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समकालीन कहानी: भाषिक अस्मिता और भूमंडलीकरण की चुनौतियाँ (संदर्भः उदय प्रकाश की कहानी मैंगोसिल)

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रानी कुमारी 
रानी कुमारी (शोधार्थी) पीएच. डी (हिन्दी), दिल्ली विश्वविद्यालय संपर्क:मो. 8447695277

समकालीन समाज भूमंडलीकरण के प्रभाव में पल बढ़ रहा है। इसी कारण इसके सरोकार बदल गए हैं। इसे मूल्य-परिवर्तन भी कहा जा सकता है। परंपरागत मूल्यों से आज के मूल्य एकदम बदले हुए हैं। भाव-बोध बदल गया है। जाहिर है कि जब भाव बदला है तो भाषा भी बदलेगी। व्यक्ति और समाज के इस बदलते भाव-बोध को उसकी (साहित्यिक-भाषिक) अभिव्यक्ति से समझा जा सकता है।

जब हम समकालीन कहानी कर बात करते हैं तो उसका कथा-पटल बेहद विस्तृत मिलता है। उसमें स्त्री, दलित, आदिवासी और अन्य अस्मिताओं को स्थान मिल रहा है। बात जब आलोच्य कथाकार उदय प्रकाश की आती है तो उनके लेखन में भूमंडलीकरण से उपजी स्थितियो को बखूबी देखा जा सकता है।

आज का समय बड़ी तेज़ी से बदल रहाहै। समाज में हो रहे परिवर्तन को साहित्य के माध्यम से प्रस्तुत किया जा रहा है। आज हम भूमंडलीकरण के दौर में हैं। जिसके कारण विज्ञान और प्रौधोगिकी के क्षेत्र में नए-नए आविष्कार हो रहे हैं। दुनिया में हो रही घटनाओं का ब्यौरा जल्द ही हम तक पहुँच जाता है। साहित्य भी इन बदलावों से अछूता नहीं रहा है। साहित्यिक विधाओं में व्यक्त संवेदना से यह बदलाव नज़र आ जाता है। जिसका श्रेय सूचना तंत्र को जाता है। इन सब बातों की गहन पड़ताल हमे उदय प्रकाश की कहानियों में भी मिलती है।

उदय प्रकाश की कहानियों का विषय विविध रहा है। उनकी कहानियों को पढ़ते हुए एक ’सस्पेंस’ बना रहता है। अपनी कहानियों में वह हाशिये के लोगों से लेकर पूंजीपति वर्ग की बात करते हैं। उन्होंने हिन्दी कहानी के नैरेटिव स्ट्रक्चर (कथ्य संरचना) और सरोकारों को बदल दिया है। उनकी कहानियों में पात्र खुद ही संवाद करता है और कहानीकार कम ही दिखाई पड़ता है। जबकि पहले की कहानियों में कहानीकार ज्यादा मौजूद रहते थे और पात्र कम संवाद करते थे। उनके नैरेशन से पाठक उद्वेलित हो जाता है। जैसे: ’हीरालाल का भूत’, ’और अंत में प्रार्थना’, ’छप्पन तोले का करधन’, ’पॉल गोमरा का स्कूटर’, ’दिल्ली की दीवार’ और मैंगोसिल आदि उदय प्रकाश के विषय में कहा भी गया है कि “सरोकारो का अलग होना किसी अलग दुनिया से साक्षात्कार कराने से नहीं है बल्कि अलग तरीके से हाशिये की दुनिया की तकलीफ़ो को समझने से है। भ्रष्टाचार के बारे में हम जानते हैं पर उसके स्वरूप और प्रक्रिया को नहीं पहचान पाते जिसके चलते भ्रष्टाचार की जड़े समाज में इतनी गहरी हैं।’’  दरअसल वैश्वीकरण के दौर में घूस लेने-देने में फर्क नहीं आया है बल्कि ’ब्लैक मनी’ (अन-अकाउंटेड मनी) के इस्तेमाल में भी फर्क नहीं आया है। इसका उदाहरण ’दिल्ली की दीवार’ कहानी है।

स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात भारतीय समाजनिरंतर परिवर्तनशील रहा है। परंपरागत भारतीय समाज में राजनीतिक-सामाजिक संस्कृति की रचना हुई थी। लेकिन 1990 के दौर में यह राजनीतिक और सामाजिक संस्कृति बदल गई है। “चार दशक से ज्यादा की अवधि में जिस राष्ट्रीय राजनीतिक-सामाजिक संस्कृति की रचना हुई थी, एक पल में उसकी बागडोर ऐसे हाथों में चली गयी जो शुद्ध रूप से भारतीय हाथ नहीं थे। यह भारत के ग्लोबलाइज़ेशन यानी भूमंडलीकरण की शुरुआत थी।’’

देखा जाए तो भूमंडलीकरण और वैश्वीकरण नाम ज्यादा चर्चित हैं। डॉ. अमरनाथ ने भूमंडलीकरण की प्रक्रिया के पीछे अमेरिका का हाथ माना है। उनके अनुसार “यह शब्द बीसवीं सदी के अंतिम दशक में व्यापक रूप में प्रयोग में आया 1991 में सोवियत संघ के विघटन के बाद जब दुनिया एक ध्रुवीय हो गयी और अमेरिका के नेतृत्व में बहुराष्ट्रीय कंपनियो ने दुनिया के, खासतौर पर तीसरी दुनिया के बाज़ार पर कब्ज़ा जमाना शुरू किया तो इसे न्याय संगत ठहराने के लिए भूमंडलीकरण जैसा आकर्षक नाम दिया गया।’’  भूमंडलीकरण का अर्थ है कि विश्व की सभी अर्थव्यवस्थाओं को जोड़ देना और एक नई भूमंडलीय अर्थव्यवस्था और संस्कृति का निर्माण करना। इससे उपभोक्तावादी संस्कृति और मूल्यो का जन्म हुआ।


1990 के बाद विश्व में अनेक घटनाएँ घटी।जिसमे एक मुख्य सोवियत संघ का पतन होना भी था। विचारों, सोच, रिश्तों, पहनावे तक में बदलाव दिखाई देने लगे। आस-पास के परिवर्तन का असर भाषा पर भी पड़ा। भाषा में से शिष्टता धीरे-धीरे गायब होने लगी। मुश्किल से प्रयोग होने वाले शब्द अब रोज़मर्रा की ज़िंदगी में प्रयोग होने लगे।

 वैश्वीकरण के दौर में ‘भाषा’ का संकटगहराता जा रहा है। साहित्य, आम-बोलचाल की भाषा और समाचार पत्रों की भाषा बदलती जा रही है। जहाँ शुद्ध हिन्दी या फिर अंग्रेजी का इस्तेमाल होता था। आज उसकी जगह ‘हिंगलिश’ ने ले ली है। प्रत्येक भाषा का मर्म, अपनत्व खोता जा रहा है। पुष्पपाल सिंह का मत है कि ‘‘भाषाई परिनिष्ठता, शुचिता का प्रश्न यहाँ बेमानी हो गया है, भाषाई शुचिता की दीवारें तेजी से गिरती जा रही हैं। यहाँ यह विचारणीय नहीं है कि बाज़ार की शक्तियों ने हिन्दी को कितना ऊर्जावान और सक्षम-सशक्त किया है, चिंता का विषय यह है कि भूमंडलीकरण की इस प्रक्रिया ने जनभाषाओं और बोलियों को हाशिए पर डालकर उन्हें विलुप्ति की ओर अग्रसर किया है। प्रांतीय भाषाओं की भी स्थिति यही है, उनका अधिकाधिक अंग्रेजीकरण हो रहा है। हिन्दी और शेष प्रांतीय भाषाओं की जातीय अस्मिता और चरित्र की निजता विलुप्ति की प्रक्रिया में है।’’  हाल के दिनों में आदिवासी बहुल क्षेत्रों से किसी भाषा-भाषी के मरने के साथ उसकी भाषा के भी मर जाने की खबरें आई हैं। यह भूमंडलीकरण का ही प्रभाव है कि हम भाषा-भाषी को भी लाभ व उपयोगितावादी नजरिये से देखते हैं। इस बदलाव को आज के साहित्य में देखा जा सकता है। ऐसा नहीं है कि यह भाषागत बदलाव सिर्फ उदय प्रकाश के यहाँ दिखाई देते हैं, अन्य कथाकारों के यहाँ भी दिखाई देते हैं - मनोहर श्याम जोशी, काशीनाथ सिंह, अलका सरावगी, प्रभा खेतान, सुरेन्द्र वर्मा, अखिलेश, संजीव आदि। लेकिन उदय प्रकाश इन सबसे अलग अपनी छवि निर्मित करते हैं। हाशिए के लोगों के जीवन को उनकी शैली में ही अभिव्यक्त करते हैं। ऐसा लगता है कि आम और खास आदमी उन सब को अपनी आँखों से देख पा रहा है, समझ पा रहा है।

उदय प्रकाश की कहानियों में भूमंडलीकरण, उदारीकरण, निजीकरण, बाज़ारवाद, उपभोक्तावाद और सूचना-तंत्र से उपजी स्थिति और उसके प्रभावों को केंद्र में रखा जाता रहा है। पर उन्होंने हाशिये के लोगों का नारकीय जीवन भी प्रस्तुत किया है। समाज के ठेकेदारों ने गरीब लोगों का जमकर शोषण किया। इस शोषण का शिकार अलग से बनती है ‘स्त्री’। ऐसा ही कुछ उनकी कहानी ‘मैंगोसिल’ में दिखाई देता है। अमानवीय स्थितियों, व्यक्ति विरोधी व्यवस्था के वीभत्स जंजाल में से कुछ मानवीय, कुछ सुंदर, कुछ जीवनपरक खोजने का प्रयास मैंगोसिल कहानी में दिखाई पड़ता है।

मैंगोसिल, महाराष्ट्र के दलित चन्द्रकान्त थोराट की कहानी है। चन्द्रकान्त, 55 साल के बिल्डर के यहाँ गाड़ी चलाता है। दरोगा के कहने पर बिल्डर, शोभा के घर उसे अपनी हवस का शिकार बनाने के लिए जाता है। चन्द्रकान्त को इस बात का अंदाजा ही नहीं है कि उसके (शोभा) साथ क्या क्या होता है? शोभा अपने पति के साथ सारणी में रहती थी। रमाकांत (शोभा का पहला पति) इतना नीच आदमी था कि अपनी पत्नी शोभा के लिए दलाल ढूंढता था। अपनी पत्नी की दलाली करने से उसे कुछ रुपये और शराब पीने को मिल जाती थी। पुलिस के दरोगा की नजर शोभा पर पड़ गई। जिसके बाद शोभा कि जिंदगी नरक से भी भयावह बन गई। हर रोज शोभा के साथ बलात्कार होता, जिसमें उसका पति भी शामिल होता। एक दिन दरोगा अपने साथ अधेड़ बिल्डर को शोभा के घर लाता है। वह रात शोभा के लिए भयावह और यंत्रणादायक होती है। इन सब से परेशान होकर शोभा, बिल्डर के ड्राइवर चन्द्रकान्त के साथ भाग जाती है।


कहानी में नया मोड़ आता है। शोभा, चन्द्रकान्त की पत्नी बनकर उसके साथ रहती है। भयावह और यंत्रणा से भरी जिंदगी जीने के बाद, वह माँ बनने का सुख बहुत देर से पाती है। शोभा को दो बच्चे सूर्यकांत और अमरकान्त होते हैं। कहानी के अंत में मैंगोसिल नाम की बीमारी के कारण परेशान होकर सूर्यकांत आत्महत्या कर लेता है।

स्त्री के शोषण की इतनी वीभत्स कहानी, बहुत कम ही दिखाई पड़ती है। शोभा के साथ जो दुर्व्यवहार  किया जाता है वह उपभोक्तावादी संस्कृति का चरम रूप है। जहाँ स्त्री एक वस्तु है। ‘जिसका इस्तेमाल करो और नष्ट कर दो।’ शोभा की स्थिति का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है ‘‘मैली-गँधाती बनियान से मटके की तरह बाहर निकली दरोगा की रोयेंदार रीछ जैसी तोंद और पसीने तथा मैल से चीकट हो चुके उसके जांघिये के बीच धंसा हुआ शोभा का सिर। शोभा की हर सांस के साथ मोहल्ले की नालियों से भी विकट बदबू अंदर जाती और वह बहुत मुश्किल से वहीं, दरोगा की जांघ पर, उल्टी करने से खुद को रोकती। दरोगा दारू पीता हुआ उसके बालों को सहलाता जाता और मुंह से ऐसी आवाज निकालता जैसे उसे नींबू की खटास और हरी मिर्च के तितास का स्वाद एक साथ मिल रहा हो। घर का दरवाजा खुला रहता था और देर रात बाहर गली में निकलने वाले अक्सर यह दृश्य देखते। बल्कि घर के सामने खाली पड़ी जगह, जहाँ लोग दिशा - फरागत के लिए जाया करते थे, वहाँ अंधेरे में, पुलिस के दलाल रमाकांत के घर पर, आधी रात चलने वाली इस जिंदा ब्लू फिल्म को देखने वाले कम उम्र शोहदों की भीड़ लग जाती।’’  दरोगा, बिल्डर, रमाकांत द्वारा शोभा का शोषण पहली, दूसरी दुनिया का शोषणकारी द्वन्द्व और उससे पैदा हुई तीसरी दुनिया (सूर्यकांत $ मैंगोसिल) को प्रतीकात्मक रूप में देखा जा सकता है। यहाँ तीसरी दुनिया के निर्माण की प्रक्रिया को भी समझा जा सकता है कि किस प्रकार शोषण से शोभा और सूर्यकांत की दुर्गति होती है ऐसा एक बहुत बड़ा वर्ग हमारे समाज में पनपता व बढ़ता जा रहा है।

भूमंडलीकरण के कारण नैतिकताएँ, मर्यादाएँ टूट रही हैं। जहाँ सिर्फ स्वार्थ, लाभ और भ्रष्टाचार का ही घिनौना रूप दिखाई देता है। जिस समाज में पति ही पत्नी के लिए दलाल ढूंढ रहा हो, वह समाज क्या नवयुवकों को शिक्षा देगा? जहाँ रक्षक (पुलिस) ही भक्षक हो, वहाँ स्त्री कैसे अपने वजूद की रक्षा कर पाएगी? उसकी अस्मिता और पहचान पर लगातार खतरा मंडराता रहता है। ‘‘भूमंडलीकरण वस्तुतः आर्थिक जगत में पनपने वाला जंगल राज है। यह समाज में आर्थिक स्वरूप के अनुरूप वर्गभेद, विषमता, वर्ग-संघर्ष, कटुता, शत्रुता पैदा कर रहा है। भौतिकतावादी सभ्यता का विकास कर रहा है। इसका मुख्य लक्ष्य ही भौतिक सुख का भोग है।’

उदय प्रकाश समाज का ऐसा घिनौना चेहराहमारे सामने लाते हैं, जो पाठक के अन्तर्मन को झकझोर के रख देता है। भूमंडलीय यथार्थ एवं भाषा का एक सशक्त उदाहरण कहानी में इस प्रकार हैं बिल्डर और दरोगा ने शोभा के साथ अप्राकृतिक काम किया और बिल्डर ने उसके रेक्टम में बियर की बोतल घुसेड़ दी। दरोगा ने हंसते हुए पूछा - ‘ये क्या कर रहे हो?’ तो बिल्डर ने कहा था - ‘अरे यार पीछे ड्रिल करके जरा बोर बड़ा कर लेने दे, तभी तो नीचे मोटर फिट होगा! साला मेरा बीस हॉर्सपावर का जेनुइन क्रांपटन का मोटर है।’ और ठहाके मार कर हंसने लगा था। शोभा की सांसे रुक चुकीं थीं, वह लहूलुहान थी। कमरे के फर्श पर उसका खून फैल गया था, दरी भीग गई थी और मानिटर पर ब्लू-फिल्म चल रही थी। बेहोशी ने शोभा को उन पीड़ाओं के अनुभव से बचाया, जिनसे होश में रहने पर उसे गुजरना पड़ता। उस रात जब दरोगा और बिल्डर गये, तब सुबह के चार बजने वाले थे। असहनीय दर्द के बीच, बेहोशी टूटने पर शोभा ने जब अपने कपड़े पहनने और अपनी देह में लिपटा खून और वीर्य धोने के लिए उठना चाहा, तो उसने पाया कि रमाकांत उसके ऊपर चढ़ा हुआ है।’’  कहानी का यह प्रसंग हमें भूमंडलीय यथार्थ से रूबरू कराता है। जिसमें इसका साथ ‘भाषा’ देती हैं। जैसे-थूक, लार, वीर्य, खून, ब्लू-फिल्म आदि जैसी शब्दावली जो अब तक की हिन्दी कहानी में वर्जित मानी जाती थी। ‘‘भाषा केवल विचार, भावना, इच्छा एक दूसरे को विदित कराने का व्यावहारिक स्तर का संज्ञापन साधन नहीं। भाषा केवल अपनी-अपनी छोटी बड़ी अस्मिता जतन करने का सामाजिक प्रतीक नहीं। (मैं महाराष्ट्रीयन हूँ ऐसी छोटी-बड़ी अस्मिताएँ हो सकती हैं।) भाषा तो इन सबसे बढ़कर और अधिक कुछ है। भाषा मानव की काव्यात्मक, आध्यात्मिक, वैचारिक सर्जनशीलता को खिलाने का माध्यम भी है। भाषा के वैश्विकीकरण की क्रिया में यह महत्त्वपूर्ण बोध खोना नहीं चाहिए।’’  अशोक केलकर जी ने अपने लेख ‘भाषा का वैश्विकीकरण और वैश्विकीकरण की भाषा’ में ठीक कहा है, लेकिन भूमंडलीकरण के दौर में भाषा का बोध खत्म होता जा रहा है। जहाँ सिर्फ भाषा को ईजी और फूहड़ बनाने की प्रक्रिया जारी है। समाज में ऐसी घटनाएँ होती रहती हैं। आए दिन अखबारों, टी.वी. चैनलों पर बलात्कार की खबरें आती हैं। कहानीकार अपने समय और समाज को संबोधित, रचनाक्रम करता है। जिसमें उदय प्रकाश काफी हद तक सफल होते हैं।


भूमंडलीय दृष्टिकोण को जयनन्दन की कहानी ‘विश्व बाज़ार का ऊँट’ से भी समझा जा सकता है। जहाँ उसके भाषाई पहलू खुलकर सामने आते हैं। किस तरह भूमंडलीकरण के कारण समाज का दोहन हुआ है और हो रहा है। जहाँ अब पीढ़ी-दर-पीढ़ी अंतर नहीं दिखाई देता, बल्कि कुछ सालों के फासले ही इस अंतर को बढ़ा देते हैं। युवा पीढ़ी पर उपभोक्तावादी समाज और बाज़ार का विशेष प्रभाव पड़ा है। आज कोई भी सूचना आप को तुरंत मिल जाएगी। जिसके कारण आज जैसे बच्चों का बचपन खोता जा रहा है। पहचान का संकट और भाषाई अस्मिता आज खतरे में दिखाई देती है। ‘पॉल गोमरा का स्कूटर’ में भाषाई अस्मिता को बखूबी देखा जा सकता है। भूमंडलीय यथार्थ को समझने के लिए उसी भाषा का प्रयोग किया जाना चाहिए, जो वर्तमान दौर में बोली जा रही है। ‘मैंगोसिल’ कहानी में लेखक ने उसी यथार्थ को पकड़ने की कोशिश की है। कहा जा सकता है कि ‘‘ ‘वारेन हेस्टिंग का साँड’, ‘पॉल गोमरा का स्कूटर’, ‘और अंत में प्रार्थना’, ‘मैंगोसिल’, ‘मोहनदास’ और ‘पीली छतरी वाली लड़की’ ये कहानियाँ साहित्य में नव औपनिवेशिक परिवेश, पात्र, अस्मिता और आत्मनिर्वासन का द्वंद, इतिहास और आख्यान का जटिल तनाव, संप्रेषणीयता और वाक्य संरचना, यथार्थ कल्पना और फैंटेसी, आख्यान के पारंपरिक स्वरूप तथा बदलते यथार्थ के संदर्भ में नयी संरचना की चुनौतियाँ, भाषा में परिवर्तन के साथ ही नये संदर्भों की बहुलार्थी भाषा को लेकर हमारे समय के यथार्थ को पकड़ती है, अभिव्यक्ति करती है, खंडित करती है, और उसे गढ़ती भी है।’’

इस प्रकार हम कह सकते है कि भूमण्डलीकरण ने हमारे भाव, भाषा और बोली को भी बदल कर रख दिया है। बाज़ार ने ‘भाषा’ रूपी संस्कार को बुरी तरह बदल दिया हैं। बाज़ार ने जिस नई भाषा को गढ़ा है, उसका असर समाज पर भी पड़ा है, उसे कथा साहित्य के माध्यम से बखूबी समझा जा सकता है। कथाकार उदय प्रकाश ने अपने कथा साहित्य में उस बदलती हुई भाषा पर फोकस किया है तथा भूमण्डलीय यथार्थ से हमारा परिचय रचनात्मक स्तर पर करवाया है।

 संदर्भ: 
  
   1शीतलवाणी, त्रैमासिक पत्रिका, संपादक-डॉ. वीरेंद्र आज़म, अगस्त-अक्टूबर 2012, सहारनपुर, पृ. 22.
 
2भारत का भूमंडलीकरण, संपादक-अभय कुमार दुबे, वाणी प्रकाशन, संस्करण-2008, पृ. 21.
 
3हिन्दी आलोचना की पारिभाषिक शब्दावली, डॉ. अमरनाथ, राजकमल प्रकाशन, पहला                              संस्करण-2009, पृ. 372.
  
4भूमंडलीकरण और हिन्दी उपन्यास, पुष्पपाल सिंह, राधाकृष्ण प्रकाशन, पहला संस्करण-2012, पृ. 72-         73.
  
5मैंगोसिल कहानी संग्रह, उदय प्रकाश, पृ. 91.
  
6 अक्षर पर्व, साहित्यिक-वैचारिक मासिक पत्रिका, संपादक-सर्वमित्रा सुरजन, दिसम्बर-2014, पृ. 66.
 
7मैंगोसिल कहानी संग्रह, उदय प्रकाश, पृ. 92.
 
8आलोचना, त्रैमासिक पत्रिका, प्रधान संपादक-नामवर सिंह, संपादक-परमानंद श्रीवास्तव, अप्रैल-जून     2002, पृ. 89.
 
9सृजनात्मकता के आयाम, उदय प्रकाश पर एकाग्र, संपादक-ज्योतिष जोशी, नयी किताब प्रकाशन, प्रथम संस्करण-2013, पृ. 87.

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सॉफ्ट पोर्न नहीं: ये मध्यवर्गीय स्त्री की कामनाओं के नोट्स हैं

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एक आंकडे के अनुसार भारत में 67 प्रतिशत लोगों के पास आज भी गैस कनेक्शन नहीं है, वे लकड़ी, कोयला या अन्य इंधन माध्यमों के उपयोग से खाना बनाते हैं- इस तरह गैस की बढ़ती कीमत 67 प्रतिशत का कंसर्न नहीं है, वे उससे ज्यादा गंभीर चिंताओं से घिरे हैं, लेकिन गैस की कीमत बढना 33% के लिए गहरा कंसर्न है और बचे 67 के लिए भी क्योंकि हर बार बढ़ती कीमत गैस तक उनकी पहुँच से उन्हें दूर कर देगा.

सेक्स में ओर्गैज्म की प्राप्ति, सेक्स का पोजीशन या सेक्सुअलिटी की दृष्टि से उत्पीड़ित के भाव से मुक्ति जैसे मुद्दों से ज्यादा जरूरी मुद्दे जरूर हो सकते हैं मातृत्व मृत्यू दर का बढ़ना, स्वास्थ्य  सुविधाओं का अभाव, भ्रूण ह्त्या, आनर कीलिंग, शिक्षा या जाति-वर्ग आधारित आधारित भेदभाव के मुद्दे, लेकिन इन चिंताओं से मुक्त एक समूह के लिए सेक्स में ओर्गैज्म की प्राप्ति, सेक्स का पोजीशन या सेक्सुअलिटी की दृष्टि से उत्पीड़ित के भाव से मुक्ति भी एक गहरा कंसर्न है और वह इस कंसर्न को जाहिर करने के अधिकार से वंचित नहीं हो सकता. और यह भी सच है कि यह कंसर्न जेंडर विभेद से पीड़ित हर स्त्री का होगा, जब विभेद और उत्पीडन के दूसरे मसले जब हल भी हो जायेंगे,  क्योंकि सेक्सुअलिटी जेंडर भेद का मूल आधार है.


लक्ष्य समूह 

ये बातें इसलिए कि पिछले दिनों नीलिमा चौहान की ‘वाणी प्रकाशन’ से आई किताब ‘पतनशील पत्नियों के नोट्स’ को लेकर एक समूह हाय-तौबा कर रहा है, वह इस किताब को साहित्य और विमर्श की अगंभीरता का एक नमूना मान रहा है. इसे सॉफ्ट पोर्न तक कहा जा रहा है, तो कई आलोचक प्रकारंतर से इसे स्त्री-विरोधी भी बता रहे हैं. ऐसा भी नहीं है कि प्रकाशन के बाद इस किताब ने सिर्फ तौबा-तौबा ही बटोरे हैं, बल्कि कई प्रशंसात्मक टिप्पणियाँ और आलोचना मेरी नजरों से भी गुजरे. किताब का आक्रामक प्रचार भी किया प्रकाशकों ने. इस दोहरे वातावरण में मैं यह किताब पढ़ रहा हूँ. हालांकि पूर्व की टिप्पणियाँ या आलोचनायें पूर्वग्रह निर्माण के लिए काफी होती हैं, लेकिन आलोचना कर्म के लिए उनका अपना महत्व भी होता है.

उर्दू की रवानगी वाली हिन्दुस्तानी भाषा( हिन्दी नहीं) का मिजाज आपको यदि बाँध लेता हो, इश्मत चुगताई के कहन का चुटीलापन यदि आपको प्रिय रहा हो और 19वीं सदी की कुछ महत्पूर्ण किताबों, मसलन सीमंतनी उपदेश और स्त्री-पुरुष तुलना की शैली, उसके विमर्श के विषय पुरुषवादी जड़ता को तोड़ने और स्त्रियों के मन-परत पर बैठे अनुकूलन से उन्हें सहज मुक्त करने की दिशा में कारगर लगते हों, तो यह किताब आपको उसी कड़ी में दिखेगी- उसका आधुनिक वर्जन. इस किताब का लक्ष्य समूह मध्यवर्गीय स्त्रियाँ हैं, इसलिए इससे कुछ अधिक की अपेक्षा रखना किताब के साथ ज्यादती होगी.


मातृसत्तातमक व्यवस्था स्त्रीवादियों का लक्ष्य नहीं है : संजीव चंदन

अनुकूलन पर प्रहार 

यह किताब सबसे पहले तो अनुकूलनपर प्रहार करती है- मध्यवर्गीय विवाहिता स्त्री के अनुकूलन पर. अनुकूलन का परिवेश, क्षेत्र रसोई घर से लेकर फेसबुक पर उपस्थिति तक में है- जहां, स्त्रियाँ, पत्नियां पति या पुरुष के आईने से अपना स्व निर्धारित कर रही हैं. हिन्दी साहित्य में जैनेन्द्र की पत्नी से लेकर प्रेमचंद की बड़े घर की बेटियों का बड़ा दबदबा रहा है- ‘पतनशील पत्नियों के  नोट्स’, इस दबदबा को अतिक्रमित कर रही है-किताब में शामिल नोट्स सचेत करते हैं कि इन पत्नियों और बड़े घर की बेटियों के मोहल्ले में ही ‘हाडा रानी’ भी रहती है-जो लड़ाई के मैदान में जाते अपने पति को अपना सिर अर्पित कर देती है कि कहीं मोहपाश उन्हें हरा न दे. किताब में पहला ही शीर्षक नोट है ‘बीबी हूँ जी, हॉर्नी हसीना नहीं.’ घर-गृहस्थी में कैद स्त्री से पति चंचल और उन्मुख देह की चाह भी रखता है, मसालों के गंध और गृहस्थी की चिंताओं से थोड़ा अलग होकर जबतक की हॉर्नी हसीना की भूमिका में वह आती है, पति संतुष्ट हो चुका होता है. पत्नी के भीतर सुप्त स्त्री जाग्रत होकर फिर हताश हो जाती है: ‘हाय, हर बार ठीक उस वक्त, जब तुम किला फतह कर रहे होते हो, मैं बाँध के परे रह गई कसमसाती, प्यासी, मुरझाई नदी बनकर रह जाती हूँ. यह लो, एकबार फिर इस बेमकसद कवायद में हारी हुई हताश बीबी रह गई है और एक जमकर बरसा हुआ जिस्म दोबारा पति में तब्दील होकर, पीठ घुमाकर बेखबर पड़ा सोया है. उफ्फ, कैसी जहरीली नागन सी है ये रात, कितनी आवारा, कितनी बदचलन, कितनी खार खाई सी.’


पत्नी और स्त्री के दो राहे से गुजरती स्त्री ही अपनी कामनाओं के साथ ‘पतनशील पत्नी’ है. कामनाओं को मारकर वह मसालों का गंध समेटे पत्नी है और पतनशील होते ही वह स्त्री हो जाती है. ऐसा भी नहीं है कि कामनाओं और वासनाओं की अभियक्ति किसी नीलिमा चौहान का एकांगी स्वर भर है, या बाजार की मांग के पूर्ती के लिए किसी व्यापारी लेखिका का टूल भर( जैसा कि कुछ आलोचनाएँ कहने का प्रयास करती दिखी) . कामनाओं  की सहज अभिव्यक्ति 19वीं सदी में समता का संघर्ष करती, लड़कियों के लिए स्कूल खोती, पठन-पाठन में लगी, प्लेग के बीमारों की सुश्रूषा करती सावित्रीबाई फुले के यहाँ भी है, यानी मुद्दों का चुनाव अनिवार्य रूप से मुक्ति संघर्ष को एकहरा नहीं करता. सावित्रीबाई फुले की एक श्रृंगार कविता पढी जा सकती है:

कितनी स्त्रीवादी होती हैं विवाहेत्तर संबंधों पर टिप्पणियाँ और सोच (!)

सुनहरी चंपा

जैसे मदन करता है आकर्षित अपनी प्रियतमा रति को,
वैसे ही चंपा जगाती है कवि की संवेदनाएं,
…वह देती है आनंद और ऐन्द्रिक सुख,
पारखी को करती है प्रसन्न और फिर नष्ट हो जाती है।
और यह भी

जाई फूल

…एकदम शुभ्र, नशीली खुशबू से लबरेज़,
वह अपनी कोमल चमक से करता है मुझे प्रफुल्लित।
उसकी मीठी मुस्कुराहट और शर्मीली नज़र,
मेरे दिमाग को ले जाती है किसी दूसरी दुनिया में।

अनुकूलन का एक दूसरा प्रसंग भी है-खुद को पुरुषों की नजर से देखना- आत्मसात किये जा चुके मेल गेज की जद्द में जीना और नियन्त्रण की लाठी को अपने सर पर लटकाये चलना: ‘जान लीजिये कि लडकी कभी अकेली नहीं होती, अपने गुसलखाने में भी नहीं, अपने कमरे के अपने बिस्तर पर भी नहीं, अपने घर से बाहर तो कभी भी नहीं. उसके भगवान, उसके बड़े-बुजूर्ग, उसके वहम, उसके सबक, उसकी फितरत, उसका आगा-पीछा हमेशा उसके साथ हुआ करता है.’

हमबिस्तर नहीं, हमदिवार 

कई-कई नोट्स में लेखिका स्त्री-पुरुष के साझेपन के स्वांग की बखिया उधेड़ती जाती है. स्पष्ट करती है कि पति और पत्नी दो दुनिया हैं, एक से दिखते हुए- एक होने का स्वांग रचते हुए. स्वांग से अपने स्व को स्त्री तभी देख सकती है, जब वह आरोपित पत्नीत्व से पतित होती है- पतनशील होती है-अपनी इच्छाओं, वासनाओं, कामुकता, स्वप्नों और सहजताओं के पूरे पॅकेज के साथ पतनशील

स्व की पहचान, और अपनी एजेंसी का निर्माण

इस किताब के लेखन में कोई ख़ास योजनानहीं दिखती- प्रसंगवश लिखे गये छोटे नोट्स से यह किताब शक्ल लेती है. इस किताब के मूल में सोशल मीडिया का प्रभाव भी कहा जा सकता है, जिसके प्रभाव में लप्रेक नामक विधा में किताब लिखी गई और चर्चित हुई तो छः शब्दों में या ट्वीटर की शब्द संख्या में कहानियां लिखी गई. सोशल मीडिया ने गद्य लेखन की क्षणिकाओं, हाइकुओं को जन्म दिया. किताब में शामिल नोट्स भी सोशल मीडिया, खासकर फेसबुक के स्टेटस से पैदा हुए हैं. फिर भी एक ख़ास किस्म की सरोकारी योजना है किताब में शामिल नोट्स की, वह है स्त्रियों के अपने कर्तापन को पुख्ता करना-उत्पीड़ित भाव से मुक्ति का आयोजन करना. इस प्रक्रम में छेड़ी जाती स्त्री भी छेड़ने वाले के मर्दाने आनंद को रफूचक्कर कर देती है या रेडलाईट पर घूरती स्नेहिल आँखों को स्नेहिल प्रत्युत्तर दे देती है. नोट्स में स्त्री अपने ऊपर हर प्रकार के आरोपण को खारिज कर देती है, निर्मित छवि, स्टीरियोटाइप या वस्त्र से लेकर चाल-चलन, देह और देह के बाहर हर अभिव्यक्ति के लिए निर्धारित स्टीरियोटाइप को नकार देती है.


इस किताब के अपने मायने हैं, एक ख़ास पाठक वर्ग के लिए इसका व्यापक सन्दर्भ है. यह बोरियत भरी गद्यात्मकता से मुक्त होने के कारण रचनात्मक लेखन की किताब है और रचनात्मकता के लिए अनिवार्य कल्पनाशीलता या गल्पात्मकता की सीमा से थोड़ी दूरी पर ठहरकर ललित टिप्पणियों की किताब है- ऐसी ललित टिप्पणियाँ- जो पूरा-पूरा विमर्श रचती हैं.

इस किताब को इसलिए कभी न पढ़ें कि आपको इसमें घरेलूं हिंसा की जानकारियाँ देते लेख मिलेंगे या उससे संघर्ष के दास्तान, या यौन हिंसा के खिलाफ महिलाओं के संघर्ष का इतिहास मिलेगा या बस्तर से लेकर नंदीग्राम और मणिपुर संघर्ष करती स्त्रियों की कहानियां, या जाति उत्पीडन के हृदयविदारक प्रसंग. इसलिए भी कभी न पढ़ें कि यह आपको किसी किस्सागोई का आनंद देगी, या अच्छी कहानियां पढने की आपकी चाहत को पूरा करेगी, इस किताब को आप तब पढ़ें जब मध्यवर्गीय स्त्री के, जो रसोई घर में है, कालेजों में-विश्वविद्यालयों में पढ़ाती है, कॉर्पोरेट में या सरकारी संस्थानों में क्लर्की से लेकर अफसरी करती है- घर गृहस्थी संभालती है और फेसबुक ट्वीटर पर विचरण भी करती है-जिसका एक पति है और एक दोस्त, सिर्फ एक पति, या एक पति और प्रेमी भी, या सिर्फ एक प्रेमी, स्वत्व को समझना चाहते हों- बिना बोझिल विश्लेषणों के. और हाँ, अपराजिता शर्मा   के द्वारा आवरण  और इलस्ट्रेशन  इस किताब की प्रस्तुति की एक ख़ास उपलब्धि है .  

संजीव चंदन स्त्रीकाल के संपादक हैं  

संपर्क :8130284314

स्त्रीकाल का संचालन 'द मार्जिनलाइज्ड' , ऐन इंस्टिट्यूट  फॉर  अल्टरनेटिव  रिसर्च  एंड  मीडिया  स्टडीज  के द्वारा होता  है .  इसके प्रकशन विभाग  द्वारा  प्रकाशित  किताबें  ऑनलाइन  खरीदें : 

दलित स्त्रीवाद मेरा कमराजाति के प्रश्न पर कबीर

अमेजन पर ऑनलाइन महिषासुर,बहुजन साहित्य,पेरियार के प्रतिनिधि विचार और चिंतन के जनसरोकार सहित अन्य 

सभी  किताबें  उपलब्ध हैं. फ्लिपकार्ट पर भी सारी किताबें उपलब्ध हैं.

दलित स्त्रीवाद किताब 'द मार्जिनलाइज्ड'से खरीदने पर विद्यार्थियों के लिए 200 रूपये में उपलब्ध कराई जायेगी.विद्यार्थियों को अपने शिक्षण संस्थान के आईकार्ड की कॉपी आर्डर के साथ उपलब्ध करानी होगी. अन्य किताबें भी 'द मार्जिनलाइज्ड'से संपर्क कर खरीदी जा सकती हैं. 

संपर्क: राजीव सुमन: 9650164016,themarginalisedpublication@gmail.com 


‘अनारकली आॅफ आरा’ : आंसुओं से उपजी आग और भरोसे की उम्मीद

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मृणाल वल्लरी 

राष्ट्रगान के वक्त खड़े होने की ड्यूटी पूरीकरने के बाद जब आप खींचती हुई एक खास जमीनी मंचीय आवाज के साथ दुष्यंत कुमार की पंक्तियों से रूबरू होते हैं, तभी एक सोंधी खुशबू से सराबोर सिनेमा का अंदाजा लगा लेना चाहिए। तो इसी के साथ खुश मेरा मन भी ढेर सारी उम्मीदों के साथ परदे पर टिक गया था। शुक्रवार को सिनेमा घरों में आने के बाद महज तीन दिनों के भीतर बहुत सारे लोगों ने इतना लिख दिया था कि शायद इससे पहले किसी फिल्म के साथ ऐसा नहीं हुआ हो। शुरुआती सीन पर्दे पर आने से पहले ही आंखों के सामने तैरने लगा। ‘अनारकली आॅफ आरा’ के प्रमोशन के वक्त से ही ‘मोहल्ला लाइव’ पर चला सिनेमा का डिबेट याद आ रहा था। अनुराग कश्यप की शैली और गालियों पर चला विमर्श। उसे याद करते हुए इस फिल्म के नाम और उसके कॉन्सेप्ट का अंदाजा लगा कर थोड़ा पूर्वग्रह से ग्रसित थी। लग रहा था कि अभी तक फेसबुक पर लिखा गया जो पढ़ा वह महज दोस्तों की हौसलाअफजाई तो नहीं थी। फिल्मों में अनुराग कश्यप किस हद तक स्त्री विरोधी दिखने लगते हैं, वह सोच रही थी।

अनारकली की भूमिका: स्वरा भास्कर 


बल्कि ‘रिवोली’ में शो के लिए अंदर जातेवक्त भी पूर्वग्रह बरकरार था। इसके पहले ‘मिस टनकपुर हाजिर हो’ ने वैसे भी पत्रकारों पर संदेह पैदा कर दिया था कि भदेसपन के नाम पर खिलवाड़ करके खुद को बचा ले जाने और उसके जरिए एक व्यवस्था को आगे बढ़ा देने का खेल कैसे किया जाता है। दरअसल, जब आप पहले ही घेरने लायक, आलोचना करने लायक खोजने का मूड बना कर बैठ जाएं और बाद में जीवंत से सेट के साथ हर दृश्य पर मुग्ध होते जाएं तो क्या हालत होती है, मैं ‘अनारकली आॅफ आरा’ देखते हुए हर अगले मिनट महसूस कर रही थी। दुख हुआ जब बगल में बैठे दो लोग यह कह कर उठ कर चले गए कि ‘अरे... यह तो भोजपुरी फिल्म है!’ मन किया कि उनकी बांह पकड़ कर बैठा दूं कि भाई, थोड़ी देर बैठ जाओ!


इस फिल्म पर इतने सारे लोगों ने इतनाकुछ लिख दिया है कि सोचती हूं कि अब मैं क्या लिखूं। यह क्या कम है कि अंदाज के उलट ‘अनारकली आॅफ आरा’ कहीं से भी स्त्री विरोधी नहीं होती है, बल्कि स्त्री की जिंदगी पर अपने हक के जयकारे के साथ खत्म कर होती है। फिल्म की शुरुआत का गाना जहां जिंदगी छीन लेता है तो इसका आखिरी गाना और उसका अंत अपनी जिंदगी पर अपने हक का दावा स्थापित करता है। ‘जन -गन- मन’ पर तो सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद से सभी खड़े होने ही लगे हैं, मेरे सामने की लाइन में जो छह-सात महिलाएं बैठी थीं, आखिरी सीन में अनारकली का लहंगा उड़ते ही वे सभी खड़े होकर देर तक ताली बजाती रहीं। फिल्म के साथ यह दृश्य मेरे लिए नहीं भुला सकने वाला दृश्य रहा। पूरी तरह कमर्शियल ‘चक दे इंडिया’ के बाद हॉल में मेरा इस तरह का यह दूसरा अनुभव था।


महानगरों के हिसाब से कम से कम गानेके सब-टाइटल दिए जाते तो अच्छा रहता। उन महिलाओं के बीच बातचीत से लग रहा था कि उन सबने ‘अब त गुलमिया के ना ना ना...’ को ठीक से नहीं समझा। और अगर ‘अपनी रे देहिया की हम महरनिया’ को नहीं समझा तो फिर उनके लिए यह क्लाइमेक्स तो आम हिंदी फिल्मों की तरह ही था। भोजपुरी के शब्दों के कारण बहुत से महानगरीय दर्शक इस गाने का असल संदेश नहीं समझ पाए। कुछ और भी जगह लोग शब्दों को लेकर उलझ रहे थे और एक-दूसरे से पूछ रहे थे। लेकिन अनारकली जो थी, उससे अलग शक्ल में उसे दिखाया भी कैसे जा सकता था!


