Quantcast
Channel: स्त्री काल
Viewing all articles
Browse latest Browse all 1054

लेखकीय नैतिकता और पाठकों से विश्वासघात!

$
0
0

सुधांशु गुप्त 

 'मेरे विश्वासघात' (हंस 2004) के लेखक रामशरण जोशी की अनैतिक, एक और विश्वासघात से भरी आत्मकथा 'मैं बोनसाई अपने समय का बोनसाई'राजकमल से प्रकाशित हुई है. लेखक ने हंस में छपे अपने लेख की आलोचना करने वाले साहित्यकारों, आलोचकों को इस किताब में लानतें तो जरूर भेजी है, अपने कद के आगे उन्हें बौना और घुटनाटेक साबित करने की कोशिश की है, लेकिन जिस लेख के लिए वे लानतें भेज रहे उसके ख़ास हिस्सों को ही अपनी आत्मकथा में जगह नहीं दी है. बता रहे हैं सुधांशु गुप्त. स्त्रीकाल में इस किताब और उक्त लेख के संदर्भ में सिलसिलेवार लेख प्रकाशित होंगे. 

रामशरण जोशी एक पत्रकार, संपादक, एक्टिविस्ट, शोधकर्ता, राजनीतिक विश्लेषक, अध्यापक और एक कम्युनिस्ट हैं। पिछले पांच दशकों से वह लगातार सक्रिय रहे हैं। अपनी छवि-खासतौर पर कम्युनिस्ट छवि- को लेकर वह बेहद सजग और सतर्क रहे हैं। हाल ही में उनकी आत्मकथा प्रकाशित हुई है-मैं बोनसाई अपने समय का, एक कथा आत्मभंजन की (राजकमल प्रकाशन)। इसमें उनके जन्म से लेकर पत्रकार बनने की कथा है। इस पूरी कथा पर फिर कभी। लेकिन इसमें एक जगह उन्होंने लिखा है, मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि हम हिंदी के लोग दोगले, पाखंडी क्यों होते हैं? हम पारदर्शी जीवन जीना क्यों नहीं जानते? हम लोग नैतिकता के मामले में “सलेक्टिव” क्यों हो जाते हैं? क्यों अपने स्खलनों की सड़ांध को प्रखुर वत्कृता और जादुई कथा शैली से ढांपे रखना चाहते हैं? कभी तो यह मैनहोल खुलेगा और दोगली जिदंगी का गटर खुद-ब-खुद बाहर बहेगा, तब क्या वे नंगे नहीं हो जाएंगे? ऐसी विकृत नैतिकता को ओढ़े रखने का क्या लाभ? (पृष्ठ299)।

प्रोफेसर मैनेजर पाण्डेय से पुस्तक विमोचन कराते रामशरण जोशी साथ में हैं वीरेन्द्र यादव  


दरअसल रामशरण जोशी ने कथा पत्रिका हंस में आत्मस्वीकृतियां के अंतर्गत “मेरे विश्वासघात” नाम से दो किश्तें लिखी थीं। ये हंस में अक्तूबर 2004 और नवंबर 2004 में प्रकाशित हुई थीं। इन किश्तों के छपने के बाद रामशरण जोशी की छवि पर अचानक चारों तरफ से वार होने लगे थे। इन वार करने वालों को ही उन्होंने दोगला, पाखंडी और नैतिकता के मामले में “सलेक्टिव” होने का आरोप लगाया था। जोशी जी ने इतनी ईमानदारी बनाए रखी कि अपनी आत्मकथा में, हंस में छपी उन किश्तों को भी (पृष्ठ 391से 436)शामिल किया। लेकिन आत्मकथा में उन्होंने इन किश्तों का संपादित अँश ही दिया। ईमानदारी से उन्होंने यह भी लिखा है कि मूल पाठ हंस, अक्तूबर एवं नवंबर 2004 में देख सकते हैं। जाहिर है ऐसा कर पाना हर पाठक के लिए संभव नहीं होगा।
तो जोशी जी ने “मेरे विश्वासघात” के किन हिस्सों को संपादित किया है, यानी आत्मकथा से डिलीट कर दिया है? क्या ये हिस्से जोशी जी की नैतिकता पर सवाल खड़े नहीं करते? फैसला आपको करना है। मैं यहां डिलीट किये गये कुछ हिस्सों को दे रहा हूं।

