मनीषा झालान
एक साल पहले में जॉब ढूंढ रही थी मुझे साउथ इंडिया घूमना था और बैंगलोर मेरी पहली चॉइस थी बहुत कोशिश के बाद मुझे बैंगलोर में जॉब मिल गई। घूमने के अलावा बैंगलोर आने का सबसे बड़ा कारण सुरक्षा भी था। यहाँ पूरे देश से क्राउड आता है खासकर आई टी कंपनियों में तो बहुत डिसेंट क्राउड लगता है। ज्यादातर लोग अलग अलग राज्यों से है। मैं यहाँ बहुत सुरक्षित महसूस कर रही थी शनिवार को इंदिरानगर एम जी रोड जाना शॉपिंग करना मेट्रो में घूमना पार्क जाना मुझे कभी डर नहीं लगा।
31 दिसंबर की रात में अपनी दोस्त के साथ फिनिक्स मॉलगई, हम दोनों ऑफिस से लेट फ्री हुए तो डिनर का प्लान बाहर ही बना। 12 बजे वापस पहुचे. सुबह मैंने न्यूज़ पढ़ा कि बैंगलोर में इंदिरानगर ब्रिगेड रोड पर कई युवा अपनी घटिया सोच का प्रदर्शन कर रहे थे। एक पल के लिए मेरी बॉडी सुन्न हो गई, फिर मुझे लगा अगर फीनिक्स मॉल की जगह हम इंदिरानगर गए होते तो हम भी इस सड़न का शिकार हो जातीं!
मंत्री जी लड़कियों को दोषी बता रहे हैं, जानते है क्यों?क्योंकि हमारी जड़ें सड़ रही है. मंत्री जी जो कह
रहे हैं, उसी तरह का नरिशमेंट होता है हमारा। फेसबुक पर कई लोगो ने लिखा. लेकिन मैं इतनी असहाय महसूस कर रही थी लगा क्या लिखूं ? आज फिर विडियो देखा अकेली लड़की को एक बाइक सवार
अपनी मानसिकता का शिकार बना रहा है अभी भी बॉडी में कम्पन हो रही है रोना भी आ रहा है , मंत्रियों के बयान बहुत ही हेल्पलेस महसूस होता है। अभी की बोर्ड पर टाइप करते हुए हाथ काँप रहे है
मैं सोचती थी दिल्ली में कभी जॉब नहीं करुँगी इसलिए सेफ सिटीज में कोशिश करने लगी, इतना घूमने के बाद जब सब ठीक लग रहा था तो सब कुछ बिलकुल उल्टा लगने लगा। अब समझ आई बात किबात जगह की तो है ही नहीं बात हमारी सोच की है , हमारे नरिशमेंट की है। आज भी अच्छी लड़की बुरी लड़की वाले टैग से लड़कियों को सुसज्जित किया जाता है लड़की के साथ कुछ गलत हो तो सीधा उसके कपड़ों , घर से निकलने के टाइम या यूँ कहे सीधे करेक्टर से छानबीन की जाती है।
कितने पुलिस वाले थे या नहीं थे , क्यों रोक नहीं पाए , केस किया नहीं किया ये सब अपनी जगह है जो कुछ हुआ वो सुरक्षा की और नहीं हमारी सोच की और उंगली उठाता है , क्या हमारी जड़ें सड़ नहीं रही ?
क्या हमे अपने घरों में इन सबके बारे में बात नहीं करनी चाहिए ? घरों में बस तब बात होती है जब रेप होता है या ऐसे कोई केस और दोष कपड़ों , देर रात घूमने पर लगाया जाता है। एक लड़की के घर से देर से निकलने से आज हमारी समझ को उसे जो मर्जी आये कहने या करने का हक़ मिल जाता है ? दो इंसानों (लड़का- लड़की ) के लिए अलग- अलग कायदे जो हमारी सोच से उपजे है ये है हमारा कल्चर ?
सच तो यह है कि हमारी सोच सिकुड़ती जा रही है ,आज भी बैंगलोर जैसे घटना होने पर हम घर की लड़कियों से बात करते है और उन्हें नसीहत देते है, शायद ही कोई लड़कों को पूछता या बताता है कि ये घटियापन है जो हो रहा है तुम इसका शिकार तो नहीं। बीमार कोई और है इलाज़ किसी और का हो रहा है और इस तरह सब गड़बड़ हो रहा है। लड़कियों से कितने सेफ या अनसेफ के सवाल पूछे जा रहे हैं, और लड़को से कोई बात नहीं कर रहा इसलिए हम घूम फिरकर वही आकर फिर से गलत इंसान का ट्रीटमेंट कर रहे है।
हमारा समाज (जो की हम ही है ) हमे ऐसे इंसिडेंट्समें नार्मल महसूस करना सिखाता है ये कहकर कि सब ठीक हो जायेगा तुम बस घर से देर रात बाहर मत रहना , कपड़े जरा अच्छे से पहनना वगैरह -वगैरह (क्योंकि लिस्ट लंबी है लड़की होने की वजह से) .
