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स्त्री देह पर लड़े जाते हैं युद्ध

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गरिमा श्रीवास्तव
भारतीय भाषा विभाग जेएनयू, में प्राध्यापक हैं. सम्पर्क : drsgarima@gmail.com  
मूल शीर्षक:-‘बनमाली गो तुमि पर जनमे होइयो राधा’’

दिल्ली से मास्को की हवाईयात्राबहुतसुखद नहीं रही है, शेरमेट हवाईअड्डे पर बर्फ की मोटी चादर ने ज्यों दृष्टि बाधित कर दिया है जहाज के चौडे पंखों पर जमी बर्फ को लगातार गर्म पानी की बौछारों से पिघलाया जा रहा है। बर्फ की सफेदी और विस्तार भयकारक सा है। ढेर सारे टर्मिनल और उनके बीच की लम्बी दूरियां जो अपने पैरों ही तय करनी हैं प्रतीक्षा पंक्तियां, सम्प्रेषण की भाषा रशियन, अब तक की सीखी भाषाएं दामन छुड़ा असहाय कर गयी हैं कदम कदम पर कड़ी सुरक्षाजांच आपकी मनुष्यता पर विश्वास करने को कोई तैयार नहीं। जाग्रेब के लिए यहीं से दूसरी उड़ान लेनी है, पर अभी तक मालूम नहीं कि पहुंचना किस टर्मिनल पर है, यूरोप जाने का उत्साह मंद हो चला है जबकि यात्रा तो अभी शुरू ही हुई है। टी.एस. इलियट ने कभी पूछा था  डू आई डिस्टर्ब द यूनिवर्स, वही बात खुद से पूछती हूं मेरे लिखने न लिखने से क्या फर्क पड़ता है। दुनिया में सैकड़ों लोग अपने अनुभव, सुख दुख, उपलब्धि, संघर्ष, राग द्वेष की गाथाएं लिख कर चले गये उन्हें यह कभी मालूम ही नहीं चला होगा कि उनका लिखा किसने पढ़ा, किसका जीवन उससे बना बिगड़ा या किसी को जीवन पाथेय मिला। जो भी हो अनुभूतियां बांटने के लिए ही होती हैं लेकिन उन्हें व्यवस्थित और तरतीबवार ढंग से रख पाना सम्भव होता है क्या? क्योंकि तरतीब तो उनके आने में भी नहीं होती।

पिछले डेढ़ महीने से यहां हूं। दक्षिण मध्ययूरोप के एड्यिाट्रिक समुद्र के किनारे छोटे से शहर जाग्रेब में। परिचितों, मित्रों में से कुछ क्रोएशिया को एशिया समझते हैं, उनका कहना है इतनी ठंड में यूरोप जाने की जरूरत भी क्या है? कैसे बताऊँ ही कदमों से दुनिया को नाप लेने की ’ओ कृष्ण तुम अगले जन्म में राधा बनना’- बाउल गीत की पंक्ति 190 / तमन्ना मुझे यहां ले आयी है। बचपन में चार साल बड़ी बहन को स्कूल ड्रेस, जूते बस्ते समेत स्कूल जाता देख मेरा मन मचल जाता, मां ने ढाई साल की उम्र में स्कूल भेजना शुरू कर दिया था। समय के पहले, पांव में पहने कद से बड़े जूतों ने स्कूल के बंद अनुशासन के बीच खड़ा कर दिया। बचपन का खेल तो हो ही नहीं पाया। भारतीय सांस्कृतिक सम्बंध परिषद्, जाग्रेब विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग खोलना चाहता थाµ मुझे वही अवसर मिला है कि मैं दो वर्ष तक यूरोप में रह सकूं। छात्रा उत्साहित हैं। अतिथिगृह से विश्वविद्यालय सिर्फ दो किलोमीटर पर है इसलिए पैदल चलना अच्छा लगता है।यातायात और संचार सुविधा काबिले तारीफ है, समूचा क्रोएशिया आंतरिक तौर पर आठ राष्ट्रीय राजमार्गों से सम्बद्ध है। विश्वविद्यालय इवाना चेलाचीचा में है और भारतीय दूतावास कुलमरेस्का पर। गनीमत है कि दूतावास बार बार जाने की जरूरत नहीं पड़ती। राजदूत प्रदीप कुमार विनम्र और अनुशासनप्रिय हैं, जो अकसर भारत के दौरे पर रहते हैं और द्वितीय सचिव दूतावास की व्यवस्थादेखते हैं। कर्मचारी और अधिकारी शालीन हैंµ श्रीमती पासी हैं, आर्यन हैं, जिनसे हिन्दी में बात करने का सुख है। तीन मंजिला सफेद इमारत, साफ सुथरी सजी संवरी लेकिन जिन्दगी ज्यों धड़कना भूल गयी हो यहां, इसलिए इंडोलाॅजी विभाग के मुखिया प्रो. येरिच मिस्लाव से अनुरोध किया है कि वे मेरी व्यवस्था विश्वविद्यालय के नजदीक ही करें। सिएत्ना सेस्ता (फूलों की गली) की पांचवी मंजिल परएलविश मेस्त्रोविच के फ्लैट में मुझे ठहरने को कहा गया है फ्लैट सुंदर और सुख सुविधा वाला है। यह पर्याप्त है मेरे लिए। भारत से लायी सभी चीजें जमा ली गयी हैं। लैपटाॅप को विशेष जगह दी गयी है क्योंकि आने वाले दिनों में वही एकमात्रा दोस्त बचा रहने वाला है। अकसर तापमान शून्य से चार छह डिग्री कम रहता है। धूप कभी कभी निकलती है वो भी थोड़ी देर के लिए। धूप में भी कंपा देने वाली ठंड होती है। रविवार का दिन है। घड़ी को अभी मैंने भारतीय समय पर ही रहने दिया है। भारतीय समय से साढ़े चार घंटे पीछे नाश्ता लिया है दलिया और फ्रूट कर्ड। थोड़ा सोने को जी चाहा है। नींद में अपने देश में हूं, कभी भाई बहनों के साथ, कभी शांतिनिकेतन में मंजू दी के साथ। रतनपल्ली वाले घर में चैताली दी के साथ साईं बाबा को लेकर उनकी शाश्वत अडिग आस्था का मजाक उड़ाना चल रहा है। दूध के पतीले में अचानक उबाल आने पर वे ‘जयसांईं’, ‘जयसाईं’ कहते हुए फूंक मारने लगतीं, मेरे कहने पर कि गैस की नाॅब बंद कीजिए, उसके लिए साईं बाबा अवतार नहीं लेंगे, वे मुझ पर नाराज हो जाया करती हैं। दिल्ली में मां होली पर पुए बना रही है मैदा, घी,चीनी, दूध, मेवे के घोल को खूब फेंट कर सधे हाथों से गर्म घी में छोड़ती है छन्न की आवाज के साथ फूल जैसा पुआ आकार लेने लगता है, उसके बाद बारी आती है गर्म मसाले में पके कटहल के सालन की। और लिट्टी वह जो दादी बनाती हैं, उसका कोई जवाब नहीं। बैंगन के चटखदार चोखे के साथ खूब सत्तू, लहसुन और अजवायन से भरीपुरी जवां लिट्टी ये सारे व्यंजन अपने रूप रस गंध के साथ आंखों के आगे परसे चले आ रहे हैं। मंजू दी शांतिनिकेतन में मटर की कचैड़ी बनाती थीं, गांधी पुण्याह पर हरिश्चंद्र जी का बनाया सुगंधित सूजी का हलवा... जुबां पर स्वाद के कण अभी बाकी हैं... जोर की घरघराहट के साथ चौंक कर आंखें खुलती हैं कमरे में घुप्प अंधेरा कहीं कोई नहीं, अपना होना ही शंकालु बना रहा है

काबे की है हवास कभी कुए बुतां की है
मुझको खबर नहीं, मेरी मिट्टी कहां की है
                                          दाग देहलवी

कहां हूं मैं? मेडिकल की तैयारी कर रहीदीदी ने कहीं बत्ती तो नहीं बुझा दी, वो दिन में सोती है, सारी रात पढ़ती है, मुझे पुकार कर कहती है सोनी तू सोती ही रहेगी पढ़ेगी कब? उक्की कहां  / 191 है? अमरूद के पेड़ के नीचे सहेली के साथ लकड़ी का स्कूल उल्टा करके गुड़िया का खेल रच रही होगी... देखो उसने फिर उल्टी चप्पल पहन ली, इतनी छोटी है लेकिन बहुत स्वाभिमानी और स्वतंत्रा चेता, किसी के साथ नहीं सोती... मम्मी के जाने के बाद बुआ के साथ भी नहीं। चार साल की उम्र में ही उसकी अकेली दुनिया है। चप्पल पहनूं, उठूं कि हिन्दू काॅलेज के दोस्त बुलाने चले आये हैं दो अध्यापकों डाॅ. हरीश नवल और सुरेश ऋतुपर्ण ने अपने घर बुलाया है खाना पीना, मौज मस्ती करके शाम ढले स्मिता दी के साथ घर लौटती हूं। लो आज आ गयी शामत डाॅ. कृष्णदत्त पालीवाल की क्लास है उन्होंने दुर्वासा सी भविष्यवाणी कर दी है तुम सब कहीं नहीं पहुंचोगे... कहीं नहीं... कहीं नहीं... तो पहुंची कहां हूं... करवट बदल कर, जोर लगा कर उठने की कोशिश में आंखें मुंदी चली जा रही हैं टोंस वैली से लगातार बंदूक की गोलियां दागने की आवाजें आ रही हैं। यह मेरी पहली नौकरी है भारतीय सैन्य अकादमी में अफसर बनाने के लिए जेंटिलमैन कैडेट्स को पढ़ाना है सुबह का सायरन बज रहा है, बैरक से निकल कर आर्मी कैडेट काॅलेज विंग की ओर जाने वाली गीली सड़क पर अंधेरे में चल रही हूं। सड़क के किनारे लैम्प पोस्ट टिमटिमा रहे हैं। बारिश की बूंदें पोस्ट पर चिपक सी गयी हैं। कैडेट्स सस्वर कदमताल करते हुए सैल्यूट देकर आगे बढ़ जाते हैं। झुंड के झुंड गुजर रहे हैं... कहां हूं मैं , घंटी की आवाज है, उठ कर दरवाजा खोलना पड़ता है। मुझे भौंचक देख मुस्करा कर क्रेशो कर्नित्ज हाथ मिलाते हैं यह दोस्ती की गर्माहट से भरा पुरसुकून स्पर्श है वे जाग्रेब विश्वविद्यालय में संस्कृत पढ़ाते हैं कांट्रेक्ट पर। दरवाजे के खुलने से ठंडी बर्फीली हवा का झोंका भीतर आ गया है, जिसने अवचेतन से चेतन में ला पटका है क्रेशो मेरी छोटी मोटी दिक्कतें समझते हैं, लैपटाॅप पर स्काइप इंस्टाल कर रहे हैं और भारत में फोन पर बात करने के लिए व्हाइप भी। अभी दिन के सिर्फ तीन बजे हैं लेकिन अंधेरा घिर आया है, कौआनुमा एक बड़ा सा पक्षी लैम्प पोस्ट पर आ बैठा है। ओवरकोट में ढंके लिपटे इक्का दुक्का लोग सड़क पर दीख रहे हैं मैं जाग्रेब में हूं और यहीं रहना है दो साल तक। सोचती हूं दो साल बहुत लम्बा समय है मौसम हमेशा धुंधलाया सा रहता है कैण्टीन में शाकाहारी भोजन की दशा ठीक नहीं। यहां के लोगों को भारतीय व्यंजन बहुत पसंद हैं। कहते हैं कभी तुर्केबाना येलाचीचा (जाग्रेब का केन्द्र) में किसी ने भारतीय रेस्टोरेण्ट खोला था किसी वजह से कालकवलित हो गया। वैसे मांसाहारी भोजन के लिए क्रोएशिया पूरे यूरोप में प्रसिद्ध है। ताजा पानी की मछली, गोमांस, सुअर का मांस और मेडिटेरियन ढंग से बनी सब्जियां यहां की खासियत हैं। ठंडे मौसम में पशु मांस के बड़े बड़े टुकड़ों को लोहे के हैंगरों में टांग दिया जाता है। बंद कमरे में जलती लकड़ियों के धुएं में वह टंगा मांस पकता है। धुएं की परत संरक्षक का काम करती है। इसे ‘स्मोक्ड मीट’ कहा जाता है। इसकी पाक विधि काफी प्राचीन है और लोकप्रिय भी। जैतून का तेल भी यहां काफी प्रयोग होता है।


सिएत्ना सेस्ता में घरों के दरवाजे काफी चौडे़और मोटे हैं, मुख्यद्वार स्वतः बंद हो जाते हैं। अभ्यास न होने के कारण फ्लैट का दरवाजा बाहर से दो बार लाॅक हो चुका है। सामने के फ्लैट में द्रागित्सा रहती हैं जिन्हें अंग्रेजी नहीं आती और मुझे क्रोएशियन। उनका लम्बा समय इटली में बीता है, जर्मन और इतालवी जानती हैं, वे क्रोएशियन, अंग्रेजी शब्दकोश खरीद लायी हैं, लगभग सत्तर वर्ष की चाक चौबंद। हां युवा ही, क्योंकि जीवन के इस पड़ाव पर ही पहली बार तनावमुक्त, उन्मुक्त जीवन जी रही हैं। सुंदर गोल चेहरा, रोमन नाक और कटे हुए सुनहरे बालµ हमेशा व्यस्त रहती हैं। उन्होंने फ्लैट के सामने फूलों के पौधे लगा रखे हैं, बेटी तान्या और नातिन नादिया सप्ताहांत में आती हैं। पैंतीस वर्षीय बेटा इगोर कलाकार है जिसे बेरोजगारी के आलम ने उदास और तिक्त बना दिया है। द्रागित्सा के पास फ्लैट की अपनी चाभी है, इगोर की अनियमित दिनचर्या का ज्यादा 192 / प्रभाव उस पर नहीं पड़ता। ऐसा वे कहती हैं लेकिन आंखें कुछ और कहती हैंµ ये धुर पश्चिम है जहां माता पिता 17 वर्ष की उम्र के बच्चों को मित्रा मानते हैं। देख रही हूं, दिनांेदिन यह अंतराल कम ही होता जा रहा है। नादिया के उ$पर इम्तहान पास करने का तनाव इतना है कि सिगरेट के बिना नहीं रह पाती। इम्तहान में फेल होने पर क्या करेगी, वह जानती नहीं। कहती है ‘‘आप क्या सोचती हैं, सिर्फ बड़े लोग ही तनावग्रस्त होते हैं। मुझे घर में रहना, पढ़ना बिल्कुल पसंद नहीं, सोचती हूं कब बड़ी होकर संगीतकार बनूं या फिल्म में काम करूं।’’ उसकी मां तान्या बेटी के लिए बहुत चिन्तित रहती है। वह दुबरावा के सरकारी अस्पताल में रेडियोलाॅजी विभाग में तकनीकी सहायक है। दो तलाक हो चुके हैं और ‘रिएका’ के म्लादेन नाम के व्यक्ति से भावनात्मक जुड़ाव है। अपने सम्बंध को लेकर सदैव सशंकित रहती है, नौकरी से छुट्टी मिलते ही ‘रिएका’ चली जाती है। इधर उसकी बेटी नादिया रात भर घर से गायब रहने लगी है। तान्या कहती है जो गलतियां मैंने कीं, चाहती हूं मेरी बेटी न करे, तुम्हारा देश अच्छा है जहां बच्चों पर अभिभावकों का कठोर नियंत्राण रहता है। वह नादिया को
डांटने फटकारने से डरती है।

 हम समुद्र के किनारे किनारे लांग ड्राइवपर जा रहे हैं। बायीं तरफ ड्राइविंग ह्वील अटपटा लगता है। पास में अंतरराष्ट्रीय लाइसेंस भी नहीं है। तान्या लगातार अपनी व्यथा कथा कह रही है, उसे अंगे्रजी में बात करना सुहाता है, कई बार क्रोएशियन शब्दों के अंग्रेजी पर्याय ढूंढ़ने के चक्क्र में बातचीत बाधित भी होती है। समुद्र के किनारे किनारे लैवेंडुला (लैवेंडर) की झाड़ियां हैं। पौधे दो से ढाई फुट ऊँचे। लैवेंडर की गंध समुद्र की नमकीन गंध के साथ मिल कर पूरे दक्षिणी यूरोप की हवा को नम बनाये रखती है। फ्रांस में तो लैवेंडर को भोजन में भी प्रयुक्त किया जाता है। कीटाणुनाशक सुगंधित लैवेंडर क्रोएशिया और यूरोप के अन्य भागों में निद्राजनित रोगों की औषधि है। वैसे क्रोएशिया पर्यटन और शराब उत्पादन के लिए मशहूर है। तान्या ने यह सूचित करते हुए पीने की इजाजत मांगी है कि उसका गला सूख रहा है। लगभग 641.355 वर्गमील में फैला जाग्रेब क्रोएशिया का सांस्कृतिक प्रशासनिक केन्द्र है जो मूलतः एक रोमन शहर था जो सन् 1200 में हंगरी के नियंत्राण में आ गया। सन् 1094 ई. में पहली बार पोप ने जाग्रेब में चर्च की स्थापना कर जाग्रेब नाम दिया। जर्मन में इसे ‘अग्रम’ कहा जाता है।

जाग्रेब और क्रोएशिया का इतिहास युद्धका इतिहास है, सन् 1991 तक संयुक्त यूगोस्लाविया का अंग रहा क्रोएशिया अपने भीतर युद्ध की अनगिन कहानियों को लिए हुए मौन है। स्लोवेनिया,हंगरी, सर्बिया, बोस्निया, हर्जेगोविना और मांटेग्रो से इसकी सीमाएं घिरी हैं। आज के 21,851 वर्गमील में फैले क्रोएशिया ने एक तिहाई भूमि युद्ध में खो दी। 15 जनवरी 1992 को यूरोपीय आर्थिक संगठन और संयुक्त राष्ट्रसंघ ने इसे लोकतांत्रिक देश के रूप में मान्यता दी। इसके बाद भी तीन वर्ष तक अपनी भूमि वापस पाने के लिए 1 अगस्त 1995 तक उसे सर्बिया से लड़ना पड़ा और यूरोपीय यूनियन की सदस्यता तो उसे अभी हाल में 1 जुलाई 2013 को मिल पायी। इतने लम्बे युद्ध के निशान अभी तक धुले पुंछे नहीं हैं। उनकी शिनाख्त के लिए मुझे दूर नहीं जाना पड़ा। इटली और फ्रांस घूमने की इजाजत मिलने पर दूतावास ने मुझको दुशांका सम्राजिदेता की दूरिस्ट कम्पनी का पता दिया।


दुष्का का जीवन क्रोएशियाई सर्ब युद्ध काजीता जागता इतिहास है। कहीं पढ़ा था, युद्ध कहीं भी हो, किसी के बीच हो, मारी तो औरत ही जाती है। युद्ध ने दुष्का के जीवन को ही एक युद्ध बना दिया। युद्ध में सर्बों ने क्रोआतियों को मारा उनके घर जला दिये, बदले में क्रोआतियों ने पूरे क्रोएशिया को सर्बविहीन करने की मुहिम छेड़ दी। लोग भाग गये या मारे. दुष्का के मां बाप युद्ध के दौरान बेलग्रेड होते हुए अपनी बेटियों के पास पहुंच नहीं पाये। दुष्का को बिना नोटिस दिये नौकरी से निकाल  / 193 दिया गया। अब वह केवल ‘सर्ब’ थी मनुष्य नहीं, अड़ोसी पड़ोसी घृणा से इन दो सर्ब बहनों को देखते थे। जंग जोरों पर थी, अमेरिका की पौ बारह थी उस पर से युद्धविराम और भीतर से घातक हथियारों की आपूर्ति युद्धविराम होते थे, वायदे किये जाते जो तुरंत ही तोड़ भी दिये जाते। राजधानी होने के नाते जाग्रेब शहर में पुलिस और कानून व्यवस्था कड़ी थी, लेकिन लोगों के लिए दिमाग से घृणा और नफरत को निकालना असम्भव था। बसों में, ट्रामों में लोग सर्बों को देखते ही वाहीतबाही बकते, थूकते, घृणा प्रदर्शन करते। दुष्का ने कई साल पहले अपनी ट्रैवल एजेंसी का सपना पाला था। युद्ध ने दुनिया बदल दी। कुछ लोग रातोंरात अमीर हो गये और कुछ सड़क पर आ गये। युद्ध के थमने और गर्भ ठहरने दोनों की सूचना दुष्का को एक साथ मिली। दौड़ी थी उस दिन वह त्रायेशंवाचकात्रा से यांकोमीर तक, पैदल चल कर गयी सेवेस्का तक, कोई डाक्टर सर्ब लड़की का केस हाथ में लेने को तैयार नहीं हुआ। क्रोएशियन प्रेमी ने दुष्का को पहचानने से इनकार कर दिया। सर्ब कह कर गाली दी और उससे बात तक न की। दुष्का अविवाहित मां बनी और पिछले पंद्रह वर्षों में अपने मां बाप का सहारा भी।

इवाना, मिरता, वैलेंटीना, बोजैक अक्सर मिलने जुलने वाले विद्यार्थी हैं। लेकिन सप्ताहांत में जब चारों ओर बर्फीला सन्नाटा पसर जाता है, इनमें से कोई फोन नहीं उठाता। वृहस्पतिवार की शाम से ‘वीकएंड’ की तैयारी शुरू हो जाती है। भारत की अपेक्षा लड़कियां यहां ज्यादा स्वतंत्रा और उन्मुक्त हैं। रोजगार के अवसर सीमित हैं, ये आर्थिक तंगी के दौर का यूरोप है, बहुराष्ट्रीय कम्पनियां अपने पूरे तामझाम के साथ मैकडोनाॅल्ड्स, रीबाॅक, वाॅन हुसैन, एडीडास जैसे ब्रांडों में मौजूद हैं, सप्ताह के पांच दिन यूनिवर्सिटी में पढ़ने वाले छात्रा सप्ताहांत में दुकानों के कर्मचारी बन जाते हैं। पचीस तीस कूना (मुद्रा) प्रति घंटे के हिसाब से। उनसे खूब जम कर काम लिया जाता है। मेरी प्रतिभाशाली छात्रा कार्मेन वुग्रिन मैकडोनाॅल्डस में सप्ताहांत और ग्रीष्मावकाश में बर्तन धोती, झाड़ू पोंछा कर खाना पकाती है। मरियाना जिसके घर में अभिभावक के नाम पर सिर्फ एक नाशपाती का पेड़ है, नाक कान में असंख्य बालियां पहने, बालों में बहुरंगी रिबन बांधे दुब्रोवा और तुर्केबाना येलाचीचा की गलियों में गिटार बजाती है। उसने कई भारतीय गाने सीख रखे हैं, धुन बजाती है, आने जाने वाले लोग सड़क पर बिछे कपड़े पर कुछ सिक्के डाल कर आगे बढ़ जाते हैं। अंद्रियाना और बोजैक तरह तरह की पोशाकें पहन कर, नकली नाम लगा कर पर्यटकों को रिझाते हैं। बोजैक तुर्केबाना में मुझे देख कर चैंकता है फिर लजा कर गलियों में गायब हो जाता है। यहां ‘क्रेशो’ नाम बहुत आम है जो यहां के राजा क्रेशीमीर के नाम का संक्षिप्त रूप है। रोमन नाक नक्श, गोरा रंग, लम्बी स्वस्थ कद काठी और सीधी सतर चाल क्रोएशियंस का वैशिष्ट्य है। हम भारत में रहते हुए यूरोप की समृद्धि की कल्पना से कुंठित होते रहते हैं, यहाँ आकर देखती हूं बाजार है, खरीददार नहीं, बड़ी बड़ी दुकानें, जिनमें जूते की दुकानें बहुतायत में हैं, वे वीरान हैं। सामान है, सजावट भी... खरीदने वालों से निहारने वालों की संख्या कई गुना ज्यादा है। आम आदमी की क्रयशक्ति कमजोर हो चली है। छात्रा छात्राएं ‘सेल’ के मौसम की प्रतीक्षा करते हैं। पुराने कपड़ों को खूब जतन से पहनते हैं, जाग्रेब के बाहरी हिस्से में पूर्व की रेलवे लाइन के किनारे ‘सेकेण्ड हैण्ड’ मार्केट लगती है, जिसे देख कर लालकिले के पीछे का बाजार याद आता है। मृतकों के इस्तेमाल किये हुए कपड़े, बैग, जूते, बेल्ट, चादरें, तकिये सब मिलते हैं। अच्छी अच्छी कमीजें पांच कूना में उपलब्ध हैं, देखती हूं इस बाजार में खरीददारों की संख्या बहुत बड़ी है। काला, सफेद और सलेटी यहां के प्रचलित रंग हैं, विशेषकर सर्दियों में, जो वर्ष के लगभग सात महीने रहती हैं।

यूरोप के आंतरिक भागों में सफर के लिएरेल अपेक्षाकृत सस्ता और सुरक्षित माध्यम है। 194 / जाग्रेब स्लोवेनिया से सटा हुआ है लेकिन वहां जाने के लिए शेनसंग वीसा की जरूरत है। मैंने दूतावास में वीसा की अर्जी दे दी है। तान्या के साथ मुझे स्लोवेनिया जाना है, लेकिन उससे भी पहले ‘रिएका’ शहर जहां क्रेशो कर्नित्स और उनकी पत्नी साशा के प्रकाशनगृह से रवीन्द्रनाथ टैगोर के नाटक ‘चित्रा’ का क्रोएशियन रूपांतरण छपा है।

हमें कार से दिन भर का सफर करनापड़ा। समुद्र तट पर धूप खिली हुई है और तट के समानांतर चैड़ी सड़क ‘रिएका’ की ओर जा रही है। साशा और क्रेशो बारी बारी से कार चला रहे हैं। एक दो जगह हम पेट्रोल लेने के लिए रुकते हैं, साशा दुबली पतली हैं , निरंतर सिगरेट पीने से उन्हें भूख भी कम ही लगती है। उनके पास कार में वाइन है, लेकिन मुझे तेज भूख लगी है, पेट्रोल स्टेशन पर ही मैंने सैंडविच खरीदा है कभी कभी घर की सूखी रोटी और आलू की भुजिया अपनी साधारणता में भी कितनी असाधारण और दुर्लभ हो जाती है। राजा क्रेशीमिर का किला रास्ते में पड़ा है और किले के भीतर बाजार लगा है गहने, तस्वीरें, मदर मेरी की मूर्तियां, खूब मोटी मुगदरनुमा जंघाओं वाले मध्यकालीन सैनिकों के बुत, किताबें, कैसेट्स, गीत संगीत और पर्यटक। यहां ‘बैक वाटर’ पोर्ट है जहां से ‘वेनिस’ के लिए नावें चलती हैं, जहां कुछ ही घंटों में पहुंचा जा सकता है। दोपहर तीन बजे हम लोग विमोचन स्थल पर पहुंचते हैं, पुस्तक के विमोचन के साथ नाश्ते का भी इंतजाम है। लोग पंक्ति में खड़े होकर प्लेटों में नाश्ता ले रहे हैं, सबकी आंखें व्यंजनों पर केन्द्रित हैं, मिलना जुलना बाद में पहले पेटपूजा। नाश्ते का इंतजाम न होता तो इतनी भीड़ जुट पाती यहां  पता नहीं। भीड़ में एक बुजुर्ग ललछौंहें चेहरे और चौड़ी नाक लिए इधर उधर देख कर जेब में बिस्किट के टुकड़े छिपाते जा रहे हैं। कोट की जेबें फूलती चली जा रही हैं, मैंने जल्दी से, उधर से नजर हटा ली है मन करुणा से भर आया है।


‘रिएका’ या ‘रिजेका’ क्रोएशिया का तीसराबड़ा शहर है। समुद्र के किनारे बसा यह शहरबड़े बड़े पानी के जहाज बनाने के लिए प्रसिद्ध है, अपने भीतर बड़ा दिलचस्प बहुभाषिक इतिहास लिए हुए है। पांचवीं शताब्दी से ही यहां आॅस्टोगोथ, लोंबार्ड, अवार, फ्रैंक और क्रोआत रहे हैं, इसलिए रिएका में बहुत सी भाषाएं और बोलियां बोली जाती हैं। द्वितीय विश्वयुद्ध के पहले तक यह पूरी तरह इतालवी शहर था। गोरिल्ला युद्ध और छापामार झड़पों में बहुत से नागरिक हताहत हो गये, और लगभग 800 लोगों को यातनाशिविरों में बंद कर दिया गया। आज इस शहर में लगभग बयासी प्रतिशत क्रोआत, छह प्रतिशत सर्ब, दो ढाई प्रतिशत बोस्नियाई और दो प्रतिशत इतालवी रहते हैं। ‘चित्रा’ के विमोचन का कार्यक्रम रिएका के सार्वजनिक पुस्तकालय में है, पुस्तकालय बड़ा और व्यवस्थित है, लेकिन उपरी मंजिल पर कई कमरे बंद हैं जिनमें प्राचीन पांडुलिपियां सुरक्षित हैं। पुस्तकालयाध्यक्ष का कहना है कि सरकारी अनुदान इतना कम है कि सभी कमरों का रखरखाव सम्भव नहीं। विमोचन कार्यक्रम की भाषा क्रोएशियन है, इतना तय है कि टैगोर यहां बहुत लोकप्रिय हैं। मुझे बताया गया है कि सन् 1926 में टैगोर जब जाग्रेब आये थे तब उन्होंने ‘रिएका’ का दौरा भी किया था। दार्शनिक पावाओ वुक पाब्लोविच (1894-1976) ने ‘गीतांजलि’ का क्रोएशियन में अनुवाद किया था जो जाग्रेब के दैनिक ‘भोर का पत्ता’ में 1914 की जनवरी में धारावाहिक रूप में छपा था। बाद में पावाओ ने ‘चित्रा’, ‘मालिनी’ और ‘राजा’ का भी अनुवाद किया। ‘चित्रा’ का मंचन क्रोएशियन नेशनल थियेटर में 1915 में कई बार हुआ। यहां के उदारवादी बौद्धिक प्रथम विश्वयुद्धोत्तर अवसानकाल में टैगोर को आध्यात्म और शांति के प्रतिनिधि के रूप में देखते थे। विमोचन समारोह में ‘चित्रा’ के पहले प्रदर्शन में अभिनय करने वाले क्रेशिमीर बारनोविच (1894-1975) का स्मरण किया जा रहा है। टैगोर की लोकप्रियता के जो भी कारण रहे होंµ एक बात तो तय है कि प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान उन्हें नोबेल / 195
मिलना और स्काटलैण्ड में नोबेल के लिए जर्मन राष्ट्रवादी लेखक पीटर रोसेगर का नाम चलना ये दो कारण थे जिन्होंने टैगोर को इस क्षेत्रा में लोकप्रियता दिलायी। भले ही टैगोर इस बात से अनभिज्ञ रहे हों, फिर भी यहां के लोग बताते हैं कि नोबेल की घोषणा के बाद जर्मन प्रेस ने टैगोर पर हमला बोल दिया था। आज क्रोएशियंस पीटर को भूले से भी याद नहीं करते और उनकी पूरी सहानुभूतिके पात्रा रवीन्द्रनाथ टैगोर हैं। ईसाई बौद्धिकों में से बहुत कम ऐसे थे, जो ‘गीतांजलि’ को केवल एक साहित्यिक कृति के रूप में सराहते थे, वे तो टैगोर के रहस्यवाद से प्रभावित थे। सन् 26 में यूरोप की यात्रा के दौरान रवीन्द्रनाथ टैगोर को क्रोएशियंस ने युद्धोत्तर क्षत विक्षत मानस को आध्यात्मिक नेतृत्व देने वाले व्यक्ति के रूप में देखा, उनकी कई कृतियों, मसलन ‘घरे बाइरे’, का क्रोआती में अनुवाद इसी दौर में हुआ, क्रोएशियन म्यूजिक कंजरवेटरी के सभागार में उन्होंने दो दिन भाषण दिये, जिनका आशु अनुवाद क्रोआती में किया गया, लेकिन रवीन्द्रनाथ को यह नागवार गुजरा। ये प्रसंग इसलिए क्योंकि यहां मुझे जो बातें कहनी हैं, उनका क्रोआती में सतत आशु अनुवाद होगा। गुरुदेव के रचनाकर्म और क्रोएशिया से उनके सम्बंधों पर टिप्पणी करते हुए मुझे बार बार रुकना पड़ रहा है। मेरे वक्तव्य पर श्रोताओं के चेहरे निर्विकार और भावशून्य हैं, आशु अनुवादक की बात पर ही उनकी आंखें झपकती और कभी चौड़ी होती, कभी सिकुड़ती हैं। श्रोता वक्ता का सम्बंध उचित सम्प्रेषण पर टिका होता है। मुझे मालूम ही नहीं चल रहा था कि मेरी बातें कहां और किस सीमा तक सम्प्रेषित हो रही हैं। साशा मंच संचालन कर रही हैं और मुझे बताया जाता है कि श्रोता टैगोर की कविता सुनना चाहते हैं। मालूम नहीं टैगोर के कई गीतों को छोड़ कर मुझे ‘ध्वनिलो
आह्वान’ सुनाने की इच्छा ही क्यों हो आयी है

ध्वनिलो आह्वान मधुर गम्भीर प्रभात अम्बर माझे
दिके दिगंतरे भुवन मंदिरे शांतिसंगीत बजे
हेरो गो अंतरे अरूपसुंदरे - निखिल संसार परमबंधुरे
ऐशो आनंदित मिलन - अंगने शोभन - मंगल साजे
कलुष - कल्भष विरोध विद्वेष होउक निःशेष
चित्ते होक जोतो विघ्न अपगत नित्य कल्याणकाजे
स्वर तरंगिया गाओ विहंगम, पूर्व पश्चिम बंधु संगम
मैत्राी - बंधन पुण्य मंत्रा पवित्रा विश्वसमाजे।

ये फरवरी का अंतिम सप्ताह है, धूप खिली हुई है, रात को गिरी बर्फ के फाहे सड़कों के किनारे किनारे रुई से रखे हुए हैं, हवा में नर्माहट की जगह तुर्शी है, बिल्कुल ठंडी, बर्फीली हवा जो एड्रियाट्रिक सागर को छूने के पहले पाइन वृक्षों की टहनियों पर जमी बर्फ को थोड़ा हिला भर देती है, सफेदी को झाड़ती नहीं। अंजीर और चेरी वृक्षों की सारी पत्तियां झड़ चुकी हैं, असमय ही बुढ़ाए ठूंठों को बर्फ ने नीचे से उपर तक ढंक लिया है, खिली धूप में ‘सिएत्ना सेस्ता’ के सामने की सड़क के दोनों किनारों पर खड़े पेड़ बेजान से दीख रहे हैं। जब तक हम बर्फ से रूबरू नहीं होते, वह हमारे भीतर अपनी पूरी सफेद मोहकता के साथ पिघलती है, रग रेशों में उतर कर रोमांटिक कल्पना के सहारे, बर्फ के ‘जूते बड़ी जैकेट’ पहने हम उसकी सफेद फिसलन पर उठ गिर रहे होते हैं और जब वही बर्फ दिन रात, सुबहो शाम का हिस्सा बन जाती है, सारे चिड़िया चुरुंग न जाने कहां छिप जाते हैं तो उसकी मोहकता को सन्नाटे में तब्दील होते कतई देर नहीं लगती। खिड़की के पर्दे हटाते ही दिल बैठ जाता है इतनी अफाट, निरभ्र सफेद परत पांचवी मंजिल से नीचे देखती हूं पार्किंग में खड़ी गाड़ियां बर्फ में एकसार हो गयी हैं। एक आदमी हाथ में फावड़ा लिए बर्फ हटाने में जुटा 196 / है, बर्फ खखोर खखोर कर सड़क के किनारे डालता है। जहां भूमिगत नाली का मुहाना है, बर्फ के थक्के बड़े बड़े हो जाते हैं। निचली सड़क गीली हो गयी है, पर बर्फ पिघलाने भर का ताप सूरज में अभी आया नहीं है, और पहर ढलने का समय भी हो गया। ‘सिएत्ना सेस्ता’ और सभी बहुमंजिली इमारतों के पिछवाड़े कतार में लोहे के पहिएदार कंटेनर रखे हुए हैं, ये कूड़ेदान हैं। नगरनिगम शहर के रखरखाव के लिए नागरिकों से कर वसूलता है जिसके निवेश में व्यवस्था और ईमानदारी दोनों हैं, भारत में जिसका अभाव सिरे से महसूस किया जाता है। अलस्सुबह बड़े ट्रकों में पिछले दिन का कूड़ा खाली कर दिया जाता है, खाली कंटेनर दिन भर पेट भरने के इंतजार में वहीं खड़े रहते हैं जिन पर क्रोआती में सूखे और गीले अवशिष्ट पदार्थों के संदर्भ में निर्देश लिखे हुए हैं।

विश्वविद्यालय में सुबह आठ बजे कक्षाएंशुरू हो जाती हैं। प्रोफेसर येरिच ने मुझसे कहा था कि या तो मैं सुबह आठ बजे कक्षा लूं या रात के आठ बजे। रात आठ बजे कक्षा पढ़ाने की अवधारणा ही मुझे अजीब सी लगती है, दिन भर की थकान के बाद अंत में कक्षा पढ़ाना, उफ। मैंने भारत में भी हमेशा सुबह सुबह ही पढ़ाया, दोपहर होते होते कक्षा पढ़ाने का उत्साह मंद हो जाया करता है। शांतिनिकेतन में तो सुबह साढ़े छः बजे ही वैतालिक की प्रार्थना के तुरंत बाद कक्षाएं शुरू हो जाती थीं। दिन का एक बजा नहीं कि कक्षाएं समाप्त। आधा दिन अपना था पुस्तकें पढ़ना, पुस्तकालय जाना, कंकाली तल्ला, अजय नदी का पुल, खोवाई, आमार कुटीर जैसी जगहों पर जाना और शाम ढले लौट आना, उसी अवकाश का सुफल था। भारतीय विश्वविद्यालयों विशेषकर मानविकी और समाज विज्ञान में शाम पांच छः बजे तक पढ़ाई समाप्त हो जाया करती है। सूरज अस्त, अध्यापक मस्त और विद्यार्थी पस्त। अभ्यास ही संस्कार बन जाया करता है। रात देर तक पढ़ना और सुबह उठ कर पढ़ाने को तैयार होना, इससे लगता है एक नया खूबसूरत सा दिन आप शुरू करने जा रहे हैं। सुबह एक नयी उर्जा और मुस्तैदी देती है इसलिए मैंने जाग्रेब में भी सुबह आठ बजे की कक्षाएं ही चुनी हैं। नब्बे मिनट की एक कक्षा, बीच में अवकाश, फिर कक्षा। अक्सर दिन के डेढ़ बजे तक मैं अपने आवास में लौट आती हूं। शाम में अक्सर पुस्तकालय, आजकल वहीं देर हो जाया करती है। पुस्तकालय खूब व्यवस्थित हैµ अंग्रेजी, क्रोआती (हरर्वास्त्की) और फ्रेंच पुस्तकेंµ लाल, नीली जिल्द चढ़ी विपुल, खूबसूरत किताबों का वृहत संसार। तापमान नियंत्रित किया रहता हैµ 20 से 22 डिग्री से. आरामदेह, पुरसुकून माहौल। लगता है इसके बाद कोई दुनिया नहीं, कई विद्यार्थी ‘अर्न ह्वाइल लर्न’ परियोजना के तहत घंटे के हिसाब से काम करते हैं, कैटलाॅग बनाते हैं, किताबें झाड़ते पोंछते हैं बदले में उनका जेबखर्च निकल आता है। सन् 1669 में स्थापित ‘स्वेस्लिस्ते उ जागरेबु’ दक्षिण मध्य यूरोप के प्राचीनतम विश्वविद्यालयों में से एक है। इवाना उलीचीचा के दसवें मार्ग पर यही पुस्तकालय मेरी शरणस्थली है। धूप की हल्की किरणों को, दिन के किसी भी समय घेर कर बादल दिन में अंधेरा कर देते हैं, बर्फीली बारिश बेआवाज टपकती रहती है। सब शांत पेड़ पौधे स्वच्छ और श्वेत बर्फ की चादर तले दिन और रात का फर्क कहीं गुम हो जाता है। आजकल मैंने ‘सीमोन द बोउवार’ को नये सिरे से पढ़ना शुरू किया। उसका लिखा घर से दूर होने की बेचैनी को कभी बढ़ाता तो कभी शांत करता है। उसके उपन्यासों और आत्मकथाओं से गुजरना मधुर त्रासदी से होकर गुजरना है। पुस्तकालय की गर्माहट, सीमोन की किताबेंµ इन्हें छोड़ कर फ्लैट के सन्नाटे की ओर लौटने का जी नहीं करता। काफी हाउस का अपरिचित शोर समझ में आने लगा है धुएं के छल्लों के बीच टेबल पर सिर झुकाये, चाइना क्रेप की फ्राॅक पहने सीमोन लिखती दीखने लगी हैं। मैंने सेर्गेई के कहने से आत्मकथात्मक उपन्यास ‘ए वेरी इजी डेथ’ का हिन्दी अनुवाद शुरू किया है। सीमोन को पढ़ना एक ऐसे अनुभव लोक से गुजरना है जहां से स्त्राीवाद का वैचारिक और राजनीतिक उत्स देखने को  / 197 मिलता है। जहां ‘सेकेण्ड सेक्स’ मनुष्य की स्वतंत्राता की, मनुष्य के रूप में स्त्राी पराधीनता के कारणों की पड़ताल करता है, वहीं ‘ए वेरी ईजी डेथ’, प्राइम आॅफ लाइफ, आॅल सेड एंड डन स्त्राीवाद के व्यावहारिक पक्ष की पड़ताल करती हैं। सीमोन ने सन् 1964 में ‘ऐ वेरी ईजी डेथ’ की रचना की जिसका प्रकाशन उसकी मां की मृत्यु के साल भर बाद हुआ था। छह सप्ताह के कालखंड में मरणशय्या पर मामन और सीमोन के साथ बातचीत में यह आत्मकथा गहरे निजत्व, दुख, पश्चाताप, पीड़ा के क्षणों का आख्यान हैµ मां बेटी की बदलती भूमिकाएं, स्त्राी की यातना में उसकी निज की भूमिका, पति पत्नी सम्बंध, डाक्टर और मरीज का सम्बंध, अस्पतालों की आंतरिक राजनीति के विविध पड़ावों से गुजरती हैं। मामन पिछले चौबीस वर्षों से विधवा और एकाकी है। सीमोन भी अपने स्वतंत्रा लेखन और जीवन में व्यस्त है। मामन को अंत तक मालूम नहीं कि उसे ‘प्राणघातक कैंसर’ है। वह मरना नहीं चाहती ठीक होकर 78 वर्ष की अवस्था में, फिर से जीवन को नये सिरे से जीना चाहती है। सीमोन को पढ़ने और अनुवाद करने की प्रक्रिया मुझे भीतर से कभी कभी बहुत अकेला कर देती है। भीतर कभी कभी घुप्प अंधेरों के साये चहलकदमी करते हैं, कभी सीमोन ही हाथ में कलम पकड़ा कर लिखवाती चलती हैं। नित्यानंद तिवारी जी से बात हुई है अनुवाद के कुछ अंश भेजे थे उन्हें।वे बहुत प्रभावित हैं लेकिन रचनात्मक अवसाद से बचने की सलाह देते हैं। विश्वनाथ त्रिपाठी ने भी अनुवाद का प्रथम प्रारूप पढ़ा है ए वेरी ईजी डेथ उन्हें मर्मस्पर्शी लगा है और सिन्धु आंटी तो पढ़ कर रो ही दी हैं।


शाम ढले सिएत्ना सेस्ता पहुंचती हूं, पिछवाड़े का रास्ता छोटा है। शाम का झुटपुटा है अभी, थोड़ी ही देर में गलियों की बत्तियां जल जायेंगी। हवा तेज और नम है, आकाश ज्यों झुका चला आ रहा हो, लगता है रात में बारिश होगी। बर्फ वाले जूते पहनने के कारण तेज तेज कदम बढ़ाना सम्भव नहीं हो पा रहा, ओवरकोट और कई स्वेटरों की तहें शरीर को अतिरिक्त बोझिल बना देती हैं। रास्ते में ‘माली दुचान’ (छोटी दुकान) पड़ती है।, शीशे के दरवाजे बंद हैं, काउण्टर पर बैठी लड़की के बाल ललछौंहें हैं, शायद ‘बरगंडी कलर’ से रंगे हैं। लाल नेलपालिश वाली पतली, लम्बी गोरी उंगलियों में सिगरेट फंसी है, दुकान में कोई ग्राहक नहीं, उसने ‘दोबरदान’ कह कर एक चलताउ मुस्कान फेंकी है। यह छोटी दुकान है जहां सब्जियां, ब्रेड और वाइन उपलब्ध है। मुझे ब्राउन चाकलेट्स लेनी है, कहीं पढ़ा है कि चाकलेट्स मूड बूस्टर का काम करती हैं। इन दिनों अक्सर चाकलेट्स की जरूरत मुझे पड़ती है। लड़की अंग्रेजी नहीं जानती, मैंने प्लास्टिक ट्रे में फ्रूट कर्ड, रेडवाइन और चाकलेट्स रख ली है। उसने कम्प्यूटर पर हिसाब करके मुझसे कार्ड ले लिया। सामान लेकर ‘ख्वाला’ (धन्यवाद) कहना अब सीख लिया है मैंने। इस हफ्ते दुश्का मेरे घर आमंत्रित हैं, वाइन के बिना आमंत्रण वैसा ही, जैसे लवणहीन भोजन। जल्द पैर बढ़ा कर मैं घर के पिछले हिस्से में हूं, सन्नाटा पसरा है, पड़ोस के फ्लैट की खिड़की के सफेद पर्दों के भीतर से पीली रोशनी छन कर बाहर आ रही है। कूड़ेदानों के पास हल्की खुरखुराहट है, जिज्ञासावश मेरी नजर वहां चली गयी है। काले बूट और लम्बा फ्राॅकनुमा कोट पहने जो औरत अक्सर उस अपार्टमेण्ट में आती जाती दीखती है वो सूखे कूड़ेदान के अंदर लगभग आधी लटकी हुई है। मैं अंजीर वृक्ष की ओट में हूं जहां लगभग अंधेरा है जो दिन के उजाले में, ऊँची एड़ी के जूते चटखाती, तिरछा हैट पहने हाथ में पालतू कुत्ते की चेन पकड़े इठलाती चलती है, वह शाम ढले कूडे़दान में...? मुझे उत्सुकता है थोड़ी ही देर में औरत के दस्ताने पहने हाथ बाहर निकलते हैं और नीचे रखे बड़े से पाॅलीथीन में इस्तेमाल कर फेंके जूते, पुराने कपड़े, छाते, बर्तन और यूं ही कई तरह का सामान रख देते हैं। कूड़ेदान में अधलटकी औरत बाहर आ चुकी है। हौले हौले, बेआवाज, पाॅलिथीन बैग की चुरमुराहट को भरसक नियंत्रित करते हुए बैग उठाती है, बड़ा है, शायद 198 / भारी भी लेकिन संभाल लेती है और सधे कदमों से अपने फ्लैट की ओर। यहां बुजुर्गों को मामूली सरकारी पेंशन मिलती है, बेरोजगारी भत्ता भी लेकिन ‘टैक्स’ का दबाव, मंहगाई में वह पेंशन कुछ ज्यादा काम नहीं आती। द्रागित्सा से पूछने पर उसने मुस्कराते हुए बात को टाल दिया। क्रोएशियन बहुत स्वाभिमानी होते हैं विदेशी के सामने पड़ोसी के बारे में कुछ कहना उन्हें गवारा नहीं। भारत में आबोहवा के कारण घर में कभी कैद होने की नौबत ही नहीं आयी। स्वेच्छा से घर में रहना और बाहरी दबाव से घर में कैद रहना दोनों में बहुत अंतर होता है। तब आप भीतर होकर भी बाहर ही होते हैंµ कभी ठंडी खिड़की के पल्ले से नाक सटाये बारिश देख रहे होते हैं, कभी बर्फ से जम चुकी सावा नदी की ओर देखते हुए उसमें बहते पानी की कल्पना करते हैं। सावा के पुल पर गाड़ियों की आवाजाही है। लोग पार्क में पालतू कुत्ते और बिल्लियों को घुमाने ले आये हैं, बेंचों पर लोग अकेले दुकेले बैठे हैं, कोने के मैदान में कुत्तों को पालतू बनाने का प्रशिक्षण चल रहा है। कुत्ते अलग अलग प्रजाति के हैं जिनकी देखरेख और सरंजाम काबिलेतारीफ है लेकिन लोग इस बात का बहुत ख्याल रखते हैं कि उनका पालतू किसी की परेशानी का सबब न बने, शिकायत दर्ज होने पर जुर्माना बहुत कड़ा है। वैसे तो भारत में भी श्वानप्रिय लोग हैंµ हैदराबाद विश्वविद्यालय परिसर में एक प्राध्यापक इतने श्वानविप्रय हां कि अपने क्वार्टर के सामने रात में कुत्तों के लिए सामूहिक भोज रख देते हैं। परिसर के सारे आवारा कुत्ते अपने भूले भटके साथियों को समवेत स्वर में आमंत्रित करने लगते हैं। भोजन कभी पर्याप्त नहीं, वंचित रह गये, गुर्राते, भूंकते हैं। शक्तिशाली भोजन का बड़ा हिस्सा उदरस्थ कर श्वान सिंह हो जाते हैं और अब मध्यरात्रि तक चलने वाला कर्णभेदी श्वानसंगीत शुरू होता है।यहां की ‘भौंक’ कैम्पस के बाहर वालों को भी भौंकने की कला के प्रदर्शन के लिए प्रेरित उत्तेजित करती है। पशुप्रेमी प्राध्यापक सर्वेभवंतु सुखिनः के भाव से आराम फरमाते हैं, और पड़ोसी संगीत सम्मेलन की समाप्ति की प्रतीक्षा करते हैं क्योंकि श्वानों को प्रताड़ित करना मेनका गांधी की टीम को आंमत्रित करना है। परिसर में श्वानप्रेम ‘सुसंस्कृत’ होने की पहचान भी है। एक अध्यापिका इतनी श्वानप्रेमी है कि कहीं भी रुक कर उन्हें पुचकारने लगती है
अपरिचयीकरण के दौर में शायद यह व्यावहारिक राजनीति का हिस्सा हो, अपने परिचितों की अनदेखी करने का एक हथियार। उस क्षण हो सकता है कई मनुष्य श्वान रूप धरने को तरस जाते हों। जो भी हो एक सप्ताह से तबियत नासाज है, दूतावास ने जिस डाॅक्टर के पास भेजा था उसे तगड़ा बिल बनाने के अलावा सिर्फ मुस्कराना आता है, इसलिए दुबरावा के बड़े अस्पताल जाना पड़ा है। अस्पताल बहुमंजिला, साफ सुथरा, नर्स डाक्टर चाक चैबंद। बाहरी हिस्से में कुछ दुकानें हैं जहां खूबसूरत चीजें बिक रही हैं, खुले आसमान के नीचे बेंचें लगी हुई हैं, क्यारियों में पौधे फूल, लतरें, हवा में लैवेंडर की पत्तियों की गंध फैली हुई है। मैं यहां दो दिनों से हूं। डाॅक्टर मिरनोविचि गले छाती के संक्रमण विशेषज्ञ हैं; बताते हैं कि टांसिलों में सूजन के कारण ज्वर आ रहा है।

अस्पताल का काम खत्म हुआ। अस्पताल की यात्रा मेरे लिए ‘ए वेरी ईजी डेथ’ की यात्रा भी थी, जिसने मुझे सीमोन और उसकी मां के आपसी सम्बंधों को नयी रोशनी में पहचनवाया। सीमोन के उपन्यास ‘शी केम टू स्टे’ और ‘द मेंडरीन’ ने नये दौर के स्त्राीवादी चेहरे को पहचानने में मदद की। उनके आत्मकथात्मक उपन्यासों से होकर गुजरना एक दिलचस्प और ईमानदार अनुभव रहा है।अस्पताल और बीमारी का यह समय मुझे सीमोन के और करीब ले आया हैµ ‘मेमोआयर्स आॅफ अ ड्यूटीफुल डाॅटर’ में विश्वविद्यालय में पढ़ने के दौरान ‘पुरुष की तरह दिमाग’ होने की इच्छा व्यक्त करते हुए अपनी तुलना वह सात्र् से करती हैं और इस निष्कर्ष पर पहुंचती हैं कि स्त्री के लिए पुरुष जैसी सोच होना सम्भव नहीं। ‘प्राइम आॅफ लाइफ’ में सीमोन ने होटलों में रह कर लिखने पढ़ने, एक  / 199 के बाद दूसरा होटल बदलने का जिक्र किया है। सोचती हूं सीमोन अपनी आर्थिक जरूरतें कैसे पूरी करती होंगी, यह भी कि होटलों में रहने का अर्थ हुआ कि आप हमेशा मेहमान हैंµ बिस्तर, परदे, कुर्सी टेबल कुछ भी आपका अपना नहीं। सीमोन के अनुभव पढ़ते हुए पाठक सीखता है कि कैफेटेरिया में कैसे बैठना चाहिए, लोगों से कैसे मिलना चाहिए, बहसें, पढ़ना लिखना और सोचने का सलीका भी। सीमोन कहती हैं कि कैफे में घुसते हुए यदि आप अपने ही दो आत्मीय मित्रों को आपस में बात करते हुए देखें तो उनके निकट बैठ कर बातचीत में बाधा न डालें, बेहतर हो चुपचाप वहां से हट जायें। ‘कहवाघर’ भी पढ़ने लिखने की जगह हो सकती हैµ इसे सीमोन साबित करती हंै और यह भी कि कैसे वह बिना संग साथ की अपेक्षा के सन् 1930 के आसपास मार्सिले और रोउन जैसे कस्बों में अध्यापन के वर्षों में लम्बी सैरों के लिए निकल जाया करती थीं। सोचती हूं कि आज भी स्त्रिायों के लिए उनका अपना ‘स्पेस’ खोजना मुश्किल होता है। भारतीय माहौल में कोई स्त्री काॅफी हाउस में बैठ कर लिखे, वो भी अकेली तो न जाने कितनी जोड़ी आंखें उसे बरजने को तत्पर हो जायेंगी। अब मेरी तबीयत बेहतर हो चली है। इन दिनों ‘फोर्स टू सरकमस्टांसेज’ पढ़ रही हूं जिसमें सीमोन द बोउवार ने युद्धोत्तर पेरिस का चित्रण किया है, जिसमें नये और बेहतर समाज के निर्माण का स्वप्न है, स्वतंत्रता के प्रति उत्तरदायित्व का बोध है। आत्मकथा के इसी भाग में उन्होंने नेल्सन एल्ग्रेन से अपने सम्पर्क की चर्चा की है। नेल्सन के साथ फाॅयरप्लेस के समक्ष संयोग और फिर पेरिस और शिकागो में दोनों का अलग अलग जीवन बिताना भी वर्णित है। भौगोलिक दूरी अपनी सातव्यता में कैसे आत्मीय सम्बंध का अंत कर देती है यह भी कि लिखने के लिए सीमोन ने पेरिस छोड़ना पसंद नहीं किया। इसके साथ बोउवार की उत्तर अफ्रीका, अमेरिका की वे लम्बी यात्राएं जो उसने अकेले कीं। सीमोन को यह चिन्ता भी खाये जा रही थी कि इतने सारे व्यापक जीवनानुभव, जीवन यात्राएं, ये सब उसके साथ ही खत्म हो जायेंगी। ‘आल सेड एंड डन’ में अपने मित्र सिल्विए बान के साथ आत्मीय सम्पर्क की चर्चा करते हुए सीमोन का कहना है कि उसने कभी कल्पना भी नहीं की थी कि उम्र के साठवें वर्ष में उसे कोई सहयोगी और मित्रा मिलेगा, लेकिन मिला। इन आत्मकथाओं में दो बातें मेरी समझ में आती हैंµ एक तो आत्मनिर्भरता यानी अपनी जिम्मेदारी स्वयं उठाना, दूसरे अपने को हमेशा बेहतर ढंग से समझने का प्रयास। सीमोन ने सात्र्रा के साथ सहजीवन जिया लेकिन विवाह नहीं किया क्योंकि स्वाधीनता के अर्थ दोनों के लिए अलग अलग थे। सीमोन लिखती हैंµ ‘‘अद्भुत थी स्वाधीनता! मैं अपने अतीत से मुक्त हो गयी थी और स्वयं में परिपूर्ण और दृढ़निश्चयी अनुभव करती थी। मैंने अपनी सत्ता एक बार में ही स्थापित कर ली थी, उससे मुझे अब कोई वंचित नहीं कर सकता था, दूसरी ओर सात्र् एक पुरुष होने के नाते बमुश्किल ही किसी ऐसी स्थिति में पहुंचा था, जिसके बारे में उसने बहुत दिन पहले कल्पना की हो... वह वयस्कों के उस संसार में प्रविष्ट हो रहा था, जिससे उसे हमेशा से घृणा थी।’’

