सोनी पांडेय
सोनी पांडेय लगातार लोक जीवन और ग्रामीण स्त्री-जीवन की प्रभावशाली कहानियाँ लिख रही हैं. ऐसे समय में जब महिला लेखन में यह परिवेश लगभग छूटता जा रहा है सोनी पांडेय की कहानियाँ आश्वस्त करती हैं. पढ़ें उनकी एक ताजा कहानी नाक की फुरूहुरी:
रात से ही बरखा झमर -झमर हो रही थी...भोर होते -होते जड़ाने लगा तो मुल्लर बो बगल की खटिया पर किकुर कर सोए पति से बोली...हे तनी हुक्का सुलगाते..पेट बथ रहा है। बुढउ अउर सिकुड़ गये।चुप लगाए पड़े रहे।बूढ़ी को गुस्सा आ रहा था,जानती थी की पति अजोर होने से पहले उठ जाते हैं।लेकिन आज कई दिनों बाद राहत भरी भोर मिली थी सो मुल्लर अपनी कथरी गुदरी में और सिकुड़े जा रहे थे।बूढ़ी की पीड़ा बढ़ी तो रोने लगी....मुल्लर सब सह सकते थे,...अपनी प्राण प्यारी का रूदन नहीं।बेचारे आलस त्याग कर उठे...ढ़िबरी में रात छोटकी पतोहू ने लाख कहने के बाद भी तेल नहीं भरा जिसके कारण वह आधी रात को ही जुड़ा गयी।वैसे तो गर्मी की भोर ही उजास लिए आती है पर आज आषाढ के घन,घनघोर घिरे थे और जम कर बरखा हो रही थी।बेचारे लाठी टटोलते उठे...लाठी ठक से पैर से लगी और डगरा कर किसी किनारे लग गयी..बूढ़ी रोए जा रही थी...किसी तरह अन्धेरे में टटोलते दरवाजे तक पहुँचे और कुण्डी खोल दलान में आए....दलान की छप्पर कहीं से सरक गयी थी और रात भर की बरखा से छाजन की मिट्टी ठेल अन्दर पानी से चारों तरफ बिछलहर हुई थी....छोटा लड़का जब तक पिता को आगे बढ़ने से रोकता उनका पैर आगे बढ़ चुका था और भागकर पकड़ते -पकड़ते बुढ़उ भड़ाम की आवाज संग सरक कर ज़मीन से होते कमर तक नीचे गहरे आँगन में जा गिरे....आँगन तालाब हो चुका था ,वह गिरे ...आवाज हुई ...और एक कराह के साथ सन्नाटा फैल गया।लड़का चिल्लाते हुए आँगन में कूदा...आवाज सुन बड़ा भी भागकर आया ...मुल्लर पानी में डूबे पड़े थे....भारी भरकम पहलवानी का शरीर... लड़के चिल्लाए तो बहुँए ...पोते ..पोतियाँ सब आँगन में उतर गये।लाद फांद कर किसी तरह बाहर बरामदे में लाकर चौकी पर लिटाया गया।हल्ला-गुल्ला सुन कर आस-पड़ोस के लोग भी आ गये...मुल्लर की पीठ दबा- दबा कर पानी निकाला गया...गाँव के झोलाछाप डॉक्टर महेन्दर को बुलाने दोनों पोते पहले ही भागे थे...बस वो गये और उधर से बभनान से महेन्दर डागडर दौड़ते आला लिए आते दिखे।आते आला छाती पर लगा जाँचने लगे...नब़्ज टटोली,मुँह में साँस देने और छाती पर पम्प करने की प्रक्रिया होने लगी...खैर कोई दस मिनट बाद मुल्लर के शरीर में हरकत हुई...धीरे -धीरे आँख खोला और जोर- जोर से कराहने लगे।महेन्दर की बाँछें खिल गयीं...एक बार फिर उनकी सफल डॉक्टरी पर मुहर लगी।लगे विद्वता उढ़ेलने।कराहते मुल्लर को देख इण्टर में पढ़ने वाली पोती ने पूछा...बाबा!कहाँ दुखाता
करिहहिंया(कमर) रे बुचियाssssमुल्लर ने कराहते हुए कहा।
उसने पैर को पकड़ कर धीरे से उठाया... वो जोर से बाप ...बाप चिल्ला उठे।लड़की ने सिर पर हाथ रखकर कहा...बाबा क त कमर गइल।
महेन्दर पिनक गये....बाह बेटी!..तुम तो बड़ियार हड्डी कीडॉक्टर निकली।गोड़ छू कर जान लिया कि कमर टूटी है।ये उनकी डॉक्टरी का बड़ा अपमान था।लड़की भी कम न थी।तन गयी...हमारे गृह विज्ञान की किताब में हड्डी टूट के लक्षण बताए गये हैं।वह कमर पर हाथ रखे पूरी आत्मविश्वास से भरी खड़ी थी।डॉक्टर चतुर थे...मन ही मन सोचे लड़की समझदार है और बात पलट कर दर्द की सूई लगा ब्लॉक पर ले जाने की हिदायत दे सौ रूपया जेब में ड़ाल निकल लिए।घर में मातम छा गया....बाहर छपनो कोट बरखा हो रही थी....अन्दर के कच्चे मकान की दीवारें पतली हो रहीं थी लगातार पानी की बौछार पा....लड़कों ने बहुओं संग पहले तो मिल जुल कर उधर की कोठरियों का सामान निकाल आगे की पक्की कोठरियों में ज़माया....इस काम में पूरे तीन चार घण्टे निकल गये...उधर रोती बिलखती बूढ़ी को छोटी बहू ने हुक्का सुलगा कर थमा दिया और बुढ़उ का हाल बता पटा कर पड़े रहने की हिदायत दे काम में लग गयी।बेचारी मुल्लर बो अपने बुढ़उ को देखने के लिए कलपती रहीं...पर किसी ने ध्यान नहीं दिया।
