संजीव चंदन
बिहार के जहानाबाद कोर्ट ने सेनारीनरसंहार (जहां सवर्ण जाति के लोग मारे गये थे) के मामले में अपना निर्णय सुनाया है. कई लोग आरोपी सिद्ध हुए हैं, उन्हें सजा भी सुना दी जाएगी. इधर बारा हत्याकांड (जहां 1992 में सवर्ण जाति के लोग मारे गये थे) के दोषियों को फांसी दिए जाने की तैयारी हो रही है. 2012 में बथानी टोला (जहां दलित जाति के लोग मारे गये थे ) के दोषियों को हाई कोर्ट ने आरोपमुक्त कर दिया था और हाईकोर्ट के निर्णय के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील आज भी लंबित है. न्याय के इसी समाज शास्त्र के बीच नरसंहारों के स्त्रीपक्ष को समझने की कोशिश की है. यह आलेख नरसंहार प्रभावित गांवों में लोगों से मिलकर लिखा गया था.
उसने आत्म हत्या कर ली. पति रणवीर सेना का एरिया कमांडर था, मारा गया. पत्नी दो बार अपने गाँव की मुखिया रही. निस्संदेह जीत में उसके पति के प्रति जातीय सहानुभूति का अहम् रोल था, गाँव की अधिकतम आबादी रणवीर सेना के समर्थकों की थी, इसलिए जीती. तीसरी बार वह जीत नहीं पाई -उसने मौत को गले लगा लिया. हवा में उसके चरित्र को लेकर फुसफुसाहटें तैरने लगीं .
तब बथानी टोला के अभियुक्तों को आरोप मुक्त कर दिये जाने के बाद मैं बथानी टोला सहित नरसंहार प्रभावित गांवों के दौरे पर था- कैसा है जातीय तनाव का ग्राफ, प्रभावित परिवारों की महिलाओं और बच्चों का जीवन और मनोविज्ञान घटनाओं के दो दशक बाद कितना अलिप्त हो पाया है उन खौफनाक मंजरों से. नरसंहारों का स्त्रीपक्ष
बारा जाते हुए उसकी आत्महत्याका पता चला , रणवीर सेना के एरिया कमांडर की पत्नी की आत्महत्या, उसके ही एरिया में मेरा गाँव भी था. किशोर अवस्था में ही उसका पति रणवीर सेना का एरिया कमांडर था, तूती बोलती थी उसकी , लेकिन वास्तव में वह अपनी जाति के भू सामंतों का एक हथियार भर था और अंततः मारा गया. उसकी पत्नी उसकी जातीय अस्मिता और 'जाति शहीद'के दर्जे के कारण ही मुखिया बनी थी अपने ग्राम पंचायत की.
बिहार के भू सामंतों ने जिस जातीयअस्मिता के सहारे अपने साम्राज्य की रक्षा के लिए अंतिम प्रयास 'निजी सेनाओं 'के सहारे किया था उसमें आर्थिक रूप से कमजोर जाति- युवा की आहुति दी गई थी, भू सामंतों का बहुत थोड़ा दाँव पर था, संपत्ति का सबसे न्यूनतम हिस्सा. उसका पति भी एक वैसा ही युवक था, इन्हें न तो राजनीतिक दर्शन से संपन्न किया गया था और न कोई विशेष राजनीतिक लक्ष्य था उनके पास , लक्ष्य था तो सिर्फ जाति-भाइयों की हत्या का बदला.
