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नरसंहारों का स्त्रीपक्ष

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संजीव चंदन

बिहार के जहानाबाद कोर्ट ने सेनारीनरसंहार (जहां सवर्ण जाति के लोग मारे गये थे) के मामले में अपना निर्णय सुनाया है. कई लोग आरोपी सिद्ध हुए हैं, उन्हें सजा भी सुना दी जाएगी. इधर बारा हत्याकांड (जहां 1992 में सवर्ण जाति के लोग मारे गये थे) के दोषियों को फांसी दिए जाने की तैयारी हो रही है. 2012 में बथानी टोला (जहां दलित जाति के लोग मारे गये थे ) के दोषियों को हाई कोर्ट ने आरोपमुक्त कर दिया था और हाईकोर्ट के निर्णय के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील आज भी लंबित है. न्याय के इसी समाज शास्त्र के बीच नरसंहारों के स्त्रीपक्ष को समझने की कोशिश की है. यह आलेख नरसंहार प्रभावित गांवों में लोगों से मिलकर लिखा गया था.


उसने आत्म हत्या कर ली. पति रणवीर सेना का एरिया कमांडर था, मारा गया. पत्नी दो बार अपने गाँव की मुखिया रही. निस्संदेह जीत में उसके पति के प्रति जातीय सहानुभूति का अहम् रोल था, गाँव की अधिकतम आबादी रणवीर सेना के समर्थकों की थी, इसलिए जीती. तीसरी बार वह जीत नहीं पाई -उसने मौत को गले लगा लिया. हवा में उसके चरित्र को लेकर फुसफुसाहटें तैरने लगीं .

तब बथानी टोला के अभियुक्तों को आरोप मुक्त कर दिये जाने के बाद मैं बथानी टोला सहित नरसंहार प्रभावित गांवों के दौरे पर था- कैसा है जातीय तनाव का ग्राफ, प्रभावित परिवारों की महिलाओं और बच्चों का जीवन और मनोविज्ञान घटनाओं के दो दशक बाद कितना अलिप्त हो पाया है उन खौफनाक मंजरों से. नरसंहारों का स्त्रीपक्ष
       
बारा जाते हुए उसकी आत्महत्याका पता चला ,  रणवीर सेना के एरिया कमांडर की पत्नी की आत्महत्या, उसके ही एरिया में मेरा गाँव भी था. किशोर अवस्था में ही उसका पति रणवीर सेना का एरिया कमांडर था, तूती बोलती थी उसकी , लेकिन वास्तव में वह अपनी जाति के भू सामंतों का एक हथियार भर था और अंततः मारा गया. उसकी पत्नी उसकी जातीय अस्मिता और 'जाति शहीद'के दर्जे के कारण ही मुखिया बनी थी अपने ग्राम पंचायत की.

बिहार के भू सामंतों ने जिस जातीयअस्मिता के सहारे अपने साम्राज्य की रक्षा के लिए अंतिम प्रयास 'निजी सेनाओं 'के सहारे किया था उसमें आर्थिक रूप से कमजोर जाति- युवा की आहुति दी गई थी,  भू सामंतों का बहुत थोड़ा दाँव पर था, संपत्ति का सबसे न्यूनतम हिस्सा. उसका पति भी एक वैसा ही युवक था, इन्हें न तो राजनीतिक दर्शन से संपन्न किया गया था और न कोई विशेष राजनीतिक लक्ष्य था उनके पास , लक्ष्य था तो सिर्फ जाति-भाइयों की हत्या का बदला.

बारा , जहाँ 1992 में यानी रणवीरसेना के गठन के चार साल पूर्व  'भूमिहार जाति 'के ३३ लोग मारे गये थे, ने इस 'जातीय अस्मिता'को निजी सेना में बदलने का आधार बनाया. एम.सी.सी ने जब इस गाँव में सामूहिक नरसंहार का निर्णय लिया होगा तो मुझे नहीं लगता कि वे सामन्तों के खिलाफ या जातिवाद के खिलाफ किसी कारवाई के तर्क से संचालित थे अन्यथा एक वैसे गाँव में जहाँ एक भी बड़ी जोत का भू-सामंत नहीं था , हत्या की नृशंश कारवाई नहीं की गई होती या एक ही जाति ( भूमिहार ) के लोगों की हत्या नहीं की गई होती , गौरतलब है कि कुछ लोगों के प्राण सिर्फ इसलिए बख्श दिये गये थे कि वे ब्राहमण जाति के थे.


बथानी टोला के बाद बारा अगलागाँव था, जहाँ हम चिलचिलाती गर्मी की दोपहर में पहुंचे. २० सालों बाद गांव उस खौफनाक मंजर को भूल चुका है, कुछ लोग अपने 'दालानों'में दोपहर की नींद ले रहे थे , कुछ लोग एक 'दालान'में ताश खेल रहे थे. उन लोंगों में एक ऐसा भी शख्स था जिसके गले पर हथियार से हमले की निशानियाँ थीं, उसे मरा हुआ समझकर छोड़ दिया गया था, लेकिन वह बच निकला. पास में एक बुजुर्ग लेटे थे -'बुद्धन'उनकी जान इस लिए बख्सी गई थी कि वे उन लोगों के साथ खड़े हो गए थे, जिनको मारने वालों ने ब्राहमण माना था, हालांकि वे भूमिहार थे. उनके दो जवान बेटे मार दिए गए थे. इस खेतिहर गाँव के हत्याकांड ने जाति आधारित गोलबंदी और रणवीर सेना के गठन  के लिए सामंत भूमिपतियों को तर्क दे दिए. बारा आज भी इस गोलबंदी का प्रतीक है. इस जाति के नेता इस हकीकत को समझाते हैं, इसीलिए इस गाँव को वे जाति -स्मृतियों में जिन्दा रखना चाहते हैं. कुछ माह पूर्व ही भाजपा नेता सी .पी.ठाकुर ने इस गाँव का दौरा किया था.

मारे गए लोगों के एक-एक आश्रितों कोबिहार सरकार ने नौकरी दी थी. हालांकि ११ लोगों के उपर किसी को आश्रित नहीं माना गया. बदले में मिली नौकरी ही मारे गए लोगों की विधवाओं के लिए जीवन का आधार बना अन्यथा आमतौर पर सवर्ण विधवाओं की जिन्दगी आज भी उतना ही जटिल है, जितना १९वीं शताब्दी में हुआ करती थी, जब ब्राह्मणवाद के प्रखर विरोधी चिन्तक महात्मा फुले ने 'ब्राहमण विधवाओं'के लिए पहला विधवा आश्रम खोला. यह अंतर साफ़ दिखता भी है कि बगल के 'बरसिमहा'नरसंहार ( बारा के पूर्व) में मारे गए दलित परिवार के व्यक्ति की विधवा ने अपनी ही जाति में दूसरी शादी कर ली, उसका भरा -पूरा घर है और पूर्व पति की हत्या के बाद मिली नौकरी से आर्थिक संबल भी. वही बारा की तीन विधवाओं में से, जिनसे मैं मिला या जिनके विषय में मैं जान सका, एक ने शादी कर ली थी, शेष दो अपने मरहूम पति के परिवार के साथ थीं. उनमें से दो हत्याकांड के दौरान तुरत व्याही गई थीं, कोई बच्चा नहीं था, एक को एक बेटा और एक बेटी थी. एक ने नौकरी के बाद बारा में ही रहना पसंद किया, अपने पति के छोटे भाई से अपनी छोटी बहन की शादी करवा दी और ससुराल के परिवार की देख-भाल करती है, दूसरी दूसरी शादी के बाद बारा से चली गई. बारा जाने के पूर्व टेकारी में जब मैं दो बच्चों की माँ यानी तीसरी महिला से मिला, तो उसके बच्चे, खासकर बेटी कुछ भी बात करने से मन करती रही. बेटी, जिसकी हाल में शादी हुई है, हमें अपनी माँ से बिना मिले चले जाने को कह रही थी. दरवाजे तक माँ के आ जाने से वह निरुत्तर हो गई. माँ की आँखे बात करते हुए भर आ रही थीं. माँ, जो पति की हत्या के बाद स्वास्थ्य विभाग में कार्यरत हुई,  के लिए २० साल पुराना मंजर उसके वजूद से जुडी हैं, जबकि बेटी ने तब ठीक से अपने पिता की उंगलियाँ भी नहीं थामी होगी.


बिहार के गांवों में उन नरसंहारों केजेंडर पक्ष यही हैं, पीड़ित महिलाएं अपनी जाति की पीड़ा की प्रतीक हो गईं, उनपर इन नरसंहारों के स्थाई प्रभाव हुए, उनका निजी छिन गया. इस निजता के खंड के ऊपर जो सामूहिक जातीय गोलबंदी हुई , वहां भी अपने पति के साथ उनका निजी कुछ नहीं रहा. एरिया कमांडर की पत्नी, उसकी हत्या के बाद जातीय अस्मिता की सामूहिक प्रतीक रही, और जिस दिन वह सार्वजनिक जीवन से छूटी उस दिन उसने इस दुनिया को छोड़ जाने का निर्णय ले लिया.

बथानी टोला के सन्दर्भ से मैंने पहले लिखा था कि किस प्रकार सवर्णों का वर्चस्व पुनः कायम हुआ है और यह भी कि बिहार में नरसंहारों के कई दशक के बाद शांति तो है , लेकिन जातीय तनाव में कोई कमी नहीं आई है- इस तनाव के रूप बदले हैं. सरकार जहाँ महादलित के नाम पर 'दलित अस्मिता'के टुकडे कर रही है वहीँ सवर्ण सामजिक आर्थिक राजनीतिक वर्चस्व की पुनर्वापसी कर रहे हैं. हालांकि 'राज्य'की भूमिका, और भागीदारी के सिद्धांत के अनुपालन से सवर्ण मानस ज्यादा आतंकित होता है, हथियारों की तुलना में . संवादों, तर्कों और प्रयासों में आरक्षण के माध्यम से दलित -पिछड़ा भागीदारी के खिलाफ सवर्ण झुंझलाहट स्पष्ट है, जबकि बरसिम्हा जैसे गांवों में रह रहे दलित जीने की जद्दो-जहद कर रहे हैं.

मेरी दिलचस्पी रणवीर सेना के कुछ ज्ञात -अज्ञात कमांडरों का वर्तमान जानने में भी थी . मेरे साथ भूमिहार जाति से ही एक युवा नेता और स्थानीय पत्रकार थे, दोनों ही राजीव रंजन. उनके कुछ रिश्तेदार सेना के दिनों में क्षेत्र में  ख्यात -कुख्यात भी रहे थे. उनमे से कोई स्वास्थ्य विभाग में अपने मारे गये किसी रिश्तेदार की अनुकम्पा पर नौकरी कर रहा है, कोई छोटा-मोटा लूट -मार करता हुआ फटेहाल है. एक की हत्या और उसकी पत्नी की दुखद आत्महत्या का जिक्र मैंने किया ही. इनकी  जाति के भू-सामंत वर्चस्व के नए समीकरणों के साथ वापस हुए हैं. एक बात और कि बारा में हमारी  अगुआई करने वाला युवा नरसंहार के दिन ८-१० साल का छोटा लड़का था, उसके अनुसार उन्होंने बच्चों और महिलाओं को टार्गेट नहीं किया था, उसे जरूर दो-नाली (बन्दूक) दिखाकर उसके घर में होने या न होने की तफ्तीश की गई थी, जबकि बथानी टोला में तीन माह की बच्ची समेत कई बच्चे मारे गये थे.


बेटी संज्ञा : बहू सर्वनाम

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सुधा अरोड़ा
सुधा अरोड़ा सुप्रसिद्ध कथाकार और विचारक हैं. सम्पर्क : 1702 , सॉलिटेअर , डेल्फी के सामने , हीरानंदानी गार्डेन्स , पवई , मुंबई - 400 076 फोन - 022 4005 7872 / 097574 94505 / 090043 87272.

 ''हमारी बिट्टो तो बहुत बढि़या खाना बनाती है , आप उंगलियां चाटते रह जाओ.बिट्टो के ऑफिस में सब उसकी बड़ी तारीफ करते हैं , मज़ाल है कि काम आधा छोड़कर उठ जाये ! कभी कभी तो दस बज जाते हैं ..... अभी सो रही है , एक इतवार ही तो मिलता है ज़रा देर तक सो लेती है.बड़े लाड़-प्यार में पली है हमारी बिट्टो ......''

''इसे तो चाय तक ढंग की बनानीनहीं आती.कभी फीकी तो कभी मीठी चाशनी ! ... पता नहीं , इसकी मां ने क्या सिखाया है इसे ! आजकल तो सभी काम करती हैं पर काम करने का ये मतलब थोड़ी है कि रसोई दूसरा संभाले ...इसे घर गिरस्ती चलानी नहीं आती ... महारानी सो रही है अब तक .....''

यह पहचानना कतई मुश्किल नहींहै कि कौन सा संवाद किसके लिये कहा जा रहा है ! किसी दकि़यानूसी मध्यवर्गीय भारतीय परिवार में कभी आप जायें जहां एक ही उम्र की दो लड़कियां हैं - एक घर की बेटी है , जिसका एक नाम है और वह अपने नाम से बुलायी जाती है.दूसरी बहू है - नाम उसका भी है पर नाम होते हुए भी वह 'यह-वह' , 'इस-उस'के सर्वनाम से जानी जाती है.

एक औसत सास की त्रासदी हीयह है कि वह स्वयं जि़ंदगी भर स्त्री बनी रहती है पर सास बनते ही अपना  स्त्री होना भूल जाती है| जिस बात के लिये वह अपनी बेटी की तारीफ करती है , उसी के लिये उसकी बहू उपहास और निंदा का पात्र् बनती है.एक ही स्त्री अपनी बेटी को आधुनिकता और नयेपन को स्वीकारने की छूट देती है और बहू के रवैये के लिए उसकी लानत मलामत करती है ! जिन्हें अपना समय याद रहता है और जो अपने समय में हुई भूलों को दोहराना नहीं चाहतीं , वे अपनी बहू के प्रति न कभी अतार्किक होती हैं , न दुराग्रह पालती हैं क्योंकि अन्तत: एक स्त्री ही स्त्री की तकलीफ़ को ज़्यादा गहराई से महसूस कर सकती है.

ऐसी ही एक समझदार महिला कोमैं कभी भूल नहीं सकती जो अपनी बहू प्रीति को लेकर हमारे सलाहकार केंद्र में आई थी.देखने में बेहद खूबसूरत प्रीति गरीब परिवार से थी.बेटे ने अपनी पसंद से उससे शादी की , लेकिन कुछ सालों बाद अपने ऑफिस की एक विधवा सहकर्मी से उसके संबंध बन गये.ऑफिस से लौटते ही वह एक रिंगमास्टर की तरह घर में घुसता और किसी न किसी बात पर चिल्लाने लगता.बेटे का आतंक पूरे घर को नरक बना रहा था.बच्चे दहशत से कांपने लगते.

आम तौर पर होता यह है कि एकस्त्री अपने पति के विवाहेतर संबंध से जीवन भर जितनी भी त्रस्त  रही हो , अपने बेटे के ऐसे संबंधों को उचित ठहराती है या फिर उस संबंध का दोष भी अपनी बहू के मत्थे मढ़ देती है''इसे ही अपने पति को बांधकर रखना नहीं आया वर्ना वह इधर उधर क्यों भागता , पहले तो मेरा बेटा ऐसा नहीं था.''

...... और यहां हमारे सामने एकऐसी सास बैठी थी जो पूरी तरह अपनी बहू का साथ दे रही थी.उन दोनों की दुनिया एक कमाऊ पुरुष के ईद गिर्द घूम रही थी.आखिर हमारी सलाह पर उस बुज़ुर्ग महिला ने घर और दोनों बच्चों को संभाला और प्रीति को छोटे बच्चों की ट्रयूशन का काम करने दिया.अब कुछ पैसे भी घर में आने लगे और अपने पांव पर खड़े होते ही प्रीति का आत्मविश्वास बढ़ा और उसने हिंसा में पति के उठते हाथ को रोकना सीखा.आज भी प्रीति अपनी सास की बहुत एहसानमंद है जिसने उसकी जि़ंदगी में आये तूफान को झेलने का हौसला दिया.

अगर एक मां होने के साथ साथ आपसास के ओहदे पर भी हैं तो अपने संबोधनों और अपने व्यवहार पर ग़ौर करें ! जैसा रवैया आपका अपनी बेटी के प्रति है, वही बहू के प्रति रखें तो बहू भी बेटी सा ही सुलूक करेगी.ग़ौरतलब है कि आपकी बहू का भी एक नाम है ! वह भी किसी घर की संज्ञा रही है ! उसे सर्वनाम न बनायें.



तुम्हें बदलना ही होगा: उपन्यास में विमर्श

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विवेक कुमार यादव
शोधार्थी,हिन्दी विभाग, दिल्ली विश्वविघालय,मो० 9599871810, ईमेलः—vivekk1906@gmail.com

सुशीला टाकभौरे का उपन्यास ‘तुम्हें बदलना ही होगा’ दलितों, स्त्रियों और दलित-स्त्रियों के संघर्ष की कहानी कहता है. शिक्षण संस्थाओं में दलितों के साथ होने वाले भेदभाव को उजागर करता यह उपन्यास दलित जीवन के महत्वपूर्ण पहलुओं पर प्रकाश डालता है. सुशीला टाकभौरे के बारे में अनिता भारती कहती हैं कि “सुशीला टाकभौरे दलित महिलाओं को संघर्ष की आदर्श स्थिति में दिखाती हैं. वे पुरुषों से किसी मायने में कम नहीं है. वे स्वाभिमानी हैं. लड़ाकू हैं. किसी भी अत्याचार को खामोशी से न सहकर तर्क-वितर्क करती हुई, मुँह तोड़ जवाब देती हुई, डंडा उठाकर अपराधियों से भिड़ जाती हैं.”

उत्तर-आधुनिकता के शुरू होनेके साथ ही नयी तकनीकों तथा मुक्ति आन्दोलनों-दलित, स्त्री एवं आदिवासी ने सत्ता, समाज और संस्कृति की मूलभूत संरचनाओं, प्रक्रियाओं और विचारधाराओं को जो चुनौती दी उससे सब कुछ विभेदित, विघटित एवं विकेन्द्रित हो गया. ब्राह्मणवादी सत्ता, पितृसत्ता और पूँजीवादी सत्ता के वर्चस्व को चुनौती मिलने लगी. एक के बाद एक मृत्यु की सूचना मिलने लगी. ईश्वर, इतिहास, पाठक, मनुष्य, आधुनिकता, कला, विचारधारा, लेखक और साहित्य सभी के मृत्यु की घोषणाएँ होने लगीं. कुछ भी निश्चित, परिपूर्ण, अंतिम, शाश्वत और सार्वभौमिक नहीं रह गया. जो हाशिये पर थे, बहस के केन्द्र में आ गये.

हाशिये के लोगों ने पहले से स्थापितसत्ताओं के खिलाफ संघर्ष किया. परिणाम स्वरूप नई प्रकार की सत्ताओं का उदय हुआ जो पहले से कम क्रूर है. उपन्यास में भी एक जगह सुशीला टाकभौरे ने यह बात कही है “पहले का प्रगतिवादी, प्रयोगवादी और जनवादी चर्चा पर केन्द्रित आधुनिक काल, अब अपने उत्तर-आधुनिक काल के रूप में महिला विमर्श और दलित विमर्श पर बोलने और बोलते रहने पर मजबूर हो गया है क्योंकि अब इनकी चर्चाएँ, अपने देश की सीमाओं को पार करके, विश्व स्तर पर हो रही हैं.”

तुम्हें  बदलना ही होगा’ उपन्यास मेंधीरज कुमार और महिमा भारती नाम के दो चरित्रों के माध्यम से दलितों और स्त्रियों के शोषण और उनके प्रतिरोध को दर्शाया गया है. पूरे कथानक में मनुवादी सवर्ण मानसिकता के लोगों का बोलबाला है. आर्थिक रूप से सम्पन्न लोग गरीबों और मजदूरों का शोषण करते दिखते हैं. दिल्ली जैसे बड़े शहर में भी जातिगत भेदभाव की उपस्थिति को दर्शाया गया है. “वे आमने-सामने तो इन लोगों के साथ सम्मान से बातें करते, मगर उनका यह व्यवहार दिखावटी है. वे उनसे छुआछूत मानते हैं.”  दलित जाति के लोगाें को किराए पर घर न मिलने की समस्या पर काफी जोर दिया गया है. दिल्ली में महिमा के चाचा हों या महाराष्ट्र में धीरज कुमार, दोनों ही जगहों पर इस भेदभाव को महसूस किया गया है.

देश में कानून और आरक्षण व्यवस्थाहोने के बावजूद दलितों, पिछड़ों को रोजगार से महरूम रहना पड़ता है. “उनका (ब्राह्मणवादी) यथाशक्ति प्रयत्न यही रहता है कि संस्था के टीचिंग और नॉनटीचिंग सभी लोग ब्राह्मण ही हों मगर सरकारी कानून के रहते वे ऐसा नहीं कर सकते. किसी तरह छोटी-बड़ी चालाकी के साथ वे अपना प्रयोजन सिद्ध करते रहते हैं.....हर वर्ष यह बहाना दिखा दिया जाता है कि उचित कैन्डीडेट नहीं मिला.”  संविदा पर अपने उम्मीदवार रख लिए जाते हैं. ओबीसी के पद कुछ समय तक खाली रहने पर सामान्य में तब्दील कर दिए जाते हैं. इस प्रकार पिछड़ों और दलितों को नौकरियों से दूर रखा जाता है.

तुम्हें बदलना ही होगा’ उपन्यासमें ज्ञान की शक्ति को महत्वपूर्ण बताया गया है. पढ़े-लिखे होने की वजह से ही महिमा अपने अधिकारों के प्रति जागरूक है. तभी तो वह शांति निकेतन महाविघालय प्रबन्धन की कोशिशों के बावजूद भी प्रोफेसर की नौकरी लेती है. धीरज कुमार अपने परिवार का पालन-पोषण करते हैं साथ ही दलित बच्चों को शिक्षित और जागरूक करते हैं.


चमनलाल जैसे पैसे और रूतबे वालेपुरुष वातानुकूलित कमरों में बैठकर महिलाओं की समस्या पर चर्चा करते हैं. आश्चर्य और विडम्बना यह है कि इस चर्चा में कोई स्त्री भाग नहीं लेती या उसे भाग नहीं लेने दिया जाता. पुरुष स्त्रियों की समस्याओं पर बात करते दिखते हैं किन्तु वे समस्याओं को अपने कार्यक्षेत्र के आधार पर परिभाषित करते हैं. कोई इतिहास पढ़ने पर नारी सबलीकरण की सम्भावना जताता है, कोई स्त्रियों को जलने से बचने के उपाय बताकर, कोई उनकी स्थिति सुधारकर, कोई वृक्षारोपण करके, कोई पुरुषों द्वारा अपनी बहन बेटियों की रक्षा करके उनको सबल बनाने की बात करता है.  तमाम गैर सरकारी संगठन महिला सशक्तिकरण के नाम पर सरकारी पैसा लेकर ऐशो आराम में खर्च करते हैं. खानापूर्ति के लिए मीटिंग करते हैं. इन मीटिंगों में महिलाएँ केवल खाने और पीने का इन्तजाम करती हैं. “घर की महिलाएँ, रसोईं और दावत की व्यवस्था संभालने में लगी हैं.”

लैंगिक सत्ता का बोलबाला पूरेउपन्यास में दिखता है. “जिनका पुत्र होता है, वे माता-पिता स्वर्ग ही जाते हैं.”  “लड़की का क्या है, उसे अपनी ससुराल ही जाना है. बाद में लड़के ही साथ रहेंगे.”  “लड़कियाँ ही हों, पुत्र न हों, तब उनका पति अपनी बेटियों और पत्नी की जिम्मेदारी भूलकर, पुत्र पाने के लिए दूसरा विवाह कर लेता है.”  लड़कों को लड़कियों से बेहतर मानने की प्रवृत्ति आज भी समाज में देखने को मिलती है. उपन्यास जहाँ उत्तर-आधुनिकता की बात करता है तो आज के समय में स्थिति पहले से बेहतर हुई है. सुशीला टाकभौरे ने केवल धीरज कुमार को महिलाओं के मुद्दे पर संवेदनशील दिखाया है और उसकी वजह उनका दलित होना दिखाया है. उन्होंने दलितों में मानवेतर गुण दिखाया है. ऐसा वास्तव में नहीं होता कि दलित पुरुष स्त्रियों का शोषण नहीं करता या उसके भीतर कोई बुराई नहीं होती. कौशल्या बैसन्त्री ने अपनी आत्मकथा दोहरा अभिशाप’ में यह दिखाया है कि कैसे दलित-स्त्री समाज में दलित होने की वजह से और घर के अन्दर स्त्री होने की वजह से शोषित है.

उपन्यास में यह दिखाने का प्रयत्नकिया गया है कि सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था में जो बदलाव आये हैं वे जागरूकता से कम डर की वजह से ज्यादा है.आंबेडकर लोगों की नजरें, उनके (ब्राह्मणवादी) आस-पास मौजूद है. वे अब अपनी पहले की गलती दोहराने में डरने लगे हैं.”  गैर दलितों द्वारा दलितों के अधिकारों की वकालत करने पर सुशीला टाकभौरे इसे षड्यन्त्र की तरह देखती हैं. “शोषित वंचितों के बढ़ते आन्दोलनों को शांतिपूर्ण ढंग से रोकने के लिए, हम स्वयं उनके आंदोलनों का नेतृत्व करें. उन्हें अपने ढंग से समझाने-बहलाने के लिए उनके हित सम्बन्धी कार्यों को अपने हाथों सम्पन्न करें. इससे समाज की पुरानी व्यवस्था भी बनी रहेगी और हमारी समाज सेवा से हमारा सम्मान भी बढ़ेगा.”  हजारों वर्षों तक इसी तरह की चालाकियों से ठगे जाने के बाद इतनी जल्दी विश्वास नहीं पनप सकता. दलितों का यह अविश्वास फिर से ठगे जाने के भय से उत्पन्न हुआ है.
स्त्रियों के आन्दोलन के विषय में भी उनका विश्लेषण यही रहता है. पुरुषों के बहकावे में आकर “वे (स्त्रियाँ) अपने शुभचिन्तक पुरुष वर्ग के प्रति अति कृतज्ञता के साथ अति विनम्र बनती जा रही हैं.”  जिस तरह औरत के औरतपन को पुरुष जैविक रूप में और इसी तरह मानसिक रूप में नहीं लांघ सकता उसी तरह गैरदलित दलित के अनुभव संसार में जैविक ढंग से प्रवेश नहीं पा सकता.  स्त्री और दलित विमर्श का एक वर्ग हमदर्दी को संदेह की नजर से देखता है. धीरज कुमार को जातिगत भेदभाव झेलना पड़ता है. महिमा भारती स्त्री होने की वजह से लैंगिक भेदभाव का सामना तो करती ही हैं साथ ही दलित होने की वजह से सवर्ण स्त्रियों द्वारा भी शोषित होती हैं. महिमा के कॉलेज की महिला सहकर्मी उसे कहती है. “यह मायावती बहनजी की बहन, हमारे बीच रहकर, हमारी ही नाक काट रही है.”  वर्ण व्यवस्था को ईश्वर द्वारा बनाई बताकर उसे न बदलने की सिफारिश ब्राह्मणवादी लोग करते हैं. “ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र को अलग बताने वाली वर्ण व्यवस्था हमारे हिन्दू धर्म की पहचान है. इसे बदलने की बात क्यों की जा रही है.”  धर्मपालन की आड़ में ही ब्राह्मणवादी सामंती ताकतों ने दलितों के साथ अमानवीय व्यवहार किया, स्त्रियों को सती होने के लिए विवश किया.



तुम्हें बदलना ही होगा’ उपन्यास के शुरू में ही लेखिका ने दलितों की बदलती स्थिति का जिक्र किया है. उनके अनुसार “वर्णवादी पुराणपन्थी देश अब शिक्षा और वैज्ञानिक प्रगति से जुड़कर आधुनिक बनता जा रहा है. लोग पुराने रीति रिवाजों को बदलने और पुरानी रूढ़ियों, परम्पराओं को तोड़ने की बातें करने लगे हैं. वर्ण भेद और जाति भेद का विरोध करने के लिए दलित लोग सड़कों पर उतरने लगे हैं.”  प्रतिरोध के स्वर पूरे उपन्यास में जगह-जगह दिखाई देते हैं. कॉलेज के पद पर अन्य किसी का अप्वाइंटमेंट होने पर महिमा अपने दो साथियों के साथ मिलकर इस भेदभाव और अन्याय का विरोध करती है और कॉलेज प्रशासन को अपना फैसला बदलने पर मजबूर करती है. जाति के आधार पर पहचान कराये जाने पर महिमा कहती है, “मैडम, मेरा परिचय सिर्फ जाति से नहीं, मेरे व्यक्तित्व और कृतित्व से है.”  छात्र नेता बसन्त तिवारी ने धीरज को आन्दोलन न चलाने की धमकी दी तो धीरज ने विरोध किया और कहा. “तुम्हारी आर्थिक समानता का आन्दोलन तुम्हारे लिए है, हमारे लिए नहीं है. हमारी लड़ाई हमें स्वयं लड़नी है.”

सेनेटरी इंस्पेक्टर द्वारा अपने माता-पिता को शोषित होता देख धीरज ने उनसे नौकरी छुड़वा दी और उन्हें लेकर आपने साथ चला गया. चमनलाल के बहुत कहने पर भी महिमा अपनी नौकरी नहीं छोड़ती और अपनी आर्थिक स्वतन्त्रता पर कोई आँच नहीं आने देती. चमनलाल की लाख कोशिशों के बावजूद महिमा कमेटी की मीटिंग में आती है और अब तक चले आ रहे घूँघट करने के संस्कार को ठुकराते हुए पुरुषों की बेतुकी दलीलों का विरोध करती है.

