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डॉक्टर मनीषा बांगर 'वायस ऑफ पीपल'सम्मान से हुईं सम्मानित !

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 राजीव कुमार सुमन   
                                                                           
14 सिंतबर 2018 को दिल्ली के माता सुंदरी रोड परस्थित एवान-ए-गालिब ऑडिटोरियम में पल-पल न्यूज वेब पोर्टल की तरफ से आयोजित कार्यक्रम और सम्मान समारोह में मुद्दों और सरोकारों से जुड़े सोशल मीडिया के कई जाने-माने पत्रकारों और व्यक्तियों को 'वायस ऑफ पीपल'सम्मान से सम्मानित किया गया। सम्मान पानेवालों में तीन महिलाएं -- पत्रकार भाषा सिंह, सम्पादक प्रेमा नेगी और बामसेफ की बहुजन नेत्री डॉ मनीषा बांगर शामिल हैं.



पेशे से गैस्ट्रोएन्टरोलोजिस्ट चिकित्सक डॉ. मनीषाबांगर बामसेफ की पूर्व उपाध्यक्ष रही हैं और बहुजन समाज की प्रगति केलिए लगातार सक्रिय रहने के लिए उन्हें यह सम्मान दिया गया. सोशल मीडिया खासकर फेसबुक, ट्विटर और यु-ट्यूब वीडियो के माध्यम से वामसेफ की राजनीति और बहुजन मुद्दों पर अपनी बेबाक बात रखने केलिए वे मशहूर हैं.

पूर्व राज्य सभा सांसद अली अनवर और पूर्व आईपीएस एसआर दारापुरी के हाथों सम्मानित किए जाने के बाद डॉ मनीषा बांगर ने कहा कि 'यह पुरस्कार मेरे लिए बहुत मायने रखता है क्योंकि मीडिया वर्ल्ड में मेरी यह धमक बामसेफ की बैठकों में मेरे विचार से लेकर एक विशेषज्ञ चिकित्सक  होने के नाते मेरी राय जानने तक ही सिमित रही थी, किन्तु मुंबई और दिल्ली में नेशनल इंडिया न्यूज नाम के न्यूज नेटवर्क मीडिया की शुरुआत करने के बाद, जिसमें मेरे कार्यक्रमों को चार लाख से ज्यादा की सदस्यता के साथ और केवल चार महीने में ही दो करोड़ से ज्यादा लोगों द्वारा देखा गया है, मैं उन सभी लोगों को धन्यबाद करती हूं जिन्होंने मुझ पर विश्वास किया और मुझे समर्थन दिया और उनको भी जिन लोगों ने मेरा विरोध किया। यह पुरस्कार इन दोनों कारणों से एक बड़ी भूमिका निभाता है, जिसे मैंने अपने देश के लोकत्रांत्रिक मूल्यों और लोकतांत्रिक फेवरिक को बनाए रखने के लिए जिम्मेदार नागरिक के साथ-साथ चुनौती के रुप में लिया है।'


वहीँ कार्यक्रम को कई जाने-माने मीडिया कार्यकर्ताओं ने संबोधित किया. कार्यक्रम को संबोधित करते हुए वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश ने कहा कि यह भारतीय मीडिया का सबसे बुरा दौर है। उन्होंने कहा कि मीडिया बजाय सत्ता से सवाल पूछने के उल्टे सत्ता पक्ष की तरफ से सवाल पूछ रहा है। पल पल न्यूज़ की संपादक खुश्बू अख्तर के यूट्यूब चैनल की सराहना करते हुए कहा कि ऐसे लोग लोग बधाई के पात्र हैं, जिन्होंने सच बोलने के लिये नये विकल्प ईजाद किये हैं।

प्रोफेसर रतन लाल ने कहा कि वाटसप यूनीवर्सिटीसे मिलने वाली‘शिक्षाओं’के दौर में फेक न्यूज़ का चलन बहुत अधिक बढ़ गया है। उन्होंने कहा कि समय है कि अब न सिर्फ फेक न्यूज़ बल्कि फेक जर्नलिस्टों के खिलाफ भी अभियान चलाया जाए।

आम आदमी पार्टी से आए संजय सिंह ने बीजेपीके इशारे पर चल रहे पत्रकारों को जमकर लताड़ा और कहा कि बड़े-बड़े चैनल के पत्रकार आजकल बीजेपी के प्रवक्ता बनकर विपक्ष से सवाल कर रहे हैं और देख कर अच्छा लगता है की जब इन पत्रकारों से सवाल करने के लिए एक अल्टरनेटिव मीडिया का तबका  सरकार और गोदी मीडिया के इस रवयै पर खुलकर सवाल उठा रहा है जिसमें दी वायर,पलपल न्यूज और बोलता हिंदूस्तान अपनी भूमिका को ईमानदारी के साथ उठा रहा है.

कार्यक्रम में अनेक बुद्धिजीवी, पत्रकार, लेखक और समाजिककार्यकर्ताओं ने शिरकत की थी। इस मौके पर समाजिक कार्यकर्ताओं, एंव अलग अलग क्षेत्रों के युवाओं को सम्मानित किया गया। इस कार्यक्रम को जेएनयू के लापता नजीब अहमद की मां फातिमा नफीस, राज्य सभा के पूर्व सांसद अली अनवर, पूर्व आईपीएस एसआर दारापुरी, वरिष्ठ पत्रकार प्रशांत टंडन, अभिषेक श्रीवास्तव, आम आदमी पार्टी के प्रवक्ता एंव राज्यसभा सांसद संजय सिंह, जिग्नेश मेवानी आदि ने संबोधित किया।

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प्रतिभा श्री की कविताएं: वर्णमाला व अन्य

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प्रतिभा श्री
शिक्षिका, परास्नातक, आजमगढ, सम्पर्क : मोबाईल raseeditikat8179@gmail.com


"वर्णमाला "
वे सिखाते हैं तुम्हें 'क'से कन्या
 'प'से पूजा
जबकि,
उनकी वर्णमाला में है
'क'से कुतिया
 'प'से पगली
वे सिखाते हैं तुम्हें
'द'से देवी
'म'से ममता
'त'से त्याग
दरअसल उनकी वर्णमाला में है
'द'से दंड
'म'से मजूरन
और
'त'से तिरस्कृत
तुम्हारी वर्णमाला और उनकी वर्णमाला में
रह जाता है
सैकड़ों अदृश्य
तुमको पढ़ने ना दी गई
किताबों का फर्क,
जिन्हें पढ़ना होता है ..
तुम्हारी जायज मांगों में
 पिता की सख्त होती
भंगिमा से ,
कॉलेज जाते देख
भाई की तिलमिलाहट से,
उड़ते दुप्पटे संग
लिपटीं अफवाहों से,
देह पर कचोटती चीटियों से
उनकी वर्णमाला समझने में
तुम्हें तोड़ना होगा
तैंतीस लाख व्यंजन
 ग्यारह हजार स्वरों  से
 निर्मित
अभेद्य चक्रव्यूह
बांचना होगा हर रोज
अनगिनत अदृश्य इबारतें
जानना होगा
कि तुम औरत होने के अतिरिक्त
 मनुष्य हो
 सशरीर जीवित प्राणी
जिसे प्राप्त हैं
समस्त
प्रकृति एवं विधि सम्मत
 अधिकार
जो उन्हें
प्राप्त हैं।


मैं कौन
अवनि पर आगमन के तत्क्षण
गर्भनाल  की गांठ पर
लिखा गया
शिलापट्ट
तुम्हारे नाम का
शिशुकाल से
मेरी यात्रा के अनगिनत पड़ावों पर
तत्पर किया गया
तुम्हारी सहधर्मिणी बनने को
उम्र की आधी कड़ियाँ टूटने तक
मैं ढालती रही स्वयं को
तुम्हारे निर्धारित साँचे में
मैं बनी
स्वयं के मन की नहीं
तुम्हारे मनमुताबिक

जो तुमको हो पसन्द वही बात करेंगे
तुम दिन को अगर रात कहो रात कहेंगे

तुम रंच मात्र ना बदले
मैं बदलती रही
मृगनयनी,
चातकी
मोहिनी हुई
कुलटा
कलंकिनी
कलमुँही  कहाई
सौंदर्य ,
असौंदर्य के
 सारे उपमान,
समाहित हो मुझमें
मेरी तलाश  में
भटकते घटाटोप अंधेरों में
थाम तुम्हारे यग्योपवीत का एक धागा
जहाँ हाथ को हाथ सुझाई न दे
करते चक्रण
तुम्हारी नाभि के चतुर्दिक
तुम्हारे
विशाल जगमगाते प्रासादों से
गुप्त अंधेरे कोटरों तक
मैं सहचरी से
अतिरंजित कामनाओं की पूर्ति हेतु वेश्या तक
स्वर्ग की अभीप्सा से नरक के द्वार तक
सोखती रही
तुम्हारी देह का कसैलापन
स्वयं को खोजा
मय में डूबी तुम्हारी आंखों में
हथेलियों के प्रकंपन में
दो देहों के मध्य
घटित विद्युत विध्वंश में
कि ,
किंचित नमक हो
और ,
मुझे ,
मेरे ,
अस्तित्व के स्वाद का भान हो
तुम्हारी तिक्तता से नष्ट होता गया  माधुर्य
तुम्हारी रिक्तता में समाहित हो
मैं शून्य हुई
मुझे ......!
मुझ तक पहुंचाने वाला पथ
  कभी
मुझ तक ना आया ।
जल की खोज में भटकते
पथिक सी
मेरी दौड़ रेत के मैदानों से
मृगमरीचिका तक
मेरे मालिक !
क्या ,
मैं

अभिशापित हूँ ?
तुम्हारी लिप्साओं की पूर्ति हेतु
मेरे उत्सर्ग को
कई युगों से
आज भी
 खड़ी हूँ
तुम्हारी धर्मसभाओं में
वस्त्रहीन
और
तुम्हारा उत्तर है
मौन ।

"भेड़िये"

1
ठीक ठाक याद नहीं उम्र का हिसाब
ना याद है पढ़ाई की कक्षा

बेस्ट फ्रेंड का चेहरा भी याद नहीं
ना याद है सबसे तेज लड़के का नाम
लेकिन
याद है
तुम्हारा छूना
घर के भीतर ही,
देह पर रेंगती लिजलिजी छिपकलियाँ
तेज नुकीले नाखूनों से बोया गया जहर
बेबसी
,छटपटाहट,
आँसू
ठोंक दी गई सभ्यता की कीलों से  बन्द चीखें
मेरा ईश्वर मरा उस दिन
थोड़ी मैं भी मरी
चुप थी
कई दिनों तक
मेरी चुप्पी में ध्वनित रहे अकथनीय प्रश्न
महीनों खुरचती रही देह
 कि उतार सकूँ चमड़ी से लाल काई
जिससे
बची रह सकूँ मैं
मेरे भीतर
थोड़ी-सी
जीवित

2
बाद के दिनों में
एक आदत सी हो गई
जैसा बच्चा सीखता है
बोलना
लड़खड़ाते हुए
 चलना
मैं सीखती गई
बस में,
ऑटो में,
पैदल रास्ते पर,
सीने पर लगे तेज धक्के से
गिरते गिरते सम्हलना
कंधे से नीचे सरकते हाथों को झटकना
पैरों के बीच जगह बनाते पैरों को कुचलना
मेरे साथी
सेफ्टीपिन
नन्हा चाकू
और लंबे नाखून थे।
उम्र घटती गई
बढ़ती गई समझ
और
नफरत भी
पुरुष भेड़िया है
उसे पसंद है
लड़कियों का कच्चा मांस
लड़कियों को झुण्ड में रहना चाहिए
ताकि,
भेड़िये नोंच कर खा न सकें

3
तुमने छुआ जब प्रेम में थी
जैसे छूती है मां,
नवजात को
सहेजा ,
जैसा सहेजता हो वंचित अपना धन
निर्द्वन्द रही तुम्हारे संग
जैसे हरे पत्तों पर थिरकती हो
ओस की बूंदे
तुम मुझमें
मैं तुममें समाहित
जैसे गोधूलि में
सूर्य और धरती का आलिंगन
तब जाना
पुरुष
आदमी होता है।
बेहद कमजोर
उसे जीतने की भूख है
हारी हुई औरत उसकी पहली पसंद है।

4
अब छत्तीस की होने तक
 सीख चुकी हूँ
भेड़िये की पहचान
लड़कियों को बताती हूँ
लक्षण के आधार पर
पहचान के तरीके
परन्तु
जानती हूँ
आदमी के बीच
भेड़िये की पहचान
मुश्किल है ।
क्योंकि,
आदमी और भेड़िये के चेहरेअक्सर
गड्डमगड्ड होते हैं।।

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शिक्षकों का समूह बंटा कुलपति हंगलू के पक्ष और विपक्ष में: राष्ट्रपति को लिखी चिट्ठी

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सुशील मानव 

इलाहाबाद विश्वविद्यालय शिक्षक संघ (ऑटा) के पूर्व पदाधिकारियों ने कुलपति रतन लाल हंगलू के खिलाफ माननीय राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद को खुला पत्र लिखकर कुलपति के कार्यकाल में अनियमितताओं की लंबी फेहरिस्त भेजी है.उधर संघ के वर्तमान पदाधिकारी कुलपति के पक्ष में खड़े हैं, इस बीच महिला साहित्यकार ने एबीवीपी नेता अविनाश दुबे पर ब्लैकमेल का आरोप लगाया है. महिला सलाहकार बोर्ड (वैब) की पूर्व अध्यक्ष ने कुलपति के खिलाफ उनके पहले की यूनिवर्सिटी से एक छात्रा की मां की शिकायत प्राप्त होने की बात स्वीकार की है, वहीं वर्तमान अध्यक्ष लालसा यादव ऐसे किसी पत्र से इनकार करती रही हैं. पढ़ें पूरी  रिपोर्ट: 



इलाहबाद विश्वविद्यालय शिक्षक संघ (ऑटा) के पूर्व पदाधिकारियों ने कुलपति रतन लालहंगलू के खिलाफ माननीय राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद को खुला पत्रलिखकर कुलपति के कार्यकाल में अनियमितताओं की लंबी फेहरिस्त भेजी है. मानव संसाधन विकास मंत्रालय को लगातार कुलपति के खिलाफ शिकायतें भेजी जाने के बावजूद कुलपति पर अब तक कोई कार्रवाई न होने और उच्च शिक्षा नियामकों पर चुप्पी साधे रहनेवाले पदाधिकारियों के खिलाफ भी आवाज उठायी गयी है. पूर्व पदाधिकारियों  के पत्र में  गौतम राजू की अध्यक्षता में गठित यूजीसी की कमिटी की ओर से कुलपति की कार्यप्रणाली पर गंभीर सवाल उठाये गये हैं.

आरोप जो लगाए गए हैं :
1. इविवि की प्रवेश परीक्षाओं एवं अन्य परीक्षाओं में व्यापक अनियमितता
2. इविवि की आधिकारिक बैठकों में अध्यापकों व अधिकारियों के प्रति अपमानजनक टिप्पणियां करना
3. इविवि एवं संघटक कॉलेजों में शिक्षकों की भर्ती में स्क्रीनिंग, शॉर्ट लिस्टिंग, विशेषज्ञों के चयन, अकादमिक 4. क्षमता, और शोध संबंधी आकलन में की गयी व्यापक अनियमितता एवं पक्षपातपूर्ण चयन.
5. अधिनियम, परिनियम एवं यूजीसी के रेगुलेशन में वर्णित प्रावधानों का व्यापक उल्लंघन, जिनके कारण उच्च न्यायालय में कई याचिकाएं दाखिल हुईं. कुलपति को कई  बार न्यायालय की अवमानना का आरोप झेलना पड़ा और एक बार तो न्यायालय के आदेश पर कुलपति एवं कुलसचिव के वेतन पर भी रोक लगा दी गई. 6. प्रशासनिक निर्णयों में मनमानी एवं नियमानुसार चुने गये अथवा नामित पदाधिकारियों को भ्रामक तथ्यों के आधार पर पद मुक्त करना. वरिष्ठता सूची में मनचाहा परिवर्तन कर देना और प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत की सतत अवहेलना.वहीं

इविवि प्रशासन की ओर से एचआरडी मंत्रालय को भेजी गई जांच रिपोर्ट पर छात्रसंघ के वर्तमान व पूर्व अध्यक्षों ने सवाल उठाते हुए कहा है कि बिना कोई जांच हुए ही इविवि प्रशासन कैसे कोई जांच रिपोर्ट भेज सकता है .

लालसा यादव का झूठ  
वहीं इविवि की महिला सलाहकार बोर्ड (वैब) की पूर्व अध्यक्ष  प्रो रंजना कक्कड़ ने दावा किया है कि कुलपति रत्न लालहंगलू के खिलाफ कल्याणी यूनिवर्सिटी की छात्रा की मां की ओर से दो पत्र इविवि वैब को भेजा गया था उसकी मूलप्रति मेरे पास है. जबकि कुछ दिन पहले वैब की वर्तमान अध्यक्ष लालसा यादव ने ऐसे किसी पत्र से इनकार किया था.  प्रो रंजना कक्कड़ ने बताया कि वहपत्र 16 मई 2016 को मिला था. हालांकि कि वो दिसंबर 2015 में रिटायर होने गई थी लेकिन उन्हें जून 2016 तक का सत्र लाभ मिला था. उन्होंने मूल प्रति अपने पास जबकि एक प्रति कॉलेज के रिकार्ड में रख दिया था. उनके रिटायर होने के बाद मामले को दबा दिया गया.
वहीं छात्रों के तीव्र विरोध के बाद आरोपी कुलपति  रतन लालहंगलू  आज होनेवाले इविवि के स्थापना दिवस समारोह में शामिल नहीं होंगे ऐसी सूचना मिली है. इस बीच 24 सितंबर को जिले की तमाम महिला संगठनों द्वारा आरोपी कुलपति के खिलाफ सिविल लाइंस के सुभाष चौराहे पर विरोध प्रदर्शन की कॉल की गई है.

महिला साहित्यकार को धमकी मामले में नया मोड़ 
पिछले दिनों जिस महिला साहित्यकार के साथ कुलपति की अश्लील बातचीत का स्क्रीन शॉट वायरल हुआ था उसे दिल्ली स्थित आवास पर धमकी की खबर आई थी. धमकी वाले दिन और समय पर एबीवीपी के नेता अविनाश दुबे के उस इलाके में होने की पुष्टि हुई है. गौरतलब है कि महिला साहित्यकार ने कहा था कि उसे धमकी देने आये लोग कुलपति के लोग थे. छात्रनेता अविनाश दूबे ने उस वक्त गाजियाबाद जाने की बात कबूल कर ली है लेकिन उसका कहना है कि वह धमकाने नहीं बल्कि महिला के बुलाने पर गया था.

वहीं इस बाबत जब महिला साहित्यकार से पूछा गया तो उन्होंने कहा कि 'न तो मैंने इसे बुलाया था न ही इसे कोई चैट का स्क्रीनशॉट दिया था. उलटे ये बंदा खुद मुझे पिछले चार महीने से गंदे मेसेजेज भेजकर और कॉल करके पूछता था कि रतन लालहंगलू तुम्हारे यहां क्यों आता है, क्या करता है. इस वाल के जवाब में कि जब वो आपको चार महीने से परेशान कर रहा था तो आपने उसके खिलाफ महिला हेल्पलाइन में कोई शिकायत क्यों नहीं दर्ज करवाई, महिला साहित्यकार ने कहा कि प्रो रतन लालहंगलू को भी वो मेसेजेज भेजकर धमकाता था इस बारे में खुद हंगलू ने मुझसे कहा था कि वो जल्द ही अविनाश दूबे के खिलाफ पुलिस में शिकायत दर्ज करवाने जा रहे हैं. तो अविनाश दूबे ने जो मेसेजेज मुझे भेजे थे वो भी मैंने कुलपति रतनलाल हंगलू को फॉरवर्ड कर दिये थे कि दोनों मामले की एक ही शिकायत में निपटारा हो जायेगा.'

वहीं छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष ऋचा सिंह  द्वारा इविवि के छात्रों की तरफ से कल एक प्रेस विज्ञप्ति जारी की गई है. जिसमें बताया गया है कि विश्वविद्यालय लगातार ग़लत सूचना के माध्यम से छात्रों समेत मंत्रालय को गुमराह करने का प्रयास कर रहा है. एक तरफ़ विश्वविद्यालय द्वारा जांच कमेटी गठित होती है और जिनकी अध्यक्षता में गठित होती वो किसी भी सूचना से इंकार करते हैं।  दूसरी तरफ़ बिना जाँच हुए, कौन से रिपोर्ट मानव संसाधन विकास मंत्रालय को अवकाश के दिन, जब विश्वविद्यालय और मंत्रालय दोनों जगह अवकाश था, भेजी गयी है ?? यह अपने आप मे संदेहस्पद है और विश्वविद्यालय की मंशा पर सवाल खड़े करती है।
जब छात्र लगातार परिसर में आंदोलनरत है, ऐसे समय मे विश्वविद्यालय द्वारा इतने असंवेदनशील व्यवहार से छात्र- छात्राओं में लगातार गुस्सा बढ़ रहा है। आज छात्रों द्वारा "ट्विटर ट्रेंड"के माध्यम से मानव संसाधन विकास मंत्रालय और प्रधानमंत्री कार्यालय से कुलपति की बर्खास्तगी की माँग की गयी।

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दिग्गज स्त्रीवादी समानांतर सिनेमा की एक बड़ी सख्सियत कल्पना आजमी का निधन !

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राजीव कु. सुमन

प्रसिद्ध फिल्मकार 64 वर्षीय कल्पना लाजमी (1954 - 2018) का मुंबई के कोकिलाबेन धीरूभाई अंबानी अस्पताल में २३ सितम्बर २०१८ रविवार की सुबह सुबह साढ़े चार बजे निधन हो गया। उनके भाई देव लाजमी ने यह जानकारी देते हुए बताया कि 'वे किडनी के कैंसर से पीड़ित थीं. उनकी किडनी और लीवर ने काम करना बंद कर दिया था।'उनका अंतिम संस्कार आज दोपहर साढ़े बारह बजे ओशिवारा श्मशान भूमि में किया जाएगा।


कल्पना आजमी की  विरासत कला और फिल्म जगत थी. वे प्रख्यात चित्रकार ललिता लाजमी की बेटी थीं और फिल्म निर्माता गुरु दत्त की भतीजी थीं, लेकिन कल्पना लाजमी ने वहाँ अपना अलग रास्ता अख्तियार किया. वह स्त्रियोंमुख और समानांतर-यथार्थवादी फिल्मों की तरफ मुड़ी. कल्पना लज्मी ने अपने करियर की शुरुआत अनुभवी फिल्म निर्देशक श्याम बेनेगल के साथ सहायक निर्देशक के रूप में शुरू किया जो पादुकोण परिवार के उनके रिश्तेदार भी थे। उनकी फिल्में अक्सर महिलाओं पर केंद्रित रहती थीं। उनकी कुछ लोकप्रिय फिल्मों में रूदाली, दमन, दरमियान शामिल हैं।

बाद में वह श्याम बेनेगल की 'भूमिका: द रोल'में सहायक पोशाक डिजाइनर के रूप में काम करने लगीं। उन्होंने वृत्तचित्र फिल्म डी.जी. के साथ अपना निर्देशन शुरू किया. बाद में 1978 में मूवी पायोनियर और 'ए वर्क स्टडी इन चाय प्लकिंग' (1979)  और 'अलोंग द ब्रह्मपुत्र' (1981) नाम के वृत्तचित्रों का भी निर्देशन किया. उन्होंने 1986 में 'एक पल'फिल्म निर्देशक के रूप में शुरुआत की जो शबाना आज़मी और नसीरुद्दीन शाह अभिनीत थे। उन्होंने फिल्म का निर्माण किया, फिल्म लेखन में  हिस्सा लिया और गुलजार के साथ फिल्म के लिए पटकथा भी लिखी थी।

उसके बाद कुछ समय के लिए उन्होंने फिल्म निर्देशन से अवकाश लिया और तन्वी आज़मी अभिनीत अपने पहले टेलीविजन धारावाहिक लोहित किनारे (19 88) को निर्देशित करने में जुट गईं. उन्होंने 1993 में डिंपल कपाडिया अभिनीत और समीक्षकों द्वारा प्रशंसित 'रुदाली'के साथ सिनेमा में वापसी की। इस फिल्मके लिए डिम्पल कपाडिया को सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार मिला.

