmail.com
javed4media@gmail.com
तीन तलाक, हलाला और बहुविवाहसे शुरू हुई बहस समान नागरिक संहिता तक पहुँचा दी गयी है. समान नागरिक संहिता (यूनिफार्म सिविल कोड) स्वतंत्र भारत के कुछ सबसे विवादित मुद्दों में से एक रहा है और वर्तमान में केंद्र की सत्ता पर काबिज पार्टी और उसके पितृ संगठन द्वारा इस मुद्दे को लम्बे समय से उठाया जाता रहा है. यूनिफार्म सिविल कोड लागू कराना उनके हिन्दुतत्व के एजेंडे का हिस्सा है. सत्तारूढ़ भाजपा के चुनावी एजेंडे में हिन्दुतत्व के तीन मुद्दे शामिल हैं -अनुच्छेद 370 की समाप्ति, राम जन्मभूमि मंदिर का निर्माण और समान नागरिक संहिता लागू करना. इन तीनों मुद्दों का सम्बन्ध किसी ना किसी तरह से अल्पसंख्यक समुदायों से है और इन्हें उठाने का मकसद बहुसंख्यक हिन्दू समुदाय को एकजुट करना और अल्पसंख्यक समुदायों पर निशाना साधना रहा है. इसीलिए वर्तमान सरकार जब समान नागरिक संहिता की बात कर रही है तो उसकी नियत पर सवाल उठाये जा रहे हैं.

मुस्लिम महिलाओं की तरफ से समान नागरिक संहिता नहीं बल्कि एकतरफा तीन तलाक़, हलाला व बहुविवाह के खिलाफ आवाज उठायी जा रही है और महिला संगठनों ने इन्हीं मुद्दों को लेकर न्यायालय में कई आवेदन दाख़िल किए थे जिसमें उनकी मांग थी कि तीन तलाक, हलाला जैसी प्रथाओं पर रोक लगाया जाए और उन्हें भी खुला का हक मिले.

बहरहाल आने वाले महीनों में कई राज्यों में चुनाव होने वाले हैं शायद इसीलिए समान नागरिक संहिता के मुद्दे पर माहौल गर्म किया जा रहा है. भाजपा और संघ के नेता अचानक मुस्लिम महिलाओं की स्थिति पर खासी चिंतित दिखाई पड़ने लगे हैं वही दूसरी तरह ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड सहित कई मुस्लिम संगठन इसके खिलाफ आवाज बुलंद कर रहे हैं और किसी भी बदलाव को इस्लाम के खिलाफ बता रहे हैं.

● असल मुद्दा क्या है ?

इस पूरे विवाद की शुरुआत विधि आयोग की ओर से तीन तलाक और समान नागरिक संहिता पर लोगों की राय मांगे जाने से हुई थी जिसके बाद ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड इसके विरोध में खड़े हो गये. जबकि ये दोनों अलग मुद्दे हैं तथा इनको आपस में जोड़ने का मकसद ‘असल मुद्दों से ध्यान हटाना है. पूर्व मुख्य सूचना आयुक्त वजाहत हबीबुल्लाह कहते हैं कि “तीन तलाक के मुद्दे को अनावश्यक रूप से समान नागरिक संहिता के साथ नत्थी करने से गफलत बढ़ रही है नतीजतन भारत के अल्पसंख्यक मुस्लिम समाज को तार्किक तौर पर बचाव की मुद्रा में आने को मजबूर होना पड़ रहा है”. दरअसल असली मुद्दा तीन बार तलाक बोल कर शादी तोड़ने और भरण-पोषण का है. सुप्रीम कोर्ट भी इस समय मुस्लिम पर्सनल लॉ के कुछ विवादित प्रावधानों की ही समीक्षा कर रहा है जिसमें तीन तलाक, मर्दों को चार शादी की इजाज़त और हलाला शामिल हैं.

केंद्रीय मंत्री वेंकैया नायडू कह रहे है कि “तीन तलाक को समान नागरिक संहिता से जोड़कर भ्रम फैलाया जा रहा है.” लेकिन ऐसा कर कौन रहा है ? तीन तलाक पर केंद्र सरकार को समर्थन देने वाली आल इंडिया मुस्लिम महिला पर्सनल लॉ बोर्ड इसके लिए केंद्र सरकार को ही जिम्मेदार ठहरा रही है. बोर्ड का कहना है कि केंद्र सरकार तीन तलाक का प्रोपगंडा फैला रही है. बोर्ड की अध्यक्ष शाइस्ता अंबर ने बयान दिया है कि “तीन तलाक की आड़ में केंद्र सरकार मुसलमानों की शर्रियत में दखलअंदाजी करके कॉमन सिविल कोड लागू करना चाहती है जिसकी बोर्ड मज़म्मत करता है.” दूसरी तरफ भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन की सह-संस्थापक जकिया सोमान का आरोप है कि “मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड तीन तलाक के मामले को लेकर ‘बैकफुट पर आने’ के बाद इसे समान नागरिक संहिता से जोड़ने की कोशिश कर रहा है”.

जो भी हो तीन तलाक और समान नागरिक संहिता का आपस में घालमेल नहीं किया जाना चाहिए क्योंकि यह दोनों अलग-अलग चीजें हैं उन्हें उसी हिसाब से समझना चाहिए. यूनिफॉर्म सिविल कोड एक व्यापक विषय है, इसमें पारिवारिक कानूनों में एकरूपता लाने की बात है. यूनिफॉर्म सिविल कोड में व्यापक रूप से विवाह, तलाक, बच्चा गोद लेना और संपत्ति के बंटवारे जैसे विषय शामिल हैं. यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू होने का मतलब होगा किसी समुदाय विशेष के लिए शादी, तलाक, उत्तराधिकार जैसे मसलों में अलग नियम नहीं होंगें लेकिन इसका ये मतलब यह भी नहीं है कि इसकी वजह से विवाह मौलवी या पंडित नहीं करवाएंगे. ये परंपराएं बदस्तूर बनी रहेंगी, नागरिकों के खान-पान, पूजा-इबादत, वेश-भूषा पर इसका कोई असर नहीं होगा. हाँ इसके बाद परिवार के सदस्यों के आपसी संबंध और अधिकारों को लेकर जाति-धर्म-परंपरा के आधार पर कोई रियायत नहीं मिलेगी.


लेकिन यह भी ध्यान रखना चाहिए कि यूनिफॉर्म सिविल कोड का मसला अकेले मुसलमानों तक सीमित नहीं है. इससे ईसाई, पारसी और आदिवासी समुदाय भी प्रभावित होगें. जामिया मिलिया इस्लामिया में इस्लामी अध्ययन विभाग के प्रोफेसर जुनैद हारिस का कहना है कि,  ‘‘समान नागरिक संहिता के मुद्दे को मुसलमानों से जोड़कर देखना पूरी तरह गलत है यह मुसलमानों का नहीं, बल्कि देश की संस्कृति से जुड़ा मुद्दा है हमारा देश अलग धर्मों, आस्थाओं, परंपराओं और रीति-रिवाजों का एक संग्रहालय है. अलग अलग समुदायों के अपने पर्सनल लॉ हैं. ऐसे में इस मामले को सिर्फ मुस्लिम समुदाय के साथ जोड़कर देखना पूरी तरह गलत है।.’’

तो क्या समान नागरिक संहिता कीइस बहस से भाजपा धुर्वीकरण की कोशिश कर रही है इसकी वजह से मुस्लिम समाज के भीतर से उठी प्रगतिशीलता और बदलाव की आवाजें कमजोर पड़ जायेगीं? कांग्रेस नेता और पूर्व कानून मंत्री वीरप्पा मोईली इसे मुद्दों से लोगों का ध्यान भटकाने की चाल बताते हुए कहते हैं “जब राम मंदिर और दूसरे मुद्दे धराशायी हो गए तो उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में जीत हासिल करने के लिए यह समाज के ध्रुवीकरण की ख़तरनाक कोशिश है, भारत जैसे बहुसांस्कृतिक, बहुजातीय और बहु-आयामी देश में इसे लागू करना आसान नहीं है”. महिला संगठनों का भी कहना है कि समान नागरिक संहिता को लेकर हो रही राजनीति के चलते तीन तलाक का मुद्दा पीछे छूट सकता है.

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● मुस्लिम महिलाओं की वाजिब समस्यायें और उनकी पहल  

मुस्लिम औरतों की सबसे बड़ी समस्यातीन तलाक है. मर्दों के लिए यह बहुत आसन है कि तीन बार तलाक, तलाक, तलाक कह दिया और सब-कुछ खत्म, इसके बाद मर्द तो दूसरी शादी कर लेते हैं लेकिन आत्मनिर्भर ना होने की वजह से महिलाओं का जीवन बहुत चुनौतीपूर्ण हो जाता है. तलाक के बाद उन्हें भरण-पोषण के लिए गुजारा भत्ता नहीं मिलता और अनेकों  मामलों में तो उन्हें मेहर भी वापस नहीं दी जाती है. कई मामलों में तो ईमेल, वाट्सएप, फोन, एसएमएस के माध्यम से या रिश्तेदारों, काजी से कहलवा कर तलाक दे दिया जाता है. इसी तरह से हलाला का चलन भी एक अमानवीय है. दुर्भाग्यपूर्ण कई मुस्लिम तंजीमों और मौलवीयों द्वारा तीन तलाक, हलाला और बहुविवाह का समर्थन किया जाता है.

2011 की जनगणना के मुताबिक भारतमें एक तलाकशुदा मुस्लिम पुरुष पर चार तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं का अनुपात है. हालाँकि सिखों को छोड़कर सभी धार्मिक समुदायों में तलाकशुदा पुरुषों की तुलना में तलाकशुदा महिलाओं की संख्या अधिक है लेकिन मुसलमानों में यह आंकड़ा सबसे ज्यादा 79:21 हैं. इसी तरह से पतियों से अलग रह रही महिलाओं के मामले में भी मुस्लिम समुदाय आगे है. इस समुदाय में अलग रह रही कुल आबादी में 75 फीसदी महिलाएं हैं.


भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन की सह-संस्थापक, नूरजहां सफिया नियाज कहती है कि “भारत में तीन तलाक से काफी संख्या में मुस्लिम महिलाएं पीडि़त हैं. आन्दोलन द्वारा 2015 में देश के दस राज्यों में 4,710 मुस्लिम महिलाओं के बीच किये गये सर्वे के अनुसार सर्वे में शामिल 525 तलाकशुदा महिलाओं में से 65.9 फीसदी का जुबानी तलाक हुआ था, जबकि 78 फीसदी का एकतरफा तरीके से तलाक हुआ था. मेहर की बात करें तो 40 फीसदी औरतों को निकाह के वक्त 1000 रुपये से भी कम मेहर मिली थी, जबकि 44 फीसदी महिलायें ऐसी पायी गयीं जिन्हें मेहर की रकम कभी मिली ही नहीं. इसी तरह से ज्यादातर महिलाओं के पास निकाहनामा भी नही था.

सर्वे में दावा किया गया है कि करीब 92.1फीसदी मुस्लिम महिलाओं ने एकतरफा तलाक और तीन तलाक की पद्धति को बिल्कुल गलत मानते हुए इसे खत्म करने की वकालत की है. 91.2 फीसदी महिलायें बहुविवाह के खिलाफ हैं और मर्दों की चार शादियां करने की छूट पर पाबन्दी चाहती हैं. इसी तरह से 83.3 प्रतिशत महिलाओं ने माना है कि मुस्लिम महिलाओं को न्याय दिलाने के लिए मुस्लिम फैमिली लॉ में सुधार करने की जरूरत है.


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● शाह बानो से शायरा बानो तक

इंदौर की शाह बानो को जब उनके पति ने तलाक दे दिया तो उस समय उनके साथ पांच बच्चे थे लेकिन कमाई का कोई जरिया नहीं था. लिहाजा उन्होंने दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 125 के अंतर्गत अपने पति से भरण पोषण भत्ता दिए जाने की मांग की. न्यायालय ने शाह बानो के पक्ष में फैसला दिया. न्यायालय के इस फैसले का भारी विरोध हुआ. आखिरकार राजीव गांधी सरकार ने दबाव में आकर मुस्लिम महिला अधिनियम, 1986 पारित कर दिया. इस अधिनियम के जरिये शाह बानो के पक्ष में आया न्यायालय का फैसला भी पलट दिया गया जिसके विरोध में राजीव मंत्रिमंडल के गृह राज्य मंत्री आरिफ मोहम्मद खान ने इस्तीफ़ा दे दिया था.

आज लगभग तीस साल बाद शायराबानो नाम की एक मुस्लिम महिला ने सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया है. उत्तराखंड की शायरा बानो की साल 2002 में इलाहाबाद में रहने वाले रिजवान अहमद से शादी हुई थी. शायरा के अनुसार अप्रैल 2015 में उनके पति ने उन्हें जबरदस्ती मायके भेज दिया और कुछ समय बाद 'तीन तलाक'देते हुए उनसे रिश्ता ही समाप्त कर दिया. इसी तलाक की वैध्यता को चुनौती देते हुए शायरा सर्वोच्च न्यायालय पहुँची हैं. शायरा की याचिका का मुख्य पहलू यह भी है कि याचिका में 'मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरियत) एप्लीकेशन एक्ट, 1937'की धारा 2 की संवैधानिकता को भी चुनौती दी गई है. यही वह धारा है जिसके जरिये मुस्लिम समुदाय में बहुविवाह, 'तीन तलाक' (तलाक-ए-बिद्दत) और 'निकाह-हलाला'जैसी प्रथाओं को वैध्यता मिलती है. इनके साथ ही शायरा ने 'मुस्लिम विवाह विघटन अधिनियम, 1939'को भी इस तर्क के साथ चुनौती दी है कि यह कानून मुस्लिम महिलाओं को बहुविवाह जैसी कुरीतियों से संरक्षित करने में सक्षम नहीं है.

कोई भी बदलाव अन्दर से ही होता है और जिस तरह से तीन तलाक जैसे मुद्दे पर इंसाफ के लिए मुस्लिम महिलाएं सामने आईं हैं उसका स्वागत किया जाना चाहिए. इसे मुस्लिम समुदाय में एक सकारात्मक हलचल के तौर पर देखा जाना चाहिए. महिलाओं में आई इस जागरूकता से अब पुरुष भी इस तरफ सोचने पर मजबूर हुए हैं. हमारे देश में तीन तलाक पर पाबंदी की कोशिशें चल रही हैं. इन कोशिशों में देश की मुस्लिम महिलाएं सबसे आगे हैं. वर्तमान में सर्वोच्च न्यायालय में अलग-अलग महिलाओं की करीब आधा दर्जन याचिकाएं लंबित हैं. कई राज्यों के सत्र अदालतों तथा कई उच्च न्यायालयों में भी मुस्लिम महिलाओं की याचिकाएं दर्ज हैं.

आल इंडिया मुस्लिम वीमन पर्सनल लॉ बोर्डकी अध्यक्ष शाइस्ता कहती है कि “तीन तलाक की इस प्रक्रिया के खिलाफ सबसे पहले हमने आवाज उठाई थी, हम मांग करते रहे हैं कि मुस्लिम समुदाय में निकाह, तलाक, दूसरा निकाह तथा विरासत आदि के बारे में प्रावधान कर मुस्लिम मैरिज एक्ट बनाया जाए”.

भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन से जुड़ीं मारिया सलीम कहती हैं कि “बीएमएम की लड़ाई कुरआन तथा शरियत पर आधारित है, हमारी मांग है कि मुस्लिम पर्सनल लॉ का संहिताकरण किया जाए. तीन तलाक इस्लाम विरोधी और महिलाओं के संवैधानिक अधिकारों के खिलाफ है लिहाजा इसको खत्म किया जाए”.



इसी दिशा में भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन (बीएमएमए) ने “मुस्लिम मैरिज और डाइवोर्स एक्ट” नाम से एक ड्राफ्ट तैयार किया है. इस ड्राफ्ट के तहत मुस्लिम समाज में तीन तलाक, बहुविवाह और मेहर की रकम पर नए कानून बनाए जाने की बात कही गई है. ड्राफ्ट में बोलकर दिए जाने वाले तलाक को खत्म करने की वकालत करते हुए तलाक-ए-अहसान के तरीके को अपनाने की बात कही गई है. इसके तहत तलाक के बाद जोड़ों को आपसी मतभेद सुलझाने के लिए 3 महीने का वक्त दिया जा सकेगा और अगर दोनों सहमत हों तो तलाक की अर्जी वापस भी ली जा सकेगी.

बीएमएमए द्वारा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी खत लिखा है. अपने खत में बीएमएमए ने कहा है कि मुस्लिम महिलाओं को न्याय दिलाने के लिए या तो शरीयत एप्लीकेशन लॉ, 1937 और मुस्लिम मैरिज ऐक्ट, 1939 में संशोधन किए जाए या फिर मुस्लिम पर्सनल कानूनों का एक नया स्वरूप लाया जाए.

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● भारतीय मुस्लिम महिला आन्दोलन द्वारा जारी मुस्लिम फैमिली एक्ट का मसौदा 

भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन कापिछले कुछ सालों में कई मुस्लिम महिलाओं, वकीलों, धार्मिक विद्वानों की सलाह व सुझाव से मुस्लिम फैमिली लॉ का एक ड्राफ्ट बनाया है, जिसमें विवाह की उम्र, मेहर, तलाक, बहु-विवाह , निर्वाह-भत्ता (मेंटेनेंस) और बच्चों पर अधिकार जैसे विषय शामिल हैं।

ड्राफ्ट के मुख्य:

▪ शादी की न्यूनतम उम्र , लडकी के लिए 18 और लड़के के लिए 21.
▪ बिना बलप्रयोग के और बिना किसी धोखे के दोनो पार्टी की सहमति
▪ निकाह के समय दुल्हे के एक साल की आय के बराबर का न्यूनतम मेहर
▪ मौखिक तलाक अवैध घोषित हो. तलाक –ए-अहसन 90 दिन के भीतर अनिवार्य आर्बिट्रेशन की प्रक्रिया से हो
▪ शादी के भीतर निर्वाह की जिम्मेदारी पति पर हो, यद्यपि पत्नी का स्वतंत्र आर्थिक आधार हो, तो भी.
▪ मुस्लिम वीमेंस प्रोटेक्शन ऑन डाइवोर्स एक्ट, 1986 के अनुसार मेंटेंनेस
 ▪ बहु–विवाह अवैध घोषित हो
 ▪ माँ और पिता, दोनो बच्चे के प्राकृतिक संरक्षक हों
 ▪ बच्चे का संरक्षण (कस्टडी) उसके हितों के अनुसार और उसकी इच्छा के अनुरूप हो
 ▪ हलाला अपराध की श्रेणी में हो
 ▪ सम्पत्ति के मामले में कुरआन के नियम लागू हों,
▪ लड़कियों को लड़कों की तरह वसीयत/उपहार या हिबा के जरिये संपत्ति में बराबर भाग हो
▪ निकाहों का अनिवार्य रजिस्ट्रेशन हो

मुसलामानों को लेकर गलतफहमी और दुष्प्रचार

मुस्लिम समुदाय भारत का दूसरा सबसे बड़ा धार्मिक समुदाय है लेकिन देश के दूसरे धार्मिक समुदायों में इनको लेकर जबरदस्त गलतफहमी व्याप्त है. इस गलतफहमी को बनाने और बढ़ाने में हिन्दुत्ववादी संगठनों की बड़ी भूमिका रही है.ऐसा स्वभाविक रूप से मान लिया जाता है कि एक से अधिक पत्नी रखने के मामले में मुस्लिम समुदाय सबसे आगे है. हिंदुत्ववादी संगठनों द्वारा बहुसंख्यक समुदाय में संख्या का भय पैदा करने के मकसद से यह जोरशोर से दुष्प्रचार भी किया जाता है कि मुसलमान ज्यादा शादी करके ज्यादा बच्चे पैदा कर रहे हैं और एक दिन ऐसा आएगा कि उनकी आबादी हिंदुओं से ज्यादा हो जाएगी. लेकिन वास्तविकता यह है कि बहुविवाह की घटनाएं मुसलमानों की तुलना में हिंदुओं में अधिक होती हैं। आंकड़े इस बात की तस्दीक करते हैं. धर्म और समुदाय आधारित शादियों को लेकर भारत सरकार द्वारा आखिरी सर्वे 1961 में हुआ था. जिसके अनुसार एक से अधिक पत्नी रखने के मामले में मुस्लिम मर्द पांचवे नंबर पर आते हैं। पहले पर आदिवासी, दूसरे पर जैन, तीसरे पायदान पर बौद्ध, चौथे पर हिंदू हैं.



भारत में बहुपत्नी प्रथा की स्थिति ( प्रतिशत में )

आदिवासी-15.25 %
 बौद्ध - 7.9
 जैन - 6.7
 हिंदू - 5.8
 मुस्लिम  -5.7

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इसी तरह से तलाक को लेकर भीगलत भ्रम फैलाया जाता है यह बात सही है कि भारतीय मुसलामानों में एकतरफा तलाक का चलन है और तलाक के बाद महिलाओं को पर्याप्त भरणपोषण भी नहीं मिलता है लेकिन यहाँ तलाक की दर कम है. 2011 की जनगणना के अनुसार तलाकशुदा भारतीय महिलाओं में 23.3 फीसदी मुस्लिम है जबकि 68 फीसदी हिंदू हैं.

● अदालत का रुख 

सुप्रीमकोर्ट पहले भी कह चूकाहै कि अगर सती प्रथा बंद हो सकती है तो बहुविवाह एवं तीन तलाक जैसी प्रथाओं को बंद क्यों नही किया जा सकता. वर्तमान में सुप्रीम कोर्ट तलाक या मुस्लिम बहुविवाह के मामलों में महिलाओं के साथ होने वाले भेदभाव के मुद्दे की समीक्षा कर रहा है. दरअसल उत्तराखंड की रहने वाली शायरा बानो सहित कई महिलाओं ने ‘तीन बार तलाक’ को चुनौती देते हुए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था जिसके बाद सुप्रीम कोर्ट यह समीक्षा करने पर राजी हो गया है कि कहीं तीन तलाक, बहुविवाह, निकाह और हलाला जैसे प्रावधानों से कहीं मुस्लिम महिलाओं के मौलिक अधिकारों का हनन तो नहीं हो रहा है.

इसी क्रम में सुप्रीम कोर्ट ने भारत सरकार से कहा है कि वह 23 नवम्बर 2016 तक जवाब दे कि मुस्लिम महिलाओं के साथ हो रहे जेंडर–विभेद को संविधान की धारा 14,15 और 21 के तहत मूल अधिकारों का एवं अंतरराष्ट्रीय समझौतों का उल्लंघन क्यों नहीं माना जाए?

● मोदी सरकार की पहल

सुप्रीम कोर्ट के पूछने पर केंद्र सरकारने जवाब दिया है कि ‘वह तीन तलाक का विरोध करती है और इसे जारी रखने देने के पक्ष में नहीं है’. सुप्रीमकोर्ट में दाखिल अपने जवाब में सरकार ने ‘तीन तलाक’ और मर्दों को एक से ज्यादा शादी की इजाजत को संविधान के खिलाफ बताते हुए कहा है कि “समानता और सम्मान से जीने का अधिकार हर नागरिक को मिलना चाहिए. इसमें धार्मिक आधार पर भेदभाव नहीं किया जा सकता.”

केंद्र सरकार ने तीन तलाक के मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट में प्रमुख रूप से तीन बातें कही हैं.
▪ ‘तीन तलाक’ संविधान के खिलाफ है.
▪ संविधान मर्दों को एक से ज्यादा शादी की इजाजत नहीं देता है.
▪ ‘तीन तलाक’ और बहुविवाह’ इस्लाम का अनिवार्य हिस्सा नहीं है.

मुस्लिम महिलाओं के एक समूह ने ‘तीन तलाक’ पर सरकार के रुख का समर्थन किया है. 16 महिला कार्यकर्ताओं ने एक संयुक्त बयान जारी करते हुए कहा है कि “हम सुप्रीम कोर्ट में सरकारी हलफनामें के स्पष्ट बयान का स्वागत करते हैं कि तीन तलाक, निकाह, हलाला और बहुविवाह जैसी प्रथाएं महिलाओं की समानता और गरिमा का उल्लंघन करती हैं और इसलिए इन्हें समाप्त किया जाना जरूरी है.”

इसके बाद विधि आयोग ने 16 सवालोंकी लिस्ट जारी कर ट्रिपल तलाक़ और कॉमन सिविल कोड पर जनता से राय मांगी थी जिसपर विवाद हो गया. मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने इसे समाज को बांटने वाला और मुसलमानों के संवैधानिक अधिकार पर हमला बताते हुए इसके बायकॉट करने का ऐलान कर दिया.


मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की सदस्य अस्मा जेहरा का कहना है कि “दरअसल,यह भाजपा का मुसलमानों के पर्सनल लॉ पर सोचा-विचारा आक्रमण है, जिसका मकसद उनके बुनियादी हकों को छीनना है. उनके अनुसार लॉ कमीशन ने जो 16 सवाल तय किये हैं उसके जवाब में ‘‘मैं सहमत नहीं’ का कॉलम रखा ही नहीं गया है. इस प्रश्नावली को उन लोगों ने अपने एजेंडे के मुताबिक ऐसे तैयार किया है कि आपको कॉमन सिविल कोड पर रजामंद ही होना है.

शक जताया जा रहा है कि उत्तर प्रदेशविधान सभा चुनाव नजदीक है इसीलिए विधि आयोग के माध्यम से समान नागरिक संहिता का मुद्दा सामने लाया गया है. पिछले दिनों उत्तर प्रदेश की  एक चुनावी रैली में नरेंद्र मोदी ने जिस तरह से मुस्लिम महिलाओं का मुद्दा छेड़ा है उससे इस आशंका को और बल मिलता है.


● समाज और संगठनों का रुख 

मुस्लिम महिलाओं की मांगों को लेकर सबसे कड़ा रुख पर्सनल लॉ बोर्ड का रहा है. इस बार भी बोर्ड का यही रुख कायम है. पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट में दायर अपने जवाबी हलफनामा में बोर्ड ने कहा कि एक साथ तीन तलाक, बहुविवाह या ऐसे ही अन्य मुद्दों पर किसी तरह का विचार करना शरीयत के खिलाफ है. इनकी वजह से मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों के हनन की बात बेमानी है. इसके उलट, इन सबकी वजह से मुस्लिम महिलाओं के अधिकार और इज्जत की हिफाजत हो रही है. अपने हलफनामे में बोर्ड ने तर्क दिया है कि “पति छुटकारा पाने के लिए पत्नी का कत्ल कर दे, इससे बेहतर है उसे तलाक बोलने का हक दिया जाए.” मर्दों को चार शादी की इजाज़त के बचाव पर बोर्ड का तर्क है कि, “पत्नी के बीमार होने पर या किसी और वजह से पति उसे तलाक दे सकता है. अगर मर्द को दूसरी शादी की इजाज़त हो तो पहली पत्नी तलाक से बच जाती है.”

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पर्सनल लॉ बोर्ड ने तीन तलाक के मुद्दे पर सरकार से पर जनमत संग्रह करवाने की भी मांग की है. ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के सदस्य जफरयाब जिलानी का कहना है कि ‘‘90 फीसदी मुस्लिम महिलाएं शरीया कानून का समर्थन करती हैं.’’ केंद्र सरकार तीन तलाक के मुद्दे पर जनमत संग्रह करा सकती है. जाहिर है बोर्ड किसी भी बदलाव के खिलाफ है.

इस मुद्दे पर मुस्लिम समाज भी बंटता हुआ नजर आ रहा है. ज्यादातर मौलाना, उलेमा और धार्मिक संगठन तीन बार बोल कर तलाक देने की प्रथा को जारी रखने के पक्ष में हैं तो दूसरी तरफ महिलाएं और उनके हितों के लिए काम करने वाले संगठन इस प्रथा को पक्षपातपूर्ण करार देते हुए इसके खात्मे के पक्ष में हैं.

पूर्व मुख्य सूचना आयुक्त वजाहतहबीबुल्लाह कहते हैं कि “मुस्लिम पर्सनल लॉ का आधार स्रेत मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत) एप्लिकेशन एक्ट, 1937 है  यानी एक उपनिवेशवादी कानून है जो 1857 के युद्ध के बाद मौलवियों को खुश करने और उन्हें ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ जाने से रोकने और मनाने के लिए बनाया गया था”.
क्रमशः 

तीन तलाक, समान नागरिक संहिता और मोदी सरकार: अंतिम किस्त

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जावेद अनीस
एक्टिविस्ट, रिसर्च स्कॉलर. प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े स्वतंत्र पत्रकार . संपर्क :javed4media@gmail.com
javed4media@gmail.com

  अंतिम क़िस्त 


● इस्लाम क्या कहता है 

इस्लाम में जायज़ कामों में तलाकको सबसे बुरा काम कहा गया है. कुरआन में कहा गया है कि जहां तक मुमकिन हो तलाक से बचो और यदि तलाक करना ही हो तो हर सूरत में न्यायपूर्ण ढंग से हो और तलाक में पत्नी के हित और उसके जीवनयापन के इंतजाम को ध्यान में रखा जाए.

जामिया मिलिया इस्लामिया में इस्लामीअध्ययन विभाग के प्रोफेसर जुनैद हारिस के अनुसार “हमारे देश में एक साथ तीन तलाक की जो व्यवस्था है और पर्सनल लॉ बोर्ड ने जिसे मान्यता दी है वो पूरी तरह कुरान और इस्लाम के मुताबिक नहीं है. तलाक की पूरी व्यवस्था को लोगों ने अपनी सहूलियत के मुताबिक बना दिया है. इसमें कुरान के मुताबिक संशोधन की सख्त जरूरत है”.

भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन की ज़किया सोमन कहती हैं कि “कुरआन के मुताबिक, शादी एक सामाजिक करार है. एक आदर्श करार में दोनों पक्षों की शर्तें दर्ज होनी चाहिए. निकाहनामा का यही महत्त्व है. अच्छे निकाहनामा में मैहर की रकम, शादी की शर्तें, बहुपत्नीत्व पर रोक की बात, तलाक का तरीका और शर्त इत्यादि दर्ज होनी चाहिए. लेकिन असल ज़िन्दगी में यह होता नहीं है”.


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● दुनिया में चलन

दरअसल एक झटके में तीन बार 'तलाक, तलाक, तलाक'बोल कर बीवी से छुटकारा हासिल करने का चलन दक्षिण एशिया और मध्य पूर्व एशिया में ही है और यहाँ भी ज्यादातर सुन्नी मुसलमानों के बीच ही इसकी वैधता है. मिस्र पहला देश था जिसने 1929 में तीन तलाक पर रोक लगा दिया था. आज ज्यादातर मुस्लिम देशों जिनमें पाकिस्तान और बांग्लादेश भी शामिल हैं ने अपने यहां सीधे-सीधे या अप्रत्यक्ष रूप से तीन बार तलाक की प्रथा खत्म कर दी है. जानकार श्रीलंका में तीन तलाक के मुद्दे पर बने कानून को आदर्श बताते हैं. तकरीबन 10 फीसदी मुस्लिम आबादी वाले श्रीलंका में शौहर को तलाक देने के लिए काजी को इसकी सूचना देनी होती है. इसके बाद अगले 30 दिन के भीतर काजी मियां-बीवी के बीच सुलह करवाने की कोशिश करता है. इस समयावधि के बाद अगर सुलह नहीं हो सके तो काजी और दो चश्मदीदों के सामने तलाक हो सकता है.

