Quantcast
Channel: स्त्री काल
Viewing all 1054 articles
Browse latest View live

दीपा कर्माकर से पीवी सिंधु तक: विपरीत परिस्थितियों में खेल और जीत रही हैं लडकियां

$
0
0
अपने ऊपर देश भर टिकी निगाहों के बीच पीवी सिंधु नेभारत को ओलंपिक में बैडमिन्टन में पहला रजत दिलाया. 21 साल की पीवी सिंधु अबतक ओलंपिक में रजत पदक जीतने वाली पहली भारतीय महिला खिलाड़ी भी बनीं. उन्होंने विश्व चैंपियन के साथ हुए फाइनल में जबर्दस्त खेल का प्रदर्शन किया.


रोमांचक मैच में विश्व चैंपियन स्पेन की कैरोलीनामारिन ने सिंधु को 19-21, 21-12, 21-15 से मात दी. पहला गेम यद्यपि सिंधु 19-21 से जीत गईं लेकिन उसके बाद के दो गेम विश्व की नंबर के की खिलाड़ी कैरोलीना के हक़ में रहे. तीसरे गेम में कैरोलीना से शुरूआत में ही दबाव बनाया और एक समय वो स्कोर को 7-2 तक ले गईं. बाद में सिंधु ने वापसी की और 10-10 तक अंक पहुंचाया. हालांकि उसके बाद   कैरोलीना के आक्रामक खेल के सामने सिंधु को रजत पदक पर ही संतोष करना पडा. दूसरा गेम भी कैरोलीना ने 21-12 से जीत लिया था.
पुसरला वेंकटा सिंधु

पीवी सिंधु नाम से ख्यात पुसरला वेंकटा सिंधु पूर्व वॉलीबालखिलाड़ी पीवी रमना और पी विजया की बेटी हैं. रमना को 2000 में खेलों के लिए अर्जुन सम्मान भी मिल चुका है.

इसके पहले भारतीय पहलवान साक्षी मलिक ने रियोओलंपिक में कांस्य पदक हासिल कर इतिहास रचा. उन्होंने रियो ओलंपिक में भारत के लिए पहला पदक हासिल किया. महिलाओं की फ्रीस्टाइल कुश्ती के 58 किलोग्राम भारवर्ग में भारत के लिए पदक जीतने के लिए साक्षी ने पदक के लिए प्लेऑफ मुक़ाबले में कर्गिस्तान की पहलवान आइसूलू टाइनेकबेकोवा को 8-5 के अंतर से हराया. हरियाणा के रोहतक की रहने वाली साक्षी मलिक दिल्ली में एक बस कंडक्टर की बेटी है.

साक्षी मलिक

सिंधु और साक्षी के पहले भारत की ओर से ओलंपिक में सिर्फ तीन महिला खिलाड़ी कर्णम मल्लेश्वरी, मैरी कॉम और साइना नेहवाल ने क्रमशः 2000, 2012, 2012 में यह उपलब्धि हासिल की थी. सन 2000 में मल्लेश्वरी भारोत्तोलन में कांस्य जीत कर ओलंपिक में पदक जीतने वाली पहली भारतीय महिला बनीं. उसके बाद 2012 में मेरी कॉम ने मुक्केवाजी में और 2012 में ही सायना नेहवाल ने बैडमिंटन में भारत की पहली महिला पदक विजेता बनने का इतिहास रचा.

रियो में पदक की पहली उम्मीद जिमनास्ट की खिलाड़ी दीपा कर्माकर ने जगाई थी, लेकिन बेहतरीन प्रदर्शन के बावजूद वे चौथे नंबर पर रहीं. साधारण परिवार  से आने वाली दीपा ने अपने संघर्ष के बूते यह उपलब्धि हासिल की थी. दीपा कर्माकर के पिता दुलाल कर्माकर भारत में वेट लिफ्टिंग के कोच हैं और मां गृहिणी हैं.

दीपा कर्माकर

भारत में लड़कियों के खिलाफ सामाजिक जड़ताऔर बंदिशों के बीच तथा खेलों के लिए सर्वथा विपरीत माहौल में लडकियां अपने बल-बूते पर उपलब्धियां हासिल कर रही हैं. इन लड़कियों की विजय गाथा ही काफी है यह स्पष्ट करने के लिए कि भारतीय समाज अपने नायकों के खिलाफ पूरा अवरोध उपस्थित कर उनकी विजय के बाद किस कदर उनके नायकत्व के उत्सव में शामिल होता है. नायिकाओं के लिए तो यह समाज और भी विपरीत और षड़यंत्रकारी है.

जाति पर डाका : हिंदी साहित्य में जातिविमर्श

$
0
0
नीरा परमार
 कविता, कहानी और शोध -आलोचना के क्षेत्र में योगदान. एक कविता और कहानी संग्रह प्रकाशित . संपर्क : parmarn08@gmail.com
पढें और समझें कि कैसे साहित्यिक-सांस्कृतिक हस्तियों को सवर्ण बनाया जाता रहा है, उनके गैर सवर्ण होने के बावजूद

प्राचीन काल से भारतीय चिंतन परंपराऔर साधना में समाज के हर वर्ग में क्रांतिकारी व्यक्तित्व जन्म लेते रहे हैं. समाज के अभिजात वर्ग से ज्ञान-साधक, युग-प्रवर्तक आते रहे हैं, तो, निम्न कही जाने वाली जातियों में भी ज्ञानमार्गी चिंतक और धर्म-साधक तथा प्रेम-भक्ति का प्रसार करने वाले जन-चेतना के संवाहक विचारक भी होते रहे हैं. इस परम्परा में होने वाले सिद्धों में कंकालीपा शूद्र थे, मीनपा मछुआ थे, चमारिपा चमार थे तथा शालिपा शूद्र जाति में जन्मे थे. नाथों की परंपरा में मत्स्येन्द्रनाथ मछली मारने वाली कैवर्त जाति में उत्पन्न हुए थे, तांतिपा तांती थे, कमारो लुहार थे. संतों की निर्गुण धारा में रैदास चमार, धर्मदास बनिया, सेन नाई, दादू मोची या धुनिया थे. इसी प्रकार रामभक्ति शाखा में नाभाजी डोम कही जानेवाली शूद्र जाति में उत्पन्न हुए थे. कुछ लोगों ने भ्रम फैलाया कि वे क्षत्रिय जाति में जन्मे थे.

आरम्भ से ही अनेक संतों और भक्तों नेभारत की संस्कृति को समृद्ध किया है, लेकिन ब्राह्मणवादी व्यवस्था के पोषकों ने इस सत्य को नकार देना चाहा है. जब-जब निम्न जाति में किसी असाधारण प्रतिभा ने जन्म लिया है, उनके साथ अनेक प्रकार की झूठी, मनगढ़ंत, अंधविश्वास से भरी कपोलकल्पित अलौकिक घटनाओं को जोड़कर बड़ी ही चालाकी के साथ एक सोची-समझी गई साजिश के तहत येन-केन-प्रकारेण
इन्हें उच्च जाति का प्रमाणित किया गया है. तथाकथित सवर्ण वर्गों में यह भ्रम है कि निम्न कही जाने वाली जातियों में साधक, भक्त या संत जन्म ले ही नहीं सकते, अतिविशिष्ट और प्रतिभा संपन्न मात्र उच्च जाति की ही धरोहर हो सकते हैं. इस तर्कहीन विचारधारा को पुष्ट करने में बड़े-बड़े आचार्यों का भी हाथ रहा है. गोरखनाथ का आविर्भाव नाथ परंपरा में हुआ था. शंकराचार्य के बाद भारतवर्ष में इतना प्रभावशाली और महिमावान व्यक्तित्व गोरखनाथ का ही हुआ. स्वयं हज़ारी प्रसाद द्विवेदी यह मानते हैं कि भक्ति आंदोलन के पूर्व सबसे शक्तिशाली धार्मिक आंदोलन गोरखनाथ का योगमार्ग ही था.(1) ‘नाथ संप्रदाय’ में उन्होंने एक विचित्र कल्पना की है, जो इस प्रकार है: ‘‘मेरा अनुमान है कि गोरखनाथ निश्चित रूप से ब्राह्मण जाति में उत्पन्न हुए थे और ब्राह्मण वातावरण में बड़े हुए थे.’’(2) इस अनुभव का क्या आधार अथवा तर्क है? वे शंकराचार्य के समान गोरखनाथ जैसे असाधारण युग-पुरुष को निःसंकोच ब्राह्मणों की बिरादरी में शामिल करने का प्रयत्न करते हैं.

राहुल सांकृत्यायन ने सिद्धों के सिद्ध तांतिया(3) को तांती माना है, लेकिन ‘गंगा’ के पुरातत्वांक(4) में उन्होंने ही इन्हें मगध देशवासी ब्राह्मण बतलाया है. प्रश्न है कि एक ही व्यक्ति की दो जातियां कैसे हो सकती हैं? संत परंपरा की निर्गुणधारा में रैदास रविदास चमार जाति में उत्पन्न बतलाए जाते हैं, पर उन्हें भी ब्राह्मण प्रमाणित करने के लिए विचित्र कल्पना की गई है. संत अनंतदास ने ‘भक्त चरित्र और रैदास की परिचै’ में रैदास के पूर्व जन्म में ब्राह्मण होने की कल्पना की है.(5) प्रियादास लिखी ‘भक्तमाल की टीका’, ‘भक्तिरस बोधिनी’ में भी इसका उल्लेख है कि संभवतः पूर्वजन्म में ब्राह्मण रह चुकने के कारण ही उन्होंने चमार के घर जन्म लेकर भी अपनी मां का दूध नहीं पिया था. स्वामी रामानंद ने आकर जब उन्हें उपदेश दिया और अपना शिष्य बनाया तभी उन्होंने माता का स्तन-पान आरंभ किया.(6) इसी प्रकार ‘रैदास रामायण’ में भी उन्हें पिपलार गोत्र अरु सूर्य रासी ‘कहकर द्विज प्रमाणित करने का प्रयास किया गया है.’ भविष्य पुराण में एकक्षेपक जोड़कर यह कल्पित कहानी दी गई है कि रैदास सूर्यवंश के थे. उन्हें भगवान भास्कर का दूसरा पुत्र बतलाया गया है. इस संबंध में कथा इस प्रकार दी गई है: ‘एक बार शनि, राहु और केतु के प्रकोप को रोकने के लिए सूर्य ने अपने दो पुत्रों को धरती पर भेजा. बड़ा पुत्र इड़ापति (छागन्ह) कसाई के घर सघन नाम से अवतरित हुआ और दूसरा पिंगलापति मानसदास चमार के यहां रैदास के नाम से अवतरित हुआ.(7) इस कपोल कल्पित कथानक की उपयोगिता यही प्रतीत होती है कि यदि रैदास पूर्वजन्म में ब्राह्मण न होते तो इस जन्म में इतने बड़े संत न हो पाते. इस प्रकार की कथाएं इन जातिवादी संकीर्ण मनोवृत्ति को प्रकट करती हैं, जो बिल्कुल तर्कहीन एवं तथ्यहीन हैं. अपनी जाति को लेकर रैदास के मन में केाई कुंठा नहीं है. रविदास की जाति चमार थी, इस तथ्य को लेकर वे अपनी रचनाओं में पर्याप्त मुखर हैं:

(क) नागर जना मेरी जाति विख्यात चमार(ख) कहि रविदास खलास चमारा



जिस रूप में उन्होंने जाति का उल्लेखकिया है, उससे यह ध्वनि निकलती है कि संभवतः इसके कारण उन्हें कई तरह की पीड़ाएं झेलनी पड़ी होंगी. अपनी रचनाओं में रविदास ने खुलकर अपने पेशे का वर्णन किया है
जाके कुटुंब के ढेढसभ ढोर ढोवंत.
आभिजात्य वर्ग के लोग, जिन्होंने उन्हें ब्राह्मण सिद्ध करने का प्रयास किया था, इस स्वीकारोक्ति की व्याख्या अजीबोगरीब ढंग से करते हैं कि उनके पिता पशुओं का व्यापार करते थे और समृद्ध व्यापारी थे. इस संबंध में अंतः साक्ष्य सिद्ध तथ्य यह है कि रैदास जूता बनाकर या जूता गांठकर अपनी जीविका चलाते थे. रैदास जात-पांत के घोर विरोधी थे. यदि वे उच्च कुलोद्भव होते तो जाति का झूठा अहंकार पालने के बदले उसका विरोध नहीं करते. रविदास जन्म के कारने होत न कोउ नीच / नर कू नीच करि डारिहै ओछे करम की कीच.
इसके विपरीत तुलसीदास का ब्राह्मणत्व का अहंकार यत्र-तत्र दिखलाई पड़ जाना स्वाभाविक है
पूजिय विप्र गयान गुन हीना. / नहि न सूद्र गुन ग्यान प्रबीना..

इस दंभपूर्ण विचारधारा का प्रतिकार करतेहुए रैदास का कथन है कि जन्म से मनुष्य शूद्र नहीं पैदा होता है. उसकी पूजा गुणों के कारण होनी चाहिए, जाति अथवा जन्म के कारण नहीं. तुलसी की विचारधारा के विरुद्ध वे एक सहज मानवीय दृष्टि की प्रस्तावना करते हैं
रविदास ब्राह्मण मत पूजिए जउ होवे गुन हीन / पूजहि चरन चंडाल के जउ होवे गुन परवीन.
उनके लिए ब्राह्मण होकर गुणहीन होना गर्व की बात नहीं है, शूद्र होकर चरित्रवान और गुणवान होना ही उनके लिए गौरव की बात है, जबकि तुलसी के लिए जन्म से उच्च जाति का होना अधिक महत्व रखता है. संतों की जाति बताकर फिर उनका मूल्यांकन करना उनकी महत्ता को कम करके आंकना है. वस्तुतः संत की कोई जाति नहीं होती है, संत सिर्फ संत होते हैं. निर्गुणधारा के संत दादु मोची या धुनिया थे. संत कबीर की तरह इनके संबंध में भी तरह-तरह की भ्रांतिपूर्ण कथाएं फैली हुई हैं. संत दादु भी कबीर के समान ही साबरमती नदी में बहते हुए पाए गए थे. यानी वे जन्म से परित्यक्त कोई कलंकित बालक रहे होंगे और उनकी जाति का किसी को पता नहीं होगा. ऐसे लोगों को समाज निःसंदेह शूद्र मान लेता है.

ब्राह्मणवादी दृष्टि से हिंदी साहित्य के विश्लेषण में रामचंद्र शुक्ल अग्रणी नायक रहे हैं. उन्होंने हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन में विधेयवादी दृष्टि की प्रतिष्ठापना की है. यह एक श्रेय की बात है, पर कुछ कवि और लेखकों की जाति-निर्धारण के विश्लेषण के क्रम में उन्होंने जाति बताने का भी गैर जरूरी काम किया है. यह काम करते समय कई निम्न जाति में उत्पन्न कवियों और लेखकों में अधिकांश को ब्राह्मण और कुछ को सवर्ण घोषित किया है. कुछ उदाहरण देखे जा सकते हैं. कृष्ण भक्ति शाखा के वल्लभाचार्य के शिष्य परमानंद दास कन्नौज निवासी थे. आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के समान वे भी अनुमान लगा लेते हैं कि ‘‘इनका निवास-स्थान कन्नौज था. इसी से ये कान्यकुज्ज ब्राह्मण अनुमान किए जाते हैं.’’(8) उन्होंने तर्कहीन ढंग से यह अनुमान किया और यह सिद्ध करने का प्रयास किया कि परमानंद दास कन्नौज निवासी होने के कारण ब्राह्मण थे. प्रश्न है कि क्या किसी व्यक्ति के कन्नौज में निवास करने से ही वह ब्राह्मण हो जाता है? यदि ऐसा है तो किसी टिप्पणी की जरूरत नहीं है.


इसी प्रकार रामभक्ति शाखा में नाभाजीजाति से डोम थे. कुछ लोगों ने उन्हें क्षत्रिय प्रमाणित करना चाहा है. रामचंद्र शुक्ल तुलसीदास के सवर्णवाद और मर्यादाबोध के प्रबल समर्थक हैं. उनकी वर्ण श्रेष्ठता को कभी भी कालजयी संत कबीर बर्दाश्त नहीं हुए. कबीर के मानवीय दृष्टि से संपन्न ज्ञान-बोध को उन्होंने अक्खड़ और फक्कड़ कहकर अस्वीकार कर दिया. आचार्य शुक्ल ने नाभादास और तुलसी-मिलन प्रसंग को जिस रूप में प्रस्तुत किया है, वह नितांत अविश्वसनीय है. संदेह नहीं कि उसे सिर्फ तुलसी को महिमामंडित करने के लिए ही उस रूप में प्रस्तुत किया गया है. शुक्ल जी द्वारा उद्धृत प्रसंग इस प्रकार है, ‘‘ऐसा प्रसिद्ध है कि एक बार गोस्वामी तुलसीदास से मिलने वे (नाभादास) काशी गए. पर उस समय गोस्वामी जी ध्यान में थे. इसलिए न मिल सके. नाभाजी उसी दिन वृंदावन चले गए. ध्यान-भंग होने पर गोस्वामी जी को बड़ा खेद हुआ. और वे तुरंत नाभाजी से मिलने वृंदावन चले गए. नाभाजी के यहां वैष्णवों का भंडारा था, जिसमें गोस्वामी जी बिना बुलाए जा पहुंचे. गोस्वामीजी यह समझकर कि नाभाजी ने मुझे अभिमानी न समझा हो सबसे दूर एक किनारे बुरी जगह बैठ गए. नाभाजी ने जान-बूझकर उनकी और ध्यान न दिया. परसने के समय कोई पात्र नही मिल रहा था जिसमें गोस्वामीजी को खीर दी जाती. यह देखकर गोस्वामी जी एक साधु का जूता उठा लाए और बोले इससे सुंदर पात्र मेरे लिए क्या होगा? इस पर नाभाजी ने उठकर उन्हें गले लगा लिया और गद्गद् हो गए.’’(9)

 इस प्रसंग की तर्कहीनता और कपोलकल्पना से स्वयं शुक्ल जी भी अपरिचित नहीं थे. वे स्वयं यह मानते हैं कि ‘‘यह वृत्तांत कहां तक ठीक है, नहीं कहा जा सकता, क्योंकि गोस्वामी जी खान-पान का विचार करने वाले स्मार्त वैष्णव थे.(10) इतना ही नहीं तुलसी की वर्ण श्रेष्ठता और अहंकारजन्य हठधर्मिता उनके रामचरित मानस के कई स्थलों पर झलकती है. अतः नाभादास के प्रसंग में तुलसी के संदर्भ में उपर्युक्त प्रसंग की योजना तुलसी की श्रेष्ठता के प्रति शुक्लजी का अतिरिक्त आग्रह ही माना जाएगा. हिंदी साहित्य के संत और कवि जो स्वयं अत्यंत संवेदनशील और जात-पांत की छोटी-छोटी भावनाओं से ऊपर हैं, इनके लेखन और साहित्य पर विचार करते समय उनकी जाति के संकीर्ण दायरों में घूमना, उनकी वर्ण और जाति श्रेष्ठता को इतर प्रकार से महत्व देना निश्चय ही एक विकृत सोच का परिणाम है. किसी का संत अथवा कवि होना ही क्या उसके व्यक्तित्व और साहित्य पर विचार करने के लिए काफी नहीं हैं, जाति के धरातल पर उसे गौरवान्वित करने का प्रयत्न कर हम क्या सिद्ध करना चाहते हैं? अथवा सवर्णवाद की गर्व-स्फीत घोषणा करना चाहते हैं? रामचंद्र शुक्ल के इतिहास ग्रंथ को यदि ध्यान से देखा जाए तो उसमें आरंभ से अंत तक द्विज दृष्टि की प्रधानता है. इतना ही नहीं उन्होंने बड़ी फुहड़ता से ब्राह्मण लेखकों के नाम के पूर्व पंडित और गैर-ब्राह्मण लेखकों के नाम के पूर्व ‘बाबू’ अथवा ‘श्री’ शब्द का प्रयोग किया है. यह सुखद है कि आज का लेखक अपनी प्रतिबद्धताओं, पक्षधरताओं के बावजूद स्पष्टतः ऐसी उद्घोषणाएं नहीं करता.


संदर्भ :

1. नाथ संप्रदाय, हजारी प्रसाद द्विवेदी, पृ. 106
2. वही, पृ. 107
3. पुरातत्व निबंधावली, राहुल सांकृत्यायन, पृ. 191
4. नाथ संप्रदाय, हजारी प्रसाद द्विवेदी, पृ. 168 से उद्धृत
5. संत रविदास, इंद्रराज सिंह, प्रकाशन विभाग, नई दिल्ली, पृ. 44 से उद्धृत
6. वही, पृ. 45
7. वही, पृ. 45
8. हिंदी साहित्य का इतिहास, रामचंद्र शुक्ल, पृ. 172
9. वही, पृ. 142
10. वही, पृ. 142

शिनाख्त के दायरे

$
0
0
रोहिणी अग्रवाल
रोहिणी अग्रवाल स्त्रीवादी आलोचक हैं , महर्षि दयानंद विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर हैं . ई मेल- rohini1959@gmail.com
आधुनिक गद्य साहित्य की शुरुआत केसाथ ही हिंदी उपन्यास लेखन में स्त्री रचनाकारों का प्रवृत्त होना एक सामान्य घटना नहीं है. स्त्रियों के लिए उपन्यास पुरुष रचनाकारों की तरह युगीन परिदृश्य को आलोचनात्मक दृष्टि से चित्रित करने की विधा मात्र नहीं है, वरन् पुरुष, परिवार और समाज के संदर्भ में अपने को देखने और अभिव्यक्त करने की विकलता है. अपनी नैसर्गिक वृत्ति और सोशल कंडीशनिंग के कारण स्त्रियां अधिक भावुक, संवेदनशील और परिवार से बंधी होती हैं. संवेगों की तीव्रता और प्रजनन की क्षमता के कारण उनकी मूल प्रकृति संबंध और मनुष्य को बचाने की प्रक्रिया में तल्लीनता, जिजीविषा और संघर्ष को उनकी रचनात्मकता का केंद्रीय बिंदु बना देती है. इसी कारण उनके उपन्यास गहरी मार्मिकता के साथ प्रगाढ़ आत्मीय संबंधों को बुनते हुए जहां पाठक की अनुभूतियों को अपने साथ बहा ले जाते हैं, वहीं पुरुष रचनाकारों के उपन्यासों में अपने से छिटक कर समय के साथ रू-ब-रू होने का वस्तुगत प्रभाव पाठक की बौद्धिकता को आंदोलित करता है. स्त्रियों के लिए उपन्यास अपने रुद्ध मनोवेगों और दमित भावोच्छ्वासों को अभिव्यक्त कर देने का माध्यम अवश्य है, लेकिन अपवनी मूल प्रकृति में यह घर केे आंगन में एकत्रित स्त्री-समूह के पीड़ा और आकांक्षा के सामूहिक गान के रूप में अधिक उभरता है. परंपरा से स्त्रियों के हिस्से बहुत थोड़ी सी जमीन और आसमान आए हैं, इसलिए उनकी उड़ान भी छोटी सी है. खुले व्योम में तैर कर दूर निकल जाना और फिर गुम हो गई वापसी की राहों को तलाशने की बजाय नई राहों को अपनी मंजिल बना लेना - स्त्रियों की प्रकृति में नहीं. इसलिए उनकी रचनाओं में सीमाओं के अतिक्रमण का हौसला नहीं है, भीतर तक बींध देने वाली जड़ताओं और बेड़ियों की खुर्दबीनी जांच का आग्रह है. वे एक ऐसे लोक का दिग्दर्शन कराने वाली कृतियां बन जाती हैं जहां एक ही देशकाल में साथ-साथ रहते दो इंसान निरंतर गहराते अपरिचय और दूरी के कारण न आपसी समझबूझ और तालमेल विकसित कर पाते हैं, न समय और समाज के सृजन में अपनी रचनात्मक भूमिका निभा पाते हैं. स्त्री-उपन्यास के केंद्र में बेशक स्त्री है, लेकिन ये कृतियां अनिवार्यतः पुरुष को संबोधित हैं ताकि वर्तमान समाज व्यास्था द्वारा स्त्री-पुरुष-संबंध को जड़ और रूढ़ बनाए जाने के कारणों को विश्लेषित कर वह साझी लड़ाई में उसका साथ दे. स्त्री-उपन्यास-लेखन सतही तौर पर स्त्री द्वारा अपनी मांगों और अधिकारों का घोषणा-पत्र दिखाई पड़ता है, लेकिन दरअसल वह स्त्री को पुरुष का पूरक पक्ष (यानी पुरुष सापेक्ष इयत्ता) न मान कर एक स्वायत्त मानव-इकाई समझने की संवेदनशीलता के प्रसार का आग्रह है.

कृष्णा सोबती

 स्त्रियों का उपन्यास-लेखन तमाम तरह के महिमामंडनऔर तिरस्कार से परे एक ऐसी स्त्री को प्रत्यक्ष करता है जो अब तब रचित पुरुष-साहित्य में प्रायः अनुपलब्ध है. इस प्रकार यह न केवल साहित्य में पुरुष-वर्चस्व को तोड़ कर इसे अधिक लोकतांत्रिक और बहुआयामी बनाता है, बल्कि यशपाल, महादेवी वर्मा, वर्जीनिया वुल्फ और सिमोन द बउवा की इस मान्यता को पुष्ट करता है कि अनुमान के सहारे ’दूसरे’ के चरित्र चित्रण का अहं दरअसल अपने ही भय और हीनता को छुपाने की बेचारगी है. डाॅ0 गोपाल राय की पुस्तक ’हिंदी उपन्यास का इतिहास’ में 1890 से प्रेमचंद युग तक प्रकाशित स्त्री उपन्यासकारों के उपन्यासों का उल्लेख है, किंतु उनके ठोस रचनात्मक अवदान को लेकर वे स्वयं आश्वस्त नहीं हैं. उनके शब्दों में ’’ये उपन्यास लेखिकाएं हिंदू समाज में स्त्री की विषम और दयनीय स्थिति का प्रामाणिक चित्रण करने में सफल हैं, पर उनका दृष्टिकोण रूढ़ ही है. वे परंपरागत नारी संहिता के विरोध में जाने का साहस नहीं कर सकी हैं, यद्यपि स्त्री शिक्षा का वे खुल कर समर्थन करती हैं. इन लेखिकाओं का नारी संबंधी दृष्टिकोण पुरुष लेखकों से भिन्न नहीं है.’’ उल्लेखनीय है कि इसके बाद भी 1960 तक स्त्री-उपन्यास-लेखन में कोई उल्लेखनीय हस्ताक्षर अथवा प्रवृत्ति दृष्टिगत नहीं होती. 1961 में उषा प्रियवंदा के उपन्यास ’पचपन खंभे लाल दीवारें’ के प्रकाशन के साथ हठात् स्त्री-उपन्यास-लेखन का पाट चैड़ा और गहरा होने लगता है. फलतः 1961 से अब तक के पचपन वर्ष के उपन्यास का विश्लेषण तीन वर्गों में किया जाना समीचीन है जहां एक स्त्री-उपन्यासकार युगप्रवर्तक की भूमिका निभाते हुए न केवल स्त्री-पुरुष संबंधों की पड़ताल के जरिए स्त्री और पुरुष को निर्धारित छवियों/भूमिकाओं में बांधने वाली पितृसत्तात्मक व्यवस्था को कठघरे में खींच लाती है, वरन् अपने सरोकारों का विस्तार करते हुए उपन्यास की विषयवस्तु को घर की चैहद्दी से निकाल समाज, राजनीति और धार्मिक प्रपंचों तक ले आती है. ये वर्ग हैंः 1961 से 1974 तक रचित उपन्यास, 1975 से 1993 तक रचित उपन्यास, और 1994 से  अब तक के उपन्यास.

1
1961 से 1974 तक का कालखंड मुख्य रूप से चार उपन्यासकारों की कृतियों के इर्द-गिर्द घूमता है. ये हैंः उषा प्रियंवदा, कृष्णा सोबती, मन्नू भंडारी और ममता कालिया. पहली बार इन रचनाकारों ने पुरुष की छाया से मुक्त कर अपने को देखने का जतन किया है. पुरुष की पसंद और परंपरा के दबाव के बाहर उनके भीतर भी एक दिल धड़कता है, एक मस्तिष्क है जो बहुत सी वर्जनाओं को अस्वीकार कर स्वयं जीवन का कर्ता बन जाना चाहता है. यह स्थिति अनिवार्यतः दो स्तरीय टकराहट का प्रस्थान बिदु बनती है. पहली टकराहट स्वयं अपने आप से है. स्त्री जानती है उसके अंतस के निर्माता घटक हैं - भीतर बैठी हीनता ग्रंथि, असुरक्षा और भय का भाव, प्रतिकूल परिस्थितियों में निर्णय को मुल्तवी करते चले जाने और किसी अन्य द्वारा निर्णय लेकर उसे उबार लेने का भाव. यह स्त्री विचारशील अवश्य हुई है, लेकिन भावुकता के सीलेपन से उबर कर तार्किक चिंतन की चटकीली धूप को अपने मन-आंगन में फैलने नहीं देती. उषा प्रियंवदा का उपन्यास ’पचपन खंभे लाल दीवारें’ और ’रुकोगी नहीं राधिका’, मन्नू भंडारी का ’आपका बंटी’, कृष्णा सोबती के ’मित्रो मरजानी’ और ’सूरजमुखी अंधेरे के’ उसकी इस मनोवृत्ति के उदाहरण हैं. ’पचपन खंभे लाल दीवारें’ आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर एक ऐसी आधुनिका स्त्री की कथा है जिसके बीज ’गोदान’ की मालती में हैं. आर्थिक रूप से अक्षम पिता और परिवार के भरण-पौषण के लिए नौकरी करती यह स्त्री (सुषमा) जीवन को बदरंग कर डालने वाले दो तथ्यों से खूब परिति है. एक, आय का स्रोत बनाए रखने के लिए उसका अपना परिवार उसके विवाह और भविष्य से बेपरवाह हो गया है. दूसरा, अपनी अन्य चिरकंुवारी सहकर्मियों की कुंठा और सनक से परिचित होकर वह स्वयं ईष्र्याविदग्ध चिरकुंवारी के रूप में जीना नहीं चाहती. नील प्रेमी से अधिक मुक्तिदाता के रूप में उस तक आता है, लेकिन ऐन निर्णय के क्षण में परिवार लिजलिजी भावुकता बन उसके पैरों में बेड़ियां डाल देता है. प्रेमविवाह की आकांक्षा और प्रेमविवाह का निर्णय न ले पाने के असमंजस में सुषमा जिस स्त्री छवि को रचती है, वह विलंबित गति से आगे बढ़े पैर को दु्रत गति से पीछे लौटा लेने वाले यथास्थितिवाद को उकेरती है. द्वंद्वग्रस्तता उषा प्रियंवदा की नहीं, उनकी समकालीन सभी स्त्री रचनाकारों की विशेषता है. ’रुकोगी नहीं राधिका’ (1967) में यह रिवर्स कल्चरल शाॅक और इलेक्ट्रा कांप्लेक्स के रूप में अभिव्यक्त होती दीखती है, लेकिन दरअसल यह पति/पिता के रूप में एक सुरक्षादायक खूंटे को आजीवन पकड़े रहने की जिद का परिणाम है. प्रेम करके प्रेम का निर्वाह न कर पाना उषा प्रियंवदा की स्त्री के उन भारतीय संस्कारों की ओर संकेत करता है जहां पति एवं अन्य पारिवारिक रिश्तों के अतिरिक्त प्रेम का कोई भी रूप स्त्री के लिए निषिद्ध है.


मन्नू  भंडारी

द्वंद्व और पराजय की इसी जमीन से विकसित हुई हैं कृष्णा सोबती की बोल्ड नायिकाएं.ये नायिकाएं बोल्ड इसलिए हैं कि परंपरा के विरुद्ध जाकर अपनी दैहिक भूख का स्वीकार करती हैं और सेक्स पार्टनर के रूप में मनवांछित पुरुष को चुनना चाहती हैं. इस प्रक्रिया में वह पुरुष विवाह-संस्था के बाहर खड़ा पर-पुरुष हो तो भी. मित्रो (’मित्रो मरजानी’, 1967) द्वारा पति सरदारीलाल को बगलोल (काठ का उल्लू) कह कर कसबन मां बालो के प्रेमी डिप्टी साहब के संग देह का खेल खेलने की अभिलाषा कृष्णा सोबती की नायिका को सीधे-सीधे ’अनैतिक’ करार देने के लिए पर्याप्त है. लेकिन सत्य यह है कि ’नद नदिया सी खुली’ यह नार जितना कहती-जताती है, उतना करने का साहस (नैतिक?) अपने भीतर नहीं पाती. दरअसल मित्रो के जरिए लेखिका परिवार संस्था के ढांचे को तोड़ना नहीं चाहतीं, नैतिकता के दोहरे मानदंडों पर करारी चोट करना चाहती हैं जो स्त्री की यौन-आकांक्षाओं को दमित कर पुरुष की निरंकुशता को उसकी मर्दानगी का मूल्य बना देते हैं. डिप्टी की मिलनाभिलाषी मित्रो चैबारे की सीढ़ियां चढ़ते हुए दो बिंबों से साक्षात्कार करती है. ससुराल के आंगन में बचपन, जवानी और बुढ़ापे के रूप में जीवन की चहचहाहट; और मां के सूने आंगन में उम्र के हाथों तिल-तिल छीजती बूढ़ी बीमार कराहटें; मानो परिवार संस्था की ’नैतिकता’ की चैखट उलांघते ही अपने खंडहर होते भविष्य का सामना कर लिया हो उसने. मित्रो के अभिज्ञान का यह बिंदु  कृष्णा सोबती की नायिकाओं को पितृसत्तात्मक व्यवस्था के विरुद्ध खड़ा नहीं करता, पितृसत्तात्मक व्यवस्था के वर्चस्ववादी स्वरूप से स्त्री-अस्मिता के स्वीकार का अनुरोध भी करता है. 1972 में प्रकाशित उपन्यास ’सूरजमुखी अंधेरे के’ भी सतही तौर पर नैतिकता को चुनौती देती स्त्री की साहस-गाथा के रूप में दिखाई पड़ता है, लेकिन असल में यह बचपन में बलात्कार की शिकार स्त्री की यौन फ्रिजिडिटी से मुक्ति पाने की एक-पक्षीय लड़ाई का आख्यान है. बलात्कार स्त्री की देह पर आघात नहीं, उसकी आत्मा और आस्था को लहूलुहान कर दिए जाने का घिनौना कृत्य है जिसमें अपराधी की धरपकड़ नहीं होती, अपराध की शिकार स्त्री को मृत्युदंड अथवा आत्मनिर्वासन की पीड़ा दी जाती है. कृष्णा सोबती का यह उपन्यास इस मायने में बेजोड़ है कि पुरुष की पाशविकता का शिकार होकर भी उनकी स्त्री पात्र रत्ती पुरुष-द्वेष से ग्रस्त नहीं होती, बल्कि पुरुष की संवेदनशीलता और सहयोग से अपने भीतर की पथरीली जमीन में खोई आस्था और स्त्रीत्व को ढूंढ निकालना चाहती है. पुरुष-प्रताड़ना के बावजूद पुरुष के प्रति द्रोह या द्वेष जैसे किसी भाव को पनपने न देना कृष्णा सोबती की प्रमुख विशेषता है जो उन्हें अंत तक परिवार और संबंध की हार्दिकता से जोड़े रहती है. हिंदी उपन्यास को व्यंजनाधर्मी सृजनात्मकता और काव्यात्मक भाषा देने के लिए कृष्णा सोबती का योगदान विशेष उल्लेखनीय है. ’मित्रो मरजानी’ में बाढ़ के आवेग में उफनती नदी का अनियंत्रित बहाव है तो ’सूरजमुखी अंधेरे के’ में कविता की लय और आंतरिक सौन्दर्य का उन्मेष. देह संबंध का विशद चित्रण आरोपित, अमर्यादित अथवा अश्लील नहीं, कविता के सान्निध्य में अपने भीतर पसरी अभिशाप की शिला को तोड़ कर नीचे दबी कलियों के पूर्ण विकसित होने की प्रक्रिया बन जाता है. रूप, रंग, गंध, स्पर्श और स्वाद - मानो पांचो इंद्रियां एक नई उमगती संवेदना के अभिषेक के लिए तत्पर खड़ी हैं.

परिवार इस दौर की स्त्री की भावनात्मक आवश्यकता के रूप में उभर कर आता है.’आपका बंटी’ (1971) की तलाकशुदा शकुन इस मान्यता की पुष्टि करती है, लेकिन साथ ही पूर्ववर्ती रचनाकारों से एक कदम आगे जाकर विघटनशील दांपत्य संबंध को परे फेंकने का जोखिम भी उठाती है. इन तीनों लेखिकाओं से भिन्न तेवर लेकर आती हैं ममता कालिया. स्त्री की यौन शुचिता के आग्रह के विरोध में रचे गए उपन्यास ’बेघर’ (1971) के माध्यम से वे अपने समय के दकियानूसी समाज को करारी चोट पहुंचाती हैं. ममता कालिया कृष्णा सोबती की संवेदना और परंपरा की वाहक हैं, और उनसे कहीं अधिक एकाग्र, निर्भीक और गंभीर. विवाहपूर्व प्रेम और शरीर संबंध यदि अनैतिक हैं तो यौन शुचिता गंवाने का अपराध कहर बन कर स्त्री पर क्यों टूटता है? पुरुष क्यों हर अवस्था में न्यायाधीश बना रह कर स्त्री की नियति और आकांक्षाओं को नियंत्रित करे? ममता कालिया सिर्फ सवाल नहीं उठातीं, स्त्री (संजीवनी) को संबंध तोड़ कर बेघर किए जाने वाले पुरुष (परमजीत) को यौन शुचिता के मानदंड पर खरा उतरी फूहड़ पत्नी रमा के हाथों बेघर होता दिखाती हैं. यह मानो उनका ’अपराधी’ पुरुष के प्रति प्रतिशोध है और संबंधों को पुनर्परिभाषित करने का जतन भी जहां तमाम रूढ़ियों और अर्हताओं को तोड़ कर एक-दूसरे के प्रति अपेक्षाहीन अनन्य प्रेम ही संबंध की रीढ़ बनता है. ममता कालिया ऐसी रचनाकार हैं जो लिजलिजी भावुकता को छोड़ कर बौद्धिकता और व्यंग्य को लेखन के औजार बनाती हैं. पूर्ववर्ती लेखिकाओं के द्वंद्व की अंतर्लीन लहरों में डूब-उतरा कर परंपरा में अपना वजूद खो देने वाला शिल्प यहां आकर न केवल खुरदरा आकार लेता है, बल्कि अपनी दिशा भी बदलता दिखाई देता है.

ममता कालिया

2
1975 से 1994 तक के कालखंड में अनेक लेखिकाएं दृश्यपटल पर उभरती हैं, लेकिन ममता कालिया के बेलौसपन और सधी दृष्टि को मृदुला गर्ग और एक सीमा तक नासिरा शर्मा के अतिरिक्त और कोई रचनाकार आगे नहीं ले जा सकीं. ’उसके हिस्से की धूप’ (1975) के प्रकाशन के साथ मृदुला गर्ग की उपन्यास यात्रा शुरु होती है जो ’मिलजुल मन’ (2009) तक विकास के अनेक पड़ाव पार करते हुए स्त्री की जातीय अस्मिता और संघर्ष को राजनीतिक-सांस्कृतिक संदर्भों के साथ अभिव्यक्त करती है. सतही तौर पर ’उसके हिस्से की धूप’ मन्नू भंडारी की कहानी ’यही सच है’ की याद दिलाता है, लेकिन दरअसल उपन्यास की कहानी स्त्री की वरण की स्वतंत्रता है ही नहीं, प्रेम के नाम पर इस या उस पुरुष के बीच झूलती स्त्री की अकर्मण्यता और व्यक्तित्वहीनता के दंश की ईमानदार अभिव्यक्ति है. ’’प्रेम में इतना घनत्व नहीं होता कि वह जीवन के खोखलेपन को भर दे’’ - मनीषा के संज्ञान का यह बिंदु स्त्री के भीतर रीतिकालीन नायिका देखने की अभ्यस्त पुरुष-मानसिकता पर करारी चोट करता है. साथ ही स्त्री को भी रूढ़ एवं आरोपित छवियों से मुक्त कर अपने को मनुष्य के रूप में देखने का विवेक देता है कि किसी की पत्नी या प्रेमिका मात्र बन कर क्या कोई इंसान जीवन में सार्थक और सकारात्मक करने का संतोष पा सकता है? अपनी इसी भावभूमि का विस्तार करते हुए जब वे ’चितकोबरा’ (1979) जैसा उपन्यास लिखती हैं तो अश्लील लेखन का आरोप लगाकर उन पर मुकदमा भी चलाया जाता है, लेकिन वास्तविकता यह है कि किसी भी कुशल डाॅक्टर की तरह वे पर्दे में दबे-घुटे बदबूदार नासूर को उघाड़ कर एकदम सामने ले आती हैं. वैवाहिक बलात्कार की विभीषिका झेलती स्त्री (मनु) जिस यांत्रिक ढंग से देह संबंध को अपॅरेशन टेबल पर पड़े मुर्दे की चीरफाड़ की प्रक्रिया या वेश्यालय में हो रहे व्यभिचार में तब्दील करती है, वह रागात्मकता और हार्दिकता से छूंछे दांपत्य संबंध को कठघरे में खींच लाता है. दांपत्य संबंध पत्नी के नसीब में आजीवन गुलामी लिखने की पट्टेदारी नहीं है. वह देह से ज्यादा मन के संवाद का संबंध है. जाहिर है इसके लिए पुरुष से अपेक्षा की जाती है कि स्त्री को सबसे पहले इंसान के रूप में समझे जाने की संवेदना विकसित कर सके. ’कठगुलाब’ हालांकि कालानुक्रम की दृष्टि से बाद (1996) की रचना है, लेकिन मृदुला गर्ग की स्त्रीविषयक अवधारणाओं को केंद्रीभूत रूप में इस उपन्यास में देखा जा सकता है. मृदुला गर्ग मानती हैं स्त्री-पुरुष संबंध के साथ-साथ सृष्टि की अनवरतता बनाए रखने के लिए स्त्री और पुरुष दोनों को एक-दूसरे के प्रति न केवल उदार और संवेदनशील होना होगा, बल्कि आगत की रक्षा के लिए हर तरह के वैचारिक-मानसिक-भावनात्मक बंजर को उर्वर बनाना होगा. मृदुला गर्ग का यह उपन्यास इस मायने मे बेजोड़ है कि यह पहली बार हीनता ग्रंथि और अपराध बोध से मुक्त स्त्री की रचना करता है जो अंतःशक्तियों को संजो कर ही अपने अधिकारों और समाज के निर्माण की लड़ाई लड़ती हैं. उनकी स्त्री कोख को अपनी कमजोरी नहीं, ताकत मानती है और इस प्रकार परिवार संस्था के प्रति अपनी आस्था को निबद्ध करती है. कृष्णा सोबती की भांति मृदुला गर्ग उत्पीड़क पुरुष को क्षमा नहीं कर पातीं, लेकिन इतनी आकांक्षा अवश्य पालती हैं कि स्त्रीहृदय पाकर पुरुष अर्धनारीश्वर की अवधारणा को एक बार फिर साकार कर दे.

एक ही उपन्यास के बावजूद हिंदी उपन्यास परंपरा मेंअपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज कराने वाली राजी सेठ ’तत्सम’ (1983) में जाहिरा तौर पर स्त्री मुक्ति की बात नहीं करतीं. परिवार/पुरुष द्वारा उत्पीड़न या हीनता ग्रंथि उनकी स्त्री का परिचय नहीं. उपन्यास की नायिका वसुधा वस्तुतः समाज से मुखातिब है ही नहीं. वैधव्य ने उसके सामाजिक जीवन को आंदोलित नहीं किया है, पुनर्विवाह के विकल्प ने उसे भीतर तक उद्वेलित कर दिया है. क्या कानूनी अधिकार और सुविधा के नाम पर व्यक्ति को प्रतिस्थापित करते चले जाने से संबंध की हार्दिकता को अ-क्षरित भाव से नए संबंध में ट्रांसप्लांट किया जा सकता है? क्या एक व्यक्ति के चले जाने पर उसकी स्मृतियों की रीती परिक्रमा करके भविष्य की ओर उन्मुख जीवन के साथ न्याय किया जा सकता है? जीवन में व्यक्ति महत्वपूर्ण है या संबंध? यदि संबंधहीनता वयक्ति को सामाजिकता से काट कर अहम्मन्यता की खोखली अनुगूंज बना देती है तो क्यों गलत व्यक्ति के चयन पर संबंध दमघोंटू बन जाते हैं? राजी सेठ सूक्ष्म मनोभावों और दार्शनिक चिंतन की लेखिका हैं. वे जानती हैं वसुधा की तरह अनिर्णय के कुहासे में घिर जाने के बाद हर व्यक्ति अपनी मनोवृत्तियों, प्राथमिकताओं और अपेक्षाओं के अनुरूप ही चयन का विकल्प अपने पास रखता है. मौन में निबद्ध सघन उच्छ्वास, सांकेतिकता, बिंब, कविता, प्रतीकात्मकता और पल-पल रंग बदलती भीतर की प्रकृति से परिचित होने के क्रम में आंखों की कोरों में घुल आई संकोचशील उत्सुकता - ’तत्सम’ को उपन्यास नहीं, गद्य में निबद्ध एक भावगीत बना देती है. यह स्त्री द्वारा अपने को पहचाने जाने का आह्वान है - रणभेरी बजाने से कहीं ज्यादा कठिन साधना. जाहिर है यह पहला उपन्यास है जो सामाजिक विश्लेषण को नहीं, संश्लेषण की अंतःशक्ति को अपनी ताकत बनाता है.


