प्रो.परिमळा अंबेकर
बस स्टैंड के कंपाउंड के भीतरी घेरे की गोलाईमें कोई आ या जा नहीं रहा था। सुनसान पसरा पडा वह अहाता, शमशानी मौन से धीरे धीरे भरता जा रहा था बस स्टैंड की पिछली ऊंची दीवार से लगी खडी बसें जैसे इस नीरवता को साक्षी दे रहे हों। जलती लाईटों से छनती रोशनी का मटमैलापन वातावरण के पसारे को उदासी से लीप पोत कर थक हार कर बैठ चुका था। रह रहकर कोई कुत्ता अपनी जगे से उठता और दुम हिलाते एकाध अधखुले दुकान का चक्कर काटता फिर लौटकर अपनी जगे पर हल्के से रिरियाते हुए दुम और मुंडी को दुबकाकर, आँखें मिटकाते सो जाता। शायद रात के डेढ दो बज रहे होंगे। यादगिरी के इस छोटे से बस स्टैंड में इस वक्त किसी गाडी के आने या जाने का कोई अंदाजा नहीं लग रहा था ।
लेकिन यादगिरी के इस बस स्टैंड के भीतरी अहाते में पसरी इस बियाबानी की स्थिरता को कोई आवाज तोड़े जा रही थी । जैसे दिल के गर्त से उठती चीख को दबाने से फट पडनेवाली रूदनभरी सिसकी की आवाज हो- हाँ यह किसी औरत की ही आर्त ध्वनि थी, जो रह रहकर सन्नाटे को चीरती हुयी कहीं दूर अंधकार के गर्त में समा जा रही थी। खाली बोतल से निकली हवा का गले में फंसने से उठनेवाली सिटकरी सी ध्वनि से पास में सोया कुत्ता अपनी मूंदी आँखें क्षणभर खोलता फिर ऐसे बंद कर लेता, जैसे उस इन्सान के रूदन से अपनी अनुकंपा को बोध रहा हो या मातम के प्रति अपनी हिस्सेदारी जता रहा हो। कुछ क्षण के लिए रूदन की आवाज बंद सी हो गयी । शायद उस औरत ने फेंफडे के भीतर की हवा को बाहर आने से रोक ली हो, मुंह में आंचल को ठूंसकर या फेफडो का बर्तन ही खाली हो गया हो...!! यह आंचल का कपडा भी अजीब है, मुंह में ठूंसते ही रोते हुए को चुप करा देता है, चुप बैठे हुए को रूला भी देता है ...!!
उस खाली स्थिर अहाते में उसी समय कुछहलचल सा हुआ । मायूसी के अंधकार से उठकर आता सा कोई आदमी बस स्टैंड के अहाते के एक कोने से दूसरे कोने की ओर चल पडा जहां से औरत के रोने की आवाज आ रही थी। वह आदमी लगभग अधेड उम्र का गंवई लग रहा था । धोती, बुशर्ट और कंधेपर अंगोछा डाले वह शख्स गठरी बनी बैठी उस औरत के बगल में जा निढाल सा पसर गया । जैसे जिंदगीभर चलते ही आ रहे उस आदमी को अब एक कदम भी उठाना असाध्य हो गया हो, उसे लग रहा था जैसे पैर में सीसा भरते जा रहा हैं। आदमी के आते ही औरत के रोने की ध्वनि और तेज हो गयी। कुछ क्षण बाद सन्नाटा फिर मायूसी का चादर ओढकर कुत्ते की तरह आंख मूंद कर सो गया। लेकिन दूसरे ही पल एक विस्फोट सा हुआ। उस आदमी का लोहे के बेंचपर उस औरत के पास आकर बैठने के दूसरे ही पल उन दोनो के एक सुर में रोने की आवाज ने उस मायूसी लिपी अंधकार के परत को तार तार कर दिया । उस भयंकर दिल को टूक कर देने की रूलायी से पास का वह कुत्ता भी अपनी जगे से उठकर उनके पास जाकर चुपचाप खडा हो गया, जैसे उसकी समझ में रहा हो, कि आदमियो की मायूसी मे शरीक होना अपने जानवरपन का आदिम कर्तव्य है।
