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युवाओं के गायक संभाजी समाज बदलने के गीत गाते हैं

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कुसुम त्रिपाठी
स्त्रीवादी आलोचक.  एक दर्जन से अधिक किताबें प्रकाशित हैं , जिनमें 'औरत इतिहास रचा है तुमने',' स्त्री संघर्ष  के सौ वर्ष 'आदि चर्चित हैं. संपर्क: kusumtripathi@ymail.com 

संभाजी भगत के क्रांतिकारी पोवाड़े के श्रोता-दर्शक चंद बुद्धिजीवी नहीं, बल्कि विशाल व्यापक जनता है जो आज अपने अधिकारों के हनन के लिए तत्पर तंत्र के खिलाफ प्रतिरोध की संस्कृति के समर्थन में लड़ रही है। उनका पोवाड़ा दर्शकों को आनन्दित नहीं करता बल्कि एक मुद्दे को लेकर झकझोरता है और उसे सार्थक दिशा की ओर उन्मुख करता है। उस दिशा की ओर जहां बदलाव और संघर्ष की ताकतें एक जुट हो रही हैं। संभाजी के पोवाड़ा जिसके वे गायक, गीतकार, संगीतकार हैं,  तमाम शोषित, पीड़ित जनता के अन्याय अत्याचार के विरूद्ध उन्हें उकसाने, उन्हें समाज को बदलने के लिए प्रेरित करते हैं। कला और संस्कृति की दुनिया मे लोकशाहिर संभाजी भगत यह कहते हुए अपने पोवाड़ा प्रस्तुत करते हैं.मैं आपका यहां मनोरंजन करने नहीं आया हूँ, बल्कि मैं आपकों अस्वस्थ करने आया हूँ, जो लोग यहां मनोरंजन के उद्देश्य से आए हैं, वे कृपया यहां से चले जायें। संभाजी भगत की आंखों में व्यवस्था विरोधी आग है, उनकी आवाज में सहयाद्री की सिंह गर्जना है। दस से पचास हजार की भीड़ उनका पोवाड़ा सुनने के लिए इकट्ठा हो जाती है।

संभाजी का जन्म 1 जून 1959को महाराष्ट्र के सातारा जिला के जावली तहसील के महू नामक गांव में हुआ। जो पंचगनी के पास है। वे एक भूमिहीन दलित परिवार में पैदा हुए. उनकी माता का नाम गीता तथा पिता का नाम भीमा था। प्रारंभिक शिक्षा उन्होंने महात्मा फुले हाई स्कूल, पंचगनी में की। संगीत का शौक उनको बचपन से ही था। उन्होनें बताया कि गांव के उनके एक शिक्षक थे, जिनका नाम देवधर गुरू जी था। वे सभी बच्चों को नहलाते, तैयार करते और स्कूल ले जाते थे। मुझे कंधे पर बिठाकर स्कूल ले जाते थे। वे गुरू जी कलापथक चलाते थे। उन दिनों महाराष्ट्र में लोग शाहिर अण्णाभाउ साठे और शाहिर अमर शेख से प्रभावित थे। देवधरे गुरू जी हम लोगों को इनके गाने सीखाते थे और जगह-जगह कला-पथक में गवाते थे। इससे संगीत में रूचि बढ़ी। इसके बाद संभा जी जब 8 वीं कक्षा में आए तब हाईस्कूल में जाने के लिए सहयाद्री की पहाड़ियों को पार कर जाना पड़ता था । जिससे वे और उनके साथी रोज देर से स्कूल पहॅुंचते थे। देर से स्कूल पहुंचने पर क्लास टीचर इन छात्रों की पिटाई करते थे। एक दिन स्कूल के कार्यक्रम में संभाजी ने इस मार-पिटाई के खिलाफ प्रोटेस्ट कविता लिखी और उसे गाकर सुनाया। उसके बाद प्रिसिंपल ने तुरन्त बुलाया। संभाजी को लगा, अब तो खैर नहीं मुझे जरूर स्कूल से निकाला जायेगा, पर उल्टा हुआ । प्रिंसिपल ने संभाजी को शाबासी दी, गाने की तारीफ की और क्लास टीचर की मार-पिटाई बन्द करवाई। तब से संभाजी सहयाद्री की पर्वत श्रृंखलाओं में कविता लगातार लिखते और गाते रहे जो अब तक जारी है। घोर गरीबी और दरिद्रता में उनका बचपन बीता।

12 वीं कक्षा की पढ़ाई खत्म करकेवे उच्च शिक्षा की चाहत लिए मुम्बई महानगर में  4 जून 1980 को आए। वे बड़ा-पाव के ठेले पर काम करने लगे और वहीं रास्ते पर सो जाया करते थे। बड़ा -पाव बेचने वाले मालिक ने संभाजी में पढ़ाई के प्रति आतुरता देखी। उन्होंनें संभाजी का नाम वडाला स्थित आम्बेडकर कालेज ऑफ़ कामर्स एण्ड इकोनाम्किस में बी-कॉम में लिखवा दिया। वहीं सिद्धार्थ विहार हॉस्टल में उनके रहने का प्रबंध भी हो गया। यह वही हॉस्टल था जहां पर दलित पैंथर आंदोलन का जन्म हुआ था ।


जूलाई 1980 में संभाजी भगत एप्लायमेंट एक्सचेंज से घर लौट रहे थे। उन्होंने चर्च गेट स्टेशन के पास कुछ कालेज के विद्यार्थियों को नुक्कड़ नाटक करते हुए देखा। वे रूककर नाटक देखने लगे। उन्होंने देखा कि थोड़ी - ही देर में पुलिस इन छात्र -छात्राओं को उठाकर ले जा रही थी। संभाजी को लगा इतना अच्छा नाटक चल रहा था, पुलिस इन लोगों को क्यों उठा ले गई! तब उन्हें एहसास हुआ कि नाटक सत्ता विरोधी है। ये विद्यार्थी सच्चाई बता रहे थे। ये सभी साहसी थे। उन्हें सच्चाई बताने से रोका गया। संभाजी इस समूह से बहुत प्रभावित हुए। फिर उन्होंने पता किया कि ये कौन लोग थे। उन्हें पता चला कि ये विद्यार्थी प्रगति संगठन से जुड़े विद्यार्थी थे और उनकी नाट्य मण्डली का नाम आह्वान नाट्य मंच है। मेरी पहली पहचान संभाजी से इसी वर्ष हुई। मैं विद्यार्थी प्रगति संगठन और  आह्वान नाट्य मंच से जुड़ी थी। संभाजी आह्वान नाट्य मंच से जुड़ गये। वे सनोबर आंस्पीन्डर को अपना गुरू मानते हैं जो आ आह्वान नाट्य मंच की संस्थापकों में से एक थी ।

1980 का दशक एक ऐसा दशक थाजब मुम्बई में छात्र आन्दोलन, महिला आन्दोलन, गिरणी कामगार के साथ - साथ अन्य ट्रेड युनियन आन्दोलन अपने उभार पर थे। ये सभी आन्दोलन एक- दूसरे से जुड़े थे। संभा जी भगत इन सभी आन्दोलनों से जुड़े थे। उन्होंनें आह्वान नाट्य मंच में आने के बाद मार्क्स और अम्बेडकर को पढ़ा । वे अपने छात्र-जीवन में ही प्रसिद्धी पा चुके थे । कालेज के विद्यार्थी पिकनिक पर जाते समय रास्ते में ट्रेन व बसों में उनका पौवाड़ा गाया करते थे । आह्वान नाट्य मंच में वैसे तो सामूहिक नाटय लिखे जाने की परम्परा थी, पर मुझे याद है संभा जी ने नाटकों में लोकधर्मी परम्परा गौंधड, बारूड, पोवडा शैली का प्रयोग नुक्कड़ नाटकों में शुरू किया। ज्यादातर नुक्कड़ नाटकों में गीत-संगीत संभाजी के होते थे हालांकि उन्होनें कभी भी शास्त्रीय संगीत या गीत व्यावसायिक तरीके से किसी संस्था में जाकर प्रशिक्षण नहीं लिया था। अभी भी मुझे याद है जब वे मेरे घर पर दकली या ढ़ोलकी लेकर गानों की धुन बनाते थे। वे स्वयंभू हैं। उस समय आह्वान नाट्य मंच के जो चर्चित नुक्कड़ नाटक थे- शिक्षा का सर्कस (1980) यूनिवर्सिटी का तमाशा देखो (1980), दमन का विरोध (1981) गिरनी कामगार का संघर्ष (दो भागों में 1982 - 83) रोटी का खेल (1984),  झोपडवासियों को गुस्सा क्यों आता है (1985) चुनाव बहिष्कार करो इत्यादि। 1980 - 95 के बीच संभा जी भगत विलास घोगरे और गदर के संपर्क में आए। ये तीनों लोक संगीत की परम्परा की तलाश में गांव-गांव घूमते थे । संभा जी ने इन्हीं लोगों के साथ रहकर देश की जातिवादी, धार्मिक क्रूरता, राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक विषमता, सांस्कृतिक तौर पर साम्राज्यवादी हमला जैसे मसलों पर जानना शुरू किया। ये तीनों आदिवासी इलाकों से लेकर गांव-गांव, बस्ती-बस्ती घुमते और लोक -सांस्कृतिक परम्पराओं को  लेकर क्रांतिकारी गाने लिखते। संभा जी गदर को अपना बड़ा भाई मानते है। क्रांतिकारी गाना गाने के कारण दोनों गढ़चिरोली में एक साथ जेल गये। जेल आना-जाना गिरफ्तारियां आम बात थीं।


संभा जी भगत ने पहली बार अर्धसत्य फिल्म में काम किया । 1992 - 93 दंगों के समय संभा जी स्तब्ध रह गये थे। कामरेड पांसारे की सलाह पर उन्होनें 2012 में शिवाजी अंडरग्राउण्ड इन भीमनगर मोहल्ला नाटक लिखा। संगीत निर्देशन भी उन्हीं का है। इस नाटक ने मराठी नाटकों की परम्परा में तहलका मचा दिया । इससे पहले गिरणी कामगारों के जीवन पर आधारित चिठाटया गिरणी वग नामक नृत्य- नाट्क लिखा था । इसका निर्देशन सुनील श्यानबाग ने किया था ।

2004 में संभाजी ने विद्रोही शाहिरी जलसा की स्थापना की। संध-परिवार शिवसेना तथा धार्मिक कट्टरवादियों के खिलाफ विद्रोही साहित्य सम्मेलन शुरू किया। 2011 में विद्रोही शाहिरी जलसा के माध्यम से गरीब बस्तियों के नवयुवकों को ट्रेनिंग देना शुरू किया । वे फासिस्टवादी, जातिवादी, पूंजीवादी व्यवस्था के खिलाफ गाने गाते हैं साथ ही फूले आम्बेडकर और भगत सिवंह के गाने गाते हैं. ऐसी ही संभा जी से ट्रेनिंग प्राप्त कबीर कला मंच के युवक - युवतियों को 2012 में माववादी से सहानुभुति रखने वाला कहकर गिरफ्तार कर लिया और साढे तीन वर्ष बाद उन्हें जमानत पर छोड़ा । 2000 में संभाजी की आत्मकथा कातल खलचा वाणी (पत्थर के नीचे का पानी) छपी । 2004 से 2008 तक उन्होनें मराठी समाचार पत्र महानगर और सम्राट पेपर में कालम लिखें ।
अप्रैल 2015 में कोर्ट फिल्म आई। जिसे राष्ट्रीय- अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कुल 24 पुरूस्कार मिले। आस्कर में फिल्म भेजी गई। इस फिल्म के गीतकार, संगीतकार और गायक संभाजी हैं। जून 2015 में नागरिक फिल्म में भी उन्होनें गाना गाया तथा संगीतकार गीतकार भी वे ही हैं । इस फिल्म के लिए संभाजी को महाराष्ट्र सरकार का राज्य पुरस्कार मिला, जिसे उन्होनें दाम्भोलकर, पानसारे और कलबुर्गी की हत्या के विरोध में पुरस्कार लौटा दिया । सरपंच भगीरथी फिल्म में भी गीतकार, संगीतकार संभाजी भगत हैं. इन दिनों उनका नाटक स्टैचु ऑफ़ लिबर्टी हाउस फूल जा रहा है ।

संभा जी भगत ने 2016 में ‘द वॉर बीट’ नाम से इन्टरनेट पर गाने लोड करना शुरू किया है। वे कहते है। द वॉर बीट’ इसलिए शुरू किया क्योंकि आज मीडिया के सभी साधनों पर फासिस्ट ताकतों का कब्जा है। लोकतांत्रिक स्थानों पर हमें हमारी बात प्रेषित करने का साधन खत्म हो गया है। सइबर - टेकनालांजी में थोड़ा बहुत स्पेस बचा है। साथ ही ग्रामीण क्षेत्रों में भी इन्टरनेट का प्रयोग होने लगा है। इसलिए हमने अपनी बात अपनी भाषा में कहने के लिए इस साधन को अपनाया और हम सफल भी हो रहे हैं।


3 जून 6 जून 2017 को संभाजीने कला- संगिनी के बैनर तले 150 युवा कलाकारों को इकट्ठा किया। साने-गुरूजी स्मारक के मानगांव जो रायगड़, जिला महाराष्ट्र में है, वहां ट्रेनिंग कार्यक्रम लिया। इसमें कलाकारों को वैचारिक व सैद्धान्तिक आधार पर आज फासिस्ट ताकतों से विभिन्न माध्यमों का तकनीक  का प्रयोग करते हुए कैसे लड़ा जाये पहले सिखाया गया। इस ट्रेनिंग में 15 समूह के लोगों ने भाग लिया। लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा हेतु कला - संगिनी की स्थापना की गई। इन युवकों ने चार दिन में 12 लघु फिल्में और 14 गाने बनाये।

संभाजी कहते हैं जहां आन्दोलनकी जरूरत होती है, मैं वही होता हूँ । मैं अपना जलसा झोपड़ियों, बस्तियों, गांवों में करता हूँ। मेरा एक सपना है - मैं दलित संशोधन केन्द्र की स्थापना करूं, जहां गरीब, दलित बच्चों के लिए मैं रेडियो, टी.वी. सेन्टर खेल सकूं। उन्हें साउन्ड रिकार्डिगं, गीत-संगीत, फिल्म बनाना सीखा सकूं, ताकि अपनी बात करने के लिए हमें किसी और के पास न जाना पड़े। हम अपने माध्यमों से फासिस्ट ताकतों, ब्राहमणवाद, जातिवाद व पूंजीपतियों के खिलाफ आन्दोलन खड़ा कर सकें। उनकी मान्यता है कि आने वाली युवा पीढ़ी की नारियां स्वयं अपना इतिहास रचेगीं। स्त्रियों की भूमिका के बिना समाज में कोई क्रांति नहीं लाई जा सकती ।

संभाजी के पोवाडा में सत्ताविरोधीआक्रोश साफ दिखाई देता है । वे पूंजीपतियों, सामांतवादी, साम्राज्यवादी शक्तियों के विरूद्ध हुंकार भरते हैं। मनुवादियों, ब्राहमणविादियों तथा फासिस्ट संस्कृति के खिलाफ युवकों को लामबन्द होने की प्रेरणा देते हैं।

स्त्रीकाल का संचालन 'द मार्जिनलाइज्ड' , ऐन इंस्टिट्यूट  फॉर  अल्टरनेटिव  रिसर्च  एंड  मीडिया  स्टडीज  के द्वारा होता  है .  इसके प्रकशन विभाग  द्वारा  प्रकाशित  किताबें  ऑनलाइन  खरीदें : 

दलित स्त्रीवाद मेरा कमराजाति के प्रश्न पर कबीर

अमेजन पर ऑनलाइन महिषासुर,बहुजन साहित्य,पेरियार के प्रतिनिधि विचार और चिंतन के जनसरोकार सहित अन्य 
सभी  किताबें  उपलब्ध हैं. फ्लिपकार्ट पर भी सारी किताबें उपलब्ध हैं.

दलित स्त्रीवाद किताब 'द मार्जिनलाइज्ड'से खरीदने पर विद्यार्थियों के लिए 200 रूपये में उपलब्ध कराई जायेगी.विद्यार्थियों को अपने शिक्षण संस्थान के आईकार्ड की कॉपी आर्डर के साथ उपलब्ध करानी होगी. अन्य किताबें भी 'द मार्जिनलाइज्ड'से संपर्क कर खरीदी जा सकती हैं. 
संपर्क: राजीव सुमन: 9650164016,themarginalisedpublication@gmail.com

उस पेड़ पर दर्जनो सैनिटरी पैड लटके होते थे

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संजीव चंदन 

स्त्रियों के लिए माहवारी को टैबू बनाया जाना सामाजिक-सांस्कृतिक प्रक्रिया है. इसे गोपनीय,  टैबू और लज्जा का विषय बनाने में यह प्रक्रिया न सिर्फ स्त्रियों के मानस को नियंत्रित और संचालित करती है, बल्कि पुरुषों का भी ख़ास मानसिक अनुकूलन करती है. माहवारी को लेकर पुरुषों के बीच की धारणा को समझने के लिए यह एक सीरीज है, जिसमें पुरुष अपने अनुभव इस विषय पर लिख सकते हैं.

वह मुझसे साढ़े चार-पांच  चाल साल बड़ी थी, रिश्ते में एक पीढ़ी ऊपर. अभी भी दृश्य सा याद है, 7-8 साल का रहा होउंगा मैं. आँगन में बैठकर मैं खाना खा रहा था और वे आँगन से लगे कुएं के पास रो रही थीं. बगल के घर से एक नानी आयीं, उन्होंने पूछा 'क्यों रो रही है वो' कोई जवाब देता उसके पहले मैं बोल उठा, 'महीना हुआ है.'मेरा बोलना था कि घर की महिलायें समवेत रूप से हंस पड़ी. हालांकि मुझे क्या पता था कि महीना क्या होता है, शायद नानी के पूछने के पहले किसी से मैंने सुना होगा कि उन्हें क्या हुआ था, इसलिए मैं बोल पड़ा और सबको हँसते देखकर रुआंसा सा हो गया था.


लेकिन ठीक-ठीक मुझे याद नहीं कब जान पाया कि यह महिलाओं की योनि से होने वाला मासिक रक्तस्राव है, संभवतः किशोर अवस्था के दोस्तों ने रहस्य भाव में बताया होगा या पहली बार विज्ञान के क्लास में लड़कियों के अंगों के बारे में बताया गया होगा तब. हालांकि वह कोई एक-आध शब्द की जानकारी ही होती थी-'रजस्वला.', जिसका सम्पूर्ण ज्ञान निश्चित तौर पर मुझसे ज्यादा ज्ञानी लड़कों ने दिया होगा. मैं टी मॉडल का विद्यार्थी था, जहां लडकियां नहीं पढ़ती थीं.

जब मैंने स्त्रियों की माहवारी को पहली बार जाना

घर में यह जरूर होता था, कि छोटीबहू होने के बावजूद महीने के कुछ दिनों में मां खाना नहीं बनाती थीं, और अधिक पूजा-पाठी होने के बावजूद पूजा नहीं करती थीं, उन दिनों कभी-कभी फिर वही शब्द टकरा जाता 'महीना.'घर में कभी न पैड दिखा और न सूखता हुआ कपड़ा.

लडकियां लड़कों के लिए रहस्यलोककी प्राणी तो होती ही थीं,  गाँव के स्कूल में पढ़ते वक्त छेड़-छाड़ की पात्र भी. हालांकि मैं बहुत दिन तक गाँव के स्कूल में नहीं पढ़ा, लेकिन सीनियर लड़कों का लड़कियों को छेड़ना आज भी याद है, उनके चक्कर में एक दो बार शिकायत मेरे घर भी आ चुकी थी. शिकायत का कारण बने थे खेल,  जिसमें लड़के किसी लडकी को समवेत चिढ़ाते. उसके नाम का द्विअर्थ बना कर. कॉलेज तक आते-आते लडकियां जब दोस्त बनीं, बेतकल्लुफ बातें करने लगीं, तो माहवारी क्या होता है वह भी जान गया और यह भी कि यह दर्द , शर्म और अछूतपन का कोई मासिक रूटीन है, जिसे हर लडकी को नियमित जीना पड़ता है-भोगना पड़ता है और हो सके तो इस नियमित मासिक चक्र को गुप्त रखना पड़ता है, ख़ासकर पुरुषों से.


मैं  एमए करने महाराष्ट्र के वर्धा पहुंचास्त्री-अध्ययन का विद्यार्थी होकर. यद्यपि क्लास में हम यौन अंगों का नाम लेते हुए उनपर आरोपित भावों से मुक्ति की फिल्म देख चुके थे, जेंडर का सैद्धांतिक अधययन कर चुके थे, कर रहे थे, लेकिन ऐसा नहीं था वहाँ कि जेंडर का असर पूरी तरह समाप्त हो गया हो. लडकियां काली पन्नी में ही खरीदती थी सैनिटरी पैड. वहां होस्टल के पास एक पेड़ था, काँटों वाला. उसपर दर्जनो इस्तेमाल किये हुए सैनिटरी पैड लटके हुए होते थे . उसके काटे जाने के पहले तक हम उस ओर से गुजरते तो पेड़ पर अतिरिक्त भाव में नजर जाती ही जाती.

माहवारी पर बात की झिझक हुई खत्म 

आप पर आरोपित भाव और विचारसे मुक्त होने में समय लगता है. यह हमारे परवरिश और माहौल का ही असर है कि अभी कुछ सालों पहले तक कंडोम और पैड दोनो ही खरीदने में एक अतिरिक्त बोध तो हुआ ही करता रहा है. उस बोध से, झिझक से आज मुक्त तो जरूर हूँ, लेकिन मध्यवर्गीय परिवेश के लिए मुक्ति  एक अभियान का हिस्सा होना चाहिए.  यह सांस्कृतिक अनुकूलन से मुक्ति का प्रसंग है, जिससे पुरुष और स्त्री, दोनो को जरूर मुक्त होना चाहिए.

क्या महिलायें भेजेंगी प्रधानमंत्री और वित्तमंत्री को सैनिटरी पैड

संजीव चंदन स्त्रीकाल के संपादक हैं .
संपर्क:8130284314

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दलित स्त्रीवाद मेरा कमराजाति के प्रश्न पर कबीर

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दलित स्त्रीवाद किताब 'द मार्जिनलाइज्ड'से खरीदने पर विद्यार्थियों के लिए 200 रूपये में उपलब्ध कराई जायेगी.विद्यार्थियों को अपने शिक्षण संस्थान के आईकार्ड की कॉपी आर्डर के साथ उपलब्ध करानी होगी. अन्य किताबें भी 'द मार्जिनलाइज्ड'से संपर्क कर खरीदी जा सकती हैं. 
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रेप कल्चर- एक हकीकत

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गिरीश चंद्र लोहनी
पिथौरागढ़, उत्तराखंड में मानविकी के विषयों को पढ़ाते हैं संपर्क:Email-Id glohani1@gmail.com
मो. 999005798 
स्त्रीकाल कॉलम 
बलात्कार को अपराध नियंत्रण कार्यक्रम के तहत नहीं रोका जा सकता है. यह संस्कृति का हिस्सा है और उसे सांस्कृतिक तौर पर ही निपटा जा सकता है, अपराध नियंत्रण की धाराएं और सख्ती एक समाधान है आख़िरी नहीं. बता रहे हैं गिरीश सबलोग के स्त्रीकाल कॉलम में (जुलाई अंक)
                                       
पिछले  कुछ सालों में दुनियाभर में बलात्कार की घटनाओं में भयानक रुप से वृद्धि हुई है अगर आँकड़ों की मानें तो कथित ‘स्वपन देश’ अमेरिका में प्रत्येक पाँच मिनट में या तो एक यौन हिंसा घटती है या यौन हिंसा की कोशिश की जाती है. जिस रेप-कल्चर को लगातार हमारे समाज में बढ़ावा मिल रहा है उसे स्त्रीवादी लेखकों की दिमागी उपज करार कर सिरे से ही नकार दिया गया है.

आखिर ये रेप कल्चर किस उड़ती चिड़िया का नाम है. किसी बलात्कार पीड़ित को उसके कपड़े, बलात्कार के समय, उसके रहन-सहन या किसी भी आधार पर दोषी ठहराना, लगातार पुरुषत्व को प्रधान व लैंगिक दॄष्टि से आक्रमक और स्त्रीत्व को विनम्र और लैंगिक दॄष्टि से निष्क्रिय के रुप में  घोषित करना, मान कर चलना की बेकायदा महिलाओं का ही बलात्कार होता है, महिलाओं को बलात्कार से बचने के नुस्खे देना, यौन शोषण को सहनकर अपनी नियति मान लेना आदि. ये सभी रेप कल्चर के उदाहरण हैं.

एक नजर अब हमारे बालीवुडके अस्सी के दशक की फिल्मों पर. फिल्म में मुख्य विलेन का भाई या बेटा हीरो की बहिन का बलात्कार करता था और फिर बहन स्वयं को दोषी मान आत्महत्या कर लेती थी. कहानी आगे कुछ ऐसे बढती थी कि हीरो विलेन के बेटे या भाई की हत्या कर बदला लेता था बदले में मुख्य विलेन हीरो की हीरोईन को बलात्कार के लिये उठा ले जाता था और फिर हीरोईन को बलात्कार से बचाकर हीरो की हीरोगिरी पर मुहर लग जाती थी. हीरोईन पर बलात्कार की कोशिश विलेन का अधिकार, बलात्कार से हीरोईन को बचाना हीरो का धर्म और बलात्कार में पीड़िता का रुप हीरोईन की नियति दर्शाने वाले लेखक और निर्देशक किस मानसिकता के होंगे आप अंदाजा लगा सकते है. और उस समाज की मानसिकता के बारे में भी सोचिये जो इस सिनेमा को देखता है.

अस्सी के दशक को छोड़ आज के को भी देखा जा सकता है. एक दृश्य और संवाद भारत के चहेते हीरो सलमान खान की सुपर-हिट फिल्म वांटेड का. फिल्म की हीरोईन किसी जिम क्लास में एक्साइज कर रही है और निर्देशक निहायती घटिया अंदाज से कैमरा हिरोईन के पिछले हिस्से पर बड़ी बारीकी से घुमाकर दिखाता है जिसे देख हीरो सलमान खान भी उसी अंदाज में कमर बड़े ही अश्लील अंदाज में घुमाकर अपने दोस्तों को बड़े चुटीले अंदाज में बताते हैं कि लड़कियां ये सब करती ही लड़कों के लिये हैं.

राष्ट्रीय पुरुस्कार प्राप्त अभिनेता अक्षय कुमार की अधिकांश फिल्मों में हीरोईन का काम बस इनको आकर्षित करने का रहता है. एक पूरी फिल्म में तो ये हीरोईन की बिना ढकी कमर देखकर इतने बेकाबू हो जाते हैं की बिना चिंगोटी काटे नहीं रह पाते. गली में लड़कियों को छेड़ने के लिये प्रयोग की जाने वाली एक घटिया आवाज को ये अपनी एक्टिंग का नमूना मानते हैं. ये हाल केवल मुख्य धारा के सिनेमा का है. यदि क्षेत्रीय सिनेमा की बात की जाय तो जिस तरीके से डायलॉग से लेकर लिरिक्स तक में यौन-हिंसा को परोसकर पेश किया जाता है और जिस प्रकार से हाथों-हाथ दर्शकों द्वारा भी लिया जाता है वह भयावह है.


सिनेमा के अलावा जिसने  इस रेप कल्चर को बढ़ावा दिया है वो है विज्ञापन बाजार. आज पुरुषों के कच्छे से लेकर गुटखा तक महिलाओं को आकर्षित करने के नाम पर विज्ञापन बनाकर बेचे जा रहे हैं. इनमें बड़ी कंपनियों का योगदान ज्यादा है. क्रियेटिवीटी के नाम पर अपने आपको आपके घर की दुकान कहने वाली कम्पनी अमेजन इन दिनों महिला के जननांगो पर सिगरेट बुझाने वाली ऐस्ट्रे को लेकर विवादों में नजर आयी. इसे बनाने वाले के मन की कुंठा छोड़िये आप इसे खरीदने और बेचने वाले के बारे में सोचिये. क्या महिला जननांगो में सरिया और रॉड घुसाने वालों और इनमें कोई अंतर है? हाँ एक अंतर तो ये है कि इन्हें मौका नहीं मिला.अमेजन ने अब इसे अपने प्रोडक्ट लिस्ट से हटा दिया है.

मैन विल बी मैन, हँसी तो फंसी,साली आधी घरवाली वाले जुमले क्या संदेश देते हैं? बाजार में एक महिला के स्तनों के आकार का बना सिगरेट बुझाने वाला ऐस्ट्रे कैसे फनी क्रियेटिवटी के नाम पर बेचा जा सकता है? हमारे लिये बुरा ये है कि ऐसे प्रोडक्ट हाथों-हाथ बिक भी जाते हैं? एक अन्य हालिया घटना केरल के एक स्कूल द्वारा अपने स्कूल के बच्चों की ड्रेस को लेकर भी है. स्कूल की ड्रेस की यह कह कर आलोचना की गयी की यह अश्लील है जो न केवल बच्चों की मानसिकता को प्रभावित करेगी बल्कि पुरुषों को उकसाने का काम भी करेगी. ये कैसी मानसिकता वाले लोंगो का समाज में बोल-बाला है जिन्हें बच्चों के कपड़े तक उकसा सकते हैं. आलोचना के इन आधारों को कैसे इतनी आसानी से हमारे समाज में जगह मिल जाती है.

पिछ्ले दिनों बैंगलोर जैसे शिक्षितक्षेत्र में मेट्रो में एक चालीस पार कर चुके एक अच्छे खासे व्यक्ति द्वारा सामने की सीट पर बैठी लड़की के पैरों का विडियो बनाने वाला विडियो सच में घिनौना और दिल दहलाने वाला था. बैगलूर में इसी साल वर्ष की शुरुआत में न्यू ईयर पार्टी में हुई घटना के विषय में  कई लोग यह कहते हुये आरोपियो की आलोचना करते दिखे की अंधेरी रात में लड़कियों को भी अपने बचाव के साथ चलना चाहिये था. क्या आप अब भी मानते हैं रेप कल्चर मात्र स्त्रीवादी लेखकों के दिमाग की उपज मात्र है.


अब अपना मोबाईल खोल अपनेस्कूल, कालेज या आफिस का कोई भी ऐसा ग्रुप खोलिये जहाँ केवल लड़के हों. इनमें धडल्ले से भेजे विडियो और अधनंगी तस्वीरों पर नजर डालिये. अधिकांश आपको एमएमएस के नाम से मिलेंगे जो कि महिला की जानकारी के बिना बने रहते हैं. महिलाओं के शरीर पर किये जाने वाले भद्दे मेम्स और जोक्स बनाकर या आगे बढाकर क्या आप भी एक तरह से रेप कल्चर को बढ़ावा नहीं दे रहें हैं.