मैत्रेयी पुष्पा
वर्ष 1975 को अंततराष्ट्रीय महिला वर्ष के रूप में तथा 70 के दशकको महिला दशक के रूप में मनाया जाना इस कालखंड की रचनाशीलता को प्रभावित करने वाला महत्वपूर्ण घटक रहा है. यह वह दौर था जब वैश्विक स्तर पर बाहरी चिन्हों तथा प्रतीकों के जरिए स्त्री-मुक्ति की घोषणा की जा रही थी. अमेरिका-फ्रांस आदि में स्त्री के अंतर्वस्त्रों के साथ ऊँची एड़ी की सैंडिल और प्रसाधन सामग्री को भी आग की लपटों के हवाले किया जा रहा था जो स्त्री की कमनीयता और सुकुमारता को पोषित करने वाले घटक चिन्हित किए गए. भारतीय संदर्भ में मंचों और सार्वजनिक स्थलों पर बिंदीविहीन सिगरेट पीती स्त्री लिबरेटेड स्त्री के प्रतीक रूप मेें चिन्हित की जाने लगी. इस स्त्री की कुछ विशेषताएं बताईं गईं जैसे सुशिक्षिता, बुद्धिजीवी, आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर, विवाह संस्था की विरोधी तथा मातृत्व के प्रति उपहासात्मक भाव. यह देखना काफी दिलचस्प है कि आठवें दशक न केवल साहित्य में लेखिकाओं की बाढ़ आई, बल्कि कुछ-कुछ फार्मूलाबद्ध लेखन भी किया जाने लगा. बानगी के ता्रैर इस लेखन की ये विशेषताएं हैं: स्त्री-पुरुष पात्रों का सहज विकास करने की बजाय उन्हें प्रारंभ से ही उत्पीड़िता और उत्पीड़क की कोटियों में विभाजित किया जाना; प्रेम-प्रवंचिता/पति-प्रताड़िता स्त्री द्वारा दांपत्येतर संबंध की स्वीकृति; समाज की प्रतिकूल टिप्पणियों से अधिक अपनी ही अंतरात्मा द्वारा प्रतारणा जो अंततः अपराध-बोध में अभिव्यक्त होकर स्वस्थ पारिवारिक-सामाजिक संबंधों के आड़े आती है; विवाह संस्था के प्रति अनास्था के बावजूद विवाह संबंध में बंधने की आतुरता; निर्णयदुर्बलता; और अपने विद्रोही तेवरों को आत्मपीड़न के ’सुख’ में घुला देने की कातरता; या फिर स्वतंत्र होने  के नाम पर दैहिक उच्छृंखलता की वकालत करना. रोमान की हदों को छूती भावुकता, बचकाने हठ में विघटित होती तार्किकता और आत्मनिर्भर व्यक्तित्व की भास्वरता को दरकाती द्वंद्वग्रस्तता - इस कालखंड की अधिकांश औपन्यासिक कृतियों की प्रवृत्तिगत विशिष्टताएं हैं जो अपने युग की स्त्री के ढुलमुलपन को व्यंजित करने के अतिरिक्त अन्य कोई कलात्मक वैशिष्ट्य हिंदी साहित्य को नहीं देतीं. इन लेखिकाओं में शशिप्रभा शास्त्री, कुसुम अंसल, दीप्ति खंडेलवाल, सूर्यबाला, मेहरुन्निसा परवेज, कृष्णा अग्निहोत्री आदि को लिया जा सकता है. नासिरा शर्मा इन लेखिकाओं में अपनी अलग पांत बनाती हैं. उसका कारण यह है कि अपने स्त्री पात्रों में समकालीन नायिकाओं का अक्स पिरोते हुए भी वे एक वस्तुगत दूरी के साथ उनके आचरण की निर्मम जांच करती हैं. पहले ’शाल्मली’ (1987) और फिर ’ठीकरे की मंगनी’ (1989) में उन्होने स्त्री को लेकर स्त्री और पुरुष की सोच में पाए जाने वाले बुनियादी अंतर को स्पष्ट किया है. ’शाल्मली’ पचास के दशक के उत्तरार्ध में पैदा हुई उस पीढ़ी की कथा है जिसने अपने उदारमना पिता के प्रभावस्वरूप पुत्रवत् लालन-पालन और लैंगिक समानता की अवधारणा को संस्कार में पाया है. लेकिन जैसे-जैसे बड़ी होकर अपनी आंख और बुद्धि के साथ दुनिया को देखने और तरैलने लगती है, पाती है पिता के उदार चेहरे के पीचे कहीं एक सामंत बैठा है जो उसके निर्देशों को अस्वीकार कर अपना रास्ता बनाती बेटी के प्रति संवेदनहीन हो उठता है. लेखिका इस सवाल को लेकर खासी परेशान हैं कि आखिर स्त्री-मुक्ति है क्या? स्त्री की लड़ाई आखिरकार है किससे? दरअसल लेखिका उन्मुक्त स्त्री को गृहभंजक की छवि में रिड्यूस कर दिए जाने के सामाजिक षड्यंत्र से उद्वेलित हैं. इसलिए ’शाल्मली’ में कैरियर और स्वतंत्रता के नाम पर परले दर्जे की स्वार्थी, सुविधाभोगी और सामंती मानसिकता से ग्रस्त आधुनिका स्त्रियों और तथाकथित बुद्धिजीवी स्त्रीचिंतकों पर चोट करने में वे कोई कोर कसर नहीं छोड़तीं. ’ठीकरे की मंगनी’ उपन्यास के जरिए वे ऐसी संघर्षशील स्त्री की छवि को आधुनिका स्त्री का पर्याय बना देना चाहती हैं जो प्रेम और संबंधों में मात खाकर टूटती नहीं, अपनी शिक्षा, स्वाभिमान और संकल्पदृढ़ता के बल पर अपना मुकाम बनाते हुए हाशिए के अन्य तबकों को भी साथ लिए चलती है. ’ठीकरे कह मंगनी’ की नायिका महरूख हिंदी उपन्यास के जीवट वाले पात्रों में एक है. नासिरा शर्मा की विशेषता है कि वे भावनाओं के उफान में अपने स्त्री-पात्रों को विचलित नहीं होने देतीं, बल्कि संघर्ष के घटाटोप में निःसंग चिंतन को थाती के रूप में उन्हें सौंपती हैं. इस कारण उनकी भाषा न केवल विश्लेषणपरक हुई है, बल्कि ऐसे अनेक सूत्रवाक्यों की रचना कर जाती है जिनका संबल लेकर पितृसत्तात्मक समाज व्यस्था की अनेकायामी पड़ताल की जा सकती है. उल्लेखनीय है कि स्त्री-उपन्यास लेखन के स्वरूप को सुस्थिर और उन्नत करने के लिए उत्तरदायी तीनों लेखिकाएं - उषा प्रियंवदा, कृष्णा सोबती, मन्नू भंडारी इस कालखंड में भी रचनारत रही हैं. विशेष रूप से मन्नू भंडारी और कृष्णा सोबती ने अपने सरोकारों का विस्तार करते हुए स्त्री-प्रश्नों से इतर राजनीतिक-सांस्कृतिक सवालों से टकराने की कोशिश भी की है. आश्चर्य नहीं कि परवर्ती रचनाकारों के लिए वे एक नया ट्रेंड भी सेट कर जाती हैं. ’महाभोज’ (1979) उपन्यास लिख कर मन्नू भंडारी भारतीय राजनीति के भ्रष्ट एवं संवेदनहीन चेहरे को बेनकाब करती हैं. इसी परंपरा की अगली कड़ी के रूप में ठीक एक साल बाद मृदुला गर्ग ’अनित्य’ (1980) उपन्यास लेकर आती हैं जो 1930 से 1960 के बीच के राजनीतिक आंदोलनों का अपनी दृष्टि से विश्लेषण करता है. केंद्रीय पात्र अविजित के अंतर्विरोधों और द्वंद्वग्रस्तता के माध्यम से लेखिका ने गांधीवादी राजनीति की असफलता और हिंसात्मक आंदोलनों के प्रति अपनी पक्षधरता को स्पष्ट किया है. राजनीति को विषय बना कर उपन्यास लेखन करने वाली अधिक स्त्री रचनाकार नहीं हुई हैं लेकिन चंद्रकांता ने ’कथा सतीसर’ (2001) में कश्मीर समस्या का सांगोपांग विश्लेषण कर राजनीतिक उपन्यास-लेखन को उत्कर्ष पर पहंुचाया है.

इस कालखंड में दूसरी रचनाधारा भी वर्ष 1979 में ’जिंदगीनामा’ (कृष्णा सोबती) के रूप में प्रकाश में आई. ’जिंदगीनामा’ अविभाजित पंजाब की जातीय परंपरा का उपन्यास है जिसमें कृषि संस्कृति की सोंधी महक, पंजाबी किसान का जीवट और पंजाबी फौजी का हौसला, राग-द्वेष के बावजूद सहयोग औस सद्भाव की वृत्ति, प्रथम विश्व युद्ध के समय ब्रिटिश सरकार की दमनकारी नीतियां, रियाआ के प्रति शाहजी के उमड़ते प्रेम और सहानुभूति के भाव सर्वत्र बिखरे पड़े हैं. उपन्यास नास्टेल्जिया का उत्पाद है, इसलिए न मोहक दृश्यावलियंा लेखिका की अंतर्दृष्टि से जुड़ कर कथा का कोई रूप ले पाई हैं, न पात्रों की भीड़ किसी यादगार चरित्र को उकेर पई है. लोकगीतों-किस्से कहानियों और पंजाबी शब्दों के अतिरंजित प्रयोग से लेखिका ने पंजाब की सांस्कृतिक समृद्धि को उकेरने की कोशिश की है, लेकिन किसी सरोकार से न जुड़े होने के कारण वह निष्प्रभ रह जाती है. इसी परंपरा को आगे बढ़ते हुए मृणाल पांडे ’पटरंगपुर पुराण’, जया जादवानी ’मिठो पाणी खारो पाणी’ तथा शीला रोहेकर ’मिस सेमुअल’ में क्रमशः कुमांउं, सिंधी और यहूदी समाज के जातीय संघर्ष को बड़े फलक पर प्रामाणिक अभिव्यक्ति दी है.

3
1994 में ’इदन्नमम’ उपन्यास के प्रकाशन के साथ मैत्रेयी पुष्पा हिंदी उपन्यास को एक नया आस्वाद, नया तेवर और नया लोकेल देती हैं. इसलिए नहीं कि राजनीतिक पैंतरेबाजी को मूल्य बना कर वे अपनी स्त्रियों को जंग लड़ने भेजती हैं, बल्कि इसलिए कि आर्थिक उदारीकरण और वैश्वीकरण के दौर में जहां पूरी दुनिया के एक गांव में सिमट कर रह जाने की घोषणाएं हो रही थीं, वहीं अपनी-अपनी जातीय अस्मिता और संघर्ष के साथ मुख्यधारा से कट कर दृश्यपटल से लगभग ओझल हो गए गांवों और जनजातियों को कथा का केंद्रीय विषय बनाती हैं. यह वह दौर है जब उपभोक्ता संस्कृति के प्रसार ने इंसान को मनुष्य बनाने की अपेक्षा उत्पाद बनाने के दायित्व को धर्म बना लिया हे और धर्म मनुष्य मात्र के कलयाण की ऊध्र्वगामी राहों के अन्वेषण का नाम न होकर अकूत मुनाफा देने वाली इंडस्ट्री बन गया है. बिकने के लिए बाजार में सब कुछ दांव पर लगा है - मूल्य से लेकर मनुष्य, राजनीति से लेकर धर्म, संस्कृति से लेकर निजी/जातिगत आस्थाएं. इसलिए हाशियाग्रस्त अस्मिताओं के उभार का जितना शोर है, उतना ही उग्र है उनके विरोध और दमन का भीषण तांडव. गरीबी और बदहाली बढ़ी है तो शिक्षित मध्यवर्ग की तादाद भी जिसके पास सपनों की पोटली है और इरादों की मजबूती भी. लेकिन यह चैंका देने वाला तथ्य है कि इसी शिक्षित मध्यवर्ग में हिंदुत्व का उभार तेजी से हो रहा है जिसे न केवल राजनीतिक संरक्षण मिल रहा है बल्कि कारपोरेट जगत भी इस हिंदुत्ववादी हुंकार से समाज में सांप्रदायिक विद्वेष को हवा देकर अपना उल्लू सीधा करना चाहता है. स्त्रियों की स्थिति में शिक्षा एवं आर्थिक स्वावलंबन के कारण सुधार होक रहा है, लेकिन साथ ही बलात्कार, यौन हिंसा, कन्या भ्रूण हत्या और खाप पंचायतों की अनुचित दखलंदाजी से उनकी स्थिति विकटतर होती जा रही है. ऐसे परिदृश्य में उपन्यास-लेखिकाएं परंपरागत दृष्टि से स्त्री-प्रश्नों पर भी विचार कर रही हैं और स्त्री-पुरुष संबंध के दायरे से बाहर पड़ने वाले बृहत्तर मुद्दों को भी उपन्यास का विषय बना रही हैं.

चित्रा मुद्गल
स्त्री, विशेषकर ग्रामीण स्त्री को लेकर मैत्रेयी पुष्पा ने प्रचुर उपन्यास साहित्य रचा है. ’इदन्नमम’ और तत्पश्चात् ’चाक’ (1997) उपन्यासों के माध्यम से वे इस तथ्य को प्रतिपादित करती हैं कि स्त्री मुक्ति एवं स्त्री सशक्तीकरण की कोई भी मुहिम तब तक अपूर्ण है जब तक राजनीति में स्त्री की सक्रिय भागीदारी नहीं हो जाती क्योंकि नीति-निर्धारण की ताकत ही समाज को नई दिशा दे सकती है. हालांकि स्त्री विमर्श को देह विमर्श का पर्याय साबित कर और देह विमर्श के साथ मैत्रेयी पुष्पा का नाम नत्थी कर हिंदी आलोचना स्त्री विमर्श की सकारात्मक व्यंजनाओं और मैत्रेयी पुष्पा के उपन्यासों में उभरती नई स्त्री चेतना की ओर से आंख मूंदने का बौद्धिक अभियान चला रही है, लेकिन इतना तय है कि ग्रामीण समाज व्यवस्था और राजनीति में स्त्री जिस खामोश मजबूती के साथ अपने पांव धीरे-धीरे जमा रही है, मैत्रेयी पुष्पा के उपन्यास उसे ही एक अतिरंजित मुखरता के साथ प्रस्तुत कर रहे हैं. मैत्रेयी पुष्पा जिस स्त्री को अपना प्रवक्ता बनाती हैं, वह मध्यवर्गीय शहरी समाज की वर्जनाओं से नितांत अनभिज्ञ है. परंपरा उसे घेरे में बांध लेना चाहती है, लेकिन लोककथाओं और लोगीतों के जरिए दिनरात वह जिस लोक-परंपरा के संपर्क में रहती है, वह उसे निर्भीक और उन्मुक्त कर नैतिकता के दोहरे मानदंडों से टक्क्र लेना सिखाती है. यह खेतिहर स्त्री अपने श्रम के मूल्य को जानती है और अपनी देह में छुपी उस रति-गंध को भी जो पुरुषों को दीवाना कर उन्हें ’भोग’ का माल बना देती है. शहरी समाज की इस विडंबना को वह अपने समाज में नहीं आने देना चाहती, इसलिए अपनी देह के स्वामित्व का दायित्व किसी और को न सौंप कर वह स्वयं उसका ’उपयोग’ करना चाहती है. मैत्रेयी पुष्पा स्त्री की इस शातिर मनोवृत्ति को ’कुट्टनी धर्म’ की संज्ञा देकर बेशक सतीत्व के विलोमस्वरूप ’स्त्री धर्म’ के रूप में महिमामंडित करने का प्रयास करती दीखती हैं, लेकिन हकीकत यह है कि व्यक्तिगत सुख-लाभ के लिए अपनी या दूसरों की मानवीय गरिमा की बोली लगाना बेहद गर्हित कार्य है. शीलो (झूला नट, 1999) द्वारा देह को हथियार बना कर देवर बालकिशन की आड़ में पति सुमेर को पटकनी देने की कोशिश के मूल में बेशक पुरुष/पति की ज्यादतियों, पारिवारिक सम्पत्ति में स्त्री के हिस्से को हड़पने, और बिछुवा पहना कर स्त्री को गाय-बकरी की तरह हांक ले जाने वाली सांस्कृतिक परंपराओं के प्रति बगावत है, लेकिन देह सम्बन्ध का मकड़-जाल बुन कर वह पाठक के हृदय में जुगुप्सा उत्पन्न करने से ज्यादा कुछ नहीं कर पाती. प्रेम और श्रृंगार जैसी अति सूक्ष्म और अलौकिक अनुभूतियां जब रीतिकालीन साहित्य में मांसलता के तलछट में दम तोड़ने लगती हैें, और स्त्राी विलासी वर्चस्वशाली वर्ग के सस्ते मनोरंजन के लिए उपलब्ध ’माल’ बन जाती है, तब संवेदनशील मनुष्य द्वारा इस साहित्य और मनोवृत्ति का तिरस्कार किया जाना जरा भी अनुचित नहीं लगता. मुक्ति की लड़ाई पुरुष-सा बन कर चित-पट के खेल में रम जाने की शातिर बिसात नहीं है, गरिमा के साथ अपनी अस्मिता केा पुनः पाने की लड़ाई है जिसका लक्ष्य है प्राणिमात्र के हृदय में स्त्री के प्रति सम्मान एवं संवेदना का प्रसार. यह ठीक वही मांग है जो ’इदन्नमम’ में मंदा अपने आचरण द्वारा करती रही है. लवलीन का उपन्यास ’स्वप्न ही रास्ता है’ घोषित तौर पर स्त्री-पुरुष सम्बन्धों का लेखाजोखा न होकर भी स्त्री-पुरुष सम्बन्धों की रूढ़ आंतरिक संरचना की पड़ताल है. विवाह के विकल्प रूप में उभरी ’लिविंग टुगैदर रिलेशनशिप’ जैसी पश्चिमी अवधारणा उन्मुक्त और लचीले स्वरूप के बावजूद भीतर से उतनी ही अनुदार और सामंती है- इसका विश्वसनीय चित्रण लेखिका ने अपरा-बिजोन सम्बन्ध के जरिए किया है जो एक-दूसरे को मानसिक-भावनात्मक-बौद्धिक स्तर पर समृद्धतर करने के विश्वास के बावजूद दस महीने में ही अलग हो जाते हैं. लवलीन सिर्फ कथाकार या एक्टिविस्ट नहीं, चिंतक भी हैं. घटनाओं के सारे सूत्र अपनी मुट्ठी में भींच कर वक्त पर छितराना उन्हें खूब आता है. इसलिए अपरा-बिजोन सम्बन्ध नई पीढ़ी की प्रयोगधर्मी मानसिकता या नारीवादी उच्छ्रंखलता का प्रतीक बन कर सिमटने की बजाय स्त्री-पुरुष सम्बन्धों को जड़ कर देने की हमारी यांत्रिक सोच को कुरेदने की सतत प्रक्रिया बन जाता है जिसकी ओर मृदुला गर्ग ’उसके हिस्से की धूप’ तथा ’चितकोबरा में पहले ही ध्यान आकृष्ट कर चुकी हैं. उपन्यास में लवलीन की क्षीण होती सर्जनात्मकता को पुष्ट वैचारिक विश्लेषण ने संभाले रखा है. वे तथ्यों और घटनाओं के संजाल में खबरों को उभारती हैं, खबरों के नीचे हाथ-पैर पटकती जिजीविषा या चैराहे पर किंकत्र्तव्यविमूढ़ खड़ी विभ्रम-मति को जीवंत अभिव्यक्ति नहीं दे पातीं. नैरेटर की तरह वे सुगनी (भंवरीबाई) की व्यथा-कथा को पुरुषवादी अदालत और व्यवस्था के सामंती दंभ के परिप्रेक्ष्य में विस्तारपूर्वक कहती हैं, स्वयं सुगनी बन कर उसे झेलती नहीं और न ही अहसास के बिंदु को विचार और चेतना की मशाल बन कर दहकते देखती हैं. पूर्वाग्रही न होते हुए भी यहाँ अपरा के लिए उसकी मित्र-मंडली में प्रचलित उक्ति ’’अपरा इज़ विक्टिम आॅफ हर ओन बिलीफ’’ कहीं उन पर भी लागू हो जाता है जिसकी झलक ’सुरंग पार की रोशनी’ जैसी चर्चित कहानी में भी मिलती है.

स्त्री-प्रश्नों को लेकर लिखे गए उपन्यासें में अनामिका के उपन्यास’दस द्वारे का पींजरा’ तथा ’तिनका तिनके पास’ का उल्लेख इस लिए भी जरूरी है कि ’कठगुलाब’ की परंपरा में वे स्त्री के उत्पीड़न के लिए पुरुष की स्त्रीद्वेषी मानसिकता को दोषी ठहराते हुए भी पुरुष के सहचर के रूप में स्त्री-मन के पुरुष की परिकल्पना करती हैं जो स्त्री-पुरुष संबंध को नई दिशा और गति देने में समर्थ है. अल्पना मिश्र का ’अन्हियारे तलछट पर चमका’, कविता का ’ये दीये रात की जरूरत थे’, मनीषा कुलश्रेष्ठ के ’गंधर्व गाथा’ तथा ’पंचकन्या’, निर्मला भुराड़िया का ’गुलाम मंडी’ और रजनी गुप्त के ’कहीं कुछ और’, ’किशोरी का आसमां’, ’एक न एक दिन’, ’कुल जमा बीस’ और ’ये आम रास्ता नहीं है’ इस कालखंड के महत्वपूर्ण उपन्यास हैं. अन्य उपन्यासकारों में शरद सिंह, जयश्री राय, नीरजा माधव, उषा यादव, लता शर्मा, वंदना शुक्ल और स्वाति तिवारी का नाम लिया जा सकता है.

इस कालखंड के स्त्री लेखन की खासियत है कि यह स्त्री से इतर अन्य सामाजिक सरोकारों पर भी शिद्दत से बात करता है. यहां तक कि कश्मीर समस्या पर ही चंद्रकांता के कालजयी उपन्यास ’कथा सतीसर’ के अतिरिक्त  संजना कौल का ’पाषाण युग’, क्षमा कौल का ’दर्दपुर’, मनीषा कुलश्रेष्ठ का ’शिगाफ’ और मधु कांकरिया का ’सूखते चिनार’ आए हैं. चंद्रकांता का ’कथा सतीसर’ कश्मीर समस्या के अंतरराष्ट्रीय पहलुओं के साथ-साथ राष्ट्रीय राजनीतिक-सांस्कृतिक-धार्मिक-भौगोलिक पहलुओं पर भी विचार करने वाली महत्वपूर्ण दस्तावेजी रचना है. कश्मीर विशेषज्ञ के रूप मे जानी जाने वाली लेखिका चंद्रकांता ने ’कथा सतीसर’ में 1931 से 2000 तक की समयावधि में औपन्यासिक कथा को विन्यस्त करते हुए बेशक एक अनुरागभरी दृष्टि से कश्मीर के इतिहास,  भूगोल, पुराण और लोकाख्यानों को कहा है, लेकिन हर आख्यान अपनी अंतिम टेक में उस कसैली अनुभूति से जुड़ कर यक्ष-प्रश्न बन जाता है कि आधा मुसलमान कहे जाने वाले कश्मीरी पंडित और आधा हिंदू कहे जाने वाले कश्मीरी मुसलमान के बीच ऐसा क्या हुआ कि ज्यादा से ज्यादा एक-दूसरे पर कांगड़ी उछाल देने वाला क्रोध ’कलिशनिकोव और ए ़के ़सैंतालीस से अपने ही हमवतनों के खून से हाथ रंगने लगा?’’ ’कथा सतीसर’ चंद्रकांता के समूचे कृतित्व का निचोड़ है - उसकी सारी अनुगूंजों और अंतध्र्वनियों को पुनः निनादित करता हुआ. इसलिए अकारण नहीं कि ’कथा सतीसर’ के भीमकाय कलेवर से गुजरते हुए हमें बार-बार उन भाव-गझिन कहानियों की याद आती रहे जिनका होना न केवल कश्मीर की नैरेटर के रूप में चंद्रकांता की पहचान पुख्ता करता है, बल्कि मानवीय त्रासदी को संवेदना के धरातल पर यकसां महसूस करने का विलक्षण सामर्थ्य  भी देता है.  

अनामिका

                                                                                                                                                                 हमारा शहर उस बरस’ में गीतांजलि श्री साम्प्रदायिकता जैसी बीहड़ समस्या से टकरा कर धर्म की अंधी जुनून भरी ताकतों द्वारा बुद्धिजीवियों और शिक्षण-संस्थाओं को परिचालित करने की क्षमता के भीतरी कारणों की पड़ताल करने का आह्नान करती हैं. उपन्यास पारम्परिक ढांचे से पूर्णतया अलग चित्रकला की कोलाज शैली में रचा गया है - जीवन को खंड-खंड करते हादसों और त्रासदियों के टुकड़े जिनके बीच कहीं छिपी है मनुष्यता और आशा. जरूरत उन्हें देखने और जोड़ने की है लेकिन इसके लिए ’तीसरी आंख’ और धीरज किसके पास है? चूंकि गीतांजलि श्री इतिहास की छात्रा रही हैं, अतः साम्प्रदायिक द्वेष की निस्सारता को उद्घाटित करने के क्रम में इतिहास में घटी घटनाओं को संगति एवं तारतम्य देना बेहद जरूरी मानती हैं. साथ ही इतिहास-अध्ययन हेतु आवश्यक ’दृष्टि’ अपनाने पर भी विशेष बल देती हैं जो अपने आप में और कुछ नहीं, ’साझी संस्कृति की जीवित मिसाल’ भर है. वे इतिहास को सामान्यीकृत करने की संकीर्ण कोशिशों का विरोध करती हैं कि ’’स्याह और सफेद में नहीं बंटी हैं कौमें, न सच, न समाज.’’ इसलिए यदि इतिहास का पुनर्लेखन करना ही है तो क्यों इस झूठ को बढ़ावा दें कि एक कौम ने मंदिर तोडे और दूसरी सहनशील बनी रही? अलगाव के प्रतीकों को ढूँढने की अपेक्षा क्यों नज़रूल इस्लाम और अमीर खुसरो के कृतित्व को महिमामंडित न किया जाए? क्यों नहीं दोनों ही कौमों के भीतर छिपे साम्प्रदायिकता के बीजों को देखते हुए खुलासा किया जाए कि एक कौम में साम्प्रदायिकता यदि डर और असुरक्षा से पैदा होती है तो दूसरी कौम में ताकत और अहंकार से. हनीफ और शरद सरीखे सेकुलर बुद्धिजीवियों का कट्टर धार्मिक अस्मिताओं में रिड्यूस होना और हाशिए पर पड़े दद्दू और बाबू पेंटर का क्रमशः केंद्र में आते चलना इस तथ्य की पुष्टि करते हैं कि लोकतंत्र के ध्र्मनिरपेक्ष रूप को बचाने के लिए आम आदमी को अपनी ओर से सकारात्मक पहल करनी होगी.

साहित्य को शोध और बीहड़ यथार्थ के साथ सम्बद्ध कर मानवीय त्रासदी के अनेकविध पहलुओं की बारीक जांच समकालीन स्त्री लेखन की विशिष्ट पहचान है जिसे मैत्रेयी पुष्पा के ’अल्मा कबूतरी’ उपन्यास के बाद शरद सिंह में परिलक्षित किया जा सकता है. शरद सिंह प्रथम दृष्ट्या बेड़नियों के अंतरंग जीवन पर केन्द्रित उपन्यास ’पिछले पन्ने की औरतें’ में सामाजिक दायरों का विस्तार करते हुए एक संवेदनशील-बुद्धिजीवी महिला रचनाकार के रूप में नजर आती हैं. लेकिन रचना इधर-उधर फैल-बिखर कर जिस मंथर गति से आगे बढ़ती है, वहां बेड़िया समाज का अपरिचित समाजशास्त्र/मनोविज्ञान नए आयामों के साथ नहीं खुलता बल्कि पुरुष की चिरपरिचित सामंती मानसिकता ही उभरती चलती है और साथ ही स्त्री की करुण विवशता. बेड़नियों की कथा भी एक सी है - वही राई नर्तकी के रूप में प्रशिक्षण ... साथ-साथ चैर्य कला में भी महारत ...सिर ढकना जैसी प्रथा़ ... सरपरस्त पुरुष और उसके परिचितों-वारिसों के दैहिक शोषण को सहने की सतत पीड़ा ...अर्थाभाव और देह-व्यापार की मजबूरियां. कहने को अलग-अलग नामों के जरिए इन बेड़नियों को निजी पहचान और व्यक्ति-वैशिष्ट्य देने की कोशिश की गई है, लेकिन श्यामा, नचनारी, फुलवा, रसूबाई आदि आदि को धकिया कर उनके स्थान पर जातिसूचक एक ही पहचान हावी रहती है - बेड़नी. लेखिका ने स्वयं बीहड़ एवं तिरस्कृत क्षेत्रों में भ्रमण करने के जोखिमों का हवाला देकर अपनी शोध को प्रामाणिक एवं गहन बनाने की कोशिश की है, लेकिन शोध-प्रक्रिया के दौरान तथ्यों-आंकड़ों-जानकारियों को विश्लेषित एवं संश्लेषित करने के उपरांत अभिव्यक्त करने की क्रिस्पनैस/कलात्मकता वे अंत तक नहीं जान पाईं. इसलिए न केवल संदर्भ नकार कर बार-बार तथ्यों की आवृत्ति होती रही है, बल्कि उनकी प्रस्तुति के पीछे सर्जनात्मक दृष्टि एवं अनुशासन का अभाव भी नजर आता है. तथ्य को कथा और पात्र को व्यक्ति एवं चरित्र बनाने के लिए जिस घनीभूत संवेदना, कल्पना और कलात्मकता की जरूरत होती है, वह शरद सिंह अपने भीतर संजो नहीं पाईं.

शरद सिंह का विलोम रचती हैं मधु कांकरिया. ’खुले गगन के लाल सितारे’ में नक्सलवादी आंदोलन के चित्रण के जरिए अपनी सुस्पष्ट राजनीतिक समझ का परिचय देने के बाद जब वे वेश्या समस्या पर केन्द्रित ’सलाम आखिरी’ उपन्यास की रचना करती हैं तो अपनी समवेदना और सहानुभूति केा आंसू भरी करुणा में ढाल कर विलीन नहीं होने देतीं, वरन बौद्धिक विश्लेषण की चैहद्दियों में प्रविष्ट होकर सामाजिक-आर्थिक-सांस्कृतिक व्यवस्थाओं की अंतर्निहित विद्रूपताओं पर जता-जता कर घन की तरह चोट करती हैं - निरंतर और अविराम.
’सलाम आखिरी’ में वे ज़िंदगी की रवानगी की तस्वीरें नहीं देतीं, बल्कि ज़िंदगी को ठहराव और सड़ांध का कोलाज बना कर प्रस्तुत करती हैं - शोध से सिरजा, तथ्यों से पुख्ता, तीखे बुनियादी सवालों से बिंधा कोलाज!संवेदना और व्यंग्य, आक्रोश और खौफ के रंग-कूची से रचा है लेखिका ने वेश्याओं की जिंदगी का एकरस समरूपी इतिहास जहाँ हर गली और मोड़ मंजिल के नाम पर सिर्फ डैड एंड्स तक पहुँचने का जरिया है. मधु कांकरिया उपन्यास के जरिए एक बेहद ज्वलंत विवादास्पद मुद्दे को प्रश्न के रूप में उठाती हैं कि स्त्री संगठनों द्वारा वेश्यावृत्ति को ’उद्योग’ और वेश्या को यौनकर्मी और श्रमिक का दर्जा दिए जाने की मांग क्या न्यायसंगत है? यह ठीक है कि ’श्रमिक’ का दर्जा पाते ही नागरिक के रूप में उनके मानवीय अधिकारों की रक्षा के लिए मानवाधिकार आयोग स्वयमेव प्रतिबद्ध हो जाएगा, खासतौर पर उनके शारीरिक स्वास्थ्य और बच्चों के भविष्य को लेकर. लेकिन क्या यह शास्त्रानुमोदित यौन शुचिता और नैतिकता के दोहरे मानदंडों का प्रकारांतर से पोषण नहीं? क्या इस मांग के पीछे विश्वमंडी के अपने तर्क और मुनाफे नहीं जो स्त्री देह के व्यापर के जरिए अरबों डाॅलर कमाते हैं? क्या उद्योग का दर्जा देकर वेश्यावृत्ति उन्मूलन के सारे रास्ते स्वयमेव बंद नहीं हो जाएंगे?
’कलिकथा वाया बाइपास’ की लेखिका के रूप में जानी जाने वाली अलका सरावगी ने इसके बाद चार उपन्यास और लिखे हैं  - शेष कादंबरी, कोई बात नहीं, एक ब्रेक के बाद और जानकीदास तेजपाल मेंशन. उपभोक्ता संस्कृत के प्रसार के विरोध में जन-चेतना के प्रसार का आह्वान करता उपन्यास ’एक ब्रेक के बाद’, एक मायने में, ’कलिकथा’ के अंत में झटपट की गई फैंटेसी को कथा के ताने-बाने में ढालने का प्रयास है. यह उपन्यास इस तथ्य की ओर संकेत करता है कि उपभोक्ता संस्कृति पूंजी और ग्लैमर को केन्द्र में रख कर मनुष्य को उपभोक्ता (चेतना हीन भूख) ही नहीं बना रही, उसे मूल्यहंता प्रतिद्वंद्वी, निष्क्रिय शेखचिल्ली या शातिर अपराधी/उठाईगीर भी बना रही है. महुआ माजी ’मैं बारिशाइल्ला’ के बाद ’मरंग गोड़ा नीलकंठ हुआ’ उपन्यास में यूरेनियम के प्रदूषण और रेडिएशन की समस्या को लेकर आती हैं, लेकिन शोध, रिपोर्ताज और अखबार के मिले जुले रूप से अलग इसे उपन्यास का दर्जा नहीं दे पातीं.

स्पष्ट है कि स्त्री रचनाकारों के स्वातंत्र्योत्तर हिंदी उपन्यास नेपितृसत्तात्मक व्यवस्था की पड़ताल के मिशन के साथ-साथ अपने सरोकारों का दायरा भी विस्तृत कर लिया है.

देश के मर्दों एक होओ

$
0
0
अरविंद जैन
स्त्री पर यौन हिंसा और न्यायालयों एवम समाज की पुरुषवादी दृष्टि पर ऐडवोकेट अरविंद जैन ने मह्त्वपूर्ण काम किये हैं. उनकी किताब 'औरत होने की सजा'हिन्दी में स्त्रीवादी न्याय सिद्धांत की पहली और महत्वपूर्ण किताब है. संपर्क : 9810201120
bakeelsab@gmail.com
संसद और विधान सभाओं में महिलाओंके लिए 33 प्रतिशत आरक्षण. संविधान संशोधन विधेयक ‘पेश’ तो कर दिया गया है लेकिन हम ‘पास’ कभी नहीं होने देंगे. हम (मर्द) जो हजारों सालों से हुकूमत करते रहे हैं, क्या इतना भी नहीं जानते-समझते कि सत्ता में 33 प्रतिशत आरक्षण का अर्थ (अनर्थ) क्या है ? जब हमने अपने प्रधानमन्त्री को ही एक शब्द तक बोलने नहीं दिया तो कानून मन्त्री हैं क्या चीज ? अपने आपको समझते क्या हैं ? ऐसे ही बिल पास करवा लेंगे और चाँदी की तश्तरी में  रखकर देश का राजपाट ‘बालकटी’ या ‘परकटी’ औरतों को सौंपे देंगे ?’1 हम अच्छी तरह जानते हैं कि बिल पास हो गया तो सैकड़ों साल तक देश में ‘पेटीकोट’ सरकार राज करेगी...हाँ ! पेटीकोट सरकार. सत्ता के लिए कांग्रेस, भाजपा, जनता दल, सीपीएम, सीपीआई, समता वगैरह की ममता छोड़-छाड़ अपनी ‘महिला पार्टी’ बना लेंगी तो ? आज के दिन, है किसी भी ‘मर्द’ पार्टी के पास 33 प्रतिशत संसद सदस्य ? ‘महिला पार्टी’ नहीं बनाएँगी या बना पाएँगी तो अपनी-अपनी पार्टी के ‘मर्द’ नेताओं की नाक में दम तो कर ही देंगी ना. आप नहीं जानते इन्हें. महिलाओं के मुद्दे पर फौरन एकजुट हो जाएँगी. तब कौन भुगतेगा इन (अ) बलाओं से ? बिना सोचे-समझे कह दिया, ‘‘महिलाओं सम्बन्धी विधेयक पास हो या न हो, उसकी मुझे रत्ती-भर भी चिन्ता नहीं है.’’2 बिल पास होने के बाद तो ‘तेरह दिन’ क्या एक मिनट के लिए भी आपको कोई प्रधानमन्त्री नहीं बनने देगी. ‘रत्ती भर भी चिन्ता नहीं है’ तो क्यों छपवाए थे ‘घोषणा-पत्र’ ? क्यों दिए थे ‘आरक्षण के आश्वासन’ ? क्यों ?

हमें मत बताओ कि ‘इस बारे में हरव्यक्ति के दो चेहरे हैं’3, पहला- वोट बटोरने के लिए झूठे घोषणा-पत्र छपवानेवाला, औरतों को बराबरी का अधिकार देने के आदर्श बघारनेवाला, समता-समानता- सामाजिक न्याय की नौटंकी करनेवाला और दूसरा औरतों को सिर्फ अपने पाँव की जूती समझनेवाला. अब यह कहने का कोई फायदा नहीं ‘हमें देखना है कि आरक्षण में कितना प्रतिशत दिया जाना चाहिए.’4 पहले क्यों नहीं सोचा-समझा कि इसके कितने ‘भयंकर परिणाम’ होंगे ? अब समझ में आ रहा है ‘सामाजिक बदलाव के लिए सब्र और सबकी सहमति अनिवार्य है.’ क्या आसमान टूट रहा था जो बिल पेश करते समय एक बार पूछा तक नहीं और चल दिए देश का राज सिंहासन सँभलवाने. पहले सलाह की होती तो शायद ये ‘सिंहवाहिनियाँ’ 10-15 प्रतिशत पर मान भी जातीं लेकिन...अब कैसे मनाओगे ? यह तो शुक्र करो कि उस दिन हमने संसद में शोर-शराबा कर-करवा के टाल दिया वरना आपने तो कर दिया था ‘सत्ता का श्राद्ध’. कटवा दी होतीं गर्दनें सरेआम समाज में. पता नहीं कैसे इन ‘देवियों’ के चक्कर में भूल गए कि भाई-भतीजे, बेटे-पोते बालिग हो चुके हैं ! आपको घर-परिवार-देश का मुखिया इसलिए थोड़े ही बनाया-बनवाया था कि आप हमारे ही भविष्य में आग लगा-लगवा देंगे. मत भूलो कि हम मुखिया को जब चाहे हटा भी सकते हैं. अगर आप सचमुच इतने ही ‘उदार सहृदय और प्रगतिशील, हैं या होना चाहते हैं तो ‘‘ऐसे सुधारवादी (स्त्री या दलित पक्षधर) पितृसत्तात्मक को गोली मार दी जाएगी.’’5

क्या आपको नहीं पता कि महिला आरक्षणबिल या विधेयक यदि पास होता है तो संसद में महिलाओं का प्रतिशत बढ़ जाएगा और महिलाएँ उल्टे-सीधे बिल संसद में पुरुषों के विरुद्ध पास करवाने मे सफल हो जाएँगी...और न जाने कितने ‘पुरुषों को इन विधेयकों के माध्यम से जेल में चक्की पीसनी पड़ेगी.’6 भ्रूण हत्या से लेकर सती तक के सारे कानूनी हथियार, जिनके बलबूते पर हम आज तक न्याय (का नाटक) करते रहे हैं- रद्दी की टोकरी में फेंक दिए जाएँगे. ‘‘सत्ता में आते ही उन्होंने दहेज की बड़ी-बड़ी राशियों की सुविधा और उनके लिए घरेलू हत्याओं और बलात्कारों का सुख छीन लिया, वैसे कानून बना दिए या उनके सख्ती से पालन पर जोर दिया, तो हम न घर के रहेंगे, न घाट के...’’7 यह सिर्फ मेरे जैसे सिरिफरे दिमाग में उपजी बेबुनियाद आशंका या डर नहीं है, बल्कि सामान्य नागरिक से लेकर देश के महान बुद्धिजीवियों, पत्रकारों, सम्पादकों और नेताओं तक की मूल्यवान राय है. हम चाहते हैं कि ‘‘स्त्रियों को आरक्षण दीजिए लेकिन संसद में नहीं, नौकरियों में’’8 हम तो यहाँ तक कह रहे हैं कि ‘‘यह प्रतिनिधित्व एक-तिहाई क्यों, 50 प्रतिशत तक मिलना चाहिए, क्योंकि स्त्रियों की जनसंख्या कुल जनसंख्या का लगभग 50 प्रतिशत है. ‘किन्तु’ संविधान संशोधन इसका बहुत अच्छा तरीका नहीं है. इसका ‘सही रास्ता’ है स्त्रियों को विभिन्न कार्यक्षेत्रों में सेवाओं और पदों में समुचित प्रतिनिधित्व देकर ‘इतना सक्षम’ बनाया जाए कि स्त्रियाँ प्राचीन समाज-व्यवस्था की गुलामी को छोड़कर स्वयं आगे बढ़ें और राजनीति में ‘खुलकर’ हिस्सा लेने लगें.’’9


हमें मालूम है कि बिल पेश करना आपकीराजनीतिक मजबूरी है/थी. आपने बिल पेश नहीं किया होता, तो अगले चुनाव में दूसरी राजनीतिक पार्टियाँ (महिला विरोधी, सती समर्थक) इसे आगामी चुनाव का मुख्य मुद्दा बनातीं और सब कालिख आपके चेहरे पर पोतते. (प्रफुल्ल बिडवई, टाइम्स आॅफ इंडिया, 6 जून, 1997) बिल पेश करना अगर आपकी मजबूरी थी/है तो इसे पास न होने देना भी हमारी मजबूरी है. किसके कितने चेहरे हैं- हम-आप सब सदियों से जानते-पहचानते हैं. आप कहते रहिए कि पिछड़ी औरतों के लिए हमारी माँग ‘इस समय सिर्फ फूट डालने की नीयत से उठाई जा रही है’. हम भी दरअसल कहाँ चाहते हैं कि हमारे घरों की सती-सावित्रियाँ चूल्हा-चैका छोड़कर राजधानी आ पहुँचें. हमने कभी ऐसी माँग की भी नहीं लेकिन अगर आप राजपाट उ (माँओं) या सुष (माँओं) को सँभलवाना ही चाहते हो, तो फिर हमारी बहनें, बहू-बेटियाँ (अनपढ़, गँवार मूर्ख) भी ‘बालकटियों’ के बराबर में आकर बैठेंगी- और देखते हैं कि कौन रोकता है ? सत्ता सँभालने का ठेका क्या सिर्फ पढ़े-लिखों ने ही ले रखा है ? सच पूछो तो इस ‘राष्ट्रीय बहस’ में हम ये सारे तर्क (कुतर्क) दे भी इसीलिए रहे हैं कि औरतों के साथ सदियों से किए ‘पाप का प्रायश्चित’ ही करना है और राजनीति से संन्यास लेकर घर बैठना है तो फिर लगे हाथ हम भी कर ही लें गंगा स्नान. आपको अकेले सारा पुण्य और आपकी औरतों को सत्ता-सुख थोड़े ही कमाने देंगे. सत्ता की शतरंज खेलना हम भी सीख गए हैं.

