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सावित्रीबाई फुले वैच्रारिकी सम्मान के बाद लेखिका अनिता भारती का वक्तव्य



स्त्रीवादी पत्रिका स्त्रीकाल, स्त्री का समय और सच ने डा. आंबेडकर के नेतृत्व में नागपुर में 20 जुलाई 1942 को हुए महिला सम्मेलन के 75वें साल पर एक आयोजन जेएनयू में किया. उक्त सम्मेलन में 25 हजार दलित महिलाओं ने भागीदारी की थी और कई मह्त्वपूर्ण निर्णय लिये थे. जेएनयू में 29 जुलाई की देर शाम को खत्म हुए इस आयोजन में तीन सत्रों में विभिन्न विषयों पर विमर्श और महिला अधिकार विषय पर प्रसिद्ध नृत्यांगना रचना यादव का कथक नृत्य आयोजित हुआ तथा चर्चित दलित लेखिका और विचारक अनिता भारती को उनकी किताब 'समकालीन नारीवाद और दलित स्त्री का प्रतिरोध'को स्त्रीकाल के द्वारा सावित्रीबाई फुले वैचारिकी सम्मान (2016) दिया गया. इसके पूर्व 2015 में यह सम्मान शर्मिला रेगे को उनकी किताब 'मैडनेस ऑफ़ मनु: बी आर आंबेडकरस राइटिंग ऑन ब्रैह्मनिकल पैट्रिआर्की'को दिया गया था. इस सम्मान की शुरुआत 2015 में स्त्रीकाल ने स्त्रीवादी न्यायविद अरविंद जैन के आर्थिक सहयोग से शुरू किया था. कार्यक्रम का आयोजन स्त्रीकाल, आदिवासी साहित्य और यूनाइटेड ओबीसी फोरम'के संयुक्त तत्वावधान में हुआ.

अनिता भारती के वक्तव्य का वीडियो लिंक :



महिला आयोग को ताला लगा दें : विमल थोराट




स्त्रीकाल के संपादक संजीव चंदन ने बताया कि 'नागपुर सम्मलेन इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि महिलाओं ने तब राजनीतिक आरक्षण की मांग की थी, और इसलिए भी कि उनके प्रस्ताव काफी क्रांतिकारी और स्पष्ट थे, जबकि 1975 में जारी 'टुवर्ड्स इक्वलिटी रिपोर्ट', जो सातवें-आठवें दशक में महिला आन्दोलन का संदर्भ बना, राजनीतिक अधिकारों को लेकर उतना स्पष्ट नहीं था. इसलिए आज हमने महिला आरक्षण पर भी बातचीत रखी है.'महिला आरक्षण पर सत्र में दलित अधिकार आन्दोलन की संयोजकों में से एक और लेखिका रजनीतिलक ने कहा कि 'महिलाओं के लिए सारे अधिकार समानुपातिक प्रतिनिधित्व के साथ होने चाहिए.'राष्ट्रीय महिला महिला आयोग की सदस्य सुषमा साहू ने कहा कि 'महिला आरक्षण के लिए हम बाहर की महिलाओं से ज्यादा संसद में बैठी महिलाओं को पहल लेनी चाहिए. उन्होंने महिलाओं को महिलाओं के शोषण में न शामिल होने का भी आह्वान किया.'स्त्रीवादी न्यायविद और सुप्रीम कोर्ट में वरिष्ठ अधिवक्ता अरविंद जैन ने कहा कि 'जबतक 25 लाख महिलायें संसद को घेरकर बैठ नहीं जायेंगी, तब तक महिला आरक्षण संभव नहीं है. जो हालात है उससे लगता है कि महिला आरक्षण और समान आचार संहिता पास होने में 100 साल लग जायेंगे.'दलित और महिला अधिकारों के लिए काम करने वाली लेखिका कौशल पंवार ने कहा कि ‘हमें स्वाती सिंह जैसी महिलाओं से भी समस्या है, जो बेटी की सम्मान में अभियान चलाती है और अपनी ही भाभी, जो किसी की बेटी है की प्रताड़ना में शामिल पाई जाती है.’  दलित एवं महिला अधिकार के लिए काम करने वाली लेखिका विमल थोराट ने कहा कि ऐसे महिला आयोग को बंद हो जाना चाहिए, जो  महिला आरक्षण को अपना  विषय नहीं  मानता  और  दलित महिलाओं  के उत्पीड़न पर  एक  नोटिस  तक  जारी नहीं करता - महिला आयोग को ताला लगा देना चाहिए.  सत्र की अध्यक्षता करते हुए नेशनल फेडरेशन ऑफ़ इन्डियन वीमेन की महासचिव एनी राजा ने कहा कि 'महिला आयोग जैसी संस्थाओं को यह स्पष्ट करना चाहिए कि महिला आरक्षण पर उनकी क्या पोजीशन है. उन्होने कहा कि महिला आरक्षण के पिछले दो दशकों से संसद में पेंडिंग होने की वजह संसद का पितृसत्ताक नियन्त्रण में होना है.' 


दास्तान ए सोती सुंदरी वाया परीदेश की राजकुमारियां

अल्पना मिश्र
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एसोसिएट प्रोफेसर, हिंदी विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय
संपर्क : alpana.mishra@yahoo.co.in
क्या आप सोती सुंदरी को जानते हैं ? क्या उसकी कहानी आपको याद है ? वही, जो अंग्रेजी के ‘फेयरी टेल्स’ से निकल कर हिंदुस्तानी परी देश के इलाके से होते हुए हमारे जीवन में धंस जाती है. लगता ही नहीं कि यह एक अंग्रेजी अनुवाद के रूप में हमारे पास आई थी, यह तो हमारी परियों वाली कहानी से ‘सिस्टरहुड’ की तरह जुड़ी हुई है. ‘सिंड्रेला’ और ‘लम्बे सुनहरे बालों वाली राजकुमारी’, इसी का विस्तार जैसे हैं. तो क्या दुनिया के तमाम देशों में बच्चों के लिए ऐसी ही कहानियाॅ रची गईं ?
इसे दूसरी तरह से भी कहा जा सकता है. मसलन, हममें से ज्यादातर को अपने बचपन में सुनी परी देश की राजकुमारियों या अन्य राजकुमारियों की कहानियां   याद होंगी, कितनी सुंदर थीं वे, कि कोई भी देखता रह जाए, कितनी नाजुक थी वे, कि फूल भी शर्मा जाएं, कितनी गुणवंती कि कितना भी काम करवा लो, कितनी नेक, कि कोई भी बहला फुसला कर राह भटका दे !

 हमारे मन मस्तिष्क में स्त्री के सौंदर्य का पहलाबिम्ब उन्हीं से तैयार होता है और इतने गहरे पैठता है कि उससे मुक्त होना आसान नहीं रह जाता. तब भी नहीं, जब कि आप एक लेखक बन चुके होते हैं! स्त्री असमानता को लेकर रचे गए इस मोहक पाठ से मुक्त होना तब भी मुश्किल ही होता है, इसलिए अधिकतर लेखक इस गड़बड़झाले के शिकार होते हैं और स्त्री पात्रों के आते ही अपने लेखन में चुपके से असमानता के इसी पाठ के प्रमोटर बन जाते हैं. जाहिर है कि नानी की कहानियों ने हमारी कल्पनाशक्ति बढ़ाने में मदद की है, जो कि कहानी सुनाने के पीछे सदा एक उद्देश्य की तरह रहा ही है. नतीजा, बचपन में कई बार हम खुद भी इन कहानियों को आगे बढ़ाने में बढ़ चढ़ कर भाग लेने लगते रहे हैं, कुछ न कुछ जोड़ते जाते, कहानी खिलती जाती, इस तरह कहानी कहने का हमारा भी एक हुनर प्रशंसा पा जाता. लेकिन बिना यह जाने कि आगे बढ़ाने की इस प्रक्रिया में हम कौन सी चीजें, कौन से विचार आगे बढ़ा रहे हैं! कौन सी थाती हमें ऐसे अनजाने थमा दी गई है, जिसे आगे ट्रांसफर करते जाने की जिम्मेदारी बिना किसी के कहे हँसते हँसते  हम उठाते चले जाते हैं !

दिल पर हाथ रख कर कहिए कि क्या इनकहानियों ने बचपन में आपको दुखी नहीं किया ? मुझे तो बचपन में इन कहानियों ने खूब रूलाया था, कितने रातों की नींद छीनी थी, कितने प्रश्नों ने मथा था, कितना बेचैन और असंतुष्ट बनाया था, लेकिन न किसी को इसकी फिक्र थी, न प्रश्नों के उत्तर ही थे. ‘कहानी गई वन में, सोचो अपने मन में’ वाले अंदाज में सिर्फ सोचना ही हाथ आता. सोचने में बड़ा दुख होता, जब दिखता कि परी देश की राजकुमारियां  हों या अन्य राजकुमारियां  जब भी अकेले बाहर निकली हैं, राक्षसों या असामाजिक तत्वों ने उन्हें कैद कर लिया है. उनका अकेले बाहर निकलना निषिद्ध है, यह बात कितने प्यार से समझा दी गई है. जो नहीं मानता, ‘वो रोये अपने मन में, कलसे अपने घर में !’ तेा ये प्यारी प्यारी राजकुमारियां अकेले सैर पर निकलने का या दुनिया जान लेने के लिए घर से बाहर निकलने का जोखिम लेती हैं और पकड़ी जाती हैं, दंडित तो होना होगा, नियम जो तोड़ा है उन्होंने. ‘दुस्साहस’ शब्द स्त्री के लिए नहीं बनाया गया था ! ये कहानियां लड़कियों के मन में डर भरने का बारीक मनोविज्ञान है. जब भी लड़कियां  बाहर निकलेंगी, उन्हें वह डर याद आयेगा, जो बचपन में ही समझा दिया गया था. इतने मोहक तरीके से समझा देने का कोई और माध्यम शायद है भी नहीं ! और अब, जब कि वे कैद में हैं तो उन्हें उस दिए गए जबरदस्त फार्मूले को याद करना होगा- किस्मत ! किस्मत है, तो कोई राजकुमार आएगा और उन्हें मुक्त करायेगा ! न आया तो फिर उसी किस्मत का दोष !


पता नहीं हजारों मामलों में किसी एक मेंराजकुमार आ भी जाता हो ! फिलहाल उसके बाद की कहानी की जरूरत नहीं होती. क्योंकि राजकुमार के हाथों मुक्त होने के बाद और क्या चाहिए ? सोती सुंदरी की कहानी बहुत प्यार से बताती है कि एक राजा रानी के यहां बहुत समय से संतान नहीं हुई. फिर कन्या हुई, जिसे पाकर वे खुश हुए, कम से कम किन्हीं परिस्थितियों में तो कन्या को पा कर खुश होना है. राजा ने दावत में सात परियों को बुलाया लेकिन बूढ़ी परी छूट गई. बूढ़ी हो कर वह इतनी उपेक्षित हुई कि दावत के निमंत्रण के समय राजा उसे भूल गए! बूढ़ी स्त्री अपनी उपादेयता खो कर चिड़चिड़ी हो जाए तो कुछ अस्वाभाविक भी नहीं. लेकिन वह तो प्रतिशोध पर उतर आई. यानी जो इस समाज के काम का नहीं, उसे निमंत्रित करने में भूल होना बड़ी बात नहीं, दूसरे वह खल पात्र ही होगा, स्त्री हुई तो कुटिल कुटनी. बूढ़ी परी भी ऐसी ही दिखती है, न्याय पक्ष को समलत बनाती हुई. वह शाप देती है कि नन्ही राजकुमारी की उंगली में तकुआ चुभ जाएगा और वह मर जायेगी. हॅलाकि सातवीं परी उसके शाप को कुछ कमजोर कर देती है तथापि समाज के उपेक्षित हिस्से का शाप भय तो पैदा करता ही है, तभी तो राजा उससे डरता है, कहानी भी यही बताती है. इसलिए राजा पूरे राज्य में चरखे पर बैन लगा देता है.  प्रश्न यह उठता है कि चरखा बंद करा करराजा ने कितने बड़े हिस्से को बेरोजगारी की सौगात दी ? उन लोगों का खर्चा पानी कैसे चलता रहा, जिनके व्यवसाय बंद करा दिए गए ?

इसका जवाब मुझे आज तक नहीं मिला. फिरभी राजकुमारी के सोलह वर्ष के होते ही उसके हाथ में तकुआ चुभा और वह बेहोश हुई. इसका मतलब चुपके चुपके चरखा चलाया जा रहा था, लोग कपड़े तब बुने हुए ही पहनते थे, तो बुनाई कताई जारी थी, ठीक राजा के नाक के नीचे, उन्हीं के महल में चरखा था ! यानी राजा ने अपनी सुविधा नहीं खोई थी. महलवालों के कपड़े तैयार किए जा रहे थे ! दोस्तों, जादू से चरखा आ गया, जैसी बात बेकार होगी. लेकिन राजकुमारियों के लिए यह सीख जरूर है कि रोजगार सीखने की कोशिश न करना, वरना ऐसे ही सौ वर्ष तक सुला दी जाओगी. तो राजकुमारी सो गई, वह भी सौ वर्षों के लिए. सौ वर्ष कोई मामूली समय नहीं होता. यह समय बच्चों को कितना बेचैन बनाता है. यह कुछ ज्यादा लम्बा है, पर समाज को देखें तो बिल्कुल लम्बा नहीं ! समाज में स्त्री के लिए तय भूमिकाओं में परिवर्तन की यही गतिकी है शायद ! सौ वर्ष की नींद है या दिमाग का बंद कर दिया जाना है ! सारा महल राजकुमारी की नींद के साथ ही नींद में चला गया है. या राजकुमारी के लिए ‘सो गए’ जैसा हो गया है. नींद में कही गई, सुनी गई बातों का क्या अर्थ ! ध्यान रहे कि राजकुमारी उस उम्र में सुला दी गई है, जो संभावनाओं की सबसे चमकती उम्र है. इसके बाद नींद ही है, जहां  से व्यवस्था जारी रखी जा सकती है. चलिए,


आखिर सौ साल बाद ही सही, एक राजकुमारशिकार खेलता, महल के जंगल, झाड़ियाॅ साफ करता, रास्ता बनाता, शौर्य के भरपूर प्रदर्शन के साथ दाखिल होता है. इस सोती सुंदरी का जीवन भी बिना राजकुमार के आए नींद से नहीं जग पाता ! जैसा कि भारतीय राजकुमारियों के साथ था. इनके पास अपने को बचाने की न कोई तरकीब है, न तैयारी, न दिशा, सिर्फ दंड का भय है ! और एक सपना, यह सपना कितनी कोमलता से इन्हें थमाया गया है, यही एकमात्र तय रास्ता है- किसी राजकुमार की प्रतीक्षा ! यह प्रतीक्षा भी किस्मत से जुड़ी हुई है. ‘किस्मत’ एक फार्मूला है, जो नींद में पंहुचाने और फिर जगाने, दोनों स्थितियों में काम का है. आज बड़ों की शिकायत यह है कि बच्चे कहानियां  सुने बिना बड़े हो रहे हैं. शायद यह भला ही है कि वे इन कहानियों को नहीं सुन रहे. कम से कम उनके दिमाग को अनुकूलित किए जाने का यह एक रास्ता कुछ कमजोर पड़ा है, हंलाकि दूसरी तमाम चीजें इसका स्थानापन्न बनाती हैं, जिन्हें नजरअंदाज नहीं किया जा सकता.

जनसत्ता  से साभार

वह इतिहास, जो बन न सका : राज्यसभा में महिला आरक्षण : चौथी क़िस्त

 महिला आरक्षण को लेकर संसद के दोनो सदनों में कई बार प्रस्ताव लाये गये. 1996 से 2016 तक, 20 सालों में महिला आरक्षण बिल पास होना संभव नहीं हो पाया है. एक बार तो यह राज्यसभा में पास भी हो गया, लेकिन लोकसभा में नहीं हो सका. सदन के पटल पर बिल की प्रतियां फाड़ी गई, इस या उस प्रकार से बिल रोका गया. संसद के दोनो सदनों में इस बिल को लेकर हुई बहसों को हम स्त्रीकाल के पाठकों के लिए क्रमशः प्रकाशित करेंगे. पहली क़िस्त  में  संयुक्त  मोर्चा सरकार  के  द्वारा  1996 में   पहली बार प्रस्तुत  विधेयक  के  दौरान  हुई  बहस . पहली ही  बहस  से  संसद  में  विधेयक  की  प्रतियां  छीने  जाने  , फाड़े  जाने  की  शुरुआत  हो  गई थी . इसके  तुरत  बाद  1997 में  शरद  यादव  ने  'कोटा  विद  इन  कोटा'  की   सबसे  खराब  पैरवी  की . उन्होंने  कहा  कि 'क्या  आपको  लगता  है  कि ये  पर -कटी , बाल -कटी  महिलायें  हमारी  महिलाओं  की  बात  कर  सकेंगी ! 'हालांकि  पहली   ही  बार  उमा भारती  ने  इस  स्टैंड  की  बेहतरीन  पैरवी  की  थी.  अंग्रेजी से हिन्दी अनुवाद पूजा सिंह और श्रीप्रकाश ने किया है. 

 संपादक
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महिला आरक्षण को लेकर संसद में बहस :पहली   क़िस्त

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अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस की सौंवी वर्षगांठ ( 8 मार्च 2010) 

सभापति –आज 8 मार्च 2016 को अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के सौ वर्ष पूरे हो रहे हैं. और समाज के सभी क्षेत्रों में समानता हासिल करने के प्रति उनकी दृढ़प्रतिज्ञ और रचनात्मक प्रतिबद्धता के लिए भारत की महिलाओं और पूरे विश्व के महिला समुदाय को मैं अपनी तरफ से हार्दिक बधाई देता हूं. 1945 में सैन फ्रांसिस्को में हस्ताक्षरित संयुक्त राष्ट्र चार्टर, आधुनिक समय में एक बुनियादी मानव अधिकार के रूप में जेंडर समानता का प्रचार करने के लिए किया गया पहला अंतरराष्ट्रीय समझौता था. भारत का संविधान समानता की गारंटी देता है और लिंग के आधार पर भेदभाव को वर्जित करता है. आज हमारी महिल अग्रदूतों और अन्य लोगों को याद करने का दिन है, जिन्होंने शांति, स्वतंत्रता और समानता के लिए अपने जीवन का बलिदान किया था. नई सहस्राब्दी महिलाओं की क्षमता और मुक्ति के लिए उनके संघर्ष को स्वीकार करने में एक महत्वपूर्ण बदलाव और व्यवहारगत परिवर्तन की गवाह है. अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस का महत्व महिलाओं की स्थिति, विशेष रूप से हमारे समाज के हाशिये पर खड़ी महिलाओं की स्थिति में सुधार, और समाज में अपनी सही जगह हासिल करने के लिए उन्हें सशक्त बनाने के प्रति हमारे पुनर्समथन और हमारी प्रतिबद्धता में निहित है. आज महिलाओं से संबंधित घरेलू हिंसा, महिलाओं से संबंधित सामाजिक बुराइयों, निरक्षरता, भेदभाव, स्वास्थ्य एवं कुपोषण और महिलाओं, विशेष रूप से ग्रामीण पृष्ठभूमि वाली महिलाओं के लिए राजनीतिक और आर्थिक अवसरों की कमी के मुद्दों ध्यान केंद्रित करना हमारा कर्तव्य है. हमारा प्रयास जेंडर समानता और विकास को सुरक्षित करने का होना चाहिए.  इस अवसर पर, मुझे यकीन है कि हमारे समाज में सभी महिलाओं के लिए समान अधिकार, समान अवसर और प्रगति लाने में स्वयं को पुनर्समर्पित करने में सभी सदस्य मेरा साथ देंगे. हमारे देश की निर्णय लेने की प्रक्रिया में महिलाओं को शामिल किया जाना है और हमारे देश की निरंतर प्रगति और उसका उज्ज्वल भविष्य सुनिश्चित करने के लिए महिलाओं के अधिकारों का सम्मान करने और किसी भी स्थिति में उनकी रक्षा करने की जरूरत है.


कृष्णा तीरथ ( महिला एवं बाल विकास मंत्रालय में राज्यमंत्री) : पूरे देश में खुशी की लहर है  इस अवसर पर मैं अपने मंत्रालय की ओर से एक वक्तव्य देना चाहती हूं."समान अधकार, समान अवसर: सभी की प्रगति"विषय के साथ आज हम  अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मना रहे हैं. वर्ष 2001 की जनगणना के अनुसार, देश की कुल जनसंख्या में 48% महिलाएं हैं. महिलाओं को महत्वपूर्ण  मानव संसाधान मानते हुए, संविधान ने उन्हें न केवल बराबरी का दर्जा दिया बल्कि उनके पक्ष में सकारात्मक भेदभाव के उपाय करने के अधिकार भी सरकार को दिए. संविधान से प्रेरणा पाकर, भारत सरकार महिलाओं का चहुँमुखी कल्याण, विकास और सशक्तिकरण सुनिश्चित करने के लिए निरंतर प्रयास करती रही है. राष्ट्रीय न्यूनतम साझा  कार्यक्रम में निर्धारित शासन के  6 आधारभूत सिद्धांतों में महिलाओं को राजनैतिक, शैक्षणिक, आथिक और कानूनी रूप से सशक्त बनाने का सिद्धांत भी शामिल है. महिला एवं बाल विकास विभाग को महिला एवं बाल विकास राज्य मंत्री के स्वतंत्र प्रभार के अधीन 30.01.2006 से मंत्रालय का दर्जा दिया जाना इस दिशा में उठाया गया ऐतिहासिक कदम है. महिलाओं के लिए नोडल मंत्रालय होने के नाते, यह मंत्रालय महिलाओं के प्रति भेदभावों को समाप्त करने के लिए कानूनों की समीक्षा करके, महिलाओं के साथ न्याय सुनिश्चित करने के उद्देश्य से नये कानून  बनाकर और महिलाओं के सामाजिक एवं आथिक सशक्तिकरण के लिए विभिन्न कार्यक्रम चलाकर महिलाओं का सर्वागीण सशक्तिकरण करने के प्रयास कर रहा है. गरीबी मानव जाति के लिए अभिशाप है और गरीबों में भी महिलाओं को ही पुरुषों  की अपेक्षा अधिक तकलीफें झेलनी पड़ती हैं. हाल ही तक अर्थात् 31.03.2008 तक महिला एवं बाल विकास मंत्रालय स्व-सहायता दलों  के माध्यम से महिलाओं के सर्वागीण सशक्तिकरण के उद्देश्य से 'स्वयंसिद्धा कार्यक्रम'चला रहा था. इस स्कीम के अंतर्गत, 650 ब्लॉकों में 10.02 लाख लाभाथियों  के 69,774 स्व-सहायता दल गठित किए गए. इस कार्यक्रम के मूल्यांकन के निष्कर्ष और इसके कार्यान्वयन के दौरान प्राप्त अनुभवों के आधार पर इस स्कीम के विस्तार का मंत्रालय का प्रस्ताव है. चूंकि अधिकांश कामकाजी महिलाएं अनौपचारिक क्षेत्रों में कार्य कर रही हैं, इसलिए इन महिलाओं हेतु आय-अर्जन, कल्याण, सहायता सेवाएं, प्रशिक्षण, कौशलों के उन्नयन जैसी सुविधाएं सुनिश्चित करने वाली स्कीम की जरूरत महसूस की गई. महिलाओं के लिए रोजगार के अवसर बढ़ाने पर जोर देते हुए अनौपचारिक क्षेत्र में कार्य कर रही महिलाओं का कल्याण सुनिश्चित करने के लिए 7वें योजना अवधि के दौरान "प्रशिक्षण एवं रोजगार कार्यक्रम को सहायता (स्टेप)"स्कीम शुरू की गई, जो सफलतापूर्वक चलाई जा रही है. केवल महिलाओं के सामाजिक एवं आथिक विकास के लिए शीर्ष वित्त-पोषक संगठन के रूप में सरकार ने वर्ष 1993 में राष्ट्रीय महिला कोष नाम से महिलाओं हेतु राष्ट्रीय ऋण कोष की स्थापना की. अब तक राष्ट्रीय महिला कोष ने 66,867 स्व-सहायता दलों  को 236.50 करोड़ रुपये के ऋण संवितरित किए हैं, जिनसे 6,68,650 महिलाएं लाभान्वित   हुई, राष्ट्रीय महिला कोष की लाभार्थियों पर कराए गए प्रभाव अध्ययनों से पता चला है कि कोष से प्राप्त ऋणों से लाभार्थ  महिलाओं के जीवन-स्तर में सुधार आया है. इन अध्ययनों से यह जानकारी भी मिली है कि अब स्कूल भेजी जाने वाली बालिकाओं की  संख्या बढ़ी है और स्कूली शिक्षा बीच में छोड़ने वाली बालिकाओं की संख्या में भी कमी आई है. महिला लाभार्थियों  में साक्षरता बढ़ी है. यह पाया गया है कि कोष की लाभार्थियों  में उद्यम चलाने, कामकाज के लिए अकेले घर से बाहर जाने का आत्मविश्वास बढ़ा है और यह प्रविर्तित  भी देखने में आई है कि महिलाएं खेतों में मजदूरी छोड़कर पशुओं की देखरेख, उजरती कार्य जैसे काम करने लगी हैं और आय पर उनके नियंत्रण एवं पारिवारिक निर्णयों में उनकी भागीदारी बढ़ी है. घरेलू हिंसा की घटनाओं में भी कमी आई  है. इससे यह पता चलता है कि स्व-सहायता दलों के माध्यम से गरीब महिलाओं के सामाजिक एवं आथिक उत्थान के लिए राष्ट्रीय महिला कोष का लघु वित्त कार्यक्रम भारत का सधिक सफल कार्यक्रम है. ऋण प्राप्त करने वाले महिला स्व-सहायता दलों की संख्या में तेजी से होती बढ़ोतरी को ध्यान में रखकर कोष की अधिकृत पूंजी में वृद्धि करके इसे सुदृढ़ बनाया जा रहा है. केन्द्रीय समाज कल्याण बोर्ड महिलाओं के विकास और सशक्तिकरण के लिए अनेक कार्यक्रम चलाने के अतिरिक्त जागरूकता विकास कार्यक्रम भी चलाता है. इस कार्यक्रम का मुख्य उद्देश्य महिलाओं में उनके अधिकारों  सि्थति और समस्याओं तथा अन्य सामाजिक सरोकारों के विषय में जागरूकता पैदा करना है. इस कार्यक्रम से महिलाओं को संगठित होने तथा सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक प्रकि्रयाओं में अपनी भागीदारी बढ़ाने में सहायता मिलती है. सरकार महिलाओं के सामाजिक एवं आथिक सशक्तिकरण हेतु राष्ट्रीय मिशन शुरू करने के लिए वचनबद्ध है. इस मिशन के अंतर्गत सरकार के विभिन्न महिला केंद्रित और महिलाओं से संबंधित कार्यक्रम समेकित रूप में चलाए जाएंगे. महिलाओं के सामाजिक, आथिक एवं शैक्षणिक सशक्तिकरण पर विशेष जोर दिया जाएगा. यह मिशन विभिन्न मंत्रालयों / विभागों  की स्कीमों /कार्यक्रमों का संकेंद्रण सुनिश्चित करके उक्त सभी मोर्चाí पर महिलाओं के सशक्तिकरण का प्रयास करेगा. महिलाओं की सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति  का अध्ययन करने के लिए सरकार उच्च-स्तरीय समिति नियुक्त करने का प्रस्ताव भी कर रही है. इस समिति के निष्कर्ष के आधार पर सरकार भारतीय महिलाओं के सर्वागीण सशक्तिकरण के लिए जरूरी उपायों का निर्धारण करेगी. हमें विश्वास है कि इन प्रयासों से भारतीय महिलाओं की सामाजिक एवं आर्थिक  स्थिति  में स्पष्ट सुधार होगा और भारतीय समाज में महिलाओं के साथ भेदभाव अतीत की बात बनकर रह जाएगी.

9 मार्च 2010

अरुण जेटली : ( विपक्ष के नेता) : श्रीमान सभापति महोदय, आज सुबह जब मैं सदन में आया तो इस सदन के अन्य सदस्यों सहित मैंने भी सोचा कि मैं भी एक बनते हुए महान इतिहास का एक हिस्सा बनूंगा क्योंकि हम सभी हाल ही में सबसे प्रगतिशील कानूनों में से एक कानून बनाने में सहयोग देकर एक ऐतिहासिक जिम्मेदारी का निर्वहन कर रहे हैं. मेरी पार्टी की ओर से,  मैं आरंभ में ही बताना चाहता हूं कि हम सभी इस कानून का स्पष्ट समर्थन करते हैं. लेकिन, फिर,  सभापति महोदय, यह विशेषाधिकार, जो हम सबको मिला हुआ है, आज काफी हद तक कमजोर हो गया है. इस सदन में हमने एक नहीं,  बल्कि दो इतिहास देखा है. पहला, ज़ाहिर है, सौभाग्य की बात होगी कि हम सबसे प्रगतिशील कानूनों में से एक को अधिनियमित कर रहे हैं। दूसरा, और मुझे कोई संदेह नहीं है कि, हम सभी का सिर शर्म से झुक जाएगा क्योंकि हमने भारत के संसदीय लोकतंत्र के कुछ सबसे शर्मनाक घटनाओं को देखा है. मैं केवल यही सोचता हूं कि सभी संबंधित पक्षों द्वारा स्थिति को काफी परिपक्वता और नियंत्रण से संभाला जाना चाहिए था. इस प्रकार, इस विशेष कानून बनाने का विशेषाधिकार हम सभी के लिए कहीं अधिक सुखद हो गया होता. एक संवैधानिक संशोधन के जरिये महिला आरक्षण पर यह बहस डेढ़ दशक पुरानी हो चुकी है. एक मिथक है कि आरक्षण समाज में एक विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग बनाता है. सच्चाई यह है कि प्रकृति ने हम सभी को एक समान मानते हुए बनाया है.


 हमारा संविधान समानता प्रदान करता है, लेकिन हमारे समाज में स्थिति कुछ इस तरह की थी कि हमारी कुछ समानताएं, असमानताएं बन गईं  और इस असमानता का सबसे अच्छा सबूत यह है कि आजादी के 63 साल बाद भी हमारे समाज के  50 प्रतिशत भाग को लोकसभा में अधिकतम 10 प्रतिशत प्रतिनिधित्व मिला हुआ है. राज्य विधानसभाओं भी स्थिति इससे बहुत अलग नहीं है. महोदय, आज हम सब यहां एक कानून बनाने के लिए या एक कानून बनाने की प्रक्रिया आरंभ करने की सकारात्मक कार्रवाई के लिए इकट्ठे हुए हैं. आरक्षण कोटा जो हम लोकसभा में, और राज्य विधानसभाओं में भी, महिलाओं के लिए प्रदान करने जा रहे हैं वह समानता के उद्देश्य के लिए सक्रियता बढ़ाने में एक जरूरी औजार बनेगा, जिसकी परिकल्पना इस देश ने हमेशा की है. महोदय, हमने 15वीं लोकसभा आम चुनाव कराया था. पहले 15 चुनावों में देखा गया है कि 7 से 11 प्रतिशत महिलाएं लोकसभा के लिए निर्वाचित होती हैं. वह संख्या जिसमें महिलाएँ चुन कर आती रही हैं, वह इन 15 चुनावों में सात फीसदी से लेकर 11 फीसदी तक रही है. ..(व्यवधान).. आज 63 साल बाद भी यह आंकड़ा मौजूदा लोक सभा में भी 10.7 परसेंट पहुँचा है. यह जो तर्क दिया जाता है कि बिना आरक्षण के स्वाभाविक रूप से समाज जो आगे बढ़ रहा है तो महिलाओं का प्रतिनिधित्व भी अपने-आप बढ़ता चला जाएगा, 63 वर्ष तक हमारे सामने जो अनुभव आया है, उसमें हमने देखा है कि 63 वर्ष  तक यह परिस्थिति  नहीं बदली और अगर यह कानून नहीं आता तो हम यह सम्भावना भी मान लें कि शायद अगले 63 वर्ष  तक भी यह परिस्थिति  नहीं बदलने वाली है. इसीलिए, आज यह आवश्यक हो चुका है कि भारत की संसद और विधान सभाओं में महिलाओं का प्रतिनिधित्व भी पूर्ण मात्रा के रूप में सामने आये. सभापति जी, हम देश को एक बहुत बड़ी आथिक शक्ति के रूप में बनाना चाहते हैं. आज हम वह देश हैं जिसकी अपनी परमाणु शक्ति है,  but two-third of Indian children are born to women without medical help. आज जितनी कन्याएँ स्कूल छोड़ती हैं, who drop out, उनकी संख्या male child की तुलना में आ गयी है. अगर हम आज की परिस्थिति  को देखते हैं, सभापति जी, जो संविधान संशोधन पेश किया गया है, उसका जो सार है, वह बिल्कुल स्पष्ट है. इस संविधान संशोधन में प्रावधान है कि 15 वर्ष के लिए देश की लोक सभा में और विधान सभाओं में महिलाओं को एक-तिहाई आरक्षण प्रदान किया जाएगा.

जनसंख्या की दृष्टि से, बताया जाता है कि भारत में प्रत्येक 1000 पुरुषों पर 953 महिलाएं हैं. हमारे कानून, जिनमें से कुछ लागू भी हैं, जहां तक समाज के एक हिस्से का संबंध है, आज भी भेदभावपूर्ण हैं. महोदय, यदि आप हमारे पर्सनल कानूनों की स्थिति पर नजर डालें तो हमारे बहुत सारे पर्सनल कानूनों में अभी भी असमानता निहित है. मेरा हमेशा मानना रहा है कि हमारे संसद और विधान सभाओं में महिलाओं की कमतर उपस्थिति से ही आज भी भेदभावपूर्ण स्थिति बनी हुई है, जिससे हममें यह कहने का भी साहस नहीं है कि राज्य व्यवस्था और गरिमा का उल्लंघन करने वाले पर्सनल लॉ को …..महोदय, जहां तक सिस्टम का मामला है, हमने टोकनिज्म की पर्याप्त राजनीति कर ली है. टोकनिज्म की इस राजनीति से पता चलता है कि हमने विचारों की राजनीति को कैसे प्रतिस्थापित कर दिया है.

 इससे जहां तक महिलाओं का संबंध है, अब प्रतिनिधित्व की राजनीति में प्रतिस्थापित होना होगा. आपके पास कोई अधिकार नहीं है. विभिन्न निर्वाचन क्षेत्रों में महिलाओं की सक्रियता और महिलाओं के उम्मीदवार के रूप में उभरने में एक क्षैतिज फैलाव आया है और प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र का वर्ष में किसी एक समय महिला उम्मीदवारों द्वारा प्रतिनिधित्व किया जाना चाहिए था. अब,  इसे विधानसभाओं,  स्थानीय निकाय सरकारों और पंचायतों के साथ जोड़कर इस संशोधन के बाद लागू कर दिया गया है. आज से 15 साल बाद यह संशोधन लाखों महिला कार्यकर्ताओं को सामने लायेगा, जो चुनाव लड़ने के लिए विभिन्न राजनीतिक दलों के लिए उपलब्ध होंगी.

अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों को छोड़कर संसदीय और विधायी सीटों के लिए किसी अन्य आरक्षण का कोई प्रावधान नहीं है. इन महिला निर्वाचन क्षेत्रों में जो सीटें पहले से ही आरक्षित भी हैं तो वे अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए हैं.


यह जेंडर न्याय का एक नया इतिहास है जो हम लिख रहे हैं और इसलिए, हम सबको उत्साह से इसका समर्थन करना चाहिए. लेकिन, उसी समय में, जो घटनाएं घटी हैं और जिनमें  बड़ी संख्या में लोगों ने योगदान दिया है, मुझे लगता है कि उसने इस कानून का समर्थन करके हमारी भावना में खटास पैदा कर दी है. जब मैं इस कानून का स्पष्ट समर्थन करता हूं तो जो कुछ आज सदन में हुआ है, उसकी स्पष्ट निंदा भी कर सकता हूं. हम इस सदन में इसलिए नहीं आये थे. हम अपने कुछ सहयोगियों के साथ शारीरिक रूप से की जाने वाली हाथापाई और उनको इस सदन से बाहर किये जाना देखने नहीं आये थे. अगर हम इसे अधिक सौहार्दपूर्ण तरीके से कर पाते यह बेहतर होता.

महोदय, हमें नहीं भूलना चाहिए कि इस देश ने एक समय संविधान के 42वें संशोधन का विरोध करने वाले प्रत्येक व्यक्ति को जेल में डाल कर 42वें संशोधन को पारित कर दिया था. जो लोग 42वें संशोधन के विरोध में थे, वे इसका विरोध कर सकते थे, लेकिन इमरजेंसी के दौरान वे जेल में बंद थे. जिसका असर यह हुआ कि इमरजेंसी हटा ली गई और उस को संशोधन काफी हद तक निरस्त करना पड़ा था. इसलिए, हमारा अनुभव रहा है कि भले ही इसका विरोध करने वाले मित्रों से मैं असहमत हूं, लेकिन हमें उनकी आवाज सुननी चाहिए और इस कानून के खिलाफ उन्हें वोट करने का अधिकार देना चाहिए. मुझे लगता है कि हममें से 85 से 90 प्रतिशत का एक भारी बहुमत इस विधेयक के समर्थन में है. इसका विरोध करने वाले अपने मित्रों से मैं इसका समर्थन करने का अपील भी करूंगा क्योंकि इस सदन में एक विशाल बहुमत विधेयक का समर्थन कर रहा है.


आपको लोकतंत्र की भावना का भी सम्मान करना चाहिए. अगर 85-90 प्रतिशत सदस्य इसका समर्थन कर रहे हैं,  तो उन्हें बहुमत के अधिकार का प्रयोग करने की अनुमति दें. एक छोटा सा अल्पसंख्यक समूह उन्हें कार्यवाही चलने देने के लिए अनुमति नहीं देने का दबाव नहीं डाल सकता है, और, इसलिए, आप अपने उन सहयोगियों को समझायें जिनको सदन से बाहर जाने के लिए कहा गया है, कि इस सदन के चलने के लिए एक सौहार्दपूर्ण  माहौल बनायें. आपके पास इस विधेयक के खिलाफ बोलने का अधिकार है; आपके पास इससे असहमत होने का अधिकार है; लेकिन, निश्चित रूप से, बहुमत के जनादेश को बाधित करने का आपको कोई अधिकार नहीं है. अगर हम एक-दूसरे का सम्मान करें तो मुझे यकीन है कि यह विधेयक जिस भावना के साथ हम इसे पारित करना चाहते हैं, वैसे ही पारित हो जाएगा.  महोदय,  जब हम इस कानून को स्पष्ट समर्थन दे ही रहे हैं तो हमें उन तरीकों के बारे में सोचना चाहिए जिसकी आप पहलकदमी ले सकें, ताकि इस सदन में एक सौहार्दपूर्ण माहौल बनाया जा सके; और जो हमारे खिलाफ हैं, जहां तक इस सदन का सवाल है, उनकी आवाज सुनी जानी चाहिए. इन शब्दों के साथ, मैं इस कानून का समर्थन करता हूं. धन्यवाद...

अरुण जेटली : सभापति जी, इस एक-तिहाई आरक्षण के सिद्धांत को लागू करने के लिए एक रोटेशन की प्रक्रिया  लागू की जाएगी. हर विधान सभा में और लोक सभा में एक-तिहाई सीटें हर आम चुनाव के अंदर आकर्षित की जाएंगी और अगले चुनाव के अंदर वे बदली जाएंगी. हम देखते हैं कि संविधान में 73वें और 74वें संशोधन के बाद ग्राम पंचायतों में और अन्य पंचायतों में तथा local self bodies में जब से महिलाओं की भागीदारी आरंभ हुई है, उसका प्रत्यक्ष असर आज यह है कि इन 15-17 वर्ष के बाद हालांकि कानून में उनके लिए केवल 33 फीसदी आरक्षण है, लेकिन वास्तविकता में इन 15 वर्ष  के बाद करीब 48 प्रतिशत महिलाएं आज ग्राम पंचायतों में चुने हुए पदों पर कायम हैं.  सभापति जी, अगर हम दूसरे देशों का अनुभव देखते हैं, तो आज यह कानून केवल भारत में नहीं आ रहा है, दुनिया के विभिन्न देशों के अंदर यह प्रयोग में लाया गया है और दुनिया के विभिन्न देशों में इसको तीन अलग-अलग प्रक्रियाओं के माध्यम से लागू करने का प्रयास किया गया है। पहला सुझाव यह रहा कि कुछ देश राजनीतिक दलों  के लिए एक पोलिटिकल पार्ट कोटा फिक्स कर लेते हैं. राजनीतिक दलों के लिए जो कोटा फिक्स होता है, उसके माध्यम से आरक्षण लेने का प्रयास करते हैं. कुछ देशों के अंदर लिस्ट सिस्टम के माध्यम से हुआ और कुछ देशों के अंदर ऐसे चुनाव क्षेत्र हैं, जिनको आकर्षित  किया जाता है. जब हम इसका अध्ययन करते हैं और इन व्यवस्थाओं को अपने देश में लागू करने का प्रयास करते हैं, तो अनुभव में यह आया कि जिन देशों के अंदर चुनाव क्षेत्रों  को आकर्षित  किया गया है, यह प्रयोग सबसे ज्यादा उन्हीं देशों के अंदर सफल हो पाया है. दुनिया के जो पिछड़े देश हैं, अफ्रीका के देश हैं. युवाना जैसे देश में वहां की संसद के अंदर महिलाओं का प्रतिनिधित्व दुनिया में सबसे अधिक हो गया है, क्यों कि वहां चुनाव क्षेत्रों  का आरक्षण किया गया था. अफगानिस्तान और पाकिस्तान जैसे देश, जहां चुनाव क्षेत्रों  का आरक्षण किया गया था, उन देशों के अंदर भी आरक्षण की  प्रक्रिया  सफल हुई. इस प्रयोग को जब हम अपने देश के ऊपर लागू करने का प्रयास करते हैं, तो इसके जितने भी आलोचक हैं और मेरे मित्र, जिनके अन्यथा विचार हैं, मैं उनसे आग्रह करूंगा कि इस पर हमारी जो धारणा है और उसका जो विश्लेषण है, वे उसे भी एक बार समझाने का प्रयास करें. राजनीतिक दलों  के ऊपर कोटा बन जाए, यह सुझााव आता रहा है. शायद आज का जो संविधान है, उस संविधानकी धाराएं जब मैं पढ़ता हूं, तो बिना उसको तब्दील किए हुए यह अपने देश में संभव नहीं हो सकता.


