Quantcast
Channel: स्त्री काल
Viewing all articles
Browse latest Browse all 1054

तीन तलाक के विषदंत उखाड़ती स्त्रियां

$
0
0
गुलज़ार हुसैन
गुलज़ार हुसैन जितने संवेदनशील और बेहतरीन कवि हैं उतने ही अच्छे रेखा -चित्रकार. मुम्बई में पत्रकारिता करते हैं . संपर्क: मोबाईल न. 9321031379

समस्या औरत ने नहीं खड़ी की। यह पुरुष की समस्या है कि वह स्त्री को सामानाधिकार से वंचित रखना चाहता है।- ‘द सेकेंड सेक्स’ में सिमोन द बोउवार

तीन तलाक का विषदंत भारतीय मुस्लिम महिलाओं के लिए एक समस्या भर ही पैदा नहीं करता है, बल्कि यह महिलाओं को एक ऐसे अथाह असीम दलदल में धकेल देता है, जहां से उसके भविष्य की सारी राहें बंद हो जाती हैं। यह सब कुछ किसी का कत्ल किए बिना सांस छीन लेने की तरह खतरनाक है। इस खतरनाक स्थिति में पड़ी महिलाओं को इससे उबारने और नई पीढ़ी की लड़कियों को इस ‘मर्द दंश’ से बचाने की लड़ाई बहुत संघर्षपूर्ण रही है। अभी हाल ही में (अगस्त, 2016) सुप्रीम कोर्ट ने एक साथ (इंस्टैंट) तीन तलाक कह कर विवाह संबंध खत्म करने की प्रथा को असंवैधानिक करार दिया है। यह फैसला भारतीय मुस्लिम स्त्रियों की राह के कांटे हटाने वाला कहा जा सकता है, क्योंकि भारतीय मुस्लिम स्त्रियों ने इसका खुले दिल से स्वागत किया है।

‘तीन तलाक’ के खिलाफ लड़ाई लड़नेमें डॉ. नूरजहां सफिया नियाज और जकिया सोमन का नाम उल्लेखनीय है। इन दोनों ने मिलकर भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन (बीएमएममए) को तब खड़ा किया जब पर्दे के अंदर दबी-छिपी महिलाएं अपने चेहरे पर मुस्कान ओढ़े भीतर ही भीतर खोखली बनी हुर्इं थीं। डॉ. नूरजहां कहती हैं कि उनके लिए सबसे बड़ी चुनौती मुस्लिम समाज में अपने काम को लेकर स्वीकृति पाने की थी। यह भी साफ नहीं था कि मुस्लिम महिलाएं हमारे साथ आएंगी, लेकिन हमें उम्मीद थी कि वे हमारे साथ आएंगी। वे हमारे साथ आर्इं और बड़ी संख्या में आर्इं। सुप्रीम कोर्ट के तीन तलाक पर आए सकारात्मक फैसले को नूरजहां ऐतिहासिक मानती हैं। वे कहती हैं कि पांच पीड़ित महिलाएं सुप्रीम कोर्ट में पहुंची और उनकी आवाज सुनी गई, यह उल्लेखनीय। यह अप्रत्याशित है।

गौरतलब है कि शायरा बानो, आफरीन रहमान, इशरत जहां, आतिया साबरी और गुलशन परवीन नामक महिलाएं तीन तलाक के दंश से पीड़ित थीं। सुप्रीम कोर्ट ने यह निर्णय इन्हीं पांच मुस्लिम महिलाओं की याचिकाओं पर सुनाया है। इन महिलाओं की जिंदगी में तीन तलाक के कारण दुखों का पहाड़ टूट पड़ा था। किसी को तीन तलाक कहकर घर और संपत्ति से बेदखल कर दिया गया था, तो किसी को स्पीड पोस्ट और फोन के माध्यम से तीन तलाक देकर मरने के लिए छोड़ दिया गया था।

नूरजहां मानती हैं कि भारतीय मुस्लिममहिलाओं की राह में सबसे बड़ा रोड़ा धार्मिक संगठन हैं। वे कहती हैं कि मुस्लिम धार्मिक संगठन हमेशा हमारे आंदोलन का विरोध करते रहे हैं और आज भी करते हैं, लेकिन उनसे समर्थन और मान्यता हमें उम्मीद भी नहीं है। हम जब कुरआन के आधार पर इस्लाम में स्त्री के हक की व्याख्या करते हैं, तो मुस्लिम धर्मगुरु तिलमिला जाते हैं। कुरआन के आधार पर स्त्रियों के हक की बात सुनते ही मुस्लिम धर्म गुरु पर्सनल अटैक पर उतर आते हैं। नूरजहां कहती हैं कि मुस्लिम महिलाओं के साथ बड़ी संख्या में मर्दों का सपोर्ट भी हमें मिला है। बीएमएममए की ओर से तैयार ड्राफ्ट ‘द मुस्लिम फैमिली एक्ट’ को पार्लियामेंट में पहुंचाना हमारा लक्ष्य है। वे कहती हैं कि हमलोग आंदोलन के तहत स्त्रियों की शिक्षा, सेहत और कैरियर से जुड़े कई कार्य करते हैं।


