बालेंदुशेखर मंगलमूर्ति
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बलात्कार हिंसा है !!
बलात्कार सेक्स नहीं,
प्यार नहीं,
प्यार नहीं कहा मैंने,
क्योंकि मैरिटल रेप होते हैं,
कितनी महिलाएं घर की सुरक्षित चहारदीवारी में,
एकदम सुरक्षित माहौल में,
अपनों के बीच,
रौंदी जाति हैं,
अपने पतियों के द्वारा,
हमसफ़र कहे जाते हैं,
पीड़क बन जाते हैं,
हर रात, लगातार.
पर हम पाखंडी हैं,
ढोंगी हैं,
कड़वा सच हमें चुभता है,
कांटे की तरह,
इसलिए
हमारा कानून इसे नहीं मानता,
हमारा समाज इसे अनदेखा करना चाहता है,
पर आंख मूंदने से दिन रात में नहीं बदलते.
सच ये है कि
बलात्कार हिंसा है,
जब एक महिला अपने वजूद के लिए जोड़ लगा रही हो,
उस समय तुम वहिशायाने अंदाज़ में उस पर टूट पड़ते हो,
ये प्यार नहीं, सेक्स नहीं.
ये मानसिक विकृति है,
ये परपीड़न-रति की पराकाष्ठा है,
ये महिला पर सत्ता स्थापित करने की जद्दोजहद है,
जब तुम बातों से, व्यक्तित्व से,
प्रभाव नहीं छोड़ पाते,
उस समय तुम्हें अपने शारीरिक बल का ख्याल आता है,
और तुम टूट पड़ते हो उस पर ,
उसे पीड़ा देने के लिए,
उसकी चीख सुनने के लिए,
बलात्कार में कोई आनंद नहीं,
ये प्यार नहीं, ये सेक्स नहीं
बलात्कार हिंसा है !!
मैं एक नदी होती, गर स्त्री न होती !!
मैं एक नदी होती, गर स्त्री न होती,
कि मैं तब भी अपनी पहचान से संतुष्ट होती,
एक स्त्रीलिंग के रूप में.
हां, तब ये जरुर होता, कि
मैं कैद न रहती सीमाओं में,
एक स्त्री की मानिंद,
मैं बहती हिमालय की ऊंचाइयों से
सागर तक.
एक किशोरी की तरह बिंदास होकर,
एक युवती की तरह रमणीय,
एक प्रौढ़ा की तरह गंभीर,
और एक वृद्धा की तरह शांत
मिल जाती अपने सागर से,
और पूरी करती अपनी यात्रा,
पर मिलकर भी अपने सागर से,
अपना वजूद न खोती,
सब मुझे जानते मेरी यात्रा के लिए,
मेरी पहचान होती, एक स्वतंत्र पहचान.
जो न मिटती सागर से मिल जाने पर भी,
हां, मै एक नदी होती, गर स्त्री न होती !!
हलाला !!
बहुत गुस्से में था वो उस दिन,
बाज़ार में उसकी लड़ाई हो गयी थी,
सब्जी का भाव बढ़ा कर उसने बोल दिया था,
तू तू मैं मैं, फिर हाथापाई,
घर आया,
कंठ सूखा था,
लगातार गालियां देने से,
प्यास लगी थी उसे,
पर सलमा का कहीं पता नहीं,
कुछ पुरसुकून शब्द सुनने थे उसे अपनी बीवी से,
बीवी अपने बच्चों को लेकर पड़ोस में गयी थी,
आयी तो उसका चेहरा क्रोध से लाल,
कुछ न सूझा गुस्से में,
बस एक झटके में,
तलाक, तलाक, तलाक.
मुंह से शब्द निकले तो बेचैन हो गया,
हलक सूख गया,
बीवी से करता था बेहद प्यार,
अब क्या हो?
दौड़ा- दौड़ा गया मौलवी के पास,
हाथ फेरते हुए दाढ़ी में मौलवी ने कहा,
हलाला और क्या?
मरता क्या न करता, हो गया राज़ी,
बस एक रात, फिर सलमा मेरी.
सलमा बांध दी गयी, मौलवी के साथ,
रात आई और सलमा मौलवी के बिस्तर पर,
पसीने -पसीने हो गया आधे घंटे में,
और लेकर एक लंबी अंगड़ाई, मौलवी मुस्काया,
सवेरे लथपथ कपड़ों में सलमा गिर पड़ी,
अब तो कर दो आज़ाद,
दौड़ा दौड़ा वो भी आया,
अब तो मेरी बीवी मेरी हो गयी,
मौलवी मुस्काया,
अभी रुको कुछ दिन,
कुछ दिक्कत है.
फिर तो दिन हफ्ते में बदले,
हफ्ते महीने में,
वो दौड़ता रहा और खुद को कोसता रहा,
सलमा भी कोस रही थी अपनी किस्मत को,
और उस दिन को,
जब उसके क्षण भर के गुस्से ने उसे झोंक दिया था,
दोजख की आग में,
एक वो दिन था और आज का दिन,
हर दिन वो बिस्तर में मसली जा रही थी,
और एक दिन जब वो बन गयी हड्डियों का ढांचा,
मौलवी का जी भर आया,
एक झटके में कह डाला, तलाक, तलाक, तलाक,
सलमा आज़ाद हो गयी थी !!
सर्द रात में चाँद का सफ़र !!
सर्द रात में चाँद
तय करता रहा सफ़र.
अकेला आकाश में.
देखा मैंने,कुछ देर रुका,
जब बदली की आगोश में था वो,
हां, कुछ देर रुका,
फिर चल पड़ा.
मैं देखता रहा उसे,
फिर पूछ बैठा चांद से,
तुम क्यों नही रुके,
जब बदली ने
लिया तुम्हें अपनी आगोश में
कहा चांद ने,
रुक नहीं सकता मैं,
कि चलना ही जीवन का नियम है.
कहा है बदली से मैंने,
तुम भी रुको नहीं,
करो न मेरा इंतजार,
अगर साथ आ सकती हो,
तो आओ,
मिलकर नापें सारा आकाश !!