आशीष कुमार ‘‘अंशु’

सलमान खान ने अपनी एक फिल्म केशूटिंग के दौरान होने वाली शारीरिक पीड़ा की तुलना पिछले दिनों मीडिया के सामने बलात्कार से कर दी उसके बाद से हीसमाज में तो नहीं लेकिन भारती इलेक्ट्रानिक मीडिया में इसे लेकर घमासान मचा है. गौरतलब है कि जो मीडिया इस वक्त बलात्कार शब्द पर अति संवेदना प्रकट कर रहा है, मीडिया कांफ्रेन्स में बलात्कार शब्द पर उनके प्रतिनिधियों की जो हंसी सुनाई देती है, वह मीडिया प्रतिनिधियों की संवेदनशीलता की ही कहानी कहती है. बात माफी की करते हैं. देश के एक सरोकारी टेलीविजन चैनल में काम करने वाले एक वरिष्ठ एंकर ने विदर्भ की महिलाओं के लिए अपनी किताब में लिखा कि वे किसान पति की आत्महत्या के बाद वेश्यावृत्ति करती हैं. ऐसा उन्होंने अपने ही चैनल की एक झूठी रिपोर्ट को आधार बनाकर लिखा लेकिन क्या मजाल उस टीवी एंकर ने कभी अपने इस झूठ के लिए अपने पाठक/दर्शक से कभी माफी मांगी हो.
भारतीय दंड संहिता में सेक्शन 375 के तहत 15 साल से कम उम्र की पत्नी के साथ जबरन यौन संबंध बनाना बलात्कार माना गया है. कई रिपोर्ट इस बात की पुष्टी करती हैं कि भारत में ऐसी 'धर्म-पत्नियों'की कमी नहीं हैं, जो बिस्तर पर अपने पति द्वारा बलात्कार की शिकार होती हैं, अगले दिन फिर सुबह चाय बनाने से लेकर अपने ‘बलात्कारी’ बिस्तर पार्टनर के लिए नाश्ता बनाने तक का काम वह करती हैं क्योंकि उनके पार्टनर को बलात्कार का कानूनी अधिकार मिला हुआ है. यह सब लिखने के पीछे मुराद सिर्फ इतनी है कि बलात्कार को ऐसा शब्द ना बनाइए जिसका उपयोग समाज में ना किया जा सके. यदि एक व्यक्ति अपने शारीरिक तकलीफ की तुलना बलात्कृत महिला से कर रहा है तो यह उसकी कम-समझी भी हो सकती है. वास्तव में यह लेख सलमान खान के पक्ष से अधिक उस समझ के खिलाफ है, जो बलात्कार को एक वर्जित शब्द बनाना चाहता है. ऐसा वर्जित
शब्द जिसका इस्तेमाल पीड़िता भी करते हुए कई बार सोचे, वह अपने ऊपर हुए अत्याचार की कहानी किसी को बताए या ना बताए.
मित्र क्या सोंचेगे? समाज क्या सोचेगा? कायदे से मीडिया की कोशिश यह होनी चाहिए कि उन महिलाओं और युवतियों को वह बोलने के लिए प्रेरित करे जो अपनों के हाथों बलात्कृत हुई हैं. अपने पति, अपने पिता, अपने चाचा, अपने ताऊ, अपने मामा, अपने पड़ोसी. कई बार पीड़िता जब अपना दर्द परिवार में अपनी मां को या अपने किसी सबसे अच्छे दोस्त को बताती है, अधिक मामलों में उसे चुप रहने को कहा जाता है. इस तरह जो मामले मीडिया में आते हैं, वास्तविक मामले उससे कई गुणा अधिक हैं. उन चुप रहने की सलाह देने वाले अभिभावकों और मीडिया द्वारा सलमान के लिए
चलाए जा रहे माफी मांगों अभियान में अधिक अंतर नहीं है. बिहार की एक दोस्त ने बताया था, किस तरह उसके चाचा ने उस वक्त उसके साथ बलात्कार किया, जब उसकी उम्र दस-बारह साल की थी. खून से लथपथ हुई वह मां के पास शिकायत करने गई और मां ने उसे नहला दिया और डांटते हुए कहा -‘तुम्हारी ही गलती रही होगी.’ जब मीडिया को महिलाओं को इसलिए जागरूक करना चाहिए कि वे अपने ऊपर हुए ‘बलात्कार’ के लिए सामने आएं.
