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स्त्रीवादी भी.मार्क्सवादी भी करते हैं लिंचिंग: पाखी पत्रिका का बलात्कार प्रकरण

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सुशील मानव 

पाखी की अनैतिक साहित्यिक पत्रकारिता के असर से वयोवृद्ध आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी की सोशल मीडिया में आलोचना हुई-एक हद तक वे ट्रोल हुए. सुशील मानव इसे एक खतरनाक प्रवृत्ति बता रहे हैं:

मॉब लिंचिंग सिर्फ भक्त और कम पढ़े लिखे लोग ही नहीं करते इस मॉबोक्रेसी में लिंचिंग नवोत्साही साहित्यकार और पाठक, आलोचक भी करते हैं बस मौका मिलने की देर है। मॉब लिंचिंग देश की नई और सर्वग्राह्य संस्कृति बन चुकी है। आदमी औरत, छद्म वामी और राइटिस्ट सबके सब इस संस्कृति के उपासक हो चुके हैं।



3 सितम्बर की रात  जिस तरह से बुजुर्ग मार्क्सवादी आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी के इंटरव्यू की कुछ पंक्तियों को, जिसे जानबूझकर पत्रिका के संपादक और मालिक द्वारा विवादित करके छापा गया था, कोट करते हुए एक एक युवा आलोचक आशीष मिश्र  द्वारा विश्वनाथ त्रपाठी को‘बलात्कार का सौंदर्यशास्त्री’ बताते हुए अपनी फेसबुक वॉल पर एक पोस्ट लिखा गया वह   बेहद शर्मनाक है। इसके बाद तो विश्वनाथ त्रिपाठी को लिंचिंग करनेवालों का पूरा हुजूम ही उमड़ पड़ा। फेमिनिस्ट रचनाकारों, संपादकों (स्त्रीकाल के सम्पादक सहित) से लेकर कुछ कथित युवा मार्क्सवादी लेखकों, संपादकों आलोचकों और आम पाठकों तक ने उन पर लानत बरसाये। प्रशासन से साहित्य में आए ध्रुव गुप्त ने तो बाकायदा बलात्कार के बदले बलात्कार की तर्ज पर बुजुर्ग आलोचक को चौराहे पर खड़ा करके उनके संग सामूहिक बलात्कार करने तक का फैसला सुना दिया। लिंचिंग करने वालों में हिंदी अकादमी की पूर्व अध्यक्ष मैत्रेयी पुष्पा और सुमन केसरी जैसी वरिष्ठ लेखिकाएं भी शामिल रहीं।


 ये सब उन लोगो ने किया जो आम लोगो को वाट्सएप अफवाहों पर प्रतिक्रिया करने से पहले उसकी सत्यता जाँचने की हिदायतें दिया करते थे। इन लोगो को इस विवादित पत्रिका और उसकी सवर्णवादी टीम पर इतना भरोसा था कि इन्होंने न तो दूसरे पक्ष को सफाई देने का मौका दिया और न ही वहाँ शामिल दूसरे लोगो, जैसे कि मदन कश्यप या कुमार अनुपम जैसे रचनाकारों से संपर्क करके सच को जानने की ज़रूरत नहीं  समझी। न ही इन लोगों में इतनी मनुष्यता बची थी कि प्रतिक्रिया देने से पहले इस बात पर विचार करते कि विश्वनाथ त्रिपाठी के दामाद की दो ही दिन पूर्व आसमायिक निधन हुआ है तो थोड़ा मौके की नज़ाकत और मनुष्यता का ही लिहाज़ कर लिया जाए। और ये सब तब हो रहा था जब घोर सांप्रदायिक और बाज़ारवादी एजेंडा लेकर हिंदी साहित्य में घुसपैठ करनेवाली पाखी पत्रिका की छवि बेहद विवादित और सवालों के घेरे में रही है। यह पत्रिका हिंदी साहित्य में घुसपैठ करने के बाद से ही लगातार खतरनाक और विध्वंसक भूमिका में रही है। नामवर सिंह, विश्वनाथ त्रिपाठी और राजेन्द्र यादव जैसे आलोचकों और संपादकों ने इस पत्रिका के मंच पर जाकर, इसके पुरस्कार स्वीकार करके हिंदी साहित्य क्षेत्र में इस पत्रिका को मान्यता प्रदान की।



सबसे ज्यादा सोचनीय और शर्मनाक रहा खुद को वामपंथी समझने और कहलाने वालो साहित्यकारों की नकरात्मक और लिंचिंग करती प्रतिक्रियाओं का आना। जबकि उन्हें ही सबसे ज्यादा सजग होकर इस साजिश की शिनाख्त करनी चाहिए थी। सबसे पहले मैनेजर पांडेय फिर नामवर सिंह और अब विश्वनाथ त्रिपाठी को निशाना बनाया जाना दरअससल एक ही साजिश का हिस्सा है। तीनों ही वरिष्ठ आलोचकों के खिलाफ़ साजिश में जो एक बात कॉमन थी- इन लोगो से से ईश्वरवाद के कांसेप्ट का कबूलनामा करवाना। पाखी के इस विवादित इंटरव्यू में भी पहले विश्वनाथ त्रिपाठी को इसी मुद्दे पर घेरने की कोशिश की गई थी। अपूर्व जोशी ने कुलदीप नैय्यर के हवाले से सुपरपॉवर के कांसेप्ट का जाल बिछाया भी था लेकिन वो तो भला हो मदन कश्यप जी का जिन्होंने अपने अकाट्य तर्कों से ईश्वरवाद की अवधारणा की हवा पहले ही निकाल दी। अल्पना मिश्रा जो कि हजारी प्रसाद द्विवेदी की पौत्री हैं, ने उन्हें उनकी 11 साल पहले आई किताब व्योमकेश दरवेश पर नामावली संबंधित कथित त्रुटियों समेत छोटी-छोटी बातों पर घेरने की कोशिश की। जिसे बड़ी शातिरता से अनंत विजय और दैनिक जागरण ने उठाकर दुष्प्रचारित करना शुरू कर दिया। तमाम कोशिशों के बावजूद ये मुद्दा भी उतना नहीं चल सका। और फिर विश्वनाथ त्रिपाठी को बलात्कार का सौंदर्यशास्त्री बताकर पेश कर दिया गया। जो कुछ वामपंथी साहित्यकारों की किंचिद असावधानी और फेमिनिस्ट लोगों की अतिप्रतिक्रियावादी पोस्टों व कमेंटों के चलते अपने विरूपित होकर जबर्दस्ती के विवाद में तब्दील हो गया। सांप्रदायिक दक्षिणपंथियों ने इस विरूपित वक्तव्य के बहाने मार्कस्वादी सिद्धातों पर ही हमला बोल दिया। साजिश में शामिल एकमात्र महिला आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की पौत्री अल्पना मिश्रा ने आशीष मिश्रा की पोस्ट शेयर करते हुए बाकायदा मार्क्सवाद पर तीखा हमला बोला और इसे शेल्टर होम और कठुआ से जोड़कर लिखा- ‘कठुआ, मुज़फ्फरपुर, देवरिया, हरदोई... की जड़ें मार्क्सवादी आलोचक की सोच में……’

वो तो देर-सवेर जब इस पूरे प्रकरण में साजिश की बू सूँघते हुए तथा विश्वनाथ त्रिपाठी के अब तक के लिखे बोले से गुजरे लोगो ने इस पूरे प्रकरण पर अविश्वास जताते हुए पाखी के संपादक प्रेम भारद्वाज और मालिक अपूर्व जोशी पर बात-चीत का पूरा ऑडियो-वीडियो जारी करने का दबाव बनाया। उससे पहले पाखी टीम के लोग भी पूरे डंके की चोट पर अपनी वाल की पोस्ट और दूसरों की वॉल पर कमेंट में कहते फिर रहे थे कि हमने पूरे इंटरव्यू का लिप्यांतरण में शब्दशः लिखा है। और हमारे पास उसका ऑडियो-वीडियो बतौर सबूत मौजूद है। लेकिन जब उन्होंने दबाव के चलते ऑडियो और वीडियो जारी किए तो सारा खेल ही बदल गया। हालांकि ऑडियो और वीडियो की गुणवत्ता बेहद खराब है। बावजूद इसके इनके साजिश का भंडाफोड़ करने में वो सक्षम ऑडियो सक्षम साबित हुआ। रिकार्डिंग में स्पष्ट जाहिर है कि त्रिपाठी जी की कही बातों में से अति महत्वपूर्ण वाक्य को जानबूझकर छोड़ दिया गया है जबकि कई शब्दों को बदलकर अर्थ का अनर्थ कर दिया गया है।




विश्वनाथ जी ऑडियो में जो कह रहे हैं वह यूं है – ‘देखिये चाहे कविता हो या सौन्दर्य हो..मेरा सौन्दर्य का अनुभव है कि हमेशा एक अजीब किस्म की उदात्त और करुणा पैदा करता है सौन्दर्य। आप सौन्दर्य देखते ही लिक्विडेट होना शुरू करता है (इस बिंदु पर प्रेम भारद्वाज "सूरज को उगते देखना"पूछते हैं, विश्वनाथ जी कहते हैं "मरो गोली सूरज को"और एक अश्लील सी सामूहिक हँसी उभरती है)। उस अश्लील हँसी को चीरते हुए त्रिपाठी जी फिर कहते हैं- ‘मैं एकमएक होने की, मैं विगलित होने की बात कर रहा हूँ। मैं पत्थर के पानी होने की बात कर रहा हूँ। (अल्पना मिश्रा की आवाज़ आती है - उदात्त प्रेम) और अगर सौन्दर्य ये करता है। एक ख़ास तरह की करुणा पैदा करता है। सौन्दर्य देखकर आदमी को..आदमी कुत्ता भी हो सकता है। दो साल की बच्ची को देख कर रेप.. (अल्पना जी कहती हैं ऊ तो विकृति है।) त्रिपाठी जी कहते हैं- ‘ऊ विकृति को पढने (क्लियर नहीं हो रहा लेकिन पालने कतई नहीं है) के लिए सौन्दर्योपासक होने की ज़रुरत है।’

अल्पना मिश्रा फिर कहती हैं "नहीं नहीं सौन्दर्योपासक व्यक्ति नहीं कर सकता वह विकृति।

विश्वनाथ जी तुरंत कहते हैं कि "वही तो मैं कह रहा हूँ।"

जबकि पाखी पत्रिका के जुलाई-अगस्त अंक में इंटरव्यू कुछ यूँ छापा गया है-

विश्वनाथ त्रिपाठी : मारो सूरज को गोली- मैं विलीन होना-पत्थर को पानी होने की बात कर रहा हूं- सौंदर्य को देखकर अदमी क्रूर भी हो सकता है। आदमी दो साल की लड़की को देखकर रेप की भावना से भर सकता है।

अल्पना मिश्र : वह तो विकृति है?

अपूर्व जोशी : मानसिक रुग्ण्ता है।

विश्वनाथ त्रिपाठी : उस विकृति को पालने के लिए सौन्दर्य उपासक होने की जरूरत है।

अल्पना मिश्र : नहीं-नहीं सौंदर्य उपासक कभी भी बलात्कार नहीं कर सकता

देखिये कैसे हुई है एडिटिंग - उदात्त, करुणा जैसे सारे संदर्भ ग़ायब हो जाते हैं। कुत्ता "क्रूर"और पढ़ने "पालने"हो जाता है। अल्पना मिश्रा  के ""नहीं नहीं सौन्दर्योपासक व्यक्ति नहीं कर सकता वह विकृति"के जवाब में विश्वनाथ त्रिपाठी का स्पष्ट कहा "वही तो मैं कह रहा हूँ"ग़ायब कर दिया जाता है।

यहाँ एक बात और गौर करने की है कि एक बुजुर्ग आलोचक से प्रश्न करने के लिए 6 लोग उन्हें घेरकर बैठे-बैठाए गए थे! माने पूरी तैयारी थी उनकी हंटिंग करने की। ये बिल्कुल उसी तर्ज पर जैसा कि आजकल आपको गोदीवादी टीवी चैनलों पर देखने को मिलता है जहाँ एक विपक्षी प्रवक्ता को घेरकर सत्तापक्ष के प्रवक्ता समेत कई लोग उसे घेरकर उसकी हंटिंग करने के लिए बुलाए जाते हैं। सच सामने आने के बावजूद आपने कुकृत्य पर सार्वजनिक माफी माँगने के बजाय पाखी के संपादक पूरी बेशर्मी से अपना  बचाव कर रहे हैं।प्रेम भारद्वाज के स्वर में अल्पना मिश्रा भी अपना स्वर मिलाए हुए हैं। और ऑडियों में सबकुछ स्पष्ट होने के बावजूद वो कह रही हैं कि पाखी में वही छपा है जो मैंने विश्वनाथ त्रिपाठी के मुँह से उस इंटरव्यू में सुना था।



ऑडियो टेप में सच सामने और पाखी टीम की साजिशें उजागर हो जाने के बाद कल तक शब्दशः अक्षरशः इंटरव्यू लिखने की बात करने वाले उसके संपादक प्रेम भारद्वाज पूरी बेशर्मी से अब ये कह रहे हैं कि लिप्यांतरण में हूबहू या शब्दशः नहीं लिखा जा सकता। ये तो बदमाशों की सीनाजोरी है जो प्रेम भारद्वाज कह रहे हैं। आखिर प्रेम भारद्वाज ने वहीं शब्द या वाक्य क्यों काटे जो विश्वनाथ त्रिपाठी की सबसे अच्छी बात थी और ऑडियो में भी स्पष्ट थी। सबसे खराब बात उस बलात्कार वाली लाइन को क्यों नहीं काटा? जाहिर है इनका एजेंडा ही वाद पैदा करके मार्क्सवाद की हंटिंग करना था। पाखी के मेज पर उसके संपादक और मालिकान लोगों द्वारा अबनी जुबान विश्वनाथ त्रिपाठी के मुँह में डालने की पुरजोर साजिश की गई है। अब सही समय आ गया है जब इसी घोर सांप्रदायिक और बाज़रवादी एजेंडे पर काम करनेवाली पाखी पत्रिका और उसके मंचों, पुरस्कारों का साहित्यकारों द्वारा एकमत हो बहिष्कार कर दिया जाए।


स्त्रीकाल का प्रिंट और ऑनलाइन प्रकाशन एक नॉन प्रॉफिट प्रक्रम है. यह 'द मार्जिनलाइज्ड'नामक सामाजिक संस्था (सोशायटी रजिस्ट्रेशन एक्ट 1860 के तहत रजिस्टर्ड) द्वारा संचालित है. 'द मार्जिनलाइज्ड'मूलतः समाज के हाशिये के लिए समर्पित शोध और ट्रेनिंग का कार्य करती है.
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मुजफ्फरपुर बलात्कार मामले में मीडिया रिपोर्टिंग बैन के खिलाफ स्त्रीकाल संपादकीय सदस्य निवेदिता पहुँची सुप्रीम कोर्ट

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राजीव सुमन 

 5 सितम्बर 2018 को सर्वोच्च न्यायालय में पटना उच्च न्यायलय द्वारा मुजफ्फरपुर शेल्टर होम-बलात्कार मामले की जांच से सम्बंधित मीडिया रिपोर्ट पर प्रतिबन्ध-आदेश  को चुनौती दी गयी है. साउथ एशिया वीमेन इन मीडिया  के बिहार चैप्टर की अध्यक्ष और सामाजिक कार्यकर्ता एवं स्त्रीकाल की संपादकीय सदस्य निवेदिता ने उच्च न्यायालय के इस आदेश को चुनौती देते हुए सुप्रीम कोर्ट में अनुच्छेद 136 के तहत विशेष याचिका दायर की.


अप्रैल 2018 में टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज,मुंबई ने बिहार सरकार के अंतर्गत चलने वाले बालिका गृह का सोशल ऑडिट किया जिसके बाद कई चौंकाने वाले तथ्य बाहर आए. बिहार के मुजफ्फरपुर बालिका गृह में अनाथ बच्चों के यौन और शारीरिक शोषण होने की बात इस रिपोर्ट में आई जिसके बाद मीडिया की सक्रिय भूमिका के कारण यह राष्ट्रीय समाचार बन गया। पटना उच्च न्यायालय में इस मामले में जनहित याचिकायें दायर हैं. संतोष कुमार झा द्वारा दायर एक जनहित याचिका है 12845/2018। इसी जनहित याचिका की सुनवाई के दौरान पटना उच्च-न्यायालय ने अपने एक व्यापक आदेश के तहत आश्रय गृह से सम्बंधित किसी भी मामले की मीडिया रिपोर्टिंग से मनाही कर दी. पटना उच्च न्यायालय ने अपने 23-08-2018 के आदेश में कहा कि "इन परिस्थितियों में, जब तक जांच पूरी नहीं हो जाती है, तब तक सभी प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को इस मामले के संबंध में विशेष रूप से, पहले से किए गए जांच के संबंध में और / या जो जांच होनी है, कुछ भी रिपोर्ट करने से रोका जाता है, क्योंकि इससे जांच में बड़ी बाधा होने की संभावना हो सकती है."

इसी ब्लैंकेट आदेश को चुनौती देते हुए बुद्धवार 5 सितम्बर 2018 को सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका दायर की गई है.  निवेदिता ने बताया  कि इस व्यापक आदेश का प्रभाव बड़ा ही नकारात्मक है इस मसले से जुडी हर प्रकार की रिपोर्टिंग पर रोक उचित नहीं है, खासकर वैसी रिपोर्टिंग से जो जांच में कोई बाधा उत्पन्न नहीं करती हो. मसलन जैसे अदालत की कार्यवाही पर रिपोर्टिंग, वकीलों और कार्यकर्ताओं की राय की रिपोर्ट करना मामले को उजागर करते हुए, इस मुद्दे पर टीवी चर्चाएं आयोजित करना आदि.

याचिका में यह कहा गया है कि न्यायालय के सामनेयह निष्कर्ष निकालने के लिए कोई सामग्री नहीं थी कि मीडिया रिपोर्टिंग चल रही जांच में बाधा डाल सकती है। विशेष रूप से, मीडिया रिपोर्टिंग पर प्रतिबंध के लिए सीबीआई ने भी मांग नहीं की थी, जो अब मामले की जांच कर रही है, न ही राज्य पुलिस द्वारा, जिसने जांच की थी। इस आशंका का समर्थन करने के लिए रिकॉर्ड पर कुछ भी नहीं था कि रिपोर्टिंग किसी भी तरह से जांच को प्रभावित करेगी.
शेल्टर होम में यौन हिंसा के खिलाफ प्रतिरोध में निवेदिता 

याचिका में मौलिक अधिकारों के हनन के साथ ये कानूनी प्रश्न उठाए गए हैं. उच्च न्यायालय का उक्त आदेश अवैध है जो जनता के जानने के अधिकार के खिलाफ है. साथ ही, भारत के संविधान में वर्णित मौलिक अधिकार 19 (1) (ए) का उल्लंघन करता है? उक्त आदेश मीडिया अधिकारों का भी अतिक्रमण करता है. याचिकाकर्ता की वकील फौज़िया शकील ने इस संबंध में बताया कि 'इस मामले की सुनवाई अगले हफ्ते होने की संभावना है. हालांकि आज ही इस मामले की अर्जेंट सुनवाई की अपील करने वाली हूँ.'

निवेदिता बिहार में महिला हिंसा के खिलाफ सक्रिय प्रतिरोधों की अगुआई भी करती रही हैं. 

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समलैंगिकता को मिली सुप्रीम मान्यता: अंतरंगता निजी मामला

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राजीव सुमन 
नई दिल्ली, 6 सितम्बर : समलैंगिकता की धारा 377 को लेकर चल रहे घमासान पर सुप्रीम कोर्ट ने आज अपना अहम फैसला सुना दिया है. पांच न्यायाधीशों की संवैधानिक पीठ ने आज आम सहमति से  IPC की धारा 377 को मनमाना और अतार्किक बताते हुए निरस्त कर दिया है. सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने कहा कि समलैंगिक संबंध अपराध नहीं है. धारा 377 अतार्किक और मनमानी धारा है और LGBTQ समुदाय को भी समान अधिकार है.

संविधान पीठ ने कहा, "यौन प्राथमिकता बायोलॉजिकल तथा प्राकृतिक है... इसमें किसी भी तरह का भेदभाव मौलिक अधिकारों का हनन होगा. कोर्ट ने कहा, अंतरंगता और निजता किसी की भी व्यक्तिगत पसंद होती है. दो वयस्कों के बीच आपसी सहमति से बने यौन संबंध पर IPC की धारा 377 संविधान के समानता के अधिकार, यानी अनुच्छेद 14 का हनन करती है..



संविधान पीठ के न्यायाधीश-- दीपक मिश्रा, जस्टिस रोहिंटन नरीमन, जस्टिस एएम खानविलकर, जस्टिस डी.वाई.चंद्रचूड़ और जस्टिस इंदु मल्होत्रा ने इस केस में शुरूआती सुनवाई के दौरान यह तय करना सुनिश्चित किया था कि वो जांच करेंगे कि क्या जीने के मौलिक अधिकार में 'यौन आजादी का अधिकार'शामिल है, ख़ास कर तब जब 9 न्यायाधीशो के संविधानिक पीठ ने एक अन्य मामले में 'निजता का अधिकार'को एक मौलिक अधिकार है, तय किया. इसके बाद यह फैसला सुनाया गया. जस्टिस इंदु मल्होत्रा ने इस आशय की बात कही कि इतिहास को उनसे की गई इस नाइंसाफी केलिए माफ़ी मांगनी चाहिए.

इससे पहले अपने 17 जुलाई को दिए आदेश में संविधान पीठ ने धारा-377 की वैधता को चुनौती वाली याचिकाओं पर अपना फैसला सुरक्षित रखते हुए यह साफ किया था कि इस कानून को पूरी तरह से निरस्त नहीं किया जाएगा. संविधान पीठ का कहना था कि यह दो समलैंगिक वयस्कों द्वारा सहमति से बनाए गए यौन संबंध तक ही सीमित रहेगा. पीठ ने कहा था कि अगर धारा-377 को पूरी तरह निरस्त कर दिया जाएगा तो आरजकता की स्थिति उत्पन्न हो सकती है. हम सिर्फ दो समलैंगिक वयस्कों द्वारा सहमति से बनाए गए यौन संबंध पर विचार कर रहे हैं. यहां सहमति ही अहम बिन्दु है. पहले याचिकाओं पर अपना जवाब देने के लिए कुछ और समय का अनुरोध करने वाली केन्द्र सरकार ने बाद में इस दंडात्मक प्रावधान की वैधता का मुद्दा अदालत के विवेक पर छोड़ दिया था.
न्यायधीश रोहिंगटन ने धारा 377 से सम्बंधित सवाल उठाया कि क्या प्रजनन के लिए किए जाने पर ही सेक्स प्राकृतिक होता है?केंद्र सरकार ने अपना पक्ष रखते हुए कहा था  कि नाबालिगों और जानवरों के संबंध में दंडात्मक प्रावधान के अन्य पहलुओं को कानून में रहने दिया जाना चाहिए. धारा 377 ‘अप्राकृतिक अपराधों’ से संबंधित है जिसमें किसी महिला, पुरुष या जानवरों के साथ अप्राकृतिक रूप से यौन संबंध बनाने वाले को आजीवन कारावास या दस साल तक के कारावास की सजा और जुर्माने का प्रावधान है. समलैंगिकता अपराध है या नहीं, इस  पर केंद्र ने कहा था- धारा 377 का मसला हम सुप्रीम कोर्ट के विवेक पर छोड़ते हैं.

भारतीय दंड विधान की धारा-377 क्या कहती है?
इस एक्ट की शुरुआत लॉर्ड मेकाले ने 1861 में इंडियन पीनल कोड (आईपीसी) ड्राफ्ट करते वक्त की थी. इसी ड्राफ्ट में धारा-377 के तहत समलैंगिक रिश्तों को अपराध की श्रेणी में रखा गया था. जैसे आपसी सहमति के बावजूद दो पुरुषों या दो महिलाओं के बीच सेक्स, पुरुष या महिला का आपसी सहमति से अप्राकृतिक यौन संबंध (unnatural Sex), पुरुष या महिला का जानवरों के साथ सेक्स या फिर किसी भी प्रकार की अप्राकृतिक हरकतों को इस श्रेणी में रखा गया है. इसमें गैर जमानती 10 साल या फिर आजीवन जेल की सजा का प्रावधान है.

भारत में धारा 377 पर पहला विवाद?लगभग १५० साल पुरानी इस धारा को पहली कानूनी चुनौती नाज़ फाउंडेशन की तरफ से 2009 में मिली जब पहली बार सेक्स वर्करों ने दिल्ली हाई कोर्ट में इस धारा 377 के खिलाफ याचिका दायर की. इस याचिका में उनका कहना था कि यह सिर्फ सेक्स की बात नहीं बल्कि यह हमारी आजादी, भावना, समानता और सम्मान का हनन है.

तब क्या था दिल्‍ली उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय का फैसला
 2 जुलाई 2009 को दिल्ली हाईकोर्ट ने धारा 377 को अंसवैधानिक करार दिया था. लेकिन बाद में सर्वोच्च न्यायालय ने 11 दिसंबर 2013 को सुरेश कुमार कौशल बनाम नाज फाउंडेशन मामले में दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले को पलटते हुए समलैंगिकता को फिर से अपराध की श्रेणी में ला खडा कर दिया था और इस मामले में पुनर्विचार याचिका भी खारिज कर दी थी. लेकिन यह मामला फिर से पांच जजों के सामने क्यूरेटिव याचिका के तौर पर लंबित थी.

कुछ अजब-गजब और अच्छी टिप्पणियां--

इस ऐतिहासिक फैसले को लेकर कुछ मजेदार टिप्पणियाँ भी देखने को मिली. जाने-माने फिल्म निर्माता- निर्देशक और LGBTQ के समर्थक करण जौहर ने ट्वीट किया है और कहा है कि ऐतिहासिक फ़ैसला!!! आज फक्र हो रहा है! समलैंगिकता को अपराध के दायरे से बाहर करना और धारा 377 को ख़त्म करना इंसानियत और बराबरी के हक़ की बड़ी जीत है. देश को उसका ऑक्सीजन वापस मिला है!

एक बीजेपी सांसद ने कहा कि अब हमें राहुल गांधी के गले लगा लेने से डर लगता है, क्योंकि उसके बाद हमारी पत्नियां तलाक दे सकती हैं..!

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सखी का सखी को प्रेम पत्र: खुल गई बेडियां!

