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यूपी का देवरिया भी बना मुजफ्फरपुर: संचालिका और उसका पति गिरफ्तार

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स्त्रीकाल  डेस्क 

बिहार के मुजफ्फरपुर के शेल्टर होम में बच्चियों के साथ हुए रेप के खुलासे और उसपर हो रहे प्रतिरोध के बीच उत्तर प्रदेश के देवरिया में भी ऐसा ही मामला सामने आया है. देवरिया में देवी विंध्यवासिनी के नाम पर संचालित नारी संरक्षण गृह में भी देह व्यापार (सेक्स रैकेट) का खुलासा तब हुआ, जब वहाँ रहने वाली एक लड़की भागकर थाने पहुँची. पुलिस ने संचालिका गिरिजा त्रिपाठी और मोहन त्रिपाठी को गिरफ्तार कर लिया है.



रविवार शाम संरक्षण गृह से भागी एक लड़की ने पुलिस को यह जानकारी दी तो हड़कंप मच गया. पुलिस ने रात में ही संरक्षण गृह पर छापा मारा जहाँ से   42 में से 18 लड़कियां गायब मिलीं. पुलिस ने 24 लड़कियों को वहां से मुक्त कर संस्था और उसकी संचालिका सहित कुछ लोगों पर एफआईआर दर्ज किया है.

पुलिस अधीक्षक (एसपी) रोहन पी कनय ने बताया कि मां विंध्यवासिनी महिला एवं बालिका संरक्षण गृह नाम के एनजीओ की सूची में 42 लड़कियों के नाम दर्ज हैं, लेकिन छापे में मौके पर केवल 24 मिलीं. बाकी 18 लड़कियों का पता लगाया जा रहा है. बताया जाता है कि इस संरक्षण गृह की मान्यता पहले रद्द कर दी गयी थी, जिसपर हाई कोर्ट से स्थगन आदेश हो गया था.

एसपी ने बताया कि रविवार शाम संरक्षण गृहसे भागी बिहार के बेतिया जिले की 10 साल की एक बच्ची ने जब पुलिस को जाकर इस बात की जानकारी दी कि बच्चियों के साथ यहां नौकरों जैसा सलूक किया जाता है, और एक कार हर कुछ दिन में 15 साल से ऊपर की लड़कियों को लेकर जाती है. इसके अगले दिन लड़कियां रोते हुए संरक्षण गृह वापस लौटती हैं.


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‘आज के दौर में तटस्थता असांस्कृतिक और अभारतीय हैः अशोक वाजपेयी’

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प्रेस विज्ञप्ति 

‘‘अतताई को नींद न आये - इतना तो करना ही होगा। आज तटस्थता संभव नहीं है। तटस्थता असांस्कृतिक और अभारतीय है। हमें हिम्मत और हिमाकत की जरूरत है। हमारी सार्थकता इसी में है कि हम आज के समय के विरूद्ध बोल रहे हैं। आवश्यकता है कि इप्टा के इस 75वें साल में सांस्कृतिक अन्तःकरण को फिर गढ़ा जाय। पूरी जिम्मेदारी और साहस के साथ हमें इसे गढ़ें। हमारी अन्तःकरण की बिरादरी बहुलतावादी होगी। इस बिरादरी में वे ही बाहर होंगे जिनका न्याय, समता और बराबरी के मूल्यों में विश्वास नहीं होगा।’’

अशोक वाजपेयी इप्टा के कार्यक्रम में बोलते हुए 


इप्टा प्लैटिनम जुबली व्याख्यान - 4 के अंतर्गत ‘सांस्कृतिकअन्तःकरण का आयतन’ विषय पर बोलते हुए वरिष्ठ संस्कृतिकर्मी अशोक वाजपेयी ने देश के सांस्कृतिक-सामाजिक स्थितियों पर संस्कृतिकर्मियों की एकजुटता का आह्वान करते हुए ये बाते कहीं।

पी० सी० जोशी की स्मृति में बिहार इप्टा द्वारा आयोजितप्लैटिनम जुबली व्याख्यान -4 में बोलते हुए अशोक वाजपेयी ने कहा कि आज धर्म और संस्कृति के नाम पर हत्या हो रही है, लेकिन आश्चर्जनक है कि सारे धार्मिक नेता चुप हैं। कोई भी धार्मिक गुरू, धार्मिक नेता इन हत्यों, भीड़तंत्र हिंसा के खिलाफ बोल नहीं रहा है। आज का हिन्दुस्तान में हर 15 मिनट में एक दलित पर हिंसा हो रही है। रोजाना 6 दलित महिलाओं के साथ बलात्कार हो रहा है। आज देश के राज्यों की कोई भी राजधानी नहीं बची और कोई प्रमुख नगर और कस्बा नहीं बचा है, जहां हिंसा न हुई हो। 2017 का साल सबसे खराब साल रहा है। औसतन रोज हिंसा हो रही है। 2019 का साल और खतरनाक होगा। इसे भूलना नहीं चाहिए।

इप्टा के सांस्कृतिक अवदान पर चर्चा करते हुए अशोक वाजपेयी ने कहा कि 1942 में इप्टा भारत में बहुलतावादी सांस्कृतिक आन्दोलन की नींव रखी। इप्टा का मंच था जहाँ बंगाल का अकाल और स्वतंत्रता आन्दोलन के गीत बजे। नृत्य हुए। चित्रकारों ने पेंटिंग की और नाटक रचे गये। पी० सी० जोशी लोहिया के अलावा ऐसे राजनेता थें, जिसे राजनीति के साथ संस्कृति की समझ थी। बाद के नेता चाहे वे वामपंथी, समाजवादी और अन्य कोई वैचारिकी का नेता हो संस्कृति में अपनी समझ नहीं रखी। पी०सी० जोशी ने इप्टा और प्रलेस के साथ देश को सांस्कृतिक अन्तःकरण का प्रतीक गढ़ा और फिर से यह जरूरी हो गया है।
देश की स्थिति पर टिप्पणी करते हुए श्री वाजपेयी ने कहा कि देश में हिंसक, आक्रामक एवं भीड़तंत्र की संस्कृति पनप रही है और दुर्भाग्य से इसे लोक सहमति भी मिल रही है। सांस्कृतिक अन्तःकरण, धार्मिक अन्तःकरण और मीडिया में अन्तःकरण समाप्त हो गया है। कोई आवाज़ सुनाई नहीं देती। ऐसे वक्त में क्या सांस्कृतिक अन्तःकरण संभव है? हिन्दी साहित्य के पूरी तरह से अप्रसांगिक होने का मुकाम आ गया है क्योंकि हिन्दी साहित्य कहीं से भी आज के समय को पुष्ट नहीं करता है। आज देष में रोजाना ‘दूसरे’ गढ़े जा रहे हैं और इनके साथ हिंसा का सलूक हो रहा है। अहिंसक, विरोध, प्रतिरोध की कोई जगह नहीं रही है। झूठ, धर्मान्ध, हिंसा का नया भारत पैदा हो रहा है। ज्ञान, लज्जा, नैतिकता को भूलता भारत पैदा हो रहा है। आज का लोक सेवक ज्ञान से अंधा बेशर्म होकर बोलता है। स्वच्छ भारत बनाने के लिए पूरे भारत की गंदगी को यहाँ के नागरिकों के दिमाग में भरा जा रहा है। आज का भारत महाजनी सभ्यता के समाने सेल्फी लेता नजर आ रहा है। देश में सिर्फ तोड़ा जा रहा है और देश तोड़ने वाली शक्तियों के चंगुल में है। तोड़ने वाले इतने मशगुल है कि उनसे राम मंदिर तक नहीं बना पा रहे हैं। तकनीक का काम मानव विरोधी गलीज में भारत कर कर रहा है। अपने ही संविधान को रौंदता भारत आगे बढ़ रहा है और तमाम लोक सेवक संविधान की नहीं वैचारिक प्रतिबद्धता के साथ सेवा कर रहे हैं।

इप्टा के 75वें साल पर तमाम संस्कृतिकर्मियों और साहित्यकारों को आह्वान करते हुए अषोक वाजपेयी ने कहा कि अंतर्विरोध छोड़कर केवल न्याय, बंधुत्व, समता और भाईचारा के लिए एक हों।

कार्यक्रम की शुरूआत में पटना विश्वविद्यालय के प्राध्यापक प्रो० तरूण कुमार ने कहा है कि आज के दौर वह जब एक विधायक बौद्विक कार्यकर्ताओं को गोली मारने की धमकी देता है और मुक्तिबोध के शब्द एक बार फिर से प्रसांगिक होते हैं कि क्या कभी कभार अंधेरे समय में रोशनी भी होती है?

इस अवसर पर बड़ी संख्या में कवि, लेखक, साहित्यकार, कलाकार और संस्कृमिकर्मी उपस्थित थे।

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क्या वे लड़कियां सच में निर्वस्त्र रहती थीं: पटना शेल्टर होम की आँखों देखी कहानी

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रंजना 

पटना शेल्टर होम की आँखों देखी कहानी बता रही हैं रंजना 



बात  तब की है जब मै हर शनिवार पटना केसुधारगृह में जाती थी .हालाँकि पत्रकारों का प्रवेश वर्जित था ,फिर भी मै हर हफ्ते गायघाट स्थित महिला सुधारगृह और बाल सुधारगृह में जाती थी .बात 2003-4 की है. तब सुधारगृह के लिए एक निगरानी टीम बनी हुयी थी, पटना विमेंस कॉलेज की सिस्टर की देखरेख में यह टीम काम करती थी ,मै भी उस टीम की सदस्य थी, मै उनके एजुकेशन और सुधारगृह दोनों ही प्रोजेक्ट से जुडी थी. हलाँकि तब सारी आँखों देखी लिखना मना था ,फिर भी बहुत कुछ लिखती थी.

लडकियों के सुधारगृह में जब भी जाती थी,वहां पहले से ही खबर कर  दिया जाता था, और फिर नहा धोकर लडकियां तैयार रहती थीं,कुछ के गोद में बच्चा था और कुछ के पेट में,पूछने पर उनकी संरक्षिका कहती ,प्रेम में भागी हुयी है,इस लिए. पर मुझे जहा तक याद है उनमें से बहुत सी थी जिन्हें अपने घर के बारे में कुछ भी याद नहीं था, सालों से उसी जगह रहती थी. संरक्षिका से रिश्ते बना कर रखती थी, ताकि उनको पेट भर कर खाना मिलता रहे. पुराने ही सही कपडे भी मिल जाते थे. खुद खाना बनती थी. और खुद ही सारी सफाई भी. चार –पांच लडकियों की दादागिरी भी चलती थी ,क्योंकि वे अपनी मैडम जी के घर का सारा काम संभाल कर उन्हें खुश रखती थी.जब भी हमलोग लम्बे टाइम तक वहां होते थे, भीतर कमरे में से बहुत ही तेज़ –तेज़ आवाज़ आती थी,कभी दरवाज़ा पीटने की कभी चिल्लाने की. जब पूछती ,सभी कहती की कुछ पागल लडकिया है,जिन्हें बंद करके रखना पड़ता है,उन लडकियों में से ही कुछ कहती थी की,बंद नहीं किया जायेगा तब सब तोड़ –फोड़ करेगी,खुद के भी कपडे फाड़ देती है, दो लडकियां कपडे नहीं पहनती ,नहाती भी नहीं है. जब मैडम जी को या किसी जाँच टीम को आ ना होता है तब उनको भी नहला कर कपडे पहना देते हैं, जबरन. इतनी सारी लडकियों पर दो ही ठीक बाथरूम थे तब, उसके लिए भी आपस में भिड़ती थी.पूछने पर कि मासिक होने पर कैसे ..? फिर तो सब की चुप्पी थी .



सरकार जो भी देती होगी उसमे से ही संचालिका के घर का खाना–पानी चलता था. लडकियों के लिए बने सुधारगृह के भीतर से ही एक गेट खुलता था बाल सुधारगृह का. लडिकियां खुले में नहाने बैठती थी और लड़के छत पर खड़े होते थे. एक बार लडको की आपस में लड़ाई हुयी थी और तब ही एक बच्चाजल गया था. बाल  सुधारगृह का संरक्षक सुधारगृह के सामने ही चार-मंजिला माकन बनाये हुए था. बहुत कुछ आँखों देखी, पर ,अलग–अलग तर्क दे देते थे वहां के कर्मचारी. लेकिनराजू नाम का एक कर्मचारी था तब, वही सिस्टर की तरफ से सारा कुछ देखता था,वो जब चाहे जाता था. किसी बात पर सिस्टर उससे नाराज़ हुयी और फिर उसने जो कहानी बताई,उसका प्रमाण ठीक हफ्ते दिन बाद ही मिल गया था.

बाल–सुधारगृह के बच्चे चोरी करने भी निकलते थे और ड्रग्स भी लेते थे,कुछ चहेते बच्चे थे,जिनसे बहुत कुछ गलत काम करवाया जाता था,और बदले में उन्हें भी मनमाफिक रहने को मिलता था. वे ही हर जाँच टीम के आगे अछे बच्चे बन कर खड़े हो जाते थे .लडकियों को अस्पताल के बहाने कही ले जाया जाता था तब भी ये लड़के कर्मचारियों का साथ देते थे. सेक्स लडकियों के लिए बड़ी बात नहीं थी. वही लडकियां इन सब से बची रह पाती थी, जिनका केस खुला होता था .वरना सब सरकारी तरीके से संचालित होता था.राजू ने जब बताया कि लड़के ड्रग्स लेते हैं और लडकियों को भी कही बहार ले जाया जाता है,गाड़ी से. कई बार देर रात को. तब, एक सवाल बनता था. निगरानी टीम से पूछने की.
एक शेल्टर होम में बच्चे 


जब मैंने टीम की वरीय सदस्या को फ़ोन कियातब उन्होंने एसी किसी भी जानकारी से इनकार कर दिया. हालाँकि वह सिस्टर अब इस दुनिया में है भी या नहीं लेकिन तब सतत्तर साल की उम्र में भी हर हफ्ते जाती थी दोनों सुधारगृह में,ये अलग बात है उन सब को सिखाने– पढाने का एक ढकोसला ही होता था.

रंजना फ्रीलांस करती हैं. 

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बच्चियों से बलात्कार मामले में हाई कोर्ट मॉनिटरिंग को तैयार, मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का उपदेशक प्रेस कांफ्रेंस, लोकसभा में बवाल

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सुशील मानव 
मुजफ्फरपुर के बालिका गृह में बलात्कार के मामले में सूबे के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार चौतरफा घिरते जा रहे हैं, विपक्ष के भाजपा सांसद भी मंजू वर्मा के इस्तीफे की मांग करने हैं. बैकफुट पर आई सरकार कोर्ट में आगे बढ़कर याचिकाकर्ताओं की मांगें मान रही है. याचिकाकर्ताओं की मांग सुनने के पहले ही महाधिवक्ता ने हाईकोर्ट से मॉनिटरिंग की बात मन ली. उधर अपने मंत्री का बचाव करते हुए नीतीश कुमार ने आज एक प्रेस कांफ्रेंस कर जहाँ मीडिया, समाज और विपक्ष को नसीहतें दीं, हमला बोला वहीं मंत्री के इस्तीफे से सीधे मुकर गये. राजद के महासचिव शिवानन्द तिवारी वर्मा को बचाने के प्रयास को नीतीश कुमार द्वारा कुशवाहा वोट को साधने और कुर्मी-कुशवाहा/लव-कुश नैरेटिव को मजबूत करना बताया. इस बीच समाज कल्याण विभाग छोटी-मोटी कारवाई भी कर रही है. सुशील मानव की रिपोर्ट: 




आज सुबह से ही बिहार के मुजफ्फरपुर में बालिका-गृह-रेपकाण्ड को लेकर बिहार से दिल्ली तक काफी हलचल रही. लोकसभा की कार्रवाई शुरू होते ही कांग्रेस की सांसद रंजीता रंजन ने और राजद के संसद जयप्रकाश नारायण यादव ने मामले को उठाते हुए सरकार पर सीबीआई के सबूत मिटाने का आरोप लगाया. वहीं भाजपा के नेताओं ने नीतीश कुमार को मंत्री मंजू वर्मा को बर्खास्त करने की सलाह भी दे डाली.

हाईकोर्ट में 

पटना हाईकोर्ट में मामले की सुनवाई के दौरान सरकार पहले से ही बैकफुट पर दिखी. सरकार ने आगे बढ़कर हाईकोर्ट से मॉनिटरिंग की बात स्वीकार कर ली. याचिकाकर्ता संतोष कुमार ने बताया कि हाईकोर्ट ने सीबीआई और बिहार सरकार को नोटिस देकर दो हफ्ते के भीतर अबतक की जाँच पर हलफनामा मांगा है.
हाईकोर्ट ने खुद मॉनिटरिंग करने, पीडिताओं के पुनर्वास और स्पीडी ट्रायल के लिए बेंच की नियुक्ति का आदेश दिया. मामले की सुनवाई हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस राजेन्द्र मेनन ने की. याचिकाकर्ताओं की वकील एडवोकेट अलका वर्मा ने बताया कि उन्होंने कोर्ट को कहा कि चाइल्ड प्रोटेक्शन होम का सञ्चालन एनजीओ से लेकर सरकार को खुद करना चाहिए. कोर्ट की सुनवाई के तुरत बाद नीतीश कुमार ने अपने प्रेस कांफ्रेंस में यह बात मान ली और इस आशय की घोषणा भी की. वर्मा ने कहा कि हमें अपनी याचिका में 10 और पेयर्स जोड़े हैं, जिसमें सिविल सोसायटी द्वारा मॉनिटरिंग की मांग भी है, जिसमें डॉक्टर, मनोवैज्ञानिक और सामाजिक कार्यकर्ताओं की भी भागीदारी हो. जांच का दायरा पूरे बिहार तक करने सहित 10 मांगों पर सुनवाई अगले तारीख को होगी.



प्रेस कांफ्रेंस 
न्यायालय में सुनवाई खत्म होते ही मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और उपमुख्यमंत्री सुशील मोदी ने प्रेस कांफ्रेंस किया. कुमार विपक्ष पर हमलावर होने की कोशिश करते रहे लेकिन पत्रकारों ने उन्हें सत्तापक्ष के ही भाजपा सांसदों द्वारा मंत्री मंजू वर्मा के इस्तीफे की मांग पर निरुत्तर कर दिया. पूरे कांफ्रेंस में नीतीश कुमार की झुंझलाहट स्पष्ट थी, वे मंत्री मंजू वर्मा का बचाव हरसंभव करते दिखे. हालांकि वहां उपस्थित पत्रकारों के सवालों में राजनीति ज्यादा और केस के कानूनी डिटेल कम थे, कानूनी डिटेल के आधार पर सवाल नहीं किया जा सका. हालाँकि नीतीश कुमार की सरकार कोर्ट में चल रही सुनवाइयों के दवाब में जरूर दिखी, तभी पहली सुनवाई के शुरू होने के पहले ही सीबीआई जाँच करने की अनुशंसा करने वाली सरकार ने आज दूसरी सुनवाई के दौरान आगे बढ़कर हाईकोर्ट मॉनिटरिंग का अनुरोध किया और सुनवाई खत्म होते ही याचिकाकर्ताओं की एक प्रमुख मांग की शेल्टर होम सरकार के अधीन हों, को भी मान लिया.


समाज कल्याण विभाग की कार्रवाई 


मुज़फ्फ़रपुर केस में अपनी भूमिका को कठघरे में खड़ा होतादेख डैमेज कंट्रोल के फेर में कड़ी में कारर्वाई करते हुए बिहार सरकार के समाज कल्याण विभाग ने 4 अगस्त 2018 को एक लिखित आदेश देकर 8 बाल कल्याण समितियों की अवधि विस्तार की अवधि को निरस्त करते हुए नजदीकी जिले के बाल कल्याण समिति से संबद्ध करने का आदेश दिया है।

कल्याण विभाग ने अपने आदेश में लिखा है- ‘टाटा इंस्टीट्यूटऑफ सोशल साइंस (कोशिश) से प्राप्त प्रतिवेदन की समीक्षा की गई। समीक्षोपरान्त बाल कल्याण समिति के द्वारा किशोर न्याय (बालकों की देख-रेख और संरक्षण) अधिनियम 2015 की धारा 28(2), 30 (VII, XVI,XVII)  में निहित प्रावधानों के निर्वाहन समिति द्वारा नहीं किए जाने के कारण ऐसे जिलों जहाँ जाँच प्रतिवेदन में गृहों के संबंध में प्रतिकूल टिप्पणी पाये गये हैं। वैसे जिलों में कार्यरत बाल कल्याण समिति को बालहित एवं कार्यहित में अवधि विस्तार की अवधि को समाप्त करते हुए नजदीकी जिले के बाल कल्याण समिति सें संबद्ध करने का निर्णय लिया गया है। वे बाल कल्याण समिति हैं:

1-बाल कल्याण समिति पटना के अवधि विस्तार को निरस्त करके नजदीकी जिले जहानाबाद के बाल कल्याण समिति से संबद्ध कर दिया गया है।
2-बाल कल्याण समिति पूर्वी चंपारण (मोतिहारी) के अवधि विस्तार को निरस्त करके नजदीकी जिले गोपालगंज के बाल कल्याण समिति से संबद्ध कर दिया गया है।
3-बाल कल्याण समिति कैमूर को निरस्त करके नजदीकी जिले रोहतास के बाल कल्याण समिति से संबद्ध कर दिया गया है।
4-बाल कल्याण समिति गया को निरस्त करके नजदीकी जिले अरवल के बाल कल्याण समिति से संबद्ध कर दिया गया है।
5-बाल कल्याण समिति भागलपुर को निरस्त करके नजदीकी जिले बाँका के बाल कल्याण समिति से संबद्ध कर दिया गया है।
6-बाल कल्याण समिति नवादा को निरस्त करके नजदीकी जिले नालंदा के बाल कल्याण समिति से संबद्ध कर दिया गया है।
7-बाल कल्याण समिति सीतामढ़ी को निरस्त करके नजदीकी जिले शिवहर के बाल कल्याण समिति से संबद्ध कर दिया गया है।
8-बाल कल्याण समिति कटिहार को निरस्त करके नजदीकी जिले खगड़िया के बाल कल्याण समिति से संबद्ध कर दिया गया है।
स्त्रीकाल और अन्य संगठनों द्वारा बिहार भवन पर प्रदर्शन 


आदेश में ये भी कहा गया है कि यह आदेश अगले छः माह या नई समिति के गठन तक जो भी पहले हो के लिए किया गया है। बता दें कि प्रस्ताव पर समाज कल्याण विभाग की मंत्री के अनुमोदन प्रप्त होने का भी जिक्र किया गया है । आदेश पर समाज कल्याण के निदेशक राजकुमार के हस्ताक्षर हैं।

वहीं दूसरी ओर समाज कल्याण विभाग ने मुजफ्फरपुर समेत छह जिलों के सहायक निदेशक बाल संरक्षण इकाई (एडीसीपीयू) को तत्काल प्रभाव से निलंबित कर दिया है। शनिवार 4 अगस्त को विभाग के निदेशक राज कुमार ने निलंबन का आदेश जारी किया। निलंबित किए गए पदाधिकारियों में मुजफ्फरपुर के एडीसीपी दिवेश कुमार शर्मा, मुंगेर की सीमा कुमारी, अररिया के घनश्याम रविदास, मधुबनी के सहायक निदेशक जिला सामाजिक सुरक्षा कोषांग एवं अतिरिक्त प्रभार सहायक निदेशक, बाल संरक्षण इकाई कुमार सत्यकाम, भागलपुर की एडीसीसी गीतांजलि प्रसाद, एवं भोजपुर के तत्कालीन एडीसीसी आलोक रंजन के नाम शामिल हैं।
बता दें कि विभाग द्वारा जारी निलंबन आदेश के मुताबिक सभी निलंबित सहायक निदेशक बाल संरक्षण इकाई पर टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेस मुंबई की कोशिश टीम द्वारा सामाजिक अंकेक्षण रिपोर्ट में संस्थान के संवासिनों के साथ मारपीट, अभद्र व्यवहार एवं अन्य अवांछित कार्य किए जाने की रिपोर्ट दिए जाने के बावजूद संस्थानों के खिलाफ कोई एक्शन नहीं लेने का आरोप है। साथ ही इन पदाधिकारियों पर अपने निरीक्षण रिपोर्ट में कभी भी उक्त संस्थानो की वस्तुस्थिति से उच्चाधिकारियों को अवगत नहीं कराने जैसे बेहद गंभीर आरोप भी विभाग की ओर से लगाए गए हैं।विभाग के अनुसार 26 मई 2018 की राज्य स्तरीय बैठक में भी आवश्यक कार्रवाई का निर्देशदिया गया था।

बाल कल्याण विभाग की इस कारर्वाई पर सवाल उठाते हुएमुजफ्फरपुर मामले में जनहित याचिका दायर करके हाईकोर्ट की निगरानी में मामले की सीबीआई जाँच की माँग करने वाले सामाजिक कार्यकर्ता संतोष कुमार जी आश्चर्य जताते हुए कहते हैं- ‘हैरत वाली बात ये है कि कई जिलों में निदेशालय को पहले ही रिपोर्ट भेजा गया था कि उक्त बालगृह नहीं चल रहा है, तो निदेशालय ने उनके रिकमेंडेशन को नहीं माना। जो कार्रवाई निदेशालय को अपने आप पर करना चाहिए था अपने वरीय पदाधिकारियों पर करना चाहिए था उसको वो न करके खुद को बचाते हुए छोटे पदाधिकारियों को बलि का बकरा बनाकर निलंबित कर दिया है।समाज कल्याण विभाग अपने उच्च अधिकारियों के खिलाफ जाँच क्यों नहीं बैठाता है। आखिर उनके निगरानी करते रहने के बावजूद एक साथ इतने सारे शेल्टर होमों में अनियमितता बलात्कार जैसी बर्बरता क्यों अब तक छुपी रही थी। आखिर ऐसी कौन सी मशीन उनके हाथ लगी है कि टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ साइसेंज की टीम महज कुछ घंटों के लिए शेल्टर होमों में जाती है और उनका सारा कच्चा-चिट्ठा निकालकर चली आती है फिर कल्याण विभाग के अधिकारी कैसे इतने दिन कुछ नहीं जान पाए? '