लेकिन जिन देशों ने लागू किया है, उनमें एक युनाइटेड किंगडमका उदाहरण है. आज युनाइटेड किंगडम के अंदर, राजनीतिक दलों  के ऊपर कोटा लागू है. वे चुनाव क्षेत्रों के अंदर महिला उम्मीदवार उतारते हैं. उस कानून के अंदर कितनी संख्या है, इसका उसमें प्रावधान है. यदि आज हम वहां का अनुभव देखें, तो ब्रिटेन  में पाकिस्तान और अफगानिस्तान की तुलना में कम फीसदी महिलाएं हैं, जो उस प्रक्रिया  के माध्यम से हाउस ऑफ कॉमन्स के अंदर जीतकर आई हैं..(व्यवधान).. पाकिस्तान में चुनाव क्षेत्रों में लागू करना, अफगानिस्तान में चुनाव क्षेत्रों में लागू करना  जहां की महिलाओं को हम पिछड़ा मानते हैं, उनको अधिक प्रतिनिधित्व मिल पाया है, बनिस्पत युनाइटेड किंगडम जैसे देश में, जहां राजनीतिक दलों  के ऊपर एक कोटा लागू हुआ था. इसलिए मैं मानता हूं कि चुनाव क्षेत्रों  द्वारा.. यह निश्चित करना इस देश की वर्तमान भूमिका के अंदर ज्यादा सफल रहने वाला है. सभापति जी, यह आलोचना की जाती है कि जो रोटेशन की प्रक्रिया  है, उस रोटेशन की प्रक्रिया को नहीं रखना चाहिए. यह कानून पंद्रह वर्ष के लिए है. पंद्रह वर्ष में अगर तीन आम चुनाव होते हैं और हर चुनाव के अंदर अगर एक तिहाई सीटें आकर्षित  रहती हैं, तो पंद्रह वर्ष के बाद महिला आरक्षण देश के माध्यम से हर चुनाव क्षेत्र तक पहुंच चुका होगा.  सभापति जी, यह भी आलोचना की गई कि यह आरक्षण देते वक्त समाज में कुछ और वर्ग हैं, जिनके लिए सब-कोटा रखना चाहिए आज हमारी संवैधानिक व्यवस्था के तहत जो एस.सी. और एस.टी. समुदाय हैं, उनके लिए चुनाव क्षेत्रों  में आरक्षण की व्यवस्था है, किसी अन्य के लिए व्यवस्था नहीं है
आज देश की विभिन्न विधानसभाएं कानून बना रही हैं. एक तिहाई के स्थान पर, पचास फीसदी तक महिलाओं को ग्राम पंचायतों में लोकल सेल्फ गवर्नमेंट में आरक्षण दिया जा रहा है .कई विधान सभाओं में बहुत सफलता से कई राज्यों  में लागू हुआ है, लेकिन जहां आपको पसंद नहीं आता..(व्यवधान)..गुजरात का उदाहरण है , चार महीने पहले कानून पारित हुआ था, लेकिन आज तक उस कानून को वहां के राज्यपाल स्वीकृति नहीं दे रहे..(व्यवधान)..इस प्रकार के दोहरे मापदंड कांग्रेस पार्टी  द्वारा भी नहीं चल पाएंगे ..(व्यवधान)..सभापति जी, मैं यह मानता था, जो मैंने आरंभ में कहा..(व्यवधान)..कि आज हम इतिहास बनाने जा रहे हैं.
क्रमशः

शुभम श्री की पुरस्कृत और अन्य कविताएं : स्त्रीकाल व्हाट्सअप ग्रूप की टिप्पणियाँ

शुभम श्री की 'पोएट्री मैनेजमेण्ट'कविता को इस वर्ष का  भारत भूषण अग्रवाल सम्मान देने की घोषणा हुई है.  कहानीकार और कवि उदय प्रकाश इस बार इस सम्मान के निर्णायक थे.  इस कविता को सम्मान दिये जाने पर सोशल मीडिया में काफी आपत्तियां दिखीं . मैंने स्त्रीकाल व्हाट्स अप ग्रूप में सदस्यों की राय माँगी, अपनी ओपन कमेंट्री के साथ कि  मुझे यह कविता अच्छी लगी. ग्रूप की साथी और कवयित्री आरती मिश्रा ने बताया कि इसी दौरान शुभम की एक और कविता बहस के केंद्र में है. उन्होंने
"मेरे हॉस्टल के सफाई कर्मचारी ने सेनिटरी नैपकिन फेंकने से इनकार कर दिया है"कविता ग्रूप में पोस्ट की. प्रस्तुत है स्त्रीकाल व्हाट्स अप ग्रूप की टिप्पणियाँ और दोनो कविताएं. 
संपादक

पुरस्कृत कविता अच्छी लगी. नयी शैली, नये बिम्ब कविता के पारम्परिक मानदंडों से अलग हैं इसलिए हल्ला हो रहा है. फिर सवाल यह भी है कि कविता क्या है यह कौन तय करेगा? पिछले 1000 साल या ज्यादा समय में कविता ने कितने रूप बदल लिए ऐसे में यह सवाल बेमानी है कि यह कविता है या नहीं. रही बात हाय तौबा की तो वह हर मौके पर मचती है. उदय जी को और शुभम श्री दोनों को बधाई.
पूजा सिंह ( साहित्यिक -सांस्कृतिक पत्रकार)
 
ये तो सिरे से ही गलत है कि ये कविता नहीं है. उस पर से दोनों कविताएं असर कारक हैं. बेहद प्रभावी.
मजकूर आलम ( लेखक)
मुख्य जो कविता है वह अपनी शैली और प्रयोग में नई तरह की मुद्रा निर्माण करती है. जिस तरह पत्रकारिता में सूचनाओं व अहवाल की पद्धति होती है ऐसी पद्धति से कथन के बिखराव के साथ, कहन के एक दूसरे को काटते फैले हुए टुकड़ों के साथ समाज और जीवन के कितने सारे कोनों से भाषा पैटर्न्स आई है इस रचना में. कुल मिलाकर आज के विवरिंग समय और मूल्यबोध के प्रति भाषा की ये पैटर्न्स कटाक्ष भरे सेटायर में तब्दील हो जाती है. कथन और सामग्री के बिखराव की पद्धति के कारण यह कविता बहस में फंस गई होगी.
फारूक शाह ( कवि/ आलोचक ) 




पुरस्कृत कविता : 


पोएट्री मैनेजमेण्ट

कविता लिखना बोगस काम है !
अरे फ़ालतू है !
एकदम
बेधन्धा का धन्धा !
पार्ट टाइम !
साला कुछ जुगाड़ लगता एमबीए-सेमबीए टाइप
मज्जा आ जाता गुरु !
माने इधर कविता लिखी उधर सेंसेक्स गिरा
कवि ढिमकाना जी ने लिखी पूँजीवाद विरोधी कविता
सेंसेक्स लुढ़का
चैनल पर चर्चा
यह अमेरिकी साम्राज्यवाद के गिरने का नमूना है
क्या अमेरिका कर पाएगा वेनेजुएला से प्रेरित हो रहे कवियों पर काबू?
वित्त मन्त्री का बयान
छोटे निवेशक भरोसा रखें
आरबीआई फटाक रेपो रेट बढ़ा देगी
मीडिया में हलचल
समकालीन कविता पर संग्रह छप रहा है
आपको क्या लगता है आम आदमी कैसे सामना करेगा इस संग्रह का ?
अपने जवाब हमें एसएमएस करें
अबे, सीपीओ (चीफ़ पोएट्री ऑफ़िसर) की तो शान पट्टी हो जाएगी !
हर प्रोग्राम में ऐड आएगा
रिलायंस डिजिटल पोएट्री
लाइफ  बनाए पोएटिक
टाटा कविता
हर शब्द सिर्फ़ आपके लिए
लोग ड्राइँग रूम में कविता टाँगेंगे
अरे वाह बहुत शानदार है
किसी साहित्य अकादमी वाले की लगती है
नहीं जी, इम्पोर्टेड है
असली तो करोड़ों डॉलर की थी
हमने डुप्लीकेट ले ली
बच्चे निबन्ध लिखेंगे
मैं बड़ी होकर एमबीए करना चाहती हूँ
एलआईसी पोएट्री इंश्योरेंस
आपका सपना हमारा भी है
डीयू पोएट्री ऑनर्स, आसमान पर कटऑफ़
पैट (पोएट्री एप्टीट्यूड टैस्ट)
की परीक्षाओं में फिर लड़ियाँ अव्वल
पैट आरक्षण में धाँधली के ख़िलाफ़ विद्यार्थियों ने फूँका वीसी का पुतला
देश में आठ नए भारतीय काव्य संस्थानों पर मुहर
तीन साल की उम्र में तीन हज़ार कविताएँ याद
भारत का नन्हा अजूबा
ईरान के रुख  से चिन्तित अमेरिका
फ़ारसी कविता की परम्परा से किया परास्त
ये है ऑल इण्डिया रेडियो
अब आप सुनें सीमा आनन्द से हिन्दी में समाचार
नमस्कार
आज प्रधानमन्त्री तीन दिवसीय अन्तरराष्ट्रीय काव्य सम्मेलन के लिए रवाना हो गए
इसमें देश के सभी कविता गुटों के प्रतिनिधि शामिल हैं
विदेश मन्त्री ने स्पष्ट किया है कि भारत किसी क़ीमत पर काव्य नीति नहीं बदलेगा
भारत पाकिस्तान काव्य वार्ता आज फिर विफल हो गई
पाकिस्तान का कहना है कि इक़बाल, मण्टो और फैज से भारत अपना दावा वापस ले
चीन ने आज फिर नए काव्यालंकारों का परीक्षण किया
सूत्रों का कहना है कि यह अलंकार फिलहाल दुनिया के सबसे शक्तिशाली
काव्य संकलन पैदा करेंगे
भारत के प्रमुख काव्य निर्माता आशिक  आवारा जी का आज तड़के निधन हो गया
उनकी असमय मृत्यु पर राष्ट्रपति ने शोक ज़ाहिर किया है
उत्तर प्रदेश में फिर दलित कवियों पर हमला
उधर खेलों में भारत ने लगातार तीसरी बार
कविता अंत्याक्षरी का स्वर्ण पदक जीत लिया है
भारत ने सीधे सेटों में ‍‍६-५, ६-४, ७-२ से यह मैच जीता
समाचार समाप्त हुए
आ गया आज का हिन्दू, हिन्दुस्तान टाइम्स, दैनिक जागरण, प्रभात खबर
युवाओं पर चढ़ा पोएट हेयरस्टाइल का बुखार
कवियित्रियों से सीखें हृस्व दीर्घ के राज़
३० वर्षीय एमपीए युवक के लिए घरेलू, कान्वेण्ट एजुकेटेड, संस्कारी वधू चाहिए
२५ वर्षीय एमपीए गोरी, स्लिम, लम्बी कन्या के लिए योग्य वर सम्पर्क करें
गुरु मज़ा आ रहा है
सुनाते रहो
अपन तो हीरो हो जाएँगे
जहाँ निकलेंगे वहीं ऑटोग्राफ़
जुल्म हो जाएगा गुरु
चुप बे
थर्ड डिविज़न एम० ए०
एमबीए की फ़ीस कौन देगा?
प्रूफ  कर बैठ के
खाली पीली बकवास करता है !

बहस में दूसरी कविता
 
"मेरे हॉस्टल के सफाई कर्मचारी ने सेनिटरी नैपकिन फेंकने से इनकार कर दिया है"


ये कोई नई बात नहीं
लंबी परंपरा है
मासिक चक्र से घृणा करने की
'अपवित्रता'की इस लक्ष्मण रेखा में
कैद है आधी आबादी
अक्सर
रहस्य-सा खड़ा करते हुए सेनिटरी नैपकिन के विज्ञापन
दुविधा में डाल देते हैं संस्कारों को...
झेंपती हुई टेढ़ी मुस्कराहटों के साथ खरीदा बेचा जाता है इन्हें
और इस्तेमाल के बाद
संसार की सबसे घृणित वस्तु बन जाती हैं
सेनिटरी नैपकिन ही नहीं, उनकी समानधर्माएँ भी
पुराने कपड़ों के टुकड़े
आँचल का कोर
दुपट्टे का टुकड़ा
रास्ते में पड़े हों तो
मुस्करा उठते हैं लड़के
झेंप जाती हैं लड़कियाँ
हमारी इन बहिष्कृत दोस्तों को
घर का कूड़ेदान भी नसीब नहीं
अभिशप्त हैं वे सबकी नजरों से दूर
निर्वासित होने को
अगर कभी आ जाती हैं सामने
तो ऐसे घूरा जाता है
जिसकी तीव्रता नापने का यंत्र अब तक नहीं बना...
इनका कसूर शायद ये है
कि सोख लेती हैं चुपचाप
एक नष्ट हो चुके गर्भ बीज को
या फिर ये कि
मासिक धर्म की स्तुति में
पूर्वजों ने श्लोक नहीं बनाए
वीर्य की प्रशस्ति की तरह
मुझे पता है ये बेहद कमजोर कविता है
मासिक चक्र से गुजरती औरत की तरह
पर क्या करूँ
मुझे समझ नहीं आता कि
वीर्य को धारण करनेवाले अंतर्वस्त्र
क्यों शान से अलगनी पर जगह पाते हैं
धुलते ही 'पवित्र'हो जाते हैं
और किसी गुमनाम कोने में
फेंक दिए जाते हैं
उस खून से सने कपड़े
जो बेहद पीड़ा, तनाव और कष्ट के साथ
किसी योनि से बाहर आया है
मेरे हॉस्टल के सफाई कर्मचारी ने सेनिटरी नैपकिन
फेंकने से कर दिया है इनकार
बौद्धिक बहस चल रही है
कि अखबार में अच्छी तरह लपेटा जाए उन्हें
ढँका जाए ताकि दिखे नहीं जरा भी उनकी सूरत
करीने से डाला जाए कूड़ेदान में
न कि छोड़ दिया जाए
'जहाँ तहाँ'अनावृत ...
पता नहीं क्यों
मुझे सुनाई नहीं दे रहा
उस सफाई कर्मचारी का इनकार
गूँज रहे हैं कानों में वीर्य की स्तुति में लिखे श्लोक....



 इस कविता के कंटेंट को यदि कचरा उठाने वाले के नजरिये से देखा जायेगा तो गलत लगेगी, लेकिन यदि धर्माचार्यों के  मासिक चक्र के अपवित्र  घोषणा और सामाजिक मान्यताओं की जिल्लातो के मद्देनजर रखकर देखा जाय तो कविता काफी सच  कहती है.
आरती मिश्रा ( कवयित्री)
शुभम श्री की दोनों ही कविताएँ एक नया कोण हैं. अपनी गद्यात्मकता में भी ख़ासा पैनापन है. व्यंजना कथ्य का नया आसमान दिखाती है. मेरे विचार में मार्मिक, कटु सत्य का उद्घाटन करने वाली कविताएँ हैं दोनों.
हेमलता माहिश्वर ( कवयित्री/ आलोचक)
कई बार कविता एक विभ्रम की तरह होती है..नजरिये और पुनर्पाठ में यह एक नए उद्दबोध के साथ पुनर्स्थापित करने का प्रयास करती है...कविता की रूहानी रूह अलग-अलग होती है पर थोड़े बहुत ही सही हरेक कविता में यह एक तत्व के रूप में मौजूद अवश्य रहता है..आज जो प्रत्यक्ष  दिखने वाला संसार है न दरअसल वह आभासी यथार्थ का संसार है . यहाँ आदर्शों , आदर्शवाक्यों  , घोषणापत्रों ,सजावटों , पच्चीकारियों , नकाबों , बहुरूपों , विभ्रमों, व्यंग्यों, और कपट अलग-अलग रूप में व्यक्त होता है... जब आप कविता पढ़ रहे होते है तो साथ साथ इन मानकों पर हम कविता को तौल भी रहे होते है...
शुभम श्री जी की कविता को विवाद को देखकर मैंने कई मानकों पर खलने का प्रयास किया. कविता की आंत्रगता उलझे अर्थों के साथ अलग हो रही थी..कई स्थानों पर कविता का मूल तत्व हमें छीज रहा था..और हम सहज नहीं थे इसके मूल को पकड़ने में...कविता का हर स्टेन्जा पिछले के साथ पूरी तरह से अटैच्ड नहीं था . यह एक तरह से विडाउट कैरेक्टर Nincompoop की तरह विभ्रम लगा. हा शुभम श्री की दूसरी कविता कथ्य और तथ्य दोनों में ध्यान खींचती है...एक पाठकीय मिज़ाज वालों के लिए और स्त्री विमर्श को काफी स्पेस देती है वशर्ते इसे घृणादिक मानकर न पढ़ा जाये...यह मुकम्मल कविता है.
राकेश पाठक ( कवि)
मुझे अच्छी लगी दोनों ही कवितायें. क्या चाँद ,तारों और प्रेम का पालागन ही कवितायेँ होती है .कविता केशब्द सहजता से सम्प्रेषित हो और सार आपको झिझोड़ दे ,सही अर्थो में वही सच्ची कविता है .
प्रवेश सोनी ( लेखिका/ चित्रकार)

औरतें - क़िस्त दो

एदुआर्दो गालेआनो / अनुवादक : पी. कुमार  मंगलम 

अनुवादक का नोट 

“Mujeres” (Women-औरतें) 2015 में आई थी। यहाँ गालेआनो की अलग-अलग किताबों और उनकी लेखनी के वो हिस्से शामिल किए गए जो औरतों की कहानी सुनाते हैं। उन औरतों की, जो इतिहास में जानी गईं और ज्यादातर उनकी भी जिनका प्रचलित इतिहास में जिक्र नहीं आता।  इन्हें  जो चीज जोड़ती है वह यह है कि  इन सब ने अपने समय और स्थिति में अपने लिए निर्धारित भूमिकाओं को कई तरह से नामंजूर किया।


तितुबा 

बहुत पहले ,बचपन में ही उसे दक्षिणी अमरीकामें पकड़ लिया गया था. फिर एक बार और बार-बार बिकते तथा  एक-के-बाद दूसरे मालिक को  देखते हुए वह आखिरकार उत्तरी अमरीका के सालेम कस्बे जा पहुंची थी.
वहाँ सालेम में, जो शुद्धतावादी प्यूरिटन ("प्यूर"अर्थात "शुद्ध") ईसाईयों का डेरा था, वह पादरी सैमुएल पार्रिस के घर की दासी मुक़र्रर की गई थी. पादरी की बेटियाँ उसे बहुत चाहती थी. तितुबा जब उन्हें चमत्कार से प्रकट हुए लोगों की कहानियाँ सुनाती या अंडे की घुली हुई जर्दी में उनका भाग्य पढ़ती, तब वे खुली आंखों से सपना देख रही होती. 1692   की सर्दियों में, जब इन लड़कियों पर शैतान का साया पड़ा और वे जमीन पर उलट-पलट पड़ रही थीं, चीख-चिल्ला रही थीं, तब सिर्फ तितुबा ही उन्हें शांत कर सकी थी. उसने उन्हें प्यार किया, उनके कान में तब तक कहानियां फुसफुसाती रही जब तक कि वे उसकी गोद में सो न गई. बस, इसने उसे गुनाहगार बना दिया. अब यह तितुबा ही थी जिसने ईश्वर के चुने हुए लोगों की आदर्श नगरी में नरक की आहट सुना दी थी.


फिर कहानियों की इस जादूगरनी कोभरे चौराहे पर, फांसी के तख्ते से बांध दिया गया. और उसने अपने सारे गुनाह कबूल किए: उसपर यह इल्ज़ाम लगा कि वह शैतानी टोटके लगाकर केक-मिठाइयाँ बनाया करती है. और फिर उसे तब तक कोड़े लगाए गए जब तक कि उसने हाँ नहीं कह दिया. इल्जाम यह था कि वह रात को जुटने वाली चुड़ैलों की महफिल में नंगा नाचती है और इस बार भी कोड़े उसके गुनाह कबूल लेने  पर ही रूके. इल्ज़ाम यह भी था कि वह शैतान के साथ सोती है. कोड़ों ने इस बार भी अपना काम मुकम्मल पूरा किया,और फिर उसे यह कहा गया कि जुर्म में उसकी साथी कभी चर्च न जाने वाली वो दो बूढ़ी औरतें थी. तितुबा अब  इल्ज़ाम लगाने वाली बन गई थी. अपनी उंगलियाँ उसने शैतान का कहा मानती उन दो औरतों की तरफ मोड़ दी थी. बस इसके बाद उसपर कोड़े चलना बंद हो गए. इसी तरह और गुनाहगारों ने औरों को गुनाहगार बताया. फाँसी का फंदा इसके बाद लगातार चढ़ता-उतरता रहा.

औरतें सीरीज की इन कहानियों की पहली क़िस्त पढ़ने के लिए क्लिक करें:

औरतें

ईश्वर की औरतें

1939 सान साल्वादोर दे बाहिया उत्तर अमरीकीमानवविज्ञानी रूथ लैंड्स ब्राजील आई थी. वह एक ऐसे देश में काले लोगों का हाल जानना चाहती थी, जिसके बारे में यह मान लिया गया था कि वह रंगभेद से मुक्त है (खासकर 1889 में गुलामी प्रथा पर सरकारी रोक के बाद-अनुवादक). रियो दी जानेइरो में उनकी आवभगत सरकार के मंत्री ओस्वाल्दो आरान्या ने की. मंत्री महोदय ने उन्हें यह समझाया कि सरकार की योजना काले खून से गंदे हुए ब्राजीली नस्ल की सफाई की है. वही काला खून, जो देश के पिछड़ेपन का गुनहगार है.  रियो के बाद रूथ बाहिया गई. अश्वेत इस शहर की सबसे बड़ी आबादी हैं, जहां कभी चीनी और गुलामों के कारोबार में पैसे से नहाए वायसरायों का राज चलता था. यहाँ धर्म से लेकर खान-पान तथा बीच में कहीं आते संगीत तक हर वो चीज जो नाम लेने और चाहे जाने के लायक है, काले रंग की विरासत है. इस सबके बावजूद, बाहिया के सारे लोग और अश्वेत भी यह मानते हैं कि चमड़े का साफ़ रंग चीजों के बढ़िया होने की तस्दीक है. सारे लोग नहीं. अफ्रीकी मंदिरों की औरतों में रूथ ने काले होने का गर्व और आत्मसम्मान देखा था.


इन मंदिरों में लगभग हमेशा ये औरतें, ये काली पुजारिनें ही होती हैं, जो अफ्रीका से आए देवताओं को अपने शरीर में ठीया देती हैं. किसी तोप की नली की तरह चमकदार और गोल ये औरतें अपना भरा-पूरा शरीर इन देवताओं को अर्पित करती हैं. इनकी देह तब उस घर की तरह होती है, जहाँ आना और ठहर जाना अच्छा लगता है. देवता इनके अंदर रमते हैं, इनके अंदर नृत्य करते हैं. शहर के लोग देवताओं का घर बनी इन पुजारिनों से अपने लिए हौसला और संबल पाते हैं; इनके मुँह से वे अपनी किस्मत की आवाज़े सुना करते हैं. बाहिया की काली पुजारिनें अपने लिए पति नहीं प्रेमी चाहती हैं. शादी देती होगी इज्जत  और नाम, लेकिन यह आज़ादी और खुशी छीन लेती है. इनमें से किसी को भी किसी पुजारी या जज के सामने शादी रचाने में कोई दिलचस्पी नहीं है. कोई भी बँधी-बँधाई पत्नी, किसी की श्रीमती नहीं बनना चाहती. तने हुए सिर और मंथर मस्तानी चाल के साथ ये पुजारिनें पूरी कायनात की मलिकाओं की तरह चलती हैं. अपने प्रेमियों को वे देवताओं से ईर्ष्या करने का वह संत्रास देती हैं, जो कहीं किसी और के हिस्से नहीं आया होगा.


शब्दों की ओर एक खिड़की

माग्दा लेमोनिएर अखबारों से शब्दों की कतरनें काटती हैं. हर रूप और आकार के इन शब्दों को वह कुछ बक्सों में सहेजा करती हैं. लाल बक्से में वह गुस्से से चीखते शब्दों को रखती हैं. हरे बक्से में प्यार करने वाले, तो नीले वाले में इन भावों से तटस्थ शब्दों की बचत होती है. पीला वाला उन शब्दों को संजोता है, जो दुख की बाते बताते हैं. और उस पारदर्शी बक्से में वह उन शब्दों को छुपाती हैं, जिनमें जादू भरा होता है. कभी-कभी माग्दा इन बक्सों को खोलती हैं और उन्हें मेज़ पर उलट देती हैं, ताकि ये शब्द चाहे जैसे मन हो, एक-दूसरे में मिल जाएं. तब, ये शब्द माग्दा को वह बताते है जो हो रहा है, और उसकी खबर देते हैं जो होने वाला है.

लेखक के बारे में

एदुआर्दो गालेआनो (3 सितंबर, 1940-13 अप्रैल, 2015, उरुग्वे) अभी के सबसे पढ़े जाने वाले लातीनी अमरीकी लेखकों में शुमार किये जाते हैं। साप्ताहिक समाजवादी अखबार  एल सोल  (सूर्य) के लिये कार्टून बनाने से शुरु हुआ उनका लेखन अपने देश के समाजवादी युवा संगठन  से गहरे जुड़ाव के साथ-साथ चला। राजनीतिक संगठन से इतर भी कायम संवाद से विविध जनसरोकारों को उजागर करना उनके लेखन की खास विशेषता रही है। यह 1971 में आई उनकी किताब लास बेनास आबिएर्तास दे अमेरिका लातिना (लातीनी अमरीका की खुली धमनियां) से सबसे पहली बार  जाहिर हुआ। यह किताब कोलंबस के वंशजों की  ‘नई दुनिया’  में चले दमन, लूट और विनाश का बेबाक खुलासा है। साथ ही,18 वीं सदी की शुरुआत में  यहां बने ‘आज़ाद’ देशों में भी जारी रहे इस सिलसिले का दस्तावेज़ भी। खुशहाली के सपने का पीछा करते-करते क्रुरतम तानाशाहीयों के चपेट में आया तब का लातीनी अमरीका ‘लास बेनास..’ में खुद को देख रहा था। यह अकारण नहीं है कि 1973 में उरुग्वे और 1976 में अर्जेंटीना में काबिज हुई सैन्य तानाशाहीयों ने इसे प्रतिबंधित करने के साथ-साथ गालेआनो को ‘खतरनाक’ लोगों की फेहरिस्त में रखा था। लेखन और व्यापक जनसरोकारों के संवाद के अपने अनुभव को साझा करते गालेआनो इस बात पर जोर देते हैं कि "लिखना यूं ही नहीं होता बल्कि इसने कईयों को बहुत गहरे प्रभावित किया है"।



अनुवादक का परिचय : पी. कुमार. मंगलम  जवाहर लाल नेहरु विश्विद्यालय से लातिनी अमरीकी साहित्य में रिसर्च कर रहे हैं .  आजकल फ्रांस में हैं. 

क्रमशः

महिला संगठनों, आंदोलनों ने महिला आरक्षण बिल को ज़िंदा रखा है : वृंदा कारत: पांचवी क़िस्त

महिला आरक्षण को लेकर संसद के दोनो सदनों में कई बार प्रस्ताव लाये गये. 1996 से 2016 तक, 20 सालों में महिला आरक्षण बिल पास होना संभव नहीं हो पाया है. एक बार तो यह राज्यसभा में पास भी हो गया, लेकिन लोकसभा में नहीं हो सका. सदन के पटल पर बिल की प्रतियां फाड़ी गई, इस या उस प्रकार  से बिल रोका गया. संसद के दोनो सदनों में इस बिल को लेकर हुई बहसों को हम स्त्रीकाल के पाठकों के लिए क्रमशः प्रकाशित करेंगे. पहली क़िस्त  में  संयुक्त  मोर्चा सरकार  के  द्वारा  1996 में   पहली बार प्रस्तुत  विधेयक  के  दौरान  हुई  बहस . पहली ही  बहस  से  संसद  में  विधेयक  की  प्रतियां  छीने  जाने  , फाड़े  जाने  की  शुरुआत  हो  गई थी . इसके  तुरत  बाद  1997 में  शरद  यादव  ने  'कोटा  विद  इन  कोटा'  की   सबसे  खराब  पैरवी  की . उन्होंने  कहा  कि 'क्या  आपको  लगता  है  कि ये  पर -कटी , बाल -कटी  महिलायें  हमारी  महिलाओं  की  बात  कर  सकेंगी ! 'हालांकि  पहली   ही  बार  उमा भारती  ने  इस  स्टैंड  की  बेहतरीन  पैरवी  की  थी.  अंग्रेजी से हिन्दी अनुवाद पूजा सिंह और श्रीप्रकाश ने किया है. 

 संपादक

अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस की सौंवी वर्षगांठ ( 8 मार्च 2010)

 जयंती नटराजन:  महोदय, मैं संविधान (संशोधन)विधेयक का समर्थन करती हूं. महोदय,  मैं इस देश की सभी महिलाओं की तरफ से अपनी बात शुरू करना चाहूंगी, जो इस संसद में न्याय के लिए, आरक्षण के लिए, इस देश के विकास के लिए उठने वाली बराबर की आवाज के लिए 62 से अधिक वर्षों के लिए इंतज़ार कर रही हैं, मैं कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी, प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह और पूरे यूपीए को इस ऐतिहासिक कानून को मतदान के लिए लाने के लिए धन्यवाद देना चाहूंगी – जिसे भारतीय जनता को देने का साहस या राजनीतिक इच्छाशक्ति 62 वर्षों में किसी अन्‍य पार्टी में नहीं हुई. महोदय, जो दो मिनट मुझे दिये गये हैं उनमें मैं बताना चाहूंगी कि यह राजीव गांधी के उस सपने का ही एक तार्किक विस्तार है,  जिसके द्वारा स्थानीय निकायों में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत सीटें आरक्षित थी. जिसके परिणाम स्‍वरूप आज देश के हर गांव में स्थानीय सरकारी निकायों में 10-12 लाख से अधिक महिलाएं मौजूद हैं. 50 लाख से अधिक महिलाओं ने उन सीटों के लिए चुनाव लड़ा है; और गांवों में एक बड़ी संख्या में महिलाएं अब राजनीतिक सत्ता के फल का स्‍वाद ले रही हैं. साथ ही, महोदय, उस समय ऐसे लोग भी थे जो महिलाओं के आरक्षण और उनके द्वारा राजनीतिक अवसरों में साझेदारी के विरोध में खड़े थे. लेकिन भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, कांग्रेस अध्यक्ष और प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह हमारे घोषणा पत्र में किये गये वादे को पूरा करने में कभी पीछे नहीं रहे. यह हमारा सत्‍यनिष्‍ठ एवं विधिसम्‍मत वादा था. हालांकि कल भी,  पूरे समय, सदन के भीतर और बाहर, सहकर्मियों ने इस सरकार की प्रतिबद्धता पर संदेह किया और हमारे खिलाफ संगदिल होकर आरोप लगाए. हम सही साबित हुए. हमने इस देश की महिलाओं से किया गया अपना वादा पूरा किया है. महोदय, यह यूपीए का वादा है कि महिलाओं को न्याय मिलेगा और महिलाओं को इस देश के विकास और राजनीतिक अवसरों और राजनीतिक निर्णय लेने में हिस्‍सेदारी मिलेगी. महोदय, मैं यह कहना चाहूंगी. श्री जेटली ने पहले ही यह बात कह दी है. एक गलत अफवाह फैलाई  जा रही है. यहाँ तक कि जो लोग बिल का तीखा विरोध कर रहे हैं, वे दलितों के लिए आरक्षण के बारे में बात जारी रखे हुए हैं. मैं उन्हें विधेयक को पढ़ने की सलाह दूंगी. संविधान (संशोधन) विधेयक में दलित महिलाओं के लिए आरक्षण है और आदिवासियों के लिए भी है. और यह आरक्षण भारत के संविधान द्वारा अधिकृत कर दिया गया है. मैं यह भी कहना चाहूंगी कि मेरी पार्टी पहली पार्टी है जिसने पार्टी ढांचे के सभी स्तरों पर महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत सीटें आरक्षित की है. इस तरह, हम पूरी तरह से लैंगिक समानता के लिए प्रतिबद्ध हैं. महोदय, मैं यह भी कहना चाहूंगी कि यह हमारे प्रधानमंत्री ही हैं, जिन्‍होंने कानून के इस हिस्‍से को प्रस्‍तुत किया था. और 50 फीसदी करने के लिए स्थानीय निकाय स्तर पर आरक्षण की 33 प्रतिशत उठाया, और अब स्थानीय सरकार के स्तर पर, कोटा को 33 प्रतिशत से बढ़ाकर 50 फीसदी तक कर दिया गया है. इस तरह, महोदय,  हमने इस देश की महिलाओं के लिए अपनी प्रतिबद्धता और जनादेश को पूरा किया है. महोदय, मैं सिर्फ दो बातें रखते हुए समाप्त करना चाहूंगी.


जयंती नटराजन (जारी) : लोग समानताके बारे में बात करते हैं. लेकिन उसमान लोगों  के बीच कोई समानता नहीं हो सकती है. जेंडर समानता जिसके बारे में संविधान में उल्लेख किया गया है, जमीनी स्‍तर पर पूरी तरह से अर्थहीन है. महोदय, भारतीय महिलाओं ने आजादी के लिए महात्मा गांधी आह्वान पर पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर लड़ाई लड़ी है. भारतीय महिलाएं जेल गईं; भारतीय महिलाओं ने घर को भी संभाले रखा; और फिर भी, महोदय, आजादी के बाद, हालांकि संविधान समानता की गारंटी देता है, भारतीय महिलाएं शिक्षा, स्वास्थ्य और विकास के कई अन्य मानकों में काफी पीछे हैं. जिस तरह से स्थानीय सरकार के स्तर पर मार्गदर्शकों ने राह दिखाई है, जहां स्‍थानीय सरकार में चुनी गईं महिलाओं ने स्वच्छता, शिक्षा, बाल स्वास्थ्य और हर बुनियादी मुद्दों में जबरदस्त रुचि दिखाई है, इस देश के विकास के लिए उस पर ध्यान देने की जरूरत है. इसलिए, महोदय, जब संवैधानिक संशोधन को अधिनियमित किया जाता है और भारतीय महिलाओं को निर्णय लेने में बराबर का स्थान मिलता है, तो संसद में हमारी महिलाओं की चिंताओं को पर्याप्त रूप से प्रतिनिधित्व दिया जाएगा और, मैं यह भी कहूंगी कि जो दृश्‍य हमने  आज क्या देखा है, जिसके लिए हम सभी आपसे स्‍पष्‍ट रूप से माफी माँगते हैं कि फिर कभी ऐसा नहीं होगा और क्‍योंकि सभी समुदाय की महिलाओं का मामला है, हमारा लोकतंत्र जेंडर समानता के पथ पर, विकास के रास्ते पर और सच्चे सामाजिक न्याय की राह पर, अच्‍छी तरह स्थापित किया जाएगा. महोदय, महिलाएं हर समुदाय में सबसे अधिक वंचित हैं और अंतत: सबसे निचले स्‍तर को न्‍याय मिलेगा. धन्‍यवाद, महोदय.

 वृंदा  कारत :महोदय, इससे पहले कि मैं बात रखूं, मेरे सहयोगी सिर्फ एक बात रखना चाहते हैं।

 सीताराम येचुरी:सर, वह मेरी पार्टी की तरफ से कुछ ठोस कहना चाह रही हैं, लेकिन, मैं अपनी पार्टी सीपीआई (एम) की ओर से सिर्फ एक टिप्पणी करना चाहता हूं.

सभापति:आप यहाँ सूचीबद्ध नहीं हैं.

सीताराम येचुरी: महोदय, आपकी अनुमति से मैं उनके समय का दो मिनट लूंगा.

सभापति:ठीक है.

सीताराम येचुरी (पश्चिम बंगाल): महोदय, सीपीआई (एम) की ओर से, हम बहुत सम्मानित महसूस कर रहे हैं कि हम अपने देश में इस विधेयक को कानून बना कर एक इतिहास बनाने में इस सम्मानित सदन का हिस्सा रहे हैं. महोदय, मैं यह बात कहने के लिए खड़ा हुआ हूं कि यह केवल महिलाओं की मांगों को स्वीकार करना नहीं है, बल्‍कि हम इस जिम्मेदारी को देकर हम देश के प्रति अपने सामाजिक कर्तव्‍य को भी पूरा कर रहे हैं और हम एक बेहतर भारत बनाने के लिए अपने देश में मौजूद छिपी हुई व्‍यापक क्षमता को उभारने जा रहे हैं, जो अब तक दबी हुई है. इसी भावना के साथ, महोदय, इस  तथ्य के बावजूद कि सत्तारूढ़ गठबंधन को इस सदन में दो तिहाई बहुमत नहीं है, हम सब एक साथ मिलकर इस कानून को अधिनियमित करने और हमारे देश में एक इतिहास रचने के लिए इसका समर्थन कर रहे हैं.

वृंदा कारत  (पश्चिम बंगाल): महोदय, गहरी संतुष्टि की भावना के साथ, मैं अपनी पार्टी और महिला संगठनों का, जिनके साथ मैं पिछले कई दशकों से इस संवैधानिक संशोधन के समर्थन में काम कर रही हूं, निर्बाध  और स्पष्ट समर्थन देती हूं. यह संशोधन बहुत ही ऐतिहासिक कानून है जो निश्चित रूप से भारतीय राजनीति का चेहरा बदलने जा रहा है. और, मुझे विश्वास है, यह परिवर्तन बेहतर के लिए है. यह एक ऐसा परिवर्तन है जो न केवल भारत में महिलाओं के साथ राजनीतिक दायरे में लंबे समय से हो रहे भेदभाव को संबोधित करेगा, बल्‍कि महोदय, मुझे विश्‍वास है कि है कि यह नई राह दिखाने वाला भी होगा, क्योंकि यह लोकतांत्रिक प्रक्रिया को गहरा करने जा रहा है. यह एक ऐसा कानून है जो यह सुनिश्चित करता है कि समावेशीकरण का नारा बयानबाजी से गारंटी - विधायी और संवैधानिक गारंटी - में बदले, और वह यहीं इस कानून का महत्व निहित है. महोदय, 13 वर्ष या उससे अधिक समय से, इस देश की महिलाएं ऐसे एक कानून के लिए लड़ रही हैं. और हमने इस कानून के खिलाफ सबसे अपमानजनक तर्क सुना है. हम समझते हैं कि जहां भी सामाजिक सुधार के नई राह खोलने वाले उपाय सामने आये हैं, वहाँ इसका विरोध भी हुआ है. मैं आज गर्व के साथ बाबा साहेब आंबेडकर के शब्दों को याद करना चाहूंगी, जब लोकसभा में हिंदू सुधार विधेयक पर इस तरह की एक लंबी बहस हुई थी, उसका ऐसा ही कड़ा विरोध हुआ था. उन्होंने कहा भी था कि कोई भी देश महिलाओं को पीछे छोड़ कर आगे नहीं बढ़ सकता है. और, इसलिए, महोदय, आज मुझे विश्वास है, यह हमारे पुरुष सुधारकों की एक स्मृति है, हालांकि जहां डॉ आंबेडकर का संबंध है मैं पुरुष कहना पसंद नहीं करूंगी.




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वृंदा कारत  (जारी):लेकिन जहाँ तक जेंडर का संबंध है,  यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि भारत में यह पुरुष बनाम महिला, और महिला बनाम पुरुष नहीं रहा है. लेकिन हमारे देश में कुछ सबसे बड़े समाज सुधारक पुरुष रहे हैं, और हम मानते हैं कि यह भूमिका लोकतांत्रिक पुरुष, लोकतांत्रिक विचारधारा वाले पुरुष के कारण बनी रह सकती है, और इसलिए मेरा मानना ​​है कि आज इस सदन में मौजूद सभी पुरुषों, देश के सभी पुरुषों जिन्‍होंने विधेयक का समर्थन किया है मैं बधाई देती हूं जोकि आज बिल्‍कुल उपयुक्‍त है. मैं गंभीर हूँ क्योंकि मैं कहना चाहती हूं कि यह महिलाएं बनाम पुरुष वाला कोई संकीर्ण दृष्टिकोण नहीं है. महोदय, दो, तीन अन्‍य  बातें हैं जिनको मैं यहां रखना चाहूंगी, और जो मुझे बहुत जरूरी लगती हैं. मैं सोचती हूं कि हमारी राजनीति में पिछले दो दशकों में भारतीय राजनीति में सबसे ऐतिहासिक अनुभवों में से एक पंचायतों में जमीनी स्‍तर पर महिलाओं द्वारा निभायी गई भूमिका है. आज हम देखते हैं कि हिन्दुस्तान की पंचायतों में जो सबसे गरीब औरतें हैं, उन गरीब औरतों को जब यह मौका मिला तो इस मौके का फायदा उठाकर उन्होंने  गाँव के लिए, पंचायत के लिए, जिला के लिए और ब्लॉक लेवल पर किस रूप में काम किया. उन्होंने  यह अपने उत्थान के लिए नहीं किया बल्कि पूरे गाँव के उत्थान लिए किया. यह एक रिकार्ड है। लोग कहते हैं कि इसमें प्रॉक्सी पॉलिटिक्स दिखाई देती है. मुझे  पता है, मैं सुनती हूँ कि लोग कहते हैं कि सारे हिन्दुस्तान की पंचायत में एक नया phenomenon, प्रधान पति पैदा हो गया है. आज मैं चुनौती देती हूँ, अगर प्रधान पति होते हैं तो प्रधान पति का जो .  जी?

 सीताराम येचुरी:पति-प्रधान...

 वृंदा कारत: अब पति प्रधान हो या प्रधान पति हो..(व्यवधान).. क्यों कि प्रधान तो महिला ही होती है. उसका पति तो केवल माला लगा कर पंचायतों में जाकर काम करता है. यह  मैं सही कह रही हूँ. इसीलिए मैं यह कहती हूँ कि आज हम सब लोगों  को यह समझाना है कि प्रॉक्सी पॉलिटिक्स भी पुरुष प्रधान मानसिकता का एक reflection है. औरत काम करना चाहती है, लेकिन जब उसका पति वहाँ खड़ा हो जाता है और बी.डी.ओ. खड़ा होकर उसका हस्ताक्षर घर में ही करवा कर कहता है कि तुम्हें आने की जरूरत नहीं है तो उसके खिलाफ औरतें खड़ी होती हैं. इसीलिए मैं कहती हूँ कि आज हम उन लाखों  औरतों को सलाम करते हैं, क्योंकि अगर उन्होंने इस प्रकार का सही काम पंचायतों में नहीं किया होता तो आज हम लोगों  को यह हिम्मत नहीं होती कि हम इस विधेयक को पास करते. इसलिए पंचायत की औरतों की भी इसमें एक जबर्दस्त भूमिका है, जिसे हमें स्वीकार करना चाहिए. सर, मैं एक और बात कहना चाहती हूँ. मैं इसकी पॉलिटिक्स में नहीं जाना चाहती हूँ कि किसको श्रेय मिलना चाहिए इत्यादि, लेकिन मैं यह जरूर कहना चाहती हूँ और जयन्ती जी को यह सुन कर शायद अच्छा लगेगा कि 1988 में जब महिलाओं के लिए National Prospective Plan बना था तो उस समय ruling party की तरफ से एक सुझाव आया कि हम एक-तिहाई nomination के रू प में पंचायतों में देना चाहते हैं. सर, उस समय National Prospective Plan की debate में महिला संगठनों ने कहा कि हम किसी भी संस्था में backdoor से नहीं जाना चाहते हैं  और ये वे महिला संगठन थे, जिन्होंने कहा कि हम नामांकन नहीं चाहते, हम चुनाव चाहते हैं. तो, जब आज हम विभिन्न व्यक्तियों और हस्तियों के योगदान की बात करते हैं,  तो कृपया मत भूलिए कि आज अगर बिल जीवित है, तो वह महिला संगठनों, महिलाओं के आंदोलनों की वजह से है , जिसने राजनीतिक पार्टियों को इसे भूलने नहीं दिया, और यही हैं वे जिनको आज हमें सलाम करना है. मैं इसे रिकॉर्ड में दर्ज करना चाहती हूं, और मुझे आशा है, अगर प्रधानमंत्री आज बोलेंगे, यह तो बहुत अच्छा होगा अगर वह भी उन महिला संगठनों और आंदोलनों को सलाम करें,  जिन्होंने विधेयक को जिंदा रखना सुनिश्चित किया. महोदय, मैं दो, तीन और मुद्दों,  मुझे  इस बात को सुन कर बहुत दु:ख होता है जब यह कहा जाता है कि यह बिल केवल एक वर्ग की महिलाओं के लिए है. अगर हम अनुभव को देखते हैं तो हकीकत यह है कि जब हम आज भी बिहार और उत्तर प्रदेश के अंदर महिलाओं की संख्या को देखते हैं तो यह स्पष्ट होता है कि राजनीति में ओ.बी.सी. की बेटी होना कोई disadvantage नहीं है.


