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स्त्रीवादी भी.मार्क्सवादी भी करते हैं लिंचिंग: पाखी पत्रिका का बलात्कार प्रकरण

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सुशील मानव 

पाखी की अनैतिक साहित्यिक पत्रकारिता के असर से वयोवृद्ध आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी की सोशल मीडिया में आलोचना हुई-एक हद तक वे ट्रोल हुए. सुशील मानव इसे एक खतरनाक प्रवृत्ति बता रहे हैं:

मॉब लिंचिंग सिर्फ भक्त और कम पढ़े लिखे लोग ही नहीं करते इस मॉबोक्रेसी में लिंचिंग नवोत्साही साहित्यकार और पाठक, आलोचक भी करते हैं बस मौका मिलने की देर है। मॉब लिंचिंग देश की नई और सर्वग्राह्य संस्कृति बन चुकी है। आदमी औरत, छद्म वामी और राइटिस्ट सबके सब इस संस्कृति के उपासक हो चुके हैं।



3 सितम्बर की रात  जिस तरह से बुजुर्ग मार्क्सवादी आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी के इंटरव्यू की कुछ पंक्तियों को, जिसे जानबूझकर पत्रिका के संपादक और मालिक द्वारा विवादित करके छापा गया था, कोट करते हुए एक एक युवा आलोचक आशीष मिश्र  द्वारा विश्वनाथ त्रपाठी को‘बलात्कार का सौंदर्यशास्त्री’ बताते हुए अपनी फेसबुक वॉल पर एक पोस्ट लिखा गया वह   बेहद शर्मनाक है। इसके बाद तो विश्वनाथ त्रिपाठी को लिंचिंग करनेवालों का पूरा हुजूम ही उमड़ पड़ा। फेमिनिस्ट रचनाकारों, संपादकों (स्त्रीकाल के सम्पादक सहित) से लेकर कुछ कथित युवा मार्क्सवादी लेखकों, संपादकों आलोचकों और आम पाठकों तक ने उन पर लानत बरसाये। प्रशासन से साहित्य में आए ध्रुव गुप्त ने तो बाकायदा बलात्कार के बदले बलात्कार की तर्ज पर बुजुर्ग आलोचक को चौराहे पर खड़ा करके उनके संग सामूहिक बलात्कार करने तक का फैसला सुना दिया। लिंचिंग करने वालों में हिंदी अकादमी की पूर्व अध्यक्ष मैत्रेयी पुष्पा और सुमन केसरी जैसी वरिष्ठ लेखिकाएं भी शामिल रहीं।


 ये सब उन लोगो ने किया जो आम लोगो को वाट्सएप अफवाहों पर प्रतिक्रिया करने से पहले उसकी सत्यता जाँचने की हिदायतें दिया करते थे। इन लोगो को इस विवादित पत्रिका और उसकी सवर्णवादी टीम पर इतना भरोसा था कि इन्होंने न तो दूसरे पक्ष को सफाई देने का मौका दिया और न ही वहाँ शामिल दूसरे लोगो, जैसे कि मदन कश्यप या कुमार अनुपम जैसे रचनाकारों से संपर्क करके सच को जानने की ज़रूरत नहीं  समझी। न ही इन लोगों में इतनी मनुष्यता बची थी कि प्रतिक्रिया देने से पहले इस बात पर विचार करते कि विश्वनाथ त्रिपाठी के दामाद की दो ही दिन पूर्व आसमायिक निधन हुआ है तो थोड़ा मौके की नज़ाकत और मनुष्यता का ही लिहाज़ कर लिया जाए। और ये सब तब हो रहा था जब घोर सांप्रदायिक और बाज़ारवादी एजेंडा लेकर हिंदी साहित्य में घुसपैठ करनेवाली पाखी पत्रिका की छवि बेहद विवादित और सवालों के घेरे में रही है। यह पत्रिका हिंदी साहित्य में घुसपैठ करने के बाद से ही लगातार खतरनाक और विध्वंसक भूमिका में रही है। नामवर सिंह, विश्वनाथ त्रिपाठी और राजेन्द्र यादव जैसे आलोचकों और संपादकों ने इस पत्रिका के मंच पर जाकर, इसके पुरस्कार स्वीकार करके हिंदी साहित्य क्षेत्र में इस पत्रिका को मान्यता प्रदान की।