● संघ परिवार के घड़ियाली आंसू

हमारे देश में तीन तलाक के मुद्दे पर सभीराजनीतिक दल सुविधा की राजनीति कर रहे हैं और  इस मामले में उनका रुख अपना सियासी नफा-नुकसान देखकर ही तय होता है. वर्तमान में केंद्र में दक्षिणपंथी सरकार है जिसको लेकर अल्पसंख्यकों में आशंका की भावना व्यापत है और इसके किसी भी कदम को लेकर उनमें भरोसा नहीं है.

केन्द्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली ने अपने लेख में लिखा है कि "पर्सनल लॉ को संविधान के दायरे में होना चाहिए और ऐसे में 'एक साथ तीन बार तलाक बोलने'को समानता तथा सम्मान के साथ जीने के अधिकार के मानदंडों पर कसा जाना चाहिए”. वहीँ मुस्लिम पर्सनल बोर्ड के कार्यकारिणी सदस्य जफरयाब जिलानी के अनुसार इसके बहाने बीजेपी समान नागरिक संहिता लागू करना चाहती है जो कि उसके चुनावी घोषणापत्र में पहले से मौजूद है. वह कहते हैं कि "हमारा स्टैंड साफ है. इससे सरकार की असलियत खुल गई है कि वह पर्सनल लॉ में धीरे-धीरे घुसपैठ करना चाहती है."

प्रश्न यह भी है कि जिस समय मुस्लिममहिला पर्सनल लॉ बोर्ड और भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन जैसे संगठनों का तीन तलाक की रिवायत को खत्म करने का अभियान जोर पकड़ रहा था और इसका असर भी दिखाई पड़ने लगा था ऐसे में सरकार द्वारा विधि आयोग के माध्यम से सुनियोजित तरीके से समान नागरिक संहिता का शगूफा क्यों छोड़ा गया? इससे तीन तलाक का अभियान कमजोर हुआ है. सरकार के इस कदम पर मुस्लिम महिला संगठनों ने भी सवाल उठाये हैं.

सवाल यह भी है कि भाजपा और संघ परिवार अचानक मुस्लिम महिलाओं को उनका अधिकार दिलाने के लिए इतने आतुर क्यों दिखाई पड़ रहे हैं? जिनके दामन पर बाबरी मस्जिद ढहाने और गुजरात के दंगों का दाग हो उनमें अचानक मुस्लिम समाज में सुधार की इतनी सहानुभूति क्यों पैदा हो गयी है? कहीं यह महज घड़ियाली आंसू तो नहीं हैं जिसके निशाने पर मुस्लिम औरतों के अधिकार दिलाने के बहाने कुछ और हो.


इसका जवाब सितम्बर माह में केरलके कोझिकोड में आयोजित बीजेपी की राष्ट्रीय परिषद में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भाषण में है जिसमें उन्होंने भारतीय जनता पार्टी के संस्थापक पंडित दीनदयाल उपाध्याय को याद करते हुआ कहा था कि “दीनदयाल जी का कहना था कि मुसलमानों को न पुरस्कृत करो न ही तिरस्कृत करो बल्कि उनका परिष्कार किया जाए”. यहाँ  “परिष्कार” शब्द पर ध्यान देने की जरूरत है जिसका मतलब होता है “ प्यूरीफाई ” यानी शुद्ध करना. हिंदुत्ववादी खेमे में “परिष्कार” शब्द का विशेष अर्थ है जिसे समझना जरूरी है दरअसल हिंदुत्व के सिद्धांतकार विनायक दामोदर सावरकर  मानते थे कि ‘चूकिं इस्लाम और ईसाईयत का जन्म भारत की धरती पर नहीं हुआ था इसलिए मुसलमान और ईसाइयों की भारत पितृभूमि नहीं हैं, उनके धर्म, संस्कृति और पुराणशास्त्र भी विदेशी हैं इसलिए इनका राष्ट्रीयकरण (शुद्धिकरण) करना जरुरी है.पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने “परिष्कार” शब्द का विचार सावरकर से लिया था जिसका नरेंद्र मोदी उल्लेख कर रहे थे. पिछले दिनों संघ परिवार द्वारा चलाया “घर वापसी अभियान” खासा चर्चित हुआ था. संघ परिवार और भाजपा का मुस्लिम महिलाओं की स्थिति को लेकर चिंता, समान नागरिक संहिता का राग इसी सन्दर्भ में समझा जाना चाहिए.

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● क्या किया जाना चाहिए 

हर बार जब मुस्लिम समाज के अन्दर सेसुधार की मांग उठती है तो शरिया का हवाला देकर इसे दबाने की कोशिश की जाती है. इस मामले में मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड जैसे संगठन किसी संवाद और बहस के लिए भी तैयार नहीं होते हैं. इसलिए सबसे पहले तो जरूरी है कि तीन तलाक और अन्य कुरीतियों को लेकर समाज में स्वस्थ्य और खुली बहस चले और अन्दर से उठाये गये सवालों को दबाया ना जाए .

इसी तरह से अगर समाज की महिलायेंपूछ रही हैं कि चार शादी  शादी के तरीकों, बेटियों को  जायदाद में उनका वाजिब हिस्सा देने जैसे मामलों में कुरआन और शरियत का पालन क्यों नहीं किया जा रहा है, तो इन सवालों को सुना जाना चाहिए और अपने अंदर से ही इसका हल निकालने की कोशिश की जानी चाहिय.

मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड जैसे संघटनों को संघ परिवार की राजनीति भी समझनी चाहिए जो चाहते ही है कि आप इसी तरह प्रतिक्रिया दें ताकी माहौल बनाया जा सके .इसलिए बोर्ड को चाहिए की वे आक्रोश दिखाने के बजाये सुधारों के बारे में गंभीरता से सोचे और ऐसा कोई मौका ना दे जिससे संघ परिवार अपनी राजनीति में कामयाब हो सके. मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड को  दूसरे मुस्लिम देशों में हुए सुधारों का अध्ययन करने की भी जरूरत है .

सुधार की एक छोटी से शुरुआत भोपालसे देखने को मिली है जहाँ साल 2010 से ही दारुल क़ज़ा (शरियत कोर्ट) ने तीन तलाक पर अर्जी लेना बंद कर दिया है. (हालांकि तीन तलाक पर आधिकारिक रूप से प्रतिबंध नहीं लगाया गया है) पिछले दिनों इस बारे में भोपाल शहर काजी सैयद मुस्ताक अली नदवी ने एक आखबार तो बताया था कि “शरिया कानून कुछ दुर्लभ मामलों को छोड़ कर एकतरफा तलाक की इजाजत नहीं देता है इसलिए यह बेहतर है कि इस प्रथा के चलन को हतोत्साहित किया जाये”. इसी तरह से सितम्बर माह में ऑल इंडिया शिया पर्सनल लॉ बोर्ड ने भी अपना मार्डन निकाहनामा पेश किया है. उम्मीद है सुधार का यह सिलसिला आगे बढ़ेगा.
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● ऑल इंडिया शिया पर्सनल लॉ बोर्ड का “सनद-ए-निकाह” (मॉडर्न निकाहनामा)  

सितम्बर 2016 में ऑल इंडिया शिया पर्सनल लॉ बोर्ड ने अपना ‘सनद-ए-निकाह’(मॉडर्न निकाहनामा) पेश किया है. इस निकाहनामे में पति द्वारा तीन बार तलाक कहकर रिश्ता तोड़ने को गैर इस्लामिक बताया गया है और दो विशेष परिस्थितियों में महिलाओं को भी तलाक का अधिकार दिया गया है।

निकाहनामे की प्रमुख बातें 

▪ तीन बार बोलकर तलाक की प्रथा खत्म हो.
▪ पुरुष के अकेले के चाहने से तलाक नहीं दिया जा सकेगा.
▪ एक बैठक में भी तलाक नहीं होगा.
▪ पति-पत्नी आपस में बात करें,बात न बने तो दोनों के परिवार साथ बैठकर बात करेंगे.
▪ यह कुछ दिनों के अंतराल पर होगा ताकि किसी पक्ष में गुस्सा है तो उसे शांत करने का समय मिलेगा.
▪ पति-पत्नी फिर से बातचीत करेंगे, जिसमें अंतिम निर्णय लिया जाएगा.


दो स्थितियों में पत्नी को तलाक का हक दिया गया है .

▪ अगर पति बार-बार गायब होताहै और जीने के लिए जरूरी सुविधाएं नहीं देता है ऐसा चार साल तक चले तो पत्नी तलाक दे सकती है.

अगर पति ताकत का उपयोग कर पत्नी को शारीरिक नुकसान पहुंचाता है, उसे अपाहिज करने का खतरा पैदा करता है, अपने दोस्तों के साथ संबंध बनाने के लिए कहता है, तो दोनों स्थितियों में पत्नी अपने पति को तलाक दे सकती है.



सामाजिक परिवर्तन के अगुआ शाहूजी महाराज

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ललिता धारा
आम्बेडकर कालेज आॅफ कामर्स एण्ड इकानामिक्स, पुणे के गणित व सांख्यिकी विभाग की अध्यक्ष और संस्थान की उपप्राचार्या. ‘फुलेज एण्ड वीमेन्स क्वश्चन (2011) का सम्पादन । संपर्क : lali.dhara@gmail.com . 

शाहू जी महाराज पर किनके और कौनसे प्रभाव थे? जब उन्होंने सत्ता संभाली, तब ज़मीनी हालात कैसे थे? उनके सुधारों के पीछे कौन सी प्रेरक शक्तियां थीं? तत्कालीन परिस्थितियों के कारण उन पर किस तरह की सीमाएं थीं? यहां हम कोल्हापुर के क्रांतिकारी शासक शाहू को समझने का विनम्र प्रयास कर रहे हैं.

सन 1884 में जब शाहू को विधिवत गोद लेकर गद्दी का उत्तराधिकारी घोषित किया गया, तब वे केवल दस वर्ष के थे. उनका राजतिलक 1894 में हुआ. जब उनकी आयु 20 वर्ष की थी. इन दस वर्षों में उनकी शिक्षा-दीक्षा एक सहृदय, न्यायप्रिय और उदारवादी अंग्रेज़ स्टुअर्ट फ्रेजर की देखभाल में हुई. राजनीतिशास्त्र, अर्थशास्त्र, विज्ञान और भाषाओं के अतिरिक्त, शाहू को जो किताबें पढ़वाई गईं उनमें से एक थी महात्मा फुले के मित्र और विश्वासपात्र मामा परमानंद की पुस्तक ‘लैटर्स टू एन इंडियन राजा’. इस पुस्तक में प्रकाशित पत्रों में शिवाजी को किसानों का नेता और अकबर को एक न्यायप्रिय शासक बताया गया था. ऐसा माना जाता है कि इस पुस्तक का युवा शाहू पर गहरा प्रभाव पड़ा. उन्हें तीन बार पूरे देश के भ्रमण पर भी ले जाया गया. कोल्हापुर के होने वाले राजा ने अपने राज्य का भी विस्तृत दौरा किया. इन यात्राओं के दौरान उन्होंने किसानों, चरवाहों और अन्य सामान्य लोगों के साथ चर्चाएं कीं. स्वभाव से ही संवेदनशील और दयालु होने के कारण, शाहू पर आमजनों की घोर गरीबी, उनके जातिगत दमन और शोषण का गहरा प्रभाव पड़ा. इन यात्राओं ने उन्हें आम लोगों की वंचना से परिचित करवाया और उनकी सोच के क्षितिज को विस्तार दिया.

19वीं सदी के महाराष्ट्र में आर्थिक, सामाजिकऔर सांस्कृतिक क्षेत्र में ब्राह्मणों का वर्चस्व था. केवल वे ही उस आधुनिक पश्चिमी शिक्षा व्यवस्था और प्रशासनिक ढांचे से लाभ उठाने में सक्षम थे, जिन्हें अंग्रेज़ उस इलाके में शनैः-शनैः स्थापित कर रहे थे. प्रशासन और शिक्षा व्यवस्था पर ब्राह्मणों का कब्ज़ा था और वे अन्य सभी को इनसे बाहर रखते थे. कुटिल ब्राह्मण अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए ऐसा दिखाते थे कि मानो समाज केवल दो हिस्सों में बंटा है-ऊँची जाति के ब्राह्मण और नीची जाति के शूद्र. जाति के पिरामिड के शीर्ष पर से एक के बाद एक जातियां नीची ढकेली जा रही थीं. इनमें क्षत्रिय वर्ण शामिल था. शाहू क्षत्रिय थे और जातिगत पदक्रम में यह वर्ण, ब्राह्मणों के ठीक नीचे था.

जब शाहू ने 1894 में कोल्हापुर की सत्ता संभाली तब उन्होंने पाया कि उनके प्रशासन पर ब्राह्मणों का एकाधिकार है. उन्हें यह महसूस हुआ कि यह एकाधिकार, ब्रिटिश राज से भी ज्यादा खतरनाक है. उस समय तक महात्मा फुले और सावित्री बाई फुले द्वारा स्थापित सत्यशोधक समाज की गतिविधियां और प्रभाव बहुत क्षीण हो गए थे. ब्राह्मणों के वर्चस्व को चुनौती देने वाला कोई ज़मीनी आंदोलन नहीं था. शाहू की शक्तियां भी सीमित थीं. वे एक तरह से अंग्रेज़ों के अधीन जागीरदार थे. वे अंग्रेज़ों को नाराज़ नहीं कर सकते थे,  क्योंकि ऐसा होने पर यह खतरा था कि अंग्रेज़ उनके राज्य को ब्रिटिश साम्राज्य का हिस्सा बना लेते. उन्हें काम करने की पूरी स्वतंत्रता नहीं थी.

राजकाज संभालने के कुछ ही दिनोंबाद उनका ब्राह्मणों से ‘वेदोक्त’ मुद्दे पर टकराव हो गया. सन 1889 में जब वे स्नान कर रहे थे तब उन्हें पता चला कि ब्राह्मण राजपुरोहित, जिसका यह कर्तव्य था कि वह राजा के लिए वैदिक कर्मकांड करे, उन्हें धोखा दे रहा था और वैसे कर्मकांड कर रहा था, जिन्हें पूर्णोक्त कहा जाता है और जो शूद्रों के लिए होते हैं. इससे शाहू बहुत क्रोधित हो गए और उन्होंने ब्राह्मणों के जातिगत अहंकार के विरूद्ध मोर्चा खोल दिया. यहीं से उनकी वह लंबी यात्रा शुरू हुई, जिसके दौरान उन्होंने दूरगामी सामाजिक और कानूनी सुधार किए, जिनसे ब्राह्मणों का पारंपरिक वर्चस्व समाप्त हो सके और पिछड़े वर्गों के लोग उच्च पदों पर आसीन हो सकें.


इस घटना के तुरंत बाद उन्होंने अपना क्रांतिकारी घोषणापत्र जारी किया, जिसके अंतर्गत शासकीय नौकरियों में दमित वर्गों के लिए 50 प्रतिशत आरक्षण दिया गया. प्रारंभ में वे भले ही अपने व्यक्तिगत जातिगत अपमान से प्रेरित रहे हों, परंतु बाद में वे जाति के कारण दमन और शोषण का शिकार हो रहे सभी लोगों के प्रति संवेदनशील बन गए. इन वर्गों के प्रति उनके मन में गहरी संवेदना और सहानुभूति थी. परंतु उन्होंने केवल इन वर्गों के प्रति सहानुभूतिपूर्ण रूख अपनाने तक स्वयं को सीमित नहीं रखा. उन्होंने कई ऐसे मौलिक कानून बनाए जिससे पदक्रम-आधारित जातिगत ढांचा उलट सके और ब्राह्मणों को उनकी उच्च स्थिति से अपदस्थ किया जा सके. इस तरह उन्होंने इतिहास रचा और स्वयं को देश का एक अनूठा शासक सिद्ध किया.

फुले से समानताएं और विभिन्नताएं

शाहूजी ने जो कुछ किया, उस पर फुले की छाप स्पष्ट दिखलाई देती है. फुले ने ब्राह्मणवादी, पितृसत्तात्मक जाति व्यवस्था की कड़ी आलोचना की थी, जो महिलाओं, शूद्रों और अतिशूद्रों को गुलाम और अज्ञानी बनाए रखना चाहती थी. फुले ने इन वर्गों का आह्वान किया कि वे ब्राह्मण शेठजी/भट्टजी - पुरोहित, सामंत और साहूकार - के गठबंधन की चालबाज़ियों का विरोध करें. इसके लिए सबसे पहले ज़रूरी था कि दमित वर्गों को शिक्षित किया जाए. फुले को आशा थी कि शिक्षा और एकजुटता के सहारे दमित वर्ग ब्राह्मणवादी जाति व्यवस्था के ढांचे का ध्वंस कर सकेंगे.

शाहू ने फुले के शिक्षा के एजेंडे कोआगे बढ़ाते हुए प्राथमिक शिक्षा का सार्वभौमिकरण करने का प्रयास किया. उन्होंने अछूत प्रथा को उखाड़ फेंकने की कोशिश भी की और ब्राह्मण पुरोहितों के चंगुल से अपने प्रजाजनों को मुक्त कराने की दिशा में कदम उठाए. उन्होंने ब्राह्मण नौकरशाही की रीढ़ तोड़ने का प्रयास भी किया. परंतु जैसा कि पहले बताया जा चुका है, वे अंग्रेज़ों के अधीन थे और पूरी तरह से स्वतंत्रतापूर्वक काम नहीं कर सकते थे. अंग्रेज़ उन पर कड़ी नज़र रखते थे. इसके अतिरिक्त, उनकी प्रशासनिक मशीनरी, जिस पर ब्राह्मणों का नियंत्रण था, भी उनके रास्ते में रोड़े अटकाती थी. अपने शासनकाल के अंत तक उन्होंने अपने क्रांतिकारी विचारों और कार्यों के चलते ब्राह्मणों को इतना अधिक नाराज़ कर लिया था कि वे उन पर कई तरह के बेबुनियाद आरोप लगाने लगे थे. इस हमले से मुकाबला करने के लिए उन्हें विदेशी शासकों से हाथ मिलाना पड़ा. उन्होंने यह घोषित किया कि उनका सत्यशोधक समाज से कोई लेनादेना नहीं है और यह भी कि वे आर्य समाज के समर्थक हैं. आर्य समाज, जो जातिगत भेदभाव को तो खारिज करता था परंतु वेदों की पवित्रता में विश्वास रखता था, अंग्रेज़ों को आमूल परिवर्तनवादी सत्यशोधक समाज से अधिक स्वीकार्य था.


शाहू न केवल राजा थे वरन जातिगतपदक्रम में भी वे फुले से काफी ऊपर थे. फुले, मूलतः किसान थे और शूद्र भी. शाहू, फुले की तरह क्रांतिकारी नहीं बन सकते थे. फुले, ब्राह्मणवादी जाति व्यवस्था के पूर्ण ध्वंस और पुरोहितों की भक्त व उसके भगवान के बीच मध्यस्थता की समाप्ति के हामी थे. शाहू ने केवल ब्राह्मण पुरोहितों को क्षत्रिय पुरोहितों से प्रतिस्थापित किया. शासक होने के कारण भी उनकी सोच फुले से भिन्न थी. वे ब्राह्मणवाद को खारिज तो करते थे परंतु न केवल स्वयं बल्कि अपने क्षत्रिय/मराठा समुदाय के लिए ब्राह्मणों का दर्जा भी चाहते थे. इन विरोधाभासों ने आमजनों की मुक्ति के उनके आंदोलन को कमज़ोर किया.

इन सीमाओं और बाधाओं के बावजूदउन्होंने जातिगत भेदभाव मिटाने, अछूत प्रथा को समाप्त करने और आमजनों को शिक्षित करने के लिए जो कदम उठाए, उनका इतना गहरा प्रभाव पड़ा जितनी शाहू ने स्वयं भी कल्पना नहीं की होगी. उन्होंने पददलितों को जागृत कर दिया और उनके मन में एक समतावादी समाज का हिस्सा बनने की महत्वाकांक्षा पैदा कर दी. उन्होंने दमितों का पूर्ण समर्थन किया परंतु वे अपने वर्गीय/जातिगत हितों के संरक्षण के प्रति भी सजग थे. सौभाग्यवश, ये दोनों उद्देश्य एक दूसरे के पूरक थे. अंततः उन्होंने जिन सामाजिक शक्तियों को खड़ा किया, उनका प्रभाव उनके राज्य के बाहर भी पड़ा.

आंबेडकरः शाहू की विरासत और उससे आगे 

शाहू, डा. आंबेडकर के अनन्य प्रशंसक थे और दमित वर्गों के नेता के रूप में उन्हें मान्यता देते थे. आंबेडकर भी शाहू पर श्रद्धा रखते थे और उन्हें आमजनों और उनके हितों का संरक्षक और हिमायती मानते थे. बाबासाहेब, शाहू की ‘सकारात्मक भेदभाव’ की नीतियों और कार्यक्रमों से बहुत प्रभावित थे. जब आंबेडकर स्वतंत्रता के बाद देश के विधिमंत्री बने, तब उन्होंने शाहू के सामाजिक-कानूनी सुधारों को आगे बढ़ाया. इनमें शामिल था वंचित वर्गों के लिए आरक्षण और हिन्दू विधि को संहिताबद्ध कर पूरे देश पर लागू करने का प्रयास. परंतु दोनों के बीच महत्वपूर्ण अंतर भी थे. जहां शाहू एक क्षत्रिय राजा थे वहीं आंबेडकर एक अछूत थे. इसलिए आश्चर्य नहीं कि शाहू की तुलना में आंबेडकर  जाति के उन्मूलन के एजेंडे के प्रति अधिक प्रतिबद्ध थे.

आंबेडकर की जाति की विवेचना और समझ, अद्वितीय और मौलिक थी. आंबेडकर जाति प्रथा को एक ऐसे श्रेणीबद्ध पदक्रम के रूप में देखते थे जिसमें जातियां श्रद्धा के बढ़ते हुए और तिरस्कार के घटते हुए क्रम में जमी हुई थीं. इस कारण इस बात की आशा कम ही थी कि विभिन्न दमित जातियां एक होकर व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष करंेगी. इस मामले में वे फुले से भिन्न मत रखते थे. फुले की मान्यता थी कि स्त्रियां, शूद्र और अतिशूद्र एकजूट हो ब्राह्मणवाद के खिलाफ संघर्ष कर सकते हैं. आंबेडकर का मानना था कि ऐसा होने की कोई संभावना नहीं है और इसलिए उन्होंने हिन्दू धर्म को छोड़कर समतावादी बौद्ध धर्म को अंगीकार किया और अपने समर्थकों को भी ऐसा ही करने की प्रेरणा दी.



फुले, शाहू और आंबेडकर में कई समानताएं थीं. तीनों ने अंग्रेज़ी शिक्षा ग्रहण की थी और उन पर उदारवादी, पश्चिमी चिंतकों का प्रभाव था. फुले, थाॅमस पेन की पुस्तक ‘राईट्स आफ मेन’ से बहुत प्रभावित थे. आंबेडकर, जानेमाने बुद्धिजीवी, मानवतावादी और कोलंबिया विश्वविद्यालय में उनके प्रोफेसर जान डेवी के उत्कट अनुयायी थे. शाहू, अपने गुरू फ्रेज़र से बहुत प्रेम और सम्मान करते थे. वे अमरीकी मिशनरियों के भी प्रशंसक थे, विशेषकर डा. वानलेस व डा. वेलके के, जिनकी सोच समतावादी थी और जो दबे-कुचले वर्गों के बीच काम करते थे. तीनों ने ब्राह्मणों के हाथों अपमान भोगा था और तीनों ही इतने परिपक्व थे कि वे यह समझ सकें कि उनके व्यक्तिगत जख्मों का कारण जाति व्यवस्था थी. तीनों ने अपने व्यक्तिगत अनुभव से ऊपर उठकर सभी के लिए संघर्ष किया. तीनों यह मानते थे कि शिक्षा, दमित वर्गों की मुक्ति की कुंजी  है. तीनों ने अपनी सोच को अलग-अलग शब्दों में व्यक्त किया. फुले के शब्दों में शिक्षा लोगों के लिए ‘तृतीय रत्न’ का द्वार खोलेगी और वे यह समझ सकेंगे कि उनका शोषण हो रहा है और उसके विरूद्ध संघर्ष कर सकेंगे. शाहू ने अपनी जनता को ज्ञान प्राप्त करने, एकजुट होने और अपने अधिकारों के लिए लड़ने के लिए प्रोत्साहित किया. आंबेडकर ने शिक्षा, आंदोलन और संगठन पर ज़ोर दिया.

शाहू के कानूनी सुधारों की विरासत

तीनों के बीच समानताओं के बावजूद, दुनिया को देखने की उनकी दृष्टि अलग-अलग थी क्योंकि वे जाति की सीढ़ी के अलग-अलग पायदानों पर खड़े थे. तीनों में से शाहू की स्थिति सबसे अलग थी. वे न केवल एक उच्च जाति से थे वरन राजा भी थे. वेदोक्त मुद्दा, शाहू के लिए प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गया और इसे उन्होंने अपने वर्ण (क्षत्रियों) की ओर से ब्राह्मणों के खिलाफ युद्ध में परिवर्तित कर दिया. परंतु उन्होंने अपनी इस लड़ाई में जातिगत पदक्रम में अपने से नीचे के वर्गों को भी शामिल किया और एक सच्चे समावेशी समाज का निर्माण करने की कोशिश की. उन्होंने इसके लिए एक अनूठा तरीका अपनाया. उन्होंने जातिगत पदक्रम के दोनों छोरों पर प्रहार किए. एक ओर उन्होंने शासन में ब्राह्मणों के वर्चस्व को कम करने का प्रयास किया तो दूसरी ओर दमित वर्गों को शिक्षा प्राप्त करने और आगे बढ़ने के अधिकाधिक अवसर उपलब्ध करवाए. मध्यम जातियों के मामले में उनकी रणनीति अलग थी. उन्होंने इन जातियों को इस बात के लिए प्रेरित किया कि वे अपने विश्वस्त नेताओं के नेतृत्व में अपना विकास करें. उन्होंने विभिन्न जातियों के लिए अलग-अलग होस्टल खोले. उन्होंने विभिन्न जातियों के लोगों को एक साथ खाने-पीने और आपस में विवाह करने के लिए प्रोत्साहित किया. इन सब कारणों से उन्हें महाराष्ट्र के सामाजिक इतिहास में एक अद्वितीय स्थान प्राप्त हुआ. उन्हें राजश्री की उपाधि से नवाज़ा गया और ‘‘सामाजिक प्रजातंत्र का स्तम्भ’’ निरूपित किया गया. वे महाराष्ट्र के गैर-ब्राह्मण आंदोलन की एक महत्वपूर्ण कड़ी थे. इस आंदोलन ने आगे चलकर महाराष्ट्र के सामाजिक जीवन पर गहरा प्रभाव डाला. उनके अप्रितम और अभूतपूर्व योगदानों में शामिल हैं तीन नए कानून. पहला, पिछड़े वर्गों के लिए पचास प्रतिशत आरक्षण, दूसरा, प्राथमिक शिक्षा का सार्वभौमिकरण और तीसरा, महिलाओं के साथ क्रूरता का प्रतिषेध. ये तीनों ही कदम स्वतंत्र भारत में आरक्षण, शिक्षा का अधिकार अधिनियम और घरेलू हिंसा प्रतिषेध अधिनियम के रूप में हमारे सामने है.

फुले, शाहू, आंबेडकरः लैंगिक क्रांतिकारी

लैंगिक मुद्दों पर भी इन तीनों सामाजिक क्रांतिकारियों में कई समानताएं थीं और तीनों ने लैंगिक न्याय के लिए काम किया. फुले, शाहू और आंबेडकर को यह सहजबोध था कि जाति और पितृसत्तात्मकता के बीच अपवित्र गठबंधन है और वे एक-दूसरे को मज़बूती देती है. यह कहना मुश्किल है कि कहां जाति का अंत होता है और पितृसत्तात्मकता शुरू होती है. उनका यह भी मानना था कि ब्राह्मणवादी, पितृसत्तात्मक जाति पदक्रम महिलाओं और ‘नीची जातियों’ को हमेशा अपने अधीन रखना चाहता है ताकि उसकी सत्ता बनी रहे. इसलिए तीनों ने इन दोनों वर्गों पर अपना ध्यान केन्द्रित किया. फुले ने दमनकारी व्यवस्था को उखाड़ फेंकने के लिए स्त्रियों, शूद्रों और अतिशूद्रों की एकता की वकालत की. उनके अनुसार इन वर्गों के पास खोने के लिए फकत पांव की जंज़ीरें ही थीं. तीनों समाज सुधारकों ने इन वर्गों की भरसक सहायता करने की कोशिश की और व्यवस्था को उखाड़ फेकने के साथ-साथ उसमें इन वर्गों की स्थिति को बेहतर बनाने का प्रयास भी किया.


फुले ने महिलाओं के लिए स्कूल खोले, विधवा आश्रम स्थापित किया और विधवाओं के पुनर्विवाह करवाए. शाहू ने देवदासी प्रथा और घरेलू हिंसा के खिलाफ कड़े कानून बनाए और अंतर्जातीय व अंतर्धामिक विवाहों और विधवा पुनर्विवाह को कानूनी मान्यता दी. वे इस तथ्य से वाकिफ थे कि किस तरह महिलाओं को परोक्ष ढंग से प्रताड़ित किया जाता है. उन्होंने एक आदेश जारी कर होली के त्योहार पर नशे में महिलाओं के साथ किसी भी प्रकार के दुर्व्यवहार अथवा छींटाकसी को प्रतिबंधित किया. उन्होंने महिलाओं की वयस्कता की आयु को पुरूषों की तरह 18 वर्ष घोषित किया. आंबेडकर ने संविधान के ज़रिए महिलाओं को समान दर्जा दिया. उन्होंने महिला श्रमिकों के लिए सवैतनिक मातृत्व अवकाश की व्यवस्था करवाई और इस बात पर ज़ोर दिया कि महिलाओं को यह निर्णय करने का अधिकार होना चाहिए कि वे कब और कितने बच्चे पैदा करें. आंबेडकर सामाजिक उत्पादन में महिलाओं की भूमिका को समझते थे. उन्होंने यह कोशिश भी की कि महिलाओं को उत्तराधिकार में संपत्ति प्राप्त करने का पुरूषों के बराबर अधिकार मिल सके

शाहू, फुले और आंबेडकर के बीच की महत्वपूर्ण कड़ी थे. आंबेडकर और फुले 19वीं व 20वीं सदी के पूर्वार्ध में महाराष्ट्र में उभरे महिला मुक्ति आंदोलन के अगुवा थे. शाहू ने जो मशाल फुले से ली थी, वह उन्होंने आंबेडकर को सौंपी. यह उनका ऐतिहासिक, क्रांतिकारी और लैंगिक न्याय को आगे बढ़ाने वाला योगदान था.

