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ग्रामीण सामूहिकता में अकेला रोता हंस

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मनीषा कुमारी 

मैं कहानियों  और साहित्य की बिलकुल नई पाठक हूँ. मनोविज्ञान की विद्यार्थी रही हूँ, 12 वीं तक विज्ञान की किताबों  से साबका रहा उसके बाद  मनोविज्ञान की किताबों से . यह संयोग ही है कि पहली साहित्यिक समीक्षा भी जिस लेखिका की कहानियों पर अपनी बात कह रही हूँ, वह भी मनोविज्ञान की छात्रा रही हैं. स्वाभाविक है लेखिका  सिनीवाली की कहानियों में मनोविज्ञान एक विशेष पहलू है  और मैं भी वहाँ पात्रों के मनोविज्ञान को ही समझती रही.  कहानी संग्रह ‘ हंस अकेला रोया’ कुल 8 कहानियां हैं, लगभग सभी कहानियां ग्रामीण परिवेश में घटित हैं.

शीर्षक कहानी ‘हंस अकेला रोया में' लेखिका ने समाजिक दवाब के साथ -साथ मनोवैज्ञानिक मनोदशा को भी बखूबी दर्शाया है.किस तरह से लोग समाज के बनाये भवंर जाल में फंसते जाते है.. विपिन के पिता के देहांत के बाद विपिन पर सामाजिक दवाब बनाया जा रहे है .दान-दक्षिणा से लेकर पंडित  के गौ दान और  फलाहार तक में कर्मकांड के पाखंड हैं.  इस लम्बी  कहानी का नायक बिपिन न चाहते हुए भी सामाजिक दवाब के आगे झुकता जाता है. होता यही है एक व्यक्ति के मानोविज्ञान को तय करने ,में समाज की बड़ी भूमिका होती है और यदि वह इस सामाजिक दवाब के खिलाफ अड़ जाता है तो उसकी इच्छाशक्ति महत्वपूर्ण हो जाती है, मजबूत इच्छाशक्ति है तो ठीक अन्यथा मनुष्य पराजित होता है. कहानी के अनुसार , ‘ विपिन कर्ज लेकर और पत्नी के गहने बेच कर इस सामाजिक कुप्रथा का निर्वाह करता है -पशु -पक्षी से लेकर आदमी तृप्त हो गया भोज खाकर. पर इस तृप्ति , प्रशंसा से क्या उसके परिवार का कर्ज उतर जाएगा या उसके परिवार को भूखा नही रहना पड़ेगा ? श्राद्ध के बाद उसकी सबसे बड़ी चिंता है कि कैसे चुकायेगा वह कर्ज’. मुझे यह कहानी पढ़ते हुए लगा कि एक ओर तो  कहानी का नायक सामाजिक मनोविज्ञान और दवाब के आगे घुटने टेक देता है, दूसरी ओर कहानी भी उसके जद्दोजहद को दिखाने के अलावा कोई  ख़ास आदर्श स्थापित नहीं कर पाती हैं, कहानी के अंत में श्राद्ध  का विरोध नहीं होता है बल्कि शास्त्र की दलील देकर श्राद्ध की अनिवार्यता ही सिद्ध करती है. कहानी का अंत है, ‘ जबकि शास्त्र भी कहता है कि कर्ज लेकर श्राद्ध नही करनी चाहिये पर धर्म के नाम पर ही कहाँ सुनता है समाज, शास्त्र और रामायण की बाते और बिपिन के आंसू....’


'उस पार ' कहानी में लेखिका ने बिहार के ग्रामीण परिवेश को बखूबी दर्शाया है. एक पिता किस तरह आर्थिक तंगी के कारण पैसे के अभाव में अपनी बेटी का  विवाह वित्तरहित किरानी से कर देते हैं  हमारे समाज में बेटी को बोलने का अधिकार नही दिया गया है.बेटी को सिर्फ सुनना ही है बोलना कुछ भी नही. खास कर  विवाह उपरान्त बेटी को मायके में बोलने का अधिकार ख़त्म हो जाता है इस कहानी में एक पिता के जीवन की असफलता ,आर्थिक स्थिति ,नीरसता को भी दर्शाया  गया है, साथ ही पिता के सम्पति में बेटी का कोई अधिकार नही होता है उसका न सिर्फ परिवार से गाँव समाज सबसे नाता टूटता है वो सबके लिए पराई हो जाती है.

पेंडुलम

'सिकडी कहानी' में लेखिका ने स्त्रीके आभुषण प्रेम के साथ - साथ सोना और सुखी जीवन के गठजोड़ को भी बखूबी बताया है स्त्री के लिए विपत्ति के समय जेवर ही सबसे बड़ा सहारा होता है . सिकडी कहानी में सिकडी को लेकर शक की सुई कई लोगों पर घूमती है और सोचने की प्रक्रिया शुरू होती है लेकिन अंत में इस बात पर आकर अटक जाती है कि आखिर सिकडी गई तो कहाँ गई .


'नियती'कहानी में लेखिका ने स्त्री के सामाजिक और मानसिक मनोदशा को बताया है इस कहानी में उन्होंने एक स्त्री के अपने पति के खो देने  का डर ,समाज  और संस्कार का डर और किसी  भी हाल में अपने पति की प्रतिष्ठा पर आंच न आने देने का डर ने सबकुछ जानते हुए  भी अपनी बहु के लिए न्याय के पक्ष में खडी नही होती  है और एक हद तक इन्ही सब कारणों ने विमला को भी मानसिक उत्पीडन सहते हुए  चुप रहने को विवश किया  है,  वही दूसरी ओर विमला जो एक ग्रामीण स्त्री है उसके  साहस को भी दर्शाता है कि किस तरह जब उसके गर्भ में पल रहे अनचाहे बच्ची को गिराने की बात जब उसकी  सास कहती है तो इस जुल्म के खिलाफ खड़ी हो जाती है.  खुद को दैहिक शोषण से बचा नहीं पाती है लेकिन अपनी बच्ची को किसी भी हद तक जाकर बचाना चाहती है.   इस समाज की झूठी मायाजाल ,कूरीतियाँ ,रीतिरिवाज के कारण बलात्कृत पुरुष( ससुर )के पक्ष में लोग खड़े हो जाते है और शोषित बहु (विमला) को झूठी ,पगली और मानसिक विक्ष्प्ता समझाता जाता है

'चलिये'अब कहानी में लेखिका  ने भौतिकवादी परिस्थितियों के आगे इंसान को घुटने टेकते हुए दिखाया है आज  व्यक्ति   पैसे के लालच में इस कदर अंधा हो गया है कि हर रिश्ते से विश्वास उठ गया है परमानंद बाबु की पत्नी के देहांत के बाद हर लोग उन्हें अपने साथ ले जाना चाहते है किन्तु जैसे ही पता चला कि उनके पास देने के लिए कुछ नहीं है सबने अपना-अपना रिश्ता तोड़ लिया अर्थात् व्यक्ति की  जैसे जैसे परिस्थितियों बदलती है व्यक्ति के साथ रह रहे लोगों के व्यवहार में परिवर्तन होते जाता है इसके अलावा इस कहानी में पत्नी-पति के प्रेम और बिछड़ने की मनोदशा को अच्छे तरह से दर्शाया है.उनके निश्छल प्रेम को बयाँ किया है परिवार के लोगों  द्वारा  अपमानित होनो के बाद भी घर छोड़ कर जाना नही चाहते है. उनको लगता है कि अगर वो चले गए तो उनकी पत्नी कहीं आकर उनका इन्तजार करेगी और उनके न रहने पर वे परेशान होंगी

घर कहानी में लेखिका ने आज के बदलते दौर में एकल परिवार के बढ़ते प्रचलन को दर्शाया है आज संयुक्त परिवार का दौर ख़त्म हो गया है अब बच्चे जैसे बड़े होते है वैसे ही घर की बंटवारे  की बात करते है. लोग अब हम से अलग होकर अपना घर बनाना चाहते है.

संग्रह पठनीय है. ग्रामीण भारत की कहानियों से जोड़ता है. बिना किसी नोस्टेल्जिया के गाँव के यथार्थ से जोडती है.

कहानी संग्रह : हंस अकेला रोका
लेखिका : सिनीवाली
प्रकाशक : बोधि प्रकाशन, 0141 2503989, 9829018087
प्रकाशन: 2016

समीक्षक मनोविज्ञान पढ़ाती हैं: संपर्क: manishamishra5559@gmail.com

स्त्रीकाल का प्रिंट और ऑनलाइन प्रकाशन एक नॉन प्रॉफिट प्रक्रम है. यह 'द मार्जिनलाइज्ड'नामक सामाजिक संस्था (सोशायटी रजिस्ट्रेशन एक्ट 1860 के तहत रजिस्टर्ड) द्वारा संचालित है. 'द मार्जिनलाइज्ड'मूलतः समाज के हाशिये के लिए समर्पित शोध और ट्रेनिंग का कार्य करती है.
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वासना नाजायज नहीं होती: लिपिस्टिक अंडर बुर्का बनाम बुर्के का सच

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कुमारी ज्योति गुप्ता
कुमारी ज्योति गुप्ता भारत रत्न डा.अम्बेडकर विश्वविद्यालय ,दिल्ली में हिन्दी विभाग में शोधरत हैं सम्पर्क: jyotigupta1999@rediffmail.com

‘लिपिस्टिक अंडर बुर्का’ स्त्री जीवन की सच्चाइयों को कई पर्तों में हमारे सामने रखती है। यह फिल्म परंपरा और आधुनिकता की उलझन में उलझी स्त्रियों की ज़िंदगी की दासतान है। जो न तो पूरी तरह से आधुनिक बन पाती हैं और न ही पूरी तरह से परंपरा को खारिज कर पाती हैं। ‘लिपिस्टिक’ आधुनिकता,रंगीन ख्वाइश और बाज़ार का प्रतीक है जबकि ‘बुर्का’ परंपरा और स्त्रियों पर लगाए गए पितृसत्तात्मक पहरे का। यहां अपने सपनों को पूरा करने की लालसा में परंपरा और आधुनिकता का मिलन दिखता है पर चोरी-चोरी। चोरी-चोरी इसलिए क्योंकि हमारे समाज को खुलापन पसंद है लेकिन स्त्रियों के संदर्भ में नहीं। चार स्त्रियों की ज़िदगी बुर्के के अंदर कैद है जिससे बाहर निकलने की छटपटाहट उन्हें चोरी छिपे वह सबकुछ करने को मजबूर करती है जो समाज के नज़र में गलत है।

बुआजी (रत्ना साह) की कहानीफिल्म में ऐसी औरत के रूप में सामने आई है जो परिवार की मुखिया है। साहसी है लेकिन साहस उसके व्यापार और परिवार तक है जहां वह हवाई महल की मालकिन के रूप में सामने आती है। उसकी बौद्धिकता और परिपक्वता के सामने बड़े-बड़े बिल्डर भी खुद को हारा हुआ मानते हैं। चौकाने वाली बात यह है कि बात जब उनके सपने की आती है तो वे खुद को इतना कमजोर क्यों समझती हैं। एक लड़का सामने से उनकी इज्जत उछाल कर चला जाता है और बदले में वे उसे कुछ नहीं कहती। क्या बड़े उम्र की औरत का मन भी बूढ़ा हो जाता है? उम्र तो शरीर की बढ़ती है मन की नहीं। जवानी में विधवा हो गई बुआजी  का कसूर क्या था कि उनसे उनके सपने देखने का अधिकार छीन लिया जाता है। कृष्णा सेबती ने ‘मत्रों मरजानी’ में भी इस अहम प्रश्न को उठाया था। गौर करने वाली बात यह है कि बुआजी को स्वीमिंग सिखाने वाले उस लड़के में ऐसा क्या दिखता है कि वे उम्र का लिहाज भूल जाती हैं। क्या वे व्यभिचारी थीं, क्या उन्होंने कभी किसी और के साथ संबंध स्थापित किया था , नहीं बिल्कूल नहीं। वे अपनी उम्र और कायदे को जानती थीं। उन्हें सभी (बच्चे, बूढ़े,जवान) बुआजी के नाम से ही बुलाते थे जिसमें सिर्फ बड़ा हाने का अहसास और रिश्ता है। पर जब वे स्वीमिंग पूल में डूबती हैं और बचाने वाला युवक उनका नाम पूछता है तो थोड़ी देर वे सोचने लगती हैं फिर अचानक कहती हैं ‘बुआजी’ जबकि यह उनका नाम नहीं । युवक के फिर से पूछने पर वे अपना नाम बताती हैं ‘उषा’। उषा नाम में पहली बार उन्हें अपनी पहचान का अहसास होता है। यह नाम एक महिला का है जो कि सिर्फ एक स्त्री है किसी की बुआ नहीं। इसलिए सिर्फ एक स्त्री के रूप में वह अपने अरमानों के अहसास में बहने लगती हैं। एक स्त्री मन जिसे सपने देखने की आज़ादी नहीं वह बुर्के के अंदर लिपिस्टिक लगा कर रंगीन जीवन के सपने देखने लगती है। उसने सामने से उस लड़के को कभी अपनी सच्चाई नहीं बताई क्योंकि अपनी उम्र का लिहाज उसे है। लेकिन क्या करे उस मन का जो बिन पानी सफरी सी छटपटाता है। ऊपर से परंपराओं का इतना सख्त पहरा। इसमें बुआजी परंपरा नहीं तोड़ती न ही युवक के सामने कोई अपील करती हैं। परंपरा से बिना टकराए अपने रंगीन पंख से ख्वाइशों  की दुनियां में उड़ना चाहती हैं।

शीरीन अस्लम(कोनकोना सेन) के माध्यम से ऐसी स्त्री चरित्र को सामने लाया गया है जो हमारे समाज में भरी पड़ी हैं। जिन्हाने अपने शरीर का मालिक अपने शौहर कों बना रखा है। धूमिल की एक प्रसिद्ध पंति इस संदर्भ में याद आती है कि ‘हर तीसरे गर्भपात के बाद , औरत धर्मशाला हो जाती है।’ शीरीन अस्लम एक सेल्स गर्ल होते हुए भी बच्चा पैदा करने की मशीन के रूप में जानी जाती है। वह सिर्फ शरीर बनकर पति के साथ रहती है। छिप कर काम करती है। नौकरी करना कोई बुरी बात नहीं लेकिन पति की पितृसत्तात्मक सोंच के आगे वह मजबूर है। नौकरी करके वह अपनी ख्वाइश और सपने तो पूरी करती है लेकिन पति को पता चलते ही हार मान लेती है। ये एक ऐसी औरत है जो पितृसत्ता और परंपरा का विरोध नहीं करती, ज़िंदगी तो जीती है लेकिन अपनी शर्तों पर नहीं। हमारे समाज की सच्चाई यही है क्योंकि शर्तों की ज़िंदगी जीने के लिए जो अधिकार उसे चाहिए वो उसके पास नहीं है।



लीला (अहाना कुमरा) परंपराओं को चुनौती देकर अपने सपनों को पूरा करना चाहती है लेकिन सपनों तक पहुंचने के लिए जो सीढ़ी वह चुनती है वह बीच में ही उसे गिरा देता है। वह परंपरा की नहीं परिस्थिति की गुलाम बन कर रह जाती हैं। दो नांव पर सवार यात्री की तरह वह बीच भंवर में ही फंस जाती है।

लिपस्टिक अंडर माय बुर्का : क़त्ल किए गए सपनों का एक झरोखा

रेहाना अबीदी (प्लाबिता बोर्थाकुर)एक ऐसी नौजवान लड़की है जो निहायत परंपरावादी परिवार से है। इसके परिवार में पढ़ने की छूट है पर विाचारों में बदलाव की कोई गुंजाइश  नहीं। आधुनिकता से इस परिवार का दूर-दूर तक कोई लेना-देना नहीं इसलिए शीरीन बुर्का पहनकर कॉलेज के लिए निकलती है जबकि बुर्के के अंदर की सच्चाई कुछ और है। संगीत में रचा बसा  उनका मन उसे वो सबकुछ करने की इजाजत देता है जो उसकी परंपरा के खिलाफ है। वह अपने को आधुनिक भी दिखाती है और अपने सपनों को भी पूरा करना चाहती है इसलिए वह सिगरेट, शराब भी पीती है। म्यूजिक बैंड में षामिल होने के लिए खुद को मार्डन लड़की के रूप में पेश भी करती है और सारी हदे पार करके चोरी तक करती है। आज कल स्कूल-कॉलेज में भी कई छात्र-छात्राएं आधुनिकता की चकाचौंध  में शामिल होने के लिए गलत रास्ता अपना लेते हैं जैसा कि रेहाना अबीदी करती है। इसके पीछे उसका कोई गलत इरादा नहीं होता क्योंकि उसे सिर्फ अपने सपने दिखते हैं जो उसके अब्बू-अम्मी कभी पूरे नहीं होने देते।


अतः हम कह सकते हैं कि ये चारोंस्त्रियां बिना परंपरा से पंगा लिए अपनी-अपनी सपनों की दुनियां में निकल पड़ती हैं लेकिन सपना टूटते ही जब वे हकीकत की दुनियां में आती हैं तो इस समाज की जिल्लत झेलती हैं। बंद कमरे में जीने के लिए बेबस सिगरेट के धूएं में अपनी परेशानियां उड़ाती नज़र आती हैं। कहीं न कहीं पितृसत्तात्मक समाज मुंह उठाए उन्हें चुनौती देता है कि हमारी बनाई दुनियां में तुम्हें बुर्के में ही जीना होगा। तुम्हारी कामना, तुम्हारा लस्ट, तुम्हारी वासना नाजायज है. यह सच है कि वासना नाजायज नहीं एक व्यक्ति की देह का जायज सच है, लेकिन जीना हकीकत  की दुनियां में है जहां परंपरा, आदर्श और नैतिकता का दावेदार पुरुष है। हां ये सच है कि ये औरतें खुला विद्रोह नहीं करती लेकिन औरत और उसके जीवन की जमीनी सच्चाई को पूरी ईमानदारी के साथ प्रस्तूत करती हैं। फिल्में समाज का आइना होती हैं वे हमें आइना दिखाती हैं। निर्णय हमें करना होता है। इस अर्थ में ये स्त्रियां स्त्री संसार की सच्चाइयों का आइना प्रस्तुत  करती हैं।

सावधान ! यहाँ बुर्के में लिपस्टिक भी है और जन्नत के लिप्स का आनंद लेती उषा की अधेड़ जवानी भी

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स्त्री-कविता: स्त्री पक्ष और उसके पार

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रेखा सेठी
  हिंदी विभाग, इंद्रप्रस्थ महिला महाविद्यालय, दिल्ली वि वि, में एसोसिएट प्रोफेसर. विज्ञापन डॉट कॉम सहित आधा दर्जन से अधिक आलोचनात्मक और वैचारिक पुस्तकें प्रकाशित  
संपर्क:reksethi@gmail.com

कविता हमेशा से ही मेरे लिए, अपने भीतरी अंतरद्वंद्वों और उस दुनिया की बीहड़ तल्खियों-टटकी उमंगों की हज़ारों बानगियों को नज़दीक से, समझने-जानने का बेहद खूबसूरत ज़रिया रही है। कविता की दुनिया अपने सच को पा जाने की दुनिया है। एक बड़बोले समय में जीवन के आतंरिक सच का अनुभव। दुनिया-भर के कवियों ने आक्रामक और हिंसक समय में अपनी स्वाधीनता व सृजनशीलता को बचाए रखने के लिए कई खतरे उठाये हैं। स्त्री रचनाकारों की कविताएँ भी इस जोखिम से अछूती नहीं हैं। उनका संघर्ष और भी विकट है क्योंकि वहाँ दुनिया के इस भूगोल के साथ-साथ स्त्री-चेतना का वह आतंरिक भूगोल भी है, जिसका मानचित्र हर पल उसकी कलम से गढ़ा जाता है।

स्त्री-कविता के इस संसार में अनेक प्रश्न हैं जिनका संबंध, स्त्री-अस्मिता तथा कविता और जेंडर के आपसी संबंधों से है। मेरे ज़ेहन में अक्सर यह सवाल उठता रहा है कि समकालीन कवयित्रियों द्वारा रचित कविताओं में उनके भीतर की स्त्री, अपने व्यक्तित्व की कितनी परतें खोल पाती है ? इन रचनाकारों का स्त्रीत्व उनकी कविताओं को कितनी दूर तक प्रभावित करता है ? अपनी अभिव्यक्ति को औज़ार की तरह इस्तेमाल करने वाली स्त्री-कविता का कितना हिस्सा अभी भी नेपथ्य की ओटमें है ? स्त्री रचनाकारों का रचना-धर्म, स्त्री-विमर्श की उठती लहरों, साहित्यिक आलोचना के स्थापित मानदंडों से कैसे टकराता है? ऐसे अनेक सवाल मन को लम्बे समय से घेरे रहे हैं। इन्हीं के समकक्ष रहे स्त्री-जीवन के अंतर्विरोधों से जुड़े वे यक्ष-प्रश्न जिनका सामना हर स्त्री को कभी न कभी करना पड़ता है।

साहित्य की दुनिया में नब्बे केबाद से अस्मितावादी साहित्य के उभार के साथ स्त्री-कविता अपने लिए नयी ज़मीन तैयार करती दिखाई पड़ती है। स्त्री-विमर्श ने इसे अलग ढंग से पोषित करते हुए पैनी धार दी।इसके बावजूद, ऐसा नहीं है कि इस कविता का भाव जगत इतना सीमित रहा हो लेकिन चर्चा के केंद्र में यही सरोकार रहे। ज़ाहिर तौर पर इसके दो प्रभाव हुए। कुछ स्त्री रचनाकारों ने अपने लिए यह दायरा चुन लिया और दूसरा, औरों ने भी इस कविता को सीमित नज़र से देखना शुरू किया। तब मन में यह जिज्ञासा जगी कि यदि इस साहित्य को अस्मिता के लेंस से न देखकर, साहित्य की अविरल परंपरा में देखा जाये तो उसके परिणाम क्या होंगे ?

इसी विचार से प्रेरित हो मैंने वर्ष 2015 में ‘स्त्री-कविता की पहचान’ शीर्षक से एक प्रोजेक्ट पर काम करना शुरू किया।मेरा यह मानना है कि अब तक सभी स्त्री-रचनाकारों की कविताओं को केवल, स्त्री विमर्श के फ्रेम में देखा गया है। उनकी कविताएँ अक्सर स्त्री विमर्श की प्रपत्तियों में उदाहरण-स्वरुप रखी गई हैं और उन कविताओं के परिदृश्य से बाकी सरोकारों को गायब कर दिया गया। इसलिए स्त्री-कविता में अपनी पुख्ता पहचान बनाने की स्पर्धा रही है। कविता के वजूद और अंतर्विरोधों से सीधे मुठभेड़ करने का यह मौका, मुझे उन गहराइयों तक ले गया जिनके होने का अहसास मुझे पहले नहीं था।


सबसे पहली दुविधा स्त्री-कविता, पदबंध के चुनाव को लेकर रही। मैंने स्त्री रचनाकारों की कविताओं पर अपने अध्ययन को केंद्रित करने के कारण ही इसे स्त्री-कविता कहना उपयुक्तसमझा लेकिन यह शंका बनी रही कि क्या ‘स्त्री’ कविता के विशेषण रूप में इस्तेमाल हो सकता है ? इसमें मतभेद हो सकते हैं क्योंकि स्त्री-कविता का आशय निश्चित नहीं है। यह स्त्रियों की कविता है, स्त्री-मन की कविता या फिर स्त्री के प्रति सहानुभूतिपूर्ण स्वर की कविता, इस पर एकमत नहीं हुआ जा सकता। प्रत्येक पाठक का अपना व्यक्तिगत निर्णय हो सकता है, हालाँकि ये सभी अंतर्ध्वनियाँ इस पदबंध में समाहित हैं।इस सन्दर्भ में मैंने समकालीन सात कवयित्रियों से बातचीत की।गगन गिल, कात्यायनी, अनामिका, सविता सिंह, नीलेश रघुवंशी, सुशीला टाकभौरे और निर्मला पुतुल—हमारे युग की प्रतिनिधि रचनाकार हैं। संवेदना के धरातल पर अपने युग-यथार्थ से जुड़ने की उनकी दृष्टि एक-दूसरे से भिन्न है। इसलिए सबके विचारों के समवेत से एक मुक्कमल तस्वीर बन सकेगी ऐसा मेरा विश्वास है।

अपने अध्ययन में मेरे सामने,ये सात कवयित्रियाँ अपने काव्य-जगत के साथ मौजूद रही हैं। मेरे लिये यह देखना बहुत दिलचस्प रहा कि इन सातों कवयित्रियों की कविताओं की परछाईयाँ, एक दूसरे को छूती हुई भी जान पड़ती हैं और स्त्री-अस्मिता के मुद्दे पर एक दूसरे से बिलकुल अलग भी हैं। जाति और वर्ग के बदलते समीकरणों में अस्मिता का स्वरुप व प्राथमिकताएँ बदल जाती हैं। एक और सवाल जो परेशान करता रहा है वह हमारी सामाजिक संरचनाओं में जेंडर की लगभग अलंघ्य स्थिति को लेकर है, ‘क्या यह समाज, जेंडर सेंसेटिव से बढ़कर जेंडर न्यूट्रल हो सकता है ?’ सब चाहते हैं कि, ‘समाज और कविता, दोनों जेंडर न्यूट्रल हों’ लेकिन कविता और साहित्य, इस संभावना को कैसे जगा सकेंगे, यह महत्वपूर्ण है।
क्रमश:

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स्त्री कविता: स्त्री पक्ष और उसके पार (क़िस्त दो)

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  हिंदी विभाग, इंद्रप्रस्थ महिला महाविद्यालय, दिल्ली वि वि, में एसोसिएट प्रोफेसर. विज्ञापन डॉट कॉम सहित आधा दर्जन से अधिक आलोचनात्मक और वैचारिक पुस्तकें प्रकाशित  
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पहली क़िस्तसे आगे 


स्त्री-कविता और जेंडर

पिछले कुछ दशकों में स्त्रीवादी दृष्टि को जो प्रमुखता मिली और स्त्री-विमर्श के बल पर स्त्री लेखन को जिस अलग नज़रिये से पढ़ने की पहल हुई, उससे यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि क्या स्त्री–कविता, स्त्रीवाद या स्त्रीवादी कविता का पर्याय है ? हमें इस अंतर को बहुत सावधानी से पहचानना चाहिए कि स्त्री लेखन केवल स्त्रीवाद के घेरे तक सीमित नहीं है। एक समाज में रहते हुए स्त्री-पुरुष, व्यक्ति-रूप में एक ही यथार्थ के साझीदार हैं।ऐसे में, स्त्री-कविता के अंतर्गत पढ़ी जाने वाली स्त्री रचनाकारों की कविताओं के मूल्यांकन का आधार मात्र स्त्रीवाद की कसौटियाँ नहीं हो सकती ।स्त्री-पक्ष के पार एक साधारण अनुभव की बात की जानी चाहिए । समकालीन कविता का मूल्यांकन, साहित्य की जिस अविरल धारा के रूप में होता है उसमें क्या कविता या साहित्य का ‘जेंडर न्यूट्रल’ रूप उभर सकता है ?