उनकी अगली फिल्म 'दर्मियान: इन बिटविन' (1997) थी जिसकी वे खुद  निर्माता-निर्देशक थीं. फिल्म में  किरण खेर और तब्बू को उनके प्रभावशाली  अभिनय के लिए खूब सराहा गया.

उनकी अगली फिल्म 'दमन' 2001 में आई जो वैवाहिक हिंसा पर बनी फिल्म थी. फिल्म को भारत सरकार द्वारा वितरित किया गया था और जिसे  आलोचकों द्वारा अत्यधिक प्रशंसित किया गया। यह दूसरी बार था जब एक अभिनेत्री ने स्त्री निर्देशन में बनी फिल्म के तहत रवीना टंडन को सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री के लिए राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार जीता था।


उसकी अगली फिल्म थी 'क्यों' (2003) जो बहुत अधिक ध्यान नहीं खिंच पायी आलोचकों का. उनकी आखिरी रिलीज फिल्म 'चिंगारी'थी जिसमे सुष्मिता सेन ने एक गांव की वेश्या के रूप में अभिनय किया था, वह भी 2006 में रिलीज होने के बाद व्यावसायिक रूप से असफल रही. यह फिल्म भूपेन हजारिका के उपन्यास 'द प्रॉस्टीट्यूट एंड द पोस्टमैन'पर आधारित थी। हजारिका उनके पार्टनर भी थे।उनकी मौत पर सिने जगत के कई जानी-मानी हस्तियों ने ट्विटर और अन्य सोशल मिडिया पर शोक सन्देश व्यक्त किया है.

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शालिनी मोहन की कवितायेँ : 'परिभाषित'व अन्य

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शालिनी मोहन
विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित। 'अहसास की दहलीज़ पर'साझा काव्य संग्रह प्रकाशित . सम्पर्क:  shalini.mohan9@gmail.com

1.
परिभाषित


विधवा शब्द का अर्थ क्या है

माँग में सिंदूर और माथे
पर एक लाल बिंदिया
 श्रृंगार को पूर्ण रूप से दर्शाती है
इनका होना ही
एक स्री होने का परिचायक है
यहाँ देह और आत्मा दोनों
एक जैसे दिखते हैं
वह देह जिसे उसने जिया
और आत्मा जिसे उसे पूजना है

एक विधवा नहीं समझना चाहती
कविता को
ऐसा करना तोड़ देगा
उसका भ्रम
यह एक छोटी सी स्वतंत्रता होगी
 जिसे वह पूरी तरह
जी नहीं पायेगी

जब अंधेरी गुफा में
उसकी उबड़-खाबड़ दीवार पर
लड़खड़ाने लगते हैं क, ख, ग
और घ भी ऊँघता नज़र आता है
तो अचानक चमगादड़ और उल्लु
घूरने लगते हैं तीव्रता से उनको
तब वे स्वतः टूट टूट कर
गिरने लगते हैं
अब कोई पैशाचिक शक्ति
जागृत करती है उन्हें
अचानक एक झोंके में लेके
जा बैठती है बूढ़े बरगद पर
वहीं उनका एकांत निवास है

नीचे ठूंठ पर बैठता है
एक ओझा,  बनाता
एक कालजयी रचना





2.
साड़ी में लिपटी नारी 

क्या सादगी
चेहरे पर उसके छाई है
जैसे पूस के महीने में
धूप मन को भायी है
सीमाओं में बँधी
असीमितताओं को समेटे
लो साड़ी में आ गई
नारी एक लिपटी

आई तो सबको बाँध लिया
बेटी को इसने नाम दिया
जा कर भी सबको बाँध दिया
बहू से घर को आबाद किया
बँध गई जिसने भी बाँध दिया
सूनी कलाई को है नाम दिया
अपने घने केसू से
सारे घर में है छाँव किया

स से सबल, प्र से प्रबल
म से ममता को निस्सार किया
अपने नयन के बूँदों से
प्यार से है सबको थाम लिया
कर्म को ही धर्म समझा
लोभ से हमेंशा रही दूर
मेहनत की पराकाष्ठा कर दी
कभी न इसका हुआ ग़ुरुर

बारिश की निरंतर बूँदें भी
इस चट्टान को ना पिघला सकी
बनी, मिटी, मिट के बनी
तब जा कर यह नारी
देखो एक साड़ी में है लिपटी

3.
एक आदिवासी लड़की

बस्ती, जंगल, नदी, उड़ते पंछी
बहुत याद करती है मुनिया
पिछली बार जब लौटी थी
अपनी बस्ती
उसकी माँ ने कहा था
एक-दो साल में ब्याह दी जायेगी
धीरे-धीरे मुनिया समझने लगी है
नारी सशक्तीकरण, शहरीकरण और स्पर्धा

मुनिया अपने थोड़े से बदले चेहरे को
हर दिन आईने में निहारती है
उसका काला रंग
अब थोड़ा फीका हो गया है
लाल, पीले रंग फबकर
अपनी चमक छोड़ने लगे हैं
रूखे, बेज़ान बाल
मुलायम और चमकदार हो गये हैं
उसकी फटी एड़ी
चप्पल में सुन्दर दिखने लगी है
तन पर अच्छे, आधुनिक कपड़े हैं

बालकनी में आती बारिश के
हल्के छींटों में कैसे भीगना है
सीख लिया है उसने
अपने मन के तालाब में खिले कमल को
कैसे संभालना है
जानती है अब मुनिया

अपनी मालकिन की दुलारी
अक्सर यही सोचती है
कि एक दिन राजकुमार आयेगा
गोरा, सुदंर और शहरी
मालकिन ढूँढ लायेगी
जैसे अपनी बेटी के लिये लायी थी

लौटना फिर उसी मिट्टी पर
भय और उदासी देता है
अपने सपने में उसी बस्ती के
अंतिम छोर पर
एक शहर बसा चुकी है मुनिया
मुनिया जब हँसती है
उसकी सारी सादगी
झलकती है, सफ़ेद दाँतों से


4.
वेश्या 

वेश्या शब्द का विलोम क्या होगा
वेश्या शब्द को लोगों ने
बहुत नंगा किया है, घोर घृणा दी है
इसके उच्चारण मात्र से लोगों ने
अपनी जिह्वा काटी है हर बार
इस शब्द ने इतनी घृणा झेली है
कि लज्जित हुआ, शर्मिंदा हुआ खुद से बार-बार
कहाँ जाये, क्या करे

हमारे दिमाग़ में इसने
सिर्फ़ एक देह और दृश्य पैदा किये हैं
बची हुई देह, दृश्य और परिस्थितियों के बारे में
ना तो हम सोचते ना समझते हैं
सोचने और समझने से पूरी तरह इन्क़ार कर देते हैं
एक ऐसा दिन रहा होगा
जिसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते
जब जीवन काटने के लिए
बेचने को उस स्त्री के पास कुछ भी नहीं बचा होगा
अंत में उसने अपना शरीर बेच दिया
सत्य, असत्य, सही, ग़लत को पोटली में बाँध
बन गई वह वेश्या

वेश्या सिर्फ़ एक देह नहीं
उसके पास एक आत्मा भी है


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बीएचयू में लड़कियों की आवाज से क्यों परेशान होते हैं दक्षिणपंथी (?)

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राजीव सुमन 

पिछले वर्ष 23 सितम्बर 2017 को काशी हिन्दू विश्वविद्यालय (बी.एच.यू) में लैंगिग भेदभाव और हिंसा, छेड़खानी, उत्पीड़न व प्रशासन के पितृसत्तात्मक रवैया के खिलाफ समानता के व्यवहार के लिए वहाँ की
छात्राओं ने एक ऐतिहासिक आंदोलन किया था, जिसने पूरे भारत के लोगों का ध्यान अपनी तरफ आकर्षित किया था और तत्कालीन कुलपति जी.सी. त्रिपाठी को इसके परिणाम भुगतने पड़े थे, उसकी वर्षगांठ मनाने के
लिए 23 सितम्बर 2018 वहां की छात्राओं ने एक शान्ति सभा के साथ ही सांस्कृतिक कार्यक्रम और नुक्कड़ नाटक का आयोजन किया था जिसपर कथित रूप से एबीवीपी के छात्रों व बाहरी तत्वों ने मिलकर हमला
किया.



हमला करने वाले जय श्री राम, भारत माता की जय,वन्दे मातरम के नारे के साथ ही भद्दी गालियाँ दे रहे थे और इस बीच पुलिस और प्राक्टर के लोग तमाशबीन बने रहे. लेकिन जब मामला आगे बढ़ा तो छात्राओं पर कथित तौर पर लाठी चार्ज कर दिया गया जिसमे कई छात्राओं को चोटें आई हैं. इस घटना के विरोध में छात्राएं बीएचयू के महिला महाविद्यालय (एम्.एम्.वी.) की गेट के बाहर ही धरने पर बैठ गयीं, प्रशासन उन्हें लगातार अंदर ले जाने का प्रयास कर रहा .

ये लडकियां न तो जेएनयू दिल्ली की हैंन ही टीस, मुंबई की और न ही हैदराबाद या जाधवपुर विश्वविद्यालय की जहां मामले को वामपंथ का चोगा आसानी से पहनाया जा सकता है. बल्कि ये खुद प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी के संसदीय क्षेत्र वाराणसी के बीएचयू की हैं जो अपने लिए लैंगिक हिंसा-भेदभाद से आजादी की मांग कर रही हैं. मुश्किल यह है कि ब्राह्मणवाद के गढ़ और सांस्कृतिक राजधानी से भाजपा और उसकी छात्र इकाई एबीवीपी का विरोध बीएचयू की छात्राएं अपने ऊपर लैंगिक भेदभाव के विरुद्ध कर रही हैं जो आगामी चुनाव के लिए विपक्ष को एक अवसर देता है. अभी कुछ दिन पहले ही यूजीसी ने सभी केन्द्रीय विश्वविद्यालयों के लिए एक सर्कुलर निकाला था कि सेना द्वारा पाकिस्तान के खिलाफ किये गए सर्जिकल स्ट्राइक के एक वर्ष पूरे होने के उपलक्ष में इसे शौर्य स्मृति के रूप में मनाया जाए तो इसका व्यापक पैमाने पर बुद्धिजीवियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा विरोध दर्ज किया गया और मानव संसाधन मंत्री प्रकाश जावडेकर को इसपर सफाई देनी पड़ी.
लेकिन जब छात्राओं ने लैंगिक हिंसा के खिलाफ एक वर्ष पूर्व किये गए अपने आन्दोलन की याद में शांति मार्च और नुक्कड़ नाटक का कार्यक्रम रखा तो तथाकथित एबीवीपी के लोगों ने उनपर फिर से लैंगिक हिंसा की और पुलिस ने लाठी चार्ज कर दिया. कई छात्राएं घायल हैं. संघ और बीजेपी की विचारधारा का यह हमला उनके अपने ही गढ़ में किया गया है जो यह साफ़ तौर पर दर्शाता है कि 'बेटी बचाओ, बेटी पढाओ', इस सरकार की मंशा नहीं, बस जुमला भर है.

नाम न बताए जाने की शर्त पर चश्मदीद एक छात्रा ने कहा कि "बीएचयू प्रशासन का महिला विरोधी, छात्र विरोधी रवैया फिर से सामने आया है। सवाल ये है कि जब एक घंटे से ए.बी.वी.पी. व अन्य गुंडो द्वारा कार्यक्रम को रोकने के लिए छात्राओं से हाथापाई की जा रही थी तब गार्ड मूकदर्शक क्यों बने बैठे थे? गुंडो को रोकने के बजाय छात्राओं पे बेरहमी से लाठीचार्ज कैसे किया गया? प्रशासन का ये रवैया दिखाता है कि छात्राओं पर हमला उनके द्वारा ही प्रायोजित था जिसमें उनके द्वारा पाले गए लम्पटों और गुंडो का सहारा लिया गया।"



इस बीच पुलिस ने छात्राओं की शिकायत पर एफ.आई.आर मेंदस छात्रों तथा एक दर्जन अज्ञात बाहरी लोगों पर आईपीसी की धारा 147, 354, 323, 504 और 506 के तहत नामजद किया है। पुलिस में की गई शिकायत के अनुसार अभियुक्त छात्र जो कथित रूप से एबीवीपी के सदस्य हैं, अन्य बाहरी तत्वों के साथ मिलकर रविवार की शाम को मालवीय गेट पर चल रहे इस कार्यक्रम को बाधित किया और जब छात्राओं ने इसका विरोध किया तो वे आक्रामक हो गए, गन्दी भाषा का प्रयोग किया और हमला करना शुरू कर दिया. वहां की छात्रा अवंतिका तिवारी ने कहा कि  "वे हमारे बढ़ने को बर्दाश्त नहीं कर सकते हैं, वे कल की तरह रणनीति के माध्यम से हमें डराना चाहते हैं, लेकिन चुप रहना अब हमारे लिए विकल्प नहीं है।"

लगता है बीएचयू विवाद थमने वाला नहीं है. शुरू से हीबीएचयू दक्षिणपंथ का गढ़ रहा है, वहाँ का प्रशासन और शैक्षणिक वातावरण पितृसत्ता के जड़ मूल्यों से निर्मित है. लैंगिक भेदभाव, हिंसा और जातिवादी सोच वहाँ के चपरासी से लेकर सर्वोच्च पद पर बैठे लोगों में विद्यमान है. यही कारण है कि शिक्षा के इस सबसे बड़े कैम्पस में लड़किया हमेशा उत्पीडित और लैंगिक हिंसा व भेदभाव का शिकार रही हैं. जातिवाद भी वहाँकी एक बड़ी समस्या है. पिछले वर्ष लड़कियों के लैंगिक हिंसा के विरुद्ध आन्दोलन ने कुछ ऐसा किया जो पिछले सौ सालों में नहीं हुआ था. इस परिघटना को एक परिवर्तन के रूप में उस समय देखा गया था.

पहली बार बीएचयू में कोई महिला प्राक्टर के पद पर चुनी गई थी. उस समय प्राक्टर रोयोना सिंह भले ही लड़कियों के शराब पीने और मनमुताबिक कपड़े (कथित तंग कपड़े) पहनने की स्वतंत्रता जैसी क्रांतिकारी बातें कर रही थीं लेकिन वहाँ पढने वाली लड़कियां अपनी इस सायंस फैकल्टी पर इसलिए विश्वास नहीं कर पा रहीं थीं कि उनके मुताबिक़ ब्राह्मणवादी पितृसत्ता से संचालित विश्वविद्यालय में कोई पदाधिकारी संकुचित दक्षिणपंथ से अलग हो ही नहीं सकता. चाहे वह महिला हो या पुरुष. उनका यह डर ठीक एक साल बाद सच साबित हो गया जब प्राक्टर पुलिस और स्थानीय पुलिस मूक बनी हुई थी.

बीएचयू में लड़कियों का यह प्रदर्शन और विरोध केंद्र की शीर्षसत्ता के लिए तब भी सिरदर्द बना था और अब भी. क्योंकि पिछली बार देश के प्रधानमन्त्री का दौरा बनारस में उसी वक़्त होने वाला था जिस वक़्त लडकियां आन्दोलनरत थीं. लड़कियों ने बीएचयू के मुख्य द्वार--सिंह द्वार पर ही एक बहुत बड़ा बैनर लगा रखा था जिसमे लिखा था जी.सी., वी.सी. गो बैक और साथ में बेटियों के प्रति नरेन्द्र मोदी और सरकार का बहु-प्रचारित, बहु-प्रसिद्द नारे को व्यंग्यात्मक अभिव्यक्ति देता नारा--"बचेगी बेटी तभी तो पढेगी बेटी"-टंगा था. इस बार भी लड़कियों का यह विरोध प्रदर्शन दक्षिण पंथी सामंती मूल्यों के राज्य और सांस्कृतिक नगरी बनारस से उठ रही है. वही बनारस जो प्र.मं. मोदी का संसदीय क्षेत्र रहा है, वही राज्य जिसके योगी आदित्यनाथ मुख्यमंत्री हैं. फिर से ये "गन्दी लड़किया" (पिछले साल कई बार आंदोलनरत इन लड़कियों को इसी विशेषण से विश्वविद्यालय प्रशासन के लोग सुशोभित करते रहे थे.) महामना के इस विश्वविद्यालय से केंद्र और राज्य सरकार को उनपर हुए लैंगिक हिंसा और भेदभाव को लेकर मुह चिढा रही हैं.

राजीव सुमन स्त्रीकाल संपादक मंडल सदस्य हैं

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गांव की पाठशाला जिसने सबको बांध दिया:जूलिया वेबर गार्डन की डायरी

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शिरीष खरे

'नन्हे बच्चे जिज्ञासु, खोजी इंसान होते हैं। वे अपनी समस्त इंद्रियों की मदद से दुनिया की अनूठी चीजें तलाशते हैं। वे समग्रता में जीकर सीखते हैं। पर केवल इतना ही नहीं है। उन्होंने जो कुछ सीखा होता है उसका उपयोग पहले या नई स्थितियों में करते रहते हैं।'
'लोकतांत्रिक नियंत्रण तभी आ सकता है जिसमें बच्चों को अपनी समस्याओं के समाधान स्वयं खोजने की आजादी हो।'
'हम एक सतत बदलती दुनिया में रहते हैं। ऐसी दुनिया में प्रभावी ढंग से बने रहना है तो हमें इसका सामना रचनात्मक तरीके से करना होगा। हम सब रचनात्मक शक्ति के ऐसे संसाधन हैं जिन्हें हमने टटोला तक नहीं है। इसके लिए हमें उन सभी बंधनों को तोड़ना होगा जो हमने आलोचना के डर से या हीन—भावना के कारण बना लिए हैं। पाठ्यचर्या को विकसित करने में कुछ चीजें चुननी पड़ती हैं।'
'सिखाते समय हम शिक्षकों को कुछ सामाजिक लक्ष्य अपने समक्ष रखने चाहिए और ये लक्ष्य इस विचार से उपजने चाहिए कि हम किस प्रकार का समाज चाहते हैं।'



ये सारे कथन हैं जूलिया वेबर गार्डन के, जो 1946 में प्रकाशित उनकी पुस्तक 'माई कंट्री स्कूल डायरी'से हैं, जूलिया ने इसमें बतौर शिक्षिका अमेरिका में स्टोनीग्रोव नाम के गांव की दुर्गम पहाड़ी पर स्थित स्कूल के अनुभव साझा किए है। इस दौरान उनका चार वर्षों का अनुभव बताता है एक विपन्न ग्रामीण समुदाय अपने स्कूल को सीखने लायक सम्पन्न शैक्षणिक वातावरण में बदल सकता है। यह अनुभव बताता है कि विषम से विषम परिस्थितियों में भी यदि किसी शिक्षक को मौका मिले तो वह क्या कर सकता है! यह कहानी एक तरह से यह पुष्टि करती है कि एक तरफ यदि महंगे भवन, लैब और तमाम तरह की सुख—सुविधाओं हों और दूसरी तरफ कुशल—संवेदनशील शिक्षक हो तो आखिरी में शिक्षक ही भारी पड़ेगा। जूलिया तीस बच्चों की शाला की अकेली शिक्षिका हैं जो एक कमरे की शाला में पहली से आठवीं तक के सभी विषयों को पढ़ाने की जिम्मेदारी तो निभाती ही हैं, अपने बच्चों को कथित बड़े स्कूलों के बच्चों के मुकाबले बेहतर तरीके से जीवन जीने के लिए तैयार भी करती हैं। 

एक अहम बात और! इसे पढ़ते हुए लगता है कि 1940के दौरान स्कूल और शिक्षा की चुनौतियां आज की ही तरह थीं। दूर—दराज के स्कूल इसी प्रकार तरह—तरह के अभाव और गुणवत्ता की कमी से जुझ रहे थे। 

कुछ स्कूल बच्चों में बदलाव लाते हैं। लेकिन, 'माई कंट्री स्कूल डायरी'जिसे एक तरह की कहानी है जिसमें स्कूल समुदाय में बदलाव लाता है। इस डायरी में स्कूल सबको आपस में बांध देता है। इसे पढ़ते हुए लगने लगता है कि स्कूल के नाम पर केंद्रीकृत विशालकाय कारखानों की बजाय छोटे स्कूल की जरुरत है जिसमें शिक्षक वह सब कर पाते हैं जो जूलिया वेबर कर सकीं। और यह भी, 'रास्ता कितना भी असंभव क्यों न लगे, अगर हम उतना ही करें जितना हमें समझ में आ रहा हो तो अगला चरण साफ हो जाता है।'

यह डायरी चार भागों में विभाजित है जिसका हर भागएक वर्ष की तरह है और इस प्रकार वर्ष—दर—वर्ष कुल चार वर्षों का लेखा—जोखा है जिसमें बतौर शिक्षिका जूलिया ने बच्चों को जानने के लिए सीखने की कोशिशों से लेकर एक नई शुरुआत, रचनात्मक हस्तक्षेप, वंचित समुदाय की शक्ति, नई तकनीक, अपना दर्शन और लोकतंत्र में जीने जैसी बातों को एक क्रम दिया है।

इसके बाद अभावग्रस्त व्यवस्था और गरीब—ग्रामीण जीवन के बीच यह शिक्षिका जूलिया एक विनम्र नायिका की तरह आती है जिसे कमजोर—लापरवाह कहे जाने वाले बच्चों से कोई शिकायत नहीं है। वे वेबर बच्चों की पृष्ठभूमि का पता लगाने के लिए उनके घर जाती हैं और परिजनों से बतियाती हैं। फिर हर बच्चे को ध्यान में रखते हुए उसे सिखाने की तैयारी करती हैं। फिर स्कूल की दुनिया को ग्रामीण परिवेश और समुदाय से जोड़ती हैं और यर्थाथ को समझने का माध्यम बनाती हैं। इस शिक्षिका का सामूहिक जीवन चौथे वर्ष में अपनी श्रेष्ठता पर पहुंचा जो बीते तीन वर्षों के अथक संघर्षों के बिना संभव नहीं हो पाता। किंतु, संघर्ष की इस कहानी के पीछे कहीं खीज या निराशा का दूर—दूर तक कोई संकेत नहीं। नतीजा, न्यूनतम साधन और संसाधनों से ही यह एक कमरे का छोटा स्कूल 'सीखने की बड़ी लैब'में बदल जाता है।

पहले दिन की तैयारी के दौरान जूलिया एकल—शिक्षक शाला को अपने लिए बड़े अवसर के तौर पर देखती हैं जिसमें रचनात्मक और लोकत्रांतिक जीवन के लिए बच्चों की तरह करने की संभावना कहीं अधिक होती है।

फिर एक शिक्षिका के तौर पर वे इस प्रकार से सामने आती हैं कि जूलिया योजनाओं को तो बहुत औपचारिक तरीके से तैयार करती हैं लेकिन उसे लागू कराने के मामले में वे बच्चों के साथ अनौपचारिक और दोस्ताना तरीका अपनाती हैं। यह उनके कौशल का ही प्रभाव होता है कि बच्चे लघु—पुस्तिकाएं और स्कूल के सामने फूलों वाले पौधों की छोटी क्यारियां बनाने जैसी पहल खुद करते हैं। इसी तरह, वह बच्चों की आपसी सहभागिता बढ़ाने के लिए 'खजाने की खोज'जैसे खेल तैयार करती हैं और उससे बच्चों में सहयोग की भावना बढ़ाती हैं। यह बताती है कि एक शिक्षक का अपने बच्चों से किस प्रकार का संबंध होना चाहिए।


जूलिया को जब लगता है कि उनके बच्चों के जीवन का अनुभवबेहद सीमित है तो वे उन्हें कई तरह की रुचियों से जोड़ती हैं। वे पैदल यात्रा, पिकनिक, सामूहिक गीत और नाटकों से बच्चों के जीवन को समृद्ध बनाती हैं। इसी कड़ी में बच्चे अखबार भी निकालते हैं। वर्तनी और भाषा की गलतियों को रिकार्ड करने के लिए वे बड़ों बच्चों को एक नई कॉपी बनाने के लिए कहती हैं। बड़े बच्चे इन कॉपियों में गलत के सामने सही वर्तनी दर्ज करते हैं। इसके अलावा नए और कठिन शब्दों को समझने के लिए आपसी चर्चा कराई जाती है और परिणाम यह होता है कि धीरे—धीरे बच्चों की शब्दावली बढ़ती जाती है।       