वृंदा कारत (क्रमागत) : आज बिहार के अंदर 24 महिलाओं में से 60% से अधिक पिछड़ी जातियों
से हैं। उत्तर प्रदेश के अंदर 423 MLA हैं ..

 सतीश चन्द्र मिश्र : 403 हैं.

 वृंदा कारत :सॉरी, बिहार में 243 हैं, जिनमें से अगर आप संख्या को देखें, क्यों कि यह जो मिथ क्रियट हो रहा है कि SC, ST और OBC को नहीं मिलेगा, मैं कहना चाहती हूं कि यू0पी0 में 23 महिलाओं में से over 65% SC, ST, OBC और हमारी माइनॉरिटी की बहनें हैं. अगर हम बिहार में देखते हैं तो 243 सीटों में से केवल 24 महिलाएं हैं, जिनमें से वहां भी 70.8% या तो OBC, SC या हमारी मुस्लिम  महिलाएं हैं. इसलिए यह कहना कि केवल जनरल कॉस्ट की महिलाएं, जो बहुत सम्पन्न वर्ग  से आती हैं, उन्हीं का यहां फायदा होता है, यह बात बिल्कुल गलत है. आंकड़े यह दिखाते हैं कि जहां महिला रिजर्वेशन  होता है, वहां निश्चित रूप से ये जो हमारी बहनें हैं, उनको और मौका मिलेगा, वे और आगे आएंगी. मैं मानती हूं कि मंडल कमीशन के बाद हिन्दुस्तान की पॉलिटिक्स में एक बुनियादी परिवर्तन हुआ जिनकी अपर कास्ट मोनोप्लीज़ थी, OBCs की सेल्फ मोबलाइजेशन से वह टूटा. यह एक सकारात्मक चीज थी, लेकिन उसमें OBC महिलाओं को वह हिस्सा नहीं मिला. आज हम यह गारंटी के साथ कहते हैं कि अगर आरक्षण होगा, महिला सीट अगर आप आकर्षित  करेंगे तो जो पार्टियां कास्ट के आधार पर सीट देंगी, उसमें फर्क होगा - जाति का फर्क नहीं होने वाला है, कास्ट का फर्क होगा, भाई की बजाए बहन आएगी, लेकिन कोई परिवर्तन होगा, कास्ट कम्प्लेक्शन में कुछ परिवर्तन होकर कोई कन्वर्जन होगा कांसि्टटयूशन गेरंटी आफ इक्वेलिटी का, यह होने वाला नहीं है, यह हकीकत है. मैं यह मानती हूं आज कि हिन्दुस्तान की जनवादी प्रणाली में सबसे बड़ी कमजोरी है कि हमारे माइनॉरिटीज़ की, हमारी संख्या बहुत कम है, हम मानते हैं. यह हमारे लिए, हरेक के लिए यह शर्म की बात है. क्यों हमारी माइनॉरिटीज़ इतनी कम हैं? क्यों  आबादी के मुताबिक उनकी संख्या पार्लियामेंट में, स्टेट असैम्बलीज़ में नहीं हैं ? निश्चित रूप पर यह हमारी कमजोरी है, कहीं न कहीं हमारे जनवाद में यह एक कमजोरी है. इस कमजोरी को हम कैसे दूर करें ? अगर कोई सोचे कि इस कमजोरी को दूर करने के लिए महिला बिल एक जादू की छड़ी है, जिसे घुमाकर हिन्दुस्तान की जनवादी प्रणाली में जितनी भी कमजोरियां हैं, सब खत्म हो जाएंगी, यह होने वाला नहीं है. लेकिन मैं अपने अनुभव से जानती हूं कि जहां महिला आरक्षण है, लोकल लेवल पर, हमारी माइनॉरिटी कम्युनिटी की बहनों को मौका मिला. सर, आप हैदराबाद को ही लीजिए. हैदराबाद में कॉरपोरेशन में 150 सीट्स हैं,
वहां 50 सीट्स आकर्षित  हैं महिलाओं के लिए. उन 50 सीटों में 10 सीटों पर हमारी मुस्लिम  बहनें चुनाव लड़कर जीतकर आई हैं. क्यों  जीतकर आई हैं? क्यों कि वे सीटें महिलाआकर्षित सीटें थी. इसलिए, महिला रिजर्वेशन का फायदा उठाकर हमारी बहनें खड़ी हो सकती हैं, जीत सकती हैं और आज मैं यह उम्मीद जताती हूं कि महिला आरक्षण के बाद निश्चित रूप से जो हमारी गरीब महिलाएं हैं, पिछड़ी हैं, माइनॉरिटीज़ हैं, SC हैं, ST हैं, निश्चित रूप से उनको इसका फायदा मिलेगा और मैं पोलिटिकल पार्टियों से भी यह अपील करना चाहूंगी कि इस आरक्षण का फायदा उठाकर उन महिलाओं के लिए विशेष प्रावधान करना अनिवार्य है, मैं यह भी कहना चाहती हूं. सर, रोटेशन के बारे में लोगों  ने कहा कि यह रोटेशन क्या है, यह रोटेशन बिल्कुल गलत है, लेकिन हम यह पूछना चाहते हैं कि एक कांसि्टच्युएंसी में जहां ढ़ाई या तीन लाख वोटर हैं, वहां क्या एक ही प्रतिनिधि है, जो जिंदगी भर, जब तक जीएगा, वहीं प्रतिनिधित्व करेगा. क्या वहां और कोई नहीं है, और कोई काबिल नहीं है? यह बिल्कुल गलत समझा है. हम लोगों की पार्टी में, हम लोगों  ने कोशिश की कि हम कम से कम दो टर्म, राज्य सभा में तो दो टर्म हमने लागू कर लिया, लेकिन लोक सभा में भी जो चुने हुए प्रतिनिधि हैं, हमारा यह प्रयास है कि कम से कम दो या तीन टर्म के बाद कोई और साथी आए और करे. चूंकि हम यह नहीं मान सकते, मोनार्की के खिलाफ है .लेकिन इनडायरेक्ट मोनार्की है कि भइया, हम एक बार जीते तो हम कभी नहीं इससे हट सकते और अगर हटेंगे तो लोग कहेंगे कि इनस्टेबि्लटी होगी.That is the stability of democracy that you have more and more people who can take the responsibility. मैं बता रही हूं, मैंने "प्रयास"शब्द का इस्तेमाल किया है और इसीलिए मैं कहती हूं कि यह अनिवार्य है और यह बात सही है, जो अरुण जेटली जी ने कही कि
आरक्षण के समस्‍तरीय प्रसार के बारे में कहना चाहती हूं. हम एकाधिकार को बढ़ाना नहीं चाहते कि केवल एक निर्वाचन क्षेत्र में आरक्षण हो और केवल एक निर्वाचन क्षेत्र की महिलाएं विकास कर सकें. हम महिला नेताओं के समस्‍तरीय विकास की ताकत चाहते हैं, जैसाकि सिर्फ पंचायतों में हुआ है जहां योग्यता की वजह से – कृपया जो मेरिट की बात करते हैं वे ध्‍यान दें - हम 33 फीसदी अधिक हैं। कई पंचायतों में,  हम 40 प्रतिशत हैं. मैं आपको बहुत ज्यादा डराना नहीं चाहती. मेरा पूरी उम्‍मीद है कि विधानसभाओं और संसद में भी बहुत जल्द ही महिलाएं, अपने काम, क्षमता और बलिदान के कारण, 33 प्रतिशत को पार कर जाएंगी और 40 प्रतिशत या 50 प्रतिशत तक पहुंच जाएंगी. यह एक वादा है.

सभापति:कृपया घड़ी पर नजर रखें.

 वृंदा करात:
मैं घड़ी पर नजर रख रही हूँ. I am keeping an eye on the watch. मैं चेयर को भी address कर रही हूं और मैं बाकी सदस्यों  को भी address कर रही हूं.SHRI SITARAM YECHURY: Should we keep a watch on the time or on the numbers, Sir?

वृंदा कारत : सभापति जी, मैं इस बारे में एक बात और कहना चाहती हूं कि लोग पूछते हैं कि बिल के बाद क्या होगा, क्या पूरी पोलिटिक्स बदल जाएगी, क्या करप्शन खत्म हो जाएगा, क्या सब कुछ हो जाएगा? हम कहते हैं कि औरत कोई super woman नहीं है कि वह पार्लियामेंट में आएगी और पूरी दुनिया और देश को बदल देगी, हालांकि उसमें ताकत है बदलने के लिए। मैं यह कहना चाहती हूं कि

 वृंदा करात:महिलाओं से ऐसा व्‍यवहार नहीं करें जैसे कि वे राजनीति में भेदभाव के खिलाफ लड़ने वाली सुपरवुमन हों. मुझे नहीं लगता कि 33 प्रतिशत को फिक्‍स करके हमें यह साबित करना जरूरी है कि वे वहाँ तक नहीं पहुँचना चाहती हैं. हालांकि, मुझे विश्वास है कि चुनावी राजनीति में उनका प्रवेश निश्चित रूप से अधिक संवेदनशील राजनीति की तरफ ले जाऐगा और हमें विश्वास है कि ये हमारे प्रयास ही होंगे कि मुख्‍य राजनीतिक एजेंडे, तथाकथित बड़े मुद्दे और हल्‍के मुद्दे ...

सभापति: कृपया समाप्त करें.


वृंदा करात: महोदय, यही समस्या है. कठिनाइयां क्या हैं? मुख्‍य राजनीतिक मुद्दे क्या हैं? महिलाओं के खिलाफ हिंसा क्‍या एक मुख्‍य राजनीतिक मुद्दा नहीं है? कन्या भ्रूण हत्या क्‍या एक मुख्‍य राजनीतिक मुद्दा नहीं है? फिर भी, जब इन पर विचार-विमर्श होता है,  तो इनको मुख्‍य  राजनीतिक एजेंडा नहीं माना जाता है. कई लोगों ने पूछा: केवल एक तिहाई ही क्यों है? यह एक दहलीज है. यह एक आवश्‍यक मात्रा है जो नीति को प्रभावित करेगी, इसलिए मेरा मानना ​​है कि यह बदल जाएगा. अन्त में, महोदय, ...

सभापति: नहीं, श्रीमती करात, आपका समय समाप्‍त हो चुका है.

 वृंदा करात:जी, हां महोदय, बस आप इतना समायोजन करते हैं तो थोड़ी कृपा और एक और बात. मुझे विश्वास है, यह सब संस्कृति को बदलने जा रहा है क्योंकि आज महिलाएं, चाहे हम इसे स्वीकार करें या नहीं, अधिकतर आधुनिक समाजों में, अभी भी एक सांस्कृतिक प्रिज्‍म में फंसी हुई हैं. एक समान रूप से स्वतंत्र नागरिक होने के लिए हमें हर दिन लड़ना होगा.... हमारे देश में, परंपरा के नाम पर, संस्कृति के नाम पर, रूढियों को थोपा जाता है और मुझे विश्वास है, जब इतनी सारी महिलाएं सार्वजनिक जीवन में हैं, महिलाओं को कैद करने वाली रूढ़ियां और संस्कृतियां, वे सलाखें, भी टूटेंगी.

सभापति: धन्यवाद।

 वृंदा करात: इसलिए, मैं एक बार फिर से सदन को बधाई देती हूं और मैं अपनी निराशा जाहिर करती हूं कि कल फ्लोर मैनेजमेंट कल बहुत खराब था.

सभापति:कृपया समाप्त करें.

 वृंदा करात: आपने हर व्‍यक्‍ति को विश्वास में नहीं लिया था. मुझे विश्वास है,  महोदय, कि जब ...

सभापति:कृपया समाप्त करें. मुझे लगता है कि मैं आपको अब और अधिक समय की अनुमति नहीं दे सकता हूँ.

 वृंदा करात:मुझे यह भी उम्मीद है कि लोकसभा में भी इसे पारित करने में कोई देर नहीं होगी. यह न करें कि नाम के वास्‍ते राज्‍य सभा में कर लिया भइया, लेकिन लोकसभा में क्‍या दिया?

सभापति: कृपया समय पर ध्‍यान दें.

वृंदा करात:कृपया ऐसा नहीं करें. हम इस विधेयक को इस सत्र में ही लोकसभा में पारित देखना चाहते हैं. धन्यवाद.

क्रमशः

बलात्कार-बलात्कार में फर्क होता है साहेब !

पूजा सिंह
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पत्रकार. पिछले १० वर्षों में तहलका , शुक्रवार, आई ए एन एस में पत्रकारिता . संपर्क :aboutpooja@gmail.com
महमूद फारूकी को बलात्कार के मामले मेंहुई सजा कई मायनों में ऐतिहासिक है. यह पहला मौका है जब देश में किसी को ओरल के लिए बलात्कार का दंड मिला है. लेकिन इस एक घटना से कई अन्य सच सामने आये हैं. फिल्म पीपली लाइव के सह-निर्देशक महमूद फारूकी को पिछले दिनों एक अमेरिकी छात्रा के साथ बलात्कार करने के इल्जाम में सात वर्ष कैद की सजा सुनायी गयी. यह मामला कई मायनों में ऐतिहासिक रहा. पहली बात यह कि देश में यह पहला मामला था जब ओरल सेक्स को बलात्कार मानकर सजा सुनायी गयी. दूसरी बात, यह उन अंगुलियों पर गिने जा सकने वाले मामलों में से एक है जहां देश के उस उच्च वर्ग के किसी व्यक्ति को बलात्कार के आरोप में सजा हुई. यह वह वर्ग है जो अन्यथा अपने आप को देश की कानून व्यवस्था से परे मानकर चलता है.

कुछ वर्ष पूर्व वरिष्ठ पत्रकार तरुण तेजपालद्वारा अपनी एक कनिष्ठ पत्रकार के साथ डिजिटल रेप का मामला चर्चा में आया था जिसकी सुनवायी अभी जारी है. महत्त्वपूर्ण बात यह है कि ये दोनों ही मामले बलात्कार कानून में बदलाव के बाद के हैं. शायद इसके पहले इन्हें पूरी तरह बलात्कार माना ही नहीं जाता. दरअसल दिसंबर 2012 के निर्भया सामूहिक बलात्कार कांड के बाद वर्ष 2013 में बलात्कार संबंधी कानून में बदलाव लाया गया. पहली बार कानून ने यह माना कि स्त्री के संपूर्ण शरीर पर पूरी तरह उसका अधिकार है और उसका किसी भी प्रकार अतिक्रमण करना उसके साथ जबरदस्ती माना जायेगा. हमारे देश में इससे पहले बलात्कार की जो परिभाषा थी उसके तहत केवल वजाइनल रेप को ही मान्यता थी. यानी बलात्कार सिद्ध होने के लिए यह आवश्यक था कि जबरन संभोग किया गया हो.

फारूकी मामले में पीडि़ता की अधिवक्तावृंदा ग्रोवर कहती हैं कि इस मामले में फारूकी ने पीडि़ता के साथ जबरन ओरल सेक्स किया. यानी 2013 के पहले की स्थिति में यह बलात्कार नहीं था. विडंबना है कि ऐसी घटनायें कानून में परिभाषित ही नहीं थीं. वहीं तरुण तेजपाल पर लगे आरोप की बात करें तो डिजिटल रेप भी पहले हमारे कानून में अपरिभाषित था. इस मामले में पीडि़ता का आरोप है कि तेजपाल ने उसके निजी अंगों पर अपनी अंगुलियों से हमला किया. नये कानून के तहत इन दोनों तरह की घटनाओं को बलात्कार माना गया है और इसमें उतनी ही सजा होती है जो आमतौर पर फोर्स्ड इंटरकोर्स के मामलों में होती है.  यह बहुत महत्त्वपूर्ण है क्योंकि देश के विभिन्न हिस्सों में बहुत बड़ी संख्या में ऐसे मामले होते हैं जिन्हें इस कदर गंभीरता से नहीं लिया जाता.

मुझे याद है अपने गांव के पड़ोस के एकपरिवार का किस्सा जहां एक सात-आठ साल की बच्ची ने करीब 60 साल के बुजुर्ग पड़ोसी के बारे में अपनी मां को रोते हुए बताया था कि वह जबरदस्ती अपना लिंग उसके हाथ में पकड़ा रहे थे. यह मामला गांव में थोड़ी चीख चिल्लाहट और मारपीट की धमकियों के साथ खत्म हो गया. थानेदार ने बुजुर्ग को सार्वजनिक रूप से दो थप्पड़ मारकर बच्ची से दूर रहने की ताकीद कर दी. आज अगर कोई व्यक्ति ऐसा करता है तो शायद वह बलात्कार की सजा पायेगा. वृंदा ग्रोवर कहती हैं कि उनकी जानकारी में यह देश में पहला मामला है जहां ओरल सेक्स के लिए किसी को बलात्कार की सजा हुई है. वह कहती हैं कि ऐसे अपराध समाज में हमेशा से मौजूद हैं लेकिन अपरिभाषित होने के कारण इनको हल्का अपराध माना जाता था.


फारूकी मामले में पीड़िता की एक बातकाबिलेगौर है. उसने अपने बयान में कहा कि वह बलात्कार के दौरान प्रतिरोध इसलिए नहीं कर पायी क्योंकि उसे निर्भया कांड के बाद बनी डाक्युमेंटरी याद आ गयी, जिसमें निर्भया के अपराधी ने कहा था कि अगर वह प्रतिरोध नहीं करती तो उसे जिंदा छोड़ देते. सोशल मीडिया को अगर बेंचमार्क मानें तो फारूकी प्रकरण एक स्पष्ट रेखा खींचता है. बलात्कार के चुनिंदा मामलों पर अन्यथा उबल पड़ने वाला, फेसबुक पर स्टेटस की बाढ़ ला देने वाला मध्य वर्ग इस बार अन्यथा खामोश नजर आया. पालिटिकली करेक्ट होने की कोशिश लोगों ने इस मामले की अनदेखी की. बहुत कम लोग होंगे जिन्होंने सोशल मीडिया पर इस विषय पर अपनी राय रखी हो. गनीमत तो यह है कि किसी ने फारूकी के बचाव का प्रयास नहीं किया.

मथुरा कांड : जब न्याय शर्मिंदा हुआ

मार्च 1972 में महाराष्ट के चंद्रपुर जिलेमें एक दुर्भाग्यपूर्ण घटना में मथुरा नामक एक 14 वर्षीय किशोरी के साथ दो पुलिसकर्मियों ने थाने में बलात्कार किया. देश की सबसे बड़ी अदालत ने यह कहकर उनको रिहा कर दिया कि मथुरा सेक्स संबंधों की आदी थी. चूंकि उसके शरीर पर चोट के कोई निशान नहीं थे इसलिए बहुत संभव है उसने ही दोनों पुलिसवालों को यौन संबंध बनाने के लिए उकसाया हो. सन 1974 में आये इस फैसले पर उस वक्त ध्यान नहीं दिया गया. सितंबर 1979 में दिल्ली विश्वविद्यालय के प्राध्यापकों उपेंद्र बख्शी, लोकिता सरकार व रघुनाथ केलकर तथा पुणे निवासी वसुधा धगंवर ने सुप्रीम कोर्ट को एक खुला खत लिखा. इसके बाद फैसले की समीक्षा करने की मांग शुरू हो गयी. इसकी मीडिया कवरेज के बाद जबरदस्त आक्रोश पैदा हुआ.

इसके बाद अंतत: कानून में परिवर्तनकिया गया. एविडेंस एक्ट में परिवर्तन करके यह प्रावधान किया गया कि अगर पीड़िता कहती है कि उसने यौन संबंध की सहमति नहीं दी है तो अदालत द्वारा इस बात को माना जाना चाहिये. इसके अलावा बलात्कार कानूनों में संशोधन कर हिरासत में बलात्कार को परिभाषित किया गया, इसे दंडनीय बनाया गया व दोषमुक्ति सिद्ध करने का दायित्व आरोप लगाने वाले के बजाय आरोपी पर डज्ञल दिया गया. इसके अलावा पीड़ित की पहचान जाहिर न करने, कैमरे के सामने सुनवायी तथा कड़े दंड का प्रावधान भी मथुरा कांड के बाद ही किया गया.


निर्भया कांड के बाद हुए बदलाव

दिल्ली में हुए इस भयंकर कांड के बादतत्काल एक न्यायिक जांच समिति गठित की गयी. आम जनता ने उसके समक्ष कानून में बदलाव लाने के 80,000 से अधिक सुझाव भेजे. समिति ने अपनी जांच में महिला अपराधों के लिए पुलस व प्रशासन को जिम्मेदार बताया.इसके बाद कानून में कुछ अहम बदलाव किये गये. मसलन बलात्कार के मामलों की सुनवायी के लिए छह नई अदालतें. ईव टीजिंग, एसिड अटैक, पीछा करने, ताक झांक करने आदि को लेकर कड़े कानून बनाये गये. जुवेनाइल कानून में बदलाव करके जघन्य अपराधों के मामले में 16 साल की उम्र के किशोर को वयस्क की तरह सजा देने की बात कही गयी.

पानी की दीवार

उषाकिरण खान
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वरिष्ठ कथाकार. हिन्दी और मैथिली में  समान रूप से लिखती हैं. संपर्क :9334391006
उषा किरण खान की यह कहानी सिर्फ बाढ़ की कहानी नहीं है, जलमग्न इलाके में समान पीड़ा की कहानी है - जो गांवों के घरों में अकेले छूट गये हैं, छूट गई हैं उनकी समान पीड़ा की कहानी- साझे  दुःख  के  भीतर  से  बने यह स्त्री-साख्य की कहानी है.  आप पढ़ें इस कहानी को, ज़रा  ठहरकर- आपको  अपने आस -पास की 'जगतारिणी बहुरिया'याद  आयेंगी, उनसे प्यारा हो जाएगा आपको.

एक के ऊपर एक चार तख्त रखे थेउसके ऊपर बैठी थी जगतारिणी बहुरिया. पानी चारो ओर ऐसे फैला था जैसे ये कच्चे पलस्तर के झाॅंझन वाले घर उन्हीं के लिए बने हो. साल दर साल पानी ऐसे ही गलियों, चौबारों में घुस आता है और गांव की अधेड़ बहुरियायें तख्त घर लेती है. गोयठे उपले मचान पर सजे होते हैं, फरही लइया और चिउड़ा खाकर लोग गुजारा करते हैं. बहुत हुआ तो कोसी की बाॅंध पर मर्दों द्वारा खिचड़ी पका कर खा लिया जाता है. लेकिन अब की बाढ़ का रंग ही अजीब है. कोसी के तटबंध के बाहर ऐसा समाॅं कभी नहीं था. तब भी नहीं जब पश्चिमी तटबंध टूटा था. जगतारिणी ने चिक्-चिक्-चिक्-चिक् के शोर से थरथरा कर सिर उठाया टिकटिकिया थी. उॅंगली से धरती को नहीं तख्त को तीन बार ठोंका और बुदबुदाई - ‘‘चलो तुम तो कम से कम ही बातें करने को. नहीं त सब घर-घर में बंद हैं. कोई नाव भी नहीं. नाव भी होता तो खेना कौन जानता है'’- शायद जगतारिणी बहुरिया को अपने नाव खेना, न जानने पर आज असंतोष हो आया. पर घुस्सी चौके की मालकिन जगतारिणी कभी चाॅंदनी रात में झिझरी खेलने भी नाव पर नहीं निकली. अपने मायके जाते वक्त थोड़ी देर को जब नाव पर बैठती उसका कलेजा मुॅंह को आ जाता. पहले सास-ननद बाद में  बाल-बच्चे  उसके इस पानी के भय को आड़े हाथों लेते. फिर भी, डर तो डर था वह क्या करती. घुटने तक पानी में छप-छप कर बाड़ी-झाड़ी घूम आती, नाव पर चढ़ते ही हील उठने लगती. सामने से सरसराता एक साॅंप गुजरा. जगतारिणी बहुरिया ने अपने पैर जोर से समेट लिये. रोम-रोम भय से सिहर उठा, घबड़ा कर इधर-उधर देखा कि साॅंप कहीं कोई सूखी जगह तो नहीं ढूंढ  रहा ? सूखी जगह तो मात्र यही तख्त है या है इस घर का छप्पर. लेकिन वह साॅंप तेजी से सरसराता हुआ सामने दूर निकल गया. शायद चारे की खोज में निकला है. हाॅं इस नये छप्पर में कोई जगतारिणी के पास क्यों जायेगा. आश्वस्त-सी पालथी गिरा दी. गाने के लिए प्रसिद्ध इस एकारी वृद्धा के मुॅंह से बोल भी नहीं फूट रहे थे. सामने पुराने घरारी के जीर्ण घर की ओर ताकने लगी. वही घर तो झगड़े की जड़ है. छोटके देवर की जिद उसी पर अटकी है. अपने मालिक का रोब उसी पर टिका है. स्त्रियों की जलालत सभी सीमाएॅं तोड़ रही है. बीचवाले कमरे में जब सब कुछ तैरने लगा तो जगतारिणी बहुरिया ने फुलवा चरवाहे से कहकर तख्त जुड़ा लिया. झाॅंझन के इस नये ओसारे में एक बार बगल के कमरे में झाॅंक कर छोटकी से कहा भी -‘‘अरी अब डूब मरेगी इस पानी में, चल मेरे साथ ओसारे में.’’ - छोटकी नहीं मानी. खिड़की पर पाॅंव लटकाकर बैठी रही. छोटकी की साॅंवली छोटी-सी मुखाकृति सिकुड़कर छुहारा हो गई है.एक ही आॅंगन में सोते जगतारिणी ने इधर अरसे से छोटकी को नहीं देखा.


आज चौक गई. क्या हो गया इसे ? यह नन्हीं-सी जान तो बिल्कुल बदल गई है. कंधों से थोड़ी पहले ही झुकी सी थी अब कमर से भी झुक गयी है. कम से कम दस साल छोटी थी छोटकी बहुरिया. छोटे कद-काठी की होने के कारण सख्त दिखती बड़ी-बड़ी काली आॅंखे, पतले होठ और खूबसूरत दाॅंत उसके सौंन्दर्य को बढ़ाते थे. तेल लगा जड़ कस कर अपने काले घने लंबे केश की चोटी बनाती. रंगीन घुंडियोवाले काॅंटों से जूड़ा सजाती और आखों में सुरमा लगाकर देर तक आईने में अपना मुंह निहारती. उपालंभ में जगतारिणी बहुरिया अक्सर उन्हें कहा करती कि‘‘हो गया तुम्हारा सिंगार-पटार, अब उठो ओसारे में चौका-पीढ़ा करो. खाना तैयार है. छोटे जन को खेत जाना है.’’ - तिरछी ने छोटकी मुस्कुराती और उठ खड़ी होती. अपने सिंगार-पटार की सामग्री छोटी-सी बक्सी में सहेजकर घर के काम में हाथ बंटाने लगती. सास के अशक्त हो जान के बाद से दोनों गोतनियों का बहनापा बढ़ गया था. पहले जो काम डर से काॅंपती-सी करतीं अब मिल-जुलकर संभाल लेती. प्रौढ़ावस्था की ओर बढ़ते कदम उन्होंने आश्वस्ति से उठाये और लगातार पतियों की उपेक्षिता रहते भी जीवन को संतुष्टि से जिया. चार बजे सुबह से जगकर 12 बजे रात तक खुशीपूर्वक काम करती रही. खाना पकाने में बड़की माहिर थी. परोसने में छोटकी. दही का एक ही बर्तन बाकी हो और चार-छह अभ्यागत अनायास टपक पड़े हों तो छोटकी हिसाब से परोस कर जामन भी बचा लेती. उसी प्रकार 12 बजे रात को भी कोई अभ्यागत आ जाए तो बिना हिचके बड़की छप्पन प्रकार के व्यंजन बनाकर खिला देती. पढ़े-लिखे इलाके में मान्य पतियों की फटकार दोनों जनी संग मिलकर सह लेती. प्रतिभाशाली बच्चों की सिखावनी हॅंस कर सुन लेती.  जनेऊ का सारा कारोबार बड़की अपने हाथ में रखती, कपड़ों की सिलाई का भार छोटकी के जिम्मे था.और आज वर्षों से ऐसा अबोला पसरा था कि छोटकी की सूरत ही बेगानी हो चली. यह पीला निचुड़ा चेहरा अब तक न देख पाई थी बड़की जगतारिणी बहुरिया, छोटकी ने मात्र सिर हिलाया और मुॅंह फेरकर खिड़की के पार देखने लगी. जगतारिणी बहुरिया कुछ सोचती-सी अपने तख्त पर आकर बैठ गई. दिन भर इसी छप्पर तले रहती है. खाना पकाना पति और मजूरों को खिलाना, फिर रात ढले आॅॅंगन की कोठरी में जाकर पड़ रहना. छोटकी की खबर कहाॅं मिलती. बीच कोठरी में जगतारिणी रहती , पास की कोठरी से कभी-कभी छोटकी की मंझली बहू की खिलखिलाहट सुनती, मन आह्लाद से भर उठता. अहा मुसइया को अपने हाथों तेल लगा कर पाला था कितना बड़ा हो गया. बहू के साथ कमरे में  रंग-रमस करने लायक हो चला.- इससे अधिक सोचने से पहले सो जाती जगतारिणी, सोचने-विचारने से बहुत कतराती है बहुरिया लेकिन अभी और कोई काम हो भी तो नहीं सकता. टकुरी (तकली) कातली सो दूर बांध पर बक्से में पड़ा है. फुलबा चरवाहे ने  सुबह ही  कहा था कि ले आए सो मालिक ने डपट लिया. कहा कि आराम करो आराम । - क्या करे बहुरिया काम किए हुए ये हाथ आराम कहाॅं चाहते हैं. टकुरी घुमाना तो आराम ही है, अक्सर दिन ढलते दोपहर के काम समेट कर जब टकुरी लेकर बैठती जगतारिणी, तो उनकी आॅंख लग जाती. पाये कि सिर टिका कर झपकी लेने लगती, एक हाथ में टकुरी पकड़ी होती दूसरी में पूनी, बीच में बारीक सुफियाना धागा.

उन दिनों बड़ी बहू नई-नई आई थीं - अक्सर उन्हें ऐसे देख कह उठती - ‘‘माॅं जी, आप या तो थोड़ी देर को चटाई पर लेट जाएॅं या टकुरी घुमाएॅं. यह दो विरोधी काम एक साथ नहीं हो सकते.’’ - चौक कर  जग जाती जगतारिणी बहुरिया और एम0ए0 पास बहू को टकुरी घुमाने के मर्म का निष्फल पाठ पढ़ाने. नहीं कनियाॅं नींद कहाॅं आती है दिन में मुझे. वैसे ही एक झपकी-सी आई. अब ठीक है. टकुरी न कातूॅूं तो कैसे इतने लोग जनेऊ पहनेंगे. कैसे तुम लोगों की बेटियों की शादी में जनेऊ भेज पाऊॅंगी. तुम लोग तैयार करना सीखती भी तो नहीं. बड़ी बहू हॅंस पड़ती. आप भी बड़ी भोली हैं. कौन अब आपके 87 वेदवाला जनेऊ पहनता है. कब मेरी बेटियों की शादी होगी और उसके लिए आप परेशान हैं अभी से जगतारिणी बहुरिया नहीं मानती -‘‘यह बड़ा महीन काम है कनियाॅं, पल भर में होने का नहीं है.’’ - बहू चुप हो जाती. क्योंकि वह देखती सचमुच जनेऊ तैयार करने का काम खासा लंबा और झंझट भरा होता. जगतारिणी बहुरिया का यह काम बड़ा सुनियोजित होता. कपास का बीज डालना, पौधों को सींच-सींच कर बड़ा करना. फूल-फूल की देखभाल. पके हुए फलों को तोड़ कर रूई निकालना सुखाकर पूनी बनाना तब जनेऊ कातना. जगतारिणी बहुरिया का जनेऊ पूरे समाज में समादृत था. बारीक और मजबूत. अच्छी धूप में रंग कर सुखाती तैयार करने में बहुओं की मदद भी लेती. छोटी बहू अक्सर उनके इस काम में हाथ बंटाती.
अभी कोई नहीं है यहाॅं सब अपने-अपने काम पर हैं. उन्हें पता भी न होगा कि कैसी परिस्थिति में है जगतारिणी. कोई जोर-जोर से आवाज दे रहा है .कान लगाकर आवाज पहचानने की चेष्टा की. जरूर मुसइया अपनी मां के लिए आवाज दे रहा है, सोचा बहुरिया ने. लेकिन नहीं. यह तो सॅंझली चाची है. जोर-जोर से आवाज देती नाव पर इधर ही चली आ रही है.
‘‘बड़की बहुरिया, ओ बड़की बहुरिया ?’’ - आर्त स्वर. इन्हीं की बदौलत जगतारिणी अभी तक बहुरिया बनी हुई है. पाॅंच सासों में यही एक बची है. इनके बाद पूरे गांव में यही सबसे बड़ी बच जायेगी. नाव घर में आकर लग गई. संझली दादी तख्त पर सहारा लेकर चढ़ गई.
‘‘वाह, क्या तख्त ताउस बना रखा है.’’ - झुरीदार चेहरे से मुस्कुराने की चेष्टा की. जगतारिणी का दिल भर आया. बुक्का फाड़कर रोने का जी हो आया.
‘‘चुप बैठे-बैठे मुॅंह दुख गया सॅंझली काकी, क्या करूॅं ?’’ - आॅंखें भर आई.

  ‘‘राम का नाम लो, भोला बाबा पार लगायेंगे. भगवती का भजन गाओ. नरसिंह को गोहारो. और क्या करोगी. तुम्हारा अफसर बेटा-बहू तो इस संकट से उबारने नहीं आएगा तुम्हें . उन्हें तो पता भी नहीं होगा.’’

  ‘‘उनका क्या दोष काकी’’ - आॅंचल से पैर छूने लगी.

  ‘‘नहीं कोई दोष नहीं, चलो मैं तुम्हे लेने आई हॅूं.’’

  ‘‘काकी, मैं तो ठीक हॅूं . फुलवा के हाथों मालिक खाना-पीना भेज देते हैं . नाव से जाकर फारिंग हो लेती हॅूं . लेकिन छोटकी’’ - रोने लगी जगतारिणी बहुरिया.

  ‘‘ऐं, कहाॅं है छोटकी ? उसका आदमी तो घरारी के सबसे ऊॅंचे टीले पर दालान बनाकर बैठा है . उसे क्या तकलीफ ? यह टीला तो कोसी   बाॅंध डूब जाने पर भी नहीं डूबेगा.’’

  ‘‘लेकिन छोटकी वहाॅं नहीं है. इसी घर में है.’’-- जीर्ण घर की ओर इशारा करके बोली जगतारिणी.

  ‘‘क्या कहती हो ? हद हो गई . घर पर कब्जा जमाने के लिए बीबी को कुर्बान करेगा क्या छोटका ? यह घर तो अब गिरने ही वाला है . जा तो रे मुनुआ नाव आॅंगन की ओर ले जा और छोटकी से कहो संझली  काकी बुला रही हैं.’’ - मुनुआ नाव लेकर आॅंगन की ओर चला . छप्प से किनारे की दीवार गिरने का स्वर आया .

  ‘‘हे भगवान’’, एक साथ आह निकली दोनों वृद्धाओं की. साठेक साल की जगतारिणी और नब्बे साल की सॅंझली काकी ने अपने झुर्रियों से अटे चेहरे घुंटनों पर धर लिये और मन ही मन किसी बुरी खबर को सुनने का साहस बटोरने लगीं.



गीत गाने में जगतारिणी माहिर थी. सारी विधि-व्यवहार का गीत कंठस्थ था.चैमासे-बारहमासे की खान थी. लगनी-बटगवनी भी नहीं छोड़ा था. पुराने से लेकर एक नये तक जितने भजन इसने सुने याद हो गये. बड़ा आनंदी स्वभाव है जगतारिणी बहुरिया का. घुटनों पर ठोढ़ी टिकाए यह सोचन को विवश हो जाती है -

 छोटकी के गौने पर पहली बार खुलकर गाया था इसने गीत. ननदों की शादी पहले हो चुकी थी और बच्चे के सोहर कोई नहीं गाता,  सो यही एक अवसर मिला था तथी गांव में शोर हो गया था इसके टहंकार गाने का. गोरी-चिट्ठी खूबसूरत जगतारिणी बहुरिया रात-दिन अपनी नई-नवेली देवरानी के पास बनी रहती. आक्षेपों को सहज भाव से काटती रहती . अक्सर सास कोटि की स्त्रियाॅं मायके से लाए सामानों की तुलना बड़ी बहू के मायके के सामानों से कर बैठतीं. जगतारिणी के पिता ने अधिकतर सामान कलकत्ते के बाहर से खरीदा था और छोटकी के पिता का बाजार लोकल था. ननद कोटि की महिलाएॅं रूप को लेकर टीका करतीं -

 ‘‘यह क्या हो गया बड़की काकी के आॅंगन में ? इस आॅंगन में तो चंद्रमा का चक्का, इंजोरिया का बच्चा लाने का रिवाज है यह अमाशशि कहाॅं से पहुॅंच गई ?’’ - एक कहती, ‘‘भगवान् का रंग है, भगवती का रूप . थोड़ा स्वाद बदलने के लिए लाया गया है इसे.’’ - दूसरी होती .

  ‘‘ये  बहन जी, आप लोगों को खोज-खोज कर नुक्स निकालना आता है. गुणवंती लड़की है. देखियेगा आप लोग कल से ही चिरौरी न करने लगीं तो मेरा नाम बदल दीजिएगा.’’ - कहती जगतारिणी . उनका इशारा छोटकी के हस्तकला पर था. दहेज के सामान में एक से एक कढ़ाई का चादर, तकिया और गिलाफ और झोला था. क्रोशिया का अंबार था. सीक्की और सूत की बनी पिटारियाॅं थी.

  ‘‘ऊॅंहू-हॅूं ? कोई बात नहीं, देख लेना सीखने भी आऊॅंगी तो इस अमाशशि को पूर्णमासी नहीं कहॅूंगी.’’ - एक ठिठोलीदार ननद ने कहा था. नई बहू भी खिलखिला उठी थी. छोटकी की दूध धुली हॅंसी ने सबका मन मोह लिया था.

 ‘‘अरे यह मेघखंड तो बिजली भी छिटकाती है.’’- कहकर उठ गई थी नवोढ़ा. छोटकी बड़की का स्नेहसिक्त व्यवहार पूरे टोले को सम्मोहित रखता.  क्रोधी सास का सारा अत्याचार ये मिल-जुल कर सहतीं. एक-दूसरे की कमियों को अक्सर अपने ऊपर ओढ़ती जीवन का रास्ता तय करती रहीं .

पहली ही जचगी के बाद बड़ी बीमार रहने लगी छोटकी. सास का कहना था कि सारा नखरा है. पति हस्बमालूम पूरे उदासीन थे और बिना माॅं के मायके का आसरा भी नहीं था. जगतारिणी के कमर कस कर सारा कुछ अपने ऊपर झेल लिया-बीमार छोटकी की तीमारदारी, उसके बच्चे की देखभाल और उसके हिस्से का काम . सब कुछ. सास हैरान रह गई. घर के पुरूषों की रात के अंधेरे और खाने के समय  के अतिरिक्त कोई मतलब नहीं था . ऐसे संकटों से उबरने के बाद जब रात को एक दिन सुखे दोखले का साॅंकन खटका तो सिपाही की तरह तनकर देवर के सामने खड़ी हो गई जगतारिणी -

  ‘‘क्या है ? नहीं है तुम्हारी कोई इस आॅंगन में. कहाॅं आए हो  इतनी रात गये?’’ - देवर शर्माये से हॅंस पड़े .

  ‘‘जरा, हाल-चाल लेने.’’ - अटकते से बोले .

 ‘‘अब आई है सुध ? आॅंगन में चलते-बूलते देखकर ?’’ - हजार उलाहना सुना गई थी. छोटे ने सिर झुकाकर सुन लिया था . वहीं छोटे दिन में दहाड़ता था,  भाभी पर भी बीबी पर भी. वही रात में गऊ बन जाता था. ऐसा नहीं था कि कभी कोई खटपट न हुई हो. कई बार छोटकी से अबोला भी हो जाता था. लेकिन पता नहीं कब टूट भी जाता था. छोटकी अक्सर जचगी में रहती सो बीमार रहती . उससे काम नहीं सपरता. छोटकी को जगतारिणी का व्यंग्य सहना पड़ता -‘‘ऊंह, मैं होती तो उल्टी खपड़ी से सिर तोड़ देती ऐसे शौकीनों की. अब तो लोग क्या कहते हैं कि अपरेशन करवा लेेते हैं . तेरी जान खाने को जाने कब छोटजन पहुॅंच जाते हैं और तू है कि’’ - अनंत सिलसिला चल पड़ता.

यह जानते हुए भी कि छोटकी तो क्या बड़की भीअपने मालिक की चाॅंद नहीं तोड़ सकती वह बोलती रहती. बड़की की बातों में काई द्वेष नहीं है यह समझते हुए भी छोटकी मुॅंह फुलाकर अबोला कर लेती. सौ बार अपने मन को मनाती जगतारिणी कि बड़ी आई रूठनेवाली मैं तो नहीं मनाती. लेकिन सारा आक्रोश आपसे आप हवा हो जाता. अबोला टिक नहीं पाता . झंॅबराये साॅंवले मुख पर बेचैन पनियाली आॅंखें छोटकी की खूबसूरती भी थी और बिना कहे बहुत कुछ कह जानेवाली भी थी. आज उसी आॅंखों के दर्द से पसीज रही थी बड़की. निर्मोही छोटा देवर टीले पर घर बनाकर बेटे बहुओं के साथ चैन से है, देयादी घर के कब्जे की लड़ाई में इस निमंूधन को बलि चढ़ाने छोड़ दिया है.



देह ढलने लगी थी, जोड़ का दर्द सिर उठाने लगा था. कमर टेढ़ी हो रही थी. छोटकी रात भर दर्द से छटपटाती रहती. सुबह को धूप लगा लेती भरपूर तब उठती . उस दिन एक साथ से घॅंूघट सॅंभाले दूसरे हाथ से फटके हुए चिउड़े को सूप में लेकर एक आॅंगन से दूसरे आॅंगन में जा रही थी कि सामने से कोई बच्चा आकर टकरा गया . सूप भी चिउड़ा उलट गया . वहीं छोटेजन खड़े होकर काम करवा रहे थे. गुस्सा उनकी नाक पर रहता था. भरपूर लात जमाई और लगे जोर-जोर से गालियाॅं बकने . ‘‘बंदरिया किसी काम की नहीं. काॅंखती रहती है रात-दिन . खाना-खर्चा मुफ्त का जो मिलता है. कभी बाप जनम इतना अनाज देखा है ? हमारी पसीने की कमाई को घूरे में फेंकती है.’’ - दूर गेंद  की तरह लुढ़क गई थी छोटकी. दूसरी लात का संधान अधर में ही रह गया. भूखी शेरनी की तरह झपट पड़ी जगतारिणी - ‘‘खबरदार जो लात लगाई. बेसरम. सभी भाई एक ही नौआ के मूॅंड़े हुए. तुम कौन होते हो लात जमानेवाले. कभी हारी-बीमारी के हुए कभी ? रात के अंधेरे में थूक-मूत का रिश्ता रखते हो. इसके जनों को लेकर पुत्रवान बनते हो  यह गाली भी नहीं दे सकती कि तुम्हारे पैर गलें, इसी को कष्ट होगा.’’ - देवर भुनभुनाते दालान पर चले गये थे. छोटी महीनों बिस्तरें पर पड़ी रही थी.