 वैसे, मैं अब उस खोज में हूं जिस ओर आंद्रियाना मेस्त्रोविच ने इशारा किया था। लिलियाना के निजी जीवन के बारे में मुझे विशेष जानकारी नहीं थी, वैसे भी किसी के निज की तफ्तीश असभ्यता ही मानी जाती है। प्रेमचंद ने भी कहा है कि ऐसा कोई भी प्रश्न जो सामने वाले को असुविधा में डाल दे, नहीं पूछा जाना चाहिए। सीमोन द बोउवार के लेखन के साथ सफर करते करते युद्धोत्तर यूरोप ओर उसकी बदली परिस्थितियों के बारे में जानना चाहती हूं और इसके लिए एक बंद दरवाजा है मेरे सामने लिलियाना का। वह वार विक्टिम है ऐसी सूचना मरीयाना ने भी दी थी। मुझे जो जानना है वह या तो लिली बता सकती है या दुष्का। दुष्का बहुत भावुक है, पता नहीं मेरी बात का क्या अर्थ निकाले। अपने घावों को खुद नखोरना कुरेदना और बात है और दूसरों के सामने खोल कर रख 200 / देना... लिलियाना को विदेशी पसंद हैं। विशेषकर गंदुमी सांवली रंगत। मेरे पास हैदराबाद से लाये हुए कुछ मोती हैं उन्हें ‘गिफ्ट रैपर’ में लपेट कर मैंने लिलियाना के घर जाना तय किया है। दुष्का साथ है। लिली खूब स्वस्थ लम्बी चैड़ी, लगभग पचास की उम्र छूती महिला है, जो सिर्फ सफेद टायलेट पेपर खरीदती है। रंगीन टायलेट पेपर के इस्तेमाल से कैंसर हो जाता है, ऐसा विश्वास है उसे। सन की तरह सुनहरे सफेद बाल, मैजेंटा रंग की गहरी लिपस्टिक, कड़कती ठंडी शाम में भी वह गर्दन और वक्ष का उ$परी भाग खुला रखती है। लोगों को देख ढलके वक्ष को थोड़ा सहारा देकर, उपर उठा गर्दन अकड़ा कर चलना उसकी आदत में शुमार है। हाई हील और ऊँची स्कर्ट पहने वह सम्भ्रांत लोगों के बीच उठती बैठती है। उसके हाव भाव मेरी अब तक की जानी चीन्ही स्त्रियों से अलग हैं। सन् 1992-95 के दौरान क्रोएशिया बोस्निया हर्जेगोविना में जो स्त्रियां सर्ब सेनाओं के दमन का शिकार हुईं, लिली उनमें से एक है। युद्ध के दौरान बलात्कार, यौन हिंसा के हजारों मामले सामने आये, कुछ मामले सरकारी फाइलों में दब गये, कुछ भुला दिये गये और कुछ शिकायतें वापस ले ली गयीं। कुछ स्त्रियां मार दी गयीं, कुछ अवसाद और अन्य रोगों का शिकार हो गयीं। हालांकि जेनेवा कन्वेंशन में युद्ध के दौरान यौन हिंसा और सैनिकों द्वारा स्त्रियों के एकल या सामूहिक बलात्कार को मानवता के विरुद्ध जघन्य अपराध माना गया लेकिन पूरे विश्व में युद्धनीति के तहत स्त्रियों के प्रति यौन हिंसा एक अलिखित चर्या है। युद्धकाल के बलात्कार सामान्य बलात्कारों से अलग माने जाते रहे हैं, इनमें से बहुत से वाकयों की तहकीकात भी नहीं हो पाती। कई बार शोषिताएं और घर्षिताएं सामने भी नहीं आतीं। लिलियाना उन 68 बोल्ड औरतों में से एक है जिसने व्यापक सामूहिक बलात्कार की घटना की न सिर्फ रिपोर्ट दर्ज की, बल्कि वक्त और परिस्थितियों के आगे हार नहीं मानी, मृत्यु और जीवन, मूकता और बोलने में से जीवन का चुनाव किया, चुप नहीं रही। प्रथम और द्वितीय दोनों विश्वयुद्धों में कई देशों में सैन्य और अर्धसैन्य बलों ने सामूहिक बलात्कार की अनगिनत घटनाओं को अंजाम दिया। प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान बेल्जियम और रशिया औरतों के लिए सामूहिक मरणस्थली बने, वहीं दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान रूस, जापान, इटली, कोरिया, चीन, फिलीपींस और जर्मनी में बड़े पैमाने पर स्त्रिायों को घर्षित किया गया। आपसी छोटी बड़ी मुठभेड़ों में अफगानिस्तान, अल्जीरिया, अर्जेंटीना, बांग्लादेश, ब्राजील, बोस्निया, कम्बोडिया, कांगो, क्रोएशिया, साइप्रस, अल सल्वाडोर, ग्वाटेमाला, हैती, भारत, इंडोनेशिया, कुवैत, कोलम्बो, लाइबेरिया, मोजांबीक, निकारागुआ, पेरू, पाकिस्तान, रवांडा, सर्बिया, सोमालिया, टर्की, युगांडा, वियतनाम और जिम्बाब्वे जैसे देशों की लम्बी सूची है जहां यौन हिंसा और स्त्री की घटनाएं हुईं और बड़े बड़े भाषणों, राजनैतिक समझौतों के बीच प्रतिरोधी आवाजें दबा दी गयीं।


अब मुझे लिलियाना का पैर हिलाते हुए कंसर्टसुनना, अंधाधुंध सिगरेट पीना, एक आंख को हल्का दबा कर हंस देना अटपटा नहीं लगता। स्पिलत के चारसितारा होटल का मालिक आजकल लिली पर दिलोजान से फिदा है। लिली का कहना है इन गर्मियों में वह स्पिलत जाकर पूरे साल का खर्चा निकाल लेगी। वह ‘एस्कोर्ट’ है जिसके साथ के लिए व्यापारी, पर्यटक अच्छी रकम खर्च करते हैं। लिली अपने बारे में गम्भीरता से बात नहीं करती। उसने यौन हिंसा और सामूहिक बलात्कार झेला है, वह हंसती है जिन्दगी पर। उसके साथ की चवालिस स्त्रियां (जो अभी जीवित हैं) सर्ब सैनिकों से कई बार घर्षित हुईं। इनमें से 21 यौनदासियों के रूप में सैन्यशिवरों में रहीं और 18 ऐसी वृद्धाएं थीं जो किसी न किसी बलात्कार की साक्षी रहीं। इनमें से 29 स्त्रियां बलात्कार के कारण गर्भवती हुईं जिनमें से 17 ने शर्म और अपमान से बचने के लिए गर्भपात करा लिया। कुछ ने संतान पैदा करके सरकारी अनाथाश्रम में मुक्ति पायी। लिली का एकमात्रा बेटा जो ड्रग के शिकंजे में सरकारी पुनर्वास योजना का मेहमान बना हुआ है, 1996 में ही जन्मा। लिलियाना को सब कुछ याद है ब्यौरेवार, लेकिन याद  / 201 करना नहीं चाहती। मैं भी उसे ज्यादा परेशान नहीं करती और अपने फ्लैट पर वापस आ जाती हूं। नींद नहीं आ रही क्या हुआ होगा लिलियाना जैसी सैकड़ों लड़कियों का, क्या गुजरी होगी उन पर। मैं घुप्प अंधेरे में हूँ... कोई चेहरा नहीं, सिर्फ कराहें... विक्टर फ्रैंकल ने द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद ‘मैन्स सर्च फाॅर मीनिंग’ शीर्षक पुस्तक लिखी थी, जिसमें आश्वित्स के यातना शिविर की दैनंदिनी है। फ्रैंकल का कहना है कि जिस रूप में बंदी अपने भविष्य के बारे में सोचता था उसकी उम्र उसी पर निर्भर करती थी। उसने ‘लोगोथेरेपी’ का सिद्धांत दिया और बताया कि जिनके पास जीने का कोई कारण होता है, वे कैसे भी जी लेते हैं। इन यौनदासियों के पास जीने का क्या करण होगाµ पति, बच्चों, मां, सास के सामने निर्वस्त्र और बलात्कृत की जातीं, महीने दर महीने साल भर। उनके अपमान और यातना की कोई सीमा नहीं। उनके पास जीने का क्या कारण बच रहा होगा? अर्धनिद्रा में मुझे आश्तविज का यातना शिविर दीख रहा है बेचैनी, पसीना और घबराहट... गोद में बच्चा लिए लिलियाना दौड़ रही रही है, कांटेदार बाड़ के पास सैनिक ही सैनिक... गोरे लाल मुंह वाले लम्बे चैड़े सैनिक लिलियाना को नोच रहे हैं, घसीट रहे हैं, उसके मुंह पर थूक रहे हैं, पैरों को फैला रहे हैं, बछड़ा पैदा करती गाय सी डकरा रही है वह। उसके उपर एक एक करके लद गये हैं लोग... लिलि... लिलियाना...। अपनी चीख से नींद टूट गयी है... उठ कर देखा है फोन पर कुछ संदेश आये हैं... पानी पिया है, कभी की पढ़ी पंक्ति याद आती है

तुमि गुछिए किछू कथा बोलते पारो ना
शुधू समय निजे गल्पो बोले जाये

ठीक ही तो, कहां लिख पा रही हूं खूबव्यवस्था से। लिलियाना जैसी अनेकानेक ने मेरा चैन छीन लिया है, दिन रात उन्हीं के बारे में सोचती हूं और... और जानना चाहती हूं जिनकी कथा समय ही लिखेगा लेकिन कब?

लिलियाना और ईगोर ने मुझे पार्टी मेंचलने को कहा हैµ मैं थोड़े पेशोपेश में हूं। शाकाहारी और मदिरा से परहेज करने वाला भारतीय संस्कार चोले में मुंह दबाये हंस रहा है। पिता को मालूम चला और पितातुल्य गुरु नित्यानंद तिवारी, वे तो अविश्वस्त नेत्रों से ताकेंगे भर मुझे। लिली बताती है कि वहां कुछ औरतें मिलेंगी मुझे, जो हो सकता है अपने बारे में कुछ बोलें। खैर हम शलाटा जाते हैं जहां से ‘पाॅट पार्टी’ में जाना है। इसके बारे में मुझे कोई विशेष जानकारी नहीं, लेकिन पहंुचते ही लगा, नशीले धुएं से भरा माहौल दम घोंट देगा। कई लोग जिनमें लड़कियों की संख्या बहुत थी, हशीश, चरस, गांजा आदि का सेवन कर रहे हैं, बिना पिये ही सिर चकराने लगा। लोग चुप लेटे हैं, कोई छत ताक रहा है कोई दम लगा रही है, हल्का संगीत बज रहा है, ध्यान से सुना श्री श्री रविशंकर की सभाओं में बजने वाला हरे कृष्णा... राधे राधे यहां की हवाओं में झंकृत है। मैं बाहर जाना चाहती हूं, इस दमघोंटू माहौल में आकर गलती की... उफ नहीं आना चाहिए था। दीवार से सट कर एक जोड़ा खड़ा है, लड़के ने आगे बढ़ कर मुझसे कुछ कहा है और हौले से मेरे बाल छुए हैं। ‘जेलिम डौटाक्नुटी स्वोजे क्रेन ड्लाके’ (मैं तुम्हारे काले बाल छूना चाहता हूं) सुनते ही मैं दौड़ कर बाहर आ गयी हूं जैसे नरककुंड से बच कर लौटी हूं। लिलियाना और ईगोर का कुछ पता नहीं। मैंने तीन ट्रामें बदली हैं और सुरक्षित लौट आने के सुकून ने मुझे गहरी नींद दे दी। अगले रविवार लिलियाना हंस कर कहती हैं ‘नेमोज्ते से प्रेपाला’ यानी डरो मत, यहां जबरदस्ती कोई कुछ नहीं करेगा, तुम्हारे बाल काले हैं जो यहां वालों के लिए कुतूहल है।

तुर्केबाना येलाचीचा जाते हुए ट्राम लोहेकी ईटों की सड़क के बीचोंबीच बने हुए ट्रैक पर मुड़ती है। गोल इमारत के ऊँचे-ऊँचे कांचदार दरवाजे जिनके भीतर भांति भांति की दुकानें हैं। उनी, 202 / सूती वस्त्र, जो अधिकतर भारत और चीन के टैग से सुसज्जित हैं, जूते वियतनाम और थाईलैण्ड के बिक रहे हैं, दुकानदार की शक्ल दुमकटे लोमड़ जैसी है। सपाट चेहरे पर लाल नाक और गहरी कंजी आंखें, व्यवहार में विनम्र दीखता है लेकिन लाल भूरे बालों के भीतर रखे सिर में कुछ ऐसा खदबदा रहा है, जिसे मैं ‘रंगभेद’ समझती हूं। सांवली रंगत का मनुष्य उसके बहुत सम्मान का पात्रा नहीं, ऐसी गंध मेरी छठी इंद्रिय को मिल रही है। दुकान के बाहर कोने पर एक छः सात वर्षीय गोरे, चित्तीदार चेहरे वाला लड़का शीशे से अपनी नाक सटाये है। बड़ा सा लबादा पहना हुआ है उसने। पैरों में नाप से बड़े जूते। दुकानदार को बाहर आते देख वह खरगोश की तरह फुदक कर गायब हो जाता है। इसके बाद ही जाग्रेब की मशहूर केक की दुकान है जहां क्रोशियन और जर्मन केक की ढाई सौ से अधिक किस्में अपने पूरे शबाब के साथ शीशे की पारदर्शी अलमारियों में भारी जेब के दिलदार खवैयों का इंतजार कर रही हैं। तुर्की की विजिटिंग प्रोफेसर गुलदाने कालीन ने इस दुकान की पेस्ट्री की तारीफ कई बार की है। आज सोचा खा ही लूं, इन केक्स की खूबी इनकी क्रीम है जो मनुष्य के मेदे और वजन को चुनौती देती है। मनचाहा सजीला संवरा, क्रीम में लिपटा, बारीक डिजाइनदार केक का रसीला बड़ा सा टुकड़ा प्लेट में सामने है, कीमत है पचास कूना यानी लगभग पांच सौ रुपये। अपने यहां भी ‘बरिस्ता’ में लगभग यही दाम है। केक का पहला टुकड़ा खाती हूं कि दुकान का मैनेजरनुमा आदमी बाहर खड़ बच्चे को दुरदुराता हुआ चिल्लाता है। हाथ में आलू चिप्स का फटा पैकेट लिए बच्चा दुकान के बीचोंबीच आ गया है, कर्मचारी लड़का उसका लबादा खींच कर घसीट रहा है। दुकान में सुरक्षा सायरन बजने लगा। बच्चा कुछ बोल नहीं पा रहा है, मेरे पहुंचते पहुंचते बच्चा फुटबाल की तरह सड़क पर फेंका जा चुका है। पूछने पर वह दुकान के कूड़ेदान की ओर इशारा करता है। ‘जा सम गलदना’ (मैं भूखा हूं) कह कर जार जार रो रहा है। अनुमान करती हूं कि किसी के अधखाये चिप्स उठा कर बच्चा पेट भर रहा होगा और दुकान मालिक ने देख लिया होगा। मुझे अब केक नहीं खाना। शायद कभी नहीं? खून से बच्चे की नाक रंग गयी है। केक खरीदती हूं उसके लिए। वह सुबकता हुआ जा रहा है, शायद शरणार्थी है। हाथ की मुट्ठी में दबे केक की सफेद क्रीम लाल हो रही है1 उफ मेरे मौला... ऐसे न जाने कितने बच्चे दरबदर हो भटक रहे हैंµ सम्मानहीन, भोजनहीन, आश्रयहीन। स्वयंसेवी संस्थाएं हैं, सरकारें हैं, लेकिन हम अपना सुखभोग छोड़ कर इनकी तरफ देखते हैं क्या? मन नम है और बाहर बरसात शुरू हो गयी है.

पास रहो, डर लग रहा है
लग रहा है कि शायद सच नहीं है यह पल
मुझे छुए रहो
जिस तरह श्मशान में देह को छुए रहते हैं
नितांत अपने लोग,
यह लो हाथ
इस हाथ को छुए रहो जब तक पास में हो
अनछुआ मत रखो इसे,
डर लगता है
लगता है कि शायद सच नहीं है यह पल
जैसे झूठा था पिछला लम्बा समय
जैसे झूठा होगा अगला अनंत
नवनीता देवसेन / 203

जाग्रेब पुनर्वास केन्द्र में औरतें जीवनयापन के लिए छोटेमोटे काम सीखती हैं जिनमें सामान की पैकेजिंग, मुरब्बे, जैम, अचार, मसाले इत्यादि बनाना शामिल है। बोस्निया, हर्जेगोविना, क्रोएशियाके खिलाफ युद्ध में सर्बिया ने नागरिकों को डराने के लिए उनकी स्त्रिायों पर बलात्कार किये। आक्रमणकारी छोटे छोटे समूहों में गांवों पर हमला करते जिनका पहला निशाना होतीं लड़कियां और औरतें। सामूहिक बलात्कार का सार्वजनिक प्रदर्शन किया जाता ताकि दूसरे गांवों को अपने हश्र का अंदाजा हो जाये। 1991-1995 के दौरान सर्ब सैनिकों ने सैन्य कैम्पों, होटलों, वेश्यालयों में बड़े पैमाने पर यौन हिंसा के सार्वजनिक प्रदर्शन किये। बोस्निया और हर्जेगोविना पर जब तक सर्बिया का कब्जा रहा, किसी उम्र की कोई स्त्री ऐसी नहीं बची जिसका घर्षण या बलात्कार न किया गया हो। लिली और दुष्का तब अपनी नानी के गांव में रहा करती थीं। दुष्का को पर्यटन विभाग में नौकरी मिली और वह जाग्रेब चली आयी। सर्ब होते हुए भी वे दोनों क्रोएशिया की नागरिक थीं और उससे भी पहले थीं लड़कियांµ ताजा, जिन्दा, टटका स्त्री मांस। लिली उन आभागी लड़कियों में से एक थी, जिन्हें नोचा खसोटा और पीट कर कैद में रखा गया। कई लड़कियों को अश्लीलता के सार्वजनिक प्रदर्शन के लिए बाध्य किया जाता रहा, यौनांगों को सिगरेट से दागा गया और एक दिन में कई बार बलात्कार किया जाता रहा। इन पुनर्वास केन्द्रों ने ऐसी स्त्रिायों को स्वावलम्बी बनने में मदद की थी और यह सिलसिला अब भी जारी है। युद्ध शुरू होते ही परिवार के परिवार गांवों को छोड़ कर भाग जाते, पीछे छूट जाते खेत, ढोर डंगर और पकड़ ली जातीं औरतें जिनकी उम्र दस से लेकर साठ सत्तर वर्ष की हुआ करती। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इस तरह के अत्याचारों को युद्ध अपराध की संज्ञा दी गयी, लेकिन युद्ध थमने के बाद भी यौन हिंसा की शिकार इन औरतों के लिए कोई ठोस सरकारी नीति नहीं बनी। विश्व के कई देशों ने द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद जर्मनी पर आधिपत्य जमाने के लिए ‘बलात्कार’ का हथियार के रूप में इस्तेमाल किया। इसी तरह बांग्लादेशी स्त्रिायों का पाकिस्तानी सैनिकों द्वारा बड़े पैमाने पर घर्षण किया गया। युगांडा के सिविल वार और इरान में स्त्रिायों से जबरदस्ती यौन सम्बंध बना कर अपमानित करने की घटनाओं से हम सब वाकिफ हैं। चीन के नानकिंग में जापानी सेना द्वारा स्त्रिायों का सामूहिक यौन उत्पीड़न, दमन और श्रीलंकाई स्त्रिायों के घर्षण के हजारों मामले ‘नवसाम्राज्यवाद’ को फैलाने के लिए जोरदार और कारगर हथियार बने। कई स्त्राीवादियों ने वृत्तचित्रों, फिल्मों द्वारा इस तरह की घटनाओं के खिलाफ जनमत संग्रह के कारगर प्रयास भी किये, लेकिन बोस्निया और हर्जेगोविना की औरतों की बात अंतरराष्ट्रीय स्तर पर गम्भीर चर्चा का विषय कभी बनी ही नहीं। क्रोएशिया से सटे बोस्निया जाने का निर्णय मैंने किया है, जिसके लिए भारतीय दूतावास से अनुमति अनिवार्य है।

दूतावास में बोस्निया जाने की अनुमति आसानी से मिल गयी लेकिन वहां के अधिकारी बड़े दबे स्वर में उपहास करते हैंµ ‘‘लोग तो पेरिस और इटली, जर्मनी घूमते हैं, मजे करते हैं और आप ‘वार विक्टिम’ के पीछे पड़ी हैं।’’ बोस्निया में लूट, भ्रष्टाचार, झूठ, राहजनी सभी कुछ हैं लेकिन हरियाले खेतों के बीच से जाती सड़क का रास्ता बुरा नहीं। बोजैक बोस्नियाई विद्यार्थी है, जो जाग्रेब में पढ़ता है, साथ ही कुछ रोजगार भी। उसकी उम्र पचास के उ$पर ही है, उसके सामने ही उसकी आठ वर्षीय बेटी और पत्नी को बार बार घर्षित किया गया। बच्ची तीन दिन तक रक्त में डूबी रही, सैनिक उससे खेलते रहे, इस बीच कब उसने अंतिम सांस ली, पता नहीं। बोजाक वह जगह दिखाता है जहां उसकी पत्नी दिल की बीमारी और अवसाद से मर गयी। ‘लाइफ मस्ट गो आॅन’ कह कर बोजाक फटी आंखों से हंसता है और अगला युद्ध कैम्प दिखाने चल पड़ता है। बच्ची को खोकर, बाद के वर्षों में उसकी पत्नी प्रभु ईसू से अपने अनकिये पापों के लिए दिन भर क्षमा मांगा करती। 204 / उसका पाप क्या था? इसके उत्तर में बोजाक कहता है ‘‘औरत होना...।’’ शांति स्थापित होने के बाद भी जिन्होंने युद्ध को अपनी देहों पर रेंगता, चलता, बहता महसूस किया, एक बार नहीं अनेक बार जिनकी कोखों ने क्रूर सैनिकों के घृणित वीर्य को जबरन वहन किया, वे हमेशा के लिए हृदय और मानसिक रोगों का शिकार हो गयीं। रवांडा में तो अकेले 1994 में लगभग 5000 बच्चे युद्ध हिंसा के परिणामस्वरूप जन्मे थे। क्रोएशिया में ऐसे बच्चों की सही संख्या का पता कोई एनजीओ नहीं लगा सका, क्योंकि अधिसंख्य मामलों में लोग चुप लगा गये, पड़ोसी नातेदार सब जान कर भी घाव कुरेदने से बचते रहे। युद्ध सबके दिलो दिमाग में पसर गया। बलात्कार की शिकार या गवाह रही अधिसंख्य स्त्रिायां मृत्युबोध से ग्रस्त हैं। वे सामाजिक सम्बंध भी स्थापित नहीं करना चाहतीं। कई तो बस सालों तक टुकुर टुकुर ताकती रहीं, कुछ बोल नहीं पातीं। कुछ ने अपना घरबार छोड़ दिया और फिर कभी यौन सम्बंध स्थापित नहीं कर पायीं। एक मोटे अनुमान के अनुसार बोस्निया में युद्ध के दौरान लगभग पचास हजार लड़कियां और औरतें बलात्कार का शिकार हुईं और उधर ‘इंटरनेशनल क्रिमिनल ट्रिब्यूनल फाॅर द फार्मर यूगोस्लाविया’ यौन दासता और बलात्कार को मानवता के प्रति अपराध के रूप में दर्ज कर कागज काले करता रहा।

संयुक्त यूगोस्लाविया का विखंडन बोस्निया और हर्जेगोविना, क्रोएशिया, मैसीडोनिया गणतंत्रा,स्लोवेनिया जैसे पांच स्वायत्त देशों में हुआ था, जो बाद में चल कर सर्बिया, मांटेग्रो और कोरनोवो में बंटा। क्रोएशियाई, सर्ब और बोस्नियाई लोगों के बीच जो युद्ध और झड़पें हुईं उनमें से अधिकतर भूमि अधिग्रहण को लेकर थीं। आज भी सात हजार से अधिक क्रोएशियन शरणार्थी बोस्निया और हर्जेगोविना में हैं और इस देश में लगभग 131,600 लोग विस्थापित हैं। क्रोएशिया और बोस्नया की 935 किमी की सीमा साझा है। हमें यहां पर धोखाधड़ी से बार बार क्रोएशियन दूतावास, जो सराजेवा में है, आगाह किया गया है। रास्ते में कई बार पासपोर्ट और वीजा चेक किया गया। मुझे यहां के खस्ताहाल संचार साधनों और सड़कों को देख कर भारत के कई छोटे शहरों की याद आती है। पूरे इलाके में बारूदी सुरंगों का खतरा है, इसलिए पुलिस ट्रैफिक को रो कर घंटों पूछताछ करती है। पुराने लोग अंग्रेजी नहीं समझते, जबकि नयी पीढ़ी अंग्रेजी बोलती और समझती है। युद्ध के दौरान कई
बोस्नियाई जर्मनी भाग गये थे, इसलिए इनकी भाषा में जर्मन शब्दों का आधिक्य है। हमें उना नदी में रिवर राफ्टिंग का आमंत्राण है लेकिन मेरा ध्यान कहीं और है।

कल लिली ने 1993 के लास एंजिल्स टाइम्स में प्रकाशित मिरसंडा की आपबीती दी थी। होटल लौट कर मैंने वही टुकड़ा उठाया हैµ ‘‘रोज रात को सफेद चीलें हमें उठाने आतीं और सुबह वापस छोड़ जातीं। कभी कभी वे बीस की तादाद में आते। वे हमारे साथ सब कुछ करते, जिसे कहा या बताया नहीं जा सकता। मैं उसे याद भी नहीं करना चाहती। हमें उनके लिए खाना पकाना और परोसना पड़ता नंगे होकर। हमारे सामने ही उन्होंने कई लड़कियों का बलात्कार कर हत्या कर दी, जिन्होंने प्रतिरोध किया, उनके स्तन काट कर धर दिये गये।

‘‘ये औरतें अलग अलग शहरों और गांवोंसे पकड़ कर लायी गयी थीं। हमारी संख्या लगभग 1000 थी। मैंने लगभग चार महीने कैम्प में बिताये। एक रात हमारे सर्बियाई पड़ोसी के भाई ने हममें से 12 को भगाने में मदद की। उनमें से दो को सैनिकों ने पकड़ लिया। हमने कई दिन जंगल में छुप कर बिताये। अगर पड़ोसी हमें न बचाता तो मैं बच ही नहीं पाती, शायद अपने को मार लेती, क्योंकि मैं जिस यातना से गुजरी, उतनी यातना तो मृत्यु में भी नहीं होती।

‘‘कभी कभी मुझे लगता है कि रात केये दुःस्वप्न मेरा पीछा कभी न छोडेंगे। हर रात मुझे कैम्प के चौकीदार स्टोजान का चेहरा दीखता है। वह उन सबमें सबसे निर्मम था, उसने दस साल की  बच्ची को भी नहीं बख्शा था। ज्यादातर बच्चियां बलात्कार के बाद मर जाती थीं। उन्होंने बहुतों को मार डाला। मैं सब कुछ भूलना चाहती हूं, नहीं तो मर जाउगी।’’

 पढ़ कर मेरा मन घुटन से भर गया है, भूख नींद गायब हो गयी है। स्काइप खोल कर देखा है। कोई मित्र आत्मीय आॅनलाइन नहीं है। इस समय भारत में आधी रात होगी। दिल बहलता नहीं बाल्कन प्रदेश के पार से आती गुमसुम बोझिल हवाओं के घोड़ों पर सवार लम्बे, कद्दावर क्रूर सर्बियाई सैनिक दीखते हैं, हवा में तैरती चीखें और पुकारें हैं। 1992 में फोका की स्कूल जाने वाली लड़की बताती है कि कैसे जोरान वुकोविच नामक आदमी ने उससे जबरदस्ती संसर्ग किया और बाद में दूसरों के आगे परोस दिया। स्कूल में सैनिकों का जत्था घुसा और आठ लड़कियों को चुन कर उनसे निचले कपड़े उतार कर फर्श पर लेटने को कहा। पूरी क्लास के सामने इन आठों का जम कर बलात्कार किया गया। सैनिकों ने बोस्नियाई मुसलमान लड़कियां चुनीं, उनके मुंह में जबरन गुप्तांग ठूंसे और कहा ‘‘तुम मुसलमान औरतें (गाली देकर) हम तुम्हें दिखाते हैं।’’ उसके पास कोई शब्द ऐसा नहीं, जो उसकी यातना व्यक्त करने में सक्षम हो। बार बार यही कहती है ‘एक औरत के साथ इससे बदतर कुछ हो ही नहीं सकता।’

उसे बाद में पाट्रीजन स्पोर्ट्स हाॅल में, अलग अलग उम्र की लगभग साठ अन्य स्त्रिायों के साथ बंधक बना कर रखा गया। वे बारी बारी सर्ब सैनिकों द्वारा ले जायी जातीं और बलात्कार के बाद लुटी पिटी घायल अवस्था में स्पोर्ट्स हाल में बंद कर दी जातीं। सर्ब सेनाओं ने घरों, दफ्तरों और कई स्कूलों की इमारतों को यातना शिवरों में बदल डाला था। एक बोस्नियाई स्त्राी ने बतायाµ ‘‘पहले दिन हमारे घर पर कब्जा करके परिवार के मर्दों को खूब पीटा गया। मेरी मां कहीं भाग गयी, बाद में भी उसका कुछ पता नहीं चल पाया। वे मुझे नोचने खसोटने लगे। भय और दर्द से मेरी चेतना लुप्त हो गयी... जब जगी तो मैं पूरी तरह नंगी और खून से सनी हुई फर्श पर पड़ी थी... यही हाल मेरी भाभी का भी था... मैं जान गयी कि मेरा बलात्कार हुआ है... कोने में मेरी सास बच्चे को गोद में लिए रो रही थीं।... उस दिन से हमें हमारे ही घर में कैद कर दिया गया। यह मेरी जिन्दगी का सबसे बुरा वाकया था... वे हमेशा हमें पंक्तिबद्ध कर सैनिकों के सामने ले जाते और हमें परोस देते। मकान में वापस लाकर भी अश्लील हरकतों के लिए मजबूर करते और हमें रौंदते... हमारे बच्चों के सामने भी हमें खसोटते। ये सब एक साल तक चला, अधिकतर औरतें या तो मर गयीं, पागल हो गयीं या वेश्याएं बन गयीं।’’

युद्ध के बाद ‘डेटन एकाॅर्डस’ नाम से शांति समझौता हुआ था, जिसके अनुसार यौन हिंसा पीड़िताओं को घरवापसी पर मकान और सम्पत्ति दी जानी थी लेकिन ऐसी बहुत कम औरतें थीं, जो घरवापसी के लिए तैयार थीं। अधिसंख्य ने अपने पुराने मकानों में लौटने से इनकार कर दिया क्योंकिवहां उनकी यातना और अतीत के नष्ट जीवन के स्मृतिचिह्न थे।

अप्रैल 1992 के दिन को इतने वर्षों बादभी हासेसिस नाम मुस्लिम स्कूली छात्रा भूल नहीं पायी है, जब सर्ब सैनिक उसे विजेग्राद के पुलिस स्टेशन के तहखाने में ले गयेµ ‘‘उस कमरे में लकड़ी का बहुत सा सामान था, कुर्सियां वगैरह। वहां मैंने मिलान ल्यूसिक और स्ट्रोजो लूसिक को देखा। मैं मिलान को अच्छी तरह जानती थी। उसने चाकू लहराते हुए कहाµ ‘अपने कपड़े उतारो, लगा वह मजाक कर रहा है... लेकिन सच यही था कि इतना पुराना सर्बियाई पड़ोसी कई सैनिकों के साथ मुझेअपमानित करने पर तुला था...।’

स्पाहोटल ‘विलिना व्लास’, जो आज पर्यटकों के आकर्षण का केन्द्र है, विश्वास नहीं होता पर मुझे बताया जाता है कि यहां दो सौ औरतों को बंद करके रखा गया था। बूढ़ी बाल्कन स्त्री को 206 / तारीख याद नहीं लेकिन वाकया बखूबी याद है ‘‘मैं अपने बेटे को लेकर जंगल में छिप गयी थी। मेरा 16 साल का बेटा मेरे साथ था लेकिन बेटी को मैंने घर के तहखाने में छिपा दिया था, क्योंकि सुनने में आया था कि वे लड़कियां उठा ले जाते हैं। उन्होंने मुझे पकड़ कर धमकाया, बेटे के सामने मेरे कपड़े उतारे और चाकू से बेटे का गला रेत दिया, ‘मम्मी’ यही अंतिम शब्द था जो मेरा बेटा बोल पाया। कभी कभी वे मुझे दो दिन के लिए कैम्प ले जाते फिर होटल वापस छोड़ जाते। मैं गिनती ही भूल गयी कि उन्होंने कितनी बार मुझसे बलात्कार किया। होटल के सारे कमरों में ताले लगे रहते, वे खिड़की के रास्ते हमें रोटी फेंकते, जिसे हमें दांतों से पकड़ना पड़ता क्योंकि हमारे हाथ तो पीछे बंधे रहते। सिर्फ बलात्कार के वक्त ही हमारे हाथ खोले जाते। हमें समय का ज्ञान भूल गया। हमारी देह को सिगरेट से जलाया जाता, जीभ पर चाकू चला कर मांस का टुकड़ा काट लिया जाता। हममें से ज्यादातर औरतें न बोलती थीं, न रोती थीं। कुछ ने अपनी जान भी ले ली और कई तो दर्द और भूख से मर गयीं। कई औरतों का सात से नौ घंटे के बीच नौ बार बलात्कार हुआ। कुछ बलात्कारों की रिकार्डिंग भी की गयी, जिनका इस्तेमाल पोर्नोग्राफी के बाजार के लिए किया गया।’’

ये बलात्कार किसी सरकार द्वारानहींबल्कि व्यक्ति विशेष द्वारा किये गये थे, इसलिए कई अंतरराष्ट्रीय संगठनों का मानना था कि ये मानवाधिकारों का उल्लंघन नहीं है क्योंकि उन्हें लगता था कि सिर्फ सरकारी संगठन ही मानवाधिकारों का उल्लंघन कर सकते हैं, लेकिन बाद में जब बोस्निया सरकार ने अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में सर्ब सैनिक टुकड़ियों की हिंसा को ‘जेनोसाइड’ कहा और 1993 में संयुक्त राष्ट्रसंघ ने पहली बार ‘अंतरराष्ट्रीय युद्ध अपराध ट्रिब्यूनल’ की घोषणा की, तब ऐसे कुछेक मामलों की सुनवाई आरम्भ हुई। इन सुनवाइयों में कभी आरोपी की पहचान से इनकार किया गया तो कभी मुद्दई ने आरोप वापस ले लिए। दिलचस्प यह भी था कि ट्रिब्यूनल के पास सुनवाइयों की व्यवस्था के लिए धन का नितांत आभाव था, जिसकी पुष्टि 7 दिसम्बर 1994 के न्यूयार्क टाइम्स की रपट करती है। दुखद आश्चर्य था कि ट्रिब्यूनल की 18 सदस्यीय जांच समिति में मात्रा तीन स्त्रियां थीं। लम्बी जांच प्रक्रिया के बाद बोस्निया में यातना शिविर चलाने और हिंसा के लिए 21 सर्ब सैनिक कमांडरों को दोषी पाया गया। न्यायालय ने कहा कि µ ‘ओर्मास्का कैम्प में स्त्रियों को बंधक बनाया गया, बलात्कृत कर जान से मारा गया। कइयों को बुरी तरह पीटा और अन्य बर्बर ढंग से बर्ताव किये गये।’ न्यूयार्क में अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार कानून की विशेषज्ञ रोंडा कोंपलोन का मानना था कि  स्त्रिायों की अनुमति/सहमति के बिना ऐसे मामलों में उनकी पहचान को सार्वजनिक करना गलत है। बोस्निया की मुस्लिम बहुल आबादी में ऐसी स्त्रिायां बहुत कम थीं, जो आरोपियों को पहचानने के लिए आगे आयीं।

बोस्निया युद्ध हिंसा की शिकार अधिसंख्यस्त्रियों को न्याय नहीं मिला। कुछ मर खप गयीं और कुछ दूसरी जगहों पर बस गयीं। युद्ध में शक्ति प्रदर्शन, लिंग विशेष के प्रति संचित घृणा ही बलात्कार जैसे कृत्यों में परिणत होती है। बलात्कार और यौन हिंसा एक तरह की ‘युद्ध रणनीति’ है, जिसके लिए कठिनतम और कठोर दंड का प्रावधान जब तक नहीं होता तब तक बलात्कार के शिकार बच्चों, स्त्रियों या अन्य किसी भी व्यक्ति को न्याय नहीं मिल सकता। युद्धकालीन यौन हिंसा की ओर से आंखें मूंदे रखना अधिसंख्य देशों की अघोषित राष्ट्रीय रणनीति है, लेकिन कागज पर विश्व के तीन चैथाई देशों ने युद्ध के दौरान यौन हिंसा को खत्म करने के लिए ‘डेक्लरेशन आॅफ कमिटमेण्ट टू सेक्सुअल वायलेंस इन काॅनफ्लिक्ट्स’ पर दस्तखत कर रखे हैं। लौटने के पहले बोस्निया के ल्यूकोमीर गांव की तरफ हम घूमने गये हैं। कहा जाता है कि यह यूरोप में सबसे उ$ंचाई पर बसा हुआ गांव है जहां आज भी आदिम सभ्यता सुरक्षित है। बिजली और आधुनिक उपकरणों के बिना जीवनयापन  / 207 आराम से हो रहा है। इसमें मेरे लिए आश्चर्य वाली कोई बात नहीं क्योंकि भारत में आज भी कई गांव बिजली जैसी सुविधा से वंचित हैं। लिलियाना मुझे घुमाने में थक गयी है, मेकअप की गहरी परत के भीतर छिपा विषाद उसके चेहरे पर दीख रहा है। पूरे रास्ते उसने मेरा कंधा पकड़ रखा है, शायद सब कुछ कह देने के बाद मनुष्य कमजोर हो जाता है। रवीन्द्रनाथ ने अंतिम यूरोप यात्रा से लौट कर शांतिनिकेतन में कहा थाµ ‘आमि ओई खाने कंठ ता हारिए ऐशेछी’। आज समझ पायी हूं कि रवि बाबू यूरोप जाकर अपना गान भूल क्यों गये होंगे। क्रोएशियन हाइकू कवि और पेशे से डाॅक्टर तोमिस्लाव मारेतिच जाग्रेब आये हैं। उन्हें मैंने बोस्निया यात्रा वृत्तांत के कुछ टुकड़े सुनाये हैं। बड़ी देर चुप रहने के बाद इटली से मिहिनो का भेजा स्कार्फ मुझे देते हुए दोस्ताना पेशकश करते हैंµ ‘नेमोज्ते पिसाती ओवो। ने ओब्जाविती ओवो’ (कृपया मत लिखो इसे। प्रकाशित मत करो) मैंने मुस्करा कर क्रोएशियन ढंग से सिर हिला दिया है। छपाने न छपाने के द्वंद्व में तीन वर्ष गुजर गये हैं। सन् 2010-2011 की प्रवास दैनंदिनी अब मुक्त हुई है, स्वच्छंद उड़ान के लिए। मित्रा की बात न रख सकी, इसका अफसोस है। डायरी के पन्ने सुधारते सुधारते हर सुबह गुरुदेव गुनगुना जाते हैं
अंध जने देहो आलो
मृत जने देहो प्राण
तुमि करुणामृत सिन्धु
करो करुणादान
जे तोमाए डाके नहीं
तारे तुमि डाको, डाको...
(दृष्टिहीन को प्रकाश दो, मृत देह को दो प्राण, तुम करुणा अमृत के सागर हो, करो करुणा का दान। जिसने तुम्हें पुकारा नहीं उसे भी तुम पुकारो ‘गीतवितान’)

टेलिविजन पर बीबीसी बल्ड चल रहा है। युद्ध के दौरान यौन हिंसा के विवरण जुटाने और जांच करने के बारे में विलियम हेग और एंजेलीना जाॅली द्वारा शुरु किये गये अंतरराष्ट्रीय प्रोटोकोल का प्रारूप प्रसारित हो रहा है.

‘‘हम सभी देशों से अपील करेंगे कि वे बलात्कार और यौन हिंसा सम्बंधी अपने कानूनों को अंतरराष्ट्रीय मानदंडों के अनुरूप बनायें। हम सभी सैनिकों और शांतिरक्षकों के उचित प्रशिक्षण की मांग करेंगे ताकि वे युद्ध क्षेत्रा में यौन हिंसा को समझ और रोक सकें। शरणार्थी कैम्पों में रोशनी के प्रबंध से लेकर जलावन एकत्रा करने बाहर जाने वाली महिलाओं के साथ रक्षाकर्मी के जाने जैसे साधारण उपायों के जरिये हमले की संख्या में भारी कमी लायी जा सकती है और हम चाहते हैं कि ये आधारभूत सुरक्षा उपाय सार्वभौम हों।’’

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पद्मावती फिल्म में 'सती'दिखाये जाने के खिलाफ संसदीय समिति के सवाल: स्त्रीकाल में पहली बार दर्ज हुआ था यह सवाल

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पिछले दिनों स्त्रीकाल में स्त्रीवादी अधिवक्ता अरविंद जैन नेएक लेख लिखकर पहली बार इस मुद्दे की ओर ध्यान दिलाया था कि फिल्म या कोई टेक्स्ट 1987 के सती क़ानून के बाद क्या सती का महिमांडन करती प्रस्तुति कर सकता है? संसदीय पैनल ने भी यही सवाल पद्मवती फिल्म के निदेशक संजय लीला भंसाली से पूछा कि क्या सती या जौहर दिखाया जा सकता है? हालांकि अधिकांश ख़बरों में इस महत्वपूर्ण सवाल पर चर्चा तक नहीं हुई.






19 नवंबर के अपने लेख में अरविंद जैनसवाल लिखते हैं: 

1987 के 'सती प्रिवेंशन एक्ट'ने यह सुनिश्चित किया किसती की पूजा, उसके पक्ष में माहौल बनाना, प्रचार करना, सती करना और उसका महिमामंडन करना भी क़ानूनन अपराध है.  इस तरह  पद्मावती पर फिल्म बनाना, उसे जौहर करते हुए दिखाना, सती का प्रचार है, सती का महिमामंडन है और इसलिए क़ानून का उल्लंघन भी. यह एक संगेय अपराध है और इसका काग्निजेंस सेंसर बोर्ड को भी लेना चाहिए. क्योंकि सेंसर बोर्ड को भी जो गाइड लाइंस हैं वह स्पष्ट करती हैं कि कोई भी फिल्म ऐसी नहीं हो सकती जो क़ानून के खिलाफ हो या संवैधानिक प्रावधानों के खिलाफ जाती हो.  इसलिए सेंसर बोर्ड को भी देखना चाहिए कि क्या यह फिल्म सती प्रथा का महिमामंडन करती है?  यदि ऐसा है तो उसे फिल्म को बिना कट प्रमाण पत्र नहीं देना चाहिए. अदालतों को भी सुमोटो एक्शन लेना चाहिए था. यह ऐसा ही है कि देश में छुआछूत बैन हो और आप छुआछूत को जस्टिफाय करने वाली फ़िल्में बना रहे हैं. रचना कर रहे हैं.



30 नवंबर  को संसदीय पैनल ने पूछा: 

क्या सती और जौहर दिखाया जा सकता है? इसके अलावा अन्य सवाल थे:  क्या उन्होंने सेंसर बोर्ड को प्रभावित करने के मसकद से कुछ मीडिया समूहों को अपनी फिल्म दिखाई थी और क्या यह कदम उचित और नैतिक है?  ‘आपने 11 नवंबर को आवेदन करने के बाद यह कैसे मान लिया कि फिल्म एक दिसंबर रिलीज हो जाएगी, जबकि सिनेमैटोग्राफी एक्ट के अनुसार किसी फिल्म के प्रमाणन में 68 दिन का समय लग सकता है?’  क्या आजकल फिल्म को चर्चा में लाने के लिए उसके आसपास विवाद खड़ा किया जाता है? ऐसे ही अन्य सवाल.

पढ़ें अरविंद जैन का पूरा लेख: फिल्म पद्मावती पर सेंसर किये जाने की स्त्रीवादी मांग 


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वेश्यावृत्ति का समुदायिकरण और उसका परंपरा बनना

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राहुल 

सेक्स वर्क (sex work) विशेषकर वेश्यावृत्ति (prostitution) समाज के यौनिक संगठन में ‘यौनिक आनंद’ की एक विशेषीकृत संस्था के बतौर मौजूद रहा है। वेश्यावृत्ति का कोई देशजता तलाशना काफी समस्यामूलक है, परंतु ऐतिहासिकता में गैर औद्योगिक वेश्यावृत्ति और औद्योगिक वेश्यावृत्ति के फर्क को समझना आवश्यक जान पड़ता है। वेश्यावृत्ति अपने सामाजिक, राजनीतिक व सांस्कृतिक संदर्भ को स्वयं प्रदर्शित करता है। जाहिर है ऐसे में वेश्यावृत्ति का कोई सार्वभौमिक स्वरूप नहीं बनेगा, पर इसकी उपस्थिति सार्वभौमिक रहेगी। राजनैतिक आर्थिक संदर्भ में इसका स्वरूप लगातार बदलते रहे हैं। वेश्यावृत्ति में समाज की सत्ता संरचना (जेंडर, वर्ग और जाति) की घुसपैठ बनी रहती है और जिसके केंद्र में हमेशा स्त्री की यौनिकता है।

नारीवादी आंदोलन के दूसरी लहर यौनिकमौन (sexual silence) को तोड़ती हैं, जहां ‘वेश्यावृत्ति’ जैसे शब्दावली को सेक्स वर्क (sex work) के विमर्श  द्वारा उभारा जाता है, तभी यह क्षेत्र यानी वेश्यावृत्ति (प्रतिरोध एवं शोषण) मजबूत गठजोड़ के साथ में समस्याग्रस्त होता है। वेश्यावृत्ति के विविध आयाम के इतिहास, भूगोल को जानने और व्याख्यायित करने की प्रक्रिया यौनिक अर्थ व्यवस्था और यौनिकता के विमर्श को और प्रगाढ़ करती है। बावजूद इसके दक्षिण एशिया एवं अफ्रीकी समाजों में सामुदायिक वेश्यावृत्ति और औद्योगिक वेश्यावृत्ति जो कि परिवार के सहयोग और उसके समर्थन पर टिकी है, और वह परंपरा  और आधुनिकता के बीच रिश्ता बनाती है। दरअसल इस तरह के समुदायों को एक सेक्सुअल वजूद के साथ देखा जाता है और उपनिवेशवाद की प्रक्रिया, नीति, नियम और कारण के जरिए कई बंधन लगा देता है। जाहिर है ऐसे में यह पूरा का पूरा समुदाय ही यौनिक अपराधी के रूप में मुख्य धारा के सामने प्रस्तुत होता है।


अंग्रेजों ने कुछ ऐसी जातियों को प्रतिबन्ध केलिए चिन्हित किया जो खानाबदोश थे, घुमक्कड़ थे। जिनके जीवन में बंजारापन था। और यह बंजारापन उन्होंने उन्मुक्त जीवन के लिए तय नहीं किया था बल्कि यह उनकी मजबूरी थी। संपत्ति के नाम पर इनके पास कुछ पशु (एक दो भैंस) और कुछ बर्तन रहता था। नाचना-गाना और करतब दिखाना पेशा था जिससे इनका जीवन निर्वाह होता था। औपनिवेशिक काल में राज्य सत्ता (विक्टोरियन नैतिकता का  चोला ओढ़े ) का मनना था कि इन खानाबदोश जातियों से समाज में नैतिकता का पतन हो रहा है और इनके वजह से समाज में यौन संबन्धों में खुलापन आ रहा है।  इन खानाबदोश जातियों के पुरुषों को ठगी  के तहत जेलों में बंद कर दिया गया, और महिलाओं को एक जगह रहने के लिए बाध्य कर दिया गया।  1871 में ‘अपराधिक जनजाति अधिनियम’ ने इन खानाबदोश जातियों को अपराधिक घोषित कर दिया गया। और इनका जीवन दूभर होता चला गया।  पितृसत्तात्मक सामंती समाज में इस तरह की खानाबदोश समुदायों ने जीवन –निर्वाह के लिए  परिस्थितियों से समझौता किया और वह पारिस्थितिक समझौता धीरे-धीरे परंपरा में तब्दील होता चला गया जो आज एक सामाजिक बुराई बन गयी है। भारत में भी ऐसी कई जातियां व समुदाय हैं जिन्होंने पूरी तरह से सामुदायिक वेश्यावृत्ति को अपना लिया है और साथ ही इसे परंपरा का नाम दे दिया है। इस संदर्भ में नट, कंजर, सौंसिया, बेड़िया, बाछड़ा आदि जातियों/ समुदायों को देखा जा सकता है। इस आलेख में बेड़िया समुदाय को केंद्र में रखकर बात की गई है।

बेड़िया समुदाय के बारे में कोई लिखित जानकारी नहीं मिलती और न ही मौखिक इतिहास में इसके बारे में कोई विशेष जानकारी है। बेड़िया समुदाय की उत्पत्ति के बारे में दो कथाएं प्रचलित है। पहली कथा के अनुसार आज से लगभग 300 वर्ष पूर्व राजस्थान के भरतपुर में दो भाई रहते थे। एक का नाम था सैंसमुल और दूसरे का नाम था मुल्लानुर। सैंसमुल के वंशज सांसी (सांसिया) और मुल्लानुर के वंशज बेड़िया या कोल्लासी कहलाए। इनके यहां यौन संबंधों को लेकर खुलापन था या कहें की स्वच्छंद यौनाचार की प्रथा थी। इस समुदाय की सभी स्त्रियां सभी पुरूषों के साथ यौन संबंध बना सकती थी।

 डॉ. शरद सिंह अपनी पुस्तक ‘पिछले पन्ने कीऔरतें’ में लिखती हैं कि ‘‘इनके दल में स्त्री-पुरूष के बीच विवाह की बाध्यता नहीं रहती थी। कोई भी स्त्री आज एक पुरूष के साथ यौन संबंध बनाती थी तो कल दूसरे और परसो तीसरे के साथ। इसी प्रकार पुरूष भी किसी एक स्त्री के साथ संसर्ग में विश्वास नहीं रखते थे। ये लोग धार्मिक मामलो में भी निर्बंध थे। बेड़िया हिंदू अथवा मुसलमान कुछ भी हो सकते थे।” बेड़िया समुदाय की तरह ही भारत में बाछड़ा, नट, कंजर, संसिया, बोदिया, लोहरगढ़िया आदि समुदाय व जातियां हैं। इन जातियों ने भी नृत्य-संगीत के पेशे से होते हुए वेश्यावृत्ति तक का सफर तय किया है। इन जातियों व समुदायों के यहां भी यौनाचार पर बहुत कड़ा पहरा नहीं है बल्कि स्वछंद यौनाचार है। वैसे भी यौनिकता का सवाल संपत्ति के सवाल से जुड़ा हुआ है। भारत में ऐसे कई समुदाय या जातियां रही हैं जिनमें स्वछंद या मुक्त यौनाचार की व्यवस्था सहजता से रही है। बेड़िया, बाछड़ा, सांसी, कंजर आदि इसके उदाहरण हैं। कंजरों के बारे में ‘भगवान दास मोरवाल’ अपने उपन्यास ‘रेत’ में लिखते हैं ‘कंजर का अर्थ होता है कानन (जंगल) में विचरण करने वाला।’ इससे यह पता चलता है कि कंजर जंगल में रहने वाले नहीं हैं, बल्कि वे केवल विचरण करने वाले होते हैं या विचरण करते हैं।  लेकिन सवाल यह उठता है कि कोई भी जाति या समुदाय जंगलों में विचरण क्यों करेगी? इसका एक ही कारण हो सकता है कि वह किसी के डर से जंगल में छुपने के लिए ऐसा कर रही हो, ताकि वह अपने शत्रु से बच सके। कंजर अपने आप को राजपूत मानते हैं। इनके यहां भी युद्ध और राजपूत सेना में होने का जिक्र मिलता है। ऐसा जान पड़ता है कि युद्ध में पराजित हो जाने पर जो कुछ लोग बच गए थे उन्होंने जंगलो में शरण लिया। जंगल यानी कानन में शरण लेने की वजह से ही ये कंजर कहलायें। बाद में यह समुदाय भी जीविका के लिए वाया नाच-गाने से होता हुआ वेश्यावृत्ति तक पहुंचा। कंजरों के अलावा बाछड़ा, नट व सांसी जातियों का जीवन मूल्य व संस्कृति आपस में काफी मिलता-जुलता है।

यह पूर्णतया सत्य है कि सामुदायिक वेश्यावृत्तिकरने वाली जातियां पूरी तरह से घुमक्कड़ एवं खानाबदोश रही हैं। अंग्रेज अधिकारी आर।बी। रसेल ने बेड़ियों के बारे में सन 1916 ई में टिप्पणी करते हुआ लिखा था कि ‘जिप्सियों की भांति पीढ़ी-दर-पीढ़ी खानाबदोश एवं जन्मजात घुमक्कड़ समूहों को बेड़िया कहा जाता है। 



पद्मावत में मलिक मुहम्मद जायसी लिखते हैं ‘जानि गति बेड़िन दिखराई, बांह डुलाय जीऊ लेइ जाई’  यानी अपने नाचने की कला से बेड़नी दिल ले जाती है। यदि हम जायसी के रचना काल की बात करें तो वह 1570 के आस-पास ठहरता है। इससें पता चलता है कि बेड़िया समुदाय की मौजूदगी पूर्व से थी। ये नाचने-गाने के काम में पहले से संलग्न थे। यदि इन सब चीजों को आधार मान लिया जाय तो यह तय हो जाता है कि ये राजपूतों से ही निकला हुआ एक समुदाय है जो युद्ध और जिंदगी से जूझते हुए वाया नाचने-गाने से वेश्यावृत्ति का रास्ता तय करता है जो कि ये खुद भी मानते हैं।

किसी भी समुदाय या समाज का जीवनआय के स्रोत्रों पर ही निर्भर होता है। आय के स्रोत जीवन-निर्वाह को प्रभावित करते हैं। जीवन-निर्वाह स्वास्थ्य के साथ-साथ पुनरूत्पादन को भी प्रभावित करता है। जीवन-यापन केवल आय के स्रोत पर ही निर्भर नहीं होता, बल्कि भौगोलिक स्थितियां व जीवन के अन्य पहलू व युद्ध की विभीषिका व सांस्कृतिक आयाम भी जीवन-यापन को तय करते हैं। बेड़िया समुदाय ने भी विभिन्न परिस्थितियों से संघर्ष के बाद ही इसे पेशे के रूप में शुरू किया और बाद में यह परंपरा बन गई।
   