जूलिया न केवल सभी विषयों को पढ़ाती हैं बल्कि बच्चों में भाषण,खेलकूद, कृषि और हस्त—कला जैसे कौशल विकसित करने में मदद करती हैं। विशेष बात यह है कि जूलिया के बच्चे अपने सवाल अपने मन में नहीं रखने की बजाय एक—दूसरे से पूछते हैं और उन्हें समझने के लिए आपस में चर्चा करते हैं। जूलिया को जब कभी लगता है कि बच्चों के लिए किसी विशेष चीज की जरुरत है तो वे उधार मांगने से भी नहीं झिझकतीं। समुदाय की मदद से ही उन्होंने एक बड़ा पुस्तकालय तैयार किया। इसी तरह, उन्होंने बड़े बच्चों को लकड़ी के खिलौने बनाना सिखाने के लिए बढ़ई को राजी किया। यहां यह बताना महत्त्वपूर्ण है कि जूलिया गांव वालों को स्कूल में लाती हैं और बच्चों से बातचीत कराती हैं। अंत में उन्होंने स्कूल को जीवंत समुदाय का अंग बना दिया। मैंने इस डायरी को इसे उम्मीद के साथ पूरा किया कि एक दिन सभी बच्चों को अच्छे शिक्षक मिलेंगे। 

इस डायरी को पूरा पढ़ने के बाद यही उम्मीद है जिसके कारण शिक्षा—साहित्य में यह पुस्तक आज भी उतनी प्रांसगिक बनी हुई है जितनी सात दशक पहले जब यह लिखी जा रही थी। एक और जरुरी बात यह कि इस डायरी में शिक्षिका का अपने बच्चों के साथ भावनात्मक रिश्ता और उन बच्चों की अपनी—अपनी कहानियां जिस तरीके से खुलती जाती हैं उससे यह पूरा वर्णन एक आकर्षक कथानक में बदल जाता है।

'माई कंट्री स्कूल डायरी'को शिक्षा साहित्य की क्लासिकलपुस्तक माना गया है। पहला छपने के बाद कई साल तक इस पुस्तक का दूसरा संस्करण नहीं आया। फिर अमरीकी शिक्षाविद् जॉन होल्ट के प्रयासों से यह दुनिया भर में चर्चित हुई। यह पुस्तक विशेष तौर पर शिक्षकों के लिए प्रेरणादायी दस्तावेज है। एकलव्य प्रकाशन, भोपाल ने इसे हिंदी में 'मेरी ग्रामीण शाला की डायरी'नाम से प्रकाशित किया। पूर्वा याज्ञिक कुशवाहा ने इसे अंग्रेजी से हिंदी में अनूदित किया।


शिरीष खरे के बारे में: 

डेढ़ दशक की पत्रकारिता में पांच राजधानियों (नई-दिल्ली, भोपाल, जयपुर, रायपुर और मुंबई) में काम का अनुभव। इस दौरान प्रिंट मीडिया की मुख्यधारा के भीतर-बाहर रहते हुए ग्रामीण पत्रकारिता की एक हजार स्टोरी-रिपोर्ट प्रकाशित। ग्रामीण पत्रकारिता में उत्कृष्ट रिर्पोटिंग के लिए प्रेस कौंसिल ऑफ इंडिया की ओर से तत्कालीन उप-राष्ट्रपति मोहम्मद हामिद अंसारी द्वारा पुरस्कृत। लैंगिक-संवेदनशीलता पर सर्वश्रेष्ठ फीचर लेखन के लिए दो बार लाडली मीडिया अवार्ड। प्रतिष्ठित माधवराव सप्रे (भोपाल) और मिनीमाता (रायपुर) पत्रकारिता सम्मान। ‘सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज, नई-दिल्ली’, और ‘रीच-लिली, चेन्नई’ द्वारा फेलोशिप। अन्वेषण (इंवेस्टीगेट) रिपोर्टिंग पर ‘तहकीकात’ नाम से एक पुस्तक। मो. : 9421775247/ 8827190959 ईमेल : shirish2410@gmail.com


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मन की बात और स्वच्छता की ढोंग वाली सरकार ज़रा हम सफाई कर्मियों का दर्द भी सुन लो!

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सुशील मानव 

अंबेडकर महासभा द्वारा सफाईकर्मियों की सीवर में मौत के खिलाफ़ 25 सितंबर को देशव्यापी आंदोलन के आह्वान पर ‘सफाई कर्मचारी यूनियन दिल्ली’ की ओर से जंतर-मंतर पर 25 सितंबर को 11 बजे से एक धरना प्रदर्शन आयोजित किया गया, जिसमें सीवर में मरे मजदूरो के पीड़ित परिवारजनों समेत भारी संख्या में सफाईकर्मी और समाज के अन्य तबके के लोग शामिल रहे। इस प्रदर्शन को कई महिला संगठन, कर्मचारी संगठन और राजनीतिक दलों का समर्थन मिला। कई राजनेताओं और संगठनों के मुखिया ने सफाई कर्मचारी आंदोलन के मंच से वहां मौजूद लोगो को संबोधित किया।


एक सीवर की सफाई में अपना शौहर खो चुकी पूजाने मंच से कहा कि अपने सरकार ने नौकरी तो दिलवाई लेकिन उसकी तनख्वाह महीने के 6 हजार ही मिलते हैं। उसमें मैं अपने घर को चलाऊँ कि बच्चों को पढ़ाऊँ। मैं चहती हूँ किसी भी बहन के साथ ऐसा न हो, न ही किसी के बच्चे अनपढ़ रहें।

लुधियाने से आई ममता ने बताया कि उनके पति की सीवर में डूबने सो मौत हो गई थी। उनके बच्चे अभी बहुत छोटे-छोटे हैं। हमें 6 हजार सैलरी मिलती है, उतने से गुजारा नहीं हो पाता। आखिर कब तक हम बहने सीवरों में अपना आदमी खोते रहेंगे, कब तक अपने बच्चों को लावारिश बनाते रहेंगे। कब तक ये आंदोलन चलता रहेगा? सीवर में जाने का मतलब है अपने घर के लोगों को बेघर करो। बच्चों को अनाथ और अनपढ़ करो।

सीवर में अपना एकलौता बेटा गँवा चुकी एक महिला ने मंच से अपना दुःख, अपनी पीड़ा व्यक्त करते हुए बताया कि मेरा एकलौता बेटा था। पांच हजार रुपए की नौकरी करता था। एक रोज उन लोगों ने हमारे बच्चे को 500 रुपए का लालच देकर सीवर में उतार दिया था, बेटा सीवर में जैसा गया वैसा का वैसा रह गया, निकल भी नहीं पाया। सरकार ने उस वक्त सहायता के वादे तो कई किए थे पर दिया कुछ भी नहीं। हम तिरपाल तानकर रहते हैं। मेरे घर में कमाने वाला कोई नहीं है। दो बच्चियाँ हैं, एक तो अभी बहुत छोटी है और बीमार है। कमाने वाला चला गया अब न तो हमेरे पास रहने का ठिकाना है न खाने का। हम क्या करें कहाँ जाएँ क्या खाएँ?’
वहीं 9 सितंबर 2018 को पश्चिमी दिल्ली के डीएलएफ कालोनी में सीवर की सफाई में मरे सरफराज के पिता ने कहा कि भले ही सरकार ने हमारे बेटे की मौत के मुआवजे में कुछ भी न दिया गया हो फिर भी हम सरकार से विनती करते हैं कि हमारे बेटे की मौत के लिए जो लोग जिम्मेदार हैं उनके खिलाफ वह कड़ी सजा सुनिश्चित करे और उनकी कंपनी को बंद किया जाए। 




वहीं उसी घटना में मरे दूसरे मजदूर विशाल के बड़े भाईअंगद ने मंच से बताया कि उसका भाई पंप ऑपरेटर था उसपर दबाव बनाकर जबर्दस्ती वहाँ भेजा गया। तीन टैंको की सफाई के लिए 6 लोग थे। हर टैंक में दो-दो लोग उतरे। 20-25 फुट गहरा सीवर। जबकि दूसरा जना सीढ़ी पकड़ने के लिए था। सीवर में मेरा भाई घुस गया थोड़ी देर में जब ऑक्सीजन मिलना बंद हो गया तो मेरे भाई की साँस फूलने लगी। जो जना पानी लेने गया था वो लौटकर आया तो उसने विशाल को आवाज दी। वह जवाब नहीं दे सका। चार लोगों ने मिलकर उसे बाहर निकाला तो उस वक्त मेरा भाई विशाल जिंदा था, वो चलकर एंबुलेंस में गया। एंबुलेंस में ऑक्सीजन जैसी कोई सुविधा नहीं थी। उसे मोतीनगर के किसी अस्पताल में ले जाया गया, वहाँ वह लगभग पौना घंटा जिंदा था। वहाँ उसने नर्स को खून दिया है, तीन-चार उलटिंया की हैं, उसके बाद उसे आरएमएल रेफर कर दिया गया, वहाँ जाने तक मेरा भाई जिंदा था। वहाँ उसके साथ उस कंपनी या बिल्डिंग का भी व्यक्ति साथ नहीं गया था। एंबुलेंस उसे आरएमएल के स्ट्रेचर पर छोड़कर चली गई थी। हम लोग साथ में जाते हैं तब तो कोई सुनवाई सरकारी अस्पताल में होती नहीं है। वो तो फिर भी अकेला था। उसकी हर्टबीट बहुत धीमे धीमे आ रही थी। थोडी देर बाद उसकी मृत्यु हो गई। पोस्टमार्टम रिपोर्ट में उसके पेट से डेढ़ सौ एमएल कीचड़ मिला है। मैं सरकार से यही कहना चाहूँगा कि इसकी निष्पक्ष जांच कराई जाए और जो दोषी हो उसके खिलाफ सख्त कार्रवाई हो। 

सफाई कर्मचारी आंदोलन की कोर मेंबर विमल थोराट ने मंच से कहा कि ‘आज सफाई कर्मचारियों की इतनी बड़ी संख्या में मौत इसलिए हो रही है क्योंकि जो ढाँचा है उसे बदलने के लिए सरकार तनिक भी तैयार नहीं है। मनुस्मृति में जिस तरह लिखा गया है उसकी उसी तरह पालन किया जा रहा है। पिछले दस सालों में जो पौने दो हजार मौते हुई हैं उसकी जिम्मेदार सिर्फ और सिर्फ सरकार है। हम किसी से उम्मीद नहीं रखते हैं लेकिन हम उम्मीद रखते हैं हमारी सिविल सोसायटी, जो नागरिक समुदाय है, उसकी आज क्या जिम्मेदारी बनती है,वह अपनी जिम्मेदारी निभाए।

पढ़ें: सीवर में मौत: सर्वोच्च न्यायालय की अवहेलना

वरिष्ठ पत्रकार पी साईनाथ ने मंच से संबोधित करते हुए कहाकि 'सफाई कर्मचारी आंदोलन का सबसे पहला उद्देश्य उस सिस्टम से लड़ना है जो उसके खिलाफ खड़ा है। सम्मान और मानवाधिकार के लिए दुनिया का सबसे बड़ा संघर्ष है ये। और आज मैं इसकी सॉलीडारिटी पर यहाँ इसके साथ खड़ा हूँ। जब हम ये मांग करते हैं कि सीवर की सफाई के लिए विदेशों से मशीने मँगवाइए और इसको खत्म करिए तो सत्ता कहती है कि पैसा नहीं है। नीरव मोदी विजय माल्या और राफेल डील को तीन गुना करने के लिए पैसा है पर इसके लिए पैसा नहीं है। ये आंदोलन जबसे शुरू हुआ तब से मैं इसके साथ हूँ आज भी मैं यहाँ इसके सॉलिडैरिटी के लिए खड़ा हूँ। '

स्वराज पार्टी के नेता योगेंद्र यादव ने कहा कि ‘आज की सभा में मैं सत्या को ढूँढ़ता हूँ। आज से आठ साल पहले सफाइ कर्मचारी आंदोलन ने देश के पाँच शहरों से एक यात्रा की थी, नवंबर 2010 में मावलंकर हॉल दिल्ली में सामाजिक परिवर्तन यात्रा समाप्त हुई थी। उस हॉल के मंच पर एक चार साल की बच्ची भी थी उसका नाम था सत्या। वह मंच पर इसलिए थी क्योंकि उसकी माँ ने संकल्प लिया था कि वो टोकरी उठाना छोड़ देगी।तमिलनाड़ू के आज तक टोकरी और मैला उठाने की व्यवस्था खत्म नहीं हुई। सत्या आज बारह साल की हो गई होगी। मैं सोचता हूँ कि आज क्या करती होगी सत्या? वो स्कूल जाती होगी, मेरे बच्चों कि तरह कंप्यूटर सीखती होगी या कि उसका नंबर भी वहीं लगा होगा, जहाँ उसकी माँ का लगता था। ये सवाल आज देश के सामने है। क्योंकि सीवर में जिसका दम घुटता है वो सिर्फ आपके भाई और पिता, पति दोस्त भर नहीं हैं। ये इस देश का संविधान है जिसका दम घुट रहा है सीवर के अंदर। ये हिंदुस्तान की आत्मा है जिसका दम घुट रहा है सीवर के अंदर। और इसका ईलाज सरकार नहीं अब हम सबको ही मिलकर करना होगा। हमें माँगना नहीं अब मुट्ठी बंद करके आवाज उठानी होगी।’

सीपीआई सासंद डी राजा कहा कि ‘मैं एक सांसद के तौर पर पूरी पार्लियामेंट के सामने ये सवाल उठाता हूँ कि मैनुअल स्कैवेंजिंग का काम अभी तक क्यों जारी है जबकि मैनुअल स्कैवेंजिंग राष्ट्र का शर्म है। सरकार इस काम के लिए टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल क्यों नहीं करती? मैं प्रधानमंत्री मोदी से पूछता हूँ कि क्या सबका साथ आपके लिए सिर्फ एक स्लोगन है और यदि स्लोगन नहीं हो तो आपके राज्य में ये शर्मनाक कार्य करने के लिए दलित क्यों बाध्य हैं? आपको सबके साथ होने की जरूरत नहीं सिर्फ इनके साथ होने की ज़रूरत है। मैं प्रधानमंत्री मोदी से पूछता हूँ कि क्या वे मैनुअल स्कैवेंजर के साथ हैं। कानून में ये मना है लेकिन कानून ही लागू नहीं है। ऐसे कामों को जाति विशेष के लोगों पर दबाव बनाकर उनसे करवाया जाता है। ये मानवाधिकार और जनवाद का सवाल है। इससे मुक्ति का युद्ध जारी रहेगा।’ 



वहीं ऐपवा की महासचिव कविता कृष्णन नेसंबोंधित करते हुए कहा कि ‘मोदी जब भी बनारस के घाटों पर झाड़ू लेकर दिखें उनके पार्टी के समर्थकों को उनसे पूछना चाहिए कि आप झाड़ू लगाने वाले सफाईकर्मियों की मौत पर एक भी शब्द क्यों नहीं बोलते? मैन स्केवेंजिंग को आप आध्यात्मिक अनुभव बताते हैं। जब तक आप इस शर्मनाक काम को खत्म नहीं करते, मैला ढोने की प्रथा खत्म नहीं करते तब तक तो कम से कम स्वच्छता की बात तो मत कीजिए।’

सफाई कर्मचारी आंदोलन के संस्थापक बेजवाड़ा विल्सन नेमंच से ललकारते हुए कहा, ‘मैं देश के सभी नागरिकों की ओर से पूछता हूँ कि पिछले दस साल में 1790 लोग जो मरे हैं उनकी जिम्मेदारी कौन लेगा! गटर में मरे हजारों लोगों का पीड़ित परिवार आज अपनी पीड़ा लेकर यहाँ आया है। देश के प्रधानमंत्री आप चुपचाप बैठ सकते हो पर इस देश का नागरिक चुप नहीं बैठेगा। वो सवाल पूछेगा कि मेरे भाई को किसने मारा? मेरे पिता को किसने मारा? मेरे बेटे को किसने मारा? मेरे पति को किसने मारा?  इतने लोगों की मौत पर कहाँ है आपने मन की बात? आगे आओ और बताओ इस जनता को कहाँ है तुम्हारे मन की बात इन मौतों पर। इस आजाद देश में कोई गुलाम नहीं है हम सब नागरिक हैं। जीने का हक़ हम सबका है आप हमें कैसे मैत दे सकते हो। बंद करो ये सब बंद करो। प्रधानमंत्री ये सब बंद करो। चार साल में हुई तमाम सफाइकर्मियों की मौत पर आपने एक बार बी बयान नहीं दिया। आप की चुप्पी कहती है कि आपमें प्रधानमंत्री की सीट पर बैठने की योग्यता नहीं है। स्वच्छ भारत के लिए 36000 करोड़ रुपया गाँव में और 60,000 करोड़ रुपया शहरों में आप ट्वायलेट बनाने के लिए खर्च करते हैं। हमारे  लिए आपके बजट में सिर्फ पांच करोड़ रुपया होता है। ये क्या नीति है, हम यहाँ यही पूछने के लिए हैं। यू कैन नॉट किल अस लाइक दिस। हम यहाँ पैसे की बात करने के लिए नहीं गरिमा की बात करने, सम्मान की बात करने, बराबरी की बात करने, संविधान की बात करने के लिए आये हैं। पांच हजार साल से हम लोगों ने देश का मैला साफ किया। सबके लिए संविधान एक है। हम अपना जीने का अधिकार लेने यहां आए हैं और ये हक लड़कर लेकर जाएगें।’

सभा को स्वामी अग्निवेश, अरुंधती राय, प्रो तनिका सरकार,प्रो मनोज झा, सीपीआईएमएल के जनरल सचिव दीपांकर भट्टाचार्य, उषा रामानाथन, वृंदा ग्रोवर, न्यूजक्लिक के प्रवीण आदि ने भी संबोंधित किया और सेप्टिक टैंकों में होने वाली मौतों को खत्म करने की माँग की।

सुशील मानव फ्रीलांस जर्नलिस्ट हैं. संपर्क: 6393491351

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काश ! ऐसी पत्नियाँ, बहनें समाज का अधिकतम सच हो जायें!

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ज्योति प्रसाद

क्या आपको मदर इण्डिया फिल्म का अंतिम दृश्य याद है?क्या आपको राधा, जिसका किरदार हिंदी सिनेमा की अदाकारा नरगिस ने निभाया था, याद है? महबूब खान द्वारा निर्देशित यह फिल्म सन् 1957 में प्रदर्शित हुई थी. इसी फिल्म से अंग्रेज़ी टर्म ‘मदर इण्डिया’ इतना लोकप्रिय हुआ कि सबकी ज़ुबान पर आज तक मौजूद है. लेकिन अगर कोई ‘मदर इण्डिया’ का अनुवाद ‘भारत माता’ टर्म से करे तो खटका होगा. पर इस फिल्म को अमरीकन लेखिका कैथरीन मायो द्वारा लिखित किताब ”मदर इण्डिया”(1927) के जवाब में यह नाम मिला था. मायो ने भारतीय समाज को निशाना बनाया था. खैर यह शोध का क्षेत्र भी है. इस पर बात आगे कभी होगी.
कोई शक़ नहीं कि इस फिल्म की सफलता का आलम यह है कि मैं इस फिल्म का ज़िक्र आज कर रही हूँ. इस फिल्म को इस समय याद करने के पीछे का कारण एक अमानवीय दुर्घटना है. फिल्म के अंत में मुख्य किरदार राधा की बंदूक से एक गोली निकलती है और एक युवती को उठाकर भाग रहे बेटे के सीने में जाकर अपना ठिकाना पाती है. वास्तव में यह दृश्य उस इंसानियत से जुड़े मूल्य के बारे में भी बताता है, जिसे आजकल के दौर में लोग ठीक से जानते तक नहीं. यहाँ यह स्पष्ट हो कि किसी की जान लेने को इंसानियत नहीं कहा जा रहा.



हालाँकि इस फिल्म में इसी दृश्य की आलोचना भी बहुत हुई है. कुछ आलोचकों का कहना है कि राधा का अपने बेटे को ‘इज्जत’ की बात कहते हुए गोली से मारना यह बताता है कि औरत के शील या सती होने की जो परम्परा है वह बरक़रार रहेगी. इज्जत से ही औरत को चिपका कर रखा जाएगा. और मौजूदा पम्परा यही चाहती भी है. लेकिन इस दृश्य को ऐसे देखे जाने की एक छोटी मांग तो की ही जा सकती है जिसमें गलत को गलत देखा जा रहा है. रेवाड़ी में अमानवीय बलात्कार में पकड़े गए आरोपियों में से एक आरोपी की पत्नी ने कुछ ऐसा ही काम किया है. वह पति का घर छोड़ कर जा चुकी है. उसने अपना सम्बन्ध भी ख़त्म कर लिया है.

गलत और सही की अगर अपनों के बीच ही निशानदेही करनी पड़ जाए तो किसे चुना जाए? आधुनिक समय में लोगों को इसमें कोई ख़ासी मशक्कत करते हुए नहीं देख पा रहे हैं. रिश्तों के पलड़े भारी पड़ ही जाते हैं. दिल्ली में हुई निर्भया घटना पर जब इंडिया’ज़ डॉटर (निर्देशित-लेज़ली उडविन 2015) नामक फिल्म बनाई गई तब अपराधियों के परिवार वालों से फैसले पर बात की गई. तब एक परिवार की युवा (युवती) रिश्तेदार ने कहा कि गलती तो उस लड़की की ही थी. रात में ऐसे कपड़े पहनकर नहीं निकलना चाहिए था. इसके बाद उन्होंने तमाम तर्क दिए अपनी बात को रखने के बाद.

इस युवा युवती या इस तरह की तमाम महिलाओंको अपने बेटे, पति या पिता पर आरोप/अपराध साबित हो जाने के बाद भी बचावकर्ता की भूमिका में देखना बहुत हैरान करने वाला व्यवहार नहीं लगता. यह सोच सिर्फ एक दिन में नहीं बनी है. इस सोच को महिलाओं के दिमागों में बाकायदा गढ़ा गया है. ऐसे बहुत से उदाहरण हैं/होंगे जहां वे विरोध में रही हैं/होंगी. लेकिन इस तरह के उदाहरणों की संख्या कम ही दिखती है जब बात बलात्कार जैसे जघन्य अपराध की आती है.

रेवाड़ी में युवती से सामूहिक बलात्कार में शामिलएक अभियुक्त (सेना का जवान)  की पत्नी ने पति से अपने रिश्ते को खत्म करते हुए कहा कि उसे कोई भी सज़ा मिले उसे इससे कोई मतलब नहीं. इसी अभियुक्त की बहन ने गिरफ्तारी से पहले पुलिस के सामने समपर्ण करने की बात भी कही थी. यह कई मायनों में साहस का का परिचय है. इसी साहस से मूल्य तय होते हैं. जब कोई कहता है कि गलत तो गलत होता है तब इसका मतलब कठिन हालातों में भी गलत को पहचान कर गलत कहने का साहस है.

आज के समय में क्या इस तरह के बयान हमारे आसपास कीअन्य महिलाओं के बर्ताव में दिखते हैं? किसी भी तरह के आरोप में पकड़े जाने पर वकील से पहले बचावकर्ता की भूमिका में परिवार के लोग पहले दिखाई देते हैं. अपने व्यक्ति या रिश्ते के साथ खड़े होना गलत नहीं है. पर यदि रिश्ते से जुड़ा व्यक्ति गलत कर रहा है, यह जानते हुए भी उसके साथ खड़े होना खटकता है. 

आज भी टीवी पर जब तब ‘मेरा पति मेरा देवता है टायप की फिल्में रोज़ आती रहती हैं. एक तो गीत भी है. “भला है बुरा है, कैसा भी है मेरा पति मेरा देवता है..!” वास्तव में यह खतरनाक सोच है. यदि व्यक्ति भला है तो ज़िन्दगी की गाड़ी चल भी सकती है. बुरा होने पर कैसे? यह परम्परा में दिया गया है. माएं, बहनें, बेटियां और पत्नियों के ये सब रिश्ते सामाजिक तौर पर बनाये गए हैं और इनका एक ख़ास तरह का चरित्र गढ़ा गया है. निष्ठा का कोण जोड़ा गया है. किसी भी पत्नी को पति के ख़राब चरित्र को अपनाते हुए साथ रहने के निर्देश दिखाई पड़ते रहते हैं.

मुजफ्फरपुर शेल्टर होम रेप मामले में मुख्य आरोपी की पत्नी और बेटी बचाव की मुद्रा में टीवी पर सरेआम बयान देती दिखाई दे रही थीं. वे दोनों अपने पति और पिता के भरसक बचाव में आकर नाबालिग सरवाईवर लड़कियों को कोसने का मौका नहीं छोड़ रही थीं. यह हैरान कर देने वाला मामला भी था क्योंकि सरकार के नाक के नीचे कम उम्र की बच्चियों का बड़ी संख्या में बलात्कार और शोषण हुआ. इसकी पुष्टि भी हुई. कई बड़े नाम उजागर भी हुए. इस सब के बावजूद आरोपी की बेटी और पत्नी ने टीवी डिबेट में हिस्सा लेते हुए अपने रिश्ते का बचाव किया.

