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नये हिंदी सिनेमा में नयी स्त्री

सुधा अरोडा
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सुधा अरोडा सुप्रसिद्ध कथाकार और विचारक हैं. सम्पर्क : 1702 , सॉलिटेअर , डेल्फी के सामने , हीरानंदानी गार्डेन्स , पवई , मुंबई - 400 076 फोन - 022 4005 7872 / 097574 94505 / 090043 87272.

सिनेमा की पहुंच समाज के बहुत बड़े वर्ग तक है इसीलिये मनोरंजन के साथ साथ सामाजिक दायित्व निभाने का सवाल भी यहां जुड़ जाता है.जब कोई फिल्म रोचक अंदाज़ में सामाजिक विसंगतियों के चित्र और कुछ सकारात्मक संदेश  सही सही संप्रेषित करने में समर्थ होती है तो उसे व्यापक स्तर पर सराहना भी मिलती है.
हिन्दी सिनेमा में नायिका एक ऐसा मिथक है जिसकी अनुपस्थिति में कोई फिल्म बन ही नहीं सकती लेकिन अब तक जिसकी उपस्थिति नायक समेत पेड़ों और फव्वारों के चारों ओर चक्कर लगाने के लिये ही होती रही है.नायक की नायिका और कहानी का मूलाधार होने के बावजूद सिनेमा की नायिका को बार-बार कंडीशंड किया जाता रहा.स्वयं नायिका ही इस मिथक को बार-बार तोड़ती रही.अगर कभी कहानी ने उसे घेरे में जकड़ने की कोशिश की तो उसने एक विद्रोह भी रचा.यह अलग बात है कि बॉक्स ऑफिस के भूत के डर से फिल्मकारों ने स्त्री को परम्पराओं से बाहर निकलने ही नहीं दिया  क्योंकि दर्शक वैसी ही सहनशीला नारी की छवि देखना और उस पर सहानुभूति जताना चाहता है जो उसके मानदंडों पर सही ठहरती हो.दर्शक सब कुछ पचा सकता है - एक अकेला नायक सौ-पचास गुंडों को धराशायी कर दे, कोठे पर लगातार बुरी नज़रों की शिकार ‘पवित्र तवायफ’ बड़े बड़े डायलॉग मारे, सबकुछ धड़ल्ले से चल जाएगा .हिंदी फिल्मों की नायिकाओं  ने एक लंबे अरसे तक अपनी महिमामंडित छवि को पुष्ट करने के लिये त्याग, ममता और आंसुओं से सराबोर अपनी तस्वीर दिखाई और बाॅक्स आॅफिस पर खूब वाहवाही बटोरी.

भारतीय सिनेमा लंबे समय तक पुरुषवर्चस्व का सिनेमा रहा है.निर्माता से दर्शक तक यहां पुरुष की केन्द्रीयता रही है और ऐसे में जाहिर है पुरुष को एक सहचरी ही चाहिए, स्वतंत्र व्यक्तित्व नहीं .नायिका पति को आगे बढ़ने का मौका देती हुई नौकरी और अपना फलता फूलता कैरियर होम कर देती है .अभिमान वाली जया भादुड़ी इसकी मेटाफर है.‘अल्लाह तेरो नाम’ और ‘ना मैं धन चाहूं , ना रतन चाहूं’ की बीते समय की नायिकाएं हों या ‘दिलवाले दुलहनियाँ’ की और ‘कुछ कुछ होता है’ की लंदन रिटर्न, गाती वह ‘ओम जय जगदीश हरे’ ही है.यही उसकी भारतीयता है! भारत का दर्शक ऐसी ही पराश्रित नायिकाओं का मुरीद रहा है.

शायद यही सबसे बड़ा कारण हैकि नायिकाएं हीरो को बचाने के लिए खलनायक के सामने नाच-गाना, समर्पण और कभी-कभी धोखा देकर नायक को छुड़ा लेने तक के लटके झटके बरसों से सिनेमा में करती रही है और दर्शकों का जी नहीं ऊब रहा क्योंकि उसे ऐसी ही स्त्रियाँ रुचती हैं .उसे परंपरा में लिथड़ी नायिकाएँ पसंद हैं.परंपरा का नाम सिंदूर, करवाचैथ और मंगलसूत्र ही होता है क्योंकि इन्हीं में पुरुष होता है और ये ही वे बंधन हैं, जिसे स्त्री तोड़ना नहीं चाहती .ये ही वे हथियार हैं जिससे वह अपनी इच्छाओं का गला घोंट लेती है .चाहे महल में वह भूखी सो जाय, चाहे पति के लात-घूंसों को खाकर ही अपने को बचाए रखे लेकिन वह मर नहीं पाती क्योंकि उसके पास अपने नाम से न कोई घर होता है , न संपत्ति .लिहाजा वह खलनायक या जालिमों के हाथ से बचाई जाती है, नायक उसका संरक्षक हो जाता है और वह उसके पाँवों पर गिर जाती है.साहब बीवी और गुलाम की छोटी बहू को देखिये - शराबी पति के लिये शराब तक पीने को तैयार हो जाती है और उसके पैरों पर गिरकर गाती है - न जाओ सैंया , छुड़ा के बैयां , कसम तुम्हारी , मैं रो पड़ूंगी ! फिर भी वो जमींदार पति ही क्या जो पसीज जाये ! वह सिंदूर भरी मांग से लिथड़ी रोती-कलपती , मिन्नतें करती , सुरीले सुर में गाती सुंदरी नायिका को छोड़कर, तवायफ़ के कोठे पर चला ही जाता है .नायिकाएं तब भी ‘तुम्हीं मेरे मंदिर, तुम्हीं मेरी पूजा, तुम्हीं देवता हो’ गा गाकर, गले में मंगलसूत्र भरपूर दिखातीं रहीं .मूक फिल्मों से शुरु होकर अछूत कन्या और मदर इंडिया से गुज़रते हुए सुजाता, बंदिनी, दिल एक मंदिर, मैं चुप रहूंगी तक सिंदूर से मांग भरी नायिकाएं दशकों तक बड़े परदे पर सबकी आराध्य बनी रहीं.        

पुरातनपंथी मध्यवर्गीय परिवार के दमघोटू माहौल में ताने बाने से छलनी अपने नसीब को कोसती और विधि के विधान को स्वीकारती ‘‘मैं चुप रहूंगी’’ वाली फिल्मों का दौर भी हमने देखा है जब ऐसे संयुक्त परिवार में जाकर अपनी सहनशीलता के सुपर पावर की बदौलत झुकी आँखों वाली बहू दर्शकों की चहेती होती थी!  घर के सबसे क्रूर सदस्य को अपनी जान की बाज़ी लगा कर बचा लेती नायिका के कंधे पर फिल्म की ‘‘हैप्पी एंडिंग’’ का दारोमदार था ! वह खुद ही गले में रस्सी बाँध कर उसके सिरे को खुला छोड़ देती थी फिर संयुक्त परिवार में जिसका जी चाहे, उसे हाँक लेता था ! ऐसी फिल्मों की एक लंबी कतार है जिनमें स्त्री का ममतामयी मां, पत्नी, बहन और बेटी का उजला धुला रूप दशकों तक दर्शकों को लुभाता रहा.
पांच दषक पहले गीत भी ऐसे ही रचे गये -
‘‘ तुम्हीं मेरे मंदिर, तुम्हीं मेरी पूजा, तुम ही देवता हो !
कोई मेरी आंखों से देखे तो समझे कि तुम मेरे क्या हो!  (फिल्म - खानदान में नूतन और सुनील दत्त)
‘‘ कैसा मुझे वरदान मिला है, तुम क्या मिले भगवान मिला है! अब तो जनम भर संग रहेगा, इस मेंहदी का रंग रहेगा  तेरे चरण की मैं दासी रे दासी ....जीवन डोर तुम्हीं संग बांधी !’’


सौ साल के हिंदी सिनेमा में स्त्री की छवि निरंतर बदल रही है.दर्शक और महिलाएं बरसों तक फिल्में देखने के बाद अपने आंसुओं से भरे रुमालों को निचोड़ने में ही फिल्म की सफलता को आंकते रहे.मेंहदी, सिंदूर, टिकुली और मंगलसूत्र में सजी दासी बनी इस नायिका ने प्रेम भी किया और घर से विद्रोह भी ! पर करवाचैथ का सारा ताम-झाम , जेवर और जरीदार साड़ियों से लंदी फंदी नायिकाओं ,भव्य रंगीन दृष्यों और गीतों की संभाव्यता के कारण , बागी आधुनिक नायिका को भी, सिनेमा अपने पारंपरिक और समर्पित खांचे में दिखाता रहा.‘दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगें’ से लेकर ‘हम दिल दे चुके सनम’ में करवाचैथ के सुहावने मंजर देखे जाते रहे .भारतीय सिनेमा के इतिहास पर समग्रता में एक नज़र अगर डाली जाय तो हम ऐसी नायिकाओं को भी पाएंगे जो इस मिथक को तोड़ भी रही हैं और अपनी स्थितियों में मुक्ति का एक आख्यान भी बनती रही हैं.बेशक सिनेमा का मनोरंजनशास्त्र जनमानस में पैठी हुई प्रवृत्तियों के संदोहन पर टिका हो.सबसे पहले हंटरवाली नाडिया को हम एक ऐसी स्त्री के रूप में सिनेमा के पर्दे पर पाते हैं जो अब तक पुरुष के लिए आरक्षित और स्त्री के लिए वर्जित क्षेत्र में दखल देती है .जो हंटर अभी तक स्त्री की पीठ पर बजते थे नाडिया ने उससे पुरुष की पीठ रंग डाली .वह कल्पना के नहीं बल्कि वास्तविक घोडे दौड़ाती थी और जिस दौर में पूरब से पश्चिम , उत्तर से दक्षिण तक की भारतीय स्त्रियाँ घूँघट और ओढ़नी-चुनरी में लिपटी थीं , निडर नाडिया ने ‘फीअरलेस’ बनकर सिर खोलकर लोगों को चुनौती दी और उन मूल्यों को बचाया जो आमतौर पर पुरुषों की बपौती माने जाते थे .पर यह एक औसत नहीं , अपवाद स्वरूप चरित्र था जो बाॅक्स आॅफिस की संभावनाओं को देखते हुए रचा गया .

इसके बाद आता है नरगिस का दौर .भारतीय सिनेमा की इस नायिका ने अपनी लंबी पारी में मध्यवर्गीय स्त्री के सपनों और आकांक्षाओं के साथ-साथ उसकी चारित्रिक दृढता को एक अलग ही मुकाम पर पहुंचाया .कम खाकर ईमानदारी से जीना और अपनी एक सामाजिक भूमिका तलाशना इस नायिका का सर्वाधिक लोकप्रिय रूप है .नरगिस का केवल एक दौर नहीं था बल्कि उसका एक व्यापक उत्तर काल भी है जब दामिनी , लज्जा , मृत्युदंड , प्रतिघात , ज़ख्मी औरत , अंजाम , खून भरी मांग , अस्तित्व की नायिकाओं ने दयनीय और सहने वाली इमेज को धराशायी कर अपनी सारी वल्नरेबिलिटी सहित पुरुष सशक्त को चुनौती दी और समाज के सामने कुछ सवाल रखे .पांच दशक पहले तक नायिकांए मीनाकुमारी और नरगिस जैसी सलज्ज थीं जो भारतीय पोशाक साड़ी में लैस होती थीं और सारी रूमानियत अपनी आंखों से ज़ाहिर कर देती थीं .अपनी देह, ज़ीरो फ़िगर और यौनिकता के प्रति सचेत नायिकाएं तब स्वीकार्य नहीं थीं.इसके लिए तो हेलेन, बिन्दु या अरुणा ईरानी ही काफी थीं और वे फिल्म की नायिका कभी नहीं रहीं.आज नायिका और खलनायिका के बीच सिर्फ कपड़ों का ही नहीं, मानसिकता का भी अंतर मिट गया है.आज कम कपड़ों में आइटम साॅन्ग करने के लिये हेलेन और बिंदु की तरह सिर्फ़ राखी सावंत या मलाइका खान की भी ज़रूरत नहीं रही .उसके लिये करीना कपूर, ऐश्वर्या राय, कैटरीना कैफ़ या विद्या बालन तक, जो अपनी शर्तों पर किसी भी रोल को अस्वीकार करने की कूवत रखती हैं, चालू किस्म के आइटम साॅन्ग - ‘चिपका ले सैंया फेविकाॅल से’ और ‘कारे कजरारे’ से लेकर ‘शीला की जवानी’ ‘चिकनी चमेली’ और ‘मला जाउ दे’ की उत्तेजक लावणी तक के लिये अपने को सहर्श प्रस्तुत कर देती हैं.


ग्रामीण नायिकाएँ खासतौर पर उन समस्याओं से जुडी रहीं जो आमतौर पर ग्रामीण नायकों से सम्बद्ध थीं , मसलन कृषि की समस्याएँ, शोषण और घरेलू कलह आदि लेकिन आश्चर्यजनक रूप से ग्रामीण नायिकाएँ एक खुले माहौल में सांस लेती प्रतीत होती हैं .वे शहरी नायिकाओं की तरह कठपुतली नहीं बल्कि सहनायक की तरह मौजूद होती हैं .आर्देशिर ईरानी की ‘किसान कन्या’ से महबूब खान की ‘औरत’ और ‘मदर इंडिया’ और जे. पी. दत्ता की गुलामी में रीना रॉय को भी इसे बेहतर ढंग से देखा जा सकता है.‘मदर इंडिया’ तो स्त्री अस्मिता का एक माइलस्टोन ही है जहां एक मां, दूसरी स्त्री का सम्मान बचाने के लिए अपने सगे को भी नहीं बख्शती और अपने बेटे को बंदूक का निशाना बना लेती है .विभाजन के तौर पर हम ग्रामीण नायिकाओं को श्रम-संस्कृति और शहरी नायिकाओं को मांसलता और यौनिकता के प्रतिनिधि के तौर पर रख सकते हैं.ऐसा इसलिए भी है कि एक उत्पादन के आदिम चरण पर खड़ी है तो दूसरी बाज़ार और वितरण के आधुनिक और प्रचलित चरण पर .शोषण से दोनों को निजात नहीं है पर अधिकांश फ़िल्म निर्माताओं का मक़सद सामाजिक नहीं, शुद्ध व्यावसायिक है.
सत्यम शिवम सुंदरम की उस नायिका को देखें ,जो अपने जले हुए चेहरे को पल्लू से छिपाकर नायक से मिलती है .उसमें उसकी अपनी त्रासदी से लड़ने की चाहत , एक युवा शरीर की आवश्यकताएँ , स्त्री यौनिकता का एक अलग आख्यान है लेकिन वह अंत में अपराधिनी ही साबित होती है क्योंकि उसका पति ‘अर्धसत्य’ से प्यार करता है , ‘पूर्णसत्य’ उसके लिए स्वीकार्य नहीं होता .स्त्री की सहनशीलता और यातना से जूझते चरित्र के बरअक्स एक विद्रोही रूप भी गढ़ा गया - सीता के सामने गीता और चालबाज की अंजू के सामने मंजू .पर ये भी वास्तविक चरित्रों से ज्यादा बाॅक्स आॅफिस के आंकड़ों को भुनाने के लिये थे .

आज स्थितियां बदल रही हैं.दरअसलबदलती हुई स्थितियों में स्त्री की जद्दोजहद अपने अस्तित्व को तलाशने की एक अनवरत प्रक्रिया पर्दे पर भी देखी जा सकती है.इसे ‘गॉडमदर’ , ‘फायर’ ,‘मृत्युदंड’ और ‘इश्किया’ से लेकर ‘डर्टी पिक्चर’ तक और अब लिव इन और मुक्त स्वच्छंद प्रेम के समय में ‘लव आजकल‘ और ‘शुद्ध देसी रोमांस’ और ताज़ा फिल्म ‘क्वीन’ में देखा जा सकता है.यहां आज के समय में पैदा हुई नये किस्म की त्रासदियाँ हैं लेकिन मुक्ति के अपने रास्ते और आज़ादी की अपनी पहचान भी हैं.जैसे-जैसे कहानियाँ स्त्री की तलाश करती जा रही हैं वैसे-वैसे नायिकाएँ बदल रही हैं.जैसे-जैसे स्त्री की उपस्थितियों और उसकी भूमिकाओं का मूल्यांकन होता जाएगा वैसे-वैसे नयी स्त्रियाँ आती जाएंगी और नायिकाओं का चेहरा और चरित्र बदलता जाएगा.इसकी आज सख्त ज़रूरत भी है.दरअसल नये माहौल में स्त्री के बदलते चेहरे को पहचानने की कोशिश की जा रही है और इसमें अनंत संभावनाएं हैं, इसमें संदेह नहीं।


त्याग और सहनशीलता के विलोम केरूप में ‘सीता और गीता’ में ऐसी दबी सहमी दासीनुमा सीता के बरअक्स हंटरवाली छाप गीता की ज़रूरत महसूस हुई जो पुरुषनुमा मैनरिज़्म और प्रतिशोध के दमनकारी तेवर के साथ उपस्थित थी ! धीरे धीरे स्थितियां बदलीं और इसका एक बेहतर और विश्वश्नीय आकलन हुआ ‘गाॅडमदर’ में जहां वह अपने आत्मसम्मान और प्रखर मेधा और कूटनीति के साथ उपस्थित थी ।गंभीर फिल्में तब भी बनीं, सामाजिक मुद्दों से तब भी मुठभेड़ की गयी! ‘धूल का फूल’ में भी क्वांरी मां के बच्चे को स्वीकृति दी गई, ‘क्या कहना’ में वही स्वीकृति कुछ और मुखर हुई.‘भूमिका’ में अपनी अस्मिता तलाषती स्मिता पाटिल, ‘अर्थ’ में पतिप्रेम से उबरती षबाना और ‘अस्तित्व’ में अपनी आकांक्षाओं को स्वीकारती तब्बू कुछ स्वतंत्रचेता स्त्रियों की छवि बनाती रहीं.

दरअसल बदलती हुई स्थितियों मेंस्त्री की जद्दोजहद अपने अस्तित्व को तलाशने की एक अनवरत प्रक्रिया पर्दे पर भी देखी जा सकती है.इसे ‘गॉडमदर’, ‘फायर’ ,‘मृत्युदंड’ और ‘इश्किया’ से लेकर ‘डर्टी पिक्चर’ तक और अब लिव इन और मुक्त स्वच्छंद प्रेम के समय में ‘लव आजकल‘ और ‘शुद्ध देसी रोमांस’ और ताज़ा फिल्म ‘क्वीन’ में देखा जा सकता है.आज के बदले हुए माहौल में ऐसी नायिका का स्वागत है जो न मिमियाती हुई सीता है और न भृकुटियां तरेरती चाबुक फटकारती गीता ! आज वह अपने को पहचान रही है.अपने खिलाफ़ बारीक साजिशों और प्रताड़ना से वाकिफ़ होती है, सामाजिक प्रतिष्ठा और सम्मान के चलते स्त्री पर थोपी हुई पाबंदियों को देखती है, अपनी आज़ादी की हवा को पहचानती है।तीन दशक पहले क्या हमने कभी सोचा था कि ‘‘अजीब दास्तां है ये ....’’ और ‘‘ दिल एक मंदिर है ....’’ जैसे गीत गाती स्त्रियों के देश में कभी हाइवे, क्वीन, पिंक और पाच्र्ड जैसी फ़िल्में भी बनेंगी ? बेषक भारतीय सिनेमा में यह एक बड़ा बदलाव आया है।

यह दौर निश्चित रूप से नायिकाओं की स्टीरियोटाइप इमेज से बाहर स्त्री की अस्मिता को पहचानने और उसकी आकांक्षा को तरजीह देने का है.हिन्दुस्तानी जनता द्वारा इस छवि को स्वीकार्यता देना भारतीय सिनेमा के लिये गर्व की बात है.भला हो निर्माताओं - निर्देशकों का जिन्होंने समय रहते यह पहचान लिया कि सामूहिक नृत्य के नाम विदेशी  बालाओं की बिकनी पहने परेड अब दर्शकों को लुभा पाने में कामयाब नहीं है इसलिये ‘लुटेरा’ फ़िल्म में साठ के दशक की रूमानियत दिखाई गई और ‘क्वीन’ में बिना किसी के प्रेम में पड़े एक लड़की की अपने आप से पहचान करवाई गई.फिल्मों में नायिका का रूप रंग, ज़ीरो फिगर आज पीछे छूट गया है.‘इंगलिश विंगलिश ’ की नायिका एक अधेड़ गृहिणी है जो अपने बच्चों और पति की मेधा से अपने को पीछे छूटता देखती है, तो इस उम्र में अंग्रेज़ी भाषा सीखने की कोशिश करती है और अपने बूते पर अपने लिये सम्मान हासिल कर दिखाती है.‘कहानी’ में एक गर्भवती नायिका अपने पहरावे और बिखरे हुए बालों से बेखबर अपने पति के अपराधी को पकड़ने के मिशन में जुटी है और पूरी फिल्म अपनी चुस्त पटकथा और निर्देशन के बूते पर बग़ैर किसी ग्लैमर और नाच गाने के दर्षकों को बांधे रखती है.


‘क्वीन’ फिल्म में एक दक़ियानूसी मध्यवर्गीयपरिवार से आयी एक लड़की, जिसे उसके होने वाले पति ने रिजेक्ट कर दिया है, अकेले ही हनीमून पर विदेश  जाने का फैसला लेती है.अब उसके सामने उसके छोटे से कस्बे के बरक्स कहीं बड़ी आज़ाद ख़याल दुनिया है जो पहले उसे चैंकाती है, फिर अपनी ज़द में ले लेती है.वह अपनी आंकाक्षाओं को एक स्वतंत्र इकाई के रूप में पहली बार पहचानती है और अपना निर्णय ख़ुद लेने का साहस दिखाती है.फिल्म ‘हाईवे’ सिर्फ़ एक खुले लंबे रास्ते का विस्तार ही नहीं है, वह खुली हवा और आज़ादी का प्रतीक भी है.यहां एक रईस परिवार की लड़की अपने आलीशान बंगले और संभ्रांत दिखने वाले लोगों की वहशी  कैद और जकड़न से निकलकर बेरोकटोक हवा में सांस लेने का सुकून पाती है.यह फिल्म एक मिथ को तोड़ती है कि एक अपराधी सिर्फ़ अपराधी ही नहीं होता ! कई बार परिस्थितियां उसके मानवीय और संवेदनात्मक पक्ष को कुंद कर देती हैं.जहां रिश्तों का संभ्रांत मुखौटा लगाये चेहरे एक कमउम्र लड़की को भी सिर्फ़ जिस्म के रूप में देखते हैं, वहां एक मुजरिम उसे एक मासूम इंसान की तरह देखता है, जिंस की तरह नहीं.यह फिल्म रोचक अंदाज़ में यह संदेश  देने में भी समर्थ है कि घरों की चहारदीवारी के भीतर चल रहे शोषण को आखिर कब तक लड़कियां घर की झूठी इज़्जत के नाम पर छिपाती रहेंगी ? एक ऐसा घर-घर का सच जिसे अब तक कहा नहीं गया था।

लड़कियां चुस्त कपड़ों और ज़ीरो फ़िगर से आगे एक ज़हीन दिमाग़ और सोच भी रखती हैं बेशक उनकी काया मोटी और रंगरूप बहुत आकर्षक  न हो -‘दम लगाके हईशा ’ फिल्म से बेहतर तरीके से इसे नहीं बताया जा सकता.यह भी हमारे समाज की एक रूढ़िगत सोच है जिसके कारण हर लड़का अपने लिये गोरी चिट्टी काया वाली सुंदर कन्या चाहता है बेशक वह दिमाग़ से शून्य  हो.यहां एक स्थूल काया और ज़हीन दिमाग़ है.सदियों से सुनाई जाती हिदायतों को सुनने से बरजती बीस साल पहले के माहौल में आज की लड़की निश्चित  रूप से जानती है कि उसके मोटापे और उसके साथ बीती रात के लिए अपने दोस्तों के बीच उसे ज़लील करता पति सिर्फ तमाचे का ही हक़दार है ! आहत होकर अपने अगले कदम के बारे में भी मज़बूती से फैसला लेती है और पति को अपनी गलती महसूस करते देख अपना जुड़ाव जताने में भी दूसरी बार नहीं सोचती -‘‘मैं वहां जाना नहीं चाहती ! मुझे रोक लो!’’ बिना किसी क्लाइमेक्स और मेलोड्रामा के, सीट पर टेंशन में आगे की ओर खिसक कर फिल्म देखने के बजाय, अपनी सीट पर पसर कर मुस्कुराते और शाखा बाबू की आचार विचार की कार्यशाला में विशुद्ध हिंदी और ठसकेदार पुरबी पर ठहाके लगाते हुए दर्शक  फिल्म देखते और सराहते हैं !

धीरे धीरे हमारे फिल्म निर्माताओं को भी समझ में आने लगा है कि सिर्फ़ आइटम सांग और द्विअर्थी संवाद किसी फिल्म के चलने की गारंटी नहीं देते.‘पीकू’ देखते हुए लगा जैसे हमारे घर के डाइनिंग टेबल पर होने वाला वार्तालाप सीधे हमारे खाने की मेज़ से उठा लिया गया है.फ़िल्मी चकाचौंध , ग्लैमर, हिंसा, नायिका का ज़ीरो फिगर और एक गाने में दस बार बदलते कॉस्ट्यूम की जगह सुंदरता के प्रतिमानों को ध्वस्त करती ये नायिकाएं आज की सामान्य लड़की का प्रतिनिधित्व करती हैं.रंगीन फूल पत्ते वाले कुर्ते और साडी़ पहने या राजस्थानी घाघरा और ढीला ढाला टाॅप पहने अंग्रेज़ी गाने पे बेलौस नाचती आत्मविश्वास से भरपूर एक नॉर्मल लड़की पहली बार फिल्म की हीरोइन बनी है!


हाल ही में रिलीज़ हुई दो फ़िल्में अपनेविषय के कारण भरपूर चर्चा में रही हैं.दोनों फ़िल्मों में तीन तीन लड़कियां हैं - ज़ाहिर है, तीन प्रतिनिधि चरित्र .पिंक में महानगर में नौकरी करती तीन लड़कियों में एक पंजाबी, एक मुस्लिम और एक नाॅर्थ ईस्ट की .पर्चेड  में एक विधवा, एक पति की प्रताड़ना से त्रस्त बांझ और एक अपनी देह को अपनी मर्ज़ी से जीने वाली बिंदास लड़की.दोनों फ़िल्में आधुनिक दौर की हैं.पिंक फ़िल्म में जहां मनोरंजन, व्यवसाय और मुनाफ़े का नज़रिया अहम है, ‘पर्चेड’ एक कला फ़िल्म की श्रेणी में रखी जा सकती है हालांकि उसमें भी अन्तराष्ट्रीय बाज़ार को ध्यान में रखा गया है.एक स्त्री के अपनी यौनिकता पर अधिकार और प्रताड़ना या वंचना से बाहर आकर अपनी तरह से जीने के उल्लास को फ़िल्म रेखांकित करती है.फ़िल्म ‘पर्चेड’ में आया गांव और ग्रामीण स्त्री कितनी वास्तविक है और कितनी सिनेमाई, यह लंबी बहस का मुद्दा है।

पिंक फिल्म बाॅक्स आॅफ़िस पर सफलफ़िल्म है क्योंकि वह दर्शकों को अंत तक बांधे रखती है.आज की कामकाजी लड़कियों की अलग फ़लैट लेकर रहने की आज़ादी, एक छोटे से क़दम से उन्हें परेशानी में डाल देती है.एक घटना को  कोर्टरूम ड्रामा बनाकर पिंक फिल्म दर्शकों को उलझाए रखती है.फिल्म ‘‘तलवार’’ की अप्रत्याशित सफलता के बाद निर्देशक निर्माता ने दर्शकों की नब्ज पहचान ली और अमिताभ जैसे कलाकार को फिल्म का नायक बनाकर आधुनिक लड़कियों की समस्या पर एक कहानी बुन दी गई.फ़िल्म का सबसे बढ़िया संवाद -- ‘‘नो एक शब्द नहीं, पूरा वाक्य है!’’ भी उसी नायक के हवाले कर दिया जिसने फिल्म की मार्किट वैल्यू बेशक बढ़ा दी पर स्त्री चरित्रों को कमजोर और असंतुलित कर दिया.यह मेसेज फिल्म के वकील महानायक की जगह अगर विक्टिम लड़की देती तो बात में कुछ ज़्यादा वज़न होता .बेशक उसे वकील साहब अपने पुरअसर अंदाज़ में दोबारा घोषित कर देते.


फिल्म हिट है इसमें कोई शक नहीं !एक महत्वपूर्ण मेसेज की अति नाटकीय अदायगी के सारे झोल इसकी वजह से छिप गए हैं.अमिताभ की स्क्रीन वैल्यू से निर्माता निर्देशक इस कदर आक्रांत न होते तो फिल्म में तीन लड़कियों के किरदार सलीके से इस मेसेज को ज़्यादा बेहतर तरीके से दर्शकों तक पहुंचा पाते ! जितनी मशक्कत इस फिल्म के लेखक ने वकील दीपक सहगल के चरित्र का ग्राफ बनाने और धीमी आवाज से सप्तम के सुर तक संवाद लेखन का रिदम तैयार करने में लगाई, उससे चौथाई भी कहानी की मुख्य विक्टिम मीनल के मनोविज्ञान और उसकी दुविधा का ग्राफ बनाने में लगाते, तो उसे हकलाते हुए ‘‘न न... न्नो’’ बोलते तो न दिखाते.पुलिस स्टेशन जाने की शुरुआती हिचक से गुजर चुकने और कोर्ट केस एक बार शुरू हो जाने के बाद कोई भी सच्ची लड़की इतना डरते हुए नहीं बोलेगी.वास्तविकता बेशक भयावह है और आज गांव की या शहरी , कामकाजी या घरेलू किसी भी लड़की के साथ कहीं भी हादसा हो सकता है, बलात्कारी तक छूट जाते हैं, उनका पूरा परिवार कोर्ट कचहरी से जूझता थक जाता है और न्याय तब भी नहीं मिलता .लेकिन फ़िल्म में निर्माता निर्देशक का पहला सरोकार फ़िल्म में लगाई गई पूंजी आौर उससे मुनाफ़ा कमाना होता है .फ़िल्म अगर कोई संदेश  देने में सफल हो पाती है तो यह मनोरंजन के साथ एक अतिरिक्त बोनस है.पिंक फ़िल्म लड़कियों के ‘नहीं’ कहने और ‘नहीं’ को ‘नहीं’ समझे जाने के अधिकार के संदेश  को दर्शकों तक बखूबी पहुंचा  देती है.
बाॅक्स आॅफ़िस पर भी कामयाब होती ये फ़िल्में इस धारणा को पुख़्ता करती हैं कि आज हिंदी फिल्मों में उभरती नयी नायिकाओं के किरदार को और अपनी ज़मीन पहचानती लड़कियों की अलग किस्म की मानसिकता को आम दर्शक अपनी स्वीकृति देता है !जैसे-जैसे कहानियाँ नयी स्त्री की तलाश करती जा रही हैं, वैसे-वैसे नायिकाएँ बदल रही हैं.जैसे-जैसे स्त्री की उपस्थिति और उसकी भूमिकाओं का मूल्यांकन होता जाएगा, वैसे-वैसे नयी स्त्रियाँ आती जाएंगी और नायिकाओं का चेहरा और चरित्र बदलता जाएगा.इसकी आज सख्त ज़रूरत भी है.दरअसल नये माहौल में स्त्री के बदलते चेहरे को पहचानने की कोशिश  की जा रही है और इसमें अनंत संभावनाएं हैं, इसमें कोई संदेह नहीं.


अशोक विजय दशमी : दशहरा

दशहरा पूरे देश में बड़े धूमधाम से मनाया जाता रहा है. मुख्यतःइस पर्व को बुराई पर अच्छाई की जीत के रूप में रावन के वध और अयोध्यापति राम की जीत  के रूप में मनाया जाता है, ये बात और है कि कौन बुरा था और कौन अच्छा इस पर सभ्य समाज में  एक लम्बी बहस की जरुरत है.जब पूरा देश रावण को जलाए जाने पर ढोल ताशे बजा-बजा कर खुशी मनाता है, तब एक शहर इस उत्सव से दूर दीक्षाभूमि में लाखों  लोग बौद्ध धम्म प्रवर्तन हेतु अपनी दस्तक देते है.


महाराष्ट्र के विशाल नगर नागपुर में हर वर्ष दशहरा के उपलक्ष्य  में अपने ऐतिहासिक दिन को याद करने और बौद्ध धर्म अपनाने हेतु लाखों  की संख्या लोग में एकत्र होते है. माना जाता है कि इस दिन मौर्यवंशीय सम्राट अशोक ने कलिंग  युद्ध की विजय के बाद हुए रक्तपात से खिन्न हो कर शान्ति और विकास के लिए बौद्ध धम्म स्वीकार किया और दस दिन तक राज्य की ओर से भोजन दान  एवं दीपोत्सव किया.

14 अक्तूबर 1956 को डा भीमराव आंबेडकर नेपांच लाख अनुयायियों के साथ  हिन्दू धर्म को त्याग कर, बौद्ध धम्म में विश्वास करने वाले पूर्वज नागों  की जमीन नागपुर में बौद्ध धम्म स्वीकार कियाआधुनिक भारत के इतिहास में दुबारा से बौद्ध धम्म की पताका फहराई गयी. बौद्ध धम्म को मानने वाले देश चीन, जापान, थाईलैंड से प्रति वर्ष हजारों  की संख्या में अक्तूबर के महीने में सैलानी नागपुर की दीक्षाभूमि में दर्शन के लिए आते है.
डा. आंबेडकर ने दीक्षा लेते समय २२ प्रतिज्ञाएं ली, जिसका सार था ईश्वरवाद-अवतारवाद, आत्मा स्वर्ग- नरक, अंधविश्वास और धार्मिक पाखंड से मुक्ति और जीवन में सादगीपूर्ण सद्व्यव्यवहार का संचार. हिन्दू धर्म की मान्यताओं  से दूर जाति-उपजातियों  से उपजे भेदभाव को समाप्त करके उन्होंने एक प्रबुद्ध भारत की ओर एक कदम उठाया था.


नागपुर स्थित दीक्षाभूमि में तीन दिन बड़ा उत्सव होता है . महाराष्ट्र के दूर- दराज जिलों, गावो कस्बों से नंगे पांव लाखो लोग  दीक्षा भूमि के दर्शन करने आते है और 48 घंटे दीक्षाभूमि  में तिल रखने की जगह नहीं मिलती. न केवल महाराष्ट्र से बल्कि  पूरे  भारत के कोने कोने मसलन उत्तेर प्रदेश, गुजरात, मध्य प्रदेश, पंजाब-हरियाणा, राजस्थान, आंध्रप्रदेश, तमिलनाडु से हजारो लोग दीक्षाभूमि में धम्म की वंदना करने आते है. इस उत्सव में सबसे खूबसूरत चीज जो देखने को मिलती है, भीड़भाड़ में कोई छेड़छाड़ नहीं होती न ही कोई फसाद .

 दलित आन्दोलन की झलक पल -पल पर देखने  को मिलती है. महिलाओ के मंडप, छात्रो के मंडप,  पुस्तकों के मंडप, अन्धविश्वास निवारण मंडप, बुद्धिस्ट विचारो के कैम्प, कर्मचारियों के कैम्प, पत्रिकाओ के स्टाल, समता सैनिक दल का मार्च, आरपीआई  का मार्च, महिलाओ का मार्च , युवाओं के मार्च नारे लगाते लोग दीखते हैं तो नागपुर की सडको पर जहां -जहां से लोग गुजरते हैं,उनके लिए भोजन की व्यवस्था वही के लोग करते हैं , महिलाएं  भोजन दान करती हैं. जितना विशाल उत्सव  होता है, उतना ही विशाल पुस्तकों , पोस्टर, बिल्लो का बाजार होता है, जो अपनी विशिष्ट छाप  छोड़ता है.


यह उत्सव अब पूरे देश में मनायाजाता है. आंबेडकरवादी  विचारधारा को मानने वाले संगठन, संस्थाए, पार्टी, समूह दल अपने अपने राज्यों में दशहरा के दिन अशोक विजयदशमी मानते है. बनारस, आगरा, दिल्ली , हरियाणा, आन्ध्र, तमिलनाडु. कानपुर, लखनऊ में धूमधाम से मनाया जाता है. अफसोसजनक बात है कि लाखो कि संख्या में दस्तक लेनेवाले उत्सव के बारे में मिडिया , टीवी चैनल में कोई उत्साह नहीं है, न ही उसके बारे में कोई रिपोर्टिंग ही होती है. मुख्यधारा के अखबार दुर्गा पूजा, रावणदहन से भरे हुए मिलेंगे, लेकिन हमारी मूल सभ्यता और विचारधारा पर कोई लेख टिप्पणी भी देखने को नहीं मिलेंगी. अशोक विजयदशमी की याद में आज हम बौद्ध , दलित आदिवासी, घुमंतू जातीय लोगो और उनकी महिलाओं  की अस्मिताओं के प्रति सजग हो कर पितृसत्तात्मक  पर्व और मिथकों पर बहस चलानी होगी, बहस हमें इस बात पर भी चलानी चाहिए कि एक लोकतान्त्रिक देश में त्योहारों के नाम पर हम हिंसात्मक अभिव्यक्तियों को क्यों अभ्यास  करे?  

पिंक के बहाने 'अच्छी औरतें'और 'बुरी औरतें'

डिसेन्ट कुमार साहू
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पी.एच.डी समाजकार्य ई-मेल - dksahu171@gmail.com महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा

शिक्षा और रोजगार ऐसे कारक हैं जिनकेकारण सोशल स्पेस में महिलाओं की उपस्थिति बढ़ी है. हालांकि शिक्षा की अंतर्वस्तु और रोजगार की प्रकृति का विश्लेषण करें तो पता चलता है कि इन दोनों ही कारकों ने बहुत हद तक यथास्थितिवाद की स्थिति बनाकर रखी है. घोषित-अघोषित कई ऐसे नियम हमारे समाज में हैं जो महिलाओं को आत्मनिर्भर, सशक्त, विचारशील होने से रोकते आ रहे हैं,जेंडर और यौनिकता से जुड़े कायदे उन घोषित-अघोषित नियमों में प्रमुख हैं. इन कायदों को मानने पर हमें 'अच्छा'और तोड़ने पर 'बुरा'घोषित किया जाता है। फिल्म पिंक के बहाने 'अच्छी औरत'तथा 'बुरी औरत'के मापदण्डों पर चर्चा कर लेनी चाहिए, इन मापदण्डों को बनाए रखने से किसे फायदा है? तथा अच्छी औरत का अच्छी बनी रहना इस समाज के लिए कितना जरूरी है? फिल्म देखने वाले लगभग सभी लोगों ने इसे अच्छी और यथार्थ फिल्म का दर्जा दिया. लेकिन क्या वे समाज के यथार्थ की बात करते हुए खुद को खंगाल पाते हैं? क्या वे फिल्म की नायिकाओं के साथ ईमानदारी से खड़े  होते हैं या भावुकतावश ही खुद को उनके साथ पा रहे हैं. क्योंकि मीनल का हमला किसी राजबीर के सर पर नहीं बल्कि उस मानसिकता पर है जो औरत को सिर्फ एक जिस्म, एक वस्तु समझता है. जो किसी लड़की के हँसने, बात करने, शराब पीने और उसके कपड़ों के माप से उसका चरित्र निर्धारण कर लेता है.

फिल्म समाज के ढांचे को उघाड़तीहै, हमें मौका देती है एक इंसान के मन में बैठे मर्दवादी मन को टटोलने की. हम इस समाज में वही पुरुष हैं जिन्हें लड़कियों के ना को हाँ समझना सिखाया जाता है। क्यों? क्योंकि लड़कियों को सिखाया जाता है- शर्माना, यौनिक इच्छाओं से संबन्धित पहल ना करना. वहीं दूसरी ओर हमारा समाज पुरुष यौनिक छवि को आक्रामक और निडर के रूप में गढ़ता है.  ऐसे में उनके द्वारा किये जाने वाले हिंसक तथा आक्रामक व्यवहारों के लिए लड़कियों को ही दोष दिया जाता है तथा इस घटना को 'सबक सिखाने', औकात दिखाने'के रूप में परिभाषित किया जाता है ताकि भविष्य में उन कायदों को कोई और न तोड़े. हम सबका समाजीकरण जेंडर और यौनिकता के कायदों के अनुसार होता रहता है. हम उन कायदों के अनुसार ही चलते हैं. ये कायदे अपने मानने वालों को भी प्रभावित करती है और न मानने वालों को भी। इसका सबसे बड़ा उदाहरण LGBTQ समूह है जो इन कायदों को तोड़ने के कारण ही समाज में बहिष्कृत जिंदगी जी रहे हैं. इन कायदों के अनुसार लिंग के दोहरे मापदंड हैं इसलिए पुरुषों की तुलना में महिलाएं ज्यादा नियंत्रित और शोषित की जाती हैं.

समाज में जो आदर्श 'अच्छी महिलाओं'के लिए गढ़े गये हैं तथा जिसके आधार पर उनसे वैसा ही बनने का आग्रह किया जाता है, उन आदर्श अच्छी महिलाओं की तुलना में 'पिंक'की पात्र 'बुरी महिलाओं'के वर्ग में आती हैं. ये बुरी महिलाएं जेंडर तथा यौनिकता के उन कायदों को तोड़ती हैं जिसे समाज में स्त्रियों के शोषण व नियंत्रण के लिए बनाया गया है. फिल्म की तीनों पात्र कामकाजी महिला हैं जो अपनी घरों से बाहर रहती हैं, अपनी जिंदगी से जुड़ी फैसले खुद लेती हैं, छोटे कपड़े पहनती हैं, शराब पीती हैं, उनके विवाह पूर्व यौन सबंध हैं, वे अपने यौन साथी का चुनाव करने के लिए स्वतंत्र हैं, इसके साथ ही उनमें असहमति की हिम्मत है. ये वो कायदे हैं जिसे ना तोड़ने के लिए परिवार, पड़ोस, समाज, मीडिया, फिल्म व टी.वी. सीरियलों के द्वारा हमारे सामने 'आदर्श'पेश किया जाता है. याद कीजिए उन फिल्मों व सीरियलों को जिसमें 'बुरी औरतों'का चित्रण इन्हीं कायदों को तोड़ने वाली के रूप में किया जाता रहा है. अच्छी वही हैं जो इन कायदों को तोड़ती नहीं हैं। क्योंकि इन्हीं कायदों पर तो जाति, धर्म, वर्ग की विशाल दीवार खड़ी है.

भारतीय समाज में अच्छी और बुरी औरत के गढ़न में यौनिकता की मुख्य भूमिका होती है. यही कारण है कि फिल्म में लड़कियों को घर से निकलवाने की कोशिश करने से लेकर न्यायालय में दोषी ठहराने तक की प्रक्रिया में उन्हें 'चरित्रहीन'घोषित करने की कोशिश की जाती है. किसी महिला के चरित्र पर उंगली उठाना सबसे आसान और प्रभावकारी तरीका होता है, यह आरोप सिर्फ लड़की के जीवन को प्रभावित ही नहीं करता बल्कि उसका परिवार भी समाज में कलंकित महसूस करता है. अपनी पुस्तक 'हम हिंदुस्तानी'में सुधीर कक्कड़ व कैथरीना कक्कड़ भारतीय समाज में स्त्री यौनिकता पर लिखते हुए कहते हैं 'लड़कों के विपरीत, जो लड़कियां यौन-अभिलाषा को जरा भी सार्वजनिक कर देती हैं, वे न केवल अपनी प्रतिष्ठा को जोखिम में डाल देती हैं, बल्कि उनके यौन शोषण का शिकार होने की संभावना बन जाती है.'अर्थात जब औरतें अपनी स्वतन्त्रता, अपनी आनंद के लिए जीने लगती हैं तो समाज में ऐसी महिलाओं को आसानी से उपलब्ध यौन वस्तु के रूप में देखा जाने लगता है तथा उसके ना को भी अपने पुरुषवादी मानसिकता के कारण हाँ समझा जाता है. आखिर सवाल उठता है वो कौन से कारण हैं जो हमें 'अच्छी औरत'के कायदे की ओर खीचते हैं?


जेंडर और यौनिकता के कायदे सीखतेहुए हम लगातार शक्तिशाली (powerful) या शक्तिहीन  (powerless) के अनुभवों से गुजरते हैं. यह हमारे खुद के अनुभव भी होते हैं और यह स्थिति हम दूसरों में भी देखते हैं. जैसे- कोई लड़की किसी भी रूप में जेंडर और यौनिकता के कायदों को तोड़ती है तो उसे हमारे समाज में अच्छा नहीं माना जाता, ऐसी लड़कियों को परिवार में सम्मान नहीं दिया जाता, पारिवारिक निर्णयों में उनकी सहभागिता नहीं ली जाती या ज़्यादातर ऐसे मामलों में लड़कियों को परिवार से बहिष्कृत कर दिया जाता है अर्थात सामाजिक संरचना में इनकी स्थिति शक्तिहीन की होती है. लड़कों के साथ भी यही स्थिति हो सकती है या होती भी है लेकिन लड़कियों की तुलना में उनकी स्थिति ज्यादा बेहतर होती है. इस तरह हमारे परिवार तथा समाज के सत्ता केंद्र में वही होते हैं जो कायदे नहीं तोड़ते. दंड के रूप में शक्तिहीन की स्थिति व पुरस्कार के रूप में शक्तिशाली की स्थिति हमें उन कायदों को मानने के लिए आकर्षित करती है.