समाज क्या कहेगा, पड़ोसी क्या सोचेंगे,यह सब सोचकर किसी अपराधी का साथ ना दें. लेकिन मीडिया की रूचि बलात्कार को समस्या के तौर पर देखने से अधिक ‘सलमान’ को माफी मांगते हुए देखने में अधिक है. दिल्ली का ही एक मामला था, जब मेरे एक मित्र योगेन्द्र योगी ने अपने टीवी चैनल के लिए एक छोटे बच्चे पर हुए बलात्कार पर रिपोर्ट बनाई थी. उसके चैनल ने पूरी रिपोर्ट इसलिए खारिज कर दी क्योंकि पीड़ित और बलात्कारी दोनों मजदूर पृष्ठभूमि के थे. बहरहाल, सलमान के पूरे ‘माफी मांगो प्रकरण’ को संवेदना नहीं चैनल के अर्थशास्त्र की नजर से ही समझा जा सकता है. फिलहाल इस पूरे मामले पर अपनी समझ यही बनी है और अंत में: बलात्कारको एक ऐसा अभिशप्त शब्द बना दिया गया जिसे इस्तेमाल नहीं किया जा सकता. ऐसा करने वाले सोचते होंगे इससे वे पीड़िता का कुछ भला कर रहे हैं जबकि इससे पीड़िता क्या भला होगा, मीडिया में काम कर रहे बुद्धीजीवी पत्रकारों की मानसिकता का खुलासा जरूर हो जाता है.
बलात्कार पीड़िताओं के लिए सहानुभूतिजुटाने के अभियान में लगा मीडिया उन्हें न्याय दिलाने के लिए ईमानदार कोशिश करता या फिर कोई बलात्कार का अपराधी कभी पीड़िता को धमकाने की जुर्रत ना करे ऐसी कोई तरकीब निकालता या सलीम खान से माफी मंगवाने की जगह कोई ऐसी कोशिश मीडिया की तरफ से होती कि बलात्कार के अपराधियों को जब तक सजा ना हो जाए, हर एक बलात्कार के केस का फॉलो अप लगातार मीडिया में आएगा तो वास्तव में वह काबिले तारिफ कोशिश कहलाती. एक अभिनेता जो बलात्कार की पीड़ा से अपने शारीरिक श्रम से हुई पीड़ा की तुलना करता है, उसके पीछे सभी मीडिया चैनल वाले इस तरह पड़ गए जैसे फैसला वे कर चुके हों और अब इस मामले में वह अभिनेता का स्पष्टीकरण भी नहीं सुनना चाहते. मुझे याद है कि महीनों और फिर सालों तक हरियाणा के भगाना की बलात्कार पीड़िता बहनें दिल्ली के जंतर मंतर पर टिकी रही. ना जाने बलात्कार पीड़िताओं के लिए सहानुभूति से भरी भारतीय मीडिया उन दिनों कहां थी ? उनके अपराधियों को सजा कहां हुई ?
