भगवानदास
मोरवाल
मोरवाल

आखिरी क़िस्त/ बहरशिकिस्त
हवलदार नेमपाल ने सही कहा था.देखने वालों का सैलाब दिन-पर-दिन उमड़ता ही जा रहा है. तीसरे शो यानी स्याहपोश तक आते-आते श्री दिगम्बर जैन एजूकेशन ट्रस्ट को यह सोचने पर मजबूर कर दिया कि क्यों न दो शो और बढ़ा दिये जाएँ . इसलिए इसका ज़िम्मा ट्रस्ट ने दिगम्बर दाल मिल के मालिक सेठ ताराचन्द और दूसरे ट्रस्टी मास्टर शौकत अली पर छोड़ दिया . सब जानते हैं कि रागिनी इन दोनों के कहे को कदापि नहीं टालेगी . तीसरे शो से एक दिन पहले सेठ ताराचन्द और मास्टर शौकत अली ने रागिनी के सामने दो अतिरिक्त शो का प्रस्ताव रखा, तो सुनते ही रागिनी ने इनकार कर दिया .
सेठ ताराचन्द ने मनुहार कर मनानेकि कोशिश करते हुए कहा,”रागिनी जी, आपकी इस छोटी-सी मदद से हमारे भावी स्कूल को बहुत सहारा मिल जायेगा !”
“भाई साब, बात तो आपकी ठीक है मगर मैं भी मजबूर हूँ . अगर छठे दिन नौचंदी मेले में मेरा शो नहीं होता, तो मैं आपको कहने का बिलकुल भी मौक़ा नहीं देती . पहले से तय हो चुके उस प्रोग्राम को मैं कैसे छोड़ सकती हूँ ?”
“देख लो रागिनी, उपकार और जन कल्याण का काम है .”
“मैं आपकी भावनाओं को समझ सकती हूँ . हाँ, इसके बाद का शो मुझे मन्जूर है . बस, दिक्कत है तो पहले वाले शो में .”
“हमें कुछ नहीं पता...आपको ही कोई रास्ता निकलना होगा . पब्लिक को सिर्फ़ रागिनी से मतलब है . ट्रस्ट ने बड़ी उम्मीद के साथ दो और शो कराने का फ़ैसला लिया है .” मास्टर शौकत अली ने सेठ ताराचन्द के इसरार को वज़नी बनाते हुए कहा .
सुर बंजारन“फिर एक काम हो सकता है मास्टर जी,और वह यह कि नौचंदी मेले वाले शो के दिन कोई ऐसा खेल करवाते हैं जिसमें लेडी आर्टिस्ट का कोई ख़ास रोल ना हो . अगर कोई होगा तो उसे लता कर लेगी . हाँ, आख़िरी शो में मैं यहाँ के लोगों की सारी कसर पूरी कर दूँगी .”
“कुछ भी करो रागिनी . यह नैया तो अब आपको ही पार करानी है !” सेठ ताराचन्द ने उम्मीद की नज़र आती एक छोटी-सी किरन को पूरे उजाले में बदलने की आशा में कहा .
“ठीक है भाई साब, फिर ऐसा करते हैं कि पाँचवा शो सुल्ताना डाकू और आख़िरी शो क़त्लजान आलम का रख लेते हैं !”
“हमें कुछ नहीं मालूम . यह तय करना आपका काम है .” सेठ ताराचन्द ने पूरी तरह रागिनी पर छोड़ दिया .
“तय क्या करना, यही ठीक रहेगा .” रागिनी ने आख़िरी फ़ैसला ले अपना निर्णय सुना दिया .
“ठीक है, जैसा आपको अच्छा, लगे करिए . हमारी चिंता अब दूर हो गयी . अच्छा, अब हम चलते हैं...आप अपने आज के शो की तैयारी करिए !”
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LEYLA KAYA KUTLU |
अपने साज़िन्दों को अनुभवी नक्काड़चीअत्तन खां ने ताईद कर दिया कि स्याहपोश में किसी तरह का ढीलापन नहीं रहना चाहिए . नगारी सेंकने वाले को तो सख्त लहज़े में कह दिया कि आज धधकते कोयलों की आँच धीमी नहीं पड़नी चाहिए . नगारियों को ऐसा सेंकना है कि लगे चोब उसकी झुलसती देह पर नहीं, वज़ीरज़ादी के दिल पर पड़ रही है . देखने वालों को लगना चाहिए कि झील की खनक और नक्काड़े की धमक सीधे वज़ीरज़ादी और गबरू के गले से निकल रही है .
