हनीफ मदार
समकालीन हिन्दी कहानी को बिना किसी चीख चिल्लाहट के गढ़ा जाना एक नये परिवर्तन की ओर इशारा कहा जा सकता है। क्यों कि ये बदलाव इस मायने में ज्यादा सार्थक और असरदार माना जा सकता है कि, रचनाकार अपनी संस्कृति, परिवेश और वातावरण को पहचान कर उससे संघर्ष करते हुए अपना सामंजस्य बिठा आगे बढ़ रहा है। तब यह सृजनशीलता अपनी सामाजिक जिम्मेदारियों के साथ उत्पन्न परिस्थितियों के मूल कारणों को पुर्नः मूल्यांकन और खोजबीन में समाहित और संल्गन है। इधर समकालीन कहानी ने अपने वर्ग-बोध और वर्ग दायित्व को खोजकर अपनी सामाजिक परम्पराओं के विश्लेषण की वैज्ञानिक दृष्टि के अगले उत्थान को सूचित किया है नासिरा शर्मा के कहानी संग्रह ‘खुदा की वापसी’ की कहानियां कुछ इसी परम्परा की हैं।
नासिरा शर्मा के संग्रह ‘खुदा की वापसी’ में संग्रहित कहानियों मेंस्त्रीवर्ग के शोषित युवा मन की कराहटें हैं, जो शिक्षित अशिक्षित स्त्री ही है। जिसका मन संभावनाओं से भरा है। उमंगें हैं। वह जिन्दगी को जिन्दगी की तरह जीना चाहती है। खुले आकाश में पंख लगा कर उड़ना चाहती है। परन्तु पुरानी पीढ़ी की टकराहट और अनेक समस्यायें, उसके संस्कार, धर्म, समाज उसे बार-बार मथ देते हैं। उसकी परेशानी निरंतर बढ़ती जाती है। उसके सारे खूबसूरत सपने रेत की चट्टान की तरह बिखर जाते हैं। तब कितने ही अनसुलझे वैचारिक सवाल उथल-पुथल मचाने लगते हैं। वे पुरुष निर्मित सामाजिक ढांचे के बीच, निहत्थी खड़ी स्त्री की चेतना और उसके वर्चस्व पर लटकती स्वार्थ पूर्ण धार्मिक परिभाषाओं की पैनी तलवार के रूप में नजर आते हैं। संग्रह की संग्रहित कहानियां स्त्री के जन्म से मृत्यु तक, लड़की होने के अभिशाप के रूप में, पग-पग पर शरियत के नाम पर बताई जाने वाली पाबंदियों के बीच, स्त्रियों को कुंठित जीवन जीने को विवश करने की सामाजिक मंशा को भी उद्घाटित करने से नहीं चूकती हैं। लेखिका के अन्तःकरण में पनपी स्त्री वेदना के ये सवाल धार्मिक कठमुल्लओं, पुरुष समाज को तो कटघरे में लाते ही हैं, साथ ही, आदिम जाति में स्त्रियों के उस बड़े वर्ग समूह को भी घेरे में लेती हैं जो अशिक्षित या शिक्षित होने के वावजूद भी धार्मिक अज्ञानताओं के कारण, धार्मिक कानूनी बेडि़यों में जकड़ी स्त्री विरोधी मानसिकता के साथ जी तो रही ही है साथ ही ‘‘स्त्रियों की यही नीयति है’’ को मनवाने पर भी अड़ी है।
हालांकि तसलीमा नसरीन, मैत्रेयी पुष्पा, स्मत चुगतई आदि की लेखनी से निकली कहानियां या उपन्यास स्त्री पीड़ा की मर्मान्तक त्रासदी से भरे दिखाई देते हैं। मगर जहां इन लेखिकाओं का साहित्यक सृजन धार्मिक आडम्बरों के खिलाफ उग्र तेवरों के साथ नजर आता है वहीं नासिरा शर्मा की कहानियों के स्त्री पात्र धार्मिक कट्टरवाद की संकीर्णता और औघड़पन के विरोध में सहज संघर्ष कर एक स्वतंत्र जीवन जीने का रास्ता चुन रहे हैं। लेखिका की कहानियां केवल धार्मिक ही नहीं सामाजिक, आर्थिक विद्रूपताओं की गहरी चोटों से टूटे स्त्री मन के कारणों को भी खोजती हैं। आखिर क्या कारण हैं कि पति की मृत्यु के बाद पत्नी के आर्थिक अधिकारों को छीन कर उसे मायके भेजने का फैसला किया जाता है ? वे कौन से कारण हैं कि पारिवारिक कलह में स्त्री जब किसी से भी नहीं जीतती और बच्चों की भूख के उपरान्त उन्हें पीटती है तो बैठकर देर तक रोती है ? वह मानसिक रूप से शून्यता में चली जाती है। स्त्री वर्ग के इन तमाम मनोवैज्ञानिक तथ्यों को गहराई में जाकर समझने की आवश्यकता है। क्योंकि इन समस्याओं के मूल में भी नारी पराधीनता का इतिहास मौजूद है। नासिरा शर्मा की कहानियां इन विषयों पर भी चुप नहीं हैं।
नासिरा शर्मा की कहानियों में स्त्री पुरुष संबधों की प्रमुखता है।