सुशीला टाकभौरे ने उपन्यास मेंचरित्रों का निर्माण किया है. महिमा गरीब दलित घर की लड़की है जो अपने चाचा—चाची के साथ रहकर, कष्ट झेलते हुए अपनी शिक्षा पूरी करती है. बाहर उसे जातीय भेदभाव भुगतना पड़ता है जबकि घर के भीतर उसके चाचा—चाची उसका शोषण करते हैं, उससे घर के सारे काम करवाते हैं.  धीरज कुमार के बारे में बहुत विस्तार से न बताकर उनके पढ़ाई के दौरान और नौकरी के लिए भटकते वक्त हुए कष्टों को दिखाया है. दोनों ही चरित्रों के माध्यम से लेखिका ने यह दिखाने का प्रयत्न किया है कि अभावों में जीकर सफल होने वाले व्यक्ति के मन में अपने आस पास के अपने जैसे लोगों के प्रति सहानुभूति और कर्तव्य का भाव होता है. वे जिस जलालत से गुजरते हैं वे नहीं चाहते कि उनके जैसे और लोग भी वैसे ही कष्ट झेलें.

दोनों ही चरित्रों का कार्यक्षेत्र शिक्षाजगत रहा है. हालाँकि दोनों ने वापस अपने मूल निवास जाकर लोगों को अधिकारों और शिक्षा के प्रति जाग्रत किया. बड़े-बड़े शहरों में पढ़े लिखे लोगों द्वारा निचली जाति के गरीबों और स्त्रियों का शोषण होता दिखाया गया है. इन तमाम शोषण दमन एवं भेदभाव का दोनों ने प्रतिरोध किया और अपने अधिकारों को हासिल किया. उपन्यास के अन्त में लेखिका ने दोनों ही दलित पात्रों का विवाह सवर्ण से कराकर बाबा साहब अम्बेडकर के रोटी-बेटी के सम्बन्ध को साकार होता दिखाया है. अन्तर्जातीय विवाह को सामाजिक विषमता मिटाने के एक महत्वपूर्ण हथियार की तरह दिखाया गया है.

उपरोक्त सभी उत्तर-आधुनिकविशेषताओं के रहते हुए भी उपन्यास में समय का सहज प्रवाह नहीं दिखता. इसमें जीवन नहीं बल्कि विमर्श चलता है. बात—बात पर भाषणबाजी और नारेबाजी की गई है. घटनाओं को बेमतलब ही अतिनाटकीय बनाया गया है. जैसे “महिमा ने क्रोध से जलते हुए वाक्य-बाणों का निशाना साधते हुए हुंकार भरी. साथ ही अपने सिर को हल्का सा झटका दिया. एक ही झटके में उनका जूड़ा खुल गया और लम्बी बनी केश राशि उनके कन्धों और पीठ पर फैल गयी. महिमा के इस रौद्र रूप को देखकर उपस्थित लोग हर्षित हो गये. धीरज कुमार ने प्रसन्नता के साथ नारा लगाया नारी शक्ति जिन्दाबाद....नारी शक्ति आगे बढ़ो हम तुम्हारे साथ है....नारी सबलता जिन्दाबाद.....”  धीरज कुमार के विषय में सारी जानकारी होने के बाद भी चमनलाल धीरज की जाति कैसे नहीं पता लगा पाये, जबकि वे महाविघालय में ट्रस्टी भी है? शादी से पहले ही महिमा एक सक्रिय महिला थी. वह अपने अधिकारों के प्रति सजग थी. तो चमनलाल के साथ विवाह होने के पश्चात, चमनलाल के घर में अधिकार और सम्मान के लिए प्रतिरोध करने में इतना अधिक समय क्यों लग गया? हनुमान नगर और रघुजी नगर जैसे नाम पॉप कल्चर वाले मेट्रोपोलिटन शहरों में फिट न बैठने वाले लगते हैं.

लेखिका ने पूरे उपन्यास में सभीविपरीत विचारधारा वालों के बड़ी सहजता से हृदय परिवर्तन कराये हैं. दलितों को, स्त्रियों को उनके अधिकारों के लिए समझाने में महिमा या धीरज को ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ी. एक या दो बार के समझाने पर ही लोगों ने उनकी बात मान ली. धर्म को लेकर या संस्कृति को लेकर जो आस्था लोगों के मन में होती है उसे बदलने में दशकों लग जाते हैं. जितनी आसानी से दलित पात्रों ने पाण्डे जी, शर्मा जी आदि को मारा-पीटा है और उनकी बेइज्जती की है वह वास्तविक जीवन में निहायत ही अस्वाभाविक और बनावटी लगता है.
चमनलाल और उनके पूरे परिवार काहृदय परिवर्तन होने के लिए महिमा और धीरज का भाषण ही काफी हो गया. जो सत्ता हजारों सालों से शोषण करती रही है. जिसको बदलने के लिए फुले, आंबेडकर आदि व्यक्तियों ने लम्बी लड़ाई लड़ी और वो लड़ाई आज भी जारी है. उसको बदलने में लेखिका ने बहुत जल्दबाजी दिखा दी. यह सहज, स्वाभाविक और वास्तविक नहीं लगता. उपन्यास की भाषा सरल एवं प्रवाहमयी है. जगह-जगह अंग्रेेजी के शब्दों का प्रयोग है जैसे पोस्ट, फ्लैट, अपार्टमेंट, टीचिंग, नॉनटीचिंग, कैन्डीडेट, मैनेजमेंट, ऑफिस, कॉलेज, टेन्डर, कैन्टीन, सर्वेन्ट, क्वार्टर, परमानेन्ट आदि.

अस्ति कश्चित् वाग्विशेषः रामटेक पर कालिदास

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डा .कौशल पंवार
  युवा रचनाकार, सामाजिक कार्यकर्ता ,  मोती लाल नेहरू कॉलेज , दिल्ली विश्वविद्यालय, में संस्कृत  की  असिस्टेंट प्रोफ़ेसर संपर्क : 9999439709

अगर तुम जातियां खत्म न कर सको, तो अपनी जातियों पर इतना गर्व करना कि दूसरे जातियों के लिए लोग खुद जातियों को खत्म करने की आवाज उठाने लगे—डा. बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर.

अभी पिछले दिनों नागपुर जाने का अवसर मिला तो नागपुर से रामटेक जाने की इच्छा भी पूरी हुई, एक संस्कृत की शोधार्थी होने के नाते कालिदास का वह स्थान देखने की इच्छा हुई, जहां पर उन्होंने अपनी सुप्रसिद्ध महाकाव्य मेघदूत लिखा, जिसमें  प्रेमी बादलों के माध्यम से अपनी प्रेयसी के लिए संदेश भेजता है. ऐसे कवि के बारे में जानने का समझने का अवसर खोना नहीं चाहा, जिसे भारत का शेक्सपीयर कहा जाता है. इस यात्रा के दौरान ऐसे एक अनजान शख्स  से मुलाकात हुई, जिसे आपको भी मिलवाने का मन है.

मैं, अर्चना गौतम और भदंत चन्द्रकीर्ति  सुबह ही राम टेक के लिए निकल गये थे, महाकालिदास संस्कृत विश्विद्यालय देखने और रामगिरी पर्वत पर जाने का मन था. हम सुबह जल्द ही महाकालिदास संस्कृत विश्वविद्यालय पंहुच गये थे, तब तक विश्वविद्यालय खुलने का समय नहीं हुआ था और गेट-कीपर ने द्वार खोलने से मना कर दिया. हमने बहुत विनती की कि हम बाहर से ही एक बार देखना चाहते हैं, और दिल्ली से आये हैं, संस्कृत पढाते हैं, पर वे नहीं माने. हम बड़बड़ाते हुए वापस चौराहे की ओर बढ़ गये. वहां पर आकर पोहा और चाय पीने का इच्छा हुई. सुबह नाश्ता करके नहीं निकले थे तो अब भूख भी लगने लगी थी, देखा पास में ही गर्म- गर्म ब्रेड पकौड़ा, पोहा और चाय बन रही थी, उसकी तरफ बढ गये थे. यह देखकर भी अच्छा लगा कि वहां महिला काम कर रही थी.  हमने हल्के से मुस्कराकर उससे संपर्क बनाया, उससे चाय और पोहा मांगा, उसने भी उसी मुस्कराहट से स्वागत किया. खोके के पिछवाड़े ही एक मेज और दो चार प्लास्टिक  की चेयर रखी हुई थी, हम तीनों वहीं जम गये थे, महिला पोहा परोसने लगी तो मैने केवल पोहा मांगा, क्योंकि उसमे डाले जाने वाली ग्रेवी में मिर्ची थी. मैने दो प्लेट चाय के साथ पोहा लिया. स्वादिष्ट था, खाते- खाते उनके साथ हल्की- फ़ुलकी बातें भी होने लगी थी, दो चार आदमी भी वहीं आ गये थे, उनमे एक नौजवान लड़का और एक दस एक साल का लड़का और  था, एक और  आदमी शायद वह उस छोटे लड़के का बाप होगा, बैठ गये थे. हमने उनसे कालिदास के बारे में कुछ जानकारी लेने चाही, लेकिन उनको इस बारे में कुछ ज्यादा नहीं पता था. वह नौजवान राम नाम का गमछा कंधे पर डाले था, बातूनी भी था, आधी- अधूरी जानकारी उसे थी. भन्ते जी ने उससे पूछा की यहां पर क्या है देखने के लिए, उसने तपाक से कहा कि एक विद्वान आदमी की मूर्ति  लगी है.जो बहुत ही ज्यादा पढा - लिखा है, मैने पूछा कितना पढा है , उसने जवाब में कहा कि बहुत ही ज्यादा जो आंबेडकर  और गांधी से ज्यादा पढा हुआ है. हम उनके मुंह से ये शब्द सुनकर दंग रह गये.  अर्चना ने उसे थोड़ा सा टोका कि तुम ये गमछा  और इतनी अंगूठी क्यों पहने हो? ताबीज भी पहने हुए था तो उसने उससे इसका कारण जानना चाहा. नौजवान ने तपाक से कहा कि अपनी -अपनी श्रद्धा है, कोई सिख को मानता है, कोई ईसाई, कोई मुसलमान, और  भन्ते जी को देखते हुए-कोई बुद्ध को मानता है. मैने आगे बहस न हो और कुछ ओर जानकारियां उससे ली जाये , सोचकर बात को टालते हुए अर्चना की ओर चुप रहने का इशारा किया, मैने पूछा- “तुम कितना पढे हो”  तो बताया- हम तो कुछ नहीं पढे, पर पढे लिखों से कम भी नहीं (हंसकर कहा) हम अब उससे ओर भी बहुत कुछ जानना चाहते थे, उससे पूछा की आप बाबासाहेब आंबेडकर को कैसे जानते हो, तो उसने कहा सुना है कि वे पढे लिखे थे. कालिदास के बारे में उसने बताया कि एक राम का मन्दिर है पहाड़ी पर . वहीं पर कुछ है. तो हमने फ़िर से उसे उसी विद्वान व्यक्ति के बारे में जानना चाहा तो उसने बताया की आप लोग जाकर देख लीजिए. हमने बहुत सारी बातें करते हुए अपना नाश्ता कर लिया था, पर मैं उस नौजवान में एक अलग तरह का स्वाभिमानी व्यक्तित्व देख रही थी. उसका अल्हड़पन से बात करना, बेहिचक बाते करना, मन को अच्छा लग रहा था, मैने उससे यूं ही पूछ लिया कि तुम करते क्या हो, और उसने बड़े अन्दाज से कहा-“साफ़ सफ़ाई का धन्धा करता हूं”, बस इतना सुनना था कि मैं आवाक रह गयी. इतना स्वाभिमान, अपने काम पर गर्व मैं पहली बार सुन और देख रही थी, ऐसा नहीं था कि वह यह काम करता है तो कोई महान काम कर रहा है, परन्तु उसके काम से उसे कितना सुकून  है वह यह दिखा रहा था. उसने कितने आसान शब्दों में कह दिया था. बस...... आगे कुछ और पूछने की हिम्मत नहीं हुई, मैं इधर-उधर देखने लगी थी. पर उसके चेहरे को देखकर लगा ही नहीं कि वह बाते नहीं करना चाहता. उसने बताया कि वह इलाहबाद का रहने वाला है, वहां उनके साथ बहुत छुआछूत किया जाता है, इसलिए हम लात मारकर यहां नागपुर में आ बसे थे, उसके पिता जी आये थे, और उसका जन्म भी यहीं पर हुआ, इसलिए वह मराठी बहुत अच्छे से बोल रहा था, अर्चना और भन्ते जी ने कहा कि ‘अरे! ये तो अपना ही है, आप तो हमारे अपने हैं.’ यह सुनकर उसका वहां से उठकर जाने का मन नहीं हुआ. हमने भी उसे अपने साथ पहाड़ी पर जाने के लिए कहा तो पहले तो उसने नानुकर की पर उसका भी मन साथ में जाने का ही था, शायद हर रोज के काम से वह भी अपना समय इसमे निकालना चाह रहा था, और भी बहुत सी बातें हुई उसके साथ, पर उसके जातीय गर्व से एक सहानुभूति भी बनी कि जैसे किसी को भी अपनी जाति में पैदा होने का गर्व होता है, उसे भी वही था. उसने अपने आपको किसी से कम नहीं माना.

पढाई के बारे में बात की तो उसने कहा-‘नहीं पढ पाया फ़िर जब समझ बनी तो तब तक टाईम निकल चुका था, अब पढकर क्या करना, मतलब अब तो मस्ती के दिन हैं , शादी करके घर बसाने के दिन है, अब कैसे पढाई होगी !’ भन्ते जी ने अर्चना की ओर इशारा करके कहा कि ‘देखो ये तो अभी भी पढ रही है, तुम भी पढ सकते हो.’  पर उसने जैसे हैरानी से हम तीनों की ओर देखा और मानो एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकाल दिया था.  मैने उससे उसका नाम पूछा तो उसने ‘अमरूत’ बताया, मेरी हंसी छूट गयी उसका नाम सुनकर, मैने कहा खाने वाला अमरुद! वह मेरे चेहरे की ओर देखने  लगा था. भन्ते जी ने कहा, ‘ मराठी में बोला है , अमृत है.’ मुझे भला सा लगा था वह, कैसे एक नौजवान, जो दूसरा काम भी तो कर सकता है, पर यहीं धन्धा क्य़ूं, क्या इसलिए ही हरियाणा और लगभग उत्तरी भारत में सफ़ाई पेशे से जुडी जातियों की यही उनकी जजमानी होती है और विरासत जो वह पीढी दर पीढी ढोता चला जा रहा है. वह हमारे साथ जाना चाहता था. हमने भी उसे साथ ले लिया, उसने भी चौड़ा होकर कहा कि मैं आप सब को सब कुछ दिखाऊंगा. हम अब रामटेक के उस चौराहे को पार करके रामगिरी, जिसे आज रामगढ कहा जाता है चल पड़े. वहां वह सब रास्तों के बारे में बताता हुआ जा रहा था. एक स्थान पर जो उंचाई से नीचे की तरफ झांकने से दिखायी दिखाई दे रहा था, बताया की यहां पर अस्थियां प्रवाहित की जाती है यहां पिन्ड़ दान करने से स्वर्ग मिलता है, पुण्य मिलता है, इसलिए लोग अपने मृतक का यहां पर पिण्ड दान करते हैं.

तस्वीरों को लेते हुए हम ऊपर कालिदाससंग्राहलय में पंहुच गये थे, पर वह गाड़ी के साथ ही रुक गया था, मानो संकेत दे रहा हो , ‘  बड़े बडे लोग अन्दर जाये मैं क्या करुंगा? ‘ हमने वहां कालिदास की आदमकद तस्वीर देखी. चारों तरफ़ हरियाली ही हरियाली. बीच में गुम्बद के अन्दर लगी कालिदास की आदमकद तस्वीर..उसी गुम्बंद में एक व्यक्ति योग कर रहा था, जैसे ही हम अन्दर जाने को हुए तो उसे देखते ही वापिस मुड़ गये. थोड़ी देर इन्तजार किया, लेकिन वह बाहर नहीं निकला. समय के अभाव में हम इन्तजार नहीं कर सकते थे इसलिए अंदर चले गये, बिना उसकी तरफ़ देखे ही मैने उससे कुछ जानकारी लेना चाही. तस्वीर की ओर इशारा करके जब उससे पूछा कि “ये कौन है”, उसने ना में सिर हिलाया, नहीं पता. उसके बारे में उन्हें कुछ नहीं पता था पर अपनी शेखी बघारते हुए अपने योग के गुर दिखाने के लिए तैयार हुआ तो मुझे थोडी झेंप सी हुई, क्योंकि उसने छोटा सा कच्छा पहना था,  मैने चलो कहा तो भन्ते जी मुझे देखकर समझ गये कि मैं यहां ओर उसे देखते हुए नहीं खड़ी रह सकती हांलाकि अर्चना योग दिखाने के लिए कह चुकी थी पर मुझे अच्छा नहीं लग रहा था तो हम लोग वहां से निकलकर उस ओर गये जहां पर कालिदास द्वारा रचित मेघदूत, अभिज्ञानशांकुतलम, विकर्मोवर्शीयम, रघुवंशम् आदि खुदे हुए थे- चारो तरफ़ गोलाकर दिवार पर. वहां पर हम सब ने कुछ फोटो ली. अर्चना ने बताया कि पूरी किताब ही अंकित है उस दिवार के पीछे. मैने सभी की तस्वीरें ली, ताकि अपने विद्यार्थोयों को सब दिखाई जा सके.


संग्राहलय देखने के पश्चात हम राममन्दिरकी ओर बढ गये थे, देखने की उत्सुकता थी कि  जो रामायण में लिखा है, उन जगहों में कितनी सच्चाई है, बस इसी कारण हम सब- मैं, अर्चना और भदंत जी उस ओर आ गये थे. ऐसा माना जाता है कि यहां पर राम अयोध्या से निर्वासित होने के बाद वनवास काटने के लिए घूमते हुए अगस्त मुनि के आश्रम में रुके थे. वहां पर वराह अवतार की एक प्रतिमा भी देखी , पर वहां पर इसका औचित्य हम नहीं समझ पाये थे. और भी बहुत कुछ देखा. काफ़ी देर तक हमने चर्चा की कि बहुत सारे प्राचीन बौद्ध विहारों को बिगाड़कर मन्दिर की शक्ल दे दी गयी है. कुछ तस्वीर भी ली. जब मैने अमृत से फ़ोटो लेने के लिए अपना आईपैड़ पकड़ने के लिए कहा तो उसने झिझकते हुए अपना हाथ आगे बढाने की बजाय हमारे ड्राइवर भाई को बोल दिया, मैं उसकी मनोदशा समझ रही थी. इस सफ़र के दौरान दिमाग में चल रहा था मेरी अपनी बिताई जिन्दगी के वो पल जिनसे मैं गुजर चुकी थी, जिससे यह नौजवान गुजर रहा था. मैने अगली जगह पर फोटो लेने के लिए अपना आइपैड़ उसी को जानबूझकर दिया. उसने इसे लेने से पहले हाथों को अपनी मैली कुचैली पैंट से ऐसे रगड़े कि कहीं ये उसके हाथों से गन्दा न हो जाये. मेरे भीतर उसे देखकर कुछ टूट  सा रहा था, और इससे पहले मेरी आंखों की नमी को कोई भांपता, मैने चशमा लगा लिया था और पूरी यात्रा के दौरान वही मेरा सुरक्षा कवच बना रहा. बचपन की भोगी पीड़ा, अपमना, हर चीज का अभाव- कुछ पाने की लालसा सब आंखों के आगे छाता जा रहा था. कैसे मेरे समुदाय के लोग अपनी जिन्दगी को मल और गन्दगी को ढोते हुए बीता देते है, सदियां बीत गयी, आजादी के बाद भी कितना परिवर्तन आया अभी तक............

 मैं बार-बार इन सब से बाहर निकलनेकी कोशिश कर रही थी. अपना ध्यान मैने मन्दिर को देखने में लगा लिया था. मुख्यधारा के साहित्य में कितनी सच्चाई है और क्या प्राचीनकाल में बने इन मन्दिर में बौद्ध विहारों के निशान  भी मिलते है, इन सब का विश्लेषण करने के लिए हमने देखने का मन बना लिया था, हालांकि मन्दिर बहुत उंचाई पर था, अर्चना और  अमृत और हमारा ड्राइवर नीचे ही रुक गये. मैं और भन्ते जी गये. राम मन्दिर कहे जाने वाले इसमें सीता की रसोई नाम से बने मन्दिर को हमने देखा, ऐसा माना गया है कि  जब सीता, राम और लक्षमण के साथ थी तो यहां पर भोजन तैयार करती थी. कौशल्या के मन्दिर को भी देखा, जब कौशल्या, सीता राम और लक्षमण को अयोध्या वापिस लौटने के लिए कहने आयी थी, लक्षमण के मन्दिर को देखा. राममन्दिर कहलाने वाले इस मन्दिर की स्थाप्य कला, मूर्ति कला को देखकर मन गदगद हो रहा था, भव्य था - इसमे कोई शक नहीं. चारों तरफ़ बन्दर ही बंदर थे, हरी-भरी हरियाली के बीचों बीच पहाड़ी पर बने इस मन्दिर को देखने के बाद बहुत से प्रश्नों ने जन्म ले लिया था. दुख हुआ यह देखकर की मन्दिर में विधवा और बूढी औरतें राम के नाम पर जाप करती हुई अपना वैधव्य और जीवन के अन्तिम क्षण काट रही थीं. मन्दिर में जगह -जगह पर अलग- अलग एंगल बनाकर बैठे आर्ट के विद्यार्थियों के द्वारा मन्दिर को अपनी ड्राइंग सीट पर उतारा जा रहा था, ये छात्र नागपुर विश्वविद्यालय के आर्ट विभाग के छात्र अपने शिक्षकों सहित वहां पर थे. यहां पर बड़ी मात्रा में बन्दर भी थे.


अब हम लोग वापिस लौट रहे थे तोहमने भूने हुए सिंघाड़े और बेर लिये, जो स्वादिष्ट थे. अपनी गाड़ी में बैठकर हम लोग वापिस रामटेक की ओर आ गये थे. हरिभरी हरियाली, शुद्ध हवा एक सुखद अहसास भर रही थी, अमृत ने जोर से चिल्ला कर कहा-“मैड़म यहां से फोटो लीजिए न एक बार”, गाड़ी रोक कर, मैने उसे हल्के से डांटा भी , ‘  भन्ते जी नाराज हो जायेंगे’.  पर वह नहीं माना और रुकने के लिए कहता रहा. लापरवाह था, अपना मन-मौजी भी तो था. थोड़ी सी खुशी अगर इसे मिल रही है तो क्यूं  न दी जाये, मैने उसकी बात मानकर गाड़ी रुकवाकर कुछ तस्वीरे वहीं पहाड़ी से ली. वह पूरे रास्ते वहां के बारे में बाते करता रहा, बातुनी बहुत था. हम लोग अब नीचे की ओर आ गये थे. रामटेक के उसी चौराहे पर, जहां से दायीं ओर मुड़कर चले तो कुछ फ़्लांग पर महाकवि कालिदास संस्कृत विश्वविद्यालय और दूसरी ओर बस्ती थी. मैने फ़िर से विश्वविद्यालय देखने की इच्छा जताई तो सब ने कहा- “चलो, एक बार ओर चल पड़ते है”, अब तो विश्वविद्यालय का द्वार खोल ही देंगे, हम लोग इस पर बात कर ही रहे थे कि वह नौजवान तपाक से बोला- “क्या मतलब, उन्होंने गेट नहीं खोला था? वह जानने को उत्सुक हुआ, तो हमने उसे सुबह के बारे मे सब बता दिया, कि कैसे उन्होने विश्वविद्यालय का गेट खोलने से मना कर दिया था. तैस मे आकर उसने कहा- ‘अरे..........!  ऐसे वह ....कैसे कर सकता है, मै अभी देखता हूं उसको. ‘ मैं मन ही मन हंस रही थी अपने लोगों की दबंगी पर, निडरता पर, बुलंद हौसलों पर कि कैसे हर वक्त लड़ने-भीड़ने के लिए तैयार रहते है हर समय, गलत चीज का विरोध करने के लिए तुरंत तैयार, भले ही सामने वाला चलाकी से उन्हें फ़सा ही रहा हो. मैं भी ऐसा ही करती थी. परन्तु जैसे- जैसे समझ आने लगा कि कैसे लोग धूर्तता  से हम लोगों को आगे करके मरवा देते है. ज्यादातर यहीं तो हो रहा है. हर जगह पर इनका इस्तेमाल किया जाता है और ये भी अपने छोटे छोटे स्वार्थों से अपना इस्तेमाल होने देते है. सब का सामना करने को तैयार. ये कभी नहीं होता कि दो अक्षर पढकर थोड़ा सी बुद्धि भी रखे. खैर हम लोग विश्वविद्यालय की ओर चले पड़े. वही हुआ जो नौजवान ने कहा था. वह नीचे उतरा और उनकी तरफ़ गया, पता नहीं उसने क्या कहा कि गेट कीपर ने झट से गेट खोल दिया विश्वविद्यालय का . भन्ते जी ने भी ,’ कहा आपकी तो बड़ी चलती है.’ मुझे पता नहीं खुशी हुई या दुख. हम लोग अन्दर चले गये. कालिदास का स्टैच्यू प्रांगण  में ही लगा था. बहुत उंच्चा, उस पर परिचय के साथ उनके ग्रंथों की चर्चा भी अंकित थी. अन्दर से कोई आया और उन्होने बिना  इजाजत के तस्वीरें  लेने से मना कर दिया, थोड़ा बुरा लगा और हम लोग बाहर आ गये.रामटेक के उसी चौराहे पर जहां पर हमने अमृत को लिया था, वहीं पर छोड़ दिया. उसे बाय- बाय कहा और हम लोग नागपुर की ओर बढ गये.

रास्ते भर बाबा साहेब के कहे शब्द याद आते रहे कि ‘अगर जातियां खत्म न हो तो अपनी जाति पर गर्व करो.’ क्या अमृत वही तो नहीं कर रहा था! जहां एक तरफ़ हमारी इसी कौम से निकले बड़े बड़े अधिकारी भी ये कहने का साहस नहीं जुटा पाते कि वह सफ़ाई कर्मी का बेटा या बेटी है, और ये हमारी जाति है. अपना नाम तक बदल कर रख देते हैं  और सरनेम भी बदलकर गुप्ता, शुक्ला, यादव और भी नाम अपने टाइटल बना कर रख लेते है ऐसे में इस नौजवान ने कितनी आसानी से अपना पेशा बता दिया था. उसे भी अपना काम और अपनी जात पर उतना ही गर्व था जितना किसी और  को होता है.

स्वयं सिद्धा !

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रंजना गुप्ता
दो कविता संग्रह(रजनी गन्धा,परिंदे),एक कहानी संग्रह(स्वयं सिद्धा) प्रकाशित! निजी व्यवसायी, स्वतंत्र लेखन! संपर्क : ranjanaguptadr@gmail.com

सुष्मिता आज ऑफिस जाने के मूडमें नही थी ! उसने लिहाफ को उठा कर फिर से मुहँ ढक लिया ,जैसे उसे नींद आ ही जाएगी ! लेकिन थोड़ी ही देर में लिहाफ के श्वेत श्याम धब्बे उसे बैचैन करने लगे !उसे ऐसा प्रतीत हुआ, जैसे ये धब्बे उसकी पूरी जिंदगी पर छा जाना चाहते है ,घबरा कर उसने बिस्तर छोड़ दिया ,और कारीडोर में टहलने लगी !उसने पूरब की ओर देखा ,सूरज की लालिमा चारो दिशाओं में सुनहरी आभा के रूप में फैलने लगी थी !सुष्मिता का निश्चय बड़ा अटल होता है ,आज वह एक बार भी फैक्ट्री नही जाएगी ,वर्कर्स को जो करना है करे !वैसे भी वे उसकी सुनते नही ,उन्हें जो करना होता है वे वही करते है !उसने कई बार देखा है ,जब वह अचानक पहुँचती है ,तो मंडली लगा कर बैठे उसके कारीगर बीडी फूँक रहे होते है ,उनके मुहँ दबा -दबा कर हँसने और फुसफुसा कर बात करने का ढंग बताता है ,कि वे उसकी अनुपस्थिति से बहुत मौज में है ,जैसे ही ऑफिस में सुष्मिता के आने की आहट होती है ,वे तुरंत सभा समाप्त कर ,अपनी-अपनी मशीनों पर बैठ जाते है !और ऐसे मनोयोग से मशीनें चलाने लगते है ,नीचे के कारीगर इतनी तल्लीनता से माल की कटाई -छटाई में जुट जाते है ,जैसे उनके जैसी कार्य कुशलता ,कर्मठता और व्यस्तता कही और के कारीगरों में या फैक्ट्री में ,पाई ही नहीं जाती है !सुष्मिता का व्यवहार अपने वर्कर्स के साथ बेहद मानवीय और सौहार्द्य पूर्ण है ,वह बड़ी सह्रदयता से उनके सुख दुःख में साझीदार बनती है ,पर वे उसकी इस संवेदन शीलता को उसकी कमजोरी समझते है , जबकि उसके सारे कारीगर प्राय: एडवांस पर ही रहते है ,तब भी उनकी यह कामचोरी की आदत ...

उफ़ वह उब चुकी है ..उसके वर्कर्सअपनी कार्य क्षमता को बहुत संभाल-संभाल कर खर्च करते है,चाहे जितना अनिवार्य कार्य चल रहा हो ,उन लोगो का इससे ज्यादा मतलब नही रहता !चाहे मार्केट में सुष्मिता की प्रतिष्ठा और उसकी कम्पनी की धज्जियाँ उड़ जाये ,चाहे उसका पैसा लेट लतीफी की वजह से डूब जाये ,उन्हें तो बस अपनी प्रतिमाह की सैलरी ,वह भी नियत समय पर ,और अधिक से अधिक ओवर टाइम बनाने से मतलब !एडवांस तो हर समय चाहिए ,वरना काम छोड़ने की धमकी !और धीमी कार्य प्रणाली तो उनकी यूनियन बाजी का जैसे पहला सबक ही है !

