इस वक्त जब हम 'पिंक 'और 'पार्च्ड'पर बात कर रहे हैं, तो हमारे पास रियललाइफ के हालिया दो अदालती फैसले आए हैं. दोनों ही बहुचर्चित मामले हैं : एक रुचिका गिरहोत्रा का मामला जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने भी हरियाणा के पूर्व डीजीपी एस.पी.एस राठौड़ को दोषी मान लिया है. दूसरा मामला ब्रिटीश किशोरी स्कारलेट की गोवा में हत्या का है, जिसमें स्थानीय अदालत ने दोनों आरोपियों को बरी कर दिया है. दोनों ही मामलों में पुलिस शुरुआत में पीड़िताओं के खिलाफ ही काम करती नजर आई थी. लेकिन अफसोस कि स्कारलेट मामले में सीबीआइ जांच का हासिल भी कुछ न रहा. हम महिलाओं के खिलाफ हुए लाखों मामलों के हश्र को फिर किस तरह समझें?
जमीनी हकीकत से कोसों दूर पिंक!
अदालती कार्यवाही की पृष्ठभूमि के जरिए महिला आजादी कीबात करती फिल्म पिंक पर बात से पहले कुछ जमीनी आंकड़े देख लेते हैं. नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो (एनसीआरबी) के हालिया आंकड़ों के मुताबिक 2015 में देश की अदालतों में महिलाओं के खिलाफ अपराध के कुल 12,27,187 केस ट्रायल के लिए आए. इनमें से महज 1,28,240 (करीब 10 फीसदी) मामलों का ही ट्रायल पूरा हो सका. इससे भी चिंताजनक बात कि इनमें सिर्फ 27,844 मामलों में ही अपराध साबित हो सका और 1,00,396 (यानी करीब 78 फीसदी) मामले खारिज हो गए और आरोपी छूट गए. इस तरह अपराध सिद्ध होने की दर महज 22 फीसदी. जाहिर है, असल जिंदगी में देश की अधिकतर महिलाओं को न तो पिंक की तरह एक 'महानायक'वकील नसीब हो पाता है और न ही एक दृश्य में 'फलक'की बातें सुन तकरीबन रो पड़े 'न्यायाधीश'तथा पुलिस तो पुलिस है ही! इतना ही नहीं महिला आजादी को लेकर कुछ कानूनी हासिलों जिसका, जिक्र संजीव चंदन अपने लेख ( लेख पढ़ें स्त्रीकाल में : क्यों स्त्रीविरोधी है अतिनाटकीय फिल्म पिंकमें करते हैं- सिद्ध करने की जिम्मेदारी, सेक्स वर्कर के ना कहने का अधिकार या पीड़िता के चरित्र पर सवाल नहीं करना, का पिंक में नाटकीय ढंग से उल्लंघन है. यह संकेत करता है कि फिल्म समकालीन हासिलों से कदमताल नहीं करती और ना ही उससे आगे बढ़ती है. अदालती कार्यवाही को उसी वक्त खत्म होनी चाहिए थी , जब लड़कियों के खिलाफ एफआइआर बैक डेट में दर्ज किया जाना सिद्ध हो जाता है. जाहिर है, ये सब चीजें अदालती कार्यवाही नाटकीय बनाते हैं और कथानक को लेकर शोध के अभाव को दिखाते हैं. इस लिहाज से पिंक ‘पाथ ब्रेकर’ फिल्म कतई नहीं कही जा सकती.