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यशस्विनी पाण्डेय

प्यारी सखी ,
       वैसे तो आमतौर पर मै पत्र लिखते हुए कोईसंबोधन नहीं देती, क्योंकि ये मेरा पत्र लिखने का अपना आइकॉन है. तुम जानती हो, बल्कि जिन-जिनको पत्र लिखे हैं मैंने वो सब जानते हैं. पर आज तुम्हे संबोधन देकर लिख रही क्योंकि आज ये पत्र सभी पढने वाले हैं तो मै चाहती हूँ कि पढने वाले जाने कि ये पत्र कौन किसके लिए लिख रहा. आज तुम होती मेरी ज़िन्दगी में तो भी हम कर तो कुछ नहीं पाते. पर हाँ, खुश होते उन आगे की पीढ़ियों के लिए जो हमारी तरह जात-मजहब उम्र लिंग से ऊपर उठकर इश्क करते. हम खुश होते उन लोगों के लिए जो हमारी तरह एक दोगली जिंदगी जीने को विवश नहीं. जीना तो हमे भी नहीं चाहिए था ये दोहरा जीवन, पर हममें न हिम्मत थी, न आत्मविश्वास, न कोई आधार.  किस बेस पर क्या करते कहाँ रहते? क्या मै तुम्हे वो सुरक्षा दे पाती तुम्हे जो एक पुरुष देता है ? नहीं ! न मै खुद को ही सुरक्षित रख पाती इस पुरुष सत्तात्मक समाज में जहाँ कानून भी हमारे पक्ष में नहीं था. हमारे जैसे लोगों को तो पुलिस भी ढूंढ-ढूंढ कर परेशां करती है. हमारा कभी पाला तो नहीं पड़ा ऐसी परिस्थितियों से पर हाँ ऐसा होता तो है ही.

   मुझे याद है छोटी सी स्कर्ट पहने तुम स्कूल आती थी और मै कुरता-जीन्स. ऐसा नहीं है कि मै खुद को लड़का मानती थी, मुझे अपने स्त्रीत्व से ही प्रेम है. तुम्हारे घर में भी प्यार मोहब्बत तो दूर दोस्ती को लेकर भी काफी रुल रेगुलेशन थे और मेरे घर में भी घोर जातिवाद. सिर्फ निम्न जाति का होने की कीमत नही चुकाई जाती, बल्कि उच्च जाति, कुल खानदान की भी उतनी ही बड़ी कीमत चुकवाई जाती है, वो भी केवल बहु-बेटियों से. घर पर जब भी कोई आता था तो दादी का यही सवाल होता था उस लड़की से कि जात क्या है? अगर उच्च कुल की नही हुई वो तो पूरा ध्यान दादी का इसी मे रहता था की किस बर्तन में मैंने चाय दी? कहाँ बिठाया क्या खिलाया? और फिर उसके जाने के बाद मुझसे बर्तन को विशेष तौर पर साफ़ करने को कहा जाता था और चादर को बदल देने को. मेरी उम्र कोई कम नहीं थी पर तब भी ये समझ में नहीं आता था कि इसका क्या मतलब? इसका दोस्ती से और किसी के आने जाने से क्या सह-संबंध ? तुम्हारे आने के साथ भी इस तरह की घटनाएँ होने लगी थीं पर तब बहुत ज्यादा मुझे बुरा लगता था. तुम्हारे आने की फ्रीक्वेंसी ज्यादा थी जाहिर है हम सिर्फ अच्छी सखियाँ नहीं थीं हम बहुत-बहुत अच्छी सखियाँ थीं. दीन-दुनिया, परिवार, समाज, आयु-लिंग से कहीं ऊपर. ये सब न दादी के लिए मैटर करता था न मेरे माँ-बाप के लिए. पर मेरे लिए मैटर करता था, वह था, दादी जो अप्रत्यक्षतः अपमान करती थीं तुम्हारा, उनके अंदर जो खुन्दस थी तुम्हारे निम्न-जाति को लेकर. उनकी ये निगेटिविटी कब मेरे अंदर भी घर कर गयी पता नहीं चला. तुम्हारे जाने के बाद पिताजी से वो चुगली करती थीं कि मैंने तुम्हारे लिए बाज़ार से मिठाई मंगवाई फिर चाय के साथ समोसे मंगवाए और तुम्हे भगवान माफिक इज्जत दे रही हूँ मै. वैसे तो ये उनकी व्यंग्यात्मक शिकायत रहती थी कि ‘भगवान जइसन इज्जत दियाता’ पर प्रेम अगर परमात्मा और खुदा है तो हाँ तुम ही तो थी ‘मेरा प्यार’‘मेरी खुदा’. ईश्वर ने तो साथ नहीं ही दिया मेरा. कब कैसे साथ नहीं दिया इसकी तो लम्बी कहानी है. जीवन में जो पहली सरसराहट आई थी वो तुम्हारी ही वजह से तो आई थी. मन-मानस, देह-दिमाग पर जो गुदगुदाहट थी, एक इंटेंसिटी और नशा-सा जो तारी रहता था वो तुम से ही रहता था. क्या-क्या तारी रहता था? तुम्हे भी पता है उसे सिर्फ तुम समझ सकती हो और हमारे जैसे लोग समझ सकते हैं. बहरहाल, दादी हमारे प्रेम कहानी की खलनायक/खलनायिका का रोल अदा कर रही थीं. उनकी नकारात्मकता माँ-पिताजी के सर चढ़कर भी बोलने लगा. मुझे याद है ज़िन्दगी में अगर निगेटिविटी के असर में आकर अगर कोई गलत रिएक्शन मैंने किया है तो वो दादी के साथ किया. उनकी कॉटन की साडी में ब्लेड लगा के और उनकी आलमारी की चाभी छुपा के. अपनी साड़ी को लेकर पजेसिव रहती थीं वो. आयरन की हाई स्टार्च वाली साड़ी पहन के घर के मुख्य द्वार पर बैठा उनका दमकता चेहरा आज भी मुझे याद आता है तो हंसी आती है कि हमारे उनके बीच एक चूहे-बिल्ली का खेल चलता था. उनकी नकारात्मकता के प्रभाव स्वरूप माँ पिताजी ने फतवा जारी कर दिया कि जब दादी को नहीं पसंद तो तुम अपनी दोस्ती-यारी स्कूल कॉलेज तक ही सीमित रखो. पाबन्दी की हद ये भी थी कि मै तुम्हारे घर भी नहीं जा सकती थी. क्योंकि, दो वजह थे एक तो मेरे घर से भी कहीं आने-जाने की इजाजत नहीं के बराबर थी, दूसरा, तुम्हारे घर में भी मित्रता को लेकर नकारात्मक दृष्टिकोण ही था. बेसिकली ये सब इसीलिए था कि हम अपनी जिंदगी न जीने लगे, अपने सुख-दुःख न पहचानने लगे, हमे क्या अच्छा लगता है? क्या करना चाहिए? ये सब सोच न आने लगे. पर, मै तो पैदा ही गर्भ से विद्रोह कर के हुई होउंगी. माँ कहती भी है कि मै तीसरी संतान थी घर में वो भी बेटी. तो उन्होंने नहीं चाहा कि मै आऊं बिना ये इंश्योर हुए कि मेरा लिंग क्या है? अब सिर्फ सोच से कहाँ काम चलता है? तकनीक भी तो चाहिए, एफर्ट भी तो मैटर करता है और वैसे भी बच्चे तो ईश्वर का तोहफा होते हैं पाप -पुण्य का ये सब मामला हो जाता है. ये अलग बात है कि उस बच्चे को लाकर बेसिक जरूरत शिक्षा-अच्छा भोजन जैसी सुविधाओं से उसे ताउम्र वंचित किया जाए. ये पाप की श्रेणी में नहीं आता? कितना हास्यास्पद है न अपने हिसाब से पाप-पुन्य का खांचा खींच लो. छोड़ो मामला दूसरी तरफ जा रहा, आओ हम अपनी बातें करते हैं. दादी से लिया गया नादानी से भरा प्रतिशोध मुझे शांत तो नहीं कर पाया. पर, एक अपराधबोध-सा जरुर पैदा कर गया जब परेशान हो-हो कर वो अपनी चाभी ढूंढ रही थीं और अपनीकटी-फटी साड़ी देख हाय-तौबा मचा रही थीं. शुरुआत के कुछ क्षण तो बड़ा आनंद आया पर जल्दी ही अपनी औकात पर आ गयी मै कि ये मै नहीं कि अपने फ्रस्टेशन में किसी को तंग करके मुझे सुकून मिले.

पहला फ़तवा जारी होने के बाद हम घर से बाहर बागीचे में और दालान में मिलने लगे. तुम जब आती थी तो मेरे घर किसी से खबर भिजवाती थी कि तुम बाहर हो और फिर मै तुमसे बाहर मिलने लगी. तुम्हारा जब घर जाने का समय होता था तो मै तुम्हे तुम्हारे घर तक छोड़ने जाती थी. फिर तुम्हारे घरवाले जब आश्वस्त हो जाते थे कि खानदान की इज्जत आसपास है तो फिर तुम मुझे मेरे घर छोड़ने आती थी. कितना मजेदार था न ये सिलसिला ! जी चाहता था कभी थमे ही न. पर, थमता तो सब कुछ हैं ! ये सी-ऑफ करने का नायाब और शानदार तरीका भी थ्रिल्ल था जिंदगी का. अगर हम किसी और को बताएं कि हमारा घर महज 500 मीटर की दूरी पर था और हम मिलने देखने को तरसते रहते थे. मेरी छत से तुम्हारा छत थोडा धुंधला, पर दीखता था और हम दोनों के घरवालों में एक तरह से दुश्मनी ही थी तो सबको फ़िल्मी मामला ही लगेगा. पर, फ़िल्में भी तो समाज का ही आइना होती हैं न. दुनिया में कुछ असम्भव भी है क्या ?
2 सालों के हमारे सम्बन्ध में इतनी असंख्य घटनाएँहुईं कि अब तो याद करने से भी बातें याद नहीं आएँगी पर जिन घटनाओं ने दिमाग पर ज्यादा होंट किया था उसमे एक ये भी रहा कि मेरे घर से पहले फतवे के बाद जब हम बाहर मिलने लगे उसी दौरान एक दिन तुम जब मुझसे मिलने आई और मै अपने घरवालों के साथ शहर गयी थी तब फोन भी नही होता था कि मै तुम्हे बता सकूं. पत्रवाहक की उपलब्धता की अपनी सीमाएं हैं. मेरे घर के एक नौकर ने हमारे संबंधो का फायदा उठाकर तुम्हारे साथ यौन शोषण करने की कोशिश की. खैर, तुम बच निकली. नहीं, भी बचती तो क्या ही लुट जाने वाला था ! बस ये है कि दिमाग में बुरी स्मृतियाँ जगह ना ही लें तो बेहतर होता है. उसके बाद कितना मुश्किल रहा होगा तुम्हारे लिए मुझसे मिलने आना और बाहर उस नौकर के रहते हुए मेरा इंतजार करना. और ये सब हम क्यों झेल रहे थे? जातिवाद, सामंतवाद, लिंगवाद? कितनी दुखद विडंबना थी कि हम इस मामले में भी न किसी से कुछ कह सके न कर सके.
 स्कूल में हम तय करते थे कि आज शाम को कितने बजे छत पर चढ़नाहै. पर सिर्फ हमारे तय करने से चीजें मन-मुताबिक कहाँ होती हैं? बाकि सारे टर्म्स और कंडीशन भी तो होते हैं. मेरे साथ मेरी बहने होती थी. तुम्हारे साथ तुम्हारे भाई-बहन. सो, हम एकटक वो धुंधली छवि निहार भी नहीं पाते थे. दिल को सुकून-सा जरुर मिलता था तुम्हारी छत पर तुम्हारी आकृति देख. बहनें अक्सर शाम होने पर छत से वापिस चलने को कहती थी पर मै यही कहती थी कि थोड़ी देर बाद आती हूँ. जब तक शाम की हलकी रौशनी भी तुम्हारी आकृति को स्पष्ट करती मै खड़ी होकर नजरों में भरते रहती थी. हालाँकि प्रेम में कहाँ कुछ भरता है ? जितना भरता है कहीं उससे ज्यादा खाली होता है. जितनी प्यास बुझती नही उतनी और बढ़ जाती है.
धीरे-धीरे हमारे बीच में प्यार, इश्क, गहराई, समर्पण, भूख, लालच, इंटेंसिटी, दीवानगी, तड़प, साथ जीने-मरने की चाह, केयर, पजेसनेस आदि तत्व कब कैसे शामिल होने लगे कुछ पता ही नहीं चला. कब हम लम्बे-लम्बे पत्र लिखने लगे-- एक स्कूल, एक क्लास में पढने के बावजूद, कुछ पता नहीं चला. मुझे तो याद भी नहीं कि हम लिखते क्या थे ? या बातें क्या करते थे? बातें करने को कुछ था नहीं ज्यादा हमारे बीच या फिर हम दुनियावी बातों में कभी पड़े नहीं. बहरहाल, हमारे बीच कोई गॉसिप नहीं होता था. केवल देखा-देखी आहें भरना, दिल धडकना और ये ऐसे आवेग जिन्हें समझने में हम भी सक्षम नहीं थे.

   खुमारी इतनी शांति से देर तक नहीं चलती रहती. हमारी खुमारी को भी जबरदस्त धक्का लगा था जब तुम्हारी माँ ने मेरे पत्र को पढ़ लिया था और उनकी तरफ से दूसरा फतवा जारी हुआ कि अब दोस्ती खत्म. वो तुम्हे बहका रही है. उसका खानदान ही ऐसा है. वगैरह-वगैरह. तुम बेहद डरी हुई परेशान और तनाव में थी. मैंने तुम्हारी मम्मी से जाकर डायरेक्ट बात करने की हिम्मत की और समझाया कि जैसे आपकी नजर में ये नासमझी है हम दोनों की, तो इसी नासमझी में हम कोई गलत कदम भी उठा लेंगे. सो, मिलने-जुलने से ना रोकिये. कुछ शर्त-नियमों के साथ उन्होंने मेरी बात मान ली. वो टर्म्स-कंडीशन कुछ ऐसे थे कि हम अब केवल उनके घर पर उनकी नजरों के सामने, उनके कमरे में मिलेंगे और बातें करेंगे. तुम्हारा मेरे घर आना उन्होंने बंद कर दिया. खैर, चोर तो हमेशा ताक में ही रहता है, हमने उसमे भी गुंजाईश ढूंढ ली. वो गाना है न "दीवाने हैं दीवानों को न घर चाहिए... मोहब्बत भरी एक नजर चाहिए". आप जब मर रहे हों प्यास से तो जो भी बूंद जहाँ से मिले बस गले को तर करना होता है प्यास बुझाना गौण हो जाता है. तुम्हारी माँ ने मेरा पत्र सुरक्षित रख लिया था कि अगर नियम तोड़ा गया तो वो उसे मेरी माँ से दिखा देंगी. मैंने तुम्हे इस काम के लिए लगाया कि जैसे भी कर के वो खत ढूंढो. इसमें हमारा भविष्य छिपा है. तुम्हे नहीं मिला और हम इसी डर में सालों जीते रहे.

तुम्हारी माँ ने कहा कि ये विकृति है इस पर नियन्त्रण बहुत जरुरी है. कल को तुमलोगों को अपनी इस भूल पर पछतावा होगा और मेरी बातें याद आएँगी और मुझे सही ठहराओगे तुमलोग. आज मै बुरी हूँ, दोषी हूँ, दुश्मन हूँ. खैर, इस तरह की असंख्य घटनाओं से भरा था हमारा सम्बन्ध, हमारा प्यार हमारी इंटेंसिटी …. तुम्हारी माँ तुम सबको लेकर कहीं और शिफ्ट हो गयीं और मेरी झोली में तुम्हारी अंतहीन यादें, गांव, बागीचा, दादी, स्कूल, बाथरूम, होली, खत के राख़, तुम्हारे दिए गिफ्ट कार्ड, कपड़े और भी बहुत कुछ रह गया और है..
आज तुम एक जिन्दा लाश हो अपने घर पर बात नहीं करती तुम. तुम्हे लगता है तुमसे बिना पूछे तुम्हारी गलत शादी कर के तुम्हारी ज़िन्दगी बर्बाद कर दी गयी है. तुम्हारे अंदर का मनुष्य मर चुका है. प्यार ,मोहब्बत तो जैसे कभी किया ही नहीं था तुमने. तुमसे जब-जब बात करने की कोशिश की और ज्यादा दुखी हुई. तुम कमजोर पड़ गयी, तुमने खत्म कर दिया खुद को. तुम मुझसे प्यार न करती, किसी से तो करती, जिसके साथ रहती हो उसी से करती. पर अब सब तुम्हारे लिए अस्तित्वहीन है. तुम्हारी माँ से कहना चाहती हूँ कि मै उन्हें कोई भी धन्यवाद नहीं देना चाहती न फील करती हूँ ना हम
विकृत थे ना हमारा सम्बन्ध. काश कि एक इन्सान का दुसरे इन्सान से प्यार  की तरह हमारे प्यार को समझा होता, बजाय इसके कि इसे समलैंगिकता, अप्राकृतिक, अवैध, गैरकानूनी जैसे विभागों की श्रेणी में रखा गया. आज उनकी बेटी जिंदा होती और हमारे सम्बन्ध और प्यार के क़ानूनी सहमति पर हम जश्न मना रहे होते, अपने-अपने घर में अपनी-अपनी जिंदगी जीते हुए ही सही ……..पाना और साथ रहना ही तो प्यार नहीं, एक एहसास कि कोई मीलों दूर आपके इंतजार में है आपसे बात करने के, आपसे मिलने के आपके साथ छुट्टियाँ बिताने के आपसे अपने सुख-दुःख संघर्ष शेयर करने के इंतजार में कोई जी रहा है. मुझे तुम्हारी माँ जैसी उन असंख्य औरतों से शिकायत है जो अपनी बेटी-बेटे की सेक्सुअलिटी को ढंक छुपा कर उन्हें दोहरा जीवन जीने को विवश करते हैं. अपनी गरिमा इज्जत और बड़े बनने की चाह में. आप तो तभी गिर जाते हैं जब आप प्रेम का असम्मान करते हैं. धन्यवाद माननीय न्यायधीश का कि उनके इस फैसले से शायद ऐसी असंख्य आयरनी और दुर्घटनाएं और कुछ मौत थम सके !!

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धारा 377 की मौत और पितृसत्तात्मक विमर्श पद्धति

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जाया निगम 

जेंडर से जुड़े बहुत सारे कानूनी मसलों पर भारत में चल रही कानूनीलड़ाईयों पर पितृसत्तात्मक बुद्धिजीवियों का विश्लेषणात्मक रवैया कुछ ऐसा है जैसे वंचित समुदायों के जीवन में पूंजीवाद का कोई स्थान ही नहीं होना चाहिये जबकि तीसरी दुनिया के लोकतांत्रिक देशों का सच यह है कि वहां नवउदारवादी नीतियों ने स्त्रियों और वंचित वर्गों को  शोषण के अलावा उन्हे उनके देशों की सामंती संरचना को तोड़ कर थोड़ी आजादी भी दी है. अपनी बाकी आजादी और मुद्दों के लिये वह अपने-अपने देशों की पितृसत्तात्मक राजनीतिक व्यवस्थाओं से जूझते हुए अलग-अलग मुद्दों पर कानूनी और अन्य सांस्कृतिक माध्यमों के जरिये अपनी लड़ाईयां लड़ रहे हैं. कई बार प्रगतिशील भी अपने ही देश के लैंगिक आंदोलनों के खिलाफ ऐसे तर्क गढ़ते हैं जो ऊपर से बहुत बौद्धिक और तार्तिक नज़र आते हैं लेकिन उसके अंदर भी पितृसत्ता की मूल शासक भावना ही काम कर रही होती है.



ऐसे में बाजारवाद के तर्कों को लैंगिक आंदोलनों के खिलाफ पढ़ते हुए लगता है कि महिलायें और अन्य वंचित वर्ग नव उदारवाद की खिलाफत क्यूं करे जबकि पता है कि लगभग सारे ही जनतांत्रिक आंदोलनों को आखिरकार अंतरराष्ट्रीय पूंजी के मार्फत विकसित और विकासशील देशों की चिर पुरातन लड़ाई में ही बदल जाना है. लैंगिक आंदोलनों की सफलता को अंतरराष्ट्रीय  पूंजी और नेटवर्क की सफलता से जोड़ कर देखा जाना वाकई हास्यास्पद है यदि आप अपने ही देश में मौजूद वंचित वर्ग की चेतना को इस सफलता से मिल रही राहत को नहीं पहचान पा रहे.

आखिर पर्यावरणीय आंदोलन भी इसी तरह की लड़ाईयों का एक हिस्सा होते हैं. इसके बावजूद इस मसले पर मिली अदालती सफलताओं को हम अपनी लोकतांत्रिक उपलब्धि ही मानते हैं जबकि इस तरह के आंदोलनों में भी फंड बाहर से आता है कई बार उन्ही देशों से जहां की कंपनियों के खिलाफ तीसरी दुनिया के देश बगावत कर रहे होते हैं.

हाल ही में नेटफ्लिक्स पर ओशो की एक फिल्म - वाइल्ड-वाइल्ड कंट्री ने खासी शोहरत बटोरी उसके ट्रीटमेंट में एक खासियत है कि उन्होने अंतरराष्ट्रीय पूंजी के बरक्स ओशो के विचारों के उदय को दिखाया. उन्होने दिखाया कि कैसे पूरब के अध्यात्म-अभ्यास के साथ अगर पश्चिम की सेक्स-उन्मुक्तता को जोड़ दिया जाये तो पूरब और पश्चिम एक हो सकते हैं. यही वो विचार था जिसने ओशो को साल 1981 में अमेरिका के आरेगांव जैसे पथरीले प्रदेश में एक पूरा शहर बनाने के लिये यूरोपीय और अमेरिकी उच्च वर्गीय, संभ्रात लोगों का एक पूरा जत्था मिल गया.



हम भारतीय बहुत अच्छे से जानते हैं इस मेहनत को-आखिर हमने भी अपने ब्रिटिश आकाओं के लिये अंडा सेल जैसी औपनिवेशिक इमारतें बनाई हैं. कुछ उसी तरह ओशो के अनुयायियों ने उनके लिये रजनीशपुरम बना डाला. जो वहां के स्थानीय लोगों को अपनी संस्कृति पर हमला लगा और उन्होने इस सांस्कृतिक हमले के खिलाफ अपने लोकतांत्रिक अधिकारों का इस्तेमाल करते हुए लंबी कानूनी लड़ाई लड़ी. अमेरिका के नागरिकों को जीत हासिल हुई और मां आनंद शीला समेत भगवान ओशो के अन्य अनुयायियों को अध्यात्मिक पूंजीवाद के केंद्र में स्थित ओशो के अथॉरिटेरियन कैरेक्टर का पता चलता है.

शीला को पता चलती है 16 साल की उम्र में दुनिया छोड़ कर किये गये अपने प्रेम की हकीकत. ओशो का साम्राज्य ढह जाता है और वह अमेरिका से वापस आकर पुने स्थित अपने आश्रम में समाधि ले लेते हैं जिससे उन्हे बचाने के लिये शीला इस कदर डिफेंसिव हुई थी कि उसने दूसरों की हत्या जैसे कराने जैसे विकल्प चुने थे.
पूंजीवाद में किसी सुपर क्रिएटिव टीम और उसके सबसे खूबसूरत सपने का अंत इसी तरह एक दुखद कथा में बदलने को अभिशप्त होता है. ठीक वैसे ही किसी लोकतांत्रिक देश की कानूनी सफलतायें अक्सर किसी शक्तिशाली समूह और व्यक्ति के वर्चस्व की भेंट चढ़ जाती हैं. तो क्या तीसरी दुनिया के लोकतांत्रिक देशों में चल रहे जनतांत्रिक आंदोलनों - खासकर लैंगिक आंदोलनों और मुदों को पितृसत्ता की भेंट चढ़ते देख कर खुशी मनायी जानी चाहिये?

जया निगम फ्रीलांस लेखन एवं पत्रकारिता करती हैं. 

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देशवासियों के नाम पूर्वोत्तर की बहन का एक खत

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तेजी ईशा


प्रिय देशवासियों, 
यह खत  इस उम्मीद के साथ कि आप इसे पढ़ पाएंगे.
मुझे नहीं पता कि मेरे साथ यह सब क्यों हो रहा हैं?मैंने जिस धरती पर अपना सबकुछ, इसी धरती पर प्रेम करते हुए निकाल दिया, वही धरती अब मुझे बेदखल करने के लिए राजनीतिक स्तर पर तैयार है. मुझे नहीं पता यह सब किसलिए और क्यों हो रहा है. मेरे बेटे का कुछ माह पहले ही गोवाहटी के एक कॉलेज में दाखिला हुआ है. और कुछ छिट-पुट काम भी यही इसी शहर में कर रहा है. हम इस शहर, इस मुल्क, इस जमीन से निकाल दिए जायेंगे तो कौन-सी जगह पर रहेंगे. कौन-सा देश, कहाँ के शरणार्थी और कहाँ की नई अकल्पनीय भौगोलिक स्थिति और पराई भाषा! कैसे जाएंगे हम अपना जीवन समेट कर और कहाँ जाएँगे?




मेरी दुर्गा माता की मूर्ति क्या मेरे साथ जा पायेगी?कुछ दिन बाद ही दुर्गा माँ आने वाली हैं, क्या मैं उसे छोड़ के चली जाउंगी? बिहू के गीत “ऊई.. जान.. ऊई.. जान.. जानमोनी होपुनोटे आहिबा..” जैसे कई गीत कान में सुनते-सुनते याद होंगे. मुझे वास्तव में नहीं पता कि कांग्रेस और भाजपा क्या है? मुझे यह, केवल इतना पता है कि मैं गोवाहटी की सुपारी खाती हूँ और मेरे गाल के कोने में पान समेटा रहता है. यही रहते हुए मैंने अपने बाबा-अब्बू से जाना कि दूर-दराज के रिश्ते और अदब-व्यवहार कैसे निभाए जाते हैं. देश-प्रदेश-राज्य क्या है! क्या होता है ! नहीं पता है. बस यह पता है कि हम जहाँ हंसी-ख़ुशी पुश्तों से रह रहे हैं वही मेरा देश है. मेरे फेफड़े में जहाँ की हवा पिछले पचपन सालों से भड़ती हुई साँस से जीवन सेंक रही है वही मेरा देश है.

पड़ोस की नसरीन ने मुझे अगले ईद में हाथ से बनी मेजपोश की मांग की है. नारंगी, हरे और उजले मोटे धागें ले आई हूँ. क्रोशिय पर धागे से कई घर बीन चुकीं हूँ. क्या इस धागे के घर को भी ठीक इसी घर की तरह छोड़ के जाना है. नसरीन के हाथों की जादुई मालिश हर दर्द की दवा है. क्या उसकी इस दवा को मैं ले जा पाऊँगी? नसरीन यूँ ही हमेशा की तरह पड़ोस के अग्रवाल जी, पाएंग़जी और जैन की बीबियों को उसके हाथ-पैर दर्द करने पर प्यार से मालिश करेगी. पर मैं अपने ऐसे दर्द के साथ कहीं किसी अनिश्चित जगहों पर रहूंगी बिना नसरीन की, उसकी मालिश की, उसके बक-बक की.