हाँ, अभी असहाय महसूस हो रहा है, लेकिन अपने सपनों कोपूरा करने किए लिए घर की चारदीवारी में नहीं रह सकते। मेरे जैसी कई लड़कियां है बैंगलोरे में जो अभी सहमी है , डरी है लेकिन किसी ने हिम्मत नहीं हारी शायद हमारा सिस्टम हमे अपने 'चलता है रैवये'का आदि होना सीखा रहा है जो की हमारे राष्ट्र के लिए बहुत घातक है। कई लोग कह रहे है लिखने से क्या होगा बड़ा फेमिनिस्ट बन रहे है ये सुनके हंसी भी आती है तरस भी क्योंकि हम अपना आक्रोश जताने के लिए लिखेंगे भी , धरने में भी शामिल होंगे और जब ऐसा कुछ हमारे साथ होगा तो घटिया मानसिकता वालों को सबक भी सिखाएंगे।
बस सभी लड़कियों और माँ बाप से कि न तो लड़कियों घर से निकलना छोड़ो और न ही माँ बाप लड़कियों को सलाह दें कि ऐसे कपड़े पहनो जल्दी घर आ जाओ या फिर घर से इस समय के बाद बाहर न निकलो।
हमे मजबूत तो होना ही है और घटिया मानसिकता वालों को सबक भी सिखाना है, हाथ पैर हमारे भी हैं । शर्म, हया , हम घर की इज़्ज़त जैसी बातों को दिमाग से निकालना होगा अब लड़ना होगा , लड़ना नहीं आता तो सीखना होगा, बहुत ही चौक्कना रहना होगा इस सड़न लगे समाज में रहने के लिए। जी तो रहे है क्यों न फिर इस घटिया मानसिकता से लड़ते हुए जिएं और आने वाली पीढ़ी का नरिशमेंट अच्छे से करें ताकि हमारी बच्चियों को न लड़ना पड़े। वो हमे छुएं तो हाथ- पैर तोड़ने की हिम्मत हम भी रखें। चलो अब लड़ना सीखते हैं ।
एक साल पहले में जॉब ढूंढ रही थी मुझे साउथ इंडिया घूमना था और बैंगलोर मेरी पहली चॉइस थी बहुत कोशिश के बाद मुझे बैंगलोर में जॉब मिल गई। घूमने के अलावा बैंगलोर आने का सबसे बड़ा कारण सुरक्षा भी था। यहाँ पूरे देश से क्राउड आता है खासकर आई टी कंपनियों में तो बहुत डिसेंट क्राउड लगता है। ज्यादातर लोग अलग अलग राज्यों से है। मैं यहाँ बहुत सुरक्षित महसूस कर रही थी शनिवार को इंदिरानगर एम जी रोड जाना शॉपिंग करना मेट्रो में घूमना पार्क जाना मुझे कभी डर नहीं लगा।
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मनीषा झालान |
मंत्री जी लड़कियों को दोषी बता रहे हैं, जानते है क्यों?क्योंकि हमारी जड़ें सड़ रही है. मंत्री जी जो कह
रहे हैं, उसी तरह का नरिशमेंट होता है हमारा। फेसबुक पर कई लोगो ने लिखा. लेकिन मैं इतनी असहाय महसूस कर रही थी लगा क्या लिखूं ? आज फिर विडियो देखा अकेली लड़की को एक बाइक सवार
अपनी मानसिकता का शिकार बना रहा है अभी भी बॉडी में कम्पन हो रही है रोना भी आ रहा है , मंत्रियों के बयान बहुत ही हेल्पलेस महसूस होता है। अभी की बोर्ड पर टाइप करते हुए हाथ काँप रहे है
मैं सोचती थी दिल्ली में कभी जॉब नहीं करुँगी इसलिए सेफ सिटीज में कोशिश करने लगी, इतना घूमने के बाद जब सब ठीक लग रहा था तो सब कुछ बिलकुल उल्टा लगने लगा। अब समझ आई बात किबात जगह की तो है ही नहीं बात हमारी सोच की है , हमारे नरिशमेंट की है। आज भी अच्छी लड़की बुरी लड़की वाले टैग से लड़कियों को सुसज्जित किया जाता है लड़की के साथ कुछ गलत हो तो सीधा उसके कपड़ों , घर से निकलने के टाइम या यूँ कहे सीधे करेक्टर से छानबीन की जाती है।
कितने पुलिस वाले थे या नहीं थे , क्यों रोक नहीं पाए , केस किया नहीं किया ये सब अपनी जगह है जो कुछ हुआ वो सुरक्षा की और नहीं हमारी सोच की और उंगली उठाता है , क्या हमारी जड़ें सड़ नहीं रही ?