संतोष पूछते हैं, 'आखिर समाज कल्याण के अधिकारी क्या करने जाते थे शेल्टर होम में। जिला लेवल के पदाधिकारी से लेकर प्रधान सचिव तक रुटीन में गए हैं और यहां तक की मंत्री भी गए हैं बाल आयोग संरक्षण की अध्यक्षा भी गई हैं निदेशक और दूसरे पदाधिकारी तो गए ही हैं लेकिन किसी को कुछ नहीं पता चलता है। ये ऊँचे स्तर पर संलिप्तता का विषय हो सकता है। ये भ्रष्टाचार से शुरू होता है और अपराध तक पहुँच जाता है। ये संगठित अपराध तक पहुँचता है। सीबीआई जाँच कर रही है हमें उस पर भरोसा है कि वो इस संभावित सिंडिकेट को तोड़ने में कामयाब हो जाएगी। जो इन सबके पीछे एक सिंडिकेट के तौर पर काम कर रहे हो सकते हैं। इसमें एनजीओ अपराधी छवि नेता नौकरशाह और सफेदपोश ये तीनों संलिप्त हैं। और इसमें कई पत्रकार भी शामिल हैं क्योंकि वो मुख्य अपराधी पत्रकार भी था। हो सकता है चारो कोण मिलकर एक कॉकटेल तैयार करते रहे हों जो वर्षों से फल फूल रहा होकि इन्हें कौन रोकेगा सभी तो मिले हुए थे। टैक्सपेयर के पैसे परभ्रष्टाचार से शुरू हुआ ये सिलसिला बच्चियों के साथ ऐसा घिनौना अपराध तक जा पहुँचताहै। इन्होंने बिहार के चेहरों को इस कदर कलंकित कर दिया है कि बिहार के लोग अब शर्मिंदगी महसूस कर रहे हैं। और ये सब कुछ लोगो की वजह से हुआ है। हमें हाईकोर्ट मॉनीटरिंग में सीबीआई जाँच पर भरोसा है। स्वतःसंज्ञान लेने के बाद और सुप्रीमकोर्ट भी मॉनीटरिंग करे तो और अच्छा है। निःसंदेह बच्चियों को न्याय मिलेगा।लेकिन मेरी चिंता उन 34 बच्चियों के भविष्य को लेकर है कि अब इन बच्चियों के लिए सरकार के पास कौन सा एक्शन प्लान है इसको लेकर सरकार की ओर से कोई भी बात करने को तैयार नहीं है।’

(नोट- पोस्ट में दिए गए सारे तथ्य और विवरण समाजसेवी याचिकाकर्ता संतोष कुमार द्वारा उपलब्ध कराया गया है।)



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सुशील मानव 

“ यहाँ   कई दीदी हैं। उन्हें बड़ी मैडम रात को कहीं भेजती थी।कभी लाल गाड़ी तो कभी काली गाड़ी आती थी उनको ले जाती थी। जब दीदी सुबह में आती तो सिर्फ रोती थीं। कुछ भी पूछने पर बताती नहीं थी। हम लोगों से झाड़ू पोछा करवाया जाता था। न करने पर मारा-पीटा जाता।”- ये 10 साल की उस लड़की के अल्फाज़ हैं जो माँ विंध्यवासिनी संरक्षण गृह से भागकर कल यानि रविवार को पुलिस थाने पहुँच गई। बच्ची के बयान लेते ही पुलिस ने संवेदनशीलता का बढ़िया उदाहरण देते हुए एसपी रोहन पी कनय की अगुवाई में अविलंब शेल्टर होम में छापेमारी की कार्रवाई करते हुए मामले का खुलासा करते हुए संरक्षण गृह की संचालिका गिरिजा त्रिपाठी, पति मोहन, उसके अध्यापक बेटे को गिरफ्तार कर लिया है जबकि संस्थान की अधिक्षक बेटी कंचनलता त्रिपाठी की तलाश की जा रही है।


मामले में पुलिस लड़कियों के बयान के आधार पर मानव तस्करी, देह व्यापार जैसी धाराओं में मुकदमा दर्ज कर ली है।पुलिस का कहना है कि संरक्षण गृह से 24 बच्चों वलड़कियों को मुक्त कराया गया है। जबकि रजिस्टर में 42 लड़कियों के नाम दर्ज हैं।18 गायब बच्चों व लड़कियों का पता लगाया जा रहा है। बता दें कि मां विंध्यवासिनी महिला प्रशिक्षण एवं समाज सेवा संस्थान द्वारा संचालित बाल गृह बालिका, बाल गृह शिशु, विशेषज्ञ दत्तक ग्रहण अभिकरण एवं स्वाधार गृह देवरिया की मान्यता को शासन काफी टाइम पहले ही स्थगित कर चुका है। इसके बावजूद भी संस्था में बालिकाएं, शिशु व महिलाओं को रखा गया था।

बता दें कि  मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के देवरिया में संचालित होने वाले सामूहिक विवाह की संपूर्ण जिम्मेदारी इसी संस्था को दी जाती रही है। जबकि देवरिया के तत्कालीन डीएम ने मां विन्ध्यवासिनी संस्था को यहां की सबसे जिम्मेदार संस्थान बताया था।

वहीं बिहार मुजफ्फरपुर बालिकागृह 34 लड़कियोंके यौनउत्पीड़न मामले में नीतीश सरकार की फजीहत से सबक लेते हुए मुख्यमंत्री उत्तरप्रदेश योगी आदित्यनाथ ने घटना के खुलासे के चौबीस घंटे की भीतर ही कड़ी कारर्वाई करते हुए देवरिया के डीएम सुजीत कुमार को पद से हटा दिया है और डीपीओ को सस्पेंड कर दिया है।इसके अलावा जिला कार्यक्रम अधिकारी को भी सस्पेंड कर दिया गया है। वहीं पूर्व के डीपीओ अभिषेक पांडेय इन्हें सस्पेंड किया गया है।जबकि अंतरिम चार्ज में रहे दो अधिकारी नीरज कुमार और अनुज सिंह के खिलाफ विभागीय जांच के आदेश दिए गए हैं।साथ ही उन्होंने दो सदस्यीय उच्च स्तरीय जांच समिति बनाकर पूरे प्रकरण की जांच कर शाम तक रिपोर्ट सौंपने का निर्देश भी दिया है। मुख्यमंत्री ने प्रमुख सचिवमहिला कल्याण रेणुका कुमार और एडीजी अंजू को अलग-अलग जांच करने के लिए देवरिया भेजा है। ये दोनों आज दिन भर देवरिया में रहेंगीं और एक-एक बच्चे से बात करेंगीं और कल रिपोर्ट सीएम को सौंपेंगीं।  मुख्यमंत्री यूपी ने इसके अलावा प्रदेश के सभी जिलाधिकारियों को 12 घंटें का समय देते हुए कहा कि प्रदेश भर के सभी सरकारी और गैर सरकारी शेल्टर होम की जांच करके पेश की जाए।
शेल्टर होम के बच्चे 

दरअसल बिहार में कांड के बाद मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने 3 अगस्त को ही प्रदेश के सभी जिलाधिकारियों को अपने जिलों में बाल गृह तथा महिला संरक्षण गृह का व्यापक निरीक्षण करने के निर्देश दिए थे। मुख्यमंत्री के निर्देशों के बाद भी देवरिया जिला प्रशासन नहीं चेता। बता दें मुख्यमंत्री ने अपने निर्देशों में कहा था कि ये भी चेक करें कि यहां पर रह रहे बच्चों एवं महिलाओं को किसी भी प्रकार की परेशानी न हो। साथ ही, उन्होंने इन गृहों के पर्याप्त सुरक्षा प्रबंध किए जाने के भी निर्देश दिए। मुख्यमंत्री ने कहा कि बाल गृह तथा महिला संरक्षण गृह की देखभाल और साफ-सफाई में कोई कोताही न बरती जाए। साथ ही, यहां पर रह रहे बच्चों एवं महिलाओं की सुविधाओं का पूरा ध्यान रखा जाए। इसमें किसी भी प्रकार की शिथिलता या लापरवाही पाए जाने पर सम्बन्धित के विरुद्ध कड़ी कार्रवाई की जाएगी।इन निर्देशों के बावजूद देवरिया जिला प्रशासन लापरवाह बना रहा और बिहार के मुजफ्फरपुर शेल्टर होम की तरह ही देवरिया के नारी संरक्षण गृह में भी देह व्यापार कराए जाने के आरोप लग रहे हैं।

इस पूरे मामले पर उत्तर प्रदेश की महिला और बाल कल्याण मंत्री रीता बहुगुणा जोशी का कहना है कि पिछले साल सीबीआई की जांच के बाद ये पाया गया था कि ये शेल्टर होम अवैध तरीके से चल रहा है। तब इसकी मान्यता रद्द कर दी गई थी और लड़कियों को दूसरी जगह शिफ्ट करने और इसे बंद करने का निर्देश दिया गया था, लेकिन इसका पालन नहीं हुआ।दरअसल मामले में महिला एवं बाल कल्याण विभाग और जिला प्रशासन की लापरवाही सामने आई है। सवाल यह उठ रहे हैं कि 23 जून 2017 को मान्यता खत्म होने के बाद 30 जुलाई 2018 को एफआईआर क्यों कराई गई? इतना ही नहीं 30 जुलाई को लिखी गई एफआईआर पर पुलिस ने कार्रवाई क्यों नहीं की। फिलहाल रविवार रात दर्ज हुई एफआईआर में शारिरिक छेड़छाड़ और पॉक्सो की धारा बढ़ाई गई है। नारी संरक्षण गृह के बारे में लंबे समय से शिकायत मिल रही थी। बता दें अनियमितताओं के कारण इस शेल्टर होम की मान्यता जून-2017 में समाप्त कर दी गई थी। सीबीआई ने भी संरक्षण गृह को अनियमितताओं में चिह्नित कर रखा है।

रविवार को मां  विंध्यवासिनी महिला प्रशिक्षणएवं समाज सेवा संस्थान द्वारा संचालित बालिका गृह से बिहार के बेतिया की रहने वाली एक बालिका किसी तरह यहां से भाग निकली। यहां से वह सीधे महिला थाने पहुंची और यहां उसने एसओ को संस्था के अंदर चल रही गतिविधियों की शिकायत की। एसओ ने बिना देर किए घटना की जानकारी एसपी रोहन पी कनय को दी। एसपी ने तत्काल संस्था के बारे में जानकारी एकत्र की। महिला हेल्पलाइन 181 की काउंसलर को बुलाया गया। लड़की ने अपने बयान में संस्थान से सेक्स रैकिट के संचालन का आरोप लगाया। पुलिस अधीक्षक रोहन पी कनय ने बताया कि मां विंध्यवासिनी महिला एवं बालिका संरक्षण गृह नाम के एनजीओ की सूची में 42 लोगों (बच्चों और महिलाओं) के नाम दर्ज हैं, लेकिन छापे में मौके पर केवल 24 लड़के-लड़कियां ही मिले। बाकी 18 बच्चे और लड़कियों का पता लगाया जा रहा है।
एसपी रोहन पी कनय ने बताया कि वहां के बच्चों से हमारी बातचीत हुई है। बच्चियों से हुई बातचीत से पता चला है कि संस्था में 15 से 18 वर्ष की लड़कियों से जिस्म का धंधा कराया जाता था। तात्कालिक कार्रवाई करते हुए संस्था के जिम्मेदार पदाधिकारियों को गिरफ्तार कर संस्था को सील कर दिया गया है।

जबकि महिला थाने जाकर शिकायत करनेवाली दस वर्षीय बहादुर लड़की बिहार के बेतिया जिले की रहने वाली है।और कई साल से इस शेल्टर होम में रह रही थी। उसके जन्म के साथ ही मां की मौत हो गई थी। इसके बाद पिता ने उसे ननिहाल छोड़ दिया। लेकिन ननिहाल वालों ने भी उसे अपनी बेटी की मौत का जिम्मेदार मानते हुए शेल्टर होम के सुपुर्द कर दिया। तब से वह यहीं रह रही थी। उसके पिता ने दूसरी शादी कर ली और वह कभी-कभी उससे मिलने आता था। वह शेल्टर होम को पैसे भी देता था।

एडीजी एलओ आनंद कुमार ने कहा कि देवरियाशेल्टर होम मामले में विस्तृत जांच कराई जा रही है। जिला प्रशासन भी अपने स्तर से जांच कर रहा है। वह बाल विकास विभाग से भी संपर्क कर रहे हैं। वहां रह रहे सभी बच्चों और महिलाओं का मेडिकल कराया जाएगा। बच्चों के बयान पॉक्सो मैजिस्ट्रेट के सामने दर्ज कराए जाएंगे।

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सुप्रीम कोर्ट ने कहा-दायें-बायें-केंद्र, हर जगह हो रहा बलात्कार: इस बीच यूपी के हरदोई और हरियाणा के नूह के शेल्टर-होम के मामले हुए उजागर

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सुशील मानव 

मुजफ्फरपुर बालिका गृह यौन शोषण मामले पर सुप्रीम कोर्ट ने नीतीश सरकार को जमकर फटकार लगाई। कोर्ट ने कहा कि देश भर में 'लेफ्ट, राईट, सेंटर हर जगह हो रहे महिलाओं से बलात्कार।


कोर्ट ने सवाल किया कि अभी तक अधिकारी क्‍या कर रहे थे और किसी बड़े अधिकारी पर कार्रवाई क्‍यों नहीं हुई है? कोर्ट ने यह भी कहा कि पिछले कई सालों से बिहार सरकार इस एनजीओ को फंड देती रही, लेकिन उसे ये नहीं पता कि ये फंड वो क्यों दे रही है? फंड जारी करने से पहले सरकार को इसके बारे में जांच करनी चाहिए थी।



बिहार सरकार ने मामले को हलका करने के लिए कहा कि'वह वक्त-वक्त पर सोशल ऑडिट करती है, कुछ बुरे अफसर भी होते हैं।'इस पर कोर्ट ने पूछा कि उनके खिलाफ क्या कार्रवाई की गई है। कोर्ट ने घटना की जांच में विलंब पर भी नाराजगी जताई और मामले की जांच रिपोर्ट भी मांगी। उसने सवाल किया कि अभी तक अधिकारी क्‍या कर रहे थे और किसी बड़े अधिकरी पर कार्रवाई क्‍यों नहीं हुई है? इसके अलावा सुप्रीम कोर्ट ने बिहार सरकार को मुजफ्फरपुर बालिका गृह कांड के आरोपियों में से एक की पत्नी को गिरफ्तार करने का आदेश दिया है। महिला पर कुछ नाबालिग पीड़िताओं की पहचान और नाम सोशल नेटवर्किंग वेबसाइट फेसबुक पर मौजूद अपने एकाउंट पर उजागर करने का आरोप है।

मुजफ्फरपुर में बच्चियों के यौन शोषण की घटना को जानने के लिए पढ़ें : बिहार में बच्चियों के यौनशोषण के मामले का सच क्या बाहर आ पायेगा?

सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के सख्त रुख को देखते हुएदेश भर के शेल्टर होम पर अलग-अलग सरकारों ने निगरानी बढ़ा दी है। इस क्रम में उत्तरप्रदेश के हरदोई और हरियाणा के नूह में सम्बंधित जिलाधिकारियों ने कार्रवाई की है।हरदोई और नूह के मामले की रिपोर्ट बता रहे हैं सुशील मानव 

हरदोई यूपी के महिला स्वाधार गृह से 19 महिलायें लापता

देवरिया के बाद अब उत्तर प्रदेश के ही दूसरे जिलेके स्वाधार गृह से 19 महिलाओं के लापता होने का सनसनीखेज खुलासा हुआ है। बता दें कि कल हरदोई के डीएम पुलकित खरे बेनीगंज कस्बे के मोहल्ला कृष्णा नगर में संचालित महिला स्वाधारगृह में औचक निरीक्षण करने पहुँच गए। निरीक्षण के दौरान स्वाधारगृह के रजिस्टर में 21 महिलाओं का नाम दर्ज मिला पर मौके पर सिर्फ दो महिलाएं ही मिलीं। स्वाधारगृह अधिक्षिका बाकी के 19 औरतों के बाबत कुछ नहीं बता सकीं। बता दें कि इस महिला स्वाधारगृह को सन 2001 से आयशा ग्रामोद्योग संस्था द्वारा संचालित किया जा रहा था। डीएम पुलकित खरे ने संस्था का अनुदान तत्काल रोकते हुए उसके खिलाफ कार्रवाई करने की सिफारिश कर दी है।

पढ़ें : मंत्री के पति का उछला नाम तो हाई कोर्ट में सरेंडर बिहार सरकार: सीबीआई जांच का किया आदेश

वहीं देवरिया के माँ विंध्यवासिनी शेल्टर होम से कई और सनसनीखेज खुलासे हुए हैं। सूचना मिली है कि संस्था की मान्यता भले जून 2017 से रद्द की गई हो लेकिन संस्था का फंड तीन साल से रोक लगा दिया गया था। बता दें कि सीबीआई की जाँच में प्रदेश में हुए पालना घोटाला में माँ विंध्यवासिनी संस्था का भी नाम सामने आया था जिसके बाद महिला बाल विकास की प्रमुख सचिव ने संस्था को मिलने वाली सरकारी मदद पर रोक लगा दी थी। बावजूद इसके न संस्था का संचालन रुका और न ही पुलिस द्वारा वहाँ लड़कियों को भेजने का सिलसिला। संस्था के आँकड़ें बताते हैं कि पिछले तीन साल में माँ विंध्यवासिनी के स्वाधारगृह और बालगृह में 707 लड़कियों को पहुँचाया गया जिनमें से 697 को बाद में उनके परिवार के पास भेज दिया गया था। जबकि दस लड़कियाँ अभी भी रह रही थीं। बच्चियों ने पूछताछ में बताया है कि उन्हें एक रात के लिए 200-300 रुपए भुगतान भी किए जाते थे।
दिल्ली के बिहार भवन पर प्रदर्शन 


आँकड़ों के मुताबिक माँ विंध्यवासिनी के स्वाधारगृह में 2016-17 में 127, सन 2017-18 में 155 और सन 2018-19 में 55 लड़कियाँ/औरतें यहाँ लाई गईं जबकि माँ विंध्यवासिनी के बालिका बालगृह में सन 2016-17 में 135, सन 2017-18 में 165 व सन 2018-19 में 70 लड़कियां अब तक यहाँ पुलिस द्वारा पहुँचाई गई थी।
वहीं एक पीड़ित पिता का आरोप है कि वह पिछले दस रोज में आठ बार अपने बेटी से मिलने के लिए मां विंध्यवासिनी शेल्टर होम गया था लेकिन उसे उसकी बेटी से एक बार भी नहीं मिलने दिया गया। दरअसल बरहज थाना क्षेत्र की रहने वाली एक किशोरी अपने प्रेमी के साथ घर से भाग गई थी। जिसे पिता की शिकायत के बाद पुलिस ने केस दर्ज करके प्रेमी समेत बरामद करके 25 जुलाई को माँ विंध्यवासिनी के बालिकगृह में हिरिजा त्रिपाठी के संरक्षण में रखवा दिया गया था।

पिता का आरोप है कि बेटी के यहाँ रखने के बाद अपनी बेटी से मिलने के लिए पिता पिछले दस दिन में आठ बार आया और उसने अपने बेटी से मिलने देने की मिन्नत भी की पर गिरिजा त्रिपाठी ने उन्हें एक बार भी अपने बेटी से नहीं मिलने दिया गया। जबकि पिता द्वारा लाए हुए खाने-पीने की चीजों को उनसे ले लिया जाता था ये कहकर कि उनकी बेटी तक पहुँचा दिया जाएगा।

वहीं 31 जुलाई को तरकुलवा पुलिस एक लड़की को बाल संरक्षणगृह से जूडिशियल कार्य के लिए ले गई थी । कोर्ट से ही युवती फरार हो गई लेकिन बालिका संरक्षण गृह की ओर से किसी भी जिम्मेवार अफसर को कोई सूचना नहीं दी गई। दूसरे दिन रात को पुलिस उक्त लड़की को लेकर संरक्षण गृह पहुँची। उस एक रात लड़की कहाँ और किसके साथ रही इसकी जानकारी किसी को नहीं है।

जबकि रविवार को छापेमारी में मुक्त कराई गई 24 लड़कियों में से 13 नाबालिग हैं। वहीं दूसरी ओर गोद लेने की आँड़ में बच्चों की तस्करी का भी मामला गहराता जा रहा है। बताया जाता है कि मां विंध्यवासिनी बालिका बालगृह में रह रहे कई बच्चियों को विदेशियों को भी गोद दिया गया है। पिछले ही साल 6 बच्चों को विदेशियों को गोद दिया गया है। कारण पूछने पर आरोपी संचालिका गिरिजा त्रिपाठी कोर्ट के आदेश का हवाला देती है।
वहीं बसपा सरकार के समय रहे देवरिया के डीएम का माँ विंध्यवासिनी शेल्टर होम में बहुत आना-जाना था। फोन पर बात-चीत भी होती थी। उनका ट्रांसफर होने के बाद देवरिया के डीएम बने कुमार रविकांत के मुताबिक जब उनके सीयूजी पर फोन आना शुरू हुआ तो उन्होंने तत्कालीन एसपी को मामले की जाँच करने को कहा था। जबकि एसपी ने जाँच तत्कालीन सी सिटी डीके पुरी को सौंप दी थी। 

हरियाणा के नूह  में अतिआधुनिक तरीके से शोषण
देशव्यापी विरोध प्रदर्शन के बाद जागा प्रशासन, कई शोल्टर होमों में छापेमारी के बाद सेक्स रैकेट का खुलासा
स्त्रीकाल, राइड फॉर जेंडर फ्रीडम,टेढ़ी उँगली एनएफआईडब्ल्यू और ऐपवा के साझा प्रयास से बालगृहों में बच्चों बच्चियों संग हो रहे यौन उत्पीड़न के खिलाफ हुए देशव्यापी विरोध प्रदर्शन के बाद से देश का सोया प्रशासन जाग पड़ा है उसी का नतीजा है कि यूपी के देवरिया और हरदोई के शेल्टर होमों में अनियमितता और सेक्स रैकेट के खुलासे के बाद अब हरियाणा के नूह में एक शेल्टर होम ऑरफन एंड नीड एनजीओ द्वारा संचालित बालगृह में भारी गड़बड़ी पाई गई है।

पढ़ें : 30 जुलाई को देशव्यापी प्रतिरोध की पूरी रपट: मुजफ्फरपुर में बच्चियों से बलात्कार के खिलाफ विरोध

बता दें कि हरदोई के डीएम ने जहाँ औचक निरीक्षण कर 19 महिलाओं के लापता होने का पर्दाफाश किया वहीं हरियाणा के नूह जिले की बाल अधिकार संरक्षण आयोग की अध्यक्ष ज्योति बैंदा ने भी औचक छापेमारी करके बालगृह में भारी गड़बड़ी और संदिग्ध गतिविधियों के होने का खुलासा किया है। बच्चों संग यौनशोषण की संभवना बीच सभी बच्चों-बच्चियों को मेडिकल जाँच के लिए भेजा जाएगा।बालगृह में 38 लड़के लड़कियों को बिना किसी रिकार्ड के रखा गया था। ये सभी बच्चे एक ही धर्म विशेष के हैं। किसी फाइव स्टार होटल की तर्ज पर बनाए गए इस बालगृह में एक तहखाना भी मिला है। इस तहखाने का रास्ता ऑफिस से होकर जाता है जिसके ऊपर एक ढक्कन लगाकार बंद करके रखा जाता था। जिसमें मॉनीटरिंग के लिए कंप्यूटर रखे गए थे। ज्योति बैंदा के अनुसार बालगृह से जब्त किए गए डॉक्युमेंट संबंधित एक्ट के मानकों के अनुरूप नहीं हैं। यहाँ रखे गए बच्चों को कब और कहाँ से लाया गया इसका कोई रिकार्ड बालगृह के पास नहीं है।


नियम के अनुसार किसी जिले में जब कोई बच्चा मिलता है तो उसे जिले के संबंधित बालगृह में भेज दिया जाता है। लेकिन चौंकाने वाली बात यही कि इस बालगृह में मिले सभी बच्चे एक धर्म विशेष के हैं जिन्हें यहाँ पर पलवल से लाया गया था। हैरानी की बात ये है कि इस बालगृह का बाल कल्याण समिति और बाल कल्याण अधिकारियों द्वारा दौरा किया जाता रहा है लेकिन उन्होंने अपनी जाँचों में कभी कुछ क्यों नहीं पाया।
पूरा मामला नूह जिले के सेसौला गाँव के बालगृह का है।बालगृह में रखे बच्चों को उनके परिवार से नहीं मिलने दिया जाता था। उन बच्चों से यहाँ तक लिखवाकर रखा जाता था कि गर किसी दुर्घटना मेंबच्चों को कुछ हो जाता है तो संस्थान की कोई जिम्मेदारी नहीं होगी। ये बालगृह सन 2016 से संचालित हो रहा था।


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अब क्या करेंगे नीतीश कुमार: मंत्री के पति से ब्रजेश ठाकुर के 17 बार सम्पर्क का सबूत आया सामने

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स्त्रीकाल डेस्क 

एक ओर सुप्रीम कोर्ट, हाई कोर्ट के रुख से मुजफ्फरपुर की बच्चियों को न्याय मिलने की आशा जागी है, वहीं सीबीआई के बढ़ते जांच में मुख्य अभियुक्त ब्रजेश ठाकुर के कॉल डिटेल से बड़ा खुलासा हुआ है। उसके साथ समाज कल्याण मंत्री मंजू वर्मा के पति चंद्रेश्वर वर्मा का 17 बार सम्पर्क की हुई है पुष्टि। उधर सुप्रीम कोर्ट ने ब्रजेश ठाकुर की पत्नी को भी गिरफ्तार करने को कहा है, जिन्होंने बच्चियों की तस्वीरें सार्वजनिक की है।

चंद्रेश्वर वर्मा पत्नी मंजू वर्मा के साथ 

मुजफ्फरपुर मामले की जांच में लगे अधिकारियों कोप्रारंभिक छानबीन में पता लगा है कि मंजू वर्मा के पति चंद्रेश्वर वर्मा मामले में मुख्य आरोपी ब्रजेश ठाकुर के संपर्क में थे।इस खुलासे के बाद बिहार की राजनीति में बवाल मचना तय है। 

जांच में लगे अधिकारियों का कहना है कि ट्रैवलएजेंट का रिकार्ड खंगालने पर शायद कुछ सुबूत उनके हाथ लग जाये। वहीं, जदयू  के भी कई नेता मान रहे हैं कि अगर ब्रजेश के साथ दोस्ती या मेहरबानी के कोई सुबूत सामने आते हैं तो मंत्री मंजू वर्मा का इस्तीफा तय है। भाजपा के कई कद्दावर नेताओं ने पहले ही मंजू वर्मा की बर्खास्तगी की मांग की है।हालांकि सुशील मोदी ने ट्वीट के जरिए मंजू वर्मा का बचाव किया था।

मुजफ्फरपुर में बच्चियों के यौन शोषण की घटना को जानने के लिए पढ़ें : बिहार में बच्चियों के यौनशोषण के मामले का सच क्या बाहर आ पायेगा?

तब मामले का खुलासा होने के बाद मंत्री नेखुद कहा था कि अगर आरोप तय हो जाए तो इस्तीफा दे दूंगी। मंत्री ने एक कार्यक्रम के दौरान यह भी कहा था कि अगर आरोप सिद्ध हो जाए तो मैं पति को खुद लटका दूंगी।

इससे पहले बाल कल्याण पदाधिकारीरवि रौशन की पत्नी ने आरोप लगाया था कि मंजू वर्मा के पति बालिका गृह आते थे और सबको नीचे में छोड़ खुद लड़कियों के पास जाते थे। उनपर कार्रवाई क्यों नहीं की जा रही है? रवि रौशन की पत्नी के इस बयान के बाद विपक्ष ने मंजू वर्मा से इस्तीफे की मांग की थी।
पढ़ें : मंत्री के पति का उछला नाम तो हाई कोर्ट में सरेंडर बिहार सरकार: सीबीआई जांच का किया आदेश

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हक़ मांगती महिलाओं के खिलाफ़ मज़हबी फतवे कबीलाई युग की पहचान

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नासिरूद्दीन 

जब भी कोई मज़लूम आवाज उठाती/उठाता है, ताक़तवर उसकी आवाज़ दबाने की भरपूर कोशि‍श करते हैं. ताक़त के कई रूप हैं. इसके इस्तेमाल के भी कई तरीके हैं. ताक़त का एक रूप धर्म के नाम पर, धर्म के ज़रिए, धर्म पर ईमान रखने वाले कमज़ोर लोगों पर इस्तेमाल होता है.

