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हिंसा में कोई मर्दानगी नहीं

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नसीरुद्दीन

रघुवीर सहाय की कविता ‘औरत की जिंदगी’ की कुछ पंक्तियां हैं- कई कोठरियां थीं कतार में/ उनमें किसी में एक औरत ले जाई गयी/ थोड़ी देर बाद उसका रोना सुनाई दिया/ उसी रोने से हमें जाननी थी एक पूरी कथा/ उसके बचपन से जवानी तक की कथा... 

तीन लाख 27 हजार 394- महज गिनने के लिए यह कोई संख्या नहीं है. न ही ये निर्जीव हैं. जैसे ही हम इन संख्याओं की तह में जाते हैं, हमें घर से बाहर तक की जीती-जागती जिंदगियां दिखाई देने लगती हैं. यह आंकड़ा साल 2015 में देशभर में महिलाओं के साथ होनेवाले वाले अपराधों की संख्या है. स्त्री जाति के साथ इतने ही कुल अपराध हुए होंगे, यह कहना थोड़ा सही नहीं है. यह संख्या वह है, जो पुलिस के रिकॉर्ड में दर्ज है. इसके बावजूद, यह कम नहीं है. क्या इस संख्या को सुनते ही हमारे अंदर कुछ बेचैनी पैदा हुई? क्या यह कहीं से भी हमें कुछ सोचने पर मजबूर करती है? स्त्री जीवन की जो कथा रघुवीर सहाय सुना रहे हैं, क्या इसकी गूंज हमें सुनाई देती है?

बलात्कार, बलात्कार की कोशिश, दहेज के लिए हत्या,पति या ससुरालियों द्वारा अत्याचार, यौन हिंसा, घरेलू हिंसा जैसे अपराध किसके साथ हो रहे हैं- मर्द के साथ? सवाल ही नहीं है? महज मर्द होने की वजह से मर्दों के साथ यह सब होता, तो अब तक दुनिया सर पर उठा ली गयी होती. है न!


वैसे, हम यह चर्चा कर क्यों रहे हैं? क्योंकि, यह मौका है कि इस पर खुल कर बात की जाये. इस वक्त पूरी दुनिया में जेंडर आधारित हिंसा के खिलाफ 16 दिनी जागरूकता अभियान चल रहा है. यह अभियान 25 नवंबर यानी महिलाओं के साथ होनेवाली हिंसा खत्म करने के दिवस से शुरू हुआ है और मानवाधिकार दिवस, 10 दिसंबर तक चलेगा. हमारे देश में भी जगह-जगह स्त्रियों के साथ होनेवाली हिंसा के खिलाफ यह अभियान चल रहा है. मगर सवाल है कि हम इस हिंसा को देख या महसूस भी कर पा रहे हैं? किसी भी बुरी चीज को खत्म करने के लिए जरूरी है पहले उसे स्वीकार करना. उसके नुकसानदेह असर को समझना. उसे इंसानी हकों के खिलाफ मानना.

ऊपर जिस आंकड़े का जिक्र किया गया है, वह राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की ताजा रिपोर्ट से लिया गया है. इस आंकड़े की तह में जाने पर पता चलता है कि 2015 में हमारे मुल्क में हर घंटे चार महिलाओं के साथ कहीं-न-कहीं बलात्कार की घटना हुई. हर रोज 21 लड़कियों का दहेज के लिए खून हुआ. करीब सवा लाख महिलाएं पति या ससुरालियों की हिंसा की शिकार हुईं. हर दस मिनट पर कहीं-न-कहीं किसी लड़की के साथ ऐसी हरकत हुई, जो उसकी मर्जी के खिलाफ है. यह सम्मान पर हमला है. कानूनी रूप में यौन उत्पीड़न है.

अब गौर करने की बात है कि क्या आमतौर पर लड़कियों यास्त्रियों की तरह ही मर्दों या लड़कों का पीछा किया जाता है या उनके साथ यौन हिंसा होती है? क्या आमतौर पर मर्दों के साथ बलात्कार होता है और वे इस खौफ के साये में जीते हैं? क्या मर्द दहेज के लिए मार दिये जाते हैं? क्या दहेज न देने या लाने के लिए मर्दों के साथ हिंसा होती है? क्या जितनी बड़ी संख्या में महिलाओं के साथ महिला होने के नाते हिंसा की शिकायत पुलिस के पास पहुंचती है, क्या मर्द के साथ वैसी ही हिंसा होती है? कुछ लोग किंतु-परंतु जरूर करेंगे पर ज्यादातर के लिए इसका जवाब ‘ना’ में होगा.  

अगर इन सब सवालों का जवाब नहीं है, तो क्या इसके बारे में सोचने की जरूरत नहीं है? तो क्या यह सब सामान्य है? अगर सोचने की जरूरत है, तो क्या सिर्फ वही सोचेगा, जिसके साथ हिंसा हो रही है? यानी क्या सिर्फ स्त्रियां ही हिंसा/जुल्म के खिलाफ आवाज उठायेंगी? क्या मर्दों को सोचने या आवाज उठाने की जरूरत नहीं है? स्त्रियां तो इस हिंसा के खिलाफ आवाज उठा ही रही हैं, लेकिन स्त्रियों की जिंदगी में पैबस्त हिंसा सिर्फ उनके जानने-समझने से खत्म नहीं हो रही है. एक समाज में स्त्री-पुरुष आपस में दुश्मन की तरह नहीं रह सकते हैं. अगर हम इंसानी हकों पर आधारित घर-समाज-देश-दुनिया चाहते हैं, तो हर तरह की हिंसा के खिलाफ मर्दों को भी स्त्रियों के साथ आवाज उठानी पड़ेगी. यह मर्दों के इंसान बने रहने के लिए जरूरी है और उनकी सेहत के लिए भी फायदेमंद है. क्योंकि हिंसा हमेशा नुकसानदेह ही होती है.

हिंसक होने से न कोई ‘मर्द’ होता है और न ही यह‘मर्दानगी’ का प्राकृतिक गुण है. हमारा समाज सदियों से जिस तरह का मर्द बनाता रहा है, वह अमानवीय मर्द की रचना है. पैदा होने के साथ ही लड़कों को जिस तरह ठोक-ठोक कर मर्द बनाया जाता है, कहीं-न-कहीं स्त्री के साथ हिंसा की जड़ वहां है.


स्त्री की जिंदगी से हिंसा खत्म करने की पहली सीढ़ी है, इस अमानवीय मर्द की रचना को नकारना. एक ऐसे इंसान के रूप में अपने को ढाल देना, जो मर्द तो है पर हिंसक नहीं है. जो किसी भी तरह की ताकत का इस्तेमाल कर स्त्री ही नहीं, बल्कि किसी को भी दबाने में यकीन नहीं रखता है.

जिसे अहिंसा और प्रेम की ताकत में यकीन है. जाहिर है, इसके लिए मर्दों को कोशिश करनी होगी. ऐसा नहीं है कि यह कोई नामुमकिन सा काम है. हमारे मुल्क के अलग-अलग हिस्सों में ऐसे बहुत लोग हैं, जिन्होंने ऐसा कर दिखाया है.

तमिल के मशहूर साहित्यकार सुब्रह्मण्यम भारती करीब सौ साल पहले स्त्री-पुरुष संबंधों में भय वाली मर्दानगी खत्म करने के लिए इसीलिए मर्दों से यह कहते हैं, ‘…यदि पुरुष चाहता है कि स्त्री उससे सच्चा प्रेम करे, तो पुरुष को भी स्त्री के प्रति अटूट श्रद्धा रखनी चाहिए.

भक्ति के द्वारा ही भक्ति का आविर्भाव होगा.एक दूसरी आत्मा, भय से त्रस्त होकर हमारे वश में रहेगी, ऐसा माननेवाला चाहे राजा हो, गुरु हो या पुरुष हो, वह निरा मूर्ख है. उसकी यह इच्छा पूरी नहीं होगी. आतंकित मानव का प्राण चाहे प्रकट रूप में गुलाम की भांति अभिनय करे, हृदय के अंदर द्रोह की भावना को वह अवश्य छिपाता रहेगा. भयवश होकर प्रेम कभी खिलता नहीं है.’ तो क्या मर्द अपनी हिंसक मर्दानगी की खास सोच को बदलने को तैयार हैं? जनाब, इस बदलाव में ही समझदारी है.
नसीरुद्दीन वरिष्ठ पत्रकार हैं. 
साभार प्रभात खबर 

मेरी ज़िंदगी का सिर्फ़ एक तिहाई हिस्सा ही मेरा है: जयललिता

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जयललिता ने तमिलनाडु की  पुरुष प्रधान राजनीति में अपनी जगह बनाई. अम्मा के रूप में राज्य की जनता के बीच लोकप्रिय हुईं. अंतरविरोधों से भरी अपनी राजनीति का आख़िरी चरण पूरा कर वे दुनिया छोड़ कर चली गई. आइये जानते हैं भारतीय राजनीति की इस कद्दावर महिला राजनेता के जीवन सफ़र को 

जयललिता 140 फिल्में करने, 8 बार विधानसभा का चुनाव लड़ने और एक बार राज्यसभा के लिए मनोनीत होने के अलावा पांच बार तमिलनाडु की मुख्यमंत्री बनी.



1989 में विधानसभा में अपने ऊपर हमले के बाद जयललिता 


साल 1948 की 24 फ़रवरी को मैसूर में मांडया ज़िले के मेलुरकोट गांव में पैदा होने वाली जयललिता के पिता की मृत्यु  तब हुई जब वे दो साल की थीं. उनकी माँ वेदवल्ली ने तमिल सिनेमा में काम करना शुरू कर दिया और अपना नाम बदल कर संध्या रख लिया. जयललिता अपनी मौसी और नाना-नानी के पास रहकर बंगलुरू के बिशप कॉटन स्कूल में पढ़ने लगीं. मौसी की शादी के बाद वे अपनी माँ के पास वापस चेन्नई चली गईं. पढ़ाई में अच्छा करने के बावजूद उनकी माँ ने उन्हें फिल्मों में काम करने के लिए मजबूर किया. वे पढाई में हमेशा अव्वल होती थीं. वकील बनना चाहती थीं.


जयललिता का बचपन 

पहली कन्नड़ फ़िल्म के बाद एक के बाद एक उन्होंने कई फ़िल्में की. उन्होंने दक्षिण भारत में उस दौर के लगभग सभी सुपरस्टारों, मसलन, शिवाजी गणेशन, जयशंकर, राजकुमार, एनटीआर यानी एन टी रामाराव और एम जी रामचंद्रन यानी एमजीआर के साथ काम किया.फ़िल्म इतिहासकारों के अनुसार, जयललिता ने जयशंकर के साथ 10 तमिल फिल्मों में काम किया. उन्होंने एन टी रामाराव के साथ 12 तेलुगु फिल्मों में भी काम किया.
इसके अलावा उस वक़्त के तेलुगु सिनेमा के सुपरस्टार अक्कीनेनी नागेश्वर राव के साथ उन्होंने 7 फिल्में कीं. शिवाजी गणेशन के साथ की गई तमिल फिल्म 'पट्टिकाडा पट्टनामा'के लिए उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार मिला.
शिवाजी गणेशन के साथ जयललिता ने 17 फिल्में की. इतना ही नहीं, एक फिल्म में उन्होंने गणेशन की बेटी की भूमिका भी निभाई थी. लेकिन, एम जी रामचंद्रन के साथ तमिल फिल्मों में उनकी जोड़ी ने उन्हें कामयाबी और शोहरत के नए मुक़ाम तक पहुंचाया.



एम जी रामचंद्रन जयललिता को अपने साथ राजनीति में  ले आए. 1982 में उन्होंने अन्ना द्रमुक की सदस्यता ग्रहण की और 1983 में पार्टी की प्रचार प्रमुख बन गईं और विधायक भी. उन्होंने पहला चुनाव तिरुचेंदूर सीट से जीता. एम जी रामचंद्रन ने 1984 में उन्हें राज्यसभा भेजा. फिल्मों की तरह ही राजनीति में भी जयललिता एक-एक कर सीढ़ियां चढ़ती चली गईं. 1988 में एम जी रामचंद्रन के निधन के बाद अन्ना द्रमुक दो हिस्सों में बंट गया. एक हिस्से का नेतृत्व एमजीआर की पत्नी जानकी कर रहीं थी तो दूसरे का जयललिता.

जयललिता ख़ुद को एमजीआर का राजनीतिकउत्तराधिकारी मानने लगीं. लेकिन, उस वक़्त तमिलनाडु विधानसभा के अध्यक्ष पी एच पांडियन ने जयललिता के गुट के 6 सदस्यों को अयोग्य क़रार दिया. जानकी रामचंद्रन तमिलनाडु की पहली महिला मुख्यमंत्री बन गईं. राष्ट्रपति शासन के बाद 1989 में हुए विधानसभा के चुनावों में जयललिता के गुट ने 27 सीटें जीत लीं और वे विपक्ष की नेता बनीं.



 25 मार्च 1989 में तमिलनाडु के विधानसभा में जो उनके साथ दुर्व्यवहार हुआ, जिससे लोगों में जयललिता के प्रति सुहानुभूति बढ़ गई.उस दिन सत्ता पक्ष यानी डीएमके के सदस्यों और अन्ना द्रमुक के सदस्यों के बीच सदन में ही हाथापाई हुई और जयललिता के साथ ज़ोर ज़बरदस्ती की गई. अपनी फटी साड़ी के साथ जयललिता विधानसभा से बाहर आईं. जयललिता ने सदन से निकलते हुए कहा था कि वे मुख्यमंत्री बन कर सदन में लौटेंगी वर्ना नहीं. साल 1991 में राजीव गांधी की हत्या के बाद हुए चुनावों में जयललिता ने कांग्रेस से चुनावी समझौता किया और 234 में से 225 सीटें जीत लीं. वे मुख्यमंत्री बनीं.इस देश  में SC, ST, OBC का सबसे अधिक आरक्षण , 69% तमिलनाडु में है.आरक्षण का यह विधेयक जयललिता ने  1993 में पास कराया था.


जयललिता के लिए प्रार्थना करते उनके समर्थक 

अपने जीवन के सफ़र के बारे में चर्चा करते हुए एक बार जयललिता ने कहा था, "मेरी ज़िंदगी का एक तिहाई हिस्से पर मेरी माँ का प्रभाव रहा. ज़िंदगी के दूसरी तिहाई हिस्से पर एमजीआर का. मेरी ज़िंदगी का सिर्फ़ एक तिहाई हिस्सा ही मेरा है. मुझे इसी में बहुत सारी ज़िम्मेदारियों और कर्तव्यों को पूरा करना है."अन्ना द्रमुक के मंत्री, सांसद, विधायक, नेता और समर्थक उन्हें 'अम्मा'और 'पुरातची थलाइवी'यानी 'क्रांतिकारी नेता'के नाम से भी पुकारते रहे हैं.

90 प्रतिशत ग्रामीण अब्राह्मणों को भूल जाना पतन का कारण : डा. आंबेडकर

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बाबा साहब डा. आंबेडकर के परिनिर्वाण दिवस पर उनका  एक जरूरी व्याख्यान

"मित्रों ,जहाँ तक मैंने अध्ययन किया है , मैं कह सकता हूँ कि मद्रास की अब्राह्मण-पार्टी का संगठन भारत के इतिहास की एक विशिष्ट घटना है. इस बात को बहुत कम लोग समझ सकते हैं कि यद्यपि इस पार्टी का जन्म साम्प्रदायिकता के आधार पर हुआ था , जैसा कि इसके नाम से स्पष्ट झलकता है , फिर भी इस पार्टी का मौलिक आधार और वास्तविक ध्येय साम्प्रदायिक नहीं था. यह कोई महत्वपूर्ण बात नहीं है कि अब्राह्मण पार्टी का संचालन किसने किया ? भले ही इसका संचालन किसी ’मध्य वर्ग’ ने किया हो , जिसके एक सिरे पर ब्राह्मण रह रहे हैं और दूसरे सिरे पर अछूत , तो भी यदि यह पार्टी लोकतंत्र पर आश्रित न होती , तो इसका कुछ मूल्य न होता. इसीलिए हर लोकतंत्रवादी को इस पार्टी की उन्नति और विकास में दिलचस्पी रही है.

मद्रास के प्रसिद्ध पत्र संडे आबजर्वर के सम्पादक श्री पी. बालासुब्रम्ण्या ने बाबा साहब के सम्मान में , 23 दिसम्बर 1944 को वहाँ के कन्नेमारा होटल में एक लंच दिया था. 
इस देश के इतिहास में जहाँ ब्राह्मणवाद का बोलबाला है , अब्राह्मण पार्टी का संगठन एक विशेष घटना है और इसका पतन भी उतने ही खेद के साथ याद रखी जाने वाली एक घटना है. 1937 के चुनाव में पार्टी क्यों एकदम धराशायी हो गयी , यह एक प्रश्न है , जिसे पार्टी के नेताओं को अपने से पूछना चाहिए। चुनाव से पहले लगभग 24 वर्ष तक मद्रास में अब्राह्मण-पार्टी ही शासनारूढ़ रही. इतने लम्बे समय तक गद्दी पर बैठे रहने के बावजूद अपनी किसी गलती के कारण पार्टी चुनाव के समय ताश के पत्तों की तरह उलट गई ? क्या बात थी जो अब्राह्मण-पार्टी अधिकांश अब्राह्मणों में ही अप्रिय हो उठी ? मेरे मत में इस पतन के दो कारण थे. पहला कारण यह है कि इस पार्टी के लोग इस बात को साफ नहीं समझ सके कि ब्राह्मण-वर्ग के साथ उनका क्या वैमनस्य है ? यद्यपि उन्होंने ब्राह्मणों की खुल कर आलोचना की,तो भी क्या उनमें से कोई कभी यह कह सका था कि उनका मतभेद सैद्धान्तिक है. उनके भीतर स्वयं कितना ब्राह्मणवाद भरा था. वे ’ नमम’ पहनते थे और अपने आपको दूसरी श्रेणी के ब्राह्मण समझते थे। ब्राह्मणवाद को तिलांजलि देने के स्थान पर वे स्वयं ’ब्राह्मणवाद’  की भावना से चिपटे हुए थे और समझते थे कि इसी आदर्श को उन्हें अपने जीवन में चरितार्थ करना है. ब्राह्मणों से उन्हें इतनी ही शिकायत थी कि वे उन्हें निम्न श्रेणी का ब्राह्मण समझते हैं.

ऐसी कोई पार्टी किस तरह जड़ पकड़ सकती थी, जिसके अनुयायी यह तक न जानते कि जिस पार्टी का वे समर्थन कर रहे हैं तथा जिस पार्टी का विरोध करने के लिए उनसे कहा जा रहा है ,उन दोनों में क्या-क्या सैद्धान्तिक मतभेद हैं. उसे स्पष्ट कर सकने की असमर्थता , मेरी समझ में , पार्टी के पतन का कारण हुई है. पार्टी के पतन का दूसरा कारण इसका अत्यन्त संकुचित राजनैतिक कार्यक्रम था. इस पार्टी को इसके विरोधियों ने ’नौकरी खोजने वालों की पार्टी ’ कहा है.मद्रास के ’हिन्दू’ पत्र ने बहुधा इसी शब्दावली का प्रयोग किया है। मैं उस आलोचना का अधिक महत्व नहीं देता क्योंकि यदि हम ’ नौकरी खोजने वाले ’ हैं, तो दूसरे भी हम से कम ’नौकरी खोजने वाले’ नहीं हैं.


अब्राह्मण-पार्टी के राजनीतिक कार्यक्रम में यह भी एक कमी अवश्य रही कि उसने अपनी पार्टी के कुछ युवकों के लिए नौकरी खोजना अपना प्रधान उद्देश्य बना लिया था। यह अपनी जगह ठीक अवश्य था। लेकिन जिन अब्राह्मण तरुणों को सरकारी नौकरियां दिलाने के लिए पार्टी बीस वर्ष तक संघर्ष करती रही, क्या उन अब्राह्मण तरुणों ने  नौकरियाँ मिल जाने के बाद पार्टी को स्मरण रखा ? जिन 20 वर्षों में पार्टी सत्तारूढ़ रही ; इस सारे समय में पार्टी गांवों में रहने वाले उन 90 प्रतिशत अब्राह्मणों को भुलाये रही, जो आर्थिक संकट में पड़े थे और सूदखोर महाजनों के जाल में फँसते चले जा रहे थे.

मैंने इन बीस वर्षों में पास किये गए कानूनों का बारीकी से अध्ययन किया है. भूमि-सुधार सम्बन्धी सिर्फ़ एक कानून को पास करने के अतिरिक्त इस पार्टी ने श्रमिकों और किसानों के हित में कुछ भी नहीं किया. यही कारण था कि ’ कांग्रेस वाले चुपके से ’ चीर हरण,कर ले गये.

ये घटनायें जिस रूप में घटी हैं , उन्हें देखकर मुझे बहुत दुख हुआ। एक बात जो मैं आपके मन में बिठाना चाहता हूं, वह यह है कि आपकी पार्टी ही आपको बचा सकती है. पार्टी को अच्छा नेता चाहिए , पार्टी को मजबूत संगठन चाहिए , पार्टी को अच्छा प्लैट-फ़ार्म चाहिए."

तस्वीरों में बाबा साहब

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तस्वीरों में बाबा साहेब .....

बाबा साहब
 डॉक्टर भीम राव अंबेडकर


अम्बेडकर की मुम्बई की कान्हेरी गुफाओं की सैर. तस्वीर 1952-53 की है.


तस्वीर नेपाल की राजधानी काठमांडू में 20 नवम्बर 1956 को आयोजित 'बौद्ध भ्रातृ संघ'की चौथी परिषद में अम्बेडकर ने नेपाल नरेश महेंद्र और महास्थविर चंद्रमणि की उपस्थिति में अपना प्रख्यात भाषण 'बुद्ध और कार्ल मार्क्स'दिया.
उनके भाषण का मूल विषय 'बौद्ध धर्म में अहिंसा'था लेकिन उपस्थित प्रतिनिधियों के आग्रह पर उन्होंने विषय बदल लिया.




औरंगाबाद में महाविद्यालय की इमारत के शिलान्यास के बाद अम्बेडकर डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद को वेरुल की गुफाएं दिखाने ले गए. तस्वीर एक सितम्बर, 1951 की है.


क़ानून मंत्री डॉक्टर अम्बेडकर हिन्दू कोड बिल पर संसद में चर्चा करते हुए.


मंत्री पद से त्यागपत्र देने के बाद 18 नवम्बर, 1951 को अम्बेडकर मुम्बई लौट आए.
उस समय मुम्बई प्रदेश शेड्यूल कास्ट्स फेडरेशन और समाजवादी पार्टी की ओर से बोरीबंदर रेलवे स्टेशन पर आयोजित उनके स्वागत कार्यक्रम का एक हंसमुख पल.
रायबहादुर सीके बोले के बैठने की जगह न होने के कारण अम्बेडकर ने उन्हें अपनी गोद में बिठा लिया. उनके साथ में माई अम्बेडकर.


औरंगाबाद की एक कोर्ट में अम्बेडकर. औरंगाबाद के बार एसोसिएशन ने उनको आमंत्रित किया था. तस्वीर की तारीख 28 जुलाई, 1950.


अपने शिक्षण संस्थान के विद्यार्थियों का राजनैतिक ज्ञान परिपक्व हो, इस सिलसिले में अम्बेडकर ने मुम्बई के सिद्धार्थ महाविद्यालय की 'विद्यार्थी संसद'में 11 जून, 1950 को हिन्दू कोड बिल के समर्थन में भाषण दिया.


अखिल भारतीय दलित फेडरेशन का चुनावी घोषणा पत्र, 1946.


चक्रवर्ती सी राजगोपालाचारी के भारत के प्रथम गवर्नर जनरल बनने के उपलक्ष्य में सरदार पटेल द्वारा जून 1948 में आयोजित किए गए भोज समारोह में प्रधानमंत्री नेहरू के साथ अम्बेडकर और केन्द्रीय मंत्रीमंडल के अन्य सदस्य..



30 जनवरी, 1948 को दिल्ली के बिरला हाउस में महात्मा गांधी की नाथूराम गोडसे ने हत्या कर दी थी और सारा देश हिल गया.
अम्बेडकर बिरला हाउस की तरफ दौड़ पड़े, वहाँ पर कांग्रेसी नेता शंकर राव देव से बातचीत करते हुए.


धर्मांतरण की घोषणा पर अखबार की प्रतिक्रिया.


स्वतंत्र मज़दूर पार्टी की ओर से 17 फरवरी 1937 को मध्य मुम्बई निर्वाचन क्षेत्र से चुनाव लड़ रहे अम्बेडकर का मत पत्र. उनका चुनाव चिह्न 'आदमी'था.


श्रम मंत्री के रूप में नौ दिसंबर 1943 को अम्बेडकर धनबाद के कोयला खदान मजदूरों की कॉलोनी में गए.

स्वर्णलता ठन्ना की कविताएँ

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स्वर्णलता ठन्ना
युवा कवयित्री स्वर्णलता ठन्ना फिलहाल विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन में शोधरत हैं . संपर्क :swrnlata@yahoo.in

सजा

समाज के ढकोसलों
उठते प्रश्नचिन्हों से
झुलसती
उठती उँगलियों की
नोंक पर स्वयं के होने की
असह्य पीड़ा
और
जिस्म को भेदती
नजरों के तीरों से
आहत हो जाती है
उसकी आत्मा
तो छिप जाना चाहती है वह
हसरतों की ओट में
छीजता जाता है
उसके भीतर कहीं कुछ
अनजाने सायों की आहट
और
जानी-अनजानी
सूनेपन की दस्तक से
हो जाती है वह सतर्क
और बह आती है
सन्नाटे में डोलती
हवा के साथ
धरती के निषिद्ध
कहे जाने वाले
कोनों में
ढ़ूँढने अपने लिए
कोई महकता फूल
जो सुनहरी कोमल
धूप छिटकने पर
खिलता है
अपने सप्तपर्ण के साथ
जिसके खिलते ही
गाती है नन्हीं गौरैया
फुदकती हुई
उसकी खोज में
डोलती रहती है
वह कई दिन
झरती हुई कलियों
और
बादलों का लिहाफ ओढ़े
निषिद्ध कोनों में
और उभर आता है
उसका नाम
सरगोशियों से
सभ्य कही जाने वाली
दुनिया में
अपराधी की तरह
और अन्ततः
ढूँढ़ लिया जाता है उसे
खूबसूरत वादियों में
खुशी, उमंग और
उल्लास के साथ
खिलखिलाते हुए...
और
डाल दिए जाते हैं
उस पर
लिहाज की चट्टानों के
अनगिनत टुकड़ें
बरसों से सूखे झरने पर
छिटक जाती है
कुछ रक्त की बूँदें
और वो गुलाबी चेहरा
ओढ़ लेता है
खामोशी का आँचल
वीरान हो जाता है
धरती का हर कोना
ढुलक जाते हैं
सूखे दरख्तों के आँसू
शिशिर सहम कर
ओढ़ा देता है उसे
बर्फ का कफन
कुछ दिनों की
जिंदगी के साथ
खेल लेती है
मौत अपना दाँव
और जीतकर ले जाती है
गुलाबी चेहरे की रंगत
अपने साथ...
मिलती है उसे
अवयव की सुकोमल
सुन्दरता के साथ
लड़की बन
अपने अनुसार
जीने की सजा...।

 तैयार हूँ मैं

दुख को काजल बना कर
आँखों में
गहराई से आंज लिया
कस कर
बालों को बाँध लेने के बाद भी
उलझन रूपी लटें
चेहरे के चारों ओर
बिखरी हुई थी
बड़ी मुश्किल से
उन्हें कानों के पीछे
दबा कर
उलाहनों और
तानों से बनी
साड़ी को
कंधें पर जमा लिया
रस्मों की जंजीरें
गले में दोहराते हुए
चमकने लगी
और परिधियों के घुंघरू
पायल की बेड़ियों के साथ
रूनझुन बजने लगे
नाजुक सी कलाई पर
मर्यादाओं के
कंगन चढ़ा
दर्पण के समक्ष
खड़े होकर
मैंने देखा
मैं पूरी तरह से
तैयार हूँ
हर परिस्थिति से
जूझने के लिए
हर मुश्किल का
सामना करने के लिए..

चाँद

चाँद तुम अपने
सौंदर्य ,नूर
सादगी ,उज्ज्वलता
और
रुपहले अक्स की
परतों में छिपे
कितनी स्वछन्दता से
घूम लेते हो
इस विशाल नीलगगन में
शायद इसलिए
क्योंकि पुकारे जाते हो
तुम पुल्लिंग  में
अन्यथा
इस सौंदर्य के साथ
यदि पुकारा जाता तुम्हें
स्त्रीलिंग में
तो झेल रहे होते
निरपराध होकर भी
प्रस्तर होने का शाप
या बिताते अपना जीवन
परित्यक्त होकर
वन में
करने अपने सतीत्व की रक्षा
स्वाहा करते स्वयं को
और इन सब से
बच गए होते तो
बलात्कृत होकर
जीवन भर झेलते
अपमानों के दंश
और तब
ये सौंदर्य ,चमक ,
आभा और स्त्रीत्व
अभिशाप बन जाते...
तुम्हारे लिए ...।

पितृसत्तात्मक दृष्टिकोण और स्त्री की आजादी विशेष संदर्भ-मैत्रेयी की कहानी “पगला गयी है भागवती”

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आदित्य कुमार गिरि
शोधार्थी,कलकत्ता विश्वविद्यालय,ईमेल आईडी-adityakumargiri@gmail.com

पुंसवादी समाज ने एक ऐसी व्यवस्था बनाई है जिसके तहत स्त्रियों को दूसरे दर्जे का प्राणी मान लिया गया है.वह निर्विवाद रूप से पुरुष के अधीन और उसके बनाए नियमों को मानने को बाध्य है.मानो पुरुषसत्ता निरपेक्ष और निर्दोष हो.पुरुषसत्ता को चुनौति देने वाली स्त्री संदेह से देखी जाती है.इस समाज ने ऐसी व्यवस्था निर्मित की है जहाँ स्त्री की आजादी का प्रश्न न सिर्फ बेमानी है बल्कि अस्वाभाविक भी है. इस पितृसत्ता ने स्त्री के प्रति जो नजरिया प्रस्तुत किया है उसके समाज की संरचना ही ऐसी बनाई गई   जहाँ स्त्री के अधिकार गैर जरूरी लगते हैं.हमने अबतक स्त्री के नजरिए से सामाजिक संरचना को देखने की कोशिश नहीं की है.पुरुषवादी एकांगी दृष्टिकोण से पूरे समाज  को देखते और मूल्यांकित करते रहे हैं.एक पूरा समाज जिसमें आधी आबादी स्त्रियों की है.उनके नजरिए से देखने से अबतक के सारे मानक बदल भी सकते हैं,इसकी कभी कल्पना भी नहीं की.पितृसत्ता ने सामाजिक और आर्थिक दोनों ही तरह से स्त्रियों को अधीन बनाए रखा है.जब जब स्त्री उस दायरे से बाहर निकलने की कोशिश करती है या तो मार दी जाती है या पागल करार दी जाती है.उसके अस्तित्त्व को उसके चरित्र और चरित्र को भी यौन-शुचिता से जोडकर देखा जाता है और इस समूचे दृष्टिकोण का स्रोत है पुंसवाद.

स्त्री केवल एक वस्तु है और वस्तुएँ मालिक के मन के हिसाब से रखी जाती हैं.वह दास है और पुरुष उसका मालिक.इस दास को गुलाम बनाए रखने के लिए पितृसत्ता ने शरीरबल के साथ ही साथ मानसिक बल का भी प्रयोग किया है जिसके तहत स्त्री की सामाजिक,पारिवारिक और धार्मिक हैसियतें तय की गयी हैं.इसने स्त्री को पूरी तरह न सिर्फ ‘आइसोलेट’ किया है बल्कि उसे पिछडा भी बना दिया है.

भारतीय समाज तो इस दृष्टि से और भी ज्यादा ‘विलक्षण’ है.इसने स्त्री की गुलामी के लिए तमाम तरह तामझाम बना रखे हैं.स्त्री की भूमिका तय कर रखी है.वह शादी से पूर्व पिता के अधीन होती है और शादी के बाद पति के और इस बीच कहीं अगर विधवा हो गई तब तो वह हर तरह से अमानवीय यातनाओं की अधिकारिणी हो जाती है.ऐसी स्त्री की केवल और केवल उपेक्षा की जा सकती है लेकिन वह भी उपेक्षा जैसी उपेक्षा न होकर एक यातनागृह में कैद एक कैदी की सी जिन्दगी का अभिशाप होती है.उसके सारे सपने,उसकी आकांक्षाएँ खत्म कर दी जाती हैं.असल में उसके अंदर कोई स्वप्न है या उसकी कोई इच्छा है ऐसा जानने या समझने की कोशिश ही नहीं की जाती.मैत्रेयी पुष्पा इसी समझ और दृष्टिकोण के विरुद्ध आवाज उटाती हैं.

मैत्रेयी पुष्पा की कहानी ‘पगला गई है भागवती’स्त्री की आजादी के संदर्भ में पुरुष सत्तात्मक दृष्टिकोण के अंतर्विरोधों को प्रकट करने वाली कहानी है.पुरुष समाज ने स्त्री के लिए जो मानदंड बनाये हैं मैत्रेयी उसकी पड़ताल करती हैं.पुरुष ने अपने लिए जो मानदंड बनाये हैं,स्त्री को उस दायरे से बाहर रखा है.इस समाज ने स्त्री के लिए नियमों की जकड़बंदी कर रखी है.स्त्री की हदें पुरुष तय करता है.मैत्रेयी ने इस कहानी में स्त्री की इसी त्रासदी को प्रकट किया है और साथ ही पुरुषसत्तात्मक नजरिए की समस्याओं का चित्रण भी किया है.पुरुषसत्तात्मक नजरिये के अंतर्विरोधों में मौजूद तत्त्व असल में स्त्री विरोधी मानसिकता का परिणाम है.स्त्री इस व्यवस्था में घुट रही है,तड़प रही है.उसकी पीड़ा में उसकी घृणा भरी है.वह यह मानने को तैयार नहीं कि उसे गुलाम बनाकर रखा जाए.

