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पानी की दीवार

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उषाकिरण खान
वरिष्ठ कथाकार. हिन्दी और मैथिली में  समान रूप से लिखती हैं. संपर्क :9334391006
उषा किरण खान की यह कहानी सिर्फ बाढ़ की कहानी नहीं है, जलमग्न इलाके में समान पीड़ा की कहानी है - जो गांवों के घरों में अकेले छूट गये हैं, छूट गई हैं उनकी समान पीड़ा की कहानी- साझे  दुःख  के  भीतर  से  बने यह स्त्री-साख्य की कहानी है.  आप पढ़ें इस कहानी को, ज़रा  ठहरकर- आपको  अपने आस -पास की 'जगतारिणी बहुरिया'याद  आयेंगी, उनसे प्यारा हो जाएगा आपको.

एक के ऊपर एक चार तख्त रखे थेउसके ऊपर बैठी थी जगतारिणी बहुरिया. पानी चारो ओर ऐसे फैला था जैसे ये कच्चे पलस्तर के झाॅंझन वाले घर उन्हीं के लिए बने हो. साल दर साल पानी ऐसे ही गलियों, चौबारों में घुस आता है और गांव की अधेड़ बहुरियायें तख्त घर लेती है. गोयठे उपले मचान पर सजे होते हैं, फरही लइया और चिउड़ा खाकर लोग गुजारा करते हैं. बहुत हुआ तो कोसी की बाॅंध पर मर्दों द्वारा खिचड़ी पका कर खा लिया जाता है. लेकिन अब की बाढ़ का रंग ही अजीब है. कोसी के तटबंध के बाहर ऐसा समाॅं कभी नहीं था. तब भी नहीं जब पश्चिमी तटबंध टूटा था. जगतारिणी ने चिक्-चिक्-चिक्-चिक् के शोर से थरथरा कर सिर उठाया टिकटिकिया थी. उॅंगली से धरती को नहीं तख्त को तीन बार ठोंका और बुदबुदाई - ‘‘चलो तुम तो कम से कम ही बातें करने को. नहीं त सब घर-घर में बंद हैं. कोई नाव भी नहीं. नाव भी होता तो खेना कौन जानता है'’- शायद जगतारिणी बहुरिया को अपने नाव खेना, न जानने पर आज असंतोष हो आया. पर घुस्सी चौके की मालकिन जगतारिणी कभी चाॅंदनी रात में झिझरी खेलने भी नाव पर नहीं निकली. अपने मायके जाते वक्त थोड़ी देर को जब नाव पर बैठती उसका कलेजा मुॅंह को आ जाता. पहले सास-ननद बाद में  बाल-बच्चे  उसके इस पानी के भय को आड़े हाथों लेते. फिर भी, डर तो डर था वह क्या करती. घुटने तक पानी में छप-छप कर बाड़ी-झाड़ी घूम आती, नाव पर चढ़ते ही हील उठने लगती. सामने से सरसराता एक साॅंप गुजरा. जगतारिणी बहुरिया ने अपने पैर जोर से समेट लिये. रोम-रोम भय से सिहर उठा, घबड़ा कर इधर-उधर देखा कि साॅंप कहीं कोई सूखी जगह तो नहीं ढूंढ  रहा ? सूखी जगह तो मात्र यही तख्त है या है इस घर का छप्पर. लेकिन वह साॅंप तेजी से सरसराता हुआ सामने दूर निकल गया. शायद चारे की खोज में निकला है. हाॅं इस नये छप्पर में कोई जगतारिणी के पास क्यों जायेगा. आश्वस्त-सी पालथी गिरा दी. गाने के लिए प्रसिद्ध इस एकारी वृद्धा के मुॅंह से बोल भी नहीं फूट रहे थे. सामने पुराने घरारी के जीर्ण घर की ओर ताकने लगी. वही घर तो झगड़े की जड़ है. छोटके देवर की जिद उसी पर अटकी है. अपने मालिक का रोब उसी पर टिका है. स्त्रियों की जलालत सभी सीमाएॅं तोड़ रही है. बीचवाले कमरे में जब सब कुछ तैरने लगा तो जगतारिणी बहुरिया ने फुलवा चरवाहे से कहकर तख्त जुड़ा लिया. झाॅंझन के इस नये ओसारे में एक बार बगल के कमरे में झाॅंक कर छोटकी से कहा भी -‘‘अरी अब डूब मरेगी इस पानी में, चल मेरे साथ ओसारे में.’’ - छोटकी नहीं मानी. खिड़की पर पाॅंव लटकाकर बैठी रही. छोटकी की साॅंवली छोटी-सी मुखाकृति सिकुड़कर छुहारा हो गई है.एक ही आॅंगन में सोते जगतारिणी ने इधर अरसे से छोटकी को नहीं देखा.