बड़की की बड़ी बहू के गौने पर छोटकी ने नफासत कासारा काम अपने ऊपर ले लिया था. घर सजाना, अरिपन देना. हर विधि-व्यवहार में गीत की रौनक बड़की की नफासत की धुअन छोटकी थी. बहुओं से ऐसी हिलमिल गई छोटकी कि लोग ईष्र्या करने लगे. प्यार और अपनापे क इस नायाब रिश्ते को किसी भी नजर लग गई. लोग  कहा करते-भई विचित्र लीला है इस घर की. भाईयों का नहीं स्त्री पुरूषों का देयादी चलता है. स्त्रियाॅं एक तरफ पुरूष दूसरी तरफ, ऐसे घर की काई नहीं फोड़ सकता. किन्तु स्वयं परिस्थितियाॅं ने फोड़ दिया घर को.

सीधी-सादी अनपढ़ और कर्मठ जगतारिणी बहुरिया के बाल-बच्चे पढ़-लिखकर अफसर बन गये. माता-पिता को देवता समझने लगे. छोटकी के बच्चे मूर्ख मस्तान रह गये. पढ़ने-लिखने में जी नहीं लगा. माता-पिता को दुनिया का सबसे बड़ी अहमक समझने लगे. असंतोष और असमानता ने प्यार के दुग्ध धबल संबंध में नीबू निचोड़ दिया. टीले पर घर बनाकर बैठ गये छोटेजन. जमीनऔर घरारी का बंटवारा कर दिया है. इतने दिनों की संचित दुष्टया उजागर कर रहे हैं देवरजी. जिस दिन चूल्हा अलग हुआ था उस दिन न तो जगतारिणी ने खाया था न छोटकी ने. महीनों एक-दूसरे का मुॅंह देखकर रोने लगतीं. एक चूल्हा के पास जाती तो दूसरी की ओर ताकती कि क्या सब्जी बने इसका विचार किया जाए. दूसरी चावल बीनती मुॅंह जोहती कि दीदी से पूछॅूं कितना चावल अदहन में डाला जाए कि पूरा पड़े. बड़के तो सांख्य पुरूष थे छोटके की बन आई थी. इसी भाभी ने बीबी से जवानी में न मन भर प्यार करने दिया न जुल्म. अब दोनों से बदला ले रहा है. मस्तान बेटों के चलते छोटकी बेगानी होने लगी.

‘‘छोटकी, बहुएॅं आनेवाली हैं, दो घर दाब कर तू बैठी है एक छोड़ दें.’’ बड़की ने कहा था.

  दूसरे दिन गरजते फिरे थे देवर - ‘‘कौन कहता है घर छोड़ने को. कौन छुड़ाता है घर देखता हॅूं जब तक मेरा घर नहीं बन जाता मैं इस साझी के घर को नहीं छोड़ूंॅंगा .’’ और बहुएॅं नहीं आ सकीं . घर का अभाव था कहाॅं रहतीं. साल दर साल घर जीर्ण होता गया . बड़के कहते- ‘‘कौन छवायगा घर देखता हॅूं, मेरे हिस्से का है . पहले ये छोड़े घर .’’

  ‘‘अरी सुन तू कहती क्यों नहीं अपने बेटों से कि अब इस घर में रहा नहीं जाता . मुझे भी ले चल दालान वाले घर में . यहाॅं क्या अगोरे बैठी है.’’ - जगतारिणी बहुरिया ने छोटकी से बरसात शुरू होते ही कहा था . आॅंखों पर आॅंचल रख सुबक उठी थी छोटकी . बड़की गुस्से से तिलमिला गई. ‘‘ये रोने- धोने का चलित्तर अब और छजता नहीं . रोना बंद कर अपने जायों और सिरमौर को समझा. चली जा सूखे में . इस घर में एक बॅूंद भी बाहर नहीं पड़ती बारिश की.’’

  ‘‘आप क्यों नहीं कहतीं मालिक से घर छवा देने को . बड़ी दयामंत बनती हैं. आपकी दयामंत्री ने ही तो मेरा जीवन नष्ट किया. कहीं की न रहीं. न अपने मालिक की न बच्चें की . आप ही घर के अंदर बनती पानी की दीवार को रोक सकती हैं .’

  ‘‘देखो जरा घोंघा का बोल फूटा है. तुम जानती नहीं कि मेरी बात कोई नहीं सुनता ? तुम्हीं न पढ़ी-लिखी काबिल हो.’’ - चकित-सी बोली थी जगतारिणी.

  ‘‘मैं कुछ नहीं हूँ  . मैं काबिल रहती तो मेरे भी बेटे अफसर होते. मैं भी पटना-दिल्ली घूम आती . लेकिन एक बात कहे देती हॅूं मैं ऐसी अनीति नहीं करती . ऐसे मुुंडे घर में किसी को रहने को बेबस नहीं करती. धन्य हैं आप कि तब भी बोले चली जा रही हैं.’’ - पहली बार छोटकी बोलती रही जगतारिणी से. जवाब  तो उसे देना होता जिसे सचमुच चाहिए. इसे तो तीर की तरह बेधना था. बिंध गई थी जगतारिणी बहुरिया. तब से इसी की ओर से अबोला हो गया था.

बैठी-बैठी सोचती रही थी कि छोटकी ने कौन-सी कमी
मुझमें पाई जो वैसा कह उठी . दस वर्षों का अंतर होगा आयु में. बिना माॅं की बच्ची समझकर पूरा स्नेह उॅंड़ेला था. रूद्र सास की क्रोधाग्नि से बचाती रही थी. पति की कुचेष्टाओं के सामने अड़ कर खड़ी हो जाती थी. अपने बेटे-बहुओं को सदा स्नेह रखने का पाठ सिखाया . बहुएॅं बल्कि अपनी सास से अधिक इसे ही प्यार देती. तब कहाॅं कौन-सी त्रुटि रह गई . यह सोचने की जगतारिणी बहुरिया को औकात ही नहीं थी कि छोटकी अपने असफल बेटों के दुःख से बौराई है, अपने पति के घोर उदासीन व्यवहार से तिलमिलाई है और वह सारी तिलमिलाहट बड़की के उपर उॅंड़ेल रही है. यह इतनी दूर तक उसका दिमाग जा ही नहीं सका. वह थक कर गीत सोचने लगी.



एक बार की बात है जगतारिणी की बड़ी पोेती ने बड़े लाड़ से इनके कुछ गीत लिखवाये. विधि-व्यवहार के गीत, बनपाखियों के कथागीत फिर पूछ उठी थी - ‘‘दादी माॅं, आप नदियों के नाम से गीत भी लिखवा दें.’’ - हॅंस पड़ी थी जगतारिणी बहुरिया.

‘‘नहीं रे, मैं गंगा कमला का गीत नहीं गाती. यही एक गीत है जिसे मैंने नहीं सीखा, हो हो कर गाते हैं, लोग, हॅंसी छूटती है. गीत वैसा अच्छा लगता है जिसे दिन से गाया जा सके.’’ - पोती भी हॅंस पड़ी थी.
‘‘लेकिन दादी माॅं, मुझे तो नदियों के गीत काफी मेलोडियस लगते हैं.’’ पोती ने कहा था.
‘‘क्या तो बोलती हैं’’- फिर एक लाइनगाने का मानो मजाक सा करती रही. फिर बोल पड़ी- ‘‘ये कमला कोसी किसी गीत से नहीं पसीजतीं हमारे घरों में घुसी आती है. न घर बनाने देती है न दरवाजा साबुत रहने देती है, क्यों मनाएॅं इनको गाकर.’’

‘‘वाह, मेरी दादी माॅं तो खूब है, नदी पर गुस्सा करना जानती है.’’ - अभी भी वहीं सब घूम रहा है माथे में.

  ‘‘ए बहुरिया, छोटकी सही-सलामत तो होगी.’’ - सॅंझली काकी का चिंतित प्रश्न था.

‘‘होना तो चाहिए. खिड़की से पानी ऊपर गया होगा तो घरन पर चढ़ गई होगी बड़ी सख्त जान है. मैंने तो कई बार चलने को कहा था. नहीं आई.’’ - निःश्वास खींचा उसने.

  ‘‘तुम्हारी बात ही और है. तुमने तो अपनी जिनगानी घर-परिवार की सेवा में सौंप दी. छोटकी काॅंखती-कॅूंखती रहती . तुमने ही उसकी भी देखभाल की. गांव भर के लोग तुम्हारा नाम लेकर बच्चों को समझाते हैं . तभी तो इतना धरम बढ़ा.’’ - अबूझ-सी मुॅंह खोल कर सुन रही थी जगतारिणी बहुरिया.

  ‘‘हाॅं बहु, जनम भर का बैर रखनेवाला तुम्हारा मालिक भी अब समझता होगा कि तुम सिरिफ उसी की सेवा के लिए यहाॅं बनी हो नहीं तो बेटे-बहू के पास चली जाती.’’

  ‘‘वो देखिए काकी नाव आ रही है. एक हाथ से मुनुआ छोटकी को पकड़े हुए हैं दूसरे से लग्गी चला रहा है.’’ - दोनों वृद्धाएॅं गर्दन लंबी कर देखने लगीं . नाव इसी छप्पर के नीचे लगने लगी थी कि तड़प कर उठी छोटकी, थरथरा कर फिर लेट गई. उसका सारा शरीर भीगा हुआ था. ठंड से अकड़ी-सी थी. मुनुआ ने डाॅंड़ उल्टी चलाई. नाव छप्पर से हटने लगी.

 ‘‘अरे कहाॅं ले जा रहा है?’’ काकी ने पूछा.

 ‘‘छोटी मलकीन यहाॅं नहीं आएॅंगी, उनके दालान पर पहुॅंचा कर आते हैं.’’ - कहा मुनुआ ने.

 ‘‘जाओ-जाओ, भला का दुनिया नहीं है.’’ - सॅंझली काकी ने हाथ का इशारा देते हुए कहा. बड़की ने देखा छोटकी भीगे चैले (लकड़ी का कुंदा) की तरह अकड़ी पड़ी है. उसे याद आया यह भयंकर गठिया की मरीज है. निष्प्राण-सी छोटकी के लिए ममत्व का एक ज्वार आया और यह नदी-गीत गाने लगी -

   मैया पार देना उता ....र

   मैया री, कोसी मैया

   मैया री, कमला मैया

   मैया री, गंगा मैया

गीत क्रमशः तेज होता जा रहा था. सॅंझली काकी भौचक-सी मुॅंह ताकती रही-जगतारिणी बहुरिया नदी गीत दिल के दर्दीले सुरों से गाती जा रही थी - छोटकी के लिए. पानी की एक दुर्लघ्ंय दीवार को अकेले पार करने की चेष्टा करती है एक बार फिर. इतना तो कर ही सकती है. कमला-कोसी सहाय हो जाए बस ? छोटकी के जोड़ों में गर्माहट आए, वह उठकर खड़ी हो जाए.

   मैया री छागल देव चढ़ाय

   मैया री चूड़ी देव......

   मैया री सिन्नुर देव......

   मैया री अंचरी देव......

सारा भय बिला गया. तन्मय हो गई जगतारिणी बहुरिया अपनी गुहार में

मैं अपनी पीढ़ियों में कायम हूँ, मैं इरोम हूँ

कर्मानन्द आर्य
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कर्मानन्द आर्य मह्त्वपूर्ण युवा कवि हैं. बिहार केन्द्रीय विश्वविद्यालय में हिन्दी पढाते हैं. संपर्क : 88630093492
शर्मिला इरोम के नये निर्णय का स्वागत करते हुए  आइये पढ़ते हैं यह कविता :
(शर्मिला इरोम के लिए जिसने मृत्यु का मतलब जान लिया है)

लड़ रही हूँ की लोगों ने लड़ना बंद कर दिया है
एक सादे समझौते के खिलाफ
कि “क्या फर्क पड़ता है”
मेरी आवाज तेज और बुलंद हुई है इन दिनों
घोड़े की टाप से भी खतरनाक
मुझे जिन्दगी से बहुत प्यार है
मैं मृत्यु की कीमत जानती हूँ
इसलिए लड़ रही हूँ 
लड़ रही हूँ की बहुत चालाक है घायल शिकारी
मेरे बच्चों के मुख में मेरा स्तन है
लड़ रही हूँ जब मुझे चारो तरफ से घेर लिया गया है
शिकारी को चाहिए मेरे दांत, मेरे नाख़ून, मेरी अस्थियाँ
मेरे परंपरागत धनुष-बाण
बाजार में सबकी कीमत तय है
मेरी बारूदी मिट्टी भी बेच दी गई है 
मुझे मेरे देश में निर्वासन की सजा दी गई है
मैं वतन की तलाश कर रही हूँ
जब मैं फरियाद लिए दिल्ली की सड़को पर घूमती हूँ
तो हमसे पूछा जाता है हमारा देश
और फिर मान लिया जाता है
कि हम
उनकी पहुँच के भीतर हैं
वो जहाँ चाहें झंडें गाड़ दे   हमारी हरी देहों का दोहन  शिकारी को बहुत लुभाता है
कुछ कामुक पुरुषों को दिखती नहीं हमारी टूटी हुई अस्थियाँ
सेना के टापों से हमारी नींद टूट जाती है
उन्होंने हमें रण्डी मान लिया है  उन्हें हमारे कृत्यों से घृणा नहीं होती है
उन्हें भाता है हमारा लिजलिजापन
वह कम प्रतिक्रिया देता है सोचता है मैं हार जाउंगी
घायल शिकारिओं आओ देखो मेरा उन्नत वक्ष
तुम्हारे हौसले से भी ऊँचा और कठोर
तुम मेरा स्तन पीना चाहते थे न  आओ देखो मेरा खून कितना नमकीन और जहरीला है
आओ देखो राख को गर्म रखने वाली रात मेरे भीतर जिन्दा है 

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आओ देखो ब्रह्मपुत्र कैसे हंसती है
आओ देखो वितस्ता कैसे मेरी रखवाली करती है
देखो हमारे दर्रे से बहने वाली रोसनाई  कितनी लाल और मादक है 
क्या सोचते हो मेरा पुनर्जन्म नहीं होगा
मैं अपनी पीढ़ियों में कायम हूँ  मैं इरोम हूँ
इरोम इरोम शर्मिला चानू

आरक्षण के भीतर आरक्षण : क्यों नहीं सुनी गई आवाजें : छठी क़िस्त

 महिला आरक्षण को लेकर संसद के दोनो सदनों में कई बार प्रस्ताव लाये गये. 1996 से 2016 तक, 20 सालों में महिला आरक्षण बिल पास होना संभव नहीं हो पाया है. एक बार तो यह राज्यसभा में पास भी हो गया, लेकिन लोकसभा में नहीं हो सका. सदन के पटल पर बिल की प्रतियां फाड़ी गई, इस या उस प्रकार  से बिल रोका गया. संसद के दोनो सदनों में इस बिल को लेकर हुई बहसों को हम स्त्रीकाल के पाठकों के लिए क्रमशः प्रकाशित करेंगे. पहली क़िस्त  में  संयुक्त  मोर्चा सरकार  के  द्वारा  1996 में   पहली बार प्रस्तुत  विधेयक  के  दौरान  हुई  बहस . पहली ही  बहस  से  संसद  में  विधेयक  की  प्रतियां  छीने  जाने  , फाड़े  जाने  की  शुरुआत  हो  गई थी . इसके  तुरत  बाद  1997 में  शरद  यादव  ने  'कोटा  विद  इन  कोटा'  की   सबसे  खराब  पैरवी  की . उन्होंने  कहा  कि 'क्या  आपको  लगता  है  कि ये  पर -कटी , बाल -कटी  महिलायें  हमारी  महिलाओं  की  बात  कर  सकेंगी ! 'हालांकि  पहली   ही  बार  उमा भारती  ने  इस  स्टैंड  की  बेहतरीन  पैरवी  की  थी.  अंग्रेजी से हिन्दी अनुवाद पूजा सिंह और श्रीप्रकाश ने किया है. 
संपादक

अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस की सौंवी वर्षगांठ ( 8 मार्च 2010) 

 सतीश चन्द्र मिश्र (उत्तर प्रदेश) : माननीय सभापति महोदय, हम लोग बहुजन समाज पार्टी  की तरफ से आपके समक्ष यह रखना चाहते हैं कि बहुजन समाज पार्टी  की हमारी राष्ट्रीय अध्यक्ष एक महिला हैं और बहुजन समाज पार्टी  महिला आरक्षण के पक्ष में है.बहुजन समाज पार्टी  का यह मत है कि अगर महिलाएं पचास फीसदी हैं, तो 33 फीसदी reservation क्यों  किया जा रहा है? महिलाओं के लिए पचास फीसदी आरक्षण होना
चाहिए. महिलाओं के अनुपात को देखते हुए 33 फीसदी reservation  की बात करके महिलाओं के साथ discrimination करने की बात इस बिल में कही गई है, जो कि बहुत ही अफसोस की बात है.अगर आप बराबरी पर लाना चाहते हैं, तो जो उनका अनुपात है, उसके हिसाब से बराबरी पर लाना चाहिए, पचास प्रतिशत के हिसाब से लाना चाहिए.इसके अलावा इस बिल के संबंध में हमारी राष्ट्रीय अध्यक्ष ने माननीय प्रधान मंत्री जी को एक पत्र लिखकर यह बात कही कि महिला आरक्षण पर जो बिल आया है, उसमें कुछ कमियां हैं.इसलिए इन कमियों  को पहले दूर करना चाहिए और तब इस बिल को यहां पर पेश करना चाहिए.इस तरीके से बिल को नहीं लाना चाहिए. जो कमियां इंगित की गई हैं, उन कमियों  के बारे में मैं बताना चाहूंगा कि महिला आरक्षण में आप किन महिलाओं के लिए आरक्षण करना चाहते हैं? महिलाओं को आप आरक्षण इसलिए देना चाहते हैं कि जो महिलाएं socially, educationally, economically backward हैं, जिनको आगे आने का मौका नहीं दिया जाता है, उस वर्ग के लोगों  को आगे आने का मौका दिया जाए.ऐसी महिलाओं को opportunity मिले और वह संसद में भी आ करके और विधान सभा में अपने पचास प्रतिशत अनुपात के साथ में अपनी भागीदारी कर सके.ऐसी महिलाएं कहां पर हैं ? ऐसी महिलाएं दलित वर्ग में, Scheduled Castes, Scheduled Tribes, OBC, Backward Class और Minorities में हैं, जिनको कि मौका नहीं मिला है और सवर्ण  जाति में भी जो महिलाएं educationally backward हैं, economically backward हैं, ऐसी महिलाओं को आगे आने की opportunity मिलनी चाहिए.अगर आप reservation कर रहे हैं, तो उनके लिए भी आपको फिक्स करना चाहिए कि आपको भी पूरा मौका मिलेगा और आपके लिए भी हम इंतजाम कर रहे हैं कि आप भी सामने आएं.लेकिन इसकी जगह आपने इसमें जो reservation किया है,


जैसा कि श्रीमती जयन्ती नटराजन जीकह रही थी और श्री अरुण जेटली जी कह रहे थे कि इसमें Scheduled Castes, Scheduled Tribes के reservation को लेकर विरोध हो रहा है.यह गलत है.मैं आप लोगों  को बताना चाहता हूँ कि इस बिल में जो reservation किया गया है, आपने इसमें कोई extra चीज नहीं दे दी है कि जो आप बताना चाहते हैं कि Scheduled Castes, Scheduled Tribes को दे दिए हैं.उनके
लिए जो reservation है, वह reservation तो जो पूरी सीटें हैं, उनके हिसाब से आपने पहले से कर रखा है.अब आप क्या करने जा रहे हैं ? उन्हीं में से काट कर इस बिल के तहत Scheduled Castes, Scheduled Tribes वर्ग को reservation यहां पर देंगे, तो जो इस category के लोगों  का main reservation है, उसको कम करके यहां पर देने जा रहे हैं, जिसका कि हम विरोध कर रहे हैं.हमारा यह कहना है और हमारी पार्टी  की यह मांग है, हमारी पार्टी  ने माननीय प्रधान मंत्री जी को एक पत्र भी लिखा है, उसमें भी इस बात को लिखा है कि उनको जो reservation दिया जाए, इस वर्ग की जो महिलाएंहैं, Scheduled Castes, Scheduled Tribes, economically और socially backward class की जो महिलाएं हैं और Upper castes तथा Minorities में भी जो इस category में आते हैं, उनके लिए आप reservation अलग से, जो category 33 percent आप अगर दे रहे हैं, हमारी मांग है कि आप पचास प्रतिशत दीजिए, लेकिन इसके तहत आप इनके लिए जो reservation करें, तो जो मुख्य reservation
पहले से है, उसमें से काट कर के reservation नहीं दें.आपको वह reservation बरकरार रखना चाहिए.अगर आप उसमें से काट कर दे रहे हैं, तो कोई खैरात नहीं दे रहे हैं, बल्कि इस वर्ग के लोगों  को पीछे ढकेलने का काम कर रहे हैं.डा. बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर, जो कि संविधान के जन्मदाता हैं और जिन्होंने संविधान को बनाने में बहुत योगदान दिया, उन्होंने  right of equality का अधिकार संविधान में दिया है, आपने अच्छा व्यवहार उनके साथ नहीं किया है.ठीक है, आप दलितों के उत्थान के लिए नहीं चाहते हैं.आपने इतने वर्षों में दलितों का उत्थान नहीं किया है, उनको पीछे ढकेलने का काम किया है.Backward Class के लोगों  को पीछे ढकेलने का काम किया है.डा. बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर जैसे व्यक्ति को भी "भारत रत्न"पाने के लिए कितने वर्ष लग गए.1990 में जब कांग्रेस पार्टी  सरकार में नहीं थी, तब जाकर उनको "भारत रत्न"मिल पाया.इस बात का सबको ळान है कि दलितों के लिए कितना प्रेम है.लेकिन इस बिल के साथ में लाकर आपने अपना यह व्यवहार और उजागर कर दिया है.

 सतीश चन्द्र मिश्र (क्रमागत) : आपने यह दिखाया है कि जब इन महिलाओं को आप अलग से रिजर्वेशन नहीं देंगे, तो इस तरह से इनको आप आगे नहीं बढ़ने देंगे.बिल में आप कह रहे हैं कि हम रोटेशन करेंगे, पांच साल में आप रोटेट कर देंगे.आप एक महिला को जिस constituency में पांच वर्ष के लिए काम करने का मौका देंगे, उसको पहले ही दिन बता देंगे कि आप पांच साल के बाद इस constituency में काम नहीं कर सकती हैं और आप सिर्फ  पांच साल के लिए यहां पर हैं.इससे यह होगा कि वे पहले ही दिन अपनी क्षमता से कमज़ोर हो जाएंगी.इस तरह से इस बिल में एक नहीं, अनेकों खामियां हैं, लेकिन जल्दी में आप बिल ला रहे हैं. आप बिल ला सकते थे, बिल लाने से पहले इन चीजों  को देख सकते थे.पिछली बार भी जब बिल लाने की बात हुई थी, ऐसा नहीं है कि हम लोग यह बात कोई आज ही कह रहे हैं या बहुजन समाज पार्टी  पहली बार ऐसी बात कह रही है, इसके पहले भी जब आप  यह बिल लाए थे, तब बहुजन समाज पार्टी  ने आपके सामने यह बात रखी थी कि आप इनको 33 प्रतिशत आरक्षण दीजिए.अगर आप 33 प्रतिशत ही आरक्षण लाना चाहते हैं, 50 प्रतिशत देने की मंशा अगर आपकी नहीं है, तो 33 प्रतिशत में आप Scheduled Castes, Scheduled Tribes, Backward classes, minorities और upper castes की महिलाएं, जो educationally backward हैं, economically backward हैं, उनके लिए आरक्षण घोषित कीजिए और जब आरक्षण घोषित कीजिए, तो हमारा जो main आरक्षण Scheduled Castes and Scheduled Tribes का है, उसको disturb नहीं कीजिए, लेकिन आपने ऐसा नहीं किया.इसके बावजूद भी आपने ऐसे बिल को यहां पर पेश करने का काम किया, जिस बिल में इस तरह का प्रावधान किया गया है कि आकर्षित  category की जो महिलाएं हैं, उनको आगे बढ़ने का मौका देने की जगह आप लिमिटेड लोगों  को, ऐसे लोगों को, जो इस category में नहीं आते हैं, उनको आगे बढ़ाने के लिए आप इस बिल को पेश कर रहे हैं.

अत: हमारी यह मांग है कि इस बिलपर वोटिंग कराने से पहले या इसे पास कराने से पहले आप इसको दोबारा देखें.दोबारा देखकर इसमें संशोधन लाएं और संशोधन लाने के बाद आप इस बिल को दोबारा पेश करें, तब हम आपको पूरा समर्थन देंगे, लेकिन अगर आप इसको यहां पर इस तरीके से नहीं लाते हैं या आप ये अमेंडमेंट्स नहीं लाते हैं और रिजर्वेशन के नाम पर यह जो दलित विरोधी बिल आप लाए हैं, अगर आप इसको वोटिंग के लिए भी पेश करते हैं, तो बहुजन समाज पार्टी  इसका विरोध करेगी, क्यों कि इसमें आपने आरक्षण में minorities का विरोध किया है, आपने उनका ध्यान नहीं रखा है, आपने Scheduled Castes and Scheduled
Tribes का ध्यान नहीं रखा है, आपने Backward Class का ध्यान नहीं रखा है.जिन लोगों  को आगे बढ़ना चाहिए, उनको आगे बढ़ने का मौका न मिले और जहां पर वे हैं, उससे और पीछे उनको धकेल दें, इस तरह की आपकी मंशा है, इसलिए मैं माननीय प्रधान मंत्री जी से आग्रह करूंगा.... जैसे कि हमारी राष्ट्रीय अध्यक्ष ने भी पत्र लिखकर आपसे मांग की थी, मैं दोबारा मांग करूंगा कि आप इस बिल को दोबारा देखें और देखने के बाद इन चीजों  पर गौर करके, इस बिल को संशोधित करके, दोबारा से House में रखें, तब बहुजन समाज पार्टी  आपका पूरा समर्थन करेगी, वरना बहुजन समाज पार्टी  इस बिल का इस condition में समर्थन नहीं करेगी.

डॉ. वी. मैत्रेयन (तमिलनाडु):श्रीमान सभापति महोदय, मेरी पार्टी, अन्नाद्रमुक, और मेरी पार्टी की महासचिव, डॉ. पुरात्ची थलैवी की ओर से, हमारा महिला आरक्षण बिल के लिए पूरा समर्थन है.कल एक ऐतिहासिक दिन था.लेकिन कम से कम, आज इतिहास बन रहा है.पंडित जवाहर लाल नेहरू ने एक बार कहा था, "इतिहास को घटते हुए देखना अच्छां है, लेकिन इतिहास का एक हिस्सा भी होना बेहतर है।"और,  जब आज इस ऐतिहासिक विधेयक को पारित होने के दौरान जो इतिहास बन रहा है, उस इतिहास का एक हिस्सा होने पर हमें गर्व है.महोदय, कल और आज हुई विभिन्न घटनाओं का साक्षी होने का हमें खेद है, और मैं, मेरी पार्टी की ओर से,  ईमानदारी से जो कुछ भी हुआ है, उसके लिए सभापति से माफी माँगता हूँ.मुझे याद करते हुए प्रसन्नकता हो रही है कि जब 1998-99 में एनडीए शासन के दौरान अन्नाद्रमुक केन्द्र सरकार का एक हिस्सा थी,  मेरे पार्टी सहयोगी, डॉ थाम्बी दुरई को, जो तब केंद्रीय कानून मंत्री थे, महिला आरक्षण विधेयक का मार्ग प्रशस्त  करने का एक अवसर मिला था.सभापति महोदय, जब भारत को आजादी मिली थी, पश्चिमी लोकतांत्रिक देशों में लोग एक अकेले और विलक्षण मुद्दे पर दंग रह गए थे, वह सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार का मुद्दा था.कई लोगों का मानना था कि जब लोकतंत्र वहाँ iपैदा हो रहा था, तब पश्चिमी देशों ने भी महिलाओं को सार्वभौम वयस्क मताधिकार नहीं दिया था.वहाँ महिलाओं को वोट देने और अपनी पसंद की स्वतंत्रता को व्यक्त करने पर पर प्रतिबंध था.ग्रेट ब्रिटेन, जर्मनी, फ्रांस, स्विट्जरलैंड और यहां तक कि अमेरिका में भी केवल 20वीं सदी की दूसरी छमाही में सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार पर अपने फैसले को नरम करने और उलटने में सफल हुए.


डॉ. वी. मैत्रेयन (जारी):तो,  कोई आश्चर्य नहीं है कि महिलाओं के प्रति भेदभाव के लगभग किसी भी चर्चा के बिना भारतीय संविधान के संस्थापकों द्वारा सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार लागू करने से विश्व  अचंभित रह गया था.भारत वह प्राचीन देश है जिसने स्त्री-संबंधी देवत्व और स्त्रियों में देवत्व को स्वीकार किया है.जाहिर तौर पर अलग-अलग मुद्दे होने के बावजूद ये दोनों अवधारणाएं जटिल रूप से आपस में गुंथी हुई हैं और एक-दूसरे से 'सिम्बियॉटिकली'जुड़ी हैं.जहां तक इन अवधारणाओं का संबंध है, पश्चिमी सभ्यता अब भी अपने निर्माण के प्रारंभिक वर्षों में है.इसलिए एक भारतीय पुरुष के लिए मातृ-शक्ति की ताकत को स्वीकारना सहज बात है, जबकि पश्चिमी देशों के पुरुष इसे स्वीकारने में शर्म महसूस करते हैं.इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि we celebrate Indian women and they celebrate and worship women. और यह विचार जातियों और समुदायों से परे सारे भारत में मौजूद है, जो आधुनिक भारत में सबसे धर्मनिरपेक्ष विचार है.साठ के दशक के बीच में, जब पंडित जी और लाल बहादुर शास्त्रीजी का काफी जल्दी एक के बाद एक निधन हो गया, देश के नेतृत्व का भार इंदिरा गांधी पर पड़ा था.शायद कुछ एशियाई देशों के अपवाद को छोड़कर, पश्चिम देशों सहित दुनिया का बाकी हिस्सा हैरान था.कारण था कि कैसे एक औरत को एक देश का नेतृत्व कर सकती है, वह भी तब जब वह देश भारत जैसा विशाल और जटिल और घुमावदार हो.लेकिन, इंदिरा गांधी ने न केवल भारत को सोलह वर्षों तक नेतृत्वि दिया,  बल्कि कई बार वैश्विैक ताकत के सामने डटी रहीं जो केवल एक भारतीय महिला ही कर सकती थी.

बांग्लादेश के सृजन की कठिन घड़ी में अमेरिका को करारा जवाब देना कौन भूल सकता है ?  कोई आश्चर्य नहीं कि श्री वाजपेयी जी ने इंदिरा जी की बराबरी माता दुर्गा से की थी.भारतीय महिलाओं द्वारा राजनीतिक नेतृत्व संभालने की समृद्ध परंपरा तब से जारी है.मेरी नेता, डॉ. पुरात्ची थलैवी दक्षिण की सबसे कद्दावर महिला नेता हैं.इसी तरह, कांग्रेस पार्टी, तृणमूल कांग्रेस और बहुजन समाज पार्टी प्रमुख राजनीतिक दल हैं जिनका नेतृत्व महिलाएं कर रही हैं.केवल यही नहीं है कि महिलाएं राजनीतिक परिदृश्य पर हावी हैं.कई महिलाएं हैं जो साहित्य, कला, फिल्म, विज्ञान, खेल में भी हावी हैं और वे क्या नहीं कर रही हैं.इस महान अवसर पर, मेरी पार्टी, और मेरी पार्टी की महासचिव डॉ पुरात्ची थलैवी की ओर से, मैं सभी महिलाओं को सलाम करता हूं जिन्होंरने भारत को गौरवान्वित किया है.जहां हम भारतीय महिलाओं की कीर्ति का जश्न मनाते हैं, वहीं भारतीय महिलाओं का एक वर्ग ऐसा है जो अप्रशंसित, अस्वीतकृत और अचर्चित है.यह भारतीय गृहिणी है.यह इस औरत की ताकत है कि भारत में हर घर को संचालित करती है.घर के वित्त को संभालने में उसकी निपुणता भारत सरकार के सभी वित्त मंत्रियों की क्षमता से अधिक है.सभी बाधाओं को झेलते हुए, उसने यह सुनिश्चित किया है कि भारतीय परिवारों की व्यवहारिकता एवं जीवनशक्ति भारत की सरकार से कहीं अधिक है. आज भारतीय घरेलू बचत जीडीपी की लगभग 37 प्रतिशत है.आज भारतीय घरेलू बचत भारतीय निवेश की आवश्यकता का लगभग 90 प्रतिशत उपलब्ध  कराता है, जिससे दरअसल भारत की प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) पर निर्भरता अपने सभी अन्य समकक्ष देशों की तुलना में कम है.यह भारतीय परिवारों के प्रबंधन के प्रति भारतीय गृहिणी के जन्मजात अनुशासन की वजह से संभव हुआ है.

पश्चिमी देश गहरे आर्थिक संकट में हैं और वित्तीय संकट में भी है.और इसका कारण है कि जहां पश्चिमी देशों ने ने अपनी महिलाओं को मुक्त किया है,  वहीं महिलाओं ने खुद को परिवार की जिम्मेदारियों से मुक्त किया है.कुल परिणाम यह हुआ है कि खर्च बहुत है, जबकि बचत बहुत ही कम या नहीं के बराबर  है.इसके विपरीत,  हो सकता है कि भारतीय महिलाएं शब्द  के असल अर्थ के अनुसार आजाद नहीं हों, पर उन्हों ने अपने पश्चिमी समकक्षों की तुलना में कहीं अधिक जिम्मेदारी, गरिमा और अनुशासन बनाये रखा है.संक्षेप में, अधिकार के बजाय उसे सम्मान प्रदान कर समाज में महिलाओं के लिए स्थान संरक्षण का भारतीय मॉडल ही हमारे समाज और पश्चिमी समाज के बीच एकमात्र अंतर है.यह इसलिए अवलंबी है कि हम इनका संरक्षण महिलाओं के अधिकार के रूप में नहीं, बल्कि  पिछले पांच हजार वर्ष के दर्ज इतिहास में भारतीय महिलाओं द्वारा हमारे देश के विकास में  योगदान करने के लिए समाज द्वारा सम्मान के चिह्न के रूप में जारी रखें.राजनीति में जेंडर समानता की जरूरत को महसूस करते हुए डॉ. पुरात्ची थलैवी के नेतृत्वम में अन्नाद्रमुक ने 1990 के दशक में ही महिलाओं के लिए पार्टी के सभी पदों का 33% आरक्षित करके एक अग्रणी भूमिका निभाई.जब मैडम तमिलनाडु की मुख्यमंत्री थी तब कन्या भ्रूण हत्या रोकने के लिए पहली बार क्रेडल बेबी स्कीम 1990 के दशक में शुरू की गई थी, जिसके तहत राज्य ने परित्यक्त  शिशु कन्याओं  को अपनाया था.डॉ. पुरात्ची थलैवी  के नेतृत्वन में ही 1992 में तमिलनाडु में विशेष रूप से महिलाओं के खिलाफ होने वाले हमलों, खासतौर घरेलू हिंसा, से संबंधित मामलों को संभालने के लिए सभी महिला पुलिस थाने बनाये गए थे।

डॉ. वी. मैत्रेयन (जारी):उन्होंने ही केवल महिलाओं वाले एक विशेष कमांडर बटालियन का गठन किया था.उन्होने महिला की मातृ भूमिका को यथोचित कानूनी मान्यता प्रदान की, जिसके लिए उन्होंने पिता के नाम के बजाय या उसके साथ में किसी के मां के नाम के आद्याक्षर को वैध बनाने के लिए नियम बनाया.फिर, पुरात्ची थलैवी ने महिलाओं को आर्थिक रूप से मुक्त बनाने के लिए महिला स्वयं-सहायता समूहों के विकास को प्रोत्साहन प्रदान किया गया.

सभापति: कृपया समाप्त करे.


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महिला आरक्षण को लेकर संसद में बहस :पहली   क़िस्त

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महिला संगठनों, आंदोलनों ने महिला आरक्षण बिल को ज़िंदा रखा है : वृंदा कारत: पांचवी  क़िस्त

डॉ. वी. मैत्रेयन (जारी): पुरात्ची थलैवी के नेतृत्व  में हमारी पार्टी ने 2009 में संसदीय चुनावों के लिए अपने चुनावी घोषणापत्र में,  लोकसभा चुनावों में 33 प्रतिशत महिलाओं के लिए एक  प्रावधान रखा.हम दोहराते हैं कि यह भारत की महिलाओं को प्रदत्त कोई अधिकार नहीं है;  बल्कि दरअसल यह इस तथ्य स्वीहकार्यता है कि भारत स्त्रीवाची है, उसकी अर्थव्यवस्था स्त्रीवाची है, और उसकी आत्मा स्त्रीवाची है.यह भारत की महिलाओं इस महान देश के लोगों द्वारा दी गई एक छोटा-सी श्रद्धांजलि है.इस हद तक, अन्नाद्रमुक पूरे दिल से इस विधेयक का समर्थन करती है.

शिवानन्द तिवारी (बिहार) : सभापति महोदय, मैं जनता दल यूनाइटेड की ओर से इस वूमेन रिजर्वेशन बिल के समर्थन में खड़ा हुआ हूं.सभापति महोदय, हमको इस बात का फख्र  है कि बिहार में नीतीश कुमार जी के नेतृत्व में हमारी जो सरकार है, वह सरकार चल रही है.वह पहली ऐसी सरकार है जिसने औरतों को 50 परसेंट आरक्षण देने का काम किया है.मुझको इस बात की भी खुशी है कि उसका अनुकरण न सिर्फ कई राज्य सरकारें कर रही हैं, बल्कि केन्द्र सरकार ने भी पंचायती राज में 33 परसेंट आरक्षण को 50 परसेंट करने का निर्णय लिया है.हम लोगों  को इस बात की खुशी है. उपसभापति महोदय, हम लोग आरक्षण के भीतर आरक्षण की मांग काफी दिनों से करते आए हैं और उसके पीछे हमारा एक तर्क रहा है.आप जानते हैं कि हमारे देश में जाति व्यवस्था वाला समाज है और पैदाइश के आधार पर गैर-बराबरी को हमारे समाज में लम्बे समय से मान्यता रही है.उसी का परिणाम है कि 1952 में जो पहला चुनाव हुआ, आपने देखा होगा लोक सभा में जो ओ0बी0सी0 है, जो पिछड़ी जातियां हैं, उनका प्रतिनिधित्व मात्र 12 प्रतिशत था, ऐसे हिन्दू बैल्ट से 64 प्रतिशत ऊंची जाति के लोग लोक सभा में जीतकर आते थे, यह स्तिथि  थी.लेकिन वोट की राजनीति ने इस स्तिथि  को बदला और धीरे-धीरे जो अति पिछड़ी जातियां जिनकी तादाद ज्यादा थी, जिनकी संख्या ज्यादा थी, उनका प्रतिनिधित्व लोक सभा में बढ़ने लगा.आपको जानकर खुशी होगी कि 1977 में जब पहली दफे कांग्रेस की सरकार दिल्ली से हटी उसके बाद ऊंची जातियों का प्रतिनिधित्व घटा और पिछड़ी जातियों का प्रतिनिधित्व लोक सभा में बढ़ा.आज यह हालत है कि लोकसभा में 30 प्रतिशत से ज्यादा ओ0बी0सी0 के सदस्य उपसि्थत हैं.यह वहां सि्थति है.ऊंची जाति के लोग जो वहां 64 परसेंट से ऊपर सिर्फ हिन्दी बैल्ट से आते थे,

आज उनकी तादाद 33 परसेंट औरउससे भी कम हो  गई है.यही हाल सारे राज्यों  में हुआ है.हमको लगता है कि शायद हिन्दुस्तान में एकमात्र पश्चिम बंगाल ऐसा राज्य है, जो उल्टी दिशा में चल रहा है.1972 से 1996 के बीच में अगर आप वेस्ट बंगाल असेंबली के सोशल कम्पोजिशन को देखेंगे तो वहां 38 परसेंट से 50 परसेंट तक ऊंची जाति के लोगों का रिजर्वेशन हो गया है.बाकी राज्यों में ऊंची जाति का रिप्रजेंटेशन घट रहा है लेकिन पश्चिम बंगाल में जहां 30 वर्ष  तक क्रांतिकारी सरकार रही है, वहां पिछड़ी जातियों  की तादाद घटी है और 50 फीसदी ऊंची जातियों  का वहां प्रतिनिधित्व हो गया है.यही नहीं, उपसभापति महोदय, जो वहां का मंत्रीमंडल है, उस मंत्रीमंडल में भी देखिएगा कि 50 परसेंट से अधिक लोग वे सिर्फ एक ही बिरादरी, वैध बिरादरी, ब्राह्मण बिरादरी, कायस्थ बिरादरी इन दो-तीन बिरादरियों में से हैं.यह फेक्च्युअल स्तिथि  है.आरक्षण के भीतर आरक्षण हम अब भी चाहते हैं, लेकिन किस का? ओ0बी0सी0 एक बहुत बड़ा तबका है और ओ0बी0सी0 में ऐसी-ऐसी जातियां हैं, एक तो जिनका संख्याबल ज्यादा है, जिनको हम मिडिल कॉस्ट कहते हैं और ऐसी भी जातियां हैं जो छोटी-छोटी संख्याओं में, अनेकों जातियों में बंटी हुई हैं, वे चुनाव लड़ नहीं पाती हैं.हमको इस बात का फख्र है कि बिहार में हमारी सरकार ने पंचायती राज व्यवस्था में नगर निकायों में जिनको एक्सट्रीमली बैकवॉर्ड कहा जाता है, अति पिछड़ी जातियों  में कहा जाता है, उनको हम लोगों ने आरक्षण दिया.

