Quantcast
Channel: स्त्री काल

सत्यप्रकाश की कविताएं (शब्द व अन्य)

$
0
0

सत्यप्रकाश

1.शब्द
किताबों में लिखे शब्द चाभी होते हैं।
इतिहास की कुढ़ संस्कृति के
जिससे कलपुर्जों को खोला जाता है ।
कुछ शब्द बदलते चेहरों का हिसाब होते हैं ।
कुछ शब्दों से खोखली सभ्यताओं को दुरुस्त किया जाता है ।
कुछ शब्दों से पक्की सच्ची सभ्यताओं को
हासिये पर धकेला जाता है ।
शब्द निरंतर गढ़े जाते हैं ।
कुछ शब्द स्त्रियों प रहो रहे अत्याचारों की गवाही देते थे ।
कुछ शब्दों में उनकी गर्भहत्या का हिसाब होता था।
कुछ शब्द उनपर की गयी वाहयात
फब्तियों की गवाही देते हैं।
अब कुछ शब्दों में मोमबत्ती लिए जुलुस दिखाई देते हैं ।
कुछ शब्द उनकी सिसकती दस्तानों को केवल समेट लेते थे ।
अब कुछ शब्दों में स्त्री के मंगल पर जाने का जिक्र होता है ।
अब कुछ शब्दों में देश के लिए मैडल जीते का जिक्र होता है।
शब्द कभी झूठे नहीं होते झूठी वह कलम,
उसको पकड़ने वाले हाथ और
उस हाथ से जुड़ा इंसान होता है ।
कुछ शब्द नेताओं के बेबुनियादी भाषणों
और खोखले वादों में होते हैं ।
कुछ शब्द केवल सच को झूठ में बदलते हैं ।
कुछ शब्द अब केवल किताबों में होते हैं ।
जिसमें अनगिनत परिवारों के भीतर
फ़ैल रहे फरेब का जिक्र होता है।
शब्द तो शिर्फ़ शब्द हैं जो समाज की काली
सच्चाई को केवल गति देता है।
कुछ शब्दों में पूंजीपतियों, बंगलों, गाड़ियों
और घर में बैठे पामेरियन कुत्ते का जिक्र होता है।
कुछ शब्दों में गौरी लंकेश की पीठ पर गोली मारे जाने जिक्र होता है
कुछ शब्दों में नजीब की माँ का इन्साफ के लिए
आंसु बहाने का जिक्र होता है।
अब कुछ शब्दों में बैंक लूट चुके भगौड़ों का जिक्र होता है।
कुछ शब्दों में गरीबों की रोटी और बेटी जिक्र का होता है।
अब कुछशब्दों में बिक चुकी पुलिस का जिक्र होता है।
अब कुछ शब्दों में अस्पतालों में धक्के खाते इंसानों का जिक्र होता है।
अब कुछ जिक्र स्कूलों में बच्चों के साथ यौन उत्पीडन का होता है।
अब कुछ शब्दों में किसानो की आत्महत्याओं का जिक्र होता है।
शब्द तो बस शब्द हैं।
शब्द कभी झूठे नहीं होते झूठी वह कलम,
उसको पकड़ने वाले हाथ और
उस हाथ से जुड़ा इंसान होता है।


2.बम
तमाम फटी, उधड़ी जली कटी
लाशों की एकतरफा जिम्मेदारी के साथ
हत्याएं, अनगिनत हत्याएं केवल खूंखार
हथियार ही नहीं करते।
हत्याएं अक्सर आपके घर में पड़े
धर्मग्रन्थ भी करते हैं।
जिसने सदियों पहले बारूद को
धरती के सीने पर बिछा दिया था
एक जुलुस भी बम है जो उस पुस्तक से
संचालित होता है।
टीका, रोली, रुद्राक्ष और जनेउ भी
बम हैं जिससे अनगिनत
लाशों पर खड़े होकर नए समाज की
नीव राखी जाती है।
बम फटने के इंतज़ार में है।


3बेटी
बेटी बनो तो बेहया बनो
चाहे कोई काटे, जलाए, उखाड़ फेंके
फिर भी कहीं भी जम जाओ
बनो तो तुम कलम बनो
अपना इतिहास खुद लिख जाओ
हर घर में उजियारा करों
बनो न कभी किसी पुरुष के पैरों की बिवाई
बनो तो तुम सूपर्णखा बनो
जिसके प्रीत ने इतिहास को
अमर बना दिया
बेटी बनो तो दियासलाई बनो
रात में उजियारा करो।।


4.जब दिन में अँधेरा हो
जब दिन में अंधेरों का साया हो
तो समझ लेना कि यह सत्य नहीं
असत्य का बोलबाला है,बेबसी है,
विसंगति है, अपनों के भीतर कड़वाहट है,
छलावा है, विपरीत ताकतों का।
जब दरवाजे पर कोई नेता दस्तक दे
तो समझ लेना लूटेरा आया है
तुम्हारे बच्चों की रोटियों को छीनने
हत्यारे खड़े हैं इंतजार में
हाथों में लिए बंदूकें, तलवारें, भाले
बेदखल, लाचार, असहाय बनाने
तुम्हारे आशियाने को।।

सत्यप्रकाश गुजरात केन्द्रीय विश्वविद्यालय के हिन्दी केंद्र में शोधरत हैं. संपर्क: satyaprakashrla@gmail.com 

लिंक पर  जाकर सहयोग करें , सदस्यता लें :  डोनेशन/ सदस्यता
आपका आर्थिक सहयोग स्त्रीकाल (प्रिंट, ऑनलाइन और यू ट्यूब) के सुचारू रूप से संचालन में मददगार होगा.
स्त्रीकाल का प्रिंट और ऑनलाइन प्रकाशन एक नॉन प्रॉफिट प्रक्रम है. यह 'द मार्जिनलाइज्ड'नामक सामाजिक संस्था (सोशायटी रजिस्ट्रेशन एक्ट 1860 के तहत रजिस्टर्ड) द्वारा संचालित है. 'द मार्जिनलाइज्ड'के प्रकशन विभाग  द्वारा  प्रकाशित  किताबें  अमेजन ,   फ्लिपकार्ट से ऑनलाइन  खरीदें 
संपर्क: राजीव सुमन: 9650164016, themarginalisedpublication@gmail.com

तीस घटा पाँच बराबर आज़ाद और मुकद्दस औरत (पतनशील पत्नियों के नोट्स से)

$
0
0
नीलिमा चौहान
पेशे से प्राध्यापक नीलिमा समाकालीन बहुचर्चित लेखिकाओं में से एक हैं. प्रकाशित पुस्तकें: पतनशील पत्नियों के नोट्स, 'बेदाद ए इश्क' (संपादित) संपर्क : neelimasayshi@gmail.com. 

आज़ाद मिजाज़ हूँ इसलिए बर्दाश्त नहीं कि माहवारी केजुर्म में आप मुझपर तमाम तरह की बंदिशें लगाएँ। आप कहते हैं कि नए जमाने के खुले ख़यालात वाले हैं इसलिए आपने पुरानी तरह की वाहियात सोचों से किनारा कर लिया है और महीने से होने वाली जनानियों से अब आपको ज़्यादा परेशानी नहीं हुआ करती। वो बात दीगर है कि चूँकि आप अमनपसंदों को खून खराबे से और नतीजतन बहने वाले खौफनाक लाल रंग से हमेशा से ही नफरत रही है इसलिए आप माहवारी के खून से सनी औरत को अपने से दूर ही रखना चाहते हैं।लहू का लाल रंग आपको हिंसा की याद दिलाता है। चुनाँचे आप माहवारी की मारी औरतों के पाक लिबास पर इसका एक धब्बा तक देखना गवारा नहीं कर पाते। वही तो मैंने कहा कि आपके पिछ्ड़े और तंग किस्म के खयालात अब बदल चुके हैं और अब आपको माहवारी वाली औरत से बू ,हिकारत और बदमज़गी कहाँ होती है आप तो उसको घरों, दफ्तरों, सड़कों - सब जगहों पर बर्दाश्त कर लिया करते हैं। बस वो क्या है कि देवालयों के देवताओं से आप सीधे सुच्चे लोग कोई पंगा-वंगा लेना नहीं चाहा करते इसलिए आप बस केवल वहाँ माहवारी वाली औरत के दाखिले का कोई समर्थन नहीं किया करते। जिस लहू से बुतों तक को बदपरहेजी है उसको लेकर कोई सवाल,कोई एतराज आप क्योंकर करने-सुनने लगें भला ? आपके इस नेक खयाल की बलिहारी जाउँ कि जब हमारे उन दो चार दिन मंदिर में न जाने से इतनी पुरानी रवायतें, तहजीबें बचती हैं तो क्या हर्ज है इन पाबंदियों को मान लेने से?

आपकी फिक्रमंदी वाजिब है जनाब कि बुतों को क्यापता कि कौन औरत माहवारी से है और कौन नहीं ? कौन शातिर भक्तिन अपनी नापाक हालात को राज़ रखकर बुतों के नज़दीक चले जाने की ख्वाहिश रखती है। सो इस उज्र से निजात पाने के लिए आपने एकाध जगह चोर- उचक्कों की शिनाख़्त करने जैसी कोई मशीन -वशीन लगाकर औरतों के अंदरूनी सच की जाँच कर ही ली तो क्या ख़ता तो हो गई ? बिल्कुल बिल्कुल !  बराबरी और इज़्ज़त दिलों में होने की शै हुआ करती हैं। इस तरह की मामूली किस्म की बंदिशों को पाबंदियाँ मान लेना कहाँ की समझदारी है। देखिए कुदरत ने औरतों के साथ जो किया सो किया पर हम जैसी तरक्की पसंद जिंसों का फर्ज ही है इस तरह की कुदरती नाइंसाफियों की भरपाई करना । सो औरतों को कमरों में कैद कर देना या छुआछूत करना जैसी जाहिलाना हरकतें गैर इंसानियत का नमूना है। बस औरतें खुद उन पाँच दिनों की सब्र मिजाजी का नमूना पेश करती चलें तो तय्यिबा कहलाती चलें और सोचें कि बाकी दिनों तो बराबरी की मौज ही है न ।

कामख्या मंदिर में योनि और माहवारी  पूजा 


जनाब आदमी खुले में पेशाब कर किया करें कोई बात नहीं।अपने जरूरी अंगों की खलिश को मनमाफिक अंदाज़ और में खुजाकर मिटाया करें तो कोई मसला नहीं। औरतों पर बनी तमाम गालियों से अपने मुँह का और दूसरों के कान का ज़ायका बढ़ाया करें तो कोई मुद्दा नहीं। किसी भी राह चलती औरत के बदन को अपनी आंखों से स्कैन करते हुए या रातों  के अँधेरों में मुश्तजनी से बर्खास्त चिपचिपाहट से सने हुए बुतख़ानों में सर नवाने पहुँच जाया करें कोई ख़ता नहीं । मर्दों के ऐसे राज़ न तो किसी एक्स्रे मशीन पे जाहिर हुआ करते हैं न ही बेचारे बुतों की इतनी औकात ही हुआ करती है कि वो ऐसी नापाक बंदगी को नाकुबूल कर पाते हों ।  पर औरतों की माहवारी पर आपकी नज़रबीनी ज़रा कमज़ोर पड़  जाए तो आपको लगता है कि मंदिरों - मस्जिदों  पर कयामत टूट पड़ेगी। रवायत , कौम , मुल्क , सभ्यता सबके सब दोज़ख में तब्दील हो जाएँगे। अजी निहायत ही नेक ख़याल वाले जन हैं आप तो। सवाल यह है कि खुदा के मिजाज़ और पाकीज़गी के सौ कैरेट खरे रखवालों के करम का एहसान खुदा उतारेगा कैसे ?

आपने सही फरमाया जनाब कि अपनी ज़िंदगी के आठ -नौ साल लहू बहाने में ज़ाया करने वाली औरत जात कभी मर्दों की ताकत, हुनर और हिम्मत का मुकाबला नहीं कर सकती । इसलिए आपने इंतज़ामे खानादारी और पाप -पुण्य से जुड़ी तमाम तहज़ीबों की सारी नाज़ुक ज़िम्मेदारी हमारे ही कांधों पर डाल दी है। बैठे-बैठे इतना तो कर ही सकती हैं न दीन और दुनिया के लिये के नहीं ? हमारे अपनी जगह से एक इंच भी हिल जाने से या एक दम तक भर लेने से इस तहज़ीब का भवन जमींदोज़ हो सकता है। चुनाँचे हमारी देह की एक छोटी से छोटी हलचल पर, हरकत पर आपकी पैनी निगाहबीनी रहा करती है । माहवारी जैसी सूरतें तो बाकायदा पुण्य को पाप में ,पाक को नापाक में , धर्म को अधर्म में उलट देने वाली हुआ करती है। अगरचे औरतें इतना शोरशराबा करके हायतौबा करके किसी फरेब से ख़ुदा के दरबार में घुस भी जाएँगीं तो अपनी ही आने वाली पुश्तों का सत्यानाश करेंगी । क्योंकि आखिर औरत का किया धरा ऊपरवाले तक जल्द पहुँचता है। इतनी दमबाज़ी भरने की बजाय ज़रा- सी परहेज़दारी बरत लें तो उनका अहम छलनी तो नहीं न हो जाएगा । भई ललनाओं के हक और बराबरी की बात एक तरफ और मज़हब की ,तहज़ीब की मुल्क की तरक्क्की एक तरफ ।



...अजी आप और आपके मुकद्दस ख़यालात!ऐसा है कि अब आपकी यह वज़नी ख़यालबंदी सुनकर मैं पस्तहिम्मत औरत आपसे मुआफी की दरख़्वास्त करती हूँ और आपके इबादतख़ाने और बुत सलामत रहें यही दुआ करती हूँ। आप अपना धर्म बचा लो भाई जी औरतें और उनकी हस्ती तो बची बचाई हैं। आपके खुदा के बगैर भी और आपके खुदा के बावजूद भी ।

वैसे डर यह भी लगता है कभी - कभी कि कहींमेरे खुले ख़यालात और तकक्कीपसंदगी  का इम्तिहान लेने की ग़रज से कोई मुझे अपनी माहवारी के लहू को अँगुली पर लेकर जीभ पर लगाने को कहे तो मेरा सारा ढकोसला, सारी तालीम और सारी हिमाकत हवा हो न जाए।

तीस घटा पाँच बराबर आज़ाद और मुकद्दस औरत ।

दाग़ अच्छे हैं !

लिंक पर  जाकर सहयोग करें , सदस्यता लें :  डोनेशन/ सदस्यता
आपका आर्थिक सहयोग स्त्रीकाल (प्रिंट, ऑनलाइन और यू ट्यूब) के सुचारू रूप से संचालन में मददगार होगा.
स्त्रीकाल का प्रिंट और ऑनलाइन प्रकाशन एक नॉन प्रॉफिट प्रक्रम है. यह 'द मार्जिनलाइज्ड'नामक सामाजिक संस्था (सोशायटी रजिस्ट्रेशन एक्ट 1860 के तहत रजिस्टर्ड) द्वारा संचालित है. 'द मार्जिनलाइज्ड'के प्रकशन विभाग  द्वारा  प्रकाशित  किताबें  अमेजन ,   फ्लिपकार्ट से ऑनलाइन  खरीदें 
संपर्क: राजीव सुमन: 9650164016, themarginalisedpublication@gmail.com

परीक्षा विभाग के कर्मचारी ने हिन्दी विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति वी एन राय के अपराधिक कारनामे का दिया संकेत: मायग्रेशन प्रकरण में बातचीत का ऑडियो

$
0
0

प्रेस विज्ञप्ति

महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय,वर्धा, में एक फर्जी मायग्रेशन प्रकरण में पूर्व कुलपति, साहित्यकार और पुलिस के बड़े अधिकारी रहे विभूति नारायण राय एवं विश्वविद्यालय के कुछ अधिकारियों के खिलाफ सेवाग्राम पुलिस स्टेशन,वर्धा में दर्ज एफआईआर में नया मोड़ आ सकता है. परीक्षा विभाग के एक कर्मचारी भालचंद्र ने, जो फर्जी मायग्रेशन प्रकरण के दौरान विभाग में कार्यरत था, कुलपति राय की इस मामले में संलिप्तता के संकेत दिए हैं. भालचंद्र मार्कशीट, मायग्रेशन आदि जारी करने वाला स्टाफ रहा है. कुछ दिन पहले ही वर्धा के एक कोर्ट ने इस प्रकरण में पुलिस द्वारा दायर क्लोजर रिपोर्ट को खारिज कर फिर से जांच का आदेश दिया था.

पूर्व कुलपति विभूति नारायण राय 


हमारे पास उपलब्ध ऑडियो क्लिप में इस प्रकरण में एफआईआर दर्ज कराने वाले राजीव सुमन और कर्मचारी भालचंद्र के बीच की बातचीत इस प्रकार है, जो पूर्व कुलपति वी एन राय की इस प्रकरण में सीधी संलिप्तता का संकेत देती है:

लिंक क्लिक कर पूरी बातचीत सुन सकते हैं: बातचीत का ऑडियो 

“राजीव (रा.)- हेलो, भालचंद्र जी बोल रहे हैं..
भालचंद्र (भा.)- हेलो. हाँ जी.
रा. भालचंद्र जी
भा. जी.
रा. हां.  नमस्कार. मैं राजीव सुमन बोल रहा हूं.
भा. हाँ नमस्कार. बोलिए, बोलिए सर . बोलिए.
रा. पहचान पाए कि भूल गए.
भ. एकदम.. एकदम पहचान गए.
रा. कैसे हैं?
भ. बस बढ़िया भाई.
रा. आपसे एक मदद चाहिए थी अगर कर पाए तो बहुत एहसान मानूंगा...
भा. बताइये भाई.....
रा. मुझे बस एक बात बताइये कि ये जो माइग्रेशन सर्टिफिकेट है वो यूनिवर्सिटी मतलब कंप्यूटर से प्रिंट आउट
करती है ना..
भा. जी. फार्मेट प्रिंटेड होता है और उसपर जो कॉलम खाली रहते हैं
.............
(इस विषय पर बातचीत थोड़ी देर होती है. फिर एक पेमेंट की बातचीत है बीच में, वह ट्रिब्यूनल के मामले में है.)

भा. एक दो बार आपकी फ़ाइल आई थी पमेंट के लिए मुझे ध्यान था कि वो
रा. अच्छा अब आप फाइनेंस में हैं इसलिए
भा. हाँ...आर्बिट्रेशन वाले में जो 5000 रुपया पेमेंट होता है तो दुबारा मेरे पास फ़ाइल आई तो मुझे ध्यान है
रा- अरे उस टोकन मनी का क्या मतलब जब जीवन ही जब..
भा अरे उसका तो कोई मतलब ही नहीं आपका मामला जो उलझा हुआ है वही सुलझ जाए हम तो इतना ही चाहते
    हैं.
रा. सुलझेगा तो नहीं आप जान रहे हैं कि क्या मामला हुआ है.
भा नहीं वो तो आपको भी मालूम है मुझे भी मालूम है. उसमे कोई छिपने-छिपाने वाली बात नहीं है. चुकी अब
   क्या किया जाए, चुकी मामला इस तरह से उलझा हुआ है हम तो देख रहे हैं सारी चीजों को न. अब आर्बिट्रेटर
   लोगों ने क्या पक्ष रख रहे हैं, आप क्या पक्ष रख रहे हैं क्या निचोड़ निकलेगा वह तो अभी क्या..
रा. आर्बिट्रेशन से ज्यादा वो मैटर होगा. देखिये क्रिमिनल मैटर हो गया ....
भ. क्रिमिनल मैटर चुकी कैसे उलझा हुआ मामला हो गया, क्या त्रिपाठी जी ने किया मैं खुद नहीं समझ पा रहा
   हूँ उनको.

(त्रिपाठी मतलब कौशल किशोर त्रिपाठी, जो परीक्षा प्रभारी है और इस मामले में एक अभियुक्त भी. इसके बाद की बातचीत में पूर्व कुलपति विभूति राय की संलिप्तता के बारे में भालचंद्र बोलता है.)

रा. उसमे, उस समय विभूति बाबू ने किया क्या था न कि दिया था पुराने फार्मेट पर और रिसीविंग ले लिया
   था फोल्डेड पेपर पर.

भा. हां हाँ. यही सब. उनके दिमाग में ये सब चलता है जो लोग करते आये हैं ऐसा कुछ भी कर सकते हैं.
   आपके सामने वाला इतना थोड़े ही सोचता है कि हमारे साथ इस तरह से भी चीटिंग हो सकती है.

रा. हाँ..अब सुप्रीम  बॉस है और गुड फेथ में चीजें हो रही हैं तो कैसे..सोच भी नहीं सकता.
भा. एकदम एकदम भाई. अगर सामने बैठा वाला सही कह रहे हैं सुप्रीम बॉस अगर वो इस तरह से कर सकता
   है तो सामने वाला तो भाई हर चीज़ को नहीं देखता.

रा. हाँ. इसमें कादर नवाज़ जी का बहुत गन्दा भूमिका रहा.
भा. अरे क्या जो है. अरे सामान्य रूप से आप देखिये की कोई किसी को पैसा देता है आदमी नहीं गिनता है
   लो रख लो ठीक है अब दिया होगा तो सही दिया होगा. बताइये अब छोटी छोटी चीजों में भी. अरे जो आप
   कह रहे हैं सही भी है. अब क्या ..चीजें जो है ..
रा. चलिए जो होना था अब..
भा. आदमी कहाँ से कब चीटिंग कर ले जाए कोई नहीं..
रा. मतलब इस तरह से साजिश..देखिये कोई भी वाइस चांसलर होता ना जो एकेडेमिक्स से आता तो इस
    तरह मतलब इस तरह से फ्राड नहीं कर पाता. इस तरह की साजिश नहीं करता.
भा. नहीं करता..नहीं करता..
रा. चूँकि ये पुलिसिया बैकग्राउंड से रहे तो उनके दिमाग में इसी तरह की प्रवृत्ति रही है
भा. नहीं. इसी तरह से लोग अपने को करते आए हैं भाई. आप जो कह रहे हैं न जो बैकग्राउंड होता है न उसका
   भी असर तो रहता ही रहता है.
रा. एकदम एकदम.
भा. बस वही. वह है.
रा. बस ये सब है तो उसी में कादर नवाज खान सपोर्ट कर गए..उसी में सेल्फ अटेस्टेशन वाला मामला बना.
भा. हम्म..
रा. यही सब..कोई और जानकारी हो तो थोडा जरुर बताइयेगा बियोंड इसके
भा. अब यार उसमे जानकारी क्या..आपको भी जानकारी है मुझे भी जानकारी है क्योंकि न तो आप ऐसा कर सकते हैं. ठीक है न. आप जो कह रहे हैं जो बैकग्राउंड का असर है वही है. उसमे सच्चाई है. हंड्रेड परसेंट उसमे एक भी परसेंट कटने वाली चीज़ नहीं है. लेकिन उसको कैसे फेस करेंगे वो बड़ा मुश्किल काम हो गया.”



मायग्रेशन प्रकरण में क्या और क्यों झूठ बोल रहे हैं. डिप्टी रजिस्ट्रार कादरनवाज खान

इस केस से संबंधित एक बड़े अधिकारी कादर नवाज़ खान हैं, जिनका नाम भी उक्त एफ. आई.आर. में है. बताया जाता है कि उन्होंने पुलिस को और इस प्रकरण में राजीव सुमन के निष्कासन के सम्बन्ध में बने ट्रिब्यूनल के समक्ष झूठा बयान दिया है. ट्रिब्यूनल की अध्यक्षता हाई कोर्ट के रिटायर्ड जज एपी देशपांडे कर रहे हैं. दरअसल शोधार्थी राजीव सुमन ने अपने एफआईआर में बताया था उन दिनों अकादमिक के डिप्टी रजिस्ट्रार के रूप में कादर नवाज खान ने उन्हें और अन्य विद्यार्थियों को अपने डॉक्यूमेंट सेल्फ अटेस्ट के लिए बुलाया था. नवाज ने अपने बयान में कहा था कि उन्होंने दस्तावेजों पर सेल्फ अटेस्ट करने को किसी को नहीं बुलाया था, जबकि उनसे एक बड़े अधिकारी यानी डीन और दलित एवं आदिवासी अध्ययन विभाग के विभागाध्यक्ष, जहाँ सुमन शोधार्थी थे ने उनसे विपरीत बयान दिया है। डीन और विभागाध्यक्ष प्रोफ़ेसर एल कारुन्यकारा एवं दो शोधार्थियों ने पुलिस और ट्रिब्यूनल को बताया है कि दस्तावेजों को अटेस्ट करने के लिए कादर नवाज खान ने शोधार्थियों को बुलवाया था. सवाल है कि कादर नवाज खान क्यों झूठ बोल रहे हैं, वे क्या छिपा रहे हैं?

उलटा हस्ताक्षर 
बताया जाता है कि मायग्रेशन के रिसीविंग में सभी विद्यार्थियों के हस्ताक्षर सीधे फॉर्म में हैं, सिवाय दो के, जिनके मायग्रेशन का फर्जी होने का केस दर्ज है. इस तथ्य का खुलासा इस प्रकरण के सिविल मामले में गठित ट्रिब्यूनल में हुआ है.  इन दो शाधार्थियों का एफआईआर में कहना था कि उनके हस्ताक्षर फोल्डेड कागज़ पर लिए गये थे. दो विद्यार्थियों के हस्ताक्षर उलटे फॉर्म में हैं और यह फोल्डेड कागज पर ही संभव है जब कोई सामने से कागज़ बढ़ा कर साइन ले रहा हो.

गेंद पुलिस के पाले में
इस प्रकरण की अब वर्धा पुलिस कोर्ट के आदेश पर दुबारा जांच कर रही है. पहले इस मामले में आधा-अधूरा जांच कर पुलिस ने क्लोजर रिपोर्ट फ़ाइल कर दी थी, जिसे कोर्ट ने रिजेक्ट करते हुए दुबारा जाँच का आदेश दिया है. कोर्ट ने तीन महीने की अवधि दी थी. तीन महीने से अधिक हो गए हैं और पुलिस जाँच कर रही है. सवाल है कि क्या इन तथ्यों के आधार पर पुलिस शामिल अधिकारियों, कर्मचारियों को गिरफ्तार कर उनसे पूछताछ करेगी? क्या यह जानने की कोशिश करेगी कि विभाग का कर्मचारी क्या संकेत दे रहा है और डिप्टी रजिस्ट्रार क्यों झूठ बोल रहे हैं. तथा के के त्रिपाठी ने ऐसा क्या किया जिसका संकेत उसका सहयोगी दे रहा है.

लिंक पर  जाकर सहयोग करें , सदस्यता लें :  डोनेशन/ सदस्यता
आपका आर्थिक सहयोग स्त्रीकाल (प्रिंट, ऑनलाइन और यू ट्यूब) के सुचारू रूप से संचालन में मददगार होगा.
स्त्रीकाल का प्रिंट और ऑनलाइन प्रकाशन एक नॉन प्रॉफिट प्रक्रम है. यह 'द मार्जिनलाइज्ड'नामक सामाजिक संस्था (सोशायटी रजिस्ट्रेशन एक्ट 1860 के तहत रजिस्टर्ड) द्वारा संचालित है. 'द मार्जिनलाइज्ड'के प्रकशन विभाग  द्वारा  प्रकाशित  किताबें  अमेजन ,   फ्लिपकार्ट से ऑनलाइन  खरीदें 
संपर्क: राजीव सुमन: 9650164016, themarginalisedpublication@gmail.com

मुन्नी गुप्ता की कविताएं ( प्रेतछाया और रोटी का सवाल व अन्य)

$
0
0
मुन्नी गुप्ता
असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, हिन्दी विभाग, प्रेसिडेंसी कॉलेज, कोलकाता, संपर्क:munnigupta1979@gmail.com 

कैनवास रंग और जीवन

समन्दर ने
चिड़िया की हथेली में
तूलिका थमा दी.
और,
गहरे विश्वास से कहा,
रचो,
अपने भीतर के आकाश को,
अपने मन के कैनवास पर.

झांको,
अपने भीतर की अतल गहराई में
औ’ उतरो गहरे, भीतर और गहरे.
खींच लाओ उस रंग को,
 जो तुम्हारी तूलिका पर चढ़ जाए.

कैनवास पर रचा जा चुका था
एक जीवन.



चिड़िया प्रेम में हीर होना चाहती है

चिड़िया,
प्रेम में हीर होना चाहती है
दीवानगी में लैला
जुनूँ में सस्सी होना चाहती है
हौसले में साहिबा.

चिड़िया प्रेम में हीर होना चाहती है

लेकिन
समंदर प्रेम में
सिकंदर होना चाहता है


समन्दर की परवाज़ औ’ चिड़िया का पाठ

चिड़िया समंदर से कहती है
तुम अपनी ख्वाहिशों में
आसमान होना क्यूँ चाहते हो?
सब कुछ का अस्तित्व तहस-नहस कर
क्यूँ ,

क्यूँ,
चिड़िया के पंखों पे सवार होकर
दूर देश की यात्रा पर निकलना
चाहते हो.

समन्दर, ये तुम्हारा स्वभाव नहीं.
चाहत विस्तार देता है
औ’ संघर्ष ताकत.

तुम कब से,
अपने स्वभाव के विपरीत चलने लगे?

मैंने तो तुम्हें,
‘विनाश’ में नहीं ‘सृजन’ में देखा है

‘एकांतवास’में नहीं,
‘सहजीवन’में देखा है.


समंदर का तिलिस्म औ’चिड़िया की परवाज़       


चिड़िया कहती है
समंदर तुम्हारा तिलिस्म तो बहुत बड़ा है

तुम सारा खेल रचते हो
सारी कायनात, अपने में बिखेर लेते हो

लेकिन,
मैं तिलिस्म में नहीं
जीवन में विश्वास करती हूँ

न तो मैं चमकीली रेत पर बैठकर
तुम्हारे लिए शान्ति-गीत गा सकती हूँ
न ही तुम्हारी लहरों पर एक अनंत यात्रा के
ख़्वाब देखती हूँ

और न ही,
समंदर और आसमान के बीच
त्रिशंकु की तरह
फंसी रह सकती हूँ

मुझे अपनी मंजिल का पता नहीं
मगर ये जानती हूँ,
जीवन को जीवन से काटकर
अपने पंखों पर समेटकर
तुम्हें ले नहीं जा सकती.

क्योंकि,
जीवन में मेरा भरोसा गहरा है
मैं इसके खिलाफ कैसे हो जाऊं?

तुम्हारे लिए,
तुम्हारी मछली, तुम्हारी रेत,

तुम्हारी वनस्पतियाँ, तल में असंख्य जीव-जन्तु,
उन सबका क्या?

जीवन में,
चिड़िया का गहरा विश्वास
तिलिस्म के विरुद्ध है.


प्रेतछाया और रोटी का सवाल-एक

गोलमेज कांफ्रेंस लग चुकी है
प्रेतछाया के महल में
डायन और उसके अनुचर
मछली और समुद्री काली मछलियाँ
शामिल हैं सभी
प्रेतछाया के माया महल में
उसकी माया औ'किस्से में


चिड़िया, बित्ते भर चिड़िया ने
मौसम में
आग लगा रखी है

चिड़िया कहती है -
प्रेतछाया को रोटी से बहुत प्यार है
घी चुपड़ी रोटी, लकड़ी के कंडे वाली
आग में पकी  रोटी
चिड़िया ने खिलायी थीं उसे
गोल, ताज़ी, गर्मागर्म रोटियाँ
चिड़िया अपने सपने
जला-जलाकर बनाती थी रोटियाँ
उस आग में सपने भी
होम करती थी
पर क्षुधा शांत करती थी
प्रेतछाया की

आज रोटी पर बहस छिड़ी है
प्रेतछाया की रोटी पर

प्रेतछाया कहती है बड़े अभिमान से
मेरे महल में गुलामों की कमी नहीं है
मेरे इशारे पर सब कुछ करते हैं मेरे गुलाम
और बित्तीभर चिड़िया का दुस्साहस
कि मुझे मेरे ही साम्राज्य में बदनाम करे

ये आपातकालीन बैठक रोटी पर है
रोटी पर बहस छिड़ी है
किसने बनाई? कब बनाई?
कहा बनाई ? कैसे बनाई ?
कैसे खिलाई ?


प्रेतछाया और रोटी का सवाल-दो

जब पूरा राज्य रोटी के लिए हाहाकार कर रहा है
आश्चर्य है - प्रेतछाया के किस्से में
अपनी रोटी की खातिर
आपातकालीन बैठक !

रोटी के लिए क्रान्ति-गीत लिखते देखा
रोटी के लिए क्रान्ति-भाषण देते देखा
रोटी के लिए साम्यवाद की गुहार लगाई
रोटी के लिए सर्वहारा की पुकार लगाई

रोटी के प्रश्न पर ही
साम्राज्य की सिरमौर बनी

पर देखिये अपने गुलामों की रोटी पर ही
आँखें जमाए रखीं
आँखें चुराकर ही
मजलूम थालियों की रोटियाँ गिनती
एक नजर से
गुलामों की पांत का जायजा लेती
रोटी चुगती चिड़िया पर भी नजर रहती
कितना खाया? कब कब ?
और कितनी कितनी बार खाया ?

रोटी का प्रश्न
सिर्फ जबान पर ही था प्रेतछाया के
उसकी जिह्वा सिर्फ
अपनी  रोटी की ही बात ‘जानती है
वह सिर्फ अपनी ही रोटी का स्वाद
पहचानती है

रोटी का प्रश्न
राज्य की रोटी का प्रश्न
सिर्फ प्रश्न था
प्रेतछाया के मायालोक में. 



लिंक पर  जाकर सहयोग करें , सदस्यता लें :  डोनेशन/ सदस्यता
आपका आर्थिक सहयोग स्त्रीकाल (प्रिंट, ऑनलाइन और यू ट्यूब) के सुचारू रूप से संचालन में मददगार होगा.
स्त्रीकाल का प्रिंट और ऑनलाइन प्रकाशन एक नॉन प्रॉफिट प्रक्रम है. यह 'द मार्जिनलाइज्ड'नामक सामाजिक संस्था (सोशायटी रजिस्ट्रेशन एक्ट 1860 के तहत रजिस्टर्ड) द्वारा संचालित है. 'द मार्जिनलाइज्ड'के प्रकशन विभाग  द्वारा  प्रकाशित  किताबें  अमेजन ,   फ्लिपकार्ट से ऑनलाइन  खरीदें 
संपर्क: राजीव सुमन: 9650164016, themarginalisedpublication@gmail.com

स्त्रीकाल शोध पत्रिका अंक (30)

$
0
0


इस अंक के लेखक: पल्लवी, राहुल,शशांक शुक्ला, पूजा, सुबोधकांत, ज्योतिशर्मा, सत्यप्रकाश, शाइस्ता सैफी,आरती, ललिता बघेल, प्रोफेसर सुधा, जीतेन्द्र, आरती, माधवी धुर्वे, विनीत सिंह, मो बिलाल, किरण तिवारी , ज्ञानेंद्र प्रताप सिंह, राजेश्वरी, साक्षी सिंह, उपमा शर्मा, अनुराधा, अमित कुमार झा. इस अंक को लिंक के जरिये नॉटनल पर पढ़ा जा सकता है.











एम.जे. अकबर के मानहानि मुकदमे में नया मोड़: दिल्ली बार काउंसिल दिल्ली ने वकालतनामे पर उठाया सवाल

$
0
0

स्त्रीकाल डेस्क 

पूर्व केन्द्रीय मंत्री एम जे अकबर द्वारा दिल्ली केपटियाला हाई कोर्ट में दायर मानहानि के मुकदमे में खुद उनके लिए मुश्किलें बढ़ सकती हैं. 27 अक्टूबर को दिल्ली बार कौंसिल ने उनके वकील को नोटिस जारी करते हुए गलत वकालतनामे के लिए दो सप्ताह में जवाब माँगा है. गौर तलब है कि पूर्व विदेश मंत्री ने #MeToo कैम्पेन के तहत अपने ऊपर लगे आरोपों के बाद एक आरोपकर्ता पत्रकार प्रिया रमानी के खिलाफ दिल्ली के पटियाला कोर्ट में मानहानि का मुकदमा दर्ज किया है.



स्त्रीवादी पत्रिका स्त्रीकाल द्वारा 16 अक्टूबर को प्राप्त शिकायतका संज्ञान लेते हुए  दिल्ली बार  काउन्सिल ने सर्वमत से फैसला लेते हुए यह कार्रवाई की है. स्त्रीकाल की ओर से पत्रिका के सम्पादक संजीव चंदन ने बार काउंसिल को लिखा था कि इस मामले में पूर्व विदेशमंत्री द्वारा दायर मानहानि के मुकदमे में न सिर्फ बार काउंसिल के नियमों का उल्लंघन किया गया है, बल्कि वकालतनामे को मीडिया में जारी कर और 97 वकीलों की सूची जारी कर शिकायतकर्ताओं पर मानसिक दवाब बनाने की कोशिश की गयी है.  शिकायत में कहा गया है कि बार काउंसिल के नियम के अनुसार वकालतनामे पर वकीलों का नाम, पता, संपर्क और एनरोलमेंट नम्बर आदि दर्ज करने होते हैं. अकबर के लिए कारंजावाला एंड कम्पनी द्वारा दायर वकालतनामे में इस नियम का अनुपालन नहीं हुआ है और यहाँ तक कि नियमानुसार एम जे अकबर के हस्ताक्षर को भी वेरीफाय नहीं किया गया है.

बार काउन्सिल ने इस शिकायत का संज्ञान लेतेहुए एडवोकेट कारंजावाला को नोटिस जारी की है और कहा है कि वकालतनामे पर चार वकीलों के ही एनरोलमेंट नंबर दर्ज हैं और उनके नाम तक नहीं लिखे गये हैं. इस सन्दर्भ में दो सप्ताह में जवाब माँगा गया है.

अब सवाल है कि जिस वकालतनामे के साथ मानहानि कामामला दर्ज हुआ वही गलत है तो क्या दर्ज मामला गैरकानूनी नहीं है? स्त्रीकाल की ओर से शिकायतकर्ता संजीव चन्दन ने कहा कि इस मामले में न सिर्फ नियमों का उल्लंघन हुआ है बल्कि 97 वकीलों की सूची मीडिया में जारी कर #MeToo कैम्पेन के तहत आवाज उठाने वाली स्त्रियों को दवाब में लाने की कोशिश की गयी है. आवाज उठाने वाली महिलाओं को प्रोत्साहित करना जरूरी है इसलिए हमने यह कदम उठाया है.

आज पटियाला हाई कोर्ट में अकबर ने मजिस्ट्रेट के सामने अपना बयान दर्ज करवाया है. मामले की अगली सुनवाई 12 नवम्बर को होगी


लिंक पर  जाकर सहयोग करें , सदस्यता लें :  डोनेशन/ सदस्यता
आपका आर्थिक सहयोग स्त्रीकाल (प्रिंट, ऑनलाइन और यू ट्यूब) के सुचारू रूप से संचालन में मददगार होगा.
स्त्रीकाल का प्रिंट और ऑनलाइन प्रकाशन एक नॉन प्रॉफिट प्रक्रम है. यह 'द मार्जिनलाइज्ड'नामक सामाजिक संस्था (सोशायटी रजिस्ट्रेशन एक्ट 1860 के तहत रजिस्टर्ड) द्वारा संचालित है. 'द मार्जिनलाइज्ड'के प्रकशन विभाग  द्वारा  प्रकाशित  किताबें  अमेजन ,   फ्लिपकार्ट से ऑनलाइन  खरीदें 
संपर्क: राजीव सुमन: 9650164016, themarginalisedpublication@gmail.com

यौन स्वतंत्रता, कानून और नैतिकता (अरविन्द जैन)