बात साफ थी। निश्चय ही बेटी की मौत की खबर थीऔर वह भी स्टोव के फटने से जलकर मरने की खबर, जैसे ब्याहता बेटी के मरने या मारने का दमदार सामाजिक नुस्खा। सर्वस्वीकृत न्यायिक और संवैधानिक नुस्खा !! और बात उससे भी साफ और सरल थी, ससुराल वालों से खबर मिली इस दुर्घटना का रात के लगभग एक बजे, क्यूंकि हमारे निम्न और मध्यम समुदाय की बस्तियों के स्टोव तो रात में, अधिकतर रात के बारह के बाद ही तो फटते हैं ...!! शिवम्मा और बसप्पा को उनकी बेटी भीमव्वा का स्टोव के फटने से जल जाने से कलबुर्गी सरकारी अस्पताल में भर्ती कराने तक की खबर, और...और उसके देह का नब्बे प्रतिशत से ज्यादा जलजाने से मरजाने की खबर देर रात को ही मिली थी। इस खबर को पाकर आधे घंटे से यादगिरी के बस स्टैंड में कलबुर्गी जाने वाली बस के इंतजार में बिलखते बैठे थे पति पत्नी शिवम्मा और बसप्पा। बसप्पा उठकर पूछताछ के बंद काउंटर में बार बार झांक आता या फिर निरीह सा लौटकर शिवम्मा के पास आकर बैठ जाता। शिवम्मा के रह-रह कर रोने की उस दिलटूक करने वाली आवाज को सुनने के लिए निर्जीव से खडे बसों की कतार और उन कुत्तों के सिवाय और कोई नहीं था, जिनमें से उनके पास बैठा एक कुत्ता , बार बार अपने फर्ज को निस्संदेह निभा भी रहा था ।
बसप्पा अपने बुशर्ट की जेब से माचिस और बीडी निकालकरसुलगाने लगा, उसकी ओर जलती आंखों से देखती शिवम्मा फूलकर मोटे हुए गले की नसों में और तनाव भरते हुए भर्रायी आवाज में कहने लगी, “वहां मेरी भीमा असप्ताल में मरी पडी है और यहां तुझे बीडी सुलगाने की पडी है।"रूलाई का भभका शिवम्मा को उसी बेंच पर निढाल सा कर दिया वह बेंच के लोहे के पाइप से अपना सर पीट पीटकर दे मारने लगी । जलती बीड़ी को वहीं जमीन से मसलकर बसप्पा, शिवम्मा के पास आकर बैठ गया। हलकान होती अपनी आवाज मे जरा ताकत डालते पत्नी की ओर देखकर उसने कहा, ‘अरी, क्या मैं बीडी का कश खींच रहा हूं, नहीं री शिवी... शिवी मेरा दिल जल रहा है री ...इसे कैसे ठंडा करूं ...तू ही बोल ... भीमव्वा ... बेटी भीमा...!!,” फुक्का फाडकर रोने लगा ।
शिवम्मा ने अपने दोनो हाथों को आकाश की ओर उठाया।वहां भी धुप्प अंधकार आर पार पसरा पैठा था। निढाल से हाथों को उठा उठाकर अपनी छाती पर दे मारने लगी !! दूसरे ही पल सीना तानकर बैठ गयी। अपने दोनों हाथों को पति की ओर सीधा तानकर भग्न मुद्रा में बैठी शिवम्मा के मुंह से जैसे आग के गोले बरसने लगे, अब कैसे मिलेगा रे छाती को ठंडक? कित्ती बार बोली थी रे भीमा कि अप्पा मुझे वहां शादी नई करने का, मुझे और पढना है, मैं कलबुर्गी जाउूंगी, वहां जाकर पढूंगी... नौकरी करूंगी।’’ शिवम्मा हठात अपनी जगह से उठी बसप्पा के नजदीक जाकर आपने दोनो हथेलियों को तीर के नोक सी उसके मुंह पर तानती हुई भर्राये गले से कहा, ‘हां हां तूने तो मेरी भीमा को कलबुर्गी भेजा, जरूर भेजा, लेकिन-लेकिन किस लिए, किस लिए,’ वह दहाड़ मारकर रोने लगी।
शिवम्मा सीधे तीर से तने उसके पतले से दोनो लंबे लम्बे हाथ हवा में उसी तरह ताने खड़ी रही, जैसे भीमा की मौत का उत्तर मांग रही हो। उत्तर में बसप्पा पत्नी की ओर सूखे प्रश्न भरी आंखों से बस देखता ही रह गया ।
उसी समय कहीं दूर से कुत्तों के झुंड से लंबी हॅूंक सी उठी । उस हूंक में घुले सदियों के रूदन की लरज से सारा वातावरण कांप सा गया ...!!
तस्वीरें गूगल से साभार
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