हर बात पर अमरीका का उदाहरण दिया जाता है.लेकिन उसी अमरीका के पूर्व राष्ट्रपति को उनके ही दफ्तर में काम करने वाली इंटर्न से यौन संबंधों के कारण महाभियोग भी झेलना पड़ा था. उनकी पत्नी और बेटी ने समय समय पर अनुकूल बातें रखीं पर कभी खुलकर स्टैंड नहीं लिया. वहीं दूसरी तरफ युवा इंटर्न युवती को एक ऐसी ज़िन्दगी मिली जहां वह ‘शेम’ को झेलती रहीं. बाद के बयानों में उन्हों ने कहा कि कई बार तो उन्हों ने आत्महत्या करने तक की बात भी सोची थी.   

परिवारों में अच्छी बेटी, पत्नी, माँ, बहन बनने के गुरबचपन से सिखाये जाते रहे हैं. यह एक तरह का प्रशिक्षण होता है. लेकिन इस दिशा में बहुत से नैतिक मूल्य कमरे की चटाई में दबा भी दिए जाते हैं या दबाये जा रहे हैं. यह प्रक्रिया लम्बे समय से चल रही है. इसका अंजाम यह है कि कई बार हमारी नज़रों को गलत भी गलत नहीं लगता. पत्नी को कभी स्वतंत्र व्यक्ति जैसे नहीं सोचा जाता. ठीक इसी तरह बहनों, माँ और बेटी को भी. उनकी भूमिका आश्रिताओं की है. उदाहरण के लिए स्कूल, कॉलेजों या दोस्तों के बीच में जब माँ का ज़िक्र आता है तब उनके हाथ के खाने का ज़िक्र किया जाता है. कई बार मैंने दोस्तों के बीच अपनी माँ की जो छवि रखी वह यह- “माँ पढ़ी लिखी नहीं हैं पर घर के खर्चों का न जाने कैसे इतने शानदार तरीके से हिसाब रख लेती हैं!” लेकिन अब यह पंक्ति मुझे चुभती है. क्योंकि उन्हें इस छवि से बहुत समय तक मैंने बाहर देखने की कोई अच्छी कोशिश नहीं की थी. घर और रसोई में कैद कर माँ को पवित्र बना देना एक वैचारिक पाप लगता है.   

रेवाड़ी गैंग रेप के अभियुक्त 


कस्बों से जब तब उदाहरण लेकर बात को पुख्ता करने सेबेहतर शहरों में भी एक नज़र डाल लेनी चाहिए. बहुत पहले किसी साहित्यिक प्रदर्शनी में जाना हुआ था. वहां किसी बड़े सरकारी ओहदे में कार्यरत महिला से मुलाक़ात हुई थी. उनके कपड़ों, विचारों, भाषा से वह बड़े घराने से मालूम लग रही थीं. वह किसी परिचित से मरी हुई ख़ामोशी से एक बात कह रही थीं. जो बात मुझे समझ आई उसे सुनकर दो मिनट मेरा मुंह खुला ही रह गया था. बात यह थी कि उनकी बेटी पढ़ाई के लिए किसी विदेश के विश्वविद्यालय जाना चाह रही थी. लेकिन उनके शौहर इस बात के लिए राज़ी नहीं थे. जबकि वह खुद चाहती थीं कि बेटी को अव्वल दर्जे की तालीम मिले. ऐसा नहीं था कि पिता पढ़े लिखे नहीं थे. उनकी बातों से पता चला कि वे काफी पढ़े लिखे थे और अच्छी पोस्ट पर कार्यरत थे. इस सब के बावजूद वह लड़की को स्वतंत्र व्यक्तित्व बनाने के बजाय बेटी बनाकर घर के आँगन की तुलसी बनाना चाह रहे थे. शहरों और कस्बों में इन फिक्स छवियों में रहने वाली पढ़ी लिखी और न पढ़ी लिखी कई महिलाएं साँस लेती नज़र आ जाएँगी.

इसलिए रेवाड़ी रेप की घटना में अभियुक्त की पत्नीऔर बहन का बयान वास्तव में इसी फिक्स छवि के खिलाफ़ खड़े मूल्य हैं. खुद को एक स्वतंत्र व्यक्ति के रूप में तो वे रख ही रही हैं साथ ही दमदार फैसले लेने से वे अन्यों के सामने उदाहरण भी रख रही हैं. यह हर व्यक्ति के अन्दर का गुण है. वह सही और गलत में फर्क कर सकती/सकता है. गौर कीजिये, हमारे अन्दर प्रकृति ने सही और गलत को अलग करने की एक क्षमता दी है. उदाहरण के लिए अपने शरीर का खयाला रखना या बचाव की मुद्रा में रहना हम खुद से जानते हैं. एक उदहारण यह भी है कि सामने से आते हुए पत्थर को देखकर हम तुरंत अपने को बचाते हैं. क्योंकि हमें यह सेन्स जन्मजात मिला है कि पत्थर लगने से हमें चोट लगेगी. दर्द होगा. खून बहेगा. हमने यहाँ अपने बचाव को सही माना है. इसके उलट अगर हम घायल हो जाते हैं तो हमें उस व्यक्ति या उस कारण पर गुस्सा आता है जिसके चलते यह दुःख मिल रहा है. ऐसा नहीं है कि महिलाएं अपने पुरुष साथी/बेटे/भाई की गलत बातों या हरक़तों को जानती नहीं. वे बखूबी जानती हैं समझती हैं. पर कुछ ही एक स्टैंड लेती हैं. यह गिनती लगातार बढ़ भी रही है. 
समय की लम्बी अवधि में हमारे व्यक्तित्व पर व्यवहार से जुड़ी परतें जमाई गई हैं. हम लड़कियों के साथ यही हुआ है. लड़कों में शक्ति के आभास को पूरी तरह से पचाकर रखने और उसके इस्तेमाल की परत चढ़ाई गई है. आज से कुछ ही वर्ष पहले यदि किसी औरत के साथ रेप की जघन्य घटना घट जाती थी तब वह घटना अँधेरे में कहीं ऐसे दफ्ना दी जाती थी जिसका पता ही नहीं चलता था. कारण यह रहता था- “इज्जत का सवाल है. लड़कियां/औरतें इज्जत हुआ करती हैं.” यह पूरा खयाल ही ज़माने की पैदाइश और परवरिश है. आज भी कई केस दर्ज नहीं होते. उसके पीछे मौजूद कई वजहों में से यह एक है-इज्जत!

बहुत पहले मेरा सामना एक ऐसे परिवार से हुआ था जहाँ बेटा/भाई प्रेम विवाह कर के एक घूँघट वाली पत्नी लाया था. लेकिन वही भाई अपनी बहन के प्रेम प्रसंग का ख़याल तो दूर वह दहलीज़ पर खड़े होते हुए भी नहीं देख सकता था. जब माँ से बात हुई तब वह थोड़ा ख़ुशी से ही बोलीं- “अब लड़के की अपनी पसंद है. नया खून है. हम क्या ही लगाम लगाएं!” बहुत दिन बाद जब फिर से इसी माँ से मुलाक़ात हुई तब वह थोड़ा दुखी होती हुई बेटी के संदर्भ में बोलीं- “का बतावे कैसे हैं! लड़की के लिए लड़का ये(पति) खोज खोज कर थक गए. मिल ही नहीं रहा..!” जब मैंने उनकी बेटी पर नज़र डाली तो लगा कि वह बेजान है. जैसे किसी ने उसकी सांस पर कब्ज़ा जमाया हुआ है. माँ, बेटी और घूँघट वाली बहू में एक तार तो जुड़ा ही है. वह यह कि परम्परा में उनके चित्र पहले से ही तैयार हैं. पर इन तैयार चित्रों में विरोध की हलचल कई बार नहीं दिखती. लेकिन इस हलचल की उम्मीद बनी जरुर रहती है.       

जब-जब बलात्कार जैसी अमानवीय घटनाएं हुई हैंतब तब अजीबों गरीब बयानों की बौछार हुई है. कई राजनीतिक दलों ने सत्ता भी इन्हीं दुर्घटनाओं को मुद्दा बनाकर हासिल की है. रात को लड़कियों को घर से बाहर नहीं निकलना चाहिए, लौंडे हैं, गलतियाँ हो ही जाती हैं, छोटे छोटे कपड़े पहनकर क्यों बाहर निकलती हैं...ये सब बयान उन लोगों की ओर से आये हैं जिन्हें जनता ने अपना प्रतिनिधि चुना है. पिछले साल ही हरियाणा में एक बड़े अधिकारी की बेटी को रात में चंडीगढ़ में जबरन उठाने की कोशिश की गई. जिन आरोपियों ने यह किया वे नेताओं के बेटे थे. लेकिन हैरानी इस बात की है कि इस सब को जानते हुए भी उनकी माएं या बहनें किसी तरह के विरोध में बयान देने सामने नहीं आईं. पत्नी का बयान एक बहादुरी जैसा ही काम है.

बहुचर्चित केस नितीश कटारा हत्याकांड में परिवार के दबाव मेंआकर भारती यादव अपने परिवार के लिए ही एक ऐसा बयान दे गईं जो नितांत कमजोर रहा. वे अपने और नितीश के तमाम संबंधों को नकारते हुए सच का साथ नहीं दे पाई. यह भी है कि उन पर उनके परिवार का भावुक दबाव भी रहा होगा. आज नितीश कटारा की माँ अपने एक वक्तव्य में यह कहती भी दिखती हैं कि उन्हें यकीन नहीं होता कि उनके बेटे ने एक कमजोर लड़की को चुना था. भारती यादव ने अपने बयान में कहा था कि वह और नितीश सिर्फ दोस्त थे और उनके खुद के भाई किसी का खून नहीं कर सकते. उनके भाई उनका बहुत ख्याल रखते हैं. इन बयानों के बाद भी उनके भाई को पच्चीस साल की सजा हुई. हालाँकि तस्वीर का दूसरा पहलु यह भी है कि खुद भारती यादव अपने परिवार की शिकार थीं. उन्हें किसी को प्यार करने का या खुद का साथी चुनने का हक भी नहीं था. लेकिन दूसरी तरफ नीलम कटारा और सबरीना लाल जैसे मजबूत उदाहरण भी हैं जिन्होंने अपने लोगों के इंसाफ के लिए सच को थामे रखा और इंसाफ को पाया भी.

रेवाड़ी रेप में शामिल अभियुक्त की शादी पिछले साल ही हुई है.अपने को बलात्कारी पति से अलग कर लेने वाली उसकी पत्नी अब गर्भवती भी है. वह अपने पिता के घर पर है. उसने यह बयान अपने कठिन हालातों में दिया है. उसने यह साफ किया है कि वह कहाँ खड़ी रहना चाहेगी. उसने अपने पति के रिश्ते को ही ख़ारिज कर दिया है. यह बहुत आसान भी नहीं है. क्योंकि शुरू में वह पिता के घर में आश्रिता थी. शादी के बाद पति पर. और अब पति के जेल चले जाने पर वह फिर से पिता के घर में है. दूसरों पर निर्भरता दयनीय अवस्था होती है. इन सब हालातों के बाद भी उसका यह फैसला तारीफ के काबिल है. हालाँकि इसके बाद भी राह आसान नहीं है. अपने आर्थिक आधार की खोज उसे बच्चे के जन्म के बाद से ही शुरू करनी होगी. उसे उस माहौल में आगे गूंजने वाली आवाजों और तानों से भी दो चार होना होगा जो उसे और उसके परिवार को मिलेंगे.

शब्दों के तेजाब उगलता समाज और उसकी जुबान मरने मारने की तैयारी के साथ दिखती है. न्याय की डगर पहले से ही बहुत कठिन है. सरकारों का लचर रवैया ऐसा है कि वे गेस्ट अपिर्यंस देती है. आनन-फानन में जाँच के आदेश दिए जाते हैं. मामला मिडिया में उछला तो कारवाई की टॉफी थमा दी जाती है. सरकार के खुद के अभियान भी ऐसे नाम वाले हैं कि हज़ार साल पीछे चल रहे हैं. वास्तव में “बेटी बचाव बेटी पढ़ो अभियान” की बखिया उधेड़ती यह अमानवीय घटना सभी योजनाओं की पोल खोल देती है. हाल ऐसा नहीं कि संतोष कर के बैठ सकें. पर इस औरत ने सर्ववाइवर की तरफ  खड़ा होना बेहतर समझा बल्कि अपने लिए भी एक स्टैंड लिया. कुछ फैसले कठिन होते हैं. पर वे गलत और झूठ के साथ खड़े होने से लाख गुना बेहतर होते हैं. महिलाओं को ऐसे फैसले लेने ही होंगे. ये जरुरी हैं.   

ज्योति प्रसाद जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में शोधार्थी हैं, समसामयिक मुद्दों पर लिखती हैं. 

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राजनीति का अपराधीकरण और अपराध का राजनीतिकरण

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अरविंद जैन

सुप्रीम कोर्ट के पाँच न्यायमूर्तियों (दीपक मिश्रा, नरीमनखानविलकर, धनन्जय चंद्रचूड, इंदु मल्होत्रा) की संविधान पीठ का निर्णय (25.9.2018) है कि अदालत उन अपराधियों को जिनके मुकदमें लंबित हैं और आरोप भी तय हो चुके हैं , चुनाव लड़ने से नहीं रोक सकती। तर्क यह कि  न्यायशास्त्र की निगाह में जब तक दोष सिद्ध ना हो, तब तक हर अभियुक्त निर्दोष माना-समझ जाता है..जाना चाहिए।हाँ! सरकार/ संसद चाहे तो कानून बनाये। बनाना चाहिए।बनाती क्यों नहीं? राजनीति में अपराधिकरण को रोकने/कम करने के लिए, सुप्रीम कोर्ट ने सरकार और चुनाव आयोग को एक बार फिर से दिशा निर्देश जारी किए हैं, बशर्ते वो सब ईमानदारी से लागू हों।


उल्लेखनीय है कि राजनीति में अधराधियों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। 2004 में जहाँ 24%  आपराधिक पृष्ठभूमि के सांसद थे, वो 2009 में 30% और 2014 में बढ़ कर 34% हो गई।ऐसे नेताओं को संसदीय लोकतंत्र से दूर रखने की जिम्मेवारी संसद की है, मगर ज़मीनी हक़ीक़त यह है कि राजनीतिक दलों पर इनकी पकड़ इतनी मजबूत है कि उनके बिना सत्ता और चुनाव की राजनीति संभव नहीं।

वस्तुस्थिति यह भी है कि सब कुछ जानते हुएभी मतदाताओं ने आपराधिक छवि वाले नेताओं को भी, भारी बहुमत से जीतने दिया है। धनबल, बाहुबल के अलावा सामंती संस्कार और जातीय वर्चस्व के सामने मतदाता अभी भी कितना कमजोर और असहाय है, महानगरों के वातानुकूलित ड्राइंग रूम में बैठ कर इसका अनुमान तक लगाना मुश्किल है। अनपढ़, गरीब-ग्रामीण क्या करे, किससे कहे।

सच है कि बिना राजनीतिक संरक्षण के, आवारा पूँजी,धर्म और अपराध के विषवृक्ष कैसे फलते-फूलते! महँगे चुनावों का आर्थिक बोझ कौन उठाएगा! बाहुबली जो पहले नेताओं का पीछे से समर्थन करते थे, बाद में खुद राजनेता बन कर उभरने लगे। साम्प्रदायिक राजनीति के दौर में मंदिर- मस्जिद और मठों की भूमिका भी, निरंतर निर्णायक होती चली गई।

पिछले तीस-चालीस सालों में प्रमुख राजनीतिक दलों और ज्यादातर धार्मिक संस्थाओं (बाबा,गुरु,संत, महंत, स्वामी) के पास हजारों करोड़ की संपत्ति जमा हो गई है। कारण- धार्मिक संस्थाओं और राजनीतिक दलों को आयकर से पूरी छूट। इन्हें दान देने वालों को, दान के पचास प्रतिशत पर आयकर से छूट। अक्सर कालाधन भी रातों-रात सफ़ेद। धीरे-धीरे अधिकांश धार्मिक संस्थाओं में व्यवसायीकरण और राजनीतीकरण के साथ-साथ अपराधीकरण भी बढ़ता गया। सिद्ध-प्रशिद्ध धार्मिक बाबा,गुरु,संत, महंत, स्वामी और धर्माचार्यों के सामने, बहुत से मंत्री-मुख्यमंत्री और अफसर चरण वंदना करते पाये गये, सो सत्ता संरक्षण के अलावा समाज में इनका मान-सम्मान भी बढ़ा और भारतीय मध्यम वर्ग की अंधभक्ति या अटूट आस्था-विश्वास भी।

देखते-देखते राजनीति में धर्माचार्यों का हस्तक्षेप और राजनेताओं द्वारा चुनाव की राजनीति में धर्म का इस्तेमाल भी बढ़ता गया। परिणामस्वरूप अशिक्षित, निर्धन, दलित और असहाय आम जनता का हर तरह से शोषण और उत्पीड़न लगातार बढ़ता जा रहा है। देश में हर पांचवे साल बिछती है चुनाव की चौपड़ और ‘नोट के बदले वोट’ में देखते ही देखते नीलाम हो जाता है, दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र-प्रजातंत्र.

आपराधिक गिरोहों या माफिया से सम्बद्ध मध्यम वर्ग कीउद्दाम महत्वाकंक्षायें, बिहार-गुजरात में हत्यारी सिद्ध हुई हैं और राजधानी में आत्मघाती। उद्दाम महत्वाकंक्षाओं का मारा मध्यमवर्ग, अपने शिक्षित-शहरी प्रतिनिधियों को आगे कर (अपराधियों को पीछे से सक्रिय) ‘हल्लाबोल’ रणनीति से अब, किसी भी तरह खुद सत्ता पर काबिज़ होना-रहना चाहता है.  नारा कुछ भी.... भ्रष्टाचार... महंगाई... बदलाव....युवा सपनों को इन्द्रधनुषी आसमान दिखा कर सत्ता पाओ-हथियाओ! हमारा नेता जिंदाबाद ...जिंदाबाद..!

आम आदमी के दिमाग में यह धारणा काई की तरहजमती जा रही है कि हर संभव लूट-खसोट, भृष्टाचार, आरक्षण, दंगे-फसाद, आंदोलन- प्रदर्शन, भारत बंद, रेल रोको और रक्षा अभियानों की कामयाबी के लिए, साधन संपन्न बाहुबलियों और संगठित दबंगों की मदद अपरिहार्य है। इसे रोकना आसान नहीं है,श्रीमान! हैरान-परेशान होने से कोई लाभ नहीं।

राजनीति के अपराधीकरण के बारे में अधिक विस्तारमें जानना हो तो एन. एन. वोहरा समिति की रपट (1993) पढ़ लें कि कैसे आपराधिक गिरोहों ने राजनीति और भृष्ट नौकरशाही को धनबल से अपने शिकंजे में जकड़ रखा है और एक समानांतर सरकार चला रहे हैं।सुप्रीम कोर्ट ने भी अपने निर्णय में इस रपट का उल्लेख किया है।



प्रतिशोध और प्रतिहिंसा के राजनीतिशास्त्र में, आतंक, हत्या और खून-खराबा यानी अपराध अवश्यम्भावी है। महात्मा गांधी से लेकर दीनदयाल उपाध्याय, प्रताप सिंह कैरो और ललित नारायण मिश्रा इंदिरा गांधी, राजीव गांधी व अन्य तक की हत्या भी तो, उसी हत्या की आपराधिक राजनीति का ऐतिहासिक अध्याय है। हत्यारा भी हमेशा, घटनास्थल पर नहीं होता। रिमोट कंट्रोल का ज़माना है-कभी भी, कहीं भी हिंसक और हत्यारी भीड़ या भाड़े के अपराधी बर्बर अपराधों को अंज़ाम दे सकती है।

पिछले कुछ सालों में निर्दोष बुद्धिजीवियों की हत्या और बढ़ते अभिव्यक्ति के खतरे भी राजनीति के अपराधिकरण का ही परिणाम है। आश्चर्य जनक है कि अधिकांश  अपराधी नेता जमानत पर हैं या फरार (भगोड़े) या कानून की पकड़ से परे अभेद्य विदेशी किलों में सुरक्षित। आपराधिक छवि वाले राजनेताओं के विरुद्ध भारतीय अदालतों में ही, कितने ही संगीन मुकदमें दशकों से लंबित पड़े हैं? पूछो तो फण्ड नहीं, जज नहीं , पद खाली पड़े हैं, भवन नहीं, कंप्यूटर नहीं, स्टाफ नहीं आदि..आदि की लिस्ट सामने है। मतलब यह कि आई बला को दूसरों की तरफ धकेलो और यथास्थिति बनाये-बचाये रखो।

अपराधी राजनेताओं के बचाव के लिए, प्रतिबद्ध वकीलराजनेताओं/सांसदों की भी कोई कमी नहीं। आज (25.9.2018) ही सुप्रीम कोर्ट ने एक ओर फैसले में कहा है कि वकील सांसद या विधायक वकालत भी कर सकते हैं, क्योंकि वो पूर्णकालिक लोक सेवक नहीं कहे -माने जा सकते। हम सब जानते हैं कि (तथाकथित) अपराधी संसद के मुख्यद्वार से ही नहीं, चोर दरवाजों से भी तो प्रवेश करते ही रहे हैं। जब सम्पूर्ण राजनीतिक व्यवस्था अपराधियों के सम्मान में, सुरक्षा कवच की तरह 'बचाव पक्ष'बन कर खड़ी हो, तो राजनीति को अपराधीकरण से आखिर कैसे बचाया जा सकता है!

लेख लिखते-लिखते सुप्रीम कोर्ट का लोक प्रहरीमामले में एक और नया फैसला/व्याख्या  (न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा, खानविलकर और धनन्जय चंद्रचूड) आ गया है कि "दोषसिद्धि पर स्टे से बहाल हो सकती है संसद सदस्यता"पाठक याद करें लिली थॉमस बनाम भारत सरकार (2013) जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि सदस्यता उसी दिन से समाप्त मानी जायेगी जिस दिन सज़ा का आदेश हुआ। अब कानून के किले में न्यायशास्त्र का नया 'चोर दरवाज़ा'या रोशनदान बना-बनाया गया है कि अपील में सज़ा पर स्थगन आदेश से, सारे दाग धुले मानें जाएंगे। है ना, कानून की चमत्कारी परिभाषा  (सर्फ या साबुन टिकिया)!

बेशक़ अपराधियों के बचाव में अक्सर, राजनीतिक विवशताआड़े आती रही है...रहेगी।सरकार,संसद और राजनीतिक दलों की अपनी-अपनी विवशता भी है और सीमा भी। सुप्रीम कोर्ट भी 'लक्ष्मण रेखा'नहीं लांघ सकती। खैर...बहस के लिए निर्णय पढ़े-सोचें- समझे- आगे क्या? मौजूद समय में भारतीय समाज की मूल चिंता यह है कि  पूँजी-धर्म-अपराध और राजनीति के अटूट महागठबंधन कब और कैसे टूट पाएंगे!

अरविंद जैन स्त्रीवादी अधिवक्ता हैं. सम्पर्क: 9810201120

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केंद्र सरकार के न चाहने पर भी सुप्रीम कोर्ट ने खत्म की व्यभिचार की धारा: महिला विरोधी थी यह धारा

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स्त्रीकाल डेस्क 

केंद्र सरकार के न चाहने के बावजूद सुप्रीम कोर्ट में पांच जजों की संविधान पीठ ने गुरुवार को भारतीय आचार दंड संहिता (आईपीसी) की धारा (व्यभिचार) को हटा दिया है. 158 साल पुरानी इस धारा पर फैसला सुनाते हुए देश के प्रधान न्यायाधीश  दीपक मिश्रा ने कहा, "यह अपराध नहीं होना चाहिए."  कोर्ट ने कहा कि इसमें कोई संदेह नहीं कि यह तलाक का आधार हो सकता है लेकिन यह कानून महिला के जीने के अधिकार पर असर डालता है. कोर्ट ने कहा कि पति महिला का मालिक नहीं है और जो भी व्यवस्था महिला की गरिमा से विपरीत व्यवहार या भेदभाव करती है, वह संविधान के अनुकूल नहीं है. जो प्रावधान महिला के साथ गैरसमानता का बर्ताव करता है, वह असंवैधानिक है. कोर्ट ने कहा कि यह कानून महिला की चाहत और सेक्सुअल च्वॉयस का असम्मान करता है. चीफ जस्टिस ने कहा कि यदि व्यभिचार की वजह से एक जीवनसाथी खुदकुशी कर लेता है और यह बात अदालत में साबित हो जाए, तो आत्महत्या के लिए उकसाने का मुकदमा चलेगा. कोर्ट ने कहा कि पुरुष हमेशा फुसलाने वाला, महिला हमेशा पीड़िता - ऐसा अब नहीं होता.