धीरे-धीरे दर्द के इन्जेक्शन का असर खत्म होने लगातो मुल्लर की कराह बढ़ने लगी....बड़े बेटे ने छोटे से कहा....बाउ को किसी हाल में ब्लॉक ले जाना पड़ेगा...लगता है बुचिया ठीक कहती है की बाउ की कमर टूट गयी है।छोटे ने हामी भरी।अभी दोनों भाई विचार विमर्श कर ही रहे थे कि पीछे की सबसे पुरानी कोठरी भहरा कर धस गयी...गनीमत था कि उधर से सारा सामान निकल चुका था और घर का कोई सदस्य उधर नहीं था।बड़ी बहू ने सिर पर हाथ रख कर कहा....जब बिपत आती है तो चारों ओर से आती है...इ बुढ़िया के हुक्के का नशा जो न कराए।छोटी दो जौ और आगे निकली...बुढ़उ भी तो कम नहीं ...जिनगी भर कपार पर बिठाए रहे....बस सब कुछ ताव पर चाहिए...ऐसी मेहरारू मरद को खा चबा के ही चैन लेती हैं...देखिए खटिया भर के आदमी को ढ़ाह कर दम लिया बुढ़िया ने। बहुएँ अलग अलाप लिए बैठीं थी...इधर बुढ़उ की कराह...उधर बरखा थी कि रूकने का नाम ही नहीं ले रही थी।पोतियाँ हल्दी तेल गरम कर बाबा के हाथ पैर मल रहीं थीं...छोटी बारह साल की पोती रानी आजी के पास आकर उनकी चारपाई में लेट गयी...मुल्लर बो ने धीरे से कहा....बुचिया ! तनी बाबा के पास ले चलती।लड़की तकिए में गर्दन धसा कर करवट फेर लेट गयी....माँ से डांट लगी थी,माँ से नाराज हो वह आजी के पास आती और दोनों जम कर उसकी शिकायत करतीं।बूढ़ी छोटी बहू को बिल्कुल पसन्द नहीं करती थी...उसके कर्कश स्वभाव के कारण।आज फिर मन उससे खिन्न था....पोती को पुचकारते -पुचकारते रो पड़ी,लड़की पसीज गयी....बारिश कम होते आँगन-दुवार पर जमा पानी उतरने लगा....बादल वैसे ही आसमान में जमे थे।बड़े लड़के ने छोटे से कहा...अब इससे कम बुन्नी का आसरा नहीं ,किसी तरह बाउ को अस्पताल ले चलना ही पड़ेगा...बेचारे दरद से चिल्ला रहे हैं।रानी आजी को डण्डे के सहारे धीरे -धीरे पकड़ कर बरामदें में लेकर आई....बुढ़उ कराह रहे थे,आकर पायताने बैठ गयीं...सुबकते हुए कलपने लगीं।कुल हमरे चलते हुआ।दर्द की अथाह वेदना में भी मुल्लर ने घरवाली को दोषी नहीं बनाया...नहीं.. नहीं.. भोला की माई,सब उसकी मरजी है।नाहक खुद को दोख देती हो।अब होनी ही यही थी....नहीं तो ऐसी बरखा इधर बीसों साल से नहीं हुई थी।सब करम दोख(दोष) है।
मुल्लर बो रोती रहीं...आजी को रोते देख पोतियाँ भी रोने लगींहाँ बहुएँ जरूर मुँह चमका रहीं थीं। लड़कों ने गाँव के प्रधान की सहायता से किसी तरह चारचक्के की व्यवस्था की और पिता को लाद -फाद कर अस्पताल ले गये।ब्लॉक के डॉक्टर ने जिले पर रेफर कर दिया...जिले के डॉक्टर ने बनारस।कमर की हड्डी खिसक गयी थी...तुरन्त आपरेशन का निर्देश था।बड़े बेटे ने सबसे सक्षम मझले भाई को दिल्ली फोन किया....वह कालेज में पढ़ाता था,पूरा हाल कहा...उसने तत्काल पैसा भेजा और किसी तरह की कोताही न होने की चेतावनी दे बनारस के लिए निकल गया।मुल्लर का मेजर आपरेश हुआ और महीनों अस्पताल में रहे...लाख रूपया लगा...लगा तो मझले बेटे का पर कलेजा सुलगा छोटी का...रो-रो टोले भर से कहती फिरती कि घर बनवाने के नाम पर भईया क रूपया सूखा गया और अब टन से निकल गया।बूढ़ी सुनतीं और क्रोध पी कर रह जातीं।
जीवन में पहली बार महीने भर ब्याह के बाद अकेलीं रहीं...सावन चढ़ गया था,शिवाले में इस बार मुल्लर के बगैर मण्डली रात को बैठती और भजन -कीर्तन चलता।पहली बार उम्र के पचहत्तरवें पड़ाव पर सावन बेरंग लग रहा था,नहीं तो सावन चढ़ते मुल्लर भर -भर हाथ मियाईन के यहाँ से हरी चूड़ियाँ लाकर पहना देते।लालटेन की रोशनी में कलाई देखी...लाल चूड़ियाँ कलेजे में धंसी और आँखे भरे सावन में बरस उठीं।वह आँचल से मुँह ढ़ांप रोती रहीं... रोते -रोते कब आँख लगी और जीवन के पिछले कपाट खुलने लगे पता ही नहीं चला....वह खोतीं गयीं.........।
मुल्लर मंगल की बजार से सौदा लिए चलेआ रहे थे..साईकिल की हैंडिल पर ऊपर तक भरा झोला सबके आकर्षण का केन्द्र था....वह दुवार पर साईकिल खड़ा कर झोला लिए सीधे आँगन में पहुँचे।छोटा बेटा छः महीने का गोद में था....जाड़े की गुनगुनी धूप में तेल ताशन से सनी मुल्लर बो ने कनखियों से पति को देखा....मुल्लर पहले से निगाह जमाए थे...नजरें मिलीं और घरवाली झेंप गयी।जानती थी कि आज की मंगल की हाट खास है...ब्याह के पूरे दस साल हुए थे...इस बीच चार बच्चों की माँ बन चुकी भोली भाली अल्लढ़ सी चम्पा जो सोलहवें साल में ब्याह कर इस घर आई थी कब अपना नाम खो मुल्लर बो बन कर रह गयी ,पता ही नहीं चला।बच्चे को खटोले पर सुला कोठरी में आई,...मुल्लर ने अकवार में भर लिया...औरत ने कोहनी से ढ़केलते हुए कहा....हटो! माई अंगने में बैठी ईधर ही कान लगाई है।मुल्लर ने हँस कर छोड़ दिया,हाथ पकड़ कर पलंग पर बिठाया और झोला से एक- एक सामान निकाल कर रखते गये।वह मुग्ध देखती रही ...काहें एतना रुपया फालतू में खर्च करतो हो भोला के बाउ,अभी पिछले महीने ही तो शहर से साड़ी लाए थे,झुट्ठे माई मुझे ताना मारती है कि मरद की पगरी अपने सिंगार पटार में बेच देगी।वह सिर ज़मीन में गड़ाए रोने लगी।मुल्लर भी भावुक हो गये...देखो भोला की अम्मा! सब करना,मेरे सामने आँसू मत गिराना जिनगी में।जान लो कि मैं तुम्हें मैली धोती में नहीं देख सकता।चेहरे को दोनों हथेलियों में भर कर....ये धूप सी उजली देह को मैं दुख नहीं दे सकता,जो मिले,जितना मिले ,सब तुम्हारा... मेरा देह ,मन,धन सब तुम्हारा।आखिर इतना खटता किसके लिए हूँ।छोड़ों माई की बातें...तुम बस खुश रहा करो ।