‘जेंडर न्यूट्रल’ होने का तर्कयह है कि जन-क्षेत्र में दाखिल होने के बाद लैंगिक अस्मिता विलुप्त हो जानी चाहिए। आप स्त्री हैं या पुरुष इस बात से कोई अंतर क्यों आना चाहिए। न किसी के विशेषाधिकार हों, न संरक्षणवादी नीतियाँ। दोनों को एक जैसा समतल मैदान मिले किंतु इसके कुछ ऋणात्मक पहलू हैं और रहेंगे, यह आशंका इस स्थिति को समस्या ग्रस्त करती है।

स्त्री-अस्मिता, कविता और जेंडरके आपसी संबंध उस साहित्यिक अधिरचना के संकेतक हैं, जहाँ स्त्री के स्त्री करण की सामाजिक प्रक्रिया को कमोबेश उसी रूप में स्वीकार कर लिया गया है।धर्म, दर्शन, इतिहास स्त्री के जिस सांस्कृतिक रूप की निर्मिति करते हैं,वह परिवार से लेकर आर्थिक-राजनीतिक क्षेत्रों तक स्त्री-पुरुष के बीच पदानुक्रम उपस्थित करती है ।साहित्य के क्षेत्र में भी यह बँटवारा अनुपस्थित और अदृश्य नहीं हैं। दूसरा सप्तक की कवयित्री शकुंत माथुर के साक्ष्य से हम जान पाते हैं कि उदार संरचनाएँ भी जेंडर की विषमताओं को झुठला नहीं पाती। शकुंत माथुर हिंदी के प्रसिद्ध कवि गिरिजाकुमार माथुर की पत्नी हैं। उन्होंने यह स्वीकार किया कि पति की छाया में वे अपने कवित्व के प्रति कभी आश्वस्त नहीं हो पायी। यह आकरण नहीं है कि कविता के इतिहास का स्त्री-स्वर इतना विरल है।अधिकांश स्त्री रचनाकार यह भी महसूस करती हैं कि हिंदी की मठवादी आलोचना ने स्त्री-स्वरों को उचित स्थान नहीं दिया । उनकी हशियाकृत स्थिति संभवतः इसी उपक्रम का परिणाम है।

एक और ज़रूरी सवाल यह भीहै कि क्या हमारा जेंडर हमारे अनुभव व अभिव्यक्ति को प्रभावित करता है? इसका पक्ष-विपक्ष बराबर ढंग से मज़बूत हो सकता है।इस बात पर बहुत बल दिया गया है कि जब एक स्त्री लिखती है तब उसका स्त्रीत्व उस अनुभव में शामिल रहता है। ‘जेंडर न्यूट्रल’ होने की प्रक्रिया स्त्रीत्व की इन परतों को खोकर किसी अंजाम तक नहीं पहुँच सकती क्योंकि उसमें स्त्री जीवन के इतिहास व संस्कृति के अनेक शब्दहीन सिलसिले जुड़े हुए हैं। स्त्री की दृष्टि और उसकी भाषा उसे यह अवसर देते हैंकिंतु यही उसका सीमित दायरा नहीं।ऐसा नहीं है कि पुरुष कवियों ने स्त्रियों पर मार्मिक रचनाएँ नहीं लिखी।‘आंचल में दूध और आँखों में पानी’ की स्त्री छवि मैथिलीशरण गुप्त द्वारा हिंदी साहित्य में अविस्मरणीय बना दी गई।इसी तरह समकालीन कविता में कितने ही नाम है--–उदयप्रकाश, लीलाधर मंडलोई, मंगलेश डबराल, पवनकारण, मदनकश्यप, जितेन्द्र श्रीवास्तव....जिन्होंने स्त्री जीवन की विडम्बनाओं को समान सहानुभूति से स्पर्श किया है ।इस फेहरिस्त में अभी और भी बहुत से नाम जोड़े जा सकते हैं किंतु दृष्टि बोध का बारीक़ अंतर फिर भी बना रहता है।वहाँ स्त्री की पीड़ा की टीस की समझ तो है लेकिन मुक्ति की वह छटपटाहट नहीं जिससे असमान सामाजिक व्यवहार वाली व्यवस्था के लैंडस्केप में परिवेर्तन किया जा सके।


इसके साथ-साथ, स्त्री रचनाकारों नेइस विशिष्टता की ओर भी संकेत किया है कि स्त्री-रचनाधर्मिता की अपनी विविधता है।उनका आग्रह, जीवन को खंड-खंड परखने का नहीं,वे उसे समग्रता से ही पहचानना और अपनाना चाहती हैं। स्त्री-कविता एक तरह से शब्दों के बीच की खाली जगह को भरने की कोशिश है।भविष्य की दिशा जेंडर विलोम की अपेक्षा जेंडर सहयोग की ओर संकेत कर रही है। स्त्री रचनाकार केवल स्त्रीवाद की ही बात नहीं करतीं, स्त्री अनुभवों की मार्फ़त दुनिया के तमाम वंचित समाजों से साझेदारी की कोशिश करती हैं। ऐसी ही भावना से प्रेरित होकर संभवतः पुरुष रचनाकार भी अपने भीतर स्त्री की तलाश कर रहे हैं। जेंडर और कविता के संबंधों में यह एक नई शुरुआत की पहल है।ये सभी दृष्टि बिंदु समान चिंता और चिंतन के पड़ाव हैं। देखना यह है कि उसमें स्त्री-कविता को कैसे लोकेट किया जा सकता है।

स्त्री-कविता और स्त्री-अस्मिता

कैद कई तरह की होती है....संबंधों
में स्त्री का मन घुटता है तो देह में आत्मा। स्त्री अस्मिता की पहचान इन बेड़ियों के पिघलने का अहसास है।  आज की कविता जिस मानव मुक्ति के अभियान को नयी ऊर्जा देने में तत्पर है स्त्री-चेतना उसका अभिन्न अंग है। मर्यादाओं के फ्रेम में जकड़ी स्त्री को समाज ने इतने अवसर भी नहीं दिए कि वह अपने भीतर की धड़कनें ठीक से सुन पाती।जब कभी उसने अपने मानवीय अस्तित्व को आवाज़ दी तब समाज में उस पर सब ओर से हमले होने लगे। इसी पीड़ा के एहसास ने उसके स्त्रीत्व और स्त्री रूप में उसकी अस्मिता को तीव्रतर किया है। ऐसे में स्त्री-अस्मिता की तलाश, ऐतिहासिक टकराहटों की पड़ताल बन जाती है।


स्त्री-कविता,  स्त्री अस्मिता केरास्ते में आने वाले अनेक संकटों और स्त्री जीवन की भीतरी और बाहरी टकराहटों को दर्ज करती है। उनकी लिखी कविताएँ उनके निजी अनुभवों के ताप से निखरी हैं। ये कविताएँ अपने आप से और अपने समाज से संवाद का ज़रिया हैं। समाज की चिंतनशील मनीषी इकाई के रूप में, उसकी संवेदनशीलता, सामाजिक ताने-बाने में जब उसे अपनी सही जगह तलाशने को प्रेरित करती हैतो उसका अस्मिता-बोध उसी में रूप ग्रहण करता है। इसके साथ-साथ परिवार, समाज, राजनीति, अर्थतंत्र, पर्यावरण---अनेक ऐसे मुद्दे हैं जिन पर स्त्री की निजी राय हो सकती है। उन सबसे वह स्वयं को कैसे जुड़ा हुआ महसूस करती है यह सब भी उसके अस्मिता-बोध में शामिल है। स्त्री की देह, मन, मस्तिष्क एक ही इकाई हैं, इससे उसकी पहचान सबको साथ मिलाकर बनती है, खंड-खंड नहीं। स्त्री-अस्मिता के नाम पर बहुत बार उसके किसी एक ही पक्ष को देखा गया है जिससे कुछ अलग तरह के साँचे निर्मित होने लगते हैं और स्त्री का व्यक्तित्व बंद दराज़ों में बँटा-बँटा-सा दिखाई पड़ने लगता है। स्त्री मुक्ति का सपना इन सभी दायरों से मुक्त होने का सपना है...अपने भरे-पूरे होने का एहसास...सब कुछ साथ लाकर, साथ पाकर जीने का एहसास। इसी परिकल्पना में स्त्री-अस्मिता का पूर्णत्व छिपा है।

स्त्री-अस्मिता के इस स्वर को स्त्री रचनाकारों ने अपने साहित्य में सशक्त अभिव्यक्ति दी है लेकिन उनका यह प्रयत्न भी अजब षड्यंत्र का शिकार हुआ। 'स्त्रीत्व'का नया फ्रेम उसके इर्द-गिर्द जड़ दिया गया। स्त्री-रचनाकारों के लिए कविता लिखने का अनुभव, अपने स्त्रीत्व की नियति बदल देने जैसा रहा है लेकिन इस प्रक्रिया में सिर्फ वे ही नहीं बदलती सामाजिक मर्यादाओं के मानक साँचे भी बदल जाते हैं। इस तरह से ये कविताएँ नई सामाजिक संरचना में, स्त्री-दखल की प्रमाण हैं। यह भीड़ के बीच से गुज़रते हुये अपने एकांत का साक्षात्कार है जहाँ अपने आप से सिर्फ सच ही कहा जाता है।स्त्री-कविता की चिंता के घेरे में, सिर्फ उसके स्त्रीत्व का संकट ही नहीं है। उसका सरोकार क्षत-विक्षत मानवीयता को बचाने से जुड़ा है। वह सहभागिता चाहती है, नियंत्रण नहीं। यही स्त्री-स्वरों का समवेत स्वर है।

स्त्री-चेतना के प्रति सजगता ने,हमें अपनी साहित्यक परंपरा को फिर से देखने के लिये प्रेरित किया। हालाँकि ऐसा दौर काफी देर से आया। हमने मीरा के काव्य और महादेवी के गद्य में, स्त्री चेतना के प्रखर स्वर को पहचाना। सोलहवीं शताब्दी में रचे मीरा के पद और उनका जीवन, तत्कालीन पारंपरिक समाज को चुनौती देते हुये लगे। उनके सामाजिक विद्रोह की उर्जस्विता को प्रतिष्ठित करते हुये समाजशास्त्रियों ने उनकी कविता के नए भाष्य किये। उसके बाद ही समाज की दूषित और लादी गयी परम्पराओं के विरुद्ध आवाज़ उठाने वाली स्त्री कवयित्रियों के साथ, स्त्री-कविता को अलग पहचान मिली।इस दृष्टि से इस अध्ययन में हिंदी की स्त्री-कविता के इतिहास को अलग स्थान दिया गया है।भारत में ईसा के ढाई-सौ वर्ष पूर्व जो संगम कविता लिखी गई,  उसमें स्त्री-कवियों की बड़ी संख्या है, उस कविता का संबंध, स्त्री के अंतर्जगत तथा बाह्य-जगत, दोनों से है। उसके बाद थेरी-गाथाएँ, भक्तिकाल में ललदेद, मीरा और अन्य संत कवयित्रियों तथा आधुनिक युग में मज़दूर, स्त्री-संघर्ष से जुड़ी आवाज़ों पर भी ध्यान देना होगा।


दरअसल, स्त्री-कविता स्त्री के जीवन के सारे घटना-क्रमों को अपने-अपने शिल्प के मुहावरों में कुछ इस तरह रच रही है कि उससे स्त्री-अस्मिता के विस्तृत परिदृश्य का ठीक-ठीक पता मिलता है|जब हम इन सातों कवयित्रियों की कविताओं को नज़दीक से जा कर पढ़ते और महसूसते हैं तो हमें उनकी अस्मिता की न जाने कितने ही रंग-रूप दिखाई देते हैं जिसमें वह समूचे संसार की स्त्रियों में शामिल हो कर अपने अस्तित्व को हर कोने को देखती हैं ।स्त्री-कविता के साथ, जो शब्द अभिन्न रूप से जुड़ा है, वह है--बहनापा। विश्व-भर की स्त्रियों ने अपनी मुक्ति के लिये एक दूसरे का हाथ पकड़ना स्वीकार किया है। इसमें केवल पश्चिमी देशों की स्त्रियाँ ही शामिल नहीं हैं बल्कि अपने पास-पड़ोस के देशों, चीन, कोरिया, जापान जैसे पूर्वी देश तथा अफ़्रीकी देशों की महिलाएँ, उनके सुख-दुःख सभी से एक साझेदारी का अनुभव शामिल है। इस दृष्टि से स्त्री-कविता की सामाजिक परिवर्तन में विश्व-स्तरीय भूमिका है। एक सुखद मानवीय समाज की परिकल्पना इसके माध्यम से नया स्वर ग्रहण कर रही है.
क्रमशः 

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मानवता के प्रति अपराध है बाल पोर्नोग्राफी

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कादम्बरी
फ्रीलांस पत्रकार.स्त्री मुद्दों पर केन्द्रित पत्रकारिता करती है. सम्पर्क : kadambari1992@gmail.com

पोर्नोग्राफ़ी यौन अंग या गतिविधिका एक चित्रण या प्रदर्शन है। यह कामोत्तेजना  को प्रोत्साहित करता है। आम तौर पर, पोर्नोग्राफ़ी वयस्कों (18 वर्ष या उससे अधिक की उम्र के व्यक्ति) द्वारा, वयस्कों का उपयोग कर,  और वयस्कों के उपभोग के लिए बनाई जाती है। लेकिन यह प्रवृत्ति बदल रही है। अब, पोर्नोग्राफ़ी के क्षेत्र में, न केवल वयस्क परन्तु अधिक से अधिक किशोर और बच्चे जबरदस्ती अथवा स्वेच्छा से लिप्त हो रहे हैं। भारत में, निजी तौर पर अश्लील सामग्री को डाउनलोड करना और देखना कानूनी है, लेकिन  इसका  उत्पादन या वितरण अवैध है।

लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम, 2012 (पोक्सो)

इस अधिनियम के तहत एक बच्चे का यौन उत्पीड़न, शोषण और  पोर्नोग्राफ़ी बनाना  दंडनीय अपराध हैं और इसमें कारावास का दंड अपराध के स्तर के आधार पर 3 साल से लेकर उम्रक़ैद तक  हो सकता है। यह अधिनियम प्रत्येक प्रक्रम पर बच्चों के सर्वोत्तम हित और कल्याण को सुनिश्चित करता है।

एक बालक के यौन शोषण मेंनिम्न व्यवहार और दृश्य शामिल हैं : किसी भी शब्द को बोलना या ध्वनि निकलना, किसी भी प्रकार का इशारा करना या शरीर के किसी भी वस्तु या भाग का प्रदर्शन करना जिससे कि एक बच्चे को उसके शरीर या उसके शरीर के किसी भाग को प्रदर्शित कराया जा सके, बच्चे के शरीर के किसी भी भाग की या किसी यौन कृत्य में बच्चे की भागीदारी को किसी भी रूप या मीडिया में पोर्नोग्राफ़िक के लिए ऑब्जेक्ट् बनाना, पोर्नोग्राफ़ी उद्देश्यों के लिए एक बच्चे को मोहित करना।

माता-पिता के लिए ज़रूरी है किवह अपने बच्चों को सही और गलत स्पर्श तथा सही और गलत दृष्टि के बारे में बताएं। उन्हें इसके बारे में जागरूक करें और प्रोत्साहित करें कि वे अपने माता-पिता और अपने शिक्षकों पर भरोसा करें। तथा यदि कुछ गलत लगता है या गलत महसूस होता है तो उसे तत्काल अपने माता-पिता अथवा शिक्षकों को बताएं चाहे ग़लती करने वाला व्यक्ति कोई पारिवारिक  सदस्य या मित्र से भी जानकारी दें। तथा उन्हें सिखाएं की वे डरें नहीं।

बाल पोर्नोग्राफी के प्रकार
1.  सेक्स व्यापार उद्योग
2. स्व-रचित पोर्नोग्राफी

1.सेक्स व्यापार उद्योग :ये उद्योग डिजिटल मध्याम जैसे फ़ोटो, कार्टून, एनीमेशन, ध्वनि रिकॉर्डिंग(ऑडियो), एम,एम,इस, वीडियो गेम , ऑनलाइन अभिलेख, फ़िल्म, तथा प्रिंट मध्याम जैसे कॉमिक्स, कार्ड, पोस्टर, किताबें, पत्रिकाएं, चित्रकला के द्वारा बाल पोर्नोग्राफी का व्यापार करतीं हैं। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) के एक अध्ययन में पाया गया कि ये उद्योग पोर्नोग्राफी के लिए ज्यादा-से-ज्यादा किशोरों के इस्तेमाल कर रहे हैं।


बाल पोर्नोग्राफी का वर्तमान दृश्यबहुत ही भयानक और चिंताजनक है। 2007 में, महिला एवं बाल विकास मंत्रालय, भारत सरकार ने बाल शोषण पर एक अध्ययन किया था। इस अध्ययन के अनुसार, 12,446 बच्चों में से, 4.46% का नग्न फोटोग्राफ लिए गये। और इन बच्चों में 52.01% लड़के थे और 47.9 9% लड़कियां थीं।

बेडटाइम स्टोरीज : 'स्वीट ड्रीम्स': सेक्स पोर्न और इरॉटिका का 'साहित्य'बाजार

2011 में गृह मंत्री राज्य मंत्री एम. रामचंद्रन ने लोकसभा में  राज्यानुसार उन बच्चों का प्रतिशत बताया जिनकी नग्न फोटो ली गयी थी। देश भर में दर्ज मामलों की संख्या 2007, 2008, और 2009 में क्रमशः 99, 105 और 139 थी। महाराष्ट्र में आंकड़े क्रमश: 27, 17 और 25 थे। केरल में, आंकड़े इसी अवधि के लिए 20, 39 और 44 थे।

बेडटाइम स्टोरीज : 'स्वीट ड्रीम्स': सेक्स पोर्न और इरॉटिका का 'साहित्य'बाजार -2

बच्चों के व्यवसायिक यौन शोषण (सीएसईसी)

किसी तृतीय पक्ष द्वारा नकदीया वस्तु के वित्तीय लाभ के लिए तस्करी, बिक्री और बाल विवाह जैसी व्यवस्थाएं बच्चों को यौन साथी के रूप में पेश करती हैं। आगरा-दिल्ली-जयपुर के त्रिभुज बेल्ट पर पारंपरिक मनोरंजन समूह में कई समुदाय शामिल हैं। इन समुदायों की लड़कियों अपनी देह व्यापर से परिवार का लालन-पालन करती हैं। ये समुदाय अपनी बेटियों को यौन मनोरंजन से कमाने के लिए प्रशिक्षित करते हैं और उन्हें यह विश्वास दिलाते हैं कि यही उनका एकमात्र व्यवसाय है।


2. स्व-रचित (बाल) पोर्नोग्राफी :बच्चों द्वारा स्व-निर्मित खुद का अश्लील चित्र। मुखर यौन चैट, सेक्सटिंग तथा खुद से या खुद की नग्न तस्वीरों का वयारल वितरण करना जिसे साइबर तांक-झांक कहते हैं, शामिल है।
नई तकनीक के आगमन और इंटरनेट की बढ़ती पहुंच के साथ-साथ जोखिम के कारकों में वृद्धि हुई है। दुर्व्यवहार करने वाले और पीडोफाइल इंटरनेट की ओर बढ़ रहे हैं। और वे बच्चों को मेनिप्यूलेट, प्रभावित और फुसला रहे हैं। यह प्रवृत्ति बहुत अधिक हानिकारक है क्योंकि बच्चों को उनकी इच्छा के खिलाफ मजबूर नहीं किया जाता है, बल्कि स्वेच्छा से भाग लेने के लिए ब्रेनवॉश किया जाता है। क्योंकि उनकी अपरिपक्वता के कारण वे अपने कर्मों के परिणामों को समझने में असमर्थ हैं और छल साधने इस का लाभ उठाते हैं। इंटरनेट उद्योग ने माता-पिता को कई फ़िल्टरिंग सिस्टम प्रदान किए हैं जैसे साइबर वॉच, नेट नेनी और साइबर नेनी आदि।  लेकिन ये सिस्टम कोई भी वास्तविक समाधान को प्रदान नहीं करती हैं, बल्कि ये केवल शॉर्टकट हैं जो बड़ी समस्या को अनदेखा कर रहे हैं।

वे लाइव पोर्न में प्रदर्शन के पूर्व ईश्वर को प्रणाम करती हैं !

सेक्सटिंग:
सेक्सटिंग एक हाल ही में बढ़ती हुई प्रथा को दर्शाती है जिसमें लोग सेल फोन या कंप्यूटर और मैसेजिंग एप्लिकेशन का उपयोग करके  स्वयं की नग्न या अर्द्ध-नग्न छवियों दूसरों को (जैसे मित्र या डेटिंग साथी) भेजते हैं। इसमें स्वयं खिंची फोटो, लिखित यौन संदेश, एमएमएस, वीडियो, ऑडियो आदि शामिल हैं।


लोग पोर्न क्यों देखते हैं? (पोर्नोग्राफी की खपत)

पोर्नोग्राफी कल्पनाओं (प्रकृति), श्रेणियों और क्रूरता से भरा हुआ है,  पोर्नोग्राफी कल्पनाओं (प्रकृति), श्रेणियों और क्रूरता से भरा हुआ है जो देखने वाले के पशु पक्ष को प्रज्वलित करता है, और धीरे धीरे एक लत में बदल जाता है। पोर्न कई प्रकार की शैली, विधि और कल्पनाओं को दिखाती है और यह मानसिकता विकसित करती है कि पोर्न ही सबसे अच्छा तथा बहुत बढ़िया सेक्स है। यह खुद को व्यक्तिगत समस्याओं को हल करने वाले एक शिक्षक में बदलती है। यह हताशा से बचने के लिए यौन ऊर्जा को निकालने के लिए कहती है; किशोरावस्था में बच्चों को यौन शिक्षा सीखने का दावा करती है, जानकरी देने का दावा करती है जो यौन रिश्ते बनाने में क्या करना है और कैसे करना है।लेकिन दुर्भाग्यवश, इसमें कोई आत्मीयता और प्रेम शामिल नहीं होता है बल्कि यह निष्कपट, कल्पना-आधारित विषयों को प्रस्तुत करती है जो सेक्स को संदर्भ के बाहर कर देती है और दर्शकों के मनोरंजन के लिए फूहड़ता दिखती है।

लोग पोर्न क्यों बनाते हैं? (पोर्नोग्राफी का निर्माण)

बच्चों के बहुत कम उम्र में यौन सामग्रियों से अवगत होने के कारण वे कम उम्र में ही परिपक्व होते जा रहे हैं। इस कारण, बच्चों को अश्लील देखने की आदत के दुष्प्रभाव और नतीजे नहीं पता होते हैं, और कुछ समय बाद वे इसके आदी हो जाते हैं। बच्चे वयस्कों की नकल करते हैं, चाहे वे उनके माता-पिता हों, पड़ोसी हों, रिश्तेदार हों, फिल्म नायक-नायिका हों, या पोर्न अभिनेता हों। ठीक उसी तरह बच्चे बड़ो की कार्यों तथा उनके क्रियाओं की भी नकल करते हैं। नकल की शुरूआत होती है पोर्न देखने से होती है, फिर पोर्न का तथा उसकी क्रियाओं का अनुकरण होता है, और समय के साथ यह अधिक तीव्र होती जाती है। पोर्न का यह निर्विवाद शिक्षण बच्चों को असंवेदनशील बनाता है, और दुनिया व् समाज का ज्ञान न होने के कारण, वे शोषण करने वालों की चपेट में आ जाते हैं। एक समय के बाद बच्चों में पोर्नोग्राफ़ी की लत, उसकी नकल और असंवेदनशीलता उन्हें सरेआम कामुक व्यवहार करने के लिए प्रेरित करती है। इस वजह से, वे सामाजिक रूप से व्याकुल हो जाते हैं, कमजोर हो जाते हैं, आत्म नियंत्रण खो देते हैं और अलग महसूस करते हैं।


निष्कर्ष (वास्तविक समाधान):

बाल पोर्नोग्राफी दिन-प्रतिदिन बढती जा रही है। इस समस्या को इसकी जड़ों से बाहर निकालना ही इस समस्या का एकमात्र समाधान है। हमें वास्तविक समस्या और कारणों पर ध्यान देने की जरूरत है जहां से यह सब शुरू होता है; और वह बचपन से है, एक व्यक्ति की परवरिश से है। माता-पिता को न केवल अपने बच्चों को उन पर विश्वास करने के लिए करना चाहिए हैं, बल्कि उनके साथ समय भी बिताना चाहिए। उन्हें अपनी किशोरावस्था की परेशानियों और चुनौतियों के बारे में बताएं, उन्हें उनके शारीरिक परिवर्तनों के बारे में सूचित करें और उन परिवर्तनों के बारे में सहज महसूस करायें। जब बच्चे अपने माता-पिता पर भरोसा करते हैं, सही और गलत के बीच का अंतर पहचानते हैं, तब उनमें आत्मविश्वास भर जाता है और वे अप्राकृतिक अभिलाषाओं से नहीं घिरते हैं ना ही पर्नोग्राफ़ी में लीन होते हैं, न किशोरावस्था में ना बढे होने के बाद। उनकी गलतियों में सहायता करना और उनके फैसले पर भरोसा करना इस बड़ी समस्या को हल कर सकता है और पोर्नोग्राफी को जड़ से उखाड़ सकता है।

स्त्रीकाल का प्रिंट और ऑनलाइन प्रकाशन एक नॉन प्रॉफिट प्रक्रम है. यह 'द मार्जिनलाइज्ड'नामक सामाजिक संस्था (सोशायटी रजिस्ट्रेशन एक्ट 1860 के तहत रजिस्टर्ड) द्वारा संचालित है. 'द मार्जिनलाइज्ड'मूलतः समाज के हाशिये के लिए समर्पित शोध और ट्रेनिंग का कार्य करती है.
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सुनो पुरुष: असुंदर और वेश्यायें भी लेखिका हो सकती हैं, कवि, आलोचक और निर्णायक भी

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Literary sexism has been wreaking havoc on the self-esteem of women writers for centuries — even in our seemingly more enlightened times. And now, suddenly, it's become fashionable to openly dismiss notions of gender inequality and brand complainants as "privileged whingers".
Jane Sullivan

साहित्यिक लिंगवाद सदियों से महिला लेखकों के आत्मसम्मान पर कहर बरपा रहे हैं - यहां तक कि हमारे प्रबुद्ध रूप से अधिक प्रबुद्ध समय में। और अब लैंगिक असमानता और ब्रांड शिकायतकर्ताओं को "विशेषाधिकार प्राप्त कातिल"के रूप में खारिज करना फैशन हो गया है

मंटों वेश्याओं की कहानियां लिखतेथे, महान कथाकार थे. पुरुष साहित्यकार प्रेम की कथाएं पढ़ते, रचते हैं वे महान हैं. वे सब महान हैं जो पुरुष हैं और महिलाओं के साथ विशेषाधिकार प्राप्त प्रेमी का आचरण करते रहे हैं. ये सब अपनी रचनाओं से मूल्यांकित होंगे. लेकिन जब स्त्री लिखेगी तो उसके निजी रिश्ते किससे कैसे रहे, वह दिखती कैसी है, उसके सेक्स आचरण कैसे हैं, आदि उसके मूल्यांकन के आधार होंगे.