बारिश आने से पहले ही बरांडा के लिए कुछ फूल-पात्र लिए थे. जोरहाट से कुछ रेशमी फूल के उद्भिद (पौधा) मंगवाए थे. उसकी दो-चार पत्तियां इस नए जगह को अपना घर मान कर आ गईं हैं. यह गमला इस नए पौधें का नया घर है जिसमें यह अपना सर्वस्व जमा चूका है. क्या मैं इसे अपने पूर्णता के साथ ले जा पाऊँगी. मुझे तो यह भी उम्मीद नहीं है कि मैं इस बैगनी फूलों को देख पाऊँगी. अमित ने इसे अपने ननिहाल से ला कर दिया था. यह गमला यहाँ रह जायेगा तो इसे रोज पानी कौन देगा? कौन इसे रोज सिर्फ दस मिनट धूप में रखेगा? पता नहीं शायद इसकी मिट्टी में मरने से पहले वाली झुर्री होगी और यह भी पौधे सहित मेरी तरह अलविदा ना कह दे.


बोरा की बेटी हुई है. बिलकुल अपने माँ पर गई है. गुझिया बना कर मैंने सबका मुंह मीठा किया. बोरा के ससुरालवालों ने कहा है कि इन्हें अगले दफे सिक्किम ले जाने के लिए गुझिया चाहिए. वो लोग अपनी होली अपने पोती के ननिहाल में ही मनाएंगे. आनेवाली होली के रंगों में मेरे हाथों के छाप किसी पाचिल (दिवाल), वस्त्र (कपड़े) और परदे होंगे कि नहीं – पता नहीं. गलियों में “ऐखने असो” (इधर आओ) की मेरी आवाज किसी को नहीं सुनाई देगी. “छेड़े येबेना ना.. ” (छोड़ना नहीं किसी को) की हंसीली आवाज भी मेरी कानों में नहीं आएगी.

कल ही अरुणाचल के गाँव मायोंग से कासिफ और उसकी बेगम आस्फा आईं थी. उसने बताया कि सरकार ने लुकानो नाम (बचा नाम) को फिर से माँगा है. ईद पर मैंने उन्हें सेवैयाँ और मेजपोस्त भिजवाकर हामिद के जन्मदिन पर आने को कहा था. पर सरकार के इस गणना वाले फरमान के बाद दूर-दराज से कोई नहीं आया.
यह दूरियां अब बढ़ती ही जाएगी. और छुटती जाएगी सभी बातें-हंसी-दुलार. मेरे बरांडे पर दिन भर मस्ती करती ये नई-नह्न्कू चूजों को देख कर ऐसा लगता है कि किसी दिन ठीक उसी कुत्ते की तरह, दीवार फांद कर कोई हमें झपट्टा न मार दे.

मुझे कई दिनों से यह लग रहा है कि दीवार पर टंगे वोप्लास्टिक के फूलों की तरह हमारा वजूद है जो कुछ सालों तक तो धोकर अपने साथ टांग कर रखा जाता है और फिर उसे अपने से हटा दिया जाता है जिसका पता किसी को नहीं होता है.

बारिश लगातार हो रही है. ज्योति ने परसों ही कहा था कि आंटी गोभी आने में देर है, प्याज के पकोड़े ही खिला दो. इस बारिश उसकी फरमाइश पूरा करते हुए सोच रही हूँ कि अगली बारिश में कहाँ आलू के चिप्स सुखाउंगी! बना भी पाऊँगी कि नहीं! यदि बना भी लिया तो चित्रा, हामिद, नजीब, जोसेफ तो नहीं होंगे न छत पर चिड़ियों को भगाने के लिए. उस डर में भी नहीं रह पाऊँगी कि कहीं इन शरारती बच्चों के पैर से चिप्स न टूट जाए. इन गर्मियों में तो दो छोटे-बड़े मर्तबान अचार के इनसे टूट गये थे. क्या मैं अगली गर्मी किसी पर ये प्यार वाला गुस्सा निकाल पाऊँगी? हो सकता है मेरा मर्तबान शायद आचार से न भरे, मर्तबान भी हो कि नहीं  पता नहीं.
घर के पीछे अदरक और धनिए को बोया है. इसे कैसे बड़े होता देखूंगी? इसके नन्हें कोमल नये पत्तों पर से क्या फिर मक्खी उड़ा पाऊँगी?

छत के कोने में बने ईटों के कुर्सी को कहाँ-कैसे लेकर जाउंगीजिसपर अकेलेपन में बैठने पर हिम्मत मिलती है. जहाँ हम फेंके जाने वाले हैं वहां क्या छत होगा? वो चौड़ी ईंट की भूरी खुरदरी कुर्सी होगी? जिससे उठने पर हम हमेशा अपने दुप्पटे को छुड़ा कर सारे गुस्से को निकालते थे. क्या वो अकेलापन होगा जो कई सालों से इस घर के मिट्टी में रचने बसने के बाद बना है. इस अकेलेपन और उस होने वाले अकेलेपन में वो पिया (तोता) पीछे से टांय बोलकर टोकेगा कि नहीं?

चार गली आगे जो मोदीखाना (किराने की दुकान) के बगल मेंबैठा ब्योसको भिक्खु (बुड्डा-भिखाड़ी) को रोज कौन रोटी देगा? अच्छा है यह यही रहे. कम-से-कम इसी जगह. उसकी मुस्कराहट, यहाँ तक की गालियाँ भी सुनते सुनते अपना-सी लग गईं होंगी. नई जगह पर शायद सब नया सा लगे. मुस्कराहट तो मिलते मिलते रह जाएगी. शायद  बची साँस भी उस मुस्कुराहट की उम्मीद से चली जाए. दो दिनों से जब भी इसे देख रही हूँ तो एक डर जैसा लगता है कि मुझे भी कोई रोटी देने वाला बचेगा क्या ?
         
इस एक नये शब्द ने एन.आर.सी. ने मेरे जीवन को पूरी तरह से बदल दिया है. यह मेरे जीवन का एक नया ककहरा बन गया है, जिसमें क, ख, ग की जगह एन, आर, सी को पढ़ने और सीखने की कोशिश कर रही हूँ. इसे पढ़ते और सीखते हुए मैं कभी-कभी अपने भविष्य की तरफ भी यूँ ही ऑंखें ऊँची करके देखने लगती हूँ. वहां पहुंचकर थोड़ा ठिठक कर मेरे कानों में मुझे यह सुनाई देता है – जन गण मन अधिनायक जय हे! क्या मैं इससे बाहर हो गई हूँ? मैंने इस धरती का सूरज देखा है, मैं यहाँ की बारिश में नहाई हूँ, मुझे यहाँ की धूप से बहुत अलग किस्म का लगाव है. मेरी सारी मुस्कुराहटें, मेरा सारा प्रेम, मैंने इसी जगह पर सीखा है, मेरी कभी कभी की तकलीफें, कभी कभी का थोड़ा दुःख, थोड़ा रोना, थोड़ा अकेलापन मैंने इसी धरती पर महसूस किया है. लेकिन अब जो अकेलापन मिलने वाला है, क्या वो सच में अकेलापन है या इस भरे-पूरे जीवन को जीने के बाद किसी भयावह बीहड़ जंगल में फेंक दिए जाने के दुस्वप्न को लगातार जीना मेरी इन सांसों में समा गया है. मुझे किसी से कोई शिकायत नहीं है. खुद अपने से भी नहीं. जीवन में यह पहली बार महसूस होता है कि शिकायत का कोई अर्थ नहीं. मेरा खुद का होना ही अपने में एक शिकायत है. इसे ना मैं देख पा रही हूँ. और ना ही कोई दूसरा. इस पूरे ब्रह्माण्ड में मेरे होने की शिकायत को इस उपग्रह को कोई वितान देख पा रहा है नहीं कोई पत्रकारिता की सनसनी भरी खबर.

मैं जहाँ भी जाउंगी, अपने इस मुल्क को अपने साथ ही जीऊँगी.मेरा यह सब लिखना मेरी गूंगी आवाज को शब्द देने का प्रयास ही है, पता नहीं आप इस आवाज को सुन पाएंगे कि नहीं.
आपकी
इसी मुल्क की अभी तक की एक नागरिक

तेजी ईशा पूर्वोत्तर पर शोध कर रही है

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भीमा-कोरेगांव हिंसा पर एनडीए के डिप्टी मेयर की फैक्ट फायन्डिंग रिपोर्ट से उड़ सकती है सरकार की नींद

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एक ओर पुणे, महाराष्ट्र की पुलिस सामाजिक कार्यकर्ताओं, बुद्धिजीवियों, वकीलों को भीमा-कोरेगाँव में 1 जनवरी को हुई हिंसा का दोषी मानते हुए गिरफ्तार कर रही है, जिसे सरकार का समर्थन और तर्क मजूबती से समर्थन दे रहा है, वहीं एनडीए के सहयोगी दल आरपीआई (ए) के कोटे से पुणे के डिप्टी मेयर डा. सिद्धार्थ धेंडे की अध्यक्षता वाली 9 सदस्यीय फैक्ट फायन्डिंग टीम की रिपोर्ट हिन्दूवादी नेता और सरकार को इस मामले में कटघरे में खड़ा कर रही है. यह रिपोर्ट कोल्हापुर रेंज के आईजी को सौपी गयी है. 

रिपोर्ट में आया भिड़े का नाम, प्रधानमंत्री के साथ भिड़े 


रिपोर्ट के मुताबिक यह हिंसा सुनियोजित थी, जिन्हें रोकने के लिए पुलिस ने कुछ नहीं किया और मूकदर्शक बनी रही। यही नहीं, रिपोर्ट ने हिंसा को साजिश बताया है और कहा है कि हिंदूवादी नेता मिलिंद एकबोटे और संभाजी भिड़े ने करीब 15 साल से ऐसा माहौल बना रखा है, जिनसे हिंसा की स्थिति पैदा हुई।

भीमा कोरेगांव कमिशन मुम्बई में इसकी सुनवाई चल रही है। फैक्ट-फाइंडिंग टीम के एक सदस्य को कमीशन सुनेगा।  टीम की रिपोर्ट में कहा गया है कि एकबोटे ने धर्मवीर संभाजी महाराज स्मृति समति की स्थापना वधु बुद्रक और गोविंद गायकवाड़ से जुड़े इतिहास को तोड़ने-मरोड़ने के लिए की थी। महार जाति के गायकवाड़ ने शिवाजी महाराज के बेटे संभाजी महाराज का अंतिम संस्कार किया था।

जातियों के बीच खाई खोदने की कोशिश 
रिपोर्ट में कहा गया है- 'संभाजी महाराज की समाधिके पास गोविंद गायकवाड़ के बारे में बताने वाले बोर्ड को हटाकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक केबी हेडगेवार का फोटो लगाया गया था, जिसकी कोई जरूरत नहीं थी। यह अगड़ी और निचली जातियों के बीच खाई बनाने के लिए उठाया गया कदम था। अगर पुलिस ने कोई कदम उठाया होता तो किसी अनहोनी को रोका जा सकता था।'रिपोर्ट में आरोप लगाया गया है कि भीमा-कोरेगांव के पास सनासवाड़ी के लोगों को हिंसा के बारे में पहले से पता था। इलाके की दुकानें और होटेल बंद रखे गए थे।


दंगाई कहते रहे, 'पुलिस हमारे साथ' 
रिपोर्ट में यह भी दावा किया गया है कि गांव में केरोसिनसे भरे टैंकर लाए गए थे और लाठी-तलवारें पहले से रखी गई थीं। रिपोर्ट में पुलिस के मूकदर्शक बने रहने का दावा करते हुए एक डेप्युटी एसपी, एक पुलिस इंस्पेक्टर और एक अन्य पुलिस अधिकारी का नाम लिया गया  है। दावा किया गया है कि की बार हिंसा के बारे में जानकारी दिए जाने के बाद भी पुलिस ने गंभीरता से नहीं लिया। यहां तक कि रिपोर्ट के मुताबिक दंगाई यह तक कहते रहे- 'चिंता मत करो, पुलिस हमारे साथ है।'

भिड़े-एकबोटे ने बदली इतिहास की पटकथा 
रिपोर्ट में कहा गया है कि सादी वर्दी में मौजूद पुलिस भगवा झंडों के साथ भीमा-कोरेगांव जाती भीड़ को रोकने की जगह उनके साथ चल रही थी। धेंडे ने दावा किया है कि इस बात का सबूत दे दिया गया है कि दंगे सुनियोजित थे और उनका एल्गार परिषद से कोई लेना-देना नहीं है, जैसा कि पहले आरोप लगाया गया है।

उन्होंने बताया कि इतिहास से पता चलता है किभीमा कोरेगांव और आसपास के इलाकों में दलितों और मराठाओं के बीच दुश्मनी नहीं थी लेकिन भिड़े और एकबोटे ने इतिहास की पटकथा को बदलकर सांप्रदायिक तनाव पैदा किया। समय के हिसाब से हिंदुत्ववादी ताकतों के संबंध को दिखाया है।  हालांकि सरकार भिड़े और एकबोटे की गिरफ्तारी से बचती रही है.

खबर का इनपुट नवभारत टाइम्स और आरपीआई (ए) के अंदरुनी सूत्र)

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सुप्रीम कोर्ट ने मीडिया पर प्रतिबंध मामले में बिहार सरकार से मांगा जवाब, मीडिया-गाइडलाइन बनाने की बतायी जरूरत

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स्त्रीकाल डेस्क 

मुजफ्फरपुर शेल्टर होम में बच्चियों से बलात्कार मामलेकी जांच पर मीडिया रिपोर्टिंग पर प्रतिबंध लगाने के मामले पर सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकार और सीबीआइ को नोटिस जारी कर उसका जवाब मांगा है। सुप्रीम कोर्ट ने पटना उच्च न्यायालय के आदेश के खिलाफ दायर की गई याचिका पर मंगलवार को सुनवाई की। हालांकि सुनवाई के दौरान कोर्ट ने मीडिया की भूमिका पर भी सवाल खड़े किये। 18 तारीख तक नोटिस का जवाब मांगते हुए कोर्ट ने दो सदस्यों को नामित किया कि वे बिहार सरकार को मीडिया गाइडलाइन बनाने में मदद करें- सदस्य हैं, शेखर नफाड़े और अपर्णा भट्ट। इस बीच सुप्रीम कोर्ट ने पटना हाई कोर्ट द्वारा बच्चियों से बातचीत करने के लिए नियुक्त कोर्ट के प्रतिनिधि प्रकृति शर्मा की नियुक्ति पर भी रोक लगा दी है।



मुजफ्फरपुर के बालिका गृह में नाबालिग बच्चियों केसाथ कथित रूप से बलात्कार और यौन शोषण किया गया था। मामले के खुलासे के बाद इसकी जांच की जिम्मा सीबीआइ को सौंपा गया था, जिसकी पटना हाइकोर्ट जांच की मॉनिटरिंग कर रहा है। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने भी स्वतः संज्ञान भी लिया था। पढ़ें स्त्रीकाल में सम्बन्धित रिपोर्ट:

1. बिहार में बच्चियों के यौनशोषण के मामले का सच क्या बाहर आ पायेगा?
 2. बच्चों के यौन उत्पीड़न मामले को दबाने, साक्ष्यों को नष्ट करने की बहुत कोशिश हुई: एडवोकेट अलका           वर्मा
  3. उस बलात्कारी की क्रूर हँसी को, क्षणिक ही सही, मैंने रोक दिया: प्रिया राज

याचिकाकर्ता निवेदिता ( वरिष्ठ पत्रकार और स्त्रीकाल के सम्पादन मंडल की सदस्य) की याचिका की सुनवाई करते हुए न्यायमूर्ति मदन बी लोकूर और न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता की पीठ ने राज्य सरकार और केंद्रीय जांच ब्यूरो से 18 सितंबर से पहले जवाब मांगा है । याचिकाकर्ता की ओर से ऐडवोकेट  फौज़िया शकील मामले की पैरवी कर रही हैं.

इस मामले में कुछ गिरफ्तारियाँ हुई हैं और राज्य सरकार के मंत्रियों की भूमिका भी इस मामले में संदिग्ध रही है.

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मासिक धर्म में थोपे गये पापों से मुक्ति हेतु कब तक करते रहेंगी ऋषि पंचमी जैसा व्रत!

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विनिता परमार

हिन्दू व्रतों की स्त्रियों और गैर ब्राह्मण समुदायों के प्रति दुष्टताओं को लेकर आयी यह छोटी सी टिप्पणी जरूर पढ़ें. देखें कैसे अशुद्धि, पवित्रता-अपवित्रता का भाव स्त्रियों और ब्राह्मणेतर जातियों पर थोप दिया गया है.

भादो महीने के शुक्ल पक्ष की पंचमी को ऋषी पंचमी काव्रत  किया जाता है । आज भी बिहार, मध्य प्रदेश उत्तरप्रदेश,राजस्थान के कुछ भागों में इस दिन महिलाये व्रत रखती हैं । महिलाएं जब माहवारी से होती हैं तब गलती से कभी मंदिर में चली जाती हैं या कभी पूजा हो वहाँ चली जाती हैं या रसोई में चली जाती हैं, तो उसका दोष लगता है। ऋषिपंचमी व्रत इस बात का काट बताया जाता  है,  अगर किसी स्त्री ने गलती से भी माहवारी के दौरान अपने घर के किसी पुरुष का भोजन पानी छू दिया है तो उन्हें मुक्ति मिलेगी। धर्म-ग्रंथों की मूर्खतापूर्ण, दुष्टतापूर्ण मान्यता है कि रजस्वला स्त्री पहले दिन चाण्डालिनी, दूसरे दिन ब्रह्मघातिनी तथा तीसरे दिन धोबिन के समान अपवित्र होती हैं। वह चौथे दिन स्नान करके शुद्ध होती है। यदि यह शुद्ध मन से कभी भी ऋषि पंचमी का व्रत करें तो इसके सारे दुख दूर हो जाएंगे और अगले जन्म में अटल सौभाग्य प्राप्त करेगी।



इस अटल सौभाग्य की कामना में भादों शुक्ल पक्ष कीतृतीया को महिलाओं ने हरीतालिका तीज का निर्जला व्रत किया तो फिर चतुर्थी की पूजा और पंचमी को राजस्वला होने के बाद पापों से मुक्त होने के लिये ऋषि पंचमी व्रत करेंगी।  108 बार चीरचीड़ी के दातुन से मुँह धोयेंगी, 108 लोटे पानी से नहायेंगी और पसही धान का चावल खायेंगी ।

एक बार व्रत पर नज़र दौडाया तो फिर प्रकृति का संरक्षण नज़रआया। चीरचीड़ी का पौधा औषधीय गुण से भरा हुआ है मासिक धर्म की अनियमितातों को दूर करता है। साथ -ही -साथ इस व्रत में हल से जोतकर ऊगनेवाले अनाज को खाना मना है।पसही धान अपने आप उग जाता है जो अब भारत के खत्म होनेवाले अनाज की किस्म है। इस व्रत में सप्तऋषियों की पूजा होती है। यानि पूर्ण प्रकृति पूजा, व्रत के तरीके से कोई ऐतराज नहीं लेकिन इसकी नियत यानी जो सोच रख यह व्रत बनाया गया उसपे गहरी आपत्ति है ।

मासिक धर्म के दौरान कोई भी स्त्री खाना नहीं बना सकती, ना ही वो किसी अन्य व्यक्ति के खाने व पानी को छू सकती है। क्योकि ऐसा माना जाता है कि मासिक धर्म के दौरान महिलायें अशुद्ध हो जाती है। इसलिए अगर वे खाने पानी को हाथ लगाती है तो इससे खाने का अपमान होता है। इस प्रक्रिया के दौरान महिलाओं को ना तो पूजा पाठ तक करने की अनुमति नहीं है, यहाँ तक उन्हें मंदिर के पास तक नहीं जाने दिया जाता। प्रगतिशील महिलायें भी अपने लालन -पालन और जडों की वजह से पूजा नहीं कर पाती। जानबुझ कर बनाये गये इस तरह के नियमों में महिलाये पिसती रहेंगी ।

मासिक धर्म या माहवारी एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमे महिलाओं को हर महीने 3 से 7 तक रक्त स्त्राव होता है। वैसे तो ये एक शारीरिक क्रिया है जो महिलाओं को गर्भधारण और प्रसव के लिए बहुत जरूरी है किन्तु ये किसी भी महिला के लिए एक सजा से कम नही होती क्योकि माहवारी के समय हर महिला पर ना जाने कितनी सारी रोक लगा दी जाती है । इन पाबंदियों को देखने पर ऐसा महसूस होता है जैसे कि माहवारी महिलाओं को अछूत बना दिया है । किन्तु वैज्ञानिक दृष्टि और आधार में इसका कोई जवाब नही है बस ये एक ऐसी परम्परा है जो सदियों से लगातार चली आ रही है। महिलाएँ भी इस तरह की सोच के साथ आने वाली पीढ़ी को इस तरह की सीख देती हैं जिससे शिक्षा , अशिक्षा का कोई मायने नहीं रह जाता है। महवारी के दौरान होनेवाली तकलीफ़ों को ध्यान में रखकर बनाये ये नियम पता नहीं कब हमारी अंधभक्ति बन गई ।

विनिता परमार
केन्द्रीय विद्यालय रामगढ़ कैंट 
ईमेल – parmar_vineeta@yahoo.co.in


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पढ़ी-लिखी चुड़ैल: 'स्त्री'!

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साक्षी सिंह 

अमर कौशिक द्वारा निर्देशित और श्रद्धा कपूर, राजकुमार राव स्टाररहिंदी फिल्म 'स्त्री'देख कर आई. जाने की कोई ख़ास इच्छा नहीं थी क्योंकि फिल्म को 'हॉरर-कॉमेडी'की श्रेणी में रखा गया है. डरावनी फ़िल्में देख कर मुझे डर लगता है और आज कल कॉमेडी का मतलब सिर्फ़ 'उपहास'या कि कुछ 'डबल मीनिंग जोक्स'हो चुका है. इस सो कॉल्ड कॉमेडी के दोनों ही रूपों में मुख्य रूप से स्त्रियों को टार्गेट किया जाता है, जिससे कि मुझे शदीद परेशानी है. मगर अच्छे रिव्यूज़ और दोस्तों का साथ मिला सो चली गई. जाना अच्छा भी रहा और सबसे अच्छा तो इसी लिहाज़ में कि यहाँ कॉमेडी के नाम पर स्त्रियों की देह, चरित्र और मन को टार्गेट कर सिर्फ़ कुंठाओं को पोषित करनें का काम नहीं किया गया है.



फ़िल्म 31 अगस्त 2018 को ही रिलीज़ हो चुकी है सो अब तक उसकी कहानी, फिल्मांकन, अभिनय, आरम्भ, अंत आदि की खूबियों और ख़ामियों पर काफी बात-चीत हो चुकी है. इसलिए मैं यहाँ उन विषयों पर बात नहीं करूंगी. मगर एक 'स्त्री'होने के नाते इस फिल्म में मुझे क्या ख़ास लगा वो ज़रूर साझा करूंगी.
शुरू करते हैं फ़िल्म के नाम से, जहाँ अब-तक हिंदी भाषी क्षेत्रों में किसी मृत स्त्री की आत्मा को भूतनी, पिशाचिनी, चुड़ैल आदि-आदि कहनें का चलन रहा है, उसके उलट इस फ़िल्म में दिखाया गया है कि इस कहानी में लोग उस आत्मा को 'स्त्री'ही सम्बोधित करते हैं. लोगों को पता है कि वह पढ़-लिख सकती है, इसलिए वो अपने घरों के बाहर "ओ स्त्री कल आना"लिखते हैं. अगर इसके सांकेतिक अर्थ को देखें तो समझ आयेगा कि आज के वक़्त में जब कि लडकियाँ पढ़-लिख गई हैं, वे शब्दों के भाव और अर्थ समझनें लगी हैं. उन्हें अपनी क्षमताओं का पता है, तब आप भीतरी तौर पर भले ही उनसे नफरत क्यों ना करें उन्हें भला-बुरा कहें या उनके लिए भला-बुरा सोचें मगर ज़ाहिरी तौर पर तो आपको वे अपने साथ बदसुलूकी करनें की छूट कतई नहीं देंगी.
'ओ स्त्री कल आना'पढ़ कर स्त्री लौट जाती है, इसमें भी दो बातें नजर आती हैं. पहली कि, स्त्री को आप भले ही बुरी आत्मा मान रहे हैं मगर अपने साथ हुई नाइंसाफ़ी के बावजूद वह पुरुषों की भांति बलात् किसी के घर में नहीं घुसती बल्कि सामने वाले की इच्छा का सम्मान करते हुए वापस चली जाती है. दूसरी बात कि, जो 'स्त्री'बार-बार आ रही है, जिससे लोग डर और उसे कल आना पर टाल कर बेवकूफ़ बना रहे, वे 'मत आना'भी लिख सकते थे मगर नहीं लिखते क्योंकि वे जानते हैं कि वह स्त्री अपने साथ हुई नाइंसाफी का जवाब माँगने आती है, अपनें अधिकार के लिए आती है. अगर वे 'मत आना'लिखेंगे तो 'स्त्री'के विद्रोही हो जाने का भी डर रहेगा. हमारा आज का समाज भी कुछ ऐसा ही है वह ना तो स्त्रियों को उनके हक देता और ना ही देने से साफ़-साफ़ मना करता है. असल में स्त्री को लेकर लोगों के मन में बैठा डर किसी भूतनी या चुड़ैल का डर नही है बल्कि यह डर 'हक़ माँगनें वाली पढ़ी-लिखी स्त्रियों का डर है'.

फ़िल्म में चंदेरी के ग़ायब हुए लोगों के उद्धारक के रूप मेंउस लड़के को दिखाया है 'जिसकी आँखों में प्यार हो'ना कि भुजाओं में बल. राजकुमार राव नें एक छोटे से कस्बे  के 'लेडीज़ टेलर'विक्की की भूमिका निभाई है. विक्की अच्छा दर्ज़ी है और एक दर्ज़ी की हैसियत से आस-पास उसका अच्छा नाम है. वो अपने काम को ही बेहतर तरीके से कर के खुश है. उसका 'लेडीज़ टेलर'होना कहीं भी उपहास की वजह नहीं बनता और ना ही अपना काम छोड़ वह  कुछ हिरोइक करने की फिराक में रहता है. एक सामान्य इंसान की तरह वह दोस्तों के साथ घूमता है, गालियाँ बकता है, प्रेम करता है और डरता भी है. कहीं भी हीरो बनने के चक्कर में बड़े-बड़े पौरुष भरे डायलॉग दर्शक के सर पर नहीं पटक देता. शुरू से अंत तक राव नें उसी सादगी से अपने किरदार को निभाया है.



