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यौन हिंसा और न्याय की मर्दवादी भाषा:- आख़िरी क़िस्त

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अरविंद जैन
स्त्री पर यौन हिंसा और न्यायालयों एवम समाज की पुरुषवादी दृष्टि पर ऐडवोकेट अरविंद जैन ने मह्त्वपूर्ण काम किये हैं. उनकी किताब 'औरत होने की सजा'हिन्दी में स्त्रीवादी न्याय सिद्धांत की पहली और महत्वपूर्ण किताब है. संपर्क : 9810201120
bakeelsab@gmail.com
न्याधाशीशों ने फिर से अपनी मर्दवादी जुबान खोली. खबर है कि गुजरात के जज महोदय ने गुलबर्ग सोसायटी में हुए हत्याकांड, आगजनी और बलात्कार पर अपना न्याय देते हुए कहा कि 'आगजनी और हत्याकांड के बीच बलात्कार नहीं हो सकता है.'उन्हीं जज साहब ने अभियुक्तों से यह भी कहा कि हम आपके चेहरे पर मुस्कान देखना चाहते हैं.'जजसाहबों का मर्दवादी मिजाज न्याय नहीं है, ऐसे अनेक निर्णय हैं, जिनमें वे बलात्कार पर निर्णय देते हुए खासे कवित्वपूर्ण हो जाते रहे हैं. इसके पहले भी भंवरी देवी बलात्कार काण्ड में निर्णय देते हुए जज साहब ने कहा था कि 'जो पुरुष  किसी नीची जाति की महिला का जूठा नहीं खा सकता  वह उसका बलात्कार कैसे कर सकता है?'यह विचित्र देश है. कल ही नायक का तमगा लिए सलमान खान साहब ने भी बलात्कार के दर्द की तुलना अपने काम के थकान से पैदा दर्द से करते पाये गये. यह एक मानसिकता है. न्यायालयों की इसी सोच और भाषा पर स्त्रीवादी ऐडवोकेट अरविंद जैन ने काफी विस्तार से लिखा था कभी, काफी चर्चित लेख. स्त्रीकाल के पाठकों के लिए उसे धारवाहिक प्रकाशित कर रहे हैं हम.

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महान भारतीय संस्कृति :आठवी  क़िस्त 


इस सन्दर्भ में सिर्फ इतना और कि प्राचीन भारतमें समान जाति की स्त्री के साथ बलात्कार करने पर पुरुष की सम्पूर्ण सम्पत्ति छीनकर, उसके गुप्तांग काटकर उसे गधे पर चढ़ाकर घुमाया जाता था. मगर हीन-जाति की स्त्री के साथ बलात्कार में उपर्युक्त दंड का आधा दंड ही दिया जाता था. यदि स्त्री उच्च वर्ग की होती थी तो अपराधी के लिए मृत्युदंड था और सम्पत्ति छीन ली जाती थी. स्त्री के साथ धोखे से सम्भोग करने पर पुरुष को सम्पूर्ण सम्पत्ति से वंचित करके उसके मस्तक पर स्त्री का गुप्तांग चिह्नित करके नगर से निष्कासित कर दिया जाता था....बृहस्पति ने नीची जाति के पुरुष द्वारा उपभोग की गई उच्च जाति की निर्दाेष स्त्री को भी मृत्युदंड देने की व्यवस्था दी है. याज्ञवल्क्य और नारद के अनुसार, जब कोई व्यक्ति किसी अविवाहित कन्या की इच्छा के विरुद्ध उससे सम्बन्ध रखता था तो उस व्यक्ति की दो अँगुलियाँ काट ली जाती थीं, किन्तु कन्या के उच्चवर्णी होने की स्थिति में उस व्यक्ति की सम्पत्ति छीनकर उसे मृत्युदंड दिया जाता था. कौटिल्य ने इस सन्दर्भ में कुछ भेद किए हैं. जो पुरुष स्वजाति की अरजस्वला कन्या को दूषित करे, उसका हाथ कटवा दिया जाए अथवा चार सौ पण दंड दिया जाए. यदि कन्या मर जाए तो पुरुष को प्राणदंड दिया जाए. रजस्वला हो चुकी कन्या की स्थिति में पुरुष की मध्यमा व तर्जनी अँगुलियाँ काट दी जाएँ अथवा दो सौ पण दंड दिया जाए और कन्या का पिता, जो भी क्षतिपूर्ति चाहे, उसे प्राप्त कराई जाए...वेश्या से बलात्कार का दंड बारह पण व दंड से सोलह गुना शुल्क गणिका को देने का नियम था. माता, मौसी, सास, भाभी, बुआ, चाची, ताई, मित्र-पत्नी, बहन, बहन-सी मित्र, पुत्रवधू, पुत्री, गुरु-पत्नी, सगोत्र, शरणागत, रानी, संन्यासिनी, धाय, ईमानदार स्त्री एवं उच्चवर्गी स्त्री के साथ सम्भोग करनेवाले पुरुष का गुप्तांग काट दिया जाता था.81

बलात्कारी को मृत्युदंड

कुछ माह पूर्व गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने भी'हवाई घोषणा'की थी कि उनकी सरकार बलात्कार के अपराधियों को मृत्युदंड देने का कानून बनाएगी. इस बयान की गम्भीरता, राजनीतिक भाषा और सम्भावना को समझने के लिए सिर्फ यह जान लेना काफी होगा कि सर्वोच्च न्यायालय कई बार यह कह चुका है कि मृत्युदंड सिर्फ हत्या के 'दुर्लभतम में दुर्लभ'मामलों में ही दिया जाना है. परिणामस्वरूप आज तक दहेज हत्या या वधूदहन के एक भी मामले में फाँसी नहीं दी गई है. ऐसे जिन मामलों में फाँसी की सजा सुनाई भी गई थी, उन्हें उच्च न्यायालयों या सर्वोच्च न्यायालयों के न्यायमूर्तियों ने आजन्म कैद में बदल दिया. इसी प्रकार बच्चों से बलात्कार और हत्या के मामलों में भी (सिवा जुम्मन खान (1991) अपराधी को फाँसी की बजाय) उम्रकैद की सजा ही सुनाई गई है. ऐसी स्थिति में (सिर्फ) बलात्कार के अपराधी को मृत्युदंड कैसे दिया जा सकेगा ? अगर बलात्कारी के लिए मृत्युदंड का प्रावधान भी बन जाए, तो क्या वैधानिक और न्यायिक दृष्टिकोण भी बदला जाएगा ? संसद में बैठे पुरुष प्रतिनिधि क्या ऐसा कानून बनने देंगे ? 'सहमति'और 'बदचलनी'के कानूनी हथियारों का क्या होगा ? दहेज हत्याओं में मृत्युदंड का प्रावधान समाप्त करके, उम्रकैद का कानून (धारा 304-बी) बनाने वाली 'पुरुष पंचायत'बलात्कार के अपराधियों को सजा-ए-मौत देने का कानून बनाएगी  ? कैसे ? कब ? विशेषकर जब दुनिया भर में मृत्युदंड समाप्त करने की बहस और मानवाधिकारों का शोर हो.


जीने का मौलिक अधिकार

''बलात्कार एक ऐसा अनुभव है, जो पीडि़ता केजीवन की बुनियाद को हिला देता है. बहुत सी स्त्रियों के लिए इसका दुष्परिणाम लम्बे समय तक बना रहता है, व्यक्तिगत सम्बन्धों की क्षमता को बुरी तरह से प्रभावित करता है, व्यवहार और मूल्यों को बदल आतंक पैदा करता है. (डब्ल्यू यंग, रेप स्टडी, 1983) सर्वोच्च न्यायालय के विद्वान न्यायमूर्ति श्री एस. सगीर अहमद और आर.पी. सेठी ने अपने एक ऐतिहासिक निर्णय (दिनांक 28 जनवरी, 2000) में कहा है कि किसी भी स्त्री के साथ बलात्कार मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है. सरकारी कर्मचारियों द्वारा किए गए दुष्कर्ष के लिए केन्द्र सरकार को भी जिम्मेवार ठहराया जा सकता है. विशेषकर हर्जाना अदा करने के लिए भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के अन्तर्गत भारतीय ही नहीं, विदेशी नागरिकों को भी जीवन और स्वतंत्रता का मौलिक अधिकार प्राप्त है. सर्वोच्च न्यायालय के इस अभूतपूर्व निर्णय के निश्चित रूप से बहुत दूरगामी परिणाम होंगे. यौन हिंसा की शिकार स्त्रियों के मुकदमों में, अतीत के अनेक विवादास्पद फैसलों को देखते हुए, इसे सचमुच 'न्यायिक प्रायश्चित्तÓ या 'भूल सुधार'भी कहा जा सकता है. पुलिस हिरासत में पुलिसकर्मियों द्वारा बलात्कार के विचाराधीन मामलों में यह निर्णय अनेक नए आयाम जोडऩे की महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है. हालाँकि कुछ संविधान विशेषज्ञ अधिवक्ताओं का कहना है कि हर्जाने के आदेशों से पहले, अपराध प्रमाणित होना अनिवार्य है. यदि इस तर्क को सही मानें तो समस्या वहीं की वहीं अटकी रह जाएगी. अपराध प्रमाणित होने में तो लम्बा समय लगेगा और सम्भव है कानूनी तकनीकियों के जाल में उलझ जाए.

संक्षेप में उपरोक्त मुकदमे के तथ्यों के अनुसारबांग्लादेश की नागरिक हनुफा खातून के साथ हावड़ा रेलवे स्टेशन के यात्री निवास में कुछ रेलवे कर्मचारियों ने सामूहिक बलात्कार किया. हनुफा खातून को 26 फरवरी, 1998 को हावड़ा से अजमेर जाना था।.बलात्कार की दुर्घटना के बाद कलकत्ता उच्च न्यायालय की एक वकील चन्द्रिमा दास ने रेलवे बोर्ड के अध्यक्ष से लेकर पुलिस अफसरों और केन्द्र सरकार तक के विरुद्ध एक याचिका उच्च न्यायालय में दायर की, जिसमें हर्जाने के अलावा कुछ आवश्यक दिशा-निर्देश देने की माँग भी की गई थी. सुनवाई के बाद उच्च न्यायालय ने केन्द्र सरकार को आदेश दिया कि पीडि़ता को दस लाख रुपया बतौर हर्जाना अदा करे. उच्च न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध अध्यक्ष रेलवे बोर्ड ने सुप्रीम कोर्ट में विशेष अनुमति याचिका दायर की, जिसे बहस सुनने के बाद खारिज कर दिया गया. सर्वोच्च न्यायालय में सरकारी वकीलों द्वारा प्रस्तुत तर्कों में मुख्य तर्क यह था कि हनुफा खातून भारतीय नागरिक नहीं, बल्कि विदेशी है, इसलिए रेलवे हर्जाना देने के लिए जिम्मेवार नहीं है. यह भी कहा गया कि कर्मचारियों द्वारा किए गए अपराध के लिए रेलवे या केन्द्र सरकार को जिम्मेवार नहीं ठहराया जा सकता. बहस के दौरान सरकारी वकीलों ने दलील दी कि यह कुछ व्यक्तियों द्वारा किया गया अपराध है, जिसके लिए उन पर मुकदमा चलाया जाएगा और उन्हें दोषी पाए जाने पर दंडित भी किया जा सकता है और जुर्माना भी वसूला जा सकता है, लेकिन रेलवे या केन्द्र सरकार को जिम्मेवार नहीं ठहराया जा सकता. विद्वान वकीलों ने चन्द्रिमा दास द्वारा दायर याचिका की वैधता पर भी सवाल उठाते हुए कहा कि वकील साहिबा को ऐसी याचिका दायर करने का कोई कानूनी अधिकार नहीं, परन्तु सरकारी महाधिवक्ता के तमाम तर्कों को रद्द करते हुए माननीय न्यायमूर्तियों ने विशेष अनुमति याचिका खारिज कर दी.


विद्वान न्यायमूर्तियों ने सरकारी अफसरों औरपुलिसकर्मियों द्वारा किए गए दुष्कर्मों के मामलों में पीडि़तों को हर्जाना देने सम्बन्धी अनेक महत्त्वपूर्ण नजीरों का हवाला दिया है. इनमें रुदुल शाह (1983), भीमसिंह (1985), सहेली (1980), इन्द्र सिंह (1995) डी.के. बसु (1997), कौशल्या (1998) से लेकर मंजू भाटिया (1998) तक शामिल हैं. जनहित याचिकाओं और उनमें प्रबुद्ध समाजसेवी वकीलों की भूमिका को रेखांकित करते हुए निर्णय में बहुत से उदाहरण दिए गए है. मौलिक अधिकार और विदेशी नागरिकता के सवाल पर न्यायमूर्तियों ने मानवाधिकारों से लेकर स्त्रियों के विरुद्ध हिंसा सम्बन्धी अन्तर्राष्ट्रीय प्रस्तावों तक का विस्तार से उल्लेख करते हुए कहा कि न्यायाधीशों और वकीलों को मानवाधिकरों के अन्तर्राष्ट्रीय न्यायशास्त्र के प्रति जागरूक और सचेत रहना चाहिए, विशेषकर महिलाओं के सुरक्षा सम्बन्धी मानवाधिकारों से. न्यायमूर्तियों ने अपने निर्णय में अनवर बनाम जम्मू-कश्मीर (1971) का जिक्र करते हुए कहा कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 20, 21 और 22 में प्रदत्त मौलिक अधिकार सिर्फ भारतीय नागरिकों को ही उपलब्ध नहीं, बल्कि विदेशी नागरिकों को भी उपलब्ध हैं. बलात्कार को मौलिक अधिकार का उल्लंघन घोषित करनेवाले निर्णय (बौद्धिसत्व बनाम सुभद्रा चक्रवर्ती, 1996) को सही ठहराते हुए निर्णय में कहा गया है. ''बलात्कार सिर्फ एक स्त्री के विरुद्ध अपराध नहीं बल्कि समस्त समाज के विरुद्ध अपराध है. यह स्त्री की सम्पूर्ण मनोभावना को ध्वस्त कर देता है और उसे भयंकर भावनात्मक संकट में धकेलता है, इसलिए बलात्कार सबसे अधिक घृणित अपराध है. यह मूल मानवाधिकारों के विरुद्ध अपराध है और पीडि़ता के सबसे अधिक प्रिय अधिकार का उल्लंघन है, उदाहरण के लिए जीने का अधिकार जिसमें सम्मान से जीने का अधिकार शामिल है.

माननीय न्यायमूर्तियों ने अपने फैसले में लिखा किहनुफा खातून इस देश की नागरिक नहीं है लेकिन फिर भी उसे संविधान द्वारा प्रदत्त जीने के मौलिक अधिकार प्राप्त हैं. सम्मान से जीने का उसे भी उतना ही अधिकार है, जितना किसी भारतीय नागरिक को. विदेशी नागरिक होने के कारण उसके साथ ऐसा व्यवहार नहीं किया जा सकता जो मानवीय गरिमा के नीचे हो और न ही उन सरकारी कर्मचारियों द्वारा शारीरिक हिंसा की जा सकती है, जिन्होंने उसके साथ बलात्कार किया. यह उसके मौलिक अधिकार का हनन है. परिणामस्वरूप यह राज्य की संवैधानिक जिम्मेवारी है कि उसे हर्जाना अदा करे. उच्च न्यायालय के निर्णय में कोई कानूनी खामी नजर नहीं आती. रेलवे बोर्ड और केन्द्र सरकार के बचाव में विद्वान महाधिवक्ता ने एक और दलील यह दी कि कर्मचारियों के कार्यों के लिए राज्य को केवल तभी जिम्मेवार माना जा सकता है, जब उन्होंने यह कार्य आधिकारिक उत्तरदायित्व निभाते हुए किया हो. चूँकि बलात्कार को उनका आधिकारिक दायित्व नहीं कहा जा सकता, इसलिए केन्द्रीय सरकार हर्जाना अदा करने के लिए जिम्मेवार नहीं, लेकिन न्यायमूर्तियों ने जवाब में लिखा, ''यह तर्क पूर्णतया गलत है और इस न्यायालय द्वारा सुनाए फैसलों के विपरीत. सरकारी वकीलों ने अपने पक्ष में जिस विवादास्पद नजीर (कस्तूरी लाल रुलिया राम जैन बनाम उत्तर प्रदेश, 1965) का हवाला दिया. उसके बारे में न्यायमूर्तियों ने कहा कि न्यायालय ने अपने बाद के फैसलों में उस निर्णय को कभी सही नहीं माना. हम भी उसे मानने के लिए बाध्य नहीं। वह एक अर्थहीन (व्यर्थ) नजीर सिद्ध हो चुकी है.


2000 एपैक्स डिसीजन (खंड एक) सुप्रीम कोर्ट, पृ. 401-21 में प्रकाशित, चेयरमैन रेलवे बोर्ड एंड अदर्स बनाम श्रीमती चन्द्रिमा दास के फैसले को पढ़ते हुए महसूस होता है कि राज्य (रेलवे बोर्ड या केन्द्र सरकार) के विद्वान वकील भी ठीक उसी तरह सरकार का बचाव कर रहे हैं, जैसे बचाव पक्ष का कोई वकील अपने किसी खूँखार अपराधी को बचाने के लिए करता है. सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष सरकारी वकीलों के प्राय: सभी तर्क (कुतर्क) बेहद हास्यास्पद नजर आते हैं. वर्षों से स्पष्ट कानूनी प्रस्थापनाओं से बेखबर और 'ओवर रूल्ड'नजीरें पेश करते हुए इन या ऐसे सरकारी अधिवक्ताओं से मानवाधिकारों और लैंगिक न्याय की अवधारणाओं से सचेत होने की अपेक्षा करना व्यर्थ है. आश्चर्यजनक है कि राजसत्ता भी अदालत में पेशेवर अपराधी की तरह मुकदमेबाजी करती दिखाई पड़ती है. समझ नहीं आता कि आखिर केन्द्रीय सरकार किसे बचाना चाहती है/थी ? अपराधी कर्मचारियों को दस लाख रुपया हर्जाना ? बलात्कार के गम्भीर मामले में पीडि़त स्त्री (और वह भी विदेशी नागरिक) के साथ, केन्द्र सरकार का पूरा व्यवहार एकदम अवांछनीय प्रतीत होता है. महिला कल्याण के नाम पर करोड़ों रुपया खर्च करने और स्त्री हितैषी बननेवाली सरकार अदालत में इतनी असंवेदनशील और अतार्कि क कैसे हो जाती है ?  क्यों ?  क्या यही है 'राष्ट्रीय गरिमा'और 'नारी सम्मान'का ढिंढोरा पीटनेवाले नायकों का असली चेहरा.

 इन प्रश्नों को सिर्फ अदालती, कानूनी यान्यायिक दृष्टि से पढऩा-समझना काफी नहीं. राज्य के स्तर पर एक व्यापक परिप्रेक्ष्य और सत्ता और आम नागरिक (विशेषत: स्त्री) के बीच अन्तर्सम्बन्धों को ध्यान में रखते हुए विचार करना होगा. ऐसे मामलों में सरकार की प्रतिष्ठा का कम, राष्ट्र की न्याय व्यवस्था की प्रतिष्ठा का ध्यान अधिक है.
कहना न होगा कि सर्वोच्च न्यायालय के उपरोक्त निर्णय से न्यायिक संस्थाओं के प्रति शेष-अशेष जन आस्थाएँ खंडित होने से तो बची रहीं, साथ ही अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर देश के कानून और न्यायिक विवेक का भी प्रतिबिम्ब सामने आया। यह अलग बात है कि यौन हिंसा के अन्य मामलों में इससे स्त्रियों को कितना लाभ मिलता है। इतना अवश्य कहा जा सक ता है कि यह निर्णय लैंगिक न्याय की दिशा में एक प्रगतिशील कदम ही नहीं बल्कि मील का पत्थर सिद्ध हो सकता है। मानवाधिकार सिर्फ 'मुठभेड़'में मारे गए आतंकवादियों के लिए ही नहीं, यौन हिंसा का शिकार स्त्रियों के पक्ष में भी परिभाषित होना जरूरी ह.। अगर सरकारी संस्थाओं में भी जीवन सुरक्षा उपलब्ध नहीं, तो हजारों विदेशी पर्यटक 'भारत भ्रमण'पर क्यों आएँगे ?


और अन्त में...आत्मरक्षा

यशवन्त राव बनाम मध्य प्रदेश राज्य82 में अभियुक्त पर आरोप था कि उसने 5 अप्रैल, 1985 को लखन सिंह नाम के व्यक्ति की कुदाली से हत्या की है. सत्र न्यायाधीश ने अभियुक्त को हत्या का अपराधी तो नहीं माना लेकिन गम्भीर चोट पहुँचाने के अपराध में एक साल कैद की सजा सुनाई. मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने अपील में यह सजा अब तक भुगती जेल की सजा में बदल दी, जिसके विरुद्ध अभियुक्त ने सर्वोच्च न्यायालय में विशेष अनुमति याचिका दायर की. सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति श्री कुलदीप सिंह और योगेश्वर दयाल ने 4 मई, 1992 को अपने अभूतपूर्व ऐतिहासिक फैसले में लिखा है कि अभियुक्त को अपने बचाव का अधिकार है, जो इस मामले में भी लागू होता है, जब अभियुक्त की पन्द्रह वर्षीया बेटी के साथ मृतक बलात्कार कर रहा था. न्यायमूर्तियों ने कहा कि अभियुक्त के बचाव में सबसे पहले पुलिस में दर्ज रपट है, जिसमें अभियुक्त ने शिकायत की है कि उसकी नाबालिग बेटी छाया घर के पिछवाड़े शौच के लिए गई थी, जहाँ मृतक ने उसे पकड़ लिया और शोर सुनकर वह वहाँ पहुँचा तो मृतक अपने बचाव में भाग खड़ा हुआ था. इस तरह वह दीवार के टकराया और पथरीली जमीन पर गिरकर जख्मी हो गया. सत्र न्यायाधीश का विचार था कि नाबालिग लडक़ी, जिसकी उम्र पन्द्रह साल है, अपनी सहमति से जब लखन सिंह के साथ सम्भोग कर रही थी तब अभियुक्त ने उसे चोट पहुँचाई है. लडक़ी खुद लखन सिंह को घर से बुलाकर लाई थी. अभियुक्त ने अपनी बेटी को लखन सिंह के साथ सम्भोग करते देखा तो उसने उत्तेजना व गुस्से में मृतक पर हमला कर दिया.

सर्वोच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में उल्लेख किया है कि अभियुक्त ने अपने बचाव के अधिकार का तर्क सत्र न्यायाधीश के सामने भी रखा था. लेकिन सत्र न्यायाधीश ने सिर्फ इतना ही ध्यान दिया कि अभियुक्त ने चोट उत्तेजना और गुस्से में पहुँचाई है. इससे आगे मामले की जाँच नहीं की. इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि सम्भोग सहमति से हो रहा था या बिना सहमति के।. तथ्य यह है कि छाया की उम्र पन्द्रह साल थी और लखन सिंह द्वारा किया कृत्य भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 376 उपधारा 6 के अन्तर्गत बलात्कार ही माना जाएगा. पंचनामे से स्पष्ट है कि बलात्कार का प्रयास या सम्भोग पूरा नहीं हुआ था और इसी बीच अभियुक्त ने मृतक पर वार किया था. मेडिकल रिपोर्ट के अनुसार भी मृत्यु कुदाली से चोट लगने की वजह से नहीं हुई है, बल्कि 'लीवर'फटने से हुई है. कारण कुछ भी हो, बचाव का अधिकार अभियुक्त को तब भी है जब कोई उसकी बेटी के साथ बलात्कार कर रहा हो. सर्वोच्च न्यायालय का यह निर्णय महत्त्वपूर्ण कहा जा सकता है क्योंकि कानूनी अधिकारों के बारे में अनभिज्ञ माँ-बाप अक्सर ऐसे मौके पर बलात्कारी को खुद कुछ कहने-सुनने या मारने-पीटने की बजाय थाने में जाकर शिकायत करते हैं. शायद डर भी लगता है कि कहीं खुद ही कानून के जंजाल में न फँस जाएँ. परन्तु इस निर्णय से स्पष्ट है कि बेटी, बहू या बहन या किसी रिश्तेदार के साथ बलात्कार होता देखकर, बलात्कारी की हत्या तक कर देने में भी 'बचाव का अधिकार' (राइट ऑफ प्राइवेट डिफेंस) एक कानूनी अधिकार भी है और बलात्कारियों से निपटने का हथियार भी.


स्त्रियाँ स्वयं अपने बचाव में हथियार उठाने केकानूनी अधिकार का प्रयोग कर सकती हैं. दिल्ली में अभी कुछ दिन पहले एक चौदह वर्षीया लडक़ी ने बलात्कार का प्रयास करनेवाले व्यक्ति की हत्या कर दी थी. नि:सन्देह उसे अपने बचाव में हत्या करने का अधिकार मिलेगा. बलात्कारी कानूनी प्रक्रिया में सजा से बच सकता है. लेकिन जिस दिन औरतें खुद हथियार उठा लेंगी, उसे कोई नहीं बचा सकता. दरअसल भेडिय़ों के समाज में बच्चियों को असुरक्षित और निहत्था छोडऩे के बजाय उन्हें जूड़ों कर्राटे और गोली, गँड़ासा, दराँती चलाना सीखने या सिखाने की जरूरत है और यह भी बताने की जरूरत है कि अपनी सुरक्षा में, अपने बचाव में की गई हत्या भी कोई अपराध नहीं है.

सन्दर्भ

1.महावीर बनाम राज्य 55 (1994) दिल्ली लॉ टाइम्स 428
2.सिद्धेश्वर गांगुली बनाम पश्चिम बंगाल, ए. आई. आर. 1958 सुप्रीम कोर्ट, 143
3.ए. आई. आर. 1927 लाहौर 858
4.ए. आई. आर. 1928 पटना 326
5.ए. आई. आर. 1963 पंजाब 443
6.1963 क्रिमिनल लॉ जर्नल 391
7.4 ऑल इंडिया क्रिमिनल डिवीजन 469
8.1991 क्रिमिनल लॉ जर्नल 939
9.वही, पृ. 942
10.रफीक बनाम उत्तर प्रदेश (1980) सुप्रीम कोर्ट केसस 262
11.ए. आई. आर. 1923 लाहौर 297
12.ए. आई. आर. 1980 सुप्रीम कोर्ट 559
13.23 क्रिमिनल लॉ जर्नल 475
14.ए. आई. आर. 1924 लाहौर 669
15.ए. आई. आर. 1927 रंगून 67
16.ए. आई. आर. 1934 कलकत्ता 7
17.ए. आई. आर. 1935 लाहौर 8
18.ए. आई. आर. 1939 रंगून 128
19.ए. आई. आर. 1944 नागपुर 363
20.ए. आई. आर. 1947 इलाहाबाद 393
21.ए. आई. आर. 1949 कलकत्ता 613
22.ए. आई. आर. 1949 इलाहाबाद 710
23.ए. आई. आर. 1950 लाहौर 151
24.ए. आई. आर. 1950 नागपुर 9
25.ए. आई. आर. 1952 सुप्रीम कोर्ट 54
26.ए. आई. आर. 1955 पटना 3245
27.पडरिया बलात्कार कांड में न्यायाधीश ओ.पी. सिन्हा का फैसला
28.ए. आई. आर. 1977 सुप्रीम कोर्ट 1307
29.ए. आई. आर. 1970 सुप्रीम कोर्ट 1029
30.ए. आई. आर. 1973 सुप्रीम कोर्ट 343
31.तुकाराम बनाम महाराष्ट्र (ए. आई. आर. 1979 सुप्रीम कोर्ट 185)
32.फूलसिंह बनाम हरियाणा (ए. आई. आर. 1980 सुप्रीम कोर्ट 249)
33.भोगिन भाई हिरजी भाई बनाम गुजरात (ए. आई. आर. 1983 सुप्रीम कोर्ट 753)
34.ए. आई. आर. 1989 सुप्रीम कोर्ट 937
35.ए. आई. आर. 1990 सुप्रीम कोर्ट 538
36.ए. आई. आर. 1981 सुप्रीम कोर्ट 361
37.महाराष्ट्र बनाम चन्द्रप्रकाश केवलचन्द जैन ए.आई.आर. 1990 सुप्रीम कोर्ट 658
38.ए. आई. आर. 1927 लाहौर 772
39.छिद्दा राम बनाम दिल्ली प्रशासन, 1992 क्रिमिनल लॉ जर्नल 4073
40.ए. आई.आर. सुप्रीम कोर्ट 658
41.1992 क्रिमिनल लॉ जर्नल 715
42.ए. आई. आर. 1962 मद्रास 31, ए. आई. आर. 1991 सुप्रीम कोर्ट 207
43.1992 क्रिमिनल लॉ जर्नल 1666
44.1988 क्र्रिमिनल लॉ जर्नल 3044
45.1988 (4) आर. सी. आर. (क्रिमिनल) 600
46.1988 (4) आर. सी. आर. (क्रिमिनल) 207
47.1988 (3) आर. सी. आर. (क्रिमिनल) 692
48.1991 क्रिमिनल लॉ जर्नल 2859
49.1994 क्रिमिनल लॉ जर्नल 248
50.1994 क्रिमिनल लॉ जर्नल 1529
51.1983 (2) ऑल क्रिमिनल लॉ रिपोर्ट 844
52.1991 क्रिमिनल लॉ जर्नल 439
53.1993 क्रिमिनल लॉ जर्नल 852
54.1993 क्रिमिनल लॉ जर्नल 2834
55.विनोद कुमार बनाम राज्य, 1994 क्रिमिनल लॉ जर्नल 2360,
55ए.1993 क्रिमिनल लॉ जर्नल 2919
55बी.जहरलाल दास बनाम उड़ीसा राज्य 1991 क्रिमिनल लॉ जर्नल 1809
55सी.कुमुदी बनाम उत्तर प्रदेश राज्य, (1999) एस.एल.टी. 636
56.ए. आई. आर. 1929 लाहौर 584
57.1977 क्रिमिनल लॉ जर्नल 556
58.1987 क्रिमिनल लॉ जर्नल 557
59.रामरूपदास बनाम राज्य, 1993 क्रिमिनल लॉ जर्नल 1000
60.जगदीश प्रसाद बनाम राज्य, 58 (1995) दिल्ली लॉ टाइम्स 740
61.बलवान सिंह बनाम हरियाणा राज्य, 1994, क्रिमिनल लॉ जर्नल 2810
62.रामचित राजभर बनाम पश्चिम बंगाल, 1992 क्रिमिनल लॉ जर्नल 372
63.नाला रामबाबू बनाम आन्ध्र प्रदेश राज्य, 1992 क्रिमिनल लॉ जर्नल 324
64.वी. लक्ष्मी नारायण बनाम पुलिस निरीक्षक, 1992 क्रिमिनल लॉ जर्नल 334
65.ओमी उर्फ ओमप्रकाश बनाम उत्तर प्रदेश राज्य, 1994 क्रिमिनल लॉ जर्नल 155
66.1991 क्रिमिनल लॉ जर्नल 835
67.1992 क्रिमिनल लॉ जर्नल 3786
68.1993 क्रिमिनल लॉ जर्नल 977
68 ए.63 (1996) दिल्ली लॉ टाइम्स 563
68 बी.1994 क्रिमिनल केसस 56
69.फूलसिंह चंडीगढ़ क्रिमिनल केस 163
70.1979 राजस्थान क्रिमिनल केस 234
71.1979 राजस्थान क्रिमिनल केस 234
72.1979 राजस्थान क्रिमिनल केस 56
73.1978 राजस्थान क्रिमिनल केस 426
74.1977 (2) राजस्थान क्रिमिनल केस 157
75.1976 (1) राजस्थान क्रिमिनल केस 310
76.1976 राजस्थान क्रिमिनल केस 258
77.काकू बनाम हिमाचल प्रदेश ए. आई. आर. 1976 सुप्रीम कोर्ट 1991
78.रीपिक रविन्द्र बनाम आन्ध्र प्रदेश, 1991 क्रिमिनल लॉ जर्नल 595
79.इप्पिती श्रीनाथ राव बनाम आन्ध्र प्रदेश 1984 क्रिमिनल लॉ जर्नल 1294
80.जगदीश बनाम दिल्ली राज्य 57 (1955) दिल्ली लॉ टाइम्स 761
81.प्राचीन भारत में न्याय व्यवस्था, नताशा अरोड़ा
82.1992 क्रिमिनल लॉ जर्नल 2779

प्रकृति के लिए महिलाएं

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उपासना बेहार
लेखिका  सामाजिक कार्यकर्ता हैं और महिला मुद्दों और बाल अधिकारों को लेकर मध्यप्रदेश में लम्बे समय से काम कर रही हैं संपर्क :'
upasana2006@gmail.com
महिलाओं का शुरू से ही प्रकृति सेनिकटतम का संबंध रहा है. एक तरफ वो प्रकृति की उत्पादनकर्ता, संग्रहकर्ता तो दूसरी तरफ प्रबंधक, संरक्षक की भूमिका निभाती रही हैं. महिलाओं ने इसकी रक्षा के लिए कई आदोंलन चलाये और अपने प्राण देने से भी नही हिचकचायी. महिलाओं के पर्यावरण-संरक्षण में अतुलनीय योगदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता है. ये आन्दोलनकारी महिलाएं एक बात अच्छे से जानती थी कि स्वच्छ पर्यावरण के बिना जीवन नहीं हैं और पर्यावरण को बचाकर ही जीवन को सुरक्षित रखा जा सकता है. अगर हम पर्यावरण के साथ छेड़छाड़ करेगे तो उसका खामयाजा आने वाली कई पीढ़ियों को भी भुगतना पड़ेगा. देश में हुए कई पर्यावरण-संरक्षण आंदोलनों खासकर वनों के संरक्षण में महिलाओं ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है. इन आन्दोलनों पर अगर नजर डाले तो अमृता देवी के नेतृत्त्व में किये गए आन्दोलन की तस्वीर सबसे पहले आती है, वर्ष 1730 में जोधपुर के महाराजा को महल बनाने के लिए लकड़ी की जरूरत आई तो राजा के आदमी खिजड़ी गांव में पेड़ों को काटने पहुचें तब उस गांव की अमृता देवी के नेतृत्त्व में 84 गाँव के लोगों ने पेड़ों को काटने का विरोध किया, परंतु जब वे जबरदस्ती पेड़ों को काटने लगे तो अमृता देवी पेड़ से चिपक गयी और कहा कि पेड़ काटने से पहले उसे काटना होगा तब राजा के आदमियों ने अमृता देवी को पेड़ के साथ काट दिया, यहाँ से मूल रूप से चिपको आन्दोलन की शुरूआत हुई थी. अमृता देवी के इस बलिदान से प्रेरित हो कर गाँव के महिला और पुरुष पेड़ से चिपक गए. इस आन्दोलन ने बहुत विकराल रूप ले लिया और 363 लोग विरोध के दौरान मारे गए, तब राजा ने पेड़ों को काटने से मना किया.

इसी आंदोलन ने आजादी के बाद हुएचिपको आंदोलन को प्रेरित किया और दिशा दिखाई, सरकार को 26 मार्च 1974 को चमोली जिले के नीती घाटी के जंगलों  को काटने का कार्य शुरू करना था. इसका रैणी गांववासियों ने जोरदार विरोध किया जिससे डर कर ठेकेदारों ने रात में पेड़ काटने की योजना बनायी. लेकिन गौरा देवी ने गाँव की महिलाओं को एकत्रित किया और कहना कि, “जंगल हमारा मायका है हम इसे उजाड़ने नहीं देंगे.“ सभी महिलाएं जंगल में पेड़ों से चिपक गयी और कहा कुल्हाड़ी पहले हम पर चलानी पड़ेगी फिर इन पेड़ों पर,पूरी रात निर्भय होकर सभी पेड़ों से चिपकी रही,  ठेकेदारों को पुनः खाली हाथ जाना पड़ा, यह आन्दोलन पूरे उत्तराखंड में फैल गया. इसी प्रकार टिहरी जिले के हेंवल घाटी क्षेत्र के अदवाणी गांव की बचनी देवी भी ऐसी महिला हैं जिन्होंने चिपको आंदोलन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी. 30 मई 1977 को अदवाणी गांव में वन निगम के ठेकेदार पेड़ों को काटने लगे तो बचनी देवी गांववासियों को साथ लेकर पेड़ बचाओ आंदोलन में कूद पड़ी और पेड़ों से चिपककर ठेकेदारों के हथियार छीन लिए और उन्हें वहां से भगा दिया. यह संघर्ष तकरीबन एक साल चला और आन्दोलन के कारण पेड़ों की कटान पर वन विभाग को रोक लगानी पड़ी.

