Quantcast
Channel: स्त्री काल
Viewing all articles
Browse latest Browse all 1054

स्त्री कविता: स्त्री पक्ष और उसके पार (क़िस्त दो)

$
0
0
रेखा सेठी
  हिंदी विभाग, इंद्रप्रस्थ महिला महाविद्यालय, दिल्ली वि वि, में एसोसिएट प्रोफेसर. विज्ञापन डॉट कॉम सहित आधा दर्जन से अधिक आलोचनात्मक और वैचारिक पुस्तकें प्रकाशित  
संपर्क:reksethi@gmail.com

पहली क़िस्तसे आगे 


स्त्री-कविता और जेंडर

पिछले कुछ दशकों में स्त्रीवादी दृष्टि को जो प्रमुखता मिली और स्त्री-विमर्श के बल पर स्त्री लेखन को जिस अलग नज़रिये से पढ़ने की पहल हुई, उससे यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि क्या स्त्री–कविता, स्त्रीवाद या स्त्रीवादी कविता का पर्याय है ? हमें इस अंतर को बहुत सावधानी से पहचानना चाहिए कि स्त्री लेखन केवल स्त्रीवाद के घेरे तक सीमित नहीं है। एक समाज में रहते हुए स्त्री-पुरुष, व्यक्ति-रूप में एक ही यथार्थ के साझीदार हैं।ऐसे में, स्त्री-कविता के अंतर्गत पढ़ी जाने वाली स्त्री रचनाकारों की कविताओं के मूल्यांकन का आधार मात्र स्त्रीवाद की कसौटियाँ नहीं हो सकती ।स्त्री-पक्ष के पार एक साधारण अनुभव की बात की जानी चाहिए । समकालीन कविता का मूल्यांकन, साहित्य की जिस अविरल धारा के रूप में होता है उसमें क्या कविता या साहित्य का ‘जेंडर न्यूट्रल’ रूप उभर सकता है ?

‘जेंडर न्यूट्रल’ होने का तर्कयह है कि जन-क्षेत्र में दाखिल होने के बाद लैंगिक अस्मिता विलुप्त हो जानी चाहिए। आप स्त्री हैं या पुरुष इस बात से कोई अंतर क्यों आना चाहिए। न किसी के विशेषाधिकार हों, न संरक्षणवादी नीतियाँ। दोनों को एक जैसा समतल मैदान मिले किंतु इसके कुछ ऋणात्मक पहलू हैं और रहेंगे, यह आशंका इस स्थिति को समस्या ग्रस्त करती है।

स्त्री-अस्मिता, कविता और जेंडरके आपसी संबंध उस साहित्यिक अधिरचना के संकेतक हैं, जहाँ स्त्री के स्त्री करण की सामाजिक प्रक्रिया को कमोबेश उसी रूप में स्वीकार कर लिया गया है।धर्म, दर्शन, इतिहास स्त्री के जिस सांस्कृतिक रूप की निर्मिति करते हैं,वह परिवार से लेकर आर्थिक-राजनीतिक क्षेत्रों तक स्त्री-पुरुष के बीच पदानुक्रम उपस्थित करती है ।साहित्य के क्षेत्र में भी यह बँटवारा अनुपस्थित और अदृश्य नहीं हैं। दूसरा सप्तक की कवयित्री शकुंत माथुर के साक्ष्य से हम जान पाते हैं कि उदार संरचनाएँ भी जेंडर की विषमताओं को झुठला नहीं पाती। शकुंत माथुर हिंदी के प्रसिद्ध कवि गिरिजाकुमार माथुर की पत्नी हैं। उन्होंने यह स्वीकार किया कि पति की छाया में वे अपने कवित्व के प्रति कभी आश्वस्त नहीं हो पायी। यह आकरण नहीं है कि कविता के इतिहास का स्त्री-स्वर इतना विरल है।अधिकांश स्त्री रचनाकार यह भी महसूस करती हैं कि हिंदी की मठवादी आलोचना ने स्त्री-स्वरों को उचित स्थान नहीं दिया । उनकी हशियाकृत स्थिति संभवतः इसी उपक्रम का परिणाम है।