$
0
0



वर्तमान भारतीय समाज का राजनीतिक नारा है 'बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ', मगर सामाजिक-सांस्कृतिक आकांक्षा है 'आदर्श बहू'।वैसे भारतीय शहरी मध्य वर्ग को 'बेटी नहीं चाहिए', मगर बेटियाँ हैं तो वो किसी भी तरह की बाहरी (यौन) हिंसा से एकदम 'सुरक्षित'रहनी चाहिए।हालाँकि रिश्तों की किसी भी छत के नीचे, स्त्रियाँ पूर्ण रूप से सुरक्षित नहीं हैं।यौन हिंसा, हत्या, आत्महत्या, दहेज प्रताड़ना और तेज़ाबी हमले लगातार बढ़ते जा रहे हैं।दरअसल पुरुषों को घर में घूंघट या बुर्केवाली औरत (सती, सीता, सावित्री, पार्वती, तुलसी या आनंदी,) चाहिए और अपने ‘आनंद बाज़ार’ चलाने और ब्रांड बेचने के लिए ‘बोल्ड एंड ब्यूटीफुल’बिकनीवाली। सो, स्त्रियों को सहमति के लिए लाखों डॉलर, पाउंड, दीनार या सोने का लालच (विश्व सुन्दरी के ईनाम और प्रतिष्ठा) और जो सहमत नहीं उनके साथ जबरदस्ती यानी हिंसा, यौन-हिंसा, दमन, उत्पीड़न, शोषण के तमाम हथकंडे। पुरुषों के लिए घर-बाहर पूर्ण यौन स्वतंत्रता है।
संक्षेप में ‘नया कानून’ यह है कि शादी से पहले ‘सहजीवन’ और शादी के बाद पत्नी से बलात्कार और अन्य यौन क्रीड़ाओं तक का कानूनी अधिकार और घर से बाहर‘व्यभिचार’ (कॉल-गर्ल, एस्कॉर्ट, वेश्या या प्रेमिका) की खुली कानूनी छूट...’समलैंगिकता’ भी अपराध नहीं! स्त्रियों को ‘सबरीमाला’ या किसी भी मंदिर जाने पर रोक नहीं और मर्दों को किसी भी लाल बत्ती क्षेत्र में कोई नहीं पकड़ेगा। व्यभिचारिणी (अपवित्र) पत्नी को गुजाराभत्ता तक नहीं मिलेगा...! दहेज़ की शिकायत पर कोई गिरफ़्तारी नहीं....बहुत कर लिया दहेज़ कानूनों का दुरुपयोग! समाज में व्यभिचारबढे या देह-व्यापर, स्त्री शोषण-उत्पीड़न बढे या यौन-हिंसा के आंकड़े! स्त्रियाँ चीखती-चिल्लाती रहें ‘सोशल मीडिया’ पर...#METOO...#मीटू!
व्यभिचार कानून असंवैधानिक: मर्दों के लिए भीविवाहेत्तर सम्बन्ध अपराध नहीं!
सुप्रीम कोर्ट के पाँच न्यायमूर्तियों(दीपक मिश्रा, खानविलकर, नरीमन,धनन्जय चंद्रचूड और इंदु मल्होत्रा) की संवैधानिक पीठ ने 'व्यभिचार' (भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 497) को असंवैधानिक करार दे ही दिया। (जोसफ शाइन बनाम भारत सरकार (रिट पेटिशन क्रिमिनल194/2017,दिनांक 27.09.2018) और कोई रास्ता भी नहीं था।158 साल पुराने कानूनों में से एक, इस कानून को देश कि सबसे बड़ी अदालत असंवैधानिक ही करार दे सकती थी। पत्नियों को पति के विरुद्घ शिकायत का अधिकार देती, तो पितृसत्ता के लाडलों की सारी पोल ही ना खुल जाती।
‘व्यभिचार कि भाषा-परिभाषा (असंवैधानिक होने से पहले)
सुप्रीम कोर्ट के उपरोक्त निर्णय से पहले धारा-497 के अनुसार अगर कोई व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति की पत्नी से, उसके पति की सहमति से या मिली-भगत के बिना सहवास (बलात्कार नहीं) करता था, तो व्यभिचार का अपराधी माना जाता था, जिसके लिए उसे पांच साल की कैद या जुर्माना या दोनों हो सकते थे। लेकिन ऐसी किसी भी स्थिति में महिला को उत्प्रेरणा का अपराधी नहीं माना जाता था। जबकि तलाक के लिए पति या पत्नी द्वारा शादी के बाद (पहले नहीं) पति-पत्नी के अलावा किसी भी अन्य व्यक्ति के साथ स्वेच्छा से सहवास करने पर एक-दूसरे के विरुद्ध तलाक का मुकदमा दायर किया जा सकता है। मतलब सजा के लिए व्यभिचार की परिभाषा अलग और तलाक के लिए परिभाषा अलग।
धारा-497 का दूसरा साफ-साफ अर्थ यह था कि व्यभिचार सिर्फ किसी दूसरे की पत्नी के साथ संबंध रखना था और वह भी अगर उसके पति की भी सहमति या मिली-भगत हो। दो पति आपस में अपनी पत्नियां एक-दूसरे से बदल लें, तो कोई व्यभिचार नहीं था/है। मैं नहीं जानता कि भारतीय समाज में ऐसा भी होता है या नहीं, लेकिन इस संदर्भ में कुछ साल पहले एक कहानी जरूर पढ़ी थी और पढ़कर बहुत दिन तक भुनभुनाता रहा था ( ‘हंस’, अक्तूबर 1998 में ज्ञानप्रकाश विवेक की कहानी“ अंततः” पृष्ठ 24)। इधर ‘वाइफस्वैपिंग’ पर, हिंदी कि यशस्वी लेखिका गीताश्री का उपन्यास “बाँहों के दरमियान” भी एक वेबसाईट पर उपलब्ध है।
खैर…इसका अर्थ यह हुआ कि आपसी सहमति से पुरुष किसी भी बालिग, अविवाहित, विधवा या तलाक-शुदा महिला से कोई अपराध किए बिना यौन संबंध रख सकते थे/हैं, चाहे ऐसी महिला उनकी अपनी ही मां, बहन, बेटी, बुआ, मौसी, भाभी, चाची, ताई, भतीजी या भानजी क्यों न हो। हालांकि ऐसी कुछ महिलाओं के साथ वैध विवाह नहीं किया जा सकता। विवाहित महिला से भी संबंध रख सकते थे बशर्ते उसके पति को कोई ऐतराज न हो। पति का क्या है, वह सहमति दे सकता था/है या सब कुछ देखते हुए भी चुप्पी साध सकता है, अगर उसका कोई हित सधता हो। अपने हित के लिए सब कुछ उचित था/है शायद। इस संदर्भ में शानीजी की कहानी‘इमारत गिराने वाले’ और कृष्णा सोबती का उपन्यास ‘दिलोदानिश’ उल्लेखनीय है।पढना चाहें तो ‘मदाम बावेरी, ‘लेडी चैटरलीज लवर’ और ‘अन्ना केरेनिना’ भी महत्वपूर्ण हैं।
कुल मिलाकर कानूनी मतलब यह कि पत्नी पति की संपत्ति थी/है, पति चाहे तो खुद इस्तेमाल करे, न चाहे तो न करे या चाहे तो किसी को इस्तेमाल करने दे और न चाहे तो न करने दे। पत्नी की अपनी इच्छा, मर्जी या सहमति का न कोई अर्थ, न अधिकार। पति की सहमति के बिना संबंध रखने का परिणाम होता पुरुष के लिए जेल और पत्नी के लिए तलाक। पति अगर व्यभिचारी हो, तो पत्नी को पति या उसकी प्रेमिका के खिलाफ शिकायत तक करने का अधिकार नहीं था/है (आपराधिक दंड संहिता की धारा-198)
व्यभिचार के कानूनी प्रावधान (धारा-497) में पुरुषों को ऐय्याशी की खुली छूट ही नहीं दी गईथी, बल्कि कहीं यह अधिकार भी दे दिया गया था (है) कि वह जरूरत पड़ने पर, अपनी पत्नी को अपने हितों की खातिर ‘वस्तु'की तरह इस्तेमाल भी कर सके। इधर अखबारों में पति-पत्नी द्वारा मिलकर वेश्यावृत्ति करने की बहुत सी खबरें छपी हैं, जो हमारी धारणा को और अधिक पुष्ट करती हैं।
वास्तव में, धारा-497 ही ऐसा कानूनी सुरक्षा-कवच है जिसके कारण समाज,जिस में व्यापक स्तर पर वेश्यावृतिऔर काल-गर्ल व्यापार फैल रहा है। वेश्यावृत्ति के बारे में बने कानून के अनुसार अनैतिक देह-व्यापार नियंत्रण अधिनियम के किसी भी प्रावधान में पुरुष ग्राहक पर कोई अपराध ही नहीं बनता। पकड़ी जाती हैं हमेशा वेश्याएं, कालगर्ल या दलाल। देह व्यापार में अरबों का लेन-देन हर साल होता है लेकिन वेश्याओं की आर्थिक स्थिति? वेश्या, कालगर्ल या अनैतिक चरित्र की महिलाएं ही क्यों, भारतीय कानून पति द्वारा 18 साल से  बड़ी उम्र की पत्नी के साथ सहवास को भी बलात्कार नहीं मानता-धारा 375 का अपवाद)। इंग्लैंड की एक अदालत ने कुछ साल पहले एक निर्णय में पति द्वारा पत्नी से जबरदस्ती सहवास को बलात्कार माना जाता था, लेकिन भारत में अभी ऐसे किसी फैसले की उम्मीद करना मूर्खता होगी।
सवाल है कि अदालतें सामाजिक नैतिकता की ‘सुरक्षा प्रहरी’क्यों नहीं होतीं? सामाजिक नैतिकता का कानून से कोई संबंध हो या न हो लेकिन कानून की अपनी भी तो कोई नैतिकता होनी ही चाहिए? सामाजिक नैतिकता और कानून के बीच जो गहरी खाई है, वह समाज में अनैतिकता,व्यभिचार और  यौन-हिंसा, को बढ़ावा नहीं दे रही? या फिर समाज में लगातार बढ़ती अनैतिकता,व्यभिचारऔर यौन-हिंसा को रोकने में कानून पूरी तरह लाचार और बेकार नहीं है? क्या व्यभिचार पर कानूनी अंकुश न होने के कारण ही कहीं अवैध संबंधों की पृष्ठभूमि में तनाव, लड़ाई झगड़े, मारपीट, तलाक, आत्महत्या या हत्या के मामले नहीं बढ़ रहे....बढ़ेंगे ? व्यभिचार के परिणामस्वरूप इसकी सबसे अधिक शिकार या पीड़ित पक्ष औरतें ही क्यों हैं? क्या इसलिए कि उऩके पास कोई विकल्प या बचाव का कोई रास्ता ही नहीं छोड़ा गया है?
व्यभिचार के आधार पर तलाक
व्यभिचार के आधार पर तलाक-संबंधी प्रावधान फौजदारी कानून से कहीं बेहतर हैं, क्योंकि वहां पति या पत्नी द्वारा एक-दूसरे के अलावा किसी से भी यौन संबंध को व्यभिचार माना गया है। परिभाषा बेहतर है लेकिन व्यभिचार को प्रमाणित करना कितना मुश्किल है या कितना आसान? अधिकतर इस प्रावधान का प्रयोग पुरुषों द्वारा अपनी पत्नी पर व्यभिचार के झूठे-सच्चे आरोप लगाकर अपमानित करने और छुटकारा पाने के लिए ही किया जाता है। भरण-पोषण भत्ता न देने-लेने के लिए तो,अक्सर ऐसे ही आरोप लगाए जाते हैं, क्योंकि बचाव के लिए ऐसे कानूनी प्रावधान बनाए गये हैं।
व्यभिचार के आधार पर तलाक के एक मुकदमे में (ए.आई.आर.1982, दिल्ली 328) पत्नी ने पति को एक लड़की के साथ कमरे में आपत्तिजनक अवस्था में रंगे हाथों पकड़ा और फिर तलाक का मुकदमा दायर किया। तलाक मिल जाता लेकिन अपील में हाई कोर्ट के न्यायमूर्ति श्री महेंद्र नारायण ने कहा कि अधिक से अधिक यह पति के ‘असभ्य व्यवहार’ का प्रमाण है ‘व्यभिचार’ का नहीं, क्योंकि यह प्रमाणित नहीं किया गया है कि पति ने लड़की के साथ सहवास किया, जो कानून की परिभाषा के अनुसार अनिवार्य है। अपने फैसले की पुष्टि में इंग्लैंड के दो फैसलों का उदाहरण भी दिया गया था कि पत्नी द्वारा किसी अन्य से हस्तमैथुन या बिना सहवास के यौन-संबंध व्यभिचार नहीं है। इसी फैसले में एक जगह (पृष्ठ 331) लिखा है ‘कृत्रिम गर्भाधान’ व्यभिचार नहीं है।क्योंकि इसमें सहवास नहीं है या पुरुषों का कृत्रिम गर्भाधान द्वारा पिता बनने का गौरव पाने में कोई परेशानी नहीं है? पिता भी बन गये और किसी को पता भी नहीं चला कि पति ‘नपुंसक’ है। पत्नी को कृत्रिम रूप से गर्भाधान करने का अधिकार तो है, लेकिन बच्चे गोद लेने का फैसला और अधिकार सिर्फ पति को, पत्नी की तो सहमति-भर चाहिए। हां, ऐसे ही दोहरे चरित्र(हीन) वाला है हमारा कानून और समाज।
यह सच है कि अवैध संबंधों में स्त्री-पुरुष समान रूप से भागीदार होते हैं। दो बालिग स्त्री-पुरुष आपस में जैसे संबंध रखना चाहें रखें, लेकिन कानून में विवाहित स्त्रियों के साथ जिस तरह पक्षपात किया जा रहा था/है, वह उचित ही नहींअन्यायपूर्ण भी था/है। पत्नी को व्यभिचारी पुरुष या प्रेमिका के विरुद्ध फौजदारी कानून में शिकायत करने का अधिकार दिया जाना चाहिए, परन्तु पुरुष समाज को डर है कि अगर ऐसा हो गया तो उनकी ऐय्याशी ही नहीं, सारा देह व्यापार, नारी शोषण-उत्पीडन के हथकंडे और औरतों पर हुकूमत के सारे हथियार ही चौपट हो जाएंगे। सामाजिक नैतिकता से जुड़े बिना, कानून समाज का कोई भला नहीं कर सकते। कानून सामाजिक नैतिकता के प्रहरी नहीं बन सकते, तो न्याय के प्रहरी कैसे बन सकते हैं? तब तो मानना पड़ेगा कि अदालतें न्याय नहीं, सिर्फ फैसले सुनाती हैं और न्यायाधीश, न्यायमूर्ति नहीं मात्र निर्णायक भर हैं। नैतिकता के बिना, न्याय नपुंसक नहीं होता क्या?
सौमित्र विष्णु बनाम भारत सरकार (ए. आई.आर1985 एस. सी.1618) मामले में न्यायमूर्ति वाई.वी.चंद्रचूड  का विचार था कि "फौजदारी कानून की अपेक्षा दीवानी कानून में बेहतर व्याख्या दी गई है। अगर हम फरियादी की दलील मान लें तो धारा-497 को कानून से निकाल फेंकना पड़ेगा। उस हालत में व्यभिचार और भी निरंकुश हो जाएगा और तब किसी को भी व्यभिचार के अपराध में सजा देना नामुमकिन हो जाएगा, इसलिए समाज का हित इसी में है कि “सीमित व्यभिचार दंडनीय बना रहे”। लेकिन सभी न्यायमूर्तियों और उनके पुत्र न्यायमूर्ति धनन्जयचंद्रचूड अपने (न्यायमूर्ति) पिता के विचारों-तर्कों से सहमत नहीं।
फैसले से स्त्रियों को क्या मिला?
लिंग समानता और स्त्री मुक्ति के नारे की आड़ में, यह निर्णय मर्दों को व्यभिचार/ऐय्याशी/शोषण/देह व्यापार की असीमित छूट ही देगा और फैसले के दूरगामी भयंकर परिणाम होंगे। हालांकि विवाहित स्त्री के लिए तो 'व्यभिचार'पहले भी, ना अपराध था और ना कोई सज़ा। हाँ! इस फैसले से मर्दों को भी, 'अपराध-मुक्त'कर दिया गया है। पत्नी को व्यभिचारी पति या उसकी प्रेमिका के विरुद्ध शिकायत तक करने का अधिकार नहीं था। अब 'व्यभिचार'अपराध नहीं रहा, तो शिकायत की बात ही खत्म। विवाहित स्त्री को इस फैसले से कुछ भी 'हासिल'नहीं हुआ और होना भी ना था। कुछ अति उत्साही महिलाएँ इस फैसले से बहुत खुश हैं कि अब वो किसी की संपत्ति नहीं...पति मालिक नहीं...! मीडिया भी खूब लिंग समानता की बात उछाल रहा है। 'परस्त्री गमन'अब संविधान सम्मत। कानून (अ)नैतिकता का प्रहरी नहीं। समझना मुश्किल है कि इस फैसले से स्त्रियों को ऐसा क्या मिल गया, जो पितृसत्ता का प्रचार-प्रसार तन्त्र इतनी उछल कूद मचा रहा है?
लिंग समानता और स्त्री गरिमा की आड़ में
सवाल है कि अगर आपसी सहमति से यौन संबंध अपराध या अनैतिक नहीं, तो अनैतिक मानव व्यापार अधिनियम, 1986 (वेश्यावृति) भी असंवैधानिक होना चाहिए!18 साल से कम उम्र की लड़की से यौन संबंध बलात्कार का अपराध माना जाता है, मगर लाखों नाबालिग लड़कियों से रोज बलात्कार होता है, और आज तक एक भी रिपोर्ट दर्ज़ नहीं, क्यों? अगर 'व्यभिचार'अपराध नही, तो 'बहुविवाह'का विरोध क्यों? जब तक पति को कानूनी रूप से अपनी बालिग पत्नी से बलात्कार तक करने की छूट (कानूनी अधिकार) है, तब तक ऐसे कागज़ी फैसले व्यर्थ और अर्थहीन हैं....कानून की नज़र में तो विवाहित औरत अभी भी पति की ही संपत्ति है...बनी रहेगी। पति को वैवाहिक बलात्कार से छूट का प्रावधान भी असंवैधानिक घोषित करके तो दिखाओ ना! वैवाहिक संबंधों की पुनर्स्थापना संबंधी क़ानून (Restitutionofconjugalrights) तो अभी भी बना ही हुआ है ना! रुकमा बाई केस (1884) से लेकर अब तक क्या बदला! (विस्तार में जानने के लिए पढ़ें ‘एन्स्लेवडडाटर’स’- सुधीर चन्द्रा)

व्यभिचारिणी (अपवित्र) पत्नी को गुजाराभत्ता नहीं मिलेगा!
लगभग अठारह साल पहले लिखा था “आपराधाधिक प्रक्रिया संहिता,1973 कि धारा125 की उप-धारा 3 के अंत में एक स्पष्टीकरण दिया गया है “अगर पति ने किसी अन्य महिला से विवाह कर लिया है या रखैल रख ली है, तो यह समझा जाएगा कि पत्नी के के लिए, पति से अलग रहने का उचित कारण मौजूद है।” लेकिन उप-धारा 4 में प्रावधान किया गया है कि अगर पत्नी (तलाकशुदा भी) व्यभिचारपूर्णजीवन व्यतीत कर रही है, तो वह अपने पति(पूर्व पति)से गुजारा-भत्ता लेने की अधिकारी नहीं होगी। मतलब यह कि पुरुष (पति) को व्यभिचार करने (रखैल रखने) का कानूनी अधिकार है, लेकिन ऐसी पत्नी (व्यभिचारिणी, कुलटा, पतिता, छिनाल, वेश्या, वगैरह) को गुजाराभत्ता तक नहीं मिलेगा। ऐसे ही प्रावधान हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 25, हिन्दू दत्तकता और भरण पोषण अधिनियम, 1956 की धारा 24, विशेष विवाह अधिनियम, 1954 और पारसी विवाह अधिनियम, 1936 में भी हैं। कहीं ‘लिविंग इन एडल्ट्री’ शब्द का प्रयोग किया गया है और कहीं ‘शुडबीचेस्ट’। धर्मांतरण के बाद भी भत्ता नहीं मिलेगा।यानि स्त्री ना धर्म बदल सकती है और ना पुरुष। गुजारा भत्ता चाहिए तो ‘सती, सीता-सावित्री’ बन कर रहे......वरना! भारतीयविधि आयोग की 132वीं रिपोर्ट (1991) में इन प्रावधानों को हटाने का सुझाव दिया गया था, लेकिन स्त्री की चीख कौन सुनता है!” (‘नारी न्याय और नैतिकता’-अरविन्द जैन,'हिंदुस्तान'2 जून, 2000)
'औरत होने की सज़ा'(ओं) की लिस्ट बहुत लंबी-चौड़ी है, वो यहाँ और अभी नहीं। विवाहेतर संबंध अपराध नहीं, मगर इसके परिणाम स्वरूप हुए बच्चों (अवैध) का उत्तरदायित्व स्त्री को ही उठाना होगा। यही सलाह देंगें ना कि "सुरक्षित संबंधों के लिए 'निरोध'इस्तेमाल करें!"मत भूलो कि व्यभिचारी तो अभी भी 'अपराधी'/अधम/नीच/पापी ही समझा जाएगा। कानून ने अपराध_मुक्त कर दिया तो क्या...अर्धसामंती समाज के 'मर्द'भी उसे क्षमा कर देंगे? मामला खाप पंचायत से लेकर 'ऑनरकिलिंग'तक फैला है..और फैलेगा। धाँय.. धाँय..! पत्नी को गैर-मर्द के साथ आपत्तिजनक स्थिति में देख कर, गुस्से या उत्तेजना (graveandsuddenprovocation) में उनकी हत्या करने पर सज़ा में कमी/छूट/रियायत करने का विधि-विधान अभी भी वही है...है ना! पाठक चाहें तो पढ़ें के.एम.नानावती बनाम महाराष्ट्र (ए.आई.आर.1962 सुप्रीम कोर्ट 605) केस या याद करें फिल्म “ये रास्ते हैं प्यार के” या ‘रुस्तम’...! 
समलैंगिकता अपराध नहीं
'व्यभिचार'को असंवैधानिक घोषित करने से पहले, उल्लेखनीय है कि समलैंगिकता (भारतीय दंड संहिता,1860 की धारा 377 ) पर दिल्ली उच्चन्यायालय ने नाज़ फाउंडेशन (2009 डीआरजे 1) और सुरेश कौशल (2014(1) एस.सी.सी.1) मामले में फैसला सुनाया था कि यह प्रावधान असंवैधानिक है। सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली उच्चन्यायालय के फैसले को निरस्त करते हुए कहा था कि संसद/सरकार चाहे तो इस पर कानून बनाए। लेकिन 2018 में नवतेज़ सिंह जोहर बनाम भारत सरकार और अन्य याचिकाओं (नंबर 572/2016 व अन्य) में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा, न्यायमूर्ति खानविलकर, नरीमन. धनंजय चंद्रचूड़ और इंदु मल्होत्रा)ने अपना ही निर्णय बदलते हुए, समलैंगिकता कानून (भारतीय दंड संहिता,1860 की धारा 377 ) की वैधता के सवालपर कहा कि बालिग स्त्री-पुरुष आपसी सहमति से एकांत में समलैंगिक संबंध (अप्राकृतिक यौन संबंध) बनाते हैं, तो इसे अपराध नहीं माना-समझा जाएगा। सब न्यायमूर्तियों ने सैंकड़ों पृष्ठों में अपना अलग-अलग फैसला लिखा-सुनाया। मतलब पितृसत्ता ने अपने  विशिष्ट बेटे-बेटियों को समलैंगिक यौन संबंधों की छूट देकर, 'सम्पूर्ण यौन क्रांति'का सूत्रपात कर दिया।
यौन हिंसा बलात्कार कानूनों में संशोधन
निर्भयाबलात्कार-हत्या कांड (16 दिसम्बर, 2012) के बाद देशभर में हुए विरोध, प्रदर्शन, आंदोलन के परिणाम स्वरूप बलात्कार कानून में बदलाव के लिए, रातों-रात जे. एस. वर्मा कमीशन बैठाया गया, अध्यादेश (फरवरी, 2013) जारी हुआ और फिर कानूनी संशोधन किये गए। पितृसत्ता द्वारा अपनी नाबालिग बेटियों को 'सुरक्षित'रखने के लिएसहमति से सहवास की उम्र सौलह साल से बढ़ा कर अठारह साल की गई।(भारतीय दंड संहिता,1860 की धारा 375) मतलब अठारह साल से कम उम्र की लड़की से, उसकी सहमति से भी यौन संबंध बनाना बलात्कार का अपराध माना-समझा जाएगा।मगर बेटों(पति) को उनकी अपनी 15 साल से बड़ी उम्र की (बहू) पत्नी से सहवास ही नहीं, बल्कि संशोधन के बाद 'अन्य यौन क्रीड़ाओं' (अप्राकृतिक यौन क्रीड़ाओं/ मैथुन) तक का कानूनी अधिकार दिया, जिसे किसी भी स्थिति में (वैवाहिक) बलात्कार नहीं माना-समझा जाएगा।(भारतीय दंड संहिता,1860 की धारा 375 का अपवाद) कोई पुलिस-अदालत पत्नी की शिकायत का संज्ञान नहीं ले सकती।(आपराधिक दंड प्रक्रिया संहिता,1973 कि धारा 198 उप-धारा 6) कोई दलील-अपील नहीं। यह दूसरी बात है कि चार साल बाद (अक्टूबर 2017) सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति मदन बी. लोकुर और दीपक गुप्ता ने अपने 127 पृष्ठों के निर्णय में कहा कि पन्द्रह से अठारह साल के बीच की उम्र की पत्नी से यौन संबंध को बलात्कार का अपराध माना जाएगा।लेकिन माननीय न्यायमूर्तियों ने अठारह साल से बड़ी उम्र की पत्नी के बारे में चुप्पी साध ली। सो बालिग़ विवाहिता अभी भी, पति के लिए घरेलू 'यौन दासी'बनी हुई है...बनी रहेगी। कोई नहीं कह सकता कि वैवाहिक बलात्कार से पति को कानूनी छूट पर विचार विमर्श कब शुरू होगा?
12 साल से कम उम्र की बच्चियों के साथ बलात्कार की सज़ा फाँसी
याद रहे कि इसी साल (2018)12 साल से कम उम्र की बच्चियों के साथ बलात्कार के मामलों में भी, फांसी की सज़ा का भी प्रावधान किया गया। आपराधिक कानून (संशोधन) अध्यादेश, 2018 दिनांक 21अप्रैल, 2018 जारी होने के बाद, 12 साल से कम उम्र की बच्ची से बलात्कार की सज़ा उम्र कैद या फाँसी।न्यूनतम 20 साल कैद। (भारतीय दंड संहिता, 1860, भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1873, आपराधिक दंड प्रक्रिया संहिता और बाल अपराध संरक्षण अधिनियम, 2012 की कुछ धाराओं में अध्यादेश जारी कर संशोधन किया गया है। 'कठुआ'और 'उन्नाव'बलात्कार कांड (2018) के बाद उभरे जनाक्रोश को ठंडा करने के लिए 2012-13 फिर दोहराया गया। फाँसी के फंदे से बचने के लिए अपराधी अपने ख़िलाफ़ सारे सबूत और गवाह भी मिटाने का भरसक प्रयास करता रहा है..करेगा। सो अबोध बच्चियों की बलात्कार के बाद हत्या की संभावना ही नहीं आंकड़े भी बढ़ रहे हैं...बढ़ेंगे ही। बाकी कुछ बचा तो, न्यायिक विवेक करता रहेगा, उचित सज़ा का फैसला। गंभीर चिंता यह है कि कहीं ऐसा ना हो कि अदालतें, 'दुर्लभतम में #दुर्लभ'मामला ही ढूँढती रहे और ऐसे अपराधों में सज़ा, पहले से भी कम हो जाये।अदालतों की संवेदनशीलता और गंभीरता के बिना, यह मिशन अधूरा ही होगा। और अगर सही से अनुपालन हुआ, तो यह अध्यादेश स्वयं (पितृ)सत्ता के गले में, फाँसी का फंदा सिद्ध होगा।सुप्रीम कोर्ट से अंतिम फैसला होने के बावजूद, अभी तो ‘निर्भयाकाण्ड’ के हत्यारे/दोषियों को भी फाँसी नहीं हुई।
सहजीवन: यौन स्वतंत्रता के रास्ते

बालिग स्त्री-पुरुष द्वारा आपसी सहमति से यौन संबंध बनाना, किसी भी कानून में कभी कोई अपराध नहीं था/है। बालिग स्त्री-पुरुष को बिना विवाह, पति-पत्नी की तरह साथ रहने और यौन संबंध बनाने की वैधानिक मान्यता 2006 में ही प्रदान कर दी गई थी।(घरेलू हिंसा अधिनियम, 2006) मगर एस. आर. बत्रा बनाम तरुण बत्रा (सिविल अपील 5837/2006) में सुप्रीम कोर्ट के माननीय न्यायमूर्ति एस. बी. सिन्हा और मार्कन्डेकाटजू ने कहा कि घरेलू हिंसा अधिनियम, 2006 कि धारा 17(1) के अंतर्गत पत्नी को सिर्फ अपने पति के घर में ही रहने का अधिकार है। अपने सास-ससुर के घर में रहने का कोई कानूनी अधिकार नहीं है। मतलब बहू को ससुराल वाले, जब चाहें अपने घर से धक्के मार कर बाहर निकाल सकते हैं।
शादी का झांसा देकर सहजीवन में किसी लड़की के साथ शारीरिक रिश्ते बनाना और बाद में शादी से मना करना, बलात्कार के दायरे में आता है।वह भी तब, जब लड़के का लड़की से शुरू से ही शादी करने का कोई इरादा न हो। हम इसे'शादी की आड़ में‘यौन शोषण'भी कह सकते हैं।अधिकतर लड़के शादी का झांसा देकर, शारीरिक रिश्ते बनाते हैं औरत तब तक बनाते रहते हैं, जब तक लड़की गर्भवती नहीं हो जाती।कुछ समय बाद, गर्भपात कराना भी मुश्किल हो जाता है और अंततः मामला परिवार और पड़ोसियों की नजर में आ ही जाता है।बाद के अधिकतर मामलों में,ऐसे दोषियों के खिलाफ मामले दर्ज होते हैं।रोज़ हो रहे हैं....होंगे!
वास्तव में यौन शोषण (हिंसा) के अधिकांश मामले, अनियंत्रित काम-वासना को संतुष्ट करने के लिए, बेहद सावधानी से रचे होते हैं।कामुक फिल्मी छवियों का एहसास और उद्दाम‘फैंटेसी’का एकमात्र उद्देश्य,महिलाओं पर हावी होना है।दरअसल, वास्तविक बलात्कार या 'डेट रेप'करने से पहले, बलात्कारी के दिमाग में नशे की तरह, कई बार इसकी‘रिहर्सल’की गई होती है।मगर प्राय पीड़िता को ही सदा दोषी ठहराया और अपमानित किया जाता है।परिजनों द्वारा कथित‘खानदान की इज्ज़त'के नाम पर प्रताड़ित किया जाता है। ऐसे दहशतज़दा धार्मिक-सामाजिक और सांस्कृतिक परिवेश में, स्त्रियों के लिए अपनी मर्जी से निर्णय लेने का कितना ‘स्पेस’ बचता है?
विवाह-पूर्व सेक्स अपराध नहीं
सर्वोच्च अदालत ने विवाह-पूर्व सेक्स मसले पर यह फैसला सुनाया था – “यह सच है कि भारतीय समाज की आम राय है कि वैवाहिक पार्टनर के बीच यौन संबंध होने चाहिए।यदि(भारतीय दंड संहिता कीधारा-497 द्वारा परिभाषित 'व्यभिचार'को अपवाद स्वरूप)कोई वयस्क आम सहमति से यौन संबंध बनाता है,तो यहां कोई कानूनन अपराध नहीं है।“ (एस.खुशबू बनाम कान्निम्मल और अन्य)

जहाँ एक औरत ने दूसरी जाति के पुरुष से शादी की,उनके परस्पर सहवास को 'लिव-इन रिलेशनशिप'में वयस्कों के बीच के रिश्ते को अपराध नहीं माना (व्यभिचार के स्पष्ट अपवाद के साथ), हालांकि इसे अनैतिक माना जा सकता है।इस तरह एक वयस्क लड़की अपनी पसंद से शादी कर सकती है या फिर पसंद के साथ रह सकती है। (लता सिंह बनाम उत्तरप्रदेश सरकार और अन्यए.आई.आर. 2006,एस.सी. 2522)
दहेज़ उत्पीडन: महिलाओं द्वारा कानूनों का दुरूपयोग
एक तरफ यौन स्वतंत्रता कि घोषणाएं मगर दूसरी ओर तमाम उदारवादी-सुधारवादी न्यायिक सक्रियता के बावजूद (विपरीत), अनेक फैसलों में कहा गया है कि विवाहित महिलाएँ दहेज कानूनों का दुरुपयोग कर रही हैं. सुप्रीम कोर्ट के माननीय न्यायमूर्ति चन्द्र मोली कुमार प्रसाद और पिनाकीचन्द्रा घोष ने दहेज उत्पीड़न के अपराधियों की गिरफ्तारी पर रोक लगाते हुए अपना निर्णय सुनाया। (अरनेश कुमार बनाम बिहार राज्य, 2014 (8) एस. सी. सी. 273) सुप्रीम कोर्ट की एक और खंड पीठ (न्यायमूर्ति आदर्श कुमार गोयल और उदय उमेश ललित) ने 27 जुलाई 2017 को दहेज उत्पीड़न मामलों को कानून का दुरुपयोग बताते हुए, हर शहर में जाँच समिति बनाने के आदेश के साथ अन्य दिशा-निर्देश भी दिए थे। (राजेश शर्मा बनाम उत्तर प्रदेश राज्य, क्रिमिनल अपील 1277/2014) इस निर्णय से बहू को दहेज के लिए उत्पीड़ित करने वाले पति एवमपरिवार को असीमित छूट मिली और बहुओं को विकल्पहीन अंधेरे में धकेल दिया गया।
इस निर्णय का राष्ट्रीय स्तर पर विरोध और आलोचना हुई। होनी ही थी। खैर....एक साल बाद ही पुनर्विचार याचिका पर सुनवाई के बाद, सुप्रीम कोर्ट (न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा, खानविलकर और धनंजय चंद्रचूड़) को  अपना (राजेश शर्मा बनाम उत्तर प्रदेश राज्य) फैसला बदलना पड़ा और जाँच समितियों के गठन को गैर कानूनी बताया।(सोशलएक्शनफ़ॉर मानव अधिकार बनाम भारत सरकार, क्रिमिनल अपील 1265 /2017) 498ए पर इस निर्णय से भी, दहेज उत्पीड़न की शिकार बहुओं को कोई विशेष राहत मिलने की कोई संभावना नज़र नहीं आ रही। हाँ! इतना ही कह सकते हैं कि पुराने निर्णय के पैबन्दों को, नए रेशमी लबादे से ढंक दिया गया है। क्या विधायिका और न्यायपालिका मिल कर, अपने बेटे-बेटियों/परिवार की ही वैधानिक सुरक्षा में नहीं लगे हैं? बहुओं की चिंताकौन करेगा! सम्मानपूर्वक जीने-मरने का अधिकार पाने के लिए स्त्रियाँ, रोज़ कचहरी के चक्कर काटती घूम रही हैं.
कानून के चोर दरवाज़े!
बाल विवाह करना या करवाना संगेय पर जमानत योग्य अपराध है,जिसकी सज़ा दो साल कैद या दो लाख ज़ुर्माना या दोनों है मगर तीन तलाक़ संगेय पर गै रजमानती अपराध बनाया गया है, जिसकी सज़ा तीन साल कैद या ज़ुर्माना या दोनों।
अगर अठारह साल से अधिक उम्र का लड़का, अठारह साल से कम उम्र लड़की से विवाह करे तो अपराध।सज़ा दो साल कैद या दो लाख ज़ुर्माना या दोनों हो सकते हैं।(बालविवाहनिषेधअधिनियम, 2006 कीधारा 9)
इसका सीधा-सीधा अर्थ है कि अगर लड़का भी अठारह साल से कम हो, तो कोई अपराध नहीं!1929 से बाल विवाह विरोधी कानूनों के बावजूद, क्या यह नाबालिग़ बच्चों को भी विवाह की आज़ादी नहीं? क्या संसद,सरकार और सुप्रीम कोर्ट को मालूम नहीं कि कितनी चतुराई से जान बूझकर बाल विवाह के लिए, एक सुरक्षित चोर दरवाज़ा बनाकर छोड़ दिया गयाहै? ग्रामीण वोट बैंक ही नहीं, धार्मिक और सांस्कृतिक संस्कारों का भी मामला है।
उदारवादी-सुधारवादी या क्रन्तिकारी ‘कॉस्मेटिक सर्जरी’
स्पष्ट है कि पश्चिमी विश्वविद्यालयों की आधुनिकतम सोच-समझ से प्रभावित और व्यक्तिगत आज़ादी के विचारों से प्रेरित, इस फैसले के दूरगामी परिणाम होंगे. सामाजिक उत्तरदायित्व के तमाम सिद्धांतों की उपेक्षा और विरोध में गढ़े तर्क-वितर्कों से किसी भी कल्याणकारी योजना का शिलान्यास नहीं किया जा सकता. समय और समाज की सांस्कृतिक सीमाओं में कैसे-कैसे सभ्य स्त्री-पुरुष संवाद और आपसी संबंध विकसित होंगे- कहना कठिन है. ‘सहजीवन’ कानून से लेकर ‘समलैंगिकता’ और ‘व्यभिचार’ तक के कानूनों को संवैधानिक कसौटी पर जांचने-परखने और सुधारने से पहले, क्या यह अपेक्षित नहीं कि एक बार न्याय और कानून के पूरे जाल-जंजाल को समझा जाए, ताकि विचार-विमर्श के बाद एक साथ समुचित संशोधन किये जा सके! वरना विसंगतियां और अन्तर्विरोध यूँ के यूँ बने रहेंगे. उदारवादी-सुधारवादी या क्रन्तिकारी ‘कॉस्मेटिक सर्जरी’ से कोई आमूल-चूल बदलाव होने वाला नहीं है. 
खैर....नायाब 'आंनद बाज़ार'का उद्घाटन हो गया हैं..! कल 'सम्पूर्ण यौन क्रांति'भी सफल होगी ही। क्या यही सार है बदलते समय और समाज में, पितृसत्ता के नये समाजशास्त्र का? लगता है अब पितृसत्ता के युवा राजकुमारों (समलैंगिक भी शामिल) को 'सम्पूर्ण यौन स्वतंत्रता'चाहिए, जो वो हर कीमत पर पाने-हथियाने के तमाम कानूनी-गैरकानूनी रास्ते और हथकंडे जानने-समझने लगे हैं। पत्नी यौन संबंधों से मना करे, तो ‘मानसिक क्रूरता’ के आधार पर तलाक़ की धमकी भी देंगे और बाहर यौन संबंधों की खुली छूट है ही! पितृसत्ता के रोज बदलते नए-नए चेहरे सामने आये..आ रहे हैं। लिंग समानता और स्त्री गरिमा की आड़ में, पितृसत्ता अपने पुत्रों के लिए, जो'सम्पूर्ण यौन क्रांति'ला रही है, उस पर गंभीरता से सोचना-विचारना और समझना होगा।

अरविंद जैन स्त्रीवादी अधिवक्ता हैं. 
सम्पर्क: 9810201120
अरविन्द जैन,
फ्लैट ए1, प्लाट नंबर 835, सेक्टर 5,
वैशाली, गाज़ियाबाद, उत्तर प्रदेश पिन 201010

लिंक पर  जाकर सहयोग करें , सदस्यता लें :  डोनेशन/ सदस्यता
आपका आर्थिक सहयोग स्त्रीकाल (प्रिंट, ऑनलाइन और यू ट्यूब) के सुचारू रूप से संचालन में मददगार होगा.
स्त्रीकाल का प्रिंट और ऑनलाइन प्रकाशन एक नॉन प्रॉफिट प्रक्रम है. यह 'द मार्जिनलाइज्ड'नामक सामाजिक संस्था (सोशायटी रजिस्ट्रेशन एक्ट 1860 के तहत रजिस्टर्ड) द्वारा संचालित है. 'द मार्जिनलाइज्ड'के प्रकशन विभाग  द्वारा  प्रकाशित  किताबें  अमेजन ,   फ्लिपकार्ट से ऑनलाइन  खरीदें 
संपर्क: राजीव सुमन: 9650164016, themarginalisedpublication@gmail.com

#MeToo (मीटू) ने औरतों को विरोध की भाषा दी: मेरा रंग के दूसरे वार्षिक समारोह में पैनल-चर्चा और काव्य पाठ

$
0
0

प्रेस नोट 

स्त्रियों के मुद्दों पर काम कर रही संस्था मेरारंग के वार्षिक समारोह का पूरा दिन स्त्री विमर्श और स्त्री अभिव्यक्ति के नाम रहा। शनिवार को गांधी शांति प्रतिष्ठान के सभागार में पहली बार हिन्दी के फोरम में #MeToo पर विस्तार से चर्चाहुई। दूसरा सत्र कविताओं के जरिए महिला अभिव्यक्ति को समर्पित था।




#मीटू पर आयोजित पैनल डिस्कशन का संचालन वाणीप्रकाशन की निदेशक अदिति माहेश्वरी ने किया। उन्होंने मूवमेंट की पृष्ठभूमि का जिक्र करते हुए वक्ताओं के सामने सवाल रखे। कथाकार व पत्रकार गीताश्री ने कहा कि #मीटू की वजह से औरतें खुद को अभिव्यक्त कर पा रही हैं। पत्रकार अंकिता आनंद ने कहा कि यह कहना गलत है किसी ने उत्पीड़न के वक्त आवाज नहीं उठाई, इतने सालों बाद क्यों? #मीटू से पहले हमारे पास वो भाषा नहीं थी जिसके जरिए खुद को अभिव्यक्त कर सकें। स्त्रीकाल के संपादक संजीव चंदन ने कहा कि स्त्री को अन्य मानकर विमर्श न करें। उन्होंने कहा कि #MeToo अभियान हर वर्ग की स्त्री के लिए अवसर है। सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता अरविंद जैन ने कहा कि बहस को जब तक हम गांवों, कसबों तक नहीं ले जाएंगे तब तक कोई बदलाव नहीं आएगा। उन्होंने मौजूदा कानून खामियों का भी जिक्र किया।



कार्यक्रम के आरंभ में मेरा रंग की संचालक शालिनी श्रीनेत ने बताया कि दो साल पहले उन्होंने मेरा रंग यूट्यूब चैनल और फेसबुक पेज की मदद से शुरू किया। जिसमें वे किसी भी क्षेत्र में कुछ बेहतर कर रही महिलाओं के वीडियो इंटरव्यू करती थीं। उन्होंने संस्था के माध्यम से जमीनी स्तर पर भी काम शुरू किया और 'मेरी रात मेरी सड़क'कैम्पेन को एनसीआर में सात हफ्ते तक सफलतापूर्वक चलाया। गोरखपुर में इसकी एक बड़ी टीम बन चुकी है। मेरा रंग लगातार एसिड अटैक विक्टिम्स, स्लम एरिया की महिलाओं के लिए भी काम करता रहा है।
दूसरे सत्र में काव्य पाठ का आयोजन था। विषय था- आज की स्त्री और कविता, जिसमें पूर्व इनकम टैक्स कमिश्नर और कवयित्री संगीता गुप्ता मुख्य अतिथि के तौर पर मौजूद रहीं। उपस्थित कवियों ने अपनी रचनाओं के ज़रिए महिलाओं के अधिकारों की आवाज़ उठाई। चर्चित कवि जितेन्द्र श्रीवास्तव ने अपनी कविता 'नमक'के ज़रिए महिलाओं के आंसुओं की सुंदर व्याख्या की तो वहीं हेमलता यादव ने एक मजदूर औरत की व्यथा बताई। इसके साथ ही संगीता गुन्देचा निवेदिता झा, वाज़दा ख़ान, रीवा सिंह, आफ़रीन, सीमा रवंदले ने महिला मन को कविताओं में अभिव्यक्त किया। कार्यक्रम का संचालन युवा कवयित्री तृप्ति शुक्ला द्वारा किया गया और आर्टिस्ट व कवि सीरज सक्सेना ने सभी के प्रति आभार व्यक्त किया। अंत में आयोजक शालिनी श्रीनेत ने अतिथियों को धन्यवाद दिया और रंजना, अनु शर्मा, उद्भव, अऩिकेत, कुन्थू ने सभी अतिथियों को पौधा भेंट कर धन्यवाद ज्ञापन किया।

लिंक पर  जाकर सहयोग करें , सदस्यता लें :  डोनेशन/ सदस्यता
आपका आर्थिक सहयोग स्त्रीकाल (प्रिंट, ऑनलाइन और यू ट्यूब) के सुचारू रूप से संचालन में मददगार होगा.
स्त्रीकाल का प्रिंट और ऑनलाइन प्रकाशन एक नॉन प्रॉफिट प्रक्रम है. यह 'द मार्जिनलाइज्ड'नामक सामाजिक संस्था (सोशायटी रजिस्ट्रेशन एक्ट 1860 के तहत रजिस्टर्ड) द्वारा संचालित है. 'द मार्जिनलाइज्ड'के प्रकशन विभाग  द्वारा  प्रकाशित  किताबें  अमेजन ,   फ्लिपकार्ट से ऑनलाइन  खरीदें 
संपर्क: राजीव सुमन: 9650164016, themarginalisedpublication@gmail.com

भिखारी ठाकुर की तुलना शेक्सपियर से करना भिखारी ठाकुर का अपमान है

$
0
0


आँचल 

अंग्रेजी साहित्य की शोधार्थी आंचल भिखारी ठाकुर की तुलना शेक्सपियर से किये जाने को भिखारी ठाकुर का  अपमान बता रही हैं. इस टिप्पणी के अनुसार हमेशा राजघरानों को केंद्र में लेकर नाटक लिखने वाले और महिलाओं का बारम्बार अपमानजनक चित्रण करने वाले शेक्सपियर से आमजनों को पात्र बनाकर महिलाओं के सम्मान में सन्देश देने वाले नाटकों के लेखक भिखारी ठाकुर की तुलना कहीं से भी उचित नहीं है. 

उत्तर प्रदेश से हूँ और 28 जुलाई 2018 के पहले तक मुझेभिखारी ठाकुर के बारे में कोई जानकारी नहीं थी। शायद इसलिए भी कि मैं अंग्रेजी साहित्य की स्टूडेंट हूँ। अभी हाल ही में 28 जुलाई 2018 को पहली बार उनके बारे में जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी के एक कार्यक्रम में जाना हुआ, वहाँ उनके ऊपर बनी फिल्म देखी, और उनके कला, और बिहार के लौंडा नाच के बारे में जाना और उनकी जिंदगी और व्यक्तित्व से रू-ब-रू हुई। आज तक मैं जिन भी किताबो को पढ़ी, ड्रामा, या उपन्यास या जो भी पढ़ी कभी भी पहले से कोई धारणा बना कर नही पढ़ी हूँ, न ही कोई पहले से निर्धारित सोच के साथ ही कोई फ़िल्म देखी हूँ। भिखारी ठाकुर के बारे में जानकर लगा कि मुझे उनके बारे में जानकारी होनी चाहिए थी, सवाल यह भी आया कि उनके बारे में मेरे जैसे जाने कितने लोगों को उनके बारे में नहीं मालूम। रही बात उनकी भोजपुरी भाषा की तो किसी भी मलयालम, तेलुगु, कन्नड़ से तो ज़्यादा हिंदी भाषी लोग उनकी भाषा समझ सकते हैं, रही बात उनके लिखे नाटकों की तो हमारी भाषा न होते हुए भी आज बच्चा-बच्चा शेक्सपियर के बारे में जानता है।


 रामलीला क्या है? वह भी तो एक नाटक ही है, नाटक जहाँ लोगो  के मनोरंजन के लिए कोई राम बनता है तो कोई रावण, कोई सीता तो कोई अजीब सा मुखोटा लगा कर हनुमान बन जाता है, उस रामलीला का लोग सालो भर इंतेज़ार भी करते हैं। पर क्या भिखारी के नाटक को भी लोग वही तवज्जो देते हैं? क्यों नही जानते उनके बारे में लोग? रामायण में सालो से वही एक ही कहानी को लोग देखते आ रहे हैं, भिखारी हमें ढेर सारी नए नए पात्र कहानी, गीत देते हुए भी क्यूँ गुमनाम से हैं? शायद जवाहर लाल नेहरू विश्विद्यालय (जेएनयू/ JNU) न होता तो मैं तो कम से कम उनके बारे में जान ही नहीं पाती।

खैर जब कार्यक्रम शुरू हुआ तो कुछ लोगो ने,खुद इंटरनेट के गूगल बाबा ने भी उन्हें बिहार का शेक्सपियर कहा और कह कर संबोधित किया गया। मुझे लगा ही होगा कोई शेक्सपियर से मिलता जुलता उनका काम, रचना, या चरित्र। मैं रोमांचित हो गई कि कोई नाटक, या फिल्म दिखाई जाएगी जो शेक्सपियर से मेल खाता हो। जो शेक्सपियर जैसा हो।लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ।

कार्यक्रम के बाद मैं सोचने पर विवश हो गई किभिखारी ठाकुर को कोई बिहार का शेक्सपियर कैसे कह सकता है? अंग्रेजी साहित्य के स्टूडेंट होने के नाते मुझे शेक्सपियर के कार्यो की जानकारी है, और आज भिखारी ठाकुर के कार्यो से भी कुछ-कुछ परिचित हुई। जब मैंने दोनो के कार्यो को देखा तो मुझे आश्चर्य हुआ।और मैं सोचने पर विवश हो गई कि भिखारी ठाकुर को किसने और किस आधार पर बिहार का शेक्सपियर कहा? उसके क्या आधार थे? क्या सिर्फ इसलिए कि शेक्सपियर इंग्लैंड का या कहें कि अंग्रेजी का लोकप्रिय उपन्यासकार हैं? या फिर भिखारी ठाकुर नाम शेक्सपियर से जुड़ने के बाद उनका कद ऊँचा हो जाएगा? 

सामान्यतः इस तरह की तुलना समान क्षेत्र के लोगो, जिसने सामान काम किया हो के बीच किया जाता है, लेकिन यहाँ भिखारी ठाकुर और शेक्सपियर में कोई सम्बन्ध नहीं है। मुझे नहीं मालूम है कि क्यों किसी ने इस बारे अभी तक नहीं सोचा कि उन्हें आजतक बिहार का शेक्सपियर कहा जाता रहा!!!  कम-से-कम बिहार के अंग्रेजी साहित्य के विद्यार्थियों को तो सोचना ही चाहिए था कि भिखारी ठाकुर की तुलना शेक्सपियर से कैसे किया जा सकता है? भिखारी ठाकुर के कार्यो को देखते हुए उनका तुलना शेक्सपियर से करना उनका अपमान है, उनके साथ अन्याय है।

बहुत संक्षिप्त में भिखारी ठाकुर और शेक्सपियर की तुलना इस प्रकार है - 
शेक्सपियर की लेखनी में आपको मुख्यतः यह मिलेगा - 
(1) विलियम शेक्सपियर ने हमेशा ही अपने हर लेखन में जो भी चरित्र लिया वो या तो राजा है, या राजकुमार है, या फिर राजघराने से सम्बंधित रहा है। चाहे वह हैमलेट राजकुमार हो या मैकबेथ राजा या उनके अन्य पात्र। उनके नायक पात्र हमेसा से ही “उच्च घराने” के ही मिलेंगें।
(2) शेक्सपियर ने अपनी रचनाओ में या तो महिलाओं को बहुत ही नकरात्मक तरीके से पेश किया है या फिर उन्हें बहुत ही कम तवज्जो दी है। शेक्सपियर की रचनाओं में महिलायों का न कोई रोल है न ही महत्त्व। उदहारण के तौर पर यदि आप हैमलेट पढ़ेंगे तो वह कहते हैं- ”Frailty thy name is woman”, मतलब “धोखा, गद्दारी ही महिला होने का नाम व मतलब है”, कहीं उन्होंने चुड़ैल के रूप में महिलाओं को दिखलाया,  कहीं धोखेबाज के रूप में-कई जगह तो उनके चरित्र पर लांछन भी लगाए हैं, तब भी पूरी दुनिया उनकी रचनाओं से ही उत्पन्न शब्द Caesarian इस्तेमाल करता है, हर उस महिला के लिए जो कुदरती तरीके से बच्चे को जन्म नही दे सकती, और आज तक वही धारणाबनी चली आ रही है, बड़ी अजीब बात है कि हम उड़ीसा को ओडिसा में बदल सकते हैं, बम्बई को मुम्बई कर दिये, सड़को के नाम जाने क्या से बदल कर क्या कर दिये, यहाँ तक ही विश्विद्यालय तक के नाम,विषय सब कुछ बदल डाले,पर ये Caesarian अभी तक वही का वही है, जाने इस पर कभी डॉक्टर लोग अपना कोई शोध करेंगे कि नहीं यह मुझे नहीं मालूम है।
(नोट: दुनियाँ में पहली बार ऑपरेशन से बच्चे के जन्म द्वितीय मौर्य सम्राट बिन्दुसार (जन्म 320 ईसापूर्व, शासन 298-272 ईसापूर्व) का हुआ था. बिन्दुसार की माँ गलती से जहर खा ली थी, उसके बाद उसकी मृत्यु हो है. बिन्दुसार का जन्म उसकी माँ के मृत्यु के बाद हुआ था.)
(3) शेक्सपियर की लगभग हर रचना में आपको भूत, प्रेत, आत्मा, चुड़ैल, या पिशाच मिलेंगे,जो अनायास ही सही पर अंधविश्वास को कहीं न कहीं बढ़ावा दे रहे हैं।

(4) शेक्सपियर के ज्यादातर लेखन में आपको ज्यादातर खून-खराबा और आपसी रंजिश ज़रूर से मिलेगी,कहीं पति-पत्नी पर शक के चलते उसे मारता है Othello, कही कोई भूत के उत्पन्न होने से भतीजा अपने चाचा को मारने की सोचता है Hamlet .

