बाबा साहब डा. आंबेडकर के परिनिर्वाण दिवस पर उनका एक जरूरी व्याख्यान
"मित्रों ,जहाँ तक मैंने अध्ययन किया है , मैं कह सकता हूँ कि मद्रास की अब्राह्मण-पार्टी का संगठन भारत के इतिहास की एक विशिष्ट घटना है. इस बात को बहुत कम लोग समझ सकते हैं कि यद्यपि इस पार्टी का जन्म साम्प्रदायिकता के आधार पर हुआ था , जैसा कि इसके नाम से स्पष्ट झलकता है , फिर भी इस पार्टी का मौलिक आधार और वास्तविक ध्येय साम्प्रदायिक नहीं था. यह कोई महत्वपूर्ण बात नहीं है कि अब्राह्मण पार्टी का संचालन किसने किया ? भले ही इसका संचालन किसी ’मध्य वर्ग’ ने किया हो , जिसके एक सिरे पर ब्राह्मण रह रहे हैं और दूसरे सिरे पर अछूत , तो भी यदि यह पार्टी लोकतंत्र पर आश्रित न होती , तो इसका कुछ मूल्य न होता. इसीलिए हर लोकतंत्रवादी को इस पार्टी की उन्नति और विकास में दिलचस्पी रही है.
इस देश के इतिहास में जहाँ ब्राह्मणवाद का बोलबाला है , अब्राह्मण पार्टी का संगठन एक विशेष घटना है और इसका पतन भी उतने ही खेद के साथ याद रखी जाने वाली एक घटना है. 1937 के चुनाव में पार्टी क्यों एकदम धराशायी हो गयी , यह एक प्रश्न है , जिसे पार्टी के नेताओं को अपने से पूछना चाहिए। चुनाव से पहले लगभग 24 वर्ष तक मद्रास में अब्राह्मण-पार्टी ही शासनारूढ़ रही. इतने लम्बे समय तक गद्दी पर बैठे रहने के बावजूद अपनी किसी गलती के कारण पार्टी चुनाव के समय ताश के पत्तों की तरह उलट गई ? क्या बात थी जो अब्राह्मण-पार्टी अधिकांश अब्राह्मणों में ही अप्रिय हो उठी ? मेरे मत में इस पतन के दो कारण थे. पहला कारण यह है कि इस पार्टी के लोग इस बात को साफ नहीं समझ सके कि ब्राह्मण-वर्ग के साथ उनका क्या वैमनस्य है ? यद्यपि उन्होंने ब्राह्मणों की खुल कर आलोचना की,तो भी क्या उनमें से कोई कभी यह कह सका था कि उनका मतभेद सैद्धान्तिक है. उनके भीतर स्वयं कितना ब्राह्मणवाद भरा था. वे ’ नमम’ पहनते थे और अपने आपको दूसरी श्रेणी के ब्राह्मण समझते थे। ब्राह्मणवाद को तिलांजलि देने के स्थान पर वे स्वयं ’ब्राह्मणवाद’ की भावना से चिपटे हुए थे और समझते थे कि इसी आदर्श को उन्हें अपने जीवन में चरितार्थ करना है. ब्राह्मणों से उन्हें इतनी ही शिकायत थी कि वे उन्हें निम्न श्रेणी का ब्राह्मण समझते हैं.
ऐसी कोई पार्टी किस तरह जड़ पकड़ सकती थी, जिसके अनुयायी यह तक न जानते कि जिस पार्टी का वे समर्थन कर रहे हैं तथा जिस पार्टी का विरोध करने के लिए उनसे कहा जा रहा है ,उन दोनों में क्या-क्या सैद्धान्तिक मतभेद हैं. उसे स्पष्ट कर सकने की असमर्थता , मेरी समझ में , पार्टी के पतन का कारण हुई है. पार्टी के पतन का दूसरा कारण इसका अत्यन्त संकुचित राजनैतिक कार्यक्रम था. इस पार्टी को इसके विरोधियों ने ’नौकरी खोजने वालों की पार्टी ’ कहा है.मद्रास के ’हिन्दू’ पत्र ने बहुधा इसी शब्दावली का प्रयोग किया है। मैं उस आलोचना का अधिक महत्व नहीं देता क्योंकि यदि हम ’ नौकरी खोजने वाले ’ हैं, तो दूसरे भी हम से कम ’नौकरी खोजने वाले’ नहीं हैं.
अब्राह्मण-पार्टी के राजनीतिक कार्यक्रम में यह भी एक कमी अवश्य रही कि उसने अपनी पार्टी के कुछ युवकों के लिए नौकरी खोजना अपना प्रधान उद्देश्य बना लिया था। यह अपनी जगह ठीक अवश्य था। लेकिन जिन अब्राह्मण तरुणों को सरकारी नौकरियां दिलाने के लिए पार्टी बीस वर्ष तक संघर्ष करती रही, क्या उन अब्राह्मण तरुणों ने नौकरियाँ मिल जाने के बाद पार्टी को स्मरण रखा ? जिन 20 वर्षों में पार्टी सत्तारूढ़ रही ; इस सारे समय में पार्टी गांवों में रहने वाले उन 90 प्रतिशत अब्राह्मणों को भुलाये रही, जो आर्थिक संकट में पड़े थे और सूदखोर महाजनों के जाल में फँसते चले जा रहे थे.