पन्द्रह -बीस वर्कर्स की इस छोटी सीयूनिट से काम निकलवाने में सुष्मिता को पसीने आ जाते है !सुष्मिता अत्यंत शिष्ट -सुसंस्कृत ,और सुशिक्षित ,मृदु भाषी महिला उद्यमी है ! वह नारी स्वतंत्रता की सही अर्थो में जीवित पर्याय है ! उसने महिला पॉलिटेक्निक से डिग्री लेकर एक प्रोजेक्ट तैयार किया था ,जिसके फाइनेंस हेतु जब उसने बैक के अधिकारियो से संपर्क किया तो ,बैंक अधिकारियो की प्रतिक्रिया अत्यंत सकारात्मक रही ,उन्होंने उसके प्रोजेक्ट की जम कर सराहना की ,और इस तरह उसे बड़ी आसानी से फैक्ट्री शुरू करने के लिए लोन उपलब्ध हो गया !पिता के खाली पड़े प्लाट पर उसने फैक्ट्री की आधार शिला रखी ! बड़े जोश और उमंग के साथ उसने अपना उद्योग शुरू किया था ,यह फैक्ट्री उसके पिता का सपना थी ,वह अपने दिवंगत पिता की इकलौती वारिस थी ,उनके बाद उसका अपना कोई नही बचा था ,माँ का देहांत बहुत पहले ही हो चुका था ,पिता के लाख जिद करने के बावजूद उसने विवाह नही किया था ! उसे डर था,कि विवाह के पश्चात् ,वह पिता के प्रति अपने दायित्वों को शायद पूरी तरह निभा नही सकेगी !वह कर्तव्य जो भारतीय समाज में एक पुत्र का पिता के लिए माना जाता है ,वह पुत्री होकर भी पिता के लिए अत्यंत सहजता से उन्ही कर्तव्यो का निर्वाह तभी शायद कर सकी थी !उसके पिता सदैव करते थे ,कि नौकरी करके तुम अपनी आजीविका तो आसानी से कमा सकती हो ,लेकिन एक उद्योग मनुष्यों के एक पूरे समूह को रोजगार देता है ,उद्योग धंधे में तुम अपने साथ-साथ ही दूसरे पचासों व्यक्तियों की जीविका भी आसानी से चला सकती हो !उद्योग किसी सामाजिक संगठन की तरह बेहद कल्याणकारी वह व्यावसायिक संगठन है ,जो कितने ही घरो में चूल्हे जलाने का माध्यम बनता है ,पिता की इस राष्ट्रीय सोच को सुष्मिता ने अपना कैरियर बना लिया !उसके पिता आदर्शो की प्रति मूर्ति थे ,कुछ-कुछ अति मानव जैसी उनमे कई विशेषताएँ एक साथ मौजूद थी ! सच्चाई ईमानदारी की तो वे जीती जागती मिसाल थे ! वे उससे प्राय: कहा करते थे , कि तुम कभी अन्याय का साथ नही देना ,किसी पर अन्याय नही करना !हर बुराई के लिए जम कर लड़ना सीखो ,लेकिन कभी किसी बुराई के लिए अपनी अच्छाई को दांव पर नही लगाना !


 माँ के सरल निश्छल वात्सल्य ने उसके ह्दय को आकार दिया ,तो पिता के दृढ़ विचारो ने सुष्मिता के सम्पूर्ण व्यक्तित्व को एक कवच रूपी सांचे में ढाल दिया था ,सुष्मिता में इसी कारण एक अदभुत जीवनी शक्ति थी ,जो उसे जल्दी टूटने नही देती थी ,आत्म विश्वास तो उसमे कूट-कूट कर भरा था ,डरना वह जानती नही थी ,अध्यवसायी पिता की उस अध्यवसायी पुत्री ने ,विवेकानंद से लेकर टॉलस्टॉय ,भारतीय दर्शन से लेकर पाश्चात्य विचारकों तक ,वैचारिक अध्ययन का कोई क्षेत्र नही छोड़ा था !लेकिन अंत में एक मात्र गीता ही उसकी सर्व प्रिय पुस्तक रही !पर हित और पर कल्याण की भावना को ,उसने अपने व्यवसाय तक में गूँथरखा था !पैसे के लिए बात-बात पर बिक जाने वाली व्यापारिक बुद्धि से वह कोसो दूर थी !विरासत में मिले संस्कार उसे व्यावसायिक असफलता दिलाने में ,अत्यंत अहम् भूमिका रखते थे !वह सुष्मिता जिसे बाजार वाद ,और धन की कुरूप लालसा का ,चश्मा पहन कर देखना ,बिलकुल असंभव था !उसे उसके ही अनपढ ,गंवार लेकिन पेशेवर चालक बुद्धि के कारीगर प्राय: चकमा देते रहते थे !लेकिन पैसा कमाने की होड़ में आदमियत को रौंद कर ,आगे बढना सुष्मिता को मंजूर नही था !धन के साथ-साथ धर्म कमाने की ,नैतिक सॊंच ही उसकी इस कार्य क्षेत्र में ,सबसे बड़ी बाधा बन गयी थी !कभी -कभी बाजार वाद के कठोर शिकंजे में फंस कर ,बेबस होकर वह फैक्टी बंद करने की सोचती ,लेकिन अपने पिता के सपने को एक लक्ष्य की भांति देखने वाली सुष्मिता ,फैक्ट्री में ताला तब तक नही डाल सकती थी,जब तक उसके एक भी कारीगरको ,उससे रोजी रोटी मिलती रहे !आजकल वह प्राय:अनमनस्क सी रहने लगी थी !वह अपने उदार ह्रदय के किसी कोने में ,ईर्ष्या के एक नन्हे पौधे को लगातार पनपता हुआ देख रही थी !वह उस पौधे को जड़ से उखाड़ फेंकना चाहती थी ,लेकिन वह बेशर्म पौधा उसके सिद्धान्तों की हरी -भरी सृष्टि का ही जीवन रस पीकर ,बढता ही जा रहा था ! इसका कारण वह धीरे -धीरे समझने लगी थी !

उसकी फैक्ट्री के सामने ही ,स्थित चायसमोसे की छोटी सी दुकान ,कुछ ही सालो में किस तरह शहर की प्रतिष्ठित मिठाई की दुकान में बदल गयी ,और देखते ही देखते ,नगर निगम की जमींन पर अवैध कब्जा करके बैठा ,वह करतार नाम का व्यक्ति कैसे रातों रात कालोनी के धनाढयो में शुमार हो गया ,वह यह सारा खेल चमत्कृत होकर देखती ही रह गयी ,उसे याद है ,थोड़े दिनों पहले अपने गंदे अंगौछे से नाक साफ करता ,हुआ और उसी हाथ से बना-बना कर समोसे ढेर करता हुआ ,यह आदमी सदैव उसके मन में जुगुप्सा जगाता रहता था ,उसके समोसे छोले खाकर बीमार पड़ते लोगो के कारण उसकी करतार से आये दिन झड़प होती रहती !और वह छोटा सा पहाड़ी नौकर तो क़डाही को जैसे साफ करके रखता ,सड़क का आवारा कुत्ता उसे चाट कर फ़िर से साफ़ कर देता ,उसे और भी बहुत कुछ याद है ,नगर निगम की गाड़ी ,थाने का दरोगा ,जब तब करतार को तंग करते थे !रोज उसकी झोपड़ी नुमा दुकान उजडती और अगले दिन ही फिर बन जाती !


धीरे -धीरे समय बीतने लगा ,अब करतारकी उन्ही नगर निगम के अधिकारियों से हँस-हँस कर बाते होने लगी थी !वह थाने का दरोगा भी ,उसके यहाँ से मिठाईयों के बड़े-बड़े टोकरे ,अक्सर घर ले जाने लगा !करतार का कद धीरे-धीरे बढ़ रहा था ! यहाँ तक कि सुष्मिता स्वयं को उसके सामने बौना पाने लगी थी ,वह लगातार सुरसा के मुहँ की भांति फैलता हुआ सौ योजन तक फ़ैल चुका था !और सुष्मिता ,वह तो उसके सामने बिंदु भर रह गयी थी !आज उसके दुकान की शानदार चार मंजिला भव्य इमारत शहर की मुख्य सडक पर बन कर तैयारहो गयी थी ,उसका उद्घाटन करने ,शहर के मेयर आ रहे थे !अपने पान से रंगे गंदे दांतो को निकले हुये ,वह दो दिन पहले सुष्मिता को भी आमंत्रित करने आया था ! एक हिकारत भरी नज़र उसकी फैक्ट्री पर डाल ,अत्यन्त धूर्तता पूर्वक हाथ जोड़ कर उसी भांति मुस्करा रहा था ,जैसे नेता वोट माँगने के लिए जनता के सामने ढोंगी मुद्रा में खडा रहता है ,सुष्मिता उसकी विषैली हँसी को अभी तक भूल नही पाई थी !अपने ही बनाये आदर्शो का तिलिस्म आज उसे ,बिखरता नजर आरहा था !वह स्वयं को पहली बार कटघरे में खड़ा पा रही थी ! इस अंतरतम के विद्रोह का चेहरा उसे बिल्कुल अजनबी लग रहा था !मन एक अनजानी सी ग्लानि से विचलित हुआ जा रहा था !आज वह अपनी ही निष्ठा ,ईमान दारी ,और सत्य परकता को जितना कोस सकती थी ,कोस रही थी !लेकिन थोड़ी ही देर बाद थक हार कर बैठ गई ,और वह कर भी क्या सकती थी ?अपने जीवन मूल्यों को बदलना या उनसे समझौता करना ,उसके बस की बात तो थी नही !यह वह अच्छी तरह समझती थी !तभी फोन की घंटी बज उठी !
'बिटिया आपका फोन है ! अचानक विचारों के सतत प्रवाह को ईश्वर काका की आवाज ने टोक दिया
!यह ईश्वर काका भी .....

पापा के समय से ही वह उसकेसाथ है !और आज भी उसी समर्पित भाव से उसकी देख भाल करते है !उससे भी बढ़ कर पितृ तुल्य स्नेह देते है !उन्ही के कारण वह घर से निश्चिन्त होकर फैक्ट्री का कार्य भार संभालती है !ढेरसारे पेड़पौधों से भरा ,विस्तृत पृष्ठ भूमि में संजोया ,यह छोटा सा घर उसे सही मायने में सन्तुष्टि और चैन देता है !दुनिया की चालबाजियों ,मायावी द्वन्द फंदों से अब वह उकता चुकी है ! लेकिन बंदी के कगार पर खड़ी उसकी फैक्ट्री .....ओह ...तनाव के कारण उसका सर दुखने लगा था !

उसने आखिर इतना गलत फैसलालिया ही क्यों ? उसे तो किसी यूनिवर्सिटी ,में प्रोफ़ेसर आदि होना चाहिए था !या फिर किसी पत्रिका का संपादक जैसा ही कुछ ...जहाँवह स्वयं को वास्तविक रूप में अभिव्यक्त कर सकती थी !उमड़ते विचारों को स्थायित्व दे सकती थी !आज उसे रह -रह कर पिता की शिक्षा पर भी क्रोध आ रहा था .... भला सच्चाई और ईमानदारी से कहीं आज के जमाने में सफलता मिल सकती है ? वातावरण में चारों और बिखरी घुटन और हताशा उस पर पूरी तरह हावी होने लगी थी ! 'बिटिया आपका फोन है ,आपने बात नही की ....'
थोड़ी ही देर बाद उसके लिए नाश्ता लेकर लौटे ,ईश्वर काका ने फोन का रिसीवर अलग रखा देखा तो आश्चर्य से पूछ बैठे ,पहले तो कभी इतना सोंच में डूबा सुष्मिता को उन्होंने नही देखा था !
..'जरुर कोई बड़ी बात है ....'

ईश्वर काका के माथे पर उभर आईबुढापे की लकीरों में ,चिंता की लकीरे भी सम्मलित हो गयी ! ..उन्होंने चुप चाप फोन का रिसीवर ठीक से रखा ,और बिना कुछ कहे वापस किचन में चले गए !सुष्मिता का अनकहा दुःख वे भली भांति समझते थे ..लेकिन उसके अड़ियल और जिद्दी स्वभाव को भी बचपन से जानते थे ! थोड़ी ही देर में फोन की घंटी फिर से बजी ,इस बार सुष्मिता ने स्वयं ही फोन उठाया ,'हेलो ..,मालकिन ..मालकिन ..''हाँ ..हाँ..बोलो किशन ...''आज आप आई नही ...करतार की नई बिल्डिग पर इनकम टैक्स वालों की रेड पड़ गयी है .....हेलो...हेलो...'लेकिन तब तक बिना कुछ कहे ,बिना कुछ सुने ,सुष्मिता ने फोन रख दिया था ! वह इस ख़बर से जैसे जड़ हो गयी !और पुन:उसी मुद्रा में कुर्सी पर बैठ गयी !


खिड़की से आती मन्द बासंतिक हवा ,और खिली -खिली धूप ने जैसे उसके चेहरे से ,चिन्ता परेशानियाँ, और कशमकश के बादलों को किनारे हटाना शुरु कर दिया ,थोड़ी ही देर में उसने स्वयं को ,फिर उसी उर्जा से परिपूर्ण कर लिया ,और अपने सोये हुए सबेरे को जगा कर उठ खड़ी हुई ! 'ईश्वर काका ,मेरा बैग कहाँ है? मुझे ऑफिस पहुँचना है ,जल्दी करो ...'अचानक उल्लास से भीगा स्वर सुन कर ,ईश्वर काका निहाल हो गये !अपनी प्यारी बिटिया की निर्णयात्मक दृढता ,और उन्मुक्त जिजीविषा को उन्होंने तुरंत पहचान लिया !उनके माथे की लकीरों में अब प्रभु से प्रार्थना की कपँकपाहट उभरने लगी थी !अगले ही पल सुष्मिता की गाड़ी सड़क पर दौड़ रही थी !दूर समुन्द्र की उछलती चमकती लहरों में बार -बार उसको अपने पिता का चेहरा,दिखाई दे रहा था !जो उससे कह रहे थे ,कि'झूठ और बेइमानी की आयु जितनी विद्युत रेखा के समान चकाचौंध भरी होती है ,उतनी ही क्षणिक और विनाश कारी भी होती है ,जो स्वयं तो जलती ही है , साथ में दूसरों का घर भी जला देती है !

हमें खत्म करने के पहले वे लोकतंत्र को खत्म करेंगे

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स्त्रीकाल संपादकीय टीम 

चाहे कोई भी संघर्ष हो-जाति के खिलाफ,ब्राह्मणवाद के खिलाफ, पितृसत्ता के खिलाफ, तानाशाही के खिलाफ- वह  तभी तक जारी रह सकता है, जबतक लोकतंत्र पर कोई खतरा नहीं है या आपके सवाल करने और अपनी बात कहने या अपने लिए हक़ हासिल करने के लिए शांतिपूर्ण संघर्ष करने की आजादी बची हो. पिछले कई महीनों से इसी आजादी पर सत्ता के प्रत्यक्ष और परोक्ष घटक हमले कर रहे हैं. पिछले कई महीनों से निरंतर तनाव की स्थिति राज्यसत्ता और उसके सहयोगी अंगों, संगठनों और समूहों के द्वारा बनाई जा रही है. जिम्मेवार पदों पर बैठे लोग ‘सवाल’ न करने की चेतावनी दे रहे हैं. हुक्मरानों और ब्राह्मणवादी पितृसत्ता का हित ही राष्ट्र हित बताया जा रहा है. यह एक खतरनाक माहौल का संकेत है. यह लोकतंत्र के खात्मे का संकेत है, जिसके पहले चरण से हम गुजर रहे हैं- अघोषित आपातकाल और उच्चवर्गीय, उच्चवर्णीय पितृसत्ताकों के स्वर्ग का निर्माण काल है यह- इनके अलावा जिस किसी भी गैर ब्राह्मण , गैर-उच्च वर्गीय -वर्णीय पुरुष -समूह को या किसी भी स्त्री-समूह को अपने ‘अच्छे दिन’ आने का भ्रम हो रहा है, तो वह छलावे में है, वे दिवास्वप्न’ देख रहे हैं, वे किसी निश्चित उद्देश्य के लिए किये जा रहे है यज्ञ की आहुति भर हैं, बलि के पात्र भर हैं.



हमने जो कुछ भी हासिल किया हैपिछली  शताब्दियों में वह निरंतर आधुनिकता की ओर अपनी उन्मुखता और लोकतंत्र के अपने चुनाव के कारण ही. स्त्रियों, दलितों,पिछड़ों,आदिवासियों, सभी वंचितों के हक़ के लिए संघर्ष और हासिल की पृष्ठभूमि है लोकतंत्र. अभी उसी पर प्रत्यक्ष-परोक्ष प्रहार हो रहे हैं और जनता के एक बड़े वर्ग की सहमति भी इस प्रहार में शामिल कर ली गई है. इसका ताजा उदाहरण है एनडीटीवी इंडिया पर एक दिन का प्रतिबंध. जब मौजूदा दौर के कई सता पोषित चैनल उन्माद, अंधविश्वास, घृणा और छद्मराष्ट्रवाद के नाम पर हिंसक चेतना का निर्माण कर रहे हैं, एक ख़ास चैनल पर यह हमला सवाल करने वालों को सत्ता के द्वारा दिया जाने वाला संकेत भी है, हम सब का गला घोटा जाने वाला है, सबको  चुप कराया जायेगा- यह जबरन चुप्पी हमारी अंतिम पराजय की ओर ले जायेगी- जहां स्त्रियों, दलितों, वंचितों के सारे अधिकार उर्ध्वमुखी सत्ता के लिए छीन लिए जाते हैं –यही उनकी कल्पना का स्वर्ग है.



हमें उनकी कल्पना के इस स्वर्ग की जगह लोकतंत्र को बचाये रखने के लिए जी –जान लगा देना चाहिए, जरूरी है वंचितों की लड़ाई के लिए. एनडीटीवी पर एक दिन के प्रतिबंध की हम भर्त्सना करते हैं. स्त्रीकाल के पाठकों को छोड़ जाते हैं एनडीटीवी के पक्ष के साथ, जो उनके द्वारा अपने हिन्दी चैनल पर एकदिन के प्रतिबंध के बाद जारी किया गया है और चीफ एडिटर, इंडियन एक्सप्रेस, राजकमल झा, के एक महत्वपूर्ण भाषण के साथ, जो रामनाथ गोयनका अवार्ड के मौके (3 अक्टूबर) पर, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सामने, उन्होंने दिया. कहते हैं कि उस समय प्रधानमंत्री के चेहरे पर बेचैनी साफ़ देखी जा सकी, लेकिन दूसरे ही दिन उनकी सरकार ने मीडिया के एक दूसरे हाउस को प्रतिबंध का एक नोटिस थमा दिया.  सुनें  वीडियो लिंक में राजकमल झा और देखें हुक्मरानों के चेहरों की प्रतिक्रया...


एनडीटीवी का पक्ष: 

सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय का आदेशप्राप्त हुआ है. बेहद आश्चर्य की बात है कि NDTV को इस तरीके से चुना गया. सभी समाचार चैनलों और अखबारों की कवरेज एक जैसी ही थी. वास्तविकता  में NDTV की कवरेज विशेष रूप से संतुलित थी. आपातकाल के काले दिनों के बाद जब प्रेस को बेड़ियों से जकड़ दिया गया था, उसके बाद से NDTV पर इस तरह की कार्रवाई अपने आप में असाधारण घटना है. इसके मद्देनजर NDTV इस मामले में सभी विकल्पों  पर विचार कर रहा है.




राजकमल चौधरी का पक्ष 

आपके शब्दों के लिए बहुत आभार. आपका यहाँ होना एक मज़बूत सन्देश है. हम उम्मीद करते हैं कि अच्छी पत्रकारिता उस काम से तय की जाएगी जिसे आज की शाम सम्मानित किया जा रहा है, जिसे रिपोर्टर्स ने किया है, जिसे एडिटर्स ने किया है. अच्छी पत्रकारिता सेल्फी पत्रकार नहीं परिभाषित करेंगे जो आजकल कुछ ज़्यादा ही नज़र आ रहे हैं, जो हमेशा आपने आप से अभिभूत रहते हैं, अपने चेहरे से, अपने विचारों से जो कैमरा को उनकी तरफ रखते हैं, उनके लिए सिर्फ एक ही चीज़ मायने रखती है, उनकी आवाज़ और उनका चेहरा. आज के सेल्फी पत्रकारिता में अगर आपके पास तथ्य नहीं हैं तो कोई बात नहीं, फ्रेम में बस झंडा रखिये और उसके पीछे छुप जाइये. आपके भाषण के लिए बहुत बहुत शुक्रिया सर, आपने साख/भरोसे की ज़रूरत को अंडरलाइन किया. ये बहुत ज़रूरी बात है जो हम पत्रकार आपके भाषण से सीख सकते हैं. आपने पत्रकारों के बारे में बहुत अच्छी बातें कही जिससे हम थोड़ा नर्वस भी हैं. आपको ये विकिपीडिया पर नहीं मिलेगा, लेकिन मैं इंडियन एक्सप्रेस के एडिटर की हैसियत से कह सकता हूँ कि रामनाथ गोयनका ने एक रिपोर्टर को नौकरी से निकाल दिया जब उन्हें एक राज्य के मुख्यमंत्री ने बताया कि आपका रिपोर्टर बड़ा अच्छा काम कर रहा है. इस साल मैं 50 का हो रहा हूँ और मैं कह सकता हूँ कि इस वक़्त जब हमारे पास ऐसे पत्रकार हैं जो रिट्वीट और लाइक के ज़माने में जवान हो रहे हैं, जिन्हें पता नहीं है कि सरकार की तरफ से की गयी आलोचना हमारे लिए इज़्ज़त की बात है.

वीडियो में 1 घंटे 34वें मिनट  पर देखें राजकमल झा का भाषण और देखें नेताओं के चेहरे की प्रतिक्रया



इस साल हमारे पास इस अवार्डके लिए 562 एप्लीकेशन आयीं. ये अब तक की सबसे ज़्यादा एप्लीकेशन हैं. ये उन लोगों को जवाब है जिन्हें लगता है कि अच्छी पत्रकारिता मर रही है और पत्रकारों को सरकार ने खरीद लिया है.अच्छी पत्रकारिता मर नहीं रही, ये बेहतर और बड़ी हो रही है. हाँ, बस इतना है कि बुरी पत्रकारिता ज़्यादा शोर मचा रही है जो 5 साल पहले नहीं मचाती थी.

नीतीश जी, आपकी पुलिस गालियाँ देती है और टार्चर करती है

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राष्ट्रीय महिला आयोग सेपीडिता की शिकायत 

बिहार के भागलपुर में अपने पैतृक संपत्ति के हक़ के लिए संघर्षरत महिला जब शिकायत करने पुलिस के पास गई तो पुलिस ने उल्टा उसे ही प्रताड़ित करना शुरू कर दिया. उसकी प्रताड़ना के गवाह बने भागलपुर विधि संग के अधिवक्ता. सवाल है कि राज्य सरकार क्या पीडिता के पक्ष में अपने न्याय सिस्टम को दुरुस्त करेगी या दबंगों का ही साथ देगी?  सवाल यह है कि पढी –लिखी महिला के साथ जब पुलिस का यह वर्ताव है तो गरीब अनपढ़ महिलाओं के साथ राज्य की पुलिस का क्या व्यवहार होता होगा.  पीडिता ने राष्ट्रीय महिला आयोग को पत्र लिखा है: 

सेवा में,
               अध्यक्षा महोदया
               राष्ट्रीय महिला आयोग, नई दिल्ली


महाशया,

 मैं, सपना सुमन (उम्र 32 वर्ष), पिता- स्व. कनक लाल राम, माता- स्व. मीरा मधुर बिहार प्रांत के भागलपुर शहर के नया बाजार की स्थायी निवासी हूँ. मेरे माँ-बाप दोनों की मौत एक दशक पूर्व हो चुकी है. मैं 17 अक्तूबर, 2016 (दिन रविवार) को भागलपुर शहर स्थित ततारपुर थाना के थाना अध्यक्ष अजय कुमार के पास अपने घर में हुई चोरी की प्राथमिकी दर्ज कराने गई. कई बार थाना जाकर मैंने प्राथमिकी दर्ज करने की थानाध्यक्ष से गुहार लगाई किन्तु उन्होंने प्राथमिकी दर्ज नहीं की.

इससे परेशान होकर मैं इसकी शिकायतलेकर 20 अक्तूबर को लगभग 3:30 बजे अपराहन एस एस पी कार्यालय पहुंची. लेकिन मुझे एसएसपी कार्यालय भागलपुर के बाहर तैनात आदेशपाल गणेश कुमार ने उनसे मिलने नहीं दिया और कहा कि ‘अभी रुकिये आरक्षी अधीक्षक जब आपको बुलायेगा तब आपको मिलवा दिया जाएगा.’ मैंने उन्हें अपने नाम का पुर्जा लिखकर भी दे दिया किन्तु तीन घंटे बीत जाने के बाद भी एसएसपी मुझसे नहीं मिले.

मैं कार्यालय के बाहर उनके चेम्बर के पास बैठी रही. अचानक साढ़े छह बजे के लगभग महिला थाना अध्यक्षा ज्ञान भारती एवं एक अन्य महिला पुलिसकर्मी सादे लिबास में एवं चार-पाँच की संख्या में पुरुष पुलिसकर्मी, वे भी सादे लिबास में थे, आये और मुझे चारो तरफ से घेर लिया. ज्ञान भारती और उनके साथ आई एक महिला पुलिसकर्मी मुझे जबरन घसीटते हुए वहाँ से बाहर सड़क पर ले जाने लगीं. मैंने उनसे पूछा कि आप मुझे ऐसे कैसे और कहाँ ले जा रही हैं? इससे घबराकर मैं ज़ोर-ज़ोर से रोने लगी और कहा कि – एसएसपी सर बचाओ! देखो ये लोग मुझे घसीटकर कहाँ ले जा रहे हैं! इस पर एसएसपी साहब बाहर निकले और अनदेखा कर वापस अंदर चले गए. तब महिलाथाना अध्यक्ष ज्ञान भारती ने कहा कि- ‘रंडी! बहुत हल्ला कर रही हो! चलो तुम्हारा अच्छे से इलाज करती हूँ!’ और उनके साथ सादे लिबास में आये पुलिस कर्मी  मुझे और मेरे चार वर्षीय बेटी, जो मेरे साथ ही थी, को घसीटते हुए एस एस पी आफिस से बाहर सड़क पर ले जाने लगे.

महिला थाना अध्यक्षा ज्ञान भारती ने मेरा मोबाईल और पर्स छिन लिया. इस बीच हम माँ-बेटी के रोने-चिल्लाने की आवाज सुनकर जिला विधिज्ञ संघ भागलपुर के महासचिव श्री संजय कुमार मोदी एवं कई अधिवक्ता वहाँ आ गए. श्री मोदी ने अपना परिचय देते हुए महिला थानेदार ज्ञान भारती से जब पूछा कि ‘आपलोग इस महिला के साथ इस प्रकार का  दुर्व्यवहार एवं  मारपीट क्यों कर रहे हैं और इसे कहाँ ले जा रहे हैं?’ मैंने उन्हें बताया कि मैं एसएसपी साहब के पास फरियाद लेकर आई थी किन्तु देखिये ये लोग मेरे साथ ही मारपीट व दुर्व्यवहार कर रहे हैं और कहाँ ले जा रहे हैं! महासचिव सहित अन्य अधिवक्ताओं द्वारा पुलिसकर्मियों से कहा कि आप इस तरह से इस महिला के साथ मारपीट एवं दुर्व्यवहार इस तरह से नहीं कर सकते हैं, लेकिन उपरोक्त सभी पुलिस वालों ने इन अधिवक्ताओं की एक नहीं सुनी. उलटे ज्ञान भारती ने मेरी तरफ देखते हुए कहा कि ‘ज्यादा से ज्यादा क्या होगा, कम्पलेन केस करोगी!’ और यह कहते हुए मुझे और मेरी बेटी को उनलोगों ने सफ़ेद रंग की जीप में फेंक दिया. इस क्रम में हम दोनों माँ-बेटी को काफी चोटें आईं.

 इसके उपरांत ज्ञान भारती खुद औरएक महिला पुलिसकर्मी व अन्य पुरुष पुलिसकर्मी भी जीप पर सवार हो गये. उन लोगों ने जिप्सी के अंदर की बत्ती भी बुझा दी थी. मैं और मेरी बेटी बुरी तरह डरे हुए थे. मेरे रोने-चिल्लाने पर दो पुरुष पुलिसकर्मियों ने पहले तो मुझे भद्दी-भद्दी गालियां दी फिर थप्पड़ मारने लगे. उसके बाद मुझे उन लोगों के द्वारा चुपचाप रहने की नसीहत दी गई. रास्ते में जिप्सी पर मौजूद एक पुरुष पुलिसकर्मी ने अंधेरे में मेरी छाती पर गलत मंशा से हाथ भी रखा. इस पर मैं जब चिल्लाने लगी तो ज्ञान भारती एवं दूसरी महिला पुलिस मेरा सिर झुकाकर मेरे पीठ पर कोहनी से मारने लगी. इसको देख जब मेरी बेटी रोने लगी तो इन निर्दयी पुलिस वालों ने उसकी भी चोटी पकड़ कर दो-तीन चाटा जड़ दिया. मुझे शहर के कोतवाली थाना लाया गया. कोतवाली थाना पहुंचते ही ज्ञान भारती ने मेरा बाल पकड़ कर खींचते हुए जीप से उतारा. उसके बाद मुझे वहाँ लगभग आधे घंटे तक 7:30 बजे संध्या तक थाना पर बैठाये रखा गया. मैं बार-बार उनसे घर जाने देने की गुहार लगाती रही,किन्तु उन्होंने मुझे घर जाने नहीं दिया.

 फिर कोतवाली स्थित महिला थाना से ज्ञान भारती समेत अन्य पुलिसकर्मी मुझे जबरन उठाकर शहर के ही ततारपुर थाना ले गए. वहाँ मुझे 8:30 बजे तक बैठाकर रखा. मेरी चार साल की बेटी को भूख और प्यास लग रही थी और वो लगातार पानी मांग रही थी. लेकिन किसी पुलिसवाले को हमारे ऊपर रहम नहीं आई और उन्होंने हम दोनों को पानी तक नहीं दिया.