भिखारी ठाकुर का नाटक बेटी-बेचवा 

अब आतें हैं भिखारी ठाकुर पर -
अभी तक जितना मैं समझी हूँ उसके अनुसार भिखारी ठाकुर के लेखन और कार्यो में आपको यह सब मिलेगा -
(1) भिकारी ठाकुर ने, गरीब और आम जन की बात की है। समाज के आम लोगो की समस्याओं की ओर उन्होंने ध्यान दिया है।वे किसी भी बड़े आलीशान स्टेज पर नही साधारण से स्टेज का इस्तेमाल करते हैं।
(2) उन्होंने महिलायों के कपडे पहनकर नृत्य किया लेकिन उन्होंने कभी किसी महिला के बारे में नकारात्मक बात नहीं कही,दूसरा वह पहले पुरुष नहीं हैं, जिसने किसी महिला का वेश धारण किया है. भिखारी ठाकुर ने महिला का वेश धारण कर महिलाओ के हक़ ही बात की, उनका मजाक नहीं उड़ाया.
(3) उन्होंने लड़कियों के कम उम्र में ब्याहे और बेचे जाने का विरोध किया।उसके लिए नाटक बनाया, गीत लिखा, और नृत्य-नाटक किया। मनोरंजन के माध्यम से बड़ी-बड़ी बातें सीखा देने से वह साहित्य का असल लक्ष्य प्राप्त कर पाने में बुहत ही सफल रहे।

(4) भिखारी ठाकुर गाँव देहात के समस्यों से समाज को रु-ब-रु करतें हैं, और उसे दूर करने की बात करतें हैं, एक नाटक कार होने के बावजूद भी वह समाज कल्याण की बात भी सोचे, किसी भी उनकी कृति में आपको आपसी जलन, द्वेष नहीं मिलेगा।
(5) भिखारी ठाकुर अपने लेखन, नृत्य, और नाटक से आपको रुला सकते हैं, हँसा सकते हैं, सोचने पर मजबूर कर सकते हैं, लेकिन शेक्सपियर  की तरह वे आपको कभी भी खून-खराबा, आपसी रंजिश, भूत-प्रेत, अंधविश्वास की दुनिया में नहीं ले जाते हैं।

अब आप खुद सोचिए कि क्या भिकारी ठाकुर को बिहार काशेक्सपियर कहना उचित होगा?क्या इंग्लैंड में होगा कोई जिसे भिखारी ऑफ एवन (एवन Avon एक जगह का नाम) कहा जाए? या भिखारी ऑफ Westminster कहा जाए???

भारत जैसे जाति प्रधान देश में वे लोगो को इतना हँसा गए,इतना लोगों के अंदर प्रेम पसार गए और ख़ामोशी से यू ही चले गए, सोच कर देखिये अगर वह भी कोई द्विज सवर्ण होते तो क्या तब भी लोग उनसे ऐसे ही अनजान रहते?? छोटे-छोटे स्कूल तक मे शेक्सपियर के बारे में भारत के कोने-कोने में पढ़ाई होती है, विश्विद्यालयो तक, उनके जाने के कई सौ साल बाद भी आज भी उनकी कृतियों पर शोध हो रहा है, संभाल कर रखी गयी हैं उनकी कृतियों को, क्या हमारे पास हमारे अपने देश के अपने भिखारी ठाकुर की कोई भी कृति है???
किसी लाइब्रेरी में कुछ है-वेद पुराण खोज खोज कर लाये जा रहे हैं, क्या भिखारी ठाकुर का कुछ है हमारे पास, अक्सर ही लोग डिग्री के लिए शोध करते हैं, अपने नाम और यश के लिए विदेशों तक चले जाते हैं, और ऐसे ही कितने भिखारी ठाकुर यूँ ही गुमनाम से रह जाते हैं??

हम ऑस्कर की बात तो बेखौफ करते हैं,क्या कोई इंग्लैंड का आएगा कभी यहाँ भिखारी ठाकुर अवार्ड के लिए?? आखिर हम कब तक ग़ुलाम रहेंगे???, सोचिये की क्या हम सच में आज़ाद हैं?? अगर हैं तो इतने सारे देश के साहित्यकारों के होते हुए भी भिखारी ठाकुर को लोग क्यूँ नहीं जानते?? क्यूँ नहीं उन्हें, उनकी रचनाओं को पढ़ाया जाता?

जाने हम कब नकल बंद करेंगे, भारत मेकितने ही टैलेंट बस गरीबी और जाति व्यवस्था के चलते ही दबा दिए जाते हैं। भिखारी ठाकुर की तुलना शेक्सपियर से करना उनका अपमान है।

आँचल,“Marxist Interpretation of the Select Novels of John Steinbeck” विषय पर शोध कर रहीं हैं। 

साभार: नेशनल प्रेस 

लिंक पर  जाकर सहयोग करें , सदस्यता लें :  डोनेशन/ सदस्यता
आपका आर्थिक सहयोग स्त्रीकाल (प्रिंट, ऑनलाइन और यू ट्यूब) के सुचारू रूप से संचालन में मददगार होगा.
स्त्रीकाल का प्रिंट और ऑनलाइन प्रकाशन एक नॉन प्रॉफिट प्रक्रम है. यह 'द मार्जिनलाइज्ड'नामक सामाजिक संस्था (सोशायटी रजिस्ट्रेशन एक्ट 1860 के तहत रजिस्टर्ड) द्वारा संचालित है. 'द मार्जिनलाइज्ड'के प्रकशन विभाग  द्वारा  प्रकाशित  किताबें  अमेजन ,   फ्लिपकार्ट से ऑनलाइन  खरीदें 
संपर्क: राजीव सुमन: 9650164016, themarginalisedpublication@gmail.com

कस्तूरबा गांधी शर्मासार: कस्तूरबा स्कूल में लड़कियां की गयीं फिर नंगी

$
0
0

सुशील मानव 

‘मेरे हॉस्टल के सफ़ाई कर्मचारी ने सेनिटरी नैपकिन
फेंकने से कर दिया है इनकार
बौद्धिक बहस चल रही है
कि अख़बार में अच्छी तरह लपेटा जाए उन्हें
ढँका जाए ताकि दिखे नहीं ज़रा भी उनकी सूरत
करीने से डाला जाए कूड़ेदान में
न कि छोड़ दिया जाए
'जहाँ-तहाँ'अनावृत ...’
उपरोक्त पंक्तियाँ कवि शुभम श्री की कविता ‘मेरे हॉस्टल के सफ़ाई कर्मचारी ने सेनिटरी नैपकिन फेंकने से इनकार कर दिया है’ से है। जिसमें लड़कियों की यूज्ड सौनिटरी पैड के प्रति एक पुरुष सफाईकर्मी की घृणित मानसिकता की अभिव्यक्ति हुई है। लेकिन क्या समाज में सिर्फ पुरुषों में ही ये मानसिकता होती है। जाहिर है आप का जवाब होगा नहीं। लेकिन अगर वो महिलाएं शिक्षक हों जिनका काम ही है बच्चों को सही शिक्षा देकर समाज को चेतना संपन्न और बराबर बनाना तो फिर क्या कहेंगे आप। बता दें कि तीन दिन पहले पंजाब के एक बालिका स्कूल के महिला शिक्षकों ने स्कूस की बारह लड़कियों को महज इसलिए कपड़े उतारने मजबूर कर दिया क्योंकि उन्हें स्कूल टॉयलेट में एक इस्तेमाल (यूज) किया हुआ सैनिटरी पैड मिला था। तो उन्होंने छात्राओं के कपड़े उतरवा दिए ताकि यह पता चल सके कि उनमें से किसने सैनिटरी पैड पहना है!



इस मामले में एक वीडियो क्लिप सामने आया हैजिसमें यह छात्राएं रोते-बिलखते हुए आरोप लगा रही हैं कि 3 दिन पहले कुंडल गांव में उनके विद्यालय परिसर में शिक्षिकाओं ने उन्हें नंगी किया।लड़कियां छठवीं, सातवीं और आठवीं कक्षा की हैं। लड़कियों ने एसडीएम पूनम सिंह को दिए बयान में कहा कि किसी लड़की ने इस्तेमाल के बाद सैनेटरी पैड टॉयलेट में फेंक दिया था। सातवीं की प्रभारी शिक्षिका ज्योति चुघ इससे नाराज हो गईं। वे जानना चाहती थीं कि पैड किस लड़की ने फेंका। जवाब नहीं मिला तो वे 12 लड़कियों को स्कूल के किचन में ले गईं और उनके कपड़े निकलवाकर चेक किया।

इससे पहले बिल्कुल ऐसी ही बर्बर और अमानवीय घटना पिछले साल 25 मार्च 2017 में मुजफ्फरनगर के जिले की खतौली तहसील में स्थित कस्तूरबा गाँधी बालिका आवासीय स्कूल में घटित की गई थी।जब इस स्कूल में प्रधानाध्यापक ने 70 लड़कियों को मासिक धर्म की जांच के लिए कपड़े उतारने को मजबूर किया था। लड़कियों और उनके परिजनों ने एक शिकायत में आरोप लगाया था कि स्कूल की प्रधानाध्यापक ने 70 लड़कियों को कपड़े उतारने पर मजबूर किया था और आदेश न मानने पर नतीजे भुगतने की धमकी दी थी। सिर्फ इसलिए कि स्कूल के टॉयलेट में मासिक के खून के धब्बे मिले थे। टॉयलेट में ख़ूनदेखकर प्रधानाध्यापक का पारा सातवें आसमान पर चढ़ गया था, और किस लड़की के पीरियड्स चल रहा है, ये चेक करने के लिए उनके कपड़े उतरवा दिए गए थे।



भारतीय समाज में मासिक धर्म और इस्तेमाल की गई नैपकिन पैड एक टैबू (वर्जित कर्म) बनी हुई है। जहाँ महिला शिक्षक बच्चियों को ये शिक्षित करने के बजाय कि सैनेटरी पैड्स का सही तरीके से कैसे निस्तारण कैसें उन्हें उनकी गलती के लिए बर्बर और अमानवीय तरीके से मानसिक प्रताड़ना देती है। एक लड़की की गलती के बहाने पूरे स्कूल की लड़कियों को नंगी करके उनके आत्मसम्मान पर चोट करती है। जबकि होना ये चाहिए था कि शिक्षिका एक लड़की के बहाने स्कूल की सभी लड़कियों को शिक्षित करती। उनसे मानसिक धर्म और सैनिटरी पैड के इस्तेमाल पर बात करती। इस्तेमाल किए गए सैनिटरी पैड का कहाँ और कैसे निस्तारण किया जाए ये समझाती। लेकिन लड़कियों के साथ इतनी हुज्जत करने के बजाय उन्हें दंडित करना ज्यादा आसान और कारगर समझ में आया उन शिक्षिकाओं को। शिक्षा पर दंड को प्राथमिकता देना स्त्री शिक्षकों के उस क्रूर सामंती मानसिकता को दर्शाता है।

इन शिक्षिकाओं की मानसिकता केरल सबरीमाला मंदिर के उन प्रतिगामी पुजारियों से कहाँ अलग है जिन्होंने ये फरमान सुनाया कि वे लड़कियां/स्त्रियां ही मंदिर में प्रवेश कर सकेंगी जिनके या तो पीरियड्स शुरू नहीं हुए या खत्म हो चुके हैं। मंदिर में एक ऐसी मशीन लगाने का विचार भी सामने आया जो यह पता लगा सके कि किस लड़की/स्त्री को पीरियड्स हो रहे हैं, ताकि उसे मंदिर प्रवेश से रोका जा सके।

इन महिला शिक्षकाओं की मानसिकता उस कम पढ़े लिखेदुकानदार से कितनी अलग है जो सैनिटरी नैपकिन को काली पन्नी में लपेटकर छुपाकर देता है मानो वो दुनिया का सबसे वर्जित और गैरकानूनी चीज दे रहा हो। आखिर कब तक पीरियड्स को वर्जित विषय की तरह नहीं देखा जातारहेगा। इस विषय पर चुप्पी लैंगिक हिंसा, लैंगिक भेदभाव का प्रतीक है और यह सब शर्मनाक है न कि पीरियड्स। पीरियड्स के दौरान लड़कियों/स्त्रियों के साथ अछूतों जैसा व्यवहार नहीं किया जाना चाहिए न हीं कपड़ों और सौनिटरी पैड पर लगे धब्बों के लिए शर्म महसूस करवाई जानी चाहिए।आखिर कब तक पीरियड्स के मसले पर फुसफुसाकर बात करना, पैड्स को मांगने में शर्म आना और दुकानदार द्वारा पैड्स को काले पॉलिथीन में लपेटकर दिया जाता रहेगा।

पितृसत्तात्मक सोच के जाल में औरत को इतना उलझाया गयाकि वह माहवारी वाले दिनों में खुद को अपवित्र और कमतर मानने लगी। जिसके चलते औरतें तमाम तकलीफें सहकर भी माहवारी छिपाने लगी।माहवारी के टैबू में उलझी औरत माहवारी को छिपाते और स्वच्छता को नजरअंदाज करते कब बीमारियों से जकड़ जाती है उसे पता ही नही चलता। एक आँकड़े के मुताबिक प्रतिवर्ष 10 लाख से ज्यादा औरतें सर्वाइकल कैंसर की चपेट में आ रही है। जो काम पहले धर्म करता था आज वही काम ये जाहिल महिला शिक्षक कर रही हैं, नैपकिन का सही निस्तारण न करने पर लड़कियों को दंड़ित करके वो समाज के लिए दबी कुचली खुद को कमतर समझने वाली औरतों की नई पौध तैयार कर रही हैं।

सुशील मानव फ्रीलांस जर्नलिस्ट हैं. संपर्क: 6393491351

लिंक पर  जाकर सहयोग करें , सदस्यता लें :  डोनेशन/ सदस्यता
आपका आर्थिक सहयोग स्त्रीकाल (प्रिंट, ऑनलाइन और यू ट्यूब) के सुचारू रूप से संचालन में मददगार होगा.
स्त्रीकाल का प्रिंट और ऑनलाइन प्रकाशन एक नॉन प्रॉफिट प्रक्रम है. यह 'द मार्जिनलाइज्ड'नामक सामाजिक संस्था (सोशायटी रजिस्ट्रेशन एक्ट 1860 के तहत रजिस्टर्ड) द्वारा संचालित है. 'द मार्जिनलाइज्ड'के प्रकशन विभाग  द्वारा  प्रकाशित  किताबें  अमेजन ,   फ्लिपकार्ट से ऑनलाइन  खरीदें 
संपर्क: राजीव सुमन: 9650164016, themarginalisedpublication@gmail.com

तानाशाह के खिलाफ वह खूबसूरत शख्सियत, हमें भी पढ़ा गयी पाठ!

$
0
0

संध्या नवोदिता
फहमीदा रियाज़ से मेरा पहला परिचय उनकी कविताओं से हुआ था।उनसे आमने-सामने मिलने से पहले उनकी नज़्में लाखों पाठकों की तरह मेरे भी जेहन पर छा गईं थीं। बाद में इलाहाबाद में जन संस्कृति मंच ने एक राष्ट्रीय स्तर का कार्यक्रम में आयोजित किया। जिसमें किसी एक दिन शानदार कवि गोष्ठी का आयोजन था। उसमें देश भर के बेहतरीन कवि आमन्त्रित किये गए थे। फहमीदा जी उसमें मुख्य अतिथि थीं। बल्ली सिंह चीमा भी आए थे। यह सुखद संयोग था कि इस कवि सम्मेलन में फहमीदा जी के साथ मंच पर मुझे भी शामिल होने का मौका मिला। वह लिखती तो थीं ही शानदार, पढ़ती भी बहुत उम्दा थीं। उनकी आवाज़ में एक रेशमी एहसास था, सुनते हुए उनमें खो जाइये। आराम-आराम से अपनी बात सधे हुए स्वर में कहना। यहीं मंच से उन्होंने अपनी चर्चित कविता 'तुम बिल्कुल हम जैसे निकले...'सफलतापूर्वक पढ़ी। सफलतापूर्वक इसलिए कहा क्योंकि इसके ठीक पहले उन्होंने यह कविता जेएनयू में पढ़ी थी और वहाँ उन पर पत्थर चले थे। इस कविता को इलाहाबाद में पढ़ने के बाद वह जेएनयू के वाकये पर खूब हँस रही थीं और अनजाने में ही हम यह सोच कर खुश हो रहे थे कि इलाहाबाद के श्रोता जेएनयू से ज़्यादा समझदार हैं।



उन्हें इलाहाबाद में एजी दफ्तर के गेस्ट हाउस में ठहराया गया था।जहाँ वे अपनी रिश्तेदार और मित्र फरहत रिज़वी के साथ रुकी थीं। वह तीन दिन के लिए रुकी थीं। मेरा घर उनके गेस्ट हाउस के नजदीक ही था। मैं हर सुबह , हर शाम उनसे मिलने गेस्ट हाउस पहुँच जाती। बाद में उन्होंने भारत की इस यात्रा का संस्मरण एक पत्रिका में लिखा था, जिसमें अपना जिक्र पढ़कर मेरा मन बहुत प्रसन्न हुआ था। तब एक शाम शम्सुर्रहमान फारुखी साहब के घर मुलाकात रखी गयी थी। इलाहाबादी अदब की दुनिया के तमाम लोग जुटे। सब उनको घेर के बैठे रहे। उनकी बातें सुनते रहे।

फहमीदा जी का व्यक्तित्व चुम्बकीय था। वे बोलतीं तो सब मुग्ध होकर सुनने लगते। बोलने के बाद श्रोता समूह उनके इर्द गिर्द जमा हो जाता। खूब बातें होतीं। मुझे उनके प्रसिद्ध लेखक, पद्मश्री शम्सुर्रहमान फारूकी साहब के आने का वाकया याद है। दिन के कार्यक्रम के बाद यह तय था कि शाम को फारूकी साहब के यहाँ बैठकी होगी, जो लोग आना चाहें वहाँ आ जाएं, तो अनौपचारिक वार्तालाप हो जाएगा। शाम को फारूकी साहब के यहां खुले में बैठक लगी। अदब की दुनिया के नामी-गिरामी लेखक, कवि और कलाकार आए । अच्छा खासा जमावड़ा लगा। सब उनको घेर के बैठे रहे। उनकी बातें सुनते रहे।नाश्ते पानी के साथ खूब बातें होने लगीं। कोई एक तरफ से कुछ पूछता फहमीदा जी जवाब देतीं, कोई दूसरी तरफ से कुछ पूछता उसका भी उत्तर दिया जाता। यह गुफ्तगू तब थी जबकि लोग दिन के कार्यक्रम में उनसे सुन मिल चुके थे।

उनके उस आगमन की एक घटना मुझे याद है। शामसे रात होने लगी। उसी भीड़ में एक बुजुर्ग लगातार बैठे रहे। वे फहमीदा जी को सुनने आये थे। वे पास आकर कोई उतावले सवाल जवाब भी नहीं कर रहे थे, शायद वह बहुत संकोच में थे। या फिर इतने भर से ही मुतमइन थे बस थोड़ी दूर बैठे खामोशी से उनको सुन रहे थे। अधिकांश लोग चले गए, जब सिर्फ चार छह लोग बचे, तो फहमीदा जी खुद उनकी तरफ मुखातिब हुईं। बहुत आदर के साथ उनका परिचय लिया और स्नेह से बात की। मुझे फहमीदा जी का उन बुजुर्गवार से यूँ परिचय लेना, बातें करना बहुत अच्छा लगा। मुझे वे बहुत विनम्र लगीं। जो कि वे थीं भी। बाद में उन बुजुर्ग से मेरा न सिर्फ अच्छा परिचय हुआ बल्कि वह मेरे पिता की तरह सम्माननीय हुए और उनका पितृवत स्नेह मुझे आज मिल रहा है। वह बुजुर्ग सज्जन आदरणीय शायर बुद्धिसेन शर्मा जी थे, जो मुझे अपनी बेटी कहते हैं और जिन्हें मैं बाऊजी कहती हूँ।

फहमीदा जी व्यवहार में बहुत नरम, बेतकल्लुफ, नफासत पसंद, तहजीबपसंद और विनम्र थीं। उन्हें खूबसूरत कहना भी कम होगा। ज़बरदस्त चुम्बकीय व्यक्तित्व। जो उनके साथ आये वह खुद को बड़ा महसूस करने लगे।  लोग पाकिस्तान के बारे में जानना चाहते। उस समय जनरल जिया की हुकूमत थी। लोग तानाशाह की हुकूमत में सामान्य जीवन पाकिस्तान के हाल चाल, उनका लेखन सब पूछते रहे। उस वक्त वे जलालुद्दीन रूमी पर काम कर रही थीं। रूमी उन पर जादू की तरह तारी थे। कहना न होगा वे रूमी के नशे में थीं। उस वक्त हम रूमी को नहीं जानते थे, बाद में जाना तो समझ मे आया कि जादू क्या होता है।

लोग उनसे पाकिस्तान की साहित्यिक  गतिविधियां पूछते। हालात जितने कठोर होते हैं, अभिव्यक्ति उतनी ही जीवन्त और मारक हो जाती है। बोलने की पाबंदी हो तो लोग और ज़ोर से और सार्थक बोलते हैं। यह एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। कसाव जितना ज्यादा हो, मुक्ति की छटपटाहट उतनी ही व्यग्र होती है। जाहिर सी बात है ऐसी परिस्थितियों में पाकिस्तान में नज़्म का दौर उफान पर रहा। शानदार रचा गया। हबीब जालिब से लेकर फहमीदा रियाज़ तक एक लंबी फेहरिस्त है। 'तुम बिल्कुल हम जैसे निकले ... 'जब वे पढ़तीं तो सुनने वालों में खामोशी छा जाती। लोग सराहते और आत्मावलोकन में चले जाते।

वे मेरठ में जन्मीं थीं। उन्हें उत्तर प्रदेश के शहरों से बड़ा मोह रहता। मेरठ उनकी ज़ुबान पर मिठास की तरह आता। वे हिंदुस्तान आने को व्यग्र रहतीं। उनको देखकर समझ में आता था कि हिन्दुस्तान और पाकिस्तान का दिल एक ही है। इन्हें कोई राजनीति कोई दीवार अलग नहीं कर सकती। जब इलाहाबाद आतीं वह सब लेखकों से उनकी किताबों और लेखन के बारे में पूछतीं। सब उनको अपनी नई छपी किताबों का तोहफा देकर बड़े प्रसन्न होते।

उनसे दोबारा मुलाकात हुई, नवम्बर 2013 के यही दिन तो थे,जब फहमीदा जी इलाहाबाद में थीं। प्रगतिशील लेखक संघ का कार्यक्रम था। सामाजिक बदलाव में लेखक की भूमिका। फहमीदा जी खूब मन से बोलीं, और श्रोताओं ने जी भर के खूब अपनेपन से सुना और सराहा। उस दरम्यान वे इलाहाबाद में तीन दिन रहीं। बहुत बातें हुईं।
उनकी नज्म आज उनके जाने के दिन एक बार फिर से वायरल हुई है- तुम बिल्कुल हम जैसे निकले... इलाहाबाद में भी उन्होंने सुनाई थी।

आप चली गईं फहमीदा जी, हम तो सोचते थेअगली बार आप आएंगी तो और बड़ा प्रोग्राम करेंगे, खूब बातें करेंगे। हिन्दुस्तान में आपको चाहने वाले आपको कभी नहीं भूलेंगे, आप यहां की यादों में खुशबू की तरह हमेशा बसी रहेंगी।
आपको नम आंखों से अंतिम विदा। अब जब आयेंगी तो मिलेंगे।



और आपका यह नज़्म, आख़िरी पैगाम सच में सच बन गया है: 
तुम बिल्‍कुल हम जैसे निकले
अब तक कहाँ छिपे थे भाई
वो मूरखता, वो घामड़पन
जिसमें हमने सदी गंवाई
आखिर पहुँची द्वार तुम्‍हारे
अरे बधाई, बहुत बधाई।
प्रेत धर्म का नाच रहा है
कायम हिंदू राज करोगे ?
सारे उल्‍टे काज करोगे !
अपना चमन ताराज़ करोगे !
तुम भी बैठे करोगे सोचा
पूरी है वैसी तैयारी
कौन है हिंदू, कौन नहीं है
तुम भी करोगे फ़तवे जारी
होगा कठिन वहाँ भी जीना
दाँतों आ जाएगा पसीना
जैसी तैसी कटा करेगी
वहाँ भी सब की साँस घुटेगी
माथे पर सिंदूर की रेखा
कुछ भी नहीं पड़ोस से सीखा!
क्‍या हमने दुर्दशा बनाई
कुछ भी तुमको नजर न आयी?
कल दुख से सोचा करती थी
सोच के बहुत हँसी आज आयी
तुम बिल्‍कुल हम जैसे निकले
हम दो कौम नहीं थे भाई।
मश्‍क करो तुम, आ जाएगा
उल्‍टे पाँव चलते जाना
ध्‍यान न मन में दूजा आए
बस पीछे ही नजर जमाना
भाड़ में जाए शिक्षा-विक्षा
अब जाहिलपन के गुन गाना।
आगे गड्ढा है यह मत देखो
लाओ वापस, गया ज़माना
एक जाप सा करते जाओ
बारम्बार यही दोहराओ
कैसा वीर महान था भारत
कैसा आलीशान था-भारत
फिर तुम लोग पहुँच जाओगे
बस परलोक पहुँच जाओगे
हम तो हैं पहले से वहाँ
पर तुम भी समय निकालते रहना
अब जिस नरक में जाओ
वहाँ से चिट्ठी-विठ्ठी डालते रहना।

संध्या नवोदिता कवयित्री, स्वतंत्र पत्रकार हैं. संपर्क: navodiita@gmail.com
लिंक पर  जाकर सहयोग करें , सदस्यता लें :  डोनेशन/ सदस्यता
आपका आर्थिक सहयोग स्त्रीकाल (प्रिंट, ऑनलाइन और यू ट्यूब) के सुचारू रूप से संचालन में मददगार होगा.
स्त्रीकाल का प्रिंट और ऑनलाइन प्रकाशन एक नॉन प्रॉफिट प्रक्रम है. यह 'द मार्जिनलाइज्ड'नामक सामाजिक संस्था (सोशायटी रजिस्ट्रेशन एक्ट 1860 के तहत रजिस्टर्ड) द्वारा संचालित है. 'द मार्जिनलाइज्ड'के प्रकशन विभाग  द्वारा  प्रकाशित  किताबें  अमेजन ,   फ्लिपकार्ट से ऑनलाइन  खरीदें 
संपर्क: राजीव सुमन: 9650164016, themarginalisedpublication@gmail.com

बेपढ़ ऐंकरों द्वारा दलित साहित्य पर हमले की नाकाम कोशिश अर्थात साहित्य आजतक

$
0
0

सुशील मानव 

साहित्य आज तक के दूसरे संस्करण में प्रगतिशीलता, सहिष्णुता, साहित्य, वामपंथी विचारधारा, स्त्री विमर्श और दलित विमर्श निशाने पर रहे। दलित लेखन पर तो उन सत्रों में भी हमला बोला गया जो कि दलित लेखन पर नहीं थे। बिना पढ़े-लिखे ऐंकर, खुद को सर्वज्ञाता होने के भाव में थे और चलताऊ ढंग से साहित्यकारों से सवाल कर रहे थे. शरण कुमार लिम्बाले से कर बैठे अजीबोगरीब सवाल: 

मंच नंबर 2 (हल्ला होल चौपाल) पर पहले दिन का पहला सत्र था ‘साहित्य का राष्ट्रधर्म’। वक्ता थे कथाकर ममता कालिया, कहानीकार अखिलेश और नंदकिशोर पांडेय। मॉडरेटर था रोहित सरदाना।


रोहित सरदाना ने कार्यक्रम के बीच में पूछा-लेकिन ममता जी अगर दलित साहित्य को पढ़कर एक दलित के मन में ब्राह्मण के प्रति घृणा का भाव घर कर रहा हो कि ब्राह्मण तो ऐसा करते हैं कि हमें खा लिया है या दलित साहित्य पढ़कर ब्राह्मण के मन में घृणा का भाव और गहराता जा रहा है तो फिर वह साहित्य देश को कहाँ जोड़ रहा है ? वह तो देश को तोड़ ही रहा है ना। 

अखिलेश- सहस्राब्दियों  से जो घृणा ब्राह्मणों के मन में दलितों के प्रति थी उसे आप क्या कहेंगे। अगर उस घृणा का प्रतिकार करने को देश को तोड़ना कहेंगे तो क्या प्रतिरोध को रचना में रुपांतरित करना घृणा पैदा करने के लिए है?
ममता कालिया- आप लोग आजतक मेजारिटी के राष्ट्रवाद की बात करते रहे। हमें माइनारिटी के राष्ट्रवाद की भी बात करनी चाहिए। इस राष्ट्र में कई जातियों, कई धर्मों के लोग रहते हैं। वे सब सुरक्षित महसूस करें इस राष्ट्र के भीतर हमें उस राष्ट्र की बात करनी चाहिए।

 दूसरे दिन के पहले सत्र का नाम था साहित्य किसके लिए। इसमें प्रमुख वक्ता थे, ‘मैत्रेयी पुष्पा, अरुण कमल और ऋषिकेश सुलभ। मॉडरेटर थे रोहित सरदाना। कार्यक्रम में रोहित सरदाना ने एक सवाल ऋषिकेश सुलभ से पूछा कि – तब कैसा लगता है जब कोई कहता है कि मैं स्त्री के लिए लिखती हूँ, मैं दलितों के लिए लिखता हूँ। और तब कहा जाता है कि समाज को बाँट रहे हैं। ये समाज को जोड़नेवाला साहित्य नहीं समाज को तोड़नेवाला साहित्य लिख रहे हैं। जहाँ दलित विमर्श को ब्राह्मण पढ़ता है तो कहता है कि ब्राह्मणों ने तबाह कर दिया। इन्हीं की वजह से हम आगे नहीं बढ़ पाये आज तक।‘
जवाब में ऋषिकेश सुलभ ने कहा कि –ये बहुत सतही किस्म की बातें हैं।
रोहित सरदाना- मना तो नहीं कर सकते न आप ।
ऋषिकेश सुलभ- साहित्य वंचितों का ही पक्ष है।वधिकों के विरोध में है। साहित्य में दलित विमर्श हो या कोई और विमर्श यदि वो मनुष्य के विरोध में लिख रहा है तो वो साहित्य है ही नहीं। साहित्य की मूल जमीन जो है वो मनुष्य के पक्ष में है। साहित्य पूरे संसार की बात करता है। जब मैं मनुष्य कह रहा हूँ तो उसमें पूरा का पूरा संसार शामिल है।जो वंचित है, जो दलित है। दुःख दुःख में भी फर्क होता है। एक भूखे पेट का दुःख होता है और एक भरे पेट का दुःख होता है। साहित्य में ये ब्राह्मण, वो दलित, ये सब तात्कालिक लड़ाई है। हम टुकड़े में बाँटकर भी लड़ रहे हैं और एक लंबी लड़ाई पर भी हैं। अगर दलित लेखकों का एक पूरा समूह उनकी पीड़ा को लेकर सामने आ रहा है जिसे हम फर्स्ट-हैंड एक्सपीरियंस कहते हैं तो उसका स्वागत हो रहा है। उनके अपने जीवनानुभवों को साहित्य में जगह मिल रही है। तो एक सार्थक संदेश दे रही है समाज में। मकसद सबका एक ही है।



साहित्य आजतक के दूसरे दिन के एक सत्र का नाम ही था ‘दलित लेखन का दम’।सत्र में बतौर वक्ता पत्रकार लेखक श्योराज सिंह बेचैन, लेखक राजीव रंजन प्रसाद और कवि आलोचक शरण कुमार लिंबाले थे जबकि मॉडरेटर थे संजय सिन्हा।
मॉडरेटर- दलित लेखन क्या है? क्या लेखन को अलग कटेगरी में बाँटना चाहिए? क्या दलित साहित्य जैसी कोई चीज होनी चाहिए?
राजीव रंजन प्रसाद- मैं समझता हूँ बिल्कुल होनी चाहिए। साहित्य एक बहुत बड़ा छाता है। लेकिन दलित साहित्य एक आंदोलन की तरह उभरा है। और एक आंदोलन की तरह उसने अपनी पहचान का आकाश विकसित किया है। मैं बहुत बार इस सवाल से दो-चार हुआ हूँ कि दलित साहित्य, आदिवासी साहित्य, स्त्री साहित्य, प्रवासी साहित्य अलग क्यों। पर मैं बता दूँ कि ये अलग अलग खाँचे खेमे नहीं हैं। साहित्य ही हैं। पर साहित्य के भीतर ये जाने-पहचाने अलग से चिन्हित किए जाने वाले रंग हैं। आप इसे यूँ न देखें कि हमने कोई वर्ग-विभेद कर दिया है।
मॉडरेटर- क्या इस तरह का भेद होना चाहिए? अलग-अलग लोगों का अलग साहित्य होना चाहिए?
श्योराज सिंह बेचैन- “दलित साहित्य पर पूछने से पहले इस पर पूछिए कि समाज व्यवस्था क्या है। लोग किन हालातों में रह रहे हैं। दलित शब्द समाज व्यवस्था से ही निकले हैं। हजार बार ये सवाल उठ चुका है। बात ये है कि हमारे समाज में अलग अलग जातियाँ क्यों हैं? अलग-अलग जातियाँ अलग-अलग स्थितियाँ हैं तो अलग अनुभव अलग विचार हैं उससे निकला ये शब्द है। हमने इसे नहीं ईजाद किया है। ‘दलित’ स्थिति-बोधक शब्द है।बाबा साहेब ने तो बहिष्कृत भारत नाम दिया था। दलित कोई छोटा-मोटा नहीं है पूरा बहिष्कृत भारत है। अस्पृश्य भारत है। जो अस्पृश्य है वही दलित है।बदकिस्मती से अस्पृश्यता कायम है और दलित शब्द हटाने की तैयारी कर लिए। शब्द नहीं दलित की स्थिति बदलनी चाहिए। कौन खुद को अस्पृश्य कहलाना पसंद करेगा? लोगों को तो आपने बाँट रखा है और साहित्य पर आप बाँटने का आरोप लगा रहे हो।”
मॉडरेटर- साहित्य क्यों उच्च वर्ग का अलग हो दलित का अलग हो?
शरण कुमार लिंबाले,- साहित्य समाज का आईना है। और आप कहते हो कि छुआछूत को समाज में रहने पर साहित्य में न आने दो। ऐसा कैसे हो सकता है। जो समाज में है वो साहित्य में आएगा ही। आप इसे नकार नहीं सकते। आप हमें अपने समाज से अलग कर रहे हो और जब हम अपना साहित्य अलगाते हैं तो आपको तकलीफ होती है।
लिम्बाले आगे कहते हैं मैं दलित साहित्य की शुरुआत से लेखन कर रहा हूँ। जब मैं अपनी कविताएँ लेकर जाता था तो वो छापते नहीं थे कहते थे पहले भाषा सीखो, व्याकरण सीखो, लिखना सीखो। कोई संगोष्ठियों में बुलाता नहीं था। तब हमें साबित करना पड़ा। साबित करने के लिए लिखना पड़ा। अलग नाम लेकर लिखना पड़ा। हम साबित हो गए हमारी चर्चा होने लगी तब आप भी बुलाने लगे। अब हम अच्छा लिख रहे हैं तो आप कह रहे हैं कि अलग क्यों?क्योंकि आपके पास विचार नहीं है। हमारे साहित्य के पास जाति को खत्म करनेवाला अंबेडकर का विचार है।हमारी भाषा आपकी भाषा से अलग है। आपको भले हमारी भाषा गाली-गलौज वाली भाषा लगती है। हमारी भाषा के कारण भी हमारी अलगता है। हमारे पात्र हमारे नायक दलित हैं। आपके साहित्य में हम दिखते कहाँ हैं?
मॉडरेटर- आपने कहा दलित के लिए दलित ही लिखेगा पर प्रेमचंद्र ने दलित पर काफी कुछ लिखा है। आखिर घीसू-माधव की कहानी को आप किसकी कहानी कहेंगे?
शरण कुमार लिंबाले- कबीर और प्रेमचंद्र को आप बार बार हमारे ऊपर पत्थर की तरह फेंकते हो। ठीक है उन्होंने लिखा पर अब वो नहीं हैं तो हमें लिखने दो। आप प्रेमचंद्र को तब खड़ा करते हो जब लिंबाले बोल रहा है, राजीव और श्योराज बोल रहा है। हमें पीछे हटाने के लिए आप प्रेमचंद्र को आगे करते हो। लेकिन कर्मभूमि के सूरदास से उसकी चमार जाति हटाकर ब्राह्मण कर दीजिए वह ब्राह्मण हो जाएगा। ठाकुर कर दीजिए तो ठाकुर हो जाएगा।
जब हम कोई पात्र लिखते हैं तो हमारे लिखे पात्रों में उसकी जाति भाषा,विचार, कमेटमेंट और भूमिका उसके साथ आता है। आपके पात्रों के साथ ये सब नहीं आता है। प्रेमचंद्र दया, सहानुभूति, करुणा और अनुकंपा से लिखते हैं। हमें अनुकंपा नहीं अधिकार चाहिए।
मॉडरेटर- दलित लेखन की परंपरा में समाज के लिए सबसे बड़ा लेखक किसे मानते हैं।
लिंबले- ये तो आप लड़ाने वाली बात बोल रहे हैं।



श्योराज सिंह बेचैन- यूँ तो हमारे समाज के सबसे बड़े लेखक बाबा साहेब हैं। घीसू–माधव को जो आपने उठाया तो बता दूँ कि प्रेमचंद पर गाँधी-मार्क्स का प्रभाव था। जो ये मानते हैं कि हम जाति का नहीं वर्ग का सवाल उठाएंगे। प्रेमचंद्र ने बेशक़ दलितों के नजदीक जाकर कहानियाँ लिखीं हैं। पर वो अपनी कहानी में दलितों को लालची आलसी और कामचोर दिखा रहे हैं। जिनकी पत्नी प्रसव से पीड़ित है और वो आलू के लिए लड़ रहे हैं। कफन के पैसे से दारू पीते हैं। पर वो कामचोर क्यों बने इसका जवाब वो नहीं देते। मजदूर पानी-बीड़ी के बहाने न बैठे तो मालिक दिन दिन भर बेगार में खपाते रहें उसे। प्रेमचंद मे शोषक और शोषित में से शोषक को चुना। वो मालिक के पक्ष में खड़े हो गए इसलिए वो दलित लेखक नहीं हो सकते। जैसे मैं दलित लेखक हूँ पर मेरे लेखन के पात्र ब्राह्मण या ठाकुर हो सकते हैं। पर देख तो मैं अपनी ही दृष्टि से रहा हूँ।
मॉडरेटर- लेखक कोई एजेंडा नहीं चलाता। वो ब्राह्मण को सुपरलेटिव व दलित को नीचे नहीं बनाता है। हाँ जो वस्तुस्थिति होती है उसे वो रखता है। लेखक दर्पण दिखा रहा है। जो गोरा है, वो गोरा दिख रहा है जो काला है वो काला दिख रहा है। दर्पण रंग नहीं बदल रहा है।
शरण कुमार लिंबाले- आपने हमें उतनी दूर से दलित साहित्य पर बात करने के लिए बुलाया है कि प्रेमचंद्र के साहित्य पर। आप प्रेमचंद्र की बात करके हमें मुद्दे से भटका रहे हैं। दलित साहित्य पर अन्याय करने का एक तरीका ये भी है।
मॉडरेटर- नहीं मेरा ये मकसद नहीं है। आपको जाने क्यों ऐसा लग रहा है। मैं क्षमा माँग रहा हूँ अगर ऐसा आपको लगा तो। मैं तो आपके उस आरोप पर कि दलितों के लिए साहित्य में कुछ नहीं लिखा गया पर सिर्फ आपको ये बताने की कोशिश कर रहा था दलित समाज के लिए प्रेमचंद्र ने लिखा है।
मॉडरेटर - दलित साहित्य का दम क्या है? इसे कैसे आँकते हैं आप?
रवि रंजन प्रसाद –सबसे पहले तो मैं आपके उस प्रश्न का जवाब देता हूँ जो आपने पूछा कि दलित साहित्यकार में सबसे बड़ा कौन ह? यहाँ जो दोनों वरिष्ठ साहित्यकार बैठे हैं गर आपने इनकी आत्मकथाएं पढ़ी होती तो ये सवाल जो आपने प्रेमचंद्र से शुरू की वो सवाल आप लिंबाले के साहित्य से शुरू करते। इसके अलावा एक प्रश्न ये उठता है कि जो लेखन दलित लेखक कर रहे हैं वही दलित साहित्य है या जो लेखक दलित नहीं हैं और दलित समाज के बारे में लिख रहे हैं वो भी दलित साहित्य है। तो मैं कहूँगा कि हम अपनी वस्तुस्थिति को ज्यादा बेहतर लिख सकते हैं। आप तो सिर्फ एक प्रेक्षक हैं। 
जैसे कि मैं एक दलित लेखक हूँ पर मैं बस्तर में रह रहा हूँ। और वहाँ जो आदिवासियों पर दमन हुआ है उसे मैंने नजदीक से देखा उससे संवेदित हुआ और प्रेक्षक के तौर पर उसे लिखा। वो मेरा प्रेक्षक के तौर पर दर्द था। शायद यही दर्द प्रेमचंद्र को भी रहा होगा। लेकिन दलित आत्मकथाओं को कई बार पढ़ने के बाद इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि शायद साहित्य का यही कोना अब तक अनछुआ और अनकहा था।
श्योराज सिंह बेचैन- अक्सर ये देखा गया है कि बिना दलित साहित्य को पढ़े ही दलित साहित्य की बात की जाती है। मैं दो घटनाएँ आपके सामने रख रहा हूँ। शरण कुमार टिंबाले की एक कहानी में दिखाया गया है कि एक व्यक्ति पशुओं की हड्डियां बेचने ले जा रहा है। हड्डिया कम पड़ जाती हैं तो वो अपने पिता या माता की हड्डी उसमें शामिल कर लेता है। इसमें संवेदना की कितनी गहराई है। एक इनकी कविता है, उसके बिंब हैं कि सफाई कर्मचारी सिर पर रखकर मैला ले जा रहा है बरसात हो रही है, वो सारा मैला उसके शरीर पर आ रहा है। तब कवि कहता है कि मैं महसूस करता हूँ कि कैसा लोकतंत्र मैं जी रहा हूँ। क्या इस तरह की शब्दावली या अनुभव कोई गैरदलित लेखक कर सकता है। बेहतर होता कि हमारे लेखन को पढ़कर उस पर बात की जाती।जो कमियाँ होती उसकी आलोचना की जाती।
मॉरेटर- मैं मानता हूँ कि आपका सवाल बहुत वाजिब है।मैं सहमत हूँ उससे । समाज में जिस तरह से सारी चीजों का प्रस्तुतीकरण हुआ उससे समस्या आजतक बरकरार है वर्ना आजादी के 70 साल बाद ये समस्या रहनी नहीं चाहिए थी।
मॉडरेटर- लिंबाले जी अपनी लेखन या निजी जीवन से कुछ सुनाइए।
शरण कुमार टिंबले- मैंने 40 से ज्यादा किताबें लिखी है पर मुझे उसमें से कुछ याद नहीं। हर रोज का खाना नहीं याद रहता। मैं इतना कहना चाहूँगा कि इस मंच से प्रेमचंद्र को नकारने की बात नहीं कही। हम प्रेमचंद्र को मानते हैं। प्रगतिशील विचार को मानते हैं। दलित साहित्य आज अगर इस मकाम पर पहुँचा है तो प्रगतिशील लेखकों के कारण ही। दलित लेखन में प्रगतिशील लेखन की भूमिका रही है। हम भी प्रगतिशील समाज के लिए ही लिख रहे हैं। आज जब हम अपनी वेदना उठाते हैं तो आप प्रेमचंद्र और कबीर को ढाल बनाकर अटैक करते हो तो हमें दुख होता है।
मॉडरेटर- जैसा कि लिम्बाले जी ने कहा प्रगतिशील लेखक जो होता है वो जातिधर्म नहीं मानता है बेचैन जी इस पर कुछ कहना चाहेंगे आप?
श्योराज सिंह बेचैन- कोई इच्छा रखते हुए भी दूसरी जाति का अनुभव नहीं ला सकता। जो जिस वर्ण में मरता है उसी में मरता है। ये मनोगत बात हो सकती है कि कोई कहे कि वो जातिभेद नहीं मानता। सामाजिक खाँचे में हम अलग-अलग खाँचें में बैठे हैं। न सवर्ण कुछ दलित के बारे में जानता है न दलित सवर्ण के बारे में। कोई भला आदमी हो सकता है वो चहता हो कि दलितों की समस्या पर लेखन करे। लेकिन भाई जब उसे गाँव के निकारे कर रखे हो, खान-पान, रहन-सहन, शादी-ब्याह सो कोई वास्ता नहीं, कोई संवाद नहीं कोई इंटरएक्शन नहीं तो हम कैसे कहें कि आप दलित की अनुभूति लिख सकते हो। हाँ निराला ने दूर से देखकर भले कुछ पत्थर तोड़नेवाली के बारे में लिख दिया। लेकिन जब पत्थर तोड़ने वाली लिखेगी, झाड़ू लगानेवाली लिखेगी तो उसकी वेदना, उसकी सच्चाई के आगे दूर से देखने वाले की सच्चाई कहीं नहीं टिकेगी।
मॉडरेटर- लेकिन जब हम साहित्य को बाँट देते हैं दोनो वर्ग एक दूसरे से वंचित होने लगते हैं।
शरण कुमार लिम्बाले - हमने न तो साहित्य को बाँटा, न हीं हमने समाज को बाँटा।  हम वर्णभेद या जातिभेद करनेवाले लोग नहीं है। हम तो इसके शिकार हैं। हम तो चाहते हैं ये कि कल को खत्म होता हो तो आज हो जाए। हम तो नहीं चाहते कि मनुष्य से मनुष्य की दूरी हो। पर हम कोसों दूर बिठाए गए हैं। भारतीय साहित्य वर्ण साहित्य है। वर्ण साहित्य को राष्ट्रीय फलक का साहित्य बनाने के लिए विभिन्न तरह की साहित्यिक आवाजें जब शामिल होंगी तब साहित्य ऐसा बनेगा जिसे राष्ट्रीय स्वरूप का साहित्य कहा जा सकता है। अभी हम किसी भी लेखन राष्ट्रीय लेखन नहीं कह सकते। क्योंकि जो जिस वर्ग से आता है उसका लेखन उसी वर्ग के लिए है।

