मीनाक्षी भालेराव

तुम
बुनते रहे स्वप्न
मैं जागती रही
रात भर
तुम निकल पड़े
जब मंजिल की ओर
मैं राहे तुम्हारी
बुहारती रही
पहर दर पहर
तुम्हारी सफलता
की सीढ़ीयों पर
जितने भी कांटे थे
अपने ह्रदय के
सूनेपन मैं चूभोती रही
कोई पत्थर तुम्हें
जख्मी ना कर दे
अपने सिने पर
धैर्य के पत्थर
रखती रही
सावन को पतझड
बना लिया था
ताकि तुम्हारी
सफलता को
बून्दें भिगोकर
साही सा बहा ना दे
तुम्हारे मन का सारा
बोझ हर रात तुम
जब मेरे मन पर
ड़ाल कर चैन की
नींद सो जाते थे
तब मेरा होना
मुझे सार्थक लगता
तुम्हारे सपनों को
साफ जमीन देने के लिए
कई बार
मैंने
अपनी आत्मा को
मैला किया
तब जाकर
तूम ,तूम बने
और मैं , मैं ही
नहीं रही ।
मैं
मिली नहीं खुद से
बरसों हो गए ।
पहचान लेती हूँ
दरवाजे से
दाखिल होने
वाली हवाओं के
चेहरों की
मंशा को भी
मैं जानती हूँ घर
की हर दीवार के
मन की बातें
भी
सहला लेती हूँ
उन्हें भी
बतिया लेती हूँ पास
बैठ कर
उनकी सुंदरता को
जब संवार देती हूँ
तब वो मूझे
अपने आगोश में
लेकर मेरा मन
सन्तुष्ट कर देती है
बाहरी ही नहीं
घर के अंदर भी
सराही जाती हूँ
तब खुद से
बरसों तक
नहीं मिल पाने का
दुख
नहीं होता ।
पहचान गुम
होने का दुख
नहीं होता ।
कितनी
पिसती है
हर रोज
चकला ,बेलन
के मध्य स्त्री
हाँ स्त्री रोटी सी स्त्री
कभी कभी यूँ ही
सोचकर मन
भारी हो जाता है
मां बाप के घर में
आटे सा
तैयार किया जाता है
बारीक
ताकि कोई
कमी नहीं रह जाये
ब्याही
जाने पर
ससुराल जाकर
उसका मंथन
किया जाता ताकि
नर्म नर्म
रोटी सी
बन कर पूरे
परिवार को संतुष्ट
कर सके
पिसती रहे
रोटी सी
चकला , बेलन के
बीच
अपने
अस्तित्व को दबाए
चूप
हाँ बिलकुल
चूप
स्त्री हाँ रोटी सी स्त्री ।
लकड़ी
काट कर अपनी
जड़ो से
गीली लकड़ी को
गठ्ठर बाना
बांध कर
रस्सी से
ला कर
घर के किसी कोने में
ड़ाल कर
छोड दिया जाता है
सूखने के वास्ते
ताकि
जब चूल्हे में
ड़ाली जाये तो
जलकर आसानी से
राख हो जाए ।
धुआँ धुआँ हो जाये
वो
पर
किसी और की
आंखें में पानी नहीं
आने दे
जलती हुई
सुखी लकड़ी ।
देह
उसकी देह आज
चुपचाप पड़ी थी
म्रत
बिना कम्पन के
मारकर
अपने
मन को
जब मुर्दा सी
पड़ी रहती थी
तब कोई नहीं
आया
रोने को
देह निष्क्रीय
देह
सब कोई धहाड़े
मार मार कर
दुखी होने का स्वांग ।
क्यो ?
औरत
ठोकर लगी तो पत्थर
औरत बन गया
यहीं से सिलसिला
शुरू हुआ
औरत को ठोकर
में रखने का
फिर सभी ने
मान लिया
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