आज चौक गई. क्या हो गया इसे ? यह नन्हीं-सी जान तो बिल्कुल बदल गई है. कंधों से थोड़ी पहले ही झुकी सी थी अब कमर से भी झुक गयी है. कम से कम दस साल छोटी थी छोटकी बहुरिया. छोटे कद-काठी की होने के कारण सख्त दिखती बड़ी-बड़ी काली आॅंखे, पतले होठ और खूबसूरत दाॅंत उसके सौंन्दर्य को बढ़ाते थे. तेल लगा जड़ कस कर अपने काले घने लंबे केश की चोटी बनाती. रंगीन घुंडियोवाले काॅंटों से जूड़ा सजाती और आखों में सुरमा लगाकर देर तक आईने में अपना मुंह निहारती. उपालंभ में जगतारिणी बहुरिया अक्सर उन्हें कहा करती कि‘‘हो गया तुम्हारा सिंगार-पटार, अब उठो ओसारे में चौका-पीढ़ा करो. खाना तैयार है. छोटे जन को खेत जाना है.’’ - तिरछी ने छोटकी मुस्कुराती और उठ खड़ी होती. अपने सिंगार-पटार की सामग्री छोटी-सी बक्सी में सहेजकर घर के काम में हाथ बंटाने लगती. सास के अशक्त हो जान के बाद से दोनों गोतनियों का बहनापा बढ़ गया था. पहले जो काम डर से काॅंपती-सी करतीं अब मिल-जुलकर संभाल लेती. प्रौढ़ावस्था की ओर बढ़ते कदम उन्होंने आश्वस्ति से उठाये और लगातार पतियों की उपेक्षिता रहते भी जीवन को संतुष्टि से जिया. चार बजे सुबह से जगकर 12 बजे रात तक खुशीपूर्वक काम करती रही. खाना पकाने में बड़की माहिर थी. परोसने में छोटकी. दही का एक ही बर्तन बाकी हो और चार-छह अभ्यागत अनायास टपक पड़े हों तो छोटकी हिसाब से परोस कर जामन भी बचा लेती. उसी प्रकार 12 बजे रात को भी कोई अभ्यागत आ जाए तो बिना हिचके बड़की छप्पन प्रकार के व्यंजन बनाकर खिला देती. पढ़े-लिखे इलाके में मान्य पतियों की फटकार दोनों जनी संग मिलकर सह लेती. प्रतिभाशाली बच्चों की सिखावनी हॅंस कर सुन लेती.  जनेऊ का सारा कारोबार बड़की अपने हाथ में रखती, कपड़ों की सिलाई का भार छोटकी के जिम्मे था.और आज वर्षों से ऐसा अबोला पसरा था कि छोटकी की सूरत ही बेगानी हो चली. यह पीला निचुड़ा चेहरा अब तक न देख पाई थी बड़की जगतारिणी बहुरिया, छोटकी ने मात्र सिर हिलाया और मुॅंह फेरकर खिड़की के पार देखने लगी. जगतारिणी बहुरिया कुछ सोचती-सी अपने तख्त पर आकर बैठ गई. दिन भर इसी छप्पर तले रहती है. खाना पकाना पति और मजूरों को खिलाना, फिर रात ढले आॅॅंगन की कोठरी में जाकर पड़ रहना. छोटकी की खबर कहाॅं मिलती. बीच कोठरी में जगतारिणी रहती , पास की कोठरी से कभी-कभी छोटकी की मंझली बहू की खिलखिलाहट सुनती, मन आह्लाद से भर उठता. अहा मुसइया को अपने हाथों तेल लगा कर पाला था कितना बड़ा हो गया. बहू के साथ कमरे में  रंग-रमस करने लायक हो चला.- इससे अधिक सोचने से पहले सो जाती जगतारिणी, सोचने-विचारने से बहुत कतराती है बहुरिया लेकिन अभी और कोई काम हो भी तो नहीं सकता. टकुरी (तकली) कातली सो दूर बांध पर बक्से में पड़ा है. फुलबा चरवाहे ने  सुबह ही  कहा था कि ले आए सो मालिक ने डपट लिया. कहा कि आराम करो आराम । - क्या करे बहुरिया काम किए हुए ये हाथ आराम कहाॅं चाहते हैं. टकुरी घुमाना तो आराम ही है, अक्सर दिन ढलते दोपहर के काम समेट कर जब टकुरी लेकर बैठती जगतारिणी, तो उनकी आॅंख लग जाती. पाये कि सिर टिका कर झपकी लेने लगती, एक हाथ में टकुरी पकड़ी होती दूसरी में पूनी, बीच में बारीक सुफियाना धागा.