मैत्रेय पुष्पा अपनी कहानियों के माध्यमसे स्त्री की बुनियादी समस्याओं को तो उठाती ही हैं लेकिन साथ ही पितृसत्तात्मक दृष्टिकोण से उपजी परिस्थितियों के प्रति रोष भी व्यक्त करती हैं.उनकी ‘स्त्री’ उन संरचनाओं से जूझती है और इसी बीच एक विकल्प की ओर भी जाती है.उन्होंने अपनी तमाम कहानियाँ इसी पैटर्न पर लिखी है.उनकी स्त्री विलक्षण स्त्री है.वह पुरुषसत्तात्मक व्यवस्था के प्रति बेहद अर्थपूर्ण तरीके से खडी होती है.वह शुरुआत में चाहे जैसे हो लेकिन अंत तक ‘विद्रोही’ जरूर हो जाती है.मैत्रेयी ऐसे स्त्री पात्रों की परिकल्पना जानबूझकर करती हैं जिनका पुरुषसत्ता से सीधे साबका हो.उनकी स्त्री एक अलग सोच और ‘स्टैंड’ वाली स्त्री होती है.वे स्त्री के बेचारी रूप की पक्षधर नहीं.उनकी स्त्री चाहे जिस सामाजिक स्तर की हो लेकिन उसमें अपना ‘स्व’ होता है.वह पितृसत्ता के नियम की तरह जरूरी बना दिए गए मानकों के विरुद्ध किसी वैचारिक की सी खडी होती है.


पितृसत्ता ने स्त्री विरोधी कर्म को इतनेगहरे स्थापित कर दिया है कि स्त्री की समझ और उसके फैसले और यहाँ तक कि उसकी पसंद-नापसंद तक पुरुष निर्मित नियमों के आलोक में है.पुरुषसत्ता स्त्री को गुलाम बनाए रखने के लिए रीति रिवाजों और नियमों का जाल बिछाता है,उसने स्त्री की आजादी और उसकी भूमिका की जदें तय कर दी हैं उसके बाहर स्त्री गई और वह कुल्टा,कुलच्छनी या पागल ठहरा दी जाती है.एक ‘नॉर्मल’ स्त्री अर्थात पुरुष निर्मित नियमों को सिर झुकाकर मानती और जीती स्त्री

मैत्रेयी जैसी ‘स्त्री’ की परिकल्पना करती हैं,कथा में उनका विरोध सहज और स्वाभाविक लगता है. वह उस घोर स्त्री विरोधी वातावरण में भी अपने ‘स्व’ की तलाश कर लेती हैं.उन विलक्षण स्त्री पात्रों के कारण ही पुरुषवादी संरचना अटपटी लगने लगती है.कथा के आरंभ से ही मैत्रेयी की ‘स्त्री’ उस संरचना की व्यर्थता और शोषक चरित्र को ‘एक्सपोज’ करती चलती हैं. वह अपने निर्णय के लिए किसी पर आश्रित नहीं या ऐसी परिस्थितियाँ तैयार हो जाती हैं जहाँ ‘बलात’ या ’जोर’ का सांस्थानिक ‘एक्सपोजर’ होता है.

पितृसत्ता ने स्त्री को चाहरदीवारी में कैद कर रखा है,सिर्फ शरीर के स्तर पर ही नहीं बल्कि मानसिक रूप से भी.उसने अपनी मान्यताओं को स्त्री का स्वभाव बनाने का कुचक्र रचा है.स्त्री उस कुचक्र में दबती रही है.घुटती रही है.पर मैत्रेयी की स्त्रियाँ उस दायरे से बाहर अपना संसार रचती हैं.किसी भी प्रकार के सामंती ‘एटीट्यूड’ को बर्दाश्त नहीं करतीं.वे अपने लिए रास्ता बनाती है.सामंती मूल्यों से अपनी असहमति व्यक्त करती हैं.केवल असहमति नहीं उसके प्रति घृणा व्यक्त करती हैं.इस कारण मैत्रेयी की कहानियाँ असल में प्रतिरोध की कहानियाँ हैं.वह यथास्थिति की विरोधी हैं.वे नये मूल्यों की तलाश की कहानियाँ हैं.

‘भागवती’ की खेलने-कूदने की उम्र मेंशादी हो जाती है,उसी उम्र में वह विधवा भी हो जाती है.समाज का क्रूर चरित्र तब और भयंकर रुप में सामने आता है कि ‘इतेक लम्बी जिन्दगी,फिर अपनी जात बिरादरी में दूसरे ब्याह की रसम रीत?’1

भागवती’ विधवा हो जाती है.वह भी तबजब उसने अपने पति का मुँह तक नहीं देखा था,तब जब उसे पति और शादी का मतलब ही नहीं मालूम था.वह अभिशप्त है इस व्यवस्था में जीने के लिए.मैत्रेयी ने इसे बहुत मार्मिक ढ़ंग से व्यक्त किया है ‘आँसू काढ़ जनमजली.आदमी नहीं रहौ और तें उजबक –सी हेर रही.किसी जनाने ने उसके सिर पर थप्पड़ दे मारा.’2


वह पुनर्विवाह नहीं कर सकती.असलमें वह क्या करेगी,क्या नहीं इसका निर्धारण वह कर ही नहीं सकती.उसके जीने मरने तक का फैसला वह नहीं कर सकती.समाज ही यह निर्धारित करेगा कि उसे कैसा जीवन जीना है.वह केवल विधवा नहीं होती उसका पूरा व्यक्तित्व ही वैधव्य को महसूस करता है.‘समय के अन्तराल ने बता दिया कि वह विधवा हो गयी.तब से आज तक उसका तन,उसका मन,सम्पूर्ण अस्तित्व विधवा है.‘ 3

उसके खाने-पीने,रहने-सहने सब पर वैधव्य का कब्जा हो चुका है.वह पूरी तरह से यह नरक भोगने के लिए अभिशप्त है.बल्कि अभिशप्त कर दी जाती है.अब वह अभागी है.स्त्री का सारा भाग्य उसके पति के साथ बँधा है.वह भाग्यशाली या दुर्भाग्यशाली अपने पति की स्थिति के कारण होती है.उसका सुख-दुख,आशा
आकांक्षा,इच्छा-अनिच्छा कुछ भी मायने नहीं रखता.वह केवल पुरुष की सहधर्मिणी है.उसका अलग अस्तित्व कल्पना के बाहर की चीज़ है.उसका श्रृंगार,उसकी जिन्दगी,उसकी हँसी सबकुछ उसके पति से जुड़ी है.
पितृसत्ता ने स्त्री की ऐसी हालत कर दी है कि वह जहन्नुम जी रही है.सुधा सिंह ने अपनी पुस्तक ‘ज्ञान का स्त्रीवादी पाठ’ में स्टुअर्ट मिल की पुस्तक के हवाले से लिखा है “स्त्रियों के विवाहित जीवन की स्थिति और दासों की स्थिति में एक मूलभूत अंतर है वह यह कि कुछ तरह के दास प्रथाम में एक दास अपने मालिक को कानूनन बाध्य कर सकता है कि वह उसे बेच दे जबकि इंग्लैंड के तत्कालीन कानून व्यवस्था में बेवफाई के अतिरिक्त किसी प्रकार का दुर्व्यहार एक पत्नी को उसके उत्पीडक से स्वतंत्र नहीं कर सकता.एक स्त्री की स्थिति इसलिए भी विचित्र है कि विवाह की अंतिम व्यवस्था के तहत उसके सुखपूर्ण जीवन के लिए एक ही बात हो सकती है कि उसे अच्छा मालिक मिले.लेकिन अगर ऐसा नहीं हुआ तो उसे चुनाव का दूसरा अवसर नहीं मिलता.परिवार जो है वह राजनीतिक तानाशाहों का ही एक रूपक है और इसका विरोध उसकी ताकत के साथ किया जाना चाहिए जैसा राजनीतिक तानाशाही का किया गया.राजनीतिक तानाशाही के विरुद्ध कहा जाने वाला ऐसा कोई शब्द नहीं जो परिवार की तानाशाही पर न लागू होता हो.”4

मैत्रेयी ने भागो के बहाने हिन्दू समाज में स्त्री के वैधव्य के नारकीय जीवन का चित्र उकेरा है.विधवा हर तरह से उपेक्षित जीव होती है.उसे न सजने धजने का अधिकार है और न किसी शुभ कर्म में शामिल होने का.5

 वह दुनिया से कटी एक ‘अछूत’ की सी जिन्दगी जीने को अभिशप्त कर दी जाती है.यह एक ऐसा प्रपंच है जो स्त्री को मानसिक रूप से भी गुलाम और निष्क्रिय कर देता है.विधवा खुद ही अपने उत्साह को मार देती हैं और ख्याल रखने लगती हैं कि वे गलती से भी किसी शुभ मुहूर्त में न चली जाएँ.इस अवधारणा ने स्त्री के मन को निष्क्रिय कर दिया है.नरेश की शादी के जलसे के समय भागो के सजने सँवरने की उदासीनता के पीछे अनुसुइया को लेकर उसके मन की वेदना तो जिम्मेदार है ही लेकिन साथ ही उसका ‘वैधव्य’ और उसे लेकर बुने ‘जंजाल’ से बनी मानसिकता भी मुख्य वजह है.


घर में ‘स्त्री’ के पैदा होने को दुर्घटना की तरह देखा जाता है.उसे गंदगी समझकर फेंक दिया जाता है.उसके जीने मरने को लेकर कोई चिंता नहीं होती है.बल्कि उसके मरने को स्वाभाविक क्रिया समझा जाता है.‘मोड़ी जनमी है,मरी भई.द्वारे खबर कर दो.’7

हाँ उसके बच जाने पर दुख जरुर मनाया जाता है.जिज्जी ने भी बेटी को मरा जानकर राहत की साँस ली,पर भागवती के कहने पर कि “जिज्जी,ओ जिज्जी,मरी नहीं है बिटिया.तेरौ कौल.फिकवा न दिओ.“8  जिज्जी पर जैसे पाला पड़ गया हो.वह दुखी हो जाती है.जैसे ‘बेटी खत्म हो जाने से मिली विश्रान्ति में किसी ने खलल डाली हो.’9
मैत्रेयी ने अपनी लगभग हर कहानी में लडकी के जन्म के समय के “दुख” को चित्रित किया है.लडकी का जन्म लेना भारतीय समाज में कितना ‘अशुभ’ है इसका रूपक वे लगभग हर कहानी में बनाती हैं.बेटी हुई है.अतः वह अशुभ है.वह त्याग के योग्य है.वह भागो जिसे हर ‘शुभ’ से दूर रखा जाना चाहिए उसे अनुसुइया दे दी जाती है क्योंकि अनुसुइया एक अशुभ ‘वस्तु’ है.अतः उसका लालन पालन भी ‘अशुभ’ स्त्री ही करेगी.दायी भागो से कहती है “अब भागो,ते ही पाल लै,जा मोडी को.”10

भागो के जीवन का शून्य उस नवजात शिशु को पाकर भर जाता है.अनुसुइया नाम भी उसी ने दिया.‘भागो क्या जाने,उसे तो बिटिया सपने में सोचा हुआ वरदान लगी.बाँहों में सहेज ली.रूई के फाये को गुड के गु के घोल में डुबो डुबोकर बच्ची को चटाती रही.उसके बाद बकरी का दूध,गाय का दूध,माँ की रिक्तता पाटने का समर्थ्य भर करती रही.बच्ची जब कभी गाय बकरी के दूध से बीमार होने लगती तो भागो जिज्जी से विनती करती ‘जिज्जी पिवा दो दूध.हाँ हाँ जिज्जी.बिटिया भूख से तलफ रही.पिवा दो तनिक.’’11

इस वर्णन से दो चीजें निकलकर आतीहैं पहला,स्त्री के प्रति पुरुषवादी समाज को घोर स्त्री विरोधी नजरिया और दूसरा,भागो अनसुइया के बहाने अपने जीवन की रिक्तता को पूर्ण करने की कोशिश करती है.विधवा उपेक्षित भागो के जीवन में अनुसुइया उसके शून्य को भरने वाली कारक बनकर आती है.


मैत्रेयी पुष्पा की चिंता केवल यहींतक नहीं रहती.वे स्त्री की समस्याओं को सम्पूर्णता में देखती हैं.उन्होंने पुरुषसत्तात्मक समाज के दृष्टिकोण को खंगाला है.वे पुरुष की स्त्री विरोधी मानसिकता को प्राणघातक बताती हैं.अनुसुइया की मृत्यु असल में हत्या है.उसकी हत्या उसके पिता ने की.पुरुष ने की.पुरुषसत्तात्मक समाज की मान्यताओं ने की.उसका अपराध केवल इतना है कि उसने प्रेम किया.जिससे प्रेम किया उससे विवाह किया.पुरुष का अहम् इसे स्वीकार नहीं कर सकता.वह स्त्री के प्रेम करने को पाप की तरह देखता है.पाप,पुण्य के फेर में स्त्री को डाल देता है.स्त्री के लिए उसने यह नियति बना दी है.स्त्री का रहन-सहन तक पुरुष द्वारा संचालित होगा.उसने स्त्री को अपनी चेरी बना लिया है.

मैत्रेयी पुष्पा पुरुष समाज के इस घृणात्मक रवैये का पर्दाफाश करती हैं.जीजा ने जिन कारणों से अनुसुइया को जहर खाने के लिए बाध्य किया,नरेश के लिए वही कारण उत्सव मनाने का सबब हो जाता है.इस दृष्टिकोण का सबसे बड़ा अंतर्विरोध यही है कि यह दृष्टिकोण पुरुष और स्त्री को अलग-अलग देखता है.स्त्री के लिए उसने तमाम बंदिशें बना रखी हैं.


यह ऐसी व्यवस्था है जो स्त्री और पुरुष को अलग अलग खाँके में रखती है.एक ही तरह के कर्म के लिए स्त्री अपमान और पुरुष सम्मान का अधिकारी होता है.स्त्री केवल एक ‘देह’ है जिसपर पुरुष का अधिकार है.उसका मालिकाना हक पुरुष के पास है.वह सिर्फ भोग के लिए है.उसका पूरा अस्तित्त्व केवल और केवल पुरुष केन्द्रित है.वह न सपने देख सकती और न अपने तरीके से जी सकती है.उसकी नियति पुरुष के हाथों लिखी गई है.वह कब विधवा हो गई और किस नियम के तहत दुनिया से काट दी जाएगी इन सबपर उसका बस नहीं.वह उनमें और उन्हें जीने को अभिशप्त है.

नरेश की शादी के समय भागवती काअनुसुइया के संबंध में सोचना उस अंतर को व्यक्त करता है.मैत्रेयी ने ‘बायनरी अपोजिशन’ के माध्यम से नरेश और अनुसुइया को रखकर उस तनाव को ‘क्रिएट’ किया है. अनुसुइया की स्मृत्तियों को लेकर भागो द्वारा ‘डिटेलिंग’ उसके अन्तस् की तीव्रता को व्यक्त करता है.


मैत्रेयी ने गाँवों में हो रहे बदलावों को चार बिन्दुओं के माध्यम से दिखाया है
1.’गाँव में बिजली आ गयी है.‘-गांवों में बिजली तो आ गई लेकिन स्त्री को लेकर नजरिया नहीं बदला.
2.’गाँवों में रह रहे दलितों में चेतना का जन्म हो चुका है.‘–मठोले की जनी का प्रसंग यह बताता है कि दलित अब जाग चुके हैं.उनके अंदर स्वाभिमान का जन्म हो चुका है.
3.’नरेश ने कोर्ट में शादी की है.‘–लेकिन फिर भी स्वीकार्य है.क्यों,क्योंकि वह बेटा है.नरेश की पत्नी शादी के समय चार महीने के पेट से है.फिर भी स्वीकार्य है.क्यों,क्योंकि वह बेटा है.लेकिन अनसुइया चूँकि बेटी थी इसलिए उसके प्रेम को स्वीकार न कर उसे जहर देकर मार दिया गया था.नरेश को ठाकुर साहब कुलदीपक के रूप में देखते हैं.इसलिए उसकी ‘हाँ’ में ‘हाँ’ मिलाना उनकी मजबूरी और अवसरवादिता तो है ही साथ ही पुरुषवादी समाज की प्रो पुरुष दृष्टि भी है.यहाँ पुरुष की उन्हीं गलतियों को सिर माथे पर रखा जाता है जबकि स्त्री कुलच्छिनी हो जाती है.
4.’बहू के सजने धजने के दृश्य के माध्यम से रपुरानी और नई दुल्हन का फर्क तो बताया ही है साथ ही गाँव समाज से हो रहे परिवर्तन की ओर इशारा भी किया है’- परन्तु यहाँ भी स्त्री की साज सज्जा या खूबसूरती की अहमियत पुरुषवादी समाज के अनुरूप है.अर्थात बहु सुंदर है,शहर वाली है इन सभी रूपकों का प्रयोग ठाकुर माधो सिंह की इज्जत और शान की बढोत्तरी के लिए है.

मैत्रेयी ने भागो को एक विलक्षण रूपदिया है.भागो सोचती अनुसुइया के बारे में है लेकिन उसकी पीडा पूरी स्त्री समाज की पीडा होती है.उसकी खुद की भी पीडा होती है.अपने समय वह इस समाज से लड नहीं सकी थी.उस कमी को इस बार पूरा कर रही है.अनुसुइया के लिए लडना,सिर्फ अनुसुइया के लिए लडना नहीं है.
नरेश के ब्याह के बाद के जलसे की डिटेलिंग के पीछे एक शून्य की ओर इशारा है.वह शून्य खुद भागो के जीवन की त्रासदी तो है ही,अनुसुइया की पीडा तो है ही लेकिन साथ ही पूरे स्त्री समाज की भी पीडा है.

कोर्ट में हुई शादी के बरअक्स जितने सवाल12 होंगे सब स्त्री से होंगे,ठाकुर माधो सिंह से नहीं.यह स्त्री के सामंती संरचना से जोडकर रखने के षडयंत्र का पर्दाफाश है.स्त्री उस संरचना से जोड दी गई है.स्त्री की गुलामी को सांस्थानिक कर दिया गया है.वह पूरी तरह से जकडी हुई है.मैत्रेयी परत-दर-परत उस स्त्री विरोधी संरचना को खोलती हैं.


भागवती का जीजा पर पत्थर13 चलाना उस पुरुष सत्तात्मक समाज पर पत्थर चलाना है जिसने स्त्री के लिए संसार को नरक बना दिया है.मैत्रेयी ‘भागवती की घृणा’ में असल में पूरे स्त्री समाज की घृणा का रुपक प्रस्तुत करती हैं.भागवती की अपने जीजा और जिज्जी के प्रति जो घृणा है वह असल में स्त्री की पुरुषसत्तात्मक समाज के प्रति घृणा है जिसे वह पत्थर मारकर लहूलुहान कर देती है.गालियाँ देती है.अपना विरोध दर्ज करती है.मैत्रेयी इसी मायने में प्रतिरोध की लेखिका हैं और साथ ही निर्माण की भी.वह निर्माण  स्त्री के लिए होगा.उसके लिए नये समाज का होगा.जहाँ स्त्री आजाद होगी,उसका शोषण नहीं होगा.

संदर्भ ग्रन्थ

1. पुष्पा,मैत्रेयी,ललमुनिया,प्रथमर संस्करण,1,किताबघर प्रकाशन,नई दिल्ली.पृ 97
2. वही पृ 97
3. वही पृ 97
4. सिंह,सुधा,’ज्ञान का स्त्रीवादीपाठ’,प्रथम संस्करण 2008,ग्रन्थ शिल्पी(इंडिया)प्राइवेट लिमिटेड,दिल्ली.
    पृ 31
5. पुष्पा,मैत्रेयी,ललमुनिया,प्रथम संस्करण,1,किताबघर प्रकाशन,नई दिल्ली,पृ 97
6. वही पृ 98-99
7. वही पृ 99
8. वही पृ 99
9. वही पृ 99-100
10. वही पृ 100
11. वही पृ 100
12. वही पृ 101
13. वही पृ 104

दलित स्त्रियों पर पुलिसिया बर्बरता का नाम है नीतीश सरकार

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भागलपुर में विभिन्न मांगो के साथ जिला कलक्टर  ऑफिस के सामने धरने पर बैठी महिलाओं पर पुलिस ने बर्बरता पूर्वक लाठीचार्ज किया 

तस्वीरों में बर्बरता की पूरी कहानी 






















अंजना वर्मा की कविताएँ

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बची हुई लडकियाँ
      
गर्भ के हत्यारों से बची हुई लडकियाँ
सहमी हुई देख रही हैं दुनिया को
कैसे वे बच पायेंगी ?
आग और आघातों से
तेजाब की बरसातों से
दरिंदों के दाँतों से ?

गर्भ से लेकर जीवन के आखिरी पडाव तक
मौत की दहशत में जीती हैं लडकियाँ
और अगर बच गयीं तो
क्या नहीं करती हैं लडकियाँ ?
सूरज बनती हैं चाँद बनती हैं
कभी धरती तो कभी आसमान बनती हैं
जरूरत पडने पर घमासान बनती हैं

बची हुई लडकियों के पंख जब उगने लगते हैं
तो उन्हें अपने डैनों को बचाने के लिए भी
हर पल जूझना पडता है
क्यों कि हर कोई
उनके दो पंख नोच लेना चाहता है
अपनी खिलती हुई देह को भी देखकर
मुरझाना पडता है
भीतर ही भीतर घुलने लगती है स्याही
उनकी गुलाबी उमंग में
क्योंकि सबकी नजरें नापने लगती हैं
उनकी काया के वलय को
आँखों के कँटीले फीते
लपेटने लगते हैं अजगर की तरह

दो भेदती नजरों से सामना होते ही
वे बन जाना चाहती हैं कछुआ
काश ! वे कछुआ होतीं
तो खतरा देखते ही छिप जातीं अपने खोल में
पर ऐसा संभव नहीं
और वयःसंधि की गली छोडकर भी
भाग जाना संभव नहीं

हत्या के प्रयासों से बच गयीं युवतियाँ
बच्चे जन रही हैं
बना रही हैं बटलोही में भात
खुद लपटों में सिंकती हुई
सेंक रही हैं रोटियाँ
तृप्त कर रही हैं हर मुँह को
भर रही है  सबके पेट
सिल रही हैं दुनिया के फटे कपडे
हर हाल में फटा सिलने का दायित्व
उन्हीं पर आ जाता है
आखिर क्यों ?

इस सवाल को अँकुरने से रोकना है
दुनिया कमर कसकर
खुरपी लेकर खड़ी है
ऐसे सवालों की निकौनी के लिए
ऐसे भी
सिलना उन्हीं को आता है

चली आई थी राधा एक रात
रोती - बिलखती अपनी माँ के पास
आधी जली हुई साडी
औऱ झुलसे हुए बाल
किरासन तेल से भींगा बदन
रो -रोकर अपनी माँ को
ये सब दिखाने के बाद भी
वह उछाल दी गयी थी गेंद की तरह
उसी पाली में जहाँ से भागी थी
भेडिये के गठबंधन में
बँधे रहने को मजबूर
और जीने को लाचार
यातना के देश में
और मौत की कोठरियों में
जिन्दगी रचती हैं ये युवतियाँ

गोद में लिये अपने लाल
अपनी रुलाई को  हँसी में
रूपान्तरित करती रहती हैं ये युवतियाँ
सज - धजकर अपने आदमखोरों के लिए
व्रत करती हुई
उनके लिए मनौतियाँ माँगती हुई
गीत और प्रार्थनओं से
काल कोठरियों में भी भर देती हैं गुंजार
उनके बिना सूनी हो जाएगी यह दुनिया
और पसर जाएगा चारो ओर अखंड सन्नाटा

जीवित रखती हैं वे संपूर्ण पृथ्वी को
कीटों, चिडियों और मगरमच्छों
और बाघ -शेरों तक की दुनिया
इनसे रहती है आबाद
हत्यारे तक को दुलारती है तो कोई स्त्री ही
किसी भी संबंध में

सृजन का अँधेरा
           
एक शिशु को जन्म लेने के बाद
मिलती है यह रोशनी की दुनिया
तब वह जीना शुरू करता है
सूरज के उजाले में
वही आधार है जीवन का
हमारी साँसों का मालिक वही
रात-दिन का निर्माता
पूरी सृष्टी को गढने वाला
लेकिन सूरज की रोशन दुनिया से
अलग है कोख की अँधेरी कोठरी
माँ गढती है अपने शिशु को
कला - कक्ष के अंधकार में
यह अँधेरा सृजन का अँधेरा है
जो बडा है रोशनी से
जिसे यह नहीं मिलता
उसे सूरज भी जिन्दगी का उजाला दे नहीं सकता

महिलाओं की राजनीतिक उपेक्षा : 33% में और कितनी देर

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नेशनल फेडरेशन ऑफ़ इंडियन वीमेन ( एनएफआईडवल्यू) की महासचिव एनी राजा राजनीतिक पार्टियों से पूछ रही हैं कि और कितना समय लगेगा महिलाओं के लिए 33% महिला आरक्षण पास होने में. वे सवाल कर रही हैं कि राजनीतिक मामलों में महिलाओं की उपेक्षा क्यों की जाती है? इसके लिए वे हाल में कश्मीर समस्या को समझने के लिए गये 40 सदस्यीय संसदीय दल में मात्र एक महिला को शामिल किये जाने का उल्लेख कर रही हैं और पूछ रही हैं कि ऐसा क्यों, क्या कश्मीर की आधी आबादी के लिए कश्मीर के संघर्ष, उसकी समस्याओं का कोई मायने नहीं है?  ये बातें  उन्होंने 12 सितंबर 2016 को एनएफआईडवल्यू के द्वारा आयोजित सेमिनार में कही. सेमिनार महिला आरक्षण बिल के पेश किये जाने के 20 साल पूरे होने के अवसर पर आयोजित था.

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क्या महिला नेतृत्व की खोज की मुहीम में आप हमारे साथ शामिल होंगे?

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आजादी के 70 साल बाद भी लोकसभामें आज तक महिलाओं की 12% भागीदारी ही संभव हो पाई है. विभिन्न राज्यों के विधान सभाओं में यह प्रतिशत और भी न के बराबर है. स्त्रीकाल महिला आरक्षण को जल्द से जल्द  पारित करवाने के पक्ष में है और उसके लिए चल रहे मुहीमों में हम प्रतिनिधि के तौर पर शामिल भी हैं, या इसके लिए वातावरण बनाने की मुहीम में कुछ प्लेटफॉर्म पर सक्रिय योगदान भी कर रहे हैं.


इसी कड़ी में हम आपसब की भागीदारीआमंत्रित करते हैं, स्त्रीकाल के पाठकों की भागीदारी. आइये हम सब मिलकर अपने आस-पास के महिला नेतृत्व को पहचानें. आप ऐसी महिलाओं के बारे में हमें 1000 शब्दों में लिख भेजें, जो आपके आस-पास सामाजिक-सांस्कृतिक, राजनीतिक परिवर्तन में लगे हैं. उन महिलाओं के बारे में लिखें, जो विभिन्न मुद्दों के साथ सक्रिय हैं, परिवर्तन के संघर्ष की अगुआई कर रही हैं. किसी भी क्षेत्र में नेतृत्वकारी भूमिका में सक्रिय महिलाओं के बारे में लिखें- उनसे बातचीत कर उनके विचार सामने लायें. सुझाव के लिए निम्नाकित क्षेत्र हो सकते हैं:

1. शिक्षा 
2. चिकित्सा 
3. राजनीति 
4. जल-जंगल-जमीन के संघर्ष 
5. महिला-संगठन 
6. शांति के लिए संघर्ष 
7. मजदूर संगठन 
8. सूचना अधिकार 
9. पंचायती राज 
10.कला-संस्कृति 

ऐसे और अन्य क्षेत्र अपनी पसंद के महिला नेतृत्व को सामने लायें. उनके बारे में लिखें और हाँ उनकी तस्वीरें जरूर भेजें. संपर्क करें:
themarginalised@gmail.com, 8130284314,8527634627

इस योजना के तहत सामने आये महिला नेतृत्व के प्रोफाइल की एक पुस्तक भी हम द मार्जिनलाइज्ड
 प्रकाशन से प्रकाशित करेंगे.

महिला अधिकार के क्षेत्र में पंडिता रमाबाई स्त्रीकाल सम्मान

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स्त्रीवादी पत्रिका स्त्रीकाल ने साल 2017 से एक और सम्मान देने की योजना बनाई है. इसके पहले स्त्रीकाल ने 2014 में सावित्रीबाई फुले वैचारिकी सम्मान की शुरुआत की थी. 2015 में पहली बार यह सम्मान शर्मिला रेगे को उनकी किताब 'अगेंस्ट द मैडनेस  ऑफ़ मनु : बी आर आम्बेडकर्स राइटिंग ऑन ब्रैहम्निकल पैट्रीआर्की' (नवयाना प्रकाशन ) के लिए दिया गया था, और 2016 में अनिता भारती को उनकी किताब 'समकालीन नारीवाद और दलित स्त्री का प्रतिरोध'को दिया गया.


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स्त्रीकाल देगा शर्मिला रेगे को 'सावित्री बाई फुले वैचारिकी सम्मान '

2017 में दिया जाने वाला यह सम्मान उन्हें  दिया जाएगा, जिन्होंने महिला अधिकार के लिए अपने चिंतन, लेखन और सक्रियता से आजीवन योगदान दिया है. जिनकी पहलों ने महिलाओं के अधिकार की लड़ाई को दिशा दी है या नजीर पेश किया है. योगदान का क्षेत्र एक्टिविज्म से लेकर चिन्तन के व्यापक फलक तक विस्तृत है. यह सम्मान पंडिता रमाबाई (23 अप्रैल1858-5 अप्रैल 1922) के नाम से संबद्ध है, जिन्होंने 19वी सदी में निजी तौर पर अपने निर्णयों से तथा सामाजिक पहलों के द्वारा महिलाओं के लिए शोषण से मुक्ति के मार्ग खोले.

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नागपुर महिला सम्मेलन के 75 वे साल पर हुआ आयोजन, सम्मानित की गई लेखिका अनिता भारती, महिला आरक्षण पर जोर


'पंडिता'रमाबाई स्त्रीकाल सम्मान केलिए  नाम संस्तुतित करें, जिसका योगदान महिला-
अधिकार के लिए क़ानून, शिक्षा,स्वास्थ्य, श्रम, कला, संस्कृति आदि क्षेत्रों में तथा स्त्री प्रश्नों को केंद्र में लाने  में उल्लेखनीय और असरकारी रहा है. संस्तुति के साथ संस्तुत व्यक्ति के कामों का ब्योरा हमारे इमेल आई डी- themarginalised@gmail.com पर भेजें. निर्णायक समिति के द्वारा तय किये गये एक शख्सियत को सम्मानित कर हम सब भी सम्मानित होंगे.  

ना कहने का अधिकार महिलाओं का सबसे बड़ा अधिकार: गोपाल गुरू

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राजनीति और समाजशास्त्री प्रोफ़ेसर गोपाल गुरु बता रहे हैं कि आरक्षण अधिकार नहीं अवसर है. वे इस बात पर जोर दे रहे हैं कि महिलाओं के लिए 33% आरक्षण एक जरूरी अवसर है राजनीतिक भागीदारी के लिए . साथ ही उन्होंने कहा कि 'ना कहने का अधिकार महिलाओं का सबसे बड़ा अधिकार है. ये बातें उन्होंने 12 सितंबर 2016 को एनएफआईडवल्यू के द्वारा आयोजित सेमिनार में कही. सेमिनार महिला आरक्षण बिल के पेश किये जाने के 20 साल पूरे होने के अवसर पर आयोजित था.






वीरू सोनकर की कविताएँ

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वीरू सोनकर
कविता एवं कहानी लेखन, विभिन्न पत्र पत्रिकाओं व ब्लाग्स पर रचनाएं प्रकाशित . संपर्क :veeru_sonker@yahoo.com, 7275302077

बस एक दिक्कत है

सरकार,
आपकी पुलिस एक बुलडोजर है
व्यवस्था के लिए नियम-कानून की दिशानिर्देशित गोलियों से लैस
और
एक भीड़ से भरी सड़क को
पलक झपकते ही
लोकतंत्र पर थूकते एक सन्नाटे में बदल सकने की खूबी से भरपूर

सरकार,
सबसे चमकदार इसके ऊपर लगा हुआ झंडा है
जो यह कहता है कि यह हमारी सेवा में तत्पर है
मूढ़ जनता झंडा नहीं उसमे लगा डंडा देखती है

सरकार,
जब आपका बुलडोजर चलता है
तो एक देश चलता है
नियम सड़को पर दौड़ने लगते हैं
सत्यमेव जयते के नारे से रंग-बिरंगा हुआ यह देश
जिसकी मूढ़ जनता उसे बार बार "सरकार की जय"पढ़ती है

सरकार,
यह उस सर्वशक्तिमान बुलडोजर की जीत है
जो सब कुछ कर सकता है
यह आपकी जीत है
कि आपसे बड़ा कोई भी नहीं

सरकार,
बस एक दिक्कत है
यह जनता जो पुलिस के एक इशारे पर मुर्दा बन जाती है
चिढ जाने पर यह सबसे तेज़ चिल्ला सकती है

इतना तेज़,
कि बुलडोजर खुद के कुचले जाने के भय से भाग खड़ा हो

इतना तेज़,
कि आपकी मुर्दा-ख़ामोशी किसी गिड़गिड़ाहट में बदल जाये

इतना तेज़,
कि देश में फिर
उससे ज्यादा जिन्दा कुछ और न दिन

"मेरा वर्तमान"

उसके पैरो की रखवाली
अपनी पदचापो में मुझे बोल रही है
मैं सतर्क हूँ
तुम भी रहो!