जेंडर व यौनिकता के कायदों परही पितृसत्तात्मक समाज खड़ा है और इसका सीधा संबंध स्त्री की प्रजनन शुद्धता से जुड़ा है. रक्त शुद्धता को बनाए रखने के लिए ही स्त्री की यौनिकता को नियंत्रित किया जाता है. इस ढांचे को बनाएँ रखने के लिए जरूरी है कि इन कायदों को सहज और प्राकृतिक रूप में फैलाया जाए. अगर किसी तरह की चुनौती मिलती भी है तो उन क्रियाओं को 'असामाजिक'व 'अनैतिक'घोषित कर दिया जाता है. अच्छी औरतों के अच्छी बनी रहने से ही ये सामाजिक संरचना चल रही है, जिस दिन इन मानकों की परवाह ना करते हुए स्त्रियाँ अपनी स्वतंत्रता, अपनी आनंद के लिए जीने लगेंगी जाति, धर्म तथा वर्ग के ढांचे टूट जाएगें.

जाघों से परे ‘पार्च्ड’ की कहानी: योनि नहीं है रे नारी, वह भी मानवी प्रतिष्ठित

संजीव चन्दन 

रिहाई के 3 दशक बाद

8 वें दशक में अरूणा राजे की फिल्मथी, रिहाई. यह फिल्म प्रवासी मजदूरों के गांव में पीछे छूट गयी पत्नियों की कहानी है. प्रवासी मजदूर घर की आर्थिक रीढ़ हैं, उनके भेजे पैसों से घर चलता है. घर और पत्नी से दूर रहते हुए वे अपनी यौन जरूरतों की पूर्ती के लिए कोठों पर जाते हैं. इस बीच लगभग महिलाओं और पीछे छूट गये बच्चों और बूढ़ों के गांव में नासिरूद्दीन शाह के रूप में एक युवक आता है, जो एक- एक कर सभी महिलाओं, छूट गई पत्नियों को शिड्यूस करता है, सहमति से या थोड़ी जबरदस्ती कर, वह सब के साथ सो पाने में सफल होता है. फिल्म का अंत प्रदेश से वापस आये पति (विनोद खन्ना) और विवाहेत्तर यौन संबंध बना चुकी पत्नी ( हेमामालिनी) के बीच 'स्त्रीअधिकार'संबंधी बहस के साथ होता है और साथ ही पति के मान जाने के साथ भी. पूरी फिल्म एक बाहरी, शहरी और कुलीन दृष्टि से बनी फिल्म है. कथानक और दृश्य संयोजन की दृष्टि से भी- ग्रामीण महिलाओं के यौन संबंधों पर कुलीन कल्पना की चरम उपस्थिति है एक महिला के साथ मिट्टी के गड्ढे में सेक्स, जहां वह मिट्टी काटने जाती है. रिहाई के पात्रों का सामाजिक परिवेश भी स्पष्ट है. प्रवासी पति लकड़ी का काम करते हैं- कारीगरी और मजदूरी, पत्नियां गांव में श्रमकार्य करती हैं- इस परिवेश के साथ जाति लोकेशन भी प्राय: स्पष्ट है.


उसके लगभग तीन दशक बादफिल्म बनी है लीना यादव के निर्देशन में 'पार्च्ड'. कहानी का परिवेश ग्रामीण और पात्रों का सामाजिक लोकेशन प्रायः वही, जो रिहाई का है. इस फिल्म की नायिकायें, उनका पति, परिवार और कुनबा गांव में ही रहता है- गुजरात के एक गांव में. घर की आर्थिक गतिविधियां संचालित करती हैं स्त्रियां- एक गैरसरकारी संगठन के लिए सिलाइ, बुनाई,एम्ब्रायडरी का काम करके. मर्द, पति- पुत्र आदि, आर्थिक रूप से महिलाओं पर निर्भर हैं. यह फिल्म उनकी यौनिकता को सहज ढंग से अपने कथानक के केंन्द्र में रखती है-  थोड़ी- बहुत काल्पनिक विसंगतियों के बावजूद इस फिल्म को रिहाई से अलग 'बाहरी दृष्टि'से मुक्त कहा जा सकता है, यही फिल्म की खासियत है और सार्थकता भी. अभी विस्तार से इसे समझने के पहले, जरा इसपर भी गौर करते हैं कि यह फिल्म अभी लगभग साथ में बनी फिल्म 'पिंक'से अलग और स्त्री की दृष्टि से बेहतर क्यों है?

पिंक से बेहतर क्यों 

पार्च्ड की महिलायें आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हैं, अपने निर्णय खुद लेती हैं और बेटे के इस ललकार को कि 'देखते हैं बिना मर्द के यह घर कैसे चलता है' उपेक्षा और आत्मविश्वास से उड़ा देती हैं. जबकि पिंक की नायिकाओं को अपनी एजेंसी नायक के महानायकत्व की पुष्टि के लिए गंवा देनी पड़ती है. पिंक में स्त्री की पक्षधरता के लिए पुरूष का 'संरक्षक'अवतार उन्हें अपने पितृसत्ताक डैने में समेट लेता है -उत्पीड़क भी हम, संरक्षक भी हम- पिता रक्षति कौमार्ये, भर्ता रक्षति यौवने.रक्षन्ति स्थविरे पुत्रा:, न स्त्री स्वातंत्र्यमहर्ति.


योनि नहीं है रे नारी, वह भी मानवी प्रतिष्ठित

पार्च्ड की कहानी सेक्स को धूरी में रखकरघूमती है- स्त्री की यौनिकता के इर्द-गिर्द. शुरू के दृश्यों से ही स्त्रियों के आपसी अंतरंग बातचीत, हंसी- मजाक के परिवेश उपस्थित होते हैं, जिसमें उम्र की सीमायें टूटकर परस्पर साख्य बनता दिखता है. चारो स्त्रियों के जीवन की कहानी उनकी यौनिकता की धूरी से संचालित होती है. सबसे छोटी लड़की 'जानकी'जब अपने प्रेम और पढ़ाई को छोड़कर विवाह करके ससुराल में बसने के लिए विवश की जाती है, तो उसका सामना एक ऐसे पति से होता है, जो अपनी 'मर्दानगी'की जांच के लिए एक बार 'यौनकर्मी'के पास जाता है, तो जाता ही रहता है- विवाह के बाद भी. उसके लिए जानकी का मतलब है- उसकी 'मर्दानगी'की परीक्षा का एक और टारगेट- जिसे वह पहली रात में क्षत- विक्षत करता है- भावना और शरीर, दोनो ही स्तरों पर.

दूसरी स्त्री है, जानकी की सास 'रानी'.अपनी उम्र के चौथे दशक में पहुंची रानी के पास मोबाइल है, जिसपर कोई पुरूष आवाज उसे निरंतर फोन करता है, प्रेम निवेदन करता है. विधवा जानकी पहले तो इस आवाज के प्रति उत्सुक होती है, फिर खिझती है- कोई किशोर समझकर डपटती है और फिर हमउम्र आशिक जानकर उसका निवेदन स्वीकार कर लेती है. रानी अपने विधवा होने के अहसास के साथ अपनी यौन- इच्छाओं के प्रति दोहरे भाव में है. पति, जो अब नहीं है, शराब- हिंसा और सेक्स को एक साथ उसपर इस्तेमाल करते हुए उसकी यौनिकता को कुचल चुका है- जो नियमित तौर पर बाजार की स्त्रियों के पास भी जाता है- रानी अपने बेटे को भी अपने बाप के रास्ते पर जाते देखती है. रानी की यौनिकता का एक और पहलू है, अपनी सहेली 'लाजो'के प्रति 'साख्य'. पति से प्रताड़ित होकर आई अपनी सखी लाजो के अर्धनग्न शरीर पर मलहम लगाते हुए संकोच के साथ ही सही वह लाजो को अपना ब्लाउज भी उतारने देती है.

तीसरी स्त्री है 'लाजो'. लाजो रानीकी सहेली है. उसकी कोई संतान नहीं है और जैसा कि इस देश की अधिकांश समझ है , बच्चा नहीं होने के लिए स्त्री ही दोषी होती है- लाजो भी ऐसा ही समझती है. उसका पति भी हिंसक, शराबी है और उसे 'बांझ'होने का अहसास देता रहता है. रानी से उसकी दोस्ती प्रागाढ़ है- पति से पीट कर और शरीर पर जख्म लिये जब वह रानी के पास आती है तभी रानी उसके अर्धनग्न शरीर पर कोई लेप करती है, उसके ब्लाउज उतारकर तो वह रानी के ब्लाउज भी उतार देती है- यह उनकी दोस्ती का ऐंद्रिक स्वरूप है. जब उसे यह पता चलता है कि बच्चा न होने के लिए सिर्फ स्त्री ही कारण नहीं होती है,बल्कि पुरूष भी कारण हो सकता है, तो वह पहले तो आश्चर्य से भरे जाती है, लेकिन यही जानकारी उसे किसी और पुरूष के पास जाने के लिए प्रेरित करती है, का कि वह उसके सहवास से एक संतान पा सके.संतान पाने की उसकी कामना इसलिए नहीं है कि वह अपने पति या समाज को बता सके कि वह बांझ नहीं है, या इसलिए भी नहीं कि वह अपने पति का वंश चलाने के लिए प्रतिबद्धता है. बल्कि संतान की कामना उसकी अपनी है- अपने मातृत्व के लिए.


वह उस समय और भी अचंभित रहजाती है, जब संतान के लिए किसी तांत्रिकनुमा रहस्यमय पुरूष/प्रेमी के पास एक गुफा में पहुचती है और सहवास के लिए आदतन लेट कर अपने कपड़े उठाती है, तो पुरूष उसके पैरों पर अपना सिर रख देता है, इस अचंभे के साथ उसकी आंखों में आंसू आ जाते हैं- सम्मान के प्रत्युत्तर में और अपने अस्तित्व के अहसास के साथ. पुरूष आद्यांत चूमता है, प्यार करता है, और कुछ मिनटों के इंटेस ऐंद्रिक दृश्य में वह भी सक्रिय होती है- यौन संबंध में अपनी रूटीन पैसिव भूमिका से बाहर निकलकर. उसे आश्चर्य,दुःख और क्षोभ तब भी होता है, जब वह अपने पति से अपने गर्भवती होने की सूचना देती है- पति उस संतान को अपना नहीं मानता, वह सवाल करती है कि ,'यह गर्भ तुम्हारा क्यों नहीं हो सकता!'दरअसल उसके पति को यह पता है कि संतान न होने का कारण वह स्वयं है, लेकिन अबतक वह लाजो को इसके ग्लानिर्भाव से भरता रहा था. और अंतत: लाजो का पति अपनी ही क्रूरता की मौत मरता है.

बिजली  गांव में ही नृत्य-नौटंकी कंपनी में काम करती है. वह पहले रानी और फिर लाजो की भी मित्र बन जाती है- धीरे- धीरे इन सबकी नेता भी, सबको अपनी कुंठाओं से बाहर निकालने का मार्ग दिखाती हुई, खुद के लिए भी तय करती हुई. कंपनी में काम करते हुए उसका एक और पेशा वेश्यावृत्ति ( यौनकर्म नहीं) भी है. प्रतिदिन- रात अलग-अलग पुरूषों के साथ उसे जाता हुआ देखने वाला उसका प्रेमी उसे हमेशा महत्वपूर्ण महसूस कराता है. वह अपने अस्तित्व के प्रति विश्वास के भाव से भरे जाती है, जब उसका वही प्रेमी उसकी आंखों की प्रशंसा करता है- पहली बार उसकी देह पर टिकी निगाहों से अलग यह निगाह उसे आह्लादित कर देती है, लेकिन जल्द ही वह ख्वाब से यथार्थ में वापस धकेल दी जाती है, जब उसका प्रेमी उसकी देह के आर्थिक दोहन की भावी योजना उसके सामने रखता है. इस बीच कंपनी में नई लड़की के आने और ग्राहकों के उसपर लट्टू होने से वह व्यथित है- व्यथा, कुंठा और आक्रोश में ही एक गलत ग्राहक के चुनाव के बाद वह अप्राकृतिक यौन संबंध और सामूहिक बलात्कार का शिकार होती है- इस पीड़ा और अपमान के क्षण में ही उसे अपने प्रेमी का ताना सुनाई पड़ता है- दृश्य में उसका चेहरा नहीं दिखता, वह चेहरा विहीन एक पुरूष मात्र हो जाता है.


बहनचो.... नहीं, भाई चो.....गालियों का उलटा संसार बनाम स्त्री का प्रतिकार....

इन चार स्त्रियों की कहानी, पीड़ा की कहानी, संघर्ष और प्रतिकार की कहानी इनकी यौनिकता के इर्द- गिर्द ही आकार लेती है- क्योंकि आर्थिक रूप से बहुत हद तक स्वतंत्र इन स्त्रियों की पीड़ा और उनके दोयम होने के अहसास देते मर्दवादी वर्चस्व के मूल में इनकी यौनिकता है- लेकिन इनकी दुनिया इससे आगे भी है- इनके यौन- अंगो, इनकी यौन- आकांक्षाओं से आगे, जिसे वे हासिल कर लेना चाहती हैं. लेकिन यह समाज, उसका दैनंदिन, उसकी भाषा उन्हें खीच- खीचकर उन्हें उनके ही यौन अंगों में सिमटा देना चाहता है, उनके अपने ही अंगों से उन्हें डरा देना चाहता है. फिल्म के एक दृश्य में बिजली के नेतृत्व में पार्च्ड की चार नायिकायें न सिर्फ गाड़ी की ड्राइविंग सीट पर बैठकर आजादी के सारे पर निकलती हैं, बल्कि आजादी की आवो- हवा में सांस लेते हुए इस समाज के द्वारा अपने लिए तय दायरे और अपने के खिलाफ उसके भाषाई आतंक का प्रतिकार करती है- स्त्रियों को केंद्र में रखकर बनी गालियों को उलट कर गालियां रचती हैं, मर्दों को केंद्रित गालियां.

साख्य का साहस: सास- बहु का याराना 

हवाखोरी के इस सैर का सबसे बड़ाहासिल है, दो पीढ़ियों का आपसी साख्य- सास- बहु का याराना. रानी अपनी बहु जानकी को अपने बेटे के लिए चुन कर लाई है. उससे प्यार करती है, और परंपरा निभाती हुई उसपर शासन भी. वह चाहती है जानकी उसके बेटे को संभाल ले इसलिए उसपर खीझती भी है, लेकिन बेटे और अपने मृत पति का साम्य देखते हुए उसके प्रति सहज संबंध भी महसूस करती है. हवाखोरी के लिए निकलते हुए जब जानकी भी उसके साथ ले आयी जाती है, तो सहजता और भी स्पष्ट होती है- जिसका अंतिम प्राकट्य है अपनी बहु के साथ उसका खड़ा होना, बेटे के घर छोड़ने और उसकी धमकी के दौरान जानकी का ढाल बन जाना और अंतत: अपनी बहु का उसके प्रेमी से विवाह करा देना, इस हिदायत के साथ कि इसे पढ़ाना जरूर .


'हां, कहने के साहस से ही ना कहने की ताकत आती है:

फिल्म की तीनो नायिकायें अपनी उम्रके ऐसे पड़ाव पर हैं, जहां उन्हें उनके रिटायर होने, एक उम्र जी लेने का अहसास घेर लेता है उन्हें- उम्र के चौथे दशक के आस- पास. इस उम्र की शहरी मध्यवर्गीय महिलायें अपनी जिंदगी दी लेना चाहती हैं, हाल ही में इस वर्ग से रचना कर्मियों ने चालिस की औरतों पर कवितायें लिखकर इस उम्र का उत्सव मनाया, लेकिन यह सुविधा इन नायिकाओं को नहीं है. बिजली को उसके स्टेज और उसके व्यवसास से उसका रिटायरमेंट उसे साल रहा है, तो रानी अपने अकेलेपन और अपनी उम्र से आक्रांत है. उसकी आक्रांतता फोन पर उससे आशिकी का इजहार कर रहे गुमनाम आशिक पर प्रकट होता है, जब बिना उसे देखे- जाने उसे लगता है कि वह कहीं चालीस पार और छेड़ने वाला कहां 16- 17 का लड़का- वह उस पर खीझती है, इसके बावजूद कि वह चाहती है कि कोई उसे प्यार करे. आगे चलकर अपने आशिक को वह हां कहने का साहस कर पाती है. और यही हां कहने  का साहस पैदा कर लाजो जान पाती है कि वह भी मां बन सकती है. हां कहने के साहस के बाद ही फिल्म की नायिकायें पूरे मर्दवादी समाज को समवेत ना कहने का साहस कर पाती हैं- यह ना कहने का सबसे बड़ा साहस है, जो पिंक के नारेनुमा ना से बड़ा है- संरक्षकत्व में ना कहने से ज्यादा बड़ा - फिल्म का सबसे बड़ा कथन है -'मर्द नहीं इंसान बनना सीख.'मर्द के आदमी न बनने तक यह समवेत ना ज्यादा पावरफुल है- पार्च्ड का वह 'ना'भी ज्यादा असरकारी है पिंक की कचहरी में ना के ड्रामे से ज्यादा, जब बिजली अपनी आंखों के रास्ते दिल में उतरने वाले प्रेमी का असली मकसद जानती है और ना कहती है.

पार्च्ड एक फिल्म के रूप में, एक टेक्सटके रूप में अपने चरित्रों के बेहद करीब है. आर्थिक रूप से आंशिक तौर पर स्वतंत्र ग्रामीण महिलाओं के यथार्थ पर अपना बाहरी नजरिया नहीं हावी होने देती, जैसा कि रिहाई के मामले में अपनी सदिच्छाओं के बावजूद यह संभव नहीं हो पाया था- यह फिल्मकारों की दृष्टि और विषय से ट्रीटमेंट का भी अंतर है. फिल्म में स्पष्टत: तो सामाजिक लोकेशन का जिक्र नहीं है- लेकिन परिवेश नायिकाओं के लोकेशन का संकेत जरूर दे रहा है. इस सामाजिक लोकेशन की स्त्रियों पर बात होना अभी शेष है- इस लोकेशन की महिलाओं की आर्थिक, सामाजिक, शैक्षणिक स्थितियों पर शोध अभी शेष है.


पार्च्ड की कहानी उसी समाज केएक बड़े हिस्से का यथार्थ है, जहां ब्राह्मण,क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र होना रंगों से भी तय होता है- जहां इसी फिल्म में रानी की सशक्त भूमिका निभा चुकी तनिष्ठा चटर्जी से उसके काले रंग पर तंज किया जाता है और उसकी जाति और उसके कलर का कांबिनेशन का विमर्श किया जाता है!

"चकरघिन्नी" : तीन तलाक़ का दु:स्वप्न

नूर जहीर
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'डिनायड बाय अल्लाह'और 'अपना खुदा एक औरत'जैसी चर्चित कृतियों की रचनाकार
संपर्क : noorzaheer4@gmail.com.
कॉमन सिविल कोड और तीन तलाक की बहस के बीच नूर ज़हीर की यह कहानी : 

वो दुबकी हुई एक कोने में बैठी थी,लेकिन ज़किया को बराबर यह एहसास हो रहा था कि वह कुछ कहना चाह रही है. वैसे महिलाओं का जमघट हो और सभी एक साथ बात न कर रही हों, ऐसा कहाँ संभव है. सभी लगातार कैएं कैएं कर रही थीं और दो तीन बार ज़किया को उन्हें डांट कर, स्कूल के क्लास के बच्चों की तरह एक- एक करके बुलवाना पड़ा था. लेकिन जब भी उसपर नज़र जाती वो हलके से मुस्कुरा कर नीचे देखने लगती. उसके दोनों तरफ बैठी औरतें कोहनी मार कर "बोलो न! बोलती क्यों नहीं हो? तो फिर आई क्यों हो?"कहकर उसे उकसा चुकी थीं. लेकिन वह चुप रही थी.तीन घंटे से ज़्यादा हो चुके थे. ज़किया ने यह दिखाते हुए कि मीटिंग खत्म हो गई है , अपने काग़ज़ात, डायरी, कलम समेटना शुरू किया. मजमा भी उठा और अपने चारों तरफ, चौकीदार बने, कील, खूँटी , दरवाज़ों पर टंगे बुर्क़े उतर उतर कर, शरीर और चेहरों को ढंकने लगे. ज़किया बरामदे में लगी चाय की मेज़ की तरफ बढ़ चली थी कि पीछे से आवाज़ आई "बाजी!"ज़किया ने अपनी उकताहट को पीछे धकेल, होठ पर मुस्कुराहट चिपकाई और पलटी. ये हर मीटिंग में होता था ; जमघट में से एक या दो पूरी सभा भर तो चुप रहती और जब सब उठ जाते तो अकेले में एक निजी बातचीत की उम्मीद करती. ऐसा होना लाज़मी भी था क्यूंकि महिलाओं की सभा में भी औरतें खुलकर बोलने से हिचकिचाती, आखिर औरतों ने कुछ पहले ही तो ज़बान खोली है .

"बाजी आपसे कुछ पूछना था. आपनेतीन घंटे से ज़्यादा शरीयत और भारतीय संविधान पर बात की लेकिन आपने एक लव्ज़ भी हलाला पर नहीं कहा. "इतना सब वो एक झोंक में बोल गई जैसे उसने कुछ बेहूदा कह दिया हो जिसकी चर्चा इज़्ज़तदार लोगों के बीच नहीं करनी चाहिए. ज़किया रुक कर पूरे एक मिनट तक उसका चेहरा निहारती रही. कितनी बार उसने चाह था कि कुरान के 'सूरा-इ-निस्सा 'के इस हिस्से पर बातचीत हो ; लेकिन उसके काम का दायरा शरिया कानून और भारतीय संविधान में समानता और अलगाव तक सीमित था. बहुत कोशिश के बावजूद वह इससे मिलती जुलती कोई धारा संविधान में ढूंढ नहीं पाई थी.
"क्या नाम है तुम्हारा ?"
"सकीना "
"बताओ, तुम्हे हलाला के बारे में क्या जानना है ?"
वो चुप रही. ज़किया ने कुरेदा "क्या शौहर ने तलाक़ दिया है ?"
"जी"
"और अब पछता रहे हैं और अब तुमसे दुबारा निकाह करना चाहते हैं ?"
"जी. पांचवी बार !"वो बुदबुदाई

इस बीच कोई ज़किया के हाथ मेंचायका कप पकड़ा गया था. वो हाथ से छूटते बचा. खुद पर काबू पाते हुए ज़किया ने उसका हाथ पकडा और उसे एक कोने में ले गई. लेकिन बात शुरू करवाने के लिए अब उसे कुछ कहने की ज़रूरत नहीं पड़ी. सकीना जैसे इसी तन्हाई का इंतज़ार कर रही थी. हकलटम हिचकिचाते उसकी जिंदिगी की दास्तां उसके लबों से फूट पड़ी जैसे कोई फैलता हुआ नासूर फटकर सड़ते बदबूदार पस और मवाद से मुक्ति पाना चाहे ."बाजी मैं चौदह वर्ष की थी जब मेरा निकाह अब्दुल रशीद के साथ हुआ. मेरे शौहर मुझसे ग्यारह साल बढ़े थे , शराब के शौक़ीन थे और अफीम की लत भी थी. सभी को, मेरे अम्मी अब्बा को भी उनकी इन आदतों का पता था, मगर पांच बेटियों के माँ बाप भला क्या मीन मेख निकलते और क्या देखते भलते? वैसे मैं शादी से खुश थी. ससुराल खाते पीते लोगों का था; सास ससुर के अलावा बस एक देवर था जो मुझसे चार साल छोटा था. हर कोई यही कहता शादी हो जाएगी तो ये अपनी बुरी आदतें छोड़ देंगे ; बीवी सब सम्भाल लेगी. "

सकीना अजीब तरह हंसी, कुछ खुदपर कुछ इस समाज पर जो औरत से मर्द सँभालने, सुधरने की उम्मीद तो इतनी करता है मगर उसे हक़ कुछ भी नहीं देता. औरत को अकेले यह जंग लड़नी भी है और जितनी भी है और जीतनी भी है किसी शस्त्र या हथियार बगैर. वो अपनी तन्हा हंसी के बाद खामोश हो गई. ज़किया ने उसे मुद्दे पर लौटने के लिए पूछा "तो तलाक कब हुआ ?"


"पहली बार शादी के छह साल बाद.मेरे तब तक दो बच्चे हो चुके थे. वो रात देर से लौटे, नशे में धुत और खाना मांगने लगे. जहाँ वो आकर बैठे थे वही मैंने एक छोटी सी मेज़ रख दी और खाने की थाली रख दी. वो कुर्सी पर गिरे पडे थे, खाना देखकर उठने लगे, पैर टकराया और मेज़ उलट गई. मैं भी पूरे दिन के काम से थकी थी और घर में वो आखरी बना हुआ खाना था. चिढकर मैंने भी कह दिया "इतना क्यों पीते हो कि हाथ पाँव पर काबू नहीं रहता?"बस इतना कहना था कि हमपर चीखना, गलियाना शुरू कर दिया और फिर तीन बार तलाक कहकर हमें तलाक दे दिया."
"लेकिन नशे में दिया तलाक़ तो माना  नहीं जाना चाहिए. "

"ये तो हमें मालूम नहीं था, न मौलवी साहबने ही हमें बताया. क्या जाने शायद उन्हें भी मालूम नहीं होगा. खैर हम अपने मैके आ गए. शुक्र है की बच्चे छोटे थे और सास अक्सर बीमार रहती थी , इसलिए बच्चे हमारे साथ ही आये. जब नशा उतरा तो बहुत रोये, माफ़ी मांगी और मौलवी साहब के पास गए कि निकाह दुबारा पढ़वा दीजिये , हम सकीना से बहुत प्यार करते हैं, उसके बिना हम ज़िंदा नहीं रह सकते. मौलवी साहब ने बताया कि ये नामुमकिन है---पहले सौ दिन इद्दत के गुजरेंगे फिर हमारा किसी और से निकाह होगा, वो हमें तलाक देगा फिर सौ दिन इद्दत के बाद हमारी अब्दुल रशीद से शादी हो सकेगी. हमारे शौहर भला ये कैसे बर्दाश्त करते कि हम किसी और के साथ हमबिस्तर हों ? वो हमारे मायके आये और बोले 'कुछ दिन इंतज़ार करो सकीना, हम कोई रास्ता निकालते हैं. 'डेढ़ साल रास्ता निकालने में लग गया. एक दिन आये बढ़े खुश खुश और बोले 'तैयार हो जाओ सकीना, मैंने रास्ता निकाल लिया है. तुम्हारी शादी अपने छोटे भाई तारिक़ रशीद से कर देंगे. उसने वादा किया है पहली रात के बाद वह तुम्हे तलाक दे देगा और फिर तलाक के बाद हम तुमसे शादी कर लेंगे.'

"हम घबराये. चार साल छोटे देवरको, एक रात के लिए शौहर कैसे माने? लेकिन हमारे शौहर ने समझाया , खुशामद की और मेरे हर ऐतराज़ को ये कहकर खारिज कर दिया की मैं कौन होती हूँ इस सुझाव को न मानने वाली जब मौलवी साहब इसे ठीक बता रहे हैं ; आखिर वह हमारे दींन के रखवाले हैं. मैंने भी सोचा की जब मौलवी साहब को मंज़ूर है तो फिर ये रास्ता अल्लाह और दींन की नज़र में ठीक होगा. मेरे देवर से मेरा निकाह हो गया. देर रात वह मेरे कमरे में आया. मैं दीवार की तरफ मुंह किये बैठी थी; किसी ग़ैर मर्द को अपना शरीर दिखाने से भी शर्मसार. कुंडी लगाने की आवाज़ तो आई लेकिन उसके करीब आने की आहट मेरे कानो में नहीं पढ़ी. जब बहुत देर वह पास नहीं आया तो मैं पलटी; देखा वह हाथ जोड़े सर झुकाए गुनहगार सा खड़ा है जैसे दुनिया से आँखे मिलाने का साहस न कर पा रहा हो.

'क्या बात है?'मैंने पूछा उसने नज़रे उठाई और बोल "भाभी पलंग पर सो जाओ. मैं ज़मीन पर दरी पर लेट जाऊंगा. मैं इस पूरे मामले में राज़ी इसीलिए हुआ की तुमको घर वापस लौटा सकूं. तुम्हे हाथ लगाने के बारे में तो मैं सोच भी नहीं सकता. बस एक रात की बात है. "आपको सच बताऊँ बाजी वो आखरी रात थी जब मैं चैन की नींद सोई. अगली सुबह मेरा फिर तलाक हो गया और के सौ दिन पूरे हुए तो अब्दुल रशीद से मेरा निकाह हो गया.


"लेकिन क्या इंसान की फितरत बदलती है? कहते हैं कोयला धोकर सफ़ेद हो सकता है मगर इंसान का स्वभाव नहीं बदल सकता. उनके दोस्त वही थे, शराब और अफीम की लत वही थी. घर देर से लौटना, बेवजह झगड़ा करना और फिर मुझे मारना पीटना. वही पुरानी जिंदिगी जिसमे बस एक बात नई थी. बीच बीच में कहते जाते'तू तो एक रात मेरे भाई के साथ रही है, वह मुझसे सत्रह साल छोटा है. मैं बुढ़ा रहा हूँ और वह गबरु जवान है, तुझे तो उसके साथ ज़्यादा मज़ा आया होगा न? मेरे साथ जब होती है तब उसकी याद सताती है तुझे? क्या दोपहर में उसके पास जाती है, मौके से, जब अम्मी और बच्चे सोते हैं?'

"बाजी मैंने जब तक हो सका राज़ छुपाया; आखिरकार मेरी बर्दाश्त की हद टूट गई और सच मुंह से फूट पड़ा "तू क्यों मुझ बेचारी पर और अपने फरिश्ता जैसे भाई को गुनहगार समझता है. उसने तो उस रात मुझे हाथ तक नहीं लगाया . वो तो रात में देर से इसलिए लौटता है ताकि मुझ से सामना न हो. 'उस वक़्त तो मेरे शौहर ने मुझे बाहों में भर लिया और मुझे अपनी जिंदिगी अपनी जान कहकर बुलाया. मैं अहसानमंद थी की उन्होंने मेरी बात का यकीन किया और घर में कुछ महीने शान्ति के गुज़रे. फिर एक शाम दोस्तों के साथ पीने पिलाने में, किसी दोस्त ने छेड़ दिया की अब्दुल रशीद को, अपनी बीवी और उसके एक रात के शौहर के साथ एक ही घर में रहने से डर नहीं लगता? कौन जाने पीठ पीछे दोनों हम बिस्तर होते हों? अब्दुल रशीद यह कैसे बर्दाश्त कर लेते. ग़ुस्से में कह दिया "मेरी बीवी सिर्फ मेरी है समझे; वो निकाह तो एक धोखा था, मेरी बीवी को तो मेरी भाई ने छुआ तक नहीं. "बस डींग मार आये. ऐसा दावा, वो भी शराब के ठेके पर किया जाए भला चरों तरफ कैसे न फैलता? और कसबे भर में फ़ैल कर मौलवी साहब के कान तक कैसे न पहुँचता? और पूरी बात जानकर भला यह कैसे हो सकता था कि वो सच्चे दींन के मुहाफ़िज़ होकर ऐसे कदम न उठाते जिनसे साबित होता की वह पैरों तले घाँस उगने नहीं देते?

अब्दुल रशीद से मेरा निकाह नाजायज़ करार दे दिया गया. मेरे लिए शुरू हुए फिर वही इद्दत के तीन माह दस दिन और साथ ही खोज मची एक ऐसे आदमी की जो मुझसे निकाह करके तलाक दे दे ताकि मैं अपने पहले शौहर से शादी कर सकूं. ज़ाहिर है इस बार तो मेरा देवर नहीं हो सकता था क्यूंकि उसपर ऐतबार करना नामुमकिन था; ब्याहता बीवी को जो अछूता छोड़ दे वह भला मर्द कहलाने के काबिल है ?


एक और आदमी तलाश किया गया और उससे मेरा निकाह कर दिया गया. अगले दिन उस आदमी ने मुझे तलाक देने से साफ़ इंकार कर दिया. चौदह महीने मैं उसकी बीवी रही. मैं तो सदा के लिए उसी की हो रहती लेकिन अब्दुल रशीद ने इन बदले हुए हालात से समझौता करने से साफ़ इंकार कर दिया. वह मुझे बाजार में देख लेते, सब्ज़ी खरीदते, बच्चों को स्कूल छोड़ते, बुर्का पहचान लेते और फूट फूट कर रोने लगते जैसे कोई बच्चा मचलकर बेकाबू हो जाये; सड़क पर लोट जाते , ज़मीन पर सर मारने लगते "हाय सकीना, कैसे तेरे बिना ज़िंदा रहूँ? ओ मेरी जिंदिगी मेरे पास वापस आ जा '


आखिर मैंने ही अपने शौहर को समझाबूझकर राज़ी किया की वो मुझे तलाक दे दे. छोटे से कस्बाई शहर का मैं एक तमाशा बन गई थी. लोग एक दुसरे को खबर कर देते की मनोरंजन शुरू हो गया है और भीड़ जमा हो जाती. लोग हँसते,फब्तियां कस्ते और अब्दुल रशीद को 'मजनू 'कहकर पुकारते. मेरे वजूद को हर तरफ से नोचा खसोटा जा रहा था और मैं टुकड़े टुकड़े होकर बिखर रही थी. खैर समझाबुझाकर जब तलाक हो गया तो एक सौ दस दिन की गिनती शुरू हुई , जब उस आदमी से शादी होगी जो मुझ से प्यार का दावा तो करता था लेकिन जो किसी भी तरह खुद को 'तलाक तलाक'कहने से रोक नहीं पाता था. निकाह होता, कुछ दिन ख़ुशी के बीतते और फिर वही पुराने ढर्रे की जिंदिगी शुरू हो जाती. ऐसा लगता जैसे उन्हें तलाक देने की लत पड़ गई है. पलक झपकते, बगैर किसी कारण के , कभी नशे में, कभी पूरी तरह होश में तलाक दे डालते. फिर एक और आदमी खोझते, शादी की सारी तैयारी खुद करते, उस आदमी को भी नकद रुपये देते; एक बार तो खुद मौलवी साहब ने मुझसे निकाह करके, छह रात मुझे रौंदा. मैं अक्सर इद्दत के दिनों की गिनती भूल जाती , मगर अब्दुल रशीद ठीक एक सौ ग्यारवें दिन मुझसे निकाह करने मौजूद रहते.

"तुमने कभी 'खुला'की कोशिश नहीं की ,कभी खुद नहीं चाहा की तुम तलाक यानि 'खुला'ले लो और नए सिरे से जिंदिगी शुरु करो?'"की न बाजी. पिछले तीन साल से कोशिश कर रही हूँ. मौलवी साहब कहते हैं कि इतने प्यार करने वाले शौहर से मेरा तलाक चाहना बहुत बढ़ा गुनाह है. और बाजी क्या आप नहीं जानती कि खुला चाहना और मंज़ूर हो जाने के बाद भीम, तलाक कहना तो मर्द को ही पड़ता है. औरत जितना भी तलाक क्यों न चाहे, अंत में शौहर ही इन लव्जों को कहता है और उसे छटकारा देता है. अब्दुल रशीद भी साफ़ इंकार करते हैं. मेरी मर्ज़ी से मुझे तलाक नहीं देंगे, अपनी मर्ज़ी से जितनी बार घर से बेघर कर दे. इस तरह से बाजी मेरी जिंदिगी के सोलह साल निकाह, तलाक , इद्दत और हलाला के बीच चक्कर घिन्नी बने हुए बीत गए. अरे बाजी ! क्या आपकी आँखों में आंसू हैं? ठीक ही है कि मेरे हाल पर अब ग़ैर रोएं. मेरे अपने आंसू तो कब के सूख गए.
ज़किया क्या कहती , कैसे बताती कि ये आंसू सिर्फ एक सकीना के लिए नहीं थे; ये उन अनगिनत औरतों के लिए थे जिनके सिरों पर तीन बार कहे तलाक की तलवार हमेशा लटकी रहती है, जो परेशान होकर अगर खुद इस जीवन से छुटकारा पाना चाहे तो उनको हज़ारों कारण बताने होंगे. अगर वह कारण उलेमा मान भी ले तो भी तलाक उसे पति ही देगा और इसके लिए अक्सर औरत को अपने बच्च्चों से मिलने के हक़ को गवाना होता है, पति को पैसे, मिलकियत देकर 'तलाक'कहने के लिए मनाना होता है, मैहर तो खैर कभी मिलती ही नहीं और निर्वाह राशि का तो सवाल ही नहीं पैदा होता.


ज़किया ने सर को एक झटका दिया ; रोने से भला क्या हासिल होगा ; यह वक़्त संघर्ष का है और सभी मुद्दों पर खुल के बात करने का है. उसने फाइल खोल कागज़ निकाला और सकीना की तरफ बढ़ाते हुए बोली 'इसे पढ़ना , समझ में आये तो दस्तखत करना. ये अपील है कि हमें बराबरी के सब हक़ चाहिए जो संविधान हमें देने का वादा करता है. लड़ाई लम्बी भी है और मुश्किल भी लेकिन इस मोर्चे पर उतरना तो पड़ेगा.'ज़किया बाहर की तरफ चल दी थी जब उसने फिर सकीना की आवाज़ में 'बाजी 'सुनाई दिया. सकीना पास आ गई थी, पर्चे को हिलाते हुए बोली, 'इसकी हम फोटोकापी करवा ले, दूसरी औरतों से भी बात करेंगे ; और दस्तखत जमा करेंगे. अरे सुनो सब --- "सकीना तेज़ी से चलती हुई , कुछ औरतों के साथ बाजार की तरफ बढ़ रही थी. ज़किया को बहुत धुंधली सी एक राह दिखाई दे रही थी, मंज़िल का कहीं पता न था. कोई बात नहीं रास्ता अगर खुद बनाना है तो मंज़िल भी खुद ढूंढ ही लेंगे.
साभार इन्द्रप्रस्थ भारती 

वर्जिनिटी का नहीं है सवाल ... सवाल ना का है . !

प्रो परिमळा अंबेकर

‘‘व्हेन यू लास्ट युवर वर्जिनिटी ... जोर -जोर सेवकील साब अपने क्लाइंट से पूछे जा रहे थे । और इस सवाल पर क्लांइट तो क्या उस कोर्टरूम का हर बंदा, यहॉ तक कि जज साब भी हक्का-बक्का थे... वकील के इस प्रश्न पर ... लडकी विविश होकर पिता की ओर देखती है . पिता ...हताश, बेटी के दिये जानेवाले उत्तर को सुनने की पीडा से मुक्ति चाहते हुए ... कोर्टरूम से उठकर चल पडता है । सिनेमा का मुख्य किरदार, वह लडकी, जिसने अपने को बचाने के लिये गिलास का बोतल हवश से पीड़ित  लडके के सरपर दे मारा था, अपनी वर्जिनिटी के खोने का पहला रपट वकील और जज साहब के सामने बयान करती है ... "



 पिंक का क्लाइमैक्स और एंड, एक दूसरे में अंतर्भूत होकर प्रस्तुत होते हैं । और इस क्लाईमैक्स का पहला पडाव तब शुरू होता ,है जब अद्भुत नाटकीय और निर्विकार शैली में वकील दीपक सहगल, कटघरे में खडे मीनल अरोरा से पूछता है ‘‘ बताइए मीनल अरोरा, क्या आप वर्जिन है , हॉं या ना में जवाब दीजिये, डोंट शेक योर हेड ‘‘ मीनल के ना कहते ही बंदूक की नली से निकली गोली सा दूसरा प्रश्न करता है सहेगल .. ‘‘ देन व्हेन यू लॉस्ट योर व्हर्जिनिटी ...वॉट वाज योर येज .. ''लडकी उत्तर में अपने बालिग होने की उम्र को बताती है । अनिरूद्ध रॉय चौधरी द्वारा दिग्दर्शित सिनेमा ‘पिंक'के कोर्टरूम ड्रामा में गुंथे गये संवादों का गुंथन, धीरे धीरे स्त्री की व्यवहार स्वछंदता को, अपने जीवन के निर्णय को खुद लेने की उसकी सामाजिक स्वतंत्रता को  स्क्रीन पर  दर्शकों के सामने कलात्मकता से स्पष्ट रूप देता है।

कोर्टरूम के संवाद भारतीय समाज में स्त्री के प्रति लगभग नकारात्मक वातावरण की भीषणता का पर्दाफाश करते हुए, स्त्री स्वछंदता और उसकी मानवीय जीवन की मुक्त खुले वातावरण की मांग की सकारात्मक सोच को प्रस्तुत करते हैं । और इसके लिये आवश्यक पुरूष मानसिकता के बदलाव की नीति को भी सम्मुख रखता है । जैसे कि ... वकील का पूछना, 1 क्या आपने शराब पी रक्खी थी, 2 सभ्य घरकी लडकियॉं शराब नहीं पीती, 3 आप रोज कितन बजे घर लौटती हैं, 4 देर रात लौटना, अच्छे लक्षण नहीं,  5 आप साथी लडको से हॅंस-हॅंस कर बात करती है , उन्हें छू छू कर बोलती हैं, 6 नहीं हॅंसना लडकों को छूना ...बस वे औरतें हीं करती हैं जिन्हें अपना जिस्म बेचना होता है ...7 जो अपने हॅंसी के बदले पैसे मॉंगती वसूलती हैं 8 और सबसे अहम सवाल है लडकी के यौनिकता का,  पवित्रता का ... वकील प्रश्न को व्यंग्यात्मक अंदाज में पूछता है, जैसे वह कह रहा हों ‘‘ समाज पूछना चाहता है मिस् अरोरा कि आपके वर्जिनिटी का अधिकार तो उनके हाथों है, आपको किसने दिया अधिकार उसे खोने का... समाज और धर्म की बपौती को आप कैसे बिना अनुमति के लाइसेंस के उसे खो सकती हो मिस मीनल .. ? आदि...आदि ...



कारण पिंक सिनेमा,  कबीराना अंदाज की सृजनात्मक सिनेमिक प्रक्रिया है, जहॉं    कबीर अपने दर्शन की बारीकी को कहने के लिये उलटबासी रचता है, कहता है,  ‘‘बरसे कंबल भीजे आकासा ...  ''

फिल्म का उद्देश्य है 
1 स्त्री की यौन-स्वतंत्रता के प्रति समाज की सहज मानसिकता का बनना , 2 देहउपभोग को लेकर उसकी अपनी खुद की इच्छा अनिच्छा को भी समाज का उसी अंदाज में स्वीकार करना, जैसे कि पुरूष की इच्छा अनिच्छा को सदियों से करते आया है , 3 उसकी ना में पुरूष को अपनी अहं की क्षति या चुनौती न देखकर, सहजीवन के दूसरे हिस्से की मान्यता के रूप में देखना  ... 4 यौन उपभोग के दूसरे हिस्से का स्त्रीदेह , चाहे प्रेमिका का क्यूॅं न हो, सहजीवन को स्वीकार कर जी रही मेट्रो कल्चर की औरत ही क्यूॅं न हो , मुक्त स्वछंद पसंदीदा शैली में अपने को गढने वाली इक्कीसवी सदी की लडकी ही क्यूॅं न हो, पैसा देकर खरीदा गया वैश्या स्त्री देह ही क्यूॅं न हो या ..या ..उपभोग के लिये मिली हुयी वैवाहिक शास्त्र प्रदत्त धर्मपत्नी ही क्यूॅं न हो... !! उसकी ना को सुने ,गुनना और मानना ।

वकील का पुरूष होना या स्त्री का होना जैसे आयाम यहॉं मायने नहीं रखते , मुद्दा सोचने का यह है कि, सिनेमा पिंक अपने तहत स्त्री से बिंधे गये वर्जिनिटी के सवालों से भी ऊपर उठकर ,देहशुद्धता के सवालों को लांघकर, देहस्वछंदता की उसकी अपनी स्वतंत्रता के प्रश्नों को पुराना बताती है । देहभोग की उसकी अपनी इच्छा और अनिच्छा के अत्यंत ही वर्जिन प्रश्न को बडे ही सलीके से प्रेषित करती  है। देहसंबंधों को बनाने की उसकी अपनी मानसिकता , उसकी अपनी संवेदना को,  पुरूष समाज द्वारा स्वीकार किये जाने की अत्यंत ही मनोवैज्ञानिक और सांस्कृतिक सवाल को ‘पिंक‘ , सिनेमा के परदे पर उकेरती  है ।



पिंक के माध्यम से मैं उन फेमिनिस्ट राय पर आपत्ति  करना चाहती हूॅं जो, जेंडर विमर्श के निर्णयों को स्त्री और पुरूष के किरदारों में बॉंटकर देखते हुये,पारंपरिक पुरूषवादी वर्चस्व संस्कृति के विरोध की अपनी बनी बनायी खांचे से बाहर आ नहीं पा रही हैं।

रितेश शाह के उठाये इस कदम में हम विमेन क्राइम के विरूद्ध में , समाज में नयी और सहज सोच को बनाने के पीछे की लेखकीय सरोकार को देख सकते हैं । कुछ और मुद्दे जो कोर्टरूम संवादों में उभरे थे,  1 नार्थइस्ट बेल्ट की जातीय व्यक्तित्व के प्रति देश का प्रिजुडाइ्ज्ड मानसिकता का बना बनाया नमूना... इनके साथ क्या यार सबकुछ चलता है ... 2 भारतीय मर्द की मानसिकता, जो घर की औरत को अपनी मर्यादा और खानदानी मान का हिस्सा माने और बाहर की औरतें ... होती ही हैं उपभोग की वस्तु, पुंसवादी वर्चस्व के सामने झुकनेवाली अदली ...बंदी... और क्या कुछ नहीं ... ! इसीलिये , स्त्री की ओर से ना का सुनने के लिये केवल पुरूष वर्ग को नहीं संपूर्ण भारतीय समाज की मानसिकता को बदलना पडेगा । स्त्री से कहा गया ना, एक व्यक्ति की सहज प्रतिक्रिया बननी है न कि कोयी प्रतिष्ठा या चैलेंज का प्रश्न बने । स्त्री और पुरूष के व्यक्तित्व की स्वीकृति जबतक  समान भावबोध के और मानसिकता के धरातल पर नहीं होगी  तब तक अपना समाज स्त्री के नकार को या ना को प्रेस्टीज  इश्शु मानेगा , अपना अपमान मानेगा ।



 किसी ने सही कहा, ‘‘ पिंक सिनेमा नहीं,एक मूवमेंट है .., स्त्रीअपराध के विरूद्ध लडना है तो बस माइंडसेट को बदलना है । ‘‘ इस माइंडसेट का बदलाव रखता है भारतीय  स्त्री भी पुरूष भी । जैसे पिंक सिनेमा का किरदार फलक के  पति के कहनेपर कि ‘‘... मीनल की तो बात और है तुम भी फलक ऐसी भी क्या एंजाइमेंट है ... ‘‘ फलक बिना कुछ कहे सीधे बाहर निकल पडती है । फलक और एंड्रिया का स्टैंड निर्णायक है, बदलाव की दिशा में ।

और भी बहुत कुछ अंश है पिंक के जिनपर भी चर्चा जरूरी है ... । 

लेखिका गुलबर्गा विश्वविद्यालय गुलबर्गा में हिन्दी की प्राध्यापिका हैं. संपर्क: parimalaambekar@yahoo.in

नदिया के तीरे-तीरे

डॉ. आरती  
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संपादक , समय के साखी ( साहित्यिक पत्रिका ) संपर्क :samaysakhi@gmail.com

प्रिय नन्ना

इन दिनों आपकी बहुत याद आ रही है.पिछले कई दिनों से मन बेचैन है, लगता है आपसे खूब बात करूँ, आपको छू सकूं  , पास बैठकर कांपते झुर्रीदार हाथों को  पकड़ कर, चीनी मिट्टी के  सफेद प्लेट में थोड़ी-थोड़ी चाय डाल कर पिला सकू, आपके नहाने से पहले और बाद भी पीठ में तेल लगा सकूँ  और.... ढेरों इच्छाएँ... अनगिनत चाहतें?यह सब अभी संभव होता नहीं लग रहा. हमारे बीच रेलसफर के  दस-ग्यारह घंटों की बिसात बिछी है जिसे पार किए बिना इच्छाओं का कोई भी को ना छू पाना कैसे मुमकिन होगा? बस इसलिए यह भूला-बिसरा तरीका  खोज बैठी चिट्ठी लिख रही हूँ.