शर्म-हया-विनम्रता-सुंदरता आदि के फूलों से बनी एक माला महिलाओं को पहनाई जाती है. ये फूल इज्जत,आबरु और समाज की मान-मर्याद के वृक्षों से केवल महिलाओं के लिये चुने जाते हैं. ताकि उन्हें नियंत्रित किया जा सके.

बलात्कार के मामलों के संबन्ध मेंसंकुचित ज्ञान और संकुचित मानसिकता लगातार विश्व भर में बलात्कार के मामलों में बढोतरी कर रही हैं. एक बात तो यह बलात्कार केवल सेक्स से जुड़ा मुद्दा नहीं है. यह शक्ति और वर्चस्व से जुड़ा अधिक है. पुरुष प्रधान समाज में पुरुष कई वर्षों से शासन कर रहा है. ऐसे में उसे अपनी सत्ता पर एक स्त्री रुपी खतरा नजर आ रहा हैं. ऐसा नहीं है कि केवल पुरुषों द्वारा बलात्कार किये जाते है अफ्रीका के कई ऐसे देश जहाँ मातृसतात्मक शासन व्यवस्था कई वर्षों से थी वहां पुरुषों के साथ बलात्कार की घटनाएं काफी आम हैं.

कुल मिलाकर बलात्कार एक हिंसक प्रवृति है. सामान्यतः समाज में 90 प्रतिशत व्यक्ति हिंसक नहीं होते. लेकिन समय के आधार पर हिंसा एक विकल्प के रुप में चुनते जरुर हैं. पारिवार में, दोस्तों के बीच, आफिस में लगातार दमन से व्यक्ति के मन में जन्मी कुंठा उसे बलात्कारी बनाती है. क्योंकि हमारे द्वारा बनाया गया और परोसा गया यह रेप कल्चर उसे यकीन दिला देता है कि यह कुंठा वह समाज द्वारा उससे भी ज्यादा दमित व्यक्ति पर निकालने के बाद बच निकलेगा.

उदाहरण के तौर पर हाल ही में गुडगाँव में एक ऑटो-चालक और दो अन्य व्यक्तियों द्वारा एक महिला के बलात्कार की घटना घटी. क्या आप मान सकते हैं कि वे तीनों घर से ही बलात्कार के मन से निकले होंगे. क्या आप मान सकते हैं कि महिला द्वारा ऑटो में ऐसा कुछ किया होगा जो तीनों को अचानक बलात्कार के लिए प्रेरित कर दे. नहीं. तीनों को ही जब ये यकीन हो गया होगा कि वे महिला पर काबू पा सकते है. तीनों को यकीन हो गया होगा कि वे बलात्कार के बाद बच निकल सकते है तो ही उन्होंने इस हिंसा का विकल्प चुना होगा. सवाल है ये यकीन आया कहां से?


टीवी कार्यक्रम में सावधानी औरसतर्कता से रहने की सलाह तो बखूबी दी जाती है लेकिन उससे पहले एक घण्टे का कार्यक्रम कुंठित व्यक्ति को अपराध करने के सौ उपाय और साधन दे चुका होता है. निष्कर्ष के रुप में एक बात साफ है यदि एक अपराध नियंत्रण के रुप में बलात्कार की समस्याओं को रोकना चाहेंगे तो बलात्कार के मामले अधिक दर्ज जरुर होंगे लेकिन बलात्कार कम नहीं होंगे. वर्चस्व और शक्ति से जुड़े इस हिंसक-अपराध के प्रति सेक्स के अलावा अन्य सभी पहलुओं पर भी चिंतन आवश्यक है.

स्त्रीकाल का संचालन 'द मार्जिनलाइज्ड' , ऐन इंस्टिट्यूट  फॉर  अल्टरनेटिव  रिसर्च  एंड  मीडिया  स्टडीज  के द्वारा होता  है .  इसके प्रकशन विभाग  द्वारा  प्रकाशित  किताबें  ऑनलाइन  खरीदें : 

दलित स्त्रीवाद मेरा कमराजाति के प्रश्न पर कबीर

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गांधी के गाँव से छात्राओं ने भेजा प्रधानमंत्री और वित्तमंत्री को सेनेटरी पैड: जारी किया वीडियो

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स्त्रीकाल डेस्क 
महात्मा गांधी के गाँव से छात्राओं ने भेजा प्रधानमंत्री और वित्तमंत्री को सेनेटरी पैड, कहा आप भी फील करें लग्जरी.  जारी किया वीडियो, जिसमें 'वनश्री कहती हैं कि 'यह सरकार की असंवेदनशीलता है कि जहां 50% से अधिक महिलायें अस्वच्छ कपड़े का इस्तेमाल करती हैं, वहाँ  स्वच्छता के लिए सेनेटरी पैड लेने का अभियान चलाने की जगह उसपर 12% टैक्स लगा रही है.


प्रधानमंत्री और वित्तमंत्री को सेनेटरी पैड के पैकेट भेजने के पहले छात्रायें

महात्मा गांधी के गाँव वर्धा से एक छात्रा नेप्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और वित्त मंत्री अरुण जेटली को सेनेटरी पैड भेजकर सेनेटरी पैड पर 12% जीएसटी लगाने का विरोध किया है. युवा नामक संगठन की कनवेनर वनश्री वनकर और उनकी साथी प्रणाली धावर्दे, रवीना सोनवने, श्वेता पांगुल, प्रिया नागराले और अपेक्षा नागराले ने पैड भेजते हुए अपने वीडियो सन्देश में कहा है कि 'सरकार ने श्रृंगार के सामान सिन्दूर आदि पर तो जीएसटी नहीं लगाया, लेकिन माहवारी के दौरान महिलाओं के स्वास्थ्य से जुड़े सेनेटरी पैड पर 12% जीएसटी लगा दिया. वित्त मंत्री और प्रधान मंत्री यदि प्राकृतिक रूप से अनिवार्य माहवारी के दौरान स्वच्छता को विलासिता वस्तु, लग्जरी आइटम समझते हैं तो उन्हें भी इसका आनंद लेना चाहिए.'



वनश्री कहती हैं कि 'यह सरकार की असंवेदनशीलता है कि जहां 50% से अधिक महिलायें अस्वच्छ कपड़े का इस्तेमाल करती हैं, वहाँ स्वच्छता के लिए सेनेटरी पैड लेने का अभियान चलाने की जगह उसपर 12% टैक्स लगा रही है.



अपने कैबिनेट मंत्री मेनका गांधी और कई महिला सांसदों केविरोध के बावजूद अरुण जेटली ने जब 30 जून के मध्य रात्रि में जीएसटी लागू होने की घोषणा की तो उनमें जीएसटी लागू वस्तुओं में लग्जरी आयटम के तहत 12% तक का टैक्स सेनेटरी पैड पर लगा दिया गया. सेनेटरी पैड पर जीएसटी के खिलाफ पर देश भर की महिलाओं ने 'लहू पर लगान'हैश टैग के साथ सोशल मीडिया पर मुहीम चला रखी थी, जिसमें कई सेलिब्रिटीज भी शामिल थीं, लेकिन सरकार ने किसी की नहीं सुनी.



स्त्रीकाल ने सेनेटरी पैड पर लगाये गये टैक्स कोजजिया कर से ज्यादा तानाशाह निर्णय बताते हुए लिखा था, 'वस्था पुरुषों के द्वारा पुरुषों के लिए संचालन के अधोषित दर्शन से संचालित होती है. स्त्री उसके लिए एक अलग-‘अदर’ पहचान है. न सिर्फ सैनिटरी पैड के सन्दर्भ में बल्कि में अन्य मामलों में भी ‘अलग पहचान’ का यह भाव सामने आता रहता है.

मराठी में सन्देश का वीडियो



अभी नीट की परीक्षा में लड़कियों के अन्तःवस्त्र निकलवाने का प्रसंग भी प्रायः इसी भाव से प्रेरित है, जिसमें लम्बी अभ्यस्तता के कारण महिलायें भी शामिल हो जाती हैं- यानी महिलाओं के खिलाफ महिला एजेंट हो जाती है. जब व्यवस्था एक ख़ास समूह के प्रति उत्तरदायी हो जाती है, तो इस तरह की घटनाएँ होती हैं. कभी तीर्थ यात्रा के लिए हिन्दू यात्रियों पर लगने वाला जजिया कर, जिसे अकबर ने हटाया था, की तरह ही है हिन्दू-हित की बात करने वाली सरकार के द्वारा महिलओं के लिए अनिवार्य सैनिटरी पैड पर कर लगना या बढाना.'



गौरतलब है कि कथित सुहाग के प्रतीक 'सिन्दूर,चूड़ी'आदि पर सांस्कृतिक राष्टवाद'की समर्थक एनडीए सरकार ने जीएसटी नहीं लगाया है, और महिलाओं के स्वास्थय से जुड़े पैड को इस दायरे में रखा है. कंडोम और कंट्रासेप्टीव् पर भी कोई टैक्स नहीं है, जो कि सरकार के राष्ट्रवाद के अपने ढंग और जनसंख्या नियंत्रण के कारण लिया गया निर्णय है, न कि महिलाओं के प्रजनन अधिकार से जुड़कर. सवाल है कि क्या यह मुहीम गांधी के गाँव से शुरू होकर पूरे देश में फ़ैल जायेगा तब सरकार अपने निर्णय पर विचार करेगी?

सवाल-दर सवाल स्त्री की चिंता (रेखा कस्तवार की किताब ‘किरदार ज़िंदा है’)

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धनंजय वर्मा
प्रख्यात आलोचक संपर्क: 9425019863 

कोई भी रचना-खासकर कहानी और उपन्यास-एक ऐसी खुली संरचना होती है (होनी चाहिए) जिसमें पाठक, चाहे तो, कहीं से भी प्रवेश कर सके। पाठक के लिए रचना का पाठ ही महत्वपूर्ण होता है। इधर आलोचना में पाठ की सत्ता और महत्ता को नये से परिभाषित किया जा रहा है-खासकर विसंरचनावाद में। जैक डेरिडा के प्रभाव से ‘पाठ‘ का पठन न केवल महत्वपूर्ण हो गया हेै वरन यह भी माना जा रहा हेै कि रचना का अर्थ ‘पाठ‘ में पहले से विद्यमान या अवस्थित नहीं होता, वह तो ‘पठन‘ से उत्पन्न होता है और लगभग हर पाठक के लिए एकाधिक अर्थ की सम्भावनायें अन्तर्निहित होती हैं। आखिरकार हर पाठक किसी रचना को ‘अपने लिए‘ और ‘अपनी नज़र‘ से ही पढ़ता है। बकौल एफ.आर.लीविस ‘आलोचक का काम यह है कि वह ‘पाठ‘ पर अपना ध्यान केंद्रित करे  और उससे महज अपनी सहानभूति के प्राप्त अनुक्रिया या प्रतिक्रिया व्यक्त करने की बजाय कृति की भाषिक संरचना के गहन अध्ययन से, उसे एक जीवित माध्यम की तरह अनुभूत करे और अपने परिपक्व प्रतिबोध से उसकी ‘पुनर्रचना करे‘। हिलिस मिलर ‘पाठ‘ के रूप और संरचना तक सीमित न रह कर ‘अनु-भव‘ से ‘अर्थ ‘ तक पहुँचने और फिर उसकी पुनर्रचना की वकालत करता है तो ज्योफ हार्टमैन शेक्सपीयर के हेमलेट के संवाद से अपनी बात कहता है-’पाठ उस भूत की तरह होता है जो पाठक को चुनौती देता है कि वह उसे समझे’।....
 
इस पसमंजर में रेखा कस्तवार की पुस्तक-’किरदार ज़िन्दा है’ का पाठ-प्रक्रिया और  कथाआलोचना दोनों-दृष्टियों से एक खास महत्व है। यह अड़तीस कथाकारों की चालीस रचनाओं के किरदारों को सम्भावना के नाम से लिखे गए ऐसे आत्मीय पत्रो का संकलन है, जिन्हें सही पतों की तलाश है।’सम्भवना’ और ’तलाश’ दोनों ऐसे अल्फाज़ है जिनमें खुले दिलो दिमाग के नुकूश हैं। रेखा चर्चित कहानी या उपन्यास में किरदार के दरीचे से दाखिल होती हैं और उन्हीं के निगाहे-ओ-नजरिए कहानी, उपन्यास के मूल कथ्य और सार से आत्मीय साक्षात्कार करती-करवाती हैं।

 
रेखा कस्तवार 
कथा में किरदार की अहमियत पर हम अपनी कथा-आलोचना की पुस्तक-त्रयी की पहली पुस्तक कहानी का रचना शास्त्र में विस्तार से लिख चुके हैं। यहाॅं प्रसंग वश संक्षेप मेंः हमने देखा है कि किसी भी कहानी (या उपन्यास में भी) उसके परिवेश और अनुभव संसार और फिर दोनो की अंतर्क्रिया से जो भावबोध रूपायित होता है उसकी अभिव्यक्ति के मूर्तरूप होते हैं-वे मनुष्य, वे चरित्र, जिनके जीवन और संघर्ष में हमारी आपकी दिलचस्पी होती है। उन्हीं में हम अपने और व्यापक मनुष्य के जीवन और संघर्ष की छाया देखते हैं। इस दुनिया की कोई भी स्थिति घटना इसलिए महत्वपूर्ण होती है कि उसके केन्द्र में मनुष्य होता है, वह मनुष्य से सम्बद्ध होती है या मनुष्य पर उसका असर होता है। आप गौर करें तो अन्तर्बाबाह्य  जीवन और जगत से व्यक्ति की अन्तःक्रिया के नतीजतन जो अनुभव होते है, वही रचना के मानव बिम्बों में रूपायित होते हैं, और मुख़्तलिफ किरदारों  में ढ़लकर रचनाकार के अनुभव-संसार की समृद्धि और विविधता के प्रतीक और प्रतिनिधि हो जाते हैं। हम देखना चाहते हैं कि कहानी और उपन्यास में-से उभरने वाला किरदार, उसके क्रिया-कलाप, उसकी गतिविधियाॅं, उसका सोच विचार, उसका आचरण-व्यवहार कितना यथार्थ, वास्तविक और आश्वस्तकारी है। अपनी सामाजिक परिवेश और स्थिति, भावबोध और अनुभव संसार से वह कितना संगत या असंगत है। वह हमारे जीवन जगत, देश-काल के केन्द्रीय मनुष्य से कितना समरस है। वह अपने युग-समाज-वर्ग और स्तर  का कैसा-कितना प्रतिनिधि है। जिस वर्ग और स्तर से वह आता है उससे वह किस हद तक , कितनी प्रमाणिकता से रूपायित  और कितना प्रासंगिक है?

 इन पत्रालेखों में रेखा चर्चित क़हानियों और उन्यासों के स्त्रीपात्रोंसे ही मुखातिब हैं। उनकी शोधपरक पुस्तक -‘स्त्री चिंतन की चुनौतियों’ के बाद स्त्री से संवाद केंन्द्रित इस पुस्तक के पत्रालेख एक दैनिक समाचार पत्र में धारावाहिक प्रकाशित हुए थे। वे सीधे आम आदमियों से सम्प्रेषित हैं-उनकी सक्रिय भागीदारी के साथ। उनका सही पता वे कथाकार भी हैं जिन्होंने इन किरदारों की रचना की है। चूंकि बकौल एफ.आर.लीविस ’एक सच्ची साहित्यक रूचि’मनुष्य, समाज, सभ्यता और संस्कृतिक रूचि’ होती है, चुनांचे ये पत्रालेख हमारी पूरी सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक व्यवस्था से कर्णधारों और बुद्धिजीवियों को भी सम्प्रेषित हैं।

इन पत्रालेखों में रेखा की चिंता का केन्द्र है-‘पूर्ण व्यक्ति की तरह निश्शंक कैसे जिए स्त्री ?....‘माइ लाइफ’ की इज़ाडोरा डंकन से वे कहती हैं-‘इज़ाडोरा तुम्हारे जीवन मेें कीमत थी जीने के ललक की, जिसे तुमने नृत्य,इतिहास, दर्शन, अध्ययन, पर्यटन, मित्रता, पे्रम के माध्यम से पाने की कोशिश की (लेकिन) लोगों को याद रहे तुम्हारे प्रेम प्रसंग। तुम्हारे देश (अमेरिका) और तुम्हारे काल (1878-1927)के तुम्हारे प्रश्न तब भी वक्त के आगे के प्रश्न थे, आज वक्त के आगे के प्रश्न हैं।’और ठीक वज़ह है कि यह पूरी पुस्तक ही प्रश्नों का एक अन्तहीन सिलसिला बन जाती है-प्रश्न जो वेदव्यास के ‘महाभारत’ की द्रोपदी से शुरू होकर सोना चैधरी की ‘पायदान’ की कशिश उर्फ आॅंचल तक अनवरत पूछे जा रहे हैं और कदाचित पूछे जाते रहेंगे। प्रतिभा राय की ‘याज्ञसेनी’ में द्रौपदी के चीर हरण पर रेखा पूछती हैं-‘एक जिज्ञासा और है द्रौपदी ! जुए में दाॅव पर लगाने क्या उस वक़्त युधिष्ठिर के पास कोई और भी पत्नी थी जिसे दाॅव  पर लगाना ‘प्रतिष्ठा का विषय था युधिष्ठिर के लिए ?...(याद करें पाॅंचों पाण्डवों की द्रौपदी के अलावा भी अपनी-अपनी पत्नी बल्कि पत्नियाॅं और उनसे संतानें भी थीं-जिनका कुछ व्यौरा रेखा ने दिया भी है) फिर तुम्हीं क्यों? और परिणाम में तुम्हें मिला चीर हरण!... राज्य सभा में बैठे -बिके हुए-सत्ता से डरे हुए नपुंसक! द्रौपदी! तुम्हें आश्चर्य होगा, उनमें से आज तक एक भी मरा नहीं है। सब जीवित हैं द्रोपदी ! मैं शर्मिन्दा हूॅं और बहुत दुखी भी बावजूद इसके कि तुम्हारा प्रतिरोध और नकार भारतीय साहि़त्य में औरत की पहली चीख की तरह दर्ज है।.”.. यह पवित्र क्रोध, यह शर्मिन्दगी और इतनाऽऽऽ दुख अकेली रेखा का नहीं है, हम सबका है (होना चाहिए)और द्रौपदी की चीख के पहले हमें रामराज्य की सीता की चीख भी याद करनी चाहिए जो उसने धरती में समाते हुए लगायी थी। ..”फिर महाप्रयाण के समय जब तुम धराशायी हो गईं थीं, युधिष्ठिर स्थिर स्वर मे(कैसे) कह सके-”द्रौपदी अपने पतन के लिए स्वयं(उत्तर)दायी है। अर्जुन को वह अधिक चाहती थी। यही उसका पाप था।?...यह कैसा अनर्थ द्रौपदी! तुम पत्नी तो वस्तुतः अर्जुन की ही थीं। और फिर अध्यादेश-पीछे मुड़कर मत देखो”।..पितृ सत्ता के एजेन्ट की शक्ल क्या इससे भिन्न होगी?” और रेखा का फिर यह प्रश्न-(मिर्जाहादी रुस्वा के ‘उमराव जान अदा’ की अमीरन के सन्दर्भ में)” परिवारों की प्रतिस्पर्धा, प्रतिष्ठा, और प्रतिरोध के दंगल में दाॅव पर बेटियाॅं ही क्यों लगती हैं ?”...प्रभा खेतान की ‘छिन्न मस्ता’ में ‘प्रिया’ से वे पूछती हैं-”परिवार को बनाने, सॅवारने का महती उद्देश्य क्या स्त्री के हार जाने, रुक जाने की कीमत पर ही सम्भव है?”
 
विवाह संस्था पर भी उनका प्रश्न उतना ही पुराना है, जितनी यह संस्था!-”द्रौपदी ! तुमसे मिलकर जाना कि तुम उनके लिए थीं, वे तुम्हारे लिए नहीं ! फिर जो सबकी होती उसका कौन होता है?” या हमारे जमाने में भी ” विवाह संस्था के बाहर खड़ी स्त्री आज भी प्रश्नचिह्न और असम्मानजनक क्यों है ?”..”स्त्री के पुनर्विवाह का प्रश्न (यदि उसके बच्चे भी हैं तब) पुरुष के पुनर्विवाह सा सहज क्यों नहीं होता ?इससे भी आगे-”पुरुष के विवाहेतर सम्बन्धों में जितनी सरलता और दम्भ होता है उतनी ही सहजता स्त्री के लिए क्यों वर्जित है?”या ”पति द्वारा परित्यक्ता स्त्री समाज के कानून को रद्द करे यह कैसे सम्भव है?”या अविवाहित दैहिक सम्बन्धों की जैसी आज़ादी पुरुष को है, वही स्त्री के लिए ‘पाप’क्यों है ?”प्रश्न विकराल हो जाता है जब ”ज़िन्दा रहना और ‘सतीत्व’बचाना (में से)कोई एक विकल्प चुनना ज़िन्दगी की शर्त बन जाए तब किस पगडंडी को पकड़े स्त्री ?”और सर्वाेपरि इस पितृ सत्तात्मक समाज व्यवस्था में ‘स्त्री का घर’ कहाॅं है ?”बचपन में ‘पिता का घर’ और विवाह के बाद ‘पति का घर’ और बुढ़ापे में ‘बेटे-बहू’ का घर। मायके में भी स्त्री का घर कहाॅं बचा रहता है ?रेखा की शदीद तकलीफ है-”जन्म जात ‘बेघर स्त्री’ बेघर होने का संताप झेलती रहती है और बेघर कर दिए जाने के डर में ही जीती  हैं।” वर्जीनिया वुल्फ का ‘अपने कमरे का प्रश्न आज भी जिन्दा है-मेरा घर कहाॅं है?या स्त्री का अपना घर क्यों होना चाहिए।”

 हमारे मौज़ूदा पुरुष प्रधान समाज में स्त्री भी ज़रऔर ज़मीन की तरह एक ‘ सम्पत्ति’ है जिस पर पुरुष का अधिपत्य और एकाधिकार है। उसके ‘मेलशावनीज्म’ की शुरूआत होती है स्त्री की यौन शुचिता से। विवाह के तुरन्त बाद ‘स्त्री कौमार्य’के मिथक और ग्रन्थि की जड़ें कितनी गहरी हैं और फिर ‘हनीमून की प्रथा ताकि ‘अपने बच्चों ’के बारे में निश्चिन्त हुआ जा सके। रेखा का प्रश्न है कि ”निष्ठा क्यों यौन शुचिता” से निर्धारित होती है?फिर हमारी व्यवस्था में नपंुसक होकर भी पुरुष मर्द बना रहता है और सारे लांछन स्त्री के हिस्से में क्यांे आते हैं? ”क्यों कुल की सरदारी बेटियों को नहीं जाती?” इससे भी आगे-”अतिथि के शयन कक्ष में जाने का यदि पत्नी का मन न होता हो या पति से मन न लगे, मन में परझाईं-सा कोई झांकता हो तो क्या करती होगी स्त्री ?” या ”पति बाहर के रिश्तों के बाद घर में स्फूर्ति क्यों महसूस करता है” और मंजुल भगत की ‘अनारो’से एक सवाल -‘फिर क्या हुआ अनारेा! कि तुम्हारे अंदर यह आकांक्षा जागी रही कि गंजी का बाप तुम्हारे बराबर आकर खड़ा भी हो जाय? क्या औरों की तरह ही पति को परमेश्वर समझती हो?”..बजरिए सआदत हसन मंटो की इनायत उर्फ नीति-‘तुमने फिर मनमर्जी की । किसी मर्द से आसरा मांगने से इंकार किया। अपने जीवन की बागडोर खुद अपने हाथों में थाम ली। नकेल अपने हाथों में रखनं वाले (मर्द) कैसे बरदाश्त करते ? औरत की पहचान मर्द से उसके रिश्ते के अनुपात से तय होती है। ख़ुदमुख़्तार औरत (किसी केा) नहीं चाहिए। ’’अरुण प्रकाश की अच्छी लड़़की/बहुत अच्छी लड़की की ‘अनिता राव’ के बारे में यह फबती कितना कुछ कहती है-”यार मुझे तो इस कन्या पर तरस आता है। अरे यहाॅं बैठकर कुर्सी तोड़ती रहती है, बेकार दफतर दफतर जाकर खून सुखाती है। मिसेज राव कुछ भी कर ले -जींस की पेेन्ट पहन ले, सिगरेट पी ले लेकिन मर्द कैसे बन सकेगी? ”इसी से जुड़ा है सोना चैधरी के ‘पायदान’की कशिश उर्फ आॅचल का यह प्रश्न-”बाहर के मर्द से असुरक्षा और घर के मर्द से अपमान जनक में कम दमघोंटू क्या है?”

औरत के नुक्त -ए-नजरिए से देखिये तो ये पूरी समाज व्यवस्थाकितनी इंसानी और बराबरी पर टिकी है। बकौल रेखा ”क्यों दोहरा-तिहरा अभिशाप झेलती हैं स्त्रियाॅं ? कभी नस्ल, कभी जाति, कभी वर्ग और अक्सर लिंग भेद के कारण?” या फिर औरतें जो कभी तन के कपड़े, कभी स्तन के दूध, कभी वापस घर लौटने के लिए ट्रेन के टिकट के लिए बार-बार भोगी जाती हैं, उनकी अपनी कितनी मर्जी होती होगी वहाॅं ?”यही नहीं रेखा की चिंता यह भी है -”सुबह से शाम तक हाड़ तोड़ मेहतन और बदले में पेट की आग के लिए कुछ समिधा। इतना मुश्किल जीवन क्यो है? नींद भर सो लेना या थोड़ी देर सुस्ता लेना जहाँ अपराध हो जाता है, ऐसे अन्तहीन अनंन्त  श्रम में जीवन धॅसाती पहाड़ी स्त्रियों के जीवन मेें कैसे कुछ बदलाव आए?”

मौजूदा लगातार विकराल होती जा रही हमारी पूंजीवादीअर्थव्यवस्था में रेखा का मौज़ू प्रश्न है-”चीजों का बाहुल्य, फिर भी मोहताजी ! जब खाना इतना मौजूद है  तो लोग भूखे क्यों मरते हैं?जब ज्ञान इतना मौजूद है तो वे जाहिल क्यों रहते हैं?” इसीलिए रेखा का जे़हनी सरोकार यह भी है-”कामकाजी स्त्री जगत की ‘फिगर’, वक्त ओर कैरियर’ के बहाने निर्धन लड़कियों की कोख की तलाशें जाने (हमें) किस गंतव्य तक पहुँचायेगी?”या ”बिना शिक्षा, हुनर और पैसे वाली स्त्री के लिए ज़िन्दा रहने की लड़ाई इतना मुश्किल क्यों है?”उस पर धर्म की वह व्यवस्था जिसकी आधार शिला ‘अहिंसा’ कही जाती है लेकिन जो स्त्री से उसका बचपन भी छीन लेती है। ”साढ़े पाॅंच बरस की उम्र में साध्वी बनने का निर्णय! क्या तुम सक्षम थीं?” सारी दुनिया का कानून आत्मनिर्णय के अधिकार की बात करता है। यहाॅं धर्म की जय जयकार के नीचे कितनी सिसकियाॅं दबी पड़ी हैं ? दीक्षा के इस संसार में पुरुषों के अनुपात में स्त्रियाॅं इतनी अधिक क्यों हैं?”

इसी से लगा-लिपटा सवाल हमारी न्याय व्यवस्था का है-”उबाऊ, थकाऊ और बिकाऊ  न्याय व्यवस्था क्यों जीवन के कितने ही महत्वपूर्ण वर्ष खा जाती है?...”कवि लीलाधर मण्डलोई ’की दो कविताएॅं बेेसाख्ता याद आ गईं ”मेहर की प्रथा/क्रांतिकारी विचार है/कहा-उन्होंने/आह!यहनहीं लौटाता बीती हुई जवानी/अम्मी ने कहा।” और ”रोने की वजह तलाक़ नहीें/इसमें लग गया इतना समय/ कि शुरु न हो सका दूसरा जीवन।”इसीलिए रेखा का सवाल है-”यह न्याय इतना बर्बर क्यों है? औरत को रोंदने वाले दहाइयों में होते हैं, दर्शक सैकड़ों में, विचारक हजारों में, पाठक लाखों में पर गवाह एक भी  क्यों नहीं होता?” रेखा को हैरत है कि ”ये पढ़ी लिखी पैसा कमाती लड़कियाॅं घर में हिंसा का शिकार होने से बच क्यों नहीं पातीं? ” माॅं की घुट्टी में मिले संस्कार जिस मानस का निर्माण करते हैं- क्या वह कोई विकल्प सौंप सकता है?” उनकी यह टिप्पणी कितनी सटीक है-”धरती और स्त्री एक साथ रौंदते-भोगते हैे।-सत्ताधीश।”

यह कितनी बड़ी विडम्बनाा है कि रिश्तों की सारीत्रासदियाॅं भी स्त्री के हिससे मेें ही आती हैं। अरुण प्रकाश की ‘नीलम’ से रेखा कहती है -”तुम उनके (माता-पिता-भाई) रोजी रोटी, ब्रेड-बटर कमाने की अच्छी मशीन (क्यों) बनी रहो?” सवाल सिर्फ रिश्तों के दोहन का भर नहीं है उससे भी अधिक विचलित कर देने वाला सवाल है-”प्रिया ! कैसे झेल पाईं तुम अपने किशोर होते शरीर पर सगे भाई की नोंच-खसोट”? और कितनी बड़़ी बदकारी से जुड़ा यह सवाल -”बचपन का साथ, बाप-बेटी का रिश्ता गोश्त गर्म होते ही बदल क्यों जाता है” सच कहती हैं रेखा कि ”बचपन से बलात्कार सिर्फ हादसा ही नहीं, वह स्त्री के व्यक्तित्व को निर्धारित करने वाला हो जाता है” ”इसलिए उनका सवाल है-”हादसों की हालात का शिकार औरतों को क्या सजा ही मिलती रहेगी? जिस वक्त उन्हें मानसिक संबल की ज़रूरत होती है क्या उस वक़्त उन्हें निहत्था छोड़ा जाता रहेगा?”