क्‍या थी धारा 497 
आईपीसी की धारा निरस्त धारा के अनुसार  497 के तहत अगर शादीशुदा पुरुष किसी अन्‍य शादीशुदा महिला के साथ संबंध बनाता है तो यह अपराध है. लेकिन इसमें शादीशुदा महिला के खिलाफ कोई अपराध नहीं बनता है.
धारा को इन शब्दों में पढ़ा जा सकता है: 

Whoever has sexual intercourse with a person who is and whom he knows or has reason to believe to be the wife of another man, without the consent or connivance of that man, such sexual intercourse not amounting to the offence of rape, is guilty of the offence of adultery, and shall be punished with imprisonment of either description for a term which may extend to five years, or with fine, or with both. In such case the wife shall not be punishable as an abettor.

कोई भी व्यक्ति किसी ऐसी स्त्री से, जो दूसरे की पत्नी हो, या वह व्यक्ति यह जानता हो या विश्वास करता हो कि वह दूसरे की पत्नी है, बिना उसके पति की अनुमति या सहयोग के, शारीरिक संबंध बनाता हो और ऐसा शारीरिक सम्बन्ध यदि बलात्कार न हो तो वह ऐडलटरी, व्यभिचार, जारकर्म का दोषी है. वह 5 सालों तक की सजा, या आर्थिक दंड, या दोनो का, भागी होगा. और वह पत्नी अपराध की सहभागी की तरह दंड की पात्र नहीं होगी.

व्याख्या से स्पष्ट है कि कथित व्यभिचार में शामिल महिलाके पति के चाहने पर ही उसमें शामिल पुरुष पर मुकदमा हो सकता है. यानी सहमति से स्त्री संबंध रख सकती थी.  इस कानून के तहत अगर आरोपी पुरुष पर आरोप साबित होते है तो उसे अधिकत्‍तम पांच साल की सजा हो सकती है. इस मामले की शिकायत किसी पुलिस स्‍टेशन में नहीं की जाती है बल्कि इसकी शिकायत मजिस्‍ट्रेट से की जाती है और कोर्ट को सबूत पेश किए जाते हैं.

केन्‍द्र सरकार ने दी थी ये दलीलें 
केंद्र सरकार ने IPC की धारा 497 का समर्थन किया था. केंद्र सरकार ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट भी ये कह चुका कि जारता विवाह संस्थान के लिए खतरा है और परिवारों पर भी इसका असर पड़ता है.
केंद्र सरकार की तरफ असिस्टेंट सोलिसिटर जनरल पिंकी आंनद ने कहा था अपने समाज में हो रहे विकास और बदलाव को लेकर कानून को देखना चाहिए न कि पश्चिमी समाज के नजरिये से.

पढ़ें: असीमित व्यभिचार का कानूनी दरवाजा: बहन के नाम वकील भाई की पाती

फैसले की मुख्य बातें: 
सुप्रीम कोर्ट ने कहा- किसी पुरुष द्वारा विवाहित महिला से यौन संबंध बनाना अपराध नहीं
सुप्रीम कोर्ट ने व्यभिचार कानून को बताया असंवैधानिक , कहा-चीन, जापान, ब्राजील में ये अपराध नहीं
चीफ जस्टिस ने कहा-व्यभिचार  कानून महिला के जीने के अधिकार पर असर डालता है.
चीफ जस्टिस ने कहा-इसमें कोई संदेह नहीं कि व्यभिचार तलाक का आधार हो सकता है, मगर यह अपराध नहीं हो सकता
चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा ने कहा - भारतीय संविधान की खूबसूरती ये है कि ये I, me and U को शामिल करता है
सुप्रीम कोर्ट ने कहा-जो भी सिस्टम महिला की गरिमा से विपरीत या भेदभाव करता है वो संविधान के गुस्से को आमंत्रित करता है. जो प्रावधान महिला के साथ गैरसमानता का बर्ताव करता है वो अंसवैंधानिक है
पांच में से दो जज  व्यभिचार कानून को रद्द करने को लेकर हुए एकमत. बहुमत से दिया फैसला
सुप्रीम कोर्ट ने कहा-यह पूर्णता निजता का मामला है, महिला को समाज की चाहत के हिसाब से सोचने को नहीं कहा जा सकता.
इनपुट एनडीटीवी


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लहू की अपवित्रता को संवैधानिक झटका: सबरीमाला मंदिर में महिलाएं कर सकती हैं प्रवेश

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स्त्रीकाल डेस्क 

सुप्रीम कोर्ट ने आज सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश पर ऐतिहासिक निर्णय देते हए मंदिर में 10-50 साल की उम्र की महिलाओं के प्रवेश पर लगी रोक हटा दी। यह फैसला पांच सदस्यीय बेंच ने बहुमत से दिया। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि महिलाएं कहीं से भी पुरषों से कमजोर नहीं हैं। मंदिर में उनके प्रवेश का रोक भेदभाव करने वाला है। चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा की अगुवाई वाली पांच सदस्यीय (जस्टिस आर एफ नरीमन, जस्टिस ए एम खानविलकर, जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ और जस्टिस इंदू मल्होत्रा) संविधान पीठ ने आठ दिनों तक सुनवाई करने के बाद एक अगस्त को इस मामले में अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था, जिसे आज 28 सितंबर को सुनाया गया।

मंदिर में युवतियों के दिखने पर सरकार ने दिये थे जांच के आदेश 


प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा  ने कहा कि महिलाएं पुरुषों से कहीं भी कमजोर नहीं हैं और शरीर  के आधार पर उनके साथ भेदभाव नहीं किया जा सकता।-प्रधान न्यायाधीश ने कहा कि 10 से 50 की उम्र वाली महिलाओं को मंदिर में प्रवेश करने से रोकना संवैधानिक सिद्धातों का उल्लंघन है। उन्होंने कहा कि सभी श्रद्धालुओं को मंदिर में पूजा-अर्चना करने का अधिकार दिया जाता है। लैंगिक आधार पर मंदिर में प्रवेश से किसी को रोका नहीं जा सकता। कोर्ट ने चार जजों का सर्वसम्मत फैसला सुनाते हुए कहा कि  भगवान अयप्पा के श्रद्धालु हिंदू हैं। आप अपने रोक से एक अलग धार्मिक प्रभुत्व बनाने की कोशिश न करें। किसी भी शारीरिक एवं बॉयोलाजिकल कारण को रोक का आधार नहीं बनाया जा सकता। सबरीमाला मंदिर की ओर से लगाए गए प्रतिबंधों को जरूरी धार्मिक क्रियाकलाप के रूप में मान्यता नहीं दी जा सकती।

महिला जस्टिस की (महिला) विरोधी राय 

सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों में से चार ने सर्वसम्मति से अपना फैसला सुनाया जबकि बहुमत के इस फैसले में एक निर्णय पीठ की एक मात्र महिला सदस्य जस्टिस इंदु मल्होत्रा का भी है, जो काफी चौकाने वाला है. इंदु मल्होत्रा ने  ने अपनी अलग राय रखते हुए कहा कि धार्मिक परंपरा को केवल समानता के अधिकार के आधार पर परीक्षण नहीं कर सकते। धार्मिक रूप से कौन सी परिपाटी जरूरी है इसका फैसला श्रद्धालु करें न कि कोर्ट। इंदु मल्होत्रा ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट का आज का फैसला केवल सबरीमाला मंदिर तक सीमित नहीं रहेगा बल्कि इसका व्यापक असर होगा। गहरी आस्था वाले धार्मिक भावनाओं के मुद्दों में सामान्य रूप से दखल नहीं देना चाहिए।
रेडी टू वेट कैम्पेन 


महिलाओं ने चलाया था रेडी  टू वेट कैम्पेन 
एक ओर सबरीमाला मंदिर प्रवेश को लेकर कई महिला संगठनों ने मुहीम चला रखी थी तो वहीं कुछ महिलाओं का समूह भी सामने आया था जो मंदिर में प्रवेश पर रोक के पक्ष में 'रेडी टू वेट'कैम्पेन चला रही थीं। हैश टैग कैम्पेन सोशल मीडिया में भी चला था। इस बीच कुछ संगठनों ने कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला इंडियन यंग लायर्स एसोसिएशन और अन्य द्वारा दायर की गई याचिकाओं पर आया है। बहस के दौरान मंदिर के बोर्ड त्रावणकोर देवासम ने कहा था कि मासिक धर्म की प्रक्रिया से गुजरने वाली महिलाओं का प्रवेश मंदिर में देवता की प्रकृति की वजह से वर्जित है। जबकि माहवारी की उम्र वाली महिलाओं के सबरीमाला मंदिर में प्रवेश पर रोक के इस विवादास्पद मामले पर केरल सरकार का रुख बारबार बदलता रहा, उसने 18 जुलाई को सुप्रीम कोर्ट से कहा था कि वह उनके प्रवेश के पक्ष में हैं।

मंदिर ले बोर्ड का पक्ष रखते हुए अभिषेक मनु सिंघवी ने कहा था कि दुनिया भर में अयप्पा जी के कई मंदिर मौजूद हैं और वहां महिलाएं बिना किसी रोक टोक के जा सकती हैं लेकिन सबरीमाला में ब्रह्मचारी देव की मौजूदगी की वजह से एक निश्चित उम्र की महिलाओं के प्रवेश पर बैन लगाया गया है। इस जवाब पर सवाल उठाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने पूछा था कि यह कैसे तय होगा कि 10 से 50 साल तक की उम्र की महिलाएं ही मासिक धर्म की प्रक्रिया से गुजरती हैं। 9 साल या 51 साल की महिला को भी मासिक धर्म हो सकते हैं। इसके जवाब में कहा गया कि यह उम्र सीमा परंपरा के आधार पर तय की गई है। सुप्रीम कोर्ट में कोर्ट सलाहकार राजू रामचंद्रन ने मंदिर में महिलाओं पर लगे प्रतिबंध को छुआछूत से जोड़ा। उन्होंने कहा छुआछूत के खिलाफ अधिकारों में अपवित्रता भी शामिल है। यह दलितों के साथ छुआछूत की भावना की तरह है।

उछाले जाते रहे भ्रम फैलाने वाले तथ्य 

इस दौरान मीडिया में तरह-तरह के भ्रम भी फैलाए जाते रहे। न्यूज 18 ने अपनी एक रिपोर्ट 'पीरियड्स नहीं बल्कि ये थीं सबरीमाला मंदिर में महिलाओं पर रोक की वजह'में वैसे कारण गिनाये हैं, जो कोर्ट की बहस के मुख्य बिंदु नहीं थे, बल्कि मंदिर का रुख माहवारी वाले कारण के पक्ष में ही था. इस खबर में बताया गया कि 'वेबसाइट 'फर्स्टपोस्ट'के लिए लिखे एक लेख में एमए देवैया इस आख्यान के बारे में बताते हैं. वे लिखते हैं कि मैं पिछले 25 सालों से सबरीमाला मंदिर जा रहा हूं. और लोग मुझसे अक्सर पूछते हैं कि इस मंदिर में महिलाओं के प्रवेश पर प्रतिबंध किसने लगाया है. मैं छोटा सा जवाब देता हूं, "खुद अयप्पा (मंदिर में स्थापित देवता) ने. आख्यानों (पुरानी कथाओं) के अनुसार, अयप्पा अविवाहित हैं. और वे अपने भक्तों की प्रार्थनाओं पर पूरा ध्यान देना चाहते हैं. साथ ही उन्होंने तब तक अविवाहित रहने का फैसला किया है जब तक उनके पास कन्नी स्वामी (यानी वे भक्त जो पहली बार सबरीमाला आते हैं) आना बंद नहीं कर देते."
माना जाता है कि अयप्पा किसी कहानी का हिस्सा न होकर एक ऐतिहासिक किरदार हैं. वे पंथालम के राजकुमार थे. यह केरल के पथानामथिट्टा जिले में स्थित एक छोटा सा राज्य था. वह महल जहां अयप्पा बड़े हुए वह आज भी है और वहां भी लोग जा सकते हैं. अयप्पा के सबसे वफादार लोगों में से एक थे वावर (मलयालम में बाबर को कहते हैं). यह एक अरब कमांडर थे. जिन्हें अयप्पा ने युद्ध में हराया था.
वावर की मान्यता आज भी है. माना जाता है कि इरूमेली मस्जिद में आज भी उसकी रूह बसती है. वह 40 किमी के कठिन रास्ते को पार करके सबरीमाला आने वाले तीर्थयात्रियों की रक्षा करती है. सबरीमाला जाने वाला रास्ता बहुत कठिन है. जिसे जंगल पार करके जाना पड़ता है. साथ ही पहाड़ों की चढ़ाई भी है क्योंकि यह मंदिर पहाड़ी के ऊपर बना है. मुस्लिम भी इरूमेली की मस्जिद और वावर की मजार पर आते हैं. यह मंदिर के सामने ही पहाड़ी पर स्थित है.
देवैया लिखते हैं कि ऐतिहासिक अयप्पा के अलावा भी एक पुराणों में वर्णित पुरुष को भी उनके साथ जोड़ा जाता है. जो कहता है कि अयप्पा विष्णु और शिव के पुत्र हैं. यह किस्सा उनके अंदर की शक्तियों के मिलन को दिखाता है न कि दोनों के शारीरिक मिलन को. इसके अनुसार देवता अयप्पा में दोनों ही देवताओं का अंश है. जिसकी वजह से भक्तों के बीच उनका महत्व और बढ़ जाता है. और इसका पीरियड्स से कुछ भी लेना-देना नहीं है.

हैप्पी टू ब्लीड कैम्पेनर निकिता आज़ाद ने भी दायर की थी याचिका
हप्पी टू ब्लीड हैश टैग कैम्पेन चलाने वाली निकिता आज़ाद ने भी इस मामले में सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी. उनकी वकील इंदिरा जयसिंह ने भी पीरियड्स और छुआछूत को केन्द्रित अपना पक्ष रखा था.

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मेरा एक सपना है ! (मार्टिन लूथर किंग का उद्बोधन,1963)

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 मार्टिन लूथर किंग, जूनियर 
प्रस्तुति और अनुवाद : यादवेन्द्र 

‘मेरा एक सपना है’, 1963 में वाशिंगटन मार्टिन लूथर किंग, जूनियर द्वारा दिया गया प्रसिद्द भाषाण है, जो उन्होंने ढाई लाख सिविल राइट्स एक्टिविस्ट के सामने नौकरी और स्वतन्त्रता के लिए किये गये वाशिंगटन मार्च के दौरान दिया था. यूनाइटेड स्टेट्स में रंगभेद के खिलाफ यह महत्वपूर्ण मुहीम के रूप में याद किया जाता है. भाषण का अनुवाद यादवेन्द्र ने किया है. 

इस घटना के सौ साल बीत चुके पर आज भीनीग्रो गुलामी से मुक्त नहीं हुआ....वह आज भी अलगाव और भेद भाव की बेड़ियों में जकड़ा हुआ जीवन जीने को अभिशप्त है.सौ साल बीत जाने के बाद भी नीग्रो आज भौतिक सुख सुविधाओं और समृद्धि के विशाल महासागर के बीच में तैरते हुए निर्धनता के एक टापू पर गुजर-बसर कर रहा है...अमेरिकी समाज के कोनों अंतरों में नीग्रो आज भी पड़े पड़े कराह रहे हैं और कितना दुर्भाग्य पूर्ण है कि उनको अपने ही देश में निर्वासन की स्थितियों में जीना पड़ रहा है. हम आज यहाँ इसी लिए एकत्रित हुए हैं कि इस शर्मनाक सच्चाई पर  अच्छी तरह से  रौशनी डाल सकें.



इसको ऐसे भी समझ सकते हैं कि हम अपने देश की राजधानी में इसलिए एकत्र हुए हैं कि एक चेक कैश करा सकें. जब हमारे देश के निर्माताओं ने संविधान और आजादी की घोषणा का मजमून स्वर्णाक्षरों में  लिखा था तो वे दरअसल एक  रुक्का देश के हर नागरिक के हाथ में उत्तराधिकार के तौर पर थमा गए थे.इसमें लिखा था कि हर एक अदद शख्स -- चाहे वो गोरा हो या काला -- इस देश में जीवन, आजादी और ख़ुशी के लिए बराबर का हकदार होगा.

यह हम सबके सामने प्रत्यक्ष है कि पुरखों द्वारा दिया गया यह रुक्का आज इस देश के अश्वेत लोगो के लिए मान्य नहीं है...इसकी अवहेलना और बे इज्जती की गयी है. इस संकल्प की अनदेखी कर के नीग्रो  लोगों के चेक यह लिख कर वापिस लौटाए जा रहे हैं कि इसको मान्य करने के लिए कोश में पर्याप्त धन नहीं है.

पर हम यह मानने को तैयार नहीं हैं कि न्याय के बैंक की तिजोरी खाली होकर दिवालिया घोषित हो गयी है.हम ये कैसे मान लें कि अपार वस्रों वाले  इस देश में धन की  कमी पड़ गयी है?

इसको देखते हुए हमलोग आज यहाँ इकठ्ठा हुए हैं कि अपना अपना चेक भुना सकें-- ऐसा चेक जो हमें आजादी और न्याय की माँग करने का हक़ दिलवा  सके. हम इस पावन भूमि पर आज इसलिए आये हैं कि अमेरिका को अपनी समस्या की गंभीरता और तात्कालिक जरुरत का भान करा सकें.अब सुस्ताने या नींद की गोलियां खा के निढाल पड़े रहने का समय नहीं है.

अब समय आ गया है कि लोकतंत्र को वास्तविकता का जामा  पहनाया जाये...अब समय आ गया है कि अलगाव की अँधेरी और सुनसान गलियों से निकल कर हम रंग भेद के विरुद्ध सामाजिक न्याय के प्रशस्त मार्ग की ओर कूच करें... यह समय है चमड़ी के रंग को देख कर अन्याय किये जाने की नीतियों से इस देश को मुक्त कराने का जिस से हमसब भाईचारे के ठोस और मजबूत धरातल पर एकसाथ खड़े हो सकें....यही वो अवसर है जब ईश्वर के सभी संतानों को न्याय दिलाने के सपने को साकार किया जाये.

हमारा देश यदि इस मौके की फौरी जरुरत की अनदेखी करता है तो यह उसके लिए प्राणघातक भूल होगी. नीग्रो समुदाय की न्यायपूर्ण मांगों की  झुलसा देने वाली गर्मी की ऋतु  तब तक यहाँ से टलेगी नहीं जबतक आजादी और बराबरी की सुहानी  शरद  अपने जलवे नहीं बिखेरती.

उन्नीस सौ तिरेसठ किसी युग का अंत नहीं है...बल्कि यह तो शुरुआत है.

जिन लोगों को यह मुगालता था कि नीग्रो समुदाय के असंतोष की हवा सिर्फ ढक्कन उठा देने से बाहर निकल जाएगी और सबकुछ शांत और सहज हो जायेगा,उन्हें अब बड़ा गहरा  धक्का लगेगा...यदि बगैर आमूल चूल परिवर्तन  किये देश अपनी रफ़्तार से चलने की जिद करेगा.अमेरिका में तबतक न तो शांति होगी और न ही स्थिरता जबतक नीग्रो समुदाय को सम्मानजनक नागरिकता का हक़ नहीं दिया जाता.न्याय की  रौशनी से परिपूर्ण प्रकाशमान दिन जबतक क्षितिज पर उदित होता हुआ दिखाई नहीं देगा तबतक बगावत की आँधी इस देश की नींव  को जोर जोर से झगझोरती  रहेगी.

पर इस मौके पर मुझे अपने लोगों से भी यह कहना है किन्याय के राजमहल के द्वार पर दस्तक देते हुए यह कभी न भूलें कि अपने  अधिकारपूर्ण और औचित्यपूर्ण स्थान पर पहुँचने के क्रम में वे कोई गलत या अनुचित कदम उठाकर पाप के भागीदार न बनें. आजादी की अपनी भूख और ललक  के जोश में हमें यह निरंतर ध्यान रखना होगा कि कहीं हम कटुता और घृणा के प्याले को उठा कर अपने होंठों से लगाने लगें... हमें अपना संघर्ष शालीनता और अनुशासन के उच्च आदर्शों के दायरे में रहकर ही जारी रखना पड़ेगा.हमें सजग रहना होगा कि हमारा  सृजनात्मक विरोध कहीं हिंसा में न तब्दील हो जाये...बार बार हमें रुक कर देखते रहना  होगा कि यदि कहीं से भौतिक हिंसा राह रोकने के लिए सामने आती भी है तो उसका मुकाबला हमें अपने आत्मिक बल से करना होगा. आज नीग्रो समुदाय जिस अनूठे उग्रवाद के प्रभाव में है उसको समझना होगा कि सभी गोरे लोग अविश्वास के काबिल नहीं है...

पढ़ें: हम सब को स्त्रीवादी होना चाहिए 
आज यहाँ भी कई गोरे भाई यहाँ दिखाई दे रहे हैं...जाहिर है उनको एहसास है कि उनकी नियति हमारी नियति से अन्योन्यास्रित ढंग से जुड़ी हुई है.वे यह अच्छी तरह समझने लगे हैं कि हमारी आजादी के बगैर उनकी आजादी कोई मायने नहीं रखती.

यह एक सच्चाई है कि हम अकेले आगे नहीं बढ़ सकते.इतना ही नहीं हमें यह संकल्प भी लेना होगा कि जब हमने आगे कदम बढ़ा दिए हैं तो अब  पीछे नहीं मुड़ेंगे..हम पीछे मुड़ ही नहीं सकते.
ऐसे लोग भी हैं जो नागरिक अधिकार कार्यकर्ताओं से पूछते है: आखिर तुम संतुष्ट कब होओगे?
जबतक एक भी नीग्रो पुलिस की अकथनीय नृशंसता का शिकार होता रहेगा, हम संतुष्ट नहीं हो सकते.
जबतक लम्बी यात्राओं से हमारा थकाहारा शरीर राजमार्गों के मोटलों  और शहरों के होटलों  में  टिकने का अधिकार नहीं प्राप्त कर लेता,हम संतुष्ट नहीं हो सकते.
जबतक एक नीग्रो की उड़ान एक छोटे घेट्टो से निकल कर बड़े घेट्टो पर समाप्त होती रहेगी, हम संतुष्ट नहीं हो सकते.जबतक हमारे बच्चे अपनी पहचान से वंचित किये जाते रहेंगे और "सिर्फ गोरों के लिए "लिखे बोर्डों की मार्फ़त उनकी प्रतिष्ठा पर आक्रमण किया जाता रहेगा, हम भला कैसे संतुष्ट हो सकते हैं.


जबतक मिसीसिपी में नीग्रो को वोट देने का हक़ नहीं मिलताऔर न्यूयोर्क में रहनेवाला नीग्रो यह सवाल पूछता रहे कि देश के चुनाव में  ऐसा क्या है कि वो वोट डाले...तबतक हम संतुष्ट नहीं हो सकते....नहीं नहीं,हम संतुष्ट बिलकुल नहीं हो सकते...तबतक संतुष्ट नहीं हो सकते जबतक इन्साफ पानी की तरह बहता हुआ हमारी ओर न आये...न्यायोचित नीतियाँ जबतक एक प्रभावशाली नदी की मानिंद यहाँ से प्रवाहित न होने लगे.

मुझे अच्छी तरह मालूम है कि आपमें से कई लोग ऐसे हैं जो लम्बी परीक्षा और उथल पुथल को पार करके यहाँ आये हैं ...कुछ ऐसे भी हैं जो सीधे जेलों की तंग कोठरियों से निकल कर आये हैं... अनेक ऐसे लोग भी हैं जो पुलिस बर्बरता और प्रताड़ना की गर्म आँधी से लड़ते हुए अपने अपने इलाकों से यहाँ तक आने का साहस जुटा पाए हैं.
सृजनात्मकता से भरपूर यातना क्या होती है ये कोई आपसे सीखे...आप इस विश्वास से ओत प्रोत होकर काम करते रहें कि यातना अंततः मुक्ति दायिनी ही होती है.