यह संबध पति-पत्नी के अधिक हैं। यहां संबधों के बीच मर्द समाज के तथाकथित धार्मिक कानूनों की विसंगतियों से पैदा अनुगूंज है। और उनके मध्य छटपटाती नारी यंत्रणा की भयानक त्रासदियां जो स्त्री को जड़ कर रही हैं, उनमें एक आक्रोश भर रही हैं। उनकी कहानियां महज एक कथा ही नहीं अपितु तर्क पूर्ण विस्तृत ब्यौरा प्रस्तुत करती हैं। संग्रह की कहानी ‘खुदा की वापसी’, ‘दिलआरा’, ‘पुराना कानून’ इन विसंगतियों को शिद्दत से प्रस्तुत कर उनके खिलाफ तर्क सम्मत आवाज बुलंद करती हैं। इन आवाजों में कहीं भी लेखिका का स्वर सुनाई नहीं देता बल्कि प्रेमचंद के पात्रों की तरह नासिरा शर्मा की कहानियों के पात्रों के ही सम्वेत स्वर सुनाई पड़ते हैं। इस्लामिक कानूनों के तहत शादी में तय होने वाली महर या मर्दों को चार शादियों की इजाजत एवं तीन बार तलाक-तलाक-तलाक के परिणाम स्वरूप टूटते विघटित होते पारिवार एवं दाम्पत्य जीवन की भावनात्मकता भी धर्म से भोथरी होती जाती है। भले ही तलाक के कारण में महज महर की रकम को धार्मिक कानून की दुहाई देकर मर्द द्वारा स्त्री से माफ करवाना रहा हो या अन्य कोई वजह मगर एक बार तलाक हो जाने के बाद, स्त्री और पुरुष दोनों की भावनात्मक एकता में धर्म ही सबसे बड़ी बाधा बन सामने खड़ा होता है। मर्दों को मिला चार शादियों का हक भोगवादी संस्कृति के लिए भले ही माफिक हो लेकिन सामान्य जन की बर्बादी और पारिवारिक विघटन का यह मुख्य कारण भी है। क्योंकि तलाक हो जाने पर आपसी प्रेम समाप्त हो जाय ये जरूरी नहीं। कानूनी बंधन टूटने से दिल का बंधन तो नहीं टूट जाता। निम्न और मध्य वर्ग में यह समस्याऐं बेहद विकराल रूप में सामने आती हैं। जब ऐसी स्थिति में लड़की का अपना कोई मत नहीं होता। सब कुछ ‘‘अल्लाह की मर्जी से हो रहा है’’ कह कर पल्ला झाड़ा जाता है। यही समसामायिक वैज्ञानिक दृष्टिहीनता एवं अज्ञानता आध्यात्म से लगाव पैदा करती है। तब यही आध्यात्मिक लगाव जीवन को और पलायन की ओर ले जाता है। जहां लड़की निर्विकल्प हो कष्टमय जीवन जीने को विवश होती है। किन्तु खुशफहमी है कि नासिरा शर्मा की कहानियों की वह युवा लड़की पात्राऐं चाहे वे निम्न वर्ग की हों मध्यम या उच्च वर्ग की इन कारणों और समस्याओं के खिलाफ लड़ती और समाज में स्त्रियों की आदर्श बन दिशा देती नजर आती है।
जब लड़कियों को जिंदा दफनाया जाता था तब से, आज उत्तर आधुनिक एवं वैज्ञानिक तकनीकि के समय में हालात और बदतर हो गये, जब लड़की को पैदा होने से पहले ही उसकी हत्या होने लगी। मजेदार तथ्य यह है कि इन हत्याओं में भी औरत की रजामंदी होती है। अगर लड़की पैदा हो भी गयी तो लड़की जनित औरत की कोख को औरत द्वारा ही कलंकित करना। खुद ही पीडि़त स्त्री के खिलाफ पुरुष को दूसरी शादी करने को प्रेरित करती है। पुरुष के द्वारा पहली पत्नी के होते दूसरी शादी के लिए मना करने पर औरत ही उसे उस शरियत कानून को बताती है कि, मर्दों को चार शादी करने का अधिकार है। और स्वंय औरत ही अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने का काम करती है। संग्रह की कहानी ‘चार बहनें शीशमहल की’ समाज में गहरी पैठ बना चुकी इसी सामाजिक बुराई का पूरा सटीक और मार्मिक चित्रण करती है। लेखिका की कलम यहां पूरे पुरुष वर्ग को स्त्री विरोधी एक ही तराजू में नहीं तोलती बल्कि उस वर्ग के साथ सामंजस्य बिठा कर आगे बड़ती है। और एक पुरुष के द्वारा ही चार शादियों के अधिकार वाले कठमुल्लावादी कानून के खिलाफ तर्क प्रस्तुत करती है जब ‘चार बहनें शीशमहल की’ कहानी का शरीफ ‘मां के द्वारा दूसरी शादी के लिए जोर-दबाव डालने पर परेशान होकर पीढि़त पत्नी के दुःख में उसे हौसला देते हुए कहता है- ‘‘मैं फिरोज शाही मस्जिद के मौलवी साहब से मिला था। उन्होंने मुझे सही जानकारी दी है कि, बिना किसी माकूल वजह के दूसरी शादी की इजाजत नहीं है। फिर बिना वीवी की रजामंदी लिए शौहर को दूसरे निकाह का हक भी नहीं है।’’ (पृष्ठ-52)
संग्रह की शीर्षक कहानी ‘खुदा की वापसी’ सोचने पर मजबूर करती हैकहानी में फरजाना के द्वारा कही गयी यह बात बेहद तर्क संगत है जो उसने अपने पति जुबैर से तब कही है जब उसे शरियत कानूनों की तमाम किताबों के अध्ययन के बाद पता चलता है क जुबैर ने धर्म कानून का सहारा लेकर उससे महर माफ कराकर उसके साथ धोखा किया है- ’’यदि तुम्हें रस्में तोड़नी थीं तो बगावत करनी थी। एक नई जिंदगी की बुनियाद डालते, जिसके नियम नये होते। धर्म के बनाए कानून को नकारना था तो, नास्तिक बन क्रांति करते, मगर वे खतरे तुम मोल नहीं ले सकते थे। नियम और कानून से बंधी जिंदगी को कबूल करके उसमें से उन नियमों को छांटना जो तुम्हारे लाभ में जाते हैं और उनको रद्द कर देना जो दूसरों के फायदे में जाते हैं क्या यह गुनाह नहीं है ?’’ (पृष्ठ-31) ऐसे अनेक तर्क लेखिका ने बड़ी रोचकता से कहानी में पिरोये हैं।