निदा खान 


मुसलमान महिलाओं के साथ ऐसा ही हो रहा है.जब भी वे अपने साथ मज़हब के नाम पर होने वाली नाइंसाफ़ि‍यों के बारे में आवाज़ उठाती हैं, तुरंत चारों ओर से उनका गला दबोचने की कोशि‍श शुरू हो जाती है. कोई कहता है, यह वक़्त सही नहीं है. कोई कहता है कि ये मसले को बढ़ाचढ़ाकर पेश कर रही हैं. कोई मुसलमानों का ‘अंदरूनी’ मसला बताने लगता है. कोई इन्हें किसी साजिश का हिस्सा बताता है… इन सबके बावजूद भी जब वे चुप नहीं होती हैं तो सदियों से आज़माया नुस्ख़ा इस्तेमाल किया जाता है. कहा जाता है- यह सब मज़हब विरोधी है. ग़ैर इस्लामी है. ग़ैर शरई है.

तीन दहाई पहले शाहबानो के साथ यही हुआ था और शहनाज के साथ भी. दो साल पहले सुप्रीम कोर्ट में एक मजलिस की इकतरफ़ा तीन तलाक, हलाला और बहुविवाह के खि‍लाफ़ अपील करने गई महिलाओं के साथ भी ये सारे तरीके अपनाए गए. मगर वे डिगी नहीं और तलाक़ के इस ज़ालिमाना तरीके को सुप्रीम कोर्ट ने एक बार और ख़त्म कर दिया.

मगर तीन तलाक के इस फैसले के बाद भी इंसाफ़ के लिए जद्दोजेहद कर रही स्त्रियों की जिंदगी आसान नहीं हुई है. ऐसी ही एक महिला बरेली की निदा ख़ान हैं. उनकी शादी धार्मिक मामलों में भारतीय मुसलमानों के बड़े हिस्से की रहनुमाई करने वाले एक बड़े ख़ानदान में हुई. मगर जल्द ही उनकी शादीशुदा जिंदगी में हिंसा ने अपनी जगह बना ली. जब उन्होंने आवाज़ उठाई तो वे इकतरफा तलाक की शि‍कार हो गईं. मगर उन्होंने चुप रहना गवारा नहीं किया. कट्टरवादी ताक़तों को यह कहाँ रास आता.

जो लोग बरेली को जानते हैं, वे यह भी जानते हैं किनिदा के लिए बरेली में यह कितना मुश्कि‍ल काम रहा होगा. उनकी शि‍कायत नहीं सुनी गई. एफआईआर दर्ज नहीं हुई. मशक्कत के बाद कोर्ट के ज़रिए एफआईआर दर्ज हुई. फिर उनके केस को खारिज कराने की कोशि‍श तेज़ हुई. जब वे किसी तरह चुप नहीं हुईं तो वही नुस्ख़ा अपनाया गया. उनके नाम से नहीं लेकिन उन्हें और उन जैसों को ही निशाना बनाते हुए मरकज़ी दारुल इफ़्ता, बरेली से एक फ़तवा आया. फ़तवा देने वालों ने बताया कि हलाला जैसी चीजों पर जो सवाल उठा रहे हैं, वे ग़ैर शरई बात कह रहे हैं. फ़तवे में कहा गया कि ऐसी बात करने वाले काफि़र है. तमाम मुसलमान पर यह लाजि़म है कि उनका मुकम्मल बॉयकॉट करें. उससे बातचीत.. उसके साथ खान-पान सब बंद कर दें. अगर बीमार पड़े तो देखने न जाएँ. मर जाए, तो जनाज़े में शरीक न हों, और न इसकी नमाज़े जनाज़ा पढ़ें और न ही कब्रिस्तान में दफ़न होने दें.’ प्रेस को बताया गया कि निदा की मदद करने वाले, उससे मिलने-जुलने वाले वालो मुसलमानों को भी इस्लाम से ख़ारिज किया जाएगा.
महिलाओं के खिलाफ फ़तवा एक हथियार बन गया है


मज़लूम के साथ यह कैसा इंसाफ हुआ?

यह सामाजिक बहिष्कार है. इसे हम अपनी ज़बान में हुक्का-पानी बंद कर देना भी कहते हैं. यह तो सज़ा है. बर्बर सज़ा. हालाँकि, यह तो कबीलाई-सामंती युग की पहचान हैं. ऐसे किसी भी बहिष्कार की जगह इंसानी कद्रों की इज़्ज़त करने वाले तहज़ीबयाफ़्ता समाज में नहीं हो सकती है. यही नहीं, यह तो संविधान के उसूलों के ख़ि‍लाफ़ है. असंवैधानिक और ज़ालिमाना है. मज़हब की आड़ में ऐसे ज़ुल्म की इजाज़त इस धर्मनिरपेक्ष-लोकतांत्रिक मुल्क में कैसे दी जा सकती है? मगर क्या यह फ़तवा वाक़ई में धर्म को बचाने के लिए दिया गया था?


इस फतवे का वक्त भी ग़ौर करने लायक है. यह फतवा निदा के मामले में कोर्ट की सुनवाई के ठीक पहले आया था. कोर्ट में मामला क्या है… मामला यह है कि निदा घरेलू हिंसा से बचाने वाले क़ानून के तहत अपने अधि‍कार माँग रही है. उनके पूर्व पति का कहना है कि चूँकि उन्होंने तलाक दे दिया है, इसलिए वे किसी भी अधि‍कार को पूरा करने के लिए मजबूर नहीं है.

इस फतवे को इस पसमंज़र में भी देखना जरूरी है. निदा के पूर्व पति की हिफाज़त के लिए धर्म का आड़ लिया जा रहा है. हालांकि कोर्ट ने बहुत साफ कहा है कि घरेलू हिंसा से बचाने वाला क़ानून सब पर लागू होता है. कोर्ट की लड़ाई अभी जारी है.

अभी इसकी तपिश ठंडी नहीं पड़ी थी किएक साहेब ने मुसलमान महिलाओं के हक़ की आवाज उठा रही निदा और फ़रहत नक़वी की चोटी काटने वाले को इनाम देने का एलान एक फ़तवे के जरिए कर दिया. फ़तवा देने वाले शख़्स मुईन सिद्दीकी हैं. वे ऑल इंडिया फ़ैज़ान-ए-मदीना नाम के गुमनाम तंज़ीम के मुखि‍या हैं. ये वक़्त-वक़्त पर इस्लाम की हिफ़ाज़त के नाम पर यों ही फ़तवे देते रहते हैं.

ध्यान रहे ये दोनों फ़तवे, महज़ कागज़ी लफ़्ज़ नहीं हैं.ये अपने हक़ों की लड़ाई लड़ रही महिलाओं और उनके साथ खड़े सभी लोगों के ख़ि‍लाफ़ उकसाने वाले शब्द हैं. यह लोगों को उकसा रहे हैं कि वे ऐसे सभी लोगों के साथ हिंसक तरीके से पेश आएँ. इसी हिंसा को जायज़ ठहराने के लिए मज़हब का नाम लिया जा रहा है ताकि हिंसा करने वाले को किसी तरह के गुनाह का अहसास भी न हो. उसे यह हिंसा धार्मिक कर्म लगे. बल्कि धर्म को बचाने में उसका ज़ाती योगदान दिखे. प्रेस को फ़तवे का ब्योरा देने वाले मुफ़्ती साहेब को देख और उनकी बातें सुनकर, इस बात का अहसास और भी शि‍द्दत से होता है.

तो क्या मज़हब के नाम पर किसी भी तरह की हिंसा के लिए उकसाना जायज़ है?

निदा खान ने इन फतवों के पसमंज़र में अपनी जानकी हिफ़ाज़त के लिए एफआईआर दर्ज करायी तो अब हमले और तेज़ हो गए हैं. मगर यह सवाल महज़ निदा या फ़रहत जैसी महिलाओं का नहीं है. यह उन सबका सवाल है और होना चाहिए जो मज़हब के नाम पर होने वाली नाइंसाफि़यों के आगे सर झुकाने को तैयार नहीं हैं. सुप्रीम कोर्ट में हलाला और बहुवि‍वाह के खि‍लाफ याचिका दायर करने वालों में एक फ़रज़ाना को भी जान से मारने की धमकियां मिल रही हैं. कभी निदा हैं, तो कभी फ़रहत और फ़रज़ाना तो कल कोई और होगा. ऐसा बॉयकॉट संविधान के मुख़ालिफ़ है, यह बात जितनी ज़ोरदार तरीक़े से कही जा सकती है, कही जानी चाहिए. इस बीच कुछ लोगों को इसी आधार पर मुसलमानों को खलनायक की तरह पेश करने का मौका मिल गया है. यह भी कहा जा सकता है कि ऐसे लोग एक-दूसरे के हितों के मुहाफि़ज़ हैं. मगर एक बात समझ से परे हैं कि जिन लोगों पर संविधान की हिफ़ाज़त की जिम्मेदारी है, वे क्यों हाथ-हाथ पर धरे बैठे हैं?

इस मामले में तो एफआईआर भी दर्ज़ है. अगर एफआईआर हो तब भी तो नागरिकों की हिफ़ाज़त की जिम्मेदारी सरकार की है. खुलेआम इस तरह की धमकी दी जाती रहे तो क्या सरकारें एफआईआर का इंतज़ार करेंगी?

उसी फ़तवे में दो वाक्य हैं- अल्लाह एक ज़र्रा भी ज़ुल्मनही फ़रमाता, अल्लाह बंदों पर ज़ुल्म नहीं करता है. मगर अल्लाह के नाम पर उनके बंदों ने क्या किया? ये वाक्य तो उन पर भी उतना ही लागू होता है.

मज़लूम पर ही जुल्म हो, यह तो इस्लाम की राह नहीं है. दीन-ए-हक़ नहीं है… इसके बरअक्स, मज़लूम महिलाओं के हक़ में खड़ा होना ही दीन-ए-हक़ है. तो क्या हम निदा या फ़रज़ाना जैसी महिलाओं के हक़ में खड़े होंगे?
two.circles.net से साभार/ नासिरुद्दीन लम्बे समय तक मेनस्ट्रीम पत्रकारिता करने के बाद अभी फ्रीलांस पत्रकार हैं.

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बेटियों का सवाल राज्य, मीडिया और सिविल सोसायटी से

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ज्योति प्रसाद 

मुख्यमंत्री नीतीश कुमार अपने मंत्री का अभी भी बेशर्म बचाव करते चुनाव के लिए लव-कुश (कुर्मी-कुशवाहा) समीकरण साधने में लगे हैं. कॉल डिटेल्स से इस खुलासे के बाद भी कि मंत्री मंजू वर्मा के पति का ब्रजेश ठाकुर से याराना रिश्ता था, दो साथ दिल्ली सैर-सपाटे ले लिए आते थे. राज्य की मीडिया उनसे लौलीपॉप सवाल कर अपनी वफादारी जता रही है, सिविल सोसायटी में वंशविहीन बच्चियों के लिए कोई बड़ा उबाल नहीं है. उधर उत्तरप्रदेश के देवरिया, हरदोई, हरियाणा के नूह से भी ऐसी ख़बरें आयीं हैं, पढ़ें ज्योति प्रसाद का लेख-राज्य, मीडिया, सिविल सोसायटी को कटघरे में खड़ा करता लेख:

ब्रजेश ठाकुर और मंत्री मंजू वर्मा 


मुजफ्फरपुर बालिका गृह की घटना इस देश के हर व्यक्ति के लिए एक सदमे की तरह है. किसी भी तरह की बलात्कार की घटना पर चुप रहना गैर-जिम्मेदाराना काम होता है. हम शायद गैर जिम्मेदार होते जा रहे हैं जो अभी तक मुंह सी कर बैठे हैं. हमारा कैसा खून है जो बच्चों के साथ हो रहे भयानक जुर्मों पर भी नहीं खौलता? कठुआ से चले तो मुजफ्फरपुर तक पहुंचे और मंदसौर पर रोये. न जाने देश के किन किन हिस्सों में इस तरह के मामले अंजाम तक पहुँच रहे होंगे! हम ऐसे समाज का अंग बन गए हैं जो अपने ही बच्चों को स्वस्थ, सुरक्षित माहौल और जीवन नहीं दे पा रहे. जिस कलम को बच्चों की कविता और कहानी लिखने के लिए उठना चाहिए वही कलम उनके साथ हुए भयानक घटनाओं के बारे में उठ रही है. इच्छा तो यह होती है कि कलम से स्याही की जगह आग निकले और सब भस्म कर जाए!

मुजफ्फरपुर में बच्चियों के यौन शोषण की घटना को जानने के लिए पढ़ें : बिहार में बच्चियों के यौनशोषण के मामले का सच क्या बाहर आ पायेगा?

मुजफ्फरपुर बालिका गृह की घटना और अहम सवाल 
सवाल यह है कि बच्चियों का यौन शोषण लम्बेसमय से हो रहा था, फिर भी इन घटनाओं की भनक किसी को नहीं लगी, ऐसा क्यों? क्या यह घटना सिस्टम के सड़ने की वजह से है? सिस्टम के पायदानों पर बैठे लोगों के ही हाथ खून से सने हैं यह बात तय है. 31 जुलाई 2018 को नवभारत टाइम्स में आखिर के पन्ने में एक खबर छपी है. काफी हदतक वह खबर महत्वपूर्ण है. खबर के मुताबिक जुवेनाइल जस्टिस एक्ट में बाल गृहों में बच्चों की सुरक्षा के लिए पांच स्तरों के इंतजाम किये गए हैं-
1.पहला स्तर बाल कल्याण समिति का होता है. इस समिति की जिम्मेदारी यह है कि महीने में दो बार बाल गृहों में जाकर जाँच की जाए. लेकिन हैरत की बात यह है कि इस समिति के सदस्य ही खुद आरोपों के दायरे में हैं.
2.दूसरा स्तर जिला मजिस्ट्रेट के स्तर पर आता है. बाल कल्याण समिति के कार्यों की निगरानी जिला मजिस्ट्रेट करेगा. लेकिन यहाँ पर भी बच्चों को सुरक्षा नहीं मिली.
3.तीसरे स्तर पर जाँच समिति का प्रावधान है. इस जाँच समिति में जिला और राज्य स्तर समिति में सरकारी अधिकारी और सिविल सोसायटी के लोगों का होना जरुरी है. लेकिन इस मामले में यह व्यवस्था भी कहीं दिखाई नहीं दी.
4.चौथे स्तर पर देखे तो हमें फिर से निराशा हाथ लगेगी. हर राज्य में न्यायालय में जेजे कमेटी होती है. इस कमेटी का काम सिटिंग जज देखते हैं. जेजे एक्ट को सही से लागू करवाने की जिम्मेदारी इन्हीं पर होती है. लेकिन यहाँ यह मशीनरी भी नहीं दिखाई देती.
5.पांचवे स्तर पर राज्य में स्टेट कमीशन फॉर प्रोटेक्शन ऑफ़ चाइल्ड राइट्स होता है.
ऊपर के ये पांच बिंदु नहीं बल्कि पांच व्यवस्था की जिम्मेदारी थी कि बच्चों के साथ कुछ गलत न हो. उनको समुचित सुरक्षा मिले. लेकिन इस हमाम में सभी नंगे निकले. क्या नेता, क्या अफसर और क्या सामाजिक कार्यकर्ता, सभी ने जम कर रुपयों से पेट भरा और बच्चियों का यौन शोषण किया. उन्हें हर तरह से प्रताड़ित किया.

सरकार और वहां की मीडिया की नाक के नीचेइतनी बड़ी घटनाएं हो रही थीं फिर भी यह सब की सब व्यवस्था अफीम लेकर सोती रहीं और इसकी भनक भी नहीं लगी. यह कैसे हो सकता है? क्या सरकार में जिम्मेदाराना पद पर बैठे लोगों को इसका जवाब और जिम्मेदारी नहीं लेनी चाहिए? क्या यह मामला कईयों के इस्तीफे की वजह नहीं बनना चाहिए? क्या यह मामला अंतरात्मा को झकझोड़ कर नहीं रखता? क्या छोटी छोटी बच्चियों के साथ हुए इस हैवानियत को हल्के में, जाँच का विषय कहकर छोड़ा जाना चाहिए? कई नेताओं ने शर्मसार होने की बात कही है. खुद सूबे के मुखिया भी यही कहते हुए सुनाई दिए. बहुत अजीब लगता है जब जनता के चुने हुए प्रतिनिधि जिनके पास शक्ति है, वे लोग लापरवाह बयान देते हैं. इस तरह के बड़े खौफनाक हादसे में खानापूर्ति वाले बयानों से काम नहीं चलना चाहिए बल्कि जमीनी स्तर पर गंभीरता दिखनी चाहिये.

घटना के बाद मंजू वर्मा के साथ राज्य के मुख्यमंत्री और उप मुख्यमंत्री 

पत्रकार बिरादरी  
हैरत है कि टीवी वाले खबरिये चैनलों में इस घटना का कहीं भी बहुत बड़ा ज़िक्र एकदम से नहीं दिखा. न ही बहस लायक इस मुद्दे को माना गया. हिंदी पट्टी के टीवी खबरिये चैनल अंधविश्वासों की खबर चलाते रहते हैं. सोमवार को फलां रंग का कपड़ा पहनो और वीरवार को गुड़ चना चबाने का चमत्कारिक उपाय बताने वाले बाबाओं को बिठाकर अन्धविश्वास की नसीहत देने का समय इन चैनलों के पास भरपूर है पर समाज के नजरिये से महत्वपूर्ण ख़बरों को दिखाने के लिए इनके पास समय नहीं है. इन चैनलों वालों की नींद अभी भी पूरी तरह नहीं खुली है. रोज़ सुबह चमकीले कपड़े पहने बाबाओं द्वारा दर्शकों का गुडलक निकालते रहते हैं, पर इस खबर को अपने प्राइम टाइम का हिस्सा नहीं बनाया. गिरफ्तार आरोपी खुद ही तीन भाषाओं में अख़बार निकालता था. कहा जा रहा है कि उसका खुद काफी रसूख भी था. ऐसे में स्थानीय मीडिया घूँघट ओढ़कर बैठा हो तो हैरानी क्या! इस बिरादरी को अपने गिरेबां में बार बार झांककर देखना चाहिए. यह नसीहत से बढ़कर है. खाली जूते चाटने से भी थकावट हो जाती होगी. कम से कम एक पल ऐसा जरुर बचाकर रखना चाहिए जिससे पता चले कि हाँ, अभी इंसानियत बाकी है. उस समय अपनी जिम्मेदारी निभानी चाहिए. जो न निभा पाए तो अपने सीने पर एक लिखित बोर्ड लगाएं कि हम बिके हुए लोग हैं और हम से कोई उम्मीद न की जाए.

पढ़ें : मंत्री के पति का उछला नाम तो हाई कोर्ट में सरेंडर बिहार सरकार: सीबीआई जांच का किया आदेश

मीडिया  ने इस मामले को जितने ठन्डे और बेरुखीपनसे लिया है यह इस बात का सबूत है कि कैसे मुख्यधारा की मीडिया  अपने काम के मुद्दों का चुनाव कर रही है. शायद उनके लिए इस घटना में सनसनी जैसा कुछ नहीं लगा होगा. इस घटना की शिकार वे सभी लड़कियां गरीब हैं और उनका कोई रसूख वाला रिश्तेदार नहीं है. यह भी कारण है कि गरीब और जुल्म के शिकार मीडिया  के किसी के काम के नहीं. मीडिया  व्यवसाय का वह अड्डा बन गया है जहाँ ड्रामा होता है और उसी ड्रामे से रेटिंग का गेम चलता है. मोटा मुनाफा कमाने के लिए यह चैनल कुछ भी करने के लिए तैयार हैं. मीडिया  के मूल्य उन दबावों में मर रहे हैं जो कभी पत्रकारिता की आत्मा हुआ करते थे. एक छोटा पत्रकार जिसमें अभी आत्मा बाकी है, पिसकर रह जाता है क्योंकि उसकी हैसियत एक नौकरीशुदा व्यक्ति की है. वह कमाएगा नहीं तो खायेगा क्या? जो वह पत्रकारिता को धर्म मान ले तो कहीं किसी कारतूस पर उसका नाम लिख दिया जाएगा.

सास बहू जैसे शो को स्थगित करके भी यह खबर चलाईजा सकती थी. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. देश में गुस्से का माहौल बनाया जा सकता था. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. यह कहा जा सकता था  कि हमारी बच्चियों के साथ ऐसा हो रहा है और हम इसे किसी भी कीमत पर बर्दाश्त नहीं करेंगे. पर क्या हम ऐसा कह पा रहे हैं? मुझे नहीं लगता. इक्का दुक्का आवाजें ही निकल रही हैं. बाकी आवाजों को तो शायद लकवा मार गया है. कशिश नामक चैनल ने इस घटना को प्रमुखता से रिपोर्ट करना शुरू किया और लोगों को इसका सच दिखाया. ऐसे में इस चैनल की महत्ता भी पता चलती है जहाँ ख़बरों के प्रति लालच नहीं बल्कि उसका सामाजिक नजरिये से महत्त्व/चिंता का होना है.

दिल्ली थोड़ा और तेज़ चिल्लाओ!
दिल्ली शहर की भी बात न की जाये तो बात पूरी न हो. अभी तक वह तबका नजर नहीं आ रहा जो खास मौकों और जुबान में स्लोगन बोलते हुए विरोध करता है. ये गुट उन लोगों का है जो स्लोगनीय बात करते हैं. उनका विरोध इतना कस्बाई बनकर क्यों रह जाता है? क्या उनके विरोध सरवाईवर की हैसियत देखकर फूटते हैं? क्या उनके विरोध नए तकनीकी मोबाईल में फोटो खींचने के लिए है?  यह उन लोगों को सोचना चाहिए.  यहाँ जो दिल्ली शहर में देशभक्ति के नाम पर खून खौला लेते हैं उन लोगों का खून न जाने क्यों नहीं खौल रहा? अब तो शक है कि खून है या सिर्फ पानी. दिल्ली के उस समाज को बाहर आना चाहिए और यह बतलाना चाहिए कि जो भी घटनाएं हो रही हैं उसकी खिलाफ़त में यह शहर और यहाँ का जर्रा जर्रा एक साथ खड़ा है. हमें इस तरह की घटना पर गुस्सा आता है. और बहुत गुस्सा आता है.

इन दिनों मुख्यमंत्री की खिलखिलाहट रुक नहीं रही है. प्रेस कांफ्रेंस में भी लगाये ठहाके  

सरवाईवर बच्चियां, उनका जीवन और राज्य की जिम्मेवारी  
भारत में बलात्कार के मामले भयानक हिंसा के साथ घटित हो रहे हैं. एक ऐसी हिंसा की रूह तक काँप जाए. इसके साथ ही शोर का भी एक पक्ष दिखाई देता है. हमें इसी शोर में से विरोध को अलग करना है. यह समझना होगा कि मीडिया  कहीं हद तक इन दर्दनाक घटनाओं को शोर में तब्दील कर देता है. इतना ही नहीं वह कई नियमों को भी ताक पर रख देता है. इसका उदाहरण कठुआ बलात्कार मामले में बच्ची का चेहरा और नाम उजागर कर दिए जाने से समझा जा सकता है. पर हद तो तब हो गई जब कुछ प्रिंट मीडिया  ने पहले पन्ने पर बेशर्मी से खबर छापी कि बच्ची के साथ बलात्कार ही नहीं हुआ है. आरोपियों का बचाव भी किया गया है. यह एक तरह का घटिया और निचले दर्ज़े का शोर है. हाँ, विरोध एक जरिया है जो सकारात्मक शोर पैदा करता है और बहरी हुई सरकारों और पुलिस-प्रशासन के कानों में गूंजता है.

इन सब शब्द, शोर और बहस के बीच सरवाईवर छुट जाते हैं. कईयों को मौत के घाट उतार दिया जा रहा है. कई जो बच जाते हैं उनके आगे एक लम्बी जीने की लड़ाई चलती है. अमरीका बेस्ड एक संस्था है- रेज़िलिएंस- एम्पावरिंग सरवाईवर्स एंडिंग सेक्सुअल वायलेंस (Resilience- Empowering Survivors, Ending Sexual Violence). इनकी वेबसाइट को एक बार जरुर पढ़ना चाहिए. इन्होने एक जगह सेक्सुअल वायलेंस के प्रभावों के बारे में लिखा है. संक्षिप्त में ही सही पर पढ़कर अंदाज़ा हो जाता है. वेबसाइट के मुताबिक कुछ सरवाईवर अपने साथ घटने वाली घटना को तुरंत बयां कर देते हैं पर कुछ इसे ताउम्र अपने अन्दर छुपा कर रखते हैं. प्रत्येक सरवाईवर इन घटनाओं पर अलग अलग प्रतिक्रिया देता है. यह सांस्कृतिक, व्यावहारिक और पारिवारिक पृष्ठभूमि से भी जुड़ा होता है. इसके प्रभाव भी इन्हीं के अंतर्गत समझे जा सकते हैं.
भावनात्मक रूप से सरवाईवर एक तरह के गिल्ट में जीने लगती है. खुद को दोषी ठहराते हुए वह शर्म महसूस करती है. उसके अन्दर डर भर जाता है और लोगों या खुद पर विश्वास की कमी आ जाती है. कई बार तो भरोसा भी नहीं करती. उदासी में जीती है. अकेलापन अपनाती है. खुद पर काबू नहीं रह पाता. बार बार गुस्सा आता है. अपने को वल्नरेबल समझती है. कंफ्यूजन में रहती है. व्यवहार में डिनायल का मोड होता है साथ ही साथ झटके भी महसूस करती है.

 पढ़ें : 30 जुलाई को देशव्यापी प्रतिरोध की पूरी रपट: मुजफ्फरपुर में बच्चियों से बलात्कार के खिलाफ 
विरोधमनोवैज्ञानिक रूप से बुरे सपने देखना, फ्लैशबैक में बार-बार जाना या सोचना, तनाव रहना, चिंता करना, ध्यान लगाने में तकलीफ आना, खुद की नज़रों में गिरावट आना, कई तरह के फोबिया विकसित होना, कई डिसऑर्डर्स का आ जाना आदि समस्याएँ आने लगती हैं. शारीरिक स्तर पर गहरी चोट लगना, दर्द रहना, खानपान सम्बन्धी परेशानियाँ होना, मोबिलिटी कम होना, गर्भधारण करने का भय सताना या फिर एचआईवी जैसे रोगों के हो जाने के डर में रहना आदि शामिल है.