मिया बीबी की प्रीत पाती अभी बांची ही जा रही थी किआँगन में से सास का चिल्लाना शुरु हो गया....आज कल की पतोहन को न लाज है न सरम(शर्म) ....मरद को देखा नहीं कि कोठारी में घुसते लाज नहीं आती।लईका छेहर गिरे ढ़िमलाएं,उ जाके भतार के कोरा में बैठ जाएंगी।
मुल्लर बो ने लम्बी साँस छोड़ कर कहा...लिजिए, चालू हो गयी माई...अब भर टोला ढ़ोल बजाएंगी। मुल्लर सिर झुकाए सीधे दुवार की ओर निकल गये। कुछ भी हो जाए,कभी माँ का जवाब नहीं देते थे।पिता प्राईमरी के मास्टर थे...भरी जवानी में तीव्र ज्वर में चल बसे।उस समय मुल्लर इण्टर में पढ़ते थे ,मामाओं ने धा धूप कर किसी तरह इनकी पिता की जगह नौकरी लगवाई।माँ उस समय महज चालीस की थी जब पिता गुजरे....ले -दे -के मुल्लर इकलौती सन्तान। नौकरी लगते तिलकहरुओं की भीड़ लगने लगी।माँ ने सोचा जो जल्दी लड़के को नहीं ब्याहा तो दयाद जगह ज़मीन घेरने लगेंगे। घर में पतोह आने से थोड़ी रौनक भी आ जाएगी...और इस तरह बीस के होते -होते मुल्लर ब्याह दिये गये।सिन्दूर दान के समय जब चादरों के घेरे में गठरी बनी बैठी लड़की का माथा भर देखा,अन्दर तक सिहर गये...भक्क उजली चाँदनी सी लड़की।मुग्ध ,जो एक बार प्रेम का नशा चढ़ा, आजीवन बना रहा।पूरे गाँव ने मुल्लर की माँ को बधाई दी कि गेंहूए का भीख ड़ाली थी जो इतनी सुग्घर बहू मिली।शुरु के सालों में सास ही सिर चढ़ाए रहीं....साले साल बच्चे होते रहे,मुल्लर जो नसबंदी का नाम लेते माँ इनार में कूदने निकल जाती...बेचारे चौथे बच्चे के बाद चुपचाप अकेले जाकर नसबंदी करा आए और पत्नी को कसम चढ़ा दिया कि माँ से मत कहना।बीमारी का बहाना कर कुछ दिन आराम कर नौकरी पर जाने लगे।तीन बेटे और एक बेटी के बाद सास हर महीने बहू से पूछतीं की महीना चढ़ा ?..वह इन्कार में गर्दन हिला देती।दरअसल सास चार पोते चाहती थी...दयादों ने उन्हें एक बेटे के नाम पर खूब हड़काया था ,अब वह बेटे को सवांगो से लैस करना चाहती थीं..हमारे गाँवों में आज भी ये मान्यता बलवती है कि जिसके पास जितनी लाठी(लोग),वह उतना ताकतवर।अब बहू उन्हें निराश कर रही थी....सास बहू के मधुर सम्बंध यहीं से बिगड़ने शुरू हुए।छोटा अभी चार माह का हुआ ही नहीं ,वह अगले की बाट जोहने लगीं।बच्चों के पालने में बहू की खूब मदत करतीं....बहू की इतनी सेवा करतीं की पूछो मत..लेकिन अब जो हो रहा था वह सास की परम इच्छा का घोर अनादर था।सास बहू की ठन गयी...माँ बेटे का गुनाह न मानने को तैयार थी ,न पूछ सकती थी...ले -दे -के माँ -बेटे के द्वन्द में बहू घुन की तरह पीस रही थी।टकराहट का आलम यह हुआ कि पलकों पर बैठी बहू देखते -देखते ज़मीन पर जोत दी गयी।अब घर के कामों के साथ बाहर का काम भी करना पड़ता....सास छोटे पोते को कांख में दबा पड़ोसियों के घर जाकर बैठ जाती और पानी पी- पी बहू की शिकायत करती। इधर बेचारी मुल्लर बो चार तरपरिये बच्चों की कचाइन झेलती....पति की सुबह -सुबह रोटी सेंकती...पशुओं का चारा काटती...कूटना ,पीसना सब अकेले करते अक्सर रात को पति के सामने फूट- फूट कर रोती।मुल्लर भरसक कोशिश करते कि बाहर का काम निबटा कर जाएं ,पर खेती किसानी के साथ मास्टरी की नौकरी में कुछ शेष रह ही जाता।दस साल घोर संघर्ष के रहे....प्राईमरी की मास्टरी की तनख्वाह भी उन दिनों बहुत कम हुआ करती थी और घर में सात परानियों का खर्चा।बच्चे ज्यों- ज्यों बढ़ते जा रहे थे खर्चा बढ़ता जा रहा था,...उस पर से माँ को अचानक टी.बी.की बीमारी ने पकड़ लिया।...बीमारी बहुत बढ़ने पर पता चली....चीलम की लत जवानी से माँ को थी..वैधव्य ने और नशेड़ी बना दिया।देखते- देखते हट्टी -कट्टी माँ चारपाई में सट गयी। अब बूढ़ा खटिया पर सोये -सोये पतोह को गरियातीं....मुल्लर बो बच्चों को पास जाने से रोकतीं....संक्रामक बीमारी के फैलने के डर से...बूढ़ी और गरियाती।पति के समझाएनुसार मुँह बाँध कर टट्टी, पेशाब साफ करतीं...डिटाल से हाथ धोतीं....टोले भर में भुनभुनाहट बढ़ी की पतोह उपेक्षा कर रही है।वह दिन मुल्लर बो के लिए घोर विपदा के थे....सास को जितना करती वह उतना नकारती...गाँव भर बूढ़ी औरत का विलाप देखता किन्तु बहू का किया नहीं।चेहरे की उजली कान्ति मलीन होने लगी।