नासिरा शर्मा की कहानी ‘दहलीज’ किस्सागो शैली मेंस्त्री जीवन की तमाम मानवीय त्रासद पूर्ण घटनाओं से उठने वाली स्त्री मन की वेदना को अपने में समेटे है। कहानी ‘दहलीज’ धीरे से औरतों को यह याद दिलाना भी नहीं भूलती कि खुद पैगम्बर ने स्त्रियों को तालीम की हिदायत दी थी।‘दिलआरा’ कहानी इस संग्रह की सबसे रोचक कहानी है। रोचक इस लिए कि यह संग्रह की सबसे तार्किक कहानी है। कहानी में वर्तमान कठमुल्लेपन के साथ स्त्री संघर्ष और उसकी बुलंद आवाजों की सीधी मुठभेड़ है। कहानी के उत्तर्राध मंे टूटकर बिखरती कठमुल्लावादी सोच और उन्हीं के बनाए तथाकथित कानूनों के धाराशाई होते महलों से उठते बवंडर हैं। कहानी में लेखिका द्वारा धार्मिक कानूनों की वे दलीलें जो स्त्री हक की वकालात करती हैं पेश की हैं। ‘दिलआरा’ के सोसियोलाॅजी के प्रोफेसर वर्मा जब मुस्लिम औरतों पर एक लेख लिखने में मदद या शरियत कानून की सही जानकारी लेने, साजदा बेगम से मिलने आते हैं जो विधवा होकर लड़कियों का मदरसा चलाती है। प्रोफेसर वर्मा लड़की को अपनी मर्जी से शादी करने की आजादी को इस्लामी सबूतों में जानना चाहते हैं तब साजदा बेगम बताती हैं- ‘‘जैसी कि रवायत है कि हजरत खदीजा ने खुद अपनी पसंद का इजहार करते हुए पैगम्बर से शादी की बात कही थी। इससे बड़कर और कौन सा सबूत होगा। इसलिए औरत को पूरा हक है कि वह अपने साथ की जा रही ज्यादती के खिलाफ आवाज उठाए। वह निकाह के वक्त बाकायदा शादी से इनकार कर सकती हैं अगर शौहर उसको पसंद नहीं है या फिर शादी जोर-जबरदस्ती या लालच, से हो रही है। (पृष्ठ-85) प्रोफेसर वर्मा के कहने पर साजदा बेगम एक ऐसा हादसा बयान करती हैं जो उक्त रवायत को और अधिक मजबूत बनाता है। ‘‘रवायत है कि पैगम्बर साहब की एक बीवी असमा थीं। निकाह के बाद हुजूर अकरम उनके पास जाते इससे पहले असमा ने तलाक की ख्वाहिश जाहिर की और उनकी मर्जी का लिहाज कर हजूर ने उन्हें तलाक की आजादी देदी। (पृष्ठ-85)
कहानी तमाम धर्म कानूनों और स्त्री अधिकारों की अनसुलझी गुत्थियों को अपने तर्कों से सुलझाती अंत तक पहुंचती है जहां साजदा बेगम का यह कथन- ‘‘बात औरत को बाहर निकलने या मरद के मुकाबिल खड़ा करने भर की नहीं है बल्कि उसे एक इंसान समझकर उसकी पूरी शख्सियत की है। उसको वो सारे हक मिलने चाहिए जिससे वो अपने दिमागी और जज्बाती जरूरतों को पूरा कर सके और एक सेहतमंद नजरिए के साथ वह इस दुनिया के हर फैसले में शामिल हो सके। मगर आप लोग तो वह हक भी नहीं देना चाहते हैं जो उसे चैदह सौ साल पहले मिल चुके हैं। मगर उसके लिए बस रूहानी तौर पर तहखाने-दर-तहखाने तैयार किये जाते हैं।’’ (पृष्ठ-93) साजदा बेगम के कथन की यही टीस इस संपूर्ण संग्रह की टीस है जो नासिरा शर्मा की कलम से निकली है। कहानी को पढ़कर लगता है संग्रह का शीर्षक ‘दिलआरा’ होना चाहिए था मगर ‘खुदा की वापसी शीर्षक’ लेखिका का निजत्व है।
वर्तमान बाजारवाद और ग्लैमर के पीछे की भोगवादी संस्कृति में डूबी युवा पीढ़ी के लिए धार्मिक कानून में तीन बार तलाक एक कारगार हथियार ही है। इस धार्मिक कानून की धार तब और ज्यादा तेज हो जाती है जब सामाजिक व्यवस्था इन शरियत कानूनों की सच्चाई से बिल्कुल अनजान है। वह केवल इतना भर ही जान पाई है कि तीन बार तलाक-तलाक-तलाक कहने से वैवाहिक संबन्ध विच्छेद हो जाएगा। और वह दूसरी शादी करने के लिए आजाद हो जाएगा। पुरुष वर्ग में स्त्री को भोग्या समझने की शैतानी साजिश भी अधिकांशतः इसी कानून के मूल से पनपती है। इंसान अपनी आर्थिक हैसियत, वीवी की रजामंदी को दरकिनार कर अपनी योनिच्छाओं की पूर्ति के लिए वीवी को तलाक दे दूसरी शादी कर लेता है। क्योंकि उसे ऐसा करने का सामाजिक अधिकार खुद इस्लामी कानून ने दे रखा है। कहना न होगा ऐसे धार्मिक कानूनों के प्रति सामाजिक अज्ञानता समाज में इंसानी संवेदनात्मक चेतना एवं उससे भावनात्मक पतन का मूल कारण बनने लगी है। ‘पुराना कानून’ ‘दूसरा कबूतर’ कहानियां इन तथ्यों पर गम्भीर मंथन करती हैं। ‘पुराना कानून’ का शमीम रुबीना के लिए जब अपनी वीवी अफसाना को चिट्ठी में तीन बार तलाक लिख कर तलाक दे देता है, तब अफसाना की अम्मा का यह कहना- ‘‘ सुनी सुनाई कहती हूं बीवी कि, तीन बार तलाक-तलाक-तलाक कहने से तलाक नहीं होता, मगर हमारे मौहल्ले के मौलवी साहब कह रहे थे कि, तलाक हो गया है, असलियत क्या है कुछ समझ में नहीं आता। ’’ (पृष्ठ-106) समाज की धार्मिक कानूनी अज्ञानता और इनके समक्ष इंसानी लाचारी स्पष्ट रूप में देखने को मिलती