सुशील मानव फ्रीलांस जर्नलिस्ट हैं. संपर्क: 6393491351

लिंक पर  जाकर सहयोग करें , सदस्यता लें :  डोनेशन/ सदस्यता
आपका आर्थिक सहयोग स्त्रीकाल (प्रिंट, ऑनलाइन और यू ट्यूब) के सुचारू रूप से संचालन में मददगार होगा.
स्त्रीकाल का प्रिंट और ऑनलाइन प्रकाशन एक नॉन प्रॉफिट प्रक्रम है. यह 'द मार्जिनलाइज्ड'नामक सामाजिक संस्था (सोशायटी रजिस्ट्रेशन एक्ट 1860 के तहत रजिस्टर्ड) द्वारा संचालित है. 'द मार्जिनलाइज्ड'के प्रकशन विभाग  द्वारा  प्रकाशित  किताबें  अमेजन ,   फ्लिपकार्ट से ऑनलाइन  खरीदें 
संपर्क: राजीव सुमन: 9650164016, themarginalisedpublication@gmail.com

क्रूर और हिंसक यथार्थ में प्रेम और करुणा को बचाये रखने की कोशिश है समकालीन स्त्री- कविता

$
0
0

मीना बुद्धिराजा

कविता अपनी संरचना और प्रकृति में तमाम भेद-भावोंसे परे और लिंग,वर्ण,समुदाय, जाति- वर्ग की अवधारणाओं से मुक्त और आज़ाद रहती है । मानवीय संवेदना और नियति के सामूहिक प्रश्नों को नि:संदेह कविता हमेशा व्यापक और उदार रूप से उठाती है । अस्मिता के मानवीय संकट  में जब स्त्री रचनाकार अपनी पहचान और अस्तित्व को खोलती हुई कविताओं में प्रस्तुत होती है तो इतिहास में सदियों से चला आ रहा भेदभाव और पितृसत्तात्मक समाज में लैंगिक असमानता और स्त्री -शोषण का अमानवीय रूप बेनकाब हो जाता है ।हिंदी कविता के समकालीन परिसर में स्त्रीवाद के वैचारिक और गंभीर अकादमिक विमर्श की दृष्टि से स्त्री के पक्ष में बोलने वाली स्त्री-कविता अपना विशेष महत्व रखती है । कविता समाज और जीवन  के सरोकारों की सिर्फ सूचना भर नहीं देती अपितु पाठक के ह्रदय को स्पंदित करके उसकी चेतना को भी जीवित रखती है । यही विशेषता समकालीन स्त्री कविता को भविष्य के लिये उसकी पहचान के संघर्ष और मुक्ति की उम्मीद के रूप में अत्यंत सचेत-सजग बनाती है । हिंदी कविता में स्त्री चेतना का यह फलक निरंतर विस्तृत और गंभीर होता दिख रहा है जिसमे समकालीन अनेक कवयित्रियां सक्रिय और सजृनशील हैं । ये कवयित्रियाँ अपने अनुभव और यथार्थ को कविता में जिस रूप में दर्ज़ कर रहीं हैं वह उनके अनथक संघर्ष का दीर्घ स्वप्न है जो उनकी रचनात्मकता का भी केंद्रबिंदु है ।

समकालीन हिंदी कविता के संदर्भ में देखा जाए तो भूमंडलीकरण के प्रभाव से स्त्री का संघर्ष अब इकहरा न होकर विश्व में मानव मुक्ति के संघर्ष से भी जुड़ चुका है जो आधी आबादी के स्वतंत्र अस्तित्व और उसके बुनियादी अधिकारों का भी मुख्य स्वर है । स्त्री कविता सभी वर्ण, जाति, लिंग के स्त्री-समाज की सामूहिक संवेदना को अपने देश-काल , परिवेश , संस्कृति और समय -संदर्भों की भाषा में अभिव्यक्त कर के स्त्री अस्मिता के सभी प्रश्नों और संभावनाओं को समाहित कर रही है । स्त्रीत्व की मुक्ति के सभी आयाम , संघर्ष और अनुभव समकालीन कविता में गंभीरता और प्रखरता से अभिव्यक्त हो रहे हैं । मुख्यधारा के साथ- साथ हाशिये की स्त्री- अस्मिताएँ दलित,  आदिवासी विमर्श और वंचित वर्ग की स्त्री-मानवता के कटु अनुभव,  दुख -तकलीफ और शोषण के स्वर भी आज की स्त्री कविता में विशेष महत्वपूर्ण हैं । यहां भी स्त्री पक्ष में समकालीन कविता आक्रोश और प्रतिरोध के साथ सभी स्तरों पर अमानवीय और शोषणवादी व्यवस्था के विरूद्ध अपना सशक्त प्रतिरोध दर्ज़ कराती है ।अपनी ही आकांक्षाओं  और अधिकारों से विस्थापित -निर्वासित स्त्री दैहिक- आर्थिक शोषण और अंधेरों को सहती हुई अपनी ज़मीन,सम्मान और घर को तलाश रही है ।




इसलिये पितृसत्तात्मक और पंरपरागत भाषा-शब्दोंकी अर्थसीमाओं को पहचानकर स्त्री-कविता एक नये भाषिक तेवर और विकल्प की खोज भी जारी रखती है जिनमें स्त्री-अस्मिता के प्रश्नों को हाशिये पर नहीं बल्कि समाज और जीवन के केंद्र में रखती है । यहां स्त्री कविता अपनी संवेदना और अनुभवों की अभिव्यक्ति संरचना और भाषिक- शिल्प का एक नया सौंदर्यशास्त्र तैयार करती है । बदलते परिवेश और समय की सामाजिक प्रक्रिया में स्त्री का संघर्ष पहले से अधिक जटिल और चुनौतीपूर्ण हुआ है इसलिए आज की बहुआयामी वास्तविकता को देख-परखकर सभी प्रश्न और समस्याएं स्त्री- रचनाकारों की कविताओं में आते हैं ।

समकालीन स्त्री- कविता जहां आज के क्रूर और हिंसक यथार्थमें मानवीय संवेदना और इस सृष्टि तथा प्रकृति के लिये प्रेम और करुणा को बचाये रखने की कोशिश करती हैं । दूसरी ओर स्त्रीवाद की कठोर जमीन पर खड़े होकर समकालीन सामाजिक विसंगतियों, स्त्री -उत्पीड‌न और स्त्री समाज के त्रासद यथार्थ के प्रति भी उसकी दृष्टि पूर्णतय सजग और सतर्क है । कात्यायनी, अनामिका,  सविता सिंह, गगन गिल, तेज़ी ग्रोवर, सुमन केशरी,नीलेश रघुवंशी , निर्मला पुतुल जैसी अनेक कवयित्रियाँ  सामाजिक संरचना में अतंर्निहित स्त्री-जीवन के दुखतंत्र की बहुआयामी गहराई में उतरकर स्त्री- मुक्ति के इस दौर में स्त्री के वास्तविक अस्तित्व को व्यापक और नया स्वर दे रही हैं । बाज़ारवाद और उपभोक्तावादी संस्कृति में आज स्त्री- कविता का संघर्ष अधिक विचारशील,तार्किक और आधुनिक हुआ है जिसमें स्त्री को हमेशा वर्चस्व और शोषण के नये- नये तरीकों की चुनौती का भी सामना करना पड़ा है । स्त्री –अस्तित्व को एक स्वंतत्र मानवीय ईकाई के रूप में स्थापित करने की दिशा में समकालीन कविता सार्थक और रचनात्मक आंदोलन के रूप में निरंतर संघर्षरत है । मात्र देह मुक्ति ही नहीं अपितु स्त्री की बौद्धिक और मानसिक स्वतंत्रता भी इक्कीसवीं सदी की इस स्त्री कविता की परंपरा को सुदृढ करती है । इन कविताओं में स्त्री-जीवन को प्रभावित करने वाले सामाजिक-राजनीतिक यथार्थ की संवेदनहीनता और अपने परिवेश की तमाम अमानवीय भेदभावपूर्ण असंगतियों के प्रति चिंताएं भी शामिल हैं जिनसे समकालीन स्त्री- कविता सीधा और आत्मीय संवाद भी स्थापित करती है । स्त्री का आत्मसंघर्ष,  स्मृतियां , पीड़ा और अतर्द्वंद्व बुनियादी सवालों के रूप से चारों तरह के अस्थिर और निर्मम यथार्थ से टकराकर अपने अनुभवों की सघनता में ईमानदारी से इन कविताओं में व्यक्त हुई है । स्त्री- अस्मिता और उसकी गरिमा का संघर्ष ही इस कविता कासौंदर्य तथा काव्य -रचनात्मकता का केंद्रीय बिदुं है जिनमे सार्थक सृजनात्मकता की अनंत संभावनाएं हैं । यह कविता सामाजिक, आर्थिक , पितृसतात्मक उत्पीड़न के अतिरिक्त भी स्त्री की जातीय,वर्गीय और लैंगिक असमानता की समस्या से मुक्ति तथा स्वतंत्रता की पक्षधर और प्रतिबद्ध कविता है । इस दृष्टि से स्त्री के प्रति यह अधिक उदार और मानवतावादी समाज- संस्कृति की मानसिकता के निर्माण के लिये संकल्पबद्ध है । अपने समय के सरोकारों से संबधं रखते हुए यह स्त्री कविता अपने सहज अधिकारों और न्याय को हमेशा उपेक्षित किये जाने का मुखर विरोध करती है । इस कविता में समसामयिक स्त्री यथार्थ का संवेदनशील और विवेकपूर्ण समन्वय है जो स्त्री-चेतना की साझा संस्कृति व स्त्री स्वप्नों और आकांक्षाओं का मानवीय विस्तार करती है ।

आज स्त्री लेखन के परिदृश्य में स्त्री-अस्मिता का संघर्ष वस्तुत: पूरी सांमती मानसिकता और व्यवस्था के विरुद्ध है जिसमें स्त्री- कविता की भी व्यापक भागीदारी है । इस कविता में स्त्री- अनुभवों और अस्तित्व से जुड़े गहरे और खुले विचार हैं जो समाज की क्र्रूरता से लड़ने का आत्मविश्वास भी देते हैं । ‘मैं किसकी औरत हूँ’, ‘देह नहीं होती है स्त्री एक दिन और उलट-पुलट जाती है सारी दुनिया अचानक’तथा ‘नगाड़े की तरह बजते शब्द’जैसी सशक्त अभिव्यक्तियाँ समकालीन स्त्री कविता को एक नया मजबूत स्वर देती है । आज स्त्री- कविता दुनिया और व्यवस्था द्वारा बनाये गये खोखले नियमों और रूढ़ियों से आगे अपना विस्तार चाहती है और उसमें समकालीन विसंगतियों और हालात को देखने की तीक्ष्ण दृष्टि है जिसमें सारी चिंताओं, और प्रश्नों से गुज़रते हुए ये कवयित्रियाँ स्त्री के लिये तय की गई वेदनाओं और यातनाओं को भूलती नहीं हैं । समकालीन कविता की संवेदना स्त्री की आत्मानुभूति का भोगा हुआ यथार्थ है अत: यह कविता सदैव स्त्री को समाज द्वारा परिधि पर रखने की पौरुषपूर्ण सोच के विरुद्ध अनथक संघर्ष यात्रा है ।समसामयिक आधुनिक और विचारशील कहे जाने वाले समाज में भी स्त्री के दु:ख और संत्रास की परतें उसकी व्यवस्था में अंदर तक समाहित हैं इसलिये यहां स्त्री मुक्ति और स्त्री पक्षधरता महज़ किसी विमर्श के लिये नहीं आई है। इस कविता में सामाजिक विषमताओं की गहरी पड़ताल है और स्त्री के प्रति पितृसतात्मक समाज की सत्ताकेद्रिंत संकीर्ण और एकागीं मानसिकता का प्रखर विरोध है । स्त्री कविता में यह विषय अब व्यक्तिगत न होकर जाति, वर्ग और वर्ण की सीमाओं से मुक्त और संपूर्ण स्त्री-अस्मिता के आत्मसम्मान और समाज के वैचारिक विवेक से भी संबंध रखता है । इसके लिये पंरपरा से मुक्त एक नयी स्त्री भाषा चेतना और नये संदर्भों में सार्थक- जीवंत अभिव्यक्ति का सशक्त शिल्प भी समकालीन स्त्री कविता की महत्वपूर्ण और सृजनात्मक उपलब्धि कही जा सकती है ।

मीना बुद्धिराजा हिंदी विभाग, अदिति महाविद्यालय, बवाना, दिल्ली विश्वविद्यालय में प्राध्यापिका हैं. 
संपर्क- mail id-meenabudhiraja67@gmail.com

लिंक पर  जाकर सहयोग करें , सदस्यता लें :  डोनेशन/ सदस्यता
आपका आर्थिक सहयोग स्त्रीकाल (प्रिंट, ऑनलाइन और यू ट्यूब) के सुचारू रूप से संचालन में मददगार होगा.
स्त्रीकाल का प्रिंट और ऑनलाइन प्रकाशन एक नॉन प्रॉफिट प्रक्रम है. यह 'द मार्जिनलाइज्ड'नामक सामाजिक संस्था (सोशायटी रजिस्ट्रेशन एक्ट 1860 के तहत रजिस्टर्ड) द्वारा संचालित है. 'द मार्जिनलाइज्ड'के प्रकशन विभाग  द्वारा  प्रकाशित  किताबें  अमेजन ,   फ्लिपकार्ट से ऑनलाइन  खरीदें 
संपर्क: राजीव सुमन: 9650164016, themarginalisedpublication@gmail.com

वे 15 महिलायें जो सविधान सभा की सदस्य थीं,महिला अधिकारों के संघर्ष की चैम्पियन भी

$
0
0

26 नवंबर, संविधान दिवस विशेष 

जानिये उन 15 महिलाओं को जो संविधान सभा की सदस्य थीं. उन 15 महिलाओं में एकमात्र दलित महिला सदस्य केरल से थीं, जो केरल में  दलित महिलाओं की उस पीढी से थीं, जिसने पहली  बार अधोवस्त्र पहना था-एक लम्बे संघर्ष के बाद. इस तथ्य से ही समझा जा सकता है कि भारत में कितनी जरूरत समता स्थापित करने वाले संविधान की थी, जबकि आज की सत्तावान जमात मनुस्मृति को संविधान मानने की वकालत कर रही थी. संघ के मुखपत्र ऑर्गनाइजर में लेख लिखे जा रहे थे. संविधान सभा में शामिल इन महिलाओं का भरपूर सहयोग डा. अम्बेडकर को मिला, कई महत्वपूर्ण मसलों पर.


1. अम्मु स्वामीनाथन
अम्मु स्वामीनाथन का जन्म केरल के पालघाट जिले के अनाकारा में हुआ था। उन्होंने 1917 में मद्रास में एनी बेसेंट, मार्गरेट कजिन्स, मालथी पटवर्धन, श्रीमती दादाभाय और श्रीमती अंबुजमल के साथ वीमेंस इण्डिया असोसिएशन का गठन किया। वह 1946 में मद्रास निर्वाचन क्षेत्र से संविधान सभा का हिस्सा बन गईं।

अम्मु स्वामीनाथन बीच में 
24 नवंबर, 1949 को संविधान के मसौदे को पारित करने के लिए डॉ बी आर अम्बेडकर द्वारा पेश प्रस्ताव पर चर्चा के दौरान अपने भाषण में आशावादी और आत्मविश्वास से लैश अम्मु ने कहा, "बाहर के लोग कह रहे हैं कि भारत ने अपनी महिलाओं के बराबर अधिकार नहीं दिए हैं। अब हम कह सकते हैं कि जब भारतीय लोगों ने स्वयं अपने संविधान का निर्माण किया तो उन्होंने देश के हर दूसरे नागरिक के बराबर महिलाओं को अधिकार दिए हैं। "
वह 1952 में लोकसभा के लिए चुनी गईं और 1954 में राज्यसभा के लिए। 1959 में, अम्मु सत्यजीत रे के साथ फिल्म सोसायटी की उपाध्यक्ष बने। उन्होंने भारत स्काउट्स एंड गाइड (1960-65) और सेंसर बोर्ड की भी अध्यक्षता की।

2. दक्षयानी वेलायुद्धन
दक्षयानी वेलायुद्ध का जन्म 4 जुलाई 1912 को कोचीन में बोल्गाटी द्वीप पर हुआ था। सामाजिक रूप से भेदभाव के शिकार पुलाया समुदाय की पहली पीढ़ी की शिक्षितों में से एक थी. वह पुलाया समुदाय की पहली पीढी की उन महिलाओं में थीं जिन्होंने पहली बार अधोवस्त्र पहना था, तब केरल में दलित महिलाओं ने लम्बे संघर्ष के बाद ऊपर के वस्त्र पहनने का अधिकार प्राप्त किया था।
दक्षयानी वेलायुद्धन

1945 में उन्हें कोचीन विधान परिषद में राज्य सरकार द्वारा नामित किया गया था। वह 1946 में संविधान सभा के लिए चुने जाने वाली पहली और एकमात्र दलित महिला थीं। उन्होंने अनुसूचित जाति समुदाय से संबंधित कई मुद्दों पर संविधान सभा में बहसों के दौरान बीआर अम्बेडकर का साथ दिया था।

3. बेगम अजाज रसूल
             बेगम अजाज रसूल

मालरकोटला के रियासत परिवार में पैदा हुई बेगम अजाज रसूल की शादी नवाब अजाज रसूल से हुई थी। वह संविधान सभा की एकमात्र मुस्लिम महिला सदस्य थीं। भारत सरकार अधिनियम 1935 के अधिनियम लागू होने के बाद बेगम और उनके पति ने मुस्लिम लीग से और चुनावी राजनीति में प्रवेश किया। 1937 के चुनावों में, वह यूपी विधानसभा के लिए चुनी गयी थीं।

1950 में, भारत में मुस्लिम लीग भंग हो गया और बेगम अजाज रसूल कांग्रेस में शामिल हो गयीं। वह 1952 में राज्य सभा के लिए चुनी गयी थीं और 1969 से 1990 तक उत्तर प्रदेश विधानसभा की सदस्य थीं। 1969 और 1971 के बीच, वह सामाजिक कल्याण और अल्पसंख्यक मंत्री थीं। 2000 में, उन्हें सामाजिक कार्य में योगदान के लिए पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था।

4. दुर्गाबाई देशमुख
दुर्गाबाई देशमुख का जन्म 15 जुलाई 1909 को राजमुंदरी में हुआ था। बारह वर्ष की आयु में, उन्होंने असहयोग आंदोलन में भाग लिया और आंध्र केसरी टी प्रकाशम के साथ, उन्होंने मई 1930 में मद्रास शहर में नमक सत्याग्रह आंदोलन में भाग लिया। 1936 में, उन्होंने आंध्र महिला सभा की स्थापना की, जो एक दशक के भीतर मद्रास शहर में शिक्षा और सामाजिक कल्याण का एक महान संस्थान बन गया।
दुर्गाबाई देशमुख

वह केंद्रीय सामाजिक कल्याण बोर्ड, राष्ट्रीय शिक्षा परिषद और राष्ट्रीय समिति पर लड़कियों और महिलाओं की शिक्षा जैसे कई केंद्रीय संगठनों की अध्यक्ष थीं। वह संसद सदस्य और योजना आयोग थीं।
वह आंध्र एजुकेशनल सोसाइटी, नई दिल्ली से भी जुड़ी थीं। 1971 में भारत में साक्षरता के प्रचार में उनके उत्कृष्ट योगदान के लिए दुर्गाबाई को चौथे नेहरू साहित्यिक पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। 1975 में, उन्हें पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया था।

5. हंसा जिवराज मेहता
3 जुलाई, 1897 को बड़ौदा के दीवान मनुभाई नंदशंकर मेहता के यहाँ पैदा हुई, हंसा ने इंग्लैंड में पत्रकारिता और समाजशास्त्र का अध्ययन किया। एक सुधारक और सामाजिक कार्यकर्ता होने के साथ-साथ वह एक शिक्षक और लेखक भी थीं।
उन्होंने गुजराती में बच्चों के लिए कई किताबें लिखीं और गुलिवर ट्रेवल्स समेत कई अंग्रेजी कहानियों का भी अनुवाद किया। वह 1926 में बॉम्बे स्कूल कमेटी के लिए चुनी गयीं और 1945-46 में अखिल भारतीय महिला सम्मेलन की अध्यक्ष बनीं।

हैदराबाद में आयोजित अखिल भारतीय महिला कांफ्रेंस के सम्मेलन में अपने अध्यक्षीय संबोधन में, उन्होंने महिलाओं के अधिकारों का चार्टर प्रस्तावित किया। उन्होंने 1945 से 1960 तक भारत में विभिन्न पदों को सुशोभित किया, जैसे एसएनडीटी महिला विश्वविद्यालय कीकुलपति, अखिल भारतीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड की सदस्य, इंटर-यूनिवर्सिटी बोर्ड ऑफ इंडिया की अध्यक्ष और बड़ौदा महाराजा सयाजीराव विश्वविद्यालय की कुलपति के रूप में।

6. कमला चौधरी
कमला चौधरी का जन्म लखनऊ के समृद्ध परिवार में हुआ था, इसके बावजूद अपनी शिक्षा जारी रखने के लिए उन्हें संघर्ष करना पड़ा। अंग्रेज सरकार के लिए अपने परिवार की निष्ठा से अलग होकर वे राष्ट्रवादियों में शामिल हो गई और 1930 में गांधी द्वारा शुरू की गई नागरिक अवज्ञा आंदोलन में सक्रिय भागीदार रहीं।
वह अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के 54वें सत्र में उपाध्यक्ष थीं और सत्तर के उत्तरार्ध में लोकसभा के सदस्य के रूप में चुनी गयी थीं। चौधरी एक प्रसिद्ध कहानीकार थीं।


7. लीला रॉय
लीला रॉय का जन्म अक्टूबर 1900 में असम के गोलपाड़ा में हुआ था। उनके पिता एक डिप्टी मजिस्ट्रेट थे और राष्ट्रवादी आंदोलन के साथ सहानुभूति रखते थे। उन्होंने 1921 में बेथ्यून कॉलेज से स्नातक की उपाधि प्राप्त की और बंगाल महिला मताधिकार समिति की सहायक सचिव बनीं और महिलाओं के अधिकारों की मांग की।

1923 में, अपने दोस्तों के साथ, उन्होंने 'दीपाली संघ'की स्थापना की और उसके तहतस्कूलों की स्थापना की जो राजनीतिक चर्चा के केंद्र बन गए, जिसमें तत्कालीन बड़े नेताओं ने भाग लिया। बाद में, 1926 में ढाका और कोलकाता में महिला छात्रों के एक संगठन की स्थापना की। उन्होंने ढाका महिला सत्याग्रह संघ बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी, जिसने नमक-आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाई थी। वह जयश्री पत्रिका की संपादक बनीं, जिसे रवींद्रनाथ टैगोर का आशीर्वाद था।
लीला रॉय

1937 में, वह कांग्रेस में शामिल हो गईं और अगले वर्ष, बंगाल प्रांतीय कांग्रेस महिला संगठन की स्थापना की। वह सुभाष चंद्र बोस द्वारा गठित महिला उपसमिति का सदस्य बन गईं और जब बोस 1940 में जेल गये, तो उन्हें फॉरवर्ड ब्लॉक वीकली के संपादक की जिम्मेवारी मिली।
भारत छोड़ने से पहले नेताजी ने लीला रॉय और उनके पति को पार्टी गतिविधियों का पूरा प्रभार दिया। 1947 में, उन्होंने पश्चिम बंगाल में एक महिला संगठन, जातीय महिला संघती की स्थापना की। 1960 में, वह फॉरवर्ड ब्लॉक और प्रजा समाजवादी पार्टी के विलय के साथ गठित नई पार्टी की अध्यक्ष बन गईं, लेकिन इसके काम से निराश थीं।

8. मालती चौधरी
मालती चौधरी का जन्म 1904 में पूर्वी बंगाल (अब बांग्लादेश) में एक प्रतिष्ठित परिवार में हुआ था। 1921 में, 16 साल की उम्र में, मालती चौधरी को शांतिनिकेतन भेजा गया जहां उन्हें विश्व भारती में दाखिला लिया।
उन्होंने नाबकृष्ण चौधरी से विवाह किया, जो बाद में ओडिशा के मुख्यमंत्री बने और 1927 में ओडिशा चले गए। नमक सत्याग्रह के दौरान, मालाती चौधरी, उनके पति के साथ भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हो गयी और आंदोलन में भाग लिया। उन्होंने सत्याग्रह के लिए अनुकूल वातावरण बनाने के लिए लोगों के साथ संवाद किया।
मालती चौधरी

1933 में, उन्होंने उत्कल कांग्रेस समाजवादी कर्मी संघ का गठन अपने पति के साथ किया जिसे बाद में अखिल भारतीय कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की उड़ीसा प्रांतीय शाखा के रूप में जाना जाने लगा। 1934 में, वह उड़ीसा में गांधी जी की प्रसिद्ध "पदयात्रा"में गांधीजी से जुड़ गईं। उन्होंने ओडिशा में कमजोर समुदायों के उत्थान के लिए बाजीराउत छात्रावास जैसे कई संगठन स्थापित किए। उन्होंने इंदिरा गांधी द्वारा आपातकाल की घोषणा के खिलाफ विरोध किया और अंततः उन्हें कैद कर लिया गया।

9. पूर्णिमा बनर्जी
पूर्णिमा बनर्जी इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस कमेटी की सचिव थी। वह उत्तर प्रदेश की क्रांतिकारी महिलाओं में से एक थी जो 1930 के दशक के अंत में और 40 के दशक में स्वतंत्रता आंदोलन में सबसे आगे थीं।
नमक सत्याग्रह और भारत छोड़ो आंदोलन में उनकी भागीदारी के लिए गिरफ्तार किया गया था। संविधान सभा में पूर्णिमा बनर्जी के भाषणों के पहलुओं में से एक समाजवादी विचारधारा के प्रति उनकी दृढ़ प्रतिबद्धता थी। शहर समिति के सचिव के रूप में, वह ट्रेड यूनियनों, किसान सभाओं और अधिक ग्रामीण जुड़ाव के लिए प्रयासरत रहती थीं।

10. राजकुमारी अमृत कौर
अमृत ​​कौर का जन्म 2 फरवरी 1889 को लखनऊ, उत्तर प्रदेश में हुआ था। वह भारत की पहली स्वास्थ्य मंत्री थीं और उन्होंने दस साल तक वह पद संभाला। वह कपूरथला के पूर्व महाराजा के पुत्र हरनाम सिंह की बेटी थीं और इंग्लैंड के डोरसेट में शेरबोर्न स्कूल फॉर गर्ल्स से पढाई की. 16 वर्षों तक वह महात्मा गांधी की सचिव रहीं और इसके लिए उन्होंने पढाई छोड़ दी.

वह ऑल इंडिया इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज (एम्स) की संस्थापक थीं और इसकी स्वायत्तता की उन्होंने वकालत की। वह महिलाओं की शिक्षा, खेल और स्वास्थय में उनकी भागीदारी की प्रबल प्रवक्ता थीं। उन्होंने ट्यूबरकुलोसिस एसोसिएशन ऑफ इंडिया, सेंट्रल लेप्रोसी एंड रिसर्च इंस्टीट्यूट की स्थापना की। 1964 में जब उनकी मृत्यु हो गई तो द न्यूयॉर्क टाइम्स ने उन्हें "अपनी देश की सेवा में राजकुमारी"कहा था।

11. रेणुका रे
वह एक आईसीएस अधिकारी सतीश चंद्र मुखर्जी और अखिल भारतीय महिला कांफ्रेंस (एआईडब्ल्यूसी) की एक सामाजिक कार्यकर्ता और सदस्य चरुलता मुखर्जी की बेटी थीं। युवा दिनों में रेणुका लंदन में रहीं और लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स से बीए किया।
रेणुका रे 
1934 में एआईडब्ल्यूसी के कानूनी सचिव के रूप में, उन्होंने 'भारत में महिलाओं की कानूनी अक्षमता'नामक एक दस्तावेज़ प्रस्तुत किया। इसने शारदा विधेयक के प्रति  एआईडब्ल्यूसी की निराशा को स्पष्ट किया और भारत में कानून के समक्ष महिलाओं की स्थिति की कानूनी समीक्षा को सामने रखा.  रेणुका ने कॉमन सिविल कोड के पक्ष में वकालत की और कहा कि भारतीय महिलाओं की स्थिति दुनिया में सबसे अन्यायपूर्ण स्थितियों में से एक है।
1943 से 1946 तक वह केन्द्रीय विधान सभा, बाद में संविधान सभा और अनंतिम संसद की सदस्य थी। 1952-57 में, उन्होंने पश्चिम बंगाल विधानसभा में राहत और पुनर्वास मंत्री के रूप में कार्य किया। 1957 में और फिर 1962 में, वह लोकसभा में मालदा से सदस्य थीं।
वह 1952 में एआईडब्ल्यूसी की अध्यक्ष भी थीं, योजना आयोग की सदस्य और और शांति निकेतन में विश्व भारती विश्वविद्यालय की गवर्निंग बॉडी की सदस्य रहीं। उन्होंने अखिल बंगाल महिला संघ और महिला समन्वयक परिषद की स्थापना की।

12. सरोजिनी नायडू
सरोजिनी नायडू का जन्म हैदराबाद, भारत में 13 फरवरी 1879 को हुआ था। वह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की अध्यक्ष होने वाली पहली भारतीय महिला थीं और उन्हें भारतीय गणराज्य में पहली महिला गवर्नर नियुक्त हुई थीं। उन्हें "नाइटिंगेल ऑफ इंडिया"कहा जाता है।
सरोजिनी नायडू

उन्होंने किंग्स कॉलेज, लंदन और बाद में कैम्ब्रिज के गिरटन कॉलेज में अध्ययन किया। इंग्लैंड में मताधिकार अभियान में कुछ अनुभव के बाद, उन्हें भारत के कांग्रेस आंदोलन और महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन के लिए तैयार किया गया था। 1924 में उन्होंने भारतीयों के हित में अफ्रीका की यात्रा की और
1928-29 में कांग्रेस के आंदोलन पर व्याख्यान के लिए उत्तरी अमेरिका का दौरा किया।
भारत में वापस आने पर ब्रिटिश विरोधी गतिविधि के कारण वे कई बार जेल गईं (1930, 1932 और 1942-43)। वह 1931 में गोल मेज सम्मेलन में भाग लेने गांधी जी के साथ लंदन गईं। सरोजिनी नायडू अपनी साहित्यिक प्रतिभा के लिए भी जानी जाती थीं  और 1914 में उन्हें रॉयल सोसाइटी ऑफ लिटरेचर के एक फेलो के रूप में चुना गया।
 दिया
13. सुचेता कृपलानी
वह हरियाणा के अंबाला शहर में 1908 में पैदा हुई थीं। उन्हें विशेष रूप से 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में
सुचेता कृपलानी
उनकी भूमिका के लिए याद किया जाता है। कृपलानी ने 1940 में कांग्रेस पार्टी की महिला विंग की भी स्थापना की।
स्वतंत्रता के बाद, कृपलानी की राजनीतिक यात्रा दिल्ली के एक सांसद और फिर उत्तर प्रदेश की राज्य सरकार में श्रम, सामुदायिक विकास और उद्योग मंत्री के रूप में जारी रही। उन्होंने चंद्र भानु गुप्ता से उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में पदभार संभाला और 1967 तक उत्तर प्रदेश के शीर्ष पद पर होते हुए वह भारत की पहली महिला मुख्यमंत्री थीं।

14. विजयालक्ष्मी पंडित
विजया लक्ष्मी पंडित का जन्म 18 अगस्त 1900 को इलाहाबाद में हुआ था, और वह भारत के पहले प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू की बहन थीं। 1932-1933, 1940 और 1942-19 43 में अंग्रेजों ने उन्हें तीन अलग-अलग मौकों पर कैद किया था।
विजयालक्ष्मी पंडित

राजनीति में पंडित का लंबा करियर आधिकारिक तौर पर इलाहाबाद नगर निगम के चुनाव के साथ शुरू हुआ। 1936 में, वह संयुक्त प्रांत की असेंबली के लिए चुनी गईं, और 1937 में स्थानीय स्व-सरकार और सार्वजनिक स्वास्थ्य मंत्री बन गयीं- वह पहली भारतीय महिला कैबिनेट मंत्री थीं।
सभी कांग्रेस पार्टी के पदाधिकारियों की तरह, उन्होंने 1939 में ब्रिटिश सरकार की इस घोषणा के विरोध में इस्तीफा दे दिया कि भारत द्वितीय विश्व युद्ध में भागीदार है। सितंबर 19 53 में, वह यूएन जनरल असेंबली की पहली भारतीय और एशियाई महिला अध्यक्ष चुनी गयीं।

15. एनी मास्कारेन
एनी मास्कारेन का जन्म केरल के तिरुवनंतपुरम से लैटिन कैथोलिक परिवार में हुआ था। वह त्रावणकोर राज्य कांग्रेस में शामिल होने वाली पहली महिलाओं में से
एनी  मास्कारेन
 एक थीं और त्रावणकोर राज्य कांग्रेस कार्यकारिणी का हिस्सा बनने वाली पहली महिला बनीं। वह त्रावणकोर राज्य में स्वतंत्रता और भारतीय राष्ट्र के साथ एकीकरण के आंदोलनों के नेताओं में से एक थीं।
अपनी राजनीतिक सक्रियता के लिए, उन्हें 1939 -47 के बीच विभिन्न अवधि के लिए कैद किया गया था। मास्करेन आम चुनाव में 1951 में पहली लोकसभा के लिए चुनी गयी थी। वह केरल की पहले महिला सांसद थी. संसद में उनके चुनाव से पहले, उन्होंने 1949 -50 के दौरान स्वास्थ्य मंत्रालय की प्रभारी मंत्री के रूप में संक्षिप्त सेवा दी थी।

फेमिनिज्म इण्डिया.कॉमसे साभार

लिंक पर  जाकर सहयोग करें , सदस्यता लें :  डोनेशन/ सदस्यता
आपका आर्थिक सहयोग स्त्रीकाल (प्रिंट, ऑनलाइन और यू ट्यूब) के सुचारू रूप से संचालन में मददगार होगा.
स्त्रीकाल का प्रिंट और ऑनलाइन प्रकाशन एक नॉन प्रॉफिट प्रक्रम है. यह 'द मार्जिनलाइज्ड'नामक सामाजिक संस्था (सोशायटी रजिस्ट्रेशन एक्ट 1860 के तहत रजिस्टर्ड) द्वारा संचालित है. 'द मार्जिनलाइज्ड'के प्रकशन विभाग  द्वारा  प्रकाशित  किताबें  अमेजन ,   फ्लिपकार्ट से ऑनलाइन  खरीदें 
संपर्क: राजीव सुमन: 9650164016, themarginalisedpublication@gmail.com

स्त्री की यौन मुक्ति की लड़ाई, जो प्रो. कर्वे और डा. अम्बेडकर हार गये थे

$
0
0

संविधान दिवस विशेष 
लेखक: राजीव सुमन 
स्त्री के लिए यौन-मुक्ति की यह लड़ाई 1934 में प्रोफेसर कर्वे के पक्ष में डा. अम्बेडकर ने लड़ी थी. हालांकि बाबा साहेब यह केस हार गये लेकिन उनकी बहस के विचार संविधान में यथावत देखे जा सकते हैं.  प्रोफेसर कर्वे  कहते हैं कि अगर प्रजनन और यौन संक्रामक बीमारियों पर रोक लग सके तो स्त्रियाँ भी उन्मुक्त सेक्स का आनंद ले सकती हैंयहाँ तक कि  अगर वे विविधता पूर्ण  यौन आनंद चाहती हैं तो वे  पुरुष वेश्याओं के साथ सम्भोग में लिप्त हो सकती हैंअपने पतियों को बिना नुकसान पहुंचाए.”  उनपर मुकदमा उनकी पत्रिका के अंक के लिए हुआ था, जिसमें वे यौन-स्वास्थ्य पर सामग्रियां प्रकाशित करते थे. पढ़ें प्रो. कर्वे और उनके विचारों को सामने रखता यह लेख, जानें बाबा साहेब के क्या थे विचार: 
“इस बात में कोई सच्चाई नहीं की सभी रूढ़िवादी, बेवकूफ होते है। लेकिन यह सच है की सभी बेवकूफ, रूढ़िवादी जरूर होते है।“---जॉन स्टुअर्ट मिल (जन्म 20 मई 1806 मृत्यु 8 मई 1873)
स्त्री  का यौन मुक्ति प्रसंग, डॉ. कर्वे और आंबेडकर का अभिव्यक्ति की आजादी का केस केस हार जाना !!

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला भारतीय समाज की कोई नयी अभिव्यक्ति नहीं है. वर्तमान समय में जिस तरह से मॉब लिंचिंग अभियक्ति की स्वतंत्रता के लिए सबसे बड़ी चुनौती के रूप में उभरकर सामने आई है वह बेहद चिंताजनक तो है ही, लेकिन इसका इतिहास भी कम चुनौतीपूर्ण नहीं रहा है. पिछले कुछ वर्षों में  नरेन्द्र दाभोलकर (२० अगस्त २०१३, पुणे में हत्या), गोविन्द पंसारे (२० फ़रवरी २०१५ को रुढ़िवादियों द्वारा गोली मारकर हत्या), एम.एम्.कलबुर्गी (धारवाड़, कर्नाटक, ३० अगस्त २०१५ में हत्या), गौरी लंकेश (५ सितम्बर २०१७, बेंगुलुरु में हत्या) आदि की हत्याएं रुढ़िवादी तंत्रों द्वारा हुईं और पिछले कुछ दिनों में (जुलाई-अगस्त २०१८) देश के अलग-अलग हिस्सों में बहुजन- दलित बुद्धिजियों, प्रोफेसरों पर जानलेवा हमले और ह्त्या की धमकी की घटनाएं सिलसिलेवार ढंग से बढ़ी हैं, वह संविधान की मूल संकल्पना के उलट हैं. प्रोफ़ेसर कांचा शेफर्ड, प्रोफेसर लेला कारुण्यकरा, सहायक प्रोफेसर संजय यादव आदि को रुढ़िवादी तंत्र ने जिस तरह से निशाना बनाया वह लोकतांत्रिक मूल्यों पर करारा आघात है.

 जिन लोकतांत्रिक मूल्यों की प्राप्ति सतत ऐतिहासिक-सामजिक संघर्षों, आन्दोलनो और बलिदानो की प्रक्रिया के बाद प्राप्त की गई और यही मूल्य दुनिया में नयी व्यवस्था का आधार बनी, उसपर ऐसे हमले अपने ही जीवन मूल्यों की आधारभूत संरचना पर आघात करने जैसा है. यह आघात लोकतंत्र की सबसे अहम् स्वतंत्रता—“अभिव्यक्ति की स्वतंत्रतापर है. जबकि होना तो यह चाहिए था कि स्वतंत्रता को  जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में व्यक्ति का अविच्छेद अधिकार बना दिया जाता. क्योंकि स्वतंत्रता के अभाव में किसी भी तरह की बराबरी के समाज की परिकल्पना नहीं की जा सकती. ऐसा नहीं है कि "अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता"आज एक गर्म चर्चा और बहस का मुद्दा बन हुआ है. बल्कि, यह  आजादी के पहले भी बुद्धिजीवियों, राजनितिक-सामाजिक कार्यकर्ताओं और रुढ़िवादी विचारकों के बीच तनाव पैदा करने वाला विषय था किन्तु तब शायद इसका निबटान कोर्ट में होता था. 1934 में भी कुछ ऐसी ही स्थिति का परिदृश्य बना था महाराष्ट्र के मुंबई में, जब प्रोफ़ेसर कर्वे ने अपनी पत्रिका "समाज स्वास्थ्य"में स्त्री की यौनिकता, यौन आनंद, यौन इच्छाओं तथा यौनता जनित स्त्री स्वास्थ आदि को अपनी पत्रिका का केंद्रीय विषय बनाया था. इसमे स्त्री की यौन इच्छाओ को भी उतना ही महत्वपूर्ण मानने की वकालत की गई थी जितना समाज परुषों को इस सन्दर्भ में आजादी देता है. लेकिन उस समय का तत्कालीन समाज और भी ज्यादा कूपमंडूक और रूढ़िवादी था, उनके इन अभिव्यक्तियों का फल उनपर मुकदमे के रूप में मिला जिसे तब डॉ. बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर ने बतौर उनके वकील के रूप में लड़ा. वह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के क्षेत्र में एक ऐतिहासिक केस साबित हुआ था. इस केस में आंबेडकर के  मुवक्किल एक रैडिकल सोचवाले समाजसेवी थे जिनके कार्यों को जानना हमारे लिए उपयोगी होगा.
चितपावन ब्राह्मण परिवार में जन्मे कर्वे का पूरानाम रघुनाथ धोंडो कर्वे था. अपने पिता के योग्य वारिश होने का प्रमाण उनके क्रांतिकारी विचारों, संघर्षों और घटनाओं में देखा जा सकता है. उनके पिता महर्षि डॉ॰ धोंडो केशव कर्वे (अप्रेल १८, १८५८ - नवंबर ९, १९६२)  भी प्रसिद्ध समाज सुधारक थे और महिला शिक्षा और विधवा विवाह के मसले पर उनका योगदान किसी से भी कम नहीं रहा. महिलाओं के प्रति सम्मान, स्वतंत्रता, और बराबरी की पैरोकारी की सोच उन्होंने अपने पिता से ही पाई थी. उनके पिता ने अपना पूरा जीवन महिला उत्थान को समर्पित कर दिया था और उनके द्वार मुम्बई में स्थापित एस एन डी टी महिला महाविघालय भारत के प्रथम महिला महाविघालय होने के गौरव के साथ आज भी महिला शिक्षण के क्षेत्र में कार्यरत है। उन्हे वर्ष १९५८ में भारत रत्न से सम्मनित किया गया. रघुनाथ कर्वे अपने पिता की इसी विरासत को और आगे बढाते हुए महिलाओं की स्वतंत्रता, स्वास्थ्य आदि  के मुद्दों को एक नया आयाम देते हैं. बंबई के विल्सन कॉलेज में गणित के प्रोफ़ेसर होने के साथ ही एक समाज सुधारक भी थे और मुंबई में १९२१ में ही जनसँख्या नियंत्रण, जन्मदर नियंत्रण, आदि  को एक समस्या के रूप में  देखते हुए उसपर काम करना शुरू कर दिया था. लेकिन जैसे ही उन्होंने इन मुद्दों को आम लोगों के सामने रखना शुरू किया, खासकर महिलाओं के सेक्सुअल, सेंसुअल आनंद लेने के पुरुषों जितने अधिकारों की वकालत की, तो संकीर्णतावादी कॉलेज के क्रिश्चियन प्रशासन ने उनसे इस्तीफा ले लिया और इसके बाद से तो वह पूरी तरह से महिला मुद्दों और अधिकारों के प्रति खुद को समर्पित कर दिया. कर्वे महिलाओं के स्वास्थ्य को लेकर इतने संजीदा और दूरदर्शी थे कि उन्होंने १९२१ में ही जन्म दर नियंत्रण क्लिनिक मुंबई में खोला जो भारत का ही पहला क्लिनिक साबित नहीं हुआ बल्कि दुनिया के सबसे उन्नत देशइंग्लैण्ड ने भी उसी वर्ष १९२१ में अपने यहाँ लन्दन में जन्मदर नियंत्रण क्लिनिक खोला था.