साभार :फारवर्ड प्रेस 

क्रांति के अग्रदूत का जाना: लाल सलाम कामरेड

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गुंजन सिंह
शोधार्थी,मानवविज्ञान विभाग, हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा . संपर्क :gunjansingh070@gmail.com

हमारे समय के सर्वाधिक लोकप्रियक्रांतिकारी नायक फिदेल कास्त्रो का निधन पूरी मानवता के लिए एक बहुत बड़ी क्षति है. उन्हें क्यूबा में समाजवादी क्रांति का जनक माना जाता है. बीसवीं शताब्दी का इतिहास जब मेहनतकश आवाम के नज़रिए से लिखा जाएगा तो उसमें सबसे ऊपर के पायदान में फिदेल का नाम होगा. जब पूरी दुनिया में अमेरिकी साम्राज्यवाद अपने सबसे बर्बर स्वरुप में दिखाई दे रहा था, उस समय भी इस बर्बरता को चुनौती देने का काम फिदेल के नेतृत्व में क्यूबा जैसे छोटे से देश की तरफ से हो रहा था. फिदेल ने समाजवाद का एक ऐसा विकल्प पूरी दुनिया के सामने रखा, जहाँ नस्ल, लैंगिक व वर्गीय आधार पर होने वाले शोषण के बरखिलाफ राजसत्ता पूरी इमानदारी के साथ खड़ी हुई. आधुनिक स्वास्थ्य सेवांए, शिक्षा के क्षेत्र में क्यूबा ने जो उपलब्धियां हासिल कीं वह दुनिया के सबसे विकसित पूंजीवादी देशों में भी मेहनतकश अवाम को मयस्सर नहीं थीं.

पूरी दुनिया में लैटिन अमेरिका काछोटा सा देश क्यूबा फिदेल कास्त्रो की अगुवाई में साम्राज्यवाद और पूंजीवाद के खिलाफ लड़ाई लड़ता रहा है. हालांकि क्यूबा में भी साम्राज्यवादी संक्रमण की समस्याएँ पूरी तरह से हल नहीं हो पायी हैं. फिदेल कास्त्रो ने न केवल साम्राज्यवाद और पूंजीवाद के खिलाफ लड़ाई जारी रखी बल्कि समाजवादी देशो की मदद के लिए हर संभव प्रयास किये. दक्षिण अफ्रीका के अंगोला, इथियोपिया, निकारागुआ, वेनेजुएला सहित अन्य देशो में मदद के लिए सेना भेजना, आर्थिक दान, डॉक्टरो की टीम भेजना आदि के माध्यम से लगातार इन देशों के जनांदोलनों को अपना समर्थन दिया.

फिदेल एलोजेंद्रो कास्त्रो रूज काजन्म 13 अगस्त 1926 में हुआ था. हवाना विश्वविद्यालय से उन्होंने कानून में डिग्री प्राप्त की और इसी समय राजनीति में सक्रिय हुए. फिदेल ने इसी दौरान एक रईस परिवार की लड़की मीरटा डायज ब्लार्ट से शादी कर ली. शादी के बाद ऐसा सोचा गया कि अब फिदेल पूरी तरह से ऐशो आराम का जीवन व्यतीत करेंगे लेकिन शादी के बाद से ही वह पूरी तरह से सशस्त्र  क्रांति का हिस्सा बन चुके थे. फिदेल कास्त्रो यह अच्छी तरह से समझ चुके थे कि क्यूबा में बिना हथियार के क्रांति संभव नहीं है. उनमें गजब का साहस और आत्मविश्वास था. उनका कहना था कि “क्रांति कोई गुलाबों का बिस्तर नहीं होती, यह भूत और भविष्य के बीच संघर्ष है.” क्यूबा में बतिस्ता सरकार पर असफल हमले के कारण उन्हें जेल जाना पड़ा परन्तु राजनीतिक दबाव के चलते बतिस्ता सरकार को उन्हें छोड़ना पड़ा. इसी दौरान उन्होंने मीरटा डायज ब्लार्ट को तलाक दे दिया और डालिया सोटो डेल वाल्वे से शादी की. 1955 में जेल से छुटने के बाद वो मेक्सिको चले गए, जहाँ उनकी मुलाकात एर्नेस्तो चे ग्वेरा से हुई. चे ग्वेरा गुरिल्ला युद्ध प्रणाली के समर्थक थे. मेक्सिको में ही क्यूबा के तख्ता पलट की योजनाये बनी. फिदेल कास्त्रो को देश के अंदर जबरदस्त जनसमर्थन प्राप्त था, जिसके चलते उनका आत्मविश्वास बढ़ता ही रहा. उनका मानना था कि अगर नैतिक शक्ति क्रांति में है तो भौतिक शक्ति जनता में है. जनता के समर्थन के आधार पर ही उन्होंने कहा था कि “मैंने 82 लोगो के साथ क्रांति की शुरुआत की. मैं यही काम 10 या 15 लोगो के साथ फिर कर सकता हूँ, वो भी पूरे भरोसे के साथ, अगर आपको खुद में भरोसा है और एक पुख्ता योजना है, तो यह बिलकुल मायने नहीं रखता की आप कितने छोटे है.”  फिदेल ने मात्र 32 वर्ष की उम्र में फुल्गेंकियों बतिस्ता की तानाशाह सरकार का तख्ता पलट चे ग्वेरा और अन्य साथियों के साथ मिलकर किया और 1959 से 1976 तक क्यूबा के प्रधानमंत्री और फिर 2008 तक राष्ट्रपति रहे.



फिदेल कास्त्रो अमेरिकी साम्राज्यवादीनीतियों के घोर विरोधी रहे थे. जिसके चलते अमेरिका ने क्यूबा में तमाम आर्थिक प्रतिबन्ध लगा दिये थे. लेकिन फिदेल इन सबके बाद भी इन नीतियों के सामने नहीं झुके और उनके लगातार आरम्भिक समाजवादी प्रयोगों ने जनता को सदियों की दासता से मुक्ति दिलायी और लोगो का जीवन स्तर कई गुना ऊपर उठा दिया. बेहद गरीबी और कठोर अमेरिकी प्रतिबंधों का सामना करते हुए भी क्यूबा में शिक्षा और स्वास्थ्य को सभी के लिए मुफ्त उपलब्ध करा दिया गया. क्यूबा में अमेरिकी सम्पति और कारोबार का भी राष्ट्रीयकरण कर दिया गया. कृषि में भी शानदार प्रयोग किये गए. 1980 में क्यूबा में एक ‘पेट प्रोजेक्ट’ शुरू किया गया. यह प्रोजेक्ट अदभुत रूप से सफल रहा जिसमें ‘उब्रे ब्लैका’ नस्ल की गाय एक दिन में 110 लीटर दूध देने लगी. यह रिकार्ड गिनीज बुक में भी दर्ज हुआ. 1962 में विश्व दो स्पष्टः दो भागो में बंट चुका था. अमेरिका और रूस के बीच शीत युद्ध चल रहा था. फिदेल कास्त्रो अमेरिका के लिए एक बड़ी चुनौती थे, उन्होंने अमेरिकी हमले के खिलाफ रूस की तरफ से क्यूबा में मिसाइल तैनात कर सबको सकते में डाल दिया था. सीआईए ने फिदेल कास्त्रो को मारने के लगभग 638 प्रयास किये थे ,जिसे ‘368 वेस टू कील कास्त्रो’ नामक डॉक्यूमेंट्री में भी दिखाया गया था. अपने अडिग निर्णयों के कारण ही उन पर तानाशाह होने के आरोप भी लगते रहे हैं. फिदेल कास्त्रो के शासनकाल में ही क्यूबा एकल पार्टी समाजवादी राज्य बना. अपने पूरे कार्यकाल के दौरान इस क्रांति दूत ने लाल झंडा हमेशा ऊँचा रखा.

फिदेल कास्त्रो ने एक और रिकार्ड भाषणदे कर बनाया था. 29 सितम्बर 1960 में उन्होंने यूएन में 4 घंटे 29 मिनट का भाषण दिया था. इसके अलावा 1986 में हवाना में उनका 7 घंटे 10 मिनट का सबसे लम्बा भाषण कम्युनिस्ट पार्टी की कांग्रेस में दिया गया था. ऐसा कहा जाता था कि फिदेल का भाषण सुनने के लिए लोग चटाई और टिफिन लेकर जाते थे.

फिदेल कास्त्रो की सार्वजनिक छवि सैनिको वाली रही है, वह हमेशा ही वर्दी में नजर आते थे. एकाध बार और बाद के वर्षों में वो कभी-कभी सूट में भी नजर आने लगे थे. उन्हें उनके उपनाम ‘एल काबल्लो’ से भी पुकारा जाता था, जिसका अर्थ ‘हार्स’ यानि घोडा था. हर्बर्ट मैथ्यूज द्वारा न्यूयार्क टाइम्स के लिए फिदेल का इंटरव्यू और सैनिक वर्दी में सिगार, बिगड़ी हुई दाढ़ी और टोपी वाली फोटो छापी गई थी. फिदेल कास्त्रो की यह रोमंटिक फोटो ही उनकी आकर्षक पहचान भी बनी.



फिदेल कास्त्रो समाजवाद का सपनालिए क्रांति की राह पर आगे बढ़े और उसे लागू करने का सफल प्रयास किया. उनकी इस लड़ाई से पूरी दुनिया के समाजवादी आन्दोलन प्रेरित होते रहे हैं और उन्हें अपना आदर्श मानते रहे है. फिदेल कास्त्रो के चले जाने के बाद जो निराशा और दुःख का बादल फट पड़ा है, उसे आगे की उमीदों और समाजवाद के सपने में खुद की भूमिका की सक्रियता से हटाना होगा. कामरेड फिदेल कास्त्रो को लाल सलाम..............!

यह जनता है

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फिदेल कास्त्रो

जब हम जनता की बात करते हैं तो हमारा मतलब उन आरामतलब रईसों और देश के दकियानूस तत्वों से हरगिज नहीं होता जो किसी भी जालिम सरकार, किसी भी तानाशाही निरंकुशता का स्वागत करने व हाकिमे-वक्त के सामने नाक रगड़ने के लिए तत्पर रहते हैं जब तक कि वह अपने माथे को रगड़-रगड़कर चूर नहीं कर लेते. जब हम संघर्ष की बात करते हैं तो जनता से हमारा मतलब उस विशाल जनसमूह से होता है, जिसके साथ वादे सभी लोग करते हैं और जिसे धोखा भी सभी लोग देते हैं, जनता की मुराद उन लोगों से है जो बेहतर, ज्यादा सम्मानपूर्ण तथा न्यायपूर्ण राष्ट्र, की रचना की इच्छा करते हैं. जो न्याय प्राप्ति के लिए वंशानुगत ढंग से प्रेरित होते हैं, क्योंकि पीढ़ी-दर-पीढ़ी उनको न्याय से वंचित रखा गया है और उन्हें मज़ाक का खिलौना बनाया गया है. हम जनता उन लोगों को कहते हैं जो अपने जीवन के सभी पहलुओं में भारी बुद्धिमतापूर्ण परिवर्तनों के लिए कटिबद्ध हैं और उस परिवर्तन को लाने के लिए अपने जीवन की आखिरी सांस तक का बलिदान करने को तैयार हैं. इसका अर्थ है वे किसी वस्तु में या किसी व्यक्ति में और विशेष रूप से स्वयं अपने ऊपर विशवास रखते हैं.


अपना उद्देश्य बयान करने के सिलसिलेमें ईमानदारी, सच्चाई या वफादारी की पहली शर्त यह है कि ठीक वही बात करें जो दूसरे नहीं करते, इसका अर्थ है, बिलकुल सफाई के साथ निडर होकर बात करें. बड़े बड़े बातूनी और पेशेवर राजनीतिज्ञ जो हर बात में तथा हर समय सही होने का दंभ भरते हैं, हमेशा ही आवश्यकता से हर बात के बारे में हर किसी के साथ धोखाधड़ी करते है. क्रान्तिकारियों को अपने विचार साहस के साथ निडर होकर पेश करने चाहिए. हमें अपने सिद्धांतों की परिभाषा तथा अपने इरादों का इजहार इस प्रकार करना है ताकि दोस्त व दुश्मन किसी को भी कोई धोखा न हो. अपने संघर्ष के लिए हम जिस जनता पर भरोसा करते हैं उसमें ये लोग शामिल हैं:

(क)छः लाख बेरोजगार क्यूबावासीजो बिना किसी काम के इधर-उधर मंडरा रहे हैं. जो ईमानदारी से अपनी रोजी कमाने की कामना करते हैं और चाहते हैं कि इसके लिए उन्हें देश छोड़कर बाहर न जाना पड़े.

(ख)पांच लाख कृषि मजदूर जो दयनीय झोपड़ियों में अपनी जिन्दगी काटते हैं, साल में चार महीने काम करते हैं और बाकी दिन फाकामस्ती करते हैं. अपने बच्चों के साथ मिलकर मुसीबत के पहाड़ काटते है, जिनके पास खेती करने के लिए अपनी एक इंच जमीन भी नहीं हैं और जिनके करुनामय जीवन पर पत्थर ह्रदय वाले लोग भी द्रवित हो जायेंगे.

(ग)चार लाख औद्योगिक मजदूरऔर कर्मचारी, जिनके अवकाश प्राप्ति के बाद के लिए रक्षित कोष का नियमित रूप से गबन किया जाता है, जिनको हर प्रकार की सुख सुविधाओं से वंचित रखा जाता है, जिनके आवास सूअरवाड़ों से भी बुरी स्थिति में रहते हैं, जिनका वेतन मालिकों के हाथ से निकलकर महाजन की तिजोरी में चला जाता है. जिनका भविष्य है, वेतन कटौती और नौकरी से बर्खास्तगी. जिनके भाग्य में अनवरत रूप से काम करते जाना और आराम के लिए कब्र में लेट जाना लिखा है.

(घ)एक लाख छोटे किसान जो ऐसीजमीन पर काम करते हैं, जीते और मरते हैं जो उनकी अपनी नहीं है. वह निराशाभरी निगाहों से उसी प्रकार उस जमीन को देखते हैं, जैसे मोसेज ने एक जमीन के टुकड़े पर टकटकी बांधे अपने प्राणों का त्याग कर दिया था क्योंकि उसे वह जमीन देने का वादा किया गया था, किन्तु जमीन दी नहीं गयी थी. जिन्हें सामंती युग के गुलामों की तरह अपनी उपज का एक बड़ा भाग अपने सामंती स्वामी को अदा करना पड़ता है. उन्हें अपनी जमीन से प्यार करने, उसमें सुधार करने, उसे सुन्दर बनाने, उसमें देवदार या नारंगी का कोई पेड़ लगाने का भी अधिकार हासिल नहीं है, क्योंकि उनके सर पर यह खतरा मंडराया करता है कि कब भूस्वामियों के कारिंदे आ जायें और उन्हें जमीन से बेदखल कर दें.

(ङ)तीस हजार शिक्षक और प्रोफेसरजो भावी पीढ़ियों के सुन्दर भविष्य के लिए पूर्ण रूप से निष्ठावान हैं और समर्पित हैं और जिनके साथ अत्यधिक अनुचित रूप से सलूक किया जाता है.
(च)बीस हजार छोटे दुकानदार और व्यापारी जो कर्जों के बोझ से दबे हुए हैं, संकट से तबाह हैं और जिन्हें तिकड़मी और घूसखोर अधिकारियों के कोप का भाजन बनना पड़ता है.

(छ)दस हजार युवा व्यवसायी-डॉक्टर, इंजीनियर, वकील, पशु चिकित्सक, स्कूल शिक्षक, दंतकार, फार्मेसिष्ट, पत्रकार, चित्रकार, मूर्तिकार आदि जो स्कूलों से डिग्रियां लेकर निकलते हैं, काम करने की आकांक्षा और आशा लेकर और जिन्हें ठोकरें खाने के बाद पता चलता है कि वे तो अंतिम छोर तक पहुंच गये हैं, जहां सारे दरवाजे उनके लिए बंद हैं तथा कोई भी आदमी उनकी दारुन गाथा को सुनने के लिए तैयार नहीं है.


यही जनता है, और यही वे लोगहैं, जिन्होनें मुसीबतों के पहाड़ों को झेला है, इसीलिए असीम साहस के साथ संघर्ष करने में पूर्णरूप से सक्षम हैं.

यही वे लोग हैं जिनके जीवन कीराहों में विश्वासघात और मिथ्या आश्वासनों के कुटिलतापूर्ण चौके बिछाये जाते रहे हैं. इनसे हम यही नहीं कह सकते थे कि ‘हम तुम्हें यह देंगे’ बल्कि हमने कहा, ‘यह सुन्दर भविष्य तुम्हारा है, अपनी पूरी शक्ति के साथ इसे प्राप्त करने का संघर्ष करो ताकि स्वतन्त्रता और प्रसन्नता तुम्हारे कदमों को चूम ले.’
(‘इतिहास मुझे सही साबित करेगा’ से लिया गया)
समय के साखी, वर्ष 8, मई – जून 2016

महात्मा जोतीबा फुले का ब्राह्मणवाद से संघर्ष

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सुजाता पारमिता

बिना विद्या मति गयी, बिना मति नीति गयी।
बिना नीति गति गयी, बिना गति वित्त गया।
बिना वित्त शुद्र दबा, इतना अनर्थ अविद्य से हुआ।

-जोतीबा फुले

1860 का पुणे 

ब्रिटिश काल में सामाजिक न्याय की सबसे बड़ी लडाई लडने वाले महान योद्धा महात्मा जोतीबाराव फुले का स्थान भारतीय सामाजिक क्रान्तिकारियों में सबसे महत्वपूर्ण है। हजारों वर्षों से भारत में शूद्रों, अतिशूद्रों और स्त्रियों पर होनेवाले अत्याचारों के विरूद्ध उनके संघर्षों के कारण ही ब्रिटिशराज में परिवर्तन आने शुरू हुये और अंग्रेज शासकों द्वारा नये कानून बनाये गये। जोतीबा ने भारतीय समाज की सबसे बडी बीमारी जाति व्यवस्था और उसकी जड ब्राह्मणवाद को न केवल समझा बल्कि उस पर जबरदस्त प्रहार भी किये जो परिवर्तनवादी जन आन्दोलन के इतिहास मे स्वर्ण अक्षरो में दर्ज है। इसी कारण डॉ. आंबेडकर  ने उन्हें अपना गुरू माना और उनके सामाजिक दर्शन को अपने आन्दोलन का मुख्य आधार बनाया। ब्राह्मणवाद और पुरोहित वर्ग दोनों से ही जोतीबा का संघर्ष तब तक चलता रहा जब तक वे जीवित रहे। उनके आन्दोलन का केन्द्र हिन्दु धर्म की वे तमाम कुरीतिया और परम्पराये थीं जो ब्राह्मणवाद की सदियो से पोषक रही है और जिसके कारण ही देश के बहुसंख्यक नागरिक वर्ग को शिक्षा समेत सभी मानवाधिकारों से सदियों तक वंचित रहना पड़ा।

ब्राह्मणवर्ग विशेषकर पुरोहितों ने अपने हितों कोसुरक्षित रखने के लिये ही वर्ण व्यवस्था की स्थापना की थी। अंततः पीडित बहुसंख्यक जनता, प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से इसका विरोध करती रही। वर्ण व्यवस्था से लाभ उठाने वाला दूसरा वर्ग शासकों का था, जिन्होंने पुरोहितों के हितों को अगर बढाया नहीं तो घटाया भी नहीं। अंग्रेज शासकों ने भी उसी नीति का अनुसरण किया, उनके द्वारा ब्राह्मणों के बीच शिक्षा को प्रोत्साहित करने के लिये जो कुछ किया गया उसका लिखित प्रमाण उपलब्ध है। बरतानिया सरकार भी ब्राह्मणों को तुष्ट करने और उनका सहयोग प्राप्त करने में अपने पूर्ववर्ती शासकों से पीछे नहीं रही। उनकी मान्यता थी कि साम्राज्य के स्थायित्व के लिये यह जरूरी है। अंततः 1813 के चार्टर एक्ट में शिक्षा पर खर्च करने के लिये जो एक लाख रूपये का प्रावधान किया गया था उसका एक अंश ब्राह्मणों की शिक्षा पर खर्च किया जाने लगा। बनारस संस्कृत महाविद्यालय की स्थापना (1791) से लेकर 1820-21 तक वहां  तथा दिल्ली, आगरा और पुणे स्थित सभी महाविद्यालयों में भरती केवल छात्रवृत्ति प्राप्त विद्यार्थियों तक ही सीमित थी जो सभी ब्राह्मण थे। 1820-21 के बाद, मांग को देखते हुये, यद्यापि इन महाविद्यालयों में गैर- ब्राह्मण विद्यार्थियों की भी भरती होने लगी, पर छात्रवृत्ति केवल ब्राह्मण विद्यार्थियो को ही दी जाती रही। 1836 मे इस योजना को समाप्त करने का निर्णय लिया गया जो 1838 से लागू हुआ। इसके परिणाम स्वरूप जहाँ 1833 मे दिल्ली महाविद्यालय मे 431 छात्र थे जिनमें से 377 छात्रों को छात्रवृत्ति मिलती थी। वहाँ 1840-41 मे छात्रों की संख्या घटकर मात्र 155 रह गयी। 1838 के बाद अंग्रेजी शासन ने ‘इनकिलट्रेशन‘ नाम से एक नयी योजना की शुरूआत की जिसका उद्देश्य था कि पहले ऊपर के वर्ग यानी ब्राह्मणों को शिक्षित किया जाय, ऐसा करने से शिक्षा स्वतः ही निचले स्तर तक पहुंच जायेगी। अंग्रेज सरकार का जमीनी सच्चाइयों से कोई सरोकार नहीं था, अगर वे इस ओर जरा सा भी ध्यान देते तो उन्हें यह समझते देर नहीं लगती कि, जिस वर्ग ने सदियों से निम्नवर्ग को पढने के अधिकार और अवसरों से बराबर वंचित रखा, भला वे क्योंकर उन्हें पढाते, अंततः वह योजना बुरी तरह असफल रही। उसके बाद 1854 में ‘वूडस डीस्पैच’ आया, जिसके अन्तर्गत सरकार ने जनता को शिक्षित करने का उत्तरदायित्व अपने ऊपर लिया। यह जिम्मेदारी किस प्रकार निभायी गयी इसके साक्षी हंटर कमीशन (1881) मे जोतीबा के दिये गये वे प्रतिवेदन है, जिसमें कई जगह यह बताया गया है, कि किस प्रकार ब्राह्मण शिक्षको और विद्यार्थियो ने निम्न वर्ग के गरीब विद्यार्थियो की शिक्षा के मार्ग में रोड़े अटकाये।

जोतीबा अशिक्षा, अज्ञानता और अंधविश्वास को दलित और स्त्रियों कीमुक्ति में सबसे बड़ी बाधाएं मानते थे। इसीलिए उनके सामाजिक संघर्षो में शिक्षा का स्थान र्स्वोपरि था। वे सभी जाति व धर्मों के गरीब, दलित और स्त्रियों की शिक्षा के सबसे बड़ं हिमायती थे। और इसके लिए उन्होने विशेषरूप से पहला स्कूल स्त्रियों के लिए 1 जनवरी 1848 में पुणे की भिड़ेवाड़ी में खोला, जो भारत में स्त्री शिक्षा का पहला स्कूल था। इसी स्कूल में अध्यापन का काम शुरू कर सावित्रीबाई देश की पहली स्त्री शिक्षिका बनीं। 15 मई 1848 को पुणे की एक दलित बस्ती में दूसरा स्कूल खोला, जहां गरीब, दलित बच्चों को बढ़ाया जाता था। जोतीबा ने 1855 में एक रात्रि पाठशाला आरंभ की जहां दिन में काम करने वाले स्त्री पुरूष को शिक्षित किया जा सके, इसी पाठशाला में फातिमा शेख ने भी शिक्षा पाई,  जिन्होंने आगे चलकर फुले दम्पत्ति द्वारा चलाये जाने वाले एक स्कूल में अध्यापन का काम कर मुस्लिम समाज की पहली स्त्री शिक्षिका होने का गौरव हासिल किया। दलितों में शिक्षा के विस्तार को ध्यान में रखकर जोतीबा ने पहला पुस्तकालय भी खोला।

 

जोतीबा धार्मिक कार्यों में ब्राह्मण पुराहितों की सहायता लेने केविरूद्ध थे। इसलिये जनमानस में चेतना के प्रसार के लिये उन्होंने दो पुस्तकें लिखी - पुरोहितों का पर्दाफाश (1867) और ब्रिटिश साम्राज्य में ब्राह्मणी वेश में गुलामी (1873) पहली पुस्तक मे जोतीबा ने बताया कि किस प्रकार जन्म से मरण तक विभिन्न कर्मकाडों द्वारा पुरोहित यजमानों का आर्थिक शोषण करते हैं और दूसरी पुस्तक में किस प्रकार लोगों की अशिक्षा अज्ञानता तथा अन्धविÜवास का लाभ उठाकर ब्राह्मणों ने शूद्रों और अतिशूद्रों को गुलाम बनाये रखा है। उन्होंने 1872 में इसी आशय का एक घोषणापत्र भी प्रकाशित किया। जोतीबा सिर्फ पुस्तक लिखकर बैठ जाने वाले व्यक्ति नहीं थे, इसीलिये 24 सितम्बर 1873 को उन्होंने अपने कार्यकर्ताओं की एक सभा आयोजित की, जिसमें मार्गदर्शन के लिये सत्यशोधक समाज नाम से एक केद्रीय सगंठन बनाया गया। बाद मं  कई स्थानों पर उसकी अन्य शाखायें स्थापित की गयीं।

जोतीबा ने ब्राह्मण पुरोहित के बिना ही दो विधवा विवाहसम्पन्न कराये। पहला विवाह दिसम्बर 1873 में और दूसरा उसी के पाँच महीने बाद मई 1874 में। ब्राह्मणों ने विवाह रोकने के लिये क्या कुछ नहीं किया पर सफल न हो सके। इसके बाद जोतीबा के एक अनुयायी ने भी अपने बेटे का विवाह ब्राह्मण पुरोहित के बिना सम्पन्न कराया इस पर पुरोहित मामले को न्यायालय में ले गया। अवर जज ने जो स्वयं ब्राह्मण थे, उस पुरोहित के पक्ष में ही निर्णय दिया। इस निर्णय से खिन्न जोतीबा ने जिला न्यायाधीश के यहाँ अपील की। जिला न्यायधीश ने निचले न्यायालय के फैसले के विरूद्ध निर्णय दिया। पुरोहित कहाँ हार मानने वाला था उसने उस निर्णय के बाद मुम्बई उच्च न्यायालय में अपील दायर की परन्तु वहाँ भी वह हार गया। इस प्रकरण के बाद से पुणे का ब्राह्मणवर्ग पूरी तरह से जोतीबा के खिलाफ हो गया।

यहाँ इसी से मिलते-जुलते एक अन्य मुकदमे का जिक्र करना जरूरी है। 1878 पुणे में एक व्यक्ति ने अपने पुश्तैनी पुरोहित की बजाय अन्य पुरोहित से अपने बेटे की शादी करवायी प्रभावित पुरोहित ने महादेव गोविन्द रानडे के न्यायालय में, जो उन दिनों पुणे में ही प्रथम श्रेणी के अवर जज थे, मुकदमा दायर किया जिसमें दक्षिणा के अलावा हरजाने की भी मांग की। रानडे ने पुश्तैनी पुरोहित के पक्ष में निर्णय दिया और कहा कि वादी को बुलाना या ना बुलाना प्रतिवादी की इच्छा पर निर्भर नहीं करता लेकिन बाद में जिला और उच्च दोनों ही न्यायालयों ने न्यायमूर्ती रानडे के इस फैसले को रद्द कर दिया अन्यथा इसके दूरगामी परिणाम घातक हो सकते थे। ब्राह्मण पुरोहितों के बिना वैद्य विवाह सम्पन्न नहीं हो सकते इस परम्परावादी दलिल को अमान्य करने वाला बम्बई न्यायालय तीसरा न्यायालय था। बंगाल तथा तत्कालीन पश्चिमोत्तर  उच्चतर न्यायालाय इसे पहले ही अस्वीकार कर चुके थे, बाद में मद्रास उच्चतर न्यायालय ने भी इसे नामंजुर कर दिया था जिसके बाद तो यह विवाद का विषय ही नहीं रहा। जोतीबा के लिये यह बड़ी जीत साबित हुयी।

विभिन्न भारतीय प्रांतों में पहले से ही प्रचलित दक्षिणा प्रथाको अंग्रेज शासकों ने अपने शासन काल में भी जारी रखा। बारहाल उन्होंने दक्षिणा कोष की अधिकतम सीमा 50,000 रूपये तक वार्षिक निर्धारित कर दी। कई अन्य उपाय भी किये गये जिनसे दक्षिणा पाने वाले ब्राह्मणों की संख्या धीरे-धीरे कम होती गयी। एक बार तय किया गया कि बची हुयी राशि में से प्रतिवर्ष 20,000 रूपये पुणे महाविद्यालय को दिये जायेंगे क्योंकि उसमें अधिकतर ब्राह्मण ही पढते-पढाते थे। एक बार जब कोष मे 3,000 रूपये अतिरिक्त बच गये तो पुणे के कुछ सुधारवादी ब्राह्मणों ने गवर्नर को आवेदन दिया कि इस बची हुयी राशि को आधे-आधे भाग मे बाँट कर संस्कृत और मराठी में मौलिक साहित्य तैयार करने वाले साहित्यकारों को परितोषिक के रूप में दे दिये जाये लेकिन पुणे के परम्परावादी ब्राह्मणों ने इसे जाति विरोधी मान कर इसके लिये पहल करने वालों को दंडित करने के लिए एक समिती गठित की और सभा के लिए एक दिन भी निश्चित  किया। जब समझाने से काम नहीं बना तब सुधारवादियों ने जोतीबा से भेंट कर मदद मांगी। जोतीबा ने तब कुछ दलित बस्तियों में से 200 हट्टे-कट्टे जवान लडके जमा किये और जुलूस बनाकर निर्धारित स्थान पर पहुँचे। जोतीबा के साथ उन लोगों को देखकर, वहा जमा हुये ब्राह्मणों के होश उड गये, लेकिन जोतीबा के सुझावों पर उन्होंने अपनी सहमति दे दी और वे समझौते के लिए राजी हो गये। बाद मे गवर्नर ने भी बची हुयी राशि को साहित्य सृजन के कार्य पर खर्च किये जाने की अनुमति दे दी।

पेशवा का दरबार 

बडौदा राज मे बहुत वर्षो से ब्राह्मणो को रोज मुफ्त
खिचडी बांटने की प्रथा चली आ रही थी। राजकोष से इस प्रथा पर प्रतिवर्ष एक मोटी रकम खर्च की जाती थी। जोतीबा ने 1884 मे बडौदा महाराज को इसके संबध में लिखा और उनसे जा कर मिले। उन्होंने महाराज को समझाया की जब कठोर परिश्रम कर राजकोष भरने वाले किसान भूखे-नंगे जीवन जी रहे हैं तब ब्राह्मणों पर इतना खर्च करना कहाँ तक उचित है। उसके बाद बडौदा राज मे खिचडी बाँटने की प्रथा को समाप्त कर दिया गया।

