अरविंद जैन
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महाज्ञान बाबू का इकलौता बेटा चेतन अप्पूघर-पप्पूघर ही नहीं, स्कूल, कॉलेज और दफ्तर से वापस घर तक सारी उम्र पापा की उगँली पकड़े-पकड़े गाता रहा ‘‘यस पापा, यस पापा, पापा-पापा, यस पापा,।’’ इस बीच लीलाओं, नाटकों और नौटंकियों में सीता, राधा और द्रौपदी का पात्र जीते-जीते, चेतन न जाने कब चेतना बन गया था।
चेतना को घर बेगाना किला लगता थाऔर उस पर हर समय पापा का पहरा, पापा की अध्यक्षता में सारा दिन पंचायत और मीटिंग चलती ही रहती थी। चेतना महसूसती कि रात-दिन चेतन का आतंक उसका पीछा कर रहा है। उसे चेतन की छाया छूने से भी डर लगने लगता था। इसलिए ज्यादातर वह अपने कमरे में बंद ही रहती। देखते-देखते कमरा कैमरे में बदल जाता और कैमरे में चेतना को चूहे कुतरने लगते। अँधेरे में चीखती, चिल्लाती, भागती, भटकती, चेतना बेहोशी के बिस्तर में बड़बडाती रहती- ‘‘ नो पापा- नो पापा, प्लीज पापा - नो पापा।’’
होश आता तो ‘रिहर्सल’ खत्म हो चुकीहोती। सामने पत्थरों की दीवार पर, चंदन की चौखट में शीशे के दरवाजे और जाली के बीचों-बीच एक सिन्दूरी छिपकली, कोने में हल्दी पुता चाँद और काले धुएँ के बादलों से ढका आकाश नजर आता। कभी- कभी, कुछ भी नजर नहीं आता।
चेतना अपने माँसल बिस्तर से उठती और नहा धोकर किले से बाहर निकलती, तो हवा में हवन की गंध सी महसूस होती। उसका कम्पयूंटर बताता, ‘‘ अरे! आज तो शूटिंग पर जाना था।’’ वह खटाखट पाँवों में पहिए लगती और स्टूडियों पहुँचती, तो बाहर चक्कर काटता चेतन डाँटने की मुद्रा में झिड़कता, ‘‘ऐसे तो ‘मॉडल क्या टाइपिस्ट’ भी नहीं बन पाओगी। समझी कुछ।“
चेतना अन्दर जाती, बुर्का उतारती,पैंट शर्ट बदलती, जादुई रंगरोगन लेपती और गोली खाते ही, किसी बेहद सुन्दर गुड़िया में बदल जाती। गुडि़या गाती ‘‘ शूट मी... शूट मी... प्लीज’’ और उसकी उत्तेजक भाव भंगिमाओं को पकड़ते-पकड़ते, लैंस की लार टपकने लगती। सबसे ऊपर ‘क्रेन’ पर लटके पापा कांट-छांट करते रहते। वह जब थक जाती, तो ‘गुड़िया’ को वहीं किसी अनाथ कोने में छुपा कर, किले में लौट आती।
रास्ते में उसे एक बार लगता ‘कहीं जंगलीकुत्ते गुडि़या को फाड़ ना खाएं’ और पलक झपकते ही शान्त हो जाती- “शायद इसलिए तो छोड़ आई हूँ। कुत्ते ढूँढते फिरेंगे गुडि़या को..... गुडि़या चेतन को..... चेतन अपने पापा को.... पापा मुझे... ओर मैं... हा.... हा.... हा।“
चेतन सन्नाटे में संवाद बोलता, ‘‘गुडि़या सुन्दर है..... सुन्दरी है..... विश्व सुन्दरी है। जिस ‘ब्रांड’ को भी छुएगी, सोना बन जाएगा।’’ गूंगी-बहरी गुडि़या चुपचाप लेटी रहती। चेतना हँसती, ‘‘माँस का खिलौना है...है नहीं दिखती है। खेलोगे तो गुडि़या है.... खाओगे तो मिटृी।“
सुबह सवेरे ‘देवी-देवतओं’ को मनाने जाते-जाते पापा समझाते, ‘‘ न गुडि़या है.... न खिलौना है। मूर्ति है माँ की.... देवी माँ की। कुछ धर्म, दर्शन, इतिहास, गीता, रामायण, वेद, पुराण, कुरान पढो, तो पता लगे। सारा दिन टी.वी फिल्में और वाहियात नॉवल पढ़ोगे तो यहीं होगा।’’ श्लोक सुनते-सुनते चेतन हुँकार भरता रहता, ‘यस पापा, यस पापा’ और चेतना जब तक जोर से चीखती, ‘नो पापा, नो’, तब तक पापा अयोध्या पहुँच चुके होते।