बहरहाल, दुष्यंत कुमार की वे शुरुआतीपंक्तियां और हीरामन। अनारकली से लेकर कोई और... दिल्ली से लेकर पटना और आरा तक। हर स्त्री को एक हीरामन जरूर मिलता है जो उसकी जिंदगी का सफर आसान करता है! और फिर हालात के सामने लाचारी की राह में वह छूट भी जाता है। यह हीरामन उसका प्रेमी या पति या हमेशा साथ रहने वाला दोस्त नहीं होता है। इस हालत को कौन और कब समझेगा कि इस हीरामन के नाम वह अपनी लिखी किताब समर्पित नहीं कर सकती है, सार्वजनिक मंच पर उसका नाम लेकर गीत नहीं गा सकती है, वाट्स ऐप या फेसबुक पर उसकी प्रोफाइल नहीं डाल सकती है... मोबाइल या किसी और पासवर्ड में उसके नाम के शब्द नहीं होते हैं...!

नायिका स्वरा भास्कर  और निदेशक अविनाश दास 

दरअसल, अनारकली अगर सामंती पितृसत्ता के खिलाफ जंग का चेहरा है तो हीरामन उस पुरुष का चेहरा है जिसमें स्त्री भी समाई होती है। पुलिस के सामने आत्मसमर्पण कर दिल्ली से वापस जाती अनारकली और छत पर रोता हुआ हीरामन। हीरामन के इसी आंसू को तो अनारकली अपनी जमा-पूंजी कहती है...‘आपके जइसा साधु इंसान मिला... यही हमरी जमा-पूंजी है!’ घर की दहलीज से बाहर निकली हर स्त्री के पास ऐसी एक जमा-पूंजी जरूर होती है। एक रोता हुआ हीरामन सामने वाली स्त्री को कितना मजबूत कर देता है! अनारकली के प्रतिरोध का स्वर का आग बन जाना हीरामन के आंसू के बिना अधूरा रहता!


सिनेमा हॉल में मौजूद अमूमन हर स्त्री कीआंखें अपनी जिंदगी में कभी मौजूद रहे अपने-अपने हीरामन को याद कर जरूर गीली हुई होंगी। हमारे उस हीरामन को, जो कहीं छूट गया है, फिर से आंखों से निकालने के लिए थैंक्यू अविनाश दास। चुनावी नतीजों और पिछले कुछ समय से बने माहौल के कारण जो एक डिप्रेशन की स्थिति बनी थी, ‘मोरा पिया मतलब का यार...’ जैसे बड़े महत्त्व के गीतों से लैस ‘अनारकली आॅफ आरा’ देखने के बाद दिमाग उससे भी कुछ हल्का हुआ। हीरामन और अनारकली थोड़ी-सी जिंदगी की उम्मीद जगा गए, थोड़ा रुला कर बड़ा भरोसा पैदा कर गए...!

लेखिका  पत्रकार  हैं , जनसत्ता से  संबद्ध . संम्पर्क : mrinaal.vallari@gmail.com


स्त्रीकाल का संचालन 'द मार्जिनलाइज्ड' , ऐन इंस्टिट्यूट  फॉर  अल्टरनेटिव  रिसर्च  एंड  मीडिया  स्टडीज  के द्वारा होता  है .  इसके प्रकशन विभाग  द्वारा  प्रकाशित  किताबें  ऑनलाइन  खरीदें : 

दलित स्त्रीवाद मेरा कमराजाति के प्रश्न पर कबीर

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स्त्री-पुरुष अलग-अलग प्रांत नहीं

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डॉ. आरती  
संपादक , समय के साखी ( साहित्यिक पत्रिका ) संपर्क :samaysakhi@gmail.com

तेजाब हिंसा से संबंधित खबरों के शीर्षकों की बानगी देखिए-

  .प्रेम प्रस्ताव ठुकराए जाने पर युवती पर फेंका तेजाब... 
  . बाइक सवार बदमाशों ने छात्रा पर फेंका...
  .शादी से इंकार करने पर...
 . जेठ से विवाह करने से इंकार किया तो...

और क्रूरता की हद देखिए...

.शादी की पहली रात ही दुल्हन के गुप्तांगों पर...
.रेप पीडि़ता की मदद करने वाले वकील पर...

इसके अलावा कुछ खबरें ऐसीभी बनती हैं जैसे कि घरेलू झगड़ों में... आपसी रंजिश में... इच्छित गवाही न देने पर... दबंगई के चलते... सबक सिखाने के लिए... इत्यादि इत्यादि।

तेजाब हथियार की मानिंद प्रयोगकिया जा रहा है। अन्य हथियारों को रखने के लिए लाइसेंस की जरूरत होती है, लेकिन तेजाब बेचने वालों के लिए या खदीदने पर कोई नियम आड़े नहीं आता। कुछ समय पहले तक कोई नियम कानून नहीं था, अभी 2013 जुलाई को सुप्रीम कोर्ट ने राज्यों को एसिड की बिक्री पर रोक लगाने और सख्त नियम बनाने के लिए आदेश दिए थे और अधिकतम तीन महीने का समय दिया था। उसके बावजूद भी घटनाएं साफ इशारा करती हैं कि तेजाब की बिक्री खुलेआम चल रही है।

यूं तो भारतीय कानून ने तेजाबहमले को विशिष्ट दण्डनीय अपराध की कोटि में रेखांकित करते हुए अपराधी के लिए दस साल की सजा मुकर्रर की है लेकिन कोर्ट में लटके हुए सैकड़ों से अधिक मामले कोई दूसरी ही कहानी बयां करते हैं। वही हाल सहायता राशि के संबंध में भी है। यूं तो तेजाब पीडि़ता को अब उसके इलाज के लिए पांच लाख रुपए की सहायता दी जानी नियमानुसार है, उसमें भी पहले सप्ताह ही एक तिहाई राशि दी जानी चाहिए किंतु कुछ दिनों पहले ही मैंने अखबार में पढ़ा कि सहायता राशि न मिलने पर कलेक्टर ऑफिस के सामने परिजनों ने सामूहिक आत्महत्या का प्रयास किया। इसके अलावा भी अनेक उदाहरण हैं। नियमों की जटिलता और जानकारियों का अभाव भी पीडि़त के रास्ते में दीवार-दर-दीवार खड़े करते जाते हैं।

क्या सजा के खौफ से तेजाब हमलों को रोका जा सकता है ( ! )

इसी वर्ष 9 सितंबर 2016 को हीतेजाब हिंसा से संबंधित एक केस को अदालत ने जघन्य अपराध मानते हुए अभियुक्त को मृत्युदण्ड की सजा सुनाई है। यह फैसला तेजाब हिंसा के मामले में चिन्हित करने वाला है। (मृत्युदण्ड मिल पाया या नहीं यह एक अलग मुद्दा है)

ये तो खबरों, हिंसा के कारणोंपर और नियम-कानूनों-प्रावधानों पर एक सरसरी निगाह डालने जैसा था। इन सबके इतर यहां महत्वपूर्ण यह है कि आखिर लोग इतने क्रूर क्यों हैं? यह तेजाब हमला जिसकी शिकार 80 फीसदी से अधिक महिलाएं ही हैं, क्यों ये लड़कियां इस क्रूरतम हिंसा की चपेट में अधिक आती हैं? भारत के साथ ही पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफगानिस्तान, कंबोडिया जैसे देशों में अच्छे खासे प्रतिशत लोग तेजाब पीडि़त हैं।  यहां तो एक सीधा सपाट या बयान यह दिया जा सकता है कि ये क्षेत्र अपेक्षाकृत शिक्षा, जागरुकता आदि दृष्टियों से पिछड़े हुए हैं। परंपराओं, कुरीतियों में जकड़े हुए हैं लेकिन इंग्लैंड में भी 2004-05 में पचपन केस तेजाब हमले के अस्पताल रिकार्ड के अनुसार थे। और 2014-15 में यह संख्या 106 पहुंच गई। यह संख्या पाकिस्तान के मुकाबले (वहां काम कर रहे ‘सर्वाइवर्स फाउंडेशन’ के मुताबिक 2012 में 7,516 तेजाब हमले के शिकार थे) कम है किंतु उसका (तेजाब हमलों) अस्तित्व ब्रिटेन, अमेरिका, फ्रांस जैसे विकसित, शिक्षित व जागरुक देशों में भी है।


हम अपने देश की ही बात करेंतो आज कई फाउंडेशन इस दिशा में कार्यरत हैं। बदलाव लाने की कोशिश की जा रही है। ‘स्टॉप एसिड अटैक’, ‘एसिड सर्वाइवर्स फाउंडेशन’ और कई इस दिशा में कार्यरत हैं। ‘स्टॉप एसिड अटैक’ को अमेरिका का ‘बॉब्स 2016 सोशल चेंज अवार्ड’ भी मिला है।

इन सबसे इतर इस दिशा में सोचने और गहरे मंथन करने की जरूरत यहां है कि आखिर ऐसे अपराध लड़कियों के मामलों में ही अधिकतम क्यों हो रहे हैं?

हमें समझने की कोशिश करनी चाहिए कि ये घटनाएं आखिर किस ओर इशारा करती हैं? इनकी जड़ों में क्या छिपा हुआ है? गहराई से देखें तो बलात्कार से भी अधिक मारक असर तेजाब हिंसा का होता है। बलात्कार पीडि़ता शारीरिक से अधिक मानसिक प्रताडऩा की शिकार होती है। समाज में गहरे धंसी वर्जीनिटी (शुचिता) एक ऐसी अवधारणा है जिसके मानसिक प्रभाव से रेप पीडि़ता अधिक प्रताडि़त होती है किंतु तेजाब हमले में यदि वह बच भी जाती है तो जिंदगी भर न जाने वाले दाग और हर सुबह आईना देखते ही ‘डरावने’ शब्द से सामना करती है। अंतहीन दर्द, बार-बार होने वाली सर्जरी उनके जीवन का अभिन्न हिस्सा बन जाती हैं। और सबसे अहम आत्मविश्वास ही डगमगा जाता है। हर सुबह वह घटना दोहराई जाती है, खुद की परछाई से ही डर!!

क्या इसे ही जंगलराज कहते है योगी जी

इनके, यानी तेजाब पीडि़तों के रूबरू होते ही, उनकी मानसिक, शारीरिक और आर्थिक दुश्वारियों को जान-समझकर और कि आखिर ये घटनाएं होती क्यूँ हैं? जैसे प्रश्नों का सामना करते ही राकेश सिंह नाम का एक शख्स लोगों को समझाने और अनुत्तरित प्रश्नों के उत्तर खोजने एक अदद साइकिल लेकर निकल पड़ा। राकेश सिंह का जन्म बिहार में हुआ है। उच्च शिक्षा लेने के बाद कुछ साल उन्होंने एक मल्टीनेशनल कंपनी में नौकरी भी की। राकेश लेखक भी हैं। इनकी पहली पुस्तक बीबीसी द्वारा जारी की गई सूची के अनुसार (2010) में टॉप 10 में थी। और अचानक ही नौकरी, लेखन, ऐशोआराम सब छोडक़र जेंडर जागरुकता अभियान पर साइकिल से निकल पड़े। राकेश सिंह कहते हैं कि- ‘इन घटनाओं के सामान्य कारण देखो तो घोर आश्चर्य होता है कि एक दिन पहले तक प्रेमिका के कदमों में चांद-तारे तोड़ कर डाल देने की बात करने वाला युवक, अगले दिन उसी के चेहरे को तेजाब से नहला देता है।’ कैसे वह इतना क्रूर हो जाता है? आखिर उसके भीतर क्या धंसा होता है जो कि वह इतना अमानवीय, असंवेदनात्मक काम को कर सकता है?


लगभग अभी तक ग्यारह राज्यों (तमिलनाडु, केरल, तेलंगाना, आंध्रप्रदेश, उड़ीसा, बिहार, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, पांडिचेरी और अभी वे महाराष्ट्र यात्रा पर हैं) की साइकिल यात्रा कर, देश को अलग-अलग कोणों से देख-पहचान कर, वे इनसे पीछे छिपे कारण की ओर इशारा करते हुए कहते हैं कि- ‘पितृसत्ता द्वारा लडक़ा-लडक़ी की अलग-अलग तरीकों से की गई परवरिश, सभी धर्मग्रंथों और उनके पैरोकारों द्वारा अलग-अलग चिन्हित मान्यताएं और समाज में स्त्री की वनिश्त पुरुष की सुपीरियर पोजीशन मनवाती हुई परंपराएं (उन्हें हम रूढिय़ाँ ही कहें) ही वे मुख्य कारक हैं जिससे पुरुष हमेशा ही खुद को स्त्री से बेहतर और प्रेम में भी खुद को शासक ही मानता है। उन्हें ‘न’ सुनना मंजूर नहीं। एक पुरुष को इतना असंवेदनशील, समाज की जड़ों में जमी सदियों पुरानी परंपराएं और रूढिय़ां ही बनाती हैं जिन्हें हम कभी बदलने की कोशिश नहीं करते।’

प्यार पर न चढाओ हैवानियत की चादर

 दहेज प्रथा, शिशुवध, बलात्कार औरतेजाब हमले जैसी घटनाएं जेंडर के नीचे दबे हुए प्रश्नों का प्रतिफल हैं। ऐसे प्रश्नों को सामाजिक रूढिय़ों की कारा से बाहर निकालकर, उनके उत्तर लोगों को समझाना बेहद जरूरी है। उत्तर आधुनिकता के दौर में जब पूरी दुनिया ‘एक गांव- मुहल्ले’ में तब्दील हो गई है। संचार क्रांति ने दूरियों के पैमानों को समाप्त कर दिया तब भी स्त्री और पुरुष जेंडर के बीच वही दूरी कायम है, वे अभी भी अलग-अलग प्रांत हैं। दिन-रात साथ रहते काम करते हुए भी मकान के दो तल्ले हैं। पुरुष शासक और स्त्री मजदूर। इस उत्तर को पाने के कारणों की तह में जाकर उन्हें पाटना होगा तभी तेजाब हिंसा जैसे क्रूर से क्रूरतम अपराधों पर अंकुश लगाना संभव हो सकेगा।

ये क्रूरताएं हमारे समय और देशकाल के चेहरे पर काले धब्बे हैं। ये कहानियां यूं नहीं खत्म होंगी। राकेश सिंह जैसे जज़्बेवाले कितने ही लोग लड़-भिड़ रहे हैं। हमें भी उनकी जंग में शामिल होना होगा। हर बदलाव मुमकिन होते हैं। हर समय को अपने भीतर ही औजार ढूंढऩे होते हैं।
पाश ने कहा भी है-
जब बंदूक न होगी तब तलवार होगी
तलवार न हुई, लडऩे की लगन होगी
लडऩे का ढंग न हुआ, लडऩे की जरूरत होगी
और हम लड़ेंगे साथी...


आखिरी में जो लड़ रहे हैं, इस तेजाब पीडि़तों के लिए और वे सब भी जो हमारे समय की क्रूरता, असंवेदना और विशेषकर लैंगिक मानसिकता के शिकार हुए हैं, उनके लिए- कामरेड पेरिन दाजी के शब्दों में-
अपने लिए जिए तो जिए
तू जी ऐ दिल जमाने के लिए...

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शास्त्रीय सुरों की मल्लिका जिन्हें जनता ने 'गानसरस्वती 'नाम दिया

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स्त्रीकाल डेस्क 

'गानसरस्वती 'नाम से समादृत भारतीय शास्त्रीय संगीत गायिका किशोरी आमोनकर का  सोमवार देर  रात मुम्बई में निधन हो गया.   84 साल की उम्र में हमें अलविदा कह गई किशोरी ताई अमोणकर का सम्बन्ध अतरौली जयपुर घराने से रहा है। उनकी मां मोगुबाई कुर्डीकर भी इसी घराने की मशहूर शास्त्रीय गायिका थीं।




10 अप्रैल 1931 को मुम्बई में ही पैदा हुई 'गानसरस्वती ' किशोरी ताई ने अपनी मां और विख्यात गायिका मोगुबाई कुर्डिकर को अपना गुरु माना और संगीत साधना की.  'स्वरार्थरमणी - रागरससिद्धान्त'यह संगीतशास्त्र पर आधारित ग्रंथ की वह रचयिता थीं. ख्याल, ठुमरी और भजनों की  इस शास्त्रीय गायिका  को शास्त्रीय संगीत में भावनाप्रधान गायन कला को पुनर्जीवित करने का श्रेय जाता है.

सुनें यह तराना 



किशोरीताई अमोणकर कई सम्मान से सम्मानित थी. 2002 में पद्म विभूषण से सम्मनित होने के पहले वे संगीत नाटक अकादमी सम्मान, 1985 , पद्मभूषण सम्मान, 1987 , संगीत सम्राज्ञी सम्मान, 1997 से सम्मानित हो चुकी थीं. उसके बाद भी संगीत संशोधन अकादमी सम्मान, 2002 संगीत नाटक अकादमी फेलोशिप, 2009 से  वे सम्मानित हुईं  1964 की हिन्दी फिल्म , 'गीत गाया पत्थरों ने' में उन्होंने गायन किया था, और  1991 में रिलीज हुई 'दृष्टि' फिल्म में उन्होंने  संगीत निर्देशन  किया था.


उनके चाहने वालो के द्वारा दिया गया उनका नाम गानसरस्वती हालांकि उनका सबसे बड़ा सम्मान था.  उनके  पति रवि आमोनकर ने उनका पूरा साथ दिया.1992 में रवि अमोनकर का निधन हुआ है.


है मुझको जमशेद तेरे जाम से भी काम.....!!

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प्रो.परिमळा अंबेकर
विभागाध्यक्ष , हिन्दी विभाग , गुलबर्गा वि वि, कर्नाटक में प्राध्यापिका और. परिमला आंबेकर मूलतः आलोचक हैं.  हिन्दी में कहानियाँ  अभी हाल से ही लिखना शुरू किया है. संपर्क:09480226677

औरतों का मन और उसकी मानसिकताको भला कौन नहीं जानता...? घर बैठे हर ज्ञान का हर विज्ञानी व्यवस्था का हर तंत्रज्ञान के परिणामों एवं अंजामों का रिप्लिका ढूंढ निकाल लेती है वह। उसका अपना घर ,उसका अपना आंगन उसका अपना घर के पीछे का गत्ता बस उसके लिये काफी है विश्व के प्रतिरूप को गढने के लिये। आज के दौर में फेसबुक, एक मैजिक दंड है जो औरत के हाथ लगा है। किसी की मेहरबानी ही नही, किसी की कृपादृष्टि ना भी तो सही, जी हुजूरी भी नहीं, डर भी नहीं, बस जामे जमशेद का करामत, कि बटन के दबने की देरी...टच स्क्रीन पर देखते जाओ, पढते जाओ, लाइक करते जाओ, दुनिया भर की बातें कहते जाओ, लिखते जाओ अपनी अंतरग की कथाएं ...प्रंसगें..तूल चूल की बातें ...!! घटनाएं, प्रसंग, होनी अनहोनी खोजी खबरी बातें, घर के दिये से लेकर दिल्ली तक की बातें !! भाई बंध की अवाम की बातें, जिल्लत प्रेम की रोमियो-जूलियट टाइप की बातें, भय और विश्वास की सुधिजनों की बातें, लौकिक अलौकिकता की आध्यात्मिक बातें ...मन के परतों में छिपी जलीयता की सृजनात्मक कलम की बातें,बुद्धि के कोहों में लगे जमे विचारों की बत्तियों के जलने की बातें, अंतरंगता की लडियों के रेशों को बाहरी जीवन तरंग के रंगों में रंगने की रंगरेजों की बातें...!!

सोने पर सुहागा, उठते बैठते सोते-जागते,बतियाते मुस्कुराते हुवे याने हर पोज़ में फोटो को अपने वाॅल पर चिपकाते जाइए। औरत के अनेक रूपों में फेसबुकी रूप का अलग ही वर्चस्व और अलग ही अंदाज है। हर क्षण हर विचार और हर घटना प्रसंग को फेसबुक के वाल की आँखों से देखने वाली औरत, चित्रों को उसी अंदाज में चुनती है जिस अंदाज में अपने बया की सिलायी के लिये दर्जी पक्षी तिनको को चुगता है । दर्जी पक्षी का बया, उसके अंदाजो हिस्से से खुलता है और बंद भी होता है। कारण औरत का फेसबुकी वाल भी उसके हिसाब से संकोच को ओढती है और ओढी संकुचितता को खोलते जाती है ।

 मेरे मुताबिक आदम से भी हव्वा अधिकसोशल है । यानि उसके अंतर्रमन की परतों की गहरायी में जल का लरजना जितना अदृश्य और अध्वनित है, बाह्य जगत के साथ का उसका संबंध , संबंधो की टहनियां ,उन टहनियों में उगे फुनगियों की लाली और हरियाली उतनी ही साक्ष्य है स्फुरित हैं। वह अपने हर भाव और संवेदना की दुनिया को, बाहरी जगत् के रेशों की बुनावट को अपनाते जाती है। अपने सजने संवरने से लेकर , व्यवहार और विचार तक में समाज की प्रतिक्रिया को अत्यंत ही तल्खी के साथ गुनते जाती है और उतनी ही शिद्दत से बाह्य समाज की रंगों अंदाज को अनुभव भी करते जाती है। इसीलिए दुनियादारी या दुनिया के अहसास के कैनवास के कंटेक्सट में औरत मर्द से भी अधिक , अपने केा उकेरते जाती है, स्वयं को ढालते जाती है। इसीलिए श्रंगार के प्रसाधन हो या रंगबिरंगी साजो सामान सभी को औरत अपने मानदंड से चुनती है,अपने लिए, अपनी तुष्टि के लिए, न कि मर्दवादी समाज के निर्णयों के आग्रह से। दुनिया की नजर से अपनी आत्मतुष्टि का परंपरागत हव्वायी स्वभाव फेसबुकी वाल पर अपने को जाहिर करने के इंटरनेट के प्रस्ताव को तपाक से स्वीकारने में औरत को मदत कर रहा है।

जितनी तीव्रता से औरत अपने सौन्दर्यऔर सौन्दर्यबोध की आत्मतुष्टि की अपेक्षा रखती है उतनी ही उसकी चेतना उसके विचार और संवेदना के लिए समाज द्वारा दिये जाने वाले लाइक के प्रति केन्द्रित होती है। प्रकाशन विचारों का या भावों का या बोधों का जो आत्मिक हो या दैहिक, सृजनात्मकता का आखिरी और अनिवार्य पडाव है । हर कला, जिस तरह कलाकार के रचनात्मक बोध से बाहर पडते जाता है उतनी सहजता से रचनाकार भी उस कला के रूप का बाह्य प्रकाशन चाहता है। समाज द्वारा उसकी पहचान चाहता है। प्रकाशन की खुशी अद्भुत होती है, मन के कोने का बडी ही आत्मीयता से सहेजने वाला बोध, एक अदृश्य विश्वास से भेदने वाला बोध, अपनी अस्मिता की पहचान की अद्वितीय आनंद से उद्बोधित कर देनेवाला बोध। बस लाइक् का एक क्लिक , और उसमें भी अपेक्षित या अनपेक्षित उंगलियों से क्लिक किया गया लाइक ... । फेसबुक पर का यह सृजनात्मक या कलात्मक अभिव्यक्ति से औरत को मिलने वाला लाइक, जामे जमशेद नही तो और क्या है ?

फेसबुक का माध्यम औरत के लिएजितना घर के आंगन में रंगोली काढने जितना सरल है और सहज भी है लेकिन आंगन में कढे रंगोली का स्पर्श नहीं दे पाता  वह सत्य का आभास मात्र है। आभासी दुनिया की अपनी सीमाएं और बंदिशें इस लोक के साथ भी जुडे हुए हैं । लेकिन समाज में जहां मनुष्य रहते हैं, जिनमें आपसी संपर्क के रूप में जब इंटरनेट का माध्यम जबरदस्त माध्यम के रूप में स्थायी रूप में स्थापित हो रहा हो, वहां आभास के भास होनें में समय नहीं लगेगा। झूठ माने जाने वाली प्रक्रिया धीरे -धीरे सच में बदलने के सोशल प्रोसेस में ढलते हुवे स्थापित हो जाती है। इसीलिए आज इस आभासी दुनिया के सोसियलाइजेशन में औरत अपनी अस्मिता के अनेक आयामों को तलाश रही है । टीन ऐज से लेकर वृद्धा तक अपनी जिजिविषा के लौ में फेसबुक वाल पर अपना हस्ताक्षर दर्ज कर रही है । परिवार से लेकर समाज, समाज से लेकर संस्कृति, संस्कृति से लेकर राजनीति, राजनीति से लेकर धर्म, शिक्षा विज्ञान चिंतन विमर्श माध्यम जैसे अनेक डोमेन में आज औरत ने अपनी अलग अंगीठी सुलगा कर रक्खी है। औरत का बोल्ड और सुलझा हुआ व्यक्तित्व , सोच और विमर्श का गंभीरता और निर्णयों का ठहराव और ठोसपन से लेकर कलात्मकता और सृजन की बारीक नक्काशियों को भी उकेरने की कला उसके ई- लेखन में जाहिर हो रहा है ।

  केवल दिवार ही नहीं है सामने या सिर्फ लाइक बटोरने का झोला ही नहीं, साथ ही उसके हाथ दमदार हथियार भी लगे हैं। अनचाहे विचार या व्यक्ति को उसकी मानसिकता एवं भावों को, ना की तर्जनी दिखाने की संभावना और साथ ही अनसुलझे असामाजिक तत्वों को पूरी तरह ब्लाक कर अपना स्वतंत्र सोच और वैचारिक स्वछंदता केा स्टैंड करने की। आरंभ की दुविधाएं और असहजताएं मिटकर एक आरोग्यपूर्ण अभिव्यक्ति माध्यम के रूप में वह ई-जाल को प्रयोग में जब ला रही है तब विसंगतियां और अश्लीलता अपने आप झडकर शुद्ध निर्मल जल ऐसा जाम में भरते जा रहा हैकि उसमें अपना मुख स्वयं देखे और दिखाये ।

औरत के लिये सोशल मीडिया  हाथकी दूरी पर हथेली में समा जानेवाली सहज और सरल अभिव्यक्ति की मीडिया है, जो हंडी की उबाल मात्र से दाल और चावल के पकने या न पकने का अहसास जरूर देता है। कुकर की सीटी के प्रेशर की तरह भावनाओं की तीव्रता और उसके विरेचना के सुख का अहसास भी उसके लिए एक तरह का साइकोलाजिकल सूदिंग ही समझिए। यह तो सर्वविदित समाजिक दर्शन है कि मनुष्य उसी जमीन और जगह में जडे जमा सकता है या बडी  सहजता से मुक्ति का श्वास ले सकता है जहा, यानी जिस परिसर में उसकी पहचान हो या उसकी अपनी आइडेंटिटी हो। आज के दौर में औरत को चाहे इस दायरे की सीमा कुछ भी क्यों न हो, सोशल मीडिया एक ढंग से उसकी अस्मिता को पाने हेतु सृजनात्मकता के आनंद का स्पेस प्रदान कर रहा है।
लेख, कथा, रिपेार्ट आदियों के छपने की काल सीमा जहां मासिक या साप्ताहिक पत्र पत्रिकाओं ने छोटा कर दिया तो फेसबुक ने उस अवधि को और भी घटाकर क्षण में लाकर धर दिया। अब बैठकर लिखा या लिखे हुए को फेसबुक वाल पर चढाने की देरी, पाठकों के हथेली में खुलते जाते हैं लेखन के राज , कथा के रहस्य या घटनाओं के हलचल । और तो और साथ में चस्पाएं चित्र इतने पूरक और आकर्षक होते हैं, जैसे फेसबुक के रीडर के साथ बयानबाजी कर रहे हो। यह जाहिर बात है कि औरत अधिक कलात्मकता रखती है अपनी सोच में और अभिव्यक्ति में। सौन्दर्यबोध और सुंदर संवेदना, उसका भावनालोक और उस भावनालोक के सामाजिक दायरे के भीतर की प्रस्तुति को अधिक आकर्षक और कलापूर्ण बनाता है। फेसबुक के पोस्ट औरत की सौन्दर्य चेतना से लबालब होते हैं। अव्वल दर्जे का महिला लेखन से लेकर चौका चूल्हा संभालनेवाली गृहणी के पोस्ट भी अपने अपने एस्थटिक के स्तर के आधार से, पूरक चित्र और रंगों से सजे पूजा मंडप की तरह लगते हैं। जीवन और समाज में सौन्दर्य ही एक ऐसा बोध है, जिसका कोई स्तर नहीं होता।

परंपरागत मुख्यधारा के साहित्य ने औरत के रचना संसार को नजरअंदाज किया- नून,  तेल,साग सब्जी का साहित्य मानकर उसे चारदिवारी के बीच का साहित्य कहकर उसका लेबल किया। महिला साहित्य का उल्लेख केवल नाम के वास्ते (गिनती में बस, खेल में नहीं) की रस्म अदायगी को समीक्षक और इतिहासकार निभाते आये हैं, वहीं शास्त्रीय और परंपरागत साहित्य की इस मानसिकता को लेखिकाओं ने चुनौती दी। महिला लेखनको मानते-मनवाते आज इक्कीसवी सदी में हाशिये से साहित्य के केंद्र में महिला की कलम आ गई है। वहीं सोशल मीडिया में औरतों का हस्तक्षेप पुरूष लेखन के दखल से भी दस प्रतिशत अधिक अपनी प्रतिभागिता को स्वयं की सृजनात्मकता और सौन्दर्यबोध के माध्यम से साबित कर रही है । फेसबुक के लिंक के माध्यम से पाठकों को बडी सहजता से उनकी उॅुंगली थामें अपने रचना संसार में प्रवेश करवाती हैं और साहित्य आस्वादन के अपने कैनवास को परत दर पतर खोलते जाती है । दैहिक-अनुभव से आत्मिक आनंद की ओर, इश्के लौकिकी से इश्के अलौकिकी की ओर ...!! बस और कुछ नही तो, साहित्यिक लेखन के चारपायी पर बैठकर अपनी रचनात्मक स्थापनाओं को देखने की या दिखाने का भाग मिले या न मिले, लेकिन दस -बीस लाइक में ही सही अपने आप को अवाम में आम न मानने की आत्मिक आभास से तो फूले न समाने का गुबारा तो हाथ में पकडा दिया है फेस बुक ने औरतों के हाथों में। हाथ के इस फुग्गे को फोडने या फुलाने की स्वतंत्रता उसके हथेली की लकीरों में बंधी हुई है ।

औरतों का फेसबुकी डोमेन में आदमियों से भी दस प्रतिशत अधिक संख्या में भाग लेना सचमुच में एक आरोग्यपूर्ण पहल है। आनंद, शांति, सुख सुहाग की डोली चढकर आई या चढने के भावों से सजी संजोयी औरत आभासी दुनिया को अपने घर आंगन के जनानी बैठकों का टच देती है। उसका आंगन उसका अपना है। वह स्वतंत्र है कि वहां तुलसी का बिरवा सजाये या बंगडी, साडी बर्तन भांडों का, पास पडोसियों से मिलकर खरीद-फरोख्त करे या उस आंगन के फैलाव में अपनी चारपाई लगाकर आस पडोसियों से संगे संबंधियों से गप्प लडाये और अपनी चौपायी खुद सजाये। हमारी आभासी दुनिया में औरतों की और भी अनेक ऐसी चैपाइयां हैं जो औरों से भी कुछ अधिक बेदखली, बेहिसाबी स्वतंत्रता और स्वछंदता रखती हैं। कारण औरतों के वाल के उतने ही नमूने मिलेंगे, जितनी उनकी अस्मिता-एक से एक सुंदर, एक से एक बेबाक, एक से एक कलात्मक और एक से एक विश्वसनीय...सौन्दर्य और विचार की चेतना के जगर- मगर धुति से भरपूर।

आज ,  औरत को लेकर उसके संबंधोंको लेकर उसकी अस्मिता को लेकर परंपरा से चली आ रहे,बने बनाये मिथक प्रतिमान और संकेत टूट रहे हैं। उसका अपना घर के कोने में आज सारा विश्व समाये जा रहा है। तकनीक की सूक्ष्मताओं और प्रयोग की जागरूकता से वाकिफ औरत ने आज आभासी दुनिया को अपने हथेली में कैदकर लिया है । वुमन फ्रेंडली तकनिकी और साइबर माध्यम आज उसके लिये वह जाम है जिसे जब चाहे खोल सकती है और जब चाहे उसमें झांक सकती है। और अंत में कहूं तो , मिस्कीन शाह के तर्ज में जमशेद के जाम को आभासी दुनिया मानकर आज यह कहने में ही उसकी सच्चाई  है -
                                है मुझको ऐ जमशेद तेरे जाम से भी काम
                                जहां-नुमा है मुझे अपने खुश-खिराम से भी काम ।
                                                                                                                      - मिस्कीन शाह

स्त्रीकाल का संचालन 'द मार्जिनलाइज्ड' , ऐन इंस्टिट्यूट  फॉर  अल्टरनेटिव  रिसर्च  एंड  मीडिया  स्टडीज  के द्वारा होता  है .  इसके प्रकशन विभाग  द्वारा  प्रकाशित  किताबें  ऑनलाइन  खरीदें : 

दलित स्त्रीवाद मेरा कमराजाति के प्रश्न पर कबीर

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संपर्क: राजीव सुमन: 9650164016,themarginalisedpublication@gmail.com


विमर्श की ज़रुरत कहाँ

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स्त्री की दशा को लेकर कई सारे व्याख्यान आयोजित होते हैं लगातार बहसें चल रही हैं पर ये बहसें कहाँ चल रही इसको देखना बहुत महत्वपूर्ण है ।ये सारी बहसें उच्च शिक्षण संस्थाओं तक ही सिमित हैं जहाँ पहले ही से एक बौद्धिक वर्ग बैठा है और बार बार हर बार उन्हीं विषयों की पुनरावृत्ति होती है ताली बजती लोग चाय पीते हैं और चले जाते हैं . अब ज़रा ध्यान से सोचिये उच्च शिक्षा में जो भी पहुंचता है वह लगभग 21 तक की आयु का हो जाता है फिर इन सब को समझने में उसे लगभग 5 साल निकल जाते हैं मतलब 25 साल मान लीजिए इन 25 साल वो अपने बचपन के उन मूल्य और धारणाओं में बंध चुका होता है जिन मूल्यों का स्त्री चिंतन से टकराव रहता है तो उसके लिए अपने को परिवर्तित करना बहुत कठिन हो जाता हो वो चाहे लड़का हो लडक़ी हो या थर्ड जेंडर हो अब अगर मैं उच्च शिक्षा तक ना पहुँचता तो शायद यहाँ थर्ड जेंडर ना लिखता .पितृसत्ता ,सामजिक गढ़न आदि शब्द उच्च शिक्षा में आकर ही सुना और समझा जाता है अगर आप बहुत प्रसिद्ध विश्वविद्यालय को छोड़ दें तो कहीं भी जाकर अगर पूछेंगे कि पितृसत्ता का अर्थ क्या है शायद ही कोई बता पाय गाँवो में तो बिल्कुल नहीं इसलिए मेरा मानना ये है कि क्यों ना इन विमर्शों को प्राथमिक शिक्षा से जोड़ दिया जाय अगर ऐसा होता है तो बचपन से इंसान काफी हद तक इन बातों से परिचित रहेगा और उसी अनुसार अपना व्यवहार करेगा ।


आज  हम बाजारवाद की कितनी भीआलोचना कर लें किंतु एक कटु सत्य यह भी है की उसी बाजार ने हम लोंगो की जीवन शैली पर पूर्ण नियंत्रण कर लिया है उसी बाज़ारवाद में बचपन फल फूल रहा है कैसा बचपन जिसमें शीला ,मुन्नि और भी कितने ऐसे लड़कियों के नाम है जो प्रत्यक्ष व परोक्ष दोनों रूप से बचपन के उस कोमल दिमाग में ऐसा बीजा रोपण कर रहे हैं जो महिलाओं के प्रति एक नकारात्मकता को जन्म दे रहा है जो बड़ा होकर किसी ना किसी रूप में एक मनोविकार को जन्म दे रहा है इसलिये जब उस व्यवस्था से लड़ना है तो बीज को ही ऐसा पानी दिया जाय तो पौधा अपने आप ही बढ़िया निकलेगा और वो भी  स्वाभाविक ढंग से  उच्च शिक्षा  में आकर व्याख्यान ,कार्यशाला आदि महज़ औपचारिकता रह जाते है कोई परिवर्तन नहीं उन कस्बों में उन गाँवों में विमर्श की ज़रुरत है जहाँ ज्ञान सृजन की परंपरा में ही वो स्थापित है जिसमे कई सपने बनने से पहले ही टूट रहे हैं.


क्योंकि कोई भी हो उसके जीवन मेंज्ञान अर्जन करने की प्रक्रिया , ज्ञान का संचयन करने का बहुत असर पड़ता है अगर बचपन से उसको इस प्रकार से ढाला जाय कि उसे जेंडर की समझ हो जाय तो उसकी मानसिकता उसी तरह विकसित होगी जिस विकसित मानसिकता की बात उच्च शिक्षा में की जाती है इंसान को इस बात का पता रहेगा तो निश्चित रूप से वो जागरूक रहेगा भी  आज जहाँ लोग घर जाते ही मम्मी चाय ले आओ ,भाभी कपड़े धो दो जैसे आदेशात्मक शब्दों का प्रयोग बड़े सहज ढंग से करते हैं अगर बचपन से वो इन सब बातों को जान जाएगा तो शायद वह ये सारी बातें नहीं बोलेगा इसलिए मुझे लगता है ऐसे चिंतन प्राथमिक शिक्षा में होने चाहिए .प्राथमिक शिक्षा में उसके जानने की तीव्र इच्छा होती है वह अगल  बगल के माहौल को बहुत तेज़ी से ग्रहण करता है हर बात को बड़े ध्यान से सुनने व् समझने की कोशिश करता है वहीँ से व्यक्ति में धारणाएं बनना प्रारंभ होती वहीँ से वो दुनिया को समझने का प्रयास करता है वो ऐसी बातें जब शिक्षा के माध्यम से जल्दी से सीख लेगा और किशोर होते होते इन सब बातों को आत्मसात करने लगेगा छोटी छोटी ऐसी कहानियाँ ऐसे खेल जो समानता को बढ़ावा देते हैं ,को प्राथमिक शिक्षा में लागू करें मेरे विचारों से बहुत कारगर होंग जब बचपन से किसी को भी यह सुना जायेगा कि लड़कियों की तरह क्यों रो रहे हो ,लड़की पराया धन होती है ये सारी बातें छोटे से दिमाग में जम जाती हैं अगर इसकी जगह अपनी प्यारी सी संतान को ये सिखाया जाय की हर वो इंसान जो मेहनत करेगा परिश्रम करता है परिस्थितियों से लड़ता है वो मजबूत होगा इसमें किसी जेंडर का ज़िम्मेदारी ज़रूरी नहीं है तो इंसान की समझ पहले से ही काफी परिपक्व हो जायेगी हाँ इस बात का ध्यान रखना आवश्यक होना चाहिए कि एक बच्चे के अनुसार किसी नाटक के माध्यम से किसी छोटी फिल्म के माध्यम से किसी छोटे से खेल के माध्यम से खेल खेल में बच्चा बहुत बड़ी बातें प्यार और आराम से सीख लेगा और खासकर गाँवो में जहाँ बहुत ज़रुरत है  कस्बों में  जहाँ  लोगों को जागरूक करने की सबसे ज्यादा आवश्यकता है धीरे धीरे जागरूकता का अभियान चलाया जाना चाहिए चितंन के स्थान और उसके स्तर को व्यापक करने की आवश्यक है तभी सामजिक परिवर्तन की गति तेज़ हो पायेगी।

 तभी उस समानता वाले समाज कीप्रक्रिया आगे बढ़ पायेगी जिसका सपना वातानुकूलित कमरों में बैठे बुद्धजीवी देख रहे हैं


दक्षम द्विवेदी
शोधार्थी  म गा अ हि वि वि वर्धा
संपर्क -mphilldaksham500 gmail.com

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अखिलेश्वर पांडेय की कविताएं

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अखिलेश्वर पांडेय
'पानी उदास है'कविता संग्रह प्रकाशित.एनएफआई का फेलोशिप और नेशनल मीडिया अवार्ड., प्रभात खबर में कार्यरत. संपर्क:apandey833@gmail.com मोबाइल : 8102397081

पतरा

परदेस जाने से पहले
गांव में अब दिखाते हैं पतरा
दिशाशूल का भरम मिटाने को
पंडित जी की सलाह जरूरी है
पतरा में सब लिखा होता है
कब होगी बारिश
कब डालना है खेत में बीज
कब होगा दुल्हन का गवना
मुनिया के स्कूल जाने का सु-दिन
पेट का अजन्मा बेटा है या बेटी
110 वर्षीय दद्दा के मरने का दिन भी

गाय का पहला दूध
खेत का पहला अन्न
बेटे की पहली कमाई का दशांश
दे आता है यजमान घर पर
पुरोहित जी उचारते हैं भविष्य
बांचते हैं हस्तरेखा
बताते हैं -
यह साल अच्छा नहीं तुम्हारा
हर शनिवार पीपल में जल दो
जलाओ घी का दीया
करो हनुमत आराधना
पहनो लाल वस्त्र
तब मिलेगी क्लेश से मुक्ति

यह सब सुन
चकरा गया
भकोलवा का दिमाग
बोल पड़ा -
सब हमही करेंगे तो
आप का करियेगा...?