वर्तमान समय में बेड़िया समुदाय का जीवन-निर्वाह पूरी तरह से स्त्रियों पर टिका हुआ है। इस समुदाय की आमदनी का स्रोत राई नृत्य है। राई नृत्य के साथ ही साथ ये स्त्रियां वेश्यावृत्ति भी करती हैं या कहें कि इन्हें ऐसा करने के लिए विवश किया जाता है। औपनिवेशिक काल में बेड़िया समुदाय के पुरूष चोरी और राहजनी पर निर्भर थे लेकिन अंग्रेजी हुकूमत के सख्ती के बाद इनको इससे पीछे हटना पड़ा और ये पूरी तरह से अपनी स्त्रियों की कमाई पर आश्रित होते चले गए। स्त्रियां जो कि अभी तक नाचने-गाने तक ही सीमित थी लेकिन अत्यधिक दबाव होने व पुरूषों की स्वीकार्यता के कारण वेश्यावृत्ति को चुना। ‘समाज में जारज कही जाने वाली संतानों से विकसित बेड़िया समुदाय के पुरूषों ने मेहनत-मजदूरी से बड़ी जल्दी नाता तोड़ लिया था। उन्हें औरतों के द्वारा कमाकर लाये जाने वाले धन के उपयोग की आदत पड़ चुकी थी।’ सामाजिक बदलाव का ताना-बाना गणितीय फार्मूले पर निर्भर नहीं करता। यह राजकीय प्रयासों पर भी उतना निर्भर नहीं होता जितना की विकास के नारे लगाए जाते हैं। सामाजिक बदलाव की कड़ी विकास से जुड़ती तो जरूर है, लेकिन यह पूरी तरह से इस पर लागू नहीं होती। सामाजिक बुराईयों को दूर करने के लिए सबसे जरूरी चीज है कि बुराई जिस समाज या समुदाय में व्याप्त हो उसको पता होना चाहिए की यह एक बुराई है तभी वह इसे दूर करने का प्रयास करेगा। अंबेडकर के शब्दो में ‘‘जिस दिन गुलामों को यह पता लग जाए कि वे गुलाम है और उनका शोषण किया जा रहा है वे उसी दिन आजाद हो जाएगें।’’ यही बात सामाजिक बुराईयों/ कुरीतियों पर भी लागू होती है।

बेड़िया समुदाय की सामाजिक स्थिति भूमंडलीकरण व विकास की गढ़ी गयी परिभाषा में दम तोड़ रही है। सामाजिक समरसता इनके लिए बेमानी है। वैसे भी समाजिक समरसता ‘अर्थगत’ होता है जो इनके पास नहीं है। बेड़िया समुदाय आर्थिक रूप से मजबूत नहीं है। बेड़िया समुदाय का सामाजिक विकास अभी तक नहीं हो पाया है, लेकिन परिवर्तन जरूर हुआ है। यह परिवर्तन सामंती व्यवस्था के कुछ कमजोर पड़ने के कारण हुआ है, लेकिन अभी अधिकांश बेड़िया समुदाय जिन स्थानों पर रहते हैं वहां की सामाजिक संरचना में सामंती व्यवस्था दृढ़ता के साथ मौजूद है। राजस्थान, मध्य प्रदेश व बुंदेलखंड में बेड़िया समुदाय आज भी उसी दंश को झेल रहा है। इसके सामाजिक ताने-बाने में अभी भी बहुत ज्यादा फर्क नहीं आया है।

परंपरा के नाम पर जो परिस्थितियां पहले सेतैयार की गई थी वहीं परिस्थितियां आज भी यथावत है। जीविका के साधन व रहने तक के लिए जमीन नहीं है। सरकारी योजनाएं इनकी पहुंच से बाहर है और यदि कुछ है भी तो, वह इतना कठिन है कि वे इसे करना नहीं चाहते। पूंजीवाद ने बेड़नियों को अपनी आर्थिक संपन्नता की शरण देने के बदले उन पर जो परिस्थितियां आरोपित की उसे कोई भी सामान्य स्त्री किसी भी मूल्य पर स्वीकार नहीं करेगी। बेड़िया समुदाय की स्त्रियों ने न केवल इसे स्वीकार किया बल्कि इसका मूल्य भी चुकाया, जो आज भी जारी है। पूंजीवाद के बारे में कहा जाता है कि इसने सबसे अधिक स्वतंत्रता स्त्रियों को दी है। स्त्रियों को इसने ड्योढ़ी से बाहर निकाला है और काम के अवसर मुहैया कराया है। पूंजीवाद का यह एक पक्ष है। अपने लाभ व पितृसत्ता के लिए इसने स्त्रियों को वस्तु बना दिया है।


पूंजीवादी, सामंतवादी, जातिवादी व्यवस्थाव पितृसत्ता किसी भी ऐसी परंपरा का विरोध नहीं करती जिसमें उसका लाभ निहित हो। लाभ का यह सिद्धांत आज भी पंरपरा के नाम पर जीवित है। समय के साथ भले ही इसका स्वरूप बदल गया हो या बदल दिया जाय लेकिन उद्देश्य नहीं बदलता। सामाजिक बदलाव, आर्थिक विपन्नता एवं परंपरा की कड़िया आपस में जुड़ती है। बिना परंपरा के बदले सामाजिक संपन्नता नहीं आ सकती और बिना अर्थिक संपन्नता के सामाजिक बदलाव करना बेमानी है। बेड़िया समुदाय अभी भी पूरी तरह से अपने पारंपरिक वेश्यावृत्ति और राई नृत्य पर ही निर्भर है।

राई नृत्य ‘मशाल’ की रोशनी से बाहर निकलकर ‘हाईलोजन’ के दूधिया प्रकाश  में आ गई है, लेकिन सोहवतिया से लेकर गाने के बोल तक वहीं हैं और राई नृत्य का प्रयोजन भी। कैसी विचित्र बात है कि स्त्रियों की कला को स्त्री-देह से जोड़कर ही देखा जाता है। देवदासियों का भरतनाट्यम भी देह से ही जोड़कर देखा गया। भले ही इसे मंदिरों में देवताओं को खुश करने के लिए किया जाना वाला नृत्य का नाम देकर पर्दा डाला जाता रहा हो। इसकी शुरूआत भी कला के नाम पर नहीं बल्कि दैहिक शोषण के साथ हुई। भरतनाट्यम मंदिर से बाहर निकलकर संभ्रांत ब्राह्मणवादियों के हाथों में आया। इसे कला और व्यवसायिक बनाकर ब्राह्मणों ने देवदासियों को इससे दूर रखा। अभी तक राई नृत्य को अभी तक किसी ने कला के रूप में नहीं देखा है। इसे केवल अश्लीलता और देह से ही जोड़कर देखा जाता है। डॉ शरद सिंह लिखती हैं- ‘कितनी विचित्र हैं! न दिन के उजाले में जिस औरत के साथ पुरूष अछूत-सा व्यवहार करते हैं, रात के अंधेरे में वे ही पुरूष उस औरत की देह पर बिछे मिलते हैं। इस दोहरेपन के अंधेरे को जीने के लिए विवश रहती हैं वह औरत जिसे वेश्या, गणिका, नगरवधू, बेड़नी और न जाने कितने नामों से पुकारा जाता है। प्राचीन काल में सामाजिक श्रेष्ठता धारण करने वाले युवक काम शास्त्र के आसन सीखने इन्हीं औरतों के पास जाते थे। वापस आकर वे सीखी हुई कला को अपनी पत्नी अथवा प्रेमिका पर आजमाते थे। ये औरतें चौसठ कलाओं में निपुण होती थीं जिनमें से एक कला कामशास्त्र थी तो दूसरी नृत्य थी।’ इस संदर्भ में ‘राई नाचने वाली अनीता कहती हैं कि कभी भी पुरूष उसके कला पर ध्यान नहीं देते। वे कमर की लोच और गाने के बोल पर लट्टू होते हैं जबकि उसके जैसी ही अभिनेत्री माधुरी दीक्षित भी नाचती है। यहां कला का कोई मोल नहीं है। इसी कला से माधुरी दीक्षित लाखों रूपए कमाती है। वह कहती है कि केवल राई नाचकर परिवार का खर्च नहीं चलाया जा सकता। इसमें बहुत कम पैसे मिलते हैं और कोई भी केवल राई नृत्य की कला देखने के लिए हमें नहीं बुलाता।’

नृत्य जो एक मानवीय संवेग की अह्लादकारीअभिव्यक्ति रही है या होती है, वह चैसठ कलाओं में निपुण नगरवधुओं, देवदासियों एवं कोठों पर ही विकसित हुई है। जिस नृत्य के बदले पैसा प्राप्त किया गया उसे बजारू कहा जाता है और इसे वेश्या से जोड़कर देखा जाता है। लेकिन ‘बजारू’ की स्थिति सदैव जीवित रही क्योंकि मनोरंजन के नाम पर इसे धन देकर जीवित रखने वाले हमेशा उपस्थित रहे और आर्थिक विपन्नता के कारण यह पंरपरागत होता गया जो आज भी अपने उसी रूप में है। प्राचीन काल में जो गणिका अथवा वेश्या थी, वह आधुनिक काल में कॉर्ल गर्ल अथवा सेक्स वर्कर कहलाने लगी हैं। इसके अलावा कुछ नहीं बदला। केवल नाम बदल दिया गया। काम जस का तस। सभ्य समाज के लोग उनसे कामकलाएं तो ली लेकिन उनको उपेक्षित रखा। कोठों व तवायफों से कुछ कलाएं बाहर आयी। इसे कलागुरूयों ने शास्त्रीय रूप में ढाल दिया। इन कला के असली हकदारों के पास कला के नाम पर अब कुछ नहीं बचा है। इसका पेटेंट कलागुरूओं ने अपने नाम करा लिया है। राई नृत्य के साथ अभी वह स्थिति नहीं आई है। इसे अभी बाजार में उस तरह नहीं भुनाया जा रहा है जिस तरह से अन्य नृत्य कलाओं को भुनाया गया। राई नृत्य के अधिकांश  स्टेप माधुरी दीक्षित ने अपने नृत्य में शामिल किया है। बेड़नी स्त्रियां इसे जानती तो हैं लेकिन इनके पास इसका कोई पेटेंट नहीं है। इनकी स्थिति तीसरी दुनिया के देशों की तरह हो गई है जिनका सब कुछ होते हुए भी उस पर अधिकार किसी और का होता है। बेड़िया समुदाय का भी यही हाल है। राई ये खुद नाचती है लेकिन इन पर अधिकार किसी और का होता है। यहां भी शोषण के सभी रूप मौजूद है। ‘आयोजक या उसके दलालों के बिस्तर पर से गुजरने वाली को अच्छे कार्यक्रम मिलते हैं। जब बेड़नियां किसी गांव में नाचने को बुलाई जाती है तो यह पहले ही तय हो जाता है कि बुलाने वाले में से किसको खुश  करेंगी।’ 

लोक संस्कृति जिसे हम अपनी बुनियादीएवं वास्तविक संस्कृति का मूलाधार मानते हैं, उनके संरक्षण और संवर्द्धन के लिए मात्र उन लोगों को उत्तरदायी ठहराया जाता है जो अशिक्षित या आर्थिक रूप से कमजोर हैं। बार-बार इनके पिछड़ने का कारण अशिक्षित होना बताया जाता है जबकि पिछड़ने का कारण मनोरंजन के नाम पर चला आ रहा दैहिक शोषण है। यदि लोक-संस्कृति बदलाव की कड़ी से गुजरती है तो उसे स्वीकार नहीं किया जाता। आधुनिक बोध जैसे ही उसमें समाहित होता है उसे लोक से कटा हुआ मान लिया जाता है। वैसे भी समाज के नियंता आधुनिकता को संदेह के नजरिए से देखते हैं। इसलिए वे नहीं चाहते कि उनकी इच्छा के विपरीत कोई भी परिवर्तन हो और जब प्रश्न  किसी कला को लेकर हो जिससे पुरूष अपनी कुंठाओं को शांत करता हो तो यह संभव ही नहीं कि इसमें बदलाव की चाह उसके अंदर हो। प्रदर्शित की जाने वाली किसी भी कला का स्वरूप चाहें परंपरागत हो या आधुनिक वह पूरी तरह से कला प्रेमियों, कला-ग्राहको व दर्शकों के चरित्र पर निर्भर करता है। यदि  दर्शक कला के माध्यम से किसी विचार को प्राप्त करना चाहता है तो कला का स्वरूप शास्त्रीय होगा। जैसा कि फिल्मों के बारे में भी कहा जाता है कि कला फिल्मे व मनोरंजन फिल्में। और यदि कला के माध्यम से दर्शक  अपनी कुंठाओं को शांत करना चाहता है तो कला अशास्त्रीय हो जाती है। इस तरह के कला को प्रदर्शित करने वाले कलाकार की यह विवशता हो जाती है कि या तो वह कला का प्रदर्शन  न करे और यदि करे तो दर्शक  की इच्छा के अनुरूप। यदि उसकी जीविका उसी कला पर निर्भर हो और अन्य कोई साधन नहीं है तो वह कला को दर्शक  के अनुरूप ही प्रस्तुत करेगा। पितृसत्ता, राज्य व सामाजिक ढाचें का आपसी ताना बाना, शोषण के जिस बुनियाद पर टिका है उसके पड़ताल के लिए बने-बनाये ढाचे से काम नहीं चलता। इसके लिए पड़ताल तो जरूरु है लेकिन पड़ताल के लिए नजरिया व टूल्स वर्तमान सामाजिक संदर्भों व श्रम की मान्य परिभाषा अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) एवं श्रम का मार्क्सवादी दृष्टिकोण जरूरी है। वेश्यावृत्ति व ‘सेक्स वर्क’ में श्रम की उपयोगिता, राज्य का नियंत्रण, पितृसत्ता का दबाव भी काम करता है।


परंपरा के नाम पर हो रहा शोषण जिसे स्त्रियों के लिए ऐसा माहौल बना दिया गया है जिसमें वे इसे अपनी नियति मानती हैं। बेड़िया समुदाय की स्त्रियों के साथ पूरी साजिश के साथ ऐसा किया जाता रहा है जो अभी भी जारी है। परंपरा के नाम पर देह व्यापार शुरू करना आसान है लेकिन इससे निकलना मुश्किल। भारत में ऐसे समुदायों की स्थिति बहुत कम है जिनमें देह के धंधे को सामान्य माना जाता है। बेड़िया समुदाय में वेश्यावृत्ति को हेय दृष्टि से नहीं देखा जाता जबकि सामान्य समाज में वेश्यावृत्ति को एक कलंक माना जाता है। यौन दासता में औरतों को जिन मुश्किलों से जुझना पड़ता है वे उसमें मुक्ति या पलायन के बाद भी खत्म नहीं होती।
 
मानवता के खिलाफ होने वाले किसी भी कार्य की निंदा होनी चाहिए और वेश्यावृत्ति की तो होनी ही चाहिए। वेश्यावृत्ति मनुष्यता की बदतरीन असफलताओं की एक मिसाल है। यह स्त्री शोषण की इंतहा है। पैसे के ताकत का खेल है। वेश्यावृत्ति एक ऐसा पेशा है जिसमें स्त्रियां एक दिन में 10 पुरूषों को यौन संतुष्टि प्रदान करने के बाद भी उन्हें अच्छा भोजन व रहने के लिए एक अदद मकान की समस्या बनी रहती है। वेश्यावृत्ति व सेक्स वर्कर बनने व बनाने के सवाल पर नारीवादियों में गहरा द्वंद है। लेकिन इतना तो सभी का मानना हैं कि यह स्त्रियों के शोषण के बुनियाद पर टिका हुआ है। यह अंतरंगता और वर्चस्व की संबंध की खरीददारी करने का मामला भी है। आधुनिक वेश्यावृत्ति या ‘सेक्स वर्क’ श्रम शोषण की आधुनिक पद्धति है। ‘सेक्स वर्कर’ और समुदायिक वेश्यावृत्ति करने वाली स्त्रियों में काफी अंतर है। बेड़िया स्त्रियों ने अपनी मर्जी से इस पेशे का चुनाव नहीं किया है, बल्कि सामंती पितृसत्तात्मक व्यवस्था ने परंपरा के नाम पर चली आ रही इस प्रथा को पेशागत  बना दिया है। बेड़िया स्त्रियों के यहां स्वतंत्रता के जो मायने हैं वह पूंजीवादी वेश्यावृत्ति यानी ‘सेक्स वर्क’ से भिन्न है। बेड़िया स्त्रियां जिस स्थान पर रहती हैं वहां सामंतवादी संरचना का आधार काफी मजबूत है। और सामंतवादी संरचना अपने उपभोग के लिए परंपरा के नाम पर इसे बचाये रखना चाहता है।                                                                                                                                                                                                   
 बेड़िया स्त्रियों को इस पारंपरिक पेशे सेनिकालने के लिए राज्य ने अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन करने के लिए केवल कागजी खानापूर्ति की है। कोई ठोस कदम नहीं उठाया है। बेड़िया स्त्रियों को एक आम स्त्री में बदलने के लिए उनके वातावरण को बदलना आवश्यक है, जिससे वे विवशता के उन बंधनों से मुक्त हो सकें जिसे पुरूषों ने परंपरा के नाम पर अभी तक कायम रखा है।

संदर्भ 
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Arun K। Jain & A। N। Sharma, The beria(Rai Dancers), Sarup & Sons, New Delhi, 2006
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Foucault, Michel, The history of sexuality, Part-1,2,3,Penguin Books, New Delhi, 1992
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Stearns, N., Peter, Sexuality in world history, rout ledge, London, 2009

परिचय :- पी-एच. डी.(स्त्री अध्ययन विभाग) महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा 
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आदिवासी बच्चों के स्कूल बंद कर रही सरकार और लूट लिये आदिवासी मद के पैसे

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महाराष्ट्र में आदिवासी मद के पैसों का बड़ा बंदरबाँट  का मामला सामने आया है. संघ प्रायोजित स्कूलों  और निजी स्कूलों के हित में सरकारी आदिवासी स्कूल बंद करने के आरोप स्थानीय आदिवासी समाज के लोग भाजपा सरकार पर लगा रहे हैं. पढ़ें पूरी रपट. मनीषा के साथ नितिन राउत और अशोक काम्बले. 



इन्डियन एक्सप्रेस से साभार 

बच्चों की पढाई धीरे-धीरे सरकारों की प्राथमिकतासूची से गायब होती जा रही हैं और बच्चा यदि गरीब परिवार से, दलित या आदिवासी हो तब तो उसे और भी उदासीनताओं का सामना करना पड़ता है. शिक्षा अब सरकारों के सरोकार से ज्यादा पूंजी उगाहने का निजी तन्त्र बन चुका है और पैसा उगाहने के तंत्र को सत्ता में बैठे लोग अपने निर्णयों से बढ़ावा दे रहे हैं. हालांकि देश की राजधानी के स्कूलों से अच्छी खबरें आ रही हैं,  सरकार द्वारा नियंत्रित और संचालित स्कूल निजी स्कूलों को मात दे रहे हैं और इसका वाजिब श्रेय आम आदमी पार्टी की सरकार को जाता है. लेकिन देश के दूसरे हिस्सों में, जहां से विकास का ज्यादा शोर-शराबा है ख़बरें बेहद निराशाजनक और बुरी हैं.

फोटो अशोक कांबले


करोड़ो के बारे-न्यारे और फिर स्कूल पर ताला
शानदार भवन किसी कॉलेज का नहीं है, बल्कि बच्चों के स्कूल का बना नया भवन है, जिसे बनते ही ताला डाल दिया गया और स्कूल किसी दूसरे स्कूल में मर्ज कर दिया गया. हाँ, महाराष्ट्र के विदर्भ इलाके में यह सरकार द्वारा संचालित 'आदिवासीशाला'का भवन है, जिसके निर्माण में करोड़ो खर्च हो गये, ठेकेदार को अपना हिस्सा मिला और दूसरों को अपना. फिर फरमान आया कि यह आश्रामशाला शिफ्ट किया जा रहा है. यह भवन वर्धा जिले के नवरगाँव का है. जिले के ही सिंडीविहरी सहित जिले और विदर्भ (हमारे पास अमरावती प्रकोष्ठ की सूची है) के दो दर्जन  से अधिक स्कूल बंद किये जा रहे या किसी दूसरे स्कूल में शिफ्ट किये जा रहे हैं. वहीं महाराष्ट्र के आदिवासी इलाकों में यह संख्या 50 से भी ऊपर है.

पढ़ें : संघ प्रमुख की सुरक्षा पर हंगामा , आगे आये दलित संगठन 

शासकीय आदेश 


लोगों में आक्रोश
इन स्कूलों के शिफ्ट किये जाने पर स्थानीय जनता में भारी आक्रोश है. आदिवासी अभिभावक सवाल कर रहे हैं कि आखिर हमारे बच्चे कहाँ जायेंगे, वहीं वे दूसरा सवाल भी सरकार से दाग रहे कि जब इन स्कूलों को शिफ्ट ही करना था तो फिर इनके भवन निर्माण में आदिवासी विकास के पैसे खर्च क्यों और किसके इशारे पर किये गये. आदिवासी नेता अवचित सयाम कहते हैं कि ऐसे दर्जनों स्कूल के भवन बनाये गये और उन्हें या तो बंद कर दिया गया है या एक दूसरे में समायोजित किया जा रहा है. उनके अनुसार आदिवासी मद के पैसों का बंदरबांट करने के लिए अफसरों-नेताओं और ठेकेदारों की मिलीभगत से इन स्कूलों के भवन बने और बनते ही यहाँ पढाई बंद कर दी गयी.
स्कूलों की सूची 

अफसरों के बहाने 
आश्रमशालाओं के संचालन का  जिम्मेवार विभाग के अफसर इस मसले पर कई तर्क देते हैं. वे कहते हैं कि स्कूल बन गये तो कई स्कूलों के इलाके अभयारण्य में घोषित हो गये, इसलिए उन्हें शिफ्ट करना पड़ा तो कई स्कूल इसलिए एक समायोजित हो रहे हैं कि वहां बच्च्चे पढने नहीं आते. इन शालाओं के प्रशासन के सबसे बड़े अधिकारी महाराष्ट्र के आदिवासी कमिश्नर आर जे कुलकर्णी से जब इस बावत बात की गयी तो उन्होंने मामले को अमरावती जोन में असिस्टेंट ट्राइवल कमिश्नर की तरफ बढ़ा दिया, यानी उनसे बात करने की सलाह दे दी. हालांकि आदिवासी अभिभावक प्रतिप्रश्न पूछते हैं कि 'क्या इलाकों का अभ्यारण्य घोषित होना कोई अचानक से लिया गया निर्णय है?'  वे कहते हैं कि विभागों में सम्बंधित फाइलें जब घूम रही होंगी तो सारे अफसर इस बात से अवगत थे लेकिन उन्हें आदिवासी मद का पैसा मिलजुलकर खाना था इसलिए उन्होंने बंद होने वाले स्कूलों के भवन बनवाये.

पढ़ें : बाल विवाह के लिए अभिशप्त लड़कियाँ

निजी और संघ संचालित आश्रामशालायें
 जहां  सरकार का दायित्व है कि अपने स्कूलों में वह बच्चों को आकर्षित करे, उन्हें पढने के लिए प्रेरित करे वहीं वह स्कूलों को समायोजित करने के निर्णय ले रही है. राज्य की भाजपा सरकार का कहर इन स्कूलों पर निजी स्कूलों और संघ संचालित स्कूलों में आदिवासी बच्चों को जाने के लिए प्रेरित करने का षड्यंत्र है. विदर्भ में कुल सरकारी आश्रम स्कूल (आदिवासी बच्चों के लिए ) 502 हैं और अनुदानित स्कूल 543, जो निजी हाथों में हैं या संघ के लोगों के नियन्त्रण में.

आदिवासी नेता सयाम  कहते हैं 'संघ हमारे बच्चों को उनकी संस्कृति से दूर कर हिन्दू संस्कृति में ढालता है, उनके कच्चे मानस पर शबरी और निषादराज का त्याग समर्पण आदि के आदर्श भरे जाते हैं ताकि वह कथित रामराज्य के लिए मरे. वे पूछते हैं कि वे 'एकलव्य का उत्पीडन क्यों नहीं पढ़ाते? संघ 'एकल विद्यालय'  'वन बंधु परिषद'आदि नामों से कई स्कूल आदिवासी इलाकों में चलाता है. धरनी में एक छात्रावास हेडगेवार के नाम से है, इस नाम से कई स्कूल संचालित हो रहे हैं. स्थानीय इलाकों में घूमने पर बजरंग दल की सक्रियता के कई प्रमाण मिलते हैं. एक आदिवासी कार्यकर्ता ने बताया कि भाजपा नेता नितिन गडकरी ने नागपुर में अपने जन्मदिन पर संघ के वैसे कार्यकर्ताओं के बीच पैसे बांटे जो इन इलाकों में स्कूल संचालित करते हैं और उनसे और भी स्कूल खोलने का आग्रह भी किया.

दो-दो बच्चों की ह्त्या फिर भी भाजपा की महिला नेता और स्कूल प्रबंधक को बचा रही मोदी-खट्टर सरकार
साभार google 



महाराष्ट्र में और भी स्कूल किये जा रहे बंद या समायोजित 

किसान नेता अविनाश काकड़े ने बताया कि आदिवासी इलाकों के अलावा भी कई स्कूल बंद किये जा रहे हैं. सैकड़ो स्कूल पूरे महाराष्ट्र में या तो बच्चों की कमी के नाम पर बंद किये जा रहे हैं या समायोजित. वे कहते हैं इन सरकारी स्कूलों में गरीब परिवारों के बच्चे  किसानों के, दलितों के आदिवासियों के बच्चे पढ़ते हैं. स्कूल के इलाकों के बच्चों को पर्याप्त व्यवस्था न देकर स्कूल बंद करना सबके लिए शिक्षा की नीति पर प्रहार करता है.

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दिल्ली सरकार के खिलाफ आगे आये रंगकर्मी: मनीष सिसोदिया सवालों से बचते नजर आये

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रंगकर्मियों के प्रदर्शन कभी-कभी के ही दृश्यहोते हैं. रंगकर्म की अस्मिता और उसकी स्वायत्तता बचाये रखने के लिए रंगकर्मियों के एक समूह ने राजधानी के मंडी हाउस स्थित श्रीराम सेंटर के सामने आज (4दिसम्बर)  उस वक्त प्रदर्शन किया जब दिल्ली के उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया साहित्य कला परिषद के युवा महोत्सव  का उदघाटन करने वहाँ पहुंचे. शांतिपूर्ण तरीके से हाथों में तख्तियां लिये रंगकर्मी श्रीराम सेंटर के गेट के पास खड़े थे लेकिन लोकतंत्र की कथित अगुआई करने वाली, उसकी बात करने वाली पार्टी के नम्बर दो मनीष सिदोदिया उन्हें नजरअंदाज कर आगे बढ़ते गये. यहाँ तक कि मीडियाकर्मियों ने जब उनसे इस बावत बात करनी चाही तो उन्होंने सिरे से मना कर दिया.


रंगकर्मियों का दिल्ली सरकार पर आरोप है कि वह मनमाने तरीके से रंगकर्म को नियंत्रित करने की कोशिश कर रही है. उनके अनुसार दिल्ली सरकार के साहित्य कला परिषद के युवा महोत्सव में अपनी दलगत राजनीति को बढ़ावा देने के लिए विषय नियंत्रित किये गये. 


नाट्य निदेशक ईश्वर शून्य ने कहा कि'इस तरह यह कोशिश रंगकर्म को अपने प्रचार तन्त्र में बदल देने की है, जो आने वाली सरकारों में और भी असर डालेगी .'  उन्होंने कहा कि देश भर के रंगकर्मियों की इस पर आपत्ति के बावजूद सरकार अपने निर्णय पर अडिग है.


दिल्ली सरकार के इस पहल को रंगकर्म केलोकतंत्र पर सीधा हमला बताते हुए समकालीन रंगमंच के संपादक राजेश चन्द्र ने कहा कि 'सरकार रंगकर्मियों को पर्याप्त मंचन सुविधा उपलब्ध कराने जैसे अपनी मुख्य भूमिका की जगह उसे अपने नियंत्रित माध्यम में बदलना चाहती है. उसे विभिन्न माध्यमों से बताया गया है कि सस्ती दर पर सरकार से जमीन लेकर श्रीराम सेंटर जैसे सभी थिएटर रंगकर्मियों से खूब पैसे वसूल करते हैं.'गौरतलब है कि दिल्ली की मंहगी जगह में बना श्रीराम सेंटर एक रूपये के टोकन अमाउंट के बदले दी गयी जमीन पर बना है.





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उसने पद्मावतियों को सती/जौहर होते देखा है ..

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विलियम डैलरिम्पल/अनिता आनंद 


सती/ जौहर के फिल्मांकन से एक पक्ष अपना अर्थ-व्यापार कर रहा है तो दूसरा पक्ष उससे अपने जाति गौरव को जोड़कर राजनीति-व्यापार. इस खेल में क़ानून दाँव पर है और स्त्री के हक़ में लड़ाइयों का हासिल भी दाँव पर. इस द्विपक्षीय हुतूतू खेल के बीच क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि जब पद्मवतियाँ सती/जौहर होती थीं, जब उनके साथ उनकी दासियाँ भी जला दी जाती थीं तब आसमान में करूण आर्तनाद की गूँज से धरती-आकाश की करुणा विदीर्ण हो जाती होगी. और यह सब होता रहा है रतनों/ रणजीतों की सामंती ऐय्याशियों को सांस्कृतिक आवरण देने के लिए. पद्मावती के लिए हो-हल्ला करते हुए जब थक गये हों तो राणा रणजीत सिंह और उनके वशंजों की मौत के बाद के उस करूण दृश्य को देखें, जो सामंतों की शान से बनी राख की ढेर और धुल से पैदा होता रहा है.... 

राख का शहर 18 जून 1839

तीन दिन और तीन रातों तक महाराजा कीचिता की आग जलती रही। महल के बाग समेत पूरा परिसर चिता में जल रही चंदन की लकड़ी और महाराजा के पार्थिव शरीर की महक से भरा हुआ था। वैसे तो महाराजाओं की ज़िंदगी की तरह उनके अंतिम संस्कार किसी भी मायने में कमतर नहीं होते। पर भारतीयों ने खुद माना कि एक शेर की विदाई इसी तरह होनी चाहिए।

महाराजा के अंतिम संस्कार में हुए असंख्य रीति-रिवाजों का सबसे अच्छा विवरण एक यूरोपीय ने किया है जो लाहौर दरबार में कार्यरत था। आॅस्ट्रिया-हंगरी का मूल निवासी जान मार्टिन होनिगबर्गन एक होमियोपैथी का डाॅक्टर होने के साथ ही एक यात्री था जो दस साल पहले रणजीत सिंह के दरबार में पहुंचा था। रणजीत सिंह उससे इतने प्रभावित हुए कि उसे वापस नहीं जाने दिया और अपने दरबार में जगह दे दी।


महाराजा के दरबारी में बतौर बड़े ओहदेदारउस पर एक महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारी थी, उसे यह सुनिश्चित करना था कि चिता की आग ठंडी होने पर अस्थि विसर्जन के लिए चिता की राख को इकट्ठा कराया जाए। उसके मुताबिक जो उसने देखा वह यह था कि कुछ डोम या महाब्राह्मण जैसे लोग, जिनकी त्वचा सूरज में रहने की वजह से पूरी तरह झुलस चुकी है, राख इकट्ठी कर उसमें से अस्थियां जमा कर रहे थे। किसी समय दुश्मनों के लिए दहशत और दुनिया को अपने वैभव और भव्यता से दंग कर देने वाला उनका मरीज महाराजा रणजीत सिंह अब राख और अस्थियों में तब्दील हो चुका था। वह भी उसकी नज़रों के सामने।

तीन दिन पहले जब महाराजा का अंतिम संस्कार शुरू हुआ था तो लाहौर किले को बाहरी दीवार और महल के बीच की जगह में उनकी चिता सजाई गई थी। उस दिन लग रहा था कि सारा का सारा पंजाब अपनी राजधानी में उमड़ रहा है। वेदना में डूबे हुए लोगों का एक सागर था और होनिगबर्गर के कान के पर्दे वहां होने वाले शोर से गूंज रहे थे।

होनिगबर्गर को अपनी गर्दनें ताने हुए खड़ीभीड़ में किसी रास्ता दिलाकर उनकी जगह तक पहुंचाया गया। उनके आसपास सिख सरदारों के सामंत सफेद कपड़ों में, नंगे पैर मौजूद थे। वहां पर उस दिन महाराजा के दरबार के सबसे बड़े सिख सामंतों, दरबार के मंत्रियों, अधिकारी और महाराजा के वजीरों के सिवाय हर वह शख्स मौजूद था जिसे वहां होना चाहिए था। दरअसल इन उच्चपदस्थ सिख दरबारियों को एक खास सम्मान मिला था। वे अपने महाराजा की अंतिम यात्रा को लेकर द्रवित थे पर उनका सहचर बनने के सम्मान से गौरवान्वित भी थे। होनिगबर्गर वहीं इंतजार करते रहे, उनका इंतजार खत्म हुआ जब उन्होंने दूर से अंतिम यात्रा को आते देखा। चौथाई मील लंबी  इस यात्रा के दोनों तरफ बंदूकधारी सैनिक मौजूद थे। अंतिम यात्रा करीब करीब जनमानस के सागर को दो भागों में चीरती हुई दूर से आती दिख रही थी। इसी रेखा के बीचोबीच महाराजा रणजीत सिंह का पार्थिव शरीर दिख रहा था। एक सोने के मंच पर रखा हुआ यह शरीर मानों एक सोने के पाल वाले जहाज़ की तरह दिख रहा था।1 दरअसल इसे जहाज कहना उस समय सबसे उपयुक्त लग भी रहा था। क्योंकि वह रोती बिलखती महाराजा की प्रजा के अपार जनसमुद्र के बीच से आता हुआ जो दिख रहा था। अंतिम यात्रा में संगीतकारों की धुनें इस करुण रुदन को और कातर बना रही थी।

महाराजा के पार्थिव शरीर के पास ही होनिगबर्गन की नज़र एक महिला की तरफ पड़ गई। वह रानी महताब देवी थीं जिन्हें महाराजा प्यार से गुड्डन बुलाते थे। वे सोने की एक पालकीनुमा कुर्सी पर बैठी थीं जिसे पसीने में लथपथ कहारों ने ऊपर उठा रखा था। उनके पीदे तीन और रानियां इस तरह की कुर्सियों पर सवार थीं।2 उसने सभी रानियों को देखा पर उसकी निगाह सिर्फ रानी गुड्डन पर ही टिकी रही। इसकी वजह भी थी। दरअसल वह और रानी पहली बार लाहौर समान वर्ष में आए थे। उस समय वह एक युवा डाॅक्टर और यात्री था जिसे शोहरत कमाने की भूख थी वहीं गुड्डन एक राजपूत राजकुमारी थीं। उनके साथ ही उनकी बहन रानी राज बंसो का विवाह भी महाराजा से ही कर दिया था।


रानी गुड्डन को देखकर होनिगबर्गर को अनायासही उनके विवाह का दिन याद आ गया, जब वह शादी  के समारोह में दाखिल हो पाने में कामयाब रहा था। उसे यह भी याद आया कि रानी की बेपनाह खूबसूरती के चर्चे थे, जिनकी पुष्टि वह कर पाने में अक्षम था। शादी के दिन रानी घूंघट में थीं और उसके बाद से वो घूंघट में ही रही थीं। अब जाकर, दस बरसों के बाद, उनकी मौत के दिन वो सार्वजनिक रूप से उनका चेहरा देख पा रहा था। होनिगबर्गर ने देखा कि वे अभी भी खूबसूरत थीं।जैसे-जैसे गुड्डन और उनके साथ की तीन रानियां चिता के पास आती जा रही थीं वे अपने कंगन उतार कर उस भीड़ में फेंक रही थी जहां से हज़ारों हाथ उन कंगनों को प्रसार समझ कर लेने को आतुर थे।

सिख दरबार में उनके सहयोगियों ने होनिगबर्गरको बताया कि ये रानियां (महाराजा की 17 में से चार) स्वेच्छा से सदियों पुरानी परंपरा का हिस्से बनने वाली हैं। इसके बावजूद जो कुछ सामने आया, उसने उसे वितृष्णा से भर दिया। अपने पति के प्रति उसके जीवन और उसके बाद भी समर्पित ये औरतें सती थीं और उनकी सार्वजनिक आत्महत्या-या हत्या, जो आपके नजरिये पर निर्भर करता है-को चारों ओर सराहा जा रहा था। शाही इतिहासकार सोहनलाल, जिनका काम महाराजा के दरबार में हो रही घटनाओं को दर्ज करना था, ने आगे चल कर लिखा कि रानियां अपनी चिता के लिए तैयार होते समय ‘नशे में डूबी हाथियों की तरह नाचती और हंसती हुई’ प्रसन्नचित थीं।

वैसे होनिगबर्गर को सोहनलाल सूरी द्वारा वर्णित प्रसन्नता का कोई भी भाव उन अभागी औरतों के चेहरे पर नहीं दिखा। रानियों की गोद में महाराजा का सिर रखा गया, मानो वह सो रहे हों, रानियां बाकायदा उनके पार्थिव शरीर के आसपास सलीके से बैठी हुई थीं और उन्होंने अपनी आंखें बंद कर रखी थीं। उन्होंने युवराज खड़क सिंह को भले ही न देखा हो पर आग लिए हुए चिता को अग्नि देने आ रहे युवराज की मौजूदगी का अहसास उन्हें ज़रूर हुआ होगा। होनिगबर्गर यह तो सुन और समझ नहीं पास कि चिता में आग लगते ही क्या सती हो रही रानियों में से कोई चीखा। उन सबको जैसे ही चिता की आग ने अपनी आगोश में लिया तो ढोल नगाड़े और वहां मौजूद जनसमुद्र की गर्जना ने होनिगबर्गर के होश उड़ा दिए। सिर्फ होनिगबर्गर ही अकेला नहीं था जिस पर वहां का घटनाक्रम हावी हो रहा था। एक जोड़ी कबूतरों ने भी महाराजा की चिता में छलांग लगा दी। इस घटना ने तो जैसे पूरे जनसमूह को आह्लादित कर दिया। कहा गया कि इन्सान तो इंसान पशु पक्षी भी महाराजा रणजीत सिंह के लिए सती होना चाहते थे।

चिता की आग ठंडी होने में पूरे दो दिन औरदो रातें लगीं। इस दौरान होनिगबर्गर अगले बीस घंटों तक चिता पर अपनी निगाहें गड़ाकर रखने को बाध्य था। दरबार के हर वरिष्ठ सदस्य से अपेक्षा थी कि वो अस्थियां प्रवाहित होने तक वहीं रहेगा। जब चिता की आग इतनी ठंडी हो गई कि उनमें गट्ठे पड़ी हुई उंगलियां काम कर सकें तो डोम लोगों ने, जो लाशों का प्रबंध करने वाली एक जाति है, अपना काम शुरू कर दिया। वे यह कैसे जानते थे कि कहां महाराजा की अस्थियां खत्म हुईं और रानियों की शुरू हुईं, यह एक राज ही था। सदियों से आम लोग और राजा-महाराजा डोमों की माहिर उंगलियों के बीच से गुज़रते रहे थे और उनके तौर-तरीकों पर आज तक कभी उंगली नहीं उठी। डोम अस्थियों को राजा और चार रानियों के पांच ढेरों में अलग-अलग कर रहे थे, लेकिन जब यह हो रहां था तो कोई भी उन सात गुलाम लड़कियों की अस्थियों की परवाह करता हुआ नहीं दिख रहा था जो उस स्याह राख में मिल गई थीं, रानियों की तरह वे भी अपने राजा के साथ जल कर मर गई थीं। लेकिन रानियों से उलट चिता तक उन्हें अपने पैरों पर चल कर आना था।


होनिगबर्गर के मन मस्तिष्क में ताउम्र उनसात लड़कियों का चेहरा दर्ज हो गया। वह भूल ही नहीं पा रहा था कि किस तरह से महाराजा की सात दासियां पालथी मारकर बैठी थीं उनके सिर पर तेल से पूरी तरह भीगी सरकंडे की चटाई रखी गई और फिर वो सती हो गईं। इन सात दासियों के बारे में कोई बात नहीं कर रहा था, उनका मातम कोई नहीं मना रहा था। यहां तक कि होनिगबर्गर के पता लगाने के बाद भी उनका नाम तक पता नहीं चल पाया। इस ‘घृणित समारोह’ को देखने के बाद होनिगबर्गर उनके लिए दयाभाव और लोगों के लिए घृणा से भर गया। बाद में जब होनिगबर्गर से पूछा गया कि वह इस समारोह के पहले ही पंजाब छोड़कर क्यों नहीं चला गया तो होनिगबर्गर ने अपने मित्र और महाराजा रणजीत सिंह के दरबार में उनके सहयोगी यूरोपीय जनरल ज्यां-फ्रांसुआ अलार्ड के शब्दों को उद्धत किया, ‘यहां पर आना बहुत मुश्किल है पर जाना उससे भी ज़्यादा मुश्किल है।’

दस साल पहले 1829 में होनिगबर्गर 34 साल का ऐसा युवक था जो एक उपनिवेशी आॅस्ट्रिया से मजबूत इरादों और उम्मीदों के साथ मेडिकल की पढ़ाई कर बाहर निकला था। उसके पास अपने पेशे के लिए ऐसे विचार थे जो उस समय के खांचे में फिट नहीं बैठते थे। एक घुमंतू युवक के तौर पर वह लाहौर पहुंचा जिसके पास दवाइयों का एक बक्सा और अनुशंसा का पत्र था। उसके इरादे बहुत ऊंचे थे, पर उसकी तरक्की की उड़ान को पंख नहीं मिल पा रहे थे। महाराजा रणजीत सिंह ने अपने आसपास ‘गोरे’ को डाॅक्टर रखने से इन्कार कर दिया था। लिहाजा उसे दरबार के छोटे अधिकारियों का ही इलाज करना पड़ रहा था। जब बहुत से लोगों का उसने सफल इलाज कर दिया तो उसे महल में तलब किया गया। होनिगबर्गर को यह उम्मीद तो कभी नहीं थी कि महल में उसके पहले शाही मरीज खुद महाराजा होंगे पर उसे यह उम्मीद तो कम से कम थी कि महल में उसका मरीज कोई इंसान होगा। उसका पहला मरीज एक बहुत ऊंचा घोड़ा था जिसे देखकर चिकित्सक के तौर पर वह बहुत आश्चर्य में था। उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या करे। यह घोड़ा महाराजा को इंग्लैंड के राजा किंग जाॅर्ज चतुर्थ ने दोस्ती के बतौर उपहार दिया था। शाही अस्तबल में रहने के बावजूद इस घोड़े के पैर में फोड़े निकल आए थे। हकीमों ने उसका इलाज करने की बहुत कोशिश की पर जब सब हार गए तो अंतिम विकल्प के तौर पर होनिगबर्गर को बुलावा भेजा गया था। उसने घोड़े को बचाने के लिए हर मुमकिन कोशिश की पर घोड़े को बचा नहीं पाया। इस तरह के नतीजे के बाद यह आशंका थी कि होनिगबर्गर के लाहौर से बोरिया बिस्तर बांधने के दिन आ गये थे पर जिस तरह से होनिगबर्गर ने बीमार पशु की सेवा की और उसे बचाने की हर मुमकिन कोशिश की वह महाराजा रणजीत सिंह को भा गया। महाराज ने युवा डाॅक्टर को अपने दरबार में शामिल कर लिया और उसे इंसानों के इलाज की अनुमति दे दी। साथ ही उसके प्रयासों के लिए उसे उपहार भी दिए। इस उदारता के बाद भी होनिगबर्गर की महाराजा के बारे में व्यक्तिगत राय बहुत खराब थी। यहां तक वह महाराजा को निचले दर्जे का मानता था और घोड़े पर सवार महाराजा की तुलना वह हाथी पर सवार लंगूर से करता था।

महाराजा ने उसे अपनी तोपखाना बटालियन में एक ओहदा देने की पेशकश की। उनका मानना था कि वह भी दूसरे गारों की तरह सेना में उनके लिए भाग्यशाली साबित होगा। दूसरे गोरों को उन्होंने महत्वपूर्ण जगहों पर तैनात किया था क्योंकि वह गोरों को भाग्य का प्रतीक मानता था। होनिगबर्गर ने बिना सोचे ही इस प्रस्ताव को खारिज कर दिया। उसने कहा, ‘मैंने महाराजा से कह दिया कि जिस पद के लायक आप मुझे समझ रहे हैं उसकी मैं सलाहियत ही नहीं रखता हूं।’


महाराजा कहां मानने वाले थे। उन्होंने इस इन्कार का जवाब पहले से ही सोच रखा था। उन्होंने तुरंत दूसरा प्रस्ताव दिया। उन्होंने उसे शाही बारूदखाने में अधीक्षक बना दिया। इस पद में नाम और पैसा यानी दौलत और शोहरत दोनों ही इफरात में थी। होनिगबर्गर ने इस प्रस्ताव को महज इसीलिए स्वीकार कर लिया क्योंकि वह बहुत दिन तक पंजाब में रुकने वाला नहीं था। वह जल्द से जल्द अपने घर वापस जाना चाहता था। उसने लिखा है, ‘मैं इस ख्याल से ही इतना परेशान था कि अगर कोई मुझसे यह कहता कि कोहिनूर ले लो और यहीं पर बस जाओ तो मैं उसे भी मना कर देता।’ यह भी कम दिलचस्प नहीं है कि वही होनिगबर्गर अगले दस साल तक महाराजा की इच्छा के मुताबिक दरबार में टिक गया।

पीढ़ी-दर-पीढ़ी सती 

राजतिलक होने से बहुत पहले ही खड़क सिंहने महाराजा की पदवी धारण कर ली थी। जून 1839 में अपने पिता के अंतिम संस्कार के तुरंत बाद यह पदवी धारण करने वाला खड़क सिंह जल्दी ही सत्ता के दुर्गुणों से घिर गया। वह आलीशान दावतें करने लगा, जिनके अंत में वह नशे में पूरी तरह धुत इंसान के सिवा कुछ नहीं रहता था। उसने अपने शातिर वज़ीर ध्यान सिंह को नज़रअंदाज़ करना शुरू कर दिया और अपने सभी मंत्रियों और ताकतवर दरबारियों को हाशिए पर डाल दिया। धार्मिक खालसा जल्द ही नए महाराजा के व्यवहार से घृणा करने लगा था और ऐसा करने वाला वह अकेला नहीं था। नए महाराजा के तौर पर उसके सलाहकारों और सेनापतियों को जल्द ही उससे वितृष्णा हो गई, क्योंकि महाराजा के तौर पर उसकी रुचि राज्य के किसी भी मामले में नहीं थी बल्कि वह नशे, सुरा और सुन्दरी में ज़्यादा व्यस्त रहता था। उसके सिंहासन पर बैठने के चार महीने के भीतर ही उसकी हत्या की साजिश रच दी गई।

यह तय किया गया कि सफेदा कस्करी (सफेदासीसा) और दस काफूर (पारे का मिश्रण) की खुराक महाराजा के रोज़ के खाने और शराब में मिलाई जाएगी। पहले तो इस ज़हर का असर कुछ खास नहीं दिखा। सिर्फ महाराजा की नशे में धुत रहने की अवधि बढ़ गई और उसकी आवाज़ हल्की लड़खड़ाने लगी। उसे अपने हाथ पांव में तालमेल करने में भी अब सामान्य से ज़्यादा समय लगने लगा था। इसके बाद धीरे-धीरे महाराजा अंधा होने लगा। इसके बाद उसके पूरे शरीर में एक रहस्मय लेकिन गंभीर पीड़ादायक खुजली मचने लगी और कुछ ही हफ्तों बाद उसके जोड़ों में दर्द और उसकी त्वचा में जगह-जगह से खून रिसने लगा। ज़हर की खुराक शुरू करने के छह मीने के भीतर ही महाराजा का एक-एक अंग धीरे-धीरे काम करना बंद करने लगा। खड़क सिंह अब सिंहासन से शय्या पर पहुंच चुका था। तिलतिल कर मर रहा वह मौत का इंतज़ार करने लगा था।

इस धीमी हत्या में ग्यारह महीने और लगे। इसदौरान खड़क सिंह के 18 साल के बेटे नौनिहाल सिंह को राजधानी बुलाकर युवराज बना दिया गया था। एक आकर्षक व्यक्तित्व और साहसी सेनानायक के तौर पर नौनिहाल सिंह वैसे तो सबकी पसंद था लेकिन उसे दरबारी सियासत का बिलकुल इल्म नहीं था। लिहाज़ा उसे अपने पिता के नाम और अपने वज़ीर की सलाह पर शासन संभालना पड़ा। अफवाहें इस तरह की भी रहीं कि खड़क सिंह को ज़हर देने की साज़िश शातिर वज़ीर ध्यान सिंह ने रची थी। हालांकि इसकी कभी पुष्टि नहीं हो सकी।

इस साज़िश में नौनिहाल सिंह के शामिल होनेके कोई संकेत तो नहीं मिलते लेकिन उसने भी अपने पिता के प्रति कोई विशेष स्नेह या आदर नहीं दिखाया। जब खड़क सिंह जीवित और शय्या पर पड़ा था तो वह हर दिन अपने बेटे को देखने की भीख मांगता था। लेकिन होनिगबर्गर के लिखे संस्करण में यह साफ है कि नौनिहाल सिंह अपने पिता के पास बहुत कम अवसरों पर गया। खड़क सिंह की मौत 5 नवंबर 1840 को हुई और उसकी मौत को लोगों ने उस पर कुदरत का रहम माना। महाराजा की मौत के आधिकारिक एलान मंे बताया गया कि एक रहस्मय बीमारी से महाराजा की अचानक मृत्यु हो गई। इस एलान में महाराजा की महीनों से चल रही बीमारी का कोई ज़िक्र नहीं किया गया।


होनिगबर्गर के मुताबिक शायद किसी को महाराजा की मौत का न तो कोई दुख था, न ही कोई दिक्कत। लोगों ने उनकी मौत के कारण और उसके एलान पर सवाल उठाने की ज़हमत भी नहीं की। एक बार फिर से होनिगबर्गर पंजाब के शाही अंतिम संस्कार को इतनी जल्दी देख रहा था। उसका विवरण वह कुछ इस तरह लिखता है: ‘महाराजा के साथ उनकी तीन पत्नियां सती हो गईं। मैं एक बार फिर से यह भयावह दृश्य का साक्षी बना। यह भयावह ज़रूर था लेकिन इसकी तड़क-भड़क और धूमधाम में कोई कमी नहीं थी।’ उनके साथ उनकी ग्यारह दासियां भी सती हुईं लेकिन शायद यह विदेशी चिकित्सक सती के खौफनाक मंज़र का इस कदर आदी हो गया था कि वह उनके बारे में लिखना ही भूल गया।

खड़क सिंह ने जिस तरह अपने पिता कोमुखाग्नि दी थी, नौनिहाल सिंह ने उस परंपरा का निर्वाह किया लेकिन खड़क सिंह से ठीक उलट, ऐसा करते समय नौनिहाल एक राजा की तरह व्यवहार कर रहा था। अपने पिता की रहस्यमय बीमारी के दौरान ही दरबारियों में लोकप्रिय हो चुका नौनिहाल सिंह नैसर्गिक नायक के तौर पर दरबार और जनता के बीच स्थापित हो चुका था। उसकी उम्र भले ही 18 वर्ष रही हो लेकिन उसकी परिपक्वता उसकी उम्र से कहीं आगे थी। और जो लोग अपने राजा में नायक और नेतृत्व तलाशते हैं उनके पैमान पर भी नौनिहाल सिंह कोहिनूर के असली हकदार के तौर पर खरा उतरा था।

पिता की चिता की राख ठंडी होने के बाद एकमहाराजा अपने सभी दरबारियों को लेकर, जिनमें होनिगबर्गर शामिल था, रावी नदी के तट पर, ‘अस्थियां प्रवाहित करने पहुंचा जो पंबा की रवायत थी। इस बीच सबसे नज़रें बचाकर होनिगबर्गर वहां से निकल गया। उसने पंजाब की काफी ‘भयावह’ प्रथाएं देख ली थीं और अब उसके मरीज़ों को उसकी ज़रूरत थी। घर पहुंचकर उसने मरीज़ों को देखना शरू ही किया था कि महल से एक बेहद बौखलाया हुआ हरकारा उसके पास आया। नौनिहाल सिंह और उसके साथी रावी नदी से हजूरी बाग से होकर वापस लौट रहे थे, जिसे 1818 में रणजीत सिंह ने कोहिनूर हासिल करने की खुशी मेें बनवाया था। जब शाही काफिला हजूरी बाग के द्वार के नीचे से गुज़र रहा था, तो एक मेहराब से एक बड़ा सा पत्थर रहस्यमय तरीके से उनके ऊपर गिर पड़ा। पत्थर नौनिहाल और उसके दो साथियों पर गिरा, जिनमें से एक की तो मौके पर ही मौत हो गई। किस्मत से नौनिहाल को ज़्यादा चोट नहीं लगी और ब्योरे के मुताबिक वे पैदल वहां से चल कर गए। होनिगबर्गर अपनी दवाओं का बक्सा और मलहम लेकर आनन फानन में महल पहुंचा। उसे उम्मीद थी कि वह हल्की-फुल्की चोट खाए लेकिन सदमें में आए एक युवा महाराजा से मिलेगा। लेकिन उसका स्वागत दरबारियों के पीले पड़े चेहरों ने किया। वज़ीर राजा ध्यान सिंह ने होनिगबर्गर को अपने पीछे आने का इशारा किया:
एक मंत्री मुझे एक तंबू में ले गया। मंत्री ने मुझे निर्देश दिया कि मैं इस बारे में किसी को कुछ ना बताऊं। शिविर में नौनिहाल सिंह अपने पलंग पर थे। उनका सिर बुरी तरह कुचला हुआ था और उनकी हालत ऐसी थी कि अब उनके बचने की उम्मीद ही नहीं थी। इस विचार के साथ मैं शिविर से बाहर निकला और मंत्री से फुसफुसाकर कहा, ‘दबाएं अब इस अभागे राजकुमार का कोई भला नहीं कर सकतीं।’

नौनिहाल के साथ हुई इस ‘दुर्घटना’ के हालात पूरीतरह से अस्पष्ट थे और चश्मदीदों के बयान भी एक दूसरे से मेल नहीं खा रहे थे। वज़ीर का अपना भतीजा पत्थर के गिरने से घटनास्थल पर ही मारा गया था। और ब्योरे से उलट, ध्यान सिंह ने शपथ लेकर कहा कि नौनिहाल को हजूरी बाग में उनके भतीजे के समान ही चोट लगी थी। वहीं रणजीत सिंह की सेना में तोपची कर्नल एलेक्जैं़डर गार्डनर ने कुछ और ही कहानी सुनाई। जब ढांचा गिरा था तो गार्डनर युवराज के ठीक पीछे थे और उनके अपने आदमियों ने स्ट्रेचर पर ढो कर घायल नौनिहाल को महल तक पहुंचाया था। जैसा कि गार्डनर ने बताया, युवराज अपने पैरों पर चल कर जाने के लायक होशोहवास में थे और पानी मांग रहे थे। सिर्फ गार्डनर के आग्रह पर ही उन्हें स्ट्रेचर पर रख कर उनके बिस्तर तक पहुंचाया गया।

वहीं महज़ कुछ मिनटों बार होनिगबर्गर ने जिसयुवराज को देखा वह न चलने के काबिल था और न ही बोल पा रहा था। नौनिहाल की खोपड़ी चकनाचूर हो गई थी और उसके बिस्तर की चादर उसके खून और भेजे के हिस्सों से सनी हुई थी। उसके जख्म इतने गंभीर थे कि वह कुछ घंटों बाद ही मर गया, हालांकि इस खबर को जनता से तीन दिनों तक छिपाकर रखा गया। नौनिहाल की चिता के लिए चंदन की लकड़ियां भी गोपनीय ढंढ से इकट्ठा की गईं और दिशाहीन पंजाब के आतंक की आगोश में समाने से पहले दरबार में खाली पड़ी गद्दी को भरने का खेल शुरू हो गया था। दरबारी मंत्री गद्दी पर अपना अपना दावा पेश कर रहे थे।

तीन दिन बाद जब इस ‘अनोखी दुर्घटना’ की खबर जनता को दी गई तो गार्डनर ने यह खबर देते हुए अटकलों को और हवा दी कि जिन पांच तोपचियों ने नौनिहाल को स्ट्रेचर पर ढोकर उसके पलंग तक पहुंचाया था, उनमें से रहस्मय ढंग से दो की मृत्यु हो गई, दो छुट्टी मांग कर गए और कभी नहीं लौटे और एक अजीबोगरीब ढंग से लापता हो गया। जब पंताब एक बार फिर से खुद को एक शाही अंतिम संस्कार के लिए तैयार कर रहा था-दो साल में तीसरी बार-तो ऐसे मंे कोहिनूर पर शक जाना स्वाभाविक था। क्या यह कोहिनूर का शाप था जो एक एक कर रणजीत हसंह के उत्तराधिकारियों को निगल रहा था?