वंदना ख़त्म होते ही पहले दृश्य में महल के झरोखे में बैठी वज़ीरज़ादी अपने सामने रहल पर रखे क़ुरान की तिलावत शुरू करती, उससे पहले मंच के पार्श्व से सूत्रधार की खनकती आवाज़ दोहा, चौबोला और दौड़ में परिचय के रूप में फ़िज़ा में गूँजती है-
सिफ़त ख़ुदा के बाद में, हो सबको मालूम .
सिम्र मग़रबी एशिया, मुल्क ख़ुशनुमा रूम ..
मुल्क ख़ुशनुमा रूम, तख्त वारिस महमूद तहाँ का .
बयाँ सिफ़त कर सकूँ न इतना रूतबा मेरी ज़बाँ का ..
था फ़ैयाज़ हुस्न युसुफ़ इंसाफ़ी शाह जहाँ का .
रय्यत रहै अमन में कुल अज़हद शौक़ीन कुराँ का ..
है अजब खुशनुमा हुस्न जबीं लखि माह निगाह चुराता है .
गबरू है नाम जात सैयद साक़िन हिरात कहलाता है ..
कुराँ के तीसों पारे . याद जिसको थे सारे ..
कहूँ एक सखुन लताफ़त .
हुआ खड़ा आ बाम तले सुनने कुरान की आयत ..
अभी सूत्रधार ने गबरू का तआरुफ़ ख़त्म किया ही था, कि महल के झरोखे से कुरान की तिलावत करती वज़ीरज़ादी का स्वर उभरा . इधर महल के नीचे खड़ा गबरू जैसे ही वज़ीरज़ादी द्वारा ग़लत तिलावत को सुनता है, तो वह उसे टोकता है . इस पर वज़ीरज़ादी पलट कर कहती है –
क्या मतलब है आपका, लीजै अपनी राह .
चाहे जैसे हम पढ़ें, कुराँ कलामुल्लाह ..
वज़ीरज़ादी का संवाद ख़त्म होते ही हारमोनियम ने जो सुर उठाया, और उसके साथ वज़ीरज़ादी की ओर मुख़ातिब हो गबरू ने ज्यों ही सुर बाँधा, सामने दर्शकों के मर्दाने हिस्से में जगह-जगह बैठे गबरू, असली गबरू के सुर में सुर मिलाने लगे-
ग़लत ना पढ़ना चाहिए, है ये कुरान शरीफ़
इसी वास्ते आपको, देता हूँ तकलीफ़
देता हूँ तकलीफ़ इनायत जो हुजूर फ़रमावे
दिलो जान हो शाद महल के ऊपर हमें बुलावे ..
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MOHSEN DERAKHSHAN |
नक्काड़ची अत्तन खां को चौबोले में वज़ीरज़ादी को दिए गये गबरू के जैसे इसी जवाब का इंतज़ार था . यानी इधर चौबोला ख़त्म हुआ और उधर अपने साथ ढोलक पर संगत करते ढोलकिया की तरफ़ देखते हुए, झील-नक्काड़े पर उसकी जो चोब पड़ी; लगा रात के पहले पहर में मानो तड़ातड़ ओस की मोटी-मोटी बूँदें गिर रही हैं . थानेदार एस.एस.मलिक यह देख कर हैरान-परेशान कि दो दिन पहले जो चेहरे तारामती के पुत्र-वियोग के चलते आँसुओं से तर थे, उन्हीं में से बहुत से कैसे झूमते हुए आज वज़ीरज़ादी जमालो द्वारा कुरान की ग़लत तिलावत करने पर, गबरू के सुर में सुर मिला रहे हैं ? और जैसे ही साज़ों का स्वर एकदम धीमा हुआ, गबरू दौड़ में एक बार फिर सुर बाँधता है-
आपकी होय इनायत . पढ़ावें कुरान आयत ..
सखुन मानौ अच्छा है .
रहै महरबाँ ख़ुदा कुराँ पढ़ना दुरुस्त अच्छा है ..
गबरू के इस दख़ल पर वज़ीरज़ादी ने तिलावत छोड़ पहले इधर-उधर देखा, और फिर गबरू से इल्तिज़ा करने लगी –
आओगे मेरे महल सर्वेकद दिलदार .