हाँ ! यह सच है कि हमें ‘औरतों केराजनीतिक वर्चस्व से अपनी जमीन खिसकती नजर आ रही है’ और ‘राजनीति में अचानक इतना बड़ा बदलाव बर्दाश्त करने के लिए मानसिक रूप से तैयार नहीं हो पाए हैं.’10 पर हमें यह भी मालूम है कि ‘यह उत्तर आधुनिक स्त्रीलिंगी विमर्श विदेशी षड्यन्त्र (नहीं) है’ न ही ‘विकास का एक ऐतिहासिक चरण.’11 हमें लगता है कि यह सिर्फ ‘उच्च वर्ग का सत्ता पर नियन्त्रण बनाए रखने का खेल है’12 जो हम कभी जीतने नहीं देंगे. सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के बावजूद हमने तो शाहबानो को गुजारा भत्ता तक लेने नहीं दिया. रातों-रात नया कानून बनवा दिया कि नहीं ? सत्ता में तिहाई हिस्सा देने के सवाल पर तो हम पता नहीं क्या कुछ कर देंगे. अगर अब भी ‘अधिकांश भारतीय महिलाओं को महसूस होता है कि राजनीतिक शक्ति पाने के सपने साकार होने का सही समय आ गया है’13 तो वे देखती रहें सपने और देती रहें ‘सड़कों पर निकलने’ की धमकियाँ. हमारी सेहत पर क्या फर्क पड़ता है ? हमारे ‘केन्द्र को देर-सबेर तोड़ना’14 इतना आसान नहीं है. ये सब योद्धा ‘जो समर्थन दिखा रहे हैं उनका पुरुषत्व भी इस ‘क्रान्तिकारी’ साबित हो सकनेवाले फैसले को असानी से नहीं पचा पा रहा है.’15 पचाएगा भी कैसे ? समर्थन करनेवाले दलों में औरतों की स्थिति क्या है ? हम सब अच्छी तरह जानते हैं. हर एक के दलदल मंे धधकते ‘तन्दूर’ तैयार हैं. जिन्होंने अब तक एक भी स्त्री या दलित को अपने दल की निर्णायक समिति (वर्किंग कमेटी, पोलित ब्यूरो) के योग्य नहीं समझा वही सबसे ज्यादा शोर मचा रहे हैं. चिल्लाते रहो कि ‘कल औरतों का होगा’16 लेकिन यह मत भूलो कि ‘आज सिर्फ हमारा रहेगा.’. कल की कल देखेंगे.

क्या कहा आपने कि ‘विरोध करनेवालोंके असली चेहरे सामने आ गए हैं.’ जी ! विरोध ही हमारा असली चेहरा है. आपकी तरह नहीं कि कहें कुछ और करें कुछ और ही. समर्थन के लिए ‘अटल’ रहनेवाले नेताओं के असली चेहरे देखने हैं तो उनकी युवा साध्वियों के चेहरे देखो, ‘राजपूतों’ के चेहरे देखो और ‘मातृशक्ति’ का पाठ पढ़ो. मत उठाओ यह सवाल कि ‘‘पिछड़े वर्ग की, मुस्लिम समाज की या अल्पसंख्यक वर्ग की महिलाएँ क्या महिलाओं में नहीं आतीं ? इनके लिए अलग से आरक्षण क्यों ? पिछड़ी महिलाओं की वकालत करनेवाले क्या आरक्षण में भी आरक्षण चाहते हैं ? जो लोग शहरी महिलाओं की बजाए पिछड़ी महिलाओं के इतने ही हिमायती हैं, उन्होंने अब तक उनके लिए क्यों नहीं सोचा ? क्या इससे पहले उन्हें पिछड़ी महिलाओं की उन्नति का ख्याल नहीं आया ?’’17 खैर...सुनना ही चाहते हो तो हमारे सवाल भी सुनो. महिलाओं के लिए आरक्षण क्यों ? क्या वे भारतीय नागरिक नहीं हैं ? संविधान में  स्त्री-पुरुष को बराबर के अधिकार हैं जो आरक्षण ही क्यों, धन, हिम्मत, हौसला, बाहुबल, बुद्धि अनुभव और राजयोग हो तो लड़ो और आ जाओ संसद में. बन जाओ प्रधानमन्त्री (इन्दिरा गाँधी) कौन रोकता है ? हमें अगर ‘उन्नति का ख्याल’ पहले नहीं आया था तो आपको भी कहाँ इन ‘शोषित स्त्रियों की चिन्ता सता रही थी.’ हम तो दलित, उत्पीड़ित, अनपढ़, गँवार, बेवकूफ थे अब तक, परन्तु आप तो सदियों से सुशिक्षित, सुसंस्कृत, महाज्ञानी, विद्वान और राजा-महाराजा थे मान्यवर ! आपने क्यों नहीं सोचा ‘अर्धांगिनी’ के बारे में ? नजर उठा कर देखो तो पता लगेगा कि अब तक अधिकांश महिला राजनेता विधवा, तलाकशुदा या चिरकुंआरियाँ क्यों हैं ?


आप भी तो अब तक ‘सेक्सी संन्यासिनों’, स्वतन्त्र, शिक्षित और स्वावलम्बी मुक्त स्त्रियों या समाज सेविकाओं के सहारे सिंहासन पर कब्जा जमाए बैठे रहे हो. इससे पहले आपने भी कब सोचा था कि औरतें- वस्तु, भोग्या, गूँगी गुड़िया या खेती नहीं हैं ?पूरी ईमानदारी से सच पूछना चाहते हो तो आप आज भी ऐसा कुछ नहीं मानते ! सिर्फ राजनीति कर रहे हो- वोटों की राजनीति, सवर्णों की राजनीति, शिक्षित शहरियों की राजनीति. सत्ता पर दुबारा कब्जे की यह नई चाल है आपकी और कुछ नहीं. मंडल के बाद सवर्णों के हाथों से राज सिंहासन खिसकता जा रहा है. आपको डर लग रहा है हमारी मायावतियों और फूलन देवियों से. वे आपकी किसी आरक्षण स्कीम के अन्तर्गत यहाँ तक नहीं आईं. हम और हमारी बहू-बेटियाँ तो बिना आरक्षण के भी यहाँ तक आ गई हैं. आप ही और आपकी राजदुलारियाँ हमें आगे बढ़ने से अब रोक नहीं सकते. हम फिर कहते हैं कि धर्म, जाति, वर्ग वगैरह-वगैरह के झगड़ों को और मत बढ़ाओ. औरतें फिर औरतें हैं- हमारी हों या आपकी. हम सब मर्द हैं तो मर्दों की तरह बात करें- औरतों को बीच में न लाएँ तो बेहतर होगा. सत्ता में तिहाई हिस्सा इन्हें दे देंगे तो सारी सम्पत्ति, शिक्षा, समाज, संविधान और संसद से लेकर स्वर्ग तक हमें सब कुछ छोड़ना पड़ेगा. छोड़कर कहाँ जाएँगे? सोचो, वरना बेमौत मार दिए जाओगे. समझो स्त्रियों का सत्ता-विमर्श वरना...ये ‘दुर्गाएँ’ हम सबका सत्यानाश कर देंगी.

हम मानते हैं- स्वीकारते हैं कि ‘‘पंचायतीराज के प्रयोग के बाद हमें वास्तव में यह खतरा है कि औरतों को एक बार सत्ता-शक्ति मिल गई तो वे लम्बे समय तक हमारे हाथों में खेलती कठपुतलियाँ नहीं रहेंगी.’’18 संसद में आने के बाद ये सारी की सारी ‘लक्ष्मीबाइयाँ’ पार्टी की राजनीति छोड़, महिलाओं की राजनीति करेंगी. संसद, विधायिका, न्यायपालिका, कार्यपालिका, प्रेस, समाज, शिक्षा, स्वास्थ्य और उद्योग में सब जगह एक-आध औरत को प्रतीकात्मक रूप से कुर्सी देकर देश स्वतन्त्रता की स्वर्ण जयन्ती मना ही रहा है ना ! 45 साल तक सुप्रीम कोर्ट में  एक भी महिला न्यायाधीश नहीं आई तो क्या ‘न्याय’ नहीं हो रहा था और फातिमा बीवी को ले आने से कौन सा लम्बा-चैड़ा फर्क पड़ गया ? सरोजिनी नायडू, इन्दिरा गाँधी, जयललिता से लेकर मायावती तक के राज में महिलाओं के कल्याण की कितनी क्रान्तिकारी परियोजनाएँ बनीं ? अब तक संसद (सत्ता) में आई महिलाओं ने महिलाओं के हित में क्या इतिहास रचा- कुछ बताओ तो ? एक तरफ आम भारतीय औरतों की हालत दिन-प्रति-दिन बदतर होती जा रही है और दूसरी तरफ जयललिताओं के घर में लूट का माल भरा पड़ा है. इसलिए हम बार-बार कह रहे हैं कि सामाजिक न्याय, महिला, मुक्ति अधिकार और बराबरी की बात मत करो. सारा चक्कर कुर्सी का है हुजूर ! कुर्सी का. इनके आने के बाद क्या हवाले, घोटाले, भ्रष्टाचार और रिश्वतखोरी खत्म हो जाएगी ? और ज्यादा होगी. आप नहीं जानते ये रिजर्व बैंक में जमा सारे सोने के गहने बनवा कर घर ले जाएँगी- देश को पता भी नहीं चलेगा. आप आरोप लगा-लगवा रहे हैं कि हम ‘‘अपने मृत्युदंड के वारंट पर दस्तखत नहीं करना चाहते हैं.’’19 कैसे और क्यों कर दें ब्लैक वारंट पर दस्तखत ?


आप जानते/जानती हैं कि हमने प्रधानमन्त्री से मिलकर ‘‘इस विधेयक का टालने का अनुरोध ही नहीं किया, दबाव भी डाला !’’20 तो क्या हुआ ? अनुरोध और दबाव ही नहीं हम इससे आगे जा सकते हैं और जाएँगे. ‘‘पिछड़े वर्ग के लिए संविधान में आरक्षण की कोई व्यवस्था (ही) नहीं है.’’21 कहने से काम नहीं चलेगा. पहले यह व्यवस्था कीजिए...करिए संविधान में संशोधन. फिर महिला आरक्षण पर बात करेंगे. गाँव में हमारी औरतों को पीने का पानी नहीं है, खाने को रोटी नहीं है, तन ढँकने को कपड़ा नहीं है और आप बिना किसी सलाह या बहस के राजपाट लुटाने पर तुले हैं. असुरक्षा की राजनीति में ‘जैंडर जस्टिस’ की बातें उछालने का कोई लाभ नहीं.22 मन्त्रीमंडल में ‘चार और भिक्षुणियाँ’ छोड़ भले ही चालीस शामिल कर लो, लेकिन याद रखना बुद्ध ने कहा था कि ‘‘स्त्रियों को संघ में स्थान दिया गया तो वह ज्यादा दिन टिक नहीं पाएगा.’’23 आप वरिष्ठ और सम्माननीय हैं श्रीमन ! लेकिन आपका यह सुझाव कि ‘‘पिछड़े वर्ग की औरतों को प्रतिनिधित्व देना चाहते हो तो सभी राजनीतिक दल स्वेच्छा से उन्हें चुनावी टिकट दे दें, कानूनी आरक्षण देने से देश एक सदी पीछे चला जाएगा,’’24 विवेकसम्मत, न्यायसंगत नहीं है. अगर ऐसा ही है तो यह सुझाव सिर्फ पिछड़ी औरतों के लिए ही क्यों हो ? सबके लिए कर-करवा दो- हमें कोई एतराज नहीं. असहमति के लिए क्षमा चाहते हैं. लगता है कि काफी कुछ उल्टा-सीधा कह दिया हमने. लेकिन संक्षेप में, अन्त में इतना और बता दें कि अगर अगले सत्र में बिल पास करवाने के लिए ह्निप जारी किया-करवाया तो हमें सारे देश को सच बताना पड़ेगा कि यह सब हंगामा, शोर-शराबा, विरोध, प्रदर्शन, गाली-गलौच और नारी विरोधी रुख आपके ही कहने पर करना पड़ रहा है. अभी बस इतना ही काफी है. जोर से बोलो, ‘देश के मर्दो एक होओ.’ जय हिन्द.

सन्दर्भ सूची

1.16 मई, 1997 को संसद में विधेयक पर बहस के दौरान जनता दल के कार्यकारी अध्यक्ष शरद यादव का बयान.
2.उपरोक्त बहस के दौरान भारतीय जनता पार्टी के नेता श्री अटल बिहारी वाजपेयी की टिप्पणी.
3.प्रधानमन्त्री श्री इन्द्रकुमार गुजराल का दूरदर्शन पर साक्षात्कार और टाइम्स आॅफ इंडिया में रिपोर्ट.
4.टाइम्स आॅफ इंडिया में रिपोर्ट.
5.हंस, फरवरी, 1997 में ‘स्त्री-विमर्श: सत्ता और समर्पण’ लेख, अरविन्द जैन, पृ. 71
6.दैनिक हिन्दुस्तान, 17 जून, 1997 में रमेश डौरिया की पाठकीय प्रतिक्रिया.
7.हंस, अप्रैल, 1997 में सुप्रसिद्ध लेखक-सम्पादक श्री राजेन्द्र यादव द्वारा सम्पादकीय ‘सिंहासन खाली करो कि...’ पृ. 7
8.दूसरा शनिवार, 8 मार्च, 1997 में प्रसिद्ध लोहियावादी विचारक श्री मस्तराम कपूर का लेख, पृ. 10-11
9.वही.
10.‘नारी संवाद’ मार्च, 1997, सम्पादकीय, पृ. 3
11.‘कोड़े में बदलती करुणा’, सुधीश पचैरी, हंस, जून, 1997, पृ. 41
12.‘विमेन बिल: इलीट प्लाय टू परपिचुयेट कंट्रोल’, सैयद शहाबुद्दीन, पाॅयनियर, 22 अक्टूबर, 1996
13.‘पोलिटिकल पैट्रीआर्की: रिजर्वेशन अबाऊट पावर फाॅर विमेन’, ललिता पाणिकर, टाइम्स आॅफ इंडिया, 25 मई, 1997
14.‘नई स्त्री और बिफरा हुआ मर्दवाद’ सुधीश पचैरी, जनसत्ता, 29 मई, 1997
15.‘महिला आरक्षण के बहाने नए यथार्थ पर एक नजर’, विष्णु नागर, हिन्दुस्तान, 27 मई, 1997
16.‘मूव ओवर, मिस्टर यादव यू आर इन माई सीट’, विद्या सुब्रामनियम, टाइम्स आॅफ इंडिया, 27 मई, 1997
17.सम्पादकीय, हिन्दुस्तान, 19 मई, 1997
18.‘द सेकेंड क्लास सेक्स’, टाइम्स आॅफ इंडिया, सम्पादकीय, 19 मई, 1997
19.माया, 15 जून, 1997, पृ. 84
20.वही, श्रीमती मधु दंडवते की टिप्पणी, पृ. 84
21.वही, गीता मुखर्जी का बयान, पृ. 86
22.फ्रंट लाइन, जैंडर इश्यू, पृ. 113-115, 13 जून, 1997
23.दूसरा शनिवार, जून, 1997, सम्पादकीय ‘चार और भिक्षुणियाँ’, पृ. 3
24.फ्रंड लाइन में ई.एम.एस. नम्बूदरीपाद का लेख, 27 जून, 1997, पृ. 94-95.

डा. भीमराव आंबेडकर के स्त्रीवादी सरोकारों की ओर: पहली क़िस्त

$
0
0
शर्मिला रेगे की किताब  'अगेंस्ट द मैडनेस ऑफ़ मनु : बी आर आम्बेडकर्स राइटिंग ऑन ब्रैहम्निकल  पैट्रीआर्की'की भूमिका का अनुवाद हम धारावाहिक प्रकाशित कर रहे हैं. मूल अंग्रेजी से अनुवाद डा. अनुपमा गुप्ता  ने  किया है. इस किताब को स्त्रीकाल द्वारा  सावित्रीबाई  फुले  वैचारिकी  सम्मान, 2015 से  सम्मानित किया  गया  था.  

भारतीय विश्वविद्यालयों के सामाजिकविज्ञान और मानव शास्त्र के मौजूदा पाठ्यक्रमों में डा. बी.आर. आंबेडकर से हमारा परिचय अक्सर नहीं हो पाता. यह हैरतअंगेज है कि आंबेडकर के लेखन और व्याख्यानों को कभी पढ़े बिना ही विद्यार्थी और मेरे जैसे शिक्षक स्नातकोत्तर और शोध उपाधियों को हासिल कर लेते हैं और अकादमिक हलकों मेें स्त्री उपाधियों को हासिल कर लेते हैं और अकादमिक हलकों में स्त्री-अध्ययन पर कर्य करते रहते हैं. हालांकि 1990 के बाद वाले वर्षों में यह तस्वीर कुछ बदली है क्योंकि अकादमिक क्षेत्र में आये दलित विद्वान समाजशास्त्र, राजनीति शास्त्र, संस्कृति व साहित्य पाठ्यक्रमों में आंबेडकर के लेखन को अब शामिल कर रहे हैं. आत्म निरीक्षण की इस शुरूआत में ही मैं यह स्पष्ट कर देना चाहती हूं कि किस तरह हमारी उच्च शिक्षा संस्थाओं में अज्ञान गढ़ा जा रहा है और जहां हमसब जाति और शिक्षा में विशेषाधिकार बनाये रखने के गुनाह में भागीदार बने रहते हैं. मेरा यह काम फुले-अम्बेडकरी आंदोलन में मेरे उन गुरूओं के कर्ज को रेखांकित करने के लिए भी है,  जिनका कार्य मुझे व कई अन्य लोगों को आंबेडकर के कार्य तथा लेखन से परिचित कराता है और व्याख्या के अलग ही अंदाज से भी पहचान करवाता है. इन गुरूओं में शामिल है. आंबेडकरी कार्यकर्ता, लेखक शाहिर और नायक दल.



आंबेडकर के 'ब्राह्मणवादी श्रेणीगत पितृसत्ता'पर लेखन को पढ़ते हुए इसी पृष्ठभूमि को ध्यान में रखा जाना चाहिये. यह शब्द स्त्रीवादी विदुषी उमा  चक्रवर्ती ने 1993 में पहली बार प्रयोग किया था. मेरा लक्ष्य यही है कि आंबेडकर के स्त्रीवादी सरोकारों पर जल्द से जल्द ध्यान दिया जाना चाहिए और इसके लिए मैं देश के राजनीतिक अतीत व वर्तमान की  तीन ऐसी घटनाओं को माध्यम बनाऊंगी, जो ऊपर से देखने पर बिल्कुल भिन्न प्रतीत होती है. इसमें से हर एक घटना समय व स्थान की दृष्टि से बिल्कुल अलग पड़ाव पर है और जाति व जेण्डर के बीच भिन्न-भिन्न रिश्तों को दर्शाती है.पहला वाक्या ब्राह्मण परिषदों से जुड़ा है, जिसमें वास्तविक और काल्पनिक दोनों परिषदें शामिल हैं. दूसरे में गैर दलित और दलित स्त्रीवादियों के बीच एक संवाद को लिया गया है. तीसरी घटना दलित स्त्रियों पर बलात्कार और उस पर मुकाबले के बारे में तत्कालीन राजनीति में हुए आडम्बर को दिखाती  है.पहले 1950 की ब्राह्मण परिषद के तीसरे व चौथे संकल्पों की बात करते हैं. यह एक ऐसा प्रपंच है, जिसमें एक काल्पनिक भविष्य का दृश्य निर्मित किया गया है और जिसे 1920 के दशक के महाराष्ट्र के गैर ब्राम्हण आंदोलन के जाने-माने नेता दिनकर राव जवलकर ने रचा था.

ब्राह्मण परिषद में पेश किये जाने वाले काल्पनिक प्रस्तावों काखाका कुछ इस तरह खींचा गया है:"ब्राह्मण स्त्रियों द्वारा अपने पतियों को पीटे जाने के कई मामले अदालत मेें पेश किये गये हैं. अतः ब्राह्मण पति वर्ग की रक्षा के लिए तुरंत एक कानून बनाया जाना चाहिए. मुझे यह कहते हुए लज्जा अनुभव होती है कि यूरोपीय सभ्यता के अनुसरण के कारण ब्राम्हण स्त्रियाॅ धूम्रपान करती है, नाट्य मंचों पर अभिनय प्रदर्शन करती हैं और सैलूनों में जा कर देह पर उस्तरा फिरवाती हैं. हालात ऐसे हैं कि समूची बावनखानी (पेशवाकाल में वेश्याओं का इलाका) में ब्राह्मण स्त्रियों का ही वर्चस्व है. एक ब्राह्मण वेश्या ने तो सूचनापट्ट लगाकर घोषित कर दिया है कि वह पेशवा के वंश से हैं."  (फड़के 1984:149) विस्टल भाई पटेल ने 1918 में अंतरजातीय विवाहों को मान्यता देने संबंधी जो विधेयक प्रस्तुत किया था, बी.जी. तिलक ने उसका कड़ा विरोध किया. इसी विरोध के जवाब में जवलकर ने उपर्युक्त प्रस्ताव पेश किया,  जिसमें 1950 में ब्राह्मण  स्त्रियों को  पतियों को पीटने वाली, धूम्रपान करे वाली और गैर ब्राह्मण पुरूषों के साथ संकर विवाह करने वाली वेश्याओं की तरह चित्रित किया गया. ब्राह्मण पुरूष,  जो अब अपनी स्त्रियों को नियंत्रित करने में अक्षम थे, ‘मूछ वाली औरतों’ की तरह चित्रित किये गये. (वहीं 148)

इस  परिषद में वर्णित काल्पनिक भविष्य  के लगभग 50 वर्ष बाद 2009 में पुणें में हुईब्राह्मण महासभा मेें सचमुच ही प्रस्ताव रखा गया कि ‘ब्राह्मण समाज की पवित्रता को अक्षुण्ण  रखने के लिये तथा देशहित के वृहद लय के लिये समाज के सभी भाई-बहन समाज के भीतर ही विवाहों को प्राथमिकता देंगे.’ इस महासभा में छपी ‘बदलते वक्त में ब्राह्मणों  के लिए आचार संहिता’ में स्त्रियों के लिये खास पोशाक तथा परिवार-समाज के प्रति उनके कर्तव्यों पर जोर दिया गया है. यह न केवल जाति-आधारित समाज में अंतरजातीय विवाहों के खिलाफ पल रही दलील की ओर इशारा करता है बल्कि आज के प्रभुवर्ग और बीसवी सदी के पूर्वार्ध में रचित उन गैर ब्राह्मण कल्पनाओं में अनोखी समानता दिखाता है जो ब्राह्मण स्त्रियों को भोग-विलास में लिप्त मानता है.हालांकि ब्राह्मण  स्त्रियों का यह उपहास गैर-ब्राह्मण समुदाय की ओर से उभरा जिसका मानना था कि समाज में मुख्य मतभेद अविवेकी ब्राह्मणों और विवेकी हिन्दुओं के बीच है. यहां गैर ब्राह्मण ज्योतिबा फुले (1827-90) की विचारधारा से अलग जाते दिखाई देते हैं. फुले के अनुसार यह मतभेद शूद्र-अतिशूद्र-महिला वर्ग तथा शेठ जी-भटजी वर्ग के बीच था. जाति अवधारणा की  क्रांतिकारी आलोचना में जेण्डर मुद्दे जाति के इशारे में ही स्थापित हुए दिखाई देते हैं.वर्तमान में ब्राह्मण महासभा जहां ‘राष्ट्रीय हितों’ के लिये जाति के भीतर विवाहों पर बल देती है, ब्राह्मण स्त्रियों पर नये-नये प्रतिबंध थोपती हैं. वहीं 20वीं सदी के पूर्वार्ध  में गैर ब्राह्मण बुद्धिजीवियों ने ब्राह्मण स्त्रियों की पाश्चात्य आधुनिका को भोग विलास से जोड़ दिया और स्वयं की पितृसत्तात्मक प्रवृत्तियों की ओर एक नजर तक नहीं डाली.



अब दूसरे वाक्ये पर आते हैं. 2009में मुंबई में दलित व गैर दलित स्त्रीवादियों के बीच एक संवाद सत्र आयोजित किया गया. इसमें गैर दलित स्त्रीवादियों ने 2006 के खेरलांजी बलात्कारों व हत्याकांड पर अपनी खामोशी की सफाई देते हुए कहा कि मीडिया ने सही वक्त पर सबको सूचित नहीं किया और इस तरह दलित स्त्रीवादियों के साथ एकत्व व सहयोग की डोर बांधने का यह अवसर उनके हाथ से निकल गया. दलित-स्त्रीवादियों ने इस बात की आलोचना की कि दलित स्त्रियों के खिलाफ हिंसा के विरोध में उन्हें अन्य स्त्रीवादियों का कोई सहयोग नहीं मिलता. उन्होंने सेक्स-वर्कस तथा बार-बालाओं पर गैर दलित स्त्रीवादियों के नजरिये की भी निंदा की,  क्योंकि इस नजरिये में श्रम व रति कर्म के जाति से संबंधों तथा शक्तिशाली वर्गों द्वारा निर्मित हिंसा के औजारों के बारे में इन स्त्रीवादियों की नासमझी झलकती है. कुछ दलित स्त्रीवादियों ने दलित पुरूष कार्यकर्ताओं की पत्नियों की ‘गृहस्थिन’ वाली छवि के गढ़ने को भी इस आलोचना के दायरे में समेटा और चेताया क ऐसे दलित पुरूष स्त्री मुक्ति कोे दलित स्त्रियों के लिए नकली/आवास्तविक बताते हैं. यह संवाद सत्र दलित व गैर दलित स्त्रीवादियों के मध्य शक्ति संबंधों की बजाय दोनों समुदायों में पितृसत्ता की सादृश्यता पर ज्यादा केंद्रित रहा. गैर दलित स्त्रीवादियों ने फिर एक बार दलित स्त्रियों के सन्मुख स्त्रीवाद और समुदाय के बीच चुनाव करने को मुख्य मुद्दा बनाया. ऐसे संवादों को दलित स्त्रीवादियों, दलित पुरूष कार्यकर्ताओं व गैर दलित स्त्रीवादियों के बीच समन्वय का एक महत्वपूर्ण जरिया बनाने के लिए दलित स्त्रीवादियों द्वारा अभिव्यक्त आलोचना व मतभेद पर लगातार ऐतिहासिक पुनदृष्टि की जरूरत होगी.

जाति व जेण्डर के आमने-सामने आ जाने की तीसरी घटना हाल में ही दलित स्त्रियों को बलात्कार के बाद हर्जाना देने की राजनीति पर मीडिया तथा सिविल सोसाइटी की प्रतिक्रिया से संबंधित है. 2009 में उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती ने राज्य सरकार द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में बलात्कार की शिकार को उत्पीड़न कानून के अंतर्गत उल्लिखित  अनिवार्य हर्जाना वितरित किया. उत्तर प्रदेश की कांग्रेस  अध्यक्षा रीता बहुगुणा ने इसे हर्जाने द्वारा बलात्कार के अपराध की अनदेखी कर लेने की नीति बताया और तंज किया कि क्यों न दलित मुख्यमंत्री का बलात्कार हो और फिर उन्हें हर्जाने की पेशकश की जाये? इसके बाद मीडिया ने एक तरफ तो इस बात पर शोक जताया कि स्त्री होते हुए भी दोनो राजनीतिज्ञों ने बलात्कार के मामले पर जनता को बरगलाया है, वहीं दूसरी तरफ इशारा किया कि दोनो महिलायें जाति मुद्दों पर आमने-सामने आ गई है. मायावती (दलित) तथा रीता बहुगुणा (ब्राह्मण) के बीच जेण्डर की समानता या जाति की भिन्नता को उभारना उन असल राजनीतिक हथकंडों को सफाई से छुपा ले जाता है,  जिनके द्वारा राज्य व राजनीतिक दल ऐसे मुद्दों के इर्द-गिर्द अपने लाभ के लिए एकत्र हो जाते हैं और दलित स्त्रियों के खिलाफ वैदिक हिंसा को छोटा/स्वीकार्य अपराध बना देते हैं.
ये तीन अलग-अलग वाकये स्त्रीवादी राजनीति के कई द्वद्वों,  जैसे ब्राह्मण/अब्राह्मण, स्त्री आंदोलन/समुदाय और जाति/स्त्री की संकुचित सीमाओं को सामने ले आते हैं.

महिला आरक्षण विधेयक पर जारी लगातारबहस ने बखूबी दिखा दिया है कि स्त्री और जाति के बीच ये झूठा  द्वैत दरअसल पिछड़ी जातियों तथा अन्य जातियों की स्त्रियों की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को राजनीतिक दलों के भीतर ही बांध कर रखने की जुगत है. हमारे राजनीतिक अतीत व वर्तमान से लिये गये ये वाकये स्त्री अधिकारों और वंचित जातियों के बीच जानबूझ कर पैदा किये गये अंतर्द्वंद्व  की पृष्ठभूमि का जायजा देते हैं. वे भारत में जाति और जेण्डर के षड्यंत्र से निपटने की जरूरत को रेखांकित करते हैं और इसीलिये अम्बेडकर के स्त्रीवादी लेखन पर तुरंत ध्यान देने की जरूरत है.  वर्तमान में स्त्रीवादी बहस व स्त्री अध्ययन पाठयक्रम अम्बेडकर के लेखन व राजनीति से लगभग पूरी तरह कटे हुए हैं. वहीं यदि तुलना करें तो गांधी, नेहरू व लोहिया अब भी चर्चा में बने हुए हैं. जाने-माने दलित लेखक व बुद्विजीवी बाबूराव बगुल आंबेडकरके लेखन की इस अकादमिक उपेक्षा के पीछे मुख्यधारा की उस प्रवृत्ति को देखते हैं, जिसमें राष्ट्रीय आंदोलन को पुरखों की स्तुति वाली एक ऐतिहासिक किंवदंती बढ़ना दिया गया है, जबकि फुले आंबेडकर विचारधारा को गैर राष्ट्रीय व व्यक्तिवादी फलसफे का नाम दे दिया गया है.

लेखिका शर्मिला रेगे
 1970 के वर्षों में दलित पैंथर  विचारधाराव गतिविधियां तथा दलित साहित्य कम से कम महाराष्ट्र में तो अकादमिया के लिये चुनौती बन कर उभरे और उनके बीच चयन करने की नौबत आ गई. इसके चलते समाज शास्त्र व साहित्य विभागों ने दलित लेखन को अपने शोध व पाठ्यक्रमों में जगह दी जबकि दलित पैंथर द्वारा खड़े किये गये अक्ल को चुनौती देते सवालों को पूरी तरह नजरअंदाज कर दिया गया. हालांकि 1990 के दशक से देशभर में ‘जाति के धर्म निरपेक्ष उभार’ से आकार ग्रहण करता हुआ तथा संयुक्त राष्ट्र के जातिवाद पर अंतरराष्ट्रीय  सम्मेलन जैसे मंचों पर बढ़ावा पाकर दलित अध्ययन अब सामने आ रहा है. स्थानीय दलित आंदोलन तथा दलित स्त्रीवाद के साथ जुड़ने से भारत के विभिन्न भागों में दलित अध्ययन के कई नये रास्ते निकल रहे हैं. इस संयोजन से आंबेडकरके स्त्रीवाद को पढ़ पाने के रास्ते निकलते हैं और इससे फुले-आंबेडकरी, दलित स्त्रीवादी व गैर-दलित स्त्रीवादियों के बीच नये संवादों की संभावनाये खुलती हैं.
 क्रमशः

सुशीला टाकभौरे की कविताओं में दलित और स्त्री प्रश्न

$
0
0
रेखा सेठी
  हिंदी विभाग, इंद्रप्रस्थ महिला महाविद्यालय, दिल्ली वि वि, में एसोसिएट प्रोफेसर. विज्ञापन डॉट कॉम सहित आधा दर्जन से अधिक आलोचनात्मक और वैचारिक पुस्तकें प्रकाशित  
विमर्शों की दुनिया में सुशीला टाकभौरेकी कविता दोराहे पर खड़ी प्रतीत होती है.दलित व स्त्री अस्मिता की स्वतंत्र राहें जैसे एक-दूसरे से होकर गुजरें...हिंदी  के दलित साहित्य में जिन महिला रचनाकारों ने दलित और स्त्री अस्मिता के लिए ज़मीन तैयार की उनमें सुशीला टाकभौरे का सक्रिय हस्तक्षेप रहा.वे लंबे समय से कविता, कहानी, उपन्यास, विचारात्मक लेख, आत्मकथा जैसी विधाओं में अपनी रचनात्मकता का परिचय दे रही हैं.1970 में अम्बेडकरवादी चेतना के प्रभाव से दलित साहित्य की जो अलग पहचान बनी उसमें स्त्री स्वर को बहुत गंभीरता से नहीं लिया गया.(ऐसा तब है जब सावित्री बाई फुले जैसी रचनाकार पहले से ही दलित साहित्य की ऊर्जा-स्रोत रही हैं ) नब्बे के दशक में यह स्थिति बदली और पत्र-पत्रिकाओं में दलित स्त्री रचनाकारों ने अपनी उपस्थिति के महत्व का एहसास कराया.अब उसे अनदेखा करना नामुमकिन था.स्त्री-साहित्य के इस उन्मेष में सुशीला टाकभौरे, साहित्य की सभी विधाओं में, एक महत्वपूर्ण नाम बनकर उभरीं किन्तु जितनी चर्चा उनकी आत्मकथा ‘शिकंजे का दर्द’ तथा उनके कहानी संग्रहों की हुई है, उतनी कविताओं की नहीं हुई.अब तक उनके चार कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं – ‘स्वाति बूँद  और खारे मोती’  (1992 ), ‘यह तुम भी जानो’ (1994), ‘तुमने उसे कब पहचाना’ (1995), ‘हमारे हिस्से का सूरज’ (2005).दलित और स्त्री प्रश्नों पर केन्द्रित ये रचनाएँ सामाजिक न्याय की गुहार हैं.

भारतीय सामाजिक संरचनाओं का इतिहासआज़ादी के बाद (भी) और कहें तो आज़ादी के बावजूद (भी) नहीं बदला.दलित-जीवन के अंधकारमय पृष्ठों से यातना और संघर्ष की इबारत मिटाई नहीं जा सकी.इस स्थिति का विवरण देते हुए सुशीला जी लिखती हैं. “दलित शोषण आज भी जारी है.प्रतिदिन ऐसी घटनाएँ घट रही हैं.सवर्ण जातियाँ आज भी दलितों को भयभीत रखने के लिए अमानवीय अत्याचार करती हैं कहीं उन्हें ज़िन्दा जलाया जाता है तो कहीं उनकी बस्तियों में आग लगा दी जाती हैं. कानून और पुलिस की सुरक्षा व्यवस्था सवर्णों की मदद करती है.दलितों को कहीं न्याय नहीं मिलता.ऐसा कब तक चलेगा ? इस प्रश्न का उत्तर कहीं नहीं मिलता, कोई नहीं दे सकता |” (स्वाति बूँद  और खारे मोती पृ .17) यह अनुभव सुशीला टाकभौरे के समस्त साहित्य की पृष्ठभूमि है और सिर्फ सुशीला जी के ही नहीं समस्त दलित साहित्य की पृष्ठभूमि है.यह साहित्य अवहेलना और अपमान के कष्टकारी अनुभव की पीड़ा से रचा गया है जिसकी सामाजिक अंतर्ध्वनियाँ बेहद त्रासद हैं. ‘दुख हमें, सुख उन्हें / कैसी यह विडंबना’---यही विचार, भिन्न शब्दों में पंक्ति-दर-पंक्ति उतर आया है.असमानता के ब्यौरे, यातना की स्मृति, प्रत्यालोचना का रूप धरने लगती है.यह नए किस्म का सांस्कृतिक उपनिवेशवाद है जिसमें सवर्ण जातियाँ सत्ता और साधनों पर कब्ज़ा किये बैठी हैं.जिस अभिशाप को दलितों ने जीवन-भर भोगा वह उनकी नियति नहीं बल्कि कुछ लोगों की धोखाधड़ी है जो बहुजन समाज को हाशिए पर धकेले हुए है.लगातार उन्हें शिक्षा और सुविधाओं के अभाव में, शहरों से बाहर, उतरन व जूठन पर जीने को विवश किया जाता है.बरसों से ठहरा समाज ऊँच-नीच के सामंती ढाँचे से स्वयं को मुक्त करने में अक्षम रहा.

स्वाधीनता और राजनीतिक अधिकारों केबावजूद जड़ मानसिकता को कोई मिटा नहीं पाया.सुशीला जी की अनेक कविताओं में दलित जीवन का यह दर्द उभरता है.उनके यहाँ स्मृति अपमान का पर्याय बन गई है.पूर्वजों की पीड़ा का संताप तथा वर्तमान में बार-बार जाति के नाम पर भोगा गया अपमान स्थायी सत्य है.‘यातना के स्वर’ कविता में उन्होंने साफ लिखा कि वर्तमान स्थिति में अन्याय के प्रतिकार की चेतना सबल न होने के कारण ही पी एच. डी तक शिक्षा प्राप्त प्राध्यापिका भी झाड़ूवाली कही जाती है.शोषण के ये सन्दर्भ अपमान की पीड़ा को जीवित रखते हैं.ऐसी सभी स्थितियाँ घोर अपमानजनक एवं अस्वीकार्य हैं.पीड़ा के इन अनगणित चिन्हों को झेलते हुए, अब सीधे सामने की लड़ाई का संकल्प है.दया और सहानुभूति के पर्दे गिराकर, पूरे वर्ग पर किए अत्याचारों का हिसाब माँगा जा रहा है.कुछ व्यक्ति या जातियाँ ही कटघरे में हैं, पूरे समाज को जवाब देना होगा कि कैसे उसने अपने जनसमूह के एक बड़े भाग को शताब्दियों तक असंख्य यंत्रणाओं की अग्नि में जलने को विवश किया.
     हम दलित
   आदम रूप होकर / आदम भाषा में पूछना चाहते हैं सवाल
    मानव सभ्यता-संस्कृति का इतिहास क्या है ? / भारतीय संस्कृति का आधार क्या है
    क्यों किया अब तक / हम पर  अत्याचार ?  
    (हम दलित, यह तुम भी जानो पृ.87 )

दलित साहित्य जिस नए सौन्दर्यशास्त्रकी पैरवी करता है उसमें साहित्य का संबंध संघर्ष और जागृति से है.कविता का लक्ष्य न्याय की पुकार है.सुशीला टाकभौरे की इन कविताओं की सृजन भूमि यही है.जातीय उत्पीड़न तथा स्त्री जीवन का दोहरा अभिशाप--- अधिकांश कविताओं का विषय-बोध बार-बार इसी घेरे में घूमता है.शायद अनेकश: कहने पर भी पीड़ा पूरी तरह चुकती नहीं.वे बार-बार अपनी कविताओं में उपेक्षित दलित समुदाय की जड़ मानसिकता पर चोट कर, उन्हें स्वयं  को पहचानने का संदेश देती हैं.उनके अनुसार कविता की सार्थकता इसी बात में हैं कि सोये हृदयों को आंदोलित किया जा सके.जागृति एवं संघर्ष के बिना, समता-पूर्ण सामाजिक संरचना की आकांक्षा स्वप्न ही रहेगी.‘हमारे हिस्से का सूरज’ काव्य-संकलन के मनोगत में सुशीला टाकभौरे अपनी कविताओं के उद्देश्य व दलित-कविता की पृष्ठभूमि को स्पष्ट करती हैं--–“इनका आधार अम्बेडकरवादी विचारधारा है इनमें शोषण, अन्याय के विरुद्ध विद्रोह और दुश्मनों को ललकारने की चेतना है, इसमें कहीं यातना के स्वर हैं, कहीं चेतना के स्वर हैं.कहीं शोषकों को धिक्कार है तो कहीं अन्याय के विरुद्ध अत्याचारियों से बदला लेने की हुंकार है.दलित कविता के विषय, भाव एक जैसे होने के बाद भी, वे अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग दलित वर्ग की भोगी हुई पीड़ा की अभिव्यक्ति हैं |” (स्वाति बूँद और खारे पानी पृ.17 )
सामाजिक स्थितियों की जड़ता के पीछे, धर्म व संस्कार के नाम पर होने वाले अनुकूलन की विशेष भूमिका है.रामायण-महाभारत जैसे आदि ग्रन्थ ऐसे असुविधाजनक प्रसंगों के साक्षी हैं. रामायण में बालि-वध, राम द्वारा शम्बूक की हत्या, केवट, निषाद, शबरी की समर्पणशील भक्ति---ऐसे प्रसंग हैं जिनका पाठ-पुन:पाठ नए विमर्शों की गुंजाइश पैदा करता है.

महाकाव्यात्मक अन्विति में ये प्रसंग कथानायक राम के महिमा-मंडन के लिए रचे गए.इनके रचयिता वाल्मीकि आज दलितों के आइकॉन भी हैं.इससे उस साहित्य के पुन:पाठ की और भी सम्भावना बनती है.सुशीला टाकभौरे की निगाह इस ओर भी गयी. वाल्मीकि को ‘बाल्या’ कहकर, उन्होंने अपना बहुत क़रीबी बना लिया लेकिन सवालों के घेरे से वे भी बाहर नहीं हैं.अपने इस ‘बाल्या’ से वे पूछती हैं कि क्यों उनकी दृष्टि राम पर ही रही, वे शबरी और शम्बूक के सम्मान और प्रगति का नया रचना-विधान क्यों नहीं रच सके? दलित मुक्ति के लिए इन प्रश्नों से जूझना ज़रूरी है.इतिहास को धर्म-ध्वजा के रूप में उठाये चलना जिस सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को जन्म देता है, दलित कविता उस वितंडा के प्रति सावधान करती हैं.सुशीला जी की शैली अपनी सरलता में सामाजिक अंतर्विरोधों को प्रश्नांकित करने की रही है. रामायण ही नहीं, महाभारत में भी भील एकलव्य की कथा सवर्ण जातियों के षड्यंत्र-रूप में दोहराई जाती है.कवयित्री के मन की फाँस कहीं और है.वह पूछती है ---
     भील एकलव्य / तुम्हारा तो सिर्फ
     एक अँगूठा कटा था, / पर क्या
     पूरे समाज के हाथ भी / काट दिये गये थे ?
     (भील एकलव्य, यह तुम भी जानो पृ. 35 )

यह कविता अत्यंत महत्वपूर्ण है.एकलव्यने विरोध नहीं किया लेकिन क्यों नहीं किया, यह सवाल विमर्श का हिस्सा होना चाहिए.यहाँ कवयित्री बड़ी बारीकी से उस सामाजिक प्रक्रिया का अनावरण करती है जहाँ अन्याय और अपमान के विरुद्ध पूरे वर्ग की सहिष्णुता, विरोधी स्वर का अभाव उस समाज के भयंकर अनुकूलन का बोध कराता है.एकलव्य की गुरु-भक्ति, मन ही मन जिसे गुरु माना हो उसके प्रति अटूट निष्ठा का प्रतीक है या उसके कारण कुछ और रहे.किन्हीं अर्थों में यह पूरी जाति की नपुंसक वीरता का प्रमाण भी है.क्यों ये जातियाँ अपने अधिकार या सम्मान के लिए खड़ी नहीं हो सकीं.न्याय के लिए  धर्म-युद्ध करने वाले समाज में इतिहास क्यों इन घटनाओं को इस रूप में दर्ज नहीं कर पाया यह आज भी पूरे युग की बड़ी चुनौती है.यातना की स्मृति जिस पृष्ठभूमि का निर्माण करती है उसका अगला स्तर सामाजिक विमर्श की शुरुआत करना है.समाज के स्थापित ढाँचे का अस्वीकार, उसे प्रश्नांकित कर उससे टकराने की कोशिश, दलित साहित्य का नया सौंदर्यशास्त्र रच रही है.ऐसे स्थलों पर कवयित्री का स्वर काफी उत्तेजित और चुनौतीपूर्ण हो जाता है –
       नहीं रहेंगे अब नत मस्तिष्क / विद्रोह की भावनाएँ
       उठने लगी हैं / तूफान बनकर
       बढ़ने लगा है आक्रोश / संघर्ष की दिशा में
       अब तक वे ही / करते रहे विषपान
       सागर मंथन फिर से होगा / अब तुम्हें करना होगा विषपान
       (व्यंग्य आघात और विषपान, हमारे हिस्से का सूरज, पृ 142)

इस कवितांश की अन्तिम पंक्तियाँ साभिप्राय हैं.संघर्ष का रास्ता सिर्फ उनके प्रति आक्रोश की अभिव्यक्ति नहीं है.आमूल परिवर्तन की राह जातिगत समीकरण में प्रत्यावर्तन चाहती है.ओमप्रकाश वाल्मीकि ने ‘बस्स बहुत हो चुका’ की जो गुहार लगाई थी वह इन कविताओं में भी प्रतिध्वनित होती है.पीड़ा जितनी अधिक है विरोध उतना ही आक्रामक.यातना के स्वर हुँकार में बदल जाते हैं. सुशीला एक ओर दलितों को अपने आत्मसम्मान के लिए अपनी अस्मिता के प्रति सचेत होने का आह्वान करती हैं तो दूसरी ओर सवर्णों को शर्मसार भी करती हैं.वे जताती हैं कि जिन सवर्णों ने दलितों को अछूत माना, जिनकी छाया से भी परहेज़ किया वे जब तुम्हारी बराबरी में कुर्सी पर आ बैठे तो तुम्हारा हृदय क्यों फटता है.ऐसे छोटे-छोटे विवरण सामाजिक ताने-बाने पर एक बहस खड़ी करने के साथ-साथ सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया की पहल भी बनते हैं. इस दृष्टि से ‘सुनो विक्रम’ महत्वपूर्ण कविता है. विक्रम और बेताल के कथासफ़र की तर्ज पर प्रचलित न्याय, प्रेम की कहानियों की दिशा को अपनी नज़र से देखने को प्रेरित करती यह कविता, विक्रम को ललकारती है ---
 अब तुम सुनाओ कथा बेताल को / सवार होकर उसके ही कंधों पर
और पूछो सवाल / अधिकतम कितना मूल्य है
 एक निरीह महिला को /  सरेआम नंगा करने का ?
एक इन्सान को बेबसी की / अन्तिम सीमा तक
 पहुँचा देने का ?