9 नवंबर 1840 को नौनिहाल का अंतिम संस्कारहो रहा था तो उसकी किशाोर उम्र की दो पत्नियां उसके साथ सती होने के लिए उसकी चिता तक पहुंची। उसकी सबसे बड़ी पत्नी गर्भवती थी, इसलिए उसे सती नहीं होने दिया गया वहीं एक बेहद छोटी रानी को नौनिहाल के चाचा शेर सिंह ने सती होने से बचा लिया। होनिगबर्गर इस घटना को इस तरह दर्ज करता है: ‘दो बेहद खूबसूरत लड़कियां उसके साथ (नौनिहाल) लपटों की शिकार हो गईं। 12 साल की एक लड़की को बचा लिया गया... इसलिए कि उसकी उम्र बहुत कम थी और वह सती समारोह के लिए परिपक्व नहीं थी।’


इस बच्ची को बचाने वाले शेर सिंह खड़क सिंहके भाई थे। कद में नाटे, काली दाढ़ी, पैनी निगाहों और ओजस्वी दिखने वाले शेर सिंह ने अपने अधिकार का प्रयोग करते हुए इस बच्ची को चिता की आग से बचा लिया था पर कोहिनूर और सिंहासन पर दावा जताना उनके अधिकार में नहीं था। अब वे अपने भतीजे नौनिहाल को चिता में जलते देख कर दुखी तो थे पर एक बच्ची को बचाने का आत्मसंतोष ज़रूर उनमें रहा होगा।

बालक राजा

शेर सिंह रणजीत सिंह के दूसरे सबसे बड़े बेटे थे, जो खड़क सिंह से पांच साल छोटे थे। 1807 में पैदा हुए शेर सिंह जुड़वां हुए थे। दोनों बेटों में शेर सिंह 5 मिनट बड़े थे जबकि उनके जुड़वां भाई तारा छोटे। पर इन दोनों भाइयों और सिंहासन के बीच एक खाई थी। उनकी मां, महारानी मेहताब कौर, जिनकी सगाई रणजीत सिंह के साथ तब हो गई थी जब वह चार साल की थीं और महाराजा छह साल के थे। उनका नमा मेहताब इसलिए रखा गया था क्योंकि इसका मतलब चांदनी होता है और रानी के गोरे और बेदाग चेहरे और काया से यह नाम पूरी तरह न्याय करता था। उनके अप्रतिम सौंदर्य के सामने महाराजा कहीं नहीं ठहरते थे। महाराजा बेहद दुबले और कुरुप थे जिन्हें चेचक ने दागदार बना दिया था और उनकी एक आंख छीन ली थी। बहरहाल उनका विवाह 1796 में हुआ।

शादी सफल नहीं हो सकी। अमीर घराने में पैदा हुई मेहताब कौर एक स्वाभिमानी महिला थीं, उन्हें यह बिलकुल गवारा नहीं था कि महाराज रणजीत सिंह पूरे पंजाब के एक छत्र राजा बनने की ललक में शादी के एक दशक तक सिर्फ युद्ध करते रहें। दरअसल महाराज के पास उन पर ध्यान देने का ज़रा भी वक्त नहीं था। उन्होंने युद्ध में जीतने के बाद अपने हरम में बहुत सी सुंदरियों को जगह दे दी थी। यह मेहताब को बर्दाश्त नहीं हो सकता और वह राजधानी से 65 मील उत्तर पूर्व में स्थित अपनी मां के घर बटाला रियासत लौट गईं। भले ही रणजीत सिंह मेहताब के घर यानी अपने ससुराल जाते रहे पर वास्तविकता यह थी कि दोनों के बीच रिश्ता सिर्फ नाम का ही बचा था। इसके बाद के कुछ सालों में महाराजा रणजीत सिंह ने बहुत सी महिलाओं से शादी की और बहुत सी दूसरी खूबसूरत महिलाओं को अपने हरम में रखा। जब महाराजा की दूसरी पत्नी दतर कौर ने खड़क सिंह को जन्म दिया तो मेहताब की मां ने उन्हें महाराजा के साथ संबंध सुधारने की सलाह दी। दरअसल खड़क सिंह के जन्म ने राजशाही में मेहताब की स्थिति कमज़ोर कर दी थी और यह न तो मेहताब के लिए मुफीद थी न ही उनके परिवार के लिए। महराजा के रहमोकरम पर पल रहे उनके परिवार के लिए तो यह बिलकुल अनुकूल नहीं था।

संबंध सुधारने के अच्छे परिणाम अपने भी लगेथे क्योंकि 1803 में मेहताब ने एक बच्चे इशर सिंह को जन्म दिया था पर उसकी एक साल का होते ही मौत हो गई। इस सदमे से वह उबर भी नहीं पाई थी कि उसकी मां ने उसे फिर से महाराजा को लुभाने के लिए कहा। इस बार महाराजा का ध्यान आकर्षित करना आसान नहीं था क्योंकि अब महाराजा एक मुस्लिम तवायफ मौरन के इश्क़ में अंधे हो चले थे। सिर्फ मेहताब ही नहीं मौरन के आगे महाराजा को पूरा हरम फीका लगने लगा था। अब सारा प्यार महाराजा उसे पर लुटाते थे। बावजूद इसके तीन साल बाद मेहताब ने महाराजा को फिर से हासिल कर लिया और जल्दी ही जुड़वां बच्चों शेर सिंह और तारा को जन्म दिया।

इस दोहरी खुशी की उम्र ज़्यादा लंबी नहीं थी।बटाला में चल रहे जश्न थमने लगे थे। बच्चों की पहली किलकारियों के साथ एक भयावह अफवाह ने भी जन्म ले लिया था। यह आरोप लगाए गए कि मेहताब ने लड़की को जन्म दिया था पर क्योंकि लड़कियां सिंहासन की उत्तराधिकारी नहीं हो सकतीं, इसलिए उन्होंने अपनी बेटी को किसी को दे दिया था और बदले में वे एक बुनकर और एक बढ़ई के दो बच्चे ले आई थीं। रानी पर अपनी बेटी बदलकर आम जनता के दो बेटे लेने का आरोप सही हो या गलत पर रणजीत सिंह ने इन दोनों को अपना कानूनी उत्तराधिकारी मानने से इन्कार कर दिया था। यह बात और थी कि रणजीत सिंह ने उन दोनों लड़कों को बेदखल नहीं किया था और उनका पालन-पोषण राजकुमारों की तरह महल में ही हुआ। पर सार्वजनिक तौर पर इन दोनों को उत्तराधिकारी न मानने से यह तय हो गया था कि तारा और शेर सिंह दोनों कभी भी राजा नहीं बन सकते थे। पिता की चुप्पी ही उनकी नियति बन गई थी। इसी के सहारे उन्होंने बचपन काटा और बाद में ताकतवर और समृद्ध भी बने, लेकिन शर्मिंदगी ने उनका पीछा नहीं छोड़ा।

यह हिस्सा लेखक द्वय की किताब 'कोहिनूर' (जगरनाट प्रकाशन) से उद्धृत है. 

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‘एक था गुल…’अलविदा शशि कपूर

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स्वरांगी साने 

अचानक वाट्स एप्प पर संदेश आता है..न्यूज चैनल्स पर फ्लैश होने लगता है..फिर स्क्रोल चलने लगता है, शशि कपूर नहीं रहे…

पहली प्रतिक्रिया तो यही आती है- अरे, और उसके बाद हर जगह चाहे फेसबुक हो या वाट्सएप्प…नमन,श्रद्धांजलि और आरआईपी घूमने लगते हैं…इन सबकी परवाह किए बिना एक अभिनेता चुपचाप जा चुका होता है..

पिछले कितने ही सालों से वे डायलिसिस पर थे, एकाकी जीवन जी रहे थे…और कल जब अमूमन सबकी दोपहर की चाय का समय था, वे चले गए…


शशि कपूर का जाना…हमारी पीढ़ी के लिएक्या मायने रखता है, वे हमारी पीढ़ी के हीरो नहीं थे, जबकि सत्तर और अस्सी के दशक में जब हममें से कई लोग जन्मे या अपने बचपन को जी रहे थे वे तब बड़े परदे के हीरो थे…तब बड़ा परदा, बड़ा ही होता था, घरों में टीवी नहीं थे, टॉकिजों में जाकर फिल्में देखी जाती थी या किसी त्योहार,मेले-मौके पर किसी मैदान में बड़ा सफेद पर्दा लगाकर सबके लिए पिक्चर दिखाने का आयोजन होता था। तब पिक्चर देखना इतना कैजुअल नहीं था, कि जब मन हुआ चल दिए…बल्कि एक आयोजन ही होता था..और उस आयोजन की याद से जुड़े थे शशि कपूर…

बड़े भारी-भारी संवाद और उनके अर्थ समझ पाने की उम्र नहीं थी लेकिन ‘मेरे पास माँ है…’ का रुतबा तब भी बहुत ‘भारी’ लगता था, ऐसा लगता था जैसे सच में हम कितने अमीर है।

अपने बचपन के दौर में वह नायक था वह अल्हड़ सा शशि कपूर, गालों के गड्ढे और मासूम हँसी, और गीत.. ‘एक था गुल…’


तब हम जो बच्चे थे, वो किसी गीतकार आनंद बक्शी को नहीं जानते थे, हमें तो लगता था शशि कपूर सुना रहा है, मतलब उसी की कहानी होगी…और आज वह गीत जब हकीकत में बदल गया, शशि कपूर खुद अतीत हो गए तो पूरा दौर याद हो आया एक ही गीत के साथ कि ‘एक था गुल…’

कुछ बड़े हो जाने पर जाना कि अभिनेताओं के उस दौर में अपनी पहचान बना पाना शशि कपूर के लिए कितना कठिन रहा होगा… पृथ्वीराज कपूर के घर पर जन्म लेना और राज कपूर, शम्मी कपूर जैसे दोनों बड़े भाइयों के ऊँचे फिल्मी कद के साथ खुद को बैठा पाना उतना भी आसान नहीं रहा होगा। वर्ष 2011 में भारत सरकार ने पद्म भूषण से सम्मानित किया तो एक बार फिर इस अभिनेता का बहुआयामी जीवन रेखांकित हो गया। कुछ सालों बाद ही वर्ष 2015 में उन्हें वर्ष 2014 का दादा साहेब फाल्के पुरस्कार मिला।


केवल चॉकलेटी हीरो यह उनकी पहचाननहीं थी, सत्तर के दशक में उनके जैसा कोई व्यस्त कलाकार नहीं था। उन्होंने हर भूमिका के साथ न्याय किया, भूमिका चाहे हीरो की हो, बाल कलाकार की, सह कलाकार की या निर्माता-निर्देशक की, उन्होंने ब्रितानी फिल्मों में काम किया किसी ब्रिटिश की तरह, उन्होंने गैर परंपरागत फिल्मों में काम किया किसी समांनतर फिल्मों के अभिनेता की तरह, थियेटर के लिए खड़े हुए रंगकर्मी की तरह…भूमिकाएँ जो भी हो, उन्होंने दिलों-जान से निभाई…केवल 20 साल की उम्र में ब्रिटिश अभिनेत्री जेनिफर से शादी हो या संजना, करण, कुणाल के पिता की या रणधीर-ऋषि कपूर के चाचा या करिश्मा-करीना के दादा की… या अपने पिता के पृथ्वी थियेटर को नव संजीवनी देने की..उनका जीवन ‘आग (1948)’ से शुरू हुआ था, जिसकी ज्वाला ताउम्र उनके भीतर धधकती रही..1965 के बाद भी ‘जब-जब फूल खिले’ तब-तब उन्हें याद किया जाता रहेगा..अंतर्राष्ट्रीय सिनेमा के मंच पर वे ‘सिद्धार्थ (1972)’थे,..वे एक ‘विजेता’ थे, जिसने इस ‘शान’ से जीवन जीया था, कि उनका जीवन ‘जुनून’ भी था और ‘उत्सव’ भी…लेकिन ‘कभी-कभी’ ही ऐसे लोग हुआ करते हैं…

जन्म- 18 मार्च 1938
मृत्यु – 04 दिसंबर 2017

परिचय :-वरिष्ठ साहित्यकार, पत्रकार और अनुवादक विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित. 
संपर्क :-swaraangisane@gmail.com

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स्त्री के खिलाफ घर परिवार और विवाह संस्था को मजबूत करते सत्तावान: अरविंद जैन

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स्त्रीकाल डेस्क

स्त्रीवादी क़ानूनविद अरविन्द जैन को  जन्मदिन (7 दिसंबर) की शुभकामनायें... 

पिछले दिनों वर्धा प्रवास के दौरान भारत  के प्रमुख जेंडर विशेषज्ञ,  महिलाओं के संवैधानिक अधिकारों और उनकी कानूनी लड़ाई की मुहिम में प्रमुखता से शामिल प्रसिद्ध कानूनविद श्री अरविंद जैन से महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के स्त्री अध्ययन विभाग के शोधार्थियों, प्रीतिमाला सिंह, गीतेश, मनोज गुप्ता और  विभागाध्यक्ष प्रो. शंभु गुप्त ने  विस्तृत बातचीत की।

 जेंडर समानता, यौन हिंसा अथवा महिलाओंके पक्ष में बने कानूनों की जमीनी हकीकत, कानूनों के विधिसम्मत अनुपालन में जेंडर पक्षपात से भरी राजनीतिक, सामाजिक एवं सामुदायिक मान्यताओं के बीच न्यायपालिका की भूमिका पर बात की गई। डॉ. जैन का मानना है कि बिना कानून और संविधान की जानकारी के इंसान अधूरा है। जेंडर समानता के पक्ष में हुए कानूनी सुधारों की पारिभाषिक शब्दावलियों उसकी सामाजिक एवं विधिक स्वीकार्यताओं के बीच अंतर्विरोधों के सवाल पर श्री जैन ने बड़ी सटीकता से जवाब देते हुए कहा कि चूंकि कानून बनाने वाली, उसे व्याख्यायित करने वाली और उसे लागू करने वाली संस्थाओं में निर्णयकारी भूमिकाएँ पुरुषों की हैं। संसदीय ढांचे में 92 प्रतिशत, ऊपरी अदालतों में 98 प्रतिशत न्यायाधीश पुरुष हैं ऐसे में यदि कुछ गिनी चुनी जगहों पर महिलाए हैं भी तो उन्हें निर्णय की भूमिका में प्रभावी रूप में शामिल ही नहीं किया जाता। सत्ता पर बैठे लोग घर, परिवार और विवाह संस्था के उसी मूल ढांचे से अपने रिश्ते मजबूत करते दिख रहे हैं जो आज भी सामंती बना हुआ है। जे. एस. वर्मा और लीला सेठ की कमेटी द्वारा सौंपी गयी रिपोर्ट को जिस तरह सरकार ने अपने तरीके से पेश किया उस पर भी लंबी बात-चीत हुई। रेप को परिभाषित करने वाले 2013 के कानून में स्त्री की सहमति-असहमति की परिस्थितियों के आलोक में वैवाहिक बलात्कार को देखते हुए अरविंद जैन ने खेद प्रकट करते हुए कहा कि इसने पुरुषों को असीमित अधिकार दे दिए हैं जो आने वाले समय में अपराधियों के लिए एक ढाल के रूप में साबित होंगे। महिलाओं के लिए वैवाहिक बलात्कार कानून की महत्वपूर्ण भूमिका, संपत्ति अधिकार कानून, तीन तलाक और महिला आरक्षण बिल पर भी शोधार्थियों ने उनसे सवाल किए। किसी भी कानून को लागू करने अथवा बिल पास करने की सरकारों की राजनीतिक इच्छा पर ज़ोर देते हुए उन्होंने कहा कि इन इच्छाओं का निर्धारण तत्कालीन सरकारें अपने हितों को ध्यान में रखते हुए करती हैं।


वर्तमान संदर्भ में उन्होंने उदाहरण स्वरूप कहा एक तरफ नोटबंदी, जी.एस.टी., या रेप लॉ आदि पर रातों रात फैसले और कमेटियाँ बना ली जाती हैं, वहीं महिला आरक्षण बिल जैसे कई महत्वपूर्ण मुद्दे वर्षों से ठंडे बस्ते में पड़े हैं। विश्वविद्यालयी परिवेश में जेंडर समानता से जुड़ेकानूनी और व्यवहारिक पक्षों पर बात रखते हुए स्त्री  अध्ययन जैसे अनुशासन में स्त्री-पुरुष की मौजूदगी और उनके साझा प्रयासों से जेंडर समानता की बहस और आंदोलनधर्मी भूमिकाओं को आगे बढ़ाने की भी बात कही। आज के समय के पद्मावती विवाद पर अपनी बेबाक राय रखते हुए उन्होंने कहा कि इस फिल्म को बनाने वाले तथा इसका विरोध करने वाले दोनों ही पक्ष सती तथा सती-प्रथा का महिमा-मंडन कर रहे हैं, जो कि सती निरोधक कानून के हिसाब से संविधान विरोधी कार्य है।

उन्होंने कहा कि सुप्रीम कोर्ट को 17 साल लगे अपने यहां सेक्सुअल हैरासमेंट पर कमेटी बनाने में लग गए। जबकि 1997 ई. में सुप्रीम कोर्ट ने विशाखा जजमेंट में इस आशय का निर्णय दिया था। अंततः 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने अपने यहां यह कमिटी बनाई। इसी से देश के बाकि जगहों पर इस मसले पर के हालात को समझा जा सकता है।

डॉ. जैन ने आगे कहा कि आज भी देश-समाज-परिवार के लोकतंत्रीकरण का एजेंडा अधूरा है। दहेज हत्या, यौन हिंसा से लेकर बालिका भ्रूण हत्याएं देश में थमने का नाम नहीं ले रही है। विश्वविद्यालय और कॉलेजों में सेक्सुअल हरासमेंट से लेकर हत्या-आत्महत्याएं जारी है। उन्होंने तल्ख लहजे में कहा कि विश्वविद्यालयों में सेक्सुअल हरासमेंट पर जीरो टॉलरेंस की महज औपचारिकता पूरी की जा रही है। ज्यादातर विश्वविद्यालयों में छात्र-छात्राओं को एकांगी ज्ञान दिए जा रहे हैं, उन्हें समग्र ज्ञान से मरहूम रखा गया है। ज्यादातर विश्वविद्यालयों में दस बजे रात्रि के बाद छात्राओं के छात्रावास में ताला लगा दिया जाता है, जबकि छात्रों को खुली छूट रहती है। उन्होंने आगे कहा कि विश्वविद्यालयों के छात्रावास लड़कियों के लिए कैदखाने बने हुए हैं।

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सामूहिक चेतना का ही प्रतिबिम्ब है स्त्रीविरोध का अनफेयर गेम

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ज्योति प्रसाद

इसी बेसर्दी के महीने दिसंबर में द इक्नॉमिक्सटाइम्स ने एक सूचना छापी है कि विनी कॉस्मेटिक्स जो फॉग सेंट भी बनाती है अब एक प्रिटी 24 क्रीम बाज़ार में लेकर आई है।कंपनी के मैनिजिंग डायरेक्टर का मानना है कि अब बाज़ार में उपलब्ध उन ब्राण्ड्स का पर्दाफाश होगा जो कथित रूप से गोरापन बेचते हैं। कंपनी के मुताबिक प्रिटी 24 क्रीम भारतीय महिलाओं को उनके त्वचा के रंग के आधार पर हो रहे भेदभाव से मुक्त करेगी। दिलचस्प यह भी है कि यही कंपनी एक अन्य उत्पाद व्हाइट टोन फेस पाउडर भी बनाती है जिसको लगा लेने के बाद चेहरा निखरा निखरा, ईवन टोन और ऑइल फ्री दिखने लगता है। खैर आप उत्पाद के नाम पर ध्यान ज़रूर दें।


बाज़ार और रंगभेद

मेरे एक बहुत अच्छे मित्र ने एक बार एकपंक्ति कही थी जिसके द्वारा बाज़ार की वास्तविक मंशा समझी जा सकती है। उसने कहा था ‘गंजे को कंघी बेचना ही सेल करना होता है।’ बाज़ार एक वह जगह मानी जाती थी जहां से आपको अपना ज़रूरत का सामान लेना होता था। लेकिन भूमंडलीकरण और उदारीकरण के बहुत आगे निकल चुके हम लोग अब किसी दूसरे माहौल में रह रहे हैं। बहु-राष्ट्रीय कंपनियाँ सामान खरीदने की हर संभव
सुविधा देकर मनुष्य को उस उपभोक्ता में तब्दील कर चुकी हैं जो केवल मुंह से उपभोग न कर के हर अंग से उपभोग कर रहा है। सेवाएँ और वस्तु घर तक पहुंचा दिये जा रहे हैं। एक तरह से आप सामान खरीदने को बाध्य हैं। इस बाध्यता का ग्राहकों को रत्ती भर एहसास भी नहीं है। अमेज़ोन कंपनी का भारतीयकरण का लिबास पहना हुआ विज्ञापन हर तीसरे मिनट पर आ रहा है। अब टीवी देखने वाला और वाली इसके प्रभाव से कैसे बच सकते हैं? बाज़ार उत्पादन करता है और लोग उसके मुख्य उपभोक्ता हैं। वह अपने सामान को बेचेगा और मुनाफा कमाएगा। बाज़ार एक भीड़ जैसा हैं जिसमें कई कंपनियाँ अस्तित्व में होती हैं। भीड़ को समझना है तब उसके मिजाज को समझना होगा और बाज़ार को समझना है तो कंपनियों की रणनीतियों को समझना होगा। कंपनियाँ अपने उत्पाद के रंग से लेकर उसे बाज़ार में उतारने तक की रणनीति बनाती हैं। कंपनियाँ किसी भी क्षेत्र और जनता का अध्ययन करने के बाद विज्ञापन के मैदान में उतरती हैं और छा जाती हैं। इसलिए अब अगर कोई कंपनी गहरे या साँवले या फिर काले रंग के भेदभाव के मद्देनजर अपना एक उत्पाद ला रही है तो इसका दूसरा मतलब क्रीम को रंग के सहारे बेचने के पीछे एक सोची समझी रणनीति का होना है। उदाहरण के लिए फेयर एंड लवली क्रीम की ट्यूब गुलाबी और सफ़ेद रंग का इस्तेमाल करती हैं। गुलाबी का रंग सीधे महिलाओं और युवा लड़कियों को टारगेट करता है और सफ़ेद रंग त्वचा के रंग को। यह उत्पाद की सहज पहचान और पहुँच बनाने की रणनीति है।

साल 2015 में एक महत्वपूर्ण घटना घटी थी,जिसे बहुत जल्दी भुला दिया गया। कल्याण ज्वेलर्स ने ऐश्वर्या राय को लेते हुए एक विज्ञापन जारी किया था जिसमें वह गहनों से लदकर रानी के रूप में बैठी हुई हैं और एक अश्वेत लड़के ने जो गुलाम भी है, उनके ऊपर छाता लगा रखा है। बाद में लोगों की गहरी नाराजगी के चलते कंपनी ने माफी मांगते हुए विज्ञापन वापस ले लिया। इसके पीछे की मानसिकता को समझने के लिए आपको उस युग की
मानसिक और ऐतिहासिक सैर करनी होगी जब दुनिया में अश्वेत लोगों को गुलाम बनाया जाता था। उनकी खरीद फरोख्त होती थी। उन्हें प्रताड़ित किया जाता था। उन्हें जंजीरों से बांधा जाता था ताकि कहीं वे गुलाम(मनुष्य) भाग न जाये। भारत में जाति के नाम पर भेदभाव का पुराना इतिहास रहा है। चार वर्णों की व्यवस्था इसका सबूत है। आर्य जाति से अपने को जोड़ने वाले लोगों की कमी भी नहीं है। आर्य शब्द का एक अन्य अर्थ गोरा रंग भी
बताया जाता है। अतः जो आर्य नहीं है उन्हें कमतर अथवा निम्न माना जाता है, अभी भी। हाल ही में सोशल मीडिया पर आम आदमी पार्टी के नेता कुमार विश्वास ‘शर्मा’ का एक वीडियो फैल रहा है जिसमें वे आरक्षण, एक बंदे और मेहतरानी जैसे शब्दों का खूब इस्तेमाल कर रहे हैं। आज जब यह पोस्ट लिख रही हूँ यह सन् 2017 है और आज तक कुमार विश्वास ‘शर्मा’ जैसे लोगों के दिमाग में से चार वर्ण व्यवस्था नहीं निकल पाई है। इनके लिए
आदर्श आज भी मनु ही है। एक बहुत बड़े मनुष्य तबके को गुलाम बनाए रखने की मानसिक कीड़े ने दम नहीं तोड़ा है। यह वही मानसिकता है जो एश्वर्या राय के विज्ञापन में दिखी थी। गुलाम काले होते हैं और गोरे राज करने वाले, क्या इस विज्ञापन को देखकर आसानी से इस भयानक असमानता को नहीं समझा जा सकता?


अभिनेत्री तनिष्ठा चटर्जी जब अपनी फिल्म ‘पार्च्ड’ का प्रमोशन करने एक टीवी चैनल के कॉमेडी शॉ में पहुंची थीं तब उनके रंग को लेकर शॉ में भद्दी पंक्तियों का इस्तेमाल किया गया और वे तुरंत ही शॉ को छोड़कर चली गईं। तनिष्ठा के वक्तव्यों पर यदि नज़र डालें तो वे कहती हैं कि कई लोग उन्हें इस बात का उलाहना देते हैं कि ब्राह्मण होकर भी आपका रंग गहरा क्यों हैं? मतलब यह है कि ब्राह्मण होने का एक और मतलब गोरा रंग होना है।

अखबारों में शादी के विज्ञापन साफ तौर पर गोरी, टॉल और वेल एजुकटेड लड़की/लड़के की मांग रखते हैं।इतना ही नहीं वे ब्राह्मण, बनिया, खत्री, अग्रवाल, जाट, चमार आदि खंडों में बंटे होते हैं। इसलिए भारत में जाति और रंग को पूरी तरह से अलग कर के नहीं देखा जा सकता। हिन्दी सिनेमा द्वारा किया जाने वाला रंगभेद
रुकिए बात यहीं खत्म नहीं हुई। निर्देशक शेखर कपूर की अति प्रसिद्ध फिल्म मि. इंडिया सन् 1987 में आई थी और बहुत बड़ी हिट भी रही थी। उसमें हवा हवाई गीत में एक ऐसा पड़ाव भी आता है जिसमें गोरी श्री देवी बीच में(आगे भी) नाच रही हैं और उनके पीछे कई युवक अपने ऊपर काला रंग पोत कर नाच रहे हैं। लेकिन भारतीय दर्शकों का ध्यान गाने और नाच पर कुछ इस तरह से टिका दिया जाता है कि वे इसको किसी भी तरह से
हिंसात्मक नहीं लेते। बल्कि वे भी श्री देवी के साथ गाने लगते हैं, कहते हैं मुझको हवा हवाई! जी हाँ, आप ठीक समझे कि फिल्में भी रंगभेद को जाने अनजाने बढ़ावा देती आई हैं। यदि कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाये तब अधिक से अधिक सिने तारिकाएँ गोरे रंग की ही हैं। जिन अभिनेत्रियों ने सांवले रंग के साथ अपने करीयर की शुरुआत की थी वे भी बाद में ट्रीटमेंट लेते लेते गोरी हो चुकी हैं। ठीक यही दशा अभिनेताओं की भी है। गीतकार शैलेंद्र ने 1967 में तीसरी कसम फिल्म का निर्माण किया था। फिल्म फणीशवरनाथ रेणु की चर्चित कहानी तीसरी कसम उर्फ मारे गए गुलफाम पर आधारित थी। फिल्म का मुख्य पात्र हीरामन कथा साहित्य में काले रंग का है पर सिल्वर स्क्रीन पर वह गोरे शॉमैन राजकपूर में बदल जाता है। यह फिल्मों का वह पक्ष है जो बड़ी बारीकी से घातक खेल, खेल जाता है और फिल्मों के दीवाने पागल बन जाते हैं।

प्रियंका चोपड़ा को अपनी फैशन फिल्म केलिए बहुत तारीफ़ें मिली थीं पर उसी फिल्म में उस दृश्य के बारे में उन्हें अभी तक अफसोस नहीं हुआ जब वे एक अफ्रीकी मूल के व्यक्ति के साथ एक रात अंतरंग होती हैं और सुबह उठकर ग्लानि महसूस करती हैं। आधुनिक भारत कुमार यानि अक्षय कुमार अपनी फिल्म कमबख़्त इश्क़ में एक दृश्य में अफ्रीकी मूल की महिला के चेकिंग करवाने के दृश्य में दुखी दिखते हैं। फिल्म में यह दृश्य कॉमेडी दृश्य के रूप में पेश किया गया है। ऐसी रंगभेद फिल्मों और दृश्यों की हिन्दी सिनेमा में भरमार है और आज तक वे इस पर शर्मिंदा भी नहीं हैं।


आगे बढ़ते हैं और अन्य उदाहरणों की बात करते हैं। बॉलीवुड के एक अभिनेता हैं जिनका नाम है अभय देओल। उन्होने इसी साल सोशल मीडिया पर पोस्ट लिखी थी जिसे पढ़कर बहुत से लोगों को बिजली का करंट लग गया था। उन्होने शाहरुख खान, सोनम कपूर, जॉन अब्राहम, दीपिका पादुकोण, विद्या बालन, सिद्धार्थ मल्होत्रा, इलियाना डिक्रूज़ कलाकारों केगोरा बनाने वाली क्रीम के प्रचार करने को लेकर अच्छी क्लास लगाई थी।शाहरुख खान इसी दिसंबर में टेड टॉक्स लेकर आ रहे हैं जिसमें वे प्रेरणा की बात करते नज़र आ रहे हैं तो दूसरी तरफ विद्या बालन महिला सशक्तिकरण पर आधारित फिल्में बेगम जान और तुम्हारी सुलू जैसी फिल्में कर रही हैं। यही नहीं शौच से जुड़े विज्ञापन पर भी वे देश को बता रही हैं कि शौचालय का इस्तेमाल क्या है? दीपिका पादुकोण और शाहिद कपूर अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता की बात करते नज़र आ रहे हैं। जब अभय देओल ने अपनी पोस्ट के द्वारा रंगभेद पर निशाना लगाया था तब श्री लंका की सुंदरी जैकलीन फर्नांडीस ने उनका साथ दिया था और कहा था कि रंगभेद करना गलत है। लेकिन वे इस बात को न जाने कैसे भूल गईं कि खुद उनकी फिल्म ‘रॉय’ में वे चिल्ला-चिल्लाकर चिट्टियाँ कलाइयाँ पर नाच रही हैं। इस पूरे बोझिल वर्णन का तात्पर्य यह है कि ये सभी फिल्मी सितारे कला को कला की नज़र से कम बल्कि आय की नज़र से अधिक देखते हैं। युवा जमात को इन बातों को ध्यान से समझना चाहिए और आँख बंद कर के इनके पीछे नहीं जाना चाहिए।

राजनीति में रंगभेद के उदाहरण

पिछले साल 8 नवंबर को भारतीय इतिहासमें एक असंभव राजनीतिक और आर्थिक घटनाको अंजाम दिया गया। नोटबंदी हुई और भारत में एक अफरा-तफरी का माहौल रहा। इसघटनाक्रम के दौरान ‘काला धन’ जैसे शब्द-जोड़े ने अपनी जगह हर किसी की जुबान पर बना ली थी। आमफहम बोलचाल में अगर शब्द बिना समझे इस्तेमाल होते हैं तब कुछ हद तकउसे समझा जा सकता है पर राजनीतिक स्तर पर भी इस शब्द का खूब प्रयोग हुआ वह भी बिना सोचे समझे। वह आगत जो गैर-जिम्मेदाराना तरीके से कमाई जाती है, जिसके पीछे लालच का बड़ा हाथ होता है, जो नैतिकता को दरकिनार करके कमाई जाती है वह कमाई और आगत गैर लोकतान्त्रिक, गैर-संवैधानिक होती है। अंग्रेज़ी में इसे ईल-लीगल मनी से समझा जा सकता है। लेकिन भारतीय सरकार और विपक्ष ने इसे काला धन कहकर संबोधित किया जो कि निहायती असमानता वादी लफ़्फ़ाज़ी है। राजनीतिक रूप से हमारे पास दुनिया का शानदार संविधान है और इस महान भाषाओं के देश में बार बार काला धन जैसे शब्दों
का इस्तेमाल यह दर्शाता है कि हमारे राजनेता अभी भी सोच नहीं पा रहे हैं।

इससे पहले बीजेपी सांसद तरुण विजय ने अलजजीरा को दिये इंटरव्यू में दक्षिण भारत के लोगों को लेते हुए विवादित रंगभेद टिप्पणी की थी। इस बयान के बाद बहुत से लोगों कीतीखी प्रक्रियाएँ सामने आई थीं। लेकिन कुछ ऐसे नेता भी हैं जो मुद्दों को काफी हदटक गंभीरता से लेते हैं। सयुंक्त राष्ट्र अमरीका के पूर्व राष्ट्रपति ने ट्विटर पर अपनी एक तस्वीर साझा की थी जिसमें वे खिड़की के पास खड़े हैं और खिड़की में चार बच्चे दिखाई दे रहे हैं।
उनमें एक बच्चा अश्वेत भी है। वे दिवंगत दक्षिण अफ्रीका के राष्ट्रपति नेल्सन मंडेला की उक्ति को लेते हुए लिखते हैं- “कोई भी किसी दूसरे व्यक्ति के लिए त्वचा के रंग, पृष्ठभूमि और धर्म के आधार पर नफ़रत लेकर जन्म नहीं लेता...” (No one is born hating another person because of the color of his skin or his background or his religion...) इसलिए भारत में जब इस तरह की सुलझी हुई मानसिकता के शब्द नहीं दिखते तब चिंता होना लाजिमी हो जाता है।


सुंदरता- एक मिथ

घर में बच्चे के जन्म से लेकर उसकी समझबनने तक की प्रक्रिया में सुंदरता से जुड़े कितने ही प्रतिमान जाने अनजाने प्रदर्शित किए जाते हैं। उसे काजल लगाया जाता है। बच्चे के रंग को लेकर कितने ही शब्द बोले जाते हैं। कन्हैया का मिथक उठाकर लाया जाता है। संगीत से पता चलता है कि राधा क्यों गोरी मैं क्यों काला! धीरे धीरे  बाहर की दुनिया में (स्कूल) जाकर वह तरह तरह के रंग देखता है। सांवला और गहरा और गोरा आदि आदि। मज़ाक-मज़ाक में उसे चिढ़ाया जाता है...ओ काली, ओ काले कौवे..! हमारे यहाँ सुंदरता के प्रतिमान बहुत ही दकियानूस रहे हैं। गोरा रंग इसमें बहुत महत्वपूर्ण होता है। बाज़ार इस बात को अच्छे से अध्ययन करता है और इसलिए वह विश्व सुंदरी प्रतियोगिता करवा देता है। आप घर में बैठे बैठे गौरव करते रह जाते हैं और आपको पता भी नहीं चलने दिया जाता कि आप को रद्दी माना जा रहा है। इसमें मीडिया की कंपनियों के संग मिलीभगत वाले एंगल कोनज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता।

सुंदरता वह समझी जाती है जो बाहर केपक्षों द्वारा सरासर आरोपित की जाती है। जबकि व्यक्ति को यह समझने का मौका ही नहीं दिया जाता है कि वास्तव में उसके स्वयं के लिए सुंदरता का वास्तविक अर्थ क्या है? व्यक्ति को बताया गया कि फलां महिला चूंकि विश्व सुंदरी है तो वह दुनिया की सबसे सुंदर औरत है। बताए जाने और आपको वह समझ पूरी तरह से ग्रहण करने के बीच बेहद उत्तेजक साधनों का प्रयोग होता है इसलिए आप खुद की सुंदरता की एक स्व-निर्मित समझ विकसित ही नहीं कर पाते। सुंदरता को आपके आँखों की देखने की क्रिया से ही जोड़ा जाता है, इसमें बाकी इंद्रियों को गौण बना दिया जाता है।

हर स्तर पर रंग को लेकर भेदभाव दिख जाताहै। समझदार पाठक खुद मुझसे अधिक उदाहरण रोजाना देखते होंगे और उनका संज्ञान भी लेते होंगे। सारांश में कहूँ तो समानता की राह बहुत कठिन है। अगर वास्तव में हर तरह का भेदभाव मिटाना है तो एक प्रबुद्ध जनता का निर्माण करना होगा जो नैतिक मूल्य को आत्मसात किए हो। जहां एक बराबरी का माहौल हर किसी के लिए हो। यह सब ऐसे ही नहीं हो जाएगा। इसके लिए बेहतर समझ कीआवश्यकता होगी। इसके लिए राजनीतिक, सांस्कृतिक, सामाजिक इच्छा शक्ति की जरूरत है। हमें एक ग्राहक और उपभोक्ता के नज़रिये से यह समझना होगा कि हमारी जरूरतें क्या हैं और क्या नहीं हैं। कोई क्रीम यदि हमारे चेहरे को सफ़ेदकर भी दे तो उससे क्या फर्क पड़ जाएगा। हम भोजन खाते हैं न कि क्रीम। नन्दिता दास की फोटो वाला अभियान स्टे अनफेयर तब तक कोई मायने नहीं रखता जब तक हम अपनी सोच में भेदभाव को ढोते हैं।


बाज़ार को अपना सामान बेचना है इसलिएउपभोक्ता को यह समझना होगा कि यदि आप गोरा बनाने वाली क्रीम खरीद रहे हैं तो भी कंपनी का फायदा है और यदि आप साँवले रंग की त्वचा की चमक के लिए उत्पाद खरीद रहे तो भी यह कंपनी का फायदा है आपका नहीं। (अगर साल 2018 की शुरुआत करनी ही है और इस लेख को पढ़कर यदि कोई प्रभावित होता है तब, मेरे जैसे अश्वेत लोग किसी भी तरह की गोरापन वाली क्रीम खरीदना बंद करदें। यह बहुत मुश्किल काम भी नहीं है।)

परिचय :-ज्योति जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के भाषा अध्ययन विभाग में शोधरत हैं. 
सम्पर्क: jyotijprasad@gmail.com 

स्त्रीकाल का प्रिंट और ऑनलाइन प्रकाशन एक नॉन प्रॉफिट प्रक्रम है. यह 'द मार्जिनलाइज्ड'नामक सामाजिक संस्था (सोशायटी रजिस्ट्रेशन एक्ट 1860 के तहत रजिस्टर्ड) द्वारा संचालित है. 'द मार्जिनलाइज्ड'मूलतः समाज के हाशिये के लिए समर्पित शोध और ट्रेनिंग का कार्य करती है.
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लालू प्रसाद से महिला आरक्षण पास कराने की स्त्रीकाल की अपील: कहा कोटे के साथ पास करवायें महिला आरक्षण

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राजद के राष्ट्रीय अध्यक्ष लालू प्रसाद ने पटना पुस्तक मेले में शनिवार को पूर्व सांसद अली अनवर पर केंद्रित ‘अली अनवर’ शीर्षक पुस्तक पर विचार-गोष्ठी तथा परिचर्चा को संबोधित किया. इस दौरान उन्हें पुस्तक के प्रकाशक द मार्जिनलाइज्ड पब्लिकेशन के संयोजक और स्त्रीकाल के संपादक संजीव चंदन ने महिला आरक्षण पर केन्द्रित स्त्रीकाल के ताजा अंक की प्रति देते हुए उनसे सार्वजनिक तौर पर आग्रह किया कि वे दलित-ओबीसी स्त्रियों के लिए कोटा के साथ महिला आरक्षण पास करवाने की पहल करें.



परिचर्चा में लालू प्रसाद पूरे रौ में दिखे .उन्होंने अपने संबोधन में कहा कि 'देश की जनता अब सांप्रदायिक ताकतों के खिलाफ मन बना चुकी है। गुजरात की जनता ने नरेंद्र मोदी के सब्जबाग और नफरत व घृणा की राजनीति को नकार दिया है। ‘अली अनवर’ शीर्षक  किताब का संपादन पत्रकार व सामाजिक कार्यकर्ता  तथा स्त्रीकाल के संपादक मंडल के सदस्य राजीव सुमन ने किया है। यह किताब  ‘भारत के राजनेता’ नामक पुस्तक श्रृंखला का हिस्सा है, जिसके श्रृंखला -संपादक फारवर्ड प्रेस पत्रिका के प्रबंध संपादक प्रमोद रंजन हैं।

अपने संबोधन में राजद प्रमुख ने पूर्व सांसद अली अनवर को जनता के लिए लड़ने वाला सिपाही बताया। उन्होंने कहा कि अली अनवर पत्रकार के रूप में भी खासे लोकप्रिय रहे। वहीं गुजरात चुनाव के मद्देनजर लालू प्रसाद ने कहा कि देश और गुजरात की जनता नरेंद्र मोदी का सच जान चुकी है। उन्होंने कहा कि देश की जनता अब धर्म के अाधार पर देश को बांटने वाली ताकतों को बर्दाश्त करने को तैयार नहीं है। उन्होंने कहा कि देश का संविधान खतरे में है। ऐसा कहते हुए उन्होंने चेतावनी दी कि भाजपा इसी संविधान बदल सकती है और ऐसे में मेरा संसद में न होने का मुझे अफ़सोस है.



वहीं अपने संबोधन में पूर्व सांसद अली अनवर नेलालू प्रसाद को धर्मनिरपेक्षता का महान योद्धा कहाा। उन्होंने कहा कि बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने जनादेश का अपमान कर सांप्रदायिक ताकतों के साथ मिलकर षडयंत्र रचा, जिसे देश और बिहार की जनता ने अपनी आंखों से देखा। उन्होंने कहा कि उन्होंने हमेशा हाशिए पर रहने वालों के लिए आवाज उठायी। राज्यसभा में भी उन्होंने वंचित तबके के सवालों को रखा। श्री अनवर ने कहा कि सत्ता का मतलब केवल कुर्सी या कोई पद नहीं है। वे हमेशा वंचितों के लिए आवाज उठाते रहेंगे।

अपने संबोधन में पुस्तक के प्रकाशक द मार्जिनलाइज्ड केसंयोजक संजीव चंदन ने कहा कि ‘भारत के राजनेता’ पुस्तक श्रृंखला के तहत देश के विभिन्न हिस्सों से चयनित 30 प्रमुख समाज-राजनीति कर्मियों पर किताबें प्रकाशित की जानी हैं। इसमें ऐसे  सामाजिक-राजनीतिक नेताओं को जगह दी गई है, जिनका न सिर्फ सामजिक परिवर्तन में महत्वपूर्ण योगदान रहा हो, बल्कि जिनकी वैचारिकी मौलिक और भारतीय समाज और  राजनीति की गतिकी की दिशा मोड़ने वाली रही हो।



इस श्रृंखला के तहत बिहार से लालू प्रसाद यादव, महाराष्ट्र से आरपीआई के नेता रामदास अठावले, तमिलनाडु से सीपीआई के नेता डी. राजा व सीपीएम के सीताराम येचूरी पर किताबें शीघ्र प्रकाशित होंगी। अन्य पुस्तकों के लिए चयन-प्रक्रिया जारी है

कार्यक्रम में राजद अध्यक्ष लालू प्रसाद के अलावा जन संस्कृति से जुड़े लेखक मदन कश्यप, पूर्व सांसद शिवानंद तिवारी ने भी अपने विचार रखे। शिवानन्द तिवारी ने कहा कि इस तरह की किताबें पढ़ी जानी चाहिए. अली अनवर से लम्बी बातचीत, जो किस किताब में संकलित है, कई अनजाने पहलुओं को सामने लाता है. राजनीति की वैसी घटनाओं को भी जो मैं अपने समकाल के बावजूद नहीं जानता था. मदन कश्यप ने संपादक, प्रकाशक के इस श्रृंखला प्रयास को एक जरूरी पहल बताया. उन्होंने जनप्रतिनिधियों की संसदीय भूमिका पर अपनी बात रखी.   मंच से बीएचयू के शोधार्थी नरेश राम ने भीम गीत गाये. सम्यक प्रकाशन ने लालू प्रसाद एवं अन्य वक्ताओं को जगदेव प्रसाद और रामस्वरूप वर्मा की जीविनियाँ भेट की.  परिचर्चा का संचालन युवा साहित्यकार अरूण नारायण ने किया।

इस कार्यक्रम का देश भर में मीडिया ने बड़े पैमाने पर कवरेज किया. लिंक को क्लिक करें और ख़बरें देखें: 

दैनिक भास्कर 

न्यूज बिहार 

टाइम्स ऑफ़ इण्डिया 

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भास्कर 

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भारतीय उपमहाद्वीप का स्त्री लेखन: स्त्री सशक्तीकरण की अनुगूंजें

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रोहिणी अग्रवाल
रोहिणी अग्रवाल स्त्रीवादी आलोचक हैं , महर्षि दयानंद विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर हैं . ई मेल- rohini1959@gmail.com

''स्त्री शून्य के समान पुरुष की इकाईके साथ सब कुछ है, परंतु उससे रहित कुछ नहीं।'' (महादेवी वर्मा,॰शृंखला की कड़ियां, पृ0 115)
''स्त्री के स्वभाव, विश्वास, मान्यताएं, नैतिकता, रुचि और व्यवहार का विवेचन उसकी स्थिति द्वारा होता है। चूंकि वह जानती है कि वह सर्वोपरि स्थान नहीं प्राप्त कर सकती, इसलिए वह वीरता, विद्रोह, सृजन और कल्पना के ऊँचे आदर्शों से अलग रहती है।'' (सिमोन द बुववार, स्त्री उपेक्षिता पृ0 287)

''मजबूत काली स्त्री का मिथ भोंदू सोनकेशीके मिथ के सिक्के का दूसरा पहल है। गोरे मर्द ने गोरी औरत को कमदिमाग, कमजोर शरीर वाली, नाजुक विकृति और एक रति-उन्मादिनी में बदल कर उसे एक पीठिका पर बैठा दिया। काली औरत को उसने एक मजबूत आत्मनिर्भर अमेज़न में बदला और उसे रसोईघर में भेज दिया . . . गोरे मर्द ने खुद को सर्वशक्तिमान प्रशासक बना कर खुद को फ्रंट ऑफिस में स्थापित कर लिया।'' - एल्ड्रिज क्लीवर, द एलेगॅरी ऑफ द ब्लैक यूनॅक्स (जर्मेन ग्रीयर, विद्रोही स्त्री, पृ0 58)

महादेवी वर्मा, सिमोन द बुववार और जर्मेन ग्रीयर - स्त्रीवाद के तीन आधार स्तम्भ! तीन अलग-अलग देशकाल मे आधी दुनिया की नियति पर विचार करके स्त्रीवाद का एक पूरक पाठ प्रस्तुत करने में तल्लीन तीन स्वतंत्रचेता प्रबुद्ध स्त्रियां! तीनों की संवेदनशील बौद्धिकता का उत्प्रेरक घटक है एक ही सवाल कि 'यह दुनिया हमेशा पुरुषों की रही, मगर क्यों? महादेवी की दृष्टि में इसके मूल में है समाज द्वारा सुकुमारता को नारीत्व का पर्याय समझे-समझाए जाने का आदिम संस्कार , तो सिमोन संस्कार को मिथ यानी मिथ्या भ्रम  का नाम देकर पुरुष षड्यंत्र को बेनकाब करती हैं कि ''पुरुष अपनी इन सुविधाओं का पूरा और अबाध भोग तब तक नहीं कर सकता जब तक कि अपनी श्रेष्ठता को वह अधिकार के रूप में न रखे। पुरुष होने का यह अर्थ था कि वह अपने वर्ग की सुविधा के लिए कानून बनाए, अपने वर्गहित का ध्यान रखे और साथ ही वह ऐसा जूरी बने जो इन कानूनों को सिद्धांत में परिणत कर दे।'' (स्त्री उपेक्षिता पृ0 28) जर्मेन ग्रीयर चूंकि किसी भी अंश में इस षड्यंत्रकारी पाखंडपूर्ण व्यवस्था का हिस्सा बनने की बजाय इसे ध्वस्त कर देना ही श्रेयस्कर समझती हैं, इसलिए ध्वंस के उपाय बताने में चूकती नहीं - ''पूरे समूह की पैतृकता बनाए रखने पर जोर देकर - सब पुरुष सब बच्चों के पिता हैं - पितृसत्तात्मक परिवार को असंभव बना देना चाहिए।'' (विद्रोही स्त्री, पृ0 293) विवाह को स्त्री जीवन की सार्थकता के अंतिम सोपान के रूप में देखे जाने का सामाजिक-सांस्कृतिक आचार यदि महादेवी वर्मा के मन में जुगुप्सा पैदा करता है  तो सिमोन उन परिस्थितियोें का विश्लेषण करती हैं जो औरत को औरत बनाना सिखाती हैं  और बचपन से ही उसमें बेहद आक्रामक तेज़ी के साथ ''नारीत्व की निष्क्रियताजन्य मौलिक विशेषताएं'' (स्त्री उपेक्षिता पृ0 125) विकसित कर देती हैं। जर्मेन ग्रीयर सहमति के बावजूद प्रतिकूल परिस्थितियों का शिकार होने की बजाय सघन एवं सामूहिक भाव से अनुकूल परिस्थितियों की रचना का आह्नान करती हैं जहाँ ''बोली और भंगिमा की उद्धतता से पंडितों और विशेषज्ञों को बौखला देने'' (विद्रोही स्त्री, पृ0 286), ''विशालहृदयता, उदारता और साहस के मर्दाना गुणों पर दावा पेश'' (वही, पृ0 298) करने के बाद ''अपनी ऊर्जा को खुद के चुने हुए उद्यम में उद्देश्यपूर्ण ढंग से लगाना'' (वही, पृ0 298) ही नारीत्व की परिभाषा और पर्याय बन जाता है। यह वह स्थिति है जो औरत के हक में स्त्री की धर्मसम्म्त रूढ़ छवि को तोड़ कर मनुष्यभाव से ओतप्रोत एक नई जीवंत छवि गढ़ने का दुस्साहस करती है, यकीनन उससे भी कहीं विकटतर स्थिति जो तसलीमा नसरीन के जलावतन का कारण बनी। घृणा, हिंसा, दमन और उत्पीड़न निस्संदेह किसी भी व्यक्ति का मनोबल तोड़ने में अहम भूमिका निभाते हैं, लेकिन बकौल सिमोन ये तो वे भोंथरे हथियार हैं  जिनका स्त्री के खिलाफ वही पुरुष इस्तेमाल करता है जो ''मानसिक रूप से स्वयं अपमानित होने की आशंका से ग्रस्त रहता है।'' (स्त्री उपेक्षिता पृ0 29) तो क्या स्त्री की लड़ाई 'स्वस्थ'और 'सम्पूर्ण'पुरुष से नहीं, 'हीनग्रंथि के शिकार'मनोरोगी से है जो लगातार 'न्यायाधीश और अपराधी'दो विपरीत भूमिकाओं में एक असंवेदनशील असभ्य समाज की सृष्टि में लगा हुआ है? आमने-सामने की लड़ाई का परिणाम जहाँ तुरत-फुरत और शारीरिक एवं सांसाधनिक शक्ति पर टिका होता है, मनोरोगी से लड़ाई लड़ाई न रह कर उपचार की लम्बी जटिल धैर्यशील प्रक्रिया में तब्दील हो जाती है जहाँ उसे परास्त करने की बजाय गढ़ने तथा ''दूसरों से उनकी और अपनी संगति में आनंद पर आधारित संवाद और सहयोग''  स्थापित करने का भाव प्रमुख हो जाता है। जाहिर है इस प्रक्रिया में 'अपने'मनोरोगों और मानसिक दुर्बलताओं का निर्भीक साक्षात्कार भी है और संघर्ष में आनंद खोजने का अनिर्वचनीय किंतु नैसर्गिक भावोच्छ्वास भी।

निस्संदेह स्त्रीवाद स्त्री सशक्तीकरण का प्रबल पैरोकार है। ''अब तक औरत के बारे में पुरुष ने जो कुछ भी लिखा, उस पूरे पर शक किया जाना चाहिए क्योंकि लिखनेवाला न्यायाधीश और अपराधी दोनों है''  -वह न केवल कहता है, बल्कि पितृसत्तात्मक समाज व्यवस्था के विषमतामूलक संरचनात्मक ढांचे का परत दर परत विश्लेषण कर अपने आक्रोश और रोष को निरंतर दर्ज भी कर रहा है। लेकिन यह भी तय है कि इस व्यवस्था के प्रतिस्थापन हेतु कोई ठोस विकल्प उसके पास नहीं। बल्कि इसके विपरीत बार-बार डैड एंड पर आ खड़े होने की हताशा ने उसकी मान्यताओं (बवदअपबजपवदे) को कहीं न कहीं क्षतिग्रस्त अवश्य किया है। स्त्री सशक्तीकरण के अर्थ, लक्ष्य और प्रयोजन को व्यापक स्तर पर प्रचारित करने की अपेक्षा उसे स्त्री कल्याण कार्यक्रमों, आर्थिक स्वतंत्रता या अधिकाधिक राजनीतिक प्रतिनिधित्व में रिड्यूस करने की बौखलाहट इसका प्रमाण है। लेकिन यह भी तय है कि समय-समय पर अंशतः जो विचार किया गया है, उसे जोड़ कर स्त्री सशक्तीकरण की मुकम्मल सैद्धांतिकी तैयार करना कठिन नहीं। इस दृष्टि से स्त्री सशक्तीकरण की अवधारणा को मोटे तौर पर 'मुक्ति की सामूहिक चेष्टा'में परिभाषित करते हुए इसकी कुछ मान्यताओं को गिनाया जा सकता है:

1 यह स्त्री को अपने 'होने'की स्थिति परइस तरह विचार करना सिखाती है कि वह सबसे पहले वस्तुपरक ढंग से 'स्त्री' (प्राणी) तथा 'स्त्रीत्व' (रूढ़ छवि) में पाए जाने वाले सूक्ष्म अंतर को समझ सके, और फिर 'स्त्री'होने के कारण स्वयं को अपराधी महसूस करने की अपेक्षा आत्मसम्मान और आत्मगौरव से दीप्त हो सके।

2 अंधानुकरण का पोषण करने वाली परंपरागत अतार्किक दृष्टि की अपेक्षा प्रत्येक व्यक्ति/स्थिति/सम्बन्ध को विश्लेषणात्मक ढंग से जानने-परखने का आत्मविश्वास अपने भीतर पैदा कर सके।

3 स्थित्यानुसार स्वतंत्र निर्णय लेने औरउसे क्रियान्वित करने की क्षमता से सम्पन्न हो सके।

4 आर्थिक आत्मनिर्भरता अर्जित कर एकस्वतंत्र एवं जिम्मेदार नागरिक के रूप में अपनी स्थिति मजबूत करे।