सबसे ज्यादा सोचनीय और शर्मनाक रहा खुद को वामपंथी समझने और कहलाने वालो साहित्यकारों की नकरात्मक और लिंचिंग करती प्रतिक्रियाओं का आना। जबकि उन्हें ही सबसे ज्यादा सजग होकर इस साजिश की शिनाख्त करनी चाहिए थी। सबसे पहले मैनेजर पांडेय फिर नामवर सिंह और अब विश्वनाथ त्रिपाठी को निशाना बनाया जाना दरअससल एक ही साजिश का हिस्सा है। तीनों ही वरिष्ठ आलोचकों के खिलाफ़ साजिश में जो एक बात कॉमन थी- इन लोगो से से ईश्वरवाद के कांसेप्ट का कबूलनामा करवाना। पाखी के इस विवादित इंटरव्यू में भी पहले विश्वनाथ त्रिपाठी को इसी मुद्दे पर घेरने की कोशिश की गई थी। अपूर्व जोशी ने कुलदीप नैय्यर के हवाले से सुपरपॉवर के कांसेप्ट का जाल बिछाया भी था लेकिन वो तो भला हो मदन कश्यप जी का जिन्होंने अपने अकाट्य तर्कों से ईश्वरवाद की अवधारणा की हवा पहले ही निकाल दी। अल्पना मिश्रा जो कि हजारी प्रसाद द्विवेदी की पौत्री हैं, ने उन्हें उनकी 11 साल पहले आई किताब व्योमकेश दरवेश पर नामावली संबंधित कथित त्रुटियों समेत छोटी-छोटी बातों पर घेरने की कोशिश की। जिसे बड़ी शातिरता से अनंत विजय और दैनिक जागरण ने उठाकर दुष्प्रचारित करना शुरू कर दिया। तमाम कोशिशों के बावजूद ये मुद्दा भी उतना नहीं चल सका। और फिर विश्वनाथ त्रिपाठी को बलात्कार का सौंदर्यशास्त्री बताकर पेश कर दिया गया। जो कुछ वामपंथी साहित्यकारों की किंचिद असावधानी और फेमिनिस्ट लोगों की अतिप्रतिक्रियावादी पोस्टों व कमेंटों के चलते अपने विरूपित होकर जबर्दस्ती के विवाद में तब्दील हो गया। सांप्रदायिक दक्षिणपंथियों ने इस विरूपित वक्तव्य के बहाने मार्कस्वादी सिद्धातों पर ही हमला बोल दिया। साजिश में शामिल एकमात्र महिला आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की पौत्री अल्पना मिश्रा ने आशीष मिश्रा की पोस्ट शेयर करते हुए बाकायदा मार्क्सवाद पर तीखा हमला बोला और इसे शेल्टर होम और कठुआ से जोड़कर लिखा- ‘कठुआ, मुज़फ्फरपुर, देवरिया, हरदोई... की जड़ें मार्क्सवादी आलोचक की सोच में……’

वो तो देर-सवेर जब इस पूरे प्रकरण में साजिश की बू सूँघते हुए तथा विश्वनाथ त्रिपाठी के अब तक के लिखे बोले से गुजरे लोगो ने इस पूरे प्रकरण पर अविश्वास जताते हुए पाखी के संपादक प्रेम भारद्वाज और मालिक अपूर्व जोशी पर बात-चीत का पूरा ऑडियो-वीडियो जारी करने का दबाव बनाया। उससे पहले पाखी टीम के लोग भी पूरे डंके की चोट पर अपनी वाल की पोस्ट और दूसरों की वॉल पर कमेंट में कहते फिर रहे थे कि हमने पूरे इंटरव्यू का लिप्यांतरण में शब्दशः लिखा है। और हमारे पास उसका ऑडियो-वीडियो बतौर सबूत मौजूद है। लेकिन जब उन्होंने दबाव के चलते ऑडियो और वीडियो जारी किए तो सारा खेल ही बदल गया। हालांकि ऑडियो और वीडियो की गुणवत्ता बेहद खराब है। बावजूद इसके इनके साजिश का भंडाफोड़ करने में वो सक्षम ऑडियो सक्षम साबित हुआ। रिकार्डिंग में स्पष्ट जाहिर है कि त्रिपाठी जी की कही बातों में से अति महत्वपूर्ण वाक्य को जानबूझकर छोड़ दिया गया है जबकि कई शब्दों को बदलकर अर्थ का अनर्थ कर दिया गया है।




विश्वनाथ जी ऑडियो में जो कह रहे हैं वह यूं है – ‘देखिये चाहे कविता हो या सौन्दर्य हो..मेरा सौन्दर्य का अनुभव है कि हमेशा एक अजीब किस्म की उदात्त और करुणा पैदा करता है सौन्दर्य। आप सौन्दर्य देखते ही लिक्विडेट होना शुरू करता है (इस बिंदु पर प्रेम भारद्वाज "सूरज को उगते देखना"पूछते हैं, विश्वनाथ जी कहते हैं "मरो गोली सूरज को"और एक अश्लील सी सामूहिक हँसी उभरती है)। उस अश्लील हँसी को चीरते हुए त्रिपाठी जी फिर कहते हैं- ‘मैं एकमएक होने की, मैं विगलित होने की बात कर रहा हूँ। मैं पत्थर के पानी होने की बात कर रहा हूँ। (अल्पना मिश्रा की आवाज़ आती है - उदात्त प्रेम) और अगर सौन्दर्य ये करता है। एक ख़ास तरह की करुणा पैदा करता है। सौन्दर्य देखकर आदमी को..आदमी कुत्ता भी हो सकता है। दो साल की बच्ची को देख कर रेप.. (अल्पना जी कहती हैं ऊ तो विकृति है।) त्रिपाठी जी कहते हैं- ‘ऊ विकृति को पढने (क्लियर नहीं हो रहा लेकिन पालने कतई नहीं है) के लिए सौन्दर्योपासक होने की ज़रुरत है।’