मेरे गांव में

हौंसले की झाड़ू से दुख बुहारती है मां
मुश्किलों की मोतियाबिंद से
कमजोर हो गयी हैं आंखे उसकी
फिर भी -
भूत-भविष्य-वर्तमान
बहुत साफ-साफ दिखता है उसे!

बचपन की भौजाइयां
असमय बूढ़ी हो गयी हैं
जिम्मेवारियों की बोझ ने
छिन ली है उनकी खूबसूरती
हंसी-मजाक की जगह ले ली है
नाती-पोतों ने!

शाम होते ही कई घरों से
छनकर आने लगी टीवी की आवाज
स्टार प्लस देख रहे बच्चे और बूढ़े
कैडबरी और मैनफोर्स का विज्ञापन आते ही
छोटी बहू ने बदल दिया चैनल
अब शाहरुख के आगे नाच रही सन्नी लियोनी
गा रही गाना -
लैला ओ लैला!

लल्लन बाबू का छोटका स्साला
गबरू जवान हो गया है
छेड़ता है लड़कियों को राह चलते
मैंने पूछा उससे
क्यूं भई! क्या चल रहा है
बोला-
पुलिस में जाने की तैयारी कर रहा हूं!

पढ़ा था जिस जर्जर स्कूल में मैं
अब वह आलीशान बन गया है
कई कमरे, रंग रोगन, चारदिवारी
सबकुछ एकदम चकाचक
बस
मास्साब की जगह बच्चों ने ले ली है
अब बच्चे ही पढ़ाते हैं बच्चों को!

आम का लंगड़ा पेड़
अब भी खड़ा है यूं ही तन कर
इस बार आये हैं खूब मंजर
रामदीन काका कह रहे थे-
अब भी वैसी है मिठास उसमें
तो फिर
आसपास के बाकी पेड़ कहां गये!

चिड़िया

चिड़िया हरती है
आकाश का दुख
उसके आंगन में चहचहाकर
भर देती है संगीत
सूने मन में

बादलों को चूमकर
हर लेती है सूरज का ताप
बारिश होने पर
तृप्त होती है चिड़िया

सुस्त पड़ते ही सूरज के
लौट आती है घोसले में
चोंच में दाने भरकर
खिलाती है बच्चों को
सिखाती है बहेलियों से बचने का हूनर
पढ़ाती है सबक
पंख से ज्यादा जरूरी है हौसला

चिड़िया प्रेम करती है पेड़-पौधों से
करती है प्रार्थना - न हो कभी दावानल
सलामत रहे जंगल
बचा रहे उसका मायका
वह जानती है
उड़ान चाहे जितनी लंबी हो
लौटना पेड़ पर ही है
इसका बचे रहना जरूरी है
मां-बाप की तरह.

अकारण

धूप की चौहद्दी नहीं देखी जाती
हवा का रास्ता नहीं पूछा जाता
कोई आ जाये जो घर पर बेवक्त
तो कारण नहीं पूछते
मौत दे दे दस्तक अचानक
तो वक्त नहीं पूछते उससे
बच्चों की खिलखिलाहट का रहस्य
क्यों पूछना भला!
कैसे जाना जा सकता है
फूलों का रंग रहस्य
भात के अदहन का तापमान
थर्मामीटर से नापता है कोई भला!

यह द्वापर नहीं
कलियुग है साहब!
निशाना साधिये
मछली की आंख मत देखिये
प्रेम में ऊंच-नीच
राजनीति में सही-गलत
इस सब चक्कर में
क्यों पड़ते हैं...?

छोटे कपड़े पहनने वालों का कद भी
बड़ा होता है
बड़ी-बड़ी बातें छोटे लोग भी कर सकते हैं
उम्र, अनुभव और उपलब्धियों का
लेखा-जोखा रखना फिजूल है.

औरत होना कला है

महावर से छुपाना बिवाई
सस्ता सा पाउडर पोतकर
ढंक लेना आंखो के नीचे का कालापन
चलताऊ किस्म के क्रीम से
बचाना गालों की लाली
यह सब उपक्रम आसान नहीं
ना ही आसान है औरत होना

रोपित इच्छाओं की पेड़ की तरह
करते रहना फल-फूल की बारिश
जरूरतमंद घरवालों को देते रहना
ससमय
मुस्कान व खुशियों का तोहफा
क्या इतना आसान है!

हां है आसान
एक औरत के लिए
यह सब सहज और सरल भी
क्योंकि
यह सब नहीं करता पुरुष
इसलिए करना ही पड़ता है
हर औरत को
इसलिए आसान है

अहिल्या, सीता, राधा, रुक्मिणी
मेनका, रंभा से लेकर देविकारानी से आलिया तक
इतने रुपों में भी
कहां पहचान पाया कोई पुरुष उसे
मां ,बेटी, बहन, दोस्त, प्रेमिका और पत्नी तक
कितने कम नाम और पद हैं इस दुनिया में औरत के लिए
पर जिम्मेवारियां कम नहीं!

रुदाली से रुपाली तक
हर भूमिका में फिट है वह
हर मोरचे पर डटी है
दीपमाला में जलती
शोरूम के काउंटर पर मुस्कराती
अबोध बच्चे को कराती स्तनपान
गांव पोखर में नहाती
खेतों में गेहूं की बालियां समेटती
किचेन में सोंधी रोटी बनाती हुई
हर जगह...

औरत  होना अभिशाप नहीं
एक कला है
यह जान जाती है हर लड़की
पैदा होते ही.

ऐसी जगह

तुम्हारे छतनार जुड़े में टंकना चाहता हूं
टहकार पलास का ऐसा फूल
जो मुरझाये नहीं कभी
हमारे प्यार की तरह
महुए सी मादक तुम्हारी आंखों में
लगाना चाहता हूं रात का काजल
मैं तुमसे प्यार करना चाहता हूं उतना
जितना नदी मछली से करती है
हवा खूशबू से
ओस दूब से
और
भूख अन्न से

चिड़िया की बची हुई नींद
घड़ी से थोड़ा सा ज्यादा वक्त
बारिश से उसका सूखापन
और
राख से नमी मांग कर
निकल पड़ेंगे हम सैर पर
एक ऐसी दुनिया में
जहां
जिया जा सके अपनी शर्त पर
आदर्श या आडंबर के बिना
शहरी बनने की ढोंग किये बगैर
बिना छिपाये अपना गंवईपन
जहां सूरज के निकलने की शर्त
पूरब न हो
ना हो चांद के होने की शर्त
आसमान
देवता मंदिर के बाहर भी
बिराजते हों
ऐसी जगह चलेंगे हम
जहां रोशनी को अंधेरा मिटाने का
गुमान न हो
न फूलने-फलने पर इतराते हों पेड़
जहां गेहूं और गुलाब की खेतें
ना हों अलग-अलग
ऐसी जगह ढूंढेंगे हम

फिर देखना तुम
तब डरेगा नहीं कोई प्रेमी
ताकतवर मुस्कानों से
बीज अंकुरित होंगे
बिना प्रार्थना के
प्रेमियों को नहीं करना होगा
बसंत का इंतजार
लगानी नहीं पड़ेगी 'प्रेम दिवस'की होर्डिंग्स
खत्म हो चुका होगा भय का कारोबार.

स्त्रीकाल का संचालन 'द मार्जिनलाइज्ड' , ऐन इंस्टिट्यूट  फॉर  अल्टरनेटिव  रिसर्च  एंड  मीडिया  स्टडीज  के द्वारा होता  है .  इसके प्रकशन विभाग  द्वारा  प्रकाशित  किताबें  ऑनलाइन  खरीदें : 

दलित स्त्रीवाद मेरा कमराजाति के प्रश्न पर कबीर

अमेजन पर ऑनलाइन महिषासुर,बहुजन साहित्य,पेरियार के प्रतिनिधि विचार और चिंतन के जनसरोकार सहित अन्य 
सभी  किताबें  उपलब्ध हैं. फ्लिपकार्ट पर भी सारी किताबें उपलब्ध हैं.

दलित स्त्रीवाद किताब 'द मार्जिनलाइज्ड'से खरीदने पर विद्यार्थियों के लिए 200 रूपये में उपलब्ध कराई जायेगी.विद्यार्थियों को अपने शिक्षण संस्थान के आईकार्ड की कॉपी आर्डर के साथ उपलब्ध करानी होगी. अन्य किताबें भी 'द मार्जिनलाइज्ड'से संपर्क कर खरीदी जा सकती हैं. 
संपर्क: राजीव सुमन: 9650164016,themarginalisedpublication@gmail.com 

नाम अम्बेडकर विश्वविद्यालय, काम दलितों की उपेक्षा

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दलित शोधार्थी गरिमा एवं रश्मि द्वारा लिखा गया

प्रगतिशील एवं लोकतान्त्रिक छात्र समुदाय (PDSC) द्वारा किये गए प्रदर्शन के दौरान यह एक बार फिर सिद्ध हो गया कि ‘हमारी’ अम्बेडकर यूनिवर्सिटी, दिल्ली (AUD) के खाने के दांत कुछ हैं, और दिखाने के कुछ और हैं. अम्बेडकर यूनिवर्सिटी, दिल्ली (AUD) दिल्ली राज्य सरकार द्वारा आर्थिक सहायता प्राप्त एक सरकारी यूनिवर्सिटी है, जिसमे 85% सीटें दिल्ली के नागरिकों के लिए आरक्षित हैं. शुक्रवार, 24 मार्च, 2017 को अम्बेडकर यूनिवर्सिटी में प्रगतिशील एवं लोकतान्त्रिक छात्र समुदाय (PDSC), जो कि हाशियागत समाज से आ रहे विधार्थियो का एक फ्रंट है,  ने कुलपति के दफ्तर के बाहर विरोध-प्रदर्शन किया, जिसकी कई मांगें थीं, जैसे कि एमए, एमफिल तथा पीएचडी की प्रवेश परीक्षा के प्रश्नपत्र अंग्रेज़ी के साथ ही साथ कम से कम दिल्ली की अन्य राज्य स्तरीय भाषाओँ (पंजाबी, हिंदी तथा उर्दू) में भी छापे जाएँ, अंग्रेजी सुधार के लिए लैंग्वेज सेल का गठन (जोकि अभी सिर्फ कागज़ों तक ही सीमित है) दो स्तरों पर किया जाए, पहला, बुनियादी अंग्रेजी भाषा को सिखाने के स्तर पर, तथा दूसरा अकादमिक अंग्रेज़ी के सुधार और सिखाने के स्तर पर, इस लैंग्वेज सेल को हर विभाग/स्कूल के स्तर पर लागू किया जाए जैसे कि हर विभाग/स्कूल के पास अपने अंग्रेजी भाषा प्रशिक्षक हों, यूनिवर्सिटी में सामाजिक विज्ञान के सभी अनुशासनों के सेमिनार इत्यादि गैर-अंग्रेज़ी भाषा में भी हों (अभी के समय में लगभग 99% लेक्चर और सेमिनार केवल अंग्रेज़ी भाषा में ही होते हैं), अनुवाद सेल का गठन किया जाए और जब तक किसी छात्र को यूनिवर्सिटी का लैंग्वेज सेल कम से कम बुनियादी अंग्रेज़ी नहीं सीखा पाता तब तक उस छात्र को उसकी भाषा में असाइनमेंट, परीक्षा, शोध-प्रबंध और थीसिस लिखने दिया जाए (अभी के लिए दिल्ली की राज्य स्तरीय भाषाओँ में: हिंदी, उर्दू तथा पंजाबी). प्रगतिशील एवं लोकतान्त्रिक छात्र समुदाय (PDSC) ने कुछ इन्ही मांगों के साथ अपना मांग-पत्र (डिमांड चार्टर) कुलपति को एक प्रक्रियात्मक (Procedural) तरीके से 20 फ़रवरी, 2017 को भेजा था. जिसमे हमने इन सभी मुद्दों पर उनकी ठोस राय मांगी थी. इसके करीब एक महीने बाद भी उन्होंने कोई जवाब देना जरूरी नहीं समझा है.



यह प्रदर्शन हाशिए के समाज सेआ रहे छात्रों की आवाज़ था, जिसकी उपेक्षा और तिरस्कार जी ने यह कह कर किया  कि “हम उनके खिलाफ मुर्दाबाद के नारे लगा रहे थे”. इसके बाद भी जब हमने उनसे मिलने का आग्रह किया तो उन्होंने यह कहकर टाल दिया कि वह केवल निर्वाचित स्टूडेंट कौसिल (Elected Student Council) से ही मिलेंगे और उनके माध्यम से ही वह इस मुद्दे पर बात करेंगे. हम कुलपति से पूछना चाहते हैं कि क्या आपको PDSC द्वारा AUD परिसर में 410 छात्रों के बीच किये गये सर्वे की रिपोर्ट दिखाई नहीं देती? क्या आपको यूनिवर्सिटी में दलित, ओबीसी और आदिवासी समुदाय का ड्राप-आउट रेट दिखाई नहीं देता? पिछले 5 सालों से कैंपस में उठ रहे भाषाई भेदभाव के मुद्दे पर छात्र आपको एम्पिरिकल (empirical) रिसर्च करके दिखा रहे हैं कि भाषा की बुनियाद पर किस तरह भेदभाव आपकी यूनिवर्सिटी में होता है, इससे आपको कोई फर्क नहीं पड़ता? कि आप अपने कीमती समय में से कुछ समय हमको दे पाए? और आप हमारे इस मुद्दे को यह कह कर टाल दे रहें हैं कि केवल निर्वाचित स्टूडेंट कौंसिल (जोकि पिछले साल ही बनी है और खुद अपने अस्तित्व को तलाश रही है) ही इस मुद्दे को कहे.

यह वही यूनिवर्सिटी है जो हर सालइंडिया इंटरनेशनल सेंटर (IIC) में अम्बेडकर मेमोरियल लेक्चर करवाती है. यह वही यूनिवर्सिटी है जिसने इसी साल फ़रवरी में दलित पंजाबी गायिका, गिन्नी माही का शो भी करवाया था. यह वही यूनिवर्सिटी है जहाँ दलितों, बहुजनों तथा आदिवासियों के नाम पर कलेक्टिव भी है जो खुद को यूनिवर्सिटी के दलित, बहुजन तथा आदिवासी तबके के “एकमात्र प्रतिनिधि” के बतौर पेश भी करता आया है. यह हमारे लिए बहुत ही निराशाजनक बात है कि न तो AUD का ज़्यादातर संपन्न तबका जोकि, अम्बेडकर, मार्क्स, स्पिवाक, बटलर, फूको और ऐसे ही तमाम फिलोस्फर को इस्तेमाल कर दमित अस्मिता को अपना विषय बनाकर उन पर लिखता रहा है, बतियाता रहा है, (अपनी अकादमिक और राजनीतिक दुकान चलाता रहा है), मिसाल के तौर पर, अभी हालिया दौर में CPSH में हुए इलेक्शन में भी कई उम्मीदवारों ने भाषा के मुद्दे की संवेदनशीलता को अपने चुनावी मेनिफेस्टो में पहचाना. यह एक सराहनीय बात है कि उन्होंने इसे पहचाना. लेकिन सवाल यह है कि क्यों हम और हमारा मुद्दा, मात्र चुनावी मेनिफेस्टो तक ही सीमित है? यह हमारे लिए बहुत ही हैरानी और निराशाजनक बात है कि यहाँ तक कि वह कलेक्टिव जोकि फेसबुक और दूसरे सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर जातिगत भेदभाव पर बातें करते हैं, जातिगत भेदभाव के खिलाफ पॉलिटिक्स करते हैं, दलित, ओबीसी तथा आदिवासी समुदाय की एकता के नारे लगाते हैं उन्होंने क्यों हमारे इस मुद्दे पर हमारे साथ खड़े होना ज़रूरी नहीं समझा? सवाल यह भी है कि क्या आपकी पॉलिटिक्स का रिश्ता कैंपस के “दूसरे” दलित और बहुजन के मुद्दों से है? यह उनकी पॉलिटिक्स पर एक प्रश्नचिन्ह है या हम जैसे दलित-ओबीसी छात्रों के सामाजिक-आर्थिक अस्तित्व पर एक प्रश्नचिन्ह? या फिर यह विचारधाराओं के संघर्ष में एक नए तरह का जातिगत और जातियों के भीतर ही एक आर्थिक भेदभाव है?



तो अंतत: साथियों ‘हमारी’ अम्बेडकर यूनिवर्सिटी में अम्बेडकर के बारे में अकादमिक चर्चाएँ और अम्बेडकर को ज़रूर याद किया जाएगा लेकिन सिर्फ और सिर्फ अंग्रेज़ी में. अम्बेडकर की एक बड़ी तस्वीर कुलपति जी के दफ्तर में और यूनिवर्सिटी में ज़रूर लगेगी लेकिन दलित, ओबीसी, आदिवासी और गरीब-वंचित समुदाय के लोग कैंपस तक आ पायेंगे, यहाँ सर्वाइव कर पायेंगे यह मुद्दा नहीं है. अगर आ भी जायेंगे तो उनको अंग्रेजी भाषा के वर्चस्व के कारण ग्रेड कम मिले, उनको रिपीट करना पड़े या वह यह यूनिवर्सिटी छोड़ कर चले जाएँ इन सब मुद्दों से उन्हें कोई वास्ता नहीं. क्योंकि बाबा साहेब “जिन्दा” हैं, कुलपति की यूनिवर्सिटी की तस्वीरों में कुलपति  की यूनिवर्सिटी की अंग्रेजीवादी अकादमिक चर्चाओं में. बाकी जिन समुदाय के उत्थान के लिए बाबा साहेब ने संघर्ष चलाया उस समुदाय के लोग इस कैंपस में ‘जिंदा’ हैं इससे कुलपति का कोई नाता नहीं. जिन समुदायों को बाबा साहेब ने शिक्षित हो, संघर्ष करो, संगठित हो का नारा दिया था, उनके शिक्षित होने, संघर्ष करने और संगठित होकर कुलपति से मिलने पर कुलपति का इगोइस्टिक ब्राह्मणवादी रवैया कहता है कि “मैं सिर्फ निर्वाचित ‘स्टूडेंट कौंसिल’ से मिलूंगा”. तो साथियों, ‘हमारी’ यूनिवर्सिटी मानती है कि जातिगत भेदभाव होता है लेकिन केवल ‘हमारी’ अम्बेडकर यूनिवर्सिटी के ‘बाहर’ इसलिए ‘जागरूकता’ फैलाना ज़रूरी है लेकिन केवल यूनिवर्सिटी के ‘बाहर’. इसीलिए ही दलित पंजाबी गायिका गिन्नी माही जी का शो कराया जाता है, हर साल अम्बेडकर मेमोरियल लेक्चर कराया जाता है.

नोट: सुझाव तथा राय के लिए हमे नीचे लिखी ईमेल आईडी पर सम्पर्क कर सकते हैं. garima.16@stu.aud.ac.in, rbala.16@stu.aud.ac.in

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दलित स्त्रीवाद मेरा कमराजाति के प्रश्न पर कबीर

अमेजन पर ऑनलाइन महिषासुर,बहुजन साहित्य,पेरियार के प्रतिनिधि विचार और चिंतन के जनसरोकार सहित अन्य 

सभी  किताबें  उपलब्ध हैं. फ्लिपकार्ट पर भी सारी किताबें उपलब्ध हैं.

दलित स्त्रीवाद किताब 'द मार्जिनलाइज्ड'से खरीदने पर विद्यार्थियों के लिए 200 रूपये में उपलब्ध कराई जायेगी.विद्यार्थियों को अपने शिक्षण संस्थान के आईकार्ड की कॉपी आर्डर के साथ उपलब्ध करानी होगी. अन्य किताबें भी 'द मार्जिनलाइज्ड'से संपर्क कर खरीदी जा सकती हैं. 

संपर्क: राजीव सुमन: 9650164016,themarginalisedpublication@gmail.com

नाम जोती था मगर वे ज्वालामुखी थे

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महात्मा जोतीबा  फुले की जयंती  (11 अप्रैल ) पर विशेष.... 

मनीषा बांगर और डा. जयंत चंद्रपाल 

इनका जीवनक्रम ज्योति था बिलकुलज्योति की तरह अन्धकार को विलय करनेवाला ..  पर उनके कवन ज्वाला मुखी थे | इसीलिए उनका जीवनक्रम तो महत्वपूर्ण है ही मगर उससे ज्यादा महत्वपूर्ण है उनके कवन... उनके विचार... |उनका जीवन हमारे लिए श्रद्धा और आस्था का विषय बन सकता है तो उनके कवन हमारे लिए दर्शन और संकल्प का विषय बन सकता है | वैसे भी हमें हमारे मार्गदर्शक डी के खापर्डे साब ऐसा कहा करते थे कि व्यक्ति से ज्यादा महत्वपूर्ण उनके विचार होते है; जब तक सांस चलती रहती है जीवन चलता रहता है; सांस रुक जाती है जीवन समाप्त हो जाता है मगर जब तक उनके विचार जिन्दा रहते है तब तक व्यक्ति जिन्दा रहता है |

क्या है जोतीराव फुले के कवन...?
क्या है उनकी विचारधारा...?  और
क्या है उनका सामाजिक क्रांतीवाद...?
जो ज्योति को ज्वालामुखी में बदल देता है |
जोतीराव के सामाजिक क्रांतीवाद की रूपरेखा अत्यंत स्पष्ट थी...


उनका सामाजिक क्रांतिवाद सबसे पहले दुश्मन की सहीसही पहचान करता है और फिर उनसे निपटने के उपाय बताता है | अगर एक लाइन में कहा जाय तो  उनके  सामाजिक क्रांतिवाद का प्रारंभ होता है “शूद्र -अतिशूद्र बनाम शेठजी भटजी” संकल्पना से. यह महात्मा बुद्ध  की “बहुजन हिताय बहुजन सुखाय” की संकल्पना का पुनरुत्थान है |

सावित्रीबाई फुले : शैक्षिक –सामाजिक क्रान्ति की अगुआ

जोतीराव यहाँ पर नहीं रुकते. शुद्र-अतिशूद्र बनाम शेठजीभटजी” संकल्पना से प्रारंभ करते है और आगे कहते है की यह आर्य इरानी भट्ट बाहर से आये है | यहाँ पर वे “शूद्र -अतिशूद्र बनाम शेठजी भटजी” की संकल्पना को विकसित करते है “मूलनिवासी बनाम विदेशी” के नारे से |

यहाँ पर वे स्पष्टरूप से कहते हैं कि  यह जो भटजी (शेठजी भटजी) है वह आपके दुश्मन है और वे इस देश के मूलनिवासी नहीं है वे विदेशी है और बाहर से आये है... वे आर्य है और इरान अर्थात मध्य एशिया से आये हैं | इन्होने आपको न केवल राजनितिक या आर्थिक गुलाम बनाया है बल्कि सांस्कृतिक एवं मानसिकरूप से भी गुलाम बनाया है |

जोतीराव के विचारदर्शन का महत्वपूर्ण पहलू यह भी है कि वे सामाजिक ध्रुवीकरण पर बल देते हैं,  इसीलिए तो वे  शूद्र-अतिशूद्र , जो आजके समय के SC-ST-OBC और कुछ मध्यवर्ती जातियां उनके आपसी भाईचारे के आधार पर मूलनिवासियो के बहुजन समाज की संकल्पना रखते है , और इन्ही से राष्ट्र निर्माण का काम होगा यह संदेश देते है | इसीलिए तो वे कहते है कि “हजारो जातियों में बंटे लोग एक राष्ट्र कैसे हो सकते है” अर्थात अगर आप राष्ट्र निर्माण करना चाहते हो तो फिर तो आपको इन जातियों को तोडना होगा और  जातियो को शेठजी भटजी तोड़ेंगे यह मानना बेवकूफी होगी |


जो लोग जाति विभाजन के आधार पर जिन्दा है और आपके मालिक बने बैठे है वह जातियों को तोड़ेंगे ऐसा मानना एक छलावा है | इसीलिए जातियों को तोड़ने के लिए शूद्र अतिशुद्रो में भाईचारा का निर्माण कर उनका एक समाज निर्माण करना ही उपाय है | उनकी यह विचारधारा उनके द्वारा लिखित/निर्मित साहित्य से सम्पूर्ण स्पष्ट होती है |

महात्मा फुले का क्रांतिकारी स्त्रीवाद

तृतीय रत्न (1855) इस नाटिका में ब्राह्मणों की प्रतीकात्मक सता को चुनौती देते हुए  मनोवैज्ञानिक भय के आधार पर ब्राह्मण किस तरह से शोषण का जाल रचता है उस प्रक्रिया को स्पष्ट स्वरुप देते है |  कुनबी दंपति और धूर्त ब्राह्मण के संवादों के माध्यम से ब्राह्मणों की चालाकी को उजागर करने है  और यह भी स्पष्ट करते हैं  कि

अंग्रेजो के आने से नए ज्ञानतंत्र का विकास जरूर हुआ है पर फिर भी कैसे ब्राह्मण नयी स्थितियों  में भी अपने ज्ञान या सूचनाओं का इस्तेमाल शूद्र  अतिशुद्रो को मुर्ख बनाकर ठगने के लिए करता है |  अंग्रेजो के नए बनाए प्रशासनतंत्र में भी ब्राह्मणों ने अपना जाल बना लिया है और वहां बैठकर वे ब्राह्मणवादी चालबाजियो से एक परंपरागत शोषण और पाखंड का शोषण कर रहे है |

विद्रोह की मशाल है सावित्रीबाई फुले की कविताएं

'ब्राह्मणा चे कसब अर्थात ब्राह्मणों की चतुराई (1869)', बीस पन्ने की इस लघुकिताब में वे कहते हैं कि शूद्र  जातियों में आज भी पुरोहितगिरी प्रकोप चलता है और उनके घरो में आज भी बाजीराव पेशवा के जमाने की पुरोहितगिरी राज कर रही है | किस तरह ब्राह्मण सदियों से शास्त्र, ग्रह, नक्षत्र एवं ज्योतिष के आधार पर पुरोहितगिरी के हथकंडे अपनाते है और  शुद्र अतिशूद्रो का शोषण करते है |  इस लघुपुस्तिका में इस बात का वर्णन करते हैं  कि   किस तरह ब्राह्मण ग्रह और नक्षत्रो का भय दिखाकर शूद्रअतिशूद्रो को दुविधा में डाल कर डराते है; और  जब भय के मारे शुद्र अतिशूद्र की मति मारी जाति है तो कैसे वे शस्त्र एवं ज्योतिष का सहारा लेकर चतुरायपूर्ण उपाय बताते हुए ब्रह्मभोज, जप, तप, यज्ञ और ग्रहशांति के नाम पर लुटने खसोटने का काम करते है | इस तरह वे शूद्र अतिशूद्रों को बर्बाद करने की उनकी जालसाजी का पर्दाफाश करते है

शिवाजी का पोवाडा (जून-1969)  यह वीरगाथा के रूप में एक महाकाव्य है |  इसमें वे शिवाजी के ओजस्वी एवं निर्भीक चरित्र का बहुत ही अनुपम वर्णन करते है | साथ साथ यह भी कहते हैं कि  कुनबी माली महार मातंग यह जातीय आरम्भ में शाषक जातियां थी वे शासन करते थे,  पर ब्राह्मणों की चालाकियो ने उन्हें शूद्र अतिशूद्र बना दिया और अधिकार वंचित करते हुए गुलाम बना दिया | इस पोवाडा में वे अपने आक्रामक एवं तर्कनिष्ठ शैली से
ब्रह्मा द्वारा चार वर्णों की उत्पति की कठोर आलोचना भी करते हैं | इस रचना में शिवाजी के गौरव गान के जरिये उन्ही जातियों को अपने गौरवशाली अतीत की पहचान कराते हुए उन्हें याद करने की प्रेरणा दी गई है |  इसी  जून १९६९ में उन्होंने एक और पोवाडा भी रचा था शिक्षा विभाग के ब्राह्मण अध्यापक का |


1973 में जोतीराव की सबसे महत्वपूर्ण रचना “गुलामगिरी” प्रसिद्ध होती है | अब ज्योति से ज्वालामुखी होने का परिचय तो इस किताब की प्रस्तावना से ही मिल जाता है | प्रस्तावना में वे लिखते हैं कि  “ सैकड़ो  सालो से आज तक  शूद्र अतिशूद्रो समाज, जबसे इस देश में ब्राह्मणों की सत्ता कायम हुई तब से लगातार जुल्म और शोषण के शिकार है | ये लोग हर तरह की यातनाओं और कठिनाइयो में अपने दिन गुजार रहे हैं,  इसलिए इन लोगो को इन बातो की और ध्यान देना चाहिए और गंभीरता से सोचना चाहिए |  ये लोग अपने आपको ब्राह्मण पंडा पुरोहितों की जुल्म ज्यादतियों से कैसे मुक्त कर सकते हैं,  यही आज हमारे लिए महत्वपूर्ण सवाल है | यही इस ग्रन्थ का उद्देश्य भी है |

आक्रमक शैली में लिखे  गये इस ग्रंथ में गुलामी के मनोविज्ञान, यांत्रिकी और षड़यंत्र को उजागर किया गया है | पुरुष प्रधान समाज के पाखंड और जाति एवं लिंग के आधार पर किये जा रहे शोषन का मुद्दा भी उठाया गया है | उनका कहना है कि  धर्मशास्त्रों  की आज्ञाओ से उपजे भयो और प्रलोभनों पर कड़ी गुलामी की यह इमारत अपने आप में विशुद्ध भारतीय घटना है | जोतीबा  इन भयों और लोभ लालच की जाँच पड़ताल करते है और बतलाते है कि  यह सब किसलिए और किन लोगों  ने रचा है |

“गुलामगिरी” ग्रंथ शूद्रों  को उनके वास्तविक इतिहासका ज्ञान भी करता है |  इसमें यह भी बताया गया है कि .षड्यंत्रकारी शास्त्रकारो ने किस तरह गोल मोल पुराण कथाओ में खुद के षड्यंत्रों को देवी देवताओ के किस्सों में लपेटा है और बाद में उन्ही किस्सों को घटनाओ का स्वरुप देते हुए त्योहारों और अनुष्ठानो से जोड़कर लोगो के मन में गहराई तक उतार दिया है ताकी किसी अच्छे से अच्छे पढ़े लिखे व्यक्ति के मन में भी उन मान्यताओ के बारे में कोई प्रश्न ही पैदा ना हो

सावित्रीबाई फुले-स्त्री संघर्षो की मिसाल

यह बिलकुल स्वाभाविक लगता है की.. डॉ अम्बेडकर कीकिताब “शूद्रो की उत्पति” का आधार “गुलामगिरी” ही रही होगी ।  और  इसी लिए ही तो 25 अक्तूबर 1954 को पुरंदरे स्टेडियम की जहाँ बाबासाहब का हीरक महोत्सव मनाया गया था;  वहां बाबा साहब ने कहा की मेरे तिन गुरु है ... बुद्ध, कबीर और जोतिबा फुले .... इस तरहा जोतीराव का स्थान बाबासाहब के जीवन मे गुरुवर्य का था

1983 में उनकी किताब आती है किसान का कोड़ा; यह किताब  जोतीराव फुले के आर्थिक दर्शन को स्पष्ट करती है |  पेशवाई में किसान वह वर्ग था जो सामाजिक आर्थिक एवं धार्मिक हर तरह से सताया हुआ था |  इनके प्रति जोतिबा की संवेदना स्फुट ना हो ऐसा तो हो ही नहीं सकता |  इस किताब की प्रस्तावना में ही जोतीबा लिखते हैं, “शूद्र किसान के इस दयनीय एवं दीन अवस्था के धार्मिक एवं राज्य सम्बन्धी कई कारण है | उन तमाम कारणों में से कुछ कारणों का विश्लेषण करने के उद्देश से ही मैंने इस ग्रंथ को लिखा है | जोतिबा किसानो के इस शोषण के सन्दर्भ में कहते है के “ दुनिया के तमाम देशो के इतिहास की एक दुसरे से तुलना करने से यह निश्चित रूप से दिखाई देता है कि इस देश के अज्ञानी, अनपढ़, भोलेभाले शुद्र किसानो की स्थिति अन्य देशो के किसानो से भी बदतर है | पशु से भी बुरी स्थिति में पहुंची है |


सरकारी तंत्र में पनप रहे ब्राह्मणवाद को पहचानते हुएऔर उसको बेनकाब करते हुए लिखते हैं कि “सरकारी विभागों में ब्राह्मण कर्मचारियो का वर्चस्व  होने की वजह से वे अज्ञानी किसानो को इस तरह से फांसते है की उनके पास अपने नन्हे मुन्हें बच्चो को स्कूल में दाखिला देने के लिए तक के साधन नहीं बचता |अगर किसीके पास कुछ साधन बच भी गये  तो पंडो की गलत सलाह की वजह से आपने बच्चो का स्कूल में दाखिला नहीं कराते |” उनके द्वारा साहित्य निर्माण का कार्य निरंतर चलता रहता है ।

1885 में उनकी कई किताबें प्रसिद्ध होती है जिनमे मुख्य है सतसार भाग – 1 और 2, जो कि महिलाओं के अधिकारों को ध्यान में रखकर लिखी गई थी एक तरफ वे ब्राह्मणवादी शास्त्रों पर धावा बोलते है तो दूसरी तरफ पंडिता रमाबाई का समर्थन कर खलबली मचा देते है |  सतसार दो में भी पंडिता रमाबाई प्रकरण को एक सन्दर्भ की तरह उपयोग करते हुए वे समाज के स्त्री विरोधी मानस का आलोचनात्मक मूल्यांकन करते है | इशारा नाम से प्रसिद्ध उनकी किताब में उन्होंने कैसे जातियों का असंतुलन समूचे देश के विकास को प्रभावित करता है इस बात को उजागर किया है |  1985 में ही उनकी किताब 'अछूतों की कैफियत'तैयार हो चुकी थी मगर वे प्रसिद्ध नहीं कर पाए |

उन्होंने अपनी आखिरी रचना  “सार्वजनिक सत्य धर्म” लिखा और उसको 1891 में प्रसिद्ध किया गया | इस पुस्तक में उन्होंने  समता मूलक समाज का निर्माण करने के लिए ३३ नियम बनाए यह नियम नैतिकता, समानता, अधिकार, स्वतंत्रता सहित तर्कशीलता के आयामों को तो स्थान दिया ही जाता है इसके साथ साथ एक अनुसासन के भी बात मुख्यरूप से रखी गई है | बाबासाहब की २२ प्रतिज्ञा और जोतीबा के इस तैतीस नियम बहुत ही क्रांतिकारी नजर आते है |

और इस तरह यही उनके क्रांतिकारी कवन,  यही उनकी क्रांतिकारी विचारधारा,  यही उनका सामाजिक क्रान्तिवाद उन्हें नाम से ज्योति पर कार्य एवं विचार से ज्वाला मुखी बना देते है ।*

संदर्भ:

आधुनिक सामाजिक क्रांति के पितामह महात्मा जोतीराव फुले_
लेखक - डी के खापर्डे

_युगपुरुष महात्मा जोतीराव फुले_
लेखक - मुरलीधर जगताप

_जोतिबा फुले - जीवन और विचार_
लेखक - संजय  जोठे

मनीषा  बहुजन विचारक और सामाजिक कार्यकर्ता हैं. बामसेफ की राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हैं. डा. जयंत चन्द्रपाल बहुजन विचारक और सामाजिक कार्यकर्ता हैं. 
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दलित स्त्रीवाद मेरा कमराजाति के प्रश्न पर कबीर

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दलित स्त्रीवाद किताब 'द मार्जिनलाइज्ड'से खरीदने पर विद्यार्थियों के लिए 200 रूपये में उपलब्ध कराई जायेगी.विद्यार्थियों को अपने शिक्षण संस्थान के आईकार्ड की कॉपी आर्डर के साथ उपलब्ध करानी होगी. अन्य किताबें भी 'द मार्जिनलाइज्ड'से संपर्क कर खरीदी जा सकती हैं. 

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सावित्री हमारी अगर माई न होती

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जोतीबा  फुलेकी जयंती  (11 अप्रैल) पर उन्हें और सावित्रीबाई  फुलेको याद करते हुए  बाल गंगाधर “बागी” की कविता पढ़ते है. 

क्रांति ज्योति सावित्रीबाई फुले
सावित्री हमारी अगर माई न होती
तो अपनी कभी भी पढ़ाई न होती
जानवर सा भटकता मैं इंसान होकर
ज्योति शिक्षा अगर तूं थमाई न होती

ये देह माँ ने दिया पर सांस तेरी रही
ये दिया ही न जलता, गर तूं बाती न होती
किसकी अंगुली पकड़, चलता मैं दिन ब दिन
गर तूं शिक्षा की सरगम सुनाई न होती

गीत हम गा रहे हैं जो खुशी के लिये
ये ज़ुबां ही न खूलता, गर तूं आयी न होती
कौन कहता ये एहसान नहीं भूलना
नारी विधवा दलित गर उठाई न होती

अनपढ़ बेढंगी यह दुनिया समझती
ज्ञान का बिगुल गर बजाई न होती
अछूतों का कोई नामों निशां न होता
तोड़ी जातियो की अगर कलाई न होती

बरसता मजलूमों के आँखॊं से सावन
गोद में ले अगर माँ हँसाई न होती
कौन जलते हमारे बदन को बचाता
धूप में छाँव बन गर तू छाई न होती

ज़ुल्म से बचाती क्या आँचल में ढँक के
ज़ालिमों पर अगर माँ सवाई न होती
मर्तबा आसमां से न बड़ा उसका होता
जाति खाई से हमें गर उठाई न होती

क्या तेरे ऊपर लिखूं,मैं तो कुर्बान हूँ
ये कलम गर हमारी, तुम्हारी न होती
पहनाता क्या आँसू की माला तुम्हें
माँ दौलत अगर ये तुम्हारी न होती

मैं न होता मेरा कोई,अफ़साना क्या
मेरी तहरीर गर मेरी माई न होती
कौन माँ सी निगहबां यहाँ सोचता
तू कलम की, अगर माँ सिपाही न होती

जख्म पर कौन ममता का मरहम लगाता
डाक्टर बन अगर की दवाई न होती
न शादी विधवाओं का होता कभी
केशवपन को अगर तूं मिटाई न होती

कोई आलिम न होता जहाँ में यहाँ
माँ सबक गर यह सबको पढ़ाई न होती
समता शिक्षा का तूफान चलता भी क्या
‘बागी’ फूले संग लड़ी गर लड़ाई न होती

सम्मति : क्रांतिकारी कवि बागी को जब भी मौका मिले सुनिये और उनकी किताब “आकाश नीला है” को पढिये । दलित कविता को इस नयी पीढ़ी के कवि ने वो धार और लोकप्रियता दी है जो पहले हिन्दी दलित कविता की  पहचान नहीँ थी...बधाई बागी जी.... प्रो. सूरज बडत्या

सावित्रीबाई फुले : शैक्षिक –सामाजिक क्रान्ति की अगुआ

बाल गंगाधर “बागी”
शोध छात्र-  जे एन यू,  नई दिल्ली
फोन न. 09718976402……… Email.    balgangadhar305@gmail.com

स्त्रीकाल का संचालन 'द मार्जिनलाइज्ड' , ऐन इंस्टिट्यूट  फॉर  अल्टरनेटिव  रिसर्च  एंड  मीडिया  स्टडीज  के द्वारा होता  है .  इसके प्रकशन विभाग  द्वारा  प्रकाशित  किताबें  ऑनलाइन  खरीदें : 

दलित स्त्रीवाद मेरा कमराजाति के प्रश्न पर कबीर

अमेजन पर ऑनलाइन महिषासुर,बहुजन साहित्य,पेरियार के प्रतिनिधि विचार और चिंतन के जनसरोकार सहित अन्य 
सभी  किताबें  उपलब्ध हैं. फ्लिपकार्ट पर भी सारी किताबें उपलब्ध हैं.

दलित स्त्रीवाद किताब 'द मार्जिनलाइज्ड'से खरीदने पर विद्यार्थियों के लिए 200 रूपये में उपलब्ध कराई जायेगी.विद्यार्थियों को अपने शिक्षण संस्थान के आईकार्ड की कॉपी आर्डर के साथ उपलब्ध करानी होगी. अन्य किताबें भी 'द मार्जिनलाइज्ड'से संपर्क कर खरीदी जा सकती हैं. 
संपर्क: राजीव सुमन: 9650164016,themarginalisedpublication@gmail.com 

तुम मेरे साथ रहो मेंरे कातिल मेरे दिलदार

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निवेदिता
पेशे से पत्रकार. सामाजिक सांस्कृतिक आंदोलनों में भी सक्रिय .एक कविता संग्रह ‘ जख्म जितने थे’. भी दर्ज कराई है. सम्पर्क : niveditashakeel@gamai

मेरे लिये प्रेम उतना ही सहज हैजितना धूप, बारिश ,बादल, पानी. प्रेम तो घटा की तरह उमड़ कर आता है, आप भीतर तक भीग जायें. बारिश की झिर-झिर जैसे सुनायी देती है प्रेम आपके भीतर वैसे ही बजता है. मैंने हर दिन प्रेम किया है. मुझे राम रधुराई के सांवले रंग से प्यार है. मुझे कामदेव से प्यार है. जिनकी वजह से पूरी कायनात मुहब्बत में गिरफ्तार है. जब आपको लगे दरख्त झुककर बेलों पर छा गए, नदियां समंदर में जा मिलीं,, जल , थल एक  हुए, कोकिल की आवाज खुद मुहब्बत की आवाज बन गई. तो यकीनन आप प्रेम में हैं. प्रेम यही तो है. जो आपको यकीन दिलाये कि आप जिंदा कौम है.