जोतीबा के जीवनकाल में पुणे जिले में जमींदारऔर साहूकार प्रायः सभी ब्राह्मण थे। सरकारी कार्यालयों में भी निम्न और मध्यम स्तर पर काम करने वाले सभी कर्मचारी ब्राह्मण थे। अतः गरीब दलित और पिछडे वर्ग के लोगों को कहीं से भी न्याय नहीं मिलता। जोतीबा ने इस स्थिति से निपटने के लिये ‘दीनबन्धु’ नाम की एक पत्रिका निकाली। उसके बाद उन्होंने खेतिहरो की चाबुक (1873) शीर्षक से एक पुस्तक लिखी जिसमें गरीब किसानों की समस्याएँ उसके कारण और निदान पर प्रकाश डाला गया। सरकारी कर्मचारीयो के शोषण से गरीब जनता की रक्षा के लिये जोतीबा ने अपनी पुस्तक में यह मांग रखी की सरकारी नौकरीयो में ब्राह्मणों की नियुक्ति उनकी जनसंख्या के अनुपात से अधिक ना की जाय बाकी बचे स्थानों पर शूद्रों-अतिशूद्रों के होनहार युवको को प्रशिक्षित कर नियुक्त किया जाय। पुरोहितों के चुंगल से शूद्रों की रक्षा करने के लिये उन्होंने प्राईमरी शिक्षा को अनिवार्य बनाने की मांग की। जोतीबा ने शूद्रों, अतिशूद्रों और किसानों के कल्याण के लिये जो सुझाव उस वक्त बताये थे इतने वर्षों बाद आज कार्यान्वित किये जा रहे है। जिनमें नदियों पर बांध बांधना, कुएँ खोदने के लिये सरकार द्वारा गरीबों को वित्तीय सहायता प्रदान करना, समय-समय पर प्रदर्शनी लगाकर स्वरोजगार के साधन उपलब्ध कराना, अच्छी नस्ल के मवेशियों का आयात करना तथा वैज्ञानिक ढंग से खेती की शिक्षा जनमानस तक पहुँचाना शामिल हैं। पुणे जिले की जुनार तहसील में 1884 में जोतीबा ने गरीब किसानों पर होने वाले जुल्मों के विरोध में देश का पहला किसान सत्याग्रह किया,  जो सालभर तक चला और तभी समाप्त हुआ जब जमींदार, साहूकार और सरकार के प्रतिनिधियों ने स्वयं आकर जोतीबा से समझौता किया।

पानी का सवाल दलितों के जीवन का सबसे बड़ा मुश्किल रहा। अपनी जमीन न होने के कारण उनका जल-संसाधनों पर कोई अधिकार नहीं था। इसीलिए पानी हमेंशा से ही उनकी पहुंच के बाहर रहा। ज्योतिबा ने 1860-1868 में दलितों के लिए अपने घर के पानी का हौद खोल दिया। जहां से सभी को पानी लेने की अनुमति थी।

दलितों के बीच चेतना जगाने और दलित नेतृत्व तैयार करने के लिये जोतिबा निरन्तर दलित बस्तियों में आया-जाया करते थे। जोतिबा भारतीय मजदूर आन्दोलन के जन्मदाताओं में प्रमुख थे। वे जब भी मुंबई जाते अपने प्रवास के दौरान मजदूर बस्तियों में भी जरूर जाते। नारायणराव लोखंडे जिन्होंने 1880 में देश का प्रथम मजदूर संगठन ‘बम्बई मीलहैड’ की स्थापना की थी। उनके अनुयायी और सत्य शोधक समाज के प्रमुख सदस्य थे। 1889 मे बम्बई नगरपालिका और अलिबाग नगरपालिका के दलित मजदूरों ने जो सफल हडताल की थी वह भी जोतीबा के प्रयासों का ही नतीजा था।

आज शिवाजी महाराज पर अपना दावा ठोंकने वालों कोयह शायद ही याद हो कि जोतिबा ने ही रायगढ जाकर पत्थर और पत्तियों के ढेर तले दबी जीर्ण शीर्ण अवस्था में पडी शिवाजी महाराज की समाधी को ढूँढ निकाला और उसकी मरमत्त भी करवाई। बाद में उन्होंने शिवाजी महाराज पर एक छन्दबद्ध जीवनी भी लिखी।

स्मृतियाँ और पुराण शूद्रों और स्त्रियों के खिलाफ वह अध्यादेश है, जो उनके जीवन को पूरी तरह से नियन्त्रित करता है। उन्हें गुलामी में जीने के लिये बाध्य करता है, आज भी जिसका असर भारत के सभी धर्मो पर समान रूप से दिखायी देता है। अस्पृशता, देवदासी प्रथा, सती प्रथा, बालविवाह, कन्याभ्रूण हत्या, बेगारी और विधवा विवाह पर पाबन्दी जैसी अनेक अमानवीय धार्मिक प्रथाएँ हैं, जो देश के लगभग सभी राज्यों में अगर आज जिंदा है, तो इसके पीछे भी पुरोहित वर्ग का ही हाथ है। हालाँकि जोतीबा के समय में कानून सती प्रथा को बन्द किया जा चुका था और कहीं-कहीं विधवा विवाह होने लगे थे। पर महिलाओं की सामाजिक, शैक्षिक और आर्थिक स्थिति में कोई विशेष अन्तर नहीं आया था। जोतीबा ने विष्णू शास्त्री पंडित द्वारा चलाये जा रहे विधवा विवाह आन्दोलन में पूरा सहयोग दिया। उन्होंने बाल-विवाह और बहुविवाह का भी खुलकर विरोध किया। उनके द्वारा लिखी गयी ‘सतसार’ नामक एक पुस्तिका में भी स्त्रियों की स्थिति पर रोशनी डाली गयी है। यहाँ विशेष रूप से ऐसी दो घटनाओं का जिक्र जरूरी है जो साबित करती हैं कि जोतीबा के विचार इन मुद्दों पर कितने कठोर थे। एक बार जब महादेव गोविन्द रानडे जो उन दिनों पुणे में जज थे, जोतीबा को बताया कि उनकी भी एक बाल विधवा बहन है, तो उन्होंने दुखी हो कर पूछा कि उसका विवाह क्यों नहीं किया गया। जब रानाडे से जबाब देते नहीं बना और वे टाल-मटोल करने लगे तो पास बैठे जोतीबा भडक गये और गुस्से में बोले ‘राव साहब, आप अपने आप को आगे से समाज सुधारक ना ही कहें तो अच्छा होगा’। बाद में जोतीबा ने रानडे को दूसरी बार तब फटकारा जब उन्हें पता चला कि अपनी पहली पत्नी के मरने के बाद उन्होने 32 वर्ष की उम्र में एक 11 वर्ष की बच्ची से दूसरा विवाह किया।

ब्राह्मणवाद से शूद्रों, अतिशूद्रों और स्त्रियों के सम्मानऔर अधिकार के लिये शायद ही किसी ने इतना संघर्ष किया जितना कि जोतीबा ने किया। आज भी अनके विचार सभी भारतीय दलित और स्त्रीवादी आन्दोलन के लिये मार्गदर्शक की भूमिका निभा रहे हैं, जब पूँजीवाद और  भूमंडलीकरण की बदौलत उपजी भयानक असमानता की चपेट में आया गरीब दलित और आदिवासी वर्ग लगातार मर रहा है।

सुजाता पारमिता थियेटर और आर्ट क्रिटिक हैं, सामाजिक कार्यकर्ता और साहित्यकार हैं. संपर्क : sujataparmita@yahoo.com

रंजनाशरण की कविताएँ

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रंजनाशरण
कवयित्री,नागपुर विश्वविद्यालय के एक कॉलेज में इंग्लिश पढ़ती है . संपर्क :9371131735

तानतानी के फूल

सूरज निकलने के पहले ही
घुंघलके में वह जागती है
और तेज कदमों से बढ़ती है
उन बंगलो की ओर
जहाँ जूठेबर्तन, झाडू और बासी बिखरा रसोई घर
उसका इन्तजार कर रहे होते है
हाँ! वह जिन्दा है
हल्के बैंगनी और गहरे पीले
तानतानी के फूलों की तरह
जो सूखी पथरीली मिट्टी के फैलाव में
खिलते रहते हैं:
कंटीली झाडियों
और भूरी पत्तियों का
एक बेजान विस्तार
उसकेअन्दर छिपे हुए कुछ रहस्य
जीभ लपलपाते हुए
बाहर निकलना चाहते हैं
उसकी इच्छा के विरूध्द.
परन्तु जल्दी ही
वे मुँह की अलमारी में
कैद हो जाते है.
आदिम प्रजाति की श्यामला
काले संगमरमर की एक मूर्ति
दो सुडौल गोलों ने उसे बना दिया है
एक जिन्दाऔरत !
अन्तःपुर की मद्धिम रोशनी में
न जाने कितनी बार उसे
बनाया और तोडा गया-
अपरिभाषित कमरे
लहसुनऔर तली मछलियों की
गंध से भरा रसोई घर
और विशाल वातानुकूलित बैठक
जहाँ हैसियत
लंबे काँच के गिलासों में
झाग उगलती है.
जीवन की कठिन या़त्रा के दौरान
घण्टे दिन और साल
यायावर पक्षियों की तरह
सुदूर अजनबी प्रदेश  में उड चले
अग्निपथ पर थके पाँवो की
अंतहीन यात्रा
कोई राहत नही
गर्म हवाओं से
जिन्होंने बीस सुहाने वसन्तों को
भट्ठी में झोंक दिया,
गर्मी के दिनोंऔर तूफानी रातों में
वह बन जाती थी
पेड पर अटकी
एक प्लास्टिक की पन्नी
जो हवा के तेज झोंकों से
फूलती और पचकती थी.
परन्तु आज वह स्त्री
आग और शीत के बीच
अपनी दौड को
रोक देना चाहती है;
वह अपनी दुनियां से
ऊपर की और देखती है
और पाती है
एक केसरिया आकाश
वह सुनती है
प्रभात के पद चापों को
जो तारों भरे आकाश  के
झूमरों को रौंदता हुआ
आ पहुँचता है
और बन बैठता है
प्रथम सत्र का अक्ष्यक्ष !


बौना

समय 3.45
सुबह होने से पहले
डूबते चाँद की रोशनी
उसके कमरे में
नदी की बाढ की तरह
फैल जाती है.
आधा सोया और आधा  जगा
वह आदमी सपने में बुदबुदाता है
और दाँत पीसता है-
गंगा घाट पर
एक हरा-भूरा घडियाल
अपने शिकार को पकडकर
चीर डालता है
और मरे हुए जीव को
अपनी मादा के पास
घसीटता हुआ ले जाता है
शेकू मेरे बेटे
कहाँ हो तुम ?
पापा.......पापा.......पापा........
अपने नौ वर्ष के बेटे को
वह आदमी बचाना चाहता है
परन्तु उसेअपना कद
घटता हुआ महसुस होता है
गली वर प्रदेश  के
एक बौने की तरह
दु:स्वप्न  उसे बुरी तरह
झकझोर देता है;
पसीने से सराबोर
वह चौक कर
उठ बैठता है ;
उसे याद आता है
वह मनहूस दिन
जब उसका बेटा
अगवाकर लिया गया था-
दो नकाबपोश दिनदहाडे
उस मासूम पर
गिध्द की तरह
टूट पडे थे और दबोच कर
काले शीशेवाली गाडी में
ठूंस दिया था.
लोगों ने सुनी उसकी चीख पुकार
और मदद की गुहार,
परन्तु वे देखते रहे मौन
कुछ मजबूर थे
कुछ कौतुहल वश
तमाशा  देख रहे मौन:
गाडी चल पडी थी पूरे वेग से
और जल्दी ही आँखों  से
ओझल हो गई थी
धूल भी नही उडी
उस आदमी ने
हथियार डाल दिये-
तकदीर के आगे?
भय मे मारे ?
शहर में स्वच्छन्द धूमते
भेडिये और सियारों के भय ने
उसे बौना बना दिया
दुःख और पश्चताप से घिरा
वह अपनी खिडकी से बाहर देखता है
उसकी थैली भरआई है
वह अपने शरीर से
पीले पानी को निकालता है
और निश्चित हो
एक नींद की गोली
निगल लेता है.


आदि और अन्त  

जब रूपहली आभा ने
आकाश  का आलिंगन कर
उसे अन्धकार मुक्त किया
वह नींद से जागी ;
उस अलौकिक क्षण में
उसने देखा एक दिव्य शिशु
उसके जीवन का प्रथम और अन्तिम अक्षर !
श्वेत एवं नग्न
वह उसके वक्षस्थल के पास पडा था
 शिशु को देख
भावनाएँ उमड पडीं
समुद्र तटपर
उठती लहरों की तरह
भाग्य की डोर से बंधी
उस स्त्री ने अपने अनेक शिशुओं को
उनकी शाप मुक्ति के लिए
जल में प्रवाहित कर दिया था-
भगीरथ की गंगा की तरह
परन्तु अब यह भागीरथी
 शिशुओं का विछोह
नही सहन कर सकती
अन्दर की धीमी आवाज
हाहाकार बन जाती है
और वह नन्हे शिशु  को
बाहों  में समेट
अपनी छाती से चिपका लेती है:
तभी आसमान का गुलाबी पर्दा हटाकर
सूरज झाँकता है
और शाप की कालीसाया
दूर हो जाती है-
आदि  और अन्त से परे
वह पल अनन्त हो जाता है

कोने से कमरे तक: चार पीढ़ियों की अन्तर्यात्रा

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सुधा अरोड़ा
सुधा अरोड़ा सुप्रसिद्ध कथाकार और विचारक हैं. सम्पर्क : 1702 , सॉलिटेअर , डेल्फी के सामने , हीरानंदानी गार्डेन्स , पवई , मुंबई - 400 076 फोन - 022 4005 7872 / 097574 94505 / 090043 87272.sudhaarora@gmail.com
वर्जीनिया वूल्फ की किताब  ‘ A Room of One's Own’ का प्रकाशन 1929 में हुआ था, उसका केन्द्रीय स्वर है कि एक स्त्री का अपने लेखन के लिए अपना कमरा होना चाहिए, अपने निजी को सुरक्षित रखने के लिए भी अपना कमरा, इसके लिए उसकी आर्थिक स्वतंत्रता जरूरी है.वरिष्ठ लेखिका सुधा अरोड़ा  अपने कमरे की अहमियत के इस सवाल के साथ ही अपने अतीत को देख रही  है... 

याद नहीं कितने बरस हुए, जबवर्जीनिया वुल्फ़ की किताब ‘‘अ रूम आॅफ़ वन्स ओन’’ पढ़ी थी. इससे पहले लगता था - स्त्रियों का तो पूरा घर ही होता है बल्कि घर होता ही स्त्री से है ! घर का पर्याय उस घर की गृहिणी है, फिर घर में एक कमरा हो या दस कमरे, स्त्री के ही होंगे. पर नहीं, यह सच नहीं था. समझ में आया कि पुरुष जितने अधिकार और आधिपत्य से ‘‘मेरा कमरा, मेरा साम्राज्य’’ की बात कर सकता है, स्त्री नहीं कर सकती . घर नामक एक संस्थान की मैनेजर है गृहिणी . वहां रहनेवाले सभी सदस्यों का रख-रखाव, स्वास्थ्य और दिनचर्या, सेहतमंद खान-पान और अच्छी नींद, सब उसके जिम्मे हैं. ....और उसका अपना आप ? उसके लिए तो कमरा क्या, एक कोना भी नहीं जहां वह अपने बारे में फ़ुरसत से, इत्मीनान से कुछ सोचने की मोहलत पा सके. उसके अपने होने, जीने और खुशहाल रहने का नंबर उस घर में आखिरी पायदान पर है. आखिरी पायदान पर यह ओहदा खुद उसने अपने लिए चुना, इसलिये अपराधी भी कोई और नहीं, वह ख़ुद है.

स्मृतियों में लौटूं तो अपनी नानी-दादीयाद आती हैं. बेटियों के घर रहने से माता-पिता को ‘नरक’ का भागी होना पड़ता है, इसलिए नानी हमेशा  अपने बेटे के पास ही रहती थीं - पोती और पोतों को संभालती हुईं. वही उनका स्थायी ठिकाना था . नानी को हम भाबी जी कहते थे. मामी भी उन्हें बहुत इज़्ज़त-मान देतीं. पर अपनी दोनों बेटियों यानी मेरी मां और मौसी , में से जिसके बच्चे बीमार हो जाते, वे अपनी एक जोड़ी पोशाक, जपुजी साहब का गुटका, मनकों वाली जाप की माला और तनियों वाली गुत्थी में अपनी जमा-पूंजी के कुछ रुपए पैसों के साथ बनफ़सां  और अजवायन के टोटके लिए तीमारदारी के लिए हाज़िर हो जातीं. उनका छोटा सा साम्राज्य तो उस एक झोले में ही सिमटा होता. नानी के हाथों के दुलार और जी-जान से की गई सेवा टहल से बीमार नातिनें सेहतमंद हो जातीं और वे वापस अपने ठिये पर लौट जातीं . जाते जाते वे दिन के हिसाब से उनकी हथेली में अपनी रोटी-दाल के पैसे थमाना नहीं भूलतीं - ‘रक्ख लओ नी कुड़ियों . धी दे घर रोट्टी खाण दा हिसाब ओस दाता नूं देणा ए.’ अंतिम सांस तक भाबी जी की दिनचर्या ऐसी ही रही. उनका जाना बहुत अखरा . जैसे हमारा डाॅक्टर, हमारा ख़ैरख्वाह चला गया हमें छोड़कर . कई दिनों उनका जाना याद कर करके मैं रोती रही . वे मेरी बेहद प्रिय शख्सियत थीं . गज़ब की स्नेहिल . बच्चों के साथ घुल-मिल कर बच्चा बन जाने वालीं . हमें गोद में बिठाकर जपुजी साहब का पाठ सुनाने वालीं . अपनी आंखों से लाड़ का दरिया उंड़ेलने वालीं . अपनी हथेलियों की मुलायम थपकियों से हमें सुनहरी नींद में सुला देने वालीं .

दादी की किस्म अलग थी. पिता उनके इकलौते लाड़ले बेटे थे. घर में दादी का रुतबा था. घर के सारे क्रियाकलाप उनके इंगित पर परिचालित होते थे. एक-डेढ़ कमरे से हैसियत बढ़ते बढ़ते, तीन तल्ले के मकान तक बढ़ गई पर मां की ओर वह रुतबा स्थानांतरित नहीं हुआ. बेशक मां उस ज़माने की बेहद पढ़ी लिखी लड़की थी . प्रभाकर पास कर साहित्य रत्न में दाखिला लेकर किताबों में छिपाकर अपनी कविताएं लिखती हुई . पर मां की औकात वही रही जो डेढ़ कमरे के वक्त थी. इकलौते बेटे और उनकी लाड़ली मां को बड़ा परिवार चाहिए था सो हर डेढ़-दो साल के अंतराल में एक एक कर सात बच्चे मां ने पैदा कर लिए और अपनी सारी ज़िंदगी उन बच्चों को क़ाबिल, सेहतमंद और संस्कारी इंसान बनाने में ग़र्क कर दी. अपने होने तक उनका सरोकार उनके बच्चे ही रहे. ज़िंदगी ने उन्हें अपनी ओर ताकने और अपने बारे में सोचने की फ़ुरसत ही नहीं दी.


पढ़ाई के दौरान ही मैंने जब लिखना और छपना शुरु किया तो मां को जैसे नयी ज़िंदगी मिल गई. वे जो अपनी कविताएं छिपाकर रखती थीं, मुझे मेरे नाम से छपते देख मुतमइन होती रहीं. उनकी गर्वीली मुस्कान मैं पहचान रही थी . मुझमें उन्होंने अपना विस्तार देखा. उनकी सारी रचनात्मक आकांक्षाएं मुझ तक स्थानांतरित हो गईं. उनकी ज़ेहनियत ने सिर उठाया.  हर मां अपने बच्चों में उन कोंपलों को अंकुरित देखना चाहती है जो वह अपनी शाखाओं पर अंकुरित नहीं कर पाती और उस न कर पाने के बोझ तले अपनी कराह को भी अपने से छिपाती रहती है. जिन्होंने किसी ज़ोर-जुल्म के लिए कभी अपनी ज़बान नहीं खोली थी , मेरी पढ़ाई के लिए वे दादा-दादी के सामने मेरे ढाल-कवच की तरह खड़ी हो गईं. घर गृहस्थी की उनकी बेशुमार ज़िम्मेदारियों में घर के बड़े बुज़ुर्गों के साथ मेरे लिए उतनी लड़ाई जीत लेना ही उनके लिए काफ़ी था. न सिर्फ़ मेरी शादी के तयशुदा रिश्ते को उन्होंने सिरे से अपदस्थ किया, मुझे उस बेमेल शादी  से बचा लिया बल्कि उसका सारा दारोमदार भी अपने सिर ले लिया . मेरे हाथ में कलम कागज़ देखते ही वे इसी कोशिश में रहतीं कि घर के कामकाज का बोझ वे अकेले उठा लें . न मुझे एक गिलास पानी लाने को कहतीं, न किसी को मेरे पास फटकने देतीं. उस बड़े से घर का वह छोटा सा कोना मेरा, नितांत मेरा था जिसमें पढ़ने की मेज़ थी. मेरा काम पढ़ना और सिर्फ़ पढ़ना था. हर बार जब मैं पूरे काॅलेज में या विश्विद्यालय में टाॅप करती, मां गर्व की चमक से भर जातीं .

लिखने-पढ़ने की वैसी सहूलियतेंऔर अपने लिए वैसा आरक्षित कोना उसके बाद मुझे बहुत सालों तक नहीं मिला . मां के घर में सबकुछ इतनी सहजता से मिला था कि उसकी अहमियत का अहसास तक नहीं हुआ. मुझे उन्होंने शिक्षा के साथ साथ बेचैनी का कीड़ा तो सौंप दिया था जो मुझसे लिखवाता था पर आर्थिक आत्मनिर्भरता का पाठ नहीं पढ़ा पाई . न मेरी ही लेखकीय जुनून से अंटी पड़ी बुद्धि में वह चिनगारी कौंधी . शिक्षा और शिक्षा की चमक हमें आगे तो बढ़ाती है, हमारी राहों को उजला भी करती है पर उन संस्कारों का क्या करें जो पैरों में बेड़ियां नहीं, पायल की तरह झनकारते हुए हम साथ ले आते हैं . गोया वे संस्कार एक तमगा, एक शिल्ड है गर्व करने के लिए.  सो संस्कारों से लंदे फंदे मानस का, शिक्षा और गले में लटके स्वर्णपदक भी क्या परिष्कार करते !

शादी के बाद लेखन का कम होतेहोते बंद हो जाना मुझसे ज़्यादा उनके लिए त्रासद था . शायद हर स्त्री के लिए शादी  के बाद का यह बदलाव और अपनी ‘स्पेस’ का छिन जाना जल्दी से पहचान में नहीं आता . वह एक लड़की से औरत और औरत से ‘मां’ के चमकदार ओहदे से इतनी आक्रांत रहती है कि अपना आप उसके हाथ से छिटककर कहीं दूर जा गिरता है. इस गिरने की आहट भी नहीं होती . अर्थसत्ता और पारिवारिक ज़िम्मेदारियों के सामने सबकुछ बड़ी सहजता से होम होता रहता है और नये नये परिवार की नयी ज़िम्मेदारियों के बीच वह उन्हें देख भी नहीं पाती. वह जो कोना मां ने संजोया था, अपने कहे जाने वाले तथाकथित घर में एक बार खोया तो ऐसा कि उसे ढूंढने में तेरह साल लग गए.


अक्सर औरतों के साथ यह होताहै और उन्हें इसकी पहचान भी नहीं होती. जब पहचान हुई तो उसे अपनी नोटबुक में इस तरह बयान किया - एक पढ़ी-लिखी हिदुस्तानी औरत की त्रासदी ही यह है कि पूरी तरह घर, पति और बच्चों को समर्पित, अपनी निजी जिंदगी का एक महत्वपूर्ण और सुनहरा हिस्सा वे अपना घर सुचारू रूप से चलाने में, अपने पति की रुचि और पसंद के अनुसार अपने आपको ढालने में, अपने बच्चों की पढ़ाई और उनके भविष्य की चिंता में होम कर देती है. अपने पति और बच्चों को आगे बढ़ते, फलते-फूलते देखकर वह एक लंबे अरसे तक अपने तईं परम तृप्त , अघाई रहती है, जब तक उसके सींचे हुए पौधे अपनी जड़ों में पानी डालने के लिए उसके मोहताज नहीं रह जाते. तब जाकर अपने आप को ढूंढने का उसका अभियान शुरु होता है पर उसका अपना आप उसके ढूंढे नहीं मिलता .

चालीस-पैंतालीस की उम्र के बाद यह औरत अचानक पाती हैं कि वह एक फालतू सामान की तरह घर में पड़ी है . बच्चे अपने पैरों पर खड़े हैं और मां उनके लिए बहुत बड़ी जरूरत नहीं रह गई है. पति के लिए वह एक ‘आदत’ बन चुकी है. अब या तो वह पुराने जमाने की औरत की तरह अपने तथाकथित ‘त्याग’ को लेकर आत्ममुग्ध स्थिति में गद्गद् भाव से प्रतिष्ठता हो ले या अपने बीते दिनों की जुगाली कर आंसू बहाए. होता यह है कि अपने घरेलू सिंहासन के आकस्मिक स्थानांतरण से बौखलाकर वह अपना मानसिक संतुलन खो बैठती है और अपने अस्तित्व की सार्थकता की तलाश  में छटपटाती है. इसे वह ‘मेनोपाॅज’ या ‘हाॅर्मोन्स’ के ‘इम्बैलेन्स’  का नाम देकर अपने को बहलाने में एक हद तक कामयाब भी हो जाती है. ज़ाहिर है, अपनी ‘स्पेस’, अपना कमरा और कमरे का वह कोना माइनस हो चुका होता है.

शायद इसीलिए जब वह कलमकागज़ मेरी जिंदगी से परे हो गए तो मुझसे ज़्यादा तकलीफ़ मां को हुई . हर उस औरत को होती है जो अपने बच्चों को अपनी सीमाओं का अतिक्रमण करते हुए देखना चाहती है और उसके सपनों के बूते ज़िंदा रहती है. अपनी बेटी को अपनी ही तरह, फिर से एक औरत होने के संजाल में भरभराकर ढहते देखना उसके लिए बहुत मारक होता है.

ख़ैर, यह स्थिति लंबी नहीं खिंची . लिखना शुरु हुआ और वह कोना जो घर में बाहर से ज़्यादा मन के भीतर था, रात को सबके सो जाने के बाद जगता था और घर के सदस्यों की चैन की नींद में खलल डाले बिना, अपनी बेचैनी को कागज़ पर उंड़ेलता था.  भारत में मध्यवर्ग की अधिकांश  महिला रचनाकारों का लेखन उस पसरती रात को ही आकार लेता है जब वह घर-गृहस्थी के सारे काम निबटा चुकती है, बच्चे और बड़े नींद के आगोश  में चले जाते हैं और वह किसी की जवाबदेह नहीं होती . वह समय उसका अपना होता है . रात के इसी प्रहर में आलोकित होता है वह कोना जिसकी उसे हमेशा  तलाश रहती है.

मेरा वह कोना भी लंबी  तलाश के बाद मुझे मिल ही गया और इसी कोने में मेरा ‘मैं’ ज़िंदा रहा . अब यह मेरी आदत से ज़्यादा मेरा जुनून बन गया है और मुझे यह कोना चाहिए ही. अब वह रात में ही नहीं , दिन-दोपहर-शाम, जो  कि चौबीस घंटे मेरे साथ होता है. खोई हुई चीज़ें जब मिल जाती हैं तो बड़ी बेशकीमती होती हैं. उन्हें हम ताउम्र संभाले रखना चाहते हैं.

नहीं, इसे पढ़कर परेशान न हों. बदल रहा है यह माहौल . मेरी दोनों बेटियों ने अपने बेशकीमती ‘स्पेस’ को शादी के बाद भी बरकरार रखा. आज की लड़की चाहे वह मध्यवर्ग की हो या निम्न वर्ग की , रात के ढलते प्रहर का इंतज़ार नहीं करती . वह अपने को ढूंढना, अपने को पाना सीख रही है . उसकी प्राथमिकताएं बदल रही हैं . हमने उन्हें यह पाठ बेशक न पढ़ाया हो पर हमारी पीढ़ी की कुलबुलाहट और अकुलाहट देख देखकर उसने खुद इस रोशनी को पहचान लिया है.

आज की पीढ़ी की लड़की,अपने जागने के लिए, सबके सोने का इंतज़ार नहीं करती . यह कितनी बड़ी सीख है जो उसने हमारी सीख के बग़ैर भी अपने लिए हासिल की है. उसके अपने कोने को छीनने का अब किसी को हक़ नहीं.        

पितृसत्तात्मक दृष्टिकोण और जैनेन्द्र (विशेष सन्दर्भ-‘पत्नी’ कहानी)

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आदित्य कुमार गिरि
शोधार्थी,कलकत्ता विश्वविद्यालय,. सम्पर्क : adityakumargiri@gmail.com

                                                                             -
“आज का साहित्य विमर्श स्त्री विमर्श के बिना पूरा नहीं होता,लेकिन ज्यादातर इसका रूप फैशन वाला ही है.बौद्धिक लफ्फाजी की शक्ल में लिखे गए लेख और संपादकीय प्रायः पत्र पत्रिकाओ में दिखाई पड़ते हैं लेकिन स्त्रियों की सामाजिक राजनैतिक सांस्कृतिक साहित्यिक स्थिति के संबंध में गंभीर विवेचनात्मक और तर्कपूर्ण लेखन का अभाव बना हुआ है.“1

असल में स्त्री को केन्द्र में रखकर लिखना महत्वपूर्ण होते हुए भी केवल यही मुख्य नहीं होना चाहिए.जबतक उसे किसी ‘दृष्टि’ से न लिखा जाए.बिना विजन के किए लेखन को फैशन का लेखन कहा जाता है.“स्त्री विमर्श को लेकर किए गए गंभीर कार्य इक्सवी सदी के खाते में नहीं बल्कि उससे पहले की सदियों के नाम दर्ज हैं.उभरते पूँजीवाद ने चिंतन के क्षेत्र में नए मुद्दे खड़े किए,जिनकी पहले अनदेखी होती आई थी.स्त्री का मुद्दा भी उनमें से एक था.स्त्री को लेकर इस उदार पूँजीवादी,बुर्जुआ चिंतन की सीमा है पर इसी ने सबसे पहले आगे बढ़कर स्त्री को ‘मनुष्यता’ के धरातल पर देखने की गुहार लगाई.“2

“समाज के नजरिए को बदलने औरस्त्रियों के सवालों को उठाने,स्त्री के संदर्भ में स्त्रियों के साथ साथ पुरुषों की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है,बल्कि स्त्री के सवालों को सहानुभूतिपूर्ण ढंग से सक्षम और समर्थ पुरुष विचारकों द्वारा उठाए जाने के बाद ही पुंसवादी वर्चस्व वाली सामाजिक चेतना के दुर्ग में सेंध लगी.स्त्री विमर्श के लिए एक सकारात्मक वातावरण बना.”3

इसी अर्थ में जैनेन्द्र के साहित्यको भी स्त्री विमर्श की बहस को पुरुष लेखक की ओर से आगे बढ़ाने वाला समझना चाहिए.जैनेन्द्र कुमार प्रेमचंद की परंपरा में आनेवाले कथाकार नहीं हैं.उन्होंने कथा-लेखन की अपनी अलग राह चुनी है.इस राह में वे कई कथा युक्तियों का प्रयोग करते हैं,जो उनसे पहले प्रयोग में नहीं लाई गई थी.जैनेन्द्र ने अपने कथा साहित्य में स्त्री के सवालों को एक नए दृष्टिकोण से उठाया है.