चिट्ठी लिखते हुए याद आता कि आठवीं कक्षा पास कर नवमीं पढऩे जब मैं माँ-पापा के  पास जा रही थी. लगभग बारह साल बाद आपसे दूर जाना बेहद  कठिन था. बहुत कठोर सी मानी जाने वाली लड़की रो रही थी, खूब रो रही थी. आपने बस में बैठ जाने के  बाद कहा था- चिट्ठी लिखना, अभी तुम ग्रेजुएट नहीं हुई हो.सुनकर पापा मुस्कुराए थे. उन्हें पता था यह तंज किया गया है और उन्हीं के लिए किया गया है. और मैं हर पंद्रह-बीस दिनों में चिट्ठी लिखने लगी. कोशिश करती कि अंतर्देशीय-पत्र के तीनों पन्ने भर लिखूँ... लेकिन तब मेरी चिट्ठियाँ  आगे बढ़ती ही न थीं! बस पैट्रन राइटिंग पर.... हम सब यहाँ बहुत खुश हैं. आपकी  कुशलता की  कामना.... मेरी पढ़ाई अच्छी चल रही है..... फिर छोटी बहनों, भाई की  पढ़ाई..... फिर हम सब नानी को , आपको  याद करते हैं.... कभी-कभी मौसम की  बातें भी होती हैं.... चिट्ठी का  जवाब देने का  अनुरोध और बस विराम.

उन दिनों मेरे पास लिखने लायक बातें ही नहीं थी या निश्चित न था कि कौन सी बात किससे कही जाय. ठीक  आज इसके  उलट है. मेरे दिल के  हरेक  कोने में ठूँस-ठूँसकर शब्द भरे हैं. चरखा, चक्की , कैंची, सिलाई मशीन और कलम सब कुछ बारी-बारी चल रहा है भीतर. स्मृतियों का  पूरा का  पूरा थान लपेट रखा है मैंने.
जिक्र चिट्ठियों का आया तो आपकी  ही एक  बात याद आई. ससुराल जाती बेटियों को  नसीहत की  तरह एक  पंक्ति पकड़ा दी थी- मुझे कभी भी चिट्ठी मत लिखना. उन्होंने अच्छी बेटियों की  तरह पालन किया. आखिर बेटियाँ किसकी  थीं? आपकी  तरह ही थीं. आपने भी तो अपने पिता को  तीन वचन दिये थे... एक - ताउम्र पेड़ पर नहीं चढऩे का , दूसरा- साइकिल नहीं चलाने का  और तीसरा कि नदी-तालाब में तैरेंगे भी नहीं. आज मैं आपको  यह चिट्ठी लिखते हुए सोच रही हूँ कि यदि मेरी माँ और दोनों मौसियाँ चिट्ठी लिखती तो क्या-क्या लिखतीं.... कितने पन्ने भर लिखतीं.... क्या कभी खत्म होती उनकी चिट्ठियाँ ...?

मेरी माँ ने कभी चिट्ठी नहीं लिखी. पिता को  नहीं, पति को  भी नहीं और किसी प्रेमी को  भी नहीं. मुझे भी नहीं.
माँ और उनकी  बहनों का  चिट्ठियाँ  न लिखने का  वचन पिता के  साथ-साथ पूरी कायनात के लिए था. कभी-कभी मुझे लगता है वह ‘वचन’ न था क्योंकि वचनों में प्रतिपक्ष की सहमति भी होती है. यहाँ प्रतिपक्ष की  प्रतिध्वनि कहाँ सुनी गई थी. यदि सुनी जाती तो वे शायद कहतीं- बाबूजी हम आपको  चिट्ठी लिखे बिना कैसे रह सक ती हैं, आखिर हम अपने सुख-दुख और किससे कहेंगी, दुख विपत्ति के  बखत आखिर किसे पुकारेंगी?.... लेकिन  नहीं.... यह बारीक  प्रतिध्वनि गूँजी होगी जरूर, पर सुनता कौन? यहाँ वचनों जैसा विश्वास न था... अपनी जबरदस्ती की  हुंकार थी. धमकी-सी थी... जिसने ताउम्र उन बेचारियों को  स्वप्न में भी डराये रखा.


अब बातों को  थोड़ा दूसरी ओर मोड़ देते हैं. 1993 का  साल, आप रिटायर हुए. मैंने उसी साल दसवीं की  परीक्षा दी थी. 30 मार्च को  आपके  रिटायर होने के  दिन आपके  पास ही थी. यहाँ से आपके  स्वभाव का , विचारों का  दूसरा अध्याय भी शुरू हुआ. अब हम नातिनें, खासकर मैं (सबसे बड़ी होने की  वजह से शायद) धीरे-धीरे खुद को  व्यक्त क रने का  अवसर पाने लगी. अब शारीरिक  और मानसिक  दूरियाँ सिकुडऩे लगी थीं. अब आप साइकिल पर, पापा की  स्कूटर-मोटर साइकिल पर बैठने लगे थे. एक  वचन का  टूटना बहुत चीजों को  नरम क र रहा था. धीरे-धीरे स्वभाव की  हुंकार भी टूट रही थी. वे रिश्तों की , बहुएँ, कभी जिनकी  आवाज़ सुनना तक  असामाजिक  मानदंड थे आपके  लिए, आज 70 पहुँचते-पहुँचते उन्हें पास बुलाकर हालचाल पूछते, उनके  सुख-दुख सुनते और सलाहें भी देते. बहुत सी अकड़ी हुई चीजें टूट रही थीं, बेआवाज़. जैसे तनी हुई रस्सी धीरे-धीरे मुलायम होती जाए और एक  दिन रेशम की  मानिंद स्निग्ध हो जाए, वैसे ही तो मुलामियत आ गई थी आप में. दिनों-दिन नरम और सहज होते जा रहे थे और कीमती भी. इसीलिए शायद सबसे छुपाया, बचाया आपसे कह सक ने की  हिम्मत हो रही है. आज दिल पर हाथ रखकर सौ फीसदी सच कह सकती हूँ कि आप वह पुरुष हो जिसकी  वजह से कैसी भी परिस्थिति हो, मैं नहीं कह पाऊँगी कि ‘दुनिया के  सारे मर्द एक  से होते हैं’ मैं सारे मर्दों से घृणा करने की  बात भी नहीं कह सक ती. मुझे हरेक  में कुछ खूबियाँ दिखती हैं, बेहद उजड्ड और लंपट किस्म का  सहकर्मी भी सहानुभूतिपूर्ण दिखता है मुझे. मैं अपनी उस दोस्त को -जो पुरुषों से घृणा करती है, उसकी  सोच को  बदलने की  कोशिश करती रहती हूँ. उसे स्त्री-पुरुष के  स्वाभाविक  मनोवैज्ञानिक  भिन्नताओं की , सामाजिक  मानसिकता में दुरूह से पगी परवरिश के  अंतरों का  हवाला दे-देकर समझाने की  कोशिश करती हूँ. वह सचमुच बदल भी रही है..... ये सारी बातें आपके  साथ साझा करने की  इच्छा आज चरम पर है. चिट्ठी के  पन्ने भरते ही जा रहे हैं.

यह सब कहते-सुनते घड़ी एक  बजानेवालीहै. समय कहाँ रुकता है कभी. मैं स्मृतियों का  लपेट रखा थान धीरे से खोलना शुरू करती हूँ तो समय पीछे की  ओर तेज गति से गोल-गोल घूमने लगता है. वह थोड़ा सा रुक ता है तो कुछ न कुछ पकड़ ही लेती हूँ. अभी एक  चिट्ठी पकड़ में आ गई है. वह छोटी बहन की  चिट्ठी है. एक  दिन सोते समय तकिया के  नीचे एक  चिट्ठी निकलती है. यह जानकर कि चिट्ठी बहन की  है, एक  अनजानी आशंका  जाग उठी. क्यों, किसलिए चिट्ठी लिखी....? और एक दम से उगीं आशंकाएँ सच होती हैं. उस चिट्ठी के  एक -एक  हरफ तो अब मुझे याद नहीं. तब भी सबकुछ कहाँ पढ़ पाई थी? बस कुछ ही पंक्तियाँ ही... कुहरे की  तरह दिमाग में छा गई थीं. हरफ याद रखने की  जरूरत भी नहीं थी. और क्या किया?... कुछ नहीं. उस कोहरे को  फूँक कर हटाने की  जरा सी भी कोशिश न की . बस चारों ओर बिखरे रिश्तों के  ताने-बाने को  सहेजे रखने की  खातिर किसी से कुछ भी नहीं कहा अब तक ... तो आज आपसे भी क्यूँ कहूँगी? याद है तो बस उस चिट्ठी के  आशय, नतीजे. हमारे आसपास के  झूठे, दोगले रिश्ते. वह घर, वह परिवार जिसे हम सुरक्षा घेरा मानते हैं, उसके  दिखाये तर्कों- कुतर्को को  बेप्रश्न कबूल करते हैं, यह सोचकर कि वे हमारे अपने हैं, जो कुछ भी कहते-सुनते हैं हमारे अच्छे आज और कल के  लिए? उन्हीं के  बीच कोई मुखौटा लगाए हम पर घात लगाने बैठा होता है. आज समझ में आ रहा है कि लड़कियों को  तर्क  क्यों नहीं करने दिया जाता? ऐसे अनुभव विरले नहीं हैं, हर औरतजात के  पास होते हैं. चाचा, ताऊ, मामा, मौसा, चचेरे-ममेरे भाई, किसी न किसी की  लोलुपता की  शिकार वे होती हैं पर अपनी छोटी बहनों-बेटियों को  वे आगाह नहीं करतीं. हालांकि यह भी उतना ही खरा सच है कि स्त्री का  रणक्षेत्र उसका अपना अकेले का  होता है. यहाँ कोई भी उसके  साथ नहीं होता. बाहर की  एक  उंगली उठते ही आसपास की  वो लकीरें जिन्हें पिता, भाई, पति यहाँ बेटा सब... जो अब तक  उसकी  रक्षा का  दम भरते रहे... उन उठनेवाली उंगलियों में शामिल हो जाते हैं. आज भी यह प्रश्न कतई महत्वपूर्ण नहीं होता कि अपराधी कौन है? केवल लड़कियों के  मामले में. यहाँ अपराध कोई भी करे, अपराधी केवल और केवल वे ही होती है और सजा भी उन्हें ही मिलती है.

मुझे इस सत्य का  आभास था तभी तोमैंने उस युवा होती लड़की  के  प्रश्नों, जिज्ञासाओं, आकुलताओं का  जवाब चिट्ठी में ही दिया. यहाँ मैं यथार्थवादी बन गई थी, आपकी  तरह और बहुत कुछ माँ की  तरह. उसे समझाया, चुप करवा दिया था और उस समय तो उस रिश्ते को  बचा ले गई. आज भी प्रयासरत हूँ. उस अल्हड़ लड़की  ने भी, जो कुछ भी बकती-बोलती रहती थी, आज भी मेरा साथ दे रही है. हमारे आसपास के  सभी रिश्ते ऐसे ही खोखले हैं, ऐसे ही बचते हैं वे. एक  प्रश्न जब तब बेचैन करता रहता है कि हम आखिर क्यूँ बचाकर रखते हैं इन्हें?

नन्ना पर उस एक  रिश्ते के  कटघरे मेंखड़े होने से आप भी खुश नहीं रह पाते? इसीलिए अन्याय का  साथ देने का  अपराध मैं ताउम्र  करूँगी? मैं नहीं चाहती कि इस घटना के  अक्स आपकी  समझ में आएं. इसे मैंने माँ से भी छुपाया हुआ है... अभी तक . जब कभी संवेदना या आक्रोश  की  अति होने लगती है और हिम्मत बेकाबू होती है कि कह दूँ... किसी से तो? तभी चुनौती देती हुई वह पंक्ति कानों में शीशे की  तरह तीव्रगति से प्रवेश करती है- ‘औरत के  पेट में कोई बात नहीं पचती’ और मैं दोनों हाथ से पेट को  दबोच, पैरों को  तानकर खड़ी हो जाती हूँ... देखो- मैंने आपसे भी कुछ नहीं कहा, कुछ भी नहीं बताया.

हाँ एक  ख्याल जरूर आता है कि ऐसेअनुभव तो मेरे पास भी थे यदि मैंने माँ को  चिट्ठी लिखकर साझा किया होता तो वे क्या करतीं? कैसा जवाब देतीं...? यदि वे आपके वचनों में बंधी न होतीं तो जरूर उनके  पास भी मुझे बताने को  कोई न कोई अनुभव तो जरूर ही होता. हर औरत की  एक मात्र पूँजी है शायद ऐसे अनुभव, जो उसे सपनों में भी पुरुष नामक  प्राणी से डराते हैं और हद तो यह कि इन्हीं में से कोई एक  को  वह आजीवन सहन क रती है. हाँ इतना तो जरूर तय है कि अगर मैंने माँ को  चिट्ठी लिखी होती तो उनका  तीखा-कडुवा अनुभव संसार भी आज मेरे पास होता. ऐसा ही कोई मासूम सा दिखनेवाला सगा-पराया रिश्तेदार, जिस पर आपको  भी भरोसा रहा हो. लेकिन आपकी  बेटियों ने तो चिट्ठी न लिखने की  कसम खाई थी. इसी वज़ह से मैंने अपना भोगा उनसे साझा किया ही नहीं. मैंने खुद को  खुद ही समझा लिया था. अपना रास्ता चुन लिया था. और उस छोटी उमर में एक  बड़े कडुवे सच को  लगभग सहन करने की  क्षमता ओढ़ ली थी कि इस परिवार रूपी भग्नावेषों की  संरचनाएँ खोखली जरूर लेकिन सर्पीली भुजाओंवाली हैं. अपने आडंबरों में वे किसी को  भी लपेट लेंगी. औरतें यहाँ शापग्रस्त आत्माओं की  तरह भटकती काया मात्र हैं. यहाँ उनके  मन की  रत्तीमात्र परवाह नहीं होती. आपने भी नहीं की  थी वरना अपनी बेटियों से उनकी  रचनात्मकता और सच कह सकने का  अधिकार नहीं छीनते.

मैंने न तो अपने पिता को  कोई ऐसावचन दिया न ही उन्होंने कभी मुझे ऐसे मुखर-अमुखर वचनों में बांधने की  चेष्टा की . मेरे लिखे पर तो आपको  भी प्रसन्नता होती है. अभी कुछ दिनों पहले ही मेरी कविताएँ सुनते हुए आपने कहा भी था- ‘मुझे तुम पर गर्व है’ ओह पहली या शायद दूसरी बार सुने शब्द थे ये. पर औचक  नहीं, पूरे सोच-विचार के  बाद ही निकले होंगे कुछ शब्द... मेरे जीवन भर की  पूँजी. पापा भी मेरा लिखा, छपा देखकर मन ही मन खुश होते हैं. चाहते हैं कि मैं कविताएँ लिखूँ, किताबें लिखूँ. यह तो परदे के  बाहर का  चित्र है और परदे के  भीतर वही नानी, दादी हैं जिन्हें पितृसत्ता ने पढऩे का  ही मौका  न दिया. अपराध कि वे लड़कियाँ थी, उन्हें चौका -चूल्हा ही तो संभालना था... सो किसलिए पढ़ाना? नानी तो बेहद सरल स्वभाव की  महिला हैं, उन्होंने कभी असंतोष, कोई माँग जताई ही नहीं, लेकिन दादी एक  आत्मस्वाभिमानी व्यक्तित्व की , तेज-तर्राट महिला... उनकी  बातों में ऐसे असंतोष झलक ते हैं. केवल पढ़े-लिखे न हो पाने की  वज़ह से जब कभी किसी को  साथ ले जाने की  बाध्यता सामने आती तो उनका  असंतोष मुखर हो जाता है. माँ की  पीढ़ी पढ़ी-लिखी होकर भी पिता के  विचारों की  शिकार. दोनों मौसियों का  अखबारों और किताबों की  दुनिया से भी नाता लगभग शून्य है. माँ किताब, अखबार, पत्रिका एँ जो मिलता है सब पढ़ लेती हैं. को ई चुनाव नहीं. खूब उपन्यास भी पढ़े उन्होंने. एक  समय उन्होंने, मनोज पॉकेट बुक्स वाले और भी जाने क्या-क्या प्रकाशनों वाले. मैंने भी पढ़े हैं उनमें से कुछ... अब याद नहीं आ रहे. न जाने क्यों यहाँ आप बार-बार कटघरे में खड़े दिखाई देते हैं. किताबों के  अच्छे जानकार, कलाकार स्वयं, साहित्य-संस्कृति से गहरे वाकिफ होते हुए भी आपने उन्हें पढऩे का  सलीका  नहीं दिया. अपने सारे हुनर अपने पास रखकर खत्म कर दिये. बेटा न होने से वसीयत तो बेटियों को  मिली और कुछ वंशानुगत मनोवृत्तियाँ भी, लेकिन वह संचित किया हुआ जिसे ‘ज्ञान’ या ‘कला’ कहते हैं, उसे देने लायक  आपने अपनी बेटियों को  नहीं समझा. हालाँकि इसके  पीछे भी आपका  एक  तर्कशास्त्र था कि- व्यक्ति अपनी-अपनी रुचि, मनोवृत्ति का  खुद अर्जित करता है. मुझे भी आपने कहाँ- कुछ सिखाया? जबकि ढाई साल की उम्र से आपके  पास रहती थी.


लेकिन मुझे लगता है और जैसा कि आपकहते रहे कि रुचियों के  अनुसार, मनोवृत्तियों के  अनुसार... तो मैंने आपकी  परछाई का  थोड़ा सा हिस्सा खुद पर ओढ़ लिया. रुचियाँ तो ओढ़ी-ढांकी  ही, मनोवृत्तियों की  चादर भी तान ली, कितना? अभी निश्चित नहीं कह सकती, समय के  द्वार-दालान थोड़े और पार करने के  बाद ही कुछ कहा जा सकता है.

आज, अब जब आपको  चिट्ठी लिखनेबैठी हूँ तो सोचा तो यही था कि सबकुछ लिखूँगी, जो सामने नहीं कह पाती पर अब आगे समझ में ही नहीं आ रहा कि और क्या लिखूँ? एक  प्रश्न बार-बार कौंधता है कि माँ-मौसियों ने जिस तरह आपको  कभी चिट्ठी नहीं लिखी, इसी तरह वचनों के  बिना भी मैंने पापा को  कभी चिट्ठी नहीं लिखी! क्यों नहीं लिखी मैंने चिट्ठियाँ? हम भारतीय और खासकर ग्रामीण, कस्बाई लड़कियाँ, पिता से इतनी दूर कैसे हो जाती हैं? जैसे-जैसे हम बड़ी होती हैं, हमारी दूरियाँ बढ़ती जाती हैं... हमारे कपड़ों की  तरह, बालों की  तरह. लगभग बारह-तेरह साल के  बाद, बड़ी होने के  बाद मैं पापा के  गले नहीं लगी? क भी-क भार ही उनके  बगल में, सटकर बैठती हूँ. अभी पिछले महीने जब माँ-पापा मेरे पास आए थे, तब का  किस्सा आपको  सुनाती हूँ- एक  दिन मैं बेहद थकी  हुई थी, बुखार- सा भी लग रहा था. मैं पापा के  बगल के  सोफे पर बैठी थी, थका न और संवेदनाओं के  किसी बबंडर से आहत हो उनके  बगल से, सोफे के  हत्थों पर सिर औंधाकर बैठी-बैठी ही लगभग लेट गई. उस समय बेहद जरूरत लग रही थी कि पापा मेरे सिर पर हाथ रख दें. पीठ पर भी हाथ फेर दें. उन्होंने ऐसा नहीं किया. अलबत्ता मुझे बार-बार कहा जरूर कि भीतर जाकर बिस्तर पर सो जाऊँ, दवा ले लूँ, डॉक्टर को  दिखा आऊँ. उन्हें चिंता थी मेरी, लेकिन उनका  हाथ मेरे सिर तक  क्यों नहीं पहुँचा? आप जरूर ही इसे संस्कार कहोगे... भारतीय संस्कृति जैसा महान- मायावी कुछ! मैं इसे नैतिकता के  डर कहूँगी, जबरन सिखाये गए सामाजिक  भय-संकोच! आपने खुद इनका  खूब पालन किया है मगर सुखद है कि अब आप बदल गए. आप तो परिवर्तित हो गए, जैसे बर्फ की  शिला पानी बनकर बहने लगे, लेकिन हर कोई नहीं बदल पाता.
आप बदल सके  इसीलिए अब आपसे दुराव-छिपाव नहीं रहा.

चिट्ठी जैसे-जैसे आगे बढ़ रही है वैसे-वैसे नजरें पीछे घूमती हैं. वह लोक गीत आपको  याद होगा जिसमें विदा होती बेटी, कहार से नीम के  नीचे डोली रोकने का  आग्रह करती है-
निमिया के  नीचे डोला रोक   देक हरवा
देखि लेऊँ गाँव की  ओर.....
बाबुल दिहै मोर नौ मन सोनवा
मैया लहंगा-पटोर...
नौ मन सोनवा, नौ दिन चलिहै
फटि जइहै लहंगा-पटोर.....

जाते हुए सब कुछ आँख भर देख लेने की  इच्छा, कि घर-दुआर, पुर-परिजन सभी आँखों में बस जायें. चिट्ठी लिखते हुए मेरा मन भी जहाँ-तहाँ रुक -रुक  जाता है, कुछ जीवंत सा तलाशने लगता है. मेरी अपनी जड़ें, अपनी पहचान टटोलने लगती हूँ. और जब किसी नीम के  नीचे सुस्ताने ठहरती हूँ तो आप मेरे बगल में बैठे कोई गीत छेड़ देते हो-
नदिया के  तीरे तीरे चर बोक्की  (बकरी)
नदिया सुखा जाय त मर बोक्की .....


बचपन से इस गीत को  सुनतीआ रही हूँ... कुछ भी समझ में नहीं आता था... बस नदिया के  किनारे हरी-हरी, को मल घास चरती बक री और वही पतली सी धारवाली अपनी गाँव की  बलुई नदी का  चित्र उभरता था. कभी-कभी तो डर भी लगता कि रात में जंगल से निकलकर कोई बाघ उस अकेली भोली-भाली बकरी को  मारकर खान खा जाय. आज भी इस लोक गीत का  अर्थ पूरा का  पूरा नहीं खुल पाया. आज भी बकरी का  अकेलापन याद आते ही डर लगने लगता है. ऐसा महसूस होने लगता है कि जंगल में दूर कहीं से बाघ-भेडिय़ों के  गरजने-गुर्राने की  आवाज़ें आ रही हैं. सभी उसकी  ओर लपक ती जीभें लिए खड़े हैं. ओफ्हो... हद! इस गीत की  मात्र दो पंक्तियाँ मुझ पर इस हद तक  हावी हो जाती हैं कि मैं बकरी के  अक्स में खुद को  देखने लगती हूँ... आईने में देखती हूँ कि मेरे गले में एक  तख्ती लटकी  है और उस पर बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा है- ‘नदिया के  तीरे तीरे चर बोक्की ... नदिया सुखा जायत मर बोक्की ...’

औरतें - क़िस्त तीन ( स्पैनिश कहानियां )


एदुआर्दो गालेआनो / अनुवादक : पी. कुमार  मंगलम 

अनुवादक का नोट 

“Mujeres” (Women-औरतें) 2015 में आई थी। यहाँ गालेआनो की अलग-अलग किताबों और उनकी लेखनी के वो हिस्से शामिल किए गए जो औरतों की कहानी सुनाते हैं। उन औरतों की, जो इतिहास में जानी गईं और ज्यादातर उनकी भी जिनका प्रचलित इतिहास में जिक्र नहीं आता।  इन्हें  जो चीज जोड़ती है वह यह है कि  इन सब ने अपने समय और स्थिति में अपने लिए निर्धारित भूमिकाओं को कई तरह से नामंजूर किया।

भविष्य की जुबानियाँ

एक बार हुआ यह कि पेरू में जादू-करतबदिखाने वाली एक औरत ने मुझे लाल गुलाबों से ढँक दिया और इसके बाद मेरा भाग्य पढ़ते हुए कहा:
"एक महीने के भीतर-भीतर तुम्हें एक बड़ा ईनाम मिलेगा"मुझे हँसी आ गई. मुझे हँसी उस अनजान औरत के अगाध स्नेह पर आई जो मुझे फूल और सफलता की दुआएँ भेंट कर रही थी. मुझे हँसी ईनाम या सम्मान शब्द से आई जिसमें पता नहीं क्या तो मजाकिया-सा है.  हंसी उसी वक़्त मोहल्ले के एक पुराने दोस्त की याद होकर भी आई.  वह निहायत ही रूखा लेकिन खरी-खरी बोलने वाला इंसान था. अपनी छोटी सी उंगली हवा में उठा, सजा सुनाने के अंदाज़ में कहा करता था :"आज नहीं तो कल, लेखकों को रूखा-सूखा खाकर ही ज़िंदा रहना है". उसकी यही बात याद कर मुझे हंसी आई. और वह जादूगरनी मेरी हँसी पर हँस दी थी.एक महीने बाद, ठीक एक महीने बाद मोंतेवीदियो में मुझे एक टेलीग्राम मिला. टेलीग्राम यह बता रहा था कि चिले में मुझे एक बड़ा ईनाम दिया गया था. उस ईनाम का नाम खोसे कार्रास्को पुरस्कार था.


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टेलीविजन

मुझे यह स्पेनी टेलीविजन दुनिया की नामचीन हस्तियों में शुमार रोसा मारिया मातेओ ने बताया था. किसी एकदम से नामालूम से गाँव की एक औरत ने उन्हें एक ख़त लिखकर एक सवाल का सच-सच जवाब बताने की गुजारिश की थी. “जब मैं आपको देख रही होती हूँ, तब क्या आप भी मुझे देखती हैं?”
रोसा मारिया ने मुझे यह बताया. और यह भी कि उन्हें नहीं सूझा कि इस सवाल का जवाब क्या होना चाहिए.


उन दो आवाजों के नाम 

वे साथ बड़ी हुई थी. गिटार और विओलेता पार्रा.
जब एक बुलाती, दूसरी चली आती थी. गिटार और वह एक साथ हँसतीं, रोतीं. सवाल पूछतीं, हैरान होतीं और विश्वास करतीं थी. गिटार के सीने में एक छेद था. उसके भी.  आज ही के एक दिन की तरह 1967 में गिटार ने बुलाया, लेकिन वियोलेता नहीं आई. उसके बाद वह कभी नहीं आई.


वह नहीं भूलती

वह कौन है जो अफ्रीका के जंगलों के सारे छोटे रास्ते जानती पहचानती है? कौन है वह जो हाथीदांत के शिकारियों तथा दुश्मन जंगली जानवरों की खतरनाक जद से बचना जानती है? कौन अपने तथा दूसरों के छोड़े गए निशानों को पहचानती है? कौन अपनी सभी संगिनियों तथा साथियों की यादें बचा कर रखती है?
कौन है जो वे सारे सन्देश-संकेत छोड़ती है जिसे हम इंसान न तो सुन और न ही बूझ सकते हैं? वही संकेत जो बीस किलोमीटर से भी अधिक की दूरी से सचेत करना, मदद देना, घुड़की देना या दुआ-सलाम करना जानते हैं?
वो वह है. सबसे बुजुर्ग हथिनी. सबसे बूढी, सबसे अक्लमंद. वह जो झुण्ड के सबसे आगे चला करती है.

लेखक के बारे में

एदुआर्दो गालेआनो (3 सितंबर, 1940-13 अप्रैल, 2015, उरुग्वे) अभी के सबसे पढ़े जाने वाले लातीनी अमरीकी लेखकों में शुमार किये जाते हैं। साप्ताहिक समाजवादी अखबार  एल सोल  (सूर्य) के लिये कार्टून बनाने से शुरु हुआ उनका लेखन अपने देश के समाजवादी युवा संगठन  से गहरे जुड़ाव के साथ-साथ चला। राजनीतिक संगठन से इतर भी कायम संवाद से विविध जनसरोकारों को उजागर करना उनके लेखन की खास विशेषता रही है। यह 1971 में आई उनकी किताब लास बेनास आबिएर्तास दे अमेरिका लातिना (लातीनी अमरीका की खुली धमनियां) से सबसे पहली बार  जाहिर हुआ। यह किताब कोलंबस के वंशजों की  ‘नई दुनिया’  में चले दमन, लूट और विनाश का बेबाक खुलासा है। साथ ही,18 वीं सदी की शुरुआत में  यहां बने ‘आज़ाद’ देशों में भी जारी रहे इस सिलसिले का दस्तावेज़ भी। खुशहाली के सपने का पीछा करते-करते क्रुरतम तानाशाहीयों के चपेट में आया तब का लातीनी अमरीका ‘लास बेनास..’ में खुद को देख रहा था। यह अकारण नहीं है कि 1973 में उरुग्वे और 1976 में अर्जेंटीना में काबिज हुई सैन्य तानाशाहीयों ने इसे प्रतिबंधित करने के साथ-साथ गालेआनो को ‘खतरनाक’ लोगों की फेहरिस्त में रखा था। लेखन और व्यापक जनसरोकारों के संवाद के अपने अनुभव को साझा करते गालेआनो इस बात पर जोर देते हैं कि "लिखना यूं ही नहीं होता बल्कि इसने कईयों को बहुत गहरे प्रभावित किया है"।


अनुवादक का परिचय : पी. कुमार. मंगलम  जवाहर लाल नेहरु विश्विद्यालय से लातिनी अमरीकी साहित्य में रिसर्च कर रहे हैं .  आजकल फ्रांस में हैं. 

क्रमशः



देखो-देखो 'चमईया'हमार सुतुही

सोनी पांडेय
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कवयित्री सोनी पांडेय साहित्यिक पत्रिका गाथांतर की संपादक हैं. संपर्क :pandeysoni.azh@gmail.com
बाबा ब्रह्मदेव तिवारी के दुवार पर भिनहियेसे कल्लुवा की माई 'मोटकी चमईनिया'डुगडुगी डिबीर-डिबीर बजा रही थी। डीब-डीब-डीब के बेढब आवाज से तंग आकर ज्योत्सना ने ननद से पूछा- ‘‘बीबीजी ये आपके यहाँ कौन सा रिवाज है कि ब्याह के तीसरे दिन भी डीब-डीब लगा हुआ है।’’ मंजू नयी नवेली दुल्हन का मुँह आवाक हो ताकने लगी, चेहरे का रंग एकदम उतर गया, जैसे किसी ने चोरी पकड़ ली हो। मंजू ने पूरी सजगता के साथ उत्तर दिया- ‘‘जब तक कक्कन नहीं छूटता।’’ ज्योत्सना ने दूसरा सवाल दागा- ‘‘और कक्कन कब छूटता है? हमारे यहाँ तो विदायी वाले दिन ही छुड़ा देते हैं? मंजू को गुस्सा आ गया। भाभी ये आपका घर नहीं है, यहाँ के रस्मो-रिवाज अलग हैं, समझी। अम्मा को भेजती हूँ, जो-जो जानना है पूछ लिजियेगा।’’ ज्योत्सना को ध्यान आया कि वह अभी नव वधू है, ननद को नाराज करना ठीक नहीं। तेजी से दरवाजे की तरफ बढ़ती हुयी छोटी ननद का हाथ थाम लिया- अरे! रे ऽऽऽ मेरी प्यारी बीबीजी नाराज हो गयी। गालों को हथेलियों से थपथपाते हुए कहा- चलिए अभी तो आपको प्यारी-प्यारी चुड़ियाँ और नगों वाली बाली देनी है, जिसे आपने मेरे मेकअप बाक्स में पसन्द किया था। मंजू पिघल गयी। ननद-भौजाई चूड़ीकेश और मेकअप बाक्स में उलझी छेड़-छाड़ में मगन थीं कि नाऊन बुकवा लिए कमरे में दाखिल हुई- ‘‘चला हो दुलहिन तनी मीज देईं।’’ चटाई बिछाकर बैठ गई। ज्योत्सना को सरसों के उबटन से उबकाई आती थी। मई का महीना और तीन दिन पहले उसके घर की नाऊन के हाथों का पिसा हुआ बुकवा फुलहा कटोरे में लेकर नाऊन बैठी मुस्कुरा रही थी। मंजू भाभी के मनोभाव ताड़ गयी- ‘‘मुस्कुराते हुए भाभी से कहा- बुकवा तो यहीं लगेगा भाभी, रिवाज है, पाँच दिन तक नईहर का फिर सवा महीना ससुरे का बुकवा लगता है हमारे यहाँ बहुओं को, कोहनी से ढकेलते हुए भाभी से कहा- सोचती क्या है कूद जा मैदान में।’’ ज्योत्सना ने खीझते हुए कहा- मुझे सरसो के तेल से एलर्जी है। उसी क्षण चाची सास अपने साल भर के बेटे को गोंद में लिए आ धमकी- ‘‘क्या हुआ ओ नाऊन, कनियवा बुकवा लगवाने में निहोरा करवा रही है क्या?’’ नाऊन मुँह चमकाकर रह गयी। ज्योत्सना मुँह गिराकर चटाई पर बैठ गयी, नयी नवेली दुल्हन का यह व्यवहार शाम तक पूरे गाँव-जवार में फैल जायेगा जानती थी। माँ की बात याद आयी- ‘‘परजा-पसारी चार घर की घुमनी जीव होती हैं रंजू ससुराल में इनसे सम्भल कर व्यवहार करना, वरना अफवाह उड़ाते देर नहीं लगेगी।’’

ज्योत्सना ने पाँव की पाँच उंगलियां रूमाल सेपैर ढककर आगे बढ़ाया, चाची सास ने तपाक से लिहेड़ी लिया- ‘‘हे इनसे का लजाना, साले भर में नंगटे मिसाओगी। मंजु हा-हा-हा हँसने लगी। नाऊन ने पैर खींचा- ‘‘दा दुलहिन निम्मन से मीज देइं।’’ ज्योत्सना रूमाल दाबे सिर झुकाये बैठी रही। सास दूसरे बेला का मांग बहोरने आयी- ‘‘ऐ नाऊन चला जा- आपन माया जाल हटावा, मांग बहोरे के है। नाऊन हाथ में का बुकुवा छुड़ाकर उठ खड़ी हुई। पंडी बाबा के कब के कहे क है? बता देयीं त काल्ह कहत आईब। आज चार दिन हो गईल, पुजइया काल्हे होई न? ज्योत्सना की सास सिर का पल्ला ठीक करते हुए बोली- कुल पोवत करत चार त बजीए जाई- पाँच के हहु दिहा। और ज्योत्सना के आँचल में पाँच बड़े-बड़े लड्डू डाल कर सिन्होरा से सिन्दूर निकाल कर पूरा मांग पीला सिन्दूर भर गयी। गर्मी में इतना सिन्दूर देख ज्योत्सना रूआंसी हो जाती किन्तु ससुराल में नवेली दुल्हन का विरोध सम्भव नहीं था, इसलिए अन्दर ही अन्दर कुढ़ती रहती।

(2)
अगली सुबह नीम अंधेरे सास आकर जगा गयी, पूरे परिवार की औरतों की चहल-पहल सुनकर ज्योत्सना चौकन्नी हुई। याद आया आज ब्याह के पाँचवे दिन की पुजइया है जो सुबह पाँच बजे से शाम पाँच बजे तक चलेगी, सास शाम को ही समझा गयी थी। झट-पट नहा-धोकर तैयार हो गयी। मन रोमांचित था। आज कक्कन भी छूट जायेगा। चार दिन बाद हृदयेश को देखेगी, जिसने विदाई वाले दिन पूरे रास्ते यही समझाया कि जो भी माँ कहे करते जाना। महीने भर की बात है बाद में तो साल में एक बार छुट्टियों में गाँव आना होगा। कितना सहज और साल पुरुष है हृदयेश, उसकी हथेलियों को अपने हाथों में लेकर कितनी बार चूमा था उसने सफर में, सोच कर सिहर उठी।


ज्योत्सना एक बात सोच कर दंग थी किघर-भर के मर्द पूरे दिन आँगन-दुवार एक किए रहते, लेकिन हृदयेश की एक झलक भर उसे पिछले चार दिन में नहीं दिखी थी। गजब का शासन चलता था उसके सास का घर में, मजाल की कोई घर में उनका विरोध कर दे।सास कमरे में दाखिल हुई, पीछे-पीछे छोटी सास हाथ में आटे का फुलहा थाल लिए। सास ने आदेश दिया- ‘‘पाँच बार जय चमईया जी- जय चमईया जी बोल कर छू दो दुलहिन। ज्योत्सना को सुनने में भ्रम सा लगा- जी कौन मईया? ‘‘चमईया’’ सास ने तेज आवाज में कहा। ज्योत्सना आवाज कड़की समझ गयी। चुपचाप उच्चारण कर आँटा छू लिया। सास चली गयी। थोड़ी देर में बूढ़ी आजी सास बड़ी फुआ सास के साथ हाथ में फूल-बताशा, धार लिए आयी और वही आदेश दिया जो सास कह गयी थी। बारी-बारी घर भर की औरतें ऐसे ही कुछ-न-कुछ लेकर आतीं और जय चमईया, कहवा जाती। ज्योत्सना सोच में पड़ गयी। चमईया कौन है भला? मंजू मिलती तो उगलवा लेती या फिर हृदयेश से पूछती। अजीब, पेशोपेश में वह कमरे में साड़ी को आँचल का कोर तोड़ते मरोड़ते घूम रही थी की नाऊन पधारी।

‘‘आइये नाऊन, बैठिये।’’ नाऊन खुश होगयीं शहरी पढ़ी-लिखी बहू से आदर पाकर। चटाई बिछाकर बैठ गयी। आज पाँचवे दिन के कटोरे वाले बासी उबटन से मुक्ति का दिन था। नाऊन ने नेम पूरा किया और हँस कर कहा- कमासुध कनिया से का मिली? ज्योत्सना ताक में थी। पाँच सौ की कड़कती नोट पर्स से निकालकर नाऊन की हथेलियों में दबाकर रखते हुए कहा- अम्मा जी से मत बताइयेगा, नाराज होंगी। तीर निशाने पर लगा था, नाऊन फैल गयी। अरे बहिनी, इ तोहार सास त सछाते चण्डी हई, इनसे के कही? ज्योत्सना ने पूछा- चाची इ चमाईया कौन देवी हैं? नाऊन व्यंग्य से मुस्कुरा उठी। ऐ दुलहिन इ राज तोहरे हमरे पुरखन की पेट क राज है। जेके मरत घरी सास पतोह से बतावेले, अईसे ना। ज्योत्सना की जिज्ञासा प्रबल हुई। काहे? बहुत त ना जानी ऐ दुलहिन, बाकी ऐतना है कि कौनो चमाईन के तोहार पुरखा फसवले रहले, पुजइया लेले, नाहीं त वशे ना चले और उठ कर चल दी। ज्योत्सना सुनकर दंग रह गयी। हद है इतने शिक्षित परिवार में ऐसा ढ़ोंग।
(3)
दोपहर में पकवान बनने के बाद ज्योत्सनाको बड़ी ननद रसोई में ले गयी। सास निर्देश देती रही, ज्योत्सना ने कोरे चूल्हे पर कढ़ाई चढ़ाकर पाँच पूड़ी बनाया, थोड़ा सा हलवा नेम के लिए, पहली रसोई का भोग भी ‘‘चमईया’’ को पहले चढ़ता था। दो बजे हृदयेश और ज्योत्सना का नाऊन ने गठजोड़ किया, पति-पत्नी ने चार-दिन बाद एक दूसरे को कनखियों से निहार, छोटी चाची सास ने देख लिया- देखिये-देखिये बड़का बबुवा, आज इनके भोग का भी दिन है। ‘‘लड़कियाँ ठहाका मारकर हँस पड़ी, सास ने आँख तरेरा तो चाची सास चुप हो बैठ गयीं। औरतें लड़कियाँ गाती-बजाती भोग के सोलह थाल लेकर पैदल चल रही थीं। आगे-आगे नाऊन कपाट पर दौरी में पूजन का सामान अछत, फूल, सेन्दूर आदि लिए और सास भर लोटा धार लिए चल रही थीं। लड़कियाँ गा रही थीं- गोरा बदन नीली साड़ी ओ साड़ी वाली....।

ज्योत्सना नंगे पाँव कच्चे रास्ते पर चल रही थीं। जमीन तवे की तरह जल रही था। कोस भर चलने के बाद पति से पूछा, अभी कितना चलना है? बस, सामने वाली बारी में। ज्योत्सना ने पारदर्शी चादर में से देखा सामने घना आमों का बाग पोखरा और एक छोटा सा कमरे नुमा मन्दिर दिखाई दे रहा था।
औरतों का समूह पोखरे के पास बने चबूतरे पर सामान रखकर बैठ गयीं। सभी थक चुकी थीं। सास ने हृदयेश से पूछा- कै बजा? साढ़े तीन, अरे राम रे। ऐ छोटकी दुलहिन के बता रे पूजा का विधि हम पोखरे से पानी लेकर आते हैं, चार बजे पंडी जी कक्कन छोड़ाने और सतनरायन बाबा का कथा बाचने का आ जायेंगे। पाँच बजे तक निबट जाना चाहिए।


(4)
ज्योत्सना के ससुर चार भाईयों में सबसेबड़े थे, छोटा भाई हृदयेश से महज पाँच साल बड़ा था। परिवार में उनके त्याग के कारण सभी अदब-लेहाज करते थें। पत्नी परिवार को बाँधने की कला में माहिर थी सो चार भाईयों का संयुक्त परिवार चार गाँवों में मिसाल था। परिवार में बारह पुरुष, बलिष्ठ, गाड़ी-घोड़ा, छकड़ा से दुवार रज-गज। पुरखा जमींदार, सैकड़ों बीघे की खेती, प्रगतिशील किसान होने के कारण अन्न धन से घर भरा था। इस पीढ़ी में सबसे बड़े बेटे हृदयेश ने विश्वविद्यालय में प्राध्यापकी पाकर कुल परम्परा में चार चाँद लगा दिया था। लड़के बाहर बड़े शहरों में पढ़ने निकल चुके थे। लड़कियाँ घर की जीप से पास के शहर पढ़ने जाती थीं। हृदयेश के पिता पढ़े-लिखे प्रगतिशील विचारधारा के व्यक्ति थे इसलिए उच्च शिक्षित बेटे के लिए बहू भी उसी के टक्कर की खोज निकाला था, एक पैसा दहेज नहीं लिया, पक्के बनिया थे, लड़की कॉलेज में लेक्चर थी, अच्छा कमाती थी। दहेज न लेकर मुफ्त में वाह-वाही लूटकर प्रगतिशीलता पर मुहर पक्की कर गए।

