कमल कुमार
जीवन से भिड़ंत की कविता
मैं मुक्तिबोध नहीं, न ही शैलेश मटियानी हूं
मैं न ‘वाम’ मैं न दक्षिण में और केंद्र में भी नहीं
विषमताओं, विरोधों, असंगतियों से संघर्ष
जीवन राग बन गया है कविता में
तभी कविता में मेरा चेहरा मुरझाया नहीं
भयावह भी नही हुआ खुरदरे कंटीले यथार्थ में
ताकि असहाय न हो जाए जीवन/
कथा साहित्य में पात्रों के अन्याय और उत्पीड़न को
अपने अन्तःकरण में सोख लिया
उसकी रचनात्मक पुनरावृत्ति में
वह सघन, उदार और विस्तृत हो गया/
साहित्य की भी राजनीति है/यहां है
बड़े शिरोमणि, मठाधीश और माफिया के सरगना
हाशिये पर खिसका देते है लिखे को
पर मैं जीतने की दौड़ में भी नहीं
आस्थावान मैं ‘आत्मा के ताप’ से संचालित
रचनाकर्म अपनी निरंतरता में क्रमशः रहें
इसी आंकाक्षा के साथ अग्रसर हूं
‘रजा’ का केंद्र ‘बिंदु’ है और मेरा भी
रच रही हूं शब्दों में जीवन की ज्यामिति/
अब नहीं रहा काल या इतिहास में सब्र पारखी का
समय की आंधी उड़ा ले जाएगी सभी/
‘मुट्ठियों में मठाधीशों’ की बचा रह जाए शायद/
आलोचकों की चर्चा में बनती है श्रेष्ठ कविता
कविता का ‘श्रेष्ठ’ धुंधलाने को विवश है.
बाज़ार ही करेगा चुनाव/कवि के सार्वजनिक सरोकारों का
कविता भी तो अब ‘फिनिश्ड प्रोडेक्ट’ है
आसानी से पहुंच जाती है पाठकों के बाज़ार में
आलोचकों को विमर्श में सभाओं और संस्थानों में
होने को सम्मानित और पुरस्कृत/
अपने समय और स्थितियों से घिरी
जीवन से भिड़ंत की कविता रच रही हूं मैं..
अल्बेयर कामू!
कामू, आप चिंतक, विचारक, लेखक पत्रकार थे
नाटककार, निदेशक, नोबेल पुरूस्कार विजेता भी!
परंतु आपके मित्र सात्रे ने, आलोचको ने क्या किया?
विद्धेष और उपेक्षा की राजनीति के बीच
आपको अपनों और दूसरों ने गलत ही समझा
शायद वक्त से पहले कह दिया था आपने.
आप जानते थे सत्ताएं क्रांति नहीं दमन से
अपनी सर्वज्ञता स्थापित करती है
एक विजयी और सफल नेता के पीछे
असंख्य जनों की विफलता और पराभव होता है/
स्वंतत्रता और समानता का पाठ
माक्र्स ने नहीं भूख और गरीबी ने पढ़ाया था
साहित्यकार ही उठाता है आवाज़
निरंकुश सत्ताधारियों के विरोध में.
‘ओशो’ की तरह समझा था जीवन को
तनी हुई रस्सी पर संतुलन साधकर
अनिश्चय की ओर आगे बढ़ते जाना है
आपने झेला था अभाव को बीमारी को उत्पीड़न को
पर अल्जीरिया जन्मभूमि की उदार प्रकृति
समुद्र की लहरों, नीले आकाश, धूप हरियाली ने
आपकी आत्मा को मुक्त कर दिया था
सकारात्मक सोच ने कुंठाओं से परे
मानवीय आस्था का असीम आकाश दिया था.
उस कार दुर्घटना में ‘पहले आदमी’ के
अधूरे पन्नों के बीच मृत मिले थे
कामू आप पहले नहीं
अपनी तरह के आखिरी आदमी भी थे!
नहीं, आप जानते थे समय सब मिटा देता है
तो भी इस दुनिया में सब वैसे ही चलता रहता है.