रात का उदास जल रहा दिया
बदलता है दिन के चिड़चिड़े सूर्य में
कि तुम पर नजरे है मेरी,
और हर पल हाथो से छूटता-बीतता समय
मानो तैनात है मेरे एक चल फिर रहे जीवन पर
और,
डुबा रही है प्रशांत महासागर की अथाह जलराशी मुझे खुद में
पर कहता हूँ मैं उसे,
उबर रहा हूँ मैं तुममे

खुद को नया करने की नित नयी तरकीबो में
हर तरकीब पुरानी पड़ती है
और रीतता हूँ मैं खुद में,
एक अदद जगह के लिए
भटकता और पुराना पड़ता मैं
चिढ़ता हूँ पुर्वजो की कथाओ से
और निकल भागता हूँ इतिहास के उन दिनों से,
जहाँ एक दिन का अर्थ बस सूर्योदय से सूर्यास्त भर की दौड़ है
मेरे भागते चेहरे पर खरोंचे है घड़ी की सुइयों की
एक चीत्कार में कहना चाहता हूँ
मुझे वापस दो
मेरे पुर्वजो के वही दिन,
जहाँ कुछ बज कर कुछ सेकेंड में हो गए किसी काम का
कोई आंकड़ा न हो

सूर्योदय का शालीन सूर्य मेरे दिन की पहली दृष्टि में हो
और जले, मेरे ताखे पर एक चिंता मुक्त दिया
कि हवा का कोई भी झोका उसे बुझा देने के पाप-बोझ से मुक्त हो

और मैं भी मुक्त होऊं पहरेदार वर्तमान के चंगुल से
और कह सकूँ
सुनो, मेरा इतिहास तुमसे बहुत अच्छा था
मेरे क्रूर वर्तमान!

"अजनबी"

कितने सालो से
और कितने दिनों, महीनो
और घंटो की उधेड़बुन में,

कौन सिसकता है मुझमे
कौन लड़ पड़ता है बार-बार
चाहनाओ के इच्छा-जंगल से कौन नासमझ निकल
मुझसे लड़ बैठता है
जो समझ के भी नहीं समझता!

की-पैड पर थिरकती उँगलियों में
ये कौन लिखता है बार-बार
कि क्रांति, आने से पहले कोई बिगुल नहीं बजाती
कौन है जो चुपचाप आँसुओ को पीने अपनी कहानी
बस खुद से बांटता है ?

कहीं से भी चल कर,
और कहीं भी न पहुँचने वाला यायावर
कौन है जो इतिहास की गुमनाम गली से भटक कर
बस मेरी ही गली में आ निकला है
मेरे ही अपने घर में,
मेरी ही कुर्सी पर,

और बेशर्मी से ताकता है मुझे
जैसे मैं अजनबी हूँ कोई

"नक्शा"

किसी देश के नक़्शे में ढूँढना खुद को
किसी पुरानी आदत सा शामिल रहा मुझमे,
मैं खुद को ढूंढा इतिहास के सबसे पुराने देश में,
पर अपने शहर को नहीं खोज सका

पहली बार प्रेम की उदण्ड उमंग में ढूंढा था
उसी देश के नक़्शे में,
शहर बनारस का नाम
और सर्च किया था
कानपुर से बनारस की दुरी कितनी है

किसी भी देश के नक़्शे में खुद को देखना
एक यात्रा को देखना है
वर्त्तमान और इतिहास की चालाकियों से बचते हुए
एक सपाट रेखा चित्र में अपनी ठीक ठाक जगह देखना
नाजुक काम है
भटकने से बचने की कोशिश में छूट चुकी स्थान-रेखाएं
तुम्हे पीछे धकेलती है
इतना पीछे कि
एक बढ़िया दिन बेकार हो सकता है
एक उत्साह मर सकता है कि तुम गौरव से भरे एक देश में हो
कि तुमने सौगन्ध खायी थी उसे न याद करने की

तुम इतना चिढ सकते हो,
कि ढ़ुढ़ते हो विश्व मानचित्र पर
जर्मनी जैसा कोई देश
उसके प्रांत फिनलैंड की कोई साइंस-लैब

फिर देखते हो तुम,
बनारस की कोई फ्लाइट कैसे वहाँ तक आयी होगी
कहाँ-कहाँ स्टॉप हुआ होगा

हर स्टॉप पर प्रतीक्षा के उन पलो में
खुद के होने न होने की संभावनाओ में ढूंढ़ते हुए
जब तुम्हे याद आएगा
कि फ्लाइट से पहले कह दी गयी थी तुमसे,
बस एक पँक्ति
सॉरी.. आई एम् सॉरी!

नक़्शे को बंद करके रखते समय
कानपुर के एक छोटे से कमरे में लौटना
फिर बहुत दूर था!

जबकि नक़्शे के हिसाब से एक बलिश्त भर की दूरी है
जर्मनी और भारत में

और बनारस से कानपुर तो बस एक बिंदु भर ही

और यह वाकई एक शोध का विषय है
कि पीछे धकेले जा चुके लोग
नक्शा क्यों नहीं देखते
या प्रेमी,
नक़्शे से गुजरते हुए
क्यों बदल जाते हैं एक मौन योगी मे

"हमारी जाग"

जहाँ सभी सोये पड़े थे
वहाँ एक जाग लिए मैं सब तक गया
गया उनके पास
जो खुली आँखों से सो रहे थे
और वासना की ताप पर रो रहे थे
कि उन्हें प्रेम हुआ है!

मैंने उन्हें बस एक फूल दिया और आगे चला गया

पहुँचा एक स्त्री के बगल में
अभिसार के बाद
एक तृप्त सोयी स्त्री को जी भर के देखा
और जाना,
कि कभी कभी सोना जागने से ज्यादा सुन्दर होता है

बच्चों से भरे एक गाँव भी गया
और बड़े विश्वास से कहा
बच्चों, पीपल वाले कुँए में कोई भूत नहीं है

और लौटा मैं, पर अपने घर नहीं
ठिठक गया
पगडण्डी पर तैनात खड़े
मेरे मृत दादा के अकेले जीवित बचे साथी के पास

और उस बरगद की पीठ थपथपाई
एक भुलाया जा चुका लोक-गीत गुनगुनाया
और कहा रात हुई सो जा!

और कहा,
उस कभी न सोने वाली अथक घूमती नृत्यांगना को
धन्यवाद, हमारे लिए इतना जागने के लिए

आकाश ने कुछ ओस बुँदे उपहार में मुझ तक फेंकी
जो नींद की परछाई सी
मुझ पर छा रही थीं

मैं बस इतना कह सका,
सुनो, ओ जीवन देने वालो!
कल हम सब एक साथ जागेंगे

और मैं सो गया!


बंद गली

उनकी गलियों से
सड़क तक आने का हर रास्ता बंद है
और आवाज पर है कड़ा पहरा
कुछ भी नहीं बदलेगा के अघोषित नारे से सहमा
एक भविष्य है

पक्ष में कही गयी
सभी बातों पर टूटता एक भरोसा है

और एक कविता है
जो गली के पक्ष में सड़क पर फैली एक अफवाह है
सत्ता के प्रतिपक्ष में,
कभी भी घट सकती एक दुर्घटना

जहाँ शोर से भयानक चुप्पी है
जहाँ घुटी चीखों की अमिट बातचीत दर्ज है
जहाँ आवाज में लौटती पहली गर्माहट एक बुरी खबर है

दुनिया की हर सत्ता के पास एक सुनसान सड़क है
दुनिया की हर कविता का पक्ष एक बंद गली है

[ हर बंद गली का भविष्य एक खुली सड़क है ]

एक हँसी

रक्त और स्वेद के संबंधों से
मात्र वीर्य ही हूँ मैं

अपनी पगलाई तलाश की लोलुपता में
निपट नग्न
सदियों की अतृप्त भूख लिए-लिए
और पाप-लिप्तता का एक मुकुट धारण किये
मैं तुम तक आया

मैंने पाया
काम-संघर्ष से हलकी हुई देह की परछाई में
एक औरत चुप लेटी है
अपनी अनंत मोक्षदायी यात्राओं की
ठंडी पड़ती सांसो का स्वाद मुझे देते हुए

मेरे पास अब एक चिंता मुक्त देह थी
तनाव रहित,
और तृप्तता के उच्छ्वास फेंकते हुए

मैं तलाश कर रहा था
उसी औरत में,
एक ऊर्जा स्त्रोत

कि कैसे
यह हर बार मुझे नया कर देती है
कि कैसे बार-बार
यह जन्म देती आयी है एक आदिकालीन अतृप्तता के विलोम को

वो एक रहस्य ओढ़े बस मुस्कुरा रही थी
स्तन पर्वतो के गर्व को मैंने निचोड़ कर कहा: मुझे जवाब चाहिए

उसकी मुस्कान स्थिर चुप्पी एक हँसी में टूटी थी
संभोग स्मृति से

आने वाले दिन

वर्तमान एक रूखा गद्य है
और भविष्य समझ-सूत्रों के पार भागती
एक गूढ़ कविता

पुरानी कविताएं अतीत का असह दुःख
न कह पाये दुःख की ओट में जहाँ कविताएं रच रही हैं
एक निर्वात,

और निर्वात के परदों से झाँकता
कोई सुख देखता है जीवन की परतों को
और स्वप्न की आँखों में धीरे से उतर आता है
नींद की तलछट से,
एक दिन के चेहरे पर खुद को उगाता है

कहते हैं
उस एक दिन से शक्तिशाली कोई नहीं
बीता हुआ दुःख भी नहीं
न लौटा सुख तक नहीं
लिखी जा चुकी तमाम कविताएं तक नहीं

जहाँ एक उम्मीद की तरह दिन की रोशनी में अपने पंख फैलाएं
एक,
न लिखी गयी कविता
बस यूँ ही कही मिल जाती है

[ आने वाले दिन से अधिक लयबद्ध/रसयुक्त कुछ भी नहीं ]


बुद्ध लापता थे

रात की टहनी पर अटका
एक स्वप्न,
जब डगमगा रहा था
कामनाओं के इच्छा गांव ने खुद को
तब चुपके से एक प्याज में बदला था

और कहा था,
हमे नग्न करो और ठीक करो हर परत पर
खुद की पहचान

यह कामनाओं का सत्याग्रह था
यह प्रथम आपत्ति थी कि हमे प्रार्थनाओं में न बदलो
ताकी जान सको कि
नग्न होती कामनाएं अंत में
कैसे किसी अफवाह सी गायब हो जाती हैं

और कहा: हमे अतृप्त भटकने दो

ठीक उसी तरह,
जैसे एक पृथ्वी इतना घूम कर भी नहीं थकी
या फिर सड़क इतना घिस कर भी यात्राओं में बनी रही
जैसे नदी का सूखने के बाद भी मोर्चे पर बने रहना
या समय के सम्भोग से इतिहास का लगातार जन्मते रहना

या फिर,
धुप का अपनी देह पर काँटों को निरंतर उगाना
या शाम के प्रेम-चुम्बन पा कर
उनका ठंडी ओस में बदल जाना

उन्हें प्रार्थनाओं में बदले जाने से भी अधिक आपत्ति
व्यक्ति-नामकरण से थी
कि एक तैयार व्यक्ति
कामनाओं की नदी पार करके ही
पूर्णता की नींद पाता है

नामकरण छदम पूर्णता रचते थे,
कामनाएं संपूर्णता के पक्ष में थीं और नामकरण के प्रतिपक्ष में

तब,
सातो महाद्वीप प्रतीक्षा में थे
और नदियां साहस के अंतिम पड़ाव पर
पहाड़ो ने धैर्य छोड़ना आरम्भ किया था
और पेड़ो ने जड़ो से लड़ना

यह पहली बार था,
कि कामनाओं के प्राणहंता की हर साधना स्थल पर
गर्मजोशी से तलाश थी

नग्न कामनाएं थीं कि मोक्ष पाना ही चाहती थीं
और बुद्ध थे कि लापता थे

इश्क और आंदोलन का गवाह मेरा कमरा

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निवेदिता
पेशे से पत्रकार. सामाजिक सांस्कृतिक आंदोलनों में भी सक्रिय .एक कविता संग्रह ‘ जख्म जितने थे’. भी दर्ज कराई है. सम्पर्क : niveditashakeel@gamai
वर्जीनिया वूल्फ की किताब  ‘ A Room of One's Own’ का प्रकाशन 1929 में हुआ था, उसका केन्द्रीय स्वर है कि एक स्त्री का अपने लेखन के लिए अपना कमरा होना चाहिए, अपने निजी को सुरक्षित रखने के लिए भी अपना कमरा, इसके लिए उसकी आर्थिक स्वतंत्रता जरूरी है.वरिष्ठ लेखिका सुधा अरोड़ा  अपने कमरे की अहमियत के इस सवाल के साथ ही अपने अतीत को देख रही  है... 

राम पाठशाला जा
राधा खाना पका
राम आ बताशा खा
राधा आ झाडू लगा
भईया अब सोयेगा
जाकर बिस्तर बिछा
अहा! नया घर है
राम देख ये तेरा कमरा है
ओह मेरा?
ओ पगली
लड़कियां हवा,धूप, मिट्टी हैं
उनका कोई घर नहीं होता.

अनामिका की कविता हमसब के जीवन की कविता है. हर स्त्री चाहती है घर का कोई कोना उसका हो . बचपन से ही मेरे सपनों में एक कमरा आता था. जिसकी मिट्टी की दीवार होती है और दीवार में एक बड़ी खिड़की . खिड़की के सामने हरिश्रृगांर के पेड़ से झरते सफेद फूल. मुझे नहीं मालूम ये सपना मेरे भीतर कैसे रचा बसा . शायद बचपन में नानी का कमरा देखकर . नानी हमेशा अपनी बड़ी गृहस्थी की गाड़ी को खींचते-खींचते बेदम दिखी. यूं तो उसका अपना कमरा नहीं था. बेटे-बहू और बेटियों और उनके बच्चों के लिए ही कमरे पूरे नहीं पड़ते थे तो वह अपने लिए कमरा कैसे लेती.

कभी -कभी लगता है कि धर्म ने स्त्रियोंका चाहे जिनता नुकसान किया हो इस समाज में उसके लिए हवा,पानी और थोड़ी आजादी का जुगाड उसे उसी माध्यम से होता है. नानी का कभी कोई कमरा था ही नहीं पर कभी कभी पूजा -पाठ के नाम पर उसे वो कमरा मिल जाता था, जिस कमरे में भगवती रहती थी. मैं अक्सर सुबह उठ कर नानी के लिए फूल चुनती थी. तीरा,मीरा, गुलाब, चंपा, चमेली और लाल सुर्ख उडहूल का फूल. फूलों से जब नानी भगवती को सजाती थी तो लगता था कि जैसे पूरा कमरा सूर्ख हो गया है. नानी रामायण का पाठ करती. सीता गौरी पूजा के लिए बाग में आयी. राम ने उसकी पायल की झंकार पर नजरें उठायी उसकी नजरें सीता के चेहरे पर ऐसी जमी जैसे चांद चकोर को देखता है. मैं मंत्रमुगध हो सुनती रहती. पूजा के अंत में वो भगवती से कहती....‘हे भगवती सब के नीके राखब’ उसने कभी अपने लिए कुछ नहीं  मांगा. वही समय था जब वह कमरा नानी का होता. जिस कमरे में एक बड़ा सा पलंग था और सामने बड़ी सी खिड़की. खिड़की के बाहर फूलों से लदे गाछ. पूजा के बाद का कुछ समय नानी का होता था. वह अपनी कमर सीधी करती. उसके लंबे घने केश ऐसे दिखते जैसे नदी की लहरें हों. उसे मैंने कभी रंगीन साड़ी में नहीं देखा. गांव में रिवाज था कि अगर आपने बेटियां ब्याह दी तो आपके सजने-संवरने के दिन गये. नानी ने अपने कमरे को कभी ठीक से जिया नहीं पर वो कमरा मेरे जेहन में अबतक समाया हुआ है.

कभी आंखें बंद करती हूं मेरी सारी आरजुएंसारे आदर्श, सारे पछतावे जगमगाते हैं. मैं जानती हूं एक स्त्री के लिए उसका कोना कितना जरुरी है.  अपना कमरा नहीं होने का भय मुझे कितने दिनों तक डराता था. सारी-सारी रातें जगी रहती थी. इस डर से नींद में गयी नहीं की कई हाथ मेरे बदन पर रेंगेंगे. हम 6 भाई-बहनें हैं. पिता अच्छी सरकारी नौकरी में थे. पर हमलोग हमेशा अभाव में ही रहे. वे बेहद ईमानदार और उसूल के पक्के इंनसान हैं. हमारा परिवार संयुक्त परिवार था. घर रिश्तेदारों से भरा रहता. पिता पर पूरे परिवार की जिम्मेदारी थी. कई बार मेरी मां को अपने पास इसलिए नहीं रख पाते की आंदोलन और दूसरी जिम्मेदारियों की वजह से अपना परिवार रखना उनके लिए मुशिकल था. मां अक्सर नानी के पास रहती थी. उसे वहां सुविधा होती थी. बच्चे छोटे थे . मैं और मेरे भाई को पापा ले आये थे. हमारी पढ़ाई का नुकसान हो रहा था.


बचपन में मैं बेहद शमीर्ली और कमसुखनथी. मेरी समृतियों में मेरी बहुत सी रातें दुःख,शर्म और भयानक डर से भरी है. मैं जानती हूं आज भी समाज की बहुत सारी बच्चियों की रातें भयावह  हैं. हमलोग जहां रहते थे उस मकान में काफी लोग रहते थे. सब उम्र के. मेरी उम्र 9,10 साल की रही होगी. हमारे घर दो कमरे का था. बाहर बड़ा सा बरामदा था. काफी लोगों के रहने से हमारे लिए कोई कमरा नहीं था. अक्सर बरामदे में मसहरी लगा दी जाती थी, जिसपर मैं और मेरा भाई सोते थे. रात जैसे-जैसे गहरी होती मैं डरती. दीवार से लगी चौकी पर मैं भाई से चिपट कर सोती ताकि  कोई मुझे हाथ नहीं लगाए. रात की खामोशी मेरे गहरे दुख से भींग जाती. मसहरी के अंदर हाथ घुसते . मेरे बदन को टटोलते. मैं भाई से चिपट जाती. मैं चीखना चाहती थी पर मेरे शब्द गूंगे हो जाते.मुझे लगता हजारों बरस से मरी हुई रुहें मिलकर मुझे चारों और से घेर रही हैं. नोेंच रही हैं.  मैं मर रही हूं. मैं भाई को इतनी जोर से भींच लेती की वो हडबडा कर उठ जाता क्या हुआ क्या हुआ? अंधेरे में वे हाथ धीरे-धीरे गायब हो जाते. वर्षो तक ये हाथ मेरा पीछा करते रहे. मैं बेहद अकेली , बेहद कमजोर बेहद डरी रहती थी. बहुत मुशिकल से मैं अपने डर को जीत पायी. आज भी जब कहीं जाती हूं तो मेरी निगाहें बच्चियों पर रहती हैं की कहीं कोई हाथ उसकी मासूमियत का कत्ल तो नहीं कर रहा है. बहुत बाद में जब मुझे मेरा कमरा मिला तो रात से मेरी दोस्ती हुई. उंचे गर्द- आलूद दरख्त और छत पर बरसती हुई चांदनी रात को जीया मैंने.

दरअसल स्त्री के हिस्से उसके कमरे का होने का मतलब है, वह निजी स्पेस की मांग कर रही है. और हमारे पुरुषवादी समाज में स्त्री का अपना कुछ नहीं है. उसकी हैसियत आज भी गुलामों वाली है. दिलचस्प यह है कोई गुलाम भी इतने लंबे समय के लिए और ना ही पूरी तरह गुलाम होता है, जितनी कि पत्नी. आमतौर पर गुलाम के कार्य निर्धारित होते हैं, अपने हिस्से का काम पूरा करने के बाद वह अपनी दुनिया का खुद मालिक होता है. पर स्त्री का अपने समय पर अपना नियंत्रण नहीं है.हर स्त्री इन बातों को अपने निजी अनुभवों से समझ सकती है. मुझे याद है कि जब मां हमारे साथ रहने लगी तो हमसब के जीवन में थोड़ी स्थिरता आयी. पर कमरे कम थे और लोग ज्यादा. कई बार मां को भी अपना कमरा छोड़ना पड़ता था. मां के कमरे में बड़ी सी  चौकी थी. उस चौकी से सटे पापा का बिस्तर . मां और मेरे चार छोटे भाई बहन साथ सोते थे. हमारे घर की औरतें दूसरी औरतों के अनुपात में ज्यादा खुली  हुई और बेहतर जीवन जी सकने की स्थिति में थीं. फिर भी कमान पिता के हाथों में ही था.  मां चारों बच्चों को रात भर देखती. वे नींद में कुनमुनाते या बिस्तर गीला करते या रात को रोते सब मां ही संभालती . सारे दिन की थकी-मांदी मां रात को भी बच्चों को सीने से लगाए रखती. कई बार अगर वे जोर-जोर से रोते तो पिता की नींद उजट जाती वे कहते उन्हें चुप कराइये. वे खुद नहीं उठते.


एक जिदांदिल ,संवेदनशील और अपने बच्चों के प्यारे पिता होने के बावजूद वे पितृसत्ता की  जाल से पूरी  तरह मुक्त नहीं थे. पर मुक्ति की कोशिश में जरुर लगे थे. काफी समय बाद जब मैं दसवीं में पढ़ रही  थी तो मुझे अपना कमरा मिला. जो लगभग कबाड़ा घर था. पुराने टीन के बक्से , अनाज का बोरा और बहुत सारे फालतू सामान. उसी कमरे को मैं और चचेरी मेरी बहन जोना ने मिलकर दुरुस्त किया. पढ़ने के लिए एक टेबुल आया. और कहीं से पुराना एक लैंप मिल गया. मेरे कमरे के बाहर खुला गलियारा था. बाहर खुला  मैदान और सड़कें.  जिसके दोनों किनारे उंचे-उंचे दरख्तों के घने झुंड थे रात को मुक्कमल खामोशी तारी रहती थी. मेरे लिए ये सबसे सुन्दर समय होता था. रात को डायरी लिखना या रंग को कागज पर उकेरना या कोई किताब पढ़ना. मेरे घर में किताबें हमेशा से रहीं. किताबों से मुहब्बत शायद इसलिए हुई. किताबों के साथ जीया, और खोज -खोज कर उन स्त्रियों को पढ़ा जिन्हें पढ़ने की मनाही थी.  उन्हीं दिनों हमने 'गुनाहों का देवता'पढ़ा. 'आपका बंटी'पढ़ा. 'अन्ना केरोनिना'पढ़ा.

आज सोचती हूं मेरे जैसे प्रगतिशील घरों में भी स्त्री लेखन से जुड़ी कम ही किताबें मौजूद थीं. जब हमलोग बड़े हुए तब हमारा घर सभी लिखने वाली स्त्रियों की किताबों से भर गयीं. मां को जरुर मैंने कई बार ‘बा’ कमला नेहरु और महादेवी वर्मा को पढ़ते हुए देखा. मेरी मां को स्कूली शि़क्षा नहीं मिली थी पर उसे किताबों से बेहद लगाव था. घर, गृहस्थी के कारण उसे पढ़ने की कम ही फुरसत मिलती. जब भी समय मिलता वह किताबें लिए बैठ जाती. हमारे घर में चाहे अभाव जितना हो, किताब खरीदने में पिता कभी कोताही नहीं करते. आज भी मां , पापा का घर किताबों से भरा पड़ा है. कितनी बातें और कितने किस्से. ये किस्से मेरे कमरे का हिस्सा है. उसी कमरे में  कितने इश्क परवान चढ़े, कितने दिल टुकड़े हुए. कितनी किताबों के पात्र बाहर निकलकर बतियाते रहे. कितनी किताबें दिल में धंस गयीं, कितनी किताबों से मुहब्बत हुई. हमारे कमरे की खिड़की कई खिडकियों तक झांकती थी. कई खिड़कियों की निगाहें जमी रहती थीं.  कई बार पूरी की पूरी रात हमलोग निहारते काट देते थे. हमारे जमाने का इश्क जरा दूर-दूर का था. आंखों आंखों में था. पुराने फिल्मी गीतों की तरह-पल भर को अगर तू मुंह फेरे ओ चंदा मैं उनसे प्यार कर लूंगी, बातें हजार कर लूंगी. राजेन्द्र नगर के बाद जब हमलोग गदर्नी बाग रहने गए तो वह बडा घर था जहां पहली बार मुझे मेरा पूरा कमरा मिला. और तकिया भी. उसके पहले तक कभी तकिया गायब तो कभी कमरा दखल होता रहता था. मेरे कमरे में ढ़ेर सारी किताबें थीं और बहनों के नृत्य के साजों सामान. मेरे पास दो सफेद चादर थी और सफेद कपडा, जिसे मैं पढ़ने के मेज पर बिछाती थी.


मेरा कमरा इश्क और आंदोलन का गवाह था. कितनी बहसें और वैचारिक टकराव यहीं से उपजे. कितने दिल मिले और बिछडे. मेरी गहरी दोस्त शींरी यही आयी थी इसी कमरे में उसका दिल टूटा था. इसी कमरे से अंतिम बार अपने प्रेम को विदा कहा था. मैं उसे जार-जार रोते देखती रही थी. मेरा एक दोस्त घंटों मार्क्सवाद  की धज्जियां इसलिए उड़ाता ताकि उसे मेरे पास देर तक बैठने का मौका मिले . मैं बहस में उलझी रहूं. यहीं चन्द्रशेखर के साथ खूबसूरत दिन गुजरे. हमारा प्यारा चंदू किताब लिए घंटों बैठा रहता और पापा के डर से हमलोग पढ़ने के समय धीरे-धीरे बातें करते रहते. सब्ज और सुनहरा मेरा कमरा इस कदर दिल फरेब था जैसे आकाश में बाग लगा हो. हमारे कमरे से लगे सूर्ख छतों वाली कोठियों के पास घने झुरमुट में अक्सर मुहल्ले के लडके टकटकी निगाहें लगाये खडे रहते. जिस कमरे में चार लड़कियां हो उस कमरे की रौनक होगी ही. अक्सर रात में जब चन्द्रशेखर होता तो हम छत पर खड़े होकर तारे निहारा करते. कविताएं पढ़ते. कमरे के बाहर बादल गुच्छे के गुच्छे तैरते. रात ऐसी होती जैसे दूर पहाड़ों पर आबशार तेजी से गिर रहे हैं. अगर मेरे पास ये कमरा नहीं होता तो शायद दुनिया इसतरह नहीं होती. कितनी हंसीन और पवित्र यादें बावस्ता हैं. मुझे लगता है हर स्त्री के पास उसका कमरा होना चाहिए. या एक कोना, जो उसका हो. जहां वह जिन्दगी के कुछ पल अपने लिए जीएं. जहां वह कह सके ये मेरा कमरा है इसका रंग, इसकी खूशबू और इसकी दीवारों पर मेरा इतिहास दर्ज है.

‘अन्तरजातीय विवाह से ही सामाजिक विषमता खत्म होगी’

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प्रियंका सोनकर
 प्रियंका सोनकर  असिस्टेन्ट प्रोफेसर दौलत राम कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय. priyankasonkar@yahoo.co.in 

जब देश में जातिवादी हमले आम हो जायें, जब एक विचारशील मनुष्य भी अपने विचारों को कुन्द कर ले और यहां तक कि प्रगतिशील और विकासशील भारत जैसे देश में रूढ़ियां और परम्परायें इक्कीसवीं सदी में हावी हो जायें तब भारत को विकसित कैसे बनाया जा सकता है. जाति, धर्म, भाषा, क्षेत्र आदि के नाम पर गोहाना, खैरलांजी, गोधरा-गुजरात, मुजफ्फरनगर, शंकरबीघा, लक्षमणपुर बाथे... ये सब पांचवी, सोलहवीं सदी की घटनायें नहीं हैं. इक्कीसवीं सदी में मनुष्य के जहन में पनप रही जातिगत हिंसा आज मानव समाज के प्रति ही आक्रामक और हिंसक हो चुकी है. जिस भारत जैसे देश में हिन्दुओं का सूत्र ‘अयं निजः परोवेति गणना च लघुचेतसाम, उदार चरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्’ से ही विकास और बन्धुता और समरसता की परिकल्पना की जाती रही हो, वही हिन्दू आज अचानक इतना घातक रूख कैसे अपना सकते  हैं. आज दादरी, फरीदाबाद, उड़ीसा में दलित महिलाओं के साथ हुई जातिवादी हमले, झारखंड में दलित महिलाओं को डायन करार देकर उनकी नृशंसनीय हत्यायें, और लेखकों पर घातक हमले ये कैसे भारत को अतुलनीय भारत की संज्ञा दिला सकते हैं. इसलिए आज के समय में इन सभी समस्याओं के समाधान और उनमें बदलाव की उम्मीद के लिए सुशीला टाकभौरे का उपन्यास ‘तुम्हें बदलना होगा...’ पढ़ना और उसकी प्रासंगिकता जरूरी हो जाती है.

सुशीला टाकभौरे कुछ पारम्परिक औररूढ़ग्रस्त मानसिकता से ग्रस्त मनुवादी, ब्राह्मणवादी तथा पितृसत्तात्मक व्यवस्था को यथास्थित बनाने वाले लोगों के विचारों को पूरी तरीके से ध्वस्त कर समाज में आमूलचूल और बहुआयामी तथा क्रान्तिकारी परिवर्तन लाने के लिए अपने उपन्यास में दो नायक-नायिकाओं धीरज और महिमा को खड़ा करती हैं. उनके नायक और नायिका दलित वैचारिकी तथा अम्बेडकरवादी दर्शन से अपनी ऊर्जा ग्रहण कर समाज में अपनी जोरदार भूमिका निभाते हैं. डॉ. अम्बेडकर के सिद्धान्तों का प्रचार-प्रसार करके वह मनुवादी लोगों का न केवल हृदय परिवर्तन करते हैं बल्कि सभी मिलकर (दलित-गैर-दलित) एक ऐसे समाज का निर्माण करने का निर्णय लेते हैं जिससे वास्तविक भारत बन सके न कि अतुलनीय भारत..... जहां न कोई जातिगत भेद-भाव हो और न ही धर्मगत, क्षेत्रगत, भाषागत, वर्णगत इत्यादि. जहां मनुष्य मनुष्य से  पारस्परिक और आन्तरिक-व्यवहारिक संबध स्थापित कर सके.