वहीं स्त्री की उद्धारक स्वयं एक स्त्री यानि की श्रद्धा कपूर कोबनाया है ना कि किसी पुरुष को, वह भी प्यार और मदद के रास्ते ही ना कि डर और दहशत के रास्ते. 'स्त्री'को जहाँ के लोगों नें बेईज्ज़त किया, उसे और उसके पति को मार दिया वहाँ वह इन्साफ के लिए सालों भटकती रही, पुरुषों को बंदी बना उनसे बदला लेती रही मगर उसे इंसाफ़ नहीं मिला बल्कि लोगों की धारणाएँ उसके लिए ग़लत ही बन गईं कि स्त्री पुरुषों को नंगा कर के सुहागरात मनाने के लिए ले जाती है. मगर श्रद्धा कपूर डर और दहशत की जगह राजकुमार राव को प्यार के माध्यम से ये समझाने में सफल हो जाती है कि 'स्त्री को शरीर नहीं सिर्फ़ इज्ज़त और प्यार चाहिये'जो कि बरसों पहले उससे छीन लिया गया था. फिल्मकार नें यहाँ अपरोक्ष रूप से ही सही मगर स्पष्ट कर दिया है कि 'स्त्रियों'को भी उनका हक और सम्मान, पुरुषों द्वारा बनाए हिंसा, भय और दहशत के रास्ते पर चल कर नहीं मिल सकता. स्त्री सशक्तिकरण के मायने 'पुरुषों'जैसा बन जाना कतई नहीं है और ना ही पितृसत्ता के समानांतर एक वैसी ही बर्बर सत्ता खड़ी करना है.

पितृसत्ता का वह भयानक जाल, जिसका शिकार हमेशा स्त्रियाँरही हैं, उसे इस फ़िल्म में फिल्मकार नें पुरुषों पर डाल कर दिखाया है कि उसमें फंस कर पुरुष कैसे ख़ुद को बचाने के लिए घरों में बंद हो जाते हैं, टोटके करते हैं, परदा करते हैं, झुण्ड में बाहर निकलते हैं. किस प्रकार स्त्री का भय बढ़ने से धर्म की दुकानदारी बढ़ती है यह भी फिल्म में बीच-बीच में एक बोर्ड के माध्यम से साफ़ होता जाता है, बोर्ड एक पण्डे का होता है जिस पर'स्त्री'से बचाने के नुस्खों का प्रचार और उसका दाम लिखा होता है और यह दाम देवी पूजन के उन चार दिनों में, जिनमें कि 'स्त्री'चंदेरी में अपना आतंक फैलाती, हर रोज़ बढ़ता दिखाई देता है.

इन मुद्दों के अतिरिक्त फिल्म में बीच-बीच में छोटे-छोटे डायलॉग्सके द्वारा कई कन्टेम्परेरी राजनीतिक मुद्दों को भी उठाया गया है. जैसे कि 'भाई भक्त बनना अंधभक्त मत बनना'ये आज कल बहुत ही प्रचलित राजनीतिक सटायर है जो कि समकालीन सत्ताधारी पार्टी के समर्थकों पर उनकी तर्कहीनता को चोटिल करनें के लिए किया जाता है. आधार कार्ड भी एक कंट्रोवर्सी बन चुका है जिसकी वजह से लोगों को अपनी प्राइवेसी और सुरक्षा दोनों पर ही ख़तरा मंडराता नजर आ रहा है, इस ओर भी इशारा करते हुए फिल्मकार नें पंकज त्रिपाठी से कहलवाया है कि स्त्री को सबके बारे में पता है क्योंकि 'उसके पास सबका आधार लिंक है'. विजय राज नें एक अर्ध विक्षिप्त बूढ़े का किरदार निभाया है जो कि हर वक़्त 'एमरजेंसी लगी है'कि रट लगाए रहता है. यह भी एक एक खासा राजनीतिक तंज़ है. आज के भारत की राजनीतिक परिस्थितियों को देखते हुए देश भर के बुद्धिजीवी आए दिन इस और इशारा करते रहते हैं कि 'यह दौर अघोषित एमरजेंसी का दौर है.



इस फ़िल्म की सबसे बड़ी खासियत जो मुझे लगी वह ये कि ऊपर लिखी बातों में बतौर दर्शक मैं जिन भी निष्कर्षों तक पहुँची हूँ, फ़िल्म में कहीं भी ऐसा नहीं लगता कि उसका कोई सीन या कोई संवाद दर्शक को वो बातें समझाने के लिए रखा गया है, बल्कि बहुत ही सहजता से हंसी-मज़ाक के लहज़े ये सभी बातें स्वाभाविक रूप से आई हुई जान पड़ती हैं. फ़िल्म कहीं भी बोझिल नहीं होती जिसके कारण हर तबके का दर्शक आसानी से शुरू से अंत तक जुड़ा रह सकता है और फ़िल्मकार बड़ी ही चतुरता से 'हॉरर-कॉमेडी'के ज़रिये अपनें सामाजिक सरोकार दर्शकों तक पहुँचा देता है.

साक्षी सिंह दिल्ली विश्वविद्यालय में शोधार्थी हैं. सम्पर्क: sakshipuspraj@gmail.com 

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पुलिस रिपोर्ट में हिन्दी विश्वविद्यालय की दलित छात्राएं निर्दोष, विश्वविद्यालय प्रशासन हुआ शर्मसार!

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सुशील मानव

पिछले दिनों हिन्दी विश्वविद्यालय की पांच दलित शोधार्थियों/ विद्यार्थियों पर कार्रवाई करते हुए विश्वविद्यालय प्रशासन ने  उन्हें निलंबित कर दिया था, जब उनपर एक फर्जी मुकदमा वर्धा के एक थाने में दर्ज हुआ. अब उसी मुकदमे में कोई तथ्य नहीं पाते हुए पुलिस ने अपनी रिपोर्ट फ़ाइल कर दी है. इस रिपोर्ट के बाद विश्वविद्यालय प्रशासन को शर्मसार होना चाहिए लेकिन उसके अधिकारियों की कार्यप्रणाली से ऐसा दिखता नहीं है. प्रशासन पर सवाल उठ रहे हैं कि निलंबन तत्काल तो निलंबन वापसी में ‘प्रक्रिया’ क्यों? इसके पूर्व भी विश्वविद्यालय के प्रभारी रजिस्ट्रार के के सिंह द्वारा पीड़िताओं पर समझौते का दवाब बनाते बातचीत का एक ऑडियो वायरल हुआ था. सुशील मानव की रिपोर्ट: 


विश्वविद्यालय परिसर का एक भाग 

महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा की पाँचदलित लड़कियों के खिलाफ नजदीकी रामनगर पुलिस थाने में धारा 143, 147,149,312, और 323 में लिखाई गई एफआईआर की बुनियाद पर वर्धा यूनिवर्सिटी प्रशासन द्वारा उक्त पाँच लड़कियों को तत्काल प्रभाव से निलंबित कर दिया गया था। तीन महीने की आईजी स्तर से जाँच में निर्दोष पाए जाने के बाद आरोपित पाँचों लड़कियों को पुलिस प्रशासन द्वारा क्लीनचिट दे दिया गया। और उसकी एक कॉपी कल ही वर्धा विश्वविद्यालय को रिसीव करवा दी गई। आईजी जाँच में निर्दोष करार दिए जाने के बाद पाँचों छात्राएं जब यूनिवर्सिटी के रजिस्ट्रार से अपने निलंबन वापसी के बाबत जानकारी लेने गई तो रजिस्ट्रार ने बताया कि पुलिस जाँच की रिपोर्ट वीसी तक पहुँचा दी गई है और निलंबन वापसी की प्रक्रिया में है। इस बाबत जब इस रिपोर्ट के लिए मैंने कुलपति से फोन पर पूछा कि ‘आईजी जाँच में पाँचों लड़कियों को क्लीनचिट दिए जाने के बाद अब कितने समय में उन लड़कियों का निलंबन वापिस लिया जाएगा?’ तो इसके जवाब में वीसी ने कहा कि ‘अभी वह कागज यूनिवर्सिटी प्रशासन तक नहीं पहुँचा है। जब पहुँचेगा तो देख विचारकर फैसला लिया जाएगा।‘ मैंने जोर देकर कहा कि सर हमें पक्की जानकारी है कि पुलिस जाँच रिपोर्ट यूनिवर्सिटी प्रशासन तक कल ही पहुँच गई है।

इस सवाल पर बहुत हत्थे से उखड़ गये कुलपति गिरीश्वर मिश्र ने कहा कि ‘आप लोगों को क्या है क्यों पड़े हो इस मामले में। उन लड़कियों के खिलाफ़ एफआईआर हुई है।’ मैंने प्रतिप्रश्न किया, ‘एफआईआर तो आप पर भी हुई है यूनिवर्सिटी के और भी कई लोगों के खिलाफ़ हुई है। मेरी इस बात से तिलमिलाए वीसी महोदय ने मेरी कॉललाइन काट दी। मैंने कई बार फिर से प्रयास किया पर उन्होंने मेरा नंबर ब्लैकलिस्ट में डाल दिया। मेरा दूसरा प्रश्न अनुत्तरित रह गया। मैं वीसी महोदय से अगला प्रश्न यह पूछना चाहता था कि ‘उक्त पाँचों लड़कियों को क्लीचनिट मिलने के बाद क्या वर्धा यूनिवर्सिटी प्रशासन अपने गलत फैसले के लिए उन लड़कियों से माफी माँगेगा?’

इसके ठीक बाद मेरी बात रजिस्ट्रार केके सिंह से हुई।के के सिंह ने पाँचों लड़कियों के निलंबन वापसी पर पूछने के बाबत बताया कि निलंबन वापसी प्रक्रिया में है। वीसी इसे देख रहे हैं और जल्द ही इस पर फैंसला होगा। मैंने पूछा, ‘कुछ अनुमान ही बता दीजिए कितने दिन में होगी?’ तो उन्होंने कहा कि ये हम आपको नहीं बता सकते। बस इतना जान लीजिए की ये प्रक्रिया में है। इसके जवाब में कि ‘लड़कियों को क्लीनचिट मिलने के डॉक्युमेंट आपको कब मिले थे, उन्होंने बेहिचक कहा कि, ‘कल (11 सितम्बर) शाम को।'

वहीं पाँचों पीड़िताओं में से एक लड़की आरती से भी बात हुई। उसने फोन पर बातचीत में बताया कि ‘निर्दोष होते हुए भी हमें निलंबित कर दिया गया। निलंबन के बाद से हम पाँच लड़कियों ने पिछले तीन महीने से मानसिक और शारीरिक यातनाएँ झेली है।‘ वे बताती हैं कि ‘हमने बार-बार कुलपति और रजिस्ट्रार को बताया था कि हमलोग निर्दोष हैं और उसके सबूत विश्वविद्यालय में ही उपलब्ध हैं. अंततः पुलिस के आई जी से हमें मिलना पड़ा. उनके हस्तक्षेप से पुलिस ने जल्द जांच पूरी कर हमें क्लीनचिट दिया है.’  पुलिस जाँच में क्लीनचिट मिलने के बाद वे पिछले दो दिन से लगातार यूनिवर्सिटी कैंपस में रजिस्ट्रार और वीसी दफ्तर के चक्कर लगा रही हैं। रजिस्ट्रर द्वारा उन्हें बार-बार प्रक्रिया में होने को कहकर टाला जा रहा है । बता दें कि के के सिंह वही रजिस्ट्रार हैं जिनका कुछ दिन पहले फोनकाल ऑडियो वायरल हुआ था जिसमें वो पीड़ित लड़कियों को ही समझौते के लिए दबाव बनाते और धमकाते हुए साफ सुनाई पड़ते हैं। पीड़ित लड़कियों का कहना है कि जब यूनिवर्सिटी प्रशासन द्वारा निलंबन तत्काल कर दिया गया था, उसमें किसी तरह की आंतरिक जांच की प्रक्रिया नहीं अपनाई गई तो अब पुलिस से क्लीनचिट मिलने के बाद उनका निलंबन तत्काल वापिस क्यों नहीं लिया जा रहा। प्रक्रिया के नाम पर निलंबन वापसी में टाल-मटोल क्यों किया जा रहा है?

पूरा मामला क्या है-
बी. एड.–एम. एड. एकीकृत की छात्रा ललिता ने आरोप लगाया था किशादी का झांसा देकर शोध छात्र चेतन सिंह लगातार उसका यौन शोषण करता रहा। और फिर 29 दिसंबर 2017 को उसने चेतन सिंह पर आईपीसी की धारा 376, 323, 506, 417 के तहत स्थानीय राम नगर पुलिस स्टेशन, वर्धा में केस दर्ज कराया। इस केस में विश्वविद्यालय की चार लड़कियां आरती कुमारी, विजयालक्ष्मी सिंह, कीर्ति शर्मा, शिल्पा भगत पीड़िता की गवाह थीं।विश्वविद्यालय की महिला सेल की सिफारिश पर हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा प्रशासन ने चेतन सिंह को यौन शोषण के आरोप में निष्कासित कर दिया। कुछ दिन बाद आरोपी चेतन सिंह को कोर्ट से इस शर्त पर जमानत मिली कि जमानत के बाद वो पीड़िता या गवाहों को किसी प्रकार से प्रताड़ित नहीं करेगा। इसके बाद आरोपी चेतन सिंह विश्वविद्यालय के महिला छात्रावास के निकट ही पंजाब राव कॉलोनी में अपनी पत्नी सोनिया के साथ किराए पर आकर रहने लगा।

कुलपति गिरीश्वर मिश्र और विश्वविद्यालय के शिक्षक एवं छात्र 

इसी दौरान दिनांक 03 मई 2018 की शाम अपनी चारोसहेलियों के साथ ज़रूरत के सामान लेने गई पीड़ित छात्रा ललिता और चेतन सिंह व सोनिया सिंह का आमाना-सामना हो गया, जिसके बाद गाली गलौज करते हुए चेतन सिंह कथित रूप से पीड़िता को थप्पड़ मारता है। और फिर उसी रात 8:00 बजे अपनी पत्नी सोनिया सिंह के साथ रामनगर पुलिस थाना में जाकर चेतन सिंह ललिता के खिलाफ धारा 504, 506 के तहत एनसीआर दर्ज कराता है । ललिता भी विश्वविद्यालय के महिला छात्रावास के कर्मचारी, गार्ड, केयरटेकर तथा 3 महिला मित्र के साथ रामनगर थाने में चेतन सिंह के खिलाफ धारा 324 के तहत केस दर्ज कराती है। फिर दिनांक 08 मई 2018 को चेतन सिंह की पत्नी सोनिया सिंह द्वारा हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा को लिखित शिकायत पत्र दिया जाता है जिसमें पीड़िता पक्ष की 4 मुख्य गवाहों पर आरोप लगाए गए कि उन सबने चेतन सिंह व उसकी पत्नी के साथ मारपीट की जिसके दौरान उसका गर्भपात हो गया। इस मामले में सेवाग्राम से बनी एक मेडिकल रिपोर्ट के आधार पर 07 जून 2018 को उक्त पाँचों लड़कियों के खिलाफ़ एफआईआर दर्ज कर ली गई। एन.सी.आर. में जहाँ पीड़िता के अलावा किसी का भी नाम नहीं था वहीं बाद में एफआईआर में चार अन्य नाम लड़कियों के नाम जोड़ दिया गया।इसी केस के सिलसिले में रामनगर थाने के पी.एस.आई.सचिन यादव पीड़िता और उसके साथ के गवाह लड़कियों व उनके अभिभावकों को धमकी देता है कि “5 लड़कियों की पीएच-डी. खत्म करवा दूँगा और सब को जेल कराऊँगा”। पी.एस.आई. का यह रवैया देखकर पीड़िता लड़कियों ने इसकी शिकायत आईजी नागपुर से की। आईजी ने मामले पर तुरंत संज्ञान लेते हुए वर्धा एसपी से जांच प्रक्रिया शुरू करवाई। इस बीच पीएसआई का ट्रांसफर हो गया. 6 जुलाई 2018 को आरोपियों के बयान दर्ज़ कराए गए। उसी दिन 6 जुलाई 2018 को एफआईआर को आधार बनाते हुए विश्वविद्यालय द्वारा 5 लड़कियों को बिना किसी प्राथमिक जांच किए निलंबित कर दिया गया। जोकि पूर्णतयः असंवैधानिक था। इन लड़कियों का निलंबन मुंबई न्यायालय के आदेश क्रमांक 9889/2017 का खुला उल्लंघन है जिसमें साफ-साफ कहा गया है कि केवल एफआईआर दर्ज होने के आधार पर विद्यार्थियों के शिक्षा लेने के संवैधानिक अधिकार का हनन करने का अधिकार किसी संस्था के पास नहीं है। तो क्या अब यूनिवर्सिटी के वीसी जो एक समय पुलिस प्रशासन में दरोगा भी रह चुके हैं अपनी इस गंभीर और असंवैधानिक गलती के लिए उन लड़कियों से माफी माँगेंगे जिन्हें उनके असंवैधानिक कार्रवाई के चलते मानसिक, शारीरिक, सामाजिक, विश्वविद्यालय प्रशासन व पुलिसिया यंत्रणाओं से गुजरना पड़ा।

सुशील मानव फ्रीलांस जर्नलिस्ट हैं. संपर्क: 6393491351

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नौकरी का प्रलोभन देकर महिला साहित्यकार से इलाहाबाद विश्वविद्यालय के कुलपति की अश्लील बातचीत: चैट हुआ वायरल

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सुशील मानव 

इलाहाबाद विश्वविद्यालय के कुलपति रतन लाल हंगलू और एक महिला साहित्यकार के बीच वाट्सएप चैट का स्क्रीनशॉट इन दिनों वायरल हो रहा है। चैट अश्लील भी है और नौकरी का प्रलोभन देते हुए एक किस्म की बारगेनिंग को भी सामने लाता है. कुलपति पर उनकी पूर्व नौकरियों में भी लगे हैं यौन-शोषण के आरोप. एक छात्रा की माँ ने नौकरी देने के प्रलोभन से छात्राओं के यौन-शोषण का आरोप लगाते हुए इलाहाबाद विश्वविद्यालय को सावधान भी किया था. छात्र-नेता ऋचा सिंह कहती हैं कि इस विश्वविद्यालय की लड़कियों की गरिमा खतरे में है और राष्ट्रपति से कुलपति की बर्खास्तगी की मांग भी उन्होंने की है. पढ़ें सुशील मानव की रिपोर्ट: 





ये चैट बेहजद निजी हैं और अश्लील भी- जिसे पढ़ने के बाद उस पैटर्न का खुलासा होता कि किस तरह किसी संस्था के उच्च पद पर बैठा कोई पुरुष अपने सत्ता पॉवर और पहुँच के बल पर तमाम तरह के लोभ लालच देकर महिलाओं और लड़कियों का यौनशोषण करता है। सबसे ज्यादा दुःख और गुस्सा तब आता है जब ये पुरुष किसी यूनिवर्सिटी के उच्च पद पर आसीन उच्च शिक्षित व्यक्ति हो।  कैसे वो प्यार, पैसे रुतबे और संस्थान के किसी वांछित पद पर नौकरी दिलवाने के वादे करते हुए किसी महिला का यौन-शोषण करता है। इस मामले में अभियुक्त कुलपति पहले से ही शादी-शुदा है, और ये बात उस महिला को भी भलीभाँति पता हो जिसका शिकार वो कर रहा हो। वाट्सएप चैट वायरल होने के बाद से वीसी इलाहाबाद प्रो रतन लाल हंगलू का मोबाइल नंबर स्विच ऑफ है। उनके एक दूसरे नंबर पर भी संपर्क करने की कोशिश की गई लेकिन उस नंबर पर पर भी उनसे संपर्क नहीं हो पा रहा है।

बता दें कि इलाहाबाद यूनिवर्सिटी की लड़कियाँ पहले भी कुलपति रतन लाल हंगलू और रजिस्ट्रार एन के शुक्ला के खिलाफ आंदोलनरत रही हैं। इससे पहले इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में आदित्यनाथ योगी को कैंपस में आने से रोकने का मामला हुआ था, 19 नवंबर 2016 की रात जब तत्कालीन छात्रसंघ अध्यक्ष ऋचा सिंह तमाम लड़कियों के साथ रात 12 बजे धरने पर यूनिवर्सिटी गेट पर बैठी हुई थी, उस वक़्त एबीवीपीके गुंडों के साथ एन के शुक्ला नशे की हालत में धुत वहाँ पहुचते हैं, और गुंडों के साथ मिलकर धरने पर बैठी लड़कियों को न सिर्फ अभद्र अश्लील गालियां दी बल्कि मार पीट भी की थी, जिसकी रिपोर्ट यूनिवर्सिटी से संबंधित कर्नलगंज थाने में दर्ज है।विश्वविद्यालय के महिला सलाहकार बोर्ड की चेयरपर्सन द्वारा विश्वविद्यालय को चिट्ठी लिखी गई थी जिसमें में यह स्वीकार किया गया कि लड़कियों की साथ देर रात अभद्रता हुई पर, विश्वविद्यालय उस चिट्ठी को दबा देता है, और उस पर कोई जांच नही होती।

गौरतलब है कि यूनिवर्सिटी में 12000 लड़कियाँ पढ़ती हैं।इसके पहले कुलपति रतन जिस कल्याणी विश्वविद्यालय में कार्यरत थे वहां पढने वाली एक लड़की की माँ सुभाषिनी डे ने इलाहाबद यूनिवर्सिटी के महिला सलाहकार बोर्ड के चेयरपर्सन को पत्र लिखकर उन्हें अपनी चिंता से अवगत करवाया था।महिला ने लिखा है कि ‘मैं कल्याणी विश्वविद्यालय में पढ़नेवाली एक छात्रा की माँ हूँ। मैं बहुत चिंतित होकर आपको पत्र लिख रही हूँ। आपके वीसी प्रो. रतन लाल हंगलू ने जॉब और दूसरे फायदे पहुँचाने का लालच देकर कल्याणी यूनिवर्सिटी के कई लड़कियों के साथ यौनसंबंध बनाया है। वो समाज के लिए बहुत बड़ा खतरा हैं। कृपया अपनी इलाहाबाद यूनिवर्सिटी की लड़कियों की सुरक्षा कीजिए। आप उनके चरित्र के बाबत हैदराबाद यूनिवर्सिटी में भी जांच पड़ताल कर सकती हैं। प्रो रतन लाल हंगलू अपने ऑफिस में केवल उन्हीं पुरुषों को नौकरी देता है जो उसके पास सेक्स के लिए लड़कियों की सप्लाई करता है। कृपया एहतियात के तौर पर उनपर आप कड़ी नज़र उनके पास किसी भी लड़की को अकेली मत जाने दीजिए। वो लड़कियों को फँसाने के लिए झूठी-मीठी बातें और तोहफों का इस्तेमाल करता है।रतन लाल हंगलू के बारे में ये सभी बातें कल्याणी यूनिवर्सिटी के हर एक व्यक्ति को भली भाँति पता है।’
कुलपति रतनलाल हंगलू 


वहीं इलाहाबद यूनिवर्सिटी की पूर्व और प्रथम महिला छात्रसंघ अध्यक्ष ऋचासिंह ने आरोपित कुलपति रतन लाल हंगलू पर लगे यौनाचार के आरोप के संबंध में पत्र लिखकर उन्हें ये बताते हुए कि आपके कारनामे शहर के लगभग सभी सभी अखबारों में छप चुके हैं और उस कथित महिला ने भी इसकी पुष्टि की है, उनसे नैतिक आधार पर वीसी इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के पद से इस्तीफा देने की माँग की है। ऋचा सिंह ने पत्र में उन्हें ये भी याद दिलाया है कि ‘जब भी किसी छात्र-कर्मचारी-शिक्षक-विभागाध्यक्ष पर कोई आरोप लगा है आपने उन्हें जांचपूर्व ही पद से हटा दिया है उस समय आपकी दलील ये रही है कि वो व्यक्ति अपने पद के चलते जांच को प्रभावित न कर सके इसलिए ऐसा किया गया है। तो महोदय आज जब आप पर पर अपने पद का लाभ उठाते हुए एक कथित महिला को लाभ देने का आश्वासन संबंधी खबरें लगातार शहर के सभी प्रमुख समाचार पत्रों में प्रकाशित हो रही है और उक्त महिला ने भी जिसकी पुष्टि कर दी है। ऐसे में विश्वविद्यालय के कुलपति पद पर बने रहने का आपको नैतिक अधिकार नहीं रह जाता। जैसी की आपकी कार्यप्रणाली रही है उसी के अनुरूप आपसे अपेक्षा है कि आप उक्त आरोपों की जांच होने तक नैतिक आधार पर इस्तीफा देते हुए कैंपस के अंदर प्रवेश न करें। ताकि कुलपति पद की गरिमा बनी रहे। साथ ही विश्वविद्यालय में अध्ययन करनेवाली छात्रायें जो कुलपति के संरक्षण में यह आशा करती हैं कि परिसर छात्राओं को सुरक्षित माहौल उपलब्ध कराएगा। परंतु इस तरह के खबरों के बाद छात्राओं समेत उनके अभिभावक जो गांव-दूर दराज क्षेत्रों से अपनी बेटियों को विश्वविद्यालय में उच्च शिक्षा ग्रहण करने के लिए भेजते हैं वह सभी विश्वविद्यालय कैंपस को संदेह के घेरे में महसूस कर रही हैं और किसी भी घटना की शिकायत के लिए किस संस्था के पास जाएं जब कुलपति, रजिस्ट्रार सभी महिला उत्पीड़न के आरोप से घिरे हुए हैं।’

इसके अलावा ऋचा सिंह ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी पत्रलिखकर मांग की है कि ‘प्रधानमंत्री जी बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ का नारा तो देते हो पर सड़क से लेकर विश्वविद्यालयों में चल रही परिस्थितियों के चलते छात्राओं की सुरक्षा खतरे में पड़ गयी है। समाचार पत्रों को पढ़ने के बाद अभिभावक अपनी बेटियों को विश्वविद्यलय में उनसे डरने लगे हैं। उपरोक्त तथ्यों और परिस्थितियों के प्रकाश में आपसे प्रार्थना है कि इलाहाबाद विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो रतन लाल हंगलू के खिलाफ लगे यौनाचार के आरोपों का उच्च स्तरीय समिति से अविलंब जांच कराने की कृपा करें। तथा निष्पक्ष जाँच के दौरान प्रो रतन लाल हंगलू का कैंपस में प्रवेश प्रतिबिंधित करने की कृपा करें।’ उल्लेखनीय है कि प्रो रतन लाल हंगलू के विरुद्ध पूर्व में भी उच्च स्तरीय जाँच समितियों ने अपनी रिपोर्ट मानव संसाधन मंत्रालय को सौंप रखी है।

ऋचा सिंह ने राष्ट्रपति को भी पत्र लिखकर विश्वविद्यालय की 12000 लड़कियों की सुरक्षा की चिंता जताते हुए उन्हें इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के बिगड़े हुए हालात से अवगत कराया है। साथ ही प्रो रतन लाल हंगलू और रजिस्ट्रार एन के शुक्ला पर यौनाचार के आरोपों के मद्देनजर उन्हें तत्काल प्रभाव से कैंपस में जाने से प्रतिबंधित करने की माँग की है। 

अजीब विडंबना है कि देश में बेटी पढ़ाओ बेटी बचाओ का नारा दिया जाता है और उन्ही बेटियों का तन मन नोचने वाले उन्हें झूठे मीठे वायदे और लालच देकर उनका यौनउत्पीड़न करनेवालों पर आँच तक नहीं आती। सवाल तो उठता है कि कल्याणी यूनिवर्सिटी में रतन लाल हंगलू के खिलाफ मामला आने के बाद उन्हें किस आधार पर इलाहाबाद यूनिवर्सिटी का वीसी कुलपति बना दिया गया। उनके खिलाफ तमाम जाँच कमेटियों की रिपोर्ट को मानव संसाधन मंत्रालय क्यों दबाये बैठा रहा। जाहिर है केंद्र में मोदी सरकार आने के बाद से लड़कियों के लिए न देश के शेल्टर होम सुरक्षित हैं , न सड़के न विश्वविद्यालय न पुलिस थाना।

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जान बचाने की महिला साहित्यकार की गुहार: छात्रसंघ की पूर्व अध्यक्ष को लिखा पत्र

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सुशील मानव 

इलाहाबाद विश्वविद्यालय के कुलपति रतन लाल हंगलू का महिला साहित्यकार के साथ अश्लील चैट सार्वजनिक होने के बाद साहित्यकार को मिल रही हैं धमकियां. इलाहबाद विश्वविद्यालय के छात्रसंघ की पूर्व अध्यक्ष ऋचा सिंह को पत्र लिखकर जीवन-रक्षा की उन्होंने अपील की है.  पत्र में उन्होंने लिखा है कि 'ये प्रकरण न सिर्फ़ सम्मानित व्यक्ति, प्रतिष्ठित परिवार, संभ्रांत साहित्यिक जगत् को बुरी तरह से आहत कर रहा है बल्कि समस्त विश्वविद्यालयीय गरिमा और प्रशासनिक अधिकारियों के पद को भी मलिन कर रहा है...'  इस बीच विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों ने कुलपति को खुला पत्र लिखा है. 