उन दिनों बड़ी बहू नई-नई आई थीं - अक्सर उन्हें ऐसे देख कह उठती - ‘‘माॅं जी, आप या तो थोड़ी देर को चटाई पर लेट जाएॅं या टकुरी घुमाएॅं. यह दो विरोधी काम एक साथ नहीं हो सकते.’’ - चौक कर  जग जाती जगतारिणी बहुरिया और एम0ए0 पास बहू को टकुरी घुमाने के मर्म का निष्फल पाठ पढ़ाने. नहीं कनियाॅं नींद कहाॅं आती है दिन में मुझे. वैसे ही एक झपकी-सी आई. अब ठीक है. टकुरी न कातूॅूं तो कैसे इतने लोग जनेऊ पहनेंगे. कैसे तुम लोगों की बेटियों की शादी में जनेऊ भेज पाऊॅंगी. तुम लोग तैयार करना सीखती भी तो नहीं. बड़ी बहू हॅंस पड़ती. आप भी बड़ी भोली हैं. कौन अब आपके 87 वेदवाला जनेऊ पहनता है. कब मेरी बेटियों की शादी होगी और उसके लिए आप परेशान हैं अभी से जगतारिणी बहुरिया नहीं मानती -‘‘यह बड़ा महीन काम है कनियाॅं, पल भर में होने का नहीं है.’’ - बहू चुप हो जाती. क्योंकि वह देखती सचमुच जनेऊ तैयार करने का काम खासा लंबा और झंझट भरा होता. जगतारिणी बहुरिया का यह काम बड़ा सुनियोजित होता. कपास का बीज डालना, पौधों को सींच-सींच कर बड़ा करना. फूल-फूल की देखभाल. पके हुए फलों को तोड़ कर रूई निकालना सुखाकर पूनी बनाना तब जनेऊ कातना. जगतारिणी बहुरिया का जनेऊ पूरे समाज में समादृत था. बारीक और मजबूत. अच्छी धूप में रंग कर सुखाती तैयार करने में बहुओं की मदद भी लेती. छोटी बहू अक्सर उनके इस काम में हाथ बंटाती.
अभी कोई नहीं है यहाॅं सब अपने-अपने काम पर हैं. उन्हें पता भी न होगा कि कैसी परिस्थिति में है जगतारिणी. कोई जोर-जोर से आवाज दे रहा है .कान लगाकर आवाज पहचानने की चेष्टा की. जरूर मुसइया अपनी मां के लिए आवाज दे रहा है, सोचा बहुरिया ने. लेकिन नहीं. यह तो सॅंझली चाची है. जोर-जोर से आवाज देती नाव पर इधर ही चली आ रही है.
‘‘बड़की बहुरिया, ओ बड़की बहुरिया ?’’ - आर्त स्वर. इन्हीं की बदौलत जगतारिणी अभी तक बहुरिया बनी हुई है. पाॅंच सासों में यही एक बची है. इनके बाद पूरे गांव में यही सबसे बड़ी बच जायेगी. नाव घर में आकर लग गई. संझली दादी तख्त पर सहारा लेकर चढ़ गई.
‘‘वाह, क्या तख्त ताउस बना रखा है.’’ - झुरीदार चेहरे से मुस्कुराने की चेष्टा की. जगतारिणी का दिल भर आया. बुक्का फाड़कर रोने का जी हो आया.
‘‘चुप बैठे-बैठे मुॅंह दुख गया सॅंझली काकी, क्या करूॅं ?’’ - आॅंखें भर आई.

  ‘‘राम का नाम लो, भोला बाबा पार लगायेंगे. भगवती का भजन गाओ. नरसिंह को गोहारो. और क्या करोगी. तुम्हारा अफसर बेटा-बहू तो इस संकट से उबारने नहीं आएगा तुम्हें . उन्हें तो पता भी नहीं होगा.’’