 लगभग पूरा समकालीन स्त्री विमर्श स्त्री की देह पर एकाग्र है।रेखा का सवाल भी है-”कामनाओं का केन्द्र क्या देह होती है ? क्या सारा आनंन्द, आनन्द की कामना देह की ही है ”? और ‘देह का प्रश्न पेट के प्रश्न से कितना बड़ा है”? या कि कैसे ”औरत का चारा बड़े-बड़े काम साधता है?” फिर स्त्री स्वातंत्र्य  की चर्चा अक्सर देह की स्वतंत्रता से शुरू होती है, यहीं आकर रुक जाती है। स्त्री के हित में कितनी दूर तक साथ दे पाती है यह?” सितम तो यह की ”यह देह भी समूची देह-सी कहाॅं स्वीकारी जाती है? स्त्री सिर्फ दो-तीन अंगो से ही परिभाषित क्यों होती है? क्यों छली जाती है” इस हद तक कि आसरा देनेवाला देह का मालिक क्यों  है? पनाह देने वालों के एहसान का मुआवजा स्त्री देह की शक्ल मेें क्यों लिया जाता है? पाकिस्तान की युवा शायरा सारा शगुफ़्ता शायद इसीलिए कहती हैं-”औरत का बदन ही उसका वतन नहीं होता। वह कुछ और भी है।” इन हालात में एक ‘स्वतंत्र स्त्री’ क्या इतनी ही नामुमकिन है? मन्नूभंडारी (आपका बंटी) की शकुन से रेखा का प्रश्न है-” विवाह से इतर भी ज़िन्दगी हो सकती है क्या विचार करना चाहोगी? कुछ कहोगी शकुन?” दूसरा सवाल-”माॅ, बेटी, बहन पत्नी के अलावा ‘स्त्री’ के रूप में पहचाने जाने की कामना हर बार गाली की भाषा में परिभाषित क्यों होती है?”या ”स्त्री की जिजिविषा की परिणति (हमेशा त्रासद) क्यों होती है? क्यों उसकी महत्वाकांक्षा गाली होती है?” और ‘शिखर तलाशती लड़की (समाज को) क्यों खतरनाक लगती है” ? व्यवस्था को-हमें-आपको?” अरविन्द जैन की ‘मर्यादा’ के प्रसंग में रेखा का सवाल है-”घर से बाहर निकली, अपने लिए जगह बनाती, संघर्ष करती स्त्री को आवारा, बदचलन, लफंगी, बेलगाम घोड़़ी, कुलटा जाने कैसी-कैसी उपाधियोेेें से क्यों नवाज़ा जाता है?”फिर सफलता अभिमुख हमारे मौजूदा समाज मे खुद स्त्री से भी रेखा का सवाल है-”सफल औरत और ज्यादा सफल होने में ही अपनी मुक्ति की तलाश क्यों करती है?.”..

प्रश्न और प्रश्न ही नहीं हैं, इस स्त्री चिंता में। अब तक की चर्चा से लग सकता है कि रेखा ने स्त्री के प्रसंग मे सिर्फ ऋणात्मक-नकारात्मक पहलुओं को ही उभारा है। ...नहीं, उन्होंने उन किरदारों को भी रौशन किया है जो स्त्री के सकारात्मक आयामों को उजागार करते हैं मसलन विद्यासागर नौटियाल की ‘रूपसा’ से वे कहती हैं -”तुमने जीवन का विकल्प स्वीकार किया। तुम्हें सलाम करती हूॅं-उस जिजिविषा को भी जिसके लिए नियम-कानून बनते- बिगड़ते हैं।” ”चन्द्रधर शर्मा” गुलेरी की (उसने कहा था की)  सूबेदारनी की तारीफ में उनके वक्तव्य से तथाकथित स्त्री विमर्श के प्रायोजक-सम्पादक का नक़ाब ही उलट जाता है-ऐेसे समय  में राजेन्द्र यादव हर नारी कथा को अन्ततः सेक्स कथा ही मानते हैं, तुम्हारा रिश्ता उनके वक्तव्य पर प्रश्न चिन्ह लगाता है। देह में लिथड़े हमारे वक्त पर ओस का फाहा रखता है।” रांगेय राघव की ‘गदल’ उन्हें ”हठ इंकार का सिरतान आत्मनिर्णय की ताकत से लैस” लगती है। उनका निष्कर्ष है कि ”निर्णय का विवेक जागृत हो जाय तो सही-ग़लत का विवेक भी देर-सबेर आ ही जाता है। अमरबेल-सी परोपजीविता में बंधी औरतों को संवाद के लिए बुलाती” लगती है गदल। वे उसे ”औरत की खुद्दारी की मिसाल” मानती हैं। प्रेमचंद के ‘गबन’ की ‘जालपा’ से तो ”स्त्री अधिकारों के प्रति सजग स्त्री” उनके भीतर जागती है। वह उन्हें ”विकट व्यक्तित्व की स्वामिनी” लगती है, जबकि ”विकट बहुएॅं लोक में आज भी जालपा के नाम से जानी जाती हैं”.।...मैत्रेयी पुष्पा की ‘झूलानट’ की शीलो उन्हें  इस नतीजे तक ले जाती है कि ”देह, परिवार पर सम्पूर्ण स्वामित्व और नियंत्रण ताकतवर बनाता है” स्त्री को। वह उन्हें  ”ठूंठ  सी जि़न्दगी को लहलहाते पेड़ में बदलने की ताकत” लगती है। गीतांजली  श्री की ‘माई उन्हें-”आजादी के बाद भी औपनिवेशिक मूल्यों के तहत पनपते मध्यवर्गीय जीवन, उसके सुख-दुख और सबसे अधिक औरत की ज़िन्दगी में परम्परा और नैतिकता के मध्य स्त्री की तलाश” लगती है। उसे वे ”अफवाहों के बादलों में घिरी, अपनी मीठी यादों में मस्त मुक्त स्त्री की जीती जागती प्रतिमा कहती हैं”। मदन दीक्षित की ‘मंगिया’, अनामिका की ‘रमाबाई पंडिता’ सुरेन्द्र वर्मा की ‘वर्षा वशिष्ठ’ और अरविन्द जैन की ‘मर्यादा’ भी उन्हें स्त्री की सकारात्मक सो और सशक्त व्यक्तित्व की धनी लगतीं हैं।
   
दरअसल रेखा ने इन किरदारों का,(कहनी और उपन्यास के ‘कल्पना - संसार’ तक सीमित न रखकर उन्हें ज़िन्दा और स्पन्दित इंसान की तरह) स्वात्मीकरण किया है। उनसे सहानुभूति और समानुभूति ही नहीं, अन्तरानुभूति (‘फीलिंग विद के साथ फीलिंग इन द कैरेक्टर) के धरातल पर संवाद किया है। वे यहॅंा न केवल रचनाकारों की सहयात्री हैं वरन उनके द्वारा रचे गए किरदारों की संगिनी, सहयोगी और सहभोगी भी हैं। ठीक उसी तरह उन्होंने उनकी काया में प्रवेश किया है, उनके स्पन्दित हृदय का संवेदन महसूस किया है जैसे उनके, रचनाकारों ने उनकी रचना के दौरान महसूस किया होगा।

चूंकि रेखा स्वयं एक जागरूक रचनाकार हैं इसलिए उन्होनें किरदारों के बारे में उभरते सवालों और स्त्रीवाद के नारों, वायदों पर फिर से गौर करने की ज़रूरत के साथ रचनाकारों से भी कुछ सवाल किए हैं। मसलन् मन्नूभंडारी (‘आपका बंटी’) की ‘शकुन’ के साथ प्रभा खेतान(‘पीली आॅंधी) की सोमा के प्रसंग में यह सवाल-”क्या इन रचनाकारों को स्त्री के ‘सुनहरे सालों ’के व्यर्थ हो जाने का  भय है, इसलिए यह ‘शुतुमुर्गी चाल’?या कानूनी सलाह का अभाव।” उन्हें अचरज होता है कि ”आवाॅं(चित्रा मुदगल) की मां, पति को मुखाग्निी देने के लिए बेटे जनने का गर्व मनाती है और ‘त्रिशंकु’(मन्नूभण्डारी )की आधुनिका मां (जो व्यवस्था से लड़कर अपने लिए युवावस्था में रास्ते निकाल पाई थी) युवा बेटी की मां बनते ही जाने कैसे अपने पिता की भाषा बोलने लग गई।” मैत्रेयी पुष्पा से वे पूछती हैं -”इन््नमम की मंदा ग्राम सुधार का लक्ष्य  अपने दम प्राप्त करके भी प्रतीक्षा अपने ‘प्रिय’ की क्यों करती है?”या चाक’ में वे क्यों कहती हैं-”स्त्री के पास एहसान चुकाने के लिए देह के अलावा और कुछ नहीं होता”?....हम समझ सकते हैं कि मैत्रेयी पुष्पा द्वारा ‘लुगाइयों के लंहगों की चैकीदारी’ के प्रयोग पर उन्हें माफी माॅगने की जरूरत क्यों पड़ी!...भगवती चरण वर्मा की ‘रेखा’के प्रसंग में उनका यह वक्तव्य कितना कुछ उजागर करता है-”तुम्हारे रचनाकार का मंेटल मेकअप तुम्हारे दिनों में जैसा था आज का सर्जक भी वही जमीन पकड़े रुका है। पढ़ लो -‘मित्रो मरजानी (कृष्णा सोबती) ‘माॅडर्न गर्ल’(बलवंत गार्गी) या ‘नदी को याद नहीं’(सत्येन कुमार)।”..उन्हें उचित ही लगता है कि मंजूल भगत ने तुम्हें(‘अनारो को ) इतना ताकतवर बनने ही नहीं दिया कि तुम स्वीकार कर सको कि पति के बिना तुमने ज़िन्दगी की, गृहस्थी की गाड़ी खींची है?” ‘सुनीता’ से उनका यह सवाल भी काबिले गौर है -”क्या तुम्हें माल्ूाम  है कि तुम्हारे सृष्टा जैनेन्द्र कुमार से प्रेरणा लेकर यशपाल ने ‘दादा कामरेड़्’ मं हरीश की मुक्ति को शैल के अनावृत देह के दर्शन में खोजा है” असंख्य लोगों की तरह रेखा तो जैनेन्द्र कुमार की इस मान्यता -”स्त्री की सार्थकता मातृत्व में है” पर भी प्रश्न चिन्ह लगाती हैं  यही  नहीं ”टालस्टाय” की ‘अन्ना कारेनिना’, डी.एच लारेंस की ‘लेडी चैटरलीज़ लव्हर’, फ्लावेयर की ‘मेडम बोवेरी’, टेैगोर की ‘घरे बाहिरे’, कृष्णा सोबती की ‘मित्रो मरजानी’ क प्रसंग में उनका सवाल काबिले एहतिराम है-”घर से निकली स्त्री की नियति, दाने-दाने की मोहताजी़, भय, आतंक, कलंक और मृत्यु के अतिरिक्त (क्यों) कुछ नहीं सोचते इनके रचनाकार?”
देवीलाल पाटीदार, विनोद कुमार शुक्ल, मंज़ूर एहतेशाम, रेखा कस्तवार


 सवाल-दर-सवाल इस फ़िक्रे-निसवाॅं कीअहमियत इसलिए भी है कि यह एक स्त्री का, स्त्री के लिए, स्त्री के बारे में ऐसा विचार विमर्श है जो प्रासंगिक ही नहीं प्रमाणिक भी है। यही विमर्श यदि एक पुरुष (लेखक) के द्वारा किया गया होता तो मुमकिन है उस पर ‘पुरुष अहं’ और पूर्वग्रह की तोहमत लग जाती। एक निरपेक्ष और निद्र्वन्द्व वक्तव्य का खतरा उठा कर भी कहा जा सकता है और सच भी यही है कि स्त्री की व्यथा और त्रासदी एक स्त्री से बेहतर कोई नहीं जान सकता और न महसूस कर सकता। वह तुलसीदास हों या कालिदास, वेदव्यास हों या बाल्मीकि, स्त्री की तकलीफ महज़ उनकी कल्पना, उद्भावना या अधिक-से-अधिक करुणा हो सकती है, भोगा हुआ यथार्थ और प्रमाणिक अनुभूति नहीं। रेखा ने समकालीन स्त्री विमर्श के लगभग सभी मुद्दों पर अपनी बेबाक, बेलाग और दो टूक बातें कहीं हैं- साथ ही उसके छद्म को भी निर्भीक साहस के साथ बेपर्दा किया है। यहाॅं वे न तो बड़े-से-बड़े रचनाकार तक को बख्शती हैं और न नये-से-नये का वे वजह बचाव करती हैं। यह किसी सम्पादक द्वारा प्रायोजित स्त्री विमर्श भी नहीं है और न आत्ममुग्ध, सम्पादक द्वारा पैम्पर्ड, देहराग आलापती ऐसी बिन्दास लेखिकाआंे और कवयित्रियांे का स्त्री विमर्श है जो रचनाओं में और स्वच्छन्दता के नाम पर सेक्स परोसने पर भरोसा करती हैं। इसमें रचना के मर्म को समझने और उसे उजागर करने वाली आलोचना-दृष्टि भी है जो एक बेहतर रचना और उच्चतर मानवीय संस्कृति के रूपायन की प्रेरणा से उद्दीप्त है।

प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन
प्रकाशित वर्ष: 2010
आईएसबीएन: 9788126718979मुखपृष्ठ: सजिल्द
पृष्ठ:172

स्त्रीकाल का संचालन 'द मार्जिनलाइज्ड' , ऐन इंस्टिट्यूट  फॉर  अल्टरनेटिव  रिसर्च  एंड  मीडिया  स्टडीज  के द्वारा होता  है .  इसके प्रकशन विभाग  द्वारा  प्रकाशित  किताबें  ऑनलाइन  खरीदें : 

दलित स्त्रीवाद मेरा कमराजाति के प्रश्न पर कबीर

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क्या केजरीवाल लेंगे ऐक्शन: साहित्य कला परिषद के उपसचिव द्वारा पत्नी से मारपीट का मामला थाने पहुंचा

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दिल्ली सरकार की साहित्य कला परिषद के प्रमुख अधिकारी और नाटककार जे.पी. सिंह (जयवर्धन) के ऊपर उनकी  पत्नी और दिल्ली की रंग-निर्देशक चित्रा सिंह ने मारपीट का आरोप लगाया है. उन्होंने फेसबुक के अपने वॉल पर दो स्टेटस लिखे, जिसमें उन्होंने अपने पति जे.पी. सिंह पर 'दरिन्दग़ी'का आरोप लगाया तथा यह भी सूचित किया कि  उनके घर पुलिस भी आयी थी। रंगकर्मी मंजरी श्रीवास्तव के अनुसार चित्रा ने उन्हें पहले भी जेपी द्वारा मारपीट की बात बतलायी थी. लेकिन तब उनके परिचितों ने आपस में सुलह का मशविरा दिया था. लेकिन ८ जुलाई को फिर से मारपीट करने के बाद चित्रा सिंह ने सोशल मीडिया में स्टेट्स लिखे और पुलिस को सूचना दी. उन्होंने जख्मों के साथ अपनी तस्वीर भी जारी की है.


चित्रा सिंह की जख्मी तस्वीर, उन्होंने अपने फेसबुक पेज पर शेयर की थी 

चित्रा सिंह की जेपी सिंह से दोस्तीभारतेंदु नाट्य अकादमी में हुई थी, प्रशिक्षण के दिनों में.  बाद में उन्होंने शादी कर ली थी. स्त्रीकाल द्वारा सम्पर्क करने पर उन्होंने बताया कि वे इंदिरापुरम थाने में बैठी हैं और रिपोर्ट दर्ज करवा रही हैं. जबकि जे पी सिंह ने फोन और मेसेज का जवाब नहीं दिया. चित्रा थिएटर  का एक समूह 'रंगभूमि'की संचालिका भी हैं.



आलोचक तथा समकालीनरंगमंच के संपादक राजेश चन्द्र  के अनुसार, 'यह मसला अत्यधिक संवेदनशील और तत्काल ध्यान दिये जाने की मांग करने वाला लगता है। जे.पी. सिंह साहित्य कला परिषद में अपने राजनीतिक संबंधों के चलते लंबे समय से जमे हुए हैं।'राजेश यह भी आरोप करते हैं कि दिल्ली के सांस्कृतिक महकमें में उनसे अधिक भ्रष्ट कोई अधिकारी मिलना मुश्किल है। अपने फेसबुक पेज पर उन्होंने लिखा 'दिल्ली का कोई भी रंगकर्मी जे.पी. सिंह के ख़िलाफ़ कुछ भी बोलने का साहस नहीं कर पाता, जो बोलता है, उसके लिये रंगमंच में रह पाना संभव नहीं। नयी सरकार बनने पर यह चर्चा आम थी कि जे.पी. सिंह के विरुद्ध विभागीय जांच में उन्हें करोड़ों की वित्तीय अनियमितताओं का दोषी पाया गया, पर दिल्ली के एक बहुत शक्तिशाली निर्देशक के कहने पर उनको अभयदान दे दिया गया। अब जब उनकी पत्नी ने भी जे.पी. सिंह की असलियत ज़ाहिर कर दी है, तो ऐसे ख़तरनाक व्यक्ति को परिषद के महत्वपूर्ण पद पर रहना चाहिये या नहीं, इसका फ़ैसला दिल्ली सरकार को करना ही होगा।'

संध्या नवोदिता की कवितायें : जिस्म ही नहीं हूँ मैं और अन्य

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संध्या नवोदिता
लेखिका युवा कवयित्री एवं स्वतंत्र रचनाकार हैं.संपर्क:navodiita@gmail.com

जब कोई स्त्री छोड़ती है पृथ्वी

उस पल जब कोई स्त्री गुजरती है तुम्हारे ठीक सामने से
क्या पढ़ पाते हो कि वह ज़िन्दगी के अंतिम छोर से गुजरी है
सीता ही नहीं थी अंतिम शिकार प्रेम का
सुना उसके बाद कोई द्रोपदी भी हुई,
फिर कोई मीरा भी
कुछ लहू के घूँट पीती रहीं
कुछ ने पिया विष का प्याला
कुछ गयीं पाताल
कुछ चढ़ गयीं सीधे स्वर्ग को उर्वशी की तरह
उस पल जब कोई स्त्री गुजरती है बिलकुल शांत
गहमागहमी में विचरती अपने ही भीतर
गहरी साँसे लेती ऐसे जैसे हवा हो ही न बिलकुल
कौन समझ ही पाता है
कि प्रेम की अंतिम परिणति बस अब आ ही चुकी है
गहरी स्त्री सलीके से छोड़ती है पृथ्वी
जैसे वह माँ का गर्भ का छोड़ती है
पृथ्वी ही कराहती है इस बार
स्त्री सौंप देती है अपना हृदय और आँखें
अपनी माँ को
अपनी बेटी को
और ज़िन्दगी के चाक से एक मूरत उतर जाती है

उदय प्रकाश की कवितायें

जिस्म ही नहीं हूँ मैं

जिस्म ही नहीं हूँ मैं
कि पिघल जाऊँ
तुम्हारी वासना की आग में
क्षणिक उत्तेजना के लाल डोरे
नहीं तैरते मेरी आँखों में
काव्यात्मक दग्धता ही नहीं मचलती
हर वक्त मेरे होंठों पर
बल्कि मेरे समय की सबसे मज़बूत माँग रहती है
NANA DOPADZE

मैं भी वाहक हूँ
उसी संघर्षमयी परम्परा की
जो रचती है इंसानियत की बुनियाद

मुझमें तलाश मत करो
एक आदर्श पत्नी
एक शरीर- बिस्तर के लिए
एक मशीन-वंशवृद्धि के लिए
एक गुलाम- परिवार के लिए

मैं तुम्हारी साथी हूँ
हर मोर्चे पर तुम्हारी संगिनी
शरीर के स्तर से उठकर
वैचारिक भूमि पर एक हों हम
हमारे बीच का मुद्दा हमारा स्पर्श ही नहीं
समाज पर बहस भी होगी

मैं कद्र करती हूँ संघर्ष में
तुम्हारी भागीदारी की
दुनिया के चंद ठेकेदारों को
बनाने वाली व्यवस्था की विद्रोही हूँ मैं
नारीत्व की बंदिशों का
कैदी नहीं व्यक्तित्व मेरा

इसीलिए मेरे दोस्त
खरी नहीं उतरती मैं
इन सामाजिक परिभाषाओं में

मैं आवाज़ हूँ- पीड़कों के खि़लाफ़
मैंने पकड़ा है तुम्हारा हाथ
कि और अधिक मज़बूत हों हम

आँखें भावुक प्रेम ही नहीं दर्शातीं
शोषण के विरुद्ध जंग की चिंगारियाँ
भी बरसाती हैं

होंठ प्रेमिका को चूमते ही नहीं
क्रान्ति गीत भी गाते हैं
युद्ध का बिगुल भी बजाते हैं
बाँहों में आलिंगन ही नहीं होता
दुश्मनों की हड्डियाँ भी चरमराती हैं

सीने में प्रेम का उफ़ान ही नहीं
विद्रोह का तूफ़ान भी उठता है

आओ हम लड़ें एक साथ
अपने दुश्मनों से
कि आगे से कभी लड़ाई न हो
एक साथ बढ़ें अपनी मंज़िल की ओर
जिस्म की शक्ल में नहीं
विचारधारा बनकर

LEYLA KAYA KUTLU
शैली किरण की कविताएँ

रानी कौवा हंकनी 

इन साठ दिनों के लिए
मेरे पास साठ कहानियाँ और कविताएँ हैं
कहानी खत्म करने को
जैसा आप सब जानते ही हैं
राजा रानी दोनों मरते हैं
पुरानी कहानी के राजा के पास बड़ी रानी थी
फिर मंझली
फिर कोई छोटी रानी
कोई रानी षड्यंत्र बुनती थी
कोई रानी कौआ हंकनी बनती थी।
इस बार किसी रानी को कौआ नहीं हाँकना
इस बार राज में दखल का मानपत्र लेकर आई है रानियाँ
रानियाँ अब कोप भवन में नहीं जातीं
तिरिया चरित्र नहीं रचतीं
वे अपने लिए महल नहीं चाहतीं
रानियाँ अब खुद भी युद्ध और कूटनीति सीखती हैं
इस बार रानियाँ पुत्र प्रसूताएं ही नहीं होंगी
वे जनेंगी संतान अपनी
इस बार देखते जाइये
राजा रानी को मरना नहीं होगा
राजा हज़ार बहाने बनाकर हरम नहीं भरेगा
इस बार कोई रानी कौआ हंकनी नहीं बनेगी
इस बार राजा खुद भगाएगा कौए
रानियाँ हंसेंगी राजा की लोलुपता पर
उसके षड्यंत्र खोलेंगी मिलकर
इस बार राज्य षड्यंत्र का नहीं
न्याय का साक्षी बनेगा।

कुमकुम में लिपटी औरते

आखेट पर बाश्शा 

हमला ज्ञान पर है
हमला तर्क पर है
हमला भविष्य पर है
आर पार की लड़ाई है
जवाब बताएगा कि भविष्य शून्य होगा या सैकड़ा
साजिश अमावस्या की रात से भी गहरी है हत्यारे कत्ल का हर सामान ले आए हैं
वे रौशनी के हर जुगनू तक को कुचल देने का मनसूबा लिए खतरनाक तरीके से हाँका लगा रहे हैं
इस बार नौजवानों का शिकार तय हुआ है
बाश्शा ने नरम गोश्त और गरम लहू को चखने की ख्वाहिश की है
आखेट पर निकल पड़ा है बाश्शा
मंत्री, सिपहसालार, प्यादे, लग्गू भग्गू, चेले चपाटे
सब साथ
ढोल बज रहे हैं
धूर्त शिकारियों ने जाल बिछा दिया है
आखेट पर निकला है बाश्शा
खाली हाथ तो वापस नहीं जाएगा
बाश्शा निकला है
इस बार जंगल नहीं, नगर में चलाना है तीर
जानवर नहीं, इंसान की निकलेगी चीख

स्त्रीकाल का संचालन 'द मार्जिनलाइज्ड' , ऐन इंस्टिट्यूट  फॉर  अल्टरनेटिव  रिसर्च  एंड  मीडिया  स्टडीज  के द्वारा होता  है .  इसके प्रकशन विभाग  द्वारा  प्रकाशित  किताबें  ऑनलाइन  खरीदें : 

दलित स्त्रीवाद मेरा कमराजाति के प्रश्न पर कबीर

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सुर बंजारन

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भगवानदास
मोरवाल
 वरिष्ठ साहित्यकार. चर्चित उपन्यास: कला पहाड़, रेत आदि के रचनाकार. संपर्क : bdmorwal@gmail.com मो.  9971817173
काला पहाड़ और रेत जैसे चर्चित उपन्यासों के रचनाकार भगवानदास मोरवाल ने  कहन-शैली,  व्यापक कथा फलक और आंचलिक बोध के साथ मेवाती यथार्थ के चित्रण से हिन्दी साहित्य में अपनी विशिष्ट जगह बनाई है. उनका शीघ्र प्रकाश्य उपन्यास है, सुर बंजारन. स्त्रीकाल के पाठकों के लिए उसका एक अंश दो किस्तों में. 

पहली क़िस्त/ बहरशिकिस्त

भारत-पाक युद्ध के बाद नेहरु-युग के उतरते कार्तिक के अलसाये-से कुनमुनाते दिन.  यह वह दौर था जब इस देश के, वह भी उत्तर भारत के पश्चिमी सूबों के शहर-दर-शहर और छोटे-बड़े क़स्बों में तेज़ी से तालीम के इबादतगाहों की पौध रोपी जा रही थी . वैसे इसकी शुरुआत 1962 के भारत-चीन युद्ध ख़त्म होते ही हो चुकी थी .

क़स्बे की दीवारों पर मुस्कराते हल्के लाल, हरे और पीले पतंगी काग़ज़ों पर मोटे-मोटे अक्षरों में छपे नाम . नामों के ठीक नीचे तारीख़ व दिन के साथ क्रम से छपी फ़ेहरिस्त . जब-जब उसकी आँखों के आगे यह नाम और फ़ेहरिस्त तैरने लगती, तब-तब मारे बेचैनी व परेशानी के उसकी शिराओं में दौड़ता ख़ून ठिठक-ठिठक जाता . किसी अनहोनी या अनिष्टता की आशंका से मानो ये शिराएँ फटने लगतीं . पल-प्रतिपल किसी बरसाती नदी में तेज़ी से चढ़ते पानी की तरह, बढ़ती ख़लक़त को देख-देख कर उसका साँस फूलने लगता . उसने कल्पना भी नहीं की थी कि इस पोस्टिंग के दौरान कभी उसका ऐसी आफ़त से भी सामना होगा . पुरानी अनाज मंडी की तरफ़ बढ़ती भीड़ को देख कर लगता, जैसे पानी के सभी छोटे-बड़े झरने किसी विशाल दरिया में विलीन होने को आतुर हैं .

पूरा थाना उसके सामने जैसे दम साधेखड़ा है . बीच-बीच में वह सब पर एक उचटती-सी असहाय दृष्टि डालता, और फिर ख़ुद ही इस पागलपन या कहिए दीवानगी को समझने की कोशिश करता . उस दीवानगी को जो साँझ होते-होते अपने पूरे उफ़ान पर आ चुकी है . उसने मन-ही-मन तय कर लिया कि जिसे देखेने और सुनने के लिए सिर्फ़ क़स्बा ही नहीं, आसपास के दस-बारह किलोमीटर तक के लोग आ रहे हैं, वह भी इसके इस जलवे को आज ज़रूर देखेगा . मगर यह बाद की बात है . सबसे पहले तो यह सोचना है कि इस उफ़नती हुई बरसाती नदी पर कैसे क़ाबू पाया जाए . ख़ुदा-न-ख़ास्ता कोई अनहोनी हो गयी, तो लेने के देने पड़ जाएँगे . कहीं ऐसा न हो कि जटयात (जाट बाहुल्य) से सटे इस क़स्बे में हुई एक छोटी-सी शरारत हिन्दू-मुसलमान फ़साद का रूप ले ले . इसी की कल्पना में उसके माथे पर पसीना चू आया .

एक बार फिर उसकी नज़र उठी और इस बार हवलदार नेमपाल पर आकर टिक गयी . टिकती क्यों नहीं, पिछले कई दिनों से वह अपने इस हवलदार के मुहँ से न जाने कितनी बार इस आफ़त का नाम जो सुन चुका है . इधर हवलदार नेमपाल का भी उससे निगाह मिलते ही हलक़ में थूक अटक गया .
“यार नेमपाल, भीड़ तो मैंने पंडत लखमी चन्द के सांगों में भी देखी है, पर ऐसा बावलापन नहीं देखा . क्या सेठ ताराचन्द और क्या नल-दमयन्ती , क्या साही लकड़हारा और क्या हरिश्चन्द्र... . मैंने उसके एक-से-एक सांग देखे हैं और ऐसी भीड़ देखी है कि कन्धे छिल जाएँ, पर यहाँ तो गजब है भई !”
हवलदार नेमपाल चुप . पलट कर कोई जवाब नहीं दिया उसने .
“अच्छा यह बता, वह आ तो गयी है ?”
“कहाँ जनाब . आ गयी होती तो उसकी कार बाज़ार से लेकर बस अड्डा, और बस अड्डे से  लेकर पुरानी अनाज मंडी तक कई फेरे लगा चुकी होती .“ हवलदार नेमपाल ने एक नयी जानकारी सरकाते हुए बताया .
“कार फेरे लगा चुकी होती...मैं कुछ समझा नहीं ?”
“हाँ जनाब, टिकट विन्डो से लोग तब तलक टिकट नहीं लेते हैं, जब तलक उसकी कार दिखाई न दे जाए .”
“अब यह टिकट कहाँ से आ गयी ?” हवलदार नेमपाल के जनाब का जैसे सिर भन्ना गया .
“जनाब, यह कोई ऐसी-वैसी सांग-नौटंकी नहीं है जो किसी दशहरा-दीवाली पर खुले में होती है . बाक़ायदा टिकट लगेगा .”
“गजब मामला है...टिकट के बावजूद ऐसी मारा-मारी !” फिर कुछ क्षण रुक कर पूछने लगा,”मगर टिकट क्यों ? हमारे यहाँ तो पंडत लखमी चन्द के सांग ऐसे ही बेटिकट होते हैं खुले में .”
“जनाब, वो क्या है कि कस्बे में एक हाई स्कूल बनना है . उसी के कमरों के लिए पैसा इकठ्ठा हो रहा है .”
जनाब की पेशानी पर पड़ी सिलवटें और गहरी होती चली गयीं .

MOHSEN DERAKHSHAN

“जनाब, घबराओ मत ! ऐसा कुछनहीं होगा . मैंने तो जनाब हाथरस में आज से सात-आठ साल पहले इसकी वह नौटंकी देखी है, जब यह सत्रह-अट्ठारह बरस की रही होगी . इस इलाक़े में ही नहीं पूरे ब्रज में भी इसका ऐसा ही जलवा है...और जनाब, बल्लभगढ़ के दशहरा मैदान में तो मैंने ऐसा नज़ारा देखा है जिसे मैं कभी भूल ही नहीं सकता . लोग पागल रहते हैं इसे सुनने के लिए . जनाब, जब सुर उठाती है तो लगता है जैसे रात के सन्नाटे में कोई कोयल कूक रही है . कभी-कभी तो लगता है यह सरस्वती का रूप है .”
“लोग तो बेमतलब पागल रहते हैं . वैसे कसूर इसमें इसका है भी नहीं, यह मरद की जात होती ही ऐसी है .”
“बात मरद-औरत की नहीं है जनाब . बात है कलाकार की . वैसे भी जनाब कलाकार का क्या तो मज़हब और क्या उसकी जात . अब इसे ही लीजिए, इस पर तो इस इलाक़े में एक गीत तक बना हुआ है, जिसे यहाँ निकाह के वक़्त लड़की वालों की ओर से औरतें उलहाने के तौर पर गाती हैं .”
“गीत बना हुआ है ?”
“जी जनाब . इसे मैं इस थाने में रह चुके सब इंस्पेक्टर असग़र अली के मुहँ से अक्सर सुना करता था . आप भी सुनिए उसकी ये पंक्तियाँ –
 नकीलो आयो ब्याहन लू
 कहा लायो है नसीरी को नाच
 धूळ गोला खूब चला
 मजा आतो होतो जो रागिनी को नाच .”