एक और ज़रूरी सवाल यह भीहै कि क्या हमारा जेंडर हमारे अनुभव व अभिव्यक्ति को प्रभावित करता है? इसका पक्ष-विपक्ष बराबर ढंग से मज़बूत हो सकता है।इस बात पर बहुत बल दिया गया है कि जब एक स्त्री लिखती है तब उसका स्त्रीत्व उस अनुभव में शामिल रहता है। ‘जेंडर न्यूट्रल’ होने की प्रक्रिया स्त्रीत्व की इन परतों को खोकर किसी अंजाम तक नहीं पहुँच सकती क्योंकि उसमें स्त्री जीवन के इतिहास व संस्कृति के अनेक शब्दहीन सिलसिले जुड़े हुए हैं। स्त्री की दृष्टि और उसकी भाषा उसे यह अवसर देते हैंकिंतु यही उसका सीमित दायरा नहीं।ऐसा नहीं है कि पुरुष कवियों ने स्त्रियों पर मार्मिक रचनाएँ नहीं लिखी।‘आंचल में दूध और आँखों में पानी’ की स्त्री छवि मैथिलीशरण गुप्त द्वारा हिंदी साहित्य में अविस्मरणीय बना दी गई।इसी तरह समकालीन कविता में कितने ही नाम है--–उदयप्रकाश, लीलाधर मंडलोई, मंगलेश डबराल, पवनकारण, मदनकश्यप, जितेन्द्र श्रीवास्तव....जिन्होंने स्त्री जीवन की विडम्बनाओं को समान सहानुभूति से स्पर्श किया है ।इस फेहरिस्त में अभी और भी बहुत से नाम जोड़े जा सकते हैं किंतु दृष्टि बोध का बारीक़ अंतर फिर भी बना रहता है।वहाँ स्त्री की पीड़ा की टीस की समझ तो है लेकिन मुक्ति की वह छटपटाहट नहीं जिससे असमान सामाजिक व्यवहार वाली व्यवस्था के लैंडस्केप में परिवेर्तन किया जा सके।


इसके साथ-साथ, स्त्री रचनाकारों नेइस विशिष्टता की ओर भी संकेत किया है कि स्त्री-रचनाधर्मिता की अपनी विविधता है।उनका आग्रह, जीवन को खंड-खंड परखने का नहीं,वे उसे समग्रता से ही पहचानना और अपनाना चाहती हैं। स्त्री-कविता एक तरह से शब्दों के बीच की खाली जगह को भरने की कोशिश है।भविष्य की दिशा जेंडर विलोम की अपेक्षा जेंडर सहयोग की ओर संकेत कर रही है। स्त्री रचनाकार केवल स्त्रीवाद की ही बात नहीं करतीं, स्त्री अनुभवों की मार्फ़त दुनिया के तमाम वंचित समाजों से साझेदारी की कोशिश करती हैं। ऐसी ही भावना से प्रेरित होकर संभवतः पुरुष रचनाकार भी अपने भीतर स्त्री की तलाश कर रहे हैं। जेंडर और कविता के संबंधों में यह एक नई शुरुआत की पहल है।ये सभी दृष्टि बिंदु समान चिंता और चिंतन के पड़ाव हैं। देखना यह है कि उसमें स्त्री-कविता को कैसे लोकेट किया जा सकता है।

स्त्री-कविता और स्त्री-अस्मिता

कैद कई तरह की होती है....संबंधों
में स्त्री का मन घुटता है तो देह में आत्मा। स्त्री अस्मिता की पहचान इन बेड़ियों के पिघलने का अहसास है।  आज की कविता जिस मानव मुक्ति के अभियान को नयी ऊर्जा देने में तत्पर है स्त्री-चेतना उसका अभिन्न अंग है। मर्यादाओं के फ्रेम में जकड़ी स्त्री को समाज ने इतने अवसर भी नहीं दिए कि वह अपने भीतर की धड़कनें ठीक से सुन पाती।जब कभी उसने अपने मानवीय अस्तित्व को आवाज़ दी तब समाज में उस पर सब ओर से हमले होने लगे। इसी पीड़ा के एहसास ने उसके स्त्रीत्व और स्त्री रूप में उसकी अस्मिता को तीव्रतर किया है। ऐसे में स्त्री-अस्मिता की तलाश, ऐतिहासिक टकराहटों की पड़ताल बन जाती है।