पिंक में बंदिशों के साथ ‘नो’
हां, पिंक अच्छी फिल्म कही जा सकती है या कम-से-कम बॉलीवुड में बनने वाली अधिकतर फिल्मों की परिपाटी में तो इसे बेहतर कहा ही जा सकता है, लेकिन बारीकी से देखें तो यह भी बुनियादी तौर पर महिला आजादी के ‘हासिलों’ या विमर्श को कुंद करने का काम करती है. यह 'नो'के जिस मैसेज पर जोर देती है वह बेहद महत्वपूर्ण है लेकिन क्या फिल्म में नो का यह संदेश ‘बंदिश रहित’ है? फिल्म के 'महानायक'वकील (अभिताभ बच्चन की निजी जिंदगी को इस आलेख में रहने ही देते हैं) को ध्यान से देखिए जरा. वह तीनों युवतियों को जिस तरह घूरता है (नजर रखता है), इसका संदेश क्या है? 'सुरक्षा'ही न! मतलब युवतियां अपनी सुरक्षा के लिए कुछ 'कायदों'या एक 'घेरे'को तोड़ रही हैं, जो उनके लिए कथित तौर पर खतरनाक है. महानायक वकील 'दीपक सहगल'जो कथित तौर पर सटायर की तरह लड़कियों के लिए जिन ‘रूलबुक’ का जिक्र करता है, क्या वह वास्तव में फिल्म में सटायर के तौर पर है? फिल्म देखने के बाद कुछ उच्च पढ़ी-लिखी महिलाओं की टिप्पणियों को हमें देखना चाहिए. मशहूर dailyO वेबसाइट पर प्रेरणा कौशल मिश्र का एक आलेख (क्लिक करें ) (लल्लटॉप पर हिंदी (क्लिक करें) में छपा है कि पिंक ने मेरी बेटी को वह समझा दिया, जो वह खुद नहीं समझा पा रही थीं. उनके शब्दों में, “देखने वाले जिसको दीपक सहगल की सटायर की रूलबुक मान रहे हैं, मैं उस रूलबुक को ‘औरत की सेफ्टी के लिए ज़रूरी’ मैन्युअल मानती हूं.” उनके मुताबिक अभिभावकों के लिए जरूरी होता है कि वे स्ट्रिक्ट रहें, बेटी को अजनबियों से डरने, फ्रेंडली हो रहे लोगों पर शक करे और उनके मुताबिक उनकी बच्ची समझ गई कि वह अपनी एक दोस्त के यहां एक दिन के लिए ठहरने न जाए क्योंकि उसके दोस्त से लेखिका नहीं मिली थी या उसके अभिभावकों को नहीं जानती थी. जाहिर है, दीपक सहगल का नजर रखना या रूलबुक का जिक्र का संदेश क्या है, इसे हमें समझना चाहिए.
परिवार कहां गया?
ऊपर यह जो ‘बाहरी असुरक्षा’ के नाम पर ‘नजर रखने’ का जो विचार है वह कहां से आता है? इन दिनों जब इस नजर रखने के खिलाफ ‘पिंजड़ा तोड़’ जैसे आंदोलन हो रहे हैं, यह फिल्म कहां ले जाती है? खैर, जाहिर तौर पर ‘नजर रखने’ का विचार परिवार नामक ढांचे में बुनियादी तौर पर शामिल है. लेकिन इन दिनों पर पति के द्वारा बलात्कार के मसले या तीन तलाक या लगातार जारी ऑनर किलिंग जैसे मसलों पर जोरदार बात हो रही है, फिल्म में परिवार कहां है? जमीनी हकीकत का अंदाजा इन आंकड़ों से भी लगाया जा सकता है. एनसीआरबी के मुताबिक 2015 में महिलाओं के खिलाफ कुल 3,27,394 अपराध दर्ज हुए. इनमें सबसे ज्यादा मामले यानी करीब 38 फीसदी ( कुल 1,23,403) मामले पति या परिजनों की ओर से किए गए अत्याचार के मामले थे. यही नहीं, बलात्कार के कुल 34,651 मामले दर्ज हुए, जिनमें 33,098 (95.5 फीसदी) में आरोपी परिचित थे. जाहिर है, महिलाओं की आजादी को लेकर या उनके खिलाफ अपराध के मामले में परिवार और सगे-संबंधी और पास-पड़ोस सबसे अहम कड़ी है. लेकिन पिंक में इस परिवार नामक ढांचे की पड़ताल नहीं है. बल्कि नायिका परिवार या अपने रिश्ते को लेकर वहीं पुराने ढर्रे पर नजर आती हैं. अब मीनल के पिता को देखिए जरा. वह अपनी बेटी के साथ डटकर खड़ा रहने की बजाए एक वक्त 'शर्म के मारे'अदालत से बाहर निकल जाता है और उसकी सहेलियों से कहता है कि मीनल को अब घर भेज देना. वहीं आखिर में फैसले के बाद नायिका उसी पिता के साथ खुशी मनाती नजर आती है. जाहिरा तौर पर पिंक महिलाओं की आजादी की सबसे अहम और शुरुआती कड़ी 'परिवार'की पड़ताल नहीं करता.