है। सीरिया और मिश्र से लड़ाई के चलते बहुत सी कैदी औरतें मदीना आयी थीं। उन्हें देखकर मर्दों ने उनसे शादी करनी चाही और अपनी बीवियों को धड़ाधड़ तीन बार तलाक-तलाक-तलाक कह कर उनसे आजादी हासिल कर ली। (पृष्ठ-107) लेखिका द्वारा खासतौर पर ‘पुराना कानून’ कहानी में प्रयुक्त यह प्रसंग इस कानून के पीछे पुरुषों की भोगवादी मानसिकता को पूर्ण परिलक्षित करता है। कहानी के अंत में, समाज के सामाजिक सरोकारों एवं व्यावहारिक दबाव में इस धार्मिक कानून एवं शमीम का टूटना और अफसाना को उसकी जिंदगी का वापस मिलना लेखिका की वैज्ञानिक दृष्टि एवं इंसानी रिश्तों के बीच की भावनात्मकता को तमाम धार्मिक कानूनों से ऊपर रखने की मंशा रही है। जो कहानी की विशेषता भी है। ‘दूसरा कबूतर’ के बरकत द्वारा नाम बदलकर धोखे से एक साथ दो निकाह करने एवं उसका भेद खुलने पर अपनी दोनों वीवियों सादियां एवं रुकइया से यह कहना- ‘‘यह कुछ अनहोनी नहीं हैं यही हमारा समाज है, रिवाज है और जरूरत है।’’ वहीं उसी के द्वारा औरतों को तंग नजर कहकर यह कहना- ‘‘औरत एक मर्द से मुतमईन हो सकती है मगर, मर्द नहीं।’’ यह भोगवाद की खुली चुनौती है, सादिया का बरकत से यह कहना- ‘‘मर्द के इस कारनामेे पर कोई भी खुदगर्ज औरत मर्द को तीन बार तलाक-तलाक-तलाक कहकर उससे अलग हो सकती है।’’ इसके जबाव में बरकत कहता है- ‘‘यह न शरियत है न इंडियन पैनल काॅर्ट न ही किसी मुल्क में रायज कानून यह सब फितूर है लिवरैटेड औरतों के एवनार्मल बर्ताव का’’ (पृष्ठ-130) कहानी धार्मिक कानूनों पर हावी पुरुष सत्तावाद की स्वार्थ पूर्ण दास्तान बयान करती है। हालांकि कहानी का अंत सादिया और रुकइया द्वारा बरकत को इसी शरियत कानून से मिले अधिकार के प्रयोग से तलाक देकर होता है। परंतु इस स्थिति में भी यह कानून इंसानी रिश्तों के बीच एक कांटा तो है।
कहानी ‘मेरा घर कहां’ की सोना आधुनिक समाज मेंउन खदबदाते मानकांे से निरंतर लड़ती है, जो इस व्यवस्था में स्त्रियों के लिए ही खास कर गढ़े गये हैं। जिन्हें परोसने वाला भी पुरुष है और मापने वाला भी। जिन्हें पुरानी पीढ़ी ने पूरी तरह आत्मसात कर रखा है। इन कायदे कानूनों को समाज में सीधे स्त्री के चरित्र से जोड़ा गया है। कहानी शिद्दत से समाज के उस पहलू से जद्दो जहद करती है जो समाज सोना जैसी स्वाभिमानी लड़कियों का चरित्रहंता होकर भी उसके चरित्रहीन होने का फैसला सुनाता है। वह अपनी योन पिपाशा के लिए कथित प्रेम कर सकता है, बलात्कार कर सकता है मगर उससे शादी कर पत्नी का दर्जा दे एक सम्मान से भरा जीवन नहीं दे सकता। नासिरा शर्मा की इस कहानी का सुखद पहलू है जो महज अट्ठारह वर्षीय अशिक्षित सोना को समाज की कूपमंडूप व्यवस्था से केवल लड़ने की हिम्मत ही नहीं देती बल्कि अनेक कठिनाइयों के बाद भी स्वाबलम्बी होकर जीना सिखाती है। संग्रह की अंतिम कहानी ‘नयी हुकूमत’ की हाजरा का अपने पति अलताफ को उसकी बिना रजामंदी के दूसरा निकाह कर लाने पर खुद तीन बार तलाक-तलाक-तलाक कहकर तलाक देना नारी जाति का वह रूप प्रस्तुत करता है, जहां वह इस दुनिया को यह बता पाती है कि शरियत ने यह अधिकार सिर्फ मर्दों को ही नहीं दिया बल्कि इसका इस्तेमाल स्त्री भी कर सकती है और लड़ सकती है अपने हकों के लिए।
संग्रह की सभी कहानियां पढ़ते समय कहानियों में प्रयुक्त कथानुकूलित परिवेश, सम-विषम परिस्थितियों एवं पात्रों का सजीव हो जाना लेखिका की उत्कृष्ट कला-कौशलता का नतीजा है। मनोवैज्ञानिक विश्लेषणों एवं तार्किक होने के बावजूद भी कहानी बोझिल नहीं होतीं। अपितु एक जिज्ञासा जगातीं हैं। पात्रों के चयन उनकी भाषा, जीवनयापन पर लेखिका की पैनी नजर रही है इसीलिए शिक्षित-अशिक्षित स्त्री की सामाजिक, मानसिक, शारीरिक और आर्थिक पीढ़ाओं, कुंठाओं को अपने शब्दों में उकेरने में लेखिका पूर्ण सफल दिखी है। सभी कहानियां एक बेहतर उद्देश्य के साथ पूरी होती हैं। जैसे वे सामाजिक, धार्मिक पाबंदियों के मकड़जाल से बाहर आने को वर्तमान नारी को आवाज दे रही हैं। हालांकि कहा जा सकता है कि कहानियां बहुत ज्यादा नया नहीं कहतीं मगर नासिरा शर्मा की कलम की बुनाई और उनकी कहानी तकनीकि इन्हें नयापन प्रदान करती है।
समीक्षक हनीफ मदार कहानियां लिखते हैं . सामाजिक -सांस्कृतिक गतिविधियों में सक्रिय, ऑनलाइन मैगजीन हमरंग के संपादक. संपर्क: 08439244335, ईमेल- hanifmadar@gmail.com