यह कोई नया सिलसिला नहीं है, लेकिन उस समय में जब सनी लियोन के लेखन का हमसब स्वागत कर रहे हैं लेखिकाओं के खिलाफ पुरुष साहित्यकारों, आलोचकों के एक खेमे से, जिनकी प्रगतिशील दावेदारी भी है, मूल्यांकन और आलोचना के सेक्सिस्ट हमले हो रहे हैं. एक बार फिर हिन्दी साहित्य के महारथियों ने सिद्ध कर दिया है कि मूलरूप से जातिवादी और स्त्रीविरोधी हैं-हाई कास्ट मेल हैं.

पिछले तीन दिन से हिन्दी साहित्यकी दुनिया सोशल मीडिया पर स्वयं अपनी परतें खोल रही है. हालांकि सोशल मीडिया में सक्रिय लेखिकाओं ने जब जमकर प्रतिरोध किया तो परदे के पीछे भी डैमेज कंट्रोल की कवायाद शुरू हो गई है. इस दशक की शुरुआत में ही हिन्दी के एक लेखक और बड़े मठाधीश के रूप में तब उभरे और हिन्दी विश्वविद्यालय के कुलपति विभूति नारायाण राय ने लेखिकाओं को छिनाल और कामदग्ध कुतिया कहा था. काफी विरोध हुआ उनका. तब भी डैमेज कंट्रोल के खेल शुरू हो गये थे. अभी भी उनकी साम्रदायिकता विरोधी चैम्पियन की छवि से उनके इस सेक्सिस्ट आचरण का डैमेज कंट्रोल होता है. तब जो पर्दे के पीछे सक्रिय लोग थे उनमें से कुछ अभी भी हैं, लेकिन चूकी  मठ बड़ा नहीं है, गिरोह बड़ा नहीं है इसलिए उसकी संख्या भी उतनी बड़ी नहीं है. हालांकि विरोध भी उतना बड़ा नहीं है.

कवि कृष्ण कल्पित ने एक सम्मानमें निर्णय के बहाने निर्णायक अनामिका के खिलाफ एक निहायत आपत्तिजनक टिप्पणी की, जिसका स्वाभाविक रूप से विरोध हुआ. विरोध के जवाब में कल्पित विरोध करने वाली लेखिकाओं के खिलाफ भी उसी अंदाज में हमलावर हुए. शुरू में उनसे माफी की मांग भी उठी जो धीरे-धीरे उनके अपने गिरोह की सक्रियता के असर से कमजोर भी होने लगी है. कल्पित के हमले न सिर्फ सेक्सिस्ट हैं उनकी प्रशंसाएं भी उतनी ही सेक्सिस्ट हैं. मसलन उनके तीन पोस्ट की बानगी है:

अनामिका के खिलाफ: 

अनामिका पिछले एक वर्ष से बहुत से युवा कवियों को अपनी कविता के साथ घर बुलाती रही हैं । उन्होंने उनमें से एक जवान कवि का चुनाव किया है । इसमें किसी को क्यों ऐतराज़ हो रहा है ? यह उनका व्यक्तिगत फ़ैसला है, जिसका हमें सम्मान करना चाहिये !
#भारतभूषणअग्रवालपुरस्कार_2017 १.
किसी को दाढ़ी वाला पसन्द आता है तो किसी को सफाचट - अपनी-अपनी सौंदर्याभिरुचि है !

लेखिका गीता श्री के खिलाफ: 

अपने छोटे से जीवन में मेरा सामना विकट औरतों से हुआ है, लेकिन गीताश्री जैसी फूहड़, बदतमीज, और गंवार औरत, जिसको लेखिका होने का भरम भी है; दूसरी नहीं देखी.
सुबह से यह औरत मुझे कुंजडियों की तरह गालियाँ दिये जा रही है. कुंजडी सुंदर हो तो गालियाँ भी मीठी लगती है, लेकिन यहाँ तो दीवार से सिर मारना ठहरा......

और लेखिका वंदना राग की प्रशंसा में: 

वंदना राग जी मैं आपके लिखे का कायल हूँ, आपको ध्यान से पढ़ता रहता हूँ. आपकी संवेदना, पारदर्शी गद्य, आपकी मुस्कराहट और घुंघराले बालों का मैं प्रशंसक हूँ.
.......................................................................मेरी स्त्री सम्मान को कम करने की मंशा नहीं थी. कुछ बदमाश औरतों और मेरे दुश्मनों ने बात का बतंगड बना दिया.

ये तीनो ही उद्धरण भाषा और समझके स्तर पर लेखक के स्त्रीविरोधी और जातिवादी मानसकिता को सामने लाते हैं. और तुर्रा यह कि वे अपने बचाव में या फिर उनके बचाव में दूसरे लोग यह समझाने की कोशिश कर रहे हैं कि भले मानुष का यह आशय नहीं था. आशय यदि पुरस्कार के चयन का विरोध ही था यदि मान लिया जाये तो क्या पुरस्कारों के निर्णायकों का विरोध इसी भाषा के साथ अब तक होता रहा है. पिछले साल इसी भारतभूषण अग्रवाल सम्मान के निर्णायक उदय प्रकाश थे, उनके निर्णय का भी विरोध हुआ, लेकिन विरोध की भाषा वह क्यों नहीं थी जो अनामिका के प्रसंग में है. क्या कल्पित या दूसरे लोग  पुरुष रचनाकारों के लेखन की प्रशंसा करते हैं तो उसके रूप सौन्दर्य, मुस्कान और घुंघराले बालों की प्रशंसा करते हैं, या अपनी प्रशंसा की कसौटी बनाते हैं. वंदना राग की प्रशंसा की भाषा क्या कल्पित जी के पद्य-गद्य की प्रशंसा की भाषा हो सकती है. क्या मुस्कराहट और बिना घुंघराले बालों के वंदना राग के गद्य की पारदर्शिता और उनकी संवेदना कुछ कम जाती हैं ?

समर्थन की भाषा और भंगिमा भी सेक्सिस्ट

यह तो हुई विरोध की भाषा औरभंगिमा अनामिका के समर्थन में भी सोशल मीडिया में जो पोस्ट हो रहे हैं वे भी अंततः स्त्रीविरोधी वक्तव्य और भंगिमा ही हैं. कोई उन्हें स्नेहिल बहन बता रहा है, कोई ममतालू माँ. यदि वे ये दोनों ही नहीं होतीं तो उससे उनके लेखन का क्या संबंध होने वाला है या उनके उस निर्णय से. अनामिका इन रिश्तों के अलावा किसी की पत्नी, किसी की प्रेमिका या किसी की दोस्त भी हो सकती हैं. इन सबसे बढ़कर वे किसी की कुछ भी नहीं हो सकती हैं वे सिर्फ अनामिका हो सकती हैं तो इस होने से लेखन और आलोचना का क्या संबंध है?

समर्थन और विरोध की इस भाषा और भंगिमा में हमारी लेखिकाएं भी पीछे नहीं हैं. उषा किरण खान ने लिखा:

कृष्ण कल्पित जी,मैं एक प्रगल्भ माँ थी और आप बीए में पढ़ने वाले किशोर ।मेरी कहानी और आपकी कालजयी कविता "बेटा इकलौता"आदरणीय भारती जी ने बड़े विज्ञापन करके छापा था। तबले आपकी प्रतिभा की मैं क़ायल हूँ । आपने भी सदा बड़ी बहन वाला आदर दिया है।आप हमारे शहर में दो बार अधिकारी बन दूरदर्शन में आये जो साहित्यकारों के विचरण का स्थल है ज़ाहिर है हम मिलते रहे। कभी आपको अभद्र नहीं पाया। आपने यहाँ परिश्रम किया यह हम देखते रहे। आपने कई बार जिसे पसन्द नहीं किया उसे भी बुलाते रहे ।आपकी छवि मेरे मन में सदा एक किशोर की रही। साहित्य आपका ओढ़ना बिछाना है । उसके सहित को लेकर चलने में क्या हर्ज है? मुझे पता है आपकी मात्र एक बिटिया है ,क्या उसे महिलाओं के सम्बन्ध में आपके ये विचार (जिसे अपशब्द कहे और जिसका नखशिख वर्णन किया)रुचेंगे?
आपने विराट अध्ययन किया है उसका मान रखें। कुछदिन मौन रहकर मनन करें। आप शेखावटी के हैं , राखी के समय का ध्यान रखें।
मैं यात्री काका(नागार्जुन ) से भी कहती और रोकने में सफल होती थी.

हिन्दी साहित्य और समाज का लिटमस 

उषा किरण खान अपने पोस्ट में कुछ यूं लिख रही हैं मानो कल्पित कोई एक ऐसा पीडित गुट हों, जिनसे दूसरा गुट लड़ रहा है. मैं इस पोस्ट  के साथ दांग रह गया कि क्या हमारी सम्मानित लेखिकाएं भी इसे एक साहित्यिक संघर्ष के रूप में देख रही हैं? क्या मामला इतना भर है. नहीं. यह प्रसंग साहित्य के भीतर हाई कास्ट मेल की दृष्टि का है. इसकी आलोचना होनी चाहिए थी और इसे एक हिन्दी साहित्य और समाज के लिटमस की तरह देखा जाना चाहिए था.

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सेक्सिस्ट बयानों और ट्रोलिंग के खिलाफ आगे आये लेखक: जारी किया वक्तव्य

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वक्तव्य / Statement

हिन्दी जगत में साहित्यिक पुरस्कारों पर विवाद कोई नई बात नहीं है।पिछले कुछ समय से भारतभूषण अग्रवाल कविता पुरस्कार (जो 35 वर्ष से कम अायु के कवि द्वारा लिखी गई वर्ष की सर्वश्रेष्ठ हिन्दी कविता के लिए दिया जाता है) विवाद के केन्द्र में रहा है अौर कविता के चयन पर तरह तरह की प्रतिक्रियाएं देखने को मिली हैं। लेकिन सोशल मीडिया अौर दूसरे मंचों पर कुछ पुरुष लेखकों ने, जिनमें युवा और प्रौढ़ दोनों तरह के लोग हैं, जिस भद्दे और अाक्रामक स्त्री-विरोधी रवैये और अश्लील भाषा का प्रदर्शन किया है, उससे हम स्तब्ध हैं। दुःख की बात यह है कि इनमें से अनेक लोग अपने को लोकतांत्रिक, उदारमना और कुछ तो वाम रुझान वाला मानते हैं।

पिछले साल पुरस्कार के लिए चयनित कवि शुभमश्री और उनकीकविता पर अशोभनीय अौर अपमानजनक ढंग से हमले किये गये थे। इस वर्ष अश्लील हमले का निशाना चयनकर्ता अनामिका को बनाया गया है। हमें डर है कि इससे एक ऐसी अस्वस्थ परम्परा की नींव पड़ रही है जिसके तहत हर तरह के स्त्रीद्वेषी, मर्दवादी विमर्श, सामन्ती मानसिकता के खुले प्रदर्शन और साहित्य जगत में लफ़ंगेपन को वैधता मिलेगी। दूसरी तरफ़ इसी समय अति-दक्षिणपंथी विचारों के नैतिक-प्रहरी और ट्रॉल भी सक्रिय हैं जो अपनी ज़हरीली भाषा के साथ, छद्मवेश में तरह तरह के भ्रम और दुष्प्रचार फैलाने, और चरित्रहनन करने में मशग़ूल हैं।


हम सभी लेखकों और साहित्यप्रेमियों की चिंताओं के भागीदार हैं जो इस वस्तुस्थिति से परेशान हैं, और उन लेखकों के साथ एकजुटता व्यक्त करते हैं जिन्हें हाल ही में असभ्य और प्रतिक्रियावादी हमलों का निशाना बनाया गया है। समकालीन हिन्दी साहित्य सांस्कृतिक गुंडों, उनके भटके हुए अनुयायियों और प्रच्छन्न क़िस्म के फ़ासीवादी दस्तों के लिए कोई खुला मैदान नहीं है।
शुभा
प्रशांत चक्रवर्ती
मंगलेश डबराल
मनमोहन
दूधनाथ सिंह
नरेश सक्सेना
असद ज़ैदी
राजेश जोशी
अली जावेद
अमिताभ
अनीता वर्मा
अपर्णा अनेकवर्णा
अरुण माहेश्वरी
चंदन पांडेय
चमनलाल
देश निर्मोही
धीरेश सैनी
जवरीमल पारख
किरण शाहीन
कुलदीप कुमार
कुमार अंबुज
कुमार विक्रम
लाल्टू
लीना मल्होत्रा
महरुद्दीन ख़ाँ
महेश वर्मा
मुकुल सरल
निर्मला गर्ग
नूर ज़हीर
पल्लव
पंकज चतुर्वेदी
पंकज श्रीवास्तव
प्रत्यक्षा
अार चेतनक्रांति
रंजीत वर्मा
रवीन्द्र त्रिपाठी
संजीव कुमार
समर्थ वशिष्ठ
सरला माहेश्वरी
शालिनी जोशी
सुमन केशरी
शिवप्रसाद जोशी
शीबा असलम फ़हमी
शेफ़ाली फ़्रॉस्ट
सुषमा नैथानी
तरुण भारतीय
त्रिभुवन
वंदना राग
विनोद दास
वीरेन्द्र यादव
संजीव चंदन
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STATEMENT

“Events like announcement of a literary award often cause a stir in Hindi literary circles. Lately the Bharatbhooshan Agrawal Award (given for the best Hindi poem of the year written by a poet from the age group under 35) has been the focus of controversy, provoking a variety of reactions questioning the validity of the decision. We are especially distressed at the ugly display of aggressive misogyny and intemperate language from a number of men, young and old, in social media and print journalism, some of them profess to be liberal, democratic, and few of them like to call themselves left-leaning.

“Last year the awarded poem and its author, Shubham Shree, were the target of a barrage of derogatory and abusive attacks. Interestingly, this year it was the turn of the selector, Anamika, who is facing scurrilous attacks. This sets an unhealthy precedent whereby the openly sexist discourse, assertion of feudal mindset and lumpenisation of literary universe is being given legitimacy. In addition, the literary vigilante of ultra right persuasion are contributing their own bit in poisoning the atmosphere by generating a miasma of confusion, character assassination, impersonation, fakery and vile speech.

“We share our concern with all the writers and readers who have been dismayed at these developments, and express our solidarity with the writers who have been targets of these uncivil and reactionary assaults. The domain of contemporary Hindi literature is not yet ready to be taken over by the cultural brutes, their misguided followers and crypto-fascist militias.”
Shubha
Prasanta Chakravarty
Mangalesh Dabral
Manmohan
Doodhnath Singh
Naresh Saxena
Asad Zaidi
Rajesh Joshi
Ali Javed
Amitabh
Anita Verma
Aparna Anekvarna
Arun Maheshwari
Chaman Lal
Chandan Pandey
Desh Nirmohi
Dheeresh Saini
Jawari Mal Parakh
Kiran Shaheen
Kuldeep Kumar
Kumar Ambuj
Kumar Vikram
Laltu
Leena Malhotra
Maheruddin Khan
Mahesh Verma
Mukul Saral
Nirmala Garg
Noor Zaheer
Pallav
Pankaj Chaturvedi
Pankaj Srivastava
Pratyaksha
R Chetankranti
Ranjeet Verma
Ravindra Tripathi
Samartha Vashishtha
Sanjeev Kumar
Sarla Maheshwari
Shalini Joshi
Sheeba Aslam Fehmi
Shephali Frost
Shivprasad Joshi
Suman Keshri
Sushma Naithani
Tarun Bhartiya
Tribhuvan
Vandana Rag
Vinod Das
Virendra Yadav
Sanjeev Chandan

स्लीपिंग पार्टनर

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अरविंद जैन
स्त्री पर यौन हिंसा और न्यायालयों एवम समाज की पुरुषवादी दृष्टि पर ऐडवोकेट अरविंद जैन ने महत्वपूर्ण काम किये हैं. उनकी किताब 'औरत होने की सजा'हिन्दी में स्त्रीवादी न्याय सिद्धांत की पहली और महत्वपूर्ण किताब है. संपर्क : 9810201120
bakeelsab@gmail.com

शताब्दी अपनी रफ्तार से भागी जा रहीथी। मैं सारे रास्ते जाने क्या-क्या सोचता समझता रहा और समीक्षा, सामने सीट पर पैर पसारे ‘कैट स्केनिंग’ करती रही।

 मेरे दिमाग में सालों पीछे छूटा गाँव, घर, खेत, खलिहान और गुरुकुल बसते-उजड़ते रहे, लहंगा-ओढ़नी पहने नानी माँ किस्से-कहानियाँ सुनाती रही और बहुत से नंग-धडंग बच्चे दूर जंगल में भेड़-बकारियाँ चराते रहे।

बीच-बीच में ऐसा लगता जैसे बिनाबताए डाकिया, बंद दरवाजे के नीचे से कोना फटा पोस्टकार्ड सरका कर चला गया हो। हर बार कोना फटा पोस्टकार्ड। उस समय ममता, करुणा, स्नेह, प्रेरणा, प्रतिभा और स्मृति के शवों और शवों की स्मृतियों में चौतरफा घिरा मैं,   शमशान सा उदास और अकेला हो जाता। बता नहीं सकता कितना बैचैन.... कितना परेशान।

अनुवाद

समीक्षा-कोई मिथक, कल्पना या सपना नहीं, हाड़-मास की जीती-जागती, हँसती-खेलती और घूमती-फिरती लड़की है। लेकिन पता नहीं क्यों कभी लगता कल्पना या सपना भी हाड़- मांस की जिन्दा लड़की हो सकती हैं और कभी लड़की भी मिथक, कल्पना या सपना सी लगने लगती। ‘मेकअप’ में वह मुझे भी ऐसी जासूस लगती जो मेरी क्या मेरे महाजनक तक की जन्मपत्री बांचे हुए हो और कभी जादुई काहानियों वाली साक्षात् जादूगरनी, चुडैल या डायन जो मौका लगते ही मुझे तोता, बुलबुल, मैना या कबूतर बना कर सोने के पिंजरे में बन्द कर देगी। ऐसे में मुझे उस खतरनाक लड़की से बेहद डर लगता ओर बार-बार मन करता कि सब कुछ छोड़-छाड़ कर कहीं दूर पहाड़ी जंगलों में जा साधु-संन्यासी बन जाऊँ, घोर तपस्या करुँ, और मोक्ष प्राप्त करके जीवन जीवन-मरण के दुष्चक्र से सदा-सदा के लिए छुटृी पाऊं। लेकिन ‘किन्तु-परन्तु’ और ‘अगर-मगर” ने  मुझे पूजा साधना या अराधना में ही उलझाए रखा और कभी कुछ करने ही नहीं दिया।

समीक्षा की भाषा में मैं अपने पिता और वह अपनी मम्मी की कार्बन-कॉपी हैं।  मुझे नहीं मालूम माँ कब, कहाँ, कैसे और क्यूँ मरी या मार दी गयी हैं। हाँ! जब भी कोई पूछता, ‘‘आपका नाम, बाप का नाम?’’ तो मैं बिना सोचे-समझे बता लिखा देता वाही नाम जो मेरे स्कूल सर्टिफिकेट में लिख लिखा दिया गया था। मम्मी-पापा के प्रेत, हर समय हमारे आस-पास मंडराते रहते और पता नहीं हम कभी इनसे मुक्त हो भी पाएंगे या नहीं।
मैं अक्सर कहता-काश! हम मम्मी-पापा होते।

नानी माँ के जाने के बाद कई-कई बार सोचना पड़ता स्थायी अता-पता और सोचते-सोचते आकाश बयां के घोसलों सा लटका नजर आता। उजाड़ और सुनसान। ऐसे समय में सुबह से शाम तक मैं हर कुछ देर बाद माचिस की एक तिल्ली जलाता और रोज यह फैसला करके सोता या सो जाता कि कल पूरी माचिस में ही आग लगा दूँगा, .... आग। लेकिन कह नहीं सकता क्यों?  समीक्षा जब भी चश्मा उतार लाड़ से कहती, ‘‘तुम बिल्कुल पापा जैसे लगते हो।’’ तो मुझे महसूस होता कि या तो उसके पापा ही मेरे पिता होंगे या फिर मेरे पिता उसके भी पापा। मैं अनुमान लगाता- ‘हो सकता है उसकी मम्मी ने मरते समय सच बता दिया हो’ और कान में नानी माँ कहने लगती, ‘‘कोई भी आदमी या औरत, मरते समय झूठ नहीं बोलता।’’ मुझे नहीं मालूम उसकी ‘मेम साहब’ सी मम्मी ने सच बोला या झूठ । मुझमें जब पालतू पिल्ले से पापा नहीं मिलते तो वह अक्सर ‘स्माइल प्लीज’ जैसी हँसी दिखाते हुए कहती, ‘‘ यू सन् ऑफ ए गन’’ और बिलियर्ड खेलने लगती। कई बार जीती जाती तो उसे शक होता  कि मैं उसे जानबूझ कर जीतने देता हूँ। शायद इसलिए उसने एक दिन झल्ला कर कहा भी, ‘‘हाई यू आलवेज गिव ए मिस?’’ मैं सिर्फ ‘‘ ओह नो... मिस.... नो’ कह कर टालने की कोशिश करता रहा।

वह दुधिया रोशनी में दुनिया भर के चमड़ा उघोग के शेयरों के भाव बताते-बताते अचानक अपना पर्स उठाती और यह कह कर ठक.... ठक.... ठक... करती मेरी समझ से बाहर चली जाती- ‘‘यू आर ट्राइंग टू किस ए गनर्ज डॉटर।’’

मैं दुधिया रोशनी में गालियाँ देता, कार्टूनबनाता, प्रेम कविताएँ लिखता, इन्द्रजाल फैलता, सफेद कमीज को लाल-काली  करता, और सारा दिन बू...बू... करता प्याज के छिलके उतारता रहता। अपने को “वाईज” और उसे “अदरवाईज” समझता मैं, कभी गिटार बजाता ओर कभी जोर-जोर से गाता‘‘इट... इज ए मैड... मैड मैड वर्ल्ड.....’’