मन में ‘‘चमईया’’ की पूजा को लेकरसशंकित थे, पत्नी को सख्त हिदायत दिया था जब तक बहू पुरानी नहीं हो जाती भेद नहीं खुलना चाहिए। चमईया की पुजइया में विशेष सतर्कता घर भर की औरतें बरत रही थीं। छोटी सास ज्योत्सना को मन्दिर के पिछवाड़े लेकर गयीं, हृदयेश ने गठजोड़ का गमछा उसके कन्धे पर रख दिया। चाची सास ने एक टीले पर बैठाकर धीरे से हाथ जोड़ कर ज्योत्सना से विनय के स्वर में कहा- ‘‘दुलहिन ये बड़ी कठिन पुजइया है, न करने पर चमईया डागर बजाते हुए गर्भ के समय आयेंगी और सोए में कोख काछ कर चली जायेंगी। ज्यादा कुपित हुई तो माँग भी धो सकती हैं। ये जो घर में तीन निपुती राड़ देख रही हो न बहू चमईया की पुजइया ठीक से न करने का परिणाम है। ज्योत्सना ने चाची सास का हाथ थाम लिए- ‘‘चाची जी आप ऐसे क्यों कह रही हैं? जो कुल परम्परा है उसे मानना मेरा धर्म है। आप पूजा की विधि बताइये। ऐसी कौन कठिन पूजा है जो मैं नहीं कर सकती। हँसते हुए गर्व से कहा- ‘‘बताइये-बताइये... मैं गोल्ड मेडलिस्ट हूँ। चाची सास ने लम्बी साँस छोड़कर मुस्कुराते हुए हाथ थामकर खड़ा किया। मन्दिर के पीछे का चोर दरवाजा खोलकर ज्योत्सना को आदेश दिया, दुलहिन ‘‘चमईया’’ की पूजा निर्वस्त्र होकर पति-पत्नी प्रथम मिलन के पहले करते हैं, बारी-बारी सोलहों भोग थाल का परसाद चढ़ाकर पिंडी को पीले सेन्दूर से पाँच बार टीककर लोटे में पोखरे का पानी वाला होगा धार घोलकर गिरा देना अगरबत्ती बार कर दिया जलाकर अढ़हूल का पाँच फूल चढ़ाकर कहना- ‘‘हे चमईया’’ हमने अपना सबकुछ उतारकर आपको दे दिया आप भोग लगाए तो हम पहने। और थोड़ी देर आँख मूंदकर हाथ जोड़कर खड़ी रहना फिर एक-एक थाल में तुम दोनों के लिए कोरे कपड़े रखे हैं, उठाकर पहन लेना और दरवाजा खोलकर बाहर आ जाना। ज्योत्सना को काठ मार गया। वह चीख पड़ी ‘‘आप पागल तो नहीं हो गयी हैं? नंगे ऽ ऽ ऽ, नंगे इनके सामने मैं सीधे जाकर खड़ी हो जाऊँ। हद है मूर्खता की, मुझसे ये नहीं होगा। छोटी सास भागते हुए ज्योत्सना के सास के पास पहुँची। जीजी नहीं मान रही। सास चिंतित हो उठी, डर पहले से था। बहू के पास आयी, ज्योत्सना सुबक-सुबक कर रो रही थी। सास ने पेट पकड़ लिए, बेटी नहीं किया तो इ कुल नाश देगी। हमार बहिनी इ विनती ह तोहसे, आँचल फैलाकर रोते हुए बहू से अनुनय करने लगी। ज्योत्सना पिघल गयी- नहीं अम्मा जी ये क्या कर रही हैं। हम आपके बच्चे हैं, आप पाँव छूकर पाप मत चढ़ाइये। सास का यत्न मारक था। रोते-धोते ज्योत्सना तैयार हो गयी। एक-एक कर सारे कपड़े उतार कमरे में दाखिल हुई, कमरा चूने की नई-नई पुताई से चमक रहा था। बीच में बड़ी सी मिट्टी की पिंडी बनी थी। कच्चे फर्श को गोबर से लीप-पोत कर चिकना किया गया था। चारों तरफ सोलह थाल करीने से रखे हुए था। जब तिवारियों के घर में बेटे का ब्याह होता था कमरा ऐसे ही चमकता था। बाकी दिनों में गाँव के मनचले आशिकों के आशिकी का अड्डा रहता। अब तो बाकायदा आस-पास के गाँव के मजनु-लैला, इतवार को चढ़ावा चढ़ाने लगे थे।

सास ने खट से दरवाजे की कुण्डीचढ़ाई। ज्योत्सना सहम गई, धम्म से घुटनों में मुँह छिपाकर बैठ गयी। चाची सास ने जूड़ा खोल दिया था, कोई बन्धन लेकर जाना वर्जित था। आगे के दरवाजे से हृदयेश अन्दर दाखिल हुआ। ज्योत्सना घुटनों में मुँह छिपाये दीवार के सहारे बैठी थी। लम्बे घने बाल शरीर पर आवरण का काम कर रहे थे। हृदयेश ने हाथ पकड़कर उठाने का प्रयास किया, जल्दी करो ज्योत्सना लेट हो रहा है। जितनी जल्दी करोगी इस यातना से उतनी जल्दी मुक्ति मिलेगी। ज्योत्सना पैरों से लिपट गयी। ये किस पाप की सजा है हृदयेश? वह रोये जा रही थी। इतने प्यारे रिश्ते की शुरूआत इस मानसिक यातना से क्यो? हृदयेश बैठ गया, उसकी आँखों से भी आँसू बह निकले थे। कोई फायदा इस तर्क-वितर्क का नहीं। मैं तुम्हे रात में सब बताता हूँ। प्लीज अभी इसे खतम करो। मैं आँखें बन्द करता हूँ। हृदयेश आँख बन्द कर वहीं दीवार की तरफ खड़ा हो गया, ज्योत्सना ने हिम्मत करके सभी निर्देश चाची सास के पूरा किया। अन्त में पेटीकोट गले तक बाँध कर पति से कहा अब आप माथा टेके मैं आँख बन्द करती हूँ। हृदयेश में गमछा उतार कर माथा टेका और फिर दोनों ने नए कपड़े पहनकर दरवाजा खोला। इस पूरी घटना से ज्योत्सना इतनी विचलित हो चुकी थी चलना दूभर था। छोटी चाची सास ने हाथ में कसकर पकड़ लिया। कच्चे रास्ते की जलती तपिश ने अब उसके अन्तस तक को झुलसाना शुरू कर दिया था। परम्पराओं के नाम पर दिये जाने वाले मानसिक यातना का यह सबसे बड़ा उदाहरण था ज्योत्सना के सामने, जिसने नव जीवन में प्रवेश से पूर्व ही एक अजीब घुटन भर दी थी। घर पहुँचते पहुँचते साढ़े चार बज चुके थे। दुवार पर मर्दों की चौपाल लगी थी। लकड़ी की हत्थ वाली कुर्सी पर पैर रखकर पंडी जी बैठे भागवत कथा का सार सुना रहे थे। बीच-बीच में घड़ी देख लेते और बेवा औरतों की ओर देखकर बड़बड़ाते- ‘‘इ मेहरारून का झमेला, कुच्छौ नहीं समझता, विलम्ब हो गया तो मुँह पिटाएंगी अपना।’’ नाऊन दौरी कपार पर लिए हाली-हाली भागी आ रही थी। पीछे-पीछे बड़की तिवराईन (ज्योत्सना की सास) हाफी-दाफी आती दिखीं तो पंडी जी कुर्सी पर से कूद कर खड़े हो गये- ‘‘का रे ऽ ऽ ऽ नऊनियाँ तोहूं के सिखवे पड़ी, टेम निकरे जात है और तोर चकल्लस अबही ले चलत बा।


नाऊन- अरे बाबा ऽऽऽ अरे बाबा ऽऽऽ बोलती हुई बरामदे की सीढ़ियां चढ़ती आंगन की ओर भागी। पंडित जी पीछे पीछे आंगन में चौक चन्दन पहले से पूरकर, कलशा और गणेश स्थापित देख पंडित जी मुस्कुराते, खैनी पीटते हुए- बोले वाह शेर मैदान मार लिए। चलो अब जल्दी निपट जायेगा। पंडि जी अपने आसन पर जम गये। उनके मुँह से केवल ऊँऽऽऽ का उच्चारण स्पष्ट सुनाई देता। बाकी मंत्र गले में घनघना कर रह जाता। तिवराइन को आवाज लगाया- वर-कन्या को बुलाइये। तभी आंगन में हृदयेश और पीछे लड़खड़ाते हुए ज्योत्सना चाची सास के साथ दाखिल हुयी औरतों ने ज्योत्सना को पकड़ कर चौक पर बिठाया। पंडी जी ने दोनों के कक्कन खोलकर सास को दिया और बँसवार में फेंकवाने का सख्त निर्देश दिया और कथा बाचने लगे। हर अध्याय के आरम्भ में केवल कलावती कन्या सुनाई देता बाकी अऽऽऽ हूँऽऽऽ हंऽऽऽ की ध्वनि के साथ लुप्त हो जाता नाऊन को उनके संस्कृत ज्ञान पर पूरा संदेह था छेड़ते हुए बोली- ए बाबा! तनी अरथ सहित बांचा कुछ बुझाते नइखे। पडी जी पिनक गये, बगल में पड़ी अपनी लाठी जमीन पर पीटते हुए चिल्लाये- ससुरी बिघन डालती है, जानती है, कुबेला हो रहा है, साली नीच जात, नीच बुद्धि नाऊन भी कम नहीं थी तमतमा उठी- ए बाबा जात पर त जइबे न करी नाही त अब्बे कुलआई माई उबेर देइला। मामला बिगड़ते देख हृदयेश ने हस्तक्षेप किया। पंडी जी खतम करिये पाँच मिनट बचा है। पंडी जी का अऽऽऽ हूँऽऽऽ हंऽऽऽ तेज हुआ। गौरी की सिन्दूर पूजा के बाद कथा सम्पन्न हुई। बड़की तिवराइन ने चैन की सास लेकर पूरब में सुरुज नरायन को आरती दिखा पूजा सम्पन्न होने की घोषणा की।
(6)
रात ग्यारह बजे हृदयेश कमरे में आया। ज्योत्सना के मन में प्रथम मिलन का रोमांच समाप्त हो चुका था। ननदों और चाची सास ने कमरे को सुगन्धित इत्र से इतना गमका दिया था कि उसे उबन हो रही थी। भारी बनारसी साड़ी और गहने उसे चुभ रहे थे। एक तरफ छोटे से मेज पर दो गिलास दूध, सूखे मेवे और मिठाईयां करीने से सजाकर रखे थे। हृदयेश ने दरवाजे की कुंडी बन्द कर दी। ज्योत्सना खिड़की के पास आकाश में उगे पूर्णिमा के चाँद को एकटक निहारते हुए सोच रही थी, पूर्णता भी कितना बड़ा भ्रम है। चाँद का एक दाग के साथ उगना और घटते बढ़ते लुप्त हो जाना। सही है ‘‘सब दिन रहत न एक समाना’’ का उदाहरण इस चाँद से बड़ा और क्या होगा। वह नाहक मुस्कुरा उठी हृदयेश ने उसे मुस्कुराता देख बाहों में भीच लिया। ज्योत्सना की तन्द्रा टूटी। एकदम से उसका मन कसैला हो गया। खुद को उसके मजबूत गिरफ्त से छुड़ाने की कोशिश की। हृदयेश ने उसके गालों पर चुम्बन देते हुए कहा- ‘‘अब इतनी क्या शर्म? सब तो ओपेन हो चुका है।’’ ज्योत्सना चीख पड़ी- बस करिये हृदयेश मुझे आपके साथ नार्मल होने में थोड़ा समय लगेगा। हृदयेश नर्वस हो गया। ‘‘अब क्या हुआ?’’ सब नार्मल तो है न? ज्योत्सना छिटकर दूर खड़ी हो गयी- ‘‘नहीं! सब एबनार्मल है, मुझे घुटन हो रही है, शायद मैं बेहोश हो जाऊंगी। हृदयेश ने दरवाजा खोल दिया, हाथ पकड़कर कहा- ‘‘चलो ऊपर छत पर, शायद खुले में कुछ राहत मिले, गरमी बहुत है, हाँ ये सब उतार कर कुछ हल्का पहन लो। इससे भी घुटन हो रही होगी।’’ ज्योत्सना ने पति से कहा- ‘‘आप चलिए! मैं आती हूँ।’’
(7)
ब्रह्मदेव तिवारी के बीघे भर फैले हुएपुस्तैनी मकान में चार भाईयों का परिवार रहता था। दो बीच के भाई क्रमशः एयरफोर्स में कार्यरत थे। छोटा यहीं प्राथमिक में मास्टर था। भाईयों की शादी भी बड़के तिवारी जी ने खूब ठोक-बजाकर कर दिया था। वहां भी दहेज के फेरे में न पड़कर घराना देखकर भाईयों को ब्याहा था। तीन भाईयों की शादी आस-पास के दबंग ब्राह्मणों के घर में किया। इसका परिणाम यह निकला कि बड़े से बड़ा अधिकारी, नेता दरवाजे पर सलामी लगाकर ही आगे बढ़ता। दूसरे नम्बर के भाई के ससुर विधायक, पिता के तर्ज पर दोनों साले भी राजनीति में कूदे और पार्टी बदल-बदल कर सत्ता में काबिज रहते। बस एक फोन मिलाया बड़के तिवारी ने कि थाना पुलिस हाजिर। तीसरे के ससुर इण्टर कॉलेज में प्रिंसपल, नकल कर सेंटर बना अकूत धन कमाया। रिटायर होने पर खुद ही स्कूल, कॉलेज खोल लिया। आज के दिन वे इलाके के मदन मोहन मालवीय थे। चौथा पढ़ने में होनहार था, इलाहाबाद तैयारी को भेजा लेकिन वहां जाकर वामपंथ और साहित्य में रम गया। बड़के तिवारी को पांच साल बाद भाई के रंग-ढंग का पता तब चला, जब अखबार के साहित्यक पृष्ठ पर उनकी क्रांतिकारी कविता छपी मिली। पढ़ते हुए कान खड़े हो गये- लिखते हैं-
मुझे तोड़नी है,
बनी बनाई पुरातन की वज्र वह दीवार
जो तुम्हारे और मेरे बीच
खड़ी की गयी थी
उस दिन जब तुम गाँव के दक्खिन में
और मैं पूरब में जन्म ले रहा था
जब तुम्हारे मुँह में
सभ्यता की काली स्याही से
अक्षर अक्षर कालिमा के नियम
दूध में घोलकर
पिलाया जा रहा था
और मुझे आंगन में
चौक, चन्दन, पूर
सोने के कलश पर
सूरज की अरुणिमा का
चन्दन लगाकर
चाँदी की कटोरी में
चाँदी के सिक्के से
अन्न प्राशन के नाम पर
चटाया जा रहा था
प्रिये!
मुझे गिरानी है
पुरातन की वज्र दीवार,
तुम्हारे लिए,
जोड़कर अधूरे सम्बन्धों की डोर
तुम्हारे दक्खिन से
अपने पूरब तक।

सरपट पत्नी से सतुआ-पिसान लिए पहलीट्रेन से इलाहाबाद भागे। हाथपैर जोड़कर माँ की अस्वस्थता का हवाला देकर घर लाए। अनुभवी ब्राह्मण मानसिकता ताड़कर बाण छोड़ता है। माँ को समझा-बुझाकर तैयार किया। व्याह का दबाव बनाने लगे। दो बार घर छोड़कर भागे। अन्तिम ब्रह्मास्त्र छोड़ा बड़के तिवारी ने। जोरदार हार्ट अटैक का सन्देश भाई के यहाँ भेज अस्पताल में भर्ती हो गये। पिता तुल्य भाई के हार्ट अटैक की खबर सुन छोटके तिवारी गिरते-पड़ते घर भागे। डाक्टर रिश्तेदार थे, एकांत में ले जाकर समझाया तनाव इनके लिए जानलेवा हो सकता है। बेचारे छोटके तिवारी फंस गये और रोते-रोते ब्याह के बंधन में बंध गये।पहले क्रांतिकारी प्रेम का भूत पूरी तरह माथे पर चढ़ा हुआ जानकर बड़के तिवारी ने इस बार न घर देखा, न घराना। इलाके की सबसे खूबसूरत ब्राह्मण कन्या घर लायी गयी। अल्हड़ गाँव की लड़की, किसी तरह नकल से बी.ए. पास किया था। पिता को रिश्ता घर बैठे मिला तो इलाके भर मूसरन डोल बजा-बजा कर ऐलान किया, हमारी बेटी तिवारीपुर के तिवारियों में जा रही है। स्त्री के देह का सौन्दर्य पुरुष की सबसे बड़ी कमजोरी है, पत्नी का सौन्दर्य सारे क्रांति पर भारी पड़ा और छोटके तिवारी का वामपंथ छू मंतर हो गया।


(8)
आधी रात को गुलाबी शिफॉन कीखूबसुरत नाइटी में ज्योत्सना छत पर पहुँची, हृदयेश ने आकाश के चांद को आंख मारते हुए कहा- ‘‘तुम्हारी ज्योत्सना मेरे पास है।’’ दोनों कुछ छड़ एक दूसरे को एकटक निहारते रहे। गोरा रंग, गोल चेहरे पर काली बड़ी-बड़ी आँखें। उसे याद आया जब आजी उसे पहली बार देख कर आयी थी, कहते नहीं अघाती थीं- ‘‘बाबू चनरमा अइसन गोल मुँह पर आम के फाक नियर बड़-बड़ आँख अउर तोता के ठोर नियर नाक, टह-टह लाल ओठ और पीठ पर धौल जमाते हुए कहती अउरी गावे ले ए बाबू एकदम कोइलिया नियर।’’ ज्योत्सना ने ननद के आग्रह पर मीरा का भजन सुनाया- ‘‘पायो जी मैंने राम रतन धन पायो।’’
हृदयेश ने उसके होठों को चूमने का प्रयास किया तो ज्योत्सना छिटककर भागने लगी। बड़े से सुनसान छत पर मियाँ-बीबी एक दूसरे के साथ भागा-भागी खेलने लगे। थककर हँसते-हँसते लोटपोट हुए जा रहे थे- ‘‘बाप रे धाविका पत्नी पहली रात में इतना दौड़ायेगी पता नहीं था।’’ ज्योत्सना ने कहा- ‘‘हृदयेश! एक बात पूंछू?’’ हाँ क्यों नहीं।....
आप भौतिकी के ही प्राध्यापक हैं न?
आफकोर्स, व्हाई नाट।
तुम्हें आशंका क्यों?
‘‘कमाल करते हैं, इतनी मूर्खतापूर्ण परम्परा का निर्वहन पूरे मनोयोग से करते देख।’’ ज्योत्सना ने व्यंग्य से मुस्कुराते हुए कहा- बात ठस्स से दिमाग में धस गयी। बना बनाया रोमैंटिक मूड उखड़ गया।

‘‘विवशता है।’’ हृदयेश का चेहरा क्रोधसे खींच गया। जिसे छिपाने की उसकी कोशिश नाकाम रही।
दूसरा सवाल उससे भी घातक था। ‘‘सुना है आप डी.यू. में आइसा के पदाधिकारी थे और अभी प्रलेस के पदाधिकारी हैं। मैंने आपके कई वैचारिक लेख हंस जैसी बड़ी पत्रिकाओं में पढ़े हैं। आश्चर्य होता है समाज की रुढ़ परम्पराओं, जातिय व्यस्था का खण्डन करने वाला युवक ऐसी यातनापूर्ण कुल परम्परा का न केवल पालन करता है बल्कि पत्नी को भी मानने के लिए विवश करता है।’’ज्योत्सना पूरे आवेग में थी। ‘‘जिन बुराईयों का आपको पुरजोर खण्डन करना चाहिए उसके प्रति यह अन्ध आस्था क्यों?’’ हृदयेश बगलें झांकने लगा, कोई मजबूत उत्तर न दे सका तो कुतर्क करने लगा।देखों! ज्योत्सना। कुछ बातें मानसिक तौर पर इस कदर हमसे जुड़ी रहती हैं कि हम उसे मानने के लिए विवश हो जाते हैं। इस पूजा से मेरी माँ मनोवैज्ञानिक तौर पर जुड़ी है और एक अजीब संयोग भी है कि जिन लोगों ने इसे मानने से इनकार किया उन सब का सफाया हो गया। अब न मानने का कोई विकल्प नहीं बचता मेरे पास।ज्योत्सना को हंसी आ गयी- ‘‘यह भौतिकी का प्राध्यापक कह रहा है, आई डोंट बिलिव, ह्वाट अ-नॉनसेंस जोक।’’

हृदयेश चिढ़ गया- ‘‘तुम्हें इतनी उलझनक्यों हो रही है, कर्मकाण्डी आचार्य चन्द्रसेन शास्त्री की बेटी कुल परम्पराओं के निर्वहन पर सवाल खड़े कर रही है।’’ कंधे उचका कर कहा- ‘‘घोर आश्चर्य तो मुझे हो रहा है।’’
हृदयेश हाथ से पकड़ी हुई रेलिंग की ओर पीठकर ज्योत्सना की तरफ खड़ा अंधेरे शून्य में निहार रहा था।
पति की कोई प्रतिक्रिया न पाकर ज्योत्सना ने पास जाकर कहा- ‘‘वैदिक संस्कृति में पितृसत्ता की साजिशें विषय पर शोध किया है मैंने।’’हृदयेश झट से बोला- ‘‘पितृसत्ता की साजिशें? तुम्हें शीर्षक किसने दिया?’’
जब तर्क मजबूत होते हैं आपके तो रास्ते रोकने का साहस किसी में नहीं होता। ज्योत्सना के होठों पर दृढ़ता की मधुर मुस्कान थी।हृदयेश मुस्कुरा उठा- ‘‘तो तुम्हें वैदिक नियम स्त्रियों के पक्ष में घोर षड़यंत्र लगते हैं?’’
‘‘बिल्कुल’’- ज्योत्सना ने दृढ़ता से कहा।फिर तो तुम नास्तिक हो। हृदयेश में व्यंग्यपूर्ण मुस्कान में लपेटकर तीर छोड़ा। मना क्यों नहीं कर दिया माँ को पूजा से। कहां थी तुम्हारी वैचारिकी डाक्टर ज्योत्सना उस वक्त?
ज्योत्सना आहत हुई, पुरुष स्त्री के आधुनिकता बोध या वैचारिक होने को किस रूप में ग्रहण करता है वह अच्छी तरह से जानती थी। हृदयेश अपनी गलती छिपाने के लिए उसे घेर रहा था। उसे समझते देर न लगी कि अब उसका जूता उसी के सर है।

‘‘डाक्टर साहब स्त्री का आस्तिक या नास्तिक होना यहाँ प्रासंगिक नहीं है, प्रसंग एक विकृत परम्परा को जबरन ढोने का है।’’ ज्योत्सना ने पूरी ताकत झोककर कहा। पति के आँखों में आक्रोश चांदनी रात के धवल प्रकाश में स्पष्ट दिखाई दे रहा था। एक पराजित पुरुष कितना आक्रामक हो सकता है उसके आँखों की लालिमा में साफ-साफ देखा जा सकता था।‘‘ज्योत्सना तुम्हें नहीं लगता कि तुम हमारे मधुर रिश्ते की नींव कटुता की कटीली पृष्ठभूमि पर रख रही हो। ज्योत्सना ने खुद को संयत करते हुए कहा- ‘‘आप नहीं समझेंगे हृदयेश!’’ हमारी संस्कृति में पुरुष का पौरुष कठोरता के प्रदर्शन में निहित है लेकिन स्त्री जिसे प्राकृतिक तौर पर आपने कोमलांगी घोषित कर रखा है । सब कुछ सुकोमल चाहती है वह चाहती है पुरुष उसे फूल की नाजुक पंखुड़ियों से स्पर्श करे और आप जैसे पुरुषों ने स्त्री को सभ्यता के पिंजरे में कैद खूबसूरत परिन्दा ही माना। पुरुष शिकारी की दृष्टि से देखता है नारी देह को और उसके लिए केवल देह है। व्यक्ति मानने का साहस अभी तक हमारे समाज में मर्दो में नहीं है।’’ उसके चेहरे पर घृणा के भाव स्पष्ट उभर आये थे‘‘बाप रे बाप!’’ तो आप स्त्रीवादी हैं? हृदयेश ने भयभीत होने का अभिनय किया।‘‘नहीं केवल मनुष्य। जिसे प्रकृति ने वाचिक तौर पर प्रतिरोध करने की क्षमता से नवाजा है।’’ ज्योसना ने घृणा से दाँत पीसते हुए कहा।

पूरब में शुक्र ग्रह उग आया था। सप्त ऋषिऔर शुकउवा कासे देखकर हृदयेश ने झल्लाते हुए कहा- ‘‘भोर हो गयी, जीवन की सबसे मधुर रात इतनी कड़वी होगी मुझे पता नहीं था।’’
‘‘पवित्र रिश्ते की पृष्ठभूमि भयंकर मानसिक यातना के साथ आरम्भ हो तो उसका हश्र यही होता है हृदयेश!’’ ज्योत्सना रुआसी हो गयी ‘‘मुझे थोड़ा वक्त दें आपके साथ सहज होने में मुझे थोड़ा वक्त लगेगा।’’ कहते-कहते वह रो पड़ी।हृदयेश से ज्योत्सना का रोना नहीं देखा गया। स्त्री के आंसू में बड़ी ताकत होती है। बड़े से बड़े चट्टान पुरुष को पिघलाने की क्षमता से लैस। हृदयेश ज्योत्सना को सीने से लगाकर पुचकारने लगा।
‘‘अरे यार! मैं तो गुस्से में यह सब कह गया। रही बात वक्त की तो जानेमन, अब पूरा जीवन तुम्हारा है जब तक चाहो इंतजार करा लो।’’ दोनों की आंखें मिली। सजल स्नेहिल कंपकपाते होठों से हृदयेश ने ज्योत्सना के होठों को चूम लिया। ज्योत्सना ने शर्माकर पति के सीने में चेहरा छिपा लिया।
हृदयेश ने कहा- ‘‘क्या हुआ? आखिर मैं तुम्हारा पति हूं वैसे भी हमारे बीच कोई पर्दा नहीं फिर उस क्षण को लेकर इतना विचलन ठीक नहीं ज्योत्सना।ज्योत्सना ने उसी मधुरता से उत्तर दिया- ‘‘जानती हूं लेकिन जो पर्दा अपनी स्वीकृति के साथ पूरी सजगता से उठना चाहिए था वह मेरे जीवन में भयंकर दुर्घटना बनकर आया हृदयेश! मैं घोर मानसिक पीड़ा से गुजर रही हूं। थोड़ा वक्त दें प्लीज।

दोनों का वाक्युद्ध पूरी रात चलता रहा, भोर की लालिमा पूरब में छिटकने लगी। सास बहू को जगाने कमरे में पहुंची। कमरे में दोनों को न पाकर शंका हुई कि कहीं गर्मी के कारण दोनों छत पर न सो रहे हों। जल्दी जल्दी सीढ़ियां चढ़ती हुई छत पर पहुँची। माँ को देख हृदयेश ने पत्नी को झट से बाहों से अलग किया। ज्योत्सना तुरन्त नीचे भागी। माँ ने बहू को नाइटी में देख बेटे को आँखों ही आँखों में बहुत कुछ सुनाया। हृदयेश ने सर झुकाकर आगे ऐसा न करने का आश्वासन दिया।
(9)
ब्याह के पन्द्रह दिन बीत गये। बड़ी मानमनउल्ल के बाद मुश्किल से दो बार पति पत्नी एक हुए थे। ज्योत्सना पति की सहजता सरलता और संयम पर मुग्ध हुई जा रही थी। गाड़ी पटरी पर लौट रही थी। दोनों बड़े चाचा ससुर अपने परिवार को लेकर नौकरी पर लौट चुके थे। घर में तीन बेवा वृद्ध औरतें छोटे चाचा सुसर-सास, सास ससुर के अतिरिक्त छोटी ननद मंजू और साल भर का चचेरा देवर बिट्टू रह गये थे। बड़ी ननद को हफ्ते भर बाद ही ससुराल वाले विदा कराकर ले गये थे। हृदयेश दो बहन एक भाई में सबसे बड़ा था। चाचा का हमजोली होने के कारण उनसे वह मित्रवत व्यवहार रखता था। वह उनसे इतना प्रभावित था कि उनके कहने पर कुएं में कूद सकता था। अल्हड़ गाँव की लड़की चाची भी उसके साथ देवरों सा हास-परिहास करती थीं। बड़की तिवराइन आँखों की आँखों में देवरानी को समय-समय पर सीमाओं का ज्ञान कराती रहती। आवश्यकता पड़ने पर जबान भी चलाती।



भरे पूरे परिवार में कमकरिन बर्तन चौका केलिए, महराज रसोई बनाने के लिए, तथा दरवाजे पर तीन नौकर झाड़ू बटोरू के लिए, गोरु चउवा की देखभाल के लिए और इसके अतिरिक्त चुनमुन यादव बड़के तिवारी के व्यक्तिगत ड्राइवर कम बॉडीगार्ड अधिक थे। पिस्टल टांगकर लकदक सफेद शर्ट, पैंट और स्पोर्ट शूज में पूरे माफिया लगते। आगे-आगे मूछों पर ताव दिये सभा पंचायतों में बड़के तिवारी चलते पीछे-पीछे पिस्टल पर हाथ फेरते चुनमुन यादव। दोनों की जोड़ी इलाके में सरनाम थी। ज्योत्सना ने घर में अच्छी पैठ बना ली। तीनों आजी सासों का पैरा दबा देती बाल झाड़ती, सिन्दूर बिन्दी लगाकर पैर छूती। बड़की तिवराइन संस्कारी बहू पाकर धन्य हुई।

ज्योत्सना छोटी सास से घुल मिल गयी, दोनों घंटों बातें करती, साथ खाती-पीती, बिल्कुल सहेलियों की तरह। धीरे-धीरे आपसी दुःख-सुख भी बांटने लगीं। ज्योत्सना विज्ञान पढ़ना चाहती थी, पिता ने कुल परम्परा के अनुसार जबरन संस्कृत पढ़ने को विवश किया। जिसका गहरा क्षोभ उसके मन में था। वह अपने विद्रोह से पितृ सत्ता को जड़ से उखाड़ फेकना चाहती थी। चाची सास की खूबसूरती ने उन्हें घर में इस कदर कैद कर लिया था कि वह बाहर की दुनिया का विकास स्कूल, अस्पताल, डाकखाने से ज्यादा नहीं जानती थी। दबाकर रखने का परिणाम यह हुआ कि वह बात-बेबात अनायास हंसती और किसी को बिना सोचे समझे कुछ कहतीं।
ज्योत्सना पिता को कोसती, वह समाज को। एक दिन ज्योत्सना ने पूछा- ‘‘चाची जी आप चमईया माई की पूजा करते असहज नहीं हुई थीं?’’

काहे की असहजता बहिनी, देहियें न देखेगी छिनरी, कोठरी में घूसकर उसके कपार पर टांग पसारकर खड़ी हो गयी। साया उठा दिया और गाने लगी देखो-देखो चमईया हमार सुतुही देखो और ठठाकर हँसते हँसते लोट-पोट हो गयी। और चाचा जी? ज्योत्सना पूछते वक्त फटी आँखों से चाची सास को एकटक देख रही थी, ऊ तो कोने में खड़े होकर मूत रहे थे। हमने तो कह दिया। देखो जी हम साया नहीं उतारेंगे, खाली साया में आपकी भाभी ने अन्दर आने दिया आप आंख मूने नहीं तो हम समनवे पहिन लेंगे, फिर यह न कहियेगा की बड़ी निर्लज है।’’ फिर? ज्योत्सना अवाक थी।फिर क्या इन्होंने आंख मूंद लिया, मैंने कपड़ा पहिना सामान चढ़ाया और निकल गयी। इ देखो, साल भितरे की देन है, पलंग पर गोल मटोल बच्चा निश्चिंत सोया था। ज्योत्सना का दिमाग घूम गया। उफ्फ ये गाँव की औरत भी इतनी समझदार निकली और मैं संसार की सबसे बड़ी मूर्ख जिसे ये सब नहीं सूझा। उसे अपने ऊपर गहरा क्षोभ हुआ जी में आया सिर दीवार पर दे मारे।
(10)

मई में शादी हुई और जुलाई में दो माह गाँव रह कर हृदयेश और ज्योत्सना दिल्ली लौट आये। महानगर की जीवन शैली और व्यस्त दिनचर्या में पिछले दिनों का गम जाता रहा। हृदयेश और ज्योत्सना दोनों अभी बच्चा नहीं चाहते थे। सास हर महीने फोन कर कोई नई बात का सवाल दागती और ज्योत्सना टाल जाती। सास को चिन्ता हुई पढ़ी-लिखी आधुनिक खयालों वाली शहरी लड़की ने लगता है पूजा में कोई कमी कर दी है। पति से चिन्ता जाहिर कर रोने लगी। एक अज्ञात भय ने दंपति को घेर लिया।क्वार का महीना, जाड़े ने अपना असर दिखाना शुरु कर दिया था। शाम होते ही बुर्जुग ओढ़ना-बिछावन डाल बिस्तर में दुबक कर बैठ जाते। एक शाम बड़के तिवारी शहर से लौटकर संध्या वंदन कर दुवार पर आराम कुर्सी पर आँख बन्द कर कुछ मंथन करने में लीन थे। बड़की तिवराईन एक चुरुआ ठण्डा तेल पति के कपार पर डाल, सिर दबाने लगीं। दस मिनट तक पत्नी की आवाज न सुनकर बड़के तिवारी को आश्चर्य हुआ। ऐसे समय पर वह अक्सर पूरे घर की रिपोर्ट देती। ज्यादातर छोटे भाई की छोटके तिवारी पूरे विद्रोही, आज कल खुलेआम मांस मछली खाने लगे थे। तिवारी कुर्सी छोड़कर खड़े हो गये, क्या बात है हृदय की अम्मा, तुम्हारा इतना मौन मुझे अखर जाता है। कोई तो चिन्ता का विषय अवश्य है तुम्हारे मन में बड़की तिवराईन ने पति को सजल आँखों से देखा, ‘‘सुनिये जी छः महीने बीत गया और बहू ने अभी तक खुशखबरी नहीं दी, मेरा जी घबराता है। ना जाने क्या होने वाला है। पति के हथेलियों को पकड़कर आँखों में आंखें डालकर कहा- ‘‘हमको दिल्ली जाना है। बड़के तिवारी ने तुरन्त स्वीकृति दी। ठीक है चलो तुम्हे देश की राजधानी दिखाते हैं, तुम भी क्या याद रखोगी।

हफ्तेभर बाद का टिकट मिला, हृदयेशको फोन से खबर कर दिया गया। ज्योत्सना ने जिंस-कुर्ते, टाउजर, टाप सब आलमारी में छिपा दिया। रात में सोते वक्त हृदयेश से कहा- ‘‘अम्मा-पिताजी कब तक रहेंगे? हृदयेश कोई किताब पढ़ रहा था- सुनकर हँस पड़ा। जानेमन घबड़ा गयी? अभी वो आये नहीं और आपने जाने का हाल पूछ लिया।’’ ज्योत्सना झेप गयी। मेरा मतलब ये नहीं था, अब गाँव की तरह यहाँ तो दस नौकर-चाकर है नहीं, और अम्माजी ठहरी पूरी कर्मकांडी, सब कैसे मैनेज होगा? सोच रही हूँ और एक बात ध्यान रखना, चेतावनी देते हुए कहा- ‘‘अण्डे-आमलेट का फरमान मत देना उनके सामने गलती से भी वरना मेरा छुवा जीते-जी नहीं खायेंगे। ज्योत्सना के चेहरे से चिन्ता साफ झलक रही थी।सास आई, हफ्ते भर रहकर हिदायते देतें, डाक्टर को दिखाते-सुनाते दिल्ली घूमकर चली गयीं। स्टेशन पर रोते हुए बेटे से वचन लिया छुट्टी होते घर चले आना। छुट्टियों में ज्योत्सना मायके जाना चाहती थी लेकिन हृदयेश तैयार नहीं हुआ। कई दिनों तक पति-पत्नी में शीत युद्ध चलता रहा। अन्त में हृदयेश ने समझौता करते हुए कहा- ‘‘अपने पिता से कहो घर आकर ले जायें विदा कराकर।’’ ज्योत्सना मान गयी, कोई चारा नहीं था। दिल्ली से बनारस के लिए ट्रेन रवाना हुई, स्टेशन पर बड़के तिवारी बुलैरो लिए पहले से खड़े थे। बेटे-बहू को देखकर हर्षित हुए, मिलने-मिलाने, हाल-चाल के बाद गाड़ी तिवारीपुर की ओर चल पड़ी। रास्ते भर पिता-पुत्र पूरे गाँव का हाल-चाल, देश-प्रदेश की राजनीति का गाँव पर प्रभाव आदि विषयों पर चर्चा करते रहें। अबकी गर्मी में किन-किन के घर में लगन है और कितना दान-दहेज मिल रहा है पर बड़के तिवारी विशेष रस लेकर बतियाते। ज्योत्सना सर झुकाये दोनों की बातें सुनती और मन ही मन पति को बनारस की सड़कों से गुजरते हुए कोसती, नैहर के रास्ते से गुजर रही थी, हृदयेश ने खबर तक करने को सख्त मना किया था। ‘‘तुम्हारे माँ-बाप का ड्रामा स्टेशन पर ही चालू हो जायेगा, आकर घर से ले जायें समझी। हमारे घर की बहुयें बिना दिन रखे विदा नहीं होती।
(11)
गाँव का नैसर्गिक वातावरण ज्योत्सना को बचपन से लुभाता रहा है। दुवार पर पूरा खानदान जमा था, गाड़ी रुकते ही छोटी ननद मंजू भागकर जल्दी से गाड़ी खोलकर भाभी के पाँव छूकर सामान निकालने में भाई की मदद करने लगी। बड़की तिवराईन ने भर लोटा धार से बेटे-बहू को ओईछ कर नजर उतारा। बहू को पकड़कर अन्दर ले गयीं। टोले भर की औरतें और लड़कियों का हुजूम आंगन में उमड़ा देख ज्योत्सना सहम गयी। सफर की थकान से शरीर टूटा जा रहा था। चाची सास गले मिलीं और बारी-बारी सभी बड़ी-बुर्जुग महिलाओं के पैर छुलाया। लड़कियों ने भाभी को छेड़ा, ‘‘अकेले आयी भाभी, हम तो सोच रहे थे भतीजे का नेग लेंगे।’’ बड़की तिवराईन का दिल बैठ गया। चाची सास ज्योत्सना को भीड़ से निकालकर कमरे में ले गयीं।
‘‘जाओ नहा-धोकर आराम करो, शाम को बतियाते हैंऔर आंख दबाकर खिलखिला उठीं। ज्योत्सना को छोटी चाची की खिलखिलाहट बड़ी प्यारी लगती थी। औरतों का खिलखिलाकर हँसना कितना दुभर है, जानती थी। याद आया मायके में माँ कभी खुलकर हँसने नहीं देती थी। बड़े भाई तो कई बार हाथ तक बचपन में चला देते थे। वह हँसना चाहती थी कई बार छोटी चाची की तरह खिलखिलाकर, स्वच्छन्द हँसी।

महीना भर बीत गया, मई-जून में विदाईकी कोई तिथि नहीं मिली, सास दुखी मन से हृदयेश से कह गयीं- ‘‘स्टेशन पर माँ-बाप से मिला देते तो बहू को दुख न होता।’’ हृदयेश को भी दुख हुआ, पिता-भाई तो कई-बार दिल्ली आकर मिल गये थे, लेकिन माँ से मिले ज्योत्सना को पूरा एक साल हो गया था। वह घंटों रोती रही। एक दिन ज्योत्सना बड़की आजी का पैर दबा रही थी, आजी खुश हो गयीं, खूब दूध-पूत का आशीष दे अपनी कोठरी में ले गयीं। काठ के पुराने सन्दूक को खोलकर एक छोटा सा नक्कासीदार बक्सा निकाला, बक्सा गहनों से भरा था। दो मोटे-मोटे पछुऐ उसके हाथ में रख पहना दिया, तुम्हारी कलाईयां वैसी ही गोल-मटोल है बहू, जैसे जवानी में मेरी थी। आँखों से झर-झर आंखू बहने लगा। ज्योत्सना उनके कष्ट को समझ सकती थी। भरे यौवन में वैध्वय कितना बड़ा अभिशाप है उसने बनारस के विधवा आश्रमों, घाटों आदि पर भटकती, भीख मांगती विधवाओं के जीवन में बहुत नजदीक से देखा था शोध कार्य के दौरान।

आजी मौन थी ये ‘चमईया’ और इसकी अन्धभक्ति घर में क्यों होती है? ज्योत्सना ने बड़ी मासूमियत से पूछा। आजी ने संयत होकर कहा बताती हूँ तुम्हें, और काठ के सन्दूक से सास की जनानी वंशावली निकालकर बैठ गयीं- ‘‘हमारे पुरखों में एक थे जटाशंकर बाबा, बड़े विद्वान, बलिष्ठ और सुन्दर। गाँव की जमींदारी राजा साहब से शास्त्रार्थ में जीतने के कारण इनाम में मिला था। घोड़े से गाँव-गाँव घूमते आसासियों का दुख-दर्द पूछते, सूखा पड़ने पर किसानों का लगान राजा को अपने खजाने से देते। न्यायप्रिय और दयालु थे। बाबा के जीवन में सब कुछ ठीक चल रहा था कि एक दिन भोरे राजा का बुलावा आया, घोड़े से चल दिये, सूनसान रास्ते में एक जगह घोड़ा अड़ गया, बड़ी कोशिश करते रहे, लेकिन घोड़ा टस से मस न होता। बेचारे सिर पर हाथ रख पास के बगीचे में जा बैठे दिन चढ़ आया था, भूख-प्यास से बेहाल, बाग में कुँआ तो था, लेकिन लोटा डोर नहीं। बाबा ने सोचा अब जीवन समाप्त। बेचारे ईश्वर को याद कर रोने लगे, तभी एक बूढ़ी औरत अपनी जवान बेटी के साथ लोटा-डोर लिए आई,
बाबा गिरते-पड़ते पहुँचे। बूढ़ी औरत ने कहा- आप बड़ मनई बुझाते हैं, हमारे हाथ का छुआ पियेंगे। बाबा ने हाथ जोड़ विनय किया, जीवन मिले तो सोचेंगे। बुढ़िया ने बेटी को इशारा किया। लड़की भर लोटा पानी लिए आई और मुस्कुराते हुए बाबा को पिलाने लगी। लड़की दिव्य सुन्दरी थी, बाबा मुग्ध हो गये। अक्सर बाग से गुजरने लगे। लड़की और उनका मेल-जोल बढ़ा तो बुढ़िया की झोपड़ी तक पहुँचे। बुढ़िया को कुजात छांट जात वालों ने गाँव निकाला दे रखा था, विधवा औरत जवान बेटी के साथ विराने में झोपड़ी डाल रहती थी। कहते हैं- ‘‘इतनी बड़ी डाईन थी कि उड़ती चिड़िया का पंख बांध देती थी।’’ धीरे-धीरे मड़ई अटारी में बदल गयी। गर्भ रहता तो बुढ़िया मार कर गिरा देती। लड़की महीने शोक मनाती फिर पुराने ढर्रे पर लौट आती। आखिरी गर्भ माँ से छिपा ले गई। जब-तक पेट उभरा पाँच माह हो चुके थे। माँ ने जहर खा लिया। लड़की बाबा के दरवाजे पर आकर बैठ गयी। बाबा का तीनों त्रिलोक घूम गया। समझा-बुझा कर वापस किया, अगले पूरे दिन साथ रहे, सोचते रहे कैसे मुक्ति मिले? आखिरकार अपने विश्वासपात्र नौकर को आदेश दिया, हाथ-पैर बाँध के पोखरे में बोर दो और ब्रह्महत्या से मुक्ति के लिए चार धाम को निकल गये।

इधर बाबा के चार भाईयों में तीन कीपत्नियों को गर्भ था। आधी रात को डग्गर बजाते सपने में आयी और पेट काछ के चली गयी। सबेरे तक घर-आँगन खूने-खून। क्या बतायें बिटिया पुरनिया (आजी सास) कहती थी, लगा खूँट नसा गया। साल भर बाद बाबा लौटे तो दरवाजे पर सियापा छा गया था। देवी प्रकोप से बारी-बारी तीन जवान बेवा औरते घर में दहाड़ रही थी। पत्नी बेटी को छाती से साटे पास आने से डरती। बाबा ने देस-देस के पण्डितों को दिखाया। कोई फायदा नहीं। पण्डा, मौलवी, पीर, मजार सब एक किया लेकिन जस का तस सब बना रहा। इसी बीच किसी ने एक ओझा का पता दिया ओझा बुलाया गया। गजब हो गया बहिनी- ‘‘ओझा बकने लगा, गर्भ के साथ चमईनिया डोला रही है।’’ बाबा ने उपाय पूछा- ‘‘ओझा बोला- वंश-दर-वंश पुजइया लेगी महराज। चौरी मांग रही हैं। हिस्सा मांग रही है।’’ कोई चारा नहीं था- बाबा मान गये- उसकी कोठी ओझा को दे बारी वाले पोखरे के पास चौरी बन्हा दिया। पत्नी गर्भ से हुई, नौ माह पर जुड़वा बेटे हुए। ओझा आ धमका, पूजन दें महराज! नहीं तो छोड़ेगी नहीं, जनम-विवाह सब पर। पत्नी हाथ जोड़ विनती करने लगी, देंगे क्या मांगती है? ओझा ने उसकी मांग सबको सुनाई, पैदाइस पर उसका मन्दिर, विवाह पर वर-बहू नंगे जेवनार, गहना, कपड़ा चढ़ा कर पाँचवें दिन साथ रहें, तभी वंश चलेगा।

मन्दिर के नाम पर बाबा ने एक कोठरीबनवा दी। पत्नी ने चार बेटों को जनमा लेकिन आगे बेटों ने चमईया को पूजा देने से मना कर दिया। देखते ही देखते तीन बेटे मर गये। छोटा बेटा बारह का था जल्दी-जल्दी ब्याह कर पुजइया दिलाया। वंश इसी से आगे बढ़ा। इनके भी चार बेटे हुए, ये हमारे पति थे। बड़के भाई माँ की बात मानकर सब करते गये। हमारे पति पढ़े-लिखे होने के कारण नहीं माने। नतीजा देख रही हो। ‘चमईया’ बड़ी जगता हैं। कह कर फफक-फफक कर रोने लगीं। ज्योत्सना पूरी कहानी ध्यान से सुन रही थी। अजीब संयोग जुड़ा था वंशावली की कहानी से। एक तरफ छोटी चाची सास तो दूसरी तरफ आजी सास का वृतांत। माथा घूम गया, अब समझ आया उसे कि बच्चा पैदा करना बेहद जरुरी है वरना सास पागल हो जायेगी। साल भर बाद ज्योत्सना ने बेटे को जन्म दिया। सास ने अंग्रेजी बाबा बजवा कर ‘चमईया’ को कांची-पाकी मसाला चढ़ाया, बड़के तिवारी ने बारह गाँव के ब्राह्मणों को महाभोज दिया।


कुल परम्परा चलती रही। शादी केपन्द्रह साल बीत गये। ज्योत्सना अब दो सुन्दर बेटों की माँ थी। सास खुशी से मुसरन ढोल बजातीं। चाची सास भी अब तक दो बेटों की माँ बन चुकी थी। जिस कुल में तीन पीढ़ियों से एक खूँट पर वंश बेल आगे बढ़ती थी वहाँ अब चारों भाईयों की वंश वृद्धि हो रही थी। ज्योत्सना हर साल छुट्टियों में घर आती, रास्ते में ‘चमईया का मन्दिर’ देख सभी गाड़ी में बैठे-बैठे हाथ जोड़ते। देखते ही देखते इन पन्द्रह सालों में ‘चमईया’ की महिमा पूरे इलाके में फैल गयी, तिवारीपुर के तिवारियों की कुल देवी ‘चमईया’ की कृपा से दरवाजे पर हंस लोटता है। सावन में आस-पास की औरतें कढ़ाई चढ़ाने लगीं। प्रेमी मन्नत का धागा बाँधने लगे। कोठरी भव्य मन्दिर में बदल गया। चुनमुन यादव के संरक्षण में हाट-बाजार सजने लगा। ‘चमईया’ के गीतों के कैसेट से बाजार पट गया।

ज्योत्सना के बाद सबसे पहले बड़ेचाचा ससुर के बेटे का ब्याह हुआ। पति-पत्नी दोनों डाक्टर बहू को कुल परम्परा के अनुसार चमईया की पूजन विधि बताने की बारी आई। मन्दिर के पिछवाड़े वाले चोर दरवाजे पर नवेली दुल्हन को ले जाकर ज्योत्सना ने वही निर्देश दिया जो छोटी चाची ने किया। लड़की आवाक मुँह ताकने लगी। पुजइया हो गयी। साल भर बाद बहू ने बेटे को जन्म दिया। घर में एक बार फिर शहनाई बजी। कुल की परम्परा वंशावली में दर्ज हुई, बहुओं के शादी के पहले साल में बच्चा जनमना अनिवार्य है नहीं तो चमईया कुपित हो जायेंगी और बहुओं की कुल परम्परा में चमईया की पूजा का मंत्र वाक्य बना- ‘‘देखो देखो चमईया हमार सुतुही।’’
नोट : जातिसूचक शब्दों का प्रयोग यथार्थ के सन्दर्भ से है, लेखिका की उनसे कोई सहमति नहीं है 

सुनंदा का दरवाजा

प्रो.परिमळा अंबेकर
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हिन्दी विभाग , गुलबर्गा वि वि, कर्नाटक में प्राध्यापिका और विभागाध्यक्ष . आलोचना और कहानी लेखन  संपर्क:09480226677

आशी..... आशी.... । अश्विनी केकमरे का अधभिडा दरवाजा खोलकर सुनंदा हडबडा कर भीतर गयी। उसकी पुकार कमरे की चाहरदीवारी से टकराकर लौट आयी। कमरे के कोने में पडा खाली सुनसान बिस्तर जैसे उसेे चिढा रहा था। सुनंदा पैर से सर तक सुन्न !! खाली बिस्तर.... खाली कमरा... !! उसके  दिल की धड..धड धडक.....खाली कमरे को भरने लगा। अंतडियों को मरोडकर निकली चीख उसके गले में आकर अटक गयी।  आगे बढकर बिस्तर का हत्था पकडे-पकडे सुनंदा बैठ गयी! आशी... आशी.... शब्द उसके सूखे जर्द होंटों पर बुदबदाने लगे। कल शाम से ही एक अजीब सा डर, जो काला चद्दर बनकर उसके मन और बुद्धी को ढापे ढापे चल रहा था , आज दिन के उजाले में वही डर सुनंदा के सामने नंगा होकर नाच रहा था। आज उसकी आशी.... उसके दरवाजे को लांघकर चली गयी थी .. !!