दक्षिण में भी चिपको आन्दोलन की तर्जपर ‘अप्पिको’ आंदोलन उभरा जो 1983 में कर्नाटक के उत्तर कन्नड़ क्षेत्र से शुरू हुआ, सलकानी तथा निकट के गांवों के जंगलों को वन विभाग के आदेश से काटा जा रहा था तब इन गांवों की महिलाओं ने पेड़ों को गले से लगा लिया, यह आन्दोलन लगातार 38 दिनों तक चला, सरकार को मजबूर हो कर पेड़ों की कटाई रुकवाने का आदेश देना पड़ा.  इसी तरह से बेनगांव, हरसी गांव के हजारों महिलाओं और पुरुषों ने पेड़ों के काटे जाने का विरोध किया और पेड़ों को बचाने के लिए उन्हें गले से लगा लिया. निदगोड में 300 लोगों ने इक्कठा होकर पेड़ों को गिराये जाने की प्रक्रिया को रोककर सफलता प्राप्त की. उत्तराखण्ड में महिलाओं ने ‘रक्षा सूत्र’ आंदोलन की शुरूआत की जिसमें उन्होंने पेड़ों पर ‘रक्षा धागा’ बांधते हुए उनकी रक्षा का संकल्प लिया. नर्मदा बचाओ आन्दोलन, साइलेंट घाटी आंदोलन में महिलाओं ने सक्रीय भागीदारी की. भारत में आजादी के पहले से वन नीति है, भारत की पहली राष्ट्रीय वन नीति वर्ष 1894 में बनी थी. स्वतंत्र भारत की पहली राष्ट्रीय वन नीति 1952 में, वन संरक्षण अधिनियम 1980 में बने  इन नीतियों में महिलाओं का कही जिक्र नहीं था, वनों को लेकर महिला एक उत्पादनकर्ता, संग्रहणकर्ता, संरक्षक और प्रबंधक की भूमिका निभाती हैं इस कारण प्रकृति से खिलवाड़ का दुष्प्रभाव सबसे ज्यादा महिलाओं पर पड़ता है.

इन सब आन्दोलनों के दबाव के कारण 1988 में जो राष्ट्रीय वन नीति बनी उसमें लोगों को स्थान दिया गया. इसमें महिलाओं की सहभागिता को महत्व दिया गया और उनकी वनों पर निर्भरता, वनों को लेकर ज्ञान, वन प्रबंधन में उनकी सक्रीय भागीदारी को समझा गया और यह सोच बनी कि अगर वन प्रबंधन में महिलाओं की भी भागीदारी होगी तो वन नीति के गोल को आसानी से प्राप्त किया जा सकता है इसी सोच के चलते संयुक्त वन प्रबंधन प्रोग्राम के अंतर्गत हर गावों में वन समिति बनायीं गयी और उस समिति में महिलाओं को भी शामिल किया गया. 1995 में राष्ट्रीय वन नीति में बदलाव करते हुए समितियों में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण कर दिया गया. परंतु देखने में आया है कि ज्यादातर महिलाओं को संयुक्त वन प्रबंधन प्रोग्राम और वन समिति के बारे में जानकारी नहीं है, साथ ही पुरुषों के वर्चस्व वाले इस समाज में महिलाओं को कहने बोलने का स्पेस कम ही मिल पता है, लेकिन देखना ये है कि महिलाये इन चुनौतियों से कैसे पार पाती हैं और वनों के स्थायित्व विकास के लिए क्या और किस तरीके के कदम उठाती हैं.

स्त्रियों ने रंगमंच की भाषा और प्रस्तुति को बदला: त्रिपुरारी शर्मा

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बहू और काठ की गाड़ी जैसे चर्चित नाटकों की लेखिका और नाट्य निदेशक त्रिपुरारी शर्मा से स्त्रीकाल के लिए रेणु अरोड़ा, हिन्दी की असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, राजेश चंद्रा, संपादक समकालीन रंगमंच और संजीव चंदन,संपादक स्त्रीकाल ने बातचीत की. अपनी विस्तृत बातचीत में उन्होंने भारतीय नाटक में जेंडर और जाति के विविध  पहलुओं पर बात की. अभिनेत्रियों और स्त्री -निदेशकों के प्रभाव और महिला आन्दोलन में नाटकों के इस्तेमाल को स्पष्ट किया. यह बातचीत थियेटर की एक ऑनलाइन क्लास की तरह है.
देखें पूरा वीडियो :

एक कविता पाब्लो नेरुदा के लिए

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मंजरी श्रीवास्तव
युवा कवयित्री मंजरी श्रीवास्तव की एक लम्बी कविता 'एक बार फिर नाचो न इजाडोरा'बहुचर्चित रही है संपर्क : ई मेल-manj.sriv@gmail.com
12 जुलाई 1904 को पाब्लो नेरुदा का जन्म हुआ था. पाब्लो को समर्पित मंजरी श्रीवास्तव की कविता 'पाब्लो नेरुदा के लिए', आइये पढ़ते हैं पाब्लो को याद करते हुए 

पृथ्वी के एक छोर पर खड़े होकर
तुमने फैलाई
अपनी अपरिमित, असीमित बाँहें
और समेट लिया अपनी बाँहों में 'इस्ला नेग्रा', 'मेम्यार'के अंचल से लेकर
पूरा विश्व
पूरी पृथ्वी
पृथ्वी को अपनी बाँहों में समेटकर चूमते हुए
तुमने लिखीं
बीस प्रेम कविताएँ
और लिखा
निराशा का एक गीत
बीस वर्ष की अपनी बाली उमर में

आज की रात भी
उतनी ही प्रासंगिक हैं
तुम्हारी लिखी
सबसे उदास कविताएँ
जो तब की रातों की जान हुआ करती थीं
नेरुदा

शुरू हुईं तुम्हारी कविताएँ
एक तन में
किसी एकाकीपन में नहीं
किसी अन्य के तन में
चाँदनी की एक त्वरा में
पृथ्वी के प्रचुर चुम्बनों में
तुमने गाए गीत
वीर्य के रहस्यमय प्रथम स्खलन के निमित्त
उस मुक्त क्षण में
जो मौन था तब.
तुमने उकेरी रक्त और प्रणय से अपनी कविताएँ
प्यार किया जननेन्द्रियों के उलझाव से
और खिला दिया कठोर भूमि में एक गुलाब
जिसके लिए लड़ना पड़ा आग और ओस को
और इस तरह समर्थ हुए तुम गाते रहने में.

तुमने मुक्त कर डाला प्रेम को वर्जनाओं से
देह की वर्जनाओं को तोड़ते हुए
तुमने रचा काव्य सर्जना का वह रूप
जो काम- भावना का पर्याय था.
पाब्लो नेरुदा 

तुम्हें नहीं पसंद आईं कभी
रूह की तरह पाक-साफ कविताएँ
तुमने तोड़ डालीं कविताओं की 'वर्जीनिटी'
और लगा दिए साहित्य के पन्नों पर
खून के धब्बे
कविताओं का 'हाइमेन'विनष्ट कर
तुमने कर डाली सौंदर्यशास्त्र की व्याख्या
एक ऐसे नए रूप में
जिसे आज भी देख लेने भर से
तेज हो जाती है खून की रफ़्तार
रगों में
तुमने कविताओं पर लगा दिए दाग़
जूठन के
खर-पतवार के
धूल-धक्कड़ के
और कल-कारखाने की कालिख कलौंछ के
और इन 'कुरूप'कविताओं को
लोकल से ग्लोबल बनाकर
समेटा इस कुरूपता के सौंदर्यशास्त्र को
अपनी बाँहों में
पश्चिमी से पूर्वी गोलार्द्ध तक
और बन गए विश्वकवि

तुमने पैदा किये खून में शब्द
और शब्द से ही दिया खून को खून
और जिन्दगी को जिन्दगी
आज भी हमारे रगों के खून में जिन्दा है
तुम्हारे खून की गरमाहट
नेरुदा

अभी तक बचाकर रखी है तुमने
अपनी प्रेम कविताओं में
प्रेम के मुहाने पर
आँसुओं के लिए थोड़ी-सी जगह
और प्रेम की कब्र भरने के लिए
अपर्याप्त मिट्टी
प्रेम के स्याह गड्ढों को पाटने के काम आ रही है
आज भी
आँसुओं से गीली वह मिट्टी

किसी ने देखा और तुम्हें बतलाया
समय का खेल देखना
तुम्हारी जिन्दगीयों  के प्रहर
मौन के ताश के पत्ते
छाया और उसका उद्देश्य
और तुम्हें बतलाया
की क्या खेलो
ताकि हारते जाओ
और तुम हारते रहे अपनों से
जो नहीं जानते थे
कि
तुम लड़े रोशनी के बीच उनके अंधेरों से


तुमने पैदा किया शब्द को
रक्त में
पाला स्याह तन में
स्पंदन दिया अपनी थरथराती उँगलियों से
और उड़ाया अपने काँपते रसीले होंठों से
यही शब्द और सामान्य जन की वाणी
दोनों मिलकर बने तुम्हारी कविता
तुमने किया
अपनी उन अनजान कविताओं से रूखे स्नेह से प्यार
सिर्फ इसलिए
क्योंकि
तुम्हें लगता था
कि
तुम्हारा सारा दुर्भाग्य इस कारण था
कि एक बार उसने छितरा दिए थे तुम पर
अपने केश
और ढँका था तुम्हें
अपनी छाया में.
अपने इस रूखेपन को दूर करने के लिए
तुमने माँगा था
पृथ्वी से, अपनी नियति से
वह मौन
जो कम-से-कम तुम्हारा अपना तो था.

न सह सके तुम मौन का विशाल बोझ
धारण करते ही मौन
काँप उठे तुम
बेध गई तुम्हें तेज हवा
और उड़ गया फाख्ते के साथ तुम्हारा हृदय
ढह गया मौन का प्राचीर
पर
यकीन है मुझे
जीवित हो अब भी तुम कल की राख में
और अगर हो गए हो मृत
तो भी जन्म लोगे
कल की राख से.

*‘मिस टनकपुर हाजिर हो’ : यथार्थवादी कॉमेडी

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जावेद अनीस
एक्टिविस्ट, रिसर्च स्कॉलर. प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े स्वतंत्र पत्रकार . संपर्क :javed4media@gmail.com
javed4media@gmail.com
भारत में एक बार आप राजनीति और सरकारपर क्रिटिकल होकर बात तो कर सकते है लेकिन सामाजिक-सांस्कृतिक मसलों पर ऐसा कर पाना बहुत मुश्किल है. “मिस टनकपुर हाजिर हो” यह काम करती है, ऐसे विषय पर फिल्म बनाना दुर्लभ और जोखिम भरा काम है और इसका स्वागत होना चाहिए, अपने ट्रीटमेंट की वजह से भले ही यह फिल्म एक सोशियो-कल्चरर  सटायर बनते बनते रह गयी है,फिर भी इसे इग्नोर नहीं किया जा सकता है, यह फिल्म भारतीय समाज के सेक्सुअलिटी, पिछड़ेपन, दोहरेपन और सामंतवादी जैसी प्रवृत्तियों पर एक बेबाक बयान है, यह बताती है कि कैसे आज भी इस देश के कई हिस्सों में पालतू मवेशियों और औरतों में कोई ख़ास अंतर नहीं किया जाता है और वे भी किसी मूंछवाले के घर के किसी खूटे में बंधी होने को अभिशप्त हैं.जैसा की होना ही था अपने सब्जेक्ट के वजह से इस पर जबरदस्त हंगामा हुआ, रिलीज होने से पहले ही फिल्म का इस हद तक विरोध हुआ कि यूपी के मुजफ्फरनगर जिले के एक खाप ने इसे आपत्तिजनक और समाज को गलत दिशा देने वाली फिल्म बताते हुए फरमान सुनाया दिया कि जो भी व्यक्ति  निर्देशक विनोद कापड़ी का सिर कलम करके लाएगा उसे 51 भैंस इनाम में दी जाएगी और साथ में धमकी भी दी गयी कि जिस भी थियेटर में फिल्म चलाई जाएगी वहां आग लगा दी जाएगी. रिलीज होने से पहले ही यह फिल्म खाप के साथ–साथ सिने-प्रेमियों और फिल्म जगत के दिग्गजों का ध्यान भी खीचने में कामयाब रही थी, सबसे पहले तो इसके पोस्टर ने कौतुहल पैदा किया जिसमें एक भैंस अदालत में खड़ी होती है और उसके पीछे कटघरे में एक दूल्हा खड़ा नजर आता है साथ ही पोस्टर में लिखा होता है “’इट्स हैपेंस ओनली इन इंडिया’

इस फिल्म का ट्रेलर भी इतना दिलचस्प था कि अमिताभ बच्चन ने भी इसके बारे में ट्वीट करते हुए ट्रेलर का लिंक भी शेयर किया. राजकुमार हिरानी के तरफ से भी ट्रेलर की तारीफ देखने को मिली. “’मिस टनकपुर हाजिर’ हो” पूरी तरह सेकॉमेडी फिल्म नहीं है, यह एक यथार्थवादी फिल्म है जो समाज के ट्रेजडी को व्यंग्य के साथ पेश करती है, फिल्म “नाच बसंती नाच कुत्तों के सामने नाच” जैसे आईटम सांग से शुरू होती है, हलके-फुल्के हास्य के साथ पहला एक घंटा जैसे ही पार होता है इस कहानी की कॉमेडी ट्रेजडी में तब्दील हो जाती है और एक दर्शक के तौर पर आप का सामना यथार्थ से होने लगता है. फिल्म की कहानी राजस्थान की एक सच्ची घटना से प्रेरित है जिसमें भैंस से कुकर्म के आरोप में एक युवक पर मुकदमा चलाया गया था. यह फिल्म बेमेल विवाह, जोखिम भरी प्रेम कहानी और गावं के  पंचायतों के मध्यकालीन बर्ताव की दास्तान है. फिल्म की पृष्ठभूमि में हरियाणा का एक गांव टनकपुर है. टनकपुर का प्रधान सुआलाल गंदास (अनु कपूर) है जो कि बूढ़ा और नपुंसक होता है लेकिन अपने दौलत और प्रभाव के बल पर उसने अपने से काफी छोटी उम्र की लड़की माया (ऋषिता भट्ट) से शादी की होती है, अपनी नपुंसकता को लेकर उसे अपनी युवा बीवी के ताने भी सुनने पड़ते हैं, इसी चक्कर में वह अपने “मर्दानगी ताकत” को बढ़ाने के लिए नीम–हकीमों का चक्कर काटता रहता है और अपनी बीवी पर शक भी करता है. उसका शक सही भी होता है, माया को गावं में बिजली ठीक करने वाले लड़के अर्जुन (राजीव बग्गा) से प्यार हो जाता है जोकि पुलिस में भरती होने की तैयारी भी करता है.


इनके रिश्ते में सहानुभूति का पुट भी होताहै. लेकिन इन दोनों का प्रेम ज्यादा दिनों तक छुपा नहीं रह पाता है और एक दिन सुआलाल दोनों को रंगे हाथों पकड़ ही लेता है, सबसे पहले वह अर्जुन के हाथ-पैर तुड़वाकर उसे बैलगाड़ी में बांध कर हवा में लटका देता है. लेकिन बदनामी के डर से सुआलाल एक कहानी गढ़ता है जिससे लाठी भी ना टूटे और सांप भी मर जाए, वह बाहर सार्वजनिक रूप से सबको बताता है कि अर्जुन ने उसकी भैंस “मिस टनकपुर” के साथ दुष्कर्म किया है. टनकपुर का प्रधान अपने पैसे और रुतबे के बल से थानेदार (ओम पुरी) को अपने साथ मिला लेता हैं और अर्जुन पर भैंस के साथ बलात्कार का मामला दर्ज हो जाता है, बाद में गांव की पंचायत जो की अपने आपको सभी अदालतों व कानून से ऊपर मानती है, आरोपी युवक को भैंस से शादी करने का हुक्म सुना देती है. परदे पर सभी किरदार असल लगते हैं, अनु कपूर और ओम पुरी, संजय मिश्रा, रवि किशन जैसे अभिनेता निराश नहीं करते हैं. राहुल बग्गा अर्जुन के किरदार को बखूबी निभाते हैं अपनी खामोशी और भाव से प्रभाव छोड़ते हैं. ऋषिता भट्ट इस फिल्म की कमजोर कड़ी है, वे माया जैसी किरदार के कश्मकश और पीड़ा को उभार पाने में नाकामयाब रही हैं, भैंस के सामने उनका दुखड़ा रोने वाला दृश्य बहुत प्रभावी हो सकता था, हालाँकि स्क्रिप्ट में भी उनका किरदार उभर नहीं पाया है. भीड़ के दृश्यों में शायद हापुड़ जिले के ग्रामीणों का इस्तेमाल किया गया है जो की दृश्यों को वास्तविक बनाने में मदद करते हैं.


निर्देशक विनोद कापडी के पास पत्रकारिताका लम्बा अनुभव है, इसका असर उनके निर्देशकीय प्रस्तुतिकरण में भी साफ़ झलकता है, जो कहीं न कहीं उनकी सीमा भी बन जाती है, इससे पहले वे ‘अन्ना हजारे’ पर एक वृत्तचित्र और डॉक्यूमेंट्री फिल्म ‘शपथ’ भी बना चुके है, ‘शपथ’ को नेशनल अवॉर्ड भी मिल चूका है, इसमें देश में महिलाओं के लिए शौचालय की कमी का मुद्दा उठाया गया था. अपने एक इंटरव्यू में उन्होंने बताया था कि फिल्म बनाने की प्रेरणा उन्हें राजकुमार हिरानी से मिली है. फिल्म में कई सामाजिक मुद्दों को छूने की कोशिश की गयी है, जिसमें अंधविश्वास, बेमेल-शादी और उससे होने वाली समस्याओं, प्रभावशाली समूहों की दबंगियत, कमजोर समूहों की हताशा और इससे उपजी मजबूरियां और दब्बू सोच, खाप और पंचायतों की जकड़न, औरतों के साथ गैर-बराबरी का बर्ताव, लोकल राजनीति और इन सब में स्थानीय सरकारी मशीनरी की संलिप्तता जैसे मसले शामिल हैं. लेकिन फिल्म का अंत अपने आपको देश में दर्ज होने वाले सिर्फ झूठे आरोपों और मुकदमों से जोड़ कर सीमित कर लेती है. निश्चित रूप से विनोद कापड़ी में मुद्दों की पकड़ और उसे समझने की दृष्टि है, बस उन्हें एक पत्रकार से आगे बढ़कर इसे सिनेमा की भाषा में ट्रांसलेट करने में अभ्यस्त होना पड़ेगा. इन सब के बावजूद यह पत्रकारिता से फिल्म में उतरे एक शख्स द्वारा ईमानदारी के साथ बनायी गयी फिल्म है जो अपने आपको हमारे समाज के यथार्थ के साथ जोड़ने का प्रयास करती है, जमीनी सच्चाईयों के साथ इसका जैसा ट्रीटमेंट उस पर आप विश्वास कर सकते हैं. विनोद कापड़ी के अगली फिल्म का इन्तेजार रहेगा.

गुनिया की माई

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सोनी पांडेय
कवयित्री सोनी पांडेय साहित्यिक पत्रिका गाथांतर की संपादक हैं. संपर्क :dr.antimasoni@gmail.com
विवाह के छः वर्षो के बाद गाँव जाना मेरेलिए रोमांचक था, पिताजी ने नौकरी मिलते ही शहर में मकान बनवा लिया, यही हम पाँचों भाई-बहनों का जन्म हुआ. गाँव में बिजली पानी के अभाव के कारण बड़ी बहन गाँव जाने में मुँह सिकोड़ती, छोटी मासूम और संकोची जिसके कारण माँ उसे साथ ले ही नही जाती, बचती मैं, माँ की हरफनमौला बेटी मैं गाँव जाने के नाम पर स्कूल तक छोड़ देती. गाँव मेरे लिए प्रकृति की सुन्दर झाँकी थी, बाग-बगीचे, खेत-खलिहान, लड़कियों की स्वच्छन्द हँसी, बड़े बुजुर्गों का हास-परिहास मुझे बहुत गहरे तक छूता, कहना न होगा कि यही मेरे अन्दर के साहित्यिक कीड़े को पोषण  मिला. माँ कहती है कि मैं झटपट बन्ना-बन्नी और सहाना (गीत) बना लेती थी और हमारी टोली के गीत आकर्षक हो जाते थे. यहाँ जीवन संगीत उद्दान बहता है वसन्त में आम के मौर, महुए की सुगंध के साथ-साथ कोयल की मधुर तान वातावरण में उल्लास और उमंग भरता दुवार पर मण्डली जमती फगुवा, चैता, बिरहा, का दौर आधी रात को अपने चरम पर पहुँचता. अम्मा बड़ी माँ के साथ खिड़की में बैठकर सुनती और कभी-कभी डायरी में लिखती थी. मीरा के पदों को फगुवा के धुन पर अम्मा बड़ी खूबसूरती से गाती-
‘‘मन मोहे मुरलिया वाला सखी..........-2
अधर सुधा रस मुरली राजत, उर वैजन्ती माला सखी...

अम्मा के गले में मृदंग बजता, खनकदार आवाजऔर गजब की क्षमता घंटो अकेले गाती. होली में औरतों की टोली आँगन में और पुरुष दरवाजे पर फगुवा गाते, औरतें कीचड़, मिट्टी, रंग,पानी,आदि लम्बा घूँघट तान कर दूर से फेंककर भाग जातीं, पुरुष और जोश में गाते. पुरोहित जी एक बहुत सुन्दर गीत गाते जो मुझे आज भी याद है. करि पूजन की तैयारी, विदेह कुमारी / सब सखियाँ मिल पूजन करती, पहनी गुलाबी साड़ी... विदेह...
मंगल यादव नहले पर दहला मारते / पिया कई गईलें कवल करार
फगुनवे मेें आये....फगुवा के बाद चैता की बारी आती.... माँ का गाया चैता...
‘‘बन गईलीं बन की जोगिनियाँ हो रामा. पिया के करनवा मैं अक्सर अपनी मण्डली में आज भी गाती हूँ. मैनें देखा है ग्राम्य जन-जीवन का सहज और सरल प्रवाह लोक-गीतों में देखने को मिलता हैं.रोपनी करते हुए एक लय में श्रमगीत गाती औरतों का कंठ और हाथ एक साथ चलता.

कहानी आगे बढ़ाती हूँ क्योंकि लोक-गीतों परलिखते-लिखते कहानी उपन्यास हो जाएगी. बाबा के मृत्यु के बाद आँगन में दण्डवार पड़ा पुस्तैनी बड़ा आँगन सिमट गया. बाबूजी की नौकरी व्यवसाय और शिक्षक संघ की राजनीति के कारण गाँव की सारी जिम्मेदारी अम्मा पर आन पड़ी, अम्मा अब फसल के दिनों में गाँव जाती, चौखट लांघ खेतों के मेढ़ पर खड़े हो खाद-बीज, रोपनी सोहनी सब कराया, आलोचकों के दौर  चले, इन सब से बिना डरे माँ मोर्चे पर डटीं रहीं, पिताजी ने समर्थन किया.खूब पैदावार होती, विरोधी परास्त हो घर गए. गाजीपुर का परगना पचोत्तर सब्जी के बेल्ट के रुप में विख्यात है, उँगली से जमीन कुरेद के बीज बो दो लौकी, कोहंड़े, भतुवा, नेनुवा की बेलें पड़ोसी के छप्पर लांघकर दुश्मनों तक के छत पर विजय पताका फहरा आती. बाबा के मरने के पहले हम गाँव बहुत कम जाते, जिसके कारण लोगों से घुलना-मिलना नहीं हो पाता किन्तु उनके मरते ही गाँव जाने का जो क्रम शुरु हुआ वह विवाह तक अनवरत चलता रहा. मेरे सामने पहली बार लम्बे प्रवास पर जो समस्या उत्पन्न हुई वह टोले की लड़कियों से मित्रता  करना था, लड़कियाँ हमारे शहरी विशिष्टता से दूर भागती और मैं अन्दर-अन्दर दुखी रहती.


 माँ ने उपाय निकाला, मेरे तीन सलवार कुर्तेको मिलाकर तिरंगा झण्डा पहनाया लाल फीते से चोटी बाँधी मैंने शीशे में देखा, बिल्कुल उनके जैसी भर डाली चना देकर बड़े पिताजी के बेटी के साथ भरसाँय भेजा.भरसाँय गाँव के बाहर था, शाम होते ही पूरे गाँव की लड़कियों और औरतों का हुजूम उमड़ता, गोड़िन गुनिया की माई बारी-बारी से सबका भूजा भुनती, कई बार आपस में औरतें लड़कियाँ लड़ पड़तीं, गुनिया की माई कलछुल पटककर खेदती, ‘‘ई-हमार भरसाँय है तोहन लोगन क दुवार ना.’’ एक तरफ कुँवर बाबा की पिण्डी बड़े से चबुतरे पर जहाँ बच्चे उछल-कूद करते, दूसरी तरफ चार खल करीने से लगे जहाँ एक लय में तीन-तीन चार-चार औरतों के मूसल गिरते, औरतें हरे धान का चूड़ा कूट रहीं थी. मुझे देखते ही चहक उठी अरे गुनिया महरानी जी के बोड़ा बिछाव’’, शिकायत किया, ‘‘काहें छोटकी मलकिन तोहें भेजली धिया, संदेशा पठवती गुनिया जा केले आवत’’आज लेट अइसे ही होत रहल.’’ गुनिया मुझसे एक साल बड़ा था, उस वक्त चैदह वर्ष का रहा होगा, ब्याह हो गया था, पत्नी गौने थी. गुनिया हमारे घर बचपन से आता था, माँ उसे अनाज दे देती और वह शाम को भुजा कर दे जाता. कभी-कभी दिन में उसकी माँ भी आती, घर में झाड़ू लगाना लिपना पोतना आदि कर जाती, अम्मा हमारे कपड़े अपनी साड़ियाँ जब भी गाँव आती ले आतीं और गुनिया की माई को देतीं, त्योहारों में नये देती, तरज-त्योहारी देना कभी नहीं भूलती.

हम गुनिया की माई को काकी कहते औरवो हमें अधिकतर महरानी कहती. गुनिया और उसकी छोटी बहन गुनिया को छोड़कर पिता जो परदेश कमाने गये दोबारा लौट कर नहीं आये, उसने हार नहीं माना अकेले अपने दम पर बच्चों को पाला और भर माँग पियर सिन्दूर भरे बाट जोहती रहीं कि कभी तो परदेसी लौटेगा.माँ का उपाय सार्थक सिद्ध हुआ मेरा तिरंगा परिधान विजय गीत गाता वापस लौटा, शीघ्र ही मुनिया, कनक और सीमा सखी बनीं, हमने कुँवर बाबा के थान पर शपथ लिया कि कभी मित्रता नहीं तोड़ेंगे. दोपहर में मेरा दलान गुलजार हुआ लड़कियां मेजपोश के कपड़े लेकर आतीं और हम सब अम्मा से कढ़ाई सीखते, कभी-कभी फिल्मी गीतों के धुन पर गीत बनाते. शाम को हमारी टोली बाग की ओर जाती जहाँ सगड़ा पर बने पुलिया पर बैठकर पंचायत होती, योजना बनती, टोले भर की बहुओं की नकल उतारी जाती. मनचले उधर से गुजरते तो कनक तमक कर कहती- का ताकत हवे रे,  माई-बहिन ना हई का.’’ लड़के फुर्र हो लेते.इनके साथ ही मैंने सिलाई, कढ़ाई, बुनाई, कूटना, फटकना सीखा. पहली बार अम्मा की चोरी चूड़ा कूटा, हाथों में छाला पड़ा तब जाना हरे धान के मीठे चूड़े का रहस्य.गुनिया का गौना हुआ, कनिया (नयी दुल्हन) देखने का प्लान बना, लाख मनाहट के बाद भी दोपहर में हमारी शैतान मण्डली मुनिया के साथ घर पहुँचा.


 खपरैल का टूटा-फूटा मकान जिसे छा-छोपकरकिसी तरह रहने लायक बनाया गया था. दरवाजे पर देशी गाय बँधी थी जिसे गुनिया की माई ने इसी वर्ष खरीदा था ताकि बहू को गोरु की कमी न खले. हमारे आँगन में धमकते ही खुश हो गयी, बहू की कोठरी में जाकर बेटे से कहा- ‘‘पंडिताने की लड़कियाँ कनिया देखने आयी हैं.’’ गुनिया लजाते हुए बाहर निकला, लड़कियों का समवेत ठहाका गूँजा. गुनिया की पत्नी साँवली-सलोनी, तीखे नैन नक्स, उम्र कोई-पन्द्रह सोलह वर्ष, पियरी पहने बोरा पर गठरी बनी बैठी थी. मुनिया ने घूँघट उठाकर मुँह दिखाया, उसने दोनों आँखें बंद कर रखी थी. कुछ देर मुनिया भाभी के हाथ के बने कढ़ाई, सिलाई के सामान दिखाती रही. गुनिया की माँ ने बहू का घूँघट उठा कर कहा इनसे का लजात हऊ, इन्हने लोगन क सेवा- टहल बजावे के है, बहू का चेहरा स्याह हो गया.अगली छुट्टियों में बड़े पिताजी की हमउम्र बेटी का ब्याह पड़ा मैं ग्रेजुएशन अंतिम वर्ष की छात्रा थी, गुनिया दो बच्चों का बाप बन चुका था, काकी सुबह-सुबह ही आ धमकती बर्तन-चैका, झाड़ू- बहाड़ू लगा कर माँ का पैर दबाती कभी हमारे पैरों में भी तेल लगाकर मालिश करती.

 लावा वाले दिन हम सब गाते-बजातेभरसाँय पहुँचे, गुनिया की माँ लावा लिए पहले से बैठी थी, गुनिया भरसाँय झोंक रहा था, पत्नी दाना भूज रही थी. रस्म खत्म होने पर सबने नेग दिया, मैंने कहा-‘‘काकी अब आप को आराम मिला बहू ने काम सम्भाल लिया.’’काकी रुआँसी हो गयी- ‘‘अरे का धिया कपूत परदेस कमाये जो ए कहत हऊँ.’’ गुनिया तमतमा उठा, लाठी फेंककर उठते हुए चिल्लाया-‘‘त का जिनगी भर इ-बभनन क जूठ चाटी’’ गुनिया के बागी तेवर अप्रत्याशित थे, बड़ी माँ ने सबको चलने का इशारा किया गुनिया की माई रोती रही, एम0ए0 अन्तिम वर्ष में मेरी भी शादी हो गयी. गाँव सपना हो गया, मायके जब जाती गाँव का प्रोग्राम बनता और बिगड़ता, छः वर्ष बीत गए, मैं दो बच्चों की माँ हो गयी. अबकी माँ ने दृढ़ संकल्प किया दो बच्चें हो गए और अभी तक शादी की पूजा बाकी है. हम निश्चित समय पर गाँव पहुँचे, कनक और सीमा भी मायके आयी हुई थीं, मिलते ही समय पंख हुआ. अगले दिन दिनभर पूजा-पाठ चलता रहा, शाम को माँ से कहा- ‘‘काकी नहीं आयी मैं उनके लिए साड़ी लेकर आयी थीं, बड़ा कर्ज है उनका कितनी सेवा की है. माँ ने मुस्कुराते हुए
कहा-‘‘कहलवाया तो था, शायद बीमार हो, आजकल बहुत अस्वस्थ रहती हैं, तुम जाकर मिल आओ, इस समय भरसाँय में  मिल सकती हैं.

 मैं सखियों संग भरसाँय चली. दूर से हीभरसाँय ठण्डी दिखाई दे रही थी. गुनिया की माई कुँवर बाबा के पास वाले टीले पर बैठी ना जाने देर शून्य में क्या निहार रही थी ? जो देखा वह स्तब्ध करने वाला था, अब गुनिया की माई बाट जोहती है कि लड़कियाँ भर-भर डाली अनाज लेकर आएंगी और उसकी मड़ई गुलजार होंगी. ओखल इधर-उधर लुढ़के पड़े थे. मुझे देखते ही बुढ़िया मैली साड़ी के कोर से आँसू पोछते हुए बोली. ‘‘इ का हो रहा है बहिनी, अब, न कोयी कलछुल में लिट्टी पकवाता है न आगी माँगता है, लोग चूड़ा बालेश्वर बाबा के मशीन पर कूटाते हैं, हित-नाथ को रस-दाना नहीं, चाय नमकीन देते हैं. लड़कियाँ अब एक -दूसरे के घर कम ही जाती हैं, काहें प्रेम मर रहा है और फफक पड़ी. मैंने चुप कराते हुए माथे पर साड़ी रख हथेलियों पर पैसा रखा अनायास ही सर पैरों की ओर झुक गया उनकी सेवा मातृत्व से तनिक कम नहीं थी,


बुढ़िया ने लपकर हाथ थाम लिया,‘‘काहेंजनम नाश कर रही हैं महरानी जो, मरद छोड़ गया, अब गुनिया भी परदेश कमाता है, मेहर बच्चों को भी ले गया. कहाँ भरुँगी. मेरा गला रुँध गया, आवाज कंठ में फँस गयी, सीमा खिंचते हुए लेकर चली. आते हुए मुझेे अपने ही बनाये गीत पर क्रोध आ रहा था-‘‘मोहें शहरी पिया दिलादो मेरी माँ/गंवार पिया ना आवेला.’’ कुँवर बाबा का चबुतरा टूट-फूट गया था सबके दुवार अब  चाहरदीवारी में कैद हो चुके थे, बच्चे कान्वेन्ट में शहर पढ़ने जाते हैं, आँगन में चार-चार दण्डवार पड़ चुके थे, बाग-बगीचे उजड़ रहे हैं, सगड़ा पाट कर परधान ने कब्जा जमा लिया था, मेरे बाबा का बनवाया हुआ बंगला जहाँ पंचायत लगती थी, चारो गाँव के बारात डेरा डालते थे अब उजड़ कर अपनी विवशता पर सुबक रहा था. आत्मा चित्कार उठी- ‘‘उफ्फ, महज आठ वर्षों में मेरा गाँव शहर बन गया.’’

महिला आरक्षण को लेकर संसद में बहस :पहली क़िस्त

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महिला आरक्षण को लेकर संसद के दोनो सदनों में कई बार प्रस्ताव लाये गये. 1996 से 2016 तक, 20 सालों में महिला आरक्षण बिल पास होना संभव नहीं हो पाया है. एक बार तो यह राज्यसभा में पास भी हो गया, लेकिन लोकसभा में नहीं हो सका. सदन के पटल पर बिल की प्रतियां फाड़ी गई, इस या उस प्रकार से बिल रोका गया. संसद के दोनो सदनों में इस बिल को लेकर हुई बहसों को हम स्त्रीकाल के पाठकों के लिए क्रमशः प्रकाशित करेंगे. पहली क़िस्त  में  संयुक्त  मोर्चा सरकार  के  द्वारा  1996 में   पहली बार प्रस्तुत  विधेयक  के  दौरान  हुई  बहस . पहली ही  बहस  से  संसद  में  विधेयक  की  प्रतियां  छीने  जाने  , फाड़े  जाने  की  शुरुआत  हो  गई थी . इसके  तुरत  बाद  1997 में  शरद  यादव  ने  'कोटा  विद  इन  कोटा'  की   सबसे  खराब  पैरवी  की . उन्होंने  कहा  कि 'क्या  आपको  लगता  है  कि ये  पर -कटी , बाल -कटी  महिलायें  हमारी  महिलाओं  की  बात  कर  सकेंगी ! 'हालांकि  पहली   ही  बार  उमा भारती  ने  इस  स्टैंड  की  बेहतरीन  पैरवी  की  थी.  अंग्रेजी से हिन्दी अनुवाद पूजा सिंह और श्रीप्रकाश ने किया है. 
 संपादक

11वीं लोकसभा की बहस, सत्र 2 (बजट)
गुरुवार, 12 सितंबर 1996
बहस का प्रकार: सरकारी विधेयक की प्रस्तुति
शीर्षक : संविधान (81वां संशोधन) विधेयक, 1996


पीठासीन अध्यक्ष : डॉ. के पी रामालिंगम, कृपया सुनिए. मुझे लगता है कि प्रधानमंत्री का यह कहना सही है कि हमारे पास और कुछ निपटाने को नहीं है.  यह विधेयक पारित करना है. उ.प्र. का बजट पारित करना है. पत्रकार विधेयक पारित करना है. जाहिर है समय की कमी है लेकिन प्रधानमंत्री आज इस विधेयक को पेश करने पर सहमत हैं और इसे बिना चर्चा के पारित करना चाहते हैं. मुझे भी लगता है कि सदन की भावना यही है कि इस विधेयक को आज ही पारित कर दिया जाए. यह बहुत ऐतिहासिक निर्णय होने जा रहा है.