होश आता तो समीक्षा..... समीक्षा प्लीजसमीक्षा करने लगता। वह जितना पढ़ाती- समझाती- रिझाती मैं अपने पिताजी की तरह उतना ही उलझता ऐंठता चला जाता। उस समय वह एकदम मम्मी सी लगती। हर बार वह ब्रह्माण्ड सुन्दरी सी हँसती हुई आती मगर जाते-जाते बच्चों की तरह रोने लगती। कई दिनों तक वह मन में गुलाबी मछली सी तैरती रहती और मैं ऑइस बॉकस से बेडरुम में पड़ा-पड़ा ‘शो पीस’ देखता रहता। नींद में चूल्हे पर चाय का पानी रख शान्ति की तलाश में निकल पड़ता। हाथी दांत से बने द्वार तक पहुँचते-पहुँचते ऐसा लगता जैसे धरती से अम्बर तक आग लगी है.... आग लगी है इस कोने से उस कोने तक दुनिया भर में। चारों ओर चंदन वन में विष वृक्षों पर फन फैलाये सांप, टहनियों से लटके लिपे-पुते भयावाह चेहरे और आगे-पीछे टहलते हाथियारबन्द शिकारी नजर आते।

सुबह-सुबह अखबार सी समीक्षा आ दरवाजा खटखटाती तो मैं हड़बड़ा कर उठता। दरवाजा खोलता ओर देखता कि कमरे में धुआँ ही धुँआ भरा है। चौखट पर खड़ी समीक्षा काफी देर तक दमें के मरीज की तरह खांसती रही और मैं ग्रर्भग्रह से बाहर निकल सड़क पर जहर खाकर मरे चूहों की शवयात्रा में शमिल हो कहने लगता- ‘‘ राम नाम सत है, सत बोलो गत है..’’

यस पापा

शवयात्राओं से लौटता तो “घर सूनाबिन कामिनी’ के आदेश- उपदेश देते ‘हैंड लैटर्स’ पढते- पढ़ाते मन में मिट्टी के घरौंदे बनाते- तोड़ते बच्चे खेलने लगते और आँखों में सजा शामियाना धूँ... धूँ कर जलने लगता। सामने शीशे में बणी - ठणी सी समीक्षा आ खड़ी होती और मैं जाने- अनजाने नाखून चबाते-चबाते अंगूठा चूसने लगता। दोनों आमने-सामने अड़े टिक.... टिक सुनते रहते और चुपके-चुपके हवाई जहाज बनाते - उड़ाते शाम हो जाती।
‘ड्राईक्लीन’ कर बाहर निकलता और बस स्टॉप पर पहुँचकर घंटों  सोचता- ‘कहाँ चला जाए? घूम-फिर कर क्लब पहुँचाता और रात देर गए टैक्सी पकड़ वापस आ जाता। नशे में कभी-कभी लगता बिस्तर में बेसिर -पैर की समीक्षा सोई पड़ी है- अँधेरे में सिर पैर ढूँढते-ढूँढते बेहद भयभीत और आतांकित हो चीखने की कोशिश करता लेकिन गले से आवाज नहीं निकलती। आँख खुलती तो पता लगता कि फर्श पर रजाई में दुबका पड़ा हूँ। बहुत देर तक समझ ही नहीं आता कि ऐसा कैसे हुआ? फिर सोचता शायद रात कुछ ज्यादा हो ही गई और रजाई उठा पलंग पर सोने की कोशिश करता लेकिन नींद न आती। सिरहाने रखे ‘मार्निंग गिफ्ट’ को बार-बार उलट-पुल्ट कर देखता और फिर से पैक करके रख देता। मैं करवटें बदलता गिनता-गिनाता रहता दिन, महीने, साल और हर साल अपने आपको समझाता- ‘ जो होगा, देखा जाएगा’ पर बार-बार ख्याल आता बचपन में बिछुड़े बसन्त से न जाने कब मिलना होगा?’’ होगा... नहीं होगा’.... शायद हो... शायद नहीं। सोकर उठता तो बहुत देर तक सिर पकड़ कर बैठा रहता। ‘हैंग औवर’में पानी पीते-पीते याद आता- ऐसे ही एक रात वह भी पीकर आई थी। न जाने कहाँ से और कितनी ।  सुबह हुई तो पता चला वह नहा-धोकर कब की चली गई और मैं उल्टियों से गन्धाते बिस्तर में पड़ा सपने देखता रह गया.... सपने।’

उस दिन के बाद सालों मेरे दिमाग में सारी-सारी रात वह भेष बदल-बदल कर फेरे  लगा  रही। कभी सार्थक के साथ ठहका लगा हँसती हुई, कभी वैभव और समर्थ के साथ रोती-पीटती हुई और कभी मोहित या प्रतीक की बाँहो में बेहोश। मैं नशे मैं बड़बडाता । चीखता-चिल्लाता और अमावस की रात में उसका पीछा करता लेकिन वह बहुत तेजी से भूरी- जंगली बिल्ली की तरह छलांग लगाते-लगाते सारी दीवारें तोड़ती, सरहद के उस पार भाग जाती और मैं बरामदे में पड़ी बैसाखियाँ समटेते-समटेते अपने बाल नोचने लगा।


लोग कहते-सुनते रहते। मैं गमले तोड़ता, फूल नोचता, किताबें फैंकता, नंग-धडंग, नाचता, लड़ता-झगड़ता, तितलियाँ पकड़ता, बारुद बिछाता और आग लगाता- लगाता पागलखाने पहुँच जाता। महीनों तक डाक्टर विद्याधर दिमाग ठीक करते मगर ऐसे दौर पड़ते ही रहे। शायद सिर्फ कारण बदलते रहते। कभी कुछ..... कभी कुछ।

समीक्षा पागलपन का पोस्ट.... पोस्ट....पोस्टमार्टम करती रहती और मैं बोर्डरुम में बैठे-बैठे एक भरी-पूरी और खेली खाई औरत का कच्चा चिट्ठा तैयार करते-करते सपनो की परिभाषा में उलझ जाता । मैं अक्सर चाय-कॉफी के साथ सिगरेट, कभी सिगार और और कभी पाइप पीते-पीते विरासत में मिले किसी पुराने प्लॉट पर ‘मल्टी स्टोरी” का नक्शा बनाने लगता। मालूम नहीं कितनी बार हवादार हवेली सा मन्दिर, किले की मजिस्द , शानदार कोठी या चर्च और एयरकंडिशंड बंगले सा गुरुद्वारा बनाता‘- मिटाता रहा या हवेली को किले और कोठी को बंगले में अदलता- बदलता या खरीदता-बेचता रहा।

समीक्षा मिलती तो खेलकूद से लेकरदर्शनशास्त्र तक पर शास्त्रार्थ करने लगती ओर मैं किले सी कोठी के ड्राईंगरुम में सिगरेट सुलगाता और लम्बा कश खींच धुँआ उंडेलते मन ही मन आत्मसर्मप्ण कर सोचता- छोड़ो! अभी बहस में पडूँगा तो सारा मामला और उलझ जाएगा। लेकिन आहत और अपमानित इतना कि ठांय! ठांय !! हवा में बन्दूक दागता रहता।

कभी वह समाजशास्त्र पढ़ाने- समझाने लगती और कभी भ्रूणहत्या से सती तक का इतिहास। बलात्कार हत्या और आत्महत्याओं के आंकड़े बताते-गिनाते उसका मुहँ गुस्से में लाल हो जाता। मैं दो घूँट  ले समझता- पगाल है.... पागल। जब देखो पता नहीं क्या- क्या पढ़ती लिखती बोलती रहती है।

सुलगती सिगरेट को ऐशट्रे में मसलता और उठकर धूमने- घुमाने चला जाता। घंटों गोल गुम्बद के नीचे बैठा-बैठा योजनाएँ बनाता- बिगाड़ता  रहता। समीक्षा किताबों की धूल झाड़ती या फटी- पुरानी धुन लगी पोथियों पर नरम और चिकने चमड़े का ‘कवर’ चढाती रहती। लौटने के बाद मैं  पड़ोस में गीता और मनु के साथ उनके लॉन मैं बैठा शतरंज खेलता- खिलाता रहता।


समीक्षा एक दिन भी नहीं मिलती तो मैं बैचेन हो जाता। वह नहीं आती तो मैं उसके यहाँ जा पहुँचता। जब कभी नहीं मिलती और दरवाजे पर ताला लगा होता तो मैं आशंकित हो अन्दाज लगाता- सार्थक.... समर्थ.... प्रतीक... वैभव ... मोहित। सब जगह चक्कर काटकर वापस आता तो वह बाहर सीढियों पर बैठी ‘वॉर अगेंस्ट विमेन’ या भविष्य फल पढ़ रही होती। एक दूजे को देख मेरी सांस में सांस आती और उसके सांवले चेहरे पर मोर नाचने लगते। ताला खोलने के लिए चाबियाँ ढूँढते- ढूँढते ध्यान आता- अरे। आज तो ‘यहाँ’ जाना था... आज तो “वहाँ” जाना था... समीक्षा को देख मन कहता, ‘ नहीं.... आज कहीं नहीं जाना था।’ इसके बाद मुझे कुछ भी याद नहीं रहता या मैं खुद ही जानबूझ कर सब भूल जाता। कभी समीक्षा मुझे ‘ आत्महत्या के विरुद्ध ’ कविता जैसी लगती और कभी हत्या होने से बची कथा - नायिका सी।

कई बार सोचा कह दूँ ‘लेट अस गो टू द वर्ल्ड’ लेकिन कभी अध्यादेश जारी करते पापा सामने आ खड़े होते और कभी डॉलर, पाउंड या दीनार उछालती प्रतीक एण्ड कम्पनी। उस दिन समीक्षा का जन्म दिन था (पता नहीं कौन सा? ) और रात को  चौराहे पर खड़े-खड़े बहुत हिम्मत बटोर मैंने ही कहा था, ‘‘ सभी .... क्षा... आज मेरे साथ चलो ना! ..... क्या हम लाइफ पार्टनर नहीं बन सकते?’ सोचा एक बार ‘हाँ’कह दे, फिर तो मैं देख लूँगा अच्छी तरह।
समीक्षा ने गौर से सुना.... थोड़ा सोचा और शब्दों को तौलते हुए बोली ‘‘ आज से तुम्हारा मतलब? ... मैं रोज किसी न किसी....’’
मैं सकपकाया और ‘‘नो प्लीज... नो करता रहा।

कुछ क्षणों के बाद उसने कहा, सॉरी डियर... मैं तुम्हारे साथ चलती ... सात जन्म तक चलती.... अगर तुमने ‘आज’ न कहा होता। तुम हमेशा पार्टनरशिप की बात करते हो..... बात। मुझे लगता हैं तुम्हें लाइफ पार्टनर नहीं, ‘स्लीपिंग पार्टनर’ चाहिए.... स्लीपिंग पार्टनर’ चाहिए.... हर जगह स्...लीपि. ग.... पार्ट.... नर,’’ उसने काँपती आवाज और भेदती नजर से मेरी और घूर कर देखा तो मुझे ऐसा आभास हुआ जैसे लाल-पीली बत्तियाँ उसकी आँखों में जल-बुझ रही थीं। इससे पहले कि मैं कुछ कहता वह ‘पोनी टेल’ हिलाती हुई सड़क के उस पार जा चुकी थी।

मैंने सोचा ‘ उसका पीछा’ करने या समझाने - बुझाने से कोई फायदा नहीं’ और पंचर हुए पिछले पहिए को उतार ‘स्टेपनी’ बदलने लगा। कहना मुश्किल है कब तक, ‘स्टेपनी’ बदलता रहा... ‘स्टेपनी’। सुबह आँगन से सड़क तक- सिन्दुर, काँच की चूडियाँ, लाल-साड़ी, मंगल सूत्र और ‘मार्निंग गिफ्ट’ बिखरे पड़े थे।
और शताब्दी अपनी रफ्तार से भागी जा रही थी।

स्त्रीकाल का प्रिंट और ऑनलाइन प्रकाशन एक नॉन प्रॉफिट प्रक्रम है. यह 'द मार्जिनलाइज्ड'नामक सामाजिक संस्था (सोशायटी रजिस्ट्रेशन एक्ट 1860 के तहत रजिस्टर्ड) द्वारा संचालित है. 'द मार्जिनलाइज्ड'मूलतः समाज के हाशिये के लिए समर्पित शोध और ट्रेनिंग का कार्य करती है.
आपका आर्थिक सहयोग स्त्रीकाल (प्रिंट, ऑनलाइन और यू ट्यूब) के सुचारू रूप से संचालन में मददगार होगा.
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प्रधानमंत्री जी, राखी को लफ्फाजी न बनायें: बहनों को बलात्कारी भाजपाइयों से बचायें

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खुला पत्र 

आदरणीय प्रधानमंत्री जी 

आज जब देर रात आपको बड़ी व्यथा केसाथ पत्र लिखने बैठी तो सोशल मीडिया में आपको राखी बांधती कुछ बहनों की तस्वीर भी देख रही हूँ. मोदी जी एक ओर आपकी पार्टी की महिला नेता सायना एनसी आपकी पार्टी के हरियाणा प्रदेश अध्यक्ष के बेटे की लम्पटता का शिकार बनी लडकी का ही डॉक्टरड फोटो के जरिये उसे  बदनाम करने में लगी है, और आपकी पार्टी के अन्य भाई लोग उसका साथ दे रहे हैं तब आपकी पार्टी की कुछ बहनें आपको राखी बांधती दिखीं. सोचा शायद आपके भीतर एक-आध छटांक भाई ही बचा हो. बेटा तो आप अच्छे होने के सबूत देते रहते हैं. इसीलिए आपको यह पत्र लिख रही हूँ.

अब देखिये न आप कितने व्यस्त रहते हैं.आपको सारी बातों का पता तो नहीं होता है न. आपको पता होता तो गुजरात में एक लडकी की जान और इज्जत बचाने के लिए आपने जिस तरह अपने गृहमंत्री से लेकर पूरे राज्य की पुलिस मशीनरी को लगा दिया था, उसका फोन टेप होने लगा था  वैसे ही इधर भी चंडीगढ़ में आपने वैसे ही सुरक्षा पीडिता लड़की को दे दी होती. उसे और उसके आईएएस पिता को क्यों भला फेसबुक पर आना पड़ता, आ भी नहीं पाते पुलिस वाले उन्हें इतनी सुरक्षा दे चुकी होती  कि ...

आजतक पर जारी वीडियो 

घटना के बारे में 

अरे हाँ, आप तो व्यस्त बहुत रहते हैं. लगता है आपको हरियाणा में आपकी पार्टी अध्यक्ष के बेटे की करतूत की किसी ने खबर न दी होगी. देता भी भला कौन अमितशाह भाई जिन्होंने गुजरात वाली लडकी को पूरी सुरक्षा मुहैया कराई थी वे अभी गुजरात में ही राज्यसभा चुनाव में चाणक्य वाली भूमिका निभा रहे हैं. एक अकेली जान,  क्या करें बेचारा अमित भाई तो लीजिये ये पत्र आपको मिले तब आप जान जायेंगे, मैं ही बता देती हूँ तफसील से.

मामला बीते शुक्रवार की आधी रात काहै। जगह चंडीगढ़, जिसे कुर्बुज़ियर ने नियोजित शक्ल और कमाल की सूरत दी। आधी रात को जब आईएएस अधीकारी वीरेन्द्र कुंडू की बेटी वर्णिका कुंडू कार से ड्राइविंग करते हुए अपने गंतव्य पर जा रही थी उसी समय हरियाणा क्षेत्र के भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष सुभाष बराला का बेटा विकास बराला अपने एक दोस्त के साथ उन्हें तंग करते हुए उनका पीछा कर रहा था। लड़की ने अपनी फेसबुक पोस्ट द्वारा इस घटना का ब्यौरा दिया है। आपकी सुविधा के लिए एक वीडियो लिंक दे देती हूँ ताकि घटना उसकी ज़ुबानी ही सुन लें. यह वीडियो आपके प्रिय चैनल जी न्यूज का है :




वास्तव में यह वर्णन बहुत खौफ़नाक है। लडकी हूँ न मोदी सर तो पढ़ते हुए एक डर अंदर घुस आता है। वर्णिका का पीछा बहुत देर तक किया जाता रहा। इतना ही नहीं उनका अपहरण करने की भी कोशिश की गई। मौक़े पर पहुंची पुलिस ने फौरी कार्रवाई करते हुए दोनों लड़कों को गिरफ़्तार कर लिया। वर्णिका  ने खुद इस बात को स्वीकार किया है कि शायद पुलिस न आती तो वह बच न पाती।

मोदी जी सोचिये वर्णिका एक आइएएसअधिकारी की बेटी नहीं होती तो उसे क्या पुलिस की मदद इतनी आसानी से मिल जाती? नहीं न, वैसे इस लडकी को भी कोई ख़ास न्याय नहीं मिला. घटना के चौबीस घंटे के भीतर आरोपियों को जमानत पर रिहा भी कर दिया गया है। आम लड़की या महिला का तो थानों में एफ़ आई आर (FIR) भी दर्ज़ नहीं होता। लड़का आपकी पार्टी के अध्यक्ष का बेटा है इसलिए कुछ ही देर में जेल से जमानत पर रिहा भी हो गया।


वर्णिका ने एक सवाल भी आपसे, हमसबसे पूछा है कि जब चंडीगढ़ जैसी सेफ सिटी का यह हाल है तो ग्रामीण इलाकों में क्या होता होगा। उसने यह भी कहा कि वह एक अच्छे घर से ताल्लुक रखती है इसलिए इस केस को इतना कवरेज़ मिल रहा है जबकि एक आम लड़की का क्या हाल होता होगा !

मोदी जी आपको क्या याद दिलाना,फिर भी दिला देती हूँ, चंडीगढ़ एक केंद्र शासित शहर है न. यानी पुलिस आपके गृह मंत्रालय के सीधे अधीन है. समझती हूँ कि अमितशाह भाई साहब उधर गुजरात में व्यस्त हैं, लेकिन यह कैसे हो गया कि आपकी खोजी पुलिस को उस रास्ते के सीसीटीवी फुटेज  पहले मिले नहीं, फिर पता नहीं कहाँ से मिल भी गये. खबरों के मुताबिक़ जिन रास्तों पर यह घटना घटी उन रास्तों पर 9 सीसी टीवी कैमरे लगे थे जिनमें 5 खराब हैं। बचे हुए 4 कैमरे की फुटेज़ में भी गड़बड़ी की बात सामने आ रही है।  ऐसे में कई सवाल उठ रहे हैं। इसके अलावा दोनों आरोपियों का घटना के कुछ समय बाद मामूली कानूनी धारा लगाकर छोड़ दिया जाना भी सरकार व पुलिस पर उंगली उठाने की वजह देता है।

सच में आज आपकी कलाई पर राखीबंधी देखकर बहुत खुशी हुई कि इस देश की बहनें आपको कितना मान देती हैं. आप जरूर कार्रवाई करेंगे. मुझे पक्का यकीन है कि अमितशाह भाई आपकी व्यस्तता देखते हुए यह नहीं बता पाते होंगे कि दिन-ब-दिन आपकी पार्टी के लोग सेक्स रैकेट चलाने से लेकर न जाने कितने आरोपों से घिर रहे हैं. और अबकी बार आपके राज्य हरियाणा में, ‘कहाँ बेटी बचाओ, बेटी पढाओ’ का नारा दिया गया है वहाँ आपके राज्य के पार्टी अध्यक्ष ही अपने लम्पट बेटे को बचाने में लगे हैं. उधर आपके प्रिय संगठन संघ में शिक्षा-दीक्षा प्राप्त मुख्यमंत्री पीडिता को ही उपदेश दे रहे हैं.

आपको भाजपा की बहनों द्वारा बांधीगई राखी की कसम आप थोड़ा समय निकालकर मेरे इस पत्र के माध्यम से जान सकेंगे कि हरियाणा में आपकी पार्टी कैसे बेटी बचा रही है.

घटना के बाद आए बयानों और प्रतिक्रियाओं पर नज़र डालने पर भाजपा के ही हरियाणा प्रदेश उपाध्यक्ष ने टिप्पणी या फरमान सुनाया कि लड़की रात को बाहर क्यों घूम रही थी?...लड़कियों को बाहर नहीं जाना चाहिए...! ऐसे में बहुत हैरत होती है इस तरह के बयानों को सुनकर। जहां आज देश में रक्षा और सुरक्षा के नाम पर रक्षाबंधन मनाया जा रह है वहीं नेता इस तरह का बयान दे रहे हैं। जब रजीनीति के लोगों को जिन्हें मतदान देकर चुना गया है, ऐसे बयान दें तब इस देश की आधी आबादी को अपने मत को डालने से पहले ज़रूर एक बार सोच लेना चाहिए। मत देने के समय हम एक मूल्यवान मतदाता होती  हैं लेकिन घर से बाहर निकलने के नाम पर कैसे एक पीड़ित और बेशर्म लड़की में तब्दील हो जाती हैं, इन राजनेताओं को यह बात सोचनी ही चाहिए।

आरोपी विकास बारला और पीडिता वर्णिका 

आपको एक और दर्दनाक खबर देती हूँ. आज ही के नवभारत टाइम्स (हिन्दी) में यह खबर पढी कि दिल्ली के मंगोलपुरी इलाक़े में शनिवार देर शाम एक महिला को चलती कार में अगवा कर बलात्कार करने की कोशिश की गई।

सच कहूं मोदी भाई जान, लडकी होनेके नाते बहुत डर लगता है कि छोटी बच्चियों से लेकर बुज़ुर्ग महिलाएं तक लम्पटों से पीड़ित हैं और जब लम्पट आपकी पार्टी के होते हैं तो हमारी चुनी हुई सरकारें (अधिकाँश राज्यों में अब आपकी पार्टी राज कर रही है) अपने ही लोगों को बचाने में जुटी है। कब तक 70 साल के जुमले में अपनी बहनों को आप बहला पायेंगे भाई जान.

आपका विकास कहीं विकास बारला ही तो नहीं है 

सच कहूं तो आज आपसे पूछने का मन हो रहा है कि क्या ‘विकास बराला’ नामक ‘विकास’ की ही बात आप करते रहे हैं? क्या विकास का रूप अपराधियों की शक्ल वाला है? क्या विकास असुरक्षित माहौल को बनाने वाला है? क्या विकास ‘देर रात घर से बाहर न निकलने’ या ‘संस्कारी कपड़े’ पहनने के सुझाव वाला है? क्या विकास निरंतर महिलाओं के शोषण और हिंसक हमलों का है? क्या विकास का मतलब आपकी पार्टी में लम्पटों को मिलने वाली सुरक्षा और संरक्षण का विकास है?

देखिये न, आपकी कलाई में राखी कितनीफब रही है. लेकिन यह तब और फबेगी जब आप वाकई पीडिता को न्याय दिलवाएंगे. उसे उसकी बहादुरी के लिए अपने यहाँ बुलाकर सम्मानित करेंगे. बहादुरी का जज़्बा दिखाने वाली उस लड़की ने अपनी सूझबूझ से काम लिया और अपने को बचाया। सबसे बेहतरीन बात यह भी रही कि उसने एक लंबी फेसबुक पोस्ट लिखकर इस हादसे के बारे में ब्यौरा दिया जिसे मिनटों में हजारों लोगों ने बिना मीडिया के चटखारे वाली खबरों के जाना। उसने इस सोशल साइट के जरिये अपने अनुभव और डर को रखा और साथ ही अपील भी की कि कैसे इन हमलों में खुद को सुरक्षित रखा जा सकता है। यह ज़रूरी भी है कि लाज-शर्म और बिना डर के अपने साथ हुए हादसों को साझा किया जाये। डर या चुप्पी हमलों का जवाब कतई नहीं होते।

आप इस राखी की लाज रखिये जो बीजेपी की बहनों ने आपकी कलाई पर बांधी है. आप विकास बारला को अपहरण की कोशिश के लिए गिफ्तार करवाइए, जेल भिजवाइये, पुलिस आपकी है. उसके पिता और आपकी पार्टी के हरियाणा प्रदेश अध्यक्ष को तत्काल पार्टी से बर्खास्त कर पुलिस पर दवाब लाने के लिए जेल भेजिये, आखिर पार्टी आपकी है. और भाजपा की नेता सायना एनसी जो पीड़िता को फर्जी तस्वीरों के जरिये बदनाम कर रही है उसे पार्टी से बर्खास्त करिये तथा ट्वीटर पर आपको फ़ॉलो करने वाले उन लम्पटों पर भी कारवाई करिये जो पीडिता को ही बदनाम कर रहे हैं.