 

महिलाओं के स्वास्थय और खासकर यौन जनित स्वास्थ्य को लेकरभारतीय समाज इतना बंद और अंधकारमय है कि इसकी चर्चा न तो परिवार के भीतर और न ही समाज में की जा सकती थी. ऊपर से अनेक तरह के अंध-विश्वास और टैबू सांस्कृतिक रूप से स्त्री को गुलामी से भी बदतर स्थिति में इस सन्दर्भ में डाले हुए थे. इन्ही सब चिंताओं और समस्याओं को लेकर कर्वे ने मराठी में कई किताबे लिखी और अपनी एक पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया. संतति नियमन आचार आणि विचार, १९२३, गुप्त रोगापासून बचाव और  आधुनिक कामशास्त्र, १९३४, आधुनिक आहार शास्त्र, १९३८, वैश्य व्यवसाय, १९४०, आदि पुस्तकें लिखी. १९२७ में उन्होंने एक मासिक पत्रिका—"समाज स्वास्थ्य"जिसे वे अपने मृत्यु पर्यंत(अक्तूबर १९५३) तक प्रकाशित करते रहे. इस प्रत्रिका के माध्यम से वे लोगों, स्त्रियों में  जन्म दर नियंत्रण, अनचाहे गर्भ से बचाव के लिए निरोध के प्रयोग, गर्भपात, सेक्स शिक्षण की महता आदि का प्रचार- प्रसार करते रहे.  अपनी पत्रिका में वे लगातार पुरुषों को भी बच्चे पालने की जिम्मेदारी लेने, जेंडर समानता, महिला सशक्तिकरण  और महिलाओं को भी पुरुषों जितना ही सेक्सुअल एवं सेंसुअल आनंद लेने के अधिकारों की वकालत जीवन भर करते रहे. महिलाओं के यौनिक अधिकारों को लेकर कर्वे अपने समय से बहुत आगे थे और उनके विचार इतने रैडिकल और क्रांतिकारी थे कि आज के समाज में भी उनके ये  विचार उतने ही रैडिकल विचार के रूप में देखे और समझे जा सकते हैं. भारतीय समाज की पितृसत्तात्मक व्यवस्था में स्त्रियों के यौन आनंद की स्वतंत्रता का प्रबल हिमायती होना, वह भी पति के होते हुए दुसरे पुरुष के साथ, अपने आप में इस तरह का विचार आज भी रैडिकल और परिवार व्यवस्था और पितृसत्ता की चूलें हिला सकने वाला विचार है. वे स्पष्ट रूप से कहते हैं कि अगर प्रजनन और यौन संक्रामक बीमारियों पर रोक लग सके तो स्त्रियाँ भी उन्मुक्त सेक्स का आनंद ले सकती हैं, यहाँ तक कि  अगर वे विविधता पूर्ण  यौन आनंद चाहती हैं तो वे  पुरुष वेश्याओं के साथ सम्भोग में लिप्त हो सकती हैं, अपने पतियों को बिना नुकसान पहुंचाए.”  
प्रोफ़ेसर कर्वे के इन क्रांतिकारी विचारों में साथ दिया उनकी क्रांतिकारी पत्नी मालती ने. मालती ने आर्थिक बोझ को कम करने केलिए प्रोफ़ेसर कर्वे की भागीदार बनी. इसके अलावा दोनों ने अपने सिद्धांतों और विचारों को अमली जामा पहनाने के लिए आजीवन बच्चे न पैदा करने का प्राण लिया और आजीवन निःसंतान रहे. किन्तु समाज ने उनके इन विचारों के बदले  उनके प्रोफ़ेसरी की नौकरी तो ले ही ली, इसके अलावे  सामजिक बहिष्कार—“निर्वासनका  भी प्रतिफल दिया. निर्वासन एक राजनैतिक दंड सिंद्धांत है जो सिर्फ भारत में ही प्रयुक्त नहीं होता अपितु लगभग दुनिया के तमान राज्य ऐसे व्यक्ति के लिए इस दंड का प्रावधान करते थे जिसमे उस व्यक्ति के विचार सत्ता और उस राज्य के नागरिकों के पारंपरिक विचारों को चुनौती देने लगें. इसे अंग्रेजी में ऑस्ट्रासिज्म” (Ostracism) के रूप में जाना जाता है. प्राचीन समय में यह  एथेनियन लोकतंत्र के तहत एक ऐसी प्रक्रिया थी जिसमें किसी भी नागरिक को दस साल तक एथेंस राज्य से निष्कासित किया जा सकता था। इसका इस्तेमाल किसी ऐसे व्यक्ति को बेअसर करने के तरीके के रूप में किया जाता था जिसे राज्य या संभावित जुलूस के लिए खतरा माना जाता था। इसे विद्वान पी जे रोड्स द्वारा "माननीय निर्वासन" (honourable exile) कहा गया. आज भी, आधुनिक लोकतंत्र में चौंकाने वाले विभिन्न मामलों के लिए शब्द "ऑस्ट्रासिज्म"का उपयोग जारी है। उनके जीवन में लगातार तंगी बने रहने के बावजूद भी वे धारा के विपरीत संघर्ष करते रहे और अपनी पत्रिका का प्रकाशन बंद नहीं होने दिया.

प्रोफ़ेसर कर्वे के इस महान संघर्ष में उनका साथ दियामहान विद्वान् रघुनाथ पुरुषोत्तम परांजपे ने, जिन्हें न केवल भारत में विश्वविद्यालय की परीक्षा में पहली जगह हासिल की थी, बल्कि कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में गणितीय त्रिभुज परीक्षाओं में भी शीर्ष स्थान हासिल किया था, जिसके बाद वह 'सीनियर रैंगलर'का सम्मान प्राप्त करने वाले पहले भारतीय बने थे. इनके अलावा डॉ. अम्बेडकर, रियास्त्कर सरदेसाई और मामा वरेकर जैसे लोगों ने उनके संघर्ष को ऊँचाइयाँ प्रदान कीं.

साहित्यिक आलोचक एम वी धोंड ने कर्वे  पर तीन निबंध लिखे हैं।तीसरे निबंध में, उन्होंने विश्लेषण किया कि क्यों कर्वे क्रमश: संयुक्त राज्य अमेरिका और ब्रिटेन में उनके समकक्ष मार्गरेट सेंगर और मैरी स्टॉपस के रूप में अपने मिशन में सफल नहीं थे।


कर्वे  का मिशन सेंगर और स्टॉप के लिए प्रतिबंधित नहीं था, अर्थात् परिवार के जीवन में खुशहाली, महिलाओं का मुक्ति, आबादी का नियंत्रण। कर्वे लगातार प्रयत्नशील थे कि महिलाएं भी पुरुषों की तरह से ही ज्यादा यौन आजादी और कामुक आनंद लें। धोंड का दावा है कि समकालीन समाज के उद्देश्यों को सेंगर और स्टॉप के लिए प्रतिबंधित किया गया था और इसलिए न केवल कर्वे के मिशन को पूरी तरह से पीड़ित किया गया था, बल्कि खुद को समाज द्वारा बड़े पैमाने पर सताया गया था। अन्य कारण भी थे: कर्वे  के अनैतिक व्यक्तित्व, खराब वित्त, और नेटवर्किंग कौशल की कमी। दुर्भाग्य से कर्वे  उस वक़्त तक जीवित नहीं रहे जब तीन प्रमुख घटनाएं,  जो हमें महिला कामुकता को बेहतरबी तरीके से समझने में मदद करती हैं, घटित हुईं. पहला था 1953 में किन्से रिपोर्ट (Kinsey report) का प्रकाशन. दूसरा, 1966 में मास्टर्स और जॉनसन की पुस्तक(Masters and Johnson's book) का प्रकाशन और 1976 में हाइट रिपोर्ट (The Hite Report) का प्रकाशन। इन दस्तावेजों ने साबित कर दिया है कि महिला की यौनिकता और कामुकता को लेकर कर्वे  के विचार कितने सही थे. भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 292 के तहत 'अश्लील किताबों, चित्रों आदि की बिक्री, वितरण और कब्जे'को प्रतिबंधित करता है, के अंतर्गत उनके  जीवनकाल के दौरान तीन बार (और उनकी मृत्यु के बाद भी) उन्हें कोर्ट से समन आते रहे.

कर्वे की पत्रिका "समाज स्वास्थ्य"महाराष्ट्र में रूढ़िवादियों के निशाने पर सदारही. कर्वे  की पत्रिका का मूल विषय यौनिकता थी. स्त्री यौन शिक्षा, परिवार नियोजन, नग्नता,  नैतिकता जैसे विषयों पर  कर्वे की पत्रिका में लेख छपा करते थे. स्वस्थ्य यौन जीवन और इसके लिए चिकित्सा सलाह पर केंद्रित कर्वे की पत्रिका में निर्भीक चर्चाएँ हुआ करती थीं जो तर्क और विज्ञान सम्मत होती थीं. फिर भी, उनकी बातें रुढ़िवादी और धर्मनिष्ट, भीरु, अशिक्षित समाज के ठेकेदारों को चुभतीं और इस तरह उनके कई दुश्मन समाज में पैदा हो गए. लेकिन उन्होंने अपना लेखन और पत्रिका का प्रकाशन नहीं छोड़ा. उस समय भातीय राजनीति और समाज में बहुत ही कम लोग, ना के बराबर थे जो कर्वे  को नैतिक और व्यावहारिक तौर पर समर्थन दे सकें, उनके लेखनी का समर्थन करते. ऐसे समय में  कर्वे  को बाबा साहब का साथ मिल जाने से बड़ा सुयोग और क्या हो सकता था .

बाबा साहब ने न केवल उनका साथ दिया बल्कि उनके लिए उनकीतरफ से वकील बनकर उनके केस में पैरवी भी की. यह "समाज स्वास्थ्य"नामक उस महान पत्रिका के लिए लड़ा गया  मुक़दमा था जो अभिव्यक्ति की आजादी, स्वतंत्रता और लिंकिग समानता के लिए कृत संकल्प थी. इस मुकदमे में हुई बहस को भारत के सामाजिक - राजनैतिक सुधारों के इतिहास में सबसे महत्वपूर्ण क़ानूनी लड़ाइयों के रूप में देखा जाना चाहिए, जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए लड़ा गया. अदालत में आंबेडकर के व्यक्त किए गए विचार हमारे संविधान के मौलिक अधिकारों के अंतर्गत आज दर्ज हैं.

1931 में कर्वे की पत्रिका में एक लेख प्रकाशित किया गया जिसका शीर्षक था -- "व्यभिचारके प्रश्न". इस आलेख ने रुढ़िवादियों को इतना आहात कर गया कि उनपर रुढ़िवादियों द्वारा मुक़दमा कर दिया गया, उन्हें गिरफ़्तार किया गया और दोषी ठहराए जाने के बाद 100 रुपये जुर्माना भी लगाया गया. जब कर्वे ने उच्च न्यायालय में अपील की, तो मामले की सुनवाई तत्कालीन न्यायाधीश इंद्रप्रस्थ मेहता के सामने हुई और उनकी अपील ख़ारिज कर दी गयी.

तीन साल के भीतर ही फरवरी 1934 में कर्वे  को दुबारा गिरफ़्तार किया गया.  इस बार "समाज स्वास्थ्य"के गुजराती संस्करण में पाठकों द्वारा निजी यौन जीवन के बारे में किये गए सवाल के जवाब रूढिवादियों के गले के नीचे नहीं उतरा. किसी पाठक ने हस्तमैथुन आदि से सम्बंधित प्रश्न किये थे जिसका जवाब कर्वे ने दिया था. इस बार मुंबई उच्च न्य्यायालय में मुंबई के एक सधे हुए वकील बैरिस्टर बी. आर. आंबेडकर उनकी ओर से उच्च न्यायालय में लड़ने के लिए खड़े हुए. इस समय तक महाड और नासिक आन्दोलन का नेतृत्व कर चुके डॉ. आंबेडकर  वंचितों के लिए लड़ने वाले राष्ट्रीय नेता के रूप में स्थापित हो चुके थे. इतना ही नहीं डॉ. आंबेडकर  इस समय तक लंदन में हुए गोलमेज सम्मेलन में आरक्षण की मांग और महात्मा गांधी के साथ प्रसिद्ध पुणे समझौता कर चुके थे.

सामाजिक-राजनैतिक रूप से इतना बड़ा कद हासिल कर लेने और इतनी व्यस्तताओं के बावजूद भी डॉ. आंबेडकर ने उनका केस लड़ना स्वीकार किया तो इसके पीछे उनका कोई आर्थिक प्रयोजन तो निश्चित रूप से नहीं ही था. आखिर उन्होंने इस केस के पीछे क्या संभावनाएं देखीं कि कर्वे  का केस लड़ने की मंशा बनाई जबकि वे अच्छी तरह जानते थे कि सामाजिक तौर पर उन्हें कर्वे का केस लेने पर घोर आलोचना और लांछन भी मिलेगा ? बाद में मराठी के प्रसिद्द नाटककार अजीत दल्वी ने इसी कोर्ट केस को आधार बनाकर एक नाटक लिखा "समाज स्वास्थ्य"जिसका मंचन पूरे देश में किया जा रहा है.

प्रोफ़ेसर दल्वी का मानना है, "आंबेडकर निश्चित तौर पर दलितों और वंचितों के नेता थे लेकिन वो पूरे समाज के लिए सोच रखते थे. सभी वर्गों से बना आधुनिक समाज उनका सपना था और वो उसी दिशा में आगे बढ़ रहे थे."


डा. कर्वे 

भीमराव आंबेडकर के पोते प्रकाश आंबेडकर कहते हैं
, "
उन्होंने 1927 में मनुस्मृति क्यों जलायी, क्योंकि उनका मानना था कि ऐसा साहित्य व्यक्तिगत आज़ादी को दबा देती है. इसलिए जहां भी व्यक्तिगत आज़ादी के लिए संघर्ष चला बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर उसके पीछे खड़े हुए."

इस के से सम्बंधित मामले की सुनवाई 28 फरवरी से 24 अप्रैल 1934  तक चली. उस समय बाम्बे हाई कोर्ट के न्यायधीश थे न्यायमूर्ति मेहता जिनके सामने बहस चली. कर्वे के ऊपर आरोप था कि उन्होंने यौन मुद्दों पर सवालों का जवाब देकर अश्लीलता फैलाई.

"आंबेडकर ने अपना पहला तर्क यह रखा कि अगर कोई यौन मामलों पर लिखता है तो इसे अश्लील नहीं कहा जा सकता. हर यौन विषय को अश्लील बताने की आदत को छोड़ दिया जाना चाहिए. इस मामले में हम केवल कर्वे के जवाबों पर नहीं सोच कर सामूहिक रूप से इस पर विचार करने की जरूरत है. न्यायाधीश के यह पूछने पर कि हमें इस तरह के विकृत प्रश्नों को छापने की आवश्यकता क्यों है और यदि इस तरह के प्रश्न पूछे जाते  भी हैं तो उनके जवाब ही क्यों दिये जाने चाहिए?  इस पर आंबेडकर का जवाब था कि  विकृति केवल ज्ञान से ही हार सकती है. उन्होंने ने प्रत्युत्तर में प्रतिप्रश्न किया कि इसके अलावा इसे और कैसे हटाया जा सकता है ? इसलिए कर्वे को सभी सवालों का  जवाब अपने पाठको को देना ही चाहिए था. आंबेडकर अपने तर्क के क्रम में खुश होने के अधिकार की भी बात की और हेवलॉक एलिस के शोध को अदालत में उद्धृत किया जो समलैंगिकता पर किया गया एक शोध था. उन्होंने कहा यदि लोगों में इस तरह की भी इच्छा होती है तो इसमें कुछ भी ग़लत नहीं है. उन्हें अपने तरीक़े से खुशी हासिल करने का अधिकार है. इन बहसों ने समलैंगिकता पर आनेवाले भविष्य में संविधान का रुख स्पष्ट कर दिया जो वर्तमान में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों में मुखरित होता है.

आंबेडकर ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को इतना महत्वपूर्ण माना है कि इसके लिए समाज के किसी वर्ग की नारागागी भी वे मोल लेने को तैयार हैं. यदि समाज किन्ही विचारों को सुनने के लिए तैयार नहीं है, या कुछ बातों को उसे सुनना पसंद नहीं है तब भी किसी व्यक्ति के विचारों को अभिव्यक्त करने से रोका नहीं जा सकता. सभी मुद्दे पर खुलकर विचार किये बिना समाज कभी आगे नहीं बढ़ सकता. कोई भी बंद समाज विकृतियों और रुढियों का वाहक होता है. इसलिए खुलकर चर्चा और विचार रखना ही उपाय है.


बाबा साहेब अम्बेडकर

 
१९२६ में भी अभिव्यक्ति से जुड़े मामले की वो पैरवी कर चुके थे और अपने दोनों मुवक्किलोंबाइज्जत बरी करवाया था. वाकया भी कम मजेदार नहीं था. पुणे के प्रसिद्द नेता और कार्यकर्ता केशवराव जेधे और दिनकर राव जवालकर को द्वारा जवालकर  द्वारा लिखी गई मराठी किताब देशाचा दुश्मन (देश के दुश्मन) के लिए 1926 में अदालत में एक मुकदमे का सामना करना पड़ा। जेदे प्रकाशक थे। इस किताब में  बाल गंगाधर तिलक और विष्णु शास्त्री चिपलुनकर पर उनके ब्राह्मणवादी और गैर ब्राह्मण समुदाय पर व्यक्त उनके नजरिये के लिए जम कर हमला किया गया था. इसपर पुणे में एक  पुलिस मामला दर्ज किया गया था और पूरा पुणे शहर जेदे और जवालकर के खिलाफ चला गया था। आंबेडकर ने यह केस लड़ा और जीता.
आंबेडकर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मुद्दों से इतने संपृक्त थे कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कोसंविधान में सर्वोपरि महत्व की सूची में स्थान दिया और उसे मौलिक अधिकारों के अंतर्गत शामिल किया. परिवार नियोजन का बिल तो वे १९३७ में ही ले आए थे. भले ही डॉक्टर आंबेडकर 1934  का वह केस अदालत में हार गये थे और अश्लीलता के लिए कर्वे पर एक बार फिर 200 रुपये का जुर्माना लगा था, पर उनके विचारों और अदालत में उनके तर्कों ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के क्षितिज का विस्तार नीले आसमान तक होने के संकेत मिल गए थे. धनञ्जय कीर ने उनकी आत्मकथा में सही ही लिखा है कि आंबेडकर का अछूत होना भले ही उनके कानूनी पेशे के लिए एक बड़ी अड़चन थी पर उनके जैसे दृढ विचार वाले व्यक्ति की शक्ति को रोकना असंभव था.
लेखक स्त्रीकाल के संपादन मंडल से जुड़े हैं. संपर्क: Email- rajeevsuman@gmail.com mob- 9650164016 / 6200825226
लिंक पर  जाकर सहयोग करें , सदस्यता लें :  डोनेशन/ सदस्यता
आपका आर्थिक सहयोग स्त्रीकाल (प्रिंट, ऑनलाइन और यू ट्यूब) के सुचारू रूप से संचालन में मददगार होगा.
स्त्रीकाल का प्रिंट और ऑनलाइन प्रकाशन एक नॉन प्रॉफिट प्रक्रम है. यह 'द मार्जिनलाइज्ड'नामक सामाजिक संस्था (सोशायटी रजिस्ट्रेशन एक्ट 1860 के तहत रजिस्टर्ड) द्वारा संचालित है. 'द मार्जिनलाइज्ड'के प्रकशन विभाग  द्वारा  प्रकाशित  किताबें  अमेजन ,   फ्लिपकार्ट से ऑनलाइन  खरीदें 
संपर्क: राजीव सुमन: 9650164016, themarginalisedpublication@gmail.com


तुम्हारी माँ भी छेड़छाड़ की शिकार हुई, बेटों तुम्हें जानना चाहिए औरत की देह पर उसका अपना हक़ होता है

$
0
0

स्त्रीकाल डेस्क 

विश्व मुक्केवाजी चैम्पियनशिप में छठा स्वर्ण पदक जीतने वाली मैरी कॉम ने अपने साथ हुई यौन हिंसा और नस्लीय उत्पीड़न के बारे में अपने बेटों को एक चिट्ठी लिखकर बताया। मैरी कॉम तीन बच्चों की माँ हैं. यह पत्र उन तमाम माओं की ओर से बेटों को लिखा गया है, जो समाज में यौन हिंसा की शिकार होती हैं. यह पत्र हर बेटे को पढ़ना चाहिए. चार दिन पहले लिखा गया यह पत्र सोशल मीडिया में वायरल है. स्त्रीकाल के पाठकों के लिए पत्र का अनुवाद भी सोशल मीडिया से लिया गया है, अनुवादक का नाम हालांकि हमें नहीं दिखा. 

पति और बच्चों के साथ मैरी कॉम 


मेरे बेटों 
तुम अभी नौ और तीन साल के हो, लेकिन इस उम्र में भी हमें अपने आपको महिलाओं के साथ व्यवहार को लेकर जागरूक हो जाना चाहिए।
मेरे साथ सबसे पहले मणिपुर में छेड़छाड़ हुई, फिर दिल्ली और हरियाणा के हिसार में। एक दिन मैंसुबह साढ़े आठ बजे साइकिल रिक्शा से ट्रेनिंग कैंप जा रही थीं, तभी एक अजनबी अचानक मेरी तरफ लपका और उसने मेरे स्तन पर हाथ मारा। गुस्से में आकर मैंने उसका पीछा किया लेकिन वो भाग निकला। मुझे उसे न पकड़ पाने का दुख है क्योंकि में तब तक कराटे सीख चुकी थीं।
 एक और ऐसी ही घटना मेरे साथ तब हुई जब मैं 17 वर्ष की थी । में यह सब इसलिए बता रही हूँ क्योंकि अपनी शक्तिभर कोशिशों से मैंने अपने देश के लिए बहुत नाम कमाया और पदक विजेता के रूप में पहचान बनाई लेकिन मैं एक महिला के तौर पर भी इज्जत चाहती हूँ ।
बेटो, तुम्हारी तरह मुझे भी दो आँखें और एक नाक है। हमारे शरीर के कुछ हिस्से भिन्न है और यही वो चीज है जो हमलोगों को अलग करती है। हम अपने दिमाग का इस्तेमाल अन्य पुरूषों की तरह सोचने के लिए करते हैं और हम अपने हृदय से महसूस करते हैं जैसा कि तुम करते हो। स्तन छूने और नितंब थपथपाने को मैं पसंद नहीं करती। ऐसा मेरे और मेरे दोस्त के साथ दिल्ली और हरियाणा में ट्रेनिंग कैंप से बाहर टहलने के दौरान हुआ।
इससे क्या फर्क पड़ता है कि मैं क्या पहनती हूँ और दिन और रात के कब कहाँ जाती हूँ। महिलाओं को बाहर जाने से पहले क्यों सोचना चाहिए? ये दुनिया जितना तुम्हारे लिए है, उतनी ही मेरी भी है। मैं कभी नहीं समझ सकी कि महिलाओं को छूने से पुरुषों को किस तरह का आनंद मिलता है।
अब तुम बढ़ रहे हो तो मैं ये बताना चाहती हूँ कि छेड़छाड़ और रेप अपराध है और इसका दंड काफी कठोर है। अगर तुम देखते हो कि किसी युवती से छेड़छाड़ हो रही है तो मेरा आग्रह है कि तुम उस युवती की सहायता करो। ये सबसे दुखद बात है कि हम समाज के प्रति बेपरवाह होते जा रहे हैं। दिल्ली में एक युवती की चाकुओं से गोद-गोदकर हत्या कर दी गई जबकि वहाँ लोग उसकी मदद कर सकते थे, लेकिन किसी ने कुछ नहीं किया।
तुम ऐसे घर में पले-बढ़े हो जहाँ हम लोगों ने तुम्हें सम्मान और समानता के बारे में सिखाया है। तुम्हारे पिता नौ बजे से पाँच तक नौकरी नहीं करते जैसा कि तुम्हारे दोस्तों के पिता करते हैं। तुम्हारे पिता इसलिए घर पर रहते हैं कि हम दोनों में से किसी एक को तुम लोगों के पास होना जरूरी होता है। ट्रेनिंग और काम के दौरान मैं ज्यादातर वक्त बाहर बिताती हूँ। अब जबकि मैं सांसद हूं तब भी ऐसा ही होता है।
 मेरे मन में तुम्हारे पिता के लिए बहुत सम्मान है जिन्होंने मेरे लिए और तुम्हारे लिए अपना पूरा समय लगा दिया है। तुम लोग जल्द ही ‘हाउस हसबैंड’ शब्द सुनोगे जो न तो कलंक है और न ही अपमानजनक। तुम्हारे पिता मेरी ताकत हैं, मेरे पार्टनर हैं, और मेरे हर फैसले का वे समर्थन करते हैं…।”
खेद की बात है कि पूर्वोत्तर के लोगों को चिंकी कहकर बुलाया जाता है । यह भद्दी और नस्लवादी टिप्पणी है। मेरी तमाम प्रसिद्धि के बावजूद लोग मुझे उस तरह से नहीं पहचानते जिस तरह से वे क्रिकेटरों को पहचानते हैं । कुछ लोग उन्हें चीनी समझ लेते हैं। मुझे राज्यसभा का सांसद होने पर गर्व है और में इस अवसर का लाभ उठाकर यौन अपराधों के प्रति जागरूकता फैलाने की कोशिश करूंगी ।
 इस देश के बच्चों को ये बताना हमारा कर्तव्य है कि महिलाओं के शरीर पर केवल उनका हक है और उनके साथ किसी तरह की जबरदस्ती नहीं होनी चाहिए। बलात्कार का सेक्स के साथ कोई संबंध नहीं है, ये भी सबको समझना चाहिए। मैं छेड़खानी करने वालों की पिटाई कर सकती हूँ, लेकिन सवाल ये है कि ऐसी स्थिति बनती ही क्यों है।
बेटो तुम्हे सिर्फ अपने लिए ही नही जीना है, तुम्हे शक्तिभर कोशिश करके एक ऐसे समाज का निर्माण करने में योगदान देना है जिसमें लड़कियाँ सुरक्षित हों और सम्मानित हों।
लिंक पर  जाकर सहयोग करें , सदस्यता लें :  डोनेशन/ सदस्यता
आपका आर्थिक सहयोग स्त्रीकाल (प्रिंट, ऑनलाइन और यू ट्यूब) के सुचारू रूप से संचालन में मददगार होगा.
स्त्रीकाल का प्रिंट और ऑनलाइन प्रकाशन एक नॉन प्रॉफिट प्रक्रम है. यह 'द मार्जिनलाइज्ड'नामक सामाजिक संस्था (सोशायटी रजिस्ट्रेशन एक्ट 1860 के तहत रजिस्टर्ड) द्वारा संचालित है. 'द मार्जिनलाइज्ड'के प्रकशन विभाग  द्वारा  प्रकाशित  किताबें  अमेजन ,   फ्लिपकार्ट से ऑनलाइन  खरीदें 
संपर्क: राजीव सुमन: 9650164016, themarginalisedpublication@gmail.com

न मार्क्सवाद, न अंबेडकरवाद, न स्त्रीवाद , बस एक्सपोजर चाहिए और मंच

$
0
0

सुशील मानव 

देश और समाज में  नफ़रत, वैमनस्य, असहिष्णुता, हताशा और मातम का माहौल है और साहित्य में लगातार एक के बाद उत्सव मनाए जा रहे हैं। पिछले ही सप्ताह इंडिया टुडे समूह का साहित्योत्सव‘साहित्य आजतक’ संपन्न हुआ और इसी सप्ताह दैनिक जागरण ‘जागरण संवादी’ आयोजित करवा रहा है। खुद को प्रतिपक्ष, जनवादी, मार्क्सवादी, अंबेडकरवादी, स्त्रीवादी कहलाने वाले तमाम साहित्यकार इन साहित्योत्सवों में बढ़-चढ़कर भागीदारी कर रहे हैं। लखनऊ में 30 नवंबर से 2 दिसंबर तक होने वाले जागरण संवादी के पहले दिन के कार्यक्रम के वक्ताओं, अपूर्वानन्द, मैत्रेयी पुष्पा और भगवानदास मोरवाल से  स्त्रीकाल के लिए सुशील मानव ने बातचीत की. कठुआ काण्ड में बलात्कारियों के पक्ष में रिपोर्टिंग करने वाले दैनिक जागरण ने लेखकों की मांग के बावजूद माफी मांगना उचित नहीं समझा, लेकिन लेखकों को इस बात का क्या फर्क पड़ने वाला है, वे अपने लचर तर्कों के साथ इसके मंचों को सुशोभित करने वाले हैं. बलात्कार के पक्ष में इस या उस तर्क के साथ खड़े अखबार की विडम्बना है कि वह मी टू पर भी एक सत्र रख रहा है. वरिष्ठ लेखिका मैत्रेयी पुष्पा जागरण संवादी में जाने के तर्क में अन्य लेखिकाओं को दोगला कह रही हैं. वह दिन दूर नहीं जब प्रगतिशील साहित्यकार, विचारक संघ के मंच से भी राष्ट्रवाद, स्त्री-पुरुष समानता और जातिवाद के विरोध में भाषण देंगे. 




प्रोफेसर अपूर्वानंद 
जागरण संवादी जैसे मंचों को आपकी ज़रूरत क्यों है?
प्रोफेसर अपूर्वानंद- इसका उत्तर जागरण से लेना बेहतर होता। उनसे मेरा कोई संपर्क नहीं रहा है। मैंने जागरण के लिए कभी लिखा नहीं, उन्होंने कभी कहा भी नहीं। मैं इससे पहले कभी उनके कार्यक्रम में नहीं गया हूँ। आयोजकों ने कहा कि वे राष्ट्र और राष्ट्रवाद पर बात करना चाहते हैं। यह एक ऐसा मुद्दा पर है जिस पर पिछले चार-पाँच सालों में बहुत भ्रम फैलाया गया है। मेरी समझ है कि इस पर ठहर कर विचार करने की ज़रूरत है। तो इस मुद्दे पर बात करने पर जितना ज्यादा लोग इसके बारे में जान सकें उतना अच्छा है। रही बात दैनिक जागरण की तो उसकी संपादकीय नीति से मेरी हमेशा असहमति रही है। उनका संपादकीय व्यवहार और रिपोर्टिंग गैरजिम्मेदाराना रही  है। हिंदी भाषी  समाज में विषाक्त माहौल पैदा करने में जिनका हाथ है उनमें से एक दैनिक जागरण भी है।

क्या आप जैसे लोगों का इस्तेमाल जागरण जैसे मंच खुद को लोकतांत्रिकता का जामा पहनाने के लिए नहीं कर रहे?
मुझे नहीं मालूम कि मैं इतना महत्त्वपूर्ण हूँ कि कोई मेरे माध्यम से वैधता हासिल करना चाहे। लेकिन इतना आश्वस्त हूँ कि कोई मेरा इस्तेमाल नहीं कर सकता। यह कठिन है। मेरी जो समझ है, जो तर्क है वो मंच के अनुसार नहीं बदलता।

साहित्य में उत्सवधर्मिता अचानक से बढ़ क्यों गई है? इन आयोजनों के पीछे का एजेंडा क्या है?
यह हर जगह हो रहा है। पूरी दुनिया में उत्सवों का सिलसिला देखा जा रहा है। भारत में तो पिछले कुछ सालों से ही शुरू हुआ है। जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल के बाद कई आयोजक साहित्यिक आयोजन करने लगे हैं। लिटरेचर फेस्टिवल रचना को उत्सव में  बदल रहे हैं। यह कल्चर  इंडस्ट्री है जो साहित्य को भी एक तुरंत मजेदार अनुभव  में बदल रही है। यह गंभीर साहित्य को सतही उत्पाद में बदल रही है। लेखक ब्रांड बनाए जाते हैं। इसमें साहित्य से ज़्यादा साहित्यकारों या सितारों में दिलचस्पी रहती है। अभी दिल्ली के इसी तरह के एक साहित्यिक आयोजन का पोस्टर देखा, उसमें किसी लेखक की तस्वीर न थी, या तो फ़िल्मी सितारे थे या कोई और लोकप्रिय चेहरे। जाहिर है साहित्य मात्र उपलक्ष्य है। यह साहित्य को जन संपर्क अभियान में  बदल देता है। साहित्य, जैसा मैंने कहा, इन मेलों का साध्य भी नहीं है।  साहित्य  और बाज़ार की यह दोस्ती दिलचस्प है, क्योंकि वक्त था जब साहित्य खुद को बाज़ार और राज्य का प्रतिपक्षी मानकर गर्व का अनुभव  करता था। अब रिश्ता  यारी का होता जा रहा है।


मैत्रेयी पुष्पा 
मैत्रेयी जी आप जागरणसंवादी में बतौर वक्ता आमंत्रित की गई हैं?इस पर आपकी कोई प्रतिक्रिया।
मैत्रेयी पुष्पा- मैं 2015 के संवादी में भी गई थी और मैंने अपनी बात रखी थी।मैंने अभी दैनिक जागरण संवादी और साहित्य आजतक के खिलाफ उनके दोगली नचनियों गवइयों को बड़ा मंच और साहित्यकारों को छोटा मंच देने को लेकर एक लेख लिखा है। एक-दो रोज में वो भी छपकर आ जाएगा। उस लेख को पढ़ने के बाद में मुझे बुलाते हैं या नहीं, पता नहीं। तो मेरा जाना न-जाना अभी सुनिश्चित नहीं है।

जागरण एक ओर संवादी चलाकर सबको एक मंच पर बुला रहा है तो दूसरी तरफ कठुआ से लेकर सबरीमाला तक और बाबरी मस्जिद से लेकर बीफ और लिंचिंग तक जागरण लगातार अपने मंचों और साधनों के जरिए स्त्रविरोधी, मुस्लिम विरोधी मुहिम चलाकर समाज में सांप्रदायिक जहर फैला रहा है?
दोगलापन कहाँ नहीं है। बहुत सी प्रगतिशील लेखिकाएँ हैं जो कर्मकांड पूजा-पाठ करती हैं, सिंदूर लगाती हैं। पिछले साल मैंने सिंदूर पर लिखा तो मुझे प्रगतिशील लेखिकाओं ने घेरकर गालियाँ दी। मैंने ऐसे कई लोगों को ऐसे प्रोग्रामों में जाते देखा है जो कार्यक्रम में शामिल नहीं होते पर घूमने खाना खाते जाते हैं। कई बार मैंने ऐसे लोगों से पूछा कि क्या आप भी कार्यक्रम में शामिल हो तो कहते हैं नहीं मैं तो दोस्त के लिए या सहेली के लिए आई हूँ।

जागरण जैसे मंचों के भी अपने लेखक हैं फिर उन्हें आपकी ज़रूरत क्यों है?
उनके पास लेखक कहाँ हैं। मृदुला सिन्हा जैसे कुछ गिने चुने लोग हैं तो उनके दम पर थोड़े ही साहित्य आयोजन कर लेंगे वो।

तो क्या आज साहित्यकारों को अपनी बात कहने के लिए जागरण संवादी के मंच की जरूरत है?
नवजीवन हो या दैनिक जागरण सबके अपने दल और दलीय एजेंडे हैं। पर मैं साहित्यकार की तरह चलती हूँ किसी दल की तरह नहीं।मैं साहित्य में आई तो कोई वाद ओढ़कर नहीं आई। जनवाद और स्त्रीविमर्श लेखन में लेकर आई। सारे वाद लेखन में लेकर आयी। पर जो गलत है वो गलत है। मैंने कई बार उनके खिलाफ़ उनके मंचों पर जाकर बोला है। खेमेबंदी हर ओर है। जलेस प्रलेस के लोग भी अपने मंचों पर अपने ही दोस्तों को ऑब्लाइज करते हैं।

क्या उनके मंचों को उन्हीं के लेखकों के लिए छोड़ देना ठीक नहीं होगा। गर आप जैसे साहित्यकार उनके मंचों पर न जाएँ, उन्हें लोकत्रंत्रिक न बनाएं तो उनके मंच सिर्फ मंचीय और सांप्रदायिक लोगों का अड्डा बनकर रह जाएं?
मैं कहूँगी तो खराब लगेगा पर एकल पहल से कुछ नहीं होता।ऐसे निर्णय सामूहिकता से लिए जाते हैं। इसके लिए हस्ताक्षर अभियान चलाओ। मैं भी उसमें सहयोग दूंगी और अपनी बात रखूँगी।

भगवान दास मोरवाल 
जागरण संवादी में अपनी सहभागिता पर आपकी प्रतिक्रिया?
मैं सीपीएम, सीपीआई सीपीआईएल या किसी भी राजनीति कम्युनिस्ट पार्टी या लेखक संघ का सदस्य नहीं हूँ। मेरी विचारधारा मेरी जाति, मेरा इलाके (क्षेत्रीयता), और मेरे समाज से बनी है। अतिवादी जितनी भाजपा है उतनी ही अतिवादी दूसरे और भी हैं। जलेस जैसे लेखक संगठन पोलिटिकल विंग हैं। ऐसा ही जसम का है। लेखक संगठनों पर ब्राह्मण, ठाकुर जैसे सवर्णों का कब्जा है। दलित लेखक संघ इसीलिए बना। जागरण अख़बार नहीं आता मेरे घर, न ही मैं उसकी विचारधारा का पोषक हूँ। पर वो मुझे बुला रहा है तो मैं एक लेखक और विचारक के तौर पर जा रहा हूँ।हिंदी साहित्य में ये एक अच्छी बात है कि फेसबुक ने आलोचना को खत्म कर दिया है। आज कोई रचना फेसबुक पर डालिए पाठक अपनी प्रतिक्रिया से परिचित करा देता है। साहित्य में आज कंबल ओढ़कर घी पीनेवाली प्रवृत्ति है। जब वो लोग जाते थे तब जागरण सेकुलर था अब जब जागरण उनकों अपने आयोजनों में नहीं बुला रहा है तो आप उसका विरोध कर रहे हैं। मैं तो खुल्लम-खुल्ला बोलकर जा रहा हूँ।


लेकिन उस वक्त क्या जब साहित्य के नाम पर होने वाले इन आयोजनों में लेखकों को छोटा कोना पकड़ाकर बड़े मंच प्रसून जोशी और पीयूष मिश्रा जैसों को सौंप दिया जाता है?
साहित्य उत्सव मनाया जा रहा है। जेएलएफ ने फेस्टिवल का रूप बनाया है। लेकिन जेएलएफ में अंग्रेजी लेखकों का वर्चस्व है। इन आयोजनों में आने वाले4% भी गंभीर साहित्य पाठक नहीं होते। इन आयोजनों में पाठक नहीं भीड़ होती है। भीड़ इकट्ठी करनी है तो भीड़ जावेद अख्तर के मंच पर जाएगी। भीड़ कुमार विश्वास के नाम पर आएगी। नूरा सिस्टर्स को सुनने आएगी। साहित्य आजतक में नूरा सिस्टर्स के मंच पर ढाई हजार लोगो की भीड़ थी। पर गंभीर लेखक के पास भीड़ नहीं आएगी।

क्या कारण है दलित या पिछड़े साहित्यकारों की इन मंचों पर सहभागिता बेतहाशा बढ़ी है।
दलित साहित्यकारों को वो मंच नहीं मिला कभी। पर पिछले तीन सालों में लगातार मेरी तीन किताबें आईं। आज लोग मुझे जानने लगे हैं। कई यूनिवर्सिटीज में मेरी किताबों पर 30 से भी ज्यादा रिसर्च हो रहे हैं। तो अब कहीं कोई मंच नहीं छोड़ना चाहते।मुझे याद है कि मैं अपनी रचना लेकर राजेंद्र यादव के पास गया था उन्होंने मुझे लेखक मानने से ही इन्कार कर दिया था तब मैंने उन्हें चैलेंज किया था मैं आपको लेखक बनकर दिखाऊँगा।पिछले दो सालों से मुझे खुद कई लोग अपने मंचों पर बुला रहे हैं।जागरण के मंच पर जाता हूँ तो वो बात कहता हूँ जो मुझे कहना है। मैं उस पर एहसान कर रहा हूँ। वो मुझ पर नहीं कर रहा है। इससे पहले मुझे एक कार्यक्रम में बलदेव भाई शर्मा ने बुलाया था। तो मैं सरकारी कार्यक्रम समझकर वहां चला गया।

साहित्यकारों को आज उत्सवधर्मी आयोजनों की ज़रूरत क्यों हैं?
बाज़ारवाद और उत्सवधर्मिता दोनों चीजों से साहित्यकार पता नहीं क्यों इतना चिढ़ते हैं। मैं उनसे असहमत हूँ। बाज़ार ने हमें तकनीक दी है। आज मैं तकनीक के जरिए अपने साहित्य का प्रचार कर रहा हूँ तो लोग कह रहे हैं मैं आत्ममुग्धता का शिकार हूँ। मैं साहित्य आयोजनों को लोगों से इंटरएक्शन के साधन के रूप में लेता हूँ। लोगों से मिलकर उनसे बात करके मैं अनुभव अर्जित करता हूँ। यही मेरे लेखन के काम आता है। एक कमरे में कैद होकर नहीं हो सकता। जैसे मैं आरएसएस को लेकर एक उपन्यास लिख रहा हूँ।तो मैंने छः महीने के लिए साखा ज्वाइन कर ली। अब इससे मैं संघी तो नहीं हो गया।पिछले साल भी मैं संवादी में गया था। ‘दलित लेखन की चुनौतियाँ’ विषय पर एक सत्र था। उसमें श्योराज सिंह ने कहा था कि अगर शिवलिंग पर बिच्छू होगा तो मैं उसे चप्पल से मार दूँगा। उस पर वहाँ हंगामा हो गया। वहाँ मौजूद श्रोता हंगामा करने लगे। तब मैंने सबको डॉटकर चुप कराया। श्योराज सिंह बेचैन की एक कविता संग्रह है चमार की चाय। अब लोग उस पर भी सवाल उठाते हैं कि वो चमार की चाय क्यों है दलित की चाय क्यों नहीं।

इस तरह के साहित्य उत्सव यही लोग क्यों करा रहे हैं जो एक खास विचारधारा के पोषक हैं?
प्रकाशकों के बारे में भी हम यही बात कर सकते हैं। वो बनिया हैं साहित्य-सेवी नहीं। उनके पास पैसा है। लेकिन वो रॉयल्टी नहीं देंगे,पर नामवर सिंह, केदरनाथ सिंह राजेंद्र यादव पर नोट लुटाएंगे। हर चीज के दो पहलू होते हैं। ब्लैंक एंड व्हाइट। किसी एक पक्ष पर बात करना और दूसरे को छोड़ देना बेमानी है।जेएएलएफ, जागरण संवादी, साहित्य आजतक इनका मकसद साहित्य सेवा नहीं है। पर हाँ उनके पास संसाधन हैं। तो वो साहित्य का आयोजन करेंगे। वो सबको बुलाएंगे। नाटककार, गायक, साहित्यकार सबको बुलाएंगे। 

यदि गंभीर साहित्यकार इन मंचों पर न जाएं तो ये आयोजन सतही और मंचीय भर होकर रह जाएंगे। क्या गंभीर साहित्यकारों द्वारा सतहीपने को गंभीरता के बरक्स स्थापित नहीं किया जा रहा है?
जागरण के आयोजकों से मैंने भी ये बात कही, तो उन्होंने कहा कि सब गंभीर ही गंभीर कर देंगे कितने लोग आएंगे आयोजन में। बावजूद इसके उन्होंने अपने कार्यक्रम में सबसे ज्यादा हिंदी साहित्यकारों को बुलाया है। जागरण ने बेस्ट सेलर शुरू किया तो मैंने उनसे कहा इसे बंद करो। इसमें सतही खांचे की सारी किताबें होती हैं। दरअसल ये साहित्यिक आयोजन एक इवेंट भर हैं, साहित्य सेवा नहीं। इनका भी एक गणित है। इन साहित्यिक इवेंटों को ब्रांडेड कंपनियाँ स्पांसर करती हैं। जो शाम को महँगे महँगे शराब मुफ्त में परोसती हैं। आज हमें जूते से लोकर शर्ट मोबाइल तक हर चीज ब्रांडेड चाहिए। फिर हमें बाज़ारवाद खराब नहीं लगता है। बाजार के बिना हमारी दैनिक दिनचर्या नहीं चल सकती। आज मोबाइल के बिना स्त्री मुक्ति की कल्पना नहीं की जा सकती। घर-परिवार में भी कोई न कोई खराब निकल आता है तो क्या करें।

क्या वैचारिक विचलन पैदा करने के लिए साहित्यकारों को ग्लैमराइज किया जा रहा है?
मैं तो जाति का कुम्हार हूँ। घर का अकेला पढ़ा हूँ। मुझे लिखने का शौक़ है। पर स्वांतःसुखाय के लिए लिखने से सहमत नहीं हूँ। आप अपना हाँड, माँस, पसीना, समय, सोच सब लगाकर लेखन करते हैं। मेहनत के बाद रचना को ज्यादा से ज्यादा लोगों के बीच जाना चाहिए।हमें एक्सपोजर भी चाहिए। तो ये एक्सपोजर हमेंइन्हीं साहित्यिक उत्सवों के माध्यम से मिलेगा। मुझे दिल्ली जैसे महानगर में होने का फायदा मिलता है। यही अगर मैं भी अन्य साहित्यकारों की तरह दूर-दराज के क्षेत्रों में रहता तो मुझे कौन पूछता। माना कि इस तरह के साहित्य आयोजनों में 80 प्रतिशत कुछ और हो रहा है पर 20 प्रतिशत तो साहित्य पर फोकस हो ही रहा है। तब भी हमें इन उत्सवों के प्रति आभारी होना चाहिए।
लिंक पर  जाकर सहयोग करें , सदस्यता लें :  डोनेशन/ सदस्यता
आपका आर्थिक सहयोग स्त्रीकाल (प्रिंट, ऑनलाइन और यू ट्यूब) के सुचारू रूप से संचालन में मददगार होगा.
स्त्रीकाल का प्रिंट और ऑनलाइन प्रकाशन एक नॉन प्रॉफिट प्रक्रम है. यह 'द मार्जिनलाइज्ड'नामक सामाजिक संस्था (सोशायटी रजिस्ट्रेशन एक्ट 1860 के तहत रजिस्टर्ड) द्वारा संचालित है. 'द मार्जिनलाइज्ड'के प्रकशन विभाग  द्वारा  प्रकाशित  किताबें  अमेजन ,   फ्लिपकार्ट से ऑनलाइन  खरीदें 
संपर्क: राजीव सुमन: 9650164016, themarginalisedpublication@gmail.com


‘लड़की के शरीर पर मेरा चेहरा था, वो कपड़े उतार रही थी और मैं रो रही थी’: राणा अयूब

$
0
0

पत्रकार राणा अयूब ने हाल में खुलासा किया कि वह एक भयंकर अश्लील वीडियो के हमले का शिकार हुईं. उनका पोर्न बनाकर वायरल करने वाली जमात कथित रूप से कुंठित राष्ट्रवादियों की जमात थी, जो एक बड़ी राजनीतिक पार्टी को पसंद करते हैं या उससे जुड़े हैं. अयूब को उनका यह अश्लील वीडियो बीजेपी के उनके एक सूत्र ने पहली बार भेजा था, उन्हें बताने के लिए कि उनपर किस तरह का हमला तैयार किया गया है. 

2018 अप्रैल में राणा अयूब को गंभीर रूप  से मानसिक और शारीरिक ट्रामा से गुजरना पड़ा. उनपर बना पोर्न वीडियो हर जगह वायरल था.

डीपफेकिंग एआई-आधारित छवि संश्लेषण तकनीक जो कृत्रिम बुद्धिमत्ता पर काम करतीहै, जो वीडियो छवियों को मॉर्फ कर किसी अन्य के शरीर पर किसी अन्य का चेहरा आरोपित कर अश्लील वीडियो बनाने के लिए प्रयोग किया जाता है. राणा अयूब भी इसी तकनीक का शिकार हुईं उनके चेहरे को अश्लील क्लिप में रख दिया गया था और इस तरह इसे प्रसारित किया था जैसे कि उसमे उन्होंने अभिनय किया हो. कठुआ बलात्कार पीड़िता के पक्ष खड़ा होने के तुरंत बाद का यह जघन्य प्रतिसाद उन्हें मिला था.

