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अमृता सिन्हा की कविताएँ

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अमृता सिन्हा


स्वतंत्र लेखन, विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित संपर्क: a.sinhamaxnewyorklife@ymail.com
        
        यक्ष-प्रश्न
   
         हाँ, याद है उसे
         माँ की दी हुई नसीहतें ।
         कूदती-फाँदती , दरख़्तों की दरारों
         से झाँकती, गिलहरियों सी,
         कभी रंग - बिरंगी तितलियों सी
          उड़ जाती हैं बेटियाँ ।
         बात- बात में टोकती , आँखें तरेरती
         माँ की हिदायतों के बीच
         बचपन में ही बड़ी , बहुत बड़ी
         होती जाती हैं , बेटियाँ ।
         भूल ही नहीं पाती वो ,बचपन
          की हँसी , बेबाक़ , बेसाख़्ता , बेमानी
          रोक दिया था माँ ने तब, बतलाया था उसे
          यूँ बेसाख़्ता हँसा नहीं करती हैं ,बेटियाँ ।
           मालूम है , सीखना होगा उसे
           हर सलीक़ा ज़िन्दगी का
            रखना होगा ख़्याल हर सलवटों का
            ढकना होगा दुपट्टे से बदन अपना
           लगाना होगा चेहरे पर
           दही बेसन का मिश्रण
           बचना होगा धूप के तांबई रंग से
           सहेजना होगा लंबे बालों को
           क्योंकि पराया धन होती हैं , बेटियाँ ।
          जुगनू से टिमटिमाते सपनों  को
           भरना होगा काजल की डिबिया में ,
           लपेटना होगा , चुपचाप ,पनीली आँखों से,
           छितरे बचपन के ऊनी गोले को ।
            एक देहरी अनजान सी,संकरी है गली जिसकी,
           बेग़ाना है समूचा शहर, आँखों से झरता समंदर
           विस्मृत सी , सोचती है वह अक्सर
            कहीं अम्माँ  भूल तो नहीं गईं, भेजना
           उसकी हँसी की गठरी ,छोड़ आई थी जिसे वहीं पर,
           इसी ऊहापोह में तय करती जाती हैं ,
           करछी और कढ़ाही के बीच का सफ़र , बेटियाँ ।
     

         अस्तित्व
     
         यायावर मन
         भटकता, पहुँचा है
        सुदूर , संभावनाओं के शहर में
        बादलों से घिरा
        ऊँचाईयों में तिरता, फिसलता सा
        वर्षा की बूँदों को चीरता
        उतर आया है मेरा इन्द्रधनुष
        काली सर्पीली सड़कों पर
        दौड़ता, भागता, बेतहाशा
        नदी के बीचों- बीच सुनहरे
       टापू को एकटक निहारता ।
        करवटें लेती लहरों से खेलता
        ऊँचे - ऊँचे दरख़्तों में समाता
         जाने कहाँ-कहाँ विचर रहा
         मेरा इन्द्रधनुष ।
         तभी नन्हा सा छौना, बेटा मेरा
         काटता है चिकोटी , बाँहों में मेरे
         अनायास ही टूटती है तंद्रा मेरी
         पूछता है मुझसे
          माँ क्या बना  ?
          जागती हूँ मैं स्वप्न से
          कटे वृक्ष की तरह
          और परोस देती हूँ, थाली में
           हरे-भरे मायने और रंग- बिरंगे शब्द ।

       
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