“नेमपाल लगता है तूसका कुछ ज़्यादा ही मुरीद है .”
“मुरीद नहीं, करजदार कहिए जनाब .”
“क्यों ऐसा क्या करज ले लिया इससे ?”
“जनाब, जिस कॉलेज से मैंने बीए की है न...उसके शुरुआती कमरे इसी की नौटंकी से इकट्ठे हुए पैसे से बने हैं . अब बताओ जनाब, यह इसक करज हुआ कि नहीं ?”
हवलदार नेमपाल की एक कलाकार के प्रति उसकी अगाध श्रद्धा देख जनाब ने आगे कुछ नहीं कहा .
“जनाब, हमारे लायक कुछ हुकम !” अपने एक साथी को अपने जनाब से उलझता देख, दूसरे सिपाही ने बीच में दख़ल देते हुए पूछा .
“कुछ नहीं . बस लोगों पर नज़र रखो . कहीं कुछ गड़बड़ी नहीं होनी चाहिए !” जनाब ने उस सिपाही के बहाने वहाँ मौजूद दूसरे सिपाहियों को हिदायत देते हुए कहा .
“जी जनाब !” सारे सिपाहियों ने समवेत स्वर में एकसाथ सेल्यूट मारा और कमरे से बाहर निकल गये .
छत की कड़ी में फँसे हुक से लटके और मंद गति से चल रहे पंखे पर जनाब की नज़र टिक गयी . मन-ही-मन वह दुआ करने लागा कि बस किसी तरह आने वाली कुछ रातें सही-सलामत बीत जाएँ . इसी बीच जैसे उसे कुछ याद आया . उसने हवलदार नेमपाल को फिर से वापस बुलाया .
“जय हिन्द जनाब !” वापस आ हवलदार नेमपाल ने कहा .
“मुझे थोड़ी-थोड़ी देर में हालात के बारे में बताते रहना...और जैसे ही वह आये मुझे तुरन्त बताना . उसकी उस कार के बारे में तो ज़रूर बताना जो फेरे लेगी !”
“जी जनाब...और कुछ हुकम जनाब ?”
“बस इतना ही करना .”
इतना कह कर जनाब यानी थानेदार एस.एस.मलिक ने कुर्सी के पीछे पीठ टेक गरदन ढीली छोड़ दी, और आँखें मूँद अपने पण्डित लखमी चन्द को गुनगुनाने लगा-

 थारी सबकी बेअकली पागी
 होणी सकल सभा पे छागी .

अपने जनाब यानी थानेदार एस.एस.मलिक के सारे हुक्म-हिदायतों को ताक पर रख, हवलदार नेमपाल सीधा दिगम्बर दाल मिल के मालिक और इस आयोजन के प्रमुख सेठ ताराचन्द की मिल में पहुँच गया . उसे पता है कि जैसा उसके जनाब ने हुक्म दिया है, उसकी सही जानकारी सेठ ताराचन्द से ही मिल सकती है .
“आओ दीवान जी, अब क्या ख़बर लाये हो ?” अपनी ओर तेज़ क़दमों से हवलदार नेमपाल को आया देख सेठ ताराचन्द ने पूछा .
“सेठ जी ख़बर क्या, हमारे तो थानेदार साहब की भीड़ देख-देख कर हालत ख़राब हुई जा रही है . मैंने बहुत समझा लिया मगर उन्हें भरोसा ही नहीं हो रहा है . उन्हें तो बस यही चिंता खाए जा रही है कि जिस तरह भीड़ बढ़ती जा रही है, उसके चलते कहीं कोई फ़साद नहीं ही जाए !”

MOHSEN DERAKHSHAN

सेठ ताराचन्द धीरे-से हँसे . फिरथोड़ा रुक कर अपने बग़ल में बैठे एक और ट्रस्टी मास्टर शौकत अली की तरफ़ मुस्कराकर देखते हुए बोले,”आपने बताया नहीं कि हम तो यहाँ हर साल महाशिव रात्रि के मौक़े पर खेल करवाते हैं . दंगा-फ़साद की बात दूर रही, मजाल है कोई यहाँ किसी से अलिफ़ से बे तो क्या कह जाए .”
“लाला जी, क़सूर इस बेचारे थानेदार का भी नहीं है . इस इलाक़े का नाम सुन अच्छे-अच्छे  दानिश्वर तक ऐसा ही सोचते हैं .” मास्टर शौकत अली ने हँसते हुए कहा .
“मैं अपने जनाब को सब समझा चुका हूँ . खैर छोड़िये, आप तो यह बताइये कि वे आ कब रही हैं ?” हवलदार नेमपाल असल मुद्दे पर आते हुए बोला .
“बस किसी भी समय पहुँच सकती हैं . सीधे यहीं मिल में आएँगी . थोड़ा-सा नाश्ता-पानी कर घंटा-सवा घंटा आराम करेंगी . जब तक वे आराम करेंगी, तब तक उनकी कार के क़स्बे में एकाध फेरे लग जाएँगे .”
“आपसे एक विनती है सेठ जी कि सबसे पहले फेरा थाने की तरफ़ का लगवा देना .”
इससे पहले कि सेठ ताराचन्द हवलदार नेमपाल की बात का कोई जवाब देते, एकाएक मिल के गेट पर हुई हलचल से उनका ध्यान भंग हुआ .

“दीवान जी, लगता है वे आगयी हैं . आइये मास्टर जी !” इतना कह सेठ ताराचन्द अपने दूसरे ट्रस्टी मास्टर शौकत अली को लेकर तेज़ी-से मिल के गेट की तरफ़ बढ़ गये . पीछे-पीछे हवलदार नेमपाल भी हो लिया .
गेट के बाहर भारी भीड़ से घिरी सफ़ेद फ़िएट को देख हवलदार नेमपाल को समझते हुए देर नहीं लगी, कि जिस घड़ी का पूरी अनाज मंडी और पूरे क़स्बे को इंतज़ार है आख़िर वह घड़ी आ गयी है . सेठ ताराचन्द लोगों की धक्कामुक्की करती अभेद्य प्राचीर को चीरते हुए बमुश्किल कार तक पहुँच पाए . उन्होंने लपक कर शीशे चढ़े चारों दरवाज़ों में से कार का पिछला दरवाज़ा खोला . दरवाज़ा खुलते ही नरमुंडों का एक बेताब झुण्ड, उसमें बैठे चेहरे की झलक पाने के लिए उसमें झाँकने लगा . सेठ ताराचन्द भाँप गये कि यहाँ बात नहीं बनेगी . यहाँ उतारना मुश्किल है . फ़िएट के चारों तरफ़ छायी बेताबी को भाँप उन्होंने तुरंत दरवाज़ा बन्द कर दिया . अब क्या करें वे ? एक पल सोचने के बाद उन्होंने इधर-उधर देखा और जैसे ही उनकी नज़र हवलदार पर पड़ी, वे चिल्लाते हुए बोले,”दीवान जी, भीड़ को गाड़ी से दूर हटाइये !”

हवलदार नेमपाल डंडा फटकारतेहुए भीड़ को कार से दूर करने लगा . जैसे ही भीड़ कार से अलग हटी, सेठ ताराचन्द ने झटके से ड्राइवर वाला दरवाज़ा खोला और ड्राइवर को दूसरी तरफ़ सरकने का आदेश दे, ख़ुद ने  यह कहते हुए स्टेयरिंग सँभाल लिया,”मास्टर जी, आप दफ़्तर में चलिए...इन्हें मैं लाता हूँ !”

भीड़ के बीच से रास्ता बनासेठ ताराचन्द ने कार दूसरी दिशा में मोड़ दी . जब तक भीड़ कुछ समझ पाती, कार धूल उड़ाती हुई लोहे की नालीदार चादरों से बने एक विशाल फाटक को पार कर, भीतर अहाते में दाख़िल हो गयी . सेठ ताराचन्द ने फ़िएट अन्दर दाल मिल में लगा दी . पीछे-पीछे हवलदार नेमपाल भी दौड़ता हुआ कार तक जा पहुँचा . जैसे ही हवलदार मिल में दाख़िल हुआ, गेट पर तैनात कारिंदे ने बड़ी चपलता के साथ गेट बन्द कर दिया .

JORGE MUNGUIA

ड्राइवर सीट से उतर सेठ ताराचन्द ने पिछला दरवाज़ा खोल दिया . दरवाज़ा खुलने के साथ ही मारे रोमांच के हवलदार नेमपाल की धड़कनें तेज़ हो गयीं . वह सकुचाते हुए कार के अधखुले दरवाज़े  के पास आया और हाथ बाँध, दम साध कर कार से उतरती अपनी उस नायिका का इंतज़ार करने लगा, जिसे वह अभी तक अलग-अलग किरदारों  हाड़ी रानी, जमालो, मछला, शहज़ादी नौटंकी, तारामती, पद्मावती और न जाने कितने रूपों में देखता आया है, आज साक्षात देखेगा . इधर जैसे ही उसकी नायिका कार से बाहर आयी, वह लगभग दोहरा होते हुए, दोनों हाथों को जोड़ अभिवादन करते हुए दबी ज़बान में बोला,”दीदी नमस्ते !”
“राधे-राधे भईया !”
अपनी नायिका के मुहँ से इतने आत्मीयता भरे जवाब को सुन हवलदार नेमपाल भीतर तक भीगता चला गया . इस बीच उसके स्वागत के लिए श्री दिगम्बर जैन एजूकेशन ट्रस्ट के दूसरे न्यासी और पदाधिकारी भी आ गये .
“गिरधर, जब तक रागिनी जी नाश्ता-पानी कर कुछ देर आराम करती हैं, तब तक पूरे क़स्बे में इनकी कार के फेरे लगवा आओ...और हाँ, ऐसा करो दीवान जी को भी साथ लेते जाओ . पहले ये जहाँ ले जाएँ, उसी तरफ़ चले जाना !”
“जी बाऊ जी .” इतना कह गिरधर नाम का व्यक्ति हवलदार नेमपाल को लेकर फ़िएट में बैठ गया .
”ड्राइवर साब, कार को सामने वाले चौराहे से दाएँ ओर ले लेना . मुझे थाने से पहले छोड़कर आप लोग आगे निकल जाना...और हाँ, जब तक मैं थाने से बाहर न जाऊँ, तब तक आप कार को धीरे-धीरे चलाना !” हवलदार नेमपाल ने दाल मिल से कार के बाहर आते ही ड्राइवर को निर्देश देते हुए कहा .

कुछ ही देर बाद हवलदार नेमपालथाने से सौ क़दम पहले उतर कर, तेज़ क़दमों के साथ थाने में घुस गया . कार जब थाने के सामने पहुँची तो ड्राइवर और गिरधर नाम के व्यक्ति ने देखा हवलदार अपने थानेदार के साथ बाहर खड़ा है .

धीरे-धीरे आगे बढ़ती फ़िएट औरउसके पीछे-पीछे क़दमताल करती भीड़ के पैरों से उठते धूल के गुबार को देख, थानेदार एस.एस.मलिक को अब कहीं जाकर अपनी आँखों पर यक़ीन हुआ . उसके सामने से गुज़रती कार और उसके पीछे-पीछे दौड़ती भीड़ को वह तब तक अपलक निहारता रहा, जब तक वह अपने पीछे छोड़ गये गर्द-ओ-गुबार के छोटे-से बादल में ग़ायब नहीं हो गयी .

“रागिनी क्या लोगी ?” सेठ ताराचन्द ने औपचारिकता निभाते हए पूछा .
“आप तो जानते ही हैं कि शो से पहले मैं कुछ नहीं लेती हूँ .” रागिनी ने मुस्कराते हुए कहा .
“फिर ऐसा करिए हाथ-मुहँ धोकर आप थोड़ा आराम कर लीजिए !” इतना कह सेठ ताराचन्द बग़ल में हाथ बाँधे खड़े व्यक्ति से बोले,”मुनीम जी, इन्हें ऊपर ले जाइये !”
अपने मालिक का आदेश सुन मुनीम रागिनी को ऊपर ले गया .
   
MOHSEN DERAKHSHAN


साँझ होते-होते ठण्ड ने भी अपनारंग दिखाना शुरू कर दिया . बुकिंग विन्डो पर मची मारा-मारी और अफ़रा-तफ़री देख, थानेदार एस.एस.मलिक ने पलट कर कुछ दूर खड़े हवलदार नेमपाल की तरफ़ देखा . कहा कुछ नहीं . बल्कि लगभग दस क़दम दूर बने गेट में एक छोटी-सी खिड़की  जिसमें से होकर सिर्फ़ एक ही आदमी अन्दर जा सकता है, उसकी ओर चला गया . इस खिड़की में से होकर वह भी अन्दर चला आया . पीछे-पीछे उसका हवलदार भी हो लिया . दरअसल, गेट के एक तरफ़ बनी इन खिड़कियों का उपयोग सिर्फ़ टिकटधारियों के प्रवेश के लिए होता है,और जैसे ही शो ख़त्म होता है पूरा गेट खोल दिया जाता है .

नालीदार टीन की चादरों से घिरे और बल्बों की रोशनी में नहाये  पुरानी अनाज मंडी के अहाते में दूर तक बैठे दर्शकों पर एक सरसरी नज़र मारी थानेदार मलिक ने . उसकी जहाँ तक और जिधर भी नज़र गयी चिल्ल-पों करतीं मुंडियाँ है मुंडियाँ दिखाई दीं . उसने कलाई पर बँधी घड़ी पर निगाह मारी और फिर अपने बग़ल में खड़े हवलदार से पूछा,”नेमपाल, खेल शुरू होने का टाइम क्या है ?”
“जनाब, साढ़े आठ से पहले तो क्या शुरू होगा . वैसे कई बार बुकिंग ख़त्म होने पर भी शुरू कर देते हैं .“
“इसका मतलब है अभी आधा घंटा और बचा है ?” थानेदार ने थोड़ा चिंतित होते हुए कहा .
“जी जनाब .”
“...और आज खेल कौन-सा है ?” थानेदार एस.एस.मलिक ने अपने आपको थोड़ा-सा चिंतामुक्त करने की कोशिश करते हुए पूछा .
“जनाब, हरिश्चन्द्र उर्फ़ गुलशन का नाग .”
“यह कौन-सा खेल हुआ ?”
“जनाब वही, हरिश्चन्द्र-तारामती .”
“अच्छा-अच्छा हरिश्चन्द्र-तारामती का सांग है...फिर तो यह ज़रूर देखना पड़ेगा .”
“ज़रूर देखना . जनाब, तारामती का रागिनी ऐसा कमाल का पार्ट अदा करती है कि देखने वाले के रोंगटे खड़े हो जाते हैं .”

इससे पहले कि थानेदार एस.एस.मलिक प्रत्युत्तर में कुछ कहता, जगह-जगह टंगे लाउड स्पीकरों से एकाएक हारमोनियम और झील-नक्काड़े की संगत सुनाई देने लगी . एक तरह से यह दर्शकों के लिए शो शुरू होने का पूर्व संकेत है . जब-जब झील-नक्काड़े के साथ ढोलक की थाप और हारमोनियम की धुन आगे बढ़ती हुई रात के सन्नाटे में घुलती, तो लगता मानो कहीं दूर एकसाथ कई झरने किसी गहरे पानी में गिर रहे हैं . पुरानी अनाज मंडी शो शुरू होते-होते एक विशाल जन समुद्र में तब्दील होता चला गया . हिलौरें मारता ऐसा समंदर तो उसने कभी अपने पण्डित लखमी चन्द के सांगों में भी नहीं देखा . उसकी निगाह आसपास की छतों, उनकी मुंडेरों और छज्जों पर बैठी ख़लक़त पर पड़ी, तो देखते ही उसका दिल किसी दुर्घटना की आशंका से बैठने लगा .
“यार नेमपाल, आख़िर यह है क्या बला ?” छतों पर बैठे मुफ़्त के दर्शकों की भीड़ को देख कर थानेदार एस.एस.मलिक ने अपने हवलदार से पूछा .
मगर हवलदार ने अपने जनाब को कोई जवाब नहीं दिया . इसी दौरान एकाएक ख़ामोश हो गये साज़ों के बीच हुई इस उद्घोषणा से चिल्ल-पों थम गयी .
“तो साहिबान, कुछ ही देर में आपके पेशे-नज़र है नौटंकी हरिश्चन्द्र-तारामती !”
उद्घोषणा ख़त्म होते ही मंच से धीरे-धीरे परदा उठा गया . इधर परदा उठा और उधर रात की कोरी फ़िज़ा में झील-नक्काड़े व हारमोनियम के सुरों के साथ वंदना के स्वर गूँजने लगे .    

कार्तिक की गहराती रात की कुनमुनाती ठण्ड में नालीदार टीन की चादरों से घिरी नम आँखें, पुत्र वियोग में ज़ार-ज़ार रोती तारामती के भीगे संवादों पर टिकी हुई हैं . देखते-ही-देखते पूरा अहाता मानो पत्थर हो गया . जो अहाता कुछ देर पहले थानेदार एस.एस.मलिक को हिलौरें लेता नज़र आ रहा था, वह ऐसे शांत हो गया जैसे अमावस्या की रात को हो जाता है . मजाल है अनाज मंडी में बैठे जिस्मों में किसी तरह की कोई जुम्बिश तो हो जाए . साँसें मानो थम-सी गयीं . मंच के सामने काठ हो गयी आँखों से ढुलकते आँसुओं की बूँदों पर, मोटे-मोटे बल्बों की रोशनी पड़ने से फूटती किरनों को देख, पहली बार थानेदार एस.एस.मलिक को अपनी आशंका पहली ग़लत नज़र आने लगी .

दृश्य ख़त्म होने के बाद गिरे हुयेपरदे के पार्श्व में हारमोनियम पर जंजीर  फ़िल्म का बना के क्यों बिगाड़ा रे, बिगाड़ा रे नसीबा / ऊपरवाले...ऊपरवाले  गीत का मद्धिम स्वर झील-नक्काड़े की तान पर गूँजने लगा . इस मद्धिम स्वर के बीच जैसे ही एक बार फिर परदा उठा . हारमोनियम का इस बार सुर बदल गया . सामने श्मशान में अपने पुत्र रोहिताश्व के पार्थिव शरीर को, अपनी साड़ी को फाड़ कर उससे ढकते हुए तारामती विलाप करने लगी .


साज़ों के सुर-ताल के साथ राजाहरिश्चन्द्र और तारामती के भाव-विह्वल संवादों को सुन सचमुच थानेदार एस.एस.मलिक का रोआँ-रोआँ सिहरता चला गया . और अधिक नहीं बैठा गया उससे . वह धीरे-से उठा और बाहर आ गया . मगर बाहर भी उसके कानों में तारामती का वियोग और कातर विलाप गूँजता रहा . जब भी तारामती का विलाप उसके कानों में गूँजता, तभी उसे लगता मानो कोई ज़ख्मी कोयल स्याह अँधेरे में टिमटिमाते तारों को अपना दुःख सुना रही है . थोड़ी देर बाद वह फिर से अन्दर आ गया . उसने एक बार फिर दूर तलक फ़ैली शान्त लहरों पर नज़र दौड़ाई, तो पाया  दम साधे ग़मगीन लहरों के चेहरे आँसुओं से पूरी तरह भीगे हुए हैं .
                                 कैसे बहाऊँ तोहे मैं हिलकी भरे है दम-ब-दम
                                 बैरी दग़ा दे चल दिया लाया न कुछ माँ का रहम
                                लाखों सहे दुःख-सुख मैंने तेरे पिछारी लाड़ले
                                सो आज  मुझको त्याग कर तू चल दिया मुल्के अदम .

हिलकियों के साथ पछाड़ खाकरतारामती जैसे ही बेटे रोहिताश्व की मृत देह लिपटी, पुरानी अनाज मंडी का पूरा अहाता मारे सुबकियों के काँपने लगा . पलभर के लिए ख़ुद थानेदार एस.एस.मलिक को लगा जैसे उसकी शिराओं में दौड़ता ख़ून जम गया है . इसके बाद उसे भी पता नहीं चला कि दुबोला, चौबोला, छन्द, बहरतबील जैसे छंदों में पिरोए गये हरिश्चन्द्र-तारामती के बीच क्या-क्या संवाद हुए . उसे ख़ुद ही पता नहीं चला कि कब उसकी अपनी आँखों के कोरों से बग़ावत कर आँसू बह निकले . उसे लगा जैसे दर्शकों की इस शान्त लहरों के बीच बैठा, वह पण्डित नथाराम शर्मा गौड़ का लिखा नहीं, अपने पण्डित लखमी चन्द का सांग देख रहा है –

                              बेटा आला किला टूट ग्या, टूटी पड़ी किवाड़ी रहगी .
                              चीर नै लैके राजा चल दिया, राणी नगन उघाड़ी रहगी ..
                              राणी धोरे ते टळती बरियाँ, ढह पड़या होता सिंभळती बरियाँ .
                              लकड़ियाँ बेसक जळती बरियाँ, पेड़ में गडी कुल्हाड़ी रहगी ..  

थानेदार एस.एस.मलिक को होशआया भी तो तब,जब कानों में बोल अटल छात्र की जय  का उद्घोष गूँजा . इससे पहले कि वह सँभल पाता अहाते का गेट खोल दिया गया . वह तेज़ी से बाहर की तरफ़ लपका . बाहर आकर वह थाने से आये अपने सिपाहियों को हिदायतें देने लगा . कुछ देर में लबालब भरा बाँध तेज़ी-से रीता होता चला गया . मंच के सामने ख़ाली अहाते में जलते हुए बल्बों की ऊँघती रोशनी में कानों में गूँजता तारामती का विलाप, आँसुओं से भीगी सूनी कुर्सियाँ, सिलवट पड़ी जाजमें और कुछ बिछौने रह गये .

रातभर थानेदार एस.एस.मलिकके अवचेतन में तारामती का आर्तनाद रह-रह कर जैसे दस्तक देता रहा . सवेरे उसने हवलदार नेमपाल को अपनी ओर आता देखा, तो उसे देख वह मुस्करा  दिया . हवलदार नेमपाल उसके पास आया और अभिवादन करते हुए बोला,”जय हिन्द जनाब !”
“रात को सब ठीकठाक तो निपट गया नेमपाल ?”
“वो तो आप बताओगे जनाब .”
“तेरा कहना एकदम सही था . मजाल है पूरे शो में कोई टस-से-मस तो हुआ हो . मान गये यार, क़ुदरत ने क्या गला दिया है .”
अपने जनाब यानी थानेदार एस.एस.मलिक की आँखों की चमक देख, हवलदार नेमपाल के फेफड़ों में मानो ताज़ा हवा भर गयी .
“जनाब, अभी तो आपने पहला ही खेल देखा है . जब और देखोगे तब बताना .”
“अच्छा सेठ जी के पास जाओ तो उनसे मेरी सिफ़ारिश करना कि मुझे वे रागिनी से मिलवा दें !”
“सेठ जी मिलवायें तो तब जनाब, जब वह यहाँ हो !”
“क्या मतलब, आज कोई खेल नहीं है ?”
“क्यों नहीं है...और फिर खेल तो शाम को है ना .”
“मैं कुछ समझा नहीं ?”
“जनाब, वह तो शो ख़त्म करते ही रात को निकल गयी .”
“कहाँ निकल गयी ?”
“जनाब, सवा-डेढ़ सौ मील के अन्दर उसका कहीं शो होता है, तो शो ख़त्म करते ही वह अपने घर निकल जाती है . अगले दिन शो से पहले आ जाती है .”
“ये बात है ! अब समझ में आया अपनी कार से आने का भेद . यार, इस रागिनी का तो बड़ा जलवा है . इतनी ठसक तो किसी फ़िल्मी हीरो-हीरोइन की भी नहीं होगी जितनी इसकी है...और तेरा वो पण्डित जी क्या नाम है उसकाSSS...” थानेदार एस.एस.मलिक कुछ सोचने लगा .
“लखमी चन्द जनाब .”
“लखमी चन्द तो हमारे हरियाणे का है . अरे यार वोSSS जिसने यह नौटंकी लिखी है...क्या नाम है उसकाSSS...”
“अच्छा-अच्छा आप तो पण्डित नाथराम शर्मा गौड़ की बात रहे हो जनाब .”
“हाँ-हाँ वही गौड़ साहब . उसने भी इसे लिखने में जैसे अपनी कलम ही तोड़ दी .”
“जनाब, कहना नहीं चाहता क्योंकि छोटा मुहँ बड़ी बात वाली बात ही जाएगी . रागिनी तो रागिनी, पण्डित नथाराम की नौटंकियों का एक ज़माने में आलम यह था कि इनके सांगीत जिन्हें अब नौटंकी कहते हैं, इनकी किताबों को पढ़ने के लिए लोग हिंदी सीखते थे . एक से बढ़ कर एक ऐसी नौटंकियाँ लिखी हैं कि अगर नाम गिनाने लगूँ , तो तीन सौ दो की एक लम्बी-चौड़ी तहरीर बन जाए .”
“ऐसे कितने सांग, मेरा मतलब है कितनी नौटंकियाँ लिखी होंगी तेरे नथाराम ने ?”
“जनाब यह पूछो कि क्या नहीं लिक्खा है . क्या तो शृंगार रस, क्या वीर रस . क्या भक्ति रस, क्या आल्हा-ऊदल...कुछ भी तो नहीं छोड़ा जनाब इसने .” इसी बीच अपने जनाब को किसी सोच में डूबा देख हैरत से पूछा नेमपाल ने,”किस सोच में डूब गये जनाब ?”
“नेमपाल, मैं यह सोच रहा हूँ कि हम तो अपने पण्डित लखमी चन्द को ही हरियाणे का शेक्सपीयर समझा करते थे,पर इस देश में तो पता नहीं कितने शेक्सपीयर छिपे हुए हैं .”
“आपने सही कहा है जनाब . आपको सुनकर हैरानी होगी कि पण्डित नथाराम ने महाभारत के ग्यारह पर्वों को छत्तीस भागों में, और रामायण काण्ड के आठ काण्डों को पच्चीस भागों में लिखा है . इतना ही नहीं जनाब, आपने रैदास का नाम तो ज़रूर सुना होगा...वही रैदास जनाब, जिसने कहा है कि मन चंगा तो कठौती में गंगा . इसी रैदास ने, जिसने चमार के घर में अपने गुरू के शाप से जन्म पाकर, अपने पुनर्जन्म में अपने भक्ति भाव से अपने जीवन को कृतकृत्य किया, और गुरू से भी ज़्यादा दुनिया में नाम रोशन किया, उसी रैदास के जीवन पर आधारित रविदास रामायण तक लिखी है . यह रामायण हाथरस से ही छपी है . और तो और इन्होंने डॉ. राजेन्द्र बाबू, सुभाष चन्द्र बोस, गोबिंद वल्लभ पन्त और मौलाना अब्दुल कलाम आज़ाद जैसे राष्ट्रीय नेताओं के जीवन-चरित्र पर भी आधारित सांगीत लिखे हैं .”
जिस समय हवलदार नेमपाल हुमकते हुए रैदास के बारे में बता रहा था, थानेदार एस.एस.मलिक के चेहरे पर जातिगत घृणा के भाव साफ़ देखे जा सकते थे . एक बार तो इसे  अपने इस मातहत पर शक-सा हुआ कि कहीं यह भी तो उसी जाति का नहीं है जिसका रैदास था . क्योंकि इतनी गहरी और बारीक जानकारी सिवाय उसी जाति के भला दूसरा क्यों रखेगा ?
“नेमपाल, मैंने कहीं सुना था कि पण्डित नथाराम ने एक बार कानपुर में जाकर कहा था कि जैसा सांग वे करते हैं, वैसा कोई नहीं कर सकता . इस पर वहाँ के एक नक्काड़ची ने इस चैलेन्ज को क़बूला और एक नक्काड़े के चारों तरफ़ बारह नगाड़ियाँ रख, उन पर चोब की ऐसी टंक मारी कि तब से सांग या स्वाँग को नौटंकी कहा जाने लगा .”
“ये सब सुनी-सुनाई बातें हैं जनाब, वैसी ही जैसी त्रिमोहनलाल के बारे में कही जाती हैं कि जब वे नक्काड़ा बजते थे, तो उसकी धमक से औरतों का हमल गिर जाता था . हाँ, ऐसा कहा  जाता है कि पण्डित नथाराम स्वाँग के बड़े गुणी कलाकर थे . सुर-ताल का ज्ञान इन्हें भले ही कम था, पर वीर रस तो ऐसा लगता था जैसे घोल कर पी गये हों . इनके लिखे सांगीतों की किताबों की इतनी ज़बरदस्त डिमांड थी कि हाथरस में इन्होंने अपनी श्याम प्रेस तक लगा ली थी .”
“नेमपाल, तुझे तो बड़ी जानकारी है नौटंकी की ?”
“जनाब, जानकारी क्या बस थोड़ा-सा शौक और दिलचस्पी है . वैसे इस इलाक़े में एक कहावत है कि गाते-गाते सब मीरासी हो जावे हैं...बस, ऐसा ही समझ लो !”
“चलो अच्छी बात है कि मीरासी ही तो हो रहे हो, कोई चोर-डकैत तो नहीं बन रहे हो . अच्छा ऐसा कर, सिपाही परमानन्द से कह कर जीप लगवा दे . पास के एक गाँव में तहकीकात के लिए निकलना है .“
“अभी लो जनाब !” इतना कह हवलदार नेमपाल गाड़ी लगवाने के लिए चला गया .
कुछ ही देर में जीप लग गयी .

थानेदार एस.एस.मलिक की जीप तहकीकात के लिए बस अड्डे के सामने से गुज़र ही रही थी, कि अचानक अपने कानों से टकराए एक जाने-पहचाने से सुर ने, उसे जीप की रफ़्तार कम करवाने पर मजबूर कर दिया . वही झील-नक्काड़े की खनक . वही हारमोनियम का सुर और वही तारामती का चिर-परिचित कातर विलाप . थानेदार एस.एस.मलिक ने जीप उसी दिशा में मुड़वा दी .