अगर आप मनुष्य हैं तो प्रेम तो होगाही. क्या कोई प्रेम विहीन दुनिया में जी सकता है? मनुष्य होने की पहली शर्त प्रेम ही है. इस देश के संविधान ने भी दो वालिग लोगों को प्रेम करने, अपने प्रेम के साथ रहने और जीने की आजादी दी है. फिर क्या वजह है कि आज हमारे देश में प्रेम के विरुद्ध अभियान चलाया जा रहा है. प्रेम को अपराध की तरह देखा जा रहा है. कौन लोग हैं,जो प्रेम को हिंसा में बदलने की साजिश कर रहे हैं. कौन लोग है जो प्रेम को हिंसक और बदबूदार विचारों की आग में जला देना चाहते हैं.

जब जरा गरदन झुका ली देख ली तस्वीरें यार

प्रेम का जादू एक ऐसा विविधतापूर्ण कथानक है ,जिसे कितने ही स्वरों में गाया जा सकता है. और हर एक आदमी का प्रेम दूसरे आदमी के प्रेम से उतना ही अलग होगा जितने संगीत के दो स्वर. प्रेम का यह स्वर हर युग में हम सुनते रहे हैं. सोहनी-महीवाल,हीर-रांझा,शीरीं-फरहाद,लैला-मजनू,सस्सी-पुन्नु और मिर्जा गालिब-जैसे प्रेमी युगल सदियों से हमारे देश के जनमानस में रचे बसे हैं, जिनका प्रेम सांस्कृतिक प्रतीकों में बदल गया जिसे ना तो सामाजिक निषेध  दुनियाबी रस्मों-रिवाज छू पाते हैं. उसी देश में प्रेम एक अपराध है. उसी देश में प्रेम को लव जेहाद कहा जा रहा है. उसी देश में प्रेमियों पर पहरा बिठाया जा रहा है. जिस रोमियों को इतिहास में हम प्रेम के लिए मर मिटने के लिए जानते है उसे हमारी सत्ता प्रेम पर पहरा बिठाने के लिए इस्तेमाल कर रही है. ये हमारी सभ्यता और इतिहास के साथ बलात्कार है. जो लोग प्रेम के विरुद्ध खड़े हैं वे भाषा,जाति, धर्म, सम्प्रदाय, लिंग विभेद के साथ खड़े हैं. जब आप किसी से प्रेम करते हैं तो उस समय सारी दिवारें टूट जाती हैं. प्रेम करने का मतलब है एक -दूसरे के लिए सर झुकाना. एक-दूसरे की खुशी  में शामिल होना. महान नाटककार कामू कहते हैं- प्यार तो धीरे-धीरे सर झुका देता है. जिनकी गर्दन अकड़ी हुई हो, सिर उठा हुआ हो, आंखें जमी हुई हों उनके अभिमानी दिल में प्यार क्या करेगा?

रक्त शुद्धता, स्त्री दासता और लव जेहाद

महान नर्तकी  इजाडोरा कहती है.- कितनाअजीब और परेशानी भरा है एक मनुष्य के हाड़-मांस के माध्यम से उसकी आत्मा तक पहुंचना. हांड, मांस के आवरण के जरिये आंनद,उत्तेजना और मोह को तलाशना. सबसे बढ़कर इस आवरण के जरिये उस चीज को तलाशना, जिसे लोग खुशी कहते हैं-और उस चीज को , जिसे लोग प्रेम कहते हैं. प्रेम दरअसल तमाम सत्ता को चुनौति देता है. इसलिए प्रेम उनलोगों के लिए खतरा है जो अपनी अपनी सत्ता बनाये रखना चाहते हैं. जब आप प्रेम करते हैं तो वे तमाम दीवारें दरकती हैं जिन्हें धर्म ने समाज के ठेकेदारों ने अपने फायदे के लिये बनाया. सबसे पहले घर की जंजीरे टूटती हैं. यही वजह है जब यूपी में प्रेम पर पहरा बिठाया गया तो मां, बाप खुश हुए. क्या हम ऐसा माहौल नहीं बना सकते जहां हमारी नयी पीढ़ी खुली हवा में सांस लें. वे जान सके की प्रेम का सही मतलब  होता है. एक जिम्मेदार प्रेमी होना. पर कुछ लोग प्रेम को अपराध साबित करने में लगे हैं. इसलिए अब यूपी के शिक्षण संस्थानों में पुलिस सादे वेश में पहरा देगी. ये पहरा सिर्फ प्रेम पर नहीं है. ये पहरा हमारे खान, पान, पहने, ओढ़ने, सोचने, विचारने और बोलने -लिखने पर भी है. यह संयोग नहीं है कि जब कोई लड़की कविता लिखती है तो उसे बलात्कार की धमकी दी जाती है. जब प्रेम में रहती है तो उसपर हमला किया जाता है.


हमारा समाज स्त्री को एक माल कीतरह देखता है. उसे लगता है कि किसी कौम, समुदाय या व्यक्ति से बदला लेने का यह तरीका सबसे कारगर है कि एक स्त्री के साथ बलात्कार कर दिया जाय. स्त्री गुलाम है, भोगने की वस्तु है इसलिए उसपर हमला परिवार के पौरुष पर हमला है. इतने हिंसक और धृणा के इस वातावरण में मुझे लगता है प्रेम ही है जो हमें बचा सकता है. प्रेम ही है जो हमें मनुष्य बने रहने में मददगार हो सकता है. मेरी उम्मीद नयी पीढ़ी है. मैं यकीन के साथ कह सकती हूं कि ये पीढ़ी प्रेम के पक्ष में रहेगी. ये पीढ़ी सारी वर्जनाओं के विरुद्ध खड़ी होगी. मैं फैज की तरह कहना चाहती हूं अपनी नयी पीढ़ी से-तुम मेरे साथ रहो मेंरे कातिल मेरे दिलदार.

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दलित स्त्रीवाद मेरा कमराजाति के प्रश्न पर कबीर

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निडरता की ओर छोटी-सी यात्रा

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डॉ. आरती  
संपादक , समय के साखी ( साहित्यिक पत्रिका ) संपर्क :samaysakhi@gmail.com

अनुभव बटोरने के लिए दुनियाभर के लेखकों द्वारा की गई यात्राओं के अनेक किस्से हैं। उस लिहाज से अपने गृह राज्य से हजार-दो हजार किलोमीटर दूर की यात्रा करना कोई उल्लेखनीय बात नहीं होती। वो भी आज के सुख-सुविधापूर्ण यातायात के साधनों के जमाने में तो हर्गिज नहीं। लेकिन जब कर्फ्यू लगता है तो लोग अपने पड़ोस के घर तक जाने का जोखिम मोल नहीं लेते। तब इंसानियत के लिए, हाथों में हाथ लेकर निडरता से दस कदम चलना भी एक चुनौती होती है। जब एक लेखक या कलाकार की अभिव्यक्ति पर पहरे बिठा दिये जाएँ, उसे निर्देशित किया जाए कि वो सिफ वही लिखे जो सत्ता को पसंद आता हो, तब विवेक से सत्ता को अप्रिय लगने वाला सच लिखना तो बड़ी बात है ही। बर्टोल्ट ब्रेष्ट ने लिखा था -
क्या अँधेरे वक्त में भी गीत गाए जाएँगे
हाँ, अँधेरे वक्त में भी
अँधेरे के बारे में गीत गाए जाएँगे।

जो बोलने और लिखने के लिए वेलेखक शहीद हुए, जो वे लिखना और बोलना सही और जरूरी समझते थे, उनके विचारों के साथ और उनके परिजनों-साथियों के साथ एकजुटता दर्शाने के लिए, मध्यप्रदेश प्रगतिशील लेखक संघ ने अपने पड़ोसी राज्यों महाराष्ट्र और कर्नाटक की यात्रा का कार्यक्रम बनाया। ये एक छोटा-सा कदम ही था लेकिन इसने बहुत सारे अनुभव दिये और हौसलों को मजबूत किया। इन्हीं राज्यों में पिछले चार वर्षों में हमारे तीन बड़े लेखक, विचारक और आंदोलनकारी शहीद हुए। उनके कायर-हत्यारे नाकारा सरकारों की ढील की वजह से अब तक खुले घूम रहे हैं और शेष समाज के लिए खतरा बने हुए हैं। सच और सच की तलाश की लड़ाई में डाॅ. नरेन्द्र दाभोलकर, काॅमरेड गोविंद पानसरे और प्रो. एम. एम. कलबुर्गी ने अपनी शहादत दी है और उनके परिवारजन तथा साथी न्याय के लिए सब्र के साथ वर्षों से लड़ रहे हैं। केवल उनके लिए न्याय नहीं, इस पूरे समाज के लिए और एक तर्कशील विचारवंत समाज की स्थापना के लिए भी न्याय।

हम सोचकर निकले थे कि उनकीलड़ाई में अपनी आवाज मिलाकर आएँगे। हम सोचकर निकले थे कि सच्चाई के लिए उठते नारों की बँधी मुट्ठियों में अपनी मुट्ठी भी लहराकर आएँगे। हम सोचकर निकले थे कि नजदीक से चीजों को जानकर आएँगे। लेकिन जब हम पहुँचे और जिस तरह लोगों ने तमाम शहरों में जो इज़्ज़त और प्यार दिया, जो भरोसा दिखाया, उससे लगा कि हमने कोई बड़ी जिम्मेदारी ले ली है जो सिर्फ़ इस यात्रा के साथ समाप्त नहीं होगी।

लिखने, बोलने और अहिंसात्मक प्रतिरोध करने, लोगों में तर्कशीलता एवं विवेक के इस्तेमाल की समझाने की प्रवृत्ति को जगाने के प्रयासों में लगे, देश के तीन प्रबुद्ध चिंतक, समाजसेवी और लेखकों की पिछले वर्षों में लगातार उग्र और कट्टरपंथियों द्वारा हत्याएँ की गईं। महाराष्ट्र में तर्क और विवेक पर आधारित कार्य करतेे हुए लोगों को बरगलाने वाले ढोंगी बाबाओं का प्रतिरोध करने की वजह से डाॅ. नरेन्द्र दाभोलकर की 20 अगस्त, 2013 में गोली मारकर हत्या की गई। इसी प्रकार विख्यात सीपीआई नेता और समाजसेवी काॅमरेड गोविंद पानसरे और उनकी पत्नी काॅमरेड उमा पानसरे को भी कट्टरपंथियों ने अपनी बंदूक का निशाना बनाया। फलस्वरूप काॅमरेड गोविंद पानसरे की 20 फरवरी, 2015 को मृत्यु हो गई और काॅमरेड उमा अभी तक पूरी तरह स्वस्थ नहीं हो सकी हैं। उन्हें भी सिर में गोली लगी थी। कर्नाटक के विख्यात लेखक और 2006 में साहित्य अकादमी सम्मान से नवाजे गए प्रो. एम.एम. कलबुर्गी की उनके घर में घुसकर हत्या की गई। विवेकशील विचारों को समाप्त कर देने के लिए की गई ये हत्याएँ बेहद चिंतनीय हैं लेकिन उससे भी ज़्यादा खतरनाक है सरकारों का लगभग उदासीन रवैया। हालाँकि प्रतिक्रियास्वरूप पिछले चार वर्षों में भारतीय जागरूक जनमानस के बीच इसकी तीखी आलोचना हुई। अनेक लेखकों, पत्रकारों, संस्कृतिकर्मियों, समाजविदों और वैज्ञानिकों ने अपने सम्मानों को लौटाकर, लेख, कविताएँ लिखकर और सड़कों पर उतरकर हत्यारों के न पकड़े जाने को लेकर प्रतिरोध दर्ज किया।

इसी क्रम में ‘मध्य प्रदेश प्रगतिशील लेखक संघ’ ने ग्यारह चयनित सदस्यों का दल बनाकर इन लेखकों के विचारों पर हुए कट्टरवादी हमले और अब तक इनके हत्यारों के पकड़े न जाने की न्यायिक शिथिलता के प्रति अपना असंतोष व लेखक परिवारों और उनके साथ न्यायिक लड़ाई लड़ रहे, उनके सहयोगियों के प्रति अपनी एकजुटता जाहिर करने के लिए शहीद लेखकों के गृहनगरों की यात्रा का आठ दिवसीय कार्यक्रम बनाया। यह कार्यक्रम इस तरह नियोजित किया गया कि इसमें हम इन लेखकों के परिजनों से भेंट के साथ-साथ ऐसे मोर्चों और व्यक्तियों से मिलने का अवसर भी पा सकें जो जनसंघर्षों में या किसी न किसी तरह सृजनात्मक तरह से एक बेहतर मानवीय संस्कृति के निर्माण की कोशिशों में जुटे हुए हैं।


14 फरवरी, 2017 से प्रारंभ यह दल पुणे से सतारा, गोवा, धारवाड़ और कोल्हापुर होते हुए स्थितियों को नजदीक से परखते, समझते, विश्लेषण करते हुए 21फरवरी को वापस आया। इस दल में प्रलेस के प्रांतीय अध्यक्ष राजेन्द्र शर्मा (भोपाल), प्रांतीय महासचिव और राष्ट्रीय सचिव मंडल सदस्य विनीत तिवारी (इंदौर), प्रांतीय कार्यकारी दल सदस्य हरनाम सिंह चांदवानी (वरिष्ठ पत्रकार, मंदसौर), सुसंस्कृति परिहार (प्रांतीय सचिव मंडल सदस्य, दमोह), तरुण गुहा नियोगी (प्रांतीय सचिव मंडल सदस्य, जबलपुर), हरिओम राजोरिया (प्रांतीय अध्यक्ष मंडल सदस्य, अशोकनगर), सीमा राजोरिया (प्रलेस सदस्य व भारतीय जन नाट्य संघ, इप्टा अशोक नगर), दिनेश भट्ट (प्रांतीय सचिव मंडल सदस्य, छिंदवाड़ा), शिवशंकर शुक्ल ‘सरस’ (प्रांतीय सचिव मंडल सदस्य, सीधी), बाबूलाल दाहिया (प्रांतीय सचिव मंडल सदस्य, सतना) एवं आरती (प्रलेस सदस्य, भोपाल) शामिल हुए।

म.प्र. प्रलेस के ये सभी पदाधिकारीऔर सदस्य अलग-अलग जिलों से पुणे में 14 फरवरी को इकट्ठे हुए। इकट्ठे होने की जगह रेलवे स्टेषन भी हो सकती थी लेकिन तय की गई जगह थी महाराष्ट्र की ही नहीं देश भर की प्रमुख अर्थशास्त्री, आंदोलनकारी और विचारवंत लेखिका और हाल ही में दिवंगत डाॅ. सुलभा ब्रह्मे द्वारा बनाई ‘लोकायत’ नामक संस्था का कार्यालय। वहाँ पुणे के ही एक अन्य सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता अमित नारकर ने हमें ‘लोकायत’ संस्था के कार्यों व संगठन की जानकारी दी। शुरुआत से ही हमारा समूह खामोशी से एक अध्ययन दल में बदल गया। लोकायत के कार्यों को जानते और सुलभा ब्रह्मे जी के बारे में जानते-समझते ये एहसास भी हुआ कि ऐसे ज़रूरी लोगों के बारे में भी हम कितना कुछ नहीं या न के बराबर ही जानते हैं। ये ख्याल भी आया कि दाभोलकर, पानसरे और कलबुर्गी के बारे में भी हिंदी का संसार आमतौर पर तब तक नहीं ही जानता था जब तक कि वे शहीद हो जाने की वजह से सभी जगह चर्चित नहीं हो गए।

‘लोकायत’ से हम पुणे के करीब 50 कि.मी. दूर ‘तलेगांव दाभाड़े’ में विदुर महाजन (लेखक और सितार वादक) एवं उनकी पत्नी अपर्णा महाजन (अंग्रेजी की प्राध्यापिका) के बहुत ही कलात्मक और प्राकृतिक खूबसूरती से आच्छादित ‘मैत्रबन’ (यानी ‘दोस्तों के घर’) पहुँचे। पहाड़ी की तलहटी में बने इस मैत्रबन के बनने की कहानी से लेकर, उसका स्थापत्य, फर्नीचर, सैकड़ों पेड़-पौधे और पूरा माहौल ही एक अलग दुनिया का अहसास करवा रहा था। और सबसे खास तो अपर्णा और विदुर का वो सहज और गर्मजोश व्यवहार था, जिसे छूकर पेड़-पौधे और मिट्टी, पत्थर, लकड़ी सभी क़रीबी और पुराने परिचित लगने लगे थे। शाम को विदुर महाजन ने सितार वादन और सभी साथियों ने कविता-पाठ किया। इस स्थान का कोना-कोना, अनगिनत किस्मों के पेड़-पौधे, विदुर-अपर्णा महाजन के प्रकृति और कला प्रेम की कहानी खुलकर कहते हैं। विदुर ने शाम को अपने उस अभियान की भी जानकारी दी जिसमें वे शास्त्रीय संगीत को खास लोगों के दायरे से निकालकर उसे आम ग्रामीण लोगों से परिचित करवाने के लिए सैकड़ों गाँवों में साधारण जन के बीच सितार और शास्त्रीय संगीत लेकर गए जिनमें से अधिकांश ने जीवन में पहली बार ही सितार सुना था। उन्होंने दो एकड़ की उस आत्मीय जमीन के बीचोंबीच बना वह डोम भी बताया जिसमें करीब दो सप्ताह तक बंद रहकर उन्होंने अपनी एक पुस्तक पूरी की थी। विदुर की पारिवारिक पृष्ठभूमि संगीत या कला की नहीं थी लेकिन विदुर को शास्त्रीय संगीत में इतनी दीवानगी थी कि वो तलेगाँव से मुंबई तक संगीत विदुषी ख्यात गायिका किशोरी अमोनकर से संगीत सीखने के लिए अप-डाउन किया करते थे। विदुर ने कविताओं, दर्शन और संस्मरणों की किताबें मराठी में लिखी हैं और वे महाराष्ट्र साहित्य अकादमी से पुरस्कृत भी हुई हैं। रात तारों भरी थी और साथियों के साथ बातें करने की एक दूसरे को जानने की उत्कंठा से और 11 लोगों की चहल-पहल से आबाद मैत्रवन की वो रात अविस्मरणीय बन गई।


15 फरवरी यानी अगले दिन सुबहहमने अंतरराष्ट्रीय फिल्म एवं टेलीविजन संस्थान, पुणे में विद्यार्थियों से मुलाकात कर, संस्थान के अधिकारियों एवं शासन की रीतियों-नीतियों पर चर्चा की। ये वही संस्थान है जिसने भाजपा के सत्ता में आने के बाद कला, संस्कृति और शिक्षा के संस्थानों के संप्रदायीकरण और राजनीतिक नियुक्तियों के खिलाफ पूरे देश को जगाने वाली आवाज उठाई थी। वहाँ नाचीमुत्थु, रोहित, राॅबिन और अन्य विद्यार्थियों ने प्रलेस के दल को पूरे संस्थान का भ्रमण करवाया। प्रभात स्टूडियो, फिल्म एडिटिंग एवं लायब्रेरी, कैंटीन, हाॅस्टल आदि जगहों का विस्तार से परिचय दिया। इसके बाद पुणे की प्रलेस इकाई एवं अन्य संस्थाओं द्वारा साधना मीडिया सेंटर में चर्चा का आयोजन था। साधना समाचार पत्र करीब 6 दशकों पहले महाराष्ट्र के प्रसिद्ध समाज सुधारक ‘साने गुरूजी’ द्वारा आरंभ किया गया था और आज तक सतत यह वैज्ञानिक चेतना और समाजवादी विचारों के प्रसार में संलग्न है। इसमें म.प्र. प्रलेस द्वारा की जा रही यात्रा के उद्देश्य को पुणे के लेखकों, विचारकों, समाजसेवियों एवं पत्रकारों तथा अंधश्रृद्धा निर्मूलन समिति (अनिस) के कार्यकर्ताओं के बीच साझा किया गया। इस बैठक में 93 वर्षीय काॅमरेड शांता ताई रानाडे (वरिष्ठ सीपीआई नेता व गोविंद पानसरे की राजनीतिक सहयोगी, पिछले साठ सालों से राजनीतिक तथा वैचारिक मोर्चों पर सक्रिय), एस.पी. शुक्ला (वरिष्ठ विचारक, पूर्व सदस्य योजना आयोग, पूर्व वित्त एवं वाणिज्य सचिव), लता भिसे (भारतीय महिला फेडरेशन की राज्य नेत्री), मिलिंद देशमुख (अनिस कार्यकर्ता), नंदिनी जाधव (अनिस कार्यकर्ता), नीरज (लोकायत), अहमद शेख (थियेटर कलाकार), दीपक मस्के (अंबेडकरवादी विचारक और प्रलेस, पुणे), माओ भीमराव (प्रलेस, महाराष्ट्र) एवं अपर्णा, जहाँआरा, शैलजा, रुचि भल्ला, राधिका इंग्ले,सुनीता डागा के साथ ही अनिस, प्रलेस एवं थियेटर से जुड़े कई युवा भी उपस्थित थे। लेखिका राधिका इंग्ले तो देवास से अपने किसी अन्य कार्यक्रम में पुणे आई थीं। उन्हें दस्तक वाट्सअप समूह से इस बैठक की जानकारी मिली तो वे आ गईं। इसी तरह लेखिका रुचि भल्ला पुणे से 110 किमी दूर स्थित फलटण शहर से इस बैठक की जानकारी पाकर इस लोभ में भी आई थीं कि यहाँ उन्हें हिंदी सुनने को मिलेगी जो उन्होंने फलटण रहते 3 महीनों से नहीं सुनी थी। हमारे दल के वरिष्ठ साथी हरनाम सिंह जी ने म.प्र. प्रलेस के सांगठनिक ढांचे और कार्यों का विस्तृत परिचय दिया एवं कहानीकार दिनेश भट्ट ने यात्रा का उद्देश्य साझा किया। हरिओम राजोरिया एवं शिवशंकर शुक्ल ‘सरस’ ने कुछ कविताओं का पाठ भी किया। मराठी के कवियों का भी कवितापाठ हुआ। इस बैठक की विशेषता कट्टरवाद एवं अन्य सामाजिक मुद्दों पर हुई चर्चा थी। आज की परिस्थिति में फासीवाद ताकतों के खिलाफ सभी को एकजुट होकर उनका प्रतिकार करना चाहिए, यह समय की आवश्यकता है, इस बात पर सभी ने जोर दिया। एस. पी. शुक्ला ने हमें महाराष्ट्र की तर्कशील परंपरा और संत साहित्य के भीतर मौजूद रही मानवतावादी धारा का तथा काॅमरेड गोविंद पानसरे द्वारा शिवाजी को हिंदू राजा की चैखट से बाहर निकालने के तथा उनके व्यक्तिगत जीवन के मार्मिक प्रसंगों से संक्षेप में परिचित करवाया।

शाम को हम युवा फिल्म निर्देशकक्रांति कानाडे के घर गए। वहाँ उनकी बनाई और राष्ट्रपति पुरस्कार एवं कई राष्ट्रीय पुरस्कारों से नवाजी लघु फिल्म ‘चैत्र’ देखी। उल्लेखनीय बात ये कि उनके घर की पूरी बनावट इस तरह की गई है कि पूरे क्षेत्रफल का अधिकांश हिस्सा किसी भी सार्वजनिक किस्म के कार्यक्रम के लिए इस्तेमाल हो सकता है। क्रांति का कहना है कि जब सरकारें सार्वजनिक स्थलों पर कब्जा करती जा रही हैं और उन्हें निजी हाथों में सौंपा जा रहा है, साहित्य, नाटक, फिल्म आदि करने के लिए सभी जगहें या तो बहुत महँगी कर दी गई हैं या फिर सरकारी विचारधारा के अनुकूल होने की शर्त उन पर जड़ दी गई है तो उन जगहों को वापस हासिल करने के लिए लड़ना तो होगा ही, साथ ही हममें से जिनके पास भी जगहें हैं, उन्हें आगे आना होगा और अपने निजी आकाश में सार्वजनिक की जगह बढ़ानी होगी। क्रांति ने हमें अपनी नई फिल्म ‘सीआरडी’ का ट्रेलर भी दिखाया जो अभी हाल ही में अमेरिका के पाँच महानगरों में रिलीज हुई है। फिल्म का ट्रेलर देखकर ही ये अंदाजा लग गया कि दक्षिणपंथियों को इससे खासी तकलीफ रहेगी।


शाम को ही पुणे से चलकर हम करीबआधी रात सतारा पहुँचे। 16 फरवरी को हमारी मुलाकात डाॅ. नरेन्द्र दाभोलकर के बेटे डाॅ. हमीद दाभोलकर, डाॅ. शैला दाभोलकर (डाॅ. दाभोलकर की पत्नी) एवं अनिस के कार्यकर्ताओं व पदाधिकारियों के साथ हुई। डाॅ. दाभोलकर के बेटे और अनिस कार्यकर्ता हमीद दाभोलकर ने डाॅ. दाभोलकर के कार्यों, संघर्षों एवं हत्या का वर्णन करते हुए न्याय प्रक्रिया में आनेवाली अड़चनों का विस्तृत विवरण दिया। उन्होंने कहा कि अनिस की स्थापना हुए 25 साल हो गए। महाराष्ट्र के 30 जिलों में करीब 4 से 5 हजार स्वैच्छिक कार्यकर्ता सामाजिक जागरुकता की लड़ाई लड़ रहे हैं। महाराष्ट्र के साथ ही कर्नाटक और दिल्ली में भी नयी इकाइयाँ खुली हैं। उन्होंने बताया कि लोगों का शोषण करने और अंधविश्वास फैलाने वाले कारकों के खिलाफ महाराष्ट्र राज्य में अब कानून भी (डाॅ. दाभोलकर की हत्या के बाद) बन चुका है। म.प्र. प्रलेस के सदस्यों ने डाॅ. शैला से भी विस्तृत और अंतरंग बातें की। उन्होंने कहा कि यह सामाजिक न्याय की लड़ाई है जो आगे भी चलती रहेगी। नरेन्द्र की हत्या के बाद भी लड़ाई थमी नहीं है और थमेगी भी नहीं। डाॅ. दाभोलकर के और उनकी शादी के दिलचस्प किस्सों के साथ ही डाॅ. दाभोलकर के दृढ़ निश्चय और अडिग निर्णयों के बारे में उन्होंने जो बातें कीं, उनसे सभी का दिल भर आया।

सतारा से दोपहर को ही निकलकरहमने गोवा की ओर प्रस्थान किया। गोवा वह स्थान है जहाँ दाभोलकर, पानसरे और कलबुर्गी की हत्या के हत्यारों के सूत्र जिस सनातन संस्था के साथ जुड़े बताये जाते हैं, उसका मुख्यालय है। रात करीब 10.30 बजे हम गोवा पहुंचे। यहाँ हमारा आत्मीय स्वागत सुविख्यात मजदूर नेता काॅमरेड क्रिस्टोफर फोन्सेका व उनकी पत्नी काॅमरेड शांति नाम वकील) ने किया। काॅमरेड क्रिस्टोफर एवं काॅमरेड शांति ने गोवा के ताजे हालात, राजनीतिक गतिविधियों, मजदूर संगठनों की जानकारी दी। अगले दिन 17 फरवरी को गोवा के प्रसिद्ध स्थल ‘कला सांस्कृतिक भवन’ में गोवा के लेखकों, समाजसेवकों एवं पत्रकारों के साथ एक बैठक हुई जिसमें साहित्य अकादमी सम्मान प्राप्त लेखक डाॅ. दत्ता नाईक, दिलीप बोरकर, रजनी नैयर (हिन्दी और कोंकणी की लेखक), चितांगी नमन (कवि, युवा ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त), महेश, प्रभु देसाई एवं अन्य प्रतिष्ठित लोग भी मौजूद थे। सभी ने गोवा के ऐतिहासिक-राजनीतिक स्वरूप पर प्रकाश डालते हुए कहा कि लेखकों की हत्याओं के विरोध में गोवा के 30 लेखकों ने अपने सम्मान शासन को वापस किए (इसमें राष्ट्रीय और राज्य स्तरीय सम्मान शामिल हैं)। इस बैठक का मकसद गोवा के साहित्यकारों से गोवा के उस पहलू को जानना था जो आमतौर पर पर्यटक के तौर पर आने वाले कभी जान नहीं पाते। गोवा का मुक्ति संग्राम, वहाँ के भौगोलिक और सामाजिक-राजनीतिक इतिहास को जानने के लिए गोवा के ही विद्वानों को सुनना हम लोगों ने तय किया था और यही किया भी।

डाॅ. दत्ता नाईक ने अपने उद्बोधन मेंकहा कि - दुनिया में पर्यटन के लिए विख्यात गोवा में यहाँ के लोगों के लिए रोजगार की काफी कमी है जिससे वे विदेश या भारत के अन्य भागों की ओर पलायन करते हैं। सन् 2012 में खदानों के पूर्णतः बंद होने से पूर्व गोवा खदानों के लिए जाना जाता था। पहले यहाँ खेती भी आजीविका का माध्यम थी। इसके बाद यहाँ सरकारों द्वारा केवल पर्यटन एवं होटल उद्योगों को ही बढ़ावा दिया जाता है जिसने वर्गभेद को और गहरा किया है। युवा कवि नमन ने प्रलेस से बात करते हुए कहा कि दुनियाभर में फिल्मों के द्वारा परोसी गई गोवा की छवि (समुद्री बीच और कसीनो) से इतर आपने इसके भीतर की कलात्मकता, जन-जीवन और संघर्षों की ओर देखने की पहल की, उन्हें करीब से जानने की कोशिश की, यह बेहद सराहनीय है।


गोवा के एटक मज़दूर संगठन के कार्यालय में प्रेस काॅन्फ्रेंस का आयोजन था। प्रेस काॅन्फ्रेंस में हमारे दल ने गोवा के मीडियाकर्मियों से मुलाकात की एवं अपनी यात्रा का उद्देश्य बताया। इसका एक महत्त्व ये भी था कि जिस सनातन संस्था के सदस्यों पर इन तीनों विद्वानों की हत्या का आरोप है, उसका मुख्यालय गोवा में ही है, उस तक भी मीडिया के मार्फ़त ये संदेष पहुँचे कि विचारों नहीं मारा जा सकता। मीडिया की ओर से प्रश्न पूछा गया कि हत्याओं के इतने वर्षों बाद यह यात्रा क्यों? इसका उत्तर विनीत तिवारी ने देते हुए कहा कि हम अपने प्रदेशों में अनेक तरीकों से (लेखन, भाषण, जुलूस, प्रदर्शन और ज्ञापन) द्वारा विरोध दर्ज करते रहे हैं। हममें से कुछ पदाधिकारी पहले भी आकर शहीद लेखकों के गृहनगरों में आयोजित कार्यक्रमों में हिस्सेदारी करके गए हैं। लेकिन अब इतने दिनों तक न्यायिक प्रक्रिया की सुन्नावस्था देखकर, शहीद हुए परिवार के लोगों एवं अन्य प्रादेशिक लेखकों के प्रति अपनी एकजुटता प्रदर्शित करने के लिए इस यात्रा का आयोजन किया, ताकि यह संदेश दूर तक जाए कि इस लड़ाई में हम भी उनके साथ हैं। पत्रकारों को राजेन्द्र शर्मा, हरिओम राजोरिया और सीमा राजोरिया ने भी संबोधित किया। शाम को हम प्रसिद्ध ‘पिलार सेमिनरी म्यूजियम’ को देखने गए। वहाँ फादर काॅस्मे जोस कोस्टा ने म्यूजियम में गोवा की ऐतिहासिकता से संबंधित बारीक जानकारियाँ दीं एवं वहाँ के विद्यार्थियों एवं शिक्षकों से मुलाकात भी करवाई।

18 फरवरी की सुबह ‘द पलोटी इंस्टीट्यूट आॅफ फिलाॅसफी एवं रिलीजन’ में विद्यार्थियों से एवं वहाँ के शिक्षकों से भी इस यात्रा और गोवा के विषय पर विस्तृत चर्चा हुई। वैसे तो वह भी ईसाइयत के धार्मिक षिक्षक तैयार करने का इंस्टीट्यूट है लेकिन वहाँ सिर्फ़ धर्मषास्त्रों की ही पढ़ाई नहीं होती। इंस्टीट्यूट के विद्यार्थियों ने साहित्य और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से संबंधित अपनी जिज्ञासाओं को लेखकों के सामने रखा। उनके पूछे प्रश्नों पर भी काफी चर्चा हुई। सुसंस्कृति परिहार जी ने प्रगतिषील लेखक संघ के सुदीर्घ और व्यापक इतिहास से संक्षेप में परिचय करवाया।

18 फरवरी की दोपहर हमने गोवा से, दो दिन में हम सबके बेहद अजीज बन गए काॅमरेड क्रिस्टोफर और काॅमरेड शांति से विदा ली। दो दिनों में इन दोनों ही शख्सियतों ने हम सबको बेहद प्रभावित और प्रेरित भी किया। कभी न भूल सकने वाली शख्सियतें हैं काॅमरेड शांति और काॅमरेड क्रिस्टोफर। अब हम अपनी अगली मंजिल धारवाड़ (कर्नाटक) की ओर रवाना हुए।

धारवाड़ पहुँचकर सीधे हम ‘दक्षिणायन संस्था’ की ओर से आयोजित ‘सोशल मीडिया वर्कशाप’ का हिस्सा बने। यहाँ पर प्रसिद्ध समाजसेवी और लेखक प्रो. गणेश देवी मौजूद थे। साथ ही उनकी पत्नी सुलेखा जी और कर्नाटक के विभिन्न हिस्सों से आये जाने-माने लेखक, कवि, पत्रकार, समाजसेवी और शोधार्थी-विद्यार्थी भी। यहाँ पर जानकारी देना आवश्यक है कि ‘दक्षिणायन संस्था’ प्रो. गणेश देवी एवं अन्यों के प्रयास का वह प्लेटफार्म है जो फासीवाद के बरअक्स लोगों को एक साथ, एकजुट करने का प्रयास कर रहा है। प्रो. एम.एम. कलबुर्गी की हत्या की न्यायिक लड़ाई कर्नाटक के जागरुक लेखक, पत्रकार, समाजसेवी नागरिक मिलकर लड़ रहे हैं। प्रो. गणेश देवी ने हमें दक्षिणायन का सविस्तार परिचय कराया। हमारे साथियों के परिचय के बाद, चाय के दौरान सोशल मीडिया वर्कशाप में आये सभी प्रतिभागियों के साथ हमारे दल का लंबा फोटोसेशन चला जो हमारी यात्रा के उद्देश्य एवं प्रतिरोध के साथ खड़े होने के संकल्प की टिप्पणियों के साथ सोशल मीडिया के सभी प्लेटफाॅर्मों (फेसबुक, ट्वीटर, वाट्सअप, इंस्टाग्राम, गूगल) पर छाया रहा और अभी भी उपलब्ध है। यहीं पर प्रसिद्ध माक्र्सवादी चिंतक और जाने माने समाजसेवी एस. आर. हिरेमठ जी से मुलाकात हुई। वे बस बाहर जाने से पहले हमसे मिलने के लिए ही इंतज़ार में रुके हुए थे। हिरेमठजी अनेक वर्षों से आदिवासियों के हक़ों और प्राकृतिक संसाधनों की लूट के खि़लाफ लड़ाई लड़ रहे हैं और कर्नाटक के खनन माफिया की रीढ़ पर प्रहार करने के लिए वे देशभर में जाने जाते हैं। यह प्रो. कलबुर्गी का सत्य व ज्ञान से अर्जित स्थान है कि सभी लेखक और अन्य उनके बाद भी उनके सम्मान की लड़ाई लड़ रहे हैं।


19 फरवरी की सुबह हम प्रो. कलबुर्गीके घर उनकी पत्नी उमादेवी और उनके पोते अमोघवर्ष से मुलाकात करने पहुँचे। प्रो. गणेश देवी और सुलेखा जी ने ये बैठक तय की थी। वे भी वहाँ थे। छोटे से ड्राइंगरूम में सोफे पर प्रो. कलबुर्गी की तस्वीर के आसपास तरतीब से सँजोया हुआ उनका रचना संसार देख एक क्षण के लिए समय रुक सा गया। प्रो. गणेश देवी ने हमें बताया कि कलबुर्गी जी ने दर्शन, इतिहास और अन्यान्य गूढ़ विषयों पर 120 से अधिक ग्रंथों की रचना की है और वे लिंगायत समाज के सही इतिहास को लोगों के सामने लाने की लड़ाई लड़ रहे थे। श्रीमती उमादेवी के द्वारा बताया गया और अब तक का सुना घटनाक्रम आँखों के सामने से गुजर गया। सचमुच ये पल बेहद भावुक कर देने वाले थे। अपनी एकजुटता जाहिर करने के बाद हमने उमाजी से और अमोघवर्ष से विदा ली और उमाजी ने प्रो. कलबुर्गी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर केन्द्रित पुस्तिका ‘प्रो. एम.एम. कलबुर्गी-द आर्किटेक्ट आॅफ महामार्ग’ हम सभी को भेंट दी।

धारवाड़ में हम आनंद करंदीकरऔर अरुंधति से भी मिले जो लेखकों को सोशल मीडिया के सार्थक और उद्श्यपूर्ण उपयोग की जानकारी दे रहे थे। यहाँ हमने शंकर गुहा नियोगी (छत्तीसगढ़ में पूँजीपतियों और माफियाओं के गठजोड़ ने जिनकी हत्या 28 सितंबर 1991 को कर दी थी) पर बनाई फिल्म और एक अन्य लघु फिल्म भी जिसमें वेलेन्टाइन डे पर बजरंग दल के लोगों द्वारा युवाओं पर लाठियाँ बरसाने के प्रतिरोधस्वरूप प्रेम के गहरे और विषद अर्थों को उठाया गया था, देखी। हिरेमठ जी के सहयोगी इकबाल पुल्ली जी ने हमें कर्नाटक के भीतर चल रहे विभिन्न जनांदोलनों की जानकारी भी दी। उन्होंने हमें‘समाज परिवर्तन समुदाय’ के कार्यालय का भ्रमण भी कराया जो हिरेमठ जी के क्रांतिकारी कार्यों की जमीन है। यहाँ आते-आते हमें लगने लगा था कि हम अपने पड़ोसी राज्यों, उनके लोगों और उनके संघर्षों के बारे में कितना कम जानते हैं और कैसे मुख्यधारा मीडिया हमें न जानने देने की साजिशें रचता है। हमारी यात्रा का उद्देश्य विस्तृत हो गया था। हम नई बातें सीख रहे थे और अपने कार्यक्षेत्र में नये कामों को करने की प्रेरणा से भर रहे थे।

धारवाड़ से चलकर शाम होते-होते हम कोल्हापुर में थे। यहाँ प्रो. मेघा पानसरे (काॅमरेड गोविन्द पानसरे की बहू) और उनके बेटे कबीर और मल्हार से बेहद आत्मीय मुलाकात हुई।20 फरवरी को सुबह 7.30 बजे हम काॅमरेड पानसरे के घर के सामने से प्रारंभ होने वाले ‘निर्भय मार्निंग वाॅक’ में शामिल होने पहुँचे। ‘निर्भय मार्निंग वाॅक’ का आयोजन काॅमरेड पानसरे की हत्या के बाद से उनके सहकर्मियों, साथी कार्यकर्ताओं, माॅर्निंग वाॅक के साथियों और वे सब भी जो इस प्रतिरोध में शामिल हैं, ने किया है। वे हर माह की 20 तारीख को (20 फरवरी को ही उनकी हत्या हुई थी) कोल्हापुर के अलग-अलग क्षेत्रों में जुलूस निकालते हैं। काॅमरेड गोविंद पानसरे और काॅमरेड उमा पानसरे को तभी गोली मारी गई थी जब वे अपने घर से बाहर माॅर्निंग वाॅक पर निकले थे। उनकी हत्या को दो साल पूरे हो गए लेकिन देशभर में लोगों के तीव्र प्रतिरोध के बावजूद शासन हत्यारों को पकड़ तक न सकी। इस पूरी रैली का सबसे याद रह जाने वाला नारा था - आम्बी सारे, पानसरे। कई जनगीतों के साथ यह रैली चलती रही। लोग नारे लगाते जा रहे थे। एक जनगीत की दो पंक्तियां अभी भी गूंज रही हैं-
‘गोल्या लाठी घाल्या, विचार नहीं मरणार’, मराठी से अधिक परिचित न होने पर भी यह याद है, अपने अर्थ के साथ। यह यात्रा बिन्दु चैक पर जाकर पूरी हुई। यहाँ उस स्कूल के सभी विद्यार्थी और शिक्षक मौजूद थे जिसमें काॅमरेड पानसरे पढ़े भी थे और जहाँ उन्होंने पढ़ाया भी था। सबने काॅमरेड पानसरे के हत्यारों के पकड़े जाने की लड़ाई को जारी रखने और उनके बनाए मूल्यों को जीवन में अपनाने की शपथ ली। इस जुलूस में भारी संख्या में कोल्हापुर के नागरिक, मीडियाकर्मी, माक्र्सवादी कार्यकर्ता और सभी सामाजिक संस्थाओं के प्रतिनिधि शामिल थे। इस ‘निर्भय माॅर्निंग वाॅक’ रैली का प्रतिनिधित्व एन.डी. पाटिल (सुविख्यात माक्र्सवादी विचारक और समाजसेवी) ने किया। मीडिया से बात करते हुए उन्होंने कहा कि - यह रैली चुनौती है हत्यारों को और उन्हें बचाने सत्ता में बैठे लोगों को कि हम भयभीत नहीं हैं।