संविधान लागू होने के ६५ साल बादभी कुछ सवर्णजातियां अपनी मानसिकता में बदलाव नहीं ला पायीं और किस तरह वे आज भी कुछ पदों पर अपना एकाधिकार बनाकर रखना चाहती हैं. इसके लिए वह विभिन्न हथकंडे अपनाने से भी बाज नहीं आतीं. नौकरी में अनुसूचित जाति के पदों को गायब करके उसके स्थान पर चुपके से उच्च जाति के पदों के लिए आवेदन निकालना तथा सवर्णों की भर्ती कराना यह उनकी पुरानी चाल रही है. सदियों से भाई-भतीजावाद यहां हावी रहा है और आज भी लगातार जारी है. किन्तु लेखिका की नायिका और नायक अम्बेडकरवादी विचारधारा से दर्शन ग्रहण करते हैं और वे इतने जागरूक तथा चेतनाशील हैं कि इस तरह की हेर-फेर को वे चुप-चाप सहने वाले नहीं हैं. अपने साथ हो रहे दुर्व्यवहार तथा उनके षड्यन्त्र का वे बेबाक जवाब देते हैं. महिमा गुस्से से फुंफकार कर बोली “आपने हमें धोखे में रखा. हमारे साथ गद्दारी की, हमें बेवकूफ बनाते रहे. तुम्हें शर्म नहीं आती, ऐसी नीच हरकतें करते हुए? इन्सानियत नाम की कोई चीज है तुम्हारे पास? बेईमानी की रोटी खाते हो, बेईमान....” और गुस्से के साथ महिमा, अपने हाथ की चप्पल पाण्डे जी के सामने रखी टीन के टेबल पर फटाफट मारने लगी. पाण्डे उस आवाज से ही भयभीत हो गये.” (सुशीला टाकभौरे रू तुम्हें बदलना होगा...पेज नं. 24) ‘उस दिन राकेश पाण्डे को यथार्थ रूप में पता चल गया, अम्बेडकरवादी जागरूक लोगों की ताकत अब कम नहीं है. अम्बेडकरवादी विचारधारा शेरनी का दूध है. जिसने शेरनी का दूध पी लिया, वह किसी से डर नहीं सकता. उसे कोई भ्रमित नहीं कर सकता.”(वही , पेज नं. 24)

मनुष्य को एक सामाजिक प्राणी मानागया है. यही मनुष्य समाज में अपने विचार, ज्ञान, मेधा और व्यवहारिकता से अपनी एक अलग पहचान बनाता है. सामाजिक समस्याओं से जब वह जूझता है तो उसके विचारों में भी उथल-पुथल मचने लगती है और तब वह कुछ क्रान्तिकारी परिवर्तन की तरफ अपने कदम बढ़ाता है. किन्तु प्रश्न यह है कि इस परिवर्तन शील कदम में वह कितना यथार्थ से रूबरू होता है और वह कितनी ईमानदारी बरतता है. समाज में आज लोगों का व्यक्तित्व दोहरा होता जा रहा है. बहुत से लोग सामाजिक परिवर्तन में भी अपना हित साधना चाहते हैं जिससे उनकी ख्याति दूर-दूर तक फैले तथा उनका नाम और पहचान हो. अस्मितामूलक विमर्श के चलते दलितों, स्त्रियों पर बात करना कुछ लोगों के लिए एक फैशन बन गया है जिसके चलते वह सेमिनार आयोजित कराते हैं, विभिन्न संगोष्ठियों में जाकर अपनी उपस्थिति भी बढ़ाते हैं, यहां तक कि समय-समय पर अपने घर में भी छोटी-मोटी विचार-गोष्ठियां भी करते हैं. जिससे समाज को यह पता चले कि अमुक व्यक्ति वास्तव में प्रगतिशील और समाज-सुधारक है. चमनलाल बजाज जैसे चरित्र इसी रूप को उजागर करते हैं. उनके लिए महिला जागृति पर बात करना इसी तरह का एक फैशन है. वह स्त्री समस्याओं को तो उठाते हैं, स्त्री-उत्थान और स्त्री-सशक्तिकरण की बात तो करते हैं किन्तु महिलाओं को चारदीवारी में रखकर, पुरानी परम्पराओं तथा रूढ़ियों में कैदकर के.  इस पर व्यंग्य करते हुए लेखिका लिखती है...‘नुकसान जिनका है, वे यहां मौजूद ही नहीं है. मेरा मतलब महिला वर्ग से है. नुकसान महिला वर्ग का है कि हम उनकी अनुपस्थिति में, उनके जीवन की समस्याओं और उनके सबलीकरण की योजनाओं पर चर्चा कर रहे हैं.’ लेखिका पुरूषों द्वारा फैलाये जा रहे छद्म को भी बेनकाब करती है जो महिलाओं की समस्याओं पर बात तो करना चाहते हैं किन्तु उनकी गैरमौजूदगी में ताकि कोई भी महिला अपनी सही और वास्तविक स्थिति का वर्णन न कर सके. (पेज नं. 41) लेखिका ऐसे स्वार्थी और स्वयं का हित साधने वाले लोगों के विषय में लिखती है “शिक्षित, अर्धशिक्षित और अशिक्षित, सभी लोग, सभी जाति, वर्ग और सभी धर्म के लोग समय के बदलते रूप को देखते हुए समझ रहे हैं, साथ ही अपनी स्थिति को भी पहचानने का प्रयत्न कर रहे हैं. ऐसे समय में जागरूक गैरदलित समझदार लोग यह समझने लगे हैं, शोषित वंचितों के बढ़ते आन्दोलनों को शांतिपूर्ण ढंग से रोकने के लिए, हम स्वयं उनके आन्दोलनों का नेतृत्व करें. उन्हें अपने ढंग से समझाने-बहलाने के लिए उनके हित सम्बन्धी कार्यों को अपने हाथों सम्पन्न करें. इससे समाज की पुरानी व्यवस्था भी बनी रहेगी और हमारी समाजसेवा से हमारा सम्मान भी बढ़ेगा.” (वही, पेज नं. 30) भारत की इस सामाजिक वर्णाश्रम व्यवस्था के तहत ऐसे सवर्ण लोग सदियों से अपनी क्षुधापूर्ति और स्वार्थपूर्ति करते आ रहे हैं. चूंकि अस्मितामूलक विमर्श के चलते जब दलित और स्त्री अपने शोषण से निजात पाने और अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे हैं तब ऐसे ही कुछ सवर्ण चेहरे उनकी आवाज बनकर अपना उल्लू सीधा करने में लगे हुए हैं. जो कि ‘स्वयं को आधुनिक, प्रगतिवादी, प्रयोगवादी, जनवादी और अछूतों के हितैषी मानते हैं.’

चमनलाल बजाज जैसे चरित्र का निर्माणकर लेखिका ने आधुनिक मनुवादियों की खबर ली है. जो सामाजिक प्रतिष्ठा के लिए एन.जी.ओ. खोलकर अपनी यश में बढ़ोत्तरी करना चाहते हैं और स्वयं को प्रगतिशील सिद्ध करना चाहते हैं. चमनलाल जैसे घोर विडम्बनाकारी पुरूष के माध्यम से लेखिका ने ऐसे सामन्तवादी पुरूषों की भी खोज-खबर ली है जो अपने ही घर की महिलाओं पर मनु द्वारा निर्मित सभी कानूनों को अक्षरशः लागू करता है. ‘चमनलाल भी कुटुम्ब-परिवार की महिलाओं को पारम्परिक रीति-रिवाजों के साथ नियम-बन्धनों में रखने के पक्षधर हैं. उनका मत है, ‘जिस तरह बहती हुई नदी को अनुशासित करने के लिए, ‘दो किनारों की आवश्यकता होती है, तभी वह देश और समाज के लिए लाभकारी हो सकती है, उसी प्रकार समाज में स्त्रियों को भी सामाजिक और नैतिक मर्यादा में रखने के लिए कुछ कठोर बन्धनों में रखना जरूरी है.” (पेज नं. 72)

‘महिला सबलीकरण’ की बात करते हुएआज के कुछ स्त्री सशक्तिकरण के ठेकेदार लफ्फाजी करने से बाज नहीं आते. वे सूरज और चांद की दिशा को बदल सकते हैं, दिन और रात के समय में फेरबदल कर सकते हैं किन्तु वह हर सूरत में महिला सबलीकरण की क्रान्ति लाकर रहेंगे.’ इस तरह के कुछ छद्मवेशधारी पुरूष स्त्री सशक्तिकरण पर चर्चा करते हुए आज भी स्त्री को देवी की संज्ञा देते आ रहे हैं. वह स्त्री को स्त्री के वास्तविक रूप में न देखकर उसकी प्रगति देवी से ही मानते हैं. सन्देश कोठारी, गिरधारीलाल आदि ऐसे ही मुखौटेधारी लोग मिलेंगे.

19वीं सदी में नवजागरण काल में कुछसमाज-सुधारकों ने स्त्री-शिक्षा को लेकर जो दृष्टिकोण अपनाया वह पूरी तरह से सुधारवादी था. भारतेन्दु हरिश्चन्द्र नवजागरण के उन्नायकों में से एक माने जाते हैं. स्त्री की समस्याओं तथा उनके प्रश्नों को लेकर वह बहुत चिन्तित थे. वह लड़के और लड़कियों की शिक्षा में एक किस्म का भेद भी करते हैं. इस सम्बन्ध में नवजागरण काल पर लिखी अपनी प्रसिद्ध कृति रस्साकशी में आलोचक वीरभारत तलवार जी लिखते हैं कि “भारतेन्दु ने लड़के-लड़कियों की शिक्षा में सिर्फ श्रृंगारिक रचनाओं की दृष्टि से ही भेद नहीं किया, आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की दृष्टि से भी भेद किया......भारतेन्दु एक ओर आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा को हिन्दुस्तानियों के लिए बिल्कुल जरूरी ठहराते थे, दूसरी ओर लड़कियों को इसी ज्ञान-विज्ञान से दूर रखना चाहते थे.” (वीरभारत तलवार: रस्साकशी, पेज नं. 38) नवजागरण काल में हिन्दी पट्टी के कुछ समाजसुधारक स्त्रियों की प्रगति घर की काल-कोठरी तक ही सीमित करके देखना चाहते थे. ‘समाज-सुधारकों की इसी किस्म पर व्यंग्य करते हुए बाद में 1920 में, उमा नेहरू ने अपने एक लेख में लिखा कि भारतीय पुरूष तो पश्चिम का पूरा अनुकरण करते हैं और उसी के आधार पर विकास का अपना मॉडल बनाते हैं, लेकिन चाहते हैं कि उनकी स्त्रियां पूर्वीय ही दिखें.” (वही,पेज नं. 38) भारतेन्दु के लिए स्त्री-शिक्षा का जो मसला था उसपर उनके विचार एक हद तक पारम्परिक और रूढ़िवादी ही नजर आते हैं. बलियावाले भाषण में भारतेन्दु ने स्त्रियों की आधुनिक शिक्षा का विरोध करते हुए कहा, ‘लड़कियों को भी पढ़ाइए, किन्तु उस चाल से नहीं जैसे आजकल पढ़ाई जाती है जिससे उपकार के बदले बुराई होती है.” वह स्त्रियों को किस ढंग से शिक्षा दी जाए, इसे बतलाते हुए अपने उसी भाषण में कहते हैं, “ऐसी चाल से उनको शिक्षा दीजिए कि वह अपना देश और कुल-धर्म सीखें, पति की भक्ति करें और लड़कों को सहज में शिक्षा दें.” (वही, पेज नं. 39). 19वीं सदी की सुधारवादी सोच 21वीं सदी में भी ठीक उसी तरह कुछ लोगों में मौजूद है, जो स्त्रियों को बस उतनी ही आजादी देने पर विचार करते हैं जितना वो चाहते हैं. जिससे उनके हित और परम्परायें बनी रहें. लेखिका सामाजिक उत्थान में लगे ऐसे लोगों के दोहरे चरित्र को भी बेनकाब करती है. चमनलाल बजाज की संस्था ‘अखिल भारतीय समाज जागृति एवं समस्या निवारण संस्था’ द्वारा आयोजित एक सभा में  आये ए.सी.पी. साहब के इसी प्रकार के दकियानूसी विचारों का कच्चा-चिट्ठा खोलते हुए लेखिका लिखती है- “मैं जानता हूं, दुनिया में अपराध की जड़ है-जर-जोरू और जमीन.....यह औरत ही समस्याओं की सबसे बड़ी जड़ होती है.....यह औरत जब तक कमजोर-अबला है, तब तक इस पर अन्याय होता है लेकिन यहां यह भी विचार करने की बात है-क्या अबला नारी अधिक सबल होकर, दूसरों पर अन्याय नहीं करेंगी? उनकी आज्ञा का उल्लंघन, उनकी इच्छा के विपरीत काम नहीं करेगी? वह आगे बोलते हैं कि ‘इसलिए हमें यहां यह विचार भी करना है कि महिलाओं को कितना सबल बनाया जाए. महिला सबलीकरण के साथ, समाज की शांति का ध्यान रखना जरूरी है. हमारी इस संस्था का काम राष्ट्रीय स्तर का है. अपनी संस्था द्वारा, अपनी सरकार की मदद करना हमारा कर्तव्य है. हमारे देश में, समाज में, महिलाओं को जिस रूप में रखने से अधिक शांति रह सकती है, बस उसी नीति पर चलना चाहिए. अधिक झंझट में पड़ने की कोई जरूरत नहीं है. नारी सबलता बस इतनी ही हो कि वह घर-गृहस्थी के सभी काम अच्छी तरह सम्भाले.’ (सुशीला टाकभौरे: तुम्हें बदलना होगा, पेज नं. 45)

लेखिका हिन्दू धर्म के विशेष त्यौहारों तथाले उनमें गढ़े गये मिथकीय चरित्रों पर भी सवाल खड़ा करती हैं. उनके द्वारा रचे गये षड्यन्त्र का भी पर्दाफाश करते हुए होली, दशहरा जैसे हिन्दू पर्व पर अनार्य कुल की मिथकीय चरित्र होलिका के दहन का भी सही पक्ष रखती हैं. दशहरे को हिन्दुओं का त्यौहार माना जाता है किन्तु इस दृष्टिकोण से अलग सुशीला टाकभौरे विजयादसमी के ही दिन डॉ.अम्बेडकर द्वारा ग्रहण की गयी बौद्धधर्म की दीक्षा का भी महत्व समझाती हैं. यह किसी भी दलित महिला लेखिका द्वारा बाबासाहब अम्बेडकर के विषय में महत्वपूर्ण जानकारी उपलब्ध कराने का पहला स्रोत है. वह लिखती हैं ‘दशहरा के त्यौहार के विषय में हिन्दूधर्म के लोग यह कथा बताते हैं, इसी दिन राम ने रावण पर विजय पाई थी. इस दिन के उपलक्ष्य में वे विजय पर्व मनाते हैं. यह हिन्दूधर्म के मतानुसार कहा जाता है लेकिन बौद्धधर्म के मतानुसार यह कहा जाता है कि कलिंग युद्ध के बाद, सम्राट अशोक ने क्वार माह की दसवीं के दिन, यह प्रतिज्ञा की थी, ‘मैं अब तक साम्राज्य विस्तार के लिए युद्ध करता रहा, अब मैं युद्ध नहीं करूंगा. अब मैं ‘विजया धम्मचक्र’ चलाऊंगा.’ इस तरह दशहरा का सही नाम ‘विजयादसमी’ है. इस ‘विजय धम्मचक्र दिवस’ को अपने अनुकूल मानकर डॉ.भीमराव अम्बेडकर ने इसी दिन बौद्ध धर्म की दीक्षा ली थी.’ (पेज नं. 58) लेखिका इसके अतिरिक्त छत्रपति शाहू महाराज, महात्मा ज्योतिराव फुले सावित्रीबाई फुले, पेरियार रामास्वामी आदि से प्रेरणा लेते हुए गौतम बुद्ध के महान संदेश ‘अप्प दीपो भव’ का आदर्श रखती है.


इसी ‘अप्प दीपो भव’ के मूलमंत्र से अपनी मंजिल तय करती है- महिमा. महिमा जैसी जागरूक और चेतनाशील पात्र की रचना कर लेखिका ने उसके माध्यम से दलित आन्दोलन और महिला आन्दोलन की वैचारिकी को सही दिशा में ले जाने और उसका प्रचार-प्रसार का काम किया है. इसके साथ ही साथ स्त्री विमर्श बनाम दलित स्त्री विमर्श जैसे प्रश्न को भी उठाती हैं. दलित स्त्री के आदर्शों और दलित महिला आन्दोलन, संगठन पर भी प्रकाश डाला है. बहुजन समाज की महिलाओं के आन्दोलन की दिशा और दशा को सुदृढ़ करने का सही विचार दिया है. लेखिका स्त्री को सामाजिक समस्याओं से भागने का संदेश न देकर उसमें रहकर बदलाव की बात करती है. ‘राहुल सांकृत्यायन ने कहा था ‘भागो नहीं दुनिया को बदलो’ इसी विचार की पुष्टि सुशीला टाकभौरे भी अपने उपन्यास में करती हैं.

लेखिका सभी वर्ग की महिलाओं की समस्याओं से चिन्तित नजर आती है. उसका मानना है कि ‘यथार्थ में सम्पूर्ण महिला वर्ग ही शोषित-पीड़ित और दलित है. महिलाओं को अपनी जाति और धर्म का गर्व छोड़कर, जातिव्यवस्था और वर्णव्यवस्था का विरोध करना चाहिए. समाज में हो रहे स्त्रियों के खिलाफ हिंसा का वर्णन करते हुए समूचे स्त्री-समाज को इसके लिए एकजुट करने का आवाह्न देती हैं. जातिविहीन समाज में ही समता, सम्मान और मुक्ति की बात सम्भव हो सकती है.” लेखिका का उत्स समग्रता में है. वह सभी वर्ग की महिलाओं को साथ लेकर चलने की बात करती है. वह साझे-चूल्हे का मूलमंत्र देती है जिससे सफलता अवश्य हासिल होगी, सभी को सम्मान और अधिकार मिलेंगे, “बहन, हमें अपनी मंजिल जरूर मिलेगी. वह समय जरूर आएगा, जब मंजिलें हमारे कदम चूमेंगी.”

“गरीबी नहीं सामाजिक बेइज्जती अखरती है.”-कंवल भारती 

आर्थिक समानता बनाम सामाजिक बराबरी जैसे मुद्दे को भी लेखिका ने रेखांकित किया है. डॉ. अम्बेडकर तथा दलित साहित्य के समक्ष यह बहुत बड़ा प्रश्न है कि सामाजिक बराबरी के बिना दलितों को सम्मान हासिल होने वाला नहीं है सिर्फ आर्थिक आजादी एक कोरी कल्पना है जिससे केवल ऊंची जातियां ही लाभान्वित हुईं. इसलिए लेखिका ने मार्क्सवाद बनाम अम्बेडकरवाद का प्रश्न भी उठाया है.

धीरज कुमार जैसे प्रगतिशील चरित्र केमाध्यम से लेखिका ने समाज में लोगों के अन्दर बैठे हुए जातिगत भावना का भी सहज चित्रण किया है कि किस तरह कुछ गैर-दलित दलितों के ‘सरनेम’ से इतने परेशान हैं कि जब तक उन्हें उनके पूर्वजों तक का भेद न मालूम चल जाय तब तक वे चैन से नहीं बैठ सकते. ‘वे धरती पर प्रत्येक प्राणी की जाति का पता लगाने के लिए ही इस हिन्दू धर्म में मानो पैदा हुए हों’ बहुत ही सधे ढंग से लेखिका ने इस विद्रूपता का चित्रण किया है. धीरज कुमार और ऊषा बजाज के संवादों के माध्यम से ‘नारी सबलीकरण’ का औचित्य क्या है, उसके रूप क्या हैं? इस नारे से कितनी नारियां सबल हुई हैं, महिलाओं के सबलीकरण के विरूद्ध कौन सी समस्याएं हैं, उसके सफल न होने के पीछे कौन-कौन से कारण हैं इत्यादि प्रश्नों को भी उठाने का लेखिका ने सफल प्रयास किया है. चमनलाल बजाज जैसे प्रगतिशील और समाज सुधारक तथा नारियों के हितैषी अपने घर की महिलाओं को ही बाहर नहीं निकलने देते, किन्तु उनकी बहन ऊषा बजाज का अपने भाई के दोहरे चरित्र  के प्रति बहुत आक्रोश है. ऊषा बजाज के माध्यम से सुशीला टाकभौरे ने नारी सबलीकरण जैसे गम्भीर मुद्दे के सार्थक न होने की सबसे बड़ी चिन्ता व्यक्त की है ...“ऊषा आत्मग्लानि महसूस कर रही थी. उसने थोड़ा झिझकते हुए कहा, “सर सब कुछ बदल रहा है, समाज में स्त्रियों की स्थिति बदल रही है. नारी स्वतन्त्रता बढ़ रही है. नारी मुक्ति की बातें कही जा रही हैं मगर हमारे घर में कुछ नहीं बदला. अब भी पहले जैसी...” कहते-कहते अचानक ऊषा की आंखे सजल हो गयीं, साथ ही, उसका चेहरा तमतमा गया.” (पेज नं.68) लेखिका की सबसे बड़ी खूबी यह है कि वह अपनी स्त्री-पात्रों को स्त्री-चेतना से लैस करती हैं ‘मैं इतनी बड़ी हूं, कॉलेज की छात्रा हूं, फिर भी कितने बन्धनों में रखी जाती हूं? अब मैं अपने ऊपर लगाए गये सब बन्धन तोड़ दूंगी.’(पेज नं.69)....समाज में होने वाले भेदभाव के विरूद्ध ऊषा खुलकर बोलती है.... ‘मैं ऐसे नियम-बन्धनों को तोड़ देना चाहती हूं, जो स्त्रियों को गुलाम बनाकर रखते हैं, जो समाज को ऊंच-नीच का भेद करना सिखाते हैं, जो कुछ लोगों का अपमान करते हैं, मैं ऐसे लोगों को मुंहतोड़ जवाब देना चाहती हूं.”  


सामाजिक भेदभाव, गैर-दलितों द्वारा दलितों का अन्धाधुन्ध शोषण, शिक्षण संस्थाओं और छात्रावासों में सवर्णों द्वारा जातिगत उत्पीड़न आज भी खुले-आम जारी है. चाहे आप कितने बड़े से बड़े और ऊंचे ओहदे पर पहुंच जाये जाति पीछा नहीं छोड़ती. इसी किस्म का भेदभाव महिमा और धीरज को अपने महाविद्यालय में तथा आस-पास के वातावरण में सहना पड़ता है. उच्च जाति की कुछ शिक्षिकाएं और स्टाफ उन्हें समय-समय पर उनकी निम्न जाति के होने का बोध कराते रहते हैं.

लेखिका ने धीरज के पिता हरिश्चन्द्र के माध्यम से मैला-प्रथा, समूचे दलित समुदाय और सफाई कर्मियों की बदहाल जीवन-व्यवस्था, उन्हें कोई सुविधा मुहैया न कराना और न ही उनके जीवन की सुरक्षा की जिम्मेदारी लेना तथा सरकार और प्रशासन की पूरी लापरवाही जैसे अहम सवालों को भी उठाया है. मैला उठाने के लिए आज भी दलितों को ढकेला जाता है. कितने कानून बनने के बाद भी यह प्रथा बदस्तूर जारी है. कुछ लोगों का मानना है कि स्थितियां सुधरी हैं दलितों से अब यह काम नहीं लिया जाता. देखा जाय तो दलितों की स्थितियों में एक नया मोड़ आया है. पहले उन्हें मजबूरन यह काम करना पड़ता था और आज सच्चाई यह है कि नगर-निगमों में सार्वजनिक शौचालयों में कार्यरत सफाई कर्मचारियों में से सभी दलित ही हैं, आज सरकार और समाज की सेवा के लिए उन्हें यह काम करना पड़ता है. स्थितियां पहले से ज्यादा जटिल कर दी गयी हैं, उत्पीड़न के स्रोत अलग हो गये हैं.

चमनलाल बजाज जैसे सवर्ण और महिमा जैसी दलित पात्र के सम्बन्धों के माध्यम से लेखिका ने एक तरफ उनमें सहज प्रेम तथा आकर्षण को दिखाया है और दूसरी तरफ चमनलाल के उस व्यक्तित्व पर भी प्रकाश डाला है जो अपने उम्र के ऐसे मोड़ पर खड़े हैं जिन्हें शादी के लिए एक लड़की की तलाश थी, महिमा के मिलते ही उनकी यह तलाश भी पूरी हो गयी है. किन्तु गम्भीर प्रश्न यह है कि लड़की उनकी जाति से नहीं है, फिर भी महिमा के प्रेम के अलावा वो कुछ देखना-सुनना तक नहीं चाहते ‘प्रेम के समक्ष वे जाति-पांति, ऊंच-नीच, भेदभाव को भी छोड़ने के लिए तैयार हैं.’

चमनलाल के विवाह जैसे प्रसंग से लेखिका हिन्दुओं के उस चरित्र को भी बेनकाब करती हैं जो लाभ के लिए दलितों से विवाह रचाते रहे हैं. ‘उच्चवर्ण के लोग शूद्र कन्या को अपनी शूद्र पत्नी बनाकर, अपने साथ रख सकते हैं. इतना अवश्य है कि इस शूद्र पत्नी के अधिकार सवर्ण पत्नी से कम रहेंगे.’ (पेज नं.111) वह हिन्दू धर्म के पौराणिक आख्यान का भी सहारा लेती हैं जिनमें महाभारत की घटना प्रमुख है. इस तरह वह उच्च वर्ण के लोगों की साजिश का भी उल्लेख करती हैं.

चमनलाल और महिमा के अन्तरजातीय विवाह से लेखिका ने महिमा के उस विचार को अधिक सराहा है जिसमें महिमा अपने जाति की लड़कियों और बेरोजगार लड़कों के उत्थान और प्रगति की बात सोचती है. अपनी शादी की ही तरह वह अपनी जाति की अन्य लड़कियों के संबंध में सोचती है ‘अगर हमारी दलित जातियों की लड़कियां सवर्ण परिवार के समझदार लड़कों से विवाह करने लगें, तो समाज में सामाजिक समानता जल्दी आ सकती है. धीरे-धीरे घर की व्यवस्था में घर की स्त्री का ही आदेश माना जाने लगता है. जब हमारी दलित लड़कियां सवर्ण परिवार की बहू बनकर, अपने आदेश से सवर्णों को अनुशासित करने लगेंगी, तब किसकी मजाल है, जो वे अपने घर की दलित महिला के दलित समाज की उपेक्षा कर सके? तब उन सवर्णों के रिश्तेदार दलितों पर अन्याय-अत्याचार करने की बात भी छोड़ देंगे. सवर्णों के साथ रहने से दलितों का सम्मान बढ़ेगा. वे अपनी दलित स्थिति से मुक्त हो सकेंगे, साथ ही वे भी सवर्णों की तरह शिक्षा पाकर, अच्छी नौकरी करके, अपना जीवन स्तर सुधार सकेंगे.’ लेखिका अन्तरजातीय विवाह से दलितों और गैर-दलितों की स्थिति में और विचारों में परिवर्तन लाना चाहती है.

चमनलाल के परिवार द्वारा महिमा कोन अपनाना और उसके साथ जातिगत भेदभाव करना, यह उस अन्तरजातीय विवाह की कड़वी सच्चाई को बयान करता है जिसमें लड़की को बहुत कुछ सहना पड़ता है. लेखिका सवर्णों के उस पोल का भी पर्दाफाश करती हैं जो सामाजिक सुधार और प्रगतिशीलता के नाम पर वर्णाश्रम व्यवस्था द्वारा बनाये गये ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र में से केवल तीन उच्च जातियों से शादी रचाना चाहते हैं, इस व्यवस्था के अनुसार सबसे निम्न माने जाने वाली जाति शूद्र से वे वैवाहिक संबंध नहीं स्थापित करना चाहते, दलितों से तो और नहीं. सवाल यह भी है कि प्रेम के बाद यदि लड़का-लड़की अन्तरजातीय विवाह करते हैं तो चाहे लड़का ऊंची जाति का हो या लड़की उसको भी तमाम सामाजिक नियमों, परम्पराओं और पारिवारिक उलझनों, दबावों का सामना करना पड़ता है जिसका शिकार चमनलाल बनते हैं. ‘बाबूजी बिफरकर बोले, “तुम उसे लेकर यहां से चले जाओ. हम तुम्हारा और उसका मुंह नहीं देखना चाहते. तुम पैदा होते ही क्यों नहीं मर गए? हमारे मुंह पर कालिख पोतने के लिए जन्मे थे?” (पेज नं. 129) इसके अतिरिक्त भाई से उन्हें अपने घर के सदस्यों से अलग होने का दंश भी झेलना पड़ता है ...‘तुम्हें मेहमानखाने में ही रहना होगा. तुम हवेली में पूरे परिवार के साथ नहीं रहोगे. तुम्हारी पत्नी हवेली में कभी कदम रखने की भी हिम्मत नहीं करेगी. हमारे चौके-चूल्हे को वह भ्रष्ट नहीं करेगी. अपने सवर्ण जाति समुदाय में उसे तुम कभी नहीं ले जाओगे. उसके अछूत रिश्तेदारों को कभी अपने घर नहीं आने दोगे. उसकी जाति के विषय में कभी किसी को नहीं बताओगे. सबसे पहले ‘आर्यसमाज पद्धति’ से उसका और अपना शुद्धिकरण करवाओगे.” (वही, पेज नं. 129) युवाओं को आज अन्तरजातीय विवाह के समक्ष कितनी चुनौतियां का सामना करना पड़ रहा है लेखिका ने इस गम्भीर और चिन्तनीय विषय को भी रेखांकित किया है.

हमारे समक्ष यह बहुत ही विचारणीय प्रश्नहै कि आज अन्तरजातीय शादियों में किस प्रकार की और किनसे शादियां सम्पन्न हो रही हैं, और कितने प्रतिशत शादियां सफल हो पा रही हैं? क्या ब्राह्मण अपनी लड़की या लड़के का दलितों के घरों में शादी करना चाहता है या फिर अन्य उच्च जातियां दलितों से उसी सहजता से शादी कर रही हैं जितनी अन्य उच्च जातियों में, या फिर रोटी-बेटी सम्बन्धों के नाम पर जातिगत उन्मूलन की बात करना भ्रम है? ‘उच्चवर्णीय समाज में किसी अछूत लड़की को बहू के रूप में स्वीकार करना कितना कठिन कार्य है.’ लेखिका इस पर अपनी चिन्ता व्यक्त करती है. किन्तु सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि क्या अन्तरजातीय विवाह से लोगों के विचारों में परिवर्तन लाना सम्भव है? महिमा द्वारा लेखिका इस प्रश्न का समाधान भी करती है.


एक दलित स्त्री की स्त्री-चेतना को लेखिका रेखांकित करती है. उसके साथ हो रहे दुव्र्यवहार और जातिगत भेदभाव से महिमा का मन बहुत दुखी है किन्तु उसे जरा भी पछतावा नहीं है क्योंकि वह अपने अधिकारों को जानती है. उसके विचार देखने योग्य हैं ,,,“हूं, मुझे हाथ लगाकर तो देखें, हाथ तोड़ दूंगी. कोई मेरा अपमान करके तो देखे, उसके बारह बजा दूंगी. मैं भी दलित आन्दोलन की शेरनी हूं, एक-एक को चीर कर रख दूंगी. होंगे बड़ी जात के, हम भी क्या अब छोटे हैं? हम भी किसी से, किसी बात में कम नहीं हैं. जो मेरे साथ जातिभेद करेगा, उसे जेल की चक्की में पीसने भेज दूंगी.” (पेज नं.132)

दलित स्त्री को वर्गगत, जातिगत और लिंगगत तिहरा अभिशाप सहना पड़ता है. स्त्री-पुरूष असमानता और लैंगिक आधार पर शोषण जैसे मुद्दे को महिमा के वैवाहिक व पारिवारिक सम्बन्धों के माध्यम से दिखाया है. स्त्री-पुरूष समानता की बात करने वाले चमनलाल स्वयं अपने घर में स्त्रियों के साथ लैंगिक भेदभाव करते हैं जिसका शिकार उनकी पत्नी महिमा होती है. घर में ही नजरबन्द रहना उसकी मजबूरी बन गयी है इसलिए कुछ पल उसके मन में यह विचार भी आने लगते हैं “जो महिमा ‘स्त्री-पुरूष समानता आवश्यक है’ विषय पर अपने क्रांतिकारी विचारों के उदाहरण देकर अपनी बात समाज से मनवा रही थी, आज वही, ‘स्त्री-पुरूष विषमता’ या ‘लिंग भेद’ की शिकार बना दी गयी है.’ (पेज नं.136)

किन्तु समय आने पर महिमा अपनी क्रांतिकारी दलित स्त्री चेतना का भी परिचय देती है. वह स्त्रियों के शोषण के लिए पुरूषों को दोषी ठहराती है. उसका कहना है कि “जब तक पुरूषों के विचार और व्यवहार में फर्क रहेगा, तब तक महिलाएं खुले दिल और दिमाग के साथ सोच नहीं पाएंगी. वे अपने सीमित कठघरे से बाहर निकल नहीं पाएंगी. इसका जिम्मेदार पुरूष समाज है. पुरूष नारी स्वतन्त्रता की बहुत बड़ी-बड़ी बातें करते हैं मगर सही मायने में वे स्त्रियों की सबलता से डरते हैं, कतराते हैं. उन्हें लगता है कि वे अपनी महिलाओं को घर में कैद रखकर ही, महिलाओं का उद्धार कर लेंगे.” (पेज नं.150) इस प्रकार महिमा नारी-शक्ति का प्रमाण देती है. महिमा की वजह से चमनलाल की ‘संस्था अखिल भारतीय समाज जागृति एवं समस्या निवारण संस्था’ आज अपने उत्तरदायित्व व उद्देश्य को प्राप्त करने में गतिशील हो पायी है.

धीरज द्वारा वाल्मीकि बस्तियों में जाकरभंगी समुदाय की बदहाल स्थिति को सुधारने तथा उन्हें प्रशासन की तरफ से शिक्षा, स्वास्थ्य, बिजली-पानी आदि सुविधायें मुहैया कराने में मदद करना लेखिका के उस दृष्टिकोण की तरफ इशारा करता है जहां अम्बेडकर का सपना साकार होता नजर आता है. बस्ती के कुछ लड़कों की सहायता से वह इस काम को सफल बनाता है. धीरज और महिमा साथ-साथ अछूत दलित बस्तियों और पिछड़े-शोषित, दमित-दलित जातियों की स्थिति को सुधारने तथा उनमें जागरूकता फैलाने का काम करते हैं. इसके अतिरिक्त लेखिका ने बाल-शोषण जैसे मुद्दे को उठाते हुए उसके उन्मूलन पर विचार व्यक्त किया है.

अन्तरजातीय विवाह से ही निकलेगारास्ता : समाज में जाति अभी भी व्याप्त है. जाति के सफाये के लिए डॉ.अम्बेडकर ने रोटी-बेटी के सम्बन्धों पर जोर दिया. २१वीं सदी में अन्तर्जातीय विवाह हो रहे हैं किन्तु प्रश्न यह है कि लोग जाति-पांति से ऊपर उठकर ये विवाह कर रहे हैं या फिर वर्णाश्रम व्यवस्था में ऊपर से तीन वर्णों के अन्दर तो शादियां हो रही हैं किन्तु निम्न मानी जाने वाली दलित-अछूत जाति में आज भी कोई रोटी-बेटी संबंध नहीं करना चाहता. तमाम अटकलों के बाद प्रेम के कारण जाति के बन्धन टूटते नजर आते हैं और बाद में वह विवाह में भी बंधते हैं जिससे आज अन्तरजातीय विवाह हो रहे हैं. चाहे वह सवर्ण जाति के चमनलाल और अछूत हरिजन महिमा का विवाह हो या फिर धीरज और ऊषा बजाज का विवाह या फिर चमार जाति की माया और वाल्मीकि जाति का नीरज हो.

जाति जोंक की तरह है जो एक बारचिपक जाती है तो छूटने का नाम नहीं लेती. लेखिका इसका सहज ही वर्णन करती है- धीरज कुमार और ऊषा बजाज के विवाह के विषय में चमनलाल और उनके परिवार वाले अधिक चिन्तित हैं. क्योंकि उन्होंने एक अछूत हरिजन से शादी की है इसलिए वह और उनके परिवार वाले दुबारा ऐसी गलती नहीं दोहराना चाहते हैं. धीरज कुमार की जाति का पता घर वाले और वह स्वयं ऐसे लगाते हैं मानो कोई पुलिस किसी बड़े अपराधी की खोज बहुत समय से कर रहा हो और वो बहुत ही अनिवार्य और महत्वपूर्ण हो. जैसे धीरज का सरनेम पता लगाना. समाज के ऐसे बहुरूपियों की खोज-खबर लेने में लेखिका पीछे नहीं है. ऊषा का एक तरफ धीरज से प्रेम करना और दूसरी तरफ उसका सरनेम पता लगाना, सवर्णों की ओछी मानसिकता को दर्शाता है. जैसे कि उनके लिए सबसे महत्वपूर्ण लड़का का लड़की से शादी न करके सरनेम से शादी करना हो.