आपने जाना था, कोई सत्यपूर्ण नहीं होता
न कोई अभिव्यक्ति अंतिम होती है
कांच के टुकड़ों को जोड़ने जैसा होता है सच!
अपने को जानते है हम अपनी असफलताओं में
जीवन की अनिश्चित स्थितियों में
यह सीखा था आपने फुटबाॅल के खेल में
गेंद कभी हमारी चाही दिशा में नहीं आती
यह अनुभव जीवन का दिशा निर्देश करते रहे.
बचपन में ही ‘धार’ लिया था ‘लेखक बनूंगा’
शब्द ही शक्ति बनेंगे मेरे सत्य की
मेरी पीड़ा और त्रासदियों से मुुक्त करेगें
उम्र के पहले पड़ाव पर लेखक बन गये थे.
उस छोटे से कमरे में आसपास की दुगन्र्ध से बेपरवाह
छोटी सी खिड़की के सामने देखते थे
बच्चों की चिलूपों में लड़खड़ाते बीमार को
सड़क पार करते- और अपने अकेलेपन को/
उस अकेलेपन ने आपको कभी अकेला नहीं किया
एक बड़े मानवता के घेरे में बांध दिया
ले गया आपसे नियति, मनन चिंतन की ओर
सिद्ध कर सके थे सृजन का रास्ता
अकेला है पर अकेलेपन का नहीं
लालटेन की मद्धम और शब्दों के उजाले में
सपने को तर्क में और कल्पना को सच में बदलते देखा था/
कामू! हिंदू दर्शन को समझ गये थे
ग्रेनिये से प्रेरित हुए थे शासद!
शब्द स्वयं प्रकाशित, स्वयं सिद्ध, भविष्य के महान शून्य में
काल की सीमाओं के पार ज्योति आवृत्त अस्तित्व है-ओइम्
क्षितिज के पार महाकाश दृश्य हो गया था
एक भीतरी महोत्सव में प्रकृति के रहस्य खुल गये थे
‘मैं नहीं’ ‘बस तुम हो’, ‘तुम मुझमें हो’ ‘तत्वाससि’
बीईग एण्ड नंथिगनेस!
एक अटूटविश्वास मैं जीऊंगा और लिखूंगा.
मेरी अभिव्यक्ति मेरे अपराधों की स्वीकृति है
कड़वे अनुभवों के अंगूरों को कुचल कर निकला अमृत है
इससे मानवता के प्रति असीम करूणा है
जीवन के अधूरेपन को पूर्णता की ओर ले जाती है.
‘द रिबेल’-सत्ता की दमन क्रांति का मुखौटा पहनता है
एक विस्फोट ‘बस और नहीं.’
बर्फीले तूफानों में भीतरी धूप की आंच थी
पहाड़ों पर जो वृक्ष सहजते हैं बर्फीली हवाएं
उनमें खिलते है सुन्दर फूल और लगते हैं बादाम.
अपनी आस्था और विश्वास से
कुछ भी उपलब्ध किया जा सकता है
‘मैं सोचता हूं’ इसलिए मेरा अस्तित्व है
कथा का सुखद अंत नहीं-
जो कही जा रही है वही सच है-‘स्ट्रेज़र’
जीवन के विरोधाभासों और विडम्बनाओं में
स्थित होता है ‘केलीगुला’
गिरगिर कर उठना, अपने लक्ष्य की ओर बढ़ना
जीवन जीने योग्य है ‘मिथ आफ सिसिफस’
कामू स्वयं उतरे थे ‘द फाॅल में ‘डायरी’ के पन्नों में
चलता रहा सृजन कम निरंतरता में
जीवन के अंतिम क्षणों तक
नहीं रूदृ कर सका बीमार दुर्बल शरीर
पारिवारिक सामाजिक दुःख और संताप
आप जान गये थे अपने साथ
परंतु अपने से अलग होने को शब्दों के विमर्श को.
दलित स्त्रीवाद , मेरा कमरा, जाति के प्रश्न पर कबीर
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