उपर्युक्त परेशानियों और दर्द में एक सरवाईवर जीती है.अगर वह बच्ची है तो आसानी से ट्रॉमा का असर समझा जा सकता है. आज के दौर में बलात्कार को लोग और सरकार बहुत ही हलके में लेती है. मुजफ्फरपुर मामले में अफसरों की असंवेदनशीलता साफ़ नजर आई जब बच्चियों को एक शेल्टर होम से दुसरे शेल्टर होम में अलग अलग शिफ्ट किया गया. टीवी फुटेज्स में उस पुलिस वाली का बच्ची का सर ढक कर खींचते हुए ले जाना एक ऐसा दृश्य था जिसमें साफ़ लग रहा था कि हमारे यहाँ सरवाईवर को छूने या उसके साथ व्यवहार करने की ट्रेनिंग नहीं दी जाती. यह बहुत बारीक तस्वीर है जिसे टीवी का मायाजाल टॉप या हेडलाइंस की ख़बरों में छिपा देता है. सरकार छुपा देती है. अफसर छुपा देते हैं. यह साफ है कि हम दर्द के स्तर पर भी सरवाईवर को नहीं समझ पाते. हमें नहीं पता कि वह किस तरह के मानसिक दबाव और तनाव में रहती है. सवाल हमारे सामने भी उभरता है कि हम अपनी संवेदनशीलता बढ़ाने के लिए क्या करते हैं?
       
सुप्रीम कोर्ट ने अपने स्वतः संज्ञान में यह साफ़तौर पर कहा है कि बच्चियों की पहचान न उजागर की जाए और न ही उनका किसी तरह का साक्षात्कार किया जाए. इसके अलावा यह भी है कि उनकी कोई मॉर्फेड तस्वीरें न दिखाई जाए. उनके भावी जीवन के लिए यह शायद यह एक अच्छा कदम है. लेकिन इन सब आदेशों में भी वे सभी सरवाईवर बच्चियां गायब नहीं हो जातीं. जेजे एक्ट होने के बाद भी ऊपर से नीचे तक के लोगों में वे शोषण का शिकार लगातार होती रहीं. क्या हमारी व्यवस्था में हमनें इसी तरह के लोग भरे हैं जो इस हद तक भ्रष्ट और अपराधी प्रवृत्ति के शिकार हैं जो बच्चियों को शोषण करने का पैसा पा रहे हैं. लगातर करोड़ों रुपये का अनुदान दिया जा रहा था. जनता के पैसो से जनता की बच्चियों का शोषण एक गंभीर बात है. इसमें उन सभी लोगों को नापा जाए जो इसमें शामिल हैं. किसी भी तरह से उनपर रहम न किया जाए. उनके सभी छोटे बड़े दोषियों को जेल में ताउम्र रखा जाए ताकि वे बाहर आकर दुसरी बच्चियों की ज़िन्दगी तबाह न करें.

इस मुद्दे के खिलाफ एकजुट विपक्ष 

ये वो बच्चियां हैं जो पारिवारिक स्तर पर पहले सेटूटन की शिकार हैं. जरा देर उस छोटी बच्ची के दिल दिमाग से सोचिये कि माँ पापा नहीं हैं. कोई बहन भाई नहीं है. उसे शेल्टर में लाया गया. यहाँ उसे रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा और सुरक्षा मिलनी चाहिए थी. पर मिला क्या मार-पिटाई, गाली, डर या खौफ का माहौल, बलात्कार, नशीली दवाई का जबरन अत्याचार. यह एक तरह का उस बच्ची के दिमाग के लिए ट्रॉमा है. यहाँ तो सरकारी कागजों में 34 बच्चियों के साथ बलात्कार की पुष्टि हो चुकी है और नेताओं के बयान में संख्या 40 बताई जा रही है. सोचिये कि बच्चियों की पहली जरुरत उन्हें इस ट्रॉमा से बाहर निकलने की है.


सरकार से मांग
राज्य सरकार उनकी अव्वल दर्ज़े की पढ़ाई की समुचित व्यवस्था करे साथ ही उनके हर तरह का खर्च उठाये. उनका दाखिला देश के सबसे महंगे स्कूल में हो. यह निश्चित किया जाए कि उनके साथ वहां सामान्य व्यवहार हो. उनकी वहां सुरक्षा रहे. यह भी तय किया जाए कि स्कूल में उनके साथ सम्मानजनक बर्ताव किया जाए. उनके लिए विदेशों में आगे की पढ़ाई का बेहतरीन इंतजाम हो. उन्हें इस काबिल बनाया जाए जिससे वह मजबूत बनकर समाज में उभरे और बेहतर जीवन बिताये. उनकी नौकरी की व्यवस्था भी सरकार करे. सरकार को हर वह कदम उठाना चाहिए जिसमें उनकी बेहतरी हो.

एक राज्य और समाज के स्तर पर हम यह तयकरें कि हमारे यहाँ इस तरह की घटनाएं एक रोज़मर्रा की घटना में तब्दील न हो जाएं. अक्सर यही देखने में आता है कि बड़ी घटना हो जाने के बाद आनन फानन में सरकार उलटे और अटपटे कदम उठाती है. घटिया बयानों का एक दौर चल पड़ता है. कुछ लोग और पार्टी के कार्यकर्त्ता तो दोषियों के बचाव में रैली भी निकाल देते हैं वह भी तिरंगे के साथ. यह किस तरह की मानसिकता विकसित कर चुके हैं हम! एक मानव समाज की तरह बर्ताव भी नहीं कर पा रहे. हालात बहुत बिगड़ चुके हैं. इसलिए व्यक्ति, परिवार, समाज और प्रशासन के स्तर पर हमें संभलने की नितांत जरुरत है. वरना यह वह आग है जिसमें हम सब के घर जलेंगे. हाँ, हम अभी नहीं संभले तो सब जलेंगे.

एक गुजारिश है, अगर जो भी चैनल आपको आपके काम की खबर नहीं दिखाता उस चैनल को अपनी सूची से हटा दीजिये. उस चैनल का बहिष्कार कर दीजिए जो बाबाओं को स्टूडियो में बिठाकर बकवास बहस करवाता है. उस चैनल को बिल्कुल नजरंदाज़ कर दीजिये जो हिन्दू और मुसलमान की बहस के बीच भाईचारे का क़त्ल कर रहा है. आप यह सोचिये कि वाट्स-एप की फोटो में तिरंगा लगाने से कुछ नहीं होगा. हो सकता है आपके देश से प्यार के बारे में आपके कांटेक्ट के लोगों को पता चल जायेगा पर उस इंसानियत का क्या जो इन बच्चियों के लिए आपके अन्दर से बाहर नहीं आती? उस गुस्से को बाहर निकालिए और अपने चुने हुए सेवकों को तलब कीजिये.

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मंत्री मंजू वर्मा ने दिया इस्तीफा: दवाब के आगे झुके नीतीश कुमार

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स्त्रीकाल डेस्क 

बिहार के समाज कल्याण मंत्री ने मुजफ्फरपुर बालिका यौन गृह मेंअपने पति का नाम उछलने के बाद आज मंत्रीमंडल से इस्तीफा दे दिया. इसके पहले वर्मा काफी दवाब के बावजूद इस्तीफा देने से इनकार करती रही थीं, और उनके बचाव में खुद मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री बयान दे रहे थे, ट्वीट कर रहे थे.




उधर विपक्ष और सिविल सोसायटी से इस मामले से उनके पति चंद्रेश्वर वर्मा का नाम जुड़ जाने से उनका इस्तीफा लगातार माँगा जा रहा था. मुख्य अभियुक्त ब्रजेश ठाकुर के कॉल डिटेल में 17 बार चंद्रेश्वर वर्मा से बातचीत का खुलासा होने के बाद वर्मा और खुद मुख्यमंत्री के लिए यह आसान नहीं था कि वे मंत्री मंडल में बनाये रखे जा सकें.

इस बीच आज विभिन्न महिला संगठनों नेबच्चियों से बलात्कार मामले में ट्वीटर पर शाम 6 से 7 बजे तक ट्वीट अभियान चलाने की योजना बनायी थी. ट्वीट अभियान शुरू होने के 1 घंटा पूर्व मंत्री के इस्तीफे की खबर आ चुकी है.

पढ़ें : अब क्या करेंगे नीतीश कुमार: मंत्री के पति से ब्रजेश ठाकुर के 17 बार सम्पर्क का सबूत आया सामने

मुजफ्फरपुर में बच्चियों के यौन शोषण की घटना को जानने के लिए पढ़ें : बिहार में बच्चियों के यौनशोषण के मामले का सच क्या बाहर आ पायेगा?

पढ़ें : मंत्री के पति का उछला नाम तो हाई कोर्ट में सरेंडर बिहार सरकार: सीबीआई जांच का किया आदेश

करुणानिधि: एक ऐसा व्‍यक्ति जिसने बिना आराम किए काम किया, अब आराम कर रहा है

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मनोरमा सिंह 

तमिलनाडु  की राजनीति के भीष्म पितामह कहे जाने वाले तमिलनाडु  के पूर्व मुख्यमंत्री और डीएमके नेता एम करुणानिधि की 94 वर्ष की आयु में कल 7 अगस्त को परिनिर्वाण हो गया,और इसके साथ ही तमिलनाडु की राजनीति में 'लार्जर दैन लाईफ'वाले नेताओं के युग का भी अंत हो गया है-अन्नादुराई, एमजीआर, जयललिता के बाद करूणानिधि की मौत के साथ तमिलनाडु के नेताओं की उस पीढ़ी का प्रतिनिधित्व खत्म हुआ जिन्हें करिश्माई कहा जाता था। और मौजूदा राजनीति में अब वैसी संभावनाएं नहीं हैं, जिनमें नेताओं की छवियां इतनी बड़ी बन सकें लेकिन ये भी सच है कि तमिलनाडु का समाज और राजनीति आज जिस स्वरूप में है उसे गढ़ने का श्रेय इन नेताओं को ही है और करूणानिधि की इसमें खास भूमिका रही है। तमिलनाडु की राजनीति में लगभग सभी जातियों और समुदायों का अपना अपना राजनीतिक दावा और मजबूत भागीदारी है। कोई आश्चर्य नहीं कि आज तमिलनाडु पूरे देश में अकेला ऐसा राज्य है जहां 50 से ज्यादा राजनीतिक पार्टियां हैं लगभग सभी जातीय समूह का अलग अलग प्रतिनिधित्व करती हुई, दक्षिण भारत में ही  कर्नाटक और आन्ध्रप्रदेश में ऐसा नहीं है यहां तक कि मुस्लिम लीग के भी यहां दो—तीन धड़े हैं। ब्राह्रमणवाद के खिलाफ वे सबसे मुखर आवाजों में से रहे और यही विचारधारा उनकी शख्सियत, उनकी रचनात्मकता और उनकी राजनीति की धूरी रही। 



 बहरहाल, करुणानिधि को प्यार से कलाइग्नर कहा जाता था जिसका अर्थ होता है सभी कलाओं में निपुण कलाकार, पांच बार तमिलनाडु के मुख्यमंत्री रहे करूणानिधि का राजनीतिक जीवन देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल से शुरू होकर नरेन्द्र मोदी तक आकर खत्म होता है जो अपने आप में एक उपलब्धि कही जा सकती है, 13 बार वे विधायक रहे और कोई चुनाव नहीं हारे। आखिरी बार 2016 के चुनाव में तिरूवरूर से चुने गए थे और बतौर विधायक ही उन्होंने आखिरी सांसे भी लीं, 1957 से 2018 कुल 61 साल सक्रिय राजनीति में रहते हुए, वैसे राजनीति में भागीदारी उन्होंने 14 साल की उम्र से ही शुरू कर दी थी। अक्टूबर 2016 से उनकी सेहत ठीक नहीं थी,गले और फेफड़े में हुए संक्रमण ने उनकी सक्रियता को कम कर दिया था लेकिन उनकी मौजूदगी के मायने तो थे जो अब उनकी मौत के बाद दिख रहा है। करूणानिधि पर अपने पहले मुख्यमंत्रित्व काल से ही भ्रष्टाचार के आरोप लगने शुरू हो गए थे बावजूद इसके उनकी लोकप्रियता  में कमी नहीं आयी थी, चुनाव जीतने—हारने के क्रम में भी कभी भी डीमएके का अपना वोट आधार कम नहीं हुआ तो उसकी वजह करूणानिधि थे, जिन्होंने डीएमके को मजबूत काडर वाली पार्टी बनाया था। तमिलनाडु में कहा जाता है कि एक वक्त था जब डीएमके का जिला स्तर का नेता भी खुद को जिलाधिकारी से बड़ा मानता था और स्थानीय मामलों को अपने स्तर पर हल करता था जबकि उसी दौर में एआईडीएमके भी थी जहां सारी सत्ता एमजीआर के पास हुआ करती थी, हालांकि वो खुद अपनी पकड़ नीचले स्तर तक भी रखते थे। 

बहरहाल, करुणानिधि का जन्म 3 जून 1924 कोतमिलनाडु के नागापट्टिनम ज़िले के एक निम्नवर्गीय परिवार में हुआ था। इसाई वेल्लालार जाति से आने वाले करूणानिधि ने जन्म से जातिगत भेदभाव और पूर्वग्रहों को देखा और सहा था, इसाई वेल्लालार जाति तमिलनाडु के सामाजिक—आर्थिक संरचना में सबसे निचले पायदान में आने वाली जाति है,इस समुदाय के लोग संगीत और वाद्ययंत्र बजाने वाले होते हैं और देवदासियां भी इसी जाति से होती रही थीं । इसके बावजूद करूणानिधि का तमिलनाडु की राजनीति में सर्वोच्च पर पहुंचना और पितामह जैसा स्थान हासिल करना उनकी अपनी शख्सियत का ही कमाल था। उनका महत्व राष्ट्रीय राजनीति में ये है कि सामाजिक न्याय और प्रगतिशील मूल्यों के वे साठ के दशक से ही  प्रणेता रहे हैं, तमिलनाडु में इन मूल्यों को उन्होंने साठ के दशक से ही लागू किया, जिसका व्यापक असर हुआ,नतीजा ये है कि आज तमिलनाडु में शासन,प्रशासन में कथित नीचले पैदान से आने वाली जातियों की ज्यादा भागीदारी हुई ब्राह्मणवाद का वर्चस्व लागातार कम हुआ। जनकल्याण की नीतियां तमिलनाडु की राजनीति का इस तरह हिस्सा बनीं कि जयललिता भी उन्हीं रास्तों पर चलती रहीं। हांलाकि बाद में तमिलनाडु की सरकारों के 2 रूपए किलो चावल के अलावा मुफ्त टीवी, मिक्सर ग्राईंडर देने जैसी योजनाओं की खूब आलोचनाएं भी हुई लेकिन ये भी सच है कि उसी दौर में मिड डे मील, गरीबों के लिए सस्ता अनाज जैसी योजनाओं ने तमिलनाडु को मानव विकास सूचकांक में हमेशा देश में सबसे आगे रखा, यहां की दलित जातियों के बच्चे देश के अन्य राज्यों के मुकाबले सबसे कम कुपोषित रहे, भूख से मरने वाले परिवार कम रहे इसलिए अर्मत्य सेन से लेकर ज्यां द्रेज ने सभी ने इन आधारों पर तमिलनाडु की सरकारों के काम को रेखांकित किया।



करूणानिधि किशोरावस्था में ही जस्टिस पार्टी के अलागिरीस्वामी से प्रभावित हुए बाद में पेरियार ई वी रामास्वामी से, गौरतलब है कि जस्टिस पार्टी का गठन 1916 में हुआ था जिसकी मूल विचारधारा उच्च जातियों खासतौर पर ब्राह्मण्वादी वर्चस्व के खिलाफ थी, ये वो दौर था जब भारतीय जनमानस का प्रतिनिधित्व केवल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस कर रही थी लेकिन ये भी सच है कि तब कांग्रेस केवल ब्राह्मणों और पुंजीपतियों की पार्टी थी। पेरियार  जस्टिस पार्टी के इसी ब्राह्मणवाद विरोध और द्रविड़ अस्मिता की राजनीति और को आगे ले गए और तमिलनाडु की राजनीति में उसे केन्द्रीय विमर्श बनाया, बाद में अन्नादुराई और करूणानिधि ने इस विमर्श को सत्ता में स्थापित कर दिया, ये अपने आप में क्रान्तिकारी पहल रही है जिसका अनुसरण बाद में पूरे देश की राजनीति में हुआ और आगे भी होता रहेगा। वैसे राजनीति में आने से पहले बतौर पटकथालेखक भी करूणानिधि तमिलनाडु की भविष्य की राजनीति की एक नई पटकथा लिख रहे थे जिसकी चर्चा कम होती हैं, उनकी फिल्मों को सबआल्टर्न सिनेमा कहा जा सकता है जबकि उस दौर में या बाद में भी मुख्यधारा में हमारा सबआल्टर्न सिनेमा सिरे से गायब है,उन्होंने पराशक्ति, पानम और मनोहरा जैसी फिल्में लिखीं जिनमें द्रविड़ आंदोलन से लेकर,जमींदारी, जातिवाद, छुआछुत, विधवा विवाह जैसे तमाम मसले थे। तमिल बुद्धिजीवियों का एक बड़ा धड़ा फिल्मों में उनके योगदान  के लिए उन्हें दादा साहेब फाल्के अवार्ड का हकदार मानता है और इस बात पर सवाल करता है कि आखिर क्यों कला—संस्कृति में उनके योगदान को आज तक भारत सरकार ने किसी पद्म पुरस्कार के भी लायक नहीं माना?

हालांकि करूणानिधि की राजनीति ब्राह्मणवाद,जातीय वर्चस्व के बरक्स द्रविड़ अस्मिता की रही लेकिन शुरूआती दौर में वो हिन्दी विरोध और उत्तर भारत के वर्चस्व के विरोध की भी रही, तमिलनाडु के हिन्दी विरोधी आंदोलन ने भी अंतत: राष्ट्रभाषा के सवाल को लेकर एक व्यापक दृष्टिकोण दिया नतीजतन आज संविधान में शामिल सभी भारतीय भाषाओं का दर्जा एकबराबर है। दरअसल, तमिलनाडु को सामाजिक और आर्थिक रूप से तरक़्क़ीपसंद राज्य बनाने में उनका बहुत बड़ा योगदान रहा है,औरतों को संपत्ति में अधिकार, शिक्षा ग्रहण करने वाली पहली पीढ़ी को स्नातक तक मुफ्त शिक्षा, तमिलनाडु  में दलितों, पिछड़ों के लिए 69 प्रतिश्रत तक आरक्षण सुनिश्चित करना, पिछड़े मुसलमानों को आरक्षण, इसाई समुदाय के पिछड़े तबके को आरक्षण, जनता बीमा, श्रमिकों के काम,मजदूरी और पेशे को सम्मानजनक बनाना, सूची बहुत लंबी है और इस लिहाज से भारतीय राजनीति में करुणानिधि का योगदान अतुलनीय है।


करूणानिधि का महत्व भारतीय राजनीति में तर्कवाद केलिए भी रहेगा, उन्होंने धर्म और ईश्वर के अस्तित्व पर सवाल किया, प्रचलित रूढ़ियों का जमकर विरोध किया, सामाजिक, धार्मिक रूढ़ियों और पाखंडों को मानने से इनकार किया। ये सब उन्होंने पचास के दशक में किया,आज इन बातों के और ज्यादा मायने हैं जब हम मौजूदा राजनीति को देख रहे है जहां हर तरह के प्रगतिशील मूल्यों का हवन हो रहा है, धर्म अपने सबसे कुत्सित और बर्बर रूप में इस्तेमाल हो रहा है। और उससे भी त्रासद ये है कि इन्हीं मूल्यों पर अब मुख्यधारा की राजनीति करना बहुत मुश्किल है। बहरहाल, 61 साल से ज्यादा समय से राजनीति में सक्रिय रहे करूणानिधि अब अपने राजनीतिक गुरू के बगल में हमेशा के लिए सोने चले गए हैं, आखिरी समय उनके ताबूत पर लिखा था 'एक ऐसा व्‍यक्ति जिसने बिना आराम किए काम किया, अब आराम कर रहा है।'तमिलनाडु की जनता ने अपने करिश्माई नेता को उनके कद के मुताबिक शानदार आखिरी विदाई दे दी है अब करूणानिधि और डीएमके की राजनीतिक विरासत उनके बेटे एम के स्टालिन के हाथों में है, ये अच्छी बात रही कि उनके जीवकाल में ही करूणानिधि की राजनीतिक विरासत को लेकर उनके दोनों बेटों में ठनी लड़ाई एक निर्णायक फैसले पर खत्म हो गई लेकिन दूसरा पहलू ये भी है कि निजी तौर पर जिन मूल्यों की अपेक्षा करूणानिधि जैसे नेता से की जाती थी कई बार वो खुद उनपर खरे नहीं उतरे, चाहे भ्रष्टाचार के मामले हों या भाई—भतीजावाद की या वंशवाद की राजनीति की, ये भी सच है कि डीएमके में उनके कुनबे से अलग कोई दूसरा योग्य नेता की कोई हैसियत नहीं रही।

मनोरमा सिंह बंगलौर में पत्रकारिता करती हैं. संपर्क: manorma74@gmail.com


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क्या यौन शोषण , अंग तस्करी और ह्युमन ट्रैफिकिंग के सुरक्षित ठिकाने हैं शेल्टर होम

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सुशील मानव 

देवरिया उत्तर प्रदेश के माँ विंध्यवासिनी शेल्टर होम से चल रहे सेक्स रैकेट और बच्चों की तस्करी के भयावह खुलासों के बाद प्रशासन के लकवाग्रस्त हाथ-पाँव हरकत करने लगे हैं। इसका नतीजा ये है कि यूपी के जौनपुर हरदोई और मेजा में चल रहे अधिकृत और अनाधिकृत शेल्टर होम में कई बच्चियाँ और औरतें लापता मिली हैं। मामला अब प्रति व्यक्ति ज्यादा सरकारी फंड हड़पने की साजिश से ज्यादा आगे का और ज्यादा खतरनाक लग रहा है। बता दें कि जौनपुर जिले के हुसैनाबाद मुहल्ले में मंगलवार 7 अगस्त को छापेमारी में अवैध स्वाधार गृह का पकड़ा गया है। यहाँ 18-60 साल की 13 महिलाएँ और उनके साथ 9 बच्चे मिले हैं। जबकि जिला प्रोबेशन अधिकारी संतोष सोनी की अगुवाई में पुलिस टीम ने जब यहाँ ठीक एक दिन पहले यानि सोमवार को छापेमारी की थी तब 7 औरते ही मिली थीं। इस अवैध शेल्टर होम का संचालन चंद्रा शिक्षण संस्थान करता था। मगर संचालक के पास इससे जुड़ा कोई भी दस्तावेज नहीं मिला। जिलाधिकारी ने केंद्र को बंद करने और और जिला प्रोबेशन अधिकारी और पुलिस को जाँच का निर्देश दिया है।



 7 अगस्त को यूपी के इलाहाबाद जिले के मेजा तहसील में एसडीएम अर्पिता गुप्ता और सीओ उमेश शर्मा और इंसपेक्टर गजानंद चौबे की अगुवाई में मेजा पुलिस की टीम ने मेजा पहाड़ी पर संचालित स्वाधार गृह का औचक निरीक्षण किया। निरीक्षण में पंजीकृत 25 बालिकाओं में से 17 बालिकाएं एक ही जिले लखीमपुर खीरी की निकलीं। स्वाधार गृह में एक साथ 17 लड़कियों का लखीमपुर खीरी जिले का होना मामले को संदिग्ध बना रहा है। बता दें किकई वर्षों से चल रहे बनवासी गृह नामक इसी स्वाधार गृह के संचालक त्रिवेणी प्रसाद दूबे हैं।

 7 अगस्त को ही हरियाणा के सोनीपत जिले में सीटीएम श्वेता सुहागकी अगुवाई में गन्नौर के बड़ी में ललिता ज्योति अनाथालय में भारी गड़बड़ी मिली है। वहाँ से 2 बच्चियाँ गायब मिली हैं। गायब बच्चियों में एक की उम्र तीन साल व दूसरे बच्ची की चार साल बताई जा रहीहै। वहीं गन्नौर में ही लल्हेड़ी रोड स्थित ग्राम विकास बाल कल्याण परिषद में जाँच के दौरान बिना बाल कल्याण आयोग के परमीशन के बच्चियों को रखने का मामला सामने आया है। जबकि वहाँ से भी तीन बच्चे एक महीने से गायब हैं।वहीं एक रोज पहले जिले हरदोई के एक शेल्टर होम में भी डीएम के औचक निरीक्षण में शेल्टर होम के रजिस्टर में पंजीकृत 21 औरतों में से सिर्फ 2 ही मौके पर मिली थी जबकि 19 औरतें लापता थीं।

प्रतापगढ़ उत्तर प्रदेश के दो आश्रयगृहों पर कल जिलाधिकारीशंभु कुमार ने छापेमारी की। छापेमारी में दोनो आश्रय गृहों से कुल 26 महिलाएं गायब मिली। शहर के अष्टभुजानगर में जागृति स्वाधार महिला आश्रय है। यहाँ बुधवार को दिन में जिलाधिकारी शंभु कुमार ने छापा मारा तो रजिस्टर में दर्ज 16 में से सिर्फ एक औरत रजि़या ही मौके पर मिली। अन्य पंद्रह महिलाओं के बाबत संचालिका रमा मिश्रा ने बताया कि औरते काम करने बाहर गई हैं। प्रशासन देर रात तक महिलाओं का इंतजार करता रहा। रात करीब दस बजे एसडीएम सदर और एसपी टीम के साथ दोबार आश्रयगृह पहुँचे। जहाँ सिर्फ तीन महिलाएं ही मिली जबकि रजिस्टर में महिलाओं की संख्या 16 से बढ़कर 17 हो गई थी। 14 महिलाएं आश्रयगृह से गायब थीं। एसडीएम के सवाल पर संचालिका रमा मिश्रा ने बताया कि महिलाएँ आज नहीं लौटीं हैं उनकी तलाश की जा रही है।बता दें कि रमा मिश्रा प्रतापगढ़ भाजपा महिला मोर्चा की जिलाध्यक्ष और सभासद रही हैं। जबकि इस आश्रयगृह का संचालन वे तीन सालों से कर रही हैं। वहीं प्रतापगढ़ जिले के ही अचलपुर में चल रहे दूसरे आश्रयगृह में की गई छापेमारी में रजिस्टर में दर्ज 15 में से सिर्फ 3 महिलाएं ही मौके पर मिली। यहाँ भी पुलिस की टीम देर रात तक महिलाओं का इंतजार करती रही। जबकि यहाँ से भी 12 महिलाएँ गायब है।

सबसे चौंकाने वाले तथ्य ये है कि अभी तक नियमितताऔर यौन अपराध के आरोप में धरे गए सभी शेल्टर होम का संचालन करने वाले समाज के वर्चस्ववादी तबके के लोग है। ये राजैनितक सत्ता में भागीदारी करनेवाले वर्ग के प्रभुत्वशाली लोग हैं। ताज्जुब की बात है न कि जो वर्ग आज भी सामंतवादी मूल्यों से मुक्त नहीं हो पाया है वही शेल्टर होम चला रहा है वंचित, गरीब, अनाथ बेसहारा बच्चों और औरतों के लिए। जो वर्ग आजादी के बाद भी स्त्रियों और दूसरी जाति-धर्म के लोगों को दोयम दर्जे का व्यक्ति समझता आय़ा है वह शेल्टर होम चला रहा है। जो समूह  अमानवीयता और बर्बरता की हद तक जिन लोगो का उत्पीड़न और दमन करने को अपना अधिकार और धर्म मानता आया हो वह उन्हीं लोगो के लिए शेल्टर होम खोलकर बैठा हो, शक़ होना ही चाहिए। बेशक़ इसके पीछे मानवता, करुणा और प्रेम से ज्यादा इसके बहाने सरकारी फंड को हड़पने की प्रवृत्ति काम कर रही है। साथ ही मुफ्त के घरेलू नौकर और यौनेच्छाओं को घर बैठे पूरा करने का सुरक्षित इंतजाम।