 शिवानन्द तिवारी (क्रमागत) : इस आरक्षण का यह नतीजा निकला कि हमारे यहां समाज का लोकतान्त्रिकरण हुआ और जो हमारा उग्रवाद है, वह इसकी वजह से कमजोर हुआ.हमारे यहां जो उग्रवाद था, हम लोगों ने उसकी रीढ़ को भी कमजोर किया.जो उग्रवाद का सामाजिक आधार था, जहां से उनको ताकत मिलती थी, उस ताकत को हम लोगों  ने कमजोर किया.हमारे यहां ऐसी-ऐसी जातियों  के लोग प्रमुख बने हैं, जिला परिषद् के अध्यक्ष बने हैं, जो वार्ड का चुनाव लड़ने के लड़ने की कल्पना भी नहीं कर सकते थे. हम यह चाहते थे कि ऐसी जातियों  को चिन्हित  किया जाता और उनको इस आरक्षण में जगह दी जाती. मैं एक गंभीर और महत्वपूर्ण  बात और कहना चाहता हूं, यहां पर प्रधान मंत्री जी मौजूद हैं, उनके सामने कहना चाहता हूं.मैंने कई मुसलमान साथियों से बात की है और मैं आपको ईमानदारी के साथ कहना चाहता हूं कि उनके मन में इस बात की आशंका है कि आज का जो लोकतंत्र है, इस लोकतंत्र में, आबादी के अनुपात में प्रतिनिधित्व नहीं मिल रहा है.लोक सभा में मुसि्लम समाज के 27 या 28 लोग हैं और 2001 की जनगणना के अनुसार उनकी आबादी 13.4 है. उनके 60 या 62 प्रतिनिधि होने चाहिए थे, जबकि वे कुल 27 या 28 हैं.उनको इस बात की आशंका है कि यह जो महिलाओं का आरक्षण होगा, तो उसमें करीब 279 या 280 जनरल सीट लड़ने के लिए होंगे.उनका यह कहना है कि हमारे मर्द तो जीत नहीं पाते हैं.हमारे यहां मुस्लिम  महिलाएं कितनी हैं, तो इससे हमारी तादाद और घट जाएगी.उनमें एक प्रकार से अलगाव की भावना पैदा हो रही है.आपको याद होगा pre independence era में जब यह सवाल उठा था कि इस तरह का लोकतंत्र आएगा, वोट का राज होगा तो बहुमत में हिन्दू हैं,हम मुसलमान माइनोरिटी में हैं, हमकोहमारा हिस्सा नहीं मिल पाएगा.यह जो उनके मन में आशंका थी, उस समय उस आशंका को देश का नेतृत्व निर्मूल नहीं कर पाया, उसका नतीजा हुआ कि देश का विभाजन हुआ.देश के विभाजन के बाद भी संविधान सभा बैठी हुई थी, उस संविधान सभा में कुछ मुस्लिम  प्रतिनिधियों  ने इसको उठाया था कि जिस तरह से अंग्रेजों के समय में एक मुसलमानों का सेप्रेट इलेक्ट्रोरल था, वह आजादी के बाद भी उनको मिले.आप उस Constituent Assembly की डिबेट को पढ़िए प्रधान मंत्री जी, आप तो बड़े विद्वान आदमी
हैं.आपने पढ़ा होगा कि किस तरह से धमकी देकर मुसलमानों को चुप करा दिया गया.उनके मन में जो आशंका है, उस आशंका को निकालने का इंतजाम भी आपको करना पड़ेगा, नहीं तो देश का जो वातावरण है, इतनी ज्यादा आबादी, 13.6 प्रतिशत आबादी, इस आबादी की मन में आशंका हो कि हमारे साथ भेदभाव हो रहा है, हमको इन्साफ नहीं मिल रहा है, तो यह देश के स्वास्थ्य के लिए अच्छा नहीं होगा...(समय की घंटी).. इसलिए मैं आपसे आग्रह करूंगा कि आप इस बात को भी ध्यान में रखेंगे.रंगनाथ मिश्र कमेटी ने, जो मुसलमानों में दलित जातियां हैं, उनको भी हिन्दू दलित जातियों के समान आरक्षण देने की बात कही है.आज जो शैड्यूल्ड कास्ट का रिजर्वेशन  असेम्बली और पार्लियामेंट में है, उसका लाभ मुस्लिम  तबके के कुछ समाज को मिल सकता था..(समय की घंटी).. ये जो आशंकाएं हैं, इन आशंकाओं को आपने दूर किया होता, इन आशंकाओं को आपने इस बिल में दूर किया होता, तो यह बिल ज्यादा बेहतर बनता.मैं एक अंतिम बात कहकर अपनी बात समाप्त करूंगा.हमारे साथी विरोधी दल के नेता,  अरुण जेटली जी ने कहा कि बेहतर है, सबसे बेहतर है कि आप जो आरक्षण देने जा रहे हैं, इस आरक्षण के बारे में ऐसा कानून बनाइए कि पॉलिटिकल पार्टियों  के लिए कम्पलसरी हो जाए कि 33 परसेंट उम्मीदवार वे महिलाओं को बनाएं. ये जो आप रोटेशनवाइज सीटें रिजर्व करने जा रहे हैं, पंचायतों में हमने इसको रोटेशनवाइज किया था, उसका परिणाम बहुत अच्छा नहीं आया, उसको हम लोगों  को बदलना होगा.


उपसभापति  : तिवारी जी, आप समाप्त कीजिए.श्री तारिक अनवर .

श्री शिवानन्द तिवारी :इसलिए बेहतर होगा, ज्यादा उम्मीदवार महिलाएं बन पाएंगी, अगर आप इलेक्शन लॉ में परिवर्तन करके पार्टियों  के ऊपर बंदिश लगा दें कि हर पार्टी  को 33 प्रतिशत उम्मीदवार महिलाओं को बनाना होगा.मैं उम्मीद करता हूं कि यह जो सुझाव आया है, उस सुझाव को आप इस बिल में इनकारपोरेट करेंगे, ताकि सब लोग उत्साह के साथ इस बिल का समर्थन कर सकें.इसी के साथ इस बिल का समर्थन करते हुए, मैं अपनी बात समाप्त करता हूं.
क्रमशः

पेंटिंग में माँ को खोजते फ़िदा हुसेन

डा. शाहेद पाशा

 मकबूल फ़िदा हुसेन ने अपनी कलाकृतियों में स्त्रीको दर्शाते हुए न जाने कितने ही ऐसे चहरों को रंगा है, जिसकी दुनियाँ आज भी प्रशंसा और निंदा, दोनो ही करती है. कहीं स्त्री सौंदर्य को प्रदर्शित करती कोमल युवतियाँ, तो कहीं वाद-विवाद निर्माण करने वाली कलाकृतियाँ. उन्हीं चहरों में कभी कभी अपनी माँ के धुंधलाते चहरे को ढूंढते रहे, तो कभी स्त्री में प्रेयसी ढूंढते रहे. युवावस्था में एक गरीब लडकी जमुना के रेखा चित्र बनाते रहे,  तो कहीं वृध्दावस्था में फिल्म स्टार माधुरी के चित्र बनाते रहे.

इसी बीच हुसेन ने मदर टेरेसा के भी कईचित्र बनाए और देश विदेशों में उन्हें प्रदर्शित किया . यह लेख उन्हीं चित्रों के सन्दर्भ में है. मदर टेरेसा कि बनी कलाकृतियों पर प्रकाश डालने से पहले हुसेन की आत्मकथा (रशदा सिद्दकी के द्वारा लिखित) के प्रारंभिक कुछ पन्नो का अध्ययन करने से हुसेन की बालावस्था एवं संर्घषमय जीवन का परिचय हमे प्राप्त होता है . रशदा सिद्दकी लिखती हैं कि 1915 में हुसेन का जन्म पंढरपूर महाराष्ट्र में हुआ था, जब वह एक साल के थे तब उनकी माता ज़ैनब का देहांत हुआ था. माँ ने नाम दिया मकबूल और सारे विश्व में एम.एफ. हुसेन के नाम से जाने जाते हैं.


एक दृश्य : माँ ज़ैनब पंढरपूर के एक मेलेमें सिर पर टोकरी उठाये जा रही है. टोकरी खाली नहीं है. उस में छः महीने का बच्चा मकबूल कपडे में लिपटा सोया हुआ है. सोए बच्चे को गोद में संभालना मुश्किल और फिर मेले की धक्कम धक्की. किसी एक जगह भीड कम देखकर टोकरी सिर से उतार कर ज़मीन पर रखती है. और कुछ देर वहीं खडी रहती हैं, और वहीं पर अपनी छोटे बहन का इंतज़ार करती रहती है.

मकबूल कि माँ की नज़र सिर्फ दोमिनट ही टोकरी से हटी होगी कि जैसे ही नीचे टोकरी पर वापस नज़र डालती है, तो बच्चा गायब. एक चीख मारी और चीख के साथ माँ की पुकार खामोश हो गई, आँसू सूख गए. हाथ पाँव की हरकत बंद. उसी खाली टोकरी के सामने खडी रह गई. दिन गुजरते चले, महीने साल ठहरे नहीं, और इस घटना के कुछ ही महीनों बाद माँ ज़ैनब अपने एक साल के नन्हें बालक मकबूल को छोडकर हमेशा- हमेशा के लिए इस दुनिया से चली गयी.

माँ ज़ैनब ने न कभी कोई तस्वीर खिचवाईथी न कोई आकृति हुसेन को याद था. यह कमी हुसेन ने अपनी सारी जिन्दगी महसूस की है. जब भी कोई मराठी साडी इधर -उधर पडी नजर आती तो उसकी हजारो तहों में वे माँ को ढूँढंने लगते. माँ की मोहब्बत, ममता के जिस्म के हर पोर से उबलता बेपनाह प्यार का लावा- शायद हुसेन कि यही अंदरुनी कराहती चिंगरी दर-बदर मारी-मारी फिर रही थी .

दृश्य दो:सन 1979 के करीब कलकत्ता की एक मध्यम रोशनी वाली गली में एक बुजुर्ग औरत सफेद साडी पहने बडी विनम्रता से पैदल जा रही है. पैरों मे रबर की चप्पल, बगल में छोटे मुठ की मामूली सी छतरी, गर्दन झुकी, साथ दो औरतें, दो की गोद में दूध पीते बच्चे, लेकिन औरतें माँ नही लगती. सब की साडियाँ सफेद. सिर ढके. पूरी आस्तीन का कमर तक ब्लाउज़ . बुजुर्ग औरत गली कूचों में रूक-रूक कर औरतों, बच्चों से नरम लेहाज में बंगला भाषा में बातचीत करती जारही हैं, जो उसकी मातृभाषा नहीं. हुसेन भी वहीं गलियों में, स्केच बुक बगल में दबाए गुज़र रहे थे. इस औरत को दूर से देखते हैं और आहिस्ता-आहिस्ता उसके पीछे चलना शुरु करते हैं. और इसी तरह कई महीनों चलते ही रहे.


कलकत्ता की तमाम गुमनाम बास्तियों को पहचाना- दुःखी औरतें, अनाथ बच्चे, बेघर बर्तन, थके और बीमार शरीरों को उठाए चारपाइयाँ और भी ऐसे कई दृश्य- जो हुसेन की कलात्मक दृष्टि से, रंगों के माध्यम से रूप प्राप्त कर  हुसेन कि कलाकृतियाँ कहलाती हैं . दिसम्बर 1980 में कलकत्ता के चौरंगी सडक पर आलीशान टाटा सेंन्टर में एम.एफ. हुसेन की कला की नुमाइश होती है.


इस नुमाइश में लगे सभी चित्रों मेंबार-बार सिर्फ एक सफेद साडी, सियाह बैकग्राउन्ड पर दिखाई देती है. इन साडियों की सिलवटों में छुपे, ढँके, इधर, उधर, छोटे, छोटे यतीम बच्चो की झलक दिखाई देती है. सफेद साडी में कोई मनुष्य का शरीर नहीं, किसी माँ का चेहरा नहीं. साडी के बार्डर पर नीलें रंग की दो घरियाँ.

यह दुनिया की एक मशहूर देवी स्वरूपमदर टेरेसा थी, जिनकी पहचान चेहरा नहीं उनकी बेपनाह मोहब्बत है, उन बच्चों के लिए, जिन से माँ की मोहब्बत छीन ली गई हो. हुसेन ने सन 1988 में तैल रगों द्वारा एक ऐसा सुंदर चित्र रचा, जो आज राष्ट्रीय आधुनिक कला संग्रहालय में संग्रहित है. इस संयोजनात्मक चित्र में हुसेन ने एक ऐसे कुटुँब का चित्राँकन किया है, जो मूलतः गरीब एवं दुखीः परिवार दिखाई पडता है-कुटुँब के मूल बीमार व्यक्ति को मदर टेरेसा अपनी गोदी में सुलाए सहला रही हैं, मानो उसका आत्मविश्वास बढ़ा रही हों, व्यक्ति के गुप्ताँगों से खिसकता नीले रंग का कपडा, दर्द से ढका निःशक्त शरीर,  अर्धांगिणी बाई  और उसका बच्चा एक महिला की आँचल से लिपटे खेल रहा है.
भावनाओं को अभिव्यक्त करने वाली यह कलाकृति मानव जाति को एक अनोखा संदेश प्रदान करती है. इसी से जुडा एक और संयोजन,  जिस को हुसेन ने अक्रलिक रंगों से कनवास पर रचा है, जो बृहत आकार वाली कलाकृति “TRYPTICH” के नाम से प्रसिद्ध है .

एम.एफ. हुसेन के चित्रों में मदर टेरेसाकई बीमार शरीरों को अपने गोद में उठाई हुई दिखाई देती हैं, तो कहीं गली कूँचों मे रोते बिलबिलाते बच्चों को गोदी मे समेटे सहलाती दिखाई देती हैं .गरीब बस्ती की कुछ महिलाएँ घरों से कोसो दूर हाथ में घडे लिये जब पानी लाने के लिए, अपने छोटे-छोटे बच्चों को झोपडियों में छोड जाती, ठीक उसी समय मदर टेरेसा और उनके साथ कुछ और महिलाएं उस बस्ती में आतीं, और वे सब उन बच्चों के साथ खेलते और उनका मन बहलाते, तब तक, जबतक की महिलायें पानी लेके वापस न आ जाती. हुसेन के चित्रों में यह सभी दृश्य सरल एवं स्पष्ट रूप से दिखाई देते हैं. हुसेन ने अपनी कलाकृतियों में कुछ ऐसी माँओं को भी चित्रित किया है, जिन के शरीर से दूध सूखगया हो और वह अपने भूखे बच्चों को मदर टेरेसा की गोद में खेलता देख मुस्कुरा रही हों. एम.एफ.हुसेन ने इसी से संबंधित कुछ अन्य कलाकृतियों में दूध देनेवाली गाय का भी चित्राँकन किया है .

मदर टेरेसा मानवता एवं ममता के लिएएक सच्ची प्रतिबिंब थीं . हुसेन बार-बार इन रचनाओं में नवजागरण, चित्रकला और मूर्तिकला के तत्वों से उधार लेते हैं . और उस काम मे गिरजाघर स्थापत्य कला कि उठाई मेहराब, उदाहरण के रूप में, चित्रों में दिखाई देती है. हुसेन ने इन्दौर में बीते अपने जीवन के आराम्भिक शिक्षा काल के दो सहपाठी-चित्रकारों का अपनी कला में प्रभाव स्वीकर किया कि उन्होंने रेखाओं के सरलीकरण (Simplification of lines) में विष्णु चिंचालकर और रंग-संयोजन मे डी.जे. जोशी से काफी प्रभाव ग्रहण किया . बाद में पिकासो ने उन्हें गहरे तक प्रभावित किया. लेकिन उनके पास रंग-रेखाएँ अपने इसी आरम्भिक साहचर्य की रहीं.  बोल्ड रेखीय स्ट्रोक और फ्लैट रंग तथा हुसेन की हस्ताक्षर शैली अनेक कलानुभवियों के मन में गरहाई से उतरे हैं.

ग्रंथसूची:
1.एम.एफ. हुसेन की कहानी अपनी ज़ुबानी (आत्मकथा): श्रीमति रशदा सिद्दिकी: 20.
2.समकालीन कला: ललित कला का प्रकाशन: संपादक, डॉ ज्योतिष जोशी: लेखक, प्रभु जोशी, अंक 38-39 जुलाई अक्टूबर-2009.
संपर्क :   लेखक चित्रकार  और कला -समीक्षक हैं . drshahedpasha@gmail.com

सारे दल साथ -साथ फिर भी महिला आरक्षण बिल औंधे मुंह : क़िस्त सात

महिला आरक्षण को लेकर संसद के दोनो सदनों में कई बार प्रस्ताव लाये गये. 1996 से 2016 तक, 20 सालों में महिला आरक्षण बिल पास होना संभव नहीं हो पाया है. एक बार तो यह राज्यसभा में पास भी हो गया, लेकिन लोकसभा में नहीं हो सका. सदन के पटल पर बिल की प्रतियां फाड़ी गई, इस या उस प्रकार  से बिल रोका गया. संसद के दोनो सदनों में इस बिल को लेकर हुई बहसों को हम स्त्रीकाल के पाठकों के लिए क्रमशः प्रकाशित करेंगे. पहली क़िस्त  में  संयुक्त  मोर्चा सरकार  के  द्वारा  1996 में   पहली बार प्रस्तुत  विधेयक  के  दौरान  हुई  बहस . पहली ही  बहस  से  संसद  में  विधेयक  की  प्रतियां  छीने  जाने  , फाड़े  जाने  की  शुरुआत  हो  गई थी . इसके  तुरत  बाद  1997 में  शरद  यादव  ने  'कोटा  विद  इन  कोटा'  की   सबसे  खराब  पैरवी  की . उन्होंने  कहा  कि 'क्या  आपको  लगता  है  कि ये  पर -कटी , बाल -कटी  महिलायें  हमारी  महिलाओं  की  बात  कर  सकेंगी ! 'हालांकि  पहली   ही  बार  उमा भारती  ने  इस  स्टैंड  की  बेहतरीन  पैरवी  की  थी.  अंग्रेजी से हिन्दी अनुवाद पूजा सिंह और श्रीप्रकाश ने किया है. 
संपादक

अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस की सौंवी वर्षगांठ ( 8 मार्च 2010) 


तारिक अनवर (महाराष्ट्र) : उपसभापति महोदय, मैं अपनी पार्टी  एन0सी0पी0 की ओर से इस ऐतिहासिक संशोधन बिल के समर्थन में बोलने के लिए खड़ा हुआ हूं. उपसभापति महोदय, आजादी के बाद लम्बा समय बीत जाने के बाद, लगभग 63 वर्ष बीत जाने के बाद आज यह संशोधन हम करने जा रहे हैं.

 तारिक अनवर (क्रमागत) : ..लेकिन देर आए, दुरुस्त आए. कहावत है कि जब आंख खुले, तभी सवेरा है. मैं समझता हूं कि महिलाओं को उनका यह राजनीतिक अधिकार मिलना चाहिए था. देर से ही सही, लेकिन आज हम इस फैसले पर, नतीजे पर पहुंचे हैं. जहां तक पंचायती राज की बात कही गई, यह बात सही है कि हमारे पास एक उदाहरण है कि जब पंचायती राज में महिलाओं को आरक्षण दिया गया, तो जो महिलाएं अपने आपको यह महसूस करती थी कि उनको समाज में, देश की राजनीति में, देश की सत्ता में भागीदारी नहीं मिल रही है, उन्होंने  उस आरक्षण का लाभ उठाया. उन्होंने हमारे पंचायती राज में, लोकल बॉडीज में, जिला परिषद में जिस प्रकार से नेतृत्व संभाला और धीरे-धीरे अपने अधिकार का इस्तेमाल किया, उससे यह सिद्ध होता है कि उनके अंदर वह क्षमता है,  वह सलाहियत मौजूद है. बार-बार यह जो कहा जाता है कि राजनीति औरतों के बस की बात नहीं है, मैं समझता हूं कि वह बात बहुत पुरानी हो चुकी है. यह बात सही है कि हमारी आबादी की लगभग पचास प्रतिशत आबादी महिलाएं हैं. जब तक इन पचास प्रतिशत महिलाओं को देश की राजनीति में और देश की सत्ता में भागीदारी नहीं देंगे, तब तक एक मजबूत भारत का, एक शक्तिशाली भारत का हमारा जो सपना है, वह सपना साकार नहीं हो सकता है. जब तक देश की मुख्यधारा से इस पचास प्रतिशत आबादी को नहीं जोड़ा जाएगा, तब तक यह संभव नहीं है. मुझे खुशी है कि आज हम यह फैसला ले रहे हैं, यह ऐतिहासिक निर्णय लेने जा रहे हैं. अच्छा यह होता कि यह बिल आम सहमति से पास किया जाता, लेकिन ऐसा लगता है कि कुछ राजनीतिक दलों  ने अपना मन बना लिया था कि हम इस बिल का विरोध करेंगे. यहां तर्क दिया गया, बहुत तरह की बातें कही गई, पिछड़े वर्ग और ओ.बी.सी. की बात कही गई, अल्पसंख्यक समुदाय की बात कही गई, लेकिन जहां तक मैं समझता हूं, मुझे लगता है कि इसके पीछे उनकी नीयत साफ नहीं थी. वे उसमें सिर्फ अपना राजनीतिक लाभ देख रहे थे, वे पोलिटिकल कैपिटल बनाने की कोशिश कर रहे हैं. वृंदा जी ने ठीक कहा कि यह महिलाओं का सवाल है. उन्होंने  आंकड़े बताए कि पंचायती राज और लोकल बॉडीज में जो इलेक्शन हुए, उसमें पिछड़े वर्ग, ओ.बी.सी. और अल्पसंख्यक समुदाय की जो महिलाएं हैं, उसमें उनकी भागीदारी आई है और इससे यह सिद्ध होता है कि अगर उनको मौका मिलेगा तो वे यकीनन आगे आएंगी. राजनीतिक दलों  का काम यह है कि उनको प्रोत्साहित करें - अल्पसंख्यक की बात ठीक है, हमारे यहां मुसि्लम समुदाय में पर्दा सिस्टम है, लेकिन उसके बावजूद आज मुस्लिम महिलाएं आगे आ रही हैं.


आज तमाम राजनीतिक दल उनकी तरफदारी की बात कर रहे हैं, अगर सही मायनों में उनको प्रतिनिधित्व दिया जाए, तो मैं समझता हूं कि वे आगे आएंगी. जो ओ.बी.सी. की बात कर रहे हैं, जो अल्पसंख्यक समुदाय की बात कर रहे हैं, ये सभी वे राजनीतिक दल हैं, जो किसी न किसी रूप में सत्ता में रहे हैं, ये दल राज्यों  में सत्ता में रहे हैं. जब उनको सत्ता भोगने का मौका मिला, तब उनको ध्यान नहीं आया कि इस सेक्शन के लोगों को आगे बढ़ाया जाए, उनको मौका दिया जाए. वे परिवारवाद से ग्रस्त हैं. वे उससे ऊपर कभी भी नहीं उठ पाए, लेकिन आज बड़ी-बड़ी बातें और सिद्धांतों की बात कर रहे हैं. मैं यह बात स्पष्ट करना चाहता हूं कि इसमें कोई सच्चाई नहीं है. उपसभापति महोदय, मैं इतना ही चाहूंगा कि आने वाले समय में यह बिल सही मायनों में हमारे लिए, हमारे समाज के लिए और देश के लिए बहुत ही लाभदायक होगा. एक लंबे समय से महिलाओं का जो शोषण हो रहा था, उनका राजनीतिक शोषण हो रहा था, इसके जरिए उनको उससे निजात मिलेगी और आने वाले समय में भारत की जो तस्वीर है, वह उभरकर सामने आएगी. हम दुनिया को यह बता सकेंगे भारत हिंदुस्तान और हिंदुस्तान की महिलाओं को बराबरी से देखता हैं और उनको वे तमाम अधिकार प्राप्त हैं, जो यहां पर पुरुषों को प्राप्त हैं. इन्हीं शब्दों के साथ, मैं इस बिल का समर्थन करता हूं. 

डा. नजमा ए. हेपतुल्ला: जिसमें अलग-अलग वर्गों  और मजहबों के लोग आते हैं, रिप्रेजेंटेटिव आते हैं, जो इस अज़ीम हिन्दुस्तान की democracy को represent करते हैं, उसमें मुझे भी हक़ है कि मैं जिस जगह चाहूँ, रहूँ. चाहे मैं लोक सभा में जीत कर आना चाहूँ, चाहे राज्य सभा में रहूँ. सर, यह तो सरकार को पता है कि भारतीय जनता पार्टी  की यह commitment है कि हम इस बिल का समर्थन करने जा रहे थे, मगर हमारी यह एक मांग थी कि जब हम बिल का समर्थन करें तो मुल्क को यह मालूम होना चाहिए कि जो एक तब्दीली  न सिर्फ लोक सभा में आ रही है, एक silent revolution, जो पंचायत बिल से हमारे देश में आया, उससे एक मिलियन महिलाएँ इस सत्ता में भागीदार हुई. हम यह क्यों चाहते हैं? इसकी क्या वजह है? चूँकि मैं उस कमेटी की मैम्बर थी और नाच्चीयप्पन साहब उसके चेयरमैन थे, वहाँ इस पर बड़े विस्तार से चर्चा हुई कि कोई और तरीका क्यों  इस्तेमाल नहीं किया गया, 33 परसेंट रिजर्वेशन की बात क्यों हुई, क्यों कि हमें थोड़ी सी जगह देने में तकलीफ हो रही थी. आप तो दे देते हैं.

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महिला आरक्षण को लेकर संसद में बहस :पहली   क़िस्त

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महिला संगठनों, आंदोलनों ने महिला आरक्षण बिल को ज़िंदा रखा है : वृंदा कारत: पांचवी  क़िस्त


 उपसभापति: मैं दे देता हूँ ?

डा. नजमा ए. हेपतुल्ला: आप दे देते हैं. आपसे शिकायत नहीं है. शिकायत तो किन्हीं और लोगों से है. सर, तीन बार सुषमा स्वराज जी ने कोशिश की, मगर उस वक्त किसी ने सपोर्ट करने के लिए वहाँ से हाथ नहीं बढ़ाया. प्रधान मंत्री जी आप यहाँ बैठे हैं. आप यहाँ भी बैठते थे. आपको मालूम है कि उस वक्त भी अगर आप सपोर्ट करते तो यह बिल पास हो जाता... अटल बिहारी वाजपेयी जी ने यह बात कही थी और जो कल मैंने प्रेस में दोहरायी कि यहाँ सवाल नम्बरों का नहीं है, नम्बर तो लेफ्ट के भी थे और हमारे भी थे, सवाल नीति और नियम
का था. आज हमारी नीयत भी साफ है और हमारी नीति भी साफ है.  सर, मैं बाहर सुन रही थी. प्रेस के बहुत से लोग बात कर रहे थे. हो सकता है कि यह बिल पास होने के बाद महिलाओं की वह importance प्रेस के लिए कल यकीनन खत्म हो जाए, मगर हमारी पार्टी  के लिए खत्म नहीं होगी. सर, ये बड़ी-बड़ी बातें कही जा रही थीं कि बीजेपी इसके खिलाफ है, बीजेपी इसको लाना नहीं चाहती, क्यों कि बीजेपी ने इसमें अब discussion का अड़ंगा लगा दिया है. सर, यह बात सही है. हमारी जो चीफ व्हीप हैं, जब वह गुरुवार को गयी थीं , उसी वक्त यह तय हो गया था कि आपने इसके लिए चार घंटे तय किए हैं. इस पर discussion की मांग तो हमारी शुरू से ही थी. हम चाहते थे कि लोगों को, इस मुल्क को, इस मुल्क के बाहर के लोगों को मालूम हो कि हम क्यों  इसे सपोर्ट करना चाहते हैं. हम चाहते थे कि महिलाओं को आप खुद ही दिल बड़ा करके दे देते. जब आपने नहीं दिया, तब हमने यह किया.


डा0 नजमा ए0 हेपतुल्ला (क्रमागत) : मैं एक और बात यहां कहूंगी. हिस्ट्री है, सर.1996 में यह रेज़ोल्यूशन यहां हाऊस में पास हुआ, फिर इलेक्शन हुए तो सबने अपने मेनिफेस्टो में बड़े जोर-शोर से लिख दिया कि महिलाओं को सत्ता में भागीदारी देंगे. उस वक्त देवेगौड़ा जी जीतकर आ गए. 1997 में इंटर पार्लियामेंट्री यूनियन की कांफ्रेंस हुई, towards partnership between men and women, वहां संगमा जी ने और मैंने यह बात रखी, देवेगौड़ा जी सत्ता में थे, देवेगौड़ा जी से कहा, तो देवेगौड़ा जी ने हां भर ली, मगर बिल लाने की हिम्मत नहीं हुई. बिल आया और गीता मुखर्जी कमिटी में गया फिर, हिस्ट्री है. सर, आज हम पंचायत की बात करते हैं, जो हमने बिल पास किया, मुझे याद है कि वह बिल रात के 12:00 बजे इसी हाऊस में तीन वोटों से डिफीट हुआ था. फिर दोबारा वह बिल लाया गया, दो-तीन साल के गैप के बाद, तब वह बिल पास हुआ. तो महिलाओं को देते वक्त थोड़ा दुख होता है. मैं समझती हूं. वह बिल यूनेनिमस यूं पास हो गया कि कहीं हिन्दुस्तान के किसी और इलाके में एक मिलियन महिलाएं एक मिलियन पुरुषों की सीटों पर कब्ज़ा करने वाली थीं , मगर यहां लोकसभा में जो उंगली बटन दबा रही है, उसे यह नहीं मालूम कि कल यहां मेरी यह उंगली रहेगी या कहीं बाहर चली जाएगी. सिर्फ यही बात है और कोई बात नहीं है. सर, दुनिया में सब जगह महिलाओं का मूवमेंट है, वहां Women's movement will be led by women, लेकिन हिन्दुस्तान में, इस मुल्क की हिस्ट्री है कि हमारे जितने बड़े लोग हुए हैं, चाहे वे राजा राम मोहन राय हुए हों , चाहे ज्योतिबा फूले हों , चाहे महर्षि करवे हों , चाहे बाबा साहब डा0 भीमराव अम्बेडकर हों, जिन्होंने कांसि्टटयूशन बनाया, उन लोगों  ने यह काम किया. कांसि्टटयूशन की कापी मेरे पास रखी है, चाहे आप इसके पि्रएम्बल में कहें, चाहे उसके डायरेक्टिव प्रिंसिपल में कहें, चाहे फंडामेंटल राइट्स में कहें, महिला को सबसे पहले वोट देने का हक जिस दिन हिन्दुस्तान के संविधान ने दिया, उसी दिन महिला को शक्ति मिल गई थी कि वह अपने प्रतिनिधि चुन सकती है और प्रतिनिधि बन सकती है.

सवाल हमारा सिर्फ यह था कि किसहद तक वह महिला प्रतिनिधि बन सकती है. क्या हमारी भागीदारी नहीं है? वृंदा जी बड़ा अच्छा बोलीं, अरुण जेटली जी ने बड़े विस्तार से इसके कांसि्टटयूशनल और रोटेशन के बारे में जो बात बताई, मैं उसके ऊपर कोई चर्चा नहीं करुंगी, मेरी पार्टी  के पास समय बहुत कम है. मैं केवल दो चीजें बाकी कहना चाहती हूं कि आपने पॉलिटिकल इम्पावरमेंट दिया है, अभी देने की बात कर रहे हैं, दिया नहीं है. यहां से तो हम पास करके भेज देंगे. सर, आपको याद होगा, प्राइम मिनिस्टर साहब, मैं बार-बार कहती थी चेयरमैन साहब के चैम्बर में, गुलाम नबी जी आप भी उस समय पार्लियामेंट्री आपरेटर  मिनिस्टर थे, प्रमोद महाजन से भी मैं कहती थी कि राज्य सभा में बिल लाओ, बिल पास कर देंगे, क्योंकि राज्य सभा में कोई समस्या अगर होगी भी तो थोड़ी-बहुत होगी. आज, सर, मुझे थोड़ा दुख हुआ. हमने इस हाऊस में पहली बार ऐसा सीन देखा. पिछले तीस सालों से, जब से मैं इस हाऊस की मैम्बर हूं, जिसमें से 17 साल मैंने उस कुर्सी पर गुजारे हैं, मुझे दुख हुआ चेयर के साथ जो बदतमीज़ी की गई, चेयर की शान में जो कुछ हरकतें हुईं, मुझे अच्छा नहीं लगा. मुझे इस बात का बहुत दुख हुआ. चेयर के साथ जो हुआ उसके लिए सारा हाऊस मेरे साथ शामिल होगा माफी मांगने के लिए, हम सब माफी मांगते हैं. मगर, सर, चेयर का दिल बड़ा होना चाहिए, चेयर का दिल छोटा नहीं होना चाहिए. आप बड़ी ऊंची कुर्सी पर बैठे हैं, कोई छोटे दिल के नहीं हैं. आज जिन लोगों को पकड़-पकड़ कर, उठाकर ले जाया गया, मैंने आज तक इस हाऊस में 100-150 लोगों को इस तरह हमला करते हुए नहीं देखा. मुझे खराब लगा. मैं आपसे यह बात अपनी पूरी जिम्मेदारी से कह रही हूं कि हमारे पूरे इंडिया के लोग जो देख रहे हैं, वे भी देखते हैं कि आज जो कुछ हुआ, वह डेमोक्रेसी नहीं है.

 तारिक अनवर :उपाय क्या है?

डा0 नजमा ए0 हेपतुल्ला : उपाय निकलते हैं, तारिक अनवर साहब, उपाय निकलते हैं.

एक माननीय सदस्य : उनको बुलाकर बात करनी चाहिए थी.

डा0  नजमा ए0 हेपतुल्ला : हां, मैंने बताया था, बात करनी चाहिए थी, सरकार को डिस्कस करना चाहिए था, सरकार को फ्लोर मैनेजमेंट करना चाहिए था. ऐसा नहीं है कि किसी चीज का हल नहीं निकलता. उनका भी हक है बोलने का. मुझे मालूम है, सर, आपके चेहरे पर खुशी नहीं थी. मैंने डिप्टी चेयरमैन साहब का चेहरा देखा है, वे बहुत दुखी थे, वे मना करना चाह रहे थे.

 डा.  नजमा ए. हेपतुल्ला (क्रमागत) : वे मना करना चाह रहे थे, अगर उनका हुक्म चलता, तो वे कभी भी ऐसा नहीं करने देते ... सर, आप अपनी सीट पर बैठे थे, देखिए, प्रधान मंत्री जी भी नहीं चाह रहे थे  मुझे यकीन है कि प्रधान मंत्री जी, आपको भी अच्छा नहीं लगा, क्यों कि आप डेमोक्रेसी को मानते हैं, हम भी जनतंत्र को मानते हैं, हम यह नहीं चाहते कि बिल सिर्फ आपको सत्ता में भागीदारी मिल रही है, झगड़ा करने से कोई फायदा नहीं है ... यह अच्छा नहीं हुआ, कोई भी तारीफ नहीं करेगा, जो हुआ, अच्छा नहीं हुआ. आप खुश हैं, कल आपके साथ भी यह हो सकता है .... उपसभापति जी, हम Institution को बरबाद नहीं कर सकते, Institution को कायम रखना हमारा फर्ज है. सबसे पहले उन्हें भी ध्यान रखना चाहिए था, उन्हें एक हद तक ही बोलना चाहिए था. उन्हें अपनी बात बोलने का हक है, चिल्लाने-चीखने और तोड़-फोड़ करने का अधिकार उन्हें नहीं है. मैं उनके बर्ताव को कंडम करती हूं, लेकिन हमें भी दिल बड़ा रखना चाहिए. आज अगर वे भी यहां आकर बोलते, वे आकर अपना dissent बताते कि क्या problem है, तो इससे क्या फर्क पड़ जाता

 उपसभापति : नजमा जी, अब आप समाप्त कीजिए.

डा. नजमा ए. हेपतुल्ला : सर, आप फिक्र मत कीजिए, मेरी पार्टी  का समय अभी बाकी है. आप क्यों दिल छोटा कर रहे हैं, मैं दिल बड़ा करने की बात कर रही हूं. मेरा तो चिल्ला-चिल्लाकर गला दुख गया. मैं इस दु:ख के साथ इस बिल का पूरा समर्थन करती हूं. मुझे इस बात की खुशी है कि यह बिल आया और हमारी पूरी पार्टी  इस बिल के ऊपर आपके साथ है, महिलाओं के साथ है, क्योंकि अगर आप एक अच्छा काम कर रहे हैं, जो हम भी करना चाहते थे, ये कह रहे हैं कि आपने उस समय हमारा साथ नहीं दिया .... लेकिन आज हम आपका साथ दे रहे हैं, आपके पास मैजोरिटी नहीं है, फिर भी हम आपको सपोर्ट कर रहे हैं. उपसभापति जी, आपने मुझे इस बिल पर बोलने का मौका दिया, इसके लिए बहुत-बहुत शुक्रिया.

डा. प्रभा ठाकुर (राजस्थान) : उपसभापति जी, मैं इस महिला आरक्षण विधेयक के समर्थन में बहुत खुशी से अपनी ओर से, सदन की सभी महिलाओं की ओर से, हमारे तमाम उन भाइयों की ओर से जो इस बिल को समर्थन दे रहे हैं, पूरे देश की जनता की ओर से, जिसमें सि्त्रयां और पुरुष दोनों शामिल हैं, अपनी खुशी ज़ाहिर करते हुए इस ऐतिहासिक बिल के संबंध में अपने कुछ विचार आज यहां रख रही हूं. उपसभापति जी, आज जब यह विधेयक यहां पारित होने जा रहा है, तब इस अवसर पर मैं स्वर्गीय प्रधान मंत्री, श्री राजीव गांधी जी का स्मरण किए बिना नहीं रह सकती. यह उनकी परिकल्पना थी. वे स्वयं पुरुष थे, लेकिन उनके मन में महिलाओं के प्रति करुणा थी और उन्होंने महसूस किया कि इस देश की सि्त्रयों  को राजनीतिक हक और राजनीतिक अधिकार तब तक नहीं मिल सकता, जब तक कि आरक्षण जैसी कोई व्यवस्था नहीं हो जाती. उनकी इसी सोच के तहत कांग्रेस सरकार के समय में पंचायतों में हमारी बहनों को 33 फीसदी आरक्षण मिला, नगर निगमों और निकायों में भी हमारी बहनों को 33 प्रतिशत आरक्षण मिला. मेरी बहन नजमा जी अभी कह रही थी कि राजीव जी की सरकार के समय में यह विधेयक प्रस्तुत हुआ था और केवल 2 वोटों से गिर गया था, मैं उनसे सिर्फ यह जानना चाहती हूं कि उस समय कौन लोग थे, जो इसका विरोध कर रहे थे और वे किस तरफ थीं , किन लोगों के विरोध के कारण उस समय यह विधेयक गिरा था? आज खुशी की बात है कि देर आयद दुरुस्त आयद, आप लोगों  ने यह महसूस किया कि महिलाओं के सशक्तीकरण के बिना, महिलाओं को समर्थन दिए बिना, आपका आपके घर में भी गुज़ारा नहीं होने वाला है. इसलिए मैं श्रीमती सोनिया गांधी जी, उनकी इच्छा शक्ति को, UPA सरकार को और हमारे माननीय प्रधान मंत्री जी को बधाई देती हूं कि  उन्होंने परमाणु करार जैसी दृढ़ता दिखाई. अगर वे इतनी दृढ़ता नहीं दिखाते, इतनी प्रतिबद्धता नहीं दिखाते, तो मैं नहीं समझाती कि किसी भी सरकार के समय में यह ऐतिहासिक आरक्षण विधेयक इस संसद का मुंह तक देख पाता और पारित हो पाता.


डा. प्रभा ठाकुर (क्रमागत) : लोग तो दिखा नहीं पाते हैं, बहुत कुछ करते हैं, जनता सब जानती है और मीडिया भी सब समझता है. असलियत सब जानते हैं और जो लोग कह रहे हैं कि मुस्लिम  समाज और ओबीसी समाज की महिलाओं को नहीं मिलेगा. मैं भी ओबीसी समाज से आती हूँ. राज्य सभा में मेरी पार्टी ने मुझे लिया, किसी पूंजीपति को नहीं लिया. जो उधर बैठ कर बातें करते हैं, उनमें से कितने लोगों को राज्य सभा में लेकर आए, कितनी मुस्लिम समाज की हमारी बहनों को, कितनी ओबीसी समाज की हमारी बहनों को लेकर आए? उस समय उन्हें बड़े नामी-गिरामी लोग, बड़ी हसि्तयां या बड़े पूंजीपति लोग याद आते हैं. जो इस तरह की बात करते हैं, मैं उनसे हाथ जोड़ कर कहना चाहती हूँ कि देश की बहनों और इस समाज को गुमराह मत कीजिए. आप चाहें तो 33 प्रतिशत से ज्यादा ओबीसी की बहनों को टिकट दे सकते हैं, Minorities की मुस्लिम समाज की बहनों को टिकट दे सकते हैं. जब यह विधेयक पारित होगा, तब देश की बहनें देखेंगी कि आखिर आपकी कितनी इच्छा शक्ति है. कितनेमुस्लिम समाज की बहनों को और कितनी ओबीसी समाज की बहनों को आप उस समय टिकट देते हैं. उस समय यह मत कीजिएगा कि उन समाजों  के नाम पर अपने ही घर की बहन, बेटियां, बहू और बीवी नजर आए. उस समय यह जरूर देख लीजिएगा. इस पर भी देश की नजर रहेगी. मैं इस सरकार को बधाई देते हुए अंत में यही कहना चाहती हूँ कि जिन सबने ने समर्थन दिया है ..(व्यवधान).. कल जो यहां पर हंगामा हुआ, जिस तरह से सभापति जी के आसन का अपमान किया गया, हम उसका तहे दिल से निंदा करते हैं.राज्य सभा जैसे सदन में इस तरह के उत्पात होते रहेंगे. आगे भविष्य के लिए अनुशासन बनाए रखने के लिए
यह कार्रवाई जरूरी था. हमारे साथियों  द्वारा यह कार्रवाई करने के लिए मजबूर किया गया, तब यह कार्रवाई की गई. हम निंदा करते हैं और आशा करते हैं कि भविष्य में कोई अपना विरोध प्रकट करने के लिए इस हद तक अनुशासनहीनता नहीं करेगा और हम सदन की गरिमा को बनाए रखेंगे. मैं महिला शक्ति को नमन करते हुए, पूरी देश की महिलाओं को नमन करते हुए, श्रीमती सोनिया जी को नमन करते हुए कहना चाहती हूँ कि "हम उबलते हैं, तो भूचाल उबल जाते हैं, हम मचलते हैं, तूफान मचल जाते हैं.
हमको कोशिश न रोकने की करे अब कोई,
हम जो चलते हैं, तो इतिहास बदल जाते हैं."
अब नया इतिहास इस देश में यह यूपीए सरकार ने बनाया है. यह प्रधान मंत्री जी की देन है, यह कांग्रेस सरकार की देन है. यह बात पूरा देश जानता है और आप भी जानते हैं. जो पचास फीसदी की बात कह रहे थे, उनसे कहना है कि साथियो, हम इस सरकार में पंचायतों और नगर निगमों  में आरक्षण को 33 फीसदी से बढ़ाकर 50 फीसदी तक ले गए हैं और एक बार प्रक्रिया शुरू हुई है, अब
देखिए, आगे, आगे होता है क्या. धन्यवाद.
क्रमशः

मुझसे पहली सी मुहब्बत मेरे महबूब न मांग

प्रो.परिमळा अंबेकर
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विभागाध्यक्ष , हिन्दी विभाग , गुलबर्गा वि वि, कर्नाटक में प्राध्यापिका और. परिमला आंबेकर मूलतः आलोचक हैं.  हिन्दी में कहानियाँ  अभी हाल से ही लिखना शुरू किया है. संपर्क:09480226677
‘‘ बस तरबतदी एन इल्ल.... नन हाट्या ... निन...‘‘  दमदार भद्दी गाली की भारी भरकम आवाज की खरखराहट ने, दोनों कानों में ठुसे सेलफोन से बह रही नूरजहाॅं के गले की फैज के नगमें की आवाज  काट डाली . दनदनाती हुयी वह आवाज... मेरे दोनों कानों के परदे पर दस्तक देने लगी... !  खिडकी के गिलास से सटाये रखी  मेरा  सर  हठात दायीं ओर मुड गया. बस में नीम अंधेरा छाया हुआ था . बगल की औरत  खडी हो गयी थी और बडबडाने लग गयी थी. देवरहिप्परगी बस स्टैंड पर नये चढे पैसिंजरों से टिकट कटवाकर, अपना काम खत्म होते ही सीटी बजा कर बस का कंडक्टर  ड्राइवर को बत्ती बुझाने का आदेश दे चुका था . बस देवरहिप्परगी से निकलकर बिजापूर गुलबर्गा हाइवे पर सरपट दौडने लग . शाम के सात सवा सात बज रहे होंगे . बस की खिडकियों  से भीतर आ रही गर्म हवा लोगों के देह पर जमें  पसीने को छूकर उन्हें अजीब सी ठंडक का आभास दे रही थी . जैसे तपती धूम में बर्फ का गोला गले उतरते -उतरते सुकून पैदा कर रहा हो !! डा्रइवर के बत्ती के बुझाने से  बस में अंधेरा धीरे धीरे पसरने लगा ... एक एक करके पैंसिंजर अपने जगह  बैठे- बैठे उूॅंघने लग गये. कोई  छोटा मोटा गाॅंव आता, बस एक दो लोग उतर रहे थे . चढने वाले लगभग कोई  नहीं था . बस सिंदगी गाॅंव पार कर जेवरगी की ओर भाग रही थी . बस के हेड लाइट से निकली रोशनी हाइवे पर ऐसे फैल रही थी मानो कालीराख की तरह जमी दिनभर की धूप को उडा रही हो और ,आगे आगे बस के लिये रास्ता बना रही हो. खिडकी से मैने देखा . जेवरगी की ओर जाने वाला हाइवे का कब्र  रास्ता पार कर अपनी बस दायी ओर धीरे -धीरे मुडने लगी .