समकालीन हिन्दी कहानी को बिना किसी चीख चिल्लाहट के गढ़ा जाना एक नये परिवर्तन की ओर इशारा कहा जा सकता है। क्यों कि ये बदलाव इस मायने में ज्यादा सार्थक और असरदार माना जा सकता है कि, रचनाकार अपनी संस्कृति, परिवेश और वातावरण को पहचान कर उससे संघर्ष करते हुए अपना सामंजस्य बिठा आगे बढ़ रहा है। तब यह सृजनशीलता अपनी सामाजिक जिम्मेदारियों के साथ उत्पन्न परिस्थितियों के मूल कारणों को पुर्नः मूल्यांकन और खोजबीन में समाहित और संल्गन है। इधर समकालीन कहानी ने अपने वर्ग-बोध और वर्ग दायित्व को खोजकर अपनी सामाजिक परम्पराओं के विश्लेषण की वैज्ञानिक दृष्टि के अगले उत्थान को सूचित किया है नासिरा शर्मा के कहानी संग्रह ‘खुदा की वापसी’ की कहानियां कुछ इसी परम्परा की हैं।
नासिरा शर्मा के संग्रह ‘खुदा की वापसी’ में संग्रहित कहानियों मेंस्त्रीवर्ग के शोषित युवा मन की कराहटें हैं, जो शिक्षित अशिक्षित स्त्री ही है। जिसका मन संभावनाओं से भरा है। उमंगें हैं। वह जिन्दगी को जिन्दगी की तरह जीना चाहती है। खुले आकाश में पंख लगा कर उड़ना चाहती है। परन्तु पुरानी पीढ़ी की टकराहट और अनेक समस्यायें, उसके संस्कार, धर्म, समाज उसे बार-बार मथ देते हैं। उसकी परेशानी निरंतर बढ़ती जाती है। उसके सारे खूबसूरत सपने रेत की चट्टान की तरह बिखर जाते हैं। तब कितने ही अनसुलझे वैचारिक सवाल उथल-पुथल मचाने लगते हैं। वे पुरुष निर्मित सामाजिक ढांचे के बीच, निहत्थी खड़ी स्त्री की चेतना और उसके वर्चस्व पर लटकती स्वार्थ पूर्ण धार्मिक परिभाषाओं की पैनी तलवार के रूप में नजर आते हैं। संग्रह की संग्रहित कहानियां स्त्री के जन्म से मृत्यु तक, लड़की होने के अभिशाप के रूप में, पग-पग पर शरियत के नाम पर बताई जाने वाली पाबंदियों के बीच, स्त्रियों को कुंठित जीवन जीने को विवश करने की सामाजिक मंशा को भी उद्घाटित करने से नहीं चूकती हैं। लेखिका के अन्तःकरण में पनपी स्त्री वेदना के ये सवाल धार्मिक कठमुल्लओं, पुरुष समाज को तो कटघरे में लाते ही हैं, साथ ही, आदिम जाति में स्त्रियों के उस बड़े वर्ग समूह को भी घेरे में लेती हैं जो अशिक्षित या शिक्षित होने के वावजूद भी धार्मिक अज्ञानताओं के कारण, धार्मिक कानूनी बेडि़यों में जकड़ी स्त्री विरोधी मानसिकता के साथ जी तो रही ही है साथ ही ‘‘स्त्रियों की यही नीयति है’’ को मनवाने पर भी अड़ी है।
हालांकि तसलीमा नसरीन, मैत्रेयी पुष्पा, स्मत चुगतई आदि की लेखनी से निकली कहानियां या उपन्यास स्त्री पीड़ा की मर्मान्तक त्रासदी से भरे दिखाई देते हैं। मगर जहां इन लेखिकाओं का साहित्यक सृजन धार्मिक आडम्बरों के खिलाफ उग्र तेवरों के साथ नजर आता है वहीं नासिरा शर्मा की कहानियों के स्त्री पात्र धार्मिक कट्टरवाद की संकीर्णता और औघड़पन के विरोध में सहज संघर्ष कर एक स्वतंत्र जीवन जीने का रास्ता चुन रहे हैं। लेखिका की कहानियां केवल धार्मिक ही नहीं सामाजिक, आर्थिक विद्रूपताओं की गहरी चोटों से टूटे स्त्री मन के कारणों को भी खोजती हैं। आखिर क्या कारण हैं कि पति की मृत्यु के बाद पत्नी के आर्थिक अधिकारों को छीन कर उसे मायके भेजने का फैसला किया जाता है ? वे कौन से कारण हैं कि पारिवारिक कलह में स्त्री जब किसी से भी नहीं जीतती और बच्चों की भूख के उपरान्त उन्हें पीटती है तो बैठकर देर तक रोती है ? वह मानसिक रूप से शून्यता में चली जाती है। स्त्री वर्ग के इन तमाम मनोवैज्ञानिक तथ्यों को गहराई में जाकर समझने की आवश्यकता है। क्योंकि इन समस्याओं के मूल में भी नारी पराधीनता का इतिहास मौजूद है। नासिरा शर्मा की कहानियां इन विषयों पर भी चुप नहीं हैं।
नासिरा शर्मा की कहानियों में स्त्री पुरुष संबधों की प्रमुखता है।