"यह विनाशकारी था. मैं सिर्फ अपना चेहरा नहीं दिखा पा रही थी किसी को. आप खुद को एक पत्रकार कह सकते हैं, आप खुद को नारीवादी कह सकते हैं. लेकिन उस पल में  मैं अपमान बोध में खुद को नहीं देख पा रही थी.
 संयुक्त राष्ट्र की विशेष संवाददाता डेविड काये ने राणा अयूब पर अपनी एक स्टोरी में कहा है कि, "हम अक्सर कल्पना करना चाहते हैं कि ऑनलाइन खतरे सिर्फ ऑनलाइन हैं, वे सिर्फ अभिव्यक्ति हैं, उन्हें संरक्षित किया जाना है, और वे ऑफलाइन स्पेस में नहीं जा रहे हैं।..लेकिन यह स्पष्ट रूप से सच नहीं है।"

वाशिंगटन पोस्ट  में Siobhán O'Grady के स्टोरी के अनुसार संयुक्त राष्ट्र संघ ने भारत सरकार पर पत्रकारों के साथ इस तरह के हमले को लेकर सख्त एतराज जताया है एक बयान में यह कहा गया है कि वे "बहुत चिंतित हैं कि राणा अयूब का जीवन इन ग्राफिक और खतरों के बाद गंभीर जोखिम पर है।"उन्होंने भारतीय अधिकारियों को सुरक्षा के लिए बुलाया और कहा कि उन लोगों की जांच करें जो उसे डरा रहे हैं। यु एन विशेषज्ञों का मानना है कि गौरी लंकेश के बाद अब उनका जीवन जोखिम में हो सकता है.

2010 से, अयूब ने कहा कि उन्हें लगातार उन लोगों द्वारा परेशान किया गया है जो उनकी रिपोर्टिंगसे असहमत हैं। खतरनाक या अपमानजनक संदेश वॉयस कॉल, टेक्स्ट, व्हाट्सएप, फेसबुक, इंस्टाग्राम और ट्विटर के माध्यम से आते हैं। वे अक्सर प्रकृति में अश्लील और गंदे होते हैं.
जिस दिन गौरी लंकेश की मृत्यु हो गई, पत्रकार राणा अयूब ने ट्वीट किया कि लंकेश ने हाल ही में अयूब की खोजी पुस्तक "गुजरात फाइल्स: एनाटॉमी ऑफ़ ए कवर अप"के कन्नड़-भाषा संस्करण को प्रकाशित किया था। राणा अयूब की यह किताब आठ महीनो की जोखिम भरी कड़ी खोज का नतीजा थी जो 2002 के गुजरात दंगो पर आधारित है और जिसमे आज के प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी की केन्द्रीय भूमिका के रूप में देखा गया है. राणा अयूब को इतना परेशान किया गया है कि उन्हें एक समय बावन सिम कार्ड बदलने पड़े.  एक समन्वयित सोशल मीडिया अभियान के तहत उन्हें लगातार ट्रोल किया जा रहा है. उन्हें “वह एक आई एस आई एस की सेक्स गुलाम है”, “वह जिहादी जेन है”, "वह एक वेश्या है", जैसे विशेषण उनके लिए आम हैं.

राणा अयूब की यह आप बीती भारतीय समाज की पितृसत्तात्मक सोच को ही नंगा नहीं करता वरण सत्ता में बैठे लोगों और खुद सत्ता के अनैतिक चरित्र को उजागर करता है. एक निर्विक, बहादुर पत्रकार जिसने कभी भी जोखिमो की परवाह नहीं की, पर समाज के कुछ तथाकथित हिन्दुत्ववादी, भक्त समूह जब किसी के स्वाभिमान और चरित्र को तार तार करने पर उतारू हो जाएं और मानवीयता की साड़ी हदें पार कर जाएं तो राणा अयूब जैसी पत्रकार भी कुछ पल के लिए साहस खो बैठती है...

राणा अयूब की आपबीती: 


‘पूरा देश वो क्लिप देख रहा था, लोग मुझसे पूछ रहे थे- एक रात कीकीमत’

‘लड़की के शरीर पर मेरा चेहरा था, वो कपड़े उतार रही थी और मैं रो रही थी’

राणा अयूब ने आगे बताया, ‘मैंने वीडियो क्लिप देखी तो उस लड़की के शरीर पर मेरा चेहरा था। उसने जैसे ही कपड़े उतारना शुरू किया, मैंने रोना शुरू कर दिया. इससे पहले कि मैं खुद को संभाल पाती, मेरे फोन में बीप की आवाज आने लगी. मैंने देखा कि मेरे पास ट्विटर पर करीब 100 नोटिफिकेशन आ चुके थे और ये सभी उसी वीडियो क्लिप को शेयर कर रहे थे. मुझे मेरे दोस्तों ने कहा कि मैं ट्विटर अकाउंट को डिलीट कर दूं, लेकिन मैंने ऐसा नहीं किया, क्योंयकि नहीं चाहती थी कि लोग ऐसा समझें कि उस वीडियो क्लिप में सचमुच मैं ही हूं.’
यह वीडियो 40,000 बार शेयर किया गया

राणा अयूब ने टि्वटर उस वीडियो को शेयर होता देखने के बाद फेसबुक पर लॉग-इनकिया. यहां पर भी मैसेजेज  की भरमार थी.… ‘मुझे नहीं पता था कि तुम्हादरी बॉडी इतनी स्टमनिंग है.’ इस तरह के मैसेज लोग भेज रहे थे. राणा अयूब ने बताया कि उन्होंवने अपना फेसबुक अकाउंट डिलीट कर दिया, लेकिन उत्पी ड़न का सिलसिला इंस्टाभग्राम तक पहुंच गया. इंस्टािग्राम पर लोग वीडियो क्लिप के स्क्री न शॉट शेयर करके कमेंट कर रहे थे. एक बीजेपी लीडर के फैन पेज से भी वीडियो शेयर किया गया. वीडियो को करीब 40,000 बार शेयर किया गया.


मेरे नंबर को हर जगह शेयर किया गया..लोग मेरी कीमत पूछने लगे.
राणा अयूब ने बताया कि उन पर हो रहा अत्यालचार यहीं पर खत्मे नहीं हुआ. एक और ट्वीट सर्कुलेट किया गया. इसमें वीडियो का स्क्रीउन शॉट लगा था और मेरा नंबर भी लिखा था. उस स्क्री नशॉट में लिखा था, ‘Hi यह मेरा नंबर है, मैं यहां उपलब्धी हूं.’ इसके स्क्री न शॉट के सर्कुलेट होते ही वॉट्सऐप पर लोग मुझे मैसेज भेजकर सेक्स  करने के लिए रेट पूछने लगे.



राणा अयूब ने कहा- मैं भाई को फेस नहीं कर पाई, पूरा देश वो क्लिप देख रहा था, जिसमें कहा गयाकि ‘ये मैं हूं’
राणा अयूब ने बताया, ‘इतना सब झेलने के बाद मेरी हालत खराब हो गई. मुझे अस्पताल में भर्ती कराया गया. डॉक्टर ने मुझे दवा दी, पर मैं उल्टियां कर रही थी. मैं बुरी तरह तनावग्रस्त थी. मेरा भाई मुंबई से दिल्लीड आया, मैं परिवार में से किसी को फेस नहीं कर पाई, मैं बेहद शर्मसार थी. पूरा देश एक पॉर्न क्लिप देखा रहा था, जिसमें यह दावा किया गया था कि यह मेरी क्लिप है और मैं कुछ न कर पाने की स्थिति में थी.’

लिंक पर  जाकर सहयोग करें , सदस्यता लें :  डोनेशन/ सदस्यता
आपका आर्थिक सहयोग स्त्रीकाल (प्रिंट, ऑनलाइन और यू ट्यूब) के सुचारू रूप से संचालन में मददगार होगा.
स्त्रीकाल का प्रिंट और ऑनलाइन प्रकाशन एक नॉन प्रॉफिट प्रक्रम है. यह 'द मार्जिनलाइज्ड'नामक सामाजिक संस्था (सोशायटी रजिस्ट्रेशन एक्ट 1860 के तहत रजिस्टर्ड) द्वारा संचालित है. 'द मार्जिनलाइज्ड'के प्रकशन विभाग  द्वारा  प्रकाशित  किताबें  अमेजन ,   फ्लिपकार्ट से ऑनलाइन  खरीदें 
संपर्क: राजीव सुमन: 9650164016, themarginalisedpublication@gmail.com



समता की सड़क जोतीबा फुले से होकर गुजरती है.

$
0
0

विकाश सिंह मौर्य
जोतीबा फुले के परिनिर्वाण दिवस पर विशेष 
आज 28 नवंबर है। 28 नवंबर 1890 को जोतीराव गोविंदराव फुलेका परिनिर्वाण हुआ था। आज उन्हे याद करते हुए भारतीय समाज मे व्याप्त विसंगतियों और शोषण के तमाम आयामों पर विचार करने के साथ ही उनका सम्यक समाधान भी तलाशे जाने की अवश्यकता है। कारण जो भी हो, सरकार जहाँ मूर्ति बनाने और उसपर पागलपन की हद तक उसका प्रचार-प्रसार करने मे लगी हुई है। इससे आखिर नुकसान तो इस देश के उत्पादक और श्रमण (श्रम और आग पर आधारित जीवन जीने वाले) समुदाय का ही होना है। 

शिक्षा, प्राथमिक शिक्षा और उच्च शिक्षा ऐसी चीजें हैं जिनके अभाव में व्यक्ति, उसकी अभिव्यक्ति एवं व्यक्ति की प्रवृत्ति को समझ पाना मुश्किल होता है । आजादी के बाद के भारत में शिक्षा को स्कूली और व्यावसायिक उपक्रम सा बना दिया गया है ।शिक्षण संस्थाओं की स्थापना करने का उद्देश्य धनपशुओं की क्रूर धनपिपासा को शान्त करना है । जो वास्तव में कभी शांत न होकर बहुआयामी स्वरूप में बढ़ती ही जाती है । भारत में विद्यालय श्रृंखलाओं के नाम पर मासूम बच्चों के मस्तिष्क में रचनात्मक क्षमता का विकास न होकर तोड़-फोड़ एवं हिंसक प्रवित्त्तियों का विकास एवं प्रसार होता है । इसलिये शिक्षा, शिक्षण, शिक्षक एवं औद्योगिक इकाइयों की ही तरह बहुसंख्यक किसान-आदिवासी समुदायों को नुकसान पहुचाने लगे हुए विद्यालयों की संरचना एवं प्रभावों का अध्ययन महत्वपूर्ण है । और इतना ही महत्वपूर्ण आधुनिक भारत में शिक्षण-प्रशिक्षण के अतीत का अवगाहन करना भी है ।


यह उपक्रम केवल और केवल विभिन्न जातियों, आदिवासियों एवं विभिन्न आय स्तर के व्यक्तियों, परिवारों के बीच बड़े पैमाने पर वैमनस्यता को बढ़ाने के काम आता दिखाई दे रहा है । ऐसे में आधुनिक भारत में ‘शिक्षा के बहुजनीकरण’ अर्थात सबको शिक्षा प्रदान करने के ऐतिहासिक परिदृश्य एवं उसके लिपिबद्धकरण की प्रक्रिया और उसकी प्रभाविकता का आलोचनात्मक विश्लेषण आवश्यक है ।


हम इस आलोचना-प्रत्यालोचना से भरे विश्लेषण की शुरुआतमहाराष्ट्र के पूना में जोतीराव गोविंदराव फुले द्वारा 1848 ई. से प्रारंभ किये गए शिक्षा, शिक्षक तथा सत्य शोधक समाज के द्वारा एक युग प्रवर्तक समाज सुधारक के रूप में उनके कृतित्व एवं व्यक्तित्व को समझते हुए करेंगे । क्योंकि मुझेपुख्ता यकीन है कि वहाँ से हमें वर्तमान समाज के दरपेश अनेक विघटनकारी गुत्थियों को समझने में पर्याप्त मदद मिलेगी ।क्योंकि उन्नीसवीं सदी के नवशिक्षित भारतीयों में से कुछ का ध्यान भारतीय समाज की कुरीतियों की तरफ गया। इनमे से अधिकांश ने हिन्दू धर्म के दायरे में ही पुराने धर्मग्रंथों के हवाले से समाज सुधार करने का प्रयास किया । वहीं जोतिबा फुले इन सभी में सबसे अनोखे और प्रभावशाली थे। उनके कार्य और चितन का प्रारंभ ही धर्म संस्था की आलोचना और इसके खिलाफ़ व्यापक जनजागरण के लिए किये गए सफल आंदोलनों से होता है। जोतिबा फुले शूद्र-अतिशूद्र एवं समाज की महिलाओं के शिक्षा के अधिकार के प्रबल पैरोकार थे ।


यह बहुत दुखद है कि देश मे बहुजन शिक्षा के जन्मदाता जोतीराव फुले और दक्षिण एशिया में महिला शिक्षा की नींव रखने वाली शिक्षा की देवी माता सावित्री बाई फुले के जन्मदिन एवं परिनिर्र्वाण दिन भी न तो सरकारी स्तर से और न ही विद्यालय या विश्वविद्यालय स्तर से उनके जीवन, कृतित्व एवं व्यक्तित्व पर किसी चर्चा, परिचर्चा का आयोजन किया जाता है । यह और दुखद और विनाशकारी है कि विद्यालयों और विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों से भी ऐसी विभूतियों को बाहर रखा गया है । यह एक ऐसी लोकतंत्रीय शासन व्यवस्था है जो अपने नागरिकों के जागरूक हो जाने की सम्भावना मात्र से ही भयभीत हो जाती है । यह भय इसलिए होता है कि सदियों से जोंक की भांति इस देश के मेहनतकश किसान, आदिवासी और स्त्रियों का दिमाग और खून चूसने वाला भारत का पारंपरिक सत्ताधारी वर्ग अपने अय्यासी, भोग-विलास और अपने काले कारनामों पर से पर्दा उठ जाने के बाद की स्थिति की कल्पना मात्र से ही खौफजदा हो जाता है । 


उनके इस कार्य से रुष्ट होकर तथा समाज तथा धर्म के ठेकेदारोंकी धमकियों से परेशान होकर जोतीबा के पिता श्री गोविंदराव फुले ने घर से इन्हें निकाल दिया । ऐसे में इनकी प्रथम शिष्या एवं इनकी पत्नी सावित्री बाइ फुले की साथी फ़ातिमा शेख़ ने अपने घर में इन्हें सम्मान पूर्वक रखा । फ़ातिमा शेख़ ने फुले दंपति को महिला विद्यालय खोलने में भी बहुत मदद की । सोलह विद्यालय फ़ातिमा और उनके भैया उस्मान शेख़ ने बनवा के दिये । बाद में फ़ातिमा शेख़ दक्षिण एशिया की पहली मुस्लिम शिक्षिका हुईं । 


सम्भ्रांत घरों की विधवा महिलाओं के साथ दमनीयएवं अमानवीय व्यवहार के विरुद्ध सत्यशोधक समाज ने एक नाई समाज को साथ में लेकर सफल कार्यक्रम चलाया । साथ ही विधवाओं के साथ बलात्कार अथवा किसी अन्य पुरुष के साथ स्वैच्छिक संबंधों के बाद गर्भवती होने एवं बच्चा जनन के समय बेहद कष्टकारी पारिवारिक एवं सामाजिक दूरी के साथ ही ताने और कर्णभेदी अपमान के कारण ऐसी महिलाएं अधिकतर आत्महत्या कर लेती थीं । इसी तरह से आत्महत्या करने जा रही एक विधवा ब्राम्हणी काशीबाई को इन्होने बचाया एवं उससे पैदा हुए बच्चे को यशवंत राव नाम देकर खुद उसकी परवरिश किया । इनसे बचने के लिए फुले दंपत्ति ने एक जच्चा केंद्र खोला, जहाँ पर ऐसी महिलाएं अपने बच्चों को जन्म दे सकती थीं और चाहें तो जन्म के बाद उन्हें छोड़ भी सकती थीं ।


अधिकांश लोगों का मानना है कि महिलाओं को हासिलस्वतंत्रता का सबसे महत्वपूर्ण कारण पूंजीवादी सामाजिक व्यवस्था है । कुछ लोग औद्योगीकरण को इसका महत्वपूर्ण कारण मानते हैं । पर वास्तव में ऐसा  नहीं है । भारत में स्त्रियों सहित बहुजन समाज को जो कुछ भी सम्मान और अधिकार हासिल हुआ है और जिसे हासिल करने की जद्दोजहद हो रही है, उसको समझने के लिए अठारवीं सदी के महाराष्ट्र और बंगाल के आंदोलनों की समझ का होना अति आवश्यक है।


आधुनिक पूंजीवादी व्यवस्था ने अपने स्वार्थों के अधीनमहिलाओं को एक हद तक आजादी दी है क्योंकि उसे महिलाओं के सस्ते श्रम की आवश्यकता थी । इस व्यवस्था को स्त्री के शरीर को नुमाइश की वस्तु बना दिया है। आज की स्त्री एक ओर जहाँ पूंजीवादी शोषण का शिकार है वहीं दूसरी ओर वह शोषण व उत्पीड़न के परम्परागत रूपों को ढोने के लिए भी विवश है, जिसकी जड़ें समाज व संस्कृति से गहरे रूप में नाभिनालबद्ध हैं । 


मानव का स्वभाव ही मनन करना है । बोलना ही व्यक्तिको इंसान बनाता है । किन्तु विश्वगुरु भारत की स्त्री को इंसान की जगह देवी का दर्जा दिया गया है । और देवी कभी बोला नहीं करतीं । वो तो सजी-धजी लाल कपड़े में लपेटकर एक आलमारी में अथवा पूजा के पंडाल में मूक-बधिर ही अच्छी लगती हैं । यहीं पर औरत ही औरत की दुश्मन है, की मानसिकता का विश्लेषण करें तो पाते हैं कि यहाँ भी मामला शोषक बनाम शोषित का ही है । वर्षों से दमित, प्रताड़ित औरत के हाथ में जैसे ही सत्ता आती है वह सत्ताधरी शोषक की प्रतिरूप बन जाती है । 


भारतीय समाज के मध्यवर्गीय ढांचे में स्त्री आधुनिक औरआत्मनिर्भर तो हुई है पर उसे वह माहौल नहीं मिला जहाँ आत्मनिर्भरता उसे बराबरी का दर्जा दिला पाती । आज भी मध्यवर्गीय कस्बाई मानसिकता के पास इन समस्याओं का एक ही हल है कि उसे इतना मत पढ़ाओ कि वह सवाल करने लगे या ससुराल में अपनी बेकद्री को पहचानने लगे । ‘पहचान देना गलत है’ आज भी इसके पक्ष में बोलने वाले कसबे ही क्या महानगरों में भी बहुतेरे मिल जायेंगे । बस सामन्ती मध्यवर्गीय संभ्रांतता का बारीक सा खोल भर हटाने की देर है । 


पराधीनता स्वाभाविक व आवश्यक रूप से सभी लोगों केलिए अपमानजनक होती है सिवाय उस व्यक्ति के जो शासक है या ज्यादा से ज्यादा उस व्यक्ति के लिए जिसे उत्तराधिकारी बनने की उम्मीद है । जे.एस. मिल (Subjection of Women) ने लिखा है कि “जिसे भी सत्ता की आकांक्षा है वह सबसे पहले अपने निकटतम लोगों पर सत्ता हासिल करने की इच्छा रखता है.....राजनीतिक स्वतंत्रता पाने के संघर्ष में प्रायः इसके समर्थकों को रिश्वत आदि तरीकों से ख़रीदा जाता है या अनेक साधनों से डराया जाता है । महिलाओं के सन्दर्भ में तो पराधीन वर्ग का हर व्यक्ति रिश्वत व आतंक दोनों की मिली-जुली चिरकालिक अवस्था में रहता है ।” 


लोग सोचते हैं कि हमारी मौजूदा प्रथाएं कैसे भी शुरू हुई हों, वे विकसित सभ्यता के मौजूदा समय तक संरक्षित हैं तो इसलिए कि धीरे-धीरे सामान्य हित के अनुकूल हुई हैं । वे यह नहीं समझते कि इन प्रथाओं से लोग कितनी निष्ठां के साथ जुड़े होते हैं ; कि जिनके पास सत्ता होती है उनके अच्छे व बुरे मत भी सत्ता की पहचान व उसे बनाये रखने के साथ जुड़ जाते हैं । बहुत कम ऐसा होता है कि जिनके पास बल के चलते क़ानूनी ताकत आती है वे तब तक सत्ता पर अपनी पकड़ नहीं खोते जब तक उनके बल पर विरोधी पक्ष का कब्ज़ा न हो जाय । 


यह कहा जायेगा कि स्त्रियों पर शासन अन्य सत्ताओं से अलग इसलिए है क्योंकि यह स्वेच्छा से स्वीकारा जाता है, महिलाएं शिकायत नहीं करतीं और इसमें समस्त रूप से भागीदार होती हैं । पहली बात तो यह बहुत सी महिलाएं इसे स्वीकार नहीं करतीं । इस बात के पर्याप्त संकेत मौजूद हैं कि कितनी महिलाएं इसकी इच्छा करेंगी यदि उन्हें अपने स्वभाव के प्रति इतना दबने का समाजीकरण न करवाया जाय । 


जोतीराव फुले और सावित्री बाई फुले के योगदान कीचर्चा प्रथमतः दो दृष्टिकोणों से की जा सकती है । एक भारतीय स्त्रीवादी आन्दोलन की प्रथम तथा सशक्त प्रणेता के रूप में और दूसरा भारत के बहुजन समाज की शिक्षा एवं पाखण्डी यथास्थितिवाद के विरुद्ध सफल सामाजिक आन्दोलनकारी कार्यकर्त्ता-संगठनकर्ता के रूप में । सावित्री बाई जी ने शिक्षा को ही प्रगति का मूल स्वीकार करते हुए जाति तोड़ने एवं सफल होने के लिए आवश्यक माना है । किन्तु आज के शिक्षा व्यवस्था की बिडम्बना यह है कि यह पूंजी का साथ में गठजोड़ करके विनाशकारी हो रही है । जिसके पास पैसा होगा वही अपने बच्चों को ठीक-ठाक शिक्षा दिलवा सकता है । सरकारी विद्यालयों को जानबूझकर तबाह किया जा रहा है । इससे नौकर मिलना आसान हो जाता है किन्तु भारत निर्माण का लक्ष्य बहुत पीछे छूटता जा रहा है ।


जोतीराव ने साहित्य सृजन भी भरपूर मात्रा मे किया।यहाँ पर भी उनका प्रधान उद्देश्य सामाजिक  पुनर्निर्माण ही रहा। उनकी प्रमुख और चर्चित रचनाएं इस प्रकार से हैं: तृतीय रत्न, पँवाड़ा छत्रपति शिवाजी भोसले का, पँवाड़ा शिक्षा विभाग के ब्राम्हण अध्यापक का, ब्राम्हणों की चालाकी,गुलामगिरी, किसान का कोड़ा, सार्वजनिक सत्यधर्म पुस्तक आदि। 


अंत में एक प्रख्यात अफ़्रीकी इतिहासकार चिनुआ अजीबी की बात, कि “जब तक शिकार के अपने इतिहास लेखक नहीं होंगे तब तक शिकारी का गुणगान ही  इतिहास में दर्ज होता रहेगा ।” वैसे भी आंधियाँ दिये के हक़ में गवाही नहीं ही दिया करती हैं ।  


शोधार्थी, इतिहास विभाग, डी.ए.वी.पी.जी.कॉलेज , काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी  इमेल :vikashasaeem@gmail.com


लिंक पर  जाकर सहयोग करें , सदस्यता लें :  डोनेशन/ सदस्यता
आपका आर्थिक सहयोग स्त्रीकाल (प्रिंट, ऑनलाइन और यू ट्यूब) के सुचारू रूप से संचालन में मददगार होगा.
स्त्रीकाल का प्रिंट और ऑनलाइन प्रकाशन एक नॉन प्रॉफिट प्रक्रम है. यह 'द मार्जिनलाइज्ड'नामक सामाजिक संस्था (सोशायटी रजिस्ट्रेशन एक्ट 1860 के तहत रजिस्टर्ड) द्वारा संचालित है. 'द मार्जिनलाइज्ड'के प्रकशन विभाग  द्वारा  प्रकाशित  किताबें  अमेजन ,   फ्लिपकार्ट से ऑनलाइन  खरीदें 
संपर्क: राजीव सुमन: 9650164016, themarginalisedpublication@gmail.com

बेड़ियाँ: अरविंद जैन की कहानी

$
0
0

अरविंद जैन

अस्पताल के वार्ड नंबर 13 में घुसते ही अम्माँ दिखाई दे गई।बिस्तर पर बैठी अखबार के पन्ने फाड़-फाड़ कर, किश्तियाँ और हवाई जहाज बना रही है। मुझे देखते ही बोलने लगी "हो गई तेरी पढ़ाई पूरी (बी.ए... एम.ए... पी.एच डी)....कोई लड़का पसंद हो..किसी भी जात-धर्म का हो.. मुझे बता...डरना मत...तेरे बाप और खाप को मैं देख लूँगी। तुम हाथों में मेहंदी रचाओ.. मैं तुम्हें दहेज में 'राफेल'हवाई जहाज दूँगी! मेरे सारे जेवर-कपड़े-रुपये लेकर, हवाई जहाज में बैठ ससुराल जाना, दुनिया घूमना और जब मन हो, मिलने आना"। कहते-कहते सारे हवाई जहाज, हवा में उड़ा दिए और किश्तियाँ पानी के गिलास में । बेहद बेबस सी मैं, अम्माँ को देखती-सुनती रही और हाँ में हाँ मिलाती रही। 

सालों से अम्माँ का स्थायी पता है- "मेडिकल कॉलेज, मानसिक रोग विभाग, वार्ड नंबर 13, बेड नंबर 31"। जीवन ही उल्टा-पल्टा हो गया। बीच-बीच में कभी थोड़ा ठीक होती हैं तो घर ले आते हैं मगर कुछ दिन बाद फिर अस्पताल। अस्पताल में वो अकेली नहीं, उन जैसी बहुत सी स्त्रियाँ हैं। सबकी कथा-कहानी, कमोबेश एक-दूसरे से मिलती-जुलती। डॉक्टर ज्ञान के शब्दों में कहूँ तो "बचपन से मानसिक दबाव-तनाव और रिमोट कंट्रोल"इन्हें सामान्य नहीं रहने देते। यहाँ सब दमित आकाँक्षाएं भर्ती हैं। लछमी..सुरसती..दुर्गेश्वरी..पारो..लाजो.. तुलसी...शांति..! डॉक्टर विद्यासागर के इस मंदिर को, लोग अब ज्ञान का 'पागलखाना'कहते हैं।



सोचा था इस बार घर जाते ही अम्माँ को सब कुछ सच-सच बता दूँगी,लेकिन क्या मालूम था कि इस हाल में होगी। ठीक होती तो शायद बता ही देती, अपने 'ब्रांड न्यू बॉयफ्रेंड'और समुद्र किनारे बनाये रेशमी रेत के घरौंदों के बारे में। जानती हूँ अम्माँ तो सिर्फ 'हिज मास्टर'स वॉयस'है.....पापा ही चाबी भरते रहते हैं "अपनी लाडली को कह देना..बता देना...समझा देना....!"। यूँ अम्माँ और मास्टर जी मुझे बेहद प्यार करते हैं, कितना तो सुनते-मानते हैं..और मैं हूँ कि...!

शादी से साल भर पहले छुट्टियों में आई, तो शाम को छत पर टहलते हुए, अम्माँ बताने लगी"तुम्हारी नानी अक्सर कहती थी सुनो राजकुमारी! पहले कढ़ाई, बुनाई, सिलाई, रसोई, बर्तन-भांडे, कपड़े-लत्ते, झाड़ू-पोछा, साफ-सफाई करना तो सीख ले, फिर करती रहना पढ़ाई-लिखाई!"मैंनें थोड़ा खीझते हुए कहा "अम्माँ! उस समय पढ़ाई-लिखाई के लिए कस्बे में कोई एक 'कन्या पाठशाला'होगी, जहाँ अपना नाम, बाप का नाम और घर का अता-पता पढ़ना-लिखना सीख लो-देवनागरी, गुरुमुखी या उर्दू में। कहाँ जाती डॉक्टर बनने?"। 

याद है बीस साल पहले घर के सामने बैंड-बाजा और बारात थेऔर छोटे चाचा अम्माँ को अस्पताल से एम्बुलेंस में लाए थे। वरमाला, फेरे और विदा के समय गेंदे और गुलाब के फूलों से सजी 'बीएमडब्लयू'डोली में बैठने तक, अम्माँ गूंगी गुड़िया सी बैठी रही। मैं रास्ते भर अम्माँ और अपने बारे में सोच-सोच रोती-सुबकती रही।

सासू माँ ने आरता, मुँह दिखाई और रस्म-रिवाज़ के बाद कहा"सुनो बहुरानी! कुछ दिन घूम आओ, 'हनीमून'मनाओ"। लौटने के बाद समझाने लगी "बहुत हो गई मौज-मस्ती, आज से रसोई सँभालो और खाना बना कर तो दिखाओ"। अगले हफ्ते फेरा डालने पीहर गई, तो अम्मा गुमसुम सी कमरे में लेटी रही। कितनी कोशिश की मगर पहचाना तक नहीं।

अगले दिन लौटी तो सूचना मिली कि कामवाली गई लंबी छूट्टी पर। आदेश हुआ "कल से  कपड़े-लत्ते, बर्तन-भांडे और झाड़ू-पोछा, साफ-सफाई करो-कराओ"। पीछे से आकाशवाणी "कब तक करेंगे शादी-ब्याह और नई बहू के लाड़-चाव, अब ढंग से अपना घर बसाओ"। 

पतिदेव घावों पर मरहम लगाते "नौकरी करनी है तो सुबह उठ कर, घर का काम निपटाओ और दफ़्तर जाओ"। मुझे लगता नमक छिड़क रहे हैं। सबके लिए समान कानून संहिता "जो भी कमाओ, सास के पास जमा करवाओ"। हाँ!  'ख़र्चा-ए-पानदान' (कम-ज्यादा) हैसियत के हिसाब से ही मिलेगा। ससुर जी (रिटायर्ड बैंक मैनेजर) का स्थायी उपदेश "जो करदा है सेवा, ओहणू मिलदी मेवा"।मन करता पूछूँ "पापा जी! जिसे मेवा खाने का शौक़ ना हो तो..."

साल भर बाद ही पीहर से ससुराल तक में सुन रही हूँ "परिवार बढ़ाओ, 'हम दो-हमारे दो' (एक बेटा अनिवार्य!) "।घर से बाहर निकलो तो शहर के हर चौराहे पर बड़े-बड़े बोर्ड लगे हैं "छोटा परिवार,सुखी परिवार"। फोन पर हर कोई रोज नया पाठ पढ़ाते हैं "बच्चे जब तक स्कूल जाने लायक हों, तब तक नौकरी से छूट्टी ले लेना। ना मिले तो छोड़ देना नौकरी, दूसरी ढूँढ लेना। बच्चे की देखभाल (गूं-मूत) कौन करेगा!?"मैं बड़बड़ाती रहती हूँ "सबको घर में, खिलौनें चाहिए खिलौनें! झल्लाती रहती हूँ "मिट्टी भी देह बन कर तो नहीं रह सकती, कोख से कब्र तक के सफर में"।



यूँ होते-होते मैं प्रतिष्ठा एम.ए.(मनोविज्ञान) उर्फ अनाम राजकुमारी उर्फ बहुरानी से मिसरानी, 'जॉबवाली', कामवाली और दो बच्चों का 'गूं-मूत'ही नहीं, बाथरूम तक साफ करने वाली 'भंगन'बन-बना दी गई हूँ। डिग्रियों को दीमक खा रही है और किताबों को चूहे कुतर रहे हैं। जेवर बनते-टूटते रहते हैं और साड़ियाँ संदूक की शोभा बढ़ा रही हैं। 

दोनों बच्चे पढ़ने-लिखने विदेश चले गए और सास-ससुर समय से पहले ही, अंनत यात्रा पर निकल गए।पतिदेव 'पेट्रोल पंप'से देर रात खा-पी कर आते हैं और लेटते ही खर्राटे भरने लगते हैं। मायके में अम्माँ हैं, कभी घर और कभी वार्ड नंबर 13 में। अक्सर ऐसा महसूस होता है कि मैं भी अम्माँ की तरह पगला जाऊँगी।अब तो रोज रात एक चीख, सन्नाटे से शून्य तक में गूँजती रहती है।

रात आँखों में मँडराती रही और सुबह से ही मन उचाट है। अम्माँ से मिलने अस्पताल पहुँचीतो 'इमरजेंसी वार्ड'के सामने से गुजरते हुए इतिहास ने याद दिलाया "आप यहाँ उस दिन-साल पैदा हुई थी, जिस दिन-साल देश में 'इमरजेंसी'लगी थी"। वार्ड नंबर 13 पहुँची तो देखा अम्माँ दरवाज़े पर ही, पंचायत की अध्यक्षता कर रही है। एक के बाद एक मुक़दमा सुनती और फैसला सुनाती हुई अम्माँ, साक्षात न्याय की देवी लग रही है। 

मैं दूर बैठी अम्माँ को देख-सुन रही हूँ...."आर्डर! आर्डर! दरोगा जी! इसे बोलना सिखाओ... उसे होस्टल छोड़ कर आओ..इसकी बिल्ली जैसी आँखों वाली मम्मी को बुलाओ..उसके शराबी बाप को ढूँढवाओ.. गुलाब वाटिका में 'कैक्टस'उगाओ..और दरोगा! तुम घूस नहीं घास खाओ..सुधर जाओ वरना चूहों वाले पिंजरे में बंद करवा दूँगी...सुन रहे हो ना!!"दरोगा बनी औरत ने हाथ जोड़ सिर झुकाया और कहती रही "यस मैम.. यस!" 

पंचायत खत्म हुई तो मैंनें पूछा "अम्माँ! कैसी हो?"सुनते ही बोली "दिखता नहीं...अंधी हो या नई आई हो? अपने बिस्तर पर जाकर चुपचाप सो जाओ। बिना सोचे बहुत बोलती है.. हूँ!"

डॉक्टर ज्ञान से मिली तो बताने लगे "कल देखने गया तो कहने लगी डॉक्टर साब यह मेरी वसीयत है...सम्भाल कर रखना, किसी को भी मत बताना-दिखाना! मैनें अपनी देह इस अस्पताल को दान कर दी है। मरने के बाद खोपड़ी खोलना, लॉकर की एक चाबी मिलेगी।" 

लौटते समय लगा कि समय की सुनामी में किश्तियां डूब रही हैंऔर मैं समुद्र किनारे रेशमी रेत के घरौंदे बनाते-बनाते, कागज़ी हवाई जहाज में सवार, सृष्टि के फेरे लगा रही हूँ। 

राष्ट्रवाद, विश्वविद्यालय और टैंक: संदीप मील की कहानी

$
0
0
संदीप मील

''हमारी बात की खिलाफ़त करने वालों का मुँह बंद कर दो।''
''जनरल, सारी ताक़त इसी पर लगा रखी है। जल्द ही हो जाएगा।''
''तुम समझ गए होगे कि मुझे कैसा मुल्क चाहिए।''
''जनरल, आपको ऐसा मुल्क चाहिए जिसमें सिर्फ सहमति के हाथों की फसल लहराये।''
''सिर्फ इतना ही समझे?''
''नहीं जनरल, यह भी समझ गया कि सवाल करने वालों को देश निकाला दे दिया जाये।''
''मुझे लगता है कि तुम अब समझदार हो रहे हो।''
''जनरल, कुछ समस्याएं आ रही हैं ?''
''बोलो क्या हुआ ? खुलकर बोलो।''
''कुछ लोग तर्क करते हैं ?''


''तर्क करते हैं...... यह सब बर्दाश्त नहीं होगा।''
''हम इन लोगों को ठीक कर रहे हैं जनरल। मतलब जेलों में भर रहें हैं।''
''जल्दी करो। ज़रूरत हो तो और जेलें बनवाओ।''
''जनरल, जेलें बनने में वक़्त लगेगा।''
''तब तक ऐसा करो कि मुल्क को ही जेल में तब्दील कर दो।''
''लेकिन ये तर्क करने वाले जेलों में भी तर्क करते हैं ?''
''कौन लोग हैं ये ?''
''जनरल, ये विश्वविद्यालयों के लोग हैं।''
''तो विश्वविद्यालय बंद कर दो। हमें नहीं चाहिये।''
''तब दुनिया को ज्ञान-विज्ञान के नाम पर क्या दिखाएंगे ?''
''तंत्र, मंत्र और जंत्र। इनमें सब आ गया।''
''जनरल, इन्हीं सब पर ये लोग तर्क करते हैं।''
''तुम इनमें देशभक्ति भरो।''
''यही कोशिश कर रहे हैं जनरल। लेकिन ये कहते हैं कि सवाल उठाना भी देशभक्ति है।''
''तो फिर इन्हें देशद्रोही बना दो।''
''वो कैसे ?''
''जो हमारी बात का विरोध करते हैं वे सब देशद्रोही हैं। उन्हें यहां रहने का कोई अधिकार नहीं है।''
''देशद्रोही मुर्दाबाद।''
''मुर्दाबाद। मुर्दाबाद।''
''जनरल का शासन जिंदाबाद।''
''जिंदाबाद। जिंदाबाद।''
''अब तो मुल्क में कोई ख़तरा नहीं है ना! सब ठीक चल रहा है!''
''विश्वविद्यालयों के लोग मनुस्मृति की बहुत आलोचना कर रहे हैं।''
''इसे सारे पाठ्यक्रमों में अनिवार्य कर दो। जो इसका विरोध करता है उसे
तरक्की का दुश्मन बताओ।''
''लोगों ने इसे अन्याय की किताब साबित कर दी है।''
''सारे विश्वविद्यालयों में अपने लोग भर दो।''
''जनरल, इतने पढ़े-लिखे लोग अपने पास कहां हैं ?''
''मूर्ख, मेरे आदेश के सामने डिग्रियों की क्या हैसियत। फिर भी तुझे लगता है तो मिश्रा जी के कम्प्यूटर सेंटर से मर्ज़ी के मुताबिक निकलवा देना।''
''पढ़ाई लिखाई मुर्दाबाद।''
''मुर्दाबाद। मुर्दाबाद।''
''जनरल का आदेष जिंदाबाद।''
''जिंदाबाद। जिंदाबाद।''
''मेरी राह में कोई रोड़ा दिख रहा है तुम्हें।''
''साब, विश्वविद्यालयों का विरोध रुक नहीं रहा है।''
''वहां पर अपने लोग नहीं बैठाये क्या?''
''बैठाये तो हैं हुजूर, लेकिन सब अय्याशियां कर रहे हैं। लोगों ने इन्हें बेवकूफ भी साबित कर दिया है।''
''इन्हें कुछ ऐसा दिखाओ कि ये हमारे भक्त हो जायें।''
''आपका पचेरी वाला फार्म हाउस दिखा दें ?''
''नालायक! उसके बारे में तो किसी को बताना भी मत। इन्हें टैंक दिखाओ।''
''उससे तो डर पैदा होगा।''
''बिल्कुल। डर को देशभक्ति में तब्दील कर दो।''
''जनरल, टैंक दिखाने के लिये इन्हें सीमा पर ले जाना पड़ेगा ना!''
''तुम्हारी यही बकवासें तो मेरी विश्व-विजय को कमजोर करती हैं। सारे विश्वविद्यालयों में टैंक लगवा दो।''
''जैसा आदेश मालिक।''
''विष्वविद्यालय मुर्दाबाद।''
''मुर्दाबाद। मुर्दाबाद।''
''जनरल के टैंक जिंदाबाद।''
''जिंदाबाद। जिंदाबाद।''
''टैंक से लोग डरें होंगे ना!''
''नहीं साब। विश्वविद्यालय के लोगों ने टैंक पर फूलों के पौधे लगा दिये हैं।''
''क्या कह रहे हो तुम।''
''मालिक ठीक कह रहा हूं। टैंक से गोला दागने की जगह गुलाब खिले हैं।
पहियों पर चमेली लहरा रही है। बच्चे छुपम-छुप्पी खेलते हैं वहां।''
''तुम्हारे पास कोई उपाय है इनसे निपटने का ?''
''जनरल, विश्वविद्यालयों को बेच दीजिये।''
''किसको बेचें ?।''
''साब, सारे पैसे वालों से तो आपका याराना है। किसी को भी बेच दो।''
''ऐसा करो कि विश्वविद्यालयों को पैसा देना बंद कर दो।''
''बिल्कुल जनरल। यह कह देंगे कि आपको आज़ादी दे दी है।''
''आज तुमने बड़ी समझदारी की बात कही है। बिना पैसे कब तक चल पायेंगे।
फिर आराम से बेच देंगे किसी रोज़।''
''विश्वविद्यालय मुर्दाबाद!''
''मुर्दाबाद! मुर्दाबाद!''
''जनरल का शासन जिंदाबाद!''
''जिंदाबाद! जिंदाबाद!''
''अब बताओ कौन-सा विश्वविद्यालय किस दोस्त को बेचना है ?''
''लेकिन ऐसा संभव नहीं हो पा रहा है।''
''क्यों ? मैं चाहूं और वैसा नहीं हो। ऐसी बात तुम सोच कैसे सकते हो!''
''जनरल गलती हो गई। माफी चाहता हूं। लेकिन जनता विश्वविद्यालय बेचने नहीं
दे रही है। विरोध कर रही है।''
''अबे! यह बात-बात में जनता कहां से आ जाती है।''
''जनरल जनता तो देष में रहती है। उसकी बात माननी होगी।''
''अगर उसकी बात नहीं मानूं तो क्या उखाड़ लेगी जनता!''
''हुजूर जनता तख़्ता पलट देगी।''
''जनता को बेवकूफ बनाने के रास्ते आते हैं मुझे।''
''फिर तो कोई दिक्कत ही नहीं है। कैसे करेंगे ?''
''पहले इन सरकारी विश्वविद्यालयों को चौपट करो। अपने दोस्तों से
प्राइवेट विश्वविद्यालय खुलवाओ। ऐसा माहौल बनाओ कि जनता खुद सरकारी
विश्वविद्यालयों को गाली देने लगे।''
''वाह! जनरल। आपने तो सब कुछ चुटकी में हल कर दिया।''
''प्राइवेट विश्वविद्यालय जिंदाबाद।''
''जिंदाबाद! जिंदाबाद।''
''सरकारी विश्वविद्यालय मुर्दाबाद।''
''मुर्दाबाद! मुर्दाबाद!''
''अब तो मेरी छाती से ये सरकारी विश्वविद्यालय हट रहे हैं ना!''
''जनरल नहीं हट रहे।''
''क्यों! अब क्या हो गया?''
''जनरल ये सरकारी विश्वविद्यालय दुनियाभर में बेहतर शिक्षा के लिए मशहूर हो रहे हैं।''
''इन पर बुल्डोजर चलवाकर जमीन समतल कर दो।''
''यह हो नहीं सकता जनरल।''
''क्यों नहीं हो सकता! मैं आदेश देता हूं।''
''जनरल, जनता कह रही है कि आपके आदेश ने वैद्यता खो दी।''

लिंक पर  जाकर सहयोग करें , सदस्यता लें :  डोनेशन/ सदस्यता
आपका आर्थिक सहयोग स्त्रीकाल (प्रिंट, ऑनलाइन और यू ट्यूब) के सुचारू रूप से संचालन में मददगार होगा.


स्त्रीकाल का प्रिंट और ऑनलाइन प्रकाशन एक नॉन प्रॉफिट प्रक्रम है. यह 'द मार्जिनलाइज्ड'नामक सामाजिक संस्था (सोशायटी रजिस्ट्रेशन एक्ट 1860 के तहत रजिस्टर्ड) द्वारा संचालित है. 'द मार्जिनलाइज्ड'के प्रकशन विभाग  द्वारा  प्रकाशित  किताबें  अमेजन ,   फ्लिपकार्ट से ऑनलाइन  खरीदें 
संपर्क: राजीव सुमन: 9650164016, themarginalisedpublication@gmail.com

माहवारी में हिमाचली महिलाएं नारकीय जीवन को मजबूर!

$
0
0

टीना


हिमाचल प्रदेश को देवभूमि कहा जाता है लेकिन फिर भी भले ही बदलते युग में समाज महिलाओं और पुरुषों को समान दर्जा देने की बात करता हो लेकिन इस सबके बावजूद हिमाचल प्रदेश में कुछ ऐसे भी गांव हैं जहां आज भी महिलाए नरक सा जीवन जीने को मजबूर हैं। यहां बात हो रही है हिमाचल के जिला कुल्लू की, जहां की करीब 82 पंचायतों में आज भी महिलाओं को मासिक धर्म के दौरान भेदभाव का शिकार होना पड़ता है।
ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं को मासिक धर्म होने पर घर से बाहर रहना पड़ता है और पशुशाला में जानवरों के साथ रातें बितानी पड़ती हैं। महिलाओं को मासिक धर्म के दौरान अपना समय पशुशाला में ही बिताना पड़ रहा है। समाज की इस कुरीति को अपने जीवन का अहम हिस्सा मान ये महिलाएं आसानी से ऐसा करती हैं।



फुल्लू और पैडमैन फिल्मों से मासिक धर्म को लेकर समाज में व्याप्त अंधविश्वास दूर हुए क्या?