जोशी जी अपने एक नृतत्वशास्त्री मित्र के साथ रेस्ट हाउस में हैं।दोनों शराब पीते हैं। मित्र के निमंत्रण पर दो लड़कियां रेस्ट हाउस में आती है। नृतत्वशास्त्री मित्र उनमें से एक को चुन लेता है। जोशी जी लिखते हैः इस बीच वह औरत बिल्कुल निर्वस्त्र बाथरूम से कमरे में दाखिल होती है। उसने अपने स्तन छिपा रखे हैं। अपने हाथों से। लाइट गुल हो जाती है। नृतत्वशास्त्री मित्र भूखे सांड की तरह उस पर टूट पड़ता है। अंधेरे में ही एक दो पैग जमाता है। उसे भी पिलाता है। दोनों “नीट” पर सवार हैं। बीच बीच में मित्र के हांफने की आवाज मुझे सुनाई देती है। कभी-कभी औरत भी चीखती है। आगे वह लिखते हैं, कुछ कुछ मुझमें भी गुदगुदी होने लगी थी। भीतर संघर्ष शुरू हो गया था। मैं क्यों न गंगा में नहां लूं? मैं भी मर्द हूं? मुझे इस मौके से भागना नहीं चाहिए। यह औरत क्या सोचेगी? मित्र सांड भी मेरी बदनामी कर देगा। मुझे नामर्द घोषित कर देगा। मैं महसूस कर रहा था मेरा मर्दपन मेरे मनुष्यत्व पर भारी पड़ने लगा है। अब जंग मर्दानगी और मनुष्यता के बीच शुरू होती जा रही है। मेरा मर्दपन मुझे धिक्कार रहा है, मुझे चुनौती दे रहा है। इस वैचारिक दुविधा पर जोशी जी के भीतर बैठा मर्द विजयी होता है। वह औरत जोशी जी के पास आकर लेट जाती है। (और जोशी जी किसी तरह का कोई विरोध नहीं करते, नहीं करना चाहते)।

हंस का वह पन्ना जहां से जोशी का अश्लील और जातिविरोधी विमर्श शुरू होता है. 


एक अन्य प्रसंग में जोशी जी ने लिखा, एक दिन दोनों ने तय किया कि क्यों न ट्राई मारा जाए? उन दिनों जगदालपुर में एक मेला लगा था। सर्कस भी था। बाहर से काफी औरतें वहां पहुंची थीं। दोनों ने सोचा मेले में “हंट” किया जाए। फिर एक समस्या खड़ी हुई। स्थानीय लोग हम दोनों को पहचान सकते थे। इसलिए जरूरी है कि हम भेस बदल कर मेले में “शिकार” पर निकलें। दोनों ने मैले कुचैले कुर्ता पाजामा पहने। सिर पर अंगोछा बांधा। साथ में एक एक लाठी रखी। यह सिलसिला तीन-चार रोज चलता रहा। शिकार की तलाश में लड़कियों, औरतों के झुंड में पहुंच जाते। झिझकते हुए पटाने की कोशिश करते। इससे पहले उसके “विजिबल भूगोल” पर नजर डालते। सिर से नीचे तक उसे घूरते, पारखी की तरह। लेकिन किसी का भूगोल मुकम्मल नहीं मिलता। होता यह कि किसी को पसंद करने के बाद हम कुछ देर के लिए मंत्रणा करते। कभी हम कहते, यार, इसके कपड़ों से बास आ रही है। इसके बाल चीखट हैं। इसकी त्वचा बहुत सख्त है। मजा नहीं आएगा। भई इसमें मांसलता है ही नहीं। बगैर इसके क्या इसका अचार डालेंगे? इसकी छातियां तो सपाट पिच हैं। छोड़ो यार इसकी ब्रेस्ट तो पहाड़ियां बनी हुई हैं। हाथ में ही नहीं आएंगी। अरे यार! इसकी टांगें, इसकी बांहें सूखे झाड़ जटाएं दिखाई दे रही हैं। चलो कल शिकार करेंगे।