सच में मोदी जी इस राखी की लाजरखिये, इसे लफ्फाजी न बनाइये और बेटियों को सबसे पहले बलात्कारी भाजपाइयों से बचाइये. घर के अंदर सफाई अभियान से ही सूरत बदलेगी . पत्र अनाम लिख रही हूँ क्योंकि डर है कि आपके भाजपा के सायना एनसी जैसी  नेता  या आपको ट्वीटर पर फॉलो करने वाले या आप जिन्हें फॉलो करते हैं वैसे भक्त मुझे भी न टार्गेट कर  लें
 आपकी बहन  
अच्छे दिन की बाट जोहती 
चंडीगढ़ 


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पंडिता रमाबाई की स्मृति में शुरू होगी व्याख्यानमाला

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प्रेस विज्ञप्ति

भारत में महिला अधिकारों की प्रबल प्रवक्ता  रही हैं पंडिता रमाबाई. प्रयास संस्थान प्रतिवर्ष उनके नाम पर आयोजित व्याख्यानमाला के वक्ताओं को देगा एक लाख रुपये मानदेय

 साहित्य, संस्कृति और सामाजिक सरोकारों के लिएराजस्थान के चुरू जिले में  काम कर रहा  प्रयास संस्थान भारत में स्त्री अधिकारों की प्रबल प्रवक्ता  रही पंडिता रमाबाई की स्मृति में वर्ष 2018 से व्याख्यानमाला शुरू करेगा। प्रयास संस्थान के अध्यक्ष दुलाराम सहारण ने बताया कि प्रतिवर्ष देश-दुनिया के किसी एक चुनिंदा वक्ता को व्याख्यान हेतु आमंत्रित किया जाएगा और पंडिता रमाबाई के काम को प्रकाश में लाते हुए उनके महिला-उत्थान तथा शिक्षा के प्रति संकल्प से जुड़े विषय पर व्याख्यान करवाया जाएगा।


प्रयास संस्थान के सचिव कमल शर्मा ने बतायाकि संस्थान व्याख्यान के मानदेय के रूप में व्याख्यान देने आए विद्वान को एक लाख रुपये प्रदान करेगा। प्रयास संस्थान को यह राशि शिक्षाविद प्रो. घासीराम वर्मा द्वारा संस्थान के नाम करवाई जा रही इक्कीस लाख रुपये की सावधि जमा राशि के ब्याज से प्राप्त होगा। शर्मा ने बताया कि संस्थान यह व्याख्यान प्रतिवर्ष चूरू जिला मुख्यालय पर करवाएगा और प्रथम व्याख्यान वर्ष 2018 के अगस्त माह में होगा।



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कौन काट रहा उनकी चोटियाँ: एक तथ्यपरक पड़ताल

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रजनीतिलक 

आजकल एक खबर ने पूरे देश में दहशत फैला दी है वह है रात के समय सोती हुई महिलाओं की उनके ही घर में चोटी का कट जाना. पिछले कई दिनों से अखबारों से लेकर टीवी चैनल में इस पर लम्बी बहसें चल रही है और महिलायें सहमी हुई सी इन खबरों को लगातार देख रही है, हम भी इस खबर की तह तक पहुंचना चाहते थे अतः पांच सदस्यों  का एक दल- संजीव चंदन भिखुनी  समांदीक्की, मनीषा कुमारी एवं रजनी तिलक- रविवार 6 अगस्त को दिल्ली देहात के रणहोला, तिलंगपुर कोटला (नजफगढ़) पहुंचा,यह जानने के लिए कि इन गावों में
जिन महिलाओं की चोटी काटी गयी है उनका सत्य क्या है?

हम लोगों  ने गाँव के बाहर एक चाय की दुकान पर बैठ कर चाय पी और वही से जानने की कोशिश की चोटी काटने की घटना कहाँ हुई है? हमारी बात को लापरवाही से उड़ाते हुए चाय वाले ने कहा हमें तो नहीं पता, बार बार पूछने पर उसने हाथ का इशारा गाँव की और किया और हम लोग कार में बैठ कर गावं की ओर गये फिर वहाँ किसी आदमी से पूछा कि चोटी वाली घटना कहाँ  हुई है उसने भी मुस्कुरा कर कहा हमें तो नहीं पता कहाँ हुई है .


गावं से निकलते हुए हमने एकऔरत से पूछा तो उसने हमें सहजता से बताया कि गाँव में नया हनुमान मंदिर बन रहा है उसके पीछे एक औरत की चोटी कटी है. हम खोजते-खोजते हनुमान मंदिर पहुंचे, उस हनुमान मंदिर में पहले से ही छठ पूजा स्थल को तोड़ने के विरुद्ध कोई बैठक हो रही थी. 15-20  आदमी बैठ कर विचार कर रहे थे. संजीव चन्दन और मैं  हम दोनों पहले मंदिर में गए और उनसे चोटी काटने की घटना पर बात की तो उन्होंने कहा कि उससे भी बड़ा हमारा मुद्दा है पहले हमारी बात सुनें. उन्होंने बताया कि आम आदमी पार्टी की सरकार ने हमारे छठ पूजा स्थल तोड़ दिया है और उसे स्कूल के लिए दे दिया है, जबकि यहाँ पहले से ही दो स्कूल है.

उन्होंने बताया कि यहाँ टोटल वोट 1800 हैं हम बिहारियों के 1350 वोट हैं और इस बार हमने अपने वोट भाजपा को दे दिए हैं इसलिए हमारा छट स्थल तोड़ दिया है, आप हमारी बात मिडिया तक पहुंचायें. हालांकि उनकी बात में आंशिक सत्यता थी. दरअसल आम आदमी पार्टी पूरी दिल्ली में व्यवस्थित छठ घाट बना रही है और जमीनें जो स्कूल या डिस्पेंसरी से लगकर हैं, उसे उन्हें दे दे रही है. लगा की यहाँ भाजपा बिहारी मतदाताओं की धार्मिक भावनाओं को सहला रही है. हमने उनसे फिर चोटी काटने वाली बात पूछी तो उन्होंने  किसी को फोन करके बुलाया. एक दुबला पतला लड़का मोटर साईकिल पर एक दुबली पतली लड़की को बैठा कर लाया. लड़की गर्भवती थी उसका चेहरा उतरा हुआ था. हमने जब उनसे पूछा कि आपकी चोटी कैसे कटी? तो उसने बताया मैं सो रही थी रात को साढ़े तीन बजे मेरे भाई को सपने में बिल्ली दिखी तो वह घबरा कर उठा तो उसने लाईट जलाई तो देखा मेरी चोटी के बालों की लट कटी पड़ी है उसने ही मुझे बताया.’ हमने पूछा घर बंद था तो उसने बताया कि दरवाजा थोडा सा खुला हुआ था. हमने पूछा कि क्या हम आपका घर चल सकते है ओ वे हमें अपने घर ले गये. इस घटना की विक्टिम का नाम सुनीता था (बदला हुआ नाम)जिसकी उम्र 27 वर्ष थी. अपनी जाति उन्होंने राजपूत बतायी और ये लोग यूपी के रहने वाले थे. घर में एक कोने में एक छोटा सा मंदिर भी था. इस  छोटे से कमरे में पति पत्नी और उनके दो बच्चे व पत्नी का भाई रहता था. सुनीता के चेहरे पर दोनों गालो पर आयरन की कमी के निशान काफी गहरे थे. संजीव चन्दन ने उनसे सवाल करने शुरू किये कि क्या आपको पता चला कि बाल कटे है? तो उसने कहा कि नहीं मैं तो सो रही थी. हमने पूछा ‘तो क्या आपने पुलिस में शिकायत की?’ पति पत्नी दोनों ने कहा, ‘नहीं क्या फायदा? अब जो हो गया सो हो गया पुलिस इसमें क्या करेगी? मनीषा ने पूछा ‘क्या आपको पहले से पता था कि महिलाओ की चोटी कटी जा रही है?’ सुनीता ने कहा, ‘हाँ कल ही तीन नम्बर गली में एक औरत की चोटी कटी थी मैं और मेरी पड़ोसन हम दोनों देखने गये थे.’ संजीव ने फिर पूछा ‘क्या आप लोग टीवी पर ये खबर देख रही हो ? दोनों औरतो ने कहा कि हम ये खबरें टीवी पर देख रहे है और डर भी लगता है.’ हमने पड़ोसन से भी कुछ बात करने की कोशिश की तो उसने जबाब देने से इनकार कर दिया. हमने सुनीता की कटी चोटी देखी तो हमें थोडा अजीब लगा कि एक लट तो उसकी थी पर दूसरी लट दोनों तरफ से मूछों जैसी पैनी थी, जैसे यह लट बाहर  से ला कर मिला दी गयी हो, क्योंकि बालो की ये लट उसके बालो से मिल नहीं रही थी और कटे बाल दोनो ओर से नुकीले नहीं हो सकते. यह बात सही है कि बहार का दरवाजा बंद था, परन्तु इस मकान में तीन चार किरायेदार रहते थे सबके दरवाजे सटते हुए थे. इस परिवार ने पुलिस में शिकायत तो दर्ज नहीं करायी लेकिन हैरानी की बात है कि मीडिया में खबर पहुँचाने की उत्सुकता उनमे देखी गयी.


सुनीता को पीर बाबा का झाडा लगवाया गया ताकि कोई बुरी शक्ति से उसका बचाव हो सके. सुनीता का भाई हमें घर पर नहीं मिला. सुनीता ने यह भी बताया कि किसी बूढ़े  आदमी की झलक उसे सपने में दिखी हम जब लौट रहे थे तो हमने सीढियों पर एक बूढ़े आदमी को खड़ा देखा था. सुनीता के घर से निकल कर हम दूसरे केस तीन नम्बर वाली गली के पास गये. घर कच्ची ईंटो  का बना था और लोहे का गेट लगा था. हमने गेट थपथपाया तो एक छोटे से लड़के ने गेट खोला और हमने कहा कि आपकी मम्मी से मिलना है. उसकी मम्मी कमरे से बाहर आई और हम आँगन में जा कर खड़े हुए तो वह एक कुत्ता था जिसके बारे में हमने कहा पहले इसे बाँध दो, उन्होंने कुत्ते को बाँध कर हमारे लिए खाट बिछा दी. यह परिवार पाल जाति से था इनके दो बच्चे थे एक लड़का जो सातवी में पढता था और लड़की नौवीं में थी. रेखा (बदला हुआ नाम) के पति राज मिस्त्री का काम करते हैं,  बल्कि ठेकेदारी भी करते हैं. इनके घर में बालाजी भगवान पूजे जाते हैं. हमारे पूछने पर कि चोटी कैसे कटी, रेखा ने बताया कि ‘रात एक बजे तक मियां बीबी जागे हुए थे और चाय बना कर पी. एक खाट पर बेटा और पति सो गये और एक पर हम माँ-बेटी सो गयीं. सुबह पांच बजे मैं पेशाब के लिए उठी तब तक भी सब ठीक था. सुबह उठी तो देखा मैंने सर पर हाथ फेरा तो एक लट हाथ में आ गयी, मैंने अपने बच्चों को ही बताया था. बच्चों  ने बच्चों को बताया तो लोगो को पता चला. हम उस दिन किसी काम से गये थे शाम को चार बजे आये तो लोगो ने समझा हम पुलिस में शिकायत करने गये है .हमने कहा कि पुलिस में क्यों नहीं शिकायत दर्ज करायी? रेखा ने कहा क्या फायदा पुलिस के चक्कर में? हमारा बचाव तो हमारे बालाजी बाबा ने कर दिया वो हम पर आंच नहीं आने देता. हमने बाल की लट देखनी चाही तो उसने बताया, ‘हमने आज कूड़े में फेक दिये.’ रेखा बड़ी दबंग टाईप औरत थी उसके थोड़े से ही बाल नुचे थे. कुत्ता भी उसकी खाट के नीचे ही बंधा हुआ था. उससे पूछा क्या आपक सर में दर्द है या आपको डर लग रहा है उसने कहा न मुझे डर लगता न सर में दर्द है.

इस केस के बाद हम श्यामवती (बदला हुआ नाम) का घर खोजते हुए उसके घर पहुंचे तो पता चला कि वो अपने भाई के घर राखी बंधने गयी है है. घटना का ब्यौरा इस प्रकार था कि इनके घर में जन्मदिन था. जन्मदिन के बाद श्यामवती बाथरूम में गयी फ्रेस होने तो वह  वहा बेहोश हो गयी और उसकी चोटी कटी हुई थी उसके सर में दर्द था और उसे उल्टियां हो रही थीं. इस मामले में केस दर्ज करवाया गया. हमने आसपास बात की तो लोगो ने कहा पता नहीं क्या बात है , विश्वास तो नहीं होता पर केस बढ़ तो रहे हैं. पुलिस जांच क्यों नहीं कर रही.  यहाँ से निकल कर हम पुलिस स्टेशन पहुंचे.


 वहां हमे ए.एस.आई संदीप से मिलनाथा. वे हमें वहाँ नहीं मिले.  हमने उनके ही चैंबर के बगल में दूसरे चैम्बर में बैठे एक अन्य पुलिस अधिकारी से इस मुद्दे पर बातचीत की तो उसने कहा, ‘ये कोई भ्रम है या कोई मानसिक दबाब द्वारा होने वाली घटनाए हैं. उन्होंने शिवनगरी में एक अन्य केस के बारे में बताया कि एक 18 वर्ष की लड़की की चोटी उसके घर में ही कटी, घर चारो तरफ से बंद था. जब हमने तलाशी ली तो बहुत सारी  छोटी-छोटी कैंची हमें मिली. हमने लड़की से बात की उससे बार-बार पूछा उसके सही जबाब न देने पर झूठ बोलने की मशीन पर ले जाने की बात की तो उसने हमारे साथ आने से मना कर दिया.’

जादू टोने की बात मैंने अपने बचपनसे अपने आसपास की महिलाओं से खूब सुनी थी. मुझे याद है कि औरतें कभी कभी जिनको बच्चे नहीं होते थे उन्हें तांत्रिक यह सुझाव देते थे कि कि किसी की चोटी काट लाओ मैं पूजा कर दूंगा तुम्हारे बच्चे हो जाएंगे. कभी-कभी औरतें  किसी का बुरा करने के लिए भी ऐसे टोटको का सहारा लेती थी. बेबसी, अनपढ़ता, उपेक्षा, प्रताड़ना, इच्छा पूरी करने की जिद्द, अंधविश्वास, मिथ्या विश्वास, इर्ष्या, भावनात्मक ठेस, कुंठा के साथ-साथ अतृप्त इच्छाए भी मनोविकार बन जाती है. महिलाओं के शारीर हार्मोन परिवर्तित होने पर भी हिस्टीरिया के दौरे पड़ते हैं, कुछ मामलों में महिलायें अपने प्रति बरती जा रही उपेक्षा को दूर करने के लिए, सबका ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने के लिए भी कुछ ऐसे कृत्य कर बैठती हैं कि न केवल परिवार का बल्कि आसपास के लोगों का ध्यान भी उसकी तरफ खीचा चला आता है.

चोटी काटने के पूरे देश में 100 से ज्यादा केस हुए, उनमें ज्यादातर 40 से उपर की महिलायें हैं, कुछ नवयुवतियां और किशोरियां. एसा अचानक क्या हुआ जो रातो रात सोते सोते स्त्रियों की चोटियों को काटे जाने की घटनाए बढ़ने  लगी? सबसे पहला केस जोधपुर में हुआ उसके बाद हरियाणा- मेवात, पलवल,फरीदाबाद ,नुहू. महेंदरगढ,रेवाड़ी, उतरप्रदेश- आगरा, नौएडा, बुलंदशहर, कुशी नगर,खुर्जा हापुड़ ,मोदी नगर, मध्यप्रदेश में छतरपुर. बुंदेलखंड,और दिल्ली के देहातों में ऐसी घटनाओं के कारण महिलाओ में भय और दहशत फैल रहा है वे घर से बाहर निकलना बंद कर रही है. आगरा में चोटी काटने के शक में एक वृद्ध महिला की ह्त्या भी कर दी गई. हैरानी की बात ये है कि ये सब घटनाए भाजपा शासित राज्यों में ही क्यों सर उठा रही है ? क्या ये सुनियोजित षड्यंत्र है या प्रायोजित ड्रामा ?


या हम ये मान ले ये कोई वायरस हैजो सोती हुई औरतो की चोटियों को काट रही है और उनेह बेहोश करके उनके दिमागों को त्रस्त कर रही है ?

समय पर ऐसे डरावने और शोक संतप्त करने वाले कृत्य समाज में आते हैं और नागरिकों  को डराते हैं. उनके साथ लूट खसोट करते हैं.  परन्तु इस बार महिलाओं पर इस तरह का हमला उन्हें नियंत्रण में लेने की कोशिश की कोई सुनियोजित कार्यवाई है. हमारा समाज अंधविश्वास में जल्दी ही फँस जाता है क्योंकि हमारी धार्मिक शिक्षायें ही इसका स्रोत है.

पैटर्न:
इस फैक्ट फाइंडिंग प्रक्रम के दौरान कुछ ख़ास पैटर्न हमें दिखे, जिससे इस घटना के पीछे काम कर रही मानसिकता को समझा जा सकता है.

1.लगभग सारे मर्द इस घटना के प्रति उपेक्षा भाव रख रहे हैं, वे कायदे से इसके बारे में बात करने के प्रति भी          उदासीन दिखे. महिलाओं और बच्चों के बीच इसकी चर्चा है और बात फैलने के माध्यम भी वही हैं.
2.जिन महिलाओं की चोटियाँ कट रही हैं वे मीडिया को सबसे पहले खोजती हैं. पुलिस को इस मामले में नकारा      मानती हैं.
3.पीड़ित महिलायें प्रायः निम्न मध्यवर्ग की घरेलू कामकाजी महिलायें हैं.
4.प्रायः सभी टीवी, इन्टरनेट पर चोटी कटने की घटनाओं को लगातार देख रही हैं और ऐसा खुद के साथ होने        को  लेकर आशंकित  रही हैं.
5.प्रायः सभी पीड़िता आस्थावान और तांत्रिकों, बाबाओं या किसी ख़ास देवता को मानने वाली हैं.
6.पुलिस इसे मॉस साइको समस्या के रूप में देख रही है और यह मान कर चल रही है कि वे स्वयं ऐसा कर रही        हैं इसलिए पुलिस का जूरिसडिक्शन नहीं बनता. 


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मेधा का आंदोलन अभी भी जारी है, सरकार ने उन्हें नजरबंद कर रखा है

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कामायनी स्वामी/आशीष रंजन 

7 अगस्त की शाम को जब देश के अलग-अलगइलाकों में लोग राखी की खुशियाँ मना रहे थे और भाई बहन एक दुसरे का मुंह मीठा कर रहे थे, मध्य प्रदेश के सुदूरचिखल्दा गाँव में पिछले 12 दिनों से अनशन पर बैठे नर्मदा बचाओ आन्दोलन के 12  साथियों को करीब 2000 की संख्या में पहुंचे पुलिस बल ने घेर लिया | हजारों समर्थकों के बीच से उनके विरोध के बावजूद पुलिस मेधा पाटकर और अन्य साथियों को जबरन उठा कर ले गयी | धरनास्थल को तोड़ा गया और स्थल पर मौजूद दर्जनों लोग घायल हुए | मेधा पाटकर और नर्मदा बचाओ आन्दोलन के साथी 27 जुलाई से अनिश्चितकालीन अनशन पर बैठे थे | वह सरकार से मांग कर रहे थे कि हजारों परिवार जिनका पुनर्वास नहीं हुआ है उनका सुप्रीम कोर्ट के आदेशनुसार सम्पूर्ण पुनर्वास किया जाए और सरदार सरोवर बाँध के फाटक को खोल दिया जाए – फाटक बंद होने से बाँध की लम्बाई 138 मीटरहै, जिसके चलते मध्य प्रदेश में दर्जनों गाँव डूब जायेंगेऔरडूब क्षेत्र में बसे हजारों लोगों की जल ह्त्या होगी |



सुप्रीम कोर्ट ने 08.02.2017 केअपने आदेश में सरकार कोनिर्देश दिया था कि विस्थापित हो रहे लोगों का पुनर्वास किया जाय| कोर्ट ने यह भी कहा था कि सभी विस्थापित 31.07.2017 तक गाँव खाली कर दें नहीं तो उन्हें जबरन हटाया जाएगा | कोर्ट के इस निर्णय की आड़ में प्रशासन गाँव- गाँव जाकर बिना पुनर्वास की व्यवस्था किये गाँव खाली करने का नोटिस दे रहा है और जबरन गाँव खाली करने की पूरी तैयारी चल रही है | सरकार की नीति को देखते हुए मेधा पाटकर और अन्य साथी आमरण अनशन पर बैठे | उनका कहना है कि जब सुप्रीम कोर्ट ने गेट बंद करके पूरे क्षेत्र को डुबोने के लिए नहीं कहा तो सरकारनेगेट बंद क्यूँ कर दिया ? वह भी ऐसे समय में जब गुजरात में बाढ़ आयी है वहगुजरात में पानी पहुंचाने के नाम पर मध्य प्रदेश के लाखों लोगों को क्यूँ डुबोना चाहती है ?

नर्मदा बचाओ आन्दोलन का तीन दशक से अधिकका संघर्षशील इतिहास रहा है | पूरी तरह शांतिपूर्ण और अहिंसक आन्लोदन ने पूरी दुनिया में विकास केमॉडल पर बहस छेड़ दी| यहप्रश्न कि विकास किसके लिए और किसके कंधे पर हो एक बड़ा सवाल बन कर लोगों के बीच उभरा | बड़े बांधों द्वारा हो रहे विस्थापन और पर्यावरण कीअपूरणीय क्षति पर पूरे विश्व के लोगों का ध्यान आकृष्ट किया गया | पूरे विश्व में बड़े बांधों के खिलाफ एक वातावरण बना और तमाम सरकारों ने अपनी नीति में परिवर्तन किया | आन्दोलन के चलते 90 के दशक में विश्व बैंक, जिसके पैसे से सरदार सरोवर बाँध बनाना था, ने पैसा देने से मना कर दिया था | इस आन्दोलन ने भारत सरकार को पुनर्वास को लेकर कानून बनाने पर बाध्य किया और जमीन अधिग्रहण में लोगों की सहमति एवंअन्य जनपक्षी  प्रावधानों (जैसे सोशल इम्पैक्ट असेसमेंट का प्रावधान)को कानून में लाने में सफल रही| करीब 15 हजार विस्थापित परिवारों को जमीन के बदले जमीन मिली |

तीस साल से भी अधिक से चल रहे इस आन्दोलन ने कई विपरीत परिस्थिति को भी झेला है | सुप्रीम कोर्ट का बाँध को मंजूरी देना, और उसके बाद बाँध के गेट बनने की स्वीकृति ने इस आन्दोलन के लिए बहुत मुश्किल हालात पैदा किये हैं | हालांकि आन्दोलन की सफलता रही है कि दोनों हाई कोर्ट और सुप्रीमकोर्ट ने बार-बार पुनर्वास पूरा करने का निर्देश दिया है और अभी भी मध्य प्रदेश की हाई कोर्ट प्रदेश में पुनर्वास को मॉनिटर कर रही है |मध्य प्रदेश सरकार झूठे आंकड़े दिखाकर कोर्ट को अपने पक्ष में कामयाब करने में बहुत हद तक सफल रही है | न्याय की इस लड़ाई ने पूरे तंत्र, जिसमे कोर्ट भी शामिल है, की सीमा को बखूबी उजागर कर दिया है | हमारे गाँव में किसका राज होगा ? ग्राम सभा का या किसी और का ? लोगों की बात सही है या सरकारी आंकड़ों की? असलियत की जांच कैसे होगी जैसे सवालों ने सभी को परेशान किया है | अगर पुनर्वास हो गया है तो हजारों लोगों के पास पुनर्वास की जमीन क्यूँ नहीं ?