वहाँ से लौटकर हमने काॅमरेड पानसरे की पत्नी उमादेवी से उनके घर आकर मुलाकात की। इसके बाद हमारी बैठक काॅमरेड पानसरे द्वारा स्थापित ‘श्रमिक प्रतिष्ठान’ के कार्यालय में हुई। वहाँ काॅमरेड दिलीप पवार, काॅमरेड एस. बी. पाटिल और काॅमरेड पानसरे के अन्य सहयोगियों और साथियों ने पानसरे जी के जीवन, उनके कार्यों, संघर्षों और निर्भयता के साथ मंजिल पाने तक डटे रहने की क्षमताओं और कार्यप्रणाली पर प्रकाश डाला। किसी महान व्यक्तित्व के जीवन और उनके कामों से जुड़ी छोटी-छोटी बातें भी बेहद महत्त्वपूर्ण होती हैं और वे एक न देखे, न मिले हुए व्यक्ति को भी आपके सामने ला खड़ा करती हैं। इस बातचीत के दौरान ऐसा ही महसूस हो रहा था। पानसरे जी की लिखी पुस्तकें‘शिवाजी कौन है?’ और ‘राजर्षि शाहू की शिक्षा नीति’ पुस्तकें भी उन्होंने हमें भेंट में दीं। एक ख़ास बात और देखने को मिली कि कार्यालय में काॅमरेड पानसरे जिस कुर्सी पर बैठते थे, वह दो साल बाद आज भी उनकी याद में खाली रखी गई है।


मेघा जी ने हमें कोल्हापुर विश्वविद्यालय में भ्रमण का अवसर भी दिया। वे ‘रूसी अध्ययन’ विभाग की प्रमुख भी हैं। उनके विभाग में ही बैठकर थोड़ी देर बातचीत कर, मेघा जी के बताए अनुसार हमने मराठी के विख्यात साहित्यकार ‘विष्णु सखाराम खांडेकर स्मृति संग्रहालय’ का भ्रमण भी किया। यहाँ करीने से सँजोई कवि की स्मृतियों के प्रतीकों ने एक बार फिर हमारे प्रदेश के कवियों की याद दिलाई। हमारे खाते में जो सुभद्रा कुमारी चौहान, माखनलाल चतुर्वेदी, हरिशंकर परसाई जैसे अनेक नाम हैं लेकिन इस तरह से सँजो सकने का हुनर नहीं। किसी साहित्यकार का वि.वि. में इतना सम्मानजनक स्थान पाना, हम लोगों के लिए अत्यंत सुखद अनुभव था। सिर्फ संग्रहालय ही नहीं, विश्वविद्यालय में जहाँ-तहाँ दीवारों पर भी मराठी साहित्यकारों के ‘मूल्य वाक्य’ सूक्तियों के रूप में तस्वीरों के साथ दिखे।

तीन बजे हमारी मुलाकात ‘साहू स्मारक भवन’ भवन में कोल्हापुर के प्रिंट एवं इलेक्ट्राॅनिक मीडिया के पत्रकारों से हुई। पत्रकार वार्ता को राजेन्द्र शर्मा, विनीत तिवारी, सुसंस्कृति परिहार, हरिओम राजोरिया ने संबोधित किया। प्रेस काॅन्फ्रेंस समाप्त होते-होते कार्यक्रम का समय हो गया था जिसमें भारी संख्या में कोल्हापुर और बाहर के लोग भी उपस्थित थे। इतनी तादाद में लोगों की उपस्थिति काॅमरेड पानसरे की लोकप्रियता और उनके विचारों के समर्थन को प्रमाणित करने वाली थी। कार्यक्रम की शुरूआत फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ के जनगीत
‘ऐ ख़ाकनशीनों उठ बैठो, वो वक्त़ क़रीब आ पहुँचा है।
अब टूट गिरेंगी ज़ंजीरें, अब ज़िंदानों की ख़ैर नहीं,
जो दरिया झूम के उट्ठे हैं, तिनकों से न टाले जाएँगे...’
को हमारे साथियों हरिओम राजोरिया, सीमा राजोरिया, तरुण गुहा नियोगी, हरनाम सिंह, राजेन्द्र शर्मा और विनीत तिवारी ने गाकर की।

कार्यक्रम के अध्यक्ष प्रो. गणेश देवी, मुख्य वक्ता जाने-माने पत्रकार निखिल वागलेे, हमीद दाभोलकर और विनीत तिवारी मंच पर मौजूद थे। स्वागत की परंपरा के बाद मेघा पानसरे ने मंचासीन अतिथियों का परिचय कराया साथ ही म.प्र. प्रलेस के लेखकों की यात्रा के उद्देश्य को भी श्रोताओं के सामने व्यक्त किया और कहा कि - देश के जागरुक चिंतक, कवि, कलाकार भी हमारे साथ हैं। दो साल बाद भी हत्यारे पकड़े नहीं गए। लेकिन इन शहीदों के रास्ते पर चलने वाले हम भी थके नहीं हैं। यह लड़ाई न्याय पाने तक थमने वाली नहीं है।


हमीद दाभोलकर ने अपने उद्बोधन में स्पष्ट रूप से कहा कि - तीनों ही शहीदों के हत्यारे ‘सनातन धर्म संस्था’ और ‘हिंदू जन जागरण समिति’ से हैं और प्रमाणों के बावजूद वे खुले घूम रहे हैं। प्रलेस महासचिव और म.प्र. प्रलेस लेखक यात्रा दल के मार्गदर्शक विनीत तिवारी ने देश में दिनोंदिन बढ़ते कट्टरवाद व विचारों पर हमले के अन्य उदाहरणों को सामने रखते हुए जोर देकर कहा कि एक लेखक या एक अकादमिक विद्वान के भीतर अनेक पुस्तकों का निचोड़ और सदियों की संचित ज्ञान निधि होती है। अगर राज्य नागरिकों के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी नहीं निभाता तो हम नागरिक ऐसे राज्य से लोकतंत्र की रक्षा करने के उपाय अपनाएँगे लेकिन हम अब और किसी को भी खोने के लिए तैयार नहीं हैं। उन्होंने कहा कि हमें इस यात्रा के अनुभवों ने और भी अधिक निर्भीक, मजबूत और ज़िम्मेदार बनाया है।

कार्यक्रम के मुख्य वक्ता प्रतिष्ठित पत्रकार निखिल वागलेे ने सत्ता के इशारों पर काम करने में लगी पुलिस मशीनरी के एक और पहलू को उजागर करते हुए वह नोटिस जो पुलिस की तरफ से कार्यक्रम में आने से पूर्व उन्हें दिया गया, जिसमें लिखा था कि वे पानसरे स्मृति के कार्यक्रम में किसी व्यक्ति या संस्था का नाम लेकर आरोप नहीं लगाएँगे और ऐसा कुछ भी नहीं कहेंगे जो लोगों की भावनाओं को ठेस पहुँचाए, अन्यथा उन्हें पुलिस गिरफ़्तार कर सकती है। ऐसा ही नोटिस आयोजकों को भी दिया गया था। ढेर सारे पुलिस वाले अधिकारी, कर्मचारी, थानेदार और सिपाही कार्यक्रम स्थल पर हाॅल के अंदर-बाहर मंडरा रहे थे। निखिल वागले ने मंच से पुलिस, प्रशासन और सत्ताधीशों को करारा जवाब देते हुए कहा कि उन्हें किन लोगों की भावनाओं की चिंता है। वे ऐसे नोटिस हत्यारों को पैदा करने वाली संस्थाओं और समितियों को क्यों नहीं देते जो विचारों को स्थापित करने के नाम पर हत्या करने, हुड़दंग मचाने का काम करते हैं। उन्होंने मुख्यमंत्री देवेन्द्र फड़नवीस की मंच से आलोचना करते हुए कहा कि वो महाराष्ट्र में लोकतंत्र को क्या मजाक बना देना चाहते हैं?

अंत में कार्यक्रम के अध्यक्ष प्रो. गणेश देवी का वक्तव्य हुआ। उन्होंने कहा कि- आज के हालात अघोषित आपातकाल जैसे ही हैं। केन्द्र सरकार हर क्षेत्र में स्वतंत्र विचारों का विरोध लाठी डंडे के साथ करती है। उन्होंने एफटीआईआई, चेन्नई के आंबेडकर, फुले और पेरियार के विचारों पर मनन करने वाले चेन्नई स्टडी सर्कल, जेएनयू, रोहित वेमुला और नजीब को याद करते हुए कहा कि विचार को गुलाम बनाने की कोशिशें कामयाब नहीं होंगी। उन्होंने कहा कि देश में ही नहीं दुनियाभर में फासीवादी प्रवृत्तियाँ उभर रही हैं और ये मानवता के लिए खतरा हैं। आज की सबसे बड़ी जरूरत फासीवाद विरोधी विचारों, व्यक्तियों और संगठनों के एकजुट होकर कट्टरपंथियों का प्रतिरोध करने की है।

कार्यक्रम समाप्त होने के बाद मेघा पानसरे और अन्य साथियों से विदा लेकर और साथ रहने की प्रतिज्ञा को दोहराते हुए हम वापसी की ओर चल पड़े। हमारे कुछ साथियों ने सतारा स्टेशन से और कुछ ने पुणे से वापसी की राह पकड़ी। इस 14 से 20 फरवरी की यात्रा ने हमारे अनुभव संसार को बढ़ाया और विचारों की आजादी के लिए लड़ने के हमारे संकल्प को मजबूत किया। इस छोटी-सी यात्रा के बीच हम वैचारिक, सांगठनिक और अद्भुत समाहारी, प्रेरणादायी व्यक्त्तिवों से मिले। उनके कार्यों को जाना। समाज के लिए अड़े रहने की शक्ति और उससे हासिल की जा सकने वाली खुशी से भी परिचित हुए। इस यात्रा का खाका महासचिव विनीत तिवारी ने बनाया था। इस तरह की यात्रा की सोच उनकी वैचारिकता और देश भर में फैले उनके ज़मीनी संपर्कों का परिणाम है। यात्रा को उनके सांगठनिक और व्यक्तिगत सूत्रों, परिचयों और हर शहर में उनके अभिन्न मित्रों के सहयोग ने अधिक मूल्यवान बनाया। इन सात दिनों में हम सब शाम को अपने दिनभर के कार्यों, मुलाकातों और रोजमर्रा में नए-नए मिलने वाले अनुभवों पर चर्चा करते। कई बार कुछ मुद्दे अचानक आ जाते और घंटों साथियों के बीच उन पर बहसें होती रहीं। शिक्षा, साहित्य, रिश्ते, सामाजिक स्थितियों पर होने वाले विचार-विमर्ष और जनगीतों, शास्त्रीय संगीत से लेकर फ़िल्मी गाने तक सफ़र का हिस्सा बनते रहे। इस सफ़र के दौरान साथियों के बीच अनेक विषयों पर हुईं बेहद दिलचस्प चर्चाएँ और सोच के दायरों को विस्तृत करने वाली गर्मागर्म बहसें भी स्मृति में रहेंगी।


सात दिन तक लगभग 14 से 16 घंटेजिन साथियों के साथ गुजारे, उनके व्यक्तित्व के भी कुछ नये पहलुओं को जानने का मौका मिला। इतने दिनों तक कोई भी सिर्फ़ औपचारिकता का आवरण ओढ़कर नहीं रह सकता। बाहर के भले लोगों से हुई मुलाकात ने जहाँ हमें भी बेहतर बनाने का काम किया, वहीं अपने ही साथियों के साथ बने जीवंत और अनौपचारिक संपर्क ने एक संगठन के तौर पर भी हमें समीप किया। अपने साथियों पर लिखने का काम कभी अलग से।

हमारे 14 से 21 फरवरी की यात्राके बीच हुए कार्यक्रमों की प्रेस, इलेक्ट्रानिक मीडिया, आॅनलाइन मीडिया और सोशल मीडिया पर छपी खबरें साथियों द्वारा अभी तक प्राप्त हो रही हैं। हमारे बाहर के देखे अनुभव खासकर मीडिया ने हमें उनकी तुलना अपने प्रदेश से करने पर बार-बार मजबूर कर देते हैं। गोवा,कर्नाटक और महाराष्ट्र में कार्यक्रमों के हुए विशद, विस्तृत, शुद्ध और ‘जैसा कहा गया वैसा ही लिखा गया’, इन कवरेजों ने मीडिया पर खोता जा रहा विश्वास फिर से जगा दिया। हम अद्भुत जीवट वाले निडर लोगों से मिले। यह सोच अधिक दृढ़ हुई कि विचार और तर्कशील कर्म का साथ देने और अन्याय का प्रतिरोध करने के निडरता और सच्चाई ही सच्चे हथियार हैं। इनकी ताक़त को हमने अलग-अलग रूपों में बहुत ही नज़दीक से महसूसा। इस पूरी यात्रा का उल्लेख विनोद के उल्लेख के बिना पूरा नहीं होता जो यूँ तो सिर्फ़ हमारे वाहन चालक थे लेकिन यात्रा समाप्त होते-होते वे हमारे साथी बन गए। इससे हमारा ये विश्वास भी पुख्ता हुआ कि अगर हम अपने विचार योजनाबद्ध रूप में आम लोगों के बीच लेकर जाएँगे तो लोग तार्किक विचारों को सुनने- समझने और अपनाने के लिए तैयार होते हैं।

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स्नेह लता नेगी
सहायक प्रो. हिन्दी विभाग,दिल्ली विश्वविद्यालय संपर्क:negi.sneh@gmail.com मोबाइल : 8586066430

इक्कीसवीं सदी में समाज के हर क्षेत्र में स्त्री ने अपनी बुद्धि और क्षमता का परिचय दिया है। समाज को भी स्वीकार करना पड़ा है कि स्त्री की क्षमताओं का उपयोग किये बिना समाज का समग्र विकास संभव नहीं है। स्त्री भी अपनी पारंपरिक छवि से बाहर निकल कर समाज निर्माण में अपना महत्वपूर्ण योगदान प्रदान कर रही हैं। सर्वप्रथम वह बुद्ध ही थे जिन्होंने स्त्री को उसकी क्षमताओं से अवगत किया। स्त्रियों के लिए अलग संघ की स्थापना करके स्त्री को भी शिक्षित होने और निर्वाण प्राप्त करने का स्वतंत्र अवसर प्रदान किया। बुद्ध ने परंपरा से चली आ रही जातीय व्यवस्था, स्त्री-पुरुष असमानता और अंधविश्वासी समाज को मानवता का संदेश दिया। डाॅ. रामधारी सिंह दिनकर का कथन इस संदर्भ में उल्लेखनीय है- ‘‘बौद्ध धर्म का आर्विभाव ऐसे समय में हुआ जब नारी पुरुष के अत्याचारों से दबी जा रही थी, शास्त्रकारों ने जिसे कोई व्यक्तिगत स्वतंत्रता नहीं दी, उसके लिए बौद्धकाल में अमर संवेदना का संदेश मिला।’’1बुद्ध के समय में पहली बार स्त्री को भी पुरुष के समान अपनी क्षमताओं से परिचित होने का अवसर मिला। जिस ज्ञान और सत्ता पर पुरुष का एक छत्र राज था, बुद्ध के समय में इस वर्जित क्षेत्र में स्त्रियों का प्रवेश एक ऐतिहासिक घटना थी।

थेरीगाथा में भिक्षुणी सोमा और मारका संवाद तत्कालीन समाज में स्त्री की स्थिति को दर्शाता है। मार कहता है- ‘‘जो स्थान ऋषियों के द्वारा भी प्राप्त करने में अत्यन्त कठिन है, उसे दो अंगुलि मात्र प्रज्ञा वाली स्त्री प्राप्त कर लेगी, यह कभी संभव नहीं।’’2 सोमा मार को फटकारते हुए कहती है- ‘‘देख! मैंने सभी जगह से अपनी वासना का संपूर्ण विनाश कर दिया है। अज्ञानांधकार को विदीर्ण कर दिया है। पापी मार! प्राणियों का अन्त करने वाले! समझ ले! आज तेरा ही अन्त कर दिया गया! तू मार दिया गया।’’3सोमा मार के माध्यम से तत्कालीन पितृसत्तात्मक समाज की जड़ों को हिलाकर रखने की चेतावनी देती है जिसने हमेशा ही स्त्री को अक्षम समझकर दबाये रखा।

राजा प्रसेनजीत की रानी को जब बेटी पैदा हुई तो प्रसेनजीत दुःखी मन से बुद्ध के पास जाते हैं, तो बुद्ध राजा को समझाते हैं ‘‘इसमें उदास होने की क्या बात है राजन! कन्या एक पुत्र से भी बढ़कर सन्तान सिद्ध हो सकती है क्योंकि वह भी बड़ी होकर बुद्धिमान तथा शीलवान बन सकती है।’’ बुद्ध स्त्रियों के महत्व को प्रतिपादित करते हुए कहते हैं ‘‘स्त्री संसार की विभूति है क्योंकि उनकी अपरिहार्य महत्ता है। उसके द्वारा ही बोधिसत्व तथा विश्व के अन्य शासक जन्म ग्रहण करते हैं।’’4इसीलिए बुद्ध ने स्त्री को प्रज्ञा का रूप माना है। प्रज्ञा सभी बुद्धों की जननी है। बुद्ध ने सबसे पहले स्त्री के चित्त के विकास का मार्ग प्रशस्त किया। सामाजिक-आर्थिक स्तर पर सशक्त होने से पहले हमें आत्मिक स्तर पर सशक्त होने की जरूरत है जो बुद्ध ने स्त्रियों के भीतर आत्मविश्वास की लौ जलाकर किया। हमारे समाज में स्त्रियों को कभी भी उसके गुणों से अवगत होने का मौका ही नहीं दिया उसे हमेशा ही परिवार और समाज पर बोझ समझा गया। बुद्ध ने स्त्री को ज्ञान का रास्ता दिखाकर चेतना संपन्न बनाया और ओरों को भी प्रेरित किया। जब समाज में स्त्रियों का आत्मसशक्तिकरण होगा तभी तो वह बाहरी सामाजिक जड़ताओं के विरूद्ध संघर्ष करने में सक्षम होंगी, स्वनिर्णय लेने की स्थिति तक पहुँचेंगी। इसलिए बाहरी परिवर्तन के लिए सबसे पहले आन्तरिक परिवर्तन की आवश्यकता होती है। स्त्री का सशक्त होना इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि उसके ऊपर समाज और परिवार दोनों का उत्तरदायित्व है। अगर स्त्री आत्मिक स्तर पर सशक्त नहीं है तो परिवार और समाज के सशक्त होने की परिकल्पना नहीं की जा सकती है। जैसा कि हम अक्सर कहते हैं कि एक स्त्री के शिक्षित होने पर पूरा परिवार शिक्षित होता है ऐसे में स्त्री का आत्मिक स्तर पर सशक्त होना कितना महत्वपूर्ण है हम सोच सकते हैं। जिसके ऊपर समाज के भविष्य की इतनी बड़ी जिम्मेदारी हो उसे कैसे ज्ञान, अध्यात्म और सत्ता से वंचित रख सकते हैं विचारणीय है। इसलिए बुद्ध के संघ में विवाहित-अविवाहित, युवा-वृद्ध, वेश्या, शूद्र-ब्राह्मण, अमीर-गरीब सभी प्रवेश ले सकते थे और ज्ञान अर्जित कर सकते थे। मानसिक और दैहिक शोषण तंत्र से मुक्त हो सकती थी और उस युग की थेरियाँ उसी मुक्ति का प्रतीक हैं।

थेरीगाथा , बौद्ध धर्म और स्त्रियाँ

‘थेरी-गाथा’ 522 गाथाओं कामहत्वपूर्ण बौद्ध साहित्य है जिसमें 73 थेरियों के जीवन के कटु अनुभव है जो बुद्ध की समकालीन थी। यहाँ इन भिक्षुणियों ने अपने जीवनानुभवों को व्यक्त करते हुए जीवन की गाथा है। नैतिक सच्चाई, भावनाओं की गहनता और सबसे बढ़कर एक अपराजित वैयक्तिक ध्वनि, यह भिक्षुणियाँ आशावादी हैं। जीवन की विषमताओं पर अपनी विजय गान गाती हैं। ‘‘भिक्षुणियों के उदगारों में निराशावाद का निराकरण है, पुरुषार्थ की विजय है, साधनालब्ध इन्द्रियातीत सुख का साक्ष्य है और नैतिक ध्येयवाद की प्रतिष्ठा है। नारी की सामथ्र्य में उनका विश्वास है। स्त्रीत्व को वे सत्य-प्राप्ति में बाधक नहीं मानती।’’5 सोमा थेरी और मार का संवाद स्त्री के भीतर सम्यक दृष्टिकोण और पुरुषार्थ के गुणों का परिचायक है- ‘‘जब चित अच्छी प्रकार से समाधि में स्थित है, ज्ञान नित्य विद्यमान है और अन्तज्र्ञान पूर्वक धर्म का सम्यक दर्शन कर लिया गया है, तो स्त्रीत्व इसमें हमारा क्या करेगा?’’6



थेरीगाथा के अध्ययन से पता चलता है कि तत्कालीन समाज कितना स्त्री विरोधी था। अमीर घरों की स्त्रियाँ परिवार के भरण-पोषण तक सीमित थी तो गरीब, शूद्र स्त्रियाँ दासियों के रूप में शोषित थी। पूर्णिका ऐसी ही थेरी थी जो दासी थी जिसका जीवन मालिक के भय और दण्ड के साये में यापन होता था। पूर्णिका अपनी गाथा में कहती है- ‘‘मैं पनिहारिन थी। सदा पानी भरना ही मेरा काम था, स्वामिनियों के दण्ड के भय से, उनके क्रोध भरे कुवाच्यों से पीड़ित होकर मुझे कड़ी सर्दी में भी सदा पानी में उतरना पड़ता।’’7 इन थेरियों के सामने एक तरफ सामाजिक उत्पीड़न के चलते स्थिति गुलामों से भी बदतर थी तो दूसरी ओर पारिवारिक वातावरण उससे भी कहीं अधिक खराब था। श्रावस्ती के दरिद्र परिवार में जन्मी सुमंगलमाता अपने कष्टपूर्ण दाद्रियमय पारिवारिक जीवन को अन्य थेरियों के साथ साँझा करते हुए चित्त में संवेग उत्पन्न होने पर पुरुषार्थ की ओर अग्रसर होते हुए परम ज्ञान की प्राप्ति के सुख का उद्गार प्रकट करते हुए कहती है- ‘‘ओह! मैं मुक्त नारी। मेरी मुक्ति कितनी धन्य है। पहले मैं मुसल लेकर धान कूटा करती थी, आज उससे मुक्त हुई। मेरी दरिद्रावस्था के वे छोटे-छोटे बर्तन! जिनके बीच में मैली कुचैली बैठती थी और मेरा निर्लज्ज पति मुझे उन छातों से भी तुच्छ समझता था जिन्हें वह अपनी जीविका के लिए बनाता था।... अहो! मैं कितनी सुखी हूँ। मैं कितने सुख से ध्यान करती हूँ।’’8

भिक्षुणी सुमंगला संघ में आकरपहली बार महसूस करती हैं कि वह भी एक इंसान है। स्वतंत्र और आत्मसम्मान के साथ जीवन जीने का अधिकार है। उसके भी सुख हैं और वह सुख देह से परे मानसिक बौद्धिक सुख है, निर्वाण प्राप्ति की ओर अग्रसित होने का सुख है। क्यों वह स्त्री होने के कारण किसी की छत्र-छाया में रहे। ये थेरियाँ स्वतंत्रता की कीमत समझ चुकी थीं। तत्कालीन विषम परिस्थितियों में स्त्री अस्तित्व के स्वातंत्र्य की इतनी सहासिक बेबाक स्वीकृति इससे पहले कहीं नहीं दिखाई देती। थेरियों ने जिस सहास के साथ समाज की ग्रसित मानसिकता के विरूद्ध आवाज उठाई वह आज भी प्रेरणा स्रोत है। उससे पहले स्त्री मात्र आनंद प्रदान करने का साधन, संतान पैदा करना, पितृसत्तात्मक व्यवस्था को मजबूत करने की भूमिका में बंधी थी। वंश चलाना, बच्चा पैदा करना उसके जीवन का लक्ष्य निर्धारित कर दिया गया था। ऐसे में बुद्ध ने उसे एक मनुष्य के रूप में पहचान दी उसके सामथ्र्य से परिचित कराया। ‘‘थेरीगाथा नारी स्वतंत्रता को प्रकट करने वाला प्रथम ग्रंथ है।’’9



इन थेरियों ने संघ में शामिल होकर स्वयं ज्ञान प्राप्त किया और ओरों को भी शिक्षित होने के लिए प्रेरित किया। संघ के सभाओं, परिषदों को संबोधित करने तथा अन्य गतिविधियों में भाग लेने के लिए स्त्रियों को प्रेरित किया। थेरी गाथा की पटाचारा ऐसी ही थेरी थी जो गौतम बुद्ध के सर्वाधिक प्रिय शिष्याओं में से एक थीं। पटाचारा ने समाज के अन्य स्त्रियों को शिक्षित होने के लिए प्रेरित करती जगह-जगह घूमकर स्त्रियों को जागरूक करतीं। धीरे-धीरे पटाचारा की 500 से भी अधिक शिष्यायें बन गई। अपनी शिष्याओं के साथ पटाचारा समाज में शांति, सद्भाव व स्वाधीनता के आनन्द का संदेश देती थी। पटाचारा उच्च कोटि की कवयित्री होने के साथ-साथ उच्च कोटि की दार्शनिक भी थीं। अपने निजी जीवन के दुःखों के साथ विक्षिप्त अवस्था में बुद्ध का स्नेही सानिध्य पाकर जीवन के निस्सारता पर विचार करते हुए कहा- ‘‘हल से भूमि जोतकर मनुष्य उसमें बीज बोते हैं, इस प्रकार वे धन उपार्जन करते और अपनी स्त्री, पुत्रादि का पालन करते हैं, तो फिर क्यों न मैं साधिका निर्वाण को प्राप्त कर पाती? मैं जो कि शील से सम्पन्न हूँ अपने शास्त्र के शासन को करने वाली हूँ, अप्रमादिनी हूँ, अचंचल और विनीत हूँ।’’10 अपने समस्त दुःखों से छुटकारा पाकर अपनी मानसिक शारीरिक कमजोरियों से ऊपर उठकर बौद्धिक और आध्यात्मिक भूख मिटाने व व्यक्तिगत और सामाजिक स्वतंत्रता प्राप्त करती हुई बुद्ध की समकालीन स्त्रियाँ संघ में शामिल होकर अपने व्यक्तित्व को पूर्ण मनोयोग के साथ जीती हैं। यह भी सत्य है कि भारत की पहली बुद्धिजीवी स्त्रियाँ बौद्ध संघों से ही निकली जैसे गौतमी, सुमंगला, पटाचारा, विशाखा आदि। बुद्ध के विचारों से प्रेरित होकर सावित्री बाई फुले, ज्योतिबा फूले और डाॅ. अम्बेडकर ने स्त्रियों के लिए आन्दोलन चलाया।

तमाम मान्यताओं और परंपराओं से परे बुद्ध मनुष्य मात्र को सर्वोपरि मानते हैं। बुद्ध व्यक्तित्व रूपांतरण की बात करते हैं। जैसे ‘अप्पः दीपो भवः? अपना दीपक स्वयं बनने के लिए प्रेरित करते हैं। बुद्ध स्वयं कहते हैं कि कोई भी बात इसलिए मत मानो कि मैंने कहा है बल्कि अपने तर्क की कसौटी पर कस कर उसके सही गलत को पहचानते हुए मानों अपनी अन्तः प्रज्ञा, तर्क और बुद्धि का प्रयोग करो। पूर्णा और मुक्ता थेरी को दिया गया बुद्ध का यह उपदेश इस संदर्भ में उल्लेखनीय है- ‘‘पूर्णे! तू पूर्णता प्राप्त कर। पूर्णमासी के पूर्ण चन्द्रमा की तरह तू कल्याणकारी धर्मों में पूर्णता प्राप्त कर। प्रज्ञा की परिपूर्णता से तू अन्धकार-पुंज को विदीर्ण कर देगी।’’11ब्राह्मण धर्म व्यवस्था के अन्तर्गत स्त्री के लिए कोई अधिकार नहीं था ऐसे में बुद्ध ने ब्राह्मणवाद को चुनौती देते हुए निम्न कही जाने वाली जातियों और स्त्रियों को संबल दिया उनके मनोबल को बढ़ाया। थेरी गाथाओं में इन थेरियों में आत्मविश्वास से लबरेज अभिव्यक्ति दिखाई देती है। धम्मदिन्ना थेरी निर्वाण प्राप्ति के मार्ग पर प्रशस्त होते हुए जब वह पुरुषार्थ कर रही थी तब वह कहती है- ‘‘जिसके अन्दर परम लक्ष्य के लिए इच्छा उत्पन्न हुई है और इस इच्छा ने जिसके पूरे चित्त को भर दिया है, जिसका चित्त कभी भोगों में बँधा नहीं, वही ‘ऊध्र्व स्रोता (संसार रूपी स्रोत - धारा के ऊपर जाने वाली) कहलाती है।’’12ये थेरियाँ मनुष्य की गरिमा को स्थापित करती है और स्वविवेक से प्रकाशित एवं संचालित होने का संदेश देती है।



जब हम स्त्री सशक्तिकरण की बात करते हैं तो मोटेतौर पर हमारी समझ आर्थिक और सामाजिक समानता तक सीमित होती है। लेकिन बुद्ध की दृष्टि से देखें तो हम पाते हैं कि हमें बाहरी स्तर पर भौतिक संसाधनों से सशक्त होने से पहले अन्तर्मन के स्तर पर स्त्री कितनी सशक्त है देखने की जरूरत है। अन्तर्मन के स्तर पर सशक्त होने से आशय है कि जीवन के प्रति हम कितने आशावादी हैं। बुद्ध जीवन के प्रति उसी आशावादी दृष्टिकोण को विकसित करते हुए निर्वाण की (मुक्ति) प्राप्ति की ओर स्त्री का मार्ग प्रशस्त करते हैं। जहाँ स्त्री ज्ञान और आत्मविश्वास से परिपूर्ण हो। उत्तरा थेरी की गाथा यहाँ उल्लेखनीय है- ‘‘एक निष्ठ होकर मैंने काया, मन और वाणी को संयत किया। फिर तृष्णा को समूल मैंने उखाड़ कर फैंक दिया। आज मैं शान्त हूँ। निर्वाण-प्राप्त हूँ। निर्वाण की परम शान्ति का मैंने साक्षात्कार किया है।’’13अन्तर्मन का रूपांतरण सब परिवर्तनों की धुरी है। बुद्ध इस तथ्य को समझते थे इसलिये दमन या विरोध की बजाये आंतरिक परिवर्तन पर जोर देते हैं। थेरीगाथा की थेरियाँ उसी आंतरिक परिवर्तन का प्रतीक हैं। इसलिए डाॅ. अम्बेडकर ने कहा था ‘‘मैं समाज की उन्नति का अनुमान इस बात से लगाता हूँ कि उस समाज की महिलाओं की कितनी प्रगति हुई है। नारी की उन्नति के बिना समाज एवं राष्ट्र की उन्नति असंभव है।’’14बुद्धकालीन समाज की स्त्रियाँ कई संदर्भों में सशक्त थी और अपने समय को भी सशक्त करने की सामाजिक भूमिका भी निभा रही थीं।

थेरी गाथा बुद्धकालीन ही नहीं अपितु हर काल के लिए महत्वपूर्ण ग्रंथ है, जो स्त्री जगत को न केवल मानसिक और शारीरिक, बल्कि बौद्धिक और आर्थिक गुलामी के प्रति विद्रोह की शिक्षा देती है। ये थेरियाँ समाज में चली आ रही व्यवस्था, उसके मूल्यों परंपराओं के विरुद्ध आवाज उठाते हुए नवीनता के साथ-साथ आधुनिकता की मशाल जलाए मनुष्य मात्र की परतंत्रता के खिलाफ खड़े होने की प्रेरणा देती है। आज हम जिस स्त्री विमर्श की बात करते हैं वह विमर्श इन थेरियों से ही शुरू होता है जिसने आज स्त्री विमर्श का व्यापक रूप ले लिया है। लेकिन दुःखद आश्चर्य यह है कि थेरियों की इस सहास गाथा को मुख्यधारा का स्त्रीवादी चिंतन रेखांकित नहीं करता। यह हाशिये पर की वैचारिकी के खाते में ही है। यह संघर्ष गाथा भले ही इतिहास के पन्नों में कहीं गुम है लेकिन निश्चित ही भविष्य में स्त्री संघर्ष की बात इन थेरियों के बिना अधूरा है। वास्तव में थेरियों की यह गाथा स्त्री मुक्ति की पहली आवाज थी।

संदर्भ:
1.डाॅ. रामधारी सिंह दिनकर, संस्कृति के चार अध्याय, पृ. 155
2.भरत सिंह उपाध्याय, थेरी-गाथाएँ, पृ. 26
3.वही, पृ. 27
4.डाॅ. अम्बेडकर, हिन्दू नारी का उत्थान पतन, पृ. 22
5.भरत सिंह उपाध्याय, थेरी-गाथाएँ, वस्तुकथा से
6.वही, पृ. 26-27
7.वही, पृ. 86
8.वही, पृ. 12
9.डाॅ. विमल कीर्ति (अनुवादक), थेरीगाथा, पृ. 4
10.भरत सिंह उपाध्याय, थेरी-गाथाएँ, पृ. 48
11.वही, पृ. 3
12.वही, पृ. 6-7
13.  वही, पृ. 8
14.डाॅ. कुसुम मेघवाल, भारतीय नारी के उद्धारक बाबा साहेब डाॅ. बी. आर. आंबेडकर, पृ. 101

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जैनेन्द्र की कहानियों में स्त्री-प्रश्न

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डॉ.दीनानाथ मौर्य
जूनियर प्रोजेक्ट फेलो (भाषा शिक्षा विभाग) एन0सी0आर0टी0, नई दिल्ली . संपर्क: dnathjnu@gmail.com मोबाइल : 9999108490 

एक बड़े रचनाकार हैं जैनेन्द्र .अपने समय के भी और आज के भी. प्रेमचंद्र के साथ और उनके समय के साथ रहकर जैनेन्द्र ने समाज को और व्यक्ति को नयी/भिन्न नजर से देखा है.बगैर  किसी बंधन में बंधे हुए सामाजिक यथार्थ का उद्घाटन प्रेमचंदजिस तरीके से कर रहे थे उसमें कुछ “और” कर गुजरने की गुंजाईश की तलाश की. यही कारण है की जैनेन्द्र ने अपने साहित्य में प्रेमचंद से वैचारिक समानता रखते हुए भी सर्जनात्मकता का एक भिन्न मार्ग चुना.सामाजिक जकड़न,सामंती संस्कृति की शोषणमूलक प्रवृत्तियों के खिलाफ़ प्रेमचंद्र जो लड़ाई लड़ रहे थे जैनेन्द्र उन्ही के साथ रहकर व्यक्ति की निजी अस्मिता की सुरक्षा का अन्वेषण कर रहे थे. जैनेन्द्र मूलतः चिन्तक थे- मानवीय संबंधों और जीवन व्यवहार सेसम्बद्ध तात्विक प्रश्नों के. व्यक्ति की पूर्णता में समाज की पूर्णता और “सामाजिक” पर“आत्मिक” को प्रतिष्ठित करने वाले जैनेन्द्र की अधिकांश रचनाओं का सरोकार स्त्री-पुरुष संबंधों से जुड़ता है.वे जीवन और साहित्य में बगैर किसी मूढ़ सामाजिक ढांचे और फार्मूले में बधे हुए मानव मन की सहज वृतियों का सरलता से उद्घाटन करते हैं.

काम,प्रेम और परिवार जैनेन्द्र की चिंता के मूल विषय रहे हैं.इन्हीं के आलोक में जैनेन्द्र ने अभिजात समाज के भीतरी खोखलेपन को उजागर किया है और अच्छाई-बुराई दोनों से निर्मित समाज की ठोस नैतिकता को महत्व देना चाहा है. भारतीय समाज की कुटुंब नाम की संस्था में जकड़ी हुयी नारी का जीवन जैनेन्द्र की चिंता का बिंदु वहां बनता है जहाँ माना जाता है की कुटुंब को बनाने और बिगाड़ने की पूरी जिम्मेदा स्त्री की ही होती है.—“पुरुष कुछ नहीं और बिगाड़ता,यहाँ तक की पूरी दुनिया स्त्री की सामाजिक नैतिकता को निर्धरित करने के लिए ही नये-नये नियम गढ़ती है-जनेद्र का यही मानना था. यही कारण है की जैनेन्द्र की कहानियों के“नारी पात्रों की सारी क्लिष्टता या समझ लेने पर सरलता – प्रेम में समर्पण या स्वीकृति का उस मांग से जो कभी उपेक्षित  यौवन रस के चलते और कभी मात्र शरीर और संयोग सुख की अभिलाषा के चलते  और कभी मात्र शरीर और संयोग सुख की अभिलाषा के चलते मानसिक तनाव बनाये रखती है.”1(कहानीकार जैनेन्द्र अभिग्यनौर उपलब्धि  -जगदीश पांडेय) उनकी कहानियों-“जान्हवी”,”त्रिवेणी”,”पत्नी”,”दो सहेलियां” आदि में स्त्री अपने स्वाभाविक इक्छा,आकांक्षा और अधिकार की मांग करने वाली नारी के रूप में सामने आती है.जैनेन्द्र की इन कहनियों में घर है –उसकी छत है,खुला आकाश है,उन्मुक्त पक्षी है,शहर के एक ओर का तिरस्कृत मकान,चूल्हा है,चूल्हे का धुआं है,अँधेरा है और भगवान् को कोसने वाला वह वाक्य है की “भगवान,तूने औरत को क्यों जन्माया?”2 जैनेद्र की कहानियों के नारी पात्र अपने पति को उपदेशक और कामुक क्रांतिकारी  सामाजिक तथा नौकरी –शुदा होने के अतिरिक्त उसे किसी “और” अवस्था में देखने के लिए तडपती है. थोड़े गिले-शिकवे के साथ उसमें जी लेने की चाहत है.और साथ ही  जीवन की हौस को बुझते न देने का गहरा आत्मबल भी.वह प्रेम की भूखी है,पुरुषों की तरह प्यार को सिर्फ़ फुरसत की चीज नही मान पाती है.

जहाँ तक प्रश्न जैनेन्द्र की कहानियों में स्त्री विमर्श का है तो कहा जा सकता है कि भारतीय समाजिक जीवन का आधार ‘कुटुंब ’ नाम की संस्था में जकड़ी हुई नारी ही जैनेन्द्र के केन्द्र में है और जहाँ कुटुंब को बनाने-बिगाड़ने का पूरा दायित्व स्त्री का है-‘पुरूष कुछ नही‘ बनाता-बिगाड़ता। धर्म और सभ्यता, यहाँतक की ‘दुनिया स्त्री पर टिकी है। यही कारण है कि ‘‘जैनेन्द्र के नारी-पात्रों की सारी क्लिष्टता या समझ लेने पर सरलता - प्रेम मे समर्पण या स्वीकृति का उस माॅग से है जो कभी अपेक्षित यौवन रस के चलते और कभी मात्र शरीर और सहयोग सुख की अभिलाषा के चलते मानसिक तनाव बनाये रखती है”. (कहानीकार जैनेन्द्र - अभिज्ञान और उपलब्धी - जगदीश पाण्डेय) उनकी कहानियों - ‘जान्हवी‘ ‘त्रिवेणी‘ ‘पत्नी‘ ‘दो सहेलियाँ’आदि में स्त्री अपनी स्वाभविक इच्छा, आकांक्षा, अधिकार की मांग करने वाली नारी के रूप मे सामने आती है। जैनेन्द्र की इस कहानियों में ‘घर‘ है- उसकी छत है, खुला आकाश है, उन्मुक्त पक्षी है। शहर के एक ओर का तिरस्कृत ‘मकान‘ है, चूल्हे का धुआ है, अॅधेरा है और भगवान को कोसने वाला वह वाक्य है कि ‘भगवान, तूने औरत को क्यों जनमाया ? जैनेन्द्र की नारी पात्र अपने पति को ‘उपदेशक‘ और ‘कामुक‘ क्रान्तिकारी‘ समाजिक तथा नौकरी - शुदा होने के अतिरिक्त उसे ‘किसी और अवस्था‘ में देखने के लिए तड़पती है। थौड़े-गिले-शिकवे के साथ उसमे जी लेने की चाहत है। और जीवन की हौस को बुझते न देने का गहरा आत्म-बल। वह प्रेम की भूखी है, पुरूषों की तरह प्यार को सिर्फ फुरसत की चीज वह नहीं मान पाती है। ‘विवाह‘ और प्रेम का सवाल भी जैनेन्द्र की चिन्ता के मूल प्रश्नों में है। वे विवाह को दो व्यक्तियो का सम्बन्ध नही मानते वे उसे समाज की ग्रन्थि मानते है। विवाह उनके लिए ‘भावुकता का प्रश्न नही, व्यवस्था का प्रश्न है।‘ इसे जैनेन्द्र के स्त्री सम्बन्धी  का कम जोर पक्ष कहा जाना चाहिए। आखिर छायावाद और उसके बाद का वह दौर जब नारी मुक्ति की हवा जोरों से चल रही थी, जैनेन्द्र के यहाँ वह ‘व्यवस्था का प्रश्न‘ में बॅध क्यों गई? यह विचारणीय है। नारी क्यों नियति पर टिकी रह गई? जैनेन्द्र ‘त्यागपत्र‘ में लिखते है - ‘‘दान स्त्री का धर्म हैै। नहीं तो उसका और क्या धर्म है? सवाल यह है कि जैनेन्द्र नारी मन की संवेदना को जानते हुए भी आखिर उसे प्राकृतिक रूप से इसी लायक क्यो घोषित कर देते है?