सुन पावें मादर-पिदर, करें आपको ख्वार ..
करें आपको ख्वार मती आओ मेरे महलन में .
पाक मुहब्बत करने से नहीं होय तसल्ली मन में ..
आफ़ताब सा लखि जलाल उठतीं हिलौर जोबन में .
कली-कली रसभरी खिल रही मेरे हुस्न गुलशन में ..
इसके बाद तो वज़ीरज़ादी जमाल व गबरूके संवादों और बादशाह, कोतवाल, नूरमहल, कमरुद्दीन समेत दूसरे किरदार निभाने वाले अदाकारों ने मिल कर, स्याहपोश उर्फ़ पाक मुहब्बत को जो रंग और ऊँचाई दी, उसकी छाप थानेदार एस.एस.मलिक के दिलो-दिमाग़ से अरसे तक नहीं मिटी . उसकी इस बला कहिए या आफ़त के प्रति लोगों की दीवानगी का रहस्य अब समझ में आया, जब वह ख़ुद इसके सुरों के धागों में बँधता चला गया . सही कहा था हवलदार नेमपाल ने कि जनाब इसके सुर का जादू लोगों के सिर चढ़ कर बोलता है .
इससे पहले कि गबरू के आख़िरी संवाद के साथ खेल ख़त्म होने का ऐलान होता, और लोग अपनी-अपनी जगह से खड़े होते, तभी मंच पर मास्टर शौकत अली नबूदार हुआ और माइक के सामने खड़ा हो ऐलान करते हुए बोला,”साहिबान एक मिनट...एक ज़रूरी ऐलान सुनते जाइये ! जैसाकि आप सब जानते हैं कल हमारे तमाशे का आख़िरी दिन है . इससे पहले कि मैं श्री दिगम्बर जैन एजूकेशन ट्रस्ट की तरफ़ से आपके जुनून, मोहब्बत और अमन बनाये रखने का आप सब का तहेदिल से शुक्रिया अदा करूँ, हमारे ट्रस्ट ने आख़िरी शो के बाद दो शो और कराने का फ़ैसला लिया है . हमें उम्मीद है कि आप इन दोनों खेलों का भी उसी तरह लुत्फ़ और मज़ा उठाएँगे जैसे बाकी के खेलों का उठाया है .”
मास्टर शौकत अली के इस ऐलान को सुनते ही पुरानी अनाज मंडी में नालीदार टीन की खड़ी चादरों से बनी विशाल रंगशाला किलक उठी .
“तो साहिबान, इस तरह परसों आप देखेंगे सुल्ताना डाकू उर्फ़ ग़रीबों का प्यारा और उसके बाद आख़िरी तमाशे के रूप में देखेंगे क़त्लजान आलम उर्फ़ ख्वाबे हस्ती .”
मास्टर शौकत अली की इस उद्घोषणा के साथ ही स्याहपोश के ख़त्म के होने घोषणा कर दी गयी .
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LYDIA ALGER |
थानेदार एस.एस.मलिक अब पूरी तरह बेफ़िक्र हो गया . क़स्बे की जिन बदरंगी दीवारों पर मुस्कराते विभिन्न रंगों के इश्तहारों में, उच्च रक्तचाप के चलते नसों से रक्त बाहर फूटने को हो रहा था, उसी नाम का मानो वह भी मुरीद हो गया . मारे बेचैनी और अवसाद के जो तनाव उस पर पहले दो दिन हावी रहा, वह चौथे शो तक आते-आते ख़त्म हो गया . इतना ही नहीं जिस अनहोनी के डर से उसका दिल बैठा जा रहा था, वह आशंका भी निर्मूल साबित हुई . थानेदार एस.एस.मलिक को सबसे ज़्यादा हैरत यह देख कर हो रही है कि देखने वालों में सबसे अधिक वे लोग हैं, जिनकी सांस्कृतिक निष्ठा और ईमानदारी पर सबसे ज़्यादा संदेह किया जाता है . काश, आने वाली रातें भी इसी तरह सुकून से बीत जाएँ, जैसी अभी तक की रातें बीती हैं . इसी दुआ में थानेदार की ऑंखें मुँदती चली गयीं . अभी उसे नींद के एक आवारा-से झोंके ने दबोचा ही था कि उसे लगा जैसे उसके सामने हाथ में ग़रीबों का प्यारा माफ़ करना सुल्ताना डाकू हाथ में बन्दूक ताने खड़ा है .