मेरे आरोपों का आधार मुजफ्फरपुर से लेकर देवरियातक के तमाम बालगृहों में संचालक द्वारा शेलटरहोम की बच्चियों औरतों के उत्पीड़न से और ज्यादा पुख्ता होता है। इतना ही नहीं तमाम बालगृहों से गाहे-बगाहे बच्चों-बच्चियों का गायब हो जाने या भाग जाने की घटनाएं  शेल्टर होम से मानव अंग तस्करी और और बच्चे की तस्करी की खतरनाक साजिशों की ओर इशारा करती हैं। विशेषकर शेल्टर होम से भागे हुए बच्चों या औरतों के फिर कभी भी कहीं से न बरामद होने की स्थिति में। बालगृहों से बच्चों के गायब होने की तारीख का देश के अस्पतालों में हुए अंग प्रत्यर्पण की तारीख से मिलान करके मेरे इस आरोप के बाबत तमाम सबूत इकट्ठे किये और बालगृहों में चलने वाले इस बेहद अमानवीय खेल से पर्दा उठाया जा सकता है। जबकि बेगुसराय बिहार के एक बालिका गृह से एक बच्ची की एक किडनी गायब होने की ख़ौफ़नाक ख़बर कई मीडिया एजेंसियों के हवाले से आ रही है। हालांकि खबर लिखे जाने तक उस बच्ची के अंग निकाले जाने की डॉक्टरी पुष्टि नहीं हुई है। शेल्टर होम से अंग तस्करी का ये चौंकाने वाला मामला मानवता के नकाब के पीछे छुपकर शेल्टर होम चलाने वाले एनजीओ के सबसे खौफनाक चेहरे को उजागर कर रहा है। मिली जानकारी के मुताबिक बेगुसराय के बालिकागृह से भागी उस दस वर्षीय लड़की के पेट पर चीरे के निशान हैं। जिसका कारण पूछने पर बालिका ने अपने घरवालों से बताया कि उसकी किडनी निकाली गई है।

सूत्रों के मुताबिक मोतिहारी जिला के हरपुर थानाक्षेत्र अंतर्गत घोड़ा सहन की 10 साल की लड़की करीब डेढ़ साल पहले भटकते हुए बेगूसराय आ गई थी। उसे पकड़कर बालिका संरक्षण गृह में रख दिया गया था। करीब पाँद दिन पूर्व वो मौका देखकर बालिकागृह से भाग निकली और रविवार को मोतिहारी जिले के हरपुर थाना मं आनेवाले अपने घर पहुँची। उसके पेट में चीरा लगा देखकर घरवालों ने परेशान होकर पूछा तो लड़की ने बताया कि उसकी किडनी निकाल ली गई है। इस मामले में स्थानीय थाने में मामला दर्ज कर ली गई है। बता दें कि बेगूसराय में ये शेल्टर होम कर्पूरी ठाकुर ग्रामीण विकास सेवा संस्थान पटना के सौजन्य से चलाया जा रहा था।सवाल ये उठता है कि जो लड़की डेढ़ साल बाद अपने घर वापिस पहुँच गई। उसे अपने घर का दर पता उस वक्त भी मालूम रहा होगा जब वो गुम हुई थी। फिर उससे उसके माँ बाप और घर का पता पूछकर उसके घर पहुँचाने के बजाय उसे उसकी मर्जी के खिलाफ़ शेल्टर होम में क्यों रखा गया था।

वहीं विदेशियों के हाथों बच्चों को गोद देने के बहानेविदेशों में बच्चों की तस्करी के कई भयावह मामले देवरिया उत्तर प्रदेश के माँ विंध्यवासिनी शेल्टर होम से अंज़ाम दिए जाने की पुख़्ता ख़बरें मिल रही हैं।
कहने का सारा लब्बोलुआब ये कि इस घोर बाज़ारवादी समय में मानवता, करुणा और प्रेम के मुखौटे पहनकर दीन,दुखियों और बेसहारों की सेवा करने के फरेब के पीछे घोर अमानवीय़ और बर्बरतम कृत्यों को अंजाम दिया जा रहा है। इसमें गाँव के छोटे सामंतवादी बाबूसाहेब से लेकर बड़े बड़े विदेशी पुरस्कार हथियाने वाले सबके सब शामिल हैं। कोई ताज्जुब नहीं की बच्चों पर यौन बर्बरता के देश के सबसे बड़े और खौफनाक खुलासे के बाद जब पूरा देश इससे ग़मग़ीन और विक्षुब्ध हैं अपने नोबलवीर चुप्पी की चादर ताने हुए हैं। इस चुप्पी का मतलब तो समझते हैं न आप लोग, ख़ैर। शेल्टर होमों में देह व्यापार, अंग तस्करी और बच्चों की तस्करी का ये घिनौना खेल सिर्फ बिहार या उत्तर प्रदेश को दो-चार शेल्टर होमो में ही नहीं चला बल्कि इसी जड़े देश के कोने कोने में फैले अधिकांश श्लेटर होमों तक पहुँची हुई हैं। ये सब सत्ता के संरक्षण और स्थानीय प्रशासन की मिलीभगत से हो रहा है।


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'डेंजर चमार'की गायिका गिन्नी माही का प्रतिरोधी स्वर : हमारी जान इतनी सस्ती क्यों है, गाँव से बाहर हमारी बस्ती क्यों है ?

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कौशल कुमार 

 'द डेंजर चमार'अल्बम के माध्यम से गिन्नी  माही के गीतों में  प्रतिरोध की अभिव्यक्ति का अध्ययन:

प्रतिरोध के रूप में प्रदर्शनअसंतोष से आशय उस स्थिति से हैजिसमें किसी व्यक्ति या व्यवस्था के साथ सामंजस्य न स्थापित हो पा रहा हो । जिसके खिलाफ प्रतिरोध प्रदर्शित करने के लिये कला को माध्यम बनाया जाता है । असंतोष के खिलाफ प्रतिरोध की संस्कृति का बहुत पुराना इतिहास है जिसे  हम अंग्रेजी शासन के खिलाफ की जाने वाली प्रतिक्रिया में भी देख सकते हैं । जिसमें नुक्कड़ नाटक, गायन,कविता लेखन ,पर्चे निकालना आदि  का सहारा उस समय की जनता को उनके अधिकारों के प्रति जागरूक करने के लिए लिया जाता था। असंतोष की भावना का उदय हम अनेक संदर्भों में देख सकते हैं फिर चाहे वो वर्तमान व्यवस्था के विरोध में उतरे दलित समुदाय के लोग हों या महिलाएं हों या मुस्लिम  हों, या वर्तमान समय में शिक्षा व्यवस्था से जूझ रहे विश्वविद्यालय के विद्यार्थी हों, ये सभी वर्तमान व्यवस्था से जूझ रहे हैं । जिसके विरोध में लगातार  छात्रों तथा नौजवानों ने  देश की व्यवस्था से असहमति जताते हुए अपनी बात कही जो देश के किसानों की आत्महत्या तथा दलित , मुस्लिम , महिलाओं के साथ अभद्र व्यवहार के सवालों के साथ छात्र सड़क पर उतरे, जो प्रतिरोध की परंपरा को और तेजी से स्थापित करने के लिए महत्वपूर्ण है।

गिन्नी माही 


बीफ होने की शक के बाद दादरी में अखलाक की हत्या ,पत्रकार गौरी लंकेश की हत्या , कलबुर्गी की हत्या के बाद देश भर में हुए प्रदर्शन, तथा वहां से निकले स्लोगन We are Gauri , We are Pansare,  I am also Akhlaak , को लोगों ने अपनी आवाज या अपनी पहचान घोषित कर दी ।  देश का किसान अपनी फसल का न्यूनतम मूल्य भी नहीं  पा रहा है, जो बैंक के कर्ज़, सेठ से लिये कर्ज के तले आत्महत्या करने जो विवश है।  जिन्होंने समय समय पर बाजार में अपनी  फसल न बेचने के फैसले के साथ सड़कों  पर फेकने का रास्ता चुना । बुद्धिजीवी वर्ग पर हो रहे हमले हों,  या देश भर के विश्वविद्यालय  से जो सवाल निकले हैं उन सभी सवालों के प्रति देश ने आवाज उठायी है - "  We are Muslim , we are Dalit , we are JNU, we are not Sinrela , we are Najeeb , we are Rohit , we are Akhlaak, we are Gaurilankesh, तथा सहारनपुर में हुई हिंसा के बाद तथा पहले से भी वहाँ के दलितों ने खुद को 'ग्रेट चमार'  लिखना शुरू कर दिया ।

इसी तरह से एक और आवाज निकली जो आज  गायिका माही गिन्नी के नाम से जानी जाती है, वह बाबा साहेब अंबेडकर के गानों को लिखती है,  गाती है तथा डा. अम्बेडकर के विचारों को को जन- जन तक अपनी गायिकी के माध्यम से पहुंचा रही है । गिन्नी की सफलतम सीरीज में  'डेंजर चमार'  महत्वपूर्ण है जिसमें वह बाबा साहेब के द्वारा बनाये गए संविधान की मूल भावना को लोगों तक पहुंचाने का काम कर रही है । वह अपनी अल्बम को डेंजर  चमार नाम देती हैं एवं बाबा साहेब के लिए लिखे गए गानों को चमार पॉप कहती हैं , एवं वह खुद मानती भी है कि आज जो मैं एक महिला होने के बावजूद समाज में अपनी बात कह पा रही हूँ वह बाबा साहेब अंबेडकर की बदौलत है। आज दलित समुदाय ने चमार शब्द जिसे अछूत शब्द की संज्ञा दी थी ,को अपनी पहचान घोषित की है, वे  ऐसा लिखने में गर्व महसूस करते हैं । क्योंकि आज देश भर में जो माहौल है जिसमें किसी दलित को वन्दे मातरम के न बोलने के आधार पर मार दिया जा रहा है । गौ हत्या के नाम पर जो दलितों की हत्या की जा रही है , जैसा कि हमने गुजरात के ऊना  में देखा कि जिस तरह से दलित युवकों को गाड़ी से बांधकर सरिया गर्म कर पीटा गया वह कितना दर्दनाक हादसा था । अगर ऐसे समय  इस शब्द को अपनी पहचान बना लेते हैं तो ये अपने आप में एक बड़ा प्रतिशोध होगा । जिसको ध्यान में रखकर विपक्ष ने सरकार से सवाल जवाब किये।

गिन्नी माही साज के साथ 


हमारी जान इतनी सस्ती क्यों है | गाँव से बाहर हमारी  बस्ती क्यों है ?|
गिन्नी माही जालंधर पंजाब की  रहने वाली हैं  7 साल की उम्र  से दलित आन्दोलन की आवाज हैं वे बचपन से ही गीत गाती थीं । उनको अच्छा गाते देख उनके  पिता ने उनको म्यूजिक शिक्षक विजय डोगरा के पास भेज दिया । माही ने ढाई साल म्यूजिक  सीखने के बाद गाना आरंभ कर दिया ।  आस-पास के इलाकों में उनके गीत मशहूर होने लगे। इस बीच एक लोकल म्यूजिक कंपनी ने उन्हें गाने का मौका दिया। उनके दो एलबम गुरां दी दीवानी और गुरुपर्व है कांशी वाले दा को बहुत पसंद किया गया। जैसे-जैसे गिन्नी के गीतों की मांग बढ़ने लगी, परिवार ने महसूस किया कि बेटी के साथ एक टीम होनी चाहिए। उन्होंने कुछ गीतकारों से संपर्क किया, जो दलित समाज को जागृत करने वाले गीत लिख सकें।

उनके पापा ने उनके नाम पर गिन्नी म्यूजिकल ग्रुप बनाया।जिसके बाद लगातार उनके गाने हिट होते गये  या बहुत पसंद किये जाते रहे । उनके गीतों का ‘पॉप’ अंदाज युवाओं को खूब पसंद आया। यू-ट्यूब पर भी उनके गीत खूब पसंद किए गए। बाबा साहब दी  गीत ने खूब शोहरत दिलाई। इस गीत में उन्होंने यह बताया कि बाबा साहेब को जिंदगी में किनकिन  मुश्किलों से जूझना पड़ा। 'मैं धीह हां बाबा साहिब दी, जिन्हां लिखया सी सविधान'की पंक्तियों ने लोगों को बहुत प्रभावित किया । गिन्नी कहती हैं, कि 'मैं किसी जाति को नीचा दिखाना नहीं चाहती। इन शब्दों को उपयोग में लाने का एक मात्र अर्थ है कि हमारे समाज के लोग अपने बारे में गर्व से बोलें । वे अपनी पहचान को गर्व से बताएं न कि बहुत ही असहज होकर । 'वे चाहती हैं कि  जाति के नाम पर होने वाली कुरीतियां बंद हों।  वर्ष 2013 में ब्रिटेन और इटली में शो करने का ऑफर आया। उस समय वह दसवीं में पढ़ रही थीं। उन्होंने जाने से मना कर दिया। गिन्नी कहती हैं, विदेश जाने से मेरी पढ़ाई पर असर पड़ता, इसलिए मैंने तय किया कि मैं पंजाब से बाहर नहीं जाऊंगी। गिन्नी ने देश भर में अपने शो किये जिसमें दलित समुदाय के ऐसे गाँव देहात को भी चुना गया जहां गिन्नी के गीतों को हाथों हाथ लिया गया । गिन्नी के शो में जो जगह चुनीं जाती हैं वो बहुत ही ग्रामीण क्षेत्र चुने जाते हैं । गिन्नी के शो चौराहों पर भी किए जाते हैं एवं बड़े बड़े मैदानों में भी किए जाते हैं जिनमें  महिलाओं की भागीदारी पुरुषों से भी कई गुना ज्यादा रहती है । गाँव देहात से वे महिलाएं आती हैं जो बहुत अशिक्षित एवं शादी शुदा हैं । आज गिन्नी के गीत इस संदर्भ में भी महत्वपूर्ण हैं क्योंकि एक महिला के लिए घर से बाहर आना स्वीकार नहीं किया जाता है और फिर इतनी भीड़ के बीच बिना किसी परेशानी के शो करने के लिए कोई भी समाज अपनी लड़कियों को नहीं भेजेगा। 

इस बीच कुछ राजनीतिक दलों ने भी उनसे संपर्क किया। कई बार राजनीतिक मंच पर गाने के प्रस्ताव भी मिले, लेकिन उनके पिता  ने बेटी को राजनीति से दूर रखा। पिता राकेश चंद्र माही कहते हैं कि राजनीति से हमारा कोई लेना-देना नहीं है। मैंने अपनी बेटी को कभी राजनीतिक मंचों पर नहीं गाने दिया। हमारा मिशन बहुत पवित्र है। हम जातिवाद को खत्म करना चाहते हैं। यहाँ ये देखने वाली बात है कि आज कोई भी कलाकार अपने को प्रसिद्ध होने के लिए किसी भी राजनीतिक दलों के मंच पर आ जाता है । ऐसे में पैसे के लालच और अन्य धमकियों से खुद को कैसे बचाया जा सकता है क्योंकि पौप गाने के अपने खतरे भी हैं पंजाब के कलाकार जो गिन्नी से पहले से गा रहे हैं उनको कई बार जान से मार देने वाले  धमकी भरे मैसेज भी मिल चुके हैं ।

 गिन्नी अपने गीतों में ड्रग्स और कन्या भ्रूण हत्या केखिलाफ  आवाज उठाती हैं। उनका मानना है कि लड़कियों की शिक्षा के बगैर कोई समाज तरक्की नहीं कर सकता। गिन्नी कहती हैं, मैं लोगों से अपील करती हूं कि अपनी बेटियों को स्कूल जरूर भेजें। बेटियां पढ़ेंगी, तभी समाज का विकास होगा। तभी सामाजिक कुरीतियां बंद होंगी और तभी जात-पांत का भेद खत्म होगा।

गिन्नी माही का लाइव परफॉरमेंस



गिन्नी बाबा साहेब अंबेडकर के विचारों को जन-जन तकअपनी गायिकी के माध्यम से पहुंचा रहीं हैं । गिन्नी अपने शो में  लैंगिक असमानता को खत्म करने की बात करती हैं। वो जेंडर फ्रीडम कि बात कहती हैं,  वे कहती हैं कि 'अगर हम जेंडर मुक्ति की बात करेंगे तो इसमें कोई नहीं छूटेगा,  इसमें महिला व पुरुष दोनों आयेंगे और वे तमाम लिंग के लोग आयेंगे, जो अपनी स्वीकार्यता के लिये लम्बी कानूनी लड़ाइयां लड़ रहे हैं |'

एक रिपोर्ट में उनके कहे अनुसार 'गिन्नी जाति  व्यवस्था कोख़त्म करना चाहती हैं | वे कहती हैं कि  'बाबा साहेब आंबेडकर को पढो और उनका जो मूल मन्त्र है 'पढ़ो , जुड़ो और संघर्ष करो'उसको अपने जीवन में लागू करो | वे कहती है कि जाति व्यवस्था को इंसानों ने खुद बनाया है, भगवान ने नहीं, भगवान ने तो बार बार जन्म लेकर उसे अलग अलग जातियों में जन्म लेकर ख़त्म करने का प्रयास किया है | और अगर ये हमने शुरू किया है तो ख़त्म भी हम कर करेंगे।'

गिन्नी से जब से पूछा जाता है कि आपने अपने अल्बम का नाम डेंजर चमार ही क्यों दिया?  वे बताती हैं 'कि एक दिन हम लंच कर रहे थे और मेरी दोस्त मेरे पास आई और उसने पूछा कि आपका नाम गिन्नी माही है मैंने आपके लगभग सभी गाने सुने हैं मैं आपकी फैन हूँ | आप किस जाति से आती हैं, तो गिन्नी ने कहा कि हम एससी  हैं | उसने कहा कि एससी  में तो बहुत  सी  जाति आती है,  आप किस जाती से आती हैं ?   तो गिन्नी ने कहा कि 'मैं चमार जाति से आती हूँ | उसकी दोस्त का जवाब था ओह यार चमार तो बड़े डेंजर होते हैं |'ये जो पूरा संवाद है इसका गिन्नी ने सकारात्मक रूप में उपयोग  किया  और अपने अल्बम का नाम ''द डेंजर चमार'रखा.  |


एक और साक्षात्कार में यही प्रश्न  एक टेलीविजन प्रोग्राममें किया गया की एल्बम को डेंजर चमार नाम क्यों दिया तो गिन्नी ने कहा, 'क्योंकि बाबा साहेब ने कलम को हथियार बनाया था, जिससे पूरा हिन्दुस्तान चलाया जा रहा है | डेंजर चमार नाम हमने इसीलिये दिया क्योंकि चमार बड़े डेंजर हैं उन्हें हथियारों कि जरूरत नहीं पड़ती | उन्हें डरना नहीं चाहिए।'

यह जवाब  कहीं न कहीं  प्रतिरोध को दर्शाता है क्योंकि इससे पहले चमार शब्द का उपयोग किसी व्यक्ति को गाली देने या वर्ण व्यवस्था के द्वारा उसको उस निचली जाती का होने का आभास कराते थे | जिसे  वे सहर्ष स्वीकार भी कर लेते थे | गिन्नी मानती है कि 'चाहे वो कोई पत्रकार हो , या कोई महिला हो, जैसे कि मैं आज अपनी बात कह पा रही हूँ,  वह बाबा साहेब आंबेडकर कि बदौलत है | बाबा साहेब आंबेडकर सबको समान अवसर की बात करते थे । वे चाहते थे कि सभी सामान रूप में रहें।'
       
गिन्नी के गानों मैं प्रतिरोध का अध्ययन वर्तमान के सन्दर्भ में: 

"मैं बाबा साहेब आंबेडकर की बेटी हूँ, जिन्होंने संविधान लिखाहै कोई बिरली माँ ही होगी जिसने ऐसा शेर जैसा बेटा जना हो ,उनकी पूरी दुनियां प्रशंसा करती है | मैं ऐसी सोच की  फैन हूँ , जिन्होंने बलिदान दिया मैं ऐसे बब्बर शेर की  फैन हूँ  जिन्होंने अपना बलिदान दिया ...... ऐसा बब्बर शेर था जिसकी कलम तीर की  तरह थी | जो हक़ के लिए लड़ा जिसने हमारी तकदीर बदल दी , जो बड़े मसीहा थे |"

गिन्नी कहती हैं कि इन्सानों ने ही जाति व्यवस्था को बनाया हैऔर इसे उनको ही तोड़ना चाहिए क्योंकि उस मालिक और भगवान् ने हमको एक जैसा बनाया | अब हम अपनी पहिचान को कैसे परिभाषित करेंगे कि हम इस जाति से आते हैं इसलिए पहले हम मानव हैं और बाद में किसी जाति से आते हैं । गिन्नी माही खुद को 'बाबा साहेब का फैन कहती हैं क्योंकि आज के समय में  जितने भी दलित प्रतिनिधि हैं उन्होने अपने हितों के लिए दलितों का इस्तेमाल किया है जबकि वो जाति व्यवस्था को मजबूत  करने का काम बड़े धड़ल्ले से कर रहे हैं । वे उच्च जातियों के नेताओं को सीट देते हैं और फिर वो दलितों के साथ जातिगत भेदभाव करते हैं ।'

डेंजर चमार  अल्बम  के बोल 
कुरबानी देने से डरते नहीं हैं, तैयार रहते हैं 
और जो कुरुबानी देने से नहीं डरते वो डेंजर चमार हैं

कौन आपकी जाति पूछता है और जो पूछता है वो कायर है 
शेर तो पिंजरे मैं कैद होता है और जो बोले वो बब्बर शेर होता है

डा. अंबेडकर गोलमेज़ सम्मेलन समेत दुनिया में दलितों के लिए बोले थे भेदभाव के खिलाफ , अमानवीय व्यवहार के खिलाफ इसलिए उनको गिन्नी बब्बर शेर के नाम से बुलाती हैं | वे इस बात पर जोर देती हैं कि आप अगर अच्छे कार्य करते हैं तो आपकी जाति को कौन पूछता है?'

सन 1932 में जब गोलमेज सम्मलेन रखा गया और डा.अम्बेडकर ने इस कांफ्रेंस में हिस्सा लिया था (तब शेर गरजा था) (यहाँ ये बताना चाहूँगा कि शेर शब्द गिन्नी माही बाबा साहेब के लिए उपयोग करती हैं) और बाबा साहेब ने मांग की कि वे आरक्षित सीटों को सुनिश्चित करें:
1- हर किसी को वोट देने का अधिकार हो
2 - एक वोट आरक्षित सीट के लिये और दूसरा वोट अनारक्षित
3- दलितों के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्र हो
 डा. अम्बेडकर  पृथक  निर्वाचन की मांग को जायज करार देते हुए कहते हैं कि, "मैं हिन्दू धर्म का कोई अहित नहीं करने वाला हैं । हम तो केवल उन सवर्ण हिन्दुओं के ऊपर अपने भाग्य निर्माण की निर्भरता से मुक्ति चाहते हैं ।"

बाबा साहेब का एक-एक शब्द परमाणु जैसा है – गिन्नी
 गिन्नी के गीतों में प्रतिरोध के स्वर और भी तेज होते दिख रहे हैं यहाँ  वे बाबा साहेब आंबेडकर के शब्दों में  दलितों को तख्तो ताज दिलाने की बात करती हैं जैसा कि डा. अम्बेडकर  कहते हैं मैं हक़ दिलाने आया हूँ | गिन्नी आगे कहती हैं कि बाबा साहेब के शव्द परमाणु जैसे थे | और इसीलिए गिन्नी बाबा साहेब को याद करना चाहती हैं | किसी को उसके अधिकारों के प्रति जागरूक करना वर्तमान व्यवस्था के प्रति विद्रोह खड़ा करने वाला है शायद इसी अर्थ में गिन्नी बाबा साहेब के शव्दों की तुलना परमाणु से कर रही हैं । बाबा साहेब को अपना आदर्श मानने वाली गिन्नी माही बताती हैं कि बाबा साहेब ने मनुष्य के अधिकारों के लिए बोलते थे , वो इसलिए नहीं कि दलित थे बल्कि इसलिए कि वो भारतीय थे , एक हिन्दुस्तानी थे । डा. आंबेडकर कहते थे कि कोई भूखा न सोयेगा , मैं सबके हक़ दिलाऊंगा , अपने अपने हक को लेना है ,लेना है तख्तो ताज भी , मैं हक लेके लेके देने आया हूँ, देना चाहता हूँ पूरे समाज का हक |

बाबा साहेब दी–जो ऊँच नीच का फर्क किए थे 
उनके लिए एक माँ ने एक शेर को जन्म दिया
 जिसका नाम भीमराव था जिसने अपने कर्तव्य से मुंह नहीं फेरा। 
जो सच्चे दिलेर थे, सच्चे मर्द थे 
एक दिन बाबा साहेब का राज आने वाला है। 
कुछ समय जरूर लग सकता है फिर कोई धर्म हमें छेड़ नहीं सकेगा ।
 जो लोग जाति पांति की दीवार खड़ी किये  थे उसे बाबा साहेब ने उधेड़ दिया दिया था।
 वैसे ही एक दिन बाबा साहब का राज आएगा 
जिसमें  हर व्यक्ति बराबरी का हकदार होगा सभी बराबरी के हकदार होंगे। 

गिन्नी माही को सुनने उमड़ी महिलाओं की भीड़ 


गिन्नी एक श्रोता को अपनी पहचान बताते हुए कहती हैं कि चमार का अर्थ है – “ च ” से चमडा , :मा” से मांस और “र” से रक्त | हम सभी चमड़े, मास और रक्त  से बने हुए हैं।और अगर आपको मानवता से प्रेम है तो आपको दलितों के साथ एक मानव जैसा व्यवहार करना चाहिए ।  दलितों के साथ इस आधार पर हिंसा हो रही है कि वे दलित हैं और वर्ण व्यवस्था में सबसे नीचे आते हैं । तो इसे गिन्नी काउंटर करते हुई कहती हैं कि 'वे भी  मनुष्य हैं क्योंकि वे भी मांस , खून और चमड़े से बने हुए हैं ।'गिन्नी के गानों में आने से पहले उनके परिवार को पितृसत्तात्मक  सोच का सामना करना पड़ा | गिन्नी कहती हैं कि 'उनके गाने के क्षेत्र में आने से पहले उनके रिश्तेदार उनके परिवार का मज़ाक उड़ाते थे और उनके  पिता से कहते थे कि आप उसकी शादी कर दीजिये।'मगर गिन्नी ने उनके सभी पूर्वग्रहों को गलत साबित कर दिया। उस सोच को भी मात दी जो दलित समुदाय को बहुत पिछड़ा कहते थे। उसी समाज की लड़की ने दलित समुदाय को बहुत दूर की सोच रखने वाला समुदाय के रूप में पहचान दिलाई।