स्त्री के सवालों को उठाने के दौरान उसकी स्थिति और ‘परिवेश’ का बेहद महत्त्व होता है.जैनेन्द्र के कथा साहित्य को पढ़ते वक्त यह चीज़ ज्यादा स्पष्ट होती है.जैनेन्द्र जिस सत्य को प्रकट करना चाहते हैं उसके लिए ‘परिवेश’ बेहद महत्त्वपूर्ण है.उनकी कहानियों के पाठ से यह चीज़ और ज्यादा साफ होती है.वे परिवेश को एक “टूल” की तरह प्रयोग में लाते हैं.पूरी कहानी बेहद कम शब्दों में आगे बढ़ रही होती है लेकिन परिवेश के कारण कथा का यथार्थ बेहद तीव्रता से प्रकट होता है.

सुनंदा के माध्यम से स्त्री जीवन की एकगंभीर समस्या की ओर ध्यान दिलाने की कोशिश की गई है और साथ ही इसकी मूल जड़ की भी पड़ताल की गई है.यह अचानक नहीं है कि कथाकार ने कहानी का नाम ‘पत्नी’ रखा है.यह सुनंदा के बहाने असल में ‘पत्नी’ और परिवार के ‘ढ़ाँचे’ पर प्रश्न चिन्ह है.यह कैसी व्यवस्था है जहाँ एक तरफा नियम चलता है.जहाँ पुरुषों को असीमित अधिकार हैं लेकिन वहीं उसकी सहधर्मिणी(?) की भूमिकाएँ तय हैं.सीमीत हैं.उसकी व्य़क्तिगत जिन्दगी दायरे में बँधी है.

जैनेन्द्र को मनोवैज्ञानिक कथाकार कहकर हम छुटकारा नहीं पा सकते.असल में वे गहरे सरोकारों को व्यक्त करने वाले कथाकार हैं.इस कहानी में सुनंदा और उसके पति के माध्यम से परिवार के अस्तित्त्व पर प्रश्न चिन्ह लगाया गया है.

इस कहानी में पति के माध्यम से यहदिखाने की कोशिश की गई है कि पुरुष का दृष्टिकोण क्या है.आज स्त्री की मूल समस्या यही ‘दृष्टिकोण’ है.जिसकी ज़द में स्त्रियाँ भी हैं.स्त्रियाँ भी पुरुषवादी दृष्टिकोण के कारण स्त्रीवादी मूल्यों के आलोक में चीजों को नहीं देख पातीं.स्त्री को जिन मूल्यों के परिप्रेक्ष्य में देखा जाता है,वह पूरा का पूरा पितृसत्तात्मक दृष्टिकोण है.इस दृष्टिकोण ने समाज में अपनी इतनी पैठ कर ली है कि इस सोच से स्त्री भी मुक्त नहीं है.स्त्री भी खुद को पुरुषवादी दृष्टिकोण से देखने को अभिशप्त है.सुनंदा की तमाम चिंताएं अपने पति को लेकर है.उसका खान-पान,उसकी रक्षा,उसके दोस्त उसकी आवश्यकताएँ बस इन्हीं के ईर्द-गिर्द वह जीती है.जैनेन्द्र जानते हैं कि स्त्री का ‘समाज’ असल में पुरुष का समाज है.इस समाज में उसकी अपनी कोई ‘अस्मिता’ नहीं है.इसकी अपनी कोई इच्छा,कोई आवश्यकता,आशा-आकांक्षा नहीं है.

पत्नी’(यों) की चर्चा करते समय अब तक जिन मुद्दों पर बहस की गई है.असल में वे सब नाकाफी हैं.कहानी को पढ़ते हुए एकबारगी लगेगा जैसे सुनंदा(पत्नी) खुद अपने लिए कोई आजादी नहीं चाहती.उसकी आंखों में कोई सपना नहीं है,लेकिन सत्य इससे अलग है.भारत देश की पत्नियाँ अपने लिए जिस दृष्टिकोण को धारण किये हुए हैं और उनमें जो परिवर्तन परिलक्षित हैं,जैनेन्द्र ने असल में कहानी का मूल विषय उसे बनाया है.हम जिस समाज में रह रहे हैं,वहां स्त्रियां कोई सपना नहीं देखतीं.इनकी पूरी जिंदगी पति,पिता,पुत्र के लिए खुशियाँ इकट्ठी करने में लगी हुई हैं.

सुनंदा जिस घर में रहती है,जिन सरोकारों को जीती है उसे हम घर की चाहरदीवारी की जगह पर अगर समाज के रुप में देखें,तब बात और ज्यादा स्पष्ट होगी.सुनंदा भारतीय समाज की किसी भी एक आम स्त्री का प्रतिनिधित्व कर रही है.जिसकी पूरी जिंदगी और उसके सरोकार अपने पति(पुरुष) के ईर्द-गिर्द घूमते हैं.

जैनेन्द्र के अलावे अज्ञेय भी एक अलग तरीके से इसी सवाल को अपनी कहानी ‘रोज़’4 में उठाते हैं.वहां भी स्त्री की तमाम चिंताएँ अपने पति और मर चुके बच्चे की यादों को लेकर है.पतियों की एक अलग दुनिया जरुर है.जहां लोगबाग हैं,दोस्त-यार हैं.देश है,दुनिया है,दुनिया की चिताएं हैं.नहीं है तो सिर्फ स्त्री और स्त्री की चिंता.
देश की स्वतंत्रता,हिंसा,शोषण,समाज सभी विषयों पर पुरुषपात्र सोचता है,परंतु नहीं सोचता तो सिर्फ अपनी घर की स्त्री पात्र के संबंध में.जैनेन्द्र इसकी ओर भी इशारा करते हैं.‘पत्नी’ इस मुद्दे से भी टकराती है. कहानी की शुरुआत ही सुनंदा(पत्नियों)की स्थिति को प्रकट करने के लिए काफी है.यह शुरुआत पारंपरिक पत्नी के रूप को प्रस्तुत करती है लेकिन उसी वर्णन में सुनंदा का एक और रूप निकल कर सामने आता है.संभवतः जैनेन्द्र का उद्देश्य भी उसी रूप को विकसित करना रहा हो.वे परिवार की इस महत्त्वपूर्ण ईकाई के ‘शोषण’ पर ही चोट करना चाहते हैं.जैनेन्द्र की पत्नी कहानी असल में पत्नी के माध्यम से परिवार संस्था के शोषक रूप पर चोट है.यह इतना बारीक है कि एकबारगी पूरी कहानी पारंपरिक स्त्री के,पारंपरिक पत्नी जिसे संस्कारी(तथाकथित) कहा जाता है,की कहानी लगती है लेकिन यह पूरी कहानी बेहद बारीकि से ‘व्यंजनात्मक’ रूप से इस छवि का विलोम बनाती है.इसमें दिख रही पत्नी असल में अपनी स्थिति से असन्तुष्ट है.वह पुरुष द्वारा प्रदत्त अपनी भूमिका से विद्रोह की सीमा तक रुष्ठ है.


जैनेन्द्र के ‘नैरेशन’ में इस चीज़ को समझा जा सकता है “शहर के बाहर एक तिरष्कृत मकान......वहाँ चौके में एक स्त्री अंगीठी सामने लिए बैठी है.अंगीठी की आग राख हुई जा रही है.वह जाने क्या सोच रही थी.उसकी अवस्था बीस बाइस के लगभग होगी.देह से कुछ दुबली है और संभ्रान्त कुल की मालूम होती है.
एकाएक अंगीठी में राख होती हुई आग की राख पर स्त्री का ध्यान गया.घुटनों पर हाथ देकर वह उठी.उठकर कुछ कोयले लाई.कोयले अंगीठी में डालकर फिर किनारे ऐसे बैठ गई मानो दाय करना चाहती है कि अब क्या करुँ ? घर में और कोई नहीं है और समय बारह से ऊपर हो गया है.”5

यह पति की प्रतिक्षा करती पारंपरिक पत्नीका वर्णन है लेकिन इसी पत्नी की मनःस्थिति के बदलते बिन्दुओं को व्यक्त करती अगली पंक्तियाँ “वह जाने कब आएँगे.एक बज गया है.कुछ हो,आदमी को अपनी देह की फिक्र तो करनी चाहिए....और सुनंदा बैठी है.वह कुछ कर नहीं रही है.जब वह आएँगे तब रोटी बना देगी.वह जाने कहां कहां देर लगा देते हैं और कब तक बैठूँ.मुझसे नहीं बैठा जाता.कोयले भी लहक आए हैं और उसने झल्लाकर तवा अंगीठी पर रख दिया.नहीं,अब वह रोटी बना ही देगी.उने खीझकर जोड़ से आटे की थाली सामने खींच ली और रोटी बेलने लगी.”6

यह “झल्लाहट”,यह खीझ ही इस ,कहानी की ‘उपलब्धि’ है.एकबारगी लगता है यह पति की चिंता से उपजी खीझ है लेकिन असल में यह अपनी उपेक्षा और ‘बेकारी’ की चिढ़ है.यह एक ऐसी स्त्री की तलाश है जिसे अपनी उपेक्षा बर्दाश्त नहीं हो रही.भारतीय समाज में प्रेमचंद युग तक यह दुर्लभ था.यह जैनेन्द्र युग की ‘खोज’ है.जैनेन्द्र का कथा साहित्य इसी मामले में अलग है.जैनेन्द्र के सामने जो समस्या है वह यह है कि स्त्री सक्षम हो,सशक्त हो,लेकिन वे जानते हैं कि सबसे पहले उसे “स्व” का बोध हो,यह ज्यादा जरुरी है.असल में पुरुषवादी नजरिया स्त्री के लिए वह स्पेस नहीं देता,जो स्त्री के ‘स्व’ के लिए सबसे ज्यादा आवश्यक है.ऐसा नहीं है कि स्त्री ,जो परिवार की चिंता,उसकी देखभाल कर पा रही है,वह समाज के मुद्दे पर असफल हो जाएगी.परन्तु उसे वह सामाजिक स्पेस देना पड़ेगा.स्त्री सशक्तिकरण के बड़े-बड़े दावों के बीच उसकी बुनियादी समस्याएं कहीं-न-कहीं दब सी गई हैं.यह इसलिए क्योंकि स्त्री सशक्तिकरण के लिए पहले स्त्री की समस्याओं की पहचान जरूरी है,क्योंकि समस्याओं को समझे बिना सशक्तिकरण केवल कोरा नारा है.

जैनेन्द्र के साहित्य के केन्द्र में पुरुषवादी समाज का ‘दृष्टिकोण’ है.जिसने सदियों से स्त्रियों को गुलाम तो बनाए ही रखा है साथ ही स्त्रियों के अन्दर ‘हीन-भावना’ को भी जन्म दिया है.यह ‘दृष्टिकोण’ एक ऐसी व्यवस्था का जन्मदाता है जिसने पुरुष को श्रेष्ठ और स्त्री को ‘हीन’ बनाया(बताया) है.चूँकि स्त्री हीन है,कमजोर है,कम श्रेष्ठ(?) है अतः वह पुरुष की मातहत है,उसके अधीन है.उसके पास जो भी अधिकार(?) होंगे वे पुरुष समाज द्वारा प्रदत्त होंगे.जो ईकाई अधीन है,कमजोर है, जाहिर सी बात है उसकी समझ भी कम होगी,दुनियावी झमेलों की उसे समझ होगी नहीं.अतः वह दुनियायवी(सार्वजनिक) जगत से दूर रहे.यह स्त्री की सामाजिक जिन्दगी की मौत की अवधारणा और दृष्टि है.स्त्री चाहरदिवारी तक सीमित रहे,उसकी सामाजिक सांस्कृतिक,राजनीतिक भूमिका तय कर दी गई.


यह एक ऐसी व्यवस्था है जिसके द्वारा स्त्रियों की सार्वजनिक जीवन में भागीदारी रोकी जाती है और यह ऐसा मानती है कि स्त्री का जन्म ही पुरुष की अनुगामिनी बनकर रहने के लिए हुआ है.
‘पुंसवादी समाज की यह जनप्रिय व्यवस्था यह मानकर चलती है कि इसमें स्त्री-पुरुष और समाज,सबका कल्याण,सबका हित है.’7

जॉन स्टुअर्ट मिल स्त्री की पुरुषवादी समाज और पुरुषवादी व्यवस्था में स्त्री के प्रति मौजूद दृष्टि के विरोध में हैं.वे स्त्री के लिए स्पेस की बातें करते हैं.वे पुरुषवादी व्यवस्था के इतर स्त्री को अबतक न परखने का तर्क देते हैं और मानते हैं कि यही व्यवस्था एकमात्र आदर्श या विकल्प हो ही नहीं सकती.स्त्री और पुरुष के इस संबंध जिसमें स्त्री मातहत और पुरुष ‘रक्षक’(?) है,के लिए कोई वैज्ञानिक आधार या तर्क नहीं है बल्कि यह शुद्ध रूप से ‘शक्ति’ और सत्ता का खेल है.स्त्रियों की पारिवारिक नाकेबंदी को निर्दोष और गैरराजनीतिक दृष्टि से व्याख्यायित करना स्त्री के साथ अन्याय है.स्त्री के शोषण की इस अवधारणा को सत्ता,शक्ति और सम्पत्ति से जोड़कर देखना चाहिए.जॉन स्टुअर्ट मिल ने अपनी पुस्तकदि सबजुगेशन ऑफ वुमेन’(स्त्रियों की पराधीनता-प्रगति     सक्सेना,अनुवाद,राजकमल प्रकाशन,2002) में कहा है ‘स्त्रियों की निर्भरता दासता की आदिम अवस्था का ही एक रूप है.इसमें मौलिक पाशविकता का ऐब आज भी है.’8

स्त्री की तुलना स्टुअर्ट मिल ने दासोंसे की है.दास प्रथा तो समय के साथ खत्म हो गई लेकिन स्त्री का शोषण और स्थिति में आज तक कोई परिवर्तन नहीं आया बल्कि समय के साथ उसकी गंभीरता और बढ़ती ही गई है.“पूर्व स्थापित व्यवस्था में ऐसी ही शक्ति होती है,चाहे वह बिल्कुल ही सार्वभौमिक न हो,और चाहे इतिहास के लगभग हर युग में उससे विपरीत बेहतर व्यवस्था के महान व सुविख्यात उदाहरण हों,लेकिन वह लगभग हमेशा सबसे प्रतिष्ठित व समृद्ध समुदायों में पाई ही जाती है.इस स्थिति में भी,अत्यधिक सत्ता का स्वामी और प्रत्यक्षतः उसमें रुचि रखने वाला व्यक्ति सिर्फ एक होता है,जबकि जो इसका शिकार होते हैं,इसे भुगतते हैं,वे शब्दशः सभी होते हैं.पराधीनता स्वाभाविक व आवश्यक रूप से सभी लोगों के लिए अपमानजनक होती है,सिवाय उस व्यक्ति के जो शासक है या ज्यादा से ज्यादा उस व्यक्ति के लिए जिसे गद्दी का उत्तराधिकारी बनने की उम्मीद है.यह स्थिति स्त्री पर पुरुष की सत्ता से कितनी भिन्न है.”9

क्योंकि सत्ता में रहने की मानसिकता से पूरा पुरुष समाज लबरेज होता है.वह स्त्री को द्वीतीय नागरिक समझता है.वह उसे न्यूनतम सम्मान भी नहीं देता.उसकी इस दृष्टि ने स्त्री को हीन बना दिया है. जैनेन्द्र इसी दृष्टिकोण से लड़ रहे हैं.उनकी कहानियों में पुरुष समाज द्वारा विकसित व्यवस्था के प्रति रोष है और उस रोष को दिशा देने की कोशिश भी की गई है.जैनेन्द्र स्त्री की सामाजिक,राजनैतिक,सांस्कृतिक स्थिति पर पुरुषवादी सोच का विलोम तैयार करते हैं.वे इस व्यवस्था से असन्तुष्ट हैं.उनके पात्र बेहद छटपटा रहे हैं.पत्नी की,सुनंदा की उदासी और ऊब और दिनभर पति केन्द्रित क्रियाकलाप पाठकों में उसकी तीव्रता को स्पष्ट करते हैं.सुनंदा की स्थिति देखकर पाठक अगर क्रोधित होता है तो खुद सुनंदा भी एक अलग तरह की पात्र है.जैनेन्द्र रचित सभी स्त्री पात्र अपने आप में अद्भुत हैं लेकिन सुनंदा की निर्मिती सबसे मौलिक है.सुनंदा का चरित्र दो स्तरों पर निर्मित किया गया है.पहला वह जो पुरुषवादी समाज व्यवस्था की परिचित स्त्री है.जिसे अपने पति की चिंता है.उनके खाने पीने की,उनके रहने सहने की,उनके स्वास्थ्य की,उनके सामाजिक जीवन की,उनके दोस्तों की.वह हर घड़ी इन्हीं चीजों को सोचती रहती हैं.पति ने खाया नहीं,वे खा लेते,बहस बाद में करते,ज़रा धीरे धीरे बोलते,पुलिसवाले बाहर ही बैठे हैं,उन्हें नहीं पता क्या कि पुलिस वाले सादी वर्दी में हर घड़ी बाहर ही बैठे रहते हैं,क्या उन्हें इसकी थोड़ी भी परवाह नहीं आदि आदि.दूसरी ओर पति द्वारा अपनी उपेक्षा या हक न जताने पर उसका गुस्सा सब उसी पारंपरिक स्त्री को प्रस्तुत करते हैं.ठीक इसके उलट सुनंदा का एक और रूप है जो जैनेन्द्र की मौलिकता है और वह है उसका विद्रोही रूप.यह आधुनिक मूल्यों के आलोक में तैयार हुई एक स्त्री का रवैया(एटीट्यूड) है.जैनेन्द्र ने बड़ी बारीकि से इसे चित्रित किया है.सुनंदा का एक मन हमेशा पति केन्द्रित रहता है लेकिन व्यवहार में एक पक्ष ऐसा है जो पति की उपेक्षा से विचलित,नाराज है.वह पति से ‘संवाददीनता’ में प्रकट होता है.पति के कुछ भी पूछने और कहने पर ‘मौन’ रूप.वह खाना बनाने के सवाल(अनुरोध ?) पर चुप रहती है और खुद ब खुद बनाकर दे जाती है.पति इसे अपनी बेइज्जती समझते हैं,समाज और दोस्तों के सामने इसे असहजता की वजह के रूप में देखते हैं.यहाँ भी पुरुषवादी स्वार्थ दिखता है.उन्हें पत्नी की परवाह नहीं है,उन्हें इसकी भी चिंता नहीं कि पत्नी के मन में क्या चल रहा है वे केवल अपनी सामाजिक स्थिति को लेकर चिंतित हैं.उन्हें इस बात की लज्जा है कि सुनंदा के व्यवहार से दोस्तों में उनकी यह छवि बनेगी कि उनकी पत्नी ‘उनके कहने’ में नहीं.यह पत्नी की चिंता का नहीं,अपने अहम की चिंता का उदाहरण है.सुनंदा हमेशा अपने पति को खुश देखना चाहती है,उनके अनुरूप खुद को ढालना चाहती है लेकिन जब ‘व्यवहार’ की बात आती है तब वह अपने सोचे हुए के ठीक विपरीत करती है.यह भारतीय समाज में नई स्त्री के ‘स्व’ को रेखांकित करता प्रसंग है.यह स्त्री खुद की उपेक्षा को बरदाश्त नहीं कर पाती.


पूरी कहानी में पति-पत्नी में एक तनावकी सी स्थिति है.जबकि सुनंदा और कालिन्दीचरण के स्तर पर ऐसा कुछ नहीं लेकिन ‘व्यवहार’ में उनका यह तनाव प्रकट होता है.‘पत्नी’ कहानी पत्नी की कथित श्रेणी के बाहर एक नई स्त्री की ‘खोज’ है.पत्नी सुनंदा अपनी उपेक्षा और वर्तमान दशा से असन्तुष्ट है.यही कहानी की विशेषता है.जैनेन्द्र सुनंदा के माध्यम से परिवार में बल्कि कहना चाहिए परिवार से स्त्री के मोहभंग को प्रकट करते हैं.
स्त्री को कृतार्थ करने का भाव पुरुष समाज की अन्य विशेषता है.स्त्री जानती है वह निरी वस्तु है.पुरुष अपने अनुभवों में उसे शामिल नहीं करेगा.उससे कुछ भी ‘शेयर’ नहीं करेगा,वह अंदर ही अंदर घुटती रहेगी,जलती रहेगी लेकिन पुरुष उसे अपने अनुभवों का साझेदार नहीं बनाएगा,क्योंकि उसकी नज़र में वह केवल खाना बनाने और बच्चे जनने की मशीन है.वह सौन्दर्य की वस्तु है.बिस्तर की वस्तु है.उसकी उपस्थिति घर में भी बेहद उपेक्षित सी है.वह घर में भी केवल पुरुष की जरूरतों की भरपाई के लिए है.उसका पूरा अस्तित्तव पुरुष का ध्यान रखने और जरूरतों की पूर्ति भर तक सीमित है.उसे व्यक्ति समझा ही नहीं जाता.कहने का आशय यह है कि स्त्री को सामाजिक ईकाई के रुप में देखे जाने की जरुरत है.स्त्री भी एक आम मनुष्य है.उसे भी इंसान की तरह देखा जाना चाहिए.दूसरी महत्वपूर्ण चीज यह है कि स्त्री के लिए अब तक जिस दृष्टिकोण का प्रयोग किया जाता रहा है,उसकी जड़ों पर आघात करना सबसे ज्यादा जरुरी है.स्त्री की गुलामी(चाहे वह शारीरिक हो या मानसिक)उसकी शुरुआत परिवार से ही होती है.तो क्या यही कारण नहीं है कि जैनेन्द्र अपनी कहानी में परिवार और परिवार की एक महत्वपूर्ण,बल्कि कहना चाहिए कि दो महत्वपूर्ण ईकाई स्त्री और पुरुष को अपनी कथा का आधार बनाते हैंबस इन्हीं कारणों से जैनेन्द्र हिंदी कथा परंपरा में अलग दिखते हैं.क्योंकि स्त्री को लेकर उनका जो दृष्टिकोण है,वह बाकि कहानीकारों से बिल्कुल भिन्न है.वे अपने तरह के अकेले रचनाकार हैं

आज उत्तर-आधुनिक साहित्यिक परिदृश्यने स्त्री-विमर्श को साहित्य के केन्द्र में ला खड़ा किया है.कहना होगा कि बहुतेरे रचनाकार और उनका स्त्री को लेकर एक नया दृष्टिकोण है,लेकिन इन सबके बीच जैनेन्द्र की अपनी एक अलग पहचान है.क्योंकि वे स्त्री के लिए जिस स्पेस की मांग कर रहे हैं,वह आज भी बहुतेरे लेखकों के लिए दूर की कौड़ी है.उसकी दयनीय स्थिति को समाज में उसकी नियति की तरह प्रस्तुत किया जा रहा है.जैनेन्द्र इस मामले में स्पष्ट हैं कि स्त्री की इस दशा के लिए पुरुषवादी सोच जिम्मेदार है.पत्नी कहानी इस मायने में और ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाती है क्योंकि वह परिवार को एड्रेस करती है,जहां स्त्री की विडंबनाश्(शोषण) ज्यादा खुलकर सामने आती है.

स्त्रियों की स्थिति पर स्टुअर्ट मिलकहते हैं—“सामाजिक व प्राकृतिक सभी कारण मिलकर यह असंभव कर देते हैं कि महिलाएँ संगठित तौर पर पुरुषों की सत्ता का विरोध कर सकें.वे इस अर्थ में अन्य पराधीन वर्गों से भिन्न स्थिति में हैं कि उनके मालिक उनसे वास्तविक सेवा के अतिरिक्त कुछ और भी चाहते हैं.पुरुष केवल महिलाओं की पूरी पूरी आज्ञाकारिता ही नहीं चाहते,वे उनकी भावनाएँ भी चाहते हैं.सबसे क्रूर एवं निर्दयी पुरुष को छोड़कर सभी पुरुष अपनी निकटतम संबंधी महिला में एक जबरन बनाए गए दास की नहीं,बल्कि स्वेच्छा से बने दास की इच्छा रखते हैं—सिर्फ एक दास नहीं बल्कि अपना प्रायः अपना चहेता व्यक्ति चाहते हैं.अतः उन्होंने महिलाओं के मस्तिष्क को दास बनाने के लिए हर चीज़ का इस्तेमाल किया है.अन्य दासों के मालिक आज्ञाकारिता बनाए रखने के लिए भय का प्रयोग करते हैं—उनका खुद का भय या धार्मिक भय.स्त्रियों के मालिक साधारण आज्ञाकारिता से कुछ अधिक चाहते थे और उन्होंने शिक्षा के पूरे बल का इस उद्देश्य के लिए इस्तेमाल किया.बहुत बचपन से स्त्रियों को यह सिखाया जाता है कि उनका आदर्श चरित्र पुरुष से ठीक विपरीत होना चाहिए.इच्छा शक्ति और आत्म नियंत्रण नहीं बल्कि समर्पण और दूसरे के नियंत्रण के समझ झुक जाना गुण होना चाहिए.सारी नैतिकता उन्हें बताती है कि यह महिलाओं का कर्तव्य है और सभी मौजूदा भावनाओं के अनुसार यह उनका स्वभाव है कि वे दूसरों के लिए जिएँ,पूर्ण आत्मत्याग करें और स्नेह संबंधों के अतिरिक्त उनका अपना कोई जीवन न हो.स्नेह संबंधों से तात्पर्य सिर्फ उन संबंधों से है जिनकी उन्हें इजाजत है—वे पुरुष जिनसे स्त्री संबंधित हो या वे बच्चे जो पुरुष व उनमें एक अटूट व अतिरिक्त बंधन होते हैं.जब इन तीन चीजों को साथ रखते हैं—पहला,दो विपरीत लिंगों में स्वाभाविक आकर्षण,दूसरे,पत्नी की पति पर पूर्णतः निर्भरता,उसकी हर सुविधा व सुख या तो पति का इनाम होता है,या पूरी तरह से उसकी इच्छा पर निर्भर करता है,और अंतिम कि मानव इच्छा की जो मुख्य वस्तुएँ हैं,सम्मान और सामाजिक महत्वाकांक्षा की सभी चीजों सामानयतः एक स्त्री अपने पति के जरिए ही पाती है या पाने की कोशिश करती है.इन तीनों चीजों को साथ रखकर देखें तो स्पष्ट हो जाएगा कि स्त्री की शिक्षा व उसके चरित्र निर्माण की प्रक्रिया के केंद्र में पुरुष के लिए आकर्षक बनने का उद्देश्य न होना एक चमत्कार ही होता है.महिलाओं की बुद्धि पर साधनों के इस प्रभाव को हासिल कर पुरुषों के स्वार्थी स्वाभाव ने इसका पूरा पूरा महिलाओं को अधीन रखने के लिए भी किया हैउन्हें यह जतलाया गया कि विनम्रता,समर्पण और अपनी निजी इच्छा का पुरुष के हाथों पूर्ण अर्पण ही महिलाओं के शारीरिक आकर्षण का आवश्यक भाग है.क्या इस बात पर संदेह किया जा सकता है कि अन्य प्रकार की दासताएँ जिन्हें मानव जाति तोड़ने में कामयाब हुई है,वे अब तक टिकी रहतीं यदि साधन इतनी ही मेहनत से (अधीन) लोगों के दिमाग को झुकाने के लिए इस्तेमाल किए जाते हैं ?”10

“पितृसत्तात्मक समाज के पक्ष में तर्क देने वालों की भी यही दलील होती है कि पितृसत्ता सबसे पुरानी और सहज व्यवस्था है.सहज शायद इसलिए भी कि यहाँ बिना खून खराबा,युद्ध हिंसा,मार काट,संघर्ष के बिना ही एक वर्ग केवल लिंग के आधार परदूसरे से श्रेष्ठ मान लिया गया.उसे जीवनभर दूसरे वर्ग से हीन होकर उसके रहने को तैयार किया गया.इसलिए ऐसे लोगों को पितृसत्ता सबसे स्वाभाविक सत्ता लगती है.पुरुष का स्त्री पर आधिपत्य—हर प्रकार का पितृसत्तात्मकता के वकीलों को सबसे ज्यादा स्वाभाविक लगता है.”11


असल में यहाँ दिक्कत यह है कि स्त्री को शोषण हो रहा है इससे खुद स्त्री भी अनभिज्ञ है.यह एक ऐसी लड़ाई है जहाँ शोषित वर्ग को पहले यह विश्वास दिलाना होगा कि उसका शोषण हो रहा है फिर अगला कदम होगा.
आधुनिकता की बहस के साथ स्वतंत्रता और निजी का जो भाव जन्मा,स्त्री उससे बिल्कुल लाभान्वित नहीं हुई.स्त्री पूरी तरह से आधुनिकता की,नवजारगण की उपलब्धियों से दूर रही.उसके लिए नए आधुनिक समाज का कोई मतलब नहीं रहा.वह पहले ही की तरह ‘गुलाम’ रही,उपेक्षित रही.“पुंसवादी धारणा है कि स्त्रियों की स्वाभाविक योग्यता पत्नी और माँ बनने में ही है.ऐसा सोचने वाले विवाह को स्त्रियों के लिए कितना वांछनीय और आकर्षक नहीं बताते कि वे स्वेच्छया इस बंधन में बंधना चाहें.वे स्त्रियों के लिए विवाह को अनिवार्य बना देते हैं या तो यह अथवा कुछ नहीं.”12

कालिन्दीचरण की दृष्टि में सुनंदाकुछ भी बताने लायक जीव नहीं है.और सामाजिक राजनैतिक विषय तो बिल्कुल भी नहीं बताए जाने चाहिएँ.स्त्रियों को लेकर ऐसे दृष्टिकोण पर मिल लिखते हैं—“निस्संदेह यह प्रायः होता है कि एक व्यक्ति जिसने दूसरे के विचारों के एक विषय पर भलीभाँति व विस्तार से नहीं पढ़ा है,उसे स्वाभाविक विलक्षणता के परिणामस्वरूप एक आभास होता है जिसे वह सुझा तो सकता है पर सिद्ध नहीं कर सकता,लेकिन फिर जो परिपक्व होकर ज्ञान में एक महत्त्वपूर्ण कड़ी बन सकता है.....क्या यह मान लिया जा सकता है कि ऐसे अद्भुत विचार महिलाओं को नहीं सूझते ? हर बुद्धिमान महिला को ऐसे सैकड़ों विचार सूझते हैं.लेकिन अधिकतर वे विचार पति या एक ऐसे मित्र की कमी के कारण खो जाते हैं,जिसके पास यह दूसरा ज्ञान हो और उनके विचारों का ठीक ठाक अनुमान लगाकर उन्हें दुनिया के सामंने ला सकें.और जब वे दुनिया के समझ लाए भी जाते हैं तो वे उसके(पुरुष के) विचार अधिक लगते हैं,उसके मूल लेखक के नहीं.कौन बता सकता है कि पुरुष लेखकों द्वारा व्यक्त किए गए कितने सर्वाधिक मौलिक विचार दरअसल एक महिला द्वारा सुझाए गए थे और वे सिर्फ स्त्यापित करने व उन पर काम करने के बाद ही उनके अपने विचार बने ?”13