यह संबध पति-पत्नी के अधिक हैं। यहां संबधों के बीच मर्द समाज के तथाकथित धार्मिक कानूनों की विसंगतियों से पैदा अनुगूंज है। और उनके मध्य छटपटाती नारी यंत्रणा की भयानक त्रासदियां जो स्त्री को जड़ कर रही हैं, उनमें एक आक्रोश भर रही हैं। उनकी कहानियां महज एक कथा ही नहीं अपितु तर्क पूर्ण विस्तृत ब्यौरा प्रस्तुत करती हैं। संग्रह की कहानी ‘खुदा की वापसी’, ‘दिलआरा’, ‘पुराना कानून’ इन विसंगतियों को शिद्दत से प्रस्तुत कर उनके खिलाफ तर्क सम्मत आवाज बुलंद करती हैं। इन आवाजों में कहीं भी लेखिका का स्वर सुनाई नहीं देता बल्कि प्रेमचंद के पात्रों की तरह नासिरा शर्मा की कहानियों के पात्रों के ही सम्वेत स्वर सुनाई पड़ते हैं। इस्लामिक कानूनों के तहत शादी में तय होने वाली महर या मर्दों को चार शादियों की इजाजत एवं तीन बार तलाक-तलाक-तलाक के परिणाम स्वरूप टूटते विघटित होते पारिवार एवं दाम्पत्य जीवन की भावनात्मकता भी धर्म से भोथरी होती जाती है। भले ही तलाक के कारण में महज महर की रकम को धार्मिक कानून की दुहाई देकर मर्द द्वारा स्त्री से माफ करवाना रहा हो या अन्य कोई वजह मगर एक बार तलाक हो जाने के बाद, स्त्री और पुरुष दोनों की भावनात्मक एकता में धर्म ही सबसे बड़ी बाधा बन सामने खड़ा होता है। मर्दों को मिला चार शादियों का हक भोगवादी संस्कृति के लिए भले ही माफिक हो लेकिन सामान्य जन की बर्बादी और पारिवारिक विघटन का यह मुख्य कारण भी है। क्योंकि तलाक हो जाने पर आपसी प्रेम समाप्त हो जाय ये जरूरी नहीं। कानूनी बंधन टूटने से दिल का बंधन तो नहीं टूट जाता। निम्न और मध्य वर्ग में यह समस्याऐं बेहद विकराल रूप में सामने आती हैं। जब ऐसी स्थिति में लड़की का अपना कोई मत नहीं होता। सब कुछ ‘‘अल्लाह की मर्जी से हो रहा है’’ कह कर पल्ला झाड़ा जाता है। यही समसामायिक वैज्ञानिक दृष्टिहीनता एवं अज्ञानता आध्यात्म से लगाव पैदा करती है। तब यही आध्यात्मिक लगाव जीवन को और पलायन की ओर ले जाता है। जहां लड़की निर्विकल्प हो कष्टमय जीवन जीने को विवश होती है। किन्तु खुशफहमी है कि नासिरा शर्मा की कहानियों की वह युवा लड़की पात्राऐं चाहे वे निम्न वर्ग की हों मध्यम या उच्च वर्ग की इन कारणों और समस्याओं के खिलाफ लड़ती और समाज में स्त्रियों की आदर्श बन दिशा देती नजर आती है।
जब लड़कियों को जिंदा दफनाया जाता था तब से, आज उत्तर आधुनिक एवं वैज्ञानिक तकनीकि के समय में हालात और बदतर हो गये, जब लड़की को पैदा होने से पहले ही उसकी हत्या होने लगी। मजेदार तथ्य यह है कि इन हत्याओं में भी औरत की रजामंदी होती है। अगर लड़की पैदा हो भी गयी तो लड़की जनित औरत की कोख को औरत द्वारा ही कलंकित करना। खुद ही पीडि़त स्त्री के खिलाफ पुरुष को दूसरी शादी करने को प्रेरित करती है। पुरुष के द्वारा पहली पत्नी के होते दूसरी शादी के लिए मना करने पर औरत ही उसे उस शरियत कानून को बताती है कि, मर्दों को चार शादी करने का अधिकार है। और स्वंय औरत ही अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने का काम करती है। संग्रह की कहानी ‘चार बहनें शीशमहल की’ समाज में गहरी पैठ बना चुकी इसी सामाजिक बुराई का पूरा सटीक और मार्मिक चित्रण करती है। लेखिका की कलम यहां पूरे पुरुष वर्ग को स्त्री विरोधी एक ही तराजू में नहीं तोलती बल्कि उस वर्ग के साथ सामंजस्य बिठा कर आगे बड़ती है। और एक पुरुष के द्वारा ही चार शादियों के अधिकार वाले कठमुल्लावादी कानून के खिलाफ तर्क प्रस्तुत करती है जब ‘चार बहनें शीशमहल की’ कहानी का शरीफ ‘मां के द्वारा दूसरी शादी के लिए जोर-दबाव डालने पर परेशान होकर पीढि़त पत्नी के दुःख में उसे हौसला देते हुए कहता है- ‘‘मैं फिरोज शाही मस्जिद के मौलवी साहब से मिला था। उन्होंने मुझे सही जानकारी दी है कि, बिना किसी माकूल वजह के दूसरी शादी की इजाजत नहीं है। फिर बिना वीवी की रजामंदी लिए शौहर को दूसरे निकाह का हक भी नहीं है।’’ (पृष्ठ-52)
संग्रह की शीर्षक कहानी ‘खुदा की वापसी’ सोचने पर मजबूर करती हैकहानी में फरजाना के द्वारा कही गयी यह बात बेहद तर्क संगत है जो उसने अपने पति जुबैर से तब कही है जब उसे शरियत कानूनों की तमाम किताबों के अध्ययन के बाद पता चलता है क जुबैर ने धर्म कानून का सहारा लेकर उससे महर माफ कराकर उसके साथ धोखा किया है- ’’यदि तुम्हें रस्में तोड़नी थीं तो बगावत करनी थी। एक नई जिंदगी की बुनियाद डालते, जिसके नियम नये होते। धर्म के बनाए कानून को नकारना था तो, नास्तिक बन क्रांति करते, मगर वे खतरे तुम मोल नहीं ले सकते थे। नियम और कानून से बंधी जिंदगी को कबूल करके उसमें से उन नियमों को छांटना जो तुम्हारे लाभ में जाते हैं और उनको रद्द कर देना जो दूसरों के फायदे में जाते हैं क्या यह गुनाह नहीं है ?’’ (पृष्ठ-31) ऐसे अनेक तर्क लेखिका ने बड़ी रोचकता से कहानी में पिरोये हैं।