डॉ. मुरली मनोहर जोशी (इलाहाबाद) :समूचा सदन आपके साथ है. आप नियमों को शिथिल कर सकते हैं
श्री एस बंगारप्पा (शिमोगा): अध्यक्ष मोहदय, मैं एक बात पर आपका ध्यान दिलाना चाहता हूं. हम विधेयक की विषयवस्तु के खिलाफ नहीं जा रहे. विधेयक को पेश किया जाना चाहिए और बिना चर्चा के सर्वसम्मति से पारित भी. मैं इस विधेयक का समर्थन करता हूं, लेकिन मैं एक बात कहना चाहता हूं. इन तमाम चीजों से गुजरने के बाद लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के लिए आरक्षण की व्यवस्था होगी. मुझे यह बात समझ नहीं आ रही. आखिर राज्यसभा में आरक्षण का क्या होगा ?

श्रीमती सुषमा स्वराज (दक्षिणी दिल्ली): यह बिल आप पारित कीजिए.

श्री सोमनाथ चटर्जी (बोलपुर):श्री एस बंगारप्पा, आपकी बात सुन ली गई है. कृपया विधेयक को पास होने दें. मुझे लगता है कि यह सदन विधेयक को पारित करने को लेकर प्रतिबद्घ है.

18 जुलाई ,2016 को जंतर मंतर, नई दिल्ली ,पर महिला आरक्षण की मांग करते महिला कार्यकर्ता 

पीठासीन अध्यक्ष :कृपया औरों को भी सुनें.

श्री एस बंगारप्पा:अध्यक्ष महोदय, आप मेरी बात क्यों नहीं सुन रहे ? मैं यह बात समझ नहीं पा रहा हूं. मैं केवल एक बात कहना चाहता हूं. मैं निवेदन करना चाहता हूं. मैं एक बात एकदम स्पष्ट  करना चाहता हूं.

पीठासीन अध्यक्ष :श्री सारपोतदार, मैं आपको बाद में बुलाऊंगा. अभी कृपया बैठ जाइए.

श्री एस बंगारप्पा:मैं एक बात स्पष्ट करना चाहता हूं. मैं इस विधेयक का पूर्ण समर्थन करता हूं. कि ना किसी चर्चा के हम इस विधेयक को पास करेंगे. मैं महिलाओं को लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में प्रतिनिधित्व प्रदान करने के पक्ष में हूं. मुझे बात समझ में आ रही है. मैं खुले दिल से इसका समर्थन करता हूं, लेकिन इकलौती चिंतित करने वाली बात यह है कि इस विधेयक में राज्य सभा में महिलाओं के लिए आरक्षण का प्रावधान नहीं किया गया है. न ही विधान परिषद और संघ लोक सेवा आयोग व राज्य लोक सेवा में उनके लिए आरक्षण की व्यवस्था की गई है. ये सभी संवैधानिक संस्थान हैं. आपको यह बात क्यों नहीं नजर आती ? यह बात खुद आपके हित में कही जा रही है और आप मेरी बात नहीं सुन रही हैं ? महिलाओं का राज्य सभा, राज्य विधान परिषद, संघ लोक सेवा आयोग और राज्यों के लोक सेवा आयोग में भी आरक्षण दिया जाए. अगर सरकार इसे लेकर कोई आश्वासन देती है तो मैं बहुत खुश होऊंगा. ऐसा करने से उद्देश्य पूर्ति हो जाएगी.

कुमारी उमा भारती (खजुराहो) : अध्यक्ष जी, इसके बाद मुझे एक बहुत जरूरी बात कहनी है.

श्री मधुकर सारपोतदारकर (मुंबई उत्तर-पूर्व):आदरणीय अध्यक्ष मोहदय, मेरी एकमात्र जिज्ञासा यह है कि क्या इस विधेयक के प्रावधान समूचे देश में बिना किसी अपवाद के लागू किए जाएंगे? यह मेरा पहला सवाल है.
दूसरा, इस विधेयक में लोकसभा और राज्य विधानसभाओं को लेकर चाहे जो प्रावधान हों क्या इसमें उन दलों के लिए कोई व्यवस्था है, जो चुनावों में महिला प्रत्याशी नहीं उतारते ? अगर ऐसा नहीं है तो फिर विशेष प्रावधान बनाने की आवश्यकता ही क्या है ? यह मेरा दूसरा प्रश्न है. तीसरी बात, मैं यह जानना चाहता हूं कि क्या आप देश के किसी राज्य को कोई रियायत देने जा रहे हैं ? अगर ऐसी कोई रियायत दी जा रही है तो ऐसा नहीं होना चाहिए और यह प्रावधान देश भर के सभी राज्यों पर लागू होना चाहिए. इन खास मुद्दों पर अगर प्रधानमंत्री आगे आकर कुछ स्पष्ट करना चाहते हैं तो हमें कोई दिक्कत नहीं है. मैं यही कहना चाहता था.

श्रीमती सुषमा स्वराज ( दक्षिण दिल्ली) : अध्यक्ष जी, यह अवरोध करने का नया तरीका है.

श्री पीसी चाको (मुकुंदपुरम):महोदय, आपने प्रश्न काल को निलंबित कर दिया और हम इस कानून को सर्वसम्मति से ग्रहण करने जा रहे हैं, क्योंकि आपने कहा है कि हम इस कानून को बिना किसी चर्चा के पारित करने जा रहे हैं. मुझे इजाजत दी जाए कि मैं एक मिनट में अपनी बात रख सकूं.  इस कानून को पढऩे के बाद मुझे लगा कि यह पर्याप्त प्रगतिशील नहीं है. मैं इसे पुरातनपंथी कानून नहीं कहना चाहता,  लेकिन मेरे केरल में 51.5 प्रतिशत आबादी स्त्रियों की है. मुझे नहीं पता कि स्त्री सदस्यों में से कितनी 30 प्रतिशत आरक्षण से संतुष्ट हैं.  मैं अपना विचार महिलाओं के पक्ष में ही जता रहा हूं.... मैं चाहता हूं कि आप एक मिनट के लिए मेरी बात सुनें. केरल में महिलाओं की आबादी 51.5 प्रतिशत है. ऐेसे  में उनको 51.5 प्रतिशत आरक्षण देना ही ठीक होगा. ऐसा करने से ही महिला उम्मीदवारों के साथ न्याय हो सकेगा.

पीठासीन अध्यक्ष :ठीक है. आपने अपनी बात कह दी. अगर हम इसी प्रकार आगे बढ़ते रहे तो यह बहस समाप्त नहीं होगी.
           

18 जुलाई ,2016 को जंतर मंतर, नई दिल्ली,पर महिला संगठन का प्रदर्शन 

कुमारी उमा भारती:मैं प्रधानमंत्री से कुछ कह रही हूं... (अवरोध)
अध्यक्ष महोदय:नीतीश जी कृपया बैठ जाइए. मुद्दा मत उछालिए.

कुमारी उमा भारती:अध्यक्ष महोदय, मैं प्रधानमंत्री से कुछ कह रही हूं. प्रधानमंत्री जी, क्या आप मुझे सुनेंगे ?  मैं जानना चाहती हूं कि इस आरक्षण में क्या अनुसूचित जाति एवं जनजाति की महिलाओं के लिए भी आरक्षण होगा ?  मेरी मांग है कि पंचायती राज व्यवस्था के तर्ज पर पिछड़ा वर्ग की महिलाओं के लिए भी आरक्षण होना चाहिए. इस बात को विधेयक में शामिल किया जाना चाहिए क्योंकि पिछड़ा वर्ग की महिलाएं भी पीडि़त हैं.  उनको कुछ नहीं मिलता है. उनको न घर में कोई सम्मान मिलता है न बाहर कोई सुविधा. ऐसे में आपके जरिए प्रधानमंत्री से मेरी मांग है कि यदि वह सहमत हों तो सदन के समक्ष यह वादा करें कि इस पर विचार करेंगे. जब आप अनुसूचित जाति-जनजाति के आरक्षण पर विचार करें तो कृपया पिछड़ा वर्ग के आरक्षण पर भी विचार करें.
पीठासीन अध्यक्ष :ठीक है..

श्री ई अहमद:महोदय हम महिलाओं के आरक्षण के खिलाफ नहीं हैं लेकिन मैं सदन के समक्ष एक बात कहना चाहूंगा.  यह बहुत महत्त्वपूर्ण दिन है जब हम एक ऐतिहासिक कानून बनाने जा रहे हैं. लेकिन ऐसा कानून ऐसे नहीं बनाया जा सकता है, मानो डोसा बनाया जा रहा हो. हमें इस मसले पर चर्चा करनी होगी. विधेयक में कुछ कमियां भी हैं (बाधा) ... मुझे बोलने की इजाजत दी जाए (बाधा)... इस बार भी ये लोग ऐसा ही कर रहे हैं. मुझे बोलने का मौका मिलना चाहिए (बाधा) ... आपने मुझे बोलने की इजाजत दी है मुझे अपनी बात रखने का अधिकार है.

पीठासीन अध्यक्ष :हां, मेरी तरफ से आपको इजाजत है. मुझे पता नहीं अनावश्यक रूप से इतना शोर क्यों मचाया जा रहा है.(बाधा)

कुमारी उमा भारती: महोदय, कृपया प्रधानमंत्री से उत्तर देने को कहें... (बाधा)... यह बहुत महत्वपूर्ण विधेयक है. (बाधा)

पीठासीन अध्यक्ष :ममता जी, आप दूसरों को मौका क्यों नहीं दे रही हैं ? उन्हें अपनी बात कहने दीजिए.

श्री ई अहमद:महोदय हम आरक्षण के खिलाफ नहीं हैं. यह दिया जाना चाहिए लेकिन प्रश्न यह है कि यह कैसे और किस तरीके से दिया जाए ? राज्यों की विधानसभाओं और विधान परिषद की बात करें तो अब तक क्या प्रावधान किए गए हैं ? क्या इनका निर्णय सदन में होगा ? राज्य सभा का क्या होगा ? सदन को इसका अनुमोदन करना है. यह बहुत अहम विधेयक है. यह विधेयक बिना चर्चा के पारित नहीं हो सकता. हमें इस पर चर्चा करनी होगी. हमें पुरातन विचार वाला नहीं कहा जाना चाहिए. इसलिए मैं कहता हूं कि विधेयक को पारित करने के पहले इस पर चर्चा हो.

महिला आरक्षण 

पीठासीन अध्यक्ष :ठीक है मैंने हर किसी को सुन लिया है. हां, प्रधानमंत्री महोदय.
प्रधानमंत्री (श्री एचडी देवेगौड़ा):माननीय अध्यक्ष महोदय, आपकी अनुमति से मैं विधेयक पेश करना चाहूंगा
(बाधा)...
पीठासीन अध्यक्ष : विधेयक पेश होने दीजिए.

श्री एच डी देवेगौड़ा:कृपया मेरी बात सुनिए महोदय, मैं विधेयक पेश करने की इजाजत चाहता हूं ताकि भारतीय संविधान में संशोधन किया जा सके.

प्रधानमंत्री (श्री एच डी देवेगौड़ा):मैं विधेयक पेश करता हूं. विचारार्थ. मैं आप सभी से अनुरोध करूंगा कि हम आज सभी दलों के नेताओं की बैठक बुलाएंगे क्योंकि माननीय सदस्यों द्वारा कुछ अत्यंत अहम मुद्दे उठाए गए हैं. कुमारी उमा भारती ने पिछड़े वर्ग की स्त्रियों के आरक्षण को लेकर एक उपयुक्त प्रश्न किया है (बाधा) इनमें से कुछ को टाला नहीं जा सकता है. इसलिए हम आज ही सभी दलों के नेताओं की बैठक बुला रहे हैं (बाधा)

जस्टिस गुमान मल लोढ़ा : राज्य सभा का क्या ?... (बाधा)

पीठासीन अध्यक्ष :जस्टिल लोढ़ा जी, आप प्रधानमंत्री को क्यों टोक रहे हैं?

श्री एच डी देवेगौड़ा:उसके बाद जो भी निर्णय सभी दलों के नेताओं की बैठक में होग, उसे स्वीकार कर लिया जाएगा (बाधा)
पीठासीन अध्यक्ष :श्री मेहता, कृपया मेरी बात सुनिए. यह संविधान संशोधन है इसलिए विधेयक को मत विभाजन के जरिए पारित करना होगा. यह संवैधानिक अनिवार्यता है इसलिए सारी व्यवस्था करने में कुछ वक्त लगेगा.  दूसरा, प्रधानमंत्री ने सही कहा कि चूंकि कुछ बातें यहां-वहां हो रही हैं इसलिए वांछित यही है कि विधेयक पर विचार शुरू होने के पहले हम सभी दलों के नेताओं की एक बैठक करें. मैं एक घंटे के लिए सदन स्थगित कर रही हूं. सदन दोपहर 12.40 बजे पुन: शुरू होगा.
(बाधा)
पीठासीन अध्यक्ष :दोपहर 12 बजे सभी राजनीतिक दलों के नेता कृपया मेरे कक्ष में आए.

क्रमशः

पाकिस्तानी इस्लाम ने ली कंदील की जान

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आशीष कुमार ‘‘अंशु’
आशीष कुमार ‘‘अंशु’ देश भर में खूब घूमते हैं और खूब रपटें लिखते हैं . फिलहाल विकास पत्रिका 'सोपान'से सम्बद्ध हैं और विभिन पत्र -पत्रिकाओं में लिखते हैं . संपर्क : 9868419453 .
‘‘एक महिला होने के नाते हमें अपने लिए जरूर खड़ा होना चाहिए,एक महिला होने के नाते हमें जरूर एक दूसरे के लिए खड़ा होना चाहिए, एक महिला होने के नाते हमें जरूर न्याय के साथ खड़ा होना चाहिए. मैं विश्वास करती हूं कि मैं आज के समय की फेमिनिस्ट हूं. मैं बराबरी में यकीन करती हूं. मुझे यह चुनने की जरूरत नहीं है कि मुझे किस तरह की औरत होना चाहिए. मुझे नहीं लगता कि समाज के लिए मुझे किसी तरह के लेबल की जरूरत है. मैं सिर्फ आजाद ख्याल और आजाद सोच वाली एक महिला हूं और मैं जैसी भी हूं, मुझे अपने इस होने से प्यार है.’’

16 जुलाई को दोपहर लगभग एक बजे किया गया कंदील बलोच का यह ट्वीट कंदील का एक परिचय भी है. 17 जुलाई को अपनी बहन की हत्या के आरोप में कंदील  के भाई मोहम्मद वसीम की गिरफ्तारी हो गई है. वसीम ने मान लिया कि उसने अपनी बहन की हत्या की और उसे इस हत्या के बाद कोई पछतावा नहीं है. इस पछतावा ना होने को सम्मान के नाम पर हत्या से जोड़ कर दुनिया भर की मीडिया देख रही है लेकिन यहां सम्मान से अधिक बड़ा सवाल इस्लाम का था.

सेकुलर अफ्रीकन नाम की एक वेवसाइट इस्लामके संबंध में लिखती है- इस्लाम में सेक्स मजदूर की अवधारणा पर कोई विवाद नहीं है और यह इस्लाम में तब तक रहेगा जब तक मानवता रहेगी. इस्लाम रहेगा. महिलाओं के साथ सेक्स मजदूर रखने में भी भेदभाव है. मतलब इस्लाम पुरुषों को तो सेक्स के लिए महिलाओं को खरीदने-बेचने की इजाजत देता है, लेकिन महिलाओं को यह अधिकार नहीं है. इसी प्रकार 72 हूरों की कल्पना इस्लाम में है लेकिन यदि कोई पुरुषों की तरह अल्लाह का राज अर्थात दारूल इस्लाम की स्थापना की राह में अपनी जान दे दे तो क्या उसे 72 पुरुष उपलब्ध होंगे ? क्या वह 72 नहीं तो 36 पुरुषों को अपने लिए उपलब्ध पायेंगी ?

जिन्हें लगता है कि कंदील बलोच ऑनर कीलिंग की शिकार हुई है, उन्हें पाकिस्तानी मीडिया की पुरानी रिपोर्टिंग और कवरेज देखनी चाहिए. किस तरह महिला हो या पुरुष एंकर, वह कंदील बलोच को कैमरे के सामने जलील करने की कोशिश करता था. पाकिस्तान का आवाम भी उसे पसंद नहीं करता था. कंदील के इंटरव्यू में बार-बार आवाम का जिक्र आ ही जाता था. पाकिस्तान के लोग कंदील को पसंद नहीं करते थे और कंदील भी उन्हें पसंद नहीं करती थी. फिर भी सोशल मीडिया की यह शहजादी वहां हमेशा चर्चा में रहीं. हत्या से कुछ समय पहले दिए अपने एक साक्षात्कार में कंदील ने कहा था कि मैंने अभी कुछ नहीं किया. अब मैं पाकिस्तान के आवाम को दिखाऊंगी की मैं क्या कर सकती हूं ?

भारत और पाकिस्तान के बीच के अंतर को हाल में भूपेन्द्र चौबे के उस साक्षात्कार के हवाले से समझा जा सकता है, जिसमें उन्होंने पोर्न स्टार  शनि लियोन से कुछ व्यक्तिगत सवाल पूछने की अभद्रता की. उसके बाद हर तरफ भूपेन्द्र चौबे  नाम के उस पत्रकार की आलोचना हुई। दूसरी तरफ जिस तरह बार-बार कंदील बलोच को पाकिस्तानी चैनलों पर जलील किया जा रहा था. वहां इसके विरोध में कोई आवाज सुनने को नहीं मिली. वास्तव में कंदिल सिर्फ अपने भाई मोहम्मद वसीम के लिए आॅनर का सवाल नहीं थी बल्कि कंदील पूरे पाकिस्तान के आॅनर की गर्दन पर लटकती तलवार बन गई थी। जबकि इस संबंध में इस्लाम कहता है- ‘जब तुममे हया ना रहे फिर तुम जो चाहे वह करो.’


अब जब पूरा पाकिस्तान कथित तौर पर कंदील बलोच को बेहया मान चुका था फिर बार-बार उसके रास्ते में अंड़ंगा क्यों लगा रहा था ? इसकी बड़ी वजह यही रही होगी कि खुदा को मानने वालों की खुदा ने जो कहा है, उसे मानने में रूचि नहीं रही होगी. कंदील बलोच ने अपने साक्षात्कारों में बार-बार यह बात कही है कि मुझे खराब करने वाली आवाम है. बलूच ने यह भी कहा है- ‘बुराई तो अभी स्टार्ट हुई है. आगे देखिए मैं आवाम के साथ क्या करती हूं?’ पाकिस्तान के पत्रकारों के संबंध में कंदील ने एक साक्षात्कार में कहा था कि ये ठरकी लोग हैं. वैसे ठरकी तो वे मुफ्ती भी निकले जो ईद के चांद से पहले कंदिल का दीदार करना चाहते थे.

रोजे हयात समिति वाले मुफ्ती अब्दुल कबी के साथ पाकिस्तान केएक खबरिया चैनल पर कंदील मौजूद थीं. मुफ्ती के सामने कंदील ने कहा कि इन्होंने मुझसे पूछा था, तुम्हारा रोजा तो नहीं है. उसके बाद मुफ्ती ने कहा कि तुम्हारे नाम पर आज मैने अल्लाह से माफी मांग ली है और उसके बाद उन्होंने कंदील की जूठी सिगरेट और जूठा कोक पीया. जब यह पूरा प्रकरण पाकिस्तान की मीडिया में उछला उसके बाद कंदील अपनी हत्या की आशंका जता चुकी थी. कंदील के अनुसार मुफ्ती उसका हाथ अपनी अठारहवीं बेगम के तौर पर मांगने आए थे.गौरतलब है कि मुफ्ती की उम्र कंदील के पिता की उम्र के बराबर है.


कंदील  बलोच को पाकिस्तान भर से हत्या और जान से मारने की धमकी लगातार मिल रही थी, लेकिन उसे क्या पता था कि उसे खतरा बाहर वालों से नहीं है. उसका हत्यारा उसके घर में बैठा उसका भाई निकलेगा.  पाकिस्तान में एक अनुमान के अनुसार, प्रत्येक वर्ष 500 से अधिक महिलाओं की जान इस तरह के झूठे ‘सम्मान’ के नाम पर जाती है. कंदील बलोच के फेसबुक पोस्ट और ट्यूटर पोस्ट इस बात की गवाही है कि वह पाकिस्तानी आवाम की रूढिवादी कट्टर इस्लामिक सोच को बदलना चाहती थी. लेकिन न इस्लाम बदला, न पाकिस्तान बदला और ना निजाम बदला. वैसे खबरों पर यकीन करें तो कंदील बलोच का हत्यारा इस्लाम नहीं है, पाकिस्तान नहीं है. वह झूठे सम्मान की बलि चढ़ गई. बहरहाल, सच तो यही है कि कल तक कंदील को सिर्फ पाकिस्तान की आवाम जानती थी. आज उसे पूरी दुनिया जानती है। कंदिल बलोच होना आसान नहीं है. 

महिलाओं को अधिकार दिये बिना सामाजिक न्याय अधूरा

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डा. मीसा भारती
डा. मीसा भारती राज्यसभा सांसद हैं .
 राज्यसभा सांसद और राष्ट्रीय जनता दल की प्रभावशाली महिला नेता डा. मीसा भारती अपने इस लेख में महिलाओं के आरक्षण को समय की आवश्यकता बता रही हैं:

राजनीति में महिलायें ! यह आज भी एक बडासवाल है. कम से कम भारतीय राजनीति में. प्रमाण यह कि यहां महिलाओं को हर स्तर पर स्वयं को साबित करना पडता है. बात यदि वंचित वर्ग की महिलाओं की हो तो प्रतिकुलता के स्तर में गुणोत्तर वृद्धि हो जाती है. एक ताजा प्रमाण यह कि देश में दलित राजनीति की शीर्ष नेत्री मायावती जी का सार्वजनिक अपमान भाजपा के उपाध्यक्ष पदधारी नेता द्वारा किया गया. यह सब उस पार्टी के नेता द्वारा किया गया जो धर्म के आधार पर महिलाओं को देवी का अवतार मानती है. इतना ही नहीं जब केंद्रीय मंत्री मेनका गांधी ने इसका विरोध किया तो उनका भी माखौल उडाया गया. ये घटनायें तो महज बानगी है.

कहने की आवश्यकता नहीं रह गयी है कि महिलायें आज नकेवल सामाजिक जिम्मेवारियों के निर्वहन में सक्षम हैं बल्कि कई क्षेत्रों में उन्होंने स्वयं को पुरूषों से आगे निकलकर खुद को साबित किया है. हालांकि यह भी एक कटु सत्य है कि आधी आबादी को आज भी अपने अस्तित्व के लिए अग्निपरीक्षा देनी पड़ती है, पुरुषों द्वारा परिभाषित कसौटी पर खुद को साबित करना पड़ता है.

हमारे समाज में महिलाएँ अपने हित से जुड़े निर्णय लेने में भी स्वतन्त्र नहीं हैं, इसके लिए भी उन्हें सदैव किसी ना किसी पुरुष की हामी पर ही निर्भर रहना पड़ता है.हमारे पुरुष प्रधान देश में बेटी या बहु को घरकी इज़्ज़त बताने के बहाने सीमाएँ निर्धारित कर दी जाती हैं जो दरअसल महिलाओं को वश में रखने के लिए एक पुरुष प्रधान समाज द्वारा किए गए अन्यायपूर्ण उपायों से अधिक कुछ नहीं  हैं. दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति यह है कि संविधान में भी महिलाओं को वाजिब हक मिल सके, इसके लिए न्यायपूर्ण प्रावधान नहीं किये जा सके हैं. ताजा उदाहरण संसदीय व्यवस्था में महिला आरक्षण के मुद्दे का है. इसे लेकर कई भ्रांतियां भी हैं जो समाज के विभिन्न तबकों में विषमता के कारण भी है और यथास्थिति के आदती हो चुके सामाजिक व्यवस्था के कारण भी.सबसे पहले तो यह समझना अनिवार्य है कि आरक्षण का उद्देश्य क्या है. अगर आरक्षण का उद्देश्य देश के संसाधनों, अवसरों और राजकाज में समाज के हर समूह की उपस्थिति सुनिश्चित करना है, तो यह बात अब निर्णायक रूप से कही जा सकती है कि आरक्षण की मौजूदा व्यवस्था असफल हो गयी है.

सामाजिक न्याय का सिद्धांत दरअसल वहीं लागूहो सकता है, जहां लोगों (खासकर प्रभावशाली लोगों) की नीयत साफ हो. विशिष्ट सामाजिक बनावट की वजह से भारत जैसे देश में सामाजिक न्याय के सिद्धांत को असफल होना ही था और यही हुआ.

सर्वविदित है कि आजादी के पहले से ही भारत में अनुसूचित जातियोंऔर जनजातियों के लिए सरकारी नौकरियों और शिक्षा में आरक्षण लागू है. 1993 के बाद से अन्य पिछड़ा वर्ग यानी ओबीसी के लिए केंद्र सरकार की नौकरियों में आरक्षण है. 2006 के बाद से केंद्र सरकार के शिक्षा संस्थानों में अन्य पिछड़ा वर्गों के लिए आरक्षण लागू हो गया. राज्यों के स्तर पर ओबीसी का आरक्षण काफी समय से चला आ रहा है. लेकिन इस तरह के तमाम आरक्षण का नतीजा क्या निकला ? यह एक विचारणीय प्रश्न है. भारतीय संविधान के मुताबिक  अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए आरक्षण लागू होने के साठ साल से अधिक समय बीत चुके हैं. अब मौका आ गया है कि देश के सभी तबकों के लोग आपस में मिलकर इस स्थिति पर विचार करें कि जिन उद्देश्यों के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गयी, वह अभी तक अप्राप्य क्यों है. लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि आरक्षण की समीक्षा के बहाने वंचित तबकों के हितों की उपेक्षा की जाय.


मेरे हिसाब से एक्सक्लूजन की  बजाय इन्क्लूजनकी नीयत से आरक्षण की समीक्षा हो और जब ऐसा हो तो महिलाओं को प्राथमिकता दी जानी चाहिए. सामाजिक न्याय की अवधारणा ही समाज के सभी वंचित तबकों को विकास की मुख्यधारा में शामिल करने का है. फिर महिलाओं को इससे अलग कैसे किया जा सकता है. खास बात यह भी कि समीक्षा के पूर्व ठोस पहल किये जाने की आवश्यकता है. हालांकि पूर्ववती केंद्र सरकार ने देश में जातिगत जनगणना कर एक पहल की लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति यह है कि इसे आजतक सार्वजनिक नहीं किया गया है.इसका परिणाम यह है कि आज नीतियां एवं योजनायें बिना किसी ठोस आधार के बनायी जा रही हैं. किसी को भी यह नहीं मालूम कि ओबीसी का आंकड़ा क्या है. दलित कितने हैं और आदिवासी कितने. इस देश में ओबीसी के लिए आरक्षण है, ओबीसी वित्त आयोग है, ओबीसी के लिए सरकार की ओर से मामूली सा ही सही लेकिन बजट है, राष्ट्रीय और राज्य स्तरीय ओबीसी आयोग है, लेकिन ओबीसी का कोई आंकड़ा नहीं है. चूंकि आंकड़ा नहीं है इसलिए योजनाओं का कोई लक्ष्य भी नहीं है. किस राज्य को ओबीसी विकास के लिए कितनी रकम देनी है और कितनी स्कॉलरशिप देनी है, यह सब ओबीसी की संख्या के आधार पर नहीं, बल्कि राज्य की कुल आबादी के अनुपात में तय होता है.

दिल्ली विश्वविद्यालय में इस साल ओबीसी की 5400 सीटेंयोग्य कैंडिडेट न मिलने के नाम पर जनरल कटेगरी को ट्रांसफर कर दी गयीं. जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में भी लगभग ढाई सौ ओबीसी सीटें जनरल छात्रों से भरी गयीं. विश्वविद्यालयों में दलित, आदिवासी और ओबीसी कोटा किसी न किसी बहाने खाली रखा जाता है. आईआईटी और आईआईएम में यह समस्या और गंभीर है. समुदायों के स्तर पर यह असंतुलन लोकजीवन के अलग-अलग और लगभग सभी क्षेत्रों में देखा जा सकता है. राजनीति और सफाई के पेशे को अपवाद के तौर पर देख सकते हैं, जहां वंचित समुदायों के लोग अच्छी संख्या में हैं.इनमें से ज्यादातर बातें अनुमान या अनुभव के आधार पर इसलिए भी कहने की जरूरत पड़ती है क्योंकि इस देश में कभी भी यह जानने की कोशिश नहीं की जाती कि देश के अलग अलग समुदायों की वास्तविक स्थिति क्या है और किन समुदायों को कितना और किस तरह से विशेष अवसर देने की जरूरत है. इस बात को छिपाने पर जोर इतना ज्यादा है कि देश में  समाजशास्त्रीय महत्व के आंकड़े जुटाने का खुद समाजशास्त्री (अकादमिक क्षेत्र में वंचित समुदायों के लोग नाम मात्र ही हैं) ही विरोध करते हैं. मिसाल के तौर पर, अभी आंकड़ा संग्रह की जो स्थिति है, उसकी वजह से आप यह कभी नहीं जान पाएंगे कि इस देश में कितने लोग जाति से बाहर शादी करते हैं. बहरहाल ठोस आंकड़े न होने पर भी यह बात भरोसे के साथ कही जा सकती है कि देश के ज्यादातर संसाधनों, अवसरों और राजपाट (विधायिका को छोड़कर) पर दलित-आदिवासी और ओबीसी उपस्थिति सुनिश्चित करने में आरक्षण का मौजूदा स्वरूप असफल रहा है.


महिलाओं के मामले में खास बात यह भी है कि उन्हें कभी भी स्वतंत्र तौर परनागरिक माना ही नहीं गया है. महिलाओं की जाति उनके पति की जाति के आधार पर तय करने की प्रथा है. सवाल केवल जाति निर्धारण का ही नहीं है बल्कि महिलाओं के अस्तित्व को स्वीकारने का है. जिस तरीके की विषमता पुरूषों के लिए समाज में मौजूद है, महिलाओं के लिए भी वहीं विषमतायें लागू होती हैं. मसलन महिलायें भी जाति के आधार पर श्रेणीकृत हैं. इस सच्चाई से इन्कार नहीं किया जा सकता है.

खैर महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए उनका  राजनीतिक, आर्थिकऔर सामाजिक तीनों स्तरों पर उन्मुखीकरण अनिवार्य है. बिहार इस मामले में एक नजीर है. बिहार में पहली बार महिलाओं को पंचायती राज व्यवस्था के तहत पचास फीसदी आरक्षण दिया गया. हालाँकि इसके आलोचना में यह ज़रूर कहा जाता है कि अक्सर ये महिला उम्मीदवार अपने परिवार के किसी राजनीतिक रूप से महत्वाकांक्षी पुरुष के महिला मुखौटा से अधिक कुछ नहीं होती हैं, और इस वास्तविकता से इंकार भी नहीं किया जा सकता है. परंतु इसके साथ साथ इस वास्तविकता से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि इसी बहाने दूर दराज के गाँवों की  महिलायें अपने घर की दहलीज से बाहर निकलीं और कई अवसरों पर खुद को सामाजिक और राजनीतिक जीवन में साबित भी किया. अब देश के विभिन्न राज्यों द्वारा बिहार के इस उदाहरण को सराहा और अपनाया जा रहा है.


 बहरहाल महिलायें सशक्त हों, इसके लिए आरक्षण आवश्यक हैऔर यह भी सही है कि कोटा के तहत कोटा मिले तो यह एक न्यायपूर्ण स्थिति होगी. लेकिन सबसे बड़ा सवाल पहल करने की है. जिस तरीके से महिलाओं को उनके हक-हुकूक से वंचित किये जाने की साजिश की जा रही है, अब बंद होना चाहिए. इसके लिए प्रबुद्ध महिलाओं को आगे आना होगा और गाँव गाँव जाकर इस सुनियोजित संस्थागत अन्याय के विरुद्ध सभी महिलाओं को जागृत और संगठित करना होगा. कोई न कोई मार्ग तो तलाशनी ही होगी ताकि आधी आबादी खुलकर अपने अधिकारों के लिए आवाज उठाये.  

डा. मीसा भारती राज्यसभा सांसद हैं

मायावती का चरित्रहनन और राजनीतिक पतन का मर्सिया

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निखिल आनंद
एक ओबीसी-सबल्टर्न पत्रकार एवं सामाजिक- राजनीतिक कार्यकर्ता. संपर्क: nikhil.anand20@gmail.com, 09939822007मायावती
हाशिये से आगे बढ़कर ताकतवर राजनीतिक शख्सियत के रूप में स्थापित मायावती के खिलाफ जातिवादी-मर्दवादी भावनाओं की विश्लेष्णात्मक खबर ले रहे हैं पत्रकार निखिल आनंद. 'बहन जी '  के खिलाफ भाजपा  नेता की अश्लील,अभद्र टिप्पणी को  निखिल  सिर्फ महिला के खिलाफ टिप्पणी नहीं  मानते,बल्कि उनके  अनुसार  यह  टिप्पणी जातिवादी मानस  से प्रेरित है,जिससे संसद में फूलन देवी भागवती देवी जैसी  महिला सांसद भी  पीड़ित  रही  हैं .

भारत के 20 करोड़ की आबादी वाले सूबेउत्तर प्रदेश की चार बार मुख्यमंत्री रह चुकी मायावती को भारतीय जनता पार्टी का एक वरिष्ठ नेता सार्वजनिक तौर पर ‘वेश्या’ से भी ‘बदतर’ घोषित करता है. आखिर इस बयान की जद में क्या है यह जानने की गुंजाइश इसलिये बनती है कि मायावती इस आजाद भारत के लोकतांत्रिक इतिहास में बिना किसी पारिवारिक पृष्ठभूमि के, इतना बड़ा राजनीतिक मुकाम बनाने वाली दलित ही नहीं, समूचे सबल्टर्न समाज की शायद अकेली कद्दावर महिला शख्सियत हैं. वैसे भारत की राजनीति में अभी तक की सबसे बड़ी हैसियत बनाने वाली एकमात्र महिला जो प्रधानमंत्री के ओहदे तक पहुँची वो इंदिरा गाँधी थीं. इंदिराजी को महात्मा गाँधी की गोद में खेलने का अवसर मिला था और उनके पिता जवाहरलाल नेहरू देश के प्रथम प्रधानमंत्री थे. 1971 में बांग्लादेश युद्ध जीतने के बाद तो इंदिरा गाँधी की नेतृत्व क्षमता से प्रभावित होकर बीजेपी के नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने उन्हें ‘दुर्गा या दुर्गावतार’ घोषित किया था.  ‘इंदिरा’ कभी ‘दुर्गा’ थी तो बहुजन नायक महिषासुर के लोकप्रसंग में ‘दुर्गा’ भी एक ‘वेश्या’ बताई जाती है पर आज जब मायावती को ‘वेश्या’ से भी ‘बदतर’ बताया जा रहा है वो भारतीय लोकतंत्र में बहुजन जमात की एक प्रतिनिधि राजनीतिक नायिका हैं. इस बयान का मनोविज्ञान यह बतलाता है कि ऐसा बोलने वाला शख्स पुरूषवादी मानसिकता से ग्रस्त तो है ही,  जातिवादी भी है और एक औरत को भोग की वस्तु समझता है.