अल्पना मिश्रा फिर कहती हैं "नहीं नहीं सौन्दर्योपासक व्यक्ति नहीं कर सकता वह विकृति।

विश्वनाथ जी तुरंत कहते हैं कि "वही तो मैं कह रहा हूँ।"

जबकि पाखी पत्रिका के जुलाई-अगस्त अंक में इंटरव्यू कुछ यूँ छापा गया है-

विश्वनाथ त्रिपाठी : मारो सूरज को गोली- मैं विलीन होना-पत्थर को पानी होने की बात कर रहा हूं- सौंदर्य को देखकर अदमी क्रूर भी हो सकता है। आदमी दो साल की लड़की को देखकर रेप की भावना से भर सकता है।

अल्पना मिश्र : वह तो विकृति है?

अपूर्व जोशी : मानसिक रुग्ण्ता है।

विश्वनाथ त्रिपाठी : उस विकृति को पालने के लिए सौन्दर्य उपासक होने की जरूरत है।

अल्पना मिश्र : नहीं-नहीं सौंदर्य उपासक कभी भी बलात्कार नहीं कर सकता

देखिये कैसे हुई है एडिटिंग - उदात्त, करुणा जैसे सारे संदर्भ ग़ायब हो जाते हैं। कुत्ता "क्रूर"और पढ़ने "पालने"हो जाता है। अल्पना मिश्रा  के ""नहीं नहीं सौन्दर्योपासक व्यक्ति नहीं कर सकता वह विकृति"के जवाब में विश्वनाथ त्रिपाठी का स्पष्ट कहा "वही तो मैं कह रहा हूँ"ग़ायब कर दिया जाता है।

यहाँ एक बात और गौर करने की है कि एक बुजुर्ग आलोचक से प्रश्न करने के लिए 6 लोग उन्हें घेरकर बैठे-बैठाए गए थे! माने पूरी तैयारी थी उनकी हंटिंग करने की। ये बिल्कुल उसी तर्ज पर जैसा कि आजकल आपको गोदीवादी टीवी चैनलों पर देखने को मिलता है जहाँ एक विपक्षी प्रवक्ता को घेरकर सत्तापक्ष के प्रवक्ता समेत कई लोग उसे घेरकर उसकी हंटिंग करने के लिए बुलाए जाते हैं। सच सामने आने के बावजूद आपने कुकृत्य पर सार्वजनिक माफी माँगने के बजाय पाखी के संपादक पूरी बेशर्मी से अपना  बचाव कर रहे हैं।प्रेम भारद्वाज के स्वर में अल्पना मिश्रा भी अपना स्वर मिलाए हुए हैं। और ऑडियों में सबकुछ स्पष्ट होने के बावजूद वो कह रही हैं कि पाखी में वही छपा है जो मैंने विश्वनाथ त्रिपाठी के मुँह से उस इंटरव्यू में सुना था।



ऑडियो टेप में सच सामने और पाखी टीम की साजिशें उजागर हो जाने के बाद कल तक शब्दशः अक्षरशः इंटरव्यू लिखने की बात करने वाले उसके संपादक प्रेम भारद्वाज पूरी बेशर्मी से अब ये कह रहे हैं कि लिप्यांतरण में हूबहू या शब्दशः नहीं लिखा जा सकता। ये तो बदमाशों की सीनाजोरी है जो प्रेम भारद्वाज कह रहे हैं। आखिर प्रेम भारद्वाज ने वहीं शब्द या वाक्य क्यों काटे जो विश्वनाथ त्रिपाठी की सबसे अच्छी बात थी और ऑडियो में भी स्पष्ट थी। सबसे खराब बात उस बलात्कार वाली लाइन को क्यों नहीं काटा? जाहिर है इनका एजेंडा ही वाद पैदा करके मार्क्सवाद की हंटिंग करना था। पाखी के मेज पर उसके संपादक और मालिकान लोगों द्वारा अबनी जुबान विश्वनाथ त्रिपाठी के मुँह में डालने की पुरजोर साजिश की गई है। अब सही समय आ गया है जब इसी घोर सांप्रदायिक और बाज़रवादी एजेंडे पर काम करनेवाली पाखी पत्रिका और उसके मंचों, पुरस्कारों का साहित्यकारों द्वारा एकमत हो बहिष्कार कर दिया जाए।


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