ततारपुर थाना अध्यक्ष अजय कुमारकहने लगे कि, ‘अरे मैडम को ले आये! जरा इसके चेहरे का बढ़िया से फोटो खींचो! बहुत एसएसपी और आईजी के पास हमलोगों की शिकायत करती है!’ उनके कहने पर थाना में मौजूद कुछ पुलिसकर्मियों ने अपनी मोबाईल से मेरी फोटो भी खींची. इसके बाद अजय कुमार ने मुझसे कहा कि, ‘केस-मुकदमे के चक्कर में मत पड़ो, चुपचाप घर पर बैठ जाओ नहीं तो किसी झूठे मामले में फंसाकर जेल भेज देंगे. जीना मुश्किल कर देंगे. समाज में मुंह दिखाने लायक नहीं रहोगी.’ इस दौरान थाना में मौजूद सभी पुलिसकर्मी ठहाके लगाकर हंसते हुए मेरे बारे में गंदी-गंदी बातें बोल रहे थे. पुनः अजय कुमार ने मुझे गाली देते हुए कहा कि- ‘चलो इस रंडी को इसीके घर पर ले जाकर इसकी इंक्वायरी करते हैं.’                

ज्ञान भारती और अजय कुमार सहितकई पुलिसकर्मी दो जीप में मुझे और मेरी बेटी को साथ लेकर मेरे घर ले आये और मेरे चाचा और मेरी तथाकथित सौतेली माँ से कहने लगे कि- ‘इसका ईलाज कर दिये हैं.’ और दोबारा गाड़ी में बैठाकर मुझे और मेरी बेटी को पुनः जीप पर जबरन बैठाकर ततारपुर थाना ले जाने लगे. रास्ते में जब हम बहुत रोने-चीखने लगे तो हमें रात्रि के 9:15 के आसपास रास्ते में उतार दिया गया और मेरा मोबाईल व पर्स फेंककर मुझे वापस कर दिया गया. उतारते वक्त दोनों थाना अध्यक्षों ने मुझे धमकी देते हुए कहा कि-‘भविष्य में दोबारा अगर सौतेली माँ व चाचा पर कोई कांप्लेन करने की कोशिश की तो इससे भी बुरा हाल करेंगे.’

पुलिस वालों द्वारा मुझे और मेरीबेटी के साथ मारपीट करने से हम दोनों को गंभीर चोटें आईं जिसका ईलाज भागलपुर शहर स्थित सदर अस्पताल में चल रहा है. उक्त घटना से मैं और मेरी बेटी काफी भयभीत हैं. मुझे डर है कि पुलिस वाले मेरी कभी भी हत्या कर अथवा करा सकते हैं. मेरे ऊपर झूठे मुकदमे कर अथवा करवाये जा सकते हैं. मैंने इस पूरी घटना से आरक्षी महानिरीक्षक और एसएसपी को लिखित आवेदन व दूरभाष द्वारा देकर कार्यवाही की मांग भी की है. बावजूद इसके अब तक कोई ठोस कार्रवाई नहीं की गई है. आज भी आते-जाते हमारे ऊपर नजर रखी जा रही है और हमारा पीछा भी किया जा रहा है. हम दहशत के साये में जी रहे हैं.

इतना ही नहीं दिनांक 03/11/2016 की सुबहकरीब 06:30 बजे तातारपुर थानाध्यक्ष, अजय कुमार एवं छः सात की संख्या में अन्य पुलिसकर्मी मेरे घर पर आए और मेरे घर का दरवाजा पीटते हुए घर के अंदर प्रवेश कर गए और मैं जिस कमरे में सोती हूँ उस कमरे का दरवाजा भी जोर - जोर से पीटते हुए भद्दी - भद्दी गाली देने लगे और कहा कि तुम थाना चलो, तुम मेरे और एस एस पी पर केस की हो. आज तुम्हारा उस दिन से भी बूरा हाल करेगें और मेरे कमरे के दरवाजा के सामने थानाध्यक्ष कुर्सी मंगाकर बैठ गए तथा उनके साथ आए अन्य पुलिसकर्मी भी उनके इर्द गिर्द खड़े थे जिस कारण न मैं अपनी नित्य क्रिया भी नहीं कर पा रही थी, ये लोग लगातार 09:00 बजे सुबह तक वहाँ बैठे रहे और मुझे प्रताड़ित करते रहे. इस घटना की जानकारी मैने अपने मोबाईल द्वारा श्रीमान् आई जी, भागलपुर और श्रीमान डी आई जी, भागलपुर को दी.उपरोक्त तथ्यों के आलोक में निवेदन है कि मनोज कुमार वरीय आरक्षी अधीक्षक, भागलपुर, ज्ञान भारती महिलाथाना अध्यक्ष, कोतवाली, भागलपुर, अजय कुमार, थाना अध्यक्ष, ततारपुर, भागलपुर, सहित चार-पांच की संख्या में सादे लिवास में पुलिसकर्मी जिसे देखने पर मैं पहचान सकती हूँ, के ऊपर ठोस कार्रवाई करते हुए अविलंब मुअत्तल करने की कृपा की जाय तथा साथ ही मेरे एवं मेरी बेटी के जान-माल की सुरक्षा व न्याय प्रदान की जाय.


                                                                                                                                                                                                                                                                                                               विश्वासभाजन 
                                                                                                                                              (सपनासुमन)
                  

मेरे अल्लाह मेरी दुआ सुनना : अरावली हिल्स पर पथराई आँखों की पुकार

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रायसीना हिल्स से लेकर अरावली हिल्स के उस टुकड़े तक पिछले एक महीने से एक मां और एक बहन का आर्तनाद गूँज रहा है- या खुदा मेरे नजीब को वापस ला दो, खुदा के लिए मेरे नजीब को वापस ला दो, और हृदयहीन सत्तासीन राजनीतिक बयानवाजियों और ट्वीटर पर ट्वीट करने में लगे हैं. पिछले एक महीने से  पुलिस पचास  हजार की रकम से दो लाख रुपये तक की रकम की घोषणा कर चुकी है, नजीब का पता बताने के लिए ,लेकिन अंतिम बार नजीब की पिटाई करने वाले छात्रों से एक सवाल पूछना भी मुनासिब नहीं समझती. जेएनयू से गायब नजीब की मां दिल्ली की सड़कों पर बेटे को पथराई आँखों से ढूंढ रही हैं... पढ़ें जेएनयू के ही शोधार्थी अभय की उनसे यह ख़ास बातचीत और रपट. 


नजीब की मां

शुक्रवार की शाम जाकिर नगर की ऊबर-खाबड़और बीहड़ सड़क, जैसा की आमतौर पर होता है, लोगो की भीड़ से ठसा-ठस भरी हुई थी . सड़क के किनारे-किनारे लगे हुए कबाब के बहुत सारे दुकानों से उठने वाला धुँआ इस जगह को जरा  घना बना रहा था. गाड़ी के हार्न से निकलने वाले शोर तकलीफों में और इजाफा कर रहे थे. जाम मे फँसा एक बैटरी-रिक्शा एक अधेड़ उम्र की महिला और उसकी बेटी को ले जा रहा था.  उनके बगल में बैठ कर मैं महिला में बढ़ती हुई बैचेनी को देख रहा था. कुछ वक्त बाद ट्रैफिक की भीड़- भाड़ खत्म हुई और बैटरी-रिक्शा चालक ने अपनी चाल दुरुस्त की , कोशिश करने लगा की दूसरी गाड़ियों से आगे निकल सके. महिला ने ड्राईवर को हिदायत देते हुए कहा कि “ दायीं ओर मुड़ो” , वो उस गली की ओर इशारा कर रही थी, जो ऐतिहासिक जामिया-मिलिया इसलामिया से लगी हुई है. महबूब नगर गली से सौ गज के भीतर रिक्शा एक घर के सामने रुका. रिक्शा से उतरने के बाद जरा सा वक्त बीता होगा की वह आँसुओ से शराबोर थीं : “ अल्लाह मैं आज फिर बगैर नजीब के वापस आई”.

उनकी बेटी ने जल्दी ही नीचे उत्तर कर उन्हेअपने आगोश मे ले लिया. माँ की मायूसी कायम रही. परिवार के कुछ और सदस्य घर से निकले और उन्हे दिलासा देने की कोशिश की. उन्होने कहा –“ नजीब जल्द ही वापस आएगा”. आगे , कुछ और रिश्तेदारों ने घर से बाहर निकल उन्हे गले से लगाया और वे इस बात की जिद्द करने लगे कि उन्हे मेहमानखाने चले जाना चाहिए. उन्होने एक बार उन्हे फिर से दिलासा दिया : “ नजीब जल्द ही वापस आएगा”. आखिरकार, वह मेहमानखाने में तशरीफ लाई और सोफ़े पे बैठ गई. उनकी दो जवान बेटियां  और मैं उनके बगल में बैठ गए.



कमरे में मैने दिवारो पर टंगी हुई कई तस्वीरे देखी, जिसमें  कुरान की पाक आयतें छपी हुई थी.  उनमें  से कुछ लोग :“ अल्लाह” (भगवान)  और  “बिस्मिल्लाहिर रहमानिर रहिम” (अल्लाह के नामो मे सबसे अधिक परोपकारी, सबसे अधिक दयावान)- का नाम पढ़ रहे थें. कुछ मिनट के बाद, एक दस वर्ष की लड़की ने उन्हे पानी दिया और उन्हे रोने से मना किया. मगर उन्होने पानी पीने से इंकार कर दिया.

रोने वाली यह औरत फातिमा नफीस थी- नजीब की माँ.  उनकी बेटी थी सदाफ मुशर्रफ—नजीब की बड़ी और एक मात्र बहन. करीब-करीब हर रोज नजीब की माँ और बहन एक उम्मीद के साथ घर से बाहर निकलती है और शाम मायूसी के साथ खत्म होती है.

शुक्रवार की दोपहर को आईटीओ स्थित दिल्लीपुलिस मुख्यालय  मे मैं नजीब की माँ और बहन से मिला. वे वहाँ एक धरना-प्रदर्शन में शरीक होने पहुँचे थे. मैं वहाँ जामिया, जेएनयू  और एमयू से आए छात्रों के साथ इक्टठा हुआ था.  धरने की जगह पर  प्रदर्शनकारीयों की आँखों मे गुस्से की चिन्गारी जल रही थी.  दिल्ली पुलिस मुर्दाबाद के नारे फिजा में दो घण्टे तक गुंजते रहे.

बायोटेक्नोलोजी (एम. एससी) के प्रथम वर्ष के छात्रनजीब के गायब होने के बाद से विश्वविद्यालय प्रशासन, दिल्ली पुलिस और हिन्दुत्त्व सरकार की बेरहमी और निकम्मेपन के खिलाफ लगभग रोज प्रदर्शन के कई तरीके – कब्जा कर बैठ जाना,  वाइस-चांसलर का घेराव, गृह मत्रांलय की और  मार्च - इस्तेमाल मे लाऐ जा रहे हैं. दिल्ली पुलिस मुख्यालय में किया गया प्रदर्शन भी चल रहे संघर्ष का हिस्सा था. प्रतिरोध के प्रतीक के बतौर नजीब की माँ और बहन ऐसे हर मौके पर मौजूद होती हैं.



ध्यान रहे कि नजीब के गायब होने की पहली रिपोर्टअक्टूबर  15 को दर्ज कराई गयी थी, जो आरएसएस के छात्र संगठन एबीवीपी के सद्स्यों के द्वारा किये गये बेरहम हिंसा का नतीजा था.  चश्मदीद गावाहों के अनुसार, पिछली रात को एबीवीपी से जुडे़ दर्जनो कार्यकर्ताओं ने जेएनयू के माही-माण्डवी होस्टल मे नजीब को इतनी बुरी तरह से पीटा था कि उसके मुँह और नाक से खून बह रहा था.

जैसे ही अँधेरा होता गया भीड़ का जमावाड़ा कम पड़ता गया. नजीब की माँ और बहन लौटने की तैयारी करने लगे. उनको अकेला देखकर मैं उनके करीब पहुँचा और अपना सलाम पेश किया. मैं उन से जेएनयूं के अन्दर और बाहर कई मौको पर पहले ही मिल चुका था, इसलिये उन्होने मुझे बड़ी आसानी से पहचान लिया.
शाम का अन्धेरा और ठंडक अब बढने लगा था. यह महसूस करते हुए कि अब काफी देर हो चुकी है, मैने नजीब की माँ और बहन से साहस बटोर कर कहा : ‘ मैं आप लोगो के साथ कुछ वक्त बीताना चाहता हूँ….’. मैं जिस दुविधा मे था मेरी झिझक उस से निकल कर आ रही थी. मै पूरे यकीन मे नहीं  था कि वे इस वक्त मुझ से बात करने को राजी हो जाएंगे. हालाकि वे अपनी इच्छा से इस पर राजी हो गए और मुझे अपनी  कार में बैठने को कहा.

कुछ मिनटो बाद कार जाकिर नगर के लिये रवाना हो चुकी थी. नजीब की बहन ने मुझे आगे ड्राइवर की सीट के बगल में बैठने को कहा जबकि नजीब की माँ बीच की पक्तिं मे बैठ गई. नजीब की बहन अपने शौहर के साथ पीछे की सीट पर बैंठी. जैसे ही कार कनाट प्लेस के घेरे तक पहुँची, मैने महसूस किया कि मेरी झिझक बहुत हद तक खत्म हो चुकी थी.

नजीब की बहन जो दिल्ली के हमदर्दमे उर्दू पढाती हैं, ने कहा ,” जेएनयू के छात्रों ने नजीब के लिये जो मोहब्बत दिखलाई है वह हमारे करीबी रिश्तेदारो से भी कही ज्यादा है”. नजीब के परिवार के अन्य सद्स्यों ने भी इस सराहे जाने को दोहराया.हालाकि नजीब का परिवार  जेएनयू प्रशासन  का खास तौर से वाइस-चांसलर जगदीश का असंवेदनशील रवैया देखकर मायूस था. नजीब की बहन, जिनका चेहरा, गला और बाल नीले हिजाब से ढँका हुआ था, ने विश्वविद्धालय प्रशासन और छात्रों  के रवैये के बीच जो फर्क है, उसे बड़ी खूबसूरती से बयाँ किया: ‘ जेएनयू के छात्र कोई खास खाना खा रहे हैं, जिस की वजह से उनको नजीब से इतनी मुहब्बत है . आगर वीसी को पता चले तो वह इनका खाना बंद करा दे’.

नजीब की मां और बहन 


 वाइस-चाँसलर की आलोचना मे नजीब के माँ ने भी जोड़ते हुए कहा: ‘वाइस-चाँसलर एक ऐसी शखसियत है, जिसके जज्बात मर चुके हैं. वह एक बुत की तरह बैठा था.’ ध्यान रहे एक एकेश्वरवादी धर्म के बतौर इस्लाम बुत के पूजे जाने का सश्क्त विरोध करता है, और बुत एक नकारात्मक संकेतार्थ है. और इसलिये बुत से वीसी की तुलना उसके लिए उनमे मौजूद गहरे असंतोष को बयाँ करता है.वाइस-चांसलर की आलोचना को जारी रखते हुए नजीब की बहन ने उस घटना को याद किया, जब वह उनसे  18अक्टुबर को मिलने गई थीं. जैसा कि उन्होने बताया वाइस-चांसलर ने काफी लम्बे इंतजार के बाद ही उनसे मुलाकात की. आधे घण्टे तक चलने वाली इस बैठक मे उन्होने किसी भी बात का अश्वासन नही दिया. “वाइस- चांसलर ने हमारे किसी भी सवाल का जवाब नही दिया. जब उनसे कुछ कहने को कहा जाता तो वे हमारे सवालो को वहाँ बैठे अन्य विश्वविद्धयालय अधिकारियों की ओर बढा देते थें” , नजीब की बहन ने मायूस होते हुए कहा, ‘वाइस- चांसलर के असवेंदनशील रवैये ने उन्हे काफी परेशान किया’  वह इतनी जज्बाती हो गई कि अगले दिन उन्होने वाइस- चांसलर के अफिस पर सैकड़ो छात्रों को सम्बोधित किया . उनका भाषण कई लोगो को रुला गया.

तब तक कार कनाट प्लेस के औटर रिंग के पास  पहुँच गई थी.हमारी बातचीत का रुख अब मिडिया की ओर मुड़ चुका था. उनकी बहन मिडिया, खास तौर से इलेक्ट्रोनिक मिडिया की “चुप्पी” देखकर दुखी थीं. ‘कुछ अखबारो ने नजीब के केस को कवर किया है मगर इलेक्ट्रोनिक मिडिया अधिकतर चुप ही रहा है”, उन्होने शोक व्यक्त करते हुए कहा.हालांकि  नजीब की माँ की मीडिया मे कोई दिलचस्पी  नहीं थी. उनके जेहन मे सिर्फ एक ही बात तैर रही थीं- अपने बेटे की तालाश: ‘ अगर नजीब मिल गया, मैं तुम सब को पार्टी मे बुलाबा दूंगी’. इस बात को महसूस करते हुए कि नजीब के मिलने की खुशी इतनी ज्यादा होगी कि वह केवल तभी पूरी हो सकती है जब कि समारोह मे जेएनयू के सभी छात्र मौजूद हो, उन्होने खुद को सुधारते हुए कहा: ‘अगर नजीब मिल गया, तो मैं जेएनयू के सारे छात्रो  को पार्टी मे बुलाबा दूंगी’.

जबकि नजीब का गायब होने से जेएनयू को लेकरपरिवार के सदस्यों में  गहरे जख्म के निशान बन गये हैं, नजीब के लिये छात्रो की दी गई मदद भी विश्वविद्यालय  को उनके लिये खास बनाता है. अपने परिवार के तरफ से जेएनयू के छात्रो की मदद को याद करते हुए , नजीब की बहन बोली कि धरने की जगह पर वे हमे घेरते हुए बैठ गए और हमे पूरी सुरक्षा दे रहे थे, जैसे कि “ हम उनके परिवार के सदस्य हों”. कुछ ही हफ्ते के भीतर जेएनयू  के लिये नजीब की बहन मे एक गहरी मुहब्बत पनप चुकी है. “ पहले हममे जामिया के लिये मोहब्बत थी और जामिया के इलाके में पहुँच कर हमेशा घर जैसा महसूस होता था मगर अब हममे जामिया के लिए भी ऐसी मुहब्बत पनप चुकी  है”, नजीब की बहन ने कहा.

जब मैंने नजीब और उसके तालीम के बारे मे पूछा, तब नजीब की माँ ने कहा कि वह एक मेहनती छात्र था और चार नामी-गिरामी विश्वविद्यालय  की प्रवेश परिक्षा उसने पास की थी—एएमयू, हमदर्द, जामीया और  जेएनयू. हालांकि  उसने उनकी इच्छा के विरुद्ध  जेएनयू को प्राथमिकता दी . वह नजीब  को जेएनयू क्यों नही भेजना चाहती थी? वह जवाव देती हैं: “ मैं जेएनयू में  हुए पिछले विवाद को लेकर सतर्क थीं……… मैं नही चाहती थीं की नजीब वहाँ जाए लेकिन उसने मेरी नही सुनी. वह वहाँ मोहरा बन गया’, वह रोए जा रही थीं और उनके आँसू  उनके नीले और सफेद कुर्ते को गीला कर रहे थे.



एक घण्टे तक चलने के बाद कार जामिया नगर इलाके में पहुँची. नजीब के साथ हुई हालिया बातचीत को साझा करते हुए उन्होंने  कहा कि नजीब कमरे में खटमल के डर की शिकायत कर रहा था.  यह सुनकर नजीब की माँ ने आश्वासन देते हए कहा था कि वहाँ उसके अब्बा जाएंगे और कमरे मे कीटनाशक का छिड़काव करवा देंगे.  लेकिन यह नजीब की उदासी दूर  नही कर सका: “ खटमल सभी होस्टलो मे मौजूद है. इसमे पापा क्या कर सकते हैं ?”

तब तक कार जाकिर नगर पहुँच चुकी  थी और हम ने जाकिर नगर इलाके मे स्थित नजीब के फुफी ( नजीब के पिता की बहन) के  घर जाने के लिए बैटरी-रिक्शा लिया. नजीब के फुफेरे भाई ने हम सब के लिये चाय लाई, हम सब साथ चाय पीने लगे. नजीब की अम्मी थक चुकी थीं और मैने सोचा मुझे निकलना चाहिए. नजीब की माँ के होठो पर बस ये ही शब्द हैं: “ मेरे अल्लाह मेरी दुआ सुनना और नजीब को जल्द से जल्द वापस ले आना”.

अभय कुमार जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय के इतिहास अध्ययन केंद्र में ‘आधुनिक राज्य धर्मनिरपेक्ष कानून और अल्पसंख्यक'विषय पर शोधरत हैं। संपर्क: 9868660402


स्तन कैंसर/ब्रेस्ट कैंसर: कवितायें विभा रानी की

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विभा रानी
लेखिका, रंगमंच में सशक्त उपस्थिति, संपर्क :मो- 09820619161 gonujha.jha@gmail.com

कैंसर का जश्न!

क्या फर्क पड़ता है!
सीना सपाट हो या उभरा
चेहरा सलोना हो या बिगड़ा
सर पर घने बाल हों या हो वह गंजा!
ज़िन्दगी से सुंदर,
गुदाज़
और यौवनमय नहीं है कुछ भी.
आओ, मनाएं,
जश्न – इस यौवन का
जश्न – इस जीवन का!

गाँठ

मन पर पड़े या तन पर
भुगतते हैं खामियाजे तन और मन दोनों ही
एक के उठने या दूसरे के बैठने से
नहीं हो जाती है हार या जीत किसी एक या दोनों की.
गाँठ पड़ती है कभी
पेड़ों के पत्तों पर भी
और नदी के छिलकों पर भी.
गाँठ जीवन से जितनी जल्दी निकले
उतना ही अच्छा.
पड़ गए शगुन के पीले चावल,
चलो, उठाओ गीत कोई.
गाँठ हल्दी तो है नहीं
जो पिघल ही जाएगी
कभी न कभी
बर्फ की तरह.

गांठ : मनके-सी!

एक दिन
मैंने उससे कहा
देखो न!
गले में पड़े मनके की तरह
उग आई हैं गांठें।
क्या ऐसा नहीं हो सकता कि
गले से उतारकर रखी गई माला की तरह ही
हौले से गांठ को भी निकालकर
रख दें किसी मखमली डब्बे में बंद
उसकी आंखों में दो मोती चमके
और उसने घुट घुट कर पी लिया अपनी आंखों से
मेरी आंखों का सारा पानी।
गांठ गाने लगी आंखों की नदी की लहरों की ताल पर
हैया हो... हैया हो...
माझी गहो पतवार, हैया हो..।

छोले, राजमा, चने सी गाँठ!

उपमा देते हैं गांठों की
अक्सर खाद्य पदार्थों से
चने दाल सी, मटर के साइज सी
भीगे छोले या राजमा के आकार सी
छोटे, मझोले, बड़े साइज के आलू सी.
फिर खाते भी रहते हैं इन सबको
बिना आए हूल
बगैर सोचे कि
अभी तो दिए थे गांठों को कई नाम-उपनाम
उपनाम तो आते हैं कई-कई
पर शायद संगत नहीं बैठ पाती
कि कहा जाए –
गाँठ –
क्रोसिन की टिकिया जैसी
बिकोसूल के कैप्सूल जैसी.
सभी को पता है
आलू से लेकर छोले, चने, राजमे का आकार-प्रकार
क्या सभी को पता होगा
क्रोसिन-बिकोसूल का रूप-रंग?
गाँठ को जोड़ना चाहते हैं –
जीवन की सार्वभौमिकता से
और तानते रहते हैं उपमाओं के
शामियाने-चंदोबे!


कैंसू डार्लिंग! किस्सू डियर!! 

मेरा ना.......म है – कैंसर!
प्यार से लोग मुझे कुछ भी नहीं कहते.
न कैंसू, न किस्सू, न कैन्स.
और तुम्हारा नाम क्या है –
सुषमा, सरोज, ममता या अम्बा.
रफ़ी, डिसूजा, इस्सर, जगदम्बा.
उस रोज
रात भर बजती रही थी
शहनाई, बांसुरी, ढोलक की बेसुरी धुन!
खुलते रहे थे दिल और दिमाग के
खिड़की – कपाट.
मन चीख रहा था गाने की शक्ल में
दे नहीं रहा था ध्यान सुर या ले पर.
हुहुआ रही थी एक ही आंधी
डुबा रही थी दिल को – एक ही धड़कन
कैसे? कैसे ये सब हुआ??
क्यों? और क्यों ये सब हुआ?
कैंसर!
मुझे पता है तेरा नाम
दी है अपने ही घर के तीन लोगों की आहुति
फिर भी नहीं भरा तुम्हारा पेट जो
आ गए मेरे पास?
और अब गा रहे हो बड़ा चमक-छमक के, कि
मेरा ना......म है कैंसर!
और कर भी रहे हो शिकायत कि
नहीं लोग पुकारते हैं तुम्हें प्यार से
किस्सू डियर या कैंसू डार्लिंग!
आओ,
अब, जब तुम आ ही गए हो मेरे सीने में
मेरे दिल के ठीक ऊपर
जमा ही लिया है डेरा
तो कह रही हूँ तुम्हें
कैंसू डार्लिंग, किस्सू डियर!
खुश!
लो, पूरी करो अपनी मियाद
और चलते बनो
अपने देस-नगर को,
जहां से मत देना आवाज किसी को
न पुकारना किसी का नाम
इठलाकर, बल खाकर
ओ माई कैंसू डियर!
ओ माई किस्सू डार्लिंग!!

ब्रेस्ट कैंसर.

अच्छी लगती है अंग्रेजी, कभी कभी
दे देती है भावों को भाषा का आवरण
भदेस क्या! शुद्ध सुसंस्कृत भाषा में भी,
नहीं उचार या बोल पाते.
स्तन – स्तन का कैंसर
जितने फर्राटे से हम बोलने लगे हैं –
ब्रेस्ट – ब्रेस्ट कैंसर!
नहीं आती है शर्म या होती है कोई झिझक
बॉस से लेकर बाउजी तक
डॉक्टर से लेकर डियर वन्स तक को बताने में
ब्रेस्ट कैंसर, यूट्रेस कैंसर.
यह भाषा का सरलीकरण है
या भाव का भावहीनता तक का विस्तार
या बोल बोल कर, बार बार
भ्रम – पाने का डर से निजात
ब्रेस्ट कैंसर, ब्रेस्ट कैंसर, ब्रेस्ट
ब्रेस्ट, ब्रेस्ट, ब्रेस्ट कैंसर!

तुम और तुम्हारी वकत ओ स्तन!

याद नहीं,
पर आते ही धरती पर
मैंने तुम्हें महसूसा होगा
जब मेरी माँ ने मेरे मुंह में दिया होगा – तुम्हें.
यहीं से शुरू हो जाता है
हर शिशु का तुमसे नाता
जो बढ़कर उम्र के साथ
बन जाता है माँ से मादा तक का हाथ –
छूता, टटोलता, कसता
या घूम जाता तुम्हारी गोलाई में.
इधर-उधर के ताने-बाने के साथ.
तुम्हें ही मानकर पहेली
तुम्हीं के संग बनकर सहेली
खेली थी होली
की थी अठखेली
भाभी संग, संग ननद के भी
जब मुंह के बदले बोली थी
स्तन की बोली.
मेरी समझ में आया था
क्या है वकत तुम्हारी
तुमसे ही होती है पहचान हमारी
ओ मादा! ओ औरत ज़ात!
कितना बड़ा हिस्सा है देह के इस अंग का
तुम्हारे साथ!

जनाना चीज

बचपन में ही चल गया था पता
कि बड़ी जनाना चीज है ये.
मरे जाते हैं सभी इसके लिए
छोकरे- देखने के लिए
छोकरियाँ-दिखाने के लिए
बाज़ार- बेचने और भुनाने के लिए
सभी होते हैं निराश
गर नहीं है मन-मुआफिक इसका आकार!
बेचनेवाले कैसे बेचें उत्पाद
ब्रेसरी की मालिश की दवा
कॉस्मोटोलोजी या खाने की टिकिया
पहेलियां भी बन गईं- बूझ-अबूझ
‘कनक छड़ी सी कामिनी, काहे को कटि छीन?
कटि को कंचन काट विधि, कुचन मध्य धरि दीन!’
ये तो हुआ साहित्य विमर्श
बड़े-बड़े देते हैं इसके उद्धरण
साहित्य से नहीं चलता जीवन या समाज.
सो उसने बनाया अपना बुझौअल और बुझाई यह पहेली-
गोर बदन मुख सांवरे, बसे समंदर तीर
एक अचंभा हमने देखा, एक नाम दो बीर!
वीर डटे हुए हैं मैदान में
कवियों के राग में
ठुमरी की तान में
‘जब रे सिपाहिया, चोली के बन्द खोले,
जोबन दुनु डट गई रात मोरी अम्मा!’
खुल जाते हैं चोली के बंद
बार-बार, लगातार
सूख जाती है लाज-हया की गंगा
बैशाख-जेठ की गरमी सी
खत्म हो जाती है लोक-लाज की गठरी
आंखों में बैठ जाता है सूखे कांटे सा
कैंसर!
उघाड़ते-उघाड़ते
जांच कराते-कराते
संवेदनहीन हो जाता है डॉक्टर संग
मरीज भी!

पॉप कॉर्न सा ब्रेस्ट!