 जैनेन्द्र की कुछ कहानियों में ‘पति-पत्नी और ‘वह‘ का त्रिकोण है तो कुछ में स्त्री-पुरूष के आपसी रिश्तों से उपजी नारी मन की झुंझलाहट। ‘पत्नी‘ (1940) और ‘त्रिवेणी‘(1935) दोनों कहानियाँ लगभग एक जैसी नारी की कथाएं है। ‘पत्नी‘ की पत्नी सुनन्दा अपने पति कालिन्दी चरण की सेवा ‘भारतीय नारी-विधान‘ की तरह ही करती है। लेकिन उसे अपने जीवन के दिनों में अलस भाव से केवल यही सोचने को रह गया है कि (जिन्दगी के) कोयले बुझ न जाये। वह जिनकी अर्धांगिनी है उसी का उत्साह उसे समझ में नही आता। परतंत्रता (सदियों की) की बेड़ियों में जकड़ी इस नारी को (सुनन्दा को) भारत माता की स्वतंत्रता की बात समझ में नही आती है। ‘वह कम पढ़ी-लिखी है, लेकिन उसमे उसका क्या कसूर है? कहकर जैनेन्द्र पूरी सामाजिक व्यवस्था को कटघरे मे खड़ा करते है। घर मे ही बेगानी बन गई नारी की कहानी है- ‘पत्नी‘। किसी ने सही लिखा है-‘‘सुनन्दा का पति परदेश मे नही है, वह घर पर ही है। वह चौकेकी वेबा है, र्निजीव चीजों के बीच ही सुनन्दा की दुनिया बसती है। उसकी ट्रेजडी मे कोई काव्यत्व नही, नाटकीयता नही, नित्य प्रति का मौन मरण है। जहाँदुख एक दिन का नही रोज का है। ध्यान रहे! यह अज्ञेय का ‘रोज‘ नही है। यहाँ अज्ञेय के नीरस, यान्त्रिक विघटनोन्मुख जीवन का रूप नही है- यह तो जैनेन्द्र का अपनी परंपरा मे दो दम्पत्तियों के अनबन की कहानी है, जिसमे चाह और खीझ दोनों दबायी जाती है। खीझ तो कभी प्रकट हो जाती है, लेकिन तब असल चाह पर परदा पड़ जाता है। एक ओर उपेक्षा लेकिन दूसरी ओर मनुहार की भूख है।‘‘ यहाँ जैनेन्द्र यह दिखाने मे सफल है कि ‘क्रान्ति‘ घर के बाहर ही होती थी, यह भी चित्रित करने मे सफल है कि नारी मुक्ति का आन्दोलन घर के भीतर नही चल रहा था। वह मात्र छलावा था, नारी अब भी पिंछड़े मे बंद थी। वे यह भी बताते चलते है आन्दोलन का जिम्मा किस तरह घर के भीतर कैद रहने वाली नारियां उठ रही थी। इस कहानी मे नारी अपने ‘तनिक-सा‘ मान की तलाश करती है यहाँ वह भी कुचल उठा। लेकिन फिर भी सुनन्दा-‘मेरी तो खैर कुछ नही, पर अपने तन का ध्यान रखना चाहिए।‘ की कामना अपने पति से करती है। इस कहानी मे-बच्चो की तरह झगड़ा है, मगर बड़ों की तरह विचार, पति के स्वास्थ्य की चिन्ता है, पति कुछ भी करे, उसमे विश्वास भी है, पति कम से कम पूछॅ तो लिया करे बस इतनी सी ही ललक है।

 ‘पत्नी‘ यदि दो (सुनन्दा और कालिन्दीचरण) के बीच की अबूझ प्रेम कहानी है तो ‘त्रिवेणी‘ (1935) वैवाहिक जीवन की जकड़ बंदी को उजागर करने वाली कथा। कहानी के दो भाग है पहले मे यथार्थ है दूसरे मे पश्चाताप। पहले मे जिन्दगी के चूल्हे की मंद आंच है, वैवाहिक जीवन मे ‘मध्यान्ह का प्रखर ताप है, यहाँ क्षण-क्षण पर बगूले उठ रहे है। दिन काटे जा हे है। जिन्दगी की गाड़ी चू-चू कर चल रही है। जीवन मे रस नही है। पति-पत्नी है, बच्चा भी है, लेकिन जीवन का सार तत्व वहां गायब है। कहानी का दूसरा भाग वह है जहाँ पहले का दुःख उसे पाप लगता है। प्रेम की तरसती त्रिवेणी यहाॅ भोजन बनाने को तैयार है। यहाँ नारजगी नही है और ऋण मांग लेने का साहस है। एक नीरस होते जीवन मे प्रेम को (विवाह से ऊपर) एक निर्णायक तत्व के रूप मे जैनेन्द्र यहाँ प्रस्तुत करते हैं। कहानी का आरम्भिक विद्रोह अन्त मे पश्चाताप क्यो बन जाता है? और स्त्री भारतीय पतिव्रता आर्दश का चोला पहन लेती है। चंचलता और संकोच बगैर ‘प्रेम’ तत्व के किस प्रकार जिन्दगी को उबाऊ बना देते है। जैनेन्द्र इसकी पड़ताल करते यहाँ जान पड़ते है।

पितृसत्तात्मक दृष्टिकोण और जैनेन्द्र (विशेष सन्दर्भ-‘पत्नी’ कहानी)

 ‘जान्हवी‘ कहानी मे किसी को छायावाद की ‘छाया‘ दिख सकती है। और कमोवेश इससे सहमत भी हुआ जा सकता है लेकिन कहानी उससे आगे भी बहुत कुछ कहती है। ‘प्रेम‘ और ‘विवाह‘ के सवाल को जैनेन्द्र ने इस कहानी मे भी नारी मुक्ति के प्रश्न के रूप मे प्रस्तुत किया है। लेकिन हमेशा की तरह जैनेन्द्र की नारी पात्र यहाँ भी किसी तरह का सामाजिक विद्रोह नही करती है। जान्हवी अपने मंगेतर ब्रजमोहन के पास पत्र भेजकर अपने पूर्व प्रेम की सूचना देती है। वह कहती है-‘आप जब विवाह के लिए यहाँ पहुचेंगें तो मुझे प्रस्तुत भी पायेगें विवाह जैसे धार्मिक अनुष्ठान की पात्रता मुझमे नही है। एक अनुगता आपको विवाह द्वारा मिल जायेगी। पर चाहिए की वह जीवन-संगिनी भी हो। वह मै हूँ या हो सकती हूँ.इसमे मुझे बहुत संदेह है। विवाह मे आप मुझे लेगें और स्वीकार करेंगे तो मे अपने आप को दे ही दूँगी, आपके चरणों की धूल माथे से लगाऊॅगी। आपकी कृपा मानूंगी । कृतज्ञ होऊॅगी। पर निवेदन है कि यदि आप मुझ पर से अपनी मांग उठा लेंगे, मुझे छोड़ देंगे, तो मैं और भी कृतज्ञ होंऊॅगी। निर्णय आप के हाथ है। जो चाहे, करे।‘‘ सामाजिक मान्यताओं के बीच जकड़ी जान्हवी जहाँ पढ़ी-लिखी सब की जात एक ही मानी जाती है- लड़की अपने प्रेम का प्रदर्शन/अभीव्यक्ति नही कर सकती है। तथा कथित ‘सामजिकता‘ के ठेकेदारों से वह अन्त तक कहती है- ‘‘दो नैना मत खाइयो‘‘। मत खाइयो - पीउ मिलन की आस!‘‘ मृणाल की तरह अनकहे रूप में वह भी चिड़िया होना चाहती है। पुरूष प्रणान समाज को इसमें कोई आपत्ति नहीं बशर्ते उसे पिजंरे (सामाजिक) में रहना स्वीकार हो।


 सन् 1960 में लिखी कहानी ‘दो सहेलियाँ’ भी कुछ ऐसी ही समस्याओं को सामने लाती है। जसुदा और बसुदा की आधी जीवन यात्रा के बीच विवाह और प्रेम के सवाल को जैनेन्द्र ने पढ़ी-लिखी तथा नौकरी-शुदा नारी की पीड़ा के रूप में प्रस्तुत किसा है। सन्तुष्ट दोनों नहीं है अपने पति तथा अपने समाज से, नारी यहाॅ प्रेम के त्रिकोण पर जिन्दा है। जिसे वसुदा ने बयां कर दिया है -‘‘ तुम न कभी पति की बात करेगी, न उस चेहरे की बात करोगी जो मेरे सारे कष्टों का कारण रहा। उसका प्यार न होता तो मैं तनिक से ही कष्ट में कभी की अडिग चुकी होती और जब तक बड़े आराम से होती।‘‘ इसमें भी नारी अपने को मार कर जीवित रहती है। ‘मन के छलावे में रहने से फायदा नहीं है। मन मार कर ही रहना हो पाता है।‘‘ नारी ने स्वच्छन्द जीवन नहीं देखा, लेकिनयह उसकी आदत का हिस्सा बन गया है। बसु अपने पति से संतुष्ट नहीं है डाªइवर की जगह उसने पति को रखकर घाटे का सौदा क्या सचमुच नहीं किया है। उसका पति उसकी जिन्दगी की गाड़ी का डाªइवर नहीं है- ‘मर्द एक काम में मर्द हो तो उतने से तो चलता नहीं है। बाकी जिन्दगी में भी तो उसे ‘मर्द‘ होना चाहिए।‘ औरत अपनी स्थिति से अवगत है पुरूष कुछ भी करे उसे तो पूरी छूट है लेकिन औरत को, तो मन मार कर ही जीना होता है -‘‘मरद का दिल शीशा होता है। जरा में तरेड़ खा जाता है। मरद तो मरद है। आखिर बिगाड़ तो औरत को भोगना होता है। बे सहारा वही बनती है।‘‘ सच को कहने की छूट और सुनने का साहस समाज में कहाॅ ? जैनेन्द्र ने अन्यन्त्र कही लिखा है कि ‘‘प्रेम जीवन को बहलाने की वस्तु तो बन सकती है, लेकिन जीवन उसके लिए स्वाहा नहीं किया जा सकता। जीवन तो दायित्व है और विवाह वास्तव में उसकी पूर्णता की राह - उसकी शर्त।‘‘

सूरजमुखी अँधेरे के” की नायिका का आहत मनोविज्ञान

जैनेन्द्र के नारी पात्र उनके इसी वक्तव्य पर साइन कर अपने को पुरूष समाज के शोषण से मुक्त कर पाने में असफल रहती है। अत्यधिक नैतिकता वैवाहिक जीवन मे एक स्त्री को कुंठित कर देती है। छः बच्चों की माँ बन चुकी स्त्री उजाले मे पति को ‘सत्यार्थ-प्रकाश‘ के रूप में ही क्यों देखती है। पति का प्यार उसने दिन मे देखा ही नहीं। स्त्री अपने पति को प्रेम के रूप मे देखना चाहती है लेकिन उसने उपदेशक और कामुक के अतिरिक्त कोई और अवस्था देखी ही नही। ‘क्या है स्त्री, क्या है अर्थ, क्या है व्यवसाय ? जैनेन्द्र की नारी को यह सब माया का प्रपंच लगता है।तमाम कष्टों को सहकर अपने पति को इन कष्टों की फिक्र से दूर रखने की कोशिश यहाॅ भी है घर से बाहर बिना बताये निकलने की मनाई भी है साथ मे है पुरूष वादी मानसिकता का वह बंधन जिसके लिए नारी सिर्फ नारी है। इस प्रकार ‘दो सहेलियाँ‘ जैनेन्द्र की नारी जीवन को बेढ़ब जिन्दगी को उजागर करने वाली ऐसी कहानी है जिसमे संवेदनाओ, को मोथरा बना दिया है समाज ने और उसकी झूठी नैतिकता ने ! जैनेन्द्र की नारी जिस तरह ‘त्यागपत्र‘ में समाज को नहीं तोड़ती, वैसे ‘दों सहेलियाँ‘ में भी। वैसे भी जैनेन्द्र तोड़ने के नही जोड़ने के हमेशा कायल रहे है बावजूद कुछ कमजोरियो के। ‘‘उनकी रचनाओं में जिस रास्ते से समाज परिवर्तन की ध्वनि उठती है, वह हृदय-परिवर्तन का रास्ता है। त्याग उनके पात्रों का सबसे बड़ा गुण है, वे दूसरे को तकलीफ पहुचाना तो दूर होम होना जानते हैं-बलिदान, उत्सर्ग की भावना उस समय वातावरण मे थी।‘‘1 इसलिए कोई उन पर गाधीवाद का प्रभाव देखना चाहे तो देख सकता है।

 जैनेन्द्र की नारी-दृष्टि पर बात करतेहुए हमें जैनेन्द्र के युग का और अपने युग दोनों का ध्यान रखना चाहिए। साथ में जैनेन्द्र के उन विचारों को भी जिन्होंने उनको नारी जीवन की संवेदना को जानने-समझने की शक्ति दी। जैनेन्द्र के नारी-मत परम्परागत हैं, उनमें समाज धर्म के चलते व्यक्ति (नारी) की प्राकृतिक अवस्था ही दान-धर्म के रूप में मान ली गयी है जो कि जैनेन्द्र के विमर्श का एक कमजोर पक्ष कहा जा सकता है। उनकी नारी बंधनों में बंधती चली जाने वाली, अदम्य आत्मबल रखने वाली, ईमानदार, भारतीय सतित्व आदर्शों को पालने वाली है। आज के प्रगतिशील समीक्षक उनके ‘प्रेम‘ ओर ‘विवाह‘ जैसे मुद्दों पर सवाल उठा सकते है कि । क्या प्रेम गुनाह है? क्या विवाह सिर्फ समाज की ही गाठ है? व्यक्ति की अपनी चाह का कोई योग उसमें नही है। जैनेन्द्र कुमार की चिन्तन प्रक्रिया इसी देश की परंपराओं और संस्कृतियों के समेकित ज्ञान से निर्मित हुई है‘‘। 2 अतः आज की प्रगतिशीलता के बरक्स जैनेन्द्र समय के साथ हैं। श्रीकांत वर्मा ने ठीक लिखा है- ‘‘जैनेन्द्र कुमार की सबसे बड़ी देन है, स्त्री की सामाजिक स्थिति और नियति की परिभाषा। स्त्री-पुरूष संबधों को लेकर तो जैनेन्द्र कुमार के पहले भी लोगों ने लिखा और उसके बाद भी लागों ने लिखा है लेकिन स्त्री की सामाजिक स्थिति पर और उनकी नियती पर सिर्फ एक ही लेखक ने लिखा है, हिन्दी में और वे है जैनेन्द्र कुमार।‘‘ (जैनेन्द्र की आवाज, सम्पादक अशेक बाजपेयी, पृष्ठ-40) प्रेम को जिस तरह का ‘प्रगतिशील‘ समाज ‘ईश्वर‘ की चीज मानता है। कृष्ण राधा से खुलकर प्रेमालाप ही नही ‘रासलीला‘ भी रचाते है लेकिन यदि मनुष्य ऐसा करता है तो वह व्यभिचार क्यों हो जाता है। ‘मीरा‘ को पहली विद्रोही स्त्री मानने वाले क्या खुद के परिवार की लड़की का मीरा हो जाना स्वीकार कर सकेगें? ध्यान रहे जैनेन्द्र कागजी कलाबाजी में नही आये। जिस समस्या का समाधान व्यापक समाज में सम्भव न हो उसको साहित्यिक समाधान के रूप में पेश करने से क्या फायदा?


चैखव में कहीं लिखा है- बड़े रचनाकार का कार्य समाधान देना नही, समस्याओं को सही तरीके से रखना होता है। ‘जैनेन्द्र कुछ इन्ही‘ अर्थों में सफल है। डा0 निर्मला जैन लिखती है- ‘‘जैनेन्द्र के लिए निदान से ज्यादा महत्वपूर्ण है‘‘। 3 ‘‘नारी-पात्रों की सारी विविधताओ को एकत्रित किया जाये तो कृतिकार जैनेन्द्र की ओर से एक ही संकेत है कि नारी कोई रूढ़ प्राणी नही जो जन्म-जन्मान्तर से एक ढर्रे पर चलती चली आयी हो, नारी में यौवन का मद है, आवेश है, जो जीवन भर व्यभिचारी पति से परित्क्त होने पर, जी लेनी की सहिष्णुता भी है।‘‘ (‘कहानी कार-जैनेन्द्र-अभिज्ञान और उपलब्धि‘-लेखक-जगदीश पाण्डेय) आज ‘स्त्री-विमर्श‘ के दौर में जैनेन्द्र पर भले सवाल उठाये जाये, लेकिन परतंत्रता के काल में जैनेन्द्र ने सामाजिक विषयों से अलग नारी के वैयक्तिक सुख दुःख की जो समीक्षा की वह कही न कही आज के स्त्री विमर्श से जुड़ जाता है। समाज को बदलने के हिंसात्मक तरीके के जैनेन्द्र कायल नही। परिवर्तन ऐसा कि लोगों को किसी भी तरह खदेड़ा, कुचला या अपनी जगह पर खचोटा न जाए, बल्कि समझाने के रास्ते, त्याग और साझेपन के जरिये, नम्र और विनीत ढंग से मनवाकर परिवर्तन लाया जाए। जैनेन्द्र का ‘स्त्री-विमर्श‘ भी उनके इसी नम्र और विनीत ढंग से चलने वाला एक घरेलू आन्दोंलन है। जैनेन्द्र ने आज के लिए भूमि तैयार की इसमे कोई संदेह नही।

नोट:- स्त्रीकाल स्त्री के लिए नारी शब्द के प्रयोग के पक्ष में नही है.

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स्त्री अस्मिता आंदोलन इतिहास के कुछ पन्ने

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आलोक कुमार यादव
जे.एन.यु.में शोधार्थी, नई दिल्ली . संपर्क:alokjnu87@gmail.com मोबाइल : 8010333108  

 प्राचीन काल से ही स्त्री, स्त्री का शोषण, उसकी समस्याएँ, उसकी सामाजिक स्थिति उसका विकास और समाज के विकास में उसका योगदान विचार क्षेत्र के प्रमुख विषय रहे हैं और वर्तमान में भी है. नारी तुम केवल श्रद्धा हो, देवी माँ, सहचरि प्राण जैसे ब्रह्म वाक्यों को सुनते हुए होश संभालने वाले इस सामाजिक मानस को परिवर्तित कर देना अकल्पनीय बात थी, लेकिन पिछले कुछ दशकों में उभरे सामाजिक अस्मिता के आन्दोलनों ने स्त्री की छवि, स्त्री की सामाजिक स्थिति और स्त्री के बारे में प्रचलित रूढ़िगत और मिथकीय अवधारणाओं को तोड़ा है. सदियों से उसके जिस ‘स्व’ का अपहरण पितृसत्तात्मक व्यवस्था ने किया था उसे अब वह वापस पाने के लिए प्रयासरत है. ऐसा नहीं कहा जा सकता कि स्थितियाँ पूरी तरह से बदली हैं, स्थितियों में कुछ सकारात्मक बदलाव हुए है. समस्याएँ अभी भी हैं, समस्याओं का स्वरूप बदल गया है.

स्त्री की प्रजनन क्षमता को उत्पादक के रूप में देखा गया. मनु के शब्दों में ‘स्त्रियां खासकर प्रजनन के लिए ही बनाई गई हैं.’ (प्रकरण 10-26) इस संदर्भ में उमा चक्रवर्ती ने लिखा है कि- “पत्नीत्व से वैध मातृत्व के संक्रमण के लिए स्त्री की यौनिकता को व्यवस्थित करना जरूरी हो गया. इसलिए हमारे लिए जिस बात का पता करना महत्वपूर्ण हो जाता है वह यह कि स्त्री की यौनिकता की व्यवस्था किनके हाथों में थी? इसके साथ ही, यह भी कि उसमें खुद स्त्री की सहभागिता थी अथवा नहीं?”1 “पुरुष तंत्र को बनाए रखने के लिए या उसकी वंश वृद्धि के लिए पुत्रसंतान होना आवश्यक है अतः स्त्री का पहला कर्तव्य पुत्र संतान को जन्म देना माना गया.” (अपस्तम्ब धर्मसूत्र 1/10-51-52)

इन सारी बातों का लब्बोलुआबयह है कि स्त्री दासी और गणिका दो ही तरह की वृत्तियों के योग्य है. उसके पास अपना निर्णय नहीं है, उसकी कोई राय नहीं है. भारतीय इतिहास में जब कुछ साहसी दासियों की बाते होती है तो गार्गी का नाम भी आता है. गार्गी ने शास्त्रार्थ करते हुए जब अपने पिता को हराने की स्थिति में पहुँची तो उनके पिता ने ब्राह्मणवादी पुरुषत्व का सहारा लेते हुए उसे धमकी दी ‘गार्गी, बहस को इतना आगे न ले जाओ.’ गार्गी थोड़ी देर के लिए चुप हो गई थी. उमा चक्रवर्ती ने इस सन्दर्भ में लिखा है कि- “यहाँ यह बात महत्वपूर्ण है कि किसी पुरुष को अधीनता की स्थिति में लाना हो तो उसके विरोध को दबाने के लिए अथवा उसे चुप कराने के लिए जहाँ वास्तव में हिंसा का रास्ता अपनाना पड़ता है वहीं स्त्री के मामले में हिंसा की धमकी से ही काम चल जाता है.”2

पितृसत्तात्मक कायदों के कार्यकरने में हिंसा के अंतर्निहित होने का प्रमाण है लेकिन स्त्री के ‘आवेगों’ पर हिंसा के प्रयोग अथवा इसकी धमकी से ही लगाम लगाए रखा जा सकता है. स्त्री को लगाम लगाए रखने के लिए ढेर सारी आचार संहिताएं भी बनाई गई जो उपनिषदों और संहिताओं में थोक के भाव मिलते हैं. सबसे आदर्श संहिता जो भारतीय समाज में व्याप्त है वह रामायण में हमें सूर्पनखा का राम के प्रति यौनाकर्षित होने की परिणति, लक्ष्मण द्वारा उसके नाक काटने की घटना में होते हैं. नाक का कटना एक तरह से यौनांग विच्छेद का रूपक है. अखबारों की रोज की घटनाएं इस तरह की प्रवृत्तियों के विद्यमान होने की सूचक है.


 स्त्री अस्मिता के हनन के उपरोक्त  कुछ उदाहरणों से हम समझ सकते है कि स्त्री की सामाजिक स्थिति क्या थी और क्या है और क्या हो सकती है? यह आन्दोलन प्रथमतः स्त्री को एक इंसान का दर्जा दिलाने के लिए है और इसके लिए सिमोन द बोउवार लिखा है कि- “किसी समाज सुधारक या मसीहा द्वारा स्त्री की मुक्ति का मार्ग नहीं निकलेगा. वह जब भी निकलेगा स्त्री के अपने संघर्षों से ही होकर निकलेगा. यह संघर्ष प्रारंभ होगा अपने अस्तित्व बोध से.”3 दूसरे शब्दों में कहें तो यह अस्तित्व की चेतना ही अस्मिता के होने के अंग हैं. अपने अस्तित्व को लेकर एक चेतना का भाव जगाना ही स्त्री अस्मिता आन्दोलन का लक्ष्य भी है.

अपने इस ‘स्व’ के लिए लड़ाई, स्त्रियों ने सभ्यता के प्रारम्भिक काल से ही लड़नी शुरू कर दी थी. स्त्री आज जिस सामाजिक स्थिति में है वह एक लम्बे संघर्ष की देन है, पराजय और निराशा के क्षण भी इस दौरान आए लेकिन स्त्रियों ने हार नहीं मानी. ज्ञान और सत्ता का संबंध सर्वव्यापी है, जिसके पास ज्ञान रहा वही सत्तासीन रहा, इसलिए स्त्रियों को सर्वप्रथम ज्ञान से ही वंचित रखने की साजिश की गई. पितृसत्तात्मक व्यवस्था ने प्राचीन काल से ही यह कार्य किया. गार्गी जैसी कुछ स्त्रियाँ अपवाद स्वरूप रहीं. ज्ञान से वंचित रखने की व्यवस्थित साजिश हुई. शिक्षा के संस्थानों से स्त्रियों को दूर रखा गया. धीरे-धीरे वास्तविक ज्ञान के अभाव में पितृसत्तात्मक व्यवस्था के  नियमों को मानना स्त्री को सत्य लगने लगा और धर्म भी, साथ ही उसे ईश्वर की मर्जी से भी जोड़ दिया.

दरअसल प्राचीन काल में स्त्री के जितने भी शोषण के प्रमुख बिन्दु थे वह मूलत धर्म से ही संचालित हुए. किसी भी बात को तुरन्त ईश्वर की मर्जी और धर्म से जोड़ देना भी पितृसत्तात्मक व्यवस्था की ही साजिश रही. “इस स्थिति को व्यवस्थित करने का एक प्रयास मनुस्मृति में ;.67द्ध किया गया है. जहाँ स्त्रियों को उपनयन में शामिल होने से रोक दिया गया है. उपनयन संस्कार पवित्र ज्ञान प्राप्ति का प्रारंभ बिंदु था. इसे और गहरे स्थापित करने के लिए कई विकल्प भी सुझाए गए हैं, स्त्रियों के लिए विवाह करना, पुरुषों के उपनयन के समकक्ष था, पति की सेवा करना छात्र होने के समान था और घर के कामों को संपन्न करना पवित्र अग्नि की पूजा अर्चना के समान बताया गया (मनुस्मृति .67). ऐसे निर्देशों को स्वीकार कर लेने का मतलब होता है कि कोई भी गैर घरेलू काम को नारीत्वहीन और गैर पत्नी कार्य माना जाता.”4


स्त्रियों ने अपनी इन समस्याओं के प्रति प्राचीन काल में उस तरह से प्रतिरोध नहीं किया, जिन अर्थों में आज स्त्री अस्मिता की बात हो रही है. स्त्री अस्मिता की व्यवस्थित शुरूआत उन्नीसवीं शताब्दी में होती है. राधा कुमार ने लिखा है कि “उन्नीसवीं सदी को स्त्रियों की शताब्दी कहना बेहतर होगा क्योंकि इस सदी में सारी दुनिया में उनकी अच्छाई-बुराई, प्रकृति, क्षमताएँ एवं उर्वरा गर्मागर्म बहस का विषय थे. यूरोप में फ्रांसीसी क्रांति के दौरान और उसके बाद भी स्त्री जागरूकता का विस्तार होना शुरू हुआ और शताब्दी के अंत तक इंग्लैण्ड, फ्रांस तथा जर्मनी के बुद्धिजीवियों ने नारीवादी विचारों की अभिव्यक्ति दी. उन्नीसवीं सदी के मध्य तक रूसी सुधारकों के लिए ‘महिला प्रश्न’ एक केन्द्रीय मुद्दा बन गया था जबकि भारत में खासतौर से बंगाल और महाराष्ट्र में समाज सुधारकों ने स्त्रियों में फैली बुराइयों पर आवाज उठाना शुरू किया.”5

वास्तव में आजादी के पहले से हीचिन्तन की दुनिया में विचारों को आयातित करने की जो प्रवृत्ति बनी, भारत में स्त्री अस्मिता भी उससे अछूती नहीं है.है. स्त्री अस्मिता का एक महत्वपूर्ण पहलू है कि स्त्रियों की शिक्षा पर ध्यान दिया जाय. स्त्री शिक्षा ही वह एकमात्र हथियार है जो स्त्री की चेतना को निर्मित करते हैं और स्त्री अस्मिता की पूरी लड़ाई चेतना से ही लड़ी जा सकती है. “जैसा कि हमें मालूम है कि स्त्रियों को शिक्षित करने के महत्व पर सबसे पहली सार्वजनिक बहस राजा राममोहन राय द्वारा 1815 में स्थापित ‘आत्मीय सभा’ बंगाल में छेड़ी गई.”6 राजा राममोहन राय ने उसके बाद सती प्रथा पर हमला बोलते हुए पहला लेख लिखा था. राजा राममोहन राय ने पहली बार भारत में सतीप्रथा के विरूद्ध आंदोलन चलाया और उनके संघर्षों के फलस्वरूप “विलियम बेंटिक 1829 में जब भारत के गर्वनर जनरल बने तो उन्होंने सती निर्मूलन एक्ट पास किया.”7

सती उन्मूलन आन्दोलन के बादस्त्रियों की दशा सुधारने के लिए स्त्रियों की शिक्षा का आंदोलन एकाएक जोर पकड़ने लगा. “लड़कियों के लिए स्कूल सबसे पहले अंग्रेज तथा ईसाई मिशनरियों द्वारा 1810 में शुरू किए गए. स्त्रियों की शिक्षा से संबंधित पहली पुस्तक किसी भारतीय भाषा (बंगाली) में 1819 में एक भारतीय गुरूमोहन विद्यालकार द्वारा लिखी गई जिसे कलकत्ता की कन्याबाल समिति ने 1820 में प्रकाशित किया. 1827 तक मिशनरियों द्वारा हुगली जिले में 12 कन्या पाठशालाएँ चलाई जाने लगीं. एक वर्ष बाद “ ‘लेडी’ स सोसाइटी फार नेटिव फीमेल एजुकेशन इन कैलकटा एण्ड इट्स विसिनिटी” ने स्कूल खोले जो मिस कुक द्वारा चलाए गए. ऐसा देखा गया है कि गरीब इलाकों में खुले स्कूलों के बारे में जानने के लिए स्त्रियाँ भी दिलचस्पी ले रही थीं.”8
हालांकि स्त्रियों को उस समय शिक्षित करने के दो कारण थे, पहला तो यह कि उस समय ईसाई मिशनरियों द्वारा ईसाईयत फैलाने का डर हिन्दुओं को हो गया था इसलिए हिन्दू एवं ब्राह्मणकन्या पाठशालाएँ खोली गई. दूसरा कारण यह था कि भारत में जो उभरता हुआ मध्यवर्ग था वह अपनी स्त्रियों को अंगे्रज स्त्रियों के तरह के पाश्चात्य तौर-तरीकों से परिचित कराना चाह रहा था. राधा कुमार ने अपनी किताब में एक पारसी फ्रांसकी बोमन जी के विचारों को उद्धृत किया है- “हम अपनी पत्नियों तथा पुत्रियों के लिए अंग्रेजी  भाषा, अंग्रेजी  रीति और अंग्रेजी  आचरण चाहते हैं और जब तक हमें यह नहीं मिलेगा तब तक अंग्रेजों  और भारतीयों के बीच की यह खाई बरकरार रहेगी.”9 तो कहीं न कहीं भारतीय स्त्रियों को पश्चात्य विचारों से ही प्रभावित होकर शिक्षा का द्वार पितृसत्तात्मक व्यवस्था ने खोला. स्त्री शिक्षा की जब भी बात होगी तो ज्योतिबा फुले का नाम लेना जरूरी होगा, ज्योतिबा फुले ने 1852 में तीन कन्या पाठशालाएँ खोली जिसमें उन्होंने स्त्रियों की शिक्षा को लेकर काम करना शुरू किया.


भारतीय इतिहास में ईश्वरचन्द्रविद्यासागर का आगमन स्त्री अस्मिता इतिहास की भी एक महत्वपूर्ण घटना है. ईश्वरचन्द्र विद्यासागर ने सन् 1850 में विधवा पुनर्विवाह पर लगे प्रतिबंध को समाप्त करने के लिए अभियान चलाया. 1855 में भारत के गर्वनर जनरल को विधवा पुनर्विवाह के लिए कानून बनाने के लिए याचिका दायर की.
स्त्री आन्दोलन के इस प्रारम्भिक दौर में स्त्री की समस्याओं को केन्द्र में रखकर लडाईयाँ लड़ी जाती थीं लेकिन बाद में चलकर उन्होंने अपने अधिकारों की मांग करनी शुरू कर दी. 1914 में हुए महायुद्ध ने स्त्रियों के राजनीतिक मूल्य को काफी बढ़ा दिया था. युद्ध में स्त्रियों की भूमिका अत्यन्त महत्वूपर्ण रही. इग्लैण्ड और अमरीका की सरकारों ने युद्ध में स्त्रियों द्वारा भाग लेने की एवज में स्त्रियों के लिए मताधिकार प्रस्तावित किया. स्त्री को मत देने के योग्य समझना उसे एक व्यक्ति के रूप में मान्यता मिलने का सबसे बड़ा प्रमाण है.1921 में भी भारत के विभिन्न प्रांतों में उसे मताधिकार प्रदान किया गया. बंगाल से राजा राममोहन राय जैसे समाज सुधारकों के प्रयत्नों से स्त्री सुधार की जो हवा बहने लगी थी उसका असर पूरे भारत पर हो रहा था. सामाजिक कार्यकर्ताओं के प्रयासों से अंधविश्वासों और कुप्रथाओं की बेड़ियों से स्त्री जाति को निकालने के लिए लगातार सार्थक कदम उठाए जा रहे थे. सती प्रथा के विरूद्ध कानून पारित हो चुका था. 1930 में शारदा एक्ट के तहत निम्नतम विवाह आयु सीमा बढ़ाकर 14 वर्ष कर दी गई थी. भारत में बाल विवाह स्त्रियों की दुर्दशा का सबसे बड़ा कारण रहा है. विवाह की आयु बढ़ा देने से स्त्री शिक्षा की ओर भी थोड़ा रूझान बढ़ा है.

शिक्षा के प्रसार से जब लड़कियाँविविध व्यवसायों के मार्ग खुले पाने लगीं तो वे आर्थिक दृष्टि से स्वतंत्र और स्वावलम्बी होने लगीं. इस युग में स्त्री को व्यक्तिगत अधिकार देने का भी प्रयास किया गया 1937 में बंगाल में ‘हिन्दू विमैन्स राइट जू प्रापर्टी’ कानून पास किया गया. इससे कुछ वर्षों पहले बंगाल के ही केन्द्रीय व्यवस्थापक मण्डल ने इस तरह की माँग की तो उसे जनता के अत्यधिक विरोध के कारण पास नहीं किया गया था.
स्त्रियों का राजनैतिक क्षेत्र में अवतरण स्त्री स्वतन्त्रता का एक महत्वपूर्ण पहलू है. एनी बेसेन्ट के भारत आने से लेकर उनके कांगे्रस की सभापति बनने के बीच के समय में स्त्रियों में राजनैतिक चेतना जागी. 1947 में कलकत्ता कांगे्रस में तीन स्त्रियाँ एनी बेसेन्ट, अम्मन बीबी और सरोजनी नायडू महत्वपूर्ण पदों पर थीं. भारत के सामाजिक तथा राजनैतिक इतिहास में ये तीन स्त्रियाँ नवयुग के आरम्भ की सूचक थीं. 1921 से 1923 के असहयोग आन्दोलन में स्त्रियों ने बड़ी संख्या में भागीदारी की. 1923 के सविनय अवज्ञा आंदोलन के दिनों में भारतीय स्त्रियों में राजनैतिक स्तर पर चेतना अत्यंत व्यापक पैमाने पर फैली. देश सेवा के लक्ष्य को लेकर सरोजनी नायडू, कमला देवी, चट्टोपाध्याय, रूक्मिणी लक्ष्मीपति, हंसा मेहता, कस्तुरबा गाँधी, मीराबेन, नेली सेन गुप्ता, सरस्वती देवी जैसी महिलाएँ समस्त नारी जाति की प्ररेणा के रूप में उभरीं. भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में बढ़-चढ़ कर भाग लेने वाली स्त्री अब भारतीय बुद्धिजीवियों की दृष्टि में ‘अवगुण आ सदा उर रहहि’ के स्थान पर सद्गुणों की खान के रूप में स्थापित हो चुकी थी.

अंग्रेजों का आगमन स्त्री स्वाधीनताके पक्ष में महत्वपूर्ण घटना थी. ब्रिटिश राजसत्ता अपने साथ राज्य व्यवस्था ही नहीं, नई आर्थिक रचना और विचारधारा भी लाई. भारतीय जनजीवन पर इस धारा का व्यापक प्रभाव पड़ा. पहले-पहले बदलते आर्थिक संबंधों ने भारत की बुनियादी संस्थाओं की नींव हिला दी. नए आर्थिक संबंधों ने पहले सदियों से चली आ रही वर्ण व्यवस्था पर आधारित ग्राम्य-व्यवस्था को हिलाया. यद्यपि सीधे-सीधे अंगे्रजों ने स्त्रियों के हित में कोई काम नहीं किया किन्तु नए आर्थिक संबंधों और अंगे्रजी शिक्षा की शुरूआत ने अप्रत्यक्ष रूप से नारी को प्रभावित किया. यह नई शिक्षा स्त्रियों के लिए ही नहीं थी. विदेशी अधिकारियों के नजर में स्त्री शिक्षा की कोई तात्कालिक उपयोगिता नहीं थी क्योंकि स्त्रियों को दफ्तर में क्लर्क नहीं बनाया जा सकता. बहरहाल अंगे्रजों के विरोध में जो स्वाधीनता की लहर उठी उसमें स्त्रियों ने भी बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया और स्त्री के सवाल के स्वाधीनता से जोड़ा और अपने अधिकारों के लिए लड़ना शुरू किया. लता सिंह ने लिखा है कि- “1920 के दशक में महिलाओं के अधिकारों पर दो विचारधाराएँ बिल्कुल अलग-अलग तर्को पर आधारित दिखती है एक तर्क था कि औरतों को अधिकार इसलिए मिलना चाहिए क्योंकि वह समाज में माँ की महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं, दूसरा तर्क यह था कि उनमें और पुरुषों में जैविक असमानताएँ होते हुए भी जहाँ तक इच्छाओं, आकांक्षाओं और क्षमताओं का प्रश्न है विशेष अंतर नहीं होता और उन्हें वे सब अधिकार मिलने चाहिए जो पुरुषों को मिले हुए हैं. पहले तर्क में सोच थी कि प्राकृतिक जैविक अंतरों के कारण दोनों में गुणात्मक अंतर होता है, जबकि दूसरा तर्क यह मानकर चलता था कि प्राकृतिक जैविक अंतरों से यह सिद्ध नहीं होता कि दोनों के गुणात्मक स्वरूप में कोई बुनियादी अंतर है.”10


महत्वपूर्ण यहाँ यह है कि यहाँ पर स्त्रियों को अधिकार मिलने चाहिए, इस बात को सबने स्वीकार किया कि स्त्रियों को अधिकार क्यों मिलना चाहिए? दोनों विचारधाराओं से सहमत असहमत हुआ जा सकता है, लेकिन यहाँ महत्वपूर्ण यह नहीं है कि एक के तर्क गलत हैं, एक के सही. यहाँ यह महत्वपूर्ण है कि स्त्रियों को अधिकार मिले, इस बात की स्वीकृति मिली.

हालांकि स्वाधीनता आंदोलन के दौरान स्त्रियों के सवालों की चर्चा करते हुए लता सिंह ने लिखा है कि- “राष्ट्रवादियों को महिलाओं से मुक्ति तथा उत्थान से कोई सरोकार नहीं था, इसके विपरीत महिलाओं की पत्नी, पुत्री और माँ की भूमिकाओं की और पुष्टि हुई, केवल राष्ट्रीय आन्दोलन की आवश्यकताओं को देखते हुए उसे थोड़ा बहुत विस्तार मिल गया. राष्ट्रवादियों ने महिलाओं की भूमिकाएं और सीमाएँ पहले ही तय कर दी थी और महिलाओं को उन सीमाओं को लाँघने की अनुमति नहीं थी. इस तरह पारंपरिक इतिहास में महिलाओं की संख्या थोड़ी और बढ़ गई. राष्ट्रीयता के इतिहास में महिलाओं का योगदान केवल उनकी पारंपरिक भूमिका का विस्तार मात्र है. राष्ट्रीय आंदोलन में महिलाओं का कहीं कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं दिखता.”11

लता सिंह की बात से सहमत हुआ जा सकता है. स्वतन्त्र अस्तित्व की स्त्री स्वाधीनता आन्दोलन में नहीं थी. जो भी स्त्रियाँ थी पार्टी आधारित नियमों के अनुसार चल रही थी, ऐसा नहीं था कि उन्होंने स्त्रियों के लिए कोई विशेष कार्यक्रम चलाया हो जिससे स्त्री चेतना की लहर सी उठ पड़ी हो.

स्वाधीनता प्राप्ति के बाद पूरी तरह से भारतीय सामाजिक संरचना में पितृसत्ता का ही प्रभाव रहा. उदाहरण के लिए संविधान में ही अनुच्छेद 15 में समानता के सिद्धांत को स्वीकारा गया लेकिन साथ ही धर्म के आधार पर बने पारिवारिक कानूनों को मान्यता देकर स्त्री-पुरुष समानता के सिद्धांत का विरोध किया गया है. शोषण के विरूद्ध अधिकार को मौलिक अधिकार का दर्जा दिया गया, पर स्त्री और पुरुषों को समान काम के लिए समान वेतन संबंधी कानून 1976 में बनाया गया.


हिन्दू कोड बिल के पास हो जाने सेमहिलाओं को स्थिति परिवार, विवाह तथा संपत्ति के क्षेत्र में कुछ बेहतर हुई श्रम कानूनों में भी थोड़े सुधार हुए लेकिन कानून पर्याप्त नहीं थे. धीरे-धीरे महिलाओं के अधिकारों के सवाल पर स्थितियाँ उदासीन हो गईं. सन् 1950 से लेकर 1975 तक महिलाओं के सवाल और स्त्री अधिकारों का सवाल दरकिनार रहा. सन् 1975 के बाद से कई महिला संगठन बने जिन्होंने विशेष रूप औरतों पर हिंसा के मुद्दे पर काम करना शुरू किया और इस दिशा में बदलाव के लिए सरकार पर दबाव भी डाले. विकास प्रक्रिया में औरतों को शामिल किया जाने लगा. 1976 में समाज कल्याण मंत्रालय के अंतर्गत महिला कल्याण और विकास ब्यूरों की स्थापना की गई जिससे स्त्री के शोषण के प्रमुख बिंदुओं पर कार्यक्रम चलाकर उसकी निजता को सुरक्षित करने की कोशिश की गई. साथ ही उन्हें उत्पादन के साथ जोड़ा गया और विकास कार्य में उनकी भागीदारी को सुनिश्चित किया गया.

