श्रुति गौतम
मेरे जैसी एक स्त्री
जाने उसकी आँखों में क्या है
जो मुझे देखती है इस तरह
अक्सर मेरे घर के सामने हाथों में तसला लिए
आती जाती दीखती है वह
दूसरे का घर बनाने में व्यस्त वह, मेरे जैसी ही एक स्त्री
क्या सुख मिलता है उसे
दो वक़्त की रोटी, तन ढ़कने को फटी साड़ी या जाने क्या
आखिर कैसे रह लेती है वह इसमें खुश
फटी साड़ी में खुद को छुपाती , पसीने से लथपथ
पीले बिखरे बाल , न जाने कब से सँवारे नहीं उसने
हाथों पर खुरचन के निशाँ
मेरी जैसी ही तो है वो...पगली सी...
वो देखती है मुझे फिर छुप जाती है एक खम्भे के पीछे
मैं भी उसको छुप-छुप कर देखती हूँ
वो बार-बार ऐसा करती है
अपने छोटे से बच्चे को चौखट पर फटे कपडे के बने झूले पर
झूला देती हुई देखती है मुझे
एक पल मेरी सामने आती है फिर गायब हो जाती है
कैसी कशिश है उसकी आँखों में
न चाहते हुए भी उसकी तरफ खीची जाती हूं मैं
जिस दिन नहीं दिखती वह हाथ में तसला उठाये, बच्चे को कमर में लटकाए
उस दिन परेशान हो जाती हूं.
मैं बात करना चाहती हूँ उससे पर कुछ है अंतर
मुझमें और उसमें
जो मुझे रोकता है
इतने दुःखों में भी कैसे खुश रह लेती है वह
और उसके मुकाबले अच्छी खासी हालत में भी
रोती रहती हूं मैं
वो मेरे जैसी स्त्री
अक्सर मुझे देखकर मुस्कुराती है
जाने क्या सोचती है मेरे बारे में
मैं जानना चाहती हूँ उसके बारे में और
उसको बताना चाहती हूं
कि बिल्कुल मेरी जैसी ही तो है वो.
कठिन कविता
आसान नहीं
स्त्री पर कविता लिखना
हर एक का है
अपना
सैंकड़ो - हजारों वर्षों
का इतिहास
जिसे रोज जीती हैं वे
कुछ हिम्मत करती हैं
उसे बदलने की
शेष इससे पहले ही
बांध दी जाती हैं
संस्कारों और रूढियों से.
समय का पहिया
समय का पहिया
आगे जाता हुआ
और
मैं वहीं शांत, स्तब्ध
खड़ी सी
खुद को आगे की ओर
धकेलती हुई
या समय को पीछे
की ओर
खींचती हुई .
संपर्क : gautamshruti46@gmail.com
मेरे जैसी एक स्त्री
जाने उसकी आँखों में क्या है
जो मुझे देखती है इस तरह
अक्सर मेरे घर के सामने हाथों में तसला लिए
आती जाती दीखती है वह
दूसरे का घर बनाने में व्यस्त वह, मेरे जैसी ही एक स्त्री
क्या सुख मिलता है उसे
दो वक़्त की रोटी, तन ढ़कने को फटी साड़ी या जाने क्या
आखिर कैसे रह लेती है वह इसमें खुश
फटी साड़ी में खुद को छुपाती , पसीने से लथपथ
पीले बिखरे बाल , न जाने कब से सँवारे नहीं उसने
हाथों पर खुरचन के निशाँ
मेरी जैसी ही तो है वो...पगली सी...
वो देखती है मुझे फिर छुप जाती है एक खम्भे के पीछे
मैं भी उसको छुप-छुप कर देखती हूँ
वो बार-बार ऐसा करती है
अपने छोटे से बच्चे को चौखट पर फटे कपडे के बने झूले पर
झूला देती हुई देखती है मुझे
एक पल मेरी सामने आती है फिर गायब हो जाती है
कैसी कशिश है उसकी आँखों में
न चाहते हुए भी उसकी तरफ खीची जाती हूं मैं
जिस दिन नहीं दिखती वह हाथ में तसला उठाये, बच्चे को कमर में लटकाए
उस दिन परेशान हो जाती हूं.
मैं बात करना चाहती हूँ उससे पर कुछ है अंतर
मुझमें और उसमें
जो मुझे रोकता है
इतने दुःखों में भी कैसे खुश रह लेती है वह
और उसके मुकाबले अच्छी खासी हालत में भी
रोती रहती हूं मैं
वो मेरे जैसी स्त्री
अक्सर मुझे देखकर मुस्कुराती है
जाने क्या सोचती है मेरे बारे में
मैं जानना चाहती हूँ उसके बारे में और
उसको बताना चाहती हूं
कि बिल्कुल मेरी जैसी ही तो है वो.
कठिन कविता
आसान नहीं
स्त्री पर कविता लिखना
हर एक का है
अपना
सैंकड़ो - हजारों वर्षों
का इतिहास
जिसे रोज जीती हैं वे
कुछ हिम्मत करती हैं
उसे बदलने की
शेष इससे पहले ही
बांध दी जाती हैं
संस्कारों और रूढियों से.
समय का पहिया
समय का पहिया
आगे जाता हुआ
और
मैं वहीं शांत, स्तब्ध
खड़ी सी
खुद को आगे की ओर
धकेलती हुई
या समय को पीछे
की ओर
खींचती हुई .
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