जीप रेडियो-टेप रिकॉर्डर की मरम्मत करने वाली एक दूकान के पास जाकर रुक गयी . थानेदार ने जीप में बैठे-बैठे देख लिया कि दूकान के बाहर बज रहे लाउड स्पीकर के पास अच्छी-ख़ासी भीड़ बड़ी तल्लीनता और मनोयोग के साथ हरिश्चन्द्र-तारामती के संवादों को सुनने में डूबी हुई है . वह जीप से उतरा और लगभग दबे पाँव भीड़ की तरफ़ बढ़ गया .  भीड़ ने जैसे ही अपने पास आयी ख़ाकी वर्दी को देखा, वह तितर-बितर होने लगी . अपने पहुँचने से हुए इस व्यवधान को देख थानेदार एस.एस.मलिक को अच्छा नहीं लगा . इसलिए उसने मुस्कराते हुए कहा,”भागो मत ! आराम से सुन लो !” यह कह कर वह दूकान में घुस गया .
अपनी दूकान पर एकाएक थानेदार को आया देख, दूकानदार घबराते हुए अकबका कर खड़ा हो गया . हड़बड़ाहट में वह टेप बन्द करना भी भूल गया .
“ज...जनाब...क्क्या हुआ ? इस गरीब से कोई खता हो गयी ?” दूकानदार के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगीं .
“यह तो वही खेल है न, जो रात को हुआ था ?” थानेदार एस.एस.मलिक ने अपने अनुमान की पुष्टि करते हुए पूछा .
“जी...जी जनाब वही है .”
“तुमने इसे स्टेज से रिकॉर्ड भी कर लिया ?”
“जनाब इस्टेज से नहीं...इसे तो मैंने बाहर बल्ली पे टंगे लोड स्पीकर के नीचे से रिकोड किया है .”
“बल्ली पर टंगे लाउड  स्पीकर के नीचे से रिकॉर्ड  किया है...मैं कुछ समझा नहीं ?”
“जी जनाब, वो क्या है कि लोड स्पीकर के नीचे टेप रिकोड रख देते हैं और रिकोड कर लेते हैं . क्या करें जनाब, इससे दो पैसा कमा लेते हैं . जनाब, रागिनी की जहाँ भी कोई नौटंकी होती है, तो हम ऐसे ही किसी लोड स्पीकर के पास अपना टेप रिकोड रखके रिकोड कर लेते हैं और फिर उसकी कापी कर-करके बेच लेते हैं .”
“एक तमाशे की ऐसी कितनी कैसेट बेच लेते हो ?” थानेदार एस.एस.मलिक को दूकानदार की बातों में अब मज़ा आने लगा .
“क्या बताऊँ जनाब...बस, खरचा–पानी-सा निकल जाता है .”
“मैं खर्चे-पानी की बात नहीं, बिकने की बात कर रहा हूँ ?“
थानेदार के तेवर देख दूकानदार खीसे निपोरते हुए बोला,”यही कोई ढाई सौ-तीन सौ .”
“एक नौटंकी की ?”
“जी जनाब, कभी–कभी तो पाँच सौ तक भी बिक जाती हैं . आजकल तो लोग इनके वैसे भी दीवाने हैं . दुकान के बाहर के बाहर आप जो भीड़ देख रहे हो न, इनमें से पन्द्रह-बीस तो इस कैसेट के ओडर भी दे चुके हैं जनाब .”
“फिर तो तेरी दुकान पर और भी कैसेट होंगी ?”
“हाँ हैं न जनाब . अभी दिखलाता हूँ !” इतना कह दूकानदार ने अपने सामने थानेदार की पीठ के पीछे पतली सेल्फ़ में करीने से रखी कैसेट्स में से, कुछ पुरानी कैसेट्स निकाली और थानेदार के  सामने रख दीं .
थानेदार ने उनमें से एक कैसेट उठायी और उसे ध्यान से पढ़ने लगा -
 नौटंकी इन्दलहरण (भाग-3)
        (रागिनी एंड पार्टी)
 कलाकार : श्रीमती रागिनी कुमारी,
 नेमसिंह सिसोदिया, ताराचन्द ‘प्रेमी’, लता .
     हास्य कलाकर –चौधरी धर्मपाल सिंह .
 इस कैसेट के सबसे नीचे लिखा हुआ है-सैनी कैसिट कम्पनी, बस स्टैंड के सामने, कोसी कलाँ, मथुरा . इसके बाद उसने दूसरी अमरसिंह राठौर  की कैसेट देखी, तो उस पर-सपना कैसिट, हनुमान मंदिर के पास, कोसी कलाँ, मथुरा, उत्तर प्रदेश  छपा हुआ देखा .
“मगर इन पर तो कोसी कलाँ का पता छपा हुआ है ?” थानेदार एस.एस.मलिक ने जिज्ञासावश पूछा .
”वो क्या है जनाब कि इनकी आड़ में हम कुछ अपनी कैसट भी निकाल लेते है .” दूकानदार ने दोलड़ होते हुए बताया .
“वैसे इनकी ये तीन-तीन कैसेट कैसे हैं ?” थानेदार ने नीचे रखी दो कैसेट उठाई और उन्हें उलट-पुलट कर देखते हुए पूछा
“जनाब पूरी नौटंकी एक कैसट में तो आनी मुश्किल होती है . इसलिए इसके तीन पार्ट बना दिए हैं .”
“वैसे आज जो अमरसिंह राठौर होगा उसे भी रिकॉर्ड करोगे ?”
“अमरसिंह राठौर ! जनाब, इसकी तो लोग बाट देख रहे हैं . बल्कि इसकी तो मेरे पास अभी से बुकिंग होनी शुरू हो चुकी है .”
“पर उसकी ये कैसेट हैं तो सही ?” नीचे रखी सपना कैसेट की एक कैसेट की ओर देखते हुए पूछा थानेदार ने .
“कभी-कभी गाहक नये शो के कैसट की माँग करते हैं . इसलिए रिकोड करनी पड़ती है .”
थानेदार एस.एस.मलिक को जब लगा कि अब चलना चाहिए और वह जाने लगा, तब  दूकानदार ने बड़े अदब के साथ आग्रह किया,”जनाब, ये कैसट मेरी तरफ से भेंट समझ कर रख लो . कला के ऐसे पारखी के चरण इस दुकान पर कभी-कभी ही पड़ते हैं . आपके थाने में एक दरोगा जी हैं न नेमपाल, वो तो हमारी दुकान से कई दफे कैसट ले जा चुके हैं.”


थानेदार एस.एस.मलिक दूकानदार केइस आग्रह को टाल नहीं पाया . भेंट में मिलीं कैसेट्स को ले वे जीप में आकर बैठ गये . जीप एक बार फिर अपनी मंज़िल की ओर तेज़ी-से दौड़ने लगी . जीप जैसे-जैसे बस अड्डे को पीछे छोड़ आगे बढ़ने लगी, वैसे-वैसे वातावरण में गूँजते झील-नक्काड़े व हारमोनियम के सुर-ताल में बिंधे संवाद मंद पड़ते गये.

पूरे रास्ते थानेदार एस.एस.मलिककार्तिक की कच्ची ठण्ड में, टीन की खड़ी चादरों से घिरे रंगमंच के सामने दम साधे नरमुंडों की शान्त और डबडबाई आँखों के संग तारामती के विलाप में डूबा रहा . जीप पूरी गति से दोनों तरफ़ तन कर खड़ी सरकंडों की दीवार के बीच बने संकरे, और  उबड़-खाबड़ रेतीले रास्ते को रौंदती हुई अपनी तहकीकात के लिए दौड़ी जा रही है.
क्रमश:


स्त्रीकाल का संचालन 'द मार्जिनलाइज्ड' , ऐन इंस्टिट्यूट  फॉर  अल्टरनेटिव  रिसर्च  एंड  मीडिया  स्टडीज  के द्वारा होता  है .  इसके प्रकशन विभाग  द्वारा  प्रकाशित  किताबें  ऑनलाइन  खरीदें : 

दलित स्त्रीवाद मेरा कमराजाति के प्रश्न पर कबीर

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दलित स्त्रीवाद किताब 'द मार्जिनलाइज्ड'से खरीदने पर विद्यार्थियों के लिए 200 रूपये में उपलब्ध कराई जायेगी.विद्यार्थियों को अपने शिक्षण संस्थान के आईकार्ड की कॉपी आर्डर के साथ उपलब्ध करानी होगी. अन्य किताबें भी 'द मार्जिनलाइज्ड'से संपर्क कर खरीदी जा सकती हैं. 
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मोदी, केजरी को महिला कलाकार की ललकार: जान देंगे लेकिन जगह नहीं छोड़ेंगे !

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'मेरे पति को उनकी कला के लिए राष्ट्रपति ने सम्मानित किया थाऔर हमने 50 से अधिक देशों में भारत की लुप्त होती कला का प्रदर्शन किया है, मैं भी गई हूँ, मेरा बेटा इस वक्त फ्रांस में अपने देश का गौरव बढ़ा रहा है, लेकिन देश की बात करने वाली सरकार ने हमारा शौचालय गिरा दिया है, हमारे यहाँ एमसीडी कूड़े नहीं ले जाती, हम बजबजाती नालियों के बीच रहते हैं. हमारे घर गिरा दिये गये हैं. इसमें सबलोग मिले हैं नेता, बिल्डर और अफसर."



"हम जान दे देंगे लेकिन अपनी जगह नहीं छोड़ेंगे'गुस्से से भरी कठपुतली कलाकार शरबती खान राजधानी के दिल में (केंद्र में) शादीपुर में अपने और अपने लोगों के साथ हो रहे ज्यादतियां बयां करती हैं. उनके पति भगवानदास भट्ट अपनी कला के लिए राष्ट्रपति से सम्मानित किये जा चुके हैं."



बजबजाती नालियों के बीच देश के लगभग 12 से 16 राज्योंऔर भाषाओं के लोग प्रायः 70 सालों से वहाँ रहते रहे हैं-दिल्ली के शादीपुर में कठपुतली कॉलोनी में. अब वहाँ दिल्ली सरकार और डीडीए पब्लिक-प्राइवेट पैटर्न पर विकास करना चाहती है, जिसके लिए इनका आधा-अधूरा पुनर्वास भी कर रही है, घर बनाकर दे रही है. इनका विरोध है कि यहाँ रह रहे लगभग 5 हजार घरों में से आधे को ही घर देने का वादा किया जा रहा है, वह भी जगह छोड़ने के दो साल बाद. जब यहाँ रहने वाले लोगों ने  अपने पूर्ण पुनर्वास तक जगह न छोड़ने का संघर्ष छेड़ दिया तो स्वच्छता मिशन पर लगी सरकार की पुलिस ने इनके घर गिरा दिये, शौचालय तोड़ दिये. पूरा इलाका सीवर में तब्दील हो गया है.

पूरा इलाका ऐसी बजबजाती नालियों से भरा है


आलम यह है कि इनके खिलाफ अभियान में कांग्रेस, आम आदमी पार्टी और भारतीय जनता पार्टी, सारे दलों के नेता और पूरा तंत्र एकजुट है. यह इलाका पहले अजय माकन का रहा है. इस बार इस इलाके से सांसद बनी हैं बीजेपी की मीनक्षी लेखी. लोग बताते हैं कि जब वे यहाँ आई थीं तो खूब रोईं, उनका रुमाल गीला हो गया- मानो ग्लिसरीन लगा कर रो रही हों. जीत कर गई तो पलट कर नहीं देखा. इलाके का विधायक आम आदमी पार्टी से है. यहाँ के निवासियों के अनुसार वे भी इनके खिलाफ अभियान में शामिल हैं.

लोग रोज यहाँ इकट्ठे होते हैं और संकल्प लेते हैं संघर्ष का 


शरबती कहती हैं , 'दुनिया के लोगों के लिए भारत कीराजधानी के केंद्र में बसे इस बजबजाते इलाके को देखकर अंदाज लगा लेना चाहिए कि भारत की सरकारें किस तरह पुनर्वास करती हैं. यहाँ की सरकारें अपने लोगों के प्रति कितना असंवेदनशील हैं. दुनिया वालों, दुनिया भर में घूमने वाले हमारे परधानमंत्री को अपनी राजधानी में ही अपने लोगों के खिलाफ हो रही ज्यादतियां नहीं दिखती हैं.' 

बीजेपी की महिला विधायक ने सेनेटरी पैड से जीएसटी हटाने के लिए लिखा वित्तमंत्री को कड़ा पत्र

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स्त्रीकाल डेस्क 

मध्यप्रदेश से भारतीय जनता पार्टी की विधायक पारुल साहू नेवित्त मंत्री अरुण जेटली को पत्र लिखकर सेनेटरी नैपकिन से जीएसटी हटाने की मांग की है. साहू के अनुसार उन्होंने यह पत्र कामकाजी महिलाओं, विद्यार्थियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं से बातचीत कर लिखा है. साहू कहती हैं, 'हमारे देश के ग्रामीण इलाके की महिलायें सेनेटरी पैड का पहले से ही इस्तेमाल नहीं कर पाती हैं. इस पर 12% का टैक्स स्थिति को और खराब करेगा.'




साहू से पहले केन्द्रीय मंत्री मेनका गांधी ने भी वित्त मंत्री सेआग्रह किया था कि सेनेटरी पैड पर जीएसटी न लगाया जाये. कांग्रेस की सांसद सुष्मिता देव ने भी इसके खिलाफ मुहीम छेड़ रखी है, जबकि फिल्म कलाकारों और अन्य सामाजिक कार्यकर्ताओं ने भी लहू का लगान नाम से एक सोशल मीडिया कैम्पेन चला रखा है. सरकार पर  इन अभियानों का कोई असर नहीं हुआ. गांधी की कर्मभूमि वर्धा से तो छात्राओं के एक संगठन 'युवा'की सदस्य वनश्री वनकर और उसके साथियों ने वित्तमंत्री और प्रधानमंत्री को सेनेटरी पैड भेजकर अपना विरोध जताया है.

मध्यप्रदेश के सुर्खी से विधायक पारुल साहूआशान्वित हैं कि वित्तमंत्री उनका जरूर सुनेंगे.  उन्होंने अपने पत्र में लिखा है, 'सरकार सेनेटरी पैड के इस्तेमाल को प्रोत्साहित कर रही है ताकि महिलाओं का स्वास्थय और स्वच्छता संतुलित रहे. इसलिए मुझे विश्वास है कि आप सेनेटरी नैपकिन पर जीएसटी के निर्णय पर जरूर विचार करेंगे. 

यक्ष-प्रश्न और अन्य कविताएँ

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अमृता सिन्हा


स्वतंत्र लेखन, विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित संपर्क: a.sinhamaxnewyorklife@ymail.com
   
      अस्तित्व 
      यायावर मन
      भटकता, पहुँचा है
      सुदूर , संभावनाओं के शहर में
      बादलों से घिरा
      ऊँचाईयों में तिरता, फिसलता सा
      वर्षा की बूँदों को चीरता
     उतर आया है मेरा इन्द्रधनुष
      काली सर्पीली सड़कों पर
     दौड़ता, भागता, बेतहाशा
     नदी के बीचों- बीच सुनहरे
     टापू को एकटक निहारता ।
     करवटें लेती लहरों से खेलता
     ऊँचे - ऊँचे दरख़्तों में समाता
     जाने कहाँ-कहाँ विचर रहा
     मेरा इन्द्रधनुष ।
     तभी नन्हा सा छौना, बेटा मेरा
     काटता है चिकोटी , बाँहों में मेरे
     अनायास ही टूटती है तंद्रा मेरी
     पूछता है मुझसे
     माँ क्या बना  ?
     जागती हूँ मैं स्वप्न से
     कटे वृक्ष की तरह
    और परोस देती हूँ, थाली में
    हरे-भरे मायने और रंग- बिरंगे शब्द ।


      यक्ष-प्रश्न
       
     हाँ, याद है उसे
     माँ की दी हुई नसीहतें ।
    कूदती-फाँदती, दरख़्तों की दरारों
    से झाँकती, गिलहरियों सी,
    कभी रंग - बिरंगी तितलियों सी
     उड़ जाती हैं बेटियाँ ।
     बात- बात में टोकती , आँखें तरेरती
     माँ की हिदायतों के बीच
    बचपन में ही बड़ी , बहुत बड़ी
    होती जाती हैं , बेटियाँ ।
    भूल ही नहीं पाती वो ,बचपन
    की हँसी , बेबाक़ , बेसाख़्ता , बेमानी
    रोक दिया था माँ ने तब, बतलाया था उसे
    यूँ बेसाख़्ता हँसा नहीं करती हैं ,बेटियाँ ।
     मालूम है , सीखना होगा उसे
     हर सलीक़ा ज़िन्दगी का
     रखना होगा ख़्याल हर सलवटों का
     ढकना होगा दुपट्टे से बदन अपना
     लगाना होगा चेहरे पर
      दही बेसन का मिश्रण
      बचना होगा धूप के तांबई रंग से
      सहेजना होगा लंबे बालों को
      क्योंकि पराया धन होती हैं , बेटियाँ ।
     जुगनू से टिमटिमाते सपनों  को
      भरना होगा काजल की डिबिया में ,
      लपेटना होगा , चुपचाप ,पनीली आँखों से,
      छितरे बचपन के ऊनी गोले को ।
      एक देहरी अनजान सी,संकरी है गली जिसकी,
      बेग़ाना है समूचा शहर, आँखों से झरता समंदर
     विस्मृत सी , सोचती है वह अक्सर
     कहीं अम्माँ  भूल तो नहीं गईं, भेजना
     उसकी हँसी की गठरी ,छोड़ आई थी जिसे वहीं पर,
     इसी ऊहापोह में तय करती जाती हैं ,
    करछी और कढ़ाही के बीच का सफ़र , बेटियाँ ।  

       अहसास
           
     उगा सूरज
    रोज़ की तरह,
   आसमान की सीढ़ी से उतरा
   और, बिखर गया छम्म से
   मन के हर कोने में ।
   नख-शिख तैर गई ज्योति कोई
   कौंध गई रोम रोम में,
   उल्लास से भरी मैं
  चुनती हूँ पलकों से ,फूलों के उजास,
  साँसों से घुलती हवा में सुगंध,
  त्वचा से मौसम की सिहरन,
  सोचती हूँ,
  क्यों सब बदला बदला
  सा है , इस बार ?
  खिड़की के पल्ले को
  ज़बरन ठेलता हवा का
  तेज़ झोंका,
  बिना इजाज़त घुसती
  वारिश की मदमस्त फुहारें !
 भीगने लगी हूँ मैं, आँखें मींचे
  बूँदें समेटती मेरी देह,
 केवल त्वचा ही नहीं भीग रही,
 भीगती तो थी हर बार
 तो नया क्या है इस वारिश में ?
 बूँदें नहीं हैं ये,केवल जल की
 

दावानल

क्षत-विक्षत अस्तित्व
रिश्तों की थकान,
खिड़की से झाँकता,
टुकड़ा भर आसमान ।
संपूर्णता को निगलता
आक्रोश का दावानल,
दीवारें अपराधी, छत मुजरिम
हवा में पसरा संशय का ज़हर ,
भयग्रस्त है ज़मीं, आतंकित मन
यातनाओं का अंतहीन सफ़र ।
समंदर को लीलता अंधेरा,
स्याह रातें, लहरें सोखती रेत ,
अब किसी खिड़की से
नहीं दिखेगा कोई आसमान,
अब किसी समंदर से नहीं
फूटेगी कोई हँसी ,
क्योंकि चुकता करना है
सब, पिछले क़र्ज़ों का हिसाब ।

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दलित स्त्रीवाद मेरा कमराजाति के प्रश्न पर कबीर

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स्वच्छ भारत अभियान की सच्चाई जानें: महिला एक्टिविस्ट ने उठाये सवाल

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महिला एक्टिविस्ट ममता दास ने खोली स्वच्छ भारत अभियान की पोल. घरों में तो किसी तरह बन गये शौचालय, जिसका इस्तेमाल नहीं होता, लेकिन खेत-खलिहान, हाट-बाजार जाने वाली महिलाओं के लिए क्या?





सामंती हवेलियों में दफ्न होती स्त्री

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शिप्रा किरण
सहायक प्राध्यापक, हिन्दी विभाग बाबासाहेब भीमराव अम्बेडकर विश्वविद्यालय
लखनऊ.
संपर्क:kiran.shipra@gmail.com

साहित्य के फिल्मी रूपांतरण कीकड़ी में यूँ तो कई फ़िल्में आईं हैं किन्तु कुछ ही फ़िल्में ऐसी हुईं जो हिन्दी सिनेमा में मील का पत्थर साबित हुईं. सिनेमा और साहित्य के इसी कड़ी को मजबूत करती एक फिल्म है- साहब, बीवी और गुलाम. विमल मित्र के उपन्यास पर बनी यह फिल्म वर्ष 1962 में रिलीज हुई थी. इसे उस वर्ष के राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों में सर्वश्रेष्ठ फीचर फिल्म का सम्मान मिला था साथ ही फिल्मफेयर पुरस्कारों में इसे चार श्रेणियों में एक साथ सम्मानित किया गया. जिनमें से दो पुरस्कार अभिनय के लिए थे जो क्रमशः सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के लिए गुरुदत्त व सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री के लिए मीना कुमारी को दिए गए. उन्नीसवीं सदी के अंतिम वर्षों की कथा कहतीऔर कलकत्ते की पृष्ठभूमि पर बनी यह फिल्म कई मामलों में ख़ास हो जाती है.कई गहरे प्रतीकों और शानदार अभिनय से सजी यह फिल्म भारतीय समाज और इतिहास के एक ख़ास दौर के विभिन्न पहलुओं का लेखा-जोखा देती है और इसी क्रम में स्त्री मन के एक नए पक्ष को हमारे सामने ले आती है.

पूरी फिल्म भारतीय सामंती समाज के विघटन को आधार बना कर चलती है. फिल्म की शुरुआत एक ढही या ढाही जा रहीहवेली से होती है और यह पहला दृश्य ही पूरी कहानी का खाका प्रस्तुत कर देता है. ढहती या ढाही जा रही वह हवेली ख़त्म होतीजमींदारी और उसकी जर्जर अवस्था का प्रतीक है.बीच बीच में पागलों की तरह चीख-चीख कर हवेली के बूढ़े घड़ीवार का भूतनाथ से कहा गया यह कथन सामंती व्यवस्था के शोषक चरित्र व बीतते समय के साथ ज़मींदारों के ख़त्म होते रसूख को बखूबी बयान करता है- “भाग जा वहीं भाग जा. इन हवेलियों से दूर रह. घड़ी भ्रमनाशिनी है. हर भ्रम को तोड़ा है इसने. महाकाल के इसने टुकड़े टुकड़े कर डाले. घंटे, मिनट और सेकेण्ड में. वक्त की आवाज़ सुन और भ्रम को पहचान. ताजो-तख़्त नहीं रहे, महल नहीं रहे, ये हवेलियाँ भी नहीं रहेंगी.”1 घड़ीसाज के अतिरिक्त इन हवेलियों में काम करने वाले बंशी जैसे नौकर के इस बात से भी इन महलों की सच्चाई समझी जा सकती है जब वह बार बार कहता है- “अजीब घर है.”2इन हवेलियों के सामंतों की खस्ता होती हालत, उनकी ऐय्याशियों के बीच सबसे दयनीय स्थिति यदि किसी की थी तो वह थी सूनी और खँडहर होती हवेलियों में रहने वाली औरतकी. फिल्म के प्रारंभ में ही मीना कुमारी अर्थात छोटी बहू के इस कथन से इस स्थिति को नजदीक से समझा जा सकता है जब वह कहती है- “यहाँ दिन सोने के लिए है और रात जागने के लिए- इस घर की रीत है.”3यह सिर्फ उसी घर की नहीं बल्कि सभी सामंती हवेलियों की रीत बन चुकी थी. यहाँ की औरतें-पत्नियां अपने पतियों की प्रतीक्षा में रातें जाग कर गुजारतीं.लेकिन पति अपनी  रातें कहीं और बिताता था. स्त्री की इसी वास्तविक स्थिति का बयान है यह फिल्म. वैसे तो फिल्म के सभी किरदार महत्वपूर्ण हैं पर ‘छोटी बहू’ के रूप में मीना कुमारी पूरी कहानी के केंद्र में हैं.

पूरी फिल्म व सभी पात्र छोटी बहू कोकेंद्र में रखकर ही गढ़े गए हैं.फिल्म में पहली बार छोटी बहू से हमारा सामना तब होता है जब वह अपने पड़ोस में नए रहने आये युवा भूतनाथ अर्थात गुरुदत्त को हवेली आने का बुलावा भेजती है. भूतनाथ रोजगार की तलाश में पहली बार गाँव से शहर आया था. उसे मोहिनी सिन्दूर बनाने के कारखाने में नौकरी मिलगई थी.छोटी बहू ने भूतनाथ को हवेली इसलिए बुलाया था कि वह उससे मोहिनी सिन्दूर मंगाना चाहती थी. वही मोहिनी सिन्दूर जिसे अपने माथे पर सजा कर वह अपने पति और हवेली के ‘छोटे बाबू’ का मन मोह सके और दूसरी औरत से दूर कर उन्हें अपने करीब ला सके. भूतनाथ से तफ्तीस करती है- “उस सिन्दूर का कुछ असर होता भी है कि नहीं?”4क्योंकि वह कई-कई दिन और कई-कई रात घर नहीं लौटते थे. वह किसी पतुरिया अर्थात एक नाचने वाली के कोठे पर अपना समय बिताते. छोटे बाबू का चरित्र उसी ठेठ सामंती पुरुष का प्रतिनिधित्व करता है जो पतन के कगार पर भी विलास के साधनों में डूबा हुआ था. छोटी बहू के मोहिनी सिन्दूर लगाने का भी जिस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता. जबकि सिन्दूर की मात्रा दिन-ब-दिन बढ़ती ही जाती है. गोल बिंदी के अलावा अब वह मोहिनी सिन्दूर को अपनी मांग के बीचोंबीच भी लगाना शुरू कर देती है. सारे श्रृंगार करती है. लेकिन साथ साथछोटी बहू दिन रात उसकी प्रतीक्षा में स्वयं को खोती जाती है. कभी नौकरों को भेजकर तो कभी बीमारी का बहाना बनाकर भी उसे अपने पास बुला लेना चाहती है लेकिन वह हर बार असफल ही होती है.


सामंती और पितृसत्तात्मक समाज की यह कितनी बड़ी विडम्बना थी कि एक स्त्री को अपने ही पति के साथ रहने के लिए उससे झूठ बोलने की नौबत आ गई थी. पूरी फिल्म स्त्री के अस्तित्व के प्रश्न तो खड़े करती ही है, उसी सन्दर्भ में मोहिनी-सिन्दूर के माध्यम से सिन्दूर जैसे वैवाहिक प्रतीकों के सामर्थ्य पर भी सवाल उठाती है.एक रात जब छोटी बहू अपने पति को बाहर जाने से रोकती है और उससे सवाल करती है कि इतनी बड़ी हवेली में मैं तुम्हारे बिना क्या करूं तो वह कहता है- “गहने तुड़वाओ, गहने बनवाओ और कौड़ियाँ गिनो. सोओ आराम से.”5क्या हवेलियों में रहने वाली एक समृद्ध स्त्री का एकमात्र यही काम था? धार्मिक-सामजिक रीति-रिवाजों द्वारा वैवाहिक बंधन को जन्म-जन्मान्तर का सम्बन्ध मानने वाली छोटी बहू जैसी स्त्रीअपने साथ हुए छल को देख कर हतप्रभ रहती है.अपनी पीड़ा को वह खूब हंसती हुई इन शब्दों में व्यक्त करती है- “इतने बड़े घर की बहू बनी मैं. इतना रुपया-पैसा, नौकर-चाकर, जेवर-गहना, सभी कुछ तो है. पर ये सारे सुख खोखले हैं.”6छोटी बहू का हँसते हुए कहा गया यह संवाद जहां एक गहरी टीस पैदा करता है वहीं उसकी हँसी की आर्द्रता एक अजीब सी करुणा से भर देने वाली है.एक बड़े खानदानी और रसूखदार बहू की यह पीड़ा गहरा व्यंग्य बोध उत्पन्न करती है.छोटी बहू के रूप में मीना कुमारी की सजल-गहरी आँखें एक स्त्री की भावनाओं का अथाह समुद्र लगती हैं.लेकिन अपनी इस पीड़ा को वह इस हवेली मेंकिसके साथ बांटती?सवाल किससे करती जबकि हवेली की अन्य स्त्रियाँ भी उसी सामंती और पुरुषवादी मानसिकता का शिकार हैं. उसी हवेली की मंझली बहू अर्थात छोटी बहू की जेठानी उस पर ताने कसती है, कहती है- “रईस घराने का मर्द जब तक नाच-रंग ना देखे मर्द कैसा!! छी छी! शर्म करो शर्म गुईयाँ. चौधरी वंश का नाम डुबो दिया तुमने. तुम जैसी मर्द के लिए तड़पने वाली औरत हमने आज तक नहीं देखी.”7तब छोटी बहू बहुत पीड़ित होकर कहती भी है- “तुम्हारे देवर के पास मैं कब रहती हूँ मंझली दीदी. इसका मौक़ा ही कब मिलता है मुझे.”8स्त्रियों की मानसिक कंडीशनिंग का उदाहरण है मंझली बहू द्वारा कहा गया यह संवाद. उन स्त्रियों को अपनी स्थिति का एहसास तो क्या होता बल्कि वह पुरुष की गलतियों को भी महिमामंडित करने लगती हैं. और तो औरपति के पास रहने की छोटी बहू की सहज नैसर्गिक मानवीय इच्छा को ही गलत ठहराती हुई उसके स्त्रीत्व का अपमान ही करती है.“तो बेहयाई से हाय हाय क्या करती हो? मर्द आदमी है मेरा देवर.”9उसके लिए पौरुष का अर्थ पति या देवर द्वारा कई अन्य स्त्रियों के साथ सम्बन्ध बनाना ही है.स्त्रीत्व और पौरुष के सही अर्थों को न समझते हुए वह उसे पुरुष का गुण मानती है और उसके इस चरित्र का गुणगान ही करती है. फिल्म में छोटी बहू के चरित्र को मात्र एक समृद्ध सामंती परिवार की किसी पत्नी द्वारा अपने पति का साहचर्य पाने की लालसा रखने वाली स्त्री-पात्र कहना उस सशक्त किरदार और इस पूरी फिल्म की अधूरी समझ होगी. उस जकड़े हुए समाज में अपने पति के साहचर्य के लिए आवाज उठाना भी कहीं न कहीं उस समय और सन्दर्भ में विद्रोह की शुरुआत है.और इस बात से भी कहीं बहुत आगे यह स्त्री के मान, उसके स्वाभिमान और उसके अस्तित्व के लड़ाई की अभिव्यक्ति है.जहां इस तरह के पुरुषवादी समाज में ऐसे जुमले बहुत ही आम चलन में थे- “पुरुष अगर दूसरी औरत के पास ना जाए तो उसे निकम्मा समझा जाता है.”10 या फिर छोटे बाबू का यह कथन- “जिस मर्द को अपना कर्त्तव्य जोरू से सीखना पड़े- लानत है उस पर.”11छोटी बहू की यह लड़ाई किसी एक ‘छोटे बाबू’ या किसी एक पुरुष से नही बल्कि उस पूरी सामाजिक व्यवस्था से है जिसने स्त्री को उसकी भावना और उसकी अस्मिता से अलग कर सिर्फ एक शरीर तक सीमित कर दिया है. छोटी बहू एक जगह कहती भी है- “वो मर्दों को नहीं समझाया जा सकता. कई औरतों को भी नहीं. औरत का इतना बड़ा अपमान! इतनी बड़ी लज्जा!”12यह हवेली के सामंती घुटन का शिकार एक स्त्री की चेतना थी जो उससे यह बात कहलाती है. वह सिर्फ पति के प्रेम में पागल एक स्त्री छवि नहीं बल्कि अपने व्यक्तित्व, अपने स्वाभिमान की चेतना से लैश हो रही स्त्री है. उसे अपने आत्मसम्मान की गहरी समझ है. उसे यह स्वीकार नहीं की हवेली की यथास्थिति को स्वीकार कर जीने वाली अन्य स्त्रियों से उसकी तुलनाकी जाए. उसे इस बात का भी अहसास है कि वह दूसरी औरतों से अलहदा है और वह सचमुच अलहदा है भी. अपने स्वाभिमान की रक्षा के लिए ही वह अपने पति के कहने पर शराब भी पीती है.उसका पति किसी और स्त्री के पास रहने ना जाए इसके लिए आखिरी उम्मीद के रूप में वह शराब के सेवन की शर्त भी स्वीकार कर लेती है. दूसरी औरत की तरह अपने पति को खुश करने के लिए गाने भी गाती है.“छोटी बहू धार्मिक किस्म की मध्यवर्गीय स्त्री है पर अपने पति के पास आने के लिए वह मदिरा पान के लिए भी तैयार है. यही उसके लिए विद्रोह है.”13सचमुच उस समय-सन्दर्भ में वह एक स्त्री का विद्रोह ही कहा जाएगा.यह अलग बात है इसी कोशिश में वह शराब की आदी हो जाती है लेकिन अंततः पति की तरफ से उसे कुछ भी हासिल नहीं होता. वह शराब पीती तो है पर साथ ही उसके भीतर एक अपराधबोध भी घर किये रहता है. ‘स्व’ की चेतना और पति-प्रेम की भावना के बीच के स्त्री-अंतर्द्वंद को छोटी बहू के रूप में मीना कुमारी ने बखूबी चित्रित किया है. छोटे बाबू अपने जिस पौरुष के मद में चूर थे उनसे वह सवाल करती है कि “तुम क्या दे सके मुझे? मुझे माँ कह कर पुकारनेवाला...?”14उस सामंती युग में किसी पुरुष से सवाल करती और उसके पौरुष के छद्म-अहम् पर प्रश्नचिन्ह लगाती स्त्री है साहिब, बीवी और गुलाम की छोटी बहू. अंत में छोटे बाबू के लकवाग्रस्त हो जाने पर अपने लकवाग्रस्त पति के इलाज के लिए छोटी बहू रात में भूतनाथ के साथ हवेली से निकलती है लेकिन रास्ते में ही छोटे बाबू का मंझला भाई उसकी ह्त्या करवा देता है. क्योंकि वह जानता था कि जमींदारी अब बची नही और जो रही-सही संपत्ति है उसे वह छोटी बहू के साथ बांटना नहीं चाहता था. अपने तथाकथित चौधराना सम्मान की रक्षा के लिए छोटी बहू की लाश हवेली में ही दफना दी जाती है. उसी लाश की हड्डियां फिल्म के अंत में ओवरसियर भूतनाथ को टूटी हुई हवेली के मलबे के बीच मिलती है. उसके हाथ के कंगन बताते हैं कि वह छोटी बहू के ही हड्डियों का ढांचा है. इस तरह अपने सम्मान के रास्ते तलाशती स्त्री की मौत उस तत्कालीन व्यवस्था का सच तो बयान करती ही है साथ ही हमें वर्तमान व्यवस्था के सामंती अवशेषों के प्रति भी आगाह करती है.