सास आज-बिहान की मेहमान थीं..फागुन का महीना, कुल खानदान के बड़े देवता- पित्तर से मना रहे थे कि बुढ़िया तेवहार न नाशे....अतवार, मंगर का भी भय था।घर में चारों तरफ मृत्यु गन्ध फैली थी।नाउन आकर मुल्लर बो को समझा गयी कि बढ़ियाँ से माथ धो कर नहा ले नहीं तो दस दिन तक माथ मीजने को नहीं मिलेगा जो बूढ़ी आज मर मरा गयी तो। मुल्लर बो घर के काम निबटा कर पोखरे की करइली माटी से मल-मल माथ धोईं....काले बाल रेशमी डोर से चमक उठे।कमर तक घने बाल खोल कर वह आँगन में बैठी सूखा रही थीं कि अचानक मुल्लर आ धमके....फागुन का असर की बहुत दिनों बाद पत्नी को इस तरह निश्चिंत बैठा देखकर मोहित हो उठे और शिवरात्रि को लाया लाल अबीर ताखे पर रखा देख मचल उठे होली खेलने को....होली में दो दिन शेष थे।पीछे से आकर अकवार में भर पत्नी के भर मुँह पोतने लगे...छोड़ा छोडाई में मुल्लर के गमछे का सूत औरत के नाक की फुरूहुरी(कील) में फँस गया और देखते- देखते छटक कर कहीं जा गिरा।बियाह की पड़ी फुरूहुरी नाक की आज तक मुल्लर बो ने नहीं निकाली थी,माँ की आखिरी निशानी...वह पति को धकेल कर खोजने लगीं.।..दोनों पूरा आँगन ककोर मारे पर जैसे पाताल ने लील लिया हो फुरूहुरी शाम तक नहीं मिली....एक तो माँ की निशानी ...दूसरे सोने के खोने का भय की कुछ अपशगुन होगा,मुल्लर बो राग कढ़ा कर रोने लगीं।आस पड़ोस ने सोचा सास गयीं....देखते- देखते मजमा जुट गया....कानाफूसी होने लगी,एक औरत ने दूसरी से कहा....कुल बूढ़ी का सराप है...आगे देखो का -का होता है।उस रोज मुल्लर बो रसोईं नहीं बना पायीं...मुल्लर ने बच्चों की मदत से बाहर अहरा सुलगा कर भौरी चोखा बनाया...माँ को दूध पिलाया... शाम का माँ का क्रिया कर्म भी खुद ही किया,पत्नी की तबीयत खराब होने पर कभी कभार वह खुद ही माँ को नहला-धुला दिया करते,शुरू में माँ संकोचती और रोने लगती,बेटे ने समझाया...जिस देह से पैदा हुआ उसकी सेवा में कैसा संकोच।धीरे -धीरे माँ को सब स्वीकार्य हो गया,जानती थी अकेली बहू क्या क्या करेगी,पर टोला -मुहल्ला तो जैसे उड़ती चिरई को हरदी पोतने पर आमादा हो ,पतोह की थू -थू करता,पतोह नहीं छूती है तब्बे न बेटा करता है का नारा औरतों ने लगाया और बेचारी के तीस दिन के किए पर पति का एक दिन किया भारी पड़ता।.....मृत्यु चौखट पर खड़ी थी पर बुढ़िया बहुत खुश थी.कि पतोह को लोग भला -बुरा कहते हैं...डाह ,सउतिया डाह में बदल गया था।...इधर मुल्लर बो की रोते- रोते हिचकी बँध गयी थी...याद आ रहा था वह दिन...बाउ ने किसी तरह कान का बुन्ना और गले की चाँदी की हँसली,कड़ा और छड़ा बनवा लिया था पर नाक में सोना देना जरूरी था,बेचारे ने बहुत दुखी होकर उनकी माँ से कहा था कि अपनी फुरूहुरी दे दो ,तुम्हें पैसा होते बनवा दूँगा।माँ ने चुपचाप अपनी माँ की आखिरी निशानी दो भर की पंचपत्तिया फुरूहुरी बेटी को दे दी....खूब नाम हुआ था। उधर न नौ मन गेहूँ हुआ न राधा उठ कर नाची।माँ चाँदी की फुरूहुरी पहने ही दुनिया से चली गयी...छाती फुरूहुरी के बिछोह से फटी जा रही थी...मुल्लर भी अपराध बोध से ग्रस्त रात भर सो न सके।कुछ रूपये जोड़ कर माँ की अंतेष्टि के लिए रखे थे...सबेरे उसी में से कुछ काढ़ शहर गये और वैसी ही पंचपत्तिया तीन भर की फुरूहुरी लेकर आए...हाथ से पहनाया,पूरी नाक छेंक लिया फुरूहुरी ने....इतनी बड़ी की कोस भर से नाक न दिखे फुरूहुरी दिखे।बेचारी पति से कहा...काहें इतनी भारी लाए...माई के किरिया -करम में जो घट गया ,चारों तरफ थू -थू मचेगी।वैसे भी माई ने मुझे बदनाम कर रखा है कि मेरे बेटे को कुछ खिला -पिला कर मतिभरम कर रखा है पतोह ने।मुल्लर हँस पड़े....कहने दो दुनिया को जो कहना है...तुम हमको जानो,हम तुमको इ बहुत है।बेचारी नाक में कील पहने डेराते -डेराते आँगन में निकली...गनीमत था कि बूढ़ी की उल्टी साँस चल रही थी ...चेतना जा रही थी,वरना जो कोहराम मचाती की पूछो मत,टोले की मन्थराओं की भी दाल नहीं गली...सास अन्तीम यात्रा की तरफ बढ़ रहीं थी...डॉक्टर आकर नाड़ी देख कर कह गया कि भू-सेज दे दिया जाए। पण्डित बुला लिए गये...नाऊन ने दुवार की छानी की धरती को गाय के गोबर से लीप -पोत दिया...सास बाहर कर दीं गयीं...खटिया मचिया कपड़ा लत्ता बहरिया दिया गया....पुरोहित ने कहा ...मास्टर भागवत पुराण शुरू करा दो...शरीर में अटकी आत्मा को जल्दी मुक्ति मिलेगी,गऊ दान हो रहा था।दरवाजे पर हीत- नात का मजमा जुटने लगा,बेचारी मुल्लर बो की धुकधुकी लगी थी कि जो आज सास मर गयी तो फुरूहुरी नहीं सही माना जाएगा।आँचल से नाक तोपती चलतीं ,पर काहें को फुरूहुरी छुपे...वह दमकती सबके आँख में चुभ रही थी। सुलेमन पुर अहिरौटी में आज तक बड़- बड़ कमवइयों ने ऐसी फुरूहुरी मेहरारू को नहीं पहनाया था।फुरूहुरी थी कि कान का बुन्ना, औरतें आँख फाड़ फाड़ देखतीं और आपस में खुसूर-फुसूर करतीं।खैर...किसी तरह रात बीत गयी और हिन्दू विधान के अनुसार उदया तिथि में अगले दिन सास सूर्योदय के बाद स्वर्ग सिधार गयीं।