अचानक मैने देखा....वह औरत मेरी सीट के बगल में ऊँची  काली नुकीली पहाड की तरह से खडी थी . अरे यह तो वही औरत है,  जो देवरहिप्परगी  बस स्टॉप  पर बस के आकर लगते ही  हाथ मे कपडे लत्तों से ठुसी एक बैग बगल मे लटकाये, भरी बस में लोगों को चीरती हुई  मेरे बगल की खाली सीट पर आकर  बैठ गयी थी . बैठने की ही देर थी अपने बैग से पापड से भरा पैकेट निकालकर अकेली बैठी बिंदास, कुट-कुट  कुतरने लग गयी थी. उसके साथ में एक बूढी औरत, दो मर्द आदमी भी चढे थे . बैठे -बैठे मेरा क्यूरियस आॅब्सरवेशन मन ने यह मान कर ही तसल्ली पाया कि साथ बैठी बूढी उस औरत की सास है, आगे जगह बनाकर बैठे वे दोनो मर्द  ससूर और पति . और मेरे बगल की वह औरत, मेरे आब्सर्वेशन के खत्म होने तक पापड का पैकेट खतम करके, मूॅंग फल्ली के दानो को , एक -एक करके अपने मुॅंह में ठूसते जा रही थी और बडे चाव से जुगाली भी कर रही थी. मैने देखा, अब वही औरत, होसपेट के गन्ने के माफिक पतले डंटल सी काले लंबे हाथों को सीधा उठाकर ऊँची  आवाज में बडबडा रही है . ‘‘ मेरा घर तो इधर है, तू कहाॅं ले जा रहा है   बे ... मादरचोद.... बस को रूका ...तेरी... ‘‘ फिर एक और दमदार गाली. गाली सुनकर मैं घबरा तो नहीं गयी  लेकिन बस में फैली उस नीम अंधेरे को चीरती फैल रही उस आवाज की खरखरास से जरा सहम जरूर गयी . उत्तर कर्नाटक का अपना इलाका  .. तेज धूप और गर्मी में बहने वाली लूॅं के लिये जितना नामचीन है उससे भी अधिक ताजबीन है अपने दमदार गालीगलौज भरी जमीनी कन्नड बोली के खांटेपन के लिये . आप लोग अगर गलत न माने तो मैं , आत्मीयता के लहजे में बता ही दूॅं , यह इलाक लगभग कर्नाटक का बिहार परदेस है, बिहार परदेस . डीलडौल में रख रखाव में .

मुझसे पहली सी मोहोब्बत ... मेरे मेहेबूब नमाॅंग ... फैज के शब्द नूरजहा का स्वर ...उसी लय के ताल और मेल में हिलता डुरता मेरा सर ... . कररर..... की चींखती सी ध्वनि से बस रूक गयी . ब्रेक के लगने की देरी थी.... बस में उॅूंघ रहे सारे पैसिंजर.... ऐसे हडबडा कर गिरते -गिरते सम्हल गये... मानो दबडे में भरी मुर्गियाॅं, दबडे के उठाने से, क्यां- क्यां की आवाज के साथ पंख फडफडा कर, सारी देह को बिखरा कर उडकर धुप... सी फिर जमीन पर जम जाती हैं. इस सबसे बेखबर , उस औरत का मेलो ड्रामा चालू था . ड्राइवर ने  पीछे मुडकर ... कंडक्टर की ओर प्रश्नांकित नजर से देखा . जवाब में कंडक्टर ने राइ....ट कहते ऐसे सीटी मारी... जैसे कुछ हुआ ही न हो . बस फिर से दौडने लगी . सारे पैसजर फिर से सहमकर अपनी अपनी  सीटपर बैठे उूॅंघने लग गये . लेकिन पिछले का्रस पर दायी आरे जेवर्गी की ओर जाने के रास्ते पर मुडी बस  हठात् खडी हो गयी, मेरे बगल की वह औरत तो वैसी ही खडी थी . और उसका बडबडाना भी लगभग जारी तो था ही,  लेकिन यह बडबडाहट धीरे धीरे और ऊँची और नुकीली होते जा रही थी . बार -बार गालियों से तानों से भरभरकर , बस को रूकवाने के लिये कह रही थी. और मै सहमी सी बैठे बैठै ज्वार  के लेही की तरह फूट रहे उसकी गालियों को गिनते जा रही थी . उन गालियों के अभिधार्थ, व्यंजनार्थ में खोया मेरा मन गिनती में पिछडता गया,  लेकिन उसके हाथों की अदा के साथ साथ गालियों की रफ्तार बिना टूटे बिना रूके बढते ही जा रही थी .


मैनें अपनी जगह  से कुछ आगे झुककरऔरत के बगल में बैठी उस बूढी की प्रतिक्रिया देखने की कोशिश की , जो रिश्ते में उसकी सास लगती थी . मेरा पारिवारिक ज्ञान तगडा था. लेकिन यह क्या... वह बुढिया तो सीटपर पैर खींच उकडू बैठे उूॅंघ रही थी . सर का पल्लू नाक तक खिंचा हुआ था . अंधेरे में ही मैने देखा,  वह तो निर्विकार ...सो रही है... !! बस रोकने के लिए आवाज दे रही वह औरत और भी कुछ कह रही थी . बस के सुनसानेपन में उसकी तीखी खनकती आवाज तीर की तरह बरस रहे थे . ‘‘ चल तूझे मैं घर जाकर देख लेती हूॅं ... बोल रही हूॅं यहीं है मेरा घर... ले कहा जा रहा बे सा....  . गाली की ध्वनि इतनी लंबी खिंच गयी कि सुनकर आसपास के लोग अपनी जगह पर ही हिलडुल कर,  फुसफुसाकर च्...च्.... करते नाराजगी जताने लगे . ‘‘ दो सीट के उस पार बैठे उस औरत के पति और ससूर ने न मुडकर देखा और न कुछ कहना ही मुनासिब समझा . बस की रफ्तार के साथ हिचकोले खाते उनके सफेद टोपी से ढके सर नजर आ रहे थे . जैसे कसम ले रक्खे हो मुडकर न देखने का . शांतनु तो बेबस था ... बच्चे को गोद में ले जाती गंगा को न रोकने के लिये... तो क्या इस औरत का पति भी,उसके पुकारने पर भी मुडकर न देखने के लिये अभिशप्त है ..?

 खैर ...कोई  सुने या न सुने मैं उसेगौर से सुन रही थी . तभी पीछे की सीट पर बैठी औरत के उद्गार मेरे कानों से टकरा गये .... ‘‘ देव्वा बडकोंडंग काणतद...यव्वा ‘‘ ;साया चढा लगता है गे अम्मा...द्ध तो क्या .. यह सब वह औरत नहीं बोल रही है ....पिछले हाइवे मोड पर बस के दायें मुडते ही लंबे तोप की तरह मेरे बगल में खडी यह औरत.....औरत नहीं ..? तो क्या मैं एक भूत के बगल में बैठी हूॅं ... ?  मेरी सिट्टी पिट्टी गुम .. !! हडबडाकर सीट के बगल में बिखरी पत्रिका, सेलफोन, इयर फोन को कांपते हाथों से बटोर कर बैग में ठूसने लगी . मेरा बाबास्ता पहली बार था ... भूत को सुनने का... उसे इतने करीब से देखने का ... . उसके गाली-गलौच से भरी भाषा के गलगाजी में डूबे मेरे मन को अब जाकर भान पडा... वह औरत बीच- बीच में नीम के पेड का जिक्र क्यूॅं करते आ रही थी !! दिन में देखे भूतप्रेतों के फिल्म ही काफी थे मुझे रातभर डराने के लिये . लेकिन यहाॅं तो लाइव टेलीकास्ट चल रहा था . उस औरत का चेहरा सामने की ओर था . उस रात में भी, डरता मन यह कह रहा,  था ... झुककर उसके चेहरे को देखॅूं .... भूत सवार औरत दिखती कैसी है ...? बस में अंधेरा भी भरा था और अनजान भय ने भी मुझे रोके रखा . सामने के सीट के रेलिंग पर दोनो हथेलियों का मुठ्ठी बांधकर हाथ पैर अकडाये खडी उस औरत को लांघकर मैं दूसरी जगह  जाऊ  भी तो कैसे...? तभी एक और जुमला उसके मुॅंह से ऐसे उछला .... इतना भद्दा इतना अश्लील .... जिससे उसके सास -ससुर और पति की निर्विकारता टूटे या न टूटे अगल -बगल के कुछाध बस के पैसिंजरों की निर्विकारता जरूर टूट गयी .

बस के सामने के कोने की सीट से एकपुरूष की आवाज जलती फुलझडी की तरह सुरसुरा गयी  .. ‘‘
हेण्ण्मक्कळु ...  हिंग माडद छोलो अल्ला ... ‘‘ . औरत जान... क्या ऐसा करे तो अच्छा लगता क्या .. इसके सुनने की देरी थी, कि पिछले सीट के दायें कोने से एक स्त्री की आवाज पटाखे की तरह फूट पडी .... ‘‘ हेंगसरंदर थोडे माना मर्वादी... ब्याड एन ...‘‘ ?  औरतों का ऐसा न करने की पुरूष के हिदायत के साथ उठी स्त्री की आवाज ने औरत की मर्यादाहीन व्यवहार पर बडा सा प्रश्न चिन्ह लटका दिया . तभी बडबडाती बूढी सास ने अपनी हथेली को एक अजीब अंदाज में हिलाती , भीतर ही भीतर झुलसती रस्सी  की तरह करकाये मुॅंह से अपनी ओर से जुमला टीप दिया  ‘‘ एल्ला ना कंडीनी... सुटगोंड सुडगाड सेरिद्रु... नन्न जीवा हिंडताळ अकी ‘‘ . ;सब मै जानती हूॅं, मरकर मरघट भरने पर भी मेरा जान खाती है ओ.. द्ध उस बुढिया के नाटकीय हावभाव, और प्रतिक्रिया से मेरे चेहरे का भय धुलकर हल्की सी हॅंसी तारी होने लगी . अपने बहू के भीतर की बहू से आक्षेप जता रही थी वह बुढिया . तभी बहुत देर से सुरसराते पडा पटाका हवा लगने से अचानक फटने के अंदाज में सामने से बेटे और ससूर की चुप्पी फटपडी . .  इस बीच उस औरत का गला कुछ भारी पड गया . लगातार गलेपर जोर देकर चिल्लाने से शायद आवाज की पेटी दब गयी होगी ... भला गला  भी कितनी देर काम करे .. ?


इस हडबडी से कुछ राहत मिलने से मेरे मन में सवाल एक -एक कर उठने लगे . तो क्या स्त्री मुक्ति स्त्री स्पेस के सारे अकादमिक चर्चाओं में औरत के भूत औरत की अवस्था को जोडना भी अनिवार्य है ? यह प्रश्न गंभीर भी था, साथ ही उतना ही व्यंग्य और हास्यास्पद . तो क्या औरत से जुडी मर्यादाएॅं उसके भूत बनने के बाद भी उसका पीछा नहीं छोडेंगी . सामाजिक सलीके क्या स्त्री भूत को भी पालना होगा ? कंडक्टर की सीटी की आवाज से साथ ही बस की एक्सिट् के दरवाजे की बत्ती के जलने से मेरी विचार सारणी  टूट गयी . जेवर्गी ... जेवर्गी कहते कंडक्टर पैसजर को नीचे उतारने लगा . अरे यह क्या.... मैंने देखा..  बस के रूकने की देरी न थी... अब तक अपना घर पीछे छूट जाने को लेकर अंटशंट बकते हुये बिफर रही वह बागी औरत, विधेय गाय की तरह अपने कपडे के बैग को बगल में दबाये, सास के पीछे -पीछे रास्ता बनाते हुये सीढियाॅं उतर कर सबकी  आॅंखों से ओझल हो गयी . पीछे से कंडक्टर को टिकट थमाकर, बाकी छूट्टे के पैसे के लिये बूढा बस का दरवाजा थामे खडा था . बस के नीचे से बेटे ने आवाज देकर कहा ‘‘ यप्पा... जल्दी बा....चिल्लर रोक्का मुंदिन अमावस्सीगी इसकोंड्रातू ... गडाने बा ‘‘ उतरने के लिये जल्दी मचाते बेटे को सुनकर छुट्टे , अगली अमावास को लौटाने का वादा कंडक्टर से लेते, अपना धोती टोपी सम्हालते हुये  वह भी नीचे उतर गया . सीटी की आवाज से बस जेवर्गी बस स्टैंड से निकलकर गुलबर्गा हाइवे पर दौडने लगी . तो क्या ये लोग हमेशा से इस बस में इस रास्ते से आते- जाते रहते हैं ? बस का निश्चित जगह पर पहुॅंचते ही उस औरत का वह डरावना व्यवहार इन सभी के लिए क्या मामूल है ? जिस सहजता और सरलता से वह औरत बस से नीचे उतर ,चली गयी थी उतनी ही गंभीर और गुंथे हुवे प्रश्नों के जाल मेरे मन में फैलते जा रहे थे.

कहीं  कंडक्टर फिर से बत्ती न बुझा दे... मैंने अपनी सीट से थोडा सरकते हुए. कंडक्टर की ओर मुॅंह करके पूछ ही लिया ‘‘ तो क्या यह औरत हमेशा .... इस तरह ... भूत... का... चढना ...यानी  उसका ....इस तरह . चिल्लाना ...? कंडक्टर की अजीब सी हॅंसी से जाहिर हो रहा था कि मैं अपनी अज्ञानता मूर्खता को सरेआम जाहिर कर रही हूॅं . फिर भी मेरे पूछने के अंदाज और व्यवहार से कुछ सहज होकर शिष्टता बरतते हुए कहने लगा . ‘‘ मैडम.....लगभग तीन महीने से मेरी डयूटी लगी है इस रूट पर . तब से यही नाटक देख रहा हूॅं . ‘‘  मेरे अगले प्रश्न के पूछे जाने के अंदाज को भांपकर फिर उसकी हॅंसी उसके मूॅंछों में ही खिलगयी . कहने लगा ‘‘ ओ बस्या साला अब तीसरी शादी करेगा . साला बांझा कहीं का...मादर...चो... ‘‘ आदतन मुॅंह से निकली गाली को जरा भीतर की ओर दबाते फिर कहने लगा ‘‘ बेचारी वो जलकर मर गयी . इधर पास के फरताबाद के, मेरे ही गाॅंव के हैं ये लोग मैंडम . अबकी बार ,ये बूढे खूसट रिश्ते की लडकी से बस्या की फिर से शादी बनाने के पिल्यान में हैं . ‘‘ फिर एक कडवे गाली का भभका उसके होंटों पर ही तैर कर रह गया . मैं फिर कुछ और पूछना चाह रही थी लेकिन लगा फिर से कहीं वह मूॅंछों में ही न हॅंस दे. मैं थोडी देर चुप रही . अगले ही क्षण लगा ... एक और बार ही सही ... चलो पूछ ही लूॅं ... . जलकर मरी औरत....!! औरत के देह चढकर बोल रही भूत  औरत....!! घंटेभर का ड्रामा करके सबको धता बताकर सहजता से बस से उतर जाने वाली औरत !! ओफ् हो... एक औरत के  भीतर कितनी औरत... !!


अनजान ही मेरे मुॅंह से उद्गार निकल पडा .... बेचारी औरत !! मेरे प्रश्न किये बिना ही इस बार कंडक्टर ने , मूंछोंवाली अपनी उसी हॅंसी से मेरी ओर देखते कहा. ‘‘ काय की बेचारी औरत मैडम ...तुमे नै मालूम ... ये सब उसका नाटक है नाटक . बडी खांटी है वह औरत . जब से बस्या की शादी की बात सुनी है ,तब से बोलती है उसके आंग में बस्या की पैली औरत का भूत सवार हुआ है ... और  बडे मजे से, बस्या और उन खडूस बुढ्ढों को हर अमावास्या चक्कर कटवा रही है ... मरघट का ...साला बस्या को अच्छा पाला पडा इस बार .... हा... हा .... हा ..... !! हॅंसते ही उसने जोर से सीटी मार दी . बस की सारी बत्तियाॅं बुझ गयी . बस में फिर से नीम अंधेरा छा गया . कंडक्टर की हॅंसी का उजास सारे बस में पसरने लगा . रात के नौ.... सवा नौ का वक्त होगा . अपनी बस ...गुलबर्गा की ओर मुंह  किये दौड रही थी . एक मुक्त खुला -खुला सा बोध मेरे मन में भी दौडने लगा. बस की रफ्तार से खिडकी से ठंडी हवा भीतर बहकर आ रही थी . मैने अपना सर पिछले सीट पर टिका दिया . खिडकी से देखा ... अंधेरे में जैसे अंधेरे भरे मंजर दूर -दूर छूटे जा रहे थे . मेरे मुॅंह से अनायास ही निकल पडा  ‘‘ ... चलो जिंदा औरत तो औरत के काम आये न आये, औरत भूत तो औरत के काम आ गयी ''  . सर उठाकर अगल बगल में झांका ... कहीं कोई  सुन तो नहीं लिया ..? सभी को इत्मिनान से उॅूॅंघता हुआ पाकर ...  मैने भी आॅंखें मूॅंद ली... . मेरी आॅंखों के सामने वही औरत सर पर के पल्लू की छोर को दाॅंतों में खोंसे , मुस्कुराते हुये खडी थी . कुतरे हुये पापड....मूगॅंफली  का स्वाद अबतक उसके चेहरे पर लरज रहा था !! कहीं दूर..... नूरजहाॅं, फैज के नगमों को फिर से गाने लगी.... !! दूसरे ही अंदाज मे.... !! मुझसे पहली सी मोहब्बत ... मेरे मेहबूब न माॅंग ... !!

महिलाओं द्वारा हासिल प्रगति ही समुदाय की प्रगति: डा. आंबेडकर: महिला आरक्षण बिल, आठवी क़िस्त

महिला आरक्षण को लेकर संसद के दोनो सदनों में कई बार प्रस्ताव लाये गये. 1996 से 2016 तक, 20 सालों में महिला आरक्षण बिल पास होना संभव नहीं हो पाया है. एक बार तो यह राज्यसभा में पास भी हो गया, लेकिन लोकसभा में नहीं हो सका. सदन के पटल पर बिल की प्रतियां फाड़ी गई, इस या उस प्रकार  से बिल रोका गया. संसद के दोनो सदनों में इस बिल को लेकर हुई बहसों को हम स्त्रीकाल के पाठकों के लिए क्रमशः प्रकाशित करेंगे. पहली क़िस्त  में  संयुक्त  मोर्चा सरकार  के  द्वारा  1996 में   पहली बार प्रस्तुत  विधेयक  के  दौरान  हुई  बहस . पहली ही  बहस  से  संसद  में  विधेयक  की  प्रतियां  छीने  जाने  , फाड़े  जाने  की  शुरुआत  हो  गई थी . इसके  तुरत  बाद  1997 में  शरद  यादव  ने  'कोटा  विद  इन  कोटा'  की   सबसे  खराब  पैरवी  की . उन्होंने  कहा  कि 'क्या  आपको  लगता  है  कि ये  पर -कटी , बाल -कटी  महिलायें  हमारी  महिलाओं  की  बात  कर  सकेंगी ! 'हालांकि  पहली   ही  बार  उमा भारती  ने  इस  स्टैंड  की  बेहतरीन  पैरवी  की  थी.  अंग्रेजी से हिन्दी अनुवाद पूजा सिंह और श्रीप्रकाश ने किया है. 
संपादक

अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस की सौंवी वर्षगांठ ( 8 मार्च 2010) 

 डी. राजा (तमिलनाडु):धन्यवाद महोदय. महोदय,  मेरी पार्टी - भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी - इस ऐतिहासिक कानून के प्रति अपना पूरा समर्थन व्यक्त करती है. इस अवसर पर मैं महिला नेताओं की पंक्ति में मौजूद प्रख्यात सांसदों में से एक कॉमरेड गीता मुखर्जी को अपनी तरफ से लाल सलाम - रेड सैल्यूट – करना पसंद करूंगा, जिन्होंने इस देश में महिला आरक्षण के मुद्दे को समर्थन देने में अग्रणी भूमिका निभाई थी. महोदय, जो यह सम्माननीय सदन आज कर रहा है, वह भारतीय महिलाओं को कुछ दान नहीं दे रहा है, बल्कि देश की निर्णय लेने वाली संस्था में उनका उचित स्थान प्रदान कर रहा है. महोदय, किसी भी समाज के एक सभ्य राष्ट्र के रूप में विकसित होने के लिए जेंडर समानता और महिला सशक्तिकरण मूलभूत आवश्यकताएं हैं. यह एक संविधान संशोधन विधेयक है. आदरणीय सदन में इस विधेयक पर चर्चा कर रहा है. भारतीय संविधान के मुख्य वास्तुकार, डॉ. अम्बेडकर के साथ क्या हुआ है, मैं इस सदन को याद दिलाना चाहूंगा. दलित वर्गों की हजारों महिलाओं के एक समूह को संबोधित करते हुए 18 जुलाई, 1927 को डॉ अम्बेडकर ने कहा था, "मैं महिलाओं द्वारा हासिल की गई प्रगति की डिग्री से ही समुदाय की प्रगति का अंदाज लगाता हूं."डॉ. अम्बेडकर ने यही कहा है. वही डॉ. अम्बेडकर 11 अप्रैल 1947 को हिन्दू कोड बिल लाते हैं. विधेयक पर चर्चा 1951 तक चलती रही. दुर्भाग्य से वह क्रांतिकारी विधेयक पारित नहीं हो सका. बढ़ते विरोध को देखते हुए, तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री जवाहर लाल नेहरू ने बिल छोड़ने का फैसला किया. डॉ. अम्बेडकर इतने निराश हुए कि उन्होंने श्री नेहरू के मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया था. इस्तीफा देते वक्त  डॉ. अम्बेडकर ने कहा था, "हिंदू कोड बिल की हत्या कर दी गई और उसे बिना जांचे और गुमनामी में उसे दफन कर दिया गया."महोदय, माननीय प्रधानमंत्री यहां बैठे हैं. मैं प्रधानमंत्री को बताना चाहूंगा कि उनको श्री पंडित जवाहर लाल नेहरू जैसी स्थिति को नहीं स्वीकार करना चाहिए. हमारे प्रधानमंत्री, हमारे पूरे समर्थन के साथ, संसद के दोनों सदनों द्वारा विधेयक पारित करने में सक्षम रहेंगे और जल्द ही यह देश का एक अधिनियम बन जायेगा. इसके अलावा, मैं दो मुद्दों पर बोलना चाहूंगा. पहला मुद्दा है: मैं इस विधेयक का विरोध कर रहे सभी राजनीतिक दलों से अपील करता हूं. वे अन्य पिछड़ा वर्ग के आरक्षण या आरक्षण के भीतर आरक्षण के सवाल पर विरोध कर रहे हैं. मैं उन्हें बताना चाहूँगा कि तमिलनाडु के माननीय मुख्यमंत्री,  द्रमुक के अध्यक्ष,  श्री करुणानिधि और बिहार के माननीय मुख्यमंत्री श्री नीतीश कुमार ने एक समझदारी भरा सुझाव दिया है. उन्होंने कहा है कि विधेयक को पारित होने दें और उन मुद्दों पर बाद में चर्चा की जा सकती है. विरोध करने वाले दलों की यही भावना होनी चाहिए. फिर, महोदय, मैं एक और मुद्दा रखना चाहता हूं. यह अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के आरक्षण का मुद्दा है. विधेयक का कहना है कि पंद्रह वर्षों तक हर पांच साल बाद रोटेशन हो सकता है. अपने जवाब के दौरान माननीय कानून मंत्री,  एक मुद्दे को संबोधित कर सकते हैं और सरकार को आने वाले दिनों में इस मुद्दे पर विचार करना होगा. वह मुद्दा है -  संविधान अनुच्छेद 334 में संशोधन करना जो अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के आरक्षण से संबंधित है. यह सरकार के सामने एक चुनौती के रूप में दिख सकता है, क्योंकि हर दस साल बाद हम आरक्षण को नवीनीकृत करते हैं. लेकिन, इस ऐतिहासिक कानून को मजबूत करने के लिए, यह अनुच्छेद 334 में कुछ संशोधन की आवश्यकताहो सकती है.


डी. राजा (जारी): अगर कोई विरोधाभास है तो मुझे अच्छा लगेगा कि कोई मुझे सही करे; और, कानूनी विशेषज्ञों से परामर्श किया जाना चाहिए. अन्य मुद्दा है कि मैं कानून को हर बात का अंत नहीं मानता हूं. यह सिर्फ महिलाओं को उनके व्यापक विकास के लिए, उनके राजनीतिक सशक्तिकरण के लिए, उनके आर्थिक सशक्तिकरण के लिए, उनके सांस्कृतिक और सामाजिक सशक्तिकरण के लिए अवसर एवं स्थान देने की शुरुआत है. जेंडर समानता पूरे संसद और पूरे देश का उद्देश्य होनी चाहिए. इन शब्दों के साथ मेरी पार्टी पूरी तरह से इस विधेयक का समर्थन करती है.

उपसभापति:माननीय सदस्य,  अन्य लोगों में,  लगभग सोलह नाम हैं. उनमें से कुछ छोटे दलों ने अपने सभी सदस्यों के नाम दिए हैं. लेकिन, हम केवल एक ही नाम लेगें, प्रत्येक पार्टी से एक नाम लेगें. तो, प्रत्येक सदस्य के लिए केवल तीन मिनट संभव हैं. अब श्री मलीहाबादी! आपके पास केवल तीन मिनट हैं.

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महिला आरक्षण को लेकर संसद में बहस :पहली   क़िस्त

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महिला आरक्षण को लेकर संसद में बहस: दूसरी क़िस्त 

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महिला आरक्षण को लेकर संसद में बहस :तीसरी   क़िस्त

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 वह इतिहास, जो बन न सका : राज्यसभा में महिला आरक्षण

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महिला संगठनों, आंदोलनों ने महिला आरक्षण बिल को ज़िंदा रखा है : वृंदा कारत: पांचवी  क़िस्त


एम. वी. मैसूरा रेड्डी (आंध्र प्रदेश) : श्रीमान उपसभापति महोदय, मैं तेलुगू देशम पार्टी की ओर से बात करने के लिए मौजूद हूं. इस ऐतिहासिक बहस में हिस्सा लेने पर मुझे गर्व है. इसमें कोई शक नहीं है कि महिलाओं को सशक्त बनाना जेंडर असमानता और भेदभाव को दूर करने के एक अनिवार्य उपकरण के रूप में काम करेगा. महात्मा गांधी ने ठीक ही कहा था, "पुरुष की शिक्षा अपने खुद की शिक्षा है, जबकि औरत की शिक्षा समाज की शिक्षा है. मैं दृढ़ता से महसूस करता हूं कि महिला सशक्तिकरण केवल खुद को सशक्त बनाने के लिए नहीं है बल्कि समाज को भी सशक्त बनाने के लिए है."हमारी पार्टी पूरी तरह से,  पूरे दिल से संविधान संशोधन विधेयक का समर्थन करती है, और यह कहना दायरे से बाहर नहीं होगा कि यह तेलुगू देशम पार्टी ही थी जिसने सबसे पहले स्थानीय निकायों महिलाओं के लिए आरक्षण लागू किया था और एनटीआर  आंध्र प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री थे, जिन्होंने 1986 में महिलाओं को संपत्ति का अधिकार दिया था. मैं इस सम्मानित सदन की जानकारी में लाना चाहता हूं कि हमारी पार्टी पिछड़े वर्गों की महिलाओं और अल्पसंख्यक समुदाय के लिए भी आरक्षण के लिए प्रतिबद्ध है. अगर सरकार आधिकारिक संशोधन भी आगे कदम बढ़ाती है तो हमारी पार्टी उस आधिकारिक संशोधन का समर्थन करेगी. हमारी पार्टी पूरे दिल से इस संविधान संशोधन विधेयक का समर्थन करती है. धन्यवाद.

 माया सिंह (मध्य प्रदेश) : आदरणीय उपसभापति जी, मुझे याद है आज से 22 साल पहले पंचायती राज संस्थाओं के माध्यम से, महिलाएं राजनीतिक क्षेत्र में गांव-गांव तक मज़बूती के साथ उभरकर आएं, इसकी पहल की गई थी और बाद में 1992 में 73वां संविधान संशोधन कर केंद्र सरकार ने पंचायती राज में एक-तिहाई महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित की थी.  उस वक्त यह एक क्रांतिकारी पहल थी और इसके माध्यम से महिलाओं का एक नया स्वरूप राजनीति में उभरकर सामने आया. बिहार सरकार ने इसके अच्छे परिणामों  के कारण पंचायतों में महिलाओं का आरक्षण 33 प्रतिशत से बढ़ाकर 50 प्रतिशत कर दिया और इसका अनुसरण अन्य प्रदेशों ने भी किया, जिसमें मध्य प्रदेश, उत्तराखंड,हिमाचल प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, केरल और गुजरात की राज्य सरकारें शामिल हैं. इस आरक्षण के कारण ही गांवों के स्तर पर एक ओर तो महिलाओं में उम्मीद से ज्यादा जागरूकता पैदा हुई, दूसरी ओर पढ़ी-लिखी और अनपढ़, दोनों ही तरह की महिलाओं की नेतृत्व क्षमता भी सामने उभरकर आई. यह महिलाओं की इच्छाशक्ति और लगनशीलता का प्रतीक है कि आज गांवों में महिलाएं अपने पैरों  पर खड़ी हैं और राजनीतिक क्षेत्र में अपनी बढ़ी हुई जिम्मेदारी का बखूबी निर्वहन कर रही हैं. वे घर के चौके-चूल्हे से लेकर प्रदेश के विकास में भी हाथ बंटा रही हैं. उपसभापति जी, अभी हाल ही में मध्य प्रदेश में पंचायतों के, स्वायत्त संस्थाओं के जो नगरीय चुनाव हुए हैं, मुझे यह बताते हुए प्रसन्नता हो रही है कि 50 प्रतिशत आरक्षण के कारण गांवों में और शहरों में विकास की बागडोर 2,00,000 से ज्यादा महिलाओं के हाथ में आई है. वहां 1,80,000 से ज्यादा महिलाएं पंच बनी हैं, 11,520 महिलाएं सरपंच बनी हैं, 3,400 महिलाएं जनपद की सदस्य बनी हैं, 415 महिलाएं जिला पंचायत की अध्यक्ष हैं, 25 महिलाएं जिला पंचायत महिला अध्यक्ष बनी हैं, 1,780 महिलाएं पार्षद चुनकर आई हैं और हमारे यहां 8 महिलाएं नगर निगम की महापौर बनी हैं, जिसमें भोपाल में सामान्य महिला की जो सीट आरकि्षत थी, उस पर ओ.बी.सी. की महिला महापौर चुनकर आई है. ये आंकड़े बताते हैं कि यह कितना क्रांतिकारी बदलाव है. उपसभापति जी, भारतीय जनता पार्टी  ने तो सर्वप्रथम विधान सभा और संसद में महिलाओं की 33 प्रतिशत आरक्षण की शुरुआत बड़ौदा राष्ट्रीय परिषद में जून, 1994 में प्रस्ताव पास करके की.  महोदय, उस समय महिलाओं को यह जानकारी भी नहीं थी कि महिलाओं को राजनीतिक क्षेत्र में अधिकार सम्पन्न बनाने के लिए इस तरीके का कोई प्रस्ताव हमारी पार्टी पास करेगी, लेकिन भारतीय जनता पार्टी ने महिलाओं के लिए यह प्रस्ताव पास किया और इसके बाद हमारी पार्टी  ने संगठन में 33 प्रतिशत आरक्षण महिलाओं को देकर राजनीति में आगे बढ़ाने का काम पहले से ही शुरू कर दिया. मुझे याद है कि एन.डी.ए. के कार्यकाल में दो बार पूर्व प्रधान मंत्री, अटल बिहारी वाजपेयी जी ने इस विधेयक को पास कराने के लिए आम सहमति बनाने के प्रयास किए और सुषमा स्वराज जी, जो उस समय पार्लियामेंट री अफेयर्स मिनिस्टर थीं , उन्होंने  इसके लिए बेहद परिश्रम किया और इसे संसद में चर्चा के लिए रखा, पर उस वक्त हमें सफलता नहीं मिली. महोदय, इस महिला आरक्षण विधेयक का मेरी पार्टी समर्थन करती है. भारतीय जनता पार्टी  हमेशा ही महिलाओं को संसद और विधान सभाओं में आरक्षण देकर उन्हें समाज की मुख्य धारा में निर्णायक भूमिका देने की पक्षधर रही है.


 माया सिंह (क्रमागत) : हम कोई राजनैतिक खेल खेलना नहीं चाहते और न ही श्रेय लेने की होड़ में इस विधेयक में रोड़ा डालना या अवरोध पैदा करना चाहते हैं, बल्कि जो दल विरोध कर रहे हैं, उनसे भी मेरा आग्रह है कि महिला आरक्षण विधेयक में संशोधन और सुधार की गुंजाइश हमेशा हो सकती है. संसद में बहस के दौरान सभी दल अपनी भावनाओं और विचारों  को रखते हुए विधेयक में उसे समाहित करने का प्रयास करें. लेकिन मेरा यह भी आग्रह है कि इस विधेयक को उसके वर्तमान स्वरूप में ही पास कराया जाए. आने वाले समय में अनुभव के आधार पर विधेयक में संशोधन और परिमार्जन किए जाने की संभावना सर्वथा बनी रहेगी. उपसभापति महोदय, पिछले कई वर्ष से संसद में महिला आरक्षण विधेयक लमि्बत रहने से आम जनता में यह संदेश जा रहा है कि हमारी संसद महिलाओं के अधिकारों  के प्रति संवेदनशील नहीं है जबकि वास्तविकता यह है कि इसी संसद ने महिलाओं के हितों और अधिकारों  की रक्षा तथा उनकी तरक्की के लिए कई कानून बनाए हैं. इसीलिए मेरी सबसे यह अपील है, मैं सबसे यह आग्रह करना चाहती हूं कि सब इस विधेयक के प्रति उदार भाव रखें ताकि इसके पारित होने की सूरत उभर सके. महोदय, भारतीय जनता पार्टी  शुरू से ही इस विधेयक की पक्षधर रही है. आज, जब सदन में यह विधेयक प्रस्तुत हुआ है और इस पर मैं अपनी बात रख रही हूं तो इस विधेयक पर अपने विचार रखते हुए मैं स्वयं को गौरवानि्वत महसूस कर रही हूं. लेकिन दो दिन का जो घटनाक्रम था, उसने जो पीड़ा पहुंचाई है, अगर हम पहले से इसका थोड़ा सा होमवर्क  कर लेते तो शायद ऐसी कटुतापूर्ण सि्थति न आती अौर हमें उन भाइयों  का, उन दलों  का समर्थन भी मिलता, या उनकी सहमति भी हो सकती. ..(समय की घंटी).. एक जिम्मेदार विपक्ष के रूप में हम आज इस विधेयक का जिस तरीके से समर्थन कर रहे हैं....

उपसभापति : माया सिंह जी, अभी आपकी पार्टी  से एक और मैंबर बोलने वाले हैं

माया सिंह : मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि कांग्रेस पार्टी  भी उसी जिम्मेदारी का परिचय देकर इस विधेयक का समर्थन करती तो एनडीए के शासनकाल में ही यह विधेयक पारित हो गया होता और इसका लाभ हमारे देश की महिलाएं ले रही होतीं. उसके खिलाफ यदि कड़ी कार्रवाई नहीं होगी, तो भविष्य में भी यह विधेयक भारतीय लोकतंत्र की मजबूती की दिशा में एक ऐसा ऐतिहासिक कदम है, जो हमारे संविधान निर्माताओं के उस सपने को मूर्त रूप देगा, जो महिलाओं और पुरुषों के बीच में गैर-बराबरी को मिटाने की हसरत रखता था.
मुझे यह बताने की जरूरत नहीं है कि भारतीय समाज में महिलाएं किस तरीके से अत्याचार, शोषण, उत्पीड़न और दूसरी नागरिकता का शिकार रही हैं. ..(समय की घंटी).. संसद के भीतर और बाहर महिलाओं के हितों और अधिकारों  की रक्षा के जो भी प्रयास हुए हैं, उनमें से महिला आरक्षण विधेयक एक ऐसा मील का पत्थर साबित होगा जो उन्हें राजनैतिक और शासन चलाने की प्रक्रिया  में अधिकार सम्पन्नता के साथ सबद्ध करता है. दुनिया भर में चल रहे नारी मुक्ति आंदोलन और स्वतंत्रता आंदोलनों से भी आगे बढ़कर यह महिलाओं को अधिकार देगा. सर, आजाद भारत के इतिहास में महिलाओं को मजबूत करने का, महिलाओं के सशक्तिकरण का हमारा इतिहास रहा है. आज जब संसद में महिलाओं को यह कानूनी अधिकार मिलने जा रहा है, मुझे इस बात की प्रसन्नता है कि मेरी पार्टी इस ऐतिहासिक प्रसंग की मूक गवाह नहीं है, बल्कि इसकी सक्रिय भागीदार बनने जा रही है. मैं अपनी पार्टी की ओर से इस महिला आरक्षण विधेयक का पुरजोर समर्थन करती हूं और अन्य दलों  से अपेक्षा करती हूं तथा उनसे आग्रह करती हूं कि वे भी इस विधेयक का समर्थन करें ताकि यह विधेयक सर्वसम्मति से पास हो. आपने मुझे बोलने का अवसर दिया, इसके लिए आपका बहुत-बहुत धन्यवाद.

डॉ.  कपिला वात्स्यायन (मनोनीत) :  श्रीमान उपसभापति महोदय, मैं यहाँ राज्यसभा के मनोनीत सदस्यों की ओर से बोल रही हूं. हमारा संबंध किसी दल से नहीं है, बल्कि मानव जाति से है. इस महत्वपूर्ण क्षण में,  जो कुछ मैं कह सकती हूं वह राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का एक वाक्य है जो मैं इस सदन को याद दिलाना चाहूंगी. यह वाक्य जब यूनेस्को की शुरुआत हुई थी,  तब 1946 में उन्होंने जूलियन हक्सले को लिखा था. उन्होंने कहा था, "मैं अपने अनपढ़ परन्तु बुद्धिमान माँ से अधिक सीखा है. इस दुनिया में शांति कैसे लाई जाये, यह मैंने मेरी अनपढ़ मां से अधिक सीखा है''.

डॉ.  कपिला वात्स्यायन (जारी):  आज, मुझे लगता है कि अनपढ़ माताएं हो या साक्षर माताएं,  उनको एक सभ्य समाज बनाना ही होगा; एक ऐसा सभ्य समाज जो, अपनी खुद की सहज प्रकृति में,  उस तरह की कार्रवाई में लिप्त नहीं हो सके जैसा हमने कल देखा है. इन शब्दों के साथ, महोदय, मैं कहती हूं कि यह एक महत्वपूर्ण क्षण है, लेकिन जो हमने कानून में दिखाया है उसे कारवाई में दिखाना की जिम्मेदारी हमारे ऊपर है. आपको धन्यवाद,  उपसभापति महोदय.


सरदार तरलोचन सिंह  (हरियाणा) : शुक्रिया  डिप्टी चेयरमेन साहब, आज इस हाउस को यह श्रेय जाता है कि हम यह हिस्टोरिक बिल पास करने जा रहे हैं. अभी किसी सदस्य ने कुछ कहा, किसी ने कुछ कहा, लेकिन इस बिल की हिस्ट्री यह है कि 1997 में जब श्री इन्द्र कुमार गुजराल प्राइम मिनिस्टर थे, तो पहली बार यह बिल लाया गया, दो बार श्री अटल बिहारी वाजपेयी जी भी लाए, लेकिन पास नहीं हुआ. अब जब इस हाउस में आया तो एक कमेटी बनाई गई, पार्लियामेंट्री स्टेंडिंग कमेटी ने इस पर दो साल काम किया, जिसका श्रेय इस कमेटी को जाता है. इस कमेटी के पहले चेयरमेन श्री नाच्चीयप्पन थे और फिर श्रीमती जयन्ती नटराजन चेयरमेन बनी. मैं भी उस कमेटी का मेंबर था. इस कमेटी ने पूरे देश में जाकर अध्ययन किया और आज यह बिल आया है. मैं धन्यवाद देता हूं प्रधानमंत्री जी और लीडर ऑफ दि अपोजीसन  को कि आज हमारा हाउस इस बिल को पास करने जा रहा है, इसलिए ये दोनों बधाई के पात्र हैं. हम सारे लोग इकट्ठे होकर इसको आज पास कर रहे हैं. लेकिन मैं एक और बात भी कहना चाहता हूं कि गुरु नानक देव जी ने 540 साल पहले हिन्दुस्तान में यह जो सोशल रिवोल्यूशन जिसका आज आप जिक्र कर रहे हैं, उन्होंने  कहा था कि :
 "सो क्यों  मन्दा आखिए जित जम्मे राज़ान"
 वह लेडी जो किंग सेंट को पैदा करती है, वही सबसे ज्यादा सम्मान की पात्र है. मझे खुशी है कि आज गुरु नानक देव जी के गिरोत्री डा0 मनमोहन सिंह आज इस बिल को पास करवा रहे हैं. मैं ज्यादा बातें न कहता हुआ, क्यों कि समय कम है, पंजाब और हरियाणा में यह बिल अमली तौर पर  ऑलरेडि अपने मन से किया हुआ है. पंजाब में लोक सभा की 13 सीटों में से तीन वूमेन इलेक्ट हुईं, जिसमें 33 परसेंट हो जाता है. हरियाणा में 10 सीटें हैं, जिसमें दो वूमेन इलेक्ट हुईं. तो ऑलरेडि पंजाब और हरियाणा इसकी तरफ चल रहा है. हरियाणा की कल्पना चावला astronaut भी बनी. तो औरतों के प्रति सम्मान में हमारे यहां कोई कमी नहीं है. चौधरी देवी लाल को श्रेय जाता है कि सबसे यंगेस्ट सुषमा स्वराज जी को मंत्री बनाया. आज सुषमा स्वराज जी जिस सीट पर बैठी हैं उसका श्रेय चौधरी देवी लाल को जाता है. मैं यह ही नहीं, यह भी कहना चाहता हूं कि इस बिल में जब कमेटी ने काम किया तो कई सुझाव आए. इसमें यह सुझाव भी आया कि सीटें बढ़ाओ और डबल सीटें करो. यह भी सझाव आया कि अपोजिशन पार्टी  को यह मांग करो. लेकिन एक सझाव यह भी आया कि जो आज डिमांड ओ0बी0सी0 के बारे में है, इसको आप स्टेट्स को दे दें. जैसे पंचायती राज में हर स्टेट को पॉवर है और अगर वह चाहे तो ओ0बी0सी0 की सीटें कर सकता है. तो इस बिल में भी यह प्रोविजन हो सकता है, तो यह किया जाए. महोदय, मैं एक और बात बिना कहे नहीं रह सकता हूं. जब आज लेडीज के नाम पर हम सब कार्य कर रहे हैं तो प्रधानमंत्री जी, सिख लेडीज की छोटी सी बात पैंडिंग पड़ी हुई है. मझे खुशी है कि लॉ मिनिस्टर साहब ने तथा पिछले लॉ मिनिस्टर साहब ने भी प्रोमिस किया था कि आनन्द मैरिज एक्ट जिसमें सिखों  की मैरिज होती है, उसमें रजिस्ट्रेशन क्लॉज नहीं है. इतनी छोटी सी मांग जो मैं यहां तीन साल से पेश कर रहा हूं, पूरी नहीं हुई है. इस बारे में तमाम सिख मेंबर पार्लियामेंट  ने भी कहा है, आज लॉ मिनिस्टर साहब बैठे हैं, उसका भी आज यहां वूमेन डे पर ऐलान कर दो, ताकि सिख लेडीज भी आपका धन्यवाद करें. धन्यवाद.