वर्तमान समय की खाप पंचायतें औरसम्मान की आड़ में हो रही हत्याएं या ऑनर किलिंगके मामले उसी अवशेष का प्रमाण हैं. बीतते समय के साथ ध्वस्त होती जमींदारियों के बीच भी भारतीय सामंत अपने झूठे गौरव व मद से बाहर आने को तैयार नहीं था. रस्सी जल चुकी थी पर ऐंठन नहीं गई थी. वह साहब, बीवी और गुलाम के बड़े बाबू की तरह कबूतरों की प्रतियोगिता करा रहा था. उसने किसानो और मजदूरों को अपनी ज्यादतियों का शिकार बनाने के लिए गुंडे और लठैत भी पाल रखे थे.फिल्म का एक पात्र भूतनाथ से इस व्यवस्था के अत्याचार का परिचय कुछ इस तरह देता है- “यहाँ की हर बात बड़ी है भैया. मकान बड़े, लोग बड़े, नाम बड़े, दाम भी बड़े...यहाँ की हर बात बड़ी है और इस सारे बड़प्पन का बोझ हम छोटे लोगों की गर्दन पर है. या तो गर्दन ऐंठ जाती है या मरोड़ी जाती है.”15यह संवाद प्रेमचंद के गोदान में वर्णित सामंती शोषण के चित्रण की याद दिलाता है.इसका उदाहरण फिल्म के प्रारंभिक दृश्यों में ही हम देख सकते हैं कि बड़े बाबू अपना अधिकार मांगने आये एक गरीब किसान को किस तरह अपने गुंडों से पिटवाते हैं. एक लठैत तो बड़े बाबू से यहाँ तक कहता है- “अब तो हमारे पास कोई काम रहा नहीं, औजारों में जंग लग गया है जब से जमींदारी गई है.”16इन्हीं गुडों को वह अपने ही घर की स्त्री की हत्या की सुपारी देता है.फिल्म में छोटी बहू की हत्या के बाद भूतनाथ अपनी नौकरी के सिलसिले में कुछ दिनों के लिए शहर से बाहर जाता है. जब वह लौटकर वापस आता है तब तक स्थितियां बदल चुकी होती हैं. भूतनाथ बंशी से पूछता है- “हवेली की ये क्या हालत हो गई?” बंशी बताता है- “अस्तबल, घोड़ा गाड़ी सब बिक गवा है. सात महीने से नौकरों को तनख्वाह नहीं मिली. छोटे बाबू को लकवा मार गया है.”17अपने सामंती शौक को पूरा करने में धीरे धीरे उनकी तिजोरियां भी खाली हो चुकी थीं. छोटे बाबू को लकवा मारना, हवेली का ढहना, मंझली बहू का मायके चली जाना आदि घटनाओं से जमींदारी प्रथा के अंतिम चरण और उसकी दयनीय होती स्थिति को समझा जा सकता है. यह सब कहीं न कहीं एक दमनकारी व्यवस्था के खात्मे का प्रतीक है.


छोटी बहू की भूमिका में मीना कुमारी नेअविस्मरणीय अभिनय किया है. उनकी आवाज, उनके सौंदर्य में मादकता, पीड़ा और मासूमियत का मेल सम्मोहित करता है. प्रसिद्ध फिल्म आलोचकविनोद भारद्वाज ने मीना कुमारी के विषय में लिखा है- “मीना कुमारी के व्यक्तित्व को रोमैंटिक ढंग से देखा गया है. उनके जीवन को कभी लम्बी दर्द भरी कविता कहा गया है तो कभी दुखी और सताई हुई स्त्री की छवि उनमें देखी गई है. लेकिन फर्क यह था कि यह दुखी स्त्री लड़ना भी जानती थी.”18मीना कुमारी ने छोटी बहू के माध्यम से अपने मूलभूत अधिकारों के लिए संघर्ष करती स्त्री के किरदार को अपने सशक्त अभिनय से और अधिक सशक्त बनाया है. रुढ़िग्रस्तभारतीय सामंती समाज में स्त्री-प्रश्नों से रूबरू कराती यह फिल्म अपने समय से कहीं बहुत आगे निकल जाती है.


सन्दर्भ सूची

1.साहब, बीवी और गुलाम- घड़ीवार का आत्मालाप, फिल्म निर्माण वर्ष-1962, फिल्म निर्माता-निर्देशक-      गुरुदत्त,अबरार अल्वी.
2.साहब, बीवी और गुलाम- नौकर बंशी का आत्मालाप, फिल्म निर्माण वर्ष- 1962, फिल्म निर्माता-               निर्देशक- गुरुदत्त,अबरार अल्वी.
3.साहब, बीवी और गुलाम- छोटी बहू और भूतनाथ के मध्य संवाद, फिल्म निर्माण वर्ष- 1962, फिल्म             निर्माता- निर्देशक- गुरुदत्त,अबरार अल्वी.
4.साहब, बीवी और गुलाम- छोटी बहू और भूतनाथ के मध्य संवाद, फिल्म निर्माण वर्ष- 1962, फिल्म             निर्माता- निर्देशक- गुरुदत्त,अबरार अल्वी.
5.साहब, बीवी और गुलाम- छोटी बाबू और छोटे बाबू के मध्य संवाद, फिल्म निर्माण वर्ष- 1962, फिल्म        निर्माता-निर्देशक- गुरुदत्त,अबरार अल्वी.
6.साहब, बीवी और गुलाम- छोटी बहू और भूतनाथ के मध्य संवाद, फिल्म निर्माण वर्ष- 1962, फिल्म            निर्माता-निर्देशक- गुरुदत्त,अबरार अल्वी.
7.साहब, बीवी और गुलाम- छोटी बहू और मंझली बहू के मध्य संवाद, फिल्म निर्माण वर्ष- 1962, फिल्म         निर्माता-निर्देशक- गुरुदत्त,अबरार अल्वी.
8.साहब, बीवी और गुलाम- छोटी बहू और मंझली बहू के मध्य संवाद, फिल्म निर्माण वर्ष- 1962, फिल्म         निर्माता-निर्देशक- गुरुदत्त,अबरार अल्वी.
9.साहब, बीवी और गुलाम- छोटी बहू और मंझली बहू के मध्य संवाद, फिल्म निर्माण वर्ष- 1962, फिल्म          निर्माता-निर्देशक- गुरुदत्त,अबरार अल्वी.
10.साहब, बीवी और गुलाम- छोटी बहू और छोटे बाबू के मध्य संवाद, फिल्म निर्माण वर्ष- 1962, फिल्म          निर्माता-निर्देशक- गुरुदत्त,अबरार अल्वी.
11.साहब, बीवी और गुलाम- छोटी बहू और छोटे बाबू के मध्य संवाद, फिल्म निर्माण वर्ष- 1962, फिल्म          निर्माता-निर्देशक- गुरुदत्त,अबरार अल्वी.
12.साहब, बीवी और गुलाम- छोटी बहू और भूतनाथ के मध्य संवाद, फिल्म निर्माण वर्ष- 1962, फिल्म            निर्माता-निर्देशक- गुरुदत्त,अबरार अल्वी.
13.सिनेमा : कल, आज, कल- विनोद भारद्वाज, वाणी प्रकाशन, पृष्ठ संख्या- 421
14.साहब, बीवी और गुलाम- छोटी बहू और छोटे बाबू के मध्य संवाद, फिल्म निर्माण वर्ष- 1962, फिल्म           निर्माता-निर्देशक- गुरुदत्त,अबरार अल्वी.
15.साहब, बीवी और गुलाम- भूतनाथ और उसके बहनोई के मध्य संवाद, फिल्म निर्माण वर्ष- 1962,              फिल्म  निर्माता-निर्देशक- गुरुदत्त,अबरार अल्वी.
16.साहब, बीवी और गुलाम- बड़े बाबू और लठैतों के मध्य संवाद, फिल्म निर्माण वर्ष- 1962, फिल्म                निर्माता- निर्देशक- गुरुदत्त,अबरार अल्वी.
17.साहब, बीवी और गुलाम- भूतनाथ और बंशी के मध्य संवाद, फिल्म निर्माण वर्ष- 1962, फिल्म                 निर्माता- निर्देशक- गुरुदत्त,अबरार अल्वी.
18.सिनेमा : कल, आज, कल- विनोद भारद्वाज, वाणी प्रकाशन, पृष्ठ संख्या- 421

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दलित स्त्रीवाद मेरा कमराजाति के प्रश्न पर कबीर

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इस्मत आपा को पढ़ते हुए

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पेशे से पत्रकार. सामाजिक सांस्कृतिक आंदोलनों में भी सक्रिय .एक कविता संग्रह ‘ जख्म जितने थे’. भी दर्ज कराई है. सम्पर्क : niveditashakeel@gamai

इस्मत आपा को पढ़ते हुएमैं आग, बारिश और तूफानों से घिर गयी हूँ.अचानक जैसे भीतर कोई बांध बिना सूचना दिए टूट गया और मैं बहने लगी,गहरे जल में. उनसे मेरी इस कदर दोस्ती हो गयी कि मैं  हाथ बढ़ाकर उनकी हरारत महसूस कर रही हूँ सारे अफसाने मेरे सिराहने बैठ गए हैं.मैंने मुस्कुराने की कोशिश की, मेरे हलख सूख गए जैसे किसी ने मेरे जबड़े और होठ भींचकर बंद कर दिए हों.कहानियों के सारे किरेदार बाहर निकल आये हैं और मुझ से पूछने लगे हलक में तीर क्यों मारा? मैंने हकलाते हुए कहा नहीं तो हमने तो तीर नहीं मारा. इस्मत आपा मुस्कुराने लगी, उन्होंने मेरा हाथ पकड़ा और हमदोनों उनके बचपन की यादों में डूबते उतरते रहे गुब्बारे.. कारवां..क्या लिखा है आपा ने. पाठकों की रूह में उतर गयीं हैं. मजाल है आपकी गिरफ्त से कोई अफसाना निकल जाये ! एक दिन एक मुहर्रम की शोकसभा में पहली बार  उन्हें मर्सिया और नौहें का मतलब समझ आया और जब अली असगर के हलक में तीर पैवस्त होने का जिक्र आया तो खौफ से उनकी घिग्धी बांध गयी. उन्होंने दहाड़े मारकर रोना शुरू किया. मातम करने वाली बीबियाँ एकदम चुप हो गयीं.बड़ी हैरत से उन्हें देखने लगी.वो थी कि जारो.कतार रोये  जा रही थीं. क्यों मारा हलक में तीर क्यों मारा मचल मचल कर पूछने लगीं.तीर क्यों मारा? हाथ में मार दिया होता. बेचारे के हलक में क्यों मारा. रोते हुए शेखानी बुआ की बगल में सिसककर पूछा?
"ऊ अजिद हरामी रहे !उन्होंने समझाया
'तो उसके पास  बच्चे को क्यों ले गए?'
"बच्चा पियासा रहे"
"तो उसे दूध दिया होता?
"दूध माँ का  खुश्क होई गवा रहे"
"तो पानी ही दे दिया होता"
"पानी कहाँ रहे? नहर पे  तो ओकी फौज का पहरा रहे'
"क्यों"अब हम ई का जाने रहे. कुछ गडबड"
 "फिर"
"बच्चा का पानी पियाय खातिर नाहर पा ले के गए तो उतार दिहिस तीर"
"हलक में"
"हाँ"
और मेरे हलक में बड़े बड़े काटेदार डोले फंसने लगे.....


ओह इस्मत आपा ! आपकी स्याहीमें ज़हर है और अमृत भी ! शब्द ऐसे जैसे आसमान पर सुलगते सितारे कहानियाँ जब हमारे दिलो में उतरती हैं तो नस्तर बन चुभती  हैं. आपा से  ज्यादा साफबयानी, गहरी तनकीदी और तहज़ीबी कौन हो सकता है. उनकी  बातें बड़ी वाजेह होती हैं. पूरे सब्र और तहम्मुल से बात करतीं हैं.किसी को बख्श नहीं देती अपनी माँ को भी नहीं... "हम इतने सारे बच्चे थे कि हमारी माँ को हमारी सूरत से कै आती थी, एक के बाद एक हम उनकी कोख को रौंदते - कुचलते चले आये थे उल्टियां सह.सह कर वह हमें एक सज़ा से ज्यादा अहमियत नहीं देती थीं. कम उम्र में ही फैलकर चबूतरा हो गयी थीं"मैं नहीं जानती उनको पढ़ते हुए कब मैंने उनके साथ यारी कर ली. उनके आजाद ख्याल और मेरी आवारागर्दी में कुछ तो ताल्लुक है सच को बिना किसी मिलावट के कहने की कला तो कोई आपा  से सीखे. रगों के भीतर कहानियां दौड़ने लगतीं हैं. मानवीय सच को पूरी प्रमाणिकता के साथ प्रस्तुत करती हैं. उनकी कहानियों से हमारे दिमाग की नसें चटकने लगती हैं समाज के कितने फोड़े,मवाद,  पीप बहने लगते हैं.  उसके भीतर से  मुकम्मल कहानियां निकलती है. उन्होंने वैसी. वैसी जगह अपनी कलम चलायी जहाँ आज भी किसी लेखक को जाने की हिम्मत नहीं होती. उनकी कहानियों की तरह उनकी जिन्दगी भी कम दिलचस्प नहीं है. अपनी कहानियों पर लगे अश्लीलता के आरोप में आपा और मंटो मुकदमा के लिए लाहौर गये वहां भी उन्होंने किसी कि नहीं बक्शा शाहिद साहब के साथ मैं भी एम असलम साहब के यहाँ ठहरी थी. सलाम और दुआ भी ठीक से नहीं हुई थी कि उन्होंने झाड़ना शुरू कर दिया मेरे अश्लील लेखन पर बरसने लगे.मुझ पर भी भूत सवार शाहिद साहब ने बहुत रोका.मगर मैं उलझ पड़ी,और आपने जो गुनाह की रातें में इतनी गन्दी गन्दी पंक्तियाँ लिखी हैं. सेक्स एक्ट का वर्णन किया है. सिर्फ चटकारे के लिए  "मेरी बात और है मैं मर्द हूँ "तो इसमें मेरा क्या कसूर क्या मतलब वह गुस्से से लाल हो गए. मतलब ये कि आपको खुदा ने मर्द बनाया है इसमें मेरा कोई दखल नहीं मुझे औरत बनाया है उसमें आपका कोई दखल नहीं. मैं आजादी से लिखने का हक़ आपसे मांगने कि जरुरत नहीं समझती. आप एक शरीफ मुसलमान खानदान की पढ़ी लिखी लड़की हैं और आप भी पढ़े. और शरीफ खानदान से हैं. इस्मत आपा को पढ़ती रहीं हूँ और उनपर मरती रही हूँ,मेरे जैसे लाखों.लाख पाठक उनके मुरीद रहे होंगे. मुझे लगता है वे लोग जो जिन्दगी से मुहब्बत करते हैं. जो अपनी आजादी से मुहब्बत  करते हैं जो पाठकों की नब्ज़ पर पकड़ रखते हैं. उनके बुखार में  तपते रहते हैं और ताप के ताए ये हुए दिन में जो  लिखते हुए कभी थकते नहीं वही तो हैं हमारी आपा. मेरे  हाथों में उनकी किताब है और बाहर आसमान सूर्ख है. जर्द तितलियाँ उड़ रहीं हैं.दूर दूर तक अमलताश के दहकते हुए फूल हवा में लहरा रहे हैं रंग बिरंगी कागजी चरखियां हवा में तेजी से घूम रही हैं मैंने कहा आपा नींद आ रही है अपनी कहानियों से कह दो मेरी नीद में आकर मुझे ६ डिग्री के बुखार का एहसास न कराएँ. आपा तुम और मंटो अफ़सानानिगारी के हर्फे आखिर हो !

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सुर बंजारन

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भगवानदास
मोरवाल
 वरिष्ठ साहित्यकार. चर्चित उपन्यास: कला पहाड़, रेत आदि के रचनाकार. संपर्क : bdmorwal@gmail.com मो.  9971817173
काला पहाड़ और रेत जैसे चर्चित उपन्यासों के रचनाकार भगवानदास मोरवाल ने  कहन-शैली, व्यापक कथा फलक और आंचलिक बोध के साथ मेवाती यथार्थ के चित्रण से हिन्दी साहित्य में अपनी विशिष्ट जगह बनाई है. उनका शीघ्र प्रकाश्य उपन्यास है, सुर बंजारन. हाथरस शैली की नौटंकी और उसकी एक मशहूर अदाकारा को केंद्र में रख कर लिखे गये उपन्यास 'सुर बंजारन'  का  एक अंश दो किस्तों में स्त्रीकाल के पाठकों के लिए .  

आखिरी क़िस्त/ बहरशिकिस्त

हवलदार नेमपाल ने सही कहा था.देखने वालों का सैलाब दिन-पर-दिन उमड़ता ही जा रहा है. तीसरे शो यानी स्याहपोश  तक आते-आते श्री दिगम्बर जैन एजूकेशन ट्रस्ट को यह सोचने पर मजबूर कर दिया कि क्यों न दो शो और बढ़ा दिये जाएँ . इसलिए इसका ज़िम्मा ट्रस्ट ने दिगम्बर दाल मिल के मालिक सेठ ताराचन्द और दूसरे ट्रस्टी मास्टर शौकत अली पर छोड़ दिया . सब जानते हैं कि रागिनी इन दोनों के कहे को कदापि नहीं टालेगी . तीसरे शो से एक दिन पहले सेठ ताराचन्द और मास्टर शौकत अली ने रागिनी के सामने दो अतिरिक्त शो का प्रस्ताव रखा, तो सुनते ही रागिनी ने इनकार कर दिया .

सेठ ताराचन्द ने मनुहार कर मनानेकि कोशिश करते हुए कहा,”रागिनी जी, आपकी इस छोटी-सी मदद से हमारे भावी स्कूल को बहुत सहारा मिल जायेगा !”
“भाई साब, बात तो आपकी ठीक है मगर मैं भी मजबूर हूँ . अगर छठे दिन नौचंदी मेले में मेरा शो नहीं होता, तो मैं आपको कहने का बिलकुल भी मौक़ा नहीं देती . पहले से तय हो चुके उस प्रोग्राम को मैं कैसे छोड़ सकती हूँ ?”
“देख लो रागिनी, उपकार और जन कल्याण का काम है .”
“मैं आपकी भावनाओं को समझ सकती हूँ . हाँ, इसके बाद का शो मुझे मन्जूर है . बस, दिक्कत है तो पहले वाले शो में .”
“हमें कुछ नहीं पता...आपको ही कोई रास्ता निकलना होगा . पब्लिक को सिर्फ़ रागिनी से मतलब है . ट्रस्ट ने बड़ी उम्मीद के साथ दो और शो कराने का फ़ैसला लिया है .” मास्टर शौकत अली ने सेठ ताराचन्द के इसरार को वज़नी बनाते हुए कहा .
सुर बंजारन“फिर एक काम हो सकता है मास्टर जी,और वह यह कि नौचंदी मेले वाले शो के दिन कोई ऐसा खेल करवाते हैं जिसमें लेडी आर्टिस्ट का कोई ख़ास रोल ना हो . अगर कोई होगा तो उसे लता कर लेगी . हाँ, आख़िरी शो में मैं यहाँ के लोगों की सारी कसर पूरी कर दूँगी .”
“कुछ भी करो रागिनी . यह नैया तो अब आपको ही पार करानी है !” सेठ ताराचन्द ने उम्मीद की नज़र आती एक छोटी-सी किरन को पूरे उजाले में बदलने की आशा में कहा .
“ठीक है भाई साब, फिर ऐसा करते हैं कि पाँचवा शो सुल्ताना डाकू और आख़िरी शो  क़त्लजान आलम  का रख लेते हैं !”
“हमें कुछ नहीं मालूम . यह तय करना आपका काम है .” सेठ ताराचन्द ने पूरी तरह रागिनी पर छोड़ दिया .
“तय क्या करना, यही ठीक रहेगा .” रागिनी ने आख़िरी फ़ैसला ले अपना निर्णय सुना दिया .
“ठीक है, जैसा आपको अच्छा, लगे करिए . हमारी चिंता अब दूर हो गयी . अच्छा, अब हम चलते हैं...आप अपने आज के शो की तैयारी करिए !”

LEYLA KAYA KUTLU

अपने साज़िन्दों को अनुभवी नक्काड़चीअत्तन खां ने ताईद कर दिया कि स्याहपोश  में किसी तरह का ढीलापन नहीं रहना चाहिए . नगारी सेंकने वाले को तो सख्त लहज़े में कह दिया कि आज धधकते कोयलों की आँच धीमी नहीं पड़नी चाहिए . नगारियों को ऐसा सेंकना है कि लगे चोब उसकी झुलसती देह पर नहीं, वज़ीरज़ादी के दिल पर पड़ रही है . देखने वालों को लगना  चाहिए कि झील की खनक और नक्काड़े की धमक सीधे वज़ीरज़ादी और गबरू के गले से निकल रही है .

वंदना ख़त्म होते ही पहले दृश्य में महल के झरोखे में बैठी वज़ीरज़ादी अपने सामने रहल पर रखे क़ुरान की तिलावत शुरू करती, उससे पहले मंच के पार्श्व से सूत्रधार की खनकती आवाज़ दोहा, चौबोला और दौड़ में परिचय के रूप में फ़िज़ा में गूँजती है-

सिफ़त ख़ुदा के बाद में, हो सबको मालूम .
सिम्र मग़रबी एशिया, मुल्क ख़ुशनुमा रूम ..

मुल्क ख़ुशनुमा  रूम, तख्त वारिस महमूद तहाँ का .
बयाँ सिफ़त कर सकूँ न इतना रूतबा मेरी ज़बाँ का ..
था फ़ैयाज़ हुस्न युसुफ़ इंसाफ़ी शाह जहाँ का .
रय्यत रहै अमन में कुल अज़हद शौक़ीन कुराँ का ..

है अजब खुशनुमा हुस्न जबीं लखि माह निगाह चुराता है .
गबरू है नाम जात सैयद साक़िन हिरात कहलाता है ..

कुराँ के तीसों पारे . याद जिसको थे सारे ..
कहूँ एक सखुन लताफ़त .
हुआ खड़ा आ बाम तले सुनने कुरान की आयत ..

अभी सूत्रधार ने गबरू का तआरुफ़ ख़त्म किया ही था, कि महल के झरोखे से कुरान की तिलावत करती वज़ीरज़ादी का स्वर उभरा . इधर महल के नीचे खड़ा गबरू जैसे ही वज़ीरज़ादी द्वारा ग़लत तिलावत को सुनता है, तो वह उसे टोकता है . इस पर वज़ीरज़ादी पलट कर कहती है –

क्या मतलब है आपका, लीजै अपनी राह .
चाहे जैसे हम पढ़ें, कुराँ कलामुल्लाह ..

वज़ीरज़ादी का संवाद ख़त्म होते ही हारमोनियम ने जो सुर उठाया, और उसके साथ वज़ीरज़ादी की ओर मुख़ातिब हो गबरू ने ज्यों ही सुर बाँधा, सामने दर्शकों के मर्दाने हिस्से में जगह-जगह बैठे गबरू, असली गबरू के सुर में सुर मिलाने लगे-

       ग़लत ना पढ़ना चाहिए, है ये कुरान शरीफ़
      इसी वास्ते आपको, देता हूँ तकलीफ़
       देता हूँ तकलीफ़ इनायत जो हुजूर फ़रमावे
       दिलो जान हो शाद महल के ऊपर हमें बुलावे ..
MOHSEN DERAKHSHAN

नक्काड़ची अत्तन खां को चौबोले में वज़ीरज़ादी को दिए गये गबरू के जैसे इसी जवाब का इंतज़ार था . यानी इधर चौबोला ख़त्म हुआ और उधर अपने साथ ढोलक पर संगत करते ढोलकिया की तरफ़ देखते हुए, झील-नक्काड़े पर उसकी जो चोब पड़ी; लगा रात के पहले पहर में मानो तड़ातड़ ओस की मोटी-मोटी बूँदें गिर रही हैं . थानेदार एस.एस.मलिक यह देख कर हैरान-परेशान कि दो दिन पहले जो चेहरे तारामती के पुत्र-वियोग के चलते आँसुओं से तर थे, उन्हीं में से बहुत से कैसे झूमते हुए आज वज़ीरज़ादी जमालो द्वारा कुरान की ग़लत तिलावत करने पर, गबरू के सुर में सुर मिला रहे हैं ? और जैसे ही साज़ों का स्वर एकदम धीमा हुआ, गबरू दौड़ में एक बार फिर सुर बाँधता है-

आपकी होय इनायत . पढ़ावें कुरान आयत ..
     सखुन मानौ अच्छा है .
रहै महरबाँ ख़ुदा कुराँ पढ़ना दुरुस्त अच्छा है ..  

गबरू के इस दख़ल पर वज़ीरज़ादी ने तिलावत छोड़ पहले इधर-उधर देखा, और फिर गबरू से इल्तिज़ा करने लगी –

आओगे मेरे महल सर्वेकद दिलदार .
सुन पावें मादर-पिदर, करें आपको ख्वार ..
करें आपको ख्वार मती आओ मेरे महलन में .
पाक मुहब्बत करने से नहीं होय तसल्ली मन में ..
आफ़ताब सा लखि जलाल उठतीं हिलौर जोबन में .
कली-कली रसभरी खिल रही मेरे हुस्न गुलशन में ..

इसके बाद तो वज़ीरज़ादी जमाल व गबरूके संवादों और बादशाह, कोतवाल, नूरमहल, कमरुद्दीन समेत दूसरे किरदार निभाने वाले अदाकारों ने मिल कर, स्याहपोश उर्फ़ पाक मुहब्बत को जो रंग और ऊँचाई दी, उसकी छाप थानेदार एस.एस.मलिक के दिलो-दिमाग़ से अरसे तक नहीं मिटी . उसकी इस बला कहिए या आफ़त के प्रति लोगों की दीवानगी का रहस्य अब समझ में आया, जब वह ख़ुद इसके सुरों के धागों में बँधता चला गया . सही कहा था हवलदार नेमपाल ने कि जनाब इसके सुर का जादू लोगों के सिर चढ़ कर बोलता है .

