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निजता के अधिकार के खिलाफ सरकार की सारी दलीलों को सुप्रीम कोर्ट ने ख़ारिज किया ....उषा रामनाथन

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पिछले तीन वर्षों में सुप्रीम कोर्ट में मामले की मैराथन सुनवाई के दौरान, भाजपा की अगुवाई वाली एनडीए सरकार ने तर्क दिया था कि निजता का अधिकार एक मूल अधिकार नहीं है. यह भारतीय संविधान में दिये गये मौलिक अधिकार का अपरिहार्य हिस्सा नहीं है. सुप्रीम कोर्ट के 9 जजों की खंडपीठ ने अपने एकमत ऐतिहासिक फैसले में सरकार की किसी दलील को नहीं माना, न विकास की दलील, न मौलिक अधिकार की सरकारी व्याख्या की दलील. अपने स्पष्ट निर्णय में सेक्सुअल निर्णय, जीवनसाथी चुनने या गर्भ धारण के निर्णय, खाने पीने के चुनाव आदि के अधिकार को निजता का अधिकार बताया है.

स्त्रीवादी न्याविद और सुप्रीम कोर्ट की वरिष्ठ अधिवक्ता उषा रामनाथन इसे भाषा सिंह से बातचीत में एक महत्वपूर्ण फैसला मानती हैं और इसका असर वे सुप्रीम कोर्ट में चल रहे 'आधार'के खिलाफ मुकदमे या 'एलजीबीटी'के राइट्स के मुकदमे पर साफ़ देखती हैं.


सुप्रीम कोर्ट का निर्णय कितना महत्वपूर्ण है?

यह फैसले तीन महत्वपूर्ण चीजों का प्रतीक है, पहला, 1954 और 1963 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा ही किए गए फैसले हमारे मौलिक अधिकारों के रास्ते में नहीं आयेंगे। दूसरा, पिछले 40 वर्षों के लंबे समय से संघर्ष के बाद निजता के अधिकार को सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट रूप से समर्थन दिया है। हालांकि, सरकार ने बहुत ही व्यवस्थित तरीके से इस अधिकार को नष्ट करने की कोशिश की। तीसरा, कोर्ट ने मान्यता दी है कि निजता के अधिकार को संविधान का अनुच्छेद 21 और मूलभूत अधिकार संरक्षित करते है।

क्यों आधार के मामले में, सरकार ने मौलिक अधिकारों की दलील ली है?

यह एक दिलचस्प पहलू है, जिस पर ध्यान देना है. ऐसा नहीं है कि सरकार ने हर परिस्थिति में निजता के अधिकार की मौजूदगी से इनकार कर दिया है। उदाहरण के लिए, जब लोग अदालत में कहने लगे कि मानहानि को आपराधिक कानून का हिस्सा नहीं होना चाहिए, क्योंकि यह कमजोर वर्ग को दबाने के लिए उपयोग किया जाता है, तब तत्कालीन सरकार ने बचाव में व्यक्तिगत गोपनीयता की दलील का ही सहारा लिया. लेकिन यूआईडी / आधार पर सरकार अलग खड़ी थी.

आपकी राय में, क्यों सरकार ने आधार मामले में निजता का विरोध किया?

उन्होंने भ्रम पैदा करने, गुमराह करने और ज्यादा से ज्यादा समय कोर्ट के फैसले को टाला जाये, के मकसद से ऐसा किया. आप देखते हैं, जब उन्होंने कहा कि निजता को मौलिक अधिकार के रूप में नहीं माना जा सकता है, आधार मामला अंतिम सुनवाई के चरण में था. उन्होंने यह बचाव की दलील 16 मार्च, 2015 दी, जब बेंच अंतिम सुनवाई के दौर में था. उन्होंने इसे शुरू में क्यों नहीं रखा? क्यों इस महत्वपूर्ण चरण में? इस बीच, वे आधार की गुंजाइश और पहुंच को बढ़ाना चाह रहे थे. यह सब बहुत सोच समझकर किया गया था.


फैसले में कहा गया है कि गोपनीयता का आधिकार धारा 377 के संदर्भ में भी वैध है। आप इसे कैसे देखती हैं?

यदि आप निर्णय पढ़ते हैं, तो यह बहुत खुला और स्पष्ट है. निर्णय कहता है कि मौलिक अधिकार बहुसंख्यकवाद से जुड़ा नहीं है. यदि एलजीबीटी अल्पमत में है, तो कोई भी उनके मौलिक अधिकारों को छीन नहीं सकता है. उनहें 'जीवन का अधिकार , गोपनीयता का अधिकार आदि सारे अधिकार हैं।  9 जजों की पीठ ने सुरेश कौशल के फैसले के मूल को लगभग उलट दिया है। इसका एक दीर्घकालिक प्रभाव होगा। यह निर्णय विवादास्पद एडीएम जबलपुर के फैसले पर भी बरसता है. हाँ, यह खुले तौर पर कहता है कि यह निर्णय "पूरी तरह दोषपूर्ण है।"यह स्पष्ट कर दिया गया है कि मौलिक अधिकार निलंबित नहीं किए जा सकते या वापस नहीं लिये जा सकते.

क्या आपको लगता है कि यह निर्णय आधार के खिलाफ कानूनी लड़ाई को मजबूती देगा? 

यह अच्छा है कि सुप्रीम कोर्ट ने यहस्पष्ट कर दिया है कि निजता मौलिक अधिकार है. इस फैसले के साथ, यह स्पष्ट हो जाता है कि यूआईडी परियोजना को मौलिक अधिकार के रूप में 'निजता के अधिकार की चुनौती'का सामना करना होगा। इस परियोजना में निजता के अधिकार का जबरदस्त उल्लंघन किया गया है.  इस संबंध में पर्याप्त सबूत अदालत में प्रस्तुत किए गए हैं. आधार परियोजना ने सरकार को निजता के अधिकार को मौलिक अधिकार न बताने के लिए प्रेरित किया है. वे (सरकार) विदेशी कंपनियों को नागरिकों का निजी डेटा दे रहे हैं, ऐसा अब नहीं हो सकता, हम आशान्वित हैं.

यह साक्षात्कार मूलतः नेशनल हेराल्ड में अंग्रेजी में प्रकाशित हुआ है. 

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