आये हर रिश्ते को नकारती बेटीअश्विनी सुनंदा के सामने पहाड बनकर खडी थी।  जो न चढते बनता... न उतरते बनता। आये दिन एक अजीब किरचन उसके मन में वक्त बेवक्त किरकते जाती... जैसे गहरे पानी के नीचे कोई  खंजर हिल रहा हो ..!! सुनंदा नहीं चाहती थी कि कोई ऐसा दरवाजा वह खोले जिसके बाहर के सच को देखने के लिए , मजबूर न हो जाय , वह विवश न हो जाय !! लेकिन कल पिंकी से खुली बात ने  जैसे सुनंदा के पैर की जमीन ही हिला डाली। शाम से पिंकी की आवाज तलवार बनकर लटक रही थी उसके सर पर । ‘‘ अव्वा...आशक्का... शादी नहीं करती, बोलती है।‘‘ सुनंदा को लगा जैसे सांस लेना मुश्किल हो रहा हो। सांस जैसे फेफडे में ही घुमडने लगा है। पिंकी फिर बोल पडी थी। ‘‘ अव्वा.... अक्का... आॅफिस के अपन बाॅस के साथ .... ‘‘  पिंकी रूक रूककर बोलते जा रही थी, लेकिन सुनंदा के कान बजने  लगे। ‘‘ आशक्का का वह बाॅस... अव्वा जात से  .... !!  पिंकी की धुनीधुनी आवाज उसके कान के परदे पर फडफडाने लगी... कटे परों की गौरया की तर।  पिंकी के चेहरे को टकटकी बांधे देखती खडी रह गयी सुनंदा।
 
सुनंदा की शादी हुये आज को बीस-बाइस बरस हो गये। एक दो साल के अंतराल में सुनंदा तीन बच्चों की माॅं बन गयी। पहली दो बेटियाॅं पीठ पर पीठ आ गयी थीं। हर बुरा होने और गलत घटने के पीछे बहू का दोष दिखानेवाली उसकी सांस जैसे सुनंदा के गले पर सवार हो गयी।  न कोई मंदिर रहा होगा, न कोई टेकडी बची होगी, जहाॅं सुनंदा  ने अपनी  मिन्नत का आॅंचल न पसारा हो। तीसरी बार जब उसकी गोदभरी तो बेटा नसीब हआ उसे। उसे लगा अब सारी मुश्किलें दूर हो गयीं। लेकिन उसकी  नसीब में मुश्किलें तो घर के मकडी के जालें थीं, जितना साफ करे उतना फैलें। सुनंदा अपढ ,अपने बच्चों के भविष्य की चिंता में सूखी जा रही थी। अवराद से शहर कलबुर्गि का फासला बस आधे घंटे का था। वह चाहती कलबुर्गि में घर बसाये । लेकिन, खेतीबाडी का घर, घर  पर बीमार ससूर, केवल पीता.. बतियाता.. रहता पति... , घर के सदस्यों की किटपिट !! विवश थी सुनंदा। मन को मनवाने के लिये उसे एक बहाना मिलगया जो काफी था ... उस छोटे से गाॅंव में सरकारी हाईस्कूल जो बसा हुआ था.

उसकी शादी अजीब सी शादी थी।तब वह रही होगी उन्नीस बीस बरस की। शांत, स्वभाव से मर्जीखोर। सबकी  मर्जी रखती। यहाॅं तक कि उसकी शादी भी उसके इस मर्जीखोर स्वभाव का बस एक नमूना रहा था। बडी दीदी मंगला की शादी हुई । अपनी हैसियत से भी बढकर शादी बनायी थी माॅं और बाबूजी ने। लडका गाॅंव का, खानदान देखी पहेचानी....सबकुछ ठीक- ठाक रहा।  लेकिन, कौन जाने, कहर इस कदर टूटेगा। आठ महीने का बच्चा पेट में और इधर मंगला ने आॅंखे मूॅंद ली !! गाॅंव वाले पीठ पीछे बात भी बनाने लगे । मंगला के पति और ससुराल का दोष गिनाया जाने लगा। लेकिन गाॅंव की यादाश्त की आयु भला होती कितनी है ? मौत के मातम पर शहनायी के सुर चढने में देर नही लगी ....!! अपने विधुर बेटे के लिये बहू का हाथ मांगने फिर से आ धमके ससुराल वाले। मंगला न रही तो क्या छोटी सुनंदा ही सही। दहेज का जोर नहीं... शादी का खर्चा नहीं... फिर से कर्जे का टंटा नहीं ..!! घर आया रिश्ता ठुकराया  कैसे जाय ...? और सुनंदा के लिये ... ? आखिर माॅं और बाबूजी की मान मर्जी ठहरी ... !! कभी कभी सुनंदा को लगता, कितनी सरल और सहजता से पूछ लिया था माॅं ने उससे या उससे पूछने का केवल रस्म अदायगी हुई थी ?  न कोई अचकचाहट , न दुविधा !! ना कैसे कर सकती थी  सुनंदा। मर्जीखोर सुनंदा ... !! लेकिन ... उसकी मर्जी का क्या ... ? किसी ने नहीं पूछा... किसी ने नहीं जाना। जरूरी भी नहीं समझा.... !! लेकिन..... ? लेकिन क्या ? कुछ लेकिन उत्तर के मोहताज नहीं होते है... बस नहीं होते !



लेकिन... फिर वही,  लेकिन उसकेसामने आज फिर अलग रूपोंअंदाज में उठ  खडा हुआ था। जिसका उत्तर अब खुद सुनंदा को देना था. पिंकी की बातें उसको भीतर तक हिलाकर रख दिये थे । शाम से वह जड खोदे पौधे की तरह मुरझा गयी थी । एक ही आवाज उसके सामने गूॅंजे जा रहा था। आखिर वह शहर आयी क्यूॅं ..? सुनंदा को लगा जैसे जीवन भर घिसा उसका चंदन मोरी में बहे जा रहा है। सास -ससूर के न रहने पर सुनंदा ने पति को बच्चों के भविष्य का वास्ता देकर कलबुर्गि ले आयी थी। सबकुछ पटरी पर बैठ ही रहा  था. लेकिन... पति के व्यसनों भरा बेतरतीब जिंदगी के चलते वह बच्चों का ब्याह तक नहीं कर सका। विधवा सुनंदा, एक साल तक घर से बाहर निकलने से कतराती रही। झूठे पति का सच्चा शोक मनाती रही। यह सब कबतक चलता ? आशी के लिये लडका ढूॅंढना  है , पिंकी की पढायी,  अमित की इंजिनियरिंग सीठ की चिंता।
         
रात घिरने लगा था। आशी के कमरे की ओर जाते सुनंदा के कदम में कील गडे जा रहे थे। दूसरों की मर्जी जीती आयी सुनंदा, अपनी मर्जी को माॅंगने के लिए अपने आप से लड रही थी !! अपनी शादी के लिये तो उसने ऐसे सर हिला दिया था जैसे मदारी का बंदर !! भीतर से किवाड को बंद कर लिया। धीरे से सरकते हुए उसके पैरों के पास जाकर बैठ गयी। झट उसके पैरों को अपने हाथों में ले लिया। अनायास उसके होंठ हिलने लगे , वह बडबडाने लगी  - ‘‘आशी मै तमाम जिंदगी  दूसरों के पैर पडते ही आयी हूॅं, आज तेरा ही सही ... कल सुबह दस बजे लडकेवाले आ रहे हैं, अमित उन्हे लेने जा रहा है। जरा सोच ले बेटा... ‘‘  बेटी के उत्तर को सुनने का धैर्य उस समय उसमें नहीं  था। झट कमरे से बाहर निकल आ गयी थी सुनंदा !!
2
उस दिन सुबह सुबह .....झुककररंगोली की लकीरें खीचती सुनंदा ने आहट पाकर सर उठाकर देखा, सामने आशी खडी थी !! बगल में बच्ची भी ... । झुकी कमर को हाथ का सहारा दिया, और सीधे खडी हो गयी वह। एक पल बस देखती ही रही। पीछे किसी और के आने की आहट की कल्पना से झांककर देखा। पर वहाॅं कोई नहीं था। एक लंबे निश्वास की गर्मी एक अजीब हॅंसी बनकर उसके होटों पर तैर गयी। आशी के आॅंखों का रूखापन उससे बहुत कुछ कह रहा था। लेकिन बदले में सुनने का धैर्य आज भी सुनंदा में नहीं रहा था। उसेे लगा .... बीस साल पहले उससे बिछुडी दीदी मंगला और उसका बच्चा आज फिर उसके सामने आकर खडे हैं। अंतराल की आग से सूखीं उसकी आॅंखें फिर से नम हो गयीं। रंगोली की लकीरों के इसपार खडी सुनंदा की दोनों बाहें धीरे -धीरे उपर उठकर सामने की ओर पसर  गये  !!
3
साहबान.... कदरदान.... देखा आपने... नहीं नहीं सुना आपने... यह है कहानी दरवाजे  की... सुनंदा के घर के दरवाजे की.... जो कभी बंद नहीं हुई ... पराये बने अपनों के लिये भी नहीं !! उस्ताद हाॅं में हामी भरते ही, फिर से मदारी जोर- जोर से ऐलान करने लगा !! सायबान यह दरवाज्जा काठ के पटों के जोडन से या.. लोहे के पतरों के ठोकन से नहीं बना है..... । उस्ताद प्रश्न किया ... बोल मदारी, तो यह दरवाजा  बना कैसे ..? अपने उस्ताद के प्रश्न से और उत्साहित हुआ मदारी , गले का बलगम साफकर , हाथ की लकडी को नचाते हुवे कहने लगा ‘‘ सुनिये उस्ताद ... और सुनिये सब सायबानों ... अपने जिगर के पट्टों को चीरकर ... कीले से ठोंककर बनाया है सुनंदा ने ...इस दरवाजे को !! कोठरी  की अंधियारे को गलाकर, उजाले की रंगत चढाया है इसपर ... और ... उस्ताद... इसपर जडी है कुंडी.... कुंडी पर ताला... लेकिन यह ताला तो ऐसा ताला है कदरदान ... जो हर किसी की चाबी से खुले ... !!


बंबई पवई के हीरानंदानी गार्डेन्सके सामने मदारी का खेल पूरे रंगत को चढा था। उस्ताद ने फिर सवाल किया  ‘‘... बोल मदारी ऐसे दरवाजे कहाॅं मिलेंगे ... क्या सुनंदा जैसे लोग बनाते है इन्हें या सरकार की कोरट कचहरी में बनते हैं ऐसे दरवाजे.. मदारी.. ऐसे दरवाजे बनाने के लिये कहता कौन है ? उस्ताद के तरकश से सीधे आते सवालों को देख मदारी सर खुजाने लगा ‘‘ अरे.. यह क्या ...? उस्ताद का यह सवाल तो खेल के पिलान में नहीं  था ? उस्ताद मुझे फसाना चाहता है .. ?  बना बनाया खेल बिगडता देखकर मदारी चट् गडे बंबू उखाडने लगा ... और उस्ताद की ओर घूरते हुए चलता बना।

औरतें - क़िस्त चौथी ( स्पैनिश कहानियां )



एदुआर्दो गालेआनो / अनुवादक : पी. कुमार  मंगलम 

अनुवादक का नोट 

“Mujeres” (Women-औरतें) 2015 में आई थी। यहाँ गालेआनो की अलग-अलग किताबों और उनकी लेखनी के वो हिस्से शामिल किए गए जो औरतों की कहानी सुनाते हैं। उन औरतों की, जो इतिहास में जानी गईं और ज्यादातर उनकी भी जिनका प्रचलित इतिहास में जिक्र नहीं आता।  इन्हें  जो चीज जोड़ती है वह यह है कि  इन सब ने अपने समय और स्थिति में अपने लिए निर्धारित भूमिकाओं को कई तरह से नामंजूर किया।

दुनिया सिकुडती जाती है

आज मातृभाषाओं का दिन है.हरदो हफ्ते पर एक भाषा मर जाती है.यह दुनिया और सिमट जाती है, जब वह अपने कुछ इंसानी लफ्जों और मुहावरों को खो देती है, उसी तरह जैसे वह पौधों और जीवों की विविधता के रंगों को खो रही है.आन्खेला लोइज ने 1974 में इस दुनिया को विदा कहा. वह दक्षिण अमरीका या कहें दुनिया के ही आखिरी छोर पर बसे Tierra del Fuego (तिएर्रा देल फुएगो-आग़ की जमीन) में रह रहे ओनास मूलवासियों के आख़िरी लोगों में से थीं. और अपनी जबान बोलने वाली आख़िरी इंसान भी.
आन्खेला अकेले ही गाया करती थीं. वह ये गीत किसी के लिए भी नहीं गाती थीं. उस जबान में जो अब किसी को याद नहीं थी.मैं उनके निशानों पर चलती जाती हूँ, जो अब रहे नहीं, चले गए हैं मैं भूली-बिसरी गुमनाम-सी हूँ अब
अपने गुजरे दिनों में ओनास लोग कई देवी-देवताओं को पूजते थे. सबसे प्रमुख देवता Pemaulk (पेमौल्क) कहलाता था.पेमौल्क का मतलब “शब्द” था!


मोहतरमा जो तीन सदियों की गवाह बनीं

एलिस 1686 में एक गुलाम के रूपमें जन्मी थीं और एक सौ सोलह साल की उम्र में एक गुलाम ही मरीं.
1802 में उनकी मृत्यु के साथ अमरीका में अफ्रीकी लोगों की याद का एक हिस्सा भी मर गया था. एलिस को न पढ़ना आता था न लिखना, लेकिन वह उन कई आवाजों से भरी हुई थीं, जो दूर से आई दास्तानों तथा पास की जिन्दगी के किस्सों-इतिहासों को सुनाया और गाया करती थीं. इनमें से कुछ कहानियाँ उन गुलामों की सुनाई होतीं जिन्हें भागने में एलिस मदद किया करती थीं.नब्बे की होने पर उनकी आँखों की रोशनी जाती रही.
एक सौ दो आते आते रोशनी वापस आ गई थी.-यह ईश्वर था- एलिस ने कहा. वह मुझे कभी निराश नहीं करता.
उन्हें सब फेरी डंक्स वाली एलिस बुलाया करते. अपने मालिक के हुक्म पर वह उस ferry (यानी नाव) पर काम करती थीं जो यात्रियों को डेलावेयर नदी के इस पार से उस पार ले आया-ले जाया करती. जब सवारी, जो हमेशा गोर होते थे, इस जर्जर बुढ़िया का मजाक उड़ाती तब वह उन्हें नदी के दूसरे छोर पर छोड़ आया करतीं. वे चिल्ला-चिल्लाकर उन्हें वापस बुलाया करते, लेकिन कहीं कोई सुनवाई नहीं थी. वह जो कभी अंधी रही थी, आखिर बहरी जो थी.  


मूलवासियों का दिन

रिगोबेर्ता मेंचू ग्वातेमाला में जन्मी थीं. स्पेनी आक्रमणकारी पेद्रो दे आल्वारादो की ‘विजय’ के चार सौ सालों बाद. अमरीकी राष्ट्रपति द्वाईट आइजनावर की ‘विजय’ के चार साल के बाद.
1982 में जब सेना ने माया आदिवासी लोगों की पहाड़ियों को उजाड़ा तब रिगोबेर्ता के करीब–करीब पूरे परिवार को मार डाला गया था. उनका वह कस्बा भी नक़्शे से गायब कर दिया गया जहाँ नन्ही रिगोबेर्ता की नाभीनाल गड़ी थी ताकि उसकी जड़ें जमीन में गहरे फैल सकें.दस साल बाद उन्हें शान्ति का नोबेल मिला. रिगोबेर्ता ने कहा:-हालाँकि यह पाँच सौ सालों की देरी से आया है, मैं इस पुरस्कार को माया लोगों के लिए आदर और सम्मान कीतरह स्वीकार करती हूँ.माया लोग सचमुच धैर्य का समाज हैं. वे पाँच सौ सालों का कत्लेआम झेलकर आज भी खड़े हैं.वे जानते हैं कि समय मकड़ी की तरह धीरे-धीरे बुनता है.

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फ्लोरेंस

दुनिया की सबसे मशहूर नर्स फ्लोरेंस नाइटिंगेल ने नब्बे साल की अपनी जिन्दगी का बड़ा हिस्सा भारत को दिया था. वह, हालाँकि, कभी उस मुल्क को नहीं जा पाईं जिसे वह प्यार करती थीं.
फ्लोरेंस खुद बीमार हो गई थीं. क्रीमिया के युद्ध में उन्हें छूत की एक असाध्य बीमारी ने आ घेरा था. तब, हालाँकि, लन्दन के अपने कमरे से ही कितने ही लेख और चिट्ठियों के जरिए वह भारत की सच्चाइयाँ ब्रिटिश जनमत के सामने ला रही थीं.भुखमरी पर ब्रिटिश साम्राज्य की असंवेदनशीलता:
फ्रांस-प्रसिया के मुकाबले पाँच गुना ज्यादा लोगों की मौत. किसी को कोई खबर नहीं. हमने उड़ीसा की भुखमरी पर कुछ नहीं कहा, जब एक-तिहाई आबादी को वहाँ के खेत-मैदानों को अपनी हड्डियों से सफ़ेद कर देने पर मजबूर किया गया.
गावों में संपत्ति का बँटवारा:
यहाँ तो तम्बूरा बजने के लिए खुद ही रकम अदा करता है. एक गरीब किसान हर वो काम करने की रकम अदा करता है, जो वह खुद करता है या जिसे जमींदार खुद न कर उससे करवाता है.
भारत में अंग्रेजी न्याय:
हमें बताया जाता है कि गरीब किसान को अंग्रेजी न्याय का सहारा हासिल है. ऐसा कुछ नहीं है. कोई भी इंसान वह रखने का दावा नहीं कर सकता जिसका वह इस्तेमाल नहीं कर सकता.
गरीबों का सब्र
किसान-विद्रोह पूरे भारत के लिए एक आम बात बन सकते हैं. कोई भी यह दावा नहीं कर सकता कि ये लाखों भारतीय, जो अभी खामोश हैं और सब्र रखे हुए हैं वे हमेशा ऐसे रहेंगे. एक दिन गूंगे बोलेंगे और बहरों को सुनना होगा.

लेखक के बारे में

एदुआर्दो गालेआनो (3 सितंबर, 1940-13 अप्रैल, 2015, उरुग्वे) अभी के सबसे पढ़े जाने वाले लातीनी अमरीकी लेखकों में शुमार किये जाते हैं। साप्ताहिक समाजवादी अखबार  एल सोल  (सूर्य) के लिये कार्टून बनाने से शुरु हुआ उनका लेखन अपने देश के समाजवादी युवा संगठन  से गहरे जुड़ाव के साथ-साथ चला। राजनीतिक संगठन से इतर भी कायम संवाद से विविध जनसरोकारों को उजागर करना उनके लेखन की खास विशेषता रही है। यह 1971 में आई उनकी किताब लास बेनास आबिएर्तास दे अमेरिका लातिना (लातीनी अमरीका की खुली धमनियां) से सबसे पहली बार  जाहिर हुआ। यह किताब कोलंबस के वंशजों की  ‘नई दुनिया’  में चले दमन, लूट और विनाश का बेबाक खुलासा है। साथ ही,18 वीं सदी की शुरुआत में  यहां बने ‘आज़ाद’ देशों में भी जारी रहे इस सिलसिले का दस्तावेज़ भी। खुशहाली के सपने का पीछा करते-करते क्रुरतम तानाशाहीयों के चपेट में आया तब का लातीनी अमरीका ‘लास बेनास..’ में खुद को देख रहा था। यह अकारण नहीं है कि 1973 में उरुग्वे और 1976 में अर्जेंटीना में काबिज हुई सैन्य तानाशाहीयों ने इसे प्रतिबंधित करने के साथ-साथ गालेआनो को ‘खतरनाक’ लोगों की फेहरिस्त में रखा था। लेखन और व्यापक जनसरोकारों के संवाद के अपने अनुभव को साझा करते गालेआनो इस बात पर जोर देते हैं कि "लिखना यूं ही नहीं होता बल्कि इसने कईयों को बहुत गहरे प्रभावित किया है"।


अनुवादक का परिचय : पी. कुमार. मंगलम  जवाहर लाल नेहरु विश्विद्यालय से लातिनी अमरीकी साहित्य में रिसर्च कर रहे हैं .  

क्रमशः



पीड़ाजन्य अनुभव और डा आंबेडकर का स्त्रीवाद

डा. भीम राम आंबेडकर के स्त्रीवादी सरोकारों की ओर, क़िस्त तीन
शर्मिला रेगे की किताब  'अगेंस्ट द मैडनेस ऑफ़ मनु : बी आर आम्बेडकर्स राइटिंग ऑन ब्रैहम्निकल  पैट्रीआर्की'की भूमिका का अनुवाद हम धारावाहिक प्रकाशित कर रहे हैं. मूल अंग्रेजी से अनुवाद डा. अनुपमा गुप्ता  ने  किया है.  इस किताब को स्त्रीकाल द्वारा  सावित्रीबाई  फुले  वैचारिकी  सम्मान, 2015 से  सम्मानित किया  गया  था. 

1910-1950 के बीच लिखी गई मराठीस्त्रियों की आत्म कथाओं में इस सख्यभावी विवाह के कई अलग-अलग विवरण मिलते हैं, जाति का जिक्र बहुत कम होता है और यदि होता भी है तो इस तरह जैसे यह शब्द किन्हीं और लोगों के लिये इस्तेमाल किया जाता हो, जैसे मिलों में काम करने वाली, सब्जी बेचने वाली या फिर अतीत में जन्मी स्त्रियों के लिये. इस तरह जेण्डर और आधुनिकता पर मुखर हुए लेखन ने ब्राह्मण  स्त्रियों की सह अपराधिता को वर्ग-अधिकारों और  ब्राह्मण पितृसत्ता के पीछे छुपा दिया और इन स्त्रियों को परम्परा से संघर्षरत और आधुनिकाओं के रूप में स्थापित कर दिया. गैर दलित स्त्रीवादी भी अपने वर्ग की इस विखंडित आधुनिकता से अछूते नहीं रह सके. उन्होंने आंबेडकर की जिंदगी में सख्य-भावी विवाह के अभाव को ‘पत्नी’ की बजाये‘समुदाय’ को प्राथमिकता देने से जोड़ा और इसलिये स्त्रियों  के मुद्दे को टालने का इलजाम उन पर लगा दिया गया, उन्हें पर्याप्त रूप से स्त्रीवादी न मानने की यही वजह बना ली गई.

इसके उलट,आंबेडकर  ने आधुनिकता की एक ऐसी अवधारणा दी, जिसमें नये पश्चिमी विचारों तथा भारतीय इतिहास की समता व शान्तिकारक भौतिक परम्पराओं, जैसे बौद्व धर्म, को आपस में जोड़ दिया गया. ऐसा उन्होंने जाति आधारित शोषण को रेखांकित करके, वर्ण व्यवस्था को नकार कर और जाति के खात्मे को समतावादी समाज की ओर एक मात्र रास्ते की तरह वकालत करके किया. हिन्दू आध्यात्म के केंद्रीय मूल्यों का पुनः परीक्षण करते हुए वे एक नये भारतीय ज्ञानोदय के अग्रदूत बने. जाति और जेण्डर की नई संहिता की तथा आधुनिकता के क्रांतिकारी मायनों की बात की गई. कतिपय विद्वानों ने भारत की राजनीतिक आधुनिकता के इस रचनाकार्य को कलमबद्व किाय है जिसमें आंबेडकर ने जहां आभार प्रदर्शन की भाषा का विरोध करना सिखाया, जाति की श्रेणी बद्वधता में समाहित नकारात्मक अधिकारों की पोल खोली तथा स्वाभिमान, समता व अधिकारों की नई भाषा इजाद की. उर्मिला पवार व मीनाक्षी मून के आंबेडकरी  स्त्रियों पर शोध ने जाति-विरोधी आधुनिकता के निर्माण में दलित स्त्रियों के योगदान को पुन: स्थापित किया है. हालांकि अभी हमें इस दिशा में शोध की और भी ज्यादा जरूरत है कि किस तरह सार्वजनिक/निजी अवधारणा के जेण्डरीकृत आदर्शों और व्यवहारों ने वैकिल्पक आधुनिकताओं को रचने में मदद की. इन्होंने राजनीतिक/सामाजिक, उपनिवेशी/राष्ट्रीय, भारतीय परंपरा//पश्चिमी आधुनिकता और समुदाय/देश के द्वैतों से कहीं आगे जाने की कोशिश की. उदाहरण के लिये आंबेडकरी  प्रति समुदायों में उथल-पुथल के चलते तथा राष्ट्र व जाति के बीच द्वंद के कारण वैवाहिक संबंधों और गृहस्थी के सामने क्या परिवर्तन  गये थे? या किस तरह ब्राह्मण जाति के लिये पैदा हुई चुनौतियों ने ‘कुनबे’ की अवधारणाओं से जुड़े सिद्वांतों पर सवाल उठाये, क्या थोपे गये व चुने गये रिश्तों में द्वंद पैदा हुआ? सामूहिक सरोकारों के समन्वय ने क्या ‘नवीन’ गृहस्थियों और सामाजिकता को जन्म दिया? उपनिवेशी भारत में राष्ट्रीय व जाति विरोधी आंदोलनों के नेताओं की जीवनियों व आत्मकथाओं के तुलनात्मक अध्ययन से उस प्रक्रिया को समझने में काफी मदद मिल सकती है जिसने विभिन्न सामाजिक हलकों में निजी व सार्वजनिक की भिन्न-भिन्न पहलचान की परिभाषित किया.
अकादमिक क्षेत्र में जीवनी और इतिहास के बीच संबंध धीरे-धीरे गंभीर अध्ययन का विषय बनता गया है जिसके दो केंद्र बिन्दु थे.

जहां ‘महान नेताओं’ जैसे गांधी, नेहरू, सर्वपल्ली राधाकृष्णन कीजीवनियों व आत्मकथाओं को गंभीरता से लिया गया, वहीं इस राष्ट्रीय कुलीन वर्ग के ध्येयों से मतभेद रखने वाले राजनीतिज्ञों को नजरअंदाज किया गया. आंबेडकर के जीवनीकार गेल आमवेट ने रेखांकित किया है कि किस तरह उनकी भिन्न जातीय पृष्ठभूमि ने उनके राजनीतिक लक्ष्यों को प्रभावित किया. ‘‘चौदहवें बच्चे को जन्म देते समय उनकी मां की असमय मृत्यु, चैदह भाई-बहनों में सिर्फ सात का बच पाना, परिवार के भरण-पोषण के लिये मजदूरी करते समय बड़े भाई की मौत, उनके स्वयं के पांच में से चार बच्चों की अकाल मृत्यु....... ये अनुभव राष्ट्रीय कुलीनों के अनुभवों से बहुत अलग थे.’’ आमवेट ने नेहरू और गांधी के राष्ट्र के लिये त्याग के चयन को उनके परिवारों के आरामदेह रहन-सहन के बरक्स रखा है. इसके विपरीत आंबेडकर  की गृहस्थी को जीविका के लिये आर्थिक संघर्ष करना पड़ा. आंबेडकर  तथा गांधी-नेहरू के जीवन में अंतर का कारण आमवेट ने जाति और अस्पृश्यता के अनुभवों को बताया है. वे तर्क देती हैंः-



आंबेडकर  ने एक भारतीय और उपनिवेशी होने के नाते कुछ भेदभाव जरूर रखा था और इसलिये वे अपनी राष्ट्रीयता को अभिव्यक्त कर पाये. लेकिन ये अनुभव उनके अछूत होने के नाते सहे गये भेदभावों की तुलना में बहुत छोटे थे.... अलग पांत में बैठने को मजबूर किया जाना, अपनी पसंद के पाठयक्रमों में अध्ययन न कर पाना, दूसरे छात्रों द्वारा प्रताड़ित किया जाना, गरिमापूर्वक रहने व कार्य करने की जगह न ढूंढ़ पाना, इन सब अनुभवों को घोर व्यक्तिगत अपमान की तरह आंका गया न कि समाज में लंबे समय से चलने आ रहे जाने समझे अपेक्षित व्यहार की तरह. इन अनुभवों नेआंबेडकर  को जीवन के हर क्षेत्र में जातिगत भेदभाव को पहचानना सिखा दिया.
और इस भेदभाव की जननी अस्पृश्यता और ब्राह्मणवादी  ताकतों ने उनके लेखन व राजनीति को नकार दिया तो क्या आश्चर्य?मध्यम तथा प्रभुत्व संपन्न वर्ग के जीवन चरित ‘उन दिनों’ और ‘इन दिनों’ के युग्म से आकार लेते हैं, जिनमें एक आदर्श अतीत का बखान है. इसके विपरीत शोषित जातियों में जीवनी लेखन का काम सिर्फ इसी कारण स्थापित रखा जा सकता है कि ‘उन दिनों’ के शोषण व अपमान को ‘इन दिनों’ के स्वाभिमान समता और अधिकारों में परिवर्तित करने का काम ज्यादा जरूरी है और तुरंत किया जाना चाहिए.

सी.बी. खैरमोड़े द्वारा मराठी में लिखी गयी आंबेडकर की जीवनी से हम जान सकते हैं कि आंबेडकर अपनी आत्मकथा अंगे्रजी में लिखना चाहते थे और साथ ही गांधी की जीवनी भी. अनुसूचित जाति फेडरेशन के राष्ट्रीय संयुक्त सचिव और सुप्रतिष्ठित  दलित मराठी लेखक शंकर राव खरात उल्लेख करते हैं कि अम्बेडकर की मृत्यु के पश्चात उनके अध्ययन कक्ष से तीन नोट बुक्स मिली थीं, जो उनकी आत्मकथा के तीन खंडों के लिखे चिन्हित की गई थीं, लेकिन शायद एक राजनीतिक समुदाय गढ़ने, प्रभुत्वशाली ब्राम्हण इतिहास के पुनर्लेखन, हिन्दू कोड बिल लिखने और उसके लिये समर्थन जुटाने की फौरी जरूरतों के चलते उनके पास अपने बारे में लिखने का वक्त ही नहीं बचा था. इसमें कोई शक नहीं कि इतिहास को समझने की  हमारी कोशिश में यह हमारे लिये एक बड़ा नुकसान है, हालांकि वृहद जीवनियों और शहिरों द्वारा रची संगीत रचनाओं से आंबेडकरी की निजी व राजनीतिक जिंदगी पर काफी प्रकाश पड़ता है.
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डा. भीमराव आंबेडकर के स्त्रीवादी सरोकारों की ओर

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‘निजी’ आधार पर डा. आंबेडकर की ‘राजनीतिक छवि’ का स्त्रीवादी (?) नकार : दूसरी क़िस्त




आंबेडकर के उस लेखन और उस भाषणों को पढ़े, जिनमें उन्होंने अपनी निजी यादों को बांटा है-चाहे वह सतारा में बचपन में भोगा अस्पृश्यता का दंश  से या बड़ौदा में महाराज के यहां काम करते हुए 'पारसी-इन'से निकाल बाहर किया जाना हो (यह 1917 में कोलम्बिया विश्वविद्यालय से लौटने के बाद हुआ) या फिर कि वह घटना हो, जिसमें चालीस गांव के अछूत समुदाय के लोग उनके लिये एक गाड़ी चालक का बंदोबस्त नहीं कर पाये और उन्हें तुरत-फुरत जोड़कर बनाये गये तांगे में एक नौसिखिया चालक से काम चलाना पड़ा. यह स्पष्ट है कि निजी अनुभव सामाजिक की व्याख्या के स्रोत नहीं होते. बजाये इसके आंबेडकर  उन प्रक्रियाओं पर ध्यान केन्द्रित करते हैं, जो अनुभवों को परिभाषित करके परिवर्तन के बारे में नये तरीके से सोचने का रास्ता खोलती हैं. अनुभव, ज्ञान और परिवर्तन के बीच संबंध की यही वजह आंबेडकरी  अवधारणा है, जिसमें राजनीतिक आंदोलनों में निजी व सार्वजनिक को गढ़े जाने के भिन्न तरीकों की जांच पड़ताल महत्वपूर्ण हो जाती है.

शुरू में आंबेडकरी  आंदोलन के समृद्वदृश्य इतिहास से दो छवियों को लेते हैं. इनमें से एक आंबेडकर  परिवार की तस्वीर है, जिसमें रमाबाई बीच में है. आंबेडकर  और उनका बेटा यशवंत रमाबाई के बगल में  बायें ओर हैं. उनकी देवरानी लक्ष्मीबाई और बेटा मुकुंद दायी ओर है, ये लोग आंबेडकर  के भाई आनंद राव की मृत्यु के बाद परिवार में ही रहते रहे. आंबेडकर  का पालतू कुत्ता रमाबाई के पैरों के पास बैठा है. दूसरी तस्वीर एक लोकप्रिय पोस्टर है, जिसमें आंबेडकर  और रमाबाई के विवाह के भव्य आयोजन की कल्पना की गई है. इसमें वे मखमल के तकिये और सोने से मढ़ी कुर्सियों पर बैठे हैं. आंबेडकर  को एक किताब पकड़े हुए दिखाया गया है. खैरमोड़े की लिखी जीवनी के जरिये हम जानते हैं कि असल में इस विवाह को रस्में बहुत ही सादा तरीके से भायकला सब्जी मंडी में पूरी की गई थीं.



पारिवारिक चित्र आंबेडकर  के पारिवारिक माहौल का एक मानवीय पहलू पेश करता है, जो उनकी असाधारण राजनीतिक व अन्य उपलब्धियों से परे है. एक ओर यह हमारे सामने उस विशिष्ट व्यक्ति के रोजमर्रा के साधारण पारिवारिक जीवन की छवि रखता है, वहीं दूसरी ओर उन छोटी-छोटी खुशियों और चुनौतियों के बारे मेें खामोश रहता है, जिनसे घर बनता या बिगड़ता है. उदाहरण के लिये आंबेडकर  के पुस्तक प्रेम की वजह से बिगड़ा हुआ घरेलू बजट या भाई बलराम का अलग घर बसा लेना. पारिवारिक हंसी-खुशी के भी कुछ पल दिखाई देते हैं  जैसे किताबों पर ज्यादा खर्चे के लिये उलाहने मिलने पर आंबेडकर  का बाजार से बहुत ज्यादा सब्जियां और मछली खरीद लाना. बेटे राजरत्न की 1926 में मृत्यु पर परिवार मेें शोक का पारावार न था. बेटे की मौत के बाद आंबेडकर  ने चिकित्सक की सलाह को जीवन मंत्र बना लिया. रमाबाई को गर्भवती होने से बचना होगा. खैरमोड़े ने तफसील में बताया है कि रमाबाई के पढ़ने-लिखने से इंकार करने और हर वर्ष पंढरपुर की तीर्थ यात्रा की इच्छा जताने पर आंबेडकर  किस तरह नाराज होते थे. सबसे मार्मिक विवरण रमाबाई की मृत्यु पर आंबेडकर  के शोक का है. सिर मुड़ाये हुए, कफनी पहने हुए आंबेडकर  जैसे रमाबाई और यशवंत के स्वास्थ्य के प्रति लापरवाही पर प्श्चाताप के रूप् में सन्यास लेने चले थे.

खैरमोड़े लिखित जीवनी के खण्ड-2 केअध्यायों के शीर्षक ‘रमाबाई का संसार’ तथा ‘नया संसार’ हमें प्रेरित करते हैं कि रमाबाई द्वारा जोड़कर रखे गये कुनबे व आंबेडकरी  जनों की राजनीतिक बिरादरी द्वारा बनते जाते एक नये वृहद परिवार के बीच रिश्तों को खंगाले.इसके लिये हमें स्मृति, जीवनी, कल्पना (जिस तरह रिश्ते हमारे मनों में जीवंत होते हैं) और रिश्तेदारियों के बीच घालमेल की जांच करनी होगी. हालांकि अभी हमारा लक्ष्य उर्मिला पवार द्वारा अभिव्यक्त आंबेडकर के स्त्रीवादी योगदान को नजरअंदाज किये जाने पर विचार करना है. इसे ध्यान में रखते हुए दूसरी तस्वीर पर आते हैं जो सभी अम्बेडकरी सभाओं में बहुत लोकप्रिय पोस्टर है.

प्रचलित आंबेडकरी  संस्कृति में आंबेडकर  के निजी जीवन के बारे में कई दुविधा में डालने वाली विविध कल्पनायें शामिल हैं.  काल्पनिक वैवाहिक तस्वीर में आंबेडकर  को किताब थामे हुए आखिर क्यों दिखाया गया है? उस किताब पर सुनहरे हर्फो  में ‘भारतीय कानून’ लिखा दिखाई देता है. यह दिलचस्प है, क्योंकि यह चित्र आंबेडकर की जिंदगी का वह बहुत पहले का पल दिखा रहा है, जब उन्होंने कानूनों और संविधान लिखने की शुरूआत ही नहीं की थी. कानून की किताब उनके हाथ में दिखाया जाना क्या वैसा ही है, जैसे अक्सर मूर्तियों में उन्हें भारतीय संविधान की प्रति लिये हुए दिखाया जाता है? एक काल्पनिक वैवाहिक चित्र में कानून की पुस्तक की उपस्थिति निजी/दाम्पत्य के दायरे में कुछ दिलचस्प संभावनाओं की बात करती है. क्या यह अप्रत्यक्ष रूप् से रमाबाई का उनके लेखन मेें योगदान दिखा रही है? या यह इशारा कर रही है किआंबेडकर के रोज बढ़ते पुस्तकों के भण्डार को संभालने के लिये बड़ा घर खरीदने के लिये किस तरह रमाबाई ने अपने जेवरात बेच दिये थे? इसकी व्याख्या हम चाहे जैसे करें, लेकिन विवाह के समय एक किताब की उपस्थिति एक बुद्धिजीवी के दाम्पत्य में निजी को राजनीतिक में पृथक रखने को असंभव करार दे रही है. यह अहम है कि रमाबाई सहज और खुश दिखाई दे रही हैं, पति की गोद में रखी किताब से कतई परेशान नहीं हैं. विवाह की राजनीतिक मान्यता को दर्शाने के लिये कानून तथा वरद मुद्रा में बुद्ध को पृष्ठभूमि में दिखाने की वजह से (आंबेडकर  के बौद्ध धर्म स्वीकार करने के बहुत पहले) वास्तुविक समय और परिस्थिति से परे चले जाया गया है. यहां ध्यान देने की बात यह है कि इस लोकप्रिय पोस्टर में वह सामूहिक कल्पना दर्ज हुई है जिसमें रमाबाई को आंबेडकर  के राजनीतिक योगदानों के पीछे मुख्य भूमिका निभाते हुए देखा गया है. चाहे वह संविधान हो या फिर बौद्व धर्मान्तरण. रमाबाई का आंबेडकर  की राजनीतिक परियोजनाओं से अटूट संबंध उन पुस्तिकाओं, गीतों व कैसेट्स में भी अनुभव किया जा सकता है ,जो रमाबाई के जीवन पर आधारित है और हर वर्ष निर्मित व वितरित की जाती है.