5 जिस तरह जोत से जोत जल कर पूरामंज़र रोशन कर देती है, उसी तरह स्त्री उद्बोधन और स्त्री चेतना का क्रमिक विस्तार कर परिवर्तन की लहर से पूरे समाज को आंदोलित करे।

6 चूंकि पुरुष की सोच और दृष्टि में अपेक्षितपरिवर्तन के बिना स्त्री मुक्ति बेमानी है, अतः जरूरी है कि आत्मोन्नयन के ऊर्ध्व द्वारों को खोलते हुए स्त्री जेंडर सेंसीटाइजेशन जैसे आधार मुद्दे को अपने सफलता अभियान की कुंजी माने। किसी भी स्टेज पर उसे यह नहीं भूलना होगा कि घर ही उसकी प्रयोगशाला है और घर ही उसका पहला कर्मक्षेत्र क्योंकि यही वह स्थल है जहाँ अनजाने ही लड़के और लड़कियों को 'मर्द'एवं 'औरत'बन कर रूढ़ छवियों में ढलना सिखाया जाता है। जाहिर है इस क्रम में स्त्री सशक्तीकरण महज स्त्री मुक्ति का प्रवक्ता न रह कर मानव मुक्ति का सूत्रधार बन जाता है जो समाज के दृष्टिकोण में सिरे से परिवर्तन कर स्त्री को स्त्री या पुरुष के संदर्भ में देखने की अपेक्षा स्त्री एवं पुरुष को 'मनुष्य'के संदर्भ में देखने का संस्कार पैदा करता है।

लेकिन यहाँ एक प्रश्न विशेष रूप से विचारणीय है कि स्त्री सशक्तीकरण का संवाहक कौन है? क्या स्त्री जो न केवल सामाजिक-आर्थिक-सांस्कृतिक पराधीनताओं में जकड़ी हुई है बल्कि पुरुष की सत्ता में अपने अस्तित्व का विलयन कर प्रभुता हासिल कर लेना चाहती है? क्या पुरुष जो इस विषमतामूलक व्यवस्था के लाभों का एकमात्र फलभोक्ता (इमदमपिबपंतलद्ध है? चूंकि नारीवाद अपने मूल रूप में लैंगिक लड़ाई को बढ़ावा देने की बजाय सह- अस्तित्वपरक समाज की परिकल्पना है, अतः प्रत्येक संवेदनशील-विवेकशील स्त्री एवं पुरुष स्वयमेव स्त्री सशक्तीकरण का अनिवार्य एवं वांछित संवाहक बन जाता है।

यह तय है कि लम्बे संघर्ष के बावजूद स्त्रीवाद अब तक स्त्री के लिए पुरुष सी निरपेक्ष एवं स्वाधीन सत्ता अर्जित नहीं कर पाया है। स्त्री की नियति आज भी देश के साथ-साथ वहाँ की सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक- सांस्कृतिक मान्यताओं से परिभाषित एवं परिचालित हो रही है। अतः स्त्री के अस्मिता संघर्ष का अध्ययन देश-काल के रूप में एक सुपरिभाषित फ्रेम की अपेक्षा करता है। अजीब विडम्बना है कि 1947 से पूर्व अखंड भारत का हिस्सा होते हुए और भारतीय उपमहाद्वीप में निकटस्थ पड़ेसी होते हुए भी भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश भिन्न-भिन्न राजनीतिक शासन प्रणालियों और धार्मिक वर्चस्व के फलस्वरूप जिन तीन राष्ट्रीय अस्मिताओं में उभरे हैं, वे न केवल अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उनके  कद को निर्धारित करती हैं बल्कि राष्ट्रीय स्पर पर ऐन घर-परिवार में घुस कर स्वस्थ समाज की चूलों को हिला देने वाली रणनीतियों का बखान भी करती हैं। साहित्य राजनीति एवं समाजशास्त्र की तरह घटनाओं, तथ्यों एवं लम्हों को उपजीव्य अवश्य बनाता है, लेकिन इतिहासकार से त्रिकालदर्शी दृष्टि लेकर वह उन्हें परिप्रेक्ष्य भी देता है और सृजन की अकूत संभावनाओं, सदिच्छाओं और संवेदनाओं से प्रदीप्त हो एक बेहतर समाज का ब्लू प्रिंट भी प्रस्तुत करता है जिसका होना आशा, जिजीविषा और उत्साह की ऊर्जा को कभी चुकने नहीं देता। बेशक प्लेटो अपने 'गणतंत्र'से कवि को निष्कासित करने का फरमान जारी करते हैं, किंतु यह निर्विवाद है कि पृथ्वी के किसी भी कालखंड और भूखंड में यदि ऐसा गणराज्य स्थापित हुआ होता तो वह अपनी ही भितरघाती ताकतों और वंध्या महत्वकांक्षाओं का शिकार हो महान दार्शनिक के यूटोपिया को डिस्टोपिया में स्खलित कर देता। फासीवादी मनोवृत्ति और तालिबानी संस्कृति का सामना यदि शस्त्रधारी फौजें ही करने में समर्थ होतीं तो स्वप्नजीवी भविष्यद्रष्टा राजनीतिज्ञों से लेकर दार्शनिकों, बुद्धिजीवियों, कलाकारों एवं साहित्यकारों की लम्बी शृंखला इतिहास के पन्नों में देदीप्यमान न होती। चूंकि मनुष्य ही साहित्य का विषय और लक्ष्य दोनों है, अतः उसकी गरिमा की रक्षा में स्वयं साहित्य, मनुष्य , समाज और समय की गरिमा सन्निहित है। बर्बर प्रतिगामी प्रतिरोधक शक्तियों से जूझते हुए साहित्य निमिष मात्र को भी इस सत्य से आँख नहीं चुरा सकता - इसे भारतीय उपमहाद्वीप के स्त्री लेखन के संदर्भ में बखूबी समझा जा सकता है।1


स्त्री लेखन के विषय में अक्सर अभियोगकी मुद्रा में कहा जाता है कि 'तदर्थवाद से ग्रस्त''स्त्री मुक्ति को लेकर लिखा गया अधिकांश कथा साहित्य व्यावसायिक क्षेत्र में पुरुष से प्रतिस्पर्धा और उसकी ईर्ष्या, पारंपरिक विवाह प्रथा का खंडन . . . यौन शुचिता की अवधारणा का प्रत्याख्यान, दहेज प्रथा की विकरालता आदि जैसे अलग-अलग मुद्दों पर ही केन्द्रित होकर रह जाता है। . . . भारतीय समाज में समग्र रूप में नारी की स्थिति का नक्शा देते-देते उसी तरह चूक जाता है जिस तरह इस दिशा में पूरे समाज और राजनीति का चिंतन चूक रहा है।''  बात किसी अंश तक सत्य है, लेकिन अर्धसत्य ही अक्सर घातक और गुमराह किया करते हैं। निस्संदेह स्त्रीवादी संवेदन और सरोकार उपर्युक्त समस्याओं के इर्द गिर्द ही बुने गए हैं जो मिल कर एक पूरी व्यवस्था के पुनरीक्षण का सरंजाम तैयार करते हैं। अतः इन्हें अलगा कर देखना लाठी से नदी के पानी को बांटने का उपक्रम मात्र है। स्त्री लेखन चूंकि पहले चरण में पितृसत्तात्मक समाज व्यवस्था के बुनियादी ढांचे का तटस्थ विश्लेषण है, अतः परिवार, विवाह, धर्म, कानून जैसी संस्थाओं के औचित्य पर व्यापक बहस का आह्नान करने से पूर्व वह विशेष बलाघात देकर इनके वर्तमान स्वरूप को बृहत्तर पाठक समुदाय के समक्ष पुनर्प्रस्तुत कर देना चाहता है क्योंकि चहुँ ओर की सुपरिचित सच्चाइयों को देखने के लिए न केवल वांछित दूरी अपेक्षित है, बल्कि आँख को 'ज्योतित'करने वाली किसी तीसरी एजेंसी की भी।

अगले जनम मोहे बिटिया न कीजो

''उस रात (सुहागरात) क्या मैं सोई थी या यह एक किस्म की मौत थी? हमने क्या इसके लिए ही खुशियां मनाईं थीं? जो मेरे अपने बिराने थे, वे क्या इसी के लिए नाचे-गाए थे, हर मुमकिन तरीके से इसमें हाथ बंटाया था? क्यों? किसी जादूगर की तरह ललचाने और मेरे ऊपर इस किस्म के पागलपन का कहर ढाने के लिए? इस जुल्म के लिए?''  चालीस वर्षीय पीर साईं से ब्याह दी गई पंद्रह वर्षीय हीर के इस हाहाकार में पति की जिबह कर डालने वाली कामुकता से उपजा खौफ मात्र नहीं है, वरन् मौत से सर्द कमरे में अपने अंधेरे भविष्य का दीदार है- ''मैं ताजिंदगी के लिए उसके नाम लिख दी गई थी''  और बाहरी सजधज से शून्य विवाह संस्था के हैबतनाक भीतरी स्वरूप का साक्षात्कार भी जो 'जिंदगी जैसी बड़ी चीज़ को सूई की डिबिया में बंद कर देता है।'

'कुफ्र'की भूमिका में पाकिस्तानी लेखिका तहमीना दुर्रानी स्वीकार करती हैं कि दक्षिण पाकिस्तान की एक स्त्री की सच्ची और दर्दनाक कहानी ने ही उन्हें 'परंपराओं की चुप्पी'तोड़ कर इस्लामी देश में वर्जित माने जाने विषय पर कलम चलाने के लिए उकसाया है। हालांकि 'कुफ्र'की हीर और उनकी आत्मकथा 'माई फ्यूडल लार्ड'की तहमीना उर्फ बेगम मुस्तफा खार शिक्षा, संस्कार और पारिवारिक पृष्ठभूमि की दृष्टि से परस्पर विलोम हैं, लेकिन एक-दूसरे को सम्बल देकर पुष्टतर होते कठमुल्ला धर्म और निरंकुश राजनीति की गिरफ्त में फंस कर अंततः एक ही सिक्के के दो पहलू बन जाती हैं। निस्संदेह यही वह स्थल है जो हीर और तहमीना को दो अलग चरित्रों की अपेक्षा पाकिस्तान के कबीलाई समाज की स्त्री का प्रतिनिधि बना देता है।

हीर पीर साईं की परिणीता है। पीर साईं यानी पैगम्बर का सीधा वारिस, 'अल्लाहताला और गरीब-मजलूमों के बीच की सीधी कड़ी' (कुफ्र, पृ0 54) जिसकी पाकीज़गी को लेकर बुर्कापरस्त मुस्लिम समाज में कोई संदेह नहीं -''पीर साईं के सामने तुम्हें चेहरा ढंक कर रखने की कोई जरूरत नहीं। वह बेहद पाक इंसान है।'' (पृ0 19) लेकिन सच्चाई यह है कि जिसने अपने स्वार्थों की खातिर इलाके के बदनाम दहशतगर्ज़ ऐयाश जागीरदार के साथ मिल कर ''इस्लाम को बेहद छोटे कद के इंसानों की हथेली में समा जाने के काबिल'' (पृ0 95) कर दिया है। इस पीर साईं के साथ विवाह सम्बन्ध से हीर ने दो चीजें हासिल ही है। - तीस वर्ष की आयु तक पांच बच्चों का मातृत्व, और निरंतर दहशत में जिंदा रहने की दीक्षा। वह नहीं जानती गृहस्थी के जुए में अविराम जुते रहने पर भी उसकी कौन सी क्रिया कब गलती बन कर पीर साईं के कोप का कारण बन बैठे। लेकिन इतना ज़रूर जानती है कि यह कोप हमेशा कहर बन कर उस पर टूटता है। कभी फुफेरी बहन के छः वर्षीय बेटे से पर्दा न करने के गुनाह में  टूटी चूड़ियों के टुकड़ों से बाहें जख्मी कर देने के रूप में; कभी काली की दुर्गति की कथा जानने के अपराध  में सिर और भौंहों के बालों को उस्तरे से मूंड दिए जाने के रूप में; कभी लम्पट देवर द्वारा चोरी-चोरी भिजवाए गए प्रेम-पत्र को पाने के अपराध में  खज्जी कोड़े की मर्मांतक मार के रूप में तो कभी यतीमड़ी को मुकर्रर तोहफा न देने की 'भूल'का सबक सिखाने के लिए लकड़ी की भारी चारपाई के पायों के नीचे दोनों हथेलियों को देर रात तक कुचलते रहने के रूप में । साथ ही धमकदार चेतावनी कि ''एक भी आवाज निकली तो मैं तुम्हारी गर्दन तोड़ दूँगा और तुम्हारे भेजे के दो टुकड़े कर डालूँगा'' (पृ0 111) और प्रत्युत्तर में पत्नी की आह-कराह न सुनने पर सज़ा और बढ़ाने की दरिंदगी। हीर की विडंबना है कि वह न सास से पति की क्रूरता का बखान कर सकती है (क्योंकि बेटे यानि मर्द की निरंकुश शक्ति से परास्त अम्म साईं की अनुभव संपदा में बस एक ही वशीकरण मंत्र है -''शौहर की जरूरतों को पेशेवर तवायफों''की तरह पूरा करके 'रात के अंधेरों में इस्तेमाल की जाने वाली जादुई ताकतों से दिन में हाकिमाना''ताकत हासिल करो'', पृ0 47), न मां से किसी सहायता की अपेक्षा कर सकती है जो बेटी की मां होने के अपराध बोध में दब कर सच का सामना करने की ताब अपने भीतर नहीं पाती। वरना क्या वजह है कि हीर के भौंहों तक सफाचट बाल, गहरे जख्मों और गर्भस्थ शिशु की अकाल मौत जैसे दर्दनाक हादसों को नज़रअंदाज कर वह उसके कपड़ों, जेवर और रुतबे की चकाचौंध में चुंधियाती रहे? विवाहिता बेटी की निजी ज़िंदगी में दखल न देने का संस्कार ही असल में स्त्री को इतना 'अकेला'और 'असुरक्षित'बना देता है कि तंग आकर या तो वह 'अन्नपूर्णा मंडल की आखिरी चिट्ठी'कहानी (सुधा अरोड़ा) की अन्नपूर्णा की तरह अंतिम विकल्प के रूप में आत्महत्या कर बैठती है, या जीलानी बानो के उर्दू उपन्यास 'ऐवाने-ग़ज़ल'की बीबी की तरह आजन्म प्रतिशोध की गूंगी गुड़िया बनी रहता है, या मेरे बचपन के दिन' (तसलीमा नसरीन) की मां (ईदुल) की तरह दोजख की आग में जलते-जलते नकार और अनास्था का पुंजीभूत रूप बन जाती है।


तहमीना दुर्रानी की विशेषता है कि वे बंद मुस्लिम समाज की वैचारिक-मानसिक विकृतियों का पर्दाफाश करने के लिए एक कार्टूनिस्ट की तरह अतिरेकपूर्ण चित्रण पद्धति का सहारा लेती हैं जहाँ पति को हिंò बनैले जानवर और पत्नी को रीढविहीन केंचुए के स्टीरियोटाइप में प्रस्तुत कर खुल्लमखुल्ला विवाह संस्था के प्रति अपनी घृणा और अनास्था प्रकट करती हैं। इसके विपरीत भारतीय स्त्री लेखन विषम वैवाहिक सम्बंधों की प्रामाणिक बानगियां प्रस्तुत करते हुए स्त्री की त्रासदी को आत्मपीड़ा या आत्मदया से बचाते हुए उस बिंदु पर ले आता है जहाँ अनास्था असंतोष में तथा घृणा अस्मितामूलक सवाल में तब्दील हो किन्हीं सकारात्मक विकल्पों के अन्वेषण हेतु बेचैन हो जाती है। गुजराती लेखिका कुंदनिका कापड़ीआ का उपन्यास 'दीवारों से पार आकाश'तथा हिंदी लेखिका मृदुला गर्ग का 'कठगुलाब'इसके प्रमाण हैं। 'दीवारों से पार आकाश'की नायिका वसुधा के पैंतीस वर्ष के लम्बे वैवाहिक जीवन की उपलब्धि है हर रोज़ अपनी इस मान्यता को पुष्टतर होते देखना कि विवाह ''स्त्री के लिए प्रतिबंधों के क्षेत्र में कदम रखना है'' (पृ0 20)। जड़ता की ओर अग्रसर सोच पर नियंत्रण पा वह स्वयं को भीतर तक नरख-परख कर असंतोष के कारण को खोज निकालती है कि ''उसके पंख हैं, वही दुख है। बाहर कहीं आकाश है और आकाश में उड़ा जा सकता है, यह उसे मालूम है'।'लेकिन सुख पाने का अर्थ अपने हाथों पंख कतर कर पिंजरे को आनंदलोक मानना नहीं, वरन् पंख कतरने की सूक्ष्म प्रक्रियाओं की ओर उंगली उठाना है कि ''एक ही आदमी घर का केंद्र क्यों होना चाहिए?''(पृ0 15) ; कि ''नशीली आंखों का लाल रंग, क्या यही प्रेम का रंग है?'' (पृ022) ; कि ''क्यों वैवाहिक सम्बंध में ''शरीर के उपयोग की, शरीर की सुख-सुविधाओं की, शरीर की शोभा की चीजों के बारे में ही सोचा जाता है?'' (पृ0 19) ; कि क्यों विवाहोपरांत स्त्री को नाम के साथ-साथ अपने सपने बदलने को भी मजबूर किया जाता है? (पृ0 45) ; कि विवाह नामक संस्था के संरक्षण में पलते इतने सतही, भौतिक इकतरफा व्यापारिक सम्बंध क्या मानवीय गरिमा एवं मानवीय अस्मिता की रक्षा कर सकेंगे? ; कि विवाह संस्था क्या प्रकारांतर से समाज में विषम आर्थिक सम्बंधों का पोषण करने वाली पूंजीवादी व्यवस्था का ही प्रतिरूप नहीं? ''वसुधा को अर्थशास्त्र का रिकार्डो सिद्धांत याद आता। मज़दूरों को हमेशा कम वेतन देना चाहिए जिससे उनकी संतानें ऊँची शिक्षा न पा सकें। परिणामतः वे भी मज़दूर बने रहें और उद्योगों को मज़दूरों की कभी कमी न पड़े। स्त्री की दुनिया को भी मर्यादित रखा गया है जिससे वह जैसी है, चुपचाप वैसी बनी रहे। उसी में संतुष्ट रहे, सवाल न पूछे, परिवर्तन की हवा के लिए न तरसे . .  और दूसरों का साम्राज्य जैसा चल रहा है, वैसा ही चलता रहे।''( पृ0 64)

लेखिका से पहले सामाजिक कार्यकर्ता होनेके कारण कुंदनिका कापड़ीआ का लेखन सहानुभूति, सामंजस्य एवं समाधान पर अधिक बल देता है जबकि मृदुला गर्ग के लेखन का केन्द्रीय स्वर व्यंग्य और आत्मविश्लेषण है। अतः 'कठगुलाब'में विपिन और नीरजा दो प्रमुख पात्रों के जरिए विवाह संस्था का मखौल उड़ाने के बाद  वे नुकीले सवाल उठाती हैं कि क्यों ''ये औरतें मरजानियां दूसरी औरत का साथ देने की बजाय जल्लद मरद को ही पल्लू में समेटने लगती हैं?'' (पृ0 138) और ''अपना खालीपन भरने के लिए हम हमेशा पति या प्रेमी की खोज क्यों करती हैं? . . . इसलिए न कि वह हमें बच्चा दे सकता है?'' (पृ0 107) उल्लेखनीय है कि स्त्री विमर्श को वैश्विक एवं सार्वकालिक परिप्रेक्ष्य देकर मृदुला गर्ग जिस तरह विश्वभगिनीवाद की अवधारणा को उपन्यास में क्रमशः अवस्थित करती चलती हैं, उससे उपर्युक्त  प्रश्नों के सम्भावित जवाब पुनः कुछ प्रतिप्रश्न पैदा करते हैं कि जल्लाद मरद को पल्लू में बांधने की कुट्टनी कला यदि उन्हें सुरक्षा चक्र देती है तो क्यों वे 'कठगुलाब'की नमिता, गंगा, वरजीनिया की तरह; 'कुफ्र'की अम्मा साईं, हीर और गुप्पी की तरह; 'छिन्नमस्ता'की मां और सासू मां की तरह; 'मेरे बचपन के दिन'की ईदुल की तरह 'सुख-सौभाग्य'के बीच भी गहरी मानसिक रिक्ति का शिकार हैं? कि यदि संतान प्राप्ति ही विवाह सम्बंध का एकमात्र लक्ष्य है तो कृत्रिम गर्भाधान और स्पर्म बैंक के रूप में विकसित होती नई वैज्ञानिक तकनीक और समलैंगिकता को क्या स्वस्थ विकल्प के रूप में स्वीकार किया जा सकता है? न, बिल्कुल नहीं। मृदुला गर्ग व्यंग्य-विनोद-विद्रूप और कटाक्ष के औज़ारों से 'कैरीकेचर'भर प्रस्तुत नहीं करतीं, वरन् संवेदनशील विवादास्पद सवालों को लेकर बेहद संजीदगी के साथ अपनी स्पष्ट राय भी देती हैं। संतान-दान के अनुबंध रूप में शुरु हुए विपिन-नीरजा सम्बंध में असफल नीरजा के यंत्रमानव में तब्दील होते जाने तथा संतान प्राप्ति की अपेक्षा सम्बंध के सौन्दर्य और अनन्यता को बनाए रखने हेतु विपिन की उत्कंठा को भले ही आलोचकों ने लेखिका के बौद्धिक व्यापार का नाम दिया है, लेकिन इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि संकटापन्न स्थितियों में घिर कर ही व्यक्ति काल और सभ्यता को आक्रांत कर देने वाली सच्चाइयों की पड़ताल कर पाता है। जाहिर है विपिन के ऊहापोह के क्षणों में जब मृदुला कठिन विश्लेषणपरक भाषा का इस्तेमाल कर कहती हैं कि हम प्राणी मात्र (बायलॉजिकल यूनिट) को नहीं, व्यक्ति (अस्मिता, पैशन, लावण्य, तिलिस्म से युक्त प्राणी) को सहचर चुनते हैं और उसकी रहस्यात्मकता में ही आकर्षण और माधुर्य के अजò òोतों की तलाश करते हैं (पृ0 234), तो वे तमाम भोगपरक ऐहिक ऐषणाओं से दूर एक-दूसरे को पाकर समृद्धतर होने की स्थितियों को ही स्त्री-पुरुष मिलन (विवाह) का आधारबिंदु स्वीकार करती हैं। बेशक यह वह यूटोपियन स्थिति है जहाँ न 'चाक'की सारंग के इस सवाल का औचित्य शेष रहता है कि क्यों बंधनों में जकड़ी स्त्री को समाज सती और बंधनमुक्त होकर जीवन जीने को आकुल स्वाभिमानिनी स्त्री को कुलटा कहता है (पृ0 225); न 'दीवारों से पार आकाश'की वसुधा की वेदना कि ''स्वयं को खोकर जो पाया, उसका नाम क्या है? उसका मूल्य क्या है?'' (पृ0 76); न 'छिन्नमस्ता'की प्रिया की विवशता कि आंसू में संपूर्ण स्त्री जीवन की सार्थकता क्यों? (पृ0 114)

आक्रामक और कंटीले लेखन के लिएविख्यात बांग्लादेश की लेखिका तसलीमा नसरीन औरतों की आंसू भरी दास्तानें कह कर अपने वक्त और ऊर्जा का क्षय नहीं करना चाहतीं। ''जंजीरें तोड़ दी हैं मैंने/ पान के पत्ते से हटा दिया है संस्कार का चूना'' (तसलीमा नसरीन की प्रतिनिधि कविताएं, समर्पण पृष्ठ) का उद्घोष कर वे उस लड़की की गतिविधियों में ज्यादा दिलचस्पी लेती जान पड़ती हैं जो लोगों की टेढ़ी नज़रों, कामुक सीटियों और 'बदचलन'सरीखा गालियों से बिना घबराए निर्द्वंद्व अपने रास्ते आगे बढ़ रही है। अलबत्ता इस लड़की को वे सावधान ज़रूर कर देना चाहती हैं कि रैबिसयुक्त कुत्तों के आक्रमण की ही तरह हर देह के लिए घातक होता है सिफलिसयुक्त मर्दों का आक्रमण। (वही, पृ0 14) लेकिन यही तसलीमा कविताओं और टिप्पणियों के संसार से बाहर आकर जब गाढ़ी रूमानियत के साथ अपने बचपन की यादों में डूबती हैं तो मां ईदुल की कथा कहते-कहते बेहद वस्तुपरक ढंग से औसत औरत की नियति का बखान करने लगती हैं। हालांकि 'मेरे बचपन के दिन'में किशोरी होती बच्ची की नज़र से माता-पिता के कलहपूर्ण सम्बंधों का चित्रण किया गया है, किंतु समूचा प्रकरण मुखर होकर इस बात की पुष्टि करता है कि मां के श्याम वर्ण और कुरूपता तथा पिता के दाम्पत्येतर सम्बंधों के बीच मां जिस असुरक्षा बोध से ताउम्र पगलाई रही, वह दो तथ्यों की उपज थे। एक, डॉक्टर पति की तुलना में अल्पशिक्षित होना, और दूसरा इस्लाम द्वारा पुरुष को बहुविवाह का अधिकार देना।


तहमीना दुर्रानी (पाकिस्तान के कबीलाईसमाज की प्रवक्ता) और तसलीमा नसरीन (इस्लाम धर्म एवं बांग्ला संस्कृति के कम्पोज़िट प्रभाव से बुने समाज की प्रवक्ता) अलग-अलग दृष्टि एवं प्राथमिकताओं के साथ इस्लामी राष्ट्र के दो भिन्न-भिन्न मुस्लिम समाजों का प्रतिनिधित्व करती हैं। लेकिन इसके बावजूद सामाजिक-मानसिक रुग्णताओं की विश्लेषणपरक निष्पत्तियों में एक-दूसरे के बहुत करीब आ खड़ी होती हैं और अशिक्षा तथा धार्मिक कर्मकांडों के प्रसार को स्त्री की मानवीय स्थिति को विकटतर करने वाले घटकों के रूप में चित्रित करती हैं। 'कुफ्र'की हीर एक ऐसे रोशन दिमाग उदार परिवार से आई है जो बुर्के की जगह तालीम को स्त्री की धरोहर मानता है। पीर साईं की किलेनुमा हवेली की ऊँची अंधेरी दीवारों में घिरने से पहले चूंकि उसने खुली-डुली दुनिया के ऊपर पसरे अछोर आसमान को चांद-सूरज के वैभव के साथ भरपूर जिया है, इसलिए बेटी गुप्पी को वह कल्पना और शिक्षा के सहारे बृहत्तर दुनिया से जोड़ देना चाहती है। चोरी-छिपे कुरान का उर्दू तर्जुमा सुना कर वह उसे प्रकारांतर से पीर साईं के खिलाफ खड़े होने का हौसला भी देती है, लेकिन चंद कदमों में सिमटी दुनिया की वासी गुप्पी को किन्हीं मुक्ति द्वारों की तलाश नहीं। ठीक उसी तरह जैसे 'सीमंतनी उपदेश'की लेखिका द्वारा चित्रित बीसवीं सदी के पूवार्द्ध की परवश हिंदू स्त्री की तरह जिसके विषय में व्यंग्यमिश्रित पीड़ा का सहारा लेकर वे लिखती हैं कि ''जो आदमी जेलखाने में पैदा हुआ हो, या जिसका बाप दादा उसी में कदीम से रहता हो, वह उसी जेलखाने को बहिश्त समझता है''  गुप्पी के पास यथास्थिति को स्वीकारने के अपने तर्क हैं  तो 'मेरे बचपन के दिन'की ईदुल के पास वर्तमान की नारकीय विभीषिका से बचने के लिए अंधविश्वास की जमीन पर उगे कुछ दिवास्वप्न कि नौमहल (पीरबाड़ी) के पीर की मुरीद बनने पर वह न केवल कब्र के अजाब से मुक्ति पा लेगी बल्कि पुल से रात पार करने में भी वक्त नहीं लगेगा। (115) बंद बदबूदार माहौल में पली गुप्पी जहाँ शिक्षा के चामत्कारिक प्रभावों से अनभिज्ञ है, वहीं बाल्यावस्था में पिता द्वारा पढ़ाई छुड़ा दिए जाने के कारण ईदुल ('मेरे बचपन के दिन') प्रौढा.वस्था में भी उन कसैली यादों से मुक्त नहीं हो पाई है जिन्होंने समान रुतबे और बुद्धिवाले मियां भाई और उसके बीच अलंघ्य फासले खड़े कर दिए थे। यहाँ ईदुल की असहायता में हीर की विवशता समाहित हो जाती है लेकिन हीर की भाँति मकबरे (धर्म) की सड़ांध से वाकिफ न होने के कारण अल्प ज्ञान से उपजने वाले कुतर्कों का सहारा लेकर वह लकीर पीटने की निष्क्रियता में जीवन की सार्थकता समझने लगती है। गुप्पी के रूप में यथास्थितिवादी नई पीढ़ी की रचना कर जहाँ तहमीना विद्रोह की संभावनाओं को विनष्ट कर डालती हैं, वहीं तसलीमा ईदुल में हीर और गुप्पी के अंतर्विरोधों का विलयीकरण दिखा कर उसकी बेटी के रूप में स्वयं को एक ऐसी पीढ़ी के रूप में प्रस्तुत करती हैं जिसने मां के संकीर्ण प्रतिगामी संस्कार और पिता की उदार प्रगतिशील सोच के बीच धर्म, 'स्व'और समाज को समझने के लिए तर्कपूर्ण निजी दृष्टि विकसित की है। इसलिए कुरान की विषमतामूलक सच्चाइयों से परिचित होकर वे संज्ञाशून्य नहीं होतीं, बल्कि धर्म के बढ़ते रसूख के साथ घर-समाज से सौहार्द और सामंजस्य छीन लेने वाले उन फतवों और फरमानों का आग्रहपूर्वक विश्लेषण करती हैं जो व्यक्ति से उसकी मानवीय पहचान छीन कर उसे सिर्फ जनून में तब्दील कर देते हैं।''मां बोलीं, 'अब से साड़ी नहीं पहनूँगी। साड़ी हिंदुओं की पोशाक है। काफिर की पोशाक। साड़ी पहनने से गुनाह होगा।'पीरबाड़ी से जो भी फतवा जारी होता, मां सिर झुका कर उस पर अमल करतीं। मां अपने बचपन की सखी अमला की बात भूल गईं। वे भूल गईं कि वे कभी रथ के मेले से लावा, खिलौने और पुतले खरीदा करतीं थीं। लक्ष्मी पूजा के दिन सरस्वती वगैरह के घरों में जाकर मिठाई खातीं थीं और सहेलियों के साथ मुहल्ले के पूजामंडप देखने जाती थीं।'' (पृ0 144)
क्रमशः

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स्मृति जी कंडोम के विज्ञापन वल्गर तो डीयो के संस्कारी कैसे?

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श्वेता यादव

अष्टभुजा शुक्ल की लाइनें हैं एक हाथ मेंपेप्सी कोला दूजे में कंडोम, तीजे में रमपुरिया चाकू चौथे में हरिओम, कितना ललित ललाम यार है, भारत घोड़े पर सवार है. देखा जाए तो भारत सही में ललित ललाम ही हुआ जा रहा है. यहाँ जिन चीजों पर रोक लगनी चाहिए, जिन मामलों में कड़े कदम उठाने चाहिए उन पर कदम नहीं उठाये जाते या फिर उठाये जाते हैं तो उनका पालन नहीं हो पाता और जिन चीजों की आवश्यकता नहीं या कम है उन पर कड़े क़ानून बनाए जाते हैं और उनका पालन भी किया जाता है.

क्या है पूरा मामला?

सरकार ने सोमवार कंडोम को प्रमोट करनेवाले विज्ञापनों को लेकर टीवी चैनलों को निर्देश जारी किया. सरकार का कहना है कि उसने ऐसा बच्‍चों के लिए स्‍वस्‍थ माहौल और विकास को देखते हुए किया कि टीवी चैनलों पर कंडोम के विज्ञापन केवल रात 10 बजे से सुबह छह बजे तक ही चलाए जाएंगे. सूचना एवं प्रसारण मंत्रालयकी तरफ से जारी एडवाइजरी में कहा गया है कि, 'कंडोम के विज्ञापन सुबह छह से रात 10 बजे के बीच नहीं दिखाए जाएंगे, ताकि बच्चों को इनसे दूर रखा जा सके. साथ ही 1994 के केबल टेलीविजन नेटवर्क नियमों का कड़ाई से पालन सुनिश्चित किया जा सके.'  नियमों के उलंघन पर कार्यवाही का प्रावधान है.

मंत्रालय ने कहा कि कंडोम के ऐसे विज्ञापनका प्रसारण न किया जाए जो बच्‍चों की मानसिकता को प्रभावित करें. मंत्रालय ने ऐसा लोगों की शिकायत पर किया है कि कुछ टीवी चैनल विशेषकर बच्चों के लिए, कंडोम के विज्ञापन दिखा रहे हैं. मंत्रालय ने केबल टेलीविजन नेटवर्क नियमावली के नियम 7(7) का हवाला दिया है। इसमें कहा गया है कि कोई भी केबल सेवा प्रदाता ऐसे विज्ञापन का प्रसारण नहीं कर सकते जिससे बच्चों की सुरक्षा खतरे में पड़ती हो या गलत व्यवहार के प्रति उनमें रुचि पैदा हो अथवा जिनमें उन्हें भीख मांगते हुए, अभद्र या अपमानजनक परिस्थितियों में दिखाया गया हो.

कंडोम से इतना डरते क्यों हैं?

ताजा मामला कंडोम को बैन करने कोलेकर है. खबर पर बात करने से पहले, इस बात पर बात जरूरी है कि आखिर कंडोम पर बैन क्यों? कंडोम का नाम लेते ही लोगों को सांप सूंघ जाता है कोई भी खुल कर इस बारे में बात करना नहीं चाहता. हम जनसँख्या बढ़ा सकते हैं पच्चीस बच्चे पैदा करके उस पर बधाई ले और दे सकते हैं लेकिन कंडोम पर बात नहीं कर सकते. हम खुले में शौच तो बड़े आराम से कर लेते हैं लेकिन खुले में कंडोम पर या सेक्स पर बात नहीं कर सकते. आखिर क्यों? इसका कुछ हद तक जवाब है हमारे समाज और उसकी सामजिक संरचना. यहाँ सेक्स पर बात करना लगभाग बैन ही है. यहाँ बलात्कार होते हैं बड़े पैमाने पर होते हैं यहाँ तक की लड़कियां खुद के घर तक में सुरक्षित नहीं हैं. लेकिन सेक्स पर बात करने वाला चरित्रहीन हो जाता है. जहाँ इस देश में गर्भपात कानूनन अपराध हैं वहीं कानूनों की अनदेखी करते हुए यहाँ खुलेआम गर्भपात होते हैं. इन गर्भपातों में सबसे ज्यादा संख्या में होने वाले गर्भपात कन्या भ्रूण हत्या और दूसरे नंबर पर अनवांटेड चाइल्ड के लिए करवाए जाते हैं. अब बड़ा सवाल यह है कि ये आनचाहा गर्भ ठहरने की आखिर वजह क्या है? वजह साफ़ है या तो लोगों को सुरक्षा के उपाय पता नहीं हैं या फिर वे अपनाना नहीं चाहते.



 फिमेल कंडोम पर कोई विज्ञापन क्यों नहीं? 

पिछले दिनों बिग बॉस के एक एपिसोडमें हिना खान और शिल्पा दूसरी प्रतिभागी सपना चौधरी को ये बताती हैं कि सिर्फ मेल कंडोम ही नहीं होता बल्कि फिमेल कंडोम भी होता है. सपना उनकी बातों पर हैरान थी क्योंकि उन्हें पता नहीं था कि फिमेल कंडोम भी होता है, सपना के साथ मैं भी हैरान होती रही कि क्या सच में फिमेल कंडोम होता है और फिर शुरू हुआ गूगल . यह बहुत आश्चर्य की बात नहीं है कि सपना और मेरी जैसी तमाम लड़कियां ऐसी हैं जिन्हें फिमेल कंडोम के बारे में पता ही नहीं है. अब सवाल है आखिर क्यों? क्यों नहीं पता है तो जवाब बहुत सीधा सा ही होगा कि जानकारी नहीं है. आप खुद सोचिये मेल कंडोम के बारे में न जाने कितने विज्ञापन हैं जो जानकारी देते हैं लेकिन क्या कोई एक विज्ञापन है जो फिमेल कंडोम के बारे में हो? मुझे तो याद नहीं पड़ता आपको याद हो तो बताइयेगा. आखिर यह भेदभाव क्यों यह समझने की जरूरत है शायद इस एक छोटी बात को समझ लेने से आपको भारतीय समाज की संरचना भी समझ में आ जाए.

 कंडोम बंद किया तो फिर डीयो क्यों नहीं 

चलिए एक मिनट को मान लेते हैं किकंडोम के विज्ञापन गलत हैं और उन्हें बंद करना चाहिए तो फिर कंडोम ही क्यों डीयो के विज्ञापन क्या सरकार ने नहीं देखे हैं? खासकर मेंस डीयो के विज्ञापन जिनमें ज्यादातर विज्ञापन यही दिखाते हैं कि जैसे ही लड़का डीयो लगाता है लड़की नहीं "लड़कियां"उस पर मरने लगती हैं क्या यह समाज के पतन का कारण नहीं है. क्या इससे सामजिक संस्कार और नैतिकता प्रभावित नहीं होते. बंद करना ही है तो फिर उन विज्ञापनों को भी बंद करना चाहिए जो सीधे सीधे लैंगिक भेदभाव को बढ़ावा देते हैं और स्त्री को बाजार में उपभोग या वस्तु के रूप में प्रचारित करते हैं. अगर इस लिहाज से देखें तो हकीकत यही है कि आधे से अधिक विज्ञापनों को बंद कर देना चाहिए. और सिर्फ विज्ञापन ही क्यों टीवी पर आने वाले कम से कम दर्जन भर सीरियल्स ऐसे हैं जो न सिर्फ बच्चों पर बल्कि बड़ों पर भी बुरा असर डाल रहे हैं. उदाहरण के लिए कुछ दिन पहले सोनी पर प्रसारित होने वाले धारावाहिक "पहरेदार पिया की"बात करें जिसमें एक बच्चा  अपने से दुगनी उम्र की लड़की को प्रेम करता है और फिर उससे उसकी शादी भी हो जाती है, तो क्या वह धारावाहिक बच्चों के मन पर बुरा प्रभाव नहीं डाल रहा था. हालांकि तमाम विरोध के बाद सीरियल बंद हुआ लेकिन सोचने वाली बात यह है कि इसके लिए सरकार की तरफ से कोई पहल नहीं की गई. इस धारावाहिक के अलावा भी न जाने कितने ऐसे सीरियल है जो खुलेआम सरकारी नियमों का उलंघन कर रहे हैं फिर ऐसी कहानियों पर रोक क्यों नहीं?

ऐतराज इस बात से है कि एड को बंदकरने की जरूरत क्या है? हाँ यह सच है कि अभी जिस तरह के कंडोम के एड दिखाए जा रहे हैं उनके कंटेंट अवेयरनेस कम और वल्गेरिटी ज्यादा फैलाते हैं तब भी सवाल वही उठता है कि इसको रोकने के लिए एड पर बैन की जरूरत है या फिर कंटेंट फ़िल्टर करने की जरूरत है?

 सरकार ने खुद किया था शुरू

एक और जरूरी बात आज सरकार जिसएड को यह कह कर बंद कर रही है कि इससे समाज का नैतिक पतन हो रहा है उसे एक समय में जागरूकता अभियान के अंतर्गत शुरू करने वाली भी सरकार ही है. इन एड को बंद करने के पीछे यह तर्क दिया जा रहा है कि कंडोम के एड परिवार के साथ बैठ कर देखने लायक नहीं है तो सिर्फ एक सवाल आज के जमाने की एक पिक्चर ऐसी बता दीजिये जो परिवार के साथ बैठ कर देखी जा सकती हो छोड़िये फिल्म की बात आजकल तो सीरियल्स में भी बेड सीन,  चपिचपा आशिकी के सीन खुलेआम फिल्माए जा रहे हैं, उन पर सरकार कोई एक्शन क्यों नहीं ले रही?  क्या वे क़ानून के दायरे से बाहर आते हैं?  एक आखिरी बात भारत एक ऐसा देश है जहाँ सरकार को लोगों को यह तक बताना पड़ता है कि खुले में शौच मना है और स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है वहां सरकार अगर प्राइम टाइम जोन में अवेयरनेस के एड मसलन गर्भनिरोधक गोलियां, कंडोम ये सब बैन कर देगी तो वह लोगों को जागरूक कैसे करेगी? इस पूरे मुद्दे पर बात करते हुए हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि अनियमितताओं के इस देश में हजारों की जनसँख्या ऐसी है जो मजदूर वर्ग से आते हैं और उनके लिए मनोरंजन के कुल मिला कर दो ही साधन है पहला टीवी और दूसरा सेक्स और इस चक्कर में वह तमाम बच्चे पैदा करते हैं. उनके पास टीवी भी देखने का सीमित समय होता है वह है प्राइम टाइम ऐसे में अगर इसी समय पर इस तरह के एड पर बैन लगा दिया जाता है तो फिर इस वर्ग के पास अवेयरनेस का क्या माध्यम बचेगा?

इस देश में बलात्कार पर रोक नहीं लेकिन कंडोम पर रोक

अगर आंकड़ों की माने तो भारत एक ऐसा देश है जहाँ यौन अपराधों में सबसे ज्यादा अपराधी नाबालिग होते हैं. एक बार फिर आंकड़े की बात करें तो भारत का आज का युवा 14-16 साल की उम्र तक सेक्स कर चुका होता है अब इन आकड़ों के आधार पर बात करें तो यह बैन किसे बचाने के लिए है. यह इंटरनेट का युग है सो काल्ड मार्डन युग जहाँ इंटरनेट के माध्यम से आप कुछ भी देख सकते हैं कुछ भी सीख सकतें हैं ऐसे में सिर्फ टीवी पर कुछ समय के लिए एड को बंद करके सरकार क्या बदल लेगी? उलटे इस बैन के बाद अब उत्सुकता वश और भी ज्यादा लोग उन विज्ञापनों को सर्च करके देखेंगे जिन्हें बैन किया जा रहा है. क्योंकि कहते हैं ना जिस चीज को जितना छिपाया जाता है वह उतना ही उत्सुकता का विषय बनती है. इसमें कोई शक नहीं कि कंडोम के कुछ विज्ञापन सच में देखने लायक नहीं हैं क्योंकि उनमें वास्तविक मैसेज कहीं खो जाता है और सिर्फ शरीर की नुमाइश बचती है. लेकिन सरकार को यह देखना होगा कि ऐसे कंटेंट पर रोक लगाए ना कि अवेयरनेस पर.

साभार :- टेढ़ी उंगली

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भारतीय उपमहाद्वीप का स्त्री लेखन: स्त्री सशक्तीकरण की अनुगूंजें(दूसरी किस्त)

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रोहिणी अग्रवाल
रोहिणी अग्रवाल स्त्रीवादी आलोचक हैं , महर्षि दयानंद विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर हैं . ई मेल- rohini1959@gmail.com


धर्म और कानून: समदरसी है नाम तिहारो?

बचपन की स्मृतियों को 'फेरा'उपन्यास में व्यापक परिप्रेक्ष्य देते हुए तसलीमा नसरीन एक सवाल उठाती हैं कि स्त्रियों की भाँति पुरुष अपने अस्तित्व और अस्मिता को लेकर शंकित नहीं होता? क्या इसलिए कि समस्त कर्मक्षेत्र का वही एकमात्र केन्द्रबिंदु है? या इसलिए कि समूची आचार संहिताएं, नियम-कानून, शास्त्र उसके कर्म, श्रम, व्याख्या, पसंद, सत्ता और स्वत्व पर टिके हैं, और इस प्रकार वह अनायास समूची संस्कृति का कर्त्ता और कारक तत्व बन जाता है? साथ ही यहाँ वे 'मेरे बचपन के दिन'की ईदुल को मयमनसिंह (बांग्लादेश) की शरीफा और स्वयं को कलकत्ता में निर्वासन का त्रास भोगती कल्याणी के रूप में चित्रित कर स्त्री जीवन को बदरंग कर देने वाली बिछोह और विस्थापन जैसी भावनात्मक मजबूरियों को धार्मिक जनूनों और राष्ट्र-राज्यों की कूटनीतियों में अनूदित भी करती चलती हैं। 'फेरा'उपन्यास बांग्लादेश में हिंदू विरोधी अभियान तीव्रतर होने की सूरत में सत्रह वर्ष की अवस्था में अंतरंग सहेली शरीफा से बिछुड़ कर कलकत्ता आ बसने वाली कल्याणी की कहानी है जो शरणार्थी और विस्थापित होने के दर्द के बीच अपने को कभी सम्पूर्णता में नहीं देख पाती। तीस वर्ष बाद बेटे दीपन के साथ पुरानी स्मृतियों में जीने और जड़ों की तलाश में लौटी कल्याणी पग-पग पर मोहभंग का शिकार होकर जिस सघन ऐकांतिक टीस और परिताप को झेलती है, वह असल में हर उस विवाहिता लड़की की मनोवेदना की झांकी है जो ससुराल के 'पराएपन'के बीच मायके के 'आत्मीय'क्षणों को जी लेने का भरपूर उत्साह भीतर संचित कर अपनी मिट्टी की ओर लौटती है और पाती है कि वहाँ उसके अस्तित्व का आखिरी नामोनिशाँ तक मौजूद नहीं। राजनीतिक सरहदों की वजह से उगा यह विभाजन का दर्द अमूमन हर स्त्री का दर्द बन जाता है जिसे पितृसत्तात्मक व्यवस्था ने संस्कृति और आचार के नाम पर मजबूत किया है।

भौगोलिक और परिवेशगत परिस्थितियों के आमूलचूल परिवर्तन के बीच कल्याणी यह देख कर स्तब्ध है कि उन्मुक्त शरीफा कैसे एक ठस्स बंदिनी में कायांतरित हो गई है। परिचय के बावजूद घोर असम्पृक्ति! भिन्न आयु-वर्ग के बच्चों से लदी-फंदी शरीफा में जीवन का स्पंदन तक नहीं। हर बात में पति की अनुमति की चिंता! यहाँ तक कि कालीबाड़ी (मायका) घूम आने की स्वतंत्रता भी नहीं - ''बच्चों के बाप से पूछे बिना मैं निकल नहीं सकती।'' (पृ0 67) ''शरीफा भी नमाज पढ़ती है?.. इस सूचना मात्र से चकित रह जाने वाली कल्याणी उस समय शरीफा की अन्यमनस्कता के पीछे छिपी विवशता समझ पाती है जब शहर में घूमते हुए वह दो घटनाओं की साक्षी बनती है। एक, शरीफा के बच्चों द्वारा 'चींटी-चींटी'खेल खेलते हुए अट्टहासपूर्वक लाल चींटियों को हिंदू कह कर मारना; और दूसरा, सिंदूर-बिंदी वाली कल्याणी को देख कर गली के बच्चों द्वारा आवेशपूर्वक पीछा किया जाना - ''हिंदू हिंदू तुलसी पत्ता, खाते हैं वे गाय का माथा''। (पृ0 94) विदाई के अत्यल्प क्षणों में शरीफा के हाथ का हल्का सा स्पर्श कल्याणी के समक्ष धर्म एवं समाज द्वारा स्त्री को 'उन्माद'एवं 'पत्नी'बनाए जाने की कठोर यातनाओं का पूरा इतिहास खोल कर रख देता है जिन्हें एक स्तर पर अनिर्वाण के साथ वैवाहिक सम्बंध जीते हुए उसने महसूस किया है और दूसरे स्तर पर मयमनसिंह में ही रुखसाना के भाई स्वप्न द्वारा कल्याणी को पहचान कर घर लिवा लाने में जहाँ उसकी पत्नी एक अलग आइडेंटिटी न रह कर ठीक शरीफा की तरह अपने पति की पसंद का विस्तार बन जाती है।

पहली किस्त :- भारतीय उपमहाद्वीप का स्त्री लेखन: स्त्री सशक्तीकरण की अनुगूंजें

वास्तविक जीवन में इस्लामी कट्टरताओं का विरोध करने के जुर्म में निर्वासन का संत्रास भोगने के कारण तसलीमा धर्म के दुष्प्रभावों को स्त्री जीवन के नारकीय विधान तक सीमित नहीं रखतीं, वरन् पूरी मनुष्यता को उसके चंगुल से मुक्त कर बंधुत्व के प्रसार का स्वप्न भी देखती हैं -''धर्मांधता का यह खेल कब तक चलेगा? धर्म को क्या हम लोग जीवन भर लादे रहेंगे? एक भाषा और एक संस्कृति धर्म की दीवार को एक दिन ज़रूर तोड़ने में सफल होगी।'' (पृ0 89)  तहमीना दुर्रानी भी मकबरे के वर्चस्व को ध्वस्त कर देना चाहती हैं। रौशन ख्यालों वाली आधुनिक महिला सखी बीवी के जरिए वे हर खासो-आम को चेता देना चाहती हैं कि ''मकबरे के हुक्मरान अल्लाह के नाम पर तिजारत करते हैं''; कि ''मकबरेवाले झूठों पर पलने वाले फरेबी हैं। तुम्हारे लिए दुआ मांगने के वास्ते पीरों को पैसे की दरकार नहीं होती। . . .उनकी ताकत का òोत तुम हो। तुम शैतान को मजबूत करते हो।'' (कुफ्र, पृ0 100) लेकिन बेहद तंज के साथ वे इस सच्चाई को रेखांकित करना भी नहीं भूलतीं कि मजहबी शिक्षा, अंधविश्वासों और सियासत के साथ गठबंधन करके धार्मिक ताकतें खुदा के नाम और न्याय की आड़ में जैसा नृशंस दमन चक्र चलाती हैं, वह ''मकबरे के खिलाफ मौजूद ख्यालात को लोगों के ज़हनों और दिलों में ही कुचल'' (पृ0 144) देने को काफी है। मकबरे की मुखालफत करने वाली सखी बीवी को सपरिवार जला देना; मकबरे की रजामंदी के खिलाफ ब्लोच प्रेमी से विवाह करने को आमादा तोती को प्रेमी सहित मर्मांतक यातनाएं देकर मार डालना इसके उदाहरण हैं। तसलीमा की तरह कुरान की आयतों का हवाला देकर वे धर्म के संरचनात्मक ढांचे पर विवाद नहीं उठातीं, बल्कि इस असंलग्न तटस्थता के साथ उसके दरिंदगी से भरपूर व्यावहारिक पक्ष का पर्दाफाश करती हैं कि ''एक ज़िंदा वली/बेआसरों का आसरा/मजलूमों और मुफलिसों का सहारा'' (पृ0 153) पीर साईं के साथ-साथ उसके कफ़-थूक, पीक-जूठन को पाने के लिए  आखिरी दमड़ी तक लुटाती अज्ञानी जनता को भी कटघरे में खड़ा कर देती हैं। अपनी सत्ता कायम रखने के लिए अपने ही बेटे फ़कीर छोटे साईं को ज़िना (इन्सेस्ट) के झूठे इल्ज़ाम में मरवा डालने वाले पीर साईं के प्रति लेखिका की घृणा अछोर है। वे बेहद लाउड होकर उन पोशीदा सच्चाइयों को अवाम के सामने ला देना चाहती हैं जहाँ बांझ औरतों को औलाद बख्श कर सिद्धि कमाने के हथकंडे के साथ-साथ पीर साईं उन नवजात शिशुओं के सिर को लोहे के पिंजड़े में फंसा कर उनके बौद्धिक-मानसिक विकास को अवरुद्ध करने की युक्तियां भी निकालता है ताकि बदशक्ल चूहेनुमा भिखारियों की एक पूरी फौज को मकबरे के निजाम में शामिल किया जा सके। (पृ0 54) पत्नी के रूप में तहमीना ने कोट अद्दू (पंजाब) के खारल कबीले के मुस्तफा खार के साथ तेरह वर्ष के लम्बे वैवाहिक जीवन में लगभग हर रोज़ अमानुषिक शारीरिक-मानसिक-भावनात्मक यंत्रणा झेली है, अतः हीर के साथ 'कुफ्र'में अपने जख्मों को हरा करते हुए वे पीर साईं के भीतर के शैतान को ज़र्रा-ज़र्रा उघाड़ने में नहीं चूकतीं जो सैक्स और आतंक में ही जीवन का भरपूर लुत्फ उठाना चाहता है। आठ-दस साल की बच्चियों के साथ बलात्कार से लेकर पत्नी हीर को प्यारी तवायफ के रूप में रईस दोस्तों/मेहमानों के मनोरंजनार्थ प्रस्तुत करने तक; ब्लू फिल्में बनाने से लेकर हंटरों की फटकार और कैदी की चीत्कार के पृष्ठभूमि में संभोग करने तक पीर साईं की मानसिक रुग्णताओं और विकृतियों की एक लम्बी सूची तैयार की जा सकती है जिसे उसकी ताकत, सम्पत्ति और पोशाक (अल्लाह के नब्बे नाम कढ़ी हरे रंग की चादर) कभी उघड़ने नहीं देती। हीर महसूस करती है कि छोटी-छोटी लाचारगियों, लालचों, रंजिशों और कायरताओं में विभक्त होकर आम आदमी ने मकबरे की ताकत को इतना पुख्ता कर दिया है कि सबूत सहित पीर साईं की घिनौनी हरकतों को पेश करने की हर कोशिश में ''बदनाम मकबरा नहीं, मैं हो रही थी।'' (पृ0202) हीर की हताशा में यकीनन धर्म के इस अजीबोगरीब खेल का बहुत बड़ा हाथ है जो किसी अबूझ गणित का सहारा लेकर आदम की पसली से बनी हव्वा के वजूद को नकराने के लिए उसके बड़े से बड़े झुंड की गिनती को भी शून्य पर ले आता है। (पृ0 42) मकबरे के मिथ को तोड़ने के लिए वैयक्तिक स्तर पर इक्का-दुक्का प्रयासों की नहीं, वरन् व्यापक स्तर पर जनजागरण और संगठित लोकशक्ति की ज़रूरत है - यह अनुगूंज उपन्यास के बाद भी देर तक मन में बनी रहती है।