स्त्री अस्मिता का इतिहास तमाम अवरोधों, विरोधों और संघर्षों के फलस्वरूप आज इस मुकाम पर पहुँचा है. जरूरत है उस इतिहास को टटोलने की, खोजने की और स्त्रियों के साथ न्याय करने की.अंततः ऐतिहासिक परिवर्तनों की प्रक्रिया में स्त्री इतिहास का साथ बखूबी निभा रही है. इस प्रयास की दिशा सही है या गलत, वादों के नारों के बीच स्त्री अपना स्वरूप खो रही है या तलाश रही है इसका निर्णय काल अपने क्रम में स्वयं कर देगा लेकिन स्त्री अस्मिता के आन्दोलन स्त्री मुक्ति की दिशा में सार्थक है इसमें कोई दो राय नहीं है.  

संदर्भ :
1.पृ. 70 उमा-चक्रवर्ती: ‘जाति समाज में पितृसत्ता’
2.पृ. 20 वही
3.पृ. 344, सिमोन द बोउवार: ‘द सेकेण्ड सेक्स
4.पृ. 141, संपा. साधना आर्य, निवेदिता मेनन, जिनी लोकनीता- ‘नारीवादी राजनीति: संघर्ष एवं मुद्दे’.
5.पृ. 25, राधा कुमार: ‘स्त्री संघर्ष का इतिहास’.
6.पृ. 26, राधा कुमार, वही
7.पृ. 27, राधा कुमार, वही
8.पृ. 39, राधा कुमार, वही
9.पृ. 50, राधा कुमार, वही
10.पृ. 160, संपा. साधना आर्य, निवेदिता मेनन, जिनी लोकनीता- ‘नारीवादी राजनीति: संघर्ष एवं मुद्दे’.
11.पृ. 175, संपा. साधना आर्य, निवेदिता मेनन, जिनी लोकनीता, वही

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दलित स्त्रीवाद मेरा कमराजाति के प्रश्न पर कबीर

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खुदमुख्तार स्त्रियों का कथा -वितान: अन्हियारे तलछट में चमका

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विकल सिंह

‘अन्हियारे तलछट में चमका’ कहानीकार अल्पना मिश्र का पहला उपन्यास है.यह उपन्यास समाज में स्त्रियों की स्थिति को तो रेखांकित करता ही है, साथ ही उनके शोषण के नये सूत्रों को भी प्रस्तुत करता है.जहाँ एक ओर उपन्यास में लेखिका ने स्त्री की परम्परागत छवि को तोड़ते हुए स्त्री आत्मनिर्भरता के पक्ष को उजागर किया है, वहीं  स्त्री के आत्मनिर्भर होने के बावजूद उसे आर्थिक स्वतंत्रता न मिल पाने जैसे पक्ष को भी प्रस्तुत करना नहीं भूली हैं.इस दृष्टि से यह उपन्यास और भी महत्वपूर्ण हो जाता है.यह सच है कि आज स्त्री को आर्थिक रूप से आत्मनिर्भरता तो मिलने लगी है, लेकिन आर्थिक स्वतंत्रता अब भी नहीं मिल पाई है .‘अन्हियारे तलछट में चमका’ मुख्यतः चार स्त्रियों बिट्टो की माँ, बिट्टो, मुन्ना बो (सुमन) और ननकी के माध्यम से व्यक्त संघर्षरत औरतों की कहानी है.इस पुरुष प्रधान समाज में स्त्री किस प्रकार उपेक्षित है? अपनी स्वतंत्रता और अधिकारों के लिए उसका जीवन किस प्रकार संघर्षमय बना हुआ है? क्या स्त्री का आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हो जाना मात्र उसकी स्वतंत्रता का पर्याय माना जाना चाहिए, जबकि उसे आर्थिक स्वतंत्रता न मिल पाई हो? इन सब पहलुओं को अल्पना जी ने इस उपन्यास ‘अन्हियारे तलछट में चमका’ के माध्यम से प्रस्तुत किया है.


 स्त्री को इस पुरुष प्रधान  समाजमें एक वस्तु के रूप में देखा जाता रहा  है .अपने-आप और अपने लिए जीने का अधिकार स्त्री को नहीं है.वैवाहिक जीवन में तो ये बात और भी स्पष्ट हो जाती है.उपन्यास की स्त्री पात्र ‘सुमन’ को अपनी ससुराल में अनेक प्रकार की यातनाओं का सामना करना पड़ता है, बिना किसी अपराध के उसका पति ‘मुन्ना’ गाली-गलोज करते हुए उसे बेरहमी से पीटता है.यह सिर्फ एक सुमन की आपबीती नहीं है, बल्कि न जाने ऐसी ही कितनी असहाय स्त्रियों की कथा-व्यथा है जो इस पुरुष वर्चस्ववादी समाज में दम तोड़ती नजर आती हैं.स्त्री पर होने वाली ज्यादती को उपन्यास के इस प्रसंग के माध्यम से समझा जा सकता है- “अरे बाप रे, अरे राम, बचाओ .अरे मुन्ना इ का कर रहे हो ? काहे हमारी जान पे पड़े हो ?...फिर जोर-जोर से चीखीं .उनकी चीख कहीं तक जा रही थी, इसका भरोसा खुद सुमन को नहीं था .अलबत्ता उनकी चीख पर तड़ तड़ चार-छः झापड़ मुन्ना जी जड़ते जाते।”1 बिना किसी अपराध के सुमन को अपनी ससुराल में अपने पति द्वारा इस प्रकार प्रताड़ित और अपमानित करना पुरुषवर्चस्ववादिता के घिनौने रूप का एक प्रमाण है, जिसे स्त्रियाँ चुपचाप वर्षों से सहन करती आई हैं.

पढ़ें: अल्पना मिश्र की 5 कविताएं 

 यह विडम्बना ही रही है कि स्त्रियाँअपनी अस्मिता के बचाव के प्रति अधिक सक्रीय नहीं रही हैं.यदि वह संगठित होना चाहें तो भी नहीं हो सकती हैं.ऐसा करने पर उनके वापस आने के दरवाजे बंद हो जाते हैं.घर-परिवार और समाज में उनकी असुरक्षा की स्थिति और भी बढ़ जाती है.बावजूद इसके वर्तमान परिदृश्य में अपने शोषण के प्रति स्त्रियों में प्रतिकार की भावना का स्वर तीव्र हुआ है.इस उपन्यास में यह दिखाया गया है कि ‘सुमन’ अपने पति के द्वारा दिए दुःख और अपमान को चुपचाप सहन नहीं करती वह इसका विरोध करती है.स्त्री प्रतिरोध का तीव्र स्वर उपन्यास के इस प्रसंग के माध्यम से देखा जा सकता है- “पिशाच आदमी है, नर पिशाच है ! औरत को इंसान नहीं समझता है.औरत क्या है? देह भर है? जैसे चाहा मसला, रौंदा? जो चाहा किया? औरत आवाज उठा दे तो बहुत बुरी.प्रेम न किया गुनाह कर दिया.उसी की सजा काट रही हूँ.घर से भागने का कोई रास्ता मिलता तो वही चुनती, काहे इस जंजाल में पड़ती.लेकिन मति मारी गई थी.तुम्हीं मिले इस दुनिया में हमें? ला के नरक में झोंक दिये.अरे, इससे अच्छा तो भीख माँग लेते, जहर खाके मर जाते.जानते तो कभी ऐसा न करते।”2 स्पष्ट है कि अब स्त्री पहले की अपेक्षा अपने अधिकारों और शोषण के प्रति सचेत हुई है.पहले जहाँ स्त्री इसे अपनी किस्मत या नशीब मानकर चुपचाप सहन कर लेती थी, वहीं अब वह उसका प्रतिरोध करने लगी है.स्त्री का यह प्रतिक्रियावादी कदम उसकी स्वतंत्रता का परिचायक सिद्ध हो सकता है, ज़रूरत है तो सिर्फ दृढ़ संकल्प और मजबूत इच्छाशक्ति से पुरुषवर्चस्ववादी इन गुलामी की जंजीरों को तोड़ने की.


उपन्यास में सुमन ही नहीं बल्किबिट्टो और उसकी माँ भी स्वयं के प्रति सचेत हैं, उनमें प्रतिकार की भावना है.तमाम हाशियों, घेरों व परिधियों को तोड़कर केन्द्रीय स्वतंत्र स्थान प्राप्त करने के लिए वह दृढ-संकल्प हैं और इसके लिए वह निरंतर संघर्षरत हैं.स्त्रियों का शोषण होना  इस पुरुष सत्तात्मक समाज में आम बात रही है.शोषण का आधार भले ही अलग-अलग हों.इस सन्दर्भ में लमही पत्रिका के संपादक विजय राय पत्रिका की सम्पादकीय में लिखते हैं-“स्त्रियों का शोषण किसी एक व्यक्ति की समस्या नहीं है.स्त्रियों का शोषण संस्थाबद्ध तरीके से पुरुषों द्वारा होता रहा है.चाहे वह सवर्ण समाज हो, चाहे वह दलित समाज हो-दोनों में स्त्रियों का शोषण समान रूप से प्रचलित है।”3 यह बड़ा ही दुःखद है कि समाज का कोई भी वर्ग-समुदाय क्यों न हो, लेकिन स्त्री का शोषण सभी जगह होता रहा है.पहले जहाँ स्त्रियों को घर की चार-दीवारी में रखकर शिक्षा से वंचित रखा जाता था अब वहीं उसे थोड़ी स्वतंत्रता जरूर मिली है.आज समाज में स्त्री को शिक्षा के अवसर मिलने लगे हैं.शिक्षित होकर अब वह असहाय होने की बजाय दूसरों का सहारा बनने लगी है.बावजूद इसके स्त्रियों की स्थिति आज भी इस पुरुष सत्तात्मक समाज में बदली नहीं है.पहले जहाँ स्त्री-जीवन आर्थिक स्वावलंबन के लिए संघर्षमय था, वहीं अब आर्थिक स्वतंत्रता के लिए.आज भी स्त्रियाँ अपनी कमाई अगर अपने हाँथ में रखना चाहें तो उन्हें हिंसा, प्रताड़ना का सामना करना पड़ता है.अधिकांश ऐसी कमाऊ बहुएँ हैं जिन्हें अपनी कमाई लाकर ससुराल वालों को देनी पड़ती है, ऐसा न कर विरोध जताने पर उनके साथ मारपीट शुरू कर दी जाती है.उनका अपना स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं होता, अपनी ही कमाई पर अपना हक़ नहीं होता, बल्कि अपनी जरूरतों के लिए भी उन्हें दूसरों पर निर्भर रहना पड़ता है.स्त्री की अपनी कमाई पर स्वंम उसका अधिकार न होना एक बिषम परिस्थिति है.इस सन्दर्भ में बिट्टो की माँ से सम्बंधित उपन्यास का यह प्रसंग दृष्टव्य है– “गहन जरूरत के बावजूद उन्हें अनिवार्य रूप से अपनी तनख्वाह लाकर हर महीने पिता जी के सामने स्टूल पर रखनी पड़ती थी.शायद पहले, जब हम कुछ छोटे थे, तब उन्हें तनख्वाह रखकर चरण भी छूना पड़ता था.बाद में हम बहनों के बार-बार टोकने पर माँ ने चरण छूकर आशीर्वाद लेना बंद कर दिया.उससे भी पहले उन्हें दादी के चरण के पास रुपया रख कर पांव लगी करके आशीर्वाद लेना पड़ता था।”4 इस उपन्यास के माध्यम से हम स्त्रियों की इस समस्या पर भी विचार कर सकतें है कि मात्र आर्थिक स्वावलंबन ही उनकी मुक्ति का हथियार नहीं बन सकता है, हाँ कुछ हद तक उन पर हो रही प्रताड़नाएँ जरूर कम हो सकती हैं.आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर महिलाओं को ऐसी स्थितियों का सामना तब तक करना पड़ेगा जब तक कि उन्हें आर्थिक स्वतंत्रता प्राप्त नहीं हो जाती.आर्थिक स्वतंत्रता को नारी स्वतंत्रता का पर्याय माना जा सकता है क्योंकि जब तक वह आर्थिक रूप से स्वतंत्र नहीं होगी, दूसरों पर निर्भर रहेगी.जब स्त्री अपनी कमाई का स्वतंत्रतापूर्वक उपयोग स्वयं के लिए करने में सक्षम हो जाएगी तभी स्त्री का आर्थिक स्वावलंबन उस पर हो रहे शोषण से मुक्ति दिलाने में सहायक सिद्ध होगा.वह तभी पति की दासता से मुक्ति हो सकेगी.इस पुरुषसत्तात्मक विचारधारा का विरोध करते हुए जे. एल. रेड्डी ‘आजकल’ पत्रिका में प्रकाशित अपने लेख ‘स्त्री-विमर्श के पुरोधा चलम्’ में लिखते हैं- “स्त्री के लिए पति की दासता से बचने का एक ही उपाय है, और वह है आर्थिक स्वतंत्रता.पुरुष स्वेच्छा और ऊच्छृंखलता के साथ जी रहा है.स्त्री को भी ऐसी आजादी होनी चाहिए.पति को चाहिए कि वह पत्नी को अपनी निजी संपत्ति न माने।”5 स्पष्ट है कि स्त्री को आर्थिक स्वावलंबन के साथ-साथ आर्थिक स्वतंत्रता भी मिलनी चाहिए.तभी उसका शिक्षित और आत्मनिर्भर होना सार्थक सिद्ध होगा.

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बिट्टो की माँ अपने गाँव की पहली ग्रेजुएट थीं.उनके पति पढ़ी-लिखी लड़की से शादी का पूरा फायदा लेना चाहते थे जिसके कारण वह बिट्टो की माँ को नौकरी पकड़ लेने पर जोर देते थे.परिणामस्वरूप बिट्टो की माँ को सरकारी प्राइमरी पाठशाला में नौकरी मिल जाती है.इससे बिट्टो की माँ की स्थिति में कोई सुधार नहीं होता.वह कमाकर लाती और सारे पैसे उसे अपने पति को देने पड़ते, उन पैसों का उसे कोई लाभ नहीं मिलता.कमाकर लाने पर भी घर का खर्च ठीक से न चल पाने का क्षोभ उसे निरंतर सताता रहता.जब बर्दाश्त की सारी हदें पार हो गयीं तो एक दिन वह इसका विरोध करती है.इस सन्दर्भ में उपन्यास का यह प्रसंग दृष्टव्य है- “दूसरे का रुपया तो नहीं मांगती? अपना ही मांगती हूँ तो नहीं देते.कौन सा अपना पेट भर लूँगी? एक टेबुल खरीदनी है.कोई घर आ जाये तो अच्छा नहीं लगता.माँ बड़बड़ाती जातीं और बर्तन घिसती जातीं.पिता जी माँ का बड़बड़ाना सुन कर टालते जाते.बाहर अपने मित्रों से कहते-‘कमाने भेजो तो औरत हाँथ से निकलने लगती है.रात-दिन चिक-चिक मचाती है.साला, रुपया न लाई, जेवरात लाई है ! घर की जरूरत न होती तो कौन भेजता?”6  ऐसे अमानवीय व्यवहार स्त्री के साथ हमेशा से ही होते रहे हैं.पुरुष-प्रधान समाज ने स्त्री को शिक्षित और आत्मनिर्भर होने के लिए कुछ हद तक स्वतंत्रता तो दी लेकिन आर्थिक स्वतंत्रता उन्हें नहीं मिलने दी.यहाँ यह बात भी विचारणीय हो जाती है कि इस समाज द्वारा स्त्रियों को शिक्षित और आत्मनिर्भर होने के लिए जो स्वतंत्रता दी गई, वह कहीं न कहीं अपने स्वार्थवश.उपर्युक्त प्रसंग का यह वाक्य ‘घर की जरूरत न होती तो कौन भेजता?’ इसकी पुष्टि करता है.


 एक स्त्री जो पत्नी के रूप में अपना घर-परिवार सब कुछ छोड़कर ससुराल आती है, वहाँ उस पर हो रहे अत्याचार और उसका शोषण उसकी दयनीय स्थिति बयाँ करते हैं.क्या यह अशोभनीय व्यवहार एक स्त्री के लिए न्यायसंगत है? यह पूरे पुरुष सत्तात्मक विचारधारा वाले समाज के लिए एक प्रश्न है.स्त्री की इस दयनीय स्थिति को देखकर नगमा जावेद की ये पंक्तियाँ स्वतः ही स्मरण हो आती हैं, जिन्हें वो अपनी पुस्तक ‘हिंदी और उर्दू कविता में नारीवाद’ में उद्धृत करते हुए लिखती हैं-
“अंग-अंग पे चोट का निशान है
नारी
तू सचमुच कितनी महान है
हँसते जख्मों के साथ जीती है तू
लहू अपनी तमन्नाओं का अधूरी
पीती है तू,
इन्सानियत की तू पहचान है-
सर उठाकर जीना सीख-
कायम तुझसे ही
दुनिया की शान है ?”7
       
कुल मिलाकर यह उपन्यास पुरुषसत्तात्मक समाज में स्त्री के हो रहे शोषण को व्यक्त करता है.शोषण के सूत्र जहाँ आर्थिक सशक्तिकरण से जुड़ते हैं वहीं पारिवारिक व यौन संबंधी शोषण से भी.स्त्री आज भी समझौतों और दोहरे कार्यभार के बीच पिस रही है.पुरुष सत्ता की नीवें हमारे समाज में बहुत गहरे तक धंसी हुई हैं.इसे तोडना, बदलना या संवारना एक लम्बी लड़ाई है.स्त्री और पुरुष एक दूसरे के पूरक हैं.स्त्री विकास के बिना, विकसित समाज की कल्पना नहीं की जा सकती है.इस सन्दर्भ में आजकल पत्रिका में प्रकाशित नाहीद आबिदी के लेख ‘धर्मशास्त्र एवं वर्तमान समाज में नारी की स्थिति’ का यह कथन दृष्टव्य है -“स्त्री-पुरुष एक ही सत्ता के दो रूप हैं.उनमें से किसी एक का अपना अलग एवं पूरा व्यक्तित्व नहीं है.स्त्री पुरुष का और पुरुष स्त्री का पूरक अंश है.जब यह अंश भिन्न-भिन्न होकर अपनी अलग सत्ता बनाने की भूल करते हैं तभी समाज में विघटन तथा विकृतियाँ उत्पन्न हो जाती हैं.समाज का सम्यक् विकास करने के लिए नारी का विकास आवश्यक है.शरीर का आधा अंग ठीक बना रहे और आधे अंग पर पक्षाघात का प्रभाव रहे तो भला ऐसा शरीर किसी के क्या काम आ सकता है ! समाज रूपी पुरुष की ऐसी अपंग दशा में उसका उत्थान संभव नहीं है.समाज का सम्यक् विकास तब ही संभव है जब स्त्री-पुरुष दोनों का विकास एक साथ हो।”8 स्पष्ट है कि स्त्री विकास के बिना विकसित समाज की कल्पना नहीं की जा सकती है.लेकिन विडम्बना यह है कि स्त्री यदि आत्मनिर्भर होकर अपने पैरों पे खड़ा होना भी चाहे तो पुरुषवर्चस्ववादी समाज में उसके अवरोध की तमाम बेड़ियाँ उसे पहना दी जाती हैं.क्योंकि यदि स्त्री आत्मनिर्भर हो जाएगी तो वह पुरुष की दासता से मुक्त होकर अपना स्वतंत्र स्थान प्राप्त कर लेगी.ऐसा इसलिए भी है कि कोई तभी तक दास, गुलाम या असहाय है जब तक वह आत्मनिर्भर नहीं है .

 उपन्यास की एक और महत्वपूर्णस्त्री पात्र ननकी है.ननकी के रूप में समाज के बंधनों को तोड़ती हुई एक स्त्री का चित्रण इस उपन्यास में किया गया है.ननकी समाज के बंधनों को तोड़कर एक युवक से प्रेम करती है जो प्रेम के नाम पर देह को भोग, गर्भबीज बोकर भाग जाता है .परिवार वालों के लाख मना करने पर वह अपनी संतान को जन्म देने पर अड़ जाती है.घर वाले अपनी इज्जत को बचाने के लिए उसकी शादी एक बूढ़े से करवाकर उससे मुक्त होना चाहते हैं, पर ननकी उस बूढ़े को अपनी हकीकत बता आती है.शादी टूटने की ओर है और अंत में परिवार वालों द्वारा ही उसकी हत्या कर हत्या को आत्महत्या का रूप दे दिया जाता है.ननकी का विवाहपूर्व गर्भधारण करना और बच्चे को जन्म देने की जिद् उसकी हत्या का कारण बनती है.उसकी मृत्यु पर उपन्यास की एक और स्त्री पात्र सुमन, पुरुष सत्तात्मक समाज में स्त्री की इस स्थिति को देखकर अत्यधिक व्यथित होती है.इस सन्दर्भ में उपन्यास का यह प्रसंग दृष्टव्य है- “फिर सुमन ने ननकी की चादर ढ़की देह को देखा.आँखों में आंसू छलक पड़े.कैसी सलोनी सी लड़की ! जरा सा भटक जाये आदमी तो सीधा रास्ता पाने की कोशिश नहीं करता क्या? कोई गलती हो जाये तो सुधारने के सब रास्ते औरत के लिये बंद क्यों?”9 ननकी मृत्यु को मुक्ति का रास्ता नहीं मानती थी, वह तो जीना चाहती थी.एक बार ननकी ने सुमन से कहा था- “भाभी मैं हार मानने वाली नहीं हूँ.मैं अपना बच्चा पाल लूँगी.तुम देखना.कोई साथ न दे.बस, जीने दे।”10  इस पुरुष सत्तात्मक समाज में एक लाचार और भयभीत स्त्री के जीने की चाह को देखकर डॉ. नगमा जावेद मालिक अपनी पुस्तक ‘हिंदी और उर्दू कविता में नारीवाद’ में ‘अँधेरे में बुद्ध: गगन गिल’ की पंक्तियों को उद्धृत करती हुई लिखती हैं-
“मैं जीना चाहती हूँ
वह कहती थी
अपने से अक्सर
मैं जीना चाहती हूँ ।”11

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 उपन्यास की चौथी महत्वपूर्ण स्त्री पात्र‘बिट्टो’ है.उसके पति शचीन्द्र की मुख्य समस्या यौन अक्षमता नहीं है, बल्कि उस अक्षमता का अस्वीकार करना है.पत्नी बिट्टो के बार-बार कहने पर भी वह डॉक्टरी इलाज के लिए तैयार नहीं होता है.बिट्टो के समझाने पर भी वह नहीं मानता वह उसकी बातों को उपदेश समझता है और रीझकर उसे धक्का देकर गिरा देता है.वह असहाय सी रोती हुई वहीं बैठ जाती है.इस संदर्भ में उपन्यास के इस प्रसंग को देखा जा सकता है- “ हो गया उपदेश ! परेशान करके रख दिया है.चैन से दो घड़ी बैठ भी नहीं सकता !.....क्या समझ रही हो अपने को? हाँ ! पैसा कमा रही हो तो जो मर्जी बोलोगी? हाँ ! मैं कुछ नहीं हूँ न ! यही साबित करना चाहती हो ! तुम तैश में खुद को भूल गये हो.एक साथ मुझे हिलाते हुए, न जाने कितने झापड़-घूसे-लात जमा रहे हो.मैं बैठी हुई, गिरती हुई, रोकती हुई, रोती हुई...तुम गुस्से में चले गये हो !”12  बिट्टो के उपर्युक्त कथन से यह बात भी स्पष्ट हो जाती है कि स्त्री न तो पुरुष का विरोध करती है और न ही वैवाहिक जीवन का.वह वैवाहिक जीवन में ऐसे पति की कल्पना करती है, जो उसे समझे और उसकी भावनाओं की क़द्र करे.यहाँ बिट्टो के पति द्वारा अपनी खामियों को न समझकर अपनी पत्नी को प्रताड़ित पुरुषवर्चस्व मानसिकता का ही एक रूप है, जिसके चलते स्त्री जीवन संघर्षमय बना हुआ है.


निष्कर्षतः अल्पना मिश्र के इस उपन्यास की विषयवस्तु और अनुभूति के स्तर को देखते हुए हम कह सकते हैं कि ‘अन्हियारे तलछट में चमका’ उपन्यास अपने अधिकारों और स्वत्व के लिए लड़ती एक ऐसी स्त्री की आवाज है, जो आत्मनिर्भर एवं शिक्षित होते हुए भी अभिवंचित है. इस उपन्यास में जितनी भी स्त्री पात्र आई हैं वो सभी नई चेतना से संपन्न हैं.वे जहाँ हैं, उससे और भी अच्छी स्थिति में पहुँचना चाहती हैं.परन्तु इसके लिए वे अपने आत्मसम्मान से समझौता नहीं करती हैं, बल्कि अपनी संघर्षशीलता से आगे बढ़ने का प्रयत्न करती हैं.अंततः कहा जा सकता है कि यह उपन्यास स्त्री शोषण और प्रतिरोध की चेतना का प्रचारक उपन्यास है.        

विकल सिंह  गुजरात केन्द्रीय   विश्वविद्यालय  में शोधरत है.
ईमेल- vikalpatel786@gmail.com
मो: 07897551642 

 संदर्भ सूची  

1. मिश्र,अल्पना, अन्हियारे तलछट में चमका, आधार प्रकाशन, हरियाणा, संस्करण-2114, पृष्ठ संख्या- 75    
2., वही, पृष्ठ संख्या -76
3. संपादक- विजयराय, लमही पत्रिका, त्रैमासिक, लखनऊ, अंक- जन.-मार्च-2015, पृष्ठ संख्या- 03          
4. मिश्र,अल्पना, अन्हियारे तलछट में चमका, आधार प्रकाशन, हरियाणा, संस्करण- 2114, पृष्ठ संख्या- 25
5. परवीन, फरहत (संपादक), आजकल (पत्रिका) दिल्ली, अंक- मार्च 2014, पृष्ठ संख्या- 32
6. मिश्र,अल्पना, अन्हियारे तलछट में चमका, आधार प्रकाशन, हरियाणा, संस्करण- 2114, पृष्ठ संख्या- 25
7. मलिक,डॉ. नगमा जावेद, हिंदी और उर्दू कविता में नारीवाद,प्रकाशन संस्थान,दिल्ली                                  संस्करण-2110,पृष्ठ          संख्या- 54    
8. संपादक- परवीन, फरहत, आजकल पत्रिका, दिल्ली, अंक- मार्च- 2014, पृष्ठ संख्या- 55
9.  वही, पृष्ठ संख्या- 109
10. वही, पृष्ठ संख्या- 107
11. मलिक,डॉ. नगमा जावेद, हिंदी और उर्दू कविता में नारीवाद,प्रकाशन संस्थान,दिल्ली,                              संस्करण-2110,पृष्ठ           संख्या- 155    
12. मिश्र,अल्पना, अन्हियारे तलछट में चमका, आधार प्रकाशन, हरियाणा, संस्करण-2114, पृष्ठ संख्या-            85


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डॉ0 रामविलास की आलोचना और स्त्री संदर्भ

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अपराजिता शर्मा
सहायक प्रोफ़ेसर,(हिंदी विभाग),मिरांडा हाउस,दिल्ली विश्वविद्यालय . संपर्क:aparajitasharmamh@gmail.com  

बाजारवाद पर जो लोग अच्छी चर्चा कर रहे हैं वे स्त्रीवादी विमर्श के लोग हैं. बाजार का सबसे बड़ा असर व्यक्तिगत और पारिवारिक जीवन पर पड़ा है. इसने व्यक्तिगत भावनाओं, धाार्मिक आस्थाओं और परम्परागत समाज के स्त्रियोचित-पुरुषोचित व्यवहार को लाभ के लिए भुनाया है. औरत की देह के सवाल को नग्नता, वासना, उत्पाद से जोड़ा है और यह सब बाजार की लाभ नीतियों के तहत बड़ी कुशलता से किया गया है. मिडिल क्लास जो दैनंदिन दिनचर्या और रूचियों तक सीमित है वस्तुतः उपभोक्तावादी है. उसके लिए सभी प्रश्न इच्छा-अनिच्छा के प्रश्न हैं. सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक रूप में वे गौण हैं. वामपंथ ने बाजार के खतरों और नीतियों को पहले-पहले भांपा लेकिन मजदूर से किसान के संघर्ष तक ही अपनी पहुँच बना सके. नामवर सिंह ने एक साक्षात्कार में कहा था - ‘‘हमलोगों ने स्त्रियों पर होनेवाले अत्याचारों पर उतना ध्यान नहीं दिया जितना देना चाहिए था.’’ (स्वाधीनता, पत्रिका, शारदीय विशेषांक, 2000, पृ0 - 28) यह एक ऐसी कमजोरी थी, जिसे यूरोपियन देशों और खासतौर से अमेरिका के वामपंथी दलों ने सबसे पहले पकड़ा.

अपने एक लेख ‘स्त्री-दृष्टि औररामविलास शर्मा’ में डॉ0 अर्चना वर्मा ने स्त्री के सवालों को उत्पादन संबंधों के परिप्रेक्ष्य में देखते वामपंथ के संदर्भ में लिखा - ‘‘पुराने क्लासिक वाम से उसका रिश्ता अगर विरोध का नहीं है तो प्रगाढ़ असहमति का अवश्य है.’’ (रामविलास शर्मा का ऐतिहासिक योगदान, संपा0 प्रदीप सक्सेना, पृ0-692) प्रगाढ़ असहमति की तमाम वजहों और उदाहरणों के बाद भी यह देखना और समझना नए रास्तों की ओर ले जा सकता है कि क्या हिंदी आलोचना के महत्वपूर्ण मार्क्सवादी आलोचक डॉ0 रामविलास शर्मा की आलोचना में स्त्री-मुक्ति के ध्येय को कोई स्थान मिला है या उनकी इतिहास-दृष्टि यहाँ चूक जाती है.

रामविलास शर्मा अपनी तरह के अकेले साहित्यिक समालोचक हैं जो लगभग 60 वर्षों तक योजनाबद्ध तरीके से साहित्य, दर्शन, इतिहास, भाषा, समाज और मार्क्सवाद से जुड़े रहकर निरंतर साधना करते रहे. उनकी साहित्यिक चिंताएँ निश्चित ही बड़ी और विस्तृत फलक तक जाने वाली है. नामवर सिंह ने 1983 मई में मध्यप्रदेश प्रगतिशील लेखक संघ द्वारा भोपाल में आयोजित विशेष व्याख्यानमाला ‘डॉ॰ रामविलास शर्मा’ के उद्घाटन सत्र में जो व्याख्यान दिया (प्रलेस के मुखपत्र में प्रकाशित, 1984 मार्च) उसका मूल स्वर था ‘हिन्दी के हित का अभिमान वह, दान वह’ में वह कहते हैं.‘‘जहाँ तक मेरी जानकारी है समूचे भारतीय इतिहास में ऐसा कोई साहित्यिक समालोचक नहीं है जो इतिहासकारों से संवाद की स्थिति में हो. जो इनकी खोज से प्राप्त तथ्यों को साहित्य की कसौटी पर जाँच सकता हो.’’

रामविलास शर्मा के विशुद्ध  विपुलयोजनाबद्ध 60 वर्षीय निरंतर सक्रिय लेखन के सिलसिले में यह सवाल किया जाना असंगत और निरर्थक नहीं होगा कि लेखन की प्रौढ़ावस्था में भारतीय साहित्यिक, सामाजिक स्तर पर तमाम अस्मितामूलक विमर्शों को लेकर उनकी क्या प्रतिक्रिया थी. क्या उनके लेखन में स्त्री-अस्मिता या स्त्री-संदर्भ का कोई स्थान मिला है. ऋग्वेद से सबाल्टर्न इतिहासकारों तक जाने वाले रामविलास शर्मा जब जातीय जागरण और एकता की बात करते हैं, भारतीयता के विशेष संदर्भ में, साहित्य, इतिहास, भाषा और समाज का मूल्याँकन करते हैं. साम्राज्यवादी ताकतों के षडयंत्रों की पहचान कर भारतीय राजनीति और इतिहास को उनके प्रति सचेत रहने की सलाह देते हैं, तब क्या 1979  में संयुक्त राष्ट्रसंघ की आम सभा में स्त्री अधिकारों को लेकर लिए गए निर्णयों से अभी -अभी जागे भारतीय समाज की ओर उनकी दृष्टि गई.  स्त्री अधिकारों और मुक्ति के स्वप्न की इस विश्व व्यापी वैधता को क्या उनके लेखकीय सरोकारों में कोई स्थान मिला. गाँधी, अम्बेडकर, लोहिया पर लिखने की जरूरत महसूस करने वाले रामविलास शर्मा को क्या स्त्री-मुक्ति के स्वप्न बेचैन करते हैं. जिन महाकाव्यों, रामायण और महाभारत को भारतीय साहित्य के आदि स्रोत के रूप में वह देखते हैं ,उनमें स्त्री-पात्र और प्रश्नों की निर्णायक भूमिका से टकराने और वर्तमान में स्त्री-मुक्ति तथा अधिकारों की माँग के सामूहिक स्वरों के बीच कोई महत्वपूर्ण हस्तक्षेपकारी टिप्पणी वे करते हैं या उनके साहित्यिक मूल्य इसमें बाधा बनते हैं. व्यक्तिगत स्तर पर पारिवारिक आदर्श और स्त्री समानता को स्वीकार करने वाले मार्क्सवादी आलोचक स्त्री के स्वाधीन अस्तित्व के सवालों, समस्याओं को किस प्रकार देखते हैं यह जानना आज के संदर्भ में महत्वपूर्ण होगा.

 जेंडर की अवधारणा और अन्या से अनन्या

एक मानववादी दर्शन होने के नाते मार्क्सवाद मूलतः स्वतंत्रता का दर्शन है, विवशता के खिलाफ मानव-मुक्ति का दर्शन. स्वतंत्रता के लिए उन परिस्थितियों का निराकरण करना बहुत जरूरी है जो व्यक्ति को अमानुषिक जीवन जीने को विवश करती है और इस प्रक्रिया में व्यक्ति के भीतर कुंठित यौन इच्छाओं, परायेपन, आत्मनिर्वासन आदि को जन्म देती है. पूंजीवादी समाज की मुख्य पहचान यही घुटन, संत्रस और कुंठा है, स्वतंत्रता नहीं. वैचारिक संदर्भों से जुड़कर स्वतंत्रता अपना अर्थ पाती हैं. जिन परिस्थितियों और नियमों के आगे हम विवश है, उनकी वैज्ञानिक तर्कसंगत जानकारी प्राप्त करके, उन्हें निश्चित उद्देश्यों की पूर्ति का साधन बना सके. वैज्ञानिक ज्ञान की सहायता से हम विवशता से मुक्त होकर स्वतंत्रता का साक्षात्कार कर सकते हैं. यह बात बाह्य प्रकृति और आंतरिक प्रकृति दोनों पर लागू होती है.

रामविलास शर्मा 
स्वतंत्रता का यह प्रश्न एक ओर ऐतिहासिक दृष्टि से सृजित मानवीय संभावनाओं की ओर ले जाने वाले अस्मितामूलक विमर्शों की भूमि तैयार करता है दूसरी ओर सृजनशीलता और स्वतंत्रता की मानवीय क्षमता के अभाव में आत्मनिर्वासन की स्थिति को जन्म भी देता है. 50-60 के दशक में हिन्दी साहित्य में जिस प्रयोगवादी, अस्तित्ववादी प्रवृत्ति की झलक दिखाई देती है वह दरअसल स्वतंत्रता और सृजनशीलता की इसी मानवीय क्षमता के अभाव का परिणाम है.

जैनेन्द्र की कहानियों में स्त्री-प्रश्न

 डॉ॰ रामविलास शर्मा की आलोचनामें स्वतंत्रता को तो मूल्य के रूप में खोजा-देखा जा सकता है लेकिन सीधे-सीधे वहाँ स्त्री-विमर्श के सवालों की खोज ठीक उसी तरह का निरर्थक श्रम होगा, जैसे कलावादी आलोचकों में हिन्दी जाति के सांस्कृतिक इतिहास को खोजना और उनसे जनवादी मूल्यों की मांग करना.

यह सवाल सीधे-सीधे एक बहुतबड़े वैचारिक मतभेद से टकराते हुए लौट आता अगर मार्क्सवाद जीवन और कला के मूल्यों को  अलग-अलग मानते हुए उसके सामाजिक सरोकारों की अवहेलना करता. संस्कृति, परम्परा और समाज के कई अहम सवालों के साथ स्त्री संबंधी प्रश्न भी डॉ॰ रामविलास शर्मा की आलोचना में ऐतिहासिक परम्परा के भीतर ही जन्म लेते हैं. वे बराबर इस बात पर बल देते हें कि परम्परा में जो उपयोगी और सार्थक है, उसे भी बिना मूल्यांकन के न अपनाना चाहिए. इस तरह वे ऐतिहासिक भौतिकवाद की वैज्ञानिक प्रणाली से समाज में व्यापक परिवर्तन की ओर ध्यान केन्द्रित करते हैं, जिनमें स्त्री की स्थिति पर विचार भी महत्त्वपूर्ण और उल्लेखनीय है. परम्परा का उत्तराधिकारी होने के कारण वे उन मूल्यों के स्वीकार को प्रमुखता से रेखांकित करते हैं जिनमें समस्त मानव समुदाय को एक जाति के रूप में संगठित करने की क्षमता हो. इतिहास और संस्कृति के आधार पर निर्मित यह अस्मिता बोध ही उनके आलोचना कर्म का लक्ष्य है. अस्मिता-बोध का यह प्रश्न उनके यहाँ वर्ग चेतना से जुड़ा है जो पचास-साठ के दशक में पश्चिमी आधुनिकतावाद के प्रभाव से आए, महायुद्धों की विभीषिका में जन्मे विधवस्त जीवन, फासीवाद और उपभोक्तावादी संस्कृति के अस्तित्ववादी रूप से एकदम जुदा है. प्रगतिवाद की प्रतिक्रियास्वरूप जन्मे प्रयोगवाद की आधारभूमि भी यही आधुनिकतावाद है जिसमें मूल स्वर निराशा, अवसाद, घुटन, यौन कुंठाएँ और उपभोक्तावादी-समझौतावादी प्रवृत्ति हैं.

 प्रयोगवाद में दर्शन और ठोसवैचारिक भूमि का अभाव था. प्रयोग पर बल देने के कारण ये रचनाकार अपने ढंग से व्यक्तिगत  प्रयोगशीलता और वैचारिक शून्यता की ओर बह निकलते हैं. जिसका परिणाम अंततः आत्मग्रस्तता के रूप में दिखाई देता है. विचारधारा के स्थान पर रहस्यवाद, दर्शन और अस्तित्व की पहचान बन जाता है. इसके विपरीत रामविलास शर्मा 50-60 के दशक में अपनी ठोस वैचारिक भूमि पर खड़े रहकर साहित्यिक समीक्षा से भाषा, इतिहास और संस्कृति के सवालों की ओर बढ़ जाते हैं. इस यात्र में जो सबसे रक्षणीय है, वह है भारत की सांस्कृतिक परम्परा और जीवन से जूझकर विकसित होती सामूहिकता की भावना. एक ओर जहाँ प्रयोगवादी आधुनिकतावादी कला की सामाजिक प्रासंगिकता का अस्वीकार कर समाज से व्यक्ति के रूप में भी विच्छिन्न होते जाते हैं वहीं रामविलास शर्मा कला के अपेक्षाकृत स्थायी मूल्यों की खोज करते हैं. उन्होंने लिखा, ‘‘साहित्य मनुष्य के सम्पूर्ण जीवन से सम्बद्ध है. आर्थिक जीवन के अलावा मनुष्य एक प्राणी के रूप में भी अपना जीवन बिताता है. साहित्य में उसकी बहुत सी आदिम भावनाएँ प्रतिफलित होती है जो उसे प्राणीमात्र से जोड़ती है. इस बात को बार-बार कहने में कोई हानि नहीं है कि साहित्य विचारधारा मात्र नहीं है. उसमें मनुष्य का इन्द्रिय बोध, उसकी भावनाएँ, आन्तरिक प्रेरणाएँ भी व्यंजित होती है. साहित्य का यह रूप अपेक्षाकृत अधिक स्थायी होता है.’’ (परम्परा का मूल्याँकन, पृ0-11)

पितृसत्ता पुरुषों का अमानवीयकरण करती है : कमला भसीन

 विचारधारा वृहत्त साहित्यिक सामाजिक मूल्यों का निर्माण तो करती है लेकिन मात्र वैज्ञानिक विश्लेषण ही प्रस्तुत करना उसकी सार्थकता नहीं है. मनुष्य की आंतरिक प्रकृति के अनुकूलन का कार्य भी वह कुशलता से करती है. इन्द्रियबोध और आंतरिक प्रेरणा के अभाव में एक तरह की यांत्रिकता, वैचारिकता पर दबाव बनाने लगती है. यही कारण है कि किसी विचारधारा में मनुष्यों और सामाजिक सांस्कृतिक अभिव्यक्तियों के द्वन्द्वात्मक सम्बन्धों को ऐतिहासिक संदर्भों में समझने में असंगतियाँ और दोष दिखाई देने लगते हैं.
   