क्या हमे अपने घरों में इन सबके बारे में बात नहीं करनी चाहिए ? घरों में बस तब बात होती है जब रेप होता है या ऐसे कोई केस और दोष कपड़ों , देर रात घूमने पर लगाया जाता है। एक लड़की के घर से देर से निकलने से आज हमारी समझ को उसे जो मर्जी आये कहने या करने का हक़ मिल जाता है ? दो इंसानों (लड़का- लड़की ) के लिए अलग- अलग कायदे जो हमारी सोच से उपजे है ये है हमारा कल्चर ?
सच तो यह है कि हमारी सोच सिकुड़ती जा रही है ,आज भी बैंगलोर जैसे घटना होने पर हम घर की लड़कियों से बात करते है और उन्हें नसीहत देते है, शायद ही कोई लड़कों को पूछता या बताता है कि ये घटियापन है जो हो रहा है तुम इसका शिकार तो नहीं। बीमार कोई और है इलाज़ किसी और का हो रहा है और इस तरह सब गड़बड़ हो रहा है। लड़कियों से कितने सेफ या अनसेफ के सवाल पूछे जा रहे हैं, और लड़को से कोई बात नहीं कर रहा इसलिए हम घूम फिरकर वही आकर फिर से गलत इंसान का ट्रीटमेंट कर रहे है।
हमारा समाज (जो की हम ही है ) हमे ऐसे इंसिडेंट्समें नार्मल महसूस करना सिखाता है ये कहकर कि सब ठीक हो जायेगा तुम बस घर से देर रात बाहर मत रहना , कपड़े जरा अच्छे से पहनना वगैरह -वगैरह (क्योंकि लिस्ट लंबी है लड़की होने की वजह से) .
हाँ, अभी असहाय महसूस हो रहा है, लेकिन अपने सपनों कोपूरा करने किए लिए घर की चारदीवारी में नहीं रह सकते। मेरे जैसी कई लड़कियां है बैंगलोरे में जो अभी सहमी है , डरी है लेकिन किसी ने हिम्मत नहीं हारी शायद हमारा सिस्टम हमे अपने 'चलता है रैवये'का आदि होना सीखा रहा है जो की हमारे राष्ट्र के लिए बहुत घातक है। कई लोग कह रहे है लिखने से क्या होगा बड़ा फेमिनिस्ट बन रहे है ये सुनके हंसी भी आती है तरस भी क्योंकि हम अपना आक्रोश जताने के लिए लिखेंगे भी , धरने में भी शामिल होंगे और जब ऐसा कुछ हमारे साथ होगा तो घटिया मानसिकता वालों को सबक भी सिखाएंगे।
बस सभी लड़कियों और माँ बाप से कि न तो लड़कियों घर से निकलना छोड़ो और न ही माँ बाप लड़कियों को सलाह दें कि ऐसे कपड़े पहनो जल्दी घर आ जाओ या फिर घर से इस समय के बाद बाहर न निकलो।
हमे मजबूत तो होना ही है और घटिया मानसिकता वालों को सबक भी सिखाना है, हाथ पैर हमारे भी हैं । शर्म, हया , हम घर की इज़्ज़त जैसी बातों को दिमाग से निकालना होगा अब लड़ना होगा , लड़ना नहीं आता तो सीखना होगा, बहुत ही चौक्कना रहना होगा इस सड़न लगे समाज में रहने के लिए। जी तो रहे है क्यों न फिर इस घटिया मानसिकता से लड़ते हुए जिएं और आने वाली पीढ़ी का नरिशमेंट अच्छे से करें ताकि हमारी बच्चियों को न लड़ना पड़े। वो हमे छुएं तो हाथ- पैर तोड़ने की हिम्मत हम भी रखें। चलो अब लड़ना सीखते हैं ।