आप वापस यहाँ से मिसीसिपी जाएँ..अलबामा जाएँ.. साऊथ कैरोलिना जाएँ...जोर्जिया जाएँ...लूसियाना जाएँ...उत्तरी भाग के किसी भी स्लम या घेट्टो में जाएँ...पार यह विश्वास लेकर वापिस लौटें कि वर्तमान हालात बदल सकते हैं और जल्दी ही बदलेंगे.

हमलोगों को हताशा की घाटी में लुंज पुंज होकर ठहर नहीं जाना है...आज की  इस घड़ी में  मैं आपसे कहता हूँ मित्रों कि आज और बीते हुए कल की मुश्किलें झेलने के बाद भी मेरे मन के अंदर एक स्वप्न की लौ जल रही है...और यह स्वप्न की जड़ें  वास्तविक अमेरिकी स्वप्न  के साथ जुड़ी हुई हैं.

मेरे स्वप्न है कि वह दिन अब दूर नहीं जबयह देश जागृत होगा और अपनी जातीय पहचान के वास्तविक मूल्यों की कसौटी पर खरा उतरेगा की "हम इस सत्य को सबके सामने फलीभूत होते हुए देखना चाहते हैं कि इस देश के सभी मनुष्य बराबर पैदा हुए हैं."

मेरा स्वप्न है कि एक दिन ऐसा जरुर आयेगा जब जोर्जिया के गुलामों के बच्चे और उनके मालिकों के बच्चे एकसाथ भाईबंदी के टेबुल पर बैठेंगे.

मेरा स्वप्न है कि वह दिन दूर नहीं जब अन्याय और दमन की ज्वाला में झुलस रहे मिसीसिपी राज्य तक में आजादी और इंसाफ का दरिया बहेगा.

मेरा स्वप्न है कि मेरे चारो बच्चे एक दिन ऐसे देश की हवा में साँस लेंगे जहाँ उनकी पहचान उनकी  चमड़ी के रंग से नहीं बल्कि उनके चरित्रों की ताकत से की जाएगी.

आज के दिन मेरा एक स्वप्न है...

मेरा स्वप्न है कि रंगभेदी दुर्भावनाओं से संचालित अलाबामा जैसे राज्य में भी-- जहाँ का गवर्नर अड़ंगेबाजी और पूर्व घोषणाओं से मुकर जाने के लिए बदनाम है -- एकदिन नन्हे अश्वेत लड़के और लड़कियां गोरे बच्चे बच्चियों के साथ भाई बहन की तरह हाथ मिला कर संग संग चल सकेंगे.

यह सब हमारी आशाएं हैं...अपने दक्षिणी इलाकों में मैंइन्ही विश्वासों  के साथ वापिस लौटूंगा.. इसी विश्वास के बल पर हम हताशा के ऊँचे पर्वत को ध्वस्त कर उम्मीद के एक छोटे पिंड में तब्दील कर सकते हैं...इसी विश्वास के बल बूते हम अपने देश में व्याप्त अ समानता का उन्मूलन कर के भाईचारे की खूबसूरत संगीतपूर्ण स्वरलहरी  निकाल सकते हैं... इस विश्वास को संजो कर हम कंधे से कन्धा मिला कर  काम कर पाएंगे..प्रार्थना कर पाएंगे...संघर्ष कर पाएंगे...जेल जा पाएंगे...आजादी के आह्वान के लिए सिर ऊँचा कर खड़े हो पाएंगे...इन सबके बीच सबसे बड़ा भरोसे का संबल यह रहेगा कि हमारी मुक्ति  के दिन आखिरकार आ गए.

यही वो दिन होगा..जिस दिन खुदा के सब बन्दे इस गीत के  नए अर्थों को उजागर करते हुए साथ मिलकर गायेंगे.."मेरा देश...प्यारी आजादी की भूमि... इसके लिए मैं गाता हूँ...यही   धरती है जहाँ मेरे पिता ने प्राण त्यागे ... तीर्थ यात्रियों की शान का देश...इसके तमाम पर्वत शिखरों से आती है...आजादी की समवेत  ध्वनि...

और यदि अमेरिका को महान देश बनना है तो मेरी ऊपर कही बातों को सच होना पड़ेगा...सो न्यू हैम्पशायर  के गगन चुम्बी शिखरों से आनी चाहिए आजादी की पुकार...न्यू योर्क के पर्वत शिखरों से आना  चाहिए आजादी का उद्घोष..पेन्सिलवानिया से आनी   चाहिए आजादी की गर्जना..

आजादी का उद्घोष होने दो...जब ऐसा होने लगेगाऔर हम इसको सर्वत्र फैलने देंगे..हर गाँव से और हर बस्ती से... तो वह दिन सामने खड़ा दिखने लगेगा जब खुदा के बनाये सभी बन्दे...चाहे वे गोरे हों या काले...यहूदी हों या कोई और...प्रोटेस्टेंट हों या कैथोलिक.. हाथ से हाथ जोड़े एकसाथ पुराने नीग्रो गीत को गाने के लिए मिलकर स्वर देंगे.."अंततः हम आजाद हो ही गए...आजाद हो ही गए...'

सर्वशक्तिमान ईश्वर का शुक्रिया अदा करो कि अंततः हम आजाद हो ही गए...   
 मार्टिन लूथर किंग, जूनियर 
यादवेंद्र
पूर्व मुख्य वैज्ञानिक
सीएसआईआर - सीबीआरआई , रूड़की, सम्पर्क: yapandey@gmail.com

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कुछ यूं आयी धारा 497:ऐतिहासिक संदर्भों में ऐडल्ट्री

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लाल बाबू ललित 

जब हम ऐडल्ट्री शब्द की बात करते हैं तो सामान्य अर्थों में इसका मतलब होता है दो विपरीतलिंगी व्यक्तियों के बीच अमान्य और अवैध संबंध। यानि ऐसे दो लोग जो आपस में विवाहित नहीं हैं , के बीच यदि शारीरिक संबंध स्थापित होता है तो ये स्थिति ऐडल्ट्री कहलाती है और इसमें शामिल व्यक्ति ऐडल्टेरस कहलाते हैं। जब से यह मानव समाज है तब से ऐडल्ट्री भी है और ऐसे संबंध भी रहे हैं। लगभग सभी मानव समूहों ने, धर्मों ने इसे पाप और अनैतिक माना। और सभी संस्कृतियों ने इसके लिए दंड निर्धारण भी अपंने-अपने तरीकों से किये। कहीं मर्द और औरत दोनों के लिए सजा का प्रावधान था तो कहीं सिर्फ औरत ही सजा की हक़दार होती थीं। इस अपराध के लिए सजा भी आर्थिक दंड से लेकर स्टोन पेल्टिंग और मृत्युदंड तक निर्धारित थे। 15 से ज्यादा इस्लामिक देशों में आज भी ऐडल्ट्री के लिए उसमें शामिल औरतों पर सार्वजानिक स्थल पर पत्थर बरसाए जाने के प्रावधान हैं। बाइबिल के दोनों ओल्ड और न्यू टेस्टामेंट ऐडल्ट्री को एक पाप और अनैतिक काम मानते हैं। और लगभग सभी क्रिस्चियन देशों ने शुरू में इसे अपराध माना जिसके लिए अलग -अलग सजा निर्धारित की गयी। कुछ देशों ने इसे सिर्फ सिविल रॉंग मानकर इसे तलाक का आधार बना दिया।



यहाँ यह सवाल बड़ा मौजूँ जान पड़ता है कि आखिर दोव्यक्तियों के बीच आपसी सहमति से स्थापित शारीरिक संबंध को अनैतिक, पाप या अपराध कहलाने योग्य क्यों और कब से माना जाने लगा होगा? क्या यह मानव जाति के उद्भव के समय से ही है ? मुझे लगता है नहीं।  राहुल सांकृत्यायन की पुस्तक वोल्गा से गंगा जब आप पढ़ेंगे जो और कुछ नहीं बल्कि मानव सभ्यता के क्रमिक विकास की एक उत्कृष्ट कहानी भर है, उसमें कई दृष्टान्त ऐसे हैं जब लोग घर बनाकर स्थायी तौर पर नहीं रहते थे, खानाबदोश और घुमंतू की जिंदगी थी, समूह में जरूर होते थे। वहाँ कई जगह उल्लेख है कि मर्द और औरत के बीच सेक्स संबंध  के लिए कोई स्थापित नियम नहीं थे। कोई भी सहमति से किसी के भी साथ शारीरिक संबंध बना सकता था। एक जगह यह भी जिक्र है कि एक औरत जो किसी कबीले की मुखिया है, उसके किसी मर्द से संबंध बने और उससे कई संतानें उत्पन्न हुई। बाद में जब वह औरत अधेड़ावस्था को प्राप्त हुई तो अपने ही जन्म दिए एक पुत्र से बाद में शारीरिक संबंध स्थापित किये और वह तब भी उस कबीले की मुखिया थी जिस कबीले में कुछ मर्द , जिसमें उसके कुछ पुत्र , कुछ पुत्रियाँ और कुछ दूसरे मर्द थे।

एक दृष्टान्त यह भी है जब एक औरत अपनी ही बेटीको पानी में धकेल कर इसलिए डुबो देती है क्यूँकि दोनों एक ही मर्द को अपने लिए पसंद करती हैं। शायद यह दौर था जब मानव शिकारी हुआ करता था जो बाद में चलकर संग्राहक बना और फिर उत्पादक बना। जब वह शिकारी से संग्राहक बना होगा और फिर उत्पादक बना होगा, तब उस ट्रांजीशन के दौर में उसका समाज एक नए तरीकों को इवॉल्व कर रहा होगा।  संग्राहक और उत्पादक के तौर पर उसे स्थायित्व चाहिए होगा, घर चाहिए होगा और अपनी सेक्स जरूरतों को पूरा करने के लिए एक स्थायी पार्टनर चाहिए होगा। संपत्ति-शिकार और जमीन, जो अब तक संग्रह नहीं की जाती रही थी, अब उसे संग्रह किया जाने लगा। संपत्ति और जमीन और स्त्री पर स्वामित्व के प्रश्न भी इसी दौर में आये होंगे , फीलिंग ऑफ़ बिलोगिंग्नेस और पजेशन भी इसी दौर से शुरू हुआ होगा। और इन संपत्तियों के उत्तराधिकार का सवाल भी तभी उठा होगा।  और शायद तभी सेक्स संबंधों में भी नियम कायदे बने थे और ऐडल्ट्री भी अनैतिक और पाप तभी से माना जाने लगा। दुनिया की सारी संस्कृति , सारे सेक्ट्स , सारे धर्म बिना किसी अपवाद के ऐडल्ट्री को अनैतिक मानने लगे जिसे बाद में सिविल और क्रिमिनल रॉंग मान लिया गया।

सभ्यताओं का जैसे-जैसे क्रमिक विकास हुआ, उन्नत्ति हुई,व्यक्तिक स्वतंत्रता और महिला अधिकार आदि के प्रश्नों से समाज को दो-चार होना पड़ा। 19  वीं शताब्दी आते-आते यूरोप में यह विमर्श बहुत जोर पकड़ चुका था कि ऐडल्ट्री को क्रिमिनल ऑफेन्स माना भी जाय या नहीं। विमर्श के केंद्र में भी तब भी वही प्रश्न थे कि यह व्यक्तिक स्वतंत्रता के खिलाफ है और एकतरफा है। धीरे-धीरे ऐडल्ट्री कानून में ढील दी गयी।  आज यूरोपियन यूनियन के सभी देश , ब्रिटेन सहित, ऐडल्ट्री को अपराध की श्रेणी से ख़त्म कर चुके हैं।  अमेरिका के अलग -अलग राज्यों में अलग -अलग प्रावधान हैं लेकिन इस कानून की पकड़ बहुत ढीली कर दी जा चुकी है। सभी इसे ख़त्म करने की राह पर हैं। ऐडल्ट्री के बेसिस पर तलाक लेने या देने के प्रावधान जरूर हैं।

जहाँ तक भारत में इससे संबंधित कानून के इमर्ज होने की बात है , इसकी शुरुआत होती है 1834 से जब चार्टर एक्ट 1833 के तहत ब्रिटिश इंडिया में पहला लॉ कमिशन बनाया गया था जिसका उद्देश्य भारतीय समाज के तानेबाने को देखते हुए उसी हिसाब से लॉ को कोडीफ़ाय करना था। इस पहले लॉ कमीशन के चेयरमैन थे लॉर्ड मैकाले और अन्य सदस्य थे J.M. Macleod, G.W. Anderson, और  F. Millet, उस कमिशन में भी ऐडल्ट्री पर कानून बनाने की चर्चा हुई। इस बात का भी गहन मंथन हुआ कि ऐडल्ट्री को अपराध माना भी जाय या नहीं और चारों इस बात पर सहमत थे कि ऐडल्ट्री को क्रिमिनल ऑफेंस मानने की कोई वजह नहीं है और इसलिए जो ड्राफ्ट बनाये जा रहे थे उसमें भी इस विषय पर कुछ खास नहीं कहा गया। तीनों प्रेसिडेन्सीज से जो फैक्ट्स और ओपीनियंस कलेक्टस किये गए थे उसके रिव्यु के बाद लार्ड मैकाले ने जो निष्कर्ष निकाला वह कुछ इस प्रकार से है ,


"ऐसा प्रतीत होता है कि ऐडल्ट्री के लिए पनिशमेंट निर्धारित करने का किसी को कोई लाभ नहीं है। देश की पूरी आबादी दो मतों में विभाजित दीख रही है- एक तरफ वे लोग हैं जो यह मानते हैं कि इसके लिए मौजूदा दंड या कोई भी दंड उचित नहीं है जबकि दूसरी तरफ ऐसे लोग हैं जिनका कहना है कि ऐडल्ट्री से जो व्यक्ति पीड़ित होगा उसे आर्थिक मुआवजा दिलाना पर्याप्त होगा। वे लोग जिनका सम्मानभाव अपनी पत्नियों के अडलट्रस होने के कारण पेनफुली प्रभावित होता है , वे ट्रिब्यूनल में गुहार नहीं लगा सकेंगे। वे  लोग जिनके अहसास थोड़े कम नाजुक हैं उन्हें उचित मुआवजा देकर संतुष्ट किया जा सकेगा।  अतः इन परिस्थितियों में हम समझते हैं कि ऐडल्ट्री को सिर्फ सिविल wrong ही माना जाना चाहिए , अपराध नहीं।

इसके बाद 1853 में दूसरा लॉ कमीशन बना जिस पर CPC को ड्राफ्ट करने की जिम्मेवारी थी और जिसके चेयरमैन सर जॉन रोमिली थे, उन्होंने इस विषय पर अलग रुख लिया और ऐडल्ट्री पर मैकाले की समझ से अलग रास्ता अख्तियार करते हुए, लेकिन भारत में महिलाओं की स्थिति उनकी रिपोर्ट पर पूरा भरोसा जताते हुए यह कहा -
 "एक तरफ जहाँ मेरा मानना है कि ऐडल्ट्री को अपराध की श्रेणी से हटाया नहीं जाना चाहिए वहीँ दूसरी तरफ हम इसके दायरे को ऐडल्ट्री टुवर्ड्स मैरिड वीमेन तक ही सीमित कर देने के पक्षधर हैं। और यह भी कि महिलाओं की जो दयनीय स्थिति इस देश में है उसे देखते हुए ऐडल्ट्री के अपराध की जिम्मेवारी और अपराधी सिर्फ पुरुष को ठहराने के पक्ष में हैं। "
उन्होंने आगे कहा -- 
"यद्यपि हम अच्छी तरह समझते हैं कि मानव प्रजाति के सबसे महत्वपूर्ण हितों में से एक है उसके स्त्रियों की शुद्धता और वैवाहिक संबंध की पवित्रता। लेकिन हम इस  देश की सामाजिक स्थिति और महिलाओं की दयनीय स्थिति को देखते हुए इस कानून के माध्यम से यह बहुत शिद्दत से चाहते हैं कि पुरुष जाति अपनी पत्नी को ऐडल्ट्री के लिए पनिश करने से पहले थोड़ा रूककर विचार करे। इस देश में महिलाओं की दशा बहुत बुरी है, इंग्लैंड और फ्रांस से बहुत भिन्न। बाल विवाह जैसी बुरी प्रथा यहाँ प्रेवेलन्ट हैं। वे खुद बच्ची हैं और विवाहित हैं। मर्दों के लिए बहुविवाह(पोलीगामी) यहाँ आम है।  और इस चक्कर में मर्द अपनी पहली पत्नियों का दूसरी पत्नी या औरत के चक्कर में उपेक्षित और तिरस्कृत छोड़ देते हैं। अपने पति का प्यार और सम्मान पाने के लिए उनको भारी प्रतिस्पर्धा से जूझना पड़ रहा है। ऐसी स्थिति में जहाँ मर्दों को अपना जनानाखाना कई औरतों से भरने की आजादी है और वर्तमान कानून उस पर पाबन्दी नहीं लगाता, हम महिलाओं के जीवन में व्याप्त अस्थिरता के लिए कोई कानून बना पाने में अनिच्छुक और असंतुष्ट हैं। हम इतने विजनरी नहीं कि हजारों सालों से इस समाज में एक बुराई के रूप में गहरे जड़ तक व्याप्त , पुरुषों के लिए बहुविवाह प्रथा पर रोक लगाने के लिए कानून लेकर आयें। इसे हम समय पर छोड़ दे रहे हैं लेकिन हमें यह पूरा विश्वास है कि जैसे- जैसे शिक्षा का प्रसार होगा, समाज के लोग शिक्षित होंगे, यह बुराई जो बहुविवाह के रूप में मौजूद है, ख़त्म होती जायगी। लेकिन जब तक ये बुराइयाँ समाज में मौजूद हैं, और जब तक ये बुराइयाँ अपने कभी न असफल होने वाले प्रभाव से समाज की महिलाओं के सम्मान और प्रसन्नता को क्षुण्ण करती रहेगी , हम उन महिलाओं के लिए ऐडल्ट्री में और ज्यादा दंड निर्धारित करने के पक्ष में नहीं है जो पहले ही बहुत ज्यादा प्रताड़ना झेल रही हैं। "

इस तरह हम देखते हैं कि तत्कालीन विचारकों और नीति नियंताओं ने ऐडल्ट्री को कानूनन अपराध मानने या न मानने के पीछे क्या तर्क दिए और ऐडल्ट्री के अपराध के दायरे में सिर्फ विवाहित महिलाओं को क्यों रखा और यह भी कि इस अपराध के लिए सिर्फ पुरुषों को क्यों अपराधी माना गया, महिलाओं को क्यों नहीं। तत्कालीन समाज में बालविवाह और पुरुषों में बहुविवाह आम थी और महिला की सामाजिक स्थिति एक गुलाम या एक वस्तु से ज्यादा कुछ न थी। ऐसी भी शादियाँ आम थीं जिसमें मर्द अपने से 40 साल कम उम्र की लड़की से शादी कर लेता था।

इसलिए ऐडल्ट्री एक क्रिमिनल ऑफेंस के तौर परवर्तमान स्वरुप में कानून में IPC की धारा 497 की शक्ल में आया जो 1853 में सेकंड लॉ कमिशन के बनने के बाद गहन विमर्श का उत्पाद था। 1860 में यह इंडियन पीनल कोड 1860 लागू हो गया जो आज तक रिलेवेंट है।
युवा अधिवक्ता लालबाबू ललित उच्चतम न्यायालय सहित दिल्ली के न्यायालयों में वकालत करते हैं. 


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बनारस से लेकर वर्चुअल स्पेस तक वे हर आवाज को दबाने में लगे हैं

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सुशील मानव 

क्या सत्ता का हर अंग-उपांग जनता की आवाज को दबाने में लगे हैं. बनारस में किसानों के मुद्दे पर 'गाँव के लोग'के एक कार्यक्रम पर भगवा गुंडों ने हमला किया तो 7 लाख के करीब सबस्क्राइबर वाले पल पल न्यूज को यू ट्यूब के अधिकारियों ने बंद कर दिया. पल-पल न्यूज वैकल्पिक मीडिया के रूप में प्रमुखता से सक्रिय यू ट्यूब चैनल है. इसकी संस्थापक खुशबू अख्तर ने अपनी मेहनत और प्रतिबद्धता के साथ इसे सींचा है.



मुख्यधारा की मीडिया का लगातार जनता और समाज के मुद्दे से कटने,तमाम जनविरोधी नीतियों के बावजूद सत्ता से सवाल करने के बजाय सत्ता के गुणगान में  लगे रहने और भ्रामक व चेतना विरोधी अतार्किक व वैज्ञानिक खबरों के रात दिन चलाते रहने से उनकी विश्वसनीयता खत्म हो चुकी है, ऐसे में सही खबरों और सूचनाओं की तलाश में लोग वैकल्पिक मीडिया की ओर बहुत तेजी से रुख़ कर चुके हैं. वैकल्पिक मीडिया बहुत तेजी से लोगों के बीच अपनी स्वीकार्यता बढ़ाने में कामयाब हुई. मीडिया के प्रति जनता के इसी बदले तेवर का ही ये नतीजा है कि महज़ डेढ़ साल में यूट्यूब के चैनल पल-पल न्यूज को  7 लाख के करीब सब्सक्राइबर मिल जाते हैं. लेकिन जनता के बीच विश्वसनीयता ही सत्ता-पक्ष के लोगों के लिए खतरा होती है. अपने चैनल पर तमाम किस्म के बाहियात वीडियो और नफरत फैलाने वाले वीडियो को बनाये रखने वाले यू ट्यूब के अधिकारियों ने पल-पल न्यूज को इसलिए टर्मिनेट कर दिया कि उसने अपने एक वीडियो के जरिये एक हेट स्पीच पर सवाल खड़ा किया था. .

चूंकि इसके पीछे कोई न कोई बहाना तो चाहिए ही था. तो कुछ ही रोज पहले एएनआइ न्‍यूज़ एजेंसी ने पल पल न्यूज चैनल के कुछ फुटेज पर अपना दावा ठोंका था। और फिर बेहद गर लोकतांत्रिक तरीके से बिना कोई नोटिस या मेमो थमाए यूट्यूब ने ‘कम्‍युनिटी गाइडलाइंस’’का उल्‍लंघन करने के बहाने सीधे पल पल न्‍यूज़ को टर्मिनेट कर दिया। जवाब देने के बाद हालांकि तब चैनल पुनः बहाल कर दिया गया था, लेकिन इस बार फिर इसे बंद कर दिया गया है. . पल पल न्यूज पर ये कोई पहला हमला नहीं है बता दें कि पल पल न्यूज के पहले चैनल को भी सितंबर 2017 में यूट्यूब ने टर्मिनेट कर दिया था. उस वक्त चैनल के पास करीब एक लाख सब्सक्राइबर थे. अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों पर सरकार संरक्षित हिंदुत्ववादी संगठनों व पुलिसिया दमन के खिलाफ़ आवाज़ उठाने के चलते ही पल- पल न्यूज चैनल के दो चैनलों को साल भर के भीतर ही टर्मिनेट कर दिया गया. चैनल की संचालक खुशबू अख्तर ने बताया कि 'एक हेट स्पीच'को सवाल करते हुए हमने खबर बनायी थी. उस खबर को ही हेट स्पीच बताकर चैनल को टर्मिनेट कर दिया गया है. हमने यू ट्यूब को इसके लिए मेल किया है.'खबर लिखने तक चैनल को पुनः बहाल नहीं किया गया था.

पल पल न्यूज के आवाज़ को नहीं बल्कि लाखों दलित वंचित अल्पसंख्यक लोगों की आवाज़ को खत्म कर दिया गया है.  सरकार अल्पसंख्यकों के हक़ में आवाज़ देनेवाली किसी भी संस्था संगठन या व्यक्ति को बर्दाश्त नहीं कर पा रही है.  आज ज़रूरत है  कि पूरी वैकल्पिक मीडिया और जनवरोधी ताकतो के खिलाफ़ आवाज़ उठाने वाले लोग पल पल न्यूज को अविलंब बहाली को लेकर एकजुट हों और सड़क पर उतरें. यूट्यूब को भी व्यवहारिक और संवैधानिक रास्ता चुनते हुए उस वीडियो का हटा देना चाहिये  जिसपर उसे या एनआईए को आपत्ति है और पल पल न्यूज को फिर से बहाल कर देना चाहिए. अगर यूट्यूब ऐसा नहीं करता है तो हमें सामूहिक रूप से यूट्यूब का बहिष्कार करते हुए यूट्यूब एप को अपने मोबाइल फोन, लैपटॉप और डेस्कटॉप से अनइंस्टॉल कर देना चाहिए.