 गिन्नी ने उसी दलित समाज के गौरव बताने का काम अपनी गायिकी के माध्यम से किया। भले ही गिन्नी के गानों में पौरुषता दिखती है,  जब वो बाबा साहेब आंबेडकर की तुलना शेर से करती हैं -यहाँ समझने वाली बात यह है कि गिन्नी के गाने लिखने वाली टीम में पुरुष हैं, जिनके सोचने के नजरिये में इस तरह की चीजें दिख सकती हैं- लेकिन यह तुलना कहीं न कहीं दलितों के अन्दर रोष जगाने के लिये उपयोग की जा रही है |

गिन्नी कहती हैं कि,’’ मुझे आज के समय में पंजाब की गायिकीपसंद नहीं आ रही हैं क्योंकि वो जिस फूहड़ता के साथ लड़कियों को पेश कर रही हैं वह बहुत हैरान करने वाला  है, मुझे लगता है कि लड़कियों को इस मुहिम में साथ देने के लिए आगे आना चाहिए और उनका विरोध करना चाहिए। 

गिन्नी म्यूजिक ब्रांड चमार पॉप के लिए गाती हैं |  वे पंजाबी लोकगीत , रैप और हिप हॉप भी गाती हैं।
 पॉप म्यूजिक का केन्द्र युवा बाजार है, जिसे अक्सर रॉक एंड रोल के एक सौम्य विकल्प के तौर पर देखा जाता है यह मूलतः पॉपुलर यानी लोकप्रिय शब्द से निकला है जिसे आम तौर पर  रिकॉर्ड किये गए संगीत के रूप में  समझा जा सकता है | इसमें छोटे एवं साधारण गाने आते हैं, और नवीन तकनीक का इस्तेमाल कर मौजूदा धुनों को नए तरीके से पेश किया जाता है |

दलित समाज ने अपनी सही पहचान को लेकर लंबे समय सेसंघर्ष किया है उनका इतिहास हमेशा से ही गौरव पूर्ण रहा है परंतु उनको हमेशा से ही वर्ण व्यवस्था के आधार पर हाशिये पर रखा  गया है। भीमा कोरेगांव में अपने गौरव के इतिहास के दो सौ साल को जब वे मनाने जाते हैं तो उनके साथ हिंसा की  जाती है जिसे एक अलग ही मोड़ दे दिया जाता है। भीमा कोरेगांव में  दलितों के गौरव को यह कहकर नकारा जाता है कि वह ब्रिटिश शाशन की  तरफ से और भारत के विरुद्ध लड़े थे तो  गौरव कैसा?  लेकिन यह बात समझने वाली है कि वे पहले सैनिक थे, और दूसरा वे दमन के खिलाफ लड़े थे, जो पेशवाओं के द्वारा किए गए थे। यही कारण था कि उस युद्ध में वे बिना कुछ खाये लड़े थे ।

 गाँव में  दलितों ने 'द ग्रेट चमार'  के नाम से एक बोर्ड लगाया था,जिसे देखकर वहाँ के ठाकुरों ने सवाल उठाए. गाँव के  दलितों के साथ हिंसा मारपीट की गयी,  जिसका मुकाबला भीम आर्मी ने किया । भीम आर्मी ने दलित समुदाय के लोगों के सेफ़्टी गार्ड की भूमिका निभाई जिसके बाद दलित समुदाय ने अपनी आवाज को और बुलंद हौसले के साथ उठाया।  यहाँ से हम समझ सकते हैं कि दलितों का अपना एक गौरव रहा है उनकी अपनी एक पहचान रही है ।उनका प्रतिरोध का बहुत पुराना इतिहास रहा है जो उन तमाम व्यवस्थाओं के शोषण के विरोध का परिणाम है, जो दलित समुदाय को हीन समझती है ।

दलितों का रैप 
पंजाब में दलितों की  आवादी 32 प्रतिशत है ।जिसमें कभी एकजुटता नहीं रही । उसने अन्य राज्यों की  तरह कभी अपने वोट बैंक के आधार पे  राजनीतिक दलों को आकर्षित नहीं किया है । जिसका कारण दलित समुदाय में एकता का अभाव या वोट बैंक का बिखराव रहा है। इसलिए भी गिन्नी के गीत अपना महत्व रखते हैं । गिन्नी के गीत दलित समुदाय की महिलाओं को एक बड़ा स्पेस दे रहे हैं। जिसका परिणाम यह हुआ है कि गिन्नी के कार्यक्रमों में गाँव देहात या ग्रामीण महिलाओं की उपस्थिति एक बड़े जनसमूह के रूप में हो रही है। पंजाब से गिन्नी माही का आना कोई  अचानक नहीं हुआ है, इसके पीछे का कारण पंजाब में दलित समाज का लंबे समय से शोषण के विरुद्ध संघर्ष रहा है।

( प्रस्तुत पेपर सावित्री बाई फुले पुणे विश्वविद्यालय , पुणे में स्त्री अध्ययन केंद्र द्वारा आयोजित राष्ट्रीय सेमीनार में पढ़ा गया था)

कौशल कुमार महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय में स्त्री अध्ययन विभाग में स्नातकोत्तर के छात्र हैं. सम्पर्क:kk8482238@gmail.com


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सीतामढ़ी-बाल गृह ने स्त्रीकाल को दी मानहानि की धमकी

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संजीव चंदन\
मुजफ्फरपुर सहित बिहार और देश भर में शेल्टर होम में बच्चियों से बलात्कार अथवा वहां की अन्य अनियमितताओं पर स्त्रीकाल ने प्रमुखता से ख़बरें छापी हैं और पत्रकारिता से आगे बढ़कर उन्हें न्याय दिलाने के लिए मुहीम भी छेड़ी है. 30 जुलाई को इस घटना के खिलाफ देशव्यापी प्रतिरोध के लिए कुछ संगठनों के साथ स्त्रीकाल ने सामूहिक और सफल कॉल दिया था.




इसी क्रम में स्त्रीकाल में नियमित रिपोर्ट करने वाले सुशील मानव की एक रिपोर्ट हमने 3 अगस्त को प्रकाशित की. मुख्यतः इन्डियन एक्सप्रेस में छपी खबर के आधार पर सुशील मानव ने एक रिपोर्ट की, 'बिहार के दूसरे शेल्टर होम से भी आ रही हैं बुरी खबरें: सीतामढ़ी के बालगृह में मिली अनियमितता.'इसी खबर को लेकर सीतामढ़ी में बाल-गृह संचालित करने वाली संस्था सेंटर डायरेक्ट ने अपनी कुछ बिन्दुवार आपत्तियां जताते हुए मानहानि की धमकी के साथ एक मेल 8 अगस्त, 2018 को भेजा. हालांकि उनके द्वारा भेजे गये जवाब और स्त्रीकाल के प्रतिप्रश्न के साथ एक बच्चे के गायब होने और एक बच्चे की कथित बीमारी से मौत के मामले में कुछ और संदेह पैदा हो जाते हैं.

3 अगस्त को स्त्रीकाल में छपी खबर में सीतामढ़ी बाल-गृह के मामले में मुख्य प्रसंग कुछ यूं है: 

अपने संचालन के महज़ 40 दिन बाद हीइस बालगृह में 1 मार्च 2017 को एक उच्च बाल संरक्षण अधिकारी ने इस शेल्टर होम में अनियमितता पाए जाने पर इसे बंद किए जाने की अनुशंसा की थी। लेकिन विभाग ने उनकी चेतावनी को दरकिनार कर दिया था।

इस साल के फरवरी में एक बालकैदी के गुम होने की रिपोर्ट हुई थी। जबकि अप्रैल महीने में एक दूसरे निवासी की थैलासीमिया के चलते मौत होने की रिपोर्ट की गई थी। यह शेल्टर होम ‘सेंटर डायरेक्ट’ नामक एनजीओ द्वारा चलाया जा रहा था। इंडियन एक्सप्रेस के पास मौजूद डॉक्युमेंट में तबके एडीशनल डायरेक्टर गोपाल सरन  ने इस होम के संचालन के थोड़े दिन बाद ही इसका निरीक्षण किया था और उन्होंने निरीक्षण में पाया था कि बाल कैदियों की फाइल को प्रॉपर तरीके से मेनटेन नहीं किया गया था। उन्होंने ये भी पाया था कि शेल्टर होम में पर्याप्त स्टाफ मौजूद नहीं था।

अतिरिक्त निदेशक गोपाल सरन  ने पिछले साल 13 अप्रैल कोअपना निरीक्षण रिपोर्ट सोशल वेलफेयर विभाग के डायरेक्टर सुनील कुमार को सौंपते हुए बालगृह में पर्याप्त अनियमितता पाये जाने की बुनियाद पर उसे बंद करने की अनुशंसा की थी।

गोपाल सरन अब डिप्टी कलेक्टर और एडी-सीपीयू इनचार्ज हैं। वे इंडियन एक्सप्रेस को दिये गये एक इंटरव्यू में बताते हैं कि ‘मैंने रिकमेंड किया था कि शेल्टर होम मानकों पर खरा नहीं उतरा है। वहाँ पर कई निवासियों का नाम रजिस्टर में नहीं दर्ज था और निवासीय सुविधाएं भी मानकों के अनुरूप नहीं थी। मैंने अपना काम ईमानदारी से किया। इससे पहले कि मैं उसपर कोई कार्रवाई होते हुए सुनता मुझे वहाँ के चार्ज से मुक्त कर दिया गया।


शेल्टर होम के खिलाफ 9 फरवरी को दर्ज किए गए एफआईआर के मुताबिक एक मानसिक रूप से अस्थिर लड़का गायब है जिसे सदर अस्पताल से 8 फरवरी को शेल्टर होम में लाया गया था। जबकि रहस्यमयी पस्थिति में अप्रैल महीने में एक लड़के की मौत हो गई थी जिसका कारण थैलीसीमिया दर्शाया गया है।

पढ़ें पूरी खबर: 

सेंटर डायरेक्ट की मुख्य आपत्तियों और स्पष्टीकरण के बिंदु हैं: 
1. किसी न्यूज पेपर की खबर के लिए कानून में कहाँ लिखा है कि वह किसी मुद्दे की प्रमाणिकता की पुष्टि के लिए मान्य होगी. ऐसा कहते हुए सेंटर डायरेक्ट ने इस खबर को हटाने और माफीनामा प्रकाशित करने की सलाह भी दी है.
2. सेंटर के अनुसार TISS ने जिन 15 संस्थानों में गंभीर मामले अपने ऑडिट में बताये हैं उनमें यह संस्थान शामिल नहीं है.
3. संस्थान के अनुसार अपने पर्सनल कारणों से संतोष कुमार नामक व्यक्ति संस्थान को बदनाम कर रहा है, जिसकी पत्नी कभी इस संस्थान में कार्यरत थी और हटाये जाने पर वह हाई कोर्ट में याचिका के साथ पहुँची थी, जिसे हाईकोर्ट ने निरस्त कर दिया था. यह संतोष कुमार वही सामाजिक कार्यकर्ता हैं, जिन्होंने मुजफ्फरपुर शेल्टर होम में बच्चियों से बलात्कार के मामले में एक जनहित याचिका दायर की है और जिसकी सुनवाई करते हुए कोर्ट सरकार के खिलाफ काफी सख्त है.

8 अगस्त के मेल के जवाब में स्त्रीकाल की ओर से खबर के आधार पर कुछ स्पेसिफिक सवाल संस्था को भेजे गये. स्त्रीकाल ने पूछा: 

1. क्या किसी अधिकारी ने अपने 4.10.2017 के पत्र के माध्यम से संस्था की अवधि विस्तार के मामले में कोई पत्राचार करते हुए एक अधिकारी द्वारा इस संस्था को कार्यविस्तार न दिये जाने की अनुशंसा का जिक्र नहीं किया है?
2. एक बच्चे के आपके शेल्टर होम से गायब होने के बाद हुई जांच का पूरा ब्योरा दें
3. क्या संस्था के मुखिया पी.के शर्मा ने उसी पार्टी से चुनाव नहीं लड़े हैं, जिससे ब्रजेश ठाकुर ने चुनाव लड़ा था.
4. आप जिस करुणा झा की याचिका के बारे में बता रहे हैं क्या वह याचिका मेरिट के ग्राउंड पर निरस्त हुई थी या टेक्नीकल?

भेजी गयी नोटिस, उपलब्ध कराये गये दस्तावेज के आधार पर इन्डियन एक्सप्रेस और बाद में स्त्रीकाल में हुई खबर में कोई विरोधाभास नहीं दिखता है. 

1. खबर के मुताबिक स्थापना के चालीस दिन के भीतर वहां अनियमितता पायी गयी थी, जो उपलब्ध डॉक्यूमेंट और संस्था के जवाब से भी सिद्ध होता है.
2. एक बच्चे के गायब होने की खबर सही है और संस्था ने इस संदर्भ में 9.2,2018 को इस संदर्भ में एक शिकायत ओपी प्रभारी एवं बाल कल्याण पदाधिकारी, मेहसौल, सीतामढ़ी, को भेजी भी गयी थी. आगे बच्चे का कुछ पता नहीं चला. संस्था के मुखिया पी.के शर्मा के अनुसार उसकी आगे हाल पता लगाना पुलिस का काम था. आज तक उस बच्चे की खबर नहीं लगी है. वह जब इलाज के लिए ले जाया जा रहा था, तो शौच के लिए आग्रह कर गया और वापस नहीं लौटा. सूए सदर अस्पताल ले जाने वालों में हाउस मदर रेखा पूर्व और हाउस फादर राहुल कुमार थे.
3.फोन पर बातचीत में पी.के. शर्मा ने एक बच्चे की मौत की बात भी स्वीकारी है.
4. पटना हाई कोर्ट का आदेश बताता है कि संतोष कुमार की पत्नी करुणा झा की याचिका इस आधार पर खारिज की गयी थी कि जिस संस्था के खिलाफ वह याचिका थी वह निजी सञ्चालन से संचालित थी. अदालत ने करुणा झा के वकील की यह दलील नहीं मानी कि चूकी इसे सरकारी अनुदान मिलता था इसलिए यह याचिका मेंटेनेबल है. इस तरह यह याचिका तकनीकी आधार पर खारिज हो गयी, न कि मेरिट के आधार पर. संतोष कुमार कहते हैं कि इसपर पुनः एक याचिका हाईकोर्ट में लम्बित है, जिसमें हाईकोर्ट के इस आदेश को चुनौती दी गयी है.

तथ्यों के साथ पैदा होते सवाल? 
उपलब्ध तथ्यों और पीके शर्मा से बातचीत के आधार पर यह सवाल जरूर बनता है कि स्थापना के तुरत बाद जब वहां एक अधिकारी ने अनियमितता पायी तो उसे आगे चलकर एक साल का सेवा विस्तार कैसे मिल गया? क्या यह राज्य के अन्य शेल्टर होम के प्रति समाज कल्याण अधिकारीयों के रवैये से कोई अलग मामला है? सवाल यह भी है कि जब बच्चा गायब 8.2.2018 को हो गया तो संस्था ने यह सूचना 9.2.2018 को क्यों भेजी? पुलिस का बर्ताव भी इस मामले में सजगता का तो कतई नहीं है. कथित थैलेसीमिया से बच्चे के मरने के बाद संस्था और पुलिस विभाग उसके सवास्थ्य संबंधी विश्लेषणों के आधार पर किस निष्कर्ष पर पहुँची. यदि बच्चा थैलेसीमिया से पीड़ित था तो उसका प्रॉपर ट्रीटमेंट कहाँ हो रहा था, क्या पटना के किसी शेल्टर होम में रखकर उसका प्रॉपर ट्रीटमेंट संभव नहीं था? जब ये सवाल संस्था से पूछे गये, लिखित तौर पर तो उसके लिए उन्होंने ऑफिस आने का प्रस्ताव दे डाला, ताकी वे ठीक से समझा सकें.

हमारा यह भी मानना है कि जनहित याचिकाओं में उपलब्ध कराये गये तथ्य संस्थानों से किसी कारण बस असंतुष्ट लोगों, उससे मुद्दों पर संघर्ष कर रहे लोगों, या व्हिसल ब्लोअर द्वारा ही उपलब्ध कराये जाते हैं, कई बार वे याचिकाकर्ता भी होते हैं. शायद संस्था के संचालक को यह नहीं पता हो, या धमकी भेजने के आवेग में वे न पता होने का स्वांग कर रहे हों कि प्रतिष्ठित अखबारों की खबरें अदालत से लेकर संसद तक पहुँचती हैं, भले ही वे जांच के लिए अंतिम साक्ष्य नहीं हों. स्त्रीकाल में की गयी खबर इन्डियन एक्सप्रेस की खबर की लगभग पुनर्प्रस्तुति थी, किसी बड़े हाउस की खबरें मीडिया के हर माध्यम में पहले भी प्रकाशित-प्रसारित होती रही हैं.

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मीडिया की बलात्कारी भाषा: शेल्टर होम का सन्दर्भ

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सुशील मानव 
यौन-उत्पीड़न जैसे संवेदनशील मुद्दे की रिपोर्टिंग में अपने भाषा संस्कार से बलात्कारी समाज गढ़ रहा मीडिया
सेवा संकल्प बालिका गृह मुज़फ्फ़रपुर यौन उत्पीड़न केस की महीनों अनदेखी के बाद जागी मीडिया केस के अनसुलझे पहलुओं में गोते लगाने के बाद से रिपोर्टिंग के स्तर पर लगातार संवदेनहीनता की सारी हदें पार कर चुका है। देवरिया, हरदोई (यूपी) और नूह (हरियाणा) के शेल्टर होमों में बच्चियों से हुए यौन उत्पीड़न के इन बेहद गंभीर और संवेदनशील मुद्दे की रिपोर्टिंग में भी मीडिया सिर्फ सनसनी मचाने वाली भाषा का इस्तेमाल करते हुए उत्पीड़न की खबरों को मसालेदार और उत्तेजना जगाने वाली सेक्स फैंटेसी के रूप में ही परोसता आ रहा है।कह सकते हैं कि बच्चियों के यौन उत्पीड़न केस में अब तक भाषा के स्तर पर मीडिया लगातार बलात्कारियों के पक्ष में ही खड़ा रहा है। उसका एक कारण ये भी है कि मीडिया संस्थानों के अधिकांश पत्रकार आरोपी बृजेश ठाकुर और गिरिजा त्रिपाठी के ही वर्ग, वर्ण से आते हैं तो जाहिर है कि अपने वर्गीय-वर्णीय भाषा संस्कार के चलते वो स्वाभाविक रूप से ऐसा कर जाते हों। पर सवाल फिर भी तो उठता ही है कि जो सचेतन अवस्था में भी अपने भाषा-संस्कार से मुक्त नहीं हो सके वे क्या खाक यौन-उत्पीड़न जैसी बेहद जटिल आपराधिक घटना की रिपोर्टिंग कर सकते हैं। हमारी सामाजिक और सांस्कृतिक विफलता है कि हमारे पास यौन-अपराध जैसी घटना के लिए संवेदनशील भाषा तक नहीं है। उसका दूसरा कारण ये भी है कि उत्पीड़ित समाज और लिंग की भाषा मीडिया की भाषा नहीं बन पाई क्योंकि मीडिया में उनका प्रतिनिधित्व ही नहीं है।



‘रोज लूटी जाती थी बच्चियों की अस्मत’, ‘बालिकागृह में अनाथ बच्चियों की इज़्ज़त हुई तार-तार’  ‘बच्चियों की आबरू से खिलवाड़’, ‘बच्चियों को परोसा जाता था सफेदपोशों के आगे’‘जेठ में सावन का मजा लेने जाते थे सफेदपोश’ जैसे सामंतवादी मुहावरों से सजी खबरें हेडलाइन बनकर प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया में छायी हुई हैं। इन्हीं सामंती मुहावरों के जरिए भारतीय हिंदी पत्रकार अपनी भाषा में सामंती मूल्यों को बचाए हुए हैं। याद रखिए कि सामंतवादी वैचारिकता हमेशा पीड़िता को ही दोषी ठहराती आई है। सामंतवादी मुहावरों से आच्छादित भाषा इस बात का प्रमाण है कि यौन-उत्पीड़न को लेकर अभी भी भारतीय समाज की सोच और मनोदशा बहुत नहीं बदली है। बलात्कार की घटना पर हर बार विरोध करने सड़को पर उतरने वाले लोग यदि किसी लड़की या स्त्री का बलात्कार होना उसकी अस्मत पर हमला मानते हैं जोकि एक तरह से संबंधित परिवार के मान सम्मान और लड़की की वैवाहिक जिंदगी की ही फिक्र होती है। यौन उत्पीड़न के खिलाफ आवाज लगाने वाले भी ये मानने को तैयार नहीं हैं कि बलात्कार का मतलब पीड़िता के मूल अधिकारों पर हमला करना है। उनके लिए भी बलात्कार का मतलब अभी भी लड़की या स्त्री का जूठन में बदल जाना है। क्योंकि बलत्कृत लड़की को समाज बहू या बीबी के रूप में अपनाता नहीं है। जबकि बहू या बीबी ही अपनी जैविक उत्पादकता से परिवार नामक संस्था को चलाने की धुरी रही हैं। दरअसल समाज में यौन पीड़िता के प्रति ये दुरग्रह स्त्री के लिए यौनशुचिता के सर्वस्वीकार्य कांसेप्ट के चलते है।

बलात्कार केस में सजा पाकर जेल गए राम रहीमऔर हनीप्रीत के संबंधों की चाशनी में लपेट लपेटकर महीनों टीआरपी बटोरने वाला मीडिया मुज़फ्फ़रपुर केस में आरोपी बृजेश ठाकुर और उसकी महिला सहयोगी मधु के संबंधों में टीआरपी फैक्टर खोजने में लगा हुआ है। इसके लिए ख़बरों को चटखारेदार बनाया जाता है।कई बार रिपोर्टर या एंकर यौन-उत्पीड़न की रिपोर्टिंग या प्रस्तुति में अपने भाषा-बिंब और मुहावरों में स्खलित होने की हद तक आनंद लेता हुआ लगता है। बलात्कार के बदले बलात्कार की कबीलाई बर्बरता के तर्ज पर मीडिया भी अपने भाषाई पंजों से मधु (ब़जेश ठाकुर की महिला सहयोगी)के शरीर से खेलने लगा है।‘गदराये बदन वाली’ ‘ कैसे बनी मधु बृजेश की करीबी’ ‘केस में मिस्ट्री वुमन मधु’ ‘नब्बे के दशक में ब्रजेश ठाकुर के पिता मधु के करीब आये, और फिर वो वो बृजेश की खासमखास बन गई’ ‘साकी की भूमिका में गदराई बदन की मधु होती थी’ जैसे जाने कितनी टैगलाइन अखबारों और टीवी चैनलों की हेडलाइन बन चुकी हैं।

इतना ही नहीं बलात्कार के मामलों की रिपोर्टिंग में लैंगिक वर्चस्ववाली मर्दवादी भाषा का भी मीडिया लगातार इस्तेमाल करता रहा है। जो दर्शक, पाठक या श्रोता के सामनेअपने शब्दों और बिंबों व प्रतीकों से जो चित्र बनाता है कई बार वो हूबहू किसी मसाला फिल्म में जबर्दस्ती ठूँसे गए रेप सीन की नकल लगते हैं, जिनका उद्देश्य उनमें संवेदना जगाना या आंदोलित करना नहीं बल्कि उनमें लैंगिक उत्तेजना भरकर उनका मनोरंजन करना भर होता है। जिसमें शिकार करने जैसा रोमांच और रहस्य होता है। नहीं भी हो तो कल्पनाशक्ति के जरिए इन्हे रहस्यमयी बना दिया जाता है। कई बार रिपोर्टर अपनी रिपोर्ट के जरिए खुद पीड़िता का शिकार करता हुआ जान पड़ता है।‘मासूम बच्चियों का शिकार’, ‘बच्चियों की नाजुक देह नोचते रहे भेड़ियें’, ‘मासूमों के जिस्मों को परोसा जाता रहा’ आदि हेडलाइन इसकी बानगी भर हैं।

यौन उत्पीड़न की रिपोर्टिंग को लेकर मीडिया इधर के दशक में तो लगभग हिंसक और उत्पीड़क रहा है। कई बार रिपोर्टिंग करने वाला पत्रकार यौन-उत्पीड़ित स्त्री का उपहास कर मजा लेता हुआ दिखता है। जैसे टीवी न्यूज चैनल या अख़बार की हेडलाइन होती है- ‘चार बच्चों की माँ से बलात्कार’ या ‘70 साल की बुढ़िया संग बलात्कार’।उपरोक्त हेडलाइन में स्पष्ट है कि यौन उत्पीड़न के उपरोक्त दो केसों में पत्रकार की मंशा क्या है। वो एक तरह से न सिर्फ पीड़ित महिलाओं का उपहास कर रहा है बल्कि अपनी उपभोगवादी मर्द नजरिए से उन बलात्कारियों को बलात्कार के लिए नहीं बल्कि उनकी ‘च्वाइस’ के लिए धिक्कार रहा है! याद कीजिए अपने आरोपी पिता बृजेश ठाकुर के बचाव में उनकी बेटी और पटना से प्रकाशित अंग्रेजी अख़बार न्यूज नेक्स्ट की संपादक पत्रकार निकिता आनंद ने क्या कहा था। निकिता ने भी कहा था-कि चूँकि मेरे बाप के पास बहुत पैसा है। अगर उसे शारीरिक संबंध ही बनाना होता तो और लड़कियों की सप्लाई करनी होती यहाँ की लड़किया क्यों करता।’ये सामंतवादी ठेठ मर्दवादी टेक है कि,‘गिरना ही होता तो अपना स्तर देखकर गिरते। ये स्तर शब्द लड़की या स्त्री योनि के बरअक्श उसके जाति, रंग और उम्र को लेकर बोले कहे जाते हैं। निकिता का प्रत्यक्ष कहना ये था कि कोई भी साधन संपन्न मर्द बालगृह की अनाथ और निम्न जाति की लड़कियों में क्यों इंट्रेस्ट लेगा। ध्यान रहे निकिता एक अख़बार की संपादक भी थी।



वहीं एक दूसरे तरह के यौन-उत्पीड़न की रिपोर्टिंग में पत्रकार पीड़िता की जाति, धर्म और उसकी जीवनशैली के आधार पर लगभग फैसला थोपता हुआ रिपोर्टिंग करता है। अपनी रिपोर्टिंग में वह न सिर्फ इसका सरलीकरण कर देता है बल्कि इसका सामान्यीकरण करके ग्लोरीफाई भी कर देता है कि जैसे ये कोई आम बात हो। जैसे-‘दलित स्त्री संग बलात्कार’ ‘मुस्लिम युवती संग बलात्कार’। जबकि सामंतवादी मूल्यों से इतर जीवनशैली अनुसार व्यवहार करती लड़कियों स्त्रियों को रिपोर्टिंग में  ‘दोस्तों संग पार्टी करने गई लड़की संग दुष्कर्म’ जैसे हेडलाइन के साथ पेश किया जाता है कि जैसे उन जैसी लड़कियों के साथ बलात्कार होना ही न्याय है।

ये बाज़ारवाद की विद्रूपता है कि टीवी और अख़बारऔर वेब पोर्टल हर जगह ख़बरों और घटनाओं को बेचना और सिर्फ बेचना है। बेचने की इस प्रक्रिया में एक-दूजे से आगे निकलकर ज्यादा से ज्यादा टीआरपी बटोरने और विज्ञापन हासिल करने की गलाकाट प्रतिस्पर्धा भी है। इस बेचने की क्रिया के पीछे विज्ञापनों का आर्थिक दबाव भी काम करता है। कोई ताज्जुब नहीं कि यौन उत्पीड़न की रिपोर्ट के बीचों बीच या ऊपर-नीचे यौनेच्छा जगाता कंडोम का विज्ञापन भी मिल जाए, या फिर किसी मसाज पार्लर का विज्ञापन।किसी भी कीमत पर खबरों को बेचने का बाज़ारवादी फैक्टर यौन-उत्पीड़न जैसे निहायत संवेदनशील मुद्दे को भी उत्पादीकरण करके एक उत्पाद में तब्दील कर देता। कोई भाव, घटना या खबर को जब बाजार उत्पाद में तब्दील करता है तो चेतना, संवेदना जैसी चीजों को उसमें से निकालकर अलग कर देता है और इनकी जगह उसमें रहस्य, रोमांच, सनसनी और उत्तेजना भर दी जाती है।

सिर्फ रिपोर्टिंग करनेवाला पत्रकार या एंकर ही नहींपूरी की पूरी संपादन टीम और मीडिया प्रबंधन भी उतना ही भागीदार होता है इनमें। क्योंकि आखिरी फैंसला इन्हीं का होता है। मीडिया में संपादन का जिम्मा वंचित तबके की स्त्रियों को सौंपे बिना मीडिया की भाषा को संवेदनशील और मानवीय नहीं बनाया जा सकता। चूँकि भाषा ग्राही के भीतर अपने संस्कार गढ़ रही होती है।जबकि वर्तमान समाज जोकि तकनीकि विकास के चलते साहित्य से परे भागता जा रहा है भाषा के लिए बहुत हद तक मीडिया पर ही निर्भर है। और मुझे अब ये कहने में कोई संकोच नहीं है कि समाचार मीडिया अपनी भाषा के संस्कार से प्रतिहिंसक और बलात्कारी समाज गढ़ रहा है।

सुशील मानव फ्रीलांस पत्रकारिता करते हैं. सम्पर्क: 6393491351

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स्थितियां बनायी गयी थीं, लेकिन उसने 'हाँ'कहने से इनकार किया और...