मुस्लिम महिलाओं की दयनीय स्थितिसे अपनी कष्टप्रद जिंदगी के तार जोड़कर अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने वाली जकिया सोमन के संघर्ष की कहानी  किसी से छुपी नहीं है। वह गुजरात में प्रोफेसर के पद पर कार्य करते हुए भी 16 सालों तक पुरुषवादी जुल्म को झेलती रहीं। उनका मानना है कि हर औरत के अंदर ताकत होती है, इसलिए उसका उभारा जाना जरूरी है। इसी ताकत के बल पर जेंडर जस्टिस और इक्वलिटी की बात हम उठा पा रहे हैं। जकिया गुजरात से हैं, इसलिए 2002 में हुए सांप्रदायिक नरसंहार और उससे उपजी भीषण त्रासदी का उनके जीवन में बहुत प्रभाव पड़ा वे गुजरात नरसंहार से पीड़ित महिलाओं -बच्चों को दुख से बिलखता देखती तो तड़प उठतीं थी। राहत कैंप में दंगा पीड़ित मुस्लिम स्त्रियों के लिए सेवा कार्य करते हुए उन्हें अपनी जिंदगी जीने की राह भी मिल गई।

जकिया ने जब दंगा पीड़ित गरीबऔर बेघर मुस्लिम महिलाओं को न्याय पाने के लिए व्याकुल देखा तो उनके अंदर आशा की किरण फूट पड़ी। उन्होंने देखा कि पति, बेटे और अपने परिवार को गुजरात दंगों में खो चुकी मुस्लिम स्त्रियां चुप नहीं बैठी हैं। किसी का पति मारा गया है, तो किसी का घर जल गया है, लेकिन वे न्याय के लिए आवाज उठा रही हैं। वे पुलिस से लेकर कोर्ट तक अपनी आवाज बुलंद कर रहीं हैं। दंगा पीड़ित महिलाओं के इस साहस ने टूटी हुई जकिया को संबल दिया। उन्हें लगा कि बेघर और अपना परिवार खो चुकी स्त्रियां जब इतनी हिम्मत से आगे बढ़ सकती हैं, तो वे क्यों नहीं महिलाओ के हक के लिए लड़ाई लड़ सकती हैं। यही आत्मबल उनके जीवन का टर्निंग प्वाइंट बना था।


जकिया बताती हैं कि शादी के बादउन्हें अपने मन से हंसने या रोने तक का भी अधिकार नहीं था। मन की बात कहने पर उन्हें पीटा जाता था। वे कहती हैं कि इस पुरुषवादी दुष्चक्र में उन्होंने अपनी जिंदगी के 16 साल गुजार दिए थे, लेकिन गुजरात दंगे से पीड़ित महिलाओं से मिलकर उन्हें लगा कि इतनी दबी-कुचली महिलाएं जब इंसाफ के लिए लड़ सकती हैं, तो वे पढ़ी-लिखीं होकर क्यों नही लड़ सकती हैं। इसके बाद भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन के तहत वे आगे ही बढ़ती गईं। कई स्त्रियां उनसे इस संघर्ष के साथ जुड़ती गईं। जकिया कहती हैं कि न केवल मुस्लिम औरतें, बल्कि अधिकांश मर्द हमारे साथ आए हैं।

इंस्टैंट तलाक पर सुप्रीम कोर्ट केनिर्णय से पहले मुंबई के हाजी अली दरगाह में औरतों के प्रवेश को लेकर भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन की ओर से उल्लेखनीय लड़ाई लड़ी गई और जीती भी गई। इस दौरान जितनी भी महिलाएं उनके साथ थी, वे दरगाह के अंदर प्रवेश को लेकर अपने निर्णय से टस से मस नहीं हुईं और अंततः उन्हें सफलता मिली। एक टीवी साक्षात्कार में जकिया ने इस मुद्दे पर कहा था यदि हम लड़ेंगे तो अल्लाह हमारे साथ है और कानून हमारे साथ है।