  कब बदलेगें कर्मकाण्ड /  कब मिलेगा सामाजिक न्याय !
  पूछो उससे,/ अन्यथा / कर दो उसके टुकड़े टुकड़े !
(सुनो विक्रम, यह तुम भी जानो, पृ 38-39)



आहत मन और आक्रोश की चिंगारी केसाथ-साथ कवयित्री बार-बार याद दिलाती है कि दलितों को स्वयं रूढ़ियो को तोड़ने का साहस दिखाना होगा.यह पूरी प्रक्रिया दोरुखी है, एक ओर उच्च वर्ग की श्रेष्ठता को चुनौती, उनके विरोध में संघर्ष का शंखनाद तथा दूसरी ओर दलितों का उद्बोधन, मुक्ति की आकांक्षा.जिस विचारधारा के प्रति निष्ठा एवं प्रतिबद्धता सुशीला की कविताओं को ऊर्जा देती है वह प्राय: उसे दृष्टि के विस्तार का अवसर नहीं देती.हाँ, कुछ कविताएँ अपवाद स्वरूप ही सही ऐसी अवश्य हैं जिनमें कवयित्री का विज़न विस्तृत होता दीख जाता है जैसे दलित संघर्ष को वे बिरसा मुंडा के संघर्ष से जोड़ लेती हैं.बुद्ध, कबीर, फुले, अम्बेडकर दलित चेतना के युगपुरूष हैं.अनेक कविताओं में उनका आवाहन किया गया है.उगते अंकुर की तरह जीने, ज्योति दूत बनने की प्रेरणा इनके माध्यम से दी गई है.यातना से विद्रोह तक और विद्रोह से भविष्य के स्वर्णिम स्वप्न तक---ये कविताएँ एक वृत्त पूरा करती हैं.
  फिर चाँद मुस्करायेगा / हवा गुन गुनायेगी
  अश्रु फूल बनकर /  राहों में बिछ जायेंगे
  टूटे हुए सपने / फिर से सज जायेंगे !
  (सपने सज जायेंगे, हमारे हिस्से का सूरज, पृ 154)
इस दृष्टिबोध के सुखद अहसास के साथ दलित चेतना का ग्राफ पूरा होता है.दलित साहित्य के सभी प्रमुख रचनाकारों की भांति ‘यातना, संघर्ष और दृष्टिबोध’ के तीन सोपान सुशीला टाकभौरे की कविता में भी बड़ा इलाका घेरते हैं.

दलित अभिव्यक्ति यथार्थ के जिस खुरदरेपन को सतह पर लाती है, सुशीला जी की कविता उसी राह का अनुगमन कर रही है.अनेक स्थलों पर ऐसा हुआ कि कविता वर्तुलाकार स्थितियों में लगभग फँस कर रह गयी.ऐसा इसलिए भी होता है कि यह कविता सामाजिक बदलाव की दिशा में क्रांतदर्शी भूमिका निबाहना चाहती है.अपने इस उद्देश्य में, अनेक दिक्कतों का सामना करते हुए भी कवयित्री ने निभाया है.दलित आन्दोलन के सभी मुद्दे यहाँ अभिव्यक्ति पाते हैं.जाति का सवाल हमारे यहाँ देश-काल की दिशा को परिभाषित करने वाला है.इसीलिए समतापूर्ण समाज की संकल्पना में जातिगत-उत्पीड़न से मुक्ति का प्रश्न सबसे अहं है.सुशीला टाकभौरे की कविता पीड़ा और प्रतिरोध के विकल्प को सामाजिक प्रत्यावर्तन के अस्त्र रूप में प्रस्तावित करती है.इस देश में यह व्यापक क्रांति का आह्वान है, लोकतान्त्रिक व्यवस्था में बराबर की हिस्सेदारी का प्रश्न.सार्थकता की दृष्टि से ये कविताएँ स्त्री-प्रश्नों की अपेक्षा दलित अस्मिता के सवालों को अधिक शिद्दत से उठाती हैं.जाति और लिंग-परक अस्मिताओं के बीच द्वंद्व की स्थिति नहीं है बल्कि जाति, लिंग की असमानताओं को और भी तीव्र कर देती है.
स्त्री-पक्ष दलितों में दलित, पिछड़ों में पिछड़ी, समाज में सबसे संवेदनशील स्थिति स्त्री की ही है.स्त्री रचनाकार, स्त्री जीवन की विंडबनात्मक स्थितियों, उसकी पीड़ा व संघर्ष से विमुख रहे ऐसा संभव नहीं.सुशीला टाकभौरे भी अपनी कविताओं में स्त्री-जीवन की द्वन्द्वपूर्ण, मारक स्थितियों की धारदार अभिव्यक्ति करती हैं.ऐसी कविताएँ स्वयं को पहचानने की कोशिश भी हैं और अपनी स्थिति से ऊपर उठने का संकल्प भी.वे मानती हैं कि मनुप्रणीत नारी-धर्म, स्त्री को पुरूष पर निर्भर बनाए रखने का उपक्रम है.उनकी कविताओं का उद्देश्य स्त्री को प्रोत्साहित करना है.उन्होंने दलित वर्ग के भीतर भी लिंग आधारित अंतर्विरोधों को गहराई से महूसस किया और बेझिझक होकर बयान किया.
       
दलित जीवन में जाति और लिंग के अंतरपर रजनी तिलक लिखती हैं – “दलित स्त्रियों की दो दुनिया हैं.एक दुनिया में वह अपने भाई, पति, पिता, साथी, मित्र के साथ जाति-व्यवस्था के खिलाफ साथ खड़ी है, दूसरी दुनिया में अपने ही घर में, समाज में, आन्दोलन में हाशिये से फिसल गयी है, फिर भी वह इसी क्रम में दलित चेतना की सावित्री फुले, अम्बेडकर और बोधिसत्व की विचारधारा से प्रभावित हैं.वह ब्राह्मणवाद, पितृसत्ता, पूंजीवाद, सामन्तवाद व फासीवाद के विरुद्ध संघर्षरत है, अत: समूचे दलित वर्ग में स्त्री स्वर ने अपनी अलग प्रखर अभिव्यक्ति की दस्तक दी है.दलित कवियत्रियों ने न केवल दलित कविता में बल्कि हिंदी कविता में अनेक ऐसे बिंदुओं को छुआ है जिसमें वर्ण, वर्ग, जाति, लिंग, रूप, के भेदभाव को नकारकर नये समतामूलक समाज की कल्पना को साकार करने का आह्वान है |” (समकालीन भारतीय दलित महिला लेखन-2 (कविता खंड) पृ. 91-92 ) इस स्त्री की व्यथा-कथा के बिम्ब सुशीला टाकभौरे की कविता में मिल जाते हैं.साथ ही स्त्री-प्रश्न को भाषा, धर्म, जाति, लिंग सम्बन्धी भेदभाव से जोड़कर देखा और उनकी जड़ों को पहचानकर उन पर प्रहार किया यानी जैसी लड़ाई जाति और वर्ग को लेकर है वही लिंग को लेकर भी है, सुशीला टाकभौरे की कविता इस संघर्ष में शामिल है.यह संघर्ष हर स्तर पर समतामूलक समाज की माँग को लेकर आगे बढ़ रहा है. दलित लेखन के शुरूआती दौर में स्त्री साहित्य को लेकर कुछ असमंजस की स्थिति  रही.समस्त स्त्री-वर्ग को दलित मानने की पैरवी करने वालों के बरक्स यह चिंता बनी हुई थी कि स्त्री-पीड़ा की अभिव्यक्ति पर अतिरिक्त बल, दलित आग्रहों को कमज़ोर कर सकता है. एक तर्क यह भी था कि सभी स्त्रियाँ दलित नहीं हैं, क्योंकि दलित-स्त्री, जाति के नाम पर जो मान-अपमान झेलती है वह स्वर्ण स्त्रियों को नहीं झेलना पड़ता.


दलित स्त्री का एक अपना वर्ग है जो उसे समस्त स्त्री समाज में सबसे अशक्त बनाता है.सवर्ण स्त्रियों का व्यवहार भी दलित स्त्रियों के प्रति कम क्रूर नहीं है.इसलिए लैंगिक समानता उन्हें एक वर्ग में नहीं बाँधती.उनकी लड़ाई अलग-अलग है.दलित साहित्य का मुख्य मुद्दा जातिगत असमानता के दंश का प्रतिकार का था.कुछ विचारकों को लगता रहा कि इसमें लैंगिक अस्मिता के सवालों को जोड़ देने से यह संघर्ष बिखर सकता है.उनका आग्रह स्त्री-पुरुष विवाद के परे सबको जातिगत संघर्ष में शामिल रखने का रहा.दलित वर्ग में लैंगिक असमानता को वे अंदरूनी मसला मानते हैं.  विमल थोरात तथा अनीता भारती ने तो लगातार इस सरलीकरण का विरोध किया और दलित स्त्री के दोहरे, तीहरे शोषण की तरफ ध्यान दिलाया.ओमप्रकाश वाल्मीकि ने भी अपने एक साक्षात्कार में स्वीकार किया कि ‘स्त्री, दलितों में भी दलित है |’ स्त्री जीवन के दोहरे संताप के लिए उन्होंने पूरे समाज में फैली लैंगिक असमानता की पारंपरिक सोच को उत्तरदायी बताया--–‘इसके लिए व्यवस्था जनित परंपरावादी सोच उत्तरदायी है, जो स्त्री को दूसरे दर्जे का नागरिक ही नहीं, पाँव की जूती समझती है’ इसे स्वीकारते हुए उन्होनें कहा--–“दलित वर्ग में भी इस व्यवस्था की घुसपैठ है.” (दलित दखल पृ. 26-29). इस सारे विवाद को सुशीला टाकभौरे किस तरह देखती हैं, इसकी समीक्षा महत्वपूर्ण है.उनका काव्य–संकलन ‘तुमने उसे कब पहचाना’ मूलतः स्त्री-स्वतंत्रता के विचार को केंद्र में लाता है.यहाँ ‘दलित’, ‘स्त्री’, या फिर ‘दलित-स्त्री’ जैसे वर्गीकरण का कोई ज़िक्र नहीं है.हाँ, प्रस्तावना सरीखी ‘मन की बात’ की पहली पंक्ति में ‘दलित पीड़ित अबला’ का संकेत अवश्य है जो स्त्री की सामान्य स्थिति के लिए प्रयुक्त हुआ है.यहाँ वे बार-बार संपूर्ण समाज में स्त्री की परतंत्र स्थिति पर चिंता व्यक्त करती हैं.

इस परतंत्रता का कारण ‘पितृसत्ता’ तथा‘मनुप्रणीत नारी धर्म’ है.वे जिरह करती हैं कि स्वाधीनता आन्दोलन में भाषण-जलसों, विरोध–प्रदर्शनों में शामिल स्त्री ‘देश के गुलामों की गुलाम’ थी और आज जबकि अंग्रेज़ों से देश स्वतंत्र है तब भी स्त्री स्वतंत्र नहीं हो पाई है. पारिवारिक संबंधो में पुरुष के समक्ष वह अब भी गुलाम है.“उसकी यह स्थिति तब तक यथावत है, जब तक कि समाज में पुरुष प्रधानता को निर्बाध्य मान्यता प्राप्त है.” उनकी कविताएँ स्त्री में आत्मविश्वास व आंतरिक प्रेरणा जगाने की आकांक्षी हैं और ऐसा करने में वे जाति के आधार पर कोई भेद नहीं करती.‘जानकी जान गयी है’ में वे पुरुष के वर्चस्ववादी व्यवहार को झेलती स्त्री का प्रतिबिम्ब प्रस्तुत करती हैं.सीता की पीड़ा समस्त स्त्री-जाति की पीड़ा है.
ओ शबरी के राम ! / आँखे चुराकर / संवेदना न दिखाओ / तुम्हीं ने सीता को / धरती में समाया था.
(जानकी जान गयी है, यह तुम भी जानो, पृ.65) स्त्री की जीवन-स्थितियों का यथार्थ तथा मुक्ति का उद्बोधन उनकी सभी स्त्री सम्बन्धी कविताओं का मुख्य स्वर है.‘मासूम भोली लड़की’, ‘औरत नहीं मजबूर’, ‘आज की खुद्दार औरत’----सभी कविताएँ स्त्री चेतना की रचनाएँ हैं जिनमें यह स्वर उभरता है कि स्त्री किसी पर निर्भर नहीं, उसे आगे बढ़कर स्वयं को पहचानना है, अपना अधिकार प्राप्त करना है, और नई भोर के सपने को सच करना है.वह ‘नवनीत की पुतली’ नहीं ‘विद्रोहिणी’ है जो स्वयं शक्ति है, पूर्ण महायज्ञ है.स्त्री की विवशता व आकांक्षा की दूरी को पार कर वे स्त्री जीवन का नया ताना-बाना बुनती हैं.
मुझे अनंत असीम दिगंत चाहिए, / छत का खुला आसमान नहीं,
आसमान की खुली छत चाहिए / मुझे अनंत आसमान चाहिए |
(विद्रोहिणी, यह तुम भी जानो पृ.86)
स्त्री की स्थिति का कंट्रास्ट भी कई कविताओं में है.समाज के रूढ़ ढाँचे में परंपरा-प्रदस्त जीवन की जकड़नें, स्त्री को तयशुदा रास्तों पर ले जाती हैं---
वह सोचती है / लिखते समय कलम को झुका ले
बोलते समय बात को संभाल ले / और समझने के लिए
सबके दृष्टिकोण से देखे, / क्योंकि वह एक स्त्री है |
(स्त्री, यह तुम भी जानो पृ.31)

बहुत-सी कविताओं में ऐसा हुआ हैकि एक ही कविता में अनेक भाव एक-साथ चले आते हैं.स्त्री-जीवन की सीमाएँ और उनसे मुक्ति की आकंक्षा, प्रतिकार के लिए उद्बोधन, शक्ति का अहसास सबके संश्लेषण से सुशीला टाकभौरे विषम-भावों का समकोण रचती हैं.उनके यहाँ केवल स्त्री का ही उद्बोधन नहीं है, पुरुष का भी आह्वान है.सावित्री बाई फुले और ज्योतिबा फुले ने जैसे साथ-साथ सामाजिक परिवर्तन की नींव रखी, वह आदर्श अनुकरणीय है.सभी पुरुषों को ज्योतिबा फुले के समान समाज का अग्रदूत बनने की प्रेरणा दी जा रही है.यह उदाहरण विशेष महत्व रखता है चूँकि पितृसत्ता को चुनौती, पुरुष–विरोध नहीं है.स्त्री सम्बन्धी अधिकांश कविताओं का ग्राफ आगे-पीछे होता हुआ उसी दायरे में चलता रहता है.‘स्त्री’ व ‘कितने करीब’ जैसी कुछेक कविताओं में संवेदना का घनत्व विशेष महसूस होता है. इस सबके बीच, ‘वह मर्द की तरह जी सकेगी’, ऐसी कविता है जो समस्या उत्पन्न करती है.यद्यपि कविता निश्छल भाव से लिखी गयी है और उस स्थिति को सामने लाती है जहाँ यह पैरवी की जा रही है कि औरत यदि स्वयं को सजी-सँवरी मानना छोड़ दे, आत्म-निर्भर बने तभी वह पुरुष के समान स्वावलंबन एवं सम्मान के साथ जी सकेगी.इस स्थिति को उन्होंने लिखा ‘मर्द की तरह’ जीना.क्या स्त्री-मुक्ति, स्त्री का पुरुष हो जाना है ? ऐसा मानने से अनेक समस्याएँ खड़ी हो जायेंगी.जिस स्वामित्व के बड़प्पन से स्त्री संघर्ष कर रही है वह स्वयं उस वर्चस्ववादी ढाँचे में कैद हो जायेगी.मर्द होना मर्दवाद के अहं से भी जुड़ा है.स्त्री आन्दोलन की सार्थकता इसी में है कि वह स्वयं को इस अहं से बचाए रख सके. इस सारे चित्रण में हैरानी की बात यह है कि शोषण के इतने चित्रों के बावजूद, इनमें दलित-स्त्री के शोषण का अलग से कोई चित्र नहीं हैं. राष्ट्रीय महिला आयोग की एक रिपोर्ट के अनुसार दलित महिलाएँ अमानवीय व्यवहार के कई रूप झेलती हैं. अपहरण, दैहिक-शोषण, नंगा करके घुमाना, अभद्र भाषा जैसी अनेक स्थितियाँ उनके जीवन को और भी विकट कर देती हैं.

दलित स्त्रियों के शोषण का बहुत बड़ाकारण यह भी है कि अपनी सत्ता या ताकत का आभास देने के लिए सवर्ण जातियों के पुरुष इन स्त्रियों को हथियार बनाते हैं.पूरे वर्ग को दंडित करने हेतु  दलित स्त्रियों का दैहिक शोषण आम बात है.इस पर घरेलू हिंसा और पारिवारिक दमन की स्थितियाँ दलित-स्त्री के लिए अस्मिता व अस्तित्व का संकट बन जाते हैं.सुशीला टाकभौरे अपने एक वैचारिक निबंध में लिखती हैं “स्त्री सर्वप्रथम स्त्री होने के कारण शोषित होती है.इसके साथ दलित स्त्री होने के कारण दोहरे रूप में शोषण-पीड़ा का संताप भोगती है.” (दलित साहित्य, स्त्री-विमर्श और दलित स्त्री, सामाजिक न्याय और दलित साहित्य सं डॉ. श्यौराज सिंह बेचैन पृ. 132) आर्थिक दृष्टि से भी दलित स्त्रियों का संघर्ष कई गुना अधिक है.वे सदा से कठोर श्रम में संलग्न रहीं.यहाँ तक की मैला ढोने का अमानवीय कार्य भी उनके हिस्से रहा.दलितों में पुरुष-वर्ग जब भी पारिवारिक दायित्वों से विमुख हुआ, इन स्त्रियों ने कड़ी मेहनत से सब ज़िम्मेदारी संभाली लेकिन आर्थिक दृष्टि से स्वतंत्र नहीं हो पाईं.
वैचारिक स्तर पर दलित स्त्री की इस पीड़ा का अनुभव होने पर भी अपनी कविता में सुशीला टाकभौरे दोहरा संताप झेलती इस स्त्री की अलग से कोई छवि प्रस्तुत नहीं करती.अधूरे स्वावलंबन तथा सशर्त स्वतंत्रता ने दलित स्त्री को जिस वंचित स्थिति की ओर धकेला  ये कविताएँ उस स्वर को उजागर नहीं करतीं.प्रतिरोध का स्वर ‘दलित स्त्रीवाद’ की अलग कोटि को प्रस्तावित या संपुष्ट नहीं करता.‘यह तुम भी जानो’ संकलन में, ‘आस्था’ शीर्षक से एक कविता है जिसमें अपने पिछड़े होने की स्थिति का स्वीकार है.‘मैं अनभिज्ञ थी / पिछड़े होने के कटु अपमान से’.इसी में कली मौसी द्वारा किसी को चप्पलों का उपहार देने और उस घटना पर समाज में हंगामा मचने का ज़िक्र भी आता है.ये छोटी-छोटी घटनाएँ संघर्ष के लिए प्रेरित करती हैं, आस्था को जन्म देती हैं, ऐसा कवयित्री ने स्वीकार किया है.

इसी तरह ‘मील का पत्थर’ कविता में अपनीहीनता का बोध और एक नया आत्मविश्वास एक साथ स्वर पाते हैं. अब मैं शर्मिंदा नहीं होती / क्योंकि मुझे लगने लगा है,
मैं भी मील का एक पत्थर हूँ / जो टेकरी ही नहीं.
 पहाड़ों से भी / अधिक महत्त्व रखता है ! (मील का पत्थर, यह तुम भी जानो, पृ 24). इन पंक्तियों जैसे कुछ सन्दर्भ स्त्री और दलित होने की पीड़ा को एकमेक कर देते हैं लेकिन सांकेतिक रूप में ही.संभवत: इसका एक कारण तो यह है कि कविता में जीवन सन्दर्भों के लिए अवकाश कम है.कथा साहित्य के पात्र अपनी दलित पहचान तथा जीवन सन्दर्भ जोड़कर रचे जाते हैं.उनकी पीड़ा की लकीरें ज्यादा भास्वर हैं जो सुशीला जी के कथा-साहित्य में दिखता भी है.कविताओं में यह पीड़ा व्यापक स्त्री-सन्दर्भ में जज़्ब हो जाती है.
पुरुष-प्रधान समाज में / चाहे समर्पण हो
या विद्रोह, / दुर्गुण का दोष नारी पर है !
पुरुष के दुर्गुणों पर हमेशा / मनु नाम की चादर डाली जाती है. (गाली, यह तुम भी जानो, पृ 30) मनु की व्यवस्था दलित स्त्री पर क्यों कायम होनी चाहिए ? संभवत: स्त्री-पुरुष सन्दर्भ में दलित पुरुष भी उसी व्यवस्था के शिकंजे से बाहर नहीं.यही संकट दलित स्त्री के संघर्ष को तीव्रतर करता है.जिस पुरुष ने दलित जीवन का अपमान झेला है वह क्या स्वयं अपने वर्ग में लैंगिक सन्दर्भों में स्त्री-पुरुष के पदानुक्रम को निरस्त कर पाया है ? दलित स्त्रीवाद इस प्रश्न से लोहा लेता है और अधिक मानवीय समाज की संकल्पना में अस्मिताओं की टकराहट की बीच मानवीयता का वरण करता है.

अपनी कविताओं में सुशीला टाकभौरेकी कविता सीधे इन सवालों से भले ही न टकराती हो, उनकी सार्थकता इस बात में है कि वे उन रचनाकारों की पंक्ति में हैं जिन्होंने इस सारे चिंतन की पृष्ठभूमि तैयार की है .दलित और स्त्री दोनों ही सुशीला टाकभौरे की कविता और चिंतन के केंद्र में हैं.समाज में दोनों की हाशियाकृत स्थिति उनकी प्रतिबद्धता को दृढ़ करते हैं.दोनों की लड़ाई अपने ‘बाहर और भीतर’ समान रूप से चल रही है.सामाजिक न्याय के लिए जितना बाहरी ताकतों से लड़ना ज़रूरी है, उतना ही अपने भीतर पड़ी सांकल को खोलना भी.कवयित्री दोनों अस्मिताओं को अलग-अलग रखते हुए, दोनों के शोषण और उद्बोधन का सटीक बिम्ब प्रस्तुत करती हैं.इस कविता में उद्बोधन का स्वर भीतरी गाँठें खोलने को सन्नद्ध है.सुशीला टाकभौरे के यहाँ, यही चेतना सक्रिय हस्तक्षेप की प्रस्तावना बनती है.अस्मिता की लड़ाई सामाजिक न्याय की उद्भावना से बंधी है.यह कविता प्रतिकूल परिस्थितियों में भी संघर्ष से आँख नहीं चुराती लेकिन अपना असली पारितोषक इस बात में मानती हैं कि कविता ‘स्वयंपूर्ण’ होने में मदद कर सके. सामाजिक स्थितियाँ आर्थिक अवस्था पर निर्भर है.सुशीला टाकभौरे की कविता में दलित और स्त्री की दारुण स्थितियों का बहुत बड़ा कारण आर्थिक है.भूमंडलीकरण तथा उदारीकरण की नीतियों ने स्थिति को और विकट कर दिया.यह विकास का ऐसा मॉडल था जिसमें समाज का एक तबका पूंजी के बाज़ार में खरबपतियों की सूची में शामिल हो रहा था जबकि व्यापक जन-समाज, महंगाई की मार झेलते हुए भूख, गरीबी और लाचारी की ज़िन्दगी जीने को विवश था.दलित और स्त्रियाँ इसी वंचित जन-समाज का हिस्सा हैं.

सुशीला टाकभौरे एकाध कविता में हीसही इस स्थिति की ओर संकेत करती हैं और मानती हैं कि उदारीकरण की नीतियाँ अस्मिता के संकट को अस्तित्व के संकट में बदल रही हैं.
उदारीकरण / निजीकरण
भूमंडलीकरण के दौर में / श्रम का अवमूल्यन
शिक्षा बहुमूल्य / रोज़गार में स्पर्धा
पहचान मिटने का खतरा
(महंगाई, स्वाति बूँद और खारे मोती, पृ.75-76) सुशीला टाकभौरे के यहाँ इन मुद्दों को उठाने वाली बहुत-सी कविताएँ नहीं हैं लेकिन जो हैं वे इस दृष्टि से आश्वस्त करती हैं कि कवयित्री की साझेदारी परिस्थितियों से हारते मनुष्य की पीड़ा से है.सामाजिक जीवन व सामाजिक विडंबना के और भी पक्ष हो सकते हैं लेकिन उतने विस्तार या विविधता में जाने का अवकाश कवयित्री के पास नहीं है.उनका सारा ध्यान असमानता की पीड़ा झेलते व्यक्ति पर है, फिर वह विषमता चाहें जाति की हो, लिंग की या अर्थ की, उनका चित्रण एवं उनके प्रतिकार की राजनीति, अपने प्रेरक सक्रिय रूप में यहाँ मौजूद है. इन कविताओं की असली ताक़त अभिव्यक्ति की साफ़गोई में छिपी है.सुशीला टाकभौरे जिस भावातिरेक के साथ अपनी बात रखती हैं उसमें एक सच्चाई झलकती है.यह सच्चाई दलित साहित्य की सार्थकता का सबसे बड़ा प्रतिमान है.अस्मितामूलक विमर्श से उसकी शुरुआत अवश्य होती है किन्तु सार्थकता उन मानवाधिकारों को प्राप्त करने में है जो मानवीय जीवन के लिए आधारभूत हैं.यह कवितायें उस आन्दोलन को दिशा देने का काम करती हैं जो व्यापक जन-समुदाय के स्वाभिमान और सुरक्षा के लिए आगे बढ़ता है.आज देश के अलग-अलग हिस्सों से समता की मांग करने वाले आन्दोलनों के तीव्र होने की सूचनाएँ आ रही हैं, सुशीला टाकभौरे की कविताओं का मूल्य यही है कि इनके माध्यम से उस सामाजिक विमर्श की बुनियाद रखी गई जो अब परवान चढ़ता दिखाई दे रहा है |

बलात्कारी के खिलाफ छात्र

$
0
0
मुकेश कुमार  

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय मेंशोध छात्रा के साथ भाकपा-माले के छात्र संगठन आइसा के नेता अनमोल रतन द्वारा बलात्कार मामले के खिलाफ तिलकामांझी भागलपुर विश्वविद्यालय के छात्रों ने  भागलपुर स्थित बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर प्रतिमा स्थल–स्टेशन चौंक पर प्रतिवाद-प्रदर्शन किया एवं दिल्ली पुलिस, जेएनयू के कुलपति और भाकपा माले के महासचिव का पुतला फूंका. इस मौके पर प्रदर्शनकारी छात्र बलात्कार के आरोपी छात्र नेता को जेएनयू से निलंबित करने एवं विवि परिसर में प्रवेश पर रोक लगाने की मांग कर रहे थे. छात्रों के समूह ने दिल्ली पुलिस द्वारा आरोपी की गिरफ्तारी में ढिलाई बरतने और पीड़ित छात्रा की पहचान को सार्वजनिक करने पर भी तीखा आक्रोश व्यक्त किया. छात्र बलात्कारी को स्पीडी ट्रायल चलाकर सख्त सजा देने की मांग बुलंद कर रहे थे. ज्ञात हो कि 20 अगस्त को अपने कमरे पर ले जाकर शोध छात्रा को नशीला पदार्थ खिलाकर उक्त आइसा नेता ने इस शर्मनाक घटना को अंजाम दिया था.



प्रदर्शनकारी छात्र नेता अंजनी ने भागलपुरस्टेशन चौंक पर आयोजित प्रतिरोध सभा को संबोधित करते हुए कहा कि देश के बौद्धिक केंद्र कहे जाने वाले जेएनयू जैसे विश्वविद्यालय में एक शोधछात्रा का छात्र नेता बलात्कार करता है और उसकी गिरफ्तारी और कठोरतम सजा दिलाने के लिए तत्काल कोई आंदोलन नहीं होता है. गंभीर सवाल तो यह है कि इस घिनौनी हरकत को कोई और नहीं स्त्रियों की ‘बेखौफ आजादी’ और ‘दिल्ली गैंग रेप’ के खिलाफ हुए आंदोलन की अगुवाई करने वाले संगठन से जुड़ा प्रमुख नेता करता है. उन्होंने कहा कि सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि ऐसी घृणित व्यक्ति ऐसे संगठन का नेता कैसे बना दिया गया. और उस पर जब यह मामला सामने आया तो बलात्कारी छात्र नेता को महज संगठन से निकालने और पीड़िता के पक्ष में एकजुटता का बयान जारी कर चुप्पी साध ली जाती है. ऐसे मामले सामने आने पर तो बुर्जआ पार्टियां भी इतना करती हैं, तब उनमें और इनमें क्या फर्क रह गया. भाकपा-माले का कोई बड़ा नेता अन्य मामलों की भांति इस मामले पर बोलना तक जरूरी नहीं समझते ! उन्होंने कहा कि इससे माले नेताओं की पितृसत्तात्मक सोच खुलकर उजागर होती है.


जेएनयू जैसे कैंपस के पितृसत्ता केखिलाफलड़ाई लड़ने और स्त्री-पुरुष समानता की बात करने वाले ज़्यादातर वामपंथी संगठनों ने भी आइसा द्वारा जारी बयान को ही पर्याप्त कार्रवाई मान लिया और अपनी ओर से भी इसी किस्म का बयान जारी कर मामले को चलता करने की कोशिश की. सोशल साइट से लेकर पूरे देश में जब उनकी थू-थू होने लगी तब जाकर घटना के पाँच दिन बाद पुलिस मुख्यालय के समक्ष जैसे-तैसे प्रदर्शन की खानापूर्ति की है.  वहीं छात्र नेता सुमन कुमार और संजीव कुमार ने कहा कि इस पूरे मामले पर जेएनयू के कुलपति ने अब तक जिस किस्म की निष्क्रियता दिखाई है, वह अत्यंत ही शर्मनाक है. विश्वविद्यालय प्रशासन द्वारा बलात्कारी छात्रनेता को न तो जेएनयू से निलंबित किया गया और न ही विवि परिसर में उसके घुसने पर ही कोई प्रतिबंध लगाया गया. ऐसे गंभीर मसले पर कोई कार्रवाई नहीं करना कुलपति की स्त्रीविरोधी मानसिकता को ही उजागर करता है. ऐसे व्यक्ति को कुलपति के पद पर बने रहना पूरे छात्र समुदाय और स्त्रियों के लिए अपमानजनक है. दोनों छात्र नेताओं ने ऐसे व्यक्ति को कुलपति पद से अविलंब हटाने की मांग की.



जबकि छात्र नेता दीपक कुमार एवंराजेश यादव ने कहा कि जिस तरह दिल्ली पुलिस ने पीड़िता की पहचान सार्वजनिक कर आपराधिक काम किया है, ऐसे पुलिस पदाधिकारी को अविलंब बर्खास्त करते हुए उनपर मुकदमा दर्ज कर स्पीडी ट्रायल चलाकर सजा की गारंटी की जाय. दोनों छात्र नेताओं ने कहा कि जिस प्रकार दिल्ली पुलिस आरोपी की गिरफ्तारी में सुस्ती बारात रही थी, ठीक वैसे ही जेएनयू छात्र संघ, आइसा और भाकपा-माले भी सड़क पर उतारने में सुस्त दिखे. इस मामले में दिल्ली पुलिस, जेएनयू विवि प्रशासन के साथ ही आइसा और भाकपा-माले की सक्रियता व संवेदनशीलता सवालों के घेरे में है. ऐसी मानसिकता के साथ ये फ़ासिज़्म से लड़ने के बजाय उसे मजबूत ही करेंगे.  इस मौके पर अंजनी, डॉ. अजीत कुमार सोनू, विकास, राजेश, विकास, जितेंद्र, कृष्ण बिहारी गर्ग, प्रियतम, सचिन, इमरान, पुष्पेश, असीम, अभिषेक सहित दर्जनों छात्र मौजूद थे.

लोहिया का स्त्री विमर्श

$
0
0
मेधा
  आलोचक , सत्यवती महाविद्यालय ,दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाती है . संपर्क :medhaonline@gmail.com

राम मनोहर लोहिया की ख्याति एकराजनेता के साथ-साथ एक मौलिक चिंतक के रूप में है. कोई शक नहीं कि लोहिया का समाज-विवेक बराबरी के न्यायबोध से गहरे भीगा हुआ है. बराबरी का मूल्य ही स्त्री और पुरुष के बीच मौजूद असमानता खोजने के लिए लोहिया को उकसाता है और लोहिया बिना शक इस मामले में अपने समय के चिंतन से कोसों आगे निकल जाते हैं. लेकिन उनके स्त्री विषयक चिंतन पर विचार करने से पहले कुछ ताजा-तरीन आंकड़ों पर गौर करें. विडंबना है कि भारत में जैसे-जैसे समृद्धि बढ़ी है वैसे-वैसे औरतों पर अत्याचार भी बढ़े हैं. नेशनल क्राइम ब्यूरो के आंकड़ें कहतें हैं कि साल 2014 में 36,735 महिलाओं के बलात्कार के मामले दर्ज हुए जो कि 2013 में दर्ज बलात्कार के मामलों से नौ फीसदी अधिक है. लगभग साठ हजार महिलाओं का अपहरण किया गया. साढे आठ हजार महिलाएं दहेज हत्या का शिकार हुईं. और लगभग सवा लाख महिलाएं पति की क्रूरता का शिकार हुईं. आंकड़े यह भी बता रहे हैं कि हम हमारे देश की आर्थिक समृद्धि के आंकड़े भले ही तेजी से न बढ़ रहे हों लेकिन महिलाओं के प्रति हर तरह की हिंसा के आंकड़े साल दर साल बढ़ते ही जा रहे हैं. आज देश भर में प्रतिदिन लगभग 848 महिलाएं बलात्कार का शिकार हो रही हैं.

ये आंकड़े आजादी के सात दशक बादभी स्त्री के शोषण की कथा कहते हैं. शोषण की इस कथा का रूप बदल-बदल कर जारी रहना हमारी सामाजिक संरचना और राजनीतिक व्यवस्था में अंतर्निहित पितृसत्तात्मक मूल्यों को दर्शाता है. लोहिया ऐसे राजनीतिक चिंतक हैं, जो स्त्री के शोषण के कारणों की जड़ पर चोट करते हैं और इसका समाधान स्त्री की राजनीतिक भूमिका में तलाशते हैं. आज से कई दशक पहले जब देश की राजनीति की चिंता में स्त्री विमर्श परिवार नियोजन, स्त्री-शिक्षा, बराबर वेतन आदि के मुद्दों तक सीमित था और स्वयं भारतीय स्त्रीवाद भी अपने राजनीतिक अधिकारों के प्रति सचेत नहीं था, तब ही लोहिया ने भारतीय राजनीति के स्त्री विरोधी स्वर को पहचान कर उस पर प्रहार किया -‘‘देश की सारी राजनीति में, कांग्रेसी, कम्यूनिस्ट अथवा समाजवादी, चाहे जानबूझकर कर या परंपरा के द्वारा, राष्ट्रीय सहमति का एक बहुत बड़ा क्षेत्र है और वह यह है कि शूद्र और औरत को, जो पूरी आबादी के तीन-चौथाई है, दबा कर और राजनीति से दूर रखो.’’ सालों पहले लोहिया का कहा वाक्य आज भी स्त्रियों के संदर्भ में उतना ही सच है, जितना उस समय था. महिला आरक्षण विधेयक का सालों से संसद में अटके रहना इसका प्रमाण है.

औरत और मर्द की गैरबराबरी को लोहिया सभी किस्म की गैरबराबरी का आधार मानते हैं. उनका कहना है-‘‘नर-नारी की गैर-बराबरी शायद आधार है, और सब गैर-बराबरी के लिए, या अगर आधार नहीं है, तो जितने भी आधार हैं, बुनियाद की चट्टानें हैं, समाज में गैरबराबरी की और नाइंसाफी की, उनमें यह चट्टान सबसे बड़ी चट्टान है. मर्द-औरत के बीच की गैर-बराबरी, नर-नारी की गैर-बराबरी.’’ लोहिया के इस कथन में यह बात अंतर्निहित है कि गैरबराबरी का पहला पाठ कोई भी व्यक्ति अपने बालपन के लैंगिक संदर्भ में सीखता है. यह गैरबराबरी या तो भाई-बहन के बीच की होती है या माता-पिता के बीच की या परिवार में किसी अन्य रिश्ते में प्रदर्शित होती है. गैरबराबरी का बीज व्यक्ति के भीतर यहीं से जन्म लेता है और बाद में वह हर तरह की गैरबराबरी में तब्दील होता है. इसीलिए लोहिया को समतामूलक समाज के निर्माण के लिए लैंगिक विषमता को मिटाना अनिवार्य और पहला राजनीतिक कर्म लगता है. तभी उन्होंने कहा है-‘‘कई सौ या हजार बरस से हिंदू नर का दिमाग अपने हित को लेकर गैर-बराबरी के आधार पर बहुत ज्यादा गठित हो चुका है. उस दिमाग को ठोकर मार-मार के बदलना है. नर-नारी के बीच में बराबरी कायम रखना है.’’


लोहिया के स्त्री संबंधी विचार कीखासियत यह है कि वह स्त्री को एक अलग इकाई के रूप में नहीं, वरन समाज के अभिन्न हिस्से के रूप में देखते हैं, जैसा कि आमतौर पर स्त्रीवादी चिंतक नहीं देख पाते. शायद इसीलिए उनके समाधान में वह व्यापकता और स्थायीत्व बहुत नहीं होता जो लोहिया के समाधन में दिखाई पड़ता है. इसका एक प्रबल नमूना है घरेलू हिंसा का. पिछले दो दशकों में घरेलू हिंसा को लेकर नारीवादियों ने काफी आंदोलन किया. संयुक्त राष्ट्र संघ के हस्तक्षेप के कारण सरकार ने भी घरेलू हिंसा संबंधी कानून बनाए. आज घरेलू हिंसा को सामाजिक चौकीदारी से रोकने के लिए ‘बेल बजाओ’ अभियान जोरो पर रहा है. पर लोहिया ने 70 के दशक मंे ही घरेलू हिंसा पर गंभीर चिंता प्रकट की और इस समस्या को केवल स्त्री की समस्या न मानकर उसके मूल कारण तक पहुंचने का प्रयास किया है. भारत में घरेलू हिंसा जितनी मर्दवादी मानसिकता का परिणाम है, उससे कहीं-कहीं ज्यादा घोर विषमता को तरजीह देने वाली सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्था में  है. जिस व्यवस्था में किसी भी तरह से कमजोर व्यक्ति को मानवीय गरिमा के साथ जीने का अधिकार नहीं मिलता, उस व्यवस्था में वह अपने से कमजोर के ऊपर अपनी लाचारी की हिंसा बरसाता है.

 लोहिया के अनुसार ‘‘भारतीय मर्द इतनापाजी है कि अपनी औरतों को वह पीटता है. सारी दुनिया में शायद औरतें पिटती हैं, लेकिन जितनी हिंदुस्तान में पिटती हैं इतनी और कहीं नहीं. हिंदुस्तान का मर्द इतना ज्यादा सड़क पर, खेत पर, दुकान पर, जिल्लत उठाता है और तू-तड़ाक सुनता है, जिसकी सीमा नहीं. जिसका नतीजा होता है कि वह पलटा जवाब तो दे नहीं पाता, दिल में भरे रहता है और शाम को जब घर लौटता है, तो घर की औरतों पर सारा गुस्सा उतारता है.’’ ऐसे में केवल कानून बना देने भर से स्त्री अपने घर में सुरक्षित हो जाएगी या हमें उस व्यवस्था को बदलने के बारे में सोचना होगा जो गैरबराबरी के सारे आयामों को समाप्त कर मनुष्य के भीतर गरिमा, शांति और समरसता की संभावना को पैदा होने दे? यकीनन काननू इस बुराई से लड़ने में तात्कालिक तौर पर मददगार जरूर होगी.लोहिया का स्त्री- विमर्श कई मायनों में अपने समय के नारीवादी विमर्श से कहीं आगे था. लोहिया के नर-नारी संबंधी विचार अपने आप में क्रांतिकारी विचार थे. आज तक समाज की पितृसत्तात्मक संरचना जिस औजार के सहारे स्त्री को अपने अधीन रखती आई है, लोहिया उसी पर चोट करते हैं. देह मानकर उसकी शुचिता में स्त्री को कैद करने का काम किया गया.


प्रकृति ने स्त्री को जो अनुपम याअद्भुत और अद्वितीय सृजन क्षमता दी है, संभवतः उससे ईर्ष्या कर पुरुष ने उसे ही उसकी सबसे बड़ी कमजोरी बनाकर उसे सदियों तक शोषित किया. लोहिया यौन-व्यवहार के दोहरे मापदंडों का कड़ा विरोध करते हैं- ‘‘यौन-पवित्रता की लम्बी-चौड़ी बातों के बावजूद आमतौर पर विवाह और यौन के संबंध में लोगों के विचार सड़े हुए हैं. सारे संसार में कभी न कभी मर्द व औरत के संबंध शुचिता, शुद्धता, पवित्रता के बड़े लम्बे-चैड़े आदर्श बनाए गए हैं. घूम-फिर कर इन आदर्शों का संबंध शरीर तक सिमट जाता है और शरीर के भी छोटे से हिस्से पर.’’लोहिया आधुनिक भारतीय पुरुष के असमंजस को पहचानते हैं, जिसकी नींव अंग्रेजों की औपनिवेशिक मौजूदगी में नवजागरण के समय पड़ी थी. उसे एक ओर तो उसकी संतान को पढ़ा-लिखाकर आधुनिक  बनाने वाली मां चाहिए यानी एक ऐसी औरत जो बुद्धिमान, शिक्षित और चतुर हो. दूसरी ओर वह भारतीय संस्कृति का वाहक भी बने यानी संस्कृति में औरत की जो भूमिका तय की गई है, वह उसका निर्वहन करें. वह सीता और सावित्री की भांति पतिव्रता एवं आज्ञाकारिणी हो.

कहने का आशय यह कि वह उनकेकब्जे में हो. नवजागरण के मनीषियों ने आधुनिक भारत की स्त्री के लिए यही कसौटी तय की थी और यही कसौटी कमोबेश आज तक चल रही है. इसका अच्छा नमूना ‘नारि नर सम होहिं’ का नारा देनेवाले और हिन्दी-नवजागरण के अगुआ भारतेन्दु हरिश्चंद्र के इस कथन में मिलता है-‘‘जिस भांति अंग्रेज स्त्रियां सावधान होती हैं, पढ़ी लिखी होती हैं, घर का काम-काज सम्हालती हैं, अपने संतानगण को शिक्षा देती हैं, अपना सत्व पहचानती हैं, अपनी जाति और देश की संपत्ति-विपत्ति को समझती हैं, उसमें सहायता देती हैं..... उसी भांति आर्यकुल ललना भी करें.......इससे यह शंका किसी को न हो कि मैं स्वप्न में भी यह इच्छा करता हूं कि इन गौरांगी युवती समूह की भांति हमारी कुललक्ष्मीगण लज्जा को तिलांजलि देकर अपने पति के साथ घूमें.’’ लोहिया भारतीय पुरुष की इस फांक को समझते हैं और उस पर चोट करते हैं- ‘‘नर चाहता है कि नारी अच्छी भी हो, बुद्धिमान भी हो, और उसकी हो, उसके कब्जे में हो. ये दोनों भावनाएं परस्पर विरोधी हैं. अपनी किसको बना सकते हो? उस मानी में अपनी, जो हमारे कब्जे में रहे. मेज को अपनी बना सकते हो, कमरे को बना सकते हो, शायद कुत्ते को भी बना सकते हो किसी हद तक. यानी निर्जीव या अगर सजीव भी है, तो किसी ऐसे को ही बना सकते हो, जिसकी सजीवता संपूर्ण नहीं. जिसकी सजीवता संपूर्ण है, उसको अगर अपने अधीनस्थ बना देना चाहते हो, तो फिर वह चपल, चतुर, सचेत, सजीव - सजीव उस अर्थ में  जीव वाले अर्थ में नहीं- जिंदादिल जिन्दा शरीर, तेज बुद्धिमान नहीं हो सकती.’’