कालिन्दीचरण ‘भारतमाता को स्वतंत्र’ करने और “देशोद्धार” की बातें करते हैं.इसका ‘नैरेटिव’ इतना सुंदर है कि इससे कथा के तनाव को समझा जा सकता है.पूरी घटना का विवरण ऐसे दिया जा रहा है मानो कहानीकार ‘नैरेट’ नहीं कर रहा बल्कि सुनंदा ‘नैरेट’ कर रही है और यह ‘नैरेशन’ एक “ताना” हो.यानी जिस आदमी को अपनी पत्नी की समस्याएँ नहीं दिख रही हैं वह एक और(अन्य) औरत(भारतमाता) को आजाद करने निकला है.
सुनंदा उनकी बातों को सुन रही होती है.“सुन रही है कि उसके पति कालिन्दीचरण अपने मित्रों के साथ क्यों और क्या बातें कर रहे हैं.उसे जोश का कारण नहीं समझ में आता.उत्साह उसके लिए अपरिचित है.वह उसके लिए कुछ दूर की वस्तु है,स्पृहणीय मनोरम और हरियाली.यह भारत माता की स्वतंत्रता को समझना चाहती है.उसे इन लोगों की इस जोरों की बातचीत का मतलब समझ में नहीं आता.फिर भी,सच उत्साह की उनमें बड़ी भूख है.जीवन की होंस उनमें बुझती सी जा रही है,पर वह जीना चाहती है.उसने बहुत चाहा कि पति उससे भी कुछ देश की बातें करें.उसमें बुद्धि तो जरा कम है पर धीरे धीरे क्या वह भी समझने नहीं लगेगी ? सोचती है, कम पढ़ी हूँ,तो इसमें मेरा ऐसा कसूर क्या है ? अब तो पढ़ने को मैं तैयार हूँ लेकिन पत्नी के साथ पति का धीरज खो जाता है.खैर,उसने सोचा है उसका काम तो सेवा है.बस,यह मानकर जैसे कुछ समझने की चाह ही छोड़ दी है.“14

सुनंदा के जीवन से “उत्साह” जातारहा है.और वह हर तरह से नीरस जिन्दगी जी रही होती है लेकिन फिर भी उसमें जीने की ‘चाह’ है वह अपने पति की उपेक्षा की टीस से घायल है.वह अपने पति से खुद के लिए समय चाहती है,परवाह चाहती है,उनकी बातों और अनुभवों की साझेदार बनना चाहती है.वह यह भी मानने को तैयार है कि वह कम जानती है,कम पढ़ी लिखी है लेकिन पति के सिखाने पर वह जल्द ही सीख जाएगी सबकुछ समझ जाएगी.यह पूरा नैरेशन असल में सुनंदा(ओं) की उपेक्षाओं का दस्तावेज है.सुनंदा हर सूरत में अपने अकेलेपन जो कि इस पुरुषवादी समाज की देन है क्योंकि पति अपने अनुभव पत्नी से बाँटेगा नहीं और पत्नी चाहरदीवारी में कैद है,ऐसी पत्नियों का एकांत भी असल में समाज प्रदत्त ही है.स्त्री के प्रति इस रवैये ने उसे ‘आत्महीनता’ से भर दिया है.वह अपने को पति(पुरुष) से कम कर आँकने लगी है जबकि उसे यह मालूम ही नहीं कि जिन अनुभवों को उसने जिया ही नहीं उसके आलोक में कोई आकलन कैसे संभव हो सकता है.उसका खुद को “सेवा” करने वाली समझना असल में ‘नैरेटर’ की व्यंजना है.सुनंदा(ओं) की स्थिति देखकर कोई भी कह सकता है कि वह ‘सेवक’ से अधिक कुछ है भी नहीं.“वह अनायास भाव से पति के साथ रहती है और कभी उनकी राह में आने का नहीं सोचती.वह एक बात जानती है कि उसके पति ने अगर आराम छोड़ दिया है,घर का मकान छोड़ दिया है,जानबूझकर उखड़े उखड़े और मारे मारे जो फिरते हैं,इसमें वे कुछ भला ही सोचते होंगे.....पति ने कहा भी है कि तुम मेरे साथ क्यों दुख उठाती हो,पर सुनकर वह चुप रह गई है.”15

जिस पितृसत्तात्मक समाज ने सुनंदाओंको सामाजिक आर्थिक रूप से पिछड़ा बना दिया है,जिसकी आर्थिक निर्भरता पूरी तरह से पति(पुरुष) केन्द्रित हो उससे यह कहना कि वह उनके साथ क्यों दुख उठा रही है एक क्रूर व्यंग्य ही कहा जाएगा.पूरी कहानी में ‘नैरेशन’ के दौरान सुनंदा की बातें आँखें खोलने का काम करती हैं.सुनंदा की बेचारगी का ‘नैरेशन’ असल में पितृसत्तात्मक समाज की क्रुरताओं का प्रकटीकरण है.जैनेन्द्र इसमें सफल भी होते हैं.सुनंदा अपनी स्थिति को लेकर सोचते हुए भी पति केन्द्रित सोच से निकल नहीं पाती.कहानीकार यह चाहता भी नहीं कि वह निकले.झकमारकर,झल्लाकर सोचना उसने पति को लेकर ही है क्योंकि उसके पास और विषय भी तो नहीं हैं.उसका पति को लेकर चिंता करना,खुफिया पुलिस के आदमी की तैनाती
सेअनभिज्ञ(लापरवाह) पति की चिंता और इन तमाम चिंताओं में ‘खोए’ बच्चे की यादें.“वे बड़ी प्यारी आँखें,छोटी छोटी उँगलियाँ और नन्हें नन्हें ओंठ याद आते हैं.अठखेलियाँ याद आती हैं.सबसे ज्यादा उसका मरना याद आता है.”16

आधुनिक काल में रेनेसां की तमाम बहसों और उपलब्धियों को ध्यान में रखकर सोचा जाए तो यह निष्कर्ष निकलेगा कि स्त्री को उनसे कुछ नहीं मिला.वह न आजादी ले सकी,न ‘स्व’ की भावना आई और न ‘निजी समय’ और ‘विषय.‘पति के पूछने पर “खाने वाले हम चार हैं.खाना हो गया ?”“सुनंदा चून की थाली और चकला बेलन और बटलोई वगैरह खाली बरतन उठाकर चल दी,कुछ भी बोली नहीं.”17


यह पत्नी का सत्याग्रह(अहिंसा) है.पति के ‘विनयात्मक’ वाक्य पर उसकी प्रतिक्रिया भी ‘मौन’ ही होती है लेकिन उस दौरान भी वह मन में सोचती है.सोचती है “यहा उससे क्षमा प्रार्थी से क्यों बात कर रहे हैं.हँसकर क्यों नहीं कह देते कि कुछ और खाना बना दो.जैसे मैं गैर हूँ.अच्छी बात है,तो मैं भी गुलाम नहीं हूँ कि इनके ही काम में लगी रहूँ.मैं कुछ नहीं जानती खाना वाना.”18

यहाँ दो चीजें ध्यान देने योग्य हैंपहली सुनंदा पति से “मित्रवत्” व्यवहार चाहती है,दूसरे वह बोलती कुछ नहीं.मित्रवत व्यवहार उसकी ‘इच्छा’ को व्यक्त करती है, चुप रहना उसके ‘विरोध’ को.उसके अन्दर कितनी छटपटाहट है,कितनी पीड़ा है इसे इस वर्णन से समझा जा सकता है“कालिन्दीचरण ने जोर से कहा-सुनंदा. सुनंदा के जी में ऐसा हुआ कि हाथ की बटलोई को खूब जोर से फेंक दे.”थोड़ी देर पहले के सुनंदा और और इस सुनंदा में ज़मीन आसमान का फर्क है बल्कि कहना चाहिए मन की सुनंदा और व्यवहार की सुनंदा में ज़मीन आसमान का फर्क है.कालिन्दीचरण अहिंसावादी होते हैं.वे अहिंसात्मक तरीके से देश की आजादी के प्रयासों को आगे बढ़ते देखना चाहते हैं लेकिन जब पत्नी से “झगड़ा” हो जाता है तब आकर ‘हिंसा’ का समर्थन करने लगते हैं.“कालिन्दी अपने दल में उग्र नहीं समझे जाते थे,किसी कदर उदार समझे जाते हैं.....कुछ लोग उनके धीमेपन पर रुष्ठ भी हैं.वह दल में विवेक के प्रतिनिधि हैं और उत्ताप पर अंकुश का काम करते हैं......पर जब सुनंदा के पास से लौटकर आए तब कालिन्दी अपने पक्ष पर दृढ़ नहीं हैं.वह सहमत हो सकते हैं कि हाँ आतंक जरूरी भी है.”19

जैनेन्द्र ने ऐसे कालिन्दी और सुनंदा केतनाव का रूपक तैयार किया है.पत्नी का ‘असहयोग’ पति के लिए अहिंसा से हिंसा में गमन बन जाता है.यह सुनंदा के विरोध की जीत होती है.सुनंदा(ओं) की दशा के लिए जिम्मेदार तत्त्वों से सुनंनदाएँ अब ऐसे ही विरोध करें.पत्नी केवल पति की सुख सुविधाओं के ध्यान के लिए जन्मी है.वह अपने लिए कुछ नहीं कर सकती.वह अपने लिए तो तब कुछ करे जब पति से अलग उसकी कोई जिन्दगी हो.जैनेन्द्र की सुनंदा में लेकिन यह ‘स्व’ आ चुका है.“सुनंदा ने अपने लिए कुछ बचाकर नहीं रखा था.उसे यह सूझा ही न था कि उसे भी खाना है.अब कालिन्दी के लौटने पर जैसे उसे मालूम हुआ कि उसने अपने लिए कुछ बचाकर नहीं रखा है.वह अपने से रुष्ट हुई.उसका मन कठोर हुआ.इसलिए नहीं कि क्यों उसने खाना नहीं बचाया.इसपर तो उसमें स्वाभिमान का भाव जागता था.मन कठोर यों हुआ कि वह इस तरह की बात सोचती ही क्यों है ? छिः.यह भी सोचने की बात है और उसमें कड़वाहट भी फैली.हठात् यह उसके मन को लगता ही है कि देखो उन्होंने एक बार भी नहीं पूछा कि तुम क्या खाओगी.क्या मैं यह सह सकती थी कि मैं तो खाऊं और उनके मित्र भूखे रहें.पर पूछ लेते तो क्या था.”20

दो दो सुनंदाओं का द्वंद.पहली सुनंदा पति के सुख से सुखी और दूसरी अपनी उपेक्षा से दुखी,विद्रोही.यह दूसरी सुनंदा ही जैनेन्द्र युग की देन है.

संदर्भ ग्रंथ
1.सिंह,सुधा,’ज्ञान का स्त्रीवादीपाठ’,प्रथम संस्करण 2008,ग्रन्थ शिल्पी(इंडिया)प्राइवेट लिमिटेड,दिल्ली. पृ 19
2.वही,पृ 19
3.वही,पृ 19
4.’अज्ञेय’ सम्पूर्ण कहानियाँ,संस्करण 2004,राजपाल एंड सन्ज,कश्मीरी गेट,दिल्ली 110006,(पृ207-215).
5.कुमार,जैनेन्द्र,’पत्नी’,’आधुनिक कहानियाँ’,सं. सुनीता,प्रथम संस्करण 2012,आनंद प्रकाशन,कलकत्ता 700007,पृ 27
6.वही,पृ 27
7. सिंह,सुधा,’ज्ञान का स्त्रीवादीपाठ’,प्रथम संस्करण 2008,ग्रन्थ शिल्पी(इंडिया)प्राइवेट लिमिटेड,दिल्ली. पृ 21
8.सक्सेना,प्रगति,स्त्रियों की पराधीनता,(अनुवाद),2002,राजकमल प्रकाशन,नई दिल्ली 110002,पृ 37
9.वही,पृ 41-42
10.वही,पृ46-47
11. सिंह,सुधा,’ज्ञान का स्त्रीवादीपाठ’,प्रथम संस्करण 2008,ग्रन्थ शिल्पी(इंडिया)प्राइवेट लिमिटेड,दिल्ली. पृ24
12.वही,पृ 30
13. सक्सेना,प्रगति,स्त्रियों की पराधीनता,(अनुवाद),2002,राजकमल प्रकाशन,नई दिल्ली 110002,पृ 102
14. कुमार,जैनेन्द्र,’पत्नी’,’आधुनिक कहानियाँ’,सं. सुनीता,प्रथम संस्करण 2012,आनंद प्रकाशन,कलकत्ता 700007,पृ 28
15.वही पृ28
16.वही 29
17.वही 29
18.वही पृ29
19.वही पृ30
20.वही पृ31

वो निशान जो लाल-नीले नहीं होते

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सुमन उपाध्याय
स्वतंत्र लेखन,टी.वी.सीरियल्स में संवाद लेखन,विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में रचनायें प्रकाशित . संपर्क :sumanbala.umesh@gmail.com

1.
वो निशान जो लाल-नीले नहीं होते
ना फूटते हैं ना बहते हैं
पर रिसते-टीसते रहते हैं,
हर पल हर क्षण,
होते हैं, अपने पूरे वजूद के साथ
यमराज के साए से संतप्त
मन के सीलन भरे कोने में
मकड़ी के जालों से जूझते
कतरा भर रोशनी को तरसते
ना कोई दवा ना कोई दुआ
कोई स्थूल मसीहा नहीं,
असहाय स्वयं से
नहीं समझ पाते, कि
मसीहा पैदा नहीं होते
पैदा किये जाते हैं
स्वयं ही जगाना पड़ता है
--अपने अंतर के सोये मसीहे को !!

2.
वो लाल-उजले गुण
जिस पर दुनिया-जहान वारे जाते
ताड़ना की टोकरी  बन जाती है
अधिकार पाते ही,
जैसे हस्तगत करना ही लक्ष्य हो !!
जाने कैसे कालपुरूष की बौद्धिक प्रखरता
घुटनों में आ जाती है,
और होठों की खिलखिलाती हंसी
व्यंग्य की तिरछी मुस्कान बन जाती है
हर ढलती शाम जाने कहाँ से पा जाती है
एक नए रंग और नाम का ठेंगा !
साहस फिर भी कम न होता
क्षण-क्षण दम तोड़ती प्रतिभा की
और जोहती बाट—अगले जनम की !!

3.
हर शाम वो आता 
अपने जूते फटकारता,
काले साए सा दाखिल होता दरवाजे से
दंभ के निशान छोड़ता आगे बढ़ता
धंस जाता घर की आत्मा में !

अपने होने के गुमान में फुफकारता
पूरे होशो-हवास में, बेसुध
डंसता ऐसा, कि
महकता खिलता बागीचा बदल जाता
कब्रिस्तान में !
और कब्र में दफ़न सारे मुर्दे
सुबह के इंतज़ार में कुलबुलाते रहते
अपने-अपने ताबूतों में !!

4.
सपनों में सिलवटें पड़ने लगी हैं
भोर का उजास लुभाता भी नहीं
अंतर की उदासी भी बंटती नहीं
दिवानगी ठिठकी खड़ी है
और कुण्डी चढ़ा दी है सयानेपन ने !
बालमन दौड़ना चाहे
बहुरूपियों और जंगमों के पीछे,
हो-हो कर झूठ-मूठ डरना चाहे
उसके लाल-काले-नीले चेहरे से,
पर बचपन की आवारगी और अल्हड़ता
का चेहरा ज़र्द हो गया है !
अब नहीं बहते--
चपल-चंचल हंसी के झोंके !
लुप्त होने लगी है—
आँखों से कौतूहल और मासूमियत !
क्योंकि हर चेहरे की आँखें
भेड़िये सी दिखने लगी हैं,
और दिखने लगे हैं
--हाथों के लम्बे नाखून और उनसे टपकता लहू !!

5.
वो जीते-जागते हँसते-बोलते
परछाइयों में तब्दील हो जाते हैं,
चलती-फिरतीं परछाइयाँ !
हाँ, परछाइयाँ !

क्योंकि परछाइयाँ होतीं हैं,
शब्दहीन और शक्ल विहीन !
जहाँ संवादों के नाम पर होते हैं
सिर्फ, कुछ शारीरिक हरकतें !

जहाँ वेदना-संवेदना होती तो हैं
पर जर्जर शिरायें उस सन्देश को,
चेतना तक पहुंचा ही नहीं पातीं !

खामोशी का डेसिबल
ऋणात्मकता के उस हिस्से को छू लेता है
जहाँ अपने दिलों की धड़कनें ही
झंझावात पैदा करने लगतीं हैं !
जहाँ स्वयं के विचार सजीव हो उठते हैं
और फिर, असह्य हो जाती है - तिलमिलाहट !

परछाइयाँ भागतीं हैं- फिर से उसी शोर की ओर
और चलती रहतीं हैं, हम कदम बन
हाथों में हाथ डाले !
अपने विचारों के एक सौ अस्सी डिग्री पर !
साथ-साथ ! आजीवन !



समाज, संसाधन और संविधान बचाने के लिए एकजुट हों - मेधा पाटकर

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जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय (एनएपीएम) का तीन दिवसीय राष्ट्रीय सम्मेलन हुआ आरंभ


एनएपीएम के  ​11 वां द्विवार्षिक राष्ट्रीय सम्मेलन का आगाज सांस्कृतिक तरीके से 20 राज्यों के जनप्रतिनिधि और आन्दोलन के साथियों के बीच हुआ. बिहार से रमेश पंकज, महेंद्र यादव ने सम्मेलन ​की भूमिका बांधते हुए सबका स्वागत किया और बिहार में हो रहे अन्याय और दमन को पूरे देश के मुद्दों के साथ साझा किया, जिसमें जमीन से लेकर नदियो, मजदूर, किसान, मछुआरे सभी के मुद्दे अहम् है ऐसा बताया. समाज संसाधन और संविधान पर चौतरफा हमले हो रहे हैं. इस हमले के खिलाफ कश्मीर से कन्याकुमारी तक और उत्तर पूर्व से गुजरात तक के लोगों और जन आन्दोलनों को एक साथ आना होगा. अगर हम आज इकट्ठे हो कर आगे नहीं आयें तो संविधानिक मूल्यों को बचाना मुश्किल होगा. मशहूर सामाजिक कार्यकर्ता मेधा पाटकर ने यह बात शुक्रवार को जन आन्दोलनों का राष्ट्रीय समन्वय के 11वें राष्ट्रीय सम्मेलन के उद्घाटन सत्र के मौके पर कहीं.



मेधा पाटकर ने जल, जंगल और ज़मीन के लिएआन्दोलन कर रहे साथियों से कहा कि हमें सिर्फ ज़मीन ही नहीं, ज़मीर भी बचाना है. आत्मसम्मान कि हिफाजत करनी है | उन्होंने जन आन्दोलनों को वक़्त की जरुरत बताया. मेधा ने कहा कि हमें चुनावी राजनीती से अलग और आगे जा कर सोचना और काम करना होगा. उन्होंने अलग अलग आन्दोलनों को याद करते हुए कहा कि हमें भी आन्दोलन के तौर तरीकों पर गौर करना होगा और नयी सोच के साथ युवाओं को जोड़ते हुए आगे बढ़ना होगा.

​​उद्घाटन सत्र को देश भर के अलग अलग जन आन्दोलनों से जुड़े कार्यकर्ताओं ने संबोधित किया.

असहमत विचारों को चुप करने की कोशिश : उमर खालिद
जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय (जे.एन.यू) के छात्र आन्दोलन के प्रतिनिधि उमर खालिद ने अपनी बात की शुरुआत बिहार में दलितों के नरसंहार पर आये हाल के फैसलों से की. उनका कहना था कि कितने ताज्जुब की बात है कि दलित मारे गए और किसी को सजा नहीं हुई. आंखिर कैसे? मगर जन आन्दोलनों का ही दवाब था क आज रणवीर सेना कहीं नहीं है. उमर ने कहा कि हमारा आन्दोलन छात्रों तक सीमित नहीं है. हमारे आन्दोलन का जुड़ाव समाज में चल रहे दूसरे जन आन्दोलनों के साथ भी है. उन्होंने कहा कि मौजूदा दौर की सरकार राज्य की ताकत का इस्तेमाल कर असहमत विचारों को चुप कराने के लिए कर रही है. नजीब के लापता होने के बाद जे.एन.यू में एक ख़ास समुदाय के विद्यार्थियों में दहशत का माहौल है. उन्हें डराया और धमकाया जा रहा है.



​​हमारी लड़ाई जाति व्यवस्था को ख़त्म करने की है : डोंथा प्रशांत
हैदराबाद सेंट्रल यूनिवर्सिटी के रोहित वेमुला के साथी और अम्बेडकर स्टूडेंट एसोसिएशन के प्रतिनिधि डोंथा प्रशांत ने कैंपस में दलित विद्यार्थियों के साथ होने वाले भेदभाव के बारे में विस्तार से बात की. उन्होंने अम्बेडकर को याद करते हुए कहा कि हमने कैंपस में आत्मसम्मान के आन्दोलन की शुरुआत की. जब हमने देश के अलग अलग हिस्सों में दलितों, अल्पसंख्यकों पर हो रहे हमले के खिलाफ आवाज़ उठाई तो हमारी आवाज़ को कुचलने कि हर मुमकिन कोशिश की गयी. हमारे विचार डा अम्बेडकर के विचार हैं. आज इसी विचार को कैम्पस में खतरनाक और राष्ट्र के खिलाफ माना जा रहा है. रोहित की मौत संस्थानिक हत्या का एक जीता जागता उदाहरण है. उन्होंने कहा कि विश्वविद्यालय का माहौल हमारे लिए जेल के माहौल से भी बदतर है. हमारे लिए सबसे महत्वपूर्ण है कि जाति ख़त्म करने की लड़ाई लड़ी जाए. यही डॉक्टर आंबेडकर का ख्वाब था और रोहित का सपना भी. हमारे लिए जाति ख़त्म करने का मतलब भोजन, शिक्षा, स्वास्थ्य का अधिकार और लैंगिक समानता भी है.

जानवरों की तरह जी रहें हैं बस्तर के आदिवासी : सुनीता
बस्तर की सुनीता ने बेगुनाह आदिवासियों पर हो रहे ज़ुल्म की दास्तान सुनाई. उसने बताया कि किस तरह आम आदिवासियों को पुलिस पकड़ कर ले जाती है और उसे नक्सली बता कर मार देती है. महिलाओं के साथ यौन हिंसा की जा रही है. आदिवासी जंगलों में जानवरों कि तरह डर और छिप कर रह रहे हैं.

​​ट्रांसजेंडर को भी मिले संवैधानिक हक: ग्रेस बानो
तामिलनाडू से आई ग्रेस बानो देश की पहली दलित ट्रांसजेंडर इंजिनियर हैं. उन्होंने कहा कि ट्रांसजेंडर भी इंसान हैं और संविधान ने उन्हें भी बाकी लोगों जैसा सामान अधिकार दिया है. लेकिन हमें वे अधिकार नहीं मिल रहे हैं. ट्रांसजेंडर के लिए जो नया कानून बनाने की कोशिश हो रही है उसमें कई खामियां हैं इसलिए हमारी मांग है कि इसे बनाने में हमारी भागेदारी भी होनी चाहिए. उन्होंने सम्मेलन में मौजूद लोगों से ट्रांसजेंडर के प्रति होने वाले भेदभाव पर चुप्पी तोड़ने की अपील की. ग्रेस का कहना था कि मौन भी एक हिंसा है.

​​नफरत की राजनीती के खिलाफ सतत प्रयास जरूरी : आशीष
बिहार में काम कर रहे जन जागरण शक्ति संगठन के आशीष ने कहा की विधानसभा चुनाव के दौरान बिहार की ज़मीन पर नफरत के बीज बोने की खूब कोशिश की गयी. मगर जनआन्दोलनों से जुड़े लोगों ने इस नफरत की राजनीती के खिलाफ गाँव गाँव अभियान चलाया. इसका नतीजा हमें चुनाव में देखने को मिला और नफरत फैलाने वाली ताकतें परास्त हुई. यह ताकतें चुनाव में भले हारी हों लेकिन वे आज भी सक्रिय हैं और जनता को बांटने में लगी हैं. हम जब तक इकट्ठे इन शक्तियों के खिआफ सतत अभियान नहीं चलाएंगे तब तक इन्हें असली पराजय नहीं मिलेगी.

राष्ट्रीय सेवा दल के सुरेश खेरनार ने कश्मीर के मौजूदा हालात की विस्तार से चर्चा की.
उन्होंने कहा कि कश्मीर के लोगों की समस्या के लिए हम सब को आगे आना होगा. उनकी आवाज सुननी होगी. उन्हे अपना राह चुनने की आजादी मिलनी चाहिए. उन्होंने 23 मार्च को कश्मीर चलने का आह्वाहन किया. इनके अलावा उड़ीसा के लिंगराज भाई ने मलकानगिरी, वेणुगोपाल ने केरल में, समर बागची ने बंगाल में चल रहे संघर्ष के बारे में बताया.

तीन दिनों का यह सम्मेलन पटना के ऐतिहासिक अंजुमन इस्लामिया हॉल में 2 दिसम्बर को शुरू हुआ. इस सम्मेलन में 20 राज्यों के 200 से ज्यादा जन आन्दोलनों से जुड़े संगठनो के लगभग 1000 प्रतिनिधि भाग ले रहे हैं| सम्मेलन “अस्मिता अस्तित्व और जन आन्दोलन” पर केन्द्रित है | सम्मेलन में 5 अलग-अलग सत्रों में अलग अलग मुद्दों पर गहन चर्चा हुई|

अधिक जानकारी के लिए संपर्क करें - 
महेंद्र यादव 9973936658​, आशीष 9973363664, हिमशी 9867348307

फेसबुक की खिड़की से झांकती ललनायें/असूर्यमपश्यायें

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निवेदिता
पेशे से पत्रकार. सामाजिक सांस्कृतिक आंदोलनों में भी सक्रिय .एक कविता संग्रह ‘ जख्म जितने थे’. भी दर्ज कराई है. सम्पर्क : niveditashakeel@gamail.com 
सोशल मीडिया ने एक स्पेस दिया है, पब्लिक स्फीअर का एक प्लेटफ़ॉर्म बनाया है, जहां वंचितों ने अपनी दावेदारी ठोक दी है, किसी निर्णायक, संपादक या पितृसत्ताक या ब्राहमणवादी-सामन्तवादी लठैत की दखल को धत्ता जताते हुए. एक वातायन है सोशल मीडिया, फेसबुक उस वातायान के एक रूप, जिसने स्त्रियों को अभिव्यक्ति की आजादी है, पारम्परिक संस्थाओं और मूल्यों की चूलें हिलने लगी हैं. सबलोग के दिसंबर अंक में  स्त्रीकाल कालम के लिए इसी नई फिजां पर कवयित्री, पत्रकार और स्त्रीकाल के संपादन मंडल की सदस्य निवेदिता का लेख. 

अभिव्यक्ति विद्रोह का पहला क्षण हैं . यह बात सबसे ज्यादा इस दौर में समझ में आती है . यह नया दौर जनसंचार का दौर है. जिसने दुनिया को एक सिरे में बांध दिया. हमारे बीच आभासी दुनिया का ऐसा विस्तार हुआ कि समाज की नींव दरकने लगी. फेसबुक एक चारागाह बना जिसने दुनिया के तमाम नस्लों को चरने के लिए जमीन दी. यहां तक तो सब ठीक था पर जैसे ही इस जमीन पर स्त्री ने चरना शुरु किया पृथ्वी हिल गयी. ये एक ऐसा विस्फोट था जिसने समाजिक,पारवारिक ताना-बाना तहस नहस कर दिया. पुरुषों की बनायी दुनिया बिखरने लगी. फेसबुक ईजाद करने वाले मार्क जुकर बर्ग   को भी पता नहीं था कि उनके इस अविष्कार से दुनिया की छवि बदल जायेगी. इस आभासी दुनिया ने हमारे जीवन से बहुत कुछ छीन लिया पर जो उसने दिया वह स्त्री की अभिव्यक्ति का एक सशक्त माध्यम बना. उसके लिए निर्धारित आदर्श वाक्य है-‘मैं चुप रहूंगी‘ क्योंकि ज्ञान पर पुरुषों का अधिकार था. वह उसका रचयिता था. ज्ञान कौन रच रहा है और कब वह रचा जा रहा है,इस से ज्ञान का स्वरुप तय होता है. यह बात अब स्त्रियों को समझ में आ रही है. वे जान रही हैं कि कैसे वर्चस्वकारी समूह असमान और अन्यायी सामाजिक संबंध बनाते हैं और उसे बरकरार रखते हैं.

ऐसा नहीं है कि इस माध्यम ने स्त्री को मुक्त कर दिया.या ये माध्यम स्त्री के प्रति ज्यादा संवेदनशील है. जन संचार का सबसे ज्यादा उपयोग स्त्री को बस्तु में बदलने के लिए किया जा रहा है. पर यह इस माध्यम की मजबूरी है कि वह नहीं चाहते हुए भी अभिव्यक्ती की आजादी देता है. उसकी पहुंच घरों की चारदीवारी के भीतर भी है और बाजार में भी है. ऐसा नहीं है कि फेसबुक आने के पहले स्त्री रच नहीं रही थी. लोहा नहीं ले रही थी. समाज से लड़-भिड़ नहीं रही थी. पर इस माध्यम ने उसे व्यक्तिगत आजादी का स्वाद चखाया. वह खुद को खोल रही है, प्रेम गली में विचर रही है, वह लड़ रही है, भिड़ रही है. वह कविता लिखती है,कहांनियां कहती है, मजे लेती है और पोल खोलती है. सारे गोपन कक्ष धाराशायी हो रहे हैं. जब वह फेसबुक वाॅल पर अपनी माहवारी के बारे में लिखती है. जब वह कहती हंै कि  अपने लिए सेनेटरी नैपकीन खरीदने गयी तो दुकानदार उसे काले पोलीथीन में लपेट कर दे रहा था. उसने कहा कि इसे लपेटे नहीं. और वह सेनेटरी नैपकीन को बिना रैप किये सड़क पर निकल गयी. जब वह यह बयां कर रही है तो समाज के बनाये नियमों के विरुद्ध खड़ी होने का साहस कर रही है. वह अपने वाल पर प्रेम का इजहार कर रही है या प्रेम के गोपन कक्षों का भेद खोल रही है. जिस पुरुष समाज ने उसे देह के आगे जाना नहीं, जिसने कभी पुछा नहीं की स्त्री क्या चाहती है .  जिसने ये कहा कि स्त्री का चरित्र और पुरुष का भाग देवता भी नहीं जानते, उसी स्त्री ने पूरी परिभाषा बदल दी. अब खुलकर  उसने कहना शुरु किया कि पुरुष का चरित्र और स्त्री का भाग वह जानती है. अब पुरुष उसके लिए ज्ञान का केन्द्रीय विषय नहीं रहा. वह बाकी संसार को भी जानना चाहती है, और फेसबुक को अपनी ताकत की अजमाईश का मैदान बनाना चाहती है. अपने वाल पर उसके द्वारा लगाये गये सामग्री पर कितने लाईक किये गये वह भी उसकी अपनी मजबूत उपस्थिती का एक स्त्रोत है.