पीड़ित साहित्यकार का पत्र: 

प्रिय ऋचा,
कैसी हो?

तुमने 'चैट वायरल"जैसे ज़लील मुद्दे के सन्दर्भ में मुझे कॉल करके चिंता व्यक्त की, अच्छा लगा।
ये प्रकरण न सिर्फ़ सम्मानित व्यक्ति, प्रतिष्ठित परिवार, संभ्रांत साहित्यिक जगत् को बुरी तरह से आहत कर रहा है बल्कि समस्त विश्वविद्यालयीय गरिमा और प्रशासनिक अधिकारियों के पद को भी मलिन कर रहा है। हमारे अज़ीज़ इलाहाबाद विश्वविद्यालय की एकमात्र महिला छात्र संघ की अध्यक्ष होने के नाते आप मुझे इन निंदनीय, दु:खद और असम्मानजनक घटनाक्रम से दूर करो, साथ ही मेरे जीवन की भी सुरक्षा की व्यवस्था करने का प्रयास करो। बड़ी कृपा होगी, क्योंकि अब तो मुझे जान से मारने की धमकियां भी मिलने लगीं हैं।

पढ़ें:  नौकरी का प्रलोभन देकर महिला साहित्यकार से इलाहाबाद विश्वविद्यालय के कुलपति की अश्लील बातचीत: चैट हुआ वायरल

इस बीच विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों ने कुलपति को एक खुला पत्र लिखा है: 

खुला पत्र: 


कुलपति प्रो0 रतन लाल हांगलू पर लग रहे कथित व्याभिचार के आरोपों पर विश्वविद्यालय के छात्र-छात्राओं की ओर से कुलपति के नाम खुला पत्र ।

महोदय विश्वविद्यालय में जब से आपने कुलपति का कार्यभार ग्रहण किया है आप अपने फैसलों के लेकर हमेशा चर्चा में रहे हैं। जब-जब छा़त्र-कर्मचारी-शिक्षक-विभागाध्यक्ष पर कोई आरोप लगे हैं, आपने जॉच से पहले सम्बन्धित व्यक्ति को पद से हटाने का काम किया है, यह कहते हुए कि सम्बन्धित व्यक्ति जॉच को प्रभावित न कर सके।

महोदय आज जब स्वयं आप पर अपने पद का लाभ उठाते हुए एक  महिला को लाभ देने का आश्वासन सम्बन्धी खबरें एवं बेहद अशोभनीय-अभद्र वार्तालाप वायरल हो रहा है और लगातार शहर के सभी प्रमुख समाचार पत्रों मे प्रकाशित हो रहा है,  जिसकी पुष्टि स्वयं महिला द्वारा भी की जा रही है। ऐसे में विश्वविद्यालय के कुलपति पद पर बने रहने का आपको नैतिक अधिकार नहीं रह जाता है। विश्वविद्यालय की गरिमा एवं छात्राओं की सुरक्षा को ध्यान मे रखते हुये आपसे अपेक्षा की जाती है कि आप उक्त आरोपों की जॉच तक कैम्पस के अंदर प्रवेश न करें, साथ ही अगर आपके अन्दर जरा भी नैतिकता है, तो कुलपति पद की गरिमा को ध्यान मे रखते हुये आप नैतिकता के आधार पर इस्तीफा दें, तथा इस अतिसंवेदनशील विषय पर जॉच में सहयोग करें।




महोदय विश्वविद्यालय में अध्ययन करने वाली छात्रायें जो कुलपति के संरक्षण में यह आशा करती है कि परिसर छात्राओं को सुरक्षित माहौल उपलब्ध करायेगा, परन्तु पिछले दिनों आपके उपर लग रहे आरोपों के चलते समस्त विश्वविद्यालय परिवार बेहद आहत और शर्मिन्दगी महसूस कर रहा है।

आप पर यह पहला आरोप नहीं है इससे पहले कल्याणी विश्वविद्यालय जहॉ के आप भूतपूर्व कुलपति रहे हैं, वहॉं एक छात्रा की मॉ ने आपके चरित्र पर सवाल उठाते हुये इलाहाबाद विश्वविद्यालय के महिला सलाहकार बोर्ड को पत्र लिख कर छात्राओं की सुरक्षा के सम्बन्ध में विश्वविद्यालय को आगाह कराते हुये आपकी कार्यप्रणाली-अपने पद का दुरूपयोग करते हुये महिलाओं का शोषण करने के आरोप लगाये हैं और इलाहाबाद विश्वविद्यालय की छात्राओं की सुरक्षा को लेकर गम्भीर चिन्ता व्यक्त की थी।

महोदय पिछले कई दिनों से जिस तरह की खबरें शहर के सभी प्रमुख समाचार पत्रों में छप रही हैं इससे छात्राओं समेत तमाम अभिभावक जो गॉव तथा दूर- दराज के क्षेत्रों से अपनी बेटियों को विश्वविद्यालय में उच्च शिक्षा ग्रहण करने के लिये भेजते हैं, वह सभी विश्वविद्यालय कैम्पस को संदेह के घेरे में महसूस करते हुए छात्राओं की सुरक्षा के लिए संशंकित है। छात्रायें भी कैम्पस में अपने आप को सुरक्षित महसूस नही कर रही हैं। साथ ही एक बेहद अहम और चिन्ताजनक सवाल यह है कि अगर किसी छात्रा को अपनी सुरक्षा या यौन उत्पीड़न से सम्बन्धित किसी घटना की शिकायत करनी हो तो वह किस संस्था के पास करेगी? जबकि संस्था प्रमुख स्वयं आरोपो में घिरा हुआ है।
कुलपति प्रोफेसर रतनलाल हंगलू


महोदय यूजीसी गाइडलाइन के अनुसार कैम्पस के अन्दर जी0एस0कैश0 समिति को अनिवार्य किया गया है जहॉ पर महिला शोषण एवं उत्पीड़न सम्बन्धी किसी भी शिकायत को दर्ज कराया जा सके, परन्तु लम्बे समय से हम छात्र-छात्राओं द्वारा जी0एस0कैश0 कमेटी गठित करने की मॉग आपसे लगातार की गयी परन्तु कमेटी गठित ना करना आपकी कार्यप्रणाली पर इन आरोपों को देखते हुये प्रश्नचिन्ह लगाता है। एक ऐसा विश्वविद्यालय या संस्था जहॉ कुलपति, रजिस्ट्रार सभी महिला उत्पीडन के आरोपों में घिरे हुये हैं उस परिसर में छात्राओं की सुरक्षा कैसे सुनिश्चित होगी यह बेहद गंभीर सवाल हैं।

अतः आपसे अनुरोध है कि विश्वविद्यालय की गरिमा एवं छात्राओं की सुरक्षा तथा यौन उत्पीड़न सम्बन्धी, विशाखा गाइडलाइन  के अनुसार 'जिसमें यह कहा गया है कि ऐसा व्यक्ति जिस पर महिला शोषण सम्बन्धी आरोप लगे हों वह जॉच पूरी होने तक अपने पद पर नही रह सकता है’ इस गाइडलाइन तथा कुलपति पद की गरिमा को ध्यान में रखते हुये आपसे यह अपेक्षा की जाती है कि आप तत्काल नैतिक आधार पर इस्तीफा दें तथा सम्बन्धित विषय की जॉच पूरी होने तक कैम्पस में प्रवेश न करके जॉच में सहयोग करें।
समस्त छात्र'छात्राएं

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रंगमंच में हाशिये की सशक्त आवाज़ है ईश्वर शून्य का रंगकर्म

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राजेश चन्द्र

दिल्ली का रंगमंच संख्यात्मक दृष्टि से बहुत उल्लेखनीयरहता आया है, क्योंकि यहां महीने में औसतन तीस से पचास नाटक मंचित होते हैं और उनमें भी स्वाभाविक तौर पर युवा निर्देशकों के नाटक ही अधिक संख्या में होते हैं। यदि बौद्धिक-वैचारिक स्तर पर दिल्ली के रंगमंच का आकलन करें तो आम तौर पर एक गहरी निराशा से दो-चार होना पड़ता है और कई बार ऐसा भी महसूस होता ही है कि यहां अधिसंख्य निर्देशकों की अपने समय-समाज के सवालों एवं संघर्षों में, उसके साहित्य में कोई रुचि नहीं है और न ही उनमें हस्तक्षेप करने की कोई इच्छा ही है। वे रंगकर्म को एक स्वान्तःसुखाय कर्म मानते हैं और एक प्रकार की आत्मरति में संतुष्टि की खोज करते हैं। अपने इष्ट-मित्र, स्वजन-सम्बंधी, प्रशंसक और अकादमियों-परिषदों की उत्सव-समितियों के सदस्य प्रस्तुति देख लें, उनकी सराहना और वाहवाही मिल जाये- जिसे आम तौर पर ‘‘स्टैडिंग आॅवेशन‘‘ की अतिरंजित शब्दावली में व्यक्त किया जाता है, कहीं किसी अखबार या अन्य किसी माध्यम में एक या दो काॅलम की कोई रपट छप जाये बस। इस चरण तक पहुंच जाने को प्रस्तुति का सफल रहना मानने का जैसे रिवाज़ है।

ईश्वर शून्य अपने साथी कलाकरों के साथ पहली पंक्ति में दायें से तीसरा 


प्रस्तुति की सार्थकता-प्रासंगिकता, उसकी भाषाऔर सम्प्रेषणीयता, कथ्य के सापेक्ष उसके शिल्प-शैली की नवीनता और प्रभावोत्पादकता को लेकर किसी चर्चा या विमर्श की न इच्छा है, न समीक्षा या आलोचना के प्रति स्वीकार्यता। इस अनुत्साही परिवेश में दिल्ली में रंग-समीक्षा या तो मौज़ूद ही नहीं है, या उदासीन है, या फिर उसने स्वयं को येन-केन-प्रकारेण जीवित भर रखने के लिये परिवेश के साथ एक अनुकूलन कर लिया है। रंगमंच के लिहाज़ से यह एक स्वस्थ स्थिति नहीं मानी जा सकती, और ऐसा रंगमंच एक कलात्मक सामाजिक-सांस्कृतिक गतिविधि का दर्ज़ा पाने की पात्रता भी नहीं रखता। एक निर्देशक के तौर पर निजी प्रोफ़ाइल में दस-बीस कथित ‘सफल‘ या ‘सर्वश्रेष्ठ‘ प्रस्तुतियां, पांच-सात ‘मेगा‘ महोत्सवों में हिस्सेदारी, दो-चार ‘जुगाड़ के‘ पुरस्कार और जीवन में कुछ ‘ईर्ष्याजनक‘ सुख-सुविधाएं इस तरह भले ही जुड़ जायें, पर एक सर्जक कलाकार और रंगकर्मी के तौर पर ऐसा योगदान समय-समाज की कसौटी पर खरा उतर कर समाज की सामूहिक चेतना और स्मृति का हिस्सा भी बन पायेगा, ऐसा मानना अनुभव से सही नहीं लगता। दिल्ली के रंगमंच में व्याप्त इन स्थितियों का समरूप हिन्दी के अन्य रंग-केन्द्रों में भी दिखायी देता है या नहीं, इस बारे में बहुत दावे के साथ कुछ कहने की स्थिति में मैं स्वयं को नहीं पाता।

निश्चित रूप से इस स्थिति के अपवाद भी हैं और वरिष्ठ से लेकर युवा पीढ़ी में मौज़ूद ये अपवाद रंगमंच को तो एक सोद्देश्य, प्रतिबद्ध एवं गम्भीर सृजनात्मक और बौद्धिक-वैचारिक गतिविधि के तौर पर उल्लेखनीय सक्रियता देते ही हैं, साथ ही इनकी सक्रियताओं का प्रभावी विस्तार रंगमंच से आगे बढ़ कर समकालीन साहित्य, राजनीति, जनान्दोलनों एवं समकालीन विमर्शों तक भी दिखायी पड़ता है। यह कितनी त्रासद स्थिति है कि सार्थक एवं समाजोपयोगी रंगमंच की ऐतिहासिक विकास-यात्रा में कुछ नया, कलात्मक, मूल्यवान और विचारोत्तेजक जोड़ने की बेचैनी और छटपटाहट से अनुप्राणित जिस रंग-धारा को रंगमंच की मूलधारा होना था, आज वही उपेक्षा, अभाव और तिरस्कार के कारण सिमट कर हाशिया बनती गयी है और इसका विलोम बेशर्मी के ऊंचे आसन पर प्रतिष्ठित दिखायी देता है। उसी का जयघोष है, सारे विशेषण, सारी जगह, सारा संरक्षण उसे ही प्राप्त हो रहा है। यह रंगमंच का पूंजीवादी विकास (वास्तव में ‘अविकास‘) है, जिसमें मनुष्य, समाज और उसके मूल्यों-संघर्षों के लिये उतनी जगह नहीं है, जितनी व्यक्तिगत मुनाफ़ों, सुख-सुविधाओं के अतिरिक्त संचय की अमानुषिक होड़ है। इस कथित ‘विकास‘ के मुहावरे के बाहर जो कुछ भी है, वह इसके प्रस्तावकों और साझीदारों की दृष्टि में महत्वहीन, कलाविहीन, स्तरहीन और इसलिये त्याज्य है, न उसे देखने की आवश्यकता है और न उसे विमर्श में आने देना है। उससे एक व्यापक दूरी बना कर रखनी है और लगे हाथ उसे लांछित भी करते रहना है। इस मानसिक रुग्णता के संगठित प्रदर्शन हम आये दिन देखते ही हैं।
नाटक के बाद 


ईश्वर शून्य दिल्ली के सर्वाधिक सक्रिय युवा निर्देशकों में से एक हैं, और वे रंगमंच की उसी बहुउपेक्षित धारा का प्रतिनिधित्व करते हैं, जो रंगकर्म को एक सोद्देश्य, प्रतिबद्ध एवं गम्भीर सृजनात्मक तथा बौद्धिक गतिविधि मानती है और उसके माध्यम से अपने समय में एक प्रभावी वैचारिक हस्तक्षेप करने का निरन्तर प्रयास करती है। साहित्य, समाज और राजनीति के समकालीन विमर्शों से गहरा जुड़ाव ईश्वर शून्य के रंगकर्म को साधनहीनता में भी एक अलग और विशिष्ट वैचारिक धार और कलात्मक प्रासंगिकता देता है, और समाज की उपेक्षित-दमित मनुष्यता की पक्षधरता और उसकी जीवन-स्थितियों में बदलाव लाने की बेचैनी ही उनकी रंगदृष्टि और रंगभाषा को आधार देती है। रंग-समीक्षक के तौर पर लगभग एक दशक से दिल्ली के अधिकांश और देश के दर्जनों युवा निर्देशकों के रंगकर्म को देखते हुए मैंने यह अनुभव किया है कि अधिकांश युवा प्रारम्भिक एक-दो नाट्य-प्रस्तुतियों में अपनी ऊर्जा, कल्पनाशीलता तथा नवाचार से दर्शकों को चमत्कृत भी करते हैं और अक्सर ऐसा प्रतीत होने लगता है कि वे अपनी एक नयी रंगभाषा की खोज करते हुए उसे प्राप्त कर चुके हैं, परन्तु दुर्भाग्यपूर्ण रूप से आगे चल कर उनकी प्रस्तुतियां हमें निराश करने लगती हैं और निर्देशकीय यात्रा के प्रथम चरण में ही वे एक पराजित योद्धा की तरह अपने शस्त्रों से डूबती हुई नौका के अन्तिम पतवार का काम लेने लगते हैं। यह स्थिति उनकी सृजनात्मकता और कल्पनाशीलता के असमय ही चुक जाने का परिचायक लगती है और एक समीक्षक के तौर पर हमें उनके प्रारम्भिक कार्यों के आधार पर किया गया अपना ही आकलन अदूरदर्शी और जल्दबाज़ी से भरा महसूस होने लगता है। कम से कम मेरे लिये यह एक तक़लीफ़देह स्थिति होती रही है, जिसे ईमानदारी से स्वीकार करने में मुझे कोई हिचक नहीं है। अक्सर युवा निर्देशकों के काम में यह गतिरोध और जड़ता इसलिये आती है कि थोड़ी सराहना मिलने के बाद वे अहंकारी होने लगते हैं, अध्ययन में, समकालीन सवालों में उनकी रुचि नहीं रहती और वे कोई सृजनात्मक जोखिम लेने को तैयार नहीं हो पाते, इसलिये उनका काम दुहराव और सजावट से भर जाता है। उन्हें लगता है कि जिस कारण वे रंगकर्म में आये थे, उसकी पूर्ति इतने भर से ही हो जायेगी, इसलिये कुछ नया करने के बारे में सोचना मूर्खता है।

यही कारण रहे हैं कि ईश्वर शून्य के रंगकार्य को लगभगछह-सात वर्षों से निरन्तर देखते रहने के बावज़ूद मैंने कभी भी उसकी समीक्षा या आलोचना में एक शब्द भी ख़र्च नहीं किया और यह सच्चाई है कि उसकी निरन्तरता और सृजनात्मकता को लेकर इन वर्षों में एक सन्देह सदा ही प्रभावी रहा है। इससे भी अधिक सन्देह अपने आकलन को लेकर रहता आया, जिसके मूल में उसके बार-बार ग़लत सिद्ध होने की स्थितियां ज़िम्मेदार रही हैं। इसी मनःस्थिति के कारण ईश्वर शून्य के प्रारम्भिक चरण के पगला घोड़ा, माटी गाड़ी, मुद्राराक्षस, प्रेम परसाई और क़िस्सा जानी चोर आदि लगभग पांच-छह नाटकों को देखने के बावज़ूद मैंने जान-बूझ कर कोई औपचारिक प्रतिक्रिया नहीं दी, और समय का इन्तज़ार करता रहा। पिछले वर्ष ओमप्रकाश वाल्मीकि के ‘जूठन‘ की समर्थ प्रस्तुति को देखने के बाद ही मुझे विश्वास हो गया था कि ईश्वर शून्य अपनी सृजनशीलता के अगले और महत्वपूर्ण चरण में प्रवेश कर चुके हैं, उन्होंने रंगमंच में अपना पक्ष एवं दृष्टिकोण चुन लिया है और आने वाले दशक में हमें उनकी प्रतिबद्धता और रचनात्मकता के कितने ही उर्वर आयामों से परिचित और समृद्ध होने का मौक़ा मिलेगा, जिसके लिये हमें तैयार रहना चाहिये। शिवाजी सावन्त की प्रसिद्ध कृति ‘मृत्युंजय‘ के रूपान्तरण और प्रस्तुतिकरण में ईश्वर ने महाभारत के सबसे जटिल पात्र कर्ण के हिन्दू धर्म की बर्बर वर्ण-व्यवस्था और ब्राह्मणवाद से अथक संघर्ष को वर्तमान भारतीय सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था के एक प्रभावी रूपक में ढालने में असाधारण कल्पनाशीलता का परिचय दिया है, और यह प्रस्तुति दर्शकों की चेतना पर अमिट प्रभाव छोड़ती हुई सम्पूर्ण कलात्मकता के साथ अपने समय के विमर्श को आगे बढ़ाती है।

वर्ण-व्यवस्था द्वारा दलितों के हज़ारों वर्ष पुराने अपमानऔर अमानवीय उत्पीड़न को अपना कथ्य बनाने के बाद ईश्वर ने किन्नरों के जीवन और उनके बाह्यान्तरिक संघर्षों पर केन्द्रित नाटक ‘जानेमन‘ प्रस्तुत किया। मछिन्द्र मोरे द्वारा लिखित मराठी का यह नाटक मुम्बई की एक बस्ती के किन्नरों के जीवन के चित्रण के माध्यम से इस समुदाय की पीड़ा, आकांक्षाओं एवं संघर्षों को सामने लाने के लिये जाना जाता है। ईश्वर शून्य अब पितृसत्ता की हिंसा और स्त्रियों के सवालों को लेकर एक और नयी प्रस्तुति ‘औरत होने की सज़ा‘ तैयार करने जा रहे हैं। यह प्रस्तुति देश के जाने-माने कानूनविद, लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता अरविंद जैन की इसी शीर्षक से प्रकाशित बहुचर्चित पुस्तक पर आधारित होगी। देश में साम्प्रदायिक फ़ासीवाद के इस मौज़ूदा दौर में पितृसत्ता के ढांचे को एक नयी शक्ति मिली है और स्त्रियों के अधिकारों पर, उनकी यौनिकता पर जिस तरह संगठित हमले बढ़े हैं, उसमें यह प्रस्तुति प्रतिरोध के लिहाज़ से अहम भूमिका निभायेगी, ऐसी अपेक्षा रखनी चाहिये।
ईश्वर द्वारा निर्देशित एक नाटक पिंजर  का एक दृश्य 


ईश्वर शून्य अपने समय के प्रमुख सामाजिक-सांस्कृतिक एवं राजनीतिक आन्दोलनों में भी शामिल होते रहते हैं और एक एक्टिविस्ट के तौर पर उनकी यह सक्रियता उनके नाट्य-प्रदर्शनों को भी एक सामयिक चेतना से लैस करती है। हबीब तनवीर और नया थियेटर के साथ काम करने के दौरान उन्होंने जिस वैचारिकता का दामन थामा, उसे मांजते-सहेजते और विकसित करते हुए वे निरन्तर आगे बढ़ते आये हैं और अपनी एक नयी राह भी उन्होंने बनायी है। हाल के दिनों में ईश्वर शून्य ने नाट्यालोचना और समीक्षा के क्षेत्र में भी ज़ोरदार दस्तक दी है और इस वीराने में भी उम्मीद का नया बिरवा रोपा है।

इस तरह देखें तो हिन्दी रंगमंच में ईश्वर शून्य एक ऐसीनयी रंगभाषा लेकर सामने आये हैं, जिसमें हमारे समाज के अब तक हाशिये पर पड़े वर्गों एवं समुदायों की अनदेखी-अनजानी ज़िन्दगी और उसके जलते सवालों को अभिव्यक्ति मिल पा रही है। ये सवाल इतनी प्रमुखता, केन्द्रीयता और निरंतरता के साथ कम से कम पिछले तीस-चालीस वर्षों में हिन्दी के रंग-दर्शकों के सामने नहीं आये थे। हाशिये के समाजों एवं उनके मुद्दों के प्रति यही वैचारिक प्रतिबद्धता ईश्वर शून्य के रंगकार्य को एक अलग विशिष्टता और सार्थकता प्रदान करती है।

14 सितम्बर को ईश्वर शून्य का जन्मदिन था। उनको स्त्रीकाल और इस लेखक की तरफ़ से अशेष शुभकामनाएं!