हड़बड़ा कर नींद से जागा वह . अपनेचारों तरफ़ देखा, तो पाया कमरे में उसके अलावा और कोई नहीं है . लगता है अवचेतन के किसी कोने में रात के ऐलान की वजह से यह नाम अटका रह गया . फिर अगले ही क्षण उसे यह सोचते हुए अपने आप पर हैरानी होने लगी कि उसके इस कोने में सुल्ताना डाकू की जगह क़त्लजान भी तो हो सकती थी ? सुल्ताना डाकू ही क्यों उसके अवचेतन में अटका रह गया ? कहीं ऐसा तो नहीं है कि उसका कर्त्तव्यबोध इस नाम को सुन परेशान हो उठा हो ? वैसे थानेदार एस.एस.मलिक का पेशान होना एक हद तक सही भी है, क्योंकि क़ानून की नज़र में गुनाह , गुनाह होता है और इसे करने वाला मुजरिम .
थानेदार एस.एस.मलिक आज अन्य दिनोंकी अपेक्षा समय से पहले पुरानी अनाज मंडी पहुँच गया . वह आज किसी भी दृश्य को छोड़ना नहीं चाहेगा . कहीं ऐसा न हो कि उससे वही दृश्य छूट जाए, जिसने एक डाकू को ग़रीबों और मजलूमों का प्यारा बनाया है .
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JORGE MUNGUIA |
जिला एक बिजनौर है, यूपी के दरम्यान .
शहर नजीबाबाद को लो उसमें ही जान ..
पैदा हुआ उसी के अन्दर एक डाकू सुल्ताना .
बड़ा चुस्त चालाक बहादुर लाजवाब मरदाना ..
था उसका ये काम अमीरों का बस लूट ख़ज़ाना .
बेकस और गरीबों को आराम सदा पहुँचाना ..
इधर सूत्रधार ने सुल्ताना डाकू कापरिचय ख़त्म किया, उधर थानेदार एस.एस.मलिक के भीतर छिपा हुआ थानेदार भीतर-ही-भीतर ऐंठने लगा . जबड़े खिंचने लगे . जब उससे नहीं रह गया, तो अपने मन की बात उसने बराबर में बैठे अपने हवलदार से कह ही दी .
“यार नेमपाल, इसका मतलब यह हुआकि अमीरों को लूट कर ग़रीबों की मदद करो . यह क्या बात हुई . जुर्म तो आख़िर जुर्म है...चाहे अमीर को लूटो या गरीब को . ताक़तवर कमज़ोर को लूटे, या फिर कमज़ोर ताक़तवर को . क़ानून की नज़र में मुजरिम, मुजरिम होता है .”
“जनाब, नाटक-नौटंकियों में ऐसा ही होता है . असल ज़िन्दगी में थोड़ेई होता है .” हवलदार नेमपाल ने एक बेमानी-सा तर्क देकर, अपने जनाब के भीतर बैठे क़ानून के रखवाले को शान्त करना चाहा .
“असल ज़िन्दगी में क्यों नहीं होता . यह नौटंकी भी तो असल ज़िन्दगी पर ही लिखी गयी होगी ? कोई हवा में क़िस्सा थोड़े ही गढ़ा होगा...और फिर इससे समाज और लोगों के बीच क्या सन्देश देना चाह रहे हैं ? भले ही ऐसा कुछ लोगों को अच्छा लगता होगा, मगर है तो यह क़ानून का मखौल ही !” थानेदार एस.एस.मलिक के जबड़े की नसें खिंचने लगी .हवलदार नेमपाल ने इस पर कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की .
इधर सूत्रधार का परिचय ख़त्म हुआ,उधर मंच पर चहलक़दमी करते खूँखार से नज़र आने वाले किरदार को देख कर, सारे दर्शक अब तक समझ चुके हैं कि यही सुल्ताना डाकू है . जो नहीं समझ पाए वे इसके इस फ़रमान को सुन समझ गये –
कान लगा कर सुनो सब मेरा फ़रमान .
भूल न हो इसमें ज़रा, रहे हमेशा ध्यान ..
मदद ग़रीबों की हरदम ऐ मेरे दोस्तों करना .
मगर दौलतमंदों की दहशत से कभी न डरना ..
लाना कुल ज़र लूट बेख़तर गले पै ख़ंजर रखना .
जहाँ तलक हो पेट यतीमों के उस ज़र से भरना ..