सरकार ने मेधा पाटकर को इंदौर  के अस्पताल मेंकैद कर रखा है | उन्हें किसी से मिलने नहीं दिया जा रहा है | सरकार का कहना है कि मेधा पाटकर के बिगड़ते स्वास्थ को देखते हुए यह कदम उठाया गया और उनका इलाज किया जा रहा है | सरकार संवाद करने में रूचि नहीं दिखा रही | 12 अगस्त को प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी भाजपा के 12 मुख्यमंत्रियों एवं 2000 पुजारियों के समक्ष सरदार सरोवर बाँध का उद्घाटन करने वाले हैं | वहीँ देश-विदेश के नामी गिरामी बुद्धिजीवी जिसमें नोम चोमस्की शामिल हैं ने मेधा पाटकर और आन्दोलन के समर्थन में वक्तव्य जारी किया है | देश भर के बीस से भी अधिक शहरों में आन्दोलन के समर्थकों ने अलग अलग तरीके से अपना समर्थन जाहिर किया है | उधरचिखल्दा में अनशन टूटा नहीं नहीं, दस साथी अनशन पर बैठ गए हैं|


लेखकद्वय जन आन्दोलनों का राष्ट्रीय समन्वय (एनएपीएम )से जुड़े हैं . सम्पर्क: ashish.ranjanjha@gmail.com

मेधा पाटकर का सरकारी उत्पीड़न जारी

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  नर्मदा बचाओ आंदोलन 

1.मेधा पाटकर को इंदौर के बॉम्बे हॉस्पिटल से छुट्टी मिलने के चार घंटे बाद, इंदौर से बड़वानी जाने के क्रम में  गिरफ्तार कर शाम 7:30 बजे धार जेल ले जाया गया, शाम तक नहीं पेश किया कोर्ट में मजिस्ट्रेट के सामने 

2.नर्मदा घाटी के हज़ारों की संख्या में लोगो ने किया धार जेल का घेराव, कहा गैर कानूनी गिरफ्तारी और  सरकार का दमन नही सहेंगे 

3.सैकड़ों नर्मदा के विस्थापितों ने दी गिरफ्तारी, सांकेतिक गिरफ्तारी के बाद सबको रिहा किया धार पुलिस ने 

 4.इंदौर हाई कोर्ट, नर्मदा विस्थापितों की याचिका पर अगली सुनवाई 21 अगस्त 2017 के दिन करेगी 

5.27 जुलाई से चल रहा अनिश्चितकालीन उपवास आज भी जारी, 7 अगस्त के दिन मेधा पाटकर व 9 अन्य          अनशनकारियों के गिरफ्तारी के बाद जुड़े 10 अन्य साथी 
  
6.27 जुलाई से अनशन पर बैठी भगवती बहन और रुकमनी बहन के साथ अनशन में जुड़े 10 साथियों का आज    चौथा  दिन 

बड़वानी, मध्य प्रदेश, 11 अगस्त 2017 

9 अगस्त को दोपहर  में अस्पताल से रिहाई के 4 घंटे बाद मेधा पाटकर को दुबारा पुलिस ने इंदौर बड़वानी रास्ते पर घेरा और इसबार धाराओं की सूची के साथ उनको धार जेल में शाम 7:30 बजे बंद कर दिया। जिसके खिलाफ  पूरे गाँव गाँव से अहिंसक उदगार आया और हजारों की संख्या में लोग अपना विरोध प्रदर्शन करने धार जेल पहुंचे। घंटों बातचीत के बाद कोई समाधान ना होता देख घाटी के सैकड़ों लोगों ने मेधा पाटकर व अपने चार अन्य लोगों के गिरफ्तारी के विरोध में 10 अगस्त को सामूहिक गिरफ्तारी दी।



पुलिस ने सभी की सांकेतिक गिरफ़्तारी लेते हुए उन्हें शाम में रिहा कर दिया। आज शाम तक मेधा पाटकर को कोर्ट में उपस्थित नहीं किया गया था, और पहले से अलग अलग झूठे आरोपों में गिरफ्तार करने के बाद कई अन्य धाराएं जोड़ दी गयी है। पिछले 10 दिन भारत के इतिहास में नर्मदा घाटी के लोगों की जलहत्या के लिए सरकारी नियोजन की तरह याद रखा जाएगा। इसी के साथ नर्मदा बचाओ आंदोलन पुलिस के आरोपों का खंडन करते हुए जाहिर करना चाहती है कि नर्मदा घाटी के लोग पिछले 32 सालों से अहिंसक सत्याग्रही मार्ग पर चलते आ रहे हैं और शासन को उसकी गलतियों और चूक से अवगत कराते आये है। नर्मदा बचाओ आंदोलन हमेशा नर्मदा घाटी के लोगों के हक़ के लिए संघर्ष करता आया है और करता रहेगा। हिंसा करना सरकारों का रवैया रहा है जैसा कि हम इस बार ही नही इससे पहले भी कई बार देख चुके हैं। कोई भी सरकार सेहत को चिंतित होकर कील लगे डंडे लेकर पुलिस नही भेजती अगर उनकी मंशा हिंसा के इतर होती। सरकार लोगों के ऊपर दमन कर रही है और जब नर्मदा घाटी के लोगों ने सरकार के झूठ को दुनिया के सामने उजागर कर दिया तो वो बौखलाहट में मेधा बहन और अन्य साथियों पर हिंसक दमन करने को उतारू हो गयी है। हमारा आज भी कहना है और हम यह साबित कर चुके है कि घाटी में लाखों लोग पुनर्वास से वंचित है अभी भी, लाखो पेड़ डूब में आ रहे है, मंदिर, मस्जिद, शालाएं, स्थापित गांव, लाखों मवेशी व कई अन्य जीव डूबने वाले हैं। ऐसी त्रासदी पर कौन सा उत्सव मनाना चाहती है मध्य प्रदेश, गुजरात और केंद्र सरकार। क्या सिर्फ भारत में अब सत्ता की राजनीति रह गयी है? क्या कभी ग्राम सभा की लोकनीति और वास्तविक न्याय की पराकाष्ठा स्थापित हो पाएगी? आज भी नर्मदा घाटी के लोग महात्मा गांधी, अंबेडकर के सपनों और उसूलों पर चलते हुए देखना चाहते है। ऐसे समय में सरकार को झूठे आरोप लगाने से बाज आना चाहिए और 32 सालों के अहिंसक सत्याग्रही आंदोलन के सामने नतमस्तक होकर प्रेरणा लेते हुए लोगों की भलाई के बारे में सोचना चाहिए। हम यह सरकार की बेशर्मी भरे कदमों के बाद भी उनसे मांग करते हैं कि फौरन मेधा पाटकर व अन्य गिरफ्तार किये गए साथियों को बिना किसी शर्त के रिहा किया जाए और बांध के गेट्स फौरन खोलकर मध्य प्रदेश की नर्मदा घाटी की जनता का सम्पूर्ण और न्यायपूर्ण पुनर्वास किया जाए। इसी दौरान आज इंदौर हाई कोर्ट के समक्ष सुनवाई को आई विस्थापितों की याचिका की अगली सुनवाई 21 अगस्त के दिन तय की गयी।

कैलाश अवस्या, मुकेश भगोरिया, श्यामा बहन, केसर बहन, मोहन भाई
 संपर्क : 9179617513 / 9867348307

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मेरी रात मेरी सड़क आखिर क्यों?

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बहुत कम ऐसे मौके आते हैं जब हिन्दी स्फीअर की लडकियां सोशल मीडिया या मीडिया में कोई मुद्दा ट्रेंड करा ले जाती हों. आज भी ट्वीटर और फेसबुक में अंग्रेजी ट्रेंड को पर लग जाते हैं. लेकिन श्वेता यादव, गीता यथार्थ और अन्य लडकियां इस मामले में उल्लेखनीय हैं जिन्होंने कई मुद्दे सोशल मीडिया और मीडिया में ट्रेंड कराये. सेल्फ़ी विदाउट मेकअप की मुहीम हो या अमेजन का स्त्री की योनि में सिगरेट बुझाने की प्रतीक वाला ऐश ट्रे का विज्ञापन और उसकी बिक्री वापस लेना, यह सब इन लड़कियों ने सफलता पूर्वक अंजाम दिया. और अब 12अगस्त को ‘अगस्त क्रान्ति दिवस’ के तीन दिन बाद और आजादी के दिन के तीन दिन पूर्व की आधी रात को #मेरीरातमेरीसड़क का आह्वान किया है-उस रात लड़कियों को अपने-अपने शहरों में सड़क पर निकलने का आह्वान. श्वेता बता रही हैं इस अभियान को शुरू करने के पीछे का मकसद: 
संपादक

फेसबुक पर लिखने के बाद बहुतसारे लोगों ने पूछा कि #मेरीरातमेरीसड़क आखिर क्यों? क्या यह वर्णिका के साथ जो हुआ उसके विरोध में है? ज्यादातर ने बिना कहे खुद से कयास लगा लिया कि यह वर्णिका केस के विरोध में ही है, जिसमें एक राजनेता ने विवादित बयान देते हुए कहा कि “लड़कियों को देर रात में घर से बाहर निकलना नहीं चाहिए”|

पर रुकिए जरा सोचिये क्या सिर्फयह एक अकेली घटना है? जहाँ किसी घटना के बाद ऐसा बयान आया? क्या ऐसा पहली बार हुआ है कि किसी लड़की को इस तरह के अपमान से गुजरना पड़ा? क्या समाज में, घर-परिवार में आये दिन यह सुनना नहीं पड़ता कि घर से निकलो तो भाई को लेकर निकलो, आधी रात में मत जाओ, ऐसे मत बोलो, वैसे मत उठो, वैसे मत बैठो ऐसी न जाने कितनी बातें हैं जो सिर्फ लड़कियों के लिए है|  न जाने कितनी ऐसी घटनाएँ हैं जिनके बाद हमने कितने उल-जलूल बातें लड़की के मत्थे आती सुनी हैं|


उन तमाम बातों के विरोध मेंयह कैम्पेन है, एक छोटी सी गह्तना से आपको बताती हूँ शायद आपके लिए समझना आसन हो जाए कि हम लड़कियां आधी रात को भी सड़क अपने लिए सुरक्षित क्यों चाहती हैं|

यूँ तो आधी रात को घर से निकले के बहुत वाकये हैं जहाँ झेलना पड़ा लेकिन कुछ वाकये ऐसे हैं जो आज भी नहीं भूलते उनमें से एक यह भी है......

दिसंबर 2015 हमारे पूरे परिवार केलिए आज भी क़यामत ही है. 7 दिसंबर रविवार सुबह अचानक दी का फोन आया उसने बताया कि पापा को ब्रेन हैमरेज हो गया है| तमाम उठा-पठक में पापा को लखनऊ सुषमा हॉस्पिटल में भर्ती कराया गया| पिता कोमा में और हम सब बदहवास, मैं आनन्-फानन में दिल्ली से लखनऊ पहुंची| होस्पिटल में माँ और भाई थे उनके अलावा तीसरी मैं| चूँकि दिमाग बिलकुल सुन्न पड़ गया था पापा का सुनकर तो जो कपड़े पहन रखे थे उन्हीं में जनरल से भागी थी दिल्ली से, लिहाजा पास में कुछ नहीं था| तीन दिन बाद भईया ने कहा हम तीनों में से किसी एक को घर जाना होगा, चूँकि तुम्हारे पास कपड़े वगैरह भी नहीं है एक काम करो तुम घर चली जाओ, वहां का सारा इंतज़ाम भी देख लेना और अपने कपड़े भी लेना आना| मैं घर चली गई, लखनऊ से हमारे घर की दूरी लगभग 220 किलोमीटर है| सब कुछ जल्दी -जल्दी निपटाते भी दुसरे दिन शाम हो गई, सर्दियों में सूरज यूँ भी घर जाने की जल्दी में होता है| दीदी और भाभी दोनों ने कहा कि रुक जाओ मत जाओ, लेकिन हालात रुकने वाले नहीं थे सो मैंने लखनऊ का रूख किया एक तो वैसे ही लेट हो गया था दूसरे कोई बस नहीं और कोहरा उसकी तो पूछिये मत इतना भयानक था उस दिन की हाथ को हाथ न दिखे .. समझ लीजिये  बस रेंग रही थी| भईया के चाचा ससुर उस समय हर पल साथ खड़े थे, हमारे लिए पिता समान| उनका मुझे फोन आया और उन्होंने कहा बेटा बस अड्डे तक मत जाना बेवजह की दूरी जायेगी और समय भी| चाचू ने मुझसे कहा बेटा तुम शहर में प्रवेश करने से पहले ही जो फ्लाई ओवर पड़ता है वहां उतर जाना मैं वही रहूँगा तुम्हें रिसीव कर लूँगा| खैर वह बेहद जिम्मेदार हैं आज तक कभी अपनी जिम्मेदारियों से नहीं चूके| लेकिन एक कहावत है न कि जब समय ही बुरा चल रहा हो तो फिर सारे सितारे उलटे पड़ जाते हैं|

अभी तक रॉड, तेज़ाब, मोमबत्ती और अब औरत के गुप्तांग में सिगरेट भी: सोशल मीडिया में आक्रोश

बस फ़्लाइओवर पर पहुंची और मैं उतर गई , एक तो कुहरे की वजह से सही जगह का अंदाजा न लग पाने के कारण मैं चाचू को सही समय का आइडिया नहीं दे पाई दूसरी मार यह पड़ी की कुहरे की वजह से चाचू मिस गाइड हो गए और गलत रूट ले लिया| अब कुछ नहीं हो सकता था सिवाय इंतज़ार के| मुझे याद है उसी फ़्लाइओवर से हाइवे शुरू होने के चलते गाड़ियों जिनमे ज्यादातर ट्रकों का ताता लगा हुआ था, बराबर आ जा रही थी या यूँ कह लीजिये रेंग रही थी| मैं डर और ठंढ के मारे लगभग सुनना पड़ चुकी थी क्योंकि मुझे अंदाजा हो गया था कि मैं बहुत गलत जगह फंस गई हूँ|


मैंने हुड उठाया सिर को ऐसे ढका की ठीक से बाल ढँक जाए आधे चेहरे को रूमाल से बाँधा पर शायद फिर भी मैं अपना लड़की होना छुपा नहीं पाई| जहाँ मैं थी वहां एक ट्रक आकर रुकी मैंने अपने आपको भरसक छिपाने की कोशिश की लेकिन मैं नाकाम थी| उस ट्रक में तीन लोग थे उन्होंने मुझे कैसे देखा, क्या सोचा मुझे नहीं पता लेकिन वह मेरी तरफ बढ़ रहे थे| मैंने इस बात को कन्फर्म करने के लिए अपनी जगह छोड़ा और थोड़ी अलर्ट होते हुए आगे की तरफ बढ़ गई| वे अब और तेजी से मेरी तरफ बढ़ने लगे मेरे पास सोचने का समय नहीं था बस बचाना था खुद को| पीठ पर सामान से लदा बैग और डरी सहमी मैं अपने आपको चाचा के आने से बिलकुल उलटी दिशा में भागी जा रही थी| मैं आगे और वो मेरे पीछे, मैं मार्शल आर्ट जानती हूँ पर मैं जानती थी कि मैं अकेली और डरी हुई हूँ और वे तीन मैं लड़ नहीं पाउंगी तो भागकर बचाना उचित लगा| भागते-भागते कुछ छोटी गुमटियां दिखी उन्ही में छिप कर खुद को बचाया| वह रात तो बीत गई लेकिन उस भयानक रात का जिक्र मैं अपने घर में किसी से नहीं कर पाई आज तक नहीं| पर जब भी सोचती हूँ सिहर उठती हूँ अगर उस रात मैं उनके हाथ लग गई होती तो क्या हुआ होता? क्या करते वे मेरे साथ?

कुछ हो जाने पर कौन ये मानताकि उस दिन और उसके बाद भी कई रातें मुझे देर रात घर से बाहर निकलना पड़ा अपनी इच्छा या घूमने के शौक के चलते नहीं अपनी जरूरत के चलते| ऐसी ही न जाने कितनी लड़कियां हैं जिन्हें अकेले निकलना होता है रात में जरूरत के वक्त, उन्मन कुछ अकेली रहती हैं, कुछ नौकरी करती हैं, कुछ सिंगल मदर हैं| सबके पास अपने-अपने कारन है पर इसका यह मतलब कत्तई नहीं होना चाहिए कि कोई लडकी रात को घर से निकले तो वह रेप कर दी जाए, मार दी जाए और उस पर यह आधे तिरछे बयान आएं| बस अब बहुत हुआ इनका विरोध करना ही होगा| लोगों को यह बताना ही होगा कि यह सड़क जितनी किसी आदमी के लिए सुरक्षित है उतनी ही किसी महिला के लिए भी होनी चाहिए| यह कैम्पेन उसी के विरोध में उठाया गया छोटा सा कदम है| शुरू में हम कुछ लड़कियां थी अब तो लगभग देश का हर कोना जुड़ चुका है|

मान लीजिये कि हम लड़कियांखुरापाती हो गई हैं .. आपके हिसाब से बहुत भयानक आइडिया हम लड़कियों के दिमाग में घूम रहा है.. जल्द ही हम आधी रात को सडको पर निकलेंगी .. नहीं नहीं हमारा इरादा किसी भी सरकार को चुनौती देना नहीं है.. बस इस समाज को समझाना चाहते हैं कि सड़कें हमारे लिए भी सुरक्षित कर दीजिये .. मैं यह मानती हूँ कि हम अपराध युक्त समाज का हिस्सा बन चुके हैं इसलिए आधी रात को सड़कें किसी के लिए भी सुरक्षित नहीं है फिर चाहे वह महिला हो या पुरुष.

नैचुरल सेल्फी की मुहीम: सौन्दर्य बाजार को लड़कियों की चुनौती

लेकिन जानते हैं आधी रात में निकलने पर पुरुष और महिला के डर में बड़ा अजीब अंतर है| अगर अपनी कहूँ तो मैं बिना वजह खुद रात को निकलने से बचती हूँ| लेकिन जब जरूरत होती है तो निकलने से घबराती भी नहीं बिना हिचक निकल जाती हूँ| हजारों अनुभव हैं मेरे पास ऐसे जब आधी रात को घर से बाहर निकलना पड़ा है वो भी अकेले.. आप जानते हैं क्या होता? नहीं ?? रुकिए बताती हूँ हाँथ, पैर कांपते हैं एक अनजाना डर दिमाग में भरा रहता है और वह डर बहुत वाहियात है क्योंकि वह डर सिर्फ लड़की होने से उपजता है.. रेप कर दिए जाने का डर, मार दिए जाने का डर, मोलेस्ट किये जाने का डर| और इस सब के साथ अगर आपके साथ कुछ गलत हो जाए तो लोगों की नसीहत निकली ही क्यों थी आधी रात को .. इन सब वर्जनाओं को तोडना है .. फिलहाल हम कुछ लड़कियां मन बना चुकी हैं .. आप सब का भी मन करे तो आ जाइए साथ ...


कई लोगों का यह सवाल भी आया कि एक दिन से क्या होगा क्या बदलेगा| उनसे मेरा एक सवाल कुछ नहीं किया तो भी क्या बदलेगा? आज नहीं तो कल कुछ न कुछ तो करना होगा| बड़ी नहीं तो छोटी ही सही शुरुआत तो होनी चाहिए| तो बस समझ लीजिये यह शुरुआत ही है

श्वेता यादव  टेढ़ी  उंगली वेब पोर्टल के संपादक है.
संपर्क :yasweta@gmail.com

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क्यों खबर ली स्मृति ईरानी ने ‘पहरेदार पिया की’: बंद हो सकता है प्रसारण !

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सूचना एवं प्रसारण मंत्री स्मृति ईरानीने महिलाओं द्वारा चलाये गये ऑनलाइन कैम्पेन का संज्ञान लेते हुए ब्रॉडकास्टिंरग कंटेंट कप्लेंट्स काउंसिल (BCCC) को पत्र लिखा है. इस धारवाहिक को स्त्री विरोधी बताते हुए मानसी जैन ने आनलाइन कैम्पेन चलाया था, जिसपर लगभग 1 लाख से अधिक हस्ताक्षर किये गये. इसे सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के शिकायत विभाग में बाज्बता दर्ज भी करवाया गया .


सोनी टीवी पर 17 जुलाई 2017 सेसाढ़े आठ बजे से प्रसारित होनेवाला यह धारावाहिक अपने शुरुआत से ही सुर्ख़ियों में है. बेमेल विवाह और बाल विवाह पर बने धारावाहिकों से तो हम सब परिचित हैं, “बालिका बधु” ने दर्शको की प्रसंशा भी बटोरी थी, लेकिन इस धारावाहिक ने लोगो को अपने अटपटे कथानक से आहत कर रखा है.  9 वर्ष के लडके और अपने से दुगनी उम्र की लड़की के बीच प्रेम और विवाह के अवगुंठन से गुम्फित यह कहानी किसी को भी बेचैन कर रही है.

राजे-रजवाड़ों के ठसक और राजस्थान के पारिवारिक पृष्ठभूमि में निर्मित यह धारावाहिक सैकड़ो आम टीवी धारावाहिकों की तरह ही होता यदि पुरुष प्रेमी बच्चा न होता और प्रेमिका उससे दुगने उम्र की ना होती. सामंतवाद की रस्सी जल जाने के बाद भी उसके ऐंठन के हैंगोवर को दर्शाती पृष्ठभूमि में बने इस धारावाहिक को हर तरफ से आलोचना झेलनी पड रही है. 11 साल का बाल कलाकार अफाक खान 9 साल के राजकुमार की भूमिका में है और 25 वर्षीया तेज़स्वीसाल की दीया की भूमिका में है जो राजकुमार रतन के सपनों की परी जैसी आकर्षक और खुबसूरत है. राजकुमार रतन को दीया के प्रेम में पड़कर उसका पीछा करता हुआ और छुपकर तस्वीरें  लेता हुआ दिखाया गया है. दर्शक इस प्रेम के अतिरंगी रूप को नहीं पचा पा रहे हैं और बाल विवाह तथा  सामाजिक नैतिकता के विपरीत देख रहे हैं.


दर्शकों के गुस्से को आवाज देतेहुए मानसी जैन ने change.org पर ऑनलाइन पिटीशन के माध्यम से  सूचना एवं प्रसारण मंत्री को लिखा है, जिसपर एक लाख से भी ज्यादा लोगों के हस्ताक्षर हैं. पिटीशन में कहा गया है कि यह धारावाहिक गन्दी और विकृत मानसिकता को बढ़ावा देनेवाला है और इसे तत्काल बंद कर दिया जाना चाहिए. नौ साल के बच्चे का 19 साल की लड़की की मांग में सिन्दूर के नाटकीय और सुहागरात और हनीमून के दृश्यों से कुत्सित इस धारावाहिक ने बाल विवाह के दुष्परिणामों को दिखने के विपरीत रहस्य-रोमांच और रोमांस को परोस रही है. पिटीशन में कहा गया है कि इस तरह के कुत्सित दृश्य हमारे बच्चो के कोमल मानस पर स्थायी प्रभाव डाल सकते हैं. हम नहीं चाहते कि  हमारे बच्चे इस बीमार मानसिकता से ग्रसित हों.


दीया (तेजस्वी प्रकाश) ने सफाई देते हुए कहा है कि नाहक ही लोग इसे मुद्दा बना रहे हैं, यह धारावाहिक वास्तव में कुरीतियों के खिलाफ है और किसी भी तरह से बाल विवाह को बढ़ावा नहीं देती, न ही इसमे कोई आपत्तिजनक दृश्य हैं. जिस शादी के दृश्य को देखकर जनता विरोध कर रही है (नाबालिग राजकुमार रतन द्वारा मांग में सिन्दूर भरे जाने का) वह शादी किसी कारण से हुई है ना कि दाम्पत्य सुख के आनंद के लिए. इस धारावाहिक से ‘जिम्मेदारी” का स्पष्ट सन्देश समाज में देना चाहते हैं पर लोग बेकार में ही यह पिटीशन कर रहे हैं. यह पूरी तरह अनावश्यक और अन्यायपूर्ण है. हालांकि यह समाजिक जिम्मेवारी क्या है.


धारावाहिक में मुख्य किरदार की भूमिका तेजस्वी प्रकाश (दीया), अफान खान(रतन), सुय्याश राय(अभय), परमीत सेठी(हर्षवर्धन मान सिंह) और किशोरी शहाने(पद्मा सिंह) आदि निभा रहे हैं. धारावाहिक के लेखक नीरज आयंगर हैं और शशि सुमित प्रोडक्शन द्वारा निर्मित है.
राजीव सुमन स्त्रीकाल के संपादन मंडल के सदस्य है.
संपर्क :9650164016

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स्त्री कविता: स्त्री पक्ष और उसके पार (क़िस्त तीन)

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रेखा सेठी
  हिंदी विभाग, इंद्रप्रस्थ महिला महाविद्यालय, दिल्ली वि वि, में एसोसिएट प्रोफेसर. विज्ञापन डॉट कॉम सहित आधा दर्जन से अधिक आलोचनात्मक और वैचारिक पुस्तकें प्रकाशित  
संपर्क:reksethi@gmail.com

स्त्री-कविता: स्त्री पक्ष और उसके पार  
स्त्री कविता: स्त्री पक्ष और उसके पार (क़िस्त दो)

माँ, कविता और स्त्री....
समाज के जेंडर ढाँचे का पहलाअहसास मुझे माँ के बचपन के किस्से-कहानियों में हुआ था। समकालीन स्त्री-कविता की तह में उतरते हुए मैं अपनी माँ के परिवेश और उनके पारिवारिक वातावरण में लौट गयी। माँ ने ज़िंदगी की कटु सच्चाईयों से रूबरू होते हुए भी ज़्यादा सवाल नहीं किये। उन्हें अपनी छोटी-सी गृहस्थी में ही खुश रहना था लेकिन उनकी कहानियाँ जब मुझ तक पहुँचती तो मेरे भीतर बड़ा बवंडर मचातीं । मैं अपनी माँ की बातों को उधेड़कर, उनमें छिपे अर्थ-आशयों को कपास की तरह धुनतीऔर उनकी मार्फ़त अपने होने के सिरे सिरजती। माँ एक रईस परिवार के जन्मी थीं । संयुक्त परिवार में, भाई-बहनों की हँसी-ठिठोलियों से चहकते हुए जिस बंद गली के आखिरी मकान में वे रहती थीं,वहीं से मुझे जीवन के कई पाठ और अंतर-पाठ सीखने को मिले। माँ अपनी ज़िंदगी के जो किस्से सुनाया करतीं, वे उस समय किसी रहस्यमयी कहानी से कम नहीं थे। बचपन में तो माँ के किस्से सुनाने के लहज़े से उत्सुकता ही जागती थी लेकिन बहुत बाद  में जब सोचने-समझने की उम्र हुई तब जाकर ही माँ के उन किस्सों की रहस्यमयता की कलई धीरे-धीरे खुलने लगी। समाज में स्त्री का परंपरागत स्थान और स्त्री जीवन की कई उधड़ी हुई सच्चाईयों को मैं समय के साथ ही समझ पाई।

खानदान में बेटियों की जगह निश्चित थी। उनकी पढ़ाई को लेकर कोई चिंता न थी। हाँ, भाइयों को पढ़ाने के लिये ज़रूर एक मास्टर जी घर पर आया करते थे। वे जब भाइयों को पढ़ाते, माँ खेलने के इंतज़ार में, खम्भे के पीछे से झाँकती-उचकती बहुत कुछ सीखने लगी। 1935-40 के आस-पास स्त्री-शिक्षा को लेकर कुछ जागृति बढ़ी, माँ में भी, सीखने-समझने का  हौंसला बढ़ता गया। वह धीरे-धीरे अपने घर-परिवार से बिलकुल अलग, एक नयी राह पर चलने लगी। यह ज़रूर था कि उनके आस-पास से पितृसत्ता का कड़ा पहरा तो नहीं हटा, मगर फिर भी कुछ संयोग और कुछ सहयोग से माँ ने मैट्रिक, प्रभाकर, फिर बी.ए. और बी.टी. की पढ़ाई पूरी कर ली। माँ के पक्ष में यह एक बड़ी जीत रही।