मनोहर जोशी (महाराष्ट्र): महोदय, सदन के समक्ष विचार के लिए प्रस्तुत विधेयक वास्तव में एक महत्वपूर्ण विधेयक है. मुझे सदन को याद दिलाना चाहिए कि यही विधेयक 1996 में लोकसभा में आया था.

मनोहर जोशी (जारी): मुझे याद है कि जब उस सदन में बहस शुरू हुई थी, तब महाराष्ट्र विधानसभा ने सर्वसम्मति से एक प्रस्ताव पारित कर दिया था जो मेरे द्वारा मुख्यमंत्री के रूप में लाया गया था और उस प्रस्ताव में कहा गया था कि महिला आरक्षण विधेयक न केवल महाराष्ट्र राज्य द्वारा समर्थित होना चाहिए,  बल्कि देश के सभी विधानसभाओं द्वारा उसे समर्थन मिलना चाहिए. और, इसलिए, मुझे यह स्पष्ट कर देना चाहिए कि यह विधेयक, लंबे समय से, 1996 से ही, मेरी पार्टी द्वारा स्वीकृत है. इसलिए, हमारे सामने कोई सवाल नहीं था कि हमें विधेयक का समर्थन करना चाहिए या विधेयक का विरोध करना चाहिए. महोदय, मुझे याद है कि जब भी इस विधेयक को चर्चा के लिए संसद में आया, मेरे पार्टी प्रमुख श्री बालासाहेब ठाकरे, ने हमेशा हमें विधेयक के पक्ष में मतदान करने के लिए कहा था. शुरू से बस मेरी पार्टी की एक ही मांग थी कि महिलाओं के लिए विशेष निर्वाचन क्षेत्र आरक्षित नहीं किया जाना चाहिए. हम चाहते थे कि जैसाकि विपक्ष के नेता पहले ही कह चुके हैं, महिलाओं के लिए निर्वाचन क्षेत्रों के आरक्षण के बारे में निर्णय सभी राजनीतिक दलों द्वारा लिया जाना चाहिए. हर पार्टी को फैसला करना चाहिए और संसद द्वारा आज्ञा पत्र दिया जाना चाहिए कि जो भी पार्टी चुनाव, चाहे वह लोकसभा हो या विधान सभा हो, लड़ती है, तो 33 प्रतिशत उम्मीदवार महिलाएं होनी चाहिए. और, यही वह मुद्दा था जिसके लिए हम सरकार के विभिन्न अधिकारियों से अनुरोध किया था कि विशेष रूप से निर्वाचन क्षेत्रों को आरक्षित करने का अनुभव अच्छा नहीं है क्योंकि चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवार सुनिश्चित नहीं होते कि अगली बार उनका निर्वाचन क्षेत्र आरक्षित रहेगा या नहीं. इसलिए, निर्वाचन क्षेत्र के लोगों के व्यापक हित में,  मैं अभी भी माननीय प्रधानमंत्री से अनुरोध करूंगा क्योंकि मैं कई राजनीतिक दलों बात कर चुका हूं और उनकी भी यही अपेक्षा है कि 33 प्रतिशत का आरक्षण स्वयं राजनीतिक दलों द्वारा किया जाना चाहिए. इसके अलावा, मैंने हमेशा सोचा था कि इस विधेयक को पारित करके,  हम अपनी माँ, बहन और पत्नी के हितों के बारे में विचार करेंगे. इस विधेयक को पारित करने का अर्थ न सिर्फ अपने निर्वाचन क्षेत्र में प्रसन्नता लाना है, बल्कि अपने परिवार में भी खुशी लाना है. और, इसलिए, शिवसेना सदन के समक्ष दृढ़ता से विधेयक का समर्थन करती है और हम उम्मीद करते हैं कि इस विधेयक के पारित होने के बाद देश में महिलाएं राजनीति में गहरी रुचि लेना और जितना संभव हो, सामाजिक काम करना आरंभ कर देंगी. महोदय, इन कुछ शब्दों के साथ, मैं अपनी पार्टी की राय व्यक्त करता हूं कि पूरे सदन को सर्वसम्मति से इस विधेयक को पारित कर देना चाहिए और एक रास्ता बनाने की कोशिश करनी चाहिए जहां निर्वाचन क्षेत्र दलों द्वारा स्वयं ही निर्धारित किये जायें. आपका बहुत बहुत धन्यवाद.

कितनी स्त्रीवादी होती हैं विवाहेत्तर संबंधों पर टिप्पणियाँ और सोच (!)

संजीव चंदन

इन दिनों रुस्तम फिल्म ऑन स्क्रीन है. 60 के दशक में विवाहेत्तर संबंध और पत्नी के प्रेमी की हत्या की सनसनी पर बनी यह फिल्म शायद आज भी क्रेता वैल्यू रखता हो, तभी इसे फिल्माया गया. तब पत्नी के प्रेमी की ह्त्या करने वाले नायक में समाज ने हीरो देखा था, उसपर चले ट्रायल को देखने काफी कुंवारी पारसी लडकियां कोर्ट रूम आती थीं. इस फिल्म पर तो नहीं लेकिन एन डी तिवारी-उज्जवला शर्मा के मसले पर सोशल मीडिया पर एक सरसरी निगाह के जरिये समझते हैं विवाहेत्तर संबंधों पर समाज की समझ को.
                                                                                               
एन. डी तिवारी के डी.एन.ए टेस्ट की रिपोर्टसार्वजनिक होते ही मीडिया से लेकर सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर टिप्पणियों की बाढ़ सी आ गई थी. इन टिप्पणियों में गौर करने वाली बात यह थी कि इनमें महिलाओं का योगदान न के बराबर है. दो परिवारों के बीच विशुद्ध संपत्ति का यह विवाद धीरे -धीरे नैतिकता , सार्वजनिक जीवन की शुचिता , सांस्कृतिक चेतना और कई बार तथाकथित'स्त्रीवादी साहस 'के खांचे में विमर्श का विषय बनता गया था.सवाल है कि इस घटना और घटना से जुडी टिप्पणियों का स्त्रीवादी पाठ क्या हो सकता है ? क्यों स्त्रियाँ उज्ज्वला शर्मा के साहस और उनकी लड़ाई को अपनी लड़ाई के तौर पर चिह्नित नहीं कर पा रही हैं ? क्यों नहीं अदालती जीत को स्त्रीवादी जीत के उत्सव के तौर पर मनाया गया? दरअसल यह पूरी घटना पितृसत्ता के फ्रेम के भीतर ही घटी थी और उसपर टिप्पणियां , पक्ष -विपक्ष की , पितृसत्ता को पुनरुत्पादित करती टिप्पणियाँ ही थी. वैसे पक्ष की टिप्पणियां बहुत कम ही रही हैं, एक दो वेब साईट को छोड़कर , जहाँ एन.डी तिवारी के लोकप्रिय और विनम्र नेता होने की आड़ में उनका बचाव किया गया है और उज्जवला शर्मा पर उन्हें लोभी और लगभग चरित्रहीन कहते हुए प्रहार किया गया था.


इस घटना का या ऐसी ही कई घटनाओं कोजिस प्रकार स्वागत किया जाता रहा है, उनमें रुचि ली जाती रही है , उससे ऐसा लगता है कि भारत के समाज  उच्चतर 'नैतिक अवस्था' में जीते हैं, जहाँ एन.डी तिवारी जैसी दुर्घटनाएं अपवाद स्वरुप घटती हैं और समाज को पथभ्रष्ट करती हैं.जबकि इन घटनाओं के प्रति अतिसंवेदनशील समाजों की हकीकत कुछ और है, दूसरों के यौन गतिविधियों में तांक-झाँक से  दर्शन  रति 'का आनंद लेते समाज की हकीकत , यह एक प्रकार से अन्तःस्थ ( इंटरनलाइज) हो चुका दर्शन -रति सुख ( वोयेरिज्म ) है. समाज में नेताओं के ऐसे ज्ञात -अज्ञात प्रसंगों, अफवाहों के खूब आनंद लिए जाते रहे हैं. चर्चित हस्तियों , खासकर नेताओं के संबंधों की कथाएँ गांवों के चौपाल से लेकर शहरों के कॉफ़ी हॉउस तक खूब होती रही हैं, अब सोशल नेटवर्किंग जैसे उत्तरआधुनिक चौपालों पर भी. इन नेताओं में नेहरु, इंदिरा गांधी से लेकर एन.डी.तिवारी तक शुमार रहे हैं. अभी ज्यादा समय नहीं बिता है जब अटल बिहारी वाजपयी की घोषणा 'मैं क्वारा हूँ, ब्रह्मचारी नहीं,'को पितृसत्तात्मक समाज ने जश्न सा मनाया था,

 हालांकि इस घोषणा के बाद कोईउज्जवला शर्मा सामने नहीं आई. लेकिन क्या ऐसा कहते हुए अटल बिहारी वाजपयी और ऐसा करते हुए एन.डी .तिवारी में कोई विशेष फर्क है ! मीडिया भी समाज के इस द्वैध  को बखूबी इस्तेमाल करता रही है. उसे भी पता है कि अभिषेक मनु सिंघवी , एन.डी.तिवारी से लेकर ऐसी सारी दृश्यरतियों के क्रेता हैं, इसीलिए ताक-झांक के खेल में वह खूब शामिल होती है. कांशीराम जी के तमाचे की गूंज अभी तक मीडिया से गायब नहीं हुई होगी, जब उनके निजी दायरे में 'पीपिंग टॉम'की तरह ताक-झाँक की कोशिश करते एक पत्रकार को उन्होंने गुस्से में एक तमाचा जड़ दिया था. आजकल वे पत्रकार महोदय आम आदमी पार्टी के बड़े प्रभावशाली नेता हैं.  ऐसी घटनाओं पर नैतिक आग्रहों के साथ प्रकट होते समाज के द्वारा वस्तुकरण स्त्रियों का ही होता है , भले ही कुछ प्रतिक्रियाओं की भाषा प्रथम दृष्टया स्त्री के पक्ष में दिखती हो. बिल क्लिंटन को लानते-मलानते भेजते लोगों के लिए 'मोनिका लिविन्स्की'एक जातिवाचक प्रतीक बन जाती है और शक्ति और सत्ता के प्रति प्रशंसक भाव में रहने वाले समाज में एक शक्तिशाली अवस्था की फंतासी बन जाती है.


क्या इसी समाज में विवाहित स्त्री राधाऔर अविवाहित पुरुष कृष्ण के  मिथकीय प्रेम को सम्मान और पूजा भाव नहीं प्राप्त है ? क्या 'लेडी चैटर्ली'के पाठकों की संख्या इसी समाज की हकीकत नहीं है, जो विवाहेत्तर सम्बन्ध की महानतम रचनाओं में से एक है, स्त्री की स्वयं की अस्मिता  को प्रतिष्ठित करता हुआ उपन्यास.  उज्ज्वला शर्मा की तरह की ही एक माँ पौराणिक आख्यानों अथवा महाभारत की कथा में भी है , जिसके पुत्र ऋषि जाबाल के पिता का कोई ज्ञात नाम नहीं है, गुरुकुल में नामांकन के लिए उसकी माँ जाबाला अपना नाम बताती है और ऋषि भी माँ के नाम से ही ख्यात होते हैं. यानी समाज नैतिकता की दोहरी अवस्थाओं में जीता  रहा है . एन.डी तिवारी के लिए आने वाली टिप्पणियाँ इसी मनोसंरचना से आई थीं, यहाँ अंततः उज्जवला शर्मा का वस्तुकरण भी हो रहा था , वे एक प्रतीक बनती गई थीं, एक ऐसी स्त्री का , जो विविध फंतासियों को संतुष्ट कर सकें. यह मानसिकता स्त्रियों को कभी'छिनाल ' , दुश्चरित्र  कहकर अपना फतवा देती है तो कभी अपने विरधी व्यक्ति, समूह या संस्था को लम्पट पुरुष कहकर. सवाल किसी उज्जवला शर्मा का नहीं है , सवाल 'यौनिकता'पर सामजिक सोच  की है. क्या स्वयं को  अपेक्षाकृत अधिक 'चरित्रवान' घोषित करने मनाने वाले चिन्तक समूह में एन.डी तिवारी जैसी बेचैनी नहीं शुरू हो गई थी, जब तसलीमा नसरीन ने एक-एक कर उन पुरुषों के नाम जाहिर शुरू करने शुरू किये थे , जो उनके जीवन में विशेष दखल रखते थे.

उस प्रसंग पर मेरे फेसबुक फ्रेंड लिस्ट कीअधिकांश स्त्रियों ने चुप्पी बना रखी थी, यह अनायास नहीं था, बल्कि ऐसा इसलिए था  कि उन्हें इसमें कोई मुक्ति प्रसंग नहीं दिखा था . वे अपने पुरुष मित्रों की टिप्पणियों के अर्थ-गाम्भीर्य को खूब समझती थीं, खूब समझती हैं, उसके अर्थ- अर्थान्तारों ( कनोटेशन ) को . वे समझती थीं कि किस प्रकार ये टिप्पणियाँ या तो एन.डी.तिवारी के ऊपर  व्यक्तिगत तौर पर या कांग्रेस के नेता के प्रतीक के तौर पर या नेता के रूप में एक सामूहिक प्रतीक के तौर  पर हमला हैं ! उन्हें पता था  कि उन अधिकाँश टिप्पणियों में कोई स्त्रीवादी मानसिकता काम नहीं कर रही थी. वे बखूबी समझती  थीं  कि उज्जला शर्मा की लड़ाई स्त्री अस्मिता की लड़ाई भी नहीं थी अपने तमाम साहसिक  प्रस्थान विन्दुओं  के बावजूद. वे खूब समझती है कि 'जैविक पिता 'और 'सामाजिक पिता'के नए अर्थ -सन्दर्भ के साथ समाज अपने दरवाजे ऐसे संबंधों के लिए नहीं खोलने वाला है , बल्कि ये शब्द और 'शब्द-अर्थ' पितृसत्तात्मक 'हास्यबोध 'के हिस्सा होने जा रहे हैं.   उन्हें खूब पता था  कि विभिन्न सदनों में खुलेआम 'ब्लू फिल्में 'देखने वाली जमात हो या लुक -छिप कर पोर्न क्रेताओं का समूह हो, वहां उनका वस्तुकरण कैसे और किन अर्थ-प्रसंगों के साथ होता है.


सवाल है कि तिवारी ने अपने मर्दवादीअहम् से मुक्त होकर कंडोम का इस्तेमाल किया होता यौन संसर्ग के दौरान या वे पिता होने के काबिल नहीं होते या नसबंदी करा चुके होते तो क्या वह  सम्बन्ध एक 'नैतिक आवरण 'में छिपा नहीं रहता और तब क्या यह एक स्त्री के यौन उत्पीडन का मामला यहाँ नहीं बनता !  हालांकि इस प्रसंग में स्त्री के यौन -उत्पीडन का प्रसंग प्रचलित अर्थों में इसलिए नहीं है कि तिवारी और उज्ज्वला शर्मा की सामजिक हैसियत  से पावर -पोजीशन का गैप नहीं बनता , जो यौन-उत्पीडन के दायरे में आने के लिए जरूरी है. बल्कि यह पूरा प्रसंग स्वीकृत विवाहेत्तर सम्बन्ध का है. उज्ज्वला भी एक केंद्रीय मंत्री की बेटी रही हैं, उच्चवर्गीय सामजिक हैसियत में रही हैं. इस पूरी लड़ाई को दो घरों के संपत्ति विवाद के दायरे में ही देखा जाना चाहिए था. क्योंकि यह प्रसंग वैसा ही नहीं है, जैसा  मधुमिता शुक्ला अथवा शैला मसूद के प्रसंग हैं अथवा राजस्थान की भंवरी देवी का प्रसंग .यह वैसे  यौन उत्पीडन की घटना भी नहीं है कि जो कार्य-स्थलों से लेकर राजनीतिक गलियारों में पावर -पोजीशन के बल पर होते हैं . या यह उन राजनीतिक  सेक्स स्कैंडलों से भी अलग है , जो हमेशा से राजनीतिक गलियारों में अंजाम पाते रहे हैं, जिनमें निर्दोष लड़कियों की जान जाती रही. यह विवाद स्वयं एन.डी. तिवारी के आंध्र  -राजभवन के सेक्स स्कैंडल से भी  भिन्न था .
लेखक स्त्रीकाल के संपादक हैं

आरक्षण के भीतर आरक्षण के पक्ष में बसपा का वाक् आउट : नौवीं क़िस्त

महिला आरक्षण को लेकर संसद के दोनो सदनों में कई बार प्रस्ताव लाये गये. 1996 से 2016 तक, 20 सालों में महिला आरक्षण बिल पास होना संभव नहीं हो पाया है. एक बार तो यह राज्यसभा में पास भी हो गया, लेकिन लोकसभा में नहीं हो सका. सदन के पटल पर बिल की प्रतियां फाड़ी गई, इस या उस प्रकार  से बिल रोका गया. संसद के दोनो सदनों में इस बिल को लेकर हुई बहसों को हम स्त्रीकाल के पाठकों के लिए क्रमशः प्रकाशित करेंगे. पहली क़िस्त  में  संयुक्त  मोर्चा सरकार  के  द्वारा  1996 में   पहली बार प्रस्तुत  विधेयक  के  दौरान  हुई  बहस . पहली ही  बहस  से  संसद  में  विधेयक  की  प्रतियां  छीने  जाने  , फाड़े  जाने  की  शुरुआत  हो  गई थी . इसके  तुरत  बाद  1997 में  शरद  यादव  ने  'कोटा  विद  इन  कोटा'  की   सबसे  खराब  पैरवी  की . उन्होंने  कहा  कि 'क्या  आपको  लगता  है  कि ये  पर -कटी , बाल -कटी  महिलायें  हमारी  महिलाओं  की  बात  कर  सकेंगी ! 'हालांकि  पहली   ही  बार  उमा भारती  ने  इस  स्टैंड  की  बेहतरीन  पैरवी  की  थी.  अंग्रेजी से हिन्दी अनुवाद पूजा सिंह और श्रीप्रकाश ने किया है. 
संपादक

अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस की सौंवी वर्षगांठ ( 8 मार्च 2010) 

 राज मोहिन्द्र सिंह  मजीठा (पंजाब) : ऑनरेबल डिप्टी चेयरमैन सर, मैं आपको धन्यवाद देता हूं, आज हिन्दुस्तान की पार्लियामेंट  में एक हिस्टोरिकल बिल पेश हुआ है, उस पर आपने मुझे बोलने का टाइम दिया है. भारतवर्ष में औरतों की आबादी तकरीबन आधी या 48 परसेंट है. हजारों सालों से औरतों पर जुल्म होते आए हैं. सबसे पहले औरतों के हक में जिसने आवाज उठाई थी, तो वह सिख कौम थी और बाबा गुरु नानक जी थे. 1526 में जब बाबर ने हिन्दुस्तान पर हमला किया था, तब बाबा नानक जी उस समय ऐमनाबाद में घूम रहे थे. जिस तरह आतताइयों  ने अपनी बिरादरी को भी नहीं छोड़ा, उस बारे में बाबा नानक जी ने बहुत कुछ कहा है, इसलिए मैं इस बारे में ज्यादा कुछ नहीं कहना चाहता हूं. मेरी पार्टी  व शिरोमणि अकाली दल के प्रधान की इच्छा के मुताबिक, मैं और मेरे साथी गुजराल साहब और बाजवा जी इस बिल का सपोर्ट करते हैं. शिरोमणि अकली दल एक ऐसी जमात है कि इसने औरतों के बारे में काफी कुछ किया है. यह SGPC, शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी बड़ी कुरबानियों  के बाद बनी. इसको महात्मा गांधी जी, पं0 जवाहरलाल नेहरु जी ने भी सपोर्ट किया. उसका इलैक्शन पिछले सालों  में हुआ है और हमारे प्रधान सरदार बादल जी ने 40 परसेंट औरतों को टिकट देकर खड़ा किया और वे कामयाब हुए. ऐसे ही पंजाब में चाहे वह किसी भी पार्टी में है, उनके दिमाग में औरतों के बारे में जो इज्जत है, वह और किसी और सूबे में कम होगी. पिछली पार्लियामेंट  में 13 में से 4 औरतें जिनकी संख्या 33 परसेंट के करीब बन जाती है, वे हमने भेजी हैं. 50 परसेंट अकाली दल की महिलाएं, इस हाउस की मैम्बर्स बनी हैं. यह ठीक है कि आज इस बिल को प्रधान मंत्री जी की पार्टी  ने पेश किया है. इस बिल को पहले भी दो प्राइम मिनिस्टर्स ने पेश किया है. इसका क्रेडिट उनको भी जाता है.  पहले 11वीं  लोक सभा में गुजराल साहब जी ने और फिर अटल बिहारी वाजपयी जी ने दो दफा पेश करने की कोशिश की है. हमारी पार्टी  NDA का हिस्सा है और BJP तथा अकाली दल वाले इस बिल को पास करवाने के लिए कोशिश करेंगे.


कणिमोझी (तमिलनाडु): महोदय, आपका धन्यवाद. मैं यहाँ द्रमुक और अपने नेता, डॉ. कलैगनार एम. करुणानिधि, जिन्होंने इस विधेयक का बेहिचक समर्थन किया है, जिन्होंने बिल का पारित होना सुनिश्चित करने और देखने के लिए हमेशा इस देश की महिलाओं, यूपीए-द्वितीय के साथ खड़े रहे. महोदय, मैं अपने समाज सुधारक एवं विचारक पेरियार के शब्दों का स्मरण करना चाहूंगा, जिन्होंने कभी कहा था कि इस देश की महिलाएं दमित हैं, वे इस देश की बहिष्कृत और दलित हैं, चाहे वे किसी भी धर्म की हों, किसी भी समुदाय की हों, या किसी भी जाति की हों. आज, हमें ऐतिहासिक गलतियों को, इस देश की महिलाओं के खिलाफ किये गये अपराधों को सही करने का यह एक अवसर मिला है. महोदय, हम इतने सारे बिल पारित किया है. हमने कई संशोधन किए हैं. इस सदन में, संसद में और विधानसभाओं में कई कानून बनाये गए हैं. कई बजट इस देश की आधी आबादी की आवाज सुने बिना, इसकी राय जाने बिना पारित किये गये हैं! कीमत में वृद्धि क्या हमें प्रभावित नहीं करती है? जलवायु परिवर्तन क्या हम पर असर नहीं डालता है?  लेकिन हमारी कोई नहीं सुनता है. अगर इस देश की महिलाएं जो चाहती हैं, उसे कहने का उन्हें अवसर दिया गया होता तो स्थिति काफी अलग होती. शिक्षा या किसी भी क्षेत्र में धन आवंटन क्या महिलाओं को प्रभावित करता है? हमारी राय नहीं ली गयी; इस देश में कई वर्षों से हमें नजरअंदाज किया गया है. आज, मैं संप्रग सरकार, यूपीए की अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी, हमारे प्रधानमंत्री, हमारे राष्ट्रपति और हर राजनीतिक दल और नेता, जो हमारे द्वारा खड़े हुए हैं और इस विधेयक का समर्थन किया है, सबको बधाई देती हूं. कल, जब यह विधेयक पारित होने जा रहा था, तब हमने उत्साह के साथ शुरू किया था; हम सब बहुत खुश थे और वास्तव में हमें इस दिन का इंतजार था, लेकिन,  दुर्भाग्य से,  हमें भारी दिल के साथ वापस लौटना पड़ा. विधेयक को लेकर मतभेद थे, लेकिन सदस्यों को एक-दूसरे पर दोषारोपण शुरू कर दिया. हम सभी चिंतित थे. लेकिन मुझे यह कहने में गर्व है कि हम सभी उस विधेयक को पारित करने के लिए एक साथ वापस आ गये हैं जिसमें हमारा भरोसा भी है. मैं एक बार फिर से इस सदन में मौजूद हर नेता को, इस सदन के हर सदस्य को, जो उन सभी को जो इस विधेयक को पारित करने के लिए साथ आये हैं, बधाई देती हूं . महोदय, बहुत सारे सवाल हैं जो इस विधेयक को लकर उठाए गए हैं. कुछ दिनों पहले, हमारे नेता डॉ. कलैगनार एक बयान जारी किया था, और उस बयान में उन्होंने रूसो उद्धृत किया था. अपने बयान में डॉ कलैगनार ने कहा था:  सामान्य एवं सार्वजनिक, घटक दलों के परस्पर विरोधी हितों को देखे बिना समग्र समूह के कल्याण को प्रतिबिंबित करेगा. इसे घटक दलों के दृष्टिकोण के दमन के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए, बल्कि इसे शुरू में एक समूह के आम हितों को निष्पादित करने और लागू करने एक साधन के रूप में देखा जाना चाहिए. जब निष्पादन कर दिया जाता है, तो यह महत्वपूर्ण है कि सामान्य एवं सार्वजनिक को हमेशा चुनौती दी जा सकती है और पूछताछ की जा सकती है."तो, आज, लोग आरक्षण के भीतर आरक्षण की बात कर रहे हैं. वे अल्पसंख्यकों के बारे में चिंतित थे, और मुझे यकीन है कि सरकार, ओबीसी और वंचित वर्गों और अल्पसंख्यकों के भी हितों की रक्षा करने में रुचि रखने वाले यह सुनिश्चित करेंगे कि संशोधन पारित हों जैसाकि हमने तमिलनाडु में किया है. हमारे राज्य में अनुसूचित जाति के लिए आरक्षण था और हमने महसूस किया कि उसी श्रेणीके भीतर एक छोटे से समुदाय, समुदाय, को अधिक सुरक्षा और अधिक मदद की जरूरत है तो, अरुनथाथियार समुदाय के लिए विशेष तौर पर तीन प्रतिशत आरक्षण कर दिया है. इसी तरह, हम परिवर्तन कर सकते हैं; हम बाद में इस विधेयक में संशोधन कर सकते हैं. तो, मैं हर किसी से इस विधेयक को पारित करने का अनुरोध करती हूं. आज एक ऐतिहासिक दिन है.

उप सभापति (प्रोफेसर पी.जे. कुरियन): आपका बहुत-बहुत धन्यवाद,  कणिमोझी. अब प्यारीमोहन महापात्र.


 प्यारीमोहन महापात्र (उड़ीसा): महोदय, मैं इस विधेयक का समर्थन करता हूं और मैं प्रधानमंत्री को बधाई देता हूं और उसके सभी तीन पूर्ववर्तियों श्री वाजपेयी, श्री गुजराल और श्री देवेगौड़ा, के प्रति अपनी श्रद्धा व्यक्त करता हूं, जिन्होंने विधेयक को लाने का प्रयास किया था और निराशा झेली थी. मैं विपक्ष के नेता, वाम दलों सहित सभी राजनीतिक दलों के नेताओं, और उन सभी को बधाई देता हूं जिन्होंने स्पष्ट रूप से इस विधेयक को पारित कराने में आपको समर्थन दिया है. कृपया अब ऐसा या वैसा का राग न अलापें. आप अपने खुद के बल पर इस विधेयक को पारित नहीं कर सकते. कृपया हर किसी को उसका उचित प्राप्य दें. यही मेरी दलील है. यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि इस सदन में दिवंगत राम मनोहर लोहिया के चेलों ने यह भूलकर कि राम मनोहर लोहिया किन बातों के लिए लड़ते रहे, कुछ दुर्भाग्यपूर्ण स्थितियां पैदा की. राम मनोहर लोहिया महिलाओं के हालात में सुधार लाने,  उनके शोषण और उनकी यातना से मुक्ति के लिए लड़े थे. वे मानते रहे कि भारत में महिलाएं चाहे वे किसी भी जाति और वर्ग की हों, पुरुषों के अत्याचार और शोषण की शिकार हैं और उनके द्वारा अपमानित हैं और इसीलिए, वह सभी जातियों और वर्गों की महिलाओं के लिए आरक्षण के जरिये एक तरह का प्रतिनिधित्व चाहते थे. मेरी पार्टी बीजू जनता दल, जिसका नाम हमारी पार्टी के महान नेता दिवंगत बीजू पटनायक के नाम पर रखा गया था,  राज्य विधानमंडलों में और केंद्र में महिलाओं के सशक्तिकरण और महिलाओं के प्रतिनिधित्व के प्रति गहरी प्रतिबद्धता रखती है. बीजू बाबू, जब वह मुख्यमंत्री थे, अपने पूरे जीवन भर कहते रहे कि देश की समस्याओं को सुलझाने में पुरुष सफल नहीं रहे, इसलिए, समय आ गया था कि महिलाओं को आगे आना चाहिए और उनको नेतृत्व करने की जिम्मेदारी सौंपी जानी चाहिएा उन्होंने संविधान संशोधन के आने से बहुत पहले ही पंचायत राज संस्थाओं और शहरी स्थानीय निकायों में महिलाओं के लिए एक तिहाई सीटों को आरक्षित कर दिया था. हमने नौकरियों में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण दिया है. माता के नाम का जिक्र करना अनिवार्य है. हमने यह सब तमिलनाडु में अन्नाद्रमुक के ऐसा करने से बहुत पहले ही कर लिया था. यह 1991 में किया गया था.  स्कूलों में बच्चों का दाखिला कराते वक्त  माता का नाम लिखना अनिवार्य है. पिता का नाम वैकल्पिक है. जातियों की संयुक्त रिकॉर्डिंग अनिवार्य है, ताकि परिसंपत्तियां महिलाओं को भी उपलब्ध हो सकें. उनके पुत्र, वर्तमान मुख्यमंत्री और बीजू जनता दल के अध्यक्ष, श्री नवीन पटनायक ने महिला सशक्तिकरण को नई ऊंचाइयों पर पहूंचाया है. 2002 में अंतर्राष्ट्रीय महिला वर्ष के दौरान,  उन्होंने राज्यसभा के लिए दो महिला सदस्यों को नामित किया है. हम एक-तिहाई सदस्य यहाँ था. हमारे साथ यहाँ एक मैडम, ओबीसी महिला सदस्य हैं. हम ओबीसी और मुसलमानों के बारे में बात कर रहे हैं और कहा जा रहा है कि हम उनका ध्यान नहीं रख रहे हैं. हम 50 फीसदी आरक्षण के लिए प्रतिबद्ध हैं. बीजूबाबू जब मुख्यमंत्री थे,  तब उन्होंने संसदीय सौध में एक बैठक में, 50 प्रतिशत आरक्षण की मांग की थी.

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 वह इतिहास, जो बन न सका : राज्यसभा में महिला आरक्षण

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महिला संगठनों, आंदोलनों ने महिला आरक्षण बिल को ज़िंदा रखा है : वृंदा कारत: पांचवी  क़िस्त

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उपसभापति (प्रोफेसर पी. जे. कुरियन): जी हां, श्री महापात्र,  कृपया समाप्त करें.


प्यारीमोहन महापात्र:महोदय, मैं एक मिनट और लूंगा, कृपया अनुमति दें. हमने स्वयं सहायता समूह के सदस्यों के रूप में महिलाओं को उनके सशक्तिकरण के लिए 50 फीसदी आरक्षण दिया है. हम कई नई चीजों को साकार किया है. महोदय, समय की कमी के कारण, मैं समापन कर रहा हूँ. रोटेशन प्रणाली और अन्य पिछड़े वर्गों के शामिल न किए जाने की तरह विधेयक में कई कमजोरियों के बावजूद, हम इस विधेयक का समर्थन करते हैं. अन्य सभी बातें चर्चा और विचार-विमर्श के माध्यम से बाद में देखी जा सकती हैं. महिलाओं की शक्ति और बेहतरी के लिए देश की नियति को आकार देने की क्षमता पर मेरी पार्टी का भरोसा है. इसलिए, हम विधेयक का समर्थन करते हैं और हम किसी भी संशोधन करेंगे जो इस देश में महिलाओं की स्थिति को बेहतर बनाने के लिए लाया जाएगा. धन्यवाद.

नरेश गुजराल (पंजाब): श्रीमान उपसभापति महोदय, सबसे पहले मैं महात्मा गांधी के शब्दों को उद्धृत करना चाहूंगा. उन्होंने कहा था, "कानून बनाने वाले पुरुष को तथाकथित कमजोर कहे जाने वाले स्त्री वर्ग का दर्जा कमतर करने के लिए भयानक दंड का भुगतान होगा. जब महिला, पुरुष के फन्दे से मुक्त होकर, पूरी तरक्की करती है और पुरुष द्वारा बनाये कानून और उसकी संस्थाओं के खिलाफ विद्रोह करती है, तो उसका विद्रोह जो अहिंसक है, निसंदेह, कोई कम प्रभावी नहीं होगा."राष्ट्रपिता के शब्द अंतत: भारतीय संसद के इस ऐतिहासिक सत्र में आज सच होते दिख रहे हैं. लगातार बनी रहने वाली लिंग आधारित असमानताओं की पहचान करने वाला और राज्य विधानसभाओं और संसद में एक तिहाई सीटों को आरक्षित करके महिलाओं को सशक्त बनाने वाला महिला आरक्षण विधेयक के निहितार्थ दरअसल एक अर्थ में सदियों पुरानी उन संस्थाओं के खिलाफ विद्रोह है जिन संस्थाओं ने लोकतांत्रिक संस्थाओं की स्थापना के समय से ही राजनीति से महिलाओं को अलग-थलग करना जारी रखा है. राज्य विधानसभाओं और संसद में महिलाओं के लिए सीटें आरक्षित करने के लिए एक कानूनी प्रावधान बनाने के प्रगतिशील प्रयास प्रधानमंत्री के रूप में श्री राजीव गांधी के कार्यकाल के दौरान 1992 के पंचायती राज अधिनियम के साथ अस्तित्व में आये. उसके बाद श्री आई. के.  गुजराल, ने अपने प्रधानमंत्री रहने के दौरान व्यक्तिगत रूप से विधेयक को आगे बढाया और इसे वर्तमान स्वरूप में 11वीं लोकसभा में प्रस्तुत किया. दुर्भाग्यवश, विभिन्न हलकों से विरोध होने और समर्थन की कमी के कारण, विधेयक पारित नहीं हो सका. श्री अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री के रूप में,  इस विधेयक को पारित करवाने के दो प्रयास किए, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ. महोदय, यह सराहनीय है कि आज लगभग सभी राजनीतिक दलों ने इस पथप्रदर्शक विधेयक के समर्थन में एकमत हैं, जो 1997 की संसदीय कार्यवाही से एकदम अलग है. इस तथ्य से साफ जाहिर होता है कि भारतीय जनता, अपने निर्वाचित प्रतिनिधियों सहित भातीय महिलाओं के अधिकारों और आकांक्षाओं के प्रति बहुत ही संवेदनशील है. हालांकि अफसोस के साथ ही, हालांकि, मुझे कहना चाहिए कि कुछ पार्टी के नेताओं की ओर से हुआ है  जो आज लोकतंत्र का चैंपियन होने का नाटक कर रहे हैं.

उप सभापति (प्रो. पी. जे. कुरियन): आप द्वारा इस्तेमाल किया गया शब्द असंसदीय है. इसलिए, यह शब्द हटा दिया गया है.

नरेश गुजराल: महोदय, मैंने उस शब्द वापस को वापस ले लिया. वे पिछले 13 वर्षों में आसानी से अपनी पार्टियों से अधिक महिलाओं को टिकट दे सकते थे. पर उन्होंने ऐसा नहीं किया. हालांकि, यह कानून अब उनको मजबूर करेगा और इस विधेयक के इतिहास में दिखी निष्क्रियता के बावजूद, महिलाओं के आखिरकार इस धरती पर अपनी उचित जगह मिलेगी. महोदय, कुछ राजनीतिक नेताओं द्वारा आरोप लगाये जा रहे हैं ....

उपाध्यक्ष:तीन मिनट समाप्त हो गये हैं. कृपया समापन करें.

 नरेश गुजराल: इन शब्दों के साथ अपनी पार्टी की ओर से मैं इस विधेयक का समर्थन करता हूं.


 मोहम्मद अदीब (उत्तर प्रदेश) : शुक्रिया . पिछले दो दिनों से जो कुछ हाऊस में मैंने देखा, इससे बड़ा दुख भी है, अफसोस भी है. इसको बयान करने का इज़हार मैं इस शेर के साथ करना चाहता हूं :-
रंगो गुल का है न सलीका, न बहारों  का शअुर
हाय किन हाथों की तकदीर में तकीरे हिना ठहरी.
हालत यह है कि जो कुछ हमने देखा, बहुत अफसोसनाक है, लेकिन इस बात की भी एक खुशी हो रही है कि हिन्दुस्तान के मुख्तलिफ लीडरान ने यह फैसला किया कि हम देहात और खलिहानों से औरतों को लाएंगे और हिन्दुस्तान के उस सबसे बड़े मंदिर में, जहां कानून बनाए जाते हैं, वहां लाकर इम्पावरमेंट देंगे. यह एक अलग बात है कि वहां की औरतें आज रोज़ डॉवरी की शिकार हो रही हैं, उधर हमारी तवज्जो नहीं है, वहां की औरतों को नौकरियां नहीं मिल रही हैं, तालीम नहीं मिल रही है, लेकिन हम पार्लियामेंट  में उनको लाने के लिए बहुत उत्सुक हैं. जब सबकी यह राय है तो मेरी भी यह राय है. मेरे दिल की जो कैफियत है, वह उधर बैठे तिवारी जी ने बयान की है. मैं समझता हूं कि हमारी कौम के लिए एक तश्वीश का लम्हा आ गया है. यह वह वक्त है, मैंने देखा है पार्लियामेंट  के और असैम्बली के इलेक्शनों में, तरीकेकार यह है कि अगर तीन लाख ठाकुर हैं और चार लाख मुसलमान हैं तो फैसला यह किया जाता है कि ठाकुर को वोट दे दो, मुसलमान वोट दे ही देगा, इसलिए कि उसके पास इतना लायक आदमी नहीं है. मैं नहीं जानता कि इस कंडीशन में हमारी औरतें कहां से इलेक्शन में आएंगी.  प्राइम मिनिस्टर साहब मौजूद हैं, मैं इनके सामने एक वाकया बयान करना चाहता हूं और यह बताना चाहता हूं कि हम किस माहौल में हैं और हमने क्या समाज बनाया है. मेरी मां की सगी बड़ी बहन ने सन् 36 में लखनऊ से कांग्रेस की तरफ से मुस्लिम  लीग के खिलाफ इलेक्शन लड़ा बुर्का पहनकर. हमारी समाज 80 साल के बाद क्या इस बात के लिए तैयार है कि मैं अपनी बेटी को बुर्का पहनकर इलेक्शन में ले जाऊं? क्या कहलाएगी वह, आतंकवादी, बैकवर्ड और दकियानूसी? यह हमने समाज बनाया है. हम ऐसी शक्ल में खड़े हैं. इस पार्लियामेंट  में हमारी नुमाइंदगी 50 और 55 की थी, आज हम 27 पर आ गए. हमको यह खौफ है, हम जानते हैं, हम इस सरकार से मुहब्बत करते हैं, हमको कांग्रेस से मुहब्बत और अकीदत है, हम कांग्रेस को सपोर्ट करते हैं लेकिन कांग्रेस से पूछते हैं कि हम वोट डालने की मशीन कब तक रहेंगे, कब तक हमारे साथ यह होगा? अगर गिल कमीशन की बात  मान ली जाती तो इन पार्टियों  में यह कहा जाता कि 33 परसैंट रिजर्वेशन  किया जाए, लेकिन यह नहीं किया गया, इसलिए कि लड़कियां, औरतें केंडिडेट नहीं बन सकती थीं, इलेक्शन नहीं जीत सकती थीं. पार्टियां  कमजोर हो जातीं, पार्टियों  को कमजोर करना मकसद नहीं है, पार्लियामेंट  कमजोर हो जाए, कोई बात नहीं है. हम तरक्की कर रहे हैं! यह हमारा मनसब है. मैं आज प्राइम मिनिस्टर साहब से गुज़ारिश करना चाहता हूं और अपने कांग्रेस के भाइयों  से और लेफ्ट के भाइयों से कहना चाहता हूं कि यह बिल आप पास करें, हम आपके साथ रहेंगे लेकिन इस बात का वायदा कीजिए और अज्म कीजिए कि आप जब 33 परसैंट का रिजर्वेशन  कर रहे हैं तो इसमें 15 से 17 परसैंट मुसलमानों का रिजर्वेशन  यकीनी बनाइए और यह कहिए, अगर आपने यह नहीं किया तो यकीनन आप हम लोगों के साथ नाइंसाफी करेंगे.  इन अल्फाज़ के साथ मैं प्राइम मिनिस्टर साहब से कहना चाहता हूं कि मैं आपको सपोर्ट करता हूं, आपकी पार्टी  को सपोर्ट करता हूं क्यों कि मेरे पास कोई दूसरा ज़रिया नहीं है. मैं जानता हूं कि हिन्दुस्तान में आप ही एक अकेली पार्टी  हैं, लेकिन हमें नज़रअंदाज मत कीजिए, हमारे दिल में जो शक-ओ-शुबहात हैं, उनको आप पार्टी  के अंदर यह कानून लाकर पूरा कीजिए कि हम रिजर्वेशन जब देंगे तो मुसलमानों को, बैकवर्ड को और दलितों को 20 से 25 परसैंट इन 33 परसैंट में से देंगे. शुक्रिया

 अवनि राय (पश्चिमी बंगाल) : उपसभाध्यक्ष जी, पहले तो मैं इस बिल का समर्थन करता हूं और समर्थन के साथ अपनी बात भी यहां कहना चाहता हूं कि राजीव गांधी जी ने महिलाओं को आगे बढ़ाने की कोशिश की, यह सबको मालूम है, लेकिन सच्चाई यह है कि महिला आरक्षण बिल को United Front की सरकार के समय में लाया गया था, यह बात भी आपको कहनी चाहिए. हमें संविधान संशोधन बिल के लिए दो-तिहाई मत चाहिए, लेकिन दो-तिहाई का मतलब यह नहीं है कि केवल हमने किया है, आप यह राजनीति मत कीजिए, मैं कांग्रेसियों  से यह बात कह रहा हूं. इसके साथ ही मैं यह कहूंगा कि इसके लिए बहुत बार प्रयास किया गया था, लेकिन किसी न किसी कारण से यह नहीं हो पाया. कल यह ऐतिहासिक बिल, एक ऐतिहासिक अवसर पर, एक इतिहास की रचना के लिए हम इस संसद में लाए थे, लेकिन कल हम इसे पास नहीं कर पाए और इस बीच एक दूसरा इतिहास भी आपने रच दिया, ऐसा क्यों  हुआ? जहां तक हमारे इस सदन की गरिमा और मर्यादा की बात है, कल इस सदन को क्यों  चार बार adjourn करना पड़ा, क्यों  आपने इसमें दखल नहीं दिया, क्यों  आपने इस बिल को कल पारित करने की कोशिश नहीं की? यह सवाल आपके ऊपर आता है और आज भी जो घटना घटी है, यह हमारे सदन के लिए अच्छी नहीं है. मैं दोनों की निंदा करता हूं. मैं यह कहता हूं कि अगर सदन की गरिमा को बनाए रखना है, तो Treasury Benches को किसी भी बिल को सदन में रखने से पहले, सदन को confidence में लेना चाहिए. (श्री सभापति पीठासीन हुए)  सभापति जी, कहा जा रहा है कि आज़ादी के 63 सालों  के बाद आज यह बिल पास हो रहा है. कांग्रेस की बहुत सारी अच्छी बातें हैं, लेकिन इन 63 सालों  में आपने कितने सालों  तक राज किया और 1991 से 1995 के बीच आप यह बिल क्यों  नहीं ला पाए, इस बारे में आपको सोचना चाहिए. Do not play politics with women. You respect them. आप उनको सम्मान दीजिए और मर्यादा के साथ
इस बिल को पारित कीजिए. खाली बिल में रिजर्वेशन  की बात नहीं है, लोक सभा में या विधान सभाओं में आने की बात नहीं है, इसके साथ पूरे देश में नारी जाति को पूरा सम्मान मिलना चाहिए, तभी उनके empowerment की बात आती है .... (व्यवधान) जब women empowerment की बात आती है, तो हर जगह, घर से लेकर संसद तक, हर जगह उनके पूरे सम्मान की बात होनी चाहिए. रोजाना अखबारों में जो हम पढ़ते हैं, क्या इसमें हमारी women empowerment की कोई बात आती है? मैं गुज़ारिश करूंगा कि पूरा सदन इस बिल का समर्थन करते हुए यह भी कहे कि महिलाओं का भारत में इस तरह से सम्मान  होना चाहिए ताकि हमसे दुनिया सीखे कि महिलाओं के साथ किस तरह का व्यवहार किया जाता है. इसी के साथ मैं इस बिल का समर्थन करते हुए अपनी बात समाप्त करता हूं. धन्यवाद.