और पिंक के साथ पार्च्ड के कुछ जवाब
परिवार की पड़तालःइस लिहाज से पार्च्ड बेहद अहम फिल्म है, जो पारिवारिक ढांचे पर भी बात करती है. पार्च्ड सिर्फ महिलाओं के शोषण के जड़ पर वार करती है, पिंक की तरह केवल सतह पर या बाहर सिमटी नहीं रहती है. पिंक में जो बातें सिर्फ बयानों (नारे सरीखे) में सामने आते हैं, वह पार्च्ड में चारों नायिकाओं (एक विधवा, एक कथित बांझ, एक कथित वेश्या, एक बालवधू) की जिंदगी में इम्प्लीमेंट हो रहे होते हैं. पार्च्ड भारतीय संस्कृति के 'महान'परिवारिक ढांचे को आईना दिखाती है, उसे रेशा-रेशा कर देती है. रानी का बेटा गुलाब जब घर छोड़कर जाता है तो वह कहता है कि ‘देखता हूं तुम लोग पुरुष के बगैर कैसे सर्वाइव कर पाती हो’. रानी और लाजो पुरुषवाद के इस बुनियादी दंभ को सशक्त चुनौती देती हैं.
अपने फैसले खुद:पिंक के मुकाबले पार्च्ड की खासियत है कि इसमें नायिकाएं (शुरुआत में शोषण का शिकार होने के बावजूद) आखिरकार अपने फैसले खुद लेती हैं, अपनी नियति खुद तय करती हैं. फिल्म का आखिरी दृश्य भी इसी से खत्म होता है. सबसे अहम तो यही बात है कि महिलाएं अपनी आजादी अपने जीने का हक या तरीका खुद तय करें. वे किसी महानायक या मददगार या किसी अदालत के फैसले की बाट जोहने को मजबूर नहीं रहतीं. मुझे लगता है कि महिला आजादी का मसला बुनियादी तौर पर सामाजिक स्वीकार्यता से जुड़ा है, यह महज अदालत का मसला नहीं है. अगर पिंक ने अदालती फैसला लड़कियों के खिलाफ जाता तो? (जाहिर तौर पर देश के जमीनी आंकड़े तो ऐसा ही कहते हैं.)
गालियों का समाजशास्त्रःपिंक में जब खलनायक लड़कियों को गाली देता है, तो पूरे कोर्ट रुम में (सिनेमाहॉल में भी) अपमान की भावना या गुस्से की लहर दौड़ जाती है. वहीं पार्च्ड में नायिकाएं गालियों के समाजशास्त्र को उलटकर रख देती हैं. वे सवाल करती हैं कि गालियां हमेशा महिलाओं पर क्यों बनाए गए और धड़ल्ले से पुरुषों पर गालियां बनाने लगती हैं. (हालांकि गालियां खत्म होनी चाहिए, लेकिन इस मामले में पहली जिम्मेदारी पुरुषों की है). वहीं आखिर में रानी के पति को मरने छोड़ (दुर्घटनावश ही सही) देने पर मुझे आपत्ति है (क्योंकि पुरुष या किसी का खत्म होना उपाय नहीं) बल्कि उसे जिंदा रहते भी उससे अलग हुआ जा सकता है.
सेक्स वर्कर का ‘नो’ ‘नो’ नहीं?:पिंक में यह महज कुछेक बयानों में है. और जब फलक दीपक सहगल से कहती है कि ‘क्या करती कोई मान ही नहीं रहा था कि हमने पैसे नहीं लिए.’ तो क्या सेक्स वर्कर ना कहे तो उसकी अहमियत नहीं? वहीं पार्च्ड में तो बिजली मजबूती से ना कहती है, हालांकि उसे किसी अन्य को लाकर सबक सिखाने की भी कोशिश होती है.