बारा , जहाँ 1992 में यानी रणवीरसेना के गठन के चार साल पूर्व 'भूमिहार जाति 'के ३३ लोग मारे गये थे, ने इस 'जातीय अस्मिता'को निजी सेना में बदलने का आधार बनाया. एम.सी.सी ने जब इस गाँव में सामूहिक नरसंहार का निर्णय लिया होगा तो मुझे नहीं लगता कि वे सामन्तों के खिलाफ या जातिवाद के खिलाफ किसी कारवाई के तर्क से संचालित थे अन्यथा एक वैसे गाँव में जहाँ एक भी बड़ी जोत का भू-सामंत नहीं था , हत्या की नृशंश कारवाई नहीं की गई होती या एक ही जाति ( भूमिहार ) के लोगों की हत्या नहीं की गई होती , गौरतलब है कि कुछ लोगों के प्राण सिर्फ इसलिए बख्श दिये गये थे कि वे ब्राहमण जाति के थे.
बथानी टोला के बाद बारा अगलागाँव था, जहाँ हम चिलचिलाती गर्मी की दोपहर में पहुंचे. २० सालों बाद गांव उस खौफनाक मंजर को भूल चुका है, कुछ लोग अपने 'दालानों'में दोपहर की नींद ले रहे थे , कुछ लोग एक 'दालान'में ताश खेल रहे थे. उन लोंगों में एक ऐसा भी शख्स था जिसके गले पर हथियार से हमले की निशानियाँ थीं, उसे मरा हुआ समझकर छोड़ दिया गया था, लेकिन वह बच निकला. पास में एक बुजुर्ग लेटे थे -'बुद्धन'उनकी जान इस लिए बख्सी गई थी कि वे उन लोगों के साथ खड़े हो गए थे, जिनको मारने वालों ने ब्राहमण माना था, हालांकि वे भूमिहार थे. उनके दो जवान बेटे मार दिए गए थे. इस खेतिहर गाँव के हत्याकांड ने जाति आधारित गोलबंदी और रणवीर सेना के गठन के लिए सामंत भूमिपतियों को तर्क दे दिए. बारा आज भी इस गोलबंदी का प्रतीक है. इस जाति के नेता इस हकीकत को समझाते हैं, इसीलिए इस गाँव को वे जाति -स्मृतियों में जिन्दा रखना चाहते हैं. कुछ माह पूर्व ही भाजपा नेता सी .पी.ठाकुर ने इस गाँव का दौरा किया था.
मारे गए लोगों के एक-एक आश्रितों कोबिहार सरकार ने नौकरी दी थी. हालांकि ११ लोगों के उपर किसी को आश्रित नहीं माना गया. बदले में मिली नौकरी ही मारे गए लोगों की विधवाओं के लिए जीवन का आधार बना अन्यथा आमतौर पर सवर्ण विधवाओं की जिन्दगी आज भी उतना ही जटिल है, जितना १९वीं शताब्दी में हुआ करती थी, जब ब्राह्मणवाद के प्रखर विरोधी चिन्तक महात्मा फुले ने 'ब्राहमण विधवाओं'के लिए पहला विधवा आश्रम खोला. यह अंतर साफ़ दिखता भी है कि बगल के 'बरसिमहा'नरसंहार ( बारा के पूर्व) में मारे गए दलित परिवार के व्यक्ति की विधवा ने अपनी ही जाति में दूसरी शादी कर ली, उसका भरा -पूरा घर है और पूर्व पति की हत्या के बाद मिली नौकरी से आर्थिक संबल भी. वही बारा की तीन विधवाओं में से, जिनसे मैं मिला या जिनके विषय में मैं जान सका, एक ने शादी कर ली थी, शेष दो अपने मरहूम पति के परिवार के साथ थीं. उनमें से दो हत्याकांड के दौरान तुरत व्याही गई थीं, कोई बच्चा नहीं था, एक को एक बेटा और एक बेटी थी. एक ने नौकरी के बाद बारा में ही रहना पसंद किया, अपने पति के छोटे भाई से अपनी छोटी बहन की शादी करवा दी और ससुराल के परिवार की देख-भाल करती है, दूसरी दूसरी शादी के बाद बारा से चली गई. बारा जाने के पूर्व टेकारी में जब मैं दो बच्चों की माँ यानी तीसरी महिला से मिला, तो उसके बच्चे, खासकर बेटी कुछ भी बात करने से मन करती रही. बेटी, जिसकी हाल में शादी हुई है, हमें अपनी माँ से बिना मिले चले जाने को कह रही थी. दरवाजे तक माँ के आ जाने से वह निरुत्तर हो गई. माँ की आँखे बात करते हुए भर आ रही थीं. माँ, जो पति की हत्या के बाद स्वास्थ्य विभाग में कार्यरत हुई, के लिए २० साल पुराना मंजर उसके वजूद से जुडी हैं, जबकि बेटी ने तब ठीक से अपने पिता की उंगलियाँ भी नहीं थामी होगी.