माँ का जीवन, स्त्री की शक्ति औरसीमा का गज़ब पाठ था। मेरे आस-पास जितनी भी स्त्रियाँ थी उनमें से मेरी माँ सबसे अधिक शिक्षित थीं । यह बिलकुल सच है कि उनकी शिक्षा ने ही उनके प्रति, घर और सामाजिक इज्ज़त में इजाफ़ा किया। अध्यापिका का पद, उन्हें प्रतिष्ठा देता लेकिन साथ ही उनका नौकरी करना आश्चर्यजनक ढंग से आस-पड़ोस, नाते-रिश्तेदारों में चर्चा का विषय होता । नौकरी के साथ-साथ घर की पूरी ज़िम्मेदारी उन्होंने बिना किसी शिकायत के संभाल रखी थी। पति की अनुगामिनी बन, उन्होंने अपनी स्वतंत्र इच्छा-अनिच्छा को कभी प्राथमिकता नहीं दी। माँ ने अपनी गृहस्थी, बच्चों की पढ़ाई-लिखाई, सब मिला-जुला कर एक आदर्श परिवार का ढाँचा तैयार किया। उनके इस आदर्श परिवार में किसी प्रकार की कोई टकराहट न थी क्योंकि माँ के भीतर की स्त्री ने स्वयं को नेपथ्य में रखना, सहज ही स्वीकार किया था और अपने सामने वाले पुरुष की सत्ता को किसी प्रकार की कोई चुनौती नहीं दी थी। पलटकर उनके जीवन को देखने पर मेरे भीतर एकबारगी यह विचार भी आया कि क्या शिक्षा, प्रतिगामी बेड़ियों को पिघलाने में अक्षम रही है और फिर इसके साथ ही स्त्री-जीवन से जुड़े कई दूसरे प्रश्न भी चले आते हैं।माँ के आँचल की गाँठ में बंधी इन कहानियों की तासीर स्त्री रचनाकारों की कविताओं से मेल खाती थी। इसके अलावा जैसे-जैसे मैं इन कविताओं के करीब आती गई वैसे-वैसे मेरे अपने जीवन की यात्रा भी इन कविताओं के नज़दीक जाती हुई दिखाई देने लगी। अब मुझे इन कविताओं के शब्दों और पंक्तियों के पार की सच्चाइयाँ  बार-बार असहज करने लगीं। कविता और ज़िन्दगी का यह रिश्ता स्त्री-कविता की पड़ताल करने को बाध्य कर रहा था।

जागरूक होने की उम्र में आने परअपनी पारिवारिक परवरिश ने जेंडर के सवालों को समझने की अलग दृष्टि दी। अपने परिवार में हम दो बहनें ही हैं तो बहन-भाई के अंतर की बात रही नहीं। आस-पास के परिवेश पर नज़र डालते हुए भी अक्सर यह अहसास होता, कि हम कुछ ख़ास हैं। लिंग आधारित अपमान या हिंसा का हमने सीधा सामना कभी नहीं किया। इसके अतिरिक्त शिक्षा, स्वास्थ्य, नौकरी, समान-वेतन, सामाजिक-राजनीतिक क्षेत्रों में अपनी भागीदारी को लेकर हमें कभी दूसरे दर्जे पर होने का अनुभव नहीं हुआ। इस पारिवारिक पृष्ठभूमि के कारण रोज़मर्रा के कई छोटे-बड़े संघर्ष, हमारी जीवन-परिधि से बाहर रहे। यही कारण था कि हमारी जद्दोजहद, स्त्री-अस्मिता पर केन्द्रित न होकर व्यक्ति-अस्मिता के सवालों से जूझ रही थी।


स्त्री का जीवन, विविधवर्णी है,जिसमें चाहे कितने ही धूसर रंग क्यों न हों, स्त्री का उन सभी रंगों से लगाव है, वह सभी को अपनी संवेदना से सींचती है और अपनी अभिव्यक्ति में इस्तेमाल करती है। यही कारण है कि जो संवेदनाएँ मुझे अपने जीवन में बेचैन करती रहीं वही स्त्री रचनाकारों की कविताओं में भी प्रतिध्वनित होती थीं | स्त्री-कविता, अपने सुख-दुःख के जो प्रतिमान रचती हुई जिस काव्यानुभव को प्रतिबिंबित कर रही थी उसमें स्त्री-अनुभव की विशिष्टता एवं स्त्री-दृष्टिकी प्रमुख भूमिका है। स्त्री जीवन को, स्त्री-दृष्टि से देखने की कोशिश उनकी कविताओं को अतिरिक्त आयाम देती है। ऐसा करना महत्वपूर्ण इसलिये भी है क्योंकि स्त्री ने खुद को स्त्री-दृष्टि से कभी नहीं देखा। वह खुद को पुरुषों द्वारा गढ़ी गयी परिपाटी के भीतर ही देखती रही।

स्त्री-कविता पर अपने अध्ययनके लिये मैंने जिन सात कवयित्रियों का चयन किया, वे समकालीन होते हुये भी स्त्री-अस्मिता के अलग-अलग मायनों के साथ कविता रच रही हैं। इन कवयित्रियों में एक ओर गगन गिल हैं, जिन्होंने अपनी साहित्यिक पहचान, कभी भी अपने स्त्रीत्व के साथ नहीं जोड़ी। जिस तरह रवीन्द्रनाथ ठाकुर की प्रशंसा में वे उन्हें ‘ए ग्रेट ह्युमूनाइज्ड माइंड’ कहती हैं, उनके अपने साहित्य की धुरी भी उसी मानवीय विवेक पर टिकी हुई है, जिसे स्त्री-पुरुष के लिंगाधारित चौखटों में बाँधना मुश्किल है। गगन के ही दूसरे छोर पर कात्यायनी हैं, जिनकी चिंता के केंद्र में व्यक्ति और व्यवस्था का द्वन्द्वपूर्ण संबंध देखने को मिलता है। उनकी कविताएँ स्त्री जीवन से आगे बढ़कर गहरे अर्थों में राजनीतिक कविताएँ हैं जो भारतीय लोकतंत्र में नागरिक अधिकारों की चेतना को प्राथमिक मानती हैं। स्वार्थ लिप्सा से चरमराती व्यवस्था में छले गए जन साधारण की पक्षधरता में आवाज़ उठाती हैं। इनके बाद का दौर, अवश्य ही अनामिका और सविता सिंह के नाम रहा जिनकी कविताओं ने, कविता की दुनिया में स्त्री-स्वर को विशिष्ट पहचान दी लेकिन यह भी सच है कि इन दोनों कवयित्रियों द्वारा रचित कविताओं को भी आलोचना के सीमित साँचे का शिकार होना पड़ा, जबकि इनकी कविताओं में पितृसत्ता के विरोध के साथ-साथ मानव मुक्ति का बड़ा कैनवास उभरता है। अनामिका के यहाँ लोक-संस्कृति का ठाट है जिसमें परंपरा, श्रुति-स्मृति जीवंत होकर वर्तमान और अतीत को एक धागे में बाँधते हैं। सविता सिंह की स्त्री अपनी सीमाओं को लाँघती हुई प्रकृति से एकमेक हो जाती है जिसकी साझेदारी दुनिया के समस्त दमित-वंचित समाजों से है। कविता-भाषा के स्तर भी इन कवित्रियों की रचनाएँ नए इलाके की ओर गतिशील होती हैं।

इनके अलावा नीलेश रघुवंशी, सुशीला टाकभौरे और निर्मला पुतुल इस परियोजना में शामिल हैं जो अलग-अलग पृष्ठभूमि से आती हैं। उनकी कविताओं में स्त्री-अस्मिता, एकांगी न होकर, सामाजिक भेद-भाव की अनेक परतों से जुड़ी हुई है, जिससे उनकी कविताओं में स्त्रीवाद के मायने बदल जाते हैं। स्त्री जीवन के विडंबनात्मकचित्र उनकी कविताओं में भी भरपूर मात्रा में देखने को मिलते हैं किन्तु उनकी प्रवृति, वर्ग और जाति के पदानुक्रम से निर्मित, सामाजिक वर्ग-विभेद को केंद्र में रखने की रही है। नीलेश की निम्न-मध्यमवर्गीय चेतना ने उन्हें समाज को देखने-परखने का अलग नज़रिया दिया। उनकी कविता उस शिक्षित युवा मन की सकारात्मक अंतर्ध्वनि है जो अपने साहस से एक नये समाज की संकल्पना करता है। सुशीला टाकभौरे, अपनी पहचान मात्र स्त्री के रूप में न कर, दलित अस्मिता से जोड़कर करती हैं। उनके अनुसार, ‘एक दलित स्त्री अपने जीवन में सबसे अधिक पीड़ा झेलती है’। आदिवासी अस्मिता की मुखर अभिव्यक्ति, निर्मला पुतुल की कविताओं में देखने को मिलती है। उनकी कविताएँ, आदिवासी स्त्री के संघर्षों की दर्दनाक कथाएँ रचती हैं लेकिन उनसे यह पूछने पर कि स्त्री और आदिवासी होने की पीड़ा में किसकी पीड़ा बड़ी है, उन्होंने इन दोनों वर्गों के बीच जिस साम्य-सूत्र की बात रखी उसे सुनकर मैं एकबारगी चौंकी। उन्होंने कहा कि अंतर केवल इतना है कि ‘उच्च वर्ग की स्त्री, रसोई या बेडरूम में प्रताड़ित होती है जबकि आदिवासी स्त्री, फुटपाथ पर मार खाती है।’ उनका यह कथन, स्त्री-जीवन की विडंबना की पुष्टि करता है कि अपमान की पीड़ा का अंत:सूत्र, संभवतः सभी स्त्रियों को एकसाथ जोड़ता है।


इस तरह, इन सभी कवयित्रियों केअपने विशिष्ट अनुभव, उनके कविता-संसार में स्पष्टता से झाँक रहे थे।उनकी कविता की परछाईयाँ, एक दूसरे को छू भी रही थीं और स्त्री-अस्मिता के मुद्दे पर अलग-अलग हैं। संभवत: मेरी ही तरह, इन रचनाकारों की पारिवारिक पृष्ठभूमि और शिक्षा की विभिन्नताओं ने भी उनकी सोच को अलग-अलग साँचे में ढाला जिससे अपने अस्तित्व पर जिरह करने की ताकत को अलग-अलग धार मिली और अपनी सामाजिक स्थितियों की पड़ताल करने का उनका नज़रिया भी एक-दूसरे से अलग रहा। अपने इसी ओब्ज़रवेशन को अधिक विस्तार देने के लिये, मैंने इन सातों कवयित्रियों से बातचीत करके यह समझने का प्रयास किया कि, उनके लिये स्त्री-कविता का क्या अर्थ-आशय है।सबकी काव्य-प्रेरणा से लेकर, उनके काव्य-जगत और उनके सामाजिक-राजनैतिक सरोकारों को लेकर महत्वपूर्ण सवाल समाहित हैं, जिससे यह पहचान बने कि उनकी रची इस समानान्तर दुनिया का क्षितिज कितना विस्तृत या सीमित है।

गहरी आत्मीयता के साथ, मैंने इन रचनाकारों के मन की भीतरी तह में उतरने की और उनके रचना जगत के लिये कच्चे माल की उपलब्धि जैसे अनेकों पहलुओं तक पहुँचने की हर संभव कोशिश की है। अधिकांश प्रश्नों का दायरा, स्त्री-पक्ष के साथ-साथ, कविता की रचना-प्रक्रिया को सलीके से समझने तक फैला हुआ है। इसके अलावा सभी कवयित्रियों के रचना-विधान के सृजनात्मक उपकरणों पर भी विस्तार से चर्चा की गयी है। स्त्री-कविता के पृथक अभिधान से लेकर उसकी सामाजिक भूमिका, स्त्री-विमर्श की सीमा-सम्भावना व साहित्यिक आलोचना का स्त्री-कविता के प्रति रवैय्या आदि अनेक प्रश्नों पर सातों कवयित्रियों के उत्तर एक-दूसरे से भिन्न धरातल पर अवस्थित थे जिनसे इस कविता की गतिशीलता व विविध-धर्मिता का परिचय मिलता है।यह एक अनजाने क्षितिज की तलाश थी जिसे पहचानने में इन रचनाकारों की सूक्ष्म संवेदनशील दृष्टि ने मेरी सहायता की।अगली किश्तों में इस विषय पर कुछ महत्वपूर्ण टिप्पणियाँ प्रस्तुत होंगी ।

स्त्री-कविता और सामाजिक परिवर्तन

आज भी हम ऐसे समाज में जी
रहे हैं जिसकी आधी आबादी बहुत दारुण स्थिति में जीवन-यापन कर रही है, जिन्हें अपने स्त्रीत्व की पहचान नहीं है। वह नहीं जानती कि एक स्त्री के रूप में उसकी शक्ति क्या है और उसे किस तरह अधिक धारदार बनाया जा सकता है, उसका जीवन रोज़ी-रोटी की जिस भाग-दौड़ में उलझा है, बौद्धिक विमर्श में उसके लिए कोई जगह नहीं है। स्त्रियों पर होने वाले अत्याचारों के विरोध की अपेक्षा झेलने की विवशता अधिक दिखाई पड़ती है। जब तक स्त्री-मुक्ति का अभियान मानव मुक्ति के अभियान में रूपांतरित नहीं होता, समाज में वह संतुलन नहीं बनता जिसमें स्त्री और पुरुष दोनों को एक स्वतंत्र राष्ट्र के नागरिक के रूप में बराबर का दर्ज़ा मिले, तब तक समतापूर्ण समाज की संकल्पना अधूरी रहेगी। कविता और साहित्य, इस संभावना को कैसे जगा सकेंगे, यह एक महत्वपूर्ण विषय है।


स्त्री-कविता, मुक्ति की जिस चेतना को अपनाती है, वह मानव-मुक्ति की परिकल्पना है जिसमें संभवतः स्त्रियों के बीच वर्ग-भेद भी मिट जायेंगे और स्त्री-पुरुष के बीच सत्ता और ताकत के संबंधों की भी पुनर्व्याख्या होगी। सविता सिंह, ऐसे समाज की कल्पना करते हुये कहती हैं कि “ऐसी समानान्तर सभ्यता का विकास संभव होगा, जिसमें सामूहिक सहवास संभव होगा। एक विनम्र, विश्व-समुदाय बनाने में हमारी कविताओं का भी योगदान होगा।” स्त्री-कविता की यह आधारभूमि, अपने सुख-दुःख में आत्मलिप्त न होकर, एक नई सभ्यता का विकास करने की आकांक्षा रखती है, जो अधिक विनम्र, मानवीय व समतापूर्ण होगी।

“आधी आबादी की सक्रिय भागीदारीव समर्थन के बिना कोई भी सामाजिक बदलाव संभव नहीं...जिस कविता में यथार्थ की इंदराज़ी मुक्तिकामी स्त्री के नज़रिए से की जाती है, उस प्रगतिशील स्त्री-कविता की सामाजिक परिवर्तन में अहं भूमिका है।”कात्यायनी के इन शब्दों में कविता और सामाजिक परिवर्तन का संबंध, सूत्र बनकर झलकता है। यह निश्चित है कि साहित्य अपनी गति से धीरे-धीरे-धीरे ही सही, हमारी चेतना के निर्माण या उसके परिवर्तन में विशेष भूमिका निभाता है। उसकी गति इतनी धीमी, इतनी महीन हो सकती है कि ऊपर से देखने पर भले ही कोई हलचल दिखाई न दे लेकिन वह सदा सक्रिय रहती है। स्त्री-कविता, स्त्री के हक में, हमारी चेतना को निरंतर आंदोलित करती रहती है। उसकी सर्वोदयी करुणामयी दृष्टि सबके लिये न्याय की माँग करती है। उसमें मानवता का सन्देश निहित है।

अपनी कविता के लिये स्त्री-रचनाकारजो भी शब्द चुनती हैं, वे शब्द या पक्तियाँ, बीच के अंतरालों को पाटने की कोशिश करते हैं, क्योंकि उन शब्दों और पंक्तियों में, स्त्री की परिवर्तनकामी चेतना व भूमिका की खास जगह होती है।समकालीन कविता की दुनिया में, स्त्री हों या पुरुष, सभी कवियों के सरोकार समान रहे हैं। अपनी विशेष अभिरुचियों के बावजूद वे साझे यथार्थ के साक्षी हैं। अनामिका कहती हैं, “स्त्री कवि हों या अन्य कवि, सब अपने-अपने वर्ण, नस्ल, लिंग के लेंस से, साझा यथार्थ देखते-परखते हैं। यह अवश्य है कि आज जितनी महिलाएँ, एक-साथ साहित्यिक परिदृश्य पर सक्रिय हैं, वह पहले कभी नहीं हुआ और उनके होने से कविता या साहित्य के बृहत् संसार में कुछ खलबली तो ज़रूर मची है, उनकी अपनी एक आवाज़ बनी है, जो पहले नहीं थी”स्त्री-कविता, सामाजिक परिवर्तन में जो भूमिका निभा रही है और उससे आगे बढ़कर निभाने की आकांक्षा रखती है।

आज के पुरुष आलोचकों ने स्त्रीरचनाकारों को नई संवेदनशीलता से पढ़ा है और उनके साहित्य में आने वाली नवीन अभिव्यक्तियों को रेखांकित किया हैं। प्रबुद्ध समाज की प्रवक्ता के रूप में इन कवयित्रियों के सामाजिक-राजनीतिक विचारों व उनकी पक्षधरता का भी विशेष महत्व है।इन कवयित्रियों ने राजनीति, समाज, साम्प्रदायिकता, भूमंडलीकरण की चुनौतियों आदि पर गंभीर, महत्वपूर्ण कवितायें लिखीं है। इसके साथ-साथ कविता की रचना-प्रक्रिया पर भी उन्होंने गहराई से विचार किया है। इसी तरह जीवन के कोमल बिम्ब, प्रकृति से उनकी अभिन्नता, भाव-भाषा के विविध प्रयोग, स्त्री-कविता की इन उपलब्धियों की ओर किसी का ध्यान नहीं गया। स्त्री व स्त्रीत्व की आवाज़ पकड़ते हुए, यह सब छूट रहा था जिससे उनके मूल्यांकन की पहल, स्वागत-योग्य होते हुये भी, अधूरी रही है।काव्य रचना के ये सभी पक्ष समकालीन कविता धारा में स्त्रियों तथा स्त्री-कविता की सम्पूर्ण उपस्थिति को दर्ज करते हैं।

क्रमशः जारी 

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ऐसी पोशाकें पहनने वाली लडकियां नंगी घूमें: हरियाणा सीएम

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हमारा देश कितना घोषित पितृसत्तात्मक देश है ! 

 '#मेरीरातमेरीसड़क अभियान के तहत आज लडकियां (12 अगस्त) 12 बजे रात को सड़कों पर  निकलकर अपने स्पेस पर क्लेम कर रही हैं.  आइये समझते हैं लड़कियों की मोबिलिटी से कैसे घबडाते हैं पुरुष शासक. प्रधानमंत्री से लेकर सभी दलों के नेताओं के सेक्सिस्ट बयानों की एक लम्बी फेहरिश्त है.
महिलाओं पर दिए गए ऐसे फूहड़ बयान बड़े बड़े राजनेताओं के मुंह से कितनी आसानी से झरते हैं --

1.लड़की बारह बजे के बाद बाहर क्यों थी ! -- रामवीर भाटी ( हरियाणा, भाजपा )
2.अगर उनको ऐसी पोशाक ही पहननी है तो फिर वे नंगी घूमें - मनोहरलाल खट्टर ( मुख्य मंत्री , हरियाणा )
3.महिला आरक्षण बिल पास करवाकर ,परकटी महिलाओं को सदन में लाना चाहते हैं आप ? - शरद यादव (जेडीयू)
4.डेंटेड-पेंटेड महिलाएं सड़कों पर विरोध कर रही हैं। दिन में विरोध करेंगी रात में डिस्को जाएँगी। - अभिजीत मुखर्जी    (सांसद और राष्ट्रपति के बेटे)


5.90 फीसदी मामलों में रेप नहीं बल्कि लड़कियां सहमति से सम्बन्ध बनाती हैं। - धर्मवीर गोयल (हरियाणा कांग्रेस प्रवक्ता)
6.लड़कियों को इतना ऐडवेंचर्स नहीं होना चाहिए कि देर रात को अकेले घर से बाहर निकलें। - शीला दीक्षित (पूर्व सीएम, दिल्ली)
7.ये महिलाएं लिपस्टिक पाउडर लगाकर क्या विरोध करेंगी ? - मुख़्तार अब्बास नक़वी (केंद्रीय कैबिनेट मंत्री)
8.लड़कियों को फिगर की ज्यादा चिन्ता होती हैं इसलिए कम खाती हैं। कुपोषण का यही कारण है। - नरेंद्र मोदी (प्रधानमंत्री)
9.महिला आरक्षण विधेयक पास होने से ऐसी महिलाएं सदन में आएँगी जिन्हें देखकर लोग सीटियां मारेंगे। - मुलायम सिंह यादव (सपा प्रमुख)
10.रेप के लिए लड़कियां भी जिम्मेदार हैं क्योंकि हर रोज उनकी स्कर्ट का साइज़ छोटा होता जा रहा है। फ़िल्म में विलेन का होना जरूरी है वरना फ़िल्म कैसे चलेगी? - चिरंजीत चक्रवर्ती (टीएमसी MLA)
11.ममता बनर्जी रेप के लिए कितना चार्ज करेंगी ? - अनीसुर दास ( CPM के सीनियर नेता और पूर्व मंत्री)
12.जब मर्यादा का उल्लंघन होता है तो सीताहरण होता ही है। औरतों को लक्ष्मण रेखा को नहीं लांघना चाहिये। - कैलाश विजयवर्गीय (बीजेपी नेता, एमपी)
13.मैं अपने कार्यकर्ताओं को माकपा की महिलाओं के रेप करने के लिए भेजूंगा। - तापस पाल (टीएमसी सांसद)
14.वेस्टर्न कल्चर की वजह से रेप हो रहे हैं। भारतीय संस्कृति तो महान है। - मुरली मनोहर जोशी (भाजपा के सीनियर लीडर)
15.कोई बताकर तो रेप नहीं करता...अगर बताकर जाता तो हम पकड़ लेते। - बाबूलाल गौर (ग्रह मंत्री, एमपी)
16.कोई जानबूझकर रेप नहीं करता... धोखे से हो जाते हैं। - राम सेवक पैकरा (ग्रह मंत्री, छत्तीसगढ़)
17.आपको तो खतरा नहीं हुआ ना? गूगल करके देखिये और भी जगह रेप हो रहे हैं। (बदायूं रेप पर पत्रकार के सवाल पर)- अखिलेश यादव (सीएम, यूपी)
18.रेप सिर्फ इंडिया में होते हैं भारत में नहीं। - मोहन भागवत, (प्रमुख, आरआरएस)
19.अगर मुसलमान तुम्हारी एक बेटी को ले जाते हैं तो तुम उनकी सौ महिलाओं को ले आओ। - योगी आदित्यनाथ (सांसद, बीजेपी)


20.रेप के लिए फांसी की सजा न हो। लडके हैं ! जवानी में गलती हो जाती है। लड़कियां भी झूठे आरोप लगाती हैं। - मुलायम सिंह यादव (प्रमुख, समाजवादी पार्टी)
21.लड़कियों को मोबाइल नहीं देने चाहिए। जब मोबाइल नहीं था तो क्या हमारी माताएं बहनें मर गई थी। - राजपाल सैनी (सांसद, बीएसपी)
22.जो महिलाएं शादी से पहले और शादी के बाहर सेक्स करती हैं उन्हें फांसी दे देनी चाहिए।- अबु आज़मी (विधायक और नेता, समाजवादी पार्टी)
23.ऐसी रिपोर्ट्स आ रही हैं  कि 20-25 हजार के सरकारी मुआवजे के लिए लड़कियां खुद को रेप विक्टिम बता रही हैं। - अम्बिका चौधरी (पिछड़ा एवं विकलांग कल्याण मंत्री, यूपी)
24.लड़के-लड़कियों को माँ-बाप द्वारा दी गई आज़ादी ही रेप का कारण हैं। - ममता बनर्जी (सीएम, प. बंगाल)
25.अगर मैं अपने घर की लड़की को किसी दूसरे लड़के के साथ देखूंगा तो अपने फार्म हाउस में उसको जिन्दा जला दूंगा। - ए पी सिंह ( निर्भया रेप के दोषियों का वकील)
26.मैडम आप जरा सुनिए ये कोई फ़िल्मी इशू नहीं है। -- जया बच्चन से सुशील कुमार शिंदे (पूर्व ग्रह मंत्री)

प्रस्तुति : सुधा अरोड़ा 

हृदयहीन शासकों, सुनो बच्चों की चीख और माओं की आहें !

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गोरखपुर ज़िले के बीआरडी मेडिकल कॉलेज में ऑक्सीजन की सप्लाई बंद हो जाने से लगभग 60 बच्चों के मरने की ख़बर है. हालांकि योगी सरकार सरकार इन मौतों को अलग-अलग कारणों से बाताती है तो कथन की क्रूरता की हदें पार करते हुए इसे अगस्त की नियमित और सालाना  मौत भी बता रही है. गोरखपुर से आई तस्वीरें हृदय विदारक हैं. फटी-पथराई आँखों के साथ मृत-अर्ध मृत बच्चों की लाश लिये माँ की तस्वीरें. ऑक्सीजन की कमी के बावजूद डा कफील अहमद ने तत्परता से कुछ बच्चों की जानें बचाई अन्यथा मारे गए बच्चों की संख्या और भी अधिक होती. इन तस्वीरों का यह कोलाज ताकि सनद रहे. 