भारतीय उपमहाद्वीप के स्त्री लेखन का तुलनात्मक अध्ययन करने पर एक दिलचस्प तथ्य उभर कर सामने आता है कि भारतीय स्त्री लेखन में अक्सर धर्म एक उत्पीड़क शक्ति के रूप में चित्रित नहीं हुआ है, हालांकि यहाँ भी 'मनुस्मृति'जैसा आर्ष ग्रंथ जीवन की तीनों अवस्थाओं में स्त्री को पुरुष के अधीन रहने का संस्कार देकर उसे 'देह'अथवा 'वस्तु से भिन्न कोई स्वतंत्र इयत्ता नहीं देता। मंदिरों में देवदासी प्रथा, काशी-वृंदावन में विधवाओं की दारुण स्थिति तथा देश के विभिन्न भागों में सती प्रथा की पुनर्प्रतिष्ठा धर्म की आड़ में होने वाले यौन शोषण और उत्पीड़न की कथा कहते हैं, लेकिन आश्चर्य कि भरतीय हिंदी लेखन में इन्हें मुख्य विषय बना कर गंभीरतापूर्वक विचार नहीं किया गया है। अलबत्ता अखबारों में रपटों और फीचर लेखों के जरिए जनजातियों एवं कबीलों में पाई जाने वाली ऐसी धार्मिक नृशंसताओं को अवश्य बेबाकी से प्रश्नचिन्हित किया जा रहा है ; या फिर महाश्वेता देवी 'छुक छुक, छुक छुक आ गेल गाड़ी'जैसी लम्बी कहानी में कोल्हाटी समाज में पाई जाने वाली उन धार्मिक रूढ़ियों पर प्रहार करती हैं जो घर की बड़ी बेटी को बाज़ार में बैठा कर पुरुष वासनापूर्ति के नए-नए द्वारों को खोलती है।  लेकिन तहमीना और तसलीमा की तरह उनका बलाघात धार्मिक नृशंसताओं के यथातथ्य उद्घाटन की अपेक्षा उनके प्रति विद्रोह चेतना जगाने में अधिक रहा है। इस भिन्नतामूलक दृष्टि के दो कारण हो सकते हैं। एक, इस्लाम की अपेक्षा हिंदू धर्म में स्त्री की किंचित बेहतर स्थिति जहाँ सिद्धांत रूप में उसे देवी/जननी के रूप में पूजा जाता है और अर्धांगिनी के रूप में हर शुभ कार्य में उसकी उपस्थिति अनिवार्य मानी जाती है। (यह अलग तथ्य है कि काली के रूप में उसकी असीमित शक्ति का मनचाहा उपयोग करने के बाद पति परमेश्वर के मिथ को सरे-राह डाल उसके बढ़ते कदमों को वहीं फ्रीज़ कर दिया जाता है।) दूसरे, स्वतंत्र भारत द्वारा हिंदू कोड बिल अपनाया जाना जो अपने बुनियादी ढांचे में लोकतांत्रिक और मानवीय है। लेकिन जहाँ तक भारतीय मुसलमान स्त्री की नियति पर लिखे गए भारतीय उर्दू लेखन का सवाल है, वह शरीअत के हस्तक्षेप और शाहबानो विवाद से उठे मसलों को लेकर चुप है। कुर्रतुल ऐन हैदर 'अगले जनम मोहे बिटिया न कीजो'उपन्यास में रश्के कमर और उसकी बेटी की त्रासदी के जरिए 'मुताअ'प्रथा (सीमित अवधि का निकाह) के दुष्परिणामों का ज़िक्र अवश्य करती हैं जो आठवें दशक में गुजरात में प्रचलिम 'मैत्री करार'का ही रूप है, लेकिन मुस्लिम समाज को जड़ कर देने वाली सामाजिक समस्याओं का गहन विश्लेषण करने की बजाय उन सपाट स्थितियों का चित्रण करने में अधिक रमी हैं जो पुरुष की वासना का शिकार बना कर स्त्री को ख.ानगी (रखैल बनने वाली वेश्या) बनने को मजबूर करती हैं। उल्लेखनीय है कि कुर्रतुल ऐन हैदर और जीलानी बानो (ऐवाने-ग़ज़ल) दो भिन्न-भिन्न वर्गों की कथा कहती हैं। कुर्रतुल गरीबी, अशिक्षा और जहालत की मार झेलती निम्नवर्गीय रश्के कमर, जमीलुन बी और सदफ़ आपा की ज़िंदगियों में जहाँ आग़ा साहब और वर्मा साहब की मौजूदगी को ज़रूरी बना देती हैं, वहीं जीलानी बानो हैदराबाद के नवाबी खानदानों के अभिजात दंभ और जंग खाई माली हालत के परिप्रेक्ष्य में राशिद मामू और अब्बा जान हुमायूं जैसे  अतिमहत्वाकांक्षी धनलोलुप पुरुष पात्रों की सृष्टि करती हैं जो अपने ऐशो-आराम के लिए चांद और ग़ज़ल को पर-पुरुषों के आगोश में समा जाने को मजबूर करते हैं। गौरतलब है कि दोनों उपन्यास स्त्री की नियति पर निष्क्रियात्मक टिप्पणियां करने के बाद उन सकारात्मक संभावनाओं की ओर ध्यान देने की ज़रूरत नहीं समझते जिन्हें तलाश कर स्त्री को अकेले अपने दम पर लड़ाई लड़नी है। इस दृष्टि से नासिरा शर्मा के हिंदी उपन्यास 'ठीकरे की मंगनी'का उल्लेख अनिवार्य जान पड़ता है जहाँ महरूख न केवल मुस्लिम परिवारों की रिवायतों का विरोध करती है, बल्कि आत्मसम्मानपूर्वक जीवन जीते हुए भावी पीढ़ी के लिए एक मिसाल बन जाती है। बेशक महरूख ने भी हीर की तरह 'शताब्दी की चाल से सरकते' (ठीकरे की मंगनी, पृ0 11) लम्हों में जीवन के ठहराव को जिया है और पैदा होते ही ठीकरे की मंगनी जैसी गलीज़ रिवायतों का शिकार होकर अपनी ज़िंदगी को निरर्थक होते देखा है, लेकिन फिर भी दोनों की स्थिति में काफी अंतर है। हीर की तुलना में महरूख का पारिवारिक माहौल न केवल उदार है बल्कि मंगेतर रफ़त भाई पीर साईं का विलोम बन कर उसके व्यक्तित्व को एक नई तराश भी देते हैं। यह ठीक है कि अततः कुल परिणति में 'साम्यवादी'रफ़त भाई 'अहंवादी'पीर साईं से भिन्न नहीं, लेकिन उच्च शिक्षा एवं लोकतांत्रिक माहौल देकर उन्होंने महरूख के भीतर की 'स्त्री'को अपदस्थ कर जिस स्वतंत्रचेता निर्णय सक्षम 'मनुष्य'को प्रतिष्ठित करने की दृढ़ता दी है, वही महरूख की कुल जमापूंजी है। इसी कारण हीर के विपरीत महरूख के पैरों तले ठोस ज़मीन है और सिर के ऊपर अनंत आसमान जो शौहर से अलग स्त्री की अलग पहचान की पुष्टि करता है।

1956 में लागू हिंदू कोड बिल तथा भारतीयसंविधान की धारा 15 तथा 16 ने हालांकि कानूनी एवं संवैधानिक तौर पर भारतीय स्त्री के मानवीय एवं मौलिक अधिकारों की रक्षा का दायित्व लिया है और मिताक्षरा तथा दाय संप्रदाय की विषमतामूलक सिफारिशों को निरस्त करते हुए 'हिंदू उत्तराधिकार कानून'ने बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध की तुलना में स्वातंत्रयोत्तर भारत की स्त्री को अपेक्षाकृत अधिक स्वतंत्रता एवं समानता प्रदान की है, लेकिन फिर भी वस्तुस्थिति यह है कि न्याय पाने की जटिल एवं सुदीर्घ प्रक्रिया में सामंती संस्कारों से ग्रस्त कानून के पुरुषवादी चेहरे को नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता। बेशक उपर्युक्त आपत्तियों को निरस्त करने के प्रयास में उन तमाम कानूनी फैसलों को गिनाया जा सकता है जो पिछले पचास वर्षों में किसी महिला/महिला संस्था द्वारा अदालत का दरवाजा खटखटाने पर पूरे स्त्री समाज को मिले हैं जैसे पिता के जीवित होते हुए भी मां को संतान की प्राकृतिक गार्जियनशिप का अधिकार, पुत्री को गोद लेने का अधिकार, विवाहिता पुत्री द्वारा लाचार माता-पिता की देखरख का अधिकार, औपचारिक प्रपत्रों में संतान के अभिभावकत्व का हवाला देते हुए पिता के साथ-साथ मां का नामोल्लेख करने की बाध्यता आदि (और इस प्रकार 'दीवारों से पार आकाश'की वसुधा की आक्रोशभरी मायूसी एक अंश तक बेमानी हो जाती है कि परिवार के वंशवृक्ष में मां कहीं नहीं, पृ036) लेकिन यह भी सत्य है कि 48 प्रतिशत जज घरेलू हिंसा को जायज मानते हैं। दूसरे, सैद्धांतिक स्वतंत्रता व्यवहार में भी मुक्ति का संदेश लेकर आए, जरूरी नहीं। यही कारण है कि तमाम कानूनी बाध्यता के बावजूद समाज में प्रत्येक संवेदनशील वसुधा 'स्वत्वहीन'कर दिए जाने की वेदना भोग रही है कि ''बच्चे बड़े होंगे तब अपनी पहचान वे व्योमकेश मेहता के पुत्र कह कर ही देंगे। पूरी ज़िंदगी वे खुद के नाम के साथ पिता का नाम जोड़ कर दुनिया में घूमेंगे। वंशावली बनेगी तब व्योमकेश नाम की डाली में से तीन पत्ते फूटेंगे। उसमें मां का नाम कहीं नहीं होगा। गर्भ धारण करने से लेकर जन्म देकर बड़े करने तक मां की सही हुई तकलीफोंका आलेखन कहीं न होगा। अंतहीन कामों में जर्जरित शरीर और मन लेकर वह गुमनामी में विलीन हो जाएगी।'' (दीवारों से पार आकाश, पृ0 36)


नारीवाद के भाष्य के रूप में रचा गया उपन्यास 'कठगुलाब' (मृदुला गर्ग) स्मिता एवं मारियान तथा प्रख्यात उपन्यासकार स्कॉट फिटजे.राल्ड की पत्नी जेल्डा फिटजेराल्ड के जरिए इस तथ्य का सामान्यीकरण करता है कि प्रत्येक देशकाल का कानून सदा से पुरुषवादी रहा है। अमरीकी समाज में पति प्रताड़िता स्मिता बनाम जिम जारविस केस हो (पृ0 108-110), इर्विंग द्वारा पत्नी मारियान का भावनात्मक शोषण कर उसके उपन्यास को अपने नाम से छापने का छल हो (पृ0 91-93) या भारतीय समाज में पैतृक संपत्ति में बेटी के हिस्से को बेदखल कर सारी जायदाद पुत्र के नाम लिख देने का प्रपंच (पृ0 215), कानून हमेशा पुरुष का ही पक्ष लेता है। ''फैमिनिन वाइल्स से मुक्त हो, सिर ऊँचा करके, अपने हाथों अपने जीवन की रूपरेखा तैयार करने की कोशिश कीजिए, फिर देखिए, वही कानून कैसे आपको पटखनी देता है''  - गहरी घृणा से भर कर मृदुला न्याय व्यवस्था पर व्यंग्य करती हैं तो 'चाक'उपन्यास में सारंग के साथ पेचीदा न्यायिक प्रक्रिया से गुज़र कर मैत्रेयी पुष्पा न्याय व्यवस्था को लेकर रंजीत के अनुभव और सामान्य जन की अनास्था को जोड़ कर एक गहरी सच्चाई रेखांकित करती हैं -''कानून! किसे सिखा रही हो कानून? . . .कानून-कायदे पैसा देकर कागज के ऊपर पोंछ देने वाली इबारत के सिवा कुछ नहीं। और औरत के हक में तो बिल्कुल नहीं। पीढ़ियों से चले आ रहे रीति-रिवाजों से ऊपर हो जाएगी कचहरी? बिरादरी की मर्यादा भंग करने का अधिकार किसी को नहीं।'' (पृ0 16) बिरादरी की मर्याद को सर्वोपरि मानने का सामंती दंभ चूंकि घर की देहरी से ही स्त्रियों के लिए न्याय के पट बंद कर देता है, इसलिए जिस तत्परता से वह अंतरजातीय प्रेम विवाह करने वाली लड़की की हत्या का फैसला करता है , उसी तत्परता से ससुराल द्वारा सताई गई बेटी (केका) की दुर्दशा को छुपाने के सैंकड़ों उपक्रम करता है। (चाक, पृ0 262) सवाल उठता है कि लड़की को गांव की इज्ज़त मानने वाला समाज उसकी रक्षा के लिए क्या इसलिए एकजुट नहीं होता कि हमाम में सब नंगे हैं?

भारतीय स्त्री लेखन कानून व्यवस्था में अंतर्निहित दुर्बलताओं (लूपहोल्स) को ही नहीं देखता, वरन् उन स्थितियों से दो-चार होने की कोशिश भी करता है जो वर्तमान कानूनों के प्रभाव को निष्प्रभ बना देती हैं। मसलन, तलाक के अधिकार से सम्पन्न स्त्री द्वारा सिर्फ इसलिए विवाह सम्बंध बनाए रखना कि तलाक के बाद पिता को बेटे का स्वाभाविक संरक्षणत्व मिलने के प्रावधान के कारण वह संतान से हाथ धो बैठेगी (छिन्नमस्ता, पृ0 13) तथा बलात्कार के मामलों को न्यायालय तक न जाने देना क्योंकि सुनवाई के दौरान अश्लील भाव-भंगिमाओं के कारण फरियादी को बार-बार सामूहिक तौर पर बलात्कृत होने की कटु अनुभूति होती है। (यहाँ भंवरीबाई प्रकरण में सवर्ण एवं अभिजात अदालत के पुरुषवादी अहं से छलकते निर्णय को नहीं भूलना चाहिए कि सवर्ण युवक ऐसा घृणित कार्य कर ही नहीं सकते) हालांकि बलात्कार कानूनन जुर्म है और अपराधी को कड़ा दंड दिए जाने का कानूनी प्रावधान भी है, किंतु समाज तक आते-आते हर कानून के 'डाइल्यूट'होते चलने की अनिवार्य प्रक्रिया को देखते हुए ज़रूरी है एक ऐसी जनचेतना विकसित करना जहाँ नैतिकता के दोहरे मानदंडों को नकारते हुए स्त्री की यौन शुचिता को उसके जीवन का पर्याय न माना जाए। सामाजिक कार्यकर्त्री की हैसियत से कुंदनिका कापड़ीआ 'दीवारों से पार आकाश'में कानून की नपुंसकता को जन चेतना द्वारा प्रतिस्थापित करने का आह्नान करती हैं -''स्वयं स्त्री को हमें समझाना होगा कि वह मात्र शरीर नहीं है। उसकी सारी मान-प्रतिष्ठा मात्र शरी पर ही आधारित नहीं है।  . . .बलात्कार की घटना की तरफ देखने की समाज की जो दृष्टि है, उसे (भी) बदलना होगा। . . . गुनाह करने वाले को कोई कुछ नहीं कहता, किंतु गुनाह का शिकार हुई महिला के माथे पर ज़िंदगी भर का कलंक लग जाता है।'' (पृ0 252) ठीक इसी प्रकार न्यायिक अधिकारों की अनुपस्थिति में घृणित एवं तिरस्कृत समझी जाने वाली रखैल की स्थिति पर सहानुभूतिपूर्वक विचार करने की व्याकुलता भी भारतीय स्त्री के लेखन में दिखाई देती है। मराठी लेखिका उर्मिला पवार की कहानी 'औरतजात'  तथा हिंदी लेखिका प्रभा खेतान का उपन्यास 'छिन्नमस्ता'  इसका उदाहरण हैं। यहाँ रखैल को स्त्री (पत्नी) की शत्रु तथा घर उजाड़ू रूप में न देख कर पुरुष के शारीरिक-भावनात्मक शोषण की शिकार के रूप में देखा गया है जिसके अपने स्टेटस और संतान के भविष्य के प्रति समाज की हृदयहीनता पुरुष की भोगपरक मानसिकता को कभी प्रश्नचिन्हित नहीं करती।


जा तन की झांई परत

अजीब विडम्बना है कि 1942 में महादेवी वर्माने स्त्री की नियति को जिन शब्दों - जन्म से अभिशप्त और जीवन से संत्रस्त - में दर्ज किया था, उतनी ही सघन और मर्मांतक वेदना से पूरित वे शब्द आज भी स्त्री जीवन का सच बने हुए हैं। कन्या जन्म के समय परिवार का शोक संतप्त हो उठना, नई वैज्ञानिक तकनीक के साथ कन्या भू्रण के बढ़ते आंकड़े, घृणित इन्सेस्ट सम्बंध और घरेलू हिंसा  - परिवार संस्था के स्वस्थ स्वरूप को विकृत कर देने वाली कुछ ऐसी सच्चाइयां हैं जिनका भारतीय उपमहाद्वीप के तीनों देशों के स्त्री लेखन में समान रूप से अंकन हुआ है। हालांकि वैज्ञानिे शोधें सिद्ध कर चुकी हैं कि कन्या जन्म के लिए न स्त्री उत्तरदायी है और न ही कन्या जन्म का अर्थ पुरुष की मर्दानगी का स्खलन है, किंतु सांस्कृतिक परंपराओं में जकड़े तीनों देशों के अनुदार समाज में कन्या जन्म को अभिशाप रूप में स्वीकारने का संस्कार आज भी शेष है। ''बेटा पैदा करने के कारण मां मुँह दिखाने लायक रह गई थी अन्यथा खानदान का चिराग कौन जलाता? लड़कियों से तो वंश नहीं चलता। वे सिर्फ घर की शोभा बढ़ाती हैं . . .घर-बार साफ रखके पुरुषों को खुश रखती हैं।'' (मेरे बचपन के दिन, पृ028) तसलीमा नसरीन ने सीधे-सधे शब्दों में जिन सच्चाइयों का बयान किया है, उन्हीं सचाइयों से खौफ खाकर 'कुफ्र'की हीर को जहाँ पहली बेटी के जन्म पर पीर साईं की नाराज़गी न भड़काने के हरचंद प्रयास में अपनी चीखों को दबाने के लिए ''मुँह में कपड़ा ठूंस लेना'' (70) पड़ा, वहीं बेटे को जन्म देने के बाद सार्वजनिक तौर पर बधाई देते हुए नाते-रिश्तेदारों द्वारा व्यावहारिक सलाह भी सुनने को मिली कि ''इस कामयाबी''पर अब उसे ''ज्यादा ताकतवर हो जाना चाहिए।'' (83) ''हमारी सास तो पहले जता देती थीं कि देखो दुलहिन, मुझे पोता चाहिए। अगर छोकरी हुई तो मायके में फिंकवा दूँगी। मैं सास की नसीहत सुनती और उस पर अमल करती।'' (ऐवाने-ग़ज़ल, पृ0 44) बतूल की जचगी के दौरान बतूल को ऐसा ही आदेश सुनाने वाली बतूल की सास की इस गर्वोक्ति में जहाँ पुरुषवादी व्यवस्था के संवाहक होने का दर्प है, वहीं कन्या शिशुओं की अकाल मृत्यु के लिए उत्तरदायी कारकों-व्यक्तियों को लेकर एक प्रच्छन्न स्वीकारोक्ति भी जिसे आंकड़ों में अनूदित करें तो भारतीय संदर्भ में प्रति हज़ार 932 के असंतुलित लिंगानुपात को नज़रअंदाज करना संभव नहीं।

उल्लेखनीय है कि जब जीलानी बानो 'ऐवानेग़ज़ल'में यह कहती हैं कि ''कोई औरत यह नहीं चाहती कि उसके बतन (गर्भ) से उसकी की तरह मजबूर और बेबस हस्ती जन्म ले'' (पृ0 45) तब स्त्री की परवशता का मार्मिक आख्यान करने की अपेक्षा वे वस्तुपकर ढंग से उन मनोवैज्ञानिे और सामाजिक संरचनात्कमक कारणों को विश्लेषित करने का आग्रह करती हैं जो बेटी के रूप में 'स्व'का विस्तार कर एक ओर मां को आह्लादित करते हैं तो दूसरी ओर अपनी नियति की वारिस जान कर अवसाद की गहराइयों में डुबो देते हैं। इस दृष्टि से मां द्वारा अपने 'स्व'के प्रति घृणा और आसक्ति की परस्पर विरोधी मनोवृत्तियों का बेटी में प्रत्यारोपण जितना स्वाभाविक है, उतना ही जरूरी लगता है निजी जीवन की असुरक्षा और असंतोष से सबक लेते हुए बेटी को वे सब 'कौशल'सिखा देना जिन्हें हस्तगत कर पुरुषों को 'नचाने'की कुट्टनी कला में वह प्रवीण हो सके। जाहिर है इस प्रक्रिया में जहाँ एक स्तर पर वह उसके अक्षत कौमार्य की चौकसी में उसकी स्वतंत्रता, स्वाभाविकता और निजता को निरे शैशव से ही बाधित करती है, वहीं दूसरे स्तर पर उसकी कुल सोच को पुरुषकेन्द्रित कर सदा हाशिए पर रहने का संस्कार भी देती है। ढेर से मनोरम झूठों, आवरणों और वर्जनाओं को गढ़ कर वह स्वयं प्रवंचनाओं और आत्मछलनाओं के जिस इंद्रजाल में जीती आई है, उससे उत्कट घृणा के बावजूद बेटी को उसमें रमा देना उसके मातृत्व का अहम दायित्व बन जाता है। इसका मुख्य कारण है उसकी दृष्टि एवं संवेदना मेंउन विकल्पों और संभावनाओं का अभाव जो उस इंद्रजाल के अस्तित्व और सम्मोहन को काट कर उसके समक्ष एक नई और विराट दुनिया के द्वार खोल सकते हैं। दरअसल परिवार में बेटी के अभिशप्त अस्तित्व के मूल में पुरुषवादी व्यवस्था का आभ्यंतरीकरण करने वाली मां है जो अपनी निष्क्रियता से त्रस्त भी है और उसका विस्तार भी करना चाहती है। हर ज्यादती पर बेटी को दुत्कारने और बेटे को दुलारने वाली मां बेशक खान-पान की ज़रूरतों से बंधे अपने भौतिक अस्तित्व को बचाए रख पाने में सफल होती है, लेकिन इस प्रक्रिया में बेटे को 'मर्द'और बेटी को 'देह'बनने की दीक्षा देकर भविष्य को बेहद बीहड़ और संकटापन्न बना डालती है। स्त्री की मानसिक निष्क्रियता, मनोविज्ञान और सामाजिक जकड़बंदी से वाकिफ पुरुष हर वार से उसे चित्त कर देने की कला जान जाता है। वरना प्रतिकार की ज़रा भी गुंजाइश होने पर क्या घर-परिवार की अंदरूनी परतों में इन्सेस्ट अतिचार का जारी रह पाना संभव हो पाता? 'छिन्नमस्ता'की प्रिया का अपने ही बड़े भाई द्वारा, 'मेरे बचपन के दिन'की तसलीमा का मामा और  चाचा द्वारा  तथा 'फेरा'की कल्याणी का ममेरे भाई द्वारा यौन शोषण क्या इसलिए संभव नहीं हो पाया कि स्त्री समाज द्वारा इसे कलंक कह कर छुपाने की भयजनित बाध्यता पुरुष को निरंतर कामोन्मादी भूखे भेड़िए में तब्दील करती रहती है? बेशक एक सुरक्षात्मक फासले पर खड़े होकर ऐसी टिप्पणियों को क्रूर सच्चाइयों से मुँह मोड़ने की सुविधाजनक कोशिश कह कर खारिज भी किया जा सकता है, लेकिन प्रिया द्वारा आत्महत्या की धमकी देकर भाई साहब को सदा के लिए चुप करा देना (छिन्न्मस्ता, पृ0 55) और पीर साईं की कामलोलुप दृष्टि से गुप्पी को बचाने के लिए हीर का किन्हीं 'संभव विकल्पों'पर विचार करना क्या इस बात का प्रमाण नहीं कि विरोध और विद्रोह के जरिए ही यथास्थितिवाद के खिलाफ जंग छेड़ी जा सकती है? बेशक गुप्पी की जगह उसकी हमउम्र यतीमड़ी को पीर साईं की सेवा में प्रस्तुत करके हीर चकलेदारिन से वेश्या तक की रपटीली ढलानों का सफर करती है, किंतु यह भी तय है कि शोषण की इन्हीं अतल गहराइयों के बीच उसे पीर साईं के वर्चस्व को तोड़ने की प्रेरणा और शक्ति मिलती है।


मुक्त करती हूँ तुम्हें मेरे सुन्दर भीषण भय 

मृदुला गर्ग की विशेषता है कि 'कठगुलाब'में शुरुआती तौर पर इन्सेस्ट को सामाजिक कलंक और सांघातिक हादसे के रूप में देखने के बाद वे इसे टर्निंग प्वाइंट के रूप में चित्रित करती हैं जहाँ आईनों और तेज़ रोशनियों से घबरा कर पलायन कर जाने वाली स्मिता अपने को चीन्हने के प्रयास में भीतरी कमज़ोरियों और वर्जनाओं से जूझती हुई एक ऐसी स्त्री के रूप में निखर कर सामने आती है जो आत्ममुग्धता और अपराधबोध से अछूती एक स्वस्थ स्त्री है; जिम जारविस की नज़र में ''किसी भी मनोविश्लेषज्ञ के लिए चुनौती।'' (पृ0 32) स्मिता के कायांतरण में मृदुला गर्ग की व्यग्रता को ढूँढना कठिन नहीं जो उन्हें स्त्री के पारम्परिक मिथ  को तोड़ कर एक नया रचनात्मक विन्यास देने को विवश करती है।

पितृसत्तात्मक व्यवस्था की आधारभूत संस्थाओं के तटस्थ विश्लेषण के बाद स्त्री सशक्तीकरण, दूसरे चरण में, स्त्री द्वारा मनुष्य के रूप में अपने अस्तित्व और व्यक्तित्व का ईमानदार आत्मसाक्षात्कार है। आत्मसाक्षात्कार चूंकि दूसरों के संदर्भ में अपनी स्थिति/नियति का विश्लेषण न होकर स्व, समाज और समय को संवारने के लिए अंतर्निहित कमज़ोरियों और शक्तियों की पहचान और संचयन की दुष्कर साधना है, अतः यहाँ भारतीय उपमहाद्वीप के तीनों देशों के स्त्री लेखन में पाई जाने वाली दो समानताओं की ओर ध्यान खींचना खासतौर से जरूरी हो जाता है। एक, लगभग सभी उपन्यासों में पुरुष को स्त्री की दुर्दशा के लिए जिम्मेदार मान कर उसे नर-सूअर, हरामी (कठगुलाब), मि0 कोबरा (छिन्नमस्ता), शैतान (कुफ्र) जैसी उपाधियों से नवाजा गया है और इस प्रकार प्रथम दृष्ट्या इसे आत्मसाक्षात्कार से बचने की सतही कोशिश का नाम भी दिया जा सकता है। दूसरे, लेखिकाओं ने स्वयं स्वीकार किया है कि गाली-गलौज अपनी हीनता और बेचारगी की मुखर स्वीकृति है। अतः आवेश का उफान थमते ही बहिर्जगत की कड़वाहटों के बीच वे अपने-अपने स्त्री पात्रों की भीतरी दुनिया में उतरने लगती हैं क्योंकि जानती हैं कि कुछ पाने से पूर्व अपने को थहा कर पुनर्संयोजित करना आत्मोपलब्धि का अहम बिंदु है। इस प्रक्रिया में उच्च शिक्षिता, अभिजात उदार पृष्ठभूमि और खुले विदेशी माहौल में पली नीरजा, स्मिता, असीमा, मारियान जैसी आधुनिकाओं को दरकिनार कर जब मृदुला गर्ग 'कठगुलाब'में दर्जिन बीबी को आत्मसाक्षात्कार की अग्नि परीक्षा से गुजरते हुए अस्तित्व से अस्मिता तक की भास्वर ऊँचाइयों का संस्पर्श करते देखती हैं तो वस्तुतः वे आत्मसाक्षात्कार से आत्मविस्तार की छोटी सी इच्छा के व्यापक स्तर पर फलीभूत होने का रचनात्मक वितान बुनती हैं। दर्जिन बीबी यानी ''सतयुगी काल से चली आ रही संतोषी भारतीय नारी''जिसेे ''आधुनिक तो किसी हिसाब से नहीं कहा जा सकता था। न पहरावे से, न खानपान, रहन-सहन और न विचार-भावना से। वही पोंगापंथी धुतल्ली का पहरावा। सिर पर पल्लू मेकअपविहीन चेहरा, त्योहारों में आस्था, मां-बाप की आज्ञाकारिणी पुत्री, तयशुदा विवाह की पात्रा, खाना बना-खिला कर तृप्त, बच्चे पैदा करके खुश। . . .(पृ0 155) ''ठीक-ठाक संतुलित दरम्याने किस्म की औरत''लेकिन ''स्वाभिमान का शीरा कुछ ज्यादा मिकदार में''। ठीक 'ऐवाने-ग़ज़ल'की बीबी की तरह जो जबरदस्ती हवेली में ब्याह दिए जाने के प्रतिशोध में पुत्र-पौत्रवती होकर भी मृत्युपर्यन्त पति-परिवार को अपने वजूद का अंतरंग हिस्सा न बना सकी। लेकिन जहाँ परस्त्रीगामी ऐय्याश पति का भीगी बिल्ली की तरह पहलू में आ सिमटना उसके अहं को सहला जाता है, वहीं दर्जिन बीबी औसत भारतीय स्त्री के लिए निर्धारित आचार-संहिता की धज्जियां उड़ाते हुए पति के स्वेच्छाचार को अपनी नियति नहीं बना सकती -''मेरे सिद्धांत मुझे ऐसे पति से एक पैसा लेने की इजाजत नहीं देते जो किसी और का पति बन चुका हो।'' (पृ0 157) एक अदद फैशन डिजाइनर मशीन के साथ दो छोटे बच्चों को पालने का संकल्प लेकर अलग हो जाने वाली दर्जिन बीबी का स्वाभिमान की आधारभूमि पर पैर टिकाते ही सामान्य से विशिष्ट स्त्री बन जाना संयोग या साभिप्राय लेखन का नमूना नहीं, वरन् 'मनुष्य'के रूप में अपनी जीवन शर्तों और फैसलों का स्पष्ट स्वीकार है -'मुझे मात्र शरीर बन कर जीना पसंद नहीं था और मैं दया का पात्र भी नहीं बनना चाहती थी।'' (पृ0 160)

स्वाभिमान की विशेषता है कि तानों-उलाहनोंकी विद्वेषपूर्ण संकीर्णताओं में गर्क होने की बजाय वह चुनौतियों से जूझते हुए सतत उन्न्यन का कठिन लक्ष्य चुनता है। इसलिए पूरे उपन्यास में एकमात्र दर्जिन बीबी ही पति प्रवंचिता ऐसी स्त्री हैं जो पति की गरिमा के खिलाफ एक शब्द भी मुँह से नहीं निकालतीं। ठीक यही बात 'ठीकरे की मंगनी'की महरूख के लिए भी कही जा सकी है जो परनिर्भर अवस्था में दूसरों को कोसने की बजाय स्वयं अपने जीवन की नियंता बन गई है -''एक घर औरत का अपना भी हो सकता है जो उसके बाप और शौहर के घर से अलग उसकी मेहनत और पहचान का हो।'' (पृ0 197) गौरतलब है कि आत्मसम्मान और आत्मनिर्भरता से दिपदिपाता यह मानवीय बोध न जीवनभर यातनाओं की अटूट शृंखला झेलने के बाद 'कुफ्र'की हीर अर्जित कर पाई है, न 'मेरे बचपन के दिन'की ईदुल। अलबत्ता पति पर आश्रित रहने की सामाजिक-सांस्कृतिक-आर्थिक मजबूरियों ने दोनों के असंतोष को प्रतिशोध में जरूर तब्दील कर दिया है। ईदुल कुटने-पिटने के बावजूद पति की रसिकता और नास्तिकता को कोस कर और हीर चील के साथ पीर साईं की हत्या के षड्यंत्र में शामिल होकर अपनी-अपनी मुक्ति के रास्ते तलाशती हैं। भारतीय स्त्री के मुकाबले वे पाती हैं कि मुक्ति के द्वार उनके लिए हैं ही नहीं, न उड़ान भरने के लिए आंगन जितना छोटा आकाश, बल्ेिक मृत पति के आतंक में सेंध लगाते हुए हीर ने तारा के साथ मिल कर जो छोटा सा रोशदान खोला है, उसे भी पुत्र के अंकुश ने ईंटों से चिनवा दिया है। अपने ही खून-दूध से लड़ाई लड़ने के औजार और तकनीक किसी भी स्त्री के पास पहीं।


फिर स्त्री (मातृत्व) की नियति और रुदन का महिमामंडित बखान! आत्मपड़ताल की घाव-कुरेद निर्मम प्रक्रिया में मृदुला गर्ग स्त्री को छल कर पछाड़ने वाले इस संस्कार से मुक्ति दिलाना बेहद जरूरी समझती हैं। एक बार फिर उनकी प्रवक्ता और प्रतिनिधि दर्जिन बीबी जो अहसानफरामोश स्वार्थी बेटे असीम की अपने तईं की गई ज्यादतियों को तब तक बर्दाश्त करती हैं जब तक सामाजिक मर्यादा और सौमनस्य को भंग करने वाले संस्कारहीन नर-पशु के रूप में उभर कर सामने नहीं आता। जीवनभर मालदार पिता की दौलत पर गुलछर्रे उडा.ने के लिए छोटी मां (पिता की दूसरी पत्नी) को मस्का मारने वाले असीम का पिता की मृत्यु के बाद उस 'रखैल'को घर से निकाल देने का दंभ भरा ऐलान और नर्मदा के प्रेमी को डरा-धमका कर भगा दिए जाने का दर्प दर्जिन बीबी को गहरी हताशा के साथ अपने भीतर झांकने को विवश करता है। इतनी संस्कारहीन औलाद! परवरिश में कहाँ चूक हुई? ऐसी औलाद को गले लगाने का अर्थ क्या उसकी ज्यादतियों में बराबर की शिरकत नहीं? ''उसे (पति की दूसरी पत्नी) लेकर आ सके तो आ, वरना फिर कभी मत आना यहाँ'' (पृ0 186) - दर्जिन बीबी का आदेश जिसके एक छोर पर मां के रूप में अपनी असफल भूमिका पर गहरा अवसाद है तो दूसरे छोर पर ममता की मोहक कंटीली तारों के सम्मोहन को तोड़ डालने का निर्णय भी। अनिवार्य परिणति के रूप में स्त्री जीवन को आच्छादित कर लेने वाली मातृत्व महज एक निष्क्रिय स्थिति या अल्पकालिक स्टेज नहीं, बल्कि एक पूरी पीढ़ी के साथ-साथ पूरे समाज एवं काल को गढ़ने की महती जिम्मेदारी है। इसलिए मृदुला स्त्री से वानरी मोह त्याग कर एक बुनियादी ज़रूरत के तौर पर मानवीय मूल्यों एवं दायित्व को पहचानने का आग्रह करती हैं। क्षिप्र गति से घूमते चाक पर कुम्हार की उंगलियों के कोमल स्पर्श की ही तरह बेहद नामालूम लेकिन सतर्क भूमिका है मां की। असीमा के साथ दर्जिन बीबी के सतत संवाद और साहचर्य के जरिए मातृत्व की सैद्धांतिकी की पुनर्रचना करते हुए मृदुला ने इक्कीसवीं सदी की जागरूक और व्यक्तित्वसम्पन्न मां की कुछ अर्हताओं को इस प्रकार रेखांकित किया है। एक, ''तुम्हें आज़ाद ख्याल होना चाहिए। पहले से खुद को सीमाओं में बाँध कर नहीं रखना चाहिए'' (पृ0 160) क्योंकि बंद अनुदार दृष्टि हमेशा मानसिक-वैचारिक रुग्णताओं को संक्रामक रोग की तरह फैलाती है। दूसरे, ''धीरज रखे बगैर कोई काम नहीं हो सकता'' (पृ0 176) अर्थात् स्थिति पर आवेगपूर्ण प्रतिक्रिया करने से पहल जरूरी है ठंडे दिमाग से गहन और पूर्ण छानबीन क्योंकि अधीरता मनुष्य जीवन को कठिनतर बना देने वाली असहिष्णुता और विवेकहीनता की अग्रजा है। तीसरे, ''दुश्मन को दुख पहुँचा कर खुश होना गलत है, खुद हमारी आत्मा के लिए नुक्सानदेह'' (पृ0 168) अर्थात् क्षमा एवं उदारता की पक्षधरता जिसके मूल में सदैव सक्रिय रहती है संवेदनशीलता और विवेकशीलता जैसी सकारात्मक अभिवृत्तियां। चौथे, ''उस (नर्मदा) का हौसला बढ़ाने की बजाय यह क्या खटराग ले बैठी'' (पृ0 176) अर्थात् राग-द्वेष से मुक्त सहयोग, सहानुभूति और बंधुत्व के प्रसार की तत्परता जहाँ घटनाओं में बंधा अतीत, मृत सम्बन्ध या स्मृतियांे में अटके दुखद प्रकरण महत्वपूर्ण नहीं। महत्वपूर्ण है नई परिस्थितियों के विश्लेषण के बाद नई रणनीति तैयार कर प्रतिकूलताओं से जूझने की निर्भीकता। प्रभा खेतान जहाँ स्त्री मुक्ति का सिरा ''अपने कहे जाने वाले रिश्तों के घेरे के सम्मोहन से मुक्त'' (छिन्नमस्ता, पृ0 209) होने में मानती हैं, वहीं निरपेक्ष संलग्नता (कमजंबीमक ंजजंबीउमदज) के साथ मृदुला इस घेरे का इतना प्रसार कर लेना चाहती हैं कि 'स्व'और 'पर'सारी विभाजक रेखाओं का अतिक्रमण कर एक-दूसरे में लय हो जाएं।

गौरतलब है कि मृदुला गर्ग गहरी सूझबूझके साथ मातृत्व की जो सैद्धांतिकी गढ़ती हैं, उससे वाकिफ न होने के कारण अधिकांश लेखिकाएं या तो स्त्री के मातृत्व का सूर की हुलसाती-दुलराती जसोदा की तरह महिमामंडन करती हैं या कुंदनिका कापड़ीआ की तरह मोहभंग से उत्पन्न हताशा को व्यक्त करती हैं -''पूरा शरीर, पूरा मन, पूरा समय और निजी जरूरतों व व्यक्तिगत इच्छाओं का पूर्ण समापन चाहने वाली इस स्थिति (मातृत्व) का यह आनंद किस बात का आनंद है? किसी जीवन के सृजन का? यदि वह सृजन का ही शुद्ध आनंद है तो एक के बाद दूसरी लड़की होने पर दूसरों के साथ-साथ मां का चेहरा भी क्यों मुरझा जाता है?'' (दीवारों से पार आकाश, पृ0 37)

कुंदनिका कापड़ीआ की विशेषता है किसंतान के लिंग को मातृत्व की सार्थकता के साथ जोड़ देने वाली रुग्ण सामाजिक-सांस्कृतिक मान्यताओं को रेखांकित करते-करते वे अनायास बहुत गहरे सवाल की ओर इशारा करती हैं कि क्यों हर बार स्त्री 'बेटा'नहीं जनती, 'मर्द'पैदा करती है? इस प्रश्न के नुकीलेपन से तीनों देशों का स्त्री लेखन हैरान-परेशान है। ''मेरे बचपन के दिन'की ईदुल समझ नहीं पाती कि उसकी जो सख्ती तसलीमा को पांचों वक्त की नमाज पढ़ने के लिए मजबूर कर देती है, वही बेटों तक पहुँचते-पहुँचते बेअसर क्यों हो जाती है? (पृ0 125) 'कुफ्र'की हीर तहेदिल से बेटा-बेटी में फर्क न करने की इच्छा के बावजूद पाती है कि बाप का वरदहस्त और परिवार का माहौल गुप्पी और राजाजी को किस तेजी से दो अलग शख्सियतों में गढ़ता जा रहा है। बकौल तसलीमा यह वही फर्क है जो बचपन में लड़कों को तेज़ गति से दौड़ते अत्याधुनिक खिलौने और बड़ा मैदान देने तथा लड़कियों को एक टुकड़ा आंगन आकाश देने की रीति की अनुपालना में बाद में चाह कर भी उनकी गति और दिशा नहीं बदल पाता। 'छिन्नमस्ता'में बड़े भाई साहब और 'ऐवाने-ग़ज़ल'में नसीर के अधिकारों और मनमर्जियों के विस्तार में ठीक यही संस्कार निहित है। 'ऐवाने-ग़ज़ल'में बेटे को मर्द बनाने की प्रक्रिया का विस्तृत ब्यौरा देते हुए जीलानी बानो निस्संतान उजाला बेगम की उन कारगुजारियों को निर्ममतापूर्वक उघाड़ती चलती हैं जहाँ अपनी जायदाद का वारिस पाने के लिए वे गर्भवती कुंवारी नौकरानी बी जानी का अपने शौहर अहमद हुसैन से निकाह पढ़वाती हैं और फिर उस अवैध संतान नसीर को हुसैन खानदान का सच्चा वारिस बनाने और मनवाने की कूटनीति में ऐय्याशी, फिजूलखर्ची और उद्दंडता से लेकर शायरी का शौक भी सिखाती हैं। बेशक इस प्रक्रिया में हवेलियों के भीतर पेचीदगियों को बुनतीं जालसाजियों को अनदेखा नहीं किया जा सकता जो सबसे पहले स्त्रियों को मुहरा बना कर अस्तित्वहीन करती हैं, फिर सत्ता हस्तांतरण की अनिवार्य परंपरा के नाम पर पुश्त दर पुश्त पुत्र बनने का आदिम संस्कार देती हैं। अतः जरूरी हो जाता है आत्मसाक्षात्कार के निर्भीक क्षणों में स्त्री अपनी भूमिका और पारिवारिक-सामाजिक दबावों पर नज़र रखते हुए संस्कार और परम्परा के क्षेत्र में सार्थक एवं सशक्त हस्तक्षेप करे।


आश्चर्य है कि 'कुफ्र'और 'मेरे बचपन के दिन'में ऐसा कोई सार्थक हस्तक्षेप न कर पाने वाली तहमीना दुर्रानी और तसलीमा नसरीन क्रमशः 'माई फ्यूडल लार्ड'और कविताओं में पहले ही अपने भीतर की स्त्री का खुर्दबीनी विश्लेषण कर चुकी हैं। अपने को सान पर चढ़ा कर निरंतर परखते रहने की प्रक्रिया बेहद कष्टकर और जोखिमपूर्ण होती है, लेकिन तसलीमा की दृष्टि में इसके बिना मुक्ति द्वारों का निर्माण संभव नहीं। तसलीमा मृदुला गर्ग की तरह अपने झोले से रेडीमेड सैद्धांतिकी नहीं निकालतीं, स्त्री की दुविधा-द्वंद्व-दुर्बलताओं के साथ कदम-दर-कदम चलते हुए उसे अपनी कमज़ोरियों को पहचानना और पछाड़ना सिखाती हैं। ''इतनी दूर तक जाती हूँ/फिर भी नहीं टूटता घेरा'' (तसलीमा नसरीन की प्रतिनिधि कविताएं, पृ0 35) - हर स्त्री की चिरंतन दुख कथा! कामना और उपलब्धि के बीच नाकामयाबी बुनने वाले तत्व हमेशा समाज/पुरुष सापेक्ष नहीं होते, अपनी अंतर्भूत कायरताओं का परिणाम भी होते हैं जिन्हें कुंदनिका कापड़ीआ सुरक्षा की खातिर पहने सैंकड़ों मुखौटों और हज़ारों बख्तर (दीवारों से पार आकाश, पृ0 206) का नाम देती हैं तो तसलीमा मुक्ति की आकांक्षिणी स्त्री के मन की भीतरी परतों का भेदन कर इस कटु सत्य से परिचय करा देना चाहती हैं कि ''खुले मैदान में खूबसूरत लड़कियां आंखमिचौली खेलती हैं/जाना चाहती हूँ, पर न जाने कौन पीछे से पुकारता है/क्या कोई सचमुच पुकारता है?/या फिर मैं खुद ही पुकारती हूँ।'' (तसलीमा नसरीन की प्रतिनिधि कविताएं, पृ0 35) तसलीमा सुविधा-संस्कार तथा स्वतंत्रता-अधिकार के बीच द्वंद्वग्रस्त स्त्री   को अंतर्विरोधी स्थितियों और प्राथमिकताओं के चयन का पाठ पढ़ाती हैं तो प्रभा खेतान 'छिन्नमस्ता'में उन्हें रचनात्मक परिप्रेक्ष्य देकर प्रिया के ईमानदार ऊहापोह में व्यक्त करती हैं -''विद्रोह में कपूर की तरह भभक उठना और तुरंत आंसुओं में उमड़ कर शांत हो जाना . . . अपनी इस प्रवृत्ति को मैं कभी दया, कभी उपेक्षा, कभी अन्य कोई विशेषण देती, पर अपने इस खंडित व्यक्तित्व की परिसीमा से क्या मैं परिचित नहीं थी? नरंेद्र को मैं छोड़ नहीं सकती थी। क्यों? क्या इसका कारण है -सुरक्षा का मोह? व्यवस्था की स्वीकृति?'' (पृ0 147) यकीनन यह स्त्री जानती है कि वह निरी देह नहीं; कि देह से परे दिल और दिमाग में ही उसका अस्तित्वमूलक वजूद धड़क रहा है -''स्त्री को कोई छुएगा तो जानती हूँ शरीर ही छुएगा, हृदय नहीं'' , लेकिन फिर भी ''एक छुईमुई खामखा चुराती है अपना चेहरा और आँखें''।

सवाल उठता है कि यह स्त्री यौन शुचिता केशुद्धतावादी नैतिक आग्रहों को नकारने के बावजूद क्या सबसे पहले स्वयं को पातिव्रत्य की लौह शृंखलाओं में नहीं जकड़ लेगी? स्थिति के विपर्यय को गहराई से समझते हुए मृदुला गर्ग आत्मोपलब्धि हेतु अपराध बोध से मुक्ति पाकर आत्मबल संचित करने तक की जटिल मानसिक प्रक्रिया को कोढग्रस्त रतनू माली के बिंब के जरिए साक्षात् करती हैं। ''मैं पापी हूँ। पिछले जन्म के करमों का फल भुगत रहा हूँ।'' (पृ0 32) कोढ़ी होने के पाप मात्र से जीवन क्षेत्र में उतरने के लिए सक्रिय सकारात्मक दृष्टि की अपेक्षा बिल्कुल स्त्रियों सी आत्मदया एवं आत्मपीड़ा का वितान। अपने 'स्वस्थ'साथी मालियों की उपेक्षा और कोप से बचने के लिए अनुर्वरता के बंद संसार में जीता रतनू माली! लेकिन बाध्य कर दिए जाने पर 'बीमारी'के बावजूद जब सर्जक के रूप में अपनी अंतर्निहित क्षमताओं से परिचित होता है तो सामान्य नहीं रह पाता -''मैं पापी नहीं हूँ। पापी नहीं हूँ। मेरे लगाए पौधों पर तरकारी फल गई। . . . मैं पापी नहीं।'' (पृ0 33) आत्मविश्वास का निखरता-पसरता आलोक पुंज! ज़रूरत सिर्फ 'स्वस्थ'साथियों द्वारा प्रत्यारोपित कर दिए गए पूर्वग्रहों से मुक्ति पाने की है। नियति के स्वीकार और स्थिति के अस्वीकार के बीच गंुझलक मार कर बैठी शंकाएं, संदेह, भय और विवशताएं असल में अपने आत्मबल को परखने की कसौटियां मात्र हैं। प्रश्न-प्रतिप्रश्न और स्पष्टीकरण की उलझी-कंटीली डगर पर कदम बढ़ाए बिना कुछ पाना संभव नहीं। यहाँ 'चाक'की सारंग की मानसिक संरचना और व्यक्तित्व के लौहमर्षक रूपांतरण का आख्यान एकाएक अनिवार्य हो जाता है। दो स्थूल सच्चाइयों का गहरा बोध है सारंग को कि ''जानवरों के बाद अगर किसी को खूंटे से बांधा जाता है तो वे है घर-गृहस्थी में उलझी-रमी स्त्रियां (पृ0 345); और कि हर पति के भीतर जीती निरंकुश सत्ता शून्य में तब्दील पत्नी की पूजा-अर्चना में अपने हीनता बोध और अहं दोनो को भुला-सहला लेना चाहती है।  गोबर-चूल्हे और परदे में सिमटी सारंग ग्यारह वर्षों से रंजीत की गृहस्थी चलाते-चलाते-चलाते गुरुकुल की शिक्षा और अपने तेजस्वी स्वभाव को सबकी सुविधा के लिए भूल बैठी है। लेकिन एक के बाद एक द्रुत गति से घटने वाली तीन घटनाओं ने उसे आत्मावलोकन के लिए विवश किया है।

एक, फुफेरी बहन रेशम की दिन-दहाड़े नृशंस हत्या और समूचे गांव की रहस्यमयी चुप्पी जो स्वत्व और स्वाभिमान की लड़ाई लड़ने वाली अकेली स्त्री की खौफनाक परिणति की कथा कह कर आम औरत की बिंधी नियति से उसका साक्षात्कार कराती है। दूसरे, डोरिया जैसे असामाजिक तत्वों की धमकियों से बचने के लिए रंजीत द्वारा चंदन को आगरा भेज दिया जाना जो सारंग को अपने मातृत्व का सीधा अपमान जान पड़ता है। मां का दायित्व क्या बच्चे को जन्म देकर पालने-पोसने की बिंदु भर यात्रा तक ही सिमटा है? उसके भविष्य को लेकर लिए जाने वाले अहम फैसलों में उसकी कोई भूमिका नहीं? जाहिर है दोयम स्थिति का साक्षात्कार उसके भीतर असंतोष और विद्रोह के बीज रोपता है। तीसरे, स्कूल मास्टर श्रीधर से भेंट जो ''चट्टानों से टकरा-टकरा कर पानी की तरह रास्ता बनाने वाली'' (पृ0 404) चेतना और ऊर्जा से सम्पन्न सारंग को बताता है कि भविष्य निर्माता के रूप में प्रत्येक स्त्री का दायित्व है ''मर्दों के कुसंस्कारों और अहं की अशिक्षा को मिटाना और निजी स्वार्थों से मुक्त होना।'' (पृ0 345) असल में सारंग 'कस्तूरी कुडल बसै'की मां कस्तूरी के साहस, हौसले, निर्भीकता और दुर्धर्ष जिजीविषा का जीवंत रूप है जिसमें रंजीत से अलग अपने रास्तों का संधान करने की व्यग्रता है -''तुम्हें बेदाग रहने की लालसा है, मैं दागदार जीवन से डरती नहीं'' (185) तो ''अपना फैसला, जुझारुपन और आज़ादी''बनाए रखने का आत्मविश्वास भी। इस सारंग से बेहद भयभीत हैं रंजीत -''गुस्से से लाल हुई औरत! सचमुच पहली बार देख रहा हूँ। अब तक तो औरतों को रोते-मिनमिनाते ही देखा है।'' (पृ0 184) एक नई स्त्री छवि गढ़ती सारंग!
मैत्रेयी पुष्पा की तरह प्रभा खेतान स्वीकार करती हैं कि आत्मस्थ होकर अपने प्रति आश्वस्त होना ही दरअसल असंतोषजन्य विद्रोह को ऊर्ध्व चेतना में ढाल कर रचनात्मक परिप्रेक्ष्य देना है। यही वह बिंदु है जहाँ तंज और पीड़ा से मुक्त होकर यह मुक्तिकामी स्त्री निर्विकार भाव से अपनी चारित्रिक उदारता और निस्पृहता को 'स्त्रियोचित गुण'कह कर महिमामंडित करने वाली पितृक व्यवस्था के अस्तित्व को नकारती है - ''विनम्र होने का अर्थ यह नहीं कि वर्जनाएं सही जाएं/ताल से लेती हूँ यदि बूंद भर तो इसका यह अर्थ नहीं/कि अधिक के प्रति मेरा आग्रह कुछ कम है/ . . . लोहा पाकर नाचने लगती हूँ तो क्या हीरे को नहीं पहचानती?''' (तसलीमा नसरीन की प्रतिनिधि कविताएं, पृ0 63) तो ''यौनांग को अकाम बनाए रखने के उद्यम में जुटे 'सतीत्व'को चखना-हेरना चाहती है -''सुना है सतीत्व बहुत स्वादिष्ट चीज़ है/कभी पहनावे की लाल साड़ी, चूड़ी-फीता, नाक की नथ/खोल कर नहीं देखा सतीत्व/वह आखिर दिखता कैसा है/अस्पृश्य उंगली से छूना चाहती हूँ सतीत्व का सतलड़ा हार''। (पृ0 40) यही नहीं, आत्मविश्वास से भर कर वह अपनी लड़ाई के स्वरूप और मिशन पर बात करने को भी तैयार है -''हमारी लड़ाई अपनों से संघर्ष की लड़ाई है, यानी भूमिगत, अपने अंदर अपने को समझने और मज़बूत बनाने की -हमें मर्द नहीं बनना है, न ही मर्द को औरत बनाना है -एक दूसरे का लबादा पहनने की यह ललक ही मुसीबत बन रही है। ज़रूरत है अपनी-अपनी जगह खड़े होकर अपने-आप को समझने और दूसरे को समझाने की।'' (ठीकरे की मंगनी, पृ0 181)


जाहिर है नब्बे के दशक का भारतीय उपमहाद्वीप का स्त्री लेखन जिस नई स्त्री छवि को गढ़ता है, वह वस्तुतः ममता कालिया की कामना का प्रत्यक्षीकरण है कि ''अगर वह इन्हें (घुटे शब्दों को ) लिख दे तो एक बहुत तेज एसिड का आविष्कार हो जाए''  जिसे सकारात्मक संदर्भ देकर एक छोर पर स्त्री सशक्तीकरण का नया मुहावरा गढ़ती है अशिक्षित, निम्नवर्गीय, आत्मनिर्भर नर्मदा - ''तब कहाँ जानती थी कि सारा परिवार छोड़ कर भी जी सके है औरत।'' (कठगुलाब, पृ0 139) तो दूसरे छोर पर है उच्चशिक्षिता बिजनेस टाइकून प्रिया - ''लगता है मैंने अभी-अभी जीना सीखा है। धरती पर मेरी जरूरत के मुताबिक धूप है, हवा है, पानी है। मेरी अपनी एक गति है और उस गति से दौड़ रही हूँ।'' (छिन्नमस्ता, पृ0 207) और तीसरे स्तर पर तसलीमा नसरीन की ''बहुत डरते-डरते और चुपके-चुपके ज़िंदा रहने वाली स्त्री'' - ''सामने कुछ भी नहीं, एक नदी है/मैं तैरना जानती हूँ/भला क्यों नहीं जाऊँ/मैं जाऊँगी/जाऊँगी जरूर''। (तसलीमा नसरीन की प्रतिनिधि कविताएं, पृ075) आत्मसाक्षात्कार! आत्मस्वीकार/ आत्मोपलब्धि! किसी भी ऊर्ध्व मानवीय यात्रा के तीन अनिवार्य सोपान!