 हालांकि यह भी सच है कि वेश्यावृति के लोकप्रचलित पेशे को सत्ता- व्यवस्था से जुड़े सफेदपोश लोगों ने संरक्षण देकर स्थापित किया और जिन लोगों ने समाज में नैतिकता की ठेकेदारी की उन्होंने अपनी अय्याशी के लिये देवों के नाम पर यौन कुंठा को तृप्त करने के लिये ‘देवदासी प्रथा’ को भी स्थापित किया. यही नहीं वर्ण व्यवस्था में उपर के लोगों ने समाज में अपने वर्चस्ववादी- यथास्थितिवादी रूतबे को कायम करने के लिये कालांतर में जाति ही नहीं धर्म तक देखे बिना हर तरह के गठजोड़ बनाने से लेकर राजघरानों में बेटी- रोटी के संबंध स्थापित कर सत्ता में भागीदारी भी सुनिश्चित की. फिलहाल इस पूरे बयान में दलित विरोधी मानसिकता से मायावती को अपमानित करने की नीति है और चरित्रहनन की खतरनाक गंदी साजिश भी है. इस पूरे विमर्श में महिला है, राजनीतिक महिला का चरित्र है, जाति- समाज है, राजनीति है और यौन कुंठायुक्त सेक्स आधारित विमर्श भी शामिल है जिसे समझना बहुत जरूरी है इसी संदर्भ में भारत की राजनीति में कई अदभुत प्रयोग के सफल- असफल होने उदाहरण मिलते हैं. तमिलनाडू में जनता है कि एमoजीoरामचंद्रन की पत्नी जानकी रामचंद्रन के विस्मृत होते जाने के बीच उनकी ऑन-स्क्रीन प्रेमिका जयललिता पाँचवी बार मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बिठाती है. लेकिन वही जनता एनoटीoरामाराव की पत्नी व बेटे को खारिज कर देती है और बगावती दामाद चंद्रबाबू नायडू को मुख्यमंत्री पद पर दुबारा बिठाती है.

पश्चिम बंगाल के भद्रलोक में सामाजिकसंरचना पर भारी बौद्धिक- वैचारिक द्वंद्व के बीच पार्टियों से परे सवर्ण नेताओं का राजनीतिक शीर्ष पर पक्ष- विपक्ष में छाये रहने की कलाबाजी गजब दिलचस्प है. विधान चंद्र राय, सिद्धार्थ शंकर रे जैसे कांग्रेसी के बाद घोर वामपंथी ज्योति बसु, बुद्धदेव भट्टाचार्य और अब तृणमूल पार्टी की दूसरी बार मुख्यमंत्री बनी ममता बनर्जी का फर्क दलों के दलदल व विचार से परे कॉमन सवर्ण सामाजिक पृष्ठभूमि की बुनियाद पर समझना कोई बड़ी बात नहीं है. आनंदी बेन पटेल और वसुंधरा राजे सिंधिया की कौन सी बड़ी खासियत उन्हें अपने राज्य व पार्टी में कद्दावर बनाकर मुख्यमंत्री के ओहदे पर शुमार करती है. शीला दीक्षित दिल्ली की राजनीति में पुराने विरासत के बूते ही टपककर एक कद्दावर मुख्यमंत्री के रूप में शुमार हुई. लेकिन इन तमाम सर्वगुणसम्पन्न एवं सर्वमान्य नामों के बीच मंडलवादी लालू यादव के राजनीतिक संक्रमण काल में उनकी पत्नी राबड़ी देवी का मुख्यमंत्री बनने की घटना पर चुटकुले पेश कर आज भी सवर्ण समाज अपनी कुंठा तृप्त करता है. इस कुंठा की हद तो ये है कि एक दौर में टेलीविजन के एक प्रोमों में लालू- राबड़ी का नाम क्रमश: पुरूष- स्त्री शौचालय के दरवाजे पर लिखकर दिखाया जाता था. सवाल उठता है कि इस तरह के प्रतिबिंबन के पीछे क्या सिर्फ सवर्ण समाज के भाषा- ज्ञान- बुद्धि की श्रेष्ठता ही है या वर्ण व्यवस्था में श्रेष्ठता पर आधारित जातिवाद की मानसिकता है ?

नवभारत अखबार की हेडिंग ‘माया का चरित्र वेश्या से बदतर’ भारतीय मिडिया के घोर सवर्णवादी सामाजिक चरित्र को बेहतरीन तरीके से उजागर करता दिखता है.


मीरा कुमार कांग्रेस की सुर्खियों में हमेशाइसलिए बनी रहती हैं कि वे एक वक्त में कांग्रेस के लिये गले की हड्डी बने स्व0 जगजीवन राम की बेटी हैं और उनकी पार्टी नाम, विरासत, चेहरे को भंजाना बखूबी जानती है. लेकिन कांग्रेस यह भी जानती है कि ओबीसी सीताराम केसरी को क्यों और कैसे निपटाया जाता है. जाहिर है ये दोनों अगर दलित- पिछड़े नहीं होते तो शायद देश के प्रधानमंत्री भी हो सकते थे. वैसे ही बीजेपी जानती है कि गोपीनाथ मुंडे की बेटी पंकजा मुंडे को कैसे निपटाना है और तेलगी मामले से बच गये छगन भुजबल को महाराष्ट्र सदन में बहुजन नेताओं की मूर्ति स्थापित करने की सजा कैसे देनी है? इन सबके पीछे जाति है, जो तमाम सवालों के बीच जाती नहीं बल्कि सभी बातों के मूल रूप से समाई हुई है. एक दौर रहा है जब राजनीति में ट्रेनिंग और ग्रूमिंग का एक कल्चर हुआ करता था. इसके तहत लोहिया, जेपी, कर्पूरी जैसे तमाम नेताओं के सानिध्य में रहकर स्त्री- पुरूष नेताओं की एक बड़ी फौज राजनीति का ककहारा सीखकर लोकसभा- विधानसभा की शोभा बढ़ाते रहे हैं. मायावती के खिलाफ दिये गये बयान के नजरिये से महिला राजनीतिकों की बात करें तो सुषमा स्वराज 70 के दशक में हरियाणा में सबसे कम उम्र की कैबिनेट मिनिस्टर बनीं, जिन्हें प्रारंभिक तौर पर देवीलाल, चंद्रशेखर जैसे लोगों ने आगे बढ़ाया. अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी की संरक्षण प्राप्त अनेकों महिलाओं ने राजनीति में काफी अच्छा नाम कमाया है, जिनमें लोकसभा स्पीकर सुमित्रा महाजन जैसी कद्दावर नेता शामिल हैं.

 बीजेपी में आज की वरिष्ठ महिला नेता स्मृति इरानी को आगे बढ़ाने में प्रमोद महाजन और नरेन्द्र भाई मोदी का नाम लिया जाता है. कांग्रेस में जवाहरलाल नेहरू, नारायण दत्त तिवारी, राजीव गाँधी ने भी अनगिनत महिलाओं को सहयोग देकर राजनीति में आगे बढ़ाया, जिसकी एक लम्बी फेहरिश्त है. जाहिर है कि इन महिलाओं की अपनी क्षमता ही इनकी राजनीतिक सफलता में शामिल रही है, लेकिन ग्रूमिंग की पृष्ठभूमि भी इनके साथ काम कर रही थी. अब इस सूची में जितना चाहें नाम जोर सकते हैं कि किसने किस महिला को संरक्षण देकर राजनीति में आगे बढ़ाया लेकिन कभी भी किसी के चरित्र पर किसी पार्टी संगठन के नेता ने सार्वजनिक तौर पर सवाल नहीं उठाया है. यही नहीं मिडिया भी इस मामले में अबतक काफी संवेदनशील रूख अपनाती रही है. लेकिन हाल के दिनों में पक्ष-विपक्ष की राजनीति में एक- दूसरे का सम्मान करना तो दूर छीछालेदर और चरित्रहनन करने को हथियार समझा जाने लगा है. इंदिरा गाँधी की हत्या जिस साल हुई थी उसी साल कांशीराम ने बहुजन समाज पार्टी की नींव रखी थी. बहुजनवादी विचार, सशक्त संगठन व सामाजिक संघर्ष की बुनियाद पर राजनीति की नींव कांशीराम जी ने रखी. उस संघर्ष में उन्होंने मायावती को तब से जोड़ रखा था जब किसी के लिये ऐसा सोचना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन था कि बहुजन समाज पार्टी राष्ट्रीय पार्टी तो दूर कभी राज्य स्तर की पार्टी भी बनेगी. इस लिहाज से कांशीराम जी की दूरदर्शिता का अंदाजा लगाना मुश्किल है, जिसने मायावती को पार्टी का चेहरा बनाया जो इस मुकाम तक पहुँची.

 इस संघर्ष से निकली राजनीति के दौरमें कांशीराम लम्बे समय तक सक्रिय नहीं रहे, तो मायावती भी बहुत बदल चुकी थी. बीएसपी की राजनीति को सफल बनाने के लिये मायावती ने सवर्णों से समझौते का रास्ता अपनाया जो कांशीराम की नीति और रणनीति कभी नहीं रही थी. ये मंडल के बाद की राजनीति का दौर था, जब एक पत्रकार आशुतोष ने मायावती- कांशीराम पर अभद्र, अमर्यादित, अश्लील टिप्पणी की जिसके लिये आशुतोष को कांशीराम ने जोड़दार थप्पड़ जड़ा था. उस थप्पड़ की गूँज अब मद्धिम पर गई है लेकिन सवर्णों की अकड़ आज भी कायम है. उधर थप्पड़ खाने वाला पत्रकार खुद नेता बनने चल पड़ा है. आशुतोष जेएनयू में मंडल के उतरार्ध काल में शरद यादव की धोती खींचने, उनकी गाड़ी पर पत्थर मारने की घटनाओं में भी लिप्त रहे है, अब यूथ फॉर इक्वालिटी के आरक्षण विरोधी नायक अरविंद केजरीवाल के साथ उनका राजनीतिक गठजोड़ करना ये सारी बातें यही साबित करती हैं की पत्रकार के ज्ञान और वैचारिक मुखौटे से परे उसकी जाति देखना भी अब उतना ही महत्वपूर्ण है. यही नहीं आशुतोष चांदनी चौक से चुनाव लड़ने जाते हैं तो अपनी जाति के टाइटल वाले पोस्टर चिपकवाते हैं.


मायावती को लेकर किसी दयाशंकर कीटिप्पणी को सिर्फ पुरूषवादी होने की बात कहकर मामले को खत्म कर देना भी ठीक नहीं. उत्तर प्रदेश कांग्रेस की महिला नेता रीता बहुगुणा जोशी ने एक बलात्कार की घटना के बाद टिप्पणी करते हुये एक बार मायावती के बलात्कार होने पर ही एक पीड़ित की पीड़ा को महसूस करने की बात कही थी. यही नहीं रीता जोशी ने मायावती की स्थापित मूर्तियों को लेकर कह डाला था कि- मायावती पाँच करोड़ में अपनी एक मूर्ति बनवाती हैं और वह भी काली. उसमें भी पता नहीं चलता कि नाक कहाँ है, और कान कहाँ ? ये सब बातें जाहिर करती हैं कि मायावती के महिला या राजनीतिक होने से ज्यादा ये बयान जाति संदर्भ में थे. फूलन देवी (उत्तर प्रदेश) और भगवतिया देवी (बिहार) ने लोकसभा में अपने अनुभव के बारे में एकबार निजी संवाद के दौरान कमोबेश एक ही तरह की बातें शेयर की थी- “पुरूषों को कौन पूछे कई महिला सांसद नाक- भौं सिकोड़ते हुये, मुँह बिचका कर बचते हुये निकलती हैं जैसे उन्हें बदबू या घिन आ रही हो. बगल में बैठना हो तो कन्नी काट जाती हैं, दूर से निकल जाती हैं. संसद में भी महिला लोग पार्टी से भी ज्यादा जाति- समाज देखकर खुलती हैं और भेंट- बात करती हैं.’’ एक ओबीसी महिला सांसद का हाल ही में कहना है कि- “स्पीकर चेयर पर जब वो (एक महिला) होती हैं तो दलित- ओबीसी के सवाल उठाने पर बहुत इंटरप्शन करती है और जानबूझकर मुद्दा देखकर बोलने ही नहीं देना चाहती हैं.

 कई बार तो भ्रम होता है कि मेरे चेहरे से इसको चिड़ या मुझसे कोई नफरत तो नहीं.“ जाहिर है कि सभी औरते एक नहीं हैं और वे भी दलित- आदिवासी- ओबीसी- पसमांदा समाज और उनकी जातियों में बँटी हुई है. सवर्ण महिलाओं और पुरूषों के राजनीतिक एजेंडे एक होते हैं जो उनके अपने सामाजिक- राजनीतिक हित से जुड़ी होती हैं. जहाँ तक आधी आबादी का सवाल है तो सभी सामाजिक वर्ग- समूहों के भीतर उनके हक- हकूक- सम्मान के सवाल हल होते ज्यादा आसानी से दिखते हैं और उन्हें पहली सामाजिक- राजनीतिक स्वीकृति अपने समाज के समूहों के भीतर ही मिलती दिखती है. 2014 में नरेन्द्र मोदी की सरकार आने के बाद दलितों को मनोवैज्ञानिक तौर पर लुभाने के लिये संविधान दिवस और आंबेडकर शताब्दी जैसे कार्यक्रमों का भव्य आयोजन किया जा रहा है. लेकिन इन प्रतीकात्मक  हवाबाजी के बीच रोहित वेमुला की घटना, बीजेपी शासित राज्यों में दलित उत्पीड़न, गाय के नाम पर पहले मुसलमान और अब दलितों को निशाना बनाना, दलित- पिछड़ों के आरक्षण को खत्म व खारिज किये जाने की कोशिशे भी तेज हैं. बीजेपी- संघ के नेताओं के हिन्दूवादी- जातिवादी बयान सिर्फ मुसलमानों को ही नहीं दलित- पिछड़ों के आरक्षण को निशाना बनाये जाने का सबूत पेश करता है.

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने बिहार चुनाव केवक्त लालू यादव की बेटी मीसा भारती का उपहास किया था तो उसका खामियाजा उन्हें भुगतना पड़ा था. इस बार उत्तर प्रदेश के चुनाव की पृष्ठभूमि जब तैयार हो रही है बीजेपी की एक वरिष्ठ महिला नेता मधु मिश्रा ने संविधान- दलितों- आरक्षण के खिलाफ बयान देते हुये कहा कि- “संविधान के कारण ब्राह्मणों की यह स्थिति हो गई है जो कभी जूते सीलते थे वो राज चलाने लगे हैं.“ गुजरात में हार्दिक पटेल से किसी तरह छुटकारा पाने की जुगत में लगी बीजेपी का गाय और दलितों को लेकर बवाल में फँसना – इनसे मुक्ति का मार्ग तलाशने के लिये इसबार दयाशंकर ही मोहरा बना है. जैसे रोहित वेमुला और एचसीयू से मुक्ति के लिये कन्हैया और जेएनयू बीजेपी के लिये एक मुक्ति का मार्ग बना था. अब यूपी बीजेपी के वरिष्ठ उपाध्यक्ष दयाशंकर का बयान साबित करता है कि ये अकारण नहीं है बीजेपी की रणनीति का ही अंग है. उत्तर प्रदेश की चुनावी जंग में मायावती पर अश्लील टिप्पणी के बाद दयाशंकर से पहले पल्ला झाड़,  लेना लेकिन फिर उसके परिवार के सम्मान का मुद्दा बनाकर बीजेपी अब यूपी की राजनीति को अपने पाले में करने की कोशिश कर रही है. देशभर की सवर्ण मिडिया भी बीजेपी के मुहिम में मायावती के खिलाफ ज्यादा सक्रिय और दयाशंकर के परिवार के प्रति सहानुभूति का माहौल तैयार करती दिखाई देती है. लेकिन इसी बीच लोकतंत्र के सभी स्तंभ तथ्यपरक विश्लेषण से दूर होते जा रहे हैं और हर सत्ताकेन्द्र सामाजिक संरचना के हिसाब से अपना पक्ष- विपक्ष- रूख तय कर रहे हैं.



 इसी कड़ी में रायपुर का नवभारत अखबार की हेडिंग ‘माया का चरित्र वेश्या से बदतर’ भारतीय मिडिया के घोर सवर्णवादी सामाजिक चरित्र को बेहतरीन तरीके से उजागर करता दिखता है. मायावती दलित है और बहुजनवादी लोग मिडिया में नहीं हैं तो उसके लोग सड़कों पर उतर कर विरोध दर्ज करा रहे हैं. वहीं बीजेपी - संघ और सवर्ण मिडिया मिलकर देश की राजनीति को दोजख बनाने पर तुले है. दलित, आदिवासी, मुसलमान इनके नंबर एक निशाने पर है फिर ओबीसी को भी ये व्यवस्था के बाहर हाशिये पर ढकेलने में लगे है. बहुजन समाज पार्टी के लोग जो अपनी नेता के सम्मान मे कर रहे हैं उस पर नैतिकता का प्रवचन बाँच रहे लोगों को याद कर लेना चाहिये कि ये सब स्वाभाविक प्रतिक्रिया के ही तौर पर है, जिसकी दुहाई नरेंद्र मोदी, संघ-बीजेपी के लोग गुजरात दंगों के समर्थन में आजतक देते है. देशभर में जो भी इस वक्त हो रहा है इन सबका सूत्रधार संघ- बीजेपी है. अगर दयाशंकर की बहन- बेटी की इज्जत है, तो बहन मायावती की भी इज्जत है और सम्मान तो सभी महिलाओं का बराबर होना चाहिये. लेकिन सवाल महिलाओं का नहीं जाति का है. अगर महिला का सवाल जाति से बड़ा होता तो वह दयाशंकर की पत्नी मायावती को ‘वेश्या से बदतर’ घोषित किये जाने पर अपने पति के समर्थन में चुप्पी साधकर और अपनी बेटी को आगे करके उसके सम्मान का सवाल उठाते हुए मामले को इमोशनल टर्न दिलाने की कोशिश नहीं कर रही होती. फिर एक माँ- पत्नी- बेटी को सामने खड़ा करके दयाशंकर के बहाने उच्च जाति को गोलबंद करने की मिडिया इवेंट पर आधारित रणनीति बीजेपी-संघ और सवर्ण मिडिया नहीं करती.

 मायावती और बीएसपी कार्यकर्ताओं केआक्रामक  तेवर से सवर्ण समाज काफी बेचैन दिखाई दे रहा है, लेकिन काश देशभर में दलितों के रेप पर देश का पूरा सवर्ण समाज अपने बलात्कारी भाइयों के खिलाफ ऐसे ही खड़ा हो पाता. इतिहास में जाकर भले ही लोग बता रहे हो कि मायावती फलां-फलां घटना में चुप थी तो हमारे बहुजनों के दुख-पीड़ा पर उनके नेताओं की चुप्पी या मजबूरी को उदाहरण बनाने का हक कम से कम सवर्ण समाज को नहीं है. सत्ता, संसाधनों, तंत्रों, व्यवस्था पर ठेकेदारी अबतक सिर्फ उच्च जाति की रही है और वर्ण-जाति व्यवस्था पर आधारित समाज में सारी कुव्यवस्था का  जनक-  पोषक सिर्फ देश का मनुवादी- ब्राह्मणवादी तबका रहा है जिसमें बहुजन सिर्फ भुक्तभोगी है. फिलहाल राजनीति में विचार- चरित्र- नैतिकता को तार- तार कर देने वाले इन बयानों के बीच दलित बीएसपी के पक्ष में गोलबंद हो रहा है तो शीला दीक्षित को आगे करने की रणनीति से ब्राह्मणों को कांग्रेस के पक्ष में गोलबंद होता देख, बीजेपी सवर्णों को येन- केन- प्रकारेण एकजुट करने में लगी है. वहीं अखिलेश अपने परिवार के दुर्गम- दुरूह राजनीतिक किले को बचाने की जुगत में लगे हैं.

महिला आरक्षण को लेकर संसद में बहस :दूसरी क़िस्त

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महिला आरक्षण को लेकर संसद के दोनो सदनों में कई बार प्रस्ताव लाये गये. 1996 से 2016 तक, 20 सालों में महिला आरक्षण बिल पास होना संभव नहीं हो पाया है. एक बार तो यह राज्यसभा में पास भी हो गया, लेकिन लोकसभा में नहीं हो सका. सदन के पटल पर बिल की प्रतियां फाड़ी गई, इस या उस प्रकार से बिल रोका गया. संसद के दोनो सदनों में इस बिल को लेकर हुई बहसों को हम स्त्रीकाल के पाठकों के लिए क्रमशः प्रकाशित करेंगे. पहली क़िस्त  में  संयुक्त  मोर्चा सरकार  के  द्वारा  1996 में   पहली बार प्रस्तुत  विधेयक  के  दौरान  हुई  बहस . पहली ही  बहस  से  संसद  में  विधेयक  की  प्रतियां  छीने  जाने  , फाड़े  जाने  की  शुरुआत  हो  गई थी . इसके  तुरत  बाद  1997 में  शरद  यादव  ने  'कोटा  विद  इन  कोटा'  की   सबसे  खराब  पैरवी  की . उन्होंने  कहा  कि 'क्या  आपको  लगता  है  कि ये  पर -कटी , बाल -कटी  महिलायें  हमारी  महिलाओं  की  बात  कर  सकेंगी ! 'हालांकि  पहली   ही  बार  उमा भारती  ने  इस  स्टैंड  की  बेहतरीन  पैरवी  की  थी.  अंग्रेजी से हिन्दी अनुवाद पूजा सिंह और श्रीप्रकाश ने किया है. 
 संपादक
पहली क़िस्त के लिए क्लिक करें: 
महिला आरक्षण को लेकर संसद में बहस :पहली   क़िस्त


शीर्षक: अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर महिला आरक्षण से संबंधित 84वां संविधान संशोधन विधेयक पारित करने का मुद्दा ( 8 मार्च 1999)

श्रीमती गीता मुखर्जी (पनसुकरा): महोदय, आज 8 मार्च है, अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस. इसलिए मैं यह मानकर चल रही हूं कि सबसे पहले हमारी संसद दुनिया भर में सही मुद्दों के लिए संघर्ष कर रही महिलाओं के साथ एकजुटता दिखाएगी. दूसरी बात, आज देश भर में कई सेमिनार, रैलियां और तमाम अन्य आयोजन किए जा रहे हैं, जहां महिलाएं कई चीजों की मांग कर रही हैं. इनमें हाल में की गई अनिवार्य जिंसो की कीमत कम करने की मांग से लेकर, अल्पसंख्यकों पर अत्याचार रोकने, सांप्रदायिकता के विविध रूपों से लड़कर राष्ट्रीय एकता को मजबूत करने आदि जैसी मांगें शामिल हैं.  इन रैलियों और सेमीनारों में भी 84वें संविधान संशोधन विधेयक को पारित करने की मांग की जा रही है ताकि लोकसभा और विधानसभाओं में महिलाओं को एक तिहाई आरक्षण मिल सके. महोदय, मैं आपका ध्यान और आपके जरिऐ सरकार और तमाम राजनीतिक दलों के सदस्यों का ध्यान देश भर की महिलाओं की मांग की ओर दिलाना चाहती हूं और कहना चाहती हूं कि विधेयक को इसी सत्र में पारित कर दिया जाए.


श्री इंदर कुमार गुजराल (जालंधर):महोदय, माननीय महिला सदस्य ने उचित ही यह ध्यान दिलाया है कि 8 मार्च हमारे राष्ट्रीय जीवन में एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण तिथि है. मैं इसमें एक सकारात्मक बात यह जोडऩा चाहता हूं कि यह मांग केवल भारतीय महिलाओं की नहीं है. यह मांग देश के तमाम लोकतांत्रिक नागरिको की है कि महिलाओं को संसद और विधानसभा में उनका दाय मिलना चाहिए यानी 33 प्रतिशत आरक्षण. जो मुद्दा मेरी मित्र ने उठाया है,  मैं उसमें अपना स्वर मिलाना चाहता हूं. मैं उम्मीद करता हूं कि यह आवाज इस सदन में सर्वसम्मति से उठेगी। महिला सशक्तीकरण के लिहाज से देखा जाए तो यह मसला अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। हमारे जीवन में महिलाओं की अत्यंत अहम भूमिका है. ऐसे में हम सब उनके साथ हैं. हमारे राष्ट्रीय और राजनीतिक जीवन में महिलाओं की भूमिका और सशक्त होनी चाहिए.

श्री मुलायम सिंह यादव (सम्भल) :हम भी इस पर बोलेंगे. यह हमारा मामला है ... (व्यवधान) उपाध्यक्ष महोदय : आपको मैं चान्स दूंगा पर ऐसे नहीं बोलिये. (व्यवधान)

श्री मुलायम सिंह यादव : आप मुझे नहीं बोलने देते तो मुझे निकाल दीजिए. ... (व्यवधान)

पीठासीन  अध्यक्ष  : मुलायम जी, मैं आपको कह रहा हूं कि श्रीमती कृष्णा बोस ने नोटिस दिया है और उनका नाम लिस्ट में है इसलिए वह पहले बोलेंगी....(व्यवधान)

 श्री मुलायम सिंह यादव : हमारी लड़ाई है इस पर....(व्यवधान) ये प्रधान मंत्री रह चुके हैं इसलिए इन्हें बुलाया, हमें नहीं बुलाएंगे? ... (व्यवधान)

 पीठासीनअध्यक्ष : आप सीनियर लीडर हैं. क्या मैंने आपको कभी चान्स नहीं दिया ? (व्यवधान)

पीठासीनअध्यक्ष : श्री मुलायम सिंह जी, यह आप कया कर रहे हैं क्या  मैंने कहा कि आपको बोलने का चान्स नहीं देंगे. आप कम्पैल नहीं कर सकते हैं. आपको बिहेव करना आना चाहिए, आप एक सीनियर लीडर हैं. क्या मैंने आपको चान्स नहीं दिया, मैं आपको भी चान्स दूंगा. आप इस तरह से मत करिये ... (व्यवधान)

श्री लालू प्रसाद (मधेपुरा) : यह राबड़ी देवी की गरदन काटने वाले लोग हैं. यह महिलाओं को क्या  प्रधानता देंगे. बैकवर्ड क्लासेज  और माइनोरिटीज सोसाइटीज को जब तक प्रधानता नहीं मिलेगी, इस पर हमारी सहमति नहीं है.
श्री बूटा सिंह : उपाध्यक्ष महोदय, इस पर सदन को ऑब्जेकशन है ... (व्यवधान)

श्री मुलायम सिंह यादव : उपाध्यक्ष महोदय, आप इनकी कया सुनेंगे, यह गला काटने वाले लोग हैं ... (व्यवधान

श्री मुलायम सिंह यादव :हम बहुत सुन चुके हैं ... (व्यवधान) उपाध्यक्ष महोदय : आपकी बात भी सुनी जायेगी, पहले उनकी बात खत्म होने दीजिए.. (व्यवधान)

पीठासीनअध्यक्ष : आप इतने सीनियर लीडर हैं, आप बीच में कयों खड़े होते हैं, यह कोई तरीका नहीं है। श्री लालू प्रसाद : सर, जब आप खड़े होते हैं तो हम लोग डर जाते हैं ... (व्यवधान) यह दंगाई खड़े हैं ... (व्यवधान)यह एंटी दलित हैं, एंटी माइनोरिटीज हैं ... (व्यवधान)

 पीठासीनअध्यक्ष : ऑर्डर प्लीज.


श्रीमती कृष्णा बोस: उपाध्यक्ष महोदय, सबसे पहले मैं चाहती हूं कि कम से कम मेरे पुरुष सहयोगी मेरी बात सुनें. श्री गुजराल ने कहा कि यह संसद और तमाम अन्य लोकतांत्रिक लोग हमारा समर्थन कर रहे हैं लेकिन मुझे यह कहते हुए दुख हो रहा है कि मेरी नजर में यह संसद पुरुषों का क्लब है और मैं इस क्लब में एक अवांछित घुसपैठिए सा महसूस करती हूं. मुझे अभी यहां खड़े होकर भी यही महसूस हो रहा है. मैं यहां ठीक से बोल भी नहीं सकती. क्या मैं बोल सकती हूं महोदय ? अच्छा ऐसा मुझे लगता है ...(बाधा)

पीठासीनअध्यक्ष : श्री रावले उनको बोलने दीजिए.

श्रीमती कृष्णा बोस: मैं सदन का ध्यान एक या दो अहम मुद्दों की ओर आकर्षित करना चाहती हूं. आज महिला दिवस है. जैसा कि श्रीमत गीता मुखर्जी पहले ही कह चुकी हैं. मुझे पता है कि सरकार महिलाओं के लिए एक राष्ट्रीय नीति लाने पर विचार कर रही है जो कुछ समय से कैबिनेट के समक्ष विचाराधीन है. आज मैं यह जानना चाहती हूं कि वे इसका क्या करना चाहते हैं. यह मेरा पहला बिंदु है.  दूसरी बात, तीन साल पहले मैंने यहीं इसी जगह खड़े होकर तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री देवेगौड़ा से पूछा था कि महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण देने वाला विधेयक कब आएगा और कब पारित किया जाएगा. प्रधानमंत्री ने वादा किया था कि सन 1996 के आरंभ में उसी सत्र में यह पारित हो जाएगा. अब तीन वर्ष बीत चुके हैं. गंगा में जाने कितना पानी बह चुका है. हमने कई प्रधानमंत्री बदलते देखे. लोगों ने नई लोकसभा चुन ली. मैं जानना चाहती हूं कि यह संशोधन कब पेश किया जा रहा है और क्या हमारे नीति निर्माण क्षेत्र में इसके लिए समुचित जगह है. मैं ऐसा इसलिए कह रही हूं क्योंकि हम बहुत उपेक्षित महसूस कर रहे हैं. मैंने अपनी भावनाएं मजबूती से जाहिर कर दी हैं. लेकिन लोग जिस तरह व्यवहार कर रहे हैं,मुझे कहना पड़ा रहा है कि मैंने पूरी तरह अवांछित महसूस किया.  (बाधा) मैं इन दो मसलों पर सरकार की प्रतिक्रिया जानना चाहती हूं. राष्ट्रीय महिला नीति पर क्या हो रहा है और उस संशोधन की क्या स्थिति है जो पहले से पारित होने के लिए लंबित है ?

श्रीमती भावना देवराजभाई चिखलिया (जूनागढ़) : माननीय उपाध्यक्ष जी, आज ८ मार्च, अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस है और जिस तरीके से हाउस में, खासतौर से लालू जी और मुलायम सिंह जी ने व्यवहार किया है, वह बिलकुल सराहनीय नहीं है. आप कहते हैं कि श्रीमती राबड़ी देवी जी भी महिला हैं, हम इस बात को मानते हैं और अगर कोई महिला अच्छा शासन करती है, तो सारा देश उसकी सराहना करता है और उसे स्वीकार करता है, लेकिन जिस महिला के राज में अच्छा शासन नहीं हुआ, उसकी हम सराहना नहीं कर सकते और उसे स्वीकार नहीं किया जा सकता. उपाध्यक्ष महोदय, आज के दिन महिला अन्तर्राष्ट्रीय दिवस के अवसर पर मैं सभी महिलाओं की तरफ से देश के प्रधान मंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी का अभिनन्दन करती हूं क्योंकि महिलाओं के लिए अटल जी ने अपने नेतृत्व में बहुत सारे ऐसे निर्णय किए हैं और करने जा रहे हैं जिनके कारण सम्मान जनक रूप से इस देश में महिलाएं जी सकती हैं. मैं आपके माध्यम से स्पष्ट कहना चाहती हूं कि आज के दिन महिलाओं को आर्थिक दृष्टी से समर्थ बनाने के लिए महिला विकास बैंक की स्थापना, महिला उद्यमियों को प्रोत्साहन की योजना और महिलाओं के लिए पार्ट-टाइम जॉब के लिए सकारात्मक रूप से विचार करने की बात अटल जी ने कही है. इसके लिए मैं उनकी सराहना करती हूं. उपाध्यक्ष महोदय, इस सदन में महिलाओं के लिए ३३ प्रतिशत आरक्षण का बिल पूर्व में ही प्रस्तुत किया जा चुका है, लेकिन अभी तक पास नहीं किया गया है. इसलिए मैं आज महिला अन्तर्राष्ट्रीय दिवस के अवसर पर अपने सभी सांसद भाइयों से अपील करती हूं कि उसे सर्वसम्मति से पारित किया जाए. धन्यवाद...

श्री मुलायम सिंह यादव : उपाध्यक्ष महोदय, मेरी आपसे एक प्रार्थना है कि आप कभी गुस्सा न करें. कभी टैंशन मत रखिये.(व्यवधान)

पीठासीनअध्यक्ष  : जीरो ऑवर में थोड़ी टैंशन तो होनी चाहिए.


 श्री मुलायम सिंह यादव (सम्भल): पीठासीन महोदय, जहां तक महिला दिवस का सवाल है तो मैं सारे हिन्दुस्तान और सारी दुनिया की महिलाओं को इसकी शुभकामनायें देता हूं. वे तर्रकी  करें, आगे बढ़ें और उनको उनका हक मिले. जहां तक महिला आरक्षण का सवाल है तो मेरी राय यह है कि आज हमें इस विवाद में नहीं पड़ना चाहिए. जब महिला दिवस मनाया जा रहा है तो हमारी भी उनको शुभकामनायें हैं. इसको विवाद में नहीं डालना चाहिए. जहां तक महिला आरक्षण का सवाल है तो शुरू से लेकर आज तक हम प्रधानमंत्री जी से दो बार मिले और उनको चिट्ठी भी लिखी. हमारी स्पष्ट राय है कि इस विधेयक का जो वर्तमान स्वरूप है, उसको उसी तरह से पास करने से हमारे देश के अंदर जो अल्पसंख्यक हैं विशेषकर मुसलमान हैं, दलित हैं, पिछड़े हैं, उनके साथ गैरबराबरी होगी. उनका और अधिक शोषण व अपमानजनक जीवन होगा इसलिए हमारी शुरू से यही राय है कि वर्तमान विधेयक तब तक नहीं आना चाहिए जब तक अल्पसंख्यक, दलित, पिछड़े विशेषकर मुसलमानों की जनसंख्या के अनुसार उनकी महिलाओं को आरक्षण मिले. दूसरा हमारा यह कहना है कि जहां से लोकतंत्र आया है, हम महिलाओं के आगे बढ़ने के विशेष अवसर की नीति को इस सदन में कहना चाहते हैं कि हमारी समाजवादी पार्टी ने आज से नहीं बल्कि  १९५४ से ही अमेरिका और इंग्लैंड की महिला आरक्षण की नीति का अनुसरण किया है. अमेरिका और इंग्लैंड की पार्लियामेंट  में अभी तक नौ फीसदी से ज्यादा निरक्षर महिलायें नहीं आ सकी हैं. हमारे यहां जो निरक्षर महिलायें हैं, दलित हैं, गरीब हैं, दबी-कुचली हैं, वे इस सदन में वर्तमान विधेयक के चलते नहीं आ सकती हैं. मैं महिलाओं के ३३ फीसदी आरक्षण के पक्ष में नहीं हूं. इसे कम किया जाये. इसे ज्यादा से ज्यादा १० फीसदी किया जाये. श्री गुजराल साहब अभी खड़े हुए थे. जब वे प्रधान मंत्री थे तब भी हमने इसका डटकर विरोध किया था. (व्यवधान)आप जानते हैं क्योंकि आप उस समय यहां थे. हमारी संयुक्त मोर्चा सरकार के प्रधानमंत्री श्री देवेगौड़ा थे तब भी हमने इस हाउस के अंदर अपने साथियों को खड़ा करके जो नहीं करना चाहिए था, उस वक़्त  भी कराने की कोशिश  करवाई थी. इसलिए हम चाहते हैं कि इस विधेयक को तब तक नहीं आना चाहिए जब तक मुसलमान, पिछड़े, दलित और अल्पसंख्यकों चाहे ईसाई ही क्यों  न हो , उनका आरक्षण न हो. अभी तक जो अध्ययन किया गया है कि बाद में संशोधन किया जायेगा, वह संशोधन नहीं हो सकता है. वह धोखा है, चतुराई है. पिछड़े और अल्पसंख्यकों के बारे में संविधान के अंदर कोई प्रवाधान नहीं है. हम संशोधन दे भी देंगे तो वह  संशोधन अमल होगा,  आप बताइये क्योंकि  आप खुद भुक्तभोगी हैं. आज आधे हिन्दुस्तान में से कोई भी मुसलमान लोक सभा का सदस्य नहीं है. आज गुजरात, राजस्थान, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश आदि आधे हिन्दुस्तान में से एक भी मुसलमान लोक सभा में नहीं है ... (व्यवधान) हमारी राय है कि इस विधेयक को पेश नहीं किया जाना चाहिए.