‘वर्णभेद जातिभेद के विरूद्ध सामाजिकसमता’ जैसे मुद्दे पर सेमिनार के बहाने सवर्णों का और दलितों की समाजिक एकता और विषमता के विषय में किस प्रकार के विचार हैं लेखिका इसको भी स्पष्ट करती चलती है. चमनलाल जैसे आर्यसमाजियों की धीरज पोल खोलता है तथा उसकी खामियों को सबके समक्ष रखता है. ‘आर्यसमाजी केवल सवर्णों की उच्च जातियों के बीच भेदभाव न मानने की बात करते हैं. यदि आप लोग यथार्थ में समतावादी हैं, तो आज बनिया और वाल्मीकि अर्थात सवर्ण और अछूत के बीच का भेद मिटाकर, अपने समतावादी विचारों का परिचय दीजिए.” (पेज नं. 233) धीरज यहां सवर्णों के उस जातिवादी चेहरे से पर्दा हटाता है जिनकी कथनी और करनी में अन्तर है.

सुशीला टाकभौरे अन्तरजातीय विवाह सेसमाज में ऊंच-नीच, जांति-पांति जैसे भेदभाव का उन्मूलन देखती हैं. उनका मानना है कि ..“अन्तरजातीय विवाह होने चाहिए. इसी से जातिभेद, वर्णभेद मिटेगा और सामाजिक एकता आएगी. ऐसे कार्यक्रमों में भाषण देने की अपेक्षा ऐसे कार्य होने चाहिए जिससे समाज के सामने जीता-जागता उदाहरण पेश किया जा सके.” (पेज नं. 223) इसके साथ ही उन अविवाहित स्त्रियों के प्रति भी अपनी चिन्ता व्यक्त करती है जिनका समय रहते और योग्य वर न मिल पाने की वजह से विवाह नहीं हो पाया. इसके लिए लेखिका सन्ध्या के माध्यम से अपने विचार प्रकट करती हैं “यदि किन्हीं कारणों से बेटी का विवाह अपने जाति-समाज में नहीं हुआ और बेटी की उम्र बढ़ती जा रही है, तब ऐसी स्थिति में परिवार के लोगों का कर्तव्य है, वे अपनी बेटी के विवाह के लिए अखबारों में लिखें. तब जरूर बिनब्याही बेटियों के लिए भी घर बैठे वर आएंगे. इसके लिए जरूरी है, यह भी लिखा जाए-जाति का कोई बन्धन नहीं है.” (पेज नं.238)  यहां लेखिका अविवाहित स्त्री की पीड़ा का संज्ञान लेती है. इसके लिए वह अपने जाति से बाहर शादी न करने वाले लोगों तथा उनकी पिछड़ी मानसिकता को दोषी ठहराती है. उचित और योग्य वर का अपने जाति में न मिलना लेकिन कुछ लोगों द्वारा जाति से इतर भी शादी न करना इस प्रकार की समस्या को जन्म देता है. इस मुद्दे को भी लेखिका ने बखूबी उठाया है.

सुशीला टाकभौरे अन्तरजातीय विवाहके द्वारा ही जातिप्रथा, दहेज प्रथा दलित-स्त्रियों के शोषण दमन का सफाया मानती हैं. सामाजिक समरसता का उत्स अन्तरजातीय विवाह के रास्ते ही निकलेगा. चमनलाल की संस्था द्वारा आयोजित सफल सेमिनार के माध्यम से वह धीरज और ऊषा का अन्तरजातीय विवाह सम्पन्न कराती हैं तथा ऐसे मनुवादियों के विचारों में परिवर्तन लाती हैं जो सदियों से मनु के नियम-कानूनों तथा रूढ़ियों-परम्पराओं और अपनी जाति के खोल में ही सिमटे हुए थे. जो अपनी अवनति के साथ युवा पीढ़ी के सपनों और उनके जीवन को भी नरक में डाल देते हैं. इस उपन्यास की सबसे बड़ी खूबी यह है कि लेखिका ने अपने नायक-नायिकाओं को अम्बेडकरवादी चेतना से ओत-प्रोत रखा है जिसके जरिये वे विषमतामूलक समाज में मनुवादियों के विचारों में भी क्रान्तिकारी परिवर्तन लाते हैं. रोटी-बेटी संबंध से ही जातियां टूटेंगी- बाबासाहब अम्बेडकर के महान स्वप्न को साकार करने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं. समस्या को उठाकर समाधान भी देना लेखिका तथा उपन्यास की सबसे बड़ी उपलब्धि है.

                                                                    
सन्दर्भ सूची:

1-सुशीला टाकभौरे : तुम्हें बदलना ही होगा, सामयिक प्रकाशन. दिल्ली, संस्करण प्रथम, 2015 
2-वीरभारत तलवार : रस्साकशी, सारांश प्रकाशन, दिल्ली-हैदराबाद, संस्करण 2012


झाँकती है देह आँखों के पार और अन्य कविताएं

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सुजाता
लेखिका, आलोचक.चोखेरवाली ब्लॉग की संचालक, असिस्टेंट प्रोफ़ेसर,श्यामलाल कॉलेज,दिल्ली वि वि. संपर्क : ई-मेल : sujatatewatia@gmail.com                                      
झाँकती है देह आँखों के पार

और इस दूसरे जाम के बाद मुझे कहना है
कि दुनिया एकदम हसीन नहीं है तुम्हारे बिना
हम तितलियों वाले बाग में खाए हुए फलों का हिसाब
तीसरे जाम के बाद कर ज़रूर कर लेंगे...

हलकी हो गई हूँ सम्भालना ...
मौत का कुँआ है दिमाग,बातें सरकस
बच्चे झांक रहे हैं खिलखिलाते
एक आदमी लगाता है चक्कर लगातार
धम्म से गिरती है फर्श पे मीना कुमारी
‘न जाओ सैंया...कसम तुम्हारी मैं रो पड़ूंगी...’
और सुनो -
       जाना, तो बंद मत करना दरवाज़ा।
आना , तो खटखटा लेना ।

मौत के कुएँ पे लटके ,हंसते हुए
बच्चे ने उछाल दिया है कंकड़
आँखें मधुमक्खियाँ हो गई हैं
आँखें कंकड़ हो गई हैं
आँखें हो गई हैं बच्चा
आँखें हंसने लगी हैं
झाँक रही हैं आँखें
अपने भीतर !

बच्चे काट रहे हैं कागज़ कैसे आकारों में
कि औरतों की लड़ी बन जाती है मानो
दुख के हाथों से बंधी एक-से चेहरों वाली
एक- सी देह से बनी
झाँकती है देह आँखों के पार !

अरे ...देखो ! उड़ गई मधुक्खियाँ शहद छोड़
जीने की लड़ाई में मौत का हथियार लेकर


आँसू कुँआ हैं, भर जाता है तो
डूब जाती है आवाज़ तुम्हारी
सूखता है तो पाताल तक गहरा अंधेरा !


बहुत हुआ !
तुम फेंकते हो झटके-से बालटी डोरी से बंधी
भर लेते हो लबलबाता हुआ ,उलीचते हो
रह जाती हूँ भीतर फिर भी उससे ज़्यादा

उफ़ ! दिमाग है कि रात की सड़क सुनसान
जिन्हें कुफ्र है दिन में निकलना
वे दौड़ रहे हैं खयाल बेखटके

इंतज़ार रात का
इंतज़ार सुबह का

बहती है नींद अंतरिक्ष में, आवारा होकर
भटकती है शहरज़ाद प्यार के लिए
अनंत अंधेरों में करोड़ों सूर्यों के बीच
ठण्डे निर्वात में होगी एक धरती
हज़ारों कहानियों के पार !

एक अबबील उड़ी
दो अबाबील उड़ीं
तीन अबाबील उड़ीं
चार...
पाँच...
सारी
फुर्र !


पुर ते निकसीं रघुवीर वधू

बेमतलब -सी बात की तरह होती है सुबह
नीम के पेड़ पर कमबख्त कोयल बोलती ही जाती है
उसे कोई उम्मीद बची होगी

सारी दोपहरें आसमान पर जा चिपकी हैं आज, उनकी अकड़ !
एक शाम उतरती है पहाड़ से और बैठ जाती है पाँव लटका कर, ज़िद्दी बच्ची !        
ढलने से पहले झाँकना चाहता है नदी में कहीं कोई सूरज
सिंदूरी रेखा खिंचती है
जैसे छठ पूजती स्त्रियों की भरी हुई मांग
पूरा डूबा है मन आज
आधी डूबी हैं मछलियाँ
मल्लाह पुकारता है – हे हो !
आज और गहरे जाएंगे पानी में ...
                               
यह लौटने का समय है
समय…प्रतीक्षाओं की लय ...

झूठ बोलकर खेलने चले गए बच्चे पहाड़ी के पीछे
तितलियाँ साक्षी हैं उनके झूठ की
अभी साथ में करेंगे धप्पा और चांद को आना पड़ेगा बाहर मुँह लटकाये
ये देखो आज शिकारी छिपा है आसमान में , एक योगी भी है
छिप-छिप के रह-रह टिमकते तारे ...चोर हैं चालीस
कहानियों की सिम-सिम ...नींद का खज़ाना...लो...सो गए...


अब सब काम निबट गए
पाँव नंगे हैं मेरे
बच्चों ने छिपा दी होगी...
या रख दी होगी मैंने ही कहीं
मेरे नाप की कोई चप्पल नहीं है भैया ?
– आपको कुछ पसंद ही नहीं आता
   ह्म्म...


सपनों के लिए बुलाया गया है आज मुझे कोर्ट…
अचानक लगता है खो गई हूँ
यहाँ वह पेड़ भी नहीं है बरगद का चबूतरे वाला
किसी हत्या के भी निशान नहीं हैं मिट्टी पर
चौकीदार कहता है –
पूजा करनी होगी आपको , गलत गेट से आ गई हैं आप, दूसरी तरफ है बरगद , सही-सलामत ।

एक प्रेम को भर देना चाहती थी आश्वासनों से ,मीलॉर्ड !
                                      फुसफुसाता है कोई- झूठ !

शब्दकोश से मेरे गायब हो रहे हैं शब्द जजसाहब -
गड्ढे बन गए हैं जहाँ से उखड़े हैं वे...मैं गिरती हूँ रोज़ किसी गड्ढे में
                                     फुसफुसाता है कोई- झूठ !


मैं धरती से बहिष्कृत थी...
कोई बोला- झूठ !

मैं कविता लिखती थी ...मैंने लिखा था सब ...ये देखिए
मेरी ही हस्तलिपि है...मेरी..
वह छीनते काग़ज़ उठ खड़ा हुआ है- झूठ !

मैं तब भी थी ...अनाम...मैं भटक रही थी अँधेरी गुफाओं में
चलती रही हूँ रात-रात भर ...दिन भर स्थिर ...
बड़बड़ाती रही हूँ नींदों में ...दिन भर  मौन ...

मीलॉर्ड ! मुझे सुना नहीं गया मेरे क़ातिलों को सुनने से पहले
                                     वह चिल्ला पड़ा है – चुप्प् प !!

आप पर अनुशासनहीनता का आरोप है
अदालत की तौहीन है ...

होती हूँ नज़रबंद आज से ...अपने शब्दों में ...कानो में गूंजता है – झूठ है !
होती हूँ मिट्टी ...हवा...आँसू ...

मुझे उनके जागने से पहले पहुँचना है
चीखता है ऑटो वाला- हे हो !
मरने का इरादा है क्या !

डरती हूँ , डरता है मुझसे डर भी


सामने खाई है और मैं
खड़ी हूँ पहाड़ के सिरे पर
किसी ने कहा था
-‘शापित है रास्ता

पीछे मुड़ कर न देखना
अनसुनी करना पीपल की सरसराहट
किस दिशा को हैं
देखना पाँव उसके   जो रोती है अकेली इतना महीन
कि पिछली सदियों तक जाती है आवाज़
दर्द यह माइग्रेन नहीं है
उठा लाई हूँ इसे अंधेरे की पोटली में बाँध
वहीं से
बच्चों के चुभलाए टुकड़े  टूटे हुए वाक्य गीले बिछौने
सारे टोटके बांध लाई हूँ

सम्बोधन तलाशती हूँ
मुँह खोलते अँट जाती है खुरचन पात्र में
मेरे स्वामी
प्रभु मेरे !
मुट्ठी में फंसे मोर पंखों की झपाझप सर पर...

नहीं,खाई में कूदना ही होगा
तो मुड़ ही लूँ एक बार ?
नहीं दिखते दूर- दूर भी
पिता
माँ
बहन
साथी

देखती हूँ अपने ही पाँव उलटे !

स्त्री के सम्मान में पढ़ा गया फातिहा:‘काला जल' (पहली क़िस्त)

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अरविंद जैन
स्त्री पर यौन हिंसा और न्यायालयों एवम समाज की पुरुषवादी दृष्टि पर ऐडवोकेट अरविंद जैन ने मह्त्वपूर्ण काम किये हैं. उनकी किताब 'औरत होने की सजा'हिन्दी में स्त्रीवादी न्याय सिद्धांत की पहली और महत्वपूर्ण किताब है. संपर्क : 9810201120
bakeelsab@gmail.com
औरत की खेत-खलिहान और मवेशियों की तरह हिफाजत होती थी (है)। मालिक और मल्कियत के लिए अलग-अलग उसूले-जिन्दगी बन गए। मर्द पालनहार पति और ख़ुदाए-मज़ाजी। औरत के फरायज़ मर्द की ख़िदमत कि रोज़ी-रोटी की खातिर बराहे-रास्त हवादिसे-ज़माना का मुकाबला नहीं करना पड़ता था जब तक मर्द को खुश करती। ज्यादा से ज्यादा सिपाही पैदा करती। महफूज चैन की ज़िन्दगी गुज़ारती। उसके बाद वही अंजाम होता जो बूढ़े नाकारा मवेशियों का होता है। इसीलिए औरत बुढ़ापे से डरती है। उम्र छियाती है कि आज भी वह शौहर और बेटो के रहम की मोहताज है।’’ (काग़ज़ी है पैरहन, इस्मत चुगताई, पृष्ठ-258-59)

भारतीय पुरुष जैसे अपने मनोरंजन के लिए रंग-बिरंगे पक्षी पाल लेता है(  उपयोग के लिए गाय-घोड़े पाल लेता है, उसी प्रकार वह एक स्त्री को भी पालता है तथा अपने पालित पशु-पक्षियों के समान ही उसके शरीर और मन पर अपना अधिकार समझता है।’’ (शृंखला की कड़ियां, महादेवी वर्मा, पृष्ठ-83)

‘‘...शरीयत के नाम पर कैसे-कैसे जुल्म ढाकर औरतों को उनके अधिकारों से वंचित किया जाता है। इस्लाम ने यदि औरतों को बराबरी का अधिकार दे रखा है तो फिर वह अपने समाज, परिवार में इस तरह कैद क्यों रखी जाती है? एक तरफ कयामत के दिन मुरदों की पहचान मां के नाम से होगी बाप के वंशवृक्ष से नहीं, फिर उसी औरत को आखिर प्रताड़ित कौन कर रहा है - सियासत, समाज, अज्ञानता।’’ ( ‘खुदा की वापसी’, नासिरा शर्मा ( 1998) में निवेदनपृष्ठ-7-8)
‘‘मुस्लिम औरत का हिन्दुस्तान में नहीं पढ़ने का मूल कारण गरीबी है। उनकी स्थिति
अनुसूचित जाति की तरह है जिस वजह से अनुसूचित जाति की औरत नहीं पढ़ पाती है, उसी वजह से मुस्लिम औरत भी नहीं पढ़ पाती। धर्म और पर्दा उतना बड़ा कारण नहीं है। सामाजिक और आर्थिक पहलुओं को नजरअंदाज कर मुस्लिम औरत की स्थिति को ठीक से नहीं समझा जा सकता।’’ ( जोया हसन, हंस भारतीय मुसलमान अंक, अगस्त-2003, पृष्ठ-15)
औरत होने की सजा
काला जलदेखने-समझनेसे पहले घर-घर के आंगन में पड़ी (सड़ी) नंगी, अधनंगी, और जली हुई कुछ जिन्दा-मुर्दा लाशों के भयावह शब्द चित्रों का एक कोलाज दिमाग में छाया है...’’ दालान के कच्चे फर्श पर सुनारिन बिल्कुल नंगी पड़ी हुई थी और बलपूर्वक उसे दबाये हुए उसका पति छाती पर बैठा हुआ था। अपने हाथ में सोने के जेवर बनाने वाली छोटी हथौड़ी लिए वह युवती की नाभि के नीचे की नंगी हड्डी पर रह-रह कर चोट देता, दांत पीसता और जैसे सबक सिखाने के ढंग पर गंदी गालियां बकता हुआ कहता, ‘‘अब, बोल बोल...’’ नेपथ्य से... ‘‘भले मुंहबोली हो, जिसे बेटी की तरह पाला हो, उसे ही जवान होने पर पत्नी बना ले और ब्याहता बीवी को रास्ता बता दे, ऐसे आदमी के लिए पाप शब्द भी क्या हल्का नहीं पड़ जाता?...’’ ( पृष्ठ 13-14) ‘‘कट्...कट्.
.. नीचे’’ बी के निकल? आने के बाद फूफीचोरी से भीतर गई। देखा, मालती लगभग अधनंगी-सी फर्श पर पड़ी है। बाल और चेहरा बुरी तरह नुचे हुए हैं, ब्लाउज फटकर शरीर को काफी उघाड़े हुए है और उसके तमाम जिस्म के साफ-सुथरे मांस पर बेंत के कई आड़े-तिरछे रोल उभर आए हैं।’’ पृष्ठभूमि में ‘‘मैं तेरा गला घोंट दूंगी, हरामजादी! रंडी, बाजारू, किससे पेट भराया है, बोल. .. बोल...।’’ ( पृष्ठ-126-127) ‘‘...कट्... 


ग्रामीण 
बाई ओर...’’ घुटनों से लेकर गले तक जगह-जगह उसने अपने शरीर को आग से भून डाला था। इस तरह जला-भूनकर शायद वह समझ रही थी कि खुदा उसके गुनाहों को माफ कर देगा। कहने लगी- मैं चाहती हूं कि मेरा जिस्म बदसूरत हो जाए - इतना बदसूरत कि उसमें हाथ तक न लगाया जा सके। मैंने रोकर कहा कि रशीदा यह तूने क्या कर लिया? बोली- जीते जी दोज़ख भोग रही हूं। खुदा जाने उसके बाद उसने क्या सोचा-समझा, हफ्रतेभर बाद सुना कि एक रात जब सब सो रहे थे तो अपने शरीर पर किरासिन तेल छिड़ककर वहजल मरी...।’’ पृष्ठ-130 ‘‘इंसान होकर ऐसी क्या नियत कि सगी बेटी का रिश्ता भुला दिया जाए? आदमी और जानवर में आखिर फर्क क्या हुआ?’’ ( पृष्ठ-110) और दाहिने... ‘‘सुना है कि लड़की ( शल्लो आपा) रात-भर चिल्ला-चिल्ला कर रोती रही कि डाक्टर बुलाओ, नहीं तो मैं मर जाऊँगी, पर किसी ने ध्यान नहीं दिया। दुनिया को दिखाने के लिए सुबह-सुबह डाक्टर बुलाया गया, लेकिन उससे क्या, कहने वाले तो आज भी कहते हैं कि कुछ दाल में काला था। ...जिन्होंने देखा है, वे बताती हैं कि उल्टियों में लड़की की अंतड़ियां कट-कट कर गिरी थीं...।’’

(
पृष्ठ-293-294) सुनारिन के संदर्भ में एक जगह लिखा हैउसकी जलभीगी छातियों पर सरदार की भूखी और नोचती आंखें तीर की तरह अटकी हुई थी।’ ( पृष्ठ-12) ऐसी ही भूखी और नोचती आंखेंहैं-रशीदा के चाचा और फूफी के ससुर रज्जू मियां की। तभी तो जैसे ही वह ( फूफी) अपने ससुर की ओर ताकती है, उनका चेहरा रशीदा के चाचा की शक्ल में बदला जाता है।सल्लो आपा भी बार-बार शिकायत करती है ‘‘देखते हो माटी मिलों को? किस कदर घूर-घूर कर देखते हैं!’’ मालती भी तो रज्जू मियां की ही भूखी और नोचतीआंखों का शिकार बनती है। कभी भूखी और नोचती आंखें सपना बुनती हैं। ‘‘देखता हूं कि उस नीले पानी से जल भीगा शरीर लेकर सल्लो आपा निकलती हैं। पतला और इकहरा लिपटा कपड़ा भीगकर उनके शरीर के हर अवयव से ऐसे चिपक गया है कि वह बिल्कुल विवस्त्र लगती हैं।’’ ( पृष्ठ-185)

सुनारिन से लेकर सल्लो आपा तक जल भीगा शरीरहैं और उनका पीछा करती भूखी और नोचती आंखेंसपनों तक में चैकन्नी हैं। सिर्फ जिस्म है मांसल और भरा हुआ। वही भूखी और नोचती आंखेंकैलेंडर में भी देखती रहती हैं ‘‘एक सुंदर स्त्री
अपनी साड़ी के सामने वाले पल्लू के एक कोने को दांतों से दबाये, परदा करने का अभिनय करती हुई, ब्लाउज उतार रही है, लेकिन लगभग अर्धनग्न है...’’ ( पृष्ठ-149) यही नहीं, पेटी में अलग से भरी हैं पोर्नोग्रापिफककिताबें, जिनमें स्त्राी को सिपर्फ शरीर’, ‘मांसल देह’, ‘सेक्स सिम्बल’, ‘सेक्स बम’, ‘सेक्सी डालऔर गर्म गोश्तके रूप में ही दर्शाया जाता है। ऐसी उत्तेजक’, ‘कामोद्दीपक’, ‘अश्लीलऔर नग्नतम मुद्राओं में, जो व्यक्ति को भूखी और नोचतीआंखों में बदल दे और स्त्री-देह को भोग्य वस्तु में। यौन विकृतियों के विषैले बीज, ऐसे ही फलते-फूलते रहे हैं- पीढ़ी-दर-पीढ़ी।

बाहर भूखी और नोचतीआंखों से बचाने के लिएही स्त्रियों को बुर्के या घूंघट में (ताला) बंद किया जाता रहा है और अनेक प्रतिबंध लगाए गये हैं। लेकिन घर में कैद स्त्री भी कहां सुरक्षित हैं। पिता, चाचा, मामा या ससुर की भूखी और नोचतीनिगाहों का कोई क्या करे! घरेलू हिंसा या यौन हिंसा और यौनशोषण से बचाव के लिए सुनारिन’, ‘मालती’, ‘रशीदा’, ‘सल्लो’, ‘फूफीऔर बब्बन की मांआखिर कहां जाएं? क्या करें? चुपचाप सहती रहें, खटती रहें और गुमनाम मरती रहें या मारी जाती रहें। नहीं तो फूफी की तरह रूंधे कंठ से बड़बड़ाती रहे ‘‘अल्लाह, मुझे उठा ले तो इस रोज-रोज की दांता किट किट से राहत मिले... या ऐसा करो, यह हर बार नोंचने के बदले, तुम सब मुझे जहर दे दो...’’ (पृष्ठ-261) या फिर  बब्बन की अम्मी की तरह कड़वाहट भरे शब्दों में कहती रहे ‘‘अब मेरा गोश्त रह गया है खाने के लिए, तुम सब लोग बैठकर उसे भी चीथ डालो...’’ ( पृष्ठ-178) यह सब नहीं तो बिट्टी उपर्फ बी-दारोगिन की भांति आत्मसमर्पण करते हुए स्वीकार कर ले ‘‘एक मुट्ठी भात और गज भर कपड़ा... बस मेरे जीने के लिए इतना काफी है।’’ ( पृष्ठ-28) 




काला जलमें बब्बन अपने पिता की पेटीसे निकाल कर गंदी तस्वीरों वाली किताबसल्लो आपा तक पहुंचाता है। ऐसे ही सूखा बरगद’ ( मंजूर एहतेशाम) में शोबिया एक किताब शाहिदा आपा के यहां देखती है ‘‘सूपड़े के नीचे से एक किताब हाथ में आ गई। मैं नहीं सोचती कि उस सबकी जो मुझे नजर आया मैंने कभी किसी किताब के साथ कल्पना भी की हो। लिखा क्या था, पढ़वाना तो संभव था ही नहीं, जो चित्रकारी थी- आदमी-औरत अलग-अलग तरह से एक-दूसरे के साथ-वही मेरे होश उड़ा देने के लिए काफी थी। ...शाहिदा आपा? वह आदमी?? अकेले घर में? मेरा दिमाग लपक कर किताब के उन पन्नों पर चला गया। छी!! कैसी बेहूदा किताब थी! वह सब फोटो-क्या और क्यों हो रहा था उन पन्नों पर? कहीं ऐसा भी कोई करता होगा? क्या शाहिदा आपा और वह आदमी इस समय वही सब... छी! ...छी! ...और न जाने कितने समय के लिए किताब के वह गंदे पन्ने, वही गंदी हरकतें, गंदी शाहिदा आपा मेरे दिमाग में जाले बुनते रहे।’’ ( पृष्ठ-28-29)

कालाजल’ ( 1965) से लेकर सूखा बरगद’ ( 1986) तकसेक्स इज सिनकी मानसिकता और यौन नैतिकता संबंधी सामाजिक वातावरण और व्यक्तिगत व्यवहार को देखें तो लगभग कोई महत्वपूर्ण बदलाव दिखाई नहीं देता। यौन शिक्षा-दीक्षा का एक मात्रा विकल्प पोर्नोग्रापफीही रह गया है, जो वास्तव में युवा पीढ़ी को सजग-सचेत करने की बजाए यौन विकृतियों की ओर धकेलता है। पुरुषों की भूखी और नोचतीआंखों को पढ़ने-समझने और यौन हिंसा की शिकार स्त्रियों की पृष्ठभूमि जानने के लिए पोर्नोग्राफीके प्रभाव से परिणाम तक को भी सूक्ष्मता से पढ़ना जरूरी है। काला जलमें शानी पोर्नोग्रापफी’, ‘सेक्स एंड वायलेंसके तमाम अंतर्संबंधों को भी समझने-समझाने की प्रक्रिया में पात्रों के चेतन-अवचेतन में जमी काई खुरच-खुरच कर परखते हैं। इसके साथ-साथ सामाजिक-धार्मिक-आर्थिक तनाव, दबाव और दमन के बीच, बनते-बिगड़ते व्यक्तित्वों और संबंधों के आपसी सूत्रों को भी पकड़ते हैं। आर्थिक रूप से पिछड़े बन्द समाजों ( रूढ़िग्रस्त, अंधविश्वासी और मर्यादित) में दमित और कुंठित पुरुषों की हिंसा ( यौन हिंसा) का सबसे अधिक शिकार उनके अपने घर-परिवार की ही स्त्रिायां (विशेषकर पत्नी या पुत्री) होती हैं, क्योंकि उनकी स्थिति घरेलू गुलामजैसी ही है। विकसित समाजों में स्त्री, घर में ही नहीं बाहर भी पुरुष हिंसा की संभावित शिकार बनी रहती है। काला जलकी तमाम स्त्रियां अपने ही घरों में असुरक्षित और आतंकित रहती हैं। फांसी घरमें कैद सजायाफ्रता कैदी की तरह भाग निकलने या बचने का कोई रास्ता नहीं।

आधा गांव’: ताजा-ताजा ( गर्म) गुड़ सी औरतें 
काला जलके कुछ ही समय बाद प्रकाशित आधा गांव’ ( राही मासूम रजा) में स्त्री की तुलना ताजा गुड़’, ‘लंगड़ा आमऔर दहकती अंगीठीया कच्चा अमरूदसे की गई है, जो मूलतः सामंती शब्दावली है। स्त्री को दास, वस्तु या भोग्य समझने वाली मानसिकता के ही परिणाम है कि दुलरिया बाईस-तेईस साल की कसी कसाई लड़की थी... वह जिधर से टोकरा लेकर गुजर जाती, उधर रास्तों की शाखों में आंखों की हजार कलियां खिल जाती, दरवाजे बांहें बन जाते और बंसखटो में नब्जें धड़कने लगती।’ ( पृष्ठ-112) झंगटिया बो की देह काली मगर बला की खूबसूरतसौंधी और मीठी थी। बिल्कुल ताजा-ताजा गुड़ की तरह, जिसमें अभी भाप निकल रही हो।’ ( पृष्ठ-42) सैफुनिया नाइन की लंगड़े आमों की तरह तैयार छातियां बारीक कुरते के अंदर चोली से निकल पड़ रही थीं और सब्ज चूड़ीदार पाजामें का सुर्ख नेफा और नेफे से उपर का सारा धड़ नजर आ रहा था’ ( पृष्ठ-135) इसके विपरीत जुलाहिन कुलसुम में क्या रखा है? उसकी कसी कसाई कच्चे अमरूद जैसी छातियां लटक चुकी थी’ ( पृष्ठ-225) दुलरिया ( भंगन) है, तो झंगटिया बो ( चमारिन)। कुलसुम ( जुलाहिन) है और सैफुनिया नाइन। मतलब चारों निम्न जातियों की स्त्रियां हैं, जो अभिजात्य वर्ग के पुरुषों के उपभोग के लिए उपलब्ध ही नहीं, बल्कि उनकी ही प्रतीक्षा में ( तैयार’) खड़ी हैं। एक ताजा-ताजागुड़की तरह अछूतीऔर गर्महै, तो दूसरी लंगड़े आम कीतरह तैयार’- भोगे जाने के लिए प्रस्तुत। तीसरी तो दहकतीअंगीठी से कम नहीं? ‘कच्चे अमरूदजैसी ( लटकी) छातियों मेंअब क्या रखा है? यह एक बड़ा अन्तर है काला जलऔर आधागांवकी भाषा, दृष्टि और मानसिकता में। काला जलमें जल भीगी छातियांहैं, मगर स्त्री की ही हैं और छातियां हैं। आधागांवकी भाषा में तो वे ताजा-ताजा ( गर्म) गुड़समझी जा रहीहैं या लंगड़े आम की तरह तैयार’ ( उपभोग के लिए आतुर)छातियां और दहकती अंगीठीसी कामातुर औरत मानी जा रही है।

घर-परिवार और समाज में किसी भीविवाहित स्त्री का बांझहोना सबसेबड़ा अभिशाप’ ( अपराध) है, भलेही पति नपुंसक हो। स्त्री जीवन कीएकमात्र सार्थकता उसका मातृत्व हीमाना-समझा जाता है। वह अगर पतिको उत्तराधिकारी नहीं दे सकती या देपाती, तो प्रायः सबके लिए अवांछितऔर बेकार का बोझ बन जाती है।अपमानजनक उपेक्षाओं और अकल्पनीयसदमों से भीतर तक आहत औरव्यथित, ऐसी स्त्री की मानसिकउथल-पुथल का अनुमान लगाना भीमुश्किल है।
 ‘काला जलकी स्त्री आधा गांवपहुंचते ही,एक यौन रूपकमें बदल दी जाती है। स्त्री और देह के प्रति ऐसी रीतिकालीन, अपमानजनक भाषा-परिभाषा सचमुच शर्मनाक है। साहित्य केआधुनिक युग में भी नारी के उपभोग्या रूप का रस ले-लेकर, कबतक चित्रण-वर्णन करते रहेंगे? कब तक दोहराते रहेंगे आखिरगोपी-पीन-पयोधर-मर्दन-चंचल कर युगशाली। क्या उन्हे अभीभी पर्वत पृथ्वी के उरोजों-से दिखाई देते हैं? खैर... मुंह बोली बेटी को जवान होने पर अपनी पत्नी बनालिया है सुनार-बैद्य ने और पत्नी को घर से निकाल दिया है लेकिनचरित्र पर हरदम संदेह करता रहता है। अपनी यौन अक्षमता कागुस्सा, पत्नी पर निकालता है। पत्नी जब कहती है ‘‘ऐसा ही है तो मुझे परदा में बैठा दे... ताले में बंद रख। मेरा उठना-बैठना, चलना-फिरना, कहीं आना-जाना पाप हो गया। न मरने दे, न जीने’’ तो सुनार गाली-गलौच और मारपीट पर उतरता हुआ कहता है‘‘जैसे तू तो सती सावित्री है। दिनभर दरवाजे के पास खड़ा होकरलौंडों को तो मैं ही ताकता हूं। छिनाल बना बहाने, दस बारनिकल-निकल कर देख अपने यारों को और झोंक मेरी आंखों मेंधूल! जवानी एक तुझी पर ही आई है! जब देखो, छाती उछालती, चटकती-मटकती चली जा रही है। साली, किसी दिन तेरे ये दूधके काटकर न फेक दूं तो कहना। न रहे बांस न बजे बांसुरी...’( पृष्ठ-12)