रेखांकन/अपराजिता शर्मा 

अज्ञेय ने ‘भारतीय परम्परा-संघर्ष का उपयोग’ शीर्षक से एक निबंध लिखा, जिसमें उन्होंने कहा-‘‘वास्तव में कला की कोई सामाजिक प्रासंगिकता नहीं है क्योंकि इसका सच अपने आपमें है, स्वायत्त और आत्मतुष्ट है और जिसकी अहमियत उसके निज के अस्तित्व की शर्तों पर ही आंकी जा सकती है.’’ (नित्यानंद तिवारी, सृजनशीलता का संकट, पृ0-57)

 एक ओर अज्ञेय कला भी सामाजिकप्रासंगिकता का अस्वीकार कर रहे हैं दूसरी ओर रामविलास शर्मा कला को मानवीय जीवन के अपेक्षाकृत स्थायी सामाजिक मूल्य के रूप में देखते हैं. तो यह बड़ा वैचारिक अंतर अस्तित्ववादी प्रश्नों से भी बड़े अलग-अलग रूपों में टकराता है. 1950-60 की साहित्यिक अभिव्यक्ति में व्यक्ति-समाज के संबंध ही नहीं, व्यक्ति के आपसी संबंध भी अभिव्यक्ति के संकटों के रूप में उठ खड़े होते हैं. इन्हीं आवाजों में स्त्री-मुक्ति के स्वर भी सुनाई देने लगते हैं. ऐसा नहीं है कि स्त्री की दशा और पुरुष द्वारा एक विशेष सामाजिक व्यवस्था के भीतर सदियों से हो रहे शोषण का विरोध साहित्य के फलक पर पहली बार हो रहा था. लेकिन यह पहली बार हो रहा था कि एक व्यक्ति के रूप में अपने अस्तित्व के प्रश्नों को लेकर स्त्री उठ खड़ी होती है. सामाजिक संबंधों के बीच स्त्री-अस्मिता के प्रश्नों पर तो बात रामविलास शर्मा की आलोचना में आरम्भ से ही मिलती है लेकिन एक अस्तित्ववादी संघर्ष के रूप में वह उनके चिंतन में नहीं आती. रामविलास शर्मा की इतिहास-दृष्टि, स्त्री को उसी तरह उतना ही सामाजिक व्यवस्था का शिकार मानती हैं जितना, जिस तरह श्रमिक, दलित को. सुसंगठित रूप में स्त्री अधिकारों की मांग उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध से ही दिखने लगती है. उससे पहले, बहुत पहले पंडिता रमाबाई सन् 1870 के नागरिक समाज में एक बड़े विस्फोट के रूप में मौजूद रही. ‘हिंदू स्त्री का जीवन’पुस्तक की भूमिका में अनुवादक शंभु जोशी यह प्रश्न उठाते हैं कि आखिर क्यों पंडिता रमाबाई इतिहासकारों की नजर में नहीं आ पाईं? इसका कारण यह हो सकता है कि इतिहास लिखने का कार्य उस दृष्टिकोण से हो सकता है कि जिसमें स्त्रियाँ एक सक्रिय कार्यकर्ता के रूप में कहीं भी नहीं थी.(हिंदू स्त्री का जीवन, पं॰ रमाबाई, अनु॰ शंभू जोशी, सम्वाद प्रकाशन, मेरठ, पहला संस्करण-2006)

 खुदमुख्तार स्त्रियों का कथा -वितान: अन्हियारे तलछट में चमका

 एक ओर हिंदी साहित्य में कलावादी, प्रयोगवादी विचारकों का धड़ा सक्रिय हो रहा था तो दूसरी ओर उसी समय रामविलास शर्मा भाषा और समाज के सवालों से टकराते हुए, उस क्षेत्र में व्यापक स्तर पर शोध कार्य करने का विचार कर चुके थे. इस समय वे अपने आलोचक जीवन के शिखर पर थे. निराला की साहित्य साधना के लिए उन्हें अकादमी पुरस्कार मिल चुका था. द्विवेदी युगीन हिंदी नवजागरण पर एक गम्भीर पुस्तक अभी-अभी लिखी ही थी. इस समय तक हिन्दी जाति और नवजागरण की आधार भूमि के रूप में भाषा की भूमिका वे पहचान चुके थे. इसीलिए इस क्षेत्र में गंभीर शोध कार्य करना चाहते थे. ऐसे शोध कार्य का अर्थ था साहित्यिक समीक्षा को तिलांजलि. लगभग 10 वर्षों के शोध के बाद ‘भारत के प्राचीन भाषा परिवार और हिन्दी भाषा’ के रूप में तेरह सौ पृष्ठों का ग्रंथ तीन खंडों में (1979-81 में) प्रकाशित हुआ.

 डॉ॰ शर्मा भाषा और साहित्य केमाध्यम से समाज निर्माण की व्यापक समस्या का हल करना चाहते थे. इस परिप्रेक्ष्य से जुड़कर सांस्कृतिक इतिहास और राष्ट्रीय अस्मिता के प्रश्नों को भी हल करने के उपाय ढूंढे जा सकते हैं. वे कहते हैं.‘‘शोषण पर आधारित वर्ग विभक्त समाज में स्त्री-पुरुष दोनों का शोषण होता है और उसको बदलने के लिए सामाजिक सम्बन्धों को बदलना जरूरी है.’’ (परंपरा का मूल्यांकन, पृ॰-31) अब तक रामविलास शर्मा की आलोचना और इतिहास-दृष्टि को आधार मानकर जिन भी पक्षों पर विचार-विमर्श हुए उनमें स्त्री संदर्भों और समस्याओं पर सबसे कम विचार हुआ. इस संदर्भ में कुछ ही लेख प्राप्त हुए.

 पहला लेख, फरवरी 2011 में ‘साम्य’ पत्रिका के अंक-26 में जगदीश्वर चतुर्वेदी द्वारा लिखित है, जिसका शीर्षक है ‘रामविलास शर्मा की इतिहास दृष्टि के कुछ पहलू’. इस लेख में रामविलास शर्मा की इतिहास-दृष्टि के नियामक तत्वों की चर्चा के साथ साहित्येतिहास सम्बन्धी उनकी अवधारणाओं की गंभीर, विशद चर्चा की गई है. लेख के अंतिम हिस्से में ‘स्त्री विमर्श और स्त्री संदर्भ’ उपशीर्षक के अन्तर्गत रामविलास शर्मा के लेखन के उन हिस्सों पर संक्षेप में चर्चा की गई है जो स्त्री-सम्बन्धी विवेचन से जुड़े हैं. यह विश्लेषण मोटेतौर पर भारतीय समाज में महिलाओं की स्थिति और वैचारिकी के(वामपंथी विचारधारा के) तहत उसका ऐतिहासिक क्रम में दर्शाता है.


जगदीश्वर चतुर्वेदी स्वयं भी मार्क्सवादीआलोचक हैं इसलिए वर्ग-संघर्ष और उत्पादन सम्बन्धों की पृष्ठभूमि में ही वह भी इन संदर्भों की पुनर्व्याख्या करते हैं. उन्होंने लेख में यह स्थापित किया कि‘‘रामविलास शर्मा ने स्त्री के सवाल को उत्पादन संबंधों के परिप्रेक्ष्य में रखकर विश्लेषित किया, साथ ही स्त्री की आज की स्थिति को आधुनिक भारत के परिप्रेक्ष्य में रखकर विश्लेषित किया, स्त्री की पराधीनता को देश की पराधीनता से जोड़कर देखा. स्त्री की पराधीनता का मुख्य स्रोत आर्थिक पराधीनता को माना.’’(साम्य-26, प्रलेस, अम्बिकापुर, छत्तीसगढ़, फरवरी-2011, पृ॰-71)

रामविलास शर्मा स्वयं बदलते हुएसामाजिक परिवेश और विभिन्न क्रांतियों के कारण राजनीतिक-सांस्कृतिक बदलावों के संदर्भ में नारी की परिवर्तित स्थिति पर विचार करने की आवश्यकता महसूस करते रहे थे. (निराला की साहित्य साधना, खंड-2, पृ॰-41)

 स्त्री अस्मिता आंदोलन इतिहास के कुछ पन्ने

दूसरा और महत्त्वपूर्ण लेख ‘स्त्री-दृष्टि और रामविलास शर्मा’ शीर्षक से डॉ0 अर्चना वर्मा का, प्रदीप सक्सेना के संपादन में तैयार पुस्तक ‘रामविलास शर्मा का ऐतिहासिक योगदान’ में मिलता है. यह लेख इसलिए भी अधिक महत्त्वपूर्ण है क्योंकि जिस परिवर्तन और क्रांति का जिक्र रामविलास शर्मा बदलते हुए सामाजिक परिप्रेक्ष्य में कर रहे हैं, अर्चना वर्मा स्वयं उसकी सशक्त हस्ताक्षर हैं. स्त्री-मुक्ति के प्रश्नों का उन्होंने स्वयं एक स्त्री विमर्शकार के रूप में उठाया और सुलझाया है. दूसरा कारण जो इस लेख को महत्त्वपूर्ण बनाता है वह है वैचारिक भिन्नता.

अर्चना वर्मा स्त्री-मुक्ति के प्रश्नों को ‘पुरुष-मात्र के विरुद्ध नहीं, समाज की पितृसत्तात्मक संरचना के विरुद्ध’ देखती हैं. उनका मत है कि स्त्री-पुरुष दोनों ही उसकी उपज है और अपने-अपने कठघरों के बंदी रहे हैं. बेशक यह सामाजिक समस्या ही है, स्त्री-पुरुष का घरेलू झगड़ा नहीं. (रामविलास शर्मा का ऐतिहासिक योगदान, सपा॰ प्रदीप सक्सेना, अनुराग प्रकाशन, दिल्ली प्र॰ सं॰-2013, पृ॰-706)
     
अपने लेख में वे साहित्य संसार और आलोचना जगत में डॉ॰ रामविलास शर्मा को पुराने क्लासिकल वाम के प्रमुख वक्ता के रूप में देख रही हैं, -‘‘जिस नये वाम के विविधवर्णी, बहुमुखी, बहुजातीय, उत्पीड़न विरोधी, भिन्नतापोषी, उदारतावादी वैचारिक समुच्चय से स्त्री ने ‘अपनी दृष्टि’ पाई और ‘अपना विमर्श’ रचा पुराने क्लासिकल वाम से उसका रिश्ता अगर विरोध का नहीं तो प्रगाढ़ असहमति का अवश्य है.’’ (वही, पृ0 692)
 
निराला के साथ रामविलास शर्मा 

प्रगाढ़ असहमतियों को दर्जकराने हेतु जिन लिखित संदर्भों का सहारा इस लेख में लिया गया है वह अधिकांशतः ‘घर की बात’ से लिए गए हैं. कहा जा सकता है कि वे संदर्भ नितांत व्यक्तिगत व्यवहार का हिस्सा रहे हैं. उन्होंने लिखा‘‘घर की बात के साक्ष्य के आधार पर देखा जा सकता है कि ब्रह्मचर्य, एकनिष्ठ, दाम्पत्य, सदाचार, कथनी-करनी के अभेद आदर्श का वास्तविक व्यवहार, परिवार में बेटे-बेटी-बहू के समता का संस्कार, डॉ॰ शर्मा के व्यक्तित्व में आचरण की शुद्धता का परम्परागत और लगभग आर्य समाजी आदर्श बोलता है.’’ (वही, पृ0-699)

 वे एक वामपंथी आलोचक की दृष्टिसे भिन्न वैचारिक आलोचना मूल्यों का साक्ष्य प्रस्तुत कर डॉ॰ शर्मा को सिरे से खारिज नहीं करतीं बल्कि उनकी सैद्धान्तिक सीमाओं की ओर इस महत्त्वपूर्ण और छूटे हुए विषय के संदर्भ में ध्यान ले जाती हैं और लिखती हैं.‘‘उनकी वैचारिक प्रतिबद्धता भी उनके एकनिष्ठ व्यक्तित्व की ऐसी ही प्रतिश्रुति है. ऐसी आदर्शनिष्ठा और वैचारिक आस्था अपने आपमें एक निहित पवित्रता से मूल्य-मंडित हो जाती है. तथ्य सम्मत वैज्ञानिक प्रामाणिकता, बुद्धि सम्मत तर्कसंगति और यथार्थनिष्ठा के बावजूद अपने स्वभाव में वह लगभग भक्ति जैसी निश्शंकता के समकक्ष होती है. उनकी वैचारिक प्रतिबद्धता उन्हें परिवर्तन और गतिशीलता में विश्वास तो देती है लेकिन.’’ (वही, पृ0-699)

 निश्चय ही इस लेकिन के साथ तमाम वैचारिक साहित्यिक असहमतियों की तार्किक विवेचना संलग्न है.ऐेतिहासिक प्रक्रिया में कोई समस्या उभरती है तो उसके हल की सम्भावना भी कहीं उसमें निहित होती है. मार्क्सवाद समानता की धारणा के परिप्रेक्ष्य में स्त्री-पुरुष संबंधों पर विचार करता है और दोनों को समाज के महत्त्वपूर्ण अंग के रूप में देखता है. वहाँ वर्ग-भेद, स्त्री-पुरुष-भेद नहीं है. वर्ग-मुक्ति समाज की कल्पना, दोनों (स्त्री-पुरुष) के लिए शोषण-मुक्त (व्यक्तिगत-सामाजिक स्तर पर) समाज की कल्पना है. लेकिन सामाजिक बदलाव की प्रक्रिया से लिंगवादी प्रभुत्व का गहरा संबंध है. मार्क्सवादी स्त्रीविमर्श की लेखिका ‘मिशेल बरेट’ ने लिंग की धारणा के भीतर स्त्री-परम्परा को समाज व्यवस्था से जोड़कर देखा. रामविलास शर्मा ने भी ‘स्त्रीवादी मार्क्सवादियों की तरह लिंग भेद को ऐतिहासिक प्रक्रिया में रखकर विश्लेषित किया है.’ (साम्य-26, पृ0-74)

रामविलास शर्मा ने चाहे भाषा,समाज, इतिहास, संस्कृति या साहित्य के किसी भी पक्ष पर विचार किया हो, उसको स्त्री संदर्भ किसी न किसी रूप में जुड़ते रहे. भले ही उन्होंने स्त्री संबंधी प्रश्नों पर अलग से, विस्तार से ना लिखा हो लेकिन यथोचित यथास्थान जिस भी विषय पर लिखते रहे उसमें इन प्रश्नों पर ठहर का विचार किया. ‘घर की बात’ कैसे व्यक्तिगत प्रसंग रहे हों या ‘निराला की साहित्य साधना’ जैसा वृहत्त साहित्यिक संदर्भ. ऋग्वेद के मूल्यांकन और ‘भारतीय संस्कृति और हिंदी प्रदेश’ के पहले खंड के पहले अध्याय ‘श्रम और संस्कृति’ में वे ‘गृह निर्माण, परिवार और नारी’ विषय पर लिखते हैं. श्रम और संस्कृति की परम्परा में सबसे पहला ध्यान उनका मातृसत्ता से पितृसत्ता के हस्तांतरण की ओर ही जाता है. इसी खंड में वे योग और धर्म द्वारा स्त्री को माया के रूप में प्रतिष्ठित करने के षड्यंत्रों की पड़ताल करते हैं. उन्होंने ‘भिक्षुनारी और संसार’ शीर्षक के अंतर्गत योग, वैराग्य और गौतम बुद्ध के सामंती समाज की स्त्री के प्रति सोच को स्पष्ट करते हुए कहा- ‘‘बुद्ध की सबसे बड़ी समस्या, रोग, मृत्यु, दुख नहीं थी, उनकी सबसे बड़ी समस्या थी काम-वासना. स्त्री के प्रतिबद्ध का दृष्टिकोण सामंती व्यवस्था के बैरागियों जैसा है. उसकी तरफ देखो भी मत, हमेशा उससे दूर रहो.’’ (भारतीय संस्कृति और हिंदी प्रदेश, प्रथम भाग, पृ0-575)


 बुद्ध की दृष्टि में नारी पुरुष से हीनहै इसलिए पुरुष साधना द्वारा जो कुछ पा सकता है उसे नारी के लिए प्राप्त करना असंभव है. डॉ॰ रामविलास शर्मा सामंती समाज की इस व्यवस्था पर विस्तार से लिखते हैं. वे योग-धर्म और पुरोहितों की बनाई इस स्त्री विरोधी और वर्ण समर्थक व्यवस्था के विरोध में लिखते हैं लेकिन वहाँ लिखते हैं जहाँ लिखा जा सकता था.

 जब तुलसीदास को एक बड़ाबुद्धिजीवी वर्ग नारी-विरोधी और वर्ण-समर्थक घोषित करने लगता है तो  वह तार्किक असहमतियों से यह सिद्ध करते हैं कि किस प्रकार एक सामंती व्यवस्था में रहते हुए वे वर्णजाति आदि को चुनौती देते हैं और नारी समाज की समस्याओं का हल धर्म और कर्मकाण्ड के प्रभुत्व पर टिकी इस सामंती व्यवस्था के खंडित हो जाने में देखते हैं. उन्होंने लिखा ‘‘हिन्दी में अनेक ऐसे पुरातनपंथी लेखक हैं जो योग के उद्धार में भारतीय संस्कृति का प्रसार देखते हैं. उन्हें याद रखना चाहिए कि कुण्डलिनी जगाने की कितनी ही कोशिशें करें, यह अर्धसामंती समाज व्यवस्था अब कुछ ही दिनों की मेहमान है.’’(परम्परा का मूल्यांकन, पृ0-83)

 गण समाजों का उल्लेख करते हुए उन्होंने ऐसे गण समाजों का विशेष उल्लेख किया जिनमें नारी की प्रधानता थी. गांधी, अंबेडकर, लोहिया जैसे आधुनिक राजनीति के धुर विशेष पुरुषों पर लिखते हुए भी वे ‘वर्णविहीन समाज में नारी’ विषय पर लिखते हैं और स्त्रियों की स्वाधीनता पर जोर देते हैं.‘‘जहाँ ये आदिम साम्यवादी समाज थे, वहाँ स्त्रियाँ स्वाधीन थीं और जितनी दीर्घ अवधि इन साम्यवादी समाजों की थी उतनी ही अवधि स्त्रियों की स्वाधीनता की भी थी.’’ (गांधी, अंबेडकर, लोहिया और भारतीय इतिहास की समस्याएँ, पृ॰-650) इसी प्रसंग में वह लिखते हैं कि ‘‘आदि पर्व में  उद्दालक की एक कथा है. इस कथा के अनुसार एक पुरुष-एक स्त्री की विवाह-प्रथा बल पूर्वक स्थापित की गई.’’ (वही, पृ0-650)
     
उनके स्त्री संबंधी लेखन को पढ़ेबिना यह कहना आसान है कि ‘‘डॉ॰ रामविलास शर्मा के संस्कार और विचार का संयुक्त आदर्श, दाम्पत्य को ही प्रेम का वैध पर्याप्त मानता है. द्विवेदीयुगीन नैतिकतावाद इस संदर्भ में उनका आदर्श है. साहित्य में भी वे इसी प्रेम का चित्रण होते हुए देखना चाहते हैं.’’ (रामविालस शर्मा का ऐतिहास योगदान, संपा0-प्रदीप सक्सेना, पृ0-703 यदि यह पूर्णतः सत्य होता तो वे ऐसे उल्लेख और प्रसंगों को कभी नहीं छूते जहाँ इस निष्कर्ष से सामना करना पड़ा कि ‘‘एक स्त्री -एक पुरुष की विवाह-प्रथा चालू होने पर भी स्त्री की स्वतंत्रता पूरी तरह समाप्त नहीं हुई. श्वेतकेतु ने विवाह का नियम बनाया. उसके बहुत दिन बाद तक भी स्त्रियां अपनी सापेक्ष स्वाधीनता का उपयोग करती रहीं.’’(गांधी, अंबेडकर, लोहिया और भारतीय इतिहास की समस्याएँ, पृ॰-651)

वे ऐसे तमाम उदाहरण जुटाते हैंजहाँ सामंती समाज के पहले और उसके खत्म होने के बाद स्त्रियों के लिए सापेक्ष स्वाधीनता, समानता का व्यवहार संभव हो. उन्होंने लिखा वर्णविहीन समाज में ‘‘स्त्रियाँ शस्त्र धारण करती थीं. युद्ध करती थीं, शास्त्र चर्चा में भाग लेती थीं. स्वयं शास्त्रों  का  निर्माण करती थीं. इसके उदाहरण वैदिक परंपरा में है.’’(वही,पृ॰-651)


 वे इतिहासकारों द्वारा जुटाए उन साक्ष्यों को भी अपने लेखन में शामिल करते हैं जो स्त्री स्वाधीनता के प्रमाण और आम जन के बीच उसकी समझ को विकसित करने में सहायक हो सके. ‘‘महाभारत में स्त्रियों की यौन-स्वच्छंदता के बारे में जो बातें कही गई हैं, वे बहुत कुछ भारत की जनजातियों में प्रचलित रही हैं. डी॰एन॰ मजूमदार कहते हैं. जनजातीय समाज में विवाह पूर्व यौन स्वच्छंदता स्वीकार की जाती हैं.’’ (वही, पृ0-652) सामंती समाज में पुरोहिता, शासकों यानि धर्म और राजनीति के ठेकेदारों ने जो व्यवहार अलग-अलग वर्णों के लोगों के साथ किया था वही व्यवहार स्त्री के साथ भी किया.

 डॉ॰ रामविलास शर्मा इतिहास और संस्कृति के इस पक्ष पर लगातार लिखते रहे हैं. उनकी इतिहास-दृष्टि स्त्रियों के लिए समान अधिकारों वाली सामाजिक व्यवस्था के पक्ष में बराबर प्रमाण जुटाती रही और आज के समय में उसे पाने का मार्ग प्रशस्त करती रही. ‘‘वर्तमान अर्द्धसामंती व्यवस्था में मनुष्य की प्रेम और सौंदर्य की कोमल भावनाएँ बुरी तरह कुचली जाती हैं. विवाह का आधार है सम्पत्ति और कुलीनता, प्रेम करने के लिए प्रेयसी अलग होती है बच्चे पैदा करने के लिए पत्नी अलग. सामंती बन्धनों के खत्म होने पर सौंदर्य और प्रेम की भावनाएँ अपने सहज रूप में पल्लवित होंगी और नारी, कवियों की नायिका मात्र न रह जायेगी. वह श्रम करने वाली, समान अधिकारवाली नागरिक भी होगी.’’ (परम्परा का मूल्यांकन, पृ0-82) ‘समान अधिकारवाली नागरिक’ के जिस रूप में वह स्त्री समाज का भविष्य देखते हैं क्या वह स्त्री का सबसे प्रबल समर्थन नहीं करता. व्यक्तित्व की जिस सार्थकता और सारतत्व की माँग स्त्री-विमर्श की लेखिकाओं ने उठाई है उसमें राजनीतिक रूप से सशक्त (नागरिक होना, राजनीतिक मौलिक अधिकारों से लैस) होना ही तो है.

 सौंदर्य और प्रेम की सहज भावनाएंइस समानता के अधिकार वाले संबंध से ही पल्लवित होंगी.गैर परम्परागत और अति-आधुनिक होते हुए जिस वातावरण का निर्माण अस्मितामूलक विमर्श करते हैं, उसमें विद्रोह और क्रांतिकारी अंतर्वस्तु कम और एक ठोस परिस्थिति में संबंधों की टकराहट से निर्मित यातना और अकेलापन अधिक है. प्रेम जीवन की सारवस्तु है, वह स्वाधीनता से पोषित होता है और पारस्परिकता में निखरता है. हिंदी के मार्क्सवादी आलोचक और स्त्रीवादी आलोचक दोनों रामविलास शर्मा की स्त्री-संबंधी वैचारिकता को नहीं समझ पाए हैं.
     
महादेवी के कवि मन को जबसारा साहित्यिक समाज ‘मैं नीर भरी दुूःख की बदली’ के रूप में देख रहा था तब डॉ॰ रामविलास शर्मा लिखते हैं, ‘‘महादेवी जी का और उनकी कविता का परिचय केवल ‘नीर भरी दुख भी दुख की बदली’ या ‘एकाकिनी बरसात’ कहकर नहीं दिया जा सकता. उन्हीं के शब्दों में उनका परिचय देना हो तो मैं यह पंक्ति उद्धत करूँगा. ‘रात के उर में दिवस की चाह का शर हूँ’.’’(परंपरा का मूल्यांकन, पृ॰-182)
 
   
मानवीय प्रेम, मानवीय-सौंदर्यस्त्री-पुरुष के प्राकृतिक सहज-संबंध के विकास में महत्त्वपूर्ण है. जिस तरह सामंती-व्यवस्था के पहरेदारों, पुराहितों ने सदियों तक उस व्यवस्था को कायम रखा कला कला के लिए या सामाजिक उत्तरदायित्व से मुक्त होकर प्रयोग करने की स्वाधीनता की गुहार मचानेवाले साहित्यकारों ने भी उसकी पराधीनता को पीड़ावाद का रूप दिया. ‘‘ये लोग फॉर्म की रट लगाकर साहित्य में उच्च कोटि के विचारों के महत्त्व को अस्वीकारते हैं. इनकी मति सीप के समान नहीं है जिससे मोती निकले, वह घोंघे की तरह है जो सेक्स के लिए मुँह फैलाकर अपने अंदर सिमट जाता है. जन-संस्कृति, ग्राम-गीतों, प्राचीन साहित्य से इनकी सरस्वती नहीं जागृत होती, न विदेश के जनवादी लेखक इन्हें अच्छे लगते हैं, इनकी प्रेरणा का स्रोत एजरा पाउंड, टी॰एस॰ इलियट, स्पेण्डर आदि लेखक हैं जो जन शिविर के विरोधी हैं.’’ (वही, पृ0-87)

 डॉ॰ रामविलास शर्मा की विशेषतायह है कि वे ऐतिहासिक परम्परा से अलग होकर किसी बड़े सामाजिक बदलाव को सहजता में विकसित होता नहीं देखते, साथ ही इस बात पर भी जोर देते हैं कि परंपरा में जो उपयोगी और सार्थक है, उसका मूल्यांकन किए बिना नहीं अपनाना चाहिए.वह जानते हैं ‘‘स्त्री की परतंत्रता का कारण सामंती सम्बंधों के अवशेष और समाज-संचालकों के सामंती संस्कार हैं. नारी की पराधीनता को यदि पीड़ावाद का रूप दे दिया जाए तो इससे सामंती बंधनों और सामंती संस्कारों की रक्षा होती है. नारी की दासता और परवशता के सहारे जिस आध्यात्मवाद की रचना हुई है वह ढह पड़े अगर नारी इन सामन्ती बंधनों को तोड़ने के लिए कटिबद्ध हो जाए.’’ (वही, पृ0-185)

 रामविलास शर्मा जिस-जिस प्रसंग में भी स्त्री के संदर्भ में विचार करते हैं वह उनकी इतिहास दृष्टि का सबसे प्रासंगिक हिस्सा हो जाता है. इसलिए साम्राज्यवादी हितों और सामन्ती अवशेषों को समाप्त कर जातीय एकता की स्थापना करने की दृढ़ प्रतिज्ञा के साथ-साथ स्त्री की स्वाधीनता का प्रश्न भी वे भारतीय जनसाधारण की स्वाधीनता की समस्या के एक अंग के रूप में उनकी आलोचना में उपस्थित है.

 जो साहित्यिक विचारक सेक्स मेंक्रांति की बात करते हैं वे दरअसल इस समस्या को और उलझाते हैं तथा सामंती हितों को पुष्ट करते हैं. ‘‘सामंती संबंधों की परिधि में पुरुष का एक अपना निहित स्वार्थ होता है. मजदूर वर्ग से बाहर अन्य वर्गों का पुरुष जिनमें नारी स्वतंत्र श्रमिक नहीं है सामंती साम्राज्यवादी बंधनों से पीडि़त होते हुए भी, स्वयं नारी का स्वामी बनकर उसके श्रम का फल आत्मसात कर लेता है.इसलिए ऐसे लेखक जो सामंतविरोधी सामाजिक सांस्कृतिक आंदोलनों से दूर हैं, स्वभावतः पीड़ा वाद के समर्थक बन जाते हैं.’’ (वही, पृ0-186)

 सामंतवाद और साम्राज्यवाद के समान ध्येय हैं - धर्म और राजनीति के एकीकरण से जनता को पथभ्रष्ट करना. अब जब जमाना बदल रहा है उदार अर्थव्यवस्था में राजनीति और संस्कृति संकीर्ण हो रही है, नागरिक हितों से अधिक उपभोक्तावादी मानसिकता को प्रश्रय दिया जा रहा है ऐसे समय में साहित्य को भी उसकी परम्परा के संदर्भों से काटकर साम्प्रदायिक, सामंती परम्पराएं गढ़ी जा रही हों, तब रामविलास शर्मा जैसे आलोचक को बार-बार पढ़ा जाना और भी जरूरी हो जाता है


 सामंतवाद जितना कमजोर होगा,उन्मुक्त वातावरण में सांस्कृतिक सामाजिक विकास उतना ही जोर पकड़ता जाएगा. दलितवादियों, नारीवादियों और उत्तर आधुनिकतावादियों से उनका मतभेद संभवतः इसी कारण है कि वे पृथकतावादी दृष्टिकोण से नहीं, असमानताओं को अन्तःसूत्रित दृष्टि से देखते थे. जो लोग फॉर्म की बात करते हुए उनसे वैचारिक मतभेद रखते हैं वे प्रेम, सौंदर्य, जीवन और विद्रोह की उपस्थिति एक ही साथ एक ही जीवन में समझने की सामर्थ्य ही नहीं रखते. इसका कारण संभवतः ऐसी विचारधाराओं का प्रभाव है, जो सामन्तवाद और साम्राज्यवादी हितों से समझौता करना सिखाती है.
     
तारसप्तक के अनेक कवियों नेआरंभ में खुद को कम्युनिस्ट घोषित किया और अगले संस्करण में साम्यवाद से मोहभंग की घोषणा भी कर दी. वैचारिक दुर्बलता अकेलेपन और यातना का परिणाम साथ लेकर आई.व्यक्तिगत अस्मिता के संकटों से जूझते हुए बहुत से भूतपूर्व मार्क्सवादी, नई पीढ़ी के दलित, स्त्री और उत्तर आधुनिक चिंतकों के बीच डॉ॰ रामविलास शर्मा तब भी मार्क्सवादी बने रहे.
     
 वे शेष बुद्धिजीवियों को भी द्वन्द्वसे निकलने का एक ही मार्ग सुझाते हैं.‘भारत में सामन्ती अवशेषों और साम्राज्यवादी हितों को समाप्त करना.’ साथ ही स्त्री-मुक्ति और उसकी समस्याओं के निराकरण के संदर्भ को भी इस अभियान का हिस्सा बना लेना चाहते हैं और कहते हैं,‘‘भारतीय नारी सदियों की सामंतीदास्तान से तभी मुक्त हो सकेगी जब वह शेष जनता के साथ साम्राज्यवाद विरोधी, सामंतविरोधी स्वाधीनता आंदोलन में आगे बढ़कर हिस्सा लेगी.’’ (वही, पृ0-186)

स्त्रीकाल का संचालन 'द मार्जिनलाइज्ड' , ऐन इंस्टिट्यूट  फॉर  अल्टरनेटिव  रिसर्च  एंड  मीडिया  स्टडीज  के द्वारा होता  है .  इसके प्रकशन विभाग  द्वारा  प्रकाशित  किताबें  ऑनलाइन  खरीदें : 

दलित स्त्रीवाद मेरा कमराजाति के प्रश्न पर कबीर

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विकल सिंह की कवितायें

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विकल सिंह
गुजरात केन्द्रीय विश्वविद्यालय में शोधरत है. . संपर्क: vikalpatel786@gmail.com मो: 07897551642  

आदिवासी स्त्री

“वह सभ्य समाज की जड़ता को
सिंचित करती नक्कासी में,
न धर्म-भेद का ज्ञान उसे
न जाती मथुरा काशी में !
रहती सदैव वह कर्मरत
नक्कासी, शिल्प में हस्तरत,
मुख पे मनुष्यत्व का तेज लिए
रहती सदैव संघर्षरत !”


हिंदी साहित्य में आदिवासी स्त्री का सवाल

आदिवासी विकास का अद्वैत प्लम्बन

ऐसा क्यों है कि
हमारी बस्तियाँ
तुम्हारी आँख की किरकिरी
बनती जा रही हैं ?
हर ज़ानिब1
हमारे ही घर क्यों
दीखते हैं तुम्हें ?
तुमने जो विकास का
खाका तैयार किया है,
उसमें हमारा विकास
तो नदारद है ।
गर कुछ है तो
हमारे बीवी, बच्चों
की चीखें और
हमारी उम्मीदों का
टूटना है ।
तुम जानते हो
कि इन उम्मीदों और सपनों के
 सिवा कुछ भी तो नहीं है
हमारे पास खोने को !
ये पहाड़, ये झरने
ये प्रकृति ही हमारी
धरोहर है !
क्या तुम इसे भी
छीन लेना चाहते हो ?
नहीं ! नहीं ! साहब !
यदि विकास हमारी
बस्तियों का उजड़ना है
तो नहीं चाहिए
हमें ये विकास !
क्योंकि इन बस्तियों
का उजड़ना
हमारी अस्मिता,
सभ्यता और
संस्कृति का उजड़ना है हम प्रकृति की
गोद में रहते आये हैं,
ये झरने ये पहाड़
हमें अत्यधिक प्यारे हैं ।
हमें अपने हाल
पे छोंड दीजिए साहब !
जाइए पहले विकास का
अद्वैत2 प्लम्बन3 तैयार कीजिए,
जिसमें विकास मुख्य धारा के
लोगों का नहीं, बल्कि हमारा हो
हमारी संस्कृति मरे नहीं,
हमारे बच्चे चीखें नहीं,
और हम
प्रकृति की गोद में मुस्कराएँ !”  
1. दिशा  2. भेद रहित  3. तरीका

नगाड़े की तरह बजते है शब्द

मैं स्त्री हूँ, जरा गौर से देखना मुझे

“मैं स्त्री हूँ,
जरा गौर से देखना मुझे...
देखना तुम
मेरे माथे की बिन्दिया को
जो मेरी है पर चमकती
किसी और के लिए !
 मैं स्त्री हूँ,
जरा गौर से देखना मुझे...
देखना तुम
मेरे सिन्दूर को
जो मेरा है पर नाम उस पर किसी
और का है !
मैं स्त्री हूँ,
जरा गौर से देखना मुझे...
देखना तुम
मेरे नाम को
जिस पर अधिकार
किसी और का है !
मैं स्त्री हूँ,
जरा गौर से देखना मुझे...
मेरा सब कुछ किसी
और का है,
बताओ मुझे, मुझ में
मेरा क्या है ?”

 
एक स्त्री की व्यथा

“मैं एक ऐसी वस्तु बना दी गई
जिसे जैसा चाहा इस्तेमाल किया जाता रहा ।
वस्तु, जिसका कोई मूल्य नहीं
कोई नाम नहीं
कोई जाति नहीं
कोई धर्म नहीं
जब जिसे जैसी जरूरत हुई,
इस्तेमाल किया मुझे !
लगातार मुझे हाशिए की ओर
ढ़केले जाते हुए भी
मैं कभी टूटी नहीं, हमेशा
हाशिए को ही हथियार बनाने की
कोशिश में जुटी रहती हूँ ।
कभी मेरे शरीर को आंटे की
लोथी सा मसला गया,
तो कभी देह पर पड़े निशान
कई दिनों तक
याद दिलाते रहे मुझे, उस
निरीह अवस्था को !
क्या मैं इतनी कमज़ोर हूँ कि
इसका प्रतिकार तक न कर सकी,
या निर्मित किया गया है मुझे
कुछ ऐसा ही !
क्यों बचपन से मुझे
कम बोलने, कम खाने, तेज न दौड़ने जैसे
संस्कारों में ढ़ाला गया ?
शायद इसलिए कि मैं
इसका प्रतिकार ना कर सकूँ !”

खुदमुख्तार स्त्रियों का कथा -वितान: अन्हियारे तलछट में चमका

आधुनिकता का आइना

“शहर से गर्मियों की छुट्टियों में
आना होता था जब गाँव
गाँव आते ही सुखिया चाचा
दौड़कर आते
और
पूछते मेरी राजी ख़ुशी !
बातों ही बातों में
पूरे गाँव का हाल बता देते वो
यूँ उम्र में वो पचास के पार होंगे
पर चेहरे में बुढ़ापे की एक झलक भी न थी
कोसों  दूर पैदल चले जाते
पर वो तो सुखिया चाचा थे
जो बुढ़ापे में भी जवानी का दम रखते थे
अब तो रामू, शिवबरन और माधव
जवानी में भी बूढ़े नज़र आते हैं
 सुना है रामू बहुत तेज कार चलाता है
वक़्त की रफ़्तार से भी आगे
निकलना चाहता है शायद !”

टूटते सपने 
                                           
“आम जन में एक आह है,
एक टीस है
उन सपनों के न पूरे होने की,
जिन्हें वह पालता है,
पोषता  है,
अपनी खुशियों के लिए,
अपने विकास  के लिए
पर वही सपने एक दिन बिखर जाते हैं
मुट्ठी में आई हुई रेत की तरह !
क्यों उनके सपने संवरने से
पहले बिखर जाते हैं ?
क्यों आर्थिक तंगी उन्हें,
दिनों-दिन
खोखला कर रही है ?
क्या यह सारी सुख-सुविधाएँ
बस चन्द लोगों के लिए हैं ?
जो संसद पर बैठे हैं और
सारे ऐशो-आराम भोगते हैं ।
 तब क्या धूमिल का कहना
न्याय संगत है,
कि क्या आज़ादी सिर्फ़
तीन थके हुए रंगों का नाम है,
जिसे एक पहिया ढ़ोता है ?
यह पहिया है मध्यवर्ग,
जो आज़ादी के पूर्व से अब तक
गतिशील है,
उसका लगातार घूमना
उसके संघर्ष का प्रतीक है ।
कभी तो उसका संघर्ष ख़त्म होगा,
कभी तो उसके सपने पूरे होंगे,
कभी तो वह सही मायने में
स्वतंत्र होगा,
बस इसी उम्मीद के साथ
आज आम जन जिन्दा है ।”

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वृत्तचित्र 'तेरी जमीं तेरा आसमां'का प्रीमियर 29 अप्रैल को अमेरिका में

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'तेरी जमीं तेरा आसमां'नामक 45 मिनट के वृत्तचित्र की थीम है 'भारतीय नारी! तू आजाद कहां।'इस फिल्म में विभिन्न क्षेत्रों की भारतीय महिलाएं चाहे वे सामान्य घरेलू महिलाएं हों या असाधारण काम करने वाली कोई स्त्री, शिक्षिकाएं हों या श्रमिक, छात्राएं हों या अधिवक्ता, आधी आबादी का आधा आकाश छेंकने वाली ये महिलाएं आपसे बात करती हैं। दर्शकों के साथ अपने अतीत और वर्तमान की यात्रा को साझा करते हुए वे बताती हैं कि उनके लिए अब और भविष्य में आजादी के मायने क्या हैं? वे बताती हैं कि कैसे पीडि़त अथवा संरक्षित की छवि से परे वे अपने आसपास होने वाले बेहतर और सकारात्मक बदलाव की कारक बनना चाहती हैं। यह दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की औरतों की ज़ुबानी कही गई कहानी है, जहां पैदा होने वाली पूर्णा मालावत, कल्पना चावला और टीना डाबी अपने सपनों को न केवल पूरा कर सकीं बल्कि उन्होंने  पूरा आकाश छू लिया।




शनिवार , 29 अप्रैल 2017, को यूनाइटेड स्टेटस में 'ब्रैंडिज युनिवर्सिटी, बोस्टन' के द हेलर स्कूल के एंफी थिएटर में इस फिल्म का पहला शो 12.15 मिनट पर होगा.  जीवन गावंडे द्वारा निर्देशित, मनीषा बांगड़ की  पटकथा और कांसेप्ट पर बनी  बेहद कम बजट वाली इस फिल्म का निर्माण बामसेफ और एएएनए के कार्यकर्ताओं द्वारा दिए गए चंदे से किया गया है। पहले शो के अवसर पर मनीषा बांगड़ वहाँ उपस्थित होंगी. वे 30 अप्रैल को 'ब्रैंडिज युनिवर्सिटी, बोस्टन'में 'पितृसत्ता और भारतीय स्त्रीवाद'पर आयोजित सेमिनार में भी हिस्सा लेंगी.


देखें एक टीजर :





डॉ. मनीषा बांगड़ बामसेफ की राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हैं। वह देश में मूलनिवासी बहुजन की प्रमुख आयोजक हैं। वह पेशे से हेपटोलॉजिस्ट चिकित्सक हैं जो लीवर, गॉल ब्लैडर और पैंक्रियाज आदि से संबंधित शाखा है। डॉ. बांगड़ हैदराबाद स्थिति डेक्कन इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल सांइसेज में गैस्ट्रोएंट्रोलॉजी और हेप्टोलॉजी विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर भी हैं।  वह विभिन्न मीडिया पोर्टलों पर लिखती और बोलती रही हैं। बीते एक दशक के दौरान उनको कई प्रमुख राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालयों, शासकीय उद्यमों, मानवाधिकार और फुले-अंबेडकर की वैचारिकी वाले संस्थानों में बतौर वक्ता आमंत्रित किया गया है। इनमें संयुक्त राष्ट्र, इसरो, ओएनजीसी, नाल्को, जेएनयू, एचसीयू आदि प्रमुख हैं। इस दौरान उन्होंने लैंगिक समानता, स्वास्थ्य, विज्ञान और शिक्षा से लेकर जाति और फुले, पेरियार तथा आंबेडकर, राष्ट्र, राष्ट्रीयता  और लोकतांत्रिक राष्ट्रवाद तक पर अपनी बात रखी।

जीवन गावंडे मूलनिवासी पब्लिकेशन ट्रस्ट के बोर्ड के सदस्य हैं। वह आवाज इंडिया टीवी के एक्ज्क्यूटिव प्रोड्यूसर और सब एडिटर भी हैं। उन्हें विभिन्न सामाजिक-सांस्कृतिक विरासत से जुड़े मुद्दों और ख्यात व्यक्तित्त्वों के जीवन पर 90 वृत्तचित्र बनाने का श्रेय हासिल है। उनकी फिल्मों शिक्षा में षडयंत्र और संत रविदास को व्यापक राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय सराहना मिली। फिलहाल वह केरल और आंध्र प्रदेश में बौद्घ विरासत की खोज विषय से संबंधित एक वृत्त चित्र की योजना पर काम कर रहे हैं।

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