लोहिया का स्त्री विषयक चिंतन स्त्रीमात्र पर विचार नहीं करता. स्त्री और पुरुष के बीच कोई जीव विज्ञान आधारित अंतर उनकी समस्या नहीं है. एक राजनीतिक व्यक्ति की तरह लोहिया की चिंता एक राजनीतिक स्त्री की खोज करना है. लोहिया यह खोज देशकाल के बोध से विहीन सिद्धांत-चिंता से नहीं करते. उनकी यह खोज एक राष्ट्रवादी राजनेता की चिंता से उपजी है. जाहिर है स्त्री के आदर्श को खोजते समय वह भारतीय राष्ट्रवाद का पुनर्पाठ करते हैं. इसी पुनर्पाठ का एक उदाहरण है - सावित्री के बरक्स द्रोपदी की एक नई व्याख्या प्रस्तुत करना. यह व्याख्या लोहिया को नवजागरण के दौर के भारत-चेता मनीषियों की परंपरा में रखती है, यानी स्त्री का आदर्श लोहिया भी नवजागरणकालीन चिंतकों की तरह भारत की संस्कृति-कथा के भीतर से ही ढूंढते हैं. लेकिन अनिवार्य रूप से यह परंपरा लोहिया से जुड़कर ‘दूसरी परंपरा’ बन जाती है, यानी लोहिया संस्कृति कथा के भीतर से नवजागरण के दौर के चिंतकों से कहीं अलग अपना आदर्श चरित्र खोजते हैं. एक बानगी देखें- ‘‘द्रौपदी महाभारत की सबसे बड़ी औरत है, इसमें कोई शक नहीं है.महाभारत के नायक का नाम कृष्ण है, उसी तरह  से महाभारत की नायिका का नाम कृष्णा है. कृष्ण-कृष्णा.


आज के हिन्दुस्तान में द्रौपदी की उसीविशिष्टता को मर्द और औरत ज्यादा याद रखे हुए हैं कि उसके पांच पति थे. द्रौपदी की जो खास बातें हैं, उनकी तरफ ध्यान नहीं जाता.दुनिया की कोई औरत, किसी भी देश की, किसी भी काल की ज्ञान, हाजिर-जवाबी, समझ, हिम्मत की प्रतीक उतनी नहीं बन पायी जितनी कि द्रौपदी.’’ लोहिया द्रौपदी के हतप्रभ कर देने वाले व्यक्तित्व को ही भारतीय स्त्री का प्रतीक मानते हैं और भारतीय मानस में बसे सावित्री के प्रतीक के संदर्भ में सवाल उठाते हैं कि क्या कोई पुरुष भी सावित्री की तरह पत्नीव्रता हुआ है? यदि नहीं तो ‘‘फिर इतना साबित हो जाता है कि जब कभी ये किस्से बने या हुए भी हों, तब से लेकर अब तक हिन्दुस्तानी दिमाग में उस औरत की कितनी जबर्दस्त कदर है जो अपने पति के साथ शरीर, मन, आत्मा से जुड़ी हुई है और वह पतिव्रता या पातिव्रत धर्म का प्रतीक बन सकती है. इसके विपरीत मर्द का औरत के प्रति उसी तरह का कोई श्रद्धा या भक्ति या प्रेम या अटूट प्रेम का कोई किस्सा नहीं है.’’लेकिन लोहिया के स्त्री-चिंतन की सीमा भी यही है कि द्रौपदी को भारतीय स्त्री का प्रतीक मानते हुए वह भी अन्य संस्कृतिचिंतकों की भांति स्त्री को राष्ट्रवादी मुखौटे के भीतर रख कर ही देखते हैं, उससे बाहर नहीं .




‘राष्ट्रहित और आरक्षण’

$
0
0
मुन्नी भारती
  मुन्नी भारती, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में शोधार्थी हैं, सामाजिक-सांस्कृतिक आन्दोलनों में भी सक्रिय हैं . संपर्क :munnibharti@gmail.com

आरक्षण की व्यवस्था सामाजिक न्यायकी धारणा के  तहत ही की गई. सदियों से दलित, पिछड़ों और आदिवासियों को वंचित रखने के  लिए तरह–तरह के  हथकंडे अपनाए गए, जिसमें सबसे बड़ा और कारगर हथकंडा ईश्वरीय शक्ति का भय था . इस भय के  कारण इस देश का एक बड़ा हिस्सा दिन–प्रतिदिन बद–से–बदतर जीवन यापन करने को मजबूर होता चला गया. इसी पीड़ादायी जीवन से मुक्ति के  लिए सामाजिक न्याय की अवधारणा सामने आई या यूं कहें कि देश की देश की वो जनता, जिसको हर तरह के  हक अधिकारों  से वंचित किया गया, उन्हीं अधिकारों की प्राप्ति के  लिए सामाजिक व्यवस्था है, जो वंचितों को सामाजिक न्याय दिलाने का सबसे बड़ा हथियार है .आरक्षण का प्रावधान  समता, स्वतंत्रता और बंधुता के  निर्माण के लिए किया गया . संविधान  की धारा 14 के  अनुसार कानून के  समक्ष सब बराबर हैं . डॉ.बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर ने कहा है किequality is coming in the way of equality इसलिए इस देश के  दलित, पिछड़ों और आदिवासियों को गैर बराबरी का दर्जा देना संविधान तथा आरक्षण विरोधी तो है ही, राष्ट्र विरोधी भी है. यह साबित हो चुका है कि सदियों से विसमतामूलक सामाजिक एवं धार्मिक  दंड विधान ने जिन शूद्र–अतिशूद्र एवं स्त्रियों को सभी प्रकार की गारन्टी देने वाली धाराओं की उद्देश्यपूर्ति के  लिए ही आरक्षण की व्यवस्था की गई थी .

भारतीय इतिहास में ज्योतिबा राव फुले सयाजी राव गायकवाड़, चर्मराज वाडयाल, शाहूजी महाराज जैसे अनेक महापुरुष वंचितों के  हक व लड़ाई लड़े हैं. उन्हीं महापुरुषों में से एक उत्तर प्रदेश के  स्वामी अछूतानंद हरीहर थे . 1922 में जब ‘प्रिंस ऑपफ वेल्स’ भारत भ्रमण के  लिए आया तो कांग्रेसियों  ने देशव्यापी स्तर पर प्रोटेस्ट करके  उसका विरोध किया, क्योंकि स्वामी अछूतानंद के  नेतृत्व में दिल्ली के  लालकिला में ‘विराट अछूत सम्मेलन’ का आयोजन किया गया था जिसका चीफ गेस्ट प्रिंस ऑफ वेल्स था. उस सम्मेलन में लगभग पच्चीस हजार दलित भाग लिए थे. प्रिंस ऑफ वेल्स का दलितों ने भव्य स्वागत किया और उसके  सामने अछूतानंद ने ‘मुल्की हक’  का मांग पत्र रखा कि अछूतों को हर क्षेत्र में अधिकार दिये जाएं, जिससे उन्हें शोषण से मुक्ति मिलें. उस समय कई मांगें मान ली गई थीं और अनेक राज्यों में लागू भी हुई थीं. 1931–32 में बाबा साहब डॉ. आंबेडकर  ने व्यापक स्तर पर संवैधानिक रूप से आरक्षण के  लिए जो संघर्ष किया वह अद्वितीय है. निश्चित रूप से आरक्षण लागू करवाने में बाबा साहब का रोल सबसे बड़ा है .विश्व में जहां कहीं भी सामाजिक असमानता या रंगभेद है, वहां आरक्षण है. भारतीय समाज–व्यवस्था तो जातिगत भेदभाव का पिटारा है.

जापान में ऊँच–नीच की भावना के तहत बराकुमीन, योरोप में अफरमेटिव एक्शन, चीन में आदिवासियों और अमेरिका में रंगभेद, नस्लभेद पर आधारित ‘रिवर्स डिस्क्रीमीनेशन’ तथा डाईवर्सिटी नामक आरक्षण प्रणाली लागू है. वहां उनकी जनसंख्या के आधार पर सभी प्रकार के  ठेकों, सप्लाई आदि में आनुपातिक हिस्सेदारी दी जाती है. अश्वेत अफ्रोअमेरिकनों  को कम ब्याज पर ऋण  तथा उनके  बच्चों को शिक्षण संस्थानों में आरक्षण दिया जाता है. यदि आरक्षण से योग्यता या दक्षता में कमी आती और उसके  कारण देश का विकास रुक जाता, तो आजतक वे देश गर्त में जा चुके  होते, लेकिन नहीं आज वो विकसित देश हैं और उल्टे योग्यता का डंका पीटने वाला भारत आज भी अविकसित की श्रेणी में खड़ा है. बाबा साहब ने इजराइल के  यहूदियों के  बारे में बहुत ही रोचक तथ्य बताया है. यहूदियों के  साथ इसलिए अत्याचार होता है कि वहां के  बाकी क्रिस्चन  यहूदी लोगों को अपने में मिलाना चाहते हैं. लेकिन भारत में बिलकुल उल्टा है. यहां वंचित समाज मिलना चाहता है इसलिए अत्याचार का शिकार होता है. अभी तक तो जिन्होंने देश को बांटकर रखा है वही राष्ट्र निर्माता के  प्रभु बने बैठे हैं .अब सवाल यह है कि राष्ट्र है क्या ? क्या राष्ट्र में रहने वाले सब लोग हैं या राष्ट्र की मिट्टी है, या राष्ट्र वन, पर्वत, नदी, पशु–पक्षी है, या कुछ लोग हैं जिनसे राष्ट्र का निर्माण होता है ?

यदि सभी लोग राष्ट्र के  लोग हैं, तोदो बिन्दुओं पर विचार करना होगा . एक-राष्ट्रहित का मतलब सबका हित या कुछ लोगों का हित . यदि सबका हित है, तो सबमें दलित आदिवासी भी शामिल है . यदि मुख्य मुद्दा यह है कि दलित राष्ट्र के  भीतर है या राष्ट्र के  बाहर ? यदि राष्ट्र के  भीतर मानते हैं तो यह भी मानना पड़ेगा कि उनका हित राष्ट्र का हित है . यदि दलितों को राष्ट्र से बाहर माना जाता है तो अप्रत्यक्ष रूप से इस बात पर जोर दिया जा रहा है कि भारत को दो राष्ट्र की जरूरत है . एक हिदू राष्ट्र तथा दूसरा हिन्दू शासक . यदि दलितों को राष्ट्र का अभिन्न अंग मानकर समान नागरिकता की बात हो रही है, तो सबके  साथ समानता का व्यवहार होना चाहिए . समान नागरिक से ही समान नागरिकता का निर्माण होता है जब हम राष्ट्रहित की बात करते हैं, तो इसका मतलब होता है सभी नागरिकों का हित . राष्ट्रहित को ध्यान में रखते हुए देश के  सभी नागरिकों को उनकी संख्या के  अनुपात में देश की सम्पत्ति आवंटित होनी चाहिए . यदि एक को सौ प्रतिशत दे दिया गया और दूसरे को कुछ भी नहीं, ऐसा करना तो सरासर अन्यायपूर्ण और बेईमानी है . जहां संख्याआधारित भागीदारी सुनिश्चित हो वहीं न्यायपूर्ण आवंटन है .इस आधार पर क्या दलितों को देश की सम्पत्ति का न्यायपूर्ण वितरण किया गया है ? उनकी संख्या के  आधार पर आरक्षण के  अंतर्गत क्या उन्हें बराबरी का अधिकार मिला है ? यदि नहीं, तो देश का नागरिक होने के  कारण उनका पूरा अधिकार  है कि उन्हें बराबरी का हिस्से मिले .


 यदि राष्ट्र सब नागरिकों से मिलकर बनताहै तो उसकी भागीदारी भी बराबर की होनी चाहिए, कम या ज्यादा नहीं . कम करेंगे तो एक के  प्रति अन्याय है और ज्यादाा करेंगे तो दूसरे के  प्रति अन्याय होगा . इसलिए कम और ज्यादा वाला अन्यायपूर्ण व्यवस्था को हटाकर सही अनुपात के  हिसाब से आवंटन होना चाहिए . देश का 15 प्रतिशत आबादी यह दावा करता है कि आरक्षण से समाज में खाई बन रही है . हमारा हक मारा जा रहा है . देश की एकता अखंडता बाधित हो रही है . जहां तक समाज में खाई बनने का सवाल है, तो वे लोग आंकड़े उठाकर देख लें जहां–जहां जिस अनुपात में आरक्षण बढ़ा वहां दक्षता एवं प्रशासनिक क्षमता के  साथ–साथ सामाजिक स्तर में भी वृद्धि  हुई . किसी भी राष्ट्र की सम्पूर्ण उन्नति और विकास तक संभव होता है जब उस राष्ट्र से रहने वाले व्यक्तियों द्वारा सामूहिक तथा बराबरी का भागीदारी हो . अन्यथा कुछ मुट्ठी भर लोगों की योग्यता, दिमाग, क्षमता और प्रशान से राष्ट्रहित नहीं साधा  जा सकता . मिसाल के  तौर पर आजादी के  बाद सबसे पहले दक्षिणी राज्यों आंध्रप्रदेश, कर्नाटक, केरल, तमिलनाडू में आरक्षण लागू हुआ . वहां का शैक्षणिक स्तर प्रशासनिक क्षमता एवं ईमानदारी उन राज्यों से कई गुना अच्छा है जिन राज्यों में आरक्षण ठीक से लागू नहीं हुआ . जहां भी जिस क्षेत्र में किसी एक जातिविशेष का वर्चस्व रहा है वहां भ्रष्टाचार, जातिवादी भेदभाव,धांधली बड़े पैमाने पर हुई है .

जब पुलिस, वकील, जज, जेलर, जल्लादएक ही बिरादरी का होगा, शोषित को कैसे न्याय मिलेगा भारत में जब तक जाति आधारित डाईवर्सिटी नहीं होगी तब तक न तो समतामूल समाज बन सकता है और न ही राष्ट्र उन्नति कर सकता है . सभी को उनके  जीवन के  हर क्षेत्र में हिस्सेदारी दे दी जाए तो आरक्षण विरोधी  और आरक्षण समर्थक झमेला ही खत्म हो जायेगा . देश में जितने भी अस्मितामूलक आंदोलन चल रहे हैं सबके  मूल में मनुवादी बदनियति है . जिस दिन इनकी नियत साफ  हो जाए उस दिन सही मायने में राष्ट्र निर्माण होगा . अभी तो बहुजनों को खुद का हिस्सा नहीं मिल पा रहा हे जिसके  लिए वे संघर्षरत हैं तो दूसरों का हक कैसे मार रहे हैं और यदि हक नहीं मारा गया है .आरक्षण का सवाल सीधे देश की एकता और अखण्डता से जुड़ा है.  आरक्षण मिलने से इस देश के बिखरे लोगों को यह लगने लगा कि हम भी इस देश के वासी हैं.  जिस देश में मानव-मानव में भेद हो, एक को उच्च स्थान प्राप्त हो और दूसरे को न खाना अच्छा मिलता हो, न रहने की जगह हो, न कपड़े पहनने की आजादी हो, न अभिव्यक्ति की आजादी हो, न शिक्षण संस्थाओं में जाने दिया जाता हो और न ही नौकरियों में भागीदारी हो.  वह दूसरा व्यक्ति कैसे  महसूस करेगा कि यह देश मेरा भी उतना ही है जितना अन्यों का ?इसी भेदभाव के आधार पर बाबा साहब ने कहा था कि हमारा कोई देश नहीं.  यह आरक्षण का ही कमाल है कि इस देश के  एक बहुत बड़े वंचित समाज को राष्ट्रहित में जोड़ा.

इतिहास गवाह है कि इस देश का सबसेमेहनतकश और मेरिट वाला बहुजन समाज रहा है.  खेत में अन्न उपजाना हो, भट्टे पर ईट बनानी हो, अच्छे फैशनेबल ड्रेस तैयार करना हो, खाद्य सामग्री को निर्यात योग्य बनाना हो,सब तो बहुजन समाज के  स्त्राी-पुरुष ही अपने खून-पसीने से पैदा करते हैं और राष्ट्र के उत्पादन में अपनी महती भूमिका निभाते हैं, लेकिन इसका फायदा तो मलाईदार ही उठा रहा हे.  एक पिता के चार बेटों में से एक ने तीन का हिस्सा हड़प लिया.  घर में समान बंटवारे के  लिए कलह तो होगा ही होगा.  भाई-भाई के बीच खाई बनाने का काम तो उस बेईमान भाई ने किया जिससे सबमें वैमनस्य पैदा हुआ.  ठीक ऐसे ही इस देश की एक छोटी जनसंख्या ने बड़े जनसमूह का हिस्स हड़प लिया और उस समूह को गरीब, लाचार, भूखा, दुरवा, नंगा रहने को मजबूर किया.आज भी अधिकांश आदिवासियों की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं होती है.  प्राकृतिक संसाधनों से जैसे-तैसे अपना पेट भरते हैं, अपने तन को ढंकते हैं, कन्दराओं में जीवन यापन करते हैं.  आखिर उनका हिस्सा गया कहाँ? क्या उन्हें देश का नागरिक समझा गया है? कुछ सवालों पर हमें गहराई से सोचने की जरूरत है.  दरअसल आरक्षण की वजह से एस.सी., एस.टी. और ओबीसी में सामूहिक भावना का विकास हुआ है.  वे एक जुट हुए हैं.  इसलिए गैर दलितों की असली पीड़ा आरक्षण से कम दलित-पिछड़ों का एकजुट होना और जातिवाद घटने से ज्यादा है.


भारत के गाँव खण्ड-खण्ड में बँटेहुए हैं.  जिस गाँव में जितनी जातियाँ हैं उतने ही जाति आधारित टोले हैं.  एक गाँव को अखण्ड बना नहीं सकते तो क्या अखण्ड भारत को संकल्पना शेष बचती है ‘अनेकता में एकता भारत की विशेषता’ कोरी जुमलेबाजी है.  सच्चाई तो ‘अनेकता में भी विविधता’ है.  अखंड राष्ट्र निर्माण की भावना को व्यक्त करते हुए काशीराम ने कहा था- हमारे  शासन में लोग पूजाघरों या घर के देहरी के अन्दर हिन्दू, मुसलमान आदि रह पायेंगे लेकिन देहरी के बाहर उनको भारतीय होकर निकलना पड़ेगा. एक दलील यह भी दी जा रही है कि आरक्षण से अयोग्य लोग आते हैं. आरक्षित सीटों पर नौकरी करने वाले सारे के  सारे तो अयोग्य नहीं होते, वैसे ही जैसे सभी नौकरी करने वाले सवर्ण योग्य नहीं होते.  आज यदि एक दलित की बेटी टीना डाॅबी सामान्य सीट से देश की सर्वोच्च परीक्षा टाॅप करती है तो वह अयोग्य कैसे हुई? क्या सिर्फ उसकी जाति के  नाम पर उसे अयोग्य घोषित करना राष्ट्रीयता है? यदि नहीं, तो निश्चित रूप से उसने अयोग्यता का राग अलापने वालों की
मानसिकता को धवस्त किया और देश का नाम विश्व स्तरपर ऐतिहासिक रूप से गौरवान्वित किया है.  उसने हरियाणा जैसे राज्य में स्त्री समस्या पर कार्य करने का साहस दिखाया है.  इससे बड़ी योग्यता और राष्ट्रहित दूसरा क्या हो सकता है ? इस देश में जातीय शोषण बड़े पैमाने पर होता है लेकिन जैसे ही आरक्षण आया, आरक्षण से शिक्षा मिली, फिर नौकरी मिली, व्यक्ति का जीवन स्तर बदला और थोड़ा-सा बदलाव सामाजिक परिस्थितियों में भी हुआ.  जिन दलितों की सामाजिक हैसियत और आर्थिक पक्ष मजबूत है उनका शोषण अपेक्षाकृत गरीब दलितों से कम होता है.

आरक्षण आने से समाज पर गुणात्मकप्रभाव पड़ा जिससे जातिआधारित शोषण और अपराधों में कमी आई.  इससे भारत की छवि राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर सुधरी या बिगड़ी ? जाहिर-सी बात है सुधरी.जब छवि सुधरी तो अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर एक बेहतरीन संदेश पहुंचा.  यह भी एक तरह से राष्ट्रहित है. फिर आरक्षण से देश का नुकसान कहाँ हो रहा है ? कुछ लोगों का आरोप है कि आरक्षण का लाभ ऊँचे  पदों पर पहुँचे हुए सम्पन्न दलितों को ही मिल रहा है, जो गरीब दलित हैं वे लाभ लेने से वंचित रह जा रहे हैं.  ऐसा आरोप जातिवादी सोच की उपज है.  यह तर्क तब लागू होता है जब आरक्षित सीटें पूरी तरह भरी जातीं.  बहुजन समाज से आने वाले असंख्य लड़के -लड़कियां, स्त्री -पुरुष उच्च शिक्षा प्राप्त करने के  बावजूद नौकरी की तलाश में इधर-उधर भटक रहे हैं.  उच्च शिक्षण संस्थाओं में तथा अन्य जगहों पर लाखों बैकलाॅक की सीटें ‘नाट फाउंड सूटेबल’ घोषित कर खाली रखी गयी हैं.  जो लोग उपर्युक्त आरोप लगा रहे हैं क्या उन्होंने इसके  लिए हाय-तौबा मचाई कि आरक्षण एक संवैधानिक व्यवस्था है इसे हर हाल में लागू किया जाना चाहिए? दूसरी महत्त्वपूर्ण बात कि क्या ऊँचे  पदों पर पहुँचने मात्रा से जाति खत्म हो जाती है? जब कोई ब्राह्मण, क्षत्रिय, कायस्थ, बनिया ऊँचे पदों पर आसीन होता है तो उसे जातिवाचक सम्बोधन न देकर पूरे देश का कर्णधार कहा जाता है. लेकिन जब कोई बहुजन समाज में विभूति पैदा होती है, राष्ट्रनिर्माण में अपना बहुमूल्य योगदान देता है, अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त करता है पिफर भी उसे दलित मसीहा, दलित राष्ट्रपति, दलित मुख्यमन्त्राी, दलित चिन्तक, दलितसमाजशास्त्री आदि जातिवादी सम्बोधनों सेप्रचारित किया जाता है.


जब तक इस जातिवादी सोच में परिवर्तननहीं होगा तब तक दलित आरक्षण में कोई बदलाव सम्भव नहीं हो सकता. आरक्षण का सवाल आर्थिक सम्पन्नता- विपन्नता या अमीरी-गरीबी नहीं है. इसका मूलाधार सामाजिक और धार्मिक भेदभाव है. ऊँचे पदों पर आसीन बाबू जगजीवन राम, पीपल.पुनिया, जीतनराम मांझी आदि के साथ जो सामाजिक और धार्मिक दुर्व्यवहार हुआ वह सर्वविदित है. ऐसी शर्मनाम और मूर्खतापूर्ण अनेक घटनाएँ रोज घटती हैं. इसलिए आरक्षणका सम्बन्ध सामाजिक न्याय और धार्मिक न्याय से है न कि आर्थिक.एक और महत्त्वपूर्ण तथ्य जिस पर विचार करने की जरूरत है. कुछ लोग यह भी तर्क देते  हैं कि गैर-दलितों में भी गरीबी है. इसमें कोई दो राय नहीं है, लेकिन यह अंशतः सही है पूर्णरूपेण नहीं. गैर दलित जो ऊँचे पदों परबैठा हुआ है, हजारों बिघे जमीन का मालिक है, देश-विदेश में अरबों की सम्पत्ति बनाया है.क्या वो सवर्ण अपने उन गरीब भाइयों कोअपनी अर्जित सम्पत्ति में हिस्सेदार बनाया है? जो गाँवों में पूजा कराकर कथा बाँचकर तथा यजमानी प्रथा से अपना घर चला रहा है.इसका एक बहुत अच्छा उदाहरण है नेपाल का पशुपति मन्दिर.उस मन्दिर में सिर्फ महाराष्ट्र का नम्बूदरीपाद ब्राह्मण ही मठाधीश बनता है,किसी अन्य गोत्र का ब्राह्मण नहीं. जो उनके अन्दर की खाई है उस पर भी सवाला उठने चाहिए. अभी मुट्ठीभर बहुजन आगे आये हैंउसी में भ्रम फैलाया जा रहा है जिनकेअधिकार का एक प्रतिशत भाग भी उन्हें मिला नहीं है. बहुजन आरक्षण के  कारण देश खंडित नहीं हुआ है, बल्कि शैक्षणिक अनुपात बढ़ा है, राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर आर्थिक व्यवस्था सुदृढ़ हुई है, बहुजन समाज के  स्त्री-पुरुष ने हर क्षेत्र में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान देकर देश को विश्व पटल पर गौरवान्वित किया है.



प्रेम का मर्सिया

$
0
0
मंजरी श्रीवास्तव
युवा कवयित्री मंजरी श्रीवास्तव की एक लम्बी कविता 'एक बार फिर नाचो न इजाडोरा'बहुचर्चित रही है संपर्क : ई मेल-manj.sriv@gmail.com

एक अज्ञेय और रहस्यमय फ़रिश्ते-सा
नीली आँखों वाला वह ख़ूबसूरत अजनबी
मिल गया मुझे सरेराह किसी समंदर किनारे.
समंदर की लहरों और वाल्टर रूमेल के पियानो की धुनों के साथ
अपनी उँगलियों के स्पर्श से निकलते नैसर्गिक संगीत से झंकृत कर दिया उसने मुझे और
तरंगित कर दिए मेरी मन-वीणा के तार और
उतर गया एक मधुर संगीत-लहरी के साथ मेरे जिस्म में...मेरी रूह में.
हमारी आत्माएं जुड़ गईं एक-दूसरे से किसी रहस्यमयी शक्ति के माध्यम से
हमारी युवा भुजाएं प्रेम के पंखों में तब्दील होने लगीं धीरे-धीरे और
अस्त होते सूर्य की समुद्र पर पड़ती सुनहरी-नारंगी किरणों की पृष्ठभूमि में नाच उठे हम.
मेरे जीने की उमंगों को एक बार फिर भर दिया उसने
पूरे उत्साह और पूरी तन्मयता से
और मेरी भावनाओं को दिए नए आयाम
मेरी कविताओं में रंग भरने लगे
नाच उठी मैं अपने गीतों में अपनी उन मुद्राओं के साथ
जो आकर्षित करती प्रतीत होती हैं
अंतरिक्ष से ऐसी काल्पनिक चीज़ों को
जो हमें जीती-जागती लगने लगती हैं.
दुनियावी चीज़ों की तरह
खेलने लगी मैं
छायाओं और बिम्बों का चमत्कारी खेल
न जाने कितनी ही बार घुली-ढली मैं
अपनी ही देह में.
मैं हवाओं से वे बातें करने लगी थी
जिन्हें सुनने के लिए तड़पता था वह
और मेरे आने से पहले तक शायद सपने में भी नहीं सोचा था उसने इन बातों के बारे में.
ज्यों-ज्यों वह बतलाता जा रहा था जीवन का रहस्य
अपनी अधमुंदी-अधखुली पलकों को झपकते हुए
मेरी भी चिरंतन, उसकी आँखों में झांकती आँखें
टपका रही थीं
एक बिलकुल नए रचे हुए जिस्म की आँखों में झांकते रूह का प्रेम.
मेरी देह में बज उठी बीथोवन की नौवीं सिम्फ़नी और नाच उठी मेरी कविताओं में भविष्य की नर्तकी
लेकिन वह दिन धीरे-धीरे आने लगा था जब मेरे पुकारते रहने पर भी

वह विलीन हो जाता था समंदर की लहरों में
मेरे ही सामने से गुज़र जाता था अक्सर
किसी का हाथ पकडे दौड़ते हुए.
मेरा जिस्म अब ताबूत में तब्दील होने लगा था
जिसमें वही ठोंक रहा था कीलें
मेरे दिल पर पड़नेवाली हर एक चोट
बज रही थी प्रलाप के आख़िरी वाद्य-सी.
कोंते रॉबर्त द मान्तेस (सौंदर्य की महिमा का रसीला बखान करनेवाला कवि) की कविताओं-सरीखी मैं
अब उधेड़ी जा रही थी.
होने लगी थी शिथिल और असहाय
मेरी आँखें आंसुओं की जगह ख़ून बरसाने लगी थीं और मैं तब्दील होती जा रही थी धीरे-धीरे
शहादत की मज़ार में
पल-पल मृत्यु को अपनी आगोश में समेटे
रिसते घावों की एक अंतहीन श्रृंखला लिए
बदलने लगा था मेरा अलौकिक संगीत पीड़ा के प्रलाप में
पीड़ा और कराहों के मरघट में खड़ी मैं
गाने लगी थी मौत का कारुणिक गीत
पढने लगी थी मर्सिया.
उसके सुलगते आलिंगनों और दहकते प्रेम को तृप्त करती रही मैं अपनी आहत आत्मा और देह की पूरी ताकत से.
देती रही उसे
प्यार...प्यार...प्यार...और...और ज़्यादा प्यार.
पर इस क्रम में चलना पड़ा मुझे बर्फ़ की-सी आंच पर
किसी साज़ के तार की तरह बार-बार टूटती रही मैं प्रेम के संगीत-पद के बींचोंबीच.
अपनी इस पीड़ा भरी मनोदशा के दौरान भी
मैं तलाशती रही नई अभिव्यक्तियाँ
ख़ुद को परिभाषित करने के लिए.
प्रेम को लेकर एक बार फिर मैं धोखे में थी.
जिस फ़रिश्ते को मैं जानती थी
वह आकंठ डूबा था...भरा था विनम्रता और मिठास से
पर उसके पास एक गहरी दृष्टि भी थी चाहत और उन्माद से भरी.
वह शब्दों के पार देख सकता था.
संगीत में उन्माद के अर्थ को व्याख्यायित कर सकता था.
एक सनक भरे पागलपन के साथ जब वह बजाता था एक वाद्यंत्र की तरह मुझे
तो मेरी मसें भींगने लगती थीं
रगें निचुड़ने लगती थीं
आत्मा विद्रोह करने लगती थी.
मेरी आँखों की पुतलियाँ कामनाओं से भर जाया करती थीं लबालब
पर ज्योंही छलकने को होती थीं ये कामनाएं
होने लगती थी एक वितृष्णा-सी मुझे उससे.
मुझे पता था कि
उसके प्रेम में मैं जलते हुए कोयलों पर थिरक रही थी
लेकिन उसी एक लम्हे में
चल भी रही थी समुद्र पर
उड़ रही थी हवाओं के पार...आसमान से परे भी
अपनी पूरी पीड़ा और पूरे उल्लास के साथ.
मेरे भीतर अब एक प्रेमिका मरने लगी थी और जन्म ले रहा था एक हत्यारा शैतान
जो रोज़ क़त्ल करता रहता था ख़ुद का ही लम्हा-लम्हा
जैतून के फूलों-से हल्के सफ़ेद प्रेम-पंख
अब सफ़ेद बर्फ़ में तब्दील होने लगे थे
आहिस्ता-आहिस्ता.  

मुख्यमंत्री जी शराबबंदी से महिला उत्पीडन बंद नहीं होता: महिला छात्र नेता का पत्र नीतीश कुमार के नाम

$
0
0
रिंकी कुमारी
रिंकी कुमारी भागलपुर विश्वविद्यालय में छात्र नेता हैं. संपर्क: 7250174419
माननीय मुख्यमंत्री, बिहार

पिछले 5 अप्रैल 2016 से आपकी सरकार नेराज्य में पूर्ण शराबबंदी लागू किया है. लेकिन, सच यह है कि शराब ‘बंद’ नहीं हुआ है. शराबबंदी के मसले पर राजनीतिक शोर ज्यादा है. खास तौर पर सरकार और अन्य राजनेताओं के रोज-ब-रोज के बयानबाजियों में शराबबंदी की चर्चा हो रही है. मानो और कोई मसला ही नहीं है! नीतीश जी, आप कह रहे हैं कि “मैं जब 17 साल का था, तभी से शराब पीकर लोगों को लड़ते-झगड़ते देखता था. तभी से मेरे मन में यह बात थी कि शराब बुरी चीज है.” आप कहते हैं कि, “गांधी जी शराब को एक बीमारी मानते हैं. इस बीमारी का ईलाज करना होगा.” लेकिन आपकी किशोराव्यवस्था की अच्छी सोच और गांधी के विचारों के प्रति प्रेम पिछले 10 वर्षों में नहीं देखा गया. पिछले विधानसभा चुनाव में आपने पूर्ण शराबबंदी को घोषणापत्र में शामिल किया. नीतीश जी, सत्ता व शासकों को भूलने की आदत होती है, लेकिन जनता नहीं भूलती है, वह भी महिलाएं तो हरगिज नहीं! बिहार की महिलाओं – आम अवाम को अच्छी तरह याद है कि पिछले 10 वर्षों में शहर से गांव तक गली-मोहल्लों, स्कूल-कॉलेजों, मंदिर-मस्जिदों और अस्पतालों तक के नजदीक शराब की वैध-अवैध दुकानों-भट्ठियों को आपने फैलने की छूट दी. खुलकर शराब दुकान का लाईसेंस बांटा गया. तबाही-बर्बादी और जहरीली शराब से मौत व जनसंहारों का सिलसिला चलता रहा.

नीतीश जी, बिहार में शराब का दरिया बहानेकी नीतियों के खिलाफ शहर से गांव तक महिलाओं ने जबर्दस्त लड़ाइयाँ लड़ी हैं और उनकी लड़ाइयों ने ही अंततः आपको पूर्ण शराबबंदी को लागू करने की ओर धकेला है. पिछले 10 वर्षों में अवैध शराब भट्ठियों को तोड़ने से लेकर स्कूल-कॉलेजों, मंदिर-मस्जिद से लेकर अस्पताल तक के निकट शराब की दुकानों के खुलने के खिलाफ महिलाओं ने जुझारू लड़ाइयाँ लड़ी हैं. सरकारी कार्यालयों से लेकर राजधानी पटना तक की सड़क पर लगातार आवाज बुलंद की है. महिलाओं की जुझारु लड़ाइयों और 2012 के अंतिम महीनों में जहरीली शराब से गरीबों के कई एक जनसंहारों ने पूर्ण शराबबंदी को बिहार के जनसंघर्षों और राजनीति के महत्वपूर्ण प्रश्न के रूप में सामने ला दिया. नीतीश जी, आपको यह भी याद होगा कि शराब का दरिया बहाने से भर रहे सरकारी खजाने से स्कूली लड़कियों ने साईकिल लेने से भी कई जगह मना किया था. आप शराब से हासिल राजस्व से साईकिल बांटने की बात करते थे. आपको याद ही होगा कि मुजफ्फरपुर में एक बुजुर्ग समाजवादी नेता हिंदकेशरी यादव सहित महिलाओं पर जिलाधिकारी कार्यालय परिसर में शराब माफियाओं ने हमला किया था.

मुख्यमंत्री जी, महिलाओं के साथ समाज केबड़े हिस्से के विक्षोभ और पूर्ण शराबबंदी के राजनीति के केंद्र में आ जाने के बाद ही आपने चुनावी फायदा लेने की मानसा के साथ यू-टर्न लेते हुए पूर्ण शराबबंदी का वादा किया. लेकिन चुनाव बाद स्पष्ट हो गया कि आपकी मानसा साफ नहीं है. चुनाव जीतने के बाद आप चरणबद्ध तरीके से शराबबंदी लागू करने की बात करने लगे. देशी-विदेशी के लिए अलग-अलग नीति की घोषणा करने लगे. विदेशी को छूट और देशी पर प्रतिबंध की बात आपने की. विदेशी शराब की दुकानों को लाईसेंस देने व रिन्युअल की प्रक्रिया के बीच ही महिलाओं के प्रतिवाद और राजनीतिक आलोचनाओं ने आपको पूर्ण शराबबंदी के चुनावी वादे को लागू करने की घोषणा के लिए बाध्य किया. मुख्यमंत्री जी, आप कह रहे हैं कि पूर्ण शराबबंदी के लागू होने के बाद महिलाओं के चेहरे पर खुशी है. घरेलू हिंसा, महिला उत्पीड़न में कमी आई है. लेकिन हकीकत क्या है? नीतीश जी, शराब महिलाओं के साथ घर से बाहर तक जारी हिंसा में निर्णायक पहलू नहीं है. महिलाओं के साथ जारी हिंसा में निर्णायक पहलू पितृसत्ता होती है. इसलिए शराबबंदी के लागू होने से महिलाओं के साथ जारी हिंसा में बड़ा फेरबदल नहीं हो सकता है. खैर, आपको तो आंकड़ों से खेलने में महारत हासिल है. नीतीश जी, आप तो शराबबंदी को ऐसे पेश कर रहे हैं, मानो सारे मर्ज की एकमात्र यही दवा है.


खैर, व्यवहार में शराबबंदी किस हद तक लागू हो रहा है, यह आपके लिए महत्वपूर्ण नहीं है. आपके लिए अब यह एक राजनीतिक हथकंडा बन गया है. आप इसे जनता के अन्य सारे महत्वपूर्ण सवालों को दबाने का औज़ार और बिहार से बाहर यू.पी. और दिल्ली के लिए राजनीतिक सवारी बनाने की कोशिश कर रहे हैं. नीतीश जी, सच यही है कि नीतिगत तौर पर आपने पूर्ण शराबबंदी लागू कर दिया है, लेकिन शराब ‘बंद’ नहीं हुआ है, चालू है. हां, सड़कों पर शराबियों की जमात व शराब दुकानों के इर्द-गिर्द की अड्डेबाजी नहीं दिख रही है. हां, अब शराब सभी को सर्वसुलभ नहीं है. अब पूरे कारोबार ने अवैध स्वरूप ग्रहण कर लिया है. शराब माफिया की पैदावार बढ़ गई है. रोज-ब-रोज शराब के पकड़े जाने की खबरें आ रही है. अवैध भठ्ठियां चल रही है. हां, पहले भी डुप्लीकेट विदेशी शराब व भट्ठियों में निर्मित जानलेवा देशी शराब का कारोबार था, अब ज्यादा फल-फूल रहा है. झारखंड, उत्तरप्रदेश, पश्चिमबंगाल और नेपाल से तस्करी की खबरें आ रही है.

मुख्यमंत्री जी, गोपालगंज में जहरीली शराबसे हुए जनसंहार ने पुराने दौर की यादें ही ताजा नहीं करायी है, बल्कि पूर्ण शराबबंदी की पोल भी खोल दी है. 18 गरीब-दलित-अति पिछड़े जहरीली शराब से मारे गये. गोपालगंज शहर के खजूरबानी में पुलिस-प्रशासन के नाक के नीचे शराब की भट्ठियां चल रही थी. जहरीली शराब से मौत का सिलसिला शुरू हुआ तो शुरुआती दौर में स्थानीय प्रशासन, सदर अस्पताल और उत्पाद विभाग ने जहरीली शराब से हो रही मौत के सच पर पर्दा डालने की कोशिश की. उत्पाद विभाग ने स्पष्ट तौर पर कहा कि जहरीली शराब से मौत नहीं हुई है. स्थानीय सदर अस्पताल की भूमिका बहुत ही शर्मनाक ढंग से सामने आई. जहरीली शराब के शिकार गरीबों के परिजनों को सिविल सर्जन ने फंसने व जेल जाने का भय दिखाया. ईलाज में गंभीरता नहीं दिखाई. शराबबंदी के कठोर कानून के भय से कई एक तो अस्पताल ही नहीं पहुंचे, जिससे मृतकों की संख्या बढ़ गई. कई एक का बिना पोस्टमार्टम किये दाह संस्कार कर दिया गया. खजूरबानी की महिलाओं ने पूर्ण शराबबंदी के लागू होने पर सवाल खड़ा किया है. बाद में सच्चाई को कबूल किया और नगर थाना प्रभारी के साथ पुलिसकर्मियों के निलंबन और भट्ठियों के संचालन व कारोबार से जुड़े लोगों की गिरफ्तारी व सामूहिक जुर्माने की सजा की कार्रवाई आगे बढ़ी. लेकिन क्या दोषी केवल वही हैं जिसे आप सजा दे रहे हैं? जवाबदेही इसी दायरे तक सीमित है क्या?

कहा जा रहा है कि पूर्ण शराबबंदी के लागू होने के बाद 40 लोगों की मौत जहरीली शराब से हुई है.
मुख्यमंत्री जी, शराबबंदी केवल कठोर कानून बनाकर पुलिस के भरोसे लागू होने की दिशा में नहीं बढ़ेगा! कठोर क़ानूनों से कौन खेलते हैं और कौन कीमत चुकाते हैं, यह तो दिन के उजाले की तरह साफ है! केवल एक भागलपुर जिले में 5 अप्रैल के बाद 240 लोग जेल भेजे गये हैं, जिसमें से ज़्यादातर गरीब-दलित-आदिवासी व कमजोर समुदाय से आने वाले ही लोग हैं. गिरफ्तार लोगों में 90 प्रतिशत पीने वाले हैं. शराबबंदी कानून के तहत बिहार के 16 गांवों पर हाल तक सामूहिक जुर्माना लगाया गया है. ये सारे गांव दलितों-गरीबों के हैं. क्या मान लिया जाय कि पीने, कारोबार करने और बनाने वालों में केवल समाज के हाशिए का हिस्सा है? यह मज़ाक ही होगा! बड़े लोगों तक तो पुलिस व उत्पाद विभाग पहुँच भी नहीं पा रहा है. मुख्यमंत्री जी, जब आप बिहार में वाइन कल्चर को मजबूत कर रहे थे. शहर से गांव तक दरिया बहा रहे थे. तो आपको भी पता होगा कि इसके लाभुक कौन थे? यह किन ताकतों के हित में हो रहा था? हां, पीने वाले के विस्तृत दायरे में ‘खास’ के साथ ‘आम’ बढ़ रहे थे. यह तो स्पष्ट है कि वैध-अवैध निर्माण व कारोबार के लाभुकों की कैटेगरी में थैलीशाह, माफिया, राजनेता व पुलिस-प्रशासन शामिल था.


छोटे पैमाने पर भी चोरी-छिपे दारु चलाने व बेचने का धंधा भी तो पुलिस की सरपरस्ती में ही चलता था. क्या ‘बड़ों’ का गठजोड़ शराब के वैध-अवैध कारोबार से अलग-थलग हो गया है? अभी जो पड़ोसी राज्यों से तस्करी व अवैध निर्माण चल रहा है, इसमें वे सब शामिल नहीं हैं? क्या यह संभव है? यह स्पष्ट है कि किसी किस्म का अवैध कारोबार बिहार में कौन सब चलाते हैं?मुख्यमंत्री जी, आपके राज में पिछले दिनों उत्पाद राजस्व से लगभग 5 हजार करोड़ प्रतिवर्ष आते थे. माना जाता है कि 50 हजार करोड़ के लगभग का वैध कारोबार था, अवैध तो अलग से. क्या यह कारोबार खत्म हो गया है? नहीं, मुख्यमंत्री जी कारोबार प्रभावित जरूर हुआ है, लेकिन बंद नहीं हुआ है. पिछले दिनों शेखपुरा शहर में शराब बिक्री के एरिया बंटवारे के लिए दिनदहाड़े व्यस्त चौंक पर दो गुटों में गोलियां चली हैं. अभी कटिहार के फलका थाना प्रभारी शराब पीकर हंगामा और छेड़खानी कर रहे थे. बिहारशरीफ़ के हरनौट में जद-यू प्रखंड अध्यक्ष के घर से शराब बरामद हुआ है. सच यह है कि बड़े लाभुक, पीने वाले निशाने पर आ ही नहीं रहे हैं! माफिया की तादाद बढ़ गई है. इतना बड़ा कारोबार एकाएक खत्म हो ही नहीं सकता है. हां, यह कारोबार अब अवैध स्वरूप में राजनेता, पुलिस-प्रशासन व माफिया गठजोड़ के बगैर चल ही नहीं सकता है. आपके कठोर कानून की पहुँच भी उन लोगों तक नहीं हो सकती है. आखिर कौन लागू करता है कानून?


मुख्यमंत्री जी, शराब और शासक-सत्ता व शासकवर्गीय राजनीतिका पुराना व गहरा रिश्ता है. बिहारी समाज में भी शासकों-अमीरों-राजनेताओं-नौकरशाहों के बीच तो शराब-शवाब-कवाब का नारा चलता आ रहा है. चुनावों में भी शासकवर्गीय पार्टियां वोट हासिल करने के लिए नोट और शराब का भरपूर इस्तेमाल करती रही हैं. शराब चुनाव में कार्यकर्ताओं का महत्वपूर्ण खुराक होता है. थाना से लेकर अन्य सरकारी कार्यालयों में काम करवाने के बदले नोट व बोतल की संस्कृति स्थापित है. ‘खास’ के जिंदगी में शराब महत्वपूर्ण होता है. ऐसी स्थिति में क्या केवल कठोर कानून और पुलिस के जरिये पूर्ण शराबबंदी लागू होना संभव है? जरूर ‘आम’ कीमत चुकाएंगे और आप शराबबंदी को राजनीतिक हथकंडा बनाये रखने की कोशिश करेंगे.मुख्यमंत्री जी, पूर्ण शराबबंदी के लिए लंबी लड़ाई चलेगी. पूर्ण शराबबंदी की ओर सत्ता के भरोसे नहीं, बल्कि जनता की जागरूकता, पहलकदमी व आंदोलन के रास्ते ही आगे बढ़ा जा सकता है. निशाने पर समाज, सत्ता व शासकवर्गीय राजनीति को लेना ही पड़ेगा. बेशक महिलाएं लड़ाई के केंद्र में होंगी.
आपकी एक  मामूली जनता

यहाँ सेक्स बिकता है, सेक्स क़त्ल करता है: बदनाम नहीं, ये मर्दों की गलियाँ हैं

$
0
0
संजीव चंदन
यह समाज की पितृसत्तात्मक संरचना ही है, जो यह सुनिश्चित करता है कि सेक्स और सेक्स की संभावनाएं, दोनो ही बिकती हैं. यह महज संयोग नहीं है कि जब आम आदमी पार्टी के मंत्री संदीप कुमार के तथाकथित सेक्स स्कैंडल ने राजनीति में भूचाल ला दिया है, सोशल मीडिया में यह स्कैंडल तैर रहा है, तभी सोशल मीडिया में ही एक लेखिका और उनके बहाने कई लेखिकाओं की अनिवार्य ‘पुरुष-सम्बद्धता’ बताई जा रही है- एक से अधिक पुरुष मित्रों से दोस्ती का विवरण ‘संभावनाओं के गद्य’ के साथ पेश किया जा रहा है.