इन गीतों में रमाबाई को सभी दलितोंकी मां के रूप में प्रस्तुत किया जाता है, आंबेडकर  के चरित्र व राजनीति में उनका ‘अप्रत्यक्ष’ योगदान याद किया जाता है, उनके जीवन के महत्वपूर्ण पड़ावों का वर्णन होता है, उन्हें अनोखा और असाधारण माना जाता है और इन पहलुओं को युवा दलित स्त्रियों के लिये एक आदर्श तथा प्रेरणास्रोत के रूप में प्रस्तुत किया जाता है. रमाबाई की मृत्यु के तेरह वर्ष पश्चात 1948 में आंबेडकर ने दूसरा विवाह किया. सविताबाई/ माई साहेब/शारदा कबीर एक ब्राह्मण  चिकित्सक थी और कुछ (हालांकि संख्या में कम) पुस्तिकायें व गीत उन पर भी बनाये गये हैं. लेकिन अधिकांश ऐसी रचनाओं में उनकी निंदा विश्वासघाती कह कर गई है. कुछ में तो उन्हें हत्यारिन कहा गया है.2003 में उनकी मृत्यु पर आंबेडकर  के जीवन और मृत्यु में उनकी भूमिका पर एक तर्क संगत बहस की कोशिश की गई थी.
क्रमशः 

वहशी राष्ट्रवाद: अपने ही नागरिकों के खिलाफ जंग

इति शरण
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युवा पत्रकार. सामाजिक-सांस्कृतिक कार्यकर्ता. संपर्क : ई मेल- itisharan@gmail.com
देश में कुछ दिनों पहले असहिष्णुता का मामला खूबगरमाया था, जिसके विरोध में कलाकार, बुद्धिजीवी, लेखक अपना पुरस्कार लौटा रहें थे। आज भी देश में विभिन्न रूपों में असहिष्णुता का वातावरण बना हुआ है। यह असहिष्णुता का वातावरण पूरी तरह से सत्ता पोषित है। सत्ता जब संकट में होती है, तो वह ऐसे ही घिनौने वातावरण का निर्माण करके देश में घृणा और आतंक का माहौल पैदा करती है, अपने बचाव के लिए देश के लोगों को बांटने का काम करती है। धर्म, जाति, संप्रदाय, के आधार पर लोगों को लड़वाती है। सरकार जब जनता की नजरों में गिरने लगती है और हर मोर्चे पर नाकामयाबी से बुरी तरह घिरने लगती है तब वह देश को एक और नए संकट की ओर धकेलने लगती है। आज वर्तमान में हमारे यहां सत्ता का यही चरित्र देखने को मिल रहा है।

बदकिस्मती से सीमा पार की सरकारभी उतनी ही जनविरोधी, कट्टर और हर मोर्चे पर विफल सरकार है। दोनों ही देशों की सरकार इस वक़्त भयावह और चौतरफा संकट से घिरी हुई है। अपने संकट को कम करने और उसे ढकने के लिए दोनों ओर से युद्ध जैसा माहौल बनाये रखने की भरपूर प्रयास किये जा रहे हैं। इसी का नतीजा था, सरहद पार से हमारे यहां हुआ उरी हमला और उसके जवाबी कार्रवाई में हमारी तरफ से किया गया सर्जिकल अटैक। इन हमलों से दोनों देशों की सरकारों को कुछ फायदा जरूर हुआ हो हुआ मगर देश और जनता कई स्तरों पर असहनीय तकलीफें झेल रही हैं।

ये दोनो देश अंतरराष्ट्रीय दवाबों के कारण सीधे युद्ध तो नहीं कर सकते, मगर आज अपनी ही जनता के खिलाफ दोनो देशों  की सरकारें एक तरह से युद्ध की स्थिति पैदा करवा रही हैं। यही कारण है कि आज सरहद इस पार और उस पार भी कलाकारों पर हमले किये जा रहे हैं। हमारे यहां पाकिस्तानी  कलाकारों, पाकिस्तानी फिल्मों का विरोध हो रहा, तो सरहद पार हमारी फिल्मों और मीडिया पर भी प्रतिबंध लगाना जारी है।

मुंबई में 'मामी फिल्मोत्सव'में एक बेहतरीन और क्लासिक पाकिस्तानी फिल्म 'जागो हुआ सवेरा'के प्रदर्शन पर रोक लगा दिया गया। जिस फवाद खान को हमारी देश कि जनता ने सर आँखों पर उठा रखा था, आज उसी फवाद को नफ़रत की निगाह से देखा जाने लगा है। अचानक लोगों को वह एक दुश्मन देश का नागरिक नज़र आने लगा। फिल्म निर्देशक करण जौहर को अचानक इस पाक कलाकार को अपनी फिल्म में लेने पर अफसोस होने लगा और उन्होंने आगे से अपनी फिल्म में किसी भी पाकिस्तानी कलाकार को शामिल ना करने की कसमें भी खा ली हैं।



आज कला और कलाकारों को ही नफरत का जरिया बनाया जा रहा है, जबकि हर तरह की नफरतों के नकाब उतारने का नाम ही है कला। वह सीमाओं से परे और किसी भी संकट के समय संपूर्ण रूप से मानवीयता और मानवीय सरोकारों के झंडे बुलंद करती नजर आती है। युद्ध के समय कला ही नफरत की  आग पर पानी डालने का काम करती है। युद्ध के हर दौर में कलाकारों ने अपनी लेखनी, अपने नाटक, अपनी गीतों के जरिये शांति लाने में अपनी भूमिका निभाई है। कहा भी जाता है एक बंदूक की ताकत से ज्यादा मजबूत होती है कलम की ताकत। 'क्या जुल्मतों के दौर में भी गीत गाये जाएंगे, हाँ जुल्मतों के दौर के ही गीत गायें जाएंगे।'

मगर आज उसी कला जगत और कलाकारों पर हमला हो रहाहै और यह किसी न किसी रूप में सत्ता प्रायोजित है। जब सत्ता पोषित इस फासीवादी और घिनौने सामाजिक/राजनीतिक माहौल के प्रतिरोध में कोई संस्था सामने आ रही है, तो उनपर ही हमले किए जा रहे हैं। इसका ही परिणाम था इंदौर में भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) के 14वें राष्‍ट्रीय सम्‍मेलन में कुछ संघी विचारधाराओं के लोगों का हमला। वे लोग कार्यक्रम के बीच में मंच पर चढ़ आयें और हंगामा करने लगें। जबकि इप्टा के इस कार्यक्रम का आयोजन  'सबके लिए एक सुंदर दुनिया'के संदेश के साथ किया गया था। हाल ही में मुंबई में भी कुछ ऐसी ही घटना देखने को मिली, जब एक सांस्कृतिक कार्यक्रम के दौरान कुछ इसी तरह की विचारधारा के लोगों ने हिंसक हमला कर दिया था। फरवरी के महीने के दौरान इप्टा जेएनयू की टीम जब एक मजदूर संगठन के आमंत्रण पर उत्तराखंड के पौरी में नाटक करने गई उस वक़्त भी उनका विरोध किया गया, आयोजकों को धमकी दी गई। नाटक के दौरान बिजली काट दी गई। बाद में जेएनयू की टीम ने मोबाइल की रौशनी में नाटक किया। वहीं उत्तर प्रदेश के वृंदावन में होने वाले नास्तिक सम्मेलन को विश्व हिंदू परिषद और स्थानीय धर्माचार्यों के विरोध के कारण रद्द करना पड़ा।



एक तरफ हिन्दुवादी संगठन नारी सुरक्षा का दिखावाकरता है और दूसरी तरफ एक स्त्री को अभद्र गाली देने से भी पीछे नहीं रहता। जब बॉलिवुड अभिनेत्री प्रियंका चोपड़ा पाक कलाकारों के समर्थन में सामने आई तो इसी विचारधारा के लोग प्रियंका को गंदी-गंदी अभद्र गालियां देने लगे। एक तरफ ये भारत माता की जय के नारे लगवाते हैं और दूसरी तरफ देश की स्त्री का इस कदर अपमान करते हैं। यह है इनका दोहरा रूप।

इन घटनाओं को देखकर 1989 की याद आती है, जब नुक्कड़ नाटक 'हल्ला बोल'के प्रदर्शन के दौरान शासक पार्टी के गुंडों ने नाटक कर रहें कलाकारों पर हमला कर दिया था। इस हमले में रंगकर्मी सफ़दर हाशमी बुरी तरह से ज़ख्मी हुए। उसी रात को सिर में लगी भयानक चोट की वजह से सफ़दर हाशमी की मृत्यु हो गई। आज एक बार फिर कुछ वैसा ही हमला जारी है।

सनद रहे कि हमारी आज की यह कट्टर हिंदूत्ववादी सरकार हिटलर की मानवद्रोही प्रवृत्ति पर चलने तथा आज की एक सबसे क्रूर और आक्रामक सरकार अर्थात इजरायल सरकार जैसी ही दिखने में विश्वास रखती है। राजनीति में आने से पहले हिटलर खुद एक पेंटर था। मगर राजनीति में आने के बाद उसने और उसकी नाज़ी पार्टी ने कला के सभी रूपों पर हमला शुरू कर दिया था। एक कलाकार होने के नाते हिटलर कला की ताकत से वाक़िफ था। वह जानता था कि कला उसकी तानाशाही के लिए खतरा बन सकती है, इसलिए सत्ता में आने के बाद उसने इसे कुचलने का अभियान चलाना ही मुनासिब समझा। आज हमारी सरकार और सरकार संरक्षित कुछ गुंडा गिरोह क्या हिटलर के नक्शे कदम पर चलती नहीं दिख रही है ?



नफरत का यह माहौल सिर्फ पाकिस्तान के लिए ही नहीं फैलाया जा रहा, बल्कि एक अघोसित युद्ध की स्थिति तो चीन के साथ भी पैदा की जा रही है। देश में बड़े स्तर पर चीनी सामानों का विरोध हो रहा है। यह विरोध कोई आम आदमी के दिमाग की उपज नहीं है, बल्कि यह विरोध भी हमारी सत्ता की सोची समझी रणनीति का हिस्सा है, यह विरोध भी सत्ता पोषित ही है।

अपनी तमाम नाकामियों पर पर्दा डालने के लिए यह एक छद्म युद्ध का माहौल तैयार करने की कोशिश की जा रही है। देशभक्ति का एक झूठा पाठ पढ़ाया जा रहा है। अगर आप देश भक्त हैं, तो चीनी सामानों का विरोध करें। मगर मुझे समझ नहीं आता यह कैसा विरोध है ? इस विरोध की आड़ में तो सिर्फ़ छोटे थोक विक्रेताओं और रेडी पर सामना बेचने वाले दूकानदारों के आर्थिक हितों पर ही हमला बोला जा रहा है। क्यों नहीं बड़ी-बड़ी चीनी कंपनियों के माल तथा उनका कारोबार करने वाले बड़े भारतीय व्यापारिक घरानों का बहिष्कार किया जा रहा ? हमारे इस तरह के अविवेकी विरोध से चीन कोई बड़ा नुकसान नहीं होने वाला, बल्कि हमारे ही देश के सबसे निचले स्तर के कारोबारियों को उजाड़ने का काम ज़रूर हो रहा है। दिवाली में चाइनीज लाइट बेचने वाले एक दुकानदार ने बताया, हर दिवाली में चाइनीज लाइट बेंचकर 40-50 हजार रुपए कमा लेता था, उन पैसों से उसके घर में दिवाली मनती थी, मगर इस बार कोई चाइनीज लाइट खरीद ही नहीं रहा।  उसने बताया, कमाई तो दूर की बात है, इन लाइटों को खरीदने पर हमने जो पैसे लगाए हैं उसका पूरा नुकसान ही उठाना पड़ेगा। हमारे इस बर्ताव से चीन में भारत की एक नकारात्मक छवि बन रही। हम जान कर एक देश के सामने खुद को दुश्मन की तरह पेश कर रहें। पाकिस्तानी की तरह यहां भी युद्ध का माहौल बनाया जा रहा है।



चीन के बारे में कहा जा रहा कि पाकिस्तानी की तरफउसका रुख नर्म हैं, और उसकी नीति भारत विरोधी है। जाहिर है भारत के प्रति चीन की यह कोई नई नीति नहीं हैं। चीन पहले भी पाकिस्तान के समर्थन में दिखा है। यह चीन का कोई नया स्टैंड नहीं। उसने कहा है कि पाकिस्तान भी आतंकवाद का शिकार हो रहा। काफी समय से भारत और चीन के संबंध में तनाव की स्थिति देखी जा रही, मगर इस सबके बीच इधर दोनों देशों के बीच व्यापार संबंध में सुधार भी आया है। अब अगर ऐसी स्थिति जारी रही तो भारी आर्थिक तनाव पैदा होने का खतरा हो सकता है जिसका सबसे अधिक खामियाजा हर हालत में हमें ही उठाना होगा। और यह कैसी विडंबना है कि एक तरह हमारी सरकार चीनी सामना के बहिष्कार का माहौल बना रही, वहीं दूसरी तरह भारतीय सेना तथा चीनी सेना का संयुक्त सैन्य अभ्यास भी चल रहा है। दोनों देश की सेनाओं ने जम्मू-कश्मीर के पूर्वी लद्दाख में मिलकर सैन्य अभ्यास किया है। यह भारत सरकार के दोयम स्टैंड का प्रदर्शन तो नहीं है ?

अभी देश के दो बड़े राज्यों उत्तर प्रदेश और पंजाबमें चुनाव होने वाला है, हमारी मोदी सरकार इस वक़्त देश में हर मोर्चे पर अपनी घोर विफलताओं और आक्रमक जन विरोधी रवैये को लेकर खुद को बेहद कमजोर महसूस कर रही। उसके खिलाफ विरोध के स्वर और उसके अंदरूनी तनाव भी अब खुलकर सामने आए हैं। बिहार के चुनाव में इस सरकार की बुरी स्थिति साफ देखने को मिली थी। कयास लगाये जा रहे हैं कि आने वाले इन चुनावों में उसकी स्थिति उससे भी बुरी होने जा रही है। चहुंतरफा संकट से घिरी इस सरकार को अपनी मौत साफ़ नज़र आ रही है और यही कारण है कि अपनी मौत टालने की ख़ातिर अब वह कोई भी हथकंडे अपनाने से बाज़ नहीं आने वाली। उसी का नतीजा है अंध राष्ट्रवाद का आतंक कायम करना, सीमा और देश के भीतर भी युद्ध जैसी स्थिति को निरंतर बनाये रखना और जो भी शक्तियां सरकार के इन घिनौने हथकंडे के विरोध में सामने आयें उन पर निरंतर हमले करवाना। कला और कलाकारों पर सबसे ज़्यादा हमला इसलिए भी क्योंकि वे ही हैं जो सत्ता की साजिशों पर सबसे अधिक पैनी नज़र रखते हैं और उसके विरुद्ध जन प्रतिकार की सबसे सशक्त धारा का निर्माण भी करते हैं।

आंबेडकरी गीतों में रमाबाई और भीमराव आंबेडकर : चौथी क़िस्त

शर्मिला रेगे की किताब  'अगेंस्ट द मैडनेस ऑफ़ मनु : बी आर आम्बेडकर्स राइटिंग ऑन ब्रैहम्निकल  पैट्रीआर्की'की भूमिका का अनुवाद हम धारावाहिक प्रकाशित कर रहे हैं. मूल अंग्रेजी से अनुवाद डा. अनुपमा गुप्ता  ने  किया है.  इस किताब को स्त्रीकाल द्वारा  सावित्रीबाई  फुले  वैचारिकी  सम्मान, 2015 से  सम्मानित किया  गया  था. 

अब हम अपना ध्यान इन दोनोंमहिलाओं की भूमिकाओं में प्रस्तुतिकरण में इस असाधारण विरोध पर केंद्रित करते हैं. रमाबाई को जहां ‘रमई’ (समुदाय की मां) की उपाधि मिली वहीं सविताबाई की भूमिका पर संदेह वह बहस बढ़ती गई. इससे हम यह दलील दे सकते हैं कि आंबेडकरी पुस्तिकाओं व संगीत रचनाओं में निजी/वैवाहिक का स्वरूप् ब्राह्मण मध्यम वर्ग को आधुनिकता में गढे गये सरण्यभावी विवाह के आदर्श पर सवाल उठाता है. आंबेडकर और रमाबाई पर रची गई संगीत रचनाओं में दम्पति के बीच का साख्य निजी दायरों को लक्ष्य कर सार्वजनिक क्षेत्र में प्रवेश कर जाता है. यह संकेत देता है कि समुदाय घर-परिवार व राजनीतिक क्षेत्र एक दूसरे से अलग नहीं किये जा सकते.

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रमाबाई 

इस पुस्तिकाओं में रमाबाई के जीवनका चित्रण एक त्याग की मूर्ति मां व पत्नी की तरह नहीं किया गया है. बल्कि इनमें उनके व्यक्तित्व में आये परिवर्तनों को उभारा गया है. किस तरह एक छोटी अनाथ लड़की ‘रामी’ जिसने आंबेडकर से विवाह किया, एक राजनीतिक बिरादरी की मां ‘रमई की पदवी पा लेती है. गीतों और पुस्तिकाओं में रमाबाई के शुरूआती वैवाहिक जीवन के विवरण है, जिनमें वे आंबेडकर से यही अपेक्षा रखती हैं कि अमेरिका से लौट कर वे अपनी गृहस्थी संभाले लेंगे, कि बाॅम्बे के सीडेन हेम महाविद्यालय में व्याख्याता के तौर पर कार्य करते हुए एक सामान्य जीवन बितायेंगे’. वे उनकी उच्च शिक्षा की अभिलाषा पर सवाल उठाती हैं, नाराज होती हैं और  कई-कई दिनों तक उनसे बात नहीं करती है. लेकिन अंततः रमाबाई अध्ययन के लिये आंबेडकर की भूख को समझ जाती हैं और बिना शर्त उन्हें सहयोग देती हैं. 50 रूपए महीने में पूरा कर खर्च संभालती हैं, बल्कि उसमें से पांच रूपए आकस्मिक खर्चों के लिये बचा भी लेती है. 1916 में अंबेडकर के लंदन जाने के बाद जिस गरिमा से रमाबाई निर्धनता में भी आत्मबल संभाले रहती हैं उसकी इन गीतों में विशेष स्तुति की गई है. भोजन के लिये हर दिन का संघर्ष और रोज चार भाखरी (ज्वार की रोटी) पर जीवित रहने वाले परिवार का दान लेने से इंकार कर देना भी प्रमुखता से वर्णित किया गया है.

आंबेडकर के राजनीतिक आंदोलन में रमाबाई की बढ़ती रूचि को 1920 की मनगांव परिषद के बारे में उनकी जिज्ञासा से, साहू महाराज के कार्ये में उनके सवालों में,1927 के महाड सत्याग्रह मेें भाग लेने मेें उनकी उत्सुकता से (हालांकि आंबेडकर के सुझाव के विपरीत उन्होंने स्त्रियों का नेतृत्व नहीं किया बल्कि भोजन व्यवस्था संभाली) तथा मुम्बई के जे.जे. अस्पताल में स्त्रियोें की सभा को संबोधित करने से मापा जा सकता है. 1920 में लंदन जाने के पहले आंबेडकर ने श्राद्व के कार्यक्रम का आयोजन किया (उनके पिता की बरसी पर) और हिन्दू कर्मकांडों की परम्परा तोड़ने के लिये ब्राह्मण भोज न कर के वंचित जाति के लिये स्थापित छात्रावास से चालीस छात्रों को भोज के लिये आमंत्रित किया. रमाबाई ने पपरंपरागत मिठाईयां परोसने की योजना बनाई थी  लेकिन अंबेडकर ने तर्क दिया कि इन छात्रों को मांस व मछली परोसी जानी चाहिए, जो उन्हें छात्रावास के भोजन में नहीं मिल पाते. रमाबाई पहले तो इस तर्क में बहुत क्षुब्ध  हुई और श्राद्व की रीतियों में पूरनपोली की बजाय मांस-भोज पर प्रश्न उठाने लगीं किन्तु बाद में उन्होंने अंबेडकर के कहे अनुसार ही किया.

अब चाहे यह घटना हो या ऐसी हीअन्य घटनायें, जैसे रमाबाई की तीर्थयात्रा करने की हार्दिक इच्छा और चाहे इस पर अंबेडकर का तर्को द्वारा उनको समझाने की कोशिशे हो, आंबेडकरी  संगीत व प्रकाशित विवरणों में आंबेडकर और रमाबाई के बीच रिश्तों को कभी बख्शा नहीं गया. बल्कि वे विवरण, भावार्थों और मूल्यों की वैसा ही विस्तार देते हैं जैसे कि उन्हें जिया और महसूस किया गया है. जिस तरह उनकी जिंदगी की कुछ घटनाओं ने उनके जीवन पथ तथा सोच को दिशा दी. आंबेडकर की नाराजगी के बावजूद रमाबाई की शिक्षा में अरूचि, पुस्तकों पर खर्च को लेकर रमाबाई का  खींजझना लेकिन बाद में सहयोग देना, यहां तक कि अपनी सोने की चूड़ियां बेंच कर आंबेडकर के पुस्तकालय ‘राजगृह को सम्भव बनाना’ इन घटनाओं पर बने गीतों में यही दिखाई देता है कि कैसे उनका रिश्ता तर्कों और संवाद के जरिये विकसित हुआ.

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डा. भीमराव आंबेडकर के स्त्रीवादी सरोकारों की ओर

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‘निजी’ आधार पर डा. आंबेडकर की ‘राजनीतिक छवि’ का स्त्रीवादी (?) नकार : दूसरी क़िस्त

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पीड़ाजन्य अनुभव और डा आंबेडकर का स्त्रीवाद

रमाबाई वराले जो 1929 में अपने लेखक पति बलवंत वराले के साथ पिछड़ी जातियों के छात्रों के लिये अंबेडकर द्वारा धारावाड़ में शुरू किया गया छात्रावास चलाती थीं, अपने संस्मरणों में लिखती हैं कि विभिन्न अछूत जातियों की स्त्रियों  के लिये पहली बार आयोजित एक भोज में किस तरह रमाबाई मुख्य अतिथि बनी थीं. धारावाड़ के युवा अंबेडकरी  कार्यकर्ता इस सार्वजनिक भोज के लिये काफी उत्साहित थे ,लेकिन रमाबाई के इसमें शामिल होने के बारे में उन्हें संदेह था. रमाबाई महाराष्ट्र के कोंकण क्षेत्र से थीं, जहां भोजन के बारे में कड़े जातीय नियम पाले जाते थे. वराले याद करती हैं कि रमाबाई के इस तरह कार्यक्रम का नेतृत्व करने पर आंबेडकर प्रसन्न होकर बोले थे. यह महार भाटिन (ब्राह्मण महार स्त्री) किस तरह बदल गई है.


कई गीतों में दिखाया गया है कि किसतरह उनके घर में बिरादरी के लोगों को भी परिवारजनों को भांति स्वीकार कर लिया जाता था. भंगी  जाति के एक आठ वर्षीय बच्चे को अपने घर में उन्होंने जगह दी भी और पिछड़ी जाति छात्रवास को चलाने के लिये अपने गहने गिरवी रख दिये थे. इन घटनाओं से पता चलता है कि उन्होंने अपने घर को  राजनीतिक बिरादरी के लिये भी खोल रखा था. ये गीत कहते हैं  कि रमाबाई का यह योगदान उस प्रेम समर्पण और श्रद्धा से जन्मा था ,जो वे अपने असाधारण पति के प्रति महसूस करती थीं. फिर भी उन्हें अंधभक्त की तरह पेश नहीं किया गया है ,बल्कि ऐसे व्यक्तित्व के रूप में जिसने अपने राजनीतिक विचार स्वयं गढ़े हों. इन गीतों में आंबेडकर की रमाबाई पर पूर्ण निर्भरता और उनकी मृत्यु पर आंबेडकर का गहरा शोक चित्रित किया गया है. आंबेडकर अपनी एक पुस्तक पाकिस्तान या भारत का विभाजन रमाबाई को समर्पित करते हुए कहते हैं, 'उसके बहुत भले दिल, उदात्त मस्तिष्क, पावन चरित्र शीतल धैर्य और मेरे साथ मुसीबतें सहने के लिये उसका हमेशा तैयार रहना उन सब को घेरे हुए थी. इन सब के लिये मेरे आभार का प्रतीक यह समर्पण है.'

इस तरह बुद्ध की पत्नी यशोधरा औरसावित्री बाई फुले की विरासत को संभालकर आगे ले जाने वाली रमाबाई को एक युग पुरूष‘ को गढ़ने का श्रेय आंबेडकरी  साहित्य में दिया गया है. इसके उलट सविता बाई आंबेडकर  के बारे में आंबेडकरी  समुदाय संदेह और गुस्से का इजहार करता है और कभी-कभी एक सधी  हुई चुप लगा जाता है. इसका कारण सविताबाई का वह वक्तव्य हो सकता है, जब अंबेडकर की मृत्यु के तीस वर्ष बाद उन्होंने अपनी आत्मकथा लिखने की इच्छा जाहिर की. उन्होंने दावा किया कि इसके जरिये वे सच्चाई को समुदाय के सम्मुख रखना चाहती हैं तथा आंबेडकर की मृत्यु में उनकी भूमिका पर उठे शक के बादलों को हटाना चाहती है. सुरक्षात्मक अंदाज में लिखते हुए सविताबाई आंबेडकर के मन में उनके लिये भावनओं पर जोर देती है, दोनों के बीच पत्र व्यवहार का हवाला देती है और अपने वैवाहिक जीवन के कई संस्मरणों से इसे एक आदर्श सख्य भाव विवाह साबित करती हैं . वे इसी निष्कर्ष पर पहुंचती हैं  कि अपने राजनीतिक लाभ के लिये कुछ लोगों ने यशवंत के मन में और समुदाय में उनके बारे में कई भ्रांतियां फैलाई. 2003 में सविताबाई की मृत्युके बाद कुछ पुस्तिकायें प्रकाशित हुई, जिसमें अंबेडकर की मृत्यु मेें उनकी भूमिका को लेकर फैले हुए सच और झूठों की तर्कपूर्ण समालोचना की गई. एक ऐसी ही पुस्तिका में उनके आंबेडकर से रिश्ते के अत्यंत निजी होने की बात की गई है. ऐसा रिश्ता, जिसमें घर तथा राजनीतिक बिरादरी के बीच पुल बनाने की कोशिश दाम्पत्य का अनिवार्य हिस्सा कभी नहीं थी, और इसलिये इस रिश्ते को समुदाय ने नकार दिया.

आंबेडकर के जीवन की संगीत व शब्दोंमें अभिव्यक्ति में रमाबाई और सविताबाई दाम्पत्य के दो विपरीत ध्रुवों   की तरह चित्रित हुई है. आंबेडकरी  आंदोलन में सक्रिय कई शिक्षकों में से एक गायकवाड़ गुरूजी के संस्मरणों में हमें आंबेडकर के जीवनकाल में लिखे गये दलित स्त्रियों के गीत मिलते हैं. इनमें से कुछ में रमाबाई व सविताबाई के इस  परस्पर विरोधी स्वरूपों में कुछ मेल-मिला करने की कोशिश की गई है. रमाबाई की मृत्यु के तेरह वर्ष बाद आंबेडकर सविताबाई से मिले और उनका विवाह हुआ. एक गीत में रमाबाई व सविताबाई के बीच बहनापे  की कल्पना की गई है, हालांकि स्पष्ट है कि वे दोनों आपस में कभी मिली ही नहीं होंगी.
‘‘रमाबाई और सविताबाई, जाति से अलग होके भी
एक ही थाली मेें खाती हैं अपने भीम की खातिर’’
एक अन्य गीत में एक दलित स्त्री, ब्राह्मण सविताबाई को दलित समुदाय के तौर-तरीके अपनाने की सलाह देती है.
ओ बामन घर की बेटी, अपनी साड़ी से खुद को ठीक से ढंकों
बाबा अपने काम में खोये हैं अपनी कुर्सी पर, उनका ध्यान तुम पर नहीं है.

1990 के दशक में रचे गये कुछ नये गीत अंबेडकरी  गायन पार्टियों ने कैसैट्स पर रिकार्ड किये, जिनमें उन मतभेदों पर चिंता जताई गई है, जो आधुनिक शिक्षा व रहन -सहन तथा जेण्डरीकृत चेतना द्वारा जन्मी राजनीतिक प्रतिबद्धता के बीच खड़े हो गये हैं जैसा कि पहले भी कहा गया, युवा स्त्रियों को रमाबाई की तरह बनने की प्रेरणा देते कई गीत हैं ,लेकिन युवकों को बाबा साहेब के पदचिन्हों पर चलने की प्रेरणा उतनी दमदार नहीं है. वैसे ही जो ब्राह्मण पत्नी हैं, उसे विषकन्या करार दिया जाता है ,जो पुरूष को समुदाय के प्रति जिम्मेदारियों से विमुख कर देती हैं.


गैर दलित स्त्रीवादियों के नजरिये, जैसा कि हमने उर्मिला पवार के कथ्य में देखा के विपरीत आं बेडकरी  समुदाय में दाम्पतय की अवधारणा ऐसी है कि अंबेडकरी  के जीवन में निजी व राजनीतिक की जांच पड़ताल ‘स्वयं सिद्व’ सच्चाइयों के पैमानों पर नहीं की जा सकती. दलितों पर निजीत्व और सामूहिकता को अलग-अलग कर के देखने के लिये डाले जाते रहे दबाव के विपरीत, आंबेडकर परिवार के जीवनवृत्त सार्वजनिक और निजी की नर्मित और पुननिर्मित के कई सक्रिय माडल प्रदान करते हैं. आंबेडकर के निजी जीवन को समझते समय इन  निष्कर्षों को निकालने में आती यह मुश्किल सिंगुबाई मुतिसापुर की एक दलित गायिका/संगीतकार ने सबसे अच्छी तरह व्यक्त की है.
मेरे पिता उसे पिता कहते रहे, मेरी मां उसे पिता कहती है
मैं भी उसे पिता ही कहती हूँ 
मेरे बेटे के लिये भी वह पिता ही है.
पूरे संसार में फूंक के तो दिखाओ और एक ऐसा रिश्ता.
क्या किसी और के साथ है ऐसा रिश्ता, जो हमारा है हमारे  भीम के साथ
साथ साधु-संत आये और गये लेकिन मेरी प्रार्थनाओं का कोई फल नहीं मिला. ओ मेरे कुनबे कल कहां थे तुम?
आज कहां तक आ गये. तुम्हारे गोबर सने हाथों में उसने रख दी कलम.
आंबेडकर की निजी जिंदगी को यह जोशभरा लगाव जो संगीत-साहित्य में झलकता है, साफ बताता है कि आंबेडकरी समुदाय स्त्री-अधिकारों और जेण्डर मुद्दों पर आंबेडकर के नजरिये को समझने में उन अकादमियां से मीलों आगे है, जिसे आंबेडकर में बड़ी सीमित रूचि रही है. कुछ खास अपवादों को छोड़कर अधिकांश अकादमिक साहित्य आंबेडकर के स्त्रीवाद में योगदान को नजरअंदाज करते रहे हैं और इसमें आंबेडकरी सिद्धांतों पर लिखी गयी पाठमालायेंभी शामिल है.

प्रतिसमुदायों की सूचना अैर उनसे सीखना

‘आंबेडकरऔर स्त्रीमुक्ति’ विषय परसंगीत और पुस्तिका साहित्य का प्रथम शक्तिशाली उभार 1990 के दशक के आखिरी वर्षों में देखने को मिलता है. आज ये गीत व पुस्तिकायें आंबेडकरी  पचांग में शामिल खास अवसरों पर वितरित होती हैं . माध्यम वर्ग की सामान्य समझ इन समारोहों को विवेकहीन/भावुक करार देती हैं और ऐसे अवसरों पर यातायात व स्वच्छता की समस्याओं के चलते इनकी काफी आलोचना होती है. कुछ सामाजिक वैज्ञानिकों को छोड़कर अधिकांश इन जनसभाओं को आंबेडकर की व्यक्तिपूजा या नेतृत्व द्वारा जनता को बरगलाने से जोड़ते हैं. वैसे भी दलित जनों को अतिभावुक और ऐतिहासिक दृष्टि से शून्य माना जाता है. इन लेखों में अक्सर आंबेडकर की विवेकी दृष्टि की तुलना इन सालाना जलसों की विवेकहीनता से की जाती है और आशय यह होता है कि दलित आंबेडकर की विरासत को आगे नहीं ले जा रहे हैं लेकिन इन जलसों के रिकाॅर्ड जो आंबेडकरी पंचाग की वजह भी हैं और उसकी परिणिति भी कुछ अलग ही किस्सा बयान करते हैं.
पिछले दशक में आयोजित आंबेडकरी जलसों की रिपोर्टों को यदि सहानुभूति पूर्वक देखा-परखा जाये तो नागपुर और मुम्बई में होेने वाले इन जनमेलों की वजह से होने वाली यातायात समस्या, रेलगाड़ियों में भीड़ और कचरे के ढेरों की आलोचना को इस तरह भी देखा जा सकता है जैसे कुछ खास दिनों पर कुछ अचिन्हित सार्वजनिक जगहों को अपनी उपस्थिति से दलितों ने चिन्हित  कर दिया हो और इसी बात के लिये उनकी निंदा की जा ही हो. कुछ अन्य लेखों में मैने दलील  दी है कि आंबेडकरी पंचाग की तिथियां आंबेडकरी यूटोपिया को वास्तविक जगहों से जोड़ती हैं और इस तरह एक आंबेडकरी प्रति संसार को गढ़ती हैं, या ऐसे वास्तविक स्थानों  की  रचना करती हैं, जो कभी-कभी ही लोगों से गुलजार लेने के बावजूद भी  अपनी लगातार उपस्थिति दर्ज कराये रहते हैं. आंबेडकर को सीधे संबोधित प्रज्ञा दया पवार का यह मंत्र इस स्थिति को भली-भांति व्यक्त करता है.
''हर साल 6 दिसंबर को बिना नागा मैं अपने बेटे प्रतीक हजारो मांओ, बहनों और भाइयों के साथ एक मोमबत्ती जलाती हूं और आपको सादर नमन करती हूं. आपकी स्पष्ट छवि मुझे प्रतीक तथा हजारों, लाखों करोड़ों आंबेडकरियों की गर्वित आंखों में दिखाई देती है. यह बहुत आशा भरा पल होता है जो हर दिन के संघर्षों के बीच डरावनी वास्तविकता के बीच हमें आने वाले कल के सपने देखने के लिये प्रेरित करता है. सच में आपने हम सब को बहुत सुंदर बना दिया है.''


आंबेडकरी (आंबेडकर के‘पढ़ो,संगठित हो और विरोध करो’ के आहान पर आधारित समुदाय) यूटोपिया एक आदर्श समाज के लिये प्रयत्नों की अभिव्यक्ति है, लेकिन अन्य यूटोपिया की तरह ही इसका कोई तयशुदा पता या भौतिक स्थान नहीं है. संगीत व आंबेडकरी साहित्य, जो आंबेडकरी संघर्ष के सबसे खास हथियार रहे हैं. इस यूटोपिया तथा जनमानस के बीच जुड़ाव तंतु का काम करते हैं, लोगों को उस संभावित राजनीतिक नैतिक पहचान से जोड़ते हैं, जिसे वे अपना सकें. इस संगीत व इन पुस्तिकाओं ने ही आंबेडकरी समुदाय को जन्म दिया है,  जिसके अपने खास दावे हैं और एक वैकल्पिक संस्थागत प्रचार तंत्र है.इसकी शुरूआत हुई स्वायत्त दलित स्त्री संगठनों के बीच सहयोग सूत्र जुड़ने से,  दलित स्त्री फेडरेशन व विचार मंचों के बनने से और बाद में दलित राजनीतिक दलों (भारतीय रिपब्लिकन पार्टी, बहुजन महासंघ व रिपब्लिकन पार्टी आॅफ इंडिया) की महिला शाखाओं के पुनर्जीवित होने से. दिसंबर 1996 में डा. प्रमिला सम्पत द्वारा चंद्रपुर में 'विकास वंचित दलित महिला परिषद'का आयोजन किया गया, जिसमें 25 दिसंबर का दिन भारतीय स्त्री मुक्ति दिवस के रूप में मनाने का प्रस्ताव रखा गया.यह प्रस्ताव ही स्त्री आंदोलन की जमीन पर आंबेडकर और स्त्रीवाद को लेकर शुरू हुए विचारात्मक व क्रियात्मक तनावों- मतभेदों की नींव बना. इस सम्मेलन के कुछ वर्षों बाद आंबेडकरी आंदोलन की याद दिलाते रहने वाले उसे पुर्नव्यखायपित व पुर्नसूचीबद्व करने वाले अहम औजार यानि आंबेडकरी पंचागों ने 25 दिसंबर को भारतीय स्त्री मुक्ति दिवस के रूप में उल्लिखित  करना शुरू कर दिया.

क्रमशः 

स्त्रीविमर्श में जाति, वर्ग और धार्मिक पहचान की महत्वपूर्ण भूमिका होनी चाहिए : नमिता सिंह

 वरिष्ठ रचनाकार और हिन्दी मासिक 'वर्तमान साहित्य'की पूर्व संपादक से स्त्रीविमर्श और स्त्री आन्दोलन पर बात कर रही हैं युवा लेखिका और 'हमरंग'के संपादन मंडल की सदस्य अनिता चौधरी की बातचीत : 

आज स्त्री आन्दोलन किस दिशा में चल रहा है ? या इसकी गति क्या है ?

आज हम अपने देश की बात करें तो स्त्री आन्दोलन एकांगी चल रहा है. उसके अपने कारण है. आज पूरे देश में रेप की घटनाएँ हो रही है. इस रूप में स्त्रियों के साथ जो व्यवहार पूरा समाज कर रहा है. अगर स्त्री आन्दोलन ऐसा ही चलता है तो वह जस्टिफाइड है क्योंकि समाज, स्त्रियों की एक सम्मानजनक स्थिति के लिए तैयार नहीं हो पा रहा है. इसके लिए बहुत बातचीत भी हो रही है. जब कभी कोई रेप की बड़ी घटना होती है. मोलीस्ट्रेशन की बात होती है, बड़ा  हल्ला-गुल्ला भी होता है. कैंडिल मार्च भी निकाले जाते है. लेकिन जब हम स्त्रियों के प्रति माइंड सैट करने की बात करते है तो वह एक दिन की बात नहीं होती.  एक सुनियोजित रूप में वातावरण तैयार करने की बात होती है इसके लिए लम्बे प्रयास करने होते है. इसलिए हम स्त्री आन्दोलन की बात करें तो आज जो स्त्रियों के प्रति हिंसा की घटना है. उससे जुडा हुआ लग रहा है.

अक्सर यह सुनने में आता है कि दशकों से स्त्री-विमर्श हो रहा है क्या अब भी इसकी आवश्यकता है ? 

स्त्री विमर्श का मतलब है कि स्त्रियों की स्थितियों पर बातचीत और उनके लिए एक न्यायोचित माहौल बनाने की बातचीत. यह बातचीत भी पिछले ढेड़ सौ या पौने दो सौ सालों से शुरू हुई है. उससे पहले इस तरह की कोई बात नहीं होती थी. खासतौर से उन्नीसवी शताब्दी में जब सुधारवादी आन्दोलन शुरू हुए, उस वक्त जो सबसे पहला कार्यक्रम बना, समाज सुधार में स्त्रियों की स्थिति. स्त्रियों के बंदी जीवन में समानता का कहीं कोई अवसर नहीं था. शिक्षा उनके लिए निषेध थी. उनकी कोई आवाज ही नहीं थी. तब से तो बात शुरू हुई. धीरे-धीरे आज हम इस स्थिति पर पहुँचे है कि स्त्रियों को संविधान में बराबर के अधिकार है. स्त्रियों के लिए राज्य की ओर से भी शिक्षा के लिए प्रबंध किये गए है और एक बड़ा मध्य वर्ग बना है. जिसमें सामान्यत: स्त्री और पुरुष की समानता की बात होती है. यह समानता की बात शिक्षा के स्तर पर भी होती है. लेकिन पूरे समाज का एक रवैया जो एक स्त्री को भी अपने बराबर समझने की बात करे, वह तो आज भी नहीं है. आज भी स्त्रियां असम्मानजनक स्थितियों में जी रही है. स्त्रियों के लिए समाज में एक सामान वातावरण बनाने के लिए जमीनी कोशिशें करनी पड़ेंगी, इसके बाद भी कितना लंबा वक्त लगेगा.  जिससे हम कुछ अचीव कर पाये इसलिए स्त्री विमर्श को कम करने का तो प्रश्न ही नहीं उठता है.

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दो पीढियां : नमिता सिंह, अनिता चौधरी 

 स्त्री सुरक्षा को लेकर जो कानून बनाए गए है | उनका असर आप समाज में कितना देखती है ?

स्त्रियों के लिए क़ानून तो बहुत पहले से ही बनाए जा रहे थे  लेकिन उनमें बहुत लूप होल्स  थे | धीरे-धीरे बात होती गई. महिला संगठनों ने भी इस पर बात की . दिसंबर २०१२ में निर्भया कांड से लोगों में ज्यादा जागरूकता आई. तब जस्टिस वर्मा कमेटी के सभी बिन्दुओं पर व्यापक रूप से चर्चा की गई और क़ानूनों में भी बदलाब किये गए  लेकिन क़ानून बना देने से भी तो कुछ नहीं होता. उसमें जो कठोर प्रावधान बने तो उसका नतीजा यह हुआ कि अब गैंगरेप करने के बाद लड़की की ह्त्या कर दी जाती है. जिससे सबूत भी मिट जाते है और जुर्म साबित भी नहीं होता है. कहने का मतलब यह कि समाज की स्थिति भी ज्यों की त्यों है. उसकी सोच में  एक रत्ती भर का परिवर्तन नहीं आया है. अंतर सिर्फ यह है कि अगर सबूत है और जुर्म  साबित हो जाता है तो उसको सजा मिल जायेगी. वरना आज से दस या बारह साल पहले जो आंकड़े लिए जाते थे तो उसमें कन्वेंशन रेट बढ़ा है. आज वह न्याय माँगते-माँगते तंग आ जाती है. जिसका अंत फिर सुसाइड में होता है. कितने ऐसे केस हुए है जहाँ बलात्कार की पीडिता ने अंत में आत्महत्या ही कर ली. इसलिए बदलाव तो यह आया है कि अब रेप होते है और सुबह ह्त्या हो जाती है. जिससे सबूत ही न रहे.

ऑनर किलिंग या साम्प्रदायिकता जैसे मुद्दों पर कितनी महिला लेखक है जो इन्हें अपनी लेखनी में शामिल नहीं कर रही है | आपको इसके क्या कारण नजर आते है ?

अगर मैं साम्प्रदायिकता की बात करू तो यह जरुर है कि बहुत महिलायें इन मुद्दों पर नहीं लिख रही है. उसका एक कारण यह है कि सांप्रदायिकता के प्रति लोगों का दृष्टिकोण बहुत साफ़ नहीं है. लोगों ने साम्प्रदायिकता को खाली एक दंगा या लड़ाई-झगडे के रूप में देखा है. दूसरा कारण राजनैतिक है जो विशेष रूप से सत्ता या व्यवस्था के साथ जुड़ा हुआ है. हमारे यहाँ पर लोग राजनीति से बहुत दूर रहते है और इसे बहुत बुरी चीज समझते और अक्सर कहते है कि    हमें राजनैतिक नहीं होना है. जब आप राजनैतिक ही नहीं होगें तभी तो आपको सम्मान और पुरूस्कार मिलेंगें. जब आप व्यवस्था पर चोट करोगे और उसे साम्प्रदायिकता का भागीदार बनाओगे तो वो आपको सम्मान देगा ?दूसरा यह है कि इस रूप में हमारी महिला लेखिकाएं सामाजिक आन्दोलनों से नहीं जुडी हैं. मैं अपने को बहुत सौभाग्यशाली समझती हूँ कि लेखन के साथ साथ मैं आन्दोलनों से भी जुड़ी रही. खासतौर यहाँ कुंवरपाल का भी योगदान रहा था. हमने साथ मिलकर साम्प्रदायिकता के माहौल में सद्भावना और एकता के लिए राजनैतिक स्तर पर काम करने और इन चीजों से रूबरू होने की वजह से हम पुरुस्कारों और सम्मानों से दूर रहे. इसलिए हमारी महिला लेखिकायें और बहुत से पुरुष भी इन मुद्दों पर नहीं आते है कि यह खतरे की चीज है |जहाँ तक ऑनर किलिंग की बात है. इसे समझाने की जरुरत है कि खुद लेखक भी इसी समाज का प्राणी है. उसने अपने आप को सामाजिक और राजनैतिक रूप से इतना शिक्षित नहीं किया है  कि वह इन सवालों पर आपके साथ आ सके. अभी हमारे समाज में बहुत से लेखक व लेखिकाएं हैं . जहाँ जातियों से अलग या इंटररिलिजन शादियाँ हो जाए तो उसे खुद भी अच्छा नहीं समझते हैं.  इसके लिए बहुत ही उदारवादी सोच व विचारधारा की जरुरत होती है. तब आप इस पर उतनी ही प्रखरता से बात कर पाओगे और उसे संवेदना के स्तर पर महसूस करोगे. इस विषय पर कुछ एक कहानियाँ है, बहुत ज्यादा तो नहीं है. हाँलाकि यह एक व्यापक रूप से विषय नहीं बना है. लेखक अपने आस-पास जो देखता है उसी पर लिख देता है लेकिन जब तक लेखक के पास पूरा वैचारिकता का आधार न हो तो वह मुश्किल होता है इन मुदद्दों पर अड़े रहना.

ऑनर किलिंग या साम्प्रदायिकता जैसी घटनाओं के पीछे आप धर्म या धार्मिक मान्यताओं को कितना जिम्मेदार मानती है ?

पहले धार्मिक मान्यतायें ऐसी थी जो आप को एक अच्छा इंसान बनने के लिए प्रेरित करती थी. आज धार्मिकता का स्वरुप वह नहीं रह गया है. आज यह सीधे-सीधे सत्ता और राजनीति के मंतव्यों से जुडी हुई है क्योंकि राजनीति ही धार्मिकता का माहौल बना रही है जिसका निश्चित ही अपना मकसद होता है. इसलिए ये जो धार्मिक मान्यताएं है, साम्प्रदायिकता में बदल गयी है क्योंकि वह व्यवस्था से जुड़ जाती है. जहाँ तक आपने ऑनर किलिंग की बात कही है. ये कमन्युनीटी खाप पंचायते हैं.जो जाटों की पंचायते है और मुस्लिम समुदाय की भी अपनी पंचायतें हैं जहाँ पर वे फतवे देते हैं. ये पंचायतें बहुत ही सामाजिक संकीर्णता की बात करती है. ये खाप पंचायतें वहां स्त्री विरोधी निर्णय लेकर जो पूरा माहौल बनाती हैं तो उसका विरोध कोई क्यों नहीं करता है. वे विरोध इसलिए नहीं करते हैं कि हमारे जो राजनेता हैं वे खाप पंचायतों के बीच में जाकर कहते हैं कि वे उनके बहुत बड़े हिमायती है. जबकि वे स्त्री विरोधी बातें कर रहे हैं | चूकिं राजनेताओं का खाप पंचायतों के रूप में एक बहुत बड़ा वोट बैंक हैं. ठीक यही स्थिति मुस्लिम समुदाय की भी है. उनके धार्मिक नेता भी फतवे जारी करते हैं. अगर विरोध किया तो उनके वोट चले जायेंगे इसलिए ये संस्थाएं वोट बैंक की राजनीति से जुड़ जाती हैं. एक प्रभावी रूप से उसका प्रतिवाद नहीं हो पाता.

वर्तमान समय में युवा पीढ़ी या ख़ास तौर से युवातियाँ, शादी जैसी संस्थाओं से विमुख हो रही हैं. आप इसके क्या कारण मानती हैं ?

खासतौर पर जब युवतियां शादी जैसी संस्था से दूरी बना रही है. उसका कारण है कि भारतीय पारम्परिक संस्कार में शादी के बाद, उस रुढीवादी पुरुष को पत्नी रूपी महिला पर डोमिनेंट होने का जो पारिवारिक वातावरण मिल जाता है.आज लड़की उस वातावरण से वैचारिक रूप से मुक्त होना चाहती है. उसने एजूकेशन के साथ जो विचारधारा पढी है उसी के अनुसार जीवन जीना चाहती है. लेकिन हमारे भारतीय परिवार और परम्परा की अवधारणा के अंतर्गत शादी के बाद पति को पत्नी पर कई सारे अधिकार मिल जाते है जो हर स्तर के होते है. चाहे वह सेक्स के रूप में हो या परिवार में डोमिनेंस के रूप में. आज की कोई भी पढी-लिखी लड़की किसी भी वर्ग की हो, उसकी भी अपनी मर्जी और इच्छा है. कोई जरुरी है, पति के चाहने पर बच्चे पैदा हो. वह नहीं चाहती तो यहीं पर क्लैश हो जाता है. यहाँ पर पति में अपने अधिकार की भावना जागृत हो जाती है. लड़कियों के पढ़ने-लिखने से उनमें एक स्वाभिमान, अपनेपन, अस्मिता और अपने व्यक्तित्व के प्रति सजगता की जो स्थिति आई है वहां पर इस तरह के क्लैशेज होना बहुत स्वाभिक है. इसलिए कई बार ठोस स्थूल कारण नहीं होने पर भी तलाक हो जाता है, इसीलिए वे कहती है कि हम इस तरह से बंधन में नहीं रह सकती. हम स्त्री सशक्तिकरण और स्त्रियों के प्रति हिंसा बात करते है लेकिन जब तक हमारे पुरूष समाज की एजूकेशन नहीं होगी तब तक ये चीजें सही नहीं हो सकती है. इसीलिए तलाक हो रहे है, अलग-अलग रहने की बात हो रही है, लिव इन रिलेशनशिप हो रही है या फिर शादी ही न करो. इन जड़ परम्पराओं या संस्कारों की वजह से भी इस युवा पर दूसरा समाधान तो है नहीं और न ही कोई आइडियोलोजी है इसीलिए उसे लगा कि सात फेरे लेना जिन्दगी का इतना बड़ा जहर बन जाए, इससे अच्छा है हम इससे दूर हो जाए.  यह केवल ग्लोबल इफेक्ट ही नहीं है इसमें लड़कियां पढ़-लिखकर एक चेतना संपन्न हो गयी है. यह भी एक कारण है. यह बदलाव सिर्फ हाई क्लास की लड़कियों में ही नहीं हैं. पहले की अनपढ़ और पढी-लिखी लड़कियां भी इस तरह के निर्णय ले रही है ,क्योंकि वह इस तरह के वातावरण को देख रही है तो उनकी मानसिकता में बदलाव है लेकिन यह बदलाव लड़कियों के स्तर पर तो हो रहा है. पूरे समाज के स्तर पर नहीं हो रहा है इसीलिए कॉण्ट्राडिक्शन्स पैदा हो रहे है. मैं हमेशा कहती रही हूँ कि जब भी हम स्त्री सशक्तिकरण और स्त्री विमर्श की बात करें तो यह केवल स्त्री समूहों के लिए नहीं है. पूरे समाज को एडजस्ट करने वाली बात कहें.