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पल्लवी 

जब पुरुष ने ऐसी स्थितियां उत्पन्न की, तब स्त्री का 'हाँ'या 'न'अर्थहीन हो गया-और उसी वक्त स्त्री ने 'वस्तु'होने से इनकार कर दिया और उसने बलात्कार की संस्कृति को मृत्यु के भयबोध से भर दिया.  शारॉन मार्कस के कथन का दृश्यविधान-पल्लवी की रचनात्मक प्रस्तुति- यथार्थ और स्त्रीवादी लक्ष्य की  लघुकथा 

‘Consent’

“The would be rapist creates a situation. The women in the situation can consent or not consent, which means she can either acquiesce to his demands or dissuade him from them, but she does not actively interrupt him to shift the terms of discussion.” - Sharon Marcus (1992)





अपने कमरे के हलके गुलाबी दीवार पर  चिपके अगिनतछोटे छोटे रंग बिरंगे कागज़ के टुकड़ों को देखते हुए आभा की नज़रें बार बार शारॉन मार्कस की इन पंक्तियों पर टिक रही थी. उसे लगा वह कुछ ज्यादा ही सोच रही है. उठकर कॉफ़ी बनायी और ऊन और सलाइयां ले कर बालकनी की गुनगुनी धूप में बैठ गयी. थोड़ी देर बाद जय को फ़ोन मिलाया और कहा "ओके, मैं आ रही हूँ. शाम को मिलते हैं."

शांत स्वभाव की आभा को इस नए ऑफिस मेंआये एक महीने हो गए थे. ऑफिस के काफी लोगों से वह घुल मिल भी गयी थी. आभा और जय एक ही प्रोजेक्ट पर काम कर रहे थे और अमूमन शाम की चाय-कॉफ़ी साथ ही लिया करते थे. एक दो बार दोनों प्रोजेक्ट पर बात करते करते देर शाम तक ऑफिस में रुके भी थे. किसी मुद्दे पर जब एक बार बहस छिड़ जाती तो दोनों तर्क, फैक्ट्स और दुनिया भर के बुद्धिजीवियों का हवाला देते हुए अपने मत रखते। प्रोजेक्ट अच्छा चल रहा था. आज ऑफिस में आते ही जय ने आभा से पूछा "कल छुट्टी है और अगर कल शाम तुम फ्री हो तो मेरे घर आ जाओ, डिनर साथ में करते हैं". आभा ने लैपटॉप से नज़रें बिना उठाये बेफिक्री से कहा "थैंक्स, आई विल लेट यू नो". शाम को घर आकर आभा सोचने लगी कि जाऊं की नहीं जाऊं। आभा को पता था कि जय अकेला रहता है, इसलिए उसे थोड़ी झिझक हो रही थी. उसने जय को इतने दिनों में कई मौकों पर ऑबजर्ब किया था. ऑफिस की मिसेस शर्मा को देख कर एक बार उसने कहा था "औरतें क्यों घरेलू हिंसा के खिलाफ आवाज़ नहीं उठती। इनके पति जैसे मर्दों को इस समाज में रहने का कोई अधिकार नहीं है. इससे अधिक कायरता क्या होगी की एक पार्टनर अपने दूसरे पार्टनर पर हाथ उठाता है."एक बार जय ने बॉस होने के नाते एक नयी इंटर्न से आभा के सामने पूछा था "तुम्हे क्या लगता है, शादी करने के बाद क्या तुम अपनी जॉब यहाँ जारी रख पाओगी ?"आभा ने जय को उसी वक़्त टोका था "क्या तुम ऐसे सवाल पुरुष सहकर्मी से भी पूछते हो? महिला एम्प्लॉय से ऐसे सवाल पूछना सेक्सिस्ट है."जय सकपका कर चुप हो गया. बाद में आभा से कहा "सॉरी, मुझे अभी बहुत कुछ सीखना है."ऐसे ही कई वाकये आभा की नज़रों के सामने घूम गए. "उफ़्फ़ , मैं कितना सोच रही हूँ" - आभा ने मन ही मन सोचा। एक औरत होने के नाते जाने कितने अनुभवों से वंचित रह जाती हूँ. अगली सुबह उसने जय को फ़ोन मिलाया और कहा "ओके, मैं आ रही हूँ. शाम को मिलते हैं."

जय का घर ज्यादा बड़ा तो नहीं, पर साफ़ सुथरा और अच्छा है.खाना अच्छा बना था. आभा को वहां आये दो घंटे हो गए चुके थे और वह वहां बैठे बैठे यह सोच रही थी कि आकर अच्छा ही किया। "उफ्फ, मैं क्या पूरी शाम यही सोचती रहूंगी कि क्या मैं सेफ हूँ ?" - आभा को थोड़ा गुस्सा आया "छी कैसी तो दुनिया बना दी गयी है". "कॉफ़ी पियोगी ? " - जय की आवाज़ से आभा अपने ख्यालों से बाहर आती है. "थैंक्स, लेकिन मुझे अब चलना चाहिए" - आभा ने अपनी मोबाइल की तरफ देखते हुए कहा. जय ने लगभर उसे अनसुना करते हुए कहा "बस दो मिनट दे दो और कॉफ़ी रेडी है". कॉफ़ी का मग पकड़ाते हुए दोनों के हाथ टच हुए. आभा ने जल्दी से अपना हाथ खिंच लिया। अगले पल में जय ने आभा का बांयां हाथ लगभग पकड़ते हुआ कहा "आज यहीं रूक जाओ न". आभा ने चेहरे पर सख्ती कायम रखते हुआ धीरे से उसका हाथ झटकते हुआ कहा "नो, मुझे घर जाना है".

"सॉरी, अगर तुम्हे बुरा लगा हो तो." - जय ने नजरें झुकाते हुए कहा.

आभा कॉफ़ी सिप करते हुए बोली

"कोई बात नहीं, तुमने शायद गलत समझ लिया हो".

जय: “मुझे लगा कोई लड़की मेरे घर आने के लिए रेडी हो गयी है, वो भी रात के डिनर के लिए और ये

जानते हुए भी की मैं यहाँ अकेला रहता हूँ तो वो 'ये'भी चाहती ही होगी।"

आभा थोड़ा मुस्कुराते हुए: 'ये'भी का मतलब?

जय: मतलब one night stand.

आभा: चलो अच्छा है, आज तुमने ये सीखा कि अगर कोई लड़की इस तरह तुम्हारे घर आती है तो ये

जरुरी नहीं कि वह तुम्हारे 'ये'के लिए आयी है. लेकिन ये बताओ क्या तुमने ये सिचुएशन इसलिए

क्रिएट किया था ?

जय: हाँ, लेकिन चलो अच्छा है कि तुमने अपना कंसेंट दे दिया।

आभा: देखो जय, ये सिचुएशन तुम्हारे फेवर में ज्यादा है. मेरा मतलब है कि तुम इस सिचुएशन में

privileged हो. इसलिए कंसेंट ऐसी जगह होनी चाहिए जहाँ सिचुएशन दोनों के लिए बराबर है.

जय: लेकिन तुम तो अपनी मर्जी से आयी हो ?



आभा: हाँ, मैं अपनी मर्जी से आयी हूँ, क्यूंकि मैं बहादुर हूँ. दुनिया ख़राब है या औरतों के लिए सुरक्षित नहीं है, इस बात को जानकर मैं घर में कैद होकर रहने में विश्वासनहीं करती। लेकिन सच कहूं तो यहाँ आने से पहले और यहाँ आने के बाद मैं अपनी सेफ्टी के लिए सोच रही थी. तुम्हे नहीं लगता है कि दुनिया हम औरतों के लिए कुछ बेरहम और तुम मर्दों पर कुछ मेहरबान है.

जय: लेकिन हम दोनों तो समान हैं. जितना तुम कमाती हो उतना मैं भी कमाता हूँ.

आभा: लेकिन तुम्हारा पुरुष होना तुम्हे कई मामलों में बनाता privileged है. तुम privileged होने की अकड़ में आकर मुझे हाँ या ना के सवाल में उलझा नहीं सकते। यौन हिंसा करने वाले कई बार "हिंसा की स्थिति पैदा करते हैं"और उस स्थिति में कंसेंट का तो कोई सवाल ही पैदा नहीं होता है.

जय: अब तुम इल्जाम लगा रही तो. मैंने तुमसे पूछा और तुम हाँ या ना कह सकती हो.

आभा: मैं किसी ऐसे क्रिएटेड सिचुएशन में हाँ या ना कहने के लिए बाध्य नहीं हूँ, जहाँ दोनों बराबर नहीं

हों.

जय लगभग गुस्साते हुए: तुम चीजों को इतना उलझा क्यों रही हो ? 'मैंने'तुमसे पूछा और अगर मैं चाहूँ तो कुछ भी कर सकता हूँ.

आभा ने गौर से जय की आँखों में देखा। पुरुष होने का अहंकार उसकी आँखों से टपक रहा था. आभा को अब डर का लगने लगा. उसने लगभग उठते हुआ कहा: “Exactly, मैं यही कह रही थी. आ ही गए न अपनी औकात पर. रात के 10.30 बजे तुम्हारे घर में आयी कोई लड़की तुम्हारी दया की मोहताज हो जाती है. तुम जैसों को पता होता है कि समाज भी तुम्हारे साथ ही खड़ा होता है. ये सब फैक्ट्स तुम्हे पावर देते हैं. तुम्हे लग रहा है कि सब तुम्हारी मुट्ठी में है."आभा तेज़ आवाज में कहती जा रही है: "एक फिल्मी डायलॉग याद आ रहा है - अपनी गली का कुत्ता भी शेर होता है."

जय गुस्से से लगभग कांपते हुए: "तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई…क्या कर लोगी तुम ... अगर मैं तुम्हे ...”. जय जितनी तेजी से आभा की तरफ झपटता है, आभा उतनी ही तेजी से पीछे की तरफ भागती है. उसका पैर टेबल से टकराता है और खाने की प्लेट्स छन्न से नीचे गिरती है. जय ने उसके एक हाथ को इतनी जोर से पकड़ रखा है कि आभा दर्द से कराह उठती है. आभा ने झट से अपने दूसरे हाथ से टेबल पर रखे कांच की गिलास को उठाया और जय के सर पर दे मारा, फिर उसके टांगों के बीच ताबड़ तोड़ मारना शुरू किया। जय अवाक् सा जमीं पर गिर पड़ा. उसे समझ में नहीं आया कि ये क्या हुआ. आभा ने अगले पल दोनों हाथों से टेबल की पूरी कांच को उठाया और जय के सर पर दे मारा। जय अब तक बेहोश हो चुका था.

फ्लैट से नीचे आकर उसने 100 नंबर डायल किया, उसके बाद अपनी एक जर्नलिस्ट दोस्त को कॉल किया। देर रात पुलिस स्टेशन से आने के बाद उसे बिलकुल नींद नहीं आयी. अगली सुबह तक ये खबर अखबार में आ चुकी थी - "बहादुर लड़की ने कैसे अपना बचाव किया".

आभा उसी गुलाबी दीवार पर चिपके रंग- बिरंगे कागजों को गौर से देखे जा रही थी. अचानक से उसने एक कागज़ का टुकड़ा उठाया और फटाफट लिखना शुरू किया "This time she was not the object of violence. She frightened rape culture to death, and that too literally.” शारॉन मार्कस की पंक्तियों के नीचे कागज़ चिपका कर, उसके नीचे लिखा अपना नाम - "आभा".

पल्लवी तेजपुर विश्वविद्यालय में सहायक प्रोफेसर हैं. 


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ब्राह्मणवादियों द्वारा संविधान जलाने पर देशव्यापी विरोध प्रदर्शन

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स्त्रीकाल डेस्क 

पिछले 9 अगस्त को दिल्ली के जंतर मंतर पर आरक्षण विरोधी अभियान चलाने वाले सवर्णों ने भारतीय संविधान की प्रतियां जला डालीं. और अपनी इस इस करतूत का वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल भी किया.


भागलपुर में विरोध प्रदर्शन 

इसके बाद देश भर में इस करतूत के खिलाफ लोग विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं, दोषियों के खिलाफ देशद्रोह का मुकदमा दर्जा करने और उनकी नागरिकता छीनने की मांग कर रहे हैं. इसके बावजूद बात-बात पर सामाजिक कार्यकर्ताओं पर देशद्रोह का मुकदमा दर्ज करने वाली सरकार ने चुप्पी बना रखी है. और तो और संविधान जलाने की घटना दिल्ली पुलिस की मौजूदगी में अंजाम दी गयी.

इन तस्वीरों और वीडियो में दिख रहे लोगों पर होनी चाहिए कार्रवाई 

पहले संविधान जलाने वालों ने बाबा साहेबडा. भीम राव अंबेडकर के खिलाफ नारेबाजी की और फिर संविधान की प्रतियों को जला दिया.

वर्धा में विरोध प्रदर्शन 


भारत का कानून यह व्यवस्था देती है किसंविधान का अनादर करने पर ऐसा करने वाले की नागरिकता छीनी जा सकती है. लेकिन. सवर्ण ब्राह्मणवादियों ने न सिर्फ संविधान जलाया बल्कि अपने इस कुकृत्य को सोशल मीडिया पर प्रसारित भी कर रहे हैं.

इलाहबाद विश्वविद्यालय  में प्रदर्शन 


सवाल है कि यह ताकत उन्हें कहाँ से मिलती है. लोग पूछ रहे हैं कि क्या यह ताकत सरकार से आती है, सरकार की नीतियों से आती है? भदोही के रहने वाले श्रीनिवास पाण्डेय ने धृष्टता के साथ इस घटना के वीडियो और फोटो जारी किये. इसके खिलाफ सामजिक संगठनों ने पार्लियामेंट थाने में शिकायत भी दर्ज की है, लेकिन अभी तक उस शिकायत पर कार्रवाई की कोई सूचना नहीं है.

संविधान जलाने की इस घटना का देशव्यापी विरोध हो रहा है. संविधान ने पिछले 70 सालों में वंचित समुदायों, महिलाओं को व्यापक हक दिलवाये हैं, उनमें अपने अधिकार के प्रति चेतना जगायी है और उनके अधिकारों को संरक्षित भी किया है. ब्राह्मणवादी व्यवस्था इससे चिंतित है. आजादी के बाद से ही ये ताकतें भारत में मनुस्मृति का क़ानून लागू कराने की वकालत करती आयी हैं. 


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कुछ अच्छे शेल्टर होम भी हैं बिहार में, जाने TISS की रिपोर्ट के अच्छे शेल्टर होम के बारे में

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स्त्रीकाल डेस्क 

टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ़ सोशल सायंसेज के सोशल ऑडिट रिपोर्ट में मुजफ्फरपुर सहित 14 शेल्टर होम में बड़ी अनियमिततायें तथा रहने वालों का शोषण बताया गया है. मुजफ्फरपुर शेल्टर होम में बच्चियों से बलात्कार के बाद बिहार और देश उद्द्वेलित है. सीबीआई जांच में कई सफेदपोशों तक जांच की आंच पहुँचने की अटकलें तेज है. बिहार के समाज कल्याण मंत्री के बाद अब सूबे के मुख्यमंत्री के इस्तीफे की मांग तेज हो गयी है. इनसब के बीच टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ़ सोशल सायंसेज की रिपोर्ट में ही कुछ अच्छी खबरें भी हैं, समाज और मानवता के लिए-सुखद. TISS की रिपोर्ट में 6 शेल्टर होम के बारे में अच्छी बातें कही गयी हैं, जाने वे कौन से 6 शेल्टर होम हैं और रिपोर्ट में क्या कहा गया है उनके बारे में:



दरभंगा के ऑबजर्बेशन होम का दौरा करने का हमारा अनुभव सुखद था. वहां रहने वालों के साथ कोई हिंसा नहीं हुई थी, नहीं होती है. कर्मचारी और वहां रहने वाले लोग बागवानी करते हैं. संस्थान में खूबसूरत उद्यान और शानदार रसोई है. वहां रहने वाले लोग संस्थान के अधीक्षक से प्यार करते हैं, जो उन्हें पढ़ाते भी रहे हैं. यह पढाई नियमिति होने वाले क्लास से अलग होती थी. आउटडोर की व्यवस्था थी जैसे कि वॉलीबॉल, बैडमिंटन इत्यादि और अधीक्षक अक्सर उनके साथ भी खेला करते थे. इसी प्रकार, बाकी के कर्मचारी भी समान रूप से उत्साहित थे सीखने और अनुकूलन से मुक्त होने के लिए उत्सुक.

इसी प्रकार, बक्सर में बाल गृह एक सकारात्मक वातावरण बनानेमें कामयाब रहा है, खासकर कर्मचारियों के नियमित कार्य और उनकी जिम्मेवारियों से परे बच्चों के साथ सहज रिश्ते बनाकर.  लगभग सभी कर्मचारी बच्चों के साथ समय बिताते हैं. संस्थान में कोई नियमित शिक्षक या ट्रेनर नहीं है, लेकिन अन्य स्टाफ सदस्य इन जिम्मेदारियों को निभाते हैं और यह सुनिश्चित करते हैं कि बच्चे न सिर्फ पढ़ें बल्कि  ड्राइंग, पेंटिंग आदि की हॉबी भी पूरी करें. अपने प्रयासों से उन्होंने एक पुस्तकालय बनाया है, जहाँ से बच्चों को किताबें लेने की अनुमति है . यह एक छोटी सी चीज की तरह जरूर दिख सकता है, लेकिन बच्चों के कस्टडी के दौरान के अनुभव से उन्हें मुक्त करने में इसकी अहम् भूमिका होती है.

सारण का स्पेसलाइज्ड अडॉप्शन सेंटर बुनियादी ढांचेऔर समर्पित कर्मचारियों की एक टीम के साथ सुव्यस्थित दिखा. सेंटर की समन्वयक एक संवेदनशील महिला हैं, जो टीम को इस तरह प्रेरित करने में सक्षम रही हैं, कि यह सेंटर ‘मॉडल अडॉप्शन सेंटर’ कहा जा सके. वहां बच्चे स्वस्थ और खुश दिखते थे और जब पूछा गया कि वे कैसे यह सब कम बजट में कर लेती हैं तो बताया गया कि संगठन के सचिव अपनी दूसरी परियोजनाओं से इसकी भारपाई करते हैं. सचिव के साथ बातचीत में, उन्होंने कहा कि उन्होंने केंद्र को एक मंदिर के रूप में माना है और खुद को भाग्यशाली मानते हैं कि उन्हें अनाथ बच्चों की देखभाल का अवसर मिला. यह देखना सुखद था कि एक संगठन ने धर्म को  कर्मकांडों से मुक्त उसे एक सेवा के अवसर के रूप में देखा है.

चिल्ड्रेन होम, कटिहार में, प्रबंधन ने कुछ वैसेबड़े बच्चों को चिह्न्ति किया था, जिन्होंने कभी न कभी स्कूली शिक्षा प्राप्त की थी, उन्हें छोटे बच्चों को पढ़ाने से जोड़ दिया गया.  एक स्तर पर, यह समर्पित शिक्षकों की कमी को पूरा करता है, वहीं दूसरी तरफ, इसका उनके मनोविज्ञान पर सकारात्मक प्रभाव पैदा करता है इस अहसास के साथ कि वे सकारात्मक कार्य में लगे हुए हैं। स्टाफ भी सतर्क और जागरूक थे. इस प्रक्रिया में कुछ बच्चों के भीतर नेतृत्व का गुण भी विकसित होता है.

भागलपुर में लड़कियों के लिए चिल्ड्रेन होमएक बंद इमारत और सीमित स्थान में होने के बावजूद एक सकारात्मक वातावरण बनाने में सफल है. कर्मचारी संस्थान में अपने बच्चों के जन्मदिन मनाते है. इस अवसर पर  लड़कियों को उत्सव के माहौल का आनंद मिलता है। इसका यह भी परिणाम हुआ है वहां रहने वाले कर्मचारी बच्चियों के प्रति संवेदनशील हैं. प्रेम और वांछित होने के अहसास से एक-दूसरे से लगाव पैदा होता है.
इस छोटे से प्रयास से वहां रहने वाली बच्चियों में यह अहसास भर पाया है कि उनकी देखभाल हो रही है.

पूर्णिया में लड़कों के लिए चिल्ड्रेन होम लोगों को वहां की  प्रक्रिया मेंइंगेज करता है. स्वयंसेवक वहां आते हैं और बच्चों के साथ अलग-अलग एक्टिविटीज करते हैं. इस तरीके के कई लाभ हो सकते हैं, मसलन बाहरी व्यक्तियों द्वारा अनौपचारिक निगरानी और मोनिटरिंग संभव हो पाता है तथा वे इस सम्बन्ध में अपने विचार दे सकते हैं,अपनी चिंताएं जाहिर कर सकते हैं. संगठन बच्चों के परिवार की जानकारी पता करने के लिए एक मोबाइल अप्लिकेशन भी चलाता है.

रिपोर्ट ने इन छः संस्थानों के अलावा कई और संस्थानों में अच्छेप्रसंगों का उल्लेख किया है. मसलन, कहीं-कहीं स्टाफ भी अपने बच्चों के साथ रहते हैं, जिसके कारण कैम्पस में बढ़िया वातावरण होता है. नालंदा के एक शेल्टर होम की महिलायें जब पास के मंदिर तक जाने लगीं तो उसका भी सकारात्मक असर हुआ.


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सत्ता के शीर्ष से है अपराधियों को संरक्षण: प्रधान सचिव का बयान बड़ा संकेतक

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संतोष कुमार 

पटना के एक शेल्टर होम में एक नाबालिग लड़की औरएक महिला कथित बीमारी से मृत पायी जाती है, जबकि उस शेल्टर होम में दो दिन पहले ही एक जांच टीम पहुँची थी, जिसने किसी संवासिन को बीमार नहीं पाया था. शेल्टर होम की संचालक मनीषा दयाल को गिरफ्तार किया गया है.  मुजफ्फरपुर शेल्टर होम में यौन उत्पीडन से प्रताड़ित जिन लड़कियों को मधुबनी के एक शेल्टर होम में शिफ्ट किया गया, उनमें से उत्पीड़न की मुख्य गवाह एक लड़की गायब हो गयी है. यह शेल्टर होम मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की पार्टी जद यू के एक प्रमुख नेता संजय झा के पीए का बताया जाता है. ये घटनाएँ बताती हैं कि शेल्टर होम के अपराधियों को कहीं ऊपर से संरक्षण मिला हुआ है, एक शेल्टर होम में चल रही सीबीआई जांच के बावजूद अपराधियों का हौसला बुलंद नहीं होता तो ऐसी घटनाओं को अंजाम देना मुश्किल है. वे निर्भीक हैं, इसका प्रमाण शीर्ष से मिल रहा है, सीधे मुख्यमंत्री के स्तर से. उधर देश भर से आ रही शेल्टर होम में यौन शोषण की घटनाओं में भाजपा के बड़े नेताओं से जुड़े लोगों के नाम भी आ रहे हैं. ब्रजेश ठाकुर के कांग्रेस कनेक्शन की भी बात की जा रही है.

पटना शेल्टर होम की गिरफ्तार संचालिका मनीषा दयाल प्रभावशाली नेताओं के साथ 

सत्ता के शीर्ष से इन अपराधियों के संरक्षण के अन्य प्रमाणों के साथ एक बानगी  6 अगस्त को भी मिली जब समाज कल्याण विभाग के सबसे बड़े पदाधिकारी प्रधान सचिव श्री अतुल प्रसाद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के साथ प्रेस कांफ्रेंस में अपने ही विभाग द्वारा दर्ज एफआईआर में उद्धरित बिंदुओं के विपरीत गलत बयान देते हैं। और कहते है कि TISS की रिपोर्ट मजफ्फरपुर बलिकागृह में यौन शोषण की कोई चर्चा तक नही थी। यह एक तरह से अपराधियों को दिया गया खुल्लम-खुल्ला सन्देश है कि सत्ता आपके साथ है. सच्चाई इसके ठीक विपरीत है. मजफ्फरपुर यौन शोषण को लेकर TISS द्वारा सौंपी गई रिपोर्ट के आधार पर ही मजफ्फरपुर के तत्कालीन सहायक निदेशक बाल संरक्षण इकाई(ADCPU) देवेश कुमार शर्मा ने मुजफ्फरपुर महिला थाने में एफआईआर की थी। बल्कि उसकी लाईन को ही एफआईआर में कोट किया हुआ है।

TISS, मुम्बई की कोशिश टीम के सोसल ऑडिट रिपोर्ट के पेज नम्बर 52 में उल्लिखित है कि" The girls children in Muzaffarpur run by 'Seva Snkalp Evam Vikash Samiti' was both find by us to running highly questionable manner along with grave instance of violation that was reported by the residents. "Several girls reported about violence and being abused sexually". This is the very serious and need to be further investigation promptly. Immediate legal procedure must be followed to enquire into the charges and corrective measures be taken'इसी को आधार बनाकर प्राथमिकी 30/05/2018 को की गई जिसे 31/05/2018 को महिला थाना ने केस नवम्बर 33/18 को u/s 120(B)/376/34 IPC & 4/6/8/10/12 POCSO Act के तहत दर्ज किया।

मुख्यमंत्री के साथ मिलकर प्रेस कांफ्रेंस में बोले जानेवाले झूठ से ही बड़े अपराधियों को  शह मिल रहा है. यह अकारण नहीं है कि जेल में भी मुख्य अभियुक्त ब्रजेश ठाकुर के पास से 40 नंबर बरामद किये गये, उसमें से एक नम्बर एक मंत्री का भी है.