“नेमपाल, यह क्या बात हुई ! यह तो सरासर क़ानून की धज्जियाँ उड़ाना हुआ . मैंने तो सुना है कि सुल्ताना अपने ज़माने का इतना ख़तरनाक डाकू था कि इससे अंग्रेज़ी हुकूमत भी हिल गयी थी . इसके लिए अंग्रेज़ों ने लन्दन से एक ख़ास अफ़सर जिम कार्बेट हिन्दुस्तान बुलाया था . इसे पकड़ने के लिए अंग्रेज़ों ने सिर्फ़ तीन सौ जवान ही नहीं लगाये थे, बल्कि उसी जिम कार्बेट को भी इस काम के लिए लगा दिया था, जिसके नाम पर एक जंगल भी है . ऐसा कर, तू देख अपने इस ग़रीबों के प्यारे को...मैं तो चला !” अपनी जगह से थानेदार एस.एस.मलिक उठते हुए बोला .
“जनाब बैठो तो सही ! अब आये हो तो देख कर ही जाओ !”
“क्या करूँ बैठ कर ? मैं यहाँ रागिनी को सुनने आया हूँ या इस वाहियात ड्रामे को देखने आया हूँ . ऐसा कर तू बैठ, मैं चला !” इसके बाद थानेदार एस.एस.मलिक सचमुच नौटंकी बीच में छोड़ बाहर चला आया . जैसे–जैसे वह अनाज मंडी से दूर होता गया उसके कानों में सुल्ताना डाकू कि गूँजती ललकार, और साज़ों के सुर-ताल मंद पड़ते चले गये .
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MARI JIMENEZ |
“जय हिन्द जनाब !” अपने जनाब के सामने पड़ते ही नेमपाल ने सेल्यूट मारते हुए कहा .
“और कैसा रहा तेरा ग़रीबों का प्यारा ?” थानेदार एस.एस.मलिक ने अपने मातहत हवलदार नेमपाल से व्यंग्य करते हुए पूछा .
“जनाब, रात को तो बिलकुल भी मज़ा नहीं आया . अच्छा किया जो आप बीच में आ गये .”
“क्या हुआ ?” थानेदार मलिक ने हैरान होते हुए पूछा .
“रात को रागिनी नहीं थी, इसलिए लोग उखड़ गये .”
“क्याSSS, वह रात को नहीं थी ?”
“जी जनाब, यह तो बाद में पता चला कि सुल्ताना डाकू में उसका कोई रोल ही नहीं था...और जो छोटे-मोटे जैसे फूल कुँवरि रंडी और सुंदरी के रोल थे उन्हें लता और प्रभा ने निभा दिए . वैसे जनाब, कम लता भी नहीं है . सुल्ताना डाकू की फ़रमाइश पर फूल कुँवरि बनी लता ने जो दादरा सुनाया, उसे अगर आप भी सुनते तो सुनकर आप भी ग़ुस्सा भूल जाते . जबकि सुंदरी बनी प्रभा का भी जवाब नहीं . एक से एक नग भर्ती कर रखें हैं रागिनी ने अपनी पार्टी में . लता ने जो दादरा सुनाया, सुन कर पूरी अनाज मंडी झूम उठी .” कहते-कहते हवलदार नेमपाल जैसे एक बार फिर सुल्ताना डाकू के मंच पर लौट गया,और कार्तिक की ओस से भीगी रात में फूल कुँवरि रंडी का किरदार निभाने वाली लता द्वारा गाये दादरा के ये बोल, शहद बन उसके कानों में घुलने लगे –
कान्हा तोरी तान, कलेजे मोरे कसकी
सुनती हूँ जभी होती है हालत बुरी मेरी
बैरिन है किसी जनम की ये बाँसुरी तेरी
ले लेगी मोरी जान, कलेजे मोरे कसकी .
यह बाँसुरी नहीं तेरी, आफ़त है बला है
आवाज़ जो इसकी सुनै, उसका न भला है
भुला दे सारा ज्ञान, कलेजे मोरे कसकी .
बजती है तो मैं भूलती हूँ घर के रास्ते
जब ना बजै दिल चलै, सुनने के वास्ते
तरसते दोनों कान, कलेजे मोरे कसकी .
उस्ताद इन्दरमन का तो, सुरपुर हुआ मुक़ाम
कहते हैं नथाराम जपौ, रूपराम श्याम
ये कहना जाओ मान, कलेजे मोरे कसकी .