पति ( सुनार) को पत्नी सती सावित्रीजैसी चाहिए। छिनालका घर-परिवार में क्या काम! खुद जो मर्जी करे-कोई कहने-सुननेवाला नहीं। पति है इसलिए मारना-पीटना या दूध के काट करफेंकने की धमकी देना, उसका जन्मसिद्ध अधिकारहै। पत्नी
प्रतिवाद करती है, तो हथौड़ी (या डंडे) से मार-मार कर हड्डियांतोड़ दी जाती है। अंततः बीच बचाव में अड़ोसी-पड़ोसी आते हैं,तो पति जलती हुई आंखोंसे घूर कर चिल्लाता है-  ‘‘अरे, यहांक्या (तमाशा’) देखते हो। जाओ, अपनी-अपनी मां-बहनों की देखो...!’’ सब चुप। किसी ने भी एक शब्द नहीं कहा’ – पीठपीछे जितनी मर्जी थुक्का-फज़ीहतहोती रहे या औरतें कोसती रहेंनासपीटा बुड्ढा आखिर बुरी मौत मरेगा। देह से कोढ़-रोग न फू टेतो कहना...’ ( पृष्ठ-14) पति के पास सदियों से एक तर्क यह भीतो रहा है कि मेरी पत्नी ( बीवी, घरवाली, संपत्ति) है... मैं मारूं. .. पीटूं या प्यार करूं, तुम बीच में बोलने-रोकने-टोकने वाले कौन( क्या) होते हो? शेष समाज के लिए यह सब उनका आपसीघरेलू मामलाहै या ये तो लड़-झगड़ कर फिर एक हो जाएंगे, हमक्यूं बेकार बुरेबने! भारतीय गांव-देहात से लेकर नगरों-महानगरों तक में, आज भी क्या ऐसी ही स्थिति नहीं बनी हुई है?पति के हाथों अधिकांश पत्नियां प्रायः रोज पिटती या पीटीजाती हैं। कारण एक नहीं अनेक हैं। व्यक्तिगत कुंठाओं, असमर्थताओं,विवशताओं और असफलताओं से लेकर पुरुष ( मर्द, मालिकस्वामी, पति परमेश्वर) अहं तक। पितृसत्तात्मक समाज व्यवस्था मेंमर्द-औरत को अपने पांव की जूतीसमझता ( रहा) है। जो नहींसमझता वो साला, जोरू का गुलामहै नामर्द’, ‘हिजड़ा’...इससंदर्भ में शानी, कलम का इस्तेमाल जूते की तरह करते हैं।

औरत की मुट्ठी में भरी गीली मिट्टी 

चरित्र पर संदेह के कारण आपसी झगड़ेमें सुनारिन शारीरिकउत्पीड़न झेलती है, तो ज़हीरा भाभी मानसिक प्रताड़ना। शायद इसीवजह से स्वास्थ्य, चेहरा-मोहरा, पहनाव-उढ़ाव सब कहींआश्चर्यजनक बदलाहट आ गई है। बात-बात में खिली रहने वालीआंखों के नीचे स्याही पड़ गई है। और जो गाल हमेशा प्रसन्नता केमारे दहकते रहते थे, वे मुरझाये पत्ते की तरह अल्लर लगते हैं। नवे होंठ हैं, न होंठ में जमे रहने वाले पान...’’ ( पृष्ठ-129-130)
जहीरा भाभी के शब्दों में ‘‘शादी के दस बरस गुजार दिए,कभी कोई बात नहीं हुई, पर अब बीसियों तरह के नुक्स निकालतेहैं कि मोटी हूं, बांझ हूं, बिला वजह चर्बी चढ़ाए जा रही हूं... परमैं इनमें से किसी बात का बुरा नहीं मानती, क्योंकि यह सच हैकि मैंने उन्हें कुछ नहीं दिया। जिसका सबसे अधिक सदमा मुझेहै, वह यह कि जिन दिनों करना था, तब तो किया नहीं, अब शकके मारे अंधे हो रहे हैं। बाहर निकल जाने का बहाना करते हैं औरकहीं पास-पड़ोस में छिप कर देखते रहते हैं कि मैं क्या करती हूं।दौरे की बात कह कर चले जाएंगे और अचानक आधी रात को आकर धीरे-धीरे दरवाजा खटखटाएंगे या इशारा करने के ढंग परसीटियां बजाएंगे... ऐसे में क्या मन होता है, बताउ? यह कि बिनाकिए ही इल्जाम पाने से तो करके बदनाम होना ज्यादा अच्छा है।एक बेचारी रशीदा थी।’’ ( पृष्ठ-132)


घर-परिवार और समाज में किसी भी विवाहितस्त्री काबांझहोना सबसे बड़ा अभिशाप’ ( अपराध) है, भले ही पतिनपुंसक हो। स्त्री जीवन की एकमात्र सार्थकता उसका मातृत्व हीमाना-समझा जाता है। वह अगर पति को उत्तराधिकारी या पुत्राधिकारीनहीं दे सकती या दे पाती, तो प्रायः सबके लिए अवांछित औरबेकार का बोझ बन जाती है। अपमानजनक उपेक्षाओं और अकल्पनीयसदमों से भीतर तक आहत और व्यथित, ऐसी स्त्राी की मानसिकउथल-पुथल का अनुमान लगाना भी मुश्किल है। जहीरा भाभी कायह कहना कि बिना किये ही इल्जाम पाने से तो करके बदनामहोना ज्यादा अच्छा है।दरअसल एक निर्दोष - दंडित व्यक्ति कीप्रतिक्रिया है, जो अंततः प्रतिशोध स्वरूप आत्मघाती भी हो सकतीहै और हिंसक भी।

जब जहीरा भाभी को घूरते हुए रूखाई सेबी. दरोगिन कहतीहै ‘‘तुम्हें भी क्या घर में काम-धंधा नहीं है? बैठ गई तो घंटों बैठगई।’’ तब जहीरा भाभी का चेहरा अपमान और क्रोध के मारेतमतमा जाता है। लेकिन हंसकरकोई मीठा साजवाब देते हुए
 ‘गर्दन झुकाकरबाहर चली जाती है। मगर जाहिरा अपमान औरक्रोधको कब तक झूठी हंसी से दबाती रहेगी? एक न एक दिनअपमान और क्रोधका ऐसा विस्पफोट होगा कि सब देखते रहजाएंगे। कब, कहां और कैसे होगा - कहना कठिन है।जहीरा भाभी के अतिसंवेदनशील मन और दमित व्यक्तित्व कोसहानुभूतिपूर्वक समझते हुए ही, उसकी व्यथा-कथा और वेदना कोसही परिप्रेक्ष्य में पढ़ा जा सकता है। शानी अपने पात्रों के दुःख-दर्दको जितनी हमदर्दी से पढ़ते-समझते हैं, उतनी ही बेचैनी और पीड़ासे अभिव्यक्त भी करते हैं। कभी शब्दों में, कभी संकेतों में औरकभी अलिखित मौन में। उदास-निराश-हताश चेहरों का इतिहासजानने-पहचानने की तकलीफदेह प्रक्रिया से गुजरते हुए लेखक,स्वयं अपने को और अपने समय और समाज को तलाशने-तराशने का बीड़ा उठाता है। स्त्री पात्रों के प्रतिसहानुभूति ही नहीं बल्कि गहरा स्नेहऔर सम्मान भी साफ झलकता है।
पुरुष मानसिकता में रची-बसी मांसलता
से मुक्त हुए बिना कालाजलकासृजन असंभव है। गहरे सरोकार औरसंस्कार के बिना, स्त्री संसार कासन्नाटा और सूनापन महसूस ही नहींकिया जा सकता।नारी जीवन की विडम्बना औरसामाजिक संरचना के पूरे ताने-बानेको उधेड़ते हुए जहीरा भाभी एकजगह कहती हैं, ‘‘कभी-कभी मैं सोचतीहूं कि हम लोगों की जिन्दगी काकितना हिस्सा धोखे-धोखे में ही निकलजाता है! शायद इतना ही देखकर हमलोग संतोषपूर्वक आंखें मूंद लेती हैं कि हथेलियां खाली नहीं हैं,जबकि कई बार उनमें गीली मिट्टी भरी होती है। ऐसी गीलीमिट्टी जिसे मुट्ठी में बंद करके रखना कभी संभव नहीं होता।पकड़ने के लिए उसे जितना ही दबाओ, उतनी ही वह पकड़ केबाहर होती जाती है।’’ ( पृष्ठ-131) पारिवारिक ही नहीं बल्किअन्य सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक क्षेत्रों में भी देखें तो यहबात एकदम सही लगती है कि स्त्रियों की मुट्ठी में सिर्फ गीलीमिट्टी की तरह भरे हैं - तमाम मौलिक अधिकार, जीने कीआजादी और मुक्ति के सपने।जहीरा भाभी के समानान्तर ही याद आती है चारों ओर सेनिपट अकेली और अभागिन बिलासपुर वालीजिसे मिर्जा करामतबेगके लिए बी दारोगिन स्वयं ही बिलासपुर से किसी मुस्लिम खानदानसे ब्याह लायी थी। लेकिन बिलासपुर वाली दो बार मां बनी, परऐसे नसीब कि दोनों बार गोद सूनी हो गई और सारे आंगन में बीदारोगिनका बेटा रोशन ही अंत तक खेलता रहा।’’ ( पृष्ठ-38)मिर्जा साहब की मृत्यु के बाद बी. दारोगिन ने अपनी सौत कोइतना परेशान किया कि वह घर छोड़कर चली गई।’ ( पृष्ठ-43) 

यह जानते-समझते हुए कि
किसके मां-बाप आज के जमाने में जवान बेटी को जिन्दगी-भर पालते हैं।’ ( पृष्ठ-43) पूछो तो बी दारोगिनहंसती है ‘‘जवान औरत है, कब तक मिर्जा के नाम कीमाला जपती बैठी रहेगी?’’ ( पृष्ठ-45)निसंतान विधवा का ससुराल में क्या हक? यहां तो पुत्रवतीसौत भी मौजूद है। मायके में जिन्दगी भरपालेगा कौन? सच यहभी तो है कि बेटी के मां-बाप तो उसी दिन मर जाते हैं, जिसदिन डोले में बैठकर निकल आती है...’ ( पृष्ठ-103) हिन्दू हो या मुस्लिम क्या फर्क पड़ता है! हिन्दू समाज में तो विधवा (विशेषकरनिःसंतान) के लिए सतीसे लेकरवृंदावन के विधवा आश्रमों तक कापुख्ता प्रबंध किया ही गया है। ऐसे मेंजहीरा भाभी या बिलासपुर वाली काभविष्य बताने के लिए किसीज्योतिषाचार्यकी जरूरत नहीं। हरकोई जानता है कि निःसंतान (विधवा)स्त्री की नांव कब, कहां, कैसे डूबजाएगी! और लाश तक बरामद नहींहोगी – गिद्ध-चील नोच खायेंगे।




बेटियों से बलात्कारसुनारिन मुंहबोली बेटी है, जिसेसुनार पत्नी बना लेता है और मालतीभी रज्जू मियां के यहां बेटी की तरहही पली-बढ़ी है। लेकिन जवान होनेपर मालती रज्जू मियां की हवस का शिकार बनती है। गर्भवती होनेका भेद खुलता है तो बी. दारोगिन उसकी जम कर पिटाई करतीहै और उसी शाम मालती घर से निकल (निकाल दी) जाती है। बचपन में ही मालती की मां किसी के साथ भाग गई थी औरबच्ची को रज्जू मियां अपने घर ले आए थे। बी. दारोगिन ने भी खुशहोकर कहा था अच्छा किया, जो ले आए। जाने बेचारी किसकेहाथ पड़ जाती और उसकी क्या दुर्गति होती!’ ( पृष्ठ-118) रज्जूमियां के हाथों पड़कर भी क्या दुर्गतिनहीं हुई। मालती जैसीरूपवती, स्वस्थ-साफ और धुली दूब-सी निखरी-निखरी औरहंसमुखजवान लड़की पर रज्जू मियां की लार टपकी पड़ रहीथी’ - न जाने कब से। उपर से बेचारी सीधी-सादी अनाथ सी लड़कीएक दिन दोपहर में फूफी ने देखा था रज्जू मियां के कमरेकी चौखट पर भीतर से निकलकर मालती हांफती सी खड़ी है।नहीं, वह खड़े होना न था, या तो एक पल के लिए ठहरकरइसे साहित्य सृजन की शालीनताकहेंया बोल्डनेसका अभाव? पूरे उपन्यासमें लेखक ( तमाम गुंजाइशों के बावजूद)शब्द संयम बनाए-बचाए रहते हैं। लगताहै जैसे किसी मामले की गहरीजांच-पड़ताल के दौरान, तमाम गवाहों के बयान दर्ज करते चले गए हों औरचार्जशीटतैयार (या दायर) करनेकी जिम्मेदारी पाठकों पर छोड़ दी हो।हर तथ्य-सत्य को दर्ज करते हैं -सूत्र-दर-सूत्र मिला कर पढ़ने-समझनेका उत्तरदायित्व आप पर है।सुस्ताहट की सांस भरना या गलत जगह देखे और पकड़े जाने कीअचकचाहट थी।’ ( पृष्ठ-124) 

एक दिन फिर रज्जू मियां के कमरे
मेंसफाई करते समय फूफी ने देखा था ट्रंक के किनारे एक उतरा हुआ पेटीकोट ऐसे गोल पड़ा है जैसे कमर के नीचे सरकाकरकिसी ने अपने पांव हटा लिए हों... बी. पेटीकोट पहनती नहीं...कुछ दिन पहले जिस पेटीकोट को उन्होंने मालती को पहनते हुएदेखा था वह हू-ब-हू ऐसा ही था - यही सफेद रंग, रेशमी धागे से कढ़े हुए, अनसधे हाथों के फूल-पांख और क्रोशिये के कामवाला निचला बार्डर...’ ( पृष्ठ-123) फूफी को एकाएक रशीदाकी याद आ गईऔर बिल्कुल न सोचने के लिए अपने सिर कोझटककर बिस्तर की ओर बढ़ गई।’ ( पृष्ठ-123-124)रज्जू मियां और मालती के बीच देह संबंधों को शानी ऐसी हीसांकेतिक भाषा में उजागर करते हैं।
जब मालती का जूड़ाटेढ़ा होकर बेलमोगरा की सजधज को खोल देता और फूलों कीएक भीनी-सी गंध फूफी तक सरक जातीतो उन्हें याद आता किससुर ( रज्जू मियां) के बिस्तर समेटने-धरने के दौरान, सिरहाने सेजो कुछ चीजें गिरी थीं, उनमें अधजली बीड़ियों, दियासलाई कीतीलियों और खपरैल से गिरे कचरे के साथ बेलमोगरा के कुछबासी और सूखे फूल भी थे।’ ( पृष्ठ-125) मालती के जूड़े मेंबेलमोगरा के कुछ बासी और सूखे फूलोंके बीच ही कथा केमहत्वपूर्ण सूत्र, कड़ियां और अर्थ मौजूद हैं। फूफी की पारिवारिकस्थिति ऐसी है कि वह इस बारे में कुछ भी सोचना तक नहीं चाहती। 

जब मालती
नाली के पास बैठकर कै करने लगीतो फूफीफटी-फटी आंखों से खिड़की के बाहर ताकने लगी’, रज्जू मियांउल्टी की आवाज से बुरी तरह चौके और सफेद होते चेहरे सेउन्होंने मालती की ओर देखाऔर बी जहां की तहां ऐसे रूक गईजैसे काठ मार गया हो। ( पृष्ठ-125) मालती असहाय-सीताकती हुई हांफती रही। चेहरा घुटनों में धंसाकर छिपा लिया।फूफी ने फंसे गले से सिर्फ इतना कहा यह क्या कर लिया तूने,हरामजादी?’ और उसके पास बैठ गई। दोपहर में बी. दारोगिनमालती को मारते-पीटते हुए चीखती चिल्लाती रही मैं तेरा गलाघोंट दूंगी, हरामजादी! रण्डी, बाजारू, किससे पेट भराया है...मालती बंद कमरे में घंटों पिटती रही, कराहती रही लेकिन जबाननहीं खोली। बी ने अंततः टूटे स्वर में कहा ‘‘हम तो तेरे भले केलिए कह रहे थे, नहीं समझती तो भाड़ में जा लेकिन रोशन केआने से पहले यहां से अपनी मनहूस सूरत जरूर हटा लेना। वहकहीं देख-सुन ले तो तेरी जान ले लेगा...’’ ( पृष्ठ-126) उसीशाम मालती घर से चली गई। बिलासपुर वाली की तरह मालतीभी न जाने कहां गई ? क्या हुआ?? किसे पडी थी पता करने की!रतिनाथ की चाची’ ( नागार्जुन, 1949) में विधवा गौरी अपनेविधुर देवर जयनाथ की कामवासना का शिकार होकर गर्भवतीहो जाती है और गांव का सारा समाज उसका बहिष्कार करता है।बेटा उमानाथ उसे पीटता है, परन्तु गौरी मरने तक जयनाथ कानाम नहीं बताती।

भले ही घंटों पिटने पर भी मालती ने कोई नाम न लिया-बताया हो मगर बी. दारोगिन भी सच जानती समझती है। बाद मेंएक दिन बायें हाथ को हंसिया चलाने की तरह चमकाकर कहतीहैं (रज्जू मियां से) ‘‘अब तुम मेरी जबान न खुलवाओ, वरनातुम्हारी सारी शराफत यहीं खोलकर रख दूंगी और कोई भीआए-जाए, तुम्हें तांक-झांक करने की क्या जरूरत? यही हैशराफत! कहे देती हूं, मुझसे तुम्हारा कुछ भी छिपा नहीं, राई-रत्तीहाल जानती हूं। अरे, शराफत होती तो उसी दिन चुल्लूभर पानी में डूब मरे होते जिस दिन...’’ ( पृष्ठ-133) शानी जी नहीं बतातेकिस दिन (?) मगर अगले ही क्षण दर्ज करते हैं ‘‘उस रात एकक्षण के लिए भी रशीदा का चेहरा फू फी की आंखों से नहीं हटा... मालती का फर्श पर लोटता शरीर... जिसके पास बेलमोगरा केसूखे फू ल पड़े हैं।’’ ( पृष्ठ-133) और साफ है कि अकेले रज्जूमियां कटघरे में खड़े हैं। तमाम गवाह और सबूत उनके खिलाफ हैं।सचमुच शानी एक बेजोड़ कथा शिल्पी हैं और शिल्प एकदमअनूठा। रज्जू मियां का बयान ‘‘माफी मांग सकूं, ऐसा मुंह भी अबमेरे पास नहीं है।’’ ( पृष्ठ-134) संदेह के सारे पर्दे हटा देता है। 




जीते-जी कब्र में पड़ी रशीदा
सुनारिन और मालती की ही तरह रशीदा अपने चाचा की यौन
कुंठाओं और विकृतियों की संतुष्टि का सुख साधनबनने कोविवश होती है। मगर एक रात अपने शरीर पर किरासिन तेलछिड़ककर जल मरती है। ‘‘रशीदा बेचारी का बाप नहीं रह गया,चाचा के पास रहती है। लेकिन चाचा खुद दोजख का कीड़ा है।उसकी शादी-ब्याह करता नहीं, बेचारी कुंआरी ही बूढ़ी हो रही है।जो भी पैगाम लेकर पहुंचता है, उसे गाली-गलौच करके निकालदेता है। सारी बिरादरी में मशहूर कर रखा है कि मुनासिब लड़केमिलते नहीं, लेकिन हकीकत कुछ और है - ऐसी कि मुंह पर आतेही जबान कट कर गिर जानी चाहिए... इन्सान होकर ऐसी क्यानियत कि सगी बेटी का रिश्ता भुला दिया जाए? आदमी औरजानवर में आखिर फर्क क्या हुआ?’’ ( पृष्ठ-109-110) रशीदारो-रोकर बताती है ‘‘जीते-जी कब्र में पड़ी हूं’’ और सुनने वालेखीझते हुए सलाह देते हैं ‘‘कब तक ऐसी गुनाह की जिन्दगी कोढोती फिरेगी, नदी-तालाब तो नहीं सूखे, जहर तो दुनिया से उठनहीं गया?’’...रशीदा देखने में लंबी और दुबली। ‘‘आंखें बड़ी-बड़ी और सुन्दरथी लेकिन उनमें आकर्षण का सिरे से अभाव था। बाल छोटे-छोटेसीना मर्दों की तरह सपाट और चेहरे की बनावट में बीमारियत...सचमुच उसे कुंआरी कौन कहेगा?... बिल्कुल निर्विकार और भावहीनचेहरा, जैसे झाड़ की छाया में पड़ा, मरा हुआ पत्ता...’’ ( पृष्ठ-108) 

जहीरा भाभी का फूफी के सामने बयान है
उस हादसे से एक हफता पहले मेरे पास आई थी... उस दिन भी बड़ी देर तकरोती रही कि उसे मौत नहीं आती। घंटों बैठकर मुझे रोज-ब-रोज काहाल सुनाती रही और अपना साराजिस्म खोलकर दिखाया। ...घुटनों सेलेकर गले तक, जगह-जगह उसनेअपने शरीर को आग से भून डालाथा। ( इस तरह जल-भुनकर शायदवह समझ रही थी कि खुदा उसकेगुनाहों को माफ कर देगा) कहनेलगी- मैं चाहती हूं कि मेरा जिस्मबदसूरत हो जाए - इतना बदसूरत किउसमें हाथ तक न लगाया जा सके।मैंने रोकर कहा कि रशीदा, यह तूनेक्या कर लिया? बोली - जीते जीदोजख भोग रही हूं।’’ ( पृष्ठ-130)जब से रशीदा मरी है जहीरा भाभी कोबिल्कुल चैन नहीं। ‘‘रात को ठीक सेनींद नहीं आती। अंधेरा होते ही अजीबबेचैनी और घबराहट शुरू हो जाती है।कहीं थोड़ी देर के लिए आंख लगती है, तो रशीदा को ही सपने में देखतीहै।’’ ( पृष्ठ-131)फूफी के बयान में लिखा है ‘‘भाभी ने रशीदा के जीवन-कालमें उसे आत्महत्या करके गुनाही की जिन्दगी खत्म करने की सैकड़ोंबार सलाह दी थी। वह चाहे भावावेश में हो अथवा क्रोध में आकर संवेदना के कारण और (मगर) आज जब रशीदा सचमुच वह सबकर गई, तो भाभी भीतर से भीरू और अपराधी बन गई हैं।’’( पृष्ठ-131) ऐसे में जहीरा भाभी का अपराधबोध स्वाभाविक हीलगता है। 

सुनारिन
, मालती और रशीदा के यौन-शोषण कीव्यथा कथाका कोई अन्त नहीं। चालीस-पचास साल बाद के तथाकथितआजाद देश और सभ्य समाज में भी यौन हिंसा के आंकड़े लगातारबढ़ते ही गये हैं। अधिकांश मामलों में युवतियों से बलात्कार उनकेअपने ही पिता, भाई, चाचा, ताउफ, मामा, जीजा या निकट संबंधीऔर पड़ोसी द्वारा किये जाते (रहे) हैं। तब अपराधों को घर केआंगन में ही गड्ढा खोद कर दबा दिया जाता था, अब कुछ मामले( 20-25 प्रतिशत) पुलिस स्टेशन से कोर्ट-कचहरी तक भी पहुंचजाते हैं और लगभग 96 प्रतिशत बलात्कारी और हत्यारे बाइज्जतबरी हो जाते हैं या संदेह का लाभपाकर छूट जाते हैं। स्त्रियां नघर में सुरक्षित हैं और न बाहर। सबसे अधिक हिंसक और असुरक्षित है - देश की राजधानी दिल्ली - नई दिल्ली।

इसके
बावजूद एक सिद्ध-प्रसिद्ध-वयोवृद्ध ( कथाकार- सम्पादक-विचारक)का कहना-मानना है ‘‘दुनिया की हर खूबसूरत लड़की चाहती है कि उसकेसाथ रेपहो... रेपका आधा मजातो वह लोगों की भूखी निगाहों औरतारीफ के फिकरों में लेती ही है।डरती वह उस घटना से नहीं है बल्किउसके तो सपने देखती है। वह डरतीहै उस घटना को दूर खड़े होकर देखने वालों की आंखों से, तमाशबीनों से।’’रशीदा के चाचा-ताउफ अभी भी जिन्दा’ हैं। तसलीमा नसरीन ने मेरे बचपन केदिनमें लिखा है कि बचपन मेंउसका यौन शोषण उसके शराफ मामाऔर अमान चाचा ने ही किया था।
क्रमशः 

देह दोहन का अधिकार! उर्फ ‘दास्ताने लापता’ : ( दूसरी क़िस्त कालाजल )

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अरविंद जैन
स्त्री पर यौन हिंसा और न्यायालयों एवम समाज की पुरुषवादी दृष्टि पर ऐडवोकेट अरविंद जैन ने मह्त्वपूर्ण काम किये हैं. उनकी किताब 'औरत होने की सजा'हिन्दी में स्त्रीवादी न्याय सिद्धांत की पहली और महत्वपूर्ण किताब है. संपर्क : 9810201120
bakeelsab@gmail.com
रशीदा की तरह ही ‘दास्तान ए लापता’ ( मंजूर एहतेशाम, प्रथम संस्करण 1995) की अनीसा अपने मामू की वासना, यौन लिप्सा और यौन विकृतियां शान्त करने का साधन बनने को मजबूर है। दस साल की उम्र में (1953 में) अनीसा को मामूं के यहां रहना पड़ता है क्योंकि मां-बाप की अचानक मृत्यु हो जाती है। मामूं प्राइमरी स्कूल में टीचर हैं। ‘मुमानी मामूं को यौन सुख देने में समर्थ नहीं थी’ और ‘उन्हें सेक्स शब्द से ही घृणा हो गई थी’ इसलिए ‘मामूं का छूना तक गवारा नहीं रहा था।’ मामूं अपनी ‘उत्तेजना शांत करने के लिए’ जहां भी पहुंच सकते थे, अपना ‘मुंह मारते फिरते थे।’ समय और अनुभव ने मुमानी को बहुत कड़वा बना दिया था और मामू के पापों को गिनाते हुए अनीसा को ‘सावधान रहने की सलाह’ और मामूं के ‘भयानक प्लानों की चेतावनी’ देती रहती थी। उधर सचमुच मामूं अपने मनसूबे के तहत अनीसा को ‘धीरे-धीरे कल्टिवेट करते रहे’ और एक दिन मौका पाकर उन्होंने अपने ‘मन की मुराद’ भी पूरी कर ली। इसे उचित ठहराने के लिए या अनीसा को आत्महत्या की ओर जाने से रोकने के लिए या फिर  यौन हिंसा के बारे में बदली मानसिकता दर्शाने के लिए लेखक अनीसा ( सिगरेट और शराब पीती) का बयान यूं दर्ज करता है- ‘‘क्या कह कर याद करूं मैं अपने इस अनुभव को? घिन, नफरत, पाप यह सब तो शब्द हैं, कभी मजबूर होकर तो कभी मजबूर करने को दिमाग में आते हैं। ..उस पल का अपना रोमांच था और जो कुछ हुआ वह तय किया हुआ बहरहाल, मेरा नहीं था। नैतिक-अनैतिक जैसा कोई विभाजन मेरे दिमाग में होता भी तो मैं कर क्या सकती थी उस सूरतेहाल में?’’ मतलब ‘उस पल का रोमांच’ अनीसा की विवशता थी। थोड़ा आगे, बयान स्पष्ट करता है ‘‘मैं मामूं के टुकड़ों पर पल रही थी, मेरी पढ़ाई-लिखाई, कपड़े-लत्ते का खर्चा वह उठा रहा था, तो मेरा इतना दोहन करने का अधिकार भी उसका बनता था। ऐसा नहीं कि ऐसा बस, एक बार हुआ... जी नहीं। पूरे तेरह साल मैं मामूंके साथ रही और उनका एहसान उतारने को उन्होंने जब भी बुलाया, मैं बिना चूं-चरा किए उनके पास गई।’’ ( पृष्ठ-151)

पढ़ें: स्त्री  के सम्मान में  पढ़ा गया फातिहा:‘काला जल' (पहली क़िस्त)

 अगर इस तर्क से देखा जाए जो अनीसा के माध्यम सेरचा-गढ़ा गया है, तो दुनिया के हर पिता या सौतेले पिता या संरक्षक को ‘इतना दोहन करने का अधिकार’ है या होना चाहिए। एक बार लेखक (नायक) को लगता है अनीसा से ‘हमदर्दी जताए या जिन्दगी को इस बहादुरी के साथ जीने के उसके हौसले की तारीफ और ताईद करे।’ मगर दूसरे ही क्षण सोचता है... ‘कहीं ऐसा तो नहीं कि यह सारी कहानी अनीसा की मनगढ़ंत और झूठी हो?’ ( पृष्ठ-151) और फिर  इसी नतीजे पर पहुंचता है कि ‘अनीसा एक छलावा और झूठ थी जिसे समझने में उससे बड़ी गलती हुई थी... सचमुच वह लड़की बहुत बड़ा धोखा थी।’’ ( पृष्ठ-154) क्या अनीसा का बयान लिख-लिखवा लिया गया है – किसी पुलिस अफसर की तरह? इसीलिए सब कुछ झूठ है झूठ।



सल्लो: कब्र में कितना अंधेरा है!
राजेन्द्र यादव के शब्दों में ‘सल्लो आपा हिन्दी उपन्यास के कुछ अविस्मरणीय चरित्रों में से एक है? या ‘मैं’ के किशोर-सेक्स की अभिव्यक्तियां... मगर ‘मैं’ यानी कथावाचक यानी बब्बन कमजोर चरित्र है, पहले वह मोहसिन के प्रभाव से आतंकित, आच्छन्न रहते हैं, फिर  सल्लो आपा के मुग्ध प्यार में...’’ ( पृष्ठ-घ) इस प्रश्न का कोई जवाब दिए बिना ही यादव जी आगे की यात्रा पर किसी दूसरी टेªन में सवार हो जाते हैं। कुछ दूर जाने के बाद उन्हें ‘अविस्मरणीय चरित्र’ यानी सल्लो आपा के बारे में लगता है. .. ‘‘सल्लो घर की चारदीवारियों से बाहर आना चाहती है – निषिद्ध  को अपना कर, यानी अश्लील पुस्तकें देखकर, लड़कों के कपड़े पहनकर, उनकी आदतें और अदाएं अपनाकर... और उसकी इस मासूम, स्वाभाविक छटपटाहट को जिसका अगला रूप रशीदा में है, ( संभवतः) गर्भपात के प्रयास में समाप्त कर दिया जाता है...’’ ( पृष्ठ-घ) न जाने क्यों, उन्हें सल्लो का अगला रूप रशीदा में नजर आता है और किस रूप में नजर आता है? खैर... ‘‘घर भर में सल्लो आपा का व्यक्तित्व सबसे अलग और अनूठा था। लंबा-छरहरा शरीर, सांवला रंग और हंसने से उस पर खिलते हुए कतार से जमे और छोटे-छोटे दांत तथा खूब तीखी नाक।’’ ( पृष्ठ-156) उसके ‘‘शरीर से एक महक उठकर धीरे-धीरे घेरने लगती, जिसका भरपूर एहसास तब होता जबकि वह उठती या हवा को काटती हुई एक झटके के साथ अचानक पास आ बैठती।’’ ( पृष्ठ-166) जिस्म... ‘‘मांसल और भरा हुआ।’’ ( पृष्ठ-25) और ‘सुपुष्ट कंधे, उभरे मांस वाली जवान पीठ।’’ (पृष्ठ-257) उसके कमरे की दीवारों पर ‘‘दो-तीन फिल्मी तस्वीरें एकाध भड़कीले कैलेंडर’’ टंगे रहते। ( पृष्ठ-257-58) ‘खराब ( गंदी) किताब’ की ‘वाहियात तस्वीरें’ देखते समय सल्लो का ‘सारा चेहरा लाल-गुलाल हो गया है, सीना जोर-जोर से उठ-बैठ रहा है, लेकिन ‘तोबा’ कहने के बावजूद, नजर है कि जैसे किताब के पन्नों में चस्पां होकर रह गयी है।’’ ( पृष्ठ-173) मगर कहती है, ‘‘जब तुम देख सकते हो तो मैं क्यों नहीं देख सकती?’’ (पृष्ठ-171) मरदानी पोशाक पहनने पर जब बब्बन प्रश्न करता है, तो सल्लो का जवाब है ‘‘तुम लोग रोज पहनते हो, मैंने सोचा कि लाओ, आज हम भी पहनकर देखते हैं।’’ ( पृष्ठ-250) सल्लो द्वारा सिगरेट पीने पर बब्बन स्वीकारता है ‘‘सच कहूं, मुझे भीतर धक्का लगा। अंग्रेज या विदेशी औरतों के विषय में सुन रखा था कि मरदों की तरह सिगरेट पीती हैं, लेकिन हिन्दुस्तानी और वह भी अपने की लड़की को इस तरह सिगरेट पीते देखूं, यह सपने से भी दूर की बात थी।’’ ( पृष्ठ-251) क्योंकि वह सपनों में ‘विवस्त्रा’ सल्लो का ‘जल भीगा शरीर’ तो देख सकता है, देख सकता है चोरी-छिपे गुसलखाने में नहाती सल्लो को, मगर उसे ‘सिगरेट पीते’ नहीं देख सकता। इन रूपों में देखते-सोचते-स्वीकारने पर ‘भीतर धक्का’ लगता है और सारे सवालों का एक ही जवाब मिलता है ‘‘ आपा के इस साहस (दुस्साहस) के पीछे क्या सस्ती फिल्मों का प्रभाव नहीं है?’’ ( पृष्ठ-253)