जो लोग इसमें सरकार की भूमिका से मुंह मोड़कर सिर्फइसे यूट्यूब और ऑनलाइन कंटेंट गाइडलाइंस पॉलिसी का मामला कह रहे हैं उन्हें यहां सरकार के उस आताताई रुख को भी समझना होगा जिसने यूट्यूब से तमाम वैकल्पिक मीडिया को टर्मिनेट करवाने के लिए सबसे पहले गूगल और यूट्यूब की किस तरह से घेरेबंदी की. मोदी सरकार ने आरोप लगाया गया कि गूगल इंडिया के लोग यूट्यूब समेत कई माध्यमों के जरिए घृणा फैलाने को रोकने में सक्षम नहीं हो पा रहे हैं. जिसके बाद पूरा  मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा. कोर्ट ने गूगल को आदेश दिया कि वह उन चुनिंदा कंटेंट को हटाए जो जिनमें घृणा और नफरत हैं. इसके बाद ही एक साजिश के तहत बीजेपी आईटी सेल द्वारा वैकल्पिक मीडिया के खिलाफ़ रिपोर्ट करने की मुहिम चली. जिसके तहत मोदी सरकार की पोल खोलने वाले तमाम यूट्यूब चैनलों को चुन चुनकर निशाना बनाया जाने लगा. इसी साजिश के तहत अब तक एक लाख चौरासी हजार सब्सक्राइबर वाले 'माइनॉरिटी मीडिया सेंटर'यूट्यूब चैनल जैसे दर्जनों चैनलों को टर्मिनेट किया या करवाया जा चुका है. एक एक कर सबकी बारी आये इससे पहले ही हमें इस वैकल्पिक मीडिया विरोधी सरकार के खिलाफ और यूट्यूब के खिलाफ़ मोर्चा खोलना होगा.

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तनुश्री के खिलाफ राखी सावंत और सबरीमाला-आंदोलन की महिलाओं के खिलाफ भक्तिनें

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जया निगम 

सबरीमाला मामले में ये जो धर्म के अंदर वालों को ही तय करने का हक होना चाहिये, वाला तर्क है, ये भारतीय आर्थिक मठों ( घरेलू उद्योग से शुरू होकर कॉरपोरेट घरानों तक) में महिलाओं की इंट्री को लेकर होने वाले शुरुआती बवालों वाले तर्कों से बहुत मिलता-जुलता तर्क है.

बहुतों को इस बात से आपत्ति हो सकती है कि कॉरपोरेट घरानों या घरेलू उद्योगों में लड़कियों या महिलाओं का काम करना एक लोकतांत्रिक मूल्य है जबकि धार्मिक संस्थाओं में प्रवेश की आजादी एक रिग्रेसिव या सामंती समाज की बुनियाद है.



सही है, दोनों एक बात नहीं है. लेकिन धर्म हो या अर्थव्यवस्था दोनों ही महिलाओं को उनकी पारंपरिक भूमिकाओं में जकड़ कर रखना चाहती है. यहीं पर वे समान हैं. दोनों ही संस्थायें महिलाओं को मात्र उतनी ही आजादी देती हैं जितनी उनकी सेविका या अनुयायियों की भूमिका में बने रहने के लिये जरूरी है.

पारंपरिक भारतीय अर्थव्यवस्था जिस तरह से महिलाओं को सबसे अधिक श्रम के, अनवरत खटने वाले कामों में बिना उचित मजदूरी दिये उनका शोषण तय करती है, ठीक उसी तरह मंदिर भी अनुयायियों और सेविकाओं की भूमिका में महिलाओं की श्रद्धा और भक्ति चाहते हैं. महिलाओं को बिना प्रवेश दिये, उनकी शारीरिक स्वाभाविकताओं पर अपनी सदियों पुरानी यौन कुंठाओं को परंपरा के रूप में साधते हुए, उनका भक्त बना रहना तय करते हैं.

पवित्र और अपवित्र होने का तर्क सीधे-सीधे महिला और पुरुष की पारंपरिक मालिकाने की भूमिका से निकलता और समृद्ध होता है. कामख्या मंदिर में महिलाओं की माहवारी पूजने की चीज़ है जबकि सबरीमाला के भक्त इस पूरे दौरान महिलाओं की परछाईं भी खुद पर पड़ने नहीं देते.

जिन्हे इस बात से आपत्ति है कि महिलायें मंदिरों में प्रवेश क्यूं चाहती हैं उन्हे तो इसका बहिष्कार करना चाहिये था, उन्हे ये भी तर्क समझना होगा कि होने को तो महिलाओं को उनके शारीरिक श्रम की नाजायज़ मांग करने वाली हमारी सभी लोकतांत्रिक और अब वैश्विक आर्थिक दुकानों का भी बहिष्कार कर देना चाहिये था पर वो ऐसा नहीं कर सकती थीं.

ठीक वैसे ही जैसे पुरुष - खासकर जो अर्थव्यवस्था से बाहर हैं, वो चाह कर भी ऐसा नहीं कर सकते. वो बाजार के नियमों के हिसाब से कटने और समझौते करने को विवश हैं. कम पगार पर भी 'काम मिलना'ही उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि है. क्यूंकि बहिष्कार तो तब होगा जब उस पर बराबर का अधिकार हो.

एक उदाहरण से इसको समझा जा सकता है कि बॉलीवुड में महिलायें खासकर अभिनेत्रियां सालों से अपने पुरुष सहकर्मियों के मुकाबले बहुत कम मेहनताना पाती हैं लेकिन अब जाकर कुछ अभिनेत्रियां इस बाबत अपनी आवाज़ उठाने का साहस कर रही हैं. मंदिर हो या बॉलीवुड महिलाओं को उनकी पारंपरिक भूमिकाओं में रखने से दोनों का ही इंकार नहीं है लेकिन वहां उनकी एंट्री, बरावरी की दावेदारी के साथ करते ही दोनों ही जगहों पर बराबरी का भूचाल आता है.

जिस तरह तनुश्री के यौन शोषण के मामले को बरगलाने केलिये राखी सावंत का इंटरव्यू मीडिया में प्रसारित किया गया. ठीक उसी तरह सबरीमाला की भक्तिनों ने सुप्रीम कोर्ट के महिलाओं के प्रवेश के फैसले के खिलाफ जुलूस निकाल कर अपना विरोध दर्ज कराया.

तो एक तरफ हमारे देश में औरतें अभी मंदिर में प्रवेशके लिये लड़ रही हैं और दूसरी ओर औरतें बिग कॉरपोरेट हाउसेज में अपने काम के लिये, आदमियों के बराबर वेतन पाने के लिये जूझ रही हैं. मंदिर हो या बड़े कॉरपोरेट घराने, एक बिंदु पर इन दोनों में गजब समानता है कि आखिरकार मर्द ही इनके सर्वोच्च मालिक हैं. ...और दोनों ही जगहों का कारोबार बिना स्त्री-पुरुष के शोषण के नहीं चलता.

फिर भी मर्द पारंपरिक रूप से इन दोनों जगहोंका मालिक है जबकि महिलाओं को प्रवेश से लेकर मंदिर के पुजारी या बरावर वेतन और अधिकार की हिस्सेदारी पाने तक हर जगह संघर्ष करना है.

...इन सबके बीच औरतों का शोषण कहां है, कहां नहीं है, कहां कम है, कहां ज्यादा है, ये सब बहस-मुबाहसे के विषय हो सकते हैं. लेकिन एक आजाद नागरिक की हैसियत से महिला भी वो सब कुछ करने के लिये स्वतंत्र है जो पुरुष आज भी कर रहे हैं और सदियों से करते रहे हैं.

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मी टू कैंपेन से जुड़े कुछ सवाल, शंकाएं और भविष्य का भारत

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जया निगम 

तनुश्री दत्ता के नाना पाटेकर द्वारा यौन उत्पीड़न के 10 सालपहले के एक हादसे की स्वीकारोक्ति ने हमारे देश में #MeToo की आमद पर कस कर लगाये गये पितृसत्ता के ढक्कन को एक झटके में जिस तरह खोला है उससे लगता है सिस्टम के अंदर ये भाप बहुत दिन से घुमड़ रही थी. 



बाहर की ‘जहरीली’ हवाओं से हमारे देश और उसके पुरुषप्रधान देशवासियों को बड़ा डर लगता है कि कहीं ये बाहर की हवायें उनके देश-समाज की बहू-बेटियों को बिगाड़ न दे. इन बाहर की हवाओं को अपने घर-परिवार-गांव-देहात तक न पहुंचने देने कि लिये भारतीय पुरुषों में सनातन एका रहा है. बाहर की हवा ना आने देने की वजह से औरतें-बच्चे हमेशा बीमार बने रहे पर हमने सदैव पारिवार-बिरादरी और धर्म को पहला स्थान दिया. यही हमारी लोक संस्कृति रही है.

संस्कृति की अपनी सुविधा के लिए मनमानी व्याख्या के क्रम में यही भारतीय समाज और राजनीति का सदियों से छिपाया जाता वो खजाना बन गया जिसकी सुरक्षा के लिये भारतीय राजनीति और समाज में सफलता की सीढ़ियां चढ़ते पुरुष एक के बाद पितृसत्ता का गौरवध्वज अगली पीढ़ी को थमाते चलते हैं.

महिलाओं से ‘सत्ता’ के इस पुरातन खजाने की रक्षा करना भारतीय पुरुषों का सबसे सनातन कर्तव्य है जो उन्हे असली मर्द होने का अहंकार देता है. ये खजाना भारतीय राजनीति, अर्थव्यवस्था और प्रशासन के हर खेत में दबा-गड़ा है. हर क्षेत्र के अपने नियम हैं जिनका मकसद है महिलाओं से लगातार संपर्क के बावजूद सत्ता के खजाने की चाभी उन तक ना पहुंचने पाए. यह एक पवित्र काम माना जाता है. 

हमारे देश में इन दिनों लोकतंत्र के नाम पर जिसतरह की तानाशाही शैली की राजनीति समाज की दशा-दिशा तय कर रही है उसमें कोई छोटा सा भी परिवर्तन अक्सर बड़ी उम्मीद जगाने लगता है. मसलन मीटू से पहले किसानों का एक जत्था दिल्ली पहुंचा, गांधी जयंती यानी 2 अक्टूबर के दिन और उस पर सरकारी पुलिसिया मशीनरी की दमन प्रक्रिया के विरोध में सोशल मीडिया में जिस तरह की प्रतिक्रियाएं आयीं, उन्होने देखने वालों को कृषिप्रधान भारत में किसान क्रांति होने के काल्पनिक रास्ते दिखा दिये. क्रांति पिछले दस-बीस सालों में एक ऐसे जुमले में बदल गयी है जिसने सामाजिक परिवर्तन की चाह रखने वालों की बेचैनी और तड़प को मात्र एक शब्द में, उनके जीवन के सबसे विद्रूप मजाक में बदल दिया है. आश्चर्य तो तब होता है जब सामाजिक बदलाव की बात करने वाले तमाम सामाजिक, राजनीतिक, कॉरपोरेट और रचनात्मक संगठनों के आचार्य और उनकी भक्त अनुगामनियां तक, क्रांति शब्द का इस्तेमाल अपने ही जैसे किसी अन्य मुद्दे पर बदलाव की चाह रखने वाले के लिये भर्त्सना स्वरूप इस्तेमाल करते हैं.

मीटू के पिछले साल भारत आगमन पर कुछ इसीतरह का दृश्य देखने को मिला था जब भारतीय अकादमिक जगत के बहुत से नामों को राया सरकार नाम की लॉ पढ़ने वाली छात्रा ने एक सूची बना कर अपने सोशल एकाउंट में डाल दिया था और वहां इन देश-विदेश में प्रख्यात, कुख्यात आचार्यों की यौन कुंठाओं के किस्से पीड़ितों ने मुंहजबानी कहने शुरू कर दिये.

पढ़ें: राया सरकार की #MeToo कैम्पेन 

ज़ाहिर है कि ये एक विश्वस्तरीय ख्याति अर्जित किये जाने का मसला बन गया जो हमारे देश के स्वनामधन्य पुरुष मठाधीशों के मठों पर बहुत गहरी छाप छोड़ने में सक्षम था. आनन-फानन नारीवाद की इस विदेशी लहर को नियंत्रित करने के लिये विभिन्न नारीवादियों ने काफिला पर एक पर्चा निकाल कर इस तरह की किसी मुहिम से अपनी नाराज़गी जाहिर करते हुए इन पीड़िताओं को व्यवस्था के विभिन्न सांगठनिक ढ़ांचों के जरिये ऑफीशियल तरीके से अपनी कंप्लेन करने के लिये सलाह दी.

पढ़ें: स्त्रीवादियों की नाराजगी 

इस दौरान हॉलीवुड के तमाम निर्माता-निर्देशकों के खिलाफ पूरी दुनिया में महिलाओं ने अपने-अपने अनुभव लिखे और अपनी कहानियां, व्यक्तिगत रूप से शेयर कर पूरी दुनिया को ये जता दिया कि महिलायें कार्यस्थलों पर यौन उत्पीड़न के इन मामलों को किसी भी कीमत पर छिपाने और सहन करने के लिये तैयार नहीं है. वहां से ये सिलसिला विभिन्न देशों में आगे बढ़ा और पूरी दुनिया के सबसे सफल, स्थापित और हसीन मर्दों की तरक्की के गोपनीय सूत्रों को उजागर कर वापस भारत में दस्तक दिया.

पढ़ें : दुनिया भर में तहलका 
भारत में अब तक केवल फिल्म और मनोरंजन जगत के अलावा अंग्रेजी मीडिया के एक हिस्से में इस कैंपेन की आंच महसूस की जा रही है. लेकिन भारत की महिलाओं के काम-काजी समूहों ने, व्यक्तिगत स्तर पर इस मुहिम को जितना गंभीरता से लेना शुरू कर दिया है. उतनी ही तरह की कहानियां बाहर आ रही हैं. ताजा मामले विदेश मंत्रालय के स्वतंत्र प्रभार वाले केंद्रीय मंत्री एम जे अकबर और केरल के विधायक महेश कुमार का है. जहां एक ओर एम जे अकबर ने राजनीति का रास्ता अंग्रेजी मीडिया में पूरा जीवन संपादक और बुद्धिजीवी के रूप में बिताने के बाद तय किया उसी तरह विधायक महेश का मामला केरल के फिल्मी जगत से जुड़ा हुआ है.

पिछले दिनों हमारे देश में जेंडर  से जुड़े कानूनों के मूल स्वरूप में सुप्रीम कोर्ट के फैसलों ने कुछ रेडिकल बदलाव किये हैं. धारा 377, एडल्ट्री या सबरीमाला मंदिर में औरतों के जाने का फैसला, ये ताज़ातरीन मामले हैं लेकिन इससे पहले तीन तलाक हो या उससे भी पहले महिलाओं के मज़ार तक जाने का मसला या इससे थोड़ा और पहले जायें तो पिछले एक दशक में कानूनों के जरिये महिलाओं के हकों और हैसियत में उल्लेखनीय परिवर्तन हुए हैं. जिसमें घरेलू हिंसा का कानून और संपत्ति में महिलाओं का हिस्सा तय किये जाने का मामला या लिव-इन रिलेशन में रहने वाली महिला के अधिकारों में हुई बढ़ोत्तरी के फैसले अहम हैं. प्रशासनिक स्तर पर भी इस तरह की पहलें हुई हैं जैसे लोक कल्याणकारी योजनाओं में परिवार के मुखिया के बतौर महिला का नाम होना या पासपोर्ट जैसे कानूनी कागज़ातों को तलाकशुदा महिलायें भी आसानी से अपने पूर्व पति के जिक्र के बगैर बनवाने में सक्षम हो पायें. इस तरह की व्यवस्थायें ये लगातार इशारा कर रही हैं कि भारतीय अर्थव्यवस्था में महिलाओं के बढ़ते कदमों ने भारत के पारंपरिक सामंती प्रशासनिक और कानूनी ढ़ांचे को बदलने पर विवश किया है.

इसके बावजूद बहुत से ऐसे क्षेत्र हैं जहां महिला को व्यक्ति से पहले देह समझे जाने से उपजने वाले तनावों के कारण, प्रतिक्रियास्वरूप उनका उत्पीड़न बढ़ा है. लैंगिक हिंसा भारतीय घरों, संयुक्त परिवारों और सामुदायिक तनावों की बड़ी वजह रही है. इसके बावजूद महिलायें इस तरह की हिंसा, समाज में आगे बढ़ने के दौरान हर स्तर पर झेलते हुए भी अक्सर खामोशी और उपेक्षा के व्यवहार के जरिये अपना आगे बढ़ना सुनिश्चित करती हैं. इसके पीछे अक्सर उनकी विवशता होती है जो परिवारिक स्तर से लेकर पास-पड़ोस, संस्थागत और फिर सांगठनिक स्तर के लगभग हर चरण में समायी होती है. भारत में महिलाओं की अर्थव्यवस्था में साल 2012 में मात्र 27 फीसदी हिस्सेदारी थी. जबकि इस मुकाबले भारत में मर्दौं का अर्थव्यवस्था में 79 फीसदी यानी लगभग 80 फीसदी हिस्सेदारी है. ये आंकड़े विश्व बैंक की साउथ एशिया प्रमुख एनेट डिक्सन ने दिये हैं.

पढ़ें: भारत की अर्थव्यवस्था में स्त्रियाँ 
देश में बेरोजगारी के इस भीषण दौर में महिलाओं का बड़ा हिस्सा साल 2012 के बाद अर्थव्यवस्था से बाहर हुआ है. साथ ही महिलाओं पर शादी करने के बाद काम छोड़ने का दबाव पहले की तुलना में निजी क्षेत्रों में अधिक बढ़ा है क्योंकि निजी क्षेत्रों में रिक्रूटमेंट तो कम हुए ही है बल्कि 2012 से पहले मिलने वाले बोनस, वेतन में बढ़ोत्तरी, कैब-कैंटीन वगैरह की सुविधायें और महंगाई बढ़ने से घर के खर्चों में हुई बढ़ोत्तरी वगैरह की सबसे ज्यादा मार भारतीय घरों में महिलाओं पर ही पड़ती है. इसके बावजूद महिलाओं का पुरुषों के मुकाबले कार्यक्षेत्रों और शिक्षा जगत में बेहतर प्रदर्शन बना हुआ है.

इस दौरान हमारे देश की राजनीति में आये बदलावों ने सामाजिक न्याय की राजनीति को एक तरफ विविध स्तरों पर कमजोर किया है वहीं दूसरी ओर कॉरपोरेट-मीडिया-राजनीति के गठजोड़ ने विभिन्न सामाजिक, न्यायिक और मानवाधिकार के लड़ाई लड़ने वाले संगठनों को एक-दूसरे से लड़ाने में बड़ी सफलता अर्जित की है. इन लड़ाईयों में जेंडर के मुद्दे पर पारंपरिक और प्रगतिशील खेमों की  आपसी  लड़ाईयों ने सामाजिक न्याय की लड़ाई को पूरी दुनिया में सबसे ज्यादा कमजोर किया है.

पढ़ें: जेंडर मुद्दों पर विभाजित वाम 

महिलाओं के ऊपर यौन उत्पीड़न और बलात्कार के मामले घर-परिवार, पास-पड़ोस, दोस्त-रिश्तेदार, कार्यस्थलों से लेकर गांव, कस्बों, जंगलों तक हर जगह हो रहे हैं लेकिन हमारी मौजूदा पुरुष प्रधान राजनीति इस मुद्दे को हर बार सबसे पीछे धकेल कर बाकी मुद्दों के बरक्स जिस तरह से खड़ा कर देती है उससे यह महसूस होता है कि ये सिलसिला दरअसल नया नहीं है. ये हमारे डीएनए का मामला है.

भारत के आजादी आंदोलन में काफी बड़ी संख्या में महिलाओं की शिरकत ने उन्हे पुरुष के बराबर वोटिंग राइट तो दिला दिये लेकिन उसके अलावा लगभग हर मोर्चे पर महिलाओं के मुद्दे समाज के सर्वांगीण विकास के लिये जितने अहम होने चाहिये उसकी कोई समझदारी जनता के बड़े हिस्से में पैदा नहीं हुई है. शायद यही वजह है कि ये महिलाएं सामाजिक उत्पादन के विविध चरणों में हिस्सेदारी के बगैर घर-परिवार के अंदर दोबारा धर्म और जाति की बेड़ियों में जकड़ दी गयीं. सामंती या प्रगतिशील पुरुषों के डीएनए में मौजूद वही ऐतिहासिक चरित्र, महिलाओं के मुद्दों को देश और समाज के लिये सबसे जरूरी और प्राथमिक मानने से रोकता रहा है.

#MeToo इन सबसे बीच एक उम्मीद पैदा करता है किआने वाले दिनों में यदि ये ऑनलाइन कैंपेन ऑफलाइन संस्थाओं के नज़रिये के जरिये थोड़ी ऊर्जा समाज में पैदा करता है तो ये बेचैनी समाज के विभिन्न धड़ों में संघर्ष और रचनात्मकता के नये कदमों में बदल सकती है. सबसे अधिक यह कि नई सोच पैदा कर सकती है.

पढ़ें : पुरुषों पर प्रतिक्रिया 

अधेड़ उम्र के पुरुषों की यौन कुंठाओं का लंबे समय से शिकार हो रही महिलायें अपने नवयुवा होने पर तो उनका प्रतिकार नहीं कर पायीं लेकिन अपने को लैंगिक आधार पर भेदभाव के कारण नष्ट किए जाने की सतत प्रक्रिया के दौरान खत्म होने बचा ले गयीं, वही आज मीटू के जरिये देश की मौजूदा पीढ़ी को ईमानदार होकर उत्पीड़न के खिलाफ एकजुट होने का संदेश दे रही हैं. ये देश उन्हे सुन सकता है और खारिज भी कर सकता है जो उसे हमेशा से करने की आदत है... लेकिन जो सुनेंगे, वही सींखेंगे और एक समानता पर आधारित समाज बनाने का सपना भी देख पाएंगे.

टाइम्स अप मुहीम 

जया निगम स्वतंत्र पत्रकार,  टिप्पणीकार हैं. 

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मीटू, यूटू: चुप हो तो बोलो, बोलने से उनका मनोबल टूटता है

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यशस्विनी पाण्डेय 

बचपन से लेकर अब तक यदि आप किसी तरह की लैंगिक हिंसा केशिकार हुए हैं उसकी स्वीकारोक्ति (अपराधी के नाम के साथ) है मीटू (#MeToo).यह स्वीकारोक्ति न सिर्फ अपराधियों के मनोबल तोडती है बल्कि हिंसा से पीड़ित व्यक्ति को इस अपराध भाव से मुक्त करती है कि लैंगिक हिंसा कोई छुपाने वाली घटना है .

हाल ही में बॉलीवुड की अभिनेत्री तनुश्री दत्ताद्वारा बॉलीवुड के नायक नाना पाटेकर पर बलात्कार का आरोप लगाया गया है .उसके बाद बॉलीवुड की कई महिलाओं ने फिल्म इंडस्ट्री से जुड़े अन्य कई लोगों पर यौन शोषण के गंभीर आरोप लगाए हैं . तनुश्री के इस खुलासे के बाद मीटू अभियान के भारतीय संस्करण की शुरूआत हुई . मीटू अभियान पिछले साल हॉलीवुड की एक अभिनेत्री के द्वारा एक अभिनेता पर लगाए गए यौन शोषण के गंभीर आरोपों के बाद शुरू हुआ था .उसके बाद इस अभियान के तहत अन्य बहुत सी महिलाओं ने अपने साथ हुए यौन हिंसा के ऐसे अनुभवों को साझा किया था .