बिहार के गांवों में उन नरसंहारों केजेंडर पक्ष यही हैं, पीड़ित महिलाएं अपनी जाति की पीड़ा की प्रतीक हो गईं, उनपर इन नरसंहारों के स्थाई प्रभाव हुए, उनका निजी छिन गया. इस निजता के खंड के ऊपर जो सामूहिक जातीय गोलबंदी हुई , वहां भी अपने पति के साथ उनका निजी कुछ नहीं रहा. एरिया कमांडर की पत्नी, उसकी हत्या के बाद जातीय अस्मिता की सामूहिक प्रतीक रही, और जिस दिन वह सार्वजनिक जीवन से छूटी उस दिन उसने इस दुनिया को छोड़ जाने का निर्णय ले लिया.
बथानी टोला के सन्दर्भ से मैंने पहले लिखा था कि किस प्रकार सवर्णों का वर्चस्व पुनः कायम हुआ है और यह भी कि बिहार में नरसंहारों के कई दशक के बाद शांति तो है , लेकिन जातीय तनाव में कोई कमी नहीं आई है- इस तनाव के रूप बदले हैं. सरकार जहाँ महादलित के नाम पर 'दलित अस्मिता'के टुकडे कर रही है वहीँ सवर्ण सामजिक आर्थिक राजनीतिक वर्चस्व की पुनर्वापसी कर रहे हैं. हालांकि 'राज्य'की भूमिका, और भागीदारी के सिद्धांत के अनुपालन से सवर्ण मानस ज्यादा आतंकित होता है, हथियारों की तुलना में . संवादों, तर्कों और प्रयासों में आरक्षण के माध्यम से दलित -पिछड़ा भागीदारी के खिलाफ सवर्ण झुंझलाहट स्पष्ट है, जबकि बरसिम्हा जैसे गांवों में रह रहे दलित जीने की जद्दो-जहद कर रहे हैं.
मेरी दिलचस्पी रणवीर सेना के कुछ ज्ञात -अज्ञात कमांडरों का वर्तमान जानने में भी थी . मेरे साथ भूमिहार जाति से ही एक युवा नेता और स्थानीय पत्रकार थे, दोनों ही राजीव रंजन. उनके कुछ रिश्तेदार सेना के दिनों में क्षेत्र में ख्यात -कुख्यात भी रहे थे. उनमे से कोई स्वास्थ्य विभाग में अपने मारे गये किसी रिश्तेदार की अनुकम्पा पर नौकरी कर रहा है, कोई छोटा-मोटा लूट -मार करता हुआ फटेहाल है. एक की हत्या और उसकी पत्नी की दुखद आत्महत्या का जिक्र मैंने किया ही. इनकी जाति के भू-सामंत वर्चस्व के नए समीकरणों के साथ वापस हुए हैं. एक बात और कि बारा में हमारी अगुआई करने वाला युवा नरसंहार के दिन ८-१० साल का छोटा लड़का था, उसके अनुसार उन्होंने बच्चों और महिलाओं को टार्गेट नहीं किया था, उसे जरूर दो-नाली (बन्दूक) दिखाकर उसके घर में होने या न होने की तफ्तीश की गई थी, जबकि बथानी टोला में तीन माह की बच्ची समेत कई बच्चे मारे गये थे.