 धार्मिक संवाहक महिलायें ही मानी जाती है | अगर आप इस बात से सहमत है | तो क्यों ? अगर नहीं तो क्यों ?  

हाँ मैं इस बात से पूरी तरह से सहमत हूँ कि हमारे समाज में महिलायें ही संवाहक हैं. हमारे यहाँ जब से मानव समाज बना है. समाज में वर्ण आश्रम हुआ है. यह परम्परा तब से चली आ रही है.जब हमारा पुरुषवादी समाज बना और इसकी सामन्ती स्तिथियाँ आई. ब्राह्मणों और राजसत्ता में एक संघर्ष हुआ. उसके बाद क्षत्रीयों ने कहा कि यह राजसत्ता हमारी है, इसे  हम चलाएंगे, तुम समाज को चलाओ. अब समाज को चलाने में जो सबसे कमजोर तबका था वे स्त्रियों थी, जिन्हें आसानी से हेंडिल किया सकता था इसलिए ब्राह्मणों का वर्चस्व परिवारों की स्त्रियों के बीच रहा है. अगर हम एक दो पीढ़ी पीछे पास्ट में देखें तो कुछ लोग बहुत पढ़े-लिखे होने के साथ-साथ, बड़े उच्च पदों में हुआ करते थे लेकिन घर की औरतें बहुत ही पारम्परिक तरीके से परदे के पीछे रहा करती थीं. जो बिलकुल साक्षर नहीं होती थीं और बहुत ही धार्मिक कर्मकांडों को करने वाली थीं क्योंकि हमारे समाज में इसी प्रकार का डिवीजन हुआ कि पुरुष बाहर का ही देखेंगे, चाहे वह किसी भी क्षेत्र में कितना भी आगे बढे या उन्नति करे और स्त्रियाँ बिलकुल उन धार्मिक परम्पराओं को ही मानेंगी, जिन्हें हम भारतीय परम्परा कहते है. इन परम्पराएं को स्त्रियों ही शेप दे रही हैं. आज लड़कियां पढ़-लिखकर थोड़ा नौकरी कर रही है इस रूप में स्वतंत्र है लेकिन उनकी मानसिक स्थिति को बदलने की कोशिश नहीं की गई है. वे सारा कुछ उन्हीं परम्पराओं से ले रही हैं जो उनके तत्व कहे जा सकते हैं. आज, इन्हीं औरतों के बल पर धर्म आधारित आन्दोलन संचालित हो रहे हैं जो पूरी राजनैतिक व्यवस्था से जुड़े है. इस पर कभी किसी ने विचार करने की भी कोशिश नहीं की है और साथ ही इस बात पर भी महत्व नहीं दिया कि घर की औरतें की एजूकेशन और उनके लिए सही परिप्रेक्ष्य में देखना होना चाहिए.

आपको नहीं लगता है कि सम्पूर्ण स्त्री आन्दोलनों को इस दिशा में कोई सशक्त कदम उठाने चाहिए | और वो क्या कदम हो सकते है |   

आज से दस या बारह साल पहले स्त्री विमर्श पर बात करते थे (हांलाकि आज भी करते हैं) | तो हम कहते थे कि स्त्रियों की आपस में एकता होनी चाहिए. पूरी दुनिया की औरतों की एक सी कठिनाईयां, कष्ट और समस्याएं है | हमने देखा कि समाज में आज भी वर्णवादी व्यवस्था बहुत निर्मम है. दलितों की स्थितियां देखी या २००२ में गुजरात देखा उससे पहले भिमंडी देखा. यह सब देखकर हमारी स्त्री विमर्श की अवधारणा बिलकुल समाप्त हो गयी इसलिए स्त्रियों पर बात करते वक्त हमारा बयान वर्ग आधारित होना चाहिए. बिना वर्ग आधारित स्त्री विमर्श किये, हम सही नतीजों पर नहीं पहुंच सकते है. हमें दलित स्त्रियों की अलग तरह से बात करनी पड़ेगी और वहीँ हमें ग्रामीण स्त्रियों की बात दूसरी तरीके से करनी होगी, जहाँ ईशूज भी दूसरे हो जायेंगे. शायद जो पहले महत्वपूर्ण नहीं थे, लेकिन दूसरी जगह महत्वपूर्ण हो जायेंगे. इस तरह से जब हम धार्मिक पहलू पर बात करेंगे तो हमारी एप्रोच मिडिल क्लास औरतों के लिए दूसरी हो जायेगी जहाँ पर कि हमें कहना पड़ेगा कि धर्म के आधार पर एक समूह की औरतों पर अत्याचार होता है. उसके लिए कौन जिम्मेदार है ? कैसे हम उसका निराकरण कर सकते है ? यह हमारी क्लास बेस्ड एप्रोच होनी चाहिए. उसके बिना हम सही नतीजों पर नहीं पहुँच सकते और न ही सही तरीके से बात कर सकते है.

अधिकतर कहानियों में कहानी के बिंदु घरेलू होते है, राजनैतिक नहीं होते है | इसके क्या कारण है कि स्त्रियां राजनैतिक मुद्दों पर नहीं लिखती है जो लिखती है उनका प्रतिशत न के बराबर रहता है ? 

आज कुछ लेखिकाएं इन मुद्दों को ले रही है लेकिन अभी भी बहुत बड़ी संख्या में महिला लेखिकाएं ऐसी है जो घरेलू और आपसी मुद्दों को ही लेती हैं. उसका कारण यह कि औरतें अपने दुखों से ही इतनी परेशान होती है लेकिन कुछ लेखिकाएं है जिनकी नजर सभी जगहों पर नजर जा रही है. उन्होंने आदिवासियों पर, विस्थापन पर और जाति व्यवस्था की विद्रूपताओं पर लिखा है और उनमें राजनैतिक विषय भी है. लेकिन मैं इस बात को मानती हूँ कि राजनीति में लिखना जो है अपने आप को अग्निपथ से निकलना है और जितनी बड़ी लेखिकाएं हैं वो सब महिलायें बड़े-बड़े सम्मानों और पुरुस्कारों से विभूषित हो चुकी है. वे नहीं लिख सकती क्योंकि इन्हें व्यवस्था और पूरी सत्ता पर चोट करनी पड़ेगी. अगर आज हम गंभीर लेखन के जरिये  सांप्रदायिकता पर चोट कर रहे है तो कैसे सत्ता व्यवस्था को छोड़ देंगे. मेरा उपन्यास ‘लेडीज क्लब’ और बहुत सारी कहानियाँ है जैसे- राजा का चौक है उसमें हम कैसे इन मुद्दों को छोड़ सकते है. अगर इन सब बातों पर लिखते है तो सत्ता व्यवस्था से अलग नहीं हो सकते है. मेरा मतलब है कि जब आप इन सब मुद्दों पर लिखेंगे तो आपको रायपुर कैसे बुलाया जाएगा (हंसते हुए) ? दूसरी एक बात और है| जैसे मैत्रेयी है, उन्होंने अपनी इमेज एक नारीवादी लेखिका के तौर पर बनाई है.अब सवाल उस इमेज को बनाए रखने का भी है | अगर आप स्त्रीवादी है और आपके लेखन में इससे इतर कोई बात आ रही है जैसे हम यह दिखा रहे है कि स्त्रियों पर भी आजकल के माहौल, ग्लोबलाइजेशन या बाजारवादी संस्कृति का असर है.उससे भी कभी-कभी औरतें भी शोषक के रूप में व्यवहार करने लगती है.इससे उनकी जो इमेज बनी हुई है वह खराब होगी. कई बार ऐसा होता है कि आपको अपनी इमेज को बनाये रखने के लिए एक ख़ास तरह का लेखन करना पड़ता है  तो यह भी एक मजबूरी हो जाती है कि जो इमेज बन गयी है उसको भी सुरक्षित रखने की जरूरत होती है. इसीलिए एक लेखक के तौर पर हमारा दृष्टिकोण सारभौमिक हो.जिससे हम राजनीति और साम्प्रदायिकता जैसे मुद्दों पर भी बात कर सके.


सेलेब्रटिंग कैंसर

विभा रानी
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लेखिका, रंगमंच में सशक्त उपस्थिति, संपर्क :मो- 09820619161 gonujha.jha@gmail.com

‘आपको क्यों लगता है कि आपको कैंसर है?’
‘मुझे नहीं लगता.‘
‘फिर क्यों आई मेरे पास?’
‘भेजा गया है.‘
‘किसने भेजा?’
‘आपकी गायकोनोलिज्स्ट ने.‘
और छ्ह साल पुरानी केस-हिस्ट्री- ‘बाएँ ब्रेस्ट के ऊपरी हिस्से में चने के दाल के आकार की एक गांठ. अब भीगे छोले के आकार की. ....कोई दर्द नहीं, ग्रोथ भी बहुत स्लो. मुंबई-चेन्नै में दिखाया- आपके हॉस्पिटल में भी. लेडी डॉक्टर्स से भी. हंसी आती है, साइज की इस घरेलू तुलना से. हंसी आती है अपनी बेवकूफी पर भी कि ब्रेस्ट-युट्रेश की बात आने पर सबसे पहले हम गायनोकॉलॉजिस्ट के पास ही दौड़ती हैं.‘

यह है हम आमजन का सामान्यमेडिकल ज्ञान- फिजीशियन, सर्जन, गायनोकॉलॉजिस्ट में अटके-भटके. छह साल मैं भी इस-उसको दिखाती रही. सखी-सहेलियों के संग गायनोकॉलॉजिस्ट भी बोलीं- ‘उम्र के साथ दो-चार ग्लैंड्स हो ही जाते हैं. डोंट वरी.‘ और मैं निश्चिंत अपनी नौकरी, लेखन, थिएटर, घर-परिवार में लगी रही.
धन्यवाद की पात्र रहीं गायनोकॉलॉजी विभाग की नर्स! डॉक्टर से मिलने की वजह जानकर बोली- ‘मैडम! आप सीधा ओंकोलोजी विभाग में जाइए. ये भी आपको वहीं भेजेंगी. आपका समय बचेगा’
दिल धड़का- "ओंकोलॉजी!"फिर खुद ही हंसी में उड़ा दिया- "विभा डार्लिंग! आज तक कभी तुझे कुछ हुआ है जो अब होगा."

डॉक्टर मुझसे भी महान! बोला- ‘मुझे फायब्रोइड लगता है. डजंट मैटर. आप जिंदगी भर इसके साथ रह सकती हैं."मेरा खुला या भौंचक चेहरा देखकर टालू अंदाज में कहा- "फिर भी, गो फॉर मैमोग्राफी, मैमो-सोनोग्राफी, बायप्सी एंड कम विथ रिपोर्ट.‘ मेरे लिए हर क्षेत्र अनुभव का नया जखीरा. इसके लुत्फ के लिए मैं हमेशा तैयार! मेरे शैड्यूल में एक महीने, यानि दीवाली तक मेरे पास समय नहीं. आज संयोग से कोई मीटिंग, रिहर्सल नहीं- सो काल करे सो आज कर, आज करे सो अब्ब’. मैमोग्राफी विभाग ने कहा, ‘बिना एप्पोइंटमेंटवाले पेशेंट को वेट करना होता है. मैं तैयार, पर  अकेली, अजीब घबडाहट और बेफिक्री का भाव लिए. अपने किसी काम के लिए किसी को साथ ले जाना मुझे उस व्यक्ति के समय की बरबादी लगती.अस्पताल जाना भी उनमें से एक था. अजय (पति) को फोन कर दिया कि कुछ टेस्ट के लिए रुक गई हूँ. करवाकर आऊँगी. मैंने ही इसे गंभीरता से नहीं लिया था तो वे क्या लेते!

 मजाक में कहती रहती थी- "मेरा ब्रेस्ट! रोलर प्रेस्ड!!"इस रोलर प्रेस्ड ब्रेस्ट ने मैमोग्राफी की तकलीफ को चौगुना कर दिया. टेक्नीशियनों की भी उलझन चुनौती की तरह मुंह बाए थी-"करो इस सपाट छाती की मैमोग्राफी.“ चुनौती स्वीकारी गयी और मेरी तकलीफ कई गुना बढ़ा गई. मैंने लिखा-
यह स्तन है या नींबू या नारंगी!
यह मशीन है या किसी आतताई के हाथ,
जिसकी नजर में स्तन हैं
मांस का लोथड़ा भर!
चक्की के ये दो पाट!
आओ, और भर दो इन दो पाटों के बीच
अपने जीते-जागते बदन को-खुद ही!
भरो चीख भरी सिसकारियाँ,
कोई नहीं आएगा इन बड़े बड़े डैनेवाले गिद्धों से
तुम्हें बचाने!
स्त्रियॉं का यह अंग किस-किस रूप में छलता है
खुद को!

बायप्सी की तकलीफ का भी अंदाजाथा नहीं. डॉक्टर ने कहा था- "एक इंजेक्शन देकर फ्लूइड का सैम्पल लेंगे. बस!” लेकिन जब सुई चारों कोनों से कट कट मांस काटती गई तब बायोप्सी के दर्द का पता चला. ट्रे में खून से लिथड़ी रुई ने नर्वसनेस को और बढ़ा दिया.  तन-मन से कमजोर अब मैं घर जाने के लिए अस्पताल से बाहर आई. गाड़ी लेकर गई नहीं थी. ऑटोवाले रुक नहीं रहे थे. एक रुका, पर जाने से मना कर दिया. मैंने कहा, ‘भैया, अस्पताल से आई हूँ. चक्कर आ रहा है, ले चलो.‘ उसने फटाक से कहा- “तो अस्पताल से लेना था न!” मैं बोली- “वहाँ कोई ऑटो रुक नहीं रहा था, इसलिए रोड तक आई हूँ. देख नहीं रहे, गाड़ी का सहारा लिए खड़ी हूँ.“ उसने फिर से एक पल देखा, बेमन से बिठाया, घर छोड़ा. लेकिन, जबतक मैं लिफ्ट में चली नहीं गई, रुका रहा. छोटे छोटे मानवीय संवेदना के पल मन को छूते हैं.


चेक-अप करवाकर मैं भोपाल चलीगई- ऑफिस के काम से. ऑफिस और मेरी व्यस्तता का चोली दामन का साथ है. उसमें भी तब, जब आपके कार्यालय का निरीक्षण हो और सारी जिम्मेदारी आप पर हो. लिहाजा, व्यस्तता में भूल गई सब. चार दिन बाद अचानक याद आने पर अजय को फोन किया. वे बोले- ‘रिपोर्ट पोजिटिव है, तुम आ जाओ, फिर देखते हैं.‘ यह 18 अक्तूबर, 2013 की रात थी. ऑफिस के काम से चूर इस रिपोर्ट से दिल एकबारगी फिर ज़ोर से धड़का. रात थी. पार्टी चल रही थी. मैं भी पार्टी में शामिल हुई. मन न होते हुए भी खा रही थी, हंस-बोल रही थी. दिन रात कुछ न कुछ तकलीफ़ों के बावजूद आज तक मेरी सभी रिपोर्ट्स ठीक-ठाक आती थीं. मन हंसा- ‘कुछ तो निकला.‘ दूसरा मन कह रहा था, गलत होगी रिपोर्ट! फिर भी अजय से कहा, "मेरे पहुँचने तक फैमिली डॉक्टर से दिखा लो."दूसरे दिन फ़ैमिली डॉक्टर ने भी कन्फ़र्म कर दिया. मतलब, "वेलकम टु द वर्ल्ड ऑफ कैंसर!"

डॉक्टर भी रिपोर्ट देख चकरा गया- ‘कभी-कभी गट फीलिंग्स भी धोखा दे देती है.‘ डॉक्टर ने बड़े साफ और संक्षिप्त शब्दों में बीमारी, इलाज और इलाज के पहले की जांच- प्रक्रिया बता दी. कैंसर के सेल बड़ी तेजी से बदन में फैलते हैं, इसलिए, शुभस्य शीघ्रम.....! इस बीच मुझे ऑफिस के महत्वपूर्ण काम निपटाने थे, एक दिन के लिए दिल्ली जाना था- ऑफिस के एक टेस्ट में भाग लेने. लौटकर विभागीय मीटिंग करनी थी, क्योंकि छुट्टी लंबी लेनी थी. डॉक्टर ने 30 अक्तूबर की डेट दी. ना! इस दिन कैसे करा सकती हूँ! चेन्नै-प्रवास के कारण तीन साल से अजय के जन्म दिन पर नहीं रह पा रही थी. इसबार तो रह लूँ. तो 1 नवंबर, 2013 तय हुआ- ऑपरेशन के लिए.

अभीतक केवल ऑफिसवालों कोबताया था. रिशतेदारों की घबडाहट का अंदाजा हमें था. वर्षों पहले कैंसर से मामा जी को खोने के बाद दो साल पहले ही अपने बड़े भाई और बड़ी जिठानी को कैंसर से खो चुकी थी. घाव ताजा थे, दोनों ही पक्षों से. इसलिए दोनों ही ओर के लोगों को संभालना और उनके सवालों के जवाब देना...बड़ी कठिन स्थिति थी. हमने निर्णय लिया कि इलाज का प्रोटोकॉल तय होने के बाद ही घरवालों या हित-मित्रों को बताया जाए.

आशंका के अनुरूप छोटी जिठानीऔर दीदियों के हाल-बेहाल! मैं हंस रही थी, वे रो रही थीं. मैंने ही कहा- ‘मुझे हिम्मत देने के बजाय आपलोग ही हिम्मत हार बैठेंगी तो मेरा क्या होगा?” मैंने तय किया था, बीमारी की तकलीफ से भले आँसू आएँ, बीमारी के कारण नही रोऊंगी. जब भी हालात से विचलित होती, सोचती, मुझसे भी खराब स्थिति में लोग हैं. मन को  ताकत मिलती. यहाँ भी सोचा, ब्रेस्ट कैंसर से भी खतरनाक और आगे की स्टेज के रोगी हैं. वे भी तो जीते हैं. उनका भी तो इलाज होता है. पहली बार मैंने अपने बाबत सोचा- मुझे मजबूत बने रहना है. अपने लिए, पति के लिए, बेटियों के लिए.

‘शहर में जब चर्चा चली तो किस्से-आम होने लगे. हम कैंसर या किसी भी बीमारी पर बात करते डरते- कतराते हैं. इससे दूसरों को जानकारी नहीं मिल पाती. मुझे लगता है, हमें अपनी बीमारी पर जरूर बातचीत करनी चाहिए, ताकि हमारे अनुभवों से लोग सीख-समझ सकें और बीमारी से लड़ने के लिए मानसिक रूप से तैयार हो सकें. याद रखिए, धन तो आप कहीं से भी जुटा लेंगे, लेकिन मन की ताकत सिर्फ आप अपने से ही जुटा सकते हैं. आपके हालात पर जेनुइनली रोनेवाले भी बहुत मिलेंगे, लेकिन आपको ही उन्हें बताना है कि ऐसे समय में आपको उनके आँसू नहीं, उनके मजबूत मन चाहिए.


निस्संदेह कैंसर भयावह रोग है.यह इंसान को तन-मन-धन तीनों से तोड़ता है और अंत में एक खालीपन छोड़ जाता है. लेकिन इसके साथ ही यह भी बड़ा सच है कि हम मेडिकल या अन्य क्षेत्रों के प्रति जागरूक नही होते. जबतक बात अपने पर नहीं आती, तबतक अपने काम के अलावा किसी भी विषय पर सोचते नहीं. इससे भ्रांतियाँ अधिक पैदा होती हैं. कैंसर के बारे में भी लोग बहुत कम जानते हैं. इसलिए इसके पता चलते ही रोगी सहित घर के लोग नर्वस हो जाते हैं. हम भी नर्वस थे. मेरा एक मन कर रहा था, हम सभी एक-दूसरे के गले लगकर खूब  रोएँ. लेकिन हम सभी- मैं, अजय, मेरी दोनों बेटियाँ- तोषी और कोशी – अपने-अपने स्तर पर मजबूत बने हुए थे.

मेरा कैंसर भी डॉक्टर से शायदआँख-मिचौनी खेल रहा था. ऑपरेशन के समय डॉक्टर ने मुझे केमो पोर्ट नहीं लगाया- ‘आपका केस बहुत फेयर है. सैंपल रिपोर्ट आने के बाद हो सकता है, आपको केमो की जरूरत ही न पड़े. केवल रेडिएशन देकर छुट्टी.‘ किसी भी मरीज के लिए इससे अच्छी खबर और क्या हो सकती है!
     
ऑपरेशन के बाद अलग अलग कोंप्लीकशंस के बाद आईसीयू की यात्रा करती एक्यूट यूरिन इन्फेक्शन से जूझने के अलावा हालत बहुत सुधर चुकी थी. मेरे मित्र रवि शेखर एक म्यूजिक बॉक्स छोड़ गए. सुबह से शाम तक धीमे स्वर में वह मुझे अपने से जोड़े रखता. नर्स ने एक्सरसाइज़ बता दिए. दस दिन बाद घर पहुंची, एक पूर्णकालिक मरीज बनकर. अजय और बच्चे मेरे कमरे, खाने, दवाई के प्रबंध में जुट गए. मुझे सख्त ताकीद, कोई काम न करने की, खासकर प्रत्यक्ष हीट से बचने के लिए किचन में न जाने की. पूरे जीवन जितना नहीं खाया-पिया, आराम नहीं किया, अब मैं कर रही थी. शायद आपकी अपने ऊपर की ज्यादती प्रकृति भी नहीं सहती. उससे उबरने के इंतज़ाम वह कर देती है. तो क्या मेरा कैंसर प्रकृति का दिया इलाज है? या जीवन और नौकरी में आए वे पल और झंझावात, जिन्हें समझनेवाला कोई नहीं और जो गहरे जाकर गाँठ बना गया? या मैंने ही किसी के साथ नहीं बांटा- "रहिमन निज मन की व्यथा, मन ही राखो गोय. सुनि इठलैन्हि लोग सब, बाँटि न लैंहे कोय."

सैंपल रिपोर्ट आ गई- पहला स्टेज,ग्रेड III! डॉक्टर ने समझाया- "चोरी होने पर पुलिस को बुलाते हैं, आतंकवादी के मामले में कमांडोज़. ग्रेड 3 यही आतंकवादी हैं, जो आपके ब्रेस्ट और आर्मपिट नोड्स में आ चुके हैं. इसलिए केमो अनिवार्य!"केमो स्पेशलिस्ट ने एक संभावित तारीख और निर्देश दे दिए- 23 नवम्बर- ‘सर्जरी के तीन से चार सप्ताह के भीतर केमो शुरू हो जाना चाहिए. चूंकि, केमो कैंसर सेल के साथ-साथ शरीर के स्वस्थ सेल को भी मारता है, इसलिए इसके साइड इफ़ेक्ट्स हैं- भूख न लगना, कमजोरी, चक्कर आना, बाल गिरना आदि.‘

तीसरा सप्ताह चढ़ा कि नहानेके समय हाथ में मुट्ठी-मुट्ठी बाल आने लगे. केमो की तैयारी के लिए पहले ही मैंने बाल एकदम छोटे करा लिए थे-पिक्सी कट. लंबे बालों के गिरने से बेहतर है छोटे बालों का गिरना. फिर भी बालों के प्रति एक अजीब से भावात्मक लगाव के कारण और बाल गिरेंगे, यह जानते हुए भी मैं अपने-आपको रोक ना सकी और फूट-फूटकर रोने लगी. अजय और कोशी भागे-भागे आए. कारण जानकर दिलासे देने लगे. कोशी ने अवांछित बाल हटाकर खोपड़ी को समरूप-सा कर दिया. लेकिन, आईना देख खुद को ही नहीं सह पाई. झट सर पर दुपट्टा लपेट लिया. रात में तोषी के आने पर मैंने कहा कि मेरा चेहरा बहुत भयावना लग रहा है. उसने मुझे अपने गले से लगाते हुए कहा, ‘ऐसा कुछ नहीं है, तुम अभी भी वैसी ही प्यारी लग रही हो.‘

एक-दो दिन बाद स्थिर होकर खुद को देखा- नाटक ‘मि. जिन्ना’ करते समय अक्सर गांधी की भूमिका की सोचती. तब हिम्मत नहीं थी. लेकिन अब मुझे अपनी टकली खोपड़ी से प्यार हो गया. उसे ढंकती नहीं, न घर में न बाहर में. यह अपना आत्म-विश्वास है. मुझे देखनेवाले कहते हैं- ‘यह ‘कट’ आप पर बहुत सूट कर रहा है.‘ किसी ने मौंक कहा, किसी ने कहा, "आप बिलकुल वाटरवाली शबाना आज़मी लग रही हैं."शबाना से मेरी तुलना शुरू से की जाती रही है. लेकिन अब मैंने कहना शुरू कर दिया था, "मैं नहीं, वो मुझसे मिलती हैं." (आखिरकार अब मेरी भी एक हैसियत है-लेखक, कवि, ट्रेनर, थिएटर एक्टर.)


केमो पोर्ट न लगाने के कारणइंट्रावेनस केमो दिया गया. लेकिन तीसरे केमो तक आते-आते सारी नसें फायर कर गईं. नसें काली पड़ गईँ और काफी दर्द रहने लगा. डॉक्टर बोले- ‘आपकी नसें काफी सेंसिटिव हैं. आमतौर पर ऐसा छह महीने बाद होता है, आपके साथ डेढ़ महीने में ही हो गया. अभी 13 केमो बाकी हैं, सो केमो पोर्ट लगाना होगा. इसके लिए और मार्जिन टेस्ट के लिए फिर से ऑपरेशन!

मेडिकल और शिक्षा- दो ऐसे क्षेत्र हैं,जहाँ आप डॉक्टर और शिक्षालयों के गुलाम हो जाते हैं. मार्जिन टेस्ट में ऑपरेशनवाली जगह से ही वहाँ का सैंपल लेकर टेस्ट के लिए भेजा गया, ताकि कैंसर –सेल्स की स्थिति का पता चल सके. रिपोर्ट आ गई. डॉक्टर ने बताया कि आप अब खतरे से बाहर हैं. लेकिन केमो, रेडिएशन, खाना-पीना, आराम- शिड्यूल के मुताबिक! पहले 4 केमो के एक सेट के बाद दूसरे सेट में 12 केमो- साप्ताहिक. केमो से भूख बहुत लगती और अस्पताल का खाना! केमो में दिन भर लगता. चुराकर घर से खाना ले जाती. हर केमो की अपनी दुश्वारियां. कभी सबकुछ सामान्य रहता. कभी एकदम कंप्लीकेटेड. एक साइकिल में ज़बान ऐंठ गई तो एक में शरीर में जर्क आने लगा.

इसी बीच इंफेक्शन हो गयाऔर फिर 10 दिन अस्पताल में. जांच पर जांच और बिल पर बिल. मैं सोचती रहती, “क्या ये सभी जांच जरूरी भी थे?” फिर से वही बात आने लगी दिमाग में, “शिक्षा और चिकित्सा- ये दो क्षेत्र ऐसे हैं, जहां आप कुछ नहीं कर सकते.“ इंफेक्शन और इसके इलाज के कारण मेरा केमो 15 दिन आगे टल गया. मेरे साथ की दूसरी महिलाओं का आखिरी केमो आता. केमो से निकलने की ख़ुशी चहरे पर साफ़ नज़र आती. वे बाकियों को दिलासे देतीं. मुझे भी मिले और मैंने भी दिए.

16 केमो के बाद रेडिएशन. फिर से उसका पूरा प्रोटोकॉल. 35 सिटिंग. सोमवार से शुक्रवार. प्रतिदिन. उसके लिए अलग से काउन्सिलिंग. अलग से बचाव के उपाय! प्रभावित जगह पर पानी, साबुन, क्रीम का प्रयोग वर्जित. ब्रेस्ट के कारण गले पर भी असर पड़ा. आवाज़ फट से गई. धीरे धीरे रेडियेशन से जगह झुलसकर काली पड़ने लगी. साइकिल पूरा होने पर एक महीने का पूर्ण आराम.
 
ये सब तो शिड्यूल में था. जो नहीं था और जिसे मैंने अपने लिए तय किया था, वह था खुद को बिजी रखना. केमो के दो सप्ताह तक मैं उठने की हालत में नहीं रहती. उसके बाद एक सप्ताह “बेहतर” रहती. साप्ताहिक केमो मे तो और भी मुश्किल थी. जबतक तबीयत थोड़ी संभलती, फिर से नए केमो का दिन आ जाता. लेकिन अपने इन तथाकथित ‘बेहतर’ दिनों को मैंने तीन भागों में बाँट दिया- लिखना, पढ़ना और वीडियो बनाना. खूब किताबें पढ़ीं- हिन्दी, अँग्रेजी, मैथिली की. लिखा भी- कई कहानियाँ, कविताएँ और नाटक "मटन मसाला चिकन चिली."उसे प्रोड्यूस किया. CAN शीर्षक से इस मौके पर लिखी कविताओं का संग्रह तैयार है-अँग्रेजी और हिन्दी में- द्विभाषी. “सेलेब्रेटिंग कैंसर” नाम से ही आत्मकथात्मक किताब लिख रही हूँ. यह एक प्रयास है रचनात्मक तरीके से लोगों को कैंसर के बारे में बताने का, कैंसर से न डरने का, इससे लड़ने का साहस और इसके प्रति सकारात्मकता तैयार करने का. इंस्टाग्राम पर 15 सेकेण्ड के वीडियो बनाने की सुविधा है. चुनौतियों में जीना स्वभाव में है. भोजपुरी गीतों और बच्चों की बातों को लेकर वीडियो बनाने और यूट्यूब पर पोस्ट करने लगी. फिर उन्हें एडिट करके कई फ़िल्में बनाकर पोस्ट कीं. हर रोज खूब फल खाना पड़ता. ‘सत्यमेव जयते’ प्रोग्राम में घर में खाद बनाने की विधि बताई गई. मैंने फलों के छिलके से खाद बनाना शुरू कर दिया. थोड़ी बहुत बागवानी भी कर लेती. पोए साग की पहली फसल मेरी खुशी कई गुना बढ़ा गई.

इसी समय शुरू किया- “अवितोकोक्रिएटिव इवानिंग” कार्यक्रम! “रूम थिएटर” की अवधारणा पर आधारित! चूंकि इन्फेक्शन के डर से घर से निकलने की इजाज़त नहीं थी, इसलिए इसे घर पर ही शुरू किया. शनिवार को केमो लेती. केमो के बाद रात भर नींद नहीं आती. पर, इतवार को ‘रूम थिएटर’ के लिए तैयार हो जाती. अमूमन 36 घंटे के बाद मैं सो पाती. सभी ने मेरा बहुत साथ दिया और घर पर ही हमने ‘एक्सपेरिमेंटिंग थिएटर’ से लेकर ‘मंटो’ पर नाटक की कई प्रस्तुतियाँ कीं. 25-30 लोगों के बैठने की क्षमतावाले घर में 60-70 लोग आए.


अप्रैल, 2013 के गीताश्री केसंपादकत्व में निकलनेवाली हिन्दी पत्रिका ‘बिंदिया’ में मेरा एक लेख छपा. दरअसल, उन्होने ही मुझे इस पर लिखने के लिए प्रेरित किया, जबकि मैं उसके छपने के बाद के परिणाम को लेकर थोड़ी परेशान थी. अंतत: वही हुआ. उसके छपते और उसे फेसबुक पर पोस्ट करते ही जैसे भूचाल आ गया. फोन, मेल, फेसबुक मेसेज! सभी मुझे इस तरह दिलासे देने और रोने लगे, जैसे मैं सचमुच मर गई होऊँ! उनके फोन दिलासे के बदले हतोत्साहित करते. अजय ने कड़े शब्दों में मुझे किसी का फोन लेने या किसी से बात करने से मना कर दिया. कुछ मेरे पास आना चाहते थे. मुझे पता था, वे मुझसे मिलने के बहाने मेरी  और भी कुरूप पड़ गई सूरत को देखना चाहते हैं. उन सबने कैंसर के बारे में सुन भर रखा था, उसे नजदीक से देखा नहीं था और मैं उनके लिए एक रेडीमेड उपकरण बनकर आ गई थी. वे सब आए. मैं उनसे मिली- अपनी गंजी खोपड़ी, सूनी पलकों और भौंहों, लेकिन जीवंत मुस्कान और जीवन की एक नई आस के साथ- उन्हें ही दिलासे देती और खूब मुसकुराती हुई.

आज इन सबसे निकल आई हूँ. केमो, रेडिएशन का प्रोटोकॉल पूरा करने और एक महीना आराम करने के बाद ऑफिस आना शुरू किया. मेरे साथ मेरा काम मेरा इंतज़ार करते रहते हैं या मैं काम के बगैर जी नहीं सकती, पता नहीं. दफ्तर के दौरे के साथ-साथ साहित्यिक और नाट्य दौरे शुरू हो चुके हैं. सितंबर, 2014 में एसआरएम, चेन्नै का पहला दौरा- विशिष्ट अतिथि के रूप में! दिसंबर, 2014 में आजमगढ़ में नाटक ‘भिखारिन’ का पहला शो. रायपुर साहित्य महोत्सव का संयोजन और इन सबसे ऊपर ऑफिस की तमाम जिम्मेदारियाँ. जीवन की दूसरी पारी का व्यस्ततम दौर शुरू हो चुका है. दवा और फॉलो- अप चल रहा है. खान-पान और आराम अभी भी बहुत ज़रूरी है. कमजोरी अभी भी है. लेकिन, खुद को व्यस्त रखना बहुत सी परेशानियों से निजात दिलाता है. अजय, तोषी, कोशी सभी मुझे समझाते रहते हैं. मैं थोड़ा उनको और थोड़ा खुद को समझाती-समझती रहती हूँ.

कुछ दिन लगते हैं, अपने-आपसेलड़ने में, खुद को तैयार करने में. लेकिन, अपना मानसिक संबल और घरवालों का संग-साथ कैंसर क्या, किसी भी दुश्वारियों से निजात की संजीवनी है. यह आपको कई रास्ते देता है- आत्म मंथन, आत्म-चिंतन, आराम, खाने-पीने और सबकी सहानुभूति भी बटोरने का (हाहाहा). यह ना सोचें कि आप डिसफिगर हो रही हैं. यह सोचें कि आपको जीवन जीने का एक और मौका मिला है, जो शत-प्रतिशत आपका है. इसे जिएँ- भरपूर ऊर्जा और आत्म-विश्वास से और बता दीजिये कैंसर को कि आपमें उससे लड़ने का माद्दा है. सो, कम एंड लेट्स सेलेब्रेट कैंसर!
क्या फर्क पड़ता है कि
सीना सपाट है या उभरा
चेहरा सुंदर है या बिगड़ा
सर पर बाल हैं या है यह टकला
जीवन इससे बढ़कर है
यौवनमय, स्फूर्त और ताज़ा,
आइये, मनाएँ इसे भरपूर,
जिएं इसे भरपूर !                              

साहस का सौंदर्यशास्त्र गढ़ती नायिकाएं

मेधा
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  आलोचक , सत्यवती महाविद्यालय ,दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाती है . संपर्क :medhaonline@gmail.com

पुरानी कहावत है -‘भेस-वेश से भीखमिलती है’। वेश को लेकर एक कहावत और भी है- ‘जैसा देश वैसा वेश।’ दोनों ही कहावतों में वेश की बात तो है ही, वेश से जो साधा जाता है, उसका भी संकेत है। पहली कहावत कहती है कि आपका वेश देखकर लोग आपके बारे में धारणा ही नहीं बनाते उस धारणा के इर्द-गिर्द ही आपके साथ बरताव भी करते हैं। दूसरी कहावत इसी बात को आगे बढ़ाती है। वह कहती है कि वेश को लेकर हर देश में अलग धारणा होती है। सो जिस देश में पहुंचो वेश वैसा बना लो। मतलब साफ है वेश से आपकी सूरत और आपकी सीरत का गहरा नाता है। तो फिर बात इससे शुरू करें कि सुंदर देश और सुंदर वेश कौन सा है? जो कपड़े सबसे ज्यादा बिकते हैं या कह लें अगर पैसे कौड़ी हों तो जिन्हें लोग सबसे पहले खरीदें वह सबसे सुंदर कपड़ा है। इसी तर्क से सबसे महंगे कपड़े सबसे सुंदर कपड़े हैं। सबसे सुंदर और सबसे महंगा का एक देश है। इस देश को अब मॉडलिंग और व्यवसायिक सिनेमा के नाम से जाना जाता है। एश्वर्या राय और उन जैसी अन्य मॉडलों और सिने तारिकाएं इस देश की नायक हैं। इस देश में देह की एक धारणा है जहां स्त्री घुटने से ऊपर और गर्दन के नीचे तक ही होती है। इस देश में स्त्री के सौंदर्य का जो प्रतिमान है उसी के अनुकूल इसके नायकों का वेश बनता है। मॉडलिंग और सिनेमा के देश के इन नायकों ने अपने को अपने देश के वेश में ढाला।

इस दुनिया में कमनीयता और यौवनएक गुण है इसलिए अपनी उम्र को रोकना, देह पर पड़ती लकीरों को यथासंभव छुपाना और कदाचित सदा हरित दिखाना यहां एक धर्म बन जाता है। इस धर्म को निभाती हैं ये तारिकाएं और मध्यवर्गीय कामना का प्रतीक बन जाती हैं। और इस देश का बड़बोला मध्यवर्ग भला कब सोच सकता है कि स्त्री का जीवशास्त्र उसके समाजशास्त्र से अलग होता है। उसमें कोख है तो रोग भी है। मध्यवर्ग अपने मानस में स्त्री को लेकर सामंती है। वह पूछने के बहाने स्त्री में सब खोजता है- ‘कनक छरि सी कामिनी, काहे को कटि छिन’। तारिकाएं या मॉडल बनी औरत मध्यवर्ग की इस धारणा को जितना निभाती है, उतनी ही उसे अपने देश से भीख भी मिलती है। सारी दुनिया सर आंखों पर बिठाती है। यहां यह कहना जरूरी नहीं कि मध्यवर्ग की इस धारणा को कंपनियों ने बनाया है जो तारिकाओं के सहारे उसके मन-मानस में उतारा जाता है।

लेकिन विचित्र यह कि मेधा पाटकर और उन जैसी जनसंघर्ष की अन्य नायिकाओं को भी नैतिक धरातल पर इस देश का मध्यवर्ग स्वीकार करता है। स्त्री पात्रों में मध्यवर्ग का नायक एक नहीं अनेक है। इसके नायक एश्वर्या, विपाशा हैं तो मेधा पाटकर और अरूंधती राय भी हैं। लेकिन इनका देश अलग है। यह दुनिया वंचितों की दुनिया है और इसके नायकों की दुनिया वंचितों के संघर्ष की दुनिया है। इस देश के कई हित मध्यवर्गीय हितों से अलग और अक्सर विपरीत पड़ते हैं। यहां हारी-बीमारी और अभाव है। देह यहां दर्शन का कम, हाड़तोड़ मेहनत-मजदूरी का औजार ज्यादा है। इस देश तक आते-आते देह की धारणा बदल जाती है। यहां बुजुर्ग होना एक गुण है। यहां प्रखर होना और सामने वाले के दुख में हर तरह से शामिल होने का आभास देना, विश्वास पैदा करना गुण है। इसलिए उन्हें सिने तारिकाओं की मानिंद अपनी देह पर पड़ती उम्र और अनुभव की लकीरों और झुर्रियों को छुपाने की जरूरत नहीं। दुनिया दोनों को पहचानती है। लेकिन एक की पहचान सौंदर्य के रूप में होती है, तो दूसरे की वंचितों के संघर्ष के रूप में। एक मध्यवर्गीय कामना का प्रतीक है, तो दूसरा मध्यवर्ग की नैतिक दीप्ती का। तो क्या यह मान लिया जाए कि जो कमनीय नहीं वह सुंदर नहीं। क्या सुंदरता और संघर्ष में कोई छत्तीस का आंकड़ा है? मध्यवर्ग की आंखों को जो जंचता है, दिल के किसी कोने में वही क्यों खटकता है?


दरअसल मध्यवर्गीय सुंदरता को चुनौती देती जनसंघर्ष की ये नायिकाएं सौंदर्य की एक समानानंतर कसौटी गढ़ रही हैं। यह सच है कि सौंदर्य के प्रचलित मापदंड अपने समय के ताकतवर मुहावरों से निर्धारित होते हैं। मौजूदा वक्त का ताकतवर मुहावरा वैश्वीकरण और बाजारवाद है। इसलिए आज ‘पॉपुलर कल्चर’ और मध्यवर्गीय जीवन के सौंदर्य प्रतिमान इन मुहावरों से तय हो रहे हैं। मुकाबले की होड़ है और बाजार में कुलांचे भरती निजी पूंजी का तर्क समाज में अनूदित होता है- सबसे आगे, सबसे बढ़कर कौन के जुमले में। इस समाज में सौंदर्य से भी यही पूछा जाता है। सौंदर्य ऐसा जो कुछेक को प्राप्त हो मसलन ऐश्वर्या, प्रियंका चोपड़ा, कैटरीना कैफ। और मास मीडिया इस सौंदर्य की कामना को 14 साल से लेकर 80 साल के स्त्री-पुरुष में जगाता है और इसके आधार पर उसे एक उपभोक्ता में बदल अधिकतम मुनाफा कमाता है।

लेकिन सौंदर्य के प्रचलित मानक के बरक्स एक दूसरा मानक जनसंघर्ष की नायिकाएं गढ़ रही हैं। घोर असमानता और भयानक उपभोग की इस संस्कृति में जनसंघर्ष की ये नायिकाएं ठीक उसी तरह सौंदर्य के मानक गढ़ रही हैं जैसे कि आजादी के संघर्ष के दौरान गांधी नेहरू और जिन्ना जैसे नेताओं ने विक्टोरियाई अभिजात्य सौंदर्य के प्रतिमान के बरक्स नया सौंदर्य मानक गढ़ा था। यह अनायास नहीं कि बहुचर्चित पुस्तक फ्रीडम एट मीडनाइट’ के लेखकद्वय लापीयर और कॉलिन्स जब गांधी के चेहरे-मोहरे और हाव-भाव का वर्णन करते हैं तो उनकी कलम वर्णन के तनाव को ठीक से थाम नहीं पाती। दोनों ने अभिजात्य सौंदर्य से प्रेरित हो उनके रूप-रंग के बारे में लिखा है-‘‘प्रकृति ने गांधी के चेहरे को शायद जान-बूझकर कुरूप बनाया था। उनके दोनों कान उनके आवश्यकता से अधिक बड़े सिर के दोनों ओर शकरदान के हैंडिल की तरह निकले हुए थे। चपटे फैले हुए नथुनों वाली उनकी नाक उनकी सफेद छिदरी मूंछ पर भारी चोंच की तरह झुकी रहती थी.....।’’ लेकिन प्रचलित मानक पर गांधी को कुरूप कहते-कहते वे अचानक ही ठीठक जाते हैं और उन्हें लिखना पड़ता है-‘‘फिर भी गांधी के चेहरे पर एक विचित्र सौंदर्य की आभा थी क्योंकि वह निरन्तर बहुत चंचल रहते थे और उस पर मैजिक लैन्टर्न की जल्दी-जल्दी बदलती हुई आकृतियों की तरह उनकी बदलती मनोदशाओं और उनकी शरारत-भरी मुसकराहट का प्रतिबिंब झलकता है।’’ नैतिक बल से उपजे सौंदर्य के इस मानक को आजादी के दौर में देश की जनता ने भी अपनाया। विदेशी ताम-झाम और ग्लैमर को स्वदेशी के सौंदर्य ने आग लगा दिया। अपने देश में ही नहीं दुनिया भर में सौंदर्य के दमनकारी मानकों के बरक्स नया सौंदर्यशास्त्र गढ़ा जाता रहा है। अमेरिका को ही लें। चमड़ी के काले रंग को वहां बदसूरती का पर्याय माना जाता रहा है। सुंदर वही जो तन से गोरा है। इस विचार ने सदियों तक वहां अफ्रीकी अमेरिकियों का दमन ही नहीं किया स्वयं काले लोगों ने इस नस्लभेदी सौंदर्य प्रतिमान को आत्मसात कर लिया था। इसे चुनौती तब जाकर मिली जब वहां ‘ब्लैक इज ब्यूटीफूल’ आंदोलन चला।


गांधी ने कोट-पतलून के बदले लंगोटी पहनी। कोट-पतलून को उतार कर अधनंगे फकीर का वेश धारण किया तो नेहरू और जिन्ना ने भी साम्राज्यपरस्त सौंदर्य की दलील देते वेश को बदला और देशी रूप धरा। आजादी के नेताओं का सौंदर्य प्रतिमान एक समानानंतर सौंदर्य प्रतिमान था।

आज मेधा पाटकर, शर्मिला इरोम, सीके जानू, अरुणा राय, जैसी शख्सियतें सौंदर्य का समानानंतर संसार खड़ा कर रही हैं। एक ऐसा संसार जिसमें यह एलान तो है ही कि सुंदरता पर अधिकार महज समृद्धि का नहीं, साथ ही सौंदर्य का यह दर्शन जन- जन के करीब है। यह न्याय, समता और गरिमा की आभा से दीप्त है। सैकड़ों आदिवासियों के साथ तेजधार नर्मदा में कमर भर पानी में खड़ी मेधा पाटकर की तस्वीर भी आंखों को बांधती है। पूर्वोत्तर की छोटी गांधी शर्मिला इरोम मनुष्य विरोधी औपनिवेशिक आर्म्ड फोर्स स्पेशल पॉवर्स एक्ट के विरोध में सोलह साल तक सत्याग्रह किया।  यह नैतिक साहस ही है कि सोलह साल तक भूख हड़ताल पर बैठी इस साधारण स्त्री का सौंदर्य आज भी अग्निशिखा सा दीप्त है। घरेलू नौकरानी की नियति लेकर जन्मी आदया आदिवासी सी. के. जानू आज केरल के साढ़े तीन लाख भूमिहीन आदिवासियों की तकदीर बदलने के संघर्ष में लगी है। साहस के सौंदर्य को उसके पूरे व्यक्तित्व में महसूस किया जा सकता है। कहते हैं सुंदरता के पीछे दुनिया चलती है तो फिर एक दुनिया तो इनके पीछे भी चल रही है।


जनसंघर्ष की इन नायिकाओं ने मध्यवर्गीय कामना के प्रतीक के रूप में स्त्री-देह के प्रयोग को एक तरह से चुनौती दी है। इनकी आभा के सामने क्या ऐश्वर्या और उनकी समानधर्मा महिलाएं टिक सकेंगी? इन ‘निर्भीक विद्रोहिणियों’ ने जबरदस्ती ओढ़ायी गई भीरूता को जीत लिया है। ‘वे एक बड़ी लड़ाई को प्रतिश्रुत हैं।’ आजादी की दूसरी लड़ाई की इन नायिकाओं के सत्याग्रह, आत्मबल, निर्भीकता और नैतिक साहस की आभा एक रोज देखने वालों की आंखें भी बदल देंगी। दक्षिण अफ्रीका की कवयित्री ग्लोरिया म्तुंगवा ने ऐसी ही ‘निर्भीक विद्रोहिणियों’ के सौंदर्य को सलाम करते हुए लिखा है-
‘‘वह बहुत सुंदर लग रही है
उसके सौंदर्य को अब तक के प्रतिमानों से नहीं नापा जा सकता
उसका मानदंड मानवता के प्रति उसका समर्पण है।’’

ताकि बलात्कार पीड़िताओं को बार –बार बलात्कार से न गुजरना पड़े

संजीव चंदन

बलात्कार पीडिताओं को लेकर भारतीय समाज अजीब मर्दवादी मानसिकता में जीता है. अभी कल ही खबर आई कि बलात्कार पीडिता को उसके बलात्कारी के साथ शादी करवा दी गई और वह शादी के 7 महीने के भीतर आत्महत्या को विवश हो गई- मर गई. यह उसके खिलाफ यौन हिंसा को गैरजिम्मेवार तरीके से डील करने से हुआ- उसकी ह्त्या का दोषी समाज और उसकी मानसिकता है, वह शादी के बाद रोज -रोज बलात्कृत होती होगी. इस समाज कि यह कैजुअल सोच बलात्कार की घटनाओं के बाद पीडिता को न्याय दिलाने वाली एजेंसियों के रवैये में भी दिखता है . चिकित्सा, जांच और न्याय एजेंसी के  इस रवैये के खिलाफमहाराष्ट्र के एक डाक्टर ने मुहीम छेड़ रखी थी और इस पर उन्हें बहुत हद तक सफलता भी मिली है . 