इससे पहले कि गबरू के आख़िरी संवाद के साथ खेल ख़त्म होने का ऐलान होता, और लोग अपनी-अपनी जगह से खड़े होते, तभी मंच पर मास्टर शौकत अली नबूदार हुआ और माइक के सामने खड़ा हो ऐलान करते हुए बोला,”साहिबान एक मिनट...एक ज़रूरी ऐलान सुनते जाइये ! जैसाकि आप सब जानते हैं कल हमारे तमाशे का आख़िरी दिन है . इससे पहले कि मैं श्री दिगम्बर जैन एजूकेशन ट्रस्ट की तरफ़ से आपके जुनून, मोहब्बत और अमन बनाये रखने का आप सब का तहेदिल से शुक्रिया अदा करूँ, हमारे ट्रस्ट ने आख़िरी शो के बाद दो शो और कराने का फ़ैसला लिया है . हमें उम्मीद है कि आप इन दोनों  खेलों  का भी उसी तरह लुत्फ़ और मज़ा उठाएँगे जैसे बाकी के  खेलों  का उठाया है .”
मास्टर शौकत अली के इस ऐलान को सुनते ही पुरानी अनाज मंडी में नालीदार टीन की खड़ी चादरों से बनी विशाल रंगशाला किलक उठी .
“तो साहिबान, इस तरह परसों आप देखेंगे सुल्ताना डाकू उर्फ़ ग़रीबों का प्यारा और उसके बाद आख़िरी तमाशे के रूप में देखेंगे क़त्लजान आलम  उर्फ़ ख्वाबे हस्ती  .”
मास्टर शौकत अली की इस उद्घोषणा के साथ ही स्याहपोश के ख़त्म के होने घोषणा कर दी गयी .

LYDIA ALGER

थानेदार एस.एस.मलिक अब पूरी तरह बेफ़िक्र हो गया . क़स्बे की जिन बदरंगी दीवारों पर मुस्कराते विभिन्न रंगों के इश्तहारों में, उच्च रक्तचाप के चलते नसों से रक्त बाहर फूटने को हो रहा था, उसी नाम का मानो वह भी मुरीद हो गया . मारे बेचैनी और अवसाद के जो तनाव उस पर पहले दो दिन हावी रहा, वह चौथे शो तक आते-आते ख़त्म हो गया . इतना ही नहीं जिस अनहोनी के डर से उसका दिल बैठा जा रहा था, वह आशंका भी निर्मूल साबित हुई . थानेदार एस.एस.मलिक को सबसे ज़्यादा हैरत यह देख कर हो रही है कि देखने वालों में सबसे अधिक वे लोग हैं, जिनकी सांस्कृतिक निष्ठा और ईमानदारी पर सबसे ज़्यादा संदेह किया जाता है . काश, आने वाली रातें भी इसी तरह सुकून से बीत जाएँ, जैसी अभी तक की रातें बीती हैं . इसी दुआ में थानेदार की ऑंखें मुँदती चली गयीं . अभी उसे नींद के एक आवारा-से झोंके ने दबोचा ही था कि उसे लगा जैसे उसके सामने हाथ में ग़रीबों का प्यारा माफ़ करना सुल्ताना डाकू हाथ में बन्दूक ताने खड़ा है .

हड़बड़ा कर नींद से जागा वह . अपनेचारों तरफ़ देखा, तो पाया कमरे में उसके अलावा और कोई नहीं है . लगता है अवचेतन के किसी कोने में रात के ऐलान की वजह से यह नाम अटका   रह गया . फिर अगले ही क्षण उसे यह सोचते हुए अपने आप पर हैरानी होने लगी कि उसके इस कोने में सुल्ताना डाकू की जगह क़त्लजान भी तो हो सकती थी ? सुल्ताना डाकू ही क्यों उसके अवचेतन में अटका रह गया ? कहीं ऐसा तो नहीं है कि उसका कर्त्तव्यबोध इस नाम को सुन परेशान हो उठा हो ? वैसे थानेदार एस.एस.मलिक का पेशान होना एक हद तक सही भी है, क्योंकि क़ानून की नज़र में गुनाह , गुनाह होता है और इसे करने वाला मुजरिम .

थानेदार एस.एस.मलिक आज अन्य दिनोंकी अपेक्षा समय से पहले पुरानी अनाज मंडी पहुँच गया . वह आज किसी भी दृश्य को छोड़ना नहीं चाहेगा . कहीं ऐसा न हो कि उससे वही दृश्य  छूट जाए, जिसने एक डाकू को ग़रीबों और मजलूमों का प्यारा बनाया है .

JORGE MUNGUIA
वंदना समाप्त होते ही मंच पर दस्यु कीपारम्परिक वेशभूषा में नज़र आने वाले अदाकार ने प्रवेश किया . मंद-मंद बजते हारमोनियम व झील-नक्काड़े के साथ, इधर से उधर गश्त लगाते पात्र का नेपथ्य से, पहले दोहा और फिर चौबोले में इस तरह परिचय कराया जाने लगा –

जिला एक बिजनौर है, यूपी के दरम्यान .
शहर नजीबाबाद को लो उसमें ही जान ..

पैदा हुआ उसी के अन्दर एक डाकू सुल्ताना .
बड़ा चुस्त चालाक बहादुर लाजवाब मरदाना ..
था उसका ये काम अमीरों का बस लूट ख़ज़ाना .
बेकस और गरीबों को आराम सदा पहुँचाना ..
 
इधर सूत्रधार ने सुल्ताना डाकू कापरिचय ख़त्म किया, उधर थानेदार एस.एस.मलिक के भीतर छिपा हुआ थानेदार भीतर-ही-भीतर ऐंठने लगा . जबड़े खिंचने लगे . जब उससे नहीं रह गया, तो अपने मन की बात उसने बराबर में बैठे अपने हवलदार से कह ही दी .

“यार नेमपाल, इसका मतलब यह हुआकि अमीरों को लूट कर ग़रीबों की मदद करो . यह क्या बात हुई . जुर्म तो आख़िर जुर्म है...चाहे अमीर को लूटो या गरीब को . ताक़तवर कमज़ोर को लूटे, या फिर कमज़ोर ताक़तवर को . क़ानून की नज़र में मुजरिम, मुजरिम होता है .”
“जनाब, नाटक-नौटंकियों में ऐसा ही होता है . असल ज़िन्दगी में थोड़ेई होता है .” हवलदार नेमपाल ने एक बेमानी-सा तर्क देकर, अपने जनाब के भीतर बैठे क़ानून के रखवाले को शान्त करना चाहा .
“असल ज़िन्दगी में क्यों नहीं होता . यह नौटंकी भी तो असल ज़िन्दगी पर ही लिखी गयी होगी ? कोई हवा में क़िस्सा थोड़े ही गढ़ा होगा...और फिर इससे समाज और लोगों के बीच क्या सन्देश देना चाह रहे हैं ? भले ही ऐसा कुछ लोगों को अच्छा लगता होगा, मगर है तो यह क़ानून का मखौल ही !” थानेदार एस.एस.मलिक के जबड़े की नसें खिंचने लगी .हवलदार नेमपाल ने इस पर कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की .

इधर सूत्रधार का परिचय ख़त्म हुआ,उधर मंच पर चहलक़दमी करते खूँखार से नज़र आने वाले किरदार को देख कर, सारे दर्शक अब तक समझ चुके हैं कि यही सुल्ताना डाकू है . जो नहीं समझ पाए वे इसके इस फ़रमान को सुन समझ गये –

कान लगा कर सुनो सब मेरा फ़रमान .
भूल न हो इसमें ज़रा, रहे हमेशा ध्यान ..

मदद ग़रीबों की हरदम ऐ मेरे दोस्तों करना .
मगर दौलतमंदों की दहशत से कभी न डरना ..
लाना कुल ज़र लूट बेख़तर गले पै ख़ंजर रखना .
जहाँ तलक हो पेट यतीमों के उस ज़र से भरना ..  
         
  “नेमपाल, यह क्या बात हुई ! यह तो सरासर क़ानून की धज्जियाँ उड़ाना हुआ . मैंने तो सुना है कि सुल्ताना अपने ज़माने का इतना ख़तरनाक डाकू था कि इससे अंग्रेज़ी हुकूमत भी हिल गयी थी . इसके लिए अंग्रेज़ों ने लन्दन से एक ख़ास अफ़सर जिम कार्बेट हिन्दुस्तान बुलाया था . इसे पकड़ने के लिए अंग्रेज़ों ने सिर्फ़ तीन सौ जवान ही नहीं लगाये थे, बल्कि उसी जिम कार्बेट को भी इस काम के लिए लगा दिया था, जिसके नाम पर एक जंगल भी है . ऐसा कर, तू देख अपने इस ग़रीबों के प्यारे को...मैं तो चला !” अपनी जगह से थानेदार एस.एस.मलिक उठते हुए बोला .
“जनाब बैठो तो सही ! अब आये हो तो देख कर ही जाओ !”
“क्या करूँ बैठ कर ? मैं यहाँ रागिनी को सुनने आया हूँ या इस वाहियात ड्रामे को देखने आया हूँ . ऐसा कर तू बैठ, मैं चला !” इसके बाद थानेदार एस.एस.मलिक सचमुच नौटंकी बीच में छोड़ बाहर चला आया . जैसे–जैसे वह अनाज मंडी से दूर होता गया उसके कानों में सुल्ताना डाकू कि गूँजती ललकार, और साज़ों के सुर-ताल मंद पड़ते चले गये .
MARI JIMENEZ
हवलदार नेमपाल ने दूर से ही देख लिया कि रात का उखड़ा उसके जनाब का मूड अब भी ठिकाने पर नहीं है . इसलिए उसने अपने आपको बचाने की बहुत कोशिश की कि वह उसके सामने न पड़े . मगर वह देर तक अपने आपको ज़्यादा देर तक नहीं बचा पाया .
“जय हिन्द जनाब !” अपने जनाब के सामने पड़ते ही नेमपाल ने सेल्यूट मारते हुए कहा .
“और कैसा रहा तेरा ग़रीबों का प्यारा ?” थानेदार एस.एस.मलिक ने अपने मातहत हवलदार नेमपाल से व्यंग्य करते हुए पूछा .
“जनाब, रात को तो बिलकुल भी मज़ा नहीं आया . अच्छा किया जो आप बीच में आ गये .”
“क्या हुआ ?” थानेदार मलिक ने हैरान होते हुए पूछा .
“रात को रागिनी नहीं थी, इसलिए लोग उखड़ गये .”
“क्याSSS, वह रात को नहीं थी ?”
“जी जनाब, यह तो बाद में पता चला कि सुल्ताना डाकू में उसका कोई रोल ही नहीं था...और जो छोटे-मोटे जैसे फूल कुँवरि रंडी और सुंदरी के रोल थे उन्हें लता और प्रभा ने निभा दिए . वैसे जनाब, कम लता भी नहीं है . सुल्ताना डाकू की फ़रमाइश पर फूल कुँवरि बनी लता ने जो दादरा सुनाया, उसे अगर आप भी सुनते तो सुनकर आप भी ग़ुस्सा भूल जाते . जबकि  सुंदरी बनी प्रभा का भी जवाब नहीं . एक से एक नग भर्ती कर रखें हैं रागिनी ने अपनी पार्टी में . लता ने जो दादरा सुनाया, सुन कर पूरी अनाज मंडी झूम उठी .” कहते-कहते हवलदार नेमपाल जैसे एक बार फिर सुल्ताना डाकू के मंच पर लौट गया,और कार्तिक की ओस से भीगी रात में फूल कुँवरि रंडी का किरदार निभाने वाली लता द्वारा गाये दादरा के ये बोल, शहद बन उसके कानों में घुलने लगे –

कान्हा तोरी तान, कलेजे मोरे कसकी
सुनती हूँ जभी होती है हालत बुरी मेरी
बैरिन है किसी जनम की ये बाँसुरी तेरी
ले लेगी मोरी जान, कलेजे मोरे कसकी .
यह बाँसुरी नहीं तेरी, आफ़त है बला है
आवाज़ जो इसकी सुनै, उसका न भला है
भुला दे सारा ज्ञान, कलेजे मोरे कसकी .
बजती है तो मैं भूलती हूँ घर के रास्ते
जब ना बजै दिल चलै, सुनने के वास्ते
तरसते दोनों कान, कलेजे मोरे कसकी .
उस्ताद इन्दरमन का तो, सुरपुर हुआ मुक़ाम
कहते हैं नथाराम जपौ, रूपराम श्याम
ये कहना जाओ मान, कलेजे मोरे कसकी .
कान्हा तोरी तान, कलेजे मोरे कसकी ..
ELKE DANIELS

थानेदार मलिक अपने मातहत के चेहरे परआते-जाते भावों को पढ़ने की कोशिश करने लगा . पहली उसे अपने उस फ़ैसले पर रंज-सा हुआ, जिसके कारण वह बीती रात बीच शो से उठ कर चला आया था . मगर अपनी इस चूक या कहिए पछतावे को अपने मातहत के सामने कैसे स्वीकारे . इसलिए अपने इस फ़ैसले पर उसने यह कहते हुए गर्द डाल दी,”नेमपाल, वैसे यह बात तो तू भी मानता है कि सुल्ताना भले ही ग़रीबों का भला चाहने वाला रहा होगा, पर था तो एक डाकू ही न . तू ही बता कि क़ानून कि नज़र में एक मुजरिम कैसे किसी समाज का हीरो हो सकता है . अगर चोर-डकैत ही न्याय-अन्याय का फ़ैसला करने लग गये, तो इस पुलिस महकमे की क्या ज़रुरत है !”
”जनाब, ग़रीबी-गुरबत अच्छे-बुरे में फ़रक़ नहीं देखती है . उसे तो अपने भले से मतलब होता है . वैसे जनाब, सुल्ताना डाकू जैसी बहुत सारी मिसालें हमें देखने-सुनने को मिल जाएँगी . मैंने तो सुना है ही कि अपने यूपी, हरियाणा, राजस्थान में ही नहीं बिहार-उड़ीसा के कई इलाक़ों में इसे बहुत मानते हैं . यहाँ तक कि इसकी यह नौटंकी भी खेली जाती है .”
“नेमपाल, लगता है इस सुल्ताना ने बड़ी ग़रीबी देखी है...ग़रीबों पे होने वाले जुलम देखे हैं . क्या करूँ, इसमें हमारा भी क़सूर नहीं है . पुलिस वाले जो ठहरे . हमें सिर्फ़ बुराई-ही-बुराई दिखाई देती है .” थानेदार एस.एस.मलिक एकाएक दार्शनिक होता चला गया . यह बात दूसरी है कि इस देश में बहुत से महकमों की तरह हमारे पुलिस महकमे के लिए भी दार्शनिक होना उनकी सेहत के लिए फ़ायदेमंद नहीं है .

“आप सही कह रहे हो जनाब .” हवलदारनेमपाल भी थोड़ी देर के लिए अपने जनाब के दर्शन में जैसे आकंठ डूब गया .
“वैसे आज तो आख़िरी तमाशा है न ?” थानेदार ने अपनी दार्शनिकता से बाहर आते हुए पूछा .
“जी जनाब, क़त्लजान आलम है .”
“तुझे तो पता होगा इसका क़िस्सा क्या है ?”
“जनाब, ज़्यादा तो पता नहीं है . बस, इतना पता है कि पण्डित नथाराम शर्मा गौड़ ने इस नौटंकी या कहिए सांगीत को तीन भागों में लिखा है – क़त्लजान उर्फ़ ख्वाबे हस्ती, क़त्लजान उर्फ़ नक़ली फ़क़ीर और क़त्लजान उर्फ़ मुहब्बत का फूल  . इसका कुल-जमा क़िस्सा यह है जनाब कि ईरान का एक शाहज़ादा राहतजान सपने में एक सुंदर शाहज़ादी को देखता है . शाहज़ादा राहतजान इस शाहज़ादी को पाने के लिए परिस्तान तक चला जाता है . परिस्तान में स्याहदेव जादूगर इसे पत्थर का बना देता है . अब पूरा क़िस्सा तो जनाब तभी पता चलेगा जब आज रात को इस नौटंकी को ख़ुद अपनी आँखों से देखोगे !” हवलदार नेमपाल ने तीन हिस्सों में लिखे इस क़िस्से को बड़ी चतुराई से तीन पंक्तियों में निपटा कर, अपने जनाब से पीछा छुड़ा लिया .

थानेदार एस.एस.मलिक ने मन-ही-मनइसी समय तय कर लिया कि आज वह इस नौटंकी को बिलकुल नहीं छोड़ेगा . वरना ऐसा न हो कि वह सुल्ताना डाकू उर्फ़ ग़रीबों का प्यारा  की फूल कुँवरि रंडी द्वारा सुनाये गये दादरे की तरह, क़त्लजान आलम  के क़िस्से से भी वंचित रह जाए .

LEYLA KAYA KUTLU
पहले ही दृश्य ने थानेदार एस.एस.मलिकको एहसास करा दिया कि इस नौटंकी के बारे में हवलदार नेमपाल ने ग़लत नहीं कहा है . जैसे-जैसे क़त्लजान, ख्वाबे हस्ती और नक़ली फ़क़ीर से होते हुए मुहब्बत के फूल में दाख़िल हुआ, और रात के बढ़ते अँधेरे के साथ एक-एक कर राहतजान, जाँ निसार, जानजहाँ, मलिका, जान आलम, आफ़तजान, मुहब्बतजान, इल्लतजान, आरामजान, सलामतजान, दुश्मनजान, काले देव, लाल देव, शैतान देव, खोजा, धूमधूसर चन्द, महरंगरेज़ शाह व हंसा जैसे अजीबो-ग़रीब किरदारों की भूल-भुलैया में वह भटक गया .
राहतजान और आरामजान के बहरतबील में पगे संवादों के बीच तो मानो जंग-सी छिड़ गयी-

ये कटारी-सा कलमा तुम्हारा लगा, रहा दिल को तअम्मुल सबर ही नहीं .
होके बेदम अदम को रखै दम क़दम, तेरे देखे बिना हो गुज़र ही नहीं ..
सिवा तेरे सनम मेरे जीने का कुछ, कहीं आता सहारा नज़र ही नहीं .
तेरे सर की क़सम मेरा सर काट ले, तौ भी दिलबर मरूँगा उजर ही नहीं ..

राहतजान के इस सख्त अहद पर आरामजान उससे शिकायत करती है-

इस अमर की अगर मुझे होती ख़बर, यहाँ हरगिज़ न आती ख़ुदा की क़सम .
ऐसी मुझको परी ने करी बावली, मेरी दुनिया से सारी छुटाई शरम ..
ऐसी जवानी दिवानी जलै या ख़ुदा, तौबा-तौबा जो उलफ़त में रक्खा क़दम .
बेवफ़ा की मुहब्बत के फन्दे फँसी, हा सितम है सितम है सितम है सितम ..

आरामजान की इस शिकायत पर राहतजान लड़खड़ाते हुए जवाब देता है-

तेरी दूरी से मुझको सबूरी न हो, मैं जिऊँगा नहीं तेरे सर की क़सम .
छोड़ी शाही गदाई ली तेरे लिए, छाने कोहो  बियाबाँ उठाये अलम ..
तेरी उलफ़त में आफ़त हज़ारों सही, जब मयस्सर हुए ये मुबारिक क़दम .
होके दिलबर दिलोजाँ दुखाती हौ दिल, हा सितम है सितम है सितम है सितम ..

राहतजान और आरामजान के संवादों को,अत्तन खां द्वारा कोसी कलाँ (मथुरा) से लायी गयी ताज़ा-ताज़ा झील और उसके सामने रखे नक्काड़े पर पड़ती चोब की टंक, ढोलक की थाप और हारमोनियम से निकले ज़ख्मी सुरों ने और तीख़ा बना दिया . इससे पहले कि क़त्लजान आलम के तीसरे हिस्से यानी मुहब्बत के फूल के आख़िर में आरामजान राहतजान को उलाहना देती, तभी एक छत पर पर कुछ हलचल-सी हुई, जो देखते ही देखते चीखों में बदल गयी .

आख़िर वही हो गया जिसका थानेदारएस.एस.मलिक को पहले दिन से डर था . वह तुरन्त इधर-उधर तैनात सिपाहियों को लेकर अहाते से बाहर आया और उसी छत की तरफ़ दौड़ कर गया . वहाँ जाकर देखा तो पता चला कि इस मकान के छज्जे पर बैठी भीड़ के वज़न से उसका एक हिस्सा टूट गया . ग़नीमत यह है कि पूरा छज्जा नहीं टूटा और एक बड़ा हादसा होने से बच गया . दो-तीन दर्शकों को ही मामूली चोटें आयीं जिन्हें उपचार के बाद छुट्टी दे दी गयी .

थानेदार एस.एस.मलिक जब तक इसथाने में रहा, उसके कानों में रह-रह कर कभी पुत्र-वियोग में तड़पती तारामती का रुदन गूँजता, तो कभी शाहजहाँ के सिपहसालार अमरसिंह राठौर के धोखे से किये गये क़त्ल के बाद उसकी बेवा हाड़ी रानी का चीत्कार गूँजने लगता . कभी रात के सन्नाटे में आकर स्याहपोश की जमालो कानों में आकर कूकने लगती, तो कभी आरामजान का राहतजान से मनुहार आकर टकराता . अलग-अलग किरदारों में जब-जब रागिनी मंच पर आकर पंचम सुर में सुर उठाती, तब-तब मंत्रमुग्ध थानेदार एस.एस.मलिक भूल जाता कि यह सचमुच रागिनी के गले से निकली आवाज़ है, या इन सांगीत-नौटंकियों के पात्रों की आवाज़ है ? नौटंकी की टीपदार स्वर लहरी जब रात के सन्नाटे को बींधती हुई, किसी विशाल सदानीरा में ऊँचाई से गिरते असंख्य झरनों की तरह उसके कानों से टकराती, तब वह मानो सुधबुध खो बैठता . हर बंदिश और मुरकी पर रागिनी की देह जैसे एकाकार हो जाती . ऐसा लगता स्वर और सुर उसके कंठ से नहीं, बल्कि समूचे देह-प्राण से झर रहे हैं . सदाबहार सुरों की बारीक पच्चीकारी, बोलों की नफ़ासत, बंदिशों की रमणीयता और रेशमी लयात्मकता – सबकुछ लासानी .

इधर हवलदार नेमपाल, उसका तो हाल ही मत पूछो . उसके लिए तो पण्डित नथाराम शर्मा गौड़ की लिखी नौटंकियों के बोल मानो भजन-आरती बन गये . एक-एक दृश्य उसकी स्मृति में अमिट भित्ति चित्रों की तरह ऐसे छपे हुए हैं कि उनका वजूद मिटने के बजाय और गहरा होता जा रहा है . हाथरस और बल्लभगढ़ कि ज़र्द-सी मीठी यादें जब-तब स्मृतियों के झरोखों से ताक-झाँक करती हुई कब ठिठोली कर उसके पास से गुज़र जाती, नेमपाल को पता ही नहीं चलता . सुरों के इस हीरामन के सपनों में किसी हीराबाई का चेहरा नहीं बल्कि कानों में बस रागिनी की  खनकती आवाज़ गूँजती है .

जिन दिनों पूरा देश अपने एक पड़ोसीदेश से युद्ध में मिली हार के बाद गहरे सदमे में डूबा हुआ था, उससे कुछ महीने पहले भागलपुर के हिन्दुस्तान थिएटर से शुरू हुई सुरों की यह  यात्रा, बांग्ला देश की मुक्ति के लिए लड़े गये भारत-पाक युद्ध के ख़त्म होते-होते एक आँधी में तब्दील हो गयी . यह आँधी पश्चिमी उत्तर प्रदेश के ब्रज से लेकर दक्षिण हरियाणा के मेवात, और दक्षिण हरियाणा से लेकर पूर्वी राजस्थान की स्कूल-कॉलेज प्रबंध समितियों व स्थानीय कमेटियों के लिए चंदा उगाहने की मानो टकसाल बन गयी .

MICHELLE GREEN

इन्हीं दिनों बाबू गंगा सहाय इंटर कॉलेजकी बनी भव्य इमारत के सामने खड़ा होकर हवलदार नेमपाल इसे निहारता है, तो उसके फेफड़ों में ताज़ा हवा भरती चली जाती है . मगर साथ में उसे यह देख कर दुःख भी होता है कि विद्या के जिस मंदिर से दौड़, दुबोला, चौबोला, बहरतबील, दादरा, ठुमरी, लावनी, शिकिस्त, सोहनी, झूलना में लिपटे सुरों के अंकुर फूटने चाहिए थे . झील-नक्काड़े की खनक व धमक सुनाई देनी चाहिए थी . हारमोनियम से निकले कण, खटके, धुन, लय-बाँट, सुरों के संकोच व विस्तार की तरंगें फिज़ा में तैरती हुई महसूस होनी चाहिए थी . कहरवा, दीपचन्दी और खेमटा तालों में पगे यमन, भैरवी, कलिगंडा, आसावरी, जोगिया, देस जैसे राग-रागनियों के बोल सुनाई देने चाहिए थे, आज एक व्यावसायिक संस्थान में तब्दील हो चुके इस ग्लोबल स्कूल से साम्राज्यवादियों के लिए उच्च रक्तचाप व मधुमेह से ग्रस्त तथा नैराश्य व विषाद में डूबी अयोग्य पलटन निकल रही है . वह जब भी इस पुराने इंटर कॉलेज के बग़ल से गुज़रता है, और रुक कर इसकी दीवारों से कान सटा कर खड़ा होता है, तो लगता है बिजली कॉटन मिल के सुरुचि उद्यान में खोए सुरों के कण-खटके, शहद की बूँदों की मानिंद उसके कानों में टपक रहे हैं . नेमपाल जब भी इस कॉलेज की दीवारों को धीरे-धीरे सहलाता है, तो किसी शो में इसी रागिनी का कहा यह शे’र उसके कानों में सरगोशी-सी करके चुपचाप निकल जाता है-
सब ज़िन्दगी का हुस्न चुरा ले गया कोई .
यादों की कायनात मेरे पास रह गई ..

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दलित महिलाओं को मंदिर प्रवेश से रोका: महिलाओं ने की शिकायत

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बिहार के भागलपुर जिले के एक गांव में  दर्जनभर महादलित महिलाओं को मंदिर में घुसने से पिछले शुक्रवार को रोक दिया गया गया था.  इन महिलाओं को  200 साल पुराने काली मंदिर में प्रवेश नहीं करने दिया गया. इसके बाद इन महिलाओं ने प्रशासन के समक्ष एक लिखित शिकायत दर्ज कराई और उनसे मामले में हस्तक्षेप करते हुए न्याय दिलाने की मांग की. मंदिर तीन जातियों के लोगों की जमीन पर बना है, जिनमें एक दलित जाति के परिवार की जमीन भी शामिल है. मुकेश कुमार की रिपोर्ट आइये सुनें क्या कहती हैं महिलायें:


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अनुवाद

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अरविंद जैन
स्त्री पर यौन हिंसा और न्यायालयों एवम समाज की पुरुषवादी दृष्टि पर ऐडवोकेट अरविंद जैन ने महत्वपूर्ण काम किये हैं. उनकी किताब 'औरत होने की सजा'हिन्दी में स्त्रीवादी न्याय सिद्धांत की पहली और महत्वपूर्ण किताब है. संपर्क : 9810201120
bakeelsab@gmail.com
यह महिला न्यायशास्त्र पर कागद कारे करने वाले वकील साहब की प्रेम कहानी है. ना, इसमें वकील साहब का अतीत न ढूंढें ......... !
संपादक

दफ्तर लौटा तो आंसरिंग मशीनबोली, “प्लीज कांटेक्ट संकट लाल...फौरन।” फोन मिलाया। घंटी बजती रही। मोबाइल पर डायल किया।
संकट गुर्राया, “तुम रखो मैं अभी मिलाता हूं।”
सिगरेट सुलगाई ही थी कि टर्न...टर्न...होने लगी। हैलो...हैलो....के बाद रहस्यमय स्वर में संकट ने कहा, “तुम्हें एक बात बताऊं?”

मैंने थोड़ी लापरवाही से कहा, “हां बताओ।” और मन ही मन सोचा पता नहीं क्या बताएगा? सब जानते हैं कि संकटलाल जी रोते से जाएंगे और मरो की खबर लाएंगे। चिट्ठी देकर भेजो तो नायिका की मम्मी को देकर चले आएँगे- हंसते-हंसते।
वह बोला,  “अरे वो दो चोटियों में सफेद रिबन वाली, ”बॉबी” सी एक लड़की हमारे साथ पढ़ती थी ना...भई। वही...छवि....” मैं तुमसे मिलने आई, मंदिर जाने के बहाने” गाने की तरह तुमसे मिला करती थी...याद आ गई या कुछ और बकना पड़ेगा?”
मैंने लंबा कश लेकर कहा, “हां!...हां!! मगर हुआ क्या?”

आंखों में पच्चीस साल पीछे छूटा कस्बा और कॉलेज की स्टाफ कालोनी घूमने लगी। कॉलेज कैंपस क्या पूरा विश्वविद्यालय था। नर्सरी स्कूल से इंजीनियरिंग कॉलेज तक। बैंक, डाकघर, हॉस्टल, हॉकी- फुटबाल-क्रिकेट ग्राउंड, स्टेडियम, ट्यूबवैल, बाग बगीचे और मीलों लंबी सड़क। मेन गेट से बाहर निकलते ही रेलवे स्टेशन “चाय गर्म”... “पूरी गर्म।” सुबह हजारों लोग कस्बे से शहर जाते और शाम को लौट आते। ऐसे ही एक दिन मैं भी कस्बा छोड़, राजधानी भाग आया था। सोचा था लौट जाऊंगा, लेकिन वो शाम कभी नहीं आई।

सिगरेट बुझाते-बुझाते लगा, “अबवहां है भी कौन? क्या? कस्बा...केवल स्मृतियों में ही आबाद है!”