चेतना के शहर में शिकारी ‘ठाँय..ठाँय’ करते और कुछ दिन कर्फ्यू रहता। अखबारो में कभी घोटालों और कभी सेंसर फैल जाता। रोज कुछ ‘स्टेनगनें’ पकड़ी जाती; सिरफिरे पुलिस मुठभेड़ में मारे जाते और शाम को कुछ लाल-सफेद टोपियाँ मंत्री पद की शपथ लेती दिखाई पड़ती। अफवाहें गशत पर घूमती रहती.... संस्कृति खतरे में... विदेशी प्रचार-तंत्र से सावधान। खतरे का सयारन बजता, तो पापा मौन व्रत धारण कर आमरण उपवास पर बैठ जाते।
चेतन की दुनिया सुबह से शाम तक गुड़ियों भरी गाड़ी लेकर, कोठियों से कोठो तक घूमती रहती। कभी-कभी कुछ गाडि़यों को कुत्ते उइा ले जाते और कुछ खुद ही भाग जाती। वह घर से धोती-कुर्ता पहन कर निकलता। मगर देर रात तक गए नशे में धुत्त झूमता-झामता लौटता, तो सूट-बूट और टाई पहने होता। पापा पूछते, ‘‘ आ गए बेटा,’’ तो वह कभी हिन्दी, अंग्रेजी, उर्दू, पंजाबी, अरबी में या कभी फ्रेंच, जर्मन या जापानी वगैरा-वगैरा में ‘यस पापा’ कहकर अपने कमरे में घुस जाता।
पापा सुबह तक सोने के सिक्के तौलते, शेयर गिनते और बजट बनाते रहते। लाईफ पढ़ते-पढते, वसीयत लिखने लगते और आत्म-कथा लिखते-लिखते, पड़ोसी की पत्नी संग हनीमून पर चले जाते। उनका हनीमून कभी खतम नहीं होता।
चेतन नींद में फुसफुसाता ‘‘ फॉदर - फॉदर... गॉड फादर।’
चेतना झल्लाती, ‘‘ फ्रॉयड नहीं, फ्रॉड।’’
चेतना संवदेना का संगीत सुनते-सुनते, न जाने कब समाधि में चली जाती। तीर्थयात्रियों से लौटती, तो चंदन की चौखट में शीशे और जाली के बीच लटके ‘मंगल-सूत्र’ और पृष्ठभूमि में रेतीले अंधड़ नज़र आते।
नींद में चेतना के चारों ओर बम-पटाखों की धड़ाम..... धड़ाम और बारुदी धुँआ भर जाता। ऐसा लगता जैसे सारी रात शरीर पर साँप रेंगते रहे और सुबह अपनी केंचुलियाँ कमरे में ही भूल गए।
एक दिन पापा को खोजते- खोजते, चेतनाने खोज निकाली महाज्ञान बाबू की जन्म कुण्डली। किसी अनाम चीनी ज्यातिषी ने वर्षों पहले लिखा था- “जातक बंदर की तरह बुद्द्धीमान, चालाक, हाजिर जवाब, रंगीन मिजाज और शरारती स्वभाव का होगा। ज्ञान की तीव्र जिज्ञासा में देश-विदेश की यात्राँए निश्चित हैं। शास्त्रार्थ में सदा विजयी रहेगा। अधिकांश लोग तो बालक की घुड़की भर से भयभीत रहेंगे। बहुमुखी प्रतिभा के बल पर, हर क्षेत्र में सफलता मिलेगी। कला, साहित्य, दलाली, सटृा, राजनिती या वकालत में अनेको सम्मान, अपार सम्पति और अजेय सत्ता का अनंत सुख हासिल होगा।’’
भविष्यवाणी पढ़कर चेतना बहुत देर तक गुदगुदाती रहीं और मन ही मन गुनगुनाती रही, ‘‘ मोंकी-मोंकी यस पापा...... डोंकी-डोंकी, यस पापा।’’
चेतन के कान बजबजाए तो खीझ कर बोला, ‘‘पापा इज ए मोंक, नॉट ए मोंकी..... ब्ल्डीफूल।’’
चेतना ने शीतयुद्ध छोड़, मोर्चा सम्भाल हमला किया, ‘‘चेतन! तू चूहा है चूहा.... और चूहे से ज्यादा अवसरवादी और घिनौना और कोई नहीं होता।
चेतन के चेहरे पर अपराध बोध सा प्लेग फैलने लगा और अपमानित चेतन ने पाँव पटकते हुए अखिरी हथियार चलाया, ‘‘इफ आई एम ए रैट, यू आर ए कैट एण्ड मेयरली ए स्टिकिंग होल।’’
चेतना को ऐसा लगा जैसे चेतन ने तेजाब छिड़क दिया हो। लेकिन दूसरे ही क्षण झपटृा मार नोंचते हूए बोली, ‘‘ सुनो मिस्टर यस पापा, यू नो... दि कैट कैंन कैच एंड किल दि रैट।’’
चेतन डर के मारे, “पापा-पापा, ओ पापा,कैट बिल किल मी ओ पापा,’’ गाते-गाते चिल्लाने लगा।
आँख खुली तो चेतना की एक मुटृी में भरा चूहा और दूसरी में चेतन का चेहरा था। सामने चंदन की टूटी चौखट पर बैठे बंदर को जैसे लकवा मर गया था। लेकिन अभी भी वह खों.... खों करता खोपड़ी खुजला रहा था। खु....ज.... ला.... र..... हा..... है......!
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