बिहार के जहानाबाद कोर्ट ने सेनारीनरसंहार (जहां सवर्ण जाति के लोग मारे गये थे) के मामले में अपना निर्णय सुनाया है. कई लोग आरोपी सिद्ध हुए हैं, उन्हें सजा भी सुना दी जाएगी. इधर बारा हत्याकांड (जहां 1992 में सवर्ण जाति के लोग मारे गये थे) के दोषियों को फांसी दिए जाने की तैयारी हो रही है. 2012 में बथानी टोला (जहां दलित जाति के लोग मारे गये थे ) के दोषियों को हाई कोर्ट ने आरोपमुक्त कर दिया था और हाईकोर्ट के निर्णय के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील आज भी लंबित है. न्याय के इसी समाज शास्त्र के बीच नरसंहारों के स्त्रीपक्ष को समझने की कोशिश की है. यह आलेख नरसंहार प्रभावित गांवों में लोगों से मिलकर लिखा गया था.
उसने आत्म हत्या कर ली. पति रणवीर सेना का एरिया कमांडर था, मारा गया. पत्नी दो बार अपने गाँव की मुखिया रही. निस्संदेह जीत में उसके पति के प्रति जातीय सहानुभूति का अहम् रोल था, गाँव की अधिकतम आबादी रणवीर सेना के समर्थकों की थी, इसलिए जीती. तीसरी बार वह जीत नहीं पाई -उसने मौत को गले लगा लिया. हवा में उसके चरित्र को लेकर फुसफुसाहटें तैरने लगीं .
तब बथानी टोला के अभियुक्तों को आरोप मुक्त कर दिये जाने के बाद मैं बथानी टोला सहित नरसंहार प्रभावित गांवों के दौरे पर था- कैसा है जातीय तनाव का ग्राफ, प्रभावित परिवारों की महिलाओं और बच्चों का जीवन और मनोविज्ञान घटनाओं के दो दशक बाद कितना अलिप्त हो पाया है उन खौफनाक मंजरों से. नरसंहारों का स्त्रीपक्ष
बारा जाते हुए उसकी आत्महत्याका पता चला , रणवीर सेना के एरिया कमांडर की पत्नी की आत्महत्या, उसके ही एरिया में मेरा गाँव भी था. किशोर अवस्था में ही उसका पति रणवीर सेना का एरिया कमांडर था, तूती बोलती थी उसकी , लेकिन वास्तव में वह अपनी जाति के भू सामंतों का एक हथियार भर था और अंततः मारा गया. उसकी पत्नी उसकी जातीय अस्मिता और 'जाति शहीद'के दर्जे के कारण ही मुखिया बनी थी अपने ग्राम पंचायत की.
बिहार के भू सामंतों ने जिस जातीयअस्मिता के सहारे अपने साम्राज्य की रक्षा के लिए अंतिम प्रयास 'निजी सेनाओं 'के सहारे किया था उसमें आर्थिक रूप से कमजोर जाति- युवा की आहुति दी गई थी, भू सामंतों का बहुत थोड़ा दाँव पर था, संपत्ति का सबसे न्यूनतम हिस्सा. उसका पति भी एक वैसा ही युवक था, इन्हें न तो राजनीतिक दर्शन से संपन्न किया गया था और न कोई विशेष राजनीतिक लक्ष्य था उनके पास , लक्ष्य था तो सिर्फ जाति-भाइयों की हत्या का बदला.