... (व्यवधान)वर्तमान नौकरशाही के चलतेदूसरे दल की सरकार बनने पर, एक-दूसरे को नीचा दिखाने के लिए सीट आरक्षित कर दी जाएगी. हमारी राय है कि इसका अधिकार पार्टी को मिलना चाहिए, चुनाव आयोग को अधिकार नहीं देना चाहिए. पार्टी को अधिकार देना चाहिए कि कितना आरक्षण है और महिलाओं को कहां आरक्षण देना है. यदि कोई पार्टी उसका पालन न करे तो उस पार्टी की मान्यता खत्म कर दी जाए, इसमें ऐसा प्रावधान कीजिए. इलेक्श न  कमीशन को आरक्षण का अधिकार नहीं मिलना चाहिए, यह हमारी राय है. जब तक इस विधेयक में संशोधन नहीं होता तब तक हम इसका हर तरह से विरोध करेंगे.

श्री सोमनाथ चटर्जी: श्रीमती गीता मुखर्जी ने सदन में जो कुछ कहा है मैं उसका पूरा समर्थन करता हूं. यह एक महत्त्वपूर्ण दिन है. महिलाओं से जुड़े अनेक मुद्दे हैं. इन्हें पूरे देश का समर्थन चाहिए. जाहिर सी बात है कि देश का प्रतिनिधित्व करने वाले सदन को अपना नजरिया एकदम स्पष्ट ढंग से और गंभीरता से उजागर करना चाहिए. संबंधित कदम भी उठाए जाने चाहिए. जहां तक आरक्षण विधेयक की बात है, हम जानते हैं कि इसे लेकर अलग-अलग दलों का नजरिया अलग-अलग है. मेरा विचार यही है कि इसे मौजूदा स्वरूप में पारित किया जाना चाहिए. अब अन्य दलों को उनका विचार प्रकट करने का अवसर दिया जाए. सदन को सही समय पर इस संबंध में निर्णय लेना होगा. फिलहाल इसका वक्त नहीं आया है. मैं यहां यह कहने की कोशिश नहीं कर रहा हूं कि इसे मौजूदा स्वरूप में क्यों पारित किया जाए ? आज सबसे अहम मसला यह है कि देश में महिलाओं का प्रश्न और संसदीय लोकतंत्र का प्रश्न, दोनों ही अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं. बिहार में क्या हुआ ? इस सरकार ने क्या कदम उठाया ? इस बात का प्रचार यहां बहुत जोर-शोर और अतिरेक के साथ किया गया वह पारित भी हुआ. किसी चीज का प्रतिनिधित्व नहीं हुआ ? इसमें देश के लोगों का विचार कुछ इस तरह शामिल है मानो संविधान के अधीन राज्यसभा की कोई प्रासांगिकता ही नहीं. इसलिए आज, यह जानते हुए कि राज्यसभा में उनका बहुमत नहीं है, वहां इसे पारित नहीं कर सकता, लेकिन फिर भी उन्होंने तमाम बातें कीं और जरूरी कदम उठाने के लिए अदालत जा रहे हैं. यहां तक कि प्रधानमंत्री तक को जाकर कांग्रेस पार्टी के नेता को आमंत्रित करना पड़ा... (बाधा)। मुझे ऐसा कहने का अधिकार है.


श्रीमती सुमित्रा महाजन :माननीय उपाध्यक्ष जी, मुझे थोड़ा दुख हो रहा है. सोमनाथ दादा जैसे जिन लोगों से हम रूल सीखते हैं, मुझे ऐसा लगा था कि वे अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर गीता दीदी की बात का और समर्थन करने के लिए खड़े हैं, लेकिन बीच में जिस तरीके से बात हुई, उससे मुझे थोड़ा सा दुख हुआ, क्योंकि हम इन्हीं लोगों से सीखते हैं। (व्यवधान)उन्होंने एक प्रकार से मंत्री की बात पर आज जो चर्चा छेड़ी, वह नहीं छेड़नी चाहिए थी, ऐसा मुझे लगता है. आज अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस है, मेरा यह मानना है कि ऐसा नहीं है आज महिला दिवस है, इसलिए महिलाओं के सम्मान की कुछ बात कहें. वास्तव में अच्छी तरह से इस पर चर्चा होनी चाहिए थी, लेकिन उसमें भी जिस प्रकार से खलल डाला जा रहा है, वह एक दुखदायक बात है. उपाध्यक्ष महोदय, मैं आज इस महिला दिवस के उपलक्ष्य  में प्रधान मंत्री जी को भी धन्यवाद देना चाहूंगी कि उनके मन में महिलाओं के लिए सम्मान है. जिस दिन उन्होंने प्रधान मंत्री पद की शपथ ली थी, उसके तुरंत बाद उन्होंने सम्पूर्ण देश की महिलाएं शिक्षित बनें, समझदार बनें, इस बात को दृष्टी  में रखते हुए महिलाओं को सभी प्रकार की शिक्षा फ्री देने का, उच्च शिक्षा तक फ्री दिए जाने का ऐलान किया था. इतना ही नहीं उनको व्यावसायिक शिक्षा देने के बारे में भी सोचने की बात जो कही थी, मैं चाहूंगी कि सरकार इस बारे में जल्द ही कुछ योजना लाए. इसी प्रकार महिलाओं के आत्मसम्मान और सुरक्षा की दृष्टि से जो भाव हमारे प्रधान मंत्री जी के मन में है, इस सदन में भी कई बार इस बात की चर्चा हो चुकी है. जब-जब भी दो जातियों में या कहीं भी झगड़े होते हैं तो वास्तव में भुगतना स्त्री को ही पड़ता है, अत्याचार होता है तो उस जाति की महिलाओं पर ही होता है, मातृत्व पर आघात होता है, इस बात को दृष्टि  में रखना चाहिए. इसीलिए प्रधान मंत्री जी ने और गृहमंत्री जी ने जो यह बात बार-बार कही है कि बलात्कारियों को फांसी तक की सजा दी जानी चाहिए, मैं उनका इस बात के लिए अभिनन्दन करना चाहती हूं. मैं चाहूंगी कि महिलाओं के हित में जो कानून हैं, उनके बारे में सोचा जाए और आवश्यक संशोधन किए जाएं तथा महिलाओं के लिए ३३ प्रतिशत आरक्षण वाला जो बिल है उसके बारे में भी सोचा जाए ... (व्यवधान)

श्रीमती सुमित्रा महाजन : उपाध्यक्ष महोदय, मैं केवल इतना ही निवेदन करना चाहूंगी कि ३३ प्रतिशत आरक्षण देकर हम इतना ही चाहते हैं कि निर्णय की प्रक़िया में महिलाओं का भी ज्यादा से ज्यादा सहभाग हो. हो सकता है इस पर किसी के विचार अलग हों, लेकिन बिल पर चर्चा के समय वे उसमें संशोधन दे सकते हैं. अगर मित्रता के नाते, सर्वानुमति से यह बात हो जाती है तो महिलाओं का सम्मान रखने के लिए जो हम अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मना रहे हैं, उसको मनाने में ज्यादा खुशी होगी. मेरा पूरे सदन से निवेदन है कि महिलाओं को कृप्या जाति में न बांटे. स्त्री की एक ही जाति होती है और वह मातृत्व की जाति होती है. वैसे भी स्त्री देश में पिछड़ी हुई है, उस पर अत्याचार हो रहे हैं, वह आगे नहीं बढ़ पा रही है. इसलिए निर्णय की प्रक़िया में अधिकार दिलाने की दृष्टि  से अगर कोई महिला बात करती है तो वह पूरे महिला समाज की बात करेगी. इस सदन में भी अगर वह बोलने के लिए खड़ी होगी तो मुस्लिम , दलित या अगड़े-पिछड़े की बात न करके पूरे स्त्री समाज की बात करेगी. इसलिए जब वह प्रतिनधित्व करेगी तो पूरे महिला समाज का करेगी. मेरा पूरे सदन से निवेदन है कि इस दृष्टि  से इस पर सोचें और महिलाओं के लिए ३३ प्रतिशत आरक्षण वाले बिल पर भी सर्वानुमति होनी चाहिए.

श्री चन्द्रशेखर (बलिया) (उ.प्र.):उपाध्यक्ष जी, आज अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस है. महिलाओं के लिए जितना भी किया जाए, वह कम है. मैं बधाई दूंगा सरकार को कि इन्होंने बहुत अच्छी इच्छा व्यक्त  की है महिलाओं को शिक्षा देने के लिए और उनके उत्थान के लिए. मैं उस पर नहीं जाऊंगा कि यह कितनी क्रियान्वित  होगी, यह तो अगले एक साल में देखा जाएगा. उसके लिए जो श्रीमती महाजन ने बधाई दी है प्रधान मंत्री जी को, मैं भी देता हूं. लेकिन दो बातें मैं और कहना चाहता हूं. अभी मुलायम सिंह जी ने जो बातें कहीं, उनका अपना महत्व है. उनकी भावनाओं को भी समझना चाहिए. यह भी समझना चाहिए कि अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के दिन हम लोग एक राष्ट्रीय कार्यक़म, जो अपने में अनोखा है, लागू करना चाहते हैं. मैं अपने मित्र गुजराल जी से पूछ रहा था कि जिस दिन आप यह बिल यहां लाए थे, उस दिन आपने क्या  सोचकर ऐसा किया था, कयोंकि थोड़ा बहुत दुनिया के बारे में मुझे भी ज्ञान है, मैं दुनिया के देशों में ज्यादा नहीं गया हूं, लेकिन भारत निराला देश होगा. जहां इस तरह का बिल पार्लियामेंट  में लाया जाएगा और क्यों लाया जा रहा है, इसका कारण हमारे मित्र गुजराल साहब को भी नहीं मालूम है। उन्हें सिर्फ यह मालूम है कि उस समय कोई कोर कमेटी थी, उसने कहा कि यह बिल ले आओ और उसी दिन उसको सर्वसम्मति से पास कर दो। उमा भारती जी आज यहां हैं या नहीं, उन्होंने भी उस दिन यही सवाल उठाया था जो आज मुलायम सिंह जी उठा रहे हैं .. (व्यवधान)मैं कहना चाहता हूं लोगों के मन में आशंका है. जो गरीब, पिछड़े, दलित और अल्पमत के लोग हैं, उनकी महिलाएं ज्यादा पिछड़ी हुई हैं. चुनाव आज जिस तरह से हो रहे हैं, उनका भी हमें रूप मालूम है, इसलिए हम समझते हैं कि उनका इतना प्रतिनिधित्व इस सदन में कम हो जाएगा, इसलिए यह भेद मत पैदा करें. यह सही है कि पिछड़े और अगड़ों में इस सदन में अंतर नहीं करना चाहिए. मैं सुमित्रा महाजन जी से यह कहूंगा कि पुरुषों और औरतों में अंतर करना भी उतना ही बुरा है जितना इस तरह की बातें करना बुरा है. इसलिए मैं कहना चाहता हूं कि यह जो बिल लाया गया, बिना सोचे-समझे, बिना जाने-बूझे और केवल भावनाओं, ज्जबातों में बहकर लाया गया. इसके क्या परिणाम होंगे, उसके बारे में कभी नहीं सोचा गया. अगर कोई माननीय सदस्य यह बता दे कि दुनिया के किसी देश  में क्या  एक तिहाई रिजर्वेशन महिलाओं के लिए किया गया है?

जिज्ञासा

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अभिनव मल्लिक
सामाजिक मुद्दों पर सक्रिय अभिनव मल्लिक फारवर्ड प्रेस के संवाददाता है संपर्क :abiotdrugs@gmail.com
उस दिन मैं अपने क्लिनिक,त्रिलोकनाथ स्मृतिस्वास्थ्य केंद्र  में मरीज़ देखने में व्यस्त था. बाहर बहुत सारे मरीज़ और मेडिकल रिप्रेजेन्टेटिव प्रतीक्षारत थे. दिन के करीब साढ़े एग्यारह बजे थे …बाहर से जोर की आवाज़ आयी - हम डाकटर बाबू के बड़का भाई तिरलोक मल्लिक को जानते हैं...बीरपुर के उनके स्कूल से ...हमको अन्दर  जाने दीजिये ...हमारी घरवाली को पेट मे बहुते दरद है ...सीधे टीसन से आ रहें हैं. लगा जैसे मुकेश की आवाज़ में रामायण का चोपाई सुन रहें हैं....इतने में एक बूढ़े बाबा जबरदस्ती अन्दर आये और दीन  भाव से कहने लगे – ‘डॉक्टर बाबू, मेरी दासिन के पेट में बहुत दर्द है, दर्द से छटपटा रही हैं. कम्पोडरबाबू अन्दर नहीं आने देता. आप बुढ़िया को पहले देख लीजिए बाबू … ’मेरा ध्यान भंग हुआ. बाहर मैंने किसी महिला के कराहने की आवाज़ सुनी.मैंने कहा – ‘अन्दर ले आइये बाबा.’  वह कराहती हुई अन्दर आ गई.
मैंने पूछा - ‘आपका नाम ?’
‘सितिया दासिन.’
 मैंने लिखा श्रीमती सीता देवी.
‘घर?’
‘जी ,हमलोग गोबर गरहा के रहने वाले हैं.’ बूढ़े ने जवाब दिया.
मैंने लिखा - गौरव गढ़..

शहर से एक-दो किलोमीटर पर यहगाँव हैं. पुराने लोग अभी भी इसे गोबर -गरहा ही कहते है. पर गाँव का नाम गौरव गढ़ ही है. महिला कोई पचास -पचपन की रही होगी. पके बाल, सामान्य वेश-भूषा, माथे पर रमानंदी तिलक और गले में कंठी.. वो सकुचाई - सी मेरे सामने कुर्सी पर बैठ गई.उसके चेहरे पर दर्द की लकीरें साफ़ दिख रही थी. उसके साथ पैसठ - सतर साल का एक बूढ़ा था. साधुओ सा वेश, माथे पर वही रमानंदी तिलक, गले में कंठी. एक हाथ में कमंडल, एक हाथ में लाठी. मैंने बाबा का नाम पूछा और उन्हें बैठ जाने को कहा.
‘मेरा नाम सीता राम दास है.’  बाबा ने बताया और बूढी की बगल वाली कुर्सी पर बैठ गए. ‘यह मेरी दासिन है. इसे पेट में बहुत दरद हो रहा हैं. पेट में सुल्फा भोकता है.’ दासिन यानी उनकी पत्नी. कम्पाउण्डर ने बूढी को टेबुल पर लिटाया ...मैंने पूछा – ‘कहाँ दर्द है ? कब से है ?’ ‘रास्ते से ही सरकार. दर्द रास्ते में ही उठा आज सबेरे से’. बाबा कह रहे थे - हमलोग चारों धाम करके अभी अयोध्याजी से आ रहे हैं.बाट-घाट में खाने-पीने का कोई ठीक तो रहता नहीं. बुढिया चटोर है, अंट-शंट खाती आई हैं.अभी ट्रेन से उतर कर सीधे आपके पास आ रहें हैं. आपका नाम बहुत सुना हैं. आप पुराने डाकटर हैं. गाँव में डाकटर थोरे ही रहता है, ठगते हैं सब..... मैंने दासिन को देखा. ब्लड प्रेशर भी मापा… 120/80..नार्मल. बाबा ने कहा –‘डाकटर बाबू, जरा जनतर लगा कर पेट देख लीजिए. रह - रह कर टीस मारता हैं...टिसियाता हैं.जनतर अर्थात आला ... एसथेटसकोप.  हाजमे की गड़बड़, खाने - पीने की अनियमितता के कारण पेट में कुछ गैस बगैरह बन रहा था.मैंने कहा - ‘बाबा, घबराने की बात नहीं हैं, आप चिंता नहीं करें.

एक सूई लगा देता हूँ . इन्हे बाहर लेजाकर लिटा दे. अभी दर्द कम जायेगा. दर्द कम होने पर गाँव चले जाये.’ मैंने नर्स ...चंचल को सूई दे देने को कहा. वे दोनोंबाहर चले गए. मैं फिर मरीज़ देखने में व्यस्त हो गया.
करीब ...एक बजे ...मरीजों की भीड़ छंट जाने के बाद बाबा अन्दर आये और बोले – ‘बाबू, दर्द तो कम हो गया है,क्या हमलोग गाँव जा सकते हैं ?’ फिर उन्होंने टेंट से कुछ रुपए निकल टेबुल पर रखा  - ‘डाकटर, बैध, राजा, बाभन को बिना दक्षिणा दिए काम नहीं लेना चाहिए. बाबु, अपनी फ़ीस ले लीजिए ....बाहर कम्पोडर...फ़ीस नहीं ले रहा है ..कहता है की यहाँ बाबा, साधु, भगत… से फ़ीस नहीं लिया जाता है.’ डाकटर साहेब ...आप अपना फ़ीस के लीजिए और सूईया का भी दामकाट लीजिए.’ मैंने हाथ जोड़े – ‘बाबा, आपलोग चारो धाम से पुण्य कमाकर आ रहें हैं. आपलोगों का आशीर्वाद ही मेरी फ़ीस है. आप त्रिलोक भैया को भी जानते है … आप निश्चिन्त होकर इन्हे गाँव ले जाएँ ...मैं एक गैस की दवा ...आपको दे देता हू, यदि जरुरत पड़े तो फिर इन्हे लेकर आ जाएँ.’ बाबा बोले - 'अब तो कहीं भी पुण्य - धरम नहीं हैं बाबु, सुब तमाशा है. अयोध्या का पुण्य तो उसी दिन चला गया, जिस दिन रामलला के नयन से ढब - ढब लोरचुने लगा .....'मैं कुछ समझ नहीं सका. बाबा रामानन्दी साधु होकर भी कैसी बातें कर रहें हैं - 'बाबा, आप क्या कह रहें हैं? जरा बैठ कर समझाइए.' हाँ बाबू , घोर कलयुग आ गया - बाबा बैठ गए - दुनिया में अब कहीं भी धरम नहीं रहा. जब करम ही ख़राब हो गया तो धरम कहाँ से बचेगा ? सब ख़तम हो गया बाबू, सब ख़तम हो गया ...सब ख़तम. हम दोनों बहुत जगह घूमे. मंदिर गया, मसजिद गया, बहुत घूमा, बहुत तीरथ गया. सब जगह अच्छा करम था, धरम था,प्रेम था,परमेश्वर था. लेकिन अब जगहे जगह दंगा हैं, फसाद है, फौज करफू है, व्यभिचार - हिंसा है। दिन - दहाड़े लूट लेता है.


भगवान को बाँस - बल्ला - लोहा से घेर - घारकर जेल में डाल दिया है. इस देश से सत्य, अहिंसा, प्रेम सब गायब हो गया है, बाबू !’ कहते - कहते बाबा बिलखने लगे. इसी बीच दासिन भी आकर खड़ी हो गई. उनके पेट का दर्द शायद कम हो गया था. बाबा का विलाप जारी था – ‘गाँधी बाबा ... कहते थे अल्लाह - ईश्वर सब एक हैं. जो राम है, वही रहीम है। यही कबीर दास भी कहते थे. पर अब तो बाबू , सब धरमके भगवान  भिन्न हो गए , जैसे हम दोनों को हमारे बेटों ने भिन्न कर दिया ......'बच्चे की तरह पुचकारते दासिन बाबा को संभाले बाहर चली गई.
उनलोगों के चले जाने के बाद मैं फिर अपने काम में व्यस्त हो गया. बात आयी - गयी ...हो गई. दस - बारह दिनों बाद बाबा फिर दासिन के साथ आए. उनकी दासिन पूर्णतः स्वस्थ हो चुकी थी. अपने साथ वो कददू, कोहड़े और कमंडल में तक़रीबन एक - डेढ़ किलो दूध लेकर आए थे. उन्होंने कहा - 'डाकटर बाबू, दासिन तो बिलकुल ठीके हो गई है. अपनी ही कुटी पर कददू है, कोहरा है , गाय भी है. यह सब आपके लिए है.' मैंने सभी चीजें घर भिजवा दीं और बाबा से बैठने का आग्रह किया. उन्होंने मेरे चैम्बर में लगे महर्षि मेंही दास के तस्वीर को प्रणाम किया… फिर वे बैठे. मैं बाबा से यह जानना चाह रहा था की उस दिन जब वे दासिन को दिखाने आये थे तो उन्होंने बताया था की रामलला के नयन से ढब - ढब लोर चूने लगा था, इस प्रसंग में मैंउसी दिन से जिज्ञासु था. मैंने बाबा से पूछा तो वे कहने लगे - 'सच बाबू , अब ईमान - धरम नहीं रहा. साधु, पंडित, मुल्ला, मोलबी तरह - तरह के भेस बना कर परवचन करता है. पर कुछो बूझता - सूझता भी है. अरे, अपने धरम पर रहो, अपने को सुधारो, गाँव -घर - समाज सुधारो. नाहक क्यों जात - धरम के नाम पर मारकाट , दंगा - फसाद करातेहो ?'

बाबा ने कहा - 'बाबू , आपलोग तो पढ़े - लिखेविद्वान आदमी हैं. हम आपके बाप - दादा, गंगा बाबू और बाबू रघुनन्दन मल्लिक को भी जानते हैं ....बहुत खानदानी हैं आपलोग ....फिर आप मेंही बाबा के शिष्य भी हैं ...नेता - मंतरी तो हरदमे आपके पास आते रहते हैं ...पिछला इलेक्शन में आप वोटो माँगने हमारे गाँवआये थे और नेत्रदान शिविर करवाने का परोगराम भी बताये थे ...कब, .कहिया नेत्रदान शिविर होगा बाबू? एक साँस में कह गए बाबा.
पर बाबा मेरा यह प्रश्न टाल गए की रामलला के नयन में ढब - ढब लोर क्यों था ? बाबा ने फुसफुसा कर कहा - 'बाबू, आजकल तो ढेर नेता हो गए हैं. लगता हैं की वोट की खातिर फुट डालकर मंतरी - संतरी बनने का षड़यन्त्र चल रहा है. क्या यहसच है बाबू ? फिर मेरा प्रश्न - 'बाबा राम लला के नयन में ढब - ढब लोर क्यों था. मेरे बहुत कुरेदने पर बाबा ने दासिन की ओर देखा. आँखों ही आँखों में शायद कुछ बात हुई.मुझे लगा दासिन अपनी असहमति प्रकट कर रही है. फिर भी बाबा बताने लगे - 'हाँ बाबू , हमलोगों ने देखा, रामलला के नयन से ढब - ढब लोर चू रहा था. आज से चार-पाँच बरस पहिले, हमलोग भी अयोध्या में उस धरम - धक्का के हिलोर में फंस गए थे. जबकि एक जगह में लोहा के पोल - बल्ला से घेरा हुआ था ...बंदहिस्सा ..वहाँ अन्दर जाने पर पुलिसिया पहरा लगा था. उसको बाबरी मसजिद कहते हैं ..वहाँ पूजा - पाठ - जल नहीं चढ़ता ... मोटा - मोटा सिकरी चारों तरफ लगाकर बंद था. देखते - देखते लोग बन्दरों की तरह मसजिद की  गुम्बद पर चढ़ गये। कह रहे थे की कोनो सेना के लोग हैं ...सनिमा की नगरी से आए हैं. बड़का - बड़का लोडीस्पीकर से एक जनानी का परवचन हो रहा था ...एक धक्का और दो .... एक - एक ईट पलक झपकते जमीन पर गिरा दिया.

यह देखते ही बुढ़िया छाती पीट -पीट कररोने लगी - हे भगवान, हे देव, यह विधर्मी सब अल्लाह मियां के घर को गिरा रहा है. हे भगवान ! अब क्या होगा ? सच कहते हैं बाबू, यह दृश्य देख कर रामलला भी रोने लगे हमलोगों ने देखा बाबू, रामलला लोगों की दुर्बुधि पर बिलख रहे थे. नयन में ढब - ढब लोर ! बुढिया लगातार रोती जा रही थी और भीड़ में घुसती भी जा रही थी.'बाबा ने फिर धीरे - से कहा - 'बाबू बुढिया भीड़ में घुसकर एक ईट आँचल तले चुरा कर ले आई. हम कितना भी समझाते रहे, मत रोओ. अल्लाह मियां और भगवान का घर तो सारे संसार में है. एक घर तोड़ देने से क्या वे भाग जाएँगे. लोगों की तो बुधि ही खो गई है, आँखों में धुंध छा गया है। तुम मर रोओ. पर औरतजात, अपनी जिद पर अड़ी रही, की  अल्लाह मियां के घर का यह पवितर ईंटा गाँव ले ही जाऊँगी. आखिर बुढ़िया की जिद पर लुकते – छिपाते वह ईंटा हमलोग गाँव ले ही आए .... उसके बाद अबकी ही हमलोग अयोध्याजी गये थे, बाबू.'बाबा उठ खड़े हुए. दासिन भी उठ खड़ी हुई. तब तक उनका कमंडल घर से वापस आ गया था.मैंने खड़े हो कर उनका कमंडल उन्हें वापस किया. जाते - जाते बाबा छण भर को ठमके और पूछा - 'बाबु, यह देश तो गताल खाते में जा ही रहा है. पर क्यों और किसकी वजह से ? बुढ़िया ने बाबा का हाथ पकड़ कर खींचना शुरू किया – ‘अहाँ त सठिया गेल छी ...बिना मतलब बक - बक करैय छी. एतेक किरिया - सप्पथ के बादो डाकटर बाबू के ईंटा वाला बात बतैये देलियेय.   सप्पथ तोड़वय त नीक नैय हेतय।‘('तुम तो सठिया गए हो. बिना मतलब बक-बक करते हो। इतना किरिया सप्पथ के बाद भी तुमने डाकटर बाबु को ईंटा वाली बात बता ही दी. सप्पथ तोड़ेंगे तो बुरा होगा ही ना !')
 

एक अनजाने, रहस्यमय भाव से बूढ़ीअपने पति को खींच कर बाहर ले जाने लगी. बाबा का प्रतिवाद था की डाकटर बाबु समझदार...खानदानी लोग हैं, कहने से.मन हल्का हो गया. बाबा दासिन के साथ चले गए. उनका मन तो हल्का हो गया, पर मेरा मन भारी हो गया. बहुत सारे सवाल मुझे कुरेदने लगे. एक अनपढ़ -गवाँर मुझे क्या कह गया ?  क्या सचमुच देश की इस हालत के लिए हम सब दोषी हैं ?  क्या सचमुच हम सबों ने संविधान को अपने जीवन की राष्ट्रीयता में उतारने की शपथ लेकर उसे भंग किया है ? आजादी के पचास सालों बाद भी क्या हम एक समतामूलक राष्ट्र का निर्वाण कर सके ? डॉक्टर न जाने कितने मरीजों से रूबरू होते हैं, क्या वो सबको याद रख पाते हैं ? पर कभी - कभी ऐसे भी मरीज़ आते हैं, जिन्हें भूलना संभव नहीं होता. मैं भी बाबासीताराम दास और सितिया दासिन को भूल नहीं पाया. मेरी यह जिज्ञाशा बनी ही रह गई की आखिर अल्लाह के घर की वह पाक ईंट का उन्होंने क्या किया. महीनों बीत गए, सालों बीते. पर बाबा लौट कर नहीं आए. बाबा के ऊपर मेरा ध्यान लगा था. मैंने अपने बड़े भाई ..मुक्ति भैया से भी पूछा.  भैया ..आप त्रिलोक भैया के बीरपुर स्कूल में रहने वाले किसी आदमी को जानते हैं ?..जो सुपौल के आस पास के गाँव का हैं ? ‘हाँ , त्रिलोक एक बार बताया था की उसके स्कूल मे गोबर गरहा का कोई भगत ..खेती - बाड़ी करता है ...राम का भक्त है ...और उसका नाम भी शायद भगवान  के नाम पर है ...भगत टाइप आदमी है.’ ‘हाँ ..सीताराम ..’मुझे लगा की बाबा का अस्तित्व है. कहाँ मैं उनके रहस्यमय होने की कल्पना करने लगा था. जो भी हो .. मेरी जिज्ञाशा अनुत्तरित ही रह गई. हुआ ऐसा की उसी गाँव में नेत्रदान शिविर का आयोजन हुआ.

मैं इंडियन मेडिकल एसोसिएशन के अध्यक्षके नाते चिकित्सकों के दल के साथ उस गाँव पहुँचा.बाबा सीताराम दास और सितिया दासिन अभी भी मेरी स्मृति में बने थे. शिविरोपरांत पूछने पर पता चला की बाबा गाँव के दक्षिणी भाग में एक कुटिया बना कर रहते हैं. अपने दोनों पुत्रों से अलग. उनकी पत्नी की मृत्यु हाल - फ़िलहालमें ही हुई है. मैं मुखियाजी के साथ उनकी कुटिया पर पहुँचा. बाबा कुटिया के बाहर ही मचान पर बैठे मिल गए. मैंने उन्हें प्रणाम किया, पर उन्होंने मुझे पहचाना नहीं. मुखियाजी ने बताया कि उनकी आँखों की रोशनी कमजोर हो गई है. आँखों में मोतियाबिन्द है. गाँव में ही नेत्रदान शिविर लगने के बावजूद, बहुत कहने पर भी बाबा ऑपरेशन कराने को तैयार नहीं हुए. बाबा लगातार अपनी जिद पर अड़े रहे. उनका कहना था की जब लोग आँखें होते भी अंधे है तो मैं ऑपरेशन क्यों करवाऊ,अंधा ही भला हूँ . मुखिया जी ने उन्हें बताया की सुपौल से डॉक्टर मल्लिक साहेब उनसे मिलने आये हैं. तब तक बाबा मचान से उतर चुके थे. उन्होंने एकदम नजदीक आकर मुझे देखा और पहचान लिया - 'हाँ, चीन्ह गये डाकटर बाबू, हमारे दासिन को जब पेट में दरद हुआ था तो आप ही ने ठीक किया था. आपसे बहुत बातचीत भी हुई थी.दासिन हमको डाँटी भी थी. बाबू, हमारी दासिन ने तो हाल ही में समाधि ले ली, हमेशा आपकी चर्चा किया करती थी ....'बाबा ने नजदीक आकर कहा - 'बाबू, अब हमें भी जीने का मन नहीं है .....'अपार करुणा और दुख से भींगी बाबा की यह बात मुझे कहीं गहरे छू गई.उन्होंने स्नेह से मुझे मचान पर बिठाया. किसी को एक लोटा पानी लाने कहा. पानी आने पर उन्होंने मुझे पैर धोने कहा. मैंने यन्त्रवत पैर धोये. बाबा मुझे अपने अपनी कुटिया मेंले गये. कुटिया एकदम साफ -… सुथरी, चिकनी मिट्टी से लिपी - पुती, झक्क.


एक तरफ एक खाट  बिछी थी, जिस परसाधारण - सा बिस्तर था. एक कोने में अलगनी पर रखे कुछ कपड़े, एक जगह कमंडल, लाठी और कुछ बर्तन थे .कुटिया के एक कोने में एक सिंहासन रखा था. सिंहासन पर बाबा के रामलला विराज रहे थे. मैंने उन्हें प्रणाम किया. अकस्मात नज़र टिठक गई. मैं टकटकी बाँधे उधर ही देखता रह गया.  रामलला के ठीक बगल में एक ईट रखी थी, जिस पर एक माला रखा था, कुछ अरहूल फूल रखे थे, तुलसीदल रखे थे. सिंहासन के नीचे जल रही अगरबत्ती की सुगंध चारो दिशाओ में फैल रही थी. मेरे सामने एक चमत्कार घटित हो रहा था. ऐसा चमत्कार रोजमर्रे की जिन्दगी में देखने को नहीं मिलता. मुझे लगा रामलला मुस्कुरा रहें हैं. मैंने दुबारा सिंहासन के सामने अपना माथा टेका और उठ कर खड़ा हुआ. पलट कर देखता हूँ तो बाबा निर्विकार - भावसे खड़े हैं. बिलकुल शांत, स्थिर, आँखे बन्द. उनकी आँखों में मोतियाबिन्द है, पर आन्तरिक दृष्टि की अनुपम आभा उनके मुखमंडल पर फैल रही है. सालों - साल से अन्दर दबी जिज्ञासा आज उत्तरित हो रही थी - एक अनन्त अनुत्तरित जिज्ञासा.

महिला आरक्षण को लेकर संसद में बहस :तीसरी क़िस्त

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महिला आरक्षण को लेकर संसद के दोनो सदनों में कई बार प्रस्ताव लाये गये. 1996 से 2016 तक, 20 सालों में महिला आरक्षण बिल पास होना संभव नहीं हो पाया है. एक बार तो यह राज्यसभा में पास भी हो गया, लेकिन लोकसभा में नहीं हो सका. सदन के पटल पर बिल की प्रतियां फाड़ी गई, इस या उस प्रकार से बिल रोका गया. संसद के दोनो सदनों में इस बिल को लेकर हुई बहसों को हम स्त्रीकाल के पाठकों के लिए क्रमशः प्रकाशित करेंगे. पहली क़िस्त  में  संयुक्त  मोर्चा सरकार  के  द्वारा  1996 में   पहली बार प्रस्तुत  विधेयक  के  दौरान  हुई  बहस . पहली ही  बहस  से  संसद  में  विधेयक  की  प्रतियां  छीने  जाने  , फाड़े  जाने  की  शुरुआत  हो  गई थी . इसके  तुरत  बाद  1997 में  शरद  यादव  ने  'कोटा  विद  इन  कोटा'  की   सबसे  खराब  पैरवी  की . उन्होंने  कहा  कि 'क्या  आपको  लगता  है  कि ये  पर -कटी , बाल -कटी  महिलायें  हमारी  महिलाओं  की  बात  कर  सकेंगी ! 'हालांकि  पहली   ही  बार  उमा भारती  ने  इस  स्टैंड  की  बेहतरीन  पैरवी  की  थी.  अंग्रेजी से हिन्दी अनुवाद पूजा सिंह और श्रीप्रकाश ने किया है. 
 संपादक
पहली क़िस्त के लिए क्लिक करें: 
महिला आरक्षण को लेकर संसद में बहस :पहली   क़िस्त

दूसरी क़िस्त के लिए क्लिक करें: 
महिला आरक्षण को लेकर संसद में बहस: दूसरी क़िस्त  


श्रीमती सुमित्रा महाजन : हम अपने देश में तो आरक्षण की बात करते हैं ... (व्यवधान)

श्रीमती भावना कर्दम दवे : क्या हम दूसरे देशों का अनुकरण ही करते रहेंगे या फिर अपनी प्रतिभा को सम्पन्न करेंगे ?

श्री मोतीलाल वोरा (राजनांदगांव): उपाध्यक्ष महोदय, आज अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर मैं अपनी बहनों को मुबारकबाद देता हूं. दुनिया में सारी महिलाएं संगठित होकर रहें, आज इस अवसर पर मैं कहूंगा कि महिलाओं को सुविधाएं मिलनी चाहिए. जो महिलाएं अत्याचार से पीड़ित हैं, उनके ऊपर जिस प्रकार के अत्याचार होते हैं, उसके लिए हमें देश के अंदर इस प्रकार का कानून बनाना चाहिए कि महिलाओं पर अत्याचार करने वालों के विरुद्ध कड़ी से कड़ी कार्रवाई होनी चाहिए.  माननीय मंत्री जी और आडवाणी जी ने हाल ही में इस बात को कहा है कि जो महिलाओं के साथ दुर्व्यवाहर  करते हैं या बलात्कार की घटनाएं होती हैं, उन्हें फांसी की सजा दी जानी चाहिए. उन्होंने जो कुछ कहा है मैं समझता हूं कि जब तक वह कानून के रूप में नहीं आएगा तब तक इस प्रकार की घटनाएं बढ़ती जाएंगी और सब लोग कहते ही रहेंगे. धन्यवाद.