पॉप कॉर्न सा उछलता
बिखरता ब्रेस्ट कैंसर।
यहां-वहां, इधर-उधर
जब-तब, निरंतर।
प्रियजन,
नाते-रिश्तेदार
हित-मित्र, दोस्त-यार।
किसी की माँ
किसी की बहन
किसी की भाभी
किसी की बीबी
कोई नहीं तो अपनी पड़ोसन।
दादी-नानी भी नहीं है अछूती
न अछूता है रोग।
आने पर ब्रेस्ट कैंसर की सवारी
खोजते हैं आने की वजह?
लाइफ स्टाइल?
स्ट्रेस?
लेट मैरिज?
लेट संतान?
एक या दो ही बच्चे?
नहीं कराया स्तन-पान?
डॉक्टर और विशेषज्ञ हैं हैरान
नहीं पता कारण
नहीं निष्कर्ष इतना आसान
हर मरीज के अपने लक्षण
अपने-अपने कारण।
पूछते हैं सवाल एक से- कैसे हो गया?
जवाब जो होता मालूम
तो फेंक आते किसी गठरी में बांधकर
किसी पर्वत की ऊंचाई पर
या पाताल की गहराई में
पॉप कॉर्न से कैंसर के ये दाने।

मीडिया से मजदूर गायब, सेक्सी माडल्स बिल्डिंग बना रहे हैं !

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आदित्य कुमार गिरि
शोधार्थी,कलकत्ता विश्वविद्यालय,ईमेल आईडी-adityakumargiri@gmail.com
टीवी पर 'अल्ट्राटेक सीमेंट'का नयाविज्ञापन आ रहा है.सुंदर और सेक्सी मॉडल्स बिल्डिंग  बना रहे हैं.मतलब विज्ञापन में वे मज़दूर की भूमिका में हैं.लड़के मज़दूर 'सिक्स-पैक'की बॉडी के साथ और लड़कियाँ मज़दूर 'ज़ीरो फिगर'वाली,छरहरी सुंदर.

मतलब बिल्डिंग भी यह सोचकरकभी न गिरे कि 'क्या खूब हाथों ने हमें बनाया है.'
पूँजीपति वर्ग का आज के युग में मज़दूरों पर यह सबसे सुंदर(?) मज़ाक है.(अगर इसे ऐसे देखें तो.)

हालाँकि सौन्दर्यवादी दृष्टि से विज्ञापन खूबसूरत बन पड़ा है लेकिन जिन मज़दूरों को चित्रित किया गया है वे लोग ऐसे होते नहीं.उनकी स्थिति दर्दनाक होती है.
पूँजीवाद ने अब मज़दूरों को भी विज्ञापन में सौंदर्य के प्रतिमान की तरह चित्रित करना शुरू कर दिया है.यानी यह नई कला से मज़दूर को गायब करने की शुरुआत है.इलेक्ट्रॉनिक मीडिया मज़दूरों और किसानों और आदिवासियों को लुप्त करने जा रहा है.

इसे भी पढ़े  ....
बहुत खूब कंगना राणावत, सलमान खान कुछ सीखो ..

यह मीडिया-क्रांति का युग है.मीडिया से मज़दूर गायब,किसान गायब,आदिवासी गायब यह अचानक नहीं है.यह एक सोची समझी रणनीति के तहत किया जा रहा है.
बहस के लिए उछाले जा रहे मुद्दे बुनियादी मुद्दों से अलग हैं.राहुल गाँधी की यात्रा की ‘कवरेज’ जरूरी है,किसानों की स्थिति नहीं.राहुल गाँधी की मिट्टी उठाती तस्वीर महत्त्वपूर्ण है,रोज-रोज वही काम कर रहे मज़दूर नहीं.उनकी तस्वीर नहीं.

'चाय वाले'लीडर पर कवरेज तो होगी लेकिन असली चाय वालों को बहस से बाहर रखा जाएगा.उनकी स्थिति,उनका दर्द मीडिया से गायब होगा.मज़दूरों पर मीडिया ‘बाईट्स’ तो होंगी लेकिन मज़दूर गायब होंगे.

आधुनिक मीडिया पूँजीवाद का पिट्ठूहै.वह आमजन के बुनियादी मुद्दों से अलग फैशन और मनोरंजन को जगह देने वाला माध्यम है.मीडिया में जब से ‘बड़ी-पूँजी’ का प्रवेश हुआ है उसे आमजन या लोकतंत्र के हथियार के रूप में जानने और मानने वालों को निराशा हुई है.

आधुनिक मीडिया पूँजीपतियों के हितसाधन के लिए खबरें निर्मित करता है.इसने कला के हर रूप को अपने अंदर समाहित कर लिया है.वे सारे रूप जो कल तक जन सरोकारों से जुडे थे मीडिया ने उन्हें अपने कब्जे में कर लिया है.कविताओं और कहानियों के बाद अब विज्ञापन और सीरियल्स और कला के सभी आधुनिक रूपों पर पूँजीपतियों का कब्जा है.आमजन के हित के लिए लड़ी जाने वाली लड़ाइयों के सभी माध्यमों पर पूँजीपति नजर गड़ाए है.वह पिछली सदी वाली गलती नहीं करना चाहता.


लेकिन इन सबके बीच जो सबसे बड़ीसमस्या है वह यह कि आमजन मञ्च विहीन हो गया है.उसके लिए लड़ी जाने वाली हर लड़ाई ‘फिक्स्ड’ है.उसका हर हीरो बिका हुआ है.वह किसी पर भरोसा नहीं कर सकता.
जन प्रतिनिधि उसे केवल मुददे के रूप में देख रहा है और पूँजीवाद उसे सौन्दर्य प्रसाधन या मनोरंजन के एक प्रकार के रूप में प्रस्तुत कर रहा है.जहां उसकी चर्चा तो होगी लेकिन नॉनसेंस के लिए.मजदूर मीडिया में नॉनसेंस होगा.टीवी देख रहे मजदूर उजबक की तरह टुकुर टुकुर ताकेंगे.

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यह युग एंटी मजदूर,एंटी किसान,एंटी आदिवासी है.बड़ी पूँजी ने समूची सभ्यता को खेल बना दिया है.ऐसा खेल जिसके सारे नियम उसने खुद बनाए हैं.मजदूर सिर्फ एक वस्तु बनकर रह गया है.किसी भी मजदूर या किसान की आत्महत्या अब मनोरंजन की वस्तु है.मीडिया ने उसे एक रूटिन खबर बना दिया है.लोग जैसे फिल्में और सीरियल्स और गाने देखते हैं हिंसा या हत्या या मृत्यु की खबरें वैसे ही देख रहे हैं.लोगों की संवेदनहीनता असल में मीडिया निर्मित है.यह मीडिया निर्मित स्थिति है..यह एक खराब युग है.जहाँ विरोध के सारे साधन,सारे नियम जिसका विरोध हो रहा है उसके कब्जे में है.ऐसे में यह लड़ाई बहुत खतरनाक और गंभीर हो गई है.इसकी चुनौतियाँ दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही हैं.


लोग अपने आस पास के मुद्दों कोमीडिया में देखें, उसके ग्लैमर के रंग में रंग जायें यही उद्देश्य है.मुक्तिबोध ने शीतयुद्धीय समय में जिसे ‘कॉस्मेटिक सौन्दर्य’ कहा था असल में वह शुरुआती दौर था.अब हम उसे उसके विकसित रूप में देख रहे हैं.लोगों की बेबसी और लाचारी असल में पूँजीपतियों की ताकत के फलस्वरूप की स्थिति है.

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मीडिया भ्रम बनाए रखता है कि वहजन सरोकार के मुद्दों के प्रति गंभीर है जबकि एक मुहीम के तहत वह जन सरोकार के मुद्दों को हल्का कर रहा होता है.उसके खिलाफ पनप रहे स्वाभाविक गुस्से को खत्म करने की स्थिति पैदा करता है.मीडिया का यह भ्रम असल में पूँजीपतियों के लिए जन्म ले सकती किसी भी अप्रिय स्थिति का तोड़ है.आमजन मीडिया को विरोध के ज़रिए के रूप में देखे और इधर मीडिया पूँजीपतियों के हित में काम करे.


गंभीर से गंभीर मुद्दे को मनोरंजनबना देना,हल्का बना देना कोई अचानक हो रही चीज़ नहीं है.मीडिया सबसे पहले व्यक्ति की आलोचनात्मकता को नष्ट करने का काम कर रहा है.मतलब जो दिखाया जा रहा है उसे चुपचाप दर्शक भाव से देखिए और स्वीकारिए.मीडिया ने विराट जनमानस को पंगु करने का काम किया है.
मैं इस विज्ञापन के पीछे की विचारधारा के खतरे को साफ देख रहा हूँ.मीडिया ने हर एक बुनियादी सवाल को सौन्दर्य की वस्तु बना दिया है और आमजन को दर्शक.
फुकोयामा ने कहा था ‘हम जिस गाडी में बैठे हैं उसकी ड्राइविंग सीट पर राजनीति नहीं है.’

पहली महिला राष्ट्रपति नहीं सेक्सिस्ट राष्ट्रपति: अमेरिकी जनादेश

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दुनिया के सबसे ताकतवर माने जाने वालेमुल्क ने अपना राष्ट्रपति चुन लिया है और इस तरह विवादों में रहने वाला, महिलाओं को देह मात्र मानने वाला शख्स अमेरिकी लोकतंत्र का कर्ता-धर्ता बन गया है. डोनाल्ड ट्रंप का चुना जाना अमेरिकी समाज की पितृसत्तात्मक सोच की बेहद मजबूत बुनियाद का प्रतीक है, जिसकी जड़ें भारत में भी कम मजबूत नहीं है, ट्रंप के लिए भारत में हो रहे यज्ञों और उनके पक्ष में उठ रही आवाजें इसका प्रतीक हैं. भारत के सोशल मीडिया में सक्रिय अश्लील और आक्रामक स्त्री-दलित-वंचित और अल्पसंख्यक विरोधियों से ट्रंप के समर्थक भी कम नहीं हैं. एक खबर- विश्लेषण के अनुसार उनके समर्थकों ने इस साल की शुरुआत में ही पत्रकार मेगन केली को ट्वीट करते हुए गालियों की बौछार कर दी थी- बीच, व्होर, बिम्बो, कंट जैसी गालियों से उनपर हमला बो दिया था, ऐसा इसलिए कि ट्रंप ने केली के शो में जाने से यह कहते हुए मना कर दिया था कि ‘वह ( ट्रंप) केली को पसंद नहीं करते.


अमेरिका की मोदी परिघटना

भारत की घटनाओं से साम्य रखतीइन घटनाओं और हमलों के बीच रिपब्लिकन पार्टी के डोनाल्ड ट्रंप डेमोक्रैट उम्मीदवार हिलेरी क्लिंटन को हराकर अमेरिका के राष्ट्रपति बन गये हैं. इसके राजनीतिक मायने ठीक-ठीक वही हैं, जो 2014 की गर्मी में भारत में सत्ता परिवर्तन के राजनीतिक मायने थे, यानी मनमोहन सिंह की हार और नरेंद्र मोदी की जीत. इससे ज्यादा वाम-दक्षिण जैसी कोई बायनरी नहीं बनती. मई 2014 के मई में आये चुनाव परिणाम के साथ भारत की राजनीति ‘दक्षिण’ से और दक्षिण की ओर बढ़ी है- अमेरिका का चुनाव परिणाम उसकी आंतरिक राजनीति को वही खीच कर ले जा रहा है. लेकिन ट्रंप की जीत का विशेष मायने यह है कि अमेरिका के व्हाईट हाउस में पहली महिला नहीं जा सकी. नस्लवाद के खिलाफ एक सन्देश तो अमेरिकियों ने 2008 में दे दिया था- ब्लैक बराक ओबामा को राष्ट्रपति चुनकर, लेकिन वे इसे पुरुषवाद के खिलाफ जनादेश तक विस्तार नहीं दे सके. ऐसा मैं सिर्फ टोकन के तौर पर नहीं कह रहा हूँ- ओबामा से नस्लवादी नफरत करने वाले अमेरिकियों की कोई कमी नहीं है, लेकिन बहुमत नस्लावाद से ऊपर गया. ऐसा 2016 में नहीं हो सका, अमेरिकी जनता ने महिलाओं को गालियाँ देने वाले, उनका उत्पीडन करने वाले सेक्सिस्ट ट्रंप को अपना प्रतिनधि चुन लिया.

अमेरिकी प्रतिभा पाटिल

यदि हिलेरी क्लिंटन चुन ली गई होतींतो जनादेश महिलाविरोधी आचरणों के खिलाफ एक सन्देश होता, और यह महत्वपूर्ण होता. देश की पहली महिला राष्ट्रपति होने का भी एक अर्थ सन्दर्भ है, हालांकि भारत ने देखा है कि उसकी पहली महिला राष्ट्रपति कहीं से भी स्त्रीवादी नहीं थी, बल्किन बाबाओं-माताओं और भूत-प्रेत में विश्वास करने वाली स्त्रीविरोधी सोच की पतिव्रता स्त्री भर थीं. अमेरिका में भी हिलेरी के होने से स्त्रीवाद की कोई जीत का जश्न नहीं होने वाला था. बल्कि हिलेरी भी प्रतिभा पाटिल की तरह ही आत्मा-संवाद (मरे हुए व्यक्ति से) करने में अपनी महारत की दावेदार रही हैं, उनका दावा राष्ट्रपति फ्रेंकलीन रूजवेल्ट की पत्नी एलेनार रूजवेल्ट से बात करने की रही है, जबकि प्रतिभा पाटिल का दावा ‘ब्रह्मकुमारी माता’ से बात करने की रही है.
व्हाईट हाउस की होड़ में पहली महिला स्त्रीवादी थीं


हिलेरी क्लिंटन निश्चित ही आधिकारिकतौर पर पहली महिला राष्ट्रपति जरूर होतीं, लेकिन व्हाईट हाउस की आंतरिक सत्ता संभालने की पत्नीवत भूमिका से आगे बढ़कर शासन-प्रशासन और राजनीतिक निर्णयों में अगुआई करने का एक श्रेय एडिथ विल्सन को जाता है, जो अपने राष्ट्रपति पति वुडरो विल्सन के बीमार होने के बाद 17 महीने तक देश की सत्ता की बागडोर संभाली. कुछ विश्लेषक उन्हें भी अमेरिका की पहली महिला राष्ट्रपति मानते हैं. हालांकि ऐसा आधिकारिक तौर पर नहीं कहा जा सकता, क्योंकि यह महज संयोग था, राष्ट्रपति की शारीरिक अक्षमता की स्थिति में अमेरिकी संविधान तब बहुत स्पष्ट प्रावधान नहीं रखता था. हालांकि अमेरिकी की पहली महिला राष्ट्रपति होने की होड़ में महिलायें पहले भी आगे आती रही हैं, लेकिन रिपब्लिकन और डेमोक्रैट जैसी बड़ी पार्टी से पहली अधिकारिक उम्मीदवार, हिलेरी क्लिंटन ही रही हैं, जो जीततीं तो कीर्तिमान रचतीं.

अमेरिकी इतिहास में पहली राष्ट्रपति पद की पहली महिला उम्मीदवार विक्टोरिया वुडहल रही हैं, जिन्होंने 1872 में चुनाव लड़ा था. विक्टोरिया वुडहल महिला अधिकार और श्रमिक अधिकार के लिए सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता थीं. हिलेरी क्लिंटन की ऐसी कोई पृष्ठभूमि नहीं है, लेकिन उनकी जीत जरूर एक स्त्री एक पक्ष में जनादेश होती, क्योंकि ट्रंप के महिलाविरोधी आचरण, उनके सेक्सिस्ट रिमार्क और उनके द्वारा महिलाओं का ‘तथाकथित उत्पीडन’ इस बार चुनाव में मुद्दा बन गया था.


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हिलेरी क्लिंटन बनाम डोनाल्ड ट्रंप: सामाजिक पृष्ठभूमि

गौरतलब है कि एक और मामले में अमेरिकी चुनाव भारत के 2014 के चुनाव से साम्य रखता है, वह साम्य बनता है, दोनो उम्मीदवारों की सामाजिक पृष्ठभूमि के आधार पर. एक ओर पूर्व राष्ट्रपति बिल क्लिंटन की पत्नी हिलेरी क्लिंटन थीं, जिनके पास सपष्ट राजनीतिक विरासत है और प्रशासनिक अनुभव भी, दूसरी ओर व्यवसायी और 19 सालों से सौन्दर्य प्रतियोगिताओं के मालिक अराजनीतिक पृष्ठभूमि वाले ट्रंप- यहाँ राजनीतिक जुमले में चाय जैसा ही कोई संयोग था.

पति को संतुष्ट नहीं कर पाई, अमेरिकी जनता को क्या संतुष्ट करेगी: 

ट्रंप अपने पूरे करिअर में महिला विरोधीहलके रिमार्क के लिए कुख्यात रहे है. वे महिलाओं की देह, चेहरे और व्यक्तिव को लेकर सेकसिस्ट रिमार्क देते रहे हैं, अमेरिका की कई बड़ी महिला हस्तियों ने उनपर यौन शोषण के आरोप लगाये, जिसकी संख्या चुनाव प्रचार के दौरान बढ़ती ही गई. सीमा का उल्लंघन तो तब हुआ, जब उनके ट्वीटर हैंडल से हिलेरी के बारे में ट्वीट हुआ कि, ‘ जो पति को संतुष्ट नहीं कर पाई, वह अमेरिकी जनता को क्या संतुष्ट करेगी,’ हिलेरी के बारे में यह रिमार्क उनके पति और पूर्व राष्ट्रपति बिल क्लिंटन और मोनिका लिवेन्स्की के प्रसंग में किया गया था, मोनिका लिवेन्स्की ने क्लिंटन पर यौन शोषण का आरोप लागाया था. अपने विरोधियों के खिलाफ अश्लील ट्वीटर पोस्ट को दुबारा शेयर करने वाले ट्रंप ( हालांकि वे शेयर करने के बाद अपनी ओर से उसे स्वीकारने या अस्वीकारने का कोई कमेन्ट नहीं देते) के खुद के ऐसे अश्लील और सेक्सिस्ट रिमार्क की लम्बी फेहरिश्त है, जो ऑडियो, वीडियो की शक्ल में भी सोशल मीडिया में वायरल हैं. वे एक वायरल ऑडियो में एक विवाहिता के साथ सेक्स करने की बात अश्लील तरीके से कहते हुए सुने जा सकते हैं.
स्त्रियों के शरीर और खासकर यौन अंगों के बारे में बात करना उनका पसंदीदा काम है, ऐसा आरोप अमेरिका की कई बड़ी हस्तियों ने लगाया है, और ऐसा करते हुए वे सार्जनिक टीवी शो और अपने साक्षात्कारों में भी देखे गये हैं.

सुनें पूरी बातचीत: मैंने उस विवाहित स्त्री को फक किया

तो सवाल है कि क्या अमेरिकियों नेस्पष्ट सन्देश दिया है की वे पहली स्त्री को तो व्हाईट हाउस  भेजने के लिए तैयार नहीं ही हुए हैं, बल्कि उससे भी आगे बढ़कर एक स्त्रीविरोध शख्स को देश की बाग़डोर सौपने में उन्हें कोई दिक्कत नहीं है.

अपराधी बादशाह जो बन बैठा

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मधुलिका सिंह
केन्द्रीय विश्वविद्यालय तमिलनाडु में हिंदी विभाग में पढ़ाती हैं संपर्क :ben.madhulika@gmail.com
अपने जीवन के लगभग 29 वर्षबिताने के बाद मैं इतना तो समझ गयी थी कि अपराधी बादशाह की भूमिका में होता है और सच अपराधी की तरह. मुक्तिबोध की कविता ‘‘भूल गलती’ की ये पंक्तियां याद आ रही थी -
भूल गलती/
आज बैठी है जिहरबख्तर पहन कर
 तख्त पर दिल के चमकते हैं खड़े हथियार उसके दूर तक 
आँखें चिलकती हैं
नुकीले तेज पत्थर-सी 
खड़ी हैं सिर झुकाए सब कतारें..’’.

जो अपराधी था उसी के जिम्मे न्याय की कलम पकड़ा दी गयी थी. जो सच था, उस से दलीलें माँगी जा रही थी. साँप, घड़ियाल एकजुट हो गए थे. व्यवस्था की कुर्सी पर बैठा व्यक्ति गिरगिट से भी ज्यादा तेज गति से रंग बदल रहा था. अपनी सफेद शर्ट के नीचे लड़कियों की हड्डियाँ छुपाए फिरता था. यह एक ऐसा समय था जब ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ का नारा जोर पकड़ रहा था. ऐसे ही समय में बेटियाँ सरेआम जुल्मों से लहूलुहान थी. आखिर न्याय की कलम बादशाह बन बैठे अपराधी के हाथ में जो थी. जुल्मों का अध्याय दिन-ब-दिन बढ़ता जा रहा था और मनुष्य सभ्य और शिक्षित हो रहा था. ऐसे में एक सवाल बार-बार मेरे मन में दस्तक दे रहा था कि यह कैसी सभ्यता है, जिसके हर पन्ने  पर खून के दाग लगे हुए हैं ?

उस दिन समाचार पत्र जनसत्ता (26.09.2016) मेरे  सामने था. तीन खबरें महिलाओं से संबंधित थी. एक-राजधानी और दिलवालों की दिल्ली में किशोरी बच्ची से बलात्कार के मामले में डाक्टरों ने अहम सबूत भ्रूण को कूड़े में फेंक दिया था. दो- चंड़ीगढ़ के रोहतक में सामूहिक बलात्कार  के बाद महिला ने खुदकुशी कर ली. तीन-तीन तलाक के मामले में महिलाओं ने की सुप्रीम कोर्ट से विरोध की अपील.यह वही समय था, जब पाकिस्तान, बांग्लादेश समेत 21 मुस्लिम देशों में इसे समाप्त कर दिया गया था. मेरे हिंदुस्तान में महिलाओं और वंचितों के मामलों में धार्मिक न्याय प्रणाली अभी भी अपनाई जा रही थी. आजादी के बाद देश का संविधान लागू हो चुका था और संविधान की धज्जियाँ उड़ाने का सिलसिला भी.छोटी से बड़ी हर व्यवस्था में अपराधी बादशाह जो बन बैठा है’यही पंक्ति बार-बार मेरे दिमाग में घूम रही थी.छेड़ी गई, सताई गई, जिबह की गई औरतों का कोई हिसाब न था. पीढ़ियाँ की पीढ़ियाँ गुजर गई थीे. आदिमानव से जानवर तक का सफर सामने था. ताज्जुब की बात यह थी कि इसमें मानव कहीं न था. हिंसक जानवर और नरभक्षी मानव एक में गड्डमड्ड हो गए थे. एक रंग...एक सुर...जो अलग थे, वे नरभक्षी मानवों द्वारा भक्ष लिए गए.

नरभक्षियों ने नाखून काट लिए थे. गले में टाई, बदन पर सूट आ गया था. और सबसे अहम बात, उनके हाथों में संगीने, छुरे, चाकू और एसिड जैसी नवनिर्मित चीजें आ गई थी. जिसमें स्त्रियों का समाज गल- गल कर अपने खून के धब्बे इतिहास पर छोड़ रहा था. जुल्मों के पृष्ठ लम्बे हो रहे थे. द्रौपदी की साड़ी की तरह. और हरबार दरिन्दों का समाज साड़ी के भीतर कुछ खोजते हुए नन्हीं-मुन्नी बच्चियों के नन्हें फ्राॅक के नीचे भी कुछ खोजने लगा था. उनका वहशीपन पिताओं, जेठ, ससुर, देवर, भाइयों, पड़ोसियों, समेत हर रिश्तों में घुल कर बजबजाती नालियों की तरह बह रहा था.


आज से ठीक 4 वर्ष पूर्व 13 जून 2012 को बी.बी.सी. हिन्दी न्यूज के सर्वे के अनुसार- 19 देशों की सूची में हिन्दुस्तान सबसे नीचे पायदान पर था- औरतों की स्थिति के मामले में मेरे देश की तुलना सऊदी अरब जैसे देश से की गई थी....कहाँ मेरी शस्य श्यामला भूमि ...कहाँ सऊदी अरब....मेरा देशभक्त मन आहत हो गया.‘यत्र नार्यस्तु पूज्न्ते, तत्र रमन्ते देवता’ और ‘माँ का स्थान सबसे ऊँचा’सरीखी पंक्तियाँ सूखती नदियों की तरह मुरझा गई थी. और आँखों के सामने नाचने लगा-‘माँ माने सिर्फ डेटाॅल का धुला’, ‘इनकी तरह करोड़ों माँ भरोसा करती हैं सिर्फ कोलगेट पर’, ‘टेस्ट में बेस्ट...मम्मी और एवरेस्ट’.

मैं भी न...क्या चार साल पहले केसर्वे की बात छेड़ दी. भाड़ में जाए बी.बी.सी. स्त्रियों के मामले में हमारा तो गौरवशाली इतिहास रहा है. जितना त्याग और समर्पण हमारे देश की स्त्रियों में है, उतना है किसी देश की स्त्रियों में ?जितना अत्याचार हमारे देश की स्त्रियाँ सहती हैं, उतना किसी अन्य देश की नहीं. इसलिए तो भारतीय नारी सहनशील मानी जाती है. किसी अन्य देश की नारी है क्या इस मामले में इतनी सहनशील ? मैत्रेयी, गार्गी, सती सीता, सावित्री...अरे इतना पीछे क्यूं ? आज ही साक्षी मलिक को ही देख लो, पहलवानी में ओलम्पिक में जीत कर आई है. पी टी उषा, कर्णममल्हेश्वरी, मैरी काॅम, साइना नेहवाल, सानिया मिर्जा समेत खिलाड़ियों को देख लो....इतिहास और वर्तमान का यह चेहरा सामने आते ही मन गदगद हो गया. अरे मारो गोली‘पंजाब केसरी’ की खबर को. इसी साल जनवरी में आस्ट्रेलिया में रह रहे भारतवंशी की बेटी यहाँ आना चाहती थी. सुनते ही उनके पिता का मुँह सूख गया. कहने लगे ‘हमारी मातृृभूमि में स्त्रियाँ सुरक्षित नहीं’. छी!छी!!छी!!!लगता है राजा कृृष्णा मेनन की फिल्म ‘एयरलिफ्ट’ नहीं देखी. अन्त में अपना देश ही काम आता है बच्चू.

अरे देखा न तसलीमा नसरीन का ...कर दी बगावत पुरुषों के अत्याचारों से. कैसे अपनी मातृभूमि से 1994 ई. में चुपचाप भागना पड़ा. और तो और बंगाल सरकार ने भी तो कर दी उसकी किताब बैन. राज्य से बाहर भी निकाल दिया. दिल्ली में नजरबन्द कर दिया गया था उसे. औरत चाहे कहीं की हो, अगर एक देश के पुरुषों को ललकार सकती है, तो दूसरे देश में भी तो वैसे ही पुरुष होते हैं. उनको भी ललकार सकती है. उसका देखा देखी दूसरी औरतें करने लगी तो ? वे भी बगावत पर उतर आई तो ? क्या होगा उस सभ्य समाज का, जो मुँह पर शहद लपेटे आँखों से हलाहल विष उगलता रहता है. हमारे यहाँ की तो यही रीत है औरतों के इनकार के बदले फेंक दो एसिड उसके चेहरे पर. जीवन भर कोसती रहेंगी खुद को. इसी सितम्बर की 27 तारीख कोमुआ ‘नव भारत टाइम्स’ ने बुलन्दशहर की खबर छाप दी-‘रेप पीड़िता पर चार दबंगों ने तेजाब फेंका’. धत् बुलन्दशहर का लगभग 1200 बरस के गौरव पर पानी फिर गया.वेस्ट यूपी की ‘छोटी काशी’ के नाम से मशहूर है यह शहर.राजा अहिबरन ने इसे दिल वालों की दिल्ली के आसपास ही बसा दिया था....लो अब, इसकी वजह से काशी भी बदनाम, दिल्ली भी बदनाम. छींटें तो आसपास पडेंगे ही न.फिर कहने सुनने वाली क्या बात है आज से तीन साल पहले ही एसिड अटैक कानूनन अपराध घोषित कर दिया गया है. सुप्रीम कोर्ट ने तो इसकी बिक्री पर भी रोक लगा रखी है. उसी समय की बात है जब नई दिल्ली, नरेला की रहने वाली प्रीती राठी पर अंकुर नारायणलाल पंवार ने तेजाब फेंक कर उसकी हत्या कर डाली थी-राम! राम! बड़ा ऐतिहासिक फैसला हुआ था उस समय, अंकुर की फाँसी का. जुल्मों के इतिहास में अपराधी को फाँसी! ऐसा कभी-कभार ही देखने को मिलता है. ग्रह नक्षत्रों की दिशा बदल गई होगी शायद. वरना सरकार, घूसखोर आला अमला अपने काले चरित्र पर चूने का दाग कैसे लगने देता.


ये पेपर वाले भी न अक्सर चूहों की तरह जड़ खोदने का काम कर ही जाते है. अपने देश का तो छोड़ो विश्व भर के आँकड़े जुटा लिए.पूरे विश्व में हर साल 1500 एसिड अटैक के  मामले होते है. इनमें 1000 से अधिक मामले भारत में होते हैं. लगता है खबर छापने वाला और खबर लाने वाला दोनों देशभक्त की जात से बिलांग नहीं करते थे.खैर... एसिड अटैक के हर मामलों के पीछे प्रेम संबंध हो ऐसा नहीं. कुछ लोग बेटियाँ जनने पर भी तेजाब फेंक दिया करते हैं. 1994 ई. में मुंबई में जो दुर्घटना अनमोल और उनकी माँ के साथ घटी उसे आज भी भुलाया नहीं जा सकता. क्योंकि अनमोल उसका दंश आज भी भुगत रही हैं. कितने लोग हैं, जो शीरोज कैफे (आगरा) को जानते हैं ? जिसे एसिड अटैक की शिकार हुई लड़कियाँ चलाती हैं. ..और कितने लोग हैं, जो आगरा जाने पर इस कैफे को चुनते हैं ?

‘बढ़ रहा है इण्डिया, डिजिटल बन रहा है इण्डिया’ के बीच हैदराबाद में इसी 8 अक्टूबर को महज 13 साल  की बच्ची की 68 दिन के व्रत के बाद मृत्यु हो गई. सबसे ताज्जुब की बात यह है कि उस व्रत समारोह में सांसद की पत्नी भी गई थी और उस बच्ची  की मृत्यु यात्रा को ‘शोभा यात्रा’ का नाम दिया गया. उसमें 600 लोग शामिल हुए. किसी की भूख से हुई मृत्यु शोभा यात्रा कैसे बन सकती है ? मेरे समझ से बाहर है. फिर तो हमारे देश में भूख के कारण हो रही आत्महत्याओं पर अधिक से अधिक ‘शोभा यात्रा’ निकालने के अवसर मिलेंगे.