जयपुर की एक छोटी बच्ची के साथहुए बलात्कार मामले में वहां की एक मानवाधिकार कार्यकर्ता ने बड़ी बेशर्मी से मुझे कहा था कि लड़की के परिवार वाले पैसों के भूखे हैं, इसलिए लड़की के लिए न्याय मांगने का ढोंग कर रहे हैं. मीडिया समाज की इस मानसिकता को बदलने के लिए क्या कर रही है ? किसी की जुबान बंद करने से सोच नहीं बदलती. वास्तव में रेप शारीरिक से अधिक मानसिक-उत्पीड़नहै. अपराधी एक बार किसी स्त्री के साथ रेप करता है लेकिन पीड़िता का रेप उसके बाद खत्म नहीं होता, उसके बाद प्रतिदिन परिवार/समाज उसका रेप करता है. वास्तव में रेप के मामले में माफी यदि मंगवाई जा सकती है तो उस 'सोच'से मंगवाने का प्रयास करना चाहिए, जिसके साथ हम पलते, बढ़ते है और बलात्कार करने से अधिक हमें परेशान बलात्कार 'शब्द'का एक अभिनेता द्वारा इस्तेमाल किया जाना करता है. है ना शर्मनाक !
भारतीय दंड संहिता में सेक्शन 375 के तहत 15 साल से कम उम्र की पत्नी के साथ जबरन यौन संबंध बनाना बलात्कार माना गया है. कई रिपोर्ट इस बात की पुष्टी करती हैं कि भारत में ऐसी 'धर्म-पत्नियों'की कमी नहीं हैं, जो बिस्तर पर अपने पति द्वारा बलात्कार की शिकार होती हैं, अगले दिन फिर सुबह चाय बनाने से लेकर अपने ‘बलात्कारी’ बिस्तर पार्टनर के लिए नाश्ता बनाने तक का काम वह करती हैं क्योंकि उनके पार्टनर को बलात्कार का कानूनी अधिकार मिला हुआ है. यह सब लिखने के पीछे मुराद सिर्फ इतनी है कि बलात्कार को ऐसा शब्द ना बनाइए जिसका उपयोग समाज में ना किया जा सके. यदि एक व्यक्ति अपने शारीरिक तकलीफ की तुलना बलात्कृत महिला से कर रहा है तो यह उसकी कम-समझी भी हो सकती है. वास्तव में यह लेख सलमान खान के पक्ष से अधिक उस समझ के खिलाफ है, जो बलात्कार को एक वर्जित शब्द बनाना चाहता है. ऐसा वर्जित
शब्द जिसका इस्तेमाल पीड़िता भी करते हुए कई बार सोचे, वह अपने ऊपर हुए अत्याचार की कहानी किसी को बताए या ना बताए.
मित्र क्या सोंचेगे? समाज क्या सोचेगा? कायदे से मीडिया की कोशिश यह होनी चाहिए कि उन महिलाओं और युवतियों को वह बोलने के लिए प्रेरित करे जो अपनों के हाथों बलात्कृत हुई हैं. अपने पति, अपने पिता, अपने चाचा, अपने ताऊ, अपने मामा, अपने पड़ोसी. कई बार पीड़िता जब अपना दर्द परिवार में अपनी मां को या अपने किसी सबसे अच्छे दोस्त को बताती है, अधिक मामलों में उसे चुप रहने को कहा जाता है. इस तरह जो मामले मीडिया में आते हैं, वास्तविक मामले उससे कई गुणा अधिक हैं. उन चुप रहने की सलाह देने वाले अभिभावकों और मीडिया द्वारा सलमान के लिए
चलाए जा रहे माफी मांगों अभियान में अधिक अंतर नहीं है. बिहार की एक दोस्त ने बताया था, किस तरह उसके चाचा ने उस वक्त उसके साथ बलात्कार किया, जब उसकी उम्र दस-बारह साल की थी. खून से लथपथ हुई वह मां के पास शिकायत करने गई और मां ने उसे नहला दिया और डांटते हुए कहा -‘तुम्हारी ही गलती रही होगी.’ जब मीडिया को महिलाओं को इसलिए जागरूक करना चाहिए कि वे अपने ऊपर हुए ‘बलात्कार’ के लिए सामने आएं.