कस्बे की इस “हवाई यात्रा” के दौरानसंकट को फोन पर संदेशा- “मैं आ रहा हूं” के अलावा और कुछ भी तो याद नहीं। मैंने सोचा, बहुत सोचा, मगर समझ में कुछ भी नहीं आया। पीछे मुड़ कर देखा तो आंख भर आई। स्कूल, कॉलेज, जलसे, जुलूस, प्रदर्शन, घेराव, ह़ड़ताल, पथराव, लाठी-गोली-आंसूगैस, जलती बसें, ध्वस्त गाडि़यां, खंडहर, आग में जलकर राख हुआ ऑडिटोरियम, छात्र-शिक्षक-मजदूर आंदोलन, भयंकर असंतोष, हिंसा, आगजनी, लूटपाट, छावनी में बदलते कॉलेज और मुठभेड़” का आतंक। लगता है जैसे कल ही की बात है। मगर जमाना बीत गया।
मैंने सोचा और पानी का गिलास उठा गट्ट...गट्ट...पी गया।

सच तो यह है कि मैं और संकटलाल, यानी हम दोनों और वो सफेद रिबन वाली भी एक ऐसे प्रदेश के हैं, जहां सिर्फ ”डेढ़ आदमी” पढ़े लिखे हैं। होने को संकट के पिता डॉक्टर और मेरे दर्शनशास्त्र  के प्राध्यापक लेकिन पूरे प्रदेश में पढ़े लिखे तो ”डेढ़ लाल” ही माने जाते हैं। हालांकि कस्बा, प्रदेश की राजनीतिक ही नहीं सांस्कृतिक राजधानी भी माना जाता था, परन्तु यौन क्रांति की खबर तो उस समय यहां तक पहुंची ही नहीं थी। हां, ! गली-गली में कुछ लोग “हीरो” साइकिल चलाते हुए जरूर गाने लगे थे- “हम तुम इक कमरे में बंद हों और....”मगर गाना सुन स्कर्ट पहने कोई “छोरी”बाजार में से गुजरती तो सारे शहर में सायरन बजने लगते थे।

ऐसे समय की प्रेम कथा में  न “सेक्स और हिंसा” का कोई स्कोप है और न किसी “अमर प्रेम” की संभावना। हीराइन छोटे से कस्बे की सुंदर और सुशील कन्या है। हाथ लगाते ही मैली हो जाए। दिन-रात, चौबीस घंटे “चैस्टिटी बैल्ट” पहने रहती है। घर से बाहर निकलते ही अंगुली पकड़ “कमांडो” साथ हो लेता है। नींद में सारी रात भले ही, सपनों के राजकुमार के साथ “रोज गार्डन” घूमती रहे या “मॉड्ल टाउन” में पीपल के पेड़ तले बैठ बसाती रहे घर-गृहस्थी। यह एक “बोल्ड एंड ब्यूटीफुल” लड़की का कथादेश भले ही न हो, मगर एक कमजोर लड़की की कहानी भी नहीं है।


कस्बे की लड़की भी क्या करे? छोटे से कस्बे से बीसियों स्कूल कॉलेज और सात-सात सिनेमा घर परंतु मेडिकल और बी.एड.कॉलेजों के अलावा सह शिक्षा कहीं नहीं। फिल्म देखने का शौक हो तो “जय संतोषी मां” लगी है। हाउस फुल...। लड़के-लड़कियों के सब स्कूल कॉलेज अलग-अलग। सरकारी  हो या गैर सरकारी। यही नहीं, बनियों, ब्राह्मणों, जाटों, जैनियों और सैन्नियों से लेकर आर्यसमाजियों तक के अलग-अलग स्कूल कॉलेज।

जाटों के स्कूल या कॉलेज में आचार्य से प्रधानाचार्य तक अधिकांश जाट, ब्राह्मणों के यहां ब्राह्मण, बनियों के यहां बनिये और जैनियों के यहां जैन। लड़कों के स्कूल कॉलेज कस्बे से थोड़ा दूर मगर लड़कियां इतनी दूर कैसे जाएंगी? कुछ उल्टा सीधा हो गया तो? नहीं...नहीं...लड़कियों के स्कूल कॉलेज कस्बे के मुख्य बाजारों के बीच, मेन रोड़ पर ही रहेंगे और हर दुर्ग द्वार पर बड़ी-बड़ी मूछों वाले प्रहरी प्रायः सभी “गुरुकुलों” के “परधान जी” अंगूठा टेक और मंत्री मास्टर जी या वकील साब। प्रबंध कमेटी में नत्थू पंसारी, कालीचरण हलवाई, मंगल सुनार से लेकर लाल लखमी चंद तक चरित्र निर्माण और ब्रह्मचर्य पर विचार विमर्श करते रहते हैं। ब्राह्मणों, बनियों या जैनियों के “सरस्वती मंदिरों” में हरिजनों या पिछड़ों का क्या काम?

कभी स्कूल कॉलेज के प्रांगण में बैलों की जोडि़यां घूमती दिखाई देतीं, और कभी दीपक जगमगाने लगते। कभी क्रिकेट ग्राउंड में खाकी निक्करों का ढेर लगा होता और कभी सफेद टोपियों का। बाद में तो खैर आकाशवाणी केंद्र से लेकर विश्वविद्यालय तक की स्थापना हुई और प्रदेश के एक पढ़े लिखे “लाल” को कुलपति बनाया गया। धर्म, जाति, संप्रदाय और लिंग के आधार पर न जाने कितने स्तरों पर विभाजित है छोटा सा कस्बा।

खैर इससे पहले कि संकटलाल जीपधारें, मैंने अपनी कंप्यूटर ऑपरेटर की छुट्टी कर दी। बेसिर-पैर के सवालों का कौन जवाब देगा? स्कूल के दिनों से अब तक संकटलाल हमेशा ऐसी ही परेशान करता रहा है। बिना शपथ उठाये भी “जो कहूंगा सच कहूंगा। सच के सिवा कुछ नहीं कहूंगा।” उससे पूछो दारू पी? जवाब-हां जी! मुर्गा खाया? हां जी! जुआ खेला? हां जी!...हां जी....! हां जी...दिल दिमाग से साफ मगर यारों का यार है-संकट लाल।
शादी के बाद आकांक्षा हुई तो अपंग। बहन, डॉक्टरनी ने कहा, ”सुई लगा देती हूं। क्या करेगा ऐसी बेटी का?”
भाई धीरे से बोला, ”हां ! लगा सकती हो तो लगा दो।” और लगा अपनी चप्पल ढूंढ़ने।
पूछा कि कहां जा रहे तो कहने लगा, ”थाने रिपोर्ट लिखवाने।”

संकट की अनंत गौरव गाथाएं हैंऔर दोस्ती के ढेरों किस्से। वो सब फिर कभी। वरना आप कहेंगे- “इधर -उधर भटक रहा है।” चलते-चलते इतना और बता दूं कि सारी मुसीबतों की शुरुआत का कारण होता था संकट लाल और जब पेशी होती तो हर बार खुद वायदा माफ गवाह बन जाता था।

दफ्तर में ही दस बज गये औरसंकट लाल का कुछ अता-पता ही नहीं चल रहा। हो सकता है पीने बैठ गया हो और जनता क्लब में ललिता, समता, सुषमा या मोनिका का भूत-भविष्य बता रहा हो। मुझे लगा कि वह अब नही आएगा। मैं घर के लिए चल पड़ा। रास्ते भर मेरे दिमाग में संकट, दो चोटियों में सफेद रिबन बांधे उछल कूद मचाता गाता रहा-
”छैल रंग डार गयौ री मेरी बीर
भीज गयौ मेरा अतलस लहंगा, हरित कुंचुक चीर
घायल कुंकुम डार कुचन पर, ऐसौ निपट बेपीर।”

मैं सचमुच नहीं जानता कि ऐसाक्यों और कैसे हुआ? लाल बत्ती पर महसूस हुआ कि खद्दर का सफेद कुर्ता, चूड़ीदार पायजामा और काली अचकन पहने कुछ आदमी पूछ रहे थे ”रेसकोर्स” का रास्ता। फिर अचानक ध्यान आया कि छवि कहा करती थी, “मेरे महबूब कहीं और मिला कर मुझसे। यहां दरख्तों के साये में धूप लगती है।”
मैं मन ही मन हंसता रहा। बहुत देर तक हंसता रहा।


चुपके से एक शरारती सहेली नेचुटकी ली, “लव लैटर्स और स्पेलिंग मिस्टेक वाली बात भूल गये?”
मैंने कहा,  “नहीं, नहीं...याद है। अच्छी तरह याद है कि हर बार संकट समझाता था-प्यार में स्पेलिंग मिस्टेक नहीं देखी जाती-पगले!”

उन दिनों मैं कॉलेज में पढ़ता था।अंतिम वर्ष में। ”युवा महोत्सव” में गया हुआ था। मैं वाद विवाद प्रतियोगिता में भाग लेने आया था। और छवि “आषाढ़ का एक दिन” देखने। मंच से ईनाम लेकर बाहर आया तो छवि, छाया की तरह पीछे-पीछे। छवि ने सिगरेट छीन कर एक तरफ फेंक दी और गले में लटके स्वर्ण पदक को चूमते हुए कहा, ”मुबारक हो!” मैं हैरान। “मिल्की व्हाईट गर्ल” सामने खड़ी मुस्करा रही थी।

तभी संकट आ गले से लिपट गयाऔर बोला, “भई ! मैडल भी मुबारक हो और जन्म दिन भी। मगर कमीज पर लगी इस “लिपस्टिक” का क्या होगा?”
मृगनयनी ने एक बार संकट की तरफ देखा और फिर मेरी तरफ ठुनकते हुए कहने लगी , “आई एम सॉरी...मगर तुमने बताया क्यों नहीं?”
मैंने कहा,  “क्या बताता?”
”फेयर एंड लवली गर्ल” थोड़ा गंभीर हो बोली,  “चलो कोई बात नहीं ”गिफ्ट” उधार रहा।”

उसके बाद मैं और छवि अक्सर जबकैंटीन के कोने में बैठे चाय पीते रहते तो संकट चुपचाप “लव गेम” देखता रहता। दोस्त जब संकट से पत्ता मांग खेलने को कहते तो संकट जवाब देता , “नो, नो...आ प्ले फॉर लव।” दरअसल संकट बेहतरीन विकेटकीपर था।


कभी-कभार छोटी सी मुलाकात हो जाती-कभी संकट के घर और कभी किसी सुनसान गली के मोड़ पर। छवि संकट की बहन काजल की सहेली बन गयी थी, इसीलिए अक्सर मेरे पहुंचने से पहले ही वह वहां मेरी प्रतीक्षा कर रही होती। बहानों की कोई कमी नहीं थी। एकाध बार किसी और सहेली (अभिलाषा) को लेकर, मेरे घर भी आई थी-शायद कोई किताब लेने। उन दिनों उस पर विदुषी बनने का भूत सवार था। देखते-देखते सारा समय परीक्षाओं के बुखार में गुजर गया। रिजल्ट आने के बाद मैं, कस्बे से राजधानी भाग आया। पिता चाहते थे कि ”अर्थशास्त्र” पढ़े लेकिन मैं ”संविधान” पढ़ना चाहता था। संविधान।

दिन में नौकरी की तलाश में भटकताऔर शाम को पढ़ने जाता। रात को कमरे में आ खुद खाना बनाता, कुछ देर पढ़ता-लिखता और थक हार कर सो जाता। वो सचमुच बहुत ”गर्दिश के दिन” थे। महीनों घर नहीं गया। नौकरी मिली नहीं। ऊपर से आपातकाल शुरू होते ही “संपूर्ण क्रांति” की सारी योजनाएं स्थगित। एक-एक दिन जीना मुश्किल। मैं न किसी की हत्या कर सकता था और न आत्महत्या। अजीब मानसिक स्थिति थी। सारा आक्रोश, अंधेरे में अकेले या आदर्श और सिद्धांत के साथ घूमने, बीड़ी पीने, हवा में टीपी वालों का गालियां बकने, बौद्धिक बहस करने या किताबी कानून चाटने में निकलता....जीने की जिद में अपने बाप से “बाक्सिंग” करता और जानबूझ कर सबसे नाराज....जला-कटा सा घूमता रहता। रिंग रोड़ से रिंग रोड़ तक। कभी भीतरी घेरे में और कभी बाहरी घेरे में।

इस बीच छवि की कई चिट्ठियां आईं। हर बार “विद ग्रेट लव-यूअर्ज ओनली” के साथ चेतावनी ”तुम मेरे पास बिल्कुल भी चिट्ठी मत डालना। नहीं तो मैं बिल्कुल ही मर जाऊंगी। या मार दी जाऊंगी।” ”तुम पता नहीं मुझे कब मिलोगे” पढ़ कर परेशान होता और न मालूम क्या-क्या सोचता रहता। हां ! कुछ महीने पहले आखिरी खत में लिखा था, मैंने तुम्हारे और अपने लिए न जाने क्या क्या सोचा था, लेकिन सब कुछ एक हवा के झोंके की तरह उड़ गया। अंत में, “सचमुच तुम एक दिन बहुत बड़े आदमी बनोगे लेकिन उस एक दिन को कौन जानता है। तुम्हारे बड़े बनने के लिए अगर भगवान ने चाहा तो शायद मेरी शुभकामनाएं सदा तुम्हारे ही साथ होंगी।” अन्तर्देशीय पत्र के एक गोने में छोटे-छोटे अक्षरों में रेखांकित करके लिखा था-गिफ्ट उधार है।”

अगर-मगर पढ़ कर मैंने अनुमानलगाया, लगता है हो गई “कुड़माई (सगाई)।” मैं “ड्रीमहोल” ढूंढ़ता रहा और स्टोव पर रखी खिचड़ी जल कर कोयला हो गई। उठा तो दो गिलास टूट गए और तीन कपों के कान कोने में पड़े थे। मटका उठा कर पानी भरने लगा तो हाथ से फिसल गया...चलो इसकी उतनी ही उम्र थी।


मैं अक्सर झल्लाते हुए कहा करता था, “हमें नहीं बनना बड़ा आदमी....बन भी नहीं सकते...डी सी बनने के चक्कर में एल.डी.सी भी नहीं बन पाएंगे...हां...।” इसके कुछ दिन बाद दोस्तों ने मजाक उड़ाते हुए कहा, “सारी खबरें सच हैं।” नौकरी, महानगर और देस-परदेस की भागदौड़ में रोज नया हादसा। क्या भूलता, क्या याद करता।

अब तो इतना ही याद है या शेषसब भूल गया हूं कि एक शाम “टैलेक्स” पर संकट लाल ने समाचार भेजा था ”बहन को ब्लड कैंसर। स्टॉप। फौरन भारत आओ...स्टॉप।” उसी रात ब्रिटिश एअरवेज से राजधानी और सुबह राजधानी से कस्बे के अस्पताल पहुंचा था। अन्दर तक किसी अनहोनी से आतंकित। दो महीने घर से अस्पताल और अस्पताल से घर...कभी खून चढ़ेगा और कभी रेडियोथैरेपी। देशी-विदेशी सब दवाइयां बेकार। पहली बार जाना कि कितना भयावह है मौत का इंतजार। उन दिनों बहुत हंसता-मुस्कुराता और मजाक में छेड़-छाड़ करता रहता था। हंसता रहता था कि कहीं रो न पड़ूं।

मैंने उस साल की डायरी में हींलिखा थाः “आज दोपहर अस्पताल से घर लौटते हुए, रास्ते में छवि मिल गई। दो चोटियों की जगह जूड़ा था और खरगोश के कानों जैसे सफेद रिबन गायब।” लाल पल्लू की सफेद साड़ी, मांग में गहरा सिंदूर, गले में मंगलसूत्र और होंठों पर “डीप, डार्क एंड डेंजर्स मैरून” लिप्स्टिक। गोदी में साल भर का प्यारा सा सुंदर बच्चा था। बढ़ी हुई दाढ़ी और चश्मे के बावजूद, उसने भी मुझे पहचान लिया था।

सड़क पर एक तरफ छांव में खड़े हो, उसने सबसे पहले पूछा, सिस्टर कैसी है? मैंने कहा, “ठीक ही है।” उसने फिर सवाल किया, “और तुम?”
मैंने दोहरा दिया, मैं भी।
कुछ देर बाद मैंने सन्नाटा तोड़ते हुए कहा,  “बेटा है ना !...कब हुआ?”
वह बोली,  “पिछले साल....पच्चीस दिसंबर को यह एक साल का हो जाएगा और...।”
मैं एकदम हैरान...परेशान। मगर फिर भी बच्चे के गाल थपथपाता पूछ ही बैठा, क्या नाम रखा है हीरो का?
उसने सिर उठा कर मेरी ओर देखा, निचला होंठ दांतों से दबाया और फिर गर्दन घुमाकर धीरे से बोली, हमनाम है तुम्हारा।

 मैंने चश्मा उतार, आंखें पोछने के बाद देखा तो वह बराबर की मंदिरवाली गली के उस पार जा चुकी थी।
सुबह फोन उठाते हुए डर सा लगा-कहीं संकट का न हो।

“हैल्लो ! हैल्लो!!” के बाद संकटने उंघते हुए शुरू किया,  “सॉरी यार ! रात कहीं फंस गया था। सुनो ! वो मेरे बगल वाली सोसायटी में रहती है। अभी कुछ दिन पहले “फायर” फिल्म देखते हुए मिल गई। बहुत देर तक “पूछताछ” करती रही और फिर लगी तुम्हारा इतिहास पढ़ाने। अभी खरीदा है फ्लैट। पति अब ठेकेदारी करता है। एक बेटा और दो बेटियां हैं। बेटिया बी.ए. में पढ़ रही हैं। खुद किसी स्कूल में अंग्रेजी पढ़ाती है। भया ! पार्टी वार्टी दो तो बात करवाऊं? ”

मैं चुपचाप सुनता, सोचता औरसिगरेट फूंकता रहा। मेरे कुछ कहने से पहले ही संकट ने कहा, ”अच्छा.... एक मिनट बात करो....।”


मैंने कुछ देर बाद, “हैल्लो...हैल्लो” किया....तो एक अनजानी सी आवाज में किसी ने कहा, “नहीं पहचाना ना? कैसे पहचानोगे? बहुत समय हो गया। खैर...मैं छवि...तुम्हें लगातार पढ़ती-सुनती रही हूं...लिखा-अनलिखा...कहा-अनकहा एक-एक शब्द..पूरी किताब कई बार पढ़ चुकी हूं...चाहती हूं कि अनुवाद करूं।”
मैंने कहना चाहा “पगली कहीं की” मगर चुप रहा। फिर उसने कहा था, ”मुझे विश्वास था कि सचमुच एक दिन तुम.....”

और मैं सिर्फ लेकिन...कह कर खामोश हो गया। फोन रखने के बाद तक सफेद रिबन, रजनीगंधा से महकते रहे। और मैं सोचता रहा, ऐसे मूल जीवन का पता नहीं अनुवाद कैसा होगा?

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मृत्युशैया पर एक स्त्री का बयान

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डॉ. आरती  
संपादक , समय के साखी ( साहित्यिक पत्रिका ) संपर्क :samaysakhi@gmail.com

मृत्युशैया पर एक स्त्री का बयान

1.
सभी लोग जा चुके हैं
अपना अपना हिस्सा लेकर
फिर भी
इस महायुद्ध में कोई भी संतुष्ट नहीं है
ओ देव! बस तुम्हारा हिस्सा शेष है
तीन पग देह
तीन पग आत्मा
मैं तुम्हारा आवाहन करती हूँ

2.
ओ देव अब आओ
निसंकोच
किसी भी रंग की चादर ओढ़े
किसी भी वाहन पर सवार हो
मुझे आलिंगन में भींच लो
अब मैं अपनी तमाम छायाओं से मुँह फेर
निद्वंन्द हो चुकी हूँ

3.
धरती की गोद सिमटती जा रही
मैं किसी अतल लोक की ओर फिसलती जा रही हूँ
प्रियतम का घर
दोनों हाथ खालीकर
बचे खुचे प्रेम की एक मुट्ठी भर
लो पकड़ लो कसकर हाथ मेरा
जल्दी ले चलो अब कहीं भी
हाँ मुझे स्वर्ग के देवताओं के जिक्र से भी घृणा है

4.
अब कैसा शोक
कैसा अफसोस
कैसे आँसू
यह देह और आत्मा भी
आहुतियों का ढेर मात्र थी
एक तुम्हारे नाम की भी
स्वाहा!!

5.
ओह पहली बार, अप्रतिम सुख का साक्षात्कार
चिरमुंदी आँखों का मौन सुख
सभी मेरे आसपास हैं
सभी वापस कर रहे हैं
मेरी आहुतियाँ
अब तक की यादें
आँसू
वेदना
ग्लानि
बूँद बूँद स्तनपान

6.
अधूरी इच्छाओं की गागरें
हर कोने में अभी भी रखी हैं
सर उठातीं जब भी वे
एक एक मुट्ठी मिट्टी डालती रही
बाकायदा ढंकी मुंदी रहीं
उसी तरह जैसे चेहरे की झुर्रियाँ और मुस्कानें
आहों आँसुओं और सिसकियों पर भी रंग रोगन
आज सब मिलकर खाली कर रहे हैं
अंजुरी भर भर
आत्माएँ गिद्धों की मुर्दे के पास बैठते ही दिव्य हो गईं

7.
मेरी इच्छाओं का दान चल रहा है
वे पलों-क्षणों को भी वापस कर रहे हैं
तिल चावल
जौं घी दूध
सब वापस
सब स्वाहा
उनकी किताबों में यही लिखा है
यह समय मेरा नहीं है फिर भी
यह समय मेरा नहीं है
फिर भी मैं समय में हूँ
यह समय कुछ खास किस्म के बुद्धिजीवियों
का समय घोषित हो चुका है
फिलहाल छोटे से छोटा विश्लेषण जारी है
दरो-दीवारों के किसी भी कोने में लगे
मकड़ी के जालों पर भी शोधकार्य हो सकता है
बशर्ते मकडिय़ों की मौत की साजि़शों का जिक्र न आये
नाटक अभी भी जारी है
मंच पर मेरे प्रवेश का समय वह था जब
चारों ओर घुप्प अंधेरा
बेफिक्री से गहरी नींद फरमा रहा था
कुछ देर बाद थोड़ा-सा अँधेरा छँटा
एक हलके प्रकाशपुंज का प्रवेश हुआ कि
दबी घुटी एक चीख सुनाई पड़ी
प्रकाश गोलाकार वृत्त से होता हुआ समूचे मंच पर फैलने लगा
और चीखें भी
प्रकाश की आँख मिचौनी, फैलना-सिकुडऩा
वैसे तो तकनीकी कौशल का नमूना था
कुछ उंगलियाँ हरकतें करतीं और
अँधेरा उजाले में और
उजाला अँधेरे में कायांतरित हो जाता
इन दिनों इन कौशलों का विधिवत प्रशिक्षण दिया जाता है
तकनीक परदा उठाने-गिराने की जहमत से मुक्ति दिलाती है
फिर भी चीखें गले से ही निकलकर आ रही थीं
भरपूर साहस के बाद ही संभव हो पाता है
इस प्रकार चीख सकना
तरह तरह के बनते बिगड़ते चेहरे
मेरी आँखों के सामने से आ जा रहे थे
एक बदहवास लडक़ी चीख में सनी हँसी हँसती
दाएं अँधेरे कोने में जाकर गुम हो गई
कुछ औरतें
नकाब ढंके भयाक्रांत चेहरे
ऊपर की ओर हाथ फैलाए
चीख में लिपटी रुलाई रो रही थीं
थके हारे, बीमार से पुरुषों का एक दल
कोई अदृश्य रस्सी उन्हें खींचे जा रही थी
थामे हुए हाथ कहीं नजर न आ रहे थे
दृश्य निरंतर बदल रहे हैं
एक के बाद एक आ-जा रहे थे
कभी सडक़ तो कभी अस्पताल
कभी चौराहा तो कभी संसद भवन
स्कूल दफ्तर रसोई छत बरामदा
न्यायालयों के भीड़ भरे परिसर
नगरपालिका के नल के आगे लगे पीले डिब्बों की कतारें
सुपर बाजार
खेत खदान
फैक्ट्री मकान
अनगिनत जर्जर बूढ़े बीमार
टूटी चप्पलें हाथ में लिए चीख रहे थे
शायद पुकार रहे थे...
मेरे हाथों में एक डायरी थी अभी
वहाँ आखिरी पृष्ठ पर मेरे देश के साथ ही
तमाम देशों के नक्शे उकेरे थे
मैं वहीं कहीं उंगली रखने के लिए
कोई सुरक्षित जगह ढूँढऩे लगी
हर जगह रक्त के लाल-काले धब्बे दिखे
भयावह चीखों से भरी दास्तानें मिलीं
कर्ण की तरह भी नहीं मिली मुझे सुईभर सुरक्षित जमीन
इतनी चीखों सिसकियों और भयंकर अट्टहासों के बीच भी
ऐसा लग रहा है कि सब बहरे हो गए हैं
किसी के चेहरे पर बेचैनी और आक्रोश का कोई चिन्ह दिखाई नहीं दे रहा
अब तक की दबी घुटी चीखों का समवेत स्वर
मंच पर यूँ उभरा कि
वे संगीत की तरह ही कानों को सहन होने लगे
मंच के सामने पहली पंक्ति में बैठे लोग टेबिलों पर
और बाकी के अपनी जंघाओं पर
तीन तीन थापें दे रहे थे
यह तो पहला दृश्य था
दूसरा दृश्य- दर्शकों का एक दल चीखता हुआ दीर्घा के बाहर निकल गया
और दूसरा मंच की समवेत चीखों में शामिल हो गया
अब आप भी बताएं यह नाटक का सुखांत है या दुखांत
वैसे नाटक अभी जारी है

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वित्तमंत्री को सेनेटरी पैड भेजने की मुहीम: एसएफआई और कई संगठनों ने देश भर में आयोजित किया कैम्पेन

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क्वीलिन  काकोती

आधी आबादी महिलाओं की है, लेकिन उन्हें अपने छोटे सेहक के लिए भी पुरुष तंत्र से लड़ना पड़ता है. इस देश में महिलाओं के स्वास्थ्य से ज्यादा उनका कथित सुहाग, श्रृंगार जरूरी है. सरकार ने जहां सिन्दूर और पूजा पाठ की चीजों को टैक्स फ्री रखा है वहीं महिला-स्वास्थ्य से जुड़े सेनेटरी नैपकिन पर 12% का लक्जरी टैक्स लगाया गया है.



28 मई को माहवारी-स्वच्छता दिवस मनाया जाता है. लगभग तब से ही सरकार की मंत्री मेनका गांधी, कांग्रेस की सांसद सुष्मिता देव आदि ने वित्तमंत्री से अनुरोध किया है कि सेनेटरी नैपकिन पर जीएसटी नहीं लगाया जाये, लेकिन 1 जुलाई से जब जीएसटी लागू की गई तो इन अनुरोधों पर कोई ध्यान नहीं दिया गया. 1 जुलाई को जीएसटी लागू होने के बाद इस टैक्स के खिलाफ स्त्रीकाल में प्रकाशित एक खबर में महिलाओं ने प्रधानमंत्री और वित्तमंत्री को सेनेटरी पैड भेजकर इसका विरोध जाताने की योजना बताई थी. इसके बाद देश के पश्चिमी हिस्से में वर्धा से, जो गांधी जी की कर्मभूमि रही है, कुछ छात्राओं ने 7 जुलाई को, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और वित्तमंत्री अरुण जेटली को सेनेटरी पैड भेजकर अपना विरोध जताया. वर्धा में संचालित युवा नामक संगठन की वनश्री वनकर ने न सिर्फ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और वित्तमंत्री अरुण जेटली को सेनेटरी पैड भेजा बल्कि इस आशय का वीडियो जारी  कर अपील की कि देश भर से सेनेटरी पैड इन्हें भेजा जाये.

देखें वीडियो: देश भर से लड़कियों का अभियान



10 जुलाई को  दिल्ली विश्ववविद्यालय की राजनीति विज्ञान की छात्रा और स्टूडेंट्स फेडरेशन ऑफ़ इंडिया (एसएफआई) की सदस्य अनुराधा कुमारी ने इसे एक व्यवस्थित मुहीम की शक्ल देते हुए अपील जारी की कि ‘ब्लीड विदाउट फीअर, ब्लीड विदाउट टैक्स'हैश टैग के साथ देश भर से वित्तमंत्री को सेनेटरी पैड भेजकर टैक्स वापस लेने का दवाब बनाया जाना चाहिए.’



एसएफआई की विभिन्न शाखाओं ने इस मुहीम में 12 जुलाई को देश भर में हिस्सा लिया और उन्होंने स्कूल/ कॉलेज में फ्री सेनेटरी नैपकिन उपलब्ध कराने की मांग करते हुए उसपर से 12% जीएसटी हटाने की मांग की.
तिरुवनंतपुरम में स्टूडेंट्स फेडरेशन ऑफ़ इंडिया (एसएफआई) के 300 से भी अधिक विद्यार्थियों ने सेनेटरी पैड पर ‘ब्लीड विदाउट फीअर ब्लीड विदाउट टैक्स’ लिखकर अरुण जेटली के ऑफिस में भेजा. एसएफआई और आल इंडिया डेमोक्रेटिक असोसिएशन (आयडवा) ने दिल्ली विश्ववविद्यालय में इसी प्रोटेस्ट को का आयोजन किया तो 12 जुलाई को ही एसएफआई की आसाम यूनिट ने गुवाहाटी के दिघली पुखुरी में ऐसा ही प्रोटेस्ट किया. आसाम से एसएफआई की स्टेट ज्वाइंट सेक्रेटरी संगीता दास ने कहा ‘सेनेटरी नैपकिन  इस्तेमाल करने से बीमारियाँ नहीं होती हैं. इसपर टैक्स लगाने से महिलाओं को एक स्वस्थ जीवन जीने से वंचित किया जा रहा है.’ संगीता ने कहा कि आसाम में गर्मी की छुट्टी खत्म होते ही मुहीम को और तेज करेंगे. अगस्त के पहले सप्ताह से शुरू होकर 17 अगस्त तक यह मुहीम चलेगी.’ कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस के विद्यार्थी एवं महिला संगठनों ने ऐसे आंदोलन कई शहरों में किये हैं.



7 जुलाई को वनश्री वनकर द्वारा जारी की गई अपील



प्रियबंधु नामक एक संस्थान, जो आसाम में माहवारी-स्वच्छताअभियान चलाता है,  की सदस्य अर्चना बोरठाकुर ने भी सरकार के इस कदम को निराशा जनक बताया. उनकी संस्था फ्री में सेनेटरी पैड भी बांटती है. देखना यह है कि पश्चिम से पूरब तक बहाने वाली यह हवा क्या रंग लेकर आती है!

गांधी के गाँव से छात्राओं ने भेजा वित्तमंत्री और प्रधानमंत्री को सेनेटरी पैड 

हालांकि इसी बीच इस मुहीम के खिलाफ प्रतिक्रियाएं भी आने लगी हैं. कन्नड़ की अभिनेत्री और भारतीय जनता पार्टी की सदस्य मालविका अविनाश ने जहां सेनेटरी पैड को भारत में पश्चिमी साजिश बताया वहीं सरकार भी अपना बयान जारी कर भ्रामक जानकारियाँ दे रही है.



सरकार के अनुसार इसपर 5% वित पहले से ही लागू था. हालांकि वैट सारे राज्य नहीं लगाते. सेनेटरी नैपकिन पर 12% जीएसटी के पक्षधर लोगों का कहना है कि इसमें उपयोग आने वाले कच्चे माल की श्रेणी हाई जीएसटी की है इसलिए इसपर भी जीएसटी लगनी चाहिए. इसके निर्माण में इस्तेमाल होने वाले सुपर ऐब्जोर्मेंट पोलिमर, पोली एथीलीन फिल्म, ग्लू , रिलीज पेपर और वुड पल्प पूरे कॉस्ट का 20% है, जो अपने आप में हाई जीएसटी की दायरे में है. 80% कॉटन इस्तेमाल होता है जो अपने आप में 5% जीएसटी के दायरे में है.

क्या महिलायें भेजेंगी वित्तमंत्री और प्रधानमंत्री को सेनेटरी पैड 

आज भी ग्रामीण इलाके में महिलायें सेनेटरी नैपकिन का इस्तेमाल नहीं करती हैं. सरकार को चाहिए था कि महिलाओं-स्वास्थय को देखते हुए वह इन्हें टैक्स फ्री करे, लेकिन वह इसे विलासिता कैटगरी में रखकर 12 % टैक्स लगा रही है.

क्वीलिन काकोती स्वतंत्र पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता हैं.  संपर्क: kakotyquiline@gmail.com 
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