एक अन्य प्रसंग में वह अपने मित्र के साथ लखनपाल की तलाश में जाते हैं। लखनपाल लड़कियों का गुप्त नाम है। इन सारे प्रसंगों में वह कहीं अपराधबोध से पीड़ित होते दिखाई नहीं पड़ते।  लेकिन रामशरण जोशी इन सारे प्रसंगों को हंस में लिख चुके हैं और इन पर भरपूर विवाद भी हो चुका है। लेकिन लेखकीय नैतिकताओं और पारदर्शिता के पैरोकार रामशरण जोशी को अपनी आत्मकथा से इन प्रसंगों को डिलीट करना क्या नैतिकता कहा जाएगा? क्या इसी पारदर्शिता की वह वकालत करते हैं, क्या यह दोगलापन नहीं है? यह भी सच है कि जिन लोगों ने हंस में छपी वे किश्ते नहीं पढ़ी हैं वे जोशी के जीवन के इन पहलुओं से अनजान ही रह जाएंगे। अपनी आत्मकथा में यदि जोशी जी चाहते तो इस पूरे प्रसंग को ही डिलीट कर सकते थे। लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। उन्होंने “मेरे विश्वासघात” को इस आत्मकथा में शामिल किया। लेकिन वह यहां “सलेक्टिव” क्यों हो गये? क्यों उन्होंने इस किश्त के कुछ हिस्से उड़ा दिये? क्यों अर्द्धसत्य ही पाठकों के सामने रखा? “मेरे विश्वासघात” में बस्तर की रहने वाली सुखदा से उनके प्रेम संबंधों का खुलासा भी है। दिलचस्प बात है कि वह सुखदा से प्रेम करते-करते लूसी से भी प्रेम करने लगते हैं(आत्मकथा में लूसी का नाम ऐन हो गया है) और इसी बीच विवाह भी कर लेते हैं। तब आपको नैतिकता का ख्याल नहीं आया। आपने सुखदा- लूसी के साथ तो विश्वासघात किया ही, इन अंशों को डिलीट करके आपने अपने पाठकों के साथ भी छल किया है।

समीक्षक, लेखक सुधांशु गुप्त अपनी बेवाक टिप्पणियों के लिए जाने जाते हैं. लेख नव दुनिया से साभार


यह लेख/विचार/रपट आपको कैसा लगा. नियमित संचालन के लिए लिंक  क्लिक कर आर्थिक सहयोग करें: 
                                             डोनेशन   
स्त्रीकाल का संचालन 'द मार्जिनलाइज्ड' , ऐन इंस्टिट्यूट  फॉर  अल्टरनेटिव  रिसर्च  एंड  मीडिया  स्टडीज  के द्वारा होता  है .  इसके प्रकशन विभाग  द्वारा  प्रकाशित  किताबें  ऑनलाइन  खरीदें : अमेजन पर   सभी  किताबें  उपलब्ध हैं. फ्लिपकार्ट पर भी सारी किताबें उपलब्ध हैं.संपर्क: राजीव सुमन: 9650164016,themarginalisedpublication@gmail.com 


Viewing all articles
Browse latest Browse all 1054

Trending Articles



<script src="https://jsc.adskeeper.com/r/s/rssing.com.1596347.js" async> </script>