स्त्री-कविता,  स्त्री अस्मिता केरास्ते में आने वाले अनेक संकटों और स्त्री जीवन की भीतरी और बाहरी टकराहटों को दर्ज करती है। उनकी लिखी कविताएँ उनके निजी अनुभवों के ताप से निखरी हैं। ये कविताएँ अपने आप से और अपने समाज से संवाद का ज़रिया हैं। समाज की चिंतनशील मनीषी इकाई के रूप में, उसकी संवेदनशीलता, सामाजिक ताने-बाने में जब उसे अपनी सही जगह तलाशने को प्रेरित करती हैतो उसका अस्मिता-बोध उसी में रूप ग्रहण करता है। इसके साथ-साथ परिवार, समाज, राजनीति, अर्थतंत्र, पर्यावरण---अनेक ऐसे मुद्दे हैं जिन पर स्त्री की निजी राय हो सकती है। उन सबसे वह स्वयं को कैसे जुड़ा हुआ महसूस करती है यह सब भी उसके अस्मिता-बोध में शामिल है। स्त्री की देह, मन, मस्तिष्क एक ही इकाई हैं, इससे उसकी पहचान सबको साथ मिलाकर बनती है, खंड-खंड नहीं। स्त्री-अस्मिता के नाम पर बहुत बार उसके किसी एक ही पक्ष को देखा गया है जिससे कुछ अलग तरह के साँचे निर्मित होने लगते हैं और स्त्री का व्यक्तित्व बंद दराज़ों में बँटा-बँटा-सा दिखाई पड़ने लगता है। स्त्री मुक्ति का सपना इन सभी दायरों से मुक्त होने का सपना है...अपने भरे-पूरे होने का एहसास...सब कुछ साथ लाकर, साथ पाकर जीने का एहसास। इसी परिकल्पना में स्त्री-अस्मिता का पूर्णत्व छिपा है।

स्त्री-अस्मिता के इस स्वर को स्त्री रचनाकारों ने अपने साहित्य में सशक्त अभिव्यक्ति दी है लेकिन उनका यह प्रयत्न भी अजब षड्यंत्र का शिकार हुआ। 'स्त्रीत्व'का नया फ्रेम उसके इर्द-गिर्द जड़ दिया गया। स्त्री-रचनाकारों के लिए कविता लिखने का अनुभव, अपने स्त्रीत्व की नियति बदल देने जैसा रहा है लेकिन इस प्रक्रिया में सिर्फ वे ही नहीं बदलती सामाजिक मर्यादाओं के मानक साँचे भी बदल जाते हैं। इस तरह से ये कविताएँ नई सामाजिक संरचना में, स्त्री-दखल की प्रमाण हैं। यह भीड़ के बीच से गुज़रते हुये अपने एकांत का साक्षात्कार है जहाँ अपने आप से सिर्फ सच ही कहा जाता है।स्त्री-कविता की चिंता के घेरे में, सिर्फ उसके स्त्रीत्व का संकट ही नहीं है। उसका सरोकार क्षत-विक्षत मानवीयता को बचाने से जुड़ा है। वह सहभागिता चाहती है, नियंत्रण नहीं। यही स्त्री-स्वरों का समवेत स्वर है।