श्री बूटा सिंह (जालोर): महोदय, सरकार को यह पक्ष भी सुनने दीजिए ... (बाधा)। हमें भी सुना जाए. हमें कुछ समय दीजिए ... (बाधा)। बस आधा मिनट का वक्त दीजिए. हमें भी सुनिए महोदय ... (बाधा)  सर महिलाओं की आजादी के मसले पर पूरा सदन सर्वसम्मत है. महिलाएं हमारी राष्ट्रीय राजनीति में बहुत अहम भूमिका निभा सकती हैं. हम माननीय महिला सदस्यों की मांग का खुले दिल से स्वागत करते हैं, लेकिन साथ ही मैं माननीय सदन को यह भी ध्यान दिलाना चाहूंगा कि पिछड़ा वर्ग, अनुसूचित जाति-जनजाति की महिलाओं एवं अल्पसंख्यक वर्ग की महिलाओं को एक खास सम्मान से नवाजा जाना चाहिए. राजधानी दिल्ली में गुरुतेगबहादुर मेडिकल कॉलेज में पढऩे वाले अनुसूचित जाति एवं जनजाति के बच्चों को पीटा गया. बच्चे भूख हड़ताल पर बैठे हैं. उनकी बात सुनने वाला कोई नहीं है न तो पुलिस, न ही दिल्ली प्रशासन और न यह सरकार. उनकी रक्षा की जानी चाहिए. ये बच्चे-बच्चियां भूख हड़ताल पर हैं. उनको केवल इसलिए पीटा गया क्योंकि वे अनुसूचित जाति-जनजाति से आते हैं. यह राजधानी दिल्ली का सबसे घृणित अपराध है. उनकी बात सुनी जानी चाहिए और सरकार को उनकी दिक्कत दूर करने के लिए जरूरी कदम उठाने चाहिए.

श्री शिवराज वी.पाटील (लाटूर) : उपाध्यक्ष महोदय, आज हमें इस बात को नहीं भूलना चाहिए कि हम संसार की आधी मानव संख्या के प्रति अपना आदर व्यकत करने के लिए यह दिन मना रहे हैं. हमारे देश में और संसार में भी महिलाओं का आदर किया जाता है, महिलाओं के प्रति प्रेम की भावनाएं व्यकत की जाती हैं. इसमें कोई दो राय नहीं हैं. मगर हमारे देश में और संसार में भी जब महिलाओं को अधिकार देने की बात की जाती है तो सब के सब पीछे हट जाते हैं. यहां तक कि कुछ महिलाओं का भी उनको समर्थन नहीं मिलता है. कुछ पुरुष आगे जरूर आते हैं लेकिन बहुत सारे ऐसे कारण दे देते हैं जिनका एक ही उद्देश्य होता है कि आदर मिले, प्रेम मिले लेकिन उनको अधिकार न मिलें - इस बात को भी हमें इस दिन ध्यान में रखना पड़ेगा. यह शताब्दी अधिकार देने वाली शताब्दी है. जो सर्वसाधारण लोग हैं, समाज के अंदर कमजोर लोग हैं, उनको अधिकार देने वाली यह शताब्दी है. यह शताब्दी हमारी माताओं, बहनों और बेटियों को अधिकार देने वाली शताब्दी है. इसलिए हमारे भाई लोग कुछ ऐसे कारण बताकर पीछे न हटें जिसकी वजह से लोग यह न कहें कि दिल में बात एक है और दूसरी तरह से यहां पर रखने की यह कोशिश कर रहे हैं. मैं बड़े आदर से यहां पर कहना चाहता हूं कि बहुत ही सोच-समझकर कहने वाले, दूरदृष्टि रखने वाले नेता हैं, उनकी बातों को काटना बड़ा मुश्किल है . उनकी बात काटते समय या उनके खिलाफ कहते समय मन में दुख होता है. इसलिए पहले ही हम क्षमा-याचना करना चाहते हैं. मगर यहां पर कहा गया कि संसार में ऐसी कोई चीज नहीं हुई है, इसलिए यहां पर क्यों  होना चाहिए ? क्या  हम दूसरों के पीछे ही चलते रहेंगे ? क्या  हम दूसरों को कोई रास्ता नहीं बताएंगे ? अगर संसार में कहीं नहीं हुआ है  तो क्या  हमारे देश में वह बात नहीं होनी चाहिए ? हमारे देश की कोई बात हो और दूसरे लोगों ने अगर उसे अपनाया तो उसमें कौन सी बुरी बात है ? दक्षिण एशिया ने बताया कि सबसे पहले हिन्दुस्तान में महिला प्राइम मिनिस्टर  हुई और वह श्रीलंका, पाकिस्तान और बंगलादेश में भी हुई. यहां महिला पार्टी अध्यक्ष और प्राइम मिनिस्टर हुई हैं. यहां महिला प्रधान मंत्री और अध्यक्ष दूसरी जगहों के मुकाबले कहीं ज्यादा संख्या में हुई है. क्या  हमें यह चीज नहीं अपनानी चाहिए ? हम जानते हैं कि मुख्यमंत्री भी महिलाएं हैं, महिला मुख्यमंत्री और प्रधान मंत्री ने अपने-अपने तरीके से यहां काम किया. एक सवाल यह पूछा और उठाया जा रहा है कि क्या ऐसा होने पर पिछड़ी जाति की महिलाओं को हिस्सा मिलने वाला है? मैं आपसे पूछना चाहता हूं कि जो पिछड़ी सो-कॉल्ड बैकवर्ड क्लासेज की महिलाओं की बात की जा रही है तो सो-कॉल्ड मैन के बारे में भी कहा जाए. कितने फारवर्ड क्लास के लोग और जैंटलमैन यहां चुन कर आते हैं ? फारवर्ड क्लास की महिला हो या जैंटलमैन हो, वे टिकट मांग सकते हैं और चुनाव लड़ सकते हैं लेकिन फारवर्ड क्लास के वोट देने वाले लोगों की संख्या ज्यादा नहीं है. वोट देने वालों में बैकवर्ड क्लास के लोगों की ज्यादा संख्या है। वोट देने वालों में बैकवर्ड क्लास के लोगों की संख्या ज्यादा होने से बैकवर्ड क्लास के लोग ही चुन कर आ जाएंगे और फारवर्ड क्लास के चुन कर नहीं आएंगे. हमें यह बात ध्यान में रखनी पड़ेगी. श्री रघुवंश प्रसाद सिंह (वैशाली): इसका बंटवारा हो जाए। (व्यवधान)इसका हिसाब होना चाहिए। हम यह बात बर्दाश्त नहीं करेंगे ... (व्यवधान)

श्री शिवराज वी. पाटील : पूछा जाता है कि इसके पीछे क्या लॉजिक है? लॉजिक यह है कि जो सामाजिक न्याय की बात कर रहे हैं, वे अपनी बहनों, बेटियों, मां और अर्दधांगिनी को सामाजिक न्याय नहीं देते हैं. ऐसे में वे किस सामाजिक न्याय की बात करते हैं. वे अपने घर वालों को सामाजिक न्याय नहीं देते हैं और बाहर के लोगों को सामाजिक न्याय देने की बात करते हैं. ऐसी चीजों पर कौन भरोसा करने वाला है? अगर आपको नहीं करना है तो मत करिए लेकिन समाज और देश को बांटने की कोशिश मत कीजिए. अगर आपने महिलाओं को बांट कर इस प्रकार से टिकट दिए तो जैंटलमैन को किस आधार पर नहीं कहने वाले हैं. हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट जाने के बाद किस आधार पर नहीं देने वाले हैं। कया आपका संविधान सैकुलर रहने वाला है ? आप कह दें कि हमें यह नहीं करना है. यहां आप कह दीजिए कि आपको यही डर है कि महिलाओं को अधिक संख्या में सीटें देने के बाद हमारी सीटें चली जाएंगी. अगर ऐसा डर है तो वह डर खत्म करने की दवा लोगों और सोचने वालों के पास है. वे उसे देंगे और इसे करेंगे. आप इस डर को छुपाने के लिए सामाजिक न्याय की बात कर रहे हैं तो मेरी दृष्टि  से ऐसा करके आप खुद को धोखा दे रहे हैं और दूसरों को धोखा दे रहे हैं. अंत में इतना ही कहना चाहता हूं कि अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर समाज के आधे हिस्से के लोगों को अगर न्याय देने के लिए आगे नहीं आए तो दूसरों को न्याय देने की बात पर लोग बहुत कम भरोसा करेंगे, ऐसा मुझे लगता है. ... (व्यवधान)


श्री लालू प्रसाद (मधेपुरा) : उपाध्यक्ष महोदय, हम लोगों को भी यह मामला उठाने की इजाजत दी जाए.

श्री अजित कुमार पांजा:अब तक इस सदन में जो बहस हो रही है वह विश्व महिला दिवस और उससे संबंधित बातों पर ही आधारित है. इस मामले में एक या दो वक्ताओं को छोड़कर मैं अधिकांश की बातों से सहमत हूं. मेरी असहमति उन इक्का-दुक्का वक्ताओं से है, जिन्होंने कहा कि दुनिया में किसी अन्य देश में ऐसा आरक्षण नहीं दिया गया है. मैं अपने ठीक पहले वाले वक्ता की बातों का समर्थन करता हूं कि भारत को दूसरों को रास्ता दिखाना चाहिए. क्या हम अपने भारत देश को 'मां'कहकर नहीं पुकारते ? क्या दुनिया में कोई और देश है जहां के लोग उसे 'मां'कहते हैं ? क्या हम वंदे मातरम नहीं गाते ? हम वंदे मातरम कह कर अपनी मां की सराहना और उपासना करते हैं. इसलिए महोदय यह आवश्यक है और लंबित विधेयक को इसी सत्र में पारित किया जाए।.इसका लंबित रहना न केवल महिलाओं का, हमारी मांओं का बल्कि सभी भारतीयों का अपमान है.
इन परिस्थितियों में श्रीमान, मैं आपसे अपील करता हूंकि इसे सदन में पेश किया जाए तथा आगे बिना किसी बहस के इसे पारित किया जाए. क्योंकि पहले ही काफी बहस हो चुकी है. मैं मुक्त हृदय से शिवराज पाटिल की एक एक बात का समर्थन करता हूं. भारत इसी तरह के मूल्यों में यकीन करता है. इस मोड़ पर मैं उस शत्रुतापूर्ण  भेदभाव का भी जिक्र करूंगा जो बंगाल में महिला वर्ग के साथ हुआ. बंगाल में हजारों शिक्षित महिलाएं हैं,  लेकिन आपको यह जानकर अचरज होगा कि कब एक महिला  को कलकत्ता विश्वविद्यालय का कुलपति बनाया गया .. (बाधा)

डा असीम बाला, (एनएबीएडीडब्ल्यूआईपी) : क्या यह मंच इस तरह की बातों के लिये है?

श्री अजित कुमार पांजा: जब बंगाल में इतनी बड़ी संख्या में शिक्षित महिलाएं हैं तो वहां इस प्रकार का भेदभाव क्यों ?   (बाधा) यह खबर अखबारों में आई है. बंगाल में बड़ी संख्या में शिक्षित महिलाएं हैं .. (बाधा) बंगाल में महिलाओं के साथ शत्रुतापूर्ण भेदभाव के मामले निपटाए जाने चाहिए और इस अवैध गतिविधि पर अंकुश लगाया जाना चाहिए .. (बाधा)

श्री हन्नन मुल्ला (उलूबेरिया): यह क्या है?

श्री वासुदेव आचार्य (बांकुड़ा):वह ऐसी टिप्पणी कैसे कर सकते हैं? .. (बाधा)

पीठासीन साभापति : यह इतना संवेदनशील विषय है कि इस पर पहले ही एक घंटे 25 मिनट से अधिक वक्त खर्च हो चुके. माननीय मंत्री महोदय को इस पर प्रतिक्रिया देनी होगी.

श्री अजित कुमार पांजा:बंगाल में महिलाओं के साथ शत्रुतापूर्ण भेदभाव है. यह कोई कचरा नहीं है.

पीठासीन साभापति श्री हन्नान मुल्ला मुझे टोकिए मत.

पीठासीन साभापति: कृपया अपने सदस्य से कहें कि ऐसे व्यवहार न करें. मैंने श्री फातमी को बोलने का अवसर दिया है.

पीठासीन साभापति: श्री वासुदेव आचार्य, मैंने श्री फातमी का नाम पुकारा है.

श्री वासुदेव आचार्य: महोदय मैंने भी नोटिस दिया है.

पीठासीन साभापति: मैंने आपसे कहा कि मैं आपको पुकारूंगा. श्री वासुदेव आचार्य, मैंने श्री फातमी को पुकारा है.
श्री वरकाला राधाकृष्णन:मैंने भी नोटिस दिया है.

पीठासीन साभापति मैं आप सबको एक साथ नहीं बुला सकता।

श्रीवलकारा राधाकृष्णन: आप मुझे नहीं बुला रहे .. (बाधा)।

पीठासीन साभापति: यहां हो क्या रहा है? मैंने उन्हें बोलने का अवसर दिया है, मैं आपके पास वापस आऊंगा.
अध्यक्ष के आदेश से हटाया गया.

पीठासीन साभापति: मैंने किसी से कोई वादा नहीं किया है।

श्री वी सत्यमूर्ति (रामनाथपुरम): महोदय, आप हमें कोई मौका क्यों नहीं दे रहे? एआईडीएमके भी सदन का एक दल है.

पीठासीन साभापति: आपको अवसर मिलेगा लेकिन यह कोई तरीका नहीं है व्यवहार करने का. आपको खड़े होकर चिल्लाना नहीं चाहिए. अब मैं मंत्री को बुलाऊंगा.

श्री मोहम्मदअली अशरफ फातमी (दरभंगा): उपाध्यक्ष महोदय, आपने मुझे बोलने के लिये समय दिया, उसके लिये धन्यवाद।

पीठासीन साभापति: आपको जल्दी समाप्त करना है कयोंक I will call the Minister now.>

श्री मोहम्मद अली अशरफ फातमी : उपाध्यक्ष जी, मैं दो मिनट में खत्म कर दूंगा. आज इंटरनैशनल वुमैन डे पर महिलाओं को आगे बढ़ाने के लिये जो कदम उठाये जायेंगे, उसमें हम और हमारी पार्टी पूरा पूरा समर्थन देने का काम करेंगी. आज इंटरनैशनल वुमैन डे की अलग बात है और हिन्दुस्तान की महिलाओं का चैप्टर अलग है. जब इस सदन के अंदर महिलाओं के लिये रिजर्वेशन की बात होती है, उस समय बहुत सारी सामाजिक चीजों को पीछे छोड़ दिया जाता है. हमारा और हमारी पार्टी के लोगों का सीधा मानना है कि जब भी इस पर विचार हो तो इसमें शैडयूल्ड कास्टस एंड शैडयूल्ड ट्राइब्स और अदर बैकवर्ड कलासेज का प्रावधान हो. उस वक़्त निश्चित  रूप से जो हिन्दुस्तान के अंदर २० प्रतिशत अल्पसंख्यक लोग बसते हैं, पहले उनके बारे में सोचा जाना चाहिए. इसलिए कि आज अगर आप नक्शा  उठाइए लोक सभा का और आज़ादी के बाद से आज तक के आंकड़े उठाकर देखें तो जो मुसलमानों की १२ परसेंट आबादी है, उस हिसाब से आप देखिये कि कम से कम ६५ सांसद चुनकर इस लोक सभा में आने चाहिए लेकिन आज इस सदन के अंदर सिर्फ २७-२८ मेम्बर हैं. न जाने कितने राज्य ऐसे हैं जहां पर एक भी विधायक नहीं है. आप अगर रिज़र्वेशन विमेन्स का करते हैं तो हमारी मांग है कि उनकी आबादी के अनुपात में आरक्षण किया जाए, ५० परसेंट रिज़र्वेशन किया जाए. हम पाटिल जी से ऐग्री करते हैं कि उनको ५० परसेंट आरक्षण मिलना चाहिए जितनी उनकी आबादी है, लेकिन उसके अंदर जो ४३ प्रतिशत बैकवर्ड क्लासेज़ के लोग हैं, उनको आरक्षण मिलना चाहिए, जो २५ प्रतिशत शेडयूल्ड कास्टस और ट्राइब्ज़ के लोग हैं, उनको आरक्षण मिलना चाहिए और जो अल्पसंख्यक और खास तौर से १२ प्रतिशत मुसलमान हैं, उस ५० प्रतिशत में उनकी महिलाओं को उतना हिस्सा मिलना चाहिए. तभी इस मुल्क के अंदर समान न्याय मुमकिन होगा और समाज के हर तबके के लोग इस सदन के अंदर पहुंच पाएंगे.


पीठासीन साभापति: श्री रावले, कृपया मंत्री की बात सुनिए. अगर कोई प्रश्न हो तो आप बाद में पूछ सकते हैं. उनको अपनी बात पूरी करने दीजिए.

श्री पी आर कुमारमंगलम: महोदय, तय है कि मेरी बात नहीं सुनी गई होगी। मैं दोहराऊंगा।

पीठासीन साभापति: हां, मेरा धैर्य भी समाप्त हो रहा है.


श्री पी आर कुमारमंगलम:सर, आज का दिन बहुत अहम है. यह वह दिन है जिसे पूरी दुनिया महिला दिवस के रूप में मनाती है. यह अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस है. न केवल अब बल्कि ऐतिहासिक रूप से महिलाओं का सम्मान करना हमारा मूल्य रहा है. चाहे वे मां हों, बहन हों या पत्नी, हम हर रूप में उनका सम्मान करते हैं, उन्हें बराबरी का नहीं बल्कि उससे कहीं श्रेष्ठ का दर्जा देते हैं. महिला सशक्तीकरण का मूल्य हमारी संस्कृति का, हमारे इतिहास का हिस्सा है. हम इस बात में यकीन करते हैं कि महिलाओं का न केवल हमारे समाज में उचित स्थान होना चाहिए बल्कि हर तरह की व्यवस्था में उनकी आवाज सुनी जानी चाहिए और उनका अधिकार नजर आना चाहिए. हमारी सरकार यह विधेयक लाई है. सदन के सदस्यों के विचार सुनने के बाद मुझे यह कहना ही होगा कि मैं और मेरी सरकार यह मानती है कि संसद और विधानसभाओं में महिलाओं के आरक्षण का मुद्दा एक मूलभूत विषय है जिसपर सबकी सहमति बननी ही चाहिए. मैं श्रीमती गीता मुखर्जी की बातों से सहमत हूं. विधेयक सदन में लंबित है. मेरी कामना है कि हमारी सरकार इस बात को लेकर गंभीर है कि सदन विधेयक को अंगीकृत करे. लेकिन चूंकि यह संविधान संशोधन विधेयक है और अत्यंत महत्वपूर्ण विषय है इसलिए हमें इस पर सहमति बनानी होगी. इसे लड़ाई-झगड़े या कटुता के बीच नहीं पारित किया जा सकता. हमें सहमति बनानी होगी. हम उन महिलाओं के बारे में बात कर रहे हैं जिनको हमारा समाज देवी मानता है. इसे ऐसे नहीं किया जा सकता. हम इस मसले को मतभेद और कटुता के स्तर पर नहीं ला सकते.
क्रमशः

महिला आरक्षण, स्त्रीवाद पर बातचीत और सावित्रीबाई फुले वैचारिकी सम्मान समारोह

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1942 के 20 जुलाई को हुए नागपुर महिला सम्मलेन के 75 वें साल के अवसर पर 29 जुलाई को जेएनयू के 'ट्रिपल एस ऑडिटोरियम'में महिला आरक्षण पर बात करेंगे सीताराम येचुरी ( महासचिव सीपीएम), एनी राजा ( महासचिव एन एफ आई डव्ल्यू), राष्ट्रीय महिला आयोग की सदस्य सुषमा साहु, रंजीत रंजन ( सांसद, कांग्रेस) अरविंद जैन (अधिवक्ता सुप्रीम कोर्ट),  रजनी तिलक (दलित अधिकार आंदोलन),  रतन लाल (दलित अधिकार एक्टिविस्ट) और कौशल पंवार (दलित और महिला अधिकार कार्यकर्ता) तथा सावित्रीबाई फुले वैचारिकी सम्मान से साम्मानित होंगी अनिता भारती  अपनी किताब 'समकालीन नारीवाद और दलित स्त्री का प्रतिरोध' ( स्वराज प्राकाशन) के लिए.  'साथ ही स्त्रीवाद और हाशिये की आवाज', 'नागपुर महिला सम्मलेन: मील का पत्थर'आदि विषयों पर बातचीत करेंगे विमल थोराट ( आंबेडकरवादी स्त्रीवादी चिंतक), संजय सहाय (लेखक,संपादक हंस), नूर जहीर (लेखिका स्त्रीअधिकार एक्टिविस्ट), गणेश मांझी (असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, डी यू), मेधा पुष्कर (असिस्टेंट प्रोफ़ेसर डीयू) सरिता माली (यूनाइटेड ओबीसी फोरम, जे एन यू) तथा हेमलता माहिश्वर (प्रोफ़ेसर जामिया मीलिया इस्लामिया) डा. एस. एन. गौतम( आंबेडकरवादी एक्टिविस्ट), निशा शेंडे( प्रोफ़ेसर अमरावती विश्वविद्यालय).  साथ ही महिला अधिकार विषय पर नृत्यांगना रचना यादव की कत्थक प्रस्तुति भी.
    
आइये शिरकत करें 
सन 1942 के 20 जुलाई को डा. आंबेडकर के नेतृत्व में महिलाओं का एक सम्मलेन, नागपुर महाराष्ट्र में हुआ था. इस सम्मेलन में महिलाओं ने सामाजिक समानता के कई प्रस्ताव पारित किये थे. यह भारत में स्त्रीवादी आंदोलन और विमर्श में मील का पत्थर है, जबकि भारतीय महिला आंदोलन के भीतर यह अलक्षित घटना है. महिला अधिकार के उक्त सम्मलेन का यह 75वां साल है. इस अवसर पर स्त्रीकाल, स्त्री का समय और सच (स्त्रीवादी पत्रिका) आदिवासी साहित्य और यूनाइटेड ओबीसी फोरम के संयुक्त तत्वावधान में जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में महिला आरक्षण सहित अलग –अलग विषयों पर बातचीत आयोजित कर रही है. इस अवसर पर पत्रिका अनिता भारती की किताब ‘समकालीन नारीवाद: दलित स्त्री के प्रश्न’ को सावित्री बाई फुले साम्मान भी देगी. कार्यक्रम के अंत में महिला अधिकार विषय पर प्रसिद्द्ध कत्थक नृत्यांगना रचना यादव की नृत्य प्रस्तुति होगी.
दिनांक : 29 July 2016
समय : 2 बजे से
स्थान: एसएसएस1,जे एन यू

पहला सत्र : 2.00pm- 2.45pm


नागपुर महिला सम्मलेन: स्त्रीवादी आंदोलन में मील का पत्थर

पैनल :  हेमलता माहिश्वर (प्रोफ़ेसर जामिया मीलिया इस्लामिया) डा. एस. एन. गौतम( आंबेडकरवादी एक्टिविस्ट), निशा शेंडे( प्रोफ़ेसर अमरावती विश्वविद्यालय) ,
दूसरा सत्र : 2.45pm– 4.00 PM 

सावित्री बाई फुले वैचारिकी सम्मान

निर्णायक मंडल की ओर से:  अर्चना वर्मा (वरिष्ठ लेखिका और आलोचक)
लेखिका का वक्तव्य : अनिता भारती (दलित स्त्रीवादी लेखिका)
विषय: समकालीन स्त्रीवाद और हाशिये की आवाज 
पैनल : विमल थोराट ( आंबेडकरवादी स्त्रीवादी चिंतक), संजय सहाय (लेखक,संपादक हंस), नूर जहीर (लेखिका स्त्रीअधिकार एक्टिविस्ट), गणेश मांझी (असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, डी यू), मेधा पुष्कर (असिस्टेंट प्रोफ़ेसर डीयू)
हस्तक्षेप: सरिता माली (यूनाइटेड ओबीसी फोरम, जे एन यू)

तीसरा सत्र : 4.00pm-5.30pm


विषय: महिला आरक्षण की रुकावटें

पैनल : एनी राजा( महासचिव, एनएफआईडव्ल्यू), सीताराम येचुरी( महासचिव, सीपीएम), रंजीत रंजन ( सांसद, कांग्रेस) अरविंद जैन (अधिवक्ता सुप्रीम कोर्ट), सुषमा साहू ( सदस्य महिला आयोग), रजनी तिलक (दलित अधिकार आंदोलन),
हस्तक्षेप: रतन लाल (दलित अधिकार एक्टिविस्ट), कौशल पंवार (दलित और महिला अधिकार कार्यकर्ता)
धन्यवाद ज्ञापन: मुलायम सिंह यादव (यूनाइटेड ओबीसी फोरम)

5.30pm-5.45pm (हाई टी)

सांस्कृतिक कार्यक्रम : 5.45pm-6.30 PM:- कत्थक नृत्य: नृत्यांगना रचना यादव (विषय महिला अधिकार)

धन्यवाद ज्ञापन : गंगा सहाय मीणा (संपादक, आदिवासी साहित्य)

आयोजक : स्त्रीकाल, स्त्री का समय और सच, आदिवासी साहित्य, यूनाइटेड ओबीसी फोरम 

स्त्री मुक्ति आंदोलन : कहाँ पहुँचे

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कुसुम त्रिपाठी
स्त्रीवादी आलोचक.  एक दर्जन से अधिक किताबें प्रकाशित हैं , जिनमें 'औरत इतिहास रचा है तुमने',' स्त्री संघर्ष  के सौ वर्ष 'आदि चर्चित हैं. संपर्क: kusumtripathi@ymail.com 
भारतीय स्त्री मुक्ति आन्दोलन अपने विकासके दौरान जहाँ बहुत सारे सामाजिक, धार्मिक रूढ़ियों, जड़ताओं कुप्रथाओं और पाखण्डों से मुक्त हुई है, वही उसके सामने वर्तमान परिप्रेक्ष्य में नई चुनौतियाँ भी उत्पन्न हुई है . जो परम्परागत कुरीतियों से अधिक घातक सिद्ध हो रही हैं. भारतमें भूमण्डलीकरण के कारण भी बहुत-सी नई समस्याएँ उत्पन्न हो गई हैं. नए रूप में स्त्री देह व्यापार, भ्रूण-हत्या, यौन उत्पीड़न, बलात्कार, घरेलू हिंसा, कुपोषण, हिंसा-अपराध, हत्या-आत्महत्या, विस्थापन, निरक्षरता, साम्प्रदायिकता, महिलाओं का वस्तुकरण, परिवार का बिखरना जैसी अनेक भयावह स्थितियाँ सामने खड़ी हैं. साथ ही बहुत-सी पुरानी परम्पराएँ कुप्रथाएँ भी आज तक कायम हैं जो स्त्री सशक्तिकरण में अवरोधक हैं. साथ ही गरीबी, जातिवाद, कुपोषण, सम्प्रदायवाद, पारिवारिक विघटन, हिंसा, कुपोषण, स्वास्थ्य की असुविधाओं का अभाव आदि है जो जेंडर विभेद के कारण समाज में मौजूद है. यह एक चिंताजनक बात है कि जब एक ओर तमाम महिला संगठनों, महिला स्वयंसेवी संस्थाओं की संख्या बढ़ रही है, तब हम देख रहे हैं उसी के साथ-साथ महिलाओं के साथ शोषण व अत्याचार भी बढ़ रहा है. चाहे प्रिंट मीडिया हो या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, रोज प्रचार माध्यमों में स्त्रियों पर हिंसा की कोई-न-कोई ताजी खबर जरूर रहती है. महिला आन्दोलनों से जुड़ी कार्यकर्ताओं के बीच, महिला बुद्धिजीवियों के सामने यह एक जटिल प्रश्न है कि स्त्री मुक्ति आन्दोलन की दिशा कौन-सी होनी चाहिए? क्या करने से महिलाओं की पीड़ा और समस्याएँ कम हो जायेंगी ? आज स्त्री मुक्ति आन्दोलन के सामने कई चुनौतियाँ हैं. लेकिन इस पर सोचने के पहले हमें अपना इतिहास परखकर देखना जरूरी है.

महिला आन्दोलन की चुनौतियाँ

१९४७  के बाद का दशक महिलाओं के लिएविशेष महत्त्व का रहा. नए-नए महिला प्रश्न उभरे, योजनाएँ बनी, संघर्ष व मुद्दे निकले. कई कल्याणकारी योजनाएँ बनाई गई. 70 और 80 के दशक में वामपंथी आन्दोलन चले. इसी समय  स्वायत्त स्त्री मुक्ति आन्दोलन उभरा, इस आन्दोलन ने हर प्रकार के धर्मतंत्र (हेरार्की) का विरोध किया. पितृसत्ता की चुनौती दी. जहाँ भी पितृसत्तात्मक मूल्य नजर आए, स्वायत्त महिला आन्दोलन ने उसका विरोध किया. स्वायत्त स्त्री आन्दोलन ने एक प्रकार की चुप्पी को तोड़ा. साथ ही साथ विभिन्न राजनैतिक विचारधाराओं की महिलाएँ-महिला प्रश्न पर एक साथ आई. चाहे वे गांधीवादी हों, वामपंथी हों, समाजवादी हों या माओवादी हों. सभी महिला मुक्ति से जुड़े सवालों पर एक साथ दिखाई दिए. इस आन्दोलन ने बलात्कार के खिलाफ, कानून बदलवाए, दहेज का कानून बदलवाया, तथा स्त्री धन की परिभाषा बदली, पारिवारिक हिंसा का (४९८ ए) कानून पास करवाया, गर्भजल परीक्षण व लिंग परीक्षण पर रोक लगवाई, परित्यक्ता आन्दोलन, बार गर्ल्स पर पाबन्दी, घरेलू हिंसा 2005 का कानून बनवाया . विश्वस्तर पर नेटवर्किंग स्थापित की. न्यूजलेटर, पत्रिकाएँ निकाली गई. समाज में महिलाएँ जागरूक होने लगी. अपने हक के प्रति महिलाएँ एकजुट होने लगी. हर अखबार व पत्रिकाओं में महिला कॉलम लिखे जा रहे थे.  शहरों से गांवों तक स्त्री मुक्ति आन्दोलन फैलने लगा, सत्ताधारी वर्ग ने इस आन्दोलन पर ठण्डा पानी फेरने की चाल चली. अब राजनैतिक दलों ने महिला आन्दोलनों के नेतृत्व को जीतने का प्रचलन शुरू किया. स्वयंसेवी संस्थाओं (एन. जी. ओ.) चाहे सरकारी हो या विदेश पूँजीवादी, उन्होंने महिला संगठनों को आंशिक मदद देना शुरू किया.

विश्वविद्यालयों में स्त्री अध्ययन केन्द्र शुरूकिये गये. लड़ाकू महिला कार्यकर्ता आलीशान दफ्तरों में बैठकर सिर्फ संशोधन, रिसर्च व मार्गदर्शन का कार्य करने लगीं, वह भी सुबह ग्यारह से पाँच बजे तक ऑफिस के बंधे-बँधाए समय के अनुसार.इसका नतीजा यह निकला कि शहरी स्त्री आन्दोलन के पास ‘सिद्धान्त’ तो है लेकिन जनता नहीं. आज स्वायत्त स्त्री आन्दोलन आदिवासी मेहनतकश महिलाओं को न संगठित कर पा रही है न दिशा दे पा रही लेकिन देश की परिस्थिति आज दिन प्रति दिन ऐसी होती जा रही है कि वे स्वायत्त नारीवादी आन्दोलन से बाहर निकलकर संघर्ष कर रही हैं. चाहे उत्तर-पूर्व की महिलाएँ हों या कश्मीर की, खैरलांजी की हो सिंगूर की हो या नन्दीग्राम की पूँजीपतियों के खिलाफ आन्दोलन हो या टाटा व एस्सार के खिलाफ वामपंथी महिलाओं का संगठन हो, वे सभी जन-आन्दोलन खड़ा कर नेतृत्वकारी भूमिका निभा रही हैं. ‘महिला’ यह एक सजातीय (होमोजनस) गट नहीं है. इसमें भी किसान महिला, मध्यमवर्गीय कामकाजी महिला, दलित आदिवासी अल्पसंख्यक, हर जाति, धर्म, समुदाय वगैरह से आती है. शोषक वर्ग की महिलाओं का लैंगिक उत्पीड़न भी होता है, लेकिन आम तौर पर वे अपने हालात को बदलने के लिए मेहनतकश महिलाओं के साथ नहीं आती. विभिन्न तबके की महिलाओं के विशेष समस्याओं पर ध्यान देने से महिला आन्दोलन और व्यापक बन सकता है. आज महिला किसानों  की आत्महत्या तथा पुरुष किसानों की आत्महत्या का सवाल, विस्थापना, बेरोजगारी महिलाओं के लिए महत्वपूर्ण सवाल है. पितृसत्तात्मक पहलुओं पर ही हमें अल्पवर्गीय, जातीय प्रश्नों पर ध्यान देना जरूरी है. महिलाओं को अलग से संगठित करते हुए हमें अन्य स्त्री-पुरुष को मिलकर एक साथ आन्दोलन करना होगा.पर जैसा कि उमा चक्रवर्ती का कहना है, “भारत में स्वतंत्र महिला प्रश्नों पर आधारित आन्दोलनों का न होना वामपंथ की असफलता के कारण है.


वामपंथ सामाजिक संबंधों की समझविकसित नहीं कर पाया, उन्हें जोड़ नहीं पाया.” आप माओ का उद्धरण ले लो.  माओ ने कहा था, “जेंडर अंतर्विरोध आपस में एक-दूसरे के विरोधी नहीं हैं.” आप सिर्फ वर्ग संघर्ष को ही पूरी तरह से वैध संघर्ष मानते हो. पितृसत्तात्मक संबंधों पर तभी प्रश्न उठाये जा सकते हैं, जब आपके पास एक ऐसा आन्दोलन हो जिसमें जाति, वर्ग और जेंडर को एक साथ समझा जाए. आज स्थिति यह है कि जातिवाले एक आन्दोलन करते हैं, वर्गवाले दूसरा और जेंडरवाले कोई और आन्दोलन करते हैं. कोई एक दूसरे का साथ नहीं देता. स्त्रीवादी आन्दोलन स्वयं में आगे नहीं बढ़ सकता, यह अकेले कभी-भी पितृसत्ता पर जीत हासिल नहीं कर सकता. स्त्रीवादियों की रुचि पितृसत्ता को सिर्फ सहयोग देने में नहीं है.... हमारा विश्वास समानता में है, समाज में कोई भी हाशिए पर नहीं होना चाहिए. प्रत्येक को केन्द्र में होना चाहिए प्रत्येक को समान नागरिक होना चाहिए. भारत में महिलाएँ हर तरह के आन्दोलन में हैं .नर्मदा आन्दोलन में, पर्यावरण आन्दोलन में, पोस्को में हैं, हर जगह हैं, पर उनको मुख्य महिला प्रश्नों के प्रति संवेदनशील नहीं बताया गया है. उन्हें इस बारे में बताया ही नहीं गया. (उमा चक्रवर्ती, समयांतर फरवरी, २०१४ वर्ष ४५ अंक -५ पृ. ८३) .स्वतंत्रता के बाद यह जरूर हुआ है कि आर्थिक मंत्रों पर महिलाओं को स्थान मिला है. पर वास्तव में यह बढ़ती महँगाई का परिणाम है. एक के खर्च से अब घर नहीं चलता इसलिए स्त्रियों को भी नौकरी करनी पड़ी. एक जमाने में लड़कियों को पढ़ने के लिए बाहर नहीं भेजा जाता था, पर अब उन्हें भी भेजा जाता है. ताकि जिस घर में शादी करके जाय, उस घर में दहेज के साथ-साथ हर महीने उनकी आय भी परिवार के काम आ सके.