बारा , जहाँ 1992 में यानी रणवीरसेना के गठन के चार साल पूर्व 'भूमिहार जाति 'के ३३ लोग मारे गये थे, ने इस 'जातीय अस्मिता'को निजी सेना में बदलने का आधार बनाया. एम.सी.सी ने जब इस गाँव में सामूहिक नरसंहार का निर्णय लिया होगा तो मुझे नहीं लगता कि वे सामन्तों के खिलाफ या जातिवाद के खिलाफ किसी कारवाई के तर्क से संचालित थे अन्यथा एक वैसे गाँव में जहाँ एक भी बड़ी जोत का भू-सामंत नहीं था , हत्या की नृशंश कारवाई नहीं की गई होती या एक ही जाति ( भूमिहार ) के लोगों की हत्या नहीं की गई होती , गौरतलब है कि कुछ लोगों के प्राण सिर्फ इसलिए बख्श दिये गये थे कि वे ब्राहमण जाति के थे.
बथानी टोला के बाद बारा अगलागाँव था, जहाँ हम चिलचिलाती गर्मी की दोपहर में पहुंचे. २० सालों बाद गांव उस खौफनाक मंजर को भूल चुका है, कुछ लोग अपने 'दालानों'में दोपहर की नींद ले रहे थे , कुछ लोग एक 'दालान'में ताश खेल रहे थे. उन लोंगों में एक ऐसा भी शख्स था जिसके गले पर हथियार से हमले की निशानियाँ थीं, उसे मरा हुआ समझकर छोड़ दिया गया था, लेकिन वह बच निकला. पास में एक बुजुर्ग लेटे थे -'बुद्धन'उनकी जान इस लिए बख्सी गई थी कि वे उन लोगों के साथ खड़े हो गए थे, जिनको मारने वालों ने ब्राहमण माना था, हालांकि वे भूमिहार थे. उनके दो जवान बेटे मार दिए गए थे. इस खेतिहर गाँव के हत्याकांड ने जाति आधारित गोलबंदी और रणवीर सेना के गठन के लिए सामंत भूमिपतियों को तर्क दे दिए. बारा आज भी इस गोलबंदी का प्रतीक है. इस जाति के नेता इस हकीकत को समझाते हैं, इसीलिए इस गाँव को वे जाति -स्मृतियों में जिन्दा रखना चाहते हैं. कुछ माह पूर्व ही भाजपा नेता सी .पी.ठाकुर ने इस गाँव का दौरा किया था.
मारे गए लोगों के एक-एक आश्रितों कोबिहार सरकार ने नौकरी दी थी. हालांकि ११ लोगों के उपर किसी को आश्रित नहीं माना गया. बदले में मिली नौकरी ही मारे गए लोगों की विधवाओं के लिए जीवन का आधार बना अन्यथा आमतौर पर सवर्ण विधवाओं की जिन्दगी आज भी उतना ही जटिल है, जितना १९वीं शताब्दी में हुआ करती थी, जब ब्राह्मणवाद के प्रखर विरोधी चिन्तक महात्मा फुले ने 'ब्राहमण विधवाओं'के लिए पहला विधवा आश्रम खोला. यह अंतर साफ़ दिखता भी है कि बगल के 'बरसिमहा'नरसंहार ( बारा के पूर्व) में मारे गए दलित परिवार के व्यक्ति की विधवा ने अपनी ही जाति में दूसरी शादी कर ली, उसका भरा -पूरा घर है और पूर्व पति की हत्या के बाद मिली नौकरी से आर्थिक संबल भी. वही बारा की तीन विधवाओं में से, जिनसे मैं मिला या जिनके विषय में मैं जान सका, एक ने शादी कर ली थी, शेष दो अपने मरहूम पति के परिवार के साथ थीं. उनमें से दो हत्याकांड के दौरान तुरत व्याही गई थीं, कोई बच्चा नहीं था, एक को एक बेटा और एक बेटी थी. एक ने नौकरी के बाद बारा में ही रहना पसंद किया, अपने पति के छोटे भाई से अपनी छोटी बहन की शादी करवा दी और ससुराल के परिवार की देख-भाल करती है, दूसरी दूसरी शादी के बाद बारा से चली गई. बारा जाने के पूर्व टेकारी में जब मैं दो बच्चों की माँ यानी तीसरी महिला से मिला, तो उसके बच्चे, खासकर बेटी कुछ भी बात करने से मन करती रही. बेटी, जिसकी हाल में शादी हुई है, हमें अपनी माँ से बिना मिले चले जाने को कह रही थी. दरवाजे तक माँ के आ जाने से वह निरुत्तर हो गई. माँ की आँखे बात करते हुए भर आ रही थीं. माँ, जो पति की हत्या के बाद स्वास्थ्य विभाग में कार्यरत हुई, के लिए २० साल पुराना मंजर उसके वजूद से जुडी हैं, जबकि बेटी ने तब ठीक से अपने पिता की उंगलियाँ भी नहीं थामी होगी.