कान्हा तोरी तान, कलेजे मोरे कसकी ..
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ELKE DANIELS |
थानेदार मलिक अपने मातहत के चेहरे परआते-जाते भावों को पढ़ने की कोशिश करने लगा . पहली उसे अपने उस फ़ैसले पर रंज-सा हुआ, जिसके कारण वह बीती रात बीच शो से उठ कर चला आया था . मगर अपनी इस चूक या कहिए पछतावे को अपने मातहत के सामने कैसे स्वीकारे . इसलिए अपने इस फ़ैसले पर उसने यह कहते हुए गर्द डाल दी,”नेमपाल, वैसे यह बात तो तू भी मानता है कि सुल्ताना भले ही ग़रीबों का भला चाहने वाला रहा होगा, पर था तो एक डाकू ही न . तू ही बता कि क़ानून कि नज़र में एक मुजरिम कैसे किसी समाज का हीरो हो सकता है . अगर चोर-डकैत ही न्याय-अन्याय का फ़ैसला करने लग गये, तो इस पुलिस महकमे की क्या ज़रुरत है !”
”जनाब, ग़रीबी-गुरबत अच्छे-बुरे में फ़रक़ नहीं देखती है . उसे तो अपने भले से मतलब होता है . वैसे जनाब, सुल्ताना डाकू जैसी बहुत सारी मिसालें हमें देखने-सुनने को मिल जाएँगी . मैंने तो सुना है ही कि अपने यूपी, हरियाणा, राजस्थान में ही नहीं बिहार-उड़ीसा के कई इलाक़ों में इसे बहुत मानते हैं . यहाँ तक कि इसकी यह नौटंकी भी खेली जाती है .”
“नेमपाल, लगता है इस सुल्ताना ने बड़ी ग़रीबी देखी है...ग़रीबों पे होने वाले जुलम देखे हैं . क्या करूँ, इसमें हमारा भी क़सूर नहीं है . पुलिस वाले जो ठहरे . हमें सिर्फ़ बुराई-ही-बुराई दिखाई देती है .” थानेदार एस.एस.मलिक एकाएक दार्शनिक होता चला गया . यह बात दूसरी है कि इस देश में बहुत से महकमों की तरह हमारे पुलिस महकमे के लिए भी दार्शनिक होना उनकी सेहत के लिए फ़ायदेमंद नहीं है .
“आप सही कह रहे हो जनाब .” हवलदारनेमपाल भी थोड़ी देर के लिए अपने जनाब के दर्शन में जैसे आकंठ डूब गया .
“वैसे आज तो आख़िरी तमाशा है न ?” थानेदार ने अपनी दार्शनिकता से बाहर आते हुए पूछा .
“जी जनाब, क़त्लजान आलम है .”
“तुझे तो पता होगा इसका क़िस्सा क्या है ?”
“जनाब, ज़्यादा तो पता नहीं है . बस, इतना पता है कि पण्डित नथाराम शर्मा गौड़ ने इस नौटंकी या कहिए सांगीत को तीन भागों में लिखा है – क़त्लजान उर्फ़ ख्वाबे हस्ती, क़त्लजान उर्फ़ नक़ली फ़क़ीर और क़त्लजान उर्फ़ मुहब्बत का फूल . इसका कुल-जमा क़िस्सा यह है जनाब कि ईरान का एक शाहज़ादा राहतजान सपने में एक सुंदर शाहज़ादी को देखता है . शाहज़ादा राहतजान इस शाहज़ादी को पाने के लिए परिस्तान तक चला जाता है . परिस्तान में स्याहदेव जादूगर इसे पत्थर का बना देता है . अब पूरा क़िस्सा तो जनाब तभी पता चलेगा जब आज रात को इस नौटंकी को ख़ुद अपनी आँखों से देखोगे !” हवलदार नेमपाल ने तीन हिस्सों में लिखे इस क़िस्से को बड़ी चतुराई से तीन पंक्तियों में निपटा कर, अपने जनाब से पीछा छुड़ा लिया .
थानेदार एस.एस.मलिक ने मन-ही-मनइसी समय तय कर लिया कि आज वह इस नौटंकी को बिलकुल नहीं छोड़ेगा . वरना ऐसा न हो कि वह सुल्ताना डाकू उर्फ़ ग़रीबों का प्यारा की फूल कुँवरि रंडी द्वारा सुनाये गये दादरे की तरह, क़त्लजान आलम के क़िस्से से भी वंचित रह जाए .