परिमल नथवानी (झारखंड) : सभापति महोदय, मैं प्रधानमंत्री जी का और सरकार का शुक्रिया अदा  करता हूँ और भारतीय जनता पार्टी  जिन्होंने  इस ऐतिहासिक बिल का शुरू से समर्थन किया है, उनका भी मैं  शुक्रिया अदा करता हूँ. सारी राजनीतिक पार्टियों   ने जो कुछ लोगों  की बात करते हुए समर्थन किया है, उसके लिए मैं अपनी खुशी व्यक्त करता हूँ. सर, मैं इसलिए अपनी खुशी व्यक्त करता हूँ, क्यों कि मैं झारखंड को represent करता हूँ. झारखंड से लोक सभा के अंदर एक भी महिला चुन कर नहीं आई है. झारखंड में assembly के अंदर भी महिलाओं की संख्या double digit में नहीं पहुंची है, जिसको हम दस कह सकते हैं. इस बिल के माध्यम से हमारे झारखंड की महिलाओं को खूब लाभ पहुंचेगा. इतना ही नहीं, यहां से पंचायती राज
की बात की जा रही थी. जब से झारखंड अलग राज्य बना है, तब से वहां पंचायतों का चुनाव भी नहीं हुआ है. झारखंड में पंचायततों के चुनाव हों गे, तो जैसे यहां श्रीमती वृंदा कारत जी ने कहा कि पंचायती राज से महिलाओं का योगदान शुरू होता है, तो मैं मानता हूँ कि राज्य सरकार और भारत सरकार को मिलकर झारखंड के अंदर भी पंचायती राज को लाने का प्रयास करना चाहिए, जो सुप्रीम कोर्ट में रुका हुआ कोई मामला है. मैं फिर से पूरे सदन को धन्यवाद देता हूँ और मुझे मौका मिला, उसके लिए मैं सबका आभारी हूँ. (समाप्त)

 अनुसुइया उइके (मध्य प्रदेश) : माननीय सभापति महोदय, आपने मुझे जो विधेयक पर बोलने के लिए समय दिया है, इसके लिए मैं आपको धन्यवाद देती हूँ. इस विधेयक में महिला सशक्तिकरण, आथिक एवं सामाजिक दृषि्टकोण से बराबरी का दर्जा देने के लिए जो महिला आरक्षण बिल यहां प्रस्तुत किया गया है, इसके लिए मैं सरकार को धन्यवाद देती हूँ और इसकी प्रशंसा करती हूँ. मैं यह भी कहना  चाहूंगी कि हमारी पार्टी ने सन् 1996 में पूर्व प्रधान मंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी जी के नेतृत्व में लगातार इस महिला आरक्षण को लागू करने का प्रयास किया और उसका ही परिणाम यह है कि आज महिला आरक्षण विधेयक इस सदन में प्रस्तुत हो पाया.
सुश्री अनुसुइया उइके (क्रमागत) : मैं इसके लिए हमारी पार्टी  के नेता, माननीय जेटली जी, समस्त वरिष्ठ नेताओं और विरोधी दल के तमाम नेताओं को धन्यवाद देना चाहती हूं. एक बात मैं और कहना चाहती हूं कि भारतीय जनता पार्टी , जो विपक्ष की प्रमुख पार्टी  है, उसने महिला आरक्षण बिल को दिल से समर्थन दिया है और मैं यह बात दावे से कहना चाहूंगी कि अगर कांग्रेस पार्टी  विपक्ष में होती, तो वह महिला आरक्षण बिल का समर्थन नहीं करती. ...(व्यवधान)... माननीय सभापति महोदय .....(व्यवधान)...


सभापति : प्लीज़....प्लीज़.... बैठ जाइए. ..(व्यवधान)...

विप्लव ठाकुर : आपकी पार्टी  ने किया था. ...(व्यवधान)...

 सभापति : प्लीज़ बैठ जाइए. ...(व्यवधान)...

अनुसुइया उइके : माननीय सभापति महोदय, देश की आधी जनसंख्या ...(व्यवधान)...

 सभापति : प्लीज़, बैठ जाइए.... प्लीज़ बैठ जाइए.. समय कम है, प्लीज़.

अनुसइया उइके :माननीय सभापति महोदय, देश की आधी जनसंख्या महिलाओं की है, फिर भी उन्हें समान और पर्याप्त अवसर प्राप्त नहीं हुए हैं, जिनकी लंबे समय से मांग की जा रही थी और आज़ादी के 62 वर्ष उपरांत आज यह मांग पूरी होने जा रही है, इसलिए यह महिलाओं के लिए एक ऐतिहासिक दिन माना जाएगा. इसके लिए मैं हमारी भारतीय जनता पार्टी , विपक्ष के नेता और अटल बिहारी वाजपेयी जी को बहुत-बहुत बधाई और धन्यवाद देती हूं

 अनुसुइया उइके : माननीय सभापति महोदय, मझे एक बात और कहनी है कि यहां पर हमारे जितने भी सांसद भाई हैं, उन्होंने  महिलाओं के लिए समान अधिकार देने की बात कही है. आज मैं इस सदन के माध्यम से यह कहना चाहूंगी और यह मांग रखती हूं कि जिस तरह से पांच साल के लिए  प्रधान मंत्री पुरुष होते हैं, उसी प्रकार महिला को भी पांच साल के लिए प्रधान मंत्री होना चाहिए. ...मंत्रीमंडल में भी 33 परसेंट महिलाओं के लिए आरक्षण होना चाहिए.

अनुसुइया उइके : माननीय सभापति महोदय ...

सभापति : अब आप खत्म कीजिए. ...(व्यवधान)... प्लीज़...(व्यवधान)... आपके तीन मिनट पूरे हो चुके हैं.

अनुसुइया उइके : माननीय सभापति महोदय, मैं सभी पुरुष भाइयों  से कहना चाहूंगी कि आपका कोई अधिकार कम करके हम उसमें से कुछ नहीं मांग रहे हैं. हमने तो सदैव ही आपको जो भी अधिकार मिलते रहे हैं, उन्हें प्रदान करने में कभी भी किसी प्रकार की रोक नहीं लगाई, किंतु आज जब महिलाओं को कुछ अधिकार देने की बात हो रही है, तो उसमें एकजुटता दिखाई दे रही है, इसके लिए मैं सदन
के समस्त सांसद भाइयों का अपनी ओर से बहुत-बहुत आभार व्यक्त करती हूं, धन्यवाद.

सतीश चन्द्र मिश्र : सर, हमारा दो मिनट का समय बचा है, उसमें से मैं एक मिनट का समय लूंगा.

सभापति : जी, फरमाइए.

सतीश चन्द्र मिश्र : सभापति महोदय, अभी लॉ मिनिस्टर साहब ने कहा कि ओबीसी का रिजर्वेशन  वह समझते हैं कि होना चाहिए, लेकिन डाटा नहीं है इसलिए नहीं हुआ. हमें इस बात का बहुत अफसोस
है. हम लोगों ने अपनी बात कही कि ..(
सभापति : देखिए, अब आप इस पर ..(व्यवधान)..

सतीश चन्द्र मिश्र : सर, मैं सिर्फ एक बात कहना चाहता हूं, उसके लिए आप मझे परमिट कर दीजिए. मझे यह उम्मीद थी कि हमने जो अपनी बात रखी थी, हमारी पार्टी  की राष्ट्रीय अध्यक्ष माननीय हमारी बहन मायावती जी ने रखी थी, उन्होंने पत्र लिखकर कहा था उसको कंसीडर करते हुए शायद यह बिल आज वोटिंग के लिए नहीं डाला जाएगा, उसमें अमेंडमेंट्स करने के बाद आएगा, लेकिन ऐसा मुझको नहीं लगता है. जैसा कि आप लोगों ने कहा आप वोटिंग के लिए बिल को रखने जा रहे हैं और चूंकि इसमें गरीब महिलाओं को चाहे वह शैड्यूल्ड कास्ट हो, शैड्यूल्ड ट्राइब्स हो, चाहे वह अल्पसंख्यक हो, बैकवर्ड हो या अपर कास्ट की हो, उनकी अनदेखी की जा रही है. इसलिए इस वोटिंग में बहुजन समाज पार्टी नहीं करेगी. क्यों कि हम बिल के इस स्वरूप से असहमत हैं और इस बिल पर अपनी असहमति व्यक्त करते हुए, हम लोग इस वोटिंग से अपना बॉयकाट करते हैं.

माया सिंह :सभापति जी, हम आपके माध्यम से माननीय प्रधान मंत्री जी से यह आश्वासन चाहते हैं कि यह महिला आरक्षण बिल आज यहां से पास हो रहा है, यह बिल राज्य सभा से पास हो जाएग. अभी आधा काम हुआ है, लोक सभा में आने वाले सत्र में.बल्कि इसी सत्र में लोकसभा से पास होना चाहिए.

बीरेंद्र प्रसाद बैश्य (असम): उप सभापति महोदय,  स्वयं को इस ऐतिहासिक घटना के साथ संबद्ध करके मुझे बहुत गर्व है. मुझे याद है, वर्ष 1996 में पहली बार, इस विधेयक संयुक्त मोर्चा सरकार के कार्यकाल के दौरान लाया गया था. 1996 स्वयं मैंने और मेरी पार्टी ने  पूरी तरह से विधेयक का समर्थन किया था.

बीरेंद्र प्रसाद बैश्य (जारी): आज फिर, मैं यहाँ मेरी पार्टी, असम गण परिषद, की ओर से इस विधेयक का समर्थन करने के लिए खड़ा हूँ . हालांकि मैं दृढ़ता से विधेयक का समर्थन करता हूं, पर फिर भी मुझे कहना ही होगा कि प्रारंभ से ही इसे उचित तरीके से नहीं तैयार किया गया, और इससे बचा जा सकता था. महोदय, हम आज यहां संविधान (संशोधन) विधेयक पारित करने के लिए मौजूद हैं, और कल जो अवांछित स्थिति पैदा हुई, उसको लेकर मुझे बहुत खेद है. इससे बचा जा सकता था. महोदय, मैं अपने देश के उत्तर-पूर्वी क्षेत्र का हूं, जहां महिलाओं की संरचना बहुत बुलंद है. सभी जानते हैं कि दहेज के नाम पर कई महिलाओं के हमारे देश के कई हिस्सों में हर दिन मारी जाती हैं, लेकिन ऐसी स्थिति असम और हमारे देश के अन्य उत्तर-पूर्वी क्षेत्रों में नहीं है. हमारे समाज में महिलाओं की यही स्थिति है. अब मैं असम आन्दोलन की सफलता में असम की महिलाओं की भूमिका के बारे में बताऊंगा. मेरी पार्टी, असम गण परिषद, असम में विदेशी नागरिकों के खिलाफ असम आंदोलन के सफल समापन के बाद बनाई गई थी. मुझे याद है कि लाखों असमिया महिलाओं ने संघर्ष में भाग लिया था;  असम आंदोलन द्वारा काफी हलचल पैदा की गई थी. आज, अपनी पार्टी और असम की जनता की ओर से, मैं असम आंदोलन में भाग लेने वाली असम की महिलाओं को सलाम करना चाहता हूं. असम आंदोलन के सफल समापन के बाद, असम समझौते पर हस्ताक्षर किया गया था, और हमारी पार्टी, असम गण परिषद का गठन किया गया था. आज, मैं यहाँ सरकार द्वारा लाये गए महिला आरक्षण विधेयक के प्रति पूरे समर्थन की घोषणा करता हूं. धन्यवाद महोदय.


शरद अनंतराव जोशी (महाराष्ट्र): महोदय, मैं स्वतंत्र भारत पक्ष पार्टी की ओर से बात करने के लिए खड़ा हुआ हूं. मेरी पार्टी की स्थिति बहुत संक्षेप में इस प्रकार से है :  महिलाओं का राजनीतिक सशक्तिकरण - एक ज़बरदस्त हाँ, हाँ, हाँ. आरक्षण - एक काफी बड़ा प्रश्न चिह्न. और, रोटेशन और लॉटरी सिस्टम - पूरी तरह नहीं, नहीं, नहीं. 1986 में मेरी पार्टी की शेतकारी महिला अगाडी,  महाराष्ट्र के ग्रामीण महिलाओं के संगठन, ने सबसे पहले पंचायती राज चुनाव लड़ने के लिए 100 प्रतिशत महिलाओं वाले पैनल का फैसला किया था. लेकिन यह महाराष्ट्र में श्री शंकर लाल चव्हाण के नेतृत्व वाली कांग्रेस (आई) पार्टी थी, , जिसने इस विचार का विरोध किया था है और अगले तीन वर्षौं के लिए पंचायती राज के सभी चुनावों को स्थगित कर दिया. और उसके बाद ही उन्होंने 33 प्रतिशत आरक्षण की अवधारणा को स्वीकार किया था. महोदय, बसपा के माननीय मिश्रा ने सवाल उठाया है: यह आरक्षण कहां से आया है?  तो 33 प्रतिशत की उत्पत्ति की कहानी यही है. अब सवाल है: क्या आरक्षण, वास्तव में, कभी लक्षित समुदायों में से किसी को लाभ पहुंचाया है? और हमारे अनुभव बहुत सुखद नहीं है. इस समस्या का समाधान पार्टी लिस्ट सिस्टम द्वारा हल करने के बजाय आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के जरिये आसानी से निकाला जा सकता था. वह प्रणाली  आरक्षण के साथ जुड़ी सारी समस्याओं का ख्याल रखेगी. और, अगर हमने पार्टी लिस्ट सिस्टम के बजाय आनुपातिक प्रतिनिधित्व को शामिल किया होता तो पिछले दो दिनों में जो दृश्य हमने देखा है, उनसे बचा जा सकता था. और अब अन्त में, लॉटरी-सह-रोटेशन प्रणाली को देखें, जो एक मामूली दोष नहीं है. मेरा अब भी कहना है कि इस प्रणाली में एक घातक दोष है. इसमें, हम एक निर्वाचन क्षेत्र पहले चुनते हैं, और इसकी बहुत संभावना है कि उस निर्वाचन क्षेत्र के लिए, कोई उत्साही महिला उम्मीदवार नहीं मिल पाये. दूसरी ओर, संभव है कि एक पुरुष ने कुछ समय से उस निर्वाचन क्षेत्र के लिए कुछ काम किया हो.

शरद अनंतराव जोशी (जारी): यह अनावश्यक रूप से महिलाओं के आंदोलन के खिलाफ कड़वाहट पैदा करेगा. महोदय, फिर  इसकी भी संभावना है कि इस अवसर का इस्तेमाल स्थापित नेता अपने परिवार के सदस्यों की उम्मीदवारी के लिए करेंगे जो इस विधेयक का उद्देश्य बिल्कुल नहीं है. महोदय, एक बार एक महिला निर्वाचित होती है, तो उसे पता रहेगा कि उसे फिर से 'महिला सुरक्षित निर्वाचन क्षेत्र' उम्मीदवार बनने का मौका नहीं मिलेगा. इसलिए, वह निर्वाचन क्षेत्र में काम करने को लेकर उतना उत्साहित नहीं रहेगी. इसी तरह,  निर्वाचित पुरुष उम्मीदवारों को भी अपने निर्वाचन क्षेत्र से एक बार फिर से चुनाव लड़ने की संभावना को लेकर संदेह रहेगा क्योंकि उनके लिए इसकी उपलब्धता की संभावना केवल 50:50 रहेगी. इन परिस्थितियों में, महोदय, इसका प्रमुख असर यह पड़ेगा कि सभी निर्वाचन क्षेत्रों की बहुत खराब देखरेख होगी. और, अंत में, महोदय, इस तरह की आरक्षण प्रणाली किसी भी सदन में किसी भी अवधि में 33 प्रतिशत से अधिक दोबारा चुन कर आये सदस्यों का होना असंभव बना देगा. तो इस तरह  हम विधानमंडलों और संसद में अनुभवी लोगों की कमी पायेंगे. यह भारतीय लोकतंत्र के लिए घातक साबित हो सकता है. धन्यवाद महोदय.

 अब्दुल वहाब पीवी (केरल): मुझे बोलने का अवसर देने के लिए धन्यवाद, श्रीमान सभापति महोदय. मैं यहाँ इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग की ओर से विधेयक पर बात करने के लिए खड़ा हुआ हूं. हम महिलाओं के लिए आरक्षण के कार्यान्वयन पर चर्चा कर रहे हैं. लेकिन,  हम उम्मीद करते हैं कि डॉ. मनमोहन सिंह और संप्रग अध्यक्ष के नेतृत्व में यूपीए सरकार, अल्पसंख्यकों, खासकर मुसलमानों और पिछड़े समुदायों को पर्याप्त प्रतिनिधित्व देगी.

अब्दुल वहाब पीवी (जारी): मुझे लगता है,  यदि यह रूझान बना रहे तो भविष्य में  हम पुरुषों के लिए 33 प्रतिशत सीटें आरक्षित करने वाला एक और विधेयक लायेंगे. दस साल बाद, यदि मैं यहां नहीं भी रहूं, क्योंकि 2 अप्रैल को मैं सेवानिवृत्त हो रहा हूँ, तो मुझे लगता है, एक और विधेयक इसी सदन में लाना होगा. मैं भाग्यशाली हूँ कि जब सदन में सीटों के आरक्षण पर विचार हो रहा था तो मैं यहां मौजूद रहा. लेकिन यदि यह रुझान जारी रहता है, तो यहां पुरुष सदस्य अल्पमत में आ जायेंगे. वृंदा करात जी हैदराबाद महापालिका में प्रतिनिधित्व और उन सब बातों के बारे में बता रही थीं. मैं उन्हें हैदराबाद नगर पालिका का उल्लेख करने के लिए धन्यवाद देता हूं. लेकिन पश्चिम बंगाल में क्या हो रहा है? पश्चिम बंगाल में मुसलमान जनसंख्या का 25 प्रतिशत हैं. पश्चिम बंगाल में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व क्या है? आप उस राज्य में शासन कर रहे हैं.

सभापति:श्री अब्दुल वहाब, आपके पास समय सीमित है. अपने भाषण को पूरा करें. श्रीमती करात,  बहस को चलने दें. आपसे अनुरोध हैं कि आप अपनी सीट पर जायें. अब्दुल वहाब, आपको तीन मिनट मिले हैं और दो मिनट पहले ही समाप्त हो चुके हैं. इसलिए, आपके पास  एक मिनट बचा है.

अब्दुल वहाब पीवी:  मैं सिर्फ दो या तीन जगहों, जैसे पश्चिम बंगाल और केरल, का उल्लेख किया है. केरल में पर्याप्त संख्या है, क्योंकि हमारी पार्टी है. दुर्भाग्य से, पश्चिम बंगाल में हमारी पार्टी नहीं है. वैसे भी, हम आशा करते हैं कि भविष्य में पश्चिम बंगाल और अन्य राज्यों से पर्याप्त प्रतिनिधित्व, 25 फीसदी,  आ जाएगा. महोदय, मुझे यह मौका देने के लिए मैं एक बार फिर से आपको धन्यवाद देता हूं, और मैं इस विधेयक का समर्थन करता हूं.
क्रमशः

हाँ, मैं एक स्त्री हूँ

सुशील शर्मा 

हाँ, मैं एक स्त्री हूँ

हाँ मैं एक स्त्री हूँ
हाँ मैं एक स्त्री हूँ ,एक देह हूँ
क्या तुमने देखा है मुझे देह से अलग?
पिता को दिखाई देती है मेरी देह एक सामाजिक बोझ
जो उन्हें उठाना है अपना सर झुका कर
माँ को दिखाई देती है मेरी देह में अपना डर अपनी चिंता
भाई मेरी देह को जोड़ लेता हेै अपने अपमान से
रिश्ते मेरी देह में ढूंढते हैं अपना स्वार्थ
बाज़ार में मेरी देह को बेंचा जाता है सामानों के साथ
घर के बाहर मेरी देह को भोगा जाता है।
स्पर्श से ,आँखों से ,तानों और फब्तियों से
संतान ऊगती है मेरी देह में
पलती है मेरी देह से और छोड देती है मुझे
मेरी देह से इतर मेरा अस्तित्व
क्या कोई बता सकता है ?

क्या होती है स्त्रियां

घर की नींव में दफ़न सिसकियाँ और आहें हैं स्त्रियां
त्याग तपस्या और प्यार की पनाहें हैं स्त्रियां
हर घर में  मोड़ी और मरोड़ी जाती हैं स्त्रियां
परवरिश के नाटक में हथौड़े से तोड़ी जाती हैं स्त्रियां
एक धधकती संवेदना से संज्ञाहीन मशीनें बना दी जाती है स्त्रियां
सिलवटें, सिसकियाँ और जिस्म की तनी हुई कमानें है स्त्रियां
नदी-सी फूट पड़ती हैं तमाम पत्थरों के बीच स्त्रियां
बाहर कोमल अंदर सूरज सी तपती हैं स्त्रियां
हर नवरात्रों में देवी के नाम पर पूजी जाती हैं स्त्रियां
नवरात्री के बाद बुरी तरह से पीटी जाती हैं स्त्रियां
बहुत बुरी लगती हैं  जब अपना  हक़ मांगती हैं स्त्रियां
बकरे और मुर्गे के गोस्त की कीमतों पर बिकती हैं स्त्रियां
हर दिन सुबह मशीन सी चालू होती हैं स्त्रियां
दिन भर घर की धुरी पर धरती सी घूमती हैं स्त्रियां
कुलों के दीपक जला कर बुझ जाती हैं स्त्रियां
जन्म से पहले ही गटर में फेंक दी जाती हैं स्त्रियां
जानवर की तरह अनजान खूंटे से बांध दी जाती हैं स्त्रियां
'बात न माने जाने पर 'एसिड से जल दी जाती हैं स्त्रियां
'माल 'मलाई 'पटाखा ''स्वादिष्ट 'होती हैं स्त्रियां
मर्दों के लिए भुना ताजा गोस्त होती हैं स्त्रियां
लज्जा ,शील ,भय ,भावुकता से लदी होती हैं स्त्रियां
अनगिनत पीड़ा और दुखों की गठरी होती हैं स्त्रियां
संतानों के लिए अभेद्द सुरक्षा कवच होती हैं स्त्रियां
स्वयं के लिए रेत की ढहती दीवार होती है स्त्रियां

नारी तुम मुक्त हो।

नारी तुम मुक्त हो।
बिखरा हुआ अस्तित्व हो
सिमटा हुआ व्यक्तित्व हो
सर्वथा अव्यक्त हो
नारी तुम मुक्त हो
शब्द कोषों से छलित
देवी होकर भी दलित
शेष से संयुक्त हो
नारी तुम मुक्त हो
ईश्वर का संकल्प हो
प्रेम का तुम विकल्प हो
त्याग से संतृप्त हो
नारी तुम मुक्त हो

संपर्क : सुशील कुमार शर्मा व्यवहारिक भूगर्भ शास्त्र और अंग्रेजी साहित्य में एम.ए. हैं।  शासकीय आदर्श उच्च माध्य विद्यालय, गाडरवारा, मध्य प्रदेश में वरिष्ठ अध्यापक (अंग्रेजी) हैं। 
archanasharma891@gmail.com 

ओलंपिक में स्त्रीकाल- कर्णम मल्लेश्वरी से लेकर साक्षी मलिक तक

रियो ओलंपिक में दीपा कर्मकार के शानदार प्रदर्शन के बाद साक्षी मलिक ने कांस्य पदक जीतकर भारत का खाता खोल दिया.

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साक्षी मलिक

भारतीय पहलवान साक्षी मलिक ने रियो ओलंपिक में कांस्य पदक हासिल कर इतिहास रच दिया है. उन्होंने  रियो ओलंपिक में भारत के लिए पहला पदक हासिल किया.  उन्होंने महिलाओं की फ्रीस्टाइल कुश्ती के 58 किलोग्राम भारवर्ग में भारत के लिए पदक जीता. ये रियो ओलंपिक में भारत का पहला पदक है.साक्षी ने पदक के लिए प्लेऑफ मुक़ाबले में कर्गिस्तान की पहलवान आइसूलू टाइनेकबेकोवा को 8-5 के अंतर से हराया. एक वक्त साक्षी 0-5 से पीछे चल रही थीं लेकिन उन्होंने ज़ोरदार वापसी करते हुए जीत दर्ज की.








हरियाणा के रोहतक की रहने वाली साक्षी मलिक दिल्ली में एक बस कंडक्टर की बेटी है. साक्षी की मां भी नौकरी करती हैं. पहलवान दादा से कुश्ती की विरासत पाने वाली साक्षी ने भारत के लिए एक अदद पदक की उम्मीद पूरी की.


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कर्णम मल्लेश्वरी


साक्षी के पहले भारत की ओर से ओलंपिक में सिर्फ तीन महिला खिलाड़ी कर्णम मल्लेश्वरी, मैरी कॉम और साइना नेहवाल ने क्रमशः 2000, 2012, 2012 में यह उपलब्धि हासिल की थी.

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मेरी कॉम
 सन 2000 में मल्लेश्वरी भारोत्तोलन में कांस्य जीतने वाली पहली भारतीय महिला बनीं. उसके बाद 2012 में मेरी कॉम ने मुक्केवाजी में और 2012 में ही सायना नेहवाल ने बैडमिंटन में भारत की पहली महिला पदक विजेता बनने का इतिहास रचा.
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सायना नेहवाल

 भारत के लिए एक और पदक की उम्मीद भी महिला खिलाड़ी पी.वी सिंधु से है, जो सेमी फायनल तक पहुँच चुकी हैं.  

महिला आरक्षण विधेयक पारित करना स्त्रीत्व का सम्मान है: मनमोहन सिंह

महिला आरक्षण को लेकर संसद के दोनो सदनों में कई बार प्रस्ताव लाये गये. 1996 से 2016 तक, 20 सालों में महिला आरक्षण बिल पास होना संभव नहीं हो पाया है. एक बार तो यह राज्यसभा में पास भी हो गया, लेकिन लोकसभा में नहीं हो सका. सदन के पटल पर बिल की प्रतियां फाड़ी गई, इस या उस प्रकार  से बिल रोका गया. संसद के दोनो सदनों में इस बिल को लेकर हुई बहसों को हम स्त्रीकाल के पाठकों के लिए क्रमशः प्रकाशित करेंगे. पहली क़िस्त  में  संयुक्त  मोर्चा सरकार  के  द्वारा  1996 में   पहली बार प्रस्तुत  विधेयक  के  दौरान  हुई  बहस . पहली ही  बहस  से  संसद  में  विधेयक  की  प्रतियां  छीने  जाने  , फाड़े  जाने  की  शुरुआत  हो  गई थी . इसके  तुरत  बाद  1997 में  शरद  यादव  ने  'कोटा  विद  इन  कोटा'  की   सबसे  खराब  पैरवी  की . उन्होंने  कहा  कि 'क्या  आपको  लगता  है  कि ये  पर -कटी , बाल -कटी  महिलायें  हमारी  महिलाओं  की  बात  कर  सकेंगी ! 'हालांकि  पहली   ही  बार  उमा भारती  ने  इस  स्टैंड  की  बेहतरीन  पैरवी  की  थी.  अंग्रेजी से हिन्दी अनुवाद पूजा सिंह और श्रीप्रकाश ने किया है. 
संपादक

आख़िरी क़िस्त

अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस की सौंवी वर्षगांठ ( 8 मार्च 2010) 

प्रधानमंत्री (डॉ. मनमोहन सिंह.):श्रीमान सभापति महोदय, सबसे पहले मैं पिछले दो दिनों में इस सदन में हुई कुछ असामान्य घटनाओं पर अपना गहरा खेद व्यक्त करता हूं. सभापति महोदय, अपनी सरकार की ओर से मैं आपके और पदाधिकारियों के प्रति दर्शाये गये अनादर पर गहराई से माफी मांगता हूं. ऐसी बातें कभी नहीं होना चाहिए. पर वे घटित हो चुकी हैं और हमें इस पर विचार करना है कि कैसे हम भविष्य में अपने कामकाज को कारगर बनायें कि ऐसी घटनाएं नहीं हों. सभापति महोदय, इन असामान्य घटनाक्रम के बावजूद इस ऐतिहासिक कानून पर विचार करते वक्त जो सर्व-सम्मति या लगभग सर्व-सम्मति बनी है वह भारतीय लोकतंत्र के स्वस्थ होने और सही जगह पर होने का जिंदा प्रमाण है.


मनमोहन सिंह (जारी): इसलिए मैं विपक्ष के माननीय नेता, अन्य सभी राजनीतिक दलों के नेताओं को बधाई देता हूं , जिनके सहयोग से हमारे लिए वास्तव में एक ऐतिहासिक कानून को अधिनियमित करना संभव हो पाया है. हमारी महिलाओं को सशक्त बनाने की लंबी यात्रा में एक महत्वपूर्ण कदम है. श्रीमान सभापति महोदय, जब यह यात्रा शुरू हुई थी, उसी समय सभी व्यक्तियों 21 वर्ष के सभी पुरुषों और महिलाओं को मतदान का अधिकार देने की समझ हमारे नेताओं को रही है. इसके बाद श्री राजीव जी, मतदान की उम्र को घटाकर 18 वर्ष कर दिया. लेकिन, हमें यह भी स्वीकार करना होगा कि सामाजिक और आर्थिक विकास के लिए स्वतंत्र भारत में किये गये विभिन्न प्रयासों के बावजूद, हमारी महिलाओं ने, सामाजिक और आर्थिक विकास की प्रक्रिया के लाभों के संदर्भ में बात करें तो भी, भारी कठिनाइयों का सामना किया है. हमारी महिलाएं घर पर भी भेदभाव का सामना करती हैं. वहाँ घरेलू हिंसा है. वे शिक्षा, स्वास्थ्य आदि तक अपनी असमान पहुंच में भेदभाव का सामना करती हैं. यदि भारत अपने सामाजिक और आर्थिक विकास की पूरी क्सभावना को साकार करना है तो इन सब बातों को समाप्त होना होगा. आज पारित होने जा रहा विधेयक आगे बढ़ता हुआ एक ऐतिहासिक कदम है, भारत के स्त्रीत्व की मुक्ति की प्रक्रिया को मजबूत बनाने में आगे बढ़ा हुआ एक बड़ा कदम है. यह हमारे स्त्रीत्व का उत्सव है. यह हमारी प्राचीन संस्कृति और सभ्यता में हमारी महिलाओं के लिए भारत के आदर और सम्मान का एक उत्सव है. यह उन सभी बहादुर महिलाओं का महान स्मरण है, जिन्होंने भारत की आजादी की लड़ाई लड़ी है. इस अवसर पर मेरे खयाल में कस्तूरबा माता, डॉ. एनी बेसेंट, श्रीमती कमला नेहरू, श्रीमती सरोजिनी नायडू, राजकुमारी अमृत कौर, श्रीमती विजयलक्ष्मी पंडित, श्रीमती इंदिरा गांधी शामिल हैं. भारत की इन सभी बहादुर बेटियों ने हमारे स्वतंत्रता संग्राम की सफलता के लिए लड़ाई लड़ी है और काफी योगदान दिया है. जो हम आज अधिनियमित करने के लिए जा रहे हैं वह राष्ट्र निर्माण, स्वतंत्रता संग्राम और अन्य सभी राष्ट्र निर्माण की गतिविधियों की प्रक्रियाओं में हमारी महिलाओं के बलिदान के प्रति हमारी श्रद्धांजलि का एक छोटा सा टोकन है. मैं दिवंगत श्रीमती गीता मुखर्जी के भी योगदान को याद कर रहा हूं. वह उस स्थायी समिति की अध्यक्ष रहीं जिसने संसद के समक्ष आये पहले विधेयक पर रिपोर्ट थी. इस महत्वपूर्ण विधेयक को प्रक्रिया में लाने वाली स्थायी समिति की अध्यक्ष श्रीमती जयंती नटराजन को भी धन्यवाद देता हूं.

 वृंदा करात:महोदय, श्री नचियप्पन के नाम का उल्लेख नहीं करें. वह एक अकेले थे जिन्होंने विधेयक का विरोध किया था.


पहली क़िस्त के लिए क्लिक करें: 
महिला आरक्षण को लेकर संसद में बहस :पहली   क़िस्त

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महिला आरक्षण को लेकर संसद में बहस: दूसरी क़िस्त 

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महिला आरक्षण को लेकर संसद में बहस :तीसरी   क़िस्त

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 वह इतिहास, जो बन न सका : राज्यसभा में महिला आरक्षण

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महिला संगठनों, आंदोलनों ने महिला आरक्षण बिल को ज़िंदा रखा है : वृंदा कारत: पांचवी  क़िस्त

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आरक्षण के भीतर आरक्षण : क्यों नहीं सुनी गई आवाजें : छठी क़िस्त 

सातवीं  क़िस्त के लिए क्लिक करें : 
सारे दल साथ -साथ फिर भी महिला आरक्षण बिल औंधे मुंह : क़िस्त सात

आठवीं  क़िस्त के लिए क्लिक करें
महिलाओं द्वारा हासिल प्रगति ही समुदाय की प्रगति: डा. आंबेडकर: महिला आरक्षण बिल, आठवी क़िस्त

नौवीं क़िस्त के लिए क्लिक करें:
आरक्षण के भीतर आरक्षण के पक्ष में बसपा का वाक् आउट : नौवीं क़िस्त

डॉ. मनमोहन सिंह:लेकिन,  मुझे उनके भी नाम  का उल्लेख करना चाहिए ...

सीताराम येचुरी:पुरुषों ने भी योगदान दिया है

डॉ. मनमोहन सिंह:महोदय, कुछ माननीय सदस्यों ने कुछ आपत्तियां जताई हैं कि अगर अल्पसंख्यकों, पिछड़े वर्ग, और अनुसूचित जाति/जनजाति की अक्षमताओं को भी कुछ मान्यता दी जाती तो उन्हें अच्छा लगता. मुझे याद है और मैं स्वीकार भी करता हूं कि पहचानते हैं कि हमारे अल्पसंख्यकों कों हमारे विकास के फल का पर्याप्त हिस्सा नहीं मिला है.

डॉ. मनमोहन सिंह (जारी): हमारी सरकार हमारे अल्पसंख्यक समुदाय के सशक्तिकरण के लिए ईमानदारी से काम करने के लिए प्रतिबद्ध है. इसके कई अन्य तरीके हैं. प्रक्रिया पहले से ही शुरू हो चुकी है. हम सब पूरी ईमानदारी के साथ इस कार्य को करने में हिस्सेदारी करेंगे. यह विधेयक कोई अल्पसंख्यक विरोधी विधेयक नहीं है; यह एक अनुसूचित जाति विरोधी विधेयक नहीं है; यह एक अनुसूचित जनजाति विरोधी विधेयक नहीं है. यह एक ऐसा विधेयक है जो हमारी महिलाओं की मुक्ति की प्रक्रिया को आगे ले जाता है. यह एक प्रमुख और आगे बढ़ा हुआ  संयुक्त कदम है. यह एक ऐतिहासिक अवसर है जो उत्सव की मांग करता है. मैं इस सम्मानित सदन के हर सदस्य को धन्यवाद देता हूं. मैं श्रीमान सभापति महोदय, और श्रीमान उपसभापति महोदय को उनके भारी योगदान के लिए धन्यवाद देता हूं. उग्र घटनाओं के बाद, यह अंत ही है जो मायने रखता है. जैसा किसी ने कहा है, "आवाज को कोई पूछता नहीं, अंजाम अच्छा हो आदमी का."तो, इन शब्दों के साथ एक बार फिर से, मैं अपनी खुशी जाहिर करता हूं कि हम इस बहुत ही ऐतिहासिक पथप्रदर्शक कानून को अधिनियमित करने जा रहे हैं.

विधि एवं न्याय मंत्री (श्री एम. वीरप्पा मोइली): श्रीमान सभापति महोदय,  अरुण जेटली जी से शुरू होकर और अंत में,  हमारे प्रिय प्रधानमंत्री के समापन वक्तव्य तक 27 वक्ताओं सुनने के बाद, मैं ज्यादा कुछ नहीं कहना चाहता हूं. लेकिन, आज एक ऐतिहासिक दिन है क्योंकि हम सभी अपनी मां का अपना कर्ज चुका रहे है. यह सबसे बड़ा दिन है. आज जब इस दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में महिलाओं का प्रतिशत 11.25 प्रतिशत से आगे नहीं बढ़ा है, इस तरह के एक कानून की आवश्यकता और अधिक है. वास्तव में, दुनिया का औसत ही 19 प्रतिशत है, यहां तक ​​कि एशियाई औसत 18.7 प्रतिशत है. यही कारण है कि आज निर्भीकता और एक दृष्टिकोण के साथ कार्य करने का समय आ गया है. महत्वपूर्ण दिन और कृत्य के एक सामान्य समय में उतनी आसानी से नहीं आते. जैसा कि कहा जाता है,  हिंसा एवं क्रोध के लिए समझ के रूप में उठाया गया एक कदम अंततः रचनात्मक विनाश की समझ होती है. कल और आज जो भी हुआ, मुझे, अंत में, अपने उदात्त सभापति की सहिष्णुता, लचीलेपन और अभूतपूर्व अशांति को संभालने के दौरान प्रदर्शित की गई उनकी सतर्क इच्छाशक्ति की सराहना करनी चाहिए. और, हाँ, आज वे विविधता में एकता वाले ऐसे मिलन के भी साक्षी बन रहे हैं.  मैं यह भी कहूंगा कि हमारी सभ्यता, हमारा इतिहास, हमारा दर्शन, हमारा धर्म लोगों को प्रेरणा देता रहेगा. अहिंसा के सिद्धांत के प्रति हमारी प्रतिबद्धता ने पूरी दुनिया के लिए अग्रदूत का काम किया है. आज, हमारे पास दुनिया को दिखाने के लिए एक अवसर है कि जब प्रगतिशील कदम उठाने की बात आती है तो हमारा देश पीछे नहीं हटता या देखता है, और आज उठाया गया कदम, एक महान कदम है.

 एम वीरप्पा मोइली (जारी): मैं उन सभी माननीय सदस्यों को, चाहे वे किसी भी पार्टी के हों, बधाई देना चाहूंगा जिन्होंने अपना हार्दिक समर्थन दिया है, जो एक यांत्रिक समर्थन नहीं है. कुछ गलतफहमियां है, जो दोनों सदन के अंदर और बाहर भी दोनों जगह व्यक्त की गई हैं. मैं कुछ को स्पष्ट करना चाहूंगा. इस संवैधानिक संशोधन को पारित करने के बाद,  एक कानून बनेगा  जो संसद द्वारा पारित किया जाएगा, जो सीटों के निर्धारण और कोटा से संबंधित निर्णय पर भी गौर करेगा, ताकि आज व्यक्त की गईं चिंताओं में से, निश्चित रूप से, कुछ को संबोधित किया जा सके. सीटों के निर्धारण और आरक्षण को भी सिर्फ परिसीमन अधिनियम की तरह एक अलग कानून के द्वारा संबोधित किया जाएगा. तो,  उसे संबोधित किया जाएगा. हमें उन मामलों पर गौर करने की जरूरत है और हम एक कानून लायेंगे.


 एस. एस. अहलूवालिया: महोदय, आपने कहा कि यह 'कोटा'है.

एम. वीरप्पा मोइली:वह गलती से कहा गया था…जुबान फिसल गई थी…वह गलती से कहा गया था.

रवि शंकर प्रसाद: उसे स्पष्ट किया जाना चाहिए.

एम. वीरप्पा मोइली: मुझे लगता है कि यह स्पष्ट है. अंतिम बात जो मैं स्पष्ट करना चाहता हूं, वह ओबीसी, अल्पसंख्यकों और बाकी के आरक्षण के बारे में है. आप सभी जानते हैं कि आज तक, हमने केवल अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षण की व्यवस्था की है. हमारे पास पूरे देश के आंकड़े नहीं हैं, क्योंकि 1931 के बाद, कोई राष्ट्रीय जनगणना नहीं की गई है. एक राज्य में मौजूद कोई पिछड़ा वर्ग हो सकता है कि दूसरे राज्य में पिछड़े वर्ग नहीं हो. हम अन्य पिछड़ा वर्ग और अल्पसंख्यकों के लिए वास्तविक आरक्षण चाहते हैं,  तो हमें कई अन्य मुद्दों का समाधान करने की जरूरत है. मैं इसे लम्बा नहीं करना चाहता. मैं इस सदन से विचार करने और पारित करने के लिए इस विधेयक की अनुशंसा करता हूं. धन्यवाद.
समाप्त
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