  ‘‘उनका क्या दोष काकी’’ - आॅंचल से पैर छूने लगी.

  ‘‘नहीं कोई दोष नहीं, चलो मैं तुम्हे लेने आई हॅूं.’’

  ‘‘काकी, मैं तो ठीक हॅूं . फुलवा के हाथों मालिक खाना-पीना भेज देते हैं . नाव से जाकर फारिंग हो लेती हॅूं . लेकिन छोटकी’’ - रोने लगी जगतारिणी बहुरिया.

  ‘‘ऐं, कहाॅं है छोटकी ? उसका आदमी तो घरारी के सबसे ऊॅंचे टीले पर दालान बनाकर बैठा है . उसे क्या तकलीफ ? यह टीला तो कोसी   बाॅंध डूब जाने पर भी नहीं डूबेगा.’’

  ‘‘लेकिन छोटकी वहाॅं नहीं है. इसी घर में है.’’-- जीर्ण घर की ओर इशारा करके बोली जगतारिणी.

  ‘‘क्या कहती हो ? हद हो गई . घर पर कब्जा जमाने के लिए बीबी को कुर्बान करेगा क्या छोटका ? यह घर तो अब गिरने ही वाला है . जा तो रे मुनुआ नाव आॅंगन की ओर ले जा और छोटकी से कहो संझली  काकी बुला रही हैं.’’ - मुनुआ नाव लेकर आॅंगन की ओर चला . छप्प से किनारे की दीवार गिरने का स्वर आया .

  ‘‘हे भगवान’’, एक साथ आह निकली दोनों वृद्धाओं की. साठेक साल की जगतारिणी और नब्बे साल की सॅंझली काकी ने अपने झुर्रियों से अटे चेहरे घुंटनों पर धर लिये और मन ही मन किसी बुरी खबर को सुनने का साहस बटोरने लगीं.



गीत गाने में जगतारिणी माहिर थी. सारी विधि-व्यवहार का गीत कंठस्थ था.चैमासे-बारहमासे की खान थी. लगनी-बटगवनी भी नहीं छोड़ा था. पुराने से लेकर एक नये तक जितने भजन इसने सुने याद हो गये. बड़ा आनंदी स्वभाव है जगतारिणी बहुरिया का. घुटनों पर ठोढ़ी टिकाए यह सोचन को विवश हो जाती है -

 छोटकी के गौने पर पहली बार खुलकर गाया था इसने गीत. ननदों की शादी पहले हो चुकी थी और बच्चे के सोहर कोई नहीं गाता,  सो यही एक अवसर मिला था तथी गांव में शोर हो गया था इसके टहंकार गाने का. गोरी-चिट्ठी खूबसूरत जगतारिणी बहुरिया रात-दिन अपनी नई-नवेली देवरानी के पास बनी रहती. आक्षेपों को सहज भाव से काटती रहती . अक्सर सास कोटि की स्त्रियाॅं मायके से लाए सामानों की तुलना बड़ी बहू के मायके के सामानों से कर बैठतीं. जगतारिणी के पिता ने अधिकतर सामान कलकत्ते के बाहर से खरीदा था और छोटकी के पिता का बाजार लोकल था. ननद कोटि की महिलाएॅं रूप को लेकर टीका करतीं -

 ‘‘यह क्या हो गया बड़की काकी के आॅंगन में ? इस आॅंगन में तो चंद्रमा का चक्का, इंजोरिया का बच्चा लाने का रिवाज है यह अमाशशि कहाॅं से पहुॅंच गई ?’’ - एक कहती, ‘‘भगवान् का रंग है, भगवती का रूप . थोड़ा स्वाद बदलने के लिए लाया गया है इसे.’’ - दूसरी होती .

  ‘‘ये  बहन जी, आप लोगों को खोज-खोज कर नुक्स निकालना आता है. गुणवंती लड़की है. देखियेगा आप लोग कल से ही चिरौरी न करने लगीं तो मेरा नाम बदल दीजिएगा.’’ - कहती जगतारिणी . उनका इशारा छोटकी के हस्तकला पर था. दहेज के सामान में एक से एक कढ़ाई का चादर, तकिया और गिलाफ और झोला था. क्रोशिया का अंबार था. सीक्की और सूत की बनी पिटारियाॅं थी.

