पूनम सिंह
क्षमाप्रार्थी
उत्तराखण्ड में कालकलवित हुए
मृतकों के लिए
मेरी कविता ने नहीं रखा था
एक लम्हे का मौन
नहीं जताया था
मृत्यु की बेरूखी पर
कोई अफसोस
उस दिन भी जब
गंगासागर में नहाने गये लोग
नहीं लौटे अपने धर
मैं उदास हुई
मेरी कविता नहीं
ईश्वर की ओर पीठ किये
रतजगी करने वाली मेरी कविता
जिद्दी नासमझ है मित्रों
मैं हृदय से क्षमाप्रार्थी हूँ
उसके लिए
यह कैसा मौजीपन है तुम्हारा
आज जब हमारी सांसें
सलीब परईसा की तरह टंगी है
आँखें डरावने सपनों को देखती
पत्थर हो रही है
पपड़ाये होठों पर शब्द
मूर्छित पड़े हैं
तुम मल्हार गाने को कह रहे हो ?
विचित्र जीव हो तुम भी
उस दिन
पूस की ठिठुरती रात में कहने लगे
चलो दरिया में
एक डुबकी लगा आए
यह रात भी क्या याद करेगी
किसी ने इसके अहंकार को
इस तरह पानी में डुबोया है
यह कैसा मौजीपन है तुम्हारा
कल ही
सियासत के सभागार में
’हुकुम‘ के दहकते अंगारे को तुम
पान की गिलौरी सा
चबाने लगेथे
मैंने नजर की आलपीन चुभोई
तो चिहुँक कर
पच्च से थूक दिया
एक कुल्ला पीक
उस दुधिया कालीन पर
जहाँ पैर रखते हुए
सबने उतार दिये थे
अपने जूते
तब से तुम्हारे हाथों में जूते हैं
पैरों में गाँधी टोपी
एक टाँग पर खड़े
श्वान की विशेष भंगिमा में
बापू के स्मारक पर
जल चढ़ाते हुए
तुम कह रहे हो मुझसे
‘गाँधीबाबा की टोपी आज
सियासत के सिर से उतरकर
पैरों से लिपट गई है
इससे क्या मैं समय शापित
युगपुरूष की
अभ्यर्थना ना करूँ ?
समय के परिवर्तित परिदृश्य पर
कोई प्रतिक्रिया न जताऊँ ?
गाने दो मुझे मौज में
रागमल्हार !
बजाने दो खंजरी की तरह
हाथों में उठाये जूते
मैं वक्त की सच्चाई को
उसके उत्कर्ष तक पहुँचाना चाहता हूँ
विश्व अहिंसा दिवस के उल्लास में
बापू की समाधि को आज
मनुष्येतर प्राणियों का
शिवालय घोषित करना चाहता हूँ
तुम मुझसे इस कदर नाराज क्यों हो प्रिये ?
सचमुच अजीब जीव हो तुम भी
अजूबाहैतुम्हारा यह मौजीपन!