इधर माँ की अर्थी उठी उधर मुल्लर का हेडमास्टर पर प्रमोशन का डाक मिला....फुरूहुरी सह गयी।माँ पाछ बढ़ा कर गयी,सबने कहा तो मुल्लर बो ने राहत की साँस ली।हालांकि की आर्थिक समस्याएं अभी भी जस की तस थीं...पंचम वेतन आयोग से पूर्व मास्टरों की तनख्वाह बहुत कम थी,चार बच्चों की शिक्षा सबसे बड़ी समस्या थी,सो एन केन प्रकारेण गाड़ी जीवन सफर में हिचकोले खाती बढ़ती रही।मुल्लर कभी न थकने वाले योद्धा की तरह डटे रहे....मुल्लर बो पति पियारी टोले की बुजुर्ग औरतों की आँख की किरकिरी... कारण टोले की हर औरत अपने मर्द से वैसी ही फुरूहुरी की मांग करती।वह अतीत की अटारी फर चढ़ी जीवन इतिहास का सन्दूक खोल स्मृतियों की थाती सहेज रही थी कि दुवार पर चार चक्का का हार्न बजने लगा...पोंssss,पोsssकी तेज आवाज कान में पड़ी तो मुल्लर बो आँख मिंजते उठ बैठीं....रात भर रोते पिछले किवाड़ खोले बैठी रहीं...भोर में थोड़ी सी आँख लगी थी कि पोंsssपोंsssशुरू हो गयी।अपनी लाठी पकड़ वह कोठरी से बाहर निकलीं...सूरज चढ़ आया था...इन दिनों बहुँए सोए रहने पर जगाती नहीं थीं...ज्यादा देर होने पर कर्कश आवाज में छोटी बहू जरूर तीर छोड़ती कि...देखिए भाई कहीं वियोग में विदाई त नहीं हो गयी,और बेशर्म हँसी हँसती।आँगन खाली था...वह धीरे- धीरे बहरी अँगना की ओर चलीं....चारों तरफ सन्नाटा छाया हुआ था जबकि दुवार पर पूरा टोला जुटा था....वह चौखट थाम कर खड़ी हो गयीं...लोग तमाशबीन, गाड़ी में से लड़के मुल्लर को निकाल रहे थे...चार लोग मिलकर बरामदे की चौकी पर लिटा कर किनारे खड़े हो गये....पूरे एक महीने बाद घर लौटे थे, बड़ा लड़का धीमी आवाज में बगल के चाचा को बता रहा था कि आपरेश सफल नहीं हुआ...अचानक से बाउ को शुगर.. ब्लडप्रेशर सब बेमारी निकल आयी....डॉक्टरों ने जवाब दे दिया है....जितने दिन जांए....,पीठ पर भी सोए सोए घाव हो रहा है...स्थिति बहुत खराब है।बेचारी मुल्लर बो को खड़े खड़े काठ मार गया...वह वहीं जड़ सी खड़ी सब देख सुन रही थीं....सामने जिन्दा लाश की तरह छःफुट्टा पहलवान सा पति पड़ा था....नीम बेहोशी में,हाथ से लाठी छूट गयी...गिरते- गिरते बचीं...मझले बेटे ने लपक कर पकड़ लिया।पकड़ कर पायताने पिता के लाकर बिठा दिया...महीने भर में शरीर गल कर चारपाई में सट गया था....वह दहाड़े मार कर रोने लगीं...एक बार फिर बहुओं ने मुँह चमकाया... पोतियाँ दादी को चुप कराते खुद रोने लगीं,लड़के और पोते भी आँसू पोंछते वहाँ से हट गये।कुछ देर लोग हाल चाल लेते रहे और धीरे- धीरे अपने अपने घरों को लौट गये।जब रो कर थक गयीं मुल्लर बो तो उठ कर गमछा भिंगा पति का मुँह पोंछने लगीं...आँखें कींचड़ से सनी सटी हुई थीं...वह ठुड्डी पकड़ हिलातीं....वह संज्ञा शून्य से पड़े हुए...दोनों की इस दशा को देख शायद ही कोई वहाँ बिना रोए ठहर पाए...वह तीन चार घण्टे यही क्रिया दोहराती रहीं।मझले ने बड़े भाई से पूछा....आखिर बाउ की शुगर की बीमारी पहले क्यों नहीं पता चली....या वह जानकर छुपाते रहे?..छोटे ने सिर पर हाथ रख कर कहा...जानकर छुपाते रहे भईया!...कभी किसी को अपने साथ डॉक्टरी ले जाते थे बीमार पड़ने पर?मजाल जो कोई उनकी पर्ची देखले..।बड़े ने लम्बी साँस छोड़ कर कहा...मिट्ठा खाने के शौकीन रहे...माई जानकर हाथ न लगाने देती,इसी लिए किसी को नहीं बताया होगा ,कहकर भीतर चला गया...उल्टे पाँव एक दवाओं से भरी पॉलीथिन लिए बाहर आया...उसका मन बचपन से पढ़ाई में नहीं लगा,किसी तरह इण्टर पास कर सका और शादी के बाद खटाल खोल कर दूध का व्यवसाय करने लगा।आमदनी ठीक थी....अब अंग्रेजी आती नहीं थी सो मझले सबसे पढ़े लिखे को थमा कर कहा कि देखो इसमें शुगर की दवा है की नहीं... उसने पोटली खोल कर देखा और उदास होकर कहा...है।सब थोड़ी देर चुप रहे....बाउ ने धोखा दिया...छोटे ने कहा...अभी पचहत्तर भी तो पूरा नहीं हुआ...सातवें वेतन की बढोत्तरी लगते पेंशन दूनी हो जाती।उसे हमेशा पैसे की ही पड़ी रहती....कारण दो बेटियाँ थीं।ये किसी तरह खींच खांच कर प्राईमरी के मास्टर हो गये थे पर घर में बेटियों का रोना लेकर एक ढ़ेला तक नहीं देते थे।घर का राशन खर्च पूरी तरह पिता के पेंशन पर टिका था...यही घर की शान्ति का आधार भी था।वैसे इस परिवार में पैसे की किल्लत नहीं थी पर सबको मझले की कमाई अखरती थी,वह शुरू से मेहनती रहा....जितनी सुविधा सबको मिली,उतनी ही उसे भी,उसी में डट के पढ़ता रहा ,बढ़ता रहा...गाँव से आठवीं पास कर ब्लाक के पचोतर इण्टर कालेज मरदह और फिर पी.जी.कालेज गाजीपुर से बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से शोध कर दिल्ली विश्वविद्यालय के एक कालेज में अध्यापक हो गया।घर की डूबती नैया का यही हर दम खेवनहार रहा...वह दिल दिमाग दोनों से बड़ा था...शादी भी उच्च शिक्षित लड़की से बिना दहेज की कर भावजों की आँख की किरकिरी बन चुका था...कारण देवरानी सभ्य और सुसंस्कृत थी,गलत का खुल कर विरोध करती...ये बागी तेवर सबको खटकता पर सब पर पद और पैसा भारी था।मुल्लर इस मामले में खासे उदार रहे...