  ‘‘ऊॅंहू-हॅूं ? कोई बात नहीं, देख लेना सीखने भी आऊॅंगी तो इस अमाशशि को पूर्णमासी नहीं कहॅूंगी.’’ - एक ठिठोलीदार ननद ने कहा था. नई बहू भी खिलखिला उठी थी. छोटकी की दूध धुली हॅंसी ने सबका मन मोह लिया था.

 ‘‘अरे यह मेघखंड तो बिजली भी छिटकाती है.’’- कहकर उठ गई थी नवोढ़ा. छोटकी बड़की का स्नेहसिक्त व्यवहार पूरे टोले को सम्मोहित रखता.  क्रोधी सास का सारा अत्याचार ये मिल-जुल कर सहतीं. एक-दूसरे की कमियों को अक्सर अपने ऊपर ओढ़ती जीवन का रास्ता तय करती रहीं .

पहली ही जचगी के बाद बड़ी बीमार रहने लगी छोटकी. सास का कहना था कि सारा नखरा है. पति हस्बमालूम पूरे उदासीन थे और बिना माॅं के मायके का आसरा भी नहीं था. जगतारिणी के कमर कस कर सारा कुछ अपने ऊपर झेल लिया-बीमार छोटकी की तीमारदारी, उसके बच्चे की देखभाल और उसके हिस्से का काम . सब कुछ. सास हैरान रह गई. घर के पुरूषों की रात के अंधेरे और खाने के समय  के अतिरिक्त कोई मतलब नहीं था . ऐसे संकटों से उबरने के बाद जब रात को एक दिन सुखे दोखले का साॅंकन खटका तो सिपाही की तरह तनकर देवर के सामने खड़ी हो गई जगतारिणी -

  ‘‘क्या है ? नहीं है तुम्हारी कोई इस आॅंगन में. कहाॅं आए हो  इतनी रात गये?’’ - देवर शर्माये से हॅंस पड़े .

  ‘‘जरा, हाल-चाल लेने.’’ - अटकते से बोले .

 ‘‘अब आई है सुध ? आॅंगन में चलते-बूलते देखकर ?’’ - हजार उलाहना सुना गई थी. छोटे ने सिर झुकाकर सुन लिया था . वहीं छोटे दिन में दहाड़ता था,  भाभी पर भी बीबी पर भी. वही रात में गऊ बन जाता था. ऐसा नहीं था कि कभी कोई खटपट न हुई हो. कई बार छोटकी से अबोला भी हो जाता था. लेकिन पता नहीं कब टूट भी जाता था. छोटकी अक्सर जचगी में रहती सो बीमार रहती . उससे काम नहीं सपरता. छोटकी को जगतारिणी का व्यंग्य सहना पड़ता -‘‘ऊंह, मैं होती तो उल्टी खपड़ी से सिर तोड़ देती ऐसे शौकीनों की. अब तो लोग क्या कहते हैं कि अपरेशन करवा लेेते हैं . तेरी जान खाने को जाने कब छोटजन पहुॅंच जाते हैं और तू है कि’’ - अनंत सिलसिला चल पड़ता.

यह जानते हुए भी कि छोटकी तो क्या बड़की भीअपने मालिक की चाॅंद नहीं तोड़ सकती वह बोलती रहती. बड़की की बातों में काई द्वेष नहीं है यह समझते हुए भी छोटकी मुॅंह फुलाकर अबोला कर लेती. सौ बार अपने मन को मनाती जगतारिणी कि बड़ी आई रूठनेवाली मैं तो नहीं मनाती. लेकिन सारा आक्रोश आपसे आप हवा हो जाता. अबोला टिक नहीं पाता . झंॅबराये साॅंवले मुख पर बेचैन पनियाली आॅंखें छोटकी की खूबसूरती भी थी और बिना कहे बहुत कुछ कह जानेवाली भी थी. आज उसी आॅंखों के दर्द से पसीज रही थी बड़की. निर्मोही छोटा देवर टीले पर घर बनाकर बेटे बहुओं के साथ चैन से है, देयादी घर के कब्जे की लड़ाई में इस निमंूधन को बलि चढ़ाने छोड़ दिया है.