‘सस्ती फिल्मों’ और ‘गन्दी किताबों’ का प्रभाव सिर्फ सल्लो परही नहीं पड़ा है - बब्बन के अब्बा से अब तक पीढ़ी-दर-पीढ़ी इस प्रभाव में रही है। पर्दे पर स्त्री को लगातार ‘बेपर्दा’ किया जाता रहा है क्योंकि पुरुषों के यौन मनोरंजन के लिए नग्न स्त्री की उत्तेजक देह छवियां सबसे अधिक मुनाफे का व्यापार है। अरबों-खरबों रुपये-डालर-पौंड का बाजार, जो मुख्यतया मर्दों के हाथ में है। सौंदर्य व्यवसाय की सबसे अधिक उपभोक्ता स्त्रियां है और यौन व्यवसाय के उपभोक्ता पुरुष। इस षड्यंत्र के दुष्चक्र में अधिकांश स्त्रियां शोषित हैं या जाने-अनजाने हुई शिकार। सल्लो इस षड्यंत्र की ही एक और शिकार है। चारों तरफ से बंद खंडहर में कैद सल्लो सांस लेने के लिए एक खिड़की खोलना चाहती है, परन्तु किले की दीवार तोड़ने की कोशिश में ही मारी जाती है। खंडहर भी तो ऐसा है जहां ‘न नयी इमारत बनती है और न पुरानी टूटती है।’’ ( पृष्ठ-10) सल्लो सचमुच बब्बन से बेहद प्यार करती है और इस दिशा में पहल भी, लेकिन बब्बन सल्लो के प्यार में मुग्ध होने के बावजूद ‘कमजोर, भीरू, संकोची और साहसहीन’ ही नहीं, बल्कि संस्कारों की सीलन और गहरे अपराध बोध से भी ग्रस्त रहता है। हीनभावना से उभर ही नहीं पाता। उम्र के सवाल पर मन ही मन विश्वासपूर्वक कहता है ‘‘मैं किस मानी में छोटा हूं और पुरुष नहीं हूं?’’ ( पृष्ठ-258) सल्लो के हर एक स्पर्श में ‘झनझनाती हुई सिरहन’- नशे सी लगती है। एक दिन...’’ अचानक अपनी ठोड़ी पर नरम हथेली की पकड़ महसूस हुई और कान पर दो गर्म-गर्म
होठ एक क्षण के लिए आ टिके। ऐसा करने से उनके (सल्लो के होठों तथा गालों के स्पर्श ने मेरे कानों को भी लमहे-भर के लिए तपा दिया था। सारे शरीर की रगों में एक झनझनाती हुई सिरहन उतर गई और जैसे नशे के बोझ से दोनों आंखें अपने-आप मूंद गयीं।’’ ( पृष्ठ-169) पुरुष ‘थोड़ी देर के लिए सब भूल गया’ मगर...
फिर  कुछ रोज बाद बब्बन ने देखा कि सल्लो के ‘‘चेहरे का रंग फूल-जासनी हो गया है, आंखें नहीं खुलती और मेरी पकड़ का विरोध करता हुआ हाथ निश्चल पड़ गया है। उसके क्षण-भर बाद उन्होंने दोनों हाथों से अपना चेहरा मूंद लिया और सामने झुक गयीं। कुछ क्षण वैसे भी निकल गए, फिर  धीरे-धीरे झुकता हुआ उनका धनुषाकार शरीर मेरे घुटनों के इतने निकट आया कि पहले मैंने हरारत महसूस की और फिर  एक अपरिचित, नरम-नरम तथा मांसल स्पर्श ने रोशनी की-सी तेजी से एकबारगी झकझोरकर, मुझे बिल्कुल अवश कर दिया।’’ ( पृष्ठ-272)



सल्लो के आत्मीय स्नेह, सम्मान और कुछ ‘स्पर्शों’ या ‘मांसल स्पर्शों’ के परिणामस्वरूप ही बब्बन ‘बेचैनी के मारे करवट बदलता’ रहता है और ‘चैबीसों घंटे, सल्लो आपा की तस्वीर आंखों के आगे’ तैरती रहती है - ‘कोई घड़ी खाली नहीं जाती जब उनकी निकटता की चाह न होती हो।’ ( पृष्ठ-273) बब्बन को गहरे लगता है ‘‘जैसे उनके बिना मेरी कोई सार्थकता ही न हो’’ ...मन करता है ‘‘सब छोड़-छाड़ कर उनके निकट जा बैठूं, वह बोलती जाएं, मैं सुनता रहूं, वह हंसी के मारे दोहरी हो-हो जाएं और मैं बिना बाधा दिए चुपचाप देखता रहूं।’’ ( पृष्ठ-273-274) बब्बन सोचता-समझता और महसूस करता है, परन्तु अपने को बाहर अभिव्यक्त नहीं कर पाता है। पारिवारिक तनाव, क्लेश और स्वभाव भी तो उसकी सीमाएं हैं। सब कुछ होने-जानने के बाद भी, बब्बन के दिल में सल्लो की अमिट स्नेह स्मृतियां बनी रहती है। इसकी अचानक और अप्रत्याशित मौत का विश्वास ही नहीं कर पाता। उसे लगातार यही लगता है कि ‘‘जरूर कोई साजिश करके लोगों ने उन्हें कहीं छिपा या भेज दिया है।’’ ( पृष्ठ-293) दूसरी तरफ सालों बाद भी वही अपराधबोध और प्रश्न ‘‘आपा को सोचते हुए मन लज्जा से क्यों भर जाता है? क्या मैं कहीं अपराधी हूं? यह क्या है कि उनकी स्मृति तक से मुंह छिपाया जाए या झटक-झटककर अपने को दूर-दूर रखने की कोशिश की जाए? और उसके मूल में क्या है? ईर्ष्या संजीदगी की कमी, हल्कापन या किसी ऐसे गुनाह का एहसास जो मेरे मस्तिष्क की परतों में पैबस्त है और मुझे बरसों से हाट करता रहा है?’’ ( पृष्ठ-269) ...‘‘क्या मेरे भीतर कहीं कोई अपराधी बैठा है जो आपा के बारे में फू पफी से रूबरू कुछ भी पूछने नहीं देता।’’ ( पृष्ठ-294) बब्बन की तकलीफ का कुछ अनुमान इन शब्दों से लगाया जा सकता है। ‘‘या अल्लाह, यह पीड़ा भी मुझे ही झेलनी थी कि उनके (सल्लो के) नाम से शबेबरात की फातिहा एक दिन मैं ही दूं और वह भी उसी घर में आकर जहां की दीवारों में उनकी पाजेब की आवाज मुंहबंद सोयी है।’’ ( पृष्ठ-268) बब्बन की पीड़ा में सल्लो की रूह बसी है और स्मृतियों में सारे कथासूत्र। बब्बन और सल्लो आपा के बीच सन्नाटे में संवाद की संभावनाएं और घरेलू सूनेपन में स्नेह और सहानुभूति के अंकुर पनपते हैं। दोनों एक-दूसरे के स्पर्श सुख के सपने भी देखते हैं और मनोकामना भी करते हैं। सल्लो के स्पर्शों के पीछे छिपी सांकेतिक भाषा को बब्बन, संपूर्णता में सही-सही नहीं समझ पाता। नहीं पहचान पाता देह और कामना के ‘रहस्यमय’ अर्थ। उसके लिए सब कुछ ‘रहस्यमय’ और ‘अस्पष्ट’ है - ‘पुरुष’ होने-समझने के बावजूद।

सल्लो न जीने से डरती है और न मरने से,जबकि बब्बन दोनों से डरता है। सल्लो को बब्बन से अपेक्षित ‘रिस्पोंस’ नहीं मिलता है तो शायद वह दूसरी दिशा में मुड़ (भटक) जाती है। धीरे-धीरे बब्बन को ( जगदल पुर छोड़ने से पहले) महसूस होता है ‘सभी मुझसे निर्लिप्त हैं, अपने-आपमें मस्त और व्यस्त, किसी का दुःख किसी को नहीं... मुझे पता नहीं था कि इसी घर में एक ऐसी वितृष्णा...’’ ( पृष्ठ-280) क्योंकि शहर छोड़ने के समाचार को सल्लो ने ‘तटस्थ भाव से परायों की तरह’ सुना और बिना किसी अफसोस या दुख के अनसुना कर दिया। दूसरी घटना यह हुई कि सल्लो के कमरे में बैठे हुए बब्बन को तकिये के गिलाफ में से (गिरा) एक पुर्जा मिल जाता है। उस समय बब्बन को लगता है ‘‘यह बहुत ही अच्छा हुआ कि मेरी आंखों के सामने से पट्टी हट गई और उस एक जरा-से पुर्जे में आपा को मैंने बिल्कुल साफ-साफ और सही-सही देख लिया, वरना शायद जगदलपुर
इतनी आसानी से नहीं छूटता।’’ ( पृष्ठ-280-281) सल्लो की मृत्यु का समाचार मिलता है तो स्मृतियां सामने आ खड़ी होती हैं. .. मरदाना लिबास, ‘‘सिगरेट, चाकलेटी पतलून और तकिये के गिलाफ से गिरी हुई चिट्ठी जो इतनी गिरी हुई थी कि शायद किसी दूसरे के सामने कभी पढ़ी नहीं जाती। आपा की अनायास मृत्यु क्या उसी की चरम परिणति थी?’’ ( पृष्ठ-284) सल्लो की मृत्यु के पीछे क्या कारण रहे-कोई नहीं जानता। अनुमान लगाया जा सकता है कि गर्भ गिराने के प्रयास में ही मौत हुई होगी। गर्भ किससे ठहरा? इस सवाल का भी स्पष्ट कोई जवाब नहीं मिलता। सिर्फ दो सूत्र या संकेत हैं। पहला सूत्र है चिट्ठी और दूसरा चाकलेटी पतलून। सल्लो के कमरे में टंगी चाकलेटी पतलून को देखते ही बब्बन का सिर घूमने लगता है। ‘‘एकाएक चिनगारी फूटने-जैसी एक पिछली स्मृति सहसा आ छिटकी और वैसी ही जलन के मारे मैं तिलमिला गया.. गत मुहर्रम की पांच और दस तारीखों को जिस युवक को सिगरेट पीते हुए बारहा आपा के इर्द-गिर्द देखा था, उसके शरीर पर भी ऐसी ही पतलून थी। यही चाकलेटी रंग और संभवतः यही कपड़ा... गए दिनों जिस मरदाना लिबास में सल्लो आपा मेरे घर आयी थी, वह कैसा था?’’( पृष्ठ-278) जाहिर है उस दिन सल्लो ने यही चाकलेटी पतलून पहनी हुई थी।

‘चाकलेटी रंग की पतलून वाले युवक’ के बारे में विस्तार से ( पृष्ठ-207 पर) पहले ही बताया जा चुका है। यहां भी शानी जी पतलून और चिट्ठी के आधार पर वैसे ही जांच-पड़ताल करते हैं जैसे पेटीकोट और बेलमोगरा के आधार पर मालती कांड की करते हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि यहां ये सूत्र (सबूत) बब्बन को बाइज्जत बरी करने के लिए हैं- वरना ‘संदेह की सूई’ उसी के आस-पास घूमती रहती। बब्बन यानी कथावाचक यानी स्वयं लेखक। सल्लो का झूठ फूफी उसी दिन पकड़ लेती है, जिस दिन वह मरदाने लिबास में बब्बन के यहां से लौटती है और इसीलिए गुस्से में चिल्लाती हैं ‘‘हरामखोर, बदजात, कमीनी... कहां मरने गई थी? किसके साथ गई थी? कहां?’’ ( पृष्ठ-260) बब्बन के यहां इतनी देर नहीं रह सकती-फूफी जानती है। फूफी फिर कहती है ‘‘देख सल्लो, तू मुझको सच-सच बता, नहीं तो फिर आने दे तेरे अब्बा को, उनसे कहकर मैं तेरी खाल खिंचवाती हूं।’’ बब्बन की अम्मा का कहना है ‘‘मुझे पहले ही शक था कि सल्लो यही दिन दिखाएगी। एक-दो बार मैंने छोटी को इशारा भी
किया था कि वह उसे संभाले, पर उसने ध्यान नहीं दिया। मैं अब साफ-साफ क्या कहती?... ऐसी-वैसी खबरें तो मैंने जगदलपुर रहने के दौरान ही सुनी थी। जानती थी कि उस लड़की के रंग-ढंग ठीक नहीं, इसलिए मैंने कभी पसंद नहीं किया कि बब्बन वहां ज्यादा आए-जाए, लेकिन वह था कि रात-दिन वहीं घुसा रहता था। मैंने अपनी आंखों से देखा कि...’’ ( पृष्ठ-283) कथा का सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह भी है कि ‘‘अफशां तो ब्याहता लड़कियां लगाती हैं’’ मगर गवाही के दौरान फूफी ने स्वीकार किया है ‘‘हां, जानती हूं, सल्लो कुंआरी ही मरी है, लेकिन... मेरे लाख मना करने, गालियां बकने और कई बार मारने-पीटने पर भी उसने मांग में अफशां भरना कभी नहीं छोड़ा था।’’ ( पृष्ठ-269) इसका साफ-साफ मतलब यह है कि सल्लो कुंआरी नहीं ब्याहता थी। किसकी ब्याहता थी - यह शायद सिर्फ सल्लो ही जानती थी। कुंआरी होती तो (मना करने, गालियां सुनने या मार-पीट के बावजूद) मांग में अफशां क्यों भरती? हो सकता है उसने चोरी छिपे ब्याह कर लिया हो और शायद उसी से गर्भवती (?) भी हुई हो। अगर नहीं, तो क्या सल्लो अपनी मांग में बब्बन के नाम का अफशां भरती थी? नहीं,... हां,... ऐसा भी तो हो सकता है वरना बब्बन बार-बार क्यों कहता है ‘‘क्या मेरे भीतर कहीं कोई अपराधी बैठा है...?’’ या ‘क्या मैं कहीं अपराधी हूं?’ या फिर  वो कौन से ‘गुनाह का एहसास’ है जो बब्बन को ‘बरसों से हाण्ट करता रहा है?’ मांसल स्पर्शों के संदर्भ में हुई ‘ग्लानि तो दो-एक दिन में कपूर की तरह गायब’ हो गई थी। ‘फिर वैसी कोई ( अपराध) भावना आती भी तो कच्चे मटके पर पड़ी बूंद की तरह फिसल कर निकल जाती’ थी। ( पृष्ठ-273)

सबूतों के अभाव में बब्बन को ‘संदेह का लाभ’ भले ही मिल जाए, मगर पूर्णतया निर्दोष तो नहीं ही ठहराया जा सकता। संभव है कथावाचक उपर्फ बब्बन ने अपने विरुद्ध सारे सबूत नष्ट कर दिये हों या जानबूझ कर सारा दोष (संदेह) चाकलेटी पतलून वाले युवक के मत्थे मढ़ने की कोशिश की हो - ताकि सारा मामला रहस्यमय बना रहे बब्बन की अम्मी की गवाही कि ‘उस लड़की के रंग-ढंग ठीक नहीं’ – विश्वसनीय नहीं कही-मानी जा सकती। फू फी भी इतनी नासमझ तो नहीं कि कुंआरी बेटी द्वारा रोज मांग में अफशां भरने के अर्थ-अनर्थ न जानती हो - ‘लाख मना करने, गालियां बकने और मारने-पीटने’  के बावजूद। फिर यह कौन है और क्यों कहे जा रहा है - हरामखोर, बदजात, कमीनी, कुतिया, रण्डी, बाजारू, हरामजादी, छिनाल, कुलटा और चरित्राहीन। सल्लो ने एक दिन बब्बन से कहा था कि ‘‘मरने से नहीं डरती, डर तो मुझे कब्र से बहुत लगता है।’’ बब्बन ने पूछा ‘कब्र से कैसे?’ तो सल्लो ने बताया ‘‘तुमने खुदी हुई कब्र नहीं देखी? कितनी छोटी और जरा-सी जगह में लोग मुरदे को अकेले डाल जाते हैं। सोचती हूं, तख्ते-मिट्टी के पटाव के बाद भीतर कितना अंधेरा हो जाता होगा, फिर  कीड़े, सांप और बिच्छू... हाय अल्लाह, मैं तो कभी दफन होना नहीं चाहती... इससे अच्छा तो यह कि मरने के बाद आदमी के शरीर को जला दिया जाये या दूर, किसी खुले मैदान में रख दिया जाए ताकि गिद्ध चील नोच खायें...’’ ( पृष्ठ-284) स्मृति में सहेज कर रखी सल्लो की वसीयत पढ़ने के बाद, बब्बन ने ‘सारी घृणा, क्रोध या ईर्ष्या भूल कर मन ही मन दुआ की थी कि खुदा सल्लो को बख्शे, उनकी रूह को सुकून दे और फूफी को मां होने के नाते सब्र...’’ ( पृष्ठ-284) कब्र से बंद घर ( परिवारों) में भी स्त्रिायां सचमुच कितनी ‘अकेली’ ( असुरक्षित और आतंकित) होती हैं - चारों तरफ सुरक्षा प्रहरी। ‘भीतर कितना अंधेरा’ और बाहर संबंधों के ‘सांप, कीड़े और बिच्छू’ हैं। रोज जिन्दा औरतें जल (जला दी) जाती हैं - बदनामी के डर या परिवार की प्रतिष्ठा के लिए। सरेआम स्त्री देह को ‘गिद्ध-चील’ नोचते-खसोटते रहते हैं। घरेलू हिंसा हत्या, दहेज हत्या, आत्महत्या, बलात्कार, यौन शोषण, मानसिक-शारीरिक उत्पीड़न और अन्याय या अत्याचार झेलती आधी दुनिया के लिए मौजूदा विवाह संस्था (घर-परिवार-संबंध) किसी कब्र या चिता से कम खौफनाक नहीं। मुझे लगता है कि ‘कालाजल’ में इस संवाद के बाद एक भी और शब्द की गुंजाइश शेष नहीं रह जाती। अंतिम अध्याय (सोलह) की सल्लो आपा संबंधी सामग्री को, इसी अध्याय में शामिल कर लिया जाता तो बेहतर होता। मोहसिन संबंधी सामग्री को किसी अन्य अध्याय में भी रखा जा सकता था। अगर सल्लो आपा की अलिखित वसीयत के साथ ‘कालाजल’ का समापन हो(ता) तो वास्तव में यह उपन्यास ‘युगों से चली आ रही आस्था और विश्वास’ की प्रार्थना छोड़ने और ‘पूर्वजों की अस्थियों से मुक्ति’ का घोषणा पत्र बन पाता। अपने समय की स्त्री संवेदना और उसके अस्तित्व तथा अस्मिता के सवालों को अतीत से भविष्य तक में देखते-समझते-परखते हुए शानी जिस विलक्षणता और सूक्ष्मता से स्पर्श करते हैं, वो अपने-आप में अभिव्यक्ति का अनोखा अनुभव है। ‘कालाजल’ पढ़ते हुए मुझे एक भी ऐसा कथाशिल्पी याद नहीं आ रहा, जिसने स्त्री को इस अन्तर बोध से जानने-समझने का प्रयास भी किया हो। इतने स्नेह, सम्मान और समानभाव से। अपने समय की तमाम सीमाओं का अतिक्रमण है - ‘कालाजल’।

‘डरता कौन है शानी से?’
छह फरवरी 1995 को जब ‘कालाजल’ का अमर कथाशिल्पीनहीं रहा तो मार्च 1995 के ‘हंस’ के संपादकीय (‘डरता कौन है शानी से?’) में राजेन्द्र यादव ने लिखा था- ‘‘शानी की यह यात्रा (बस्तर से दिल्ली वाया भोपाल) गुलशेर खां से शानी और फिर गुलशेर खां शानी बन जाने की यात्रा है यानी पहले वह मुसलमान था, फिर इस सांचे को तोड़कर लेखक बना, मगर धीरे-धीरे मुसलमान हिन्दी लेखक बन कर रह गया... ‘‘तुम अल्पसंख्यक होने की तकलीफ कभी नहीं समझ पाओगे?’’ दर्द से उसने न जानी कितनी बार कहा होगा, ‘उनका डर, उनकी असुरक्षा-भावना, दहशत से उनका एक-दूसरे से चिपका रहना, हमेशा शक और संदेह की तेज रोशनियों के बीच घिरे होने का अहसास...’’ और दूसरे ही पल गुस्से में तड़पकर ‘‘तीन पीढ़ियों से मैं मुसलमान हूं और वही बने रहना चाहता हूं। यह मुल्क, यह जबान, यह राष्ट्र सिर्फ उनके बाप का नहीं, मेरा भी उतना ही है जितना उन हरामजादों का। मैं उनकी शर्तों और कृपा पर यहां का नागरिक नहीं हूं। यों खत्म कर दूं मैं अपनी आइडेंटिटी...? सिर्फ इसलिए कि मैं अल्पसंख्यक हूं... मुझसे क्यों मांग की जाती है कि मैं हर बार अपने को वो साबित करूं जो वे चाहते हैं?’’ फिर  अगले ही क्षण भावुक होकर विगलित हो जाता, ‘‘कुछ कहो राजेन्द्र, आदमी साला न हिन्दू होता है, न मुसलमान। वह सिर्फ आदमी होता है।’’ शानी और गुलशेर खां के भयानक अंतर्विरोधों के बीच टक्करें मारते व्यक्ति की भीतरी यातना का नाम था ( है) शानी... एक सुलगता, सुरसुराता बम जो कभी भी साहित्य की दुनिया में विस्पफोट कर सकता था।’’ उन्होंने आगे लिखा है ‘‘...उसमें जगदलपुर के आदिवासी की जिजीविषा और पठान होने की आक्रामकता थी... अद्भुत भाषा का धनी था शानी... इतना जानदार और शानदार गद्य लिखने वाले हिन्दी में दो-चार से अधिक नहीं हैं... बहुत सख्त पसंदों और नापसंदों का व्यक्ति था शानी... गुस्सा और आवेश उसके स्थायी भाव। उद्दाम-संवेग संचारी भाव थे... अगर शानी न होता तो हम, आत्ममुग्धों, संस्कृति-धर्म की स्व-घोषित इकहरी महानताओं के शंखों-घोंघों में कैद जगद्गुरुओं को झकझोर कर कौन दिखाता कि बहुसंख्यकों के बीच अकेले और असुरक्षित होना क्या होता है। क्या हेाता है पाकिस्तान, बांग्लादेश और कुवैत में हिन्दू होकर रहना।’’ . ..अगर शानी न होता तो...!!!???!!!

‘अगर शानी न होता तो...?’
प्रख्यात आलोचक गोपाल राय के अनुसार ‘‘शानी सेपहले प्रेमचन्द, यशपाल, वृन्दावन लाल वर्मा आदि ने अपने उपन्यासों में सीमित अनुभव के आधार पर मुस्लिम जीवन का अंकन किया था, पर यह विषय किसी ऐसे संवेदनशील और प्रतिभाशाली उपन्यासकार की प्रतीक्षा कर रहा था, जो खुद उस जीवन का अभिन्न अंग हो। शानी इस बात को बहुत शिद्दत के साथ महसूस करते थे कि हिन्दी उपन्यास में मुस्लिम जीवन का चित्रण बहुत कम हुआ है। कहा जा सकता है कि शानी ने इस अभाव को दूर करने की गौरवपूर्ण शुरूआत की।’’ ( हिन्दी उपन्यास का इतिहास, 2002, पृष्ठ-290) इसके बाद के उपन्यासकारों ने शानी की परम्परा को ही आगे बढ़ाया है। राही मासूम रजा, बदी उज्जमां, मंजूर एहतेशाम, नासिराशर्मा, अब्दुल बिस्मिल्लाह, मेहरून्निसा परवेज से लेकर असगर वजाहत तक ने ‘आधा गांव’ से लेकर ‘सात आसमान’ तक की लम्बी यात्रा तय की है। अगर शानी न होता तो ‘यहां तक का सफर कैसे हो पाता? शानी ने पिछड़े मुस्लिम समाज की परंपरा, जीवन दृष्टि और दर्शन तथा समसामयिक कटु यथार्थ और चिंताओं को ही अभिव्यक्ति नही दी, बल्कि उसकी विकृतियों और विसंगतियों को रेखांकित करके, भविष्य का पूर्वाभास और दिशा संकेत भी निर्धारित किये हैं। शानी सिपर्फ मील का पत्थर ही नहीं, बल्कि इस साहित्य यात्रा में ‘लाइट हाउस’ भी है, और रहेगा। मैं गर्व से कह सकता हूं कि मैंने भी शानी को देखा है। हालांकि सिर्फ दो-तीन बार, दूर से ही देखा है।

काला जल की कथाभूमि
‘कालाजल’ प्रख्यात कथाकार गुलशेर खान शानी का अद्वितीय और कालजयी उपन्यास है और एक प्रामाणिक ऐतिहासिक दस्तावेज भी। शानी जी के शब्दों में ‘इस उपन्यास ने मुझे वह सब कुछ दिया जिसकी मुझ जैसे लेखक को कल्पना भी नहीं थी। यश, मान, सम्मान, पैसा, असंख्य पाठकों का स्नेह और टेलीविजन पर प्रसारण के चलते अपार लोकप्रियता भी।’’ राजेन्द्र यादव के अनुसार ‘‘अपनी भाषा, विवरणों और वर्णनों की बारीकियों और सब मिलाकर क्लासिकीय औपन्यासिक तेवर के लिए ‘कालाजल’ हिन्दी के कुछ सर्वश्रेष्ठ स्वातंत्रयोतर उपन्यासों में से एक है।’’ प्रथम संस्करण की भूमिका में शानी ने लिखा था- ‘‘इस रचना की भूमिका के रूप में मुझे कुछ नहीं कहना है, सिवाय इसके कि जिस जीवन की विडम्बना या विभीषिका इसमें चित्रित है वह सायास, साग्रह या केवल वैशिष्ट्य के लिए नहीं- मेरी अपनी विवशता ही इसका कारण है। और किसी की निरूपायता या आंतरिक विवशता के लिए आपके मन में यदि थोड़ी सी भी संवेदना है, तो मैं विश्वास दिला सकता हूं कि इसे पढ़ते हुए यापढ़कर आपको कोफ़्त  नहीं होगी। अपनी ओर से मुझे इतना ही कहना चाहिए कि इसे  मैंने गंभीरतापूर्वक, पूरी निष्ठा, सच्चाई और ईमानदारी से लिखा है और इसकी सृजन प्रक्रिया के बीच मेरी मनःस्थिति उस प्रार्थनारत व्यक्ति की तरह रही है, जो अत्यन्त निश्छलतापूर्वक सिजदे में पड़ा हो - सभी से कटा हुआ, एकाग्र और तल्लीन!’’

 ‘नये संस्करण पर एक संवाद’ में हैरानी और अविश्वाससे शानी को ‘‘यह सोचकर ताज्जुब-सा होता है कि आज से लगभग बत्तीस साल पहले जब यह उपन्यास लिखा तो मेरी उम्र सिर्फ अट्ठाईस बरस थी।’’ उन्होंने आगे लिखा है ‘‘शबेबरात की फातिहा की एक रात इस उपन्यास का बीज पड़ा था-बिल्कुल अनजाने में। उस रात फिर  मैं सो नहीं पाया था। फिर  वही क्या आने वाली कई रातें मेरे लिए हराम हो गई थीं। आज भी अपने पास सुरक्षित काला जल की हस्तलिखित पाण्डुलिपि पर नजर डालता हूं तो विश्वास नहीं होता। 27 अगस्त 1960 शनिवार की रात मैंने इसकी शुरूआत की थी और जब यह खत्म हुआ तो वह 3 नवम्बर 1961 की आधी से गुजरी हुई रात थी।’’ दुर्भाग्य कि ‘‘सन् 1962 से लेकर लगभग 1965 तक यह राजकमल प्रकाशन के पास स्वीकृत पड़ा रहा’’ और ‘‘सन् 1965 में अक्षर प्रकाशन के पहले सेट की धूम के साथ कालाजल बिल आखिर प्रकाशित हुआ।’’ तब तक ‘कथा-भूमि जगदलपुर कभी का छोड़ चुका था।’ रचनात्मक अनुभव के बारे में शानी जी बताते हैं ‘‘छोटी फूफी के पास बैठते ही न सिर्फ उनके आसपास की जिन्दगी बल्कि उनके पहले और बाद की दो पीढ़ियों का समाज अपने आप खिंच आया - मखनातीस की तरह। यह वह समाज था जिसे हिन्दी में इससे पहले अनदेखा किया जाता रहा था और जिसके बाद ही राही मासूम रजा का ‘आधा गांव’ जैसा उपन्यास आया। फिर तो मुस्लिम लेखक भी आए और मुस्लिम-अनुभव भी - उस झूठ को खोलते हुए कि हिन्दी साहित्य सिर्फ हिन्दू साहित्य नहीं है और यह कि केवल हिन्दू अनुभव भारतीय अनुभव की सीमा नहीं है। अगर ऐसा होता तो अमेरिकी साहित्य में हेमिंग्वे के साथ-साथ रिचर्ड राइट, राल्फ एलिसन, या जेम्स बाल्डविन और एलिस वाकर अपने अश्वेत-अनुभव के आक्रोश भरे लेखन के लिए और नोबेल पुरस्कार विजेता इसाक बाशेविस सिंगर अपने कोरम को यहूदी-अनुभव के लिए समाज में समादृत न होते।’’

कालाजल: ‘दुर्भाग्य की काली छाया’

 ‘आलोचना’ के संपादक परमानन्द श्रीवास्तव का विचार ( विश्लेषण) यह है कि ‘‘कालाजल आंचलिक उपन्यास के रूप में ऐसे अंचल का उदास वृतान्त है जिसमें जीवन एक निरंतर क्षय की ओर उन्मुख है। चीजें खत्म हो रही हैं और नया जैसा कुछ बनने नहीं जा रहा है। एक सीमित सिकुड़ा हुआ परिवार-वृत्त जो एक पूरे समाज का आख्यान न भी हो, एक खास दौर की पस्ती और हताशा को प्रत्यक्ष करता है। यहां न ‘गणदेवता’ - जैसा कोई देबू है, न ‘मैला आंचल’ - जैसा कमला-प्रशांत संबंध की स्वीकृति से जन्म लेनेवाला कोई भविष्य स्वप्न इस उपन्यास में जीवन का नकार तो नहीं है, पर जीवन के प्रति कोई आशावादी रूख भी नहीं है। यह मानवीय विफलताओं की ही महागाथा है, यदि इसे महागाथा कहने का आग्रह प्रबल हो। कभी-कभी ऐसी विफलताओं का इतिहास भी
हमें अवरूद्ध यथास्थिति से मुक्ति के लिए बेचैन करता है।’’ ( उपन्यास का पुनर्जन्म, पृष्ठ-136-37) दरअसल परमानन्द जी ‘कालाजल’ को ‘अभिशप्त पिछड़े अंचल के दो मुस्लिम परिवारों की कहानी’ मानते हैं, जिन पर ‘दुर्भाग्य की काली छाया’ पड़ी है और जिसमें ‘जीवन का निरन्तर क्षय’ हो रहा है। ‘कालाजल’ की समीक्षा करते समय यह नहीं भूलना चाहिए कि ‘‘जिस दृष्टि से जिस अनुभूति को, जिस जीवनानुभव को, जिस जीवन-तथ्य को,
कवि ( लेखक) उपस्थित कर रहा है, उसके समस्त समाजशास्त्राीय, ऐतिहासिक तथा सांस्कृतिक संदर्भ और
अर्थ आपके ध्यान में रहने चाहिए... लेखक के संवेदनात्मक उद्देश्यों को पहचान कर उसकी कलाकृति का विवेचन किया जाना चाहिए, तथा उसके संवेदनात्मक उद्देश्यों और अन्तरानुभवों को व्यापकतर मानवसत्ता के तथ्यों से  जोड़ना चाहिए।’’ ( मुक्तिबोध रचनावली, पांच, पृष्ठ-73)  क्या यह पिछड़ा अंचल सचमुच ‘अभिशप्त’ है? क्यों अभिशप्त है? क्या सिर्फ इसलिए कि इस पर, ‘दुर्भाग्य की काली छाया’ पड़ी है? ‘दुर्भाग्य से अभिशप्त’ है या सामाजिक-आर्थिक- राजनीतिक और धार्मिक कारणों से? क्या ‘कालाजल’ सिर्फ ‘दो मुस्लिम परिवारों की कहानी’ है? ‘पूरे समाज का आख्यान’ क्यों नहीं, कहा-माना जा सकता? ‘पूरे समाज का आख्यान’ और क्या हेाता है या होना चाहिए।

कालाजल: ‘विवाहेत्तर संबंधों की भरमार
डाॅ. हरदयाल की नजर में ‘कालाजल’ में केवल ‘बंधा-सड़ा जीवन’ है। उन्होंने लिखा है ‘‘इस उपन्यास में आंचलिक उपन्यासों की एक और प्रवृति हमें देखने को मिलती है-वह है विवाहेत्तर यौन-संबंधों की भरमार। मिर्जा करामतबेग पुलिस दरोगा बनकर बस्तर आये थे और तीस वर्ष की आयु तक अविवाहित थे। उनका विवाहेत्तर यौन-संबंध स्थापित हुआ बिट्टी रौताइन से। बाद में उन्होंने भेद खुल जाने पर नौकरी छोड़ दी, उससे निकाह कर
लिया। मिर्जा करामत बेग के देहावसान के बाद बिट्टी उर्फ बीदारोगन का यौन संबंध रज्जू मियां से स्थापित हुआ और बाद में उन्होंने निकाह कर लिया। रज्जू मियां ने अपनी सौतेली पूत्रवधु को भी अपनी वासना का शिकार बनाने की पूरी-पूरी कोशिश की, यद्यपि वे अपनी इस कोशिश में सफल नहीं हुए। रज्जू मियां एक अनाथ बच्ची मालती को ले आये, जब वह युवती हुई तो उन्होंने इसके साथ यौन संबंध स्थापित किया, वह गर्भवती हुई और उसे घर से निकालना पड़ा। रशीदा का चाचा उसके साथ बलात्कार करता रहता है और इससे मुक्त होने के लिए उसे आत्महत्या करनी पड़ती है।