डा. कफील अहमद एक माँ के बच्चे को बचाने की कोशिश करते हुए 








गाय के बच्चों को दुलारते सीएम योगी और उनके राज्य और उनके संसदीय क्षेत्र में बच्चे की जान बचाते डा. कफील 








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रात को सड़कों पर उतरी लडकियां : मेरी रात मेरी सड़क

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वे पब्लिक स्पेस को क्लेम करने उतरीं थीं, वे उतरी थीं पुरुष प्रायोजित उन अंधेरों से लड़ने जो सड़क पर देर रात औरतों को डराने के लिए आहूत की जाती हैं. वे वर्णिका के पक्ष में उतरीं, निर्भया के लिए उतरीं. वे उनसब के लिए रात को सडकों पर उतरीं, जिन्हें मर्दवादी सत्ता लील ले गई इस अपराध के लिए कि वे शाम के बाद घर से निकलती ही क्यों हैं? तस्वीरों में #मेरीरातमेरीसडक 

12 अगस्त, 2017 की रात  देश भर में लडकियां अपने-अपने शहरों की सड़कों पर उतरीं.... 























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कविता में स्त्री और स्त्रियों की कविता

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प्रकाश चंद्र
महात्मा गांधी अन्तर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग में शोधार्थी हैं. संपर्क :9657062744
Prakashupretti@gmail.com

कविता में स्त्री की उपस्थिति केबारे में चर्चा करना कोई नई बात नहीं है । आदिकाल से लेकर आज तक की कविता में स्त्री की उपस्थिति तो दर्ज़ है लेकिन उसका स्वरूप भिन्न-भिन्न है । इसलिए महत्वपूर्ण प्रश्न भी यही है कि पहले की कविताओं में स्त्री की उपस्थिति किस रूप में है और आज जब स्वयं स्त्रियाँ लिख रही हैं तो उनकी उपस्थिति किस रूप में है ? आदिकालीन कविता में स्त्री का चित्रण युद्ध की प्रेरक तथा जीतने और भोग की वस्तु के रूप में है तो वहीं भक्तिकालीन कविता में वह प्रेमिका व दैवीय रूप में नज़र आती है । कविता में स्त्री की उपस्थिति के लिहाज़ से रीतिकाल की बड़ी निर्मम आलोचना हुई है । रीतिकाल में स्त्री को भोग विलास और सौंदर्य की प्रतिमा के रूप चित्रित किया गया । बिहारी की नायिका से लेकर घनानंद की सुजान तक में स्त्री का अपना अस्तित्व कहीं नज़र नहीं आता है । लेकिन स्त्री का ऐसा चित्रण करने वाले सभी पुरुष रचनाकार थे ।

आदिकाल में किसी स्त्री रचनाकारका पता नहीं चलता है लेकिन मध्यकाल में मीरा और अंडाल के अतिरिक्त कुछ लेखिकाओं की सूची भक्तमाल (नाभादास) में मिलती है पर साहित्य में उनका अस्तित्व नदारद है । वहीं रीतिकाल में भी स्त्री लेखन सिरे से गायब है जबकि सावित्री सिन्हा ने अपने शोध ‘मध्यकालीन हिंदी कवयित्रियाँ’ में इस काल की कवयित्रियों की लंबी सूची दी है । लेकिन साहित्य के इतिहास ग्रन्थों में इनका उल्लेख कहीं-कहीं ‘फिलर’ के तौर पर दिखाई देता है । इसलिए साहित्य में स्त्री की उपस्थिति और उसमें भी कविता में स्त्री की उपस्थिति पर विचार करते हुए साहित्य के इतिहास ग्रन्थों की पड़ताल करना और उनके मर्दवादी नज़रिए को भी देखना समीचीन होगा ।अनुराधा अपने एक लेख ‘हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन पर एक स्त्री के नोट्स’ में लिखती हैं कि- “रामचन्द्र शुक्ल से पहले के इतिहास ग्रंथ भले ही तथ्यों के संकलन भर हों, पर 'स्त्री'के नजरिए से सोचते समय ये ग्रंथ भी महत्व रखते हैं, क्योंकि स्त्री भी एक तथ्य है। आचार्य द्विवेदी तक के अधिकतर इतिहास ग्रंथ स्त्री को पहचानने के सम्बन्ध में एक साफ-सुथरा-सा गणित रखते हैं।

वे जब किसी पुरुष कवि यालेखक को पहचानते हैं तो उसकी जाति और उपजातियों में बात करते दिखते हैं, वहीं एक स्त्री लेखक को पहचानते समय पुरुषों के साथ उसके सम्बन्धों में बात करते हैं : अमुक लेखिका अमुक की पत्नी थी, अमुक की उपपत्नी थी, अमुक की बेटी या बहन या शिष्या थी (और अपने आप में कुछ नहीं थी)। जाति व्यवस्था और पितृसत्ता के जटिल समीकरण का यह खेल बहुत गहरे पैठ कर खेला गया जिसने आधी आबादी की प्रतिभा, ज्ञान, अनुभव और क्षमता को या तो हड़प कर लिया या नष्ट होने के लिए अँधेरे में छोड़ दिया। गार्सां द तासी अकेले इतिहासकार हैं जो इन मामलों में सजग हैं। अपने 'इस्त्वार'की भूमिका में ही वे रजिया सुल्तान को भारत के देशवासियों की प्रिय सुल्ताना कहकर स्त्री की भूमिका और इतिहास लेखन में उसके स्थान की जरूरत को रेखांकित कर जाते हैं। इन्होंने 'इस्त्वार'में अच्छी संख्या में स्त्रियों को जगह दी है, जबकि अधिकतर इतिहासकारों ने स्त्रियों को अधिक से अधिक किसी काल की अन्य प्रवृत्तियों में स्थान दिया है” । हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन की इन जटिलताओं और चतुराइयों से भी स्त्री की उपस्थिति को समझा जा सकता है । वैसे हिंदी में मृदुवाणी (1905) शीर्षक से मुंशी देवी प्रसाद ने आरंभिक 35 कवयित्रियों की कविताओं का संकलन निकाला था । इन कवयित्रियों की कविताओं को देखें तो उसमें सामाजिक रूढ़ियों पर गहरी चोट और पितृसत्तात्मक व्यवस्था से मुक्ति की आकांक्षा दिखाई देती है ।


आधुनिक काल की कविता में स्त्री का एक स्वरूप बनता हुआ दिखाई देता है । स्त्री को उसके अंग-प्रत्यंग से हटकर संपूर्णता में देखने की कोशिश की जाती है । इसलिए आधुनिक कविता ने स्त्री की मध्यकालीन छवि को भी तोड़ा । स्त्री ‘कविता का by product’ नहीं है बल्कि उसकी अपनी स्वतंत्र छवि है । मैथिलीशरण गुप्त की ‘यशोधरा’ , दिनकर की ‘उर्वशी’  निराला की ‘वह तोड़ती पत्थर’ आदि कविताओं  में स्त्री का अस्तित्व दिखाई देता है । स्त्री इन कविताओं  में ‘मैं’  के साथ है । यही ‘मैं’ या ‘सेल्फ’ आधुनिक हिंदी कविता में स्त्री की पहचान है । आधुनिक काल की कविता में स्त्री 'केवल श्रद्धा', ‘अबला’ और ‘नीर भरी दुख की बदली’ नहीं है, अब वह पितृसत्ता के ‘दुर्ग द्वार पर दस्तक’ देती हुई अपनी मंजिल की ओर बढ़ रही है। अब उसे पुरुषों की कविताओं में से झाँकने की जरूरत नहीं है बल्कि वह अब स्वयं रच  रही हैं । अनामिका ने  ‘कहती हैं औरतें’ किताब की भूमिका में लिखा है कि “एक जमाना था जब पुरुष कविताएँ लिखते थे और औरतें उन कविताओं के अनंत छिद्रों से अच्छी बच्ची की तरह झाँकती मंद-मंद मुस्काया करती थीं । उन औरतों के खास लक्षण होते थे – 1.वे सर्वदा सुंदर होती थीं, सर्वांग सुंदर, पर उन्हें डर बना रहता था कि उनसे उनका यौवन और सौंदर्य छिन न जाए, 2. अक्सर वे असमय ही भगवान को प्यारी हो जाती थीं और 3. आजीवन, जीवन के बाद भी उनका इकलौता काम होता था अपने प्रिय में प्रेरणा पम्प करना किंतु अपनी सुध-बुध बिसराए रखना” । स्त्री स्वयं को रच रही हैं और साहित्य में बराबरी का दख़ल दे रही हैं साथ ही सवाल भी कर रही हैं – मैं किसकी औरत हूँ / कौन है मेरा परमेश्वर/ किसके पाँव दबाती हूँ / किसका दिया खाती हूँ / किसकी मार सहती हूँ  । ये पंक्तियाँ हमसे इतनी सरल भाषा में वे प्रश्न पूछती हैं जो पहले कभी नहीं पूछे गए । क्या पितृसत्तात्मक समाज के पास इन ‘अबोध’ सवालों का कोई जवाब है? यदि बात समकालीन हिंदी कविता की कि जाए तो उसमें स्त्री न बिहारी की नायिका है न छायावादियों की एकान्त प्रणयिनी है बल्कि अपनी पूरी साधारणता, कमजोरियों और विशिष्टताओं के साथ विद्यमान है। वह न अब ‘अबला’ और न ही ‘प्रेयसी’  है वह अपने अस्तित्व के साथ नज़र आती है । समकालीन कविता के फलक को देखें तो कई कवयित्रियाँ कविता लेखन में सक्रिय रूप से दिखलाई पड़ती हैं । स्त्रियाँ अपनी कविताओं में स्वयं को रच रही हैं और पुंसवादी समाज के द्वारा स्त्रियों का जो मिथ गढ़ा गया था उसे भी तोड़ रही हैं । गगन गिल का कविता संग्रह ‘एक दिन लौटेगी लड़की’ में पुराने मिथ को तोड़कर उस नई लड़की की तस्वीर है जो न तो मात्र देह है और न देवी बल्कि अपनी पूरी इयत्ता और चेतना के साथ मौजूद है।

स्त्री कविता में स्त्री 

समकालीन स्त्री कविता में स्त्री की
उपस्थिति देखें तो उसके कई आयाम दिखाई देते हैं । सदियों के दासत्व से मुक्ति की झटपटाहट, मैं भी हूँ का भाव और सामाजिक रूढ़ियों से टकराती हुई स्त्री दिखाई देती है । स्त्री ने जब स्वयं को रचा तो उस मध्यकालीन स्त्री की छवि को तोड़ा जो उसे भोग की वस्तु और शृंगार की प्रतिमा के रूप में चित्रित कर रहा था । रीतिकालीन कवियों ने जो नायिकाओं के कई भेद बतलाए और श्रेष्ठ स्त्री के गुणों को निर्धारित किया स्त्री कवयित्रियों ने उस पर भी चोट की । हमारे रीतिकालीन कवियों ने स्त्री यानि नायिका के कई भेद और उभेद बताए । नायिका भेद पर लगभग दो सौ ग्रंथ हमारे आचार्यों ने लिख डाले । मतिराम का ‘रसराज’ या फिर पद्माकर के ग्रन्थों में नायिका की आयु, गंध , सौंदर्य आदि के हिसाब से कई भेद हैं । एक सम्पूर्ण स्त्री जो अपने अस्तित्व और चेतना के साथ हो वह कहीं नज़र नहीं आती है । अनामिका स्त्री की इस छवि के खिलाफ लिखती हैं कि -आचार्य, हम इनमें कोई नहीं-/कोई नहीं, कोई नहीं, कोई नहीं-/मुग्धा, प्रगल्भा, विदग्धा या सुरतिगर्विता/परकीया भी नहीं, न स्वकीया ही!/मुग्धाएं जब थीं हम/देनी थी हमको परीक्षाएं/बोर्ड के सिवा भी कई,/संस्थानों में प्रवेश की परीक्षाएं देते हुए/हमें फुर्सत ही नहीं मिली / मध्यकाल में स्त्री एक ‘ऑब्जेक्ट’ के रूप में चित्रित है जो कविता का ‘बाय प्रॉडक्ट’ भी है जिसका काम अपनी यौनिकता, सुंदरता से पुरुष यानि नायक को रिझाना है । अनामिका और अन्य कवयित्रियों ने स्त्री की इसी छवि को तोड़ा है । यही नई स्त्री गगन गिल के वहाँ भी है । स्त्री की जो विरहव्याप्त छवि गढ़ी गई है दरअसल वह स्त्री है ही नहीं । स्त्री को कविता में विरहिणी के रूप में ज्यादा चित्रित किया वह राधा से लेकर बिहारी की नायिकाओं तक में देखा जा सकता है । बिहारी की नायिका विरह में इतनी दुबली हो गई है कि साँस छोड़ने में छ: सात हाथ पीछे चली जाती है और सांस लेने में आगे आ जाती है - इत आवति चलि जात उत चली छः सातक हाथ/ चढ़ी हिंडोरे सी रहै लगी उसासन हाथ । दरअसल स्त्री की जो ये आरोपित छवि है इसे कवयित्रियों ने चुनौती दी । साथ ही संस्कृति के गौरव के नाम पर जो स्त्री शोषण सदियों से चला आ रहा है उसकी भी पहचान की । शुभा अपनी कविता ‘गौरवमय संस्कृति’ में स्त्री की इसी छवि पर चोट करती हैं - हमने ही लिखे हैं / स्त्रियों के विरह गीत / खंडिताओं और पतिकाओं के चित्र / कितने मनमोहक !/ ...युद्धों के बीच / पिता और पुत्र के लिए विलाप करती स्त्रियाँ / कैसी नदी बहाती हैं करुण रस की / हमें आदत है इनमें स्नान करने की / हमारी भुजाएँ जब फड़कती हैं / वीर रस के ज्वालामुखी फूटते हैं / और स्त्रियाँ करुण रस की / आलंबन बनती हैं।


हमारे समाज और साहित्य ने स्त्री के लिए कुछ खांचे बनाए जिसके तहत ‘आदर्श’ स्त्री और ‘बिगड़ी’ स्त्री जैसे मिथ भी तैयार किए गए । एक स्त्री को कैसा होना चाहिए?  कैसे हँसना, बोलना, बैठना, खाना और क्या पहनना चाहिए वह सब कुछ पितृसत्तात्मक समाज ने निर्धारित कर लिए और कोई स्त्री उन नियमों से बाहर आचरण करती है तो उसके लिए बिगड़ी, बदचलन जैसे कई विशेषण भी गढ़ डाले गए । स्त्री हो / कम बोलना /कम काटना बात औरों की / मत उलझना / मत हँसना पेट पकड़ / चुप चुप गुजर जाना / उन शान –मेले से / स्त्री हो / उसी होने को होना । स्त्री की इस आचरण मूलक भूमिका को बनाने में हमारे महान साहित्य ने बड़ा योगदान दिया । समाज के इन सांचों पर साहित्य ने प्रश्न लगाने के बजाए अपनी मुहर लगाई ।  एक स्त्री के लिए इन बेड़ियों को तोड़ना और खुद को रचना कभी भी आसान नहीं रहा । स्त्री को कभी ‘मर्यादा’  (यानि जो मर्द की मर्जी हो) के नाम पर तो कभी इज्जत के नाम पर उसके सपने, उसकी ज़िंदगी, उसकी उड़ान, को कैद करने की कोशिश हमेशा से रही है  । रंजना जयसवाल इस ‘मर्यादा’ रूपी जंज़ीर में जकड़ी स्त्री के बहाने कहती हैं- मैं स्त्री हूँ और जब मैं स्त्री हूँ/तो मुझे दिखना भी चाहिए स्त्री की तरह/मसलन मेरे केश लम्बे,/स्तन पुष्ट और कटि क्षीण हो/देह हो तुली इतनी कि इंच कम न छटाँक ज्यादा/बिल्कुल खूबसूरत डस्टबिन की तरह/जिसमें/डाल सकें वे/देह, मन, दिमाग का सारा कचरा और वह/मुस्कुराता रहे-‘प्लीज यूज मी’।/मैं स्त्री हूँ और जब मैं स्त्री हूँ/तो मेरे वस्त्र भी ड्रेस कोड के/ हिसाब से होने चाहिए जरा भी कम न महीन/भले ही हो कार्यक्षेत्र कोई / आखिर मर्यादा से जरूरी क्या है / स्त्री के लिए और मर्यादा वस्त्रों में होती है ।  जिस मर्यादित और कैद स्त्री की छवि हमारे समाज और साहित्य ने गढ़ी उसे स्त्री कवयित्रियों ने तोड़ा । लेकिन समाज को इस नई स्त्री की छवि आज भी पूर्ण रूप से स्वीकार्य नहीं है- गणित पढ़ती है ये लड़की / हिंदी में विवाद करती / अँग्रेजी में लिखती है / मुस्कराती है / जब भी मिलती है /गलत बातों पर / तन कर अड़ती / खुला दिमाग लिए / जिंदगी से निकलती है ये लड़की । यह ‘खुले दिमाग वाली लड़की’ है जो स्त्री कविता में उन पुरानी रूढ़ियों को धत्ता बताते हुए आ धमकती है साथ ही कविता में स्त्री की बनी बनाई छवि को तोड़ती है । कात्यायनी की ‘हॉकी खेलती लड़कियाँ’ कविता भी इस नए बनते समाज में स्त्री संघर्ष की प्रतीक हैं । ये लड़कियाँ 'स्त्री'की कमजोर छवि, अबला की छवि विलाप करती हुई छवि, पुरुष संरक्षण की आकांक्षी छवि को तोड़ रही हैं । समकालीन स्त्री कविता की यह एक बड़ी खूबी है।

समकालीन स्त्री कविता में परंपरागतस्त्री छवि को तोड़ने वाली स्त्री है तो वहीं नई राह खोजने, आत्मनिर्भर और स्वतंत्र स्त्री भी है। लेकिन इसी ‘बाइनरी’ के बीच जहाँ ‘हॉकी खेलती लड़कियाँ’ हैं तो वहीं आदिवासी ‘मुर्मू’ और ‘सुगिया’ भी हैं । सुगिया के बहाने जब निर्मला पुतुल इस ‘सभ्य’ और ‘आधुनिक समाज’ से प्रश्न करती हैं कि यहाँ हर पाँचवाँ आदमी उससे/ उसकी देह कि भाषा में क्यों बतियाता है? ।  तो यह समाज मौन हो जाता है । इसलिए कई बार स्त्री की उस स्वतंत्रता पर सोचने के लिए मजबूर हो जाता हूँ जो महानगर की कवयित्रियाँ की कविताओं में दिखाई देती है । सविता सिंह जब यह कहती हैं कि -मैं किसी की औरत नही हूँ,/ मै अपनी औरत हूँ,/ अपना खाती हूँ,/ जब जी चाहता है तब खाती हूँ,/ मैं किसी की मार नहीं सहती / और मेरा परमेश्वर कोई नहीं  । तो एक पल के लिए सुकून मिलता है कि स्त्री अब पुरुष सत्ता को चुनौती दे रही है और वह उसके अधीनस्थ नहीं है । लेकिन दूसरे पल सोचता हूँ की क्या सुगिया कभी ऐसा कह पाएगी ? अच्छा लगता है पढ़कर जब सुधा अरोड़ा अपनी कविता ‘अकेली औरत’ में लिखती हैं कि इक्कीसवी सदी की यह औरत/हांड मास की नहीं रह जाती/ इस्पात में ढल जाती है/ और समाज का सदियों पुराना/शोषण का इतिहास बदल डालती है । लेकिन अगले ही पल ‘मुर्मू’ और ‘सुगिया’ की इक्कीसवी सदी के बारे में सोचने लगता हूँ, वह कब  इस्पात में ढलकर अपने शोषणकारी इतिहास को बदलेगी?


कुल मिलाकर देखें तो स्त्री को गढ़ने का काम हमारा समाज आरंभ से ही करता है । सिमोन की यह उक्ति कि ‘स्त्री पैदा नहीं होती बनाई जाती है’ से टकराए बिना सामाजिक जटिलताओं के बीच जूझती स्त्री को समझना थोड़ा मुश्किल है । सिमोन कि यह उक्ति बार-बार सोचने को मजबूर करती है । स्त्री का अपना क्या है? स्त्री ही क्या है ? स्त्री की देह के अतिरिक्त भी, स्त्री का कोई अस्तित्व है ? क्यों आज भी स्त्री एक अदद घर की तलाश में भटक रही है- राम, देख यह तेरा कमरा है !/‘और मेरा ?’/‘ओ पगली,’/लड़कियां हवा, धूप, मिट्टी होती हैं/उनका कोई घर नहीं होता है  । क्यों स्त्री को एक मुकम्मल रूप में समझने की कोशिश नहीं होती है?  क्यों स्त्री पिता और पति रूपी दो छोरों के बीच झूलती रहती है? उसकी अपनी जमीन और ठिकाना कहाँ है ? उसे जाना है आज शाम चार बजे रेलगाड़ी से /  जाना है पति के घर से इस बार पिता के घर / एक घर से दूसरे घर जाते हैं वही / नहीं होता जिनका अपना कोई घर  । क्या विमला की यह यात्रा खत्म होगी?

इस तरह देखें तो कविता में स्त्री की छवि आरंभ से ही दोयम दर्ज़े की रही है । हिंदी साहित्य के इतिहास ग्रन्थों की पड़ताल करने पर यह बात सामने आती है कि कविता में स्त्री की स्थिति आधुनिक काल से पहले चेतना विहीन मात्र एक शरीर के रूप में थी । उन कविताओं से गुजरते हुए लगता है कि सुंदरता को बचाए रखना और पुरुषों को रिझाना ही स्त्री का काम था । स्त्री के लिए युद्ध होते थे ‘जेहि घर देखी सुंदर नार तिह घर धरी जाए तलवार’ और उन्हें जीतना पौरुष का प्रमाण था । क्योंकि उनके लिए स्त्री मात्र ‘सेक्स ऑब्जेक्ट’ थी । स्त्री की इस छवि को आधुनिक काल की कविता ने कुछ हद तक तोड़ा ।आधुनिक कविता ने स्त्री को ‘सेक्स ऑब्जेक्ट’ के रूप में देखने की प्रवृति पर चोट की लेकिन यहाँ भी स्त्री एक ‘कमोडिटी’ और पितृसत्ता के कैद में नज़र आती है । यानि स्त्री की  स्वतंत्र छवि यहाँ भी नहीं है, वह पत्नी है, माता है, दासी है, बहन है यानि की देह है लेकिन एक स्वतंत्र चेतनाशील स्त्री नहीं है । स्वतंत्र, चेतनासम्पन, संघर्षरत और मैं यानि ‘सेल्फ’ के साथ मौजूद स्त्री हमें समकालीन स्त्री कविता में दिखाई देती है । स्त्री ने जब स्वयं को रचा तो उन श्र्ंगार की प्रतिमाओं को भी खंडित किया जो मध्यकाल में खड़ी की गई थी । समकालीन स्त्री कविता ने मध्यकालीन जड़ताओं  को तोड़ा, नायिका भेद से लेकर स्त्री के दोयम होने के भाव तक को खंडित किया । अनामिका की एक कविता है ‘मरने की फुर्सत’ जरा सोचिए इसके बारे में और समझिए कविता में स्त्री और ‘स्त्री की कविता’ की ताकत को –
ईसा मसीह
औरत नहीं थे
वरना मासिक
धर्म ग्यारह बरस की उम्र से
 उनको ठिठकाए ही रखता
 देवालय के बाहर..... !

संदर्भ सूची
  1.http://www.hindisamay.com/contentDetail.aspx?id=720&pageno=1
  2. अनामिका, (2007), कहती हैं औरतें, इतिहासबोध प्रकाशन, इलाहाबाद, पृ.11 
  3.अनामिका, (2007), कहती हैं औरतें, इतिहासबोध प्रकाशन, इलाहाबाद, पृ.137 
  4.अनामिका, (2012), पचास कविताएं, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, पृ.109 
  5.अनामिका, (2007), कहती हैं औरतें, इतिहासबोध प्रकाशन, इलाहाबाद, पृ.80 
  6.अनामिका, (2007), कहती हैं औरतें, इतिहासबोध प्रकाशन, इलाहाबाद, पृ.43 
  7.रंजना जयसवाल, (2009), जब मैं स्त्री हूँ, नई किताब प्रकाशन, दिल्ली, पृ. 5    
  8.अनामिका, (2007), कहती हैं औरतें, इतिहासबोध प्रकाशन, इलाहाबाद, पृ.55 
  9.निर्मला पुतुल, (2012), नगाड़े की तरह बजते शब्द, ज्ञानपीठ प्रकाशन, दिल्ली, पृ. 81     
 10.अनामिका, (2007), कहती हैं औरतें, इतिहासबोध प्रकाशन, इलाहाबाद, पृ.137 
 11. सुधा अरोड़ा, अकेली औरत, वागर्थ पत्रिका  
 12.अनामिका, (2012), पचास कविताएं, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, पृ. 40  
 13. अनामिका, (2007), कहती हैं औरतें, इतिहासबोध प्रकाशन, इलाहाबाद, पृ. 139     
 14.अनामिका, (2012), पचास कविताएं, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, पृ. 93     

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