क्रमशः

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भारतीय उपमहाद्वीप का स्त्री लेखन: स्त्री सशक्तीकरण की अनुगूंजें(अंतिम किस्त)

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रोहिणी अग्रवाल
रोहिणी अग्रवाल स्त्रीवादी आलोचक हैं , महर्षि दयानंद विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर हैं . ई मेल- rohini1959@gmail.com

मैं मर्द नहीं, सर्जक होना चाहती हूँ

गौरतलब है कि आत्मसाक्षात्कार आयुएवं अनुभव के साथ मानव जीवन में स्वाभाविक रूप से आने वाली नैसर्गिक स्थिति नहीं है। यह एक दुर्गम-दुष्कर यात्रा है जिसके लिए पहले पात्रता हासिल करनी पड़ती है। इसके लिए जरूरी है स्व एवं अहं का विसर्जन जो सभी तामसी प्रवृत्ति का उद्गम òोत है। दूसरे, अपने भीतर संवेदन, सकारात्मक दृष्टि एवं सृजन की आकांक्षाओं से अंतर्गुम्फित व्याकुलता पैदा करना जो जड़ता को चेतना, चेतना को प्रेरणा और प्रेरणा को पुनर्निर्माण में बदलने का माद्दा रखती हो। इनके बिना आत्मसाक्षात्कार की कोशिश प्रतिशोध के लिए तैयार की गई सुविचारित रणनीति का पर्याय बन कर रह जाती है। प्रतिशोध चूंकि सृजनात्मक सम्भावनाओं को मार कर खुद को नकारना है, अतः यहाँ टारगेट के रूप में व्यक्ति प्रमुख हो जाता है, समाज, इतिहास और परम्परा में मौजूद वे रूढ़ियां और विसंगतियां नहीं जो रुग्ण व्यक्तित्व का निर्माण करती हैं। जाहिर है आत्मसाक्षात्कार जहाँ अंतिम परिणति में सामाजिक निवेश ;ेवबपंस पदअमेजउमदजद्धका उपक्रम बन जाता है, वहीं प्रतिशोध तात्कालिक बाध्यताओं से उपजा आत्मपरक उपभोग। इसलिए ऊर्जा का क्षय करने के बावजूद अतृप्ति एवं भूख को कायम रखना इसका स्वभाव है। आश्चर्य है कि जहाँ अधिकांश भारतीय स्त्री लेखन अपने नारी पात्रों को प्रतिशोध की व्यूहधर्मी संरचनाओं से बचा कर निर्माण की चिंताओं में संलिप्त करता है, वहीं तसलीमा नसरीन और विशेष रूप से तहमीना दुर्रानी प्रतिशोध में अपनी नायिकाओं की हीरॉइक उपलब्धि दर्ज कराती हैं। पीर साईं की हत्या में शरीक होकर 'कुफ्र'की हीर देर तक इस गफ़लत में रहती है कि उसने शैतान को मार कर 'धर्म'को आज़ाद करा लिया है। लेकिन पीर साईं द्वारा तवायफ के रूप में हीर की अन्य पुरुषों के साथ बनाई गई ब्लू फिल्मों को उन्हीं रसूख वाले पुरुषों को दिखा कर मकबरे के प्रति अनास्था व्यक्त करने का जो मार्ग उसने चुना है, वह अंततः उसे कहीं नहीं ले जाता। सवाल उठता है कि पीर साईं के पाप में भागी व्यक्ति जो स्वयं मकबरे के संरक्षण में अपनी ताकत का दुरुपयोग करते रहे है।, अब हीर का साथ क्यों देंगे? क्यों नहीं राजाजी के रूप में वे नए पीर साईं की बुतपरस्ती का समर्थन करेंगे? दूसरे, शक्ति का केन्द्रीकरण भले ही कुछेक हाथों में हो, आस्था और समर्थन के जरिए उसे अवाम ही ताकतवर बनाता है। इसलिए क्या बेहतर नहीं था कि अम्मा साईं के हजूर में आने वाली स्त्रियों को वह मकबरे के भीतर पलने वाली सच्चाइयों से वाकिफ कराती? तब उसका यह कदम पहला न होकर सखी बीवी के कुचल दिए गए प्रचार की अगली कड़ी बन कर शायद व्यापक जनाधार जुटा पाता। तहमीना मानती हैं कि मकबरे के वर्चस्व में जी रहे बंद कबीलाई समाज में औरत के लिए ''ज़िंदगी या तो ठहरी हुई है, या सब कुछ तबाह करता तूफान।'' (पृ0 133) इसलिए दो अतिरेकों में निरंतर दोलायमान वह किसी दीर्घकालिक विकल्प पर विचार नहीं कर सकती। लेकिन तालिबानी शासन के दौरान अफगानिस्तान में अंडरग्राउंड 'रावा'संस्था के अस्तित्व और योगदान तथा हाल ही में 'ऑनर किलिंग'के विरोध में पाकिस्तानी महिलाओं के आंदोलन  को देखते हुए यह वक्तव्य क्या वैवाहिक अमानुषिकताओं से खौफजदा हीर उर्फ तहमीना दुर्रानी उर्फ बेगम मुस्तफा खार की संकुचित आवेगपूर्ण दृष्टि का स्वीकार नहीं? खास कर तब जब 'कुफ्र'में ही तहमीना जादुई यथार्थवाद का सहारा लेकर तोती के रूप में गढ़ी गई प्रेरणा और फौलादी जीवन की स्वामिनी चील के रूप में मिशन को निरंतर पुष्टतर कर स्त्री सशक्तीकरण का महाख्यान रचने का सर्जनात्मक दायित्व भी बखूबी निभती हैं?

पहली किस्त :- भारतीय उपमहाद्वीप का स्त्री लेखन: स्त्री सशक्तीकरण की अनुगूंजें

प्रतिशोध का स्वर तसलीमा नसरीन के
यहाँ भी है, लेकिन महज इस तथ्य को रेखांकित करने के लिए कि प्रतिशोध के मूल में है अपने को कमतर मानने की गं्रथि जिसे ईदुल (मेरे बचपन के दिन) के असंतोष, द्वंद्व, असुरक्षा और दिशाहीनता में बेहतर समझा जा सकता है। लेकिन प्रतिशोध के साथ सु-प्रयोजन जुड़ जाए तो यह नकारात्मक न रह कर सकारात्मक विकल्पों के संधान का प्रयास बन जाता है। जाहिर है लड़कियों की खरीदफरोख्त के घृणित व्यापार को देखते हुए स्वयं लड़का खरीद कर उसका मनमाना भोग करने  तथा पुरुषों की तरह चार ब्याह रचाने की लालसा में दरअसल नियमों को उलटाने की अपेक्षा उनकी खामियां दिखा कर लोगों में चेतना पैदा करने का जज्बा है - ''नियम को जब बेहतर बातों से नहीं बदला जा सकता तो उसकी खामियां भी विपरीत नियम के सहारे ही समझनी पड़ेंगी।'' (तसलीमा नसरीन, नष्ट लड़की नष्ट गद्य, पृ0 88)
'मता-ए-दर्द'में पाकिस्तानी लेखिका रज़िया फसीह अहमद तथा 'कठगुलाब'में मृदुला गर्ग प्रतिशोध को सशक्तीकरण में ढालने वाली मानसिकताओं का बखान करती हैं। तसलीमा के विश्लेषण को कथा में विन्यस्त कर रज़िया और मृदुला निष्फल प्रतिशोध के भीतर सिमटी सर्जनात्मक संभावनाओं को उघाड़ कर बेचारगी से फूट कर सशक्तीकरण की ओर बढ़ने वाली दिशाओं का संकेत करती हैं। 'मता-ए-दर्द की निम्नवर्गीय बेसहारा अशिक्षित गुल ने संघर्ष (अर्थोपार्जन के लिए छोटी-छोटी नौकरियां करके तालीम के जरिए समाज में अपनी जगह बनाने की लालसा)  और प्रवंचना (प्रेमी द्वारा झूठी शादी का प्रपंच रचा कर गर्भावस्था के दौरान छोड़ कर सूडान चले जाना)    के परस्पर विरोधी अनुभवों को झेलने के बाद डॉ0 शहनाज की मदद से नर्स के रूप में बेशक एक नया नाम और शख्सियत पाई है, लेकिन गरीबी और सतीत्व के अपमान से पीड़ित गुंचा आज भी उसके भीतर जी रही है। फलतः अधेड़ ब्रिगेडियर शम्सी से विवाह करके अभिजात वर्ग में शामिल होना और पति की चाहतजन्य अतिशय निर्भरता का लाभ उठा कर पिकनिक और सैर सपाटे के बहाने होटल के एकांत में पुरुषों की कामवासना को भड़का कर अतृप्त छोड़ देना उसके प्रतिशोधात्मक अस्त्र हैं। यदि कुलीनता, सम्पन्नता और सामाजिक प्रतिष्ठा ही व्यक्ति जीवन की सफलता के मापदंड हैं तो गुल संतुष्ट क्यों नहीं? क्या संतुष्टि तक पहुँचने की दिशाएं और द्वार अलग हैं - लौकिक आकर्षण-विकर्षण से परे नितांत निगूढ़ और निस्सीम? प्रतिशोध की ज्वाला से अपमान के अग्निदाह को बुझाने में तल्लीन बेवकूफी को दृष्टिगत करते ही गुल जिन बुनियादी सवालों से जूझती है, दरअसल वे आत्मसाक्षात्कार के लिए अनिवार्य त्रिक् के तीसरे तत्व - सृजन की आकांक्षा - को रेखांकित करते हैं। तब पति (छद्म आवरण) को छोड़ कर कौमार्यावस्था में जन्म देने के तुरंत बाद विलगे पुत्र को अपना कर अपनी निजता को खूबियों-खामियों सहित सम्पूर्णता में पाना जितना अनिवार्य हो जाता है, उतना ही अपरिहार्य हो जाता है बेसहारा गरीब रोगियों की सहायता के लिए खोले गए अस्पताल से जुड़ना। उल्लेखनीय है कि अपने होने के मर्म को  समझे बिना खुद अपनी ज़िंदगी का नियंता बनना कठिन है। हालांकि ऐसे किसी फलसफे को सिरे से नकारते हुए असीमा हरामी मर्दों की पिटाई में ''नारीसुलभ कोमलता और करुणा''से मोक्ष प्राप्ति का कारगर नुस्खा तलाशती है और स्मिता 'जलील, गलीज, घिनौने'जिम जारविस के चेहरे पर पडे नकाब को तार-तार कर देने में, लेकिन शून्य और हताशा के अतिरिक्त उनकी उपलब्धियां कुछ नहीं। असीमा कराटे किक की तमाम चामत्कारिक शक्तियों के बावजूद महज ''एक जलूस, एक अभियान या विचार'' (कठगुलाब, पृ0 220) बन कर रह गई है, और स्मिता बंजर धरती। मारियान को सम्बोधित स्मिता का सवाल - 'तू मर्द होना चाहती है? -प्रतिशोध की गिरफ्त मे जकड़े विवेक को आज़ाद करने की लेखकीय कोशिश है जहाँ एक तटस्थ दर्शक की तरह अपनी स्थिति और संभावित नियति को आमने-सामने रख कर उलटने-पलटने की युक्तिसंगत तार्किकता है। स्मिता के बहाने मृदुला दो बातों की ओर विशेष ध्यान दिलाना चाहती हैं। एक, प्यार बांटे बिना दर्द नही छंटता और प्यार बांटने की उदारता प्रकृति ने सिर्फ स्त्री को दी है। दूसरे, अमूमन साइकोपैथ की तरह आत्मकेन्द्रित पुरुष ''अपने लिए जितना संवेदनशील होता है, दूसरों के लिए उतना ही संवेदनशून्य।'' (पृ0 31) लेकिन नारी पक्ष प्रधान होने के कारण यदि वह संवेदनशील है तो दर्द को पीते रहने की 'पुरुष छवि'में कैद वह अपनी पीड़ाओं का विस्तार ही कर सकता है - विराट अकेलापन और गहन शून्य। यानी संवाद, सहयोग और सृजन -यही है सार्थक मानव जीवन का रहस्य और स्त्रीत्व की सटीक परिभाषा। ''मैं मर्द नहीं, सर्जक होना चाहती हूँ। . . .यही मेरा प्रतिशोध होगा और यही मेरी क्षमा।'' (पृ0 107) अपने को भीतर तक खंगाल कर पाया गया मूलमंत्र जो मारियान को डाहभरी आत्मपीड़ा से मुक्त कर लेखन के सहारे 'आधी दुनिया'के प्यार का  पात्र बनाता है तो स्मिता और असीमा को 'कुटुम्ब'का आत्मीय संरक्षण देता है जहाँ स्मिता सहिष्णु मां है और असीमा कार्यदक्ष बड़ा भाई।


पितृसत्ताक व्यवस्था की संरचनात्मक जटिलताओं की तटस्थ समझ और आत्मविश्लेषण से तीनों देशों का स्त्री लेखन इस निष्कर्ष पर पहुँचा है कि पुरुष समाज द्वारा अपनी सुविधा के लिए गढ़े गए मिथ 'औरत ही औरत की दुश्मन है'को तोड़ कर स्त्री वैश्विक भगिनीवाद का प्रसार करते हुए समूची मनुष्यता को आत्मीयता के घेरे में ले आना चाहती है। 'कुफ्र'में हीर की सहायता के लिए तोती, चील और तारा का समय-असमय प्रस्तुत होना, 'मता-ए-दर्द'में डॉक्टर शहनाज द्वारा पुरुष प्रवंचिता कुंवारी मांओं की लोकलाज और मर्यादा की रक्षा हेतु अस्पताल चलाना, 'अगले जनम मोहे बिटिया न कीजो'की सदफ़ आरा द्वारा रश्के कमर और जमीलुन बी की भरसक सहायता करना, 'चाक'की सारंग की लड़ाई में समूची स्त्री जाति का एकजुट होना, 'ठीकरे की मंगनी'में महरूख के साथ पसरता सखी भाव विस्तार, 'कठगुलाब'में इमीग्रंट स्त्रियों की एक सी सार्वकालिक-सार्वदेशिक नियति के आख्यान के साथ संस्था के रूप में खड़ी दर्जिन बीबी के स्वावलम्बी प्रयासों को जोड़ना इसके उदाहरण हैं। कुंदनिका कापड़ीआ भगिनीवाद को स्त्री धर्म की नई व्याख्या के रूप में प्रस्तुत करती हैं -''हर एक पीड़ित स्त्री हमारी बहन है और उसके कंधे से कंध लगा कर खड़े रहना हमारा स्त्री धर्म है।'' (दीवारों से पार आकाश, पृ0 253) निस्संदेह भगिनीवाद पुरुष/व्यवस्था के खिलाफ स्त्री का शक्ति प्रदर्शन नहीं, वरन् स्त्री सशक्तीकरण का सृजनात्मक आयाम है जो उसकी मिशनबद्ध ऊर्जा को समाज कल्याण के रास्ते सभ्यता के स्वस्थ विकास और पुनर्निर्माण के संकल्प के साथ जोड़ता है।

उल्लेखनीय है कि तसलीमा की नायिकाएं - 'फेरा'की शरीफा और 'मेरे बचपन के दिन'की ईदुल -जहाँ उन्मुक्त उदार दृष्टि के अभाव में आत्मसाक्षात्कार नहीं कर पातीं (जिसकी क्षतिपूर्ति वे निश्चय ही अपनी कविताओं और टिप्पणियों मे करती हैं) और तहमीना की हीर एवं तारा स्वस्थ विकल्पों के अभाव में अपने विद्रोह को रचनात्मक बाना नहीं दे पातीं, वहीं भारतीय स्त्री लेखन आत्मसार्थकता की तलाश में स्त्री सशक्तीकरण की दुर्लभ मिसाल प्रस्तुत करता है। 'कठगुलाब'की दर्जिन बीबी अशिक्षित/अर्धशिक्षित निम्न एवं मध्यवर्गीय स्त्रियों में स्वाभिमान एवं स्वावलम्बन की चेतना का प्रसार कर रही हैं -''मेरा काम संभालेगी तो कितने ज़रूरतमंद बच्चों को काम सिखला कर, अपने पैरों पर खड़ा कर सकेगी। . . . मुझे देख, बीसियों बच्चे हैं मेरे। तभी इतने विश्वास के साथ कह सकती हूँ, एक बच्ची मेरा काम संभालेगी, एक चिता को आग देगी, बाकी सम्मानजनक जीवन जिएंगी। किसी एक की खातिर मुझे कलपने की जरूरत नहीं है।'' (पृ0 186) तो 'छिन्नमस्ता'की प्रिया के चमड़े के निर्यात व्यवसाय में उसकी अस्मिता के साथ उस जैसी हाशिए पर फेंकी गई बहुतेरी स्त्रियों की अस्मिता जुड़ी है। ग्राम प्रधान द्वारा अपनी शक्तियों के दुरुपयोग से ग्राम समाज को दिन-ब-दिन खोखला करने वाली प्रधान पद की दावेदार ताकतों के खिलाफ सारंग से परचा भरवा कर मैत्रेयी पुष्पा न केवल राजनीति में स्त्रियों की भागीदारी की वकालत करती हैं, बल्कि उसकी निष्ठा, निर्भीकता और रचनात्मकता को उदाहरण के रूप में प्रस्तुत कर समाज द्वारा स्त्री शक्ति के अधिकाधिक उपयोग (नजपसपेंजपवद) पर बल भी देती हैं, तो कुंदनिका कापड़ीआ स्त्री की जद्दोजहद के क्षेत्र का विस्तार करते हुए बलात्कार जैसे घिनौने सामाजिक अपराध के विरोध में समूची स्त्री शक्ति को संगठित कर व्यवस्था का चक्का जाम कर देने की संभावनाओं को रेखांकित करना नहीं भूलतीं। बेशक बलात्कार से उपजे सदमे का महिमामंडन प्रकारांतर से पुरुष द्वारा स्त्री की यौन शुचिता की मांग का पुरजोर समर्थन है, लेकिन डकैती-हत्या जैसे संज्ञेय अपराधों की कोटि में रख कर प्रत्येक विकृति के खिलाफ आवाज़ उठाने का दायित्व क्या स्त्री का नहीं?

नहीं। घनघोर असहमति - मृदुला गर्ग, प्रभाखेतान, मैत्रेयी पुष्पा और कुंदनिका कापड़ीआ की। स्त्री को 'आधी दुनिया'कह देने का अर्थ यह नहीं कि समाज में पुरुष की इयत्ता के बरअक्स अपनी स्वतंत्र सत्ता प्रतिष्ठित कर वे ताउम्र रेल की पटरियों की तरह दौड़ते रहें - समानान्तर और साथ-साथ। ''मर्द न हमारा दुश्मन है, न हरीफ़ - वह हमारी तरह इंसान है'' (ठीकरे के मंगनी, पृ0 179) . . . ''औरत की ज़िंदगी के सारे करीबी व जज़बाती रिश्ते मर्द से ही होते हैं। बाप, भाई, शौहर, महबूब, बेटा जैसी अहमियत को नकार कर औरत कहाँ जाएगी?'' (वही, पृ0 126) -नासिरा शर्मा बेहद आग्रहपूर्वक इस बुनियादी सच्चाई को रेखांकित कर देना चाहती हैं। परस्पर सहयोग और पूरकता के बिना चूंकि कोई भी साझा मिशन संभव नहीं, अतः जरूरी है स्त्रीसुलभ गुणों से सम्पन्न अर्धनारीश्वर पुरुष (कठगुलाब, पृ0 205) क्योंकि आदर्श मनुष्य व आदर्श सम्बन्ध तभी संभव है जब स्वतंत्रता और दायित्व बोध दोनों हों व्यक्ति के पास। मान लो, समाज में रंजीत, पीर साईं, व्योमकेश, जिम जारविस, इर्विंग, नरेन्द्र, अनिर्वाण, डॉक्टर रजब अली जैसे पुरुषों की बजाय विपिन, फिलिप, श्रीधर, स्वरूप, आदित्य, गगनेन्द्र, विनोद जैसे नारीवादी पुरुषों की तादाद बढ़ जाए, तो? तो यकीनन पूरी सृष्टि में सत् शिव और सौन्दर्य के प्रतिरूप आनंदग्राम का विस्तार हो जाएगा - कुंदनिका कापड़ीआ का विश्वास। आनंदग्राम जो एक बृहद् परिवार है, लेकिन परिवार संस्था के बुनियादी स्वरूप के ठीक विपरीत जहाँ ''साथ रहने से आत्मीयता और बल मिलते हैं''; जहाँ ''किसी का किसी पर वर्चस्व नहीं'' (पृ0 156); जहाँ ऐसे प्रेम का साम्राज्य है जो ''शक्ति दे किंतु पराश्रयी न बनाए'' (पृ0 165); जहाँ पूर्वाग्रहों को छोड़ कर सत्यान्वेषण जीवन की पहली शर्त बन जाता है'' (पृ0 177)। उल्लेखनीय है कि इस आनंदग्राम को बाहर नहीं, ''अपने भीतर से प्रकट करना है''। पृ0 165) -एक यूटोपियन स्थिति कि ''पूर्ण में से पूर्ण निकल भी जाए तो भी जो बाकी रहता है, वह पूर्ण ही है।'' (पृ0 276) असंभव, अविश्वसनीय लेकिन बेहद काम्य! मृदुला गर्ग यूटोपिया की बात नहीं करतीं (क्या इसलिए कि उनके पास एक ही अर्धनारीश्वर पुरुष है-विपिन?) , यूटापिया की पूर्वपीठिका हेतु जिस दुर्धर्ष संघर्ष, अनंत श्रम और अपराजेय सामंजस्य की आवश्यकता होती है, उसे गुजरात के सूखाग्रस्त बंजर गोधड़ इलाके में रोप-सींच कर नई फसल का इंतजार करती हैं। लेकिन स्थिति की इस विडम्बना की ओर संकेत करना भी नहीं भूलतीं कि ''एकांत में स्मिता कठगुलाब जी रही थी और कुटुम्ब में लहसुन उगा रही थी।'' (पृ0 241) स्मिता की इस विडम्बना में हर उस स्त्री की त्रासदी छिपी है जो परस्पर पूरकता और सम्पूर्णता की तलाश में सहचर पुरुष का स्नेहसिक्त सान्निध्य भर पाना चाहती है। सौन्दर्य और सुवास की निधि उसके पास है, भरपूर और अद्वितीय! जरूरत पानी के तरल स्पर्श की है, फिर वह भी खिल उठेगी कठगुलाब की तरह - झनन हुम्म! झनन हुम्म!


मृदुला गर्ग स्त्री सशक्तीकरण को नारे से अलगा कर आत्म-संज्ञान की एक स्थिति मानती हैं। इसलिए एक ओर वे पुरुषवादी स्त्री संगठनों की तथाकथित कल्याणकारी भूमिका के पुनरीक्षण की मांग करती हैं, वहीं इक्कीसवीं सदी की स्वतंत्र प्रबुद्ध कैलकुलेटिंग स्त्री के रूप में उभरी नीरजा की यंत्र-मानवी मूर्ति का स्वयं अपने हाथों खंडन करती हैं। ''इस जन्म में, अगले जन्म में, पूर्व-पश्चिम में, किसी देशकाल में, हम औरत ही रहना चाहती हैं। दर्द और पीड़ा से घबरातीं तो मर्द क्यों, मशीन न होना चाहतीं?'' (कठगुलाब, पृ0 107) वे अपनी इस कामना को नीरजा के मां न बन पाने की असफलता मंे खारिज नहीं कर सकतीं, क्योंकि मातृत्व अपने हाड़-मांस से अपना प्रतिरूप पैदा करना नहीं, अपनी वैचारिक विरासत को जर्रे-ज़र्रे तक फैलाना भी है। इसलिए किसी भी मानवीय उद्वेग से शून्य नीरजा को एक टुकड़ा भर ज़मीन भी नहीं देतीं। मशीन यदि कभी अपना विस्तार करना भी चाहे तो मशीन के अतिरिक्त क्या देगी?

भारतीय उपमहाद्वीप का स्त्री लेखन: स्त्री सशक्तीकरण की अनुगूंजें(दूसरी किस्त)

भारतीय स्त्री लेखन की तुलना में पाकिस्तान एवं बांग्लादेश के स्त्री लेखन के प्रतिशोधात्मक एवं आवेशपूर्ण स्वर को देखते हुए दो बातें जेहन में कौंधती हैं। एक, धार्मिक कट्टरता का आतंक और अशिक्षा का घुप्प अंधकार बहुत देर तक चेतना की टिमटिमाती रोशनियों को नहीं लील सकता। दूसरे, दमघोंटू प्रतिबंधों एवं वर्जनाओं के खिलाफ लड़ाई में मुक्ति की कामना जिस अनुपात में जीवन का आत्यंतिक लक्ष्य बन जाती है, उसी अनुपात में गौण होता चलता है मुक्ति की दिशा और स्वरूप पर विचार। हालांकि यह बात भी उतनी ही सत्य है कि दोनों देशों की एक-एक लेखिका के लेखन के आधार पर वहाँ के समूचे स्त्री लेखन पर ऐसी कोई टिप्पणी करना अपने ही अल्प ज्ञान से उपजे निष्कर्षों का सामान्यीकरण है। अतः स्त्री सशक्तीकरण की मुकम्मल तस्वीर पेश करने के लिए बेहद ज़रूरी है भारतीय भाषाओं के प्रतिनिधि स्त्री लेखन की भाँति दोनों देशों के विभिन्न प्रान्तों, कबीलों, समाजों, संस्कृतियों की तस्वीर प्रस्तुत करने वाले स्त्री लेखन का गहन विश्लेषण।

पाकिस्तान एवं बांग्लादेश के स्त्री लेखन के बरअक्स भारतीय स्त्री लेखन में कुछ न्यूनताएं साफ तौर पर दिखाई देती हैं। एक, जोखिम उठा कर भी जिस बेबाकी से दोनों देशों की लेखिकाओं ने स्त्री जीवन को पंगु कर देने वाली इस्लामी रिवायतों के खिलाफ आवाज बुलंद की है, वह भारतीय स्त्री लेखन में नहीं। पिछले कुछ वर्षों से हिंदू राष्ट्रवाद के उठान ने धर्मनिरपेक्ष भारतीय मानस में धार्मिक आडम्बरों और कर्मकांडों की प्रतिष्ठा करते हुए जिस प्रकार धीरे-धीरे सती प्रथा का महिमामंडन किया है , वह निस्संदेह स्त्री नियति को पराधीन करने की सुविचारित साजिश है जिसे लेकर भारतीय लेखिकाओं की चुप्पी न केवल चौंकाती है, बल्कि उनके सरोकारों की सघनता पर सवालिया निशान भी लगाती है, खासकर तब जब तसलीमा नसरीन 'नष्ट लड़की नष्ट गद्य'में इसके खिलाफ व्यापक आंदोलन छेड़ने की बात करती हैं। (पृ0 171)

भारतीय स्त्री लेखन की दूसरी दुर्बलता है अपने आसपास के खुरदरे यथार्थ को अनदेखा कर वर्चुअल रिएलिटी का निर्माण करने की प्रवृत्ति। सामाजिक संस्थाओं का सर्वेक्षण करना आत्म पड़ताल का पहला चरण है जो रणनीति बनाने हेतु आधारभूमि और दृष्टि देता है, लेकिन वह लेखन और जीवन की कुल उपलब्धि नहीं हो सकता। विडम्बना है कि भारतीय लेखिकाओं ने इसे वांछित गम्भीरतापूर्वक नहीं लिया। घरेलू हिंसा समाज के प्रत्येक तबके में फैली ऐसी बुराई है जो अमूमन प्रत्येक गंभीर साहित्यिक रचना में अपनी पूरी भयावहता के साथ उपस्थित है लेकिन साथ ही यह तथ्य भी काबिले-गौर है कि घरेलू हिंसा के मुखर विरोध को केन्द्रीय विषय बना कर सोद्देश्यपूर्ण ढंग से कोई रचना नहीं रची गई। धैर्यपूर्वक कुटते-पिटते रहना या तंग आकर सम्बन्धविच्छेद करना - यकीनन एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। ठीक यही बात कन्या भ्रूण हत्या, परिवार में लड़कियों के दोयम दर्जे की व्यापक स्वीकृति और जातिगत विषमता के कारण प्रेमी युगल की हत्या जैसे समस्याओं को लेकर भी कही जा सकती है जो प्रखर विरोध के सकारात्मक हस्तक्षेप के अभाव में अंततः अरण्य रोदन बन कर ही रह जाती हैं। यह ठीक है कि आग उगलने के बावजूद साहित्य समाज में क्रांति नहीं ला सकता, लेकिन क्रांतिधर्मी सेच का संस्कार तो देता ही है। अतः पहले चरण पर स्थिति के प्रतिकार के लिए हीर की तरह फुंफकार जरूरी हो जाती है।


तीसरे, स्त्री की 'भोग्या'छवि का विरोध करते हुए भी उसकी लैंगिक पहचान बनाए रखने का आग्रह जो स्त्री द्वारा अर्जित देह सम्बन्धों की स्वतंत्रता को एक उपलब्धि के रूप में प्रतिष्ठित करना चाहता है। सवाल उठता है कि बाजार की नव-उपनिवेशवादी ताकतें 'ब्यूटी विद ब्रेन'के नाम से उत्तर आधुनिक स्त्री के रूप में जिस मिथ को गढ़ रही हैं, और साहित्य वर्षा वसिष्ठ (मुझे चांद चाहिए) तथा मीडिया नित्यप्रति होने वाली सौन्दर्य प्रतियोगिताओं के जरिए जिसे पुष्टतर कर रहा है, क्या वह नखशिख वर्णन के लिए लालायित रीतिकालीन रमणी की छवि का पोषण नहीं? क्या दाम्पत्येतर सम्बन्धों में दैहिक तृप्ति के लिए उत्कंठित स्त्री अंततः पुरुष की सामंती रुचि और भोग विलास की सामग्री बन कर नहीं रह जाएगी? जो स्वाधीनता पराधीनता की प्रच्छन्न हदबंदियों का तत्परतापूर्वक निर्माण कर रही हो, उसे प्रश्नचिन्हित न करने में स्त्री लेखन की किस प्रवृत्ति को जिम्मेदार माना जाए - लापरवाही या दूरदृष्टि का अभाव? उल्लेखनीय है कि तसलीमा नसरीन ताल ठोंक कर ऐलान कर चुकी हैं कि ''स्त्री के नाम पर प्रचलित गृहिणी, रमणी, अंगना आदि अश्लील शब्दों को प्रतिबंधित करने की हिमायत करती हूँ'' (नष्ट लड़की नष्ट गद्य, पृ0 97) और जर्मेन ग्रीयर 'विद्रोही स्त्री'में फीमेल यूनक के रूप में स्त्री की लैंगिक पहचान से मुक्ति का विकल्प भी प्रस्तत कर चुकी हैं।

फिर भी, भारतीय उपमहाद्वीप के तीनों देशों की स्त्री में निष्क्रिय भूमिका त्याग कर जीवन की बागडोर खुद अपने हाथ में लेने का बोध एवं साहस आया है, वह सुखद है। साथ ही इस अहम सच्चाई का रेखांकन भी कि आर्थिक स्वावलम्बन के बावजूद स्त्री तब तक स्वतंत्र नहीं जब तक परंपरागत संस्कारों से मुक्ति का नैतिक एवं मानसिक साहस अपने भीतर न जुटा ले। इसी 'नष्ट'लड़की के कंधे पर है इक्कीसवीं सदी के समाज के गठन का गुरु दायित्व जिसकी चारित्रिक विशेषताओं को गढ़ कर भासमान व्यक्तित्व दिया है तसलीमा नसरीन ने - ''यदि कोई स्त्री अपने दुख, दैन्य, दुर्दशा को दूर करना चाहती है, धर्म, समाज और राष्ट्र के अभद्र नियमों के खिलाफ डट कर खड़ी होना चाहती है; हेय ठहराने वाली प्रथाओं-व्यवस्थाओं का विरोध करके अपने अधिकारों के प्रति सजग होने लगती है तो समाज के 'भद्र पुरुष'उसे 'नष्ट लड़की'करार देते हैं। ठीक भी है, स्त्री के 'मुक्त'होने की पहली शर्त ही है, नष्ट होना। 'नष्ट'हुए बिना इस समाज के नागपाश से किसी भी स्त्री को मुक्ति नहीं मिल सकती।''हाँ, वक्तव्य में इतना क्षेपक और कि 'नागपाश'से मुक्ति की दरकार स्त्री और पुरुष दोनों को है - स्वस्थ मानसिकता और नई ऊर्जा के साथ नई राहों के अन्वेषण में रत एक अनुकरणीय युगल!

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मुस्लिम महिला संरक्षण विधेयक

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अरविंद जैन
स्त्री पर यौन हिंसा और न्यायालयों एवम समाज की पुरुषवादी दृष्टि पर ऐडवोकेट अरविंद जैन ने महत्वपूर्ण काम किये हैं. उनकी किताब 'औरत होने की सजा'हिन्दी में स्त्रीवादी न्याय सिद्धांत की पहली और महत्वपूर्ण किताब है. संपर्क : 9810201120
bakeelsab@gmail.com


सुप्रीम कोर्ट के पांच न्यायमूर्तियों की संविधान-पीठ द्वारा 22 अगस्त, 2017 को मुस्लिम समाज में प्रचलित ‘तीन तलाक’ को निरस्त करने के आदेश के बाद, केंद्र सरकार ‘तीन तलाक’ संबंधी ‘मुस्लिम महिला विवाह का अधिकार संरक्षण विधेयक, 2017’ शीतकालीन अधिवेशन में पेश करने के लिए सूचीबद्ध कर दिया है। हालाँकि, फैसले के तत्काल बाद केंद्रीय कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने फैसले का स्वागत करते हुए कहा था कि फैसले के क्रियान्वयन के लिए अलग से कानून बनाए जाने की कोई आवश्यकता नहीं है। उस समय केंद्र सरकार, कानून बनाए जाने के पक्ष में नहीं दीख रही थी। दरअसल, सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बावजूद, ज़मीनी स्तर पर ‘तीन तलाक़’ की प्रथा जारी रही और कोई आमूल-चूल बदलाव दिखाई नहीं दे रहा था। लगता है कि सरकार इस विधेयक के माध्यम से, 2019 के चुनावी बेड़े को पार ले जाना चाहती है।

सुप्रीम कोर्ट के पांच न्यायमूर्ति- जस्टिसजे.एस. खेहर, जस्टिस कूरियन जोसेफ, जस्टिस यू.यू. ललित, जस्टिस आर.एफ. नरीमन और जस्टिस अब्दुल नजीर की संविधान-पीठ ने, ‘तीन तलाक’ को निरस्त करने का आदेश दिया था। इस फैसले के बाद, पूरे देश में ऐसा लगा कि मुस्लिम महिलाओं की आजादी का नया युग शुरू हो गया है। अब मुस्लिम स्त्रियों पर दमन, अत्याचार या अनाचार का सिलसिला एकदम खत्म जाएगा। केंद्र सरकार ने इसका भरपूर श्रेय लिया और  विपक्षी दल फैसले का विरोध भी नहीं कर पाए, शायद इस डर से कि विरोध कहीं उनके ‘वोट बैंक’ में सेंध न लगा दे। 

 तीन तलाक़ पर, उच्चतम न्यायालयके पांच न्यायधीशों की संविधान पीठ के ‘ऐतिहासिक फैसले’ को, आने वाली पीढ़ीयाँ किस रूप में देखेंगी- क्रांतिकारी फैसला या मील का ‘पत्थर’। अभी कहना कठिन है। 1400 साल पुरानी प्रथा की वैधानिकता-संवैधानिकता पर, न्यायविद सालों बहस करते रहे हैं, करते रहेंगे. क्या निर्णय से औरत की गरिमा बढ़ेगी, महिलाओं का सशक्तिकरण होगा और लैंगिक समानता की दिशा में सार्थक शुरुआत हो पाएगी? सवाल यह भी है कि महिला याचिकाकर्ताओं को क्या ‘हासिल’ हुआ. उसी पति के रहने का आदेश, जो उसे रोज़ तरह-तरह से प्रताड़ित करता रहा है। क्या ज़मीनी स्तर पर आमूल-चूल बदलाव से स्त्रियों की ज़िन्दगी खुशहाल होगी? बहुत से सवाल, संदेह और आशंकाएं तब तक रहेंगी, जब तक आधी-आबादी को सामान न्याय और सम्मान से जीने-मरने के अधिकार नहीं मिलते। ‘आधी-दुनिया’ बहुत आशा और विश्वास के साथ, न्यायपालिका कि तरफ देखती (रही) हैं.
 
395 पेज के फैसले में तीन तलाक कोनिरस्त करने का फैसला 3-2 के बहुमत से लिखा गया। 1937 के शरियत लॉ में तीन तलाक का प्रावधान सेक्शन 2 में था, जिसे पांच जजों की बेंच ने निरस्त कर दिया। जस्टिस खेहर और जस्टिस अब्दुल नजीर तीन तलाक को निरस्त करने के पक्ष में नहीं थे। दोनों ने इस प्रावधान को असंवैधानिक नहीं माना। लेकिन साथ ही यह भी कहा कि चूंकि यह महिलाओं के हितों के खिलाफ है, इसलिए इस पर सरकार और संसद को कानून बनाना चाहिए। यानी केवल दो जजों ने कानून बनाये जाने की बात कही थी। इसका सीधा सा अर्थ है कि सरकार के लिए कानून बनाए जाने की को बाध्यता नहीं थी। तीन तलाक का प्रावधान खत्म हो गया और नया कानून बनने तक, यदि कोई अपनी पत्नी को तीन तलाक दे देता है, तो उसे सजा या ज़ुर्माना नहीं! पति पत्नी से कहेगा कि वह नहीं मानता सुप्रीम कोर्ट के फैसले को, जाओ अदालत। ऐसे में मुस्लिम महिलाएं (जिनमें से अधिसंख्य अशिक्षित-गरीब और गांव कस्बों में रहने वाली हैं) अदालतों के चक्कर काटती रहती।


तीन तलाक को निरस्त करने के फैसले को, महिलाओं की ‘विजयघोष’ के रूप में प्रचारित किया गया। कहा जाता  रहा कि दुनिया के लगभग 22देशों ने पहले ही तीन तलाक को निरस्त कर दिया है। भारत ने महिलाओं को ‘यह आजादी’ देने में 70 बरस लगा दिये। पाकिस्तान जैसे देश में 1961 में तीन तलाक को रद्द किया जा चुका है। जिन देशों में तीन तलाक की यह असंवैधानिक परंपरा नहीं है, वहां तो महिलाएं सशक्त होनी ही चाहिए। लेकिन क्या ऐसा है? अन्य देशों को छोड़ दीजिए, सिर्फ पाकिस्तान और बांगला देश में ही महिलाओं के सामजिक-आर्थिक स्थिति से अंदाजा लगाया जा सकता है।
 
तीन तलाक अंसवैधानिक है, तो बहुविवाह,करेवा, बाल विवाह, वैवाहिक बलात्कार, लैंगिक असमानता, भ्रूण हत्या को आप क्या कहेंगे-मानेंगे? विवाह संस्था में हिंदू महिलाओं के साथ भी हिंसा-हत्या, दमन-अत्याचार, अनाचार-दुराचार कम नहीं। तलाकशुदाओं में 68 प्रतिशत हिन्दू, 22 प्रतिशत मुस्लमान और दस फीसदी अन्य मजहबों के हैं। मुस्लमानों में तीन तलाक के महज 0.01 प्रतिशत मामले ही तो पाये जाते हैं। तो क्या हमारे सरोकार सिर्फ इन 0.01फीसदी महिलाओं से जुड़े हैं, बहुमत की महिलाओं के अधिकारों की संवैधानिकता और असंवैधानिकता पर हमें कुछ नहीं कहना है? एक दबा-ढका-छिपा सच यह है कि मर्दवादी समाज स्त्रियों को कोई अधिकार नहीं देना चाहता. पंचायत (संसद-अदालत) में मर्द ही, स्त्रियों के भाग्य का फैसला करते रहे हैं। महिलाओं के विषय में इतना बड़ा फैसला करते समय, कोई महिला न्यायाधीश नहीं दिखती-मिलती? ऐसा पहली बार तो नहीं हुआ।

1955 में देश के पहले प्रधानमंत्री पंडितजवाहर लाल नेहरू ने जब हिंदू कानून के तहत महिलाओं के अधिकारों को लेकर प्रयास किया, तो उन्हें भी भारी विरोध का सामना करना पड़ा था। आज नारी स्वतंत्रा की वकालत करने वाले, उस समय विरोध में खड़े थे। लेकिन राजनीतिक दृढ़ता के कारण ही कुछ कानून पास हो सके । उस समय तमाम हिंदुवादी नेताओं ने घोर विरोध किया था। वे नहीं चाहते थे कि हिंदू कानून के अंतर्गत महिलाओं को मर्दों के सामान अधिकार मिलें। हिंदू कानून के तहत महिलाओं को जो भी अधिकार मिले हैं, वे तब कि राजनीतिक इच्छा और मजबूती के कारण ही मिल पायें हैं।


 सरला मुद्गल मामले में सुप्रीम कोर्ट नेही समान नागरिक संहिता बनाने के लिए कहा था। उसे बनाने की पहल कोई नहीं कर रहा। भाजपा ने तो अपने चुनावी घोषणा पत्र में भी, समान नागरिक संहिता बनाने का वादा किया था। एक देश, एक कानून की वकालत करने वाली सरकार, महिला सामान अधिकारों के लिए एक कानून क्यों नहीं बनाती या बना सकती। समान नागरिक संहिता में तलाक, विवाह, मेंटनेंस,संपत्ति आदि के अधिकार, सभी महिलाओं-हिंदू मुस्लिम,सिख, ईसाई, जैन के लिए समान होने चाहिए। तब समान न्याय-क़ानून होंगे भी और दिखाई भी पड़ेंगे। समान नागरिक संहिता के साथ-साथ, यदि महिला आरक्षण बिल भी पास कर-करवा दें, तो सचमुच महिलाओं के सशक्तिकरण की प्रक्रिया शुरू होगी। लेकिन ऐसा कब हो पायेगा, कौन कह सकता है। महिलाओं को भी सामजिक-आर्थिक-राजनीतिक इंसाफ, सामान न्याय, संवैधानिक बराबरी देने के लिए, एक ही कानून होना चाहिए...क्यों नहीं होना चाहिए। अगर सरकार सचमुच महिला सशक्तिकरण की पक्षधर है, तो महिला आरक्षण बिल पास करे-करवाए, सामान नागरिक संहिता लाए....पता चल जाएगा।

आप-हम सिर्फ मुस्लिम महिलाओं केलिए, तीन तलाक को निरस्त किये जाने पर खुश होते रहेंगे लेकिन अगर उनके पति ने सोच लिया कि पत्नी को छोड़ना है या तंग करना है, तो बिना कानून समाज-अदालत के पास क्या विकल्प है/होगा। आज भी अदालतों में रोजना ऐसे मामले आते हैं (अधिकांश हिंदू लड़कियों के) जिनमें पति पत्नियों को उत्पीड़ित-प्रताड़ित करते रहते हैं और आजादी से घूमते रहते हैं। हम कहते हैं ‘दहेज़ मामलों में गिरफ्तारी मत करो’। किसी से छिपा नहीं है कि किसी भी अदालती मामले को निपटाने में, सालों का समय-पैसा लगता है। अलग रहने के लिए ही नहीं, साथ रहने के लिए भी। उदाहरण के लिए, 1955 में सरोज रानी ने, हिंदू मैरिज एक्ट, 1955 की धारा 9 के तहत पति के साथ दोबारा रहने के लिए याचिका दाखिल की। इसका फैसला सुप्रीम कोर्ट ने 1983-84 में सुनाया। यानी साथ रहने के लिए भी फैसला देने में अदालत को 28-29 साल का समय लग गया। ऐसे में तलाक से पीडि़त महिलाओं की अदालतों में क्या स्थिति होगी या हो सकती है, इसका सहज अंदाजा लगाया जा सकता है। तीन तलाक को निरस्त करके मुस्लिम महिलाओं को, कोर्ट-कचहरी के उन्ही गलियारों में धकेल रहे हैं, जहां जाने के रास्ते तो कठिन हैं ही, वहां से बाहर निकलने के रास्ते कमोबेश बंद या अंतहीन ही हैं।

तीन तलाक को निरस्त करने का फैसलाऔर प्रस्तावित विधेयक कुछ और सवाल मन में पैदा करता है। आखिर हम किस तरह का समाज बनाना चाहते हैं। एक तरफ हम महिलाओं को सहजीवन, सिंगल वुमन, बिना विवाह पैदा किये बच्चा पैदा करने का अधिकार, सेक्स का अधिकार दे रहे हैं और दूसरी तरफ समाज के एक बहुत ही छोटे तबके को तलाक से रोकने के आदेश पर उत्सव मान रहे हैं। आंकड़े बताते हैं कि जब देश आजाद हुआ, तो सिंगल वुमन की संख्या महज चार फीसदी थी, जो आज बढ़ कर 21 फीसदी हो गई हैं।


 विश्व इतिहास और सामजिक अनुभवसाक्षी है कि एक समय पूरे यूरोप में तलाक के पक्ष में स्त्री आंदोलन हुए और वहां की संसद-सरकार-अदालतों ने तलाक को कानून बना कर आसान बनाया। यूरोप में महिलाएं इसलिए सशक्त हुईं कि वे पढ़ी लिखीं थीं, आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर थीं, विवाह को सात जन्मों का बंधन नहीं मानती-समझती थीं, अपने फैसले खुद लेती थीं। इसलिए धार्मिक आस्थाओं का यह अभियान भी खत्म होना चाहिए . महिलाओं को भी खुले मन से यह सोचना होगा कि क्या सचमुच (तीन) तलाक रुकने से उनका जीवन जन्नत बन जाएगा? क्या उनके जीवन की एकमात्र त्रासदी यही है कि उनके पति उन्हें एक साथ तीन तलाक दे रहे हैं?  तीन तलाक को निरस्त किये जाने के परिणाम, दिखाई देने लगें हैं और यह भी साफ है कि ऐसे फैसले या कानून से कितनी महिलाओं का उद्धार, कल्याण या सशक्तिकरण हो सकेगा। स्त्री-पुरुष को विवाह बंधन में बांध कर रखना, पितृसत्ता के हितों को पोषित करती विवाह संस्था को ही बनाए-बचाए रखना है...होता है. यह रास्ता ‘स्त्री मुक्ति’ या ‘सशक्तिकरण’ का रास्ता तो नहीं! वास्तव में दमित-उत्पीड़ित-शोषित स्त्री के लिए मुक्ति का मार्ग तो, तलाक के बाद...आत्मनिर्भर होना है। लाखों मुकदमें अदालतों में तलाक के लिए लंबित पड़े हैं, अगर इन लोगों को तलाक मिल जाए..न्याय मिल जाए..थोड़ा जल्द और आसानी से मिल जाए तो, ये सब अपना जीवन अपनी शर्तों और निर्णयों के साथ या अपने तरीके से जी सकेंगी/सकेंगे। निश्चित रूप से असली मुक्ति यहां से आरम्भ होगी।

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महिलाओं को संसद में होना ही चाहिए : वेंकैया नायडू

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नवल कुमार

उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू ने  को कहा कि महिलाओं कोअवसर दीजिये और देखिये कि वे किस तरह खुद को साबित करती हैं. वे जहां भी चुनी गई हैं, जहाँ भी उन्हें आरक्षण मिला है उन सदनों में उन्होंने साबित किया है कि  वे महत्वपूर्ण योगदान दे रही हैं. उन्हें उच्च सदनों में भी आरक्षण मिलना चाहिए। ये बातें नायडू ने 3 जनवरी को द  मार्जिनलाइज्ड  प्रकाशन द्वारा प्रकाशित भारत के राजनेता सीरीज की किताब 'रामदास आठवले'का स्पीकर हॉल, कांस्टीट्यूशन क्लब में विमोचन करते हुए कही. उन्होंने समाजिक न्याय मंत्री 'रामदास  आठवले'की राजनीति को समाज में समता और शान्ति स्थापित करने वाला बताया। उन्होंने कहा कि इस सीरीज में यह दूसरी किताब है और अन्य राजनेताओं पर भी किताब आ रही है, यह महत्वपूर्ण है कि जनता तक राजनेताओं की बात जाये।



इस अवसर पर केंद्रीय मंत्री रामदास आठवले ने कहाकि दुनिया में शान्ति और समन्वय से ही समता स्थापित हो सकती है संघर्ष जरूरी है लेकिन अहिंसक रास्ते से. पैनल डिस्कसन में बोलते हुए सीपीआई के सांसद डी  राजा ने रामदास आठवले द्वारा क्रिकेट में भी आरक्षण की मांग किये जाने को याद दिलाया। राजा ने कहा कि समता का सन्देश देने वाले नेताओं में डा.  अम्बेकडर के योगदान को कम करके देखा जाता है अभी उनका अर्थशास्त्री के रूप में मूल्यांकन होना बाकी है. प्रकाशक संजीव चंदन ने कहा कि  किताब की श्रृंखला जारी रहेगी। यह इस सीरीज की दूसरी किताब है, पहली किताब 'अली अनवर'थी.  कार्यक्रम में पूर्व सांसद अली अनवर भी उपस्थित थे तथा बड़ी संख्या में रामदास आठवले के समर्थक भी शामिल हुए. सञ्चालन सामाजिक कार्यकर्ता मनीष गवई ने किया। स्वागत भाषण सर्व समाज संघर्ष समिति के अध्यक्ष वेदपाल तंवर ने किया।
 इस श्रृंखला  के तहत देश 30 प्रमुख समाज-राजनीति कर्मियों पर किताबें प्रकाशित की जानी हैं। इसमें ऐसे  सामाजिक-राजनीतिक नेताओं को जगह दी गई है, जिनका न सिर्फ समाजिक परिवर्तन में महत्वपूर्ण योगदान रहा हो, बल्कि जिनकी वैचारिकी मौलिक और भारतीय समाज और  राजनीति की गतिकी की दिशा मोड़ने वाली रही हो।

किताब से कुछ कोट : 
1. मैंने अटल जी की बीजेपी सरकार गिरायी थी. 1999 में 13 महीनों के बाद अटल जी सरकार एक वोट से गिर गयी थी. तब हमारे पीछे प्रमोद महाजन और दूसरे भाजपा नेता लगे थे कि सरकार को समर्थन दीजिये. वे हम चारो को मंत्री बनने के लिए तैयार थे, प्रकाश अम्बेडकर उनसे सहमत भी थे, लेकिन हम तीन- गवई साहेब, योगेन्द्र कबाड़े और मैं तैयार नहीं थे. (पृष्ठ 25)
2. मुझे लगता है कि यदि सिर्फ राम मंदिर की बात करती रहेगी तो मुझे लगता है कि सत्ता में रहना या बाद में आना मुश्किल है. लेकिन नरेंद्र मोदी आरएसएस को बदल देंगे. मुझे लगता है कि अभी तक वे अपना लाइन नहीं छोड़ रहे हैं 'सबका साथ-सबका विकास .'पृष्ठ 29
3. नानकचंद रत्तू और सोहनलाल शास्त्री ने माई साहब ( बाबा साहेब की दूसरी पत्नी सविता अम्बेडकर)को बदनाम करने की कोशिश की. ( पृष्ठ 36-3
4. शिक्षा और जमीन का सराकारीकरन जरूरी
किताब के बारे में
किताब का नाम : ‘रामदास आठवले’
पुस्तक श्रृंखला : भारत के राजनेता
संपादक : राजीव सुमन
श्रृंखला संपादक : प्रमोद रंजन
प्रकाशन : द मार्जिनलाइज्ड, दिल्ली
पृष्ठ : 122
मूल्य : 200 रूपए (पेपर बैक), 400 रूपए (हार्डबाऊंड)
संपर्क : 8130284314,9968527911 (प्रकाशक)



‘रामदास आठवले’ शीर्षक श्रृंखला की इस दूसरी किताब में केन्द्रीय मंत्री रामदास आठवले का एक लंबा साक्षात्कार व उनके भाषणों को संकलित किया गया है, ताकि राजनीति विज्ञान के अध्येता उनके मूल विचारों को समझ सकें। श्रृंखला के तहत आठवले का चयन मुख्य रूप से दलित पैंथर से उनके आरंभिक जुड़ाव तथा दलित राजनीति के लिए शहरी जमीन में उगाने की रचनात्मक कोशिशों के कारण किया गया है। उन्होंने अपने आंदोलनों से मुम्बई जैसे महानगर में दलित राजनीति के लिए ठोस संभावनाएँ पैदा कीं।

इस किताब में निम्नांकित मामलों की जानकारी पाठकों को मिलती है : 
सविता आंबेडकर को दिलाया सम्मान
रामदास आठवले के लिए आंबेडकर महत्वपूर्ण रहे हैं। इसी किताब में संकलित एक साक्षात्कार में वे बताते हैं कि ब्राह्मण परिवार में पैदा हुईं सविता आंबेडकर(जिन्हें वे सम्मान से माई साहब कहते हैं) लंबे समय तक दलित कार्यकर्ताओं द्वारा बहिष्कृत रहीं। कुछ नेताओं ने  उन्हें बाबा साहब का हत्यारा बता दिया। वे महाराष्ट्र नहीं जाती थीं, दिल्ली के महरौली में रहती थीं। आठवले जी बताते हैं कि उन्होंने एक अभियान चलाकर उन्हें दलित समाज में स्थापित किया।
                                                               
दलित पैंथर कार्यकर्ता से शुरू हुई संघर्ष की कहानी
रामदास आठवले ने अपनी राजनीतिक यात्रा कैसे शुरू की, यह उनके लिए समझना और जानना रूचिकर होगा जो दलित आंदोलन से सरोकार रखते हैं। नामदेव ढसाल, जे बी पवार,राजा ढाले आदि द्वारा शुरू किया गया दलित पैंथर आंदोलन दलित युवाओं के बीच जंगल में लगी आग की तरह फैला। आठवले भी इस आंदोलन में सक्रिय हुए। लेकिन बाद के दिनों में अनेक कारणों से यह आंदोलन अपेक्षित लक्ष्य हासिल नहीं कर सका और राजनीतिक मोर्चे पर बिखर गया। आठवले सक्रिय रहे। उन्होंने पहल करते हुए पैंथर्स पार्टी आफ इंडिया का गठन किया।


महाराष्ट्र में दलित आंदोलन के चेहरा बने आठवले
बाबा साहब के निधन के बाद महाराष्ट्र में दलित आंदोलन की गति धीमी पड़ गई थी। दलित पैंथर्स के कारण आग तो लगी लेकिन राजनीतिक मोर्चे पर बिखराव के बाद संकट गहराने लगा था। रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया जिसकी स्थापना बाबा साहब ने की थी वह नेतृत्वहीनता का शिकार थी। रामदास आठवले ने महाराष्ट्र में रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया को शिवसेना और कांग्रेस के समानांतर खड़ा करने की कोशिश की। वह सफल भी रहे। यह किताब उस कालखंड के बारे में बकौल रामदास अठावले राजनीतिक संघर्ष की गाथा कहती है जिसकी बुनियाद बाबा साहब ने डाली थी।
यह किताब रामदास आठवले की राजनीतिक यात्रा के बारे में बताती है। शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे से उनका जुड़ाव का प्रसंग इसकी बानगी है। लेकिन स्वयं आठवले कहते हैं कि शिवसेना के साथ चुनाव में जाने से पहले उन्होंने अपने दल के नेताओं व कार्यकर्ताओं के साथ करीब 6 महीने तक बैठकें की। सबके विचार जान तब उन्होंने यह फैसला लिया था। यह किसी एक व्यक्ति का फैसला नहीं था। हालांकि आठवले स्वीकार करते हैं कि यह एक राजनैतिक जुड़ाव था। वैचारिक मतभेद बने रहे।
आरपीआई की राजनीति का इतिहास 
आठवले ने इस किताब में संकलित अपने साक्षात्कार में महाराष्ट्र में आरपीआई की भूमिका, उसके अपने इतिहास और अंदरुनी राजनीति की चर्चा की है. उन्होंने कई अवसरों पर आरपीआई के सभी धड़ों के साथ आने और बिखरने के अंदरखाने की दिलचस्प बातें इस किताब में बतायी हैं
नवल कुमार फॉरवर्ड प्रेस के हिन्दी संपादक हैं.

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शोधार्थियों ने मनाई सावित्रीबाई फुले जयंती

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डेस्क 

किसी भी समाज में क्रांतिकारी बदलाव तब ही आ सकता है जब प्रत्येक स्वाभिमानी व्यक्ति एक ईकाई के रूप में स्वतंत्र एवं व्यापक समाज के हित में चिंतन तथा कार्य करे. यह कार्य निश्चित रूप से शोषण एवं शोषक वर्ग के खिलाफ जाने वाला साबित होगा.  3 जनवरी को भारत की प्रथम महिला शिक्षिका माता सावित्री बाई फुले की 187वीं जयंती के अवसर पर बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के विश्वनाथ मंदिर परिसर एक संगोष्ठी का आयोजन में किया गया. इस कार्यक्रम में सभी उपस्थित काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, महात्मा गाँधी काशी विद्यापीठ एवं अन्य शैक्षणिक संस्थाओं से सम्बंधित शोध छात्राओं, शोध छात्रों एवं स्नातक, परास्नातक कक्षाओं के विद्यार्थियों ने आपस में एक सामाजिक-शैक्षणिक संवाद किया. इस संवाद का केंद्र माता सावित्री के जीवन संघर्ष एवं उनके समय की सामाजिक-धार्मिक ठेकेदारों की कुटिल नीतियों की चर्चा की गयी. प्रतिभागियों ने अपने निजी अनुभव भी इसमें साझा किये.