आर्थिक परिदृश्य  में महिलाओं के श्रमऔर दक्षता की मौजूदगी लैंगिक सम्बन्धों में परिवर्तन के कारण नहीं, बल्कि आर्थिक कारणों से जुड़ी हुई है.आज औरतें अपनी स्वायत्तता की लड़ाई लड़ रही है.जाति और समुदाय की सीमाओं में अपने पिता और परिवार के नियंत्रण में है, अपने समाज की सीमाओं में हैं, तब तक तो ठीक है, लेकिन जैसे ही वे इन सीमाओं को तोड़कर इससे बाहर आना चाहती हैं अक्सर दमन और हिंसा की शिकार होने लगती हैं.जब महिलाओं में व्यक्ति होने का भाव उत्पन्न होता है, तो समझने लगती हैं कि इस नाते उनके भी कुछ अधिकार भी हैं, जिन पर वे दावेदारी कर सकती हैं.आज बहस इस बात पर नहीं कि लड़की इंजीनियर बनना चाहती है या डॉक्टर, पर जैसे ही वह अपनी शादी का निर्णय अपनी जाति या समुदाय से बाहर करने का स्वयं निर्णय करती है तो हिंसा की शिकार होती है. खासकर जब विवाह अपने से निचली जाति में हो, तो समस्या और भी विकट हो जाती है. खाप  पंचायतें ऐसे युगल प्रेमियों को आये दिन मृत्युदण्ड से लेकर हुक्का-पानी बन्द कर जाति से निष्कासित करते हैं. कभी गांव छोड़कर जाने का फरमान जारी करते हैं. इन खाप  पंचायतों को राजनेता का समर्थन मिलता है.हरियाणा के भूतपूर्व मुख्यमंत्री खुलेआम कहते हैं, ‘खाप पंचायतें भारतीय संस्कृति की रक्षा कर रही हैं ।’ उमा चक्रवर्ती का कहना है, ‘दुखद बात है कि वामपंथ जाति और जेंडर के वर्ग के साथ संबंध को कभी समझा ही नहीं. उनके लिए वर्ग ही एक मुद्दा है. हमारे देश में जाति और वर्ग मिलकर ही वर्ग बनाते हैं. हमारे सामाजिक ढाँचे में श्रम कुछ जातियों के हिस्से में आता जब कि साधन कुछ जातियों में. महज वर्ग की सोच जाति और वर्ग को अलग-अलग बनाए रखती हैं और जेंडर इस  संरचना को बनाये रखने में मदद करता है.


जब तक महिलाएं स्वयं की और अपनीसेक्सुअलिटी को परिवार, समाज और समुदाय के नियंत्रण में रखेंगी तब तक यह व्यवस्था ऐसे ही चलती रहेगी.‘ (उमा चक्रवर्ती, स्त्रियों की स्वायत्तता का सवाल लेख, समयांतर, फरवरी, २०१४ वर्ष ४५, अंक ८५). धार्मिक कट्टरपंथियों का विरोध करना आज जरूरी हो गया है. आज दक्षिण पंथी संगठन धर्म के नाम पर अपने समुदाय को संगठित करके अल्पसंख्यकों पर हमले कर रहे हैं. राज्य यंत्रणा में भी जातिवादी व सम्प्रदायवादी धब्बा लग गया है. खैरलांजी हत्याकाण्ड के बाद जिस प्रकार दलित समाज के लोग खौल उठे थे और जिस प्रकार दलित महिलाएँ न केवल रास्ते पर आई बल्कि आन्दोलन का नेतृत्व भी किया, इससे दिखता है कि महिला की जागरूकता व संवेदना किस दिशा में है, जरूरत है सही नेतृत्व की.
भूमण्डलीकरण को पूरी तरह ठुकराने की जरूरत है.आज विश्व का एक खेमा ऐसा है जो भूमण्डलीकरण को एक मानवीय चेहरा का नारा लगा रहा है, लेकिन भूमण्डलीकरण को हमें पूरी तरह चुनौती देकर एक वैकल्पिक विकास प्रणाली को खड़े करने की जरूरत है. जहाँ मेहनतकश किसान-मजदूर और देश के साधारण लोगों के हित में विकास हो. भूमण्डलीकरण से महिलाओं की बेरोजगारी, यौन शोषण, अश्लील संस्कृति, वेश्यावृत्ति इत्यादि बढ़ रहे हैं. भूमण्डलीकरण से विस्थापना होने के कारण महिलाओं का पारिवारिक जीवन और सुरक्षा मुश्किल में पड़ गयी है. इसलिए स्त्रीमुक्ति आन्दोलन को इसका विश्लेषण करना होगा, इस पर फोकस करना पड़ेगा.  90 के दशक में सोवियत रूस के खात्मे के बाद तथा धीरे-धीरे पूर्वी यूरोप में समाजवाद के अन्त के साथ ही, विश्व पटल पर अमेरिका का एकमात्र साम्राज्य स्थापित हो गया. इन देशों में लिंग के आधार पर औरतों के साथ कभी भेदभाव नहीं किया गया.

यहाँ महिलाओं को पुरुषों के बराबरस्वतंत्रता, समानता और बौद्धिकता के अवसर मिले. ऐसे अवसर आज तक किसी पूँजीवादी व्यवस्था में नहीं मिले हैं. इन समाजवादी देशों ने स्त्री के श्रम का इस्तेमाल कभी भी मुनाफा कमाने के लिए नहीं किया. पर आज भूमण्डलीकरण के बाद, औरतें साम्राज्यवाद के शिकंजे में बुरी तरह फँसी हुई हैं और साम्राज्यवादी देशों का चरित्र भयानक है. यह ‘लेट कैपिटलिज्म’ (वृद्धि पूंजीवाद) का जमाना है. यहाँ पूंजीवाद सर्वव्यापी है क्योंकि वैश्विक बाजारों, बहुराष्ट्रीय निगमों, विश्व बैंकों और अन्तरराष्ट्रीय मुद्राकोष संस्थाओं के जरिये  उसने अखिल मण्डल पर अपना प्रभुत्व और वर्चस्व कायम कर लिया है. पूँजीवाद सर्वशक्तिमान है क्योंकि उसके पास संपूर्ण विश्व को वश में करनेवाली पूँजी की शक्ति के साथ-साथ समूची दुनिया को नष्ट कर डालने में समर्थ शस्त्रास्त्रों से युक्त सैनिक भी हैं. इस (उत्तर आधुनिक युग  के पिछले २० वर्षों में अर्थव्यवस्था ही बदल दी. आज उदारवाद, निजीकरण और बाजारवाद ने सारे रिश्ते ही बदल दिये हैं. नैतिकता, विवेक, सामाजिक मूल्य जैसी बातें बकवास हो गई. आज पैसा कमाने की होड़ लगी हुई है. पूँजीवाद ने मुक्त बाजार, खुली प्रतियोगिता, माँग और पूर्ति के नियम को बढ़ावा दिया, उन्होंने औरत को भी बाजार के हवाले कर दिया. इसका कारण सुधीश पचौरी के शब्दों में  ‘७० के बाद औरत का सबलीकरण बढ़ा. आन्दोलन बढ़े. इससे खतरा था. जब औरत अपने बारे में राजनीतिक विमर्श करने लगी  तब इस संस्कृति ने उसका रूप बदलना शुरू किया.अगर औरतें यौन-स्वतंत्रता करने जा रही हैं और दुनिया की सत्ता लेने जा रही हैं तो उन्हें मर्दों की तरह देह की स्वतंत्रता मिलनी चाहिए. डिस्को ऐसी ही कला-विधा बना. आदर्श स्त्री-देह को नंगा कर दिया गया... स्त्री संस्कृति में दो प्रकार की चीजें एक हुई. एक स्त्री देह को वस्तु की तरह देखती थी, दूसरी उस पर हिंसा की थी. सारे अश्लीलता कानून इस बिना पर चलते हैं कि आप उस अश्लीलता की उपेक्षा करे.


समाज में नग्नता या अश्लीलता की बहसेंविज्ञापनों में, सुन्दरता के पार्न में शामिल होने से स्त्री होते हुए भी नुकसान के बारे में नहीं बताती. नाओमी वुल्फ कहती हैं कि ब्युटी मिथ ने औरत की आजादी को मोड़कर उसके चेहरे और देह में बदल कर औरत को ब्युटी मिथक शुरू होता है. कॉस्मेटिक आते हैं, कपड़े-लत्ते, फैशन उसकी पहचान के नाम से आती हैं. ब्युटी मिथ ने औरत को झूठे चयनशीलता दी है. मैं कैसे लगाती हूँ ? का भाव दिया है. (सुधीश पचौरी, हंस, मार्च २००१, वर्ष १५ अंक -८, एक अधखुला लक्षण पृ. १०५) आज स्त्री मुक्ति आन्दोलन से आई स्त्री स्वतंत्रता को पूँजीवाद ने स्त्री के स्वतंत्र निर्णय लेने के विश्वास को स्वतंत्र उपभोक्ता में बदल दिया है. उपभोक्तावादी संस्कृति ने औरत को महज एक प्रोडक्ट (वस्तु) के रूप में पेश कर रहा है. इसका सबसे बड़ा उदाहरण आपको विज्ञापनों में नजर आएगा. ट्रक हो या टायर, कार हो या पेट्रोल, हर एक विज्ञापन में आपको अर्धनग्न कपड़ों में औरतों के जिस्म का प्रयोग बेहद सेक्सी तरीके से किया जाता है. यानी सामान बेचने के लिए उत्पादक ग्राहकों को लुभाने के लिए औरत के शरीर को समाज के रूप में प्रस्तुत करते हैं.भूमण्डलीकरण ने पूरे विश्व की महिलाओं का वस्तुकरण कर दिया है. बोल्ड और ब्युटिफूल के नाम पर पेज थ्री से रौनक बनती औरतें शायद यह समझ ही नहीं पाती कि उनके कम पोशाक भारी-भरकम मेकअप, हाथ में महँगी शराब की बोतलों का अर्थ स्वतंत्रता, समानता नहीं है. आज मीडिया द्वारा औरतों का सबसे ज्यादा वस्तुकरण कर बेइज्जत किया जा रहा है.आज बड़ी फिल्म अभिनेत्रियाँ  मॉडल, ऊँचे ओहदों पर आसीन औरतें जो पढ़ी-लिखी हैं वे भी अंग-प्रदर्शन कर रही हैं और उसी को अपनी पहचान बना ली है. सौंदर्य प्रसाधनों, ड्रेस डिजाइनरों, हेयर स्टाइलों की गूथ-गूँ में फँसी आज की औरत जो ऊपर से तो स्वतंत्र दिखती है, पर उसके जीवन में झांककर देखा जाये तो वह पितृसत्तात्मक ढाँचे में फँसी नजर आएगी.

आज का बाजारवाद स्त्री-पुरुष दोनों के उपभोक्ता के रूप में देख रहा है.आज दोनों ही बिकाऊ समझे जा रहे हैं. स्त्रीवाद ने पुरुषों को कभी भी ‘भोग’ की वस्तु नहीं माना पर अब चूँकि औरतें भी पढ़-लिख गई है, उनके पास भी सामान खरीदने की ताकत आ गई है, इसलिए औरतों को लुभाने के लिए विज्ञापनों में पुरुषों के कपड़े उतरवाये जा रहे हैं, वह भी फेयर एण्ड लवली लगा रहा है. आज पुरुषों को भी उपभोक्तावाद के हवाले किया जा रहा है. साम्राज्यवादी ताकतों ने हमारे देश में सामंतवादी ताकतों के साथ गठजोड़ कर लिया है, जिसका परिणाम यह निकला कि एक ओर औरत को उपभोग की वस्तु बनाया जा रहा है, जिससे औरत मात्र शरीर के रूप में भोग की वस्तु बन गई है, तो दूसरी ओर सामंती ताकतों को मजबूत करके खाफ पंचायतों द्वारा तो कभी अन्य कट्टरपंथी धार्मिक संगठनों द्वारा महिलाओं को मोबाइल फोन न रखने, जीन्स पैंट न पहनने, स्कार्फ द्वारा मुँह ढँकने, बुरखा  पहनने का फरमान जारी किया जा रहा है. आज कितनी ही लड़कियाँ स्कूटर पर मुँह ढँककर बैठी रहती हैं, ताकि उन्हें कोई पहचान ना ले. इससे लड़कों को ही फायदा होगा. पहचान छुपाकर उनके साथ अवैध संबंध बनाते हैं और किसी को पता भी नहीं चलता. स्त्रीवाद को ‘फ्री सेक्स’ के रूप में प्रतिष्ठित किया जा रहा है. स्त्रीवाद ने जेंडर विभेद के खिलाफ संघर्ष किया है. जिसे राजसत्ता भी स्वीकार करती है, पर समाज इसे तोड़ रहा है, पिछले वर्ष ‘बेशर्म मोर्चा’ एन. जी. ओ. ने निकाला. छोटे-छोटे अर्धनग्न कपड़ों में लड़कियाँ छोटे कपड़े पहनने की इजाजत समाज से माँग रही थी. जब कि भारत में आज भी दहेज, बलात्कार, यौनिक हिंसा, घरेलू हिंसा, शिक्षा जैसे अनेक सवाल खड़े हैं.



समाज में उपभोक्तावादी संस्कृति ने महिलाओंपर हिंसा को और बढ़ावा दिया. मैगी संस्कृति जो आई - दो मिनट में तैयार, उस संस्कृति ने इन्स्टेंट रातो-रात अमीर बनने के सपने दहेज के भयानक रूप में सामने आए. गाड़ी, बंगला, फ्रीज, टी. वी., महँगे फर्नीचर, गहने सभी उपभोग की वस्तुएँ दहेज में माँगे जाने लगी.. दहेज न मिलने पर औरतों को जलाकर मार डालना. नेशनल क्राइम ब्यूरो के अनुसार २०१२ में ८,२३३ दहेज हत्याएँ हुई. हर एक घण्टे में दहेज के कारण एक महिला की मौत होती है. दहेज के कारण लोग बेटियाँ नहीं पैदा करना चाहते. इसलिए भ्रूण हत्या जैसी बर्बरता समाज में दिन-दहाड़े अपनाई जा रही है.आज १००० प्रति पुरुष पर ९४० स्त्रियों का अनुपात है. पितृसत्ता पर के अन्तर्गत औरत पर नियंत्रण रखने के लिए अनेक प्रकार की हिंसा का इस्तेमाल किया जा रहा है और इन्हें प्रायः जायज ठहराया जाता है. बेटे को कुलदीपक कहना.पति को स्वामी, पत्नी को दासी, घर के अन्दर ही पति-पत्नी के बीच मालिकाना रिश्तों को बदलना होगा. सत्ता के साथ हिंसा जुड़ी हुई है. परिवार में प्रेम की जगह हिंसा है, बराबरी की जगह मालकियत है.औरतों को समाज में तुच्छ समझा जाता है, उसकी औकात न के बराबर है. औरत का समाज में कोई मूल्य नहीं है. आये दिन एकल औरतों के साथ समाज में हिंसा की जाती है, उन्हें डायन कहकर नंगा घुमाने से लेकर पत्थर से मार डालने तक की घटनाएँ होती हैं. सर्वेक्षण करने पर पता चला कि वे औरतें जो एकल हैं, आत्मसम्मान से अपने बल पर समाज में जीना चाहती हैं, किसी वर्चस्वशाली पुरुष या ओझाओं के सामने नहीं झुकती. उन्हें ही ‘डायन’ घोषित कर मार दिया जाता है.

तेजाब फेंकने की घटना में लगातार वृद्धि हो रही है. अधिकतर तेजाब फेंकने की घटना में एकतरफा प्यार शामिल है. लड़के ने लड़की के सामने प्यार या विवाह का प्रस्ताव रखा. लड़की ने ‘ना’ कहा तो लड़के ने तेजाब फेंका. पुरुष का अहंकार आहत होता है. एक ‘तुच्छ’ सी लड़की भला लड़के  को ‘ना’ कैसे कह सकती है क्योंकि समाज में लड़की को स्वतंत्र निर्णय लेने का हक नहीं दिया है और यदि कोई लड़की स्वतंत्र निर्णय ले लेती है तो पुरुष उसे सह नहीं पाता. तू मेरी नहीं तो किसी और की भी नहीं हो सकती. क्योंकि लड़की तो एक ‘सामान’ है. लड़की उपभोग की वस्तु है. घरेलू हिंसा के अनेक रूप हैं. नेशनल क्राइम ब्यूरो की रिपोर्ट के अनुसार भारत में हर वर्ष एक लाख केस घरेलू हिंसा के दर्ज होते है. हर नौ मिनट एक औरत घरेलू हिंसा की शिकार होती है. इस संदर्भ में सुधा अरोड़ा का कहना है, ‘घरेलू हिंसा पर खूब बात की जाती रही है. हर देश में हिंसा के सालाना आँकड़े मौजूद हैं पर मारपीटवाली हिंसा से कहीं ज्यादा लगभग शत-प्रतिशत स्त्रियाँ जिस भावनात्मक हिंसा या अनचिङ्घी मानसिक प्रताड़ना का शिकार होती हैं, इसके आँकड़ें कहाँ मिलेंगे, जब पीड़िता खुद इसे पहचान नहीं पा रही है. आज आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर, नौकरीपेशा लड़कियाँ इस तरह आत्महत्या नहीं करती. भावनात्मक शोषण से निपटने के लिए पहले लैंगिक वर्चस्व और लैंगिक शोषण की पहचान करनी होगी जिसकी नींव पर यह समाज बाहर से दिखती खुशहाली पर टिका हुआ है जब कि स्त्री संबंधी सही समस्याओं की जड़ लैंगिक वर्चस्व है.’ (सुधा अरोड़ा, कथादेश, वर्ष ३३, अंक-१ मार्च २०१४ विमर्श से परे : स्त्री और पुरुष पृ. ५६) गरीबी के कारण औरतें व बच्चियाँ देह-व्यापार में घसीटी जा रही है.

एन. सी. आर. की रिपोर्ट के अनुसार४० हजार करोड़ रुपये का वेश्या व्यापार है, एक करोड़ वेश्याएँ भारत में हैं जिसमें पाँच लाख बच्चियाँ हैं. आज भारत बच्चियों के देह व्यापार का विश्व बाजार में सबसे बड़ा अड्डा है. एन. सी. आर. के अनुसार बच्चियों पर हिंसा के २०१२ में ३८,१७२ केस दर्ज हुए हैं. उपभोक्तावादी संस्कृति ने बलात्कार को बढ़ावा दिया. यूज एण्ड थ्रो की संस्कृति ने बलात्कार करो और मार दो को जन्म दिया.  सड़कों पर जा रही लड़कियों पर ब्लैड मैन द्वारा उनके मुँह पर हमला, सड़कों पर औरतों पर हमला, काम के स्थान पर छेड़छाड़, सेक्स दुरिज्य को बढ़ावा, बाल-वेश्या में वृद्धि, बच्चियों के सौंदर्य प्रतियोगिताएँ करवाकर उनका बचपन खत्म करना, बच्चियाँ चमक-दमक की दुनिया में बड़ों जैसा व्यवहार करने लगती हैं. मनोवैज्ञानिकों ने इसे इतना ही खतरनाक माना है जितना कम उम्र में माँ बनना.  इंटरनेट पर साइबर क्राइम में सबसे ज्यादा बच्चे हैं. बच्चों का सेक्स गेम के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है. अश्लीलता बढ़ रही है. आज जज से लेकर धार्मिक गुरु से पत्रकार तक सभी जेल में हैं कारण बलात्कार का केस. उपभोक्तावादी संस्कृति कितनी भयानक है कि एन. सी. आर. की रिपोर्ट के अनुसार ९७% बलात्कारी परिवार के सदस्य या रिश्तेदार होते हैं. मात्र ३% बाहरी. आए दिन सगे नाना, दादा, मामा, चाचा, सगे भाई द्वारा बलात्कार की घटनाएँ घटती रहती है. समाज के सभ्य संस्कृति के इतिहास में हमने कभी भी समाज में औरतों के साथ इतना जुल्म नहीं देखा जितना आज. आज औरत मात्र शरीर बनकर रह गई है. माँ-बहनों के आँचल में प्यार या स्वर्ग नहीं दिखाई देता. छह महीने की बच्ची से लेकर पचहत्तर वर्ष की बुढ़ियाँ तक से बलात्कार की घटनाओं के केस पुलिस स्टेशन पर दर्ज होते हैं. कहीं-न-कहीं माताएँ पितृसत्ता की जंजीर तोड़ने में असमर्थ रही.


उत्तर-आधुनिक युग की औरतों को उपकरणोंके कारण कुछ आजाद क्षण अमाप मिले. जैसे वाशिंग मशीन आने से औरत गृहणी के ढाँचे से मुक्त न हो पाई पर वाशिंग मशीन उसे एक आजादी की जगह खाली समय देती है. इसी तरह मिक्सी है जो उसे खटने से बचाती है. आज बीस साल की लड़की ज्यादा व्यक्तिवादी है, वह आसानी से संबंधों में नहीं बँधती, कैरियर का मतलब स्वाधीनता है. एक कैरियर अनेक रास्ते खोलता है.  परिवार के बाहर भी आप कुछ सोच सकते हैं. यह सिर्फ आर्थिक आजादी नहीं है. आज साइबर स्पेस में एक और छवि बन रही है जो इंटरनेट चतुर और कुशल औरत की है. आज बहुत से वीमेन्स वेबसाइट्स हैं जिससे यह सिद्ध होता है कि औरतों को थोड़ा जगह और आर्थिक सत्ता मिली है. साइबर स्पेस की आदी बेरोक है. इतिहास में पहली बार औरत अपने विचारों को बिना किसी बंधन या भय से कह सकती है.यह एक प्रकार का १९२८ में कल्पित वर्जीनिया वुल्फ का अपना कमरा है. साइबर स्पेस ऐसा ही नितांत निजी स्पेस है. विकासशील देश में इंटरनेट की सुविधा से औरतों को लाभ हो रहा है. ऑनलाईन औरत का चेहरा नया चेहरा है जिसे नई अर्थव्यवस्था से बनाया है. इंटरनेट पर लिंगभेद खत्म हो जाता है. इसने जाति-धर्म, सम्प्रदाय, पिता-पति सबसे मुक्ति दिलाई.ऑनलाईन औरत को हर वक्त उसकी ‘जगह’ नहीं बताई जाती.अंततः वह अपनी सास, माता-पिता की जासूसी से परे हैं. जब तक औरत न बताना चाहे कोई उसकी लिंग स्थिति और अवस्था के बारे में नहीं जान सकता.आज स्त्री मुक्ति आन्दोलन के सामने आनेवाली चुनौतियाँ हैं. हमें राज्य व्यवस्था को समझना होगा,

महिला आन्दोलन की राजनैतिक दिशाकी जरूरत है.  आज समूचे देश में तमाम एन. जी. ओ. व स्वयंसेवी संस्थाएँ महिलाओं को अपने व्यक्तिगत जीवन के बारे में सलाह देने के लिए दफ्तर खोलकर बैठी हैं लेकिन जब तक परिवार में स्त्री-पुरुष का बराबरी का समीकरण  नहीं बदलेगा, पितृसत्ता व वर्गीय शोषण को हम उठाकर नहीं फेकेंगे, तब तक हम पेन किलर जैसे तत्कालीन राहत ही औरत को देते रहेंगे. आज आम महिला का दुश्मन कौन है - क्या उसका मजदूर पति ही पितृसत्ता का प्रतीक है ? पितृसत्ता को कायम रखने के लिए राज्यव्यवस्था, पूँजीवाद, साम्राज्यवाद, सामंतवाद की क्या भूमिरा रही है ? क्या इस राज्यव्यवस्था के साथ समझौता करके, इसी का हिस्सा बनकर इसी सूत्र की आर्थिक सहायता लेकर क्या साधारण मेहनतकश महिलाओं का जीवन बेहतर बन सकेगा ? क्या पुलिस, जज, मंत्री इत्यादि इस शोषणकारी व्यवस्था के अंग नहीं हैं ? २१ वीं सदी को न केवल यूनेस्को ने बल्कि भारत की सरकार, चिंतकों, बुद्धिजीवियों ने भी महिलाओं का शताब्दी बताया है.पर जैसा कि कलॉडिया वॉन वर्कर्हीफ कहती है, ‘गृहिणी चौबीस घंटे, जीवनभर की, मुफ्त की नौकर है जिसकी नकेल पति के हाथों में है बल्कि उसका सब कुछ पति के हाथों में उसकी यौनिकता, प्रजनन शक्ति, उसकी मानसिकता भावनाएँ. यह एक ही समय में घरेलू दासी और बंधुआ मजदूर दोनों हैं जो अपने पति और बच्चों की हर जरूरत पूरी करने के लिए मजबूर है, जिसने उसके प्रति प्यार दिखाना भी शामिल है. चाहे उसे महसूस हो या न हो. यहाँ औरत प्यार की खातिर काम करती है और प्यार करना भी एक काम बन गया है.

परिस्थितिवश हमेशा असहनीय नहीं होतीहै लेकिन यह बताना मुश्किल होता है कि कब असहनीय हो जाएँगी. औरत जो कुछ भी श्रम करती है उससे फायदा मिलना चाहिए और वह मुफ्त भी होना चाहिए जैसे कि हवा, जिस पर जीते हैं. यह सिर्फ बच्चा पैदा करने और पालने के संदर्भ में नहीं है बल्कि छोटे छोटे घरेलू काम और मजदूरी के काम पर भी लागू होती है. सहयोगियों को भावनात्मक सहयोग व देखभाल देना, दोस्ती, झुक जाना, दूसरों के आदेश पर रहना, उसके घावों पर मरहम लगाना, यौन रूप से इस्तेमाल होना, हर बिखरी चीज को संवारना, जिम्मेदारी का अहसास तथा त्यागी, किफायती होना, महत्वाकांक्षी न होना, दूसरों की खातिर आत्मत्याग करना, सभी बातों को सहन कर लेना और मददगार होना, अपने आपको पीछे हटा लेना, सक्रिय रूप से हर संकट का हल निकालना, एक सैनिक की तरह सहनशक्ति और अनुशासन रखना ये सब मिलकर औरत की कार्यक्षमता बनाते हैं.” (क्लॉडिया वॉन वर्कहॉफ, द पोलेटेरियन इज डैड लाँग लिव द हाउस वाइफ, १९८८, द लॉस्ट कॉ पृ. १०४) इस तरह औरतों के श्रम का मोल नहीं है. सीलिंग आधारित श्रम विभाजन की जरूरत है. श्रम विभाजन को संपूर्ण समाज की एक ढाँचागत समस्या के रूप में देखना चाहिए. जो अब तक ठीक से नहीं हुआ है. स्त्रीवाद की तथा महिला आन्दोलन के राजनीतिक कार्य की चुनौती यही है कि जैविकता के अन्तर पर आधारित असमानता के अन्त की दिशा में काम करें.



स्त्रीमुक्ति आन्दोलन से औरतों में जागरूकताआई. कानून बदलें. आज की स्त्री अपने अधिकार जानती है.आज स्त्रीवाद सिद्धान्तों में अटका है. दर्शन नहीं बन पाया. स्त्री-पुरुष आचारसंहिता बनी पर उसे घर-घर में कैसे लाना, कैसे लागू करना, यह नहीं हुआ.  थेरेपी, उपचार पद्धति की गई जिसमें बीमार ठीक हो जाता है. उसी तरह स्त्रीवाद ने काम किया. पितृसत्ता की जड़ें नहीं हिली. स्त्रीवाद ने काउन्सलिंग पर ध्यान दिया पर हिंसा के प्रति स्त्री-पुरुष संवाद नहीं लिया गया. जन-गण-मन अधिनायक जय हो, में जन की बातें हुई, गण में स्त्रियों को पंचायतों में लाया गया पर ‘मन’ रह गया.  स्त्रीवाद ‘मन’ से जुड़ा है.  स्त्रीवाद’ मात्र स्त्री का नहीं है. मानसिक क्रांति की जरूरत है. पुरुषों में भी स्त्रियों में भी. स्त्रीवाद, मानववाद है. . वह आगे मानववाद है. सिन्दूर, मंगलसूत्र हो या न हो, दोनों बलात्कार से डरती है. औरत रात में अकेली जा सके यह निर्भीकता उसमें नहीं आ पा रही है. औरत भीड़ से नहीं डरती पर उस भीड़ में से कब एकान्त से निकलकर पुरुष बलात्कार कर दे, इसका डर रहता है. बलात्कार से लड़ने के लिए आज भी जूडो कराटे सिखा रहे हैं, स्प्रे बाँटा जा रहा है, पर हम नैतिकता को नहीं बढ़ा रहे है.  मानसिक उत्थान को लेकर स्त्रियों का आन्दोलन कम पड़ गया.

वे ‘हजार चौरासी की मां’ थीं !

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अनुवाद : अरुण माहेश्वरी


महाश्वेता देवी की लिखने की टेबुल कभीभी बदली नहीं. बालीगंज स्टेशन रोड में ज्योतिर्मय बसु के मकान में लोहे की घुमावदार सीढ़ी वाली छत के घर, गोल्फ ग्रीन या राजाडांगा कहीं भी क्यों न रहे, टेबुल हमेशा एक ही. ढेर सारे लिफाफे, निवेदन पत्र, सरकारी लिफाफे, संपादित ‘वर्तिका’ पत्रिका की प्रूफकापियां बिखरी हुई. एक कोने में किसी तरह से उनके अपने राइटिंग पैड और कलम की बाकायदा मौजूदगी. सादा बड़े से उस चौकोर पैड पर डाट पेन से एकदम पूरे-पूरे अक्षरों में लिखने का अभ्यास था उनका. लिखना, साहित्य बहुत बाद में आता है. कौन से शबरों के गांव में ट्यूबवेल नहीं बैठा है, बैंक ने कौन से लोधा नौजवान को कर्ज देने से मना कर दिया है.सरकारी कार्यालयों में लगातार चिट्ठियां लिखना ही जैसे उनका पहला काम था. ज्ञानपीठ से लेकर मैगसेसे पुरस्कार से विभूषित महाश्वेता जितनी लेखक थी, उतनी ही एक्टिविस्ट भी थी. 88 साल की उम्र में अपने हाथ में इंसुलिन की सूईं लगाते-लगाते वे कहती थी, ‘‘तुम लोग जिसे काम कहते हो, उनकी तुलना में ये तमाम बेकाम मुझे ज्यादा उत्साहित करते हैं.’’


इसीलिये महाश्वेता को सिर्फ एक रूपमें देखना असंभव है. वे ‘हजार चौरासी की मां’ है. वे ‘अरण्य के अधिकार’ की उस प्रसिद्ध पंक्ति, ‘नंगों-भूखों की मृत्यु नहीं है’  की जननी है. दूसरी ओर वे सिंगुर-नंदीग्राम आंदोलन का एक चेहरा थी. एक ओर उनके लेखन से बिहार-मध्यप्रदेश के कुर्मी, भंगी, दुसाध बंगाली पाठकों के दरवाजे पर जोरदार प्रहार करते हैं. और एक महाश्वेता आक्साफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से दिल्ली बोर्ड के विद्यार्थियों के लिये ‘आनन्दपाठ’ शीर्षक संकलन तैयार करती है, जिम कार्बेट से लू शुन, वेरियर एल्विन का अनुवाद करके उन्हें बांग्ला में लाती है. उनके घर पर गांव से आए दरिद्रजनों का हमेशा आना-जाना लगा रहता है. दो साल पहले की बात है. किसी काम के लिये कोलकाता आया एक शबर नौजवान महाश्वेता के घर पर टिका हुआ था. नहाने के बाद आले में रखी महाश्वेता की कंघी से ही अपने बाल संवार लिये. इस शहर में अनेक वामपंथी जात-पातहीन, वर्ग-विहीन, शोषणहीन समाज के सपने देखते हैं. लेकिन अपने खुद के तेल-साबुन, कघी को कितने लोग बेहिचक दूसरे को इस्तेमाल करने के लिये दे सकते हैं ? कैसे उन्होंने यह स्वभाव पाया ?

सन् 2001 में गायत्री चक्रवर्ती स्पिवाक कोमहाश्वेता ने कहा था, ‘जब शबरों के पास गई, मेरे सारे सवालों के जवाब मिल गये. आदिवासियों पर जो भी लिखा है, उनके अंदर से ही पाया है.’सबाल्टर्न इतिहास लेखन की प्रसिद्धी के बहुत पहले ही तो महाश्वेता के लेखन में वे सब अनसुने सुने जा सकते थे. 1966 में प्रकाशित हुई थी ‘कवि बंध्यघटी गात्री का जीवन और मृत्यु’. उसमें उपन्यासकार ने माना था, ‘बहुत दिनों से इतिहास का रोमांस मुझे आकर्षित नहीं कर रहा था. एक ऐसे नौजवान की कहानी लिखना चाहती थी जो अपने जन्म और जीवन का अतिक्रमण करके अपने लिये एक संसार बनाना चाहता था, उसका खुद का रचा हुआ संसार.’ ‘चोट्टी मुण्डा और उसका तीर’ वही अनश्वर स्पिरिट है. ‘चोट्टी खड़ा रहा. निर्वस्त्र। खड़े-खड़े ही वह हमेशा के लिये नदी में विलीन हो जाता है, यह किंवदंती है. जो सिर्फ मनुष्य ही हो सकता है.’ सारी दुनिया के सुधीजनों के बीच महाश्वेता इस वंचित जीवन की कथाकार के रूप में ही जानी जायेगी. गायत्री स्पिवाक महाश्वेता के लेखन का अंग्रेजी अनुवाद करेगी. इसीलिये महाश्वेता को बांग्ला से अलग भारतीय और अन्तरराष्ट्रीय साहित्य के परिप्रेक्ष्य में देखना होगा.

विश्व चिंतन से महाश्वेता का परिचयउनके जन्म से था. पिता कल्लोल युग के प्रसिद्ध लेखक युवनाश्व या मनीश घटक. काका ऋत्विक घटक. बड़े मामा अर्थशास्त्री, ‘इकोनोमिक एंड पोलिटिकल वीकली’ के संस्थापक सचिन चौधुरी. मां के ममेरे भाई कवि अमिय चक्रवर्ती. कक्षा पांच से ही शांतिनिकेतन में पढ़ाई.वहां बांग्ला पढ़ाते थे रवीन्द्रनाथ.  नंदलाल बोस, रामकिंकर बेज जैसे शिक्षक मिलें.  देखने लायक काल था. 14 जनवरी 1926 के दिन बांग्लादेश के पाबना (आज के राजशाही) जिले के नोतुन भारेंगा गांव में महाश्वेता का जन्म. इसके साल भर बाद ही ‘आग का दरिया’ की लेखिका कुर्रतुलैन हैदर जन्मी थी. दोनों के लेखन में ही जात-पात, पितृसत्ता का महाकाव्य-रूपी विस्तार दिखाई दिया. इसी चेतना की ही तो उपज थी - ‘स्तनदायिनी’ का नाम यशोदा. थाने में बलात्कृत  द्रौपदी मेझेन द्रौपदी का ही आधुनिक संस्करण है. भारतीय निम्नवर्ग एक समान पड़ा हुआ पत्थर नहीं, उसमें भी दरारे हैं, वह क्या ‘श्री श्री गणेश महिमा’ में दिखाई नहीं देता है : ‘‘भंगियों की होली खत्म होती है दो सुअरों को मार कर, रात भर मद-मांस पर  हल्ला करते हैं. दुसाध यहां अलग-थलग थ.। फिर दो साल हुए वे भी भंगियों के साथ होली में शामिल है.’’


अपनी साहित्य यात्रा के इस मोड़ पर आकर महाश्वेता एक दिन रुक नहीं गई. उसके पीछे उनकी लंबी परिक्रमा थी. ‘46 में विश्वभारती से अंग्रेजी में स्नातक हुई. एमए पास करने के बाद विजयगढ़ के ज्योतिष राय कालेज में अध्यापन. उसके पहले 1948 से ‘रंगमशाल’ अखबार में बच्चों के लिये लिखना शुरू किया. आजादी के बाद ‘नवान्नो’ के लेखक विजन भट्टाचार्य से विवाह. तब कभी ट्यूशन करके, कभी साबुन का पाउडर बेच कर परिवार चलाया. बीच में एक बार अमेरिका में बंदरों के निर्यात की योजना भी बनाई, लेकिन सफल नहीं हुई. 1962 में तलाक, फिर असित गुप्त के साथ दूसरी शादी. 1976 में उस वैवाहिक जीवन का भी अंत. इसी बीच, पचास के दशक के मध्य एकमात्र बेटे नवारुण को उसके पिता के पास छोड़ कर एक कैमरा उठाया और आगरा की ट्रेन में बैठ गई. रानी के किले, महलक्ष्म मंदिर का कोना-कोना छान मारा. शाम के अंधेरे में आग ताप रही किसान औरतों से तांगेवाले के साथ यह सुना कि ‘रानी मरी नहीं. बुंदेलखंड की धरती और पहाड़ ने उसे आज भी छिपा रखा है.’