लोग जश्न का कोई मौका नहीं छोड़ते.हत्याओं पर जश्न. क्या करें इतिहास में ही खोट है. बार-बार वर्तमान में आ धमकता है.मार्च 2016 को गाजीपुर में एक स्त्री की हत्या हुई. 23 जुलाई ’16 की खबर के अनुसार महोबा में जुँड़वा बच्चियों की हत्या हुई, 26 अगस्त को हरियाणा (मेवात) में दो लड़कियों से गैंग रेप की घटना घटी. अक्टूबरकी दर्दनाक खबर थी दिल्ली के विकासपुरी इलाके की, जहाँ 11 महीने और तीन साल के मासूमों के साथ रेप की घटना घटी. अकेले उत्तर प्रदेश में 2014 और 2015 में रेप की कुल घटनाएँ 12,542 थी.अगस्त 2016 की विश्वरत्न श्रीवास्तव की रिपोर्ट के अनुसारमहिलाओं पर अत्याचार के मामलों में महाराष्ट्र में 26,693 घटनाएँ,दिल्ली में 15,265, असम में 19,139 घटनाएँ हुईं. पूरे भारत में तो निसन्देहऔर आहत करने वाले आँकड़े होंगे.नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो (2015) के अनुसार आपराधिक मामलों में जोधपुरका प्रथम स्थान था. यहाँ रेप दर 13.4 थी. दूसरा स्थान दिल्ली का, रेप दर 11.6, तीसरे स्थान पर ग्वालियर, रेप दर 10.4, चौथे स्थान पर भोपाल, रेप दर 7.1, पाँचवा स्थान नागपुर, रेप दर 6.6 और छठाँ स्थान दुर्ग-भिलाई का.यहाँ रेप दर 7.9 रही.

10 मई 16 की ताारीख की खबर -बलिया में दहेज  के लिए एक स्त्री  को जला कर मार डाला गया. 1 सितम्बर 16 की खौफनाक खबर-रामपुर इलाके की 20 वर्ष की युवती की दहेज के लिए हत्या कर दी गई. 2013 में किए गए आकलन के हिसाब से भारत में 1 घंटे में 1 महिला की मौत होती है. 2016 की रिपोर्ट के मुताबिक हर महीने दहेज के लिए 700 औरतों की हत्या होती है. पिछले 3 सालों में भारत में 24,771 हत्याएँ की गईं.राजनीतिक पार्टियों की बंदरनुमा उछल कूद के बीच अकेले उत्तर प्रदेश में 7048 मृत्यु, बिहार में 3830 और मध्य प्रदेश में 2252 मौतें, सिर्फ दहेज के लिए. घरेलू हिंसा के मामलों में नृत्य, संगीत एवं चलचित्रों की सुव्यवस्थित परंपरा वाले नगरपश्चिम बंगाल में 61,259 घटनाएँ, शौर्यपूर्ण गाथाओं के लिए प्रसिद्ध राजस्थान में 44,331 और ‘भारत का धान का कटोरा’ कहे जाने वाले आंध्र प्रदेश में 34,835 घटनाएँ सामने आईं.आँकड़े जुटाते-जुटाते थक जाएगें. ये घटनाएँ जैसे रोजमर्रा की चीजें हो गई हों. एक सिलसिला चल पड़ा है. जो बच गए उनकी किस्मत. जैसे सरपट दौड़ती गाड़ियों के बीच बिना किसी एक्सीडेंट के घर आ गए हों.

क्यों महिलाएँ रात में निकलनेपर डरती हैं, सारी पुलिस व्यवस्था के बावजूद. मुझे बरसों पहले पढ़ी गई वह घटना याद आ रही है, जिसमें एक लड़की ने कहा था कि हिन्दुस्तान में उसे गुण्डों से ज्यादा पुलिस से डर लगता है.कोई नहीं जानता, कब क्या घटित हो जाए. जैसे दहशत के साये में जी रहे हो. आदमखोर के युग में. यहाँ आदमी ही आदमी का भक्षक है. आदमी ने सारी चीजें भक्ष ली हैं.दलित, स्त्री, आदिवासी, जानवर, कीड़े-मकोड़े, पेड़, पौधे,पत्थर, पहाड़ फूल, नदियाँ सब.आदमी की अपरिमित इच्छाओं के बीच हर चीज हजारों तरीके से नोची-खसोटी गई है.22 जुलाई 2014 को @topyapshindi पर सन्तोष शांडिल्य की रिपोर्ट के मुताबिक स्त्रियों की महिमामयी स्थिति पर गर्व करने वाले देश में उनकी खरीद फरोख्त के लिए अनेक कुख्यात स्थल हैं. संगम के लिए प्रसिद्ध नगरी प्रयागराज में मीरागंज, बाबा विश्वनाथ की नगरी काशी में शिवदासपुर, मुजफ्फरपुर(बिहार) में चतुर्भुजस्थान, कोलकाता में सोनागाछी, देश की वाणिज्यिक राजधानी मुम्बई में कमाठीपुरा, देश की राजधानी दिल्ली में जी. बी. रोड, नागपुर (महाराष्ट्र) में गंगा जमुना, गणपति के प्रसिद्ध मन्दिर स्थल बुधवार पेठ (पुणे)आदि जगहों पर बड़ी जिस्म मंडी लगती है. यहाँ बच्चियों को भी बड़ी बेदर्दी से बेचा जाता है. उस समय न बाबा भोले काम आते हैं न कालभैरव और न ही कोई गणपति बप्पा मोरया. आदमखोर की चालें सब पर भारी.मुझे तसलीमा नसरीन की पुस्तक ‘औरत के हक़’ में की रूलाने वाली पंक्ति याद आ रही, जिसे बगैर लिखे मैं आगे नहीं बढ़ सकती-‘‘बाजार में इतना सस्ता और कुछ नहीं मिलता जितनी सस्ती मिलती हैं लड़कियाँ’’जहाँ एशिया का सबसे बड़ा रेड लाइट एरिया मौजूद हो वहाँ के लोगों को स्त्रियों की दशा का बखान करते समय नाले में डूब मरना चाहिए. और देश के नेताओं को मरने के लिए भी धरती का कोई हिस्सा देना मुनासिब न होगा. क्योंकि वे जल, जंगल, जमीन, और जिन्दगी के हंता है.‘कौशल भारत और कुशल भारत’ के नारे के बीच खून की नदियाँ बहती हैं, बच सको तो बचो.

समानता के लिए जरूरी है महिला आरक्षण: सीताराम येचुरी

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एनएफआईडवल्यू  द्वारा 12 सितंबर  2016 को आयोजित सेमिनार में सीपीआई (एम) के महासचिव सीताराम येचुरी ने महिला आरक्षण बिल को जल्द पास करवाये जाने पर जोड़ दिया. उन्होंने इसके मार्ग की बाधाओं पर विस्तार से बात की. सेमिनार का आयोजन सीपीआई की भूतपूर्व सांसद और एनएफआईडवल्यू की भूतपूर्व एक्जक्यूटिव काउंसिल सदस्य गीता मुखर्जी द्वारा महिला आरक्षण बिल के ड्राफ्ट कमिटी की अध्यक्ष के रूप में पेश किये गये बिल के 20 साल पूरे होने पर किया गया था. येचुरी ने कहा कि संविधान में मिले समानता के अधिकार को वास्तविकता में हासिल करने के लिए जरूरी है महिलाओं का आरक्षण. सुनें  पूरा भाषण:



सीताराम येचुरी का भाषण 






कुंडली-मिलान शादी के अमरत्व की गारंटी देता है क्या?

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तेजपाल सिंह तेज (जन्म 1949) की गजल, कविता, और विचार की कई किताबें प्रकाशित हैं- दृष्टिकोण, ट्रैफिक जाम है, गुजरा हूँ जिधर से आदि ( गजल संग्रह), बेताल दृष्टि, पुश्तैनी पीड़ा आदि (कविता संग्रह), रुन-झुन, खेल-खेल में आदि ( बालगीत), कहाँ गई वो दिल्ली वाली ( शब्द चित्र), दो निबन्ध संग्रह  और अन्य. तेजपाल सिंह साप्ताहिक पत्र ग्रीन सत्ता के साहित्य संपादक और चर्चित पत्रिका अपेक्षा के उपसंपादक रहे हैं. आपने अधिकार दर्पण का भी संपादन कार्य किया है. हिन्दी अकादमी (दिल्ली) द्वारा बाल साहित्य पुरस्कार ( 1995-96) तथा साहित्यकार सम्मान (2006-2007) से सम्मानित.  आजकल स्वतंत्र लेखन में रत हैं.

शादी की कहानी कोई नई नहीं है. शादी ना ही कोई नया रास्ता है. चाहे-अनचाहे सभी इस रास्ते से गुजरते हैं. कुछ चाहकर और कुछ न चाहकर भी.....कुछ कम उम्र में तो कुछ चढ़ी उम्र में....किंतु कमाल का सच ये है कि इस रास्ते में आई बाधाओं के किस्से चुटकलों के जरिए तो सुनने/पढ़ने को खूब मिलते हैं, किंतु इन चुटकलों के सच को कोई भी पति अथवा पत्नी व्यक्तिश: स्वीकार नहीं करता. क्यों......? लोक-लज्जा का डर, पुरूष को पुरुषत्व का डर, पत्नी को स्त्रीत्व का डर...... डर दोनों के दिमाग में ही बना रहता है... इसलिए पति व पत्नी दोनों आपस में तो तमाम जिन्दगी झगड़ते रहते हैं,  किंतु इस सच को सार्वजनिक करने से हमेशा कतराते हैं.
एक समय था कि जब शादी के मामले में लड़के और लड़की की इसके अलावा कोई भूमिका नहीं होती थी कि वो दोनों आँख और नाक ही नहीं अपितु साँस बन्द करके माँ-बाप अथवा दूसरे सगे-संबन्धियों की इच्छा के अनुसार शादी के लिए तैयार हो जाएं. इसके पीछे समाज का अशिक्षित होना भी माना जा सकता है. किंतु जैसे-जैसे समाज में शिक्षा का व्यापक प्रचार और प्रसार हुआ तो नूतन समाज के विचार पुरातन विचारों से टकराने लगे, अब शादी के मामले में लड़के और लड़की की इच्छाएं भी पुरातन संस्कृति के आड़े आने लगी हैं. फलत: पिछले कुछ दशकों से यह देखने को मिल रहा है कि शादी के परम्परागत पहलुओं के इतर शादी से पहले लड़के और लड़की को देखने का प्रचलन जोरों पर है. पहले यह उपक्रम केवल शहरों-नगरों तक ही सीमित था किंतु आजकल तो यह उपक्रम दूरस्थ गाँवों तक पहुँच गया है.


यहाँ एक सवाल का उठना बड़ा हीजायज लगता है कि शादी के उद्देश्य से लड़के और लड़की की पंद्रह-बीस मिनट की मुलाकात में लड़का लड़की और लड़की लड़के के विषय में क्या और कितना जान पाते होंगे, कहना कठिन है. सिवाय इसके कि एक दूसरा, एक दूसरे की चमड़ी भर को ही देख-भर ले. दोनों एक दूसरे की नकली हंसी को किसी न किसी हिचकिचाहट के साथ दबे मन से स्वीकार कर लें. इस सबका कोई साक्षी तो होता नहीं है. अगर हो भी तो उनका इस प्रक्रिया में कुछ भी कहने का कोई अधिकार यदि होता है तो वह केवल लड़के और लड़की को केवल शादी के लिए तैयार करना होता है. इसके अलावा और कुछ नहीं. अमूनन देखा गया है कि शादी के बन्धन में बन्धने जा रहे जोड़े को दूसरी मुलाकात का मौका प्राय: दिया ही नहीं जाता. धार्मिक बाधाएं इस सबके सामने खड़ी कर दी जाती हैं. हमको इस धार्मिक उपक्रम ने इस हद तक कमजोर और कायल बना दिया है कि हम सारा समय लड़के और लड़की की कुंडलियाँ मिलाने में गवां देते हैं

व्यापक दृष्टि से देखा जाए तो यह कतई सच है कि प्रथम दृष्टि में, आजकल लड़के और लड़की को शादी से पूर्व मिलने का मौका तो अवश्य दिया जाता है, किंतु उसके बाद उन्हें फोन पर भी बातचीत करने का मौका न दिए जाने तक की कवायद होती है. यह बात अलग है कि आज के संचार के विविध माध्यमों और नई-नई तकनीकी संचार युक्तियों के युग में लड़का–लड़की चोरी-छिपे फोन, वाटसेप, इंटरनेट या फिर फेसबुक के जरिए बराबर बात करते रहते हैं किंतु हम बच्चों को शादी से पूर्व एक से ज्यादा बार मिलने का मौका ही नहीं देते. और न ही  बच्चों के माता-पिता ही  दोबारा ऐसा कोई मौका लेने का प्रयास करते हैं.  बस! घड़ी-भर का मिलना पूरे जीवन का बन्धन बना दिया जाता है. यह कहाँ तक उचित है?


सच तो ये है कि शादी जीवन का एकअकेला ऐसा सौदा है जो एक-दो दिन की मुलाकात में ही तय मान लिया जाता है जबकि एक टी.वी. या फ्रिज जैसी दैनिक उपयोग की चीजें खरीदने की कवायद में सप्ताह, हफ्ता ही नहीं, यहाँ तक की कई-कई महीने तक लग जाते हैं.... कौन सी कम्पनी का लें? इसकी क्या और कितने दिनों की गारंटी है?....... इसका लुक औरों के मुकाबले कैसा है?... न जाने क्या-क्या...... न जाने कितने मित्रों से इसकी जानकारी हासिल की जाती हैं..... इतना ही नहीं, सब्जी तक दस दुकानों की खाक छानने के बाद  भाव-मोल करने के बाद ही खरीदी जाती हैं....किंतु लड़का-लड़की के बीच जीवन-भर का रिश्ता बनाने में जान-पहचान के बजाय बच्चों की शिक्षा के स्तर और उनकी आमदनी के विषय में ही ज्यादा सोचा जाता है...............और कुछ नहीं.
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जहाँ तक कुंडलियों के मिलान का सवाल है, यह एक ढोंग है,  अन्धविश्वास है, जो सदियों से होता आ रहा है और पता नहीं भविष्य इस परिपाटी को कब तक ढोने को बाध्य होगा.  यहाँ यह सवाल उठता है कि  क्या ये कुंडली-मिलान रिश्तों के अमरत्व की कोई गारंटी देता है. क्या कुंडली-मिलान वाले जोड़ों के बीच कभी कोई दरार नहीं पड़ती? क्या उनका जीवन-भर मधुर साथ बना रहता है? क्या उनके जीवन में कोई प्राक्टतिक बाधा नहीं आती?  जैसी कि  कुंडली मिलाते समय आशा की जाती है......व्यापक रूप से ये भामक मानसिकता है, ऐसा करने से कभी भी किसी दम्पति को आशातित शांति शायद कभी नही और कतई नहीं मिलती. यह उपक्रम अपने को स्वय धोखा देने के बराबार है. मुझे लगता है कि इसके इतर यह अच्छा होगा कि लड़के और लड़की की जन्मकुंडली के बदले उनकी चिकित्सीय कुंडलीयों  का मिलान भी किया जाना चाहिए. खुशवंत सिंह की पुस्तक ‘दिल्ली’ में उद्धृत  महात्मा शेख सादी के इस बयान से जाना जा सकता है – “यदि औरत बिस्तर से बेमजा उठेगी तो बिना किसी वजह के ही मर्द से बार-बार झग़ड़ेगी|”  किंतु ये एक ऐसा सत्य है जिसे कोई भी पुरुष अथवा औरत मानने वाला  नहीं है ...... किंतु ऐसा होता है. रिश्तों की खटास में यह भी एक और सबसे बड़ा कारण है. इस कारण के बाद आता है.......दौलत का सवाल.... श्रंगारिक संसाधनों की उपलब्धता....... गहनों की अधिकाधिक रमक........आदि.... आदि. पुरुषों के मामले में दहेज का लालच....और न जाने क्या-क्या. क्या लड़के और लड़्के के माता-पिता द्वाराइस ओर कुंडलियाँ मिलाते समय ध्यान दिया जाता है?  अमूनन नहीं...
नवभारत टाइम्स – 06.02.2015 में छपे एक सर्वे के जरिए यह तथ्य सामने आया है कि ज्यादातर दम्पत्तियों के बीच शादी वाला प्यार शादी होने के पहले दो सालों में ही फुर्र हो जाता है .... कुछ का तीन सालों बाद ...... और जिनका बचा रहता है ....... इनके सामने  किसी न किसी प्रकार की सामाजिक मजबूरी ही होती है. .... ये पहले कभी होता होगा कि पति-पत्नी बुढ़ापे में एक दूसरे के मददगार बने रहते थे..... आज समय इतना बदल गया है कि बुढ़ापा आने से पहले ही सारा खेल बिगड़ जाता है......


अधिकाँश मामले में औरतों के पति पत्नी के जीवित रहते ही मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं. फलत: पत्नियों को ऐसा पीड़ा भरा असहाय जीवन जीना पड़ता है जिसकी कल्पना करना भी दूभर होता है. एक उपेक्षित जीवन जीना.......और वहशी आँखों की किरकिरी बने रहना....... विधवाओं की  नियति हो जाती है.  कुछ लोग कह सकते हैं कि विधवा की देखभाल के लिए क्या उसके बच्चे नहीं होते. इस सवाल का उत्तर वो जीवित विधुर और विधवा अपने गिरेबान में झाँककर खोजें कि मृत्यु के बाद उनके स्वयं के बच्चे उनका कितना ध्यान रखते हैं? दान-दहेज की बात के इतर इस ओर कभी किसी का ध्यान शायद ही गया हो. लगता तो ये है कि इसके कारणों को खोजने का प्रयत्न भी शायद नहीं किया गया जो अत्यंत ही शोचनीय विषय है. मुझे तो लगता है कि समाज में ये जो प्रथा है कि लड़का उम्र के लिहाज से लड़की से प्रत्येक हालत में कम से कम पाँच वर्ष बड़ा होना ही चाहिए, इस प्रकार की सारी विपदाओं के लिए जिम्मेदार है. शायद आप भी इस मत से सहमत होंगे कि उम्र के इस अंतर को मिटाने की खास आवश्यकता है. लड़का-लड़की की उम्र यदि बराबर भी है तो इसमें हानि क्या है? या फिर शादी के एवज पारस्परिक रिश्तों को क्यूँ न स्वीकृति प्रदान की जानी चाहिए......... विछोह तो आगे....पीछे होना तय है ही........भला धुट-घुटकर जीवन यापन करने की बाध्यता शादी ही क्यों हो?

इस सबसे इतर, नवभारत टाइम्स दिनांक 23.05.2015 के माध्यम से अनीता मिश्रा कहती हैं कि शादी सिर्फ आर्थिक और शारीरिक जरूरतों को पूरा करने भारत का माध्यम नहीं है. लड़कियों को ऐसे जीवन साथी की तलाश रहती है जो उन्हें समझे. उनकी भावनात्मक जरूरतें भी उनके साथी के महत्तवपूर्ण हों. वे  फिल्म ‘पीकू’ में एक संवाद का हवाला देती हैं.......   “ शादी बिना मकसद के नहीं होनी चाहिए. फिल्म की नायिका का पिता भी पारम्परिक पिताओं से हटकर है. वह कहता है, ‘ मेरी बेटी इकनामिकली, इमोशनली और सेक्सुअली इंडिपेंडेंट है, उसे शादी करने की क्या जरूरत?’ मैं समझता हूँ कि यह तर्क अपने आप में इमोशनल जरूर है. फिर भी यह आम-जन का ध्यान तो आकर्षित करता ही है.

अनीता जी आगे लिखती है कि यहाँ एकसवाल यह भी है कि विवाह संस्था को नकारने का कदम स्त्रियां ही क्यों उठाना चाहती है. शायद इसके लिए हमारा पितृसत्तात्मक समाज दोषी है. वर्तमान ढांचे में विवाह के बाद स्त्री की हैसियत एक शोषित और उपयोग की वस्तु की हो जाती है. आत्मनिर्भर स्त्री के भी सारे निर्णय उसका पति या पेशंट के परिवार वाले ही करते हैं. शादी होने के बाद (कुछ अपवादों को छोड़कर) उसका पति मालिक और निरंकुश शासक  की तरह ही व्यवहार करता है. ऐसे में स्त्री के लिए दफ्तर की जिन्दगी और घरेलू जिन्दगी में तालमेल बिठाना मुश्किल हो जाता है. कहा जा सकता है कि ज्यादातर स्त्रियों को दफ्तर में काम करने के बाद भी घर में एक पारम्परिक स्त्री की तरह खुद को साबित करना होता है. किसी भी स्त्री को जब सफलता मिलती है तो यह भी जोड़ दिया जाता है कि उसने करियर के साथ सारे पारवारिक दायित्व कितनी खूबी से निभाए. जबकि पुरुषों की सफलता में सिर्फ उनकी उपलब्धियां गिनी जाती है.


यहाँ यह सवाल उठना भी लाजिमी हैकि शादी समाज की एक जरूरी व्यवस्था रही है किंतु आजादी चाहने वाली लड़कियां शादी को एक बन्धन की तरह देखती हैं. फिर मानव समाज की दृष्टि से एक सामाजिक व्यवस्था के तौर पर विवाह का विकल्प क्या है? क्या यह बेहतर नहीं होगा कि बदलते परिवेश में स्त्री शादी का विकल्प खुद खोजे? जाहिर तौर पर अब तक पुरुषों की आर्थिक स्वनिर्भरता और सक्षमता ने केवल उन्हें ही निर्णय लेने का अधिकार दे रखा था. अब अगर महिलाएं भी इसी हैसियत में पहुँचने के बाद अपनी जिन्दगी की दिशा तय करने वाला फैसला खुद लेने लगी हैं तो इसमें गलत क्या है? फिर क्यों न आत्मनिर्भर, जागरूक और सक्षम महिला को शादी करने, न करने का फैसला खुद लेने दिया जाए?

सुधार नहीं पूर्ण बदलाव चाहेंगी महिलायें

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नूर जहीर
'डिनायड बाय अल्लाह'और 'अपना खुदा एक औरत'जैसी चर्चित कृतियों की रचनाकार
संपर्क : noorzaheer4@gmail.com.

कॉमन सिविल कोड के संघर्ष में तीन पक्ष हैं, एक प्रगतिशील मुसलमान-हिन्दू महिलाओं-पुरुषों का और उनके साथी अन्य प्रगतिशीलों का दूसरा दक्षिणपंथी हिन्दू जमातों का और तीसरा दक्षिणपंथी, परंपरावादी मुसलमानों का. इस त्रिकोण में मुस्लिम स्त्रियों की सामाजिक-कानूनी  स्थिति और उनका संघर्ष शोर –शराबे में दब जाता है – पढ़ें नूर ज़हीर का दृष्टिकोण, एक इनसाडर प्रगतिशील नजरिया. यह आलेख मासिक पत्रिका सबलोग के स्त्रीकाल कालम में नवंबर में प्रकाशित हुआ है. 
संपादक

एक मुसलमान  सज्जन से मैंने पूछा "क्या आप समझते हैं कि कोई भी महिला पति की दूसरी शादी को पसंद करेगी? या एकतरफा दिए गए एक झोक में तीन बार तलाक़ को ख़ुशी से क़ुबूल करेगी?'वे  बोले "अगर वह एक अच्छी मुसलमान है तो ज़रूर करेगी।" यही आकर इस गंभीर मुद्दे पर  बहस रुक जाती है।  मौलवियों  का कहना है कि उनके अनुसार चलना ही 'अच्छे मुसलमान’ होने की कसौटी है भले ही उनका कहा क़ुरान के खिलाफ हो।  यह तो मौलवी भी मानते हैं कि कुरआन एक बार में तीन तलाक़ को ग़लत बतलाता है। पहली बार तलाक़ कहने के बाद एक माह दस दिन, दूसरी बार के बाद भी, और तीसरी बार के बाद 3 माह दस दिन की इद्दत के बाद ही तलाक़ माना जाना चाहिए।  लेकिन आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड में बैठे मौलाना कहते हैं कि आज अगर इसे लागू किया गया और पुरुषों को दो महीने  बीस  दिन इंतज़ार करना पड़ा तो वे अपनी पत्नियों को ज़हर दे देंगे, खून कर देंगे.

यानी इतनी बेक़रारी है सुन्नी मुस्लिम पुरुषों में कि उनसे  80 दिन इंतज़ार नहीं होगा।  या आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड में बैठे मौलाना आज सड़क पे उतरी हुई न्याय की मांग करती मुसलमान  महिलाओं को धमकी दे रहे हैं, 'इस मांग पर आंदोलन करना बंद करो वरना मार दी जाओगी!' अगर ऐसा है तो एक सर्वे करवाने की ज़रूरत है मुसलमानों के  शिया फ़िर्क़े में  जिनमे ट्रिपल तलाक़ एक साथ नहीं माना जाता, कितनो ने अपनी पत्नियों का खून कर दिया और  हिन्दू जिन्हें 'तत्काल तलाक़'में भी  3 महीने इंतज़ार करना पड़ता है, क्या पत्नियों का खून कर देते है? या सुन्नी मुस्लिम पुरुष किसी अलग तरह के मर्द हैं ?

"चकरघिन्नी" : तीन तलाक़ का दु:स्वप्न

लेकिन अपने आप में तीन तलाक़ पर रोकलगे यह मांग  अधूरी है। क्योंकि तीन तलाक़ एक वक़्त में मुस्लिम महिला नहीं दे सकती। यदि मुस्लिम महिला रिश्ता तोडना चाहे तो उसे कारण बताना पड़ता है, उस कारण पर मौलवी विचार करते हैं कि कारण जायज़ है या नहीं, महिला को अपना 'महर'यदि वह शादी के वक़्त न दिया हो तो छोड़ना पड़ता है, अगर दे दिया गया हो तो लौटाना पड़ता है और अक्सर कुछ और रकम देकर अपने लिए 'तलाक़'खरीदना पड़ता है।  इतना करने के बाद भी 'तलाक़, तलाक़ ,तलाक़'कहता पुरुष ही है, महिला नहीं। इसमें अक्सर कई साल लग जाते हैं।  पुरुष को क्योंकि इस्लाम 4 शादियों की एक वक़्त में इजाज़त देता है दूसरी शादी करके आराम से रहता है, और तलाक़ चाहने वाली महिला अकेली विधिशास्त्र के महकमों/संस्थानों के चक्कर काटती रह जाती है। यह पता लगाने की ज़रूरत है कि इस लंबी दुर्दशा से जूझते हुए  में कितनी मुस्लिम  महिलाओं ने अपने पतियों की हत्या करने की कोशिश की है।


बच्चों की लिए अनुरक्षण से भी पुरुष अक्सर छूट जाते हैं और पत्नी के लिए तो अनुरक्षण हो ऐसा मानते ही नहीं मुसलमान मौलवी। बस महर देना ही ज़रूरी है और अमूमन  यह भी नहीं पूरी मिलती क्योंकि अक्सर जो मौलवी तलाकनामा बनाते हैं वह कुछ पैसों की लालच में 'महर अदा  की गई'भी जोड़ देते हैं।  ऐसे ही एक केस में महिला ने दार उल उलूम तक की गुहार लगाई जहाँ से उसे कहा गया कि "अल्लाह ऐसे बेईमान मौलवी और पति को ज़रूर सजा देगा, उन्हें इसका बदला दूसरी दुनिया में चुकाना होगा।"लेकिन जीना  तो औरत को इस दुनिया में है और आज मुस्लिम महिला अल्लाह से नहीं उच्चतम न्यायालय से न्याय मांग रही है।

मर्दाना हकों की हिफ़ाजत करता मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड

आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड यह भी कहता है कि लंबी चलने वाली न्यायिक गतिविधि महिला के पक्ष में नहीं क्योंकि पुरुष उसे बदनाम करके उसके पुनः विवाह के रास्ते बंद कर सकता है। तलाक़शुदा होना ही अपने आप में एक शाप  की तरह माना  जाता है इस देश में; मौलवी तो बुर्का पहने हुए आंदोलनकारी महिलाओं को बदतरीन गालियाँ दे रहे हैं; इससे ज़्यादा क्या और बदनाम होंगी।  दूसरे यह सोचना महिलाओं का काम है कि  वे इस बदनामी से कैसे जूझे , मौलवीगण महिलाओं के चरित्र पर लगे दाग़ की चिंता न करें।

वे कहते हैं कि बहुविवाह और तीन तलाक़ एक बार में, मुसलमानों का  संस्कृतिक और सामाजिक मामला है और उच्चत्तम न्यायालय को इससे दूर रहना चाहिए। किसी भी समाज में होने वाले अन्याय में उच्चतम न्यायालय  नहीं तो और कौन बोलेगा? वे जो अभी तक अन्याय करते रहे हैं?  ज़्यादातर पुरुष दूसरी शादी करके पहली वाली को तलाक़ नहीं देते क्योंकि वे महर नहीं देना चाहते। इस तरह से वे दोनों शादियों का मज़ा ले सकते हैं , पहली वाली घर संभाले और दूसरी पति संभाले। वे यह भी कहते हैं कि बहुविवाह इसलिए महिला के फायदे में है क्योंकि इससे बहुत सारी  महिलाओं की शादी हो पाती है वरना वे कुवारीं रह जाएँगी।  शायद यह इतनी बुरी बात भी न हो क्योंकि बुरे रिश्ते से रिश्ते का न होना बेहतर है। और लड़की पढ़ी लिखी, आत्मनिर्भर हो तो शायद वह अपनी मन मर्ज़ी का साथी मिलने तक अकेली जीवन व्यतीत करना पसंद करे?