मानो स्त्रियों के मासिक धर्म के दौरान इस्तेमाल होने वाली सेनेट्री नैपकीन यानी सेफ्टी पैड पर फिल्म बनाने की होड़ सी मची हो। इस मुद्दे पर जून 2017 में फुल्लू नाम से एक फिल्म बनाकर डायरेक्टर अभिषेक सक्सेना अव्वल रहे। दुख की बात ये रही कि उनकी इस फिल्म को ‘A’ सर्टिफिकेट के साथ रिलीज किया गया था वहीं करीब आठ महीने बाद इसी मुद्दे पर दूसरी फिल्म आई पैडमैन। अक्षय कुमार के साथ इसे आर. बाल्की ने डायरेक्ट किया है। पैडमैन को ‘U/A’ सर्टिफिकेट दिया गया। एक ही मुद्दे पर अलग-अलग सर्टिफिकेट देने के पीछे सेंसर बोर्ड की मंसा क्या थी यह अलग बहस का विषय है। फुल्लू और पैडमैन फिल्मों का आधार एक ही है। इन फिल्मों की कहानी अरुणांचलम मुरुगननांथम की जिंदगी से जुड़ी हुई है। उन्होंने ही सबसे पहले महिलाओं के लिए सस्ते सेनेट्री नैपकीन उपलब्ध कराने का सपना देखा था और उसे पूरा भी किया। फुल्लू और पैडमैन फिल्में सिनेट्री नैपकीन अथवा सेफ्टी पैड के प्रचार तक सीमित होकर रह गईं। यदि इन फिल्मों के जरिये पीरियड यानी माहवारी अथवा मासिक धर्म से जुड़े सदियों पुराने अंधविश्वासों और अज्ञानताओं को दूर करने की दिशा में भी कुछ काम किया गया होता तो ज्यादा बेहतर होता। कोलकाता की प्रिया कहती हैं – “ज्यादा पुरानी बात नहीं है मैं मंदिर गई, प्रसाद चढ़ाया जब घर पहुंची तो वहाँ पड़ोस की आंटियाँ भी मौजूद थीं। उनको शक हुआ तो बोलीं- तुम्हारा पीरियड तो नहीं आया हुआ है? मेरे मुँह से निकल गया – हाँ। इसके बाद जो नाक भौं उन आंटियों ने सिकोड़ा और ताने दिए जिसे मैं आज तक नहीं भूल पाई। मतलब कि पीरियड के दौरान मंदिर जाकर जैसे मैंने कोई गुनाह कर दिया हो।“ यह जानते हुए भी कि माहवारी कोई छुआछूत की बीमारी नहीं बल्कि एक जैविक क्रिया है, कई तरह के अंधविश्वास आज भी हमारे समाज का हिस्सा बने हुए हैं। ऐसा सिर्फ प्रिया के साथ ही नहीं हुआ है। दिल्ली के एक कॉलेज में पढ़ाने के दौरान छात्राओं ने जो आपबीती बताई वो भी चौंकाने वाली हैं। मम्मियाँ, आंटियाँ, दादियाँ परम्परा के नाम पर, धर्म का हवाला देकर, किसी अनहोनी का भय दिखाकर ऐसा करने को मजबूर करती हैं। सिखों और ईसाइयों में तो नहीं हाँ, हिंदू और मुस्लिम धर्मों में माहवारी को लेकर अंधविश्वास बहुत गहरा है। समाजसेवी डॉ. अर्चना सचदेव बताती हैं कि – “समाज में पीरियड्स को लेकर 21वीं शताब्दी में भी जागरूता नहीं बन पाई है। पीरियड के दौरान पौधों को पानी देने से मना करना, अचार छूने से मना करना, खाना बनाने से रोकना, दूसरे का खाना या पानी छूने से मना करना, तीन चार दिन तक जमीन पर सोने के लिए बोलना, बिस्तर और बर्तन अलग कर देना, हफ्ते भर तक पूजा पाठ करने और मंदिर जाने से रोकना जैसे अंधविश्वास आज भी समाज के व्याप्त हैं।“ समाज बदल रहा है।



अब लोग माहवारी और सेनेट्री पैड जैसे विषयों पर बात करने लगे हैं। वह दिनदूर नहीं जब माहवारी से जुड़े अंधविश्वासों के खिलाफ महिलाएँ उठ खड़ी होंगी। शहरी और नौकरी-पेशा महिलाओं ने तो एक तरह से इन सबसे पीछा छुड़ा लिया है पर छोटे शहरों व ग्रामीण इलाकों में यह अंधविश्वास अभी भी जड़ जमाए हुए है। यहाँ सवाल यह है कि बने बनाए स्टोरी के प्लॉट पर पैसा कमाने की नीयत से बनी फुल्लू और पैडमैन जैसी फिल्मों से पीरियड को लेकर समाज में व्याप्त अंधविश्वास और कुरीतियां दूर हुईं क्या? एक पीड़ादायक वक्त में समाज की इन बंदिशों से आनेवाली पीढ़ी को छुटकारा मिलेगा क्या? जबकि सब कुछ साबित हो चुका है कि पीरियड और छुआछूत का कोई भी वैज्ञानिक आधार नहीं है। दरअसल जहाँ फिल्मों के रिलीज के अगले ही दिन यह चर्चा प्रमुख हो जाती है कि फिल्म ने कितना कमाया और कितने घाटे में रही ऐसे फिल्मकारों और उनकी कमाई का प्रचार करने वाली मीडिया से यह उम्मीद तो नहीं ही की जा सकती है। दरअसल किसी और से उम्मीद करने की बजाय हम महिलाओं को ही इन अंधविश्वासों और कुरीतियों से लड़ते हुए समाज को जागरूक करना होगा।

किसी भी महिला के लिए मासिक धर्म का होना एक प्राकृतिक और स्वाभाविक प्रक्रिया है। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि मासिक धर्म, मानव के रूप में एक नये जीव के सृजन का आधार है.  सामान्यतः 10 से 50 साल की महिलाओं में मासिक धर्म होता है। उन्हें शुद्ध न मानते हुए मंदिर में उनका प्रवेश वर्जित है। भारत के संदर्भ में भारतीय संविधान जब किसी भी नागरिक से उसकी जाति, रंग, लिंग के आधार पर शुद्ध-अशुद्ध, छूत-अछूत जैसे मान्यताओं को प्रतिबंधित करता है तो फिर इस तरह का व्यवहार करना संवैधानिक प्रावधानों का उल्लंघन नहीं है ? धर्म में लैंगिक समानता के अधिकार के लिए माननीय सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद देखना यह है कि महिलाओं को धार्मिक स्वतंत्रता मिलती है या नहीं।

मासिक धर्म के दौरान मंदिरों में जाने की अनुमति क्यों नहीं है?

मासिक धर्म महिलाओं के लिए एक श्राप बन चुका है। क्योंकि यही शक्ति एक औरत के जीवन शक्तिको परिभाषित करती है। पर दुर्भाग्य से लोग इसे हीन दृष्टि से देख औरत की भावनाओं को दबा रहे हैं। समाज की नजर से महिलाओं के शरीर से खून का बहना जहां एक ओर अशुद्ध माना जाता है तो दूसरी ओर माहवारी के समय निकलने वाले खून वाली देवी को लोग पूजने के लिए उसके दरबार पर जाते है। जिसे रक्तस्राव देवी या कामाख्या देवी के नाम से जाना जाता है। आखिर यह किस प्रकार का न्याय है कि एक ओर रक्तस्राव देवी की लोग पूजा करते है तो दूसरी ओर रक्तस्त्राव वाली महिला को मंदिर में जाने से रोका जाता है। अंधविश्वासों से घिरे इस देश में जहां एक ओर महिलाओं के रक्तस्राव के समय पवित्र स्थान पर महिलाओं को प्रवेश करने की अनुमति नहीं है, तो वहीं दूसरी ओर उस समय महिलाओं को हेय दृष्टि से भी देखा जाता है, आखिर क्यों?

मासिक धर्म की भ्रांतियां दूर करने की है जरूरत


समाज में फैली इन भ्रांतियों को दूर करने के विषय पर जिला कुल्लू प्रशासन ने भी पहल शुरू की है। जिसके तहत महिलाओं के सशक्तिकरण, उनके स्वस्थ और स्वच्छ जीवन, स्वाभिमान और उत्थान के लिए कुल्लू जिला प्रशासन ने महिला एवं बाल विकास विभाग के सहयोग से नारी-गरिमा अभियान आरंभ करने का निर्णय लिया है। इस अभियान के दौरान महिलाओं के मासिक धर्म से संबंधित भ्रांतियों को दूर करने और व्यक्तिगत स्वच्छता पर बल देने के साथ-साथ महिला सशक्तिकरण और उत्थान से संबंधित विभिन्न योजनाओं के बारे में व्यापक मुहिम चलाई जाएगी।

लेखिका टीना शोधार्थी और सामाजिक कार्यकर्ता हैं.


लिंक पर  जाकर सहयोग करें , सदस्यता लें :  डोनेशन/ सदस्यता
आपका आर्थिक सहयोग स्त्रीकाल (प्रिंट, ऑनलाइन और यू ट्यूब) के सुचारू रूप से संचालन में मददगार होगा.

स्त्रीकाल का प्रिंट और ऑनलाइन प्रकाशन एक नॉन प्रॉफिट प्रक्रम है. यह 'द मार्जिनलाइज्ड'नामक सामाजिक संस्था (सोशायटी रजिस्ट्रेशन एक्ट 1860 के तहत रजिस्टर्ड) द्वारा संचालित है. 'द मार्जिनलाइज्ड'के प्रकशन विभाग  द्वारा  प्रकाशित  किताबें  अमेजन ,   फ्लिपकार्ट से ऑनलाइन  खरीदें 
संपर्क: राजीव सुमन: 9650164016, themarginalisedpublication@gmail.com


पिंजरे की तीलियों से बाहर आती मैना की कुहुक

$
0
0
स्मरण
चंद्रकिरण सौनरेक्सा की 98 वीं जयंती पर... 

सुधा अरोड़ा


''मैं देश के निम्नमध्यवर्गीय समाज की उपज हूं।मैंने देश के बहुसंख्यक समाज को विपरीत परिस्थितियों से जूझते, कुम्हलाते और समाप्त होते देखा है। वह पीड़ा और सामाजिक आर्तनाद ही मेरे लेखन का आधार रहा है। उन सामाजिक कुरीतियों, विषमताओं तथा बंधनों को मैंने अपने पाठकों तक पहुंचाने का प्रयास किया है जिससे वह भी उनके प्रति सजग हों, उन बुराइयों के प्रति सचेत हों जो समाज को पिछड़ापन देती हैं। पचहत्तर साल का लेखन 'पिंजरे की मैना'के साथ संपूर्ण होता है और यह मेरी छियासी साल की जीवनयात्रा का दस्तावेज है।''
- चन्द्रकिरण सौनरेक्सा 


हिन्दी कथा साहित्य में महिला रचनाकारों कीआत्मकथाएं उंगलियों पर गिनी जा सकती हैं। पुरुषवर्ग अक्सर यह सवाल पूछता है कि लेखिकाएं अपनी आत्मकथाएं क्यों नहीं लिखतीं? कारण अनगिनत हैं पर लिखी गयी आत्मकथाओं को इस या उस कारण से स्वीकृति नहीं देता। महिला रचनाकारों और प्राध्यापिकाओं का भी एक बड़ा वर्ग इस विधा में लेखन को 'अपने घर का कूड़ा'या 'जीवन का कच्चा चिट्ठा'मानकर गंभीरता से नहीं लेता बल्कि एक सिरे से खारिज करते हुए कहता है कि साहित्य कूड़ा फेंकने का मैदान नहीं है । 

'साहित्य समाज का दर्पण है'उक्ति घिस घिस कर पुरानी हो गई, पर साहित्य का समाजशास्त्रीय विश्लेषण आज भी साहित्य का एक अनिवार्य हिस्सा नहीं बन पाया। साहित्य और समाजविज्ञान के बीच की इस खाई ने साहित्य को शुद्ध कलावादी बना दिया और समाजविज्ञान के मुद्दों को एक अलग शोध का विषय, जिसका साहित्य से कोई वास्ता नहीं । 

सुभद्राकुमारी चौहान, सुमित्राकुमारी सिन्हा के कालखंडकी एक बेहद महत्वपूर्ण लेखिका चन्द्रकिरण सौनरेक्सा जी ने अपने जीवन के उत्तरार्द्ध में एक लंबी चुप्पी को तोड़ने के बाद अपनी आत्मकथा में अपने जीवन के ऐसे बेहद निजी अनुभवों और त्रासदियों को उड़ेल दिया जिसे सहज ही उस समय के वृहत्तर मध्यवर्गीय समाज की घर और बाहर एक साथ जूझती एक औसत स्त्री की त्रासदी से जोड़कर देखा जा सकता है। वे उम्र के उस पड़ाव पर थीं, जब व्यक्ति अपनी जिन्दगी जी चुकता है, जिया जा रहा समय उसे बोनस लगता है और वह महसूस करती है कि अब उसके पास खोने के लिए कुछ नहीं बचा। उसकी कलम बेबाक हो जाती है और सच बोलने से उसे न खौफ होता है, न परहेज क्योंकि समाज का डर उसे अब गिरफ़त में नहीं लेता।


चन्द्रकिरण सौनरेक्सा जी का जन्म 1920 में पेशावर, पाकिस्तान में हुआ !यह समय था जब अधिकांश औरतें पढ़ने लिखने के बावजूद अमूमन गृहस्तिनें ही हुआ करती थीं। 1940 में उनका विवाह लेखक-पत्रकार और सुप्रसिद्ध छायाकार कांतिचंद्र सौनरेक्सा से हुआ। शादी के बाद बच्चों की तमाम जिम्मेदारियां निभाते हुए भी चन्द्रकिरण सौनरेक्सा जी हमेशा एक सफल कामकाजी महिला रहीं। उन दिनों दूरदर्शन था नहीं और मनोरंजन के एक प्रमुख साधन के रूप में रेडियो काफी लोकप्रिय था । रेडियो पर लता मंगेशकर के गाने जितने लोकप्रिय थे, लखनऊ के पुराने वाशिंदे बताते हैं कि उतनी ही लोकप्रिय चन्द्रकिरण सौनरेक्सा जी की ‘गृहलक्ष्मी’ की वार्ताएं और ‘घर चौबारा’ की कहानियां हुआ करती थीं।

आकाशवाणी में बेहद लोकप्रिय और नये से नये कार्यक्रमदेने वाली यह उस समय की युवा लेखिका भी एक मां और पत्नी के रूप में एक सामान्य औसत गृहिणी के त्याग और सहनशीलता के गुणों से लैस जीवन जीती हैं। उसकी एक कहानी प्रेमचंद के समय की ‘हंस’ में स्वीकृत होती है तो पति संपादक का पत्र देखकर फाहश शब्दावली का इस्तेमाल करते हैं। पत्नी की कहानी की स्वीकृति पर ऐसी प्रतिक्रिया उस पति की है जो तीन बेटियों का बाप होने के बावजूद सरकारी नौकरी के प्रोबेशन पीरियड में ही एक प्रेम में पड़ जाता है। इससे त्रस्त पत्नी अपने लेखन और ट्यूशन के बूते अपने बाबूजी के पास अलीगढ़ जाना चाहती है पर पत्नी के चले जाने से सामाजिक प्रतिष्ठा और नौकरी जाने की संभावना है इसलिए पति को यह स्वीकार नहीं - ‘‘रोमांस और शादी - यथार्थ की धरती पर चूर चूर हो गए । किसी के दोनों हाथों में लड्डू नहीं हो सकते। यह खोने और पाने का सिलसिला न होता तो दुनिया कब की जंगलराज में बदल चुकी होती। ’’

प्रोबेशन पीरियड खत्म होने के बाद डिप्टी कलेक्टर का स्थायीपद पाने के बाद फिर एक दिन लेखक-पत्रकार-छायाकार पति रात को नौ बजे अपनी एक बीस वर्षीय महिला मित्र को हॉस्टल से घर ले आते हैं और सारे क्रोध, अपमान, आत्मग्लानि के बावजूद पत्नी अपने पति का तथाकथित सम्मान और उनकी इस हरकत को परिवार के सदस्यों की नजर से बचाने के लिए कमरे में भेज देती है और सारी रात गैलरी में अखबार बिछाकर दरवाजे से टेक लगाकर बैठ जाती है। लेकिन बात छिपती नहीं - डिप्टी डायरेक्टर साहब को सस्पेंड किया जाता है और समाचार पत्रों में इस रंगीन अफसाने की खबर छप जाती है। फिर रोटी रोजी का सवाल! किसी तरह सुमित्रानंदन पंत और जगदीशचंद्र माथुर के सहयोग से चन्द्रकिरण सौनरेक्सा जी लखनउ आकाशवाणी की नौकरी पर नियुक्त हो जाती हैं। घर और बाहर का मैनेजमेंट - पिछली पीढ़ी की औरतों ने भी कैसे बखूबी निभाया है, यह किताब इसे समझाने में सक्षम है। पिछली पीढ़ी में तमाम पौरुषीय कारनामों के बावजूद कैसे और क्यों शादियां टिकी रहती थीं और किस कीमत पर ... यह ‘‘ पिंजरे की मैना ’’ किताब पढ़कर बखूबी जाना जा सकता है ।

1985 में प्रभात प्रकाशन से उनकी किताब का प्रकाशन, कांति जी के लिए प्रतिशोध का कारण बन गया। उसके बाद हर वर्ग का पुरुष कांति जी को अपनी पत्नी का प्रेमी लगने लगा - चाहे वह कोई संभ्रांत परिचित हो या अखबार देने वाला । कांति जी को यह समझ नहीं आया कि लेखिका चन्द्रकिरण सौनरेक्सा से प्रतिशोध लेने में बदनामी सौनरेक्सा खानदान की बहू की, उनके अपने बच्चों की मां की हो रही थी । ‘‘ अपमान, आत्मग्लानि और घोर मानसिक पीड़ा के दौर से गुजरते हुए, उम्र के इस पड़ाव पर मैं किंकर्तव्यविमूढ़ थी कि किस तरह झूठ के इस बवंडर का सामना करूं ? ’’ 

उन्होंने एक लंबे अरसे तक साहित्यिक जगत से अपने को काट लिया, साहित्यिक समारोहों में जाना बंद कर दिया पर इसकी टीस लगातार बनी रही - ‘‘ मैं आज भी निम्नमध्यवर्ग का अंश हूं, तब भी थी। सोचा, एक मुक्केबाज की चोट से अगर बचना चाहते हो, तो उसके रास्ते से हट जाओ। तब उसके मुक्के हवा में चलेंगे, चलानेवाला भी जब उसकी व्यर्थता जान लेगा, तो हवा में मुक्केबाजी बंद कर देगा। मैं स्वनिर्मित गुमनामी के अंधेरे में खो गई। वृंदावन से एक बंदर चला जाए तो वृंदावन सूना नहीं हो जाता। चन्द्रकिरण के साहित्य जगत से हटने से वह सूना नहीं हो गया।’’

इस आत्मकथा की तुलना अगर किसी दूसरी आत्मकथा से की जा सकती हैतो वह है मन्नू भंडारी की ‘‘एक कहानी यह भी’’ जो दरअसल आत्मकथा नहीं, मन्नू जी की संक्षिप्त लेखकीय यात्रा है पर दोनों किताबों में गजब की ईमानदारी, साफगोई और पारदर्शिता है। शब्द झूठ नहीं बोलते - दोनों आत्मकथाएं इस बात की गवाह हैं। 

अब से सात दशक पहले चन्द्रकिरण सौनरेक्साजैसी कामकाजी महिला ने जिस खूबी से अपने घर और कार्यक्षेत्र की मांग को अपनी दिनचर्या में सुव्यवस्थित किया, उसे देखकर हम नहीं कह सकते कि स्त्री सशक्तीकरण आज के आधुनिक समय की अवधारणा है। स्त्री सशक्तीकरण के बदलते हुए चेहरे को समय के साथ बदलता हम देख पा रहे हैं पर इस अवधारणा का शुरुआती दौर देखने के लिए चन्द्रकिरण सौनरेक्सा की आत्मकथा ‘पिंजरे की मैना’ एक बेहद महत्वपूर्ण पुस्तक साबित होगी ।  

हिन्दी कथा साहित्य के उन पिंजरों में, जिसमें आज भी कई मैनाएं हैं, चन्द्रकिरण सौनरेक्सा का यह बेबाक और पारदर्शी बयान बहुतों के लिए ताकत का सबब बनेगा।  


पुनश्च : यह किताब फिलहाल अनुपलब्ध है। पूर्वोदय प्रकाशन से इसका पहला संस्करण 2008 में प्रकाशित हुआ था । आशा है, कोई प्रकाशक इसे पुनः प्रकाशित कर पाठकों तक इस ज़रूरी किताब को पहुंचाएगा।

लिंक पर  जाकर सहयोग करें , सदस्यता लें :  डोनेशन/ सदस्यता
आपका आर्थिक सहयोग स्त्रीकाल (प्रिंट, ऑनलाइन और यू ट्यूब) के सुचारू रूप से संचालन में मददगार होगा.


स्त्रीकाल का प्रिंट और ऑनलाइन प्रकाशन एक नॉन प्रॉफिट प्रक्रम है. यह 'द मार्जिनलाइज्ड'नामक सामाजिक संस्था (सोशायटी रजिस्ट्रेशन एक्ट 1860 के तहत रजिस्टर्ड) द्वारा संचालित है. 'द मार्जिनलाइज्ड'के प्रकाशन विभाग  द्वारा  प्रकाशित  किताबें  अमेजन ,   फ्लिपकार्ट से ऑनलाइन  खरीदें 
संपर्क: राजीव सुमन: 9650164016, themarginalisedpublication@gmail.com

'दीवार में एक खिड़की रहती थी'उपन्यास में प्रकृति चित्रण

$
0
0
कस्तूरी वक्रवर्ती 

प्रकृति व्यापक अर्थ में, प्राकृतिक, भौतिक या पदार्थिकजगत या ब्रह्माण्ड हैं। प्रकृति का मूल अर्थ ब्रह्माण्ड है। इस ब्रह्माण्ड के एक छोटे से, टुकड़े के रूप में, इस पृथ्वी का अस्तित्व है, जिस पृथ्वी पर मनुष्य का जन्म हुआ है। इस पृथ्वी के बगैर मानव जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती है। कवि सुमित्रानंदन पंत के लिए प्रकृति काव्य प्रेरणा रही है। वे लिखते हैं--"कविता करने की प्रेरणा मुझे सबसे पहले प्रकृति के निरीक्षण से मिली है, मैं घंटों एकांत में बैठा प्राकृतिक दृश्यों को एकटक देखा करता था और कोई अज्ञात आकर्षण मेरे भीतर एक अव्यक्त सौन्दर्य का जाल बुनकर मेरी चेतना को तन्मय कर देता था।"(1) मनुष्य सदियों से प्रकृति की गोद में फलता-फूलता रहा है। इसी से ऋषि-मुनियों ने आध्यात्मिक चेतना ग्रहण की और इसी के सौन्दर्य से मुग्ध होकर न जाने कितने कवियों की आत्मा से कविताएँ फूट पड़ीं ।




वस्तुत: मानव और प्रकृति के बीच बहुत गहरा संबंध है।दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। मानव अपनी भावाभिव्यक्ति के लिए प्रकृति की ओर देखता है और उसकी सौन्दर्यमयी बलवती जिज्ञासा प्रकृति सौन्दर्य से विमुग्ध होकर प्रकृति में भी सचेत सत्ता का अनुभव करने लगती है । मनुष्य के आकर्षण का केन्द्र प्रकृति का सौन्दर्य रहा है। भाव की सुन्दर अभिव्यक्ति के लिए प्रकृति का सहारा लिया जाता है। साहित्य, जीवन की व्याख्या होती है और प्रकृति जीवन का अभिन्न अंग है। मनुष्य प्रकृति को अपने संसर्ग से प्रभावित करता है और उसे नयी अर्थवत्ता देता है। उपन्यास अपनी संवेदनशील प्रवृत्ति के विभिन्न रूपों से प्रभावित करती है ।

हर रचनाकार किसी स्थान विशेष में जन्म लेता है और पलता-बढ़ता है।अपने स्थान विशेष की प्रकृति लोक जीवन और सुख-दुख के बीच उसके अनुभव एवं संवेदना का विकास होता है। उनकी रचनाओं के सर्वप्रथम स्थान विशेष से जुड़े अनुभव ही रूपायित होते है तथा रचना और रचनाकार की पहचान बनते हैं। प्रकृति की अनोखी और अनंत सत्ता मनुष्य को सदा से आकर्षित करती रही है। उसका मनुष्य के भाव जगत के संरक्षण और विकास में हमेशा एक महत्वपूर्ण योगदान रहा है। प्रकृति की इस सुरम्य गोद में उपन्यास का जन्म हुआ है क्योंकि उपन्यास में आरम्भ से ही प्रकृति के प्रति एक अद्भुत आकर्षण एवं अलौकिक अपनत्व का भाव देखा जाता है । इतिहास भी प्रकृति का एक हिस्सा है। कभी इतिहास प्रकृति में बदलता है तो कभी प्रकृति इतिहास में बदल जाती है। एक स्थान पर निर्मल वर्मा ने लिखा है--"आदमियों द्वारा बनायी गयी इमारतें 'प्रकृति'में बदल जाती हैं--शाम की धूप में कालातीत, इतिहास से मुक्त, जबकि पीढ़ी-दर-पीढ़ी नहाते यात्रियों ने गंगा की शाशवत धारा को अपनी स्मृतियों में पिरों दिया हैं–जहाँ इतिहास और प्रकृति एक-दूसरे से मिल जाते हैं।"(2) शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक तीनों ही दृष्टियों से प्रकृति मानव का पोषण करती हुई उसे जीवन में आगे बढ़ाती है। मानव और प्रकृति के इस अटूट सम्बंध की अभिव्यक्ति धर्म, दर्शन, साहित्य और कला में चिरकाल से होती रही है। साहित्य मानव का प्रतिबिम्ब है। अत: उस प्रतिबिम्ब में उसकी सहचरी प्रकृति का प्रतिबिम्ब होना स्वाभाविक है। इतना ही नहीं प्रकृति मानव हृदय और काव्य के बीच संयोजन का कार्य भी करती रही है। न जाने हमारे कितने ही उपन्यासकारों और कवियों को अब तक प्रकृति से काव्य रचना की प्रेरणा मिलती रही है। सृष्टि के आरम्भ से ही मनुष्य प्रकृति के सौन्दर्य से प्रभावित होता आया है। प्रकृति के संदर्भ में निर्मल वर्मा ने लिखा है--"प्रकृति के पास जाने का मतलब है, अपने अलगाव और अकेलेपन से मुक्ति पाना, अपने छिछोरे, ठिठुरते अहम् का अतिक्रमण करके, अनवरत समय की कड़ी में अपने को पिरो पाना, तो यह बोध पुराने खँडहरों के बीच भी होता है । यह विचित्र अनुभव है–ठहरे हुए पत्थरों के सामने बहते समय को देख पाना।"(3) विनोद कुमार शुक्ल के उपन्यास 'दीवार में एक खिड़की रहती थी'में प्रकृति के सहज ही दर्शन होते हैं। उन्होंने प्रकृति के अनेक बिम्बों और प्रतिकों को अपने रचना-संसार में रेखांकित किया है जो किसी न किसी व्यापक अर्थ को अपने अंदर संजोकर रखे होती है । उनके उपन्यास में नदी, समुद्र, लहर, पेड़, पक्षी, किरण, चांदनी, धरती, पवन, पहाड़ आदि अनेक प्राकृतिक सौंदर्य हैं। उन्होंने प्रकृति के बहुत ही सुन्दर चित्र खींचे हैं ।



विनोद कुमार शुक्ल का उपन्यास 'दीवार में एकखिड़की रहती थी'सन् 1997 ई. में प्रकाशित हुआ। इस उपन्यास में एक निजी महाविद्यालय में व्याख्याता के रूप में कार्यरत रघुवर प्रसाद की जिन्दगी का कस्बाई यथार्थ है। सीमित आय में वह अपना और अपने परिवार का गुजारा करते हैं हैं। किराये का कमरा, महाविद्यालय जाने की असुविधा, माता-पिता की बीमारियाँ आदि से वह जूझते हैं। उपन्यास के केन्द्र में निम्नवर्गीय रघुवर प्रसाद और सोनसी का दाम्पत्य जीवन है। सोनसी से शादी होने के बाद वह अपने जीवन-संग्राम में जूझते रहते है। इस संदर्भ में विष्णु खरे लिखते हैं--"विनोद कुमार शुक्ल के इस उपन्यास में कोई महान घटना, कोई विराट संघर्ष, कोई युगीन सत्य तथा कोई उद्देश्य या संदेश नहीं क्योंकि इसमें वह जीवन है, जो इस देश की वह जिन्दगी है, जिसे किसी अन्य उपयुक्त शब्द के अभाव में निम्नमध्यवर्गीय कहा जाता है।"(4)

प्रसिद्ध समीक्षक डॉ. नामवर सिंह कहते है--"'दीवार में एक खिड़की रहती थी'उपभोक्ता समाज में एक प्रति संसार की रचना करता है। इस यांत्रिक जीवन के विरूद्ध एक मिठास गरमाई का आभास खिड़की के बाहर कराता हैं। मैं चकित हूँ कि यह उपन्यास के भाँति छोटी-मोटी बातें, रोजमर्रा के ब्यौरे यहाँ भी हैं। मैं इस उपन्यास के शिल्प से भी प्रभावित हूँ।"(5)

यह उपन्यास सीधी-सादी, आंचलिक प्रेम कहानी हैं, जिसमें निम्नमध्यवर्गीय समाज के जीवन के ठंडे-मीठे रसीले मन को प्रकृति के खूबसूरत धागे में पिरोया गया हैं। इस उपन्यास में भाषा से एक सपनों का संसार रचा गया हैं। स्वयं विनोद कुमार शुक्ल ने एक इंटरव्यू में कहा--"किसी भी लेखक का शब्दों के साथ खेलने का संबंध तो बनता ही नहीं, जूझने का बनता है।"इस उपन्यास में दाम्पत्य रूपी घर में पति रघुवर प्रसाद 'दरवाजे'की तरह है तो पत्नी सोनसी 'खिड़की'की तरह। दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। उपन्यास में खिड़की की दुनिया भले फैंटेसी की दुनिया हो पर प्रेम और श्रृंगार के यह दृश्य और उनका वर्णन एकदम सहज और स्वाभाविक है। उपन्यास की मुख्य कथा मिम्नमध्यवर्गीय दम्पति रघुवर प्रसाद और सोनसी के प्रेम-आख्यान है। वे दोनों इस खिड़की से एक अद्भुद चमत्कार की दुनिया में प्रवेश करते हैं और वहीं से अपने जीवन के सपने संजोते हैं।

'दीवार में एक खिड़की रहती थी'उपन्यास भारतीयनिम्नमध्यवर्गीय जीवन संघर्ष के भीतर छिपे जीवन के सुख है। सारे बंधनों से मुक्त वे जीवन का सही आनंद लेते हैं। वे दोनों ऐसी दुनिया में हैं जिसमें सिर्फ दोनों की मौजूदगी का एहसास है। सोनसी रघुवर प्रसाद के लिए एक नई सुबह थी। रघुवर प्रसाद तालाब के किनारे सोनसी के सौन्दर्य को निहारते हैं--"पत्थर पर खड़ी वह इतनी मांसल और ठोस थी कि लगता था कि एक भी कदम आगे बढ़ाएगी तो तालाब का सारा पानी एक उछाल लेगा। तत्काल हृदय में हुए उलकापात के पत्थर की गढ़ी प्रतिमा का ठोसपन और दूर से गर्म लगता था। जब उसने साड़ी को जाँघ तक खोंसा तो लगा कि पत्थर चन्द्रमा का होगा या बृहस्पति का। अगर चन्द्रमा का होगा तो रंग पत्थर का ऐसा ही था जैसा चन्द्रमा दूर से दिखता है सुबह।"(6) छुट्टी के दिनों में जब भी उन्हें फुर्सत मिलती रघुवर प्रसाद और सोनसी के उस दुनिया में रहती बूढ़ी अम्मा अपने बच्चों जैसा प्यार करती है और उन्हें अपने हाथों से चाय पिलाती है। उसकी चाय उन्हें बहुत अच्छी लगती है। दोनों तालाब के खिले हुए कमल में घुसकर नहाने लगे। उनके नहाने से सफेद कमल के फूलों की संख्या भी बढ़ गई है। इतने में बूढ़ी अम्मा आकर आवाज देती है--"बाहर आ जाओ कमल में फँस जाओगे।"(7) यहाँ विनोद कुमार शुक्ल ने बहुत ही खूबसूरती के साथ कल्पना और यथार्थ का मिश्रण किया है कि पता नहीं चलता कब स्वप्न-युग में है। उपन्यास में--"बूढ़ी अम्मा प्रकृति-माँ की तरह हैं। खिड़की की दुनिया पर उनका पूरा नियंत्रण है। वह बन्दरों को डाँट सकती हैं, पक्षियों को पत्थर पर बीट करने के लिए गुस्से में घूर सकती है। यहां तक कि वह रघुवर प्रसाद और सोनसी को भी स्नेह भरी डाँट पिला देती हैं।"(8)

रघुवर प्रसाद के कमरे की खिड़की के बाहर प्रकृति कामनमोहक सौन्दर्य भरा हुआ है। उनको जब भी समय मिलता है वह और उनकी पत्नी सोनसी खिड़की से कूदकर एक अलग ही दुनिया में चले जाते हैं। वे इस संबंध को सौन्दर्य से सम्पृक्त कर देते हैं। रघुवर प्रसाद के लिए सोनसी ऐसी है जिसे बार-बार देखें तो एक नयापन है। सोनसी रघुवर प्रसाद के लिए एक नई सुबह है। वह भी उस अलग दुनिया में रघुवर प्रसाद के साथ जाकर प्रकृति के सौन्दर्य का भरपूर आनंद लेती है। उपन्यास में 'खिड़की'प्रेम की दुनिया में ले जाती है। रघुवर प्रसाद के मन में प्रेम की खिड़की खोलने का काम सोनसी करती है। उसके जीवन में सोनसी हवा के झोंकों की तरह आती है और उसके मन को हरा-भरा रखती है। सोनसी की सुन्दरता, रघुवर प्रसाद और उसके बीच प्रेम संबंध को चित्रित करते समय प्रकृति माध्यम बनती है। विनोद कुमार शुक्ल लिखते हैं--"एकदम सुबह का सूर्य बाईं तरफ तालाब में था। सूर्य के बाद तालाब में रघुवर प्रसाद थे, फिर सोनसी थी। सोनसी डुबकी से निकलते ही बालों को पीछे झटकारती तो एक अर्धचक्र बनाती बूँदे बालों से उड़ती तब रघुवर प्रसाद को बूँदों की तरफ इन्द्रधनुष दिखाई देता। सोनसी के गीले बालों को झटकारने से क्षण भर को इद्रधनुष बन जाता था।"(9) खिड़की की दुनिया में रघुवर और सोनसी के मन और उनकी आकांक्षाओं की दुनिया की तस्वीरें हैं। इनके प्रेम में नोक-झोंक, तनाव, चिंता, प्रेम, रूठना, मनाना इन सब से उपन्यास अधिक निखरा है। संबंध उतनी ही गहराई संवेदना, अंतरमन की अभिव्यक्ति के स्तर पर उनकी ही भाषा में प्रस्तुत है। पति-पत्नी के बीच बातचीत, खामोशी में आँखों के द्वारा चलने वाला बातचीत, ये सब एक दूसरे के प्रति आत्मीयता स्थापित करता है।

वास्तव में खिड़की की दुनिया रघुवर प्रसाद और सोनसी केप्रेम, मन और प्रकृति से लगाव की दुनिया है। उस दुनिया में एक सुंदर नदी बहती है। यह नदी स्वच्छ और कम गहरी है। बरसात के समय इसमें बाढ़ नहीं आती। इस बीच हवा सोनसी की साड़ी उड़ाकर ले जा रही है। हवा में उड़कर जाती हुई रंगोली ने उसे ढाँक लिया था। हवा जब थम गई तो पेड़ों, फूलों, दूबों की गन्घ जो फैल गई थी वह पेड़ों, फूलों और दूबों के आसपास सिमटने लगी। बरगद के पेड़ के पास ही वहाँ तीज त्यौहारों के दिन की पूजा स्थल की सुगन्ध हैं। पेड़ का तना एकदम काला चिकना है। वहाँ एक शिवलिंग का पेड़ है। गोबर से लिपी-पुती जगह पर, पेड़ के नीचे सोनसी आँख बंद किए लेटी थी। सोनसी को जान-बुझकर रघुवर प्रसाद का आना मालूम नहीं हो रहा है। वह इन सब से अनजान दिखी तभी सोनसी की बाई बाँह पर टाएं-टाएं करता एक पक्षी आकर बैठा। बरगद का पेड़, फूल, फूलों का सुगन्ध, बन्दर और बच्चे हैं। साथ में रंग है। बकरी के बच्चे भी हैं। सूर्योदय, सूर्यास्त, चन्द्र और ध्वनियों के साथ प्रकृति उपस्थित है। यह सब रघुवर प्रसाद के मन की जगह है। गोबर से लिपी पगडण्डी मन की पगडण्डी थी। "पगडण्डी को मालूम था इसलिए वह रघुवर प्रसाद के चलने के रास्ते पर थी। रघुवर प्रसाद को टीले पर आना था। इसलिए जहाँ रघुवर प्रसाद आये थे वह टीले पर था। तालाब रघुवर प्रसाद के निहार में था। तालाब में तारों, चन्द्रमा की परछाई पड़ी कि रघुवर प्रसाद के निहार में हो। जुगनू रघुवर प्रसाद के सामने से होकर गए। कमल के फूल रघुवर प्रसाद को दिखने के लिए चन्द्रमा के उजाले में थे।"(10) बिष्णु खरे का कहना है--"एक सुखदतम अचंभा यह है कि इस उपन्यास में अपने जल, चट्टान, पर्वत, वन, वृक्ष, पशुओं, पक्षियों, सूर्योदय, सूर्यास्त, चन्द्र, हवा, रंग, गंध और ध्वनियों के साथ प्रकृति उपस्थित हो जितनी फणीश्वरनाथ रेणु के गल्प के बाद कभी नहीं रही।"(11)

वस्तुत: यह उपन्यास एक सांस्कृतिक परिघटना की तरह है।इस उपन्यास में गाँव में रहने वाले आम लोगों के जीवन की सच्चाई को लेखक ने आवेगपूर्ण और संवेदना में ढाला है। निम्नमध्यवर्गीय परिवार में घर, प्रकृति और परिवेश के छोटे-छोटे अनुभवों के प्रति लगाव रखना ही लेखक की जीवन दृष्टि रही है। 

संदर्भ ग्रंथ

  1. डॉ. कृष्णदेव शर्मा, कविवर सुमित्रानंदन पंत और उनका आधुनिक कवि, रीगल बुक डिपो, दिल्ली, पृ. सं. – 7-8
  2. निर्मल वर्मा, शब्द और स्मृति, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2017, पृ. सं.- 129
  3. वही, पृ. सं. - 131
  4. विष्णु खरे, अनुकथन, पृ. सं. - 168
  5. सं. राजेन्द्र यादव, हँस, मासिक, जनवरी – 1999, पृ. सं. - 147
  6. विनोद कुमार शुक्ल,  दीवार में एक खिड़की रहती थी , वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण 2014, पृ. सं. – 49-50
  7. वही, पृ. सं. - 51
  8. योगेश तिवारी, विनोद कुमार शुक्ल : खिड़की के अन्दर और बाहर, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, पहला संस्करण 2013, पृ. सं.- 53
  9. विनोद कुमार शुक्ल,  दीवार में एक खिड़की रहती थी , वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण 2014, पृ. सं. – 58
  10. वही, पृ. सं. - 158
  11. वही, पृष्ठ फ्लैप से 

लेखिका असम विश्वविद्यालय में शोधार्थी हैं
संपर्क : ई-मेल: kasturikok@gmail.com



लिंक पर  जाकर सहयोग करें , सदस्यता लें :  डोनेशन/ सदस्यता
आपका आर्थिक सहयोग स्त्रीकाल (प्रिंट, ऑनलाइन और यू ट्यूब) के सुचारू रूप से संचालन में मददगार होगा.


स्त्रीकाल का प्रिंट और ऑनलाइन प्रकाशन एक नॉन प्रॉफिट प्रक्रम है. यह 'द मार्जिनलाइज्ड'नामक सामाजिक संस्था (सोशायटी रजिस्ट्रेशन एक्ट 1860 के तहत रजिस्टर्ड) द्वारा संचालित है. 'द मार्जिनलाइज्ड'के प्रकाशन विभाग  द्वारा  प्रकाशित  किताबें  अमेजन ,   फ्लिपकार्ट से ऑनलाइन  खरीदें 
संपर्क: राजीव सुमन: 9650164016, themarginalisedpublication@gmail.com



नाक की फुरूहुरी: सोनी पांडेय कहानी

$
0
0

सोनी  पांडेय

सोनी पांडेय लगातार लोक जीवन और ग्रामीण स्त्री-जीवन की प्रभावशाली कहानियाँ लिख रही हैं. ऐसे समय में जब महिला लेखन में यह परिवेश लगभग छूटता जा रहा है सोनी पांडेय की कहानियाँ आश्वस्त करती हैं. पढ़ें उनकी एक ताजा कहानी  नाक की फुरूहुरी:

रात से ही बरखा झमर -झमर हो रही थी...भोर होते -होते जड़ाने लगा तो मुल्लर बो बगल की खटिया पर किकुर कर सोए पति से बोली...हे तनी हुक्का सुलगाते..पेट बथ रहा है। बुढउ अउर सिकुड़ गये।चुप लगाए पड़े रहे।बूढ़ी को गुस्सा आ रहा था,जानती थी की पति अजोर होने से पहले उठ जाते हैं।लेकिन आज कई दिनों बाद राहत भरी भोर मिली थी सो मुल्लर अपनी कथरी गुदरी में और सिकुड़े जा रहे थे।बूढ़ी की पीड़ा बढ़ी तो रोने लगी....मुल्लर सब सह सकते थे,...अपनी प्राण प्यारी का रूदन नहीं।बेचारे आलस त्याग कर उठे...ढ़िबरी में रात छोटकी पतोहू ने लाख कहने के बाद भी तेल नहीं भरा जिसके कारण वह आधी रात को ही जुड़ा गयी।वैसे तो गर्मी की भोर ही उजास लिए आती है पर आज आषाढ के घन,घनघोर घिरे थे और जम कर बरखा हो रही थी।बेचारे लाठी टटोलते उठे...लाठी ठक से पैर से लगी और डगरा कर किसी किनारे लग गयी..बूढ़ी रोए जा रही थी...किसी तरह अन्धेरे में टटोलते दरवाजे तक पहुँचे और कुण्डी खोल दलान में आए....दलान की छप्पर कहीं से सरक गयी थी और रात भर की बरखा से छाजन की मिट्टी ठेल अन्दर पानी से चारों तरफ बिछलहर हुई थी....छोटा लड़का जब तक पिता को आगे बढ़ने से रोकता उनका पैर आगे बढ़ चुका था और भागकर पकड़ते -पकड़ते बुढ़उ भड़ाम की आवाज संग सरक कर ज़मीन से होते कमर तक नीचे गहरे आँगन में जा गिरे....आँगन तालाब हो चुका था ,वह गिरे ...आवाज हुई ...और एक कराह के साथ सन्नाटा फैल गया।लड़का चिल्लाते हुए आँगन में कूदा...आवाज सुन बड़ा भी भागकर आया ...मुल्लर पानी में डूबे पड़े थे....भारी भरकम पहलवानी का शरीर... लड़के चिल्लाए तो बहुँए ...पोते ..पोतियाँ सब आँगन में उतर गये।लाद फांद कर किसी तरह बाहर बरामदे में लाकर चौकी पर लिटाया गया।हल्ला-गुल्ला सुन कर आस-पड़ोस के लोग भी आ गये...मुल्लर की पीठ दबा- दबा कर पानी निकाला गया...गाँव के झोलाछाप डॉक्टर महेन्दर को बुलाने दोनों पोते पहले ही भागे थे...बस वो गये और उधर से बभनान से महेन्दर डागडर दौड़ते आला लिए आते दिखे।आते आला छाती पर लगा जाँचने लगे...नब़्ज टटोली,मुँह में साँस देने और छाती पर पम्प करने की प्रक्रिया होने लगी...खैर कोई दस मिनट बाद मुल्लर के शरीर में हरकत हुई...धीरे -धीरे आँख खोला और जोर- जोर से कराहने लगे।महेन्दर की बाँछें खिल गयीं...एक बार फिर उनकी सफल डॉक्टरी पर मुहर लगी।लगे विद्वता उढ़ेलने।कराहते मुल्लर को देख इण्टर में पढ़ने वाली पोती ने पूछा...बाबा!कहाँ दुखाता

करिहहिंया(कमर) रे बुचियाssssमुल्लर ने कराहते हुए कहा।

उसने पैर को पकड़ कर धीरे से उठाया... वो जोर से बाप ...बाप चिल्ला उठे।लड़की ने सिर पर हाथ रखकर कहा...बाबा क त कमर गइल।


महेन्दर पिनक गये....बाह बेटी!..तुम तो बड़ियार हड्डी कीडॉक्टर निकली।गोड़ छू कर जान लिया कि कमर टूटी है।ये उनकी डॉक्टरी का बड़ा अपमान था।लड़की भी कम न थी।तन गयी...हमारे गृह विज्ञान की किताब में हड्डी टूट के लक्षण बताए गये हैं।वह कमर पर हाथ रखे पूरी आत्मविश्वास से भरी खड़ी थी।डॉक्टर चतुर थे...मन ही मन सोचे लड़की समझदार है और बात पलट कर दर्द की सूई लगा ब्लॉक पर ले जाने की हिदायत दे सौ रूपया जेब में ड़ाल निकल लिए।घर में मातम छा गया....बाहर छपनो कोट बरखा हो रही थी....अन्दर के कच्चे मकान की दीवारें पतली हो रहीं थी लगातार पानी की बौछार पा....लड़कों ने बहुओं संग पहले तो मिल जुल कर उधर की कोठरियों का सामान निकाल आगे की पक्की कोठरियों में ज़माया....इस काम में पूरे तीन चार घण्टे निकल गये...उधर रोती बिलखती बूढ़ी को छोटी बहू ने हुक्का सुलगा कर थमा दिया और बुढ़उ का हाल बता पटा कर पड़े रहने की हिदायत दे काम में लग गयी।बेचारी मुल्लर बो अपने बुढ़उ को देखने के लिए कलपती रहीं...पर किसी ने ध्यान नहीं दिया।