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हर पुरुष अपनी चमड़ी के भीतर मर्द ही होता है

सामान्य स्त्री के संसार की खबर ये है कि उसमें स्वाधीनता के लिए तड़प है और वह परंपरा के घेरे से बाहर निकलना चाहती है. फेसबुक ने उसके निजी घेरे को तोड दिया. निजी और वैयक्तिगत के भीतर सामाजिक और सार्वजनिक समाया हुआ है. इसलिए स्त्री विर्मश में आत्मवृतों की खास जगह है.-पर्सनल इज पोलिटिकल.  स्त्री अपने जीवन का पाठ स्वंय रच रही है. एक दूसरे की कहानी में इज्जत यानी घर की बात . गोपन की जंजीरो में  स्त्री को बांध रखने के खिलाफ ये विद्रोह है दूसरी तरफ अनुभव की साझेदारी जो दुनिया की स्त्री समुदाय को जोडकर विराट राजनीतिक पक्ष का निर्माण भी कर रही है. जब वह कहती है राजनीति में महिलाओं की भागीदारी बढ़े. जब वह बाजार के बनाये नियम के विरुद्ध लिखती है. जो बाजार उसे सौर्दय मिथक में बदलना चाहता है और उसकी त्वचा को नर्म,मुलायम और गोरा बनाने की ग्रंथी भरता है तो उसके विरुद्ध वह लिखती है कि अगर काली रात खूबसूरत है तो काली त्वचा क्यों नहीं. दरअसल  पृत सत्ता ने स्त्री के देह का उपयोग किया और और उसी देह को अपवित्र कहा. यह सत्ता तय करती रही खूबसूरत और बदसूरत स्त्री का पैमाना. यह सत्ता यह भी चाहती है कि स्त्री की देह पर उसका अधिकार रहे और वह देह के बाहर खुद को नहीं देखे.



90 के दशक की मशहूर माॅडल लीजा रे ने अचानक तय कियाकि वह अपनी सेक्सी छवि को बदल कर दिमाग वाली स्त्री के रुप में खुद को स्थापित करेंगी तो उसके खिलाफ हमले तेज हो गए. यहां तक कहा गया कि ‘बिल्लयां कितना भी गुर्राएं वे अपनी त्वचा का डिजाईन नहीं बदल सकतीं. दरअसल बाजार यही चाहता है कि औरत अपने सौन्दर्य से अभिभूत रहे. तभी वह अपने प्रोडक्ट बेच पायेगा.  कोई सामान खरीदते ही सुदंर स्त्री चुबंन करते हुए या संभोग के लिए तैयार दिखती है. इस मर्दवादी सोच के खिलाफ सड़कों पर जो संघर्ष चल रहा है उसका असर फेसबुक पर भी है. महिलाएं इस माध्यम का इस्तेमाल अपने हक के लिए भी कर रही हैं. पुरुषों की देहगं्रथी के खिलाफ लिखती हैं, उन कामातुर आंखों के खिलाफ जिसकी नजर उसकी देह से आगे नहीं जाती. संचार माध्यमों पर स्त्री की छवि का मतलब है स्त्री की देह का वैभव,उसके रहस्य, उसके गोपन, उसकी लज्जाएं. ये छवि स्त्री को भी असहज बनाये रखते हैं. पर फेसबुक पर आयी लड़कियां अपनी ही देह पर खुल कर लिख रही हैं. अपने शरीर को लेकर वह सदियों से इतनी सहज कभी नहीं रही  जितनी इस सदी में है. केयर फ्री , विस्पर,माला डी, कोहीनूर के माध्यम से अपने मासिक धर्म , उन्मत रति भाव जैसे विषय फेसबुक पर गंभीरता से कर रहीं है. सदियों के बाद एक भरपूर खुली सांस ले पाने में समर्थ दिख रही  हैं. परंरागत समाज की नींव अगर स्त्री की शर्म पर टिकी है तो बेशक वो हिल उठी है . अब वह मानती है यौन शुचिता, पतिवत्रा,सतीत्व जैसे मूल्य स्त्री के सम्मान का नहीं पुरुष की अंहकार, दीनता,और असुरक्षा का पैमाना है. ऐसा नहीं है कि यह सब उसे आसानी से मिला है. उसने अपनी बेड़ियों की कीमत चुकाई है. इस माध्यम ने भी स्त्री को उसके जद में रहने के लिए लगातार घेराबंदी की है. उसे धर्म, जाति और यौन शुचिता के नाम पर घेरने की कोशिश करती रहती है. मेरे अनुभव यही कहते हैं जब कोई स्त्री धर्म , जाति, कट्टरता और लैंगिक सवाल उठाती है तो उसे तरह तरह से अपमानित किया जाता है. पुरुषों की शब्दावली में जितनी मादा गालियां है वह दी जाती है.

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चालीस साल की स्त्री : कवितायें और विमर्श

फेसबुक पर दोस्त बनने वाले अधिकांश दोस्तों को मेरा नाम आकर्षित करता है. कई बार धार्मिक कट्टरता के विरु़द्ध खड़े होने पर मुझे मुसलमान करार दिया जाता है. यह हमला दोनों तरफ से होता है. दुनिया का कोई धर्म नहीं है जहां स्त्री का दोयम दर्जा नहीं है.  ये सवाल उन तमाम लोगों को चुभता है जो स्त्री को उसके खोल से बाहर नहीं आने देना चाहते. पृतसत्ता किसी को आसानी से अपने चंगुल से छूट निकलने की इजाजत नहीं देती. यह माध्यम पुरुषों को डरा रहा है. उनके घर दरक रहे हैं. एकनिष्ठ पत्नि, प्रेमिका की परिभाषा बदल रही है. स्त्री के पास अब चुनने की आजादी है. प्रेम करने की आजादी ले ली है उसने. उसके पास संगीतकार है, कवि है,उघोगपति है और दोस्त हैं. हालाकी उसकी ये आजादी जोखिम से भरी है. फेसबुक पर मर्द दाना डाले बैठे रहते हैं कि अब फंसी की तब फंसी. पर स्त्री ने जान लिया है कि इन शिकारियों से कैसे निपटा जाय. वे दाना चुग लेती हैं और फंदे से बाहर निकल आती हैं. पर कुछ पेशेवर शिकारी घात लगाए बैठे रहते हैं. ये नया माध्यम है जिसने स्त्री को आजादी दी है पर अभी अपनी आजादी का पूरा जश्न नहीं मना पा रही है. वह जानती है स्वाधीनता का चुनाव आसान नहीं है. वह खुद भी ड़रती है. स्वाधीनता का मतलब है ख्ुाद अपने फैसले ले सकना. कम से कम फेसबुक ने यह स्पेस दिया है जहां वह अपने को खोल सकती है. लिख सकती है. अपनी राय दे सकती है.

 ये सही है कि फेसबुक पर बहुत कुछ कचरा और कुड़ा रहता है. फेसबुक ने लोगों के पढ़ने-लिखने का समय ले लिया है . आभासी दुनिया का नशा भी है जिस नशे में आप अपनी असली दुनिया भूले रहते हैं. लेकिन ये दुनिया आपको नया रंग -रुप और स्वाद देती है. मुझे लगता है कि मैंने बहुत कुछ नया जाना, समझा और कुछ नये लोग जो मेरे जीवन में आये उसका श्रेय फेसबुक को है. जिसमें कुछ अच्छे दोसत भी बने. मैं अपने मित्रों और परिजनों से कहती हूं कि इस नये माध्यम से भागो नहीं और रोको नहीं. यह माध्यम हमारे लिए नया आकाश है जहां मेघ भी हैं और चमकीले तारे भी . जहां उजाला भी है और गहरा अंधेरा भी. यहां मवाद और पीप से भरे घांव है तो तारों के उझास में आप अपने प्रिय अफसानानिगार और कवि को पढ़ सकते हैं . हमने मंटों समेत कई लिखने वालों को यहां पढ़ा और कई लिखने वालों से दोस्ती की. मुझे हैरानी हुई कि हमने फेसबुक पर मंटों के बारे में जितना पढ़ा और जितने अलग तरह के अफसाने पढ़े शायद उनसब को सिर्फ किताबों में पढ़ना मुमकिन नहीं होता. उनको पढ़ते हुए लिखा भी.

प्रेम से लबालब भरी कविताएं लिखी. फेसबुक ने कविता लिखने के लिए सबसे ज्यादा उकसाया. फेसबुक पर मिली तारीफ आपको हौसला देते हैं कि आप लिख सकते हैं. हमने लिखा-
स्त्रियाँ करेंगी प्रेम  .बार
मत बताना सखी
भीतर.भीतर बहने की कला
मत बताना कि
हम प्रेम से लबालब भरी हैं
और आता है हमें अंधेरो से लड़ना
उन लम्हों का जिक्र मत करना
जो चाँद रातों में
हमारे भीतर उतरता रहा
सृष्टी के अनंत छोर तक फैलते हुए
प्रेम करती रहना
प्रेम
जिन्दगी के लिए
उनके लिए जिनका हिर्दय सूख गया है
प्रेम जो बचाता है देश कोए
लोगों को
प्रेम जो तानाशाह को देता है चुनौति
प्रेम अगर पाप है तो कहना
स्त्रियाँ
करेंगी ये पाप
बार बार
करेंगी प्रेम बार. बार


अगर आप गौर करें तो पता चलेगा कि क्या कुछ लिखा जा रहा है. कौन लिख रही हैं. किस वर्ग और किस समुदाय की महिलाएं हैं. मैंने पाया कि घरेलू महिलाएं , कामगार महिलाएं , काॅलेज,स्कूल जाती लड़कियों के अलावा  स्त्रियों का एक बड़ा समुदाय अपनी बात फेसबुक पर लिख रहीं हैं. मैं मनिषा झा की चर्चा करना चाहुगीं . मनिषा के लेखन को फेसबुक पर इतना पंसंद किया गया कि अब उसकी किताब आ रही है. व्यंगय लिखना सबसे मुशिकल विधा है. उसने सुबोध भैया नाम का चरित्र गढ़ा और उसके हवाले से देश, दुनिया पर टिप्पणी  करने लगी. सुबोध भैया कहते हैं कि इश्क़ करो या सिगरेट पियो सुलगती दोनों में हैं ए लगती दोनों में है.  फिर इश्क़ में डिस्क्लेमर क्यूँ नहीं . इश्क़ करना हानिकारक है . सुबोध भैया ने ऐसे आशिक़ों के लिये नर्क में अलग से डालडा का कढ़ाई लगवाए हैं .

मनिषा की तरह कई लड़कियां लिख रहीहैं. पाखी जैसी साहित्यक पत्रिका ने भी कुछ दिन पहले 40 पार की औरतों पर लिखते हुए कहा था कि फेसबुक के माध्यम से ये औरतें सुरक्षित दायरें में इश्क कर रही हैं. इस पर खूब बहस हुई थी. मैंने उनके आलेख पर टिप्प्णी की थी यहां पर उसके कुछ अंश दे रही हूं. ‘‘मैं नहीं जानती की जिन 40 पार की स्त्रियों का जिक्र संपादकीय में किया गया है वे किस दुनिया की स्त्री हैं? जहां प्रेम भी प्रेम जैसा नहीं है. टाइम पास है. सिनेमा का मध्यांतर है. जहां मौज मस्ती के साथ पाॅपकार्न खा लेने भर का ही वक्त है.  प्रेम भारद्वाज की यह स्त्री छलना है, परपुरुष गामीनी है. अपने घर के दायरे को सुरक्षित रखकर प्रेम करती है, मजा लेती है. यह वह स्त्री नहीं है जो प्रेम के लिए मर जाती है या मार दी जाती है. जिसने घरती पर पांव जमाने के लिए खुरदरी जमीन पर अपनी मेहनत से फसल उगायी है. जिसने अपने हिस्से के आसमान के लिए खून से भरे,शोक के फर्श पर सदियां बितायी है. ये कौन स्त्री है? किस वर्ग की? किस दुनिया की जिसे अपने गोपन कक्ष में प्रेम करने की आजादी है. जहां वह प्रेमी के साथ जीती है,पति के साथ सोती है? और यह बेचारा पुरुष कितना मासूम, प्रेम में मरने वाला, जान देने वाला है. राम सजीवन जैसा पुरुष किस दुनिया में रहता है ? काश कि किसी स्त्री के जीवन में इतने संवेदनशील मर्द होते!  सब्जेक्शन आॅफ विमेन में जाॅन स्टुअर्ट मिल कहते हैं-‘पुरुष अपनी स्त्रियों  को एक बाध्य गुलाम की तरह नहीं बल्कि एक इच्छुक गुलाम की तरह रखना चाहते हैं,सिर्फ गुलाम नहीं, बल्कि पंसदीदा गुलाम. इसलिए उनके मस्तिष्क को बंदी बनाए रखने के लिए उन्होंने सारे संभव रास्ते अपनाए हैं.’

हर नैतिकता स्त्री से यही कहती फिरती है कि स्त्री को दूसरों के लिए जीना चाहिए. सच तो यह है पराजित नस्लों और गुलामों से भी ज्यादा सख्ती और कु्ररता से स्त्री को दबाया गया. यह हम नहीं कह रहे हैं यह स्त्री का इतिहास बताता है. क्या कोई भी गुलाम इतने लंबे समय के लिए गुलाम रहा है जितनी की स्त्री? क्या यह स्थापित करने की कोशिश नहीं है कि अच्छे पुरुष की निरंकुश सत्ता में चारों तरफ भलाई,सुख और प्रेम के झरने बह रहे हैं. जिसकी आड़ में  वह हर स्त्री के साथ मनमाना व्यवहार कर सकता है. उसकी हत्या तक कर सकता है और थोड़ी होशियारी बरत कर वह हत्या कर के भी कानून से बचा रह सकता है. वह अपनी सारी दबी हुई कुंठा अपनी पत्नी पर निकाल सकता है. जो अपनी असहाय स्थिति के कारण न पलट कर जबाव दे सकती है, न उससे बचकर जा सकती है. अगर यकीन न हो तो हर रोज मारी जा रही स्त्रियों के आंकड़े को उठा कर देख लें.

 40 के पार की औरतोें अगर प्रेम में इतनी ही पकी होतीं तो हर रोज रस्सी के फंदे से झूलती खबरें अखबारों के पन्ने पर नजर नहीं आती. सच तो यह है कि उसकी पूरी जिन्दगी अपने घर को बचाने में चली जाती है. घर उसके जीने का केन्द्र है. उसके हंसने, बोलने, रोने का. इसलिए उसने घर को अपना फैलाव माना. उसे सींचा. पर इसके पेड़ का फल पुरुषों ने ही खाया. उसे राम सजीवन जैसा न कभी प्रेमी मिलता है न एकनिष्ठ पति. फिर भी वह अनैतिक है. पुरुष को नैतिक और  स्त्री को अनैतिक बनाने की मानसिकता के पीछे यह बताना है कि पुरुष नैतिक रुप से श्रेष्ठ है. नैतिकता और अनैतिकता को लेकर हमेशा से अतंर्विरोध रहा है. जिसका नायाब उदाहरण है टाॅलस्टाय का उपन्यास अन्ना कैरेनिना. अनैतिक अन्ना विश्व उपन्यास की सबसे यादगार चरित्रों में से है.  टाॅलस्टाय के नैतिकता संबंधी विचारों को उसकी कला ध्वस्त कर देती है. जिस समाज में प्रेम अपराध है उस समाज में स्त्री को इस बात की छूट कहां कि वह प्रेम से भरी दिखे. वह प्रेम के लिए जिए. वह प्रेम कविता लिखे. जिस फेसबुक को स्त्री के लिए किसी दरीचे के ख्ुालने जैसा मान रहे हैं, तो फिर उसके खुलेपन  से इतने आहत क्यों? फेसबुक पुरुषों का भी  चारागाह है. जहां वे शिकारियों की तरह ताक में बैठे रहते हैं कि जाने कौन किस चाल में फंसे. दरअसल ये पूरी बहस ही बेमानी है. प्रेम को किसी अलग सदंर्भ में नहीं देखा जा सकता. हमारी सामाजिक, राजनीतिक व आर्थिक और लैंगिक बुनावट तय करती है कि कौन सा समाज किन मूल्यों के साथ जीता है. इसी समाज में ईरोम भी है और अरुणा राय भी. सवाल उठता है कि हम स्त्री को किस तरह से देखते हैं. एक आब्जेक्ट के रुप में या मनुष्य के रुप में ? अगर हम मनुष्य की तरह देखेंगे तो हमें तीसरी कसम का हीरामन ही याद नहीं आयेगा हीराबाई के प्रति भी हमारी गहरी संवेदना होगी. देवदास शराब में डूब कर मर जाता है पारो जिन्दगी से लड़ती है, पलायन नहीं करती. अगर लैेला नहीं होती तो आज मजनूं नहीं होता. न लैला कहती मेरा कब्र वहीं बनाना जहां मैं पहली बार उससे मिली थी. उससे कहना कि मेरी कब्र पर आयें,और सामने क्षितिज की ओर देखें. वहां मैं उसका इंतजार कर रही हूंगी. और जिन आंखों में मजनूं के सिवा कोई समाया नहीं था, वे आंखें हमेशा के लिए बंद हो गयी.
कागा सब तन खाइयो
चुनि-चुनि खाइयो मांस
दुुई अंखियां मत खाइयो
 पिया मिलन की आस.


दरअसल प्रेम यही है. इससे इतर कुछ नहीं. वह 40 की पार औरतें हों या फिर 16 साल की मासूम उम्र. जिसे न तो सामाजिक निषेध और न दुनियाबी रस्मों rवाज छू पाते हैं. फेसबुक हो या और कोई माध्यम स्त्री की सबसे बड़ी चुनौति है वह अपने मूल्यों के साथ जब खड़ी होगी तो उसपर हमले होंगे ही. हमारा समाज आज भी स्त्री को मनुष्य मानने से इंकार करता है. इसकी लड़ाई सिर्फ फेसबुक पर नहीं लड़ी जा सकती.  इसके लिए उसे संघर्ष के रास्ते चुनने होंगे. सड़को पर उतरना ही होगा. आभासी दुनिया ने हमें स्पेस दिया है, यह हमसब पर निर्भर है कि हम अपनी जमीन का इस्तेमाल कैसे करते हैं. हम अपनी आजादी से कितनी मुहब्बत करते हैं और उसके लिए कीमत चुकाने को तैयार हैं या नहीं.

जाति-वर्ग और लिंग के दायरे में चल रहे संघर्षों के साथ जुड़ें : कविता कृष्णन

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जन आन्दोलन  का राष्ट्रीय समन्वय  के 11वें राष्ट्रीय सम्मेलन का दूसरा दिन
                           
छद्म राष्ट्रवाद के खिलाफ सब एक साथ आएं

देश में बढ़ती जाति आधा्रित और साम्प्रदायिक हिंसा से लड़ने के लिए जाति-वर्ग और लिंग से परे व्यापक  एकजुटता की जरूरत है. यह वक्त की मांग है. यह एकजुटता इसलिए भी जरूरी है ताकि मुल्क  को छद्म राष्ट्रवाद के उन्माद से बचाया जा सके. यह अपील मशहूर मानवाधिकार कार्यकर्ता और पत्रकार तीस्ता  सीतलवाड, दलित नेता जिग्नेश मेवानी, वरिष्‍ठ पत्रकार नासिरूद्दीन, शैलेन्द्र और अन्य लोगों ने शनिवार को पटना के अंजुमन इस्लामिया हॉल में आयोजित  जन आन्दोलनों का राष्ट्रीय समन्वय के 11वें राष्ट्रीय सम्मेलन के दूसरे दिन की. ये सभी सम्मेलन के तहत ‘दादरी से उना तक: आक्रामक हिन्दुत्व की राजनीति, जाति का खात्मा , विश्वविद्यालयों की स्वायत्ता  पर हमला,साम्प्रदायिकता’ विषय पर आयोजित विशेष परिचर्चा में शामिल थे.


हम एक अघोषित आपातकाल में रह रहे हैं: तीस्ता
मशहूर मानवाधिकार कार्यकर्ता और पत्रकार तीस्ता  सीतलवाड ने अपनी बात की शुरुआत भोपाल गैस कांड के पीडि़तों को याद करते हुए की. तीस्ता ने कहा कि हम सब एक अघोषित आपातकाल में जी रहे हैं. इसके जरिये   महिला, मुसलमान, दलित और आदिवासियों जैसे हाशिए पर डाल दिए गए समुदायों पर गो रक्षा, लव जिहाद और घर वापसी जैसे हथियारों से हमला किया जा रहा है. उन्हों ने कहा कि असुरक्षा और असंतोष के इस माहौल के बारे में मीडिया में ज्यादातर चुप्पी  है. उन्होंने देशभर के अलग-अलग विश्वविद्यालयों में चल रहे स्टूडेंट आन्दोलन को याद करते हुए कहा कि ये सभी फासीवादी, जातिवादी हिन्दुत्ववादी सत्ता के विरोध में मजबूत आवाज हैं.

वक्त  की मांग है कि सामाजिक हस्तक्षेप तेज किए जाएं: श्या्म रजक
बिहार में सत्ताधारी जनता दल (यू) के श्याम रजक ने कहा कि जिन लोगों के पास संसाधन है, वे उसके जोर पर आमजन पर चौतरफा हमला कर रहे हैं. जब देश में किसान आत्महत्या, मजदूर कुपोषण से मर रहे हैं और दलितों के साथ भेदभाव और अत्याचार हो रहा है, तब मौजूदा केन्द्र सरकार सिर्फ शौचालय बनाने और गंगा को साफ करने की बात कर रही है. जन आन्दोलनों के हस्तक्षेप से ही सामाजिक बदलाव मुमकिन है.

छपरा के गोविंद ने दलितों पर होने वाले अत्याचार की दास्तान सुनाई
छपरा के युवा दलित गोविंद ने अपने और अपने परिवार के साथ हुए जुल्म‍ की रोंगटे खड़े करने वाली दास्तान सुनाई. उन्होंने बताया कि किस तरह ऊंची जाति के लोगों ने पहले मरी हुई गाय को हटाने को कहा और फिर उन लोगों ने इस मुद्दे पर जबरन लड़ाई की. उसे और उसके परिवार वालों को पूरे गांव ने मिलकर  पीटा. पुलिस ने गांव के दबंगों के दबाव में उलटे इन लोगों पर ही मुकदमा कर दिया. सबसे खतरनाक बात है कि लोग इसके खिलाफ बोलने से डर रहे हैं.


भाजपा, आरएसएस, एबीवीपी देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा : जिग्नेश
गुजरात में दलित आन्दोलन के चेहरा बने नौजवान कार्यकर्ता  जिग्नेश मेवानी ने दादरी में गो हत्या के नाम पर अखलाक की हत्या, अहमदाबाद में कथित गोरक्षकों  द्वारा मोहम्मद अयूब की हत्या, उना में दलितों की पिटाई, भोपाल में फर्जी मुठभेड़ और जेएनयू के नजीब का गायब हो जाना- ये सभी घटनाएं बता रही हैं कि भारतीय जनता पार्टी (भाजपा), राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस), अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा हैं. उन्होंने कहा कि इनका एजेंडा संविधान की जगह मनुस्मृति का शासन लाना है. जिग्नेश ने कहा कि दलित आंदोलन को नारों से आगे आकर जमीन पर हक की लड़ाई लड़नी होगी. उन्होंने गुजरात के विकास के जन विरोधी मॉडल का पर्दाफाश करने की अपील की और कहा कि हम गुजरात में होने वाले निवेशकों के सम्मेलन का विरोध करेंगे.

जाति-वर्ग और लिंग के दायरे में चल रहे संघर्षों के साथ  जुड़ें : कविता
अखिल भारतीय प्रगतिशील महिला संघ (एपवा) की कविता कृष्णन ने कहा कि पितृसत्ता एक ऐसा घर है जिसमें साम्प्रदायिकता, फासीवाद और हर तरह की हिंसा को अच्छी जगह मिलती है. हमें सिर्फ बचाव की मुद्रा में नहीं रहना चाहिए. हमें आक्रामक होकर चुनौतियों को स्वीरकार करना चाहिए. हमें अपने आंदोलन में जाति-वर्ग और लिंग के दायरे में चल रहे संघर्षों को साथ लेना होगा.

असली भारत माता तो आम दुखियारी भारतीय स्त्री  है: शैलेन्द्र
भारत माता के नाम पर राष्ट्ररवाद का उन्माद पैदा करने की कोशिश पर करारी चोट करते हुए इप्टा  के शैलेन्द्र ने कहा कि असली भारतमाता तो आम भारतीय स्त्री  है. यह असली माता भूख और तकलीफ में जी रही है.

वरिष्ठ  पत्रकार नासिरूद्दीन ने कहाकि हम ‘पेटीएम’ राष्ट्रवाद के दौर में जी रहे हैं. यह मानसिक आपातकाल का भी दौर है. इस राष्ट्रवाद में महिलाओं, दलितों, आदिवासियों, ट्रांसजेंडर, मुसलमानों की जगह कहां है.


तमिलनाडु की मशहूर सामाजिक कार्यकर्ता गैब्रिएल ने कहा कि स्त्री के साथ होने वाली नाइंसाफी दूर करने के लिए हर धर्म के निजी कानून में सुधार होना जरूरी है. उन्होंने कहा कि आज के माहौल में महिला आंदोलन यूनिफार्म सिविल कोड की बात नहीं करना चाहता है. हमें इस बारे में सरकार की मंशा पर शक है.

इस मौके पर अरुंधति धुरु,विजयन एमजे, जितेन, उदयन ने भी अपनी बात रखी.

इससे पहले शनिवार सवेरे एनएपीएमके सैकड़ों कार्यकर्ताओं ने प्रभात फेरी निकाली और गांधी मैदान में स्थापित गांधी प्रतिमा तक गए. वहां कार्यकर्ताओं ने गांधी के सपनों का भारत बनाने की शपथ ली.

अधिक जानकारी के लिए संपर्क करें - 
महेंद्र यादव- 9973936658​, आशीष -9973363664, कामायनी स्वामी-9771950248


देश के किसी नेता में न यह हैसियत है, न हिम्मत की वह तानाशाही लेकर आये: देवीप्रसाद त्रिपाठी

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राज्यसभा सांसद और हिन्दी के विद्वान् देवीप्रासाद त्रिपाठी से संजीव चंदन और उत्पलकान्त अनीस की बातचीत  

मूलतः हमलोग समय को लेकर बात करेंगे. आपको अभी क्या लग रहा है? पिछले कुछ सालों से इस समय को आप किस रूप में देखते हैं? क्या हम उन्माद की तरफ जा रहे हैं? क्या क्षरण की ओर जा रहे हैं? 
उन्माद दरअसल क्षरण का ही प्रतीक है. देश में हो क्या रहा है आज की परिस्थिति में- राजनीति का क्षरण, साहित्य का क्षरण,संस्कृति का क्षरण हो रहा है. मैं आपको जो बताने जा रहा हूँ, जिससे बहुत से लोग असहमत होते हैं कि राजनीति, साहित्य और संस्कृति का बहुत अन्योन्याश्रित संबंध है. पूरे भारत में स्वतंत्रता संग्राम के दौरान गांधीजी हिंदी साहित्य के तमाम साहित्कारों से मिलते थे और उस समय के सारे नेताओं को देखिये, सब लिखते थे, पढ़ते थे, चिंतन करते थे. तो साहित्य, कला, संस्कृति के विकास में राजनीतिक चेतना की भूमिका महत्वपूर्ण है. राजनीति के विषय में एक समझदारी, साहित्य, कला, संस्कृति के क्षेत्र में भी. फिर क्या हुआ पिछले तीन दशकों में कि ये जो पारस्परिक संबंध थे, वह टूट गया है. बड़े साहित्यकार का सम्मान करना पड़ेगा चाहे कोई राजनेता हो. 

ये तीन दशक का मतलब आप 1990 के बाद चिन्हित कर रहे हैं...
उससे पहले से भी होता रहा है. 

वैसे यह 1990 के बाद का दौर किसी दूसरे सकारात्मक कारणों से भी जाना जाता है और वह  है दलितों और पिछड़ों के भागीदारी को लेकर, साहित्य से लेकर राजनीति तक में - शिल्प बदला, कथ्य बदला, साहित्य बदला और राजनीति के कथन बदल गये हैं, यह एक सकारात्मक पक्ष भी रहा है.
यह एकदम सकारात्मक पक्ष है कि दलित, पिछड़ों, महिलाओं, अल्पसंख्यकों इन सबकी भूमिका साहित्य, कला, संस्कृति और राजनीति में होना बहुत आवश्यक है-देश की प्रगति के लिए बहुत आवश्यक है. यह सकारात्मक बात हुई, लेकिन सकरात्मक बात के बावजूद जो संगति राजनीति और संस्कृति, साहित्य में होनी चाहिए वह संगति अव्यवस्थित हो गई है. 

मैं समझना ये चाह रहा था कि वह हुआ कैसे? इसका एक पक्ष और कथ्य ऐसे होगा न कि तीस साल पहले जो समाज था वहां साहित्य और राजनीति का परस्पर संबंध भी था. अब यहां जब पीछे छूट गये लोगों की बारी आई है, चेहरे बदल गये हैं, दोनों तरफ साहित्य और राजनीति में- तो क्या रूचियां इनकी घट गई हैं? एक तो यह है और दूसरा कि क्या वे इस योग्यता के साथ नहीं आये, उस सांस्कृतिक समझ के साथ नहीं हैं? 

लेकिन बुनियादी कमी तो राजनीतिक क्षेत्र की है. राजनीतिक नेताओं में सांस्कृतिक चेतना, साहित्यिक रुचि के अभाव ने इस तालमेल में गड़बड़ी पैदा किया. 

अभी तो उन्माद की स्थिति पूरे देश में है लेकिन यह एक तरह से हिंदी प्रदेशों में सांस्कृतिक हलचलों के कम होने का प्रत्युदपाद देख रहे हैं कि 1990 के बाद यही प्रदेश है जो सक्रिय प्रदेश हो गया– दक्षिणपंथी उभार के लिए, भाजपा के उभार के लिये, सांप्रदायिक ताकतों के उभार के लिए.
देखिये, प्रमुख कारण इसका यह है कि सांस्कृतिक और साहित्यिक गतिविधि कम हुई है. सांस्कृतिक चेतना का पूरी तरह से अभाव हो गया है. हिंदी सांस्कृतिक चेतना की अगर बात करें तो वह  एकदम अनुपस्थित है. मैं जोर देकर कहना चाहूँगा कि हिंदी सांस्कृतिक चेतना, हिंदी से अनुपस्थित है. उसका कारण है कि समाज में नकारात्मक विचार उभरे हैं, और यह आपकी पहचान, आपकी वैचारिक रूझान, धर्म, संप्रदाय, क्षेत्र इन सभी विषयों पर निर्भर करता है. 

उस सांस्कृतिक चेतना को आप कहाँ देख रहे है? कौन सी सांस्कृतिक चेतना, एक सांस्कृतिक चेतना जो लोहिया की है, एक सांस्कृतिक चेतना जो राम की है. एक तीसरी भी बात हो रही है कि राम के पूरे मिथकीय चरित्र को सवालों के कटघरे में खड़ा किया जा रहा है, एक स्त्री के हिसाब से, दलित के हिसाब से, आदिवासियों के तरफ से....
लोहिया तो रामायण मेला का भी आयोजन करते थे, लोहिया ने तो राम और कृष्ण के ऊपर लेख भी लिखा है.  यही तो एक सांस्कृतिक समझ थी समग्रता की. 