सल्लो का यौन-संबंध भी सामाजिक दृष्टि से वैध नहीं है। सुनार की बीवी अतृप्त यौन-संबंधों के कारण से जल रही है। बब्बन के पिता के किसी स्त्री  के साथ विवाहेत्तर यौन-संबंधों के कारण उनका घर बरबाद हो जाता। इसमें कोई संदेह नहीं कि यौन-संबंधों का चित्रण शानी ने शालीनता की सीमा पार किये बिना किया है। उन्होंने इनमें से कुछ संबंधों की भावनात्मक कोमलता और कुछ संबंधों की क्रूरता को बड़ी संवेदनशीलता के साथ अंकित किया है, किन्तु प्रश्न उठता है कि आंचलिक उपन्यासकार विवाहेतर यौन-संबंधों से इतना अभिभूत क्यों है? क्या यह इस जीवन का यथार्थ है जिसका चित्रण आंचलिक उपन्यासों में हुआ है? मुझे लगता है कि हिन्दी के मध्यवर्गीय आंचलिक उपन्यासकार ने तिल जैसे यथार्थ को अपनी कुंठाओं के कारण ताड़ बना दिया है। ‘कालाजल’ के विवाहेतर यौन संबंधों के संबंध में यही सच प्रतीत होता है।’’ ( हिन्दी उपन्यास 1950 के बाद, 1987, नेशनल पब्लिशिंग हाउफस, पृष्ठ-51-52)



डाॅ. हरदयाल स्वीकारते हैं कि शानी ने यौन संबंधों का चित्रण ‘शालीनता’, ‘भावनात्मक कोमलता’ और ‘संवेदनशीलता’ के साथ अंकित किया है मगर ‘तिल जैसे यथार्थ को अपनी कुंठाओं के कारण ताड़ बना दिया है।’ क्या सिर्फ ‘आंचलिक उपन्यासकार ( ही) विवाहेतर यौन संबंधों से इतना अभिभूत हैं? अगर हां तो क्यों हैं? इस बेबुनियादी आरोप को सिद्ध  करने के लिए डा. हरदयाल के पास कोई प्रमाण, आधार या आंकड़ा नहीं। हिन्दी उपन्यासों का पूरा इतिहास वो जानबूझ कर भूल जाते हैं या सचमुच अनभिज्ञ हैं? भारतीय सभ्यता-संस्कृति के ऐतिहासिक अतीत से लेकर वर्तमान तक में, विवाहेतर ( प्रेम) संबंधों की ‘महागाथाओं’ की कैसे और
क्यों याद नहीं आ रही? शानी की शालीनता, भावनात्मक कोमलता और संवेदनशीलता को रेखांकित करने के बावजूद वे यौन संबंधों के चित्रण का कारण शानी की ‘अपनी कुंठाओं’ को मानते हैं। क्यों? क्या हैं शानी की ( यौन) कुंठाएं? कुछ तो बताएं डाक्टर साहब! चुप रहने से कैसे काम ( धंधा) चलेगा।’

कालाजल: आलोचक का दुराग्रह
आश्चर्यजनक है कि ‘हिन्दी साहित्य का दूसरा इतिहास’ में बच्चन सिंह ‘कालाजल’ का उल्लेख तक नहीं करते। मात्र एक पंक्ति में जाने-अनजाने शानी भी शामिल हो जाते हैं। ‘‘यादव, शानी और कमलेश्वर भी श्रेणीबद्ध नहीं हैं।’’ ( पृष्ठ-523) इससे पहले ( पृष्ठ-522) ‘आधा गांव’ और ‘झीनी झीनी बीनी चदरिया’ के बारे में एक-एक पैराग्राफ ( 18 पंक्तियां) लिखना नहीं भूलते। इसे हिन्दी साहित्य का ‘दुर्भाग्य’ कहें या विद्वान आलोचक का दुराग्रह? अनभिज्ञ तो नहीं ही कहाµ माना जा सकता, क्योंकि शानी के नाम से इतिहासकार अच्छी तरह परिचित हैं। खैर... जो विद्वान आलोचक-इतिहासकार ‘बेघर’ को ‘संभोगवादी उपन्यास’ और ‘सूरजमुखी अंधेरे के’ को ‘संभोग का पारदर्शी शीशा’ समझता हो, उनसे और क्या अपेक्षा की जा सकती है।

कालाजल: विभाजन, मुस्लिम और...
इसी क्रम में उल्लेखनीय है कि ‘विभाजन, इस्लामी राष्ट्रवाद और भारतीय मुसलमान’ ( तद्भव 5) नामक लम्बे लेख में वीरेन्द्र यादव के संदर्भ ‘आधा गांव’, ‘उदास नस्लें’, ‘आग का दरिया’ व 'धाको की वापसी’ तक ही सीमित रहते हैं और वे ( भी) ‘कालाजल’ का जिक्र तक नहीं करते। ‘भारतीय मुसलमान’ की उलझन व ‘भारत विभाजन की गुत्थी’ को समझने-समझाने के महत्वाकांक्षी प्रयास में वीरेन्द्र यादव ‘झूठा सच’ ( यशपाल), ट्रेन  टू पाकिस्तान ( खुशवंत सिंह), ‘तमस’ ( भीष्म साहनी), ‘आजादी’ ( चमन नाहल) व ‘दि आइस कैंडी मैन’ ( बप्सी सिधवा) तक की खोज-बीन तो करते हैं, मगर ( कालाजल) शानी कहीं नजर ही नहीं आते। हालांकि मैं खुद भी मानता हूं कि ‘कालाजल’ मूलतः भारत विभाजन को लेकर लिखा उपन्यास नहीं है। भारत विभाजन और भारतीय मुसलमान के अंतर्द्वन्द्व  संबंधी अध्याय को मैं ‘कालाजल’ का अनावश्यक अध्याय ही मानता हूं, परन्तु मेरा मानना
है कि इस संदर्भ में भी ‘भारतीय मुसलमान की उलझन और भारत की विभाजन की गुत्थी’ का मूल बीज ‘कालाजल’ में ही दबा है, जो बाद के उपन्यासों में विस्तार पाता है। इस विषय पर तमाम चिंताओं और चिंतन या उलझन और अन्तद्र्वंद की आधारभूमि ‘कालाजल’ ही है। ‘कालाजल’ में मोहसिन बब्बन से कहता है ‘‘तुम ताज्जुब न करना, अगर कहूं कि मुझे इस देश प्रेम में बिल्कुल विश्वास नहीं रहा। वह तो अम्मी की वजह से बंधा बैठा हूं। मेरा वश चले तो इसी पल यहां से भाग निकलूं...’’ ( पाकिस्तान, पृष्ठ-290) बब्बन को समझाता है ‘‘बल्कि मेरी मानो तो तुम्हें भी यही सलाह दूंगा। बब्बन तुम तो यहां बेकार पड़े हो। यहां जिन्दगी भर बीच के आदमी
बने रहोगे, न इधर के, न उधर के। तुम्हारे-जैसा आदमी वहां पता नहीं कहां-से-कहां पहुंच जाए...’’ मोहसिन बोलता रहता है ‘‘मैं जानता हूं तुम्हें लगता होगा कि मैं बक रहा हूं या यह कि मेरी बातों से साम्प्रदायिकता की बू आती है... पर अपने को अच्छी तरह टटोलकर देखो तो तुम खुद स्वीकार करोगे। क्या हम सब लोग यहां
लादे हुए मुगालते में नहीं जी रहे? और जिसे तुम राष्ट्रीयता और ईमानदारी समझ रहे हो, क्या वह सिर्फ मजबूरी नहीं है?’’ ( पृष्ठ-290) बब्बन हंसते हुए कहता है ‘‘...ऐसे ही ख्याल पूरी कौम को बदनाम करते हैं। छिः छिः, तुम तो यूं कह रहे हो, जैसे वहां कोई जादू का करिश्मा होता है।’’ बब्बन याद करता है ‘‘कुछ हमदर्दों ने दबी जबान में ( अब्बा को) समझाया तो बोले कि मरना-कटना होगा तो यहीं मर-कट जाएंगे, बुढ़ापे में मिट्टी खराब करने कहां जाएं? और उसी के साथ वाला वह दौर, जब हम सब शक की नजर से देखे जाते थे। स्कूल में लड़के हम लोगों को देखकर ताने कसते कि ‘भेजो सालों को पाकिस्तान, बांधों सालों को जिन्ना साहब की दुम से...’ और मुझे तब यह सोचकर रोना आता था कि लोग हमें  बेईमान क्यों समझते हैं। हमारा दोष क्या सिर्फ यही है कि हमने मुस्लिम परिवार में जन्म लिया है?’’ ( पृष्ठ-291) काफी बहस के बाद अन्ततः बब्बन ने कहा ‘‘चलो, अच्छा है, जाना ही चाहते हो तो, अभी न सही, फू फी को दफन करके चले जाना। लेकिन पाकिस्तान पहुंचने के बाद भी अगर तुम्हें लगा कि ठग गए, तो फिर  कहां जाओगे-अरब या ईरान ( पृष्ठ-291)

स्त्री  के सम्मान में पढ़ा गया फातिहा 

कालाजल’ निम्नमध्यमवर्गीय मुस्लिम समाज का पहला प्रामाणिक दस्तावेज है जिसमें उनकी त्रासदी, मानसिकता, संस्कृति और संकट अपनी संपूर्णता और गहनता में उद्घाटित होते हैं। यह अपने समय के समाज और संस्कृति में निरंकुशतावादी परिवार संरचना को देखने-समझने-परखने का दुःसाध्य रचनाकर्म है। अपने समाज में स्त्रियों की ( यौनार्थिक) स्थिति को रेखांकित करने की सृजनशीलता का ही परिणाम है- ‘कालाजल’। लिंग पूर्वाग्रहों ( दुराग्रहों) से मुक्त और मानवीय संवेदनाओं से भरा-पूरा हुए बिना, ‘कालाजल’ की कल्पना तक असंभव है। स्त्री पात्रों की आत्मा में गहरे उतरने और उनकी पीड़ा को अपनी ही पीड़ा मानने-स्वीकारने की सहजानुभूति, दुर्लभ ही नहीं बल्कि अकल्पनीय सी लगती है। उपन्यास में चारों तरफ से बंद परिवार-परंपरा और संस्कारों में कैद स्त्री  द्वारा सांस लेने की भयावह छटपटाहट है। अदृश्य हत्यारे आसपास ही चक्कर काट रहे हैं और दूर-दूर तक पितृसत्ता के हिंसक प्रेतों का आतंक, भीतर-बाहर उनका पीछा करता ( घूमता) रहता है। ( यौन) हिंसा की शिकार स्त्रियों की आत्मा की शांति ही नहीं, बल्कि गरिमा और
सम्मान में पढ़ा गया फातिहा है - ‘कालाजल’।

समाप्त 

महिलाओं , महान बनने के सपने देखो: डा.आंबेडकर

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प्रो.परिमळा अंबेकर
विभागाध्यक्ष , हिन्दी विभाग , गुलबर्गा वि वि, कर्नाटक में प्राध्यापिका और. परिमला आंबेकर मूलतः आलोचक हैं.  हिन्दी में कहानियाँ  अभी हाल से ही लिखना शुरू किया है. संपर्क:09480226677
मैं किसी भी समाज की उन्नति को उस समाज में रह रहे महिलाओं की प्रगति के   मापदंड के आधार पर मापता हूं ।                     - डा. बी आर आंबेडकर

बायोपिक में प्रयोग होने वाली फ्लैशबैक शैली एक अजीब औरबहुत ही कारगर टेकनीक है,जहां बडी सहजता से फिल्मकार, उस चरित्र से जुडे वर्तमान को उसके भूतकाल की घटनाओं से जोडते जाता है , बहुत ही कलात्मक तरीके से सन्दर्भित व्यक्तित्व के समकालीन वाकयात और स्थितियों को उसके मूल समय के बुनियादी जडों से मिलाते जाता है । बायोपिक के कैरेक्टर द्वारा संभवित समकालीन समाज की प्रगति या विकास के कारणीभूत तत्वों को खोजते खोजते, फिल्मकार इतिहास के अंधकार के परतों में छिपे मूल बीजों के उन जीवन तत्वों को ढूंढ निकालता है, जिन बीजों को बोने की सारी मेहनत सारी जिम्मेदारी उस कैरक्टर की होती है, जिसपर सिनेमा बनी हुई है या बनने जा रही है। इसीलिए बायोपिक् में प्रयोग में लाये जाने वाली फ्लैशबैक की शैली किसी प्रासंगिक जीवनी के चहुं ओर बुने कथानक के तानेबाने के प्रस्तुतीकरण का टेकनिक ही नहीं अपितु वह वर्तमान जीवन की परिघटनाओं के लिये , समकालीन समाज और संस्कृति के वास्तविक स्वरूप के लिए कारणीभूत इतिहास के गर्त में छिपे उस जीवनी के संघर्षों को, उन घटनाओं को खोज निकालने की अभूतपूर्व कथा प्रक्रिया भी है ।

सोचे कि अगर डा. बाबा साहेब अंबेडकर की जीवनी पर नये सिरे से गर बायोपिक हमें बनानी है, तो,आज के भारतीय समाज में ,समाजिक स्तर से दलित  और आर्थिक रूप से निचले पायदान के वर्ग समुदाय में मानी जानेवाली महिलाओं की, उनकी आज की वास्तविक विकासमान और उन्नतिउन्मुख स्थिति के कारणों की खोज में इतिहास की उन घटनाओं के फ्लैशबैक में जाना पडता है, जिसका सीधा संबंध आंबेबेडकर की जीवनी से है। या उनकी जीवनी के इतिहास के उन घटनाओं से है ,जो सीधे हमें 75 वर्ष पूर्व के पराधीन, वर्ण और वर्गाधारित भारतीय समाज से जोडती है। आज की भारतीय समाज की महिलाओं की प्रगति और उन्नति के अभ्यास के लिये हमें भूत की उन तमाम स्थितियों को ढूंढ निकालना पडता है या नये सिरे से उनपर चर्चा करनी पडती है, जो केवल और केवल बाबा साहेब आंबेडकर द्वारा लिये गये कानूनी और संवैधानिक निर्णयों पर निर्भर है, उनके द्वारा सभा सम्मेलनों में दिये गये उद्बोधनपूर्ण वक्तव्यों से है, संघटन-संघर्ष-सम्मान के  उनके  कारगर त्रिमंत्र से है, जिसे उन्होंने भारतीय दलित  निर्धन महिलाओं के लिये दिया था। इसीलिए महिलाओं के संबंध में , अंबेडकर द्वारा प्रस्तुत मान्यताएं , विचार, उनके द्वारा लिखे गये संविधानीय अधिनियम, पुरूष के समकक्ष महिला के लिये उनके द्वारा प्रदत्त समान समाजिक स्तर और मान रूपी  पर्यायों को जानने के लिए हमें 75 वर्ष पूर्व के इतिहास को देखना जरूरी है । 18- 19 जुलाई 1942 के रोज नागपूर में , ‘‘डिप्रेस्ड क्लास महिला सम्मेलन‘‘ का समावेश हुआ। इस प्रथम महिला सम्मेलन को संबोधित करके अंबेडकर द्वारा दिये गया भाषण अपने आप में मील का वह पत्थर है, या कहें कि भारतीय दलित  महिला की प्रगति और समानता के दौड का वह पहला पडाव है जो आज की खुशहाली के अंतिम लक्ष्य की ओर जाने के लिए हाथ उठाकर, उस मार्ग को सूचित करता है ।



वह ऐतिहासिक घटना, जिस बडे से विस्तृत पंडाल में ‘‘आल इंडिया डिप्रेस्ड क्लास कान्फरन्स‘‘ का दिनांक 19-20 जुलाई 1942 के रोज नागपूर में आयोजन हुआ था । लगभग सत्तर हजार से भी अधिक लोगों के उस जमावडे को अंबेडकर ने संबोधित किया। एन्.शिवराज उस समावेश के अध्यक्ष रहे थे। उसी पंडाल में अंबेडकर को और दो समावेशों को संबोधित करके बोलना था, उसमें एक रहा था ‘‘डिप्रेस्डक्लास महिला सम्मेलन‘‘ और दूसरा ‘‘समता सैनिक दल‘‘ का। इस महिला समावेश की अध्यक्षता ‘सुलोचनाबाई डोंगरे‘ ने किया जो अमरावती की थी। यह महिला समावेश और उसमें डा. बाबा साहेब द्वारा दिया गया वक्तव्य दलित महिलाओं में एक नई चेतना जगाने का काम किया। इस अधिवेशन में अनेक निर्णय पारित किये गये और महिलाओं के पक्ष में मांगें भी प्रस्तुत की गईं। बाबा साहेब का महिलाओं को लेकर संबोधित बातों में उनकी सहानुभूति और चिंता दोनों जाहिर है। महिला संरक्षण और सामजिक समानता और आर्थिक प्रगति संबंधी उनके विचार जो इस सभा में कहे गये, वे ही आगे उनके द्वारा गढे गये महिला संबंधी अनेक संवैधानिक नियमों के रूप लेते गये। हिन्दू कोड बिल, 1948 भले ही संसदीय सभा में घोर विरोध के कारण पारित न हुआ हो लेकिन भारतीय समाज की परंपरागत महिला संबंधी सनातनी विचार वातावरण और व्यवस्था में उन्हें समाज के दूसरे हिस्से के पुरूष के समान अधिकार दिलाने के सपने एवं लिंगीय समानता के तमाम कानूनी प्रवधानों को भारतीय महिला को दिलाने का उनका दृढ निर्णय तत्पश्चात में , संवैधानिक अधिनियमों के रूप लेते गये, जो महिलाओं के संबंधी उनकी संवेदना और चिंता दोनों को जाहिर करती हैं ।

75 वर्ष पूर्व के उस दलित  महिला अधिवेशन में आंबेडकर ने महिलाओं को संबोधित कर जिन विचारों सामने रक्खा, वे एक तरह से भारतीय दलित  जाति समुदाय की महिला को, नये सिरे से अपने स्वतंत्र अस्तित्व और चरित्र बनाने की ओर इंगित कर रहे थे। साथ ही भावी भारत के निर्माण में समतामूलक समाज की संरचना के लिए महिला अस्मिता को केन्द्र में रखकर सोचने वाली बातों की ओर भी इशारा कर रहे थे। ‘कीर्तिबाई पाटील‘ , ‘इंदिराबाई पाटील‘, ‘जाईबाई चैधरी‘, ‘विरेंद्रा बाई तीर्थंकर‘ , ‘कुमारी गजभिये, ‘मंजुला कानफाडे‘, ‘कौशल्या बैसंत्री‘ आदि महिलाओं की संलग्नता और परिश्रम से यह पहला महिला अधिवेशन उस रोज संपन्न हुआ। ये सारी महिलाएं प्रतिबद्धता और प्रामाणिकता से अंबेडकर द्वारा दिये गये ऐलान और उपदेश को कारगर करने के लिए परिश्रम कर रही थीं। ‘‘अखिलभारतीय दलित  अधिवेशन‘‘ के उस साठ सत्तर हजार लोगों के जमावडे के बृहत्त समावेश में लगभग पच्चीस हजार से भी अधिक महिलाओं का होना अपने में एक इतिहास ही रच डालता है । ‘‘अखिल भारतीय डिप्रेस्ड  फेडरेशन‘‘ के उस महासभा के एक और पंडाल में ‘‘दलित महिलाओं  का अधिवेशन‘‘ के कार्यक्रम का आयोजन अंबेडकर द्वारा उठाये गये उन कदमों को दर्शाता है, जो भारतीय महिला को उनका अधिकार और हक् दिलाने के पक्ष में उठाये गये थे। उस रोज नागपूर में,  सामान्य महासभा को संबोधित  करके बोलने के बाद उसी पंडाल में एक और समावेश में पच्चीस हजार से भी अधिक महिलाओं को अंबेडकर द्वारा दिया गया भाषण , उस भाषण के अंश, बडी सूक्षमता से महिलाओ के प्रति के इस संविधानी शिल्पी के चिंतन मनन और विज़न को दर्शाते हंै । उस भाषण के प्रमुख मुद्धे कुछ इस प्रकार हैं ।

1हीनता की ग्रंथी से बाहर आयें ।
2सारे दुर्गुणों से दूर रहें ।
3बेटियों को अधिक से अधिक शिक्षा दें ।
4बेटियो की ब्याह के लिये जल्दी ना करें ।
5साफ सुथरा और शिष्ट रहन-सहन अपनायें ।
6महान बनने के सपने देखें ।
7बेटियों को पढायें उन्हें शिक्षित करें ।
8महिलाएं शिक्षत होकर अपने परिवार के विकास और प्रगति के लिए
कटिबद्ध रहें ।

जुलाई 1942 के नागपूर के ‘दलित  महिला सम्मेलन‘ मेंकार्यकारिणी महिला सदस्यों द्वारा प्रस्तुत की गयी मांगों को, आगे महिलाओं के अधिकार और हकों के प्रति अंबेडकर द्वारा लिये गये निर्णयों का बीजवपन का काल माना जा सकता है। उस सभा में महिलाओं के पक्ष में प्रस्तुत मांग कुछ इस प्राकर के रहे ।

1बहुपत्नीत्व पद्धति को रद्ध किया जाय, उसे कानूनी तौर पर जुर्म माना जाय
2महिलाओं के लिये वेतनसहित छुट्टियों को उनके कामकाजी व्यवस्था में लागू किया जाय
3महिलाओं के लिए पेन्शन यानी वृद्धा वेतन पारित किया जाय ।

सन् 1942 में उठायी गयी ये मांगे , कुछ हद तक, आगे अंबेडकर द्वारा खींची गयी महिला अधिकारों की संवैधानिक प्रवधानताओं का नीलनक्ष साबित हुये। या हम इन ऐतिहासिक घटनाओं के फ्लैशबैक में, आगे चलकर बाबासाहेब द्वारा सोचे गये ‘समान आचार संहिता‘ और ‘हिन्दू कोड बिल‘ की रूपरेखा को बनते रचते देख सकते हैं, जिसके लिए लगभग सत्तर हजार लोगों का वह सन् 42 का जमावडा साक्षी रहा। आज की भारतीय महिला के स्वतंत्र एवं समान अधिकार और संभावनाओं से लैस व्यक्तित्व के ताने -बाने की बुनने की प्रक्रिया, इसी पंडाल के नीचे आरंभ हुआ, जिसके लिए प्रगतिपर सोच के सारे भारतीय पुरूष एवं महिलाएं , चाहे सवर्ण हो या अवर्ण अपने हिस्से का सूत कातने के श्रम में लग गये। जिसके बुनियाद में कहीं दूर , गांधीजी के सामाजिक एवं राजनयिक स्वतंत्रता के मिशन् के तत्व कार्य करते नजर आते जरूर हैं ।



आंबेडकर चाहते थे कि दलित   महिलाएं अपने पहने-ओढने के सलीके में बदलाव लाए। चांदी के मोटे -मोटे आभूषणों के स्थान पर बारीक सलीकेदार आभूषण पहने। उनका यह सोचना रहा था कि, दलित महिलाओं  द्वारा अपनाये गये परंपरागत पहनावे और आभूषण गुलामी और हीनता भावना के प्रतीक  हैं। उस समय तक गठित दलित महिलाओं  के संगठन के सक्रिय कार्यक्रमों में अंबेडकर ने इन निचले जाति के महिलाओं में पहनने-ओढने की सलीका बरतने के लिए आग्रह किया। महाड सत्याग्रह और सन् 1927 के मंदिर प्रवेश के आंदोलनों से ही आंबेडकर ने दलित महिलाओं  के सामाजिक स्थान मान में बदलाव लाने की सोच को रखते आ रहे थे। और संगठन के सक्रिय महिला कार्यकर्ताओं को घर-घर जाकर उन्हें इस संबंध में सीख देने का उपदेश भी देते रहे । हीनता की ग्रंथी से बाहर आने के लिये आंबेडकर ने महिलाओं के मानसिक सोच के साथ साथ उनके ड्रेस कोड पर भी ज्यादा ध्यान दिया था।  वे चाहते थे , निचले स्तर की मजदूर महिलाएं भी शिक्षित हों और अपने परिवार को भी ऊंचा उठायें। जल्द शादी करने का विरोध कर वे बेटियों को पढाने पर जोर दें। शिक्षा के मंत्र को अपनाकर आंबेडकर जाति आधारित सामाजिक असमानता की अव्यवस्था को मिटाना के पक्ष में सोचा था ।

कानूनी चौखट में महिलाओं को समान अधिकार का प्रावधान 1948 में हिन्दूकोड बिल का संसद में मंडन और विरोधी चर्चाओं के पश्चात् 27 सितंबर 1951 में आंबेडकर का कानूनी मंत्रीपद से इस्तीफा देना, आदि अंबेडकर के जीवन की इतिहास की घटनाएं आगे चलकर महिला संरक्षण और सामाजिक लोकतंत्र के बहाल के लिये पुरूष के समक्ष महिला के समान अधिकार की मांग इत्यादि के न्यायिक अधिकार के नियमों का रूप लेते गये । आंबेडकर चाहते थे कि दलित और दलित  महिलाएं , शिष्ट और पढी लिखी महिलाओं की तरह खान-पान में भी सलीका अपनाए। मांस का सेवन छोडे, सडा गला मांस या मरे प्राणियों का मांस न खाये। अपने खुद के परिवार में, पास-पडोस में बचपन से ही महिलाओं की दुस्थिति को देखकर व्यथित आंबेडकर के सम्मुख विकसित ऊंची जाति की महिलाओं के सुखभोग और साथ ही पाश्चात् देशों की महिलाओं के स्वछंद और स्वतंत्र जीवन शैली पर्याय के रूप में रहे थे। उन्होंने अपने देश दलित महिलाओं को सामाजिक स्थान मान दिलाने हेतु , लोकतांत्रिक समाज की  बहाली के लिए, न्यायिक अधिकारों को जितना जरूरी मानते थे, उतनी ही आवश्यकता वे उनके सजने- संवरने रहन सहन भोजन प्रकार आदि को नये सिरे से अपनाने को भी मानते रहे थे।

इस, नागपूर दलित महिला अधिवेशन के 75 वर्ष में, पिछले सालों के महिला अधिकार और विकास के कदमों को हम लगभग गिना सकते हैं, जिसके पीछे बाबा साहेब अंबेडकर द्वार प्रदत्त संवैधानिक अधिकार और उनकी महिला विकास और महिला समानता संबंधी विचारों के बीजों को भी देख सकते हैं। स्वतंत्र भारत में विज्ञान,शिक्षा और समाज की प्रगति के साथ साथ महिलाओं के स्थानमान और विकास की परियोजना बनती गयीं, और उसकी एक अलग और स्वतंत्र छवि उभरकर सामने आयी। उन अंशों का लगभग आकलन हम यूंकर सकते हैं ।
1महिलावादी संगठन और आंदोलनों का सूत्रपात
2महिलावादी संवेदना और महिला विमर्श का विकास
3महिला शिक्षण की चेतना का प्रचार प्रसार
4हाशियाकृत समाज का हिस्सा, महिला वर्ग को मुख्यधारा में लाना
5महिलाओं के लिये रोजगार और कामकाजी डोमेन में समान अवकाश
6भारतीय समाज में हर क्षेत्र मे महिला को समान अवसर और समान स्पेस का प्रदान करना । आदि
लेकिन प्रश्न यह उठता है कि उस बृहत्त पंडाल में दलित महिलाओं  के संगठन को अलग से संबोधित कर महिला सामाजिक और राजकीय समानता और स्वतंत्रता के आंबेडकर द्वारा अभिव्यक्त विचार , क्या आज भी पूर्णरूप से हाशिये से बाहर आकर मुख्यधारा में अपना वजूद पहचान पाये हैं ? महिला का हाशिया से मुख्यधारा में आने के पीछे सामाजिक और समुदायी मानसिकता मे परिवर्तन की आवश्यकता है, क्या उसे इन 75 वर्षों में स्वतंत्र भारतीय समाज साध पाया है ? आंबेडकर ने कहा था ‘‘ कच की तरह विद्यार्थिनियों को भी प्रयत्नशील होना चाहिए। जिस प्रयत्न और परिश्रम से कच ने शुकाचार्य से विद्या हासिल की थी, उसी संघर्ष और लगाव से महिलाओं को भी शिक्षित होना है, ज्ञान हासिल करना है और मुख्यधारा में आना है । ‘‘

अगर हम महिलाएं हाशिये से हटकर मुख्यधारा आंदोलन में आ जायेंगी तभी आंबेडकर की समतामूलक भारत की संकल्पना साकार हो सकती है अन्यथा नहीं। यह तभी संभव हो सकेगा जब राजनयिक व्यवस्था सामाजिक मुद्धों को भुनाना छोड देगी। और हर महिला असमानता या उनके लिए विशेष प्रावधान का मुद्धा ,बडी सहजता से राजनयिक हलकों में उठाया जाय और उन्हें कानूनी अंजाम दिया जाय। 33 प्रतिशत महिला आरक्षण का बिल भी अपने अवरोधों से से बाहर आ सकेगा। समान धरातल पर , देश के हर हलकों में, महिलाएं अपने हिस्से का अधिकार और जगह, कानूनी तौर पर लागू होता देख सकेगी।
संदर्भ:
1www.streekaal.com : Report of Savitribai Phule Award.
2Dr.B.R.Ambedkar Role In Women Empowerment:Kavitakait
3Dohara Abhishap:Kaoushalya Baisayantri.
4Vasant Moon: Dr Babasaheb Ambedkar Writings and Speeches


सुनो आवारा लड़कियों और अन्य कविताएं

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सीमा संगसार
विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कविताएं प्रकाशित. सम्प्रति: शिक्षिका, बेगुसाराय, बिहार. संपर्क:sangsar.seema777@gmail.com
1. सुनो आवारा लड़कियों

एफ एम रेडियो की
तेज धुन पर
मटकते हुए
मुँह में कलम दबाए
अखबारों के पन्ने पलटते हुए
आइडियाज समेट सकती हैं
अगले संपादकीय के लिए
एक आवारा लड़की ---

नीली जींस की जेब में
अपने हाथ छुपाए
चम सकती हैं
थियेटरों में
नए नाटक के मंचन तक
बारिश में भींगती हुई
लौट सकती हैं अपने घर
बिना किसी छतरी के

'क'से कविता के
क्या हो सकते हैं मायने
अच्छी तरह जानती हैं
ये आवारा लड़कियाँ ---

सुनो आवारा लड़कियों
मोबाइल , अखबार
रेडियो और कविता
ये लक्षण सभ्य हैं या नहीं
यह अब तुम्हें तय करना है
{लड़के आवारा नहीं होते}

2. स्त्री देह

उनके पास भोगने के लिए
बस पीड़ा है !
जो उन्हें मिलती हैं
मास दर मास
प्रवाहित होने से
अथवा उसके स्थगन से

एक औरत जिन्दा रहती है
अपने गर्भाशय के साथ
वह जकड़ी जाती है
मासिक चक्र के बंधन में
वाजदा खान की पेंटिंग 

सुनो !
तुम्हारी सारी काव्यात्मक गाथाएं
निरस्त हो जाती हैं
इस गहन पीड़ा में
नग्न देह पर
सभी रंग फीके पड़ जाते हैं
उनके इस लाल रंग से -----


3. जल में जीवन तलाशती मछलियाँ

जल में जीवन तलाशती मछलियाँ
जब दूर फेंक दी जाती हैं
किनारे पर
छटपटाते हैं प्राण उसके
जल के बिना

कुछ चीजें आदत होती हैं
जैसे की
साँसों को भरना
और बुलबुले की तरह छोड़ना

स्त्रियाँ भी बैचेन होती हैं
जब उन्हें बंद कर दिया जाता है
किसी एक्वेरियम में
रंग बिरंगी मछलियों के साथ

ड्राइंग रूम में
अतिथियों के स्वागत में
प्रतीक्षारत स्त्रियाँ
कैद हैं डिनके नसीब
सुरक्षित आवरण में

मछलियों को गर छोड़ दिया जाए
पुनः बहते नीर में
जीवित हो उठेंगी उनके सपने
खुली आंखों से
खुले आसमान के नीचे
साँस लेने की ---

आदतें जो बचपन से है संस्कार में
उसे तोड़ कर जी लेने की ----

4.  कठपुतली

मेरी जिन्दगी की
सिराओं को पकड़ कर
खींच रहा है कोई
और / मैं बेवश
खिंची चली जाती हूँ

लोग ताली बजाते हैं
हँसते हैं
मेरी इन कलाबाजियों को देखकर
उन्हें मैं एक
तमाशा से अधिक
कुछ नहीं दिखती

मेरे हिलते डुलते शरीर
और/ चेहरे की भाव भंगिमाएँ
सब कुछ उस पर निर्भर है
जो नियंत्रित कर रहा है मुझे

मैं तो जिन्दा हूँ
मेरी रूह मर गई है
 लोग कहते हैं
मैं कठपुतली हूँ

{रात ख्वाब में देखा था कठपुतली की रूह को कहीं दूर जाते हुए)

 वाजदा खान की पेंटिंग 


5.   वो चार दिन

बचपन की जमीन पर
अट्ठा गोटी खेलती लड़कियाँ
अनजान होती  हैं
उन चार दिनों की
मानसिक यंत्रणाओं से

जब उसे अछूत मान लिया जाएगा
सच है
सवर्ण होते हैं पुरुष
और / नारी
सदियों से दलित हैं -----

6.  बंद दरवाजे खुली खिड़कियाँ

कुंडियां लगा दी जाती हैं
बंद दरवाजों में
उनके बाहर निकलने के
सारे रास्ते
बंद हो जाते हैं
फिर आहिस्ते से
खोलती हैं वह
अपने दिमाग की खिड़कियाँ
जब वह भोग रही होती हैं
एकांत को ---

विचारों की कई लड़ियां
मछलियों की तरह
फिसलती जाती हैं
और / वह लगा रही होती हैं
गोता उनके साथ
बहते पानी में

दरवाजे बंद हों तो क्या?
खुली खिड़कियों से
ताजी हवा के झोंके
अंदर आ ही जाते हैं

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