सवाल है कि आखिर संदीप कुमार की कहानी में ऐसा क्या है,जो एक राजनेता की ‘अलविदा-पटकथा’ लिखी जा रही है. किसी महिला ने कोई शिकायत नहीं की है, कोई उत्पीडन का प्रसंग नहीं है, कोई जांच भी नहीं कि उस सीडी में दिख रही महिला कौन है. इस पूरे प्रकरण में संदीप कुमार और वह महिला दोनो ही उत्पीडित हैं, न कि उत्पीड़क. अभी ज्यादा दिन नहीं हुए जब फेसबुक पर भाजपा के एक वरिष्ठ नेता की तस्वीरें किसी महिला के साथ घुमाई जा रही थी, जिसमें वे उसे चूमने की कोशिश कर रहे हैं, वह महिला कोई और नहीं बल्कि उनकी पत्नी थीं- लेकिन तस्वीर पर सनसनी बनाने वाले लोग भाजपा नेता की ऐसी–तैसी कर रहे थे.

संदीप कुमार के मामले की तुलना राजनीति के दूसरे सेक्स स्कैंडल के साथ की जा रही है. सवाल है कि क्या यह तुलना ठीक है, उन स्कैंडलों से जिसमें किसी उत्पीडित महिला ने शिकायत की थी-उत्पीडन या बलात्कार की. इस सीडी की तुलना कांग्रेस के वेटरन नेता नारायण दत्त तिवारी से भी नहीं की जा सकती, जो राजभवन में दो महिलाओं के साथ सेक्स करते हुए देखे गये थे- अभिषेक मनु सिंघवी से भी नहीं, जो एक सार्वजनिक स्थल- लायर्स चैंबर में सेक्स करते हुए देखे गये थे. संदीप के मामले में घटना है, लेकिन कोई पीड़ित पक्ष नहीं. इस घटना की तुलना सिर्फ और सिर्फ पूर्व उपप्रधानमंत्री बाबू जगजीवन राम के बेटे सुरेश राम की घटना से की जा सकती है, जिनकी तस्वीरें एक महिला के साथ सार्वजनिक की गई थीं. यह महज संयोग नहीं है कि इन दोनो ही प्रसंगों में राजनेता दलित हैं.

भारत में दलित राजनीति के बडे नाम बाबू जगजीवन राम भारत के पहले दलितप्रधानमंत्री होते अगर उनके बेटे सुरेश राम का नाम सेक्स स्कैंडल में नहीं फंसता। 1977 में जनता पार्टी की लहर में जब इंदिरा गांधी की हार हुई तो जगजीवन राम प्रधानमंत्री पद के लिए पहली पसंद थे। उसी समय एक पत्रिका में उनके बेटे के कुछ अश्लील तस्वीरें प्रकाशित हुई। जगजीवन राम के 46 साल के बेटे सुरेश राम के साथ दिल्ली विश्वविद्यालय में पढऩे वाली सुषमा चौधरी नाम की 21 साल की लडक़ी की कुछ आपत्तिजनक तस्वीरें एक पत्रिका में छपी थीं। इस तस्वीर को सार्वजनिक करने में कहा जाता है कि उनकी पार्टी के बाहर-भीतर  के लोग शामिल थे, जो जगजीवन बाबू को प्रधानमंत्री नहीं बनने देना चाहते थे.



और जैसा कि होता आया है, इस मामले में भी वही हुआ, भारतीय समाज के ‘टॉम पीपिंग’ जमात को एक मसाला मिल गया. वैसा भारतीय समाज, जो अपने किसी क्वांरे प्रधानमंत्री (अटल बिहारी वाजपयी) की इस घोषणा पर संभावनाओं के आनंद से झूम उठता है कि ‘मैं क्वांरा हूँ ब्रह्मचारी नहीं.’ यह वही भारतीय समाज है, जिसके चौपालों पर इंदिरा गांधी का स्त्री होना अलग –अलग रूपों में कहानियों का सृजन करता था. हाँ, इस मर्दवादी समाज में सेक्स बिकता है. अभी ज्यादा दिन नहीं हुआ, जब इस देश के प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं ने क़तर की राजकुमारी की काल्पनिक सेक्स कथा (सात मर्दों के साथ सेक्स) का निर्लज्ज प्रकाशन किया. इस काल्पनिक कथा के साथ देश का हिन्दू मर्दवादी जमात अपनी फंतासियों और अपने एजेंडे का एक सुखद संयोग देख रहा था, एक मुस्लिम राजकुमारी की अनियंत्रित कामुकता  की फंतासी. खबर झूठी निकली, तो कुछ संपादकों ने माफी मांग ली और कुछ निर्लज्जता के साथ जमे हुए हैं. भारतीय मीडिया इस ‘टॉम पीपिंग’ समाज का प्रतिनिधि चरित्र है, उसे क़तर के बाद और उससे ज्यादा बिकने वाली सीडी मिल गई है. टीआरपी की तरह हिट्स की भूखी मीडिया घरानों के वेब संस्करणों में खबरों के शीर्षक से एक शोध किया जा सकता है कि इस मर्दवादी समाज में सेक्स कैसे बिकता है.

यह भी गौरतलब है कि आप सोशल मीडिया के ट्रेंड से ही एक सर्वे करेंतो देखेंगे कि संदीप कुमार के मामले में नैतिकता की छाती कूटने वाले ज्यादातर मर्द हैं. स्त्रियों के लिए यह ठीक वैसा ही विषय नहीं है, जैसा मर्दों के लिए. सोशल मीडिया के ही एक व्यवहार को देखेंगे तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि ऐसी सीडी यदि किसी भाजपा नेता के प्रसंग में आई होती पक्ष –विपक्ष का स्वर पोजीशन के हिसाब से बदला हुआ होता. सच में राजनीति सहित यह पूरा समाज मर्दों की गलियाँ हैं, जहां सेक्स बिकता है, सेक्स क़त्ल करता है. रही बात केजरीवाल सरकार की, तो इसे अपने स्टिंग ऑपरेशनों की राजनीति के और भी परिणाम देखने बाकी हैं, वैसे क्या पता इस बार का स्टिंग किसने करवाया- भीतर से या बाहर से.

मेरा शबाब भी लौटा दो मेरे मेहर के साथ

$
0
0
नासिरुद्दीन

तलाक के नाम पर मर्दानगी

एसएमएस से तलाक, इ-मेल से तलाक, स्काइप से तलाक, व्हॉट‍्सएप्प से तलाक, नशे की हालत में तलाक, गुस्से में तलाक, ख्वाब में बड़बड़ाते हुए तलाक, गर्भवती को तलाक, माहवारी के दौरान तलाक... ये तलाक बेजान लोगों के लिए नहीं हैं. ऐसे मुंहजबानी, एकतरफा, एक साथ तीन तलाक किसी शायरा बानो, किसी हमीदन, किसी रजिया, किसी नसरीन, किसी रहीमबी, किसी रूबीना, किसी शहाना की जिंदगी की हकीकत है. हिंसक सच्चाई है. यह मर्द के हाथ में मर्दानगी दिखाने और साबित करने का जरिया भी है. यकीन न हो तो तलाक के पांच केस देख लें. पता चल जायेगा, कैसी-‍कैसी बातों पर तलाक का लफ्ज मर्द के मुंह से निकलता है. असलियत में यह तलाक के हक के मार्फत मर्दिया ताकत की नुमाइश है. हम मर्दिया समाज के बाशिंदा हैं.मजहब, कानून, तहजीब, रवायत भी इसी समाज में वजूद में हैं. जाहिर है, इन सबको पढ़ने-पढ़ाने और समझने-समझाने का तरीका भी मर्दिया सोच से ही ज्यादतर निकलता है. क्यों, क्या, कैसे और कितना बताया जाये... यह भी यही सोच तय करती है. इसीलिए बेवक्त एक साथ तीन तलाक जैसी हिंसा, मुसलमान स्त्रियों पर चली आ रही है. महिलाओं को किसने, कैसे और क्या बताया कि शादी या तलाक के मामले में उनके हक क्या हैं?


सुप्रीम कोर्ट का एक फैसला है, जिसे कानून की जबान में ‘शमीम आरा बनाम उत्तर प्रदेश राज्य’ के रूप में जाना जाता है. इस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सिर्फ कह देने भर से तलाक नहीं हो जायेगा. तलाक की प्रक्रिया पूरी करनी होगी. इसके अलावा कई हाइकोर्ट ने कई केसों में यह साफ किया कि मर्द की तरफ से एकतरफा, जबानी, इकट्ठा तीन तलाक नहीं दिया जा सकता. पहले सुलह-समझौते की कोशिश होनी चाहिए. तलाक की ठोस वजह होनी चाहिए. वरना, ऐसे ही दिया गया तलाक नहीं माना जायेगा. यानी देश के कोर्ट ने ऐसे तलाकों के बारे में अपनी राय साफ कर दी है. क्या ये फैसले इस मुल्क की महिलाओं और
खासकर मुस्लिम  महिलाओं को पता हैं? वैसे, इनके बारे में मर्दों को भी पता होना चाहिए. कई बार शौहर की हिंसा झेलने और खर्च न देने की हालत में मुसलमान महिला कोर्ट का दरवाजा खटखटाती है. कोर्ट में शौहर बचने का सबसे आसान तरीका निकालता है. कह देता है, मैंने तो इसे तलाक दे दिया है. यानी उसकी जिम्मेवारी खत्म. अब कोर्ट में यह भी नहीं चलता. ऊपर जिन फैसलों के बारे में कहा गया है, वे ऐसे ही शौहरों के पैंतरों का नतीजा हैं.

एक और कानून है, जिसे मुस्लिम  महिला (तलाक के बाद अधिकारों का संरक्षण) कानून 1986 के नाम से जाना जाता है. इस कानून के तहत तलाक देने के बाद भी कोई शौहर, महिला या बच्चों का खर्च देने से नहीं बच सकता. कई हाइकोर्ट ने इस कानून की व्याख्या करते हुए इद्दत के दौरान का गुजारा देने के अलावा एकमुश्त रकम, स्त्रीधन, दहेज का सामान दिलाने का फैसला दिया है. यह एकमुश्त रकम शौहर की सामाजिक-आर्थिक हैसियत के मुताबिक तय होगी. ध्यान रहे, कानून का नाम तलाकशुदा महिलाओं के हकों की हिफाजत है. क्या कोर्ट से राहत की यह बात हर मुसलमान मर्द-स्त्री को पता है? एक और कानून है- घरेलू ‘हिंसा से महिलाओं का संरक्षण विधेयक 2005’. यह कानून घरेलू हिंसा से पीड़ित महिलाओं को फौरी राहत देने की बात करता है. इस कानून में कोई मर्द, घर के दायरे में रह रही किसी स्त्री को बेघर नहीं कर सकता है. मुसलमान महिलाओं को इस कानून के जरिये भी इंसाफ मिल रहा है. इन महिलाओं में तलाकशुदा भी हैं. अब ऐसे मामलों में पति दलील दे रहे कि वे इस कानून के दायरे में नहीं आयेंगे. क्यों, क्योंकि उन्होंने तो तलाक दे दिया है. कोर्ट इसे नहीं मान रही है. वह इस कानून के दायरे में तलाकशुदा को भी शामिल मान रही है.


दिल्ली हाइकोर्ट का एक मामला है. तलाकशुदा बीवी को इस कानून के तहत अंतरिम गुजारा मिला. मामला सेशन से हाइकोर्ट पहुंचा. हाइकोर्ट में दलील दी गयी कि वे अब ‘घरेलू रिश्ते’ से नहीं बंधे हैं. इसलिए वे इस कानून के दायरे में नहीं आते हैं. कोर्ट का कहना था कि इस कानून के मुताबिक पीड़ित शख्स का मतलब वे सभी हैं, जो घरेलू रिश्ते में हैं, या रह रहे हैं, रहते हैं या रह चुके हैं या किसी भी दौरान साझे घर में साथ रह चुके हैं. कोर्ट के मुताबिक, इस दायरे में तलाकशुदा जोड़े भी आते हैं. तलाकशुदा महिलाओं को राहत दिलानेवाले ऐसे फैसले राजस्थान, मध्य प्रदेश, दिल्ली और मुंबई के कोर्ट से आ चुके हैं. वैसे इस कानून के तहत हर तरह की हिंसा यानी तशद्दुद जुर्म है. इसलिए तलाक की धमकी देना या बार-बार इसका डर दिखाना भी हिंसा के दायरे में आयेगा. क्या मुसलमान महिलाओं को इस कानून से राहत मिलने की बात पता है? यह पहला ऐसा कानून है, जो घरेलू रिश्तों में सभी मजहब की महिलाओं पर एक समान तरीके से लागू होता है.

अगर इस्लाम की रूह इंसाफ है और इसके मूल्य में बराबरी का समाज बनाना है, तो यह मुमकिन नहीं कि ऐसी चीजें मुसलमान स्त्रियों की जिंदगी की फांस बनी रहें. अगर कोई स्त्री नहीं है और उसके आपसी रिश्ते बराबरी के नहीं हैं, तो वह तीन तलाक की तलवार और उसके खौफ के साये में गुजरती जिंदगी का एहसास नहीं कर सकता. अगर हमारे घर में किसी बेटी, बहन, खाला, बुआ के साथ ऐसा नहीं हुआ, तो इसे समझना थोड़ा कठिन है. लेकिन हां, जो इंसाफ पसंद हैं, वे जरूर समझेंगे. हमारे समाज में तलाक के हक का कैसा इस्तेमाल होता है और आमतौर पर इसका किस पर सबसे ज्यादा असर होता है, यह शायद बताने की जरूरत नहीं है. एक ऐसे समाजी निजाम में जहां किसी स्त्री का ब्याहता होना सबसे बड़ा गुण माना जाता हो, वहां तलाकशुदा और अगर वह मां भी हुई तो, उसकी हालत का अंदाजा लगाया जा सकता है. मगर जिंदगी सिर्फ इतनी ही नहीं है.
वैसे किसी शायर ने खूब कहा है-
तलाक दे तो रहे हो गरूर-ओ-कहर के साथ. / मेरा शबाब भी लौटा दो मेरे मेहर के साथ.



 तीन बार तलाक कहना सही नहीं

दसियों साल से मुसलमान एकऐसी बहस पर अटके हैं, जिसे बहुत पहले खत्म हो जाना चाहिए था. यह काम भी मुसलमानों को खुद ही कर लेना चाहिए था. नतीजतन, बहस रह-रह कर सिर उठाती रहती है. बहस है, क्या एक साथ और एक वक्त में तलाक-तलाक-तलाक कह देने से मुसलमान जोड़ों के बीच का शादीशुदा रिश्ता खत्म हो जाता है?  उत्तराखंड की रहनेवाली शायरा बानो की शादी 2002 में हुई. शादी के लिए दहेज देना पड़ा. शादी के चंद रोज बाद ही और ज्यादा दहेज की मांग शुरू हो गयी. जब मांग पूरी न हुई तो उस पर जुल्मो-सितम‍ किये गये. खबरों के मुताबिक, उसे ऐसी दवाएं दी गयीं, जिससे उसके कई एबार्शन हो गये. वह हमेशा बीमार रहने लगी. पहले उसे जबरन मायके भेजा गया. फिर 2015 के अक्तूबर में इकट्ठी तीन बार तलाक-तलाक-तलाक देकर शौहर ने उससे मुक्ति पा ली. शायरा ने ही सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर तलाक के इस रूप यानी एक साथ इकतरफा तलाक को खत्म करने की मांग की है.

इसी तरह, लखनऊ की रजिया की कहानी है. शादी के कुछ महीनों बाद शौहर कमाने के लिए सऊदी अरब चला जाता है. इस बीच रजिया एक बच्चे की मां बन जाती है. अचानक एक दिन उसके ससुराल वाले बताते हैं कि शौहर ने उसे सऊदी से टेलीफोन पर तलाक दे दिया है. एक पल में रजिया की जिंदगी बदल दी जाती है. बवक्त एक साथ तीन तलाक की ऐसी घटनाएं, कई मुसलमान महिलाओं की जिंदगी का सच है.तलाक के इस रूप को इसलामी कानून की जबान में तलाक-ए-बिदत कहते हैं. यानी तलाक का ऐसा तरीका, जो कुरान और हदीस में नहीं मिलता है. तलाक की बुनियाद, जोड़ों के बीच मतभेद या लगाव न होने का नतीजा होती हैं.इसीलिए तलाक की इजाजत देने से पहले इसलाम इस बात की पैरवी करता है कि जोड़े सुलह की गुंजाइश तलाशें. मौलाना अबुल कलाम आजाद अपनी तफ्सीर ‘तर्जमानुल कुरान’ में एक आयत के हवाले से कहते हैं, ‘अगर ऐसी सूरत पैदा हो जाये, जिसमें इस बात का अंदेशा हो कि शौहर और बीवी में अलगाव पड़ जायेगा, तो फिर चाहिए कि खानदान की पंचायत बिठाई जाये. पंचायत की सूरत यह हो कि एक आदमी मर्द के घराने से चुन लिया जाये और एक औरत के. दोनों आदमी मिल कर सुलह कराने की कोशिश करें.’


अगर सुलह न हो पायी तब ? तलाकइस सुलह के नाकाम होने के बाद का अगला कदम है. पैगम्बर हजरत मोहम्मद (सल्ल.) की हदीस है, ‘खुदा को हलाल चीजों में सबसे नापसंदीदा चीज तलाक है.’फिर भी इसकी नौबत आ गयी है तो मौलाना आजाद ने इसी किताब में तलाक से जुड़ी आयत के हवाले से लिखा है, ‘तलाक देने का तरीका यह है कि वह तीन मर्तबा, तीन मजलिसों में, तीन महीनों में और एक के बाद एक लागू होती हैं. और वह हालत जो कतई तौर पर रिश्ता निकाह तोड़ देती है, तीसरी मजलिस, तीसरे महीने और तीसरी तलाक के बाद वजूद में आती है. उस वक्त तक जुदाई के इरादे से बाज आ जाने और मिलाप कर लेने का मौका बाकी रहता है. निकाह का रिश्ता कोई ऐसी चीज नहीं है कि जिस घड़ी चाहा, बात की बात में तोड़ कर रख दिया. इसके तोड़ने के लिए मुख्तलिफ मंजिलों से गुजरने, अच्छी तरह सोचने, समझने, एक के बाद दूसरी सलाह-मशविरा की मोहलत पाने और फिर सुधार की हालत से बिल्कुल मायूस होकर आखिरी फैसला करने की जरूरत है.’ (खंड दो, पेज 196-197) कुछ और चीजें भी देखते हैं. जैसे पैगम्बर हजरत मोहम्मद (सल्ल.) के वक्त में तलाक का क्या तरीका अपनाया गया होगा?

एक हदीस है, ‘महमूद बिन लबैदकहते हैं कि रसूल को बताया गया कि एक शख्स ने अपनी बीवी को एक साथ तीन तलाकें दे दी हैं. यह सुन कर पैगम्बर हजरत मोहम्मद (सल्ल.) बहुत दुखी हुए और फरमाया, क्या अल्लाह की किताब से खेला जा रहा है, वह भी तब, जब मैं तुम्हारे बीच मौजूद हूं.’ मौलाना उमर अहमद उस्मानी ‘फिक्हुल कुरान’ में बताते हैं कि पैगम्बर हजरत मोहम्मद (सल्ल.) के जमाने में अगर तीन तलाकें एक साथ दी जाती थीं, तो वह एक तलाक ही शुमार की जाती थी.अंदाजा लगाइए इसलाम, शादी न चल पाने की सूरत में अलग होने का यह तरीका सदियों पहले बता रहा था. कुरान ने जो तरीका बताया, उसे तलाक-ए-रजई या अहसन कहा गया है. इसे सबसे बेहतरीन तरीका भी माना गया है. अब अगर इस तरीके को छोड़ कर कुछ और अपनाया जाये, तो यह किस शरीअत की हिफाजत कही जायेगी? ऐसा नहीं है कि सभी भारतीय मुसलमान एक वक्त में दिये गये तीन तलाक को सही मानते हैं. लेकिन हां, मुसलमानों में कुछ ऐसे तबके अब भी हैं, जो इस तीन तलाक को बिल्कुल नहीं मानते. वह तीन चरणों की प्रक्रिया पूरी करने पर जोर देते हैं. सवाल है, अगर वे मान सकते हैं, तो बाकी लोग क्यों नहीं?


मिस्र ने ऐसे तलाक से 1929 में हीछुटकारा पा लिया था. इसके अलावा पाकिस्तान, बांग्लादेश, तुर्की, ट्यूनीशिया, अल्जीरिया, कुवैत, इराक, इंडो‍नेशिया, मलेशिया, ईरान, श्रीलंका, लीबिया, सूडान, सीरिया ऐसे मुल्क हैं, जहां तलाक कानूनी प्रक्रियाओं से गुजर कर पूरा होता है. दुनिया में इसलाम पहला ऐसा मजहब था, जिसने शादी को दो लोगों के बीच बराबर का करार बनाया. अगर निकाह एक खास प्रक्रिया के बिना पूरी नहीं हो सकती, तो बिना किसी प्रक्रिया के एकबारगी सिर्फ तीन बार तलाक-तलाक-तलाक कह देने से निकाह खत्म कैसे हो जाना चाहिए? यही नहीं, अगर निकाह बिना औरत की रजमांदी के पूरी नहीं हो सकती, तो उसे शामिल किये बिना तलाक की प्रक्रिया कैसे पूरी हो जाती है? यह कैसी विडंबना है कि शादी या तलाक की जो प्रक्रिया इसलाम ने तय की थी, उसकी झलक नये जमाने के कानूनों में तो दिखती है, लेकिन मुसलमानों ने ही उसे छोड़ दिया.
बेहतर हो कि एक साथ तीन तलाक देने के तरीके को मुसलमान खुद ही खत्म करें. यह सही तरीका नहीं है. वरना शायरा या रजिया जैसी अदालत की चौखट पर जायेंगी ही.

इंसाफ के लिए उठी सदाएं

ऐसा क्यों होता है कि रीति-रिवाज,परंपरा, संस्कृति या मजहबी रहनुमाओं से महिलाओं का ज्यादा टकराव होता है? ऐसा क्यों होता है कि जब भी मजहबी कायदे-कानून में बराबरी की आवाज उठती है, तो ऐसी सदा स्त्रियों के लिए या स्त्रियों की तरफ से ज्यादा आती है? जब महिलाएं आवाज उठाती हैं, तो उन्हें ही गलत ठहराने की मुहिम शुरू हो जाती है. उन पर धर्म से भटकने और मजहब को बदनाम करने के इलजाम लगने लगते हैं.
कुछ भी कहिये, मर्दिया ताकत है बड़ी जबरदस्त! उसका ताना-बाना, उसकी मजबूत सत्ता की नींव काफी गहरी है. अपनी ताकत और ताने-बाने से मर्दिया सत्ता हर विचार, दर्शन या मुहिम को अपने हिसाब से मोड़ लेती है. चाहे मजहब के उसूल हों या फिर देश का संविधान, सब ताक पर रखे रह जाते हैं. मर्दिया सत्ता अपने हिसाब से चीजों की व्याख्या करती है और उसी के मुताबिक नियम-कानून बनाती और चलाती है.

इंसाफ, बराबरी, रहम, मोहब्बत, इंसानीइज्जत- ये सब इसलाम के मूल्य हैं. मर्दों ने इंसाफ और बराबरी को भी अपने हिसाब से खुद ही तय कर लिया कि मुसलमानों के लिए क्या सही है. मसलन, बहुविवाह के बारे में कुरान के विचार को पढ़ें, तो पता चलता है कि वह एक से ज्यादा शादी की इजाजत नहीं देता है, बल्कि वह तो एक वक्त में एक से ज्यादा शादी करने पर अंकुश लगाने की बात करता है. कुरान के आदर्श का मतलब मर्दों ने अपने हक में निकाल लिया. इसके जरिये वे इस नतीजे पर पहुंच गये कि उन्हें एक साथ चार बीवियां रखने की इजाजत है. (हालांकि, आज के वक्त में कोई ऐसा करता दिखता नहीं है.) नतीजा, मुसलमान मर्दों ने इसे अपना मजहबी हक मान लिया. यही नहीं इन्हीं की वजह से मुसलमानों के खिलाफ इस्तेमाल किये जानेवाले ढेर सारे अफवाहों में एक यह भी शामिल है. वैसे, मजहब और मजहब के नाम पर बोलने में काफी फर्क है. मजहब कहता है, खुदा की नजर में हर बंदा बराबर है. मजहब के माननेवाले सोचते हैं, ऐसा कैसे हो सकता है? वे तर्क तलाशते हैं और साबित करने की कोशिश करते हैं कि मर्द नाम का जीव बरतर यानी श्रेष्ठ है.


मजहब क्या है, क्या बताता है, क्या कहता है, क्या चाहता है- इन सब बातों को बताने के काम पर भी मर्दिया सोच का कब्जा है. उनकी सोच ही मजहब हो गयी है. उनकी राय पत्थर की लकीर हो गयी है. उनके ख्याल जन्नत और दोजख का दरवाजा खोलने लगे हैं. जाहिर है, जब तक जेहन में इंसाफ और बराबरी की रूहानी सोच नहीं रहेगी, किसी की भी सोच इकतरफा ही होगी. ऐसा नहीं है कि मजहब जाननेवाले सभी मर्द ऐसा सोचते हैं. लेकिन ऐसे लोगों की तादाद कम है, जो सिर्फ मर्दिया नजरिये से धर्म को नहीं देखते हैं. अगर ये बातें अटपटी लग रही हों, तो जरा हम चंद चीजों पर गौर करें. ऐसा क्यों है कि मंदिरों में जाने के लिए महिलाओं को आंदोलन करना पड़ता है? क्या हमने कभी सवर्ण हिंदू मर्दों को मंदिर में खुद प्रवेश करने के लिए आवाज उठाते सुना है? ऐसा क्यों है कि महिलाओं को ही मजार में हर जगह जाने की इजाजत के लिए सड़क पर आना पड़ता है? ऐसा क्यों है कि कभी किसी मर्द के लिए यह सवाल नहीं पूछा गया कि वह नमाज पढ़ा सकता है या नहीं?

स्त्री-पुरुष की यकसां इमामत करसकता है या नहीं? ऐसा क्यों है कि जायदाद में हक पाने के लिए पुरुषों की जमात ने कभी अपने लिए कानून की मांग नहीं की? ऐसा क्यों नहीं हुआ कि कोई शकील, कोई समी, कोई रिजवान, कोई रूमी तीन तलाक के अपने ‘जबरिया’ हक को खत्म करने के लिए कोर्ट की देहरी पर पहुंच गया हो? ऐसा क्यों है कि मर्दों ने कभी अपने साथ होनेवाली ‘हकतलफी’ खत्म करने के लिए घर-परिवार के दायरे में बराबरी का कानून बनाने की मांग नहीं की? मसलन, दहेज, दहेज हत्या, घरेलू हिंसा, बलात्कार, शादी-शुदा जिंदगी में उत्पीड़न, एक मजलिस में तीन तलाक, बहुविवाह, हलाला के खिलाफ, जायदाद में बराबरी के हक के लिए कानून, निकाहनामा में मर्दों के हकों की हिफाजत की गारंटी के वास्ते कोई आवाज तो नहीं उठती है. इन सबकी जरूरत तो स्त्रियों के वास्ते ही हुई. हां, मर्दों ने हर ऐसे कानूनी हिफाजत के ‘दुरुपयोग’ की बात जरूर उठायी. तनिक रुक कर यह भी सोचना चाहिए कि समाज सुधार आंदोलन या समाजी बेदारी की मुहिम का बड़ा हिस्सा महिलाओं की समाजी हालत सुधारना क्यों होता रहा है. इसका इतिहास है. सुधार आंदोलन, बेदारी मुहिम और हिफाजती कानून की जरूरत उनके लिए होती है.



जिन्हें समाज ने कमजोर बना कर यासदियों से दबा कर रखा है. हर धर्म और जाति की महिलाएं, मर्दों के मुकाबले वंचित समुदाय हैं. इसलिए मजबूत मर्दों को कभी अपने लिए खास मुहिम या कानूनों की जरूरत नहीं पड़ी. क्योंकि सामाजिक रीति-नीति से लेकर कायदे-कानून तक सब उनके ही तो हैं. उनके ही हितों की हिफाजत करते आ रहे हैं.एक मजलिस में तीन तलाक और बहुविवाह को खत्म करने, जायदाद में बराबर की हिस्सेदारी या धार्मिक स्थलों में इबादत की इजाजत की मांग, महिलाओं के हक की मांग हैं. ये हक उनकी इज्जत भरी जिंदगी के लिए जरूरी हैं. जरा फर्ज करें, सब उलट-पुलट हो गया है. वे सारे हक जो अब तक मर्दों के हाथों में थे, महिलाओं के पास आ गये हैं. अब महिलाएं जब चाहें, सोते-जागते, होश-बेहोश, बात-बेबात, बताये-बिना बताये, टेलीफोन-एसएमएस या व्हॉट‍‍्सएप्प पर इकट्ठे तीन बार तलाक, सोच कर-बोल कर-लिख कर दे सकती हैं. एक झटके में अपने शौहर को आदाब कह कर अपनी जिंदगी से विदा कर सकती हैं. कैसा होगा यह सूरतेहाल? क्या तब मर्द इसे इंसाफ मान कर चुपचाप बैठे रहेंगे? क्या वे कुछ नहीं बोलेंगे? क्या उनके साथ यह बराबरी का सुलूक होगा? क्या इसे इंसाफ और बराबरी का इंसानी उसूल कहा जायेगा? अगर ये सूरतेहाल ठीक नहीं कही जा सकती है. तो आज अगर स्त्रियां ऐसी सूरत को बदलने के लिए आवाज उठा रही हैं, तो ये गलत कैसे हो जायेगा?

 यह आलेख स्त्रीवादी पत्रकार और चिंतक नासिरूदीन के प्रभात खबर में छपे तीन लेखों की पुनर्प्रस्तुति है

‘निजी’ आधार पर डा. आंबेडकर की ‘राजनीतिक छवि’ का स्त्रीवादी (?) नकार : दूसरी क़िस्त

$
0
0
शर्मिला रेगे की किताब  'अगेंस्ट द मैडनेस ऑफ़ मनु : बी आर आम्बेडकर्स राइटिंग ऑन ब्रैहम्निकल  पैट्रीआर्की'की भूमिका का अनुवाद हम धारावाहिक प्रकाशित कर रहे हैं. मूल अंग्रेजी से अनुवाद डा. अनुपमा गुप्ता  ने  किया है.  इस किताब को स्त्रीकाल द्वारा  सावित्रीबाई  फुले  वैचारिकी  सम्मान, 2015 से  सम्मानित किया  गया  था. 

राष्ट्रवादी कल्पना की वह ऐतिहासिकपरम्परा अब भी हमारा पीछा नहीं छोड़ रही है,  जिसने स्त्री अधिकारों तथा वंचित/अल्पसंख्यक तबकों के अधिकारों के बीच द्विधारा पैदा की थी. दलित-बहुजन पुरूष बुद्विजीवी, जैसे कांचा इलैया ने जहां दलित-बहुजन पितृसत्ता को पूर्ण लोकतांत्रिक मानकर उसका कद ऊंचा करने की कोशिश की, वहीं गैर दलित स्त्रीवादियों ने निजी व राजनीतिक व्यवहारों में दलित पितृसत्ता की सवर्ण पितृसत्ता से पूर्ण समानता को खोल कर दिखाने का प्रयास किया. दलित स्त्रियों के खिलाफ बढ़ती हिंसा और सवर्ण स्त्रियों की इसमें बढ़ती भागीदारी की कहानियां या तो वैश्विक स्तर पर मंचासीन हुई जैसे CEWAW (कन्वेशन आॅन द इलीमिनेशन आॅफ आॅल फार्मस आॅफ डिसक्रिमिनेशन अगेन्स्ट वीमेन) या फिर दलित स्त्रियों के स्थानीय मुद्दे तक सिमट कर रह गई. NFDW (नेशनल कैम्पेन आॅन दलित ह्यूमन राइट्स) की अपने नाम को सार्थक करती रिपोर्ट ‘दलित वीमने स्पीक आउट’ स्थापित करती है कि दलित स्त्रियों के लिये दैहिक उत्पीड़न को उन पर हो रहे अन्य उत्पीड़नों, जैसे आर्थिक, सिविल व सामाजिक, से अलग करके सिर्फ स्त्री-उत्पीड़न मान लेना असंभव है. जाति और जेण्डर के बीच गुटबंदी पर पर्याप्त चर्चा के अभाव में ही यह हो सका कि 2006 के खैरलांजी मामले में दलित स्त्रियों के खिलाफ हिंसा को या तो ‘दैहिक उत्पीड़न’ कहा गया या ‘जाति उत्पीड़न’. अर्थात हमारे सामने चुनौती यह है कि  आंबेडकर की सैद्वांतिक परम्परा को पुनर्जीवित  किया जाये जो जाति और जेण्डर को आपस में गुंथा  हुआ देखती है और समानता/भिन्नता के द्वैतों से आगे की बात करती है.


  पहली क़िस्त के लिए लिंक पर क्लिक करें:

डा. भीमराव आंबेडकर के स्त्रीवादी सरोकारों की ओर

 पितृसत्ता शब्द को बहुवचन में प्रयोग करनेसे काम नहीं बनेगा. असल लक्ष्य यह है कि उन तरीकों की पहचान की जाये, जिनके कारण श्रेणीगत जाति असमानताओं के बीच पितृसत्तात्मक सम्बन्धों के चलते एक वर्ग के रूप में स्त्री को किस तरह भिन्न-भिन्न शक्लों में देखा गया है. यहां आंबेडकर को स्त्रीवादी की तरह देखने से हम उनके इतिहास को समझने के भिन्न नजरिये से पुनः परिचय कर सकते हैं कि किस तरह ब्राह्मणी  पितृसत्ता बढ़ती प्रभुता और घटती अवमानना की श्रेणीबद्धता के पैमाने पर जातियों के बीच एक जैसे, एक दूसरे को काटने वाले, पृथक तथा एक दूसरे पर निर्भर अंतरों को गढ़ती और प्रचलित करती है. आंबेडकर को पहचानने के इस तरीके से एक मूल ढांचा तैयार किया जा सकता है,  जिसके द्वारा स्त्रीवादी तथा जाति विरोधी/दलित समुदााय में मुक्तिवादी राजनीति के लक्ष्य के लिये गठबंधन संभव हो सकता है- अकादमिया के भीतर और बाहर भी.1980 के दशक के आखिरी वर्षों में भारत में स्त्रीवादी सिद्वांतों और राजनीतिक आंदोलनों के बीच समन्वय की शुरूआत हुई. इसे बंटवारे के इतिहास के भिन्न पाठ्यान्तरों के सामने आने  से समझा जा सकता है और 1984 के सिख-विरोधी दंगों के बीच स्त्रीवादियों द्वारा प्रेरित राहत कार्यों, बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद उठी राष्ट्र/राष्ट्रवाद पर बहस से और 2002 के गुजरात दंगों से भी.

1990 के दशक में मण्डल और दलितस्त्रीवाद के उभार के बाद जाति व जेण्डर के इतिहास को स्त्रीवाद के उभार के बाद जाति व जेण्डर के इतिहास से आगे पुनर्लेखन की भी हम अपेक्षा रख सकते हैं. जैसा कि सामाजिक इतिहासविज्ञ जानकी नायर की स्त्रीवाद व इतिहास के बीच जटिल रिश्तों की पड़ताल में दिखाई देता है, जाति को राष्ट्र की धारणा को तोड़ने वाली चीज मानने वाला मुख्यधारा का ज्ञान भण्डार या तो जेण्डर को अब भी पूरी तरह नजरअंदाज कर रहा है,  या फिर उसकी और मात्र संकेत भर करता है.मण्डल मामले के बाद उमा चक्रवर्ती और वी. गीता जैसी स्त्रीवादी विद्वानों ने जाति-इतिहासों के जेण्डरीकरण और जेण्डर के जातिकरण किये जाने की अनिवार्यता को महसूस किया, जबकि दलित स्त्रीवादी विद्वान अभिनय रमेश ने ब्राह्मणी पुलिसिंग के ढांचे व तरीकों की जांच पड़ताल के जरिये परिस्थितियों को समझने की सीमाओं की ओर इशारा किया. स्त्रीवाद द्वारा अपनाई जाने वाली शोध की मुख्य प्रणाली और समालोचना के लिये इसमें कौन से सबक निहित है? दूसरे शब्दों में, जाति के प्रश्न पर ये स्त्रीवादी व्याख्यायें क्या हिंसा, रति या श्रम के स्त्री-अध्ययन में मान्य अर्थों को चुनौती दे पाने में सफल हो सकी? उत्तर हां और न दोनों है. साथ ही जाति, वर्ग और जेण्डर की इन परस्पर काटती अवधारणाओं को सामने लाना इस तरह मान्य हो गया,  जैसे यह स्वयं आगे बढ़ने के तरीकों को जानने के लिये मार्गदर्शक का कार्य करेगा.


सच यह है कि हम अब भी ब्राह्मणी पितृसत्ता के विभिन्न ऐतिहासिक व सांस्कृतिक पक्षों पर बहस में लगे रहना चाहते हैं. चर्चा सत्रों  में जहां कुछ स्त्रीवादी विद्वान इस धारणा को अतिशयोक्ति मान कर अस्वीकार कर देते हैं वहीं कुछ अन्य ‘ब्राह्मणी पितृसत्ता’ के रूप में इसकी गलत पहचान कर लेते हैं और प्रश्न उठाते हैं कि ‘फिर दलित पितृसत्ता का क्या?’ स्त्री अध्ययन में अवधारणाओं के बहुलतावाद का मतलब बहस का खत्म हो जाना तथा ‘शांतिपूर्ण सह अस्तित्व’ बन गया है. ‘जेण्डर कर्मियों’ के लिये जाति चयन का विषय बन गयी है-वे जो ‘जाति कर्मी’ हैं और वे जो नहीं है.जाति के मामले पर स्त्री अध्ययन में इस तरह गहरी दो-फाड़ की फांक  तथा ‘जाति, वर्ग व जेण्डर’ के मंत्र का सतही प्रयोग इन पाठ्यक्रमों में मूलभूत परिवर्तनों की मांग करते हैं. मेरा सुझाव है कि इन परिवर्तनों के लिये हमें नये स्रोतों की और ढूँढना चाहिए, आंबेडकर  को उनके अपने और हमारे वक्तों में समझने के तरीके ढूंढ़ने चाहिए और उनके ब्राह्मणवादी पितृसत्ता पर कुछ लेखों को स्त्रीवादी गौरव-लेखों की तरह पेश किया जाना चाहिए. हालांकि ये लेख बहस से परे नहीं माने जाने चाहिए. अम्बेडकर के लेखन को उत्तम स्त्रीवादी लेखन की तरह देखने का कारण न सिर्फ उनकी लेखकीय प्रतिभा है, बल्कि तत्कालीन व्याख्यागत समझौतों से उत्पन्न हुई संभवानायें भी हैं.

1990 की राजनीति, जिसने परिभाषित कियाकि जाति पर दावा करना क्यों जातिवाद नहीं है, ने भारतीय लोकतंत्र की जड़े गहरी की है. अपने अधिक से अधिक नागरिकों की भागीदारी चाहने वाले लोकतंत्र की ओर बढ़ते कदम ये मांग करते हैं कि ज्ञान का भी लोकतंत्रीकरण हो, यानी  स्त्री अध्ययन पाठ्यक्रमों में वंचितों को ले आने मात्र से ज्यादा कुछ करना होगा. इसके लिये अब तक दुविधाजनक माने जाने वाले, विविध व सूचना के उन अपारम्परिक स्रोतों में से सच को बाहर खींच निकालना होगा जो समाज, संस्थाओं या ज्ञान-विज्ञान  के किसी भी क्षेत्र में हो सकते हैं. इस विषय में मेरी दलील यह है कि संकलित रचनायें जैसे गीत तथा वे पुस्तिकायें,  जो महाराष्ट्र में  आंबेडकरी  पचांग से प्रभावित चेतना बिरादरी में वितरित होते हैं., ये दर्शाते हैं कि आंबेडकर की स्त्रीवादी छवि अकादमिक बहसों-चर्चाओं से बाहर अपना एक लंबा और समृद्व इतिहास रखती है. यह लेख उन्हीं पुस्तिकाओं और गीतों द्वारा उत्पन्न एक समृद्व संवाद की रूपरेखा खींचने का एक प्रयास है.हालांकि इन स्रोतों की ओर मुड़ने से पहले  आंबेडकर के स्त्रीवाद को पढ़ने के लिये थोड़ा  आंबेडकर को भी खंगालना होगा. ‘निजी’ बनाम ‘राजनीतिक’ की उनकी दो अलग छवियों को.


‘निजी’ आधार पर ‘राजनीतिक छवि’ का स्त्रीवादी नकार

 उर्मिला पवार के कथ्य से बात शुरू करते हैं,जो एक सुपरिचित दलित स्त्रीवादी लेखिका हैं,  आत्मकथा ‘आयदान: द वीव आॅफ माई लाइफ’ को लेकर चर्चा में रही हैं. पवार मुंबई के एक प्रसिद्व शिक्षा संस्थान में दलित स्त्रियों के मुद्दों पर एक चर्चा सत्र को याद करते हुए बताती हैं कि एक स्त्री प्राध्यापक का यह दावा था कि डा. आंबेडकर ने स्त्रियों के लिये कुछ नहीं किया. उनका हिन्दू कोड बिल एक राजनीतिक हथकंडे से अधिक कुछ नहीं था. उन्होंने स्वयं अपनी पत्नी को सार्वजनिक क्षेत्र में कभी आगे नहीं आने दिया, बल्कि फुले के विपरीत उन्होंने उसे शिक्षित भी नहीं बनने दिया. इन दावों पर अन्य स्त्रीवादी विचारकों  की कोई प्रतिक्रिया न आने से पवार आश्चर्य में पड़ गई और गंभीर मुद्दे को इस तरह बौना कर दिये जाने की इस कोशिश से पवार को लगा कि विद्वानों का यह जमावड़ा यह समझने में ही असमर्थ था कि सामाजिक सांस्कृतिक माहौल व आर्थिक स्थिति जीवन को किस तरह प्रभावित करते हैं. पवार की यह बात इंगित करती है कि किस तरह आंबेडकर के स्त्रीवादी योगदान को स्त्रीवाद द्वारा नकार दिया जाता है. ऐसा करने के लिये अक्सर या तो उनके निजी जीवन के उद्वरणों का सहारा लिया जाता है अथवा उनके योगदान को वर्ग-विशेष के लिये ही मान लिया जाता है-मात्र दलित स्त्रियों के सामाजिक विकासतक सीमित.

यह इस बात की तरफ इशारा भी करता है कि विभिन्न सामाजिक स्तरों में सार्वजनिक व निजी दायरों की परिभाषा किस तरह अलग-अलग हो जाती है. ‘निजी’ और ‘राजनीतिक’ पर चर्चा संक्षिप्त ही सही, पर दो कारणों से जरूरी हो जाती है. पहले तो  आंबेडकर के निजी जीवन को गलत रूप से केन्द्र में लाकर उनके स्त्रीवादी योगदान को नकारे जाने के विरोधाभास को समझना जरूरी है. दूसरे सार्वजनिक व निजी, इन दो शब्दों के विभिन्न निहितार्थ जानना भी जरूरी है- आंबेडकरी आंदोलन में से निसृत हुए घरेलू व सामुदायिक दायरों के अर्थ- भारत मेें ‘आधुनिकता’ के एक अधिक सशक्तीकारी बोध की ओर. आंबेडकर के राजनीतिक योगदानों को उनकी निजी जिंदगी के कुछ खास चुने हुए पहलुओं की गलत व्याख्या द्वारा नकार के विरोधाभास को कैसे समझा जाये? ऐतिहासिक रूप से भारत का उपनिवेशी सार्वजनिक क्षेत्र विभिन्न वर्गों द्वारा रचित समुदायों व प्रति समुदायों से बना था,  जो परस्पर एक दूसरे से खिंचे हुए रहते थे. प्रभुत्वशाली जातियां एक खास मध्यम वर्गीय सार्वजनिक दायरे की निर्मिति में लगी थीं, जिसके लिए उन्होंने शक्ति व विशेषाधिकारों के अपने पुराने संसाधनों तथा राजनीतिक व समाज के नये विचारों का घालमेल कर लिया-अर्थात मनु और मिल को एक ही धागे में पिरो दिया और इस तरह एक खंडित आधुनिकता की  चलन मेें आ गई.