इस्लाम में शादी एक कॉन्ट्रैक्ट है यह बात सही है लेकिन मौलवी कहते हैं इस कॉन्ट्रैक्ट में दोनों पार्टियाँ बराबर नहीं हैं।  यह सरासर संविधान के जो हर नागरिक को बराबर मानता है,  विरुद्ध बात है।  यहाँ पर यह सवाल पूछने की भी ज़रूरत है कि  आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड  की वैद्यता क्या है ? क्यों  ज़रूरी है उच्चतम न्यालय के लिए इस बोर्ड की राय लेना।  यह मुद्दा महिलाओं का है, उन्हें ही इसे भोगना पड़ता है, वही इसके खिलाफ आवाज़ उठा रही हैं, पीआईएल दाखिल कर रही हैं और  सड़क पर उतरी हैं। फिर भी यह कैसी पैतृक मानसिकता है जिसके तहत उस संस्था से राय मांगी जा रही है जिस पर उलेमा हावी हैं जो न कोई बदलाव चाहते हैं न कोई बदलाव लाने की सलाहियत रखते हैं। मज़े की बात यह है कि कुछ महिलाये भी जुट जाती हैं पुरुषों के इस एक तरफ़ा तलाक़ देने की तरफदारी करने।  यह वे हैं जो बातें तो बड़ी बड़ी करती हैं लेकिन ज़मीनी हकीकत से नावाकिफ हैं।  या हो सकता है की उनके सिरों पर पतियों  ने 'तीन तलाक़'की तलवार लटका रखी हो। जी हाँ अक्सर महिलाओं से बात करके यह मालूम हुआ कि उनके पतियों ने उन्हें धमकाया "आंदोलन किया, जलूस में गईं  तो तुम्हे तलाक़ दे देंगे। "

मेरा शबाब भी लौटा दो मेरे मेहर के साथ

सिर्फ इतना ही नहीं है कि  तलाक़ एकतरफा है. मुसलमान महिला इसको मानने के लिए बाध्य है, वह न इसे नकार सकती है और न ही इसे किसी कोर्ट में चुनौती दे सकती है। 22 इस्लामी देशों ने तीन तलाक़ को रद्द कर दिया है लेकिन भारत एक जनतांत्रिक देश है , जिसके  संविधान की   प्रस्तावना   में ही हर नागरिक को बराबर माना गया है , ये लागू नहीं। खैर जो  मामला अभी गरमाया है कुछ देर में उसमें उबाल भी आएगा ये प्राकृतिक नियम है। उस उबाल के लिए भी तैयारी रहनी चाहिए मुस्लिम समाज की. रिफॉर्म्स से कुछ हासिल नहीं होता क्योंकि उसे बग़ैर आम बहस के रद्द किया जा सकता है।  कानून के साथ ऐसा नहीं है और इसीलिए मांग कानून में बदलाव की होनी चाहिए।  और इसके लिए ज़रूरी है कि  यूनिफॉर्म सिविल कोड पर चर्चा शुरू हो।  अमूमन यह मान लिया जाता है कि  यूनिफॉर्म सिविल कोड, मुसलमानो से उनके हक़ छीन लेगा और हिंदुओं को कुछ भी गवाना नहीं होगा. . आज जिस तरह से यूनिफार्म सिविल कोड को मुसलमानो को धमकाते हुए डंडे की तरह नचाया जा रहा है,, उससे इस बात पर विशवास भी होता है। लेकिन इसका जवाब इस चुनौती से भाग जाना तो नहीं है।  एक ड्राफ्ट क्यों नहीं लाती उदार वादी संस्थाए और पार्टियां,  जो सभी पर्सनल लॉ पर विचार करके सबमे बदलाव के सुझाव रखे और सबसे प्रगतिशील सूत्रों को चाहे वे  किसी भी धर्म के हों, इस यूनिफॉर्म सिविल कोड की ड्राफ्ट में शामिल करे।  कमसे कम एक लिखित सूचि तो सामने आएगी, जिसकी बुनियाद पर आगे बहस चलाई जा सकेगी।

जो शरीयत मुसलमानो के लिए अटल मानी जा रही है वह तो कुरआन और हदीस को मिलकर बनाया गया एक व्याख्या है ; ऐसी किसी और व्याख्या पर पाबन्दी भला कैसे लगाई जा सकती है ?आख़िरी  बात ये है कि अगर ये संस्कृति और सभ्यता का हिस्सा है भी तो क्या बस इसीलिए इसे बदला नहीं जा सकता? क्या संस्कृति और सभ्यता अटल और जड़ होती है कि  उसे हिलाया नहीं जा सकता? इस्लाम की ही बात ली जाये तो इस धर्म के माध्यम से ही बहुत सरे बदलाव हुए, जिनमे प्रमुख है 'तलाक़'जो कबाइली सभ्यता में मौजूद तो था लेकिन जिसमे कोई विधिवद तरीका नहीं था।  तलाक़ को बाक़ायदा दस्तावेज़ी शक्ल इस्लाम ने दी उस समय की संस्कृति के खिलाफ जाकर।

मैं भारतीय मुसलमान स्त्री हूं : तलाक से आगे भी जहां है मेरी


आज ज़रूरत है कि धर्म और क़ानून को अलग-अलग किया जाये। आखिर डर किस बात का है मुसलमानो को और खास करके महिलाओं को? इस्लाम के पांच स्तंभों को यानि : शहादा [ अल्लाह और उनके आखरी पैग़म्बर पर विशवास] , सलात [नमाज़ ] , ज़कात[दान], सावेम [रोज़ा ] हज [तीर्थ] ये बदलाव कहीं भी चुनौती नहीं देते। जो कुछ छोटे-छोटे बदलाव की मांग मुस्लिम महिलाये कर रही है उनपर अगर उलेमा और सर्कार दोनों ग़ौर नहीं करते हैं तो बहुत संभव है कुछ दिन बाद मुस्लिम महिलाये एक गणतांत्रिक देश में अपने हक़ समझ कर पूरी बराबरी की मांग लेकर सड़क पर उत्तर आएं  और बराबरी पाकर ही छोड़े. उस वक़्त न ये मौलवी उन्हें रोक पाएंगे न ही वो महिलाये जो आज इन न्यायिक मांग करती हुई महिलाओं के खिलाफ ज़हर उगल रही हैं.


सौ के नोट दिखाते लंपट और परेशान महिलायें

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आइये समझते हैं नोटबंदी को लेखिकाओं और महिला सामाजिक कार्यकर्ताओं की नजर से:

सरकारें फैसला लेती हैं, स्थितियाँबदलती हैं या सुधरती हैं, फैसला जनहित में कहलाता है लेकिन औरत की दुनिया इन सबसे कैसे प्रभावित हो सकती है या होती है, इस पर कम ही विचार किया जाता है.  औरत की दुनिया वैसे भी राजनीति की दुनिया से बड़े फासले पर स्थित है, दोनों में न्यूनतम संबंध है. आज मेरी कामवाली हंसी -हंसी में नए नोट पर कई व्यवहारिक टिप्पणियाँ कर रही थी. इन टिप्पणियों में छिपे कड़वे सच को हम जैसे वेतनभोगी, व्यापारी, सफेदपोश वास्तव में नहीं समझ सकते क्योंकि हमने बैंक जाकर कम से कम दस हज़ार रूपए का इंतजाम लाईन में लगकर या रसूख़ के बल पर कर लिया है, कुछ को शायद अन्य वजहों से जाने की भी जरूरत न पड़ी हो.

हम सब इस फैसले का राजनीतिकआकलन कर रहे हैं, लेकिन ग़रीब आदमी इस फैसले की कड़वी परिणितियों को झेल रहा है. मैं कल बैंक से पैसे लेकर आई थी और मैंने उसमें से दस, सौ-सौ के नोट अपनी कामवाली को दे दिए ताकि उसका ख़र्च चल सके. लेकिन छह-सात लोगों के परिवार में हज़ार रूपए कितने दिन चलेंगे? उसे भी शहर से ही आटा-नमक ख़रीदना है.


इस राजनीतिक फैसले का औरतके जीवन के लिए जो काला पक्ष हो सकता है, उसे उसके मुंह से सुनकर मैं दंग रह गई, सपने में भी नहीं सोचा था कि एक नतीजा यह भी हो सकता है, जिस पर कोई सरकार कभी ध्यान नहीं देगी ! उसने बताया कि दो-तीन दिन से उसके मुहल्ले में शाम को शराब पीकर लोग गाड़ियाँ लेकर खड़े होते हैं और आती जाती, बातचीत करती परेशान कामवालियों से पूछते हैं कि दो -तीन सौ खुले रूपए हम देंगे, कितना खुला चाहिए?
भले मानुष! इस घटना का मतलब समझने में आपको परेशानी तो नहीं हो रही या समझ नहीं रहे ?
सुधा सिंह ,प्रोफ़ेसर दिल्ली विश्वविद्यालय 

"शासन का घूँसा किसी बड़ी और पुष्ट पीठ पर उठता तो है पर न जाने किस चमत्कार से बड़ी पीठ खिसक जाती है और किसी दुर्बल पीठ पर घूँसा पड़ जाता है ."
परसाई यूँ ही परसाई नहीं हैं!
संज्ञा उपाध्याय, लेखिका  और असिटेंट प्रोफ़ेसर, दिल्ली विश्वविद्यालय 

बलिदान ,संयम और त्याग की बात वो कर रहे है जिनके पास डेबिट क्रेडिट और तमाम तरह के कार्ड है और जिनके बच्चे विदेश में बैठे है और जिनके पास महीने भर का राशन है.
अनिता भारती, लेखिका 

स्त्रियों का मजाक बनाने के बजाय सोच कर देखिये उन्होंने किस तरह खुद की ख्वाहिशों में कतरब्योंत करके , इतना दिमाग लगा कर ये पैसे बचाये होंगे. जरुरत पड़ने पर अपने पिटारे से हमें ही निकाल कर देती हैं ....ये उन्हें स्वाभिमान और सुरक्षा देता है ..उनकी मदद करें ...आपके लिए होगा काला धन उनका ये इमोशनल धन है. आज के नवभारत टाइम्स के इस लेख में इसी धन की बात है.
अनीता मिश्रा,लेखिका महिलाओं के पास बचत के धन का मजाक उडाये जाने पर 


आजकल हमारे कुछ अम्बेडकरवादी सरकार के नोटबदली को बाबासाहेब की उस बात से जोड़ रहे है कि उन्होंने कहा था कि भ्रष्टाचार रोकने के लिए हर दस साल में नोट बदलने चाहिए . क्या ये सही वक्त है याद दिलाने का? जब पूरा देश एक मुस्किल से गुजर रहा है. क्या बाबा साहेब ने ये भी कहा था कि यह सब अचानक कर देना चाहिए ?मुझे लगता है किस इस मुश्किल समय बाबासाहेब को कोट नहीं करना चाहिये हमारा बडबोलापन ही हमे ले डूबता है . हमे अपनी तकलीफों को और बढ़ाना नहीं चाहिए .हमे धैर्य से शान्ति से मुस्किल समय से गुजरना है, मजे ले ले कर मजाक न करे .
रजनी तिलक ,लेखिका सामाजिक कार्यकर्ता

कोइ बुलेट ट्रेन में सफर कर रहा है तो कोई दिन भर बैंको में लाइन लगा कर .लेकिन सफर दोनों कर रहे है ...कोई मौज में है तो कोई घर चलाने की जद्दोजेहद में
ताहिरा हसन, सामाजिक कार्यकर्ता 

डॉन्ट वरी डियर सोनम गुप्ता

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प्रियंका

बदलते समय ने बहुत सारे लोगों को स्त्री और दलित सरीखी उत्पीड़ित-उपेक्षित अस्मिताओं के पक्ष में दिखावे के लिए ही सही खड़े होने के लिए विवश तो किया, लेकिन इसने उनके भीतर की कुंठाओं क्रूरताओं और घृणा को भी साफ कर दिया हो, यह भ्रम न ही रखा जाए तो अच्छा है . समय के साथ-साथ लोगों की चालाकियाँ भी अधिक बढ़ती जा रही हैं. शत्रुओं ने अपना अंदाज बदलना सीख लिया है. उन्हें पहचानना अधिक कठिन हो गया है. इसके बावजूद समय-समय पर उनकी चालाकियाँ ही ख़ुद को डिकोड करने के अवसर देती रहती हैं .


जब देश बिना उचित तैयारी के ‘मुद्रापरिवर्तन’ के अचानक ले लिये गये फैसले से जूझ रहा है : लोगों को ‘मज़ाक’ सूझ रहा है. सोशल मीडिया पर कुछ दिनों पहले दस रुपये के नोट पर किसी का यह लिखा कि ‘सोनम गुप्ता बेवफा है’ खूब प्रसारित हुआ था . इसे लिखे जाने और वायरल होने के पीछे की असल कहानी क्या है,नहीं पता, लेकिन मेरा ख़याल है कि लोगों को इसमें किसी चोट खाए आशिक का दर्द नज़र आया होगा और उसके लिए अभिव्यक्ति की चुनी गयी जगह उन्हें आकर्षित कर रही होगी और सबसे बड़ा कारण यह रहा होगा कि इसमें मज़े लेने की भरपूर संभावना दिखी होगी. अब मुद्रा परिवर्तन के दौर में सोशल मीडिया पर चलाई जा रही ‘अघोषित हास्य प्रतियोगिताओं’ में अचानक से इसके और भी नये-नये ‘क्रिएटिव वर्सन’ सामने आने लगे हैं . लगभग हर कोई इसमें अपनी शिरकत करना चाह रहा है. कोई इससे जुड़ी किसी की ‘क्रिएटिविटी’ को शेयर कर रहा है तो कोई अपनी ‘क्रिएटिविटी’ दिखाने को आतुर है . यानी सोनम गुप्ता पर्याप्त मशहूर हो गयी है- नहीं यह गलत शब्द होगा, मशहूर होना औरतों के हिस्से का दुर्लभतम सुख है-सही शब्द यह होगा कि वह बुरी तरह बदनाम हो गयी है . यह दस रुपये के नोट पर उकेरी गयी पहली ‘क्रिएटिविटी’ की शानदार सफलता है . उसमें निहित भावना का फलिभूत होना है .

इसे लिखने वाले ने कुछ तो मानवता दिखाई कि सोनम गुप्ता का पता या पहचान जाहिर करने वाला कुछ नहीं लिखा. चूँकि इस नाम से पहचान जाहिर नहीं होती, कोई एक टारगेट तय नहीं होता इसलिए लोगों को यह अपने करतब दिखाने के लिए खुला मैदान लग रहा है . कोई ख़तरा नहीं और कुंठाओं के लिए आसानी से सोशल मीडिया  भी उपलब्ध हो रहा है. क्या इसे इस कोण से कोई नहीं सोचता कि यह सब एक साथ सोनम गुप्ता नाम की कई औरतों को असहज करता होगा ? कि किसी का नाम सोनम गुप्ता सुनकर, प्रकट-अप्रकट एक टेढ़ी मुस्कान खिंच जाती होगी? कभी 'चिंटुआ के दीदी तनी प्यार करे द', भोजपुरी गीत ने ऐसी ही कुंठा के लिए आश्रय उपलब्ध कराया था. चौक-चौराहों , बाजार , विवाह पार्टियों बरात आदि में यह गीत खूब बजता, तब चिंटू नाम पर आफत थी और उसकी दीदी के रूप में महिलायें इसका टार्गेट थीं, शिकार थीं.


विडम्बना से भरा है लेकिन सच है, कि जहाँ सदियों से चली आ रही व्यवस्था ऐसी है कि औरतों को कोई दो कौड़ी की इज्ज़त के लायक भी नहीं समझता, वहीं की औरतें अपनी इज्ज़त और चरित्र की परवाह में ही अपना पूरा जीवन खपा देती हैं . इसलिए औरतों से लड़ने का सबसे बड़ा प्रामाणिक हथियार उनके चरित्र, उनकी निष्ठा और उनकी इज्ज़त की धज्जियाँ उड़ाने वाले दुष्प्रचार हैं . आए दिन तकनीक के दुरूपयोग से अथवा धोखे से औरतों की निजी तस्वीरों, विडियो अथवा अपमानित करने वाली अन्य सामग्रियों को सार्वजनिक करने के काम धड़ल्ले से किये जा रहे हैं . प्रकट में इसे गलत कहने वाले अधिकांश लोग भी भावना के स्तर पर इसे मनोरंजन की सामग्री ही समझते हैं . इस तरह कि प्रवृत्ति ने न जाने कितने लोगों को अकथनीय प्रताड़ना दी है और आत्महत्या तक के लिए विवश किया है .

बेवफाई की दास्तान तो औरतों कोकेन्द्र में रख कर लिखे जाने की हमारे यहाँ परंपरा ही रही है, प्यार एकतरफा हो तब भी ! सिरफिरे आशिकों के क्रूरतम एसिड अटैक और उसके अपने मन ही मन तय कर ली की गयी प्रेमिका के विषय में तरह तरह के दुष्प्रचार आम बातें हैं . यदि किसी को ‘सोनम गुप्ता बेवफा है’ : बीज वाक्य में सोनम गुप्ता का चुनौतियों और आशंकाओं से भरा भविष्य नहीं दिख रहा, बल्कि हास्य और मज़े लेने की संभावनाएँ दिख रही हैं, तो उसे अपनी संवेदनशीलता पर ठहर कर पुनर्विचार अवश्य करना चाहिए . यह वह पहला पड़ाव है, जिसके बाद के ख़तरनाक रास्ते कई बार किसी स्त्री पर एसिड अटैक या आत्महत्या पर जाकर ख़त्म होते हैं बल्कि कई बार यहाँ भी ख़त्म नहीं होते !


ऐसे अवसर लोगों की चालाकियों कोडिकोड करने के अच्छे अवसर होते  हैं . ‘सोनम’ तुम भी इसे इसी तरह से देखो . धैर्य से इस तरह की टुच्ची मानसिकता का मुकाबला करना सीखो . उत्पीड़ित अस्मिताओं का शायद ही कोई मसीहा होता है . मसीहा होने का दावा करने वाले बहुत सारे लोग होते हैं, लेकिन उनकी अपनी सीमाएँ होती हैं और अपना एजेंडा भी होता है और कई बार वे मसीहों के मुखौटे भर पहने हुए होते हैं . उत्पीड़ित अस्मिताओं को खुद ही अपनी जंग लड़नी होती है . इसलिए यह कोई नई बात नहीं है, कि तुम्हें घबराने की जरूरत हो . डॉन्ट वरी डियर, हो सके तो ऐसे लोगों पर हँसो या कम से कम हँसना सीखो उन पर, जो अपने क्रूर हास्यबोध के कारण इस दुनिया को मरघट में तब्दील कर देने में लगातार योगदान दे रहे हैं, और उनकी मासूमियत ऐसी कि इसका उन्हें पता तक नहीं !!

शोध छात्रा, हिन्दी विभाग, हैदराबाद विश्वविद्यालय

उपासना झा की कवितायें

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प्रेम  में,

प्रेम  में,
देह की देहरी लांघ
आम्रपाली बन जाना
क्या कठिन था
कठिन था बुद्ध सा
सत्पात्र मिलना।

प्रेम में,
देह से उठती लपट को
शीश नत स्वीकार करना
क्या कठिन था
कठिन था नल सा
आह्लाद मिलना

प्रेम में,
आत्मा का लीन होना
प्रिय के चुंबनों में
क्या कठिन था
कठिन था पुरु सा
उन्माद मिलना

उस नगर की सब स्त्रियाँ चरित्रहीन थी

उस नगर की सब स्त्रियाँ चरित्रहीन थी
उनकी भौहें तनी रहती थी मान से
उनके होंठो पर तिरता नहीं था मंद हास्य
कोनों में नहीं दबी रहती थी मृदु भंगिमाएं
कंठ से खिल कर फूटता था अट्टहास
ग्रीवा में बाँध रखती थी लिप्सायें
उनके वसनों में घूमता रहता था बसंत
देखा नहीं कभी उन रक्तिम ऋतुओं का अंत
उनकी सभ्यता वक्षों को ढकने भर नहीं थी,
न था उनका सम्मान केवल उनकी जंघा भर
कमरधनी में हिलोरें लेती थी
उनतक उछली कई अतृप्त वासनाएं
वे कुटिल, पतित और श्रीहीन थीं
उस नगर की सब स्त्रियाँ चरित्रहीन थीं..

उनको पा लेने की इच्छायें लिए पुरुष
जाति, धर्म, गति, वर्ग से च्युत होकर
सभी संकीर्ण बन्धनों से मुक्त होकर
सृष्टि से श्रेष्ठत्व के मोह में आत्ममुग्ध
आते थे सहज ही उधर होकर कामदग्ध
अपने नियमों पर धरा को भोगते थे
हवा को, दिशा को, मेघ को टोहते थे
अपने बनाये सिक्कों की खनखन में
स्त्री को, जीवन को, यौवन को तोलते थे।
उस नगर के वही थे पालक और दाता
स्त्रियाँ थीं पतित पुरुष थे त्राता
उस नगर की स्त्रियाँ प्रेम से विहीन थी
उस नगर की सब स्त्रियाँ चरित्रहीन थीं।

उदासी के दिनों में प्यार

जब तय था कि समझ लिया जाता
मोह और प्रेम कोई भावना नहीं होती
रात को नींद देर से आने की
हज़ार जायज वजहें हो सकती हैं
ज़रा सा रद्दोबदल होता है
बताते हैं साईन्सगो,
हार्मोन्स जाने कौन से बढ़ जाते हैं
इंसान वही करता है
जो उसे नहीं करना चाहिए
गोया कुफ़्र हो

जब दीवार पर लगे कैलेंडर पर
दूध और धोबी का हिसाब भर हो तारीखें
उन तारीखों का रुक जाना
क्या कहा जायेगा
साल के बारह महीने एक सा
रहनेवाला मौसम अचानक
बदल जायेगा तेज़ बारिश में,
जब ऐसी बरसातों में वो पहले
भीग कर जल चुकी थी,

जब मान लिया जाना चाहिए
कि ज्यादा पढ़ना दिमाग पर करता है
बुरा असर
ये तमाम किताबें और रिसाले
वक़्त की बर्बादी भर हैं
जो इस्तेमाल किया जा सकता था
पकाने-पिरोने-सजाने-संवारने में
और बने रहने में तयशुद

जब समझ लिया गया था
चाँद में महबूब की शक़्ल नहीं दिखती
न प्यार होने से हवाएं
सुरों में बहती हैं
न धूप बन जाती है चाँदनी
न आँसू ढल सकते हैं मोतियों में
न जागने से रातें छोटी होती है
उस उम्र में अब ऐसा नहीं होना था

उन उदासी से भरे दिन-दुपहरों में
हल्दी और लहसन की गंध
में डूबी हथेलियों वाली
औरत को उसदिन
महसूस हुआ कि उसके पाँव
हवा में उड़ते रहते हैं।
उसने कैलेंडर पर एक और
कॉलम डाला है-
रोने का हिसाब....

तितलियाँ फिर उड़ेंगी

तिनका-तिनका नीड़ की तलाश में
कतरा-कतरा चैन जोड़ती..
भूल जाती हैं तितलियाँ
की उनको उड़ना भी आता है..

जोड़ते रहने की ख्वाहिश में..
खुद को तोड़ती जाती हैं..
भूल जाती है दुनिया के रंगों को..
और उनसे भी ख़ूबसूरत अपने परो को.

कतर दिए जाते हैं पर उनके..
नोंच डाले जाते हैं रंग उनके..
फूलों की बस्ती से बेदखल की जाती है..
भूल जाती हैं की उनको लड़ना आता है

हर क्षण खंडित होती उनकी आत्मा में..
अब भी सपनें है आसमानों के
लाख पहरे हो..लाख दीवारें
कौन रोक पाया है उड़ानों को..

तितलियाँ ख़ोज लेंगी अपना रास्ता.
नोंचे हुए...मटमैले परों को..
समेटना और उठना भी उनको आता है..
तितलियाँ फिर उड़ेंगी..

 लड़कियों का घर 

कौन सा घर होता है लड़कियों का..
जहाँ चलना सीखा और ये भी की..
ठीक से चलो एक दिन अपने घर जाना है..
जहाँ बचपन के खिलौने भी..
गुड्डे-गुड़िया हुआ करते हैं..
उनकी शादी, डोली और विदाई..
और उनसे समय बचे तो..
उसकी अनकही तैयारियां..

क्यों बोये जाते हैं...अनगिन
लड़कियों के मन में सेमल के फ़ूल..
जो देखने में इतने सुन्दर...
और रस-गंध हीन होते हैं...
हर लड़की के जीवन की एकमात्र
उपलब्धि अपने घर जाना
क्यों बनाया जाता है..

हल्दी...मेहन्दी...और आलते
से रचे हाथों और पैरों से..
जब आती हैं लड़कियां दुल्हन बनके
'अपने घर'अपना असली घर छोड़ के..
वही अपना घर जो कभी अपना नहीं होता
जहाँ एक छोटी सी कमी काफी है
बाप के घर वापिस भेजने के लिए..

अब भी लडकियाँ जलाई जाती हैं..
अपने घरों में...और जो मरती नहीं
वो रोज़ जलती हैं अपनी ही आग में
और जो स्वीकार नहीं करती मरना..
वो बन जाती है.. किस्सा और तमाशा
उनका ऐसा कोई घर नहीं होता..

भागी हुई लड़की 

हर रोज़ रात को भाग जाती हूँ मैं घर से..डायरी लिखते-लिखते..
उन बहुत सी लड़कियों की तरह जो भागती हैं मन ही मन..
यकीन करो घर से भागने वाली लडकियाँ भी होती है....
वैसी ही जिनकी तुम घरों में कल्पना करते हो तुलसी को जल देते..
साहसी से एक कदम ज्यादा दुस्साहसी..
वही लडकियाँ जो प्रेमिका भी हो सकती हैं..पत्नी भी...वेश्या भी..
मैं इंतज़ार करती हूँ..तुम्हारा ख्यालों में तय की उसी जगह पर..
किसी रात तुम नहीं आते..तो मैं बेचैन होकर उस धुंधली रौशनी में बार-बार देखती हूँ राह..
और थक कर लौट आती हूँ...
निराश प्रेमिका की तरह..
तुम आ जाते हो कुछ रातों में..तो गले लगकर कहती हूँ की आज मत जाओ.. तुम्हारी मानिनी पत्नी की तरह..
जिस पुरुष ने कभी ये अनुभव किया हो...किसी स्त्री का पृथ्वी हो जाना..अपने लिए..उसने प्रेम को जाना है..
और कुछ रातें तुम होते हों मुझसे पहले..अपनी जरूरतो की राह मेरे दुपट्टे तक बनाते..
और मेरे होंठो पर होती है वही बाज़ारी मुस्कान..
मैं रोज़ रात को डायरी बंद करके होती हूँ ये तीन औरतों..
और सुबह वापिस सूरज के जागते ही..
मैं होती हूँ वही मस्तमौला लड़की..
राज़ छिपाती..बिना बात हँसती..
रात होने और फिर भागने का इन्तजार करती..
(आलोक धन्वा की भागी हुई लड़कियों को समर्पित)

बिहार और जातिवाद का इतिहास ‘दिनकर’ की कलम से:

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डॉ.रतन लाल
एसोसिएट प्रोफेसर इतिहास विभाग हिन्दू कॉलेज दिल्ली विश्वविद्यालय
संपर्क : lalratan72@gmail.com.

भारत में जब चुनाव या किसी अन्य गतिविधि की चर्चा होती है तब निःसंदेह जातिवाद की चर्चा अवश्य होती है, ऐसा लगता है कि जाति और राजनीति एक दूसरे के पर्याय हों. हालाँकि सत्ता और संसाधन का कोई भी ऐसा क्षेत्र नहीं जो इससे अछूता हो. लेकिन सबसे मज़ेदार बात यह है कि जातिवाद की राजनीति करने को तोहमत सिर्फ दलित और पिछड़ों पर ही थोप दिया जाता है और बाकी सवर्ण जातियों को सर्वग्राही, सर्वमान्य, और पूरे समाज का नेता मान लिया जाता है. यहाँ ध्यान रखने की जरुरत है कि यदि ‘जाति’, ‘जाति’ में अंतर है तो ‘जातिवाद’ और ‘जातिवाद’ - सवर्णवाद और पिछड़ा या दलितवाद – में भी अन्तर है और यह दोनों ‘वाद’ एक दूसरे के विपरीत भी हैं.

यदि बिहार की ऐतिहासिक-सामाजिकपृष्ठभूमि को खंगालें तो बड़े-बड़े ‘सवर्ण’ राजनैतिक-साहित्यिक ‘शूरवीर’ जातिवाद की ज़मीन बनाते दिख जायेंगे. एक बार जब जातिवाद की ज़मीन तैयार हो गई तो उसकी बदौलत सवर्ण तबका पीढ़ी-दर-पीढ़ी सत्ता और संसाधन की मलाई खाता रहा. अस्सी और नब्बे के दशक में जब दलित-पिछड़ों में सामाजिक-राजनीतिक चेतना का सन्चार होता है और सत्ता के समीकरण बदलने लगते हैं तब वर्चस्वशाली सवर्ण लोगों को अचानक राजनीति में ‘जातिवाद’ दिखने लगता है।

‘दिनकर’ – रामधारी सिंह ‘दिनकर’ – भारत के बौद्धिक जगत के एक चर्चित और प्रसिद्द नाम. यह लेख, रामधारी सिंह दिनकर – अधिकारी, ‘राष्ट्रकवि’, साहित्यकार, प्रोफेसर, वाईस-चांसलर, राजनेता सब कुछ थे – के लेखन द्वारा बिहार की राजनीति को समझने का प्रयास है. यह अध्ययन, ‘दिनकर की डायरी’ और ‘दिनकर रचनावली’ खंड, -14 के अध्ययन पर आधारित है. ‘दिनकर की डायरी’ में तो उनके व्यक्तिगत अनुभवों, और खाली क्षण में उनके लिखे गए उनके विचारों का संकलन है. दिनकर के व्यक्तिगत विचार और दर्शन को समझने के लिए ये दोनों स्रोत काफी महत्वपूर्ण हैं. विशेष रूप से पत्रों के संकलन का अध्ययन महत्वपूर्ण है.