महानायक के बगैर पार्च्ड: पार्च्ड में भी किशन के तौर पर ‘अच्छे’ पुरुष का किरदार है. लेकिन वही कहीं भी नायिकाओं का उद्धार करने वाले महानायक या मददगार के तौर पर नहीं दिखाया गया है. वह बस एक कुटीर उद्योग का नुमाइंदा है, जिसके लिए महिलाएं काम करती हैं (आजीविका के लिए). पिंक में जबकि समापन दृश्य में एक कमजोर प्रतीत हो रही (दिखाई गई) महिला सिपाही दीपक सहगल को इस तरह शुक्रिया कहती है मानो वही हैं जिन्होंने महिलाओं की रक्षा की और महिलाओं को ऐसे पुरुष का एहसानमंद होना चाहिए.
नॉर्थ इस्ट की युवती यहां भी:नॉर्थ इस्ट की युवती पार्च्ड में भी है और असल जिंदगी की तरह ही वह प्रगतिशील और संघर्षशील है. रानी की बहू को वह शादी के गिफ्ट के बतौर किताबें देती है. वह कुंठित पुरुषों से दबने की बजाए चुनौती देती प्रतीत होती है.
जानकी का पढ़ने का ललकःयह एक अहम संदेश है. जानकी को किताबें पसंद है. रानी जब अपनी बहू को उसके प्रेमी के साथ रवाना करती है तो उससे कहती है कि जानकी का नाम स्कूल में जरूर लिखवा देना, इसे खूब पढ़ाना और अच्छे से रखना.
गांव से निकलना ही बेहतरः यह भी महत्वपूर्ण है वे गांव छोड़ मुंबई या किसी शहर जाने की बात करती हैं. गांव को लेकर रोमांटिक होने वाले मुख्यतौर पर उच्च या वर्चस्वशाली तबका ही है, वरना वंचितों-महिलाओं के लिए तो गांव शोषण के अड्डे हैं. गांव से निकल जाना ही बेहतर. अर्थ (पूंजी) को छोड़कर अन्य अधिकतर बंदिशों से आजादी तो दिलाते ही हैं शहर.
और अभिनय तो लाजवाब: अभिनय के लिहाज से भी जिन्हें अमिताभ बच्चन पिंक में बड़े अच्छे लग रहे हैं, जरा उन्हें पार्च्ड में सुरवीन चावला को ही देख लेना चाहिए. तनिष्ठा चटर्जी तो बेहद सधी हुईं, लहर खान बेहतरीन और फिर राधिका आप्टे अच्छी हैं ही इस फिल्म में.
स्त्रीकाल में यह भी पढ़ें: रंडी अश्लील शब्द है और फक धार्मिक
जमीनी हकीकत से कोसों दूर पिंक!
अदालती कार्यवाही की पृष्ठभूमि के जरिए महिला आजादी कीबात करती फिल्म पिंक पर बात से पहले कुछ जमीनी आंकड़े देख लेते हैं. नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो (एनसीआरबी) के हालिया आंकड़ों के मुताबिक 2015 में देश की अदालतों में महिलाओं के खिलाफ अपराध के कुल 12,27,187 केस ट्रायल के लिए आए. इनमें से महज 1,28,240 (करीब 10 फीसदी) मामलों का ही ट्रायल पूरा हो सका. इससे भी चिंताजनक बात कि इनमें सिर्फ 27,844 मामलों में ही अपराध साबित हो सका और 1,00,396 (यानी करीब 78 फीसदी) मामले खारिज हो गए और आरोपी छूट गए. इस तरह अपराध सिद्ध होने की दर महज 22 फीसदी. जाहिर है, असल जिंदगी में देश की अधिकतर महिलाओं को न तो पिंक की तरह एक 'महानायक'वकील नसीब हो पाता है और न ही एक दृश्य में 'फलक'की बातें सुन तकरीबन रो पड़े 'न्यायाधीश'तथा पुलिस तो पुलिस है ही! इतना ही नहीं महिला आजादी को लेकर कुछ कानूनी हासिलों जिसका, जिक्र संजीव चंदन अपने लेख ( लेख पढ़ें स्त्रीकाल में : क्यों स्त्रीविरोधी है अतिनाटकीय फिल्म पिंकमें करते हैं- सिद्ध करने की जिम्मेदारी, सेक्स वर्कर के ना कहने का अधिकार या पीड़िता के चरित्र पर सवाल नहीं करना, का पिंक में नाटकीय ढंग से उल्लंघन है. यह संकेत करता है कि फिल्म समकालीन हासिलों से कदमताल नहीं करती और ना ही उससे आगे बढ़ती है. अदालती कार्यवाही को उसी वक्त खत्म होनी चाहिए थी , जब लड़कियों के खिलाफ एफआइआर बैक डेट में दर्ज किया जाना सिद्ध हो जाता है. जाहिर है, ये सब चीजें अदालती कार्यवाही नाटकीय बनाते हैं और कथानक को लेकर शोध के अभाव को दिखाते हैं. इस लिहाज से पिंक ‘पाथ ब्रेकर’ फिल्म कतई नहीं कही जा सकती.