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LEYLA KAYA KUTLU |
राहतजान और आरामजान के बहरतबील में पगे संवादों के बीच तो मानो जंग-सी छिड़ गयी-
ये कटारी-सा कलमा तुम्हारा लगा, रहा दिल को तअम्मुल सबर ही नहीं .
होके बेदम अदम को रखै दम क़दम, तेरे देखे बिना हो गुज़र ही नहीं ..
सिवा तेरे सनम मेरे जीने का कुछ, कहीं आता सहारा नज़र ही नहीं .
तेरे सर की क़सम मेरा सर काट ले, तौ भी दिलबर मरूँगा उजर ही नहीं ..
राहतजान के इस सख्त अहद पर आरामजान उससे शिकायत करती है-
इस अमर की अगर मुझे होती ख़बर, यहाँ हरगिज़ न आती ख़ुदा की क़सम .
ऐसी मुझको परी ने करी बावली, मेरी दुनिया से सारी छुटाई शरम ..
ऐसी जवानी दिवानी जलै या ख़ुदा, तौबा-तौबा जो उलफ़त में रक्खा क़दम .
बेवफ़ा की मुहब्बत के फन्दे फँसी, हा सितम है सितम है सितम है सितम ..
आरामजान की इस शिकायत पर राहतजान लड़खड़ाते हुए जवाब देता है-
तेरी दूरी से मुझको सबूरी न हो, मैं जिऊँगा नहीं तेरे सर की क़सम .
छोड़ी शाही गदाई ली तेरे लिए, छाने कोहो बियाबाँ उठाये अलम ..
तेरी उलफ़त में आफ़त हज़ारों सही, जब मयस्सर हुए ये मुबारिक क़दम .
होके दिलबर दिलोजाँ दुखाती हौ दिल, हा सितम है सितम है सितम है सितम ..
राहतजान और आरामजान के संवादों को,अत्तन खां द्वारा कोसी कलाँ (मथुरा) से लायी गयी ताज़ा-ताज़ा झील और उसके सामने रखे नक्काड़े पर पड़ती चोब की टंक, ढोलक की थाप और हारमोनियम से निकले ज़ख्मी सुरों ने और तीख़ा बना दिया . इससे पहले कि क़त्लजान आलम के तीसरे हिस्से यानी मुहब्बत के फूल के आख़िर में आरामजान राहतजान को उलाहना देती, तभी एक छत पर पर कुछ हलचल-सी हुई, जो देखते ही देखते चीखों में बदल गयी .
आख़िर वही हो गया जिसका थानेदारएस.एस.मलिक को पहले दिन से डर था . वह तुरन्त इधर-उधर तैनात सिपाहियों को लेकर अहाते से बाहर आया और उसी छत की तरफ़ दौड़ कर गया . वहाँ जाकर देखा तो पता चला कि इस मकान के छज्जे पर बैठी भीड़ के वज़न से उसका एक हिस्सा टूट गया . ग़नीमत यह है कि पूरा छज्जा नहीं टूटा और एक बड़ा हादसा होने से बच गया . दो-तीन दर्शकों को ही मामूली चोटें आयीं जिन्हें उपचार के बाद छुट्टी दे दी गयी .
थानेदार एस.एस.मलिक जब तक इसथाने में रहा, उसके कानों में रह-रह कर कभी पुत्र-वियोग में तड़पती तारामती का रुदन गूँजता, तो कभी शाहजहाँ के सिपहसालार अमरसिंह राठौर के धोखे से किये गये क़त्ल के बाद उसकी बेवा हाड़ी रानी का चीत्कार गूँजने लगता . कभी रात के सन्नाटे में आकर स्याहपोश की जमालो कानों में आकर कूकने लगती, तो कभी आरामजान का राहतजान से मनुहार आकर टकराता . अलग-अलग किरदारों में जब-जब रागिनी मंच पर आकर पंचम सुर में सुर उठाती, तब-तब मंत्रमुग्ध थानेदार एस.एस.मलिक भूल जाता कि यह सचमुच रागिनी के गले से निकली आवाज़ है, या इन सांगीत-नौटंकियों के पात्रों की आवाज़ है ? नौटंकी की टीपदार स्वर लहरी जब रात के सन्नाटे को बींधती हुई, किसी विशाल सदानीरा में ऊँचाई से गिरते असंख्य झरनों की तरह उसके कानों से टकराती, तब वह मानो सुधबुध खो बैठता . हर बंदिश और मुरकी पर रागिनी की देह जैसे एकाकार हो जाती . ऐसा लगता स्वर और सुर उसके कंठ से नहीं, बल्कि समूचे देह-प्राण से झर रहे हैं . सदाबहार सुरों की बारीक पच्चीकारी, बोलों की नफ़ासत, बंदिशों की रमणीयता और रेशमी लयात्मकता – सबकुछ लासानी .