जानते थे पत्नी मन की हो तो जीवन खुशहाल रहता है ।लड़कों की शादी में उनकी पसन्द का पूरा खयाल रखा।अब जो मुल्लर की मौत दरवाजे पर खड़ी थी ,घर में सबको आनेवाला विखण्डन साफ दिख रहा था। लड़के क्रिया-कर्म के जोड़-गणित में उलझे थे...।छोटी बहू आकर ससुर को देख कर जा चुकी थी,बच्चों के स्कूल चल रहे थे..पर पिता की मृत्यु निकट देख मझले ने तत्काल टिकट करा वापस बुला लिया था।बड़ी -छोटी बटवारे के पहले जो जहाँ से दबा सकती थीं,दबाने में लगी थीं।बूढ़ी औरत अन्न पानी छोड़े पति की चारपाई पर बैठी सारे देवता पित्तर गोहराती कि कोई चमत्कार हो जाए...मझली बहू की निगाह सास के बक्से पर जमी थी,सोचती जो कैसे भी बुढ़िया के गले में लटकी चाभी मिल जाती तो सारा माल काढ़ कर ठिकाने लगा देती...पर हिम्मत न थी कि चाभी सोए में भी निकाल ले।चाभी को लेकर सास कुत्ते सी चौकन्नी रहती।
मुल्लर बो के जीवन में एक बार फिरसे मृत्यु गन्ध पसरा था...पति आज बिहान के मेहमान रह गये थे....जानती थी मझली बहू की हाथ लपाकी...पूरा परिवार इकट्ठा हो चुका था...घर के आगे की पक्की चार कमरों की बखरी में इन दिनों सब सिमटे थे...पीछे का कच्चा दो घर गिर चुका था इस बरसात में। अचानक मुल्लर की साँस उखड़ने लगी तो पण्डित ने गो दान करा भागवत पुराण बाचना शुरू कर दिया....मृत्यु भी हमारे यहाँ इस तरह उत्सव में बदल जाता है कहते हुए मझली बहू अपनी नारजगी जता रही थी। मुल्लर बो ने बेटे बहुओं को अपनी पुरानी कोठरी में बुलाया...माँ का दिया बक्सा खोल कर पहले तो अपने गहने और पति के बैंक पासबुक और जमा पूंजी का हिसाब सामने रखा फिर अपने वर्षों की जतन से बटोरी चोरिका निकाली।छोटी पर उन्हें खूब विश्वास था ,पैसे गिनने को उसे सौंपा...वह जितने रुमाल की गठरी खोलती ,उतना हँसती...वाह माँजी ! आपने तो पूरी तिजोरी सहेज रखी है।जोड़ जाड़ कर कुल चालीस हजार रूपये हुए,बड़े ने पूछा कि इसका क्या करना है माई? मुँह में आँचल ठूस कर रोते हुए उन्होंने कहा...अपने बाउ की...।,आगे वह बोल न सकीं।सब भावुक हो गये।पति का कागज पत्तर कायदे से बड़े बेटे को सौंप दिया...वह पकड़ते मुँह खोल रो पड़ा। एक दम से सब उसके कन्धे पर आ पड़ा था।अन्त में काठ के छोटे से बक्से को खोला...ब्याह के कुछ अपने गहने ,कुछ सास की निशानी ,तीनों बहुओं में बराबर बाँट दिया।अब तक मौन साधे सब देखती बड़ी बहू ने सास को टोका..अरे!हई जवन दिन -रात छवले रहेलीं पोतियन ,इनको कुछ नहीं देंगी माई?बूढ़ा ने कान के तोर गले की हसली, हाथ के कड़े और पैर के पहने छड़े का भी बटवारा कर दिया इस चेतावनी के साथ की ये गहने उनके मरने के बाद ही तन से उतरेंगे।बुढ़उ नहीं चाहते थे कि कभी उनका कोई अंग उघार रहे और जीते जी कभी किसी विपदा में तन से जेवर नहीं उतरने दिए । छोटी को छोड़ सब उनके इस फैसले से खुश थे....छोटे ने राहत की साँस ली की पिता की अंतेष्टि भर के पैसे घर से ही निकल आए...जानता था कोई एक ढ़ेला नहीं निकालता उसके सिवा।मझली अन्दर ही अन्दर सुलग रही थी और कुतर्क लेकर बैठी थी कि उसकी बेटियों संग बूढ़ी ने बेईमानी की है....उसकी दो बेटियाँ हैं सो उसे ज्यादा गहने मिलने चाहिए थे। अन्दर उसका पैर पटकना चल रहा था कि दुवार पर से समवेत स्त्रियों के रूदन की आवाज गूंजी....मझली और उसकी बेटियों को छोड़ सब दुवार पर थे...गोधुली की बेला...कातिक का महीना होने से अन्धेरा पसरने लगा,दिन छोटे हो रहे थे रात बड़ी कि मुल्लर दोनों बेला के सन्धी पर संसार से रूखसत हुए। मुल्लर बो पैर पकड़ कर बैठ गयीं....अरे काहेंssssछोड़ी के तू गइल हो रामssss,अरे अब कइसे जीयब हो रामsss,मोरे रमउ हो नाही जनलीं की छोड़ी जइब हो रामsss....एक मर्मभेदी रूदन अलाप के साथ पूरे टोले को हिला रहा था....हम उम्र औरतें जो जीवन भर उन दोनों के प्रेम को देख कुढ़ती रहीं आज छाती पीट- पीट रोते कह रही थीं कि हट्टे -कट्टे मुल्लर को किसकी नज़र लगी जो ये हाल हुआ...इस उम्र तक घर के सारे काम मुस्तैदी से अभी एक महीने पहले तक सम्हालते रहे।....खुद कथरी -गुदरी में जीवन बिता दिया लेकिन बीबी बच्चों को भरसक कोई कमी नहीं होने दी,हर दिल अजीज मुल्लर दुवार पर मृत पड़े थे और प्राण प्रिय पत्नी पैरों में पछाड़े खा- खा गिर रही थी।औरतों ने बहुत मुश्किल से उन्हे वहाँ से हटाया....शाम हो रही थी.लड़कों ने.सबसे राय मशविरा किया कि इस बेला क्या करें..।खानदान के एक बुजुर्ग ने सलाह दी कि गाजीपुर गंगा पास में हैं और लाश घवाई है...सबेर करने पर एक तरफ तुम्हारी माँ को सम्हालना मुश्किल होगा,दूसरे लाश भी खराब होने लगेगी,अच्छा होगा इसी वक्त उठा दें।पूरा परिवार बटुर ही गया है।सबने हामी भरी।जवान लड़के कफन टिखटी की व्यवस्था में लग गये...।नाऊ,बाभन बुला लिए गये..