देह ढलने लगी थी, जोड़ का दर्द सिर उठाने लगा था. कमर टेढ़ी हो रही थी. छोटकी रात भर दर्द से छटपटाती रहती. सुबह को धूप लगा लेती भरपूर तब उठती . उस दिन एक साथ से घॅंूघट सॅंभाले दूसरे हाथ से फटके हुए चिउड़े को सूप में लेकर एक आॅंगन से दूसरे आॅंगन में जा रही थी कि सामने से कोई बच्चा आकर टकरा गया . सूप भी चिउड़ा उलट गया . वहीं छोटेजन खड़े होकर काम करवा रहे थे. गुस्सा उनकी नाक पर रहता था. भरपूर लात जमाई और लगे जोर-जोर से गालियाॅं बकने . ‘‘बंदरिया किसी काम की नहीं. काॅंखती रहती है रात-दिन . खाना-खर्चा मुफ्त का जो मिलता है. कभी बाप जनम इतना अनाज देखा है ? हमारी पसीने की कमाई को घूरे में फेंकती है.’’ - दूर गेंद  की तरह लुढ़क गई थी छोटकी. दूसरी लात का संधान अधर में ही रह गया. भूखी शेरनी की तरह झपट पड़ी जगतारिणी - ‘‘खबरदार जो लात लगाई. बेसरम. सभी भाई एक ही नौआ के मूॅंड़े हुए. तुम कौन होते हो लात जमानेवाले. कभी हारी-बीमारी के हुए कभी ? रात के अंधेरे में थूक-मूत का रिश्ता रखते हो. इसके जनों को लेकर पुत्रवान बनते हो  यह गाली भी नहीं दे सकती कि तुम्हारे पैर गलें, इसी को कष्ट होगा.’’ - देवर भुनभुनाते दालान पर चले गये थे. छोटी महीनों बिस्तरें पर पड़ी रही थी.

बड़की की बड़ी बहू के गौने पर छोटकी ने नफासत कासारा काम अपने ऊपर ले लिया था. घर सजाना, अरिपन देना. हर विधि-व्यवहार में गीत की रौनक बड़की की नफासत की धुअन छोटकी थी. बहुओं से ऐसी हिलमिल गई छोटकी कि लोग ईष्र्या करने लगे. प्यार और अपनापे क इस नायाब रिश्ते को किसी भी नजर लग गई. लोग  कहा करते-भई विचित्र लीला है इस घर की. भाईयों का नहीं स्त्री पुरूषों का देयादी चलता है. स्त्रियाॅं एक तरफ पुरूष दूसरी तरफ, ऐसे घर की काई नहीं फोड़ सकता. किन्तु स्वयं परिस्थितियाॅं ने फोड़ दिया घर को.

सीधी-सादी अनपढ़ और कर्मठ जगतारिणी बहुरिया के बाल-बच्चे पढ़-लिखकर अफसर बन गये. माता-पिता को देवता समझने लगे. छोटकी के बच्चे मूर्ख मस्तान रह गये. पढ़ने-लिखने में जी नहीं लगा. माता-पिता को दुनिया का सबसे बड़ी अहमक समझने लगे. असंतोष और असमानता ने प्यार के दुग्ध धबल संबंध में नीबू निचोड़ दिया. टीले पर घर बनाकर बैठ गये छोटेजन. जमीनऔर घरारी का बंटवारा कर दिया है. इतने दिनों की संचित दुष्टया उजागर कर रहे हैं देवरजी. जिस दिन चूल्हा अलग हुआ था उस दिन न तो जगतारिणी ने खाया था न छोटकी ने. महीनों एक-दूसरे का मुॅंह देखकर रोने लगतीं. एक चूल्हा के पास जाती तो दूसरी की ओर ताकती कि क्या सब्जी बने इसका विचार किया जाए. दूसरी चावल बीनती मुॅंह जोहती कि दीदी से पूछॅूं कितना चावल अदहन में डाला जाए कि पूरा पड़े. बड़के तो सांख्य पुरूष थे छोटके की बन आई थी. इसी भाभी ने बीबी से जवानी में न मन भर प्यार करने दिया न जुल्म. अब दोनों से बदला ले रहा है. मस्तान बेटों के चलते छोटकी बेगानी होने लगी.

‘‘छोटकी, बहुएॅं आनेवाली हैं, दो घर दाब कर तू बैठी है एक छोड़ दें.’’ बड़की ने कहा था.