हिंदी जगत अपने उद्भव काल सेही सवर्ण जातीयता का अड्डा रहा है और अपने-अपने वर्चस्व के लिए इनके आपसी संघर्ष की गाथा भी सर्वविदित है. आज़ादी से काफी पहले, 12 सितम्बर 1939 को दिनकर लिखते हैं, “...बिहार में कायस्थ, राजपूत और भूमिहार की फीलिंग बड़े जोरों पर चल रही है और साहित्य क्षेत्र भी इससे अछूता नहीं बच रहा है. इसका दुःख है. इस फीलिंग की कुछ डंक मुझे भी लग रही है अन्यथा मैं अपने जीवन को कुछ दूसरा रूप देने में समर्थ हो सकता था.”

अब देखिए दिनकर-गुप्त-बेनीपुरी कथा, जिसकी चर्चा दिनकर द्वारा सूर्यनारायण व्यास को लिखे गए पत्र (14.8.53) में मिलती है. दिनकर उस समय राज्य-सभा सदस्य थे और उनके बारे में अफवाह फैलाई गई कि वे मंत्री बनने के लिए नौकरी छोड़कर दिल्ली आए हैं. दिनकर लिखते हैं, “...इस प्रवाद को फ़ैलाने में सर्वाधिक हाथ पितृवत, परम श्रद्धेय राष्ट्रकवि श्री मैथिलीशरण जी को है. वे संसद में आ गए, यह उनका जन्मसिद्ध अधिकार था, मैं गरीब क्यों आया, इसका उन्हें क्रोध है. सच कहता हूँ, जन्म भर गुप्त जी पर श्रद्धा सच्चे मन से करता रहा हूँ. हृदय को चीरकर देखता हूँ तब भी यह दिखलाई नहीं पड़ता कि उनका मैंने रंच भर भी अहित किया हो, स्तुति में लेख लिखा, विद्वानों के बीच उनकी ओर से लड़ा, एक कांड को लेकर ब्रजशंकर जैसे निश्छल मित्र से रुष्टता मोल ली, यूनिवर्सिटी में उनकी किताबें कोर्स में लगवाता रहा, अभी-अभी एक किताब कोर्स में लगवा दी. दिल्ली में भी कम सेवा नहीं की मगर फिर भी यह देवता कुपित है और इतना कुपित है कि छिप-छिपकर वह मुझे सभी भले आदमियों की आँख से गिरा रहा है. मेरे एक पत्रकार मित्र का यह कहना है कि प्रबंध-काव्य लिखकर तुम गुप्त जी के मित्र नहीं रह सकते क्योंकि इससे उनके व्यापार पर धक्का आता है. अस्तु.”


इसी पत्र में दिनकर आगे लिखते हैं, “बेनीपुरी भी नाराज़ थे क्योंकि वे खेत चरना चाहते थे और मुझसे यह उम्मीद करते थे कि मैं लाठी लेकर झाड़ पर घूमता रहूँ, जिससे कोई खेतवाला भैंस को खेत से बाहर नहीं करे. और भी एक-दो मित्र अकारण रुष्ट हैं. और यहाँ की विद्वान मंडली तो पहले जाति पूछती है. सबसे दूर, सबसे अलग, आजकल सिमटकर अपने घर में घुस गया हूँ. बिहार नष्ट हो गया है, इसका सांस्कृतिक जीवन भी अब विषाक्त है. अब तुम जाति की सुविधा के बिना यहाँ न तो कहीं कोई दोस्त पा सकते हो, न प्रेमी, न प्रशंसक और न मददगार. जय हो यहाँ की राजनीति की! और सुधार कौन करे? जो खड़ा होगा, उसपर एक अलग किस्म की बौछार होगी. मेरा पक्का विश्वास है कि बुद्ध यहाँ नहीं आए थे, महावीर का जन्म यहाँ नहीं हुआ था. यह सारा इतिहास गलत है. साहित्य का क्षेत्र यहाँ बिलकुल गन्दा हो गया है. ‘पंडित सोइ जो गाल बजावा’ भी नहीं, यहाँ का साहित्यकार अब वह है जो ‘टेक्स्ट-बुक’ लिखता है. बेनीपुरी रूपए कमाते-कमाते भी थक गया, आजकल मूर्च्छा से पीड़ित रहता है. चारों ओर का वातावरण देखकर मैं भयभीत हो गया हूँ. चारों ओर रेगिस्तान है, चारों ओर ‘कैक्टस लैंड’ का प्रसार है.”

अब जरा कॉलेज के वातावरण का हाल देखिए, “वहां भी जातिवादियों का जाल था, वहां भी अपमानजनक बातें सुनने में आईं, वहां भी इर्ष्या-द्वेष और मालिनता का सामना करना पड़ा. साथ ही, यह भी भासित होता रहा कि कविता की सबसे अच्छी कब्र कॉलेज ही है. कविता को बचाने के लिए वहां से भागने को तो पहले ही तैयार था. जब कांग्रेस का ऑफर आया, मैं नौकरी छोड़कर संसद में आ गया. अब मैथिलीशरण और अर्थाभाव, ये दो संकट झेल रहा हूँ और बाहर तो लोग अब भी काफी अमीर समझते हैं.”   इस समय तक दिनकर 45 वर्ष के हो चुके थे और उनके विचारों में परिपक्वता देखी जा सकती है. बिहार और साहित्य जगत में फैले जातिवाद को लेकर अब वे इतने दुखी महसूस कर रहे थे कि वे आक्रोश में इतिहास को ही नकार रहे थे, “मेरा पक्का विश्वास है कि बुद्ध यहाँ नहीं आए थे, महावीर का जन्म यहाँ नहीं हुआ था. यह सारा इतिहास गलत है.”

जाति के प्रश्न पर दिनकर के समझ की व्यापकता और ‘आक्रोश’ उम्र के पचासवें में देखी जा सकती है. सन 1961 में दिनकर राज्य सभा के सदस्य थे. 4 मार्च 1961 को दिनकर ने श्री रामसागर चौधरी नाम के एक व्यक्ति को पत्र लिखा, “सच ही, मैं आपको नहीं जानता तब भी आपका 28.2.61 का पत्र पढ़ कर दुखी हुआ. यह लज्जा की बात है कि बिहार के युवक इतनी छोटी बातों में आ पड़े. मैं जातिवादी नहीं हूँ. तब भी अनेक बार लोगों ने मेरे विरुद्ध प्रचार किया है और जैसा आपने लिखा है, अब वे ऐसी गन्दी बातें बोलते हैं. लेकिन तब मैं जातिवादी नहीं बनूँगा. अगर आप भूमिहार वंश में जन्मे या मैं जनमा तो यह काम हमने अपनी इच्छा से तो नहीं किया, इसी प्रकार जो लोग दूसरी जातियों में जनमते हैं, उनका भी अपने जन्म पर अधिकार नहीं होता. हमारे वश की बात यह है कि भूमिहार होकर भी हम गुण केवल भूमिहारों में ही नहीं देखें. अपनी जाति का आदमी अच्छा और दूसरी जाति का बुरा होता है, यह सिद्धांत मानकर चलने वाला आदमी छोटे मिजाज का आदमी होता है. आप लोग यानी सभी जातियों के नौजवान – इस छोटेपन से बचिए. प्रजातंत्र का नियम है कि जो नेता चुना जाता है, सभी वर्गों के लोग उससे से न्याय की आशा करते हैं. कुख्यात प्रान्त बिहार को सुधारने का सबसे अच्छा रास्ता यह है कि लोग जातियों को भूलकर गुणवान के आदर में एक हों. याद रखिए कि एक या दो जातियों के समर्थन से राज नहीं चलता. वह बहुतों के समर्थन से चलता है. यदि जातिवाद से हम ऊपर नहीं उठे तो बिहार का सार्वजानिक जीवन गल जाएगा.”

व्यक्तिगत सुझाव और जातिय संबंधोंमें सत्ता के खेल की व्याख्या करते हुए दिनकर आगे लिखते है, “आप सोचेंगे, यह उपदेश मैं आपको क्यों दे रहा हूँ? किन्तु आपने पुछा, इसलिए आप ही को लिख भी रहा हूँ. आज आप पीड़ित हैं, अपने आपको दुखी समझते हैं. आपके विरुद्ध जिनका द्वेष उभरा है, कल उनका क्या भाव था? शायद अपने को वे उपेक्षित अनुभव करते थे. इसलिए, स्वाभाविक है कि उनका असंतोष व्यक्त हो रहा है. और उपाय भी क्या था? इसलिए आपको धीरज रखने को कहता हूँ, उच्चता पर आरूढ़ रहने को कहता हूँ.”
जातीय राजनीति की वर्गीय चरित्र और सीमाओं की चर्चा करते हुए दिनकर लिखते है, “जाति-नाम का शोषण करके मौज मारनेवाले चन्द लोग, जो कुछ करते हैं, उसकी कुत्सा उस जातिभर को झेलनी पड़ती है, यह आप लोग समझ रहे हैं? यही शिक्षा कल उन्हें भी मिलेगी, जो आपको केवल इस लिए डस रहे हैं कि आप भूमिहार हैं. तो इससे निकलने का मार्ग कौन सा है? केवल एक मार्ग है. नियमपूर्वक अपनी जाति के लोगों को श्रेष्ठ और अन्य जातिवालों को अधम मत समझिए. और यह धर्म उस समय तो और भी चमक सकता है जब आदमी जांच की कसौटी पर हो.”

इस पत्र को पढ़ने पर कुछ बातेंझलकती हैं. पहली बात तो यह है की श्री रामसागर चौधरी, दिनकर के स्वजातीय – भूमिहार – थे. चौधरी साहब को किसी गैर-भूमिहार से कोई परेशानी थी, इसलिए मदद के लिए उन्होंने अपने स्वजातीय सांसद श्री दिनकर को पत्र लिखा. ऐसा लगता है कि चौधरी साहब ने जाति के आधार पर दिनकर से मदद मांगी, इसीलिए दिनकर व्यथित थे और उन्हें लिखना पड़ा, “मैं जातिवादी नहीं हूँ.” दूसरी महत्वपूर्ण बात, जिस समय यह पत्र लिखा गया उस समय बिहार में श्रीबाबू (श्रीकृष्ण सिंह) मुख्य-मंत्री थे और वे भी जाति से भूमिहार थे. अब प्रश्न उठता है कि क्या श्रीबाबू की राजनीति शैली ऐसी हो चुकी थी कि बिहार उसी समय कुख्यात हो गया था. लगता है दिनकर को, श्रीबाबू की रुढ़िवादी जातिवादी राजनीति से क्षुब्ध होकर, लिखना पड़ा, “कुख्यात प्रान्त बिहार को सुधारने का सबसे अच्छा रास्ता यह है कि लोग जातियों को भूलकर गुणवान के आदर में एक हों. याद रखिए कि एक या दो जातियों के समर्थन से राज नहीं चलता. वह बहुतों के समर्थन से चलता है. यदि जातिवाद से हम ऊपर नहीं उठे तो बिहार का सार्वजानिक जीवन गल जाएगा.”
आधुनिक बिहार के इतिहास में राजनीति में जातिवाद के जन्म का श्रेय बिहार के पढ़े-लिखे और ‘समझदार’ सवर्णों को जाता है. लेकिन सत्ता के गलियारे में वर्चस्व को लेकर के.बी. सहाय और महेश प्रसाद सिन्हा में जातीय गुटबंदी सर्वविदित थी, जिसका परिणाम यह हुआ कि दोनों 1957 के विधान सभा चुनाव में हार गये. लेकिन चुनाव हारने के बावजूद, श्रीबाबू ने महेश प्रसाद सिन्हा को तो राज्य खादी बोर्ड का चेयरमैन बनाया, परन्तु सहाय को कुछ नहीं बनाया गया. यही नहीं उनके कैबिनेट और अन्य महत्वपूर्ण पदों पर दलितों की संख्या अपर्याप्त थी एवं पिछड़ी जातियों महिला तथा आदिवासी नदारद. यही कारण था कि दिनकर ने लिखा, “याद रखिए कि एक या दो जातियों के समर्थन से राज नहीं चलता. वह बहुतों के समर्थन से चलता है. यदि जातिवाद से हम ऊपर नहीं उठे तो बिहार का सार्वजानिक जीवन गल जाएगा.”

जीवन के छठे दशक में जाति केप्रश्न पर दिनकर के विचारों की परिपक्वता और व्यापकता और अधिक बढ़ती गई और अब उनके विचारों में आक्रोश के साथ व्यंग भी दीखता है. वे अपनी डायरी में लिखते हैं, “सरदार पटेल की 96वीं जयंती का सभापतित्व करने को साहित्य सम्मलेन-भवन गया. मुख्यमंत्री भोला पासवान शास्त्री भी आए हुए थे. प्रायः सभी वक्ता एक ही जाति के थे. अधिक श्रोता भी उसी जाति के थे. सोचकर हंसी आती है कि स्वामी सहजानंद और बाबू श्रीकृष्ण सिंह भूमिहार बनकर जी रहे हैं. अनुग्रह बाबू के नामलेवा राजपूत हैं और सरदार पटेल की जयंती बिहार में कुर्मी बंधु मनाते हैं. बिहार गर्त में गिरता जा रहा है. कहाँ जाकर रुकेगा इसका पता नहीं चलता.”

अपने स्वजातीय बंधुओं से ही हुएउत्पीड़न की व्यथा वे इन शब्दों में व्यक्त करते हैं, “मैं भी अपनी पोती के लिए लड़का खोज रहा हूँ. कोई सीधे मुंह बात ही नहीं करता. पहले समाज में ऐसे लोग थे, जिन्होंने मुफ्त लड़के देकर, मेरा उपकार किया था. मगर अब वे लोग समाज से लुप्त हो गए हैं. नई पीढ़ी के भूमिहार केवल अर्थ-पिशाच हैं. मैं भी जात से बाहर जाने को तैयार हूँ. दूसरा विकल्प यह कि लड़की क्वाँरी रह जाय. और क्या कर सकता हूँ? पहले लोग सोचते थे दिनकर कंगाल नहीं है, उसके पास कीर्ति है, उसे शरण मिलनी चाहिए. अब ऐसी बात कोई नहीं सोचता. ऐसी भ्रष्ट जाति से बाहर निकलने का रास्ता मिले तो इससे अच्छा और क्या होगा. मगर कोई रास्ता तो मिले. 9 लड़कियों की शादी कर चुका हूँ. रामसेवक की तीन लड़कियां और हैं. कम से कम दो की शादी करके मरना चाहता हूँ. मुझे लगता है, भगवान ने मुझे 11 लड़कियों के ब्याह के लिए भेजा था. वह काम पूरा हो जाए तो समझूँ मेरे अवतार का कार्य पूरा हो गया....असल में भूमिहार ही नहीं सारा प्रान्त सड़ गया है.”
जातिवाद के दंश से शिक्षा का भी क्षेत्र नहीं बच पाया. बुद्धिजीवियों की भूमिका की चर्चा करते हुए दिनकर लिखते हैं, “असली स्थिति यह है कि जनता चाहती है कि मनीषी ऐसा हो कि वह राजा और प्रजा, दोनों को डांट सके. जब तक मनीषी इस धर्म का पालन करता है, तब तक जनता उसके साथ रहती है. स्वराज्य के पूर्व तक मनीषियों का इस देश में बड़ा सम्मान था, क्योंकि मनीषी शासकों के खिलाफ़ आवाज़ उठाते थे. मगर अब मनीषियों का आदर बहुत कम हो गया है. जो मनीषी लेखक और कवि हैं, वे कला की सेवा तो करते हैं, लेकिन समय के जलते प्रश्नों पर अपना विचार व्यक्त नहीं करते. स्पष्ट ही यह सुरक्षा की राह है और जो सुरक्षा खोजता है, जनता उसकी खोज नहीं करती. हमलोग सुरक्षा की खोज में ही मारे गये हैं.”

राजनीति, अफसरशाही और मनीषियों केसम्बन्ध और उभरते चाटुकारिता और घुटनाटेक संस्कृति की चर्चा करते हुए दिनकर लिखते हैं, “आज तो स्थिति यह है कि जिस समाज में हम जीते हैं, उसका प्रोप्रेइटर राजनीतिज्ञ है, मैनजर अफसर है और मनीषी मजदूर है. कुछ मनीषी अध्यापक और प्राध्यापक हैं, कुछ लेखक, कवि और पत्रकार हैं. मगर वे हमेशा चौकन्ने और सतर्क रहते हैं कि कहीं कुछ ऐसी बात मुंह या कलम से न निकल जाय, जिससे सरकार या विश्वविद्यालय के अधिकारी नाराज़ हो. जिस समाज के मनीषी असुरक्षा से इतने शंकित और भयभीत हों, उस समाज का नेता राजनीतिज्ञ ही रहेगा. सरस्वती और लक्ष्मी में बैर है, यही सिद्धांत ठीक था. हमने इस बैर को बुझाने की कोशिश की, यही हमसे बड़ी भरी भूल हो गयी.”

ध्यान देने की जरुरत है, जिन मनीषियों की चर्चा दिनकर यहां कर रहे हैं, वे कौन लोग थे इसका अंदाज़ा आप लगा सकते हैं.बहरहाल, दिनकर के जीवन के जिस चार दशक की यहाँ चर्चा की गई है, उसमें जाति के सम्बन्ध में दिनकर दिनकर के विचारों को स्पष्ट रेखांकित किया जा सकता है.अपने निजी जीवन में अपने स्वजातीय बंधुओं से इतने सताए गए की उन्हें लिखना पड़ा “नई पीढ़ी के भूमिहार केवल अर्थ-पिशाच हैं.” लेकिन जाति और धर्म में सत्ता के खेल को दिनकर चुनौती नहीं दे पाए.गौरतलब है कि उनके मित्र राहुल संकृत्यायन तो काफ़ी पहले ही हिन्दू धर्म को त्याग कर बौद्ध बन गए, लेकिन दिनकर न तो अपने धर्म का त्याग किया और न जाति का ही!

दिनकर एक बहुयायामी व्यक्तित्व रहेहैं – शिक्षक, साहित्यकार, ऑफिसर, नेता, वाईस-चांसलर, प्रकाशक इत्यादि. जाति-व्यवस्था में सत्ता का खेल है, दिनकर इस बात को समझते थे. लेकिन जाति व्यवस्था के प्रति उनका प्रतिरोध निजी पत्रों में ही दीखता है. महाकाव्य के पठन में कर्ण दिनकर का नायक है, लेकिन सार्वजानिक जीवन में (जहाँ तक हमें ज्ञात है) दिनकर ने जाति-व्यवस्था में सत्ता के खेल पर खुलकर प्रहार नहीं किया: यहीं दिनकर का द्वन्द दीखता है. ज्ञान का विमर्श, तर्क का विमर्श होता है और समीक्षा का उद्देश्य होता है – पाठ की उलझनों का पर्दाफ़ाश करना. जिस तरह से एक पाठ के असंख्य पठन हो सकते हैं, उसी तरह से एक बहुयायामी व्यक्ति के व्यक्तित्व और कृतित्व का भी असंख्य पठन हो सकता है. हम चाहे जो कहें लोग तो अपने ढंग से पढ़ेंगे ही, और व्यक्तित्व और कृति दोनों के पाठ वक़्त के साथ बदलते रहे हैं, बदलते रहेंगे। जैसे महाभारत का पुनर्पाठ शिवाजी सावंत और दिनकर ने किया, उसी तरह दिनकर का पाठ हम अपने ढंग से कर सकते हैं। और, यह पठन सिर्फ प्रारंभ बिंदु है.


अब यहां ध्यान देने की जरुरत है किदेश की आज़ादी की लड़ाई सभी वर्गों के लोगों ने लड़ी थी और कुर्बानियां भी दी थीं. लेकिन आज़ादी के शीघ्र बाद ही सत्ता की हिस्सेदारी से राजपूतों, ब्राह्मणों, कायस्थों तक को खदेड़ दिया गया और सिर्फ एक ‘जाति’ विशेष का ही वर्चस्व बना रहा, दलित और पिछड़ों की कौन कहे? बिहार को सड़ने के रास्ते पर कौन ले गया? बिहार की राजनीति में जातिवाद को जन्म किसने दिया? क्या इतिहास से यह सवाल पूछना लाजिमी नहीं है? जातिवादी राजनीति और उसके पोषण के लिए किसे जिम्मेदार ठहराया जा सकता है? आज़ादी के बाद भी जिस तरीके से बहुसंख्यक जनता, विशेष रूप से दलितों पर जो अमानवीय अत्याचार हुए, उसकी आवाज़ उठाना या उनके हकों की वकालत करना जातिवाद था? यक़ीनन नहीं. आज जिस तरह से राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक सत्ता का संकेन्द्रन कुछ व्यक्तियों एवं जातियों में हो रहा है, यह प्रश्न आज भी प्रासंगिक है.
सनद रहे, इस पूरे विमर्श में स्त्री नदारद है.

  सन्दर्भ सूची
1.नन्दकिशोर नवल, तरुण कुमार (सं.), रामधारी सिंह दिनकर रचनावली – 14, लोकभारती प्रकाशन,नई    दिल्ली, 2011. पृष्ठ 136. 
2. वही, पृष्ठ 527.
3. वही, पृष्ठ 527-528.
4.वही, 528
5.वही, पृष्ठ 528.
6.वही, पृष्ठ 211.
7.वही, पृष्ठ 211.
8.वही, पृष्ठ 212. 
9. दिनकर की डायरी, पृष्ठ 245, 31 अक्टूबर 1971.
10. दिनकर रचनावली खंड, -14, पृष्ठ 50.
11. दिनकर की डायरी, 1 मई, 1972, पृष्ठ 304.
12. वही, पृष्ठ 305.


प्रेमा झा की कवितायें

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प्रेमा झा 
युवा कवयित्री,ब्लॉगर संपर्क :prema23284@gmail.com

मेरा देश अभी सीरिया या इज़रायल नहीं हुआ है  

मैं जनता हूँ
आम जनता हूँ
मैं लूट चूका हूँ
मैं बर्बाद और बेबस हूँ
मैं मुज़रिम हूँ,
दोषी हूँ और सजायाफ्ता कैदी
से जरा बड़ा मेरा दोष है
क्योंकि मैंने पाई-पाई जोड़े हैं
बुरे वक़्त में काम आने के लिए
बच्चों की फ़ीस भरने और जोरों के दर्द में काम आने के लिए
अब तक मेरे खाते में कई सील बंद कर दी गई है
और मुझे बड़ा चोर बताकर कतार में खड़ा कर दिया गया
मेरे हाथ में रखे नोटों को मैं अब माँ गंगा की भेंट चढ़ा रहा हूँ
भक्ति  के नाम पर उसने मुझसे कहा है कि पुण्य कमा
काम आएगी माँ गंगा
जब मय्यत के दिन
तेरी अर्थी का राख़ उस गंगा में विसर्जित की जाएगी
माँ गंगा तब भी काम आएगी
जब तेरे पास से ऐसे ही बहुत से नोट निकलेंगे
एक बार माँ के नाम से भेंट चढ़ा
फिर देखना सब पाप धुल जाएँगे
जिन्होंने बहुत से पाप, लूट, हत्याएं और कालाबाज़ारी की थी
वो स्विस-अकाउंट में पैसे भर चुके थे
और वो गंगा के पास आकर केवल हवन और ग्रहण करते थे!
वो अब तक कनाडा और यू.एस. शिफ्ट कर चुके हैं
वे बड़े-भारी लोग हैं
उनसे माँ गंगा कभी-कभी मिलती भी हैं
उन्होंने कई पेटी भरने के बाद अब सूची से नाम काट लिया है
कतार में बस मजदूर, बेबस और लाचार लोग बचे थे
ये जनता हैं
आम जनता हैं
रियासत का कहना था-
भूख से मरो, बीमारी से मरो
मगर स्वच्छ रहना
हर पाप से, पाई-पाई के हिसाब से
मेरा पांच साल का बच्चा न्यूमोनिया से लड़ रहा है
और ज़िन्दगी और मौत के बीच झूल रहा है
और मैं लाइन में खड़ा हूँ
इस इंतज़ार में की पैसे मिलते ही सब ठीक हो जाएगा
मेरा बच्चा बच जाएगा
मगर मेरा बच्चा मर चूका था!
लाइन ख़त्म नहीं हुई अब भी
हुक्मरानों का कहना था
इससे देश से कालाधन साफ़ होने में
और
अर्थव्यवस्था मज़बूत होने में मदद मिलेगी
मगर मेरे घर में चीत्कार फट रही है
मैं अब भी लाइन में खड़ा हूँ
मैं जनता हूँ
आम जनता हूँ
जनता जो तमाम टूजी, थ्रीजी घोटाले करने के बाद
इन्फ्निट लाइन में खड़ी हो जाती है
अडानी, मोदी और माल्या विदेश कूच कर जाते हैं
तब रियासत एक नया पैंतरा फेंकती है
अभी एक जवान औरत की लाश निकल रही है
देश में जियो सिम आ गया है
ताकि मौत की खबर को जल्द-से-जल्द
बिना किसी परेशानी और राशि के पंहुचाया जा सके
हुक्मरानों ने हिरोशिमा और नागासाकी के स्टेशन पर
नया सन्देश पंहुचाया है
देश प्रगति के पथ पर है
मेरे घर में तेरहवीं का मातम है
मैं जनता हूँ
आम जनता हूँ
मुझे खुश होना चाहिए
मेरा देश अभी सीरिया या इज़रायल नहीं हुआ है
मैं लाइन में खड़ा हूँ
और बुदबुदा रहा हूँ
मेरा बच्चा मर गया
लेकिन, देश अभी सीरिया या इज़रायल नहीं हुआ है


कश्मीर पुरुष                       

हे कश्मीर पुरुष,
मैं देहलवी तुम्हारे रूप से
मोहित होकर
तुम्हारी खूबसूरत वादियों में आ गई हूँ
मुझे संभालो न!
देखो न, अन्ना केरेनिना की तरह
मेरे वस्त्रों की सिलवटें
सब तुम्हारे आलिंगन और चुम्बन के लिए
तरसने लगी है
तुम बेहद सुंदर पुरुष हो
धरती के सबसे सुंदर पुरुष
स्त्री से पुरुष का आकर्षण
इससे पहले कईयों ने दोहराया होगा
मगर एक पुरुष से स्त्री के आकर्षण पर
अब इतिहास लिखा जाएगा
मैं उसी तरह तुम्हारे पास
जैसे हद्दे नज़र तक सुंदर घाटियाँ
और
घाटी में घुसे हुए घुसपैठिये
की तरह देखो न!
अब षड़यंत्र भी रचने लगी हूँ
किसी हारी प्रेमिका की तरह!
मैं, देहलवी तुम पर दावा ठोकूंगी
तुम्हें गिरफ्त में करूंगी
अपनी कुछ जटिल योजनाओं के तहत
और
सुर्ख प्रेम-लिपियों में
तुम पर ग्रन्थ भी लिखूंगी
मैं, मेरे अंगरक्षक जो मेरे
बाप और भाई होने का दावा करते हैं
उनसे तुम्हारे लिए प्रस्ताव भेजूंगी!
तुम मेरे हो सिर्फ मेरे
हे कश्मीर पुरुष,
जब कश्मीरियों पर जुल्म
ढाया गया था-
मैंने ही चुपके से
अभिसारी मेनका को
तुम्हारा तप भंग करने को भेजा था
हे कश्मीर पुरुष,
मैं दोषी हूँ देहलवी
मेनका ने रूप बदलकर
भागकर स्वर्ग से दूर
बारूदी-सुरंगों में शरण ले ली!
हे कश्मीर पुरुष,
मैं दोषी हूँ
उन सब असंस्कारी संततियों की
जिसने बारूद के गोले से
रेत पर लिखे अक्षरों जैसे
घर, घर की दीवारें और चौखट बना दिए
मैंने उन्हें सँभालने की बहुत कोशिश की
मगर
बारूदी घरों ने धीरे-धीरे
संतति पैदा करते हुए
एक पूरा क़स्बा, शहर
और फिर मुल्क बना लिए
बुरहान वानी मेरी ही षड्यंत्रों का साजिश था
हे कश्मीर पुरुष,
मैं, तुमसे मगर मुआफ़ी नहीं मांगूंगी
क्योंकि मैं तुमको जीतना चाहती हूँ
और हाँ; बारूद बने मुल्क और उनकी स्त्रियों का कहना है कि
तुम उनके हो?
मैं, तुमको बाँट नहीं सकती कश्मीर पुरुष
नहीं चाहती सौतनें अपने लिए!
इस तरह
तुम्हारी नाजायज़ संतानें भी मुझे शिरोधार्य होगी
मेरे अंगरक्षकों और मेरे सैनिकों का कहना है
मेरी प्यारी देहलवी
तेरी हर मुराद मैं पूरी करूँगा
तुझसे ईर्ष्या करने वाली हर स्त्रियों का वही हाल होगा
जो बड़े महल के मुख्य-द्वार पर काँटों में फंसी
उस मकड़ी का हुआ है
मकड़ी जो घर तो बना लेती है
मगर उसे पता नहीं होता
वो काँटों के बिना पर खड़ी है
हे कश्मीर पुरुष,
मैं देहलवी तेरे लिए जान दे भी दूंगी
और ले भी लूंगी
सच बताऊँ; सैनिकों का जो जखीरा
कश्मीरियों पर हमला बोला था
उसको मैंने गुरु-मंत्र में
धर्म, असहिष्णुता, हिंसा, गोले-बारूद
और नफरत दे दी!
मेरे अंगरक्षक आज बदल गए है
लेकिन, मैंने गुरु मंत्र नहीं बदले
हे कश्मीर पुरुष,
फिर भी मैं चिंतित हूँ
तुम्हारे चौड़े सीने पर उगे बाल
जो स्त्री से पुरुष की आसक्ति दर्शाती है
उसमें धीरे-धीरे
बारूद कि ज्वाला भड़कने लगी है
घाटी जल रही है
अंगरक्षक, सैनिक, सौतनें और प्रेमिका
मुझे इंतज़ार है किस दिन
दावेदारी छोड़कर
सच में प्रेम करने लगेंगे
मैं बदल रही हूँ कश्मीर पुरुष
बदलने लगी हूँ
फिर भी तुमसे मेरा मोह नहीं छूटता
अब बोलो तुम क्या कहना चाहोगे?
तभी घाटी के
पुरअसरार, सुनसान रास्ते से
एक गीत निकलता है
और वह जन गण मन होता है!
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