इस सघन संवाद का परिणाम निकल कर आया किआज सावित्री माता के समय जैसी स्थितियां और चुनौतियाँ तो हमारे सम्मुख नहीं हैं किन्तु युवा पीढ़ी में वो चेतना नहीं है जिसकी जरुरत आज भारत के नब्बे फीसदी समाज को है. बंगाल तथा महाराष्ट्र में हुए सामाजिक आंदोलनों की चर्चा करते हुए विकाश सिंह मौर्य ने कहा कि बंगाल के आन्दोलन जहाँ समाज के उच्च तबकों के नेतृत्व में था वहीं महाराष्ट्र का लगभग समूचा आन्दोलन किसान एवं अन्य सहायक जातियों के नेतृत्व में किया गया. भारत की प्रथम मुस्लिम शिक्षिका फ़ातिमा शेख़ और उनके भाई उस्मान शेख़ के बारे में बताया कि किस तरीके से उन्होंने सर्व समाज विशेषकर महिला शिक्षा के लिए सर्वस्व योगदान किया था. सुनील कश्यप ने इस अवसर पर जयपाल सिंह मुंडा एवं एकलव्य को भी प्रासंगिक बताया. शिवेंद्र कुमार मौर्य ने सावित्री माता का जीवन परिचय बताया. शुभम जायसवाल ने आधुनिक शिक्षा खासतौर पर लड़कियों की शिक्षा के पुरुष सत्ता के प्रति संकीर्ण दृष्टिकोण पर व्यंग करते हुए कहा कि इसलिए बच्चियों को पढ़ाया जाता है कि बी.ए. कर लेने पर शादी ठीक से हो जाएगी.
निर्मला वर्मा ने अपना अनुभव सुनाते हुए बताया कि‘समाज में किस तरह से बेटियों के साथ भेदभाव किया जाता है?’ उन्होंने अब तक की अपनी सफलता का श्रेय अपने भाई को दिया. राहुल सिंह राजभर ने देश की वर्तमान राजनीतिक स्थितियों के बारे में बताया कि किस तरह से देश के टुकड़े-टुकड़े हो जाने की संभावना दिख रही है. सभी अपनी ढपली अपना राग लिए हुए अपने-अपने राष्ट्र की लड़ाई लड़ रहे हैं. उन्होंने इतिहास लेखन पर भी सवाल उठाये एवं इतिहास के पुनर्लेखन की जरुरत पर बल दिया.

अध्यक्षता करते हुए रामायण पटेल ने चेतना निर्माण एवं सम्यक इतिहास बोध पर बल दिया. उन्होंने 1920 के दशक को आधुनिक भारतीय इतिहास का निर्णायक दशक बताया. इस दौरान राजर्षि शाहूजी महाराज की हत्या, गीता प्रेस एवं राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की स्थापना, साइमन कमीशन का आगमन आदि घटनाएँ घटी, जिसका निर्णायक प्रभाव स्वतंत्रता पश्चात् के भारत पर सर्वाधिक पड़ा है. इस संगोष्ठी में अनीता, विनय पटेल, अनुराग पटेल, योगेश राज, सोनिया कुमारी, उदय भान सिंह, राजू पटेल, चन्दन सागर और राम करन सहित तीन दर्जन से अधिक लोग उपस्थित रहे. कार्यक्रम का संयोजन विकाश सिंह मौर्य ने किया.
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प्रेम के भीतर देह ने केंद्रीय विमर्श खड़ा किया है: अनामिका

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रानी कुमारी 

“स्त्री क्या है? क्या स्त्री, पुरुष का अन्य है/ अदर है।जो पुरुष को पूरा करते हुए निस्तेज हो जाती है। क्या स्त्री एक कोरी स्लेट है कि कोई भी उस पर, कोई भी इबारत लिख दे! साहित्य में स्त्री का चित्रण कैसे हुआ है?’ ये सवाल वरिष्ठ आलोचक रोहिणी अग्रवाल ने दिल्ली विश्वविद्यालय में संजीव चन्दन के कहानी संग्रह के विमोचन समारोह में विशिष्ट अतिथि के रूप में बोलते हुए किये.



जनवरी माह में सर्दियों के आगमन के साथ ही साहित्य के मौसम में अनेक पुस्तकें आई। बहुत-सी किताबों का लोकार्पण हुआ और परिचर्चा हुई। इसी समय 'स्त्रीकाल'पत्रिका के संपादक और स्त्रीवादी कार्यकर्ता संजीव चंदन के पहले कहानी संग्रह '546 वीं सीट की स्त्री'का लोकार्पण 17 जनवरी 2018 को पी. जी. मेंस हॉस्टल दिल्ली विश्वविद्यालय में हुआ तथा इस अवसर पर 'कथा में स्त्री'विषय पर परिचर्चा भी हुई। कार्यक्रम के शुरुआत में दूधनाथ सिंह और रोहित वेमुला (17 जनवरी को ही रोहित ने आत्महत्या की थी ) की स्मृति में 2 मिनट का मौन रखा गया। परिचर्चा की अध्यक्षता कवयित्री अनामिका जी ने की।

रोहिणी अग्रवाल ने आगे कहा कि हिंदी साहित्य की प्रसिद्धकहानी 'उसने कहा था'को हम एक प्रेम कहानी के रूप में पढ़ते हैं इस कहानी को सोचकर लहनासिंह याद आता है और सूबेदारनी याद आती है। इस कहानी में सूबेदारनी प्रेम का प्रतिदान मांगती है ना कि प्रतिदान देती है। लेकिन शायद आज ऐसा नहीं होता। उन्होंने कहा कि स्त्री लेखन मिथकों को रचता है। स्त्री लेखन उसके तलघर की दमित आकांक्षाओं और सपनों को कुरेदता है। हालांकि स्त्री लेखन के एक हिस्से में दिखता है कि पुरुष कितना खलनायक है। जबकि पुरुष लेखन करता है तो स्त्री को हीन और दोयम दर्जे के रूप में चित्रित करता है। स्त्री और पुरुष दोनों प्रतिपक्ष के दो पाले में ही रहेंगे? पुरुषों के लेखन से स्त्री गायब होती जा रही है । स्त्रियों में प्रेम का कुचला हुआ और दमन का रुप ही क्यों आता है! लेखक स्त्री में आत्मविश्वास क्यों नहीं भरता ? संजीव मेरे प्रिय कथाकार है। उनके उपन्यास मुझे छूते हैं, झकझोरते हैं पर उनके यहां एक भी अविस्मरणीय स्त्री पात्र नहीं मिलता। उदय प्रकाश की कहानियों में स्त्री पितृसत्ता, वर्ण-व्यवस्था को मजबूत करती नजर आती है। उनके यहां भी स्त्री के निजता का सवाल नहीं मिलता। ऐसे दो लेखक हैं जिनके यहां पर स्त्री लड़ती हुई दिखाई देती है एक शिव मूर्ति और दूसरे भगवानदास मोरवाल। लेकिन जब मैं संजीव चंदन की कहानियां पढ़ती हूं तो लगता है कि वह सार्थक हस्तक्षेप कर रही हैं. संजीव चंदन के इस कहानी संग्रह की कहानियों में स्त्रियों से जुड़े विविध पहलू और मुद्दे, उसकी सच्चाइयां व्यक्त होती हैं। स्त्री का व्यक्तित्व समग्रता में आकार लेता है इन कहानियों में। इस संग्रह को आज के समय की बहुत बड़ी दस्तक के रूप में याद किया जाना चाहिये।



रोहिणी ने कहा कि संजीव चंदन की कहानियों में बार-बार आता है कि ये वो समय था जब ये हुआ, जब वो हुआ। हम भूमंडलीकरण के दौर में जी रहे हैं।आधुनिक समाज में जी रहे हैं जहां सूचनाओं पर अधिकार का दंभ हम भरते हैं। दुनिया नहीं सिकुड़ी हमारी सोच सिकुड़ी है, वापस हम कबीलाई हो गए हैं। इस विडंबना को ये कहानियां व्यक्त करती हैं. 'तुम्हीं से जनमूं तो पनाह मिले'  की नायिका कह रही है कि मैं अब बेटी को जन्म ही नहीं दूंगी बल्कि मेरे रौंदे हुए, कुचले हुए सपनों, ऊर्जा, अरमानों को उसमें उकेर दूंगी।आर्ची की कहानी यौन शोषण से उत्पन्न उत्पीड़न की कहानी भर नहीं है. इसके खिलाफ मोर्चाबंदी रूमी ले रही है।

इन कहानियों में लेखक पात्र भी है, कथावाचक भी है और कथा पाठक के रूप में आनंद भी लेता है। तीनों रूपों में वह अपने आप को बांटकर चल रहा है। शिल्प में कथा का आनंद भी ले रहा है। कथा के ताने-बाने में परंपरागत ढांचे को तोड़-फोड़ करके स्त्री के मन में घुसता ही इस तरह से है कि स्त्री का त्रिआयामी चित्रण कर सके। यह कहानी संग्रह कोई समाधान नहीं दे रहा है। यह कहानी संग्रह एक डिबेट का आह्वान करता है। इस डिबेट के लिए दूसरे की आवश्यकता नहीं बल्कि अपने अंदर विचार विमर्श करने की जरूरत है। यह जो पुरुषों की लेखनी में जो चुप्पी पसरी हुई है स्त्रियों को लेकर। उसको यह कहानी संग्रह बहुत ही सृजनात्मक और बहुत ही अविस्मरणीय ढंग से तोड़ने वाली धमक है।

पैनल के पहले वक्ता और युवा आलोचक कवितेंद्र नेअपने वक्तव्य में कहा कि अभी तक मैं संजीव को स्त्रीवादी कार्यकर्ता के रूप में ही जानता था। संजीव चंदन ने 22 साल में 11 कहानियां लिखी। इससे ऐसा लगता है कि बहुत कम लिखते हैं ,या जम कर लिखते हैं। '546 वीं सीट की स्त्री'कहानी में ऋचा, भविष्य की स्त्री नहीं है। अपने जीवन में दमन झेलती हुई आखिरकार राजनीति में सत्ता पा लेती है। लेकिन एक स्त्री की राजनीति सत्ता, पितृसत्ता के मुकाबले हार जाती है और कहानी बखूबी यह चीज दिखाती है। संजीव चंदन की कहानी स्त्रीवादी लेखन में उपलब्धि है।'इनबॉक्स में रानी सारंगा : धइले मरदवा के भेस हो'और 'प्रेमकथा में हाड़ा रानी की पुनर्वापसी बनाम बैताल...'कहानियों में विवाहेतर प्रेम को दर्शाया गया है। शादी के बाद भी प्रेम की क्या आवश्यकता पड़ती है। अभी तक हमारा समाज प्रेम को ही स्वीकार नहीं कर पाया है! अब तक विवाहेत्तर प्रेम में पति खलनायक चित्रित होता रहा है लेकिन संजीव की कहानियों में विवाहेतर प्रेम में पति खलनायक नहीं है। यह ख़ास बात है. संजीव की कहानियां हल नहीं सूझा पाती, वह हम पाठकों पर छोड़ देते है। तबस्सुम सवाल पूछती है कि रूमी का पात्र ऐसे क्यों गढ़ा? ऐंगल्स ने कहा है यौन प्रेम स्वभावत: एकांतिक होता है। संजीव चंदन की कहानियां मुक्ति का सवाल उठाती है।

आलोचक बजरंग बिहारी तिवारी ने अपने वक्तव्य में कहा कि ‘कथा में स्त्री’ पद काफी मानीखेज है। बाणभट्ट से ही 'कथा'की शुरुआत होती है। दंडी ने दो भेद बताए है कथा (काल्पनिक) और आख्यान। आख्यायिका में स्त्रियां नहीं है। लेकिन वास्तविकता में स्त्रियां गायब होती है काल्पनिक कथाओं में स्त्रियां होती है।संजीव चंदन अपनी कहानियों में मिथकों का बहुत इस्तेमाल करते हैं। हमारे यहां पुरुष, स्त्रियों को गढ़ते हैं। संजीव चंदन भी इस कहानी संग्रह को वास्तविक और आभासी स्त्रियों को समर्पित करते हैं। आर्ची नाम के पात्र की कहानी, आगे की कहानियों में भी मिलती है। इनकी कहानियों में अंतः सूत्र और डिटेल्स अधिक है। जो कई बार बेमतलब की लगती है।अधिकांश कहानियों में स्त्रियां सुनती है वह पैसिव है, जो एक्टिव हैं वे हाइपर एक्टिव हैं।

लेखिका रजनी दिसोदिया ने अपने वक्तव्य में कहा किसंजीव चंदन उस युवा पीढ़ी के रचनाकार है। जिनका बचपन भूमंडलीकरण से पहले वाले दौर में बीता और उनकी युवावस्था बाद वाले  की है। युग परिवर्तन के इस दौर को युवा होते खुली आंखों से देखा है.  यह पूरा दौर मीडिया, सिनेमा, कला यहां तक कि प्रत्येक क्षेत्र में भूमंडलीकरण के असर का दौर है। संजीव की कहानियों के कथानक कहीं पीछे छूट जाता है वह अनायास आता है। डिटेल्स खूब हैं, जबकि इसके प्रति लेखक सजग है। भूमंडलीय दौर में जो परिवर्तन हो रहे हैं तो  चरित्र ऐसे आ रहे हैं इसलिए डिटेल्स भी जरूरी है। यहाँ स्त्री दृष्टि की कहानी को  पुरुष देख रहा है स्त्री की तरह। स्त्रियां, प्यार में बंधन नहीं चाहती इसी संदर्भ में सारंगा वाली कहानी डिस्टर्ब करती है। यह कहानी सोशल मीडिया पर आधारित  है। पहला पुरुष थोपा हुआ होता था, लेकिन रूमी के साथ ऐसा नहीं है। रूमी बंधनहीन प्रेम की मांग करती है। तमाम प्रेम उसे अकेला कर रहे हैं, यह यात्रा उसे अकेला ही बनाती है। इस मायने में दलित स्त्री अलग है वह समझती है कि अकेले होते ही शिकार बन सकती है इसलिए वह सामूहिक रहना पसंद करती है। इस मुक्ति की कोई सामाजिकता नहीं है।'वह ट्रेन निरंजना को जाती है'कहानी में नायिका को मुंबई जाना था लेकिन वह निरंजना चली जाती है। मां की दो आंखें उसे निरंतर देखती रहती है, पिता का विश्वास नजर रखता है। यह एक खूबसूरत कहानी है, भूमंडलीकरण के प्रवाह को थामने की कहानी।


कथाकार टेकचंद ने अपने वक्तव्य में कहा कि संजीव चंदन की कहानियां आज की जिस स्त्री को केंद्र में लेकर आती है उसकी मानसिक संरचना बेहद जटिल और संश्लिष्ट है। जिसका प्रमाण इन कहानियों में मिलता है। हिंदी कथा -साहित्य में स्त्री कैसी है? जब हम प्रेमचंद के लेखन को देखते है तो सचेत स्त्रियां दिखायी देती हैं, आजादी के बाद महानगर की स्त्रियां, और उसके बाद मोहन राकेश की 'सावित्री'। संजीव की कहानियों में मिथक आज के जीवन को भी व्याख्यायित करते हैं।

कथाकार अल्पना मिश्रा ने अपने वक्तव्य में कहा किहम संजीव चंदन को स्त्री के संघर्ष में एक साथी, एक्टिविस्ट के रूप में देखने को अभ्यस्त रहे हैं। मैंने यह कहानियां वैज्ञानिक दृष्टि से देखी और पढी है। इनकी कहानियां औपन्यासिक क्लेवर की है। जब इनकी कहानियों को पढ़ती हूं तो देखती हूं कि 70 से लेकर आज तक की राजनीति पर बात की गई है। इतना बड़ा क्लेवर है। पात्र सुदृढ़ है। क्लेवर और मार्मिकता साहित्य का प्राण है। हर विधा में मार्मिकता की जगह है। संजीव चंदन वैज्ञानिक दृष्टिकोण और चेतना को लेकर आते हैं कहानियों में। परकाया प्रवेश हिन्दी की कहानियों में पहले भी हुआ है. जैनेंद्र की पत्नी कहानी, अज्ञेय की रोज़। जब हम अज्ञेय की रोज़ कहानी के उस घंटे की आवाज को आज भी महसूस करते हैं, वह आवाज कितनी तकलीफदेह है.

अल्पना मिश्र ने हिन्दी आलोचना में स्त्रियों के प्रति दोयमव्यवहार को चिह्नित किया. आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपने इतिहास में बंग महिला और महादेवी वर्मा पर 3 लाइनें लिखी। बंग महिला के लेखन के बारे में कुछ नहीं लिखा, उनका कुल-खानदान खूब लिखा.  कथा में स्त्रियों ने हस्तक्षेप करना शुरू किया, तो उन्हें जगह नहीं मिली।क्या शिवरानी देवी को कभी कथाकार शिवरानी कहा गया? अल्पना ने कहा कि स्त्रियों का संघर्ष निरंतर जारी है. सावित्रीबाई फुले के साथ क्या-क्या हुआ। जब उनका साथ रानाडे ने दिया। हम केरल के चान्नार विद्रोह को भी देख सकते हैं। तब स्त्रियां कमीज नहीं पहन सकती थीं.  मिशनरियों आने के बाद उन्होंने विश्वास दिलाया कि ऐसा हो सकता है। ऊपरी वस्त्र पहनने का लंबा आन्दोलन चला. दबाया कुचला हुआ व्यक्ति जब बोलता है तो वह प्रतिरोध की भाषा ही होती है। आज नई चुनौतियां भी हमारे सामने हैं, जिसमें मुख्य रूप से बाजार का दबाव है और दूसरी ओर  पितृसत्ता है।

रंगकर्मी और लेखिका नूर जहीर ने अपने वक्तव्य में कहा कि परिकथा में से परी, रूपकथा से रूप, लोक कथा से लोक और मिथक से उसका छुपा हुआ चेहरा लेकर जब दास्तानगोई की मिटटी की हंडिया में धीमी आंच पर देर तक दम दिया जाए तो जो सोंधी महक लिए बनके सामने आएगा वह “पांचसौ छियालिस्वीं सीट की स्त्री” होगी ----मेरी मुराद सिर्फ इस नाम की कहानी से नहीं इस पूरे मजमुए से है।इनकी कहानियाँ  चलती हुई कहानी किसी निर्धारित अंत तक पहुंचे, यह जरूरी नहीं। संजीव की कहानी चलती हुई तो महसूस होती है। वह एक ही डगर या पात्र के सहारे नहीं चलती है। एक कहानी कई सवाल खड़े करती हैं।

नूर ने कहा कि कहीं न कहीं हर कहानी सवाल खड़े करती है,एक प्रश्न नहीं, एक साथ कई सवाल-----समय को, अपने समय को, बीते वक़्त को हम कैसे याद करेंगे? क्या उस समय में पड़ा अकाल, जेल भरो आन्दोलन, बढ़ते बलात्कार, छिछली,भ्रष्ट राजनीति, समय को परिभाषित और रेखांकित नहीं करेंगे? किस खांचे में किस केटेगरी में हम डालेंगे एक समय को? क्या मुद्दे हैं जो हमें उस वक़्त की याद दिलाएंगे? प्रचलित रीती  रिवाज? जिसमे बट सावित्री व्रत तो रख रही हैं स्त्रियाँ और साथ ही पंखों का भी ढेर लगता जा रहा हो, या प्रधान मंत्री के इस वाक्य से “कुंवारा हूँ, ब्रह्मचारी नहीं,” स्त्री के बढ़ते हुए आत्मविशवास से या उनपर बढ़ते हुई हिंसा और यौन उत्पीडन से या इस समझ से कि राजनीति में आने वाली स्त्रियाँ,  हाँ, वामपंथी राजनीति से जुडी हुई स्त्रियाँ भी किसी की पत्नी, बहु, बेटी होती हैं?

अध्यक्षीय वक्तव्य में अनामिका ने कहा कि नये लड़केऔर लड़कियां स्त्रीवाद के गर्भ से जन्मे हुए हैं। 'तुम्हीं से जनमूं तो पनाह मिले'कहानी स्त्रीवाद से जन्मे लेखक की दृष्टि की कहानी है. स्त्री को बहुत सारी खिड़कियों से देखने की कोशिश की है संजीव चंदन ने। और बहुत सफल कोशिश की है । संजीव को मैं दो दशक से जानती हूँ. 20-22 के उम्र के वह होंगे, तब से जानती हूं। स्त्री अध्ययन की कक्षा में बैठकर जिस तरह के प्रश्न उठाते थे। उसी समय लगा था कि यह प्रश्न इन्हें कहीं ले जाएंगे। लंबी उड़ान और लंबी थकान का सिलसिला पैदा करेंगे। इन 20 वर्षों में जो इन पर गुजरी है मैं उसकी साक्षी रही हूं। जब मैं ये कहानियां पढ़ती हूं तो एक तरह से भूमिगत, जैसे गर्भ गत 9 महीने होते हैं, वहाँ से लिखी कहानियां दिखती हैं। जो भी राजनीति में सक्रिय रहता हैप्रतिरोध की राजनीति में, उसके लिए एक गर्भ और हो जाता है.  भूमिगत जब मनुष्य रहता है, कई तरह की परिस्थितियों में, तो एक नए तरह का गर्भ  समय भी बन जाता है। आप सब के जीवन में वह समय जरूर आता होगा। आप सबसे छुपकर अपने भीतर, अपने को ही दोबारा जन्म देने की कोशिश में एक गर्भ की संरचना कर लेते हैं। वह जो एकांत होता है अंग्रेजी में उसके लिए एक शब्द है ऑल -अलोन। कच्ची पक्की नौकरियां करते हुए, कच्चे-पक्के संबंध जीने का यह समय एकांत पैदा करता है। त्रास पैदा करता है। कितने सवाल उठाता है इसका प्रबल साक्ष्य इस संग्रह में मिलेगा। सभी वक्तव्यों में एक सवाल उठा है प्रेम क्या है? जब हम अन्ना कैरेनिना के बरक्स रुमी को रखते हैं या चेखव की कहानी डार्लिंग को लेते हैं।तो देखते हैं यह कहानी 19वी शताब्दी की लड़की की है, जो अकेली हैं। जब हम इसके बरक्स संजीव चंदन की रुमी को रखते हैं तो समझ आता है कितना पानी बहा. यह भी मुझे लगता है हर व्यक्ति अपने आप में विशिष्ट है उसका वैशिष्ट्य अंदर ही अंदर को कुम्हला रहा है ,उसकी पत्तियां गिर रही हैं। प्रेम ही वह संभावना है जो उसके भीतर छिपे वैशिष्ट्य को, उसकी संभावना को मुकुलित करने का आभास देता है। आपके भीतर जो था वह पूरी तरह खिल गया है। ऐसे समय में प्रेम श्रृंखलाओं से कैसे निपटा जाए क्योंकि प्रेम श्रृंखलाएं फिर अपमान की उस राजनीति से हमें रूबरू करती है, जिसको हम सामाजिक संदर्भ में समझ चुके हैं, लेकिन निजी संदर्भ पर इतनी चर्चा नहीं की।

अनामिका ने कहा कि  बुद्ध ने मैत्री की चर्चा की है,स्त्री -आंदोलन ने सिस्टरहुड की बात कही। हम सब बंधुता की बात करते हैं। तो कैसे प्रेम करें कि बंधुता क्षरित ना हो या मैत्रीभाव क्षरित ना हो। प्रेम की क्षमता का शुभ पक्ष, सबसे प्यारा पक्ष है। ऐसा प्रेम कैसे करें एक बार वह खिलकर मुरझाए ना, हमेशा खिला रहे यह बहुत बड़ी चुनौती है हमारे सामने। कच्ची पक्की नौकरियों के चलते कच्चे-पक्के संबंध बना रहे हैं कहीं छोड़ा कहीं पकड़ा, कभी यहां कभी वहां हम एक विराट घूर्णन जैसे भंवर के शिकार हो गए हैं और मक्खन कहीं ऊपर नहीं आ रहा। यह जिस समय की आहट है उसे बेहतर ढंग से इस लड़के (संजीव चंदन) ने पकड़ी है जिसे मैं 20 साल की उम्र से जानती हूं।
पिछले 10 साल में जब एक व्यक्ति किशोर से युवा हो रहा है। उसके समय के विडंबनात्मक पक्ष सूचना के माध्यम से आ रहे हैं। हम एक आतंक विह्वल समय में रह रहे हैं। प्रेम की तलाश नैसर्गिक है। प्रेम अब दिखाई नहीं देता। इन कहानियों में प्रेम श्रृंखलाएं हैं एक से दूसरी, दूसरे से तीसरी। प्रेम के भीतर देह ने केंद्रीय विमर्श खड़ा किया है। इस कहानी संग्रह में भी छोटे शहरों से बड़े शहरों में आई लड़कियां है। एक नए तरह का संबंध जीती स्त्रियां है। संजीव चंदन की कहानियों के चरित्रों में पारस्परिकता है, कोई भी पात्र विक्टिम नहीं है। साथी पुरुष से स्त्रियां खुल कर बात करती है, साथी पुरुष भी उनकी बात सुनते हैं। सहजीवन की कल्पना है, यूटोपिया है। जहां दोनों अपने मन की बात कह सकते हैं। इस तरह की कल्पना के लिए संजीव चंदन ने अपने समय के द्वंद, नई तकनीक और शिल्प का प्रयोग किया है। मंच संचालन धर्मवीर ने किया। शिक्षकों, विद्यार्थियों और शोधार्थियों से पी. जी. मेंस सभागार खचाखच भरा हुआ था। जो स्त्रीवादी मुद्दों की संवेदनशीलता और प्रतिबद्धता को दर्शाता है। धन्यवाद ज्ञापन रानी कुमारी ने किया ।



रानी कुमारी दिल्ली विश्वविद्यालय के कॉलेज में तदर्थ प्राध्यापिका हैं. 

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दुश्मनी से परे जन की बात: पाकिस्तानी जनांदोलन की किताब

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 “पीपल्स  मूवमेंट्स इन पाकिस्तान’” पर एक चर्चा इंडिया इंटरनेशनल सेंटर के कांफ्रेंस हॉल में, आठ फरवरी को रखी गई. पुस्तक पाकिस्तान के जाने माने वामपंथी विचारक और सामाजिक कार्यकर्त्ता की लिखी हुई है जिसे नूर ज़हीर के प्राक्कथन के साथ द मर्जिनलाइज्ड ने प्रकाशित किया है. 



लेखिका और एक्टिविस्ट तथा योजना आयोग की पूर्व सदस्य डॉ. सईदा हमीद की अध्यक्षता में इस कार्यक्रम में अन्य वक्ता थे  वायर के एडिटर सिद्धार्थ वरदराजन,  सांसद डी राजा और अली  अनवर तथा वार्ता का संचालन  नूर ज़हीर ने किया.  सभी वक्ताओं ने पुस्तक की प्रशंसा की और ख़ास करके इस बात की सराहना की लेखक ने इतना समय आर्काइव्ज में बिताया, सामग्री जमा की, उसका सम्पादित कर, वर्ग और समय के अनुसार उसका सूचीकरण किया और तथ्यों की जांच पड़ताल और शोध करके एक पुस्तक तैयार की. सिद्धार्थ वरदराजन  ने अपने वक्तव्य में कहा कि  वृतान्त इतिहास के हिसाब से नहीं बल्कि विषय और प्रसंग के अनुकूल विभाजित किया गया है. यह एक तरह से पुस्तक को और रोचक बनाता है और पाठक को पूरे माहौल, समय और घटना क्रम को समझने में सहायक होता है. वरदराजन   ने बताया कि असलम ख्वाजा ने अपने विश्लेषण में पूर्ण रूप से निष्पक्ष रह कर तथ्यों को रखा है, जिसमे उन्होंने नामी वामपंथी कवि  फैज़ अहमद फैज़ को भी बक्शा नहीं है, और प्रमाणित किया है कि इतना बड़ा क्रांतिकारी शायर भी राष्ट्रवादिता की अंधभक्ति का शिकार हो सकता है, जैसे फैज़ हुए थे 1971  में पूर्वी पाकिस्तान के भाषा आन्दोलन के समय. वरदराजन  के अनुसार अपने समय और सोच के  आइकॉन पर ऊँगली उठाना बहुत ही साहस का काम है .


सिद्धार्थ वरदराजन  ने पूरी पुस्तक का एक ब्यौरा पेश कियाऔर खासकरके बलोचिस्तान वाले अध्याय की बहुत प्रशंसा की. लेकिन उन्होंने साथ ही यह भी कहा कि यह अध्याय राष्ट्रपति मुशर्रफ के समय पर आकर समाप्त हो जाता है जबकि बोलिचिस्तान के सन्दर्भ  में बहुत कुछ उसके बाद घटित हुआ है, जिसकी जानकारी ज़रूरी है. उनका सुझाव था की इस अध्याय को अपडेट किया जाना चाहिए. उन्होंने इस बात पर भी श्रोताओं का ध्यान दिलवाया कि भारत में पाकिस्तान के बारे में रूचि तो है लेकिन उसके जानकार एक भी नहीं; मसलन बलोच भाषा का जानकार विरले ही कोई हो भारत में; उसी तरह जब वर्तमान सिन्धी जाने वालों को पीढ़ी नहीं रहेगी तब कितने लोग निजी रूचि से सिन्धी सीखेंगे. उन्होंने इस और भी ध्यान दिलाया कि पाकिस्तान में पहले भारतीय अख़बारों और भारत में पाकिस्तान के अख़बारों के तीन तीन संवादाता थे लेकिन आज दोनों देशों में एक भी नहीं है.

डॉ. सईदा हमीद ने अपनी बात महिलाओं वाले अध्याय पर रखी. महिलाओं के संघर्ष ज़्यादातर नकार दिये जाते है जबकि उनका योगदान हस आन्दोलन में होता है और अपने मुद्दे तो केवल वही उठाती हैं. सईदा  ने इस बात की सराहना  करते हुए कहा कि लेखक ने महला आंदोलनों को भी दर्ज किया है और जिन क्षेत्रों में महिलायें शामिल रही वहां भी उन्हें स्थान देकर उनकी मौजूदगी दर्ज की है. सईदा  ने कहा कि यह एक अफसोसनाक हालात है कि पाकिस्तान में हुए अल्पसंख्यक लड़कियों के अपहरण और धर्मपरिवर्तन की बात तो भारत में मीडिया बहुत उछालता है लेकिन वहां ऐसी घटनाओं के विरोध में कितने जलूस निकले, कितना लिखा गया और न्यायपालिका को आदेश देने पर मजबूर किया गया कि उन लड़कियों की वापसी हो इसकी कोई खबर नहीं छपती. उनके शब्दों में ‘भयानक है वहां पर विद्रोही महिला होना’ क्योंकि ज़मीनी स्तर पर बहुत ख़ामोशी से काम करने वाली परवीन रहमान को भी इसलिए मार दिया जाता है क्योंकि वह ज़मीन के नाजायज़ दखल के खिलाफ़ आवाज़ बुलंद कर रही थीं. सईदा ने नूर ज़हीर की किताब में छपी भूमिका की भी तारीफ करते हुए कहा कि उसे पढने के कारण वह सो नहीं पाई और उसी से किताब कि गति निर्धारित होती है.



डी. राजा ने कहा कि  इस पुस्तक से उन्हें अपनी जवानी के दिन याद आये क्योंकि वह भी छात्र आन्दोलनों से निकले हुए कार्यकर्ता हैं और अखिल भारतीय छात्र संगठन के सदस्य रहे हैं. उन्हें इस बात की ख़ुशी थी की छात्र आन्दोलन पर एक अध्याय इस पुस्तक में शामिल है क्यों छात्र समुदाय का संघर्ष अपनी गतिशीलता के चलते कम ही दर्ज होता है; अक्सर इन संघर्षों से हासिल किये हुए बदलाव भी जल्दी ही प्रशासन मिटा देता है. इस किताब द्वारा उन्हें याद आये वे सब कामरेड जो मूलतः उस हिस्से के थे जो आज पाकिस्तान है और जिनके भारत आजाने पर उन्होंने खुद उनके साथ काम किया है जैसे कामरेड पेरिन बरुचा, कामरेड रोमेश चन्द्र और बेगम हाजरा . डी राजा ने कहा कि इस पुस्तक से भारत के लोगों के दिमाग में पनप रही पाकिस्तानियों के बारे में गलतफहमियां कम हो जाएँगी.

राज्य सभा सदस्य अली अनवर ने प्रकाशकों की सराहना करते हुए कहा की द मार्जिनलाइज्ड ने इस किताब को छापकर बड़े साहस का काम किया है और उन्हें उम्मीद थी की इससे  भारत और पाकिस्तान दोनों के बीच  बेहतर समझदारी बनेगी.

बातचीत की शुरुआत करते हुए नूर ज़हीर ने कहा की भारतवासियों के पास पाकिस्तान का केवल वही चेहरा है जो भारतीय सरकार पेश करना चाहती है. इसका मूल आधार उसकी अपनी सुरक्षा और शासन में बने रहने की इच्छा होती है. इसलिए गाली गलौज, सीमा पर गोलीबारी, जनता में डर उकसाया जाता है ताकि मतदानों में विजय पाई जा सके. उन्होंने यह भी कहा कि किसान और मजदूर आन्दोलन तो दर्ज किये जाते हैं लेकिन कलाकारों, लेखकों, महिलाओं, मीडिया और प्रेस, छात्रों के जलूस, आन्दोलन, और प्रशासकों से मुठभेड़ कभी दर्ज नहीं होते.  उन्होंने यह भी कहा की कश्मीर और बलूचिस्तान में चल रही जद्दोजहद को तुलनात्मक दृष्टि से देखने की ज़रूरत है और बलोचिस्तान वाले अध्याय से बहुत कुछ सीखा और समझा जा सकता है .



चर्चा के दो बहुत ही महत्वपूर्ण हासिल रहे औरकुछ सुझाव भी आये; 1. किताब का हिंदी और उर्दू में अनुवाद होना चाहिए; श्रोताओं में से ही दो ने अपनी रूचि जताई इस कार्य को फ़ौरन करने में. 2.इस पुस्तक को अंग्रेजी में और फिर अनुवाद को भी इतनी बड़ी पुस्तक के रूप में छपने के बजाये, हर अध्याय को अलग पुस्तिका की शक्ल में छापा जाना चाहिए. इससे पाठक का ध्यान हर विषय पर केन्द्रित रहेगा और शोध की भी संभावना बढ़ेगी.

चर्चा के दौरान ही नूर ज़हीर के पास कन्नड़ केप्रकाशक ‘नव कर्नाटका’ का सन्देश आया कि वे महिला आन्दोलन और लेखक, कलाकारों वाले अध्यायों को पुस्तिकाओं के रूप में अनुवाद करके छापना चाहते हैं.

PEOPLE’S MOVEMENTS IN PAKISTAN

A discussion on the book PEOPLE’S MOVEMENTS IN PAKISTAN was held at the Conference Hall 1, of India International Centre. The book has been written by Aslam Khwaja, senior journalist, leftist thinker and activist based in Karachi, Pakistan and published in India by THE MARGINALISED PUBLICATION, with an introduction by Noor Zaheer.



The Conference Hall was full with a responsive audience that had a number of young people and scholars. Dr. Syeda Hameed chaired the discussion and the speakers were (chair), Siddharth Vardhrajan (speaker),D.Raja, MP, Rajya Sabha, Ali Anwar, MP, Rajya Sabha and Noor Zaheer moderated the discussion.

The book was appreciated by one and all, and especially admired was the way author must have spent time in the archives, gathering material and sources, cataloguing and categorizing it, sorting and editing and rechecking the facts and then finally putting it together in eight chapters. Equally well received was the fact that even though the account is not chronological, the author has made it a theme-based divisions.

SidhharthVardarajan's observed that this makes the reading both interesting and it also helps the reader in many ways to understand and visualize the complete scenario. Mr. Vardarajan also made a pointed reference to the way Aslam Khwaja has brought out the well-known poet Faiz Ahmed Faiz’s weakness, at a couple of times in terms of his pro-Statist stance and thus taken an objective view of the most revolutionary poet Pakistan has produced. Vardhrajan appreciated the unbiased position taken by the author who had the courage to take a stand and point out the flaws in one of icons of our times.

Aslam Khwaja and Noor Zaheer

Siddharth Vardrajan who had thoroughly read the book gave a good 'tour' of the whole book, almost a bird’s eye view and was especially all praise for the Balochistan chapter. However, he pointed out that this chapter ends at the President Musharraf’s period, though a lot has happened since then which has focused International attention on the Baloch movement. He also expressed anguish at the fact that even though Pakistan is an immediate neighbor, there is no serious research being conducted on any area that falls within Pakistan; he was doubtful that after the present generation of Sindhis had passed on, knowledge of Sindhi would also recede.He also pointed out that earlier there were three representative journalists of India in Pakistan and three of Pakistan in India, but now there were none.

स्त्रीकाल का प्रिंट और ऑनलाइन प्रकाशन एक नॉन प्रॉफिट प्रक्रम है. यह 'द मार्जिनलाइज्ड'नामक सामाजिक संस्था (सोशायटी रजिस्ट्रेशन एक्ट 1860 के तहत रजिस्टर्ड) द्वारा संचालित है. 'द मार्जिनलाइज्ड'मूलतः समाज के हाशिये के लिए समर्पित शोध और ट्रेनिंग का कार्य करती है.
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राष्ट्रीय आंदोलन में महिलायें और गांधीजी की भूमिका पर सवाल

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कुसुम त्रिपाठी
स्त्रीवादी आलोचक.  एक दर्जन से अधिक किताबें प्रकाशित हैं , जिनमें 'औरत इतिहास रचा है तुमने',' स्त्री संघर्ष  के सौ वर्ष 'आदि चर्चित हैं. संपर्क: kusumtripathi@ymail.com 
कुसुम त्रिपाठी

सामंती प्रथा की जकड़न जिन प्रदेशों में आज भी अंगद के पैर की तरह जमाए हुए है। पर्दा प्रथा की दीवारों को लाँघना जिन प्रदेशों में आज भी मुश्किल है, उस उत्तर भारत में गांधीजी के आवाहन पर हजारों की संख्या में औरतें सड़कों पर उतरीं। इलाहाबाद, लखनऊ, दिल्ली, पंजाब, बिहार, लाहौर और पेशावर की महिलाएँ सार्वजनिक प्रदर्शन, जुलूसों में शामिल होने लगीं। भले घर की औरतों को बिना घूँघट-बुर्का, पर्दा के सड़कों गलियों में इससे पहले कभी न उतरते देखने वाली जनता इस परिवर्तन और उत्साह से चकित थी।
गांधीजी के योगदान से इंकार नहीं किया जा सकता, किन्तु इस तथ्य को भी ध्यान में रखना जरुरी है कि जब गांधीजी ने महिलाओं संबंधी अपने विचार रखें, तब महिलाएँ स्वयं भी अपने गुणों को पहचानने लगी थीं। ऐसा केवल उनकी व्यवसायिक जिंदगी-डॉक्टर, शिक्षिका और सामाजिक कार्यकर्ता की तरह ही नहीं वरन् सार्वजनिक, राजनीतिक जीवन में भी, राष्ट्रीय और सुधारवादी आंदोलन में, श्रमिक और किसान आंदोलन में उनकी भूमिकाको देखा जा सकता है।

राष्ट्रीय आंदोलन में महिलाओं की बढ़ती भागीदारीगांधीजी के प्रभाव से हुई। 1920 तक गांधीजी एक गाथापुरुष बन चुके थे। गांधीजी महिलाओं को इसलिए भी जूटा सके क्योंकि उन्हें पुरुषों के रवैये का भी ध्यान था। गांधीजी के व्यक्तित्व की खासियत थी कि वे न केवल महिलाओं में विश्वास जगाने में सफल थे, वरन् महिलाओं के पुरुष संरक्षकों पति, पिता, पुत्र, भाइयों का भी विश्वास उन्हें प्राप्त था। उनके नैतिक आदर्श इतने ऊँचे थे कि जब महिलाएँ बाहर आकर राजनीति के क्षेत्र में काम करती थी, तो उसके परिवार के सदस्य उनकी सुरक्षा के बारे में निश्चिंत रहते थे। इसका कारण था कि गांधीजी का ध्यान महिलाओं की जुझारू क्षमता पर पहली बार दक्षिण अफ्रीका में खिंचा था। वहाँ उन्होंने देखा कि भारी संख्या में महिलाएँ उनके राजनीतिक विचारों से प्रभावित होती है। उनके नेतृत्व में हुए कई आंदालनों में महिलाएँ जेल गई, बिना किसी शिकायत के जेल की कठोर सजा झेली और खदान श्रमिकों की हड़ताल में शामिल हुई। दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह आंदोलन से उन्होंने महिलाओं में आत्मत्याग और पीड़ा सहने की अद्भुत क्षमता देखी।



महिलाओं के आत्मत्यागी एवं बलिदानी स्वभाव के हिमायतीगांधीजी पहले व्यक्ति नहीं थे, इससे पहले भी समाज सुधारकों और पुनरुद्धारकों ने इस पर कम जोर नहीं दिया था। समाज सुधारकों ने महिला के आत्मत्याग को एक जबरदस्ती थोपे कर्मकाण्ड की तरह देखा।पुनरुद्धारकों की सोच थी कि इन कर्मकांडों से हिन्दू महिलाओं की गौरवमयी छवि बनती है। गांधीजी ने नारी के इन गुणों को हिन्दू कर्मकांड से अलग परिभाषित किया। गांधीजी ने कहा कि यह भारतीय नारीत्व का स्वाभाविक गुण है क्योंकि उनकी अहम भूमिका माँ की है। गांधीजी की सोच थी कि गर्भधारण और मातृत्व के अनुभवों से गुजरने के कारण महिलाएँ शांति और अहिंसा का संदेश फ़ैलाने में ज्यादा उपयुक्त है। गांधीजी के अनुसार स्त्री-पुरुष में जैविक गुणों के अंतर के कारण उनकी अलग-अलग भूमिकाएँ है और दोनों ही समान रूप से महत्त्वपूर्ण है। पुरुष कमाकर लाता है और स्त्री घर और बच्चों की देखभाल करती है। यहाँ भी गांधीजी ने स्त्री की मातृत्व गुणों और स्त्रियों की भूमिका को अलग परिभाषित किया है। गांधीजी को लगता था कि उनकी अहिंसा की लड़ाई में महिलाएँ उनकी विचारधारा के ज्यादा नजदीक है क्योंकि उसमें काफी पीड़ा सहना शामिल है और महिलाओं से ज्यादा बेहतर कुलीन और श्रेष्ठ ढंग से पीड़ा कौन सह सकता है। गांधीजी की नज़रों में पीड़ा सहने का गुण होना बहुत जरुरी है। उनकी नजरों में "स्वैच्छिक विधवा"आदर्श एक्टिविस्ट थी क्योंकि उसमें पीड़ा में सुख का रास्ता खोज लिया। उनकी नज़रों में वह सच्ची सती थी न कि वह जो पति की चिंता में जलकर प्राणों की आहुति दे देती थी।

गांधीजी की व्यक्तिगत छवि संत महात्मा की होने केकारण उनके नेतृत्व में शुरू हुए देशभक्ति आंदोलन की राजनीतिक और धार्मिक मिली-जुली छवि बनी। उसका क्षेत्र राजनीति से ऊपर उठकर धार्मिक हो गया। देशभक्ति को धर्म माना गया, देश को देवी माँ की संज्ञा दी गई, जिसके लिए बड़े से बड़ा बलिदान कम ही था। गांधीजी आंदोलन में महिला भागीदारी के पूर्ण पक्षधर थे। वे महिलाओं की सभाओं में, अपने भाषणों में, आंदोलनों में उनकी भागीदारी अनिवार्य मानते थे और साथ ही यह कहकर प्रेरित करते थे कि देवियों और वीरांगनाओं की तरह आंदोलन में उनकी अपनी अलग भूमिका है और उसमें इस भूमिका को निभाने की शक्ति और हिम्मत भी है। उन्होंने महिलाओं को विश्वास दिलाया कि आंदोलन को उनके महत्त्वपूर्ण योगदान की जरूरत है। वे कहते थे कि जब महिलाएँ सत्याग्रह आंदोलन में शामिल होगी, तभी पुरुष भी आंदोलन में पूरा सहयोग देगा। ८५ प्रतिशत भारतीय महिलाएँ निर्धनता और अज्ञान के अंधकार में डूबी हुई है। उन्होंने महिला नेताओं से कहा कि उन्हें सामाजिक सुधार, महिला शिक्षा एवं महिला अधिकार के लिए कानून बनाने के लिए काम करना चाहिए, ताकि उन्हें एक बुनियादी अधिकार मिल सके! उन्होंने कहाकि महिला नेताओं को सीता, द्रोपदी और दमयंती की तरह सात्विक दृढ़ और नियंत्रित होना चाहिए तभी वह स्त्रियों के भीतर पुरुषों के साथ बराबरी का भाव जगा सकेगी और अपने अधिकारों के प्रति सचेत तथा स्वतंत्रता के प्रति जाग्रत कर सकेगी।
गांधीजी के अनुसार बराबरी का यह अर्थ कदापि नहीं था कि महिलाएँ वे सब काम करें, जो पुरुष करते है। गांधीजी की आदर्श दुनियाँ में स्त्रियों और पुरुषों के अपने स्वभाव व क्षमतानुसार काम के अलग-अलग क्षेत्र निश्चित थे। उन्होंने महिलाओं को "स्वदेशी व्रत"लेने को कहा। वे सारी विदेशी वस्तुओं का परित्याग करे और प्रतिदिन थोड़े समय सूत कातने और खादी पहनने की प्रतिज्ञा करें।



खादी का प्रचार करते हुए उन्होंने कहाकि महिलाओं की धार्मिक और नैतिक जिम्मेदारी है कि वे देश को समृद्ध बनाए। वे कहते थे - "हमें देश को पुराने समय की तरह फिर से समृद्ध बनाना है। यह तभी संभव है जब संपन्न घरानों की महिलाएँ भी अपने वस्त्रों के लिए सूत काते।” खादी द्वारा गांधीजी महिलाओं को श्रम प्रक्रिया में लाना चाहते थे। उनका कहना था भारत इसलिए गरीब हो गया है क्योंकि उसने स्वदेशी हस्तकलाओं का परित्याग करके विदेशी वस्तुओं पर निर्भर रहना शुरू कर दिया है। महिलाएँ गृह निर्माता और पोषक हैं तथा भारत के पुनरुत्थान में उनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका है। वे घर में रहकर भी खादी उद्योग चला सकती हैं। इस तरह आंदोलन में भाग लेने के लिए घर से बाहर जाना या परिवार छोड़ना जरुरी नहीं था। सन १९२०-२२ में जब असहयोग आंदोलन शुरू हुआ, पहली बार महिलाएँ भारी संख्या में आंदोलन से जुड़ी। सैकड़ों महिलाएँ खादी और चरखा बेचने गली-गली गई। विदेशी कपड़ों की होली जलाई। मुंबई में महिलाओं ने 'राष्ट्रीय स्त्री सभा"का गठन किया।यह पहला महिला संगठन था, जो कि बिना पुरुषों की मदद से चलाया जा रहा था। यह संस्था १९२१-३० तक चली। जब तिलक कोष की स्थापना हुई, इन्होंने ४४, ५१९ रु. इकट्ठा कर गांधीजी को दिया। ३०० निर्धन लड़कियाँ वस्त्रों की कटाई कर रही थी, उन्होंने स्कूल खोले और सड़कों पर खादी बेचीं।

1920 के अंतिम दशक में गाँधी ने अपने स्वर में परिवर्तनकरते हुए महिलाओं को घर से निकालकर ‘नागरिक अवज्ञा आंदोलन’ में शामिल होने की अपील की, किन्तु उन्होंने उनकी सहभागिता को विदेशी दवाओं, शराब की दुकानों की घेराबंदी करने तक सीमित कर दिया क्योंकि गांधीजी की नज़रों में स्त्रियों का यह कार्य स्वाभाविक रूप से खबता था, इसलिए नहीं कि शराब की दुकानों की वजह से महिला अपने पतियों की नशाखोरी से त्रस्त थी बल्कि इसलिए भी कि वह निजी जीवन में नैतिकता एवं शुचिता का मुद्दा था। सविनय अवज्ञा आंदोलन से राष्ट्रीय आंदोलन में महिलाओं की भागीदारी का नया चरण शुरु हुआ। १९३० को इस आंदोलन में महिलाओं की भागीदारी संख्यात्मक और गुणात्मक दोनों दृष्टियों से भिन्न था। मार्च १९३० में अहमदाबाद में दाण्डी तक २४० मील की दांडी यात्रा से शुरू हुई। इस यात्रा में किसी भी महिला को शामिल नहीं किया गया था। डब्लू.आई.ए. ने तथा मार्गरेट बहनों, दादाभाई नौरोजी की पौत्री खुर्शीद नौरोजी व कमलादेवी चट्टोपाध्याय ने गांधीजी से अनुरोध किया कि उन्हें भी दांडी यात्रा में शामिल किया जायें। गांधीजी ने यह कहकर आग्रह ठुकरा दिया कि अंग्रेज उन्हें औरतों की आड़ में छिपनेवाला कायर कहेंगे, पर अन्त में गांधीजी मान गये।नमक सत्याग्रह में गिरफ्तार होने वाली पहली महिला सरोजिनी नायडू थी। इस सत्याग्रह में कुल ८०,००० लोग गिरफ्तार हुए, जिसमें १७,००० महिलाएँ थी।



इस बीच देशसेविका संघ, नारी सत्याग्रह समिति, महिला राष्ट्रीय मंच, लेडीज पिकेंटिग बोर्ड, स्त्री स्वराज्य संघ और स्वयंसेविका संघ आदि बनें। इन सबने महिलाओं की लामबंदी, जुलूस व प्रभात फेरी निकाले, धरने आदि का आयोजन करने के साथ खादी का प्रचार प्रसार, चरखा चलने का प्रशिक्षण, खादी बेचना, शराब बन्दी, देश की स्वाधीनता का प्रचार, सभाएँ करना, छुआछूत मिटाने संबंधी उपदेश देना, कांग्रेस की सदस्यता बढ़ाना।
१९२८ में लतिका ने बंगाल में महिला राष्ट्रीय संघ की स्थापना की। बंगाल का पहला महिला संगठन, जो राजनीतिक क्षेत्र में काम करता था। लतिका का महिलाओं के लिए संदेश था "उठो, जागो, अपने देश को अच्छी तरह देखो!"चूँकि महिलाएँ आंदोलन में तभी सक्रिय हो सकती थी, जब उन्हें घर के पुरुष सदस्यों का समर्थन प्राप्त हो। इसके लिए जरुरी था उनके पति, पिता या भाई कांग्रेस या क्रान्तिकारी आंदोलन में हों। उनके केंद्र का नाम था - "शांति मंदिर"। उनका नेटवर्क था। यहाँ महिलाओं को पढ़ना, लिखना, घरेलु हस्त-कलाएँ, प्राथमिक चिकित्सा, स्वयं-रक्षा करने के साथ स्वाधीनता के महत्त्व को बताया जाता था।लतिका तथा अन्य महिला नेताओं को यह स्पष्ट हो गया था कि महिलाएँ देश के सभी मामले से कटी हुई है।

1930 तक आते-आते भारतीय स्त्रियों ने परदा उठाकर फेंक दिया और राष्ट्र के काम के लिए भारी संख्या में बाहर आई। गांधीजी ने सार्वजनिक गतिविधियों की सहभागिता के औचित्य को सिद्ध करते हुए उसे विस्तार दिया ताकि वे वर्ग एवं सांस्कृतिक बंधनों को तोड़कर आगे बढ़े। १९३० के दशक में हजारों की संख्या में महिलाएँ सविनय अवज्ञा और असहयोग आंदोलन में भाग ले रही थी। ऑल इंडिया विमेंस कांफ्रेंस को भी अपने उच्चवर्गीय दायरे से बाहर आना पड़ा। उन्होंने ग्रामीण किसान और गरीब महिलाओं के बीच काम करना शुरू किया। अब यह संस्था एक एक्टिविस्ट संस्था बन गई थी, और इसकी १९३१ में अध्यक्षा सरोजनी नायडू बनी। इसके पहले तक अध्यक्षा महारानियाँ होती थी।

सन् 1940 के दशक में क्षितिज पर स्वाधीनताका इंद्रधनुष दिखाई दे रहा था और शायद यही कारण है कि स्त्रियों का आंदोलन पूरी तरह स्वाधीनता संग्राम में तब्दील हो गया और नारी मुक्ति के मुद्दे को भारत की स्वाधीनता के साथ जोड़कर देखा जाने लगा। माना जाने लगा कि स्वाधीनता के साथ ही पुरुष एवं स्त्री के मध्य मौजूदा असमानताएँ दूर हो जायेंगी तथा स्वतंत्र भारत में सबकुछ ठीक हो जाएगा। सन १९४२ के भारत छोड़ो आंदोलन में हजारों की संख्या में महिलाओं ने भाग लिया। हजारों महिलाएँ भूमिगत हुई, समानान्तर सरकारें बनाने में सहायक रही, रेल की पटरी उखाड़ने से लेकर कचहरियों पर झण्डा फहराने में अग्रणी रही। इस दौरान लाठी-गोली, बलात्कार तक की भारी संख्या में औरतें शिकार हुई। कईयों की हत्याएँ की गई। अरुणा आसक अली ने ग्वालिया टैंक मुंबई में झण्डा फहराते हुए "अंग्रेजों भारत छोड़ो"तथा "करो या मरो'की उद्घोषणा की, तो डॉ. उषा मेहता तथा उनके साथियों ने मुंबई में समानान्तर रेडियो स्टेशन चलाया। भारी संख्या में किसान महिलाओं ने भूमिकारों और भूस्वामियों के अधिकारों के खिलाफ आवाज उठाई। उस आंदोलन में "जेल भरो आंदोलन"भी शामिल था।'वर्धा'सेवाग्राम में महिला आश्रम की संचालिका रमाबेन रुइया का कहना था कि - "सन् १९४२ में सेवाग्राम में गांधीजी ने उन सभी महिलाओं को जो जेल जाने वाली थी, उन्हें अपने पिता, पतिया भाई से लिखित सहमति-पत्र मंगवाया था।“जिन लोगों के पास सहमति पत्र था, वे ही जेल भरो आंदोलन में शामिल हो सकती थीं।”



इसी तरह कमला देसिकन, जो १५ वर्ष की आयु में आंध्र प्रदेश से भागकर वर्धा सेवाग्राम गांधीजी के स्वाधीनता आंदोलन में शामिल होने के लिए आई थी, जो बाद में डॉ. सुशीला नैय्यर (प्रथम स्वास्थ मंत्री) की सेक्रेटरी बनी और आजीवन कस्तूरबा हॉस्पिटल से जुड़ी रही। उनका कहना था - गांधीजी ने मुझे सेवाग्राम आश्रम में रहने के लिए मेरे पिता से अनुमति-पत्र लिखवाया था। पिता की आज्ञा के बाद ही मैं सेवाग्राम आश्रम में रह सकी।
इस तरह गांधीजी ने महिलाओं की आर्थिक स्वतंत्रता के बारे में स्पष्ट रूप से कभी कुछ नहीं कहा। गाँधी के अनुसार स्त्री त्याग और पीड़ा की प्रतिमा है। सूत कातना और वस्त्र बिनना उसके लिए धार्मिक कार्य थे और महिलाओं के स्वभाव के अनुकूल थे। इस तरह राष्ट्रीय आंदोलन में महिलाओं को नई पितृसत्ता तले बाध्य रहने को मान्यता मिली। राष्ट्रवादियों को महिलाओं की मुक्ति तथा उत्थान से कोई सरोकार नहीं था। इसके विपरीत महिलाओं की पत्नी, पुत्री और माँ की भूमिकाओं की पुष्टि हुई। केवल राष्ट्रीय आंदोलन की आवश्यकताओं को देखते हुए उसे थोड़ा बहुत विस्तार मिल गया। इस तरह पारंपरिक इतिहास में महिलाओं की संख्या थोड़ी और बढ़ गई।'राष्ट्रीयता के इतिहास में महिलाओं का योगदानकेवल उनकी पारम्परिक भूमिका का विस्तार मात्र है। राष्ट्रीय आंदोलन में महिलाओं का कहीं कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं दिखता।

तस्वीरें गूगल से साभार 

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