  दूसरे दिन गरजते फिरे थे देवर - ‘‘कौन कहता है घर छोड़ने को. कौन छुड़ाता है घर देखता हॅूं जब तक मेरा घर नहीं बन जाता मैं इस साझी के घर को नहीं छोड़ूंॅंगा .’’ और बहुएॅं नहीं आ सकीं . घर का अभाव था कहाॅं रहतीं. साल दर साल घर जीर्ण होता गया . बड़के कहते- ‘‘कौन छवायगा घर देखता हॅूं, मेरे हिस्से का है . पहले ये छोड़े घर .’’

  ‘‘अरी सुन तू कहती क्यों नहीं अपने बेटों से कि अब इस घर में रहा नहीं जाता . मुझे भी ले चल दालान वाले घर में . यहाॅं क्या अगोरे बैठी है.’’ - जगतारिणी बहुरिया ने छोटकी से बरसात शुरू होते ही कहा था . आॅंखों पर आॅंचल रख सुबक उठी थी छोटकी . बड़की गुस्से से तिलमिला गई. ‘‘ये रोने- धोने का चलित्तर अब और छजता नहीं . रोना बंद कर अपने जायों और सिरमौर को समझा. चली जा सूखे में . इस घर में एक बॅूंद भी बाहर नहीं पड़ती बारिश की.’’

  ‘‘आप क्यों नहीं कहतीं मालिक से घर छवा देने को . बड़ी दयामंत बनती हैं. आपकी दयामंत्री ने ही तो मेरा जीवन नष्ट किया. कहीं की न रहीं. न अपने मालिक की न बच्चें की . आप ही घर के अंदर बनती पानी की दीवार को रोक सकती हैं .’

  ‘‘देखो जरा घोंघा का बोल फूटा है. तुम जानती नहीं कि मेरी बात कोई नहीं सुनता ? तुम्हीं न पढ़ी-लिखी काबिल हो.’’ - चकित-सी बोली थी जगतारिणी.

  ‘‘मैं कुछ नहीं हूँ  . मैं काबिल रहती तो मेरे भी बेटे अफसर होते. मैं भी पटना-दिल्ली घूम आती . लेकिन एक बात कहे देती हॅूं मैं ऐसी अनीति नहीं करती . ऐसे मुुंडे घर में किसी को रहने को बेबस नहीं करती. धन्य हैं आप कि तब भी बोले चली जा रही हैं.’’ - पहली बार छोटकी बोलती रही जगतारिणी से. जवाब  तो उसे देना होता जिसे सचमुच चाहिए. इसे तो तीर की तरह बेधना था. बिंध गई थी जगतारिणी बहुरिया. तब से इसी की ओर से अबोला हो गया था.

बैठी-बैठी सोचती रही थी कि छोटकी ने कौन-सी कमी
मुझमें पाई जो वैसा कह उठी . दस वर्षों का अंतर होगा आयु में. बिना माॅं की बच्ची समझकर पूरा स्नेह उॅंड़ेला था. रूद्र सास की क्रोधाग्नि से बचाती रही थी. पति की कुचेष्टाओं के सामने अड़ कर खड़ी हो जाती थी. अपने बेटे-बहुओं को सदा स्नेह रखने का पाठ सिखाया . बहुएॅं बल्कि अपनी सास से अधिक इसे ही प्यार देती. तब कहाॅं कौन-सी त्रुटि रह गई . यह सोचने की जगतारिणी बहुरिया को औकात ही नहीं थी कि छोटकी अपने असफल बेटों के दुःख से बौराई है, अपने पति के घोर उदासीन व्यवहार से तिलमिलाई है और वह सारी तिलमिलाहट बड़की के उपर उॅंड़ेल रही है. यह इतनी दूर तक उसका दिमाग जा ही नहीं सका. वह थक कर गीत सोचने लगी.



एक बार की बात है जगतारिणी की बड़ी पोेती ने बड़े लाड़ से इनके कुछ गीत लिखवाये. विधि-व्यवहार के गीत, बनपाखियों के कथागीत फिर पूछ उठी थी - ‘‘दादी माॅं, आप नदियों के नाम से गीत भी लिखवा दें.’’ - हॅंस पड़ी थी जगतारिणी बहुरिया.