आप कहां खड़े हैं? लोहिया वाले राम या हमारी जो राम की व्याख्या है- स्त्री दृष्टि से या दलित दृष्टि से, हम जो शम्बूक की दृष्टि से देखते है राम को, सीता के उत्पीड़न के दृष्टि से. यह भी तो एक सांस्कृतिक चेतना है और यह भी हिंदी पट्टी की आवाज है, जैसे महिषासुर का मामला संसद में गूंजा और यही हिंदी पट्टी आज महिषासुर की शहादत दिवस मना रहा है. 
ऐसा है कि सारे प्रश्न सही नहीं है. एक होता है नकारात्मक विचार. अब महिषासुर की जयन्ती मनाना एक नकारात्मक विचार है. क्योंकि कई पुस्तकें हिन्दुओं ने अपनी शास्त्रों की पढी नहीं. जरा दुर्गा सप्तशती पढ़िए आप. उसमें क्या होता है, जब राक्षस संग्राम करने जाता है दुर्गा से तो दुर्गा के सौन्दर्य का वर्णन करता है. उससे कहता है कि मुझसे विवाह करो. तो दुर्गा कहती है कि हां, लेकिन एक शर्त है कि तुम मुझे युद्ध में हरा दो. ये तो एक विनियोजित यथार्थ है. हिन्दुओं ने ज्यादातर शास्त्रों को पढ़ा ही नहीं तो दिक्कत यही है. तमाम मूर्खता, दुर्लभ मूर्खता की बाते आपको यहीं मिलेगी? मेरा ख्याल है कि समाज सुधार करने के लिए राम और सीता को गाली देने की जरूरत नहीं है. लोहिया यह काम नहीं करते थे, लोहिया को पढ़िए आप. लोहिया भारतीय राजनीति के एक तरह से अकेले मौलिक चिंतक हैं, जो भारतीय संस्कृति की, सभ्यता की मूल धारणाओं को समझने की कोशिश करते है- वे निडर होकर बात करते हैं और डरते नहीं हैं. 

लेकिन जिन-जिन समूहों को लगता है कि राम हमारी कथा नहीं है या जो-जो समूह महिषासुर से अपने आप को जोड़ते है, रावन के साथ जोड़ते हैं, सूर्पनखा के साथ जुड़ते है, अपनी व्याख्यायें लेकर आ रहे हैं- मिथकीय कथाओं का, उनको कैसे रोका जा सकता है! यह उनका हक़ है , और यही आप नकारते हैं. फिर तो आप कहीं न कहीं संस्कृति के होमोजेनाइजड तर्क के साथ, स्मृति ईरानी के चिखने के साथ खड़े हो जाते हैं. यही कारण था कि कोई भी नहीं खडा हुआ स्मृति ईरानी के विरोध में, जब वे संसद में ‘दुर्गा प्रकरण’ पर चीख रही थीं, सीताराम येचुरी को छोड़कर- जिन्होंने महाबली की बात की. येचुरी ने कहा कि आपका बामन आपका अवतार हो सकता है लेकिन बहुत से लोग महाबली से जुड़े हुए हैं.  तो मसला यही है कि आपकी पूरी सांस्कृतिक चेतना हिन्दू सांस्कृतिक चेतना है.
देखिये इन मसलों को कहना कतई जरूरी नहीं है, जो सीताराम येचुरी ने संसद में कही है वो कोई बड़ी बात है, ऐसा मैं नहीं मानता. ये आलोचना की रचनात्मक पृष्ठभूमि से अलग बात होती है. राम की आलोचना बहुतों ने की है. पेरियार पर किसी ने प्रश्न उठाया? उन्होंने राम की आलोचना की, इसी देश में खूब की, उस समय में की, जब बहुत मुश्किल समय था. अब राम की इस तरह की आलोचना का कोई अर्थ नहीं है. यह मानना कि भारत में जो सांस्कृतिक और सभ्यता की चेतना है वह  हिन्दू चेतना है, गलत है.  जाहिर है कि तमाम नास्तिक लोग भी रह रहे हैं, जिसने लिखा है, सबकुछ लिखा है तो किसी हिन्दू ने उनके खिलाफ तो कुछ नहीं बोला. अब हिन्दू सांस्कृतिक चेतना में भी नकारात्मक और उग्रवादी तत्व प्रखर हो रहे है, जो सही नहीं है, सर्वथा अनुचित है. मैं मानता हूँ कि लोहिया की दृष्टि से देखने की जरूरत है, नरेन्द्र देव की दृष्टि से देखते, जवाहरलाल की दृष्टि से देखते तो शायद ऐसा नहीं हो सकता. क्योंकि वे समावेशी चेतना की बात करते हैं, जहां आपने एकदम विरोधाभाषी चेतना की बात की वहां बिखराव, संघर्ष और आपसी मतभेद की शुरूआत होती है जो नहीं करना चाहिए. 

लेकिन आपके यहां,  महाराष्ट्र में, वहां की जो दलित चेतना है इन मिथकों से टकराती है..
वे अपने मिथक को ठीक ढंग से समझते नहीं हैं. पूरे हिंदुस्तान का आप भक्ति आन्दोलन देख लीजिये. भक्ति आन्दोलन में अगर तुलसीदास और मीरा को छोड़ दें, वैसे मीरा तो महिला थी , उसको तो पिछड़ा मानना चाहिए- अगर तुलसीदास को छोड़ दें तो उसमें उच्च जातियों का कोई संत या कवि नहीं है या तो पिछड़े जातियों के हैं या दलित हैं. पूरा भक्ति आन्दोलन, जो आधुनिक भारत की भाषा, सांस्कृति, सभ्यता का जो निर्माण करता है तो उस आन्दोलन में देखिये कि कौन से लोग हैं और कौन से लोग नहीं हैं. उस आन्दोलन में सब हो गया, पूरे समाज ने उसे स्वीकार कर लिया, अब आप कह रहे है कि हम इस समाज को नहीं सुधार सकते है तो आप एकता की नहीं विभाजन की बात कर रहे हैं. यह जो विभाजन की भाषा है, बिखराव की भाषा है, बांटने की भाषा है,  वह जोड़ने का काम नहीं कर सकती और देश में, संस्कृति में, साहित्य में आज जोड़ने की जरूरत है.


तो अब हम ऐसे समझें कि 1990 के बाद या तीन दशकों के बाद ये सब जो स्वर आये हैं, इन स्वरों को आने को आप जातिवादी होने के रूप में चिन्हित कर रहे है. जाति के सवाल उठेंगे- जहां जाति की सवाल उठती है, वहां आप बात करने लगते हैं विभाजन की, तो आपकी दृष्टि और वह भी भाजपा वाली समरसता की दृष्टि में क्या फर्क है?
पहली बात तो यह है कि दलित प्रश्न को तो उठना ही है, आवश्यक है. 

तो वह क्या जातिवाद है?
नहीं मेरी दृष्टि से वह जातिवाद नहीं है. एक वर्ग और समुदाय की आकांक्षाओं का प्रतिफलन है. महिलाओं का प्रश्न है, युवाओं का प्रश्न है. ये सारे प्रश्न अनिवार्य हैं. और आज के भारतवर्ष में किसानों का प्रश्न ये भी बड़ा महत्वपूर्ण है. किसान तो जातियों से ऊपर हैं, जाति की तो बात ही नहीं है वहां पर. तो दलित, युवा, महिला और किसान ये मिलकर आज का भारतवर्ष बनते हैं , और उनकी चेतना के बिना न राजनीति न संस्कृति सही रास्ते पर जा सकती है. 

अभी आप राजनीति की क्या दशा और दिशा देखते है? अभी क्या लगता है कि किस तरफ हमलोग जा रहे हैं? क्या हम डिक्टेटरशीप देखने वाले हैं? 
नहीं, बड़े से बड़े नेता की या प्रधानमंत्री की न हिम्मत है न हैसियत है कि वह तानाशाही की  तरफ जाये. देश में लोकतांत्रिक परिपाटी की कुछ ऐसी व्यवस्था है कि यह संभव नहीं है. एक और सकारात्मक बात भारतीय राजनीति में हो रही है, जिसका जिक्र कोई नहीं करता कि नया नेतृत्व पैदा हो रहा है, हर पार्टी में, कहीं नीतीश कुमार है, कहीं शिवराज सिंह चौहान हैं तो कहीं सुदूर त्रिपुरा में माणिक सरकार.

ये सब नेतृत्व तो पिछले 20-30 सालों का नेतृत्व है...
आप समझ नहीं रहे हैं. ये सब नया रास्ता दिखा रहे हैं. ये नेतृत्व ऐसा है कि किसी को तीन बार, दो बार, चार बार जनता का समर्थन मिला है- सबको. यह देखना महत्वपूर्ण है. जिसको हमलोग देख नहीं रहे हैं. मायावती तीन बार मुख्यमंत्री बन चुकी हैं- दलित महिला मुख्यमंत्री भारत के सबसे बड़े प्रदेश में, ये कल्पना की थी किसी ने? दलित भी हैं और महिला भी हैं. कोई कल्पना करता था तीन दशक पहले कि ये नेता होंगे इस देश में. आज आप देखिये कि हर क्षेत्र में नया नेतृत्व आया है. 

लेकिन इसमें मायावती को छोड़ दें तो बाकी सभी का राजनीतिक कथन एक ही है और वह है विकास.  राजनीतिक कथन आज के केंद्र के सत्ताधारियों का भी वही है, बल्कि उनका दायरा काफी बड़ा है, विस्तृत है.
विकास के अलग अलग तरीके हैं. सब नया- नया नेतृत्व उभरा है. कुछ आन्दोलन से, कुछ अलग-अलग तरीके से उभरा है. इस नए नेतृत्व की  ब्याख्या जब तक आप नहीं करेंगे, विश्लेषण नहीं करेंगे तब तक भारत की राजनीति में जो नया आयाम उभरा है, उसे नहीं समझ सकते . 
उसको किस खास तरीके से देख रहे हैं? अंततः राष्ट्रीय क्षितिज पर तो कोई परिवर्तन तो होता नहीं. क्षत्रप के तौर पर हर जगह है.
यही तो परिवर्तन कहेंगे. एक परिवर्तन तो भारत की राजनीति में हो गया न. एकवचन समाप्त हो गया, बहुवचन आया. आज केंद्र में भाजपा बहुमत लाने के बावजूद अन्य पार्टियों के सहयोग से सरकार चला रही है, आगे भी चलाना पड़ेगा.

आगे भी आप यही संभावना देख रहे हैं? क्षत्रपों के गठबंधन से सरकार बनेगा?
गठबंधन का मतलब क्षत्रप नहीं होता है. दुनिया के लोकतंत्र में जो देश हैं, उनमें ज्यादातर देशों में गठबंधन सरकारें चल रही है और अच्छे तरीके से चल रही है. ऐसा नहीं है कि आर्थिक विकास, सामाजिक विकास नहीं हो रहा है, हो रहा है.

राजनीति विकल्प नहीं दिखाई देता है. 1990 के बाद एक ही परिघटना है,  वह है मनमोहन सिंह, उसी का विस्तार है नरेंद्र मोदी सरकार. ये जो आप नाम ले रहे हैं,  उनके यहां क्या वैकल्पिक दशा और दिशा देख रहे है?
आप देखिये समय आ रहा है. जनता का संकल्प, विकल्प तलाश लेता है और आप आनेवाले दिनों में इसे देखेंगे. 

शरद पवार की राजनीति को आप कैसे देखते हैं?
वे देश के बहुत बड़े और अनुभवी नेता हैं, पार्टी उनकी छोटी है- सबसे बड़ा अंतर्विरोध यही है उनके सामने और पार्टी मूलतः महाराष्ट्र में केन्द्रित है. 

तो क्या उनके यहाँ संभावना नहीं दिखती है, शरद पवार के राजनीतिक चातुर्य के साथ बहुत दिनों के सरकार का उनका अनुभव..वह तो है, एक, कोई भी सरकार में प्रधानमंत्री रहे उसको शरद पवार साहब से सलाह लेनी पड़ती है. लेकिन शरद पवार स्वयं प्रधानमंत्री बनें इसकी संभावना कम दिखाई पड़ती है.एक आरोप लगता है शरद पवार पर यह कि उन्होंने महाराष्ट्र की राजनीति को चीनी मिल और कोआपरेटिव सेक्टर के बीच सीमित रखके और कम करके भ्रष्ट किया है, भ्रष्टों का नेतृत्व के आरोप भी लगते रहे हैं ....
यह एकदम गलत बात है, आधारहीन है. इस तरह का काम शरद पवार ने नहीं किया है. शरद पवार को इस बात के लिए सम्मानित किया जाना चाहिए कि उन्होंने अपने प्रदेश को विकसित किया है. अगर आप बारामती चले जाइये, जो पहले उनका क्षेत्र था, अब सुप्रिया सुले का क्षेत्र है, तो आपको पता लग जायेगा कि विकास क्या है. अमेठी, रायबरेली ये तमाम क्षेत्र है प्रधानमंत्रीयों के इस देश में. लेकिन फर्क बारामती में जाकर देख लीजिये पता चल जायेगा. उनहोंने जनता के उद्यम और अध्यवसाय पर आधारित आर्थिक सामाजिक विकास किया है. इसलिए मैं आपसे चाहूंगा कि शरद पवार पर इस तरह की आधारहीन बात करने की  बजाय ज़रा बारामती जाकर आप देख लीजिये, जनता से पूछ लीजिये.

मोदी की सरकार से ज्यादा आर.एस.एस. की सरकार ने दो ढाई सालों में समाज में एक हलचल पैदा किया है, हर जगह पर- वह चाहे शिक्षा हो, या सामाजिक या लेखन का क्षेत्र हो, एक बेचैनी पैदा कर दी. अपने एजेंडे पर वह सफल रही. क्या लगता है आपको कि इन सारी चुनौतियों से निकलकर 2019 में मोदी का विकल्प तैयार हो सकेगा?
विकल्प तो जनता तलाशेगी. जनता को जागृत करना राजनीतिक दलों का कर्त्तव्य है- खासकर जो लोकतांत्रिक जनतांत्रिक राजनीति दल हैं, उनको चाहिए कि वे जनता के बीच जाकर मोदी सरकार की विफलताओं के बारे में बात करें. जहां तक आर.एस.एस. और मोदी सरकार की हिंदुत्व राजनीति की सफलता की बात है,  तो वह सफल नहीं हो पाया और न सफल हो पायेगा. सारी कोशिश वे कर रहे हैं – घर वापसी से लेकर लव-जिहाद, क्या क्या नहीं उठा रहे हैं - लेकिन कहीं सफलता मिली क्या - नहीं मिली..

लेकिन हमें सफलता दिख रही है. हैदराबाद में अप्पा राव बने हुए हैं, एफटीआईआई में चौहान बने हुए हैं, यूपी में मटन, बीफ में बदला जा रहा है. उनहोंने हलचल और बेचैनी पैदा कर दी और वे अपने एजेंडे पर कायम हैं. लोग विरोध कर थक और हार जा रहे हैं.
नहीं, हलचल कौन सी पैदा की- खाने के सवाल पर, विभिन्न साम्प्रदायिक सवालों पर.  तमाम अयोग्य लोगों को सिर्फ विचारधारा के स्तर पर तमाम संस्थाओं में नियुक्त करना. ये इन्होंने एक फैसला किया, लेकिन उस फैसला के बावजूद, लागू करने के बावजूद क्या समाज ने उसे स्वीकार किया. जो एफटीआईआई के मुद्दे पर विरोध हुआ उसकी कल्पना करिए आप. पूरे देश में रोहित वेमुला के प्रश्न पर कितना विरोध हुआ. जेएनयू के मुद्दे पर कितना विरोध हुआ देशभर में. ऐसा नहीं है. एक जो आम स्वीकृति हो उनके विचारधारा की, उनकी गतिविधियों की, कार्यकलापों की, नहीं हो रही है समाज में. 



वामपंथी राजनीति से शुरूआत करके आप यहां आ गये. यानि आपको मोहभंग हो गया होगा? इस राजनीति की कितनी सफलता आप देख रहे हैं? एक लम्बा दौर हो गया आपको वामपंथियों से अलग हुए?
वामपंथियों से मैं अलग नहीं हूं. लेकिन मूलतः मैं वामपंथी हूं. मैं मानता हूं कि भारत के विकास के लिए वामपंथी विचारधारा आवश्यक है. लेकिन दुर्भाग्य की बात यह है कि जब देश को वामपंथ की सबसे ज्यादा आवश्यकता है, तब वामपंथ निरंतर कमजोर हो रहा है.जिसमें उनके नेतृत्व की गलतियां है, उनकी राजनीतिक सोच और समझ की गलतियां हैं. उसके लिए वो जिम्मेदार हैं,  और कोई जिम्मेदार नहीं है. यूपीए सरकार से भारत-अमेरिका परमाणु समझौते पर समर्थन वापस लेकर सीपीएम ने अपना काम तमाम कर लिया 61 से 26 पर पहुंच गई. बंगाल में तीसरे नंबर पर पहुंच गई, जहां माना जाता था कि वामपंथ का कितना बड़ा आधार है. आज केरल में सरकार जरूर बन गई है लेकिन आगे देखिएगा क्या होता है..

अलग होने का कोई व्यक्तिगत कारण था?
कोई व्यक्तिगत कारण नहीं था. मेरा मतभेद था, लोकतांत्रिक कार्यप्रणाली पर जेएनयू के दिनों से ही. खासकर मैं जब यूरोप गया, सोवियत यूनियन गया तो वहां कुछ क्षेत्रों में कम्युनिस्ट सरकारों को देखा तो लगा कि कहीं न कहीं कोई गड़बड़ है, दुनिया के कम्युनिस्टों में.

आप जब अपनी आत्मसमीक्षा से भी देखते होंगे खुद के प्रसंग में कि आपकी स्वीकार्यता खेमों से अलग है अर्थात सभी खेमों में है, ये कैसे संभव है?
संभव इसलिए है कि मैं लोकतंत्र में किसी को शत्रु नहीं मानता हूं और संवाद की निरंतरता और अनिवार्यता पर विश्वास करता हूं. अगर आप बात नहीं करेंगे लोगों से तो किस तरह से उनको एक सही विचार के तरफ लायेंगे. मैं चाहे सरकार हो, चाहे विपक्ष हो सबसे बात करता हूं. नरेंद्र मोदी से भी मैं बात करूंगा और सीताराम येचुरी से भी.

साहित्यिक हलकों की भी मैं बात कर रहा हूं, यहां भी आपकी सर्वस्वीकारता है...
मैं सबसे बात करता हूं. देखिये संवाद की निरंतरता और अनिवार्यता हर क्षेत्र की आवश्यकता है. शिक्षा, संस्कृति, कला और साहित्य, राजनीति, विज्ञान और कोई भी क्षेत्र हो- सबमें संवाद की आवश्यकता है. 

क्या हम इसको ऐसे कह सकते है कि आप अजातशत्रु देवी प्रसाद त्रिपाठी रहे हैं?
वो तो मैं नहीं कह सकता हूं कि मैं क्या हूं, शत्रु तो गाहे-बगाहे मिलते रहते है. हमारे समाज में शत्रुभाव ज्यादा है, मित्रभाव कम है, जो दुर्भाग्य की बात है, हिंदी प्रदेशों में तो और भी. किसी से नकारात्मक व्यवहार रखने की जरूरत नहीं है, सोच भी रखने की जरूरत नहीं है. सबसे प्रसन्न रहिये, आपका काम भी अच्छा होगा और जीवन प्रसन्न भी रहेगा.

साभार : लहक 

मुल्‍क में बड़े जन आंदोलन की जमीन तैयार हो रही है: मेधा पाटेकर

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जन आन्‍दोलनों का राष्‍ट्रीय समन्‍वय के 11वें राष्‍ट्रीय सम्‍मेलन का आखिरी दिन

इस वक्‍त मुल्‍क में एक बड़े जन आंदोलन की जमीनतैयार हो रही है। जनता के हक की बात करने वाली राजनीतिक पार्टियों और जन आंदोलनों के बीच बेहतर संवाद के बिना बदलाव मुमकिन नहीं है। इसके लिए चुनाव में सुधार करना होगा। हर स्‍तर पर पारदर्शिता और जवाबदेही बढ़ानी होगी। अभिव्‍यक्ति की आजादी पर हो रहे हमलों को रोकने के लिए एकजुट होना होगा। ये बातें रविवार को पटना के अंजुमन इस्‍लामिया हॉल में आयोजित जन आन्‍दोलनों का राष्‍ट्रीय समन्‍वय के 11वें राष्‍ट्रीय सम्‍मेलन के तीसरे और आखिरी दिन आयोजित राजनीतिक दल और जन आंदोलनों के बीच समन्‍वय पर आयोजित परिचर्चा में उभर कर आई।



मुल्‍क में बड़े जन आंदोलन की जमीन तैयार हो रही है: मेधा

सम्‍मेलन के आखिरी दिन मशहूर सामाजिक कार्यकर्ता मेधा पाटकर ने कहा कि स्‍टूडेंट और दलित आंदोलन के लोगों के जुड़ने से हमारा आंदोलन का सैद्धांतिक दायरा और व्‍यापक हो गया है। इस चुनौती भरे समय में ढेर सारे समन्‍वय एक साथ जुड़ रहे हैं। यह उम्‍मीद जगाता है कि इस मुल्‍क में एक बड़ा जन आंदोलन खड़ा हो सकता है। ऐसे माहौल में जब चारों ओर से अभिव्‍यक्ति की आजादी पर हमले हो रहे हैं, जन सांस्‍कृतिक आंदोलन एक नई राह दिखाने का काम कर रहा है। दलीय राजनीति करने वालों को पर हम अपने आंदोलन के जरिए ज्‍यादा जनपक्षीय होने पर जोर दे सकते हैं। जन आंदोलन जिस निडरता के साथ जाति या कश्‍मीर का सवाल उठाते हैं, हमें उम्‍मीद है कि राजनीतिक दल इससे प्रेरणा लेंगे और हम साथ मिल कर इस मुल्‍क को बेहतर बनाने की लड़ाई लड़ेंगे। तभी हम सब एक वैकल्पिक जन हित वाले विकास के लिए काम कर पाएंगे।

आरटीआई के दायरे में पार्टियां भी आएं: दीपांकर
भाकपा (माले) के राष्‍ट्रीय महासचिव दीपांकर भट्टाचार्य ने नोटबंदी पर सवाल उठाते हुए कहा कि रिजर्व बैंक लोगों से मुद्रा देने का वादा करता है। यह उस वादे को तोड़ना है। नोटबंदी से न तो काला धन खत्‍म होगा और न ही भ्रष्‍टाचार। उन्‍होंने कहा कि गरीब परेशान हैं इसलिए हमें नारा देना चाहिए कि ‘मोदी हटाओ, रोटी बचाओ’। उन्‍होंने कहा कि आज हर तरह की आजादी को खत्‍म होने की कोशिश हो रही है। उन्‍होंने जनता से जुड़े अलग-अलग मुद्दे पर राजनीतिक दल और आंदोलनों का लेखा-जोखा तैयार करने की अपील की। दीपांकर ने कहा कि हर राजनीतिक पार्टी सूचना के अधिकार के दायरे में आना चाहिए और उनकी पार्टी इसके लिए तैयार है। उन्‍होंने राजनीतिक पार्टियों के खाते को सार्वजनिक करने की भी मांग की।

खनिज हमारे लिए अभिशाप बन गई है: बाबूलाल मरांडी
झारखण्‍ड के पूर्व मुख्‍यमंत्री बाबू लाल मरांडी ने कहा कि नोटबंदी से भ्रष्‍टाचार पर लगाम नहीं लगने वाली है। उन्‍होंने कहा, मैं भी उसी पाठशाला का विद्यार्थी रहा हूं जहां पीएम पढ़े हैं। मैं बहुत अच्‍छी तरह जानता हूं कि वे भ्रष्‍टाचार से न लड़ना चाहते हैं न लड़ सकते हैं। हमने इस पाठशाला में आमजन का दुख दर्द जाना ही नहीं। इसीलिए हमें नोटबंदी से जूझने वालों लोगों की तकलीफ नहीं दिखाई दे रही है। 2014 के लोकसभा चुनाव के साथ ही समाज को सबसे ज्‍यादा भ्रष्‍ट बनाने की कोशिश हुई है। बाबूलाल मरांडी ने झारखण्‍ड के लोगों की परेशानियों का हवाला देते हुए कहा कि हमारी अकूत खनिज सम्‍पदा हमारे लिए अभिशाप बन गई है। इसी खनिज की वजह से सब हमें लूटने आते हैं। हम झारखण्‍ड के लोग विस्‍थापित होने के लिए अभिशप्‍त बना दिए गए हैं। लोगों के हक के लिए हमें जन आंदोलनों को खड़ा करना होगा।

मेधा पाटेकर 
संवाद के दरवाजे खुले रहने चाहिए: केसी त्‍यागी
जनता दल (यूनाइटेड) के सांसद और प्रवक्‍ता केसी त्‍यागी ने देश की मौजूदा आर्थिक नीतियों की आलोचना करते हुए कहा कि अमीरी गरीबी के बीच खाई बढ़ती जा रही है। बुदेलखंड से बड़े पैमाने पर पलायन देखने को मिल रहा है। छोटी छोटी सी बात पर देश का साम्‍प्रदायिक माहौल खराब करने की कोशिश की जा रही है। उन्‍होंने कहा कि हमें अपने संघर्ष को वर्ग के दायरे से आगे निकालकर अस्मिताओं के दायरे तक बढ़ाना होगा। हमें अपने आंदोलन में हर तरह के अल्‍पसंख्‍यकों और हाशिए पर ढकेल दिए गए लोगों को शामिल करना होगा। उन्‍होंने कहा कि जन पक्षीय पार्टियों और जन आंदोलन के बीच लगातार संवाद के दरवाजे खुले रहने चाहिए।

प्रगतिशील ताकतें एकजुट हों: शमीम फैजी
भारतीय कम्‍युनिस्‍ट पार्टी (भाकपा) के केन्‍द्रीय सचिव मंडल के सदस्‍य शमीम फैजी ने सभी तरह की प्रगतिशील प्रगतिशील और वामपंथी ताकतों की एकजुटता पर जोर दिया। उन्‍होंने कहा कि जहां जहां यह ताकतें एक हुईं उन पर हमले भी तेज हुए हैं लेकिन उसका व्‍यापक सामाजिक राजनीतिक असर भी देखने को मिला है। शमीम फैजी ने कहा कि आज हमले ज्‍यादा खुले रूप में हो रहे हैं, यह खतरनाक प्रवृति है।

आज तो संविधान बचाने की जरूरत: अवधेश
मार्क्‍सवादी कम्‍युनिस्‍ट पार्टी (माकपा) के अवधेश कुमार ने चुनाव सुधार और भूमि सुधार का मुद्दा उठाया। उन्‍होंने कहा कि इसके बिना मूलभूत सुधार मुमकिन नही है। आज सबसे बड़ी चुनौती संविधान को बचाने की है। हमें देश बचाओ, संविधान बचाओ का नारा देना चाहिए।

झारखण्‍ड और केन्‍द्र सरकार आदिवासी विरोधी: दयामनी
झारखण्‍ड की मशहूर सामाजिक कार्यकर्ता दयामनी बारला ने कहा कि हम आंदोलन करने वाले तो साथ में हैं। इसलिए सबसे पहले अपने को जन पक्षीय कहने वाली पार्टियों को एक मंच पर आना चाहिए। तब ही हम बेहतर तरीके से संवाद कर सकते हैं। उन्‍होंने झारखण्‍ड और केन्‍द्र की भाजपा सरकारों को आदिवासी विरोधी और जन विरोधी बताया। दयामनी का कहना था कि जल-जंगल जमीन और देश बचाने के लिए न सिर्फ झारखण्‍ड से बल्कि पूरे देश से भाजपा को हराना जरूरी है। उन्‍होंने चुनाव में भाजपा को पराजित करने के लिए बिहार की जनता को बधाई दी और कहा कि यहां के लोगों ने देश को मजबूत राह दिखाई है। उन्‍होंने कहा कि झारखण्‍ड में आदिवासियों की जमीन को छीनने की कोशिश का हम पुरजोर विरोध कर रहे हैं और आगे भी करेंगे।

हम बदलाव की राजनीति करते हैं: सुनीलम
एनएपीएम के सुनीलम ने कहा कि हम बदलाव की राजनीति में यकीन रखते हैं। जन आंदोलनों और राजनीतिक दलों को परस्‍पर संवाद करना होगा तब ही बदलाव आएगा। हम सिर्फ सरकारों में बदलाव में यकीन नहीं रखते हैं बल्कि हम सामाजिक –राजनीतिक व्‍यवस्‍था के मूलभूत ढांचे में बदलाव में यकीन रखते हैं।
इनके अलावा इस मौके पर एनएपीएम मधुरेश, जद (यू) की अंजुम आरा, पास्‍को संघर्ष की अगुआ मनोरमा, आशीष रंजन और महेन्‍द्र ने भी सम्‍बोधित किया।
 
नोटबंदी के खिलाफ जन जागरूकता अभियान
एनएपीएम के सम्‍मेलन के आखिरी दिन आगे के लिए कई कार्यक्रम तय हुए हैं। इसमें सबसे ऊपर नोटबंदी का मसला है। एनपीएम पूरे देश में नोटबंदी पर जन सुनवाई करने जा रहा है। इसके जरिए लोगों के बीच नोटबंदी के असर के बारे में जनजागरूकता अभियान चलाया जाएगा। इसके अलावा कश्‍मीर से कन्‍याकुमारी तक छात्रों के साथ शांति अभियान, वन अधिकार और भूमि अधिकार के लिए अभियान, नर्मदा यात्रा, ट्रांसजेण्‍डर के अधिकारों के लिए राष्‍ट्रीय परिसंवाद, बेरोजगारी के खिलाफ आंदोलन समेत कई मुद्दों पर अगले साल कार्यक्रम की योजना है।

नई संयोजक टीम का चुनाव
रविवार को सम्‍मेलन के आखिरी दिन जन आंदोलनों का राष्‍ट्रीय समन्‍वय की नई संयोजक टीम का चुनाव हुआ। नई टीम में बिहार से आशीष रंजन, डोरथी फर्नांडिस, महेन्‍द्र यादव, केरल से वी. वेणुगोपाल, विजय राघवन, दिल्‍ली से नानु प्रसाद, फैसल खान, झारखण्‍ड से दयामनी बारला, उड़ीसा से लिंगराज आजाद, बंगाल से अमिताभ मित्रा, गुजरात से कृष्‍णकांत, महाराष्‍ट्र से सुहास कोल्‍हेकर, राजस्‍थान से कैलाश मीणा, उत्‍तर प्रदेश से रिचा सिंह, विमल भाई, डॉक्‍टर सुनीलम, मधुरेश और मीरा विशेष आमंत्रित में कविता श्रीवास्‍तव, अंजलि, अरुंधति धुरु, कला दास शामिल हैं। मेधा पाटकर वरिष्‍ठ सलाहकार की भूमिका में रहेंगी।

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