यह आधुनिकता जहां एक ओर सार्वजनिकक्षेत्र में जाति से मुकर जाती थी, वहीं व्यक्तिवाद के नये सिद्वांतों को सजातीय विवाह से भी जोड़ लेती थी और सार्वभौमिक श्रमविभाजन की अवधारणा को अपने वर्णाश्रम धर्म से भी और इस तरह यह वैश्विक आधुनिकता पर दावा पेश करती थी. स्त्रीवादी अध्ययनों के इस निष्कर्ष पर सबकी सहमति है कि मध्यम वर्ग के इस निर्माण ने ‘निजी’ की पुनर्रचना में अहम प्रभाव छोड़ा है, खासकर सख्यभावी विवाह के माॅडल के अविष्कार में.महाराष्ट्र के बीसवीं सदी के पूर्वार्ध में प्रचलित गृहस्थी व शिशु पालन संबंधी पुस्तकों में मध्यम वर्ग की अधिकार संपन्न जाति की महिलाओं के लिये कार्यों और उन्हें करने के तरीकों का विस्तृत वर्णन मिलता है. इन विवरणों में उन्हें अंग्रेज  महिलाओं और निम्न कार्यरत समुदायों की महिलाओं, इन दोनों ही वगों के विरोध में खड़ा कर दिया गाय है. 1933 में कुमारी कमला के नाम से लिखने वाली एक महिला एक सख्यभावी विवाह की रोजमर्रा की जिंदगी को कुछ इस तरह प्रस्तुत करती है.‘‘इन परिवारों में खाने-पीने के लिये काफी था, जीवन अच्छा था और इसलिए इन सुधारक परिवारों के बेटे वकील, चिकित्सक,  बैरिस्टर बने और भारतीय शासकीय व चिकित्सा सेवाओं में जाने लगे. बेटियां सुसंस्कृत महिलायें बनीं,  जो अपने घरों को स्वच्छ संवरा हुआ रखती थी, बेहतरीन खाना पकाती थीं और  जरूरत पड़ने पर वक्त के अनुसार बातचीत भी कर सकती थीं.’’ (कर्वे 2009-206)

पितृसत्ता पर सबसे पहला मुक्का ऑप्रेस्ड कम्युनिटी की महिलाओं ने मारा है: सोनपिम्प्ले राहुल पुनाराम

$
0
0
जेएनयू छात्र संघ चुनाव में 'बापसा' (बिरसा-फूले-अम्बेडकर स्टूडेंट एसोसिएशन) सोनपिम्प्ले राहुल पुनाराम के नेतृत्व में लीड लेता दिख रहा है. समाज के हाशिये से  आने वाले प्रखर व्यक्तिव के साथ लोकप्रिय छात्र नेता के रूप में उभरे राहुल के एक भाषण पर आधारित चंद्रसेन की रपट 

जाति-जेंडर तथा वर्ग पर आधारित शोषण भारतीय या यूँ कहें कि पूरे दक्षिण-एशियाई मुल्कों की खास विशेषता रही है .मजेदार बात तो यह है कि ऐतिहासिक रूप से न तो बुद्धिजीवियों  ने और न ही किसी तथाकथित राष्ट्रीय नेता ने इसे चिन्हित किया.भारतीय समाज में पहली बार फूले दम्पति ने अपनी विचारधारा, आंदोलन और व्यक्तिगत जीवन में इन सवालों को सबके सामने लाए  आगे चलकर आंबेडकर के आंदालनों, लेखनी, और हिन्दू कोडबिल जैसे पालिसी लेवल के मसविदों ने इन मुद्दों  को और गंभीरता तथा मुखरता से आगे बढ़ाया. फूले-आंबेडकरकरवादी  विचारधारा से लैश होकर ‘दलित नारीवाद’ तक बहस आज पहुँच चुकी है .आज हम इस बात को आसानी से समझ सकतें हैं कि किस तरह से दलित स्त्रियां तीहरे शोषण-जातीय, वर्गीय, और मर्दवाद का शिकार हैं.

मतदान करती छात्राएं
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय हमेशासे ही आरएसएस और शासक वर्ग के आंख की किरकिरी रहा है .कुछ दिनों पहले राष्ट्रवाद और देशद्रोह के नाम से इस संस्था को 'शट डाउन'मुहिम का शिकार होना पड़ा. लेकिन समानता और जेंडर जस्टिस की राजनीति, उसके मूल्यों को जीने वाले इस कैंपस में रेप की घटना ने फिर से सबको इस संस्था की ओर उगली उठाने को मौका दे दिया है.और जब आरोपी खुद वामपंथ से जुड़ा हो तो मामला और भी पेचीदा हो जाता है .पूरा जेनयू आज पीड़िता के साथ है और यही इस संस्था की खूबी भी रही है .
इस पूरे माहौल में छात्र संघ चुनाव हो रहें हैं .९ सितंबर को दिल्ली विश्वविद्यालय के साथ ही जेनयू का भी चुनाव है.एक तरफ जातिवादी-फासिस्ट ताकतें अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् के नेतृत्व में अपने एजेंडे के साथ हैं . वहीँ दूसरी तरफ लेफ्ट फ्रंट अपने आधी -अधूरी यूनिटी के साथ .चुनावी प्रक्रिया शुरू हो चुकी है लेकिन ये दोनों पार्टियां लगभग एक दूसरे को सामने रख कर चुनाव लड़ रहीं हैं .

हमेशा की तरह इस बार भी  कैंपसमें राईट-लेफ्ट की बाइनरी में चुनाव लड़ने की कोशिश की जा रही रही है .क्या हर मुद्दे को बाइनरी में देखा जाना सही है ? या यह कोई साजिश है. इस बाइनरी को ध्वस्त करने और ‘ऑप्रेस्ड  यूनिटी’ के नारे के साथ 'बापसा' (बिरसा-फूले-अम्बेडकर स्टूडेंट एसोसिएशन) संगठन सोनपिम्प्ले राहुल पुनाराम के नेतृत्व में आगे बढ़ रहा है. एक साल पुराने इस संगठन ने अपने शुभचिंतकों और आम छात्रों के साथ एक सभा की .उस सभा में उमड़ी भीड़ से उत्साहित 'बापसा 'के लोग अपनी बात लोगों के बीच ले जाने में सफल रहे .यदि हम राहुल के भाषण को ध्यान से सुनें  तो पाते हैं कि इस संगठन की राजनीति काफी व्यापक है .वह अपने भाषण में इस बात पर जोर देता है की दुनिया के सारे ऑप्रेस्ड  लोगों के अनुभव को हम सुनेगे क्योंकि उनके अनुभव हमेशा से शासक वर्ग से अलग रहें हैं.
इन्डियन एक्सप्रेस में राहुल

अध्यक्षयीय प्रत्याशी, राहुल इसअंदाज में खुद के अनुभवों को जनता के सामने बाटते नजर आए. उत्तर नागपुर के झोपड़पट्टी  में पले–बढ़े राहुल का जीवन संघर्षों का रहा है .माँ ईंट-भट्टे में दिहाड़ी मजदूर और पिता रिक्शा-पुलर रहे हैं.उनके अनुसार'जब से मैंने होश संभाला है पिता को बीमारी के कारण बिस्तर पर ही पाया है.उन्होंने  मुझे बताया कि  ईश्वर का कोई अस्तित्व नहीं होता है.तथा उन्होंने मेरा नाम गौतम बुद्ध के पुत्र 'राहुल'पर रखा'पितृसत्तात्म समाज की सच्चाई को स्वीकार करते हुए राहुल कहतें है कि हमारा समाज हमें कितना मर्दवादी बनाता है. हमें महिलाओं के अनुभव को तरजीह देनी पड़ेगी.महिलाओं के हर तरह के शोषण को हमें स्वीकार करना होगा. जेंडर के सवाल को व्यापकता में समझाते हुए राहुल अपील करतें हैं कि हमें 'मेल'और 'फीमेल'की बाइनरी को भी तोड़ना है .ट्रांसजेंडर, गे-लेस्बियन के अधिकारों की लड़ाई को और तेज करना है. लेकिन साथ ही साथ यह भी जोड़ा कि ‘इस पितृसत्ता पर पहला ऑप्रेस्ड -कम्युनिटी की महिलाओं ने ही मारा है’

अपने संगठन के वैचारिक दायरेको दुनिया के सारे ऑप्रेस्ड -समुदाय के साथ जोड़ते हुए  नागपुर के इस नौजवान ने सभी दमित तबकों को, पहचानों को एक मंच पर आने का आह्वान दिया .‘जे एन यू  और देश में रोहित वेमुला के आंदोलन और ऊना  तक जो एकता दलितों, आदिवासियों,पिछड़ों, मुसलमानो और महिलाओं की बनी है उससे शासक-वर्ग डर गया है .इस एकता को इस संस्था में भी बनाना जरूरी है, जिससे राईट विंग के ब्राह्मणवादी फासिस्म और लेफ्ट की  अवसरवादिता को ख़तम किया जा सके’नार्थ-ईस्ट में हो रहे दमन, नस्लीय  भेदभाव की भी जोरदार भर्त्षणा की.हाल ही में जेनयू प्रसाशन द्वारा  एक डोसियर पास किया गया था. जिसमे कहा गया कि दलित-आदिवासी, मुसलमान, नार्थ-ईस्ट के लोग एंटी-नेशनल हैं.डोसियर में इन तबके की महिलाओं पर सेक्स रैकेट चलने का जो महिला-विरोधी और सेक्सिस्ट रिमार्क दिया गया उसकी खिलाफत की तथा ऐसे प्रोफेसरों को कड़ा दंड दिलाने का वादा भी किया. कश्मीर जैसे ज्वलंत मुद्दे पर भी अपना स्पष्ट मत रखने से राहुल नहीं चूके. राहुल के शब्दों में 'हम बाबासाहब की उस बात पर यकीन रखते हैं कि जल्द से जल्द कश्मीर में प्लेबिसाइट होना चाहिए.'

राहुल ने विश्वविद्यालय में लंबे दौर से काबिजरहे मार्क्सवादी संगठनों की जोरदार खिंचाई भी की .‘आरक्षण से लेकर, हॉस्टल, स्वास्थ्य-सुविधाएँ, गैर-अंग्रेजी माध्यम से आए छात्रों के साथ भेदभाव, वाइवा में वंचित समुदाय के साथ भेदभाव पर लेफ्ट ने सिर्फ जुमले-बाजी की है.'नारी-स्वतंत्रता और प्रतिनिधित्व के सवाल पर लेफ्ट एक्टिविस्ट कविता कृष्णन पर भी तंज कसा कि 'ऐसी कौन सी बात है की उनकी पार्टी में झंडे ढ़ोने वाली, रणवीर सेना के हांथों शिकार होने वाली किसी मुसहर लड़की को वह स्थान नहीं मिला, जहाँ आज उनकी तथाकथित नेता है.'ऐसी वो कौन सी बात है जो कविता कृष्णन बोल सकती है तथा एक मुसहर लड़की नहीं बोल सकती ?'सोनपिम्प्ले अपने वक्तव्य में कहते हैं कि 'मैं  मार्क्स को इसलिए पसंद करता हूँ क्योंकि मार्क्स ने एक विश्लेषण दिया है कि कैसे दुनिया के शासक वचिंत समुदाय के संघर्षों को तोड़-तोड़ कर उनकी एकता को ख़तम कर दिया है .मैं ग्राम्सी को इसलिए पसंद करता हूँ क्योंकि ग्राम्सी ने बताया की ‘ऑर्गेनिक इंटेलेक्चुअल'कौन होते हैं.’

बापसा पैनल
गुलामी की दासता से पीड़ित रहेएफ्रो-अमेरिकन क्रांतिकारी मैल्कम एक्स को याद करते हुए इस समाजशास्त्र  के स्कालर ने कहा कि 'जब तक पीड़ित अपनी लड़ाई खुद नहीं लड़ेंगे उन्हें मुक्ति नहीं मिल सकती.'डॉ आंबेडकर और ‘एनिहिलेशन ऑफ़ कास्ट’ को उदृत करते हुए बापसा के इस अध्यक्षीय प्रत्याशी ने कहा की 'ब्राह्मणवाद और पूँजीवाद हमारे दो शत्रु हैं.'देश में बढ़ते  कारपोरेटीकरण और नवउदारीकरण की नीतियों की ओर उनका स्पष्ट इशारा था.अंत में अपने तीन अन्य प्रत्याशियों-बंशीधर दीप (वाइस प्रेसीडेंट), पल्लिकोण्डा मनीकांता (जनरल सेक्रेटरी), आरती रानी प्रजापति (जॉइंट सेक्रेटरी) का समर्थन मांगते  हुए ओप्रेसड यूनिटी को बनाए रखने की अपील की.

 चंद्रसेन ( शोध छात्र, अंतररा ष्ट्रीय अध्ययन संस्थान, जेनयू नई  दिल्ली, सम्पर्क : 9540749466 )

एबीवीपी-सदस्य की आत्मग्लानि:पत्र से खोला राज, कहा रोहित वेमुला की संस्थानिक हत्या थी साजिश

$
0
0
शिवसाईं राम / अनुवादक :पूजा सिंह 

हैदराबाद  विश्वविद्यालय में एबीवीपी के सदस्य रहे शिवसाईं राम बता रहे है कैसे हुई थी रोहित वेमुला की संस्थानिक हत्या की साजिश.पत्र लिख कर  एबीवीपी की सदस्यत़ा पर जताया खेद. पढ़े  शिव साईं राम का पत्र 

अतीत की एक स्मृति अब भीमेरा पीछा करती है. वह याद गणेश चतुर्थी से जुड़ी हुई है. वर्ष 2013 की बात है, उस वक्त मैं एबीवीपी का सदस्य था. इसे वाकये से मैं, रोहित और उसकी संस्थानिक हत्या में शामिल एक अन्य व्यक्ति (सुशील कुमार) तीनों जुड़े हुए हैं. गणेश चतुर्थी के दिन फेसबुक पर हैदराबाद विश्वविद्यालय के समूहों में एक तीखी बहस छिड़ी. यह बहस इस उत्सव और दक्षिणपंथियों द्वारा इसके नाम पर छद्म विज्ञान को बढ़ावा देने पर केंद्रित थी. चूंकि मैं कट्टर धार्मिक था इसलिए मैंने इस समारोह के बचाव में पुरजोर तरीके से प्रयास किया. कई लोग ऐसे थे जो मेरा विरोध कर रहे थे और रोहित उनमें से एक था.

हमारा समूह (पढि़ए गणेश उत्सवसमिति क्योंकि एबीवीपी की कार्यशैली रहस्यमय है) रोहित और अन्य लोगों की नास्तिकता से परिचित था. बहस में हम काफी पिछड़ चुके थे क्योंकि समारोह के खिलाफ बोलने वाले बहुत बड़ी तादाद में थे. यही वह समय था जब एबीवीपी ने वह किया जिसमें उसे महारत हासिल है. यानी किसी एक को निशाना बनाना. इसे अंग्रेजी में 'विच हंटिंग'कहते हैं.मुझे संगठन में आए दो महीने ही हुए थे और मैं अपेक्षाकृत नया था. मुझे पता नहीं था कि बंद दरवाजों के पीछे यह कैसे काम करता है. तय किया गया कि बहस में हम पर भारी पड़ रहे लोगों को निशाना बनाने के लिए उन पर ईश निंदा का मामला दर्ज कराय जाएगा.

मुझे कहा या कि मैं उनकी फेसबुकपोस्ट और कमेंट के स्क्रीनशॉट जुटाऊं और उन्हें कुछ  ऐसे लोगों को मेल कर दूं जो विश्वविद्यालय के छात्र नहीं थे. उनमें से एक सुशील का भाई था. मैंने ऐसा ही किया और सारे स्क्रीनशॉट मेल कर दिए. आपस में एक गोपनीय बैठक करने के बाद उन लोंगों ने तय किया कि वे केवल रोहित को निशाना बनाएंगे. उन्होंने तय किया कि रोहित की टाइमलाइन पर पोस्ट की गई एक कविता को शिकायत का आधार बनाया जाएगा. रोहित द्वारा पोस्ट की गई यह कविता क्रांतिकारी तेलुगू कवि श्री श्री ने हिंदू देवता गणेश पर लिखी थी. एक और ऐसी पोस्ट थी जिसमें रोहित ने चुटकी लेते हुए पूछा था कि गणेश चतुर्थी के तर्ज पर सुपरमैन और स्पाइडरमैन का जन्मदिन क्यों नहीं मनाया जाता है?

मामला दर्ज हुआ और रोहित कोगिरफ्तार कर लिया गया. जहां तक मुझे याद है, उसे दो दिन तक एक स्थानीय पुलिस थाने में रखा गया. 'रोहित को सबक सिखाने'में मिली इस कामयाबी के बाद एबीवीपी के कार्यकर्ताओं में खुशी व्याप्त थी. बाद में रोहित को रिहा कर दिया गया (हालांकि मेरे पास मामले का पूरा ब्योरा नहीं) और उसने एक फेसबुक पोस्ट लिखकर बताया कि किस तरह उसकी आवाज को दबाने का प्रयास किया गया. ऐसी अनगिनत घटनाएं हैं, जिनमें बतौर एबीवीपी सदस्य शामिल होने को लेकर मैं शर्मिंदा हूं. परंतु यह घटना उनमें से सबसे अधिक परेशान करती है क्योंकि मैं रोहित का शिकार करने की उस कोशिश में सीधा हिस्सेदार था. यह इकलौती घटना नहीं है जहां रोहित को अलग करके निशाना बनाया गया हो.

संगठन के भीतर हमारे वरिष्ठ साथियोंके मन में रोहित की राजनैतिक पक्षधरता तथा उसके निर्भीक और मुखर रुख को लेकर जबरदस्त नफरत व्याप्त थी. यही वजह थी कि उसे ऑनलाइन और ऑफलाइन दोनों ही जगहों पर लगातार किनारे लगाया गया. रोहित अब हमारे बीच नहीं है, इसलिए क्षमायाचना एक मुश्किल काम है लेकिन इस मौके पर उस पूरी नफरत को सार्वजनिक करके मुझे राहत मिल रही है. क्योंकि दक्षिणपंथी समूहों से जुड़ाव और उस दौरान अपनी गतिविधियों को लेकर मेरे भीतर गहन अपराधबोध है.

मैं अपने दावों के समर्थन में यहांतमाम स्क्रीनशॉट साथ दे रहा हूं. आज जो लोग इस बात से इनकार कर रहे हैं कि हिंदुत्ववादी ताकतों ने रोहित को आत्महत्या की कगार पर पहुंचाया, उनको शायद पता नहीं होगा कि उसे संघ परिवार की इस जातिवादी-सांप्रदायिक-फासीवादी राजनीति के विरुद्ध पेशकदमी के लिए किस यंत्रणा और पीड़ा से गुजरना पड़ा. 'सांस्थानिक हत्या'को ऐसे ही अंजाम दिया जाता है. राज्य, पुलिस और हिंदूवादी समूह दलितों, आदिवासियों और धार्मिक अल्पसंख्यकों जैसे वंचित वर्गों को ऐसे ही निशाना बनाते हैं.  इन समूहों की हरकतों को सामने लाने और इनकी नफरत की राजनीति के विरुद्ध आवाज़ उठाने के लिए अभी भी बहुत देर नहीं हुई है.


जेएनयू बलात्कार और वामपंथ का अवसरवाद

$
0
0
 मुकेश कुमार

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) अकादमिक लिहाज से हीनहीं, बल्कि लोकतांत्रिक माहौल की दृष्टि से भी देश का सर्वोत्कृष्ट शिक्षण संस्थान है। देश-दुनिया के ज्वलंत प्रश्नों- घटनाओं पर तुरंत प्रतिक्रिया व प्रतिवाद करता है, जेएनयू। यह लंबे समय से वामपंथी-प्रगतिशील विचारों व राजनीतिक व्यवहार की अग्रिम चौकी बना हुआ है। सवाल चाहे जेंडर इक्वलिटी व जस्टिस का हो या फिर सोशल जस्टिस का, लोकतंत्र-धर्मनिरपेक्षता का प्रश्न हो या मानवाधिकार का, जेएनयू कम्युनिटी संवेदनशीलता-प्रतिबद्धता और वैचारिक-राजनीतिक दृष्टि का मानदंड रचता है।



शायद जेएनयू ही ऐसी जगह है, जहां G S C A S H ( जेंडर सेंसेटाइजेशन एंड कमिटी अगेंस्ट सेक्सुअल हरासमेंट ) सबसे प्रभावी व सक्रिय है। लेकिन पिछले दिनों (20 अगस्त) को एक शोध-छात्रा के साथ भाकपा-माले के छात्र संगठन ‘आइसा’ के एक लीडिंग फिगर अनमोल रतन ने छात्रावास में बलात्कार किया। इस घटना और इसके बाद जेएनयूएसयू, जेएनयू में मौजूद विभिन्न संगठनों, महिला संगठनों सहित वामपंथी पार्टियों के रवैये ने बहुत सारे सवालों को सामने लाया है।

वामपंथी  छात्र ताराशंकर के फेसबुक वाल से –
“स्त्री द्वेष और यौन कुंठा लोगों में इतने गहरे धँसी है कि लैंगिक शोषण इस समाज में सर्वाधिक व्यापक अपराध है। बलात्कार कोई अचानक घटित घटना नहीं, बल्कि एक बहुत गहरे स्त्री द्वेषी सोच का परिणाम होता है। बलात्कार हम सबकी, पूरे समाज की सामूहिक विफलता का सूचक है। इसलिए मैं बार-बार कहता हूँ कि जेंडर इश्यू एक ऐसा लिट्मस टेस्ट है, जिस पर बड़े-बड़े ‘प्रगतिशीलों’ की कलई खुल जाती है। प्रगतिशील राजनीति करना और उसे जिंदगी में उतारना दो अलग-अलग बातें हैं! जेंडर जस्टिस या सामाजिक न्याय की कोई भी लड़ाई इस दोमुहेपन  के साथ कतई नहीं लड़ी जा सकती है! बहुत जरूरी है कि जिंदगी की बुनियादी बातों के साथ जेंडर-सेंसिटाईजेशन शिक्षा, एक्टिविज़्म अथवा राजनीति के हर स्टार पर ताउम्र चलने वाला अनिवार्य प्रयास हो। बेहद शर्मिंदा महसूस कर रहा हूँ जेएनयू में घटित बलात्कार की कथित घटना पर! दुख, गुस्सा और शर्मिंदगी तीनों एक साथ सहन करना मुश्किल हो रहा है।”

पूरे देश को याद है, 16 दिसंबर, 2012 को मुनिरिका के पास एक छात्रा के साथ बर्बर गैंगरेप के बाद जेएनयू कम्यूनिटी की प्रेरणादायी लड़ाई! हाँ, इस लड़ाई ने महिलाओं के सम्मान, अधिकार, बराबरी व आजादी के प्रश्नों पर विमर्श को नई ऊंचाई भी दी। जेंडर इश्यू पर देश की संवेदनशीलता व समझ को आगे ले जाने का काम किया। इस लड़ाई में आइसा की भूमिका भी काबिले तारीफ (!) रही और जेएनयू और आइसा से रिश्ता रखने वाली वर्तमान में भाकपा-माले की पॉलिट ब्यूरो मेंबर कविता कृष्णन महिलाओं की ‘बेखौफ आजादी’ की आवाज बनकर सामने आईं। लेकिन जब जेएनयू में ही आइसा के लीडिंग फिगर के जरिये एक शोध छात्रा के साथ बलात्कार का मामला सामने आया, तब क्या हुआ। कविता कृष्णन ने शायद 120 घंटे गुजर जाने के बाद फेसबुक पर एक पोस्ट डाला, जब उनकी चुप्पी पर सवाल उठने लगा। इस बीच उन्होंने कम-से कम एक दर्जन पोस्ट लिखे। खैर कविता कृष्णन और उनका महिला संगठन ‘ऐपवा’, जिस संगठन की वे  राष्ट्रीय सचिव भी हैं, सड़कों पर उतारने की हिम्मत नहीं दिखा पाया। जबकि आइसा और ऐपवा के साथ कविता कृष्णन ऐसे गंभीर मामले पर तुरंत प्रतिक्रिया के लिए जानी  जाती हैं। गंभीर इसलिए भी कि मामला जेएनयू जैसे कैंपस के भीतर का था और वह भी आइसा के लीडर की संलिप्तता थी। यों भी कविता फेसबुक और ट्विटर पर 24 घंटे में कई एक पोस्ट और ट्विट के लिए जानी जाती हैं। भाकपा-माले के पूर्व महासचिव और कम्युनिस्ट सिद्धांतकार विनोद मिश्र के शब्दों में- “कम्युनिस्ट नारी संगठन का विशेष कर्त्तव्य है नारियों की अपनी भूमिका को बढ़ाना। कारण, अंततः नारी को अपनी मुक्ति खुद हासिल करनी होगी। यहां तक कि हमारी पार्टी में भी महिला कार्यकर्त्ताओं की मर्यादा- हानि की घटनाएं घटित होती हैं। कुछ-कुछ पुरुष कार्यकर्त्ताओं द्वारा आम महिलाओं के प्रति बहुत ही गलत आचरणों की रिपोर्ट आती हैं। हम पार्टी संस्थाओं की ओर से अवश्य ही इन मामलों में कदम उठाते हैं। फिर भी मुझे लगता है कि इन मामलों में कम्यूनिस्ट नारी संगठनों को पार्टी पर निगरानी रखने और दबाव पैदा करने की भूमिका का भी पालन करना चाहिए।”विनोद मिश्र के ही शब्दों में- “...नारी मुक्ति संघर्ष की अपनी विशेषताएं हैं, अपनी स्वायत्तता है।”



हाँ, आइसा ने 21 अगस्त को बयान जारी कर कहा कि, “...अनमोल रतन पर लैंगिक उत्पीड़न करने का अपराधिक आरोप है, इस मामले को पूरी गंभीरता से लेते हुए आइसा उन्हें तत्काल प्राथमिक सदस्यता से बर्खास्त करती है। आइसा इस पूरे मामले में दृढ़ता से लैंगिक बराबरी और न्याय के उसूल पर खड़ी है। जब यौन हिंसा का आरोपी हमारा ही एक कार्यकर्त्ता हो, तो यह बेहद जरूरी हो जाता है कि हम गंभीर आत्म आलोचना करें। साथ ही साथ यह बात हमसे संगठन के बाहर और भीतर, सभी जगहों पर महिलाओं के प्रति संवेदनशीलता बनाने की बेहद अनिवार्य लड़ाई को और तेज करने की मांग करती है। यौन हिंसा के खिलाफ लड़ाई दूर-दराज के अंजाने उत्पीड़कों तक नहीं रुकती है। जब आरोपी अपने ही बीच से हो- चाहे वह अपने परिवार वाले हों, अपने मित्र हों, या अपने संगठन के सदस्य हों, तब इसके खिलाफ एक निर्मम लड़ाई लड़ना हमारे समक्ष एक असली और बेहद महत्वपूर्ण चुनौती बन जाता है। अपने सदस्यों के मामले में भी आइसा जेंडर-न्याय के सवाल पर दृढ़ता से खड़ी है। हम शिकायतकर्ता के साथ मजबूती से खड़े हैं और न्याय की उनकी लड़ाई में उन्हें हर संभव सहयोग करेंगे। न्याय के लिए पुलिस तत्काल जरूरी कदम उठाए। आरोपी के खिलाफ विश्वविद्यालय तत्काल अनुशासनात्मक कदम उठाये और उत्पीड़ित को हर संभव मदद दे।”


लेकिन आइसा के बयान के स्पिरिट के साथ उसका एक्शन सामने नहीं आता है
। इस तरह के मामले पर तुरंत प्रतिक्रिया देने व प्रतिवाद में उतारने वाला संगठन 25 अगस्त को सड़कों पर उतरा। इस बीच संगठन के नेता उक्त बयान की कॉपी को दिखाकर काम चलाते रहे। जेएनयू के इस मसले पर बिहार में केवल तिलकामांझी भागलपुर विश्वविद्यालय में छात्रों के एक समूह ने प्रतिवाद किया। इस समूह के प्रमुख नेता व आइसा के पूर्व छात्र नेता  अंजनी का कहना है कि "क्या आरोपी किसी अन्य संगठन या फिर कोई और छात्र होता तो आइसा का यही रवैया रहता?  इस मामले में आइसा भी दिल्ली पुलिस और जेएनयू प्रशासन की तरह एक्शन में सुस्ती दिखाता है। साफ है इस मामले ने संगठन के भीतर पितृसत्ता की मजबूत जकड़न को सामने लाया है। जिसकी अभिव्यक्ति घटना और उसके बाद के रवैये में स्पष्ट रूप से दिखता है। आखिर क्यों इस तरह के तत्व संगठन में लीडिंग फिगर बन जाते हैं? मतलब साफ है संगठन अवसरवादी तौर-तरीके से बनाया-चलाया जा रहा है। इस तरह के संकट के साथ आप संघियों को रोक नहीं सकते हैं, बल्कि उसे आगे बढ्ने- हमला करने का मौका ही देते हैं।"अंजनी का कहना है कि "इस मामले पर अगर आइसा द्वारा तुरंत पहलकदमी ली जाती तो संगठन के भीतर और बाहर अच्छा संदेश जाता! यह कदम संगठन को जेंडर इश्यू पर संवेदनशील बनाने की लड़ाई की दिशा में ले जाता और व्यवहार में जेंडर-न्याय के सवाल पर दृढ़ता सामने लाता। लेकिन 25 अगस्त को प्रतिवाद में देर से आइसा के उतारने ने संगठन के संवेदनशीलता व प्रतिबद्धता से उपजे आवेग की  बजाय चौतरफा आलोचना के दबाव को ही सामने लाया।"अंजनी इस पूरे मामले पर नारीवादी व वामपंथी महिला संगठनों की चुप्पी को भी आश्चर्यजनक बताते हुए इन संगठनों को भी कहीं न कहीं अवसरवाद व पितृसत्ता के दलदल में फंसा हुआ मानते हैं।

बलात्कार की इस घटना और बाद की पूरी स्थिति पर भाकपा-माले के बिहार राज्य कमिटी से पूर्व में जुड़े रहे रिंकु कहते हैं कि "खासतौर पर आइसा सवालों के घेरे में है। बलात्कार तो पितृसत्तात्मक प्रतिक्रिया की चरम अभिव्यक्ति है। लेकिन क्या संभव है कि किसी व्यक्ति के भीतर लीडिंग फिगर बनने की पूरी प्रक्रिया में पितृसत्ता की प्रवृत्तियाँ नहीं दिखाई पड़ रही हों? एकाएक उस प्रवृत्ति की चरम अभिव्यक्ति ही सामने आती है, यह संभव नहीं है! मतलब साफ है आप जेंडर इश्यू पर संवेदनशील व गंभीर नहीं हैं! हाँ, इस मामले में भी यह बात सामने आई है कि प्रगतिशील राजनीति करने और उसे जीने में फर्क होता है! और यह फर्क तब संगठन में गहराई से जड़ें जमाने लगता है, जब आप किसी मसले पर संघर्ष व राजनीति करते हुए संवेदनशीलता, प्रतिबद्धता और चेतना के निर्माण के कार्यभार को भीतर से बाहर तक पीछे छोड़ देते हैं। ऐसी स्थिति में कोई भी मसला आपके लिए महज राजनीतिक हथकंडा होता है! आप अवसरवाद के दलदल में उतारने की ओर बढ़ चले हैं! घटना के बाद भी आइसा और कविता कृष्णन जैसी नेनतृ के रवैये ने इसे और भी साफ कर दिया है।"

इस मामले में आइसा पर सवाल दागने वालों को संघियों के पक्ष में खड़ा होने के  साथ ही जेएनयू छात्र संघ चुनाव में संघी ब्रिगेड को मदद पहुंचाने और जेएनयू पर संघी हमले को मजबूत बनाने का आरोप झेलना पड़ रहा है। वामपंथी-प्रगतिशील समुदाय के एक हिस्से से दबे स्वर में यह भी सुनाई पड़ रहा है कि इस मसले पर चुप्पी साध ली जाय। क्योंकि इसका फाइदा संघ ब्रिगेड ले लेगा। ऐसे लोग वर्तमान परिस्थिति, जेएनयू पर जारी संघी हमले और जेएनयू छात्र संघ चुनाव को ध्यान में रखने की बात कर रहे हैं। हाँ, इस मामले में वामपंथी-प्रगतिशील समुदाय के कमोबेश चुप्पी और जेएनयू कम्यूनिटी के रवैये से भी यह साफ है।

घटना के पांचवे दिन एपवा नेतृ कविता कृष्णन का पोस्ट


रिंकु कहते हैं कि "सबसे पहले तो इस मसले से संघ ब्रिगेड का कोई लेना-देना नहीं है।वामपंथी-प्रगतिशील तबके पर उठने वाले किसी भी सवाल को दबाने के लिए सवाल खड़ा करने वाले को संघी ब्रिगेड के साथ खड़ा कर देना संघी औज़ार का इस्तेमाल ही है। यह कहीं से भी लोकतांत्रिक आंदोलन के हित में नहीं है। यह पुराना तर्क ही है  जो वामपंथी आंदोलन में बड़े भाई सीपीएम-सीपीआई सिंगूर-नंदीग्राम जैसे मामलों में वे -लोकतांत्रिक सर्किल से सवाल उठाने पर गढ़ते रहे हैं। जहां तक सवाल है कि जेएनयू छात्र संघ चुनाव है और बलात्कार मामले पर सवाल उठाने से जेएनयू में संघी ब्रिगेड को फायदा मिलेगा, इसलिए चुप रहा जाए! तो क्या यह अवसरवाद नहीं है? क्या संघी ब्रिगेड से लड़ाई में जेएनयू बलात्कार मामले को दबा देंगे? इस रास्ते से तो जेंडर संवेदनशीलता के निर्माण की लड़ाई आगे नहीं बढ़ेगी! जैसा कि पता चल रहा है लेफ्ट यूनिटी द्वारा जेएनयू चुनाव में इस मसले को दबा दिया गया है। चुनावी सफलता की जिद जेंडर संवेदनशीलता को आगे बढ़ाने, बलात्कार मामले पर सार्थक चर्चा और लोकतांत्रिक चेतना को आगे बढ़ाने की जरूरत की कुर्बानी ले रही है। केवल जेएनयू छात्र संघ पर किसी तरीके से कब्जा कर ही संघी ब्रिगेड के खिलाफ जेएनयू को बचाने की लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती है! पिछले दौर में जेएनयू पर संघी हमले का निर्णायक प्रतिरोध केवल छात्र संघ में लेफ्ट की मौजूदगी और कुछ करिश्माई नेताओं के जरिये नहीं हुआ है, निर्णायक प्रतिरोध महज कुछ संगठनों के बल पर नहीं खड़ा हुआ है। बल्कि निर्णायक प्रतिरोध जेएनयू कम्यूनिटी के लोकतांत्रिक चेतना के बल पर सामने आया है। सबसे महत्वपूर्ण और निर्णायक है- जेएनयू कम्युनिटी की लोकतांत्रिक चेतना! इस चेतना को विकसित करने के बजाय कमजोर कर संघी ब्रिगेड के खिलाफ न ही जेएनयू के भीतर और न ही बाहर निर्णायक लड़ाई हो सकती है। बेशक कुछ संगठनों के लिए चुनावी जीत ही केवल महत्वपूर्ण हो सकता है, लेकिन जेएनयू में छात्र- छात्राएं संघी ब्रिगेड को भी चोट देना जारी रखेंगे और उन्हें सिंगूर-नंदीग्राम के साथ तापसी मलिक भी याद रहेंगी! वे शोध-छात्रा के साथ हुए बलात्कार को भी नहीं भूलेंगे और न ही जेंडर संवेदनशीलता को आगे ले जाने व पितृसत्ता को भी चोट देना छोड़ेंगे!"

मुकेश कुमार गांधी विचार में पीएचडी के बाद आजकल पोस्ट पीएचडी के लिए शोध कर रहे हैं.  

हिन्दी साहित्य में अस्मितामूलक विमर्श विशेष संदर्भःस्त्री अस्मिता

$
0
0
अजय कुमार यादव
  अजय कुमार यादव, शोधर्थी , जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली . संपर्क :ajjujnu@gmail.com Mobile no.8882273975
पिछले कुछ दशकों में विचारधाराऔर चिन्तन की दुनिया में आए वैचारिक और अवधारणात्मक बदलावों ने ‘अस्मिता’ के प्रश्न को केन्द्र में लाकर खड़ा कर दिया. विचारधारा और चिन्तन के दुनिया में आए इन बदलावों ने कई प्रकार की अस्मिताओं को जन्म दिया, मसलन-राष्ट्रीय अस्मिता, सांस्कृतिक अस्मिता, स्त्री अस्मिता, दलित अस्मिता, आदिवासी अस्मिता और अल्पसंख्यक अस्मिता इत्यादि.‘अस्मिता’ पर हुए तमाम शोधों और अनुसंधानों के बावजूद ‘अस्मिता’ की परिभाषा विभिन्न सामाजिक संरचनाओं के द्वारा विभिन्न है. यद्यपि यह सभी जानते है कि इस शब्द का उपयोग वैचारिक विमर्शों और अकादमिक दुनिया में कैसे किया जाय? यह बताना सचमुच कठिन है कि ‘अस्मिता’ की ‘फलाँ’ परिभाषा इसे सम्पूर्णता में परिभाषित करती है लेकिन इस बारे में लोगों की सामान्य और स्पष्ट समझ है कि इस शब्द का प्रयोग कब किया जाए और क्यों किया जाए ? आश्चर्य जनक बात यह है कि किसी भी विद्वान ने इसे परिभाषित करने की आवश्यकता नहीं महसूस की और हिन्दी में तो इस पर सामग्री न के बराबर है और इसीलिए सामान्यतः ‘अस्मिता’ के प्रति पाठक की जो अकादमिक समझ है वह भी अस्पष्ट  है. अकादमिक दुनिया में फैशन की तरह उभरा यह शब्द आज कुछ विशेष सामाजिक वर्गों की तरफ इंगित करता है और इन सामाजिक संरचनाओं की पहचान की निर्मिति के रूप में रूढ़ हो चुका है और अब यह शब्द संदर्भों के आधार पर अपने अर्थ खोज लेता है.

समकालीन अस्मिता विमर्शों कीविचारधारा और मुद्दे अलग-अलग होने के बावजूद सभी आंदोलन अस्मिता आंदोलन का दावा जरूर करते हैं. हालांकि इस अस्मिता का स्वरूप सभी के लिए एक जैसा और सुपरिभाषित नहीं है. जब कोई समुदाय अपने अस्मिता तलाशने की कोशिश करता है तो उसके सामने ये सवाल सहज ही आ जाते है कि ‘हम कौन है?’ और दूसरे समुदायों के मुकाबले हमारी समाज में क्या हैसियत है? या हमारे बीच क्या सह संबंध है? इन सवालों से टकराकर ही व्यक्ति/समुदाय अपनी अस्मिता निर्माण की प्रक्रिया की शुरूआत करता है.
स्त्रियाँ अपने अस्मिता के लिए जिन सवालों से टकराती हैं और परस्पर वाद-विवाद करती हैं उसे ही स्त्री विमर्श के रूप में देखा जाता है. सामान्य शब्दों में कहें तो स्त्री के अस्तित्व को रसोई व बिस्तर के गणित से परे स्थापित करने की मुहिम ही स्त्री अस्मिता है. स्त्री अस्मिता का मतलब है:- स्त्री-पुरुष के बीच घटने वाले संबंधों को बिना नकारे, उसके पारस्परिक संबंध से मुक्ति. नारी तुम केवल श्रद्धा हो, देवी माँ, सहचरि प्राण जैसे ब्रह्म वाक्यों को सुनते हुए होश संभालने वाले इस सामाजिक मानस को परिवर्तित कर देना अकल्पनीय बात थी, लेकिन पिछले कुछ दशकों में उभरे सामाजिक अस्मिता के आन्दोलनों ने स्त्री की छवि, स्त्री की सामाजिक स्थिति और स्त्री के बारे में प्रचलित रूढ़िगत और मिथकीय अवधारणाओं को तोड़ा है.

सदियों से उसके जिस ‘स्व’ काअपहरण पितृसत्तात्मक व्यवस्था ने किया था उसे अब वह वापस पाने के लिए प्रयासरत है.स्त्री मुक्ति की बात करते हुए ये जानना जरूरी है कि स्त्री को किससे मुक्ति चाहिए? किसने उसे अधीन बना कर रखा है? और स्त्री भी अधीन बनी रही, इसके क्या कारण हो सकते है? रमणिका गुप्ता लिखती है कि- “एक साझी व्याख्या तो स्त्री की समझ में आ ही गई है कि पुरुष ने उसके मन को गुलाम बनाने से पहले उसे परिवार, ब्याह, संतान और समाज की लक्ष्मण रेखाओं के बाड़े में कैद करके उसके शरीर को गुलाम बनाया और उसे सभी अधिकारों से वंचित किया. पुरुष को जब जरूरत हो तो प्यार, आलिंगन व चुंबन के हथियार का इस्तेमाल कर या उसके रूप का बखान कर उसे गौरवान्वित किया- सर्वोत्तम करार किया, लेकिन उसके सब अधिकार छीन लिए ताकि वह उसी के प्रति समर्पित रहे. किन्तु, आज समय बदल रहा है, वह इस छद्म को पहचान गई है. आज वह घर, परिवार, पुरुष का सुरक्षात्मक छाता, रिश्तों की भावनात्मक बेड़िया- सभी को नकार अपनी अस्मिता के निर्माण के लिए जूझने लगी है.”1


स्वत्व का बोध होना स्त्री मुक्तिकी पहली सीढ़ी है क्योंकि स्वत्व का बोध होने पर ही स्वत्व की रक्षा का सवाल खड़ा होता है. यह पितृसत्तात्मक व्यवस्था ऐसी है जो गोहत्या पर दंगे कर देती है लेकिन भ्रूण हत्या व वधू हत्या पर चूँ नहीं करता. दरअसल दुनिया की ओर पीठ कर बैठ जाने की प्रवृत्ति या सामाजिक सत्ता को अस्वीकार कर अपने ही संसार में मग्न रहने की स्थिति से यहाँ काम नहीं चलने वाला है. इधर के दिनों में तो स्त्री सौंदर्य की प्रशंसा करने का हथकंडा जो पुरुष जाति ने अपनाया, वह वास्तव में स्त्री को व्यक्ति से वस्तु की तरफ गतिशील करता है और स्त्री का ध्यान वास्तविक स्वतंत्रता से अलग हटाता है. दुःखद बात यह है कि पैसे, सत्ता और प्रतिष्ठा के समीकरण वाले इस समाज में स्त्री भी पुरुष की अनुगामिनी हो रही है और यह इन मुक्तिगामी आन्दोलन को सही दिशा में नहीं ले जा रहा है. इससे स्त्री मुक्ति की डोर स्त्री के हाथों से फिसलने का भी डर है. स्त्रियों को यह समझना होगा कि वे कितने विडम्बनापूर्ण समय में जी रही है, जहाँ एक तरफ शक्ति, ज्ञान और सम्पदा के रूप में स्त्रियों (क्रमशः दुर्गा, सरस्वती और लक्ष्मी) की पूजा होती है और दूसरी तरफ स्त्रियों को इन्हीं तीन चीजों से हमेशा से वंचित रखा गया. शक्ति का काम तो हमेशा पुरुषों का ही माना गया.

दरअसल यह पूरा का पूरा मामला‘जेण्डर’ और ‘सेक्स’ का है. सेक्स जो कि जैविक विभेद को इंगित करता है लेकिन जेंडर सांस्कृतिक अर्थ की अभिव्यक्ति है. निवेदिता मेनन ने लिखा है कि- “खूब लड़ी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थी. इस पंक्ति का क्या अर्थ निकलता है? वास्तविकता में यह उस सूरत में भी जबकि एक औरत ऐसे अपरिमित शौर्य और वीरता का प्रदर्शन कर रही है, उसके इस गुण को ‘नारी सुलभ’ गुण नहीं माना जा रहा है यानि कुल मिलाकर बहादुरी का गुण पुरुषों की ही विशेषता कहलाती है, फिर भले ही कितनी भी औरतें बहादुरी का प्रदर्शन करती रहें और कितने ही पुरुष पीठ दिखाकर भाग खड़े होते रहें.”2 कुल मिलाकर इस संदर्भ में केवल इतना ही कि इस विशिष्ट सामाजिक व्यवस्था में स्त्रियों का काम केवल रोना है.तैत्तिरीय संहिता के अनुसार उसे किसी प्रकार की शिक्षा पाने का कोई अधिकार नहीं, वरन् धन उपार्जन करने या अपने शरीर को अवाहित क्रियाओं तक से बचने का अधिकार उसे नहीं है. प्राचीन काल से ही गार्गी जैसे कुछ उदाहरणों को छोड़ दिया जाय तो शिक्षा स्त्रियों के लिए जरूरी नहीं समझा गया इसलिए उनको उससे वंचित रखा गया.