मीटू अभियान से प्रभावित होकर कई महिला पत्रकारों ने भी अपने साथ काम करने वाले कई पत्रकारों पर इसी तरह के अरोप लगाए हैं . अभिनेताओं, निर्देशकों, पत्रकारों, नेताओं पर यौन उत्पीड़न के आरोप लगाने वाली महिलाओं की संख्या लगातार बढ़ती ही जा रही है. इस अभियान के तहत महिलाओं द्वारा किए जा रहे खुलासों पर बॉलीवुड और समाज में कई तरह की प्रतिक्रियाएं देखने को मिल रही हैं.कुछ लोगों का मानना है कि यह महिलाओं के लिए एक पब्लिसिटी स्टंट की तरह है. दूसरी तरफ कुछ अन्य का कहना है कि इन आरोपों में निश्चित तौर पर कहीं न कहीं सच्चाई है. कुछ ऐसे भी लोग हैं जो इसे अपनी दुश्मनी निकालने के तरीके के तौर पर देख रहे हैं.हालांकि सालों पुराने ऐसे मामलों के सच का पता लगाना लगभग असंभव है, लेकिन समाजशास्त्रियों का कहना है कि फिर भी ऐसे अभियान का समर्थन किए जाने की सख्त जरूरत है.ताकि लड़कियों और महिलाओं का किसी भी किस्म का यौन उत्पीड़न करने वालों के मन में एक डर पैदा हो.

आम तौर पर मान्यता है कि उच्च पदों की तुलना मेंनिम्न पदों पर महिलाएं संभवतः ज्यादा यौन शोषण का शिकार होती हैं.लेकिन असल में पद की ताकत महिलाओं को यौन शोषण से बचाने में बहुत ज्यादा कारगर नहीं होती.हाल ही में इंडिया स्पेंड की एक रिपोर्ट में सामने आया है, कि सभी क्षेत्रों की कामकाजी महिलाएं कार्यस्थल पर यौनशोषण की शिकार होती हैं.

इंडियन नेशनल बार एसोसिएशन द्वारा 2017 में कराए गएएक सर्वे में सामने आया था कि हर उम्र, पेशे और वर्ग की महिलाएं कार्यस्थल पर यौन शोषण की शिकार होती हैं.हालांकि कार्यस्थल पर महिलाओं के यौन शोषण से जुड़ा कोई भी व्यापक शोध आज तक नहीं हुआ है.इसलिये इस बात के कोई भी सीधे आंकडे हमारे पास नहीं हैं, कि कार्यस्थल पर होने वाला यौन शोषण, कामकाजी महिलाओं की घटती संख्या के लिए कितने जिम्मेदार है?लेकिन कुछ समय पहले आई 2017 की वर्ल्ड बैंक रिपोर्ट में सामने आया था, कि दो दशक पहले हमारे देश में जहां 38 प्रतिशतकामकाजी महिलाएं थीं, वहीं अब उनकी संख्या घटकर 27 फीसदी रह गई है.इस संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता, कि कार्यस्थल पर होने वाली यौन हिंसा भी महिलाओं को नौकरी छोड़ने के लिए बाध्य करती हैकार्यस्थल पर हुई यौन हिंसा को वे बहुत बड़ा और ज्यादा डिस्टर्बिंग मानने लगती हैं.साथ ही इसी तरह महसूस भी करने लगती हैं.इस कारण ऑफिस में हुई यौन हिंसा से निपटने की तरकीबें सोचने की बजाए, वे नौकरी छोड़कर घर पर बैठने का विकल्प चुनने लगती हैं.लेकिन बड़ा सवाल यह है कि जब घर में यौन हिंसा झेलने पर लड़कियां घर नहीं छोड़ती, तो इसी कारण से उन्हें ऑफिस क्यों छोड़ देना चाहिए?

महिला गार्ड ,सिपाही ,जज या फिर बॉलीवुड की नायिकाओं से लेकर महिला मजदूरों तक, हर किसी को जब-तब यौन शोषण शिकार होना पड़ता है.वरिष्ठ वकील  वृंदा ग्रोवर बताती हैं कि अदालतों में अक्सर ही वकील महिला जज से तू-तड़ाक से बात करते हैं या फिर कोई न कोई अपमानजनक टिप्पणी करते हैं...और यह बहुत आम है.यौन शोषण के मामलों पर काम करने वाली वरिष्ठ वकील रेबेकाजॉन का कहना है, कि ऐसे ज्यादातर मामलों में कोई भी पीड़िता जांच से पूरी तरह संतुष्ट नहीं होती. इस कारण वे थककर जांच प्रक्रिया से बाहर आ जाती हैं.उनका कहना है कि कुछ महिलाओं के लिए तो यह सब इतना ज्यादा संत्रासपूर्ण होता है, कि वे आत्महत्या तक की कोशिश करने लगती हैं.



कई बार महिलाएं अपने साथ लम्बे समय तक शोषण होने देती हैंक्योंकि न्याय के लिए मुंह  खोलने वाली, पुरुषों पर उंगली उठाने वाली, और यौन हिंसा की शिकार होकर भी शर्म से न गड़ने वाली लड़कियों से समाज ‘अच्छी लड़की‘ होने का तमगा अक्सर छीन ही लेता है. लड़कियों/महिलाओं को न्याय पाने के लिए अपनी ‘अच्छी लड़की‘ की छवि के मोह को भी छोड़ना होगा.असल में कानूनों को लागू करने के लिए समाज में पुरुष संवेदीकरण की प्रक्रिया को भी शुरू करने की सख्त जरूरत है संवेदीकरण की यह प्रक्रिया किसी कार्यशालाओं के साथ-साथ, यदि सभी घरों में शुरू होगी तो ही इसके स्थाई परिणाम देखने को मिल सकते हैं.

घर, सार्वजनिक स्थलों और ऑफिस में होने वाली यौन हिंसा सेबचने के लिए सरकार लगातार नए-नए कानून बनाती जा रही है. लेकिन यौन हिंसा में कहीं कोई कमी नही आ रही है.बल्कि महिलाएं कानूनों का प्रयोग भी पूरी तरह से नहीं कर पा रही हैं.कुछ समय पहले इंडियन बार काउंसिल द्वारा कराए गए एक सर्वे में सामने आया कि70प्रतिशतकामकाजी महिलाएं कार्यस्थल पर होने वाली यौन हिंसा के खिलाफ शिकायत दर्ज नहीं करती.इन्ही सब कारणों के चलते कानून की धार कुंद पड़ती जाती है.अक्सर ही देखने में आता है कि यौन हिंसा के केस में पीड़िता अकेली पड़ जाती है.ऑफिस वालों का सहयोग मिलने की बजाए उनका पीड़िता के साथ उनका रवैया ही बदल जाता है.पीड़िता को ऑफिस वाले न सिर्फ अजीब सी नजर से देखने लगते हैं, बल्कि उसके कपड़ों, व्यवहार या काम करने के तरीके तक को ही उस घटना के लिए जिम्मेदार ठहराया जाने लगता है.ऐसे में यदि शिकायत किसी सीनियर के खिलाफ दर्ज होनी है तो, पीड़िता के प्रमोशन में अडंगे, ट्रांसफर में गैर जरूरी दखल की संभावना बढ़ जाती है.न सिर्फ कार्यस्थल पर यौन हिंसा की शिकायत दर्ज करना एक बड़ी चुनौती है, बल्कि सार्वजनिक जगहों पर होने वाली यौन हिंसा के खिलाफ एक्शन लेना भी बेहद चुनौती भरा है.

इस पर बात करना औरतों के लिए कभी सुविधाजनक नहीं रहा,खासकर तब जब मामला यौन शोषण का हो। लेकिन जब सामने वाले की बातों से उसका मंतव्यसाफ जाहिर हो रहा हो तो फिर इंतजार किस बात का किया जाना चाहिए?किसी भी तरह के हैरेसमेंट को शुरू में ही न पनपने दिया जाए तो कितनी अप्रिय घटनाएँ घटने से बचजाएँगी. असल में कानून और व्यवस्था से अलग, महिलाओं को कार्यस्थल पर होने वाले यौन शोषण से निपटने के तोड़ खुद ही निकालने होंगे.उन्हें भूलना नहीं चाहिए कि वे अपने घरों तक में भी कभी, बहुत ज्यादा सुरक्षित नहीं रही हैं.इसलिए इस कारण से नौकरी छोड़ना कोई अच्छा विकल्प नहीं है....और सच तो यह है कि यदि लड़कियों/महिलाओं को यौन हिंसा से आकंठ भरे इस समाज में जीना है, तो उन्हें हर हाल में अच्छाई-बुराई पतित-पावन से ऊपर उठना होगा.

कई बार हैरेसमेंट करने वाला व्यक्ति भी यह नहीं जानता वह जोकर रहा है वह असहज,अपराध या शोषण है .मीटू कैम्पेन समाज के इस समझ को भी गहरा करेगा उसे कंसेट (रजामंदी) का अर्थ भी समझाएगा .यदि आपका जीवन बिना किसी लैंगिक हिंसा या शोषण के गुजरा है तो आप अजूबें हैं या शायद ब्लेस्ड.यदि आप इसकी गंभीरता नहीं समझ पा रहे हैं तो चुप तो रह सकते हैं | इस मुहीम को कमजोर न करें यह समाज को बेहतर बनाएगी.कहते हैं ना पावर करप्ट्स….कम लोग हैंडल कर पाते हैं पावर को महिला हों या पुरुष।कायदे से, इस मुद्दे को स्त्री बनाम पुरुष के खाँचे से निकाल के शोषक बनाम शोषित जैसे व्यापक सोच के तौर पर विकसित होना चाहिए।

यशस्विनी पाण्डेय फ्रीलांस लेखन करती हैं. संपर्क:yashaswinipathak@gmail.com

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साहित्य के मजदूर का जाना: याद किये गये मजीद अहमद

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ईश्वर शून्य


वरिष्ठ कवि और साहित्यिक-सांस्कृतिक पत्रकार मजीद अहमद की स्मृति में 11 अक्टूबर को गांधी शान्ति प्रतिष्ठान में एक स्मृति सभा का आयोजन किया गया. साझा सपना, स्त्रीकाल एवं समकालीन रंगमंच द्वारा आयोजित इस स्मृति सभा में वक्ताओं ने मजीद अहमद को एक निश्छल साहित्य सेवी बताते हुए उनके प्रति साहित्यिक बिरादरी की कृतघ्नता को चिह्नित किया.



इन दिनों मरहूम मजीद अहमद का परिवार दिल्ली में है. उन्हें खासकर इस स्मृति-सभा में शामिल होने के लिए आमंत्रित किया गया था. यह परिवार दिल्ली में अपने मिश्रित अनुभवों के साथ दो-चार दिनों से रह रहा है, जहाँ से इसे वापस मजीद अहमद का गाँव हरदोई लौट जाना है. यह परिवार महसूस कर रहा है कि दिल्ली में मजीद अहमद अनेक लेखिकाओं/लेखकों के साहित्यिक योगदान में मददगार थे-वर्तनी-भाषा ठीक करने से लेकर, रचनाओं के प्रकाशन और उसकी चर्चा की चिंता और तदनरूप व्यवस्था करते हुए. वहीं इस बेरहम दिल्ली में इस परिवार को ऐसी करोडपति परिवार की लेखिका का भी अनुभव हुआ, जो अमीरों के लिए दिल्ली और उसके परिसर में आलीशान मकानों का इंतजाम करते हुए, मकान बेचते हुए साहित्य सेवी बनी रही, लेखिका बनी रही, लेकिन जब बात अपने लेखन के केयर-टेकर मजदूर मजीद की आयी तो उसे पहचानने से भी इनकार कर दिया. बहुत याद दिलाने पर, जब उसे साहित्यिक मजदूर मजीद की याद आयी तो उसने इतना भर कहा कि ‘ उसके जाने से मेरा बहुत नुकसान हो गया.’ इस वाक्य से आहत होने की औकात भी नहीं होती साहित्यिक मजदूरों की और उसके परिवार की. मजीद अहमद के परिवार ने यह भी सुना कि मजलूमों के लिए काम करने वाले एक साहित्यिक संस्थान में काम करने के 8 घंटे के बीच दो रोटियों की आकांक्षा रखने के लिए भी मजीद अहमद को कुछ और घंटे उस संस्थान को देने पड़ते थे, अथवा यह जाना कि बड़े प्रकाशकों की निष्ठुरता इतनी ठोस होती है कि अपने मजदूर साहित्यकार की मौत पर वह श्रद्धांजलि के दो शब्द भी नहीं खर्च करता क्योंकि उसकी औकात उसकी किताबों की सरकारी खरीद करवाने में मदद की नही होती. इस परिवार ने देखा कि मजीद सबके लिए था, मजीद के लिए बेहद कम लोग-उसने जाना कि मंडी हाउस में उनके साथ होने वाली साहित्यिक-सांस्कृतिक शख्सियतों के लिए मजीद अहमद का होना, न होना कितनी गैरमामूली बात थी.



अनुभव के इस एक चरम से भिन्न अनुभव भी जरूर लेकर जायेगा यह परिवार-जिसने मजीद अहमद की स्मृति-सभा में उन्हें चाहने वाले दो दर्जन से अधिक उनके आत्मीय जनों को महसूस किया. जब मजीद अहमद का बेटा रिजवान रोया तो उसने महसूस किया पूरा सभागार रो रहा है, उपस्थित सारे लोग संवेदित हैं. वरिष्ठ कथाकार महेश दर्पण, वरिष्ठ कवि उद्भ्रांत, लेखिका और एक्टिविस्ट अनिता भारती, सहित उन्हें चाहने वाले कई साहित्यकर्मी-संस्कृतिकर्मी वहां उपस्थित थे. भोपाल से आयी आरती मिश्रा ने शहर में आयोजित किसी बड़े साहित्यिक जलसे और मजीद अहमद की शोक-सभा में से मजीद अहमद की शोक सभा में आने को चुना. वक्ताओं ने मजीद अहमद को बेहद संवेदनशील व्यक्ति और साहित्य के प्रति समर्पित बेहद संवेदनशील व्यक्तित्व के रूप में देखा-एक ऐसा शख्स जिसके साथ युवा लेखकों की एक सहजता थी और युवा लेखिकाओं को सुकून. वह युवा कवयित्रियों का एक ऐसा विश्वस्त सखा था, जिसे वे अपनी ताजा कवितायें सुनाती थीं, उनसे सीखती थीं और जिसके कंधे पर वे पुरसुकून अपना सिर रखकर रो लेती थीं, अपना सुखभाग जिससे बांट लेती थीं.

शोक सभा की शुरुआत में सर्वप्रथम  मजीद अहमद के लिये दोमिनट का मौन रखा गया और उपस्थित साहित्यकारों-संस्कृतिकर्मियों के साथ-साथ मजीद अहमद के परिवार के सदस्यों ने भी उनकी तस्वीर पर अश्रुपूरित फूल अर्पित किये। सभा में मजीद अहमद के जिन साहित्यिक मित्रों ने अपने वक्तव्य में उन्हें शिद्दत से याद किया, उनमें राधेश्याम तिवारी, मनोज मोहन, प्रेमा झा, संजीव चंदन, राजीव सुमन, राजेश चन्द्र, ईश्वर शून्य और पूजा शर्मा के नाम उल्लेखनीय हैं। अन्य उपस्थित साहित्यकारों में प्रमुख थे- जगतारजीत सिंह, राजेश सेमवाल और इरेन्द्र बबुअवा।



मजीद अहमद एक शोर भरे माहौल में चुपके से निकललिये-निर्लिप्त! उनके चाहने वालों ने यद्यपि उनके परिवार के लिए एक सहायता कोष निर्मित करने की ठानी है, लेकिन वे तो अब निकल चुके, सबसे दूर-साहित्यिक निष्ठुरता के ताप से भी और मित्रतापूर्ण सदाशयता के आह्लाद से भी.

ईश्वर शून्य रंगकर्मी हैं और मजीद अहमद के मित्रों में से एक हैं. संपर्क:ishwarshunya005@gmail.com


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नफरत के खिलाफ "अमन की बातें": महिलाओं की यात्रा का आज दिल्ली में समापन

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स्त्रीकाल डेस्क 

20 सितम्बर 2018 से देश की स्त्रियाँ "बातें अमन की"यात्रा पर हैं. यह यात्रा देश भर में अमन राग बिखेरते हुए अपने समापन लक्ष्य की ओर  पहुँच चुकी है. 13 अक्तूबर 2018 को अमन की इस यात्रा का समापन समारोह दिल्ली में होना है.



देश के वर्तमान हालात से हम सब वाकिफ हैं.मॉब लिंचिंग, लव जेहाद, हिन्दू-मुस्लिम के बीच फैलता जहर और मार दिए जाते लोग, संविधान का अपमान और देश भक्ति, राष्ट्रवाद के नाम पर अराजक जुनूनी जत्था जिस तरह से हमारे खुबसूरत देश की रन बिरंगी संस्कृति और मेल जोल जे सामाजिक ताने बाने को छिन्न भिन्न कर कर रही है उसमे सबसे बड़ी देश के वर्तमान हालात से हम सब वाकिफ हैं. मॉब लिंचिंग, लव जेहाद,  हिन्दू-मुस्लिम के बीच फैलता जहर और मार दिए जाते लोग, संविधान का अपमान और देश भक्ति, राष्ट्रवाद के नाम पर अराजक जुनूनी भीड़ तंत्र जिस तरह से हमारे खुबसूरत देश की रंग बिरंगी संस्कृति और मेल-जोल के सामाजिक ताने बाने को छिन्न भिन्न कर रही है उसका सबसे ज्यादा असर और परिणाम इस देश की स्त्र्यों को भुगतना पड़ता है. कठुआ, उन्नाव, अख़लाक़ और अनेक घटनाओं ने इस देश की आधारभूत संरचना को चोट दी है. इसलिए बिना किसी राजनीति के देश भर की महिलाएं निकल पड़ी अमन की बात करने. आयोजक संस्थाएं हैं अनहद और एनएफआईडवल्यू.

लगभग 500 से ऊपर विभिन्न सामाजिक समूहों ने इस यात्रा में  शिरकत की है. अमन की इस यात्रा को पांच जत्थों में बांटा गया है और प्रत्येक समूह में 20 से 25 महिलाएं हैं जो पांच अलग-अलग रास्तों से पूरे देश में बंधुत्व, अमन और अधिकारों के लिए लोगों को सन्देश दे रही हैं. पांच राज्यों --केरल तमिलनाडु, जम्मू-कश्मीर, आसाम और दिल्ली से शुरू होकर पूरे देश भर के लोगों के साथ अमन की बातें करता हुआ हर दस्ते ने आठ से दस राज्यों का सफ़र किया और हर राज्य से स्थानीय लोग जुड़ते गए अंततः दिल्ली में आज इसका समापन होगा. इन पांच यात्रा मार्गों के नाम भी अलग –अलग उद्देश्यों के साथ दिए गए हैं.



मसलन, पहली यात्रा जो कश्मीर से होते हुए हिमाचल, पंजाब, उत्तराखंड, हरियाणा होते हुए दिल्ली पहुचेगी उसे “मैत्री यात्रा” नाम दिया गया है. दूसरी यात्रा जो केरल, कर्नाटका, महाराष्ट्र, गुजरात होते हुए दिल्ली पहुंचेगी उसे “एकजुटता यात्रा” नाम दिया गया है. तीसरी यात्रा जो तमिलनाडु से होते हुए आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, ओड़िसा, छत्तीसगढ़ होते हुए दिल्ली आनी है उसे “एकता यात्रा” नाम दिया गया है. चौथी यात्रा जो दिल्ली से होते हुए उत्तर प्रदेश, झारखण्ड, मध्यप्रदेश राजस्थान होते हुए पुनः दिल्ली आनी है उसका नाम “समानता यात्रा” दिया गया है. पांचवीं और अंतिम यात्रा मार्ग का नाम “न्याय यात्रा” दिया गया है जो उत्तर पूर्व के राज्यों नागालैंड, मणिपुर, मिजोरम, मेघालय आसाम, पश्चिम बंगाल और बिहार होते हुए दिल्ली आनी है.

इस यात्रा की खासियत यह रही कि प्रत्येक यात्रा को स्थानीय लोगो का भरपूर साथ मिला. खासकर युवा इस मुहीम से जुड़े. जहां जहां भी यह यात्रा गई, वहाँ के स्थानीय लोगों ने सांस्कृतिक , कार्यक्रमों, नाटकों आदि के द्वारा इन जत्थों का स्वागत किया. अमन और भाईचारे से रहने की कसमें खायीं. बम्बई, पटना, दिल्ली, चेन्नई, तमिलनाडु, केरल आसाम, नागालैंड आदि अनेक स्थानों के स्थानीय अखबारों ने इस यात्रा को सराहा और खूब महत्व दिया. एन ऍफ़ आई डब्लू की एनी  राजा ने इस यात्रा को हरी झंडी देने के कार्यक्रम में इस यात्रा की जरुरत को बतलाते हुए कहा था कि आज हमारी लड़ाई विभिन्न प्रकार सामाजिक अन्याय, हिंसा और घृणा के खिलाफ है...साम्प्रदायिकता और संविधान की अवमानना के खिलाफ है..” अनहद की शबनम हाशमी ने ‘वर्तमान समय में घृणा और भय के खिलाफ स्त्रियों द्वारा अमन की यात्रा को महत्वपूर्ण बताया और शान्ति के लिए स्त्रियों की भागीदारी की बात कही.’

  इस यात्रा की सार्थकता और इसके दूरगामी परिणाम को लेकरचर्चा में कई तरह के आंकड़ों के द्वारा बताया गया कि किसी भी तरह की हिंसा में सबसे अधिक शोषण या परिणाम स्त्रियों को ही भुगतना पड़ता है. इसलिए अमन के लिए भी स्त्रियों को ही आगे आना होगा. एक शोध आंकड़े के द्वारा बताया गया कि –“1977-1996 की अवधि के दौरान दुनिया के अधिकांश देशों के आंकड़ों के सांख्यिकीय विश्लेषण से यह कहा जा सकता है कि  महिलाओं की राजनितिक और संसदीय हिस्सेदारी से राज्य द्वारा की गई हिंसा, मानवाधिकारों के दुरुपयोग, राजनीतिक कारावास, यातना, हत्या, और गायब होने आदि में निश्चित कमी आएगी.” इसी तरह एक अन्य शोध निष्कर्ष को सामने रखते हुए कहा गया कि “मध्य पूर्व, उत्तरी अफ्रीका और दक्षिण एशिया के 30 देशों में 286 लोगों के साथ साक्षात्कार बताते हैं कि महिलाएं अक्सर आतंकवाद के खिलाफ सबसे पहले खड़ी होती हैं. चूँकि कट्टरतावादी ताक़तों का पहला निशाना स्त्रियाँ ही होतीं हैं और उनके  ही अधिकारों का हनन और प्रतिबन्ध पहले होता है. सशस्त्र संघर्ष से पहले वही घरेलु हिंसा की शिकार होती हैं. पिछले तीन दशकों में 35 देशों की 40 शांति प्रक्रियाओं के एक अध्ययन से पता चला है कि किसी शांति प्रक्रिया को प्रभावी ढंग से  कोई महिला समूह क्रियान्वित करती हैं तो शान्ति समझौता लगभग हमेशा सर्वसम्मति से पूरा होता है.”..”लिंग आधारित भेदभाव और हिंसा विकासशील देशों में लड़कियों और महिलाओं की क्षमता को नष्ट कर देता है और उन्हें गरीबी से बाहर नहीं आने देता. शोध दर्शाते हैं कि है स्थानीय स्तर पर, महिलाएं अपने घरों और समुदायों के भीतर शांति का निर्माण जारी रखती हैं और परिवर्तन के लिए सामूहिक रूप से एक साथ आती हैं।“



‘बातें अमन की’ यात्रा में कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी औरकेरल, राजस्थान से जोरहाट तक- देश की सारी दिशाओं से महिलाओं का जत्था सिर्फ एक ही मांग को लेकर सफर कर रहा है कि संविधान पर हमला करने वाले, धर्म और जाति के नाम पर लड़वाने वाले लोग महिला विरोधी हैं। अमन-शांति और संविधान की रक्षा के लिए देश के पांच मार्गों से महिलाओं का परचम लहरा रहा है.

नफरत के खिलाफ मोहब्बत का पैगाम लेकर निकली यात्रा, ‘बातें अमन की’ अब अपने आखिरी पड़ाव में पहुँच गई है. 13 अक्टूबर को यह कारवां दिल्ली में थम जायेगा.



बातें अमन की’यात्रा की मुख्य आयोजक और सामाजिक संस्था अनहद की शबनम हाशमी  ने बताया कि देश में बहुत ज्यादा बैचेनी है। पांच मार्गों पर चल रही यह यात्रा 13 अक्टूबर को दिल्ली पहुंच रही है. एक-एक बस में देश भर से महिलाएं चल रही हैं। ये औरतें सीधे-सीधे राजनैतिक नेताओ की नफरत की राजनीति को चुनौती दे रही हैं। इनका मानना है कि 2019 के आम चुनावों में आम भारतीयों का यह दुख-दर्द प्रतिबिंबित होगा.

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