पिंक में बंदिशों के साथ ‘नो’
हां, पिंक अच्छी फिल्म कही जा सकती है या कम-से-कम बॉलीवुड में बनने वाली अधिकतर फिल्मों की परिपाटी में तो इसे बेहतर कहा ही जा सकता है, लेकिन बारीकी से देखें तो यह भी बुनियादी तौर पर महिला आजादी के ‘हासिलों’ या विमर्श को कुंद करने का काम करती है. यह 'नो'के जिस मैसेज पर जोर देती है वह बेहद महत्वपूर्ण है लेकिन क्या फिल्म में नो का यह संदेश ‘बंदिश रहित’ है? फिल्म के 'महानायक'वकील (अभिताभ बच्चन की निजी जिंदगी को इस आलेख में रहने ही देते हैं) को ध्यान से देखिए जरा. वह तीनों युवतियों को जिस तरह घूरता है (नजर रखता है), इसका संदेश क्या है? 'सुरक्षा'ही न! मतलब युवतियां अपनी सुरक्षा के लिए कुछ 'कायदों'या एक 'घेरे'को तोड़ रही हैं, जो उनके लिए कथित तौर पर खतरनाक है. महानायक वकील 'दीपक सहगल'जो कथित तौर पर सटायर की तरह लड़कियों के लिए जिन ‘रूलबुक’ का जिक्र करता है, क्या वह वास्तव में फिल्म में सटायर के तौर पर है? फिल्म देखने के बाद कुछ उच्च पढ़ी-लिखी महिलाओं की टिप्पणियों को हमें देखना चाहिए. मशहूर dailyO वेबसाइट पर प्रेरणा कौशल मिश्र का एक आलेख (क्लिक करें ) (लल्लटॉप पर हिंदी (क्लिक करें) में छपा है कि पिंक ने मेरी बेटी को वह समझा दिया, जो वह खुद नहीं समझा पा रही थीं. उनके शब्दों में, “देखने वाले जिसको दीपक सहगल की सटायर की रूलबुक मान रहे हैं, मैं उस रूलबुक को ‘औरत की सेफ्टी के लिए ज़रूरी’ मैन्युअल मानती हूं.” उनके मुताबिक अभिभावकों के लिए जरूरी होता है कि वे स्ट्रिक्ट रहें, बेटी को अजनबियों से डरने, फ्रेंडली हो रहे लोगों पर शक करे और उनके मुताबिक उनकी बच्ची समझ गई कि वह अपनी एक दोस्त के यहां एक दिन के लिए ठहरने न जाए क्योंकि उसके दोस्त से लेखिका नहीं मिली थी या उसके अभिभावकों को नहीं जानती थी. जाहिर है, दीपक सहगल का नजर रखना या रूलबुक का जिक्र का संदेश क्या है, इसे हमें समझना चाहिए.
परिवार कहां गया?