अब सवाल है कि इस मामले में दस से ज्यादागिरफ्तारियां हो चुकी हैं,  जिसमे विभागीय पदाधिकारी से लेकर न्यायिक संस्थान बाल कल्याण समिति के सदस्य तक गिरफ्तार हो चुके है, जिला स्तरीय कई पदाधिकारी बर्खास्त है, माननीय पटना उच्च न्यायालय की निगरानी में सीबीआई की जांच चल रही है, माननीय सर्वोच्च न्यायालय स्वयं संज्ञान लेकर इस मुद्दे पर नजर रखा रहा है फिर भी प्रधान सचिव श्री अतुल प्रसाद प्रेस कान्फ्रेंस में मुख्यमंत्री  सहित जनता को झूठ बोलकर गुमराह क्यों करते है?

अभी तक सिर्फ और सिर्फ जिला स्तर के पदाधिकारियों पर बर्खास्तगी जैसी मामूली करवाई हुई है। यह समझने वाली बात है कि आरोपित ब्रजेश ठाकुर या उसके जैसे अन्य एनजीओ–माफिया की डीलिंग किससे, किस शर्त पर, किस स्तर पर, किसके साथ होती होगी? आनेवाले समय में सिर्फ सरकार ही नहीं सीबीआई को भी इस सवाल से जुझना होगा। हाल फिलहाल में एक सीनियर डिप्टी कलेक्टर एवं सहायक निदेशक बाल संरक्षण इकाई ने यह कह कर विभाग के सिंडीकेट की तरफ इशारा किया कि जब संचालक द्वारा एक बालगृह में व्यापक अनियमितता को लेकर बालगृह को बंद करने के लिए समाज कल्याण निदेशालय को अनुशंसा किया तो बालगृह तो बन्द नही हुआ पर उन्हें ही उस पद से हटवा दिया गया और हां उस बालगृह से कई बच्चे के गायब होने, यहां तक कि बच्चे की सन्देहास्पद स्थिति में हाल-फिलहाल में मौत होने के बाद भी सिंडीकेट के इशारे पर आज भी वह बालगृह चल रहा है।

यह एक नेक्सस है, इसमें सत्ता का शीर्ष भी शामिल है,इसलिए अपराधियों के हौसले बुलंद हैं और न्याय की आशा क्षीण होती दिख रही है.

संतोष कुमार सामाजिक कार्यकर्ता हैं, इन्होने बिहार में शेल्टर होम की सीबीआई जांच और हाई कोर्ट मोनिटरिंग के लिए पीआईएल दाखिल किया है. 

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असीमित व्यभिचार का कानूनी दरवाजा: बहन के नाम वकील भाई की पाती

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अरविंद जैन 

व्यभिचार की धारा 497 पर बहस पूरी होने के बाद सुप्रीमकोर्ट ने फैसला सुरक्षित रखा है. पढ़ें इस धारा के असर पर स्त्रीवादी अधिवक्ता अरविंद जैन का यह रचनात्मक हस्तक्षेप, बहन के नाम पत्र के जरिये वे बता रहे हैं क़ानून और भारतीय समाज की विडम्बना के बारे में. 
प्रिय बहन !
तुम्हारा पत्र मिला। पढ़कर परेशान हूं कि तुम्हें क्या सलाह दूं ? सारे कानून पढ़ने, सोचने समझने और विचारने के बाद मैं तो सिर्फ इतना ही समझ पाया हूं कि तुम “व्यभिचार”  के आधार पर अपने पति को कोई सजा नहीं दिला सकती क्योंकि तुम्हारे पति जो कर रहे हैं वह कानून की नजर में “व्यभिचार” नहीं है और अगर हो भी तो सजा दिलवाने का तुम्हें कोई अधिकार नहीं है। अपने पति के विरुद्ध तुम सिर्फ तलाक का मुकदमा दायर कर सकती हो और वह भी बिना किसी ठोस सबूत और गवाहों के मिलना तो मुश्किल ही है।



सालों कोर्ट कचहरी, वकीलों की मोटी फीस और एक-दूसरे पर कीचड़ उछालने के बाद तलाक ले भी लोगी तो फिर क्या करोगी? कहां जाओगी ? कैसे रहोगी? बच्चों की संरक्षता तुम्हें शायद ही मिले और मिल भी गई तो उन्हें तुम कैसे पढ़ा-लिखा पाओगी? आजकल नौकरी मिलना भी क्या कोई आसान काम है?  नौकरी मिल भी गई तो तुम वहां से भी भागोगी, न जाने कब किस शक्ल में तुम्हें व्यभिचारी रूप दिखने लगे? दुबारा विवाह करोगी तो क्या गारंटी है कि वह ऐसा नहीं होगा।

समाज में अभी भी ऐसी परिस्थितियां कहां हैंकि कोई अकेली औरत सम्मानपूर्वक जी सके? तुम्हारे सवालों का फिलहाल मेरे पास कोई जवाब नहीं है। तुम मेरी स्थितियों से अच्छी तरह परिचित हो। एक, दो, दस दिन की बात तो है नहीं, उम्र भर का प्रश्न है। बाउजी और अम्मा को तो अभी पता ही नहीं है। पता लगेगा तो न जाने क्या होगा? 

तुम ठीक ही कहती हो कि “समाज, संसद, सत्ता, सम्पत्ति,शिक्षा और कानून व्यवस्था सब पर मर्दों का सर्वाधिकार सुरक्षित है।” नियम, कायदे कानून, परंपरा, नैतिकता, आदर्श और सिद्धांत सब पुरुषों ने बनाये हैं और वे ही इन्हें समय- समय पर परिभाषित और परिवर्तित करते रहते हैं, मगर हमेशा अपने वर्ग-हितों की रक्षा करते हुए। औरतों को आदर की आड़ में सदा अपमानित ही किया गया है और छोड़ दिया गया है समाज के हाशिये पर। दादी मां से लेकर मुझ तक शायद कहीं कुछ नहीं बदला।जो थोड़ा बहुत बदला हुआ दिखाई पड़ता है, वो भी निश्चित रूप से वैसा है नहीं, जैसा दिखाया गया है। “भ्रूण हत्य़ा” लेकर सती बनाये जाने तक सभी कानून महिला कल्याण के नाम पर क्या सिर्फ मजाक नहीं है? शायद इसी पीड़ा से उपजी होगी कविता “ मां, पैदा होते ही बेटियों को मार क्यों नहीं दिया।”(“सबदमिलावा” में कविता “देसमिलावा”-पद्मा सचदेव)
सच है कि संविधान में कानून के समक्ष समता और समान कानूनी संरक्षण के मौलिक अधिकार के बावजूद औरतों को इस अधिकार से वंचित किया जाता रहा है और यह कहा या कहलवाया जाता है कि ऐसा उनके हित में किया गया है, क्योंकि राज्य को महिलाओं और बच्चों के लिए विशेष प्रावधान बनाने का अधिकार प्राप्त है। (भारतीय संविधान का अनुच्छेद 14और 15 (3)

शायद तुम जानतीं नहीं कि व्यभिचारसंबंधी फौजदारी कानून (भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा-497) में 133 साल पहले जो प्रावधान बनाया गया था वह आज भी उसी रूप में लागू है। समाज ने इसे बदलने की जरूरत महसूस की या नहीं, मैं नहीं जानता, परन्तु एक औरत ने इसकी संवैधानिक वैधता को चुनौती दी थी लेकिन देश की सबसे बड़ी अदालत के न्यायमूर्तियों ने कानून को ही उचित ठहराया (श्रीमती सौमित्र विष्णु बनाम भारत सरकार, आल इंडिया रिपोर्टर, 1985सुप्रीम कोर्ट 1618)।उससमयमुख्य-न्यायाधीशवाई.वी.चंद्रचूड़थे।
तुम्हारे पति कानून की नजर में कोई दंडनीय अपराध नहीं कर रहे। वेश्याओं, कालगर्ल या अन्य महिलाओं से संबंध अपराध कहां है ? धारा-497के अनुसार अगर कोई व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति की पत्नी से, उसके पति की सहमति या मिलीभगत के बिना सहवास (बलात्कार नहीं) करता है, तो व्यभिचार का अपराधी माना जाता है जिसके लिए उसे पांच साल की कैद या जुर्माना या दोनों हो सकते हैं। लेकिन ऐसी किसी भी स्थिति में महिला को उत्प्रेरणा का अपराधी नहीं माना जाएगा। जबकि तलाक के लिए पति या पत्नी द्वारा शादी के बाद (पहले नहीं) पति-पत्नी के अलावा किसी भी अन्य व्यक्ति के साथ स्वेच्छा से सहवास करने पर एक-दूसरे के विरुद्ध तलाक का मुकदमा दायर किया जा सकता है। मतलब सजा के लिए व्यभिचार की परिभाषा अलग और तलाक के लिए परिभाषा अलग।

धारा-497 का दूसरा साफ-साफ अर्थ यह है किव्यभिचार सिर्फ किसी दूसरे की पत्नी के साथ संबंध रखना है और वह भी माफ अगर उसके पति की भी सहमति या मिलीभगत हो। दो पति आपस में अपनी पत्नियां एक-दूसरे से बदल लें तो कोई व्यभिचार नहीं। मैं नहीं जानता कि भारतीय समाज में ऐसा भी होता है या नहीं, लेकिन इस संदर्भ में कुछ साल पहले एक कहानी जरूर पढ़ी थी और पढ़कर बहुत दिन तक भुनभुनाता रहा था (‘हंस’, अक्तूबर 1998 में ज्ञानप्रकाश विवेक की कहानी“ अंततः” पृष्ठ 24)।

खैर...इसका अर्थ यह हुआ कि आपसी सहमति सेतुम्हारे पति किसी भी बालिग, अविवाहित, विधवा या तलाक-शुदा महिला से कोई अपराध किए बिना यौन संबंध रख सकते हैं, चाहे ऐसी महिला उनकी अपनी ही मां, बहन, बेटी, बुआ, मौसी, भाभी, चाची,ताई, भतीजी या भानजी क्यों न हो। हालांकि ऐसी कुछ महिलाओं के साथ वैध विवाह नहीं किया जा सकता। विवाहित महिला से भी संबंध रख सकते हैं बशर्ते उसके पति को कोई ऐतराज न हो। पति का क्या है, वह सहमति दे सकता है या सब कुछ देखते हुए भी चुप्पी साध सकता है, अगर उसका कोई हित सधता हो। अपने हित के लिए सब कुछ उचित है शायद। शानीजी की कहानी“ इमारतगिरानेवाले” और कृष्णा सोबती का उपन्यास “दिलो दानिश” पढ़े हैं तुमने? नहीं पढ़े, तो पढ़ लेना जरूर।

कुल मिलाकर कानूनी मतलब यह कि पत्नी पति की संपत्ति है, वह चाहे तो खुद इस्तेमाल करे, न चाहे तो न करे या चाहे तो किसी को इस्तेमाल करने दे और न चाहे तो न करने दे। पत्नी की अपनी इच्छा, मर्जी या सहमति का न कोई अर्थ है, न अधिकार। पति की सहमति के बिना संबंध रखने का परिणाम होगा पुरुष के लिए जेल और पत्नी के लिए तलाक। पति अगर व्यभिचारी हो तो पत्नी को पति या उसकी प्रेमिका के खिलाफ शिकायत तक करने का अधिकार नहीं (आपराधिक दंड संहिता की धारा-198)।



तुम्हें शायद मालूम नहीं कि व्यभिचार की धारा-497 कीसंवैधानिकता वाले मुकदमे में न्यायधीशों ने अपने निर्णय में कहा था कि कानून पति को अन्य महिलाओं के साथ यौन-संबंध की खुली छूट नहीं देता (जबकि देता तो है) लेकिन यह सिर्फ एक खास किस्म के वैवाहिक संबंधों से विचलित होकर विवाह संबंधों से बाहर स्थापित किए गये यौन-संबंधों को अपराध मानता है। अवहेलनाकारी पति ऐसे संबंध स्थापित करके हमेशा जोखिम (?)उठाता है या शायद पत्नी द्वारा तलाक के दीवानी दावे को निमंत्रण देता है।
मैं मानता हूं कि पत्नी व्यभिचार के आधार पर पति से तलाक लेने का दावा कर सकती है, लेकिन आसपास और समाज पर विचार करें तो उस हाल में दंड पत्नी को ही मिलेगा क्योंकि तलाक पत्नी के लिए अभिशाप और पति से पीछा छूटने का ही पर्यायवाचीमाना-समझाजाता है। और फिर तलाक की मुकदमेबाजी भी क्या कोई बच्चों का खेल है।

तुम स्वयं देखो कि निर्णय में आगे स्वीकार भी किया गया है, “ये एक-दूसरे के विरुद्ध विकल्प नहीं है या कहा जा सकता है कि वे एक-दूसरे पर व्यभिचार का दावा (फौजदारी) दायर नहीं कर सकते लेकिन दीवानी कानून में ऐसा प्रावधान है कि व्यभिचार के आधार पर दोनों में कोई भी एक-दूसरे के विरुद्ध मुकदमा (तलाक) दायर कर सकते हैं। फौजदारी कानून की अपेक्षा दीवानी कानून में बेहतर व्याख्या दी गई है। अगर हम फरियादी की दलील मान लें तो धारा-497 को कानून से निकाल फेंकना पड़ेगा। उस हालत में व्यभिचार और भी निरंकुश हो जाएगा और तब किसी को भी व्यभिचार के अपराध में सजा देना नामुमकिन हो जाएगा, इसलिए समाज का हित इसी में है कि “सीमित व्यभिचार दंडनीय बना रहे” या (असीमित व्यभिचार फैलता है, तो फैलता रहे)।
तुम अच्छी तरह समझ लो कि सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले का महत्वपूर्ण पक्ष (विडंबना) यह है कि विद्वान न्यायधीशों के अनुसार धारा-497 को रद्द करना नुकसानदेह होगा यद्यपि उन्होंने यह स्वीकार भी किया कि फरियादी के विरुद्ध लगाए गये व्यभिचार के आरोप सुनवाई या जांच से अब कोई उपयोगी लक्ष्य सिद्ध नहीं होगा क्योंकि परित्याग के आधार पर ही फरियादी के पति को तलाक मिल चुका है। न्यायधीशों ने धारा-497 के तहत दायर पति की शिकायत (पत्नी के प्रेमी के विरुद्ध) को खारिज करते हुए यह हिदायत दी है कि इस मामले को अब यहीं खत्म कर दिया जाए (आगे खतरा है)।

तुम वही सवाल करोगी कि फौजदारी कानून में व्यभिचार की शिकायत और दीवानी कानून में तलाक का मुकदमा-दो अलग मामले हैः अगर कानून का लक्ष्य व्यभिचार के आधार पर सिर्फ तलाक दिलाने तक ही सीमित है तो फिर आप धारा-497 को असंवैधानिक घोषित करना समाज के लिए अहितकर क्यों है? और अगर व्यभिचार का प्रावधान संविधान सम्मत है, तो देश की सबसे बड़ी अदालत द्वारा एक व्यभिचारी पुरुष के विरुद्ध दायर शिकायत यह कहकर रद्द कर देना कहां तक उचित है कि इससे कोई उपयोगी लक्ष्य सिद्ध नहीं होगा।
हां, मुझे भी यह लगता है कि अदालत ने एक पुरुष को तलाक (छुटकारा) और दूसरे को अपराधमुक्त करके औरत को सार्वजनिक रूप से व्यभिचारी घोषित किए बिना व्यभिचारी कहकर चौराहे पर छोड़ सबके साथ न्यायपूर्ण फैसला सुनाया है। कानून के साथ तो कम-से-कम न्याय नहीं ही किया गया (पर मानना तो पड़ेगा ही)।

मुझे लगता है कि व्यभिचार के कानूनी प्रावधान (धारा-497) मेंपुरुषों को ऐय्याशी की खुली छूट ही नहीं दी गई, बल्कि कहीं यह अधिकार भी दे दिया गया है कि वह जरूरत पड़ने पर अपनी पत्नी को अपने हितों की खातिर वस्तु की तरह इस्तेमाल भी कर सके। इधर अखबारों में पति-पत्नी द्वारा मिलकर वेश्यावृत्ति करने की बहुत सी खबरें छपी हैं, जो मेरी धारणा को और अधिक पुष्ट करती हैं।

तुम कहती हो तो ठीक ही कहती होगी कि तुम्हारा पति हफ्तों कालगर्ल के साथ होटलों में मस्ती करता रहता है क्योंकि नम्बर –दो का बहुत पैसा कमा लिया है। मुझे लगता है कि वास्तव में, धारा-497 ही ऐसा कानूनी सुरक्षा-कवच है जिसके कारण समाज में व्यापक स्तर पर वेश्यावृत्ति और कालगर्ल व्यापार फैल रहा है। वेश्यावृत्ति के बारे में बने कानून के अऩुसार अनैतिक देह-व्यापार नियंत्रण अधिनियम के किसी भी प्रावधान में पुरुष ग्राहक (या तुम्हारे पति) पर कोई अपराध ही नहीं बनता। पकड़ी जाती हैं हमेशा वेश्याएं, कालगर्ल या दलाल। देह व्यापार में अरबों का लेन देन हर साल होता है लेकिन वेश्याओं की आर्थिक स्थिति?

कानून पुरुषों को वेश्याओं, कालगर्ल या अनैतिक चरित्र की किसी भी महिला के साथ बलात्कार तक का कानूनी अधिकार देता है। संशोधनसेपहलेसाक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा-155 (4) में कहा गयाथा कि गवाह की विश्वसनीयता खत्म करने के लिए किसी व्यक्ति पर बलात्कार का आरोप हो तो उसे यह सिद्ध करना चाहिए कि अमुक महिला आमतौर पर अनैतिक चरित्र की महिला है। मतलब महिला को अनैतिक चरित्र की स्त्री प्रमाणित करने पर बलात्कार का अपराध माफ। या फिर पुरुषों को  बलात्कार का कानूनी अधिकार है वेश्याओं या कालगर्ल के साथ?“मथुरा” और ”सुमन” जैसे न जाने कितने फैसले हैं इस बारे में सुप्रीम कोर्ट के।

वेश्या, कालगर्ल या अनैतिक चरित्र की महिलाएं ही क्यों, भारतीय कानून पति द्वारा 18 साल से  बड़ी उम्र की पत्नी के साथ सहवास को भी बलात्कार नहीं मानता(भारतीय दंड संहिता की धारा 375 का अपवाद)।इंग्लैंड की एक अदालत ने कुछसाल पहले एक निर्णय में पति द्वारा पत्नी से जबरदस्ती सहवास को बलात्कार मानाथा, लेकिन भारत में अभी ऐसे किसी फैसले की उम्मीद करना मूर्खता होगी।

तुम्हारी तरह बहुत से सवाल मेरे मन में भी हैं।व्यभिचार की धारा-497 भले ही संविधान सम्मत ठहराया गया है लेकिन क्या सारे कानून संवैधानिक रूप से वैध होकर नैतिक रूप से भी वैध होते हैं? अदालतें सामाजिक नैतिकता की “सुरक्षा प्रहरी” क्यों नहीं होती? सामाजिक नैतिकता का कानून से कोई संबंध हो या न हो लेकिन कानून की अपनी भी तो कोई नैतिकता होनी ही चाहिए? सामाजिक नैतिकता और कानून के बीच जो गहरी खाई है, वह समाज में अनैतिकता और व्यभिचार को बढ़ावा नहीं दे रही? या फिर समाज में लगातार बढ़ती अनैतिकता और व्यभिचार को रोकने में कानून पूरी तरह लाचार और बेकार नहीं है?व्यभिचार पर कानूनी अंकुश न होने के कारण ही कहीं अवैध संबंधों की पृष्ठभूमि में तनाव, लड़ाई-झगड़े, मारपीट, तलाक, आत्महत्या या हत्या के मामले नहीं बढ़ रहे?व्यभिचार के परिणामस्वरूप इसकी सबसे अधिक शिकार या पीड़ित पक्ष औरतें ही क्यों हैं? क्या इसलिए कि उऩके पास कोई विकल्प या बचाव का कोई रास्ता ही नहीं छोड़ा गया है?

मैं महूसस करता हूं कि व्यभिचार के आधार पर तलाक-संबंधीप्रावधान फौजदारी कानून से कहीं बेहतर हैं क्योंकि वहां पति या पत्नी द्वारा एक-दूसरे के अलावा किसी से भी यौन संबंध को व्यभिचार माना गया है। परिभाषा बेहतर है लेकिन व्यभिचार को प्रमाणित करना कितना मुश्किल है या कितना आसान? अधिकतर इस प्रावधान का प्रयोग पुरुषों द्वारा अपनी पत्नी पर व्यभिचार का झूठा आरोप लगाकर अपमानित करने और छुटकारा पाने के लिए ही किया जाता है। भरण-पोषण भत्ता न देने-लेने के लिए तो अक्सर ऐसे ही आरोप लगाए जाते हैं क्योंकि बचाव के लिए ऐसे कानूनी प्रावधान बनाए गये हैं।

व्यभिचार के आधार पर तलाक के एक मुकदमे में (ए.आई.आर.1982, दिल्ली 328) पत्नी ने पति को एक लड़की के साथ कमरे में आपत्तिजनक अवस्था में रंगे हाथों पकड़ा और फिर तलाक का मुकदमा दायर किया। तलाक मिल जाता लेकिन अपील में हाई कोर्ट के न्यायमूर्ति श्री महेंद्र नारायण ने कहा कि अधिक से अधिक यह पति के असभ्य व्यवहार का प्रमाण है, व्यभिचार का नहीं क्योंकि यह प्रमाणित नहीं किया गया है कि पति ने लड़की के साथ सहवास किया जो कानून की परिभाषा के अनुसार आवश्यक है। अपने फैसले की पुष्टि में इंग्लैंड के दो
फैसलों का उदाहरण भी दिया गया था कि पत्नी द्वारा किसी अन्य से हस्तमैथुन या बिना सहवास के यौन-संबंध व्यभिचार नहीं है। इसी फैसले में एक जगह (पृष्ठ 331) लिखा है “कृत्रिम गर्भाधान”व्यभिचार नहीं है।
तुम देखोगी कि कृत्रिम गर्भाधान को व्यभिचार नहीं माना गया? क्योंकि इसमें सहवास नहीं है या पुरुषों का कृत्रिम गर्भाधान द्वारा पिता बनने का गौरव पाने में कोई परेशानी नहीं है? पिता भी बन गये और किसी को पता भी नहीं चला कि पति नपुंसक है। पत्नी को कृत्रिम रूप से गर्भाधान करने का अधिकार तो है लेकिन बच्चे गोद लेने का फैसला और अधिकार सिर्फ पति को, पत्नी की तो सहमति-भर चाहिए। हां, ऐसे ही दोहरी चरित्र(हीन) वाला है हमारा कानून और समाज।

यह सच है कि अवैध संबंधों में स्त्री-पुरुष समान रूप से भागीदार होते हैं। दो बालिग स्त्री-पुरुष आपस में जैसे संबंध रखना चाहें रखें लेकिन मौजूदा कानून में विवाहित स्त्रियों के साथ जिस तरह पक्षपात किया जा रहा है वह उचित ही नहीं, अन्यायपूर्ण भी है। पत्नी को व्यभिचारी पुरुष या प्रेमिका के विरुद्ध फौजदारी कानून में शिकायत करने का अधिकार दिया जाना चाहिए परन्तु पुरुष समाज को डर है कि अगर ऐसा हो गया तो उनकी ऐयाशी ही नहीं, सारा देह व्यापार, नारी शोषण के हथकंडे और औरतों पर हुकूमत के सारे हथियार ही चौपट हो जाएंगे। सामाजिक नैतिकता से जुड़े बिना कानून समाज का कोई भला नहीं कर सकते। कानून सामाजिक नैतिकता के प्रहरी नहीं बन सकते तो न्याय के प्रहरी कैसे बन सकते हैं? तब तो मानना पड़ेगा कि अदालतें न्याय नहीं सिर्फ फैसले सुनाती हैं और न्यायाधीश, न्यायमूर्ति नहीं मात्र निर्णायक भर हैं। नैतिकता के बिना न्याय नपुंसक नहीं होता क्या?


ऊपर जो कुछ लिखा है उसमें कहीं कोई वकील बैठा हैजो सिर्फ मर्दों की वकालत का व्यवसाय करता है, कहीं मध्यवर्गीय मानसिकता और संस्कारों का शिकार एक भाई, कहीं समाज, साहित्य धर्म, राजनीति और न्याय-व्यवस्था पर एक साथ सोचने समझने, विचारने, झल्लाने, कसमसाने और सब कुछ तोड़ कर नया रचने की महत्वकांक्षाएं लिए एक व्यक्ति जो अभी बहुत-बहुत अकेला और उदास है लेकिन निराश बिल्कुल नहीं है। कानून, समाज, परिवार, संबंधी, मित्र-सब शायद तुम्हारी बहुत अधिक मदद न कर पाएं लेकिन तुम अकेली नहीं हो...और अगर हो भी तो इतनी शक्तिहीन और प्रतिभाहीन भी नहीं कि स्वयं अपने जीने के सम्मानजनक आधार और रास्ते न तलाश पाओ। तुम्हें सदा सौभाग्यवती रहने का आशीर्वाद दिया है तो समझ लो कि तुम्हारा सौभाग्य सिर्फ तुम्हारा पति नहीं है। तुममें अनंत संभावनाएं छुपी पड़ी हैं, क्या तुमने उन्हें खोजने, जानने-पहचानने और तराशने की कोशिश भी की है कभी? तुम लाचार, बेबस, विवश और अपंग नहीं हो। दरअसल बार-बार सुनते-सुनते हो सकता है ऐसा समझने लग गई हो। सजा दिलवा भी दो तो क्या होगा? तलाक मिल न मिले चिंता क्यों करती हो? हत्या या आत्महत्या समस्या का कोई समाधान नहीं। तुम कुछ ऐसा भी नहीं करोगी..तुम्हें अपने बेटे की कसम।

अन्त में सिर्फ इतना ही चुपचाप बिना कोई झगड़ा किये घरआने का प्रोग्राम बनाओ। जरूरी कागजात, कपड़े, कैश, गहने वगैरह समेटकर तैयार हो जाओ। बिटिया के जन्मदिन का निमंत्रण-पत्र साथ भेज रहा हूं अलग से जीजा (जी) के नाम। अगले शनिवार को खुद लेने आ जाऊंगा। इस बीच तीन अंतर्देशीय पत्र मेरे, भाभी और बाउजी के नाम पोस्ट कर देना। चिट्ठियां बाद में लिखवा लेंगे, गर जरूरत पड़ी तो। विश्वास रखो कि सब ठीक हो जाएगा। जीजा (जी) या तो नाक रगड़ते फिरेंगे कि आपसी सहमति से तलाक करवा दो, नहीं तो जेल में बैठ चक्की पीसेंगे। बस थोड़ा “व्यावहारिक” होना पड़ेगा। सीधी उंगली से घी कहां निकलता है।
बेटे को बहुत-बहुत प्यार।
शुभाशीर्वाद सहित
तुम्हारा
वकील भाई

अरविंद जैन स्त्रीवादी अधिवक्ता हैं. सम्पर्क: 9810201120

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