कुमकुम राय ने लिखा है कि- “एकतरफ हमें गार्गी जैसी महिला दार्शनिकों की चर्चा मिलती है वहीं इस बात के बहुत थोड़े प्रमाण मिलते है कि शिक्षा प्रसार के औपचारिक संस्थानों में बतौर छात्रा या शिक्षिका, महिलाएँ भी उपस्थित थीं. दूसरे शब्दों में, ऐसी महिलाएँ भी संभवतः नियमित बौद्धिक गतिविधियों में हिस्सेदारी करने के बजाय सिर्फ गाहे-बगाहे ही अपनी उपस्थिति दर्ज कराती थीं.”3 इस स्थिति को और इस व्यवस्था को व्यवस्थित करने में मनु महाराज कैसे पीछे रहते, उन्होंने स्त्रियों को उपनयन संस्कार में शामिल होने से रोका. चूँकि उपनयन संस्कार पवित्र ज्ञान प्राप्ति का प्रारम्भिक बिंदु था. इसे और गहरे स्थापित करने के लिए उन्होंने कई विकल्प भी सुझाए, जैसे- ‘स्त्रियों के लिए विवाह करना पुरुषों के उपनयन के समकक्ष है, पति की सेवा करना छात्र होने के समान है और घर के कामों को संपन्न करना पवित्र अग्नि की पूजा अर्चना के समान है‘ ( मनुस्मृति प्रकरण 2-67) कुमकुम राय ने लिखा है कि- “ऐसे निर्देशों को स्वीकार कर लेने का मतलब होता है कि कोई भी गैर घरेलू काम को नारीत्वहीन और गैर पत्नी कार्य माना जाता.”4


और जहाँ तक स्त्रियों की सम्पदापर अधिकार की बात है, आर्थिक स्वतंत्रता जरूर बढ़ी है स्त्रियों में, लेकिन आर्थिक स्वतंत्रता का होना स्त्री के शोषित न होने की गारंटी नहीं है. आर्थिक स्वतंत्र होते हुए भी उसका शोषण हो रहा है, क्योंकि यह पितृसत्तात्मक व्यवस्था उसे पचा नहीं पा रही है. आर्थिक स्तर पर आत्मनिर्भर स्त्री को भी दहेज के लिए मार दिया जाता है.
  अनामिका ने पितृसत्ता के नजरों में स्त्री की जो छवि निर्मित है उसकी बानगी   प्रस्तुत किया है-
 ‘पढ़ा गया हमको /  जैसे पढ़ा जाता है कागज
 बच्चों की फटी काॅपियों का / ‘चनाजोर गरम’ के लिफाफे के बनने से पहले
 देखा गया हमको / जैसे कि कुफ्त हो उनींदे
 देखी जाती है कलाई घड़ी / अलस्सुबह अलार्म बजने के बाद
 सुना गया हमको / यों ही उड़ते मन से
 जैसे सुने जाते हैं फिल्मी गाने सस्ते कैसेंटों पर / ठसाठस्स ठुंसी हुई बस में
 भोगा गया हमको / बहुत दूर के रिश्तेदारों के दुःख की तरह.’
और आखिरकार इन स्थितियों से अफना कर लिखती हैं कि-
हे परमपिताओं / परमपुरुषों-
बख्शो, बख्शो, अब हमें बख्शो!

लेखिकाएं सिर्फ अपने कोएक इंसान का दर्जा दिलाने के लिए प्रतिबद्ध हैं. अर्धांगिनी , देवी जैसे फुसलाने वाले शब्दों पर संदेह करने लगी हैं. वास्तव में मोहक शब्दों का यह माया जाल स्त्री को आत्ममुग्धता की ओर ले जाता है और वह इस शब्द खेल में उलझती हुई कठपुतली की तरह नाचती है. इन षड्यन्त्रों को समझते हुए स्त्री अपनी अस्मिता का निर्माण कर रही है. स्त्री अपनी पहचान के लिए बेचैन है, अपनी पहचान पर सिर्फ अपना हक समझती है. अस्मिता निर्माण में यह प्रथम सोपान है ‘स्व’ का बोध. स्त्री को अपने ‘स्व’ का पूर्ण बोध है. तरन्नुम रियाज ने लिखा है कि-“उसे अपनी पहचान पर/ इतना नाज है/ कि वह मुझे नहीं पहचानता है/ वह कहता है/ उसकी पहचान ही है मेरी पहचान / और इसके अलावा / मेरा कोइ वजूद नहीं है मुमकिन / कि/ उसकी माँ की पहचान भी / उसका बाप था / और सबकी माँओ की पहचान/ सबके बाप होते हैं/ मगर मैं अपने आप को पहचानती हूँ/ अपने माँ बनने और/ उसके बाप बनने के बहुत पहले से/ वह भले ही मुझ पर/ अपनी पहचान थोपता है/ मगर मैं उसे/ अपनी पहचान नहीं दूंगी!”  ‘सेवा समर्पण और सहनशीलता’ जैसे तीन ‘स’ वाले शब्दों के बीच कैद स्त्री को अपने अस्तित्व का भान है.
 “तुम इन्द्रधनुष बनोगे आकाश का
 मैं छत के चमगादड़ गिनूँगी
 साथी ये नहीं होगा.” ; मेघना पेठे
 

आज स्त्री मजबूर नहीं है, वह अपनाअस्तित्व समझने लगी है. उसे यह पता हो गया है कि उसकी गतिशीलता को बाधित करने के लिए ही पुरुष-सत्तात्मक समाज वर्जनाओं की बेड़ियाँ गढ़ता रहा है. स्त्री की ममता का उसकी कमजोरी मानकर पुरुष ने उसकी ममता ग्रन्थि को बेड़ी बनाकर स्त्री को गतिहीन कर दिया. उसकी कोख, उसकी देह और उसके सेक्स पर किसी एक पुरुष के आधिपत्य का सिद्धांत इसलिए गढ़ा गया कि उन्हें एक ‘वस्तु’ बना दिया जाय और वे खुद भी अपने को वस्तु ही समझें. इसके लिए पितृसत्तात्मक समाज ने रिश्तों का जंजाल बुना और इन रिश्तों की मर्यादा को त्याग और ममता से सींचने का ठेका पुरुषों ने स्त्रियों को दे दिया. पुरुष जब मन करे तो रिश्तों को तोड़ ले लेकिन स्त्री नहीं तोड़ सकती. अगर वह तोड़ देती है तो उसे वाचाल तथा हठधर्मी कहकर, उसे डायन कहकर सरेआम नंगे पूरे गाँव में घुमाए जाने का रिवाज पुरुष जाति ने बनाया. लेकिन स्त्री भी अब खुलकर बोलने लगी है, वह अब ताल ठोंक कर कह रही है कि हाँ मैं बुरी औरत हूँ. निरुपमा दत्त ने लिख है कि-“तुम मेरे शहर आओगे/ तो बुरी औरतों की फेहरिस्त में मेरा नाम भी दर्ज पाओगे/ मेरे पास है वह सब कुछ/ जो एक बुरी औरत के पास होना/ बेहद जरूरी है/ मुँह में जलती आग/ धड़कता दिल/ थिरकती रग-रग/ हाथ में छलकता जाम/ पाँव चले सड़क/ ऊपर खुला आसमान/ सहने का मेरा हौसला बेमिसाल है/
मेरे पास कहने को पूरा आसमान है.”
 
जब स्त्री के अन्दर इतना आत्मसम्मानआ जाता है तभी वह निर्णय ले पाती है. निर्णय लेने के अधिकार को ही पन्ना नायक ‘स्त्री मुक्ति’ कहती है-
“दो पैरो में से
कौन-सा एक पैर
खौलते पानी में रखूँ
और कौन-सा जमी हुई बर्फ पर
यह निर्णय लेने का अधिकार
यानि ‘स्त्री मुक्ति’.
कविताओं के कई अंदाज और तेवर मिलेंगे. कहीं पर वे पितृसत्ता को चुनौती देती हैं तो कहीं पर प्रेम से बतियाती भी है. अपनी बात को तर्कपूर्ण ढंग से रखकर वे बहस करती है. वाद-संवाद की शैली में कहीं पर मुक्ति का गणित पेश करती हैं तो कही पर घिसे-पिटे पुराने आदर्शों को तोड़कर उसे नए अंदाज में पेश करके पुरानी गं्रथि को तोड़कर ही अपनी अस्मिता की खोज करती हैं.
 
स्त्रीवादी चिंतकों और विचारकोंने स्त्रियों की मुक्ति में कुछ सार्थक कदम जो बताए हैं वे इस प्रकार हैं, जैसे- स्त्रियों को अपने अस्तित्व के प्रति बोध कराना, स्त्रियों की शिक्षा पर ध्यान देना, आर्थिक स्वतंत्रता और देह की स्वतंत्रता. यहाँ यह बात भी काबिलेगौर है कि देह की स्वतंत्रता केवल यौन से मुक्ति नहीं है. अनामिका ने कहा है कि- “पागल हैं लोग जो देह मुक्ति का अर्थ देह को ‘मुक्त चरागाह’ बना देना समझते हैं. हमेशा-हमेशा से औरत की देह ही उसके शोषण की प्राइमरी साइट रही है- मार-पीट, गाली-गलौज, बेगार, भावहीन, यांत्रिक सम्भोग, बलात्कार, डायन-दहन, पोर्नोग्राफी, पर्दा-प्रथा और सती, असुरक्षित प्रसव और तद्जन्य बीमारियाँ- सबके मूल में ‘देह’ ही तो है.”5 तो देह की मुक्ति को केवल यौन से मुक्ति के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए बल्कि स्त्री देह से जुड़ी वो सभी शोषक गतिविधियों से मुक्ति ही देह मुक्ति है. स्त्री की देह उसकी अपनी है और उससे जुड़े सभी निर्णय उसके अपने हो. चाहे वह विवाह का मामला हो या सन्तानोत्पत्ति उसके निर्णय का भी सम्मान किया जाय. दूसरी तरफ स्त्री की देह का बाजार द्वारा जो उपनिवेशीकरण किया गया उस पर भी रोक लगाने की जरूरत है. जो स्त्रियाँ खुद को बाजार को सौंपने के लिए उतावली हैं उन्हें भी यह समझना होगा कि बाजार उन्हें नहीं उनकी देह को खरीद रहा है जो कि कहीं से भी ठीक नहीं है. लीलाधर मंडलोई ने लिखा है कि- “स्त्री सोच के बदलते आयाम अपनी देह के उपयोग को लेकर सीमित अर्थों में कदाचित सही लगे किंतु नारी मुक्ति आंदोलन के परिपे्रक्ष्य में वे अनुकूल नहीं होंगे.”6
 
स्त्री विमर्श प्रमुख रूप से पितृसत्तात्मकसमाज के विरूद्ध आन्दोलन के रूप में शुरू हुआ. मुख्य मुद्दा था स्त्री को वे सभी अधिकार प्राप्त होने चाहिए जो अब तक पुरुष सत्ता के कारण नहीं प्राप्त हो सके. पश्चिम में स्त्री विमर्श लेखन का प्रारम्भ 20वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में ही शुरू हो गया था. परन्तु हिन्दी में स्त्री विमर्श आन्दोलन बहुत बाद में शुरू हुआ. किन्तु स्त्री-मुक्ति आंदोलन और स्त्रीवादी चेतना के फलस्वरूप नारी जीवन में एक नयी उर्जा दिखाई पड़ी, और एक नया उन्मेष आया. अब वे अपने अधिकारों के लिए पुरुष के समानान्तर अपनी दुनिया देखने लगीं. पुरुष के वर्चस्व को चुनौती देती हुई हिन्दी साहित्य में कई स्त्री-चिंतक देखी जा सकती है. जैसे- महाश्वेता देवी, कृष्णा सोबती, चित्रा मुद्गल, प्रभा खेतान, मैत्रेयी पुष्पा, रमणिका गुप्ता, अनामिका आदि.
विशेषकर दलित स्त्री, जाति व पितृसत्ता रूपी दोहरे अभिशापों के तीखे दंशों को झेलने के लिए अभिशप्त है. भारतीय समाज व्यवस्था में स्त्री होने के साथ दलित होना स्त्री के संतापों को कई गुना बढ़ा देता है. भारतीय समाज जाति व धर्म पर आधारित है. पितृसत्तात्मक भी है. पितृसत्ता ने सारे नियम अपनी सुविधा के अनुसार बनाये हैं. दलित स्त्रियां जाति और पितृसत्ता दोनों का उत्पीड़न झेलती हैं. घर के बाहर गैर दलित उन्हें लहूलुहान करते हैं तो घर के अन्दर दलित पुरुषों की वर्चस्ववादी मनोवृत्ति व शारीरिक हिंसा उन्हें तोड़ती है.

आज दलित समाज से दलित महिलाओंको अलग करके देखने की आवश्यकता है आज का दलित समाज मनुवादियों के षड्यंत्रों के कारण हर क्षेत्र में पिछड़ा हुआ है. किंतु दलित समाज की महिलाएं उससे भी अधिक पिछड़ी हुई हैं. इस मायने में दलित महिलाएं दोहरी दलित हैं. इसमें दो राय नहीं है कि हमारे समाज में औरत और उसमें भी दलित औरत की स्थिति काफी दयनीय है. दलित स्त्री के शोषण के मुख्य कारण हैं- अशिक्षा, निर्धनता, रूढ़िवादिता,  अतः कहना न होगा कि आत्मनिर्भरता और शिक्षा का सवाल दलित स्त्री का भी प्रमुख सवाल है. समाज में पवित्र और उत्कृष्ट समझी जाने वाली प्रचलित मिथकीय संरचनाओं पर कड़ा प्रहार करता हुआ स्त्री आन्दोलन वास्तविक अर्थों में विवेकशील परंपराओं  का समर्थन करता है. महान समझी जाने वाली उच्च एवं पितृसत्तात्मक केंद्रित परम्पराओं पर प्रहार करती हुई उनकी विवेकशीलता पर सवाल करत है. ज्ञान के परंपरागत मिथकीय स्थापनाओं को खारिज करती हुई कड़ा प्रतिरोध दर्ज करत है.जर्मेन ग्रीयर ने अपनी किताब ‘द फीमेल यूॅनक’ में इब्सन के डाल हाउस एक्ट के नोरा-हैल्मर संवाद के हवाले से स्त्री मुक्ति संबंधी अपनी मान्यता को प्रस्तावित करती है. “नोरा ने हैल्मर से पूछा- तुम क्या मानते हो मेरा सबसे पवित्र कर्तव्य क्या है? और जब उसने कहा कि- अपने पति और बच्चों के प्रति, तुम्हारा कर्तव्य तो वह असहमत होती है और कहती है कि- मेरा एक और कर्तव्य है, उतना ही पवित्र, अपने प्रति मेरा कर्तव्य...मैं मानती हूँ कि सबसे पहले मैं मनुष्य हूँ...उतनी ही जितने कि तुम हो या हर सूरत में मैं वह बनने की कोशिश करूँगी ही.”7

स्त्री मुक्ति आंदोलन का मुख्य लक्ष्यही है कि स्त्री को भी एक इंसान के रूप में देखा जाए, उसमें एक इंसान की तरह अच्छाईयाँ व बुराईयाँ भी हो सकती है. स्त्री मुक्ति आन्दोलन पितृसत्तात्मक व्यवस्था के परम्परागत ढाँचे को तोड़कर एक स्त्री को असफल होने का भी अधिकार देता है और पुनः प्रयास करने का भी.अपने व्यापक परिप्रेक्ष्य में यह आन्दोलन ‘सामाजिक न्याय’ का भी आंदोलन है. नाओमी वुल्फ ने अपनी किताब ‘फायर विद फायर’ में लिखा है कि- “वृहद स्तर पर नारीवाद को सामाजिक न्याय के लिए एक अनिवार्य आंदोलन समझना चाहिए. इस स्तर पर नारीवादी होने का अर्थ होगा कि- स्त्री होने के कारण कोई मेरे रास्ते में बाधा न बने और किसी की जाति या स्त्री पुरुष होने के आधार पर कोई मतभेद न हो तथा स्त्रियों के पक्ष में काम करने का अर्थ यह नहीं कि हम उन्हें देवी का दर्जा दे या उन्हें पुरुषों से बेहतर या अलग समझें.”8 अंततः ऐतिहासिक परिवर्तनों की प्रक्रिया में स्त्री इतिहास का साथ बखूबी निभा रही है. इस प्रयास की दिशा सही है या गलत, वादों के नारों के बीच स्त्री अपना स्वरूप खो रही है या तलाश रही है इसका निर्णय काल अपने क्रम में स्वयं कर देगा लेकिन स्त्री अस्मिता के आन्दोलन स्त्री मुक्ति की दिशा में सार्थक है इसमें कोई दो राय नहीं है.

संदर्भ -
संपादकीय ‘खरी-खरी बात’ से, ‘युद्धरत आम आदमी’ संपा. रमणिका गुप्ता पूर्णांक 108, 2011
पृ. 9 निवेदिता मेनन .‘नारीवादी राजनीतिः संघर्ष एवं मुद्दे’ संपादक: साधना आर्य, निवेदिता मेनन, जिनी लोकनीता,
पृ. 141 कुमकुम राय,वही
पृ. 141 कुमकुम राय,वही
पृ. 16, ‘सामायिक मीमांसा’ संपा. विजय कुमार मिश्र:अंक 1, वर्ष 4, जनवरी-जून-2011
पृ. 15, वही
पृ. 20, जर्मेन ग्रीयर: ‘द  फीमेल यूनक’
पृ. 13, नाओमी वुल्क, ‘फायर विद  फायर’

मर्दाना हकों की हिफ़ाजत करता मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड

$
0
0
नासिरुद्दीन
एक बार फिर ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड सुर्खियों में है. और इतिहास गवाह है कि पर्सनल लॉ बोर्ड के सुर्खियों में आने की ज्यादातर एक ही वजह होती है. वह है, मुस्लिम महिलाएं.एक बैठकी में तीन तलाक, भरण पोषण, मर्दों की एक साथ कई शादियां जैसी एकतरफा मर्दाना हकों के खिलाफ पिछले कुछ महीनों में महिलाओं की  तेज हुई आवाज . ये आवाजें सुप्रीम कोर्ट की चौखट तक पहुंच गयी हैं. जैसी उम्मीद थी, बोर्ड इस आवाज को दबाने के लिए पूरी मुस्तैदी से आगे आ गया है. आवाज दबाने का सबसे आसान और आजमाया नुस्खा है- किसी बात को धर्म के खिलाफ कह दिया जाये.


पिछले दिनों बोर्ड ने सुप्रीम कोर्टमें उन मुद्दों पर 68 पेज का एक जवाबी हलफनामा दायर किया. बोर्ड ने कहा कि एक साथ तीन तलाक, बहुविवाह या ऐसे ही अन्य मुद्दों पर किसी तरह का विचार करना शरीयत के खिलाफ है. इनकी वजह से मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों के हनन की बात बेमानी है. इसके उलट, इन सबकी वजह से मुस्लिम महिलाओं के अधिकार और इज्जत की हिफाजत हो रही है. (कैसे हो रही है, यह बात तो वे महिलाएं ज्यादा बेहतर बता पायेंगी, जिनकी जिंदगी एकतरफा तीन तलाक, बहुविवाह से गुजरी हैं या गुजर रही हैं.) यही नहीं, बोर्ड ने कहा कि कोर्ट को यह हक नहीं बनता कि वह मुसलमानों के निजी मामलों में दखल दे. अभी इस पर बात नहीं करते हैं कि एक झटके में तलाक, एक साथ कई बीवियां रखना जैसे मुद्दे इस्लाम की रूह के कितने खिलाफ हैं. इस वक्त सवाल यह है कि ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड किसके हक की हिफाजत कर रहा है?

भारत में इस्लाम की उम्र 13 सौ साल से ज्यादा है, जबकि पर्सनल लॉ बोर्ड महज साढ़े चार दशक पुरानी गैर-सरकारी संस्था है, जिसका कोई संवैधानिक दर्जा नहीं है. न ही यह भारतीय मुसलमानों की एकमात्र प्रतिनिधि संस्था ही है. इसके सदस्यों का चुनाव भी भारत के आम मुसलमान नहीं करते हैं. बोर्ड के विचार को मानना किसी पर लाजिमी नहीं है. हां, यह भारतीय उलमा की बड़ी संस्था है. इसमें शामिल उलमा, सुन्नी मुसलमानों के एक पंथ के बीच पैठ रखते हैं. ज्यादातर उलमा पारंपरिक ख्याल के हैं. वे जिस शरीयत को बचाने की बात करते हैं, वह पुरातन है. मुसलमानों में भी सुन्नियों के एक ही पंथ का विचार है. गौरतलब है, मुसलमानों में कई पंथ हैं.


यह बोर्ड पितृसत्तात्मक मूल्यों औरमर्दाना सामाजिक ढांचे की हिफाजत करनेवाला एक संगठन है. इसलिए गाहे-बगाहे यह महिलाओं की बात जरूर करता है, लेकिन हिफाजत मर्दों के हकों की करता है. या यों कहना चाहिए कि बोर्ड मर्दों के निजाम की हिफाजत करने और महिलाओं की आवाज को काबू में करने के लिए ही है. इसमें शामिल ज्यादातर उलमा इस्लाम की रूह के दायरे में भी किसी तरह की नयी सोच के मुखालिफ हैं. इसलिए हफलनामे के जरिये बोर्ड ने जो विचार रखे, वह उसके मर्दाना नजरिये का ही आईना है. बोर्ड का हलफनामा कहता है, महिलाएं जज्बाती होती हैं, इसलिए सही फैसले नहीं ले सकतीं. इसलिए तलाक का हक मर्दों को है. वैसे, बोर्ड चाहे तो एक काम कर सकता है. कुछ दारुल इफ्ता के फतवों पर गौर कर ले और देख ले कि जज्बात में इसलाम की धज्जियां उड़ाते हुए एक वक्त में तीन तलाक मर्द देता है या औरत.

बोर्ड के हलफनामे के मुताबिक,फैसले लेने का काम मर्दों का है. इसलिए मर्दों को ज्यादा हक दिये गये हैं. फैसला लेने में औरतें कमजोर हैं. मर्दों को हक ज्यादा है, इसलिए जिम्मेवारियां भी ज्यादा हैं. इसलाम में महिलाओं को कम अधिकार दिये गये हैं, इसलिए उनकी जिम्मेवारियां भी कम हैं. और तो और बोर्ड के मुताबिक, अधिकारों की यह गैरबराबरी, सामंजस्य पैदा करता है! हम जरा सोचें, यह किस सदी में बात हो रही है? यह किस मुल्क में बात हो रही है? यह किसके लिए बात हो रही है? बतौर इंसान यह महिलाओं की बेइज्जती है और यह बेइज्जती मजहब के नाम पर है. यह बेइज्जती उन करोड़ों महिलाओं की है, जो मर्दों को पैदा करती हैं और उनकी पर‍वरिश करती हैं. घर चलाती हैं. वोट देती हैं. सरकारें चुनती हैं. चुन कर जाती हैं और समाज व देश के बारे में फैसला लेती हैं. लगे हाथ एक सवाल यह भी तो हो सकता है कि हजारों घरों, दफ्तरों की मुखिया महिलाएं हैं. उन पर जिम्मेवारियां हैं. वे अकेले फैसला लेती हैं. क्या ऑल इंडिया मुसलिम पर्सनल लॉ बोर्ड ऐसी सभी महिलाओं को मर्दों से ज्यादा हक देगा?

इस मुल्क में एक संविधान है, जो‘भारत के लोग’ की बात करता है, हिंदू या मुसलमान की नहीं. वह मजहब मानने की आजादी देता है. सभी नागरिकों को बराबरी का हक देता है. बतौर नागरिक, बराबरी का हक देते वक्त वह यह नहीं कहता कि मुसलमान महिलाओं को, मर्दों के मुकाबले कम हक होंगे. किसी भी विचार या मजहब की कोई बात, अगर संविधान के मूल्यों से टकरायेगी, तो अंतत: बात संविधान की ही मानी जायेगी. अब कोई इससे सहमत हो या न हो. तो बोर्ड ने जो हलफनामा दिया है, वह संविधान के मुताबिक है या उसके खिलाफ? बतौर नागरिक, किसी भारतीय का हक ज्यादा है न कम. मर्द के वोट की कीमत, महिला से न ज्यादा हुई है न होगी. हां, अगर बोर्ड का बस चले, तो शायद यह दिन भी देखना पड़े!


पिछले साढ़े चार दशकों में भारतकी मुस्लिम महिलाओं की जिंदगी तय करने में लॉ बोर्ड की अहम भूमिका रही है. सरकारों, न्यायपालिकाओं, मीडिया और समाज के दूसरे अंगों ने इसे ही मुसलमानों का नुमाइंदा मान लिया है. नतीजतन मुसलमानों से जुड़े मसलों में इनकी राय अहम मान ली जाती है. बोर्ड ने अपनी इस हैसियत का मुस्लिम महिलाओं को क्या सिला दिया है? बोर्ड के हलफनामे में जाहिर विचार एक खास खांचे में खास तरह की मुस्लिम महिला की तसवीर गढ़ता है. इसके लिए महिलाएं अभी इंसान  के दर्जे में ही नहीं हैं. वह पुरुषों से न सिर्फ नीचे है, बल्कि वह उसके इस्तेमाल के लिए महज एक जिस्म है. अगर ऐसा न होता, तो बोर्ड को जीती-जागती महिलाओं की तकलीफ सुनाई-दिखाई देती. इस्लाम की रूह इंसाफ और बराबरी है. मुस्लिम महिलाएं तो यही मांग रही हैं न.
प्रभात खबर से साभार

बेडटाइम स्टोरीज : 'स्वीट ड्रीम्स': सेक्स पोर्न और इरॉटिका का 'साहित्य'बाजार

$
0
0
अर्चना वर्मा
अर्चना वर्मा प्रसिद्ध कथाकार और स्त्रीवादी विचारक हैं. संपर्क : जे-901, हाई-बर्ड, निहो स्कॉटिश गार्डेन, अहिंसा खण्ड-2, इन्दिरापुरम, ग़ाज़ियाबाद – 201014, इनसे इनके ई मेल आइ डी mamushu46@gmail.com पर भी संपर्क किया जा सकता है.
 सनी लियोनी अब कथाकारभी है. फ़िलहाल अंग्रेजी में.

प्रियदर्शन ने इस विषय पर संजाल-समाचार-पत्र‘सत्याग्रह’ में अपनी टिप्पणी में ज़िक्र किया है कि  सोशल मीडिया पर सवाल उठाया जा रहा है कि क्या हम सनी लियोनी के लेखन को भी साहित्य मानेंगे? एक मई दो हजार सोलह  के जनसत्ता के साहित्यिक परिशिष्ट मेँ इसी लेखन के विषय में सुधीश पचौरी का एक आलेख छपा है – ‘’देहलीला से देहगान तक .”

ये कहानियाँ आपके जाने पहचाने पुस्तक-प्रारूप में नहीं आ रही हैँ.वे आपके ऐण्ड्रॉयड मोबाइल फ़ोन (अगर आपके पास है तो) पर, रोज़ाना एक के हिसाब से, ऐप्स के माध्यम से एक एक करके रात को दस बजे अवतरित होंगी. कुल मिलाकर बारह . शब्दशः बेडटाइम स्टोरीज़’ – “स्वीट ड्रीम्स”. यह ई-बुक विधान के एक प्रकारान्तर में जगरनॉट बुक्स का नया प्रकाशन-प्रयोग है. जगरनॉट बुक्स द्वारा यह प्रयोग ऐप्स के माध्यम से मोबाइल पर प्रकाशित होने वाली पुस्तकों के 101 शीर्षकों से आरंभ किया जा रहा है. ये विशेष रूप से भारतीय पाठक को ध्यान में रखते हुए चुनी गयी किताबेँ हैं. इनमें से एक किताब सनी लियोनी से आग्रहपूर्व लिखवाई गयी कहानियों का संकलन भी है.आग्रहपूर्वक लिखवाई गयी कहानियाँ . आग्रह करने वाला जब प्रकाशक हो, और जिससे आग्रह किया जा रहा हो उसका नाम सनी लियोनी हो तो यह समझने के लिये ज्यादा बुद्धि या कल्पना खर्च नहीं होती कि आकर्षण और आह्वान बाज़ार का है. बाज़ार भी कौन सा? सुधीश पचौरी का आलेख  ‘’देहलीला से  देहगान तक ’’कहीं विश्लेषण तो कहीं विज्ञापन कीमुद्रा में बताता है कि ‘इरॉटिका’ और ‘पोर्न’ का बाज़ार.

सनी लियोनी की ‘साइट’ पर देहलीला, सनी लियोनी की कहानियों में देहगान. सनी की साइट के सिलसिले में सुधीश पचौरी खजुराहो की मूर्तियों की मैथुन-मुद्राओं और सनी की स्टोरीज़ के सिलसिले में हिन्दी के रीति-काव्य की गवाही दिलाकर परम्परा के हवाले से उसकी वकालत भी करते नज़र आते हैँ. उन्होंने इन कहानियों को “अंग्रेजी में देसी इरॉटिक कथा की शुरुआत “ कहा है. परम्परागत ‘’लीला‘’ और ‘’गान’’ में परस्पर तो कोई विरोध नहीं; जैसे रीतिकाव्य की अनेक पंक्तियाँ तत्कालीन काँगड़ा  और राजस्थानी शैलियों मेँ चित्रांकित दिखाई देती हैं और खजुराहो की मैथुन-मूर्तियों मेँ भी काम-अध्यात्म के रचनात्मक मूल्य बोलते हैं; लेकिन शायद विश्लेषण और विज्ञापन में इसी घालमेल की वजह से आलेख की  तर्कपद्धति में पोर्न और इरॉटिका समानार्थी और पर्यायवाची ढंग से प्रयुक्त हो उठे हैँ. जबकि इन दोनो में परस्पर विरोध है. कामोद्दीपन के समान उद्देश्य के बावजूद उनमें स्तरों का विशाल  भेद है जो दो सर्वथा भिन्न तासीर वाली वस्तुओं में बदल जाता है. वैसे ही जैसे पानी की दो परिणतियाँ – भाप और बर्फ़ – तासीर में एक दूसरे के विपरीत हुआ करती है.

इस अन्तर को देखना और समझना ज़रूरी भी है. तो सनी के बहाने उठाया जाने वाला पहला नुक्ता यही है कि पोर्न और इरॉटिका में क्या कोई बुनियादी फ़र्क है? कह दूँ कि व्यक्तिगत रूप से मैं  सनी लियोनी की प्रशंसक हूँ. अन्य बहुत सारे लोगों के साथ मेरी भी यह प्रशंसा उन्होंने अपने व्यक्तित्व की योग्यता से स्वयं अर्जित की है. अंग्रेजी न्यूज़ चैनल सीएनएन-आईबीएन में एक के साप्ताहिक-साक्षात्कार-कार्यक्रम प्रसारित किया जाता है. “हॉट सीट.” पन्द्रह जनवरी दो हजार सोलह के कार्यक्रम में “हॉट सीट” पर सनी लियोनी उपस्थित थी. साक्षात्कर्ता भूपेन्द्र चौबे. अगर साक्षात्कार आपने देखा है तो  महसूस किया होगा कि कार्यक्रम का नाम ‘’हॉट-सीट’’ बहुत ही सटीक साबित हुआ. एक बहुत ही आक्रामक और अपमानजक प्रश्न-सत्र का बहुत  ही संयत और शालीन गरिमा के साथ  सामना करके सनी ने प्रमाणित किया कि वे एक ‘’ वूमन ऑफ़ सब्स्टेन्स ’’ यानी कि सार-तत्व-सम्पन्न महिला हैं. तो दूसरा विचारणीय नुक्ता यह कि उनके ‘वुमन ऑफ़ सब्स्टेन्स’ होने का कोई अनिवार्य आन्तरिक सम्बन्ध क्या उनके ‘’पोर्न क्वीन” होने या फिर अपने शरीर के प्रति उनके दृष्टिकोण के साथ है? तीसरा नुक्ता भी यहीं दर्ज कर दिया जाय कि क्या उनके विगत व्यवसाय की वजह से लेखक होने का उनका अधिकार या उनके लेखन का स्वरूप सन्दिग्ध हो जाता है? लेकिन इन नुक्तों  को थोड़ा आगे के लिये स्थगित करके यहाँ पहले नुक्ते की तरफ़ लौटा जाय.


नुक्ता असल मेंअपने विस्तार में पूरा दायरा है, बल्कि एक दूसरे को काटते कतरते, उलझते उलझाते दायरों में फँसे हुए दायरे पूरा गुंझल बनाते हैं. कहावत की तरह दोहराई जा सकती है यह बात कि एक जने का “ इरॉटिक” दूसरे जने का “पोर्न” हुआ करता है. दिक्कत तब उठती है जब शहरीकरण, विस्थापन, रोज़गार वगैरह वगैरह वजहों से ये सारे एक दूसरे को काटते कतरते, परस्पर द्वेषग्रस्त दायरे एक साथ एक ही लोकवृत्त में मौजूद होते हैं और वास्तविक जीवन में एक के ‘इरॉटिक’ की भूमि पर दूसरा कोई ‘पोर्न’ की कहानी उत्कीर्ण करने लगता है और विकट दुर्घटनाएँ घटती हैं.स्पष्टतः यहाँ ‘’एक जने’’ का मतलब नितान्त वैयक्तिक विकृतियों या विशिष्टताओं के सन्दर्भ में  ही  “एक अकेले जने” को  समझा जा सकता है. बृहत्तर पैमाने पर ये परिभाषाएँ सामुदायिक हुआ करती हैं और समाज-सापेक्ष व संस्कृति-सापेक्ष भी. समाज के भीतर अनेक लघुतर समुदाय, उनके अनेकस्तरीय पूर्वग्रह, दुरग्रह, विधि-निषेध  के संस्कार, मर्यादाएँ वगैरह हुआ करते हैं. उनका शिकंजा उनके सदस्यों के / हमारे अपने आपे का अंश होता है और उसे खुद से  छील कर न हम अलग कर सकते हैँ और न ही उनसे जुड़े विवादों में प्रायः तर्क और विवेक  की कसौटियाँ कायम रख सकते हैं.

सेक्स, पोर्न और इरॉटिका की शब्दावलीको अपने देसी साहित्यिक-सांस्कृतिक सन्दर्भों में काम-रति-शृंगार और अश्लील मे अनूदित किया जा सकता है. ‘काम’ का कलात्मक कायाकल्प ‘रति’ है और उसका रस-परिपाक शृंगार. शृंगार रसराज है. हमारे देसी साहित्यशास्त्र में शृंगार की यह महत्ता जीवन में ‘कामशक्ति’ की प्रबलता और उसको उदात्त बनाने की ज़रूरत की स्वीकृति से निकली है. रसात्मक परिणति से विचलन परिपाक तक जाने की बजाय ‘अश्लील’ काव्य-दोष होकर रह जाता है. सुधीश पचौरी  के आलेख में रीतिकाव्य और खजुराहो के दृष्टान्त शायद इसी प्रकार के अनुवाद से निकले है. शृंगारिक’ और ‘अश्लील’ की व्यंजना अभिव्यक्ति में संवेदना और सुरुचि के होने या न होने से जुड़ी है. ‘ पोर्न ’ को शायद अश्लील का समकक्ष माना जा सकता है और इरॉटिका को शृंगार का; लेकिन समकालीन विश्व में ‘पोर्न’ के व्यवसाय और बाज़ार ने ख़तरनाक आयाम अख्तियार कर लिये है. इसलिये पोर्न के द्वारा जो  संप्रेषित होता है वह रति और शृंगार की कोमल, मानवीय, सहृदय व्यंजनाओं के सर्वथा बाहर रह जाता है.

हमारे जैसे समाज में तो खास तौर से; फिर भले ही अपनी परम्परा के नाम पर हम कामशास्त्र, कोणार्क, खजुराहो को याद करते या अपने खुले सांस्कृतिक मनोभाव के लिये उसकी गवाही देते दिलाते हों.हमारे जैसे समाज का मतलब, समकालीन सन्दर्भों में समाज के भीतर के अनेक लघुतर समुदाय, उनके अनेकस्तरीय पूर्वग्रह, दुरग्रह, विधि-निषेध के संस्कार, मर्यादाएँ जो  हमारे जीने और रहने की मौजूदा परिस्थितियाँ रचते हैं ; स्त्री की हैसियत से जीने के लिये बेशक विकट ! इन परिस्थितियों को ज़रा ‘पोर्न बाज़ार’ की संवेदनाओं से चालित मानसिकताओं वाले समुदायों के बीच से गुजरते होने की कल्पना के साथ देखिये. वे हमारे निजी तात्कालिक परिवेश का हिस्सा चाहे न हों; या कौन जाने शायद हों ही; उसको हर समय काटते, घेरते, सिकोड़ते, फैलाते दायरे दबाव की तरह मौजूद रहते हैं. और इधर “नैतिक” का हमारा ‘’परम्परागत“ बोध जो अपनी परम्परागत बद्धमूलता  की वजह से ही हमें एक अनैतिक और पाखण्डी समाज बनाता है. हमारा समाज  बड़े पैमाने पर एक अवदमित समाज है जिसे कोढ़ में खाज की तरह पोर्न का एक फलता फूलता सर्व-सुलभ अवैध बाजार मिल गया है.  इण्टरनेट के जरिये घर घर में इस बाजार की मौजूदगी के भी आगे बढ़कर मोबाइल के जरिये अब हर जेब तक में हर समय मौजूद. शब्दशः संसद से लेकर स़ड़क तक हर जगह.


यह एक अवैध बाजार है. यानी कि यह एक अनियंत्रित बाजार है. वस्तु से लेकर शिल्प तक.  भोग और काम  का खुला खेल – बर्बर और हिंसक ! उपभोक्ता हर समय उत्तेजनाग्रस्त, हमला करने को तैयार मिलेगा. एक अदद स्त्री-देह चाहिये. और स्त्री हर जगह असुरक्षित मिलेगी, क्योंकि हमलावर कहीं भी, कोई भी हो सकता है. काम, रति, शृंगार, इरॉटिका, पोर्न या जो भी स्तर या नाम इस बाज़ार का हो, इसी सामाजिक सांस्कृतिक परिवेश के भीतर ही सक्रिय होता है और उसे अपदस्थ कर स्वयं संस्कृति में बदल जाता है. साहित्यशास्त्र में रति और शृंगार के उद्दीपनों की महिमा बखानी गयी है. साहित्य में चित्रित उद्दीपनों के अलावा शृंगारिक साहित्य स्वयं भी एक उद्दीपन है. सनी लियोनी ने जब पोर्न को एक कला और खुद को एक कलाकार कहा तो शायद उनका इशारा उद्दीपन की रचना की तरफ़ रहा होगा. कामोद्दीपन की कला यदि इरॉटिका है, और कामोद्दीपन का वाणिज्य-व्यवसाय यदि पोर्न है और इस तर्क से यदि इरॉटिका ही पोर्न भी है और पोर्न भी एक कला है तो  इस वीभत्स और भयंकर विडम्बना पर नज़र डालिये. यहाँ, इस उदाहरण में ‘’कला’’ कैसे  जीवन और यथार्थ को तत्काल ‘’प्रभावित’’, कर्म के लिये ‘’प्रेरित’’ और ‘’अनुकूलित’’ करती है. और उस “कर्म” का नतीजा हमला, बलात्कार, हत्या तक कुछ भी हो सकता है.

अनायास ही देखा जा सकता है किपोर्न जन-जीवन में घुला मिला है. नकटौरा और खोड़िया जैसे उत्सव होते थे. अब भी होते ही होंगे. बेटे के विवाह में बारात जाने के बाद घर की औरतें विवाह की रात को स्वच्छंद भाव से युगल-सम्बन्ध का उत्सव मनाती हैँ. हिन्दीभाषी प्रदेशों में उसे कहीं खोड़िया, कहीं नकटौरा कहा जाता है. मेरी सीमित जानकारी में  कहँरवा यानी कहारों का नाच, धोबी-नाच , थोड़ा अधिक प्रसिद्ध किस्म का जोगीड़ा कामोद्दीपन के उत्सव और मनोरंजन की वैसी अभिव्यक्तियाँ हैँ जिन्हें भदेस और अश्लील के तट पर रखा जा सकता है. लेकिन वैसी हमलावर, हिंसक और बर्बर परिणति देखी सुनी तो नहीं जैसी आज के बाजारू पोर्न के जरिये घर-बाहर, दफ़्तर-सड़क  हर स्त्री की असुरक्षा में दिखाई देती है. ये अपने समाज और सन्दर्भ-जगत के सामूहिक सामुदायिक उत्सव है. सामूहिक संवेदना और साझेदारी का हँसी ठट्ठा, चुटकुलेबाज़ी, छींटाकशी, छेड़खानी समन्वित विनोद और हास-परिहास उत्तेजना को धारण कर लेते हैँ. उस सन्दर्भजगत से बाहर के व्यक्ति को वे कुरुचिपूर्ण, अश्लील और जुगुप्साजनक तो महसूस हो सकते हैँ लेकिन हिंसक और ख़तरनाक शायद ही कभी . जेब के मोबाइल में पोर्न का एकाकी उपभोक्ता जो शायद तरह तरह के कारणों से विस्थापित, अकेला, अजनबी होने को विवश , और निरंकुश होने को स्वतंत्र है या फिर  शायद ऐसी किसी छूट का हकदार भी नहीं; केवल  मर्दानगी के गर्व में उन्मत्त, शायद असह्य तनाव में केवल यौनांग मेँ परिणत हो जाता है और यौनांग हमले के हथियार में. निस्संदेह कामोद्दीपन की कला के स्थूलतम स्तर पर भी पोर्न और इरॉटिका समानार्थी नहीं हो सकते.


चित्रकला में ‘न्यूड’ को एक कलारूपका दर्जा प्राप्त है. मूर्तिकला मे कोणार्क और खजुराहों की मूर्तियों की मैथुन-मुद्राओं को भी इसी कोटि मेँ जोड़ा जा सकता है और भाषिक अभिव्यक्ति में शृंगारिक साहित्य को भी जिसमे बड़े पैमाने पर भक्ति-साहित्य भी शामिल है. सनी लियोनी की “देहलीला“ और “देहगान”  की वकालत के लिये इनका दृष्टान्त अनावश्यक और अप्रासंगिक है, यह मान लेने के बाद दोनो के अन्तर को रेखांकित करने की कोशिश की जा सकती है.नग्नता सामान्यतः कुरूप और असहनीय होती है. नृतत्व बताता है कि मनुष्य ने जननांगों को ढँकने से अपने सांस्कृतिक जीवन की शुरुआत की, जिसका पहला लक्षण ही प्रकृति का संशोधन  और प्राकृतिकता में परिवर्तन है. कुरूपता को ढँकने के अलावा यह प्रयास काम की उद्दाम ऊर्जा को नाथने का भी रहा होगा. ‘न्यूड’ वस्तुतः कलाकार की आँख से देखी गयी नग्नता है. उसी की दृष्टि है जो ‘नेकेड’ को ‘न्यूड’ में; नग्नता को सौन्दर्य मेँ बदलती है. उसमेँ उपस्थित मानव-आकार सामान्यतः मानव शरीर का आदर्शीकरण होता है. रचनाकार की दृष्टि नग्नता या शृंगारिकता के क्षण को उसके लगभग अभिव्यक्ति के परे के सौन्दर्य को देखती और पकड़ने की कोशिश करती है. सौन्दर्य चेतना की कसौटियाँ बहुत गहराई में जाकर निजी होने के अलावा नैतिक भी हुआ करती हैं. जिसे हम सुन्दर कहते हैँ वह कामोद्दीपक हो सकता है परन्तु अनैतिक कभी नहीं.

 नैतिक का मतलब यहाँ निर्दिष्ट और परिभाषित विधि निषेध की जड़ीभूत मर्यादाओं से नहीं, देह और मन की एकान्वित अखण्डता से है जो नैतिक जड़ताओं को चुनौती देती, ‘सुन्दर’ से परिभाषित होती और नयी नैतिकता की रचना का द्वार खलती है. इसके विपरीत पोर्न का उद्देश्य मनुष्य-देह के उत्सव का या ऐन्द्रिय अन्तरंगता के सम्मान का ; अपने श्रोता, दर्शक या पाठक को उदात्त के स्तर तक उठाने में मदद का प्रतीत नहीं होता. पोर्न का ठेठ स्वभाव कल्पना के लिये कुछ भी बाकी न छोड़ते हुए दर्शक को उत्तेजना के हवाले कर देता है. बाज़ार इरॉटिका का भी होता है किन्तु वह बाज़ार से संचालित नहीं होता. पोर्न के लिये केवल बाज़ार है और बाज़ार के अलावा और कुछ भी नहीं, न मनुष्य, न आनन्द, न जीवन ! वही एक अनुभव है. कामोद्दीपन . वही एक कर्म है. लेकिन वह प्रेम की अभिव्यक्ति भी हो सकता है और वही बलात्कार भी. इरॉटिका अपने सौन्दर्य को जीवित अनुभव में खोजने की प्रेरणा देकर प्रेम की अभिव्यक्ति बनता है, पोर्न बलात्कार की हिंसा और बर्बरता की उत्तेजना देता है. वह देह का, प्रेम का, स्वयं काम का भी अपमान और जीवन का क्षय है.
अगले क़िस्त में जारी…
(सन)सनी लियोनी के बहाने एकाध नुक्ते की बातें -१ शीर्षक से कथादेश के अगस्त में प्रकाशित/ साभार

Viewing all 1054 articles
Browse latest View live


<script src="https://jsc.adskeeper.com/r/s/rssing.com.1596347.js" async> </script>