ऊपर यह जो ‘बाहरी असुरक्षा’ के नाम पर ‘नजर रखने’ का जो विचार है वह कहां से आता है? इन दिनों जब इस नजर रखने के खिलाफ ‘पिंजड़ा तोड़’ जैसे आंदोलन हो रहे हैं, यह फिल्म कहां ले जाती है? खैर, जाहिर तौर पर ‘नजर रखने’ का विचार परिवार नामक ढांचे में बुनियादी तौर पर शामिल है. लेकिन इन दिनों पर पति के द्वारा बलात्कार के मसले या तीन तलाक या लगातार जारी ऑनर किलिंग जैसे मसलों पर जोरदार बात हो रही है, फिल्म में परिवार कहां है? जमीनी हकीकत का अंदाजा इन आंकड़ों से भी लगाया जा सकता है. एनसीआरबी के मुताबिक 2015 में महिलाओं के खिलाफ कुल 3,27,394 अपराध दर्ज हुए. इनमें सबसे ज्यादा मामले यानी करीब 38 फीसदी ( कुल 1,23,403) मामले पति या परिजनों की ओर से किए गए अत्याचार के मामले थे. यही नहीं, बलात्कार के कुल 34,651 मामले दर्ज हुए, जिनमें 33,098 (95.5 फीसदी) में आरोपी परिचित थे. जाहिर है, महिलाओं की आजादी को लेकर या उनके खिलाफ अपराध के मामले में परिवार और सगे-संबंधी और पास-पड़ोस सबसे अहम कड़ी है. लेकिन पिंक में इस परिवार नामक ढांचे की पड़ताल नहीं है. बल्कि नायिका परिवार या अपने रिश्ते को लेकर वहीं पुराने ढर्रे पर नजर आती हैं. अब मीनल के पिता को देखिए जरा. वह अपनी बेटी के साथ डटकर खड़ा रहने की बजाए एक वक्त 'शर्म के मारे'अदालत से बाहर निकल जाता है और उसकी सहेलियों से कहता है कि मीनल को अब घर भेज देना. वहीं आखिर में फैसले के बाद नायिका उसी पिता के साथ खुशी मनाती नजर आती है. जाहिरा तौर पर पिंक महिलाओं की आजादी की सबसे अहम और शुरुआती कड़ी 'परिवार'की पड़ताल नहीं करता.
और पिंक के साथ पार्च्ड के कुछ जवाब
परिवार की पड़तालःइस लिहाज से पार्च्ड बेहद अहम फिल्म है, जो पारिवारिक ढांचे पर भी बात करती है. पार्च्ड सिर्फ महिलाओं के शोषण के जड़ पर वार करती है, पिंक की तरह केवल सतह पर या बाहर सिमटी नहीं रहती है. पिंक में जो बातें सिर्फ बयानों (नारे सरीखे) में सामने आते हैं, वह पार्च्ड में चारों नायिकाओं (एक विधवा, एक कथित बांझ, एक कथित वेश्या, एक बालवधू) की जिंदगी में इम्प्लीमेंट हो रहे होते हैं. पार्च्ड भारतीय संस्कृति के 'महान'परिवारिक ढांचे को आईना दिखाती है, उसे रेशा-रेशा कर देती है. रानी का बेटा गुलाब जब घर छोड़कर जाता है तो वह कहता है कि ‘देखता हूं तुम लोग पुरुष के बगैर कैसे सर्वाइव कर पाती हो’. रानी और लाजो पुरुषवाद के इस बुनियादी दंभ को सशक्त चुनौती देती हैं.
अपने फैसले खुद:पिंक के मुकाबले पार्च्ड की खासियत है कि इसमें नायिकाएं (शुरुआत में शोषण का शिकार होने के बावजूद) आखिरकार अपने फैसले खुद लेती हैं, अपनी नियति खुद तय करती हैं. फिल्म का आखिरी दृश्य भी इसी से खत्म होता है. सबसे अहम तो यही बात है कि महिलाएं अपनी आजादी अपने जीने का हक या तरीका खुद तय करें. वे किसी महानायक या मददगार या किसी अदालत के फैसले की बाट जोहने को मजबूर नहीं रहतीं. मुझे लगता है कि महिला आजादी का मसला बुनियादी तौर पर सामाजिक स्वीकार्यता से जुड़ा है, यह महज अदालत का मसला नहीं है. अगर पिंक ने अदालती फैसला लड़कियों के खिलाफ जाता तो? (जाहिर तौर पर देश के जमीनी आंकड़े तो ऐसा ही कहते हैं.)