धीरे-धीरे दर्द के इन्जेक्शन का असर खत्म होने लगातो मुल्लर की कराह बढ़ने लगी....बड़े बेटे ने छोटे से कहा....बाउ को किसी हाल में ब्लॉक ले जाना पड़ेगा...लगता है बुचिया ठीक कहती है की बाउ की कमर टूट गयी है।छोटे ने हामी भरी।अभी दोनों भाई विचार विमर्श कर ही रहे थे कि पीछे की सबसे पुरानी कोठरी भहरा कर धस गयी...गनीमत था कि उधर से सारा सामान निकल चुका था और घर का कोई सदस्य उधर नहीं था।बड़ी बहू ने सिर पर हाथ रख कर कहा....जब बिपत आती है तो चारों ओर से आती है...इ बुढ़िया के हुक्के का नशा जो न कराए।छोटी दो जौ और आगे निकली...बुढ़उ भी तो कम नहीं ...जिनगी भर कपार पर बिठाए रहे....बस सब कुछ ताव पर चाहिए...ऐसी मेहरारू मरद को खा चबा के ही चैन लेती हैं...देखिए खटिया भर के आदमी को ढ़ाह कर दम लिया बुढ़िया ने। बहुएँ अलग अलाप लिए बैठीं थी...इधर बुढ़उ की कराह...उधर बरखा थी कि रूकने का नाम ही नहीं ले रही थी।पोतियाँ हल्दी तेल गरम कर बाबा के हाथ पैर मल रहीं थीं...छोटी बारह साल की पोती रानी आजी के पास आकर उनकी चारपाई में लेट गयी...मुल्लर बो ने धीरे से कहा....बुचिया ! तनी बाबा के पास ले चलती।लड़की तकिए में गर्दन धसा कर करवट फेर लेट गयी....माँ से डांट लगी थी,माँ से नाराज हो वह आजी के पास आती और दोनों जम कर उसकी शिकायत करतीं।बूढ़ी छोटी बहू को बिल्कुल पसन्द नहीं करती थी...उसके कर्कश स्वभाव के कारण।आज फिर मन उससे खिन्न था....पोती को पुचकारते -पुचकारते रो पड़ी,लड़की पसीज गयी....बारिश कम होते आँगन-दुवार पर जमा पानी उतरने लगा....बादल वैसे ही आसमान में जमे थे।बड़े लड़के ने छोटे से कहा...अब इससे कम बुन्नी का आसरा नहीं ,किसी तरह बाउ को अस्पताल ले चलना ही पड़ेगा...बेचारे दरद से चिल्ला रहे हैं।रानी आजी को डण्डे के सहारे धीरे -धीरे पकड़ कर बरामदें में लेकर आई....बुढ़उ कराह रहे थे,आकर पायताने बैठ गयीं...सुबकते हुए कलपने लगीं।कुल हमरे चलते हुआ।दर्द की अथाह वेदना में भी मुल्लर ने घरवाली को दोषी नहीं बनाया...नहीं.. नहीं.. भोला की माई,सब उसकी मरजी है।नाहक खुद को दोख देती हो।अब होनी ही यही थी....नहीं तो ऐसी बरखा इधर बीसों साल से नहीं हुई थी।सब करम दोख(दोष) है।

मुल्लर बो रोती रहीं...आजी को रोते देख पोतियाँ भी रोने लगींहाँ बहुएँ जरूर मुँह चमका रहीं थीं। लड़कों ने गाँव के प्रधान की सहायता से किसी तरह चारचक्के की व्यवस्था की और पिता को लाद -फाद कर अस्पताल ले गये।ब्लॉक के डॉक्टर ने जिले पर रेफर कर दिया...जिले के डॉक्टर ने बनारस।कमर की हड्डी खिसक गयी थी...तुरन्त आपरेशन का निर्देश था।बड़े बेटे ने सबसे सक्षम मझले भाई को दिल्ली फोन किया....वह कालेज में पढ़ाता था,पूरा हाल कहा...उसने तत्काल पैसा भेजा और किसी तरह की कोताही न होने की चेतावनी दे बनारस के लिए निकल गया।मुल्लर का मेजर आपरेश हुआ और महीनों अस्पताल में रहे...लाख रूपया लगा...लगा तो मझले बेटे का पर कलेजा सुलगा छोटी का...रो-रो टोले भर से कहती फिरती कि घर बनवाने के नाम पर भईया क रूपया सूखा गया और अब टन से निकल गया।बूढ़ी सुनतीं और क्रोध पी कर रह जातीं।

जीवन में पहली बार महीने भर ब्याह के बाद अकेलीं रहीं...सावन चढ़ गया था,शिवाले में इस बार मुल्लर के बगैर मण्डली रात को बैठती और भजन -कीर्तन चलता।पहली बार उम्र के पचहत्तरवें पड़ाव पर सावन बेरंग लग रहा था,नहीं तो सावन चढ़ते मुल्लर भर -भर हाथ मियाईन के यहाँ से हरी चूड़ियाँ लाकर पहना देते।लालटेन की रोशनी में कलाई देखी...लाल चूड़ियाँ कलेजे में धंसी और आँखे भरे सावन में बरस उठीं।वह आँचल से मुँह ढ़ांप रोती रहीं... रोते -रोते कब आँख लगी और जीवन के पिछले कपाट खुलने लगे पता ही नहीं चला....वह खोतीं गयीं.........।

मुल्लर मंगल की बजार से सौदा लिए चलेआ रहे थे..साईकिल की हैंडिल पर ऊपर तक भरा झोला सबके आकर्षण का केन्द्र था....वह दुवार पर साईकिल खड़ा कर झोला लिए सीधे आँगन में पहुँचे।छोटा बेटा छः महीने का गोद में था....जाड़े की गुनगुनी धूप में तेल ताशन से सनी मुल्लर बो ने कनखियों से पति को देखा....मुल्लर पहले से निगाह जमाए थे...नजरें मिलीं और घरवाली झेंप गयी।जानती थी कि आज की मंगल की हाट खास है...ब्याह के पूरे दस साल हुए थे...इस बीच चार बच्चों की माँ बन चुकी भोली भाली अल्लढ़ सी चम्पा जो सोलहवें साल में ब्याह कर इस घर आई थी कब अपना नाम खो मुल्लर बो बन कर रह गयी ,पता ही नहीं चला।बच्चे को खटोले पर सुला कोठरी में आई,...मुल्लर ने अकवार में भर लिया...औरत ने कोहनी से ढ़केलते हुए कहा....हटो! माई अंगने में बैठी ईधर ही कान लगाई है।मुल्लर ने हँस कर छोड़ दिया,हाथ पकड़ कर पलंग पर बिठाया और झोला से एक- एक सामान निकाल कर रखते गये।वह मुग्ध देखती रही ...काहें एतना रुपया फालतू में खर्च करतो हो भोला के बाउ,अभी पिछले महीने ही तो शहर से साड़ी लाए थे,झुट्ठे माई मुझे ताना मारती है कि मरद की पगरी अपने सिंगार पटार में बेच देगी।वह सिर ज़मीन में गड़ाए रोने लगी।मुल्लर भी भावुक हो गये...देखो भोला की अम्मा! सब करना,मेरे सामने आँसू मत गिराना जिनगी में।जान लो कि मैं तुम्हें मैली धोती में नहीं देख सकता।चेहरे को दोनों हथेलियों में भर कर....ये धूप सी उजली देह को मैं दुख नहीं दे सकता,जो मिले,जितना मिले ,सब तुम्हारा... मेरा देह ,मन,धन सब तुम्हारा।आखिर इतना खटता किसके लिए हूँ।छोड़ों माई की बातें...तुम बस खुश रहा करो ।

 मिया बीबी की प्रीत पाती अभी बांची ही जा रही थी किआँगन में से सास का चिल्लाना शुरु हो गया....आज कल की पतोहन को न लाज है न सरम(शर्म) ....मरद को देखा नहीं कि कोठारी में घुसते लाज नहीं आती।लईका छेहर गिरे ढ़िमलाएं,उ जाके भतार के कोरा में बैठ जाएंगी।

मुल्लर बो ने लम्बी साँस छोड़ कर कहा...लिजिए, चालू हो गयी माई...अब भर टोला ढ़ोल बजाएंगी। मुल्लर सिर झुकाए सीधे दुवार की ओर निकल गये। कुछ भी हो जाए,कभी माँ का जवाब नहीं देते थे।पिता प्राईमरी के मास्टर थे...भरी जवानी में तीव्र ज्वर में चल बसे।उस समय मुल्लर इण्टर में पढ़ते थे ,मामाओं ने धा धूप कर किसी तरह इनकी पिता की जगह नौकरी लगवाई।माँ उस समय महज चालीस की थी जब पिता गुजरे....ले -दे -के मुल्लर इकलौती सन्तान। नौकरी लगते तिलकहरुओं की भीड़ लगने लगी।माँ ने सोचा जो जल्दी लड़के को नहीं ब्याहा तो दयाद जगह ज़मीन घेरने लगेंगे। घर में पतोह आने से थोड़ी रौनक भी आ जाएगी...और इस तरह बीस के होते -होते मुल्लर ब्याह दिये गये।सिन्दूर दान के समय जब चादरों के घेरे में गठरी बनी बैठी लड़की का माथा भर देखा,अन्दर तक सिहर गये...भक्क उजली चाँदनी सी लड़की।मुग्ध ,जो एक बार प्रेम का नशा चढ़ा, आजीवन बना रहा।पूरे गाँव ने मुल्लर की माँ को बधाई दी कि गेंहूए का भीख ड़ाली थी जो इतनी सुग्घर बहू मिली।शुरु के सालों में सास ही सिर चढ़ाए रहीं....साले साल बच्चे होते रहे,मुल्लर जो नसबंदी का नाम लेते माँ इनार में कूदने निकल जाती...बेचारे चौथे बच्चे के बाद चुपचाप अकेले जाकर नसबंदी करा आए और पत्नी को कसम चढ़ा दिया कि माँ से मत कहना।बीमारी का बहाना कर कुछ दिन आराम कर नौकरी पर जाने लगे।तीन बेटे और एक बेटी के बाद सास हर महीने बहू से पूछतीं की महीना चढ़ा ?..वह इन्कार में गर्दन हिला देती।दरअसल सास चार पोते चाहती थी...दयादों ने उन्हें एक बेटे के नाम पर खूब हड़काया था ,अब वह बेटे को सवांगो से लैस करना चाहती थीं..हमारे गाँवों में आज भी ये मान्यता बलवती है कि जिसके पास जितनी लाठी(लोग),वह उतना ताकतवर।अब बहू उन्हें निराश कर रही थी....सास बहू के मधुर सम्बंध यहीं से बिगड़ने शुरू हुए।छोटा अभी चार माह का हुआ ही नहीं ,वह अगले की बाट जोहने लगीं।बच्चों के पालने में बहू की खूब मदत करतीं....बहू की इतनी सेवा करतीं की पूछो मत..लेकिन अब जो हो रहा था वह सास की परम इच्छा का घोर अनादर था।सास बहू की ठन गयी...माँ बेटे का गुनाह न मानने को तैयार थी ,न पूछ सकती थी...ले -दे -के माँ -बेटे के द्वन्द में बहू घुन की तरह पीस रही थी।टकराहट का आलम यह हुआ कि पलकों पर बैठी बहू देखते -देखते ज़मीन पर जोत दी गयी।अब घर के कामों के साथ बाहर का काम भी करना पड़ता....सास छोटे पोते को कांख में दबा पड़ोसियों के घर जाकर बैठ जाती और पानी पी- पी बहू की शिकायत करती। इधर बेचारी मुल्लर बो चार तरपरिये बच्चों की कचाइन झेलती....पति की सुबह -सुबह रोटी सेंकती...पशुओं का चारा काटती...कूटना ,पीसना सब अकेले करते अक्सर रात को पति के सामने फूट- फूट कर रोती।मुल्लर भरसक कोशिश करते कि बाहर का काम निबटा कर जाएं ,पर खेती किसानी के साथ मास्टरी की नौकरी में कुछ शेष रह ही जाता।दस साल घोर संघर्ष के रहे....प्राईमरी की मास्टरी की तनख्वाह भी उन दिनों बहुत कम हुआ करती थी और घर में सात परानियों का खर्चा।बच्चे ज्यों- ज्यों बढ़ते जा रहे थे खर्चा बढ़ता जा रहा था,...उस पर से माँ को अचानक टी.बी.की बीमारी ने पकड़ लिया।...बीमारी बहुत बढ़ने पर पता चली....चीलम की लत जवानी से माँ को थी..वैधव्य ने और नशेड़ी बना दिया।देखते- देखते हट्टी -कट्टी माँ चारपाई में सट गयी। अब बूढ़ा खटिया पर सोये -सोये पतोह को गरियातीं....मुल्लर बो बच्चों को पास जाने से रोकतीं....संक्रामक बीमारी के फैलने के डर से...बूढ़ी और गरियाती।पति के समझाएनुसार मुँह बाँध कर टट्टी, पेशाब साफ करतीं...डिटाल से हाथ धोतीं....टोले भर में भुनभुनाहट बढ़ी की पतोह उपेक्षा कर रही है।वह दिन मुल्लर बो के लिए घोर विपदा के थे....सास को जितना करती वह उतना नकारती...गाँव भर बूढ़ी औरत का विलाप देखता किन्तु बहू का किया नहीं।चेहरे की उजली कान्ति मलीन होने लगी।

सास आज-बिहान की मेहमान थीं..फागुन का महीना, कुल खानदान के बड़े देवता- पित्तर से मना रहे थे कि बुढ़िया तेवहार न नाशे....अतवार, मंगर का भी भय था।घर में चारों तरफ मृत्यु गन्ध फैली थी।नाउन आकर मुल्लर बो को समझा गयी कि बढ़ियाँ से माथ धो कर नहा ले नहीं तो दस दिन तक माथ मीजने को नहीं मिलेगा जो बूढ़ी आज मर मरा गयी तो। मुल्लर बो घर के काम निबटा कर पोखरे की करइली माटी से मल-मल माथ धोईं....काले बाल रेशमी डोर से चमक उठे।कमर तक घने बाल खोल कर वह आँगन में बैठी सूखा रही थीं कि अचानक मुल्लर आ धमके....फागुन का असर की बहुत दिनों बाद पत्नी को इस तरह निश्चिंत बैठा देखकर मोहित हो उठे और शिवरात्रि को लाया लाल अबीर ताखे पर रखा देख मचल उठे होली खेलने को....होली में दो दिन शेष थे।पीछे से आकर अकवार में भर पत्नी के भर मुँह पोतने लगे...छोड़ा छोडाई में मुल्लर के गमछे का सूत औरत के नाक की फुरूहुरी(कील) में फँस गया और देखते- देखते छटक कर कहीं जा गिरा।बियाह की पड़ी फुरूहुरी नाक की आज तक मुल्लर बो ने नहीं निकाली थी,माँ की आखिरी निशानी...वह पति को धकेल कर खोजने लगीं.।..दोनों पूरा आँगन ककोर मारे पर जैसे पाताल ने लील लिया हो फुरूहुरी शाम तक नहीं मिली....एक तो माँ की निशानी ...दूसरे सोने के खोने का भय की कुछ अपशगुन होगा,मुल्लर बो राग कढ़ा कर रोने लगीं।आस पड़ोस ने सोचा सास गयीं....देखते- देखते मजमा जुट गया....कानाफूसी होने लगी,एक औरत ने दूसरी से कहा....कुल बूढ़ी का सराप है...आगे देखो का -का होता है।उस रोज मुल्लर बो रसोईं नहीं बना पायीं...मुल्लर ने बच्चों की मदत से बाहर अहरा सुलगा कर भौरी चोखा बनाया...माँ को दूध पिलाया... शाम का माँ का क्रिया कर्म भी खुद ही किया,पत्नी की तबीयत खराब होने पर कभी कभार वह खुद ही माँ को नहला-धुला दिया करते,शुरू में माँ संकोचती और रोने लगती,बेटे ने समझाया...जिस देह से पैदा हुआ उसकी सेवा में कैसा संकोच।धीरे -धीरे माँ को सब स्वीकार्य हो गया,जानती थी अकेली बहू क्या क्या करेगी,पर टोला -मुहल्ला तो जैसे उड़ती चिरई को हरदी पोतने पर आमादा हो ,पतोह की थू -थू करता,पतोह नहीं छूती है तब्बे न बेटा करता है का नारा औरतों ने लगाया और बेचारी के तीस दिन के किए पर पति का एक दिन किया भारी पड़ता।.....मृत्यु चौखट पर खड़ी थी पर बुढ़िया बहुत खुश थी.कि पतोह को लोग भला -बुरा कहते हैं...डाह ,सउतिया डाह में बदल गया था।...इधर मुल्लर बो की रोते- रोते हिचकी बँध गयी थी...याद आ रहा था वह दिन...बाउ ने किसी तरह कान का बुन्ना और गले की चाँदी की हँसली,कड़ा और छड़ा बनवा लिया था पर नाक में सोना देना जरूरी था,बेचारे ने बहुत दुखी होकर उनकी माँ से कहा था कि अपनी फुरूहुरी दे दो ,तुम्हें पैसा होते बनवा दूँगा।माँ ने चुपचाप अपनी माँ की आखिरी निशानी दो भर की पंचपत्तिया फुरूहुरी बेटी को दे दी....खूब नाम हुआ था। उधर न नौ मन गेहूँ हुआ न राधा उठ कर नाची।माँ चाँदी की फुरूहुरी पहने ही दुनिया से चली गयी...छाती फुरूहुरी के बिछोह से फटी जा रही थी...मुल्लर भी अपराध बोध से ग्रस्त रात भर सो न सके।कुछ रूपये जोड़ कर माँ की अंतेष्टि के लिए रखे थे...सबेरे उसी में से कुछ काढ़ शहर गये और वैसी ही पंचपत्तिया तीन भर की फुरूहुरी लेकर आए...हाथ से पहनाया,पूरी नाक छेंक लिया फुरूहुरी ने....इतनी बड़ी की कोस भर से नाक न दिखे फुरूहुरी दिखे।बेचारी पति से कहा...काहें इतनी भारी लाए...माई के किरिया -करम में जो घट गया ,चारों तरफ थू -थू मचेगी।वैसे भी माई ने मुझे बदनाम कर रखा है कि मेरे बेटे को कुछ खिला -पिला कर मतिभरम कर रखा है पतोह ने।मुल्लर हँस पड़े....कहने दो दुनिया को जो कहना है...तुम हमको जानो,हम तुमको इ बहुत है।बेचारी नाक में कील पहने डेराते -डेराते आँगन में निकली...गनीमत था कि बूढ़ी की उल्टी साँस चल रही थी ...चेतना जा रही थी,वरना जो कोहराम मचाती की पूछो मत,टोले की मन्थराओं की भी दाल नहीं गली...सास अन्तीम यात्रा की तरफ बढ़ रहीं थी...डॉक्टर आकर नाड़ी देख कर कह गया कि भू-सेज दे दिया जाए। पण्डित बुला लिए गये...नाऊन ने दुवार की छानी की धरती को गाय के गोबर से लीप -पोत दिया...सास बाहर कर दीं गयीं...खटिया मचिया कपड़ा लत्ता बहरिया दिया गया....पुरोहित ने कहा ...मास्टर भागवत पुराण शुरू करा दो...शरीर में अटकी आत्मा को जल्दी मुक्ति मिलेगी,गऊ दान हो रहा था।दरवाजे पर हीत- नात का मजमा जुटने लगा,बेचारी मुल्लर बो की धुकधुकी लगी थी कि जो आज सास मर गयी तो फुरूहुरी नहीं सही माना जाएगा।आँचल से नाक तोपती चलतीं ,पर काहें को फुरूहुरी छुपे...वह दमकती सबके आँख में चुभ रही थी। सुलेमन पुर अहिरौटी में आज तक बड़- बड़ कमवइयों ने ऐसी फुरूहुरी मेहरारू को नहीं पहनाया था।फुरूहुरी थी कि कान का बुन्ना, औरतें आँख फाड़ फाड़ देखतीं और आपस में खुसूर-फुसूर करतीं।खैर...किसी तरह रात बीत गयी और हिन्दू विधान के अनुसार उदया तिथि में अगले दिन सास सूर्योदय के बाद स्वर्ग सिधार गयीं।

इधर माँ की अर्थी उठी उधर मुल्लर का हेडमास्टर पर प्रमोशन का डाक मिला....फुरूहुरी सह गयी।माँ पाछ बढ़ा कर गयी,सबने कहा तो मुल्लर बो ने राहत की साँस ली।हालांकि की आर्थिक समस्याएं अभी भी जस की तस थीं...पंचम वेतन आयोग से पूर्व मास्टरों की तनख्वाह बहुत कम थी,चार बच्चों की शिक्षा सबसे बड़ी समस्या थी,सो एन केन प्रकारेण गाड़ी जीवन सफर में हिचकोले खाती बढ़ती रही।मुल्लर कभी न थकने वाले योद्धा की तरह डटे रहे....मुल्लर बो पति पियारी टोले की बुजुर्ग औरतों की आँख की किरकिरी... कारण टोले की हर औरत अपने मर्द से वैसी ही फुरूहुरी की मांग करती।वह अतीत की अटारी फर चढ़ी जीवन इतिहास का सन्दूक खोल स्मृतियों की थाती सहेज रही थी कि दुवार पर चार चक्का का हार्न बजने लगा...पोंssss,पोsssकी तेज आवाज कान में पड़ी तो मुल्लर बो आँख मिंजते उठ बैठीं....रात भर रोते पिछले किवाड़ खोले बैठी रहीं...भोर में थोड़ी सी आँख लगी थी कि पोंsssपोंsssशुरू हो गयी।अपनी लाठी पकड़ वह कोठरी से बाहर निकलीं...सूरज चढ़ आया था...इन दिनों बहुँए सोए रहने पर जगाती नहीं थीं...ज्यादा देर होने पर कर्कश आवाज में छोटी बहू जरूर तीर छोड़ती कि...देखिए भाई कहीं वियोग में विदाई त नहीं हो गयी,और बेशर्म हँसी हँसती।आँगन खाली था...वह धीरे- धीरे बहरी अँगना की ओर चलीं....चारों तरफ सन्नाटा छाया हुआ था जबकि दुवार पर पूरा टोला जुटा था....वह चौखट थाम कर खड़ी हो गयीं...लोग तमाशबीन, गाड़ी में से लड़के मुल्लर को निकाल रहे थे...चार लोग मिलकर बरामदे की चौकी पर लिटा कर किनारे खड़े हो गये....पूरे एक महीने बाद घर लौटे थे, बड़ा लड़का धीमी आवाज में बगल के चाचा को बता रहा था कि आपरेश सफल नहीं हुआ...अचानक से बाउ को शुगर.. ब्लडप्रेशर सब बेमारी निकल आयी....डॉक्टरों ने जवाब दे दिया है....जितने दिन जांए....,पीठ पर भी सोए सोए घाव हो रहा है...स्थिति बहुत खराब है।बेचारी मुल्लर बो को खड़े खड़े काठ मार गया...वह वहीं जड़ सी खड़ी सब देख सुन रही थीं....सामने जिन्दा लाश की तरह छःफुट्टा पहलवान सा पति पड़ा था....नीम बेहोशी में,हाथ से लाठी छूट गयी...गिरते- गिरते बचीं...मझले बेटे ने लपक कर पकड़ लिया।पकड़ कर पायताने पिता के लाकर बिठा दिया...महीने भर में शरीर गल कर चारपाई में सट गया था....वह दहाड़े मार कर रोने लगीं...एक बार फिर बहुओं ने मुँह चमकाया... पोतियाँ दादी को चुप कराते खुद रोने लगीं,लड़के और पोते भी आँसू पोंछते वहाँ से हट गये।कुछ देर लोग हाल चाल लेते रहे और धीरे- धीरे अपने अपने घरों को लौट गये।जब रो कर थक गयीं मुल्लर बो तो उठ कर गमछा भिंगा पति का मुँह पोंछने लगीं...आँखें कींचड़ से सनी सटी हुई थीं...वह ठुड्डी पकड़ हिलातीं....वह संज्ञा शून्य से पड़े हुए...दोनों की इस दशा को देख शायद ही कोई वहाँ बिना रोए ठहर पाए...वह तीन चार घण्टे यही क्रिया दोहराती रहीं।मझले ने बड़े भाई से पूछा....आखिर बाउ की शुगर की बीमारी पहले क्यों नहीं पता चली....या वह जानकर छुपाते रहे?..छोटे ने सिर पर हाथ रख कर कहा...जानकर छुपाते रहे भईया!...कभी किसी को अपने साथ डॉक्टरी ले जाते थे बीमार पड़ने पर?मजाल जो कोई उनकी पर्ची देखले..।बड़े ने लम्बी साँस छोड़ कर कहा...मिट्ठा खाने के शौकीन रहे...माई जानकर हाथ न लगाने देती,इसी लिए किसी को नहीं बताया होगा ,कहकर भीतर चला गया...उल्टे पाँव एक दवाओं से भरी पॉलीथिन लिए बाहर आया...उसका मन बचपन से पढ़ाई में नहीं लगा,किसी तरह इण्टर पास कर सका और शादी के बाद खटाल खोल कर दूध का व्यवसाय करने लगा।आमदनी ठीक थी....अब अंग्रेजी आती नहीं थी सो मझले सबसे पढ़े लिखे को थमा कर कहा कि देखो इसमें शुगर की दवा है की नहीं... उसने पोटली खोल कर देखा और उदास होकर कहा...है।सब थोड़ी देर चुप रहे....बाउ ने धोखा दिया...छोटे ने कहा...अभी पचहत्तर भी तो पूरा नहीं हुआ...सातवें वेतन की बढोत्तरी लगते पेंशन दूनी हो जाती।उसे हमेशा पैसे की ही पड़ी रहती....कारण दो बेटियाँ थीं।ये किसी तरह खींच खांच कर प्राईमरी के मास्टर हो गये थे पर घर में बेटियों का रोना लेकर एक ढ़ेला तक नहीं देते थे।घर का राशन खर्च पूरी तरह पिता के पेंशन पर टिका था...यही घर की शान्ति का आधार भी था।वैसे इस परिवार में पैसे की किल्लत नहीं थी पर सबको मझले की कमाई अखरती थी,वह शुरू से मेहनती रहा....जितनी सुविधा सबको मिली,उतनी ही उसे भी,उसी में डट के पढ़ता रहा ,बढ़ता रहा...गाँव से आठवीं पास कर ब्लाक के पचोतर इण्टर कालेज मरदह और फिर पी.जी.कालेज गाजीपुर से बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से शोध कर दिल्ली विश्वविद्यालय के एक कालेज में अध्यापक हो गया।घर की डूबती  नैया का यही हर दम खेवनहार रहा...वह दिल दिमाग दोनों से बड़ा था...शादी भी उच्च शिक्षित लड़की से बिना दहेज की कर भावजों की आँख की किरकिरी बन चुका था...कारण देवरानी सभ्य और सुसंस्कृत थी,गलत का खुल कर विरोध करती...ये बागी तेवर सबको खटकता पर सब पर पद और पैसा भारी था।मुल्लर इस मामले में खासे उदार रहे...जानते थे पत्नी मन की हो तो जीवन खुशहाल रहता है ।लड़कों की शादी में उनकी पसन्द का पूरा खयाल रखा।अब जो मुल्लर की मौत दरवाजे पर खड़ी थी ,घर में सबको आनेवाला विखण्डन साफ दिख रहा था। लड़के क्रिया-कर्म के जोड़-गणित में उलझे थे...।छोटी बहू आकर ससुर को देख कर जा चुकी थी,बच्चों के स्कूल चल रहे थे..पर पिता की मृत्यु निकट देख मझले ने तत्काल टिकट करा वापस बुला लिया था।बड़ी -छोटी बटवारे के पहले जो जहाँ से दबा सकती थीं,दबाने में लगी थीं।बूढ़ी औरत अन्न पानी छोड़े पति की चारपाई पर बैठी सारे देवता पित्तर गोहराती कि कोई चमत्कार हो जाए...मझली बहू की निगाह सास के बक्से पर जमी थी,सोचती जो कैसे भी बुढ़िया के गले में लटकी चाभी मिल जाती तो सारा माल काढ़ कर ठिकाने लगा देती...पर हिम्मत न थी कि चाभी सोए में भी निकाल ले।चाभी को लेकर सास कुत्ते सी चौकन्नी रहती।


मुल्लर बो के जीवन में एक बार फिरसे मृत्यु गन्ध पसरा था...पति आज बिहान के मेहमान रह गये थे....जानती थी मझली बहू की हाथ लपाकी...पूरा परिवार इकट्ठा हो चुका था...घर के आगे की पक्की चार कमरों की बखरी में इन दिनों सब सिमटे थे...पीछे का कच्चा दो घर गिर चुका था इस बरसात में। अचानक मुल्लर की साँस उखड़ने लगी तो पण्डित ने गो दान करा भागवत पुराण बाचना शुरू कर दिया....मृत्यु भी हमारे यहाँ इस तरह उत्सव में बदल जाता है कहते हुए मझली बहू अपनी नारजगी जता रही थी। मुल्लर बो ने बेटे बहुओं को अपनी पुरानी कोठरी में बुलाया...माँ का दिया बक्सा खोल कर पहले तो अपने गहने और पति के बैंक पासबुक और जमा पूंजी का हिसाब सामने रखा फिर अपने वर्षों की जतन से बटोरी चोरिका निकाली।छोटी पर उन्हें खूब विश्वास था ,पैसे गिनने को उसे सौंपा...वह जितने रुमाल की गठरी खोलती ,उतना हँसती...वाह माँजी ! आपने तो पूरी तिजोरी सहेज रखी है।जोड़ जाड़ कर कुल चालीस हजार रूपये हुए,बड़े ने पूछा कि इसका क्या करना है माई? मुँह में आँचल ठूस कर रोते हुए उन्होंने कहा...अपने बाउ की...।,आगे वह बोल न सकीं।सब भावुक हो गये।पति का कागज पत्तर कायदे से बड़े बेटे को सौंप दिया...वह पकड़ते मुँह खोल रो पड़ा। एक दम से सब उसके कन्धे पर आ पड़ा था।अन्त में काठ के छोटे से बक्से को खोला...ब्याह के कुछ अपने गहने ,कुछ सास की निशानी ,तीनों बहुओं में बराबर बाँट दिया।अब तक मौन साधे सब देखती बड़ी बहू ने सास को टोका..अरे!हई जवन दिन -रात छवले रहेलीं पोतियन ,इनको कुछ नहीं देंगी माई?बूढ़ा ने कान के तोर गले की हसली, हाथ के कड़े और पैर के पहने छड़े का भी बटवारा कर दिया इस चेतावनी के साथ की ये गहने उनके मरने के बाद ही तन से उतरेंगे।बुढ़उ नहीं चाहते थे कि कभी उनका कोई अंग उघार रहे और जीते जी कभी किसी विपदा में तन से जेवर नहीं उतरने दिए । छोटी को छोड़ सब उनके इस फैसले से खुश थे....छोटे ने राहत की साँस ली की पिता की अंतेष्टि भर के पैसे घर से ही निकल आए...जानता था कोई एक ढ़ेला नहीं निकालता उसके सिवा।मझली अन्दर ही अन्दर सुलग रही थी और कुतर्क लेकर बैठी थी कि उसकी बेटियों संग बूढ़ी ने बेईमानी की है....उसकी दो बेटियाँ हैं सो उसे ज्यादा गहने मिलने चाहिए थे। अन्दर उसका पैर पटकना चल रहा था कि दुवार पर से समवेत स्त्रियों के रूदन की आवाज गूंजी....मझली और उसकी बेटियों को छोड़ सब दुवार पर थे...गोधुली की बेला...कातिक का महीना होने से अन्धेरा पसरने लगा,दिन छोटे हो रहे थे रात बड़ी कि मुल्लर दोनों बेला के सन्धी पर संसार से रूखसत हुए। मुल्लर बो पैर पकड़ कर बैठ गयीं....अरे काहेंssssछोड़ी के तू गइल हो रामssss,अरे अब कइसे जीयब हो रामsss,मोरे रमउ हो नाही जनलीं की छोड़ी जइब हो रामsss....एक मर्मभेदी रूदन अलाप के साथ पूरे टोले को हिला रहा था....हम उम्र औरतें जो जीवन भर उन दोनों के प्रेम को देख कुढ़ती रहीं आज छाती पीट- पीट रोते कह रही थीं कि हट्टे -कट्टे मुल्लर को किसकी नज़र लगी जो ये हाल हुआ...इस उम्र तक घर के सारे काम मुस्तैदी से अभी एक महीने पहले तक सम्हालते रहे।....खुद कथरी -गुदरी में जीवन बिता दिया लेकिन बीबी बच्चों को भरसक कोई कमी नहीं होने दी,हर दिल अजीज मुल्लर दुवार पर मृत पड़े थे और प्राण प्रिय पत्नी पैरों में पछाड़े खा- खा गिर रही थी।औरतों ने बहुत मुश्किल से उन्हे वहाँ से हटाया....शाम हो रही थी.लड़कों ने.सबसे राय मशविरा किया कि इस बेला क्या करें..।खानदान के एक बुजुर्ग ने सलाह दी कि गाजीपुर गंगा पास में हैं और लाश घवाई है...सबेर करने पर एक तरफ तुम्हारी माँ को सम्हालना मुश्किल होगा,दूसरे लाश भी खराब होने लगेगी,अच्छा होगा इसी वक्त उठा दें।पूरा परिवार बटुर ही गया है।सबने हामी भरी।जवान लड़के कफन टिखटी की व्यवस्था में लग गये...।नाऊ,बाभन बुला लिए गये..बड़े लड़के ने बाल बनवा कर दाही वस्त्र पहन लिया.....सबसे दुखद रहा मुल्लर बो का सिन्होरा लाना ,वह पागलों की तरह छाती धून रही थीं।परिवार की एक बेवा औरत ने ठण्डा तेल ले धीरे- धीरे रो -रो कर माथ का सिन्दुर छुड़ाया....लाल चूड़ियाँ निकालीं और कुछ औरतों संग पकड़ कर अन्तीम बार पैर छुलाने को ले गयीं।वह चित्कार उठीं....अरे ए भोला ,हमहूं के बाउ संगे फूकी देता हो लालssss।टिखटी पकड़ कर लेट गयीं....छोटी बहू देर से सब देख सह रही थी...अन्त में जब सहा न गया घर में से निकली और औरतों को ठेल कर सास को दोनों बाहों में भर लिया...माँ हमारी तरफ देखिए...काहें हमें अनाथ बनाना चाहती हैं।वह उन्हें समझा कर अलग की तो झट लड़कों ने लाश उठाया।राम नाम सत्य है के मध्यम स्वर में घोष के साथ लोग आगे बढ़े..।औरतें अन्तीम विदाई के लिए साथ चलीं...लाई बताशे छींटती औरतें गाँव के बाहर तक गयीं...वहाँ से लाश ट्रैक्टर पर लाद लोग गाजीपुर रवाना हो गये।छोटी बहू की आठ साल की बेटी ने माँ से पूछा ..लोग लाई बताशे ज़मीन पर क्यों फेंक रहे हैं मम्मी?...उसने समझाते हुए कहा कि ...सब ढ़ोंग है बेटा।उसने दुबारा कहा...अन्न की बर्बादी पाप होती है न मम्मी? उसने हूं कह कर बात टाल दी और बेटी को चुप रहने को कहा।

औरतें घर लौट कर नहाने... धोने में लग गयीं।छोटी कोघर की एक बुजुर्ग औरत ने चेताया कि ..दुल्हीन तुम दूर रहो सास से...अगले तेरह दिन अहवाती औरतें दूर रहें तो अच्छा है।इनका सब करम नाऊन और बेवा औरतें करे कराएंगी...वह बिफर पड़ी,हद करती हैं आप लोग..माँ हैं हमारी ,हम क्यों दूर रहें इनसे?...मैं नहीं मानती यह धकोसले।बड़ी ने हाथ पकड़ कर मझली को कोठरी में लाकर बिठा कर समझाया...अब जो रीत रिवाज है चुन्ना बो होने दो,काहें किताबी ज्ञान झाड़ रही हो...यही हमारे देस का नियम धरम है,हाथ जोड़ कर आगे कहा...तुम तो सबसे लड़ झगड़ कर दिल्ली जा बैठोगी...आगे झेलना हमको पड़ेगा,इस लिए कारज में अड़ंगा मत लगाओ ,न देखा जाए तो कोठरी में खिड़की लगा कर बैठ जाओ पर बाधा मत ड़ालो।वह गिड़गिड़ा रही थी....छोटी जानती थी कि ज्यादा विरोध पर घर में अलग महाभारत छीड़ जाएगा,इस लिए रो धो कर फिलहाल चुप रहना ही उचित समझा।

 एक कमरे में सास खानदान की बेवा औरतों संग खाटपर बेसुध पड़ीं थीं...छोटी ने जाकर सिर में तेल रखा...सास ने अर्ध चेतना में हाथ थाम लिया...सब अपने हैं दुल्हीन... तुम सबकी बात मानों और.हचकने लगीं।छोटी रोते हुए आकर बच्चों के पास लेट गयी पर आँखों से नींद उड़ चुकी थी...सारे साज ऋँगार बेमानी लगने लगे थे एक दम से...सोच में थी कि यह कैसी दुनिया है औरतों के लिए कि पति के मरते उससे सारे ऋँगार छीन लेती है।गले में एक साथ ढ़ेर सारे काँटे चुभने लगे...वह अन्दर ही अन्दर उफन रही थी।जी में आता था कि सबको दो थप्पड़ मार कर इन अमानवीय कृत्यों से रोक ले पर सामने जिठानियों के अग्नि बाण तैयार खड़े थे कि तुम तो नास के निकल लोगी,आगे हमें झेलना पड़ेगा।रात्रि का अन्तीम प्रहर था...बाहर ट्रैक्टर की आवाज सुन औरतें उठ बैठीं...मर्द लौट आए थे,बड़ी ने सबको लोहा, पत्थर, आग छुला कर काली मिर्च दी...आस पड़ोस के मर्द अपने घरों को लौट गये और यहाँ तीनों भाई दुवार पर निखहरी खटिया पर पड़ गये।थोड़ी ही देर में चिडि़या बोलने लगीं..बच्चे सो गये थे....सब रो -रो कर थक गये थे...बाबा ने जीते जी बहुत दुलार दिया था...पोतियाँ तो सिर चढ़ीं रहीं जीवन भर...भोला की बेटी बाबा की सह पर पढ़कर प्राईमरी में टीचर बन गयी थी और साथ काम करने वाले सजातीय लड़के से अपनी मर्जी से शादी कर बहुत सुखी थी।मुन्ना को बच्चे शादी के दस साल बाद हुए...वरना उसकी भी दोनों बेटियाँ अब तक ब्याह चुकी होतीं।दोनों शहर पढ़ने जाती थीं...छोटे की बात ही कुछ और थी।मुल्लर ने परिवार को करीने से सहेजा था पर मझली बहू के कर्कश और स्वार्थी व्यवहार से इधर के सालों में बहुत कुछ अन्दर से बिखर रहा था। तीनों भाईयों के एक-एक लड़के थे...सब पढ़ने में अच्छे, मुल्लर ने शिक्षा पर घर में हमेशा विशेष जोर दिया...पैसा तो बहुत नहीं जोड़ पाए पर परिवार को शिक्षा की रौशनी जरूर दिखा गये।अहिरौटी में सबसे पढ़ा लिखा परिवार था उनका..बाकी का सारा पुरवा प्राईमरी जूनियर के बाद दूध के व्यवसाय में लगा था...गाजीपुर में खोए की बड़ी मण्डी के कारण।सब उनको याद करते दुखी पटाए पड़े थे कि नाउ ने आवाज दी.....भोला भईया घण्ट सकेराहे(जल्दी)बन्हवालें पंडी जी से नाहीं तो दूध के भात में देरी होगी...भोला उठ कर तैयारी में लग गये।बिना दूध भात हुए चूल्हे में आग नहीं जलती और छोटे बच्चे रात से ही भूखे पड़े थे सोच कर भोला जल्दी घण्ट की क्रिया पूरी करने पंडित नाऊ संग गाँव के बाहर पीपल की पेड़ की ओर निकल गये।कोई घण्टे भर बाद लौटे और भाई दयादों ने मिलकर भात बिना हल्दी की दाल और मूली की चटनी तैयार की..पहले मर्दों की पंगत बैठी ,सबने चुरूए से दूध गिरा भोजन किया।मर्दों के बाद औरतें बैठीं..एक बार फिर रोना शुरू हुआ...किसी तरह औरतों ने मुल्लर बो को पकड़ कर रसम पूरा कराया और दो चार कौर खाकर उठ गयीं।अगले दिन से घाट नहाने की रस्म शुरू हुई...औरतें इनार की जगत पर लाईन से बैठ जातीं और नाऊन एक -एक बाल्टी पानी गिराते जाती, मझली चिढ़ जाती कि यह कौन सा ढ़ोंग है कि आदमी ढ़ंग से नहा तक नहीं सकता।किसी तरह नौ दिन बीते और दसवें के घाट नहैना का दिन भी आ गया...आज से घाट नहाने से औरतों को मुक्ति मिलनी थी...मर्द जब घाट नहाने निकल गये नाऊन ने घर की बड़ी औरतों से कहा कि बूढ़ा का गहना गुरिया नहाने के पहले निकाल दीजिये आप लोग...नहाने के बाद मायके से आए साड़ी कपड़ा और जो बन पड़े नये गहने पहना दीजिएगा ।वह हल्ला मचाए थी सब जल्दी निबटाने का ,गाँव में दो घरों में बच्चे होने से नहैना भी उसे कराना था।जब देखा की कोई मुल्लर बो को नहीं छू रहा है खुद पास जाकर बोली...हे भोला की माई,आँगन में चलिए...देरी हो रहा है।मर्द आ गये तो अशुभ होगा।तब तक बड़ी बहू भी आकर सास के सिर पर सवार हो गयी...गहने उतरने की बात सुनकर छोटी सब काम छोड़कर भागी आयी कि कहीं बड़ी कुछ दबा न ले।बूढ़ा को पकड़ कर आँगन में लाया गया...अहवातिने मारे भय के कोने कतारी छिप गयीं..दो बूढ़ी बेवा औरतों संग नाऊन गहने उतारने लगी...वर्षों से गले में पड़ी हंसली निकालते नाऊन ने हँस कर कहा...सुच्चा चानी है,तनिको घिसा नहीं है।हाथ से तौल कर कहा...आधा किलो से कम न होगा।हाथ में कड़ा जम गया था...बेहद मजबूत, बड़ी मशक्कत के बाद निकला और निकालने में कई खरोंच हाथ में उभर आए...मुल्लर बो सुन्न बैठी थीं,जीते जी जिस आदमी ने एक खरोंच न दिया आज उसी के नाम पर अपने खरोंच रहे थे।छोटी ने खिड़की से देखा तो बिफर उठी...क्या कर रहीं है चाची जी आप लोग...नहीं निकल रहा तो रहने दीजिए, कोई आफत नहीं आएगा।सब ढ़ोंग है।सास की सूनी कलाइयों पर उभरे नाखून के रक्त रंजित निशान देख कर रोने लगी।नाऊन को कस कर डांटा ...चुपचाप नहलाईए....।नाउन भी कम न थी...हे भाई,इ देखिए तनी तमाशा...हे भोला बो,जो कुछ अनर्थ होगा ,हमको दोष मत देना।देखो अपनी देवरान को।



भोला बो दनदनाती आईं और छोटी को खींच कर लेजा के सामनेकी कोठरी में बन्द कर दीं।पोतियाँ पहले से उस कोठरी में कैद थीं...जब हल्ला सुना तो खिड़की खोल कर देखने लगीं...अब बड़ी और छोटी भी नाऊन संग जल्दी मचाने लगीं।कान का बुन्ना और पैर का छड़ा तो निकल गया पर नाक की फुरूहुरी खुल ही नहीं रही थी...सब जोर आजमाइश कर के थक गयी...इधर दुवार पर मर्दों के वापस लौटने की आवाज सुनाई देने लगी तो नाउन चिल्लाने लगी कि तोहरी घरे त अलगे नाटक होखे लागेला भोला बो।नाक की फुरूहुरी में ड़ोरा लगाकर खींचा गया पर वह टस से मस नहीं हुआ...सब जतन कर के जब सब हार गयीं तो मझली ने कहा कैंची से काट देते हैं..सबने हामी भरी...मझली कैंची लेकर आई और जैसे नाक पर लगाया मुल्लर बो ने हाथ पकड़ लिया,नाउन ने हाथ छोड़ाते हुए कहा...ए बूढ़ा ! अब तू नाटक मत करा।बूढ़ा का हाथ दो औरतों ने पकड़ लिया।मुल्लर बो चिल्लाईं... छोटी ने खिड़की से देखा तो दरवाजा पीटने लगी।अरे रहम करिए आप लोग ....पोतियाँ भी इस दृश्य को देख विचलित हो उठीं।घर में कोहराम मच गया।बाहर का दरवाजा बन्द था...मर्द भी दरवाजा खुलवाने लगे।नाउन ने कहा ..ए मुन्ना बो जल्दी करा..उसने झट से कैंची लगा कर जोर से दबाया.. फुरूहुरी कट कर टन से कहीं जा गिरी...जल्द बाजी में कैंची की नोंक नाक में जा धँसी...नाक लहूलुहान... बड़ी और मझली पागलों की तरह आँगन में फुरूहुरी खोजने लगीं...एक बार फिर वह आँगन में समा गयी...दरवाजा पीटते स्त्री पुरूषों के लात के प्रहार से ,एक झटके से सभ्यता के सारे बन्द दरवाजे खुल गये...छोटी बहू संग पोतियाँ आकर दादी से लिपट गयीं...लड़के रूई ,दवा लेने भागे....।वर्षों से इस कठोर कृत्य को अन्जाम देते देते निर्मम हो चुकी नाऊन धीरे से खिसक ली...बाकी जड़ औरतें पत्थर की बूत की तरह हतप्रभ मौन जहाँ की तहाँ खड़ीं थीं।छोटी ने पागलों की तरह पिता के दिए सारे जेवर सास को पहना कर आँगन में घोषणा की...खबरदार!..!जीते ...जी माँ के शरीर से कोई भी एक जेवर नहीं उतारेगा।वह पूरे आवेश में थी।छोटी पोती की नज़र अचानक आँगन में पड़े पत्थर की पाटी के नीचे चमकती फुरूहुरी पर पड़ी...वह झट उठा कर दादी की हथेलियों पर रख खुश होने लगी..अपार वेदना में मुल्लर बो पति की सबसे प्रिय निशानी पा सजल आँखों से मुस्कुरा उठीं।

लिंक पर  जाकर सहयोग करें , सदस्यता लें :  डोनेशन/ सदस्यता
आपका आर्थिक सहयोग स्त्रीकाल (प्रिंट, ऑनलाइन और यू ट्यूब) के सुचारू रूप से संचालन में मददगार होगा.

स्त्रीकाल का प्रिंट और ऑनलाइन प्रकाशन एक नॉन प्रॉफिट प्रक्रम है. यह 'द मार्जिनलाइज्ड'नामक सामाजिक संस्था (सोशायटी रजिस्ट्रेशन एक्ट 1860 के तहत रजिस्टर्ड) द्वारा संचालित है. 'द मार्जिनलाइज्ड'के प्रकाशन विभाग  द्वारा  प्रकाशित  किताबें  अमेजन ,   फ्लिपकार्ट से ऑनलाइन  खरीदें 
संपर्क: राजीव सुमन: 9650164016, themarginalisedpublication@gmail.com




Latest Images