इधर हवलदार नेमपाल, उसका तो हाल ही मत पूछो . उसके लिए तो पण्डित नथाराम शर्मा गौड़ की लिखी नौटंकियों के बोल मानो भजन-आरती बन गये . एक-एक दृश्य उसकी स्मृति में अमिट भित्ति चित्रों की तरह ऐसे छपे हुए हैं कि उनका वजूद मिटने के बजाय और गहरा होता जा रहा है . हाथरस और बल्लभगढ़ कि ज़र्द-सी मीठी यादें जब-तब स्मृतियों के झरोखों से ताक-झाँक करती हुई कब ठिठोली कर उसके पास से गुज़र जाती, नेमपाल को पता ही नहीं चलता . सुरों के इस हीरामन के सपनों में किसी हीराबाई का चेहरा नहीं बल्कि कानों में बस रागिनी की खनकती आवाज़ गूँजती है .
जिन दिनों पूरा देश अपने एक पड़ोसीदेश से युद्ध में मिली हार के बाद गहरे सदमे में डूबा हुआ था, उससे कुछ महीने पहले भागलपुर के हिन्दुस्तान थिएटर से शुरू हुई सुरों की यह यात्रा, बांग्ला देश की मुक्ति के लिए लड़े गये भारत-पाक युद्ध के ख़त्म होते-होते एक आँधी में तब्दील हो गयी . यह आँधी पश्चिमी उत्तर प्रदेश के ब्रज से लेकर दक्षिण हरियाणा के मेवात, और दक्षिण हरियाणा से लेकर पूर्वी राजस्थान की स्कूल-कॉलेज प्रबंध समितियों व स्थानीय कमेटियों के लिए चंदा उगाहने की मानो टकसाल बन गयी .
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MICHELLE GREEN |
इन्हीं दिनों बाबू गंगा सहाय इंटर कॉलेजकी बनी भव्य इमारत के सामने खड़ा होकर हवलदार नेमपाल इसे निहारता है, तो उसके फेफड़ों में ताज़ा हवा भरती चली जाती है . मगर साथ में उसे यह देख कर दुःख भी होता है कि विद्या के जिस मंदिर से दौड़, दुबोला, चौबोला, बहरतबील, दादरा, ठुमरी, लावनी, शिकिस्त, सोहनी, झूलना में लिपटे सुरों के अंकुर फूटने चाहिए थे . झील-नक्काड़े की खनक व धमक सुनाई देनी चाहिए थी . हारमोनियम से निकले कण, खटके, धुन, लय-बाँट, सुरों के संकोच व विस्तार की तरंगें फिज़ा में तैरती हुई महसूस होनी चाहिए थी . कहरवा, दीपचन्दी और खेमटा तालों में पगे यमन, भैरवी, कलिगंडा, आसावरी, जोगिया, देस जैसे राग-रागनियों के बोल सुनाई देने चाहिए थे, आज एक व्यावसायिक संस्थान में तब्दील हो चुके इस ग्लोबल स्कूल से साम्राज्यवादियों के लिए उच्च रक्तचाप व मधुमेह से ग्रस्त तथा नैराश्य व विषाद में डूबी अयोग्य पलटन निकल रही है . वह जब भी इस पुराने इंटर कॉलेज के बग़ल से गुज़रता है, और रुक कर इसकी दीवारों से कान सटा कर खड़ा होता है, तो लगता है बिजली कॉटन मिल के सुरुचि उद्यान में खोए सुरों के कण-खटके, शहद की बूँदों की मानिंद उसके कानों में टपक रहे हैं . नेमपाल जब भी इस कॉलेज की दीवारों को धीरे-धीरे सहलाता है, तो किसी शो में इसी रागिनी का कहा यह शे’र उसके कानों में सरगोशी-सी करके चुपचाप निकल जाता है-
सब ज़िन्दगी का हुस्न चुरा ले गया कोई .
यादों की कायनात मेरे पास रह गई ..
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