गालियों का समाजशास्त्रःपिंक में जब खलनायक लड़कियों को गाली देता है, तो पूरे कोर्ट रुम में (सिनेमाहॉल में भी) अपमान की भावना या गुस्से की लहर दौड़ जाती है. वहीं पार्च्ड में नायिकाएं गालियों के समाजशास्त्र को उलटकर रख देती हैं. वे सवाल करती हैं कि गालियां हमेशा महिलाओं पर क्यों बनाए गए और धड़ल्ले से पुरुषों पर गालियां बनाने लगती हैं. (हालांकि गालियां खत्म होनी चाहिए, लेकिन इस मामले में पहली जिम्मेदारी पुरुषों की है). वहीं आखिर में रानी के पति को मरने छोड़ (दुर्घटनावश ही सही) देने पर मुझे आपत्ति है (क्योंकि पुरुष या किसी का खत्म होना उपाय नहीं) बल्कि उसे जिंदा रहते भी उससे अलग हुआ जा सकता है.
सेक्स वर्कर का ‘नो’ ‘नो’ नहीं?:पिंक में यह महज कुछेक बयानों में है. और जब फलक दीपक सहगल से कहती है कि ‘क्या करती कोई मान ही नहीं रहा था कि हमने पैसे नहीं लिए.’ तो क्या सेक्स वर्कर ना कहे तो उसकी अहमियत नहीं? वहीं पार्च्ड में तो बिजली मजबूती से ना कहती है, हालांकि उसे किसी अन्य को लाकर सबक सिखाने की भी कोशिश होती है.
महानायक के बगैर पार्च्ड: पार्च्ड में भी किशन के तौर पर ‘अच्छे’ पुरुष का किरदार है. लेकिन वही कहीं भी नायिकाओं का उद्धार करने वाले महानायक या मददगार के तौर पर नहीं दिखाया गया है. वह बस एक कुटीर उद्योग का नुमाइंदा है, जिसके लिए महिलाएं काम करती हैं (आजीविका के लिए). पिंक में जबकि समापन दृश्य में एक कमजोर प्रतीत हो रही (दिखाई गई) महिला सिपाही दीपक सहगल को इस तरह शुक्रिया कहती है मानो वही हैं जिन्होंने महिलाओं की रक्षा की और महिलाओं को ऐसे पुरुष का एहसानमंद होना चाहिए.
नॉर्थ इस्ट की युवती यहां भी:नॉर्थ इस्ट की युवती पार्च्ड में भी है और असल जिंदगी की तरह ही वह प्रगतिशील और संघर्षशील है. रानी की बहू को वह शादी के गिफ्ट के बतौर किताबें देती है. वह कुंठित पुरुषों से दबने की बजाए चुनौती देती प्रतीत होती है.
जानकी का पढ़ने का ललकःयह एक अहम संदेश है. जानकी को किताबें पसंद है. रानी जब अपनी बहू को उसके प्रेमी के साथ रवाना करती है तो उससे कहती है कि जानकी का नाम स्कूल में जरूर लिखवा देना, इसे खूब पढ़ाना और अच्छे से रखना.
गांव से निकलना ही बेहतरः यह भी महत्वपूर्ण है वे गांव छोड़ मुंबई या किसी शहर जाने की बात करती हैं. गांव को लेकर रोमांटिक होने वाले मुख्यतौर पर उच्च या वर्चस्वशाली तबका ही है, वरना वंचितों-महिलाओं के लिए तो गांव शोषण के अड्डे हैं. गांव से निकल जाना ही बेहतर. अर्थ (पूंजी) को छोड़कर अन्य अधिकतर बंदिशों से आजादी तो दिलाते ही हैं शहर.
और अभिनय तो लाजवाब: अभिनय के लिहाज से भी जिन्हें अमिताभ बच्चन पिंक में बड़े अच्छे लग रहे हैं, जरा उन्हें पार्च्ड में सुरवीन चावला को ही देख लेना चाहिए. तनिष्ठा चटर्जी तो बेहद सधी हुईं, लहर खान बेहतरीन और फिर राधिका आप्टे अच्छी हैं ही इस फिल्म में.
स्त्रीकाल में यह भी पढ़ें: रंडी अश्लील शब्द है और फक धार्मिक