स्त्री-चेतना के प्रति सजगता ने,हमें अपनी साहित्यक परंपरा को फिर से देखने के लिये प्रेरित किया। हालाँकि ऐसा दौर काफी देर से आया। हमने मीरा के काव्य और महादेवी के गद्य में, स्त्री चेतना के प्रखर स्वर को पहचाना। सोलहवीं शताब्दी में रचे मीरा के पद और उनका जीवन, तत्कालीन पारंपरिक समाज को चुनौती देते हुये लगे। उनके सामाजिक विद्रोह की उर्जस्विता को प्रतिष्ठित करते हुये समाजशास्त्रियों ने उनकी कविता के नए भाष्य किये। उसके बाद ही समाज की दूषित और लादी गयी परम्पराओं के विरुद्ध आवाज़ उठाने वाली स्त्री कवयित्रियों के साथ, स्त्री-कविता को अलग पहचान मिली।इस दृष्टि से इस अध्ययन में हिंदी की स्त्री-कविता के इतिहास को अलग स्थान दिया गया है।भारत में ईसा के ढाई-सौ वर्ष पूर्व जो संगम कविता लिखी गई,  उसमें स्त्री-कवियों की बड़ी संख्या है, उस कविता का संबंध, स्त्री के अंतर्जगत तथा बाह्य-जगत, दोनों से है। उसके बाद थेरी-गाथाएँ, भक्तिकाल में ललदेद, मीरा और अन्य संत कवयित्रियों तथा आधुनिक युग में मज़दूर, स्त्री-संघर्ष से जुड़ी आवाज़ों पर भी ध्यान देना होगा।


दरअसल, स्त्री-कविता स्त्री के जीवन के सारे घटना-क्रमों को अपने-अपने शिल्प के मुहावरों में कुछ इस तरह रच रही है कि उससे स्त्री-अस्मिता के विस्तृत परिदृश्य का ठीक-ठीक पता मिलता है|जब हम इन सातों कवयित्रियों की कविताओं को नज़दीक से जा कर पढ़ते और महसूसते हैं तो हमें उनकी अस्मिता की न जाने कितने ही रंग-रूप दिखाई देते हैं जिसमें वह समूचे संसार की स्त्रियों में शामिल हो कर अपने अस्तित्व को हर कोने को देखती हैं ।स्त्री-कविता के साथ, जो शब्द अभिन्न रूप से जुड़ा है, वह है--बहनापा। विश्व-भर की स्त्रियों ने अपनी मुक्ति के लिये एक दूसरे का हाथ पकड़ना स्वीकार किया है। इसमें केवल पश्चिमी देशों की स्त्रियाँ ही शामिल नहीं हैं बल्कि अपने पास-पड़ोस के देशों, चीन, कोरिया, जापान जैसे पूर्वी देश तथा अफ़्रीकी देशों की महिलाएँ, उनके सुख-दुःख सभी से एक साझेदारी का अनुभव शामिल है। इस दृष्टि से स्त्री-कविता की सामाजिक परिवर्तन में विश्व-स्तरीय भूमिका है। एक सुखद मानवीय समाज की परिकल्पना इसके माध्यम से नया स्वर ग्रहण कर रही है.
क्रमशः 

स्त्रीकाल का प्रिंट और ऑनलाइन प्रकाशन एक नॉन प्रॉफिट प्रक्रम है. यह 'द मार्जिनलाइज्ड'नामक सामाजिक संस्था (सोशायटी रजिस्ट्रेशन एक्ट 1860 के तहत रजिस्टर्ड) द्वारा संचालित है. 'द मार्जिनलाइज्ड'मूलतः समाज के हाशिये के लिए समर्पित शोध और ट्रेनिंग का कार्य करती है.
आपका आर्थिक सहयोग स्त्रीकाल (प्रिंट, ऑनलाइन और यू ट्यूब) के सुचारू रूप से संचालन में मददगार होगा.
लिंक  पर  जाकर सहयोग करें    :  डोनेशन/ सदस्यता 

'द मार्जिनलाइज्ड'के प्रकशन विभाग  द्वारा  प्रकाशित  किताबें  ऑनलाइन  खरीदें :  फ्लिपकार्ट पर भी सारी किताबें  उपलब्ध हैं. ई बुक : दलित स्त्रीवाद 
संपर्क: राजीव सुमन: 9650164016,themarginalisedpublication@gmail.com

Viewing all articles
Browse latest Browse all 1054

Trending Articles



<script src="https://jsc.adskeeper.com/r/s/rssing.com.1596347.js" async> </script>