‘‘नहीं रे, मैं गंगा कमला का गीत नहीं गाती. यही एक गीत है जिसे मैंने नहीं सीखा, हो हो कर गाते हैं, लोग, हॅंसी छूटती है. गीत वैसा अच्छा लगता है जिसे दिन से गाया जा सके.’’ - पोती भी हॅंस पड़ी थी.
‘‘लेकिन दादी माॅं, मुझे तो नदियों के गीत काफी मेलोडियस लगते हैं.’’ पोती ने कहा था.
‘‘क्या तो बोलती हैं’’- फिर एक लाइनगाने का मानो मजाक सा करती रही. फिर बोल पड़ी- ‘‘ये कमला कोसी किसी गीत से नहीं पसीजतीं हमारे घरों में घुसी आती है. न घर बनाने देती है न दरवाजा साबुत रहने देती है, क्यों मनाएॅं इनको गाकर.’’

‘‘वाह, मेरी दादी माॅं तो खूब है, नदी पर गुस्सा करना जानती है.’’ - अभी भी वहीं सब घूम रहा है माथे में.

  ‘‘ए बहुरिया, छोटकी सही-सलामत तो होगी.’’ - सॅंझली काकी का चिंतित प्रश्न था.

‘‘होना तो चाहिए. खिड़की से पानी ऊपर गया होगा तो घरन पर चढ़ गई होगी बड़ी सख्त जान है. मैंने तो कई बार चलने को कहा था. नहीं आई.’’ - निःश्वास खींचा उसने.

  ‘‘तुम्हारी बात ही और है. तुमने तो अपनी जिनगानी घर-परिवार की सेवा में सौंप दी. छोटकी काॅंखती-कॅूंखती रहती . तुमने ही उसकी भी देखभाल की. गांव भर के लोग तुम्हारा नाम लेकर बच्चों को समझाते हैं . तभी तो इतना धरम बढ़ा.’’ - अबूझ-सी मुॅंह खोल कर सुन रही थी जगतारिणी बहुरिया.

  ‘‘हाॅं बहु, जनम भर का बैर रखनेवाला तुम्हारा मालिक भी अब समझता होगा कि तुम सिरिफ उसी की सेवा के लिए यहाॅं बनी हो नहीं तो बेटे-बहू के पास चली जाती.’’

  ‘‘वो देखिए काकी नाव आ रही है. एक हाथ से मुनुआ छोटकी को पकड़े हुए हैं दूसरे से लग्गी चला रहा है.’’ - दोनों वृद्धाएॅं गर्दन लंबी कर देखने लगीं . नाव इसी छप्पर के नीचे लगने लगी थी कि तड़प कर उठी छोटकी, थरथरा कर फिर लेट गई. उसका सारा शरीर भीगा हुआ था. ठंड से अकड़ी-सी थी. मुनुआ ने डाॅंड़ उल्टी चलाई. नाव छप्पर से हटने लगी.

 ‘‘अरे कहाॅं ले जा रहा है?’’ काकी ने पूछा.

 ‘‘छोटी मलकीन यहाॅं नहीं आएॅंगी, उनके दालान पर पहुॅंचा कर आते हैं.’’ - कहा मुनुआ ने.

 ‘‘जाओ-जाओ, भला का दुनिया नहीं है.’’ - सॅंझली काकी ने हाथ का इशारा देते हुए कहा. बड़की ने देखा छोटकी भीगे चैले (लकड़ी का कुंदा) की तरह अकड़ी पड़ी है. उसे याद आया यह भयंकर गठिया की मरीज है. निष्प्राण-सी छोटकी के लिए ममत्व का एक ज्वार आया और यह नदी-गीत गाने लगी -

   मैया पार देना उता ....र

   मैया री, कोसी मैया

   मैया री, कमला मैया

   मैया री, गंगा मैया

गीत क्रमशः तेज होता जा रहा था. सॅंझली काकी भौचक-सी मुॅंह ताकती रही-जगतारिणी बहुरिया नदी गीत दिल के दर्दीले सुरों से गाती जा रही थी - छोटकी के लिए. पानी की एक दुर्लघ्ंय दीवार को अकेले पार करने की चेष्टा करती है एक बार फिर. इतना तो कर ही सकती है. कमला-कोसी सहाय हो जाए बस ? छोटकी के जोड़ों में गर्माहट आए, वह उठकर खड़ी हो जाए.

   मैया री छागल देव चढ़ाय

   मैया री चूड़ी देव......

   मैया री सिन्नुर देव......

   मैया री अंचरी देव......

सारा भय बिला गया. तन्मय हो गई जगतारिणी बहुरिया अपनी गुहार में


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