मैंने इन बीस वर्षों में पास किये गए कानूनों का बारीकी से अध्ययन किया है. भूमि-सुधार सम्बन्धी सिर्फ़ एक कानून को पास करने के अतिरिक्त इस पार्टी ने श्रमिकों और किसानों के हित में कुछ भी नहीं किया. यही कारण था कि ’ कांग्रेस वाले चुपके से ’ चीर हरण,कर ले गये.
ये घटनायें जिस रूप में घटी हैं , उन्हें देखकर मुझे बहुत दुख हुआ। एक बात जो मैं आपके मन में बिठाना चाहता हूं, वह यह है कि आपकी पार्टी ही आपको बचा सकती है. पार्टी को अच्छा नेता चाहिए , पार्टी को मजबूत संगठन चाहिए , पार्टी को अच्छा प्लैट-फ़ार्म चाहिए."
"मित्रों ,जहाँ तक मैंने अध्ययन किया है , मैं कह सकता हूँ कि मद्रास की अब्राह्मण-पार्टी का संगठन भारत के इतिहास की एक विशिष्ट घटना है. इस बात को बहुत कम लोग समझ सकते हैं कि यद्यपि इस पार्टी का जन्म साम्प्रदायिकता के आधार पर हुआ था , जैसा कि इसके नाम से स्पष्ट झलकता है , फिर भी इस पार्टी का मौलिक आधार और वास्तविक ध्येय साम्प्रदायिक नहीं था. यह कोई महत्वपूर्ण बात नहीं है कि अब्राह्मण पार्टी का संचालन किसने किया ? भले ही इसका संचालन किसी ’मध्य वर्ग’ ने किया हो , जिसके एक सिरे पर ब्राह्मण रह रहे हैं और दूसरे सिरे पर अछूत , तो भी यदि यह पार्टी लोकतंत्र पर आश्रित न होती , तो इसका कुछ मूल्य न होता. इसीलिए हर लोकतंत्रवादी को इस पार्टी की उन्नति और विकास में दिलचस्पी रही है.
मद्रास के प्रसिद्ध पत्र संडे आबजर्वर के सम्पादक श्री पी. बालासुब्रम्ण्या ने बाबा साहब के सम्मान में , 23 दिसम्बर 1944 को वहाँ के कन्नेमारा होटल में एक लंच दिया था. |
ऐसी कोई पार्टी किस तरह जड़ पकड़ सकती थी, जिसके अनुयायी यह तक न जानते कि जिस पार्टी का वे समर्थन कर रहे हैं तथा जिस पार्टी का विरोध करने के लिए उनसे कहा जा रहा है ,उन दोनों में क्या-क्या सैद्धान्तिक मतभेद हैं. उसे स्पष्ट कर सकने की असमर्थता , मेरी समझ में , पार्टी के पतन का कारण हुई है. पार्टी के पतन का दूसरा कारण इसका अत्यन्त संकुचित राजनैतिक कार्यक्रम था. इस पार्टी को इसके विरोधियों ने ’नौकरी खोजने वालों की पार्टी ’ कहा है.मद्रास के ’हिन्दू’ पत्र ने बहुधा इसी शब्दावली का प्रयोग किया है। मैं उस आलोचना का अधिक महत्व नहीं देता क्योंकि यदि हम ’ नौकरी खोजने वाले ’ हैं, तो दूसरे भी हम से कम ’नौकरी खोजने वाले’ नहीं हैं.
अब्राह्मण-पार्टी के राजनीतिक कार्यक्रम में यह भी एक कमी अवश्य रही कि उसने अपनी पार्टी के कुछ युवकों के लिए नौकरी खोजना अपना प्रधान उद्देश्य बना लिया था। यह अपनी जगह ठीक अवश्य था। लेकिन जिन अब्राह्मण तरुणों को सरकारी नौकरियां दिलाने के लिए पार्टी बीस वर्ष तक संघर्ष करती रही, क्या उन अब्राह्मण तरुणों ने नौकरियाँ मिल जाने के बाद पार्टी को स्मरण रखा ? जिन 20 वर्षों में पार्टी सत्तारूढ़ रही ; इस सारे समय में पार्टी गांवों में रहने वाले उन 90 प्रतिशत अब्राह्मणों को भुलाये रही, जो आर्थिक संकट में पड़े थे और सूदखोर महाजनों के जाल में फँसते चले जा रहे थे.
मैंने इन बीस वर्षों में पास किये गए कानूनों का बारीकी से अध्ययन किया है. भूमि-सुधार सम्बन्धी सिर्फ़ एक कानून को पास करने के अतिरिक्त इस पार्टी ने श्रमिकों और किसानों के हित में कुछ भी नहीं किया. यही कारण था कि ’ कांग्रेस वाले चुपके से ’ चीर हरण,कर ले गये.
ये घटनायें जिस रूप में घटी हैं , उन्हें देखकर मुझे बहुत दुख हुआ। एक बात जो मैं आपके मन में बिठाना चाहता हूं, वह यह है कि आपकी पार्टी ही आपको बचा सकती है. पार्टी को अच्छा नेता चाहिए , पार्टी को मजबूत संगठन चाहिए , पार्टी को अच्छा प्लैट-फ़ार्म चाहिए."