नासिरा शर्मा की कहानी ‘दहलीज’ किस्सागो शैली मेंस्त्री जीवन की तमाम मानवीय त्रासद पूर्ण घटनाओं से उठने वाली स्त्री मन की वेदना को अपने में समेटे है। कहानी ‘दहलीज’ धीरे से औरतों को यह याद दिलाना भी नहीं भूलती कि खुद पैगम्बर ने स्त्रियों को तालीम की हिदायत दी थी।‘दिलआरा’ कहानी इस संग्रह की सबसे रोचक कहानी है। रोचक इस लिए कि यह संग्रह की सबसे तार्किक कहानी है। कहानी में वर्तमान कठमुल्लेपन के साथ स्त्री संघर्ष और उसकी बुलंद आवाजों की सीधी मुठभेड़ है। कहानी के उत्तर्राध मंे टूटकर बिखरती कठमुल्लावादी सोच और उन्हीं के बनाए तथाकथित कानूनों के धाराशाई होते महलों से उठते बवंडर हैं। कहानी में लेखिका द्वारा धार्मिक कानूनों की वे दलीलें जो स्त्री हक की वकालात करती हैं पेश की हैं। ‘दिलआरा’ के सोसियोलाॅजी के प्रोफेसर वर्मा जब मुस्लिम औरतों पर एक लेख लिखने में मदद या शरियत कानून की सही जानकारी लेने, साजदा बेगम से मिलने आते हैं जो विधवा होकर लड़कियों का मदरसा चलाती है। प्रोफेसर वर्मा लड़की को अपनी मर्जी से शादी करने की आजादी को इस्लामी सबूतों में जानना चाहते हैं तब साजदा बेगम बताती हैं- ‘‘जैसी कि रवायत है कि हजरत खदीजा ने खुद अपनी पसंद का इजहार करते हुए पैगम्बर से शादी की बात कही थी। इससे बड़कर और कौन सा सबूत होगा। इसलिए औरत को पूरा हक है कि वह अपने साथ की जा रही ज्यादती के खिलाफ आवाज उठाए। वह निकाह के वक्त बाकायदा शादी से इनकार कर सकती हैं अगर शौहर उसको पसंद नहीं है या फिर शादी जोर-जबरदस्ती या लालच, से हो रही है। (पृष्ठ-85) प्रोफेसर वर्मा के कहने पर साजदा बेगम एक ऐसा हादसा बयान करती हैं जो उक्त रवायत को और अधिक मजबूत बनाता है। ‘‘रवायत है कि पैगम्बर साहब की एक बीवी असमा थीं। निकाह के बाद हुजूर अकरम उनके पास जाते इससे पहले असमा ने तलाक की ख्वाहिश जाहिर की और उनकी मर्जी का लिहाज कर हजूर ने उन्हें तलाक की आजादी देदी। (पृष्ठ-85)
कहानी तमाम धर्म कानूनों और स्त्री अधिकारों की अनसुलझी गुत्थियों को अपने तर्कों से सुलझाती अंत तक पहुंचती है जहां साजदा बेगम का यह कथन- ‘‘बात औरत को बाहर निकलने या मरद के मुकाबिल खड़ा करने भर की नहीं है बल्कि उसे एक इंसान समझकर उसकी पूरी शख्सियत की है। उसको वो सारे हक मिलने चाहिए जिससे वो अपने दिमागी और जज्बाती जरूरतों को पूरा कर सके और एक सेहतमंद नजरिए के साथ वह इस दुनिया के हर फैसले में शामिल हो सके। मगर आप लोग तो वह हक भी नहीं देना चाहते हैं जो उसे चैदह सौ साल पहले मिल चुके हैं। मगर उसके लिए बस रूहानी तौर पर तहखाने-दर-तहखाने तैयार किये जाते हैं।’’ (पृष्ठ-93) साजदा बेगम के कथन की यही टीस इस संपूर्ण संग्रह की टीस है जो नासिरा शर्मा की कलम से निकली है। कहानी को पढ़कर लगता है संग्रह का शीर्षक ‘दिलआरा’ होना चाहिए था मगर ‘खुदा की वापसी शीर्षक’ लेखिका का निजत्व है।
वर्तमान बाजारवाद और ग्लैमर के पीछे की भोगवादी संस्कृति में डूबी युवा पीढ़ी के लिए धार्मिक कानून में तीन बार तलाक एक कारगार हथियार ही है। इस धार्मिक कानून की धार तब और ज्यादा तेज हो जाती है जब सामाजिक व्यवस्था इन शरियत कानूनों की सच्चाई से बिल्कुल अनजान है। वह केवल इतना भर ही जान पाई है कि तीन बार तलाक-तलाक-तलाक कहने से वैवाहिक संबन्ध विच्छेद हो जाएगा। और वह दूसरी शादी करने के लिए आजाद हो जाएगा। पुरुष वर्ग में स्त्री को भोग्या समझने की शैतानी साजिश भी अधिकांशतः इसी कानून के मूल से पनपती है। इंसान अपनी आर्थिक हैसियत, वीवी की रजामंदी को दरकिनार कर अपनी योनिच्छाओं की पूर्ति के लिए वीवी को तलाक दे दूसरी शादी कर लेता है। क्योंकि उसे ऐसा करने का सामाजिक अधिकार खुद इस्लामी कानून ने दे रखा है। कहना न होगा ऐसे धार्मिक कानूनों के प्रति सामाजिक अज्ञानता समाज में इंसानी संवेदनात्मक चेतना एवं उससे भावनात्मक पतन का मूल कारण बनने लगी है। ‘पुराना कानून’ ‘दूसरा कबूतर’ कहानियां इन तथ्यों पर गम्भीर मंथन करती हैं। ‘पुराना कानून’ का शमीम रुबीना के लिए जब अपनी वीवी अफसाना को चिट्ठी में तीन बार तलाक लिख कर तलाक दे देता है, तब अफसाना की अम्मा का यह कहना- ‘‘ सुनी सुनाई कहती हूं बीवी कि, तीन बार तलाक-तलाक-तलाक कहने से तलाक नहीं होता, मगर हमारे मौहल्ले के मौलवी साहब कह रहे थे कि, तलाक हो गया है, असलियत क्या है कुछ समझ में नहीं आता। ’’ (पृष्ठ-106) समाज की धार्मिक कानूनी अज्ञानता और इनके समक्ष इंसानी लाचारी स्पष्ट रूप में देखने को मिलती है। सीरिया