समाज क्या कहेगा, पड़ोसी क्या सोचेंगे,यह सब सोचकर किसी अपराधी का साथ ना दें. लेकिन मीडिया की रूचि बलात्कार को समस्या के तौर पर देखने से अधिक ‘सलमान’ को माफी मांगते हुए देखने में अधिक है. दिल्ली का ही एक मामला था, जब मेरे एक मित्र योगेन्द्र योगी ने अपने टीवी चैनल के लिए एक छोटे बच्चे पर हुए बलात्कार पर रिपोर्ट बनाई थी. उसके चैनल ने पूरी रिपोर्ट इसलिए खारिज कर दी क्योंकि पीड़ित और बलात्कारी दोनों मजदूर पृष्ठभूमि के थे. बहरहाल, सलमान के पूरे ‘माफी मांगो प्रकरण’ को संवेदना नहीं चैनल के अर्थशास्त्र की नजर से ही समझा जा सकता है. फिलहाल इस पूरे मामले पर अपनी समझ यही बनी है और अंत में: बलात्कारको एक ऐसा अभिशप्त शब्द बना दिया गया जिसे इस्तेमाल नहीं किया जा सकता. ऐसा करने वाले सोचते होंगे इससे वे पीड़िता का कुछ भला कर रहे हैं जबकि इससे पीड़िता क्या भला होगा, मीडिया में काम कर रहे बुद्धीजीवी पत्रकारों की मानसिकता का खुलासा जरूर हो जाता है.
बलात्कार पीड़िताओं के लिए सहानुभूतिजुटाने के अभियान में लगा मीडिया उन्हें न्याय दिलाने के लिए ईमानदार कोशिश करता या फिर कोई बलात्कार का अपराधी कभी पीड़िता को धमकाने की जुर्रत ना करे ऐसी कोई तरकीब निकालता या सलीम खान से माफी मंगवाने की जगह कोई ऐसी कोशिश मीडिया की तरफ से होती कि बलात्कार के अपराधियों को जब तक सजा ना हो जाए, हर एक बलात्कार के केस का फॉलो अप लगातार मीडिया में आएगा तो वास्तव में वह काबिले तारिफ कोशिश कहलाती. एक अभिनेता जो बलात्कार की पीड़ा से अपने शारीरिक श्रम से हुई पीड़ा की तुलना करता है, उसके पीछे सभी मीडिया चैनल वाले इस तरह पड़ गए जैसे फैसला वे कर चुके हों और अब इस मामले में वह अभिनेता का स्पष्टीकरण भी नहीं सुनना चाहते. मुझे याद है कि महीनों और फिर सालों तक हरियाणा के भगाना की बलात्कार पीड़िता बहनें दिल्ली के जंतर मंतर पर टिकी रही. ना जाने बलात्कार पीड़िताओं के लिए सहानुभूति से भरी भारतीय मीडिया उन दिनों कहां थी ? उनके अपराधियों को सजा कहां हुई ?
जयपुर की एक छोटी बच्ची के साथहुए बलात्कार मामले में वहां की एक मानवाधिकार कार्यकर्ता ने बड़ी बेशर्मी से मुझे कहा था कि लड़की के परिवार वाले पैसों के भूखे हैं, इसलिए लड़की के लिए न्याय मांगने का ढोंग कर रहे हैं. मीडिया समाज की इस मानसिकता को बदलने के लिए क्या कर रही है ? किसी की जुबान बंद करने से सोच नहीं बदलती. वास्तव में रेप शारीरिक से अधिक मानसिक-उत्पीड़नहै. अपराधी एक बार किसी स्त्री के साथ रेप करता है लेकिन पीड़िता का रेप उसके बाद खत्म नहीं होता, उसके बाद प्रतिदिन परिवार/समाज उसका रेप करता है. वास्तव में रेप के मामले में माफी यदि मंगवाई जा सकती है तो उस 'सोच'से मंगवाने का प्रयास करना चाहिए, जिसके साथ हम पलते, बढ़ते है और बलात्कार करने से अधिक हमें परेशान बलात्कार 'शब्द'का एक अभिनेता द्वारा इस्तेमाल किया जाना करता है. है ना शर्मनाक !