बिहार के गांवों में उन नरसंहारों केजेंडर पक्ष यही हैं, पीड़ित महिलाएं अपनी जाति की पीड़ा की प्रतीक हो गईं, उनपर इन नरसंहारों के स्थाई प्रभाव हुए, उनका निजी छिन गया. इस निजता के खंड के ऊपर जो सामूहिक जातीय गोलबंदी हुई , वहां भी अपने पति के साथ उनका निजी कुछ नहीं रहा. एरिया कमांडर की पत्नी, उसकी हत्या के बाद जातीय अस्मिता की सामूहिक प्रतीक रही, और जिस दिन वह सार्वजनिक जीवन से छूटी उस दिन उसने इस दुनिया को छोड़ जाने का निर्णय ले लिया.
बथानी टोला के सन्दर्भ से मैंने पहले लिखा था कि किस प्रकार सवर्णों का वर्चस्व पुनः कायम हुआ है और यह भी कि बिहार में नरसंहारों के कई दशक के बाद शांति तो है , लेकिन जातीय तनाव में कोई कमी नहीं आई है- इस तनाव के रूप बदले हैं. सरकार जहाँ महादलित के नाम पर 'दलित अस्मिता'के टुकडे कर रही है वहीँ सवर्ण सामजिक आर्थिक राजनीतिक वर्चस्व की पुनर्वापसी कर रहे हैं. हालांकि 'राज्य'की भूमिका, और भागीदारी के सिद्धांत के अनुपालन से सवर्ण मानस ज्यादा आतंकित होता है, हथियारों की तुलना में . संवादों, तर्कों और प्रयासों में आरक्षण के माध्यम से दलित -पिछड़ा भागीदारी के खिलाफ सवर्ण झुंझलाहट स्पष्ट है, जबकि बरसिम्हा जैसे गांवों में रह रहे दलित जीने की जद्दो-जहद कर रहे हैं.
मेरी दिलचस्पी रणवीर सेना के कुछ ज्ञात -अज्ञात कमांडरों का वर्तमान जानने में भी थी . मेरे साथ भूमिहार जाति से ही एक युवा नेता और स्थानीय पत्रकार थे, दोनों ही राजीव रंजन. उनके कुछ रिश्तेदार सेना के दिनों में क्षेत्र में ख्यात -कुख्यात भी रहे थे. उनमे से कोई स्वास्थ्य विभाग में अपने मारे गये किसी रिश्तेदार की अनुकम्पा पर नौकरी कर रहा है, कोई छोटा-मोटा लूट -मार करता हुआ फटेहाल है. एक की हत्या और उसकी पत्नी की दुखद आत्महत्या का जिक्र मैंने किया ही. इनकी जाति के भू-सामंत वर्चस्व के नए समीकरणों के साथ वापस हुए हैं. एक बात और कि बारा में हमारी अगुआई करने वाला युवा नरसंहार के दिन ८-१० साल का छोटा लड़का था, उसके अनुसार उन्होंने बच्चों और महिलाओं को टार्गेट नहीं किया था, उसे जरूर दो-नाली (बन्दूक) दिखाकर उसके घर में होने या न होने की तफ्तीश की गई थी, जबकि बथानी टोला में तीन माह की बच्ची समेत कई बच्चे मारे गये थे.