और मिश्र से लड़ाई के चलते बहुत सी कैदी औरतें मदीना आयी थीं। उन्हें देखकर मर्दों ने उनसे शादी करनी चाही और अपनी बीवियों को धड़ाधड़ तीन बार तलाक-तलाक-तलाक कह कर उनसे आजादी हासिल कर ली। (पृष्ठ-107) लेखिका द्वारा खासतौर पर ‘पुराना कानून’ कहानी में प्रयुक्त यह प्रसंग इस कानून के पीछे पुरुषों की भोगवादी मानसिकता को पूर्ण परिलक्षित करता है। कहानी के अंत में, समाज के सामाजिक सरोकारों एवं व्यावहारिक दबाव में इस धार्मिक कानून एवं शमीम का टूटना और अफसाना को उसकी जिंदगी का वापस मिलना लेखिका की वैज्ञानिक दृष्टि एवं इंसानी रिश्तों के बीच की भावनात्मकता को तमाम धार्मिक कानूनों से ऊपर रखने की मंशा रही है। जो कहानी की विशेषता भी है। ‘दूसरा कबूतर’ के बरकत द्वारा नाम बदलकर धोखे से एक साथ दो निकाह करने एवं उसका भेद खुलने पर अपनी दोनों वीवियों सादियां एवं रुकइया से यह कहना- ‘‘यह कुछ अनहोनी नहीं हैं यही हमारा समाज है, रिवाज है और जरूरत है।’’ वहीं उसी के द्वारा औरतों को तंग नजर कहकर यह कहना- ‘‘औरत एक मर्द से मुतमईन हो सकती है मगर, मर्द नहीं।’’ यह भोगवाद की खुली चुनौती है, सादिया का बरकत से यह कहना- ‘‘मर्द के इस कारनामेे पर कोई भी खुदगर्ज औरत मर्द को तीन बार तलाक-तलाक-तलाक कहकर उससे अलग हो सकती है।’’ इसके जबाव में बरकत कहता है- ‘‘यह न शरियत है न इंडियन पैनल काॅर्ट न ही किसी मुल्क में रायज कानून यह सब फितूर है लिवरैटेड औरतों के एवनार्मल बर्ताव का’’ (पृष्ठ-130) कहानी धार्मिक कानूनों पर हावी पुरुष सत्तावाद की स्वार्थ पूर्ण दास्तान बयान करती है। हालांकि कहानी का अंत सादिया और रुकइया द्वारा बरकत को इसी शरियत कानून से मिले अधिकार के प्रयोग से तलाक देकर होता है। परंतु इस स्थिति में भी यह कानून इंसानी रिश्तों के बीच एक कांटा तो है।
कहानी ‘मेरा घर कहां’ की सोना आधुनिक समाज मेंउन खदबदाते मानकांे से निरंतर लड़ती है, जो इस व्यवस्था में स्त्रियों के लिए ही खास कर गढ़े गये हैं। जिन्हें परोसने वाला भी पुरुष है और मापने वाला भी। जिन्हें पुरानी पीढ़ी ने पूरी तरह आत्मसात कर रखा है। इन कायदे कानूनों को समाज में सीधे स्त्री के चरित्र से जोड़ा गया है। कहानी शिद्दत से समाज के उस पहलू से जद्दो जहद करती है जो समाज सोना जैसी स्वाभिमानी लड़कियों का चरित्रहंता होकर भी उसके चरित्रहीन होने का फैसला सुनाता है। वह अपनी योन पिपाशा के लिए कथित प्रेम कर सकता है, बलात्कार कर सकता है मगर उससे शादी कर पत्नी का दर्जा दे एक सम्मान से भरा जीवन नहीं दे सकता। नासिरा शर्मा की इस कहानी का सुखद पहलू है जो महज अट्ठारह वर्षीय अशिक्षित सोना को समाज की कूपमंडूप व्यवस्था से केवल लड़ने की हिम्मत ही नहीं देती बल्कि अनेक कठिनाइयों के बाद भी स्वाबलम्बी होकर जीना सिखाती है। संग्रह की अंतिम कहानी ‘नयी हुकूमत’ की हाजरा का अपने पति अलताफ को उसकी बिना रजामंदी के दूसरा निकाह कर लाने पर खुद तीन बार तलाक-तलाक-तलाक कहकर तलाक देना नारी जाति का वह रूप प्रस्तुत करता है, जहां वह इस दुनिया को यह बता पाती है कि शरियत ने यह अधिकार सिर्फ मर्दों को ही नहीं दिया बल्कि इसका इस्तेमाल स्त्री भी कर सकती है और लड़ सकती है अपने हकों के लिए।
संग्रह की सभी कहानियां पढ़ते समय कहानियों में प्रयुक्त कथानुकूलित परिवेश, सम-विषम परिस्थितियों एवं पात्रों का सजीव हो जाना लेखिका की उत्कृष्ट कला-कौशलता का नतीजा है। मनोवैज्ञानिक विश्लेषणों एवं तार्किक होने के बावजूद भी कहानी बोझिल नहीं होतीं। अपितु एक जिज्ञासा जगातीं हैं। पात्रों के चयन उनकी भाषा, जीवनयापन पर लेखिका की पैनी नजर रही है इसीलिए शिक्षित-अशिक्षित स्त्री की सामाजिक, मानसिक, शारीरिक और आर्थिक पीढ़ाओं, कुंठाओं को अपने शब्दों में उकेरने में लेखिका पूर्ण सफल दिखी है। सभी कहानियां एक बेहतर उद्देश्य के साथ पूरी होती हैं। जैसे वे सामाजिक, धार्मिक पाबंदियों के मकड़जाल से बाहर आने को वर्तमान नारी को आवाज दे रही हैं। हालांकि कहा जा सकता है कि कहानियां बहुत ज्यादा नया नहीं कहतीं मगर नासिरा शर्मा की कलम की बुनाई और उनकी कहानी तकनीकि इन्हें नयापन प्रदान करती है।
समीक्षक हनीफ मदार कहानियां लिखते हैं . सामाजिक -सांस्कृतिक गतिविधियों में सक्रिय, ऑनलाइन मैगजीन हमरंग के संपादक. संपर्क: 08439244335, ईमेल- hanifmadar@gmail.com