इसके बाद ही ‘देश’ पत्रिका में ‘झांसी की रानी’ उपन्यास धारावाहिक प्रकाशित हुआ. और इस प्रकार, अकेले घूम-घूम कर उपन्यास की सामग्री जुटाने वाली क्रांतिकारी महाश्वेता अपनी पूर्ववर्ती लीला मजुमदार, आशापूर्णा देवी से काफी अलग हो गई. उनका दबंग राजनीतिक स्वर भी अलग हो गया. ‘अग्निगर्भ’ उपन्यास की वह अविस्मरणीय पंक्ति, ‘‘जातिभेद की समस्या खत्म नहीं हुई है. प्यास का पानी और भूख का अन्न रूपकथा बने हुए है. फिर भी कितनी पार्टियां, कितने आदर्श, सब सबको कामरेड कहते हैं.’’ कामरेडों ने तो कभी भी ‘रूदाली’, ‘मर्डरर की मां’ की समस्या को देखा नहीं है. ‘चोली के पीछे’ की स्तनहीन नायिका जिसप्रकार ‘लॉकअप में गैंगरेप...ठेकेदार ग्राहक, बजाओ गाना’ कहती हुई चिल्लाती रहती है, पाठक के कान भी बंद हो जाते हैं. कुल मिला कर महाश्वेता जैसे कोई प्रिज्म है. कभी बिल्कुल उदासीन तो कभी बिना गप्प किये जाने नहीं देगी. अंत में, बुढ़ापे की बीमारियों, पुत्रशोक ने उन्हें काफी ध्वस्त कर दिया था. फिर भी क्या महाश्वेता ही राजनीति-जीवी बहुमुखी बंगालियों की अंतिम विरासत होगी ? ममता बंदोपाध्याय की सभा के मंच पर उनकी उपस्थिति को लेकर बहुतों ने बहुत बातें कही थी. महाश्वेता ने परवाह नहीं की. लोगों की बातों की परवाह करना कभी भी उनकी प्रकृति नहीं रही.

(आनंदबाजार पत्रिका’ दैनिक के 29 जुलाई 2016 के अंक से साभार)

नागपुर महिला सम्मेलन के 75 वे साल पर हुआ आयोजन, सम्मानित की गई लेखिका अनिता भारती, महिला आरक्षण पर जोर

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दूसरे -तीसरे सत्र में बातचीत 

स्त्रीवादी पत्रिका स्त्रीकाल, स्त्री का समय और सच ने डा. आंबेडकर के नेतृत्व में नागपुर में 20 जुलाई 1942 को हुए महिला सम्मेलन के 75वें साल पर एक आयोजन जेएनयू में किया. उक्त सम्मेलन में 25 हजार दलित महिलाओं ने भागीदारी की थी और कई मह्त्वपूर्ण निर्णय लिये थे. जेएनयू में 29 जुलाई की देर शाम को खत्म हुए इस आयोजन में तीन सत्रों में विभिन्न विषयों पर विमर्श और महिला अधिकार विषय पर प्रसिद्ध नृत्यांगना रचना यादव का कत्थक नृत्य आयोजित हुआ तथा चर्चित दलित लेखिका और विचारक अनिता भारती को उनकी किताब 'समकालीन नारीवाद और दलित स्त्री का प्रतिरोध'को स्त्रीकाल के द्वारा सावित्रीबाई फुले वैचारिकी सम्मान (2016) दिया गया. इसके पूर्व 2015 में यह सम्मान शर्मिला रेगे को उनकी किताब 'मैडनेस ऑफ़ मनु: बी आर आंबेडकरस राइटिंग ऑन ब्रैह्मनिकल पैट्रिआर्की'को दिया गया था. इस सम्मान की शुरुआत 2015 में स्त्रीकाल ने स्त्रीवादी न्यायविद अरविंद जैन के आर्थिक सहयोग से शुरू किया था. कार्यक्रम का आयोजन स्त्रीकाल, आदिवासी साहित्य और यूनाइटेड ओबीसी फोरम'के संयुक्त तत्वावधान में हुआ.

सावित्रीबाई फुले वैचारिकी सम्मान, 2016 के साथ अनिता भारती, साथ में लेखिका नूर जहीर, अर्चना वर्मा, लेखक और हंस के सम्पादक संजय सहाय 


इस अवसर पर पहले सत्र में 'नागपुर महिला सम्मलेन: मील का पत्थर'विषय पर बोलते हुए अमरावती विश्वविद्यालय में स्त्री अध्ययन की प्राध्यापक निशा शेंडे ने कहा कि 'हमें मूल्यांकन करना चाहिए कि इतनी लम्बी यात्रा करके हम कहां तक पहुंचे. तब हम 25 हजार महिलाओं के साथ नागपुर में इकट्ठे हुए थे और आज हम 25 महिलाओं के साथ भी किसी बड़े संघर्ष की रूपरेखा नहीं बना पा रहे हैं, जबकि उन 25 हजार महिलाओं ने महिला मुक्ति का घोषणा पत्र तब लिख दिया था.’  यह सम्मलेन आल इंडिया डिप्रेस्ड क्लासेज के बैनर तले हुआ था, जिसमें राजनीतिक, शैक्षणिक अधिकारों के प्रस्ताव पारित किये गये थे, साथ ही श्रमिकों के अधिकार के प्रस्ताव भी. 'अपने अध्यक्षीय वकतव्य में आलोचक/ लेखिका हेमलता माहिश्वर ने नागपुर सम्मलेन के प्रस्तावों को और उस दौरान डा. आंबेडकर के द्वारा दिये गये भाषण के अंश बताये.

सावित्री फुले वैचारिकी सम्मान के दौरान लेखिका/ विचारक विमल थोराट अनिता भारती को शाल ओढाकर  सम्मानित करते हुए 


उन्होंने कहा कि ‘इस अवसर पर डा. आंबेडकर ने उपस्थित महिलाओं से कहा कि वे अपने बच्चों में महान बनने के सपने का बीज डालें और उन्हें किसी भी तरह की हीनता से मुक्त करें.'उन्होंने बताया कि इस सम्मलेन में बहुपत्नीत्व के खिलाफ पारित प्रस्ताव बाद में हिन्दू कोड बिल का अंश बना.'इस सत्र में डा. एस.एन गौतम ने भी संबोधित किया.


पहले सत्र में नागपुर महिला सम्मलेन पर बोलते हुए  प्रोफ़ेसर निशा शेंडे और हेमलता माहिश्वर 


स्त्रीकाल के संपादक संजीव चंदन ने बताया कि 'नागपुर सम्मलेन इसलिएभी महत्वपूर्ण है कि महिलाओं ने तब राजनीतिक आरक्षण की मांग की थी, और इसलिए भी कि उनके प्रस्ताव काफी क्रांतिकारी और स्पष्ट थे, जबकि 1975 में जारी 'टुवर्ड्स इक्वलिटी रिपोर्ट', जो सातवें-आठवें दशक में महिला आन्दोलन का संदर्भ बना, राजनीतिक अधिकारों को लेकर उतना स्पष्ट नहीं था. इसलिए आज हमने महिला आरक्षण पर भी बातचीत रखी है.'महिला आरक्षण पर सत्र में दलित अधिकार आन्दोलन की संयोजकों में से एक और लेखिका रजनीतिलक ने कहा कि 'महिलाओं के लिए सारे अधिकार समानुपातिक प्रतिनिधित्व के साथ होने चाहिए.'राष्ट्रीय महिला महिला आयोग की सदस्य सुषमा साहू ने कहा कि 'महिला आरक्षण के लिए हम बाहर की महिलाओं से ज्यादा संसद में बैठी महिलाओं को पहल लेनी चाहिए. उन्होंने महिलाओं को महिलाओं के शोषण में न शामिल होने का भी आह्वान किया.'स्त्रीवादी न्यायविद और सुप्रीम कोर्ट में वरिष्ठ अधिवक्ता अरविंद जैन ने कहा कि 'जबतक 25 लाख महिलायें संसद को घेरकर बैठ नहीं जायेंगी, तब तक महिला आरक्षण संभव नहीं है. जो हालात है उससे लगता है कि महिला आरक्षण और समान आचार संहिता पास होने में 100 साल लग जायेंगे.'दलित और महिला अधिकारों के लिए काम करने वाली लेखिका कौशल पंवार ने कहा कि ‘हमें स्वाती सिंह जैसी महिलाओं से भी समस्या है, जो बेटी की सम्मान में अभियान चलाती है और अपनी ही भाभी, जो किसी की बेटी है की प्रताड़ना में शामिल पाई जाती है.’  सत्र की अध्यक्षता करते हुए नेशनल फेडरेशन ऑफ़ इन्डियन वीमेन की महासचिव एनी राजा ने कहा कि 'महिला आयोग जैसी संस्थाओं को यह स्पष्ट करना चाहिए कि महिला आरक्षण पर उनकी क्या पोजीशन है. उन्होने कहा कि महिला आरक्षण के पिछले दो दशकों से संसद में पेंडिंग होने की वजह संसद का पितृसत्ताक नियन्त्रण में होना है.'
नृत्यांगना रचना यादव के साथ 


सावित्रीबाई फुले सम्मान की अध्यक्ष विमल थोराट ने अपने सत्र 'समकालीन महिला आंदोलनऔर हाशिये के प्रश्न'में अपनी बात रखते हुए कहा कि महिला आंदोलन में जबतक हाशिये की महिलाओं की चिंताओं और मुद्दों को शामिल नहीं किया जायेगा तबतक महिला आंदोलन का स्वरुप समग्र नहीं हो पायेगा. इसी सत्र में हंस के संपादक संजय सहाय ने कहा कि ‘ महिलायें जबतक धर्म के जकड़न से मुक्त नहीं होंगी तबतक वे नारे भले लगाते रहें मुक्त नहीं हो सकतीं. उन्होंने शादी आदि संस्थाओं में धार्मिक प्रभावों के कारण उससे मुक्ति की भी बात की.’

रचना यादव महिला अधिकार विषय पर कत्थक नृत्य करती हुई नृत्यांगना रचना यादव 

लेखिका और महिला अधिकार एक्टिविस्ट नूर जहीर ने मुसलमान महिलाओं, खासकर पसमांदा मुसलमान महिलाओं पर मौलवियों के प्रभाव पर चिंता जताई तथा कॉमन सिविल कोड के बनने में महिलाओं की भागीदारी की आवश्यकता पर जोर दिया.'दिल्ली विश्वविद्यालय में हिन्दी की प्राध्यापिका मेधा ने सवाल किया कि क्या कारण है कि हम 'मीराबाई के लेखन पर तो बात करते हैं, लेकिन गैर द्विज कवयित्री सहजोबाई की चर्चा नहीं होती.'आदिवासी अधिकारों के कार्यकर्ता और दिल्ली विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के प्राध्यापक गणेश मांझी ने महिलाओं के आर्थिक शोषण के विभिन्न पहलुओं को चिह्नित किया. यूनाइटेड ओबीसी फोरम से जुडी जेएनयू की शोधछात्रा सरिता माली ने भी अपनी बात रखी. सत्र के प्रारम्भ में लेखिका अनिता भारती को उनकी किताब के लिए सम्मानित किया गया. सम्मान वरिष्ठ लेखिका और विचारक विमल थोराट ने शाल ओढाकर और स्मृति चिह्न देकर किया. सम्मान के लिए मानपत्र और 12 हजार रुपये की राशि का चेक हंस के सम्पादक और कथाकार संजय सहाय ने अपने हाथों से अनिता भारती को सौपा. लेखिका अनिता भारती ने कहा कि 'स्त्री अधिकारों के लिए और खासकर दलित तथा हाशिये की स्त्री के अधिकारों के लिए समर्पित हम स्त्रियों की अपनी पत्रिका स्त्रीकाल के द्वारा सावित्रीबाई फुले सम्मान पाकर मैं गौरवान्वित महसूस कर रही हूँ, खासकर इसलिए की इस सम्मान से हमसब की प्रेरक 'सावित्रीबाई फुले'का नाम जुड़ा है. निर्णायक मंडल की और से अपनी बात कहते हुए अर्चना वर्मा ने कहा कि ‘ अनिता भारती ने अपनी किताब में जाति-शोषण से पीड़ित दलित लेखकों के द्वारा दलित स्त्रियों के खिलाफ लेखन की निंदा की है तथा स्त्रीवाद के भीतर एक अलग धारा दलितस्त्रीवाद को व्याख्यायित करने की कोशिश की है.’ इस सम्मान के निर्णयाक मंडल में अर्चना वर्मा, सुधा अरोड़ा, अरविंद जैन, सुजाता पारमिता, हेमलता माहिश्वर और परिमला आंबेकर शामिल थे.

द मार्जिनलाइज्ड प्रकाशन से प्रकाशित फॉरवर्ड प्रेस सीरीज की तीन किताबों का लोकार्पण 


इस अवसर पर ‘द मार्जिनलाइज्ड प्रकाशन’ द्वारा फॉरवर्ड प्रेस बुक्स सीरीजमें छापी गई तीन किताबों ‘बहुजन साहित्य की प्रस्तावना’, ‘महिषासुर’ और ‘चिंतन के जनसरोकार’ का लोकार्पण भी किया गया. अंतिम सत्र में प्रसिद्ध नृत्यांगना रचनायादव ने महिला अधिकार पर कत्थक नृत्य की प्रस्तुति की. उन्हें स्त्रीकल की ओर से एनी राजा और विमलथोराट ने सम्मानित किया.

कार्यक्रम के अंत में धन्यवाद ज्ञापन यूनाइटेड ओबीसी फोरम कीओर से मुलायम सिंह यादव तथा आदिवासी साहित्य के संपादक गंगा सहाय ने किया. मंच संचालन धर्मवीर सिंह ने किया.  

कश्मीरी सेब

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प्रेमचंद

कल शाम को चौक में दो-चार जरूरीचीजें खरीदने गया था. पंजाबी मेवाफरोशों की दूकानें रास्ते ही में पड़ती हैं. एक दूकान पर बहुत अच्छे रंगदार,गुलाबी सेब सजे हुए नजर आये. जी ललचा उठा. आजकल शिक्षित समाज में विटामिन और प्रोटीन के शब्दों में विचार करने की प्रवृत्ति हो गई है. टमाटो को पहले कोई सेंत में भी न पूछता था. अब टमाटो भोजन का आवश्यक अंग बन गया है. गाजर भी पहले ग़रीबों के पेट भरने की चीज थी. अमीर लोग तो उसका हलवा ही खाते थे; मगर अब पता चला है कि गाजर में भी बहुत विटामिन हैं, इसलिए गाजर को भी मेजों पर स्थान मिलने लगा है और सेब के विषय में तो यह कहा जाने लगा है कि एक सेब रोज खाइए तो आपको डाक्टरों की जरूरत न रहेगी. डाक्टर से बचने के लिए हम निमकौड़ी तक खाने को तैयार हो सकते हैं. सेब तो रस और स्वाद में अगर आम से बढक़र नहीं है तो घटकर भी नहीं. हाँ, बनारस के लंगड़े और लखनऊ के दसहरी और बम्बई के अल्फाँसो की बात दूसरी है. उनके टक्कर का फल तो संसार में दूसरा नहीं है मगर; मगर उनमें विटामिन और प्रोटीन है या नहीं, है तो काफी है या नहीं, इन विषयों पर अभी किसी पश्चिमी डाक्टर की व्यवस्था देखने में नहीं आयी. सेब को यह व्यवस्था मिल चुकी है. अब वह केवल स्वाद की चीज नहीं है, उसमें गुण भी है. हमने दूकानदार से मोल-भाव किया और आध सेर सेब माँगे.


दुकानदार ने कहा-बाबूजी बड़े मजेदारसेब आये हैं, खास कश्मीर के. आप ले जाएँ, खाकर तबीयत खुश हो जाएगी. मैंने रूमाल निकालकर उसे देते हुए कहा-चुन-चुनकर रखना. दूकानदार ने तराजू उठाई और अपने नौकर से बोला-लौंडे आध सेर कश्मीरी सेब निकाल ला.  चुनकर लाना.लौंडा चार सेब लाया. दूकानदार ने तौला, एक लिफाफे में उन्हें रखा और रूमाल में बाँधकर मुझे दे दिया. मैंने चार आने उसके हाथ में रखे. घर आकर लिफ़ाफा ज्यों-का-त्यों रख दिया. रात को सेब या कोई दूसरा फल खाने का कायदा नहीं है. फल खाने का समय तो प्रात:काल है. आज सुबह मुँह-हाथ धोकर जो नाश्ता करने के लिए एक सेब निकाला, तो सड़ा हुआ था.
एक रुपये के आकार का छिलका गल गया था. समझा, रात को दूकानदार ने देखा न होगा. दूसरा निकाला. मगर यह आधा सड़ा हुआ था. अब सन्देह हुआ, दुकानदार ने मुझे धोखा तो नहीं दिया है. तीसरा सेब निकाला. यह सड़ा तो न था; मगर एक तरफ दबकर बिल्कुल पिचक गया. चौथा देखा. वह यों तो बेदाग था; मगर उसमें एक काला सूराख था जैसा अक्सर बेरों में होता है. काटा तो भीतर वैसे ही धब्बे, जैसे किड़हे बेर में होते हैं. एक सेब भी खाने लायक नहीं. चार आने पैसों का इतना गम न हुआ . जितना समाज के इस चारित्रिक पतन का. दूकानदार ने जान-बूझकर मेरे साथ धोखेबाजी का व्यवहार किया.  एक सेब सड़ा हुआ होता, तो मैं उसको क्षमा के योग्य समझता. सोचता, उसकी निगाह न पड़ी होगी. मगर चार-के-चारों खराब निकल जाएँ, यह तो साफ धोखा है.


मगर इस धोखे में मेरा भी सहयोग था. मेरा उसके हाथ में रूमाल रख देना मानो उसे धोखा देने की प्रेरणा थी. उसने भाँप लिया कि महाशय अपनी आँखों से काम लेने वाले जीव नहीं हैं और न इतने चौकस हैं कि घर से लौटाने आएँ. आदमी बेइमानी तभी करता जब उसे अवसर मिलता है. बेइमानी का अवसर देना, चाहे वह अपने ढीलेपन से हो या सहज विश्वास से, बेइमानी में सहयोग देना है. पढ़े-लिखे बाबुओं और कर्मचारियों पर तो अब कोई विश्वास नहीं करता. किसी थाने या कचहरी या म्यूनिसिपिलटी में चले जाइए, आपकी ऐसी दुर्गति होगी कि आप बड़ी-से-बड़ी हानि उठाकर भी उधर न जाएँगे. व्यापारियों की साख अभी तक बनी हुई थी. यों तौल में चाहे छटाँक-आध-छटाँक कस लें; लेकिन आप उन्हें पाँच की जगह भूल से दस के नोट दे आते थे तो आपको घबड़ाने की कोई जरूरत न थी. आपके रुपये सुरक्षित थे. मुझे याद है, एक बार मैंने मुहर्रम के मेले में एक खोंचे वाले से एक पैसे की रेवडिय़ाँ ली थीं और पैसे की जगह अठन्नी दे आया था. घर आकर जब अपनी भूल मालूम हुई तो खोंचे वाले के पास दौड़ा गये. आशा नहीं थी कि वह अठन्नी लौटाएगा, लेकिन उसने प्रसन्नचित्त से अठन्नी लौटा दी और उलटे मुझसे क्षमा माँगी. और यहाँ कश्मीरी सेब के नाम से सड़े हुए सेब बेचे जाते हैं ? मुझे आशा है, पाठक बाज़ार में जाकर मेरी तरह आँखे न बन्द कर लिया करेंगे. नहीं उन्हें भी कश्मीरी सेब ही मिलेंगे ?

क्यों चुनी गई अनिता भारती की किताब 'समकालीन नारीवाद : दलित स्त्री का प्रतिरोध"'सावित्रीबाई फुले वैचारिकी सम्मान', 2016 के लिए

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निर्णायक मंडल की ओर से अर्चना वर्मा 

निर्णायक मंडल ( 2016)  के सदस्य : 
अर्चना वर्मा, सुधा अरोड़ा, अरविंद जैन, सुजाता पारमिता, हेमलता माहिश्वर, परिमला आंबेकर

यह सम्मान हर वर्ष स्त्रीवादी वैचारिकी की किताब को स्त्रीकाल के द्वारा, स्त्रीवादी न्यायविद अरविंद जैन के आर्थिक सहयोग से दिया जाता है. 

वरिष्ठ लेखिका और विचारक विमल थोराट अनिता भारती को शाल ओढाकर सम्मानित करते हुए

'सावित्रीबाई फुले वैचारिकी सम्मान'के लिये अनिता भारती की किताब 'समकालीन नारीवाद : दलित स्त्री का प्रतिरोध"का चुनाव करते समय हमे यह अहसास था कि हिन्दी का स्त्री-विमर्श रचनात्मक तौर पर जितना समृद्ध है, सैद्धान्तिकी के लिहाज से उतना नहीं। स्त्री-काल हाशियागत समुदाय के रूप में समूचे स्त्री-विमर्श को अपने भीतर समेटता है लेकिन हाशिये के उस तरफ़ भी अति-हाशियागत समूह के प्रतिनिधि के रूप में लेखिका का दलित-विमर्श का अभ्यन्तर-अंग होना भी इस चुनाव में विशेष महत्त्व रखता था। तो चुनाव में हमारी एक प्राथमिकता तो वैचारिकी से जुड़ी थी और दूसरी प्राथमिकता यह थी कि उसे अपने समाज की अन्तरंग उपज होना चाहिये। अनीता भारती की यह किताब दोनो कसौटियों पर खरी उतरी.

अनिता भारती का मानना है कि "समाज परिवर्तन में साहित्य की अपनी अमिट भूमिका है। साहित्य समाज में व्याप्त कुरीतियों, पुरातन मान्यताओं से लड़ना सिखाता है। यदि साहित्य की भूमिका समाज की सकारात्मक सोच बनाने की न होकर नकारात्मक होने लगे तो उसका दहन कर दिया जाना चाहिए।…आज दलित लेखकों और दलित साहित्य को चिंतन मनन करके फैसला करना है कि मूल्य, सिद्धांतों के साथ समझौता किसी भी हद पर नहीं किया जा सकता। दलित साहित्य को दलित आंदोलन को तोड़ने वाले जातिवादी असमानता मूलक, लिंगभेद पर आधारित पितृसत्तात्मक और ब्राह्मणवादी तत्वों से संघर्ष कर अपनी स्वतंत्र और प्रगतिशील राह बनानी होगी।"
मानपत्र और चेक देते हुए  हंस के संपादक संजय सहाय, लेखिका नूर जहीर

कफ़न और गोदान पर विचार करते हुए वे साहित्यिक मूल्यांकन में केवल प्रतिक्रयामूलक रूख से ऊपर उठकर एक तटस्थ दृष्टि और सम्यक् सन्तुलन का परिचय देती हैं। थेरी-गाथा में वे नारी-मुक्ति के स्वर के इतिहास की निशानदेही करती हैं, 'कफ़न'और 'गोदान'के सन्दर्भ में दलित आलोचना द्वारा उठाये गये विवादों की भी समीक्षा करती हैँ व रचना को समग्रतापूर्वक देखने की वकालत करती हैं। थेरी गाथा और कफ़न पर विचार करते हुए वे इसको कोरा साहित्यिक विवाद नहीं रहने देतीं बल्कि वस्तुतः धर्मवीर और दलित-विमर्श के अन्य सिद्ध-प्रसिद्ध और स्थापित नामों की स्त्री-विरोधी अवधारणाओं के साथ लोहा लेती हैँ। डॉ. धर्मवीर की स्त्री विरोधी, अम्बेडकर बुद्ध विरोधी वैचारिकी के खिलाफ अपनी टिप्पणी करते हुए वे दलित पत्र-पत्रिकाओं के इस रुख पर चिन्ता प्रकट करती हैँ कि वे दलित समाज का मुख-पत्र होने के दावे के बावजूद धर्मवीर की ऐसी सोच पर कोई हस्तक्षेप या कोई टिप्पणी नहीं करती हैं।

सम्मान के बाद

अपने संकल्प को व्यावहारिक जामा पहनाने के लिये एक तरफ़ उचितआक्रोश, धारदार तर्क और प्रखर प्रतिवाद के साथ दलित-विमर्श के मैदान में स्त्री-पक्ष से मोर्चा खोलती हैँ, “ वे कहती हैँ"हमारे दलित साथियों की राय है कि दलित समाज में दलित महिला पुरुष दोनों की एक सी स्थिति है अर्थात दोनों ही गुलाम है इसलिए पहले हमें सामूहिक होकर जाति मुक्ति की लडाई लडनी है जब हमें जाति से मुक्ति मिल जाएंगे तब हम दलित महिलाओं के लिए लड लेगे। परन्तु एक दलित एक्टिविस्ट होने के नाते मेरा हमेशा यह मानना रहा है कि हमें एक साथ सामूहिक लडाई के साथ दलित स्त्री अधिकारों की लडाई भी साथ-साथ ही लडनी पडेगी। लेकिन हमारे पुरुष साथियों को यह बात बिल्कुल गले नही उतर रही है। "… “ जैसे ही स्त्री अपनी अस्मिता की बात करती है धर्मवीर जैसे ब्राह्मणवादी सकीर्ण विचारधारा वाले लोगों के पैरो तले जमीन खिसकने लगती है। उन्हें अपने अधिकार छीनने का भय सताने लगता है। उन्हे लगता है कि अगर नारी हमारे बराबर आ गई तो हमारा हुक्म कौन मानेगा? वे अपना गुलाम किसको बनायेंगे। इसलिए वे मनु की तरह ही स्त्री को घर में रखने की हामी है और वे बिल्कुल मनु महाराज की तरह औरतों का गठन चाहते है।"दूसरी तरफ़ वे स्त्री-विमर्श के मोर्चे पर सवर्ण स्त्री के साथ और साझेदारी की विडम्बनाओं पर दृढ़तापूर्वक सोदाहरण उँगली उठाती है। छिनाल-प्रकरण में अपनी भागीदारी की बात करते हुए वे याद करती हैं, – "पर मेरे मन के अंदर कुछ सवाल मुझे व्यथित कर रहे थे। सवाल यही थे कि क्या दलित स्त्रियों की अस्मिता किसी गैर-दलित स्त्री की अस्मिता से कम होती है? जब एक सवर्ण लेखिका पर हमला हुआ तो सारी लेखक बिरादरी इकट्ठी हो गई , पर जब दलित लेखिकाओं पर हमले हो रहे है तो सब चुप्पी मार कर बैठे रहे? दलित महिलाएं हमेशा समाज में अन्य महिलाओं के साथ जुडकर उनके मुद्दों के साथ सहानुभूति व बहनापा दिखाती रही है परन्तु दलित महिलाओं अपने मुद्दों के साथ हमेशा अकेली खडी दिखाई और लडती नजर आती है।
दलित स्त्री लेखन की दो पीढियां


अनिता भारती के व्यक्तित्व का सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण पक्ष उनका ऐक्टिविज़्म है। यह उनके चिन्तक व्यक्तित्व के लिहाज से भी महत्त्वपूर्ण है क्योंकि उसकी वजह से उनके चिन्तन को एक निजी अनुभव की धार मलती है, एक ठोस आधार मिलता है और वह हमारे अपने जमीनी यथार्थ से जुड़ता है। उनका ऐक्टिविज़्म छात्र-जीवन के साथ शुरू हुआ जिसके विषय में वे बताती हैँ कि – "लडकियां इन छात्र संगठनों में अपने अस्तित्व के होने के अहसास की एक मृग मरीचिका में जी रही होती है,…हर साल नयी-नयी लडकियों के तरह-तरह के छात्र-संगठनों में जुडने के बाबजूद बाद में उनकी किसी भी तरह के आंदोलनों में चाहे वे महिला आंदोलन हो, अथवा जनआंदोलन या फिर सामाजिक व दलित आंदोलन, इन सबमें उनकी संख्या के हिसाब से हिस्सेदारी नही दिखती।"

सावित्रीबाई फुले वैचारिकी सम्मान के लिए स्मृतिचिह्न अशोक स्तम्भ के साथ लेखिका
तबका उनका यह अनुभव बाद के जीवन तक भी उनके साथ आता है और अपनी भूमिका तय करने में उनकी मदद करता है – "मेरे अपने जीवन में लिए गए मेरे फैसले ही मेरे जीवन की पोलिटिक्स को स्पष्ट करते है… हमारे जैसे लोग जो सामाजिक कार्यकर्ता का जीवन जीते हुए समाज बदलाव का कार्य करना चाहते है उनके फैसले अपने साथ-साथ बाकी समाज को भी कही ना कही गहराई से प्रभावित और प्रेरित करते हैं।
स्त्री-विमर्श और दलित-विमर्श के बीच की खाली जगह को भरने वाली अनुभवसम्मत एवं प्रामाणिक वैचारिकी के सृजन के लिये उनकी किताब पुरस्कार के लिये चुनी गयी। मैं निर्णायक मण्डल की ओर से उनको बधाई देती हूँ।

प्रत्यूष चन्द्र मिश्रा की कवितायें

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प्रत्यूष चन्द्र मिश्रा
युवा कवि. विभिन्न पत्र- पत्रिकाओं में कवितायें प्रकाशित. संपर्क :9122493975,pcmishra2012@gmail.com
तीन बेटियों वाला घर 

विदा हो रही है घर की बड़ी बेटी आई थी
पिछले महीने गर्मी की छुट्टियों में
डूब उतरा रहा है घर
माँ की हिचकियों और बेटी की रुलाइयों में
फिर आऊंगा माँ
छुटकी की शादी में
ये भी आतुर रहते हैं हर बार
कहते हैं आराम मिल जाता है काम से
कुछ दिनों के लिए
और हाँ माँ  तुम भी अब ज्यादा काम मत करना
और छुटकी के बाद बड़े की शादी भी जल्दी कर देना
रोना नहीं माँ
पूरी जिंदगी तो रोती ही रही तुम
अब क्यों करती हो चिंता
मुझसे और मंझली से तो निश्चिन्त ही हो गयी तुम
छुटकी भी लग ही जाएगी पार इस साल
तू क्यों रोती है माँ
मैं खुश हूँ वहां
किसी चीज की कमी नहीं है मुझे
सभी तो मानते हैं मुझे
आ ही जाती हूँ साल में एक बार
और झगड़ा मत करना बाबूजी से
वे भी तो पड़ जाते हैं अकेले
मन न लगे तो चले जाना बड़े के पास
और ये जो पैसे दिए है तुमने
इसे अपने पास ही रखो
वक्त बेवक्त काम आयेंगे
और ये बोरी में क्या डाल दिया है इतना-सा
थोडा सा सत्तू और अचार ही काफी था
पिछले बार की कोह्डौरी सबने पसंद की थी
मैं चाहती हूँ तुम्हे बुलाना
पर बुला नही सकती मां
वैसे भी तुम कहाँ आओगी बेटी के घर
आखिर मेरी सास भी हैं थोड़ी
ज्यादा सास
पति भी हैं थोड़े ज्यादा पति
घर ज़रूर बदला है उन लोगों का माँ
पर मन नहीं बदला
पर अब कोई तकलीफ नहीं होती माँ
मैंने एडजस्ट कर लिया है खुद को अच्छी तरह
बाबूजी को कहना इस बार दशहरे में आने के लिए
मैं भेजूंगी सबके लिए कपड़े
कहना माँ किसी के झगड़े में न पड़ें वे
और शुरू कर दे तैयारियां छुटकी की शादी की
मैं आ जाउंगी समय से पहले ही
अच्छा माँ अब जा रही हूँ
चिंता मत करना
पहुँचते ही फोन करूंगी
अच्छा माँ विदा /अलविदा माँ.

सामान बेचती लड़की

सरकारी दफ्तरों मे लंच का समय था
चाय की चुस्कियों के साथ सरकारी नीतियों और क्रिकेट
की चर्चा चल रही थी
एक ठहरा हुआ समय यहाँ पसर रहा था
एक विरानी दिख रही थी
और दिख रही थी वह लडकी
अपने बैग में मसाज करने वाला यंत्र लिए
बाबूओं को थकान मिटाने के गुर बताते हुए
वह लडकी बताती है यंत्र की खूबियों के बारे में
थकान तो मिटेगा ही
यदि कोई दर्द रहा यहाँ-वहां
तो वह भी ठीक  हो जायेगा तुरंत
शरीर दुरुस्त रहेगा इसकी तो गारंटी है
वह बाबुओं के शरीर पर फिराती है यंत्र को
और एक सिहरन,एक रोमांच उनकी शिराओं में तैर जाता है
सुप्त कामनाओं के द्वार खुलते हैं उनकी नसों में
लड़की बेच ले जाती है तीन-चार यंत्र
अब वह यही कारनामा दोहरा रही है
दुसरे दफ्तर,कुछ दुसरे बाबुओं के संग
लड़की रोज आती है लंच के समय,
मुस्कान फेंकती,ग्राहकों को रिझाती
अब यह उसकी आदत में तब्दील हो चुकी है
वह भूल चुकी है किस मजबूरी में शुरू किया था यह काम
वह अक्सर पढ़ती है मार्केटिंग से जुडी कोई किताब
और चढ़ती जाती है सफलता के सोपान पर.

हांक

एक हांक पडती है गली में
जमा होती है चार औरतें
बैठ जाता है टिकुलहारा
सजा लेता है बाजार
किसी को बिंदी पसंद आता है
किसी को  चूड़ियाँ
किसी को नेलपौलिस किसी को झुमका
सबको चाहिए खुशियाँ
यह एक पल है जहाँ वे खुद हैं
थाली में पसरा चावल नहीं है उनके पास
न ही बर्तनों का ढेर
न पति और बच्चों की चिंता
न शिकायतों और नाराजगियों की फेहरिश्त
सिर्फ खिलखिलाहटें हैं उनके चेहरों पर
एक चमक एक चुहल जो बमुश्किल आता है उनके हिस्से
वे जो घरों से निकलकर आई हैं दरवाजे के इस पार
उन्होंने सिर्फ दरवाजा ही पार नहीं किया है.

स्त्री 

एक स्त्री होना दो संसारों में होना है
एक स्त्री होना दुःख की नदी में गोते लगाना है
एक स्त्री होना जीवन रचना है
एक स्त्री होना घर होना है
एक स्त्री होना इच्छाओं की अतृप्त नदी में गोते लगाना है
एक स्त्री होना नदी होना है
पहाड़ से समंदर तक की यात्रा करते
दूर आकाश में तारे की तरह टिमटिमाते रहना है.

बेटी की मुस्कान

अभी वह बहुत छोटी है
अपनी तुतलाती भाषा में कहती है-पापा-मम्मा
वह जब कमरे में हंसती है तो लगता है
खिड़की में चाँद निकल आया है
दिन भर की थकान हवा हो गई है बेटी की हंसी से
मेरा जन्म ऐसे घर में हुआ
जो स्त्रियों से भरा हुआ था
चाची,बुआ और बहनों के ठहाकों से गूंजता रहता था घर
इन ठहाको में उनका दुःख कपूर की तरह उड़ जाता
तब घर एक बड़े पेड़ की तरह लगता
जिस पर सुबह से शाम तक पक्षियों का कलरव होता
उसी समय मैंने जाना कि स्त्रियों के बिना नहीं होता घर
वो देखीए अभी फिर से बेटी के चेहरे पर हंसी आई
उसकी तुतलाती भाषा में उसकी शरारत में
लौट आई है चाची,बुआ और बहनों की सारी बातें
इस समय की उसकी मुस्कान सदियों तक पृथ्वी पर गूंजती रहे
एक मनुष्य,एक पिता,एक कवि की यह.
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