बड़े लड़के ने बाल बनवा कर दाही वस्त्र पहन लिया.....सबसे दुखद रहा मुल्लर बो का सिन्होरा लाना ,वह पागलों की तरह छाती धून रही थीं।परिवार की एक बेवा औरत ने ठण्डा तेल ले धीरे- धीरे रो -रो कर माथ का सिन्दुर छुड़ाया....लाल चूड़ियाँ निकालीं और कुछ औरतों संग पकड़ कर अन्तीम बार पैर छुलाने को ले गयीं।वह चित्कार उठीं....अरे ए भोला ,हमहूं के बाउ संगे फूकी देता हो लालssss।टिखटी पकड़ कर लेट गयीं....छोटी बहू देर से सब देख सह रही थी...अन्त में जब सहा न गया घर में से निकली और औरतों को ठेल कर सास को दोनों बाहों में भर लिया...माँ हमारी तरफ देखिए...काहें हमें अनाथ बनाना चाहती हैं।वह उन्हें समझा कर अलग की तो झट लड़कों ने लाश उठाया।राम नाम सत्य है के मध्यम स्वर में घोष के साथ लोग आगे बढ़े..।औरतें अन्तीम विदाई के लिए साथ चलीं...लाई बताशे छींटती औरतें गाँव के बाहर तक गयीं...वहाँ से लाश ट्रैक्टर पर लाद लोग गाजीपुर रवाना हो गये।छोटी बहू की आठ साल की बेटी ने माँ से पूछा ..लोग लाई बताशे ज़मीन पर क्यों फेंक रहे हैं मम्मी?...उसने समझाते हुए कहा कि ...सब ढ़ोंग है बेटा।उसने दुबारा कहा...अन्न की बर्बादी पाप होती है न मम्मी? उसने हूं कह कर बात टाल दी और बेटी को चुप रहने को कहा।
औरतें घर लौट कर नहाने... धोने में लग गयीं।छोटी कोघर की एक बुजुर्ग औरत ने चेताया कि ..दुल्हीन तुम दूर रहो सास से...अगले तेरह दिन अहवाती औरतें दूर रहें तो अच्छा है।इनका सब करम नाऊन और बेवा औरतें करे कराएंगी...वह बिफर पड़ी,हद करती हैं आप लोग..माँ हैं हमारी ,हम क्यों दूर रहें इनसे?...मैं नहीं मानती यह धकोसले।बड़ी ने हाथ पकड़ कर मझली को कोठरी में लाकर बिठा कर समझाया...अब जो रीत रिवाज है चुन्ना बो होने दो,काहें किताबी ज्ञान झाड़ रही हो...यही हमारे देस का नियम धरम है,हाथ जोड़ कर आगे कहा...तुम तो सबसे लड़ झगड़ कर दिल्ली जा बैठोगी...आगे झेलना हमको पड़ेगा,इस लिए कारज में अड़ंगा मत लगाओ ,न देखा जाए तो कोठरी में खिड़की लगा कर बैठ जाओ पर बाधा मत ड़ालो।वह गिड़गिड़ा रही थी....छोटी जानती थी कि ज्यादा विरोध पर घर में अलग महाभारत छीड़ जाएगा,इस लिए रो धो कर फिलहाल चुप रहना ही उचित समझा।
एक कमरे में सास खानदान की बेवा औरतों संग खाटपर बेसुध पड़ीं थीं...छोटी ने जाकर सिर में तेल रखा...सास ने अर्ध चेतना में हाथ थाम लिया...सब अपने हैं दुल्हीन... तुम सबकी बात मानों और.हचकने लगीं।छोटी रोते हुए आकर बच्चों के पास लेट गयी पर आँखों से नींद उड़ चुकी थी...सारे साज ऋँगार बेमानी लगने लगे थे एक दम से...सोच में थी कि यह कैसी दुनिया है औरतों के लिए कि पति के मरते उससे सारे ऋँगार छीन लेती है।गले में एक साथ ढ़ेर सारे काँटे चुभने लगे...वह अन्दर ही अन्दर उफन रही थी।जी में आता था कि सबको दो थप्पड़ मार कर इन अमानवीय कृत्यों से रोक ले पर सामने जिठानियों के अग्नि बाण तैयार खड़े थे कि तुम तो नास के निकल लोगी,आगे हमें झेलना पड़ेगा।रात्रि का अन्तीम प्रहर था...बाहर ट्रैक्टर की आवाज सुन औरतें उठ बैठीं...मर्द लौट आए थे,बड़ी ने सबको लोहा, पत्थर, आग छुला कर काली मिर्च दी...आस पड़ोस के मर्द अपने घरों को लौट गये और यहाँ तीनों भाई दुवार पर निखहरी खटिया पर पड़ गये।थोड़ी ही देर में चिडि़या बोलने लगीं..बच्चे सो गये थे....सब रो -रो कर थक गये थे...बाबा ने जीते जी बहुत दुलार दिया था...पोतियाँ तो सिर चढ़ीं रहीं जीवन भर...भोला की बेटी बाबा की सह पर पढ़कर प्राईमरी में टीचर बन गयी थी और साथ काम करने वाले सजातीय लड़के से अपनी मर्जी से शादी कर बहुत सुखी थी।मुन्ना को बच्चे शादी के दस साल बाद हुए...वरना उसकी भी दोनों बेटियाँ अब तक ब्याह चुकी होतीं।दोनों शहर पढ़ने जाती थीं...छोटे की बात ही कुछ और थी।मुल्लर ने परिवार को करीने से सहेजा था पर मझली बहू के कर्कश और स्वार्थी व्यवहार से इधर के सालों में बहुत कुछ अन्दर से बिखर रहा था। तीनों भाईयों के एक-एक लड़के थे...सब पढ़ने में अच्छे, मुल्लर ने शिक्षा पर घर में हमेशा विशेष जोर दिया...पैसा तो बहुत नहीं जोड़ पाए पर परिवार को शिक्षा की रौशनी जरूर दिखा गये।अहिरौटी में सबसे पढ़ा लिखा परिवार था उनका..बाकी का सारा पुरवा प्राईमरी जूनियर के बाद दूध के व्यवसाय में लगा था...गाजीपुर में खोए की बड़ी मण्डी के कारण।सब उनको याद करते दुखी पटाए पड़े थे कि नाउ ने आवाज दी.....भोला भईया घण्ट सकेराहे(जल्दी)बन्हवालें पंडी जी से नाहीं तो दूध के भात में देरी होगी...भोला उठ कर तैयारी में लग गये।बिना दूध भात हुए चूल्हे में आग नहीं जलती और छोटे बच्चे रात से ही भूखे पड़े थे सोच कर भोला जल्दी घण्ट की क्रिया पूरी करने पंडित नाऊ संग गाँव के बाहर पीपल की पेड़ की ओर निकल गये।