 महिलाओं के प्रति असंवेदनशील व्यवस्था को बदलने की मुहीम में महाराष्ट्र के वर्धा में महात्मा गांधी इंस्टिट्यूट ऑफ़ मेडिकल सायन्सेज ( एम जी आई एम एस ) के फोरेंसिक विभाग में कार्यरत डाक्टर इन्द्रजीत खांडेकर  ने कई बड़े बदलावों को अंजाम दिये, उनमें बलात्कार पीडिताओं के फिंगर टेस्ट को बंद करवाने से लेकर गैरकानूनी सवालों के दायरे में उसकी जांच को बंद करवाने जैसे बदलाव शामिल हैं. जेंडर जस्ट न्याय और चिकित्सा के लिए संघर्षरत इस डाक्टर की पहलों से आये बदलाव पर एक विशेष रिपोर्ट . 



अमानवीय फिंगर टेस्ट का खात्मा 

डाक्टर खांडेकर ने कई पन्नों में फैले अपने अध्ययन के आधार पर यह स्थापित किया कि यौन हमलों की शिकार महिलाओं को जांच के नाम पर काफी अमानवीय प्रक्रियाओं से गुजरना पड़ता है. बिना किसी फोरेंसिक फॉरमेट के उनकी जांच होती है . उन्होंने इसके लिए केंद्र और महाराष्ट्र सरकार से पत्राचार किये , जो शुरू में बिना जवाब के पड़े रहे . 2010  में डा. खांडेकर के अध्ययन के आधार पर फ़ॉर्मेट बनाने के लिए एक जनहित याचिका बॉम्बे उच्च न्यायालय के नागपुर खंडपीठ  में डा. रंजना पारधी और एडवोकेट विजय पटाइत ने किये .

(पढ़ें : बलात्कार बलात्कार में फर्क होता है साहेब )

डा खांडेकर  की सबसे बड़ी आपत्ति यौनहमलों की शिकार महिलाओं के फिंगर टेस्ट पर थी , जो उनके अनुसार दोहरी यातना से गुजरने जैसा था. फिंगर टेस्ट पीडिता की योनी में दो ऊँगल डालकर की जाती है. इस पी आई एल में केंद्र सरकार का रवैया काफी टाल-मटोल वाला रहा . उसने कोर्ट में अपने एफीडेविट में कहा कि महाराष्ट्र सरकार जो भी फॉरमेट बनायेगी, वह केंद्र सरकार मान लेगी. इस एफीडेविट के पूर्व राज्य और केंद्र सरकार जो फॉरमेट लेकर कोर्ट में आई उसमें ‘ फिंगर टेस्ट’ शामिल था. डा खांडेकर और याचिकाकर्ताओं की आपत्ति के बाद महाराष्ट्र सरकार मई , 2013 में डा खांडेकर की सहमति से जांच का फॉरमेट लेकर आई, जिसमें फिंगर टेस्ट न सिर्फ ख़त्म किया गया था बल्कि कई स्त्री के पक्ष में कालम बनाये गये थे  , जिससे पीडिता को न्याय मिले. केन्द्रीय स्तर पर डिपार्टमेंट ऑफ़ हेल्थ रीसर्च  (DHR) ,  इन्डियन काउंसिल ऑफ़ मेडिकल रीसर्च ने एक समिति बनाई , जिसमे डाक्टर खांडेकर को भी शामिल किया गया . निर्भया काण्ड (दिल्ली गैंग रेप) की पहली बरसी (2013) पर इस समिति का फ़ॉरमेट लागू किया गया, लेकिन जल्द ही केंद्र सरकार का स्वास्थ्य मंत्रालय मार्च, 2014 में अपने फोर्मेट लेकर आई . डा खांडेकर कहते हैं कि ‘दुर्भाग्यपूर्ण है कि इस नये फॉरमेट में सैम्पलिंग की प्रक्रिया गायब है.’ दरअसल पीडिता के कपड़ों, खून आदि के साथ 15-20 चीजें सैम्पल के तौर पर ली जाती हैं , जिसकी अभियुक्तों को सजा दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका होती है .



आज भी पूछे जाते हैं अपमानजनक सवाल 
बलात्कार के बाद सबसे कठिन लड़ाई होती है, दोषियों को सजा दिलवाने की . पुलिस डाक्टरों से पीडिता की जांच के लिए तीन अपमानजनक और स्त्रीविरोधी सवाल पूछती है. 1.. क्या पीडिता यौन सम्बन्ध की आदि है ? 2. बलात्कार हुआ या नहीं?  3. पीडिता यौन संबंध में सक्षम है या नहीं? डा खांडेकर ने 2011 में पुलिस की यह पद्धति हटाने के लिए महाराष्ट्र और केंद्र, दोनो सरकारों को लिखा. सितम्बर 2013 में महाराष्ट्र सरकार ने एक आदेश के माध्यम से जांच के लिए नये सवाल डा खांडेकर की  सलाह पर बनाये. नये नियम के अनुसार पुलिस अब चार सवाल सम्बंधित डाक्टर से पूछती है : 1. क्या पीडिता के साथ हाल में कोई  बलपूर्वक यौन संबंध बनाया गया है ? 2. पीडिता के ऊपर कितने , कैसे और कहाँ जख्म हुए हैं ? 3. क्या कोई बाहरी वस्तु, जैसे, बाल, खून या वीर्य पीडिता के शरीर पर पाये गये हैं ? 4 . पीडिता से जरूरी सैम्पल जैसे, कपडे, खून आदि .

( पढ़ें: यौन हिंसा और न्याय की मर्दवादी भाषा )

हालांकि केंद्र सरकार ने इसपर आज भी चुप्पी बनाये रखी हैऔर देश के दूसरे राज्यों में तथा केन्द्रीय जांच एजेंसियों के बीच सवालों का पुराना पैटर्न बदस्तूर जारी है. सुप्रीम कोर्ट के वकील अरविंद जैन कहते हैं, ‘ यह रवैया न सिर्फ केंद्र सरकार की पुरुषवादी प्रवृत्ति के कारण उस तक ही सीमित है बल्कि उच्चतम न्यायालय में भी यह कई मामलों में सामने आता रहता है . एविडेंस एक्ट 1944 से पीडिता की  यौन संबंध की आदत  वाले सवाल 1994 में ही ख़त्म कर दिये गये थे , लेकिन आज भी कई निर्णयों में सर्वोच्च न्यायालय पीडिता के यौन संबंधों के इतिहास को प्राथमिकता देते हुए पाया जाता है.’ खांडेकर कहते हैं ‘ जरूरत है कानूनों को प्रैक्टिकल सिलेबस में शामिल करने की.

गैर जरूरी वीर्य सैम्पल की परंपरा
डा. खांडेकर की ही पहल पर यौन हिंसा के अभियुक्तों का वीर्य सैम्पल लिए जाने की परम्परा को महाराष्ट्र सरकार ने ख़त्म कर दिया. खांडेकर कहते हैं, ‘ यह न सिर्फ गैरजरूरी समय खाता है बल्कि दोहरा स्त्रीविरोधी माहौल भी बनाता है.’ राज्य और केंद्र सरकार को लिखे अपने पत्र में उन्होंने तफसील के साथ बताया है कि कैसे इस सैम्पल के लिए बलात्कार के अभियुक्तों को पोर्न दिखाया जाता ह. यह सैम्पल सिर्फ ब्लड ग्रूप जानने के लिए लिया जाता है, जिसे अभियुक्त के ब्लड और पीडिता के कपड़ों पर प्राप्त सीमेन के जरिये जाना जा सकता है .
आश्चर्यजनक तौर पर केंद्र सरकार ने इसपर चुप्पी बना रखी है .



देश का पहला क्लिनिकल फोरेंसिक मेडिसिन यूनिट : 
डा खांडेकर ने 2011 में एक जनहित याचिका बॉम्बे उच्च न्यायालय के नागपुर बेंच में दायर की और मांग की कि देश भर में यौन हिंसा सहित दूसरी हिंसा की जांच के लिए एक क्लिनिकल फोरेंसिक मेडिसिन बनाया जाय और सिलेबस तथा करिकुलम में इसे शामिल किया जाय .  दरअसल अभी तक यौन हिंसा की पीड़िताओं की जांच स्त्री रोग विशेषज्ञ, बाल यौन हिंसा के पीड़ितों की जांच बाल रोग विशेषज्ञ आदि के द्वारा करवाने की परम्परा रही है , जिन्हें फोरेंसिक जानकारियाँ नहीं होती हैं. इस प्रकार उनकी रिपोर्ट न्यायिक प्रक्रिया में ज्यादा प्रभावी नहीं होती . खांडेकर कहते हैं , ‘ इसका मूल जड़ है मेडिकल का सिलेबस . जो पढाता है ( यानी फोरेंसिक शिक्षक ) वह प्रैक्टिकल नहीं करता और जो प्रैक्टिकल करता है वह पढाता नहीं. खांडेकर ने अपने मेडिकल कालेज ( एम जी आई एम एस ) में देश का पहला क्लिनिकल फोरेंसिक मेडिसिन यूनिट बनाया , जो अस्पताल के  आपात विभाग ( इमरजेंसी) का हिस्सा है. इस यूनिट में सर्जरी , ओर्थोपेडिक, स्त्रीरोग , बालरोग और फोरेंसिक के डाक्टरों की टीम २४ घंटे काम करती है . नागपुर हाईकोर्ट के आदेश पर मेडिकल कौंसिल ऑफ़ इण्डिया ने डा खांडेकर से ९ जून  २०१४ को बातचीत की ताकि इस मॉडल को पूरे देश में लागू किया जा सके .

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अपराध की जांच की ट्रेनिंग देते डा. खांडेकर 


(पढ़ें : बलात्कार पर नजरिया और सलमान खान )

गैरजरूरी पोस्टमार्टम, अपठनीय हैण्डराइटिंग के खिलाफ मुहीम और अन्य बड़ी पहल 
डा . खांडेकर जेंडर जस्टिस आधारित  न्याय और चिकित्सा की अपनी पहलों के साथ लगातार सक्रिय हैं . उनकी पहल पर महाराष्ट्र सरकार गैरजरूरी पोस्टमार्टम ख़त्म करने पर विचार कर रही है. खांडेकर के अनुसार इससे ६०% पोस्टमार्टम कम हो जायेंगे और इनपर जाया होने वाले समय , ऊर्जा और धन की बचत होगी. एक जरूरी पहल के तौर पर डाक्टरों की हैण्डराइटिंग तथा हस्ताक्षर के कारण पीड़ितों को न्याय मिलने में होने वाली देरी को कम करने की मुहीम भी उल्लेखनीय है. अपने मेडिकल कालेज में इन्होने देश का पहला सॉफ्टवेयर विकसित करवाया है , जो मैन्युअल फोरेंसिक रिपोर्ट की प्रथा को ख़त्म करदेने वाला है . महाराष्ट्र सरकार इसे भी पूरे राज्य में लागू करने की तैयारी कर रही है.

(पढ़ें : दाम्पत्य में बलात्कार का लायसेंस)

डाक्टर की अगली मुहीम है देश के पाठ्य पुस्तकों में जरूरी जानकारियाँ शामिल करवाना , जिससे बच्चे यौन विचलन और हिंसा के शिकार न हों .

ताकि पीड़िताओं को बार –बार बलात्कार से न गुजरना पड़े

संजीव चंदन

बलात्कार पीडिताओं को लेकर भारतीय समाज अजीब मर्दवादी मानसिकता में जीता है. अभी कल ही खबर आई कि बलात्कार पीडिता को उसके बलात्कारी के साथ शादी करवा दी गई और वह शादी के 7 महीने के भीतर आत्महत्या को विवश हो गई- मर गई. यह उसके खिलाफ यौन हिंसा को गैरजिम्मेवार तरीके से डील करने से हुआ- उसकी ह्त्या का दोषी समाज और उसकी मानसिकता है, वह शादी के बाद रोज -रोज बलात्कृत होती होगी. इस समाज कि यह कैजुअल सोच बलात्कार की घटनाओं के बाद पीडिता को न्याय दिलाने वाली एजेंसियों के रवैये में भी दिखता है . चिकित्सा, जांच और न्याय एजेंसी के  इस रवैये के खिलाफ महाराष्ट्र के एक डाक्टर ने मुहीम छेड़ रखी थी और इस पर उन्हें बहुत हद तक सफलता भी मिली है . 

 महिलाओं के प्रति असंवेदनशील व्यवस्था को बदलने की मुहीम में महाराष्ट्र के वर्धा में महात्मा गांधी इंस्टिट्यूट ऑफ़ मेडिकल सायन्सेज ( एम जी आई एम एस ) के फोरेंसिक विभाग में कार्यरत डाक्टर इन्द्रजीत खांडेकर  ने कई बड़े बदलावों को अंजाम दिये, उनमें बलात्कार पीडिताओं के फिंगर टेस्ट को बंद करवाने से लेकर गैरकानूनी सवालों के दायरे में उसकी जांच को बंद करवाने जैसे बदलाव शामिल हैं. जेंडर जस्ट न्याय और चिकित्सा के लिए संघर्षरत इस डाक्टर की पहलों से आये बदलाव पर एक विशेष रिपोर्ट . 



अमानवीय फिंगर टेस्ट का खात्मा 

डाक्टर खांडेकर ने कई पन्नों में फैले अपने अध्ययन के आधार पर यह स्थापित किया कि यौन हमलों की शिकार महिलाओं को जांच के नाम पर काफी अमानवीय प्रक्रियाओं से गुजरना पड़ता है. बिना किसी फोरेंसिक फॉरमेट के उनकी जांच होती है . उन्होंने इसके लिए केंद्र और महाराष्ट्र सरकार से पत्राचार किये , जो शुरू में बिना जवाब के पड़े रहे . 2010  में डा. खांडेकर के अध्ययन के आधार पर फ़ॉर्मेट बनाने के लिए एक जनहित याचिका बॉम्बे उच्च न्यायालय के नागपुर खंडपीठ  में डा. रंजना पारधी और एडवोकेट विजय पटाइत ने किये .

(पढ़ें : बलात्कार बलात्कार में फर्क होता है साहेब )

डा खांडेकर  की सबसे बड़ी आपत्ति यौन हमलों की शिकार महिलाओं के फिंगर टेस्ट पर थी , जो उनके अनुसार दोहरी यातना से गुजरने जैसा था. फिंगर टेस्ट पीडिता की योनी में दो ऊँगल डालकर की जाती है. इस पी आई एल में केंद्र सरकार का रवैया काफी टाल-मटोल वाला रहा . उसने कोर्ट में अपने एफीडेविट में कहा कि महाराष्ट्र सरकार जो भी फॉरमेट बनायेगी, वह केंद्र सरकार मान लेगी. इस एफीडेविट के पूर्व राज्य और केंद्र सरकार जो फॉरमेट लेकर कोर्ट में आई उसमें ‘ फिंगर टेस्ट’ शामिल था. डा खांडेकर और याचिकाकर्ताओं की आपत्ति के बाद महाराष्ट्र सरकार मई , 2013 में डा खांडेकर की सहमति से जांच का फॉरमेट लेकर आई, जिसमें फिंगर टेस्ट न सिर्फ ख़त्म किया गया था बल्कि कई स्त्री के पक्ष में कालम बनाये गये थे  , जिससे पीडिता को न्याय मिले. केन्द्रीय स्तर पर डिपार्टमेंट ऑफ़ हेल्थ रीसर्च  (DHR) ,  इन्डियन काउंसिल ऑफ़ मेडिकल रीसर्च ने एक समिति बनाई , जिसमे डाक्टर खांडेकर को भी शामिल किया गया . निर्भया काण्ड (दिल्ली गैंग रेप) की पहली बरसी (2013) पर इस समिति का फ़ॉरमेट लागू किया गया, लेकिन जल्द ही केंद्र सरकार का स्वास्थ्य मंत्रालय मार्च, 2014 में अपने फोर्मेट लेकर आई . डा खांडेकर कहते हैं कि ‘दुर्भाग्यपूर्ण है कि इस नये फॉरमेट में सैम्पलिंग की प्रक्रिया गायब है.’ दरअसल पीडिता के कपड़ों, खून आदि के साथ 15-20 चीजें सैम्पल के तौर पर ली जाती हैं , जिसकी अभियुक्तों को सजा दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका होती है .



आज भी पूछे जाते हैं अपमानजनक सवाल 
बलात्कार के बाद सबसे कठिन लड़ाई होती है, दोषियों को सजा दिलवाने की . पुलिस डाक्टरों से पीडिता की जांच के लिए तीन अपमानजनक और स्त्रीविरोधी सवाल पूछती है. 1.. क्या पीडिता यौन सम्बन्ध की आदि है ? 2. बलात्कार हुआ या नहीं?  3. पीडिता यौन संबंध में सक्षम है या नहीं? डा खांडेकर ने 2011 में पुलिस की यह पद्धति हटाने के लिए महाराष्ट्र और केंद्र, दोनो सरकारों को लिखा. सितम्बर 2013 में महाराष्ट्र सरकार ने एक आदेश के माध्यम से जांच के लिए नये सवाल डा खांडेकर की  सलाह पर बनाये. नये नियम के अनुसार पुलिस अब चार सवाल सम्बंधित डाक्टर से पूछती है : 1. क्या पीडिता के साथ हाल में कोई  बलपूर्वक यौन संबंध बनाया गया है ? 2. पीडिता के ऊपर कितने , कैसे और कहाँ जख्म हुए हैं ? 3. क्या कोई बाहरी वस्तु, जैसे, बाल, खून या वीर्य पीडिता के शरीर पर पाये गये हैं ? 4 . पीडिता से जरूरी सैम्पल जैसे, कपडे, खून आदि .

पढ़ें: यौन हिंसा और न्याय की मर्दवादी भाषा )

हालांकि केंद्र सरकार ने इसपर आज भी चुप्पी बनाये रखी है और देश के दूसरे राज्यों में तथा केन्द्रीय जांच एजेंसियों के बीच सवालों का पुराना पैटर्न बदस्तूर जारी है. सुप्रीम कोर्ट के वकील अरविंद जैन कहते हैं, ‘ यह रवैया न सिर्फ केंद्र सरकार की पुरुषवादी प्रवृत्ति के कारण उस तक ही सीमित है बल्कि उच्चतम न्यायालय में भी यह कई मामलों में सामने आता रहता है . एविडेंस एक्ट 1944 से पीडिता की  यौन संबंध की आदत  वाले सवाल 1994 में ही ख़त्म कर दिये गये थे , लेकिन आज भी कई निर्णयों में सर्वोच्च न्यायालय पीडिता के यौन संबंधों के इतिहास को प्राथमिकता देते हुए पाया जाता है.’ खांडेकर कहते हैं ‘ जरूरत है कानूनों को प्रैक्टिकल सिलेबस में शामिल करने की.

गैर जरूरी वीर्य सैम्पल की परंपरा
डा. खांडेकर की ही पहल पर यौन हिंसा के अभियुक्तों का वीर्य सैम्पल लिए जाने की परम्परा को महाराष्ट्र सरकार ने ख़त्म कर दिया. खांडेकर कहते हैं, ‘ यह न सिर्फ गैरजरूरी समय खाता है बल्कि दोहरा स्त्रीविरोधी माहौल भी बनाता है.’ राज्य और केंद्र सरकार को लिखे अपने पत्र में उन्होंने तफसील के साथ बताया है कि कैसे इस सैम्पल के लिए बलात्कार के अभियुक्तों को पोर्न दिखाया जाता ह. यह सैम्पल सिर्फ ब्लड ग्रूप जानने के लिए लिया जाता है, जिसे अभियुक्त के ब्लड और पीडिता के कपड़ों पर प्राप्त सीमेन के जरिये जाना जा सकता है .
आश्चर्यजनक तौर पर केंद्र सरकार ने इसपर चुप्पी बना रखी है .



देश का पहला क्लिनिकल फोरेंसिक मेडिसिन यूनिट : 
डा खांडेकर ने 2011 में एक जनहित याचिका बॉम्बे उच्च न्यायालय के नागपुर बेंच में दायर की और मांग की कि देश भर में यौन हिंसा सहित दूसरी हिंसा की जांच के लिए एक क्लिनिकल फोरेंसिक मेडिसिन बनाया जाय और सिलेबस तथा करिकुलम में इसे शामिल किया जाय .  दरअसल अभी तक यौन हिंसा की पीड़िताओं की जांच स्त्री रोग विशेषज्ञ, बाल यौन हिंसा के पीड़ितों की जांच बाल रोग विशेषज्ञ आदि के द्वारा करवाने की परम्परा रही है , जिन्हें फोरेंसिक जानकारियाँ नहीं होती हैं. इस प्रकार उनकी रिपोर्ट न्यायिक प्रक्रिया में ज्यादा प्रभावी नहीं होती . खांडेकर कहते हैं , ‘ इसका मूल जड़ है मेडिकल का सिलेबस . जो पढाता है ( यानी फोरेंसिक शिक्षक ) वह प्रैक्टिकल नहीं करता और जो प्रैक्टिकल करता है वह पढाता नहीं. खांडेकर ने अपने मेडिकल कालेज ( एम जी आई एम एस ) में देश का पहला क्लिनिकल फोरेंसिक मेडिसिन यूनिट बनाया , जो अस्पताल के  आपात विभाग ( इमरजेंसी) का हिस्सा है. इस यूनिट में सर्जरी , ओर्थोपेडिक, स्त्रीरोग , बालरोग और फोरेंसिक के डाक्टरों की टीम २४ घंटे काम करती है . नागपुर हाईकोर्ट के आदेश पर मेडिकल कौंसिल ऑफ़ इण्डिया ने डा खांडेकर से ९ जून  २०१४ को बातचीत की ताकि इस मॉडल को पूरे देश में लागू किया जा सके .

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अपराध की जांच की ट्रेनिंग देते डा. खांडेकर 


(पढ़ें : बलात्कार पर नजरिया और सलमान खान )

गैरजरूरी पोस्टमार्टम, अपठनीय हैण्डराइटिंग के खिलाफ मुहीम और अन्य बड़ी पहल 
डा . खांडेकर जेंडर जस्टिस आधारित  न्याय और चिकित्सा की अपनी पहलों के साथ लगातार सक्रिय हैं . उनकी पहल पर महाराष्ट्र सरकार गैरजरूरी पोस्टमार्टम ख़त्म करने पर विचार कर रही है. खांडेकर के अनुसार इससे ६०% पोस्टमार्टम कम हो जायेंगे और इनपर जाया होने वाले समय , ऊर्जा और धन की बचत होगी. एक जरूरी पहल के तौर पर डाक्टरों की हैण्डराइटिंग तथा हस्ताक्षर के कारण पीड़ितों को न्याय मिलने में होने वाली देरी को कम करने की मुहीम भी उल्लेखनीय है. अपने मेडिकल कालेज में इन्होने देश का पहला सॉफ्टवेयर विकसित करवाया है , जो मैन्युअल फोरेंसिक रिपोर्ट की प्रथा को ख़त्म करदेने वाला है . महाराष्ट्र सरकार इसे भी पूरे राज्य में लागू करने की तैयारी कर रही है.

(पढ़ें : दाम्पत्य में बलात्कार का लायसेंस)



डाक्टर की अगली मुहीम है देश के पाठ्य पुस्तकों में जरूरी जानकारियाँ शामिल करवाना , जिससे बच्चे यौन विचलन और हिंसा के शिकार न हों .

जयभीम वाला दूल्हा चाहिए

शर्मिला रेगे की किताब  'अगेंस्ट द मैडनेस ऑफ़ मनु : बी आर आम्बेडकर्स राइटिंग ऑन ब्रैहम्निकल  पैट्रीआर्की'की भूमिका का अनुवाद हम धारावाहिक प्रकाशित कर रहे हैं. मूल अंग्रेजी से अनुवाद डा. अनुपमा गुप्ता  ने  किया है.  इस किताब को स्त्रीकाल द्वारा  सावित्रीबाई  फुले  वैचारिकी  सम्मान, 2015 से  सम्मानित किया  गया  था. 



1990 के वर्षां में आंबेडकर तथा स्त्री मुक्तिपर विभिन्न विचारों को रखने वाली कई पुस्तिकायें, स्मारिकायें और पत्रिकायें प्रचलन में थी. उदाहरण के लिये, प्रतिमा परदेशी द्वारा लिखित ‘डा. आंबेडकर और स्त्रीमुक्ति’ (मराठी ) की बात करें, जो इस विषय पर विस्तार में लिखी छपी पहली पुस्तिकाओं में से थी. इसकी शुरूआत में आंबेडकर के इस विषय पर भाषणों व लेखों को  स्त्रीवादियों, संगठित वामपंथियों तथा दलित राजनीतिक दलों द्वारा नजरअंदाज किये जाने के कारणों के बारे में चर्चा की गयी.

जन्मशती (1990) वर्ष  में डा. आंबेडकर के कुछअल्पज्ञात या अनदेखी किये गये कार्यो-विचारों पर कुछ चर्चा हुई अर्थव्यवस्था व मुस्लिम समुदाय पर उनका मत सामने लाया गया, लेकिन स्त्री मुक्ति पर उनके विचार फिर भी अंधेरे में ही रहे. आज जब हम नई शताब्दी के मुहाने पर खड़े हुए हैं और जब सामाजिक न्याय के लिये संघर्ष का स्वरूप अहम हो गया है तो इस वक्त उस व्यक्ति के विचार नजरअंदाज नहीं किये जा सकते, जो स्त्रियों के मुददों पर सबसे मुख्य रहा, यहां तक कि जिसने हिन्दू कोड बिल के मामले पर कानून मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया. सच  यह है  कि इस  विषय में मौन एक षडयंत्र जैसा लगता है और इसके कारणों की तह में जाना ही चाहिये.

(पढ़ें : डा. भीमराव आंबेडकर के स्त्रीवादी सरोकारों की ओर)

अरूण शौरी की पुस्तक ‘झूठे ईश्वर की उपासना ( Worshiping a false God) में प्रस्तुत तर्कों के विपक्ष में जाने माने इतिहासकार वाय.डी. फड़के ने अपने विचार रखे और गौतम शिन्दे की पुस्तिका ‘भारत में स्त्री क्रांति व मुक्ति’ में फड़के का समर्थन किया गया . फड़के ने यह भी कहा कि बुद्व के स्त्रियों के बारे में विचारों को भी अक्सर गलत समझा जाता है और बताया कि विद्वानों को आंबेडकर के लेख ‘हिन्दू स्त्रियों का उत्थान व पतन’ क्यों और किस तरह पढ़ना चाहिए. शिन्दे की पुस्तिका में इसका भी उल्लेख मिलता है. कुछ लेखकों ने उल्लेख किया है कि वाइसराय की कार्यकारिणी समिति (1942-46) के सदस्य के रूप में आंबेडकर ने खदान प्रभूति लाभ कानून जैसे विधेयक बनाने में काफी श्रम किया. समान मेहनताना, कोयला खदान कर्मचारी कल्याण कोष में स्त्रियों का प्रतिनिधित्व , समान नागरिकता, स्त्री का आर्थिक विकास पर हक जैसे मुद्दों पर अम्बेडकर का जोर देना भारत में स्त्री आंदोलन के लिये काफी अहम माना जाना चाहिए. इस  नजरिये से देखें तो हिन्दू कोड बिल को स्त्री मुक्ति का घोषणापत्र माना जाना चाहिए और इस बिल को संशोधित करने के षडयंत्रकारी  प्रयासों के कारण उनका कानून मंत्री के पद से इस्तीफा इतिहास में अभूतपूर्व माना जाना चाहिए.



कुछ पुस्तिकाओं में आंबेडकर द्वाराबुद्व की विरासत को स्त्री मुक्ति के लिये पुनर्जीवित करने के कार्य को खास तौर पर प्रशंसनीय माना गया है. इसी तरह सती, बाल विवाह तथा देवदासी प्रथा के जरिये वेश्यावृत्ति को संस्थागत बनाने जैसी ब्राह्मण  प्रथाओें के खिलाफ उनकी आलोचना को भारत में स्त्रियों के खिलाफ हिंसा पर पहले वक्तव्यों  में से एक माना गया है. इनमें से ज्यादातर लेखकों ने इस बात पर जोर दिया है कि स्त्रीमुक्ति पर आंबेडकरका सैद्धान्तिक दृष्टिकोण किस तरह स्त्री आंदोलन के कई अभियानों की नीव बना. वे महाड़ सत्याग्रह (मार्च 1927) में स्त्रियों के लिये दिये गये आंबेडकर के सम्बोधन का हवाला देते हैं. इन्डिपेन्डेन्ट लेबर पार्टी की महिला सभाओं द्वारा दलित स्त्रियों के राजनीतिक जागरण का जिक्र करते हैं और 1942 में दलित महिला फेडरेशन की स्थापना का उल्लेख करते हैं. परदेशी की पुस्तिका में आंबेडकर के 1916 में लिखे ‘भारत में जातियां’ लेख का विस्तृत विवेचन किया गया है, जिसमें आंबेडकर तर्क देते हैं कि स्त्रियों की दोयम अवस्था  का प्रवेश द्वार थी जाति व्यवस्था,  जिसने स्त्रियों के शोषण का ढांचा तैयार किया. पुस्तिका यह भी स्पष्ट करती है कि हिन्दू केड बिल जाति-आधारित पितृसत्तात्मक  ढांचे के लिये चुनौती क्यों था? आंबेडकरी  समुदायों की यह पुस्तिका संस्कृति  आंबेडकर के मुख्यधारा से अलग लेखन और उद्बोधनों को प्रकाश में लाकर उनके स्त्रीवाद पर दावे को  पुन: स्थापित करती है.

(पढ़ें :पीड़ाजन्य अनुभव और डा. आंबेडकर का स्त्रीवाद)

ये पुस्तिकायें, जहां आंबेडकर केस्त्रीमुक्ति में योगदान के उपयुक्त आलोचानात्मक पहलुओं को लेकर जोश में आती हैं. वही गायन पार्टियां उनके सामाजिक स्वप्न का पक्ष सामने रखती हे. आंबेडकरी पचांग के उत्सवों में उनके बिक्री स्टाॅल संख्या में दूसरे स्थान पर होते हैं. इन पार्टियों का संगीत क्षेत्र या पीढ़ियों के भेदभाव से परे होता है, जब तक कि गीत में ही नाम उल्लेखित न हो या गीतकार की शैली बहुत पहचानी हुई न हो. 1920 में स्थानीय स्तर पर बने सस्ते कैसेट्स ने इन गीतों की पहुंच का दायरा काफी बढ़ा दिया और ज्यादा लोग ऐसी गायन पार्टियां बनाने के लिये प्रेरित हुए,  जिससे गीतों की संख्या व संगीत की विविधता में बहुत इजाफा हुआ. कई स्त्री गायिकायें और उनके संगीत दल, मंचीय प्रस्तुतियों की लोकप्रियता को कोई नुकसान पहुंचाये बिना अपना स्थान बना पाये. आधुनिक भारतीय इतिहास (खासकर 1932 का पूना समझौता) की घटनाओं को अपनी दृष्टि से देखना आंबेडकर के नित्यप्रति के जीवन का संघर्ष,  सामाजिक राजनीतिक आंदोलन इन रचनाओं के मुख्य विषय हुआ करते हैं.

वर्ष 2000 से नयी रचनायें जैसे‘मनुस्मृति की होली’ भी अस्तित्व में आई. गीतकारों व गायकों में स्त्रियों का प्रतिनिधित्व और बढ़ गया तथा 25 दिसंबर को महाराष्ट्र के विभिन्न भागों में स्त्री-मुक्ति दिवस के रूप में मनाने का प्रचलन भी बढ़ा. कुछ अन्य रचनाये हैं जैसे ‘जयभीम वाला दूल्हा चाहिए’ जिसमें स्त्रियां आंबेडकर से पूछती हैं कि पति को एक सच्चे आंबेडकरी पति के रूप में कैसे बदला जाये, बुद्ध महिला गीत, जिसमें सच्ची आंबेडकरी, यानि जयभीम वाली नारी का वर्णन किया गया है तथा ‘भीमवाड़ी’ का उल्लेख है जो आंबेडकरी स्त्रियों का स्वर्ग है यानि समता पर आधारित एक बस्ती.

कभी-कभी इन गीतों के अर्थ अलग-अलग और दुविधा भरे भी होते  हैं. उदाहरण के लिये कुछ में हिन्दू प्रतीकों जैसे कुमकुम का तिलक, जेण्डरीकृत संहितायें और आदर्श आंबेडकरी स्त्री की परिभाषा में नियंत्रण की भरमार. आंबेडकरी संगीत को ये पीढ़ियां एक जटिल अध्ययन का विषय हैं,  और इन्हें सिर्फ राजनीतिक या बाजारी हथकंडा मान कर खारिज नहीं किया जा सकता. इन कुछ सरलीकरण किये हुए द्वैतों जैसे भावुक/तर्कसंगत, हथकंडे/अभिव्यक्ति को दलित अभियानों पर शोध में बार-बार लाया गया है और मराठी मध्यम वर्ग में फैली उस सामान्य समझ में भी इन्हें देखा जा सकता है , जो इन पुस्तिकाओं व संगीत को रूढ़िवादी और अंध भक्ति का नाम देती है. ये समझ के साथ बदलते हुए स्रोत अकादमिया द्वारा अपेक्षाकृत अनदेखे ही किये जाते रहे हैं,  जैसा कि पहले कहा गया, ये स्रोत जाति-विरोधी  स्त्रीवाद को आंबेडकरी प्रति समुदायों में स्थापित करते हैं. दलित सामूहिक आंदोलनोें पर सच्चे शोध के लिये उन आसान निष्कर्षों से परे जाना होगा जो आंबेडकरी को मात्र भावात्क प्रतीक मान लेने पर ही खत्म हो जाते हैं. असल में इन भावनाओं को खंगालना होगा, व्यैक्तिक और सामूहिक भावनाओं को  अधिक गंभीरता से जांचना होगा. सामूहिक कल्पना चित्रों जैसे जय भीम वाली नारी (आंबेडकरी स्त्री) और भीमवाड़ी (आंबेडकरी यूरोपिया) के भावार्थों का अनुवाद और अधिक गहराई में जाकर करना होगा. फिलहाल यह याद रखना जरूरी है कि आंबेडकर का स्त्रीवाद पर दावा किन्हीं अकादमिक क्षेत्रों से नहीं बल्कि इन्हीं अपारम्परिक स्रोतों से शुरू हुआ था. अब इस प्रकाशित सामग्री व संगीत संस्कृति से दिशाज्ञान लेकर हम आंबेडकर के कुछ खास स्त्रीवादी लेखों से परिचित होंगे.

(पढ़ें : आंबेडकरी गीतों में रमाबाई और भीमराव आंबेडकर )

स्त्रीवादियों के लिये महत्वपूर्ण लेखन

स्त्रीवादी विद्वान उमा चक्रवर्ती केअनुसार मंडल आंदोलन के बाद दो भिन्न दिशाओं में छिटक गये सिद्वांतों से पहचान का मौका था-जात के मुद्दे पर समाजवादी अवधारणा तथा जेण्डर के मुद्दे पर स्त्रीवादी अवधारणा. उनके अनुसार शहरी भागों में जाति पर चर्चा ने बौद्विक रास्ता पकड़ा और जाति व्यवस्था को समझाने की बजाये उसे परदे मेें छुपा दिया. इस संदर्भ में चक्रवर्ती का साफ इरादा जाति के स्त्रीवादी विश्लेषण को आगे बढ़ाने का है और वे आंबेडकर के उस फाॅर्मूले को स्थापित करना चाहती है , जिसमें वे जाति को श्रेणीबद्व असमताओं का एक तंत्र मानते हैं. यह फार्मूला ब्राम्हणी पितृसत्ता की ऐतिहासिक संरचना की व्याख्या करने के लिये उनका आधार बनता है. साथ ही जाति व जेण्डर के बीच देशव्यापी गठजोड़ को भी वे साफ देख पाते हैं.



अब मैं जातिमुखी पितृसत्ता की संरचना और स्त्रीवादी अवधारणा के बारे में आंबेडकर के लेखन महत्व को और विस्तार देना चाहती हूं.आंबेडकर के  लेखन का विशाल भंडार और गहराई उसके भीतर दिखती निरन्तरता लेखों के चयन को मुश्किल बना देेते हैं. मेरा चयन कुछ पक्षपात वाला है क्योंकि इतने महती साहित्य के साथ जुड़ने में मेरी क्षमता सीमित है. साथ ही यह संचयन आय रूप से उन लेखों को प्रकाश में लाने के लिये है जो जाति जेण्डर गठजोड़ पर है और इसलिये ब्राम्हणी पितृसत्ता पर स्त्रीवादी आदर्श लेखों के रूप में लिये जा सकते हैं. इस दौरान मैने आंबेडकर के मराठी व अंगे्रजी में दिये गये भाषणों और लेखों का भी उल्लेख किया है,  जो ‘डा. बाबा साहेब अम्बेडकर लेख व भाषण, खण्ड 17 भाग तीन’ से लिये गये हैं.

ये लेख तीन भागों में व्यवस्थित किये गये हैं हर एक हिस्से में प्रासंगिक परिचय संक्षिप्त वितरण व विवेचन है, जो आंबेडकर  की पितृसत्ता के बारे में समझ के विभिन्न आयाम दिखते हैं. पहले भाग जाति यानि राजतीय विवाह, जाति और स्त्रियों पर हिंसा में अटूट संबंध’’ में दो लेख है-‘भारत में जातियां, उनका जन्म, विकास तथा कार्य तंत्र’ (BAWS VOl 17, Part 2) तथा हिंदू स्त्री का उत्थान व पतन (BAWS VOl 17, Part 2) . पहले लेख में जाति को सजातीय विवाहों के संदर्भ में व्यास्थापित किया गया है, जिसमें जाति और स्त्रीदमन में गठजोड़ को समझा जा सके. दूसरे लेख में भारत के इतिहास के उपनिवेशी व राष्ट्रवादी पाठ्यान्तरों की पड़ताल की गई है और वैदिक युग को स्त्रियों के लिये स्वर्णिम काल माने जाने वाले मिथक को नकारा गया है.
दूसरे भाग ‘मनु का मतिभ्रंश स्त्रियों के खिलाफ श्रेणीबद्ध हिंसा की पहेली का खुलासा’ में दो ऐसे खुलासे पर चर्चा और कुछ संक्षिप्तीकरण है. ये है पहले नं. 18 मनु का मतिभ्रंश या संकर जातियों के माध्यम की ब्राह्मणवादी व्याख्या (BAWS VOl 4, 215-25) तथा पहले नं. 19 पितृत्व से मातृत्व की ओर सक्रमण ब्राह्मण  इससे क्या पान चाहते थे? (BAWS VOl 4, 226-32)  और और विवादित राम व ‘कंश व कृष्णा की पहेली’ के कुछ अंश (BAWS.VOL.4.appendisI,323-43) . इस भाग के लेख ‘स्त्री और प्रतिशील ’ (BAWS.VOL.3.429-37) मेें भी संदर्भित है तथा हिन्दू स्त्री का उत्थान व पतन लेख के आखिरी हिस्से के रूप् मेंभी छपे हैं.  आंबेडकर की पहेलियों को पढ़ना मैं समझती हूं, ब्राम्हणी पितृसत्ता की जेण्डरीकृत हिंसा के उस श्रेणीवद्व चरित्र को बेनकाब करताहै,  जिसके द्वारा जाति- व्यवस्था की संरचना की बरकरार रखा जा सका.

आखिरी भाग ‘हिन्दू कोड बिल पर संसदीय बहसों और आंबेडकर  के इस्तीफे के बारे में है. हिन्दू कोड बिल पर सभी चर्चाओं को एक साथ रखता है. ’ (BAWS.VOL.4.Part 16, 4-12, 267-81) तथा मंत्रिमण्डल से इस्तीफा देते हुए डा. अम्बेडकर के भाषण के अंश प्रस्तुत करता है. (BAWS.VOL.14 भाग दो , 137-27) . यह भाग विधेयक की तीन प्रकार से जांच पड़ताल करता है. पहले यह विधेयक को आंबेडकर  के निजी जीवन के लोकतंत्रीकरण के प्रस्ताव के रूप में देखता है. दूसरे यह विधेयक के पक्ष में आंबेडकर की सार्थक दलीलों को पेश करता है, जिसे बाद में ‘अबधित स्वतंत्रता’ के उनके लक्ष्य का नाम दिया गया. अंत में यह विधेयक के विरोध को रेखांकित करता है और इस  रूढ़िवादी विपक्ष को लोकतांत्रिक करार को रद्द करने वाले की तरह देखता है.

अंत में 1927 में दलित स्त्रियों के ऐतिहासिक सम्मेलन में अपने उद्बोधन में आंबेडकर ने पूछा था,
‘‘यहां सभा में बैठी’’ कायस्थ व अन्य सवर्ण महिलाओं के बच्चों और हममें क्या कोई फर्क है? आपको सोचना होगा और इस वास्तविकता को जानना होगा कि आप भी एक ब्राह्मण  स्त्री की पाकीजगी और चरित्र रखती हैं. बल्कि जो साहस और कुछ कर दिखाने की इच्छा आप में है, वह उनमें भी नहीं है. फिर आपके बच्चों का अपमान क्यों होना चाहिए? आपने इस बारे में कभी सोचाा ही नहीं वरना आप एक सत्याग्रह खड़ा कर चुकी होती....

(पढ़ें: आंबेडकर की राजनीतिक छवि का स्त्रीवादी नकार )

आंबेडकर के उस उद्बोधन के बाद काफी कुछघटित हो चुका है. आंबेडकर के शब्दों पर  बहस खड़ी करने से आगे बढ़कर राजनीति-दीक्षित दलित स्त्रियों ने बहुत कुछ कर दिखाया है. बाबा साहेब की वफादार बेटियों के रूप में दलित स्त्री वादियों ने ब्रम्हण स्त्रीवाद के खिलाफ विद्रोह का लंबा सफर तय किया है और जाति-विरोधी राजनीति की दिशा का संकेत दिया है. ऐसा करते हुए, उन्होंने स्त्रीवाद तथा जाति विरोधी रानजीति के कई संभावित भविष्यों की राह खोली है. आंबेडकर की स्त्रीवादी विरासत का दलित पुरूषों व गैर दलित स्त्रीवादियों द्वारा संपूर्ण दोहन किया जाना अभी बाकी है. यह पुस्तक इसी  दिशा में एक गैर दलित स्त्रीवादी का विनम्र प्रयास है.
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