इंस्टेंट तीन तलाक पर आए सुप्रीम कोर्टके ताजा फैसले से इस्लामिक फेमिनिज्म को एक नया आधार मिला है। इस्लामिक फेमिनिज्म का यह स्वरूप भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन (बीएमएमए) के तहत 2007 में गढ़ा गया था। बीएमएमए की तरफ से डॉ.नूरजहां और जकिया सोमन लिखित (2015 में प्रकाशित) पुस्तक 'सीकिंग जस्टिस विदिन फैमिली' (Seeking Justice Within Family: A National Study on Muslim Women's views on reforms in muslim personal law) में मुस्लिम महिलाओं की आर्थिक-शैक्षिक स्थिति के अलावा शादी, तलाक, और संपत्ति सहित कई मुद्दों पर विस्तार से अध्ययन (study) प्रस्तुत किया गया है। इस स्टडी से कई चौंकाने वाली बात सामने आई हैं। इसके तहत हुए सर्वे के अनुसार भारत में 55. 3℅ लड़कियों की शादी 18 साल की उम्र से पहले हो जाती है। 53.2 ℅ मुस्लिम महिलाएं घरेलू हिंसा की शिकार होती हैं। इसके अलावा सर्वे के अंतर्गत 95.5℅ महिलाएं मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के बारे में नहीं जानतीं। इसके अलावा भी स्टडी में कई चौंकाने वाली जानकारी सामने आईं हैं।


बहरहाल, जकिया और डॉ. नूरजहां की यह गैर राजनीतिक लड़ाई अभी लंबी है और रास्ते में कई कांटें बिखरे हैं। निस्संदेह यह आंदोलन मुस्लिम समाज के अंदर से उभरा है, लेकिन इसी समाज के अंदर इसका जोरदार विरोध भी हो रहा है। कई बुद्धिजीवियों का मानना है कि ट्रिपल तलाक (इंस्टैंट) के मामले भारतीय मुस्लिम समाज में बहुत कम हैं। तो अब सवाल यह है कि जब ट्रिपल तलाक के मामले न के बराबर हैं भी, तो इस अमानवीय प्रथा के अस्तिव में रहने की क्या जरूरत है। इसे हटा क्यों न दिया जाए। ट्रिपल तलाक यदि अस्तित्व में रहेगा, तो मर्द भले इसका इस्तेमाल नहीं करे, लेकिन इसको लेकर वह घमंड से भरा हुआ तो हो ही सकता है। मौखिक ट्रिपल तलाक घर में अवैध रूप से रखी उस बंदूक की तरह है, जिसका इस्तेमाल करके ही नहीं, बल्कि उसका भय दिखा कर भी स्त्रियों का जीना मुश्किल किया जा सकता है, इसलिए जकिया सोमन, डॉ. नूरजहां और उन जैसी हर मुस्लिम महिलाओं की यह लड़ाई जारी रहनी चाहिए।

(कुछ जरूरी जानकारी डॉ. नूरजहां सफिया नियाज से फोन पर बातचीत और जाकिया सोमन के कई साक्षात्कारों पर आधारित)

स्त्रीकाल का प्रिंट और ऑनलाइन प्रकाशन एक नॉन प्रॉफिट प्रक्रम है. यह 'द मार्जिनलाइज्ड'नामक सामाजिक संस्था (सोशायटी रजिस्ट्रेशन एक्ट 1860 के तहत रजिस्टर्ड) द्वारा संचालित है. 'द मार्जिनलाइज्ड'मूलतः समाज के हाशिये के लिए समर्पित शोध और ट्रेनिंग का कार्य करती है.
आपका आर्थिक सहयोग स्त्रीकाल (प्रिंट, ऑनलाइन और यू ट्यूब) के सुचारू रूप से संचालन में मददगार होगा.
लिंक  पर  जाकर सहयोग करें :  डोनेशन/ सदस्यता 

'द मार्जिनलाइज्ड'के प्रकशन विभाग  द्वारा  प्रकाशित  किताबें  ऑनलाइन  खरीदें :  फ्लिपकार्ट पर भी सारी किताबें उपलब्ध हैं. ई बुक : दलित स्त्रीवाद 
संपर्क: राजीव सुमन: 9650164016,themarginalisedpublication@gmail.com

Viewing all articles
Browse latest Browse all 1054

Trending Articles



<script src="https://jsc.adskeeper.com/r/s/rssing.com.1596347.js" async> </script>