कोई घण्टे भर बाद लौटे और भाई दयादों ने मिलकर भात बिना हल्दी की दाल और मूली की चटनी तैयार की..पहले मर्दों की पंगत बैठी ,सबने चुरूए से दूध गिरा भोजन किया।मर्दों के बाद औरतें बैठीं..एक बार फिर रोना शुरू हुआ...किसी तरह औरतों ने मुल्लर बो को पकड़ कर रसम पूरा कराया और दो चार कौर खाकर उठ गयीं।अगले दिन से घाट नहाने की रस्म शुरू हुई...औरतें इनार की जगत पर लाईन से बैठ जातीं और नाऊन एक -एक बाल्टी पानी गिराते जाती, मझली चिढ़ जाती कि यह कौन सा ढ़ोंग है कि आदमी ढ़ंग से नहा तक नहीं सकता।किसी तरह नौ दिन बीते और दसवें के घाट नहैना का दिन भी आ गया...आज से घाट नहाने से औरतों को मुक्ति मिलनी थी...मर्द जब घाट नहाने निकल गये नाऊन ने घर की बड़ी औरतों से कहा कि बूढ़ा का गहना गुरिया नहाने के पहले निकाल दीजिये आप लोग...नहाने के बाद मायके से आए साड़ी कपड़ा और जो बन पड़े नये गहने पहना दीजिएगा ।वह हल्ला मचाए थी सब जल्दी निबटाने का ,गाँव में दो घरों में बच्चे होने से नहैना भी उसे कराना था।जब देखा की कोई मुल्लर बो को नहीं छू रहा है खुद पास जाकर बोली...हे भोला की माई,आँगन में चलिए...देरी हो रहा है।मर्द आ गये तो अशुभ होगा।तब तक बड़ी बहू भी आकर सास के सिर पर सवार हो गयी...गहने उतरने की बात सुनकर छोटी सब काम छोड़कर भागी आयी कि कहीं बड़ी कुछ दबा न ले।बूढ़ा को पकड़ कर आँगन में लाया गया...अहवातिने मारे भय के कोने कतारी छिप गयीं..दो बूढ़ी बेवा औरतों संग नाऊन गहने उतारने लगी...वर्षों से गले में पड़ी हंसली निकालते नाऊन ने हँस कर कहा...सुच्चा चानी है,तनिको घिसा नहीं है।हाथ से तौल कर कहा...आधा किलो से कम न होगा।हाथ में कड़ा जम गया था...बेहद मजबूत, बड़ी मशक्कत के बाद निकला और निकालने में कई खरोंच हाथ में उभर आए...मुल्लर बो सुन्न बैठी थीं,जीते जी जिस आदमी ने एक खरोंच न दिया आज उसी के नाम पर अपने खरोंच रहे थे।छोटी ने खिड़की से देखा तो बिफर उठी...क्या कर रहीं है चाची जी आप लोग...नहीं निकल रहा तो रहने दीजिए, कोई आफत नहीं आएगा।सब ढ़ोंग है।सास की सूनी कलाइयों पर उभरे नाखून के रक्त रंजित निशान देख कर रोने लगी।नाऊन को कस कर डांटा ...चुपचाप नहलाईए....।नाउन भी कम न थी...हे भाई,इ देखिए तनी तमाशा...हे भोला बो,जो कुछ अनर्थ होगा ,हमको दोष मत देना।देखो अपनी देवरान को।
भोला बो दनदनाती आईं और छोटी को खींच कर लेजा के सामनेकी कोठरी में बन्द कर दीं।पोतियाँ पहले से उस कोठरी में कैद थीं...जब हल्ला सुना तो खिड़की खोल कर देखने लगीं...अब बड़ी और छोटी भी नाऊन संग जल्दी मचाने लगीं।कान का बुन्ना और पैर का छड़ा तो निकल गया पर नाक की फुरूहुरी खुल ही नहीं रही थी...सब जोर आजमाइश कर के थक गयी...इधर दुवार पर मर्दों के वापस लौटने की आवाज सुनाई देने लगी तो नाउन चिल्लाने लगी कि तोहरी घरे त अलगे नाटक होखे लागेला भोला बो।नाक की फुरूहुरी में ड़ोरा लगाकर खींचा गया पर वह टस से मस नहीं हुआ...सब जतन कर के जब सब हार गयीं तो मझली ने कहा कैंची से काट देते हैं..सबने हामी भरी...मझली कैंची लेकर आई और जैसे नाक पर लगाया मुल्लर बो ने हाथ पकड़ लिया,नाउन ने हाथ छोड़ाते हुए कहा...ए बूढ़ा ! अब तू नाटक मत करा।बूढ़ा का हाथ दो औरतों ने पकड़ लिया।मुल्लर बो चिल्लाईं... छोटी ने खिड़की से देखा तो दरवाजा पीटने लगी।अरे रहम करिए आप लोग ....पोतियाँ भी इस दृश्य को देख विचलित हो उठीं।घर में कोहराम मच गया।बाहर का दरवाजा बन्द था...मर्द भी दरवाजा खुलवाने लगे।नाउन ने कहा ..ए मुन्ना बो जल्दी करा..उसने झट से कैंची लगा कर जोर से दबाया.. फुरूहुरी कट कर टन से कहीं जा गिरी...जल्द बाजी में कैंची की नोंक नाक में जा धँसी...नाक लहूलुहान... बड़ी और मझली पागलों की तरह आँगन में फुरूहुरी खोजने लगीं...एक बार फिर वह आँगन में समा गयी...दरवाजा पीटते स्त्री पुरूषों के लात के प्रहार से ,एक झटके से सभ्यता के सारे बन्द दरवाजे खुल गये...छोटी बहू संग पोतियाँ आकर दादी से लिपट गयीं...लड़के रूई ,दवा लेने भागे....।वर्षों से इस कठोर कृत्य को अन्जाम देते देते निर्मम हो चुकी नाऊन धीरे से खिसक ली...बाकी जड़ औरतें पत्थर की बूत की तरह हतप्रभ मौन जहाँ की तहाँ खड़ीं थीं।छोटी ने पागलों की तरह पिता के दिए सारे जेवर सास को पहना कर आँगन में घोषणा की...खबरदार!..!जीते ...जी माँ के शरीर से कोई भी एक जेवर नहीं उतारेगा।वह पूरे आवेश में थी।छोटी पोती की नज़र अचानक आँगन में पड़े पत्थर की पाटी के नीचे चमकती फुरूहुरी पर पड़ी...वह झट उठा कर दादी की हथेलियों पर रख खुश होने लगी..अपार वेदना में मुल्लर बो पति की सबसे प्रिय निशानी पा सजल आँखों से मुस्कुरा उठीं।
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