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महिला साहित्यकार पर यौनसंबंध बनाने का दबाव देने के आरोप में फंसे कुलपति द्वारा पीड़िता के साथ खड़े लोगों पर बदले की कार्रवाई

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सुशील मानव 

महिला साहित्यकार के साथ अश्लील बातचीत करने और यौनसंबंध का दवाब बनाने के आरोप में घिरे इलाहाबाद विश्वविद्यालय के कुलपति रतनलाल हंगलू द्वारा पीड़िता के पक्ष में खड़े लोगों पर बदले की कार्रवाईयां करवायी जा रही हैं, मानहानि का मुकदमा दर्ज करने की धमकी दी जा रही है, वहीं विश्वविद्यालय के शिक्षक भी कथित शान्ति मार्च के नाम पर उनके समर्थन में प्रदर्शन कर रहे हैं. इस बीच मामले की सीबीआई जांच की मांग की गयी है. पुलिस के अपुष्ट सूत्रों के अनुसार पुलिस भी अश्लील बातचीत को कुलपति द्वारा की गयी बातचीत मान रही है. सुशील मानव की रिपोर्ट: 

महिला साहित्यकार से वाट्सएप पर अश्लील बात-चीत करने और अपने पद और पवर का दुरुपयोग करते हुए उसका प्रभाव भय और नौकरी का लालच देकर उस पर यौनसंबंध के लिए दबाव बनाने के आरोपित इलाहबाद विश्वविद्यालय के कुलपति रतन लाल हंगलू अपने कच्चे-चिट्ठे का भंडाफोड़ हो जाने के बाद से लगातार पीड़िता और पीड़िता के साथ खड़े लोगों के खिलाफ हमले करवा रहे हैं। इसके लिए वे अपनी सारी मशीनरी का इस्तेमाल भी कर-करवा रहे हैं। विश्वविद्यालय इलाहाबाद के पब्लिक रिलेशन ऑफिसर (पीआरओ) चितरंजन कुमार द्वारा ऋचा सिंह पर छात्रसंघ का अध्यक्ष रहने के दौरान रुपए गबन करने का आरोप लगाया गया है। वहीं सपा के छात्रसंगठन से निवर्तमान छात्रसंघ अध्यक्ष अवनीश यादव के खिलाफ़ दूसरों से अपनी कांपियाँ लिखवाने का आरोप पीआरओ इलाहाबाद विश्वविद्यालय के द्वारा लगाया गया है। अविनाश यादव और ऋचा सिंह पर यदि ऐसा कोई आरोप था तो यूनिवर्सिटी मैनेजमेंट द्वारा पहले क्यों कोई कार्रवाई नहीं की गई? जाहिर है ये सब कुलपति पर लगे गंभीर आरोपों के बाद बदले की भावना से की जा रही कार्रवाईयां हैं, ताकि सबसे अलग-थलग करके पीड़िता को अकेला और कमजोर किया जा सके। साथ ही यूनिवर्सिटी के पीआरओ चितरंजन कुमार द्वारा स्त्रीकाल वेबपोर्टल के संपादक और रिपोर्टर पर भी दबाव बनाने की कोशिश की जा रही है। उन्हें मानहानि की धमकी भिजवायी जा रही है। वहीं महिला साहित्यकार और कुलपति के वाट्सएप चैट और फोन पर बातचीत का ऑडियो सार्वजनिक करनेवाले छात्रनेता अविनाश दूबे के खिलाफ रजिस्ट्रार, इलाहबाद विश्वविद्यालय की ओर से एफआईआर दर्ज करवाया गया है।


बता दें कि ऋचा सिंह को पीड़ित महिला ने पत्र लिखकरबताया कि वाट्सएप चैट वायरल होने के बाद से रतन लाल हांगलू की ओर से पीड़िता को जान से मारने की धमकी मिल रही है। साथ ही पीड़िता ने पत्र में ऋचा सिंह पूर्व छात्रसंघ अध्यक्ष से अपने जीवन की सुरक्षा व्यवस्था के लिए भी गुहार लगाई है। अब इलाहाबाद विश्वविद्यालय प्रशासन की ओर से ऋचा सिंह पर मानहानि का मुकदमा दर्ज करवाने की भी धमकी अख़बारों में खबरों के जरिए दी जा रही है। ऋचा सिंह द्वारा पीड़िता की ओर से कुलपति पर आरोप लगाने और राष्ट्रपति प्रधानमंत्री को पत्र लिखने की बात को पीआरओ चितरंजन सिंह द्वारा विश्वविद्यालय की गरिमा से जोड़ दिया गया है। पीआरओ द्वारा लगातार बड़ी शातिरतापूर्ण ढंग से कुलपति के खिलाफ लगाए आरोप को विश्वविद्यालय की गरिमा से जोड़ दिया गया है। और इस तरह से प्रचारित प्रसारित किया जा रहा है कि जैसे कुलपति ही विश्वविद्यालय हैं। याद कीजिए पैटर्न देश में भी बलात्कार की कोई बड़ी घटना की कवरेज विदेशी मीडिया में होती है या प्रधानमंत्री के खिलाफ कोई नेता कुछ आरोप लगाता है तो कैसे भाजपा-और संघ के लोग इसे देश की छवि खराब करनेवाला बता देते हैं।

हिंदुस्तान से मिली खबर के मुताबिक शुक्रवार 14सितंबर को इलाहाबाद विश्वविद्यालय प्रॉक्टोरियल बोर्ड की मीटिंग हुई। मीटिंग में ऋचा सिंह की ओर से कैंपस की लड़कियों की सुरक्षा को लेकर दिए गए बयान को गैरजिम्मेदाराना कहा गया है और इस पर क्षोभ व्यक्त किया गया है। मीटिंग में बताया गया है कि एक राष्ट्रीय स्तर की संस्था के बारे में ऋचा सिंह द्वारा किया जा रहा दुष्प्रचार निंदनीय है। उपरोक्त बातें बैठक में शामिल चीफ प्रॉक्टर प्रो राम सेवक दूबे की ओर से जारी प्रेस विज्ञप्ति में कहा गया है।

उपरोक्त प्रेस विज्ञप्ति पर अगर ठहरकर एक नज़र डाली जाए तो बहुत सी चीजें स्पष्ट हो जाती हैं। कैंपस में लड़कियों की सुरक्षा के प्रति एक महिला व पूर्वछात्रसंघ अध्यक्ष की चिंता जताने वाले बयान को किस आधार पर इलाहाबाद विश्वविद्यालय प्रॉक्टोरियल बोर्ड ने गैर जिम्मेदाराना कहा? क्या प्रॉक्टोरियल बोर्ड ने इस पूरे मामले में कुलपति के विरुद्ध कोई जाँच करवाई। गर नहीं करवाई तो उस स्थिति में प्रोक्टोरियल बोर्ड का ये बयान बेहद ही शर्मनाक और निंदनीय है साथ ही इस बात की बानगी भी कि केंद्रीय विश्वविद्यालय जैसे उच्च शिक्षा संस्थान में किस तरह अलोकतांत्रिक और सामंतवादी आचरण किया जाता है, तथा किसी भी तरह का आरोप लगाने वाले के खिलाफ प्रबंधन एकजुट होकर किस तरह उसका शिकार करता है। जाहिर है प्रोक्टोरियल बोर्ड में शामिल लोग पूरी निर्लज्जता के साथ आरोपी कुलपति के साथ खड़े हैं। दूसरी बात ये कि प्रोक्टोरियल मीटिंग में ऋचा सिंह द्वारा एक राष्ट्रीय स्तर की संस्था के बारे में दुष्प्रचार का आरोप लगाकर निंदा भी कर दी गई है। ऋचा सिंह ने संस्था के बारे में क्या दुष्प्रचार किया है ये बात भी इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्रोक्टोरियल बोर्ड को स्पष्ट करनी चाहिए। उन्होंने तो सिर्फ कुलपति हांगलू पर आरोप लगाया है। तो क्या इलाहाबाद विश्वविद्यालय का प्रोक्टोरियल बोर्ड कुलपति हांगलू को संस्था (इलाहाबाद विश्वविद्यालय) मानता है?ये तो वही मिसाल हुई जो भाजपा वाले दुहराते रहते हैं कि जो मोदी सरकार के खिलाफ है वो राष्ट्रद्रोही है।
वहीं शुक्रवार को आरोपित कुलपति रतन लाल हांगलू के समर्थन में कुलपति दफ्तर से गांधी भवन तक शांति मार्च निकाला गया। शांति मार्च के बाद पीआरओ ने कुलपति के सारे आरोप धुल जाने का दावा करते हुए कहा कि ये शांति मार्च आरोप लगानेवालों के मुँह पर तमाचा है। माने गाँधी-भवन तक शांति मार्च निकालने के बाद भी मन की कुंठा और हिंसाभाव खत्म नहीं हुई और आरोप लगानेवालों को उन्होंने इसके जरिए तमाचा तक जड़ दिया। विश्वविद्यालय के पीआरओ चितरंजन कुमार इस समय आरोपित कुलपति के प्रवक्ता जैसा आचरण कर रहे हैं। जिसमें आरोप लगाने वालों के खिलाफ मुकदमा करने से लेकर रिपोर्ट लिखनेवाले पत्रकार को धमकाने तक सब शामिल है। वहीं तमाचा मार्च निकालनेवाले पीआरओ ने बिना किसी जाँच के ही सभी साक्ष्यों और गवाहों को फर्जी और झूठा भी कह दिया है।

कुलपति हंगलू 


वहीं पीआरओ चितरंजन कुमार द्वारा गबन का आरोप लगाएजाने के बाद ऋचा सिंह ने अपने बयान में कहा है- “पीआरओ का बयान मेरी सामाजिक और व्यक्तिगत छवि को धूमिल करने का प्रयास है। गबन का मामला न होने की पुष्टि वित्त विभाग से की जा सकती है। आजादी के बाद विवि की प्रथम महिला छात्रसंघ अध्यक्ष होने के नाते मेरे द्वारा छात्रसंघ के बजट से एक रुपया भी नहीं लिया गया। बल्कि मैंने उल्टे विवि से पूछा कि उस सत्र में बजट का पैसा विवि ने कहाँ खर्च किया? लेकिन मुझे कोई जवाब नहीं मिला मैं पीआरओ पर मानहानि का मुकदमा दर्ज कराऊँगी।”

इस बीच पूर्व अध्यक्ष ऋचा सिंह ने गृहमंत्री राजनाथ सिंह को पत्र लिखकर कुलपति पर लगे आरोपों की सीबीआई जांच की मांग की है। वही अपुष्ट सूत्रों से यह भी पता चला है कि व्हाट्स ऐप चैट को पुलिस भी सही मान रही है।

सुशील मानव फ्रीलांस जर्नलिस्ट हैं. संपर्क: 6393491351

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सुप्रीम कोर्ट का दहेज़ संबंधी निर्णय यथार्थ की जमीन पर

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अरविंद जैन

पिछले दिनों अपने ही एक निर्णय को पलटते हुए सुप्रीमकोर्ट ने दहेज़ के मामलों में जो नयी व्यवस्था दी है, वह स्वागत योग्य जरूर है, लेकिन न्याय का डगर इतना आसान नहीं है. अरविंद जैन का आलेख: 

“आमतौर पर सिर्फ कानून बनाने से ऐसी सामाजिक समस्याओं का समाधान नहीं हो सकता, जिन की जड़ें बहुत गहरी हैं. कानून बनाना जरूरी और अनिवार्य है, हालांकि इन्हें हर संभव दृष्टि से देखना चाहिए. देखना चाहिए ताकि कानून के साथ-साथ सामाजिक चेतना का प्रसार हो सके और समय को नया रूप-स्वरुप दिया जा सके.” (दहेज़ निषेध अधिनियम, 1961 पर संयुक्त संसदीय समिति की रिपोर्ट में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु की टिप्पणी)


भारतीय सुप्रीम कोर्ट ने पिछले दो सप्ताह में अपने ही दो फैसलों को बदला। पहला भारतीय दंड संहिता,1860 की धारा 377 (समलैंगिकता) और दूसरा सोशल एक्शन फ़ॉर मानव अधिकार बनाम भारत सरकार मामले में भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 498ए (दहेज उत्पीड़न)। यथार्थवादी न्यायशास्त्र से लेकर आदर्श मॉडल स्कूल तक फैली विभिन्न शाखाओं पर लंबी बहस करने से क्या लाभ! सो, यहाँ मैं ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में सिर्फ दहेज संबंधी मामले पर संसद और न्यायपालिका की पक्षपाती भूमिका और न्यायिक विवेक और दृष्टिकोण के बारे में ही बात करूँगा।

उल्लेखनीय है कि अरनेश कुमार बनाम बिहार राज्य (2014)मामले में सुप्रीम कोर्ट ने दहेज उत्पीड़न के अपराधियों की गिरफ्तारी पर रोक लगाते हुए अपना निर्णय सुनाया था। इस पर भी विस्तार में चर्चा करेंगे।
27 जुलाई 2017 को राजेश शर्मा बनाम उत्तर प्रदेश राज्य केस में सुप्रीम कोर्ट की एक और पीठ ने दहेज उत्पीड़न मामलों को कानून का दुरुपयोग बताते हुए, हर शहर में जाँच समिति बनाने के आदेश के साथ अन्य दिशा-निर्देश भी दिए थे। इससे बहू को दहेज के लिए उत्पीड़ित करने वाले पति एवम परिवार को असीमित छूट मिली और बहुओं को विकल्पहीन अंधेरे में धकेल दिया गया। इस निर्णय का राष्ट्रीय स्तर पर विरोध और आलोचना हुई।

एक साल बाद ही सितम्बर 2018 में सोशल एक्शन फ़ॉर मानव अधिकार बनाम भारत सरकार केस में पुनर्विचार याचिका पर सुनवाई के बाद, सुप्रीम कोर्ट को  अपना (राजेश शर्मा वाला) फैसला बदलना पड़ा और जाँच समितियों के गठन को गैर कानूनी बताया गया है। 498ए पर इस निर्णय से भी, दहेज उत्पीड़न की शिकार बहूओं को कोई विशेष राहत मिलने की कोई संभावना नज़र नहीं आ रही। हाँ! इतना जरूर कह सकते हैं कि पुराने निर्णय के पैबन्दों को, नए रेशमी लबादे से ढक दिया गया है। क्या सिर्फ 'कॉस्मेटिक सर्जरी'से हालात बदल जाएंगे!

पढ़ें: न्याय व्यवस्था में दहेज़ का नासूर

बुनियादी सवाल यह है कि क्या न्यायपालिका सिर्फ कानून व्याख्यायित कर सकती है या फैसलों की आड़ में कानून बना भी सकती है? न्यायपालिका और विधायिका के अधिकार क्षेत्र की सीमा रेखा कहाँ से शुरू होती है और कहाँ समाप्त? क्या विधायिका और न्यायपालिका मिल कर अपने बेटे-बेटियों की ही वैधानिक सुरक्षा में नहीं लगे हैं? बहूओं की चिंता कौन करेगा! न्यायधीशों की नियुक्ति के मामले में संसद द्वारा बनाए कानून को सुप्रीम कोर्ट ने असंवैधानिक ठहराया और परिणाम स्वरूप 400 से अधिक पद खाली पड़े हैं। अनुसूचित जाति और जनजाति अत्याचार निरोधक कानून, 1989 पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर देशव्यापी आंदोलन और उसके बाद संसद द्वारा किए संशोधन पर सवर्णों द्वारा भारत बंद की हिंसक घटनाएँ हमारे सामने हैं। तीन तलाक़ पर सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के बाद, तीन तलाक़ विधेयक लोकसभा में पारित होने के बावजूद, राज्यसभा में अटका-लटका दिया गया। देश अच्छी तरह जानता-समझता है कि इस टकराव में कितना कुछ टूटा-फूटा और बिखरा है। खैर...!


वर्तमान भारतीय समाज का राजनीतिक नारा है 'बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ'और सामाजिक-सांस्कृतिक आकांक्षा है 'आदर्श बहू'। वैसे भारतीय शहरी मध्यम वर्ग को 'बेटी नहीं चाहिए', मगर बेटियाँ हैं तो वो किसी भी तरह की बाहरी (यौन) हिंसा से एकदम 'सुरक्षित'रहनी चाहिए।हालाँकि रिश्तों की किसी भी छत के नीचे, स्त्रियाँ पूर्ण रूप से सुरक्षित नहीं हैं। यौन हिंसा, हत्या, आत्महत्या, दहेज प्रताड़ना और तेज़ाबी हमले लगातार बढ़ते जा रहे हैं।

2013 के कानूनी संशोधन करते समय संसद ने (बेटियों को सुरक्षित रखने के  लिए) सहमति से  यौन संबंध बनाने की उम्र सोलह साल से बढ़ा कर अठारह साल की, मगर पन्द्रह साल से बड़ी उम्र की बहूओं के साथ बेटों द्वारा बलात्कार तक करने की खुली छूट को बरकरार रखा। संशोधन से पहले पति को सहवास की छूट थी मगर संशोधन के बाद अन्य यौन क्रियाओं (अप्राकृतिक) का भी कानूनी अधिकार मिल गया।  यह दूसरी बात है कि बाद में (2017) सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि पन्द्रह से अठारह साल के बीच की उम्र की पत्नी से यौन संबंध अपराध माना जाएगा। अठारह साल से बड़ी उम्र की पत्नी अभी भी पति के लिए घरेलू 'यौन दासी'बनी हुई है। इस पर ना जाने कब विचार विमर्श शुरू होगा!

पढ़ें : सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ आगे आये महिला संगठन


दहेज उत्पीड़न विरोधी कानून की मूल विडंबना यह है कि आज तक इसका लाभ, वास्तविक पीड़िताओं को कम ही मिल पाया है. ईमानदारी से कहूँ तो साफ़ तौर पर कारण यह है कि कानून की भाषा में दहेज़ माँगना, लेना या देना किसी भी तरह ‘अपराध’ नहीं है, दहेज़ हत्या ‘दुर्लभतम में दुर्लभ’ मामला नहीं, दहेज़ उत्पीड़न ‘मृत्यु से ठीक पहले’ होना सिद्ध करो और अब दहेज़ अपराधियों की गिरफ्तारी पर भी रोक या अंकुश. नैशनल क्राइम रेकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट के मुताबिक, देश में हर घंटे एक महिला दहेज हत्या का शिकार हो रही है लेकिन दहेज प्रताड़ना के अधिकाँश मामले तो दर्ज ही नहीं होते. कानूनी जाल-जंजाल या समाज में बदनामी के भय से, उत्पीड़ित महिलाएं सामने नहीं आतीं और घुट-घुटकर जीती-मरती रहती हैं. इस सब के बावजूद देश की सब से बड़ी अदालत का कहना है कि महिलाएं कानून का ‘नाजायज इस्तेमाल’ ढाल की बजाय, हथियार के तरह कर रही हैं. सच यह है कि इस देश में बहुत से कानून हैं, मगर महिलाओं के लिए कोई कानून नहीं है और जो हैं वो अंततः स्त्री विरोधी हैं.


दहेज कानून का ‘दुरुपयोग’: गिरफ़्तारी पर अंकुश
2 जुलाई 2014 को सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति चंद्रमौली कुमार प्रसाद और पिनाकी चन्द्र घोष की खंड पीठ ने, अरनेश कुमार बनाम बिहार राज्य के मामले में दहेज कानून का ‘दुरुपयोग’ रोकने के लिए महत्वपूर्ण व्यवस्था दी थी. सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट कहा था कि जिन मामलों में 7 साल तक की सजा हो सकती है, उनमें गिरफ्तारी सिर्फ इस आधार पर नहीं की जा सकती कि आरोपी ने वह अपराध किया ही होगा. गिरफ्तारी तभी की जाए, जब पर्याप्त सबूत हों, आरोपी की गिरफ्तारी ना करने से जांच प्रभावित हो, और अपराध करने या फरार होने की आशंका हो. अदालत के निर्देश यह भी हैं कि दहेज मामले में गिरफ्तारी से  पहले केस डायरी में कारण दर्ज करना अनिवार्य होगा, जिस पर मजिस्ट्रेट जरूरी समझे तो गिरफ्तारी का आदेश दे सकता है. इस आदेश की अनदेखी करने पर अधिकारी के विरुद्ध विभागीय कार्रवाई की जानी चाहिए. सर्वोच्च न्यायालय ने आदेश जारी किया है कि दहेज उत्पीड़न के मामलों में भी आरोपी को बहुत जरूरी होने पर ही  गिरफ्तार किया जाना चाहिए. सर्वोच्च न्यायालय का यह निर्णय भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 498 ए या दहेज़ प्रतिषेध अधिनियम की धारा 4 तक ही सीमित नहीं है, बल्कि ऐसे सभी मामलों के लिए है जिनमे अपराध की सजा सात वर्ष से कम हो या अधिकतम सात साल तक हो. उल्लेखनीय है कि इस निर्णय द्वारा पति के सम्बन्धियों को भी ‘रक्त-विवाह और गोद संबंधों’ तक ही सीमित कर दिया गया है. शेष किसी सम्बन्धी के खिलाफ मामला नहीं चल सकता. 

सर्वोच्च न्यायालय ने एक बार फिर से महिलाओं द्वारा दहेज़ कानून के ‘दुरूपयोग’  पर ‘गहरी चिंता’ जताते हुए कहा कि यह कानून बनाया तो इसलिए गया था कि महिलाओं को दहेज़ प्रताड़ना से बचाया जा सके, परन्तु कुछ औरतों ने इसका ‘नाजायज इस्तेमाल’ किया और दहेज उत्पीड़न की झूठी शिकायतें दर्ज कराईं हैं. उल्लेखनीय है कि यह सर्वोच्च न्यायालय का ऐसा पहला या आखिरी निर्णय नहीं है, जिसे किसी न्यायमूर्ति विशेष का पूर्वग्रह या दुराग्रह मान-समझ कर नज़र अंदाज़ किया जा सके. हिंसा, यौन-हिंसा, घरेलू हिंसा से लेकर सहजीवन में सहमति के संबंधों तक पर, उच्च न्यायालयों समेत और भी न्यायालय विवादस्पद सवाल उठा चुके हैं. दहेज़ कानूनों से परेशान ‘पति बचाओ’ या ‘परिवार बचाओ’ आन्दोलन भी सक्रिय है.

पढ़ें: महिला अधिकारः वैधानिक प्रावधान

कानून अधिकार या हथियार?

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा भारतीय दंड संहिता की धारा 498ए के ‘दुरुपयोग’ पर दिशा-निर्देश महिला संघठनों को बेहद चौंकाने वाले हैं. विचारणीय प्रश्न यह है कि क्या वास्तव में ही स्त्रियों द्वारा दहेज़ कानूनों का ‘दुरूपयोग’ किया जा रहा है या अभियोग पक्ष की कमजोरियों के कारण सजा नहीं हो पाती ? मुद्दा यह नही है कि क्या अपराधियों को गिरफ्तारी में असीमित छूट से पुलिस की निरंकुशता और भ्रष्टाचार को बढ़ावा नहीं मिलेगा?
हम क्यों और कैसे भूल जाते हैं कि दहेज अपराध में सजा की दर इसलिए भी बेहद कम है कि अपराध घर की चारदीवारी के भीतर होते हैं, जिनके पर्याप्त सबूत नहीं होते या हो नहीं सकते. कौन देगा ‘बहू’ के पक्ष में गवाही? ऊपर से कानून में इतने गहरे गढ्ढे हैं, कानून के रखवाले भ्रष्टाचार से मुक्त नहीं, साधन-संपन्न वर्ग में दहेज का चलन  पहले से अधिक बढ़ा है, कानून ऊपरी तौर पर बेहद प्रगतिशील दिखते हैं, पर दरअसल बेजान और नख-दन्त विहीन हैं. कहा यह जा रहा है कि महिलाएं कानून का ‘नाजायज इस्तेमाल’ हथियार की तरह कर रही हैं, ना कि ढाल के रूप में. कानून अगर हथियार ही है तो क्या सिर्फ महिलाएं ही इसका ‘नाजायज इस्तेमाल’ कर रही हैं? बाकी कानूनों के ‘दुरूपयोग’ और बढ़ते अपराधों के बारे में, आपका क्या विचार है?

दहेज़ माँगना, लेना या देना ‘अपराध’ नहीं
निसंदेह दहेज़ विरोधी कानून तो 1961 में ही बन गया, लेकिन इस पर लगाम लगने की बजाय, समस्या निरंतर जटिल और भयंकर होती गई. इसलिए 1983 में संशोधन करके भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 498ए जोड़ा गया, साक्ष्य अधिनियम में बदलाव किये. कारण कानून की भाषा में दहेज़ माँगना, लेना या देना किसी भी तरह ‘अपराध’ नहीं माना-समझा गया. परिणाम स्वरुप दहेज़ उत्पीड़न और दहेज़ हत्याओं के आंकड़े, साल-दर-साल बढ़ते ही चले गए और आज तक दहेज़ हत्या के किसी भी मामले में फाँसी की सज़ा नहीं हुई. जिन मामलों में हुई भी तो वो उच्च अदालतों ने, आजीवन कारावास में बदल दी. सर्वोच्च न्यायालय से उम्रकैद की सजा पाए हत्यारे, फाइलें गायब करवा के तब तक बाहर घुमते रहे जब तक इस लेखक- वकील ने अखबारों में'भंडाफौड़'नहीं किया. सुधा गोयल (दिल्ली राज्य बनाम लक्ष्मण कुमार,1986) और शशिबाला केस में 'चौथी दुनिया'और 'टाइम्स ऑफ़ इंडिया'में सनसनीखेज रिपोर्ट-सम्पादकीय छपने के बाद ही, हत्यारों को जेल भेजा जा सका. इस बारे में मैंने विस्तार से ‘वधुओं को जलाने की संस्कृति’ (‘औरत होने की सज़ा’) में लिखा है.





दहेज़ हत्या : फाँसी नहीं उम्रकै
आश्चर्यजनक तो यह भी है कि जब दहेज़-हत्या के मामलों में फाँसी की सजा के मामले सर्वोच्च न्यायालय तक पहुँचने लगे, तो भारतीय संसद को 1986 में कानून बदलना पड़ा. सैंकड़ों मामले हैं, किस-किस के नाम गिनवाएं. भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 304B में, दहेज़ हत्याओं के लिए चालाकी पूर्ण ढंग से विशेष प्रावधान पारित किया. इस कानून में यह कहा गया कि शादी के 7 साल बाद तक अगर वधु की मृत्यु अस्वाभाविक स्थितियों में हुई है और ‘मृत्यु से ठीक पहले’ (‘soon before death’) दहेज़ के लिए प्रताड़ित किया गया है, तो अपराध सिद्ध होने पर उम्रकैद तक की सजा हो सकती है. इससे पहले दहेज़ हत्या के केस भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 302 के तहत दर्ज़ होते थे और अधिकतम सजा फाँसी हो सकती थी. मगर संशोधन द्वारा पितृसत्ता ने यह पुख्ता इंतजाम कर दिया गया कि दहेज़ हत्या के जघन्य, बर्बर और अमानवीय अपराधों में भी, फाँसी का फंदा ‘पिता-पुत्र-पति’ के गले तक ना पहुँच सके और अगर सजा हो भी तो, सात साल से लेकर अधिकतम सजा ‘उम्रकैद’ ही हो.
मीडिया में प्रचारित-प्रसारित यह किया गया कि महिलाओं की रक्षा-सुरक्षा के लिया सख्त कानून बनाए गए हैं. ऐसे अनेक मामले हैं, जिनमे सर्वोच्च न्यायालय सहित विभिन्न अदालतों ने अपराधियों को, इसी आधार पर बाइज्ज़त रिहा किया कि पीडिता को ‘मृत्यु से ठीक पहले’ (‘soon before death’) दहेज़ के लिए प्रताड़ित नहीं किया गया था. विधि आयोग की 202 वी रिपोर्ट इस संदर्भ में पढने लायक है. विधि आयोग ने भी कोई विशेष संशोधन की सिफारिश नहीं की.

दहेज़ उत्पीड़न, ‘मृत्यु से ठीक पहले’ अनिवार्य
5 अगस्त 2010 को सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति आर. एम. लोढ़ा (2014 में बने मुख्य न्यायाधीश) और पटनायक की खंड पीठ  ने अमर सिंह बनाम राजस्थान केस के फैसले में कहा कि दहेज़ हत्या के मामले में आरोप ठोस और पक्के होने चाहिए, महज अनुमान और अंदाजों के आधार पर ये आरोप नहीं ठहराए जा सकते . पति के परिजनों पर ये आरोप महज अनुमान के आधार पर सिर्फ इसलिए नहीं गढ़े-मढ़े जा सकते कि वे एक ही परिवार के है, सो उन्होंने ज़रूर  पत्नी को प्रताड़ित किया होगा. जस्टिस आर. एम. लोढ़ा (2014 में बने मुख्य न्यायाधीश) और पटनायक की  खंडपीठ ने यह कहते हुए पति की माँ और छोटे भाई के खिलाफ लगाये गए दहेज़ प्रताड़ना और दहेज़ हत्या के आरोपों को रद्द कर दिया. आरोपियों को बरी करते हुए खंडपीठ ने कहा "दहेज़ माँगना अपराध नहीं है और दहेज़ के लिए उत्पीड़न मृत्यु से ठीक पहले होना चाहिए, वरना सजा नहीं हो सकती. वधुपक्ष के लोग पति समेत उसके सभी परिजनों को अभियुक्त बना देते हैं, चाहे उनका दूर-दूर तक इससे कोई वास्ता ना हो .ऐसे में अनावश्यक रूप से परिजनों को अभियुक्त बनाने से असली अभियुक्त के छूट  जाने का खतरा बना रहता है.

दहेज़ हत्या- ‘दुर्लभतम में दुर्लभ’ या नहीं?
दूसरी ओर 2010 में सुप्रीम कोर्ट जस्टिस मार्कंडेय काटजू और जस्टिस ज्ञान सुधा मिश्रा ने एक मामले में कहा कि दहेज हत्या के मामले में फांसी की सजा होनी चाहिए। ये केस ‘दुर्लभतम में दुर्लभ’ की श्रेणी में आते हैं। स्वस्थ समाज की पहचान है कि वह महिलाओं को कितना सम्मान देता है, लेकिन भारतीय समाज ‘बीमार समाज’ हो गया है। समय आ गया है कि वधु हत्या की कुरीति पर जोरदार वार कर इसे खत्म कर दिया जाए, इस तरह कि कोई ऐसा अपराध करने की सोच न पाए.
सर्वोच्च न्यायालय की खंड पीठ  ने कहा कि इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले और आदेश से असहमत होने का कोई कारण नहीं है. वास्तव में  में यह धारा 302 (नृशंस और बर्बरतापूर्ण हत्या) का केस है, जिसमें मौत की सजा होनी चाहिए. लेकिन आरोप  धारा 302 के तहत नहीं लगाया गया, सो हम ऐसा नहीं कर सकते। वरना मामला तो यह दुर्लभतम में दुर्लभ की श्रेणी में आता है और अपराधियों को मौत की सजा होनी चाहिए. होनी चाहिए मगर.......!
पढ़ें: दहेज विरोधी कानून में सुधार की शुरुआत


हकीक़त यह भी है कि विधायिका ने जानबूझ कर ‘आधे-अधूरे’ कानून बनाए और कभी समीक्षा करने की चिंता ही नहीं की. जिनके लिए कानून बनाया गये, उनसे न्याय व्यवस्था का कोई सरोकार बन ही नहीं पाया. दहेज कानून के मौजूदा रूप-स्वरूप पर पुनर्विचार कब-कौन करेगा? लाखों पीड़ित-उत्पीड़ित स्त्रियां ना जाने कब से, सम्मानपूर्वक जीने-मरने का अधिकार पाने के लिए रोज़ कचहरी के चक्कर काटती घूम रही हैं.

अरविंद जैन स्त्रीवादी अधिवक्ता हैं. सम्पर्क: 9810201120

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इस काण्ड में महिला है, साहित्य है, साहित्य का सम्मान है, उत्पीड़न है, स्कैंडल है, पावर है, पावर का दुरूपयोग है और हाँ राजनीति भी

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सुशील मानव 

इलाहाबाद विश्वविद्यालय के कुलपति रतनलाल हंगलू के व्हाट्सऐप चैट और बातचीत का ऑडियो वायरल होने के बाद इलाहाबाद में हंगामा बरपा है. मामला हिन्दी साहित्य और एक विश्वविद्यालय से जुड़ा हाई प्रोफाइल है, लेकिन साहित्य जगत न इसे लेकर संवेदित है और न ही मुखर. विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग सहित अन्य विभागों में हलचल जरूर है, लेकिन वह कुलपति के पक्ष में माहौल बनाने के लिए-न्याय के लिए नहीं. मारपीट हो रही है, छात्राओं में दहशत है, महिला साहित्यकार के घर पर भी हमला हुआ है लेकिन साहित्य जगत असम्पृक्त है. सब की अपनी ढपली है अपना राग-हर कोई दूसरे को राजनीति करने का आरोपी बता रहा है, इस बीच असंवेदनशील मीडिया की हरकतें हैं और प्रभावित महिला साहित्यकार की परस्पर विरोधाभाषी बातें. प्रशासन कुलपति के खिलाफ जांच की जगह मामले को किसी तरह भटकाने में लगा है और विद्यार्थियों का दावा है कि कुलपति की डेढ़ दर्जन महिलाओं से बातचीत का ऑडियो उनके पास है. इस दावे के साथ नुकसान वहां के माहौल को है-जो स्वतः महिला विरोधी दिखने लगता है. लेकिन सबसे अधिक आश्चर्यजनक है कुलपति के नियोक्ता मानव संसाधन विकास मंत्रालय और राष्ट्रपति कार्यालय की चुप्पी. सुशील मानव की रिपोर्ट:

मीरा स्मृति सम्मान/पुरस्कार में कुलपति रतनलाल हंगलू इस सम्मान की भी जिक्र है बातचीत में 




यथार्थ और दार्शनिक बयानों में उलझा हमला

महिला साहित्यकार का कहना है कि 18 की रात के तीन बजे महिला साहित्यकार के घर दो हमलावर गए और उनका नाम लेकर उनकी अम्मा से पूछा कि वह कहाँ है हम उसे छोडेंगे नहीं। उनके घर के सामने महिला साहित्यकार के विरुद्ध नारेबाजी की और उन्हें जान से मारने की धमकी भी दी। बता दें कि महिला साहित्यकार उस समय किसी कार्यक्रम के सिलसिले में बाहर गई हुई थी। हमारी उनसे फोन पर बात हुई जिसमें उन्होंने बताया कि ‘हाँ हमारे घर कुछ लोग आये थे और मेरी अम्मा को मुझे जान से मारने की धमकी देकर गए हैं।  हमलावर कौन थे या उनको आपके घर किसने भेजा था, आपको किसी पर शक़ है, आदि सवालों के जवाब में वो कहती हैं कि ‘ये वही लोग हैं जो शांति और व्यवस्था को भंग करना चाहते हैं। जो मनुष्य के खून के प्यासे हैं।‘ यह दार्शनिक जवाब अखबारों में छपे उनके बयान से मेल नहीं खाता, जिसमें वे कुलपति हंगलू के लोगों को हमलावर बताती हुई प्रकाशित हुई हैं.

 इस हमले के बाद अखबारों ने उनका और उनकेदिवंगत पति का नाम तक लिखना शुरू कर दिया है, तस्वीरें छापी हैं, जो महिलाओं के हित में गैरकानूनी हरकत है. अमर उजाला  द्वारा उनका नाम और फोटो छापने की बात पर वे नाराजगी और गुस्सा दर्ज कराते हुए पत्रकार समुदाय से अपील करती हैं कि अमर उजाला के इस गैर कानूनी और गैरजिम्मेदाराना रिपोर्टिंग के लिए घोर निंदा और बहिष्कार और भर्त्सना कीजिए। महिला साहित्यकार ने कहा कि गर अमर उजाला कल लिखित माफी नहीं माँगता तो मैं उसके खिलाफ कानूनी कारर्वाई के लिए बाध्य होऊँगी।

हीं महिला साहित्यकार ने इलाहाबाद यूनिवर्सिटी केकुलपति रतन लाल हांगलू से अपनी दोस्ती को स्वीकार करते हुए कहा है कि ‘हमारी उनसे अच्छी दोस्ती है वो हमारे घर भी कई बार आ चुके हैं। काश्मीर पर उनकी जानकारी जबर्दस्त है। मैं आजकल काश्मीर पर एक किताब लिख रही हूँ जिसमें मैं उनकी मदद लेती रहती हूँ। साथ ही उन्होंने ये भी कहा कि गर कुलपति दोषी हैं तो उनके खिलाफ़ कार्रवाई हो।‘”इन दो विरोधाभाषी बयानों के साथ वे विक्टिम होने से खुद को मुक्त कर लेती हैं. लेकिन यह इतना आसान भी नहीं है, क्योंकि इसी के साथ कुलपति पद के दुरूपयोग के दोषी सिद्ध होने की कतार में खड़े हो जाते हैं.


हुआ था ऑडियो भी वायरल:

कुलपति द्वारा महिला साहित्यकार को भेजे गये व्हाट्स ऐपमेसेज के वायरल होने के बाद उन दोनों के बीच इंटेंस बातचीत का एक ऑडियो भी वायरल हुआ है. इलाहाबाद विश्वविद्यालय के पूर्व छात्रसंघ अध्यक्ष और एबीवीपी के सचिव रोहित मिश्रा ने कुलपति रतन लाल हंगलू और महिला साहित्यकार के बीच अंतरंग बातों की ऑडियो-क्लिप जारी की है। 33 मिनट 20 सेकंड का ये ऑडियो-क्लिप दरअसल मोबाइल पर हुई बातचीत की ऑडियो रिकॉर्डिंग है। ऑडियो संभवतः दोनों के बीच शुरुआती बातचीत की कॉल-रिकार्डिंग है। क्योंकि महिला साहित्यकार द्वारा सबसे पहले यही प्रश्न पूछा गया है कि ‘आपको मेरा नंबर कहाँ से मिला।क्योंकि मैंने तो आपको कभी कॉल नहीं किया। इवेन जब आपका मेसेज आया और आपने कार्यक्रम की ढेर सारी रिपोर्ट वगैरह भेजी तो उसमें आपकी पिक्चर लगी हुई थी। तो भी मैंने पूछा था कि इज दिस हांगलूज नंबर। तो मुझे लगा कि जो किताब मैंने आपको दिया था आपने उसमें से मेरा नंबर लिया होगा।‘ वहीं हंगलू साहेब शिकायत करते हुए कहते हैं कि ‘उसके बाद से तो तुमने मुझसे कांटैक्ट ही नहीं किया। महिला बताती है कि आपका नंबर और कार्ड सब वहीं होटल में ही छूट गया था।‘

जैसा कि ऑडियो में दोनो की बातचीत से स्पष्ट है किमहिला साहित्यकार से संवाद की शुरुआत कुलपति की ओर से ही हुई थी, वॉट्सएप पर भी और वायसकॉल में भी।ऑडियों में कुलपति रतन लाल हांगलू दिल्ली स्थित महिला साहित्यकार से बातचीत में अपने प्रभाव का उपयोग करके नौकरी और बेहतर करियर देने का वादा कर रहे हैं। ऑडियो में, कुलपति के दिल्ली आने और उस महिला से मिलने की योजना के बाबत बात हो रही है जिसमें महिला अपनी अम्मा को बहाने से दो दिन के लिए गाँव भेजने की सफल योजना के बारे में बता रही है। इसके बाद वो विभिन्न मामलों के संस्थानों में शीर्ष पदों पर आसीन अपने दोस्तों के बारे में बताते हुए उक्त महिला साहित्यकार को व्याख्यान देने और संगोष्ठियों में भाग लेने के लिए आमंत्रित करवाने की बात करते हैं।

पूरी बातचीत के दौरान महिला साहित्यकार द्वारा कईबार अपने दिवंगत साहित्यकार पति को याद किया गया है, उसे सबसे खूबसूरत मर्द बताया गया है। और उसके बाद रतन लाल हंगलू को भी वे बेहद खूबसूरत बताती है। ऑडियों में साफ सुना जा सकता है कि बातचीत के दौरान दो बार रतन लाल हांगलू द्वारा शक़ जाहिर किया जाता है कि उधर कोई है, मुझे किसी की आवाज सुनाई पड़ी है जिसे महिला साहित्यकार ने पहले तो मुझे तो कोई आवाज नहीं सुनाई दे रही और फिर नेटवर्क की समस्या के चलते दूसरी लाइन जुड़ने की बात कहती है। और बाद में अपने दिवंगत जीवन साथी के भूत की आवाज़ बताकर खिलखिलाकर हँसती हैं। महिला कहती है कि हो सकता है मेरे पति का भूत तुमसे गुस्सा हो कि तुम उसकी बीवी के साथ क्या बात कर रहे है या फिर वो तुम्हें शुक्रिया कह रहा हो अपनी बीवी का ख्याल रखने के लिए उसका अकेलापन बाँटने के लिए।

बीच-बीच में कहीं-कहीं दुनिया जहान की बाते हैं और कहीं-कहीं बेहद निजी बातें। ऑडियों में कई बार अपने लिए कुलपति शब्द का इस्तेमाल करता हुए कहता है कि इलाहाबाद यूनिवर्सिटी गुंडों और ठगों का अड्डा है। तिस पर महिलासहानुभूति जताते हुए कहती है गलत यूनिवर्सिटी पाकर आप फँस गये कुलपति साहेब। ऑडियों में कल्याणी देवी यूनिवर्सिटी और हैदराबाद यूनिवर्सिटी का भी जिक्र आता है। बातचीत में अक्टूबर 2017 के मीरा स्मृति पुरस्कार का भी जिक्र है। जहाँ ऑडियो में रतनलाल हांगलू कहते हैं कि मैं तुम्हें मीरा स्मृति पुरस्कार देते समय तुम्हें देखकर बिल्कुल अवाक था क्या कमाल की चीज है। इस पर महिला साहित्यकार खिलखिलाकर हँस पड़ती है। इसके आगे ऑडियो में दिल्ली का मौसम और ठंड के बाबत उक्त महिला साहित्यकार से वे पूछते हैं। और बताते हैं कि उन्हें कई कार्यक्रम में शिरकत करने के लिए दो दिन बाद दिल्ली आना है तो कैसे कपड़े लेकर आएं। महिला साहित्यकार अपने ड्राइवर का नंबर देने और उसे स्टेशन पर लेने, भेजने या खुद लेने जाने की बात करती है। बातचीत के दौरान महिला पूछती है ‘हू आई एम ऑफ योर्स’  और कुलपति महोदय रोमांटिक अंदाज में बताते हैं कि ‘यू आर माई जान, यू आर माई सोल।’ महिला का प्रत्युत्तर है, ‘हाय राम इतना ज्यादा।‘ कुलपति अपने आपको हीरो बताते हुए कहते हैं कि मुझे कोट पैंट पहनना पड़ता है कई कार्यक्रमों में जाना होता है ऐसे वैसे कपड़े पहनकर चला जाऊं तो ऐसे वैसे लोग जो वहाँ होते हैं कि कहते हैं कि, अरे अरे देखो लौंडा आ गया कैसा वीसी बना है। महिला आगे कहती है नहीं आप हीरो हैं। फिल्मों वाले नहीं सचमुच के हीरो। और शेखी बघारते हुए फिर रतनलाल महोदय कहते हैं कि एक कार्यक्रम में मैंने कहा कि पूरा हिंदुस्तान एक तरफ और मैं एक तरफ।

ऑडियो का वार्तालाप कुछ ऐसे उदाहरणों काभी समर्थन करता है जो वीसी और उस महिला के बीच व्हाट्सएप चैट में मौजूद थे, जो पहले दुबे द्वारा सार्वजनिक किया गया था।



रोहित मिश्रा द्वारा जारी किए गए ऑडियो पर, इलाहाबाद विश्वविद्यालय के पीआरओ चितरंजन कुमार सिंह का कहना है कि, "रोहित मिश्रा द्वारा सार्वजनिक किया गया ऑडियो की जाँच कराये जाने की ज़रूरत है जिससे ये पता चल सके कि ये ऑडियो विश्वसनीय है या किकिसी ने वीसी की आवाज़ की मिमिक्री करके तैयार की है।पूरे मुद्देकी अच्छी तरह से जाँच होनी चाहिए क्योंकि यह वीसी की छवि को खराब करने के षड्यंत्र के अलावा कुछ भी नहीं है।

महिला साहित्यकार से फोन पर जब मैंने पूछा कि वे  ऑडियो रिलीज करनेवाले रोहित मिश्रा या वॉट्सएप चैट रिलीज करनेवाले अविनाश दूबे को जानती हैं तो उन्होंने कहा नहीं मैं किसी रोहित मिश्रा या अविनाश दूबे को नहीं जानती। मैंने उनसे अगला प्रश्न किया कि क्या ऑडियो में वो अपनी आवाज़ होने की पुष्टि करती हैं तो उन्होंने कहा कि ‘नहीं’।

वहीं ऑडियो रिलीज करने वाले रोहित मिश्रा का कहनाहै ये तो अभी सिर्फ पहली ऑडियो रिकॉर्डिंग हैं। मेरे पास  17 अन्य रिकॉर्डिंग भी हैं, जिसमेंकुलपति द्वारा अन्य महिलाओं के साथ इसी तरह की आपत्तिजनक बातचीत करते सुना जा सकता है, इन महिलाओं में से कई तो इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के संकाय सदस्य हैं। रोहित मिश्रा के दावे से इस बात पर भी शक़ को बल मिलता है कि वाट्सएप चैट और बातचीत के ऑडियो कुलपति रतलाल हांगलू के मोबाइल से ही लीक किए गए हैं।


शिक्षक संघ की भूमिका

आरोपी कुलपति के समर्थन में शांतिमार्च निकालने की बात पूछने पर इलाहाबाद विश्वविद्यालय के शिक्षक एसोसिएशन के अध्यक्ष प्रो राम सेवक दूबे ने फोन पर बताया कि न तो मैं शामिल हुआ था इस शांति मार्च में और न ही शिक्षक एसोसिएशन। वह इंडिविजुअल छात्रों और शिक्षकों का मार्च था। इस शांतिमार्च में जो शिक्षक शामिल हुए थे वे व्यक्तिगत तौर पर शामिल हुए थे। उनके शामिल होने में शिक्षक एसोसिएशन का कोई लेना देना नहीं था। लेकिन यह पूछे जाने पर कि आप लोग आरोपी कुलपति के समर्थन में तो खड़े ही हैं जबकि अभी तक कोईं आंतरिक या वाह्य जाँच कुलपति रतन लाल हांगलू के खिलाफ नहीं हुई, शिक्षक संगठन के अध्यक्ष राम सेवक दूबे प्रतिप्रश्न करते हैं कि शिक्षक या कुलपति के पद पर बैठे कोई व्यक्ति ऐसे चरित्र का हो सकता है क्या? हम साथ काम करते हैं तो हमें इतना भरोसा तो होना ही चाहिए अपने साथी शिक्षकों और कुलपति पर। आगे उन्होंने बताया कि  पूरे मामले को लेकर इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के शिक्षक एसोसिएशन की बैठक प्रस्तावित है।‘ बैठक के बाद यह स्पष्ट हो गया कि शिक्षक संघ इस पर बंटा हुआ है. सम्बद्ध कॉलेजों के शिक्षक संघ ने छात्र-नेताओं पर बैठक के दौरान हंगामे और मारपीट का आरोप लगाया है. इस बीच विश्वविद्यालय के मिनिस्टीरियल एंड टेक्निकल स्टाफ यूनियन के अध्यक्ष डॉ. संतोष सहाय वीसी के प्रकरण की सीबीआई जांच कराने की मांग की है.

कुलपति के पक्ष में शान्ति मार्च में शिक्षकों के न सिर्फ शामिल होने की खबर है, बल्कि कुछ शिक्षक उनके पक्ष में जोर-शोर से सामने आ रहे हैं. विश्वविद्यालय के जानकारों का मानना है कि शिक्षक जो उनके समर्थन में आ रहे उनमें प्रायः प्रोबेशन अवधि वाले शिक्षक हैं, जिनकी नियुक्तियां विवादास्पद भी बतायी जा रही हैं.

छात्र मुखर आवाज  

इस पूरे प्रकरण में सबसे मुखर आवाज छात्र हैं, जिनका मानना है कि ऐसे कुलपति के होने से कैम्पस में महिलायें सुरक्षित नहीं होंगी. विद्यार्थी इस मुखरता का दंड भी पा रहे हैं, उनपर मुकदमे हुए हैं.

पूर्व छात्रसंघ अध्यक्ष ऋचा सिंह ने बताया कि कैंपस के छात्र आरोपी कुलपति के इस्तीफे और 12000 छात्राओं की सुरक्षा की माँग को लेकर कैंपस में ही धरने पर बैठे थे उस समय करीब एक बजे वह भी छात्रों के धरने को समर्थन देने कैंपस पहुँची जिसके बाद उनपर और धरना दे रहे छात्रों पर करीब 200-300 बाहरी गुंडों ने कैंपस में अंदर घुसकर हमला कर करके बमबाजी की। हमले में ऋचा सिंह वर्तमान अध्यक्ष अविनाश यादव और कई छात्रों को हल्की चोटें आई हैं। जिसके बाद कल शाम को कैंपस की छात्राओं ने महिला छात्रावास के बाहर गेट पर धरने प्रदर्शन करके अपना प्रतिरोध और रोष अभिव्यक्त किया। ऋचा सिंह का आरोप है कि राज्य प्रशासन और सरकार पूरे मामले में लगातार खामोशी ओढ़े हुए इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के बीएचयू में तब्दील होने का इंतजार कर रहा है। बता दें कि पिछले साल बीएचयू में लड़कियों की असुरक्षा और शिकायतों को लेकर ऐसे ही प्रशासनिक उदासीनता के चलते छात्राओं का आदोलन बड़ी हिंसा में तब्दील हो गया था।ऋचा सिंह बेहद गंभीर आरोप लगाते हुए कहती हैं कि इस तरह के हमले करवाकर विश्वविद्यालय प्रशासन पूरे मामले को दो छात्र संगठनों का आपसी संघर्ष साबित करके पूरे मामले से आरोपी कुलपति रतनलाल हांगलू को बचाने की फिराक़ में है।

वहीं पीआरओ चितरंजन कुमार सिंह से कुछसवाल पूछे गए जैसे कि 1- पूर्व छात्रसंघ अध्यक्ष रोहित मिश्रा का कहना है कि उसके पास 17 अलग अलग स्त्रियों से बातचीत के ऑडियो हैं इस पर क्या कहना है आपका?2- आप बार बार आरोप लगा रहे हैं कि पूरे मामले में राजनीति की जा रही है तो राजनीति करनेवाले कौन लोग हैं और वे क्यों राजनीति कर रहे हैं? 3- बिना किसी जांच के यूनिवर्सिटी का टीचर एसोसिएशन ऐसे कैसे कुलपति के पक्ष में खड़ा हो सकता है। क्या टीचर एसोसिएशन के लोग राजनीति नहीं कर रहे पूरे मामले पर पक्षपाती होकर?जिसका उन्होंने जवाब नहीं दिया।

मंत्रालय का मौन

छात्र-नेताओं ने एसपी, एडीजी (यूपी), एचआरडी मंत्रालय, भारत सरकार और विजिटर के नाते राष्ट्रपति  को भी एक पत्र लिखा है जिसमें कुलपति के इस्तीफे और उनके खिलाफ जांच की मांग की जा रही है। "मैंने उच्च अधिकारियों को लिखा है और यह स्पष्ट कर दिया है कि वीसी के पास कोई अन्य विकल्प नहीं है अपने पद से इस्तीफा देने के सिवा ताकि पूरे मुद्दे में एक स्वतंत्र जांच की जा सके.  क्योंकि कुलपति अनैतिक चरित्र का है और यह कैंपस के 12000 से अधिक लड़कियों के छात्रों की सुरक्षा का सवाल है। लेकिन बेटी बचाओ, बेटी पढाओ सरकार के मंत्री इस मसले पर चुप हैं.

मानहानि का मुकदमा

उधर  48 घंटे का अल्टीमेटम पूरा होने के बादआज पूर्व छात्रसंघ अध्यक्ष ऋचा सिंह द्वारा पीआरओ चितरंजन कुमार और रजिस्ट्रार एन के शुक्ला के विरुद्ध मानहानि का मुकदमा दर्ज करवाया गया। ऋचा सिंह का आरोप है कि मेरे लिखित नोटिस का जवाब लिखित में देने के बजाय पीआरओ चितरंजन द्वारा फोन करके तमाम हथकंडो द्वारा केस से पीछे हटने के लिए लगातार दबाव बनाया गया।

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मुजफ्फरपुर यौन-शोषण मामले में जांच की धीमी गति: सुप्रीम कोर्ट करेगा निगरानी, हटाया मीडिया रिपोर्ट पर ब्लैंकेट बैन, मीडिया संस्थानों को गाइडलाइन बनाने के लिए भेजी नोटिस

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सुशील मानव 

बिहार के मुजफ्फरपुर के शेल्टर होम में बच्चियों से बलात्कार के मामले में जांच की गति और दिशा असंतोषजनक है. सुप्रीम कोर्ट को भी जांच में हस्तक्षेप करते हुए हाई कोर्ट की निगरानी को रोकते हुए अपनी निगरानी में लाना पड़ा. जांच की गति और दिशा से सत्ता और बलात्कारियों के नेक्सस का पता चलता है. इस बीच पटना हाई कोर्ट द्वारा इसकी मीडिया रिपोर्टिंग पर पूर्ण प्रतिबन्ध (ब्लैंकेट बैन), जिसे कम-से-कम सरकार ने इसी रूप में लिया था, को हटाते हुए मीडिया के असंयमित व्यवहार पर भी नाराजगी व्यक्त करते हुए सुप्रीम कोर्ट उसके नियामक संस्थानों को गाइडलाइन बनाने को कहा है. मीडिया से संबंधित याचिका स्त्रीकाल की संपादकीय सदस्य निवेदिता ने दायर की थी.  उधर एडवोकेट अलका वर्मा के अनुसार उनकी लगातार की मांग के बावजूद ब्रजेश ठाकुर को अभी तक रिमांड में नहीं लिया गया है। लापता लड़की का पता नहीं लगाया गया है।  सुशील की रिपोर्ट:



20 सितम्बर को सुप्रीम कोर्ट में मुजफ्फरपुर शेल्टर-होमयौन-उत्पीड़न मामले में महत्वपूर्ण सुनवाई हुई. मीडिया रिपोर्टिंग के मामले में इस सुनवाई का विशेष महत्व है.  इस घटना को लेकर जमीन पर सक्रियता और लेखन के जरिये विरोध करने वाली वरिष्ठ पत्रकार, साउथ एशियन वीमेन इन मीडिया की बिहार-अध्यक्ष एवं स्त्रीकाल की संपादकों में से एक निवेदिता की याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने मुज़फ्फरपुर बालिकागृह यौन-उत्पीड़न केस में मीडिया रिपोर्टिंग पर पटना हाइकोर्ट द्वारा लगाई गई पूर्ण रोक हटा दी है। सुप्रीम कोर्ट ने मामले की सुनवाई करते हुए कहा कि मीडिया रिपोर्टिंग पर पूरी तरह प्रतिबंध नहीं लगाया जा सकता है, लेकिन कोई रेखा तो होनी चाहिए। कोर्ट ने बेहद तल्ख टिप्पणी करते हुए कहा कि मीडिया को निर्णयात्मक रिपोर्ट से बचना चाहिए. कोर्ट ने कहा कि यौन उत्पीड़न की पीड़िता की किसी भी तरह से पहचान उजागर न हो। पीड़ित का कोई इंटरव्यू नहीं होगा। ऐसे मामलों को सनसनीखेज बनाने से बचना चाहिए.
बच्चियों के साथ यौन अपराधों के मामले में मीडिया रिपोर्टिंग पर सवाल उठाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया और एनबीए को नोटिस जारी कर ऐसे अपराधों में मीडिया रिपोर्टिंग के लिए गाइडलाइन बनाने में सहयोग मांगा। कोर्ट ने कहा कि हम उम्मीद करते हैं कि प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया आत्मचिंतन करें कि क्या हो रहा है? चार अक्टूबर तक इन नियामक संस्थानों को कोर्ट में अपना जवाब दाखिल करने को कहा गया है.

इसके साथ ही इस केस में चल रही  सीबीआई जांच कोसुप्रीम कोर्ट ने अपनी निगरानी में ले लिया है। सुप्रीम कोर्ट ने आरोपी ब्रजेश ठाकुर पर सख्ती दिखाते हुए कहा कि इनकम टैक्स उसकी संपत्ति की जांच करे। कोर्ट ने कहा कि ब्रजेश ठाकुर और चंद्रशेखर वर्मा का इतना आतंक है कि रिपोर्ट के मुताबिक कोई उनके खिलाफ बोलने को तैयार नहीं है. चंद्रशेखर वर्मा और पूर्व मंत्री मंजू वर्मा के पास अवैध हथियार के मामले को बिहार पुलिस गंभीरता से देखे। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि 20 मार्च 2018 को जिन लड़कियों को समाज कल्याण विभाग से शेल्टर होम में भेजा गया, इस पर बिहार सरकार हलफ़नामा दायर करे कि क्या उन्हें वहां घट रही घटनाओं के मद्देनजर तो नहीं भेजा गया, यानी राज्य सरकार को इसकी जानकारी तो नहीं थी?

हीं सुप्रीम कोर्ट ने मुजफ्फरपुर बालिका गृह यौन उत्पीड़न कांड की जांच के लिये नयी एसआईटी( विशेष जांच दल) गठित करने के सीबीआई के विशेष निदेशक को दिए गए पटना हाईकोर्ट के आदेश पर मंगलवार 18 सितंबर को ही रोक लगा दी थी। न्यायमूर्ति मदन बी लोकूर और न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता की पीठ ने उच्च न्यायालय के आदेश पर रोक लगाते हुये कहा था कि सीबीआई के जांच दल को इस समय बदलना जांच के लिये नुकसानदेह होगा।

जांच प्रगति पर क़ानून के जानकारों की अस्तुष्टि 
जाँच में हुई अब तक कि प्रगति पर हमने दो जानकार और जिम्मेदार वकीलों से बात करके उनकी राय जानी कि मुजफ्फरपुर केस की जाँच किस दिशा में जा रही है तथा और क्या होता तो ये जांच बेहतर होता?
मुजफ्फरपुर केस की सीबीआई जाँच कराने के लिए पटना हाईकोर्ट में जनहित याचिका दायर करनेवाली अल्का वर्मा ने केस में लेटेस्ट अपडेट की जानकारी देते हुए बताया कि पहले की तारीख में पटना हाईकोर्ट ने सीबीआई को नई एसआईटी गठित करने और उच्च न्यायालय में रिपोर्ट जमा कराने के लिए कहा था। सीबीआई ने उच्च न्यायालय के इस अनावश्यक हस्तक्षेप के बारे में सुप्रीम कोर्ट में शिकायत की थी, इसीलिए सुपीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के आदेश पर स्टे लगा दिया। आज जब मामला उठाया गया तो आदेश पर रोक लगाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने स्वतः संज्ञान लेते हुए मामले की सुनवाई सुप्रीमकोर्ट की निगरानी में कराने का निर्णयलिया।
अलका जांच की दिशा और गति से संतुष्टि के सवाल पर कहती हैं कि ‘जिस दिशा में जांच चल रही है उससे मैं संतुष्ट नहीं हूं। मेरी लगातार की मांग के बावजूद ब्रजेश ठाकुर को अभी तक रिमांड में नहीं लिया गया है। लापता लड़की का पता नहीं लगाया गया है। हम त्वरित कार्रवाई चाहते थे.’ क्या हाईकोर्ट की निगरानी ठीक दिशा में है के जवाब में अल्का वर्मा ने कहा कि, अगर सुप्रीम कोर्ट द्वारा जांच निगरानी की जाती है तो मुझे खुशी होगीl



स्त्रीवादी न्यायविद एवं सुप्रीम कोर्ट में अधिवक्ता अरविन्द जैन ने कहा कि जो मौजूदा ढांचा है, उसी में पॉक्सो अपराधों की जांच होना नियति है। इसमें सब वही लोग हैं। सीबीआई, एसआईटी में भी वही लोग हैं, जिनकी स्पेशल ट्रेनिंग नहीं है। हाँ, सीबीआई और एसआईटी की जाँच में थोड़ा फर्क हो सकता है। सबकुछ इस बात पर डिपेंड करता है कि मॉनिटरिंग कौन कर रहा है। ज़रूर कहीं न कहीं मॉनीटरिंग में गड़बड़ी रही होगी तभी सुप्रीम कोर्ट ने अपने हाथों में मॉनीटरिंग ले ली है- लोकल ऑथोरिटी का प्रोशर तो होता ही है।

इस सवाल के जवाब में कि, क्या शिनाख्त परेड ऐसे मेंज़रूरी हो जाता है अरविंज जैन  कहते हैं कि जब सब कुछ ओपेन हो तो शिनाख्त परेड से बहुत फर्क नहीं पड़ता। जो साक्ष्य मिलते हैं और बच्चों के जो बयान होते हैं जाँच और सुनवाई उसी के बेसिस पे होती है। शिनाख्त परेड कराई भी जा सकती है पर इसकी बहुत ज़रूरत नहीं है। अरविन्द जैन कहते हैं कि घटना होने पर जांच के बाद सिस्टम को हम वैसा का वैसा छोड़ देते हैं। उसमें कोई ज़रूरी सुधार तक नहीं किया जाता। इस तरह के पहले भी केस हैं जिनसे कोई सबक नहीं लिया गया। आज हालात ये है कि हजारों बच्चे गायब हो रहे हैं, ह्युमन ट्रैफिकिंग के मामले बढ़े हैं। इनपर नजर रखने के लिए सरकार की ओर से कमीशन होते हैं, चाइल्ड प्रोटेक्शन बोर्ड होते हैं, जुवेनाइल बोर्ड होते हैं। पिछले 15-20 साल में सबकुछ एनजीओ के हाथों में सबकुछ सौंप देने का नतीजा है ये। जबकि एनजीओ का चरित्र ही पैसा इकट्ठा करना होता है। उन्हें राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय कई जगहों से फंडिंग होती है। आवारा पूँजी इकट्ठा हो जाने के बाद ये पुलिस और अपराधियों को मिलाकर एक नेक्सस बना लेते हैं।

क्या है मुजफ्फरपुर में बच्चियों से बलात्कार का यह मामला और कैसे इस मुद्दे पर पूरा देश न्याय का इन्तजार कर रहा है, जानने के लिए नीचे ख़बरों का लिंक देखें. 

बिहार में बच्चियों के यौनशोषण के मामले का सच क्या बाहर आ पायेगा?

मंत्री के पति का उछला नाम तो हाई कोर्ट में सरेंडर बिहार सरकार: सीबीआई जांच का किया आदेश

बिहार के 14 संस्थानों में बच्चों का यौन शोषण: रिपोर्ट

बच्चों के यौन उत्पीड़न मामले को दबाने, साक्ष्यों को नष्ट करने की बहुत कोशिश हुई: एडवोकेट अलका वर्मा

'सनातन'कहाँ खड़ा है मुजफ्फरपुर में: हमेशा की तरह न्याय का उसका पक्ष मर्दवादी है, स्त्रियों के खिलाफ

पैसे की हवस विरासत में मिली थी हंटर वाले अंकल 'ब्रजेश ठाकुर'को !

ब्रजेश ठाकुर की बेटी के नाम एक पत्र: क्यों लचर हैं पिता के बचाव के तर्क

30 जुलाई को देशव्यापी प्रतिरोध की पूरी रपट: मुजफ्फरपुर में बच्चियों से बलात्कार के खिलाफ विरोध

बिहार बंद तस्वीरों में: राकेश रंजन की कविता के साथ


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कुलपति हंगलू भेजे गये छुट्टी पर, होगी जुडीशियल जांच, अश्लील चैट मामला

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सुशील मानव 

कुलपति के पद और प्रभाव के दुरुपयोग के आरोपी इलाहाबाद विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो रतनलाल हंगलू को छुट्टी पर भेजे जाने के साथ ही उनके अश्लील-चैट मामले की जुडिशियल जांच की सिफारिश कर दी गयी है. छात्रों ने उठाये जांच समिति गठन की संवैधानिकता पर सवाल. विद्यार्थियों  में  भ्रम है कि जांच आंतरिक रूप से गठित की गयी है या मंत्रालय के निदेश पर, जिसके बारे में विश्वविद्यालय के पीआरओ ने कहा कि न तो हम इसकी पुष्टि कर सकते हैं और न खंडन. मंत्रालय में छुट्टी होने के कारण इस पर किसी अधिकारी से बात नहीं हो सकी.  छात्रसंघ की पूर्व अध्यक्ष ऋचा सिंह के अनुसार जांच के लिए नियुक्त जस्टिस अरुण टंडन विश्वविद्यालय से सम्बद्ध के कॉलेज जे जुड़े हैं इसलिए इसमें कंफ्लिक्ट ऑफ़ इंटरेस्ट को देखते हुए हम इस जांच का विरोध करेंगे और नयी समिति गठित करने की मांग करेंगे जिसमें एक महिला सदस्य हो. ऋचा का आरोप है कि समिति के साथ नोडल ऑफिसर एक प्रोबेशन पर कार्यरत असिस्टेंट रजिस्ट्रार को बनाया गया है, यह भी संदेह पैदा करता है. इस बीच कानूनविदों की राय में जांच में सत्यता पाये जाने पर, यद्यपि बातचीत म्यूचुअल कंसेंट की लगती है, कुलपति होंगे पद के दुरूपयोग के दोषी, लगेगा प्रीवेंशन ऑफ़ करप्शन एक्ट भी.


विश्वविद्यालय के एक कार्यक्रम में कुलपति रतनलाल हंगलू और जस्टिस अरुण टंडन 


स्त्रीकाल सहित मीडिया की रिपोर्टिंग, तमाम छात्रसंगठनों का साझा विरोध, संघर्ष और पूर्व छात्रसंघ अध्यक्ष ऋचा सिंह के प्रयासों के बाद आखिरकार इलाहाबद विश्वविद्यालय प्रशासन जाग ही गया। कुलपति के पद और प्रभाव के दुरुपयोग के आरोपी प्रो रतनलाल हंगलू को लंबी छुट्टी पर भेज दिया गया है। एमएचआरडी के निर्देश पर इस पूरे मामले की जांच के लिए हाईकोर्ट के रिटायर जज अरुण टंडन की अध्यक्षता में  एक जांच समिति गठित कर दी गई है। इलाहाबाद विश्विद्यालय के अतिथि गृह में इसकी जांच होगी। जस्टिस अरुण टंडन इलहाबाद विश्वविद्यालय से सम्बद्ध एक डिग्री कॉलेज, एस. एस.खन्ना, की संचलन समिति से जुड़े हैं.


जाँच पूरी होने तक रतनलाल हंगलू छुट्टी पर रहेंगे।इस दरमियान वे कैंपस में अपनी मर्जी से नहीं आ सकते। प्रभारी कुलपति प्रो केएस मिश्रा ने जांच कमेटी गठित की है। जबकि असिस्टेंट रजिस्ट्रार देवेश गोस्वामी को जांच कमेटी का नोडल अफसर बनाया गया है। उनके पास सारे दस्तावेजों को कलेक्ट करके न्यायमूर्ति तक ले जाने का जिम्मा होगा। 24-26 सितंबर तक इस प्रकरण से जुड़े साक्ष्य मांगे गए हैं। वहीं कार्यवाहक कुलपति ने इस मामले को लेकर छात्रों से कोई धरना प्रदर्शन न करने की अपील की है। पीआरओ चितरंजन कुमार सिंह ने बताया कि कार्यवाहक कुलपति की ओर से न्यायमूर्ति टंडन को इस बाबत पत्र भेज दिया गया है। जबकि इससे पहले तक रतन लाल हंगलू ऑडियो और वाट्सएप चैट से लगातार इनकार  करते हुए इसे गलत ठहरा रहे थे। इतना ही नहीं इस मामले को उजागर करनेवाले छात्रनेताओं के खिलाफ प्रशासन की ओर से एफआईआर तक दर्ज कराई गई थी। बता दें कि छात्रों के उग्र विरोध के चलते आरोपी वीसी रतन लाल हंगलू 17 व 18 सितंबर को कुलपति ऑफिस तक नहीं जा सके थे। 19 सितंबर को एचआरडी मंत्रालय ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय प्रशासन से रिपोर्ट माँगी थी।

छात्रों ने उठाये जांच पर सवाल 
छात्र-नेताओं ने हालांकि जांच समिति गठन कीसंवैधानिकता पर सवाल. छात्रों के सामने भ्रम है कि जांच आंतरिक रूप से गठित की गयी है या मंत्रालय के निदेश पर, जिसके बारे में विश्वविद्यालय के पीआरओ ने कहा कि न तो हम इसकी पुष्टि कर सकते हैं और न खंडन. मंत्रालय में छुट्टी होने के कारण इस पर किसी अधिकारी से बात नहीं हो सकी. छात्रसंघ की पूर्व अध्यक्ष ऋचा सिंह के अनुसार जांच के लिए नियुक्त जस्टिस अरुण टंडन विश्वविद्यालय से सम्बद्ध के कॉलेज जे जुड़े हैं इसलिए इसमें कंफ्लिक्ट ऑफ़ इंटरेस्ट को देखते हुए हम इस जांच का विरोध करेंगे और नयी समिति गठित करने की मांग करेंगे जिसमें एक महिला सदस्य हो. ऋचा के अनुसार जस्टिस टंडन कई कार्यक्रमों में कुलपति के अतिथि रहे हैं. पूर्व छात्र-संघ अध्यक्ष का आरोप है कि नोडल ऑफिसर एक प्रोबेशन पर कार्यरत असिस्टेंट रजिस्ट्रार को बनाया गया है, यह भी संदेह पैदा करता है.

इलाहाबाद विश्वविद्यालय 


जारी है विरोध प्रदर्शन 
इससे पहले शुक्रवार 20 सितंबर को आरोपी वीसी के खिलाफ पूर्व छात्रसंघ अध्यक्ष दिनेश यादव, रोहित मिश्रा, ऋचा सिंह, वर्तमान अध्यक्ष अविनाश यादव की अगुवाई में छात्रों ने कैंपस में छात्रों के बीच एकजुटता प्रदर्शित करते हुए पैदल मार्च निकाला और वीसी के खिलाफ नारेबाजी करते हुए इस्तीफे की मांग की। छात्रों ने कहा कि जबतक एचआरडी मंत्रालाय आरोपी वीसी को बर्खास्त नहीं करता तब तक हमारा आंदोलन जारी रहेगा। छात्रों का कहना है कि नैतिकता और भरोसा खोने के बाद आरोपी रतन लाल हंगलू को वीसी पद पर बने रहने का कोई अधिकार नहीं है। वहीं छात्रों ने उन शिक्षकों पर भी निशाना साधा जोकि निजी स्वार्थ के लालच में वीसी पद और इलाहाबाद विश्वविद्यालय की प्रतिष्ठा व गरिमा का हनन करनेवाले रतन लाल हंगलू का बचाव कर रहे हैं।
इलाहाबाद विश्वविद्यालय के वर्तमान छात्रसंघ अध्यक्ष अविनाश यादव का कहना है छात्रों ने ठान लिया है के वे आरोपी वीसी को किसी भी कीमत पर अब वीसी की कुर्सी पर नहीं बैठने देंगे। जबकि पूर्व छात्रसंघ अध्यक्ष रोहित मिश्रा का कहना है कि इविवि में अगर किसी छात्रा के साथ छोड़खानी की कोई शिकायत आती है तो बिना जांच किए ही आरोपी छात्र को निलंबित कर दिया जाता है। हिंदी विभाग के अध्यक्ष प्रो कृपाशंकर पांडेय को एचआरडी को पत्र लिखने के आरोप में पद से हटा दिया गया जबकि वे आखिर तक कहते रहे कि उन्होंने कोई पत्र नहीं लिखा है। प्राणी शास्त्र विभाग के प्रो संदीप मल्होत्रा को भी बगैर आरोप सिद्ध हुए ही शिकायत मात्र के आधार पर विभागाध्यक्ष के पद से हटा दिया गया था। लेकिन खुद कुलपति पर बेहद गंभीर और घिनौने आरोप के बावजूद अपनी कुर्सी पर बने हुए हैं। जबकि पूरी निर्लज्जता से इविवि के शिक्षक उनका बचाव कर रहे हैं।
वहीं इलाहाबाद विश्वविद्यालय की महिला सलाहकार बोर्ड (वैब) की सदस्य रही प्रो लालसा यादव ने कहा कि वो 2016 में वैब की सदस्य थी जबकि वैब की बैठकों के दौरान उन्हें इस तरह के किस पत्र की जानकारी नहीं मिली। प्रो लालसा यादव ने पत्र को संदिग्ध व फर्जी बताया है।

क़ानूनविदों की राय 
इस बीच कानूनविदों की राय में जांच में सत्यता पाये जाने पर, यद्यपि बातचीत म्यूचुअल कंसेंट की लगती है, कुलपति होंगे पद के दुरूपयोग के दोषी, लगेगा प्रीवेंशन ऑफ़ करप्शन एक्ट भी. स्त्रीवादी अधिवक्ता अरविंद जैन के अनुसार ऐसे मामले न्यायपालिका में भी आये हैं, जिसके कारण आरोपी जजों को पद-त्यागना पड़ा था.

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अश्लील चैट की जांच के लिए बनी जांच-समिति पर उठे सवाल, जज ने कहा मुझे नहीं है समिति-गठन की सूचना

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सुशील मानव 

इलाहाबाद विश्वविद्यालय प्रशासन द्वारा जांच कमेटी गठित करके मामले की जांच कराए जाने की सूचना के बाद इलाहाबाद विश्वविद्यालय कैंपस में एक बार फिर छात्रों का गुस्सा अपने उफान पर है। छात्रों ने इविवि प्रशासन द्वार गठित जांच कमेटी की विश्वसनीयता और संवैधानिकता पर आपत्ति जताते हुए जांच कमेटी के बहाने मामलेको डायवर्ट करके उसकी लीपापोती करने का गंभीर आरोप लगाया है। वहीं महिला साहित्यकार ने भी कहा कि जिस जज की बेटी को पहले किया नियुक्त उसे ही सौपा है जांच का जिम्मा-जांच निष्पक्ष नहीं हो सकती. इस बीच लेखकों और वामपंथी संगठनों पर भी सवाल उठ रहे हैं. सोशल मीडिया में कहा जा रहा है कि कई वामपन्थी शिक्षकों की नियुक्ति के कारण वामपंथी लेखक संगठन महिला साहित्यकार पर हमले के मामले में चुप हैं.

धरने पर बैठीं छात्राएं 


अपनी आपत्ति और माँगों को लेकर इविवि के आंदोलनरत छात्रों ने कल एक प्रेसविज्ञप्ति भी रिलीज की।

पढ़ें:कुलपति पर जांच 

प्रेस विज्ञप्ति:
आज जैसा कि सभी प्रमुख समाचार पत्रों से हम सबको यह ज्ञात हुआ है कि इलाहाबाद विश्वविद्यालय के कुलपति का प्रभार संभाल रहे प्रोफेसर के.एस. मिश्रा जी ने कल इलाहाबाद हाईकोर्ट से अवकाश प्राप्त न्यायमूर्ति माननीय अरुण टंडन जी की अध्यक्षता में एक उच्च स्तरीय जाँच कमेटी का गठन कर दिया गया है, कुलपति रतन लाल हांगलू पर पद के दुरुपयोग एवं महिला उत्पीड़न के आरोपों की जांच की मांग को लेकर।
1-हम इस जांच कमेटी को पूरी तरह से अस्वीकार्य करते हैं, यह जाँच कमेटी किसी भी तरह से स्वीकार्य नहीं है।
2-हमारी आपत्ति के प्रमुख कारण निम्न है-
जब विश्वविद्यालय के कुलपति रतन लाल हांगलू छुट्टी पर चले गये तो उनके मातहत या एक्टिंग विस चांसलर स्थायी कुलपति के ऊपर जांच के लिए कैसे किसी कमेटी का गठन कर सकते हैं, कमेटी गठन करना एक्टिंग वीसी के अधिकार क्षेत्र के बाहर है।
कुलपति रतन लाल हांगलू पर लग रहे आरोपों की जांच मानव संसाधन विकास मंत्रालय से कमतर किसी संस्था के द्वारा गठित नहीं की जा सकती जिसकी माँग पूर्व अध्यक्ष ऋचा सिंह मानव संसाधन विकास मंत्रालय, माननीय राष्ट्रपति महोदय, माननीय प्रधानमंत्री जी,एवं महिला आयोग द्वारा की जा चुकी है।
जांच कमेटी में महिला का न होना पुनः विश्वविद्यालय का महिला के प्रति असंवेदनशीलता का प्रमाण है। महिला उत्पीड़न पर बन रही किसी भी कमेटी में महिला सदस्य का होना अनिवार्य है, यह कानून कहता है और यूजीसी के नियम कहते हैं।
कनफ्लिक्ट ऑफ इनटेरेस्ट: माननीय न्यायमूर्ति श्री अरुण टंडन जी जो खत्री पाठशाला के सम्बन्धित है और श्री एस.एस. खन्ना, खत्री पाठशाला द्वारा संचालित है। अतः ऐसे व्यक्ति द्वारा जांच न्यायसंगत कैसे हो सकती जो विश्वविद्यालय के अधीन एवं सम्बद्ध हो।
कमेटी के नोडल अधिकारीजो कि विश्वविद्यालय में असिस्टेंट रजिस्ट्रार हैं, जिनकी नियुक्ति लगभग एक महीने पहले हुयी है और वर्तमान में प्रोबेशन पीरियड पर हैं और कुलपति के मातहत हैं जिनसे जांच कमेटी प्रभावित हो सकती है।
जांट कमेटी में टाइम बाउंड का नहीं होना अर्थात समय सीमा का निर्धारण न करना, विश्वविद्यालय द्वारा जाँच के नाम पर की जा रही लीपापोती की कलई खोलता है।
विश्वस्त सूत्रों से पता चला है कि विश्वविद्यालय द्वारा कथित महिला पर दबाव बनाकर उसको प्रभावित करने का प्रयास किया जा रहा है, जो बेहद निंदनीय है और यह विश्वविद्यालय द्वारा जांच को प्रभावित करने का घृणित प्रयास है जो बेहद निंदनीय है।
3-यह स्पष्ट है विश्वविद्यालय की कार्यप्रणाली और बयानों से कि विश्वविद्यालय प्रशासन, छात्रों एवं इलाहाबाद प्रशासन में भ्रम की स्थिति को पैदा करके परिसर में विपरीत स्थितियों को पैदा करने पर अमादा है।  एक तरफ कुलपति जी का बयान आता है कि जब तक जाँच नहीं हो जाती वह परिसर में प्रवेश नहीं करेंगे दूसरी तरफ रजिस्ट्रार द्वारा स्थापना दिवस दिनांक 23.09.2018 में कुलपति के उपस्थिति को निश्चित किया जाता है और पत्र जारी करके। जो कि कैंम्पस में टकराव की स्थिति बनाने का विश्वविद्यालय द्वारा प्रयास है जिस संबंध में आज वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक को पत्र लिखकर भी सूचित कर दिया गया है, कि कैंपस में कुलपति का प्रवेश किसी भी स्थिति में स्वीकार्य नहीं है।
4-आज ऋचा सिंह द्वारा पुनः मानव संसाधन को पत्र लिखकर इस तथ्य से अवगत कराया गया कि किस तरह से विश्वविद्यालय प्रशासन जांच कमेटी के नाम पर एक गंभीर मामले की लीपापोती करने का प्रयास कर रहा है। विश्वविद्यालय प्रशासन द्वारा जांच कमेटी का गठन करना जब उसके अधिकार क्षेत्र में है ही नहीं तो वह जांच कमेटी का गठन कैसे कर सकता है। अतः मंत्रालय तत्काल अपने स्तर पर जांच कमेटी का गठन करे और इस कमेटी को भंग करने का आदेश विश्वविद्यालय के दे।

पढ़ें: महिला साहित्यकार से इलाहाबाद विश्वविद्यालय के कुलपति की अश्लील बातचीत

महिला साहित्यकार की आपत्ति 
वहीं दूसरी ओर पिछले दो दिन से लगातारइलाहाबाद से दिल्ली तक उक्त महिला साहित्यकार द्वारा पैसे लेकर अपना स्टैंड बदलने की बातें होती रही। इस मामले में जब हमने महिला साहित्यकार से संपर्क किया तो उन्होंने इसका पुरजोर खंडन करते हुए कहा-“असंभव। सवाल ही नहीं उठता। मैं इलाहाबाद के सबसे धनी व्यक्तियों में से एक की पत्नी हूँ। अगर कोई आपको पैसे जैसी बात कहता है तो वो दुनिया का सबसे मूर्ख और नीच भी है। मेरा संबंध सबसे ज्यादा पढ़े लिखे और साहित्यिक परिवार से है। मैं अपना स्टैंड क्यूं बदलूँगी। जब जज मुझे बुलाएंगे, मैं अपना पक्ष सौ प्रतिशत रखूँगी। मैं मरते दम तक सच का साथ दूँगी”
कुलपति-निवास के सामने प्रदर्शनकारी छात्र 


वहीं महिला साहित्यकार का ये भी कहना है कि-“मैंने रतन लाल हांगलू को अपनी किताब नहीं दी थी। किताब उन्हें मीरा सम्मान देने वाली संस्था की ओर से ही दी गयी थी। और मेरे दिल्ली निवास पर हमला 8 सितंबर को हुआ था।”महिला साहित्यकार ने एबीवीपी छात्र नेता अविनाश दूबे पर फोन पर धमकी देने और अश्लील मेसेज भेजने का आरोप लगाया। महिला साहित्यकार का कहना है कि ‘कभी ये आदमी खुद रतनलाल हांगलू का आदमी बताता है, कभी कहता है कि रजिस्ट्रर ने, तो कभी कहता है कि पीआरओ चितरंजन कुमार सिंह ने भेजा है। ये आदमी मुझसे पैसे उगाहने के चक्कर में लगा हुआ है।’  महिला साहित्यकार ने इविवि प्रशासन द्वारा जांच कमेटी की निष्पक्षता और विश्वसनीयता पर भी गंभीर सवाल उठाए हैं। महिला साहित्यकार का कहना है कि ‘इविवि के कुलपति हाँगलू ने 26 जनवरी को रिटायर्ड जज अरुण टंडन को अपने यहाँ बुलाकर विशेष पुरस्कार दिया गया था और फिर बदले में जज अरुण टंडन द्वारा एसएस खन्ना गर्ल्स डिग्री कॉलेज में कुलपति रतल लाल हांगलू पति-पत्नीको विशिष्ट अतिथि के तौर पर बुलाया जाता है।दोनों एक दूसरे के घर अक्सर लंच-डिनर पर आते-जाते रहे हैं। महिला साहित्यकार काकहना है कि जज टंडन और कुलपति हांगलू के इसी म्युचुअल संबंधों के चलते ही इविवि के कुलपति रतन लाल हांगलू ने जज अरुण टंडन की बेटी को बतौर टीचर इविवि में नियुक्ति दी है।‘


